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।। विनय-पत्रिका-सार सटीक।।

(12)
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।1।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगंध कहाँ तें आयो ।।2।।
ज्यों सर विमल बारि परिपूरन,
ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ,
चाहत एहि विधि तृषा बुझायो ।।3।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुन,
तापर दुसह दरिद्र सतायो ।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि,
विषय बबूर बाग मन लायो ।।4।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम,
मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो ।
तुलसिदास प्रभु यहि विचारि जिय,
कीजै नाथ उचित मन भायो ।।5।।

।। विनय-पत्रिका-सार सटीक समाप्त ।। 

(12)
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।1।।
मैं भव-भय से व्याकुल हो राम की खोज अपने हृदयकमल में न करके बाहर-बाहर दौड़ता फिरा, इसलिए मैंने उन (हरि वा राम) का ज्ञान गँवा दिया।।1।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगंध कहाँ तें आयो ।।2।।
जैसे अत्यन्त मूर्ख मृग ने अपनी देह की सुगन्धित कस्तूरी का भेद नहीं पाया और जब उसकी सुगंध उसे जान पड़ी, तब वह पहाड़, गाछ, लता, मिट्टी और बिल में खोजता है कि यह सुगन्ध कहाँ से आई ? (ईश्वर को बाहर में खोजकर मैं वैसे ही मृगवत् हुआ। ईश्वर को बाहर में खोजना अति मतिहीनता है)।।2।।
ज्यों सर विमल बारि परिपूरन,
ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ,
चाहत एहि विधि तृषा बुझायो ।।3।।
जैसे तालाब स्वच्छ जल से भरा हो, जल के ऊपर कुछ सेंवार और खढ़ पसर गए हों। सेंवार और खढ़ से आवरणित होने के कारण तालाब में जल को नहीं जानकर मैं मूर्ख प्यास से हृदय को जलाता हूँ और इसी तरह (बिना उस जल को पिए) प्यास को बुझाना चाहता हूँ।।3।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुन,
तापर दुसह दरिद्र सतायो ।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि,
विषय बबूर बाग मन लायो ।।4।।
देह में कठिन तीनों ताप व्यापते हैं। उसपर और भी दुःसह दरिद्रता सता रही है। अपने ही (शरीर-रूपी) घर में नाम-रूपी कल्पवृक्ष को छोड़कर मैंने विषय-रूप बबूल के जंगल में मन लगाया है।।4।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम,
मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो ।
तुलसिदास प्रभु यहि विचारि जिय,
कीजै नाथ उचित मन भायो ।।5।।
हे राम ! आपके समान ज्ञान का भंडार और मुझ-सा मूर्ख पुराणों में दूसरा नहीं गाया गया है। तुलसीदासजी कहते हैं कि हे प्रभु ! ऐसा विचारकर जो नाथ के मन को उचित जँचे और पसन्द हो, सो कीजिए।।5।।
विचार-इस पद्य से सिद्ध होता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज को तबतक राम नहीं मिले थे, जबतक वे बाहर-बाहर उन्हें खोजते थे। यह बात वे तभी व्यक्त कर सके होंगे, जब वे अपने अन्दर में राम को पा गए होंगे। कबीर साहब की ये साखियाँ इस पद्य के अनुकूल ही हैं-‘कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूँढ़ै वन माहिं। ऐसे घट में पीव है, दुनियाँ जानै नाहिं।। तेरा साईं तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास। कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिरि फिरि ढूँढ़ै घास।। ज्यों नैनन में पूतरी, यों खालिक घट माहिं। मूरख लोग न जानहीं, बाहर ढूँढ़न जाहिं।। समझे तो घर में रहे, परदा पलक लगाय। तेरा साहब तुज्झ में, अनत कहूँ मत जाय।।’
हृदय-रूपी सरोवर में निर्मल जल-रूप राम भरे हैं। उस पर सेंवार और तृण-रूप मायिक आवरण स्थूल, सूक्ष्म और कारण रूपों में आच्छादित हैं। ‘हृदय यवनिका बहुविधि लागी।’ (रा0 च0 मा0) इन आवरणों को, गोस्वामी तुलसीदासजी योग-युक्ति-द्वारा राम-भजन कर अन्तर का भेदी भक्त बन, अवश्य ही छेदन किए होंगे और राम को अपने अन्तर में पाए होंगे, तालाबवाली उपमा से यही विचार सिद्ध होता है। अन्तर में राम को नहीं खोजनेवाले, उपासना के अन्तर-मार्ग पर नहीं चलनेवाले, केवल बाहर-बाहर राम को खोजनेवाले, केवल बाहरी ही उपासना में रत रहनेवाले को गोस्वामीजी महाराज संकेत से मूर्ख कहते हैं। गोस्वामीजी महाराज का यह पद्य अन्तर-उपासना की ओर अत्यन्त जोर दे रहा है। इस पर भी इनको अगर कोई केवल बाहरी उपासना का प्रचारक माने, तो ‘यह उनका भ्रम है’, कहने के सिवा और क्या कहा जाएगा ? अन्तर में राम हैं, तो उनके नाम का भी अन्तर में होना परम युक्ति-युक्त ही है। राम अन्तर की सब तहों में, सब स्थानों में, सब चक्रों में, सब कमलों में, सब शून्यों में, सब वर्गों में और सब पदों में, स्थानों के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, आत्म, सगुण और निर्गुण भेदानुसार, रूपों से विराजते हैं और तब उनका नाम भी, स्थानों और राम के रूपों के स्थूल-सूक्ष्म आदि भेदों के अनुसार ही भेदोंवाला वर्णात्मक, श्रवणात्मक, ध्वन्यात्मक, सुरतात्मक, सगुण, अगुण, हत और अनहद रूपों में है। बहुत-से लोग नहीं जानते, नहीं मानते और नहीं विचारते हैं। इसका कारण यह है कि भक्ति-मार्ग में वे ऐसा विश्वास ही नहीं करते हैं कि स्थूल उपासना से जितना अन्तर्मुख होना सम्भव है, उससे उत्तरोत्तर विशेष-से-विशेष अन्तर में आगे बढ़ते हुए उसके अन्त तक पहुँचना, अतिशय द्वैत-वियोगी बनना और देश-कालातीत त्रयवर्ग-पर (चौथे पद) तक जाकर परम सुख प्राप्त करने के हेतु परम प्रभु राम के स्वरूप (निर्गुण स्वरूप) को प्राप्त करना है। ये जब गो0 तुलसीदासजी महाराज और इनके तुल्य दूसरे संतों की भक्ति की अन्तर्मुख उपासनावाली बातों को मानें और अपने अन्तर में साधु की ‘सद्युक्ति’ का साधन करें, तब इन्हें उपर्युक्त विषय का स्वयं अनुभव हो जाएगा। पद्य में कहा गया है कि अपने ही धाम में नाम-रूपी कल्पवृक्ष है। गोस्वामीजी महाराज ने इस पद्य में शरीर के अन्दर की उपासना की निसबत वर्णन किया है, इसलिए धाम वा घर यहाँ पर अपने शरीर के अतिरिक्त वह घर वा धाम नहीं माना जा सकता है कि जिसमें शरीर रहता है, और तब नाम भी केवल वर्णात्मक ही नहीं माना जाएगा, वह ऊपर कथित अपने ध्वन्यात्मकादि सब रूपों में माना जाएगा; क्योंकि शरीर के सब पदों वा तहों में वर्णात्मक नाम का उच्चारण होना असम्भव है। वर्णात्मक नाम परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी-इन चारो वाणियों के अन्तर्गत ही रहता है। शरीर में जहाँ इन चारो वाणियों की गति नहीं, वहाँ वर्णात्मक नाम का उच्चारण-भजन नहीं। शरीर के अन्तर का यहीं तक (जहाँ तक वर्णात्मक नाम का भजन हो सकता है) अन्त नहीं है (सत्संग-योग के सांकेतिक चित्र में देखिए)। तब शरीर के अन्तर के इससे आगे की तहों में वर्णात्मक नाम-बिना नाम-भजन करना, गोस्वामीजी महाराज सरीखे अन्तर-मार्गी परम भक्त संतों के लिए अशक्य हो जाएगा, यदि ये उपर्युक्त कथन के अनुसार नाम को ध्वन्यात्मक आदि भेदों और रूपों में नहीं जानें और नहीं मानें। गोस्वामीजी महाराज नाम के ध्वन्यात्मक आदि भेदों को जानते और मानते थे, इसीलिए तो उन्होंने रामचरितमानस में नाम को अगुण और अकथ भी कहा है। दूसरी बात यह है कि गोस्वामीजी महाराज ने रामचरितमानस में स्वीकार किया है कि उन्होंने योग को उसकी कथाओं के अन्दर गुप्त रीति से वर्णन किया है। और योग से सुरत-शब्द-योग (ध्वन्यात्मक नाम-भजन) को बाहर निकाल देने से योग अपनी ऊँची-से-ऊँची गति से नहीं पहुँच सकता है, जहाँ तक कि गोस्वामीजी महाराज की पहुँच थी। और गोस्वामीजी महाराज ने रामचरितमानस में यह कहा भी नहीं है कि इसमें शब्दयोग का वर्णन नहीं करता हूँ। इस कारण से भी यह मानना ही पड़ता है कि गोस्वामीजी महाराज सुरत-शब्द-योग वा हत, अनहत, अनहद, सगुण औैर अगुण ध्वन्यात्मक रामनाम का भजन जानते थे और करते थे। गोस्वामीजी महाराज वैष्णव सम्प्रदाय के संत थे। आज भी बहुत-से वैष्णव साधु अपने कानों में तुलसी की लकड़ी की बनी हुई ‘कूची’ (अन्तर में ध्वन्यात्मक शब्द या नाम का भजन करने के हेतु बाहर के शब्दों को अपने अन्दर में नहीं आने देने के लिए कानों के छेदों को बन्द करने की उपर्युक्त कीलें) लटकाए हुए देखे जाते हैं। इसलिए यह बात किसी प्रकार नहीं कह सकते हैं कि गोस्वामीजी महाराज ध्वन्यात्मक रामनाम का मर्म नहीं जानते थे और इसका वर्णन इन्होंने संकेत में भी नहीं किया है। जैसे वर्णात्मक नाम का भजन प्रथम अवश्य ही करना चाहिए, वैसे ही अन्त में ध्वन्यात्मक नाम का भी भजन करना चाहिए। वर्णात्मक नाम अपने अर्थ द्वारा गुण प्रगट करके नामी का केवल परोक्ष ज्ञान देता है और ध्वन्यात्मक नाम अपने आकर्षण-द्वारा सुरत को नामी तक एकदम पहुँचाकर उसके अपरोक्ष ज्ञान का अनुभव करा देता है। यदि वर्णात्मक नाम को भजने से नामी के नराकृति वा देवाकृति सगुण रूप का दर्शन मिल जा सकता है, तो जानना चाहिए कि इस दर्शन से भी नामी के स्वरूप का परोक्ष ही ज्ञान हुआ, इनके अपरोक्ष ज्ञान का अनुभव करा देना केवल वर्णात्मक नाम से कदापि सिद्ध नहीं हो सकता है। कोई वर्णात्मक शब्द, किसी का नाम इसलिए कहलाता है कि उस शब्द से वह जाना जाता है। इसी प्रकार ध्वन्यात्मक राम शब्द वा रामनाम से राम अपरोक्ष ज्ञान-द्वारा पूर्ण अनुभव किए जाते हैं, इसीलिए यह उनका ध्वन्यात्मक नाम हुआ। नाम के वर्णन की ऊपर कथित बातों को यदि कोई अपने अनजानपन से हठपूर्वक नहीं मानता है, तो वह भक्ति-मार्ग में अपनी उन्नति रोकने के अतिरिक्त और कुछ लाभ नहीं उठाता है।
।। विनय-पत्रिका-सार सटीक समाप्त ।। 

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