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।। विनय-पत्रिका-सार सटीक।।

(11)
श्री हरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।1।।
परिवा प्रथम प्रेम बिनु, राम मिलन अति दूर ।
जद्यपि निकट हृदय निज, रहे सकल भरपूर ।।2।।
दुइज द्वैत-मत छाड़ि, चरहि महि मंडल धीर ।
विगत मोह माया मद, हृदय सदा रघुवीर ।।3।।
तीज त्रिगुन पर परम पुरुष, श्री रमन मुकुन्द ।
गुन सुभाव त्यागे बिना, दुरलभ परमानन्द ।।4।।
चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार ।
विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार ।।5।।
पाँचइ पाँच परस रस, सब्द गन्ध अरु रूप ।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ।।6।।
छठि षड़ बरग करिय जय, जनक-सुता-पति लागि ।
रघुपति कृपा-बारि बिनु, नहिं बुझाइ लोभागि ।।7।।
सातइँ सप्तधातु निरमित, तनु करिय विचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजिये पर उपकार ।।8।।
आठइँ आठ प्रकृति पर, निरविकार श्री राम ।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ।।9।।
नवमी नवद्वार-पुर बसि, न आपु भल कीन ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत, दारुन दुख दीन ।।10।।
दसइँ दसहु कर संजम, जौं न करिय जिय जानि ।
साधन वृथा होइ सब, मिलहिं न सारंगपानि ।।11।।
एकादशी एक मन, बस कैसहुँ करि जाइ ।
सो व्रत कर फल पावइ, आवागमन नसाइ ।।12।।
द्वादसि दान देहु अस, अभय होय त्रय लोक ।
परहित-निरत सुपारन, बहुरि न व्यापइ सोक ।।13।।
तेरसि तीन अवस्था, तजहु भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त ।।14।।
चौदसि चौदह भुवन, अचर चर रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति, अति न हरहिं जग जाल ।।15।।
पूनो प्रेम-भगति-रस, हरि रस जानहिं दास ।
सम सीतल गत-मान, ज्ञान-रत विषय-उदास ।।16।।
त्रिविध सूल होली जारिय, खेलिय अस फागु ।
जौं जिय चहसि परम सुख, तौ एहि मारग लागु ।।17।।
स्त्रुति पुरान बुद्ध सम्मत, चाँचरि चरित मुरारि ।
करि विचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ।।18।।
संसय समन दमन दुख, सुख निधान हरि एक ।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं नहिं, करिय उपाय अनेक ।।19।।
भवसागर कहँ नाव सुद्ध, सन्तन्ह के चरन ।
तुलसिदास प्रयास बिनु, मिलहिं राम दुख हरन ।।20।। 

(11)
श्री हरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।1।।
हे मन ! अहंकार छोड़कर हरि-रूप श्री गुरु महाराज के चरणकमल की सेवा कर, जिनकी सेवा से सुख के भंडार हरि-भगवान को पावेगा।।1।।
परिवा प्रथम प्रेम बिनु, राम मिलन अति दूर ।
जद्यपि निकट हृदय निज, रहे सकल भरपूर ।।2।।
परिवा-पहली बात यह है कि बिना प्रेम के राम से मिलना अत्यन्त दूर है, यद्यपि राम निकट ही अपने हृदय में और सबमें परिपूर्ण रहते हैं।।2।।
दुइज द्वैत-मत छाड़ि, चरहि महि मंडल धीर ।
विगत मोह माया मद, हृदय सदा रघुवीर ।।3।।
द्वैत मत = स्व-पर-भेद।
द्वितीया-जो द्वैत मत छोड़कर मोह, माया और मद को त्याग कर और हृदय में सदा राम को धारण किए रहकर संसार में विचरते हैं, वे धीर हैं।।3।।
तीज त्रिगुन पर परम पुरुष, श्री रमन मुकुन्द ।
गुन सुभाव त्यागे बिना, दुरलभ परमानन्द ।।4।।
मुकुन्द = मोक्ष-दाता।
तृतीया-मोक्षदाता परम पुरुष लक्ष्मीपति तीनों गुणों के परे हैं। गुण और प्रकृति को बिना छोड़े परमानन्द-मोक्ष का मिलना दुर्लभ है। (अर्थात् रज, सत्त्व, तम; तीनों गुणों को वा त्रिकुटी को और प्रकृति को छोड़े बिना मोक्ष मिल नहीं सकता है)।।4।।
चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार ।
विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार ।।5।।
चतुर्थी-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार; इन चारों को छोड़ दो, तो पवित्र विचार, मोक्ष और आत्मानन्द का स्वाभाविक उदार सुख प्राप्त हो।।5।।
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार (चारो अन्तःकरण) त्रिकुटी के पार होने पर छूटते हैं। ‘मन बुधि चित्त हंकार की, है त्रिकुटी लग दौर। जन दरिया इनके परे, ररंकार का ठौर।।’ ररंकार = ध्वन्यात्मक रामनाम।
पाँचइ पाँच परस रस, सब्द गन्ध अरु रूप ।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ।।6।।
पाँचवीं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पाँचो के आकर्षण से बचो, नहीं तो बारम्बार जन्म-मरण के कूप में गिरोगे।।6।।
छठि षड़ बरग करिय जय, जनक-सुता-पति लागि ।
रघुपति कृपा-बारि बिनु, नहिं बुझाइ लोभागि ।।7।।
षष्ठी-राम को प्रसन्न करने के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और मत्सर (डाह) को जीतो। लोभ-रूपी अग्नि राम के कृपा-रूप जल के बिना नहीं बुझती है।।7।।
सातइँ सप्तधातु निरमित, तनु करिय विचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजिये पर उपकार ।।8।।
सप्तमी-विचारना चाहिए कि जो शरीर (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य) सात धातुओं से बना है, उसका एक ही फल परोपकार करना है।।8।।
आठइँ आठ प्रकृति पर, निरविकार श्री राम ।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ।।9।।
अष्टमी-विकार-रहित राम, आठो प्रकृति (मिट्टी, जल, हवा, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि एवं अहंकार) से आगे हैं। उन हरि (राम) को किस तरह पा सकते हैं, जबकि हृदय में बहुत-सी इच्छाओं का वासा हो।।9।।
नवमी नवद्वार-पुर बसि, न आपु भल कीन ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत, दारुन दुख दीन ।।10।।
नवमी-नौ दरवाजों वाले नगर (शरीर) में रहकर, जिन्होंने अपनी भलाई नहीं की, उन मनुष्यों ने अनेक योनियों में भ्रमते हुए अपने को कठिन दुःख दिया।।10।।
दसइँ दसहु कर संजम, जौं न करिय जिय जानि ।
साधन वृथा होइ सब, मिलहिं न सारंगपानि ।।11।।
दशमी-यदि मन में आवश्यक जानकर दसो इन्द्रियों का संयम नहीं कीजिए (उन्हें भोगों से नहीं रोकिए), तो सब साधन व्यर्थ होंगे और भगवान नहीं मिलेंगे।।11।।
एकादशी एक मन, बस कैसहुँ करि जाइ ।
सो व्रत कर फल पावइ, आवागमन नसाइ ।।12।।
एकादशी-एक मन को किसी तरह वश में किया जाए, तो इस व्रत का यह फल पावेगा कि आवागमन मिट जाएगा।।12।।
द्वादसि दान देहु अस, अभय होय त्रय लोक ।
परहित-निरत सुपारन, बहुरि न व्यापइ सोक ।।13।।
द्वादशी-ऐसा दान दो कि (पानेवाला) तीनों लोकों में निर्भय हो जाए। (ज्ञान का दान देने से त्रयलोक में अभय होगा) और परोपकार करने में लौलीन रहने का पारण करो, तो फिर दुःख नहीं व्यापेगा।।13।।
तेरसि तीन अवस्था, तजहु भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त ।।14।।
त्रयोदशी-जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति-तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भगवान का भजन करो। वे (भगवान) मन, कर्म और वचन को प्रत्यक्ष नहीं होनेवाले, अन्तरहित, व्यापक और व्याप्य-रूप हैं।।14।।
व्यापक = ब्रह्म = सबमें, फैलनेवाले = मोहीत कुल्ल। व्याप्य = प्रकृति = ब्रह्म के व्यापक होने का समस्त स्थान = मोहात।
(तीनों अवस्थाओं को छोड़ने का वर्णन पद्य 10 के विचार में लिखा जा चुका है।)
चौदसि चौदह भुवन, अचर चर रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति, अति न हरहिं जग जाल ।।15।।
चतुर्दशी-चौदहो लोक और स्थावर-जंगम-रूप श्रीकृष्ण भगवान हैं। द्वैत बुद्धि के नाश हुए बिना रघुपति राम संसार के जाल का अत्यन्त नाश नहीं करते हैं।।15।।
पूनो प्रेम-भगति-रस, हरि रस जानहिं दास ।
सम सीतल गत-मान, ज्ञान-रत विषय-उदास ।।16।।
पूर्णिमा-जो भक्त सम, शीतल, निरभिमानी, ज्ञान में मग्न और विषयों से विरक्त हैं, वे ही प्रेम-भक्ति के सार ब्रह्म-पीयूष को जानते हैं।।16।।
भगति-रस = भक्ति का सार। हरि-रस = ब्रह्म-पीयूष (इसका वर्णन पद्य 6 में है)।
त्रिविध सूल होली जारिय, खेलिय अस फागु ।
जौं जिय चहसि परम सुख, तौ एहि मारग लागु ।।17।।
ऐसा फगुआ खेलिए कि जिससे तीनों तापों का होलिकादाह कर दीजिए। हे जीव ! यदि तू मोक्ष चाहता है, तो इसी पथ पर चल।।17।।
स्त्रुति पुरान बुद्ध सम्मत, चाँचरि चरित मुरारि ।
करि विचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ।।18।।
वेद, पुराण और बुद्धिमानों का विचार यह है कि भगवान के चरित्र-रूप चाँचरि राग का विचार करो, तो फिर कभी भवसागर में नहीं गिरोगे।।18।।
संसय समन दमन दुख, सुख निधान हरि एक ।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं नहिं, करिय उपाय अनेक ।।19।।
संशयों के नाश करनेवाले, दुःखनिवारक और सुख के भण्डार एक ही हरि हैं। साधु की कृपा बिना, चाहे अनेकों यत्न कीजिए, वे नहीं मिलते हैं।।19।।
भवसागर कहँ नाव सुद्ध, सन्तन्ह के चरन ।
तुलसिदास प्रयास बिनु, मिलहिं राम दुख हरन ।।20।।
संसार-समुद्र पार होने के लिए संतों का पवित्र चरण नाव है। हे तुलसीदास ! इनके सहारे बिना परिश्रम के ही दुःखों के हरनेवाले राम मिलते हैं।।20।। 

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