(10)
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार,
जानइ सो जेहि बनि आई ।।1।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख नल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।2।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।3।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।4।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।5।।
(10)
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार,
जानइ सो जेहि बनि आई ।।1।।
राम की भक्ति करने में कठिन है। वह केवल कहने भर ही सरल है; पर उसके अनेक साधन करने पड़ते हैं, इस बात को वही जानता है, जिससे यह बन पड़ी है (अर्थात् जिसने इसको पूरा-पूरा किया है)।।1।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख नल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।2।।
जो जिस विद्या में प्रवीण है, उसके लिए वह सदा सुलभ और सुखदायिनी होती है। छोटी मछली (सफरी) नल के (अत्यन्त तेज) प्रभाव में भी सम्मुख ही (भाठे से सिरे की ओर को) जाती है और हाथी (जिसमें नल की तरह अत्यन्त तीव्र प्रवाह नहीं होता, उस बहुत चौड़ी) गंगा की धारा में भी (सम्मुख नहीं जा सकता) भँस जाता है (क्योंकि हाथी को तैरने का अभ्यास मछली की तरह नहीं है। वह इस विद्या में निपुण नहीं है)।।2।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।3।।
जैसे चीनी बालू में मिल गई हो, तो परिश्रम करने पर भी वे भिन्न-भिन्न नहीं होती। पर स्वाद जाननेवाली छोटी चींटी बिना परिश्रम के (बालू से चीनी को अलग कर) पा लेती है।।3।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।4।।
सकल दृस्य = संसार।
संसार को अपने पेट में घुसाकर नींद को छोड़ जो योगी सोता है, वही हरि-पद के परम सुख का प्रत्यक्ष ज्ञान पाता है और वह द्वैत (ईश्वर और जीव की भिन्नता के भाव) का अत्यन्त त्यागी होता है।।4।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।5।।
वहाँ (द्वैत से अत्यन्त हीन हरिपद में) दुःख, अज्ञान, डर, सुख, दिन, रात, स्थान और समय नहीं है। तुलसीदासजी कहते हैं कि इस गति वा पहुँच के बिना संदेह सम्पूर्ण रूप से नहीं मिटता है।।5।।
भावार्थ-पूरे भक्त, जिनसे भक्ति के सब साधन पूरे-पूरे बन पड़े हैं-जानते हैं कि यथार्थ में राम की भक्ति करने में कठिन है, पर उसकी ओर मनुष्यों के चित्त को अत्यन्त आकर्षित करने के लिए ही यह रोचक वचन कहा जाता है कि राम-भक्ति सुलभ है। भक्ति को कठिन जानकर, उसके साधनों को करने से घबड़ाना, हिम्मत हार बैठना ठीक नहीं है। किसी भी विद्या में अभ्यास करते-करते ही कोई उसमें प्रवीण होता है। जब जो जिस विद्या में प्रवीण हो जाता है, तब वह उस विद्या को सुलभ और सुखदायिनी मालूम करता है। भक्त को चाहिए कि योगी बनकर जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; तीनों अवस्थाओं से आगे बढ़े, बाहरी जगत से बेसुध हो जाय अर्थात् नींद छोड़कर सो जाय और सारे संसार को अपने अन्दर में ही देखे। भक्त अपनी गति को और भी आगे बढ़ाकर, हर्ष-शोकादि द्वन्द्व-रहित, देश और काल-रहित और ईश्वर और जीव के द्वैत-भेद-रहित पद प्राप्त करे वा अतिशय द्वैत-वियोगी बने। इस पद से विहीन का संशय निर्मूल होकर नष्ट नहीं होता है।
विचार-इस पद्य में गोस्वामीजी महाराज ने भक्ति के उन सूक्ष्म साधनों की ओर विशेष रूप से संकेत किया है, जो योगाभ्यास से होते हैं। सफरी (छोटी मछली), नल, नल-प्रवाह नल-प्रवाह के सम्मुख सफरी का जाना, सुरसरि, हाथी का सुरसरि में बहना, बालू-चीनी का मिश्रण और इस मिश्रण से चीनी को चींटी चुन लेती है, आदि कहकर अभ्यास के केवल विशेष गुण को प्रत्यक्ष रूप से ही नहीं, बल्कि योगाभ्यास करने की विधि भी संकेत से वर्णन की गई है। गोस्वामीजी महाराज यह बात अच्छी तरह मानते हैं कि राम के विशेष प्यारे भक्त योगी होते हैं। (रा0 च0 मा0 सा0 स0 की चौ0 सं0 411 तथा 92 से 98 तक पढ़िए) पद्य 1 में राम की आरती भी योगाभ्यास से ही हो सकती है और पद्य 11 में कहा गया-चतुष्ट्य अन्तःकरण और तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भगवन्त को भजना भी योगाभ्यास बिना कदापि नहीं हो सकता है। फिर देव-ऋषि नारद और शिवजी आदि भी पद्य 1 में वर्णित आरती राम की करते हैं और स्वयं गोस्वामीजी भी अपने मन से कहते हैं कि रे मन ! तू भी ऐसी आरती राम की कर। उक्त पद्य में कहकर यह सूचित किया गया है कि परम प्राचीन काल से ही योगाभ्यास द्वारा भक्ति की जाती है और इस कलिकाल में भी ऐसी ही (भक्ति) करनी परमावश्यक है। सारांश, बिना योगाभ्यास के किए भक्ति पूणर् रूप से किसी युग में कदापि न बनेगी। इस पद्य (10) में भक्ति का वर्णन करते हुए उसमें योग सम्मिलित कर दिया गया है, इसका कारण ऊपर कथित बात ही जान पड़ती है। जबकि गोस्वामीजी महाराज के वचनों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि भक्ति करने में योगाभ्यास करने की पूरी आवश्यकता है, तब यदि उनके एक ही पद्य में भक्ति और योगाभ्यास का वर्णन पाकर, उसी पद्य में योगाभ्यास करने की युक्ति का भी संकेत समझ में आवे, तो इसको अनुचित और क्रम वा सिल-सिले के बाहर की समझ नहीं मानी जा सकती है। सफरी, नल, नल का प्रवाह, हाथी, गंगा, चीनी, बालू और चींटी आदि की बातों को कहकर पद्य में योगाभ्यास करने की युक्ति के संकेत का इस प्रकार व्योरा है-(सफरी, एक छोटी मछली होती है, जिसको पूँटी वा पोठी वा सहरी कहते हैं। ह्वेल, बोआर और रेहू आदि बड़ी-बड़ी मछलियों को सफरी नहीं कहते।) सिमटी हुई चेतन-वृत्ति वा सुरत सफरी है, सुषुम्ना नाड़ी नल है, जिससे चेतन-वृत्ति का प्रवाह ब्रह्माण्ड से पिण्ड की ओर निरंतर बहता रहता है। यह प्रवाह ब्रह्माण्ड के निचले भाग के रूप-मण्डल में ब्रह्म-ज्योति का रूप है और ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग के अरूप-मण्डल में ब्रह्मशब्द (अनहद ध्वनि) का रूप है। ज्योति और शब्द; दोनों का स्वभाव सुरत को अपने उद्गम-स्थान की ओर आकर्षित कर लेने का है। गुरु के भेद से अपने को (वा अपनी चेतन-वृत्ति को) समेटकर अर्थात् सफरी बनाकर सुषुम्ना-नल के निचले द्वार पर थिर रखे, तो जिस तरह जल के सम्मुख प्रवाह में पोठी मछली भाठे से सिरे को चढ़ जाती है, उसी तरह वह प्रकाश-रूप चेतन के सम्मुख प्रवाह में-स्थूल से सूक्ष्म में, अन्धकार से प्रकाश में, पिण्ड से ब्रह्माण्ड में, भाठे से सिरे को चढ़ जाएगा। ‘पवनहुँ ते ऊतावला, धूआँ हू ते छीन। पुहुप बास ते पातला, दोस्त कबीरा कीन।।’ इस साखी में वर्णित स्वरूप सुरत वा चैतन्य-वृत्ति का है। सिमटाव में आगे बढ़ाने का स्वभाव है। (अन्दाजी विन्दु नहीं) असली विन्दु पर जमने से पूर्ण सिमटाव होता है। इसलिए पिण्ड वा अन्धकार में पूर्ण सिमटाव होने पर इससे आगे की ओर प्रकाश में बढ़ने का कितना तीव्र बल सुरत में हो जाएगा, इसको बुद्धिमान विचार कर सकते हैं और भेदी अभ्यासी भक्त इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि जैसे मछली को पानी की उलटी धार पर जाने का अपना बल होता है, उसी तरह ऊपर कहे अनुसार सुरत को भी चेतना की उलटी धार में जाने का अपना बल प्राप्त हो जाता है। पानी अपने स्वभाव से अपने उद्गम-स्थान में मछली को आकर्षित नहीं करता है, पर ज्योति अपने स्वभाव से ही सुरत को ऐसा करती है। इसलिए उपर्युक्त प्रकार से सुरत को आगे बढ़ने में प्रथम तो सिमटाव-वाला केवल अपना बल लगता है, बाद को जब ज्योति और शब्द की धारें उसे मिलती हैं, तब तो कहना ही क्या ! तब वह (सुरत) प्रभु के स्वरूपों की ओर ब्रह्मज्योति और ब्रह्मशब्द के आकर्षण से खिंचती हुई और प्रभु के सब सगुण रूपों के दर्शन और प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करती हुई उनके स्वरूप-सहज निर्गुण आत्मस्वरूप को प्राप्त कर, उन्हें आत्मसमर्पण कर, अतिशय द्वैत-वियोगी हो, ‘जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई’ वाला पद प्राप्त कर लेती है। जिसकी सुरत उपर्युक्त सफरी नहीं बनेगी, हाथी बनी रहेगी अर्थात् अहंकारी और फैली हुई रहेगी, उसका नल-प्रवाह की सम्मुख धार में कहाँ गुजरेगी ? वह तो गंगा की तरह चौड़ी मायाधार में ही बह जाएगी और उसकी ऊपर कथित सफरीवत् ऊर्ध्वगति नहीं होगी। कथित प्रकार से अधर-धारों को धर, भाठे से सिरे की ओर मछली की तरह जाने के मार्ग को कितने संत मीन-मार्ग कहते हैं। ‘सुखमन के झीना नाल से अमृत की धारा बहि रही। मीन सूरत धार धर भाठा से सीरा चढ़ि रही।।’ इसी प्रसंग को बयान करता है। मीन-मार्ग का आरंभ छठे चक्र वा आज्ञाचक्र से होता है और इस पर चलनेवाली सुरत एक सूक्ष्माकाश से दूसरे सूक्ष्माकाश में उड़ती हुई निर्दिष्ट स्थान को जा पहुँचती है। इसलिए इसका एक दूसरा नाम विहंगम-मार्ग भी है।
जड़-धार बालू है और चेतन-धार चीनी है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों में इनका मिश्रण है। जो सूक्ष्म पिपीलिका (छोटी चींटी) बनेगा अर्थात् अपनी सुरत को समेटेगा, वह जड़-धार से चेतन-धार को चुन, पृथक कर ग्रहण करेगा और वह उससे उपर्युक्त लाभ उठावेगा। श्रीमद्भगवद्गीता के षष्ठ अध्याय में कथित दृष्टि-साधन द्वारा ध्यानयोग ही विहंगम-मार्ग है। इस साधन में यह आवश्यक नहीं है कि पिण्ड में नीचे के पाँचो चक्रों में होकर पिपीलक-मार्ग पर श्वास की कसरत वा प्राणायाम से चलकर तब आज्ञाचक्र में पहुँचकर, उपर्युक्त विहंगम-मार्ग को पकड़ा जाए। यदि इस कथित रीति से निचले पाँचों चक्रों में होकर चले बिना छठे चक्र में साधन बन नहीं सकता, तो श्रीमद्भगवद्गीता में नासाग्र (षष्ठ चक्र- संबंधी स्थान) से ही साधन आरंभ करने की आज्ञा कदापि नहीं होती। दृष्टि-साधन द्वारा नेत्र के नीचे की सब इन्द्रियों की चेतन-धारें सहज ही आज्ञाचक्र में सिमट आती हैं (पद्य 1 के विचार में पढ़िए) और प्राणायाम द्वारा निचले चक्रों का साधन इसी हेतु करना है; इसलिए विहंगम-मार्गी को पिपीलक-मार्ग चलने की आवश्यकता नहीं होती है। भक्त पिपीलक-मार्ग पर चलने को हठयोग की क्रियाओं को नहीं करे तो कोई हानि नहीं। उसको तो नवधा भक्ति का अवलम्बन अवश्य चाहिए। गोस्वामीजी के रामचरितमानस के अनुसार नवधा भक्ति के साधु-संग करना, कथा-प्रसंग में रत होना, गुरु-सेवा में रत होना, कपट छोड़कर प्रेम से गुण-गान करना और मंत्र-जप करना; इन प्रथम पाँचो स्थूल भक्ति-साधनों को करने की पूरी आवश्यकता है। इन पाँचो स्थूल भक्ति-साधनों से सुरत प्रभु-चरणों की विशेष प्रेमिन, विषयों से बचने का यत्न करनेवाली, कोमल, दीन और अन्तर में सिमटाव के लिए तत्पर हो जाती है। अब इसको सूक्ष्म भक्ति में प्रवेश करना सरल हो जाता है। नवधा भक्ति की छठी भक्ति से सूक्ष्म भक्ति का आरंभ है। रा0 च0 मा0 सा0 स0 में इस प्रसंग को पढ़कर जान लीजिए। दृष्टियोग से आज्ञाचक्र वा षष्ठ चक्र में सिमटकर मीन-मार्ग वा विहंगम-मार्ग को धरकर चलना, सूक्ष्म भक्ति का आरंभ करना है। दृष्टियोग से नासाग्र कहलानेवाले जिस विन्दु को ग्रहण करना होता है, उसका स्थान, बाहरी सब इन्द्रियों (जहाँ सुरत का पसार रहने से जाग्रत अवस्था रहती है), कण्ठ और हृदय चक्रों (जहाँ पर जाने से स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएँ होती हैं) से अन्तर में भिन्न है। इसलिए इस स्थान तक पहुँच होते ही भक्तयोगी की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; तीनों अवस्थाएँ दूर हो जाती हैं। वह तीनों अवस्थाओं को छोड़कर, चौथी अवस्था तुरीय को प्राप्त होकर भगवन्त का भजन कर सकता है। वह नींद छोड़कर सो जाता है और अपने अन्तर में ही प्रभु की विराट विभूति अर्थात् सारे-के सारे विश्व का दर्शन पाता है। सर्वव्यापी होने के कारण प्रभु विन्दु-व्यापी और विन्दु-रूपी भी हैं। विन्दु उनका वह रूप है, जिसका ध्यान करने की आज्ञा मनुस्मृति के 12 वें अध्याय के 121 और 122 आदि श्लोकों में अणु-से-अणु रूप कहकर दी है। इसका विशेष वर्णन रा0 च0 मा0 सा0 स0 की चौपाई सं0 5 के विचार में पढ़ लीजिए। (अन्दाज से इसका ध्यान नहीं हो सकता। यह गुरु-गम्य है)। परम श्रद्धेय संत सद्गुरु बाबा देवी साहब ने एक दिन कृपा कर कहा था कि ‘छठे चक्र का केन्द्र-विन्दु प्रभु के महल का फाटक है। जो परम प्रेमी और अभ्यासी भक्त परम विरही होकर प्रभु-दर्शनों के लिए इस द्वार पर धरना देता है, द्वार की ओर एक नजर से देखता रहता है, वहाँ से बारहाँ धकियाए जाने पर भी बारम्बार वहाँ ही जा पड़ता है, यदि वह उस द्वार से अपनी नजर को नहीं विचलाता है, तो प्रभु उस पर द्रवे बिना नहीं रह सकते हैं और वे अपनी विन्दु-रूप विभूति को उसकी अगवानी के लिए भेज देते हैं, जो अंधकार के वज्र-कपाट को खोलकर उसे प्रभु के पास ले जाता है।’ प्रभु की दृश्य-विभूति भेदमयी है। भक्तयोगी इससे और आगे बढ़ता है। एकरस रहनेवाले ध्वन्यात्मक रामनाम (जिसे सत्यनाम और सारशब्द आदि भी कहते हैं।) को धरकर प्रभु की अरूप-विभूति का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए अन्त में द्वैत, द्वन्द्व, काल और देश से अतीत पदवाले प्रभु के अकथ, अमायिक, निर्गुण स्वरूप में आत्म-समर्पण कर और निज संशयों को निर्मूल बना, हरिपद के परम सुख का वह भक्त-योगी अनुभव करता है।
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