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।। विनय-पत्रिका-सार सटीक।।

(9)
।। चौपाई ।।
रघुपति भगति सुलभ सुखकारी।
सो त्रयताप सोक भयहारी।।
बिनु सत्संग भगति नहिं होई।
ते तब मिलहिं द्रवहिँ जब सोई।।1।।

।। छन्द ।।
जब द्रवहिँ दीनदयाल राघव,
साधु संगति पाइये।
जेहि दरस परस समागमादिक,
पाप रासि नसाइये।।
जिन्ह के मिले दुख सुख समान,
अमानतादिक गुण भये।
मद मोह लोभ विषाद,
क्रोध सुबोध तेँ सहजहिँ गये।।2।।

।। चौपाई ।।
सेवत साधु द्वैत भय भागै ।
श्री रघुवीर चरन लय लागै ।।
देह जनित विकार सब त्यागै ।
तब फिरि निज सरूप अनुरागै ।।3।।

।। छन्द ।।
अनुराग सो निजरूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।4।।

।। चौपाई।।
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई ।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई ।।
जो मारग स्त्रुति साधु दिखावैं ।
तेहि मग चलत सबइ सुख पावैं ।।5।।

।। छन्द ।।
पावइ सदा सुख हरि कृपा संसार आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं दुख द्वैत दरसन बात कोटिक को कहै।।
द्विज देव गुरु हरि संत बिनु संसार पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रास हरण रमापति गाइये।।6।। 

(9)
।। चौपाई ।।
रघुपति भगति सुलभ सुखकारी।
सो त्रयताप सोक भयहारी।।
बिनु सत्संग भगति नहिं होई।
ते तब मिलहिं द्रवहिँ जब सोई।।1।।

।। छन्द ।।
जब द्रवहिँ दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये।।
जिन्ह के मिले दुख सुख समान, अमानतादिक गुण भये।
मद मोह लोभ विषाद, क्रोध सुबोध तेँ सहजहिँ गये।।2।।
सुबोध = शुद्धज्ञान; यह ज्ञान बाहरी और अन्तरी दोनों सत्संगों के द्वारा प्राप्त होता है। रा0 च0 मा0 सा0 स0 में नवधा भक्ति को पढ़कर सत्संगों को समझ लीजिए। (अर्थ सुगम है)
।। चौपाई ।।
सेवत साधु द्वैत भय भागै ।
श्री रघुवीर चरन लय लागै ।।
देह जनित विकार सब त्यागै ।
तब फिरि निज सरूप अनुरागै ।।3।।
द्वैत = दो भेद = ईश्वर और जीव में भेद का ज्ञान। साधु की सेवा करने से श्रीरामजी के चरण में लौ लगती है और द्वैत-ज्ञान या मोह से उत्पन्न डर मिट जाता है। भक्त देह से उत्पन्न होनेवाले सब विकारों को त्याग देता है, तब फिर अपने (आत्म-) स्वरूप का प्रेमी बन जाता है।।3।।
।। छन्द ।।
अनुराग सो निजरूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।4।।
भक्त उस आत्मस्वरूप से प्रेम करता है, जो संसार से अद्भुत देखने में आता है। आत्मस्वरूप संतोष-रूप, समता-रूप, सदा शीतल-रूप और इन्द्रियनिग्रह-रूप है, उसे देहवाला नहीं गिनना चाहिए। वह शुद्ध, निरोग और एकरस है और उस (आत्मरूप) को हर्ष और शोक नहीं व्यापता है। जिस भक्त की ऐसी गति हुई वह तीनों लोकों में सदा पवित्र है।।4।।
।। चौपाई।।
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई ।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई ।।
जो मारग स्त्रुति साधु दिखावैं ।
तेहि मग चलत सबइ सुख पावैं ।।5।।
यदि उस रास्ते पर (ईश्वरोपासना-द्वारा आत्मस्वरूप प्राप्त करने की दशा का मार्ग, जिसका पहले वर्णन हो चुका है) मन लगाकर चले तो हरि क्यों नहीं सहायक होंगे ? वेद का जो रास्ता साधु दरसाते हैं, उस रास्ते पर चलने में सब कोई सुख पाते हैं।।5।।
।। छन्द ।।
पावइ सदा सुख हरि कृपा संसार आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं दुख द्वैत दरसन बात कोटिक को कहै।।
द्विज देव गुरु हरि संत बिनु संसार पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रास हरण रमापति गाइये।।6।।
वह (आत्म-स्वरूप में रत भक्त) संसार की आशा को त्यागकर (जीवन्मुक्त होकर) संसार में रहता है और हरि की कृपा से सदा सुख पाता है। (उसकी निसबत) अनेक बातें कौन कहे ? उसे सपने में भी वह दुःख नहीं होता है, जो ईश्वर से अपने को दूसरा मानकर उत्पन्न होता है। ब्राह्मण, देवता, गुरु, ईश्वर और संत की कृपा बिना संसार का पार पाया नहीं जाता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसा जानकर डर को हरनेवाले लक्ष्मीपति का गुण गाइए।।6।।
भावार्थ-हरि की कृपा से साधु-संग मिलता है। सत्संग से ईश्वर की भक्ति मिलती है। ईश्वर की भक्ति मोक्षदायक है। साधु की सेवा करने से प्रथम सगुण ब्रह्म की प्रीति-सहित उपासना बनती है। इससे देह से उत्पन्न विकार दूर होता है, तब फिर आत्मस्वरूप में प्रेम होता है। आत्मस्वरूप अद्भुत, अदेह और परम पवित्र है। इस दशा को पाकर सपने में भी द्वैत-दुःख नहीं व्यापता है। मन लगाकर इस दशा को प्राप्त करने के मार्ग पर चलने से ईश्वर सहायक होते हैं।
विचार-गो0 तुलसीदासजी महाराज के इस पद्य के भावों से ये सिद्धान्त स्पष्ट सिद्ध होते हैं-(1) ब्रह्म के दो स्वरूप हैं-निर्गुण और सगुण। (2) सत्संग करके दोनों स्वरूपों की प्राप्ति का भेद जानना चाहिए। (3) केवल सगुण रूप से ही प्रेम करके उसी में सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए। (4) प्रथम से ही जान लेना चाहिए कि निर्गुण ब्रह्म वा आत्मस्वरूप को प्राप्त करके ही भक्ति पूरी होगी और तभी ईश्वर और अपने में भेद-ज्ञान का दुःख (द्वैत-दुःख) मिटकर परम कल्याण होगा। इसलिए प्रथम सगुण ब्रह्म की उपासना से अपने को योग्य बना, फिर निर्गुण-स्वरूप का अनुरागी बन, उसे प्राप्त करना चाहिए। (पद्य 1 में वर्णित आरती के अर्थ और विचार आदि में इस प्रकार की पूरी उपासना का वर्णन किया गया है)। (5) जो कोई इस पूरी उपासना के मार्ग पर (अर्थात् सगुण से निर्गुण तक पहुँचने के मार्ग पर) मन लगाकर चलेगा, उसपर ईश्वर प्रसन्न होंगे और सहायता देकर उसे निर्गुण वा आत्मस्वरूप तक की गति प्राप्त करा देंगे। (6) कथित मार्ग पर चित्त लगाकर चलना, ईश्वर को प्रसन्न करके उनको सहायक बनाने का एक ही जरिया है। (गोस्वामीजी की यह बात "God helps those who help themselves" ईश्वर उनको सहायता देता है, जो अपने को अपने से मदद करते हैं।।’ के सदृश ही है।) (7) इस तरह गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज केवल सगुण-उपासना तक ही नहीं रह जाते, वे आत्मस्वरूप वा निर्गुण के भी प्रेमी बनते हैं और उसे पाकर द्वैत-दुःख से मुक्त होते हैं। ‘जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई’ वाला पद प्र्राप्त कर लेते हैं; ‘गोस्वामीजी सगुण रूप में ही रत थे, वे भेद-भक्ति (ईश्वर से अलग रहने की भाववाली भक्ति) को ही पसन्द करते थे और उनकी गति इसी भक्ति तक थी,’ ऐसा कहना अनजानपन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।। 

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