(7)
अस कछु समुझि परत रघुराया ।
बिनु तव कृपा दयाल दास हित,
मोह न छूटइ माया ।।1।।
वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुन,
भव पार न पावइ कोई ।
निसि गृह मध्य दीप की बातन्हि,
तम निवृत्त नहिं होई ।।2।।
जैसे कोउ एक दीन दुखित अति,
असन बिना दुख पावै ।
चित्र कल्पतरु कामधेनु गृह,
लिखे न विपति नसावै ।।3।।
षट रस बहु प्रकार व्यंजन कोउ,
दिन अरु रैन बखानै ।
बिनु बोले सन्तोष जनित सुख,
खाइ सोई पै जानै ।।4।।
जब लगि नहिं निज हृदि प्रकास,
अरु विषय आस मन माहीं ।
तुलसिदास तब लगि जग जोनि,
भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ।।5।।
(7)
अस कछु समुझि परत रघुराया ।
बिनु तव कृपा दयाल दास हित,
मोह न छूटइ माया ।।1।।
हे दास के हित करनेवाले दयालु रघुराज (रामजी) ! कुछ ऐसा समझ पड़ता है कि बिना आपकी कृपा के मोह-माया नहीं छूटती।।1।।
वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुन, भव पार न पावइ कोई ।
निसि गृह मध्य दीप की बातन्हि, तम निवृत्त नहिं होई ।।2।।
वचन से ज्ञान का निरूपण करने में अत्यन्त निपुण होकर कोई संसार का पार नहीं पाता। जैसे रात के समय घर में दीपक की केवल बात करने से अन्धकार दूर नहीं होता।।2।।
जैसे कोउ एक दीन दुखित अति, असन बिना दुख पावै ।
चित्र कल्पतरु कामधेनु गृह, लिखे न विपति नसावै ।।3।।
जैसे कोई एक अत्यन्त दीन-दुःखी मनुष्य भोजन बिना दुःख पाता हो। यदि वह अपने घर में कामधेनु और कल्पवृक्ष के चित्र लिख दे, तो उसकी विपत्ति नष्ट नहीं होती।।3।।
षट रस बहु प्रकार व्यंजन कोउ, दिन अरु रैन बखानै ।
बिनु बोले सन्तोष जनित सुख, खाइ सोई पै जानै ।।4।।
छहो रसों से युक्त बहुत तरह के भोजनों का कोई दिन-रात बखान करता रहे (पर खाए नहीं, तो खाने से संतोष का जो सुख होता है, सो उसको प्राप्त नहीं होगा) और दूसरा जो भोजनों को बखाने बिना ही भोजन करता है, वह भोजन करके उस संतोष का सुख पाता है।।4।।
जब लगि नहिं निज हृदि प्रकास,
अरु विषय आस मन माहीं ।
तुलसिदास तब लगि जग जोनि,
भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ।।5।।
जबतक मनुष्य अपने हृदय में प्रकाश नहीं पावे और विषय की आशा मन में रखे, तुलसीदासजी कहते हैं कि तबतक वह संसार की योनि में भ्रमता है और उसे सपने में भी सुख नहीं होता।।5।।
भावार्थ-वाचक ज्ञानी (अर्थात् हृदय में ज्ञान की दशा से हीन केवल वचन ज्ञान-निरूपण करनेवाले) को मोक्ष नहीं प्राप्त होता है। जो अपने मन से विषय की आशा को हटा देता है, वह अपने अन्तर में ब्रह्म-ज्योति को पाता है और चित्र का कल्पवृक्ष नहीं, बल्कि असली कल्पवृक्ष-ईश्वर को पाता है, ईश्वर की कृपा से वही मोक्ष पाता है।
विचार-पद्य में प्रकाश पाने की आवश्यकता बतलाई गई है। पद्य-संख्या 1 में वर्णित राम की आरती के करने से अन्तर में प्रत्यक्ष ब्रह्म-प्रकाश दरसता है। यह जाग्रत, स्वप्न और ख्याल की दृष्टि से नहीं दरसता। सुषुप्ति-सहित कही हुई तीनों अवस्थाओं को टपता हुआ जो परम विरही भक्त प्रेमावेश से मस्त होकर प्रभु से मिलने के लिए अपने अन्तर में चल पड़ता है, उसकी तुरीय अवस्थावाली दिव्य दृष्टि अन्तर में खुल जाती है। वह उसी दृष्टि से कथित प्रकाश को देखता है। भक्ति के इस रहस्य को जो नहीं जानते हैं, वे केवल बुद्धि, अक्ल और समझ को ही अन्तर का प्रकाश मानते हैं। इस पद्य में ऐसे प्रकाश वा वाक्य-ज्ञान की प्रशंसा नहीं की गई है। इस प्रकार के सच्चे भक्त को परम प्रभु-रूप कल्पवृक्ष और कामधेनु के माया संबंधी चित्रवत् सब सगुण रूपों के प्रत्यक्ष दर्शन मार्ग में प्राप्त होते हुए अन्त में उनका इन्द्रियातीत आत्मानुभव-गम्य यथार्थ स्वरूप भी प्राप्त हो जाता है और उस भक्त की सम्पूर्ण विपत्ति मिट जाती है।
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