(6)
माधव असि तुम्हारि यह माया।
करि उपाय पचि मरिय तरिय नहिं,
जब लगि करहु न दाया।।1।।
सुनिय गुनिय समुझिय,
समझाइय दशा हृदय नहिं आवै।
जेहि अनुभव बिनु मोह जनित,
भव दारुण विपति सतावै।।2।।
ब्रह्म पियूष मधुर शीतल,
जो पै मन सो रस पावै।
तौं कत मृगजल रूप विषय,
कारण निसिबासर धावै।।3।।
जेहि के भवन विमल चिन्तामनि,
सो कत काँच बटोरै।
सपने परबस परइ जागि,
देखत केहि जाइ निहोरै।।4।।
ज्ञान भगति साधन अनेक सब,
सत्य झूठ कछु नाहीँ।
तुलसिदास हरिकृपा मिटइ भ्रम,
यह भरोस मन माहीं।।5।।
(6)
माधव असि तुम्हारि यह माया।
करि उपाय पचि मरिय तरिय नहिं,
जब लगि करहु न दाया।।1।।
हे माधव ! आपकी यह माया ऐसी है कि जबतक आप दया नहीं करते, तबतक उपाय करते-करते सड़कर मर जाएँ, परन्तु इससे कोई पार नहीं होता।।1।।
सुनिय गुनिय समुझिय, समझाइय दशा हृदय नहिं आवै।
जेहि अनुभव बिनु मोह जनित, भव दारुण विपति सतावै।।2।।
सुनता हूँ, विचारता हूँ, समझता हूँ और दूसरों को समझाता हूँ; पर वह अवस्था प्राप्त नहीं होती है, जिसके प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना मोह से उत्पन्न संसार का भयानक दुःख सताता है।।2।।
ब्रह्म पियूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै।
तौं कत मृगजल रूप विषय, कारण निसिबासर धावै।।3।।
ब्रह्म-पियूष = ब्रह्म का अमृत = सर्वव्यापी ईश्वर-संबंधी अमृत = ब्रह्मज्योति और ब्रह्मशब्द-रूप चेतन-धारें।
सर्वव्यापी ईश्वर-संबंधी अमृत (ब्रह्मज्योति और ब्रह्मशब्द रूप चेतनधारें) मधुर और शीतल है; यदि मन उनका रस पा जाय, तो भ्रम-रूप विषय के लिए वह रात-दिन क्यों दौड़े? ।।3।।
जेहि के भवन विमल चिन्तामनि, सो कत काँच बटोरै।
सपने परबस परइ जागि, देखत केहि जाइ निहोरै।।4।।
जिसके घर में निर्मल चिन्तामणि हो, सो क्यों काँच जमा करता है ? सपने में परवश पड़ा हुआ (मनुष्य) जब जागकर देखे, तब किसकी विनती करे।।4।।
ज्ञान भगति साधन अनेक सब, सत्य झूठ कछु नाहीँ।
तुलसिदास हरिकृपा मिटइ भ्रम, यह भरोस मन माहीं।।5।।
ज्ञान और भक्ति आदि अनेक साधन सब सत्य ही हैं; कुछ झूठ नहीं है। तुलसीदासजी कहते हैं कि मेरे मन में यह भरोसा है कि हरि-कृपा से ही भ्रम का नाश होता है।।5।।
भावार्थ-जबतक ईश्वर की कृपा नहीं होती, तबतक माया से तर नहीं सकते। ज्ञान को केवल सुनकर, विचारकर, समझकर और दूसरों को समझाकर वह अवस्था नहीं मिलेगी, जिसकी यथार्थ प्राप्ति के बिना मोह-जनित विपत्ति सताती रहती है। ब्रह्म-पीयूष मधुर और शीतल है। इसका स्वाद पाकर बाहरी विषयों में भटककर दुःख उठाना नहीं पड़ता। मनुष्य के अन्तर में सब इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले परम प्रभु सदा विराजमान रहते हैं, इसलिए मनुष्य को बाहरी विषयों के संग्रह की आसक्ति में नहीं फँसना चाहिए। मोह से जीव अपने को माया के वश में जानता है। मोह दूर होने पर किसी की खुशामद नहीं करनी पड़ेगी। मोह दूर करने के लिए ज्ञान और भक्ति का साधन सत्य ही है। ईश्वर की प्रसन्नता के निमित्त ज्ञान और भक्ति का साधन निरहंकारी भाव से करना चाहिए और मन में यह भरोसा रखना चाहिए कि ईश्वर की कृपा से भ्रम दूर होगा।
विचार-पद्य के भाव से गो0 तुलसीदासजी महाराज का यह विचार स्पष्ट झलकता है कि सर्वव्यापी ईश्वर सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाले घट-घट में विराजमान हैं; उनकी प्राप्ति का स्वाद पाए बिना, जीव विषयानुरागी होने के दुःखों से और मोह से नहीं छूट सकता है। इसलिए अन्तर्मुख उपासना की अनिवार्य आवश्यकता है। इसका साधन पद्य-संख्या 1 में वर्णन किया गया है। अन्तर्मुख उपासना के द्वारा आज्ञाचक्र के केन्द्र-विन्दु पर सिमट आने से जीव को ब्रह्म-पीयूष प्राप्त होने लगता है।
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