(4)
ऐसी मूढ़ता या मन की ।।
परिहरि राम भगति सुर-सरिता,
आस करत ओस कन की।।1।।
धूम समूह निरखि चातक ज्यों,
तृषित जानि मति घन की।
नहिँ तहँ सीतलता न पानि पुनि,
हानि होत लोचन की।।2।।
ज्यों गच काँच बिलोकि स्येन जड़,
छाँह आपने तन की।
टूटत अति आतुर आहार बस,
छत बिसारि आनन की।।3।।
(4)
ऐसी मूढ़ता या मन की ।।
परिहरि राम भगति सुर-सरिता,
आस करत ओस कन की।।1।।
इस मन की ऐसी मूर्खता है कि (प्यास बुझाने के लिए) राम की भक्तिरूपी गंगा की धारा को छोड़कर ओस के कणों की आशा करता है।।1।।
धूम समूह निरखि चातक ज्यों,
तृषित जानि मति घन की।
नहिँ तहँ सीतलता न पानि पुनि,
हानि होत लोचन की।।2।।
जैसे प्यासा पपीहा बहुत-से धुएँ को बादल समझकर (स्वाति-जल की आशा से) उसे देखता है। वहाँ ठण्ढाई नहीं है, फिर पानी भी नहीं है; (इस भाँति देखने से केवल) आँख की हानि होती है।।2।।
ज्यों गच काँच बिलोकि स्येन जड़,
छाँह आपने तन की।
टूटत अति आतुर आहार बस,
छत बिसारि आनन की।।3।।
जैसे अज्ञानी बाज शीशे के चबूतरे में अपनी देह की परछाईं देखकर भोजन करने की इच्छा के अधीन अत्यन्त अधीर होकर अपने मुँह के घाव को भूलकर (शीशे पर) झपटता है।।3।।
कहँ लौँ कहौँ कुचाल कृपानिधि, जानत हौं गति जन की।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निजपन की।।4।।
हे दयासागर ! मन की कुचालों को कहाँ तक कहूँ ? आप भक्त के मन की गति तो जानते ही हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि हे स्वामी ! मेरे कठिन दुःख को हरिए और अपनी (शरणागत-पालन की) प्रतिष्ठा की लाज रखिए।।4।।
भावार्थ-मन सुख पाने के लिए सदा लालायित रहता है, यही इसकी प्यास है। यह प्यास गंगाधारा-रूप ईश्वर-भक्ति से बुझ सकती है। मन ईश्वर-भक्ति में नहीं लगकर ओसकण- रूप विषय को प्राप्त करने की चेष्टा इस आशा से करता रहता है कि इससे ही सुख प्राप्त होगा; किन्तु ऐसा कदापि नहीं होता। यथार्थ में ईश्वर-भक्ति-रूप बादल से सुख की वर्षा होती है। मन-रूप चातक इस बात को भूला रहता है और विषय-रूप बहुत-सा धुआँ देखकर, उसी को सुख बरसानेवाला बादल जानकर, उसे सुख पाने की आशा से देखता रहता है। विषय में शांति और सुख नहीं है। इसकी तरफ लगने से आत्मबल क्षय होता है। विषय काँच का चबूतरा है। इसमें अपनी ही चेतनवृत्ति सुख-रूप भासती है। पर मन यह समझकर कि विषय का सुख अपनी चेतनवृत्ति का सुख नहीं है, विषय का ही सुख है, आत्मबल की क्षति भूलकर, उस पर आतुर होकर टूट पड़ता है। यह सब बात मन की मूर्खता है। ईश्वर का शरणागत बनने से मन की यह मूर्खता छूटती है और जीव ईश्वर-भक्ति द्वारा सब दुःखों से छूटता है।
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