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।। विनय-पत्रिका-सार सटीक।।

(2)
देहि सत्संग निज अंग श्री रंग,
भव भंग कारण सरन सोकहारी ।
जेतु भदघ्घ्रिपल्लव समास्त्रित सदा,
भक्तिरत विगत-संसय मुरारी ।।1।।
असुर सुर नाग नर जच्छ गन्धर्व खग,
रजनिचर सिद्ध जे चापि अन्ने।
सन्त संसर्ग त्रयवर्ग पर परमपद,
प्राप्य निःप्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।।2।।
वृत्र बलि बान प्रह्लाद मय व्याध गज,
गिद्ध द्विज बन्धु निज धर्म त्यागी।
साधु-पद-सलिल निर्धूत कल्मष सकल,
स्वपच जवनादि कैवल्य भागी।।3।।
सान्त निरपेच्छ निर्मम निरामय अगुन,
सब्द ब्रह्मकै पर ब्रह्मज्ञानी।
दच्छ समदृक स्वदृक विगत अति स्व-पर-मति,
परम रति विरति तव चक्रपानी।।4।।
विस्व उपकार हित व्यग्र चित्त सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी।।5।।
वेद पय-सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनिवृन्द निर्मथन कर्त्ता।
सार सत्संग-मुद्धृत्य इति निश्चितं,
वदत श्री कृष्ण वैदर्भि भर्त्ता।।6।।
सोक सन्देह भय हर्ष तम तर्ष गन,
साधु सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ सायक निसाचर चमू,
निचय निर्दलन पटु वेग भारी।।7।।
जत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्म बस,
भ्रमत जग जोनी संकट अनेकम्।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम सदा,
भवतु मे राम विश्राममेकम्।।8।।
प्रबल भव जनित त्रय व्याधि भेषज भक्ति,
भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी।
सन्त भगवन्त अन्तर निरंतर नहीं किमपि,
मति विमल कह दास तुलसी।।9।। 

(2)
देहि सत्संग निज अंग श्री रंग,
भव भंग कारण सरन सोकहारी ।
जेतु भदघ्घ्रिपल्लव समास्त्रित सदा,
भक्तिरत विगत-संसय मुरारी ।।1।।
हे लक्ष्मीपति ! मुझे सत्संग दीजिए। वह आपका अपना शरीर, जन्म को नाश करने का कारण और शरणागत के शोक को हरनेवाला है। हे मुरारी ! जो आपके चरणपल्लव के अधीन होकर सदा भक्ति में लगे रहते हैं, वे सन्देह से रहित हो जाते हैं।।1।।
असुर सुर नाग नर जच्छ गन्धर्व खग,
रजनिचर सिद्ध जे चापि अन्ने।
सन्त संसर्ग त्रयवर्ग पर परमपद,
प्राप्य निःप्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।।2।।
तीनों दर्जों के परे (चौथा पद), नहीं पाने योग्य मोक्ष की गति आपकी कृपा से सत्संग पाकर असुर, देवता, नाग, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, पक्षी, निशाचर, सिद्ध और दूसरों के पाने योग्य होती है।।2।।
स्थूल जगत = स्थूल; माया = पिण्ड = अन्धकार; सूक्ष्म जगत = रूप ब्रह्माण्ड = प्रकाश; कारण जगत = कारण माया = अरूप ब्रह्माण्ड और मूल प्रकृति = शब्द। इन तीनों वर्गों वा दर्जों वा पदों के आगे परम मोक्ष है, जिसको चौथा पद कहते हैं।
वृत्र बलि बान प्रह्लाद मय व्याध गज,
गिद्ध द्विज बन्धु निज धर्म त्यागी।
साधु-पद-सलिल निर्धूत कल्मष सकल,
स्वपच जवनादि कैवल्य भागी।।3।।
वृत्रासुर, बलि, बाणासुर, प्रह्लाद, मय दानव, व्याध, गज, गिद्ध, स्वधर्म-त्यागी ब्राह्मण (अजामिल), डोम और मुसलमान इत्यादि साधु के चरण के जल से सब पापों को धोकर मोक्ष के भागी हुए।।3।।
सान्त निरपेच्छ निर्मम निरामय अगुन,
सब्द ब्रह्मकै पर ब्रह्मज्ञानी।
दच्छ समदृक स्वदृक विगत अति स्व-पर-मति,
परम रति विरति तव चक्रपानी।।4।।
हे चक्र को हाथ में रखनेवाले ! जो आपमें अत्यन्त आसक्त होते हैं, वे शान्त, उदासीन, ममताहीन, रोग-रहित, निर्गुण, शब्दब्रह्म से आगे की गति के ब्रह्मज्ञानी, समदृष्टि में निपुण, अपनपौ की आँख, अपना और पराया विचारनेवाले बुद्धि से अत्यंत रहित और विरक्त होते हैं।।4।।
विस्व उपकार हित व्यग्र चित्त सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी।।5।।
सर्व = शर्व = शिव।
संसार के उपकार के लिए जिनका चित्त सदा व्यग्र रहता है, जो गर्व और क्रोध को त्यागकर बहुत-से पुण्य करते हैं, वे जहाँ ठहरते हैं, वहीं ब्रह्मा-शिव के सहित क्षीर-समुद्र में वास करनेवाले हरि भगवान जा पहुँचते हैं।।5।।
वेद पय-सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनिवृन्द निर्मथन कर्त्ता।
सार सत्संग-मुद्धृत्य इति निश्चितं,
वदत श्री कृष्ण वैदर्भि भर्त्ता।।6।।
वेद क्षीरसमुद्र है। उत्तम विचार मन्दराचल है। समस्त मुनिगण मथनेवाले हैं। रुक्मिणीजी के स्वामी श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन्थन करके सत्संगरूपी सार निकाला गया है, यह निश्चित है।।6।।
सोक सन्देह भय हर्ष तम तर्ष गन,
साधु सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ सायक निसाचर चमू,
निचय निर्दलन पटु वेग भारी।।7।।
शोक, संशय, डर, हर्ष, अन्धकार और अभिलाषाओं को साधु अपनी सुन्दर युक्ति से इस तरह हटा देनेवाले हैं, जिस तरह श्रीरघुनाथजी (राम) का तीर निशाचर की सेनाओं का नाश करने के लिए तीक्ष्ण और भारी वेगवान है।।7।।
साधु-सद्युक्ति = साधु की सुन्दर युक्ति = सुरत को सुषुम्ना में रखना।
जत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्म बस,
भ्रमत जग जोनी संकट अनेकम्।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम सदा,
भवतु मे राम विश्राममेकम्।।8।।
अपने कर्मों के अधीन हो संसार की योनियों में भटकते हुए अनेक कष्टों में जहाँ कहीं मेरा जन्म हो, वहाँ आपकी भक्ति और सत्संग मुझको प्राप्त हो; हे राम ! मैं यही एक विश्राम माँगता हूँ।।8।।
प्रबल भव जनित त्रय व्याधि भेषज भक्ति,
भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी।
सन्त भगवन्त अन्तर निरंतर नहीं किमपि,
मति विमल कह दास तुलसी।।9।।
संसार से उत्पन्न हुए तीनों कठिन रोगों की औषधि भक्ति है। आत्मदर्शी भक्त वैद्य हैं। सन्त और भगवन्त में सदा कुछ भी भेद नहीं है। हे तुलसीदास ! यह निर्मल बुद्धिवाले कहते हैं।।9।।
त्रयव्याधि = तीन रोग = (आध्यात्मिक = ज्वरादि = शारीरिक क्लेश। आधिदैविक = मन आदि इन्द्रियों के क्लेश = प्रारब्ध से उत्पन्न क्लेश। आधिभौतिक = सर्पादि दुष्ट जन्तुओं से उत्पन्न हुए क्लेश = प्राणी-सम्बंधी क्लेश = तत्त्वों से उत्पन्न क्लेश)।
विचार-त्रयवर्ग पर, शब्दब्रह्मैक पर और तीनों अवस्थाओं के स्थान आदि बहुत-सी बातें, जो पद्यों से संबंध रखनेवाली हैं, वे सब दिए हुए चित्र से विदित होंगे। 

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