(1)
ऐसी आरती राम की करहि मन ।
हरन दुख द्वन्द्व गोविन्द आनन्द घन ।।1।।
अचर चर रूप हरि सर्व गत सर्वदा,
बसत इति वासना धूप दीजै ।
दीप निज बोध गत क्रोध मद मोह तम,
प्रौढ़ अभिमान चित्तवृत्ति छीजै ।।2।।
भाव अतिसय विसद प्रवर नैवेद्य सुभ,
श्री रमन परम सन्तोषकारी ।
प्रेम ताम्बूल गत सूल संसय सकल,
विपुल भव वासना बीज हारी ।।3।।
असुभ-सुभ कर्म घृत पूर्न दस बर्त्तिका,
त्याग-पावक सतोगुन प्रकासं ।
भक्ति वैराग्य विज्ञान दीपावली,
अर्पि नीराञ्जनं जग निवासं ।।4।।
विमल हृदि भवन कृत सान्ति परजघड्ढ सुभ,
सयन विस्त्राम श्रीराम राया ।
छमा करुना प्रमुख तत्र परिचारिका,
यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया ।।5।।
आरती निरत सनकादि स्त्रुति सेष सिव,
देवरिषि अखिल मुनि तत्त्व दरसी ।
जो करइ सो तरइ परिहरइ काम सब,
वदत इति अमल मति दास तुलसी ।।6।।
(1)
ऐसी आरती राम की करहि मन ।
हरन दुख द्वन्द्व गोविन्द आनन्द घन ।।1।।
गोविन्द = ज्ञान-सिन्धु (मानस-कोष)।
हे मन ! दुःख और कलह के हरनेवाले, ज्ञान-सिन्धु और आनन्दपुञ्ज राम की आरती इस तरह कर।
अचर चर रूप हरि सर्व गत सर्वदा,
बसत इति वासना धूप दीजै ।
दीप निज बोध गत क्रोध मद मोह तम,
प्रौढ़ अभिमान चित्तवृत्ति छीजै ।।2।।
अचर = स्थावर = नहीं चलनेवाला, जैसे वृक्षादि। चर = जङ्गम = चलनेवाला, जैसे मनुष्यादि। गत = लीन = तन्मय, निमग्न। निजबोध = आत्मज्ञान।
स्थावर-जंगम सब रूप राम के हैं और वे सबमें लीन हैं-सर्वव्यापी हैं, इसी इच्छा का धूप दीजिए। आत्मज्ञान का दीपक दीजिए, जिससे क्रोध, मस्ती और अज्ञान-अन्धकार नष्ट होकर बढ़ा हुआ अभिमान और चित्त की चंचलता नाश होती है।।2।।
भाव अतिसय विसद प्रवर नैवेद्य सुभ,
श्री रमन परम सन्तोषकारी ।
प्रेम ताम्बूल गत सूल संसय सकल,
विपुल भव वासना बीज हारी ।।3।।
विसद (विशद) = विशुद्ध। प्रवर = उत्तम। हारी = हरनेवाला।
अत्यन्त शुद्ध प्रेम का उत्तम और शुभ नैवेद्य और प्रेम ही का पान भोग लगाइए, जिनसे लक्ष्मीपति परम संतुष्ट होते हैं, सम्पूर्ण कष्ट और संदेह दूर होते हैं और जो संसार के बीज, बहुत-सी इच्छाओं को हरनेवाले हैं।।3।।
असुभ-सुभ कर्म घृत पूर्न दस बर्त्तिका,
त्याग-पावक सतोगुन प्रकासं ।
भक्ति वैराग्य विज्ञान दीपावली,
अर्पि नीराञ्जनं जग निवासं ।।4।।
नीराञ्जनं = आरती।
भक्ति, वैराग्य और विज्ञान के दीपों में शुभ-अशुभ कर्मरूपी घी से भरी हुई दस बत्तियों को त्याग की अग्नि से लेसकर सतोगुण की प्रकाशवाली आरती राम को अर्पण कीजिए।।4।।
विमल हृदि भवन कृत सान्ति परजघड्ढ सुभ,
सयन विस्त्राम श्रीराम राया ।
छमा करुना प्रमुख तत्र परिचारिका,
यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया ।।5।।
पवित्र हृदय-भवन में शान्ति के सुन्दर पलङ्ग पर आराम करने के लिए श्रीराम राय को सुलाइए। वहाँ राम की सेवा के लिए क्षमा और दया मुख्य-मुख्य दासियों को रखिए। जहाँ राम (उपर्युक्त रीति से) रहेंगे, वहाँ द्वैत उत्पन्न करनेवाली माया नहीं रहेगी।।5।।
आरती निरत सनकादि स्त्रुति सेष सिव,
देवरिषि अखिल मुनि तत्त्व दरसी ।
जो करइ सो तरइ परिहरइ काम सब,
वदत इति अमल मति दास तुलसी ।।6।।
इस आरती में सनकादि, वेद, शेष, शिव, नारद और सार पदार्थ (निर्माया) में दर्शन करनेवाले समस्त मुनिगण विशेष रूप से रत रहते हैं। सब इच्छाओं को छोड़कर जो इस प्रकार आरती करेगा, वह मुक्त होगा। हे तुलसीदास ! निर्मल बुद्धिवाले ऐसा कहते हैं।।6।।
भावार्थ-जो भवसागर से पार होना चाहे, उसे चाहिए कि राम को सम्पूर्ण रीति से संतुष्ट करने के हेतु उन्हें अपने अन्तर की शांति के पलङ्ग पर प्रत्यक्ष पाने के लिए (1) उन्हें (राम को) सर्वरूपी और सर्वव्यापी दृढ़ता से जाने, (2) आत्मज्ञान प्राप्त करे, (3) राम से अत्यन्त प्रेम करे, (4) दसो इन्द्रियों की वृत्तियाँ वा चेतनधारें शुभाशुभ कर्मों से सराबोर रहती हैं, उन्हें विषयों से हटाकर अर्थात् त्याग की अग्नि से दग्ध करके सतोगुण को धारण कर भक्ति, वैराग्य और विज्ञान प्राप्त करे, (5) क्षमा और दया को धारण करे और (6) सब इच्छाओं को त्याग दे।
विचार-गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज इसी कलिकाल में थे। जबकि वे अपने मन को उपर्युक्त रीति से राम की आरती करने कहते हैं, और जबकि वे यह भी कहते हैं कि जो कोई (अर्थात् कोई भी मनुष्य) इस प्रकार राम की आरती करेगा, वह तर जाएगा अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेगा, तब गोस्वामीजी महाराज के विचारानुसार कलियुग में भी राम की योगाभ्यास से होनेवाली ऐसी आध्यात्मिक आरती होती है और होगी। जो कोई इसे करना चाहेगा, करने में लग जाएगा, वह कर लेगा। स्त्री, शूद्र, चाण्डालादि, गृहस्थ, विरक्त; सब- के-सब इस आरती के करने के अधिकारी हैं। राम को सर्वगत कहकर उनके निर्गुण स्वरूप का और उन्हें चर-अचर-रूप कहकर, उनके सगुण रूप का वर्णन कर, उनके इन दोनों स्वरूपों में रत रहने को कहा गया है। निर्गुण सर्वव्यापी स्वरूप राम का अरूप, इन्द्रियों से नहीं जानने योग्य, मूल सनातन और सहज स्वरूप वा निज स्वरूप है और सगुण रूप उनका कारणवश प्रगट होनेवाला, अगुण से पीछे का रूपमान स्थूल-सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेदों से, इन्द्रियों से जानने योग्य भी और उनसे नहीं जानने योग्य भी माया वा छल-रूप है। (रा0 च0 मा0 सा0 स0, चौ0 सं0 168 को और दो0 सं0 113 को अर्थ और लिखित विचारों के सहित पढ़िए) निर्गुण स्वरूप में और सगुण के सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपों में, उनकी निसबत केवल पढ़, सुन और विचारकर रत होना, केवल कठिन साध्य ही नहीं, बल्कि असम्भव है। (देखिए पद्य 7) जब चेतन-वृत्ति वा सुरत का पसार स्थूल शरीर में रहकर स्थूल इन्द्रियों के द्वारा काम करता रहता है, तब स्थूल सगुण में रत होना सम्भव होता है। इसी तरह सूक्ष्म भक्ति के साधन से सुरत को स्थूल शरीर से समेटकर और स्थूल इन्द्रियों के द्वारा काम करना छोड़कर जब केवल सूक्ष्म शरीर ही में उसका पसार रहेगा और स्थूल-विहीन केवल सूक्ष्म शरीर से ही काम करना सम्भव होगा, तब सूक्ष्म सगुण में और इसी भाँति जब सूक्ष्म से भी सिमटकर, आगे बढ़कर केवल कारण शरीर ही में सुरत का पसार रहेगा और उसके द्वारा कर्म किया जा सकेगा, तब सूक्ष्मातिसूक्ष्म सगुण में रत होते हुए, फिर कारण से भी सिमटकर सुरत वा चैतन्य वृत्ति को आत्मस्वरूप में लय कर, निर्गुण स्वरूप में रत होना अत्यन्त संभव है। रा0 च0 मा0 सा0 स0 में वर्णित नवधा भक्ति राम की इस प्रकार की आरती करने का वा उसके सगुण और निर्गुणस्वरूपों में रत होने का और आत्मज्ञान प्राप्त करने का साधन है। सगुण राम की उपासना के बाद आत्मज्ञान प्राप्त होता है। इसके प्राप्त होने पर राम के निर्गुण स्वरूप में रत होना बाकी नहीं रहता। भक्ति के साधन का अन्त निज रूप वा आत्मस्वरूप वा निर्गुण राम में रत होने तक ही है। (पद्य 9) ध्यान, उपासना, आरती, पूजन, भजन और भक्ति का प्राण, प्रेम है। राम के प्रति प्रेम बिना ये निःसार और निरर्थक हैं। जिस महल में राम से मिलाप होता है, उसमें केवल राम के प्रेमी ही अपना शीश उतारकर अर्थात् अहंकार को सम्पूर्ण गँवाकर जा सकते हैं। प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसके बिना उसको रहा नहीं जाता। सच्चा प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसकी ओर एकटक देखता है और चाहता है कि वह भी उसको देखे। वह अपने प्रेमपात्र के पास चल पड़ता है और सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को और सम्पूर्ण विपत्तियों को झेलते हुए, कठिन-से-कठिन मार्ग को पार कर उससे जा मिलता है। संत कबीर साहब का कितना उत्तम वर्णन निम्नलिखित शब्दों में करते हैं-
प्रेम सखी तुम करो विचार।
बहुरि न आना यहि संसार ।।1।।
जो तोहि प्रेम खेलनवा चाव।
सीस उतार महल में आव ।।2।।
प्रेम खेलनवा यही विशेष।
मैं तोहि देखूँ तू मोहि देख ।।3।।
प्रेम खेलनवा यही स्वभाव।
तू चलि आव कि मोहि बुलाव ।।4।।
खेलत प्रेम बहुत पचिहारी।
जो खेलिहैं सो जग से न्यारी ।।5।।
कहै कबीरा प्रेम समान।
प्रेम समान और नहिं आन ।।6।।
जिस महल में राम से मिल सकते हैं, वह महल अपना ही शरीर है, (पद्य 12)। अपने शरीर के अन्तर की तहों में, अपनी दृष्टि से देखे बिना, राम को देख नहीं सकते। इस प्रकार देखने के साधन को ही दृष्टिसाधन वा दृष्टियोग कहते हैं। इस साधन का विवरण रा0 च0 मा0 सा0 स0 की चौपाई सं0 5 को अर्थ और लिखित विचारों के सहित पढ़कर जानिए। वर्णात्मक नाम को अत्यन्त एकाग्रता और प्रेम से जपना; राम को अपने पास बुलाना है। पर याद रहे कि इस प्रकार बुलाकर राम को केवल स्थूल सगुण रूप में ही पा सकते हैं। उनके सूक्ष्म, सूक्ष्मातिसूक्ष्म और निर्गुण रूपों से मिलने के लिए प्रथम कथित रीति से चेतन-वृत्ति को समेटते हुए स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में राम के स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म वा कारण रूपों से मिलते हुए तीनों शरीरों से टपकर राम के निर्गुण स्वरूप से मिलना सम्भव है और राम के स्थूल सगुण रूपों से मानस ध्यान के द्वारा मनाकाश में मिल सकते हैं; यह भी अपने शरीर में सिमटना वा अपने अन्तर में राम की ओर जाना ही हुआ। अतएव अपने शरीर में यात्रा करनी राम की ओर चलना है। राम का सच्चा प्रेमी इस यात्रा का यात्री वा अन्तर-पथ का पथिक अवश्य ही होता है। भक्ति-साधना का परम रहस्य यही है। इसी रहस्य को लक्ष्य करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने पद्य (10) को गाया है। दृष्टियोग की सुगम रीति से सुषुम्न-विन्दु पर युगल दृष्टिधारों को मिलाने से इन्द्रियों की वृत्तियाँ शुभाशुभ कर्मों से सराबोर नहीं रहती हैं, विषयों से हट जाती हैं और तमोगुण-वाहिनी इड़ा और रजोगुण-वाहिनी पिङ्गला से हटकर सतोगुण-वाहिनी सुषुम्ना के विन्दु पर मिल, उसे दृढ़ता से धरती है, तो सतोगुण के प्रकाश से प्रकाशित होती है। जैसे किसी चीज को एक ही साथ दोनों हाथों से अत्यन्त बलपूर्वक पकड़ने पर सारे शरीर का बल हाथों की पकड़ पर ही आ जाता है, वैसे ही युगल दृष्टि से सुषुम्न-विन्दु को जकड़कर पकड़ने से सब इन्द्रियों की चेतन-वृत्तियाँ वा सुरत की धारें उस विन्दु पर सिमटकर मिल जाती हैं और एक हो जाती हैं। दसो इन्द्रियों के दीपों में सुरत की धारें ही दस बत्तियाँ हैं। इन्द्रियों में रहकर ही ये उनके संग विषयों में बरतकर शुभाशुभ कर्म-रूप घी से सराबोर रहती हैं और रज और तम गुणों में बरतती रहती हैं। सो जब इनका सिमटाव होकर उस विन्दु पर जमाव होता है, जो बाहर में नहीं है और जो किसी इन्द्रिय में इड़ा वा पिंगला में नहीं है, तब सहज ही ये इन्द्रियों से, विषयों से और रज, तम गुणों से हट जाती हैं, सतोगुण से प्रकाशित हो जाती हैं और शुभाशुभ कर्म जलने लगते हैं। जिस चीज का सिमटाव होता है, उसको जिस ओर से सिमटाव होता है, उससे विपरीत ओर को आगे बढ़ाते जाने का सिमटाव का स्वभाव है। इसी कारण पिण्ड वा स्थूल शरीर की ओर से सिमटकर सुरत जब सुषुम्न-विन्दु पर जम जाती है, तो स्थूल शरीर की ओर से विरुद्ध ओर को अर्थात् सूक्ष्म शरीर की ओर को आगे बढ़ जाती है और यह काम यदि उत्तरोत्तर (लगातार) जारी रखा जाय अर्थात् प्रथम विन्दु के सीध में के विन्दुओं पर जहाँ-जहाँ सुरत जाय, वहाँ-वहाँ सिमटाव नहीं छोड़ा जाय तो सुरत वा चेतनवृत्ति की गति सूक्ष्म के सब मण्डलों से गुजरती हुई, सूक्ष्म सगुण के सब रूपों से मिलती हुई, कारण मंडल में पहुँच जाएगी। यहाँ तक दृष्टियोग की गति है, पर यहीं तक काम समाप्त नहीं होता है, कारण से भी आगे राम के निर्गुण स्वरूप से मिलना है, जहाँ दृष्टि की गति नहीं है। वहाँ केवल निर्गुण रामनाम के भजन से ही जाना सम्भव है। निर्गुण रामनाम की निसबत रा0 च0 मा0 सा0 स0 की चौपाई सं0 80 को अर्थ और लिखित विचारों के सहित पढ़िए। इस निर्गुण रामनाम का भजन करना सुरत-शब्द-योग का सार है। इस शब्द को सुरत दृष्टि को केवल सुषुम्ना में ही थिर-थाम्हकर वहीं से अथवा दृष्टियोग सम्पूर्ण समाप्त करके भी, अनहद ध्वनि के सहारे आगे बढ़ पा सकती है। पर इन दोनों हालतों में गुरु के संकेत की बड़ी आवश्यकता है। शब्द में सुरत को आकर्षण करने का स्वभाव है। शब्द अपने आकर्षण से सुरत को अपने उद्गम-स्थल में खींच लाता है। निर्गुण रामनाम सुरत को राम के निज निर्गुण स्वरूप तक अपने महान आकर्षण से खींचकर पहुँचा देता है।
विचार का सारांश यह कि वर्णित आरती केवल विचार द्वारा वा राम के केवल स्थूल सगुण रूप की उपासना से ही नहीं की जा सकेगी। यह कथित विचारानुसार वर्णात्मक नाम-भजन, मानस ध्यान, दृष्टि-योग और सुरत-शब्द-योग द्वारा की जा सकेगी। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ज्ञानी भक्त, योगी, सन्त थे, न कि केवल मोटी ही उपासनावाले भक्त।
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