(1) त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ।। 60।।
यजुर्वेद अध्याय 3 मन्त्र 60 खण्ड 1 पृष्ठ 101
(2) सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयंँ्सह ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते ।।11।।
अ0 40 मन्त्र 11 खण्ड 2 पृष्ठ 732
(1) त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ।। 60।।
यजुर्वेद अध्याय 3 मन्त्र 60 खण्ड 1 पृष्ठ 101
भा0 - (त्रि-अम्बकम्) तीन शक्तियों से सम्पन्न (सुगन्धिम्) उत्तम मार्ग में प्रेरणा करनेवाले (पुष्टिवर्धनम्) प्रजा के पोषण कार्य को बढ़ानेवाले राजा का हम (यजामहे) सत्संग करें, साथ दें, उसका आदर करें । जिससे मैं प्रजाजन (मृत्योःबन्धनात्) मृत्यु के बन्धन से (उर्वारुकम् इव) लता के बन्धन से पके खरबूजे के समान (मुक्षीय) स्वयं मुक्त रहूँ, (अमृतात् मा) और अमृत अर्थात् जीवन वा मोक्ष से मुक्त न होऊँ । इसी प्रकार (सुगन्धिम्) उत्तम मार्ग में प्रेरण करनेवाले (पति वेदनम्) पालक पति को प्राप्त करानेवाले (त्र्यम्बकम्) वेदत्रयी रूप ज्ञान से युक्त राजा का (यजामहे) हम आदर करते हैं । जिससे मैं (उर्वारुकम् इव) लताबन्धन से खरबूजे के समान (इतः बन्धनात्) इस लोक के बन्धन से (मुक्षीय) मुक्त हो जाऊँ । (मा अमुतः) उस पारमार्थिक सम्बन्ध से न छूटूँ ।
ईश्वर पक्ष में – शक्तित्रय से युक्त परमेश्वर की हम उपासना करें, जिससे मैं मृत्यु के बन्धन से मुक्त होऊँ और अमृत अर्थात् मोक्ष से दूर न होऊँ । परम पालक को प्राप्त करानेवाले इस ईश्वर की पूजा करें, जिससे हम इस देह-बन्धन से छूटें, उस परम मोक्ष से वंचित न रहें । स्त्रियाँ भी प्रार्थना करती हैं- उत्तम पति (पालक) प्राप्त करानेवाले परमेश्वर की हम उपासना करते हैं कि इस पितृ-बन्धन से छूटें और उस पति-बन्धन से वियुक्त न हों । शत0 2।6।2।12।14।।
टिप्पणी - इस मन्त्र में जीवन्मुक्त होने का उपदेश है ।
(2) सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयंँ् सह । विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते ।।11।।
अ0 40 मन्त्र 11 खण्ड 2 पृष्ठ 732
भा0 - (संभूतिम्) जिसमें नाना पदार्थ उत्पन्न होते हैं, इस कार्य सृष्टि और (विनाशं च) जिसमें विनाश अर्थात् कारण में लीन होते हैं (उभयम्) दोनों को (यः) जो (सह) एक साथ (वेद) जान लेता है । वह (विनाशेन) सबके अदृश्य होने के परम कारण को जानकर (मृत्युम्) देह को छोड़ने के धर्म के भय को (तीर्त्वा) पार करके, उसको सर्वथा त्यागकर (संभूत्या) कारण से कार्यों के उत्पन्न होने के तत्त्व को जानकर (अमृतम्) उस अमर अविनाशी मोक्ष को (अश्नुते) प्राप्त करता है ।
संभूतिः = सम्भवैकहेतुः परं ब्रह्म । विनाशः = विनाशधर्मकं
शरीरमिति उवटः ।
टिप्पणी - ‘अमर अविनाशी मोक्ष’ को पाकर भी फिर वह मोक्ष दशा छूट जाय और पुनः जन्म-मरण में आना पड़े तो अमर अविनाशी ‘मोक्ष’ नहीं हुआ । इस वेद मन्त्रार्थ से मोक्ष में किसी बड़ी अवधि तक रहकर पुनः वह छूटे और संसार-चक्र में आना पड़े, ऐसा विचार नहीं प्रकट होता है ।
(3) त्वामग्नेऽअङ्गिरसो गुहा हितमन्वविन्दंछिश्रियाणं
वनेवने ।
स जायसे मथ्यमानः सहो महत त्वामाहुः
सहसस्पुत्रमङ्गिर: ।। 28।।
ऋ0 5।1116; अ0 15 मन्त्र 28 खण्ड 1 पृष्ठ 634
(4) असौ यस्ताम्रोऽअरुणऽउत बभ्रुः सुमलिः ।
ये
चैनँ्रुद्राऽअभितो दिक्षु श्रिताः सहस्त्रशोऽ वैषाँ् हेडऽईमहे ।।6।।
अ0 16 मंत्र 6 खंड 1 पृष्ठ 656
(3) त्वामग्नेऽअङ्गिरसो गुहा हितमन्वविन्दंछिश्रियाणं
वनेवने । स जायसे मथ्यमानः सहो महत त्वामाहुः
सहसस्पुत्रमङ्गिर: ।। 28।।
ऋ0 5।1116; अ0 15 मन्त्र 28 खण्ड 1 पृष्ठ 634
भा0 - हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान तेजस्विन्! (गुहाहितम्) अपने हृदय के गुह्य स्थान में स्थित और (वनेवने शिश्रियाणम्) वन-वन, प्रत्येक आत्मा-आत्मा में विद्यमान (त्वाम्) तुझ परमेश्वर का (अंगिरसः) ज्ञानी योगाभ्यासी पुरुष जिस प्रकार (अनु अविन्दन्) साक्षात् दर्शन करते हैं या प्रथम अपने आत्मा का और फिर उसमें भी व्यापक तेरा साक्षात् करते हैं और जिस प्रकार (वने-वने शिश्रियाणम्) प्रति पदार्थ या प्रत्येक काष्ठ में या प्रत्येक जल के परमाणुओं में विद्यमान (गुहा हितम्) गुप्त रूप से स्थित अग्नि तत्त्व को (अंगिरसः) विज्ञानवेत्ता (अनु अविन्दन्) प्राप्त करते हैं और जिस प्रकार (स) वह तू (मथ्यमानः) प्राणायाम, ज्ञान, ध्यानाभ्यास से मथित होकर परमेश्वर प्रकट होता है और जिस प्रकार अरणियों से मथा जाकर अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार (मथ्यमानः) अपनी और शत्रु सेना के बीच में युद्धादि द्वारा मथा जाकर (महत् सहः) बड़े भारी बल रूप में (जायसे) प्रकट होता है। हे (अंगिरः) सूर्य के समान या अंगारों के समान तेजस्विन्! या शरीर में प्राण के समान राष्ट्र के प्राण-रूप! (त्वाम्) तुझको (सहसः पुत्रम्) बल का पुंज, शक्ति का पुतला शक्ति से उत्पन्न हुआ (आहुः) कहते हैं ।
(4) असौ यस्ताम्रोऽअरुणऽउत बभ्रुः सुमलिः । ये
चैनँ्रुद्राऽअभितो दिक्षु श्रिताः सहस्त्रशोऽ वैषाँ् हेडऽईमहे ।।6।।
अ0 16 मंत्र 6 खंड 1 पृष्ठ 656
भा0 - (असौ यः) यह जो (ताम्रः) ताम्बे के समान रक्त, कठिन, शरीर एवं तेजस्वी (अरुणः) अग्नि के समान तेजस्वी, (बभ्रुः) सूर्य के समान पीले-लाल रंग का (सु-मंगलः) शुभ मंगल चिह्नों से अलंकृत है अथवा यह जो (ताम्रः) सूर्य के समान लाल सुर्ख, तेजस्वी और शत्रुओं को क्लेशित कर देने में समर्थ और (अरुण) सूर्योदय के समय के सूर्य के समान गुलाबी प्रभावाला, अथवा शत्रु से कभी न रोके जानेवाला, अथवा सबका शरण्य (उत बभ्रुः) पीले, धूम्रवर्ण का, कपिल, पाटल रंग का अथवा अन्न के समान सब प्रजा और भृत्य वर्गों का भरण, पोषण, पालन करने में समर्थ (सु-मंगलः) सुखपूर्वक सर्वत्र विचरने में समर्थ है । और (ये च) जो भी (रुद्राः) शत्रु को रुलाने, रोकनेवाले या गम्भीर गर्जना करनेवाले वीरगण (एनम् अभितः) इसके इर्द-गिर्द (दिक्षु) समस्त दिशाओं में (सहस्त्रशः श्रिता) हजारों की संख्या में विराजमान हैं (एषाम्) इनके (हेडः) रोष, क्रोध या अनादरभाव को हम (अव ईमहे) दूर करें, शमन करें ।
(5) असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः ।
उतैनं
गोपाऽअदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः दृष्टो स मृडयाति नः।। 7।।
अ0 16 मन्त्र 7 खं0 1 पृष्ठ 657
(5) असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः । उतैनं
गोपाऽअदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः दृष्टो स मृडयाति नः।। 7।।
अ0 16 मन्त्र 7 खं0 1 पृष्ठ 657
भा0 - (यः) जो (असौ) वह (नीलग्रीवः) गले में नीलमणि बाँधे और (विलोहितः) विशेष रूप से लाल पोशाक पहने अथवा विविध गुणों और अधिकारों से उच्च पद को प्राप्त कर (अवसर्पति) निरन्तर आगे बढ़ा चला जाता है (एम्) उसको तो (गोपाः) गौओं के पालक गोपाल और (उदहार्यः) जल लानेवाली कहारियों तक भी (अदृश्रन्) देख लेती हैं और पहचानती हैं । (स) वह (दृष्टः) आँखों से देखा जाकर (नः मृडयाति) हम प्रजाजनों को सुखी करे ।
(6-7, -ब्रह्मध्यान में समाधि के अवसर के पूर्व ताम्र, अरुण, बभ्रु, नील व रक्त आदि वर्णों का साक्षात् होता है । उस आत्मा के ही आधार पर (रुद्रः) रोदनशील सहस्त्रों प्राणी आश्रित हैं । हम उनका अनादर न करें । क्योंकि उनमें वही चेतनांश हैं, जो हम में हैं । उसी आत्मा को नीलमणि के समान स्वच्छ, कान्तिमान अथवा लालमणि के समान विशुद्ध लोहित रूप से (गोपाः) इन्द्रिय-विजयी अभ्यासी जन और (उदहार्यः) ब्रह्मामृत रस का आस्वादन करने वाली चित्त भूमियें साक्षात् करती हैं, वह हमें सुखी करें । ईश्वर-पक्ष में- वह पापियों को पीड़ित करने से ‘ताम्र’, शरण देने से ‘अरुण’, पालन-पोषण करने से ‘बभ्रु’, सुखमय रूप से व्यापक होने से ‘सुमंगल’ है । समस्त (रुद्राः) बड़ी शक्तियाँ उसी पर आश्रित हैं । हम उनका अनादर न करें । वह प्रलयकाल में या भूतकाल में जगत को लीन करनेवाला होने से ‘नीलग्रीव’ है, भविष्य में विविध पदार्थों का निरन्तर उत्पादक होने से ‘विलोहित’ है । उसको संयमीजन और ब्रह्मरस-पायिनी ‘ऋतंभरा’ आदि चित्तवृत्तियाँ साक्षात् करती हैं । वह ईश्वर हमें सुखी करें ।
नीलग्रीवाः = नीलास्यः- यथा चूलिकोपनिषदि नीलास्यः ब्रह्मशायिने । अत्र दीपिका- लीनमास्यम् मुखं प्रवृत्तिद्वारं रागादि येषां तथोक्तः । तत्र नलयोर्वर्णविपर्ययश्छान्दसः-
यस्मिन् सर्वमिदं प्रोतं ब्रह्म स्थावर-जंगमम् ।
तस्मिन्नेव लयं यान्ति बुदबुदाः सागरे यथा ।।17।। चू0 आ0।।
टिप्पणी - व्यापक चेतनांश सबमें एक ही है ।
‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी।।’
(6) पृथिव्याऽअहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् ।
दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वर्ज्योतिरगामहम् ।।67।।
अथ 04।14।3; अ0 17 मन्त्र 67 खण्ड 1 पृष्ठ 470
(6) पृथिव्याऽअहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् ।
दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वर्ज्योतिरगामहम् ।।67।।
अथ 04।14।3; अ0 17 मन्त्र 67 खण्ड 1 पृष्ठ 470
भा0 - मैं अधिकार-प्राप्त राजा (पृथिव्याः) पृथिवी से अर्थात् पृथिवी निवासी प्रजागण से ऊपर (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष के समान सर्वाच्छादक, सब सुखों के वर्षकपद को वायु से समीप (आरुहम्) प्राप्त होऊँ और मैं (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष पद से (दिवम्) सूर्य के समान तेजस्वी, सर्वप्रकाशक, सर्वद्रष्टा, तेजस्वी विराट्पद पर (आरुहम्) चढ़ूँ । (नाकस्य) सर्वसुखमय (दिवः) उस तेजोमय (पृष्ठात्) सर्वपालक, सर्वोपरि पद से भी ऊपर (स्व) सुखमय (ज्योतिः) परम प्रकाश, ज्ञानमय ब्रह्मपद को भी (अहम्) मैं (अगाम्) प्राप्त करूँ । शत0 9।2।3।26।।
अध्यात्म में- योगी स्वयं मूलाधार से अन्तरिक्ष = नाभिदेश को और फिर शिरोदेश को जागृत कर वहाँ से सुख परमब्रह्म ज्योति को प्राप्त करता है ।
(7) ताँ् सवितुर्वरेण्यस्य चित्रामाहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम् ।
यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीनाँ् सहस्त्रधाराम्पयसा महीं गाम् ।।47।।
अ0 17 मन्त्र 74 खण्ड 1 पृष्ठ 744
(7) ताँ् सवितुर्वरेण्यस्य चित्रामाहं वृणे सुमतिं विश्व-
जन्याम् । यामस्य कण्वो अदुहत्प्रपीनाँ् सहस्त्र-
धाराम्पयसा महीं गाम् ।।47।।
अ0 17 मन्त्र 74 खण्ड 1 पृष्ठ 744
भा0 - (अहम्) मैं (वरेण्यस्य) सर्वश्रेष्ठ, सबों द्वारा वरण करने योग्य, उत्तम वरण योग्य पद पर ले जानेहारे (सवितुः) सूर्य के समान सबके प्रेरक, ऐश्वर्यवान राजा के (ताम्) उस (चित्रम्) अद्भुत (सुमतिम्) शुभज्ञानवाली (विश्वजन्याम्) समस्त प्रजाजनों में से बनाई गई, उनके हितकारी सभापति को (वृणे) स्वीकार करता हूँ । (याम्) जिस (प्रपीनाम्) अतिपुष्ट (सहस्त्रधाराम्) सहस्त्रों ज्ञानवाणियों या नियमधाराओं से युक्त अथवा सहस्त्रों ज्ञानों को धारण करनेवाली (पयसा) दूध से जिस प्रकार गौ, और अन्न से जिस प्रकार पृथिवी आदर योग्य होती है, उसी प्रकार (पयसा) वृद्धिकारी राष्ट्र के पुष्टिजनक उपायों से (महीम् गाम्) बड़ी भारी ज्ञानमयी, (याम्) जिस विद्वत् सभा को (कण्वः) मेधावी जन (अदुहन्) दोहते हैं, उससे वाद-विवाद द्वारा सारतत्त्व को प्राप्त करते हैं । श0 9।2।3।38।।
राजा रूप प्रजापति की यही अपनी ‘दुहिता’ गौ, राजसभा है, जिसे वह अपनी पत्नी के समान अपने आप उसका सभापति होकर उसको अपने अधीन रखता है । जिसके लिये ब्राह्मण ग्रन्थ में लिखा है-‘प्रजापतिः स्वां दुहितरमभ्यधावत् ।’ इत्यादि उसी को ‘दिव’ या ‘उषा’ रूप से भी कहा है, वस्तुतः यह राजसभा है। परमेश्वर के पक्ष में- सबसे श्रेष्ठ सर्वोत्पादक परमेश्वर की अद्भुत (विश्वजन्या) विश्व को उत्पन्न करनेवाली (सुमतिं) उत्तम ज्ञानवती (गाम्) वाणी को मैं (वृणे) सेवन करूँ । (याम् महीम् गाम्) जिस पूजनीय वाणी को सहस्त्रों धारवाली हृष्ट-पुष्ट गाय के समान (सहस्त्रों ‘धारा’, धारण सामर्थ्य या व्यवस्था-नियमोंवाली को (कण्वः अदुहत्) ज्ञानी पुरुष दोहन करता है; उससे ज्ञान प्राप्त करता है ।
परमेश्वर के पक्ष में टिप्पणी - ‘परमेश्वर की अद्भुत विश्व को उत्पन्न करनेवाली वाणी का मैं सेवन करूँ ।’ इसी वाणी वा शब्द वा नाद को ध्यानाभ्यास द्वारा भजने वा ग्रहण करने का आदेश सन्तलोग करते हैं ।
साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब, सोई सब्द गहि लीजै ।। टेक ।।
शब्दहि गुरू सब्द सुनि सिष भे, सब्द सो बिरला बूझै ।
सोइ सिष्य सोइ गुरू महातम, जेहि अन्तर गति सूझै ।।1।।
सब्दै बेद पुरान कहत है, सब्दै सब ठहरावै ।
सब्दै सुर मुनि सन्त कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै ।।2।।
सब्दै सुनि-सुनि भेष धरत है, सब्द कहै अनुरागी ।
षट दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी ।।3।।
सब्दै माया जग उतपानी, सब्दै केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ सब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।4।।
(कबीर साहब)
शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
सारी सृ्रष्टि शब्द कै पाछे । नानक शब्द घटै घटि आछे ।।
(गुरु नानक)
शब्दै बंध्या सब रहै, शब्दै सब ही जाइ ।
शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाइ ।।
शब्दैं ही सूषिम भया, शब्दैं सहज समान ।
शब्दैं ही निर्गुण मिलै, शब्दैं निर्मल ज्ञान ।।
एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगैं पीछे तौ करै, जे बल हीणा होइ ।।
(दादू दयाल)
(7) चत्वारि शृंगा त्रयोऽअस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्ता
सोऽअस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो
मर्त्याँ2ऽआविवेश ।।91।।
अ0 17 मंत्र 91 खण्ड 1 पृष्ठ 755
(7) चत्वारि शृंगा त्रयोऽअस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्ता
सोऽअस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो
मर्त्याँ2ऽआविवेश ।।91।।
अ0 17 मंत्र 91 खण्ड 1 पृष्ठ 755
भा0 - शब्द के पक्ष में- 4 सींग- नाम, आख्यात (क्रिया पद), उपसर्ग और निपात । तीन पद- भूत, भविष्यत् और वर्तमान । दो शिर- शब्द नित्य और अनित्य । सात हाथ- सात विभक्तियाँ । यह शब्द तीन स्थान पर बद्ध है - छाती में, कण्ठ में और शिर में । सुनने से सुख का वर्षण करता है । वह शब्द करता, उपदेश देता है और ध्वनि रूप होकर समस्त मरणधर्मा प्राणियों में विद्यमान है ।
(पतंजलि मुनि । व्याकरण महाभाष्य आ0 1)
(8) पुनन्तु मा पितरः सोम्यासः पुनन्तु मा पितामहाः ।
पुनन्तु प्रपितामहाः ।
पवित्रेण शतायुषा ।
पुनन्तु मा
पितामहाः पुनन्तु प्रपितामहाः ।
पवित्रेण शतायुषा
विश्वमायुर्व्यश्नवै ।। 37।।
अ0 19 मन्त्र 37 खण्ड 2 पृष्ठ 82
(8) पुनन्तु मा पितरः सोम्यासः पुनन्तु मा पितामहाः ।
पुनन्तु प्रपितामहाः । पवित्रेण शतायुषा । पुनन्तु मा
पितामहाः पुनन्तु प्रपितामहाः । पवित्रेण शतायुषा
विश्वमायुर्व्यश्नवै ।। 37।।
अ0 19 मन्त्र 37 खण्ड 2 पृष्ठ 82
भा0 - (सोम्यासः) ऐश्वर्य, राज्यकार्य में स्थित सोम राजा के समान शान्त और तेजस्वी (पितरः) पालक गुरु, आचार्य, विद्वान ऋत्विग और आदि पूज्य पुरुष (मा पुनन्तु) मुझे पवित्र करें । निन्दा योग्य, असत् आचार से छुड़ाकर सदाचार, शुद्ध व्यवहार में प्रवृत्त करावें । (पितामहाः मा पुनन्तु) पिता के पिता के समान पालकों के भी पालक, गुरुओं के गुरु, शासकों के भी शासक पुरुष मुझे पवित्र आचार व्यवहारवाला करें । (पितामहाः पुनन्तु) उनके पूज्य लोग भी मुझे पवित्र आचारवान बनावें । वे (पवित्रेण) पवित्र (शतायुषा) सौ वर्ष के पूर्ण दीर्घजीवनवाले आहार आदि से मुझे पवित्र करें । (पुनन्तु पिता0, पुनन्तु प्रपिता0 पवित्रेण शतायुषा) पूर्ववत् । जिससे मैं (विश्वम्) समस्त, सम्पूर्ण (आयुः) जीवन का (व्यश्नवै) भोग करूँ । (37-45) शत0 12 । 89।18।।
टिप्पणी - यह मन्त्र बड़े-बूढ़ों का आदर-सत्कार करने, उनसे प्रार्थना करने तथा इन आचरणों के फल का ज्ञान देता है ।
(9) प्राणाय स्वाहापानाय स्वाहा व्यानाय स्वाहा चक्षुषे
स्वाहा श्रोत्रय स्वाहा वाचे स्वाहा मनसे स्वाहा ।।23।।
अ0 22 मन्त्र 23 खण्ड 2 पृष्ठ 245
(9) प्राणाय स्वाहापानाय स्वाहा व्यानाय स्वाहा चक्षुषे
स्वाहा श्रोत्रय स्वाहा वाचे स्वाहा मनसे स्वाहा ।।23।।
अ0 22 मन्त्र 23 खण्ड 2 पृष्ठ 245
भा0 - (प्राणाय) भीतर से बाहर आनेवाला निःश्वास ‘प्राण’ है और (अपानाय) बाहर से भीतर जानेवाला उच्छ्वास अपान है । अथवा इससे विपरीत समझें । अथवा नाभि तक संचरण करनेवाला श्वासोच्छ्वास ‘प्राण’ है । नाभि से गुदा तक व्याप्त एवं नीचे की तरफ के मलों को बाहर करनेवाला बल ‘अपान’ है । इन दोनों को (स्वाहा) योग क्रिया से वश करना चाहिये । (व्यानाय स्वाहा) इसी प्रकार शरीर के शिर, बाहु, जंघा आदि अन्य अंगों में विद्यमान प्राण ही ‘व्यान’ है। उसका भी उत्तम रीति से ज्ञान और अभ्यास करना चाहिये । (चक्षुषे स्वाहा, श्रोत्राय स्वाहा) चक्षु को उत्तम रीति से देखने के कार्य में लगाओ एवं दर्शन शक्ति को उत्तम रीति से प्राप्त करो । श्रोत्र को गुरु के उपदेश में लगाओ और श्रवण शक्ति की वृद्धि करो । (वाचे स्वाहा, मनसे स्वाहा) वाणी का उत्तम रीति से प्रयोग करो और मन को उत्तम रीति से एकाग्र करो । शरीर में प्राण, अपान, व्यान, चक्षु, श्रोत्र, वाग् और मन को हृष्ट-पुष्ट करो । इसी प्रकार राष्ट्र शरीर के इन भागों को भी पुष्ट करो ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में दृष्टियोग और शब्दयोग; दोनों साधनों के करने का आदेश दिया गया है ।
(10) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। 2।।
अ0 30 मन्त्र 2 खण्ड 2 पृष्ठ 489
(10) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। 2।।
अ0 30 मन्त्र 2 खण्ड 2 पृष्ठ 489
भा0 - (सवितुः देवस्य) सर्वोत्पादक सर्वप्रेरक और सबके प्रकाशक प्रभु, परमेश्वर के (वरेण्यम्) सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करने वाले एवं सबों से वरण करने योग्य, सर्वोत्तम (भर्गः) पापों के भून डालनेवाले तेज का हम (धीमहि) ध्यान करते हैं । (यः) जो (नः) हमारे (धियः) बुद्धियों, कर्मों और स्तुति-वाणियों को (प्रचोदयात्) उत्तम मार्ग से प्रेरित करे । शत0 13।6।2।9।।
टिप्पणी - इस मन्त्र में ज्योतिर्ध्यान का महत्त्व कहा गया है । सन्तलोग भी इस ध्यान का ऐसा ही महत्त्व वर्णन करते हैं ।
‘जोति लाय जगदीश जगाया बूझे बूझनहारा ।’
‘कबीर कमल प्रकाशिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अँधेरी मिट गई, बाजै अनहद तूर ।।’
(कबीर साहब)
‘अंतरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा1।’
‘प्रगटी जोति जोति महि जाता2 मनमुखि भरमि भुलाणी ।।’
(गुरु नानक)
[1. करंमा (फारसी) कररम = दयादान । 2. जाता (पंजाबी) = जाना, ज्ञान प्राप्त किया ।]
‘निरमल जोत जरत घट माँही । देखत दृष्टि दोष सभ छीजै ।।’
(तुलसी साहब)
‘तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम्।’
(तेजोविन्दूपनिषद्)
अर्थ - हृदय स्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है ।
(11) ।।ओ3म्।। सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।
स भूमिं सर्वतः स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाघ्गुलम् ।।1।।
अ0 31 मन्त्र 1 खण्ड 2 पृष्ठ 520
(12) पुरुषऽएवेदँ् सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।2।।
अ0 31 मन्त्र 2 खण्ड 2 पृष्ठ 522
(13) ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः ।
स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।। 5।।
अ0 31 मन्त्र 5 खण्ड 2 पृष्ठ 525
(11) ।।ओ3म्।। सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।
स भूमिं सर्वतः स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाघ्गुलम् ।।1।। अ0 31 मन्त्र 1 खण्ड 2 पृष्ठ 520
भा0 - (सहस्त्रशीर्षाः) हजारों, असंख्य शिरोंवाला; (सहस्त्राक्षः) हजारों, अनन्त आँखोंवाला (सहस्त्रपात्) हजारों, अनन्त पैरोंवाला (पुरुषः) ‘पुरुष’ सर्वत्र पूर्ण जगदीश्वर है । वह (भूमिम्) सबको उत्पन्न करनेवाली भूमि के समान सर्वाश्रय प्रकृति को (सर्वतः) सब प्रकार (स्पृत्वा) व्याप कर (दशांगुलम्) और भी दश अंगुल अर्थात् दश अंग विकार महत् आदि या पृथिवी आदि स्थूल और सूक्ष्म भूतों का (अतिष्ठत्) अतिक्रमण करके, उनमें भी व्याप्त होकर उनसे भी अधिक शक्तिमान अध्यक्ष होकर विराजता है ।
(12) पुरुषऽएवेदँ् सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।2।।
अ0 31 मन्त्र 2 खण्ड 2 पृष्ठ 522
भा0 - (पुरुषः एव) वह जगत में पूर्ण व्यापक परमेश्वर ही (यत् भूतम्) जो जगत उत्पन्न है (यत् च) और जो (भाव्यम्) भविष्य में उत्पन्न होगा और (यत्) जो (अन्नेन) भोग्य अन्न के समान भोग्य कर्मफल से स्वयं (अतिरोहति) शरीर, स्थावर-जंगम रूप पृथिव्यादि पर उत्पन्न होता (इदं सर्वम्) इस सबका (उत) और (अमृतत्वस्य) अमृतत्व, मोक्ष या सत्, अविनाशी स्वरूप का (ईशानः) स्वामी, परमेश्वर है । वही सब कुछ रचता है ।
टिप्पणी - सब कुछ के अन्दर प्रकृति भी होनी चाहिए ।
(13) ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः ।
स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।। 5।।
अ0 31 मन्त्र 5 खण्ड 2 पृष्ठ 525
भा0 - (ततः) उस पूर्ण पुरुष परमेश्वर से (विराट् अजायत) विराट् अर्थात् विविध पदार्थों, नाना सूर्यादि लोकों से प्रकाशमान ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ । (विराजः अधि) उस विराट् के भी ऊपर अधिष्ठाता रूप से (पूरुषः) पुर में बसनेवाले स्वामी के समान उस ब्रह्माण्ड को पूर्ण करनेहारा व्यापक परमेश्वर ही था । (सः) वह (पुरः) सबसे पूर्व विद्यमान रहकर (जातः) कार्य-जगत में शक्ति रूप से प्रकट होकर भी (अति अरिच्यत) उससे भी कहीं अधिक बड़ा है । (पश्चात्) पीछे से वह (भूमिम्) प्राणियों और वृक्षादि को उत्पन्न करनेवाली भूमि को उत्पन्न करता है ।
अथवा- (स जातः अति अरिच्यत) वह प्रादुर्भूत होकर भी उस जगत से पृथक रहा और (सः पश्चाद्) वह पीछे (भूमिम् अथोपुरः) भूमि और जीवों के शरीरों को उत्पन्न करता है ।
(14) वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था
विद्यतेऽयनाय ।।18।।
अ0 31 मन्त्र 18 खण्ड 2 पृष्ठ 531
(15) प्रजापतिश्चरति गर्भेऽअन्तरजायमानो बहुधा
विजायते ।
तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह
तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।19।।
अ0 31 मन्त्र 19 खण्ड 2 पृष्ठ 532
(14) वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः पर-
स्तात् । तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था
विद्यतेऽयनाय ।।18।।
अ0 31 मन्त्र 18 खण्ड 2 पृष्ठ 531
भा0 - (अहम्) मैं (एतम्) उस (महान्तम्) बड़े भारी (पुरुषम्) ब्रह्माण्ड भर में व्यापक पूर्ण परमेश्वर को (आदित्यवर्णम्) सूर्य के समान तेजस्वी और (तमसः) अन्धकार के (परस्तात्) दूर विद्यमान (वेद) जानता और साक्षात् करता हूँ । (तम्) उसको ही (विदित्वा) जानकर (मृत्युम् अति एति) मृत्यु को पार कर जाता है । (अन्यः) दूसरा कोई (पन्थाः) मार्ग (अयनाय) अभीष्ट मोक्ष स्थान को प्राप्त करने के लिये (न विद्यते) नहीं है ।
(15) प्रजापतिश्चरति गर्भेऽअन्तरजायमानो बहुधा
विजायते । तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह
तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।19।।
अ0 31 मन्त्र 19 खण्ड 2 पृष्ठ 532
भा0 - (प्रजापतिः) वह समस्त प्रजा का पालक (गर्भ अन्तः) गर्भ, गर्भस्थ जीवात्मा में भी अथवा - हिरण्यगर्भ के भीतर व्यापक होकर (चरति) विचरता है, विद्यमान है । वह (अजायमानः) स्वयं कभी उत्पन्न न होता हुआ भी (बहुधा) बहुत प्रकारों से (विजायते) विविध रूपों से प्रकट होता है । (तस्य, उसके (योनिम्) परम कारणस्वरूप को (धीराः) धीर, ध्याननिष्ठ योगिजन ही (परिपश्यन्ति) भली प्रकार देखते साक्षात् करते हैं । (तस्मिन् ह) उस सबके मूल कारण परमेश्वर में ही (विश्वाभुवनानि) समस्त भुवन, नाना ब्रह्माण्ड एवं सूर्यादि लोक (तस्थुः) स्थित हैं । वे सब उसी के आश्रय पर ठहरे हैं ।
(16) प्रातरगि्ंन प्रातरिन्द्रँ् हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा
प्रातरश्विना । प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः
सोममुत रुद्रँ्हुवेम ।।34।।
ऋ0 7।41।1; अ0 34 मन्त्र 34 खण्ड 2 पृष्ठ 639
।। इति यजुर्वेदः ।।
(16) प्रातरगि्ंन प्रातरिन्द्रँ् हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा
प्रातरश्विना । प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः
सोममुत रुद्रँ्हुवेम ।।34।।
ऋ0 7।41।1; अ0 34 मन्त्र 34 खण्ड 2 पृष्ठ 639
भा0 - (प्रातः) जब पाँच घड़ी रात्रि रहे तब प्रभात वेला में, प्रातःकाल, हमलोग (अगि्ंन हवामहे) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर का स्मरण करें । और ज्ञानवान आचार्य को नमस्कार करें । (प्रातः इन्द्रम्) प्रातःकाल में हम उस समस्त ऐश्वर्यों के दाता परमेश्वर का स्मरण करें और परम ऐश्वर्य को प्राप्त करें । अथवा आत्मा और ज्ञान के द्रष्टा आचार्य की उपासना करें । (प्रातः मित्रावरुणा हवामहे) प्रातःकाल के समय ही हमलोग मित्र अर्थात् प्राण के समान सबके स्नेहकारी, जीवनप्रद, प्रिय और वरुण अर्थात् अपान के समान सर्वमलनाशक और शक्तिमान परमेश्वर की उपासना करें । इसी प्रकार प्रातःकाल हमलोग प्राण और अपान की साधना प्राणायाम द्वारा करें । प्रातःकाल हमलोग मित्र स्नेही और श्रेष्ठ पुरुष को नमस्कार आदि सत्कार करें । (प्रातः अश्विना) माता-पिता को प्रातः नमस्कार करें । सूर्य, द्यौ और पृथ्वी, दिन और रात्रि के उत्पादक परमेश्वर की भी प्रातः उपासना करें । (भगम्) सबके सेवन करने योग्य, (पूषणम्) सबके, (ब्रह्मणस्पतिम्) वेद और ब्रह्माण्ड के पालक परमेश्वर और ब्रह्म अन्न, बल, यश और ज्ञान के पालक विद्वान तेजस्वी पुरुष की ( प्रातः) प्रातःकाल दिन के पूर्व भाग में, सब कार्यों से प्रथम (सोमम्) सबके अन्तर्यामी, प्रेरक, (उत) और रुद्रम्) पापियों के रुलानेहारे एवं सर्वरोगनाशक, सर्वज्ञानोपदेशक परमेश्वर की हम प्रातःकाल उपासना करें और इसी प्रकार विद्वान रोगहारी वैद्य और ज्ञानी विद्वानों का संग भी प्रातःकाल सर्व कार्यों के प्रथम करें ।
प्रातःकाल ही (सोम) सोम आदि औषधियों का सेवन और (रुद्र) जीव आत्मा का चिन्तन भी प्रातःकाल ही किया करें । (महर्षि दयानन्द) ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में प्रातःकाल संध्या करने की, गुरु की उपासना या ध्यान करने की तथा पूज्यजनों का आदर और उनको प्रणाम करने की आज्ञा दी गई है ।
।। इति यजुर्वेदः ।।