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सामवेद संहिता
01. आग्नेय काण्डम्
( वेदवाणी के अतिरिक्त मनुष्य-वाणियों में ईश्वर की स्तुति)

(7)
(1) एह् यू षु ब्रवाणि तेऽग्ने इत्थेतरा गिरः ।
एभिर्वर्धास इन्दुभिः।। 7।।
ऋ0 6। 16।16, प्र0 1 (1) द0 1 अ0 1 खण्ड 1। 7 पृष्ठ 3

01. आग्नेय काण्डम् ( वेदवाणी के अतिरिक्त मनुष्य-वाणियों में ईश्वर की स्तुति)
(7)
(1) एह् यू षु ब्रवाणि तेऽग्ने इत्थेतरा गिरः ।
एभिर्वर्धास इन्दुभिः।। 7।।
ऋ0 6। 16।16, प्र0 1 (1) द0 1 अ0 1 खण्ड 1। 7 पृष्ठ 3
भा0 - हे अग्ने! हे प्रकाशस्वरूप! आ तेरे लिये इस प्रकार की वैदिक सत्य वाणियों और उनसे दूसरी लौकिक वा वेदवाणी से अतिरिक्त, मनुष्य-वाणियों को मैं तेरी स्तुति में कहूँ । इन परम ऐश्वर्यों से तू महिमा में बड़ा है । ईश्वर अपने सामर्थ्य, ज्ञान और गुणों द्वारा सबसे बड़ा है, वैदिक और लौकिक सब वाणियाँ उसकी ही स्तुति करती हैं ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में सब प्रकार की भाषाओं में परमात्मा की स्तुति करने की आज्ञा है ।

02. समस्त उत्पन्न पदार्थों में परमात्मा का निवास

(40)
(2) अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य ।
आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ।। 6।।
ऋ0 1। 44, 1। 1580; प्र0 (1) द0 4 अ0 1 खण्ड 4। 6 पृष्ठ 15

(40)
(2) अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य । आ दाशुषे
जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ।। 6।।
ऋ0 1। 44, 1। 1580; प्र0 (1) द0 4 अ0 1 खण्ड 4। 6 पृष्ठ 15
भा0 - हे अग्ने! तू उषा का वास करने योग्य, विविध सुखों ऐश्वर्यों का साधक एवं स्वामी यज्ञादि परोपकार करनेवाले पुरुष को नाना प्रकार का ज्ञान प्राप्त करा । हे मरण-रहित नित्य! हे समस्त पदार्थों में निवास करनेवाले, सबको जाननेवाले वेदों के मूल कारण, तू आज सूर्योदय के साथ जागने एवं पापनाशक ज्ञानोदय से ज्ञानसम्पन्न एवं जागृत होनेवाले प्रकाशकिरणों के तुल्य इन्द्रियगण व विद्वानों को इस दाता मनुष्य के हितार्थ प्राप्त करा ।
टिप्पणी - सब उत्पन्न पदार्थों में परमात्मा व्यापक है, इस मन्त्र में ऐसा कहा गया है । परमात्मा प्रकृति में भी व्यापक है । इसलिए प्रकृति भी उत्पन्न पदार्थों में ही है ।


03. प्राण-अपान रूप आहुति 

(82)
(3) यदि वीरो अनुष्यादग्निमिन्धीत मर्त्यः ।
आजुह्वद्वव्यमानुषक् शर्मं भक्षीत दैव्यम् ।। 2।।
ऋग्वेदे नास्ति ।
प्र0 1 (2) द0 9 अ01 खण्ड 9।2 पृष्ठ 37


(82)
(3) यदि वीरो अनुष्यादग्निमिन्धीत मर्त्यः । आजुह्वद्वव्य-
मानुषक् शर्मं भक्षीत दैव्यम् ।। 2।। ऋग्वेदे नास्ति ।
प्र0 1 (2) द0 9 अ01 खण्ड 9।2 पृष्ठ 37

भा0 - जब मरणधर्मा पुरुष ब्रह्मचर्य से वीर्यवान सामर्थ्यवान हो, तब वह अग्नि के तुल्य प्रकाशस्वरूप परमेश्वर की उपासनार्थ यज्ञ में अग्नि को प्रदीप्त करे, उसे अपने अन्तरात्मा में भी जगावे और निरन्तर प्राण-अपान रूप आहुतियों को उसमें समर्पण करे । देव परमेश्वर से प्राप्त होने योग्य सुख और शान्ति का सेवन करे ।
टिप्पणी - प्राण-अपान रूप आहुतियों की अन्तरात्मा में आहुति देने की आज्ञा इस मन्त्र में है, यह सर्वोत्तम हवन है ।


04. (ऐन्द्रकाण्डम्)
परमात्मा अवाङ्मनसगोचर

(142)
(4) क्व 3 स्य वृषभो युवा तुविग्रीवो अनानत । ब्रह्मा कस्तं सपर्यति ।। 8 ।।
अ0 8।64। 7, प्र0 2 (1) द0 5 अ0 2 खंड 3।8 पृष्ठ 61


(142)
(4) क्व 3 स्य वृषभो युवा तुविग्रीवो अनानत । ब्रह्मा कस्तं सपर्यति ।। 8 ।।
अ0 8।64। 7, प्र0 2 (1) द0 5 अ0 2 खंड 3।8 पृष्ठ 61

भा0 - इन्द्रिय-रूप गौओं में सर्वश्रेष्ठ, मेघ के समान सुखों का वर्षक, सदा अजर किसी के आगे न झुकनेवाला, अनेक गर्दनों वाला, सहस्त्र शिरोंवाला वह कहाँ है ? उसको कौन, ब्रह्म को जाननेवाला विद्वान पूजा करता है । हे ज्ञानी पुरुषो! तुम उस ‘अप्रतर्क्य’, अवाघ्मनसगोचर सहस्त्रशीर्षा पुरुष की विवेचना करो और उसके सच्चे उपासक ब्रह्मज्ञानी की पहचान करो । इन्द्र बहुग्रीव किस प्रकार है ?
सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके
सर्वमावृत्य तिष्ठति इति मा वि0 । तुवीतिः बहुपर्यायः ।
(नि0 3।1।3)
अनेक वक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ।।
सहस्त्रशीर्षाः पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।
(यजु0 3।11)

05. ध्यान लगाने का स्थान

(143)
(5) उपह्वरे गिरीणां समिे च नदीनाम् ।
धिया विप्रो अजायत ।। 9 ।।
ऋ0 8।6।28, प्र0 2 (1) द0 5। 9 अ0 2 खण्ड 4 पृष्ठ 62

(143)
(5) उपह्वरे गिरीणां समिे च नदीनाम् । धिया विप्रो
अजायत ।। 9 ।।
ऋ0 8।6।28, प्र0 2 (1) द0 5। 9 अ0 2 खण्ड 4 पृष्ठ 62

भा0 - पर्वतों के गम्भीर प्रान्त में और नदियों के संगम स्थान पर, ज्ञान और कर्म के अभ्यास से मेधावी पुरुष तैयार हुआ करता है । आत्मा के पक्ष में - गिरि मेरुदण्ड के पोरुओं के समीप और इड़ा, पिंगला और सुषुम्ण; इन नाड़ियों के संगम स्थान त्रिकुटी में ध्यान लगाने से दिव्य ज्ञानवान पुरुष सिद्ध हो जाता है ।

06. जल में जल की भाँति परमात्मा में जीवात्मा का मिलन

(406)
(6) अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे ।
उदेव ग्मन्त उदभिः ।।8।।
ऋ0 8।98।4; प्र0 5 (1) द0 2 अ0 4 खण्ड 68 पृष्ठ 165

(406)
(6) अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे ।
उदेव ग्मन्त उदभिः ।।8।।
ऋ0 8।98।4; प्र0 5 (1) द0 2 अ0 4 खण्ड 68 पृष्ठ 165
भा0 - हे आत्मन्! प्रभो! हे वाणियों से प्राप्त होनेहारे ! जिस प्रकार जल अन्य जलों में मिल जाते हैं, उसी प्रकार हम अपनी कामनाओं द्वारा तेरे पास आते हैं और तेरे साथ मिल जाते हैं ।
टिप्पणी - ‘-142,’ के मन्त्रार्थ में ब्रह्म को ‘अप्रतर्क्य’ ‘अवाघ् मनसगोचर’ कहा है, और कठोपनिषद् अ0 1, वल्ली 2 में है -
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ् स्वाम् ।।23।।
भा0 - यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है । यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है, उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है ।
इसलिए जिस वाणी से ‘आत्मा! प्रभु!’ प्राप्त होनेवाले हैं, वह अवश्य ही ध्वन्यात्मक अनाहत नाद होना चाहिये । और जिस तरह जल अन्य जल से मिल जाता है, उसी तरह जीव ब्रह्म में मिल जाता है । सन्तलोग भी ऐसा ही कहते हैं-
जौं जल में जल पैठ न निकसे, यों ढुरि मिला जुलाहा ।
(कबीर साहब)
जल तरंग ज्यों जलहिं समाइआ त्यों जोती संगि जोति मिलाइआ ।
(गुरु नानक) 

07. आत्मा की सत्यस्वरूप प्रियवाणी

(421)
(7) महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती ।
यथा चिन् नो अबोधयः सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ।। 3।।
ऋ0 5। 79। 9; प्र0(1) द0 4 अ04 खंड 8। 3 पृष्ठ 171

(421)
(7) महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती । यथा
चिन् नो अबोधयः सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्व-
सूनृते ।। 3।।
ऋ0 5। 79। 9; प्र0(1) द0 4 अ04 खंड 8। 3 पृष्ठ 171

भा0 - हे आत्मा की सत्यस्वरूप प्रियवाणि! हे उत्तम रूप से प्रकट होनेवाली! विस्तृत ज्ञान और प्रकाश से सम्पन्न, हे सब पापों के दहन करनेहारी । सत्य वेदज्ञान में जिस प्रकार हे ज्योतिःस्वरूपा! तू बड़े भारी दिव्य धन, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिये आज हमें जगा, ज्ञानवान कर ।
टिप्पणी - ‘आत्मा की सत्यस्वरूप प्रियवाणी’ को ही सन्तगण, सत्यनाम, सत्यशब्द, सारशब्द आदि कहते हैं । यह ध्वन्यात्मक अनाहत नाद है । इस मन्त्र में इस सत्यवाणी सत्यशब्द की स्तुति है । ऐसे ही श्रीशंकराचार्यजी महाराज ने भी इस वाणी की स्तुति की है -

नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।
(योगतारावली)
अर्थ - हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन- ये दोनों विष्णु के परमपद में लीन हो जायेंगे ।
सत्यस्वरूप आत्मा की प्रियवाणी, उत्तम रूप से प्रकट होने वाली, विस्तृत ज्ञान और प्रकाश से सम्पन्न, सब पापों के दहन करनेहारी, ज्योतिःस्वरूपा और ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के लिये जगानेवाली कहकर आत्मा की प्रियवाणी का गुणानुवाद किया गया है ।

08. (तिस्त्रो वाच) तीन वेद
(अथ पवमान-काण्डम्)

(471)

(8) तिस्त्रो वाच उदीरते गावो मिमन्ति धेनवः ।
हरिरेति कनिक्रदत् ।। 5।।
ऋ0 9।33 । 4 प्र0 5 (2) द0 9। 5 अ0 5 खंड 1 पृष्ठ 190

(471)

(8) तिस्त्रो वाच उदीरते गावो मिमन्ति धेनवः । हरिरेति
कनिक्रदत् ।। 5।।
ऋ0 9।33 । 4 प्र0 5 (2) द0 9। 5 अ0 5 खंड 1 पृष्ठ 190

भा0 - दुधार गौएँ अपना दूध देने के लिये हंभारती हैं, उसी प्रकार तीनों वेद संहिताएँ ज्ञान और कर्म का रसपान कराने के लिए अभिप्राय प्रकट करती हैं । सर्वव्यापक जगदीश्वर एवं विद्वान उपदेश करता हुआ, ज्ञानवर्षक रूप से हमें प्राप्त होता है ।

टिप्पणी - इसमें केवल तीन ही वेदों का वर्णन है ।

09. ज्योति का साक्षात्कार

(484)

(8) पवमानो अजीजनत् दिवश्चित्रं न तन्यतुम् । ज्योतिर्वैश्वानरं बृहत् ।
ऋ0 9।61।16; प्र0 5 (2) द0 10। 8 अ0 5 खण्ड 3 पृष्ठ 194

(484)

(8) पवमानो अजीजनत् दिवश्चित्रं न तन्यतुम् । ज्योतिर्वैश्वानरं बृहत् ।
ऋ0 9।61।16; प्र0 5 (2) द0 10। 8 अ0 5 खण्ड 3 पृष्ठ 194

भा0 - जिस प्रकार बहता वायु आकाश में व्यापक, संचित होने योग्य, विशाल ज्योतिर्मय विद्युत् अग्नि को संघर्ष द्वारा प्रकट करता है, उसी प्रकार अन्तःकरण और बुद्धितत्त्व को विमल करने वाला साधक, योगी सूर्य के समान द्युर्लोक, मूर्धा के विचित्र, आदर योग्य सब नरों में व्यापक, विशाल आत्मरूप प्रकाश को प्रकट करता है, उसे साक्षात् करता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में ज्योति के साक्षात् करने का आदेश है । 

10. अनाहत नाद को कौन नहीं प्राप्त कर सकता

(553)

(10) प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः ।
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ।। 9 ।।
ऋ0 9।101। 13, प्र0 6 (2) द0 6 अ05 खंड 8। 9 पृष्ठ 223

(553)

(10) प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः ।
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ।। 9 ।।
ऋ0 9।101। 13, प्र0 6 (2) द0 6 अ05 खंड 8। 9 पृष्ठ 223

भा0 - अज्ञान अन्धकार के नाश करनेवाले परमानन्द स्वरूप सोम को उत्पन्न करनेहारे साधक के लिये प्रकट हुई सोम की अनाहत वाणी को साधारण मरणधर्मा पुरुष जिसको अमृत, सोमरस प्राप्त नहीं हुआ, वह नहीं प्राप्त कर सकता । भृगु अर्थात् ज्ञानाग्नि से अज्ञान और पाप को भून डालनेवाले ज्ञानी लोग जिस प्रकार कर्मकाण्ड को दूर कर देते हैं, उसी प्रकार साधना न करनेहारे, कर्मफल के लोभी, कुक्कुर के समान, भोगों को पुनः चाहनेवाले, वान्ताशी चित्त को भी मार भगाओ ।
टिप्पणी - जिसको अमृत सोमरस प्राप्त नहीं हुआ, वह सोम की अनाहत वाणी को नहीं प्राप्त कर सकता ।

सोम = चन्द्र = प्रकाश = प्रकाशरूप चेतनधार । सोम की अनाहत वाणी=चेतनधार स्वरूप । अनाहत वाणी=सत्यशब्द । अमृत = चेतन, चेतन मरण-धर्मा नहीं है । अमृत सोमरस = चेतन-प्रकाश का स्वाद ।

श्रीजावालदर्शनोपनिषद् में लिखा है -
नासाग्रे शशभृद्बिम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम् ।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्राभ्यां सुसमाहितः ।।

अर्थ - नाक के आगे चन्द्रबिम्ब विन्दु के मध्य में उस तुरीय और चूते हुए अमृत को अच्छी तरह समाधिस्थ होकर आँखों से देखे । 

11. ब्रह्मानन्द के मधुर रस से पूर्ण अनाहत नाद

(556)

(11) एष प्र कोशे मधुमाँ अचिक्रददिन्द्रस्यवज्रो वपुषो वपुष्टमः ।
अभ्य6 तस्य सुदुधा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसा च धेनवः ।। 3 ।।
ऋ0 9।77।1, प्र0 6 (2) द0 7 अ05 खंड 9। 3 पृष्ठ 225

(556)

(11) एष प्र कोशे मधुमाँ अचिक्रददिन्द्रस्यवज्रो वपुषो
वपुष्टमः । अभ्य6 तस्य सुदुधा घृतश्चुतो वाश्रा
अर्षन्ति पयसा च धेनवः ।। 3 ।।
ऋ0 9।77।1, प्र0 6 (2) द0 7 अ05 खंड 9। 3 पृष्ठ 225

भा0 - यह सोम आत्मा के वज्र के समान सब विघ्नों और पापों का नाशक, बीजों को वपन करनेहारे से भी अधिक श्रेष्ठ बीज वपन करनेवाला, वीर्यवान हृदय-कोश, आभ्यन्तर मनोमय कोश के बीच में ब्रह्मानन्द के मधुर रस से पूर्ण उत्कृष्ट रूप से अनाहत नाद उत्पन्न करता है ।
जिस प्रकार हम्भारव करती हुई उत्तम दूध देनेहारी, दूध पिलानेवाली गौएँ दूध से धाराएँ बहाती हैं, उसी प्रकार ये कान्ति की धाराएँ बहानेवाले, ज्ञान के दोहनेवाले परमानन्द रस की धाराएँ हृदय में वाणी रूप से क्षरित होती हैं, प्रकट होती हैं । 

12. अनाहत नाद करनेवाली धाराएँ

(558)

(12) धर्त्ता दिवः पवते कृतव्यो रसो दक्षो देवानामनुमाद्यो नृभिः ।
हरिः सृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुषे नदीष्वा ।। 5।।
ऋ0 9।76।1; प्र0 6 (2) द0 7। 5अ0 5 खण्ड 9 पृष्ठ 226

(558)

(12) धर्त्ता दिवः पवते कृतव्यो रसो दक्षो देवानामनुमाद्यो नृभिः ।
हरिः सृजानो अत्यो न सत्वभिर्वृथा पाजांसि कृणुषे नदीष्वा ।। 5।।
ऋ0 9।76।1; प्र0 6 (2) द0 7। 5अ0 5 खण्ड 9 पृष्ठ 226

भा0 - द्यौलोक के समान देह में मूर्धाभाग या प्रकाश रूप सूर्य या ज्ञान का धारण करनेवाला योग साधनों द्वारा उत्तम रूप से ज्ञान करने योग्य, आनन्द रस देवों, इन्द्रियों और विद्वानों का बलदाता, मनुष्यों द्वारा हर्ष प्राप्त करने योग्य, अश्व या आत्मा के समान सात्त्विक विभूतियों द्वारा अपनी अनाहत नाद करनेवाली धाराओं में, नदियों में जल के समान बिना प्रयत्न के स्वभावतः नाना प्रकार के बल प्रकट करता है । 

13. उत्तरार्चिकः
(‘सोऽहं’ या ‘ओं’ अन्त नाद:)

(760)

(13) दुहानः प्रत्नमित् षयः पवित्रे परि षि्ाच्यसे ।
क्रन्दं देवाँ अजीजनः ।। 3 ।।
ऋ0 9।42।2, प्र0 1 (2) अ0 2 खंड 5 सू0 17। 3 पृष्ठ 295





(760)

(13) दुहानः प्रत्नमित् षयः पवित्रे परि षि्ाच्यसे ।
क्रन्दं देवाँ अजीजनः ।। 3 ।।
ऋ0 9।42।2, प्र0 1 (2) अ0 2 खंड 5 सू0 17। 3 पृष्ठ 295

भा0 - हे सोम! पुराने, अनादि काल से चले आये प्राण, जीवन को ही रस या जीवन रूप में प्राप्त करता हुआ तू पवित्र करनेहारे प्राण और अपान युक्त देह में या परम पावन ज्ञान के द्वारा ही पवित्र किया जाता है, वृद्धि को प्राप्त होता है । शब्द करता हुआ अर्थात् ‘सोऽहं’ अन्त या ‘ओं’ का अन्त नाद करता हुआ, प्राण बल से तू इन्द्रियगण को प्रकट करता है ।





14. ब्रह्म का घोष मेघगर्जन के तुल्य

(864)

(14) शृण्वे वृष्टिेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।। 3 ।।
प्र0 3 (1) सू0 3 अ0 5 खंड 1। 3 पृष्ठ 336

(864)

(14) शृण्वे वृष्टिेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।। 3 ।।
प्र0 3 (1) सू0 3 अ0 5 खंड 1। 3 पृष्ठ 336

भा0 - जैसे आकाश में बिजलियाँ चलती हैं, उसी प्रकार जब आत्मा या ब्रह्मानन्द-रस की विशेष कान्तियाँ, दीप्तियाँ, समस्त संसार में या मूर्धा रूप ब्रह्माण्ड में वेग से गति करती हैं, तब अति बलवान अन्तःकरण को पवित्र करनेहारे और आनन्द का वर्षण करनेहारे व्यापक ब्रह्म का घोष मेघ के गर्जन के समान सुनता हूँ । धर्म मेघ समाधि के अवसर में अनाहत आत्मरूप पर्जन्य ध्वनि का यह वर्णन है ।  

15. अनाहत नाद के अभ्यास से प्राणवायु को वश करना

(921)

(15) पवमान धिया हितोऽभियोर्नि कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमारुहः ।।3।।
ऋ0 9।25।1,3,2; प्र0 3 (1) सू 10 अ0 5 खण्ड 43 पृष्ठ 345

(921)

(15) पवमान धिया हितोऽभियोर्नि कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमारुहः ।।3।।
ऋ0 9।25।1,3,2; प्र0 3 (1) सू 10 अ0 5 खण्ड 43 पृष्ठ 345

भा0 - हे आत्मन्! ध्यान के बल से अपने मूलस्थान, आश्रय, हृदयदेश में स्थिर होकर मेघवत् अनाहत नाद या ईश्वर की स्तुति करता हुआ अपने धारक प्रयत्न द्वारा प्राणवायु पर वश कर ।
टिप्पणी - अनाहत नाद के ध्यानाभ्यास-द्वारा प्राणवायु पर वश्यता होती है ।


16. सर्वदर्शी परमात्मा नाद करता हुआ देह में व्याप्त है

(1032)

(16) अभिक्रन्दन् कलशं वाज्यर्षति पतिर्दिवः शतधारो विचक्षणः ।
हरिर्मित्रस्य सदनेषु सीदति मर्मृजानो ऽविभिः सिन्धुभिर्वृषा ।। 2 ।।
प्र0 4 (1) सू0 1 अ0 7 खण्ड 1। 2 पृ0 382

(1032)

(16) अभिक्रन्दन् कलशं वाज्यर्षति पतिर्दिवः शतधारो
विचक्षणः । हरिर्मित्रस्य सदनेषु सीदति मर्मृजानो
ऽविभिः सिन्धुभिर्वृषा ।। 2 ।।
प्र0 4 (1) सू0 1 अ0 7 खण्ड 1। 2 पृ0 382

भा0 - सर्वशक्तिमान, ऐश्वर्यवान, द्यौलोक का या सूर्यादि व प्राण-इन्द्रिय आदि दिव्य पदार्थों का भी परिपालक, उनको नाश होने से बचानेवाला स्वामी, सैकड़ों धारण-शक्तियों और वाणियों से युक्त, समस्त संसार को देखनेवाला नाद करता हुआ, गर्जता हुआ कलश जीवधारियों के देह में आत्मा के समान व्याप्त रहता है । और वही सबके कष्टों और तापों को हरनेवाला सबको गति देनेहारा अपने स्नेह पात्र आत्मा के निवास-गृह, देहों में भी व्यापक हो विराजता है । वही सब सुखों का वर्षक विषयों के प्रति द्रुतगति से जानेवाली तन्मात्राओं या इन्द्रियों या प्राण शक्तियों द्वारा, बार-बार शोधा, साक्षात् परिष्कृत किया जाता है ।
टिप्पणी - परमात्मा नाद करता हुआ, गर्जता हुआ जीवधारियों के शरीर में व्याप्त रहता है, से विदित होता है कि परमात्मा के समान उसका गर्जन या नाद भी सबमें व्यापक है । जो कोई इस नाद को अपने अन्दर में पकड़ेगा, वह परमात्मा के स्वरूप तक पहुँचेगा; क्योंकि नाद वा शब्द अपने उद्गम स्थान पर खींचकर पहुँचा देता है ।
साहब कबीर सदा के संगी शब्द महल ले आवै ।। 

17. व्यापक आत्मा अनाहत रूप से नाद करता है

(1080)

(17) पुनानो वारे पवमानो अव्यये वृषो अचिक्रददवने ।
देवानां सोम पवमान निष्कृतं गोभिरंजानो अर्षसि ।। 2।।
ऋ 09। 107। 21, 22 प्र0 4 (1) अ0 7 खंड 4 सू0 12।2 पृष्ठ 395

(1080)

(17) पुनानो वारे पवमानो अव्यये वृषो अचिक्रददवने ।
देवानां सोम पवमान निष्कृतं गोभिरंजानो अर्षसि ।। 2।।
ऋ 09। 107। 21, 22 प्र0 4 (1) अ0 7 खंड 4 सू0 12।2 पृष्ठ 395
भा0 - प्राणमय या कर्ममय आवरण में से पवित्र होता हुआ, व्यापक आत्मा सुखों का वर्षक होकर इस ब्रह्माण्ड या अन्तरिक्ष में मेघ के समान अनाहत रूप से नाद करता और सुखों की वर्षा करता है ।
हे प्रेरक! हे व्यापक! आप रश्मियों से अभिव्यक्त होते हुए समस्त प्रकाशमान पदार्थों के स्थान या मूल कारण को प्राप्त हों । 

18. रमणीय अनाहत नाद

(1117)

(18) प्र हंसास्तृपला वग्नुमच्छामादस्तं वृषगणा अयासुः ।
अङ्गोषिणं पवमानं सखायो दुर्मर्षं वाणं प्र वदन्ति साकम् ।।2।।
प्र0 4 (2) अ0 8 खंड 1 सू0 1 पृष्ठ 405

(1117)

(18) प्र हंसास्तृपला वग्नुमच्छामादस्तं वृषगणा अयासुः ।
अङ्गोषिणं पवमानं सखायो दुर्मर्षं वाणं प्र वदन्ति साकम् ।।2।।
प्र0 4 (2) अ0 8 खंड 1 सू0 1 पृष्ठ 405
भा0 - हंसों के समान नीरक्षीरवत् सत्यासत्य का विवेक करनेहारे, परमहंस योगी लोग सत्त्व, रजस् और तमस् - तीनों को पार करके जाने-हारे या काम-क्रोधादि को प्रहार कर उन पर वशी, रमणीय अनाहत नाद को लक्ष्य करके उत्तम, धर्म मेघ समाधि के साधक योगीजन अव्यक्त बल या ज्ञान से शरण-योग्य आत्मा को प्राप्त होते हैं । वे समान ‘आत्मा’ नामवाले या परम प्रभु के प्यारे एक साथ व्यापक, न सहन करने योग्य, असह्य तेज से युक्त, इस देह में बसनेहारे, कान्तिस्वरूप या स्तुति करने योग्य भोक्ता, आत्मा को बतलाते हैं, उसका उपदेश करते हैं ।  

19. अनाहत नाद या परमेश्वर की स्तुति से मोक्ष

(1262)

(19) एष दिवं वि धावति तिरो रजांसि धारया ।
पवमानः कनिक्रदत् ।। 7।।
प्र0 5 (2) अ0 10 खंड 1 सू0 2। 7 पृष्ठ 451

(1262)

(19) एष दिवं वि धावति तिरो रजांसि धारया ।
पवमानः कनिक्रदत् ।। 7।।
प्र0 5 (2) अ0 10 खंड 1 सू0 2। 7 पृष्ठ 451
भा0 - वह शुद्ध, पवित्र होकर समस्त रजोगुण के कर्मों और लोकों को अपनी धारण शक्ति द्वारा अतिक्रमण करके अनाहतनाद या परमेश्वर की स्तुति करता हुआ ज्ञानमय, मोक्ष को प्राप्त करता है ।  

20. अध्यात्म-यज्ञ के समक्ष द्रव्ययज्ञ व्यर्थ

(1308)

(20) कण्वा इन्द्रं यदक्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम् ।
जामि ब्रुवत आयुधा ।। 2 ।।
प्र0 5 (2) अ0 10।2 खंड 9 सू0 10 पृष्ठ 466

(1308)

(20) कण्वा इन्द्रं यदक्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम् । जामि ब्रुवत आयुधा ।। 2 ।।
प्र0 5 (2) अ0 10।2 खंड 9 सू0 10 पृष्ठ 466
भा0 - ज्ञानीगण अपने स्तोत्रों द्वारा जब इन्द्र अर्थात् आत्मा ही को जीवन-रूप यज्ञ का साधन बना लेते हैं, तब विद्वान लोग अन्य प्राण आदि इन्द्रिय-साधनों या यज्ञ के पात्रादि को प्रयोजन-रहित ही सहयोगी मात्र कहते हैं । साधक लोग जब अध्यात्म-यज्ञ करते हैं, तब द्रव्ययज्ञ व्यर्थ जान पड़ता है ।  

21. आत्मा से ही आत्मज्ञान और मोक्ष

(1557)

(21) अभि प्रयांसि वाहसा दाश्वां अश्नोति मर्त्यः ।
क्षयं पावकशोचिषः ।। 2 ।।
प्र0 7 (2) अ0 15 खंड 3 सू0 9। 2 पृष्ठ 551



।। इति सामवेदः ।। 

(1557)

(21) अभि प्रयांसि वाहसा दाश्वां अश्नोति मर्त्यः ।
क्षयं पावकशोचिषः ।। 2 ।।
प्र0 7 (2) अ0 15 खंड 3 सू0 9। 2 पृष्ठ 551
भा0 - दानशील अपने को उस आत्मा के प्रति समर्पित करने- हारा साधक मरणधर्मा पुरुष शरीर को रथ के समान धारण करने- हारे उस आत्मरूप अग्नि से ही अन्न तुल्य समस्त सुख और भोग्य पदार्थ का भोग करता है और अपने आपको पावन करनेहारे तेज के निवास स्थान परमेश्वर को भी प्राप्त करता है । अर्थात् आत्मा से ही आत्मज्ञान और मोक्ष का भी लाभ करता है ।

।। इति सामवेदः ।।