(1) उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय ।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ।।15।।
अ02 व015 । 15 अ0 6 सू0 24, अष्टक 1 मंडल 1 खं0 1 पृष्ठ 112
(2) इन्द्रस्य सख्यमृभवः समानशुर्मनार्नपातो अपसो
दधन्विरे ।
सौधन्वनासो अमृतत्वमेरिरे विष्ट्वी शमीभिः सुकृतः सुकृत्यया ।। 3 ।।
अ0 5। व0 7।3 अ0 5 सू0 60 अष्टक 3 मंडल 3 खं0 3 पृष्ठ 320
(3) अवर्त्या शुन आन्त्रणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् ।
अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वाजभार।।13।।
अ0 5 व0 26।13 अ0 2 सू0 18 अष्टक 3 मंडल 4 खंड 3 पृ0 464
01. मोक्ष:
(1) उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय ।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ।।15।।
अ02 व015 । 15 अ0 6 सू0 24, अष्टक 1 मंडल 1 खं0 1 पृष्ठ 112
भाष्य - हे परमेश्वर! तू उत्तम कोटि के सात्त्विक बन्धन को उत्तम भोगों द्वारा शिथिल करता है और निकृष्ट, तामस बन्धन को नीचे की जीवयोनियों में भेजकर शिथिल करता है । और मध्यम श्रेणी के पाश को विविध योनियों के भोग से शिथिल करता है । उन सब भोगों के अनन्तर, हे शरण में लेनेहारे एवं सूर्य के समान प्रकाशक! हम तेरे दिखाये, कर्त्तव्य कर्म में चलकर अखण्ड सुख, मोक्ष को प्राप्त करने के लिये निष्पाप, स्वच्छ हो जाते हैं ।।
टिप्पणी - यदि सदा की मुक्ति नहीं हो तो ‘अखण्ड सुख’ नहीं प्राप्त हो सकता है; अतएव वेद को सदा की मुक्ति मान्य है, जैसे कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों को यह मान्य है, यथा -
‘गुरु मिलि ताके खुले कपाट । बहुरि न आवे योनी बाट ।।’
‘गड़ा निस्सान तहँ सुन्न के बीच में,
उलटि के सुरत फिर नाहिं आवै ।
दूध को मत्थ करि घिर्त न्यारा किया,
बहुरि फिर तत्त में ना समावै ।।
माड़ि मत्थान तहँ पाँच उलटा किया,
नाम नौनीति ले सुरत फेरी ।
कहै कबीर यों संत निर्भय हुआ,
जन्म औ मरन की मिटी फेरी ।।’
(कबीर साहब)
जल तरंग जिउ जलहि समाइआ,
तिउ जोती संग जोति मिलाइआ ।
कह नानक भ्रम कटे किवाड़ा,
बहुरि न होइअै जउला जीउ ।।
(गुरु नानक साहब)
तजि योग पावक देह हरिपद लीन भइ जहँ नहि फिरै ।
(गो0 तुलसीदासजी)
कोटि ज्ञानी ज्ञान गावहिं, शब्द बिन नहिं बाँचहीं ।
शब्द सजीवन मूल ऐनक, अजपा दरस देखावहीं ।।
सत्तशब्द सन्तोष धरि धरि, प्रेम मंगल गावहीं ।
मिलहिं सतगुरु शब्द पावहिं, फेरि न भवजल आवहीं ।।
(दरिया साहब, बिहारी; ग्रन्थ दरिया सागर से)
(2) इन्द्रस्य सख्यमृभवः समानशुर्मनार्नपातो अपसो
दधन्विरे । सौधन्वनासो अमृतत्वमेरिरे विष्ट्वी
शमीभिः सुकृतः सुकृत्यया ।। 3 ।।
अ0 5। व0 7।3 अ0 5 सू0 60 अष्टक 3 मंडल 3 खं0 3 पृष्ठ 320
भा0 - (ऋभवः) सत्यज्ञान और सत्यन्याय से प्रकाशित और अधिक सामर्थ्यवान होकर विद्वान पुरुष (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान परमेश्वर वा समृद्ध राजा के (सख्यं) मित्रता को (सम्आनशुः) भली प्रकार प्राप्त करें । और (मनोः नपातः) मननशील मनुष्य और चित्त को न गिरने देनेवाले (अपसः) उत्तम कर्मों को (दधन्विरे) धारण करें । वा मननशील दृढ़ मनुष्य के करने योग्य कर्मों को करें । वे (सौधन्वनासः) उत्तम ज्ञानवान पुरुष के पुत्र वा शिष्य होकर (सुकृत्यया) उत्तम क्रिया व आचरण से (सुकृतः) सदाचारवान होकर (शमीभिः) शान्तिदायक कर्मों से (विष्ट्वी) परमेश्वर के परम पद को प्रवेश करके (अमृतत्वम्) अमृतमोक्षपद को (एरिरे) प्राप्त करें । इसी प्रकार उत्तम कर्म कुशल विद्वान पुरुष (मनोः नपातः अपसः) ज्ञान से उत्पन्न कर्मों को करें और उत्तम साधन-सम्पन्न होकर उत्तम क्रिया (।तज) से उत्तम काम करें । कर्मों से राष्ट्र में स्थान प्राप्त कर अपने अन्न-जीविकादि लाभ करें ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में उत्तम ज्ञानवान (गुरु) पुरुष का शिष्यत्व ग्रहण कर, सदाचारी बन परमेश्वर के परमपद में प्रवेश करके अमृत मोक्षपद (सदा का मोक्ष) प्राप्त कर लेने और संसार में भी उन्नतिशील होने के लिये विद्वान, सदाचारी, कर्म-कुशल होकर राष्ट्र में राजा वा राष्ट्रपति की मित्रता और समीपता प्राप्त करके, ज्ञान से उत्पन्न कर्मों के करने का आदेश है । राष्ट्र-सेवा छोड़कर केवल मोक्ष साधन के लिये ही आदेश नहीं है । दोनों ओर उन्नतिशील होने के लिये आदेश है । ज्ञान से उत्पन्न कर्मों का करनेवाला कर्मयोगी होता है, जिसमें समाधि साधन-द्वारा समत्व और स्थितप्रज्ञता प्राप्त कर वह कर्म करता रहता है; परन्तु इसकी शिक्षा और दीक्षा तथा सिद्धि गुरु- उपासना के बिना नहीं हो सकती है । श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 4 श्लोक 34; अध्याय 13, श्लोक 6 और अध्याय 16, श्लोक 14 में गुरु-सेवा की आवश्यकता बतलाई गई है । सन्तवाणी में तो यह आवश्यकता अत्यन्त दृढ़ता से कही गयी है । जबकि वेद में ही यह आवश्यकता निश्चित रूप से बतलाई गई है, जैसा कि इस वेदमन्त्र के मन्त्रार्थ में लिखा हुआ है, तब कोई अन्य सद्ग्रन्थ इस आवश्यकता की अवहेलना कैसे कर सकता है ? यह मन्त्र संसार और परमार्थ; दोनों मार्गों पर संग-संग चलकर उन्नति करने का आदेश देता है । इसलिये कर्मयोग का यह मूल मन्त्र है । श्रीमद्भगवद्गीता तो कर्मयोग का शास्त्र ही है ।
कर्मयोग में कथित दोनों पथों पर संग-संग उन्नतिशील होकर चलना अनिवार्य है । दो में से किसी एक को त्यागने से कर्मयोग साधित नहीं हो सकता है । मोक्षार्थी को अपने ध्येय की प्राप्ति में कर्मयोग के यथार्थ स्वरूप को अपनाकर संसार में रहना अत्यन्त आवश्यक है । इसीलिये सन्तवाणी में भी स्थान-स्थान पर इसकी झलक बारम्बार देखने में आती है ।
कबीर साहब और गुरु नानक साहब तो कर्मयोग के उदित प्रखर सूर्य की तरह प्रकट होकर और संसार में आदर्श की पराकाष्ठा होकर शिक्षा दे गये हैं । इन सन्तों ने और इनके अनुयायी तथा परवर्त्ती सन्तों ने राष्ट्र के आध्यात्मिक, चारित्रिक, सामाजिक और राजनैतिक सेवा-कर्म में नाना प्रकार के कष्ट सहन किये । मौके-मौके पर आवश्यकतानुकूल अपने प्राण भी उस सेवाग्नि में हवन कर दिये और अमर जीवन को प्राप्त किया । उनकी थोड़ी-सी वाणी नीचे लिखी जाती है -
अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।। टेक ।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहिं जावै ।
वन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।। 1 ।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।। 2 ।।
उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्हे, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।। 3 ।।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै ‘कबीर’ सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।। 4 ।।
(कबीर साहब)
बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीरथ व्रत न मेला ।। टेक ।।
झोली पत्र विभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै ।।
माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अंगना फिरि आवै ।।
पाँच जना की जमाति चलावै, तास गुरु मैं चेला ।
कहै ‘कबीर’ उनि देसि सिधाये, बहुरि न इहि जग मेला ।।
(कबीर साहब)
जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चढ़ाईऐ ।
जोगु न मुंदी मूँड़ि मूँड़ाइऐ जोग न सिंञि वाईऐ ।।
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ।। 1।।
गली जोगु न होई ।।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीऐ सोई ।। 1।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईऐ ।।
जोगु न देसि दिसंतरि भविऐ जोग न तीरथ नाईऐ ।।
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ।। 2।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईऐ ।।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईऐ ।
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ।। 3।।
नानक जीवतिया मरि रहीऐ ऐसा जोगु कमाईऐ ।।
बाजे बाजहु सिंञी बाजे तउ निरभउ पदु पाईऐ ।।
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ।। 4।।
(गुरु नानक साहब)
सतिगुरु की ऐसी बडिआई । पुत्र कलत्र बिचै गति पाई ।।
(गुरु नानक साहब)
गुरु की सेवा करि पिरा जीउ हरिनाम धिआए ।।
मंञहु दूरि न जाहि पिरा जीउ घरि बैठिया हरि पाए ।।
घरि बैठिया हरि पाए सदा चितु लाए सहजे सती सुभाए ।।
गुरु की सेवा खरी सुखाली जिसनो आपि कराए ।।
नामो बीजे नामौ जंमै नामो मंनि बसाए ।।
नानक सचि नाम बडिआई पूरबि लिखिया पाए ।।
(गुरु नानक साहब)
नानक सतिगुरु भेटिऐ
पूरि होवै जुगती ।
हँसन दिआ, खेलन दिआ, पैनन दिआ,
खावन दिआ बीचे होवै मुकती ।।
(गुरु नानक साहब)
(3) अवर्त्या शुन आन्त्रणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् ।
अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वाजभार।।13।।
अ0 5 व0 26।13 अ0 2 सू0 18 अष्टक 3 मंडल 4 खंड 3 पृ0 464
भा0 - अध्यात्मदर्शी कहता है (अवर्त्या) जन्म-मरण के व्यापार से रहित होकर मैं (शुनः) सुखस्वरूप होकर अथवा (अवर्त्या) पुनः इस संसार में न होने के निमित्त से ही (शुनः) सुखकर परमेश्वर के (आन्त्रणि) ज्ञान करानेवाले गुह्य साधनों को (पेचे) परिपक्व करूँ । (देवेषु) पृथिवी सूर्यादि एवं विषय के अभिलाषी इन्द्रियों के बीच में मैं (मर्डितारम्) किसी को भी परम सुख देने वाला ( न विविदे) नहीं पाता हूँ । अथवा मैंने अज्ञानी पुरुष (अवर्त्या) लाचार, अगतिक होकर (शुनः) कुत्ते के समान लोभी आत्मा के (आन्त्रणि) भीतरी आँतों के तुल्य इन (आन्त्रणि) ज्ञानसाधन इन्द्रियों को ही (पेचे) परिपक्व किया, उनको तपःसाधना से वश किया और उन (देवेषु) विषयाभिलाषुक प्राणों में से एक को भी सुखप्रद नहीं पाया, अनन्तर (जायाम्) इस संसार को उत्पन्न करनेवाली प्रकृति को भी मैंने (अमहीयमाना) महती परमेश्वरी शक्ति के तुल्य नहीं (अपश्यम्) देखा । इतना ज्ञान कर लेने के अनन्तर (श्येनः) ज्ञानस्वरूप प्रभु परमेश्वर (मे) मुझे (मधु) परम मधुर ब्रह्मज्ञान (आजभार) प्रदान करता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में पुनः इस संसार में न होने के (अर्थात् सदा की मुक्ति के) निमित्त सुखकर परमेश्वर के ज्ञान करानेवाले गुह्य साधनों का करना लिखा है । यह तो कबीर साहब की वही बात है कि ‘बहुरि नहीं आवना यहि देश ।’
(4) आ स्वमद्म युवमानो अजरस्तृष्वविष्यन्नतसेषु तिष्ठति ।
अत्यो न पृष्ठं प्रुषितस्य रोचते दिवो न सानुं स्तनयन्नचिक्रदत्।। 2।।
अ0 4 व0 23।2 अ0 11 सू0 58 अष्टक 1 मंडल 1 खंड 1 पृ0 296
(5) वि वातजूतो अतसेषु तिष्ठते वृथा जुहूभिः सृण्या तुविष्वणिः।
तृषु यदग्ने वनिनो वृषायसे कृष्णंत एम रुशदूर्मे अजर ।। 4।।
अ0 4 व0 23। 4 अ011 सू0 58 अष्टक 1 मंडल 1 खंड 1 पृष्ठ 297
(6) आदस्य ते ध्वसयन्तो वृथेरते कृष्णमभ्वं महि वर्षः करिक्रतः।
यत्सीं महीमवनिं प्राभि मर्मृशदभिश्वसन्स्तनयन्नेति
नानदत्।। 5।।
अ0 2 व0 5। 5 अ0 21 सू0 140 अष्टक 2 मण्डल 1 खंड 2 पृष्ठ 134
(7) अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद्वां मित्रावरुणा चिकेत ।
गर्भो भारं भरत्या चिदस्य ऋतं पिपर्त्यनृतं नि तारीत्।।3।।
अ0 2 व022। 3 अ021 सू0152 अष्टक 2 मण्डल 1 खंड 2 पृष्ठ 196
(8) तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति तेन जीवन्ति प्रदि-
शश्चतस्त्रः। ततःक्षरत्यक्षरं तद्विश्वमुप जीवति ।। 42 ।।
अ0 3 व0 22 अ022 सू0 164।42 अ0 2 मण्डल 3 खण्ड 2 पृष्ठ 305
(9) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। 10।।
अ0 4 व0 10 अ0 5 सू0 62।10 अष्टक 3 मण्डल 3 खंड 3 पृष्ठ 333
(10) एता अर्षन्त्यललाभवन्तीऋर्तावरीरिव सङ्क्रोश-मानाः ।
एता वि पृच्छ किमिदं भनन्ति कमापो अद्रिं परिधिं रुजन्ति ।। 6।।
अ0 5 व0 25 अ0 2 सू0 18। 6 मंडल 4 अष्टक 3 खं0 3 पृष्ठ 459
(11) प्र शन्तमा वरुणं दीधिती गीर्मित्रं भगमदितिं नूनमश्याः।
पृषद्योनिः पञ्चहोता शृणोत्वतूर्तपन्था असुरो मयोभुः ।। 1।।
अ0 2 व0 17।1अ0 3 सू0 42 अष्टक 4 मंडल 5 खंड 3 पृ0 844
(12) यो अग्निं हव्यदातिभिर्नमोभिर्वा सुदक्षमा विवासति ।
गिरा वाजिरशोचिषम् ।। 13 ।।
अ01 व031।13 अ03 सू019अष्टक 6 मण्डल 8 खण्ड 5 पृष्ठ 342
(13) अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।
किं नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य ।।3।।
अ0 4 व0 11।3 अ0 6 सू0 48 अष्टक 6 मण्डल 8 खण्ड 5 पृष्ठ 554
(14) स नो ज्योतींषि पूर्व्य पवमान वि रोचय ।
क्रत्वे
दक्षाय नो हिनु ।।3।।
अ0 8 व0 26।3 अ0 2 सू036 अष्टक 6 मंडल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 91
(15) शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरन्ति
विद्युतो दिवि ।।3।।
अ0 8 व031।3 अ0 2 सू0 41 अष्टक 6 मंडल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 100
(4) आ स्वमद्म युवमानो अजरस्तृष्वविष्यन्नतसेषु तिष्ठति ।
अत्यो न पृष्ठं प्रुषितस्य रोचते दिवो न सानुं स्तनयन्नचिक्रदत्।। 2।।
अ0 4 व0 23।2 अ0 11 सू0 58 अष्टक 1 मंडल 1 खंड 1 पृ0 296
भा0 - अपने भोग्य कर्मफल को भोग्य अन्न के समान प्राप्त करता हुआ, जरा से रहित आत्मा शीघ्र ही काष्ठों के बीच अग्नि जिस प्रकार उनका भोग करता हुआ भी उनके ही आश्रय में रहता है, उसी प्रकार व्यापक, आकाश, पृथ्वी आदि तत्त्वों के आश्रय पर ही और शीघ्र ही पिपासित के समान उन्हीं पदार्थों का भोग करता हुआ उनके ही बीच में रहता है और जिस प्रकार वेगवान अश्व मार्ग को पार करता अच्छा मालूम होता है और जिस प्रकार अति अधिक दाहकारी अग्नि के ऊपर का भाग अति उज्ज्वल होता है, उसी प्रकार अति तेजस्वी, सब पापों को भस्म कर देनेहारे इस जीवात्मा का आनन्द सेवन करनेवाला स्वरूप भी बहुत ही प्रिय प्रतीत होता है । आकाश में स्थित मेघ के खंड के समान वह प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का भजन करनेवाला जीव भी गर्जते मेघ के समान ही अन्तर्नाद करता है ।
टिप्पणी - ‘प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का भजन करनेवाला अर्थात् परमात्म-ज्योति का दर्शन करनेवाला जीव मेघ के समान गर्जन वा अन्तर्नाद करता है’ - से तात्पर्य अन्तर्नाद (अनाहत नाद - अन्तर का ध्वन्यात्मक शब्द) का ध्यान अर्थात् नादानुसन्धान वा सुरत-शब्द- योग करना है । उपनिषदों और सन्तवाणियों में मेघ-गर्जना का यत्र-तत्र बहुत वर्णन है ।
आदौ जलधिजीमूतभेरीनिर्झरसंभवः ।
मध्ये मर्दलशब्दाभो घण्टाकाहलजस्तथा ।।
- नादविन्दूपनिषद् ।।34।।
अर्थ - आरम्भ में नाद समुद्र, बादल, दुन्दुभि, जलप्रपात से निकले हुए जैसे मालूम होते हैं और मध्य में मर्दल, घण्टा और सिंघा जैसे ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।
(कबीर साहब)
गगन गरज घन बरषहीं, बाजै दीरघ नाद ।
अमरापुर आसन करै, जिन्हके मते अगाध ।।
(गरीब दास)
साधक अन्तर-अभ्यास में विविध प्रकार की ज्योतियों के दर्शन करता है और शब्दों का श्रवण करता है । ये ज्योतियाँ परमात्म-स्वरूप से व्याप्त है । इसलिये परमात्मा के विविध ज्योति-रूप कहे जाते हैं । उपनिषदों और सन्तवाणियों में इनके विस्तार से वर्णन है; जैसे -
‘गगन मण्डल के बीच में, तहवाँ झलके नूर ।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निरमल सूर ।
रैन अंधेरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर ।।’
‘चन्दा झलके यहि घट माहीं, अन्धी आँखन सूझत नाहीं ।
यही घट चन्दा यहि घट सूर, यहि घट बाजे अनहद तूर ।।’
‘मन्दिर में दीप बहु बारी, नयन बिनु भई अंधियारी ।।’
(कबीर साहब)
निशि दामिनी ज्यों चमक चन्दा यिनि पेखै ।
अहि निशि जोति निरन्तर देखै ।।
अन्तर ज्योति भई गुरु साखी, चीने राम करम्मा ।
नानक हउमै मारि पतीणै, तारा चड़िया लम्मा ।।
प्रगटी जोति जोतिमहि जाता, मनमुखि भरमि भुलाणी ।
नानक भोर भइआ मनु मानिआ जागत रैणि विहाणी ।।
(गुरु नानक)
उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवे, विगसि कमल कचनार ।।
(गुलाल साहब)
धुनि महिं ध्यान ध्यान महि जाणिआ, गुरु मुख अकथ कहानी ।।
(गुरु नानक)
‘जैसे जल महि कमल निरालमु मुरगाई नैंसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै, नानक नामु बखाणै ।।’
‘शब्द अनाहत बाजै पंज तूरा सति गुरुमति लै पूरो पूरा ।’
(गुरु नानक)
करम होवै सतिगुरु मिलाए, सेवा सुरति शब्द चित लाए ।
(गुरु नानक)
अनहदो अनहदु बाजे, रुण झुनकारे राम ।
(गुरु नानक)
बहुशास्त्रकथाकन्थारोमन्थेन वृथैव किम् ।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम् ।।
(मुक्तिकोपनिषद्)
अर्थ - बहुत-से शास्त्रें की कथाओं को मथने से क्या फल ?
हे वायुसुत! अत्यन्त यत्नवान होकर केवल अन्तर की ज्योति की खोज करो ।
स्वात्मानं पुरुषं पश्येन्मनस्तत्र लयं गतम् ।
रत्नानि ज्योतिर्नादं तु विन्दु माहेश्वरं पदम् ।
य एवं वेदपुरुषः स कैवल्यं समश्नुते ।। 105 ।।
(ध्यानविन्दूपनिषद्)
अर्थ - मनुष्यों को अपनी आत्मा की ओर देखना चाहिये, जहाँ जाकर मन लय हो जाता है । जो रत्नों को, चन्द्रज्योति को, नाद को, विन्दु को और महेश्वर के परम पद को जानता है, वह कैवल्य पद पाता है ।। 105 ।।
मण्डल ब्राह्मणोपनिषद्
(शुक्ल यजुर्वेद का)
ब्राह्मणं 2
मूल - तन्मध्ये जगल्लीनम् । तन्नादविन्दुकलातीतमखण्डमण्डलम् । तत्सगुणनिर्गुणस्वरूपम् । तद्वेत्ता विमुक्तः । आदावग्निमंडलम् । तदुपरि सूर्यमण्डलम् । तन्मध्ये सुधाचन्द्रमण्डलम् । तन्मध्येऽखण्ड ब्रह्मतेजोमण्डलम् । तद्विद्युल्लेखावच्छुक्लभास्वरम् । तदेव शाम्भवीलक्षणम् ।
तद्दर्शने तिस्त्रो मूर्तयः अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलितदर्शन-
ममादृष्टिः अर्धोन्मीलितं प्रतिपत् । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति । तल्लक्ष्यं नासाग्रम् ।
तदभ्यासान्मनःस्थैर्यम् । ततो वायुस्थैर्यम् । तच्चिह्नानि । आदौ तारकवद् दृश्यते । ततो वज्रदर्पणम् । तत उपरि पूर्णचन्द्रमण्डलम् । ततो नवरत्नप्रभामण्डलम् । ततो मध्याह्नार्कमण्डलम् । ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमाद्दृश्यते । तदा पश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिक धूम्रविन्दुनादकलानक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसुवर्णनवरत्नादिप्रभा दृश्यन्ते । तदेव प्रणवस्वरूपम् ।
अर्थ - उस (ब्रह्म) के अंदर संसार लीन (डूबा हुआ) है । (ब्रह्म) नाद, विन्दु और कला के परे, सगुण, निर्गुण तथा अखण्ड मण्डल स्वरूप है, इसका जाननेवाला विमुक्त होता है ।
पहले अग्निमण्डल है, इसके ऊपर सूर्यमण्डल है, उसके बीच में सुधामय चन्द्रमण्डल है और उसके मध्य में अखण्ड ब्रह्मतेजमण्डल है । वह शुक्ल बिजली की धार के समान चमकीला है । केवल यही शाम्भवी का लक्षण है । उसके देखने के लिये तीन दृष्टियाँ होती हैं - अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा । आँख बन्द कर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है । उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिये ।
उसके अभ्यास से मन की स्थिरता आती है । इससे वायु स्थिर होता है । उसके ये चिह्न हैं - आरम्भ में तारा-सा दीखता है । तब हीरा के ऐना की तरह दीखता है । उसके बाद पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखलाई देता है । उसके बाद नौ रत्नों का प्रभामण्डल दिखाई देता है । उसके बाद दोपहर का सूर्यमण्डल दिखाई देता है । उसके बाद अग्नि शिखामण्डल दिखाई देता है । ये सब क्रम से दिखाई देते हैं, तब पश्चिम की ओर प्रकाश दिखाई देता है । स्फटिक, धूम्र (धुआँ), विन्दु, नाद, कला, तारा, जुगनू , दीपक, नेत्र, सोना और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है । केवल यही प्रणव का स्वरूप है ।
(5) वि वातजूतो अतसेषु तिष्ठते वृथा जुहूभिः सृण्या तुविष्वणिः।
तृषु यदग्ने वनिनो वृषायसे कृष्णंत एम रुशदूर्मे अजर ।। 4।।
अ0 4 व0 23। 4 अ011 सू0 58 अष्टक 1 मंडल 1 खंड 1 पृष्ठ 297
भा0 - वायु के वेग से तीव्र होकर अग्नि जिस प्रकार तृणों और काष्ठों में विविध रूप से फैलती है, उसी प्रकार यह आत्मा भी प्राणों द्वारा वेगवान, गतिमान, पृथ्वी, वायु, जल आदि तत्त्वों में भी विविध देहों को धारण कर विविध रूपों में स्थित है और जिस प्रकार ज्वालाओं द्वारा और अपने वेग से गमन करने की शक्ति से अग्नि चटचटा आदि बहुत प्रकार के शब्द करती है, अथवा अग्नि जिस प्रकार अपने भीतर आग्नेय तत्त्वों को रखनेवाले मैनसिल, पोटास आदि पदार्थों और फूटकर वेग से निकलनेवाली बारूद आदि की शक्ति से बड़ा भारी धड़ाके का शब्द करती है, उसी प्रकार वह अपने भीतर आत्मा को धारण करनेवाले प्राणों और स्वयं सरण करनेवाली वाणी द्वारा अनायास ही बहुत-से स्वप्न अर्थात् वर्ण ध्वनियों को उत्पन्न करता है ।
टिप्पणी - इस मंत्र में और छान्दोग्य उपनिषद् अध्याय 3, खण्ड 13 के श्लोक 7-8 में सदृशता जान पड़ती है ।
अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषे ज्योतिस्त-
स्यैषा दृष्टिः ।।7।। यत्रै तदस्मिञ्छरीरे स्ँ स्पर्शेनोष्णिमानं विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्यत्रैतत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोति तदेतदृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुष्यः श्रुतो भवति य एवं वेद य एवं वेद ।। 8 ।।
अर्थ - जो कि इससे परे स्वर्ग अथवा आकाश में ज्योति चमकती है, एवं विश्व की पीठ पर, सबकी पीठ पर तथा उत्तम और अनुत्तम सब लोकों में चमकती है, यह वही है जो अन्तःपुरुष में ज्योति है, उसी की यह दृष्टि है ।। 7 ।। जो कि इस शरीर में छूने से गर्मी का ज्ञान करते हैं, उसी की यह श्रुति है, जो कि यह कानों को बन्द करके ध्वनि के समान और जलती हुई आग के गर्जन के समान सुनते हैं, तो इस तरह उसे देखा भी और सुना भी । अतः चक्षुष्य और श्रुत दोनों से उसकी उपासना करनी चाहिए, जो इसे जानता है ।। 8 ।।
छान्दोग्योपनिषद् में कथित परमात्मा की, चक्षुष्य और श्रुत से उपासना की विधि, दृष्टियोग और शब्दयोग की विधि है; ऐसा ज्ञात होता है ।
(6) आदस्य ते ध्वसयन्तो वृथेरते कृष्णमभ्वं महि वर्षः करिक्रतः। यत्सीं महीमवनिं प्राभि मर्मृशदभिश्वसन्स्तनयन्नेति
नानदत्।। 5।।
अ0 2 व0 5। 5 अ0 21 सू0 140 अष्टक 2 मण्डल 1 खंड 2 पृष्ठ 134
भा0 - (आत्) उसके पश्चात् जो मुमुक्षु जन (अभ्वं कृष्णम्) ‘असत्’ काले, अशुक्ल पापमय मलीन कर्माशय या मिथ्या ज्ञान का (ध्वसयन्तः) विनाश करते और (महि) बड़े भारी (अभ्वं) अव्यक्त (वर्षः) वरणे योग्य आत्मस्वरूप को भी (करिक्रतः) साक्षात् कर लेते हैं, (अस्य) इस परमेश्वर को (वृथा) अनायास ही (ईरते) प्राप्त हो जाते हैं । क्योंकि (यत्) जो पुरुष (सीम्) सब प्रकार से, सर्वतोभावेन, (महीम्, वनिम्) उस महान सर्वरक्षक को (प्रअभिमर्मृशत्) प्राप्त हो जाता है, उस तक पहुँच जाता है, वह (अभिश्वसन्) आश्वासन या हृदय की शान्ति को प्राप्त हुआ और (स्तनयन्) मेघ के समान उत्साह से गर्जता हुआ और (नानदत्) सिंह के समान नाद करता हुआ, अति उत्साहवान, निर्भय और अन्तर्ब्रह्मनाद में लीन होकर (प्र एति) परम पद को प्राप्त होता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में अन्तर्ब्रह्मनाद में लीन होकर परमपद प्राप्त होता है, कहा गया है ।
(7) अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद्वां मित्रावरुणा चिकेत ।
गर्भो भारं भरत्या चिदस्य ऋतं पिपर्त्यनृतं नि तारीत्।।3।।
अ0 2 व022। 3 अ021 सू0152 अष्टक 2 मण्डल 1 खंड 2 पृष्ठ 196
भा0 - जिस प्रकार (पद्वतीनां) पैरोंवाले जन्तुओं से सबसे प्रथम (अपात्) पाद-रहित उषा आती है और (मित्रा-वरुणा) दिन और रात्रि; इन दोनों में से उस रहस्य को कोई नहीं जानता और जिस प्रकार (गर्भः) दोनों के ग्रहण या धारण करने में समर्थ आदित्य (अस्य) इस जगत के (भारं भरति) पोषणादि कार्य करता और (ऋतं) व्यक्त प्रकाश को पूर्ण करता और (अनृतं) असत्य अन्धकार को (नि तारीत्) दूर कर देता है, उसी प्रकार (पद्वतीनां प्रथमा) चरण, अध्याय, पाद, सर्ग आदि विभागवाली वाणी से भी (प्रथमा) प्रथम, श्रेष्ठ, (अपात्) चरणादि से रहित वाणी (एति) प्रकट होती है । हे (मित्रा-वरुणा) अध्यापक, विद्यार्थी आदि जनो (वां) आप दोनों में से (कः तत् चिकेत) कौन इस रहस्य को जानता है ? कोई नहीं । तो भी (गर्भः) विद्याओं को ग्रहण करने में समर्थ विद्यार्थी जिज्ञासु पुरुष (अस्य) इस सम्मुख स्थित आचार्य के (भारं आ भरति) पोषित ज्ञान को सब प्रकार से धारण करता है । वही (ऋतं पिपर्त्ति) उसके सुविचारित सत्य ज्ञान को पूर्ण करता और (अनृतं नि तारीत्) अज्ञान अन्धकार और अनृत व्यवहार को दूर करता उससे पार हो जाता है ।
टिप्पणी - चरण, अध्याय, पाद, सर्ग आदि विभागवाली वाणी से भी प्रथम श्रेष्ठ चरणादि से रहित वाणी आदिनाद है, जो परमात्मा के अतिरिक्त किसी से होने योग्य नहीं है । इसी वाणी को अनाहत नाद कहते हैं और अमृतनाद उपनिषद् में इसको-
अघोषमव्यञ्जनमस्वरं च अकंठताल्वोष्ठमनासिकं च ।
अरेफजातमुभयोष्मवर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।। 25 ।।
अर्थ - ‘अक्षर कभी भी क्षीण अथवा नष्ट अथवा बन्द नहीं होता - वह घोष-रहित, व्यंजन-रहित, स्वर-रहित, कण्ठ, तालु, ओष्ठ,
नासिका, मूर्धा सबसे निराश्रित स्वतन्त्र अव्यक्त अनाहत नाद स्वरूप है’ कहा गया है । अवश्य ही यह रहस्यमयी वाणी है ।
शब्द शब्द बहु अन्तरा, वो तो शब्द विदेह ।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
(कबीर साहब)
यह वर्णात्मक नहीं हो सकता, यह ध्वन्यात्मक है । यह केवल गहरे ध्यान में ही विदित होने योग्य है । इसका ‘चरण’, ‘अध्याय’ और पादादि में विभाग नहीं हो सकता । इस तरह का विभाग वर्णात्मक शब्दों का होता है, आन्तरिक ध्वन्यात्मक नाद का नहीं । प्रणव अर्थात् ॐ उस अनाहत ध्वन्यात्मक आदिनाद का वाचक है और ॐ का वाच्य वह रहस्यमय नाद परमात्मा का वाचक है । इसी को ‘योगशिखोपनिषद्’ में ‘अक्षरं परमोनादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते’ कहा गया है। सन्तों का परम ध्येय यही है । इसी की प्राप्ति होने पर परमात्मा के दर्शन और मोक्ष मिलते हैं । यही ब्रह्मनाद सन्तों की वाणियों में आदिनाद, रामनाम, सत्यनाम, सारशब्द और सत्य शब्द कहकर विख्यात है ।
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह ।।
राम-राम सब कोइ कहै, नाम न चीन्है कोइ ।
नाम चीन्ह सतगुरु मिलै, नाम कहावै सोइ ।।
(कबीर साहब)
(8) तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति तेन जीवन्ति प्रदि-
शश्चतस्त्रः। ततःक्षरत्यक्षरं तद्विश्वमुप जीवति ।। 42 ।।
अ0 3 व0 22 अ022 सू0 164।42 अ0 2 मण्डल 3 खण्ड 2 पृष्ठ 305
भा0 - जिस प्रकार (तस्याः) उस विद्युत् से आघात खाकर (समुद्राः) जलों को बहानेवाले मेघ (अधि वि क्षरन्ति) बहुत अधिक मात्र में और विशेष रूप से बरसते हैं । (तेन) उस वर्षा से (प्रदिशः चतस्त्रः) चारों दिशाओं में बसनेवाले जीवगण (जीवन्ति) अन्न-द्वारा जीवन धारण करते हैं । (ततः) उस मध्यम वाणी, मेघमयी विद्युत् से ही (अक्षरं क्षरति) जल बरसता है और (तत्) उसी के आश्रय (विश्वम्) समस्त संसार (उप जीवति) अपना जीवन धारण करता है । उसी प्रकार (तस्याः) उस परमेश्वरी शक्ति से (समुद्राः) समुद्र के समान अथाह ऐश्वर्यों को बहानेवाले (वि क्षरन्ति) विविध ऐश्वर्य बहाते हैं । उससे (चतस्त्रः प्रदिशः जीवन्ति) चारों दिशाओं में स्थित लोक जीते हैं, (ततः) उसी से ‘अक्षर’ अक्षय जीवन शक्ति प्राप्त होती है, जिसको समस्त संसार या (विश्वम्) उसमें प्रविष्ट जीव संसार-जीवन प्राप्त करता है ।
एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः ।
जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत् ।।
- मनु0 12, 124
पञ्चभूतों से उत्पन्न एवं पञ्चेन्द्रियों से ग्राह्य भोग्य ऐश्वर्य ही अक्षय समुद्र हैं । उन्हीं का जीवगण अनादि काल से भोग कर रहे हैं । (2) वाणी से समुद्र-रूप शब्दों के सागर उत्पन्न होते हैं, सब प्राणीगण उसी वाणी पर जीते हैं । अथवा (चतस्त्रः प्रदिशः) उत्तम उपदेश देनेवाली चार वेद-वाणियाँ उसी वाणी पर आश्रित हैं । उसी वाणी से (अक्षर) अक्षर अविनाशी ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है, जिसका (विश्वम्) उसमें प्रविष्ट अभ्यासी जीव , गुरु की उपासना और गुरु-शुश्रूषा द्वारा भृत्य के समान ज्ञान प्राप्त करता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में कहा गया है कि वाणी से शब्द-समुद्र उत्पन्न होते हैं, वाणी से अक्षर (अनाश) ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है । चार वेद-वाणियाँ उसी वाणी पर आश्रित हैं और उस वाणी में प्रवृष्ट हुआ जीव गुरु की उपासना और शुश्रूषा द्वारा भृत्य के समान ज्ञान प्राप्त करता है । जिस वाणी के सब उपर्युक्त गुण कहे गये, उसका विशेष ज्ञान प्राप्त करना और उसमें प्रविष्ट होने की विधि को जानकर उसमें प्रविष्ट होकर ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है । अवश्य ही यह वाणी बहुत अद्भुत है कि चार वेद (ऋक् , साम, यजुः और अथर्व) की वाणियाँ भी इसके आश्रित हैं ।
संवत् 1993 में ‘कल्याण’ पत्र (गीता प्रेस, गोरखपुर से निकलने वाला) के ‘वेदान्त-अंक’ के पृष्ठ 407 के ‘नादब्रह्म मोहन की मुरली’ शीर्षक लेख में लिखित ‘नादब्रह्म ही शब्दब्रह्म का बीज है । वेदों का प्रादुर्भाव इसी नाद से होता है । नाद का उद्भव परमेश्वर की सच्चिदानन्दमयी भगवती स्वरूपा शक्ति से होता है।’ उपर्युक्त वेद-मन्त्रार्थ कि ‘वेद-वाणियाँ उसी वाणी पर आश्रित हैं ।’ वेदान्तांक से उद्धृत उपर्युक्त विषय नाद से वेद की उत्पत्ति होने का समर्थन करता है और वेदान्तांक का वह लेख वेदों की उस आधारभूत वाणी को नादात्मक (ध्वन्यात्मक) बतलाता है ।
महर्षि स्वामी दयानन्दजी महाराज के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के सप्तम समुल्लास में है कि - ‘कानों को अंगुलियों से मूँद के देखो, सुनो कि बिना मुख, जिह्वा, ताल्वादि स्थानों के कैसे-कैसे शब्द हो रहे हैं, वैसे जीवों को अन्तर्यामी रूप से (ईश्वर ने) उपदेश किया है ।’
इससे भी ज्ञात होता है कि चारों वेदों का उद्भव ध्वन्यात्मक शब्द या नाद से ही हुआ है । बाह्य और अन्तर अवयवों-सहित शरीर से ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक दोनों प्रकार के शब्द स्वभावतः होते हैं, परन्तु इसके बिना वर्णात्मक शब्द हो, असम्भव है । कानों को बन्द करके जो अन्तर में अपने आप शब्द सुनने में आता है, वह वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक है । ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में इसी अन्तर्ध्वनि को बतलाकर कहा गया है कि निराकार ईश्वर ने अन्तर्यामी रूप से वेदों का उपदेश इसी तरह किया है । इस कथन से भी वेदों का ध्वन्यात्मक शब्द से प्रादुर्भाव सिद्ध होता है ।
सृष्टि क्रमानुसार स्वाभाविक ही पहले सूक्ष्म होगा, उसके बाद स्थूल होगा । ध्वन्यात्मक शब्द सूक्ष्म है और वर्णात्मक शब्द स्थूल है । इसलिये वर्णात्मक चारों वेदों का उपदेश ध्वन्यात्मक शब्द या नाद पर आश्रित है अथवा वेदों का उद्भव नाद से है, कहना यथार्थ जँचता है ।
अब यह देखना है कि किस वाणी से अक्षर (अनाश) ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है ? कठोपनिषद्, अध्याय 1, वल्ली 2 में कहा गया है कि - ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ् स्वाम् ।। 23 ।।
अर्थ - यह आत्मा वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है । यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है । उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है ।
इस पर स्वामी श्रीशंकराचार्यजी महाराज का भाष्य है -
‘नायमात्मा प्रवचनेनानेकवेदस्वीकरणेन लभ्यो ज्ञेयो नापि मेधया ग्रन्थार्थधारणशक्त्या । न बहुना श्रुतेन केवलेन।’
अर्थ - यह आत्मा प्रवचन अर्थात् अनेकों वेदों को स्वीकार करने से प्राप्त यानी विदित होने योग्य नहीं है, न मेधा यानी ग्रन्थ- धारण की शक्ति से ही जाना जा सकता है और न केवल बहुत-सा श्रवण करने से ही ।
ब्रह्मविन्दूपनिषद् में कहा गया है कि -
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।। 17 ।।
अर्थ - दो विद्याएँ समझनी चाहिए, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म । शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है ।
और गोरखपुर से संवत् 1992 में प्रकाशित योगांक में महामहोपाध्याय आचार्य श्रीगोपीनाथजी कविराज एम0 ए0 लिखित ‘नादानुसंधान’ शीर्षक लेख में वर्णित है - ‘‘शास्त्र जिसको ओंकार अथवा प्रणव का स्वरूप कहते हैं, वही उपाधि-रहित शब्दतत्त्व है । वैयाकरणों ने तथा किसी-किसी प्राचीन साधक सम्प्रदाय ने ‘स्फोट’ नाम से इसकी व्याख्या की है । वह स्फोट ही अखण्ड सत्तारूप ब्रह्मतत्त्व का वाचक है। अर्थात् इसी से ब्रह्मभाव की स्फूर्ति होती है । प्रणव ईश्वर का वाचक है, इस बात का भी तात्पर्य यही है । वाचक स्फोट शब्दब्रह्म के रूप में और वाच्य सत्ता परब्रह्म के रूप में वर्णित है । अतएव एक तरह से ब्रह्म ही ब्रह्म का प्रकाशक है, यह कहा जा सकता है । स्वप्रकाश ब्रह्म अपने स्वरूप के अतिरिक्त और किसी पदार्थ के द्वारा प्रकाशित नहीं हो सकता - यह कहने की जरूरत नहीं । परन्तु स्फोट या शब्दतत्त्व जबतक जीव के लिये अव्यक्त रहता है, तबतक उसके द्वारा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । इसलिये योगी यथाविधि ध्वनि और नाद का अवलम्बन करके इसको अभिव्यक्त करते हैं । साधक का मन नाद के साथ युक्त होने पर अनायास परब्रह्म पद तक उठकर चिन्मय आकार धारण करता है और चैतन्य के अंदर अपने आपको मिला देता है ।’’
योगशिखोपनिषद् में शब्दब्रह्म की व्याख्या है - अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते ।
अर्थ - अक्षर (अनाश) परमनाद को शब्दब्रह्म कहते हैं ।
उपर्युक्त सब उद्धरणों से सिद्ध होता है कि जिस वाणी के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है, वह वाणी वर्णात्मक नहीं है, ध्वन्यात्मक है और वह स्फोट वा आदिनाद है । यह स्फोट वा आदिनाद पहले ही किसी को मिलने योग्य नहीं है । इसके मिलने के पहले विविध अनहद नादों का अभ्यास सुरत-शब्द-योग वा नादानुसन्धान के द्वारा करने पर अन्त में वेद-कथित उपर्युक्त वाणी मिलकर ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त होता है । इस वाणी को सन्तलोग ईश्वर का नाम, सत्यनाम और आदिनाम आदि भी कहते हैं; जैसे -
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।।
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।।
सकल नाम जब एक समाना । तबहीं साध परम पद जाना ।।
(कबीर साहब)
एक ॐ सतनाम-------------------------------------------
इस गुफा महि अखुट भंडारा । तिसु बिचि बसै हरि अलख अपारा ।।
आपे गुपतु परगट है आपे गुर सबदि आप वंञावणिआ ।। 1।।
हउ वारी जीउ वारी अंम्रित नामु मंनि वसावणिआ ।।
बिनु सबदे नामु न पाए कोई गुर किरपा मंनि वसावणिआ ।।
(गुरु नानक)
(9) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। 10।।
अ0 4 व0 10 अ0 5 सू0 62।10 अष्टक 3 मण्डल 3 खंड 3 पृष्ठ 333
भा0 - (यः) जो परमेश्वर (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) अच्छी प्रकार उत्तम मार्ग में प्रेरण करता है, (सवितुः) सर्वोत्पादक उस (देवस्य) प्रकाश-स्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वदाता परमेश्वर के (तत्) उस अनुपम (वरेण्यम्) सर्वश्रेष्ठ (भर्गः) पापों को भून डालनेवाले समस्त कर्म-बन्धनों को भस्म करनेवाले तेज को (धीमहि) धारण करें और उसी का ध्यान करें । (2) जो (नः) हमारे (धियः) समस्त कर्मों को संचालित करता उस सर्वप्रेरक देव, दानशील, सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के उस सर्वशत्रुतापकतेज और प्रजा- भृत्यादिपालक (भर्गः) अन्न को (धीमहि) धारण करें ।
वेदाश्छन्दांसि सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयोऽन्नमाहुः ।
कर्माणि धियस्तदु ते ब्रवीमि प्रचोदयन्त्सविता याभिरेति ।।
(अथर्ववेद)
वेद, छन्द (मन्त्र) उसी सर्वोत्पादक परमेश्वर के वरण करने योग्य सर्वश्रेष्ठ सर्वपापनाशक तेज है, जिनको सर्वप्रकाशक परमेश्वर का कवि विद्वान लोग ‘अन्न’ अर्थात् अक्षय ऐश्वर्य बतलाते हैं । कर्म ही धी है, यही मैं तुझे उपदेश करता हूँ कि जिनसे सर्वोत्पादक प्रभु सूर्यवत् प्रेरणा करता हुआ सब जीवों वा लोकों को प्राप्त होता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में ज्योतिर्ध्यान की आज्ञा है ।
(10) एता अर्षन्त्यललाभवन्तीऋर्तावरीरिव सङ्क्रोश-मानाः । एता वि पृच्छ किमिदं भनन्ति कमापो अद्रिं परिधिं रुजन्ति ।। 6।।
अ0 5 व0 25 अ0 2 सू0 18। 6 मंडल 4 अष्टक 3 खं0 3 पृष्ठ 459
भा0 - (ऋतावरीः इव) जिस प्रकार जल से भरी हुई नदियाँ (अलला भवन्तीः) अव्यक्त ध्वनि से कल-कल करती हुई जाती हैं और (ऋतावरीः इव) जिस प्रकार उषाएँ (अलला भवन्तीः) पक्षियों की अव्यक्त ध्वनि करती हुई (अर्षन्ति) आती हैं, उसी प्रकार (एतत्) ये (ऋतावरी) ‘ऋत’ सत्य कारण परमेश्वर की शक्ति को धारण करनेवाली सब विकृति में (अलला भवन्तीः) अति मनोहर ध्वनि करती हुई वा अद्भुत आश्चर्यजनक होती हुई (अर्षन्ति) प्रकट होती हैं और (संक्रोश मानाः) बड़े प्रकट शब्दों से कुछ पुकार रही हैं । हे विद्वान पुरुष! (एताः वि पृच्छ) इनसे तू विशेष रूप से पूछ कि ये (इदं किम् भनन्ति) यह क्या कह रही हैं । (कम्) क्या (आपः) जल धाराएँ (परिधिं) अपने को धारण करनेवाले मेघ वा पर्वत को स्वयं (रुजन्ति) तोड़कर बाहर निकलती हैं ? और क्या (आपः) व्यापक उषाएँ अपने धारक (अद्रिं) मेघ तुल्य अन्धकार को स्वयं तोड़ती हैं । उसी प्रकार क्या (आपः) ये समस्त प्राण एवं प्राणीगण (अद्रिं) पर्वतवत् अभेद्य (परिधिम्) अपने धारक इस स्थूल देह या जड़ प्रकृति तत्त्व को स्वयं (रुजन्ति) पीड़ित एवं भग्न करते हैं ? नहीं । जिस प्रकार मेघ से जलधाराओं को बहा देने में, विद्युत् उषाओं को प्रकट करने में सूर्य कारण है, उसी प्रकार इन लोकों, प्राणों और प्राणियों के जड़ प्रकृति से उत्पन्न होने में परमात्मा और आत्मा चेतन कारण हैं । ये सब यही बात बतला रहे हैं । वही चेतन ‘इन्द्र’ है । (2) राज्य में (ऋतावरीः) धन के बल पर चलनेवाली, अव्यक्त शब्द करनेवाली सेनाएँ (संक्रोशमानाः) शत्रुपक्ष को ललकारती हुई जाती हैं । क्या बतलाती हैं, क्या वे (आपः) जलधारावत् जानेवाली प्रजाएँ और सेनाएँ स्वयं (अद्रिं परिधिं) पर्वतवत् तुंग परिकोट के तुल्य शत्रुबल या सर्वतोरक्षक (अद्रिं = वज्रं) शस्त्रबल को तोड़ सकती हैं ? नहीं, केवल सेनापति ही तोड़ सकता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र से कथित ‘अति मनोहर ध्वनि’ वा ‘बड़े प्रकट शब्दों से कुछ पुकार रही है’ से उसी तरह का वर्णन ज्ञात होता है, जिस तरह कि बाबा देवी साहब की छपाई घटरामायण के इस पद्य से विदित होता है ।
सुन लामकां पर पहुँच के तेरी पुकार है ।
है आ रही सदा1 से सदा2 यार देखना ।।
[1. सदा = सर्वदा और 2. सदा = ज़ोर की आवाज]
‘परमात्मा की शक्ति को धारण करनेवाली ध्वनि’ वा ‘बड़े शब्दों से पुकार’ ब्रह्मनाद ही हो सकता है । नादानुसन्धान वा सुरत-शब्द-योग इसी नाद वा ध्वन्यात्मक पुकार को पाने के लिये किया जाता है; क्योंकि अभ्यासी भक्त इसी ब्रह्मनाद वा शब्दब्रह्म को पकड़कर उससे आकृष्ट हो, परमात्म-ब्रह्म तक पहुँचकर सदा की मुक्ति प्राप्त करता है । इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ।
अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते ।
(योगशिखोपनिषद्)
अर्थ - अक्षर (अनाश) परमनाद को ही ‘शब्दब्रह्म’ कहते हैं ।
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।। 17 ।।
(ब्रह्मविन्दूपनिषद्)
अर्थ - दो विद्याएँ समझनी चाहिये, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म । शब्दब्रह्म में जो निष्णात (निपुण) हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है ।
(11) प्र शन्तमा वरुणं दीधिती गीर्मित्रं भगमदितिं
नूनमश्याः। पृषद्योनिः पञ्चहोता शृणोत्वतूर्तपन्था
असुरो मयोभुः ।। 1।।
अ0 2 व0 17।1अ0 3 सू0 42 अष्टक 4 मंडल 5 खंड 3 पृ0 844
भाष्य - हे विद्वन्! (शन्तमा) अति शान्तिकारक (दीधिती) उत्तम ज्ञान का प्रकाश करती हुई (गीः) वाणी (वरुणं) श्रेष्ठ (मित्रं) सबके स्नेही (भगम्) सेवायोग्य ऐश्वर्यमान और (अदितिम्) अखण्डित व्रत और शासन के पालक पुरुष को प्राप्त होती है; तू भी उसको (नूनम् अश्याः) अवश्य प्राप्त कर । वह वाणी (पृषद्योनिः) मेघ के तुल्य सुख-वर्षणकारी अन्तरात्मा में उत्पन्न होती और (पञ्च होता) पाँचों प्राणों द्वारा गृहीत ज्ञान को अपने में लेनेहारी है । उसको ऐसा पुरुष (शृणोतु) सुने जिसका (अतूर्त्तपन्थाः) ज्ञान-मार्ग विनष्ट न हुआ हो, जो (असुरः) बलवान और प्राणों के सुख में रमण करता हो और (मयोभुः) सब सुखों का आश्रयस्थान हो । (2) राष्ट्र में अहिंसित मार्गवाला, बलवान, सुखप्रद राजा, प्रजा की ऐसी वाणी को सुने, जो (पृषद्योनिः) परिषद् (या जूरी) से उत्पन्न हो और पाँच व्यक्ति पञ्चजन उसको स्वीकार करें ।
टिप्पणी - इस मंत्र में वर्णन है कि ‘जिसका ज्ञान-मार्ग विनष्ट न हुआ हो, जो प्राणों के सुख में रमण करनेवाला हो, वह उस वाणी को सुनता है, जो अन्तरात्मा में उत्पन्न होती है; मेघ के तुल्य सुख वर्षणकारी है।’ प्राणों से सुख में रमण करनेवाला योगी होता है । योगी अवश्य ही अन्तरात्मा में उत्पन्न हुए शब्द को सुनता है । अन्तरात्मा में उत्पन्न- योगी से सुनने योग्य शब्द अन्तर्ध्वनि वा अन्तर्नाद है । नादानुसन्धान वा सुरत-शब्द-योग द्वारा इसकी उपासना करके योगी ईश्वर को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करता है ।
(12) यो अग्निं हव्यदातिभिर्नमोभिर्वा सुदक्षमा विवासति ।
गिरा वाजिरशोचिषम् ।। 13 ।।
अ01 व031।13 अ03 सू019अष्टक 6 मण्डल 8 खण्ड 5 पृष्ठ 342
भा0 - (यः) जो (हव्यदातिभिः) चरु आदि हव्य पदार्थों की आहुतियों से (अग्नि) जिस प्रकार अग्नि को (आविवासति) यजमान सेवन करता है, उसी प्रकार (यः) जो पुरुष (अग्निं) अग्निवत् तेजस्वी, ज्ञान-प्रकाशक (सुदक्षम्) उत्तम, कार्य-कुशल पुरुष को (हव्यदातिभिः) उत्तम ग्राह्य तथा भोज्य पदार्थों के दानों से और (नमोभिः) नमस्कार आदि सत्कारयुक्त वचनों से वा अन्नों से (आविवासति) परिचर्या करता है, (वा) और जो (अजिर-शोचिषम्) न नाश होनेवाली दीप्ति से युक्त अग्निवत् अविनाशी कान्तिवाले, प्रकाश-स्वरूप आत्मा को (गिरा) वाणी द्वारा (आविवासति) साक्षात् करता है । वही पुरुष वास्तविक अग्निहोत्र और वास्तविक स्वप्रकाश आत्म-दर्शन वा उपासना करता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में वाणी वा शब्द द्वारा आत्मा के साक्षात्कार करनेवाले को वास्तविक अग्निहोत्री और वास्तविक आत्मदर्शी कहा गया है । शब्द द्वारा आत्मा के साक्षात्कार का अर्थ है - अन्तर्नाद की उपासना (सुरत-शब्द-योग) से आत्मदर्शी होना ।
(13) अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।
किं नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य ।।3।।
अ0 4 व0 11।3 अ0 6 सू0 48 अष्टक 6 मण्डल 8 खण्ड 5 पृष्ठ 554
भा0 - हमलोग (सोमम् अपाम) औषधि रस को जिस प्रकार पान करते और (अमृताः अभूम्) अमृत, सुखी, दीर्घायु होते हैं, उसी प्रकार हमलोग (सोमम् अपाम) ऐश्वर्य, वीर्य और पुत्र-शिष्यादि का पालन करें और ‘अमृत’ दीर्घायु अमर होवें । हमलोग (ज्योतिः आगन्म) प्रकाश को प्राप्त हों । (देवान् आविदाम) शुभगुणों, विद्वान पुरुषों और वायु , पृथिवी आदि पदार्थों को प्राप्त करें, जानें । हे (अमृत) अमृतस्वरूप! (अरातिः) शत्रु (नूनम् अस्मान् किं कृणवत्) निश्चय से हमारे प्रति क्या कर सकता है ? कुछ नहीं । और (मर्त्यस्य धूर्तिः किमु) मनुष्य का हिंसा-स्वभाव भी विद्वान ब्रह्मचारी का कुछ नहीं कर सकता ।
टिप्पणी - इस मंत्र में ज्योति की प्राप्ति की प्रार्थना है ।
(14) स नो ज्योतींषि पूर्व्य पवमान वि रोचय । क्रत्वे
दक्षाय नो हिनु ।।3।।
अ0 8 व0 26।3 अ0 2 सू036 अष्टक 6 मंडल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 91
भा0 - हे (पूर्व्यः) पूर्ण! सबसे प्रथम पूज्य! हे (पवमान) पवित्र कारक! (सः) वह तू (नः) हमें (ज्योतींषि) नाना प्रकाश (वि रोचय) प्रकाशित कर और (नः) हमें (क्रत्वे दक्षाय) ज्ञान और बल सम्पादन के लिये (हिनु) प्रेरित कर ।
टिप्पणी - दृष्टियोग के साधन में नाना प्रकार के प्रकाशों की अनुभूति होती है ।
(15) शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः । चरन्ति
विद्युतो दिवि ।।3।।
अ0 8 व031।3 अ0 2 सू0 41 अष्टक 6 मंडल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 100
भा0 - (दिवि विद्युतः चरन्ति) आकाश में बिजलियाँ चलती हैं और उस समय (वृष्टे इव स्वनः) वृष्टि के शब्द के समान (पवमानस्य शुष्मिणः) बलवान पापशोधक उसका (स्वनः) शब्द (शृण्वे) सुन पड़ता है । साधक के (दिवि) मूर्धास्थल में विद्युत् की-सी कान्तियाँ व्यापती हैं, अनाहत पटह के समान गर्जन अनायास सुनता है । वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में अन्तर्ज्योति और पापशोधक आत्मा के ही अनाहत शब्द के श्रवण की विधि है कि भक्त साधक मूर्धा में उस ज्योति का दर्शन करता है और कथित शब्द वा नाद को पटह अर्थात् ढोल के समान सुनता है ।
‘कहै कबीर सुनो भाई साधो बाजत अनहद ढोल रे ।।’
(16) गर्भो यो अपां गर्भो वनानां गर्भश्च स्थातां गर्भश्चरथाम् ।
अद्रौ चिदस्मा अन्तर्दुरोणे विशां न विश्वो अमृतः स्वाधीः ।।2।।
अ0 5 व014 । 2 अ012 सू0 70 अष्टक 1 मंडल 1 खंड 1 पृष्ठ 356
(17) य इमे उभे अहनी पुर एत्यप्रयुच्छन् ।
स्वाधीर्देवः सविता ।। 8।।
अ04 व0 26। 8अ0 6 सू0 82 अष्टक 3 मण्डल 5 खण्ड 4 पृ0 148
(18) वृषणं धीभिरप्तुरं सोममृतस्य धारया ।
मती विप्राः सम स्वरन् ।।21।।
अ0 1 व0 34।21 अ0 3 सू0 63 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 145
(19) स पूर्व्यः पवते यं दिवस्परि श्येनो मथायदिषितस्तिरो रजः ।
स मध्व आ युवते वेविजान इत्कृशानोरस्तुर्मनसाह विभ्युषां ।।2।।
अ03 व02।2 अ04 सू0 77 अष्टक 7 मंडल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 238
(20) आ यस्तस्थौ भुवनान्यमर्त्यो विश्वानि सोमः परि तान्यर्षति ।
कृण्वन्त्सञ्चृतं विचृतमभिष्टय इन्दुः सिषक्युषसं न सूर्यः।।2।।
अ0 3 व0 9 अ0 4 सू0 84।2 अष्टक 7 मण्डल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 257
(21) प्रते धारा मधु मतीरसृग्रन्वारान्यत्पूतो अत्येष्यव्यान् ।
पवमान पवसे धाम गोनां जज्ञानः सूर्यमपिन्वो अर्कैः।।31।।
अ0 4 व0 17। 31 अ0 6 सू0 97 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृ0 344
(22) आ नः सुतास इन्दवः पुनाना धावता रयिम् ।
वृष्टिद्यावो रीत्यापः स्वर्विदः ।। 9 ।।
अ0 5 व0 10 । 9 अ0 7 सू0 106 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृ0 385
(23) अभूर्वौक्षीर्व्यु 1 आयुरानड् दर्षन्नु पूर्वो अपरो नु दर्षत् ।
द्वे पवस्ते परि तं न भूतो यो अस्य पारे रजसो विवेष ।। 7।।
अ0 7 व0 16 । 7 अ0 2 सू0 27 अष्टक 7 मंडल 10 खंड 6 पृष्ठ 550
(24) मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।
यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।9।।
अ0 7 व0 4 । 9अ0 11 सू0 121 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृ0 502
(25) न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास ।। 2।।
अ0 7 व017। 2 अ0 10 सू0 129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृ0 536
(16) गर्भो यो अपां गर्भो वनानां गर्भश्च स्थातां गर्भश्च-
रथाम् । अद्रौ चिदस्मा अन्तर्दुरोणे विशां न विश्वो
अमृतः स्वाधीः ।।2।।
अ0 5 व014 । 2 अ012 सू0 70 अष्टक 1 मंडल 1 खंड 1 पृष्ठ 356
भा0 - जो परमेश्वर प्राणों और सर्वत्र व्यापक प्रकृति के परमाणुओं और लोकों के बीच गर्भ के समान छुपा है या उसको पकड़ने वा थामने और वश करनेवाला है । जो किरणों के बीच सूर्य के समान सेवन करने योग्य ऐश्वर्यों को वश करता है । जो स्थावर, अचेतन पदार्थों के भीतर व्यापक, उनको भी वश करने वाला है । जो विचरनेवाले जंगम पदार्थों के बीच व्यापक और उनका भी वशीकर्त्ता है । - मंत्र संख्या अष्टौ शतानि 800, और वह पर्वत के समान अभेद्य, कठिन पदार्थ के बीच में और गृह के समान द्वारवान, सच्छिद्र पदार्थों में भी व्यापक है, जो प्रजाओं को सुख से बसानेवाले राजा के समान समस्त पदार्थों में चेतना रूप से विद्यमान, जन्म-मरण-रहित, अमृतमय और समस्त संसार को उत्तम रीति से धारण करनेहारा, स्थापन करने हारा और सबको पोषण करने हारा है । हम उसी परमेश्वर का भजन करें ।
टिप्पणी - प्रकृति के परमाणुओं में ब्रह्म व्यापक है, तो परमाणु भी ब्रह्मतत्त्व से ही बना हुआ मानने योग्य है । अतएव ब्रह्म से तत्त्व-रूप में प्रकृति भिन्न नहीं मानी जा सकेगी ।
(17) य इमे उभे अहनी पुर एत्यप्रयुच्छन् ।
स्वाधीर्देवः सविता ।। 8।।
अ04 व0 26। 8अ0 6 सू0 82 अष्टक 3 मण्डल 5 खण्ड 4 पृ0 148
भा0 - जिस प्रकार (सविता उभे अहनी अप्रयुच्छन् पुरः एति) सूर्य दिन-रात्रि दोनों के पूर्व प्रमाद-रहित होकर आता है, उसी प्रकार (सविता) सर्वोत्पादक परमेश्वर (देवः) सर्वप्रकाशक, सर्वसुखदाता (सु आधीः) सुखपूर्वक, उत्तम रीति से जगत को प्रकृति में, मातृगर्भ में पिता के समान अव्यय बीज का आधान करनेवाला प्रभु (इमे) इन (अहनी) कभी नाश न होनेवाले जीव और प्रकृति (उभे) दोनों अनादि पदार्थों के (पुरः) पूर्व ही (अप्रयुच्छन्) सतत प्रमाद-रहित सर्वसाक्षी होकर (एति) व्याप्त रहता है । वही परमेश्वर सबसे उपासना करने योग्य है ।
टिप्पणी - इस मंत्र में प्रकृति और जीव; दोनों अनादि पदार्थों के पूर्व से ही ईश्वर का रहना कहा गया है । अनादि के पूर्व से जब ईश्वर है, तब ईश्वर को अनादि का आदि मानना अनुचित नहीं । इसलिये बंगला योग-संगीत के पद्य में ईश्वर को अनादि का आदि कहा गया है । ‘अनादिर आदि परम कारण ।’ जो पदार्थ पीछे से हो तो उसी के पूर्व से कुछ का होना हो सकता है । वह तब अवश्य ही उपजा वा बना है, ऐसा मानने योग्य है । ऐसे पदार्थ के होने के देश और काल यदि इसलिये नहीं बतलाये जा सकें कि देश और काल उसके पीछे बने हों, तब उस पदार्थ को उपज-ज्ञान से सादि और देश-काल के ज्ञान से अनादि कह सकेंगे । जबकि प्रकृति के पूर्व से ही ईश्वर है, तब प्रकृति पीछे से हुई है अर्थात् उपज-ज्ञान से वह अनादि नहीं, सादि है । परन्तु देश-काल-ज्ञान से अनादि है; क्योंकि प्रकृति के बिना देश और काल नहीं बन सकते । त्रिगुणात्मिका प्रकृति, ब्रह्म से उपजी है, ऐसा महाभारत, शान्तिपर्व, उत्तरार्द्ध अ0 132 में है ।
ज्ञानसङ्कलिनी तन्त्र में इस तरह है -
अक्षराः प्रकृतिः प्रोक्ता अक्षरः स्वयमीश्वरः ।
ईश्वरान्निर्गता साहि प्रकृतिर्गुणबन्धना ।। 99 ।।
अर्थ - अक्षर ही (अक्षर ब्रह्म ही) स्वयं प्रकृति है और अक्षर को ही स्वयं ईश्वर जानोगे । ईश्वर से प्रकृति निकली हुई है और वही प्रकृति सर्वादि त्रैगुण मिश्रित है और श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3 श्लोक 15 में भी है, ‘प्रकृति ब्रह्म से हुई है’; यथा -
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।
अर्थ - कर्म की उत्पत्ति ब्रह्म से अर्थात् प्रकृति से हुई है और यज्ञ, ब्रह्म-अक्षर से अर्थात् परमेश्वर से हुआ है । इसलिये (यह समझो कि) सर्वगत ब्रह्म ही यज्ञ में सदा अधिष्ठित रहता है ।
(गीता-रहस्य - लोकमान्य बालगंगाधर तिलक)
इस श्लोक के ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ प्रकृति लो0 बा0 गंगाधर तिलक ने तथा महात्मा गाँधी ने किया है (गी0 र0 और अनासक्तियोग देखिये) और भगवद्गीता के अ0 14 श्लोक 3 में भी प्रकृति को महद् ब्रह्म कहा गया है । इन सब प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि त्रिगुणात्मिका प्रकृति उपज-ज्ञान से अनादि नहीं, सादि है ।
(18) वृषणं धीभिरप्तुरं सोममृतस्य धारया ।
मती विप्राः सम स्वरन् ।।21।।
अ0 1 व0 34।21 अ0 3 सू0 63 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 145
भा0 - (विप्राः) विद्वान जन (वृषणं) बलवान, सब सुखों के बरसानेवाले, (सोमम्) सबके प्रेरक सबके उत्पादक (अप्तुरम्) प्रजाओं, जीवों, प्राणों और प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं के भी प्रेरक को (ऋतस्य धारया) सत्य-ज्ञानमय वेद की वाणी से और (मती) स्तुति से (सम् अस्वरन्) एक ही साथ स्वरपूर्वक स्तुति करते; उसी के गुणों का वर्णन करते हैं ।
टिप्पणी - इसमें प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु को विदित किया गया है । परमात्मा सर्वव्यापक होने के कारण परमाणु में भी अवश्य ही व्यापक है । तब परमात्मा से ओत-प्रोत हुआ यह परमाणु वैसे ही हुआ जैसा कि जल से ओत-प्रोत बर्फ । इस तरह यह विचार ‘अद्वैतवाद’ का समर्थन करता है ।
(19) स पूर्व्यः पवते यं दिवस्परि श्येनो मथायदिषितस्तिरो रजः । स मध्व आ युवते वेविजान इत्कृशानोरस्तुर्मनसाह
विभ्युषां ।।2।।
अ03 व02।2 अ04 सू0 77 अष्टक 7 मंडल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 238
भा0 - (सः) वह (पूर्व्यः) सबसे पूर्व विद्यमान और सब प्रकार से पूर्ण, (दिवः परि) सूर्यादि लोकों के भी (परि पवते) ऊपर व्यापक है । उन पर उस जगत-उत्पादक का शासन है । वह (श्येनः) अति शुक्ल वर्ण, तेजोमय, अद्भुत, गतिमान, वेगवान, बल वाला प्रभु (इषितः) सबका प्रेरक होकर (रजः तिरः मथायद्) समस्त लोकों और प्रकृति के परमाणुओं और तेजःप्रकाश को भी दूर-दूर तक संचालित कर रहा है । (सः) वह (वेविजानः) सर्वत्र व्यापता हुआ, (मध्वः आ युवते) आनन्द को प्रदान करता है, वह (विभ्युषा मनसा) डरनेवाले मन से (कृशानोः अस्तुः) कृश अति अल्प प्राणयुक्त जीव को भी सन्मार्ग में चलाने हारा हो ।
टिप्पणी - सबसे पहले वा पूर्व परमात्मा की विद्यमानता थी । इससे जाना जाता है कि प्रकृति और जीव; दोनों से पूर्व परमात्मा विद्यमान थे। ये दोनों मानो अनादि नहीं हैं । इस मंत्र से ऐसा बोध होता है ।
यह भाव निम्नलिखित सन्तवाणियों से भी प्रकट होता है -
प्रथम एक जो आपै आप । निराकार निर्गुन निर्जाप ।।
नहिं तब पाँच तत्त गुन तीनी । नहिं तब सृष्टी माया कीनी ।।
नहिं तब आदि अन्त मधि तारा । नहिं तब अंध धुंध उजियारा ।।
कहै कबीर विचारि के, तब कछु किरतम नाँहि ।
परम पुरुष तहँ आप ही, अगम अगोचर माँहि ।।
करता एक अगम है आप । वाके कोई माय न बाप ।।
करता के बंधू नहिं नारी । सदा अखंडित अगम अपारी ।।
करता कछु खावै नहिं पीवै । करता कबहूँ मरै नहिं जीवै ।।
करता के कछु रूप न रेखा । करता के कछु बरन न भेखा ।।
जाके जाति गोत कछु नाहीं । महिमा बरनि न जाय मो पाहीं ।।
रूप अरूप नहीं तेहि नाँव । बर्न अबर्न नहीं तेहि ठाँव ।।
कहै कबीर विचारि के, जाके बरन न गाँव ।
निराकार और निर्गुना, है पूरन सब ठाँव ।।
करता किर्तिम बाजी लाई । ॐ कार तें सृष्टि उपाई ।।
पाँच तत्त तीन गुन साजा । तातें सब किर्तिम उपराजा ।।
किर्तिम पाँच तत्त गुन तीनी । किर्तिम सृष्टि जु माया कीनी ।।
किर्तिम आदि अन्त मध तारा । किर्तिम अन्ध कूप उजियारा ।।
किर्तिम सर्गुन सकल पसारा । किर्तिम कहिये दस औतारा ।।
(कबीर साहब)
तदि अपना आपु आप ही उपाया ।
नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया ।। अध्याय 10।।
(गुरु नानक साहब)
जंत उपाइ कालु सिरिजंता । (गुरु नानक साहब)
(20) आ यस्तस्थौ भुवनान्यमर्त्यो विश्वानि सोमः परि तान्यर्षति । कृण्वन्त्सञ्चृतं विचृतमभिष्टय इन्दुः
सिषक्युषसं न सूर्यः।।2।।
अ0 3 व0 9 अ0 4 सू0 84।2 अष्टक 7 मण्डल 9 खण्ड 6 पृष्ठ 257
भा0 - (यः) जो (सोमः) सब जगत का प्रेरक, सञ्चालक, प्रभु परमेश्वर (अमर्त्यः) कभी न मरनेवाला, अविनाशी नित्य होकर (विश्वानि भुवनानि आ तस्थौ) समस्त लोकों और उत्पन्न पदार्थों का अध्यक्ष होकर विराजता है, वह (तानि परि अर्षति) उनको सब ओर से व्यापता है । (सूर्यः उषसं न) सूर्य जिस प्रकार उषा को व्यापता है और (अभिष्टये संवृतं विचृतं कृणोति) चारों ओर व्यापने के लिये जगत को प्रकाश से युक्त और अन्धकार से वियुक्त करता है; उसी प्रकार वह (इन्दुः) चन्द्र के समान आीांदक, सूर्यवत् देदीप्यमान, जीव के प्रति दयार्द्र (अभिष्टये) जीव की अभीष्ट सिद्धि के लिये (उषसं) प्रेम से चाहनेवाले, उस (संचृतम्) बद्ध जीवगण को (विचृतं कुर्वन्) बन्धनों से मुक्त करता हुआ (सिषक्ति) उसे अपने साथ पुत्र को माता के तुल्य चिपटा लेता है ।
(21) प्रते धारा मधु मतीरसृग्रन्वारान्यत्पूतो अत्येष्यव्यान् ।
पवमान पवसे धाम गोनां जज्ञानः सूर्यमपिन्वो अर्कैः।।31।।
अ0 4 व0 17। 31 अ0 6 सू0 97 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृ0 344
भा0 - हे प्रभो! (यत्) जो तू (पूतः) अति पवित्र स्वरूप होकर (अव्यान् वारान्) अवि अर्थात् प्रकृति के बने समस्त आवरणों को पार करके (अत्येषि) विराजता है। (ते मधुमतीः धाराः प्र असृग्रन्) तेरी मधुमयी ज्ञानमयी वाणियाँ अति सुखद रूप से प्रकट होती हैं । हे (पवमान) सर्वव्यापक, परम पावन (गोनाम् धाम पवसे) तू अपनी किरणों के तेज के तुल्य अपना ज्ञानवाणियों का तेज प्रदान कर । तू ही (जज्ञानः) प्रकट होकर (सूर्यम् अर्कैः पिन्वः) सूर्य को अपने तेजों से पूर्ण करता है ।
टिप्पणी - प्रकृति के बने समस्त आवरणों को पार करके परमात्मा विराजते हैं। उनकी इसी महिमा के कारण गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने उनको -
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी । ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
कहा है । इसलिये उन्हें सर्वव्यापकता के परे कहना अयुक्त नहीं है ।
(22) आ नः सुतास इन्दवः पुनाना धावता रयिम् ।
वृष्टिद्यावो रीत्यापः स्वर्विदः ।। 9 ।।
अ0 5 व0 10 । 9 अ0 7 सू0 106 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृ0 385
भा0 - हे (नः सुत सः इन्दवः) हमारे उत्पन्न जीव-आत्माओ! आपलोग (वृष्टि-द्यावः) कर्म-बन्धन के विच्छेद के लिये ज्ञान, प्रकाश को प्राप्त करनेवाले और (रीति-आपः) जलों के तुल्य प्राणों को वा प्रकृति को निर्गमन मार्गों में से क्षेत्रिक के तुल्य कर लेने वाले और (स्वर्विदः) सुख प्रकाश को प्राप्त करनेवाले होकर (रयिम्) सुख-प्रदाता, ऐश्वर्यवान प्रभु को लक्ष्य कर (पुनानः) अपने तईं पवित्र होकर (आ धावत) और वेग से आगे बढ़ो ।
टिप्पणी - यह मंत्र बतलाता है कि जीवात्माओं को ईश्वर ने उत्पन्न किया है । इसीलिए जीवात्मा भी उपज-ज्ञान से अनादि सिद्ध नहीं होता है ।
(23) अभूर्वौक्षीर्व्यु 1 आयुरानड् दर्षन्नु पूर्वो अपरो नु
दर्षत् । द्वे पवस्ते परि तं न भूतो यो अस्य पारे
रजसो विवेष ।। 7।।
अ0 7 व0 16 । 7 अ0 2 सू0 27 अष्टक 7 मंडल 10 खंड 6 पृष्ठ 550
भा0 - हे प्रभो! परमैश्वर्यवन्! तू (अभूः उ) अजन्मा ही है, जो (औक्षीः) जगत को उत्पन्न करने के लिये, जगत के उत्पादक बीज का वपन करता और उसको मेघवत् सेचन करके बढ़ाता है । तू (आयुः आनट्) समस्त जीव-सर्ग में व्यापक है । (पूर्वः दर्षत् नु) जो पूर्व विद्यमान या पूर्ण शक्तिशाली होता है, वही सबका विदारण करता है, वही सबका विभाग करता है । (अपरः नु दर्षत्) और दूसरा कोई विदारण नहीं कर सकता । (द्वे) ये आकाश और भूमि, जीव और प्रकृति दोनों (पवस्ते) विस्तृत होकर भी (तं न परि भूतः) उसको नहीं ढाँप सकते (यः) जो (अस्य रजसः पारे विवेष) इस लोक के पार, बाहर भी व्याप रहा है ।
टिप्पणी - परमात्मा का सर्वव्यापकता के परे होना इस मंत्र में दृढ़ाया गया है । यथा - प्रकृति मंडल भर सर्व, सर्व में व्यापक सर्वव्यापक और सर्व के बाहर सर्वव्यापकता के परे ।
(24) मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं
सत्यधर्मा जजान । यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै
देवाय हविषा विधेम ।।9।।
अ0 7 व0 4 । 9अ0 11 सू0 121 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृ0 502
भा0 - (यः पृथिव्याः जनिता) जो भूमि का उत्पादक एवं जो मूल प्रकृति से सृष्टि को रचनेवाला है, वह प्रभु (नः मा हिंसीत्) हमें पीड़ित न करे । (यः च) और जो (सत्यधर्मा) सत्य ज्ञान और प्रकट जगत को धारण करनेवाला है, जो (दिवं जजान) आकाश और सूर्य आदि समस्त लोकों को उत्पन्न करता है । (यः च) और जो (चन्द्राः) सर्वाीांदकारक (बृहतीः आपः) महान-महान व्यापक नाना तत्त्वों वा प्रकृति के परमाणुओं को भी (जजान) उत्पन्न करता है । (कस्मै देवाय हविषा विधेम) उस सुखस्वरूप, सर्वकर्त्ता, अद्वितीय देव की हम ज्ञानपूर्वक उपासना करें ।
टिप्पणी - परमात्मा प्रकृति के परमाणुओं को भी उत्पन्न करता है, इस कथन से प्रकृति का बनानेवाला परमात्मा सिद्ध होता है । इसलिये परमात्मा केवल प्रकृति से संसार को ही नहीं रचता है, बल्कि वह प्रकृति के परमाणुओं को भी बनाकर उनसे प्रकृति को भी रचता है ।
(25) न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः
किं चनास ।। 2।।
अ0 7 व017। 2 अ0 10 सू0 129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृ0 536
भा0 - (मृत्युः न आसीत्) उस समय मृत्यु न था, (तर्हि न अमृतम्) और उस समय न अमृत था । अर्थात् जीवन की सत्ता, जीवन का लोप दोनों नहीं थे । (न रात्र्याः प्रकेतः आसीत्) न रात्रि का ज्ञान था और (न अह्नः प्रकेतः आसीत्) न दिन का ज्ञान था । उस तत्त्व का स्वरूप (आनीत्) प्राण शक्ति रूप था, परन्तु (अवातम्) वह स्थूल वायु न था । (तत् एकम्) वह एक (स्वधया) अपने ही बल से समस्त जगत को धारण करनेवाला शक्ति से युक्त था । (तस्मात् अन्यत्) उससे दूसरा पदार्थ (किंचन) कुछ भी (परः न आस) उससे अधिक सूक्ष्म न था ।
(26) तमस्य पृक्षमुपरासु धीमहि नक्तं यः सुदर्शतरो
दिवातरादप्रायुषे दिवातरात् ।
आदस्यायुर्ग्रभणवद्वीलु शर्म न सूनवे ।
भक्तमभक्तमवो व्यन्तो
अजरा अग्नयो व्यन्तो अजराः ।। 5।।
अ 1 व0 12। 5अ0 19 सू0 127 अष्टक 2 मंडल 1 खंड 2 पृष्ठ 41
(27) इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अि वेद यदि
वा न वेद ।। 7।।
अ0 7 व0 17 । 7 अ011 सू0 129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 534
04. उत्तम रीति से ध्यानाभ्यास तथा त्रिकाल सन्ध्योपासना
(26) तमस्य पृक्षमुपरासु धीमहि नक्तं यः सुदर्शतरो
दिवातरादप्रायुषे दिवातरात् । आदस्यायुर्ग्रभणव-
द्वीलु शर्म न सूनवे । भक्तमभक्तमवो व्यन्तो
अजरा अग्नयो व्यन्तो अजराः ।। 5।।
अ 1 व0 12। 5अ0 19 सू0 127 अष्टक 2 मंडल 1 खंड 2 पृष्ठ 41
भा0 - अग्नि जिस प्रकार सूर्य के अभाव में (नक्तं) रात्रि समय में (दिवातरात्) उत्तम दिन की अपेक्षा भी (सुदर्शतरः) उत्तम रीति से देखने योग्य और अन्यों को भी अपने प्रकाश से दिखानेहारा है, उसी प्रकार (यः) जो ज्ञानवान नायक या गुरु (अप्रायेषु) जीवित, जागृत, शक्तिशाली पुरुष या नवयुवक शिष्य के लिये (दिवातरात् सुदर्शतरः) सूर्य से या दिन के प्रकाश से भी अधिक अच्छी प्रकार दर्शनीय, उज्ज्वल और स्पष्ट मार्गदर्शी है (अस्य) इस महान संसार के (पृक्षम्) सेचनेहारे, जीवनप्रद या सुव्यवस्थित करनेहारे, सर्वत्र संगत, सर्वव्यापक स्वामी, प्रभु की हम (उपरासु) यज्ञवेदियों में अग्नि के समान (उपरासु) समस्त दिशाओं में और भीतरी ध्यानपूर्वक रमण करने योग्य आभ्यन्तर चित्त भूमियों में भी (धीमहि) धारण करें और ध्यान करें । (आत्) और उसके उत्तम रीति से ध्यान करने के अनन्तर ही (अस्य आयुः) उसका परम जीवन वा उसका प्राप्त होना ही (ग्रभणवत्) सबके ग्रहण योग्य, सबको भीतर लेनेवाला (सूनवे न शर्म) पुत्र के लिये पिता के घर के समान ही सुखद (बीडु) बलवान् , दृढ़ आश्रय हो जाता है । (भक्तम्) परम भजन करने योग्य उस (अभक्तम्) स्वयं किसी की भक्ति न करनेहारे, परमपूज्य, सर्वप्रधान सर्वोच्च (अवः) परम रक्षा-स्वरूप प्रभु को (व्यन्तः) प्राप्त होते हुए (अजराः अग्नयः) उस अजन्मा परमेश्वर में रमण करनेहारे, उसमें अपने आपको समर्पण करनेहारे, ज्ञानी पुरुष और (अजराः) शत्रुओं को उखाड़ फेंकनेवाले नायक में रमण करनेवाले उस पर पूर्ण प्रसन्न वीर, (अग्नयः) तेजस्वी जन (व्यन्तः) ऐश्वर्यों की कामना करते हुए भी (अजराः) जरा, आदि से रहित, दीर्घजीवी स्थिर या अविनाशी अमृत रूप हो जाते हैं ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में उत्तम रीति से ध्यान करने का आदेश है ।
(27) इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अि वेद यदि
वा न वेद ।। 7।।
अ0 7 व0 17 । 7 अ011 सू0 129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 534
भा0 - (इयं विसृष्टिः) यह विविध प्रकार की सृष्टि (यतः आबभूव) जिस मूल तत्त्व से प्रकट हुई है (यदि वा दधे) और जो वह इस जगत को धारण कर रहा है (यदि वा न) और जो नहीं धारण करता (यः अस्य अध्यक्षः) जो इसका अध्यक्ष वह प्रभु (परमे व्योमन्) परम पद में विद्यमान है । (सः अि वेद) हे विद्वन्! वह सब तत्त्व जानता है (यदि वा न वेद) चाहे और कोई भले ही न जाने ।
टिप्पणी - उपर्युक्त मन्त्र से विदित होता है कि आदि की बातें परमात्मा के अतिरिक्त कोई अच्छी तरह नहीं जानते हैं ।
(28) वनेम तद्धोत्रया चितन्त्या वनेम रयिं रयिवः सुवीर्यं
रण्वं सन्तं सुवीर्यम् ।
दुर्मन्मानं सुमन्तुभिरेभिषा
पृचीमहि ।
आ सत्याभिरिन्द्रं द्युम्नहूतिभिर्यजत्रं
द्युम्नहूतिभिः ।। 7।।
अ 1 व0 16 । 7 अ0 19 सू0 129 अष्टक 2 मंडल 1 खंड 2 पृष्ठ 63
(29) तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्षधिया कृतान् ।
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो
मनुर्भव जनपा दैव्यं जनम् ।। 6।।
अ0 1 व0 14 । 6 अ0 4 सू0 53 अष्टक 8 मण्डल 10 खण्ड 7 पृष्ठ 35
05. वाणी (शब्द) द्वारा ब्रह्मपद की प्राप्ति और इसका अन्य को उपदेश देने की आज्ञा
(28) वनेम तद्धोत्रया चितन्त्या वनेम रयिं रयिवः सुवीर्यं
रण्वं सन्तं सुवीर्यम् । दुर्मन्मानं सुमन्तुभिरेभिषा
पृचीमहि । आ सत्याभिरिन्द्रं द्युम्नहूतिभिर्यजत्रं
द्युम्नहूतिभिः ।। 7।।
अ 1 व0 16 । 7 अ0 19 सू0 129 अष्टक 2 मंडल 1 खंड 2 पृष्ठ 63
भा0 - हमलोग (चितन्त्या) ज्ञान उत्पन्न करनेवाली (होत्रया) वाणी द्वारा ही (तत्) उस परम श्रेष्ठ, ज्ञान योग्य ब्रह्मपद को (वनेम) प्राप्त करें और उसका अन्यों को उपदेश करें । हे (रयिवः) ऐश्वर्यवान हम (रयिम्) ऐश्वर्य (सुवीर्यं) उत्तम वीर्य और उसके समान (रण्वं) सुख और ज्ञानप्रद, (सुवीर्यं) उत्तम वीर्यवान (सन्तं) सज्जन पुरुष को भी (वनेम) प्राप्त करें । (सुमन्तुभिः) उत्तम मनन करने योग्य ज्ञानी और मननशील पुरुषों द्वारा उपदेश प्राप्त करके हम (दुर्मन्मानम्) विपरीत ज्ञान के नाशक एवं दुःख या कठिनता से मनन करने योग्य, दुर्विज्ञेय, परमेश्वर या आत्मा के रूप को (इषा) प्रबल इच्छा या प्रेरणा द्वारा (पृचीमहि) प्राप्त करें, उससे जुड़ जाएँ । (यजत्रं) दानशील या सत्संग करने योग्य उत्तम पुरुष को जिस प्रकार (द्युम्नहूतिभिः) यशसूचक स्तुतियों द्वारा पहुँचाते हैं; उसी प्रकार हम उस (इन्द्रं) ऐश्वर्यवान परमेश्वर को भी (सत्याभिः) सत्य, (द्युम्नहूतिभिः) उसके तेजोमय स्वरूप का वर्णन करनेवाली स्तुतियों से (आपृचीमहि) खूब भली प्रकार अपने साथ जोड़ लें, उसको अपने हृदय में योग द्वारा ध्यान कर तन्मय हो जावें ।
(2) इसी प्रकार वीर्यवान, धनैश्वर्यवान, दुष्टों को हिंसक सत्संग योग्य (इन्द्रं) राजा और आचार्य को भी उत्तम ज्ञानों, ज्ञानवानों, यश, अन्न-वर्द्धक क्रियाओं और स्तुतियों सहित मिलें, उससे अपना सम्पर्क या सम्बन्ध बढ़ावें ।
(29) तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो
रक्षधिया कृतान् । अनुल्बणं वयत जोगुवामपो
मनुर्भव जनपा दैव्यं जनम् ।। 6।।
अ0 1 व0 14 । 6 अ0 4 सू0 53 अष्टक 8 मण्डल 10 खण्ड 7 पृष्ठ 35
भा0 - हे मनुष्य! तू (तन्तुम् तन्वन्) प्रजा शिष्य आदि सन्तान रूप तन्तु को उत्पन्न करता हुआ (रजसः भानुम्) ज्ञान-प्रकाशक, समस्त लोक के प्रकाशक, सूर्यवत् तेजस्वी गुरु वा प्रभु का (इहि) अनुगमन कर । और (धिया कृतान्) हमको सत्कार और बुद्धि से बनाये गये (ज्योतिष्मतः पथः) सूर्य के उज्ज्वल मार्गों की (रक्ष) रक्षा कर, अथवा (धिया) बुद्धि वा यत्न से तू (कृतान् पथः) बनाये गये मार्गों को (ज्योतिष्मतः) प्रकाश से युक्त बनाये रख, मार्गों पर अन्धेरा न होने दे । (जोगुवाम्) उपदेष्टा जनों के (अनुल्बणं) अति सुखदायी, कभी कष्ट न देनेवाले (अपः) सत्कर्म को (वयत) कर । तू सदा (मनुः भव) मननशील हो और (जनं दैव्यं जनय) मनुष्यों को देव प्रभु का उपासक बना ।
टिप्पणी - दूसरों को बोध देकर ईश्वरोपासना में लगाने का आदेश इस मन्त्र में है ।
(30) तं पृच्छता स जगामा स वेद स चिकित्वाँ ईयते
सान्वीयते ।
तस्मिन्त्सन्ति प्रशिषस्तस्मिन्निष्टयः स
वाजस्य शवसः शुष्मिणस्पतिः ।।1।।
अ0 2 व014।1 अ021 सू0145 अष्टक 2 मंडल 1 खंड 2 पृष्ठ 168
06. परमपद तक पहुँचे हुए का अनुकरण और अनुसरण
(30) तं पृच्छता स जगामा स वेद स चिकित्वाँ ईयते
सान्वीयते । तस्मिन्त्सन्ति प्रशिषस्तस्मिन्निष्टयः स
वाजस्य शवसः शुष्मिणस्पतिः ।।1।।
अ0 2 व014।1 अ021 सू0145 अष्टक 2 मंडल 1 खंड 2 पृष्ठ 168
भा0 - हे विद्वान पुरुषो! (सः जगाम) वह विद्वान परमपद तक पहुँचा है, (सः वेद) वह ही उस परमपद को जानता और प्राप्त करता है । (सः) वह ही (चिकित्वान् ईयते) विशेष ज्ञानवान होकर ज्ञेय ध्येय परमपद तक जाता है (सः नु ईयते) वही अन्यों द्वारा अनुसरण और अनुकरण करने योग्य है । (तस्मिन्) उसके ही आश्रय पर (प्रशिषः) उत्तम शासन और (तस्मिन्) उसके ही आश्रय पर (इष्टयः) यज्ञ, दान आदि उत्तम कर्म और सत्संग सब मैत्रीभाव और लेन-देन आदि निर्भर है । (सः) वह (वाजस्य) समस्त ज्ञान अन्न और वेग का और (शवसः) बलों का स्वामी है और वही (शुष्मिणः) बलवान पुरुषों का भी स्वामी है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में परम पद तक पहुँचे हुए महापुरुष का अनुकरण और अनुसरण करने का आदेश है । इससे प्रथम लिखित मन्त्र में अन्तर्नाद में लीन हुए को परमपद का मिलना कहा गया है। अतएव नादानुसन्धान करनेवालों का अनुकरण और अनुसरण करने का आदेश वेद में है, इसमें सन्देह नहीं है ।
(31) हिघ्कृण्वती वसूपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् ।
दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां
महते सौभगाय ।। 27 ।।
अ0 3 व0 19। 27 अ022 सू0164 अष्टक 2 मण्डल 1 खंड 2 पृष्ठ 290
07. गोवध निषेध
(31) हिघ्कृण्वती वसूपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मन-
साभ्यागात् । दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां
महते सौभगाय ।। 27 ।।
अ0 3 व0 19। 27 अ022 सू0164 अष्टक 2 मण्डल 1 खंड 2 पृष्ठ 290
भा0 - जिस प्रकार (वत्सम् इच्छन्ती) अपने बछड़े की प्यारी गौ (हिंकृण्वती) अपने वत्स के प्रति प्रेमहिंकार शब्दपूर्वक उसको चूमती हुई (मनसा अभि आ अगात्) चित्त से स्नेहपूर्वक गृह के बछड़े के समीप आ जाती है और वह (वसूनां) मनुष्यों के (वसुपत्नी) अन्न, दुग्ध, घृत आदि सब ऐश्वर्यों और बाल-वृद्धादि सबको पालने वाली होती है । (इयं अघ्न्या) वह कभी वध न करने योग्य एवं सदा पालने योग्य होकर (अश्विभ्यां) स्त्री-पुरुषों के लिये (पयः दुहाम्) दूध प्रदान करती है और (सा महते सौभगाय) वह बड़े भारी सौभाग्य की वृद्धि के लिये (वर्धतां) वृद्धि को प्राप्त हो । उसी प्रकार (वसूनां वसुपत्नी) समस्त लोकों में बसनेवाले जीवों को पालन करनेवाली और (मनसा) ज्ञानपूर्वक (वत्सम् इच्छन्ती) बसे हुए इस लोक रूप वत्स को प्रेम चाहती हुई, प्रभु की परमेश्वरी शक्ति (हिंकृण्वती) वेद-द्वारा ज्ञानोपदेश करती हुई, (अभि आ अगात्) साक्षात् दिखाई देती है । (इयं) वह (अघ्न्या) अविनाशिनी होने से ‘अघ्न्या’ है। वह (अश्विभ्यां) इन्द्र, वायु और आत्मा और मन दोनों को (पयः दुहाम्) पुष्टिप्रद सामर्थ्य प्रदान करती है । उत्तम ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये (वर्धताम्) सबसे बढ़कर है और वह हमें बढ़ावे ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में गोवध का निषेध है और उसके पालन करने की आज्ञा है ।
(32) न वि जानामि यदि वेदमस्मि निण्यः सन्नद्धो मनसा
चरामि ।
यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे
भागमस्याः ।।37।।
अ0 3 व021। 37 अ022 सू0164 अष्टक 2 मंडल 1 खण्ड 2 पृष्ठ 299
08. इन्द्रियों के ज्ञान से आत्मा परे
(16) न वि जानामि यदि वेदमस्मि निण्यः सन्नद्धो मनसा
चरामि । यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे
भागमस्याः ।।37।।
अ0 3 व021। 37 अ022 सू0164 अष्टक 2 मंडल 1 खण्ड 2 पृष्ठ 299
भा0 - (यत् इव) जिस तरह का (इदम् अस्मि) यह मैं हूँ सो (न विजानामि) मैं विशेष रूप से नहीं जानता हूँ । मैं तो वस्तुतः (मनसा) अपने मननशील, मनोरूप अन्तःकरण से (संनद्धः) अच्छी प्रकार बँधा हुआ और (निण्यः) उसी में छिपा हुआ (चरामि) विचरता हूँ । या समस्त सुख-दुःखादि को भोगता हूँ । और (यदा) जब (ऋतस्य) सत्यस्वरूप परमेश्वर के संकल्प से उत्पन्न (प्रथमजाः) सबसे प्रथम उत्पन्न ज्ञान या सर्वश्रेष्ठ विकास पंच तन्मात्रएँ, विषयग्राही इन्द्रिय रूप ज्ञान साधन (मा आ अगन्) मुझे प्राप्त होती हैं, (आत् इत्) तभी (अस्याः) इस (वाचः) वाणी के द्वारा (भागम्) भजन करने योग्य परमब्रह्म अथवा (वाण्याः भागं) वेदवाणी के भाग अर्थात् प्रतिपाद्य सत्यज्ञान को मैं (अश्नुवे) प्राप्त करता हूँ । (अथर्व0 9। 10 15) ।
टिप्पणी - सांसारिक अथवा अनात्म पदार्थों का ज्ञान मन, बुद्धि और इन्द्रियों से होता है, परन्तु ‘यह मैं हूँ’ अर्थात् मैं आत्मस्वरूप में यह हूँ ; ऐसा ज्ञान, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से नहीं होता है । इसलिए इस मन्त्र से यह बोध होता है कि शरीरस्थ आत्मा इन्द्रियों के ज्ञान से परे है । यही इस मन्त्र में कहा गया है ।
(33) अर्वाचीनं सु ते मन उत चक्षुः शतक्रतो ।
इन्द्र
कृणवन्तु वाघतः ।। 2 ।।
अ0 2 व0 20।2 अ0 2 सू0 37 अष्टक 3 मंडल 3 खंड 3 पृष्ठ 192
09. अपने अभिमुख दृष्टियोग
(33) अर्वाचीनं सु ते मन उत चक्षुः शतक्रतो । इन्द्र
कृणवन्तु वाघतः ।। 2 ।।
अ0 2 व0 20।2 अ0 2 सू0 37 अष्टक 3 मंडल 3 खंड 3 पृष्ठ 192
भा0 - हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! तेजस्वी पुरुष! हे (शतक्रतो) अनेक उत्तम प्रज्ञाओं और कर्मोंवाले! (वाघतः) जो वाणी द्वारा दोषों का नाश करनेवाले और शास्त्रें और उत्तम उपायों को धारण करनेवाले विद्वान पुरुष हैं (ते) वे (मनः) मन, ज्ञान को और (चक्षुः) आँखों वा दर्शन शक्ति को (अर्वाचीनं) अपने अभिमुख वृद्धिशील (कृण्वन्तु) करें ।
(2) परमात्म पक्ष में - हे इन्द्र! परमेश्वर (वाघतः) विद्वान लोग अपने मन और भीतरी चक्षु को (ते अर्वाचीनं कृण्वन्तु) तेरे प्रति प्रवृत्त करें ।
टिप्पणी - इस मन्त्र-द्वारा अपने अन्दर में अभिमुख (सामने) दृष्टियोग करने की आज्ञा है ।
(34) आदिद्ध नेमे इन्द्रियं यजन्त आदित्पक्तिः पुरोडाशं
रिरिच्यात् ।
आदित्सोमो वि पपृच्यादसुष्वीनादिञ्जुजोष वृषभं अजध्यै ।। 5।।
अ0 6 व0 11 । 5 अ0 3 सू0 24 अष्टक 3 मंडल 4 खंड 3 पृष्ठ 497
(35) सहस्त्रे पृषतीनामधिश्चन्द्रं बृहत्पृथु । शुक्रं हिरण्यमाददे ।। 11।।
अ0 4 । व047। 11 अ0 7 सू0 65 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 625
10. वीर्यसंचय, दमशील का महत्त्व और ऊर्ध्वरेता ।
(34) आदिद्ध नेमे इन्द्रियं यजन्त आदित्पक्तिः पुरोडाशं
रिरिच्यात् । आदित्सोमो वि पपृच्यादसुष्वीनादिञ्जु-
जोष वृषभं अजध्यै ।। 5।।
अ0 6 व0 11 । 5 अ0 3 सू0 24 अष्टक 3 मंडल 4 खंड 3 पृष्ठ 497
भा0 - (आत् इत्) अनन्तर (नेमे) कुछ जन (ह) निश्चय से (इन्द्रियं) इन्द्र, आत्मा के ऐश्वर्य को (यजन्ते) प्राप्त करते हैं और (आदित्) अनन्तर (पक्तिः) परिपाक जिस प्रकार (पुरोडाशं) उत्तम अन्न को (रिरिच्यात्) अधिक गुण सम्पन्न कर देता है, उसी प्रकार (पक्तिः) ज्ञान और तप की परिपक्वता (पुरोडाशं) प्रस्तुत किये आत्मा को (रिरिच्यात्) अधिक शक्तिशाली बना देता है । (आत् इत्) और अनन्तर (सोमः) शरीर के ऐश्वर्य को बढ़ानेवाला वीर्य का वीर्यवान पुरुष (असुष्वीन्) प्राणों द्वारा चलनेवाले इन्द्रियगण को (वि पपृच्यात्) विषय सम्पर्क से शिथिल करने में समर्थ होता है । (आत् इत्) उसके अनन्तर वह (वृषभं) अन्तःकरण सुखों की वर्षा करनेवाले धर्म मेघ रूप प्रभु को (यजध्यै) उपासना करने और प्राप्त करने के लिये (जुजोष) प्रेमपूर्वक चाहने लगता है । (2) राष्ट्रपक्ष में - नियन्ता लोग इन्द्र, राजा के राष्ट्र को सुसंगत सुव्यवस्थित करें । परिपाक उत्तम अन्न को और गुणकारी करें, खेती पके पर काटी जाय । (असुष्वीन्) प्राणी जनों को (सोमः) अन्न, औषधि रस विशेष रूप से पुष्ट करें और लोग बलवान ऐश्वर्य दाता, प्रबंधक को प्राप्त करने में प्रेम-भाव दर्शावें ।
टिप्पणी - इस मंत्र में वीर्य वा वीर्यवान पुरुष दमशील होकर ईश्वर-दर्शन में प्रेम करने लगता है, इसी बात का वर्णन है ।
(35) सहस्त्रे पृषतीनामधिश्चन्द्रं बृहत्पृथु । शुक्रं हि-
रण्यमाददे ।। 11।।
अ0 4 । व047। 11 अ0 7 सू0 65 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 625 भा0 - (पृषतीनाम् सहस्त्रे अधि) सहस्त्रों सुखवर्षक वाणियों या नाड़ियों के भी ऊपर सहस्त्र नाड़ियों से युक्त मूर्धा में (बृहत् पृथुः) बड़े विस्तृत (चन्द्रं) आीांदजनक (शुक्रम् हिरण्यं) हितकारी सुखप्रद कान्तियुक्त वीर्य को (आददे) धारण करूँ, मैं ऊर्ध्वरेता होऊँ ।
(36) ई जे यज्ञेभिः शशमे शमीभिऋर्धद्वारायाग्नये
ददाश ।
एवा चन तं यशसामजुष्टिर्नां हो मर्त्तं
नशते न प्रदृप्तिः ।।2।।
अ0 5 व0 2 । 2 अ0 1 सू0 3 अष्टक 3 मंडल 6 खंड 4 पृष्ठ 185
11. सत्संग यज्ञ
(36) ई जे यज्ञेभिः शशमे शमीभिऋर्धद्वारायाग्नये
ददाश । एवा चन तं यशसामजुष्टिर्नां हो मर्त्तं
नशते न प्रदृप्तिः ।।2।।
अ0 5 व0 2 । 2 अ0 1 सू0 3 अष्टक 3 मंडल 6 खंड 4 पृष्ठ 185
भा0 - जो पुरुष (यज्ञेभिः) दान, देवपूजन और सत्संगों से (ई जे) यज्ञ करता है, (शमीभिः शशमे) उत्तम कर्मों से अपने को शान्त करता है वा उत्तम शान्तिजनक उपायों और स्तुतियों से अपने को शान्त करता या प्रभु की स्तुति करता है और जो (ऋधद्वाराय) सम्पन्न, समृद्ध करनेवाले - धनों और व्यवहारों से युक्त (अग्नये) ज्ञानवान पुरुष के हित के लिये (ददाश) अग्नि में आहुति के तुल्य ही दान करता है । (एव चन) इस प्रकार निश्चय से (तं) उसको (यशसाम् अजुष्टिः) यशों और अन्नों का अभाव (न नशते) प्राप्त नहीं होता, (तं मर्त्तं) उस मनुष्य को (अंहः न नशते) पाप भी स्पर्श नहीं करता और उसको (प्रदृप्तिः न नशते) भारी दर्प, घमण्ड वा मोह भी नहीं होता । अथवा अन्नों की कमी, पाप वा दर्प आदि उसे नष्ट नहीं कर सकते ।
टिप्पणी - इस मंत्र से विदित होता है कि सत्संग करना भी यज्ञ करना है ।
(37) त्वामीडे अध द्विता भरतो वाजिभि शुनम् । ईजे यज्ञेषु यज्ञियम् ।। 4।।
अ0 5 व021। 4 अ02 सू0 16 अष्टक 3 मण्डल 6 खंड 4 पृष्ठ 245
12. निर्गुण और सगुण उपासना
(37) त्वामीडे अध द्विता भरतो वाजिभि शुनम् । ईजे यज्ञेषु यज्ञियम् ।। 4।।
अ0 5 व021। 4 अ02 सू0 16 अष्टक 3 मण्डल 6 खंड 4 पृष्ठ 245
भा0 - हे (अग्ने) सर्वप्रकाशक! (भरतः) मनुष्य मात्र (शुनम्) सुखप्रद सर्वव्यापक (त्वाम्) तुझको (द्विता) अर्थात् सगुण और निर्गुण दोनों प्रकारों से ही (वाजिभिः) ज्ञानयुक्त उपायों से (ईडे) उपासना करे । और (यज्ञेषु) यज्ञों में (यज्ञियम्) पूज्य तुझको (ईजे) प्राप्त होता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र से यही ज्ञात होता है कि सगुण और निर्गुण; दोनों रूपों में परमात्मा की उपासना वेदानुकूल है ।
मानस जप और मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है । एकविन्दुता वा अणु से भी अणु रूप प्राप्त करने के लिए अभ्यास करना तथा आन्तरिक विविध ज्योतियों का दर्शन सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है, सारशब्द अर्थात् शब्दब्रह्म-स्फोट1 के अतिरिक्त दूसरे सब अनहद नादों का ध्यान सूक्ष्म, कारण और महाकारण सगुण अरूप उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण अरूप उपासना है । सम्पूर्ण उपासना की यहीं समाप्ति है । उपासना को सम्पूर्णतः समाप्त किये बिना शब्दातीत पद (अनाम) तक अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुँच प्राप्त कर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात् अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असम्भव है ।
पतञ्जलि ने महाभाष्य में शब्द की परब्रह्म से समता दिखाई है ।
चत्वारि शृंगा त्रयोऽअस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्ता
सोऽअस्य त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवोमर्त्यां 2
आविवेश ।।
अ0 17 मन्त्र 91।1 खण्ड 1 (यजुर्वेद संहिता)
[1- अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते । (योगशिखोपनिषद् अध्याय 3) - अक्षर (अनाश) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं ।]
4 सींग - नाम, आख्यात (क्रियापद), उपसर्ग और निपात; तीन पद - भूत, भविष्यत् और वर्तमान, दो शिर - शब्द नित्य और अनित्य । सात हाथ - सात विभक्तियाँ । यह शब्द तीन स्थान पर बद्ध है - छाती में, कंठ में और शिर में। सुनने से सुख का वर्षण करता है, वह शब्द करता, उपदेश देता है और ध्वनि रूप होकर समस्त मरणधर्मा प्राणियों में विद्यमान है ।
(पतंजलि मुनि । व्याकरण महाभाष्य अ0 1)
‘वेद संहिता, टीकाकार आर्य पंडित जयदेव शर्मा, अजमेर’ ।
इस मन्त्र की व्याख्या में महाभाष्यकार पतंजलि मुनि ने कहा है कि शब्द रूपी महान देव मनुष्यों में आकर प्रविष्ट हुआ है अर्थात् परब्रह्म स्वरूप और अन्तर्यामि रूप शब्द मनुष्यों में पैठ गया है। जो पुरुष व्याकरण शास्त्र के ज्ञानपूर्वक शब्दों को संस्कार के साथ व्यवहार में लाता है, वह पाप-रहित हो जाता है, और इस अन्तः प्रविष्ट शब्दब्रह्म के साथ पूर्णरूप से मिल जाता है ।
यही अन्तःप्रविष्ट नित्य शब्द सम्पूर्ण जगदादि प्रपंच को विस्तारित करता है । यह शब्दरूप ब्रह्म आदि और अन्त-रहित है । यह अक्षर है अर्थात् विकार-शून्य है । यही जगत के रूप में भासित होता है । इसी शब्द-ब्रह्म से जगत की रचना होती है । इस विषय को महावैयाकरण भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में कहा है; यथा -
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।।
अर्थात् अवयव-रहित (खण्ड-रहित) नित्य शब्द जिसको वैयाकरण स्फोट कहते हैं, संसार का अनादि कारण है और ब्रह्म ही है । वह ब्रह्म सत्ता सभी शब्दों का वाच्य है । वह स्फोट रूप वाचक शब्द से भिन्न नहीं है । जो भेद दीख पड़ता है, वह ‘आवरण’ से ही या कल्पना से ही । जो पुरुष शब्दब्रह्म को ठीक-ठीक अवगत कर लेता है, वह परब्रह्म को पाता है अर्थात् उसमें अवस्थित होता है।’1
[1 स्वर्गीय प्रोफेसर रामनारायण शर्मा, भूतपूर्व अधीक्षक, संस्कृत एसोसिएशन, बिहार तथा प्रधान प्रोफेसर (Head of Department) संस्कृत विभाग, लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर ।]
कुछ लोग सब शब्दों को नित्य मानते हैं । कुछ लोग सब शब्दों को आकाश का गुण कहकर अनित्य ही मानते हैं, परन्तु सन्तवाणी के अनुकूल नित्य और अनित्य; दोनों प्रकार के शब्द हैं । नित्य शब्द केवल एक ही है, जिसको सन्तगण आकाश का गुण नहीं कहते हैं; परन्तु जिसकी उत्पत्ति को स्वयं परम प्रभु परमात्मा से ही बतलाते हैं । यह विचार योगशिखोपनिषद् में उपर्युक्त आर्य पंडित श्री जयदेव शर्मा तथा संस्कृत प्रोफेसर स्वर्गीय रामनारायण शर्मा के अर्थों से पूर्णरूपेण मिलता है । सन्तगण इस शब्द को परमप्रभु परमात्मा का निर्गुण नाम भी कहते हैं । नित्य और अक्षर होने के कारण इसको निर्गुण नाम वा निर्गुण शब्द अवश्य कहना चाहिए । इसी शब्द से सब सृष्टि हुई है, सन्तगण यह भी मानते हैं ।
गोरखपुर से निकलनेवाले संवत् 1993 के वेदान्तांक, पृष्ठ 270 के शब्दाद्वैतवाद और नादानुसन्धान शीर्षक लेखों से विदित होता है कि संसार की रचना शब्द से हुई है । यह श्रीमदाद्यशंकराचार्य भी मानते हैं और वह नादानुसन्धान की स्तुति करते हुए बतलाते हैं कि इस साधन के द्वारा विष्णु का परमपद अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है ।
नादानुसन्धान, पृ0 261
लेखक - स्वामीजी श्री एकरसानन्दजी सरस्वती महाराज ।
भगवान शंकराचार्यजी ने मन के लय का सर्वोत्तम साधन - नादानुसन्धान, अपने ‘योगतारावलि’ ग्रन्थ में नीचे के श्लोकों में बतलाया है -
सदाशिवोक्तानि सपादलक्षलयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसन्धानसमाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।।
नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।
सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।
योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिवजी ने मन के लय होने के सवा लक्ष साधन बतलाये हैं, उन सबमें नादानुसन्धान सुलभ और श्रेष्ठ है । हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन - ये दोनों विष्णु के परमपद में लय हो जायेंगे । योग-साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो, तो सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो ।
शब्दाद्वैतवाद, पृ0 270
(लेखक श्री वी-कुटुम्ब शास्त्री)
भर्तृहरि ने अपने प्रसिद्ध ‘वाक्यपदीय’ में शब्दाद्वैत का प्रवर्तन किया । इस शब्दाद्वैतवाद का ही दूसरा नाम स्फोटवाद वा प्रणवनाद है ।
शब्द तत्त्व विश्व का कारण है और उसकी एकता शाङ्कर अद्वैत ब्रह्म से की जाती है । केवल शुद्ध ब्रह्म के बदले शब्दब्रह्म का प्रयोग करते हैं । वेद भी इसी तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं कि इस विश्व का कारण शब्द ही है -
वागेवार्थं पश्यति वाग्ब्रवीति वागेवार्थं सन्निहितं सन्तनोति ।
वाचैव विश्व बहुरूपं निबद्धं तदेतदेकं प्रविभज्योपभुघ्क्ते ।।
और - वागेव विश्वा भुवनानि यज्ञे वाच इत्सर्वममृतं मर्त्यं च ।
* अर्थ - शब्द के द्वारा ही अर्थ देखते हैं, शब्द को ही बोलते हैं, शब्द में ही मिले हुए अर्थ का विस्तार करते हैं, शब्द के द्वारा ही यह संसार नाना रूपों में बँटा हुआ है, उस बँटे हुए से एक भाग लेकर हमलोग उपभोग करते हैं । और - शब्द से ही विश्व विकसित हुआ, शब्द ही अमृत और मृत्युस्वरूप है । यहाँ श्रुति कह रही हैं कि विश्व शब्द से विकसित हुआ ।
शङ्कराचार्य भी यही मानते हैं कि संसार की रचना शब्द से हुई है, जो उसके अनुसार उपादान कारण है-
न चेदं शब्दप्रभवत्वं ब्रह्मप्रभवत्वं बहूपादानकारणत्वाभिप्रायेण।
* इस शब्द की उत्पत्ति का ब्रह्म की उत्पत्ति के समान उपादान कारण नहीं है ।
[* वेदान्ताङ्क में अर्थ नहीं दिया हुआ है, यह अर्थ पं0 कमलाकान्त उपाध्याय, व्याकरणाचार्य, वेदान्ताचार्य, साहित्याचार्य, काव्यतीर्थ, हिन्दीरत्न,संगीत सुधाकर, हेड पं0एस0एस0 इन्स्टिच्यूशन,भागलपुर से कराकर छापा गया है ।]
पुनः गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के निम्नलिखित चौपाइयों से भी विदित होता है कि ‘रामनाम’ निर्गुण है ।
‘बंदउँ राम नाम रघुवर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।।
विधि हरिहर मय वेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ।’
जाके लगी अनहद तान हो, निरवान निरगुन नाम की ।। 1 ।।
जिकर करके सिखर हेरे, फिकर रारंकार की ।। 2 ।।
(जगजीवन साहब)
निरगुन निरमल नाम है, अवगत नाम अवंच ।
नाम रते सो धनपती, और सकल परपंच ।।
(गरीबदासजी)
सन्तो सुमिरहु निर्गुन अजर नाम । सब विधि पूंजी सुफल काम।।1।।
(दरिया साहब, बिहारी)
शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।। 8।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।58।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा । सब कोइ करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता । नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।61।।
हाट बाट शब्द का खेलु । बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।
सारी स्त्रिष्टि शब्द के पाछै । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।62।।
(गुरु नानक)
साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।। टेक ।।
शब्दहि गुरू शब्द सुनि सिष भे, शब्द सो बिरला बूझे ।
सोई सिष्य सोई गुरू महातम, जेहि अंतर गति सूझे।।1।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै ।
सब्दै सुरमुनि संत कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै ।।2।।
सब्दै सुनि-सुनि भेष धरत हैं, सब्द कहै अनुरागी ।
षट दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै बैरागी।।3।।
सब्दै माया जग उतपानी, सब्दै केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ सब्द होत है, तवन भेद है न्यारा।।4।।
(कबीर साहब)
ओ3म् सयोजत उरुगास्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः।।
सा0 उ0 अ0 8 मं0 3
सारांश-इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, जिह्वा, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता । वह तो इन्द्रियातीत है । हाँ, वह पूर्व मंत्रोक्त परमहंस योगी, उस अनाहत नाद से सम्पन्न परमात्मा को, जिसकी ज्योति शरीर के बाहर और भीतर चन्द्र सूर्यादि अनेकों लोक-लोकान्तरों में तेज और नाना प्रकार की ज्योतियाँ प्रकट करती है, और उस सोम को जो विस्पष्ट प्रकाश से युक्त होकर दिन और रात प्रकाशित होता है, प्राप्त करते हैं ।
वेद के इस मन्त्र से पूर्णरूपेण स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि शब्द से हुई है ।
(38) मायाभिरुत्सिसृप्सत इन्द्र द्यामारुरुक्षतः अवदस्यूँ-रधूनुथा ।। 14 ।।
अ0 1 व0 16 । 14 अ0 3 सू0 14 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 315
13. प्रकाशमय प्रभुपद वा मूर्धा की ओर आरोहण
(38) मायाभिरुत्सिसृप्सत इन्द्र द्यामारुरुक्षतः अवदस्यूँ-रधूनुथा ।। 14 ।।
अ0 1 व0 16 । 14 अ0 3 सू0 14 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 315
भा0- हे (इन्द्र) सत्यदर्शिन्! शत्रुहन्तः! तू (मायाभिः) नाना बुद्धियों से (उत्-सिसृप्सतः) ऊपर जाना चाहते हुए और (द्याम्) तेजोयुक्त प्रभुपद वा शिरोभाग के मूर्धा स्थान की ओर (आरुरुक्षतः) आरोहण करनेवाले सज्जनों की रक्षा कर और (मायाभिः) छल- कपटादि से ऊँचे जानेवाले (द्याम्) भूमि राज्य पर (आरुरुक्षतः) आरूढ़ होनेवाले (दस्यून् अव अधूनुथाः) दस्युओं को नीचे गिरा दे । अर्थापत्ति के बल से यहाँ सज्जनों को वृद्धि करने का अभिप्राय है ।
टिप्पणी-इस मन्त्र में योगी की रक्षा करने की प्रार्थना है । मूर्धा स्थान की ओर आरोहण करनेवाला योगी होता है ।
(39) यदग्ने मर्त्यस्त्वं स्यामहं मित्रमहो अमर्त्यः ।
सहसः सुनवाहुत ।। 25 ।।
अ01 व033। 25अ0 3 सू019 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 347
(40) यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा घा स्या अहम् ।
युष्टे सत्या इहाशिवः ।। 23 ।।
अ0 3 व0 40। 23 अ0 6 सू0 44 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 520
14. ब्रह्म और जीव में अभेद का संकेत
(39) यदग्ने मर्त्यस्त्वं स्यामहं मित्रमहो अमर्त्यः ।
सहसः सुनवाहुत ।। 25 ।।
अ01 व033। 25अ0 3 सू019 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 347
भा0- जिस प्रकार आहुतिवाले अग्नि में जो कुछ पड़ता है, वह अग्नि ही हो जाता है । उसी प्रकार हे (सहसः सूनो) बल से उत्पन्न करने, प्रेरनेवाले, हे (आहुत) उपासना योग्य! (अग्ने) ज्ञानवन् वा अग्निवत् तेजस्विन्! हे (मित्र-महः) स्नेहवान मित्रें से पूजनीय, मित्रें के आदर करनेहारे! (यत्) जो (मर्त्यः) मनुष्य (अहं त्वं स्याम्) मैं तू हो जाऊँ, इस प्रकार उपासना करता है, वह भी (अमर्त्यः) अविनाशी वा अन्य साधारण मरणधर्मा प्राणियों से भिन्न तेरे समान ही हो जाता है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में ब्रह्म और जीव में अभेद भाव होने की झलक है ।
(40) यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा घा स्या अहम् ।
युष्टे सत्या इहाशिवः ।। 23 ।।
अ0 3 व0 40। 23 अ0 6 सू0 44 अष्टक 6 मंडल 8 खंड 5 पृष्ठ 520
भा0 - हे (अग्ने) ज्ञानवन्! हे प्रभो! (यद्) यदि (अहं त्वं स्याम्) मैं तू हो जाऊँ (त्वं वा घा अहम् स्याः) और तू मैं बन जावे, तब (इह) इस लोक में (ते आशीषः सत्याः स्युः) तेरी कामनाएँ, वा तेरे विषय में मेरी भावनाएँ सत्य हों ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में भी जीव के ब्रह्म बन जाने की बात कही गयी है ।
(41) स सुतः पीतये वृषा सोमः पवित्रे अर्षति ।
विघ्न न्रक्षांसि देवयुः ।। 1 ।।
अ0 8 व0 27 । 1 अ0 2 सू0 37 अष्टक 6 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 92
15. उपासित होकर ईश्वर हृदय में प्रकट होता है
(41) स सुतः पीतये वृषा सोमः पवित्रे अर्षति ।
विघ्न न्रक्षांसि देवयुः ।। 1 ।।
अ0 8 व0 27 । 1 अ0 2 सू0 37 अष्टक 6 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 92
भा0 - (सः) वह (वृषा) समस्त सुखों का वर्षक (सोमः) सकल जगत का उत्पादक प्रभु (सुतः) उपासित होकर (पवित्रे) पवित्र हृदय में (अर्षति) प्रकट होता है । वह (देवयुः) उपासकों का स्वामी (रक्षांसि) सब विघ्नों और दुष्टों का (विघ्नन्) विनाश करनेहारा होता है ।
टिप्पणी – परमात्मा - ईश्वर साधक भक्त को उसके अन्दर में दर्शन देता है ।
(42) स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः । अभि योनिं कनिक्रदत् ।। 2 ।।
अ0 8 व0 27 । 2 अ0 2 सू0 37 अष्टक 6 मंडल 1 खंड 6 पृष्ठ 92
16. परमात्मा पवित्र हृदय में प्रकट होता है
(42) स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः । अभि योनिं कनिक्रदत् ।। 2 ।।
अ0 8 व0 27 । 2 अ0 2 सू0 37 अष्टक 6 मंडल 1 खंड 6 पृष्ठ 92
भा0 - (सः) वह (विचक्षणः) विशेष रूप से देखनेवाला, (हरिः) सर्वदुःखहारी, (योनिम् अभि कनिक्रदत्) विश्वरूप गृह को व्यापता हुआ (धर्णसिः) धारण करनेवाला (पवित्रे अर्षति) पवित्र हृदय में भी प्रकाशित होता है ।
टिप्पणी - परमात्मा पवित्र हृदय में प्रकाशित होता है ।
सूचै भाड़ै साँचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
(गुरु नानक)
(43) आ योनिमरुणो रुहद् गमदिन्द्रं वृषा सुतः ।
ध्रुवे सदसि सीदति ।
अ0 8 व0 30 । 2 अ0 2 सू0 40 अष्टक 6 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 97
17. परमात्मा तक आरोहण
(43) आ योनिमरुणो रुहद् गमदिन्द्रं वृषा सुतः ।
ध्रुवे सदसि सीदति ।
अ0 8 व0 30 । 2 अ0 2 सू0 40 अष्टक 6 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 97
भा0 - (अरुणः) तेजोमय, अप्रतिहत सामर्थ्यवाला (वृषा) बलवान सुखवर्षी (सुतः) अति पवित्र, अभिषिक्तवत् स्वच्छ (जीव योनिम्) आश्रय रूप (इन्द्रम् आ रुहत्) उस ऐश्वर्यवान प्रभु को प्राप्त हो, उस तक चढ़ जावे और (सदसि) राजसभा में सभापति के समान उस (ध्रुवे) ध्रुव, निष्प्रकम्प, (सदसि) शरण- योग्य परमेश्वर में (सीदति) स्थिति प्राप्त करे ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में परमात्मा तक अति पवित्र जीव का, ऊपर आरोहण (चढ़ाई) होने तथा परमात्मा के ध्रुव वा निश्चल होने का वर्णन है ।
कबीर साहब, गुरु नानक साहब तथा पलटू साहब आदि सन्तों ने भी परमात्म-स्वरूप को ध्रुव बतलाया है और उस तक आरूढ़ होने का विचार दिया है -
‘आवै जाय सो माया साधो, आवै जाय सो माया ।
है प्रतिपाल काल नहि ताके, ना कहुँ गया न आया ।।’
‘ऊँचा महल अगमपुर जहँवा, सन्त समागम होय ।
जो कोइ पहुँचै वही नगरिया, आवागमन न होय ।।’
‘कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल ।
पाँव न टिकै पिपीलिका, पंडित लादै बैल ।।’
‘डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास ।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।।’
(कबीर साहब)
‘निहचल एक सदा सचु सोई । पूरे गुर ते सोझी होई ।।’
‘तारा चढ़िआ लंमा किउ नदरि निहालिया राम ।।’
(गुरु नानक)
‘रूह करे मेराजु कुफर का खोलि कुलाबा।।’
(पलटू साहब)
‘चलो चढ़ो मन यार महल अपने ।’
(दूलन दासजी)
‘चढ़त-चढ़त अस चढ़ि गये, जहाँ अकास इकईस ।
लगे चरित देखन सभे, भयो सो ध्यानिक ईस ।।’
(जगजीवन साहेबजी के शिष्य नवल दासजी)
‘निहचल सदा चलै नहिं कबहूँ, देख्या सब में सोई ।
ताही सूँ मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ।।’
(सन्त दादू दयालजी)
विशेष जानकारी के लिये ‘सत्संग-योग’ तथा अन्यान्य सन्त वाणियों को पढ़कर देखिये ।
(44) स मृज्यमानो दशभिः सुकर्मभिः प्र मध्यमासु
मातृषु प्रमे सचा ।
व्रतानि पानो अमृतस्य चारुण
उभे नृचक्षा अनु पश्यते विशौ ।। 4 ।।
अ0 2 व0 23। 4 अ0 4 सू0 70 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 207
18. धर्म के दस लक्षण
(44) स मृज्यमानो दशभिः सुकर्मभिः प्र मध्यमासु
मातृषु प्रमे सचा । व्रतानि पानो अमृतस्य चारुण
उभे नृचक्षा अनु पश्यते विशौ ।। 4 ।।
अ0 2 व0 23। 4 अ0 4 सू0 70 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 207
भा0 - (सः) वह विद्वान पुरुष (दशभिः सुकर्मभिः) दसों धर्म के लक्षण धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध अथवा पाँच यम - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और पाँच नियम - शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान; इन दश (सुकर्मभिः) शुभ कर्मों द्वारा (मृज्यमानः) पवित्र, स्वच्छ होता हुआ, (मध्यमासु) मध्यम, बीच की (मातृषु) मातृ-तुल्य प्रेमयुक्त व्यक्तियों गुरुजनों के बीच (प्रमे) उत्तम ज्ञान प्राप्त करने के लिये (प्र सचा) अच्छी प्रकार स्थिरता से रहे । वह (व्रतानि पानः) व्रतों यम-नियमादि पालनीय कर्मों को पालन करता हुआ (नृचक्षाः) नेता जनों वा मनुष्यों वा अपनी आत्मा को देखता हुआ (विशौ उभे अनु) दोनों उत्तम और निकृष्ट स्थावर-जंगम वा मानव-तिर्यघ् दोनों प्रजाओं को बीच में (अमृतस्य चारुणः) अमृत, अविनाशी भोक्ता आत्मा का (पश्यते) साक्षात् करता है । अथवा - (चारुः अमृतस्य व्रतानि पानः उभे विशौ अनु पश्यते) वह शासकवत् अमृत, सर्वव्यापक प्रभु के नियमों का पालन करता हुआ दोनों प्रजाओं पर कृपादृष्टि रखता है ।
(45) पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि
विश्वतः ।
अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास
इद्वहृन्तस्तत्समाशत ।। 1।।
अ0 3 व0 8। 1 अ0 4 सू0 83 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 253
19. सत्संग-तप से पवित्र नहीं होनेवाले को ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती है ।
(45) पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि
विश्वतः । अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास
इद्वहृन्तस्तत्समाशत ।। 1।।
अ0 3 व0 8। 1 अ0 4 सू0 83 अष्टक 7 मंडल 9 खंड 6 पृष्ठ 253
भा0 - हे (ब्रह्मणः पते) वेद ज्ञान के स्वामिन्! हे महान ब्रह्माण्ड, अपार बल और ज्ञान के पालक प्रभो! (ते) तेरा (पवित्रम्) परम पावन ज्ञान और तेज (विततं) विस्तृत रूप से व्यापक है । तू (प्रभुः) सबका स्वामी, शक्तिमान होकर (विश्वतः) सब ओर (गात्राणि परि एषि) संसार के समस्त अवयवों को व्याप रहा है (अतप्त-तनूः) जिसने अपने को ब्रह्मचर्य, सत्य-भाषण, शम, दम, योगाभ्यास, जितेन्द्रिय, सत्संगादि तपश्चर्या से तप्त नहीं किया, वह (आमः) कच्चा, अपरिपक्व वीर्य और मतिवाला पुरुष (तत्) उस परम पावन स्वरूप ब्रह्म को (न अश्नुते) नहीं प्राप्त होता और (शृतासः) जिन्होंने तप से अपने को तप्त कर लिया है, जो मन से शुद्ध हैं, वह (इत् वहन्तः) तप का आचरण करते हुए (तत् सम् आशत) उसको प्राप्त होते हैं ।
(46) नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा
परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः
किमासीद् गहनं गंभीरम् ।। 1।।
अ0 7 व0 17।1 अ0 11 सू0 129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 531
(47) तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा
इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ।।2।।
अ0 7 व017। 3 अ0 11 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 532
20. न सत् था और न असत् था, सृष्टि के पूर्व में तमस् था ।
(46) नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा
परो यत् । किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः
किमासीद् गहनं गंभीरम् ।। 1।।
अ0 7 व0 17।1 अ0 11 सू0 129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 531
भा0 - (तदानीम्) इस जगत के उत्पन्न होने के पूर्व (न असत् आसीत्) न असत् था (नो सत् आसीत्) और न सत् था । (न रजः आसीत्) उस समय रजस् अर्थात् नाना लोक भी न थे । (नो व्योम) न यहाँ परम आकाश था । (यत् परः) जो उससे भी परे है, वह भी न था । उस समय (किम् आ अवरीवः) क्या पदार्थ सबको चारों ओर से घेर सकता था ? कुछ नहीं । (कुह) यह सब फिर कहाँ था और (कस्य शर्मन्) किसके आश्रय में था । तो फिर (किम्) क्या (गहनं गंभीरम् अम्भः आसीत्) गहन, अर्थात् जिसमें किसी पदार्थ का प्रवेश न हो सके, ऐसा गम्भीर जिसके वार-पार का पता न लगे, ऐसा ‘अम्भस्’ (अप्-भस्) कोई व्यापक भासमान ‘आपः’ तत्त्व विद्यमान था ।
(47) तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा
इदम् । तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्म-
हिनाजायतैकम् ।।2।।
अ0 7 व017। 3 अ0 11 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 532
भा0 - (अग्रे) सृष्टि होने के पूर्व, (तमः आसीत्) ‘तमस्’ था । वह सब (तमसा गूढम्) तमस् से व्याप्त था । वह (अप्रकेतम्) ऐसा था कि उसका कुछ भी विशेष ज्ञान योग्य न था । वह (सलिलम्) सलिल एक व्यापक गतिमत् तत्त्व था, जो (सर्वम् इदम् आ) इस समस्त को व्यापे था। उस समय (यत्) जो था भी वह (तुच्छ्येन) तुच्छ सूक्ष्म रूप से (आभूअपिहितम्) चारों ओर का सब विद्यमान पदार्थ ढका था । (तत्) वह (तपसः महिना) तपस् के महान सामर्थ्य से (एकम्) एक (अजायत) प्रकट हुआ ।
(48) कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या
कवयो मनीषा ।। 4 ।।
अ0 7 व017। 4 अ011 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 532
21. सृष्टि से पूर्व की बातें
(48) कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदा-
सीत् । सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या
कवयो मनीषा ।। 4 ।।
अ0 7 व017। 4 अ011 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 532
भा0 - (अग्रे) सृष्टि के पूर्व में (तत्) वह (मनसःअधि) मन से उत्पन्न होनेवाली (कामः) इच्छा के समान एक कामना ही, (सम् अवर्तत) सर्वत्र विद्यमान थी, (यत् प्रथमम् रेतः आसीत्) जो सबसे प्रथम इस जगत का प्रारंभिक बीजवत् था । (कवयः) क्रान्तदर्शी तत्त्वज्ञानी पुरुष (हृदि प्रति इष्य) हृदय में पुनः पुनः विचार कर (असति) अप्रकट तत्त्व में ही (सतः बन्धुम्) सत् रूप प्रकट तत्त्व को बाँधनेवाला बल (निर् अविन्दन्) प्राप्त करते हैं ।
(49) तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि
स्विदासी3त् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा
अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ।। 5।।
अ0 7 व017। 5 अ011 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 533
(50) को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं
विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद
यत आबभूव ।।6।।
अ0 7 व0 17। 6अ0 11 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 533
(51) इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा
न वेद ।। 7 ।।
अ0 7 व0 17। 7 अ011 सू0 129अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 534
22. सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं जानता है ।
(49) तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि
स्विदासी3त् । रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा
अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ।। 5।।
अ0 7 व017। 5 अ011 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 533
भा0 - (एषाम्) इन पूर्वोक्त असत्, अम्भस, सलिल अर्थात् तपस् और काम, रेतस् अर्थात् रजस् और सत्; इन तीनों का (रश्मि) सूर्य रश्मि के समान रश्मि (तिरः चित् विततः) बहुत दूर-दूर तक व्याप्त हुआ, (अधः स्वित् आसीत्) नीचे भी रहा और (उपरिस्वित् आसीत्) ऊपर भी था । (रेतः धाः आसन्) उक्त ‘रेतस्’ को धारण करनेवाले तत्त्व भी थे। (महिमानः आसन्) वे महान सामर्थ्यवाले थे । (अवस्तात् स्वधा) नीचे ‘स्वधा’ और (परस्तात् प्रयतिः) उससे परे वह उत्कृष्ट यत्न आश्रय रूप था ।
(50) को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं
विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद
यत आबभूव ।।6।।
अ0 7 व0 17। 6अ0 11 सू0129 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 533
भा0 - (अद्धा कः वेद) सत्य-सत्य, ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? (इह कः प्रवोचत्) यहाँ या इस विषय में कौन उत्तम रीति से प्रवचन या उपदेश कर सकता है ? (कुतः आ जाता) यहाँ सृष्टि कहाँ से प्रकट हुई ? (इयं विसृष्टिः) यह विविध प्रकार का सर्ग (कुतः) किस मूल कारण से और क्यों हुआ ? (देवः) यह तेज से चलनेवाले सूर्य, चन्द्र आदि लोक भी (अस्य विसर्जनेन) इस जगत को विविध प्रकार से रचनेवाले मूल कारण से (अर्वाक्) पश्चात् ही हैं । (अथ कः वेद) तो फिर कौन उस तत्त्व को जानता है ? (यतः) जिससे यह जगत (आ बभूव) चारों ओर प्रकट हुआ ।
(51) इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा
न वेद ।। 7 ।।
अ0 7 व0 17। 7 अ011 सू0 129अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 534
भा0 - (इयं विसृष्टिः) यह विविध प्रकार की सृष्टि (यतः आ बभूव) जिस मूल तत्त्व से प्रकट हुई है (यदि वा दधे) और जो वह इस जगत को धारण कर रहा है (यदि वा न) और जो नहीं धारण करता (यः अस्य अध्यक्षः) जो इसका अध्यक्ष वह प्रभु (परमे व्योमन्) परम पद में विद्यमान है । (सः अंग वेद) हे विद्वन्! वह सब तत्त्व जानता है (यदि वा न वेद) चाहे और कोई भले ही न जाने ।
टिप्पणी - इन उपर्युक्त मन्त्रें से विदित होता है कि आदि की बातें परमात्मा के अतिरिक्त कोई अच्छी तरह नहीं जानते हैं । वायु को प्राण नहीं कहा गया है । इन मन्त्रें की कतिपय बातें सन्त कबीर साहब के निम्नलिखित पद्य से मिलती-जुलती है ।
यथा -
सखिया वा घर सबसे न्यारा, जहँ पूरन पुरुष हमारा ।।टेक।।
जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा ।
नहिं दिन रैन चन्द नहिं सूरज, बिना जोति उजियारा ।।1।।
नहिं तहँ ज्ञान ध्यान नहिं जप तप, बेद कितेब न बानी ।
करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब जहाँ हिरानी ।।2।।
धर नहिं अधर न बाहर भीतर, पिंड ब्रह्मण्ड कछु नाहीं ।
पाँच तत्त्व गुन तीन नहीं तहँ, साखी शब्द न ताही ।।3।।
मूल न फूल बेलि नहिं बीजा, बिना वृक्ष फल सोहै ।
ओअं सोहं अर्ध उर्ध नहिं, स्वासा लेख न कोहै ।।4।।
नहिं निर्गुण नहिं सर्गुण भाई, नहीं सूक्ष्म स्थूलं ।
नहीं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूलं ।।5।।
जहाँ पुरुष तहवाँ कछु नाहीं, कहै कबीर हम जाना ।
हमरी सैन लखै जो कोई, पावै पद निरवाना ।।6।।
(33) श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यन्दिनं परि ।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः।। 5।।
अ0 8 व0 9। 5 अ011 सू0151 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 599
23. त्रिकाल सन्ध्या
(33) श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यन्दिनं परि ।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः।। 5।।
अ0 8 व0 9। 5 अ011 सू0151 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 599
भा0 - हम (प्रातः श्रद्धां) प्रातःकाल में उस सत्य से जगत को धारण करनेवाले प्रभु-शक्ति की (हवामहे) प्रार्थना करते हैं । (मध्यं दिनं परि श्रद्धां हवामहे) दिन के मध्य काल में उस सत्यधारक प्रभु को ध्यान करते हैं । (सूर्यस्य निम्रुचि) सूर्य के अस्तकाल में भी हम उसी श्रद्धामय प्रभु की उपासना करते हैं । हे (श्रद्धे) श्रद्धे सत्य धारणावति देवि! तू (नः इह श्रद्धापय) हमें इस जगत में सत्य ही को धारण करा ।
टिप्पणी - यह मन्त्र त्रिकाल सन्ध्योपासना की आज्ञा देता है ।
(53) सच्छिध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।। 2।।
अ0 8 व0 49। 2अ0 12 सू0191 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 672
।। इति ऋग्वेदः ।।
24. आपस में सब मेल से रहो और ईश्वरोपासना करो:
(53) सच्छिध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।। 2।।
अ0 8 व0 49। 2अ0 12 सू0191 अष्टक 8 मंडल 10 खंड 7 पृष्ठ 672
भा0 - हे मनुष्यो! आपलोग (सं गच्छध्वं) परस्पर अच्छी प्रकार मिलकर रहो । (सं वदध्वम्) परस्पर मिलकर प्रेम से बातचीत करो, विरोध छोड़कर एक समान वचन कहो । (वः मनांसि) आपलोगों के सब चित्त (सं जानताम्) एक समान होकर ज्ञान प्राप्त करें । (यथा) जिस प्रकार (पूर्वे देवाः) पूर्व के विद्वान जन (भागं) सेवनीय और भजन करने योग्य प्रभु का (जानानाः ज्ञान सम्पादन करते हुए (सम् उपासते) अच्छी प्रकार उपासना करते रहें, उसी प्रकार आपलोग भी ज्ञान सम्पन्न होकर (भागं सम् उपासते) सेवनीय अन्न और उपास्य प्रभु का सेवन और उपासना करो ।
।। इति ऋग्वेदः ।।