(1) यजूंषि यज्ञे समिधः स्वाहाग्निः प्रविद्वानिह वो
युनक्तु ।।1।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 1 पृष्ठ 641
(2) प्रैषा यज्ञे निविदः स्वाहा शिष्टाः पत्नीभिर्वहतेह
युक्ताः ।।4।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 4 पृष्ठ 642
(3) छन्दांसि यज्ञे मरुतः स्वाहा मातेव पुत्रं पिपृते ह
युक्ताः ।। 5।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 6 मन्त्र 5 पृष्ठ 642
(4) एयमगन् बर्हिषा प्रोक्षणीभिर्यज्ञं तन्वानादितिः
स्वाहा ।।6।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 6 पृष्ठ 643
(5) विष्णुर्युनक्तु बहुधा तपांस्यस्मिन् यज्ञे सुयुजः स्वाहा ।। 7 ।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 7 पृष्ठ 643
(6) त्वष्टा युनक्तु बहुधा नु रूपा अस्मिन् यज्ञे सुयुजः
स्वाहा।। 8।।
खण्ड 2 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 8 पृष्ठ 643
(1) यजूंषि यज्ञे समिधः स्वाहाग्निः प्रविद्वानिह वो
युनक्तु ।।1।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 1 पृष्ठ 641
भा0 - (यज्ञे) यज्ञमय ब्रह्म में (यजूंषि) यजूष् रूप (समिधः) समिधों, प्राणों को ही (स्वाहा) उत्तम रूप से आहुति करें, (अग्निः) प्रकाश स्वरूप, ज्ञानी (प्रविद्वान्) उनको जाननेहारा (वः) हे प्राणो! तुमको (युनक्तु) यज्ञमय परम ब्रह्म में समाधि द्वारा लगावें । प्राण, मन, अन्न, श्रद्धा, मज्जा; ये सब पदार्थ यजु हैं, समित् प्राण है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र के द्वारा योगमय आध्यात्मिक होम या हवन करने का विचार दिया गया है ।
(2) प्रैषा यज्ञे निविदः स्वाहा शिष्टाः पत्नीभिर्वहतेह
युक्ताः ।।4।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 4 पृष्ठ 642
भा0 - (प्रैषाः) प्रेषाएँ ही (यज्ञे) यज्ञ में (निविदः) ‘निवित्’ हैं । हे पुरुषो! यही उत्तम आहुतियाँ हैं । आपलोग (शिष्टाः) अपने मन और इन्द्रियों को वशीभूत कर विद्वान होकर (युक्ताः) समाधियुक्त-चित्त होकर (पत्नीभिः) अपनी पत्नियों और पालकशक्तियों- सहित (इह) इस ब्रह्मयज्ञ में (वहत) प्राप्त होओ । ‘प्रैषाः’ = प्रकृष्ट उत्तम मानस इच्छाएँ, प्रेरणाएँ ही (नि-विदः) सब प्रकार के उत्कृष्ट ज्ञान करनेवाली शक्तियाँ हैं । उनको (यज्ञे स्वाहा) यज्ञमय प्रभु में आहुति करो, उसी में लगा दो ।
टिप्पणी - उत्तम मानस इच्छाओं, प्रेरणाओं की यज्ञमय प्रभु में आहुति करो, यह उत्तमोत्तम हवन है ।
(3) छन्दांसि यज्ञे मरुतः स्वाहा मातेव पुत्रं पिपृते ह
युक्ताः ।। 5।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 6 मन्त्र 5 पृष्ठ 642
भा0 - (माता पुत्रम् इव) जिस प्रकार माता अपने पुत्र का पालन-पोषण करती है, उस प्रकार आपलोग (युक्ताः) प्रेम से उस परमब्रह्म में समाधि-मग्न होकर (पिपृत) प्राणों का पालन करो । (यज्ञे) उस संगम स्थान, एक मात्र केन्द्र उपास्य देव में (छन्दांसि) प्राणगण ही (मरुतः) मरुत रूप हैं, वे भी (स्वाहा) उस यज्ञमय आत्मा में सुख से आहुति हों, उसमें लीन हों ।
टिप्पणी - यह भी उपर्युक्त हवन सदृश ही है ।
न होमं होममित्याहुः समाधौ तत्तु भूयते ।
ब्रह्माग्नौ हूयते प्राणः होमकर्म्म तदुच्यते ।। 55 ।।
(ज्ञानसंकलिनी तन्त्र)
अर्थ - होम को होम नहीं कहते हैं, ब्रह्माग्नि में प्राण रूप घृत की आहुति देने को ही असली होम कहते हैं ।
(4) एयमगन् बर्हिषा प्रोक्षणीभिर्यज्ञं तन्वानादितिः
स्वाहा ।।6।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 6 पृष्ठ 643
भा0 - (इयम्) यह (अदितिः) अखण्ड चितिशक्ति, प्रकाशस्वरूप विवेक ख्याति (प्रोक्षणीभिः) प्रोक्षण-दिव्य-जलों द्वारा आनन्दधाराओं और ज्ञानों द्वारा और (बर्हिषा) बढ़नेवाले ब्रह्मज्ञान से (यज्ञं तन्वाना) यज्ञमय देव का साक्षात् कराती हुई (आ अगन्) प्रकट होती है । (स्वाहा) इसमें मग्न होना ही परम आहुति है । दिव्याः आपः प्रोक्षणयः ।। तै0 2।1।5।1।। धर्ममेघ समाधि में आत्मभूमि में वर्षनेवाला सोमविन्दु रस ही ‘प्रोक्षणी’ है । प्रोक्षण=चारो ओर जल छिड़कना, मारना, यथार्थ पशु हनन ।
(5) विष्णुर्युनक्तु बहुधा तपांस्यस्मिन् यज्ञे सुयुजः
स्वाहा ।। 7 ।।
खण्ड 1 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 7 पृष्ठ 643
भा0 - हे (सुयुजः) उत्तम रीति से योग का सम्पादन करनेहारे विद्वान पुरुषो! (अस्मिन् यज्ञे) इस योगमय अध्यात्म-यज्ञ में (विष्णुः) वह प्रभु परमात्मा (तपांसि) तपस्याओं का (युनक्तु) आपमें सफलतापूर्वक लगावे । (स्वाहा) यही सबसे श्रेष्ठ आहुति है ।
(6) त्वष्टा युनक्तु बहुधा नु रूपा अस्मिन् यज्ञे सुयुजः
स्वाहा।। 8।।
खण्ड 2 काण्ड 5 सू0 26 मन्त्र 8 पृष्ठ 643
भा0 - हे (सुयुजः) उत्तम योगियो! (अस्मिन् यज्ञे) इस योगमय आत्मयज्ञ साक्षात्कार में (त्वष्टा) सबका उत्पादक प्रभु (बहुधा रूपा) नाना प्रकार के रूपों-इन्द्रियों को (युनक्तु) युक्त करे (स्वाहा) यही उत्तम आहुति है ।
टिप्पणी - उपर्युक्त तीनों यज्ञ आध्यात्मिक हैं । ध्यानाभ्यास द्वारा ये यज्ञ होते हैं ।
(7) यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।।1।।
खण्ड 2 काण्ड 7 सू05। 1पृष्ठ 237
(7) यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्या-
सन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।।1।।
खण्ड 2 काण्ड 7 सू05। 1पृष्ठ 237
भा0 - (देवाः) देवगण, विद्वान पुरुष (यज्ञेन) यज्ञ अर्थात् समाधिरूप आत्मयज्ञ से (यज्ञम्) सबके पूजनीय परम आत्मा की (अयजन्त) उपासना करते हैं (तानि) वे ही (प्रथमानि) सबसे उत्कृष्ट (धर्माणि) मोक्ष प्राप्ति और अभ्युदय के साधन (आसन्) हैं । (ते) वे इन योग समाधि की साधना करनेहारे योगिजन (महिमानः) महत्त्व गुण को प्राप्त करके (नाकम्) दुःखरहित मोक्षाख्य परम पुरुषार्थ को (सचन्त) प्राप्त होते हैं । (यत्र) जिसमें कि (पूर्वे) पूर्व मुक्त हुए (साध्याः) साधनासिद्ध (देवाः) ज्योतिर्मय, मुक्त पुरुष (सन्ति) विराजते हैं । ‘नाक’ अर्थात् स्वर्ग का लक्षण-
दुःखेन यन्न संभिन्नं नच ग्रस्तमनन्तरम् ।
अभिलाषोपनीतं यत् सुखं स्वर्गपदास्पदम् ।।
टिप्पणी - इस मन्त्र में समाधिरूप आत्मयज्ञ-द्वारा ईश्वर की उपासना कही गई है ।
(8) येन देवाज्योतिषा द्यामुदायन् ब्रह्मौदनं पक्त्वा सुकृतस्य लोकम् ।
तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ।।37।।
खण्ड 3 काण्ड 11 सू0 1 मन्त्र 37 (4) पृष्ठ 109
(8) येन देवाज्योतिषा द्यामुदायन् ब्रह्मौदनं पक्त्वा सु-
कृतस्य लोकम् । तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारो-
हन्तो अभि नाकमुत्तमम् ।।37।।
खण्ड 3 काण्ड 11 सू0 1 मन्त्र 37 (4) पृष्ठ 109
भा0 - जिस परम ज्योति द्वारा तत्त्व के द्रष्टा लोग ब्रह्मरूप परम ओदन, रसमय ज्ञान का परिपाक करके पुण्य कर्मों के फलस्वरूप प्रकाशमय लोक को प्राप्त होते हैं, उसी परम ज्योति द्वारा हम भी परम तेजोमय, उत्कृष्टतम, सुखमय लोक पर चढ़ते हुए पुण्य कर्मों से प्राप्त होने योग्य लोक को प्राप्त हों । यह सूक्त ‘ब्रह्मरूप ओदन’ अर्थात् ब्रह्मज्ञान को परिपक्व करके मोक्ष प्राप्त करने पर लगता है ।
टिप्पणी - ज्योति उपासना द्वारा परम तेजोमय, उत्कृष्टतम सुखमय लोक पर आरूढ़ होने की बात है । यह आरूढ़ता शरीर के अंदर होती है । सन्तों के ग्रन्थों में ज्योति और शब्द साधन द्वारा उत्कृष्ट- उत्कृष्टतर तलों में आरूढ़ होने की बातें हैं ।
यथा - ‘गगन मण्डल के बीच में, तहवाँ झलके नूर1 ।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय ।
पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय ।।
कबीर कमल प्रकाशिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अँधेरी मिट गई, बाजै अनहद तूर ।।’
‘चन्दा झलके यहि घट माँहीं । अन्धी आँखन सूझत नाहीं ।।’
‘यहि घट चन्दा यहि घट सूर । यहि घट बाजै अनहद तूर ।।’
‘तुम जाइ अँजोरे बिछाओ, अँधेरे में का करिहो ।। टेक ।।
जब लग स्वाँसा दीप जरतु है, जैसे बने तो बनावो ।।1।।
गुन के पलँग ज्ञान कै तोसक, सूरति तकिया लगावो ।।2।।
जो सुख चाहो सो सत महले, बहुरि दुक्ख नहिं पावो ।।3।।
दास कबीर गुरु सेज सँवारो, उनकी नारि कहावो ।। 4।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, आवागमन मिटावो ।। 5।।’
(कबीर साहब)
[ 1.नूर = ज्योति]
‘तारा चड़िआ लंमा1 किउ नदरि2 निहालिया राम ।
सेवक पूर करंमा3 सतिगुरु सबदि दिखालिआ राम ।।
गुर सबदि दिखालिआ सचु समा लिया अहिनिसि4 देखि बिचारिआ ।
धावतु5 पंच6 रहे धरु जाणिआ कामु क्रोध विषु मारिआ ।।
अंतरि जोति भई गुरु साखी7 चीने राम करंमा8 ।
नानक हउमै9 मारि पतीणे10 तारा चढ़िआ लंमा ।।1।।
गुरमुख जागि रहे चूकी अभिमानी राम ।
साचि समानी गुरमुखि मनि भाणी11 गुरमुखि साबुत12 जागे ।
साचु नामु अम्रित गुरि दीआ हरि चरणी लिव13 लागे ।।
प्रगटी जोति जोति महि14 जाता15 मनमुखि भरमि भुलाणी ।
नानक भोर भइया मनु मानिआ जागत रैणि16 बिहाणी17 ।।2।।’
(गुरु नानक)
[परम अविनाशी सुख सातवें लोक में पहँुचे बिना नहीं प्राप्त हो सकता । (1) फाँदकर । (2) नजर किया । किउ = क्या । (3) कर्म । (4) दिन-रात । (5) चलायमान । (6) पाँच । (7) गवाह । (8) दया । (9) अहंकार । (10) विश्वास किया । (11) भाया, अच्छा लगा । (12) सोने से वा स्वप्न से । (13) लौ = लव । (14) में, अन्दर । (15) जाना, ज्ञान प्राप्त किया । (16) रात । (17) भोर हुआ, सबेरा हुआ ।]
‘साहिब साहिब क्या करै, साहिब तेरे पास ।
साहिब तेरे पास याद करु होवे हाजिर।।
अन्दर धसि के देखु मिलैगा साहिब नादिर।।
मान मनी हो फना नूर तब नजर में आवै।
बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै।।
रूह करै मेराज1 कुफर का खोलि कुलाबा2।
तीसो रोजा रहे अन्दर में सात रिकाबा3।।
लामकान में रब्ब को पावै पलटू दास ।
साहिब साहिब क्या करै, साहिब तेरे पास।।’
(पलटू साहब)
[(1) चढ़ाई । (2) जंजीर, सिकड़ी । (3) पद, स्थान ।]
चलो चढ़ो मन यार महल अपने ।। टेक ।।
चौक चाँदनी तारे झलकैं, बरनत बनत न जात गने ।।1।।
हीरा रतन जुड़ाव जड़े जहँ, मोतिन कोटि कितान बने ।।2।।
सुखमन पलँगा सहज बिछौना, सुख सोवो को करै मने ।।3।।
दूलन दास के साईं जगजीवन, को आवै यह जग सुपने ।।4।।
(दूलनदासजी)
(9) वृषभो न तिग्मशृंगोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् ।
मन्थस्त इन्द्र
शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।।15।।
खंड 4 सू0 126 काण्ड 20 मन्त्र 15 पृष्ठ 707
।। इति अथर्ववेदः ।।
।। वेद-दर्शन-योग समाप्त ।।
(9) वृषभो न तिग्मशृंगोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् । मन्थस्त इन्द्र
शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।।15।।
खंड 4 सू0 126 काण्ड 20 मन्त्र 15 पृष्ठ 707
भा0 - (न) जिस प्रकार (तिग्मशृंग:) तीखे सींगोंवाला (वृषभः) वीर्य सेवन में समर्थ साँड़ (यूथेषु अन्तः) गौओं के रेवड़ के बीच में (रोरुवत्) बराबर गर्जना करा करता है, उसी प्रकार तू सबके हृदय में रस वर्षन करनेहारा परमेश्वर (तिग्मशृंग:) अंधकारों का नाश करनेवाले तीक्ष्ण प्रकाश से युक्त होकर (यूथेषु अन्तः) नाना यूथों, सम्मिलन करने योग्य स्थानों, हृदयों में (रोरुवत्) ध्वनि कर रहा है, ‘सोहं’ का नाद बजाता रहता है । हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! परमेश्वर! (यं) जिस परम रस को (भावयुः) भक्ति भावों से युक्त उपासक (ते) तेरे निमित्त या तुझसे (सुनोति) उत्पन्न करता है, प्राप्त करता है वह (मन्थः) सब दुःखों का मंथन, विनाश कर देने वाला एवं हृदय को मंथन कर देनेवाला, अति आीांदकारी (ते) तेरा आनन्द रस (हृदे) हृदय की (शं) शान्ति देनेवाला होता है । (इन्द्रः विश्वसस्मात् उत्तरः) इन्द्र, परमेश्वर सब स्थावर-जंगम जगत से उत्कृष्ट, परमानन्दकारी है ।
टिप्पणी - इस मन्त्र में वर्णन है कि परमात्मा अन्धकार को नष्ट करनेवाले तीक्ष्ण प्रकाश से युक्त होकर हृदयों में ध्वनि कर रहा है, ‘सोहं’ का नाद बजाता रहता है । सन्तगण के तो ये ज्योति और नाद परम ध्येय हैं । इसके द्वारा ही वे मोक्ष और परमात्मा प्राप्ति का उपदेश दे गये हैं और देते हैं ।
।। इति अथर्ववेदः ।।
।। वेद-दर्शन-योग समाप्त ।।