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अकारादिक्षकारान्तवर्णजातकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
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ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥
वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनारात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ।
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अथ प्रजापतिर्गुहं पप्रच्छ भो ब्रह्मत्रक्षमालाभेदविधिं ब्रूहीति ।
सा किं लक्षणा कति भेदा अस्याः कति सूत्राणि कथं घटनाप्रकारः के वर्णाः का प्रतिष्ठा कैवास्याधिदेवता किं फलं चेति ||१||
सरलार्थ : किसी समय प्रजापति ने भगवान् गुह (कार्तिकेय) से प्रश्न किया- ‘हे भगवन् ! आप कृपा करके अक्षमाला की भेद-विधि बताने का अनुग्रह करें। उसका लक्षण क्या है? कितने भेद हैं? इसके सूत्र कितने हैं? घटना प्रकार (पिरोने के प्रकार) कैसे हैं? कौन से अक्षर हैं? क्या प्रतिष्ठा है? इसका कौन अधिदेवता है? और इसका क्या फल है?’॥१॥
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तं गुहः प्रत्युवाच प्रवालमौक्तिकस्फटिकशङ्ख रजताष्टापदचन्दनपुत्रजीविकाब्जे रुद्राक्षा इति। आदिक्षान्तमूर्तिः सावधानभावा। सौवर्ण राजातं ताम्रं चेति सूत्रत्रयम्।
तद्विरे सौवर्णं तदक्षपार्श्वे राजतं तदवामे ताम्रं तन्मुखे मुखं तत्पुच्छे पुच्छं तदन्तरावर्तनक्रमेण योजयेत्||२||
सरलार्थ : भगवान् गुह ने उत्तर देते हुए कहा- ‘हे ब्रह्मन् ! यह (अक्षमाला) प्रवाल, मोती, स्फटिक, शंख, चाँदी, स्वर्ण, चन्दन, पुत्रजीविका, कमल एवं रुद्राक्ष ये दस प्रकार की होती हैं। ये ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक के अक्षरों से युक्त विधिपूर्वक धारण की जाती हैं। सुवर्ण, चाँदी और ताँबा निर्मित तीन सूत्र होते हैं। इसमें स्वर्ण सामने (मनकों के) मुख विवर (छिद्र) में, दाहिने भाग में चाँदी तथा बायें हिस्से में ताँबा, उसके मुख में मुख एवं पूँछ के साथ पूँछ क्रम से नियोजित करना चाहिए॥२॥
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यदस्यान्तरं सूत्रं तद्ब्रह्म।
यद्दक्षपार्श्वे तच्छैवम्।
यद्वामे तद्वैष्णवम्।
यन्मुखं सा सरस्वती।
यत्पुच्छं सा गायत्री।
यत्सुषिरं सा विद्या।
या ग्रन्थिः सा प्रकृतिः।
ये स्वरास्ते धवलाः।
ये स्पर्शास्ते पीताः।
ये परास्ते रक्ताः ||३||
सरलार्थ : जो उसके अन्दर का सूत्र है, वही ब्रह्म है। जो दाहिने भाग में है, वही शैव है। जो बायें हिस्से में है, वही वैष्णव है। जो मुख है, वही सरस्वती है। जो पूँछ है, वही गायत्री है। जो छिद्र है, वही विद्या है। जो गाँठ है, वही प्रकृति है। जो स्वर हैं, वही सात्त्विक होने के कारण धवल अर्थात् शुभ्र-श्वेत हैं और जो स्पर्श (व्यञ्जन) हैं, वही (सत्त्व एवं तम मिश्रित होने के कारण) पीत हैं तथा जो परा (अर्थात् तम एवं सत के अतिरिक्त) हैं, वे (राजस के कारण) रक्त वर्ण युक्त हैं॥३॥
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अथ तां पञ्चभिर्गव्यैरमृतैः पञ्चभिव्यैस्तनुभिः शोधयित्वा पञ्चभिर्गव्यैर्गन्धोदकेन संस्नाप्य तस्मात्सोङ्कारेण पत्रकूर्चेन स्नपयित्वाष्टभिर्गन्धैरालिप्य सुमन:स्थले निवेश्याक्षतपुष्पैराराध्य प्रत्यक्षमादिक्षान्तैर्वर्णैर्भावयेत् ||४||
सरलार्थ : इसके अनन्तर उसे (नन्दा आदि) पाँच गौओं के दूध से तथा पंचगव्य (गोमूत्र, गोमय, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत) से शोधित करके पुन: पञ्चगव्य एवं गंध मिश्रित जल से भली प्रकार स्नान करवाकर ॐ कार का उच्चारण करते हुए पत्र कूर्च (पत्तों की कूची) द्वारा जल छिड़क करके अष्टगंधों से लेपन करके ‘मणशिला’ नामक धातु पर प्रतिष्ठित कर अक्षत-पुष्पों से पूजन करे। प्रत्येक अक्ष (मनके) को ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक के अक्षरों द्वारा क्रमश: भावित करे॥४॥
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ओमङ्कार मृत्युञ्जय सर्वव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमाङ्काराकर्षणात्मकसर्वगत द्वितीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमिङ्कारपुष्टिदाक्षोभकर तृतीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमीङ्कार वाक्प्रसादकर निर्मल चतुर्थेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमुङ्कार सर्वबलप्रद सारतर पञ्चमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमूङ्कारोच्चाटन दुःसह षष्ठेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमृङ्काकार संक्षोभकर चञ्चल सप्तमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमॄङ्कार संमोहनकरोजवलाष्टमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओम्लृङ्कारविद्वेषणकर मोहक नवमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओम्लॄङ्कार मोहकर दशमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमेङ्कार सर्ववश्यकर शुद्धसत्त्वैकादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमैङ्कार शुद्धसात्त्विक पुरुषवश्यकर द्वादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमोङ्काराखिलवाङ्मय नित्यशुद्ध त्रयोदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमौङ्कार सर्ववाङ्मय वश्यकर चतुर्दशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमङ्कार गजादिवश्यकर मोहन पञ्चदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमःकार मृत्युनाशनकर रौद्र षोडशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ कङ्कार सर्वविषहर कल्याणद सप्तदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ खङ्कार सर्वक्षोभकर व्यापकाष्टादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ गङ्कार सर्वविघ्नशमन महत्तरैकोनविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ घङ्कार सौभाग्यद स्तम्भनकर विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ ङकार सर्वविषनाशकरोग्रैकविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ चङ्काराभिचारघ्न क्रूर द्वाविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ छङ्कार भूतनाशकर भीषण त्रयोविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ जङ्कार कृत्यादिनाशकर दुर्धर्ष चतुर्विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ झङ्कार भूतनाशकर पञ्चविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ ञकार मृत्युप्रमथन षड्विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ टङ्कार सर्वव्याधिहर सुभग सप्तविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ ठङ्कार चन्द्ररूपाष्टाविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ डङ्कार गरुडात्मक विषघ्न शोभनैकोनत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ ढङ्कार सर्वसंपत्प्रद सुभग त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ णङ्कार सर्वसिद्धिप्रद मोहकरैकत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ तङ्कार धनधान्यादिसंपत्प्रद प्रसन्न द्वात्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ थङ्कार धर्मप्राप्तिकर निर्मल त्रयस्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ दङ्कार पुष्टिवृद्धिकर प्रियदर्शन चतुस्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ धङ्कार विषज्वरनिघ्न विपुल पञ्चत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ नङ्कार भुक्तिमुक्तिप्रद शान्त षट्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ पङ्कार विषविघ्ननाशन भव्य सप्तत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ फङ्काराणिमादिसिद्धिप्रद ज्योतीरूपाष्टत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ बङ्कार सर्वदोषहर शोभनैकोनचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ भङ्कार भूतप्रशान्तिकर भयानक चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ मङ्कार विद्वेषिमोहनकरैकचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ यङ्कार सर्वव्यापक पावन द्विचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ रङ्कार दाहकर विकृत त्रिचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ लङ्कार विश्वंभर भासुर चतुश्चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ वङ्कार सर्वाप्यायनकर निर्मल पञ्चचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ शङ्कार सर्वफलप्रद पवित्र षट्चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ षङ्कार धर्मार्थकामद धवल सप्तचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ सङ्कार सर्वकारण सार्ववर्णिकाष्टचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ हङ्कार सर्ववाङ्मय निर्मलैकोनपञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ ळङ्कार सर्वशक्तिप्रद प्रधान पञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ ।
ॐ क्षङ्कार परापरतत्त्वज्ञापक परंज्योतीरूप शिखामणौ प्रतितिष्ठ ||५||
सरलार्थ : हे अकार ! तुम मृत्यु को जीतने वाले हो, सर्वव्यापी इस प्रथम अक्ष (मनके) में स्थित हो जाओ। हे आकार ! तुम आकर्षण शक्ति से ओत-प्रोत सर्वत्र संव्याप्त हो, इस द्वितीय अक्ष में प्रविष्ट हो जाओ। हे इकार ! तुम पुष्टि-प्रदाता हो तथा क्षोभरहित हो, तीसरे अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे ईकार ! तुम वाणी को प्राञ्जलता प्रदान करने वाले हो तथा निर्मल हो, इस चौथे अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे उकार ! तुम सभी को सभी तरह से बलप्रदाता हो एवं सारयुक्तों में सर्वश्रेष्ठ हो, पाँचवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे ऊकार ! तुम उच्चारण करने वाले तथा दुस्सह अर्थात् न सहे जा सकने वाले हो, इस छठे अक्ष में स्थित हो जाओ। हे ऋकार ! तुम संक्षोभ अर्थात् चल-चित्तता को करने वाले एवं चंचल हो, इस सातवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे ऋृकार ! तुम सम्मोहित करने वाले एवं उज्वल हो, इस आठवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे लृकार ! तुम विद्वेष को प्रकट कर देने वाले एवं सभी कुछ जानने वाले अत्यन्त गोपनीय हो, इस नौवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे लृकार ! तुम मोहकारी हो, इस दसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे एकार ! तुम सभी को वश में करने वाले तथा शुद्ध सत्य हो, इस ग्यारहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे ऐकार ! तुम शुद्ध एवं सात्त्विक हो तथा पुरुषों को अपने वश में करने वाले हो, इस बारहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे ओकार ! तुम अखिल वाङ्मय (समस्त शब्द समूह) हो एवं नित्य पवित्र हो, इस तेरहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे औकार ! तुम भी अक्षर समूह रूप सभी को वश में करने वाले तथा शान्त स्वरूप हो, इस चौदहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे अंकार ! तुम हाथी आदि को अपने वश में करने वाले एवं मोहित करने वाले हो, इस पन्द्रहवें अक्ष में स्थित हो जाओ ! हे अ:कार ! तुम मृत्यु विनाशक एवं रौद्र (अति भयानक) हो, इस सोलहवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे ककार ! तुम सम्पूर्ण विषों को विनष्ट करने वाले एवं कल्याण-प्रदाता हो, इस सत्रहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे खकार ! तुम सभी को क्षुभित करने वाले एवं सर्वत्र व्याप्त रहते हो, इस अट्ठारहवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे गकार ! तुम सभी विघ्नों को शांत करने वाले एवं बड़ों में भी अति विशाल हो, इस उन्नीसवें अक्ष में प्रतिष्ठा प्राप्त करो। हे घकार ! तुम सौभाग्य-प्रदाता और स्तम्भन गति को अवरुद्ध करने वाले कर्त्त हो, इस बीसवें अक्ष में प्रतिष्ठा प्राप्त करो। हे ङकार ! तुम सभी विषयों के विनाशक एवं उग्र भयानक हो, इस इक्कीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे चकार ! तुम अभिचार नाशक तथा अत्यन्त क्रूर हो, इस बाइसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे छकार ! तुम भूत विनाशक एवं भयानक हो, इस तेईसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे जकार ! तुम कृत्या आदि (डाकिनी आदि) के नाशक एवं दुर्धर्ष हो, इस चौबीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे झकार ! तुम भूत नाशक हो, इस पच्चीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे जकार ! तुम मृत्यु को मथित कर देने वाले हो, इस छब्बीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे टकार ! तुम समस्त रोगों के विनाशक एवं सुन्दर हो, इस सत्ताइसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे ठकार ! तुम चन्द्र स्वरूप हो, इस अट्ठाइसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे डकार ! तुम गरुड़ के सदृश विष नाशक तथा सुन्दर हो, इस उन्तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे ढकार ! तुम समस्त प्रकार के सम्पत्ति प्रदाता एवं सौम्य-शालीन हो, इस तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे णकार ! तुम सभी सिद्धियों के प्रदाता एवं मोहित (मोहयुक्त) करने वाले हो, इस इकतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे तकार ! तुम धन एवं धान्य आदि सम्पत्तियों के देने वाले एवं सदैव प्रसन्नमय हो, इस बत्तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे थकार ! तुम धर्म की प्राप्ति कराने वाले एवं निर्मल हो, इस तैंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे दकार ! तुम पुष्टिकर्ता एवं वृद्धिकर्ता हो, सुन्दर दृष्टिगोचर होने वाले हो, इस चौंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे धकार ! तुम विष एवं ज्चर विनाशक हो तथा बहुत विशाल भी हो, इस पैंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे नकार ! तुम भोग, मोक्ष-प्रदाता एवं शान्तरूप हो, इस छत्तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे पकार ! तुम विष और विघ्नों के नाशक एवं कल्याणकारी हो, इस सैंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे फकार ! तुम अणिमा, महिमा एवं गरिमा आदि अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न एवं प्रकाशमय हो, इस अड़तीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे बकार ! तुम समस्त दोषों के हरणकर्ता एवं सौंदर्यमय हो, इस उन्तालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे भकार ! तुम भूत-बाधा का शमन करने वाले एवं भयानक हो, इस चालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे मकार ! तुम विद्वेष करने वाले को संमोहित कर लेने वाले अथवा विद्वेषी और मोह करने वाले हो, इस इकतालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे यकार ! तुम सर्वत्र संव्याप्त एवं परम पवित्र हो, इस बयालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे रकार ! तुम दाह (जलन, तपन) उत्पन्न करने वाले एवं विकृत हो, इस तैंतालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे लकार ! तुम विश्व को पोषण करने वाले एवं तेजस्वी हो, इस चौवालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे वकार ! तुम सबको तृप्त (पुष्ट) करने वाले एवं निर्मल हो, पैंतालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे शकार ! तुम सभी तरह के फलों को देने वाले एवं पवित्र हो, इस छियालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे षकार ! तुम धर्म, अर्थ एवं काम को देने वाले तथा श्वेत-शुभ्र हो, इस सैंतालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे सकार ! तुम समस्त वस्तुओं के कारण तथा सभी वर्गों से सम्बन्धित हो, इस अड़तालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे हकार ! तुम समस्त वाड्मय (समस्त अक्षरों या साहित्य) के स्वरूप वाले एवं निर्मल हो, इस उनचासवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। हे ळकार ! तुम सम्पूर्ण शक्तियों के प्रदाता एवं प्रधान हो, इस पचासवें अक्ष में स्थित हो जाओ। हे क्षकार ! तुम परात्पर तत्त्व को बतलाने वाले एवं परम ज्योति स्वरूप हो, इस शिखामणि में मेरुमाला या प्रधान मनका के प्रतिनिधि के रूप में स्थित हो जाओ॥५॥
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अथोवाच ये देवाः पृथिवीषदस्तेभ्यो नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै पितरोऽनुमदन्तु शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम् ||६||
सरलार्थ : इसके पश्चात् बोले- ‘जो देवता पृथिवी में विचरण करने वाले हैं, उन्हें हम प्रणाम करते हैं। हे भगवन् ! मेरे द्वारा इस माला को स्वीकार करने का समर्थन करें। इसकी शोभा (प्रतिष्ठा) हेतु पितृगण अनुमोदन करें। इस ज्ञानरूपा अक्षमालिका को प्राप्त कर (अग्निष्वात्त आदि) पितर अनुमोदन करें॥६॥
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अथोवाच ये देवा अन्तरिक्षसदस्तेभ्य ॐ नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै पितरोऽनुमदन्तु शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम् ||७||
सरलार्थ : इसके उपरान्त वे पुनः बोले-जो देवता अन्तरिक्ष में निवास करने वाले हैं, उन्हें नमन-वंदन है। वे भगवान् पितरों के साथ इस ज्ञानमयी माला में प्रतिष्ठित हों, इसकी शोभा के लिए अनुमोदन करें॥७॥
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अधोवाच ये देवा दिविषदस्तेभ्यो नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै पितरोऽनुमदन्तु शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम् ||८||
सरलार्थ : तत्पश्चात् पुनः बोले- जो देवता स्वर्ग में निवास करने वाले हैं, वे ज्ञानस्वरूपिणी अक्षमालिका में स्थित हों, वरप्रदाता बनकर पितरों के सहित इसकी शोभा हेतु अनुमोदन करें॥८॥
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अथोवाच ये मन्त्रा या विद्यास्तेभ्यो नमस्ताभ्यश्चोन्नमस्तच्छक्तिरस्याः प्रतिष्ठापयति ||९||
सरलार्थ : तत्पश्चात् पुनः बोले- इस लोक में (सात करोड़ के लगभग) जो मंत्र हैं और जो (चौंसठ कला स्वरूप) विद्याएँ हैं, उन्हें नमस्कार है। उनकी शक्तियाँ इसमें प्रतिष्ठित हों॥९॥
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अथोवाच ये ब्रह्मविष्णुरुद्रास्तेभ्यः सगुणेभ्य ॐ नमस्तद्वीर्यमस्याः प्रतिष्ठापयति ||१०||
सरलार्थ : इसके बाद पुन: बोले -जो ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र हैं, उन्हें बारम्बार नमन-वंदन है, उनके पराक्रम को नमस्कार है, उनका वीर्य (पराक्रम-पुरुषार्थ) इसमें स्थित हो॥१०॥
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अधोवाच ये सांख्यादितत्त्वभेदास्तेभ्यो नमो वर्तध्वं विरोधेनिवर्तध्वम् ||११||
सरलार्थ : पुनः बोले- जो सांख्यादिक (दर्शनों में छियानवे) तत्त्व हैं, उन्हें नमस्कार है, वृद्धि प्रदान करें, विरोध दूर करें॥११॥
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अथोवाच ये शैवा वैष्णवाः शाक्ताः शतसहस्रशस्तेभ्यो नमो नमो भगवन्तोऽनुमदन्त्वनुगृहन्तु ||१२||
सरलार्थ : इसके पश्चात् पुनः बोले- जो शैव, वैष्णव एवं शाक्त सैकड़ों एवं सहस्रों की संख्या में निवास करते हैं, उन्हें नमस्कार है, वे सभी भगवान् हम सभी पर कृपा करें, अनुमोदन करें॥१२॥
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अथोवाच याश्च मृत्योः प्राणवत्यस्ताभ्यो नमो नमस्तेनैतां मृडयत मृडयत ||१३||
सरलार्थ : अन्त में इस प्रकार बोले– मृत्यु की जो उपजीव्य (आश्रित) शक्तियाँ हैं, उन्हें नमस्कार है, आप सभी लोग इस नमन-वन्दन से, स्तुति से प्रसन्न हों। इस अक्षमालिका द्वारा अपने उपासकों को सुख प्रदान करें॥१३॥
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पुनरेतस्यां सर्वात्मकत्वं भावयित्वा भावेन पूर्वमालिकामुत्पाद्यारभ्य तन्मय महोपहरैरुपहत्य आदिक्षान्तैरक्षरैक्षमालामष्टोत्तरशतं स्पृशेत् ||१४||
सरलार्थ : पुन: इस मालिका में सर्वात्मिकता (सर्वविध पूर्णता) की भावना करते हुए इसी भावना में पूर्व मालिका (आधी माला) को पिरोकर पुन: आधी पचास मनकों में उसी प्रकार आवृत्ति करके १०० की संख्या पूर्ण करे। पुनः शेष आठ मनकों में ‘अ, क, च, ट,त,प,य,श’- इस अष्टवर्ग को पूर्वोक्त क्रम से नियोजित करे। तब मनकों की संख्या एक सौ आठ हो जाती है। (मेरु में तो वही पूर्वोक्त ‘क्ष’ ही रहेगा। इस तरह से मालिका की योजना एक-एक पिरोकर पूर्ण करे)॥१४॥
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अश पुनरुत्थाप्य प्रदक्षिणीकृत्यों नमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले सर्ववशंकर्यो नमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमालिके शेषस्तम्भिन्यों नमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले उच्चाटन्यों नमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले विश्वामृत्यों मृत्युंजयस्वरूपिणि सकलोद्दीपिनि सकललोकरक्षाधिके सकललोकोज्जीविके सकललोकोत्पादिके दिवाप्रवर्तिके रात्रिप्रवर्तिके नद्यन्तरं यासि देशान्तरं यासि द्वीपान्तरं यासि लोकान्तरं यासि सर्वदा स्फुरसि सर्वहृदि वासयसि।
नमस्ते परारूपे नमस्ते पश्यन्तीरूपे नमस्ते मध्यमारूपे नमस्ते वैखरीरूपे सर्वतत्त्वात्मिके सर्वविद्यात्मिके सर्वशक्तयात्मिके सर्वदेवात्मिके वसिष्ठेन मुनिनाराधिते विश्वामित्रेण मुनिनोपजीव्यमाने नमस्ते नमस्ते ||१५||
सरलार्थ : अक्षमालिका की स्तुति करने के पश्चात् (उसे) उठाकर प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करके (पुनः हाथ जोड़कर प्रार्थना करे), हे भगवती मन्त्रमातृके ! हे अक्षमाले ! तुम सभी को अपने वश में करने वाली हो, तुमको नमन-वन्दन है। हे मन्त्र मातृके ! हे अक्षमाले ! तुम सभी की गति स्तम्भित करने वाली, उच्चाटन अर्थात् विक्षिप्तता, करने वाली हो, तुम्हें प्रणाम है। हे मन्त्रमातृके ! हे अक्षमाले ! तुम सभी की मृत्यु स्वरूप एवं मृत्युञ्जय स्वरूपिणी हो तथा तुम सबको उद्दीप्त करने वाली हो। इसके साथ ही तुम समस्त लोकों की रक्षा करने वाली, सम्पूर्ण विश्व की प्राणदात्री, सभी कुछ उत्पन्न करने वाली, दिन तथा रात्रि की प्रवर्तक एवं नदियों से दूसरी नदियों, समस्त देश, द्वीपों, लोक में संचरण करने की शक्ति रखने वाली हो, समस्त स्थलों में तुम विराजमान हो एवं हृदय में स्फुरणा के रूप में सतत प्रकाशित होने वाली, सभी प्राणियों के हृदयों में निवास करती हो। परा, पश्यन्ती, मध्यमा एवं वैखरी आदि जो वाणियाँ हैं, तुम उन्हीं का स्वरूप हो। समस्त तत्त्व-रूपों को धारण करने वाली, सर्वविद्या, सभी शक्तियों की अधिष्ठात्री, समस्त देवगणों की आराध्या हो। तुम वसिष्ठ मुनि के द्वारा वन्दित एवं विश्वामित्र मुनि के द्वारा उपसेव्यमान अर्थात् सेवा-शुश्रूषा किए जाने वाली हो, तुमको बारम्बार नमस्कार-प्रणाम है॥१५॥
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प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। तत्सायंप्रातः प्रयुञ्जानः पापोऽपापो भवति । एवमक्षमालिकया जप्तो मन्त्रः सद्यः सिद्धिको भवतीत्याह भगवान्गुहः प्रजापतिमित्युपनिषत् ||१६||
सरलार्थ : इस उपनिषद् का प्रात:काल के समय में पाठ करने वाला मनुष्य रात्रि में किये गये पाप-कृत्यों से मुक्त हो जाता है और सायंकाल के समय में इसका पाठ करने वाला मनुष्य दिन में किये गये पापों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य सायं-प्रात: दोनों संध्याओं में निरन्तर इस उपनिषद् को पढ़ता है, वह बहुत बड़ा पाप-कृत्य करने वाला हो, तो भी पाप-मुक्त हो जाता है। भगवान् गुह ने प्रजापति से अन्त में यही कहा कि इस प्रकार से अभिमन्त्रित-पूजित अक्षमाला के द्वारा जप किया हुआ मन्त्र शीघ्रातिशीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है॥१६॥
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ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥
वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ।
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
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इत्यक्षमालिकोपनिषत्समाप्ता ॥
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यत्सप्तभूमिकाविद्यावेद्यानन्दकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
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ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
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ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
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प्रथम खण्ड
अथ ह सांकृतिर्भगवानादित्यलोकं जगाम ।
तमादित्यं नत्वा चाक्षुष्मतीविद्यया
तमस्तुवत् । ॐ नमो भगवते श्रीसूर्या-
याक्षितेजसे नमः । ॐ खेचराय नमः ।
ॐ महासेनाय नमः । ॐ तमसे नमः ।
ॐ रजसे नमः । ॐ सत्त्वाय नमः ।
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्माऽमृतं गमय । हंसो भगवा-
ञ्छुचिरूपः प्रतिरूपः । विश्वरूपं घृणिनं
जातवेदसं हिरण्मयं ज्योतीरूपं तपन्तम् ।
सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः पुरुषः
प्रजानामुदयत्येष सूर्यः । ॐ नमो
भगवते श्रीसूर्यायादित्यायाक्षितेजसेऽहोवाहिनि
वाहिनि स्वाहेति । एवं चाक्षुष्मतीविद्यया स्तुतः
श्रीसूर्यनारायणः सुप्रीतोऽब्रवीच्चाक्षुष्मती-
विद्यां ब्राह्मणो यो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो
भवति । न तस्य कुलेऽन्धो भवति । अष्टौ
ब्राह्मणान्ग्राहयित्वाथ विद्यासिद्धिर्भवति ।
य एवं वेद स महान्भवति ॥ १॥
सरलार्थ : एक समय की कथा है कि भगवान् सांकृति आदित्य लोक गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने भगवान् सूर्य को नमस्कार कर चाक्षुष्मती विद्या द्वारा उनकी अर्चना की- ‘नेत्रेन्द्रिय के प्रकाशक भगवान् श्रीसूर्य को नमस्कार है। आकाश में विचरणशील सूर्य देव को नमस्कार है। हजारों किरणों की विशाल सेना रखने वाले महासेन को नमस्कार है। तमोगुण रूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है। रजोगुण रूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है। सत्त्वगुणरूप सूर्यनारायण को प्रणाम है। हे सूर्यदेव ! हमें असत् से सत्पथ की ओर ले चलें। हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें। हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलें। भगवान् भास्कर पवित्ररूप और प्रतिरूप (प्रतिबिम्ब प्रकटकर्ता) हैं। अखिल विश्व के रूपों के धारणकर्ता, किरण समूहों से सुशोभित, जातवेदा (सर्वज्ञाता), सोने के समान प्रकाशमान, ज्योति:स्वरूप तथा तापसम्पन्न भगवान् भास्कर को हम स्मरण करते हैं। ये हजारों रश्मिसमूह वाले, सैकड़ों रूपों में विद्यमान सूर्यदेव सभी प्राणियों के समक्ष प्रकट हो रहे हैं। हमारे चक्षुओं के प्रकाशरूप अदितिपुत्र भगवान् सूर्य को प्रणाम है। दिन के वाहक, विश्व के वहनकर्ता सूर्यदेव के लिए हमारी सर्वस्व समर्पित है। ’ इस चाक्षुष्मती विद्या से अर्चना किये जाने पर भगवान् सूर्यदेव अतिहर्षित हुए और कहने लगे- ‘जिस ब्राह्मण द्वारा इस चाक्षुष्मती विद्या का पाठ प्रतिदिन किया जाता है, उसे नेत्ररोग नहीं होते और न उसके वंश में कोई अंधत्व को प्राप्त करता है। आठ ब्राह्मणों को इस विद्या का ज्ञान करा देने पर इस विद्या की सिद्धि होती है। इस प्रकार का ज्ञाता महानता को प्राप्त करता है’॥१॥
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द्वितीय खण्ड
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अथ ह सांकृतिरादित्यं पप्रच्छ भगवन्-
ब्रह्मविद्यां मे ब्रूहीति । तमादित्यो होवाच ।
सांकृते शृणु वक्ष्यामि तत्त्वज्ञानं सुदुर्लभम् ।
येन विज्ञातमात्रेण जीवन्मुक्तो भविष्यसि ॥१॥
सरलार्थ : उसके बाद सांकृति ऋषि ने भगवान् सूर्य से कहा- ‘भगवन् ! मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश करें।’ आदित्य देव ने उनसे कहा- ‘सांकृते ! आपसे अतिदुर्लभ तत्त्वज्ञान का विवेचन मैं करने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनें, जिसका ज्ञान प्राप्त कर लेने पर आप जीवन्मुक्त हो जाएँगे’॥१॥
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सर्वमेकमजं शान्तमनन्तं ध्रुवमव्ययम् ।
पश्यन्भूतार्थचिद्रूपं शान्त आस्व यथासुखम् ॥ २॥
अवेदनं विदुर्योगं चित्तक्षयमकृत्रिमम् ।
योगस्थः कुरु कर्माणि नीरसो वाथ मा कुरु ॥ ३॥
सरलार्थ : आप समस्त प्राणिमात्र को एक, अजन्मा, शान्त, अनन्त, ध्रुव, अव्यय तथा तत्त्वज्ञान से चैतन्यरूप देखते हुए शान्ति और सुख पूर्वक रहें। अवेदन अर्थात् आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का आभास न हो, इसी का नाम योग है, यही यथार्थ चित्त-क्षय है। इसलिए योग में स्थित होकर कर्तव्य कर्मों का निर्वाह करें, कर्म करते हुए नीरसता न आने पाए॥२-३॥
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विरागमुपयात्यन्तर्वासनास्वनुवासरम् ।
क्रियासूदाररूपासु क्रमते मोदतेऽन्वहम् ॥ ४॥
ग्राम्यासु जडचेष्टासु सततं विचिकित्सते ।
नोदाहरति मर्माणि पुण्यकर्माणि सेवते ॥ ५॥
सरलार्थ : योग की ओर प्रवृत्त होने पर अन्त:करण दिनप्रतिदिन वासनात्मक चिन्तन से दूर होता जाता है। साधक नित्य ही परमार्थ कर्मों को करता हुआ हर्ष का अनुभव करता है। जड़ मनुष्यों की भोग प्रवृत्तियों (ग्राम्य चेष्टाओं) से वह हमेशा जुगुप्सा (घृणा) करता है। किसी के गुप्त रहस्य प्रसंग को अन्यों के समक्ष नहीं कहता, अपितु वह पुण्य कृत्यों में ही हमेशा संलग्न रहता है॥४-५॥
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अनन्योद्वेगकारीणि मृदुकर्माणि सेवते ।
पापाद्बिभेति सततं न च भोगमपेक्षते ॥ ६॥
स्नेहप्रणयगर्भाणि पेशलान्युचितानि च ।
देशकालोपपन्नानि वचनान्यभिभाषते ॥ ७॥
सरलार्थ : जिन कृत्यों से किसी प्राणी को उत्तेजित न होना पड़े, ऐसे दया और उदारतापूर्ण सौम्य कर्मों को वह करता है। वह पाप से भयभीत रहता और भोग साधनों की अभिलाषा नहीं करता। वह ऐसी वाणी का प्रयोग करता है, जिसमें सहज स्नेह और प्रेम का प्राकट्य हो तथा जो मृदुल और औचित्यपूर्ण होने के साथ-साथ देश, काल, पात्र के अनुकूल हो॥६-७॥
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मनसा कर्मणा वाचा सज्जनानुपसेवते ।
यतः कुतश्चिदानीय नित्यं शास्त्राण्यवेक्षते ॥ ८॥
सरलार्थ : मन से, वचन से और कर्म से श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करते हुए जहाँ कहीं से भी प्राप्त हो सके, प्रतिदिन सद्ग्रन्थों का अध्ययन करता है॥८॥
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तदासौ प्रथमामेकां प्राप्तो भवति भूमिकाम् ।
एवं विचारवान्यः स्यात्संसारोत्तरणं प्रति ॥ ९॥
स भूमिकावानित्युक्तः शेषस्त्वार्य इति स्मृतः ।
विचारनाम्नीमितरामागतो योगभूमिकाम् ॥ १०॥
सरलार्थ : इस स्थिति में ही वह प्रथम भूमिका वाला कहलाता है। भवसागर से उस पार जाने की जो अभिलाषा करता है, वही इस प्रकार के विचार को प्राथमिकता देता है। वह भूमिकावान् कहा जाता है और शेष ‘आर्य'(दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ) कहे जाते हैं। जो योग की दूसरी विचार भूमिका से युक्त हैं, (उनके लक्षण इस प्रकार से हैं-)॥९-१०॥
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श्रुतिस्मृतिसदाचारधारणाध्यानकर्मणः ।
मुख्यया व्याख्ययाख्याताञ्छ्रयति श्रेष्ठपण्डितान् ॥ ११॥
सरलार्थ : वह ऐसे ख्यातिलब्ध श्रेष्ठ विद्वानों का आश्रय ग्रहण करता है, जो श्रुति, स्मृति, सदाचार, धारणा और ध्यान की उत्तम व्याख्या के लिए अधिक चर्चित हों॥११॥
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पदार्थप्रविभागज्ञः कार्याकार्यविनिर्णयम् ।
जानात्यधिगतश्चान्यो गृहं गृहपतिर्यथा ॥ १२॥
मदाभिमानमात्सर्यलोभमोहातिशायिताम् ।
बहिरप्यास्थितामीषत्यजत्यहिरिव त्वचम् ॥ १३॥
इत्थंभूतमतिः शास्त्रगुरुसज्जनसेवया ।
सरहस्यमशेषेण यथावदधिगच्छति ॥ १४॥
सरलार्थ : वह पदार्थों के विभाग और पद को उचित रीति से जानता है तथा श्रवण करने योग्य सत्शास्त्रों में पारंगत हो जाने पर कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कुशल हो जाता है। मद, अहंकार, मात्सर्य, लोभ और मोहादि की अधिकता उसके चित्त को डाँवाडोल नहीं करती, बाह्य आचरण में यत्किंचित् यदि उसकी स्थिति रहती है, तो उसका भी उसी प्रकार परित्याग कर देता है, जैसे साँप अपनी केंचुल को छोड़ देता है। इस प्रकार का सद्ज्ञान सम्पन्न साधक शास्त्र, गुरु और सत्पुरुषों के सेवा-सहयोग द्वारा रहस्यपूर्ण गूढ़ज्ञान को भी प्रयत्नपूर्वक स्वाभाविक रूप में हस्तगत कर लेता है॥१२-१४॥
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असंसर्गाभिधामन्यां तृतीयां योगभूमिकाम् ।
ततः पतत्यसौ कान्तः पुष्पशय्यामिवामलाम् ॥ १५॥
यथावच्छास्त्रवाक्यार्थे मतिमाधाय निश्चलाम् ।
तापसाश्रमविश्रान्तैरध्यात्मकथनक्रमैः ।
शिलाशय्यासनासीनो जरयत्यायुराततम् ॥ १६॥
वनावनिविहारेण चित्तोपशमशोभिना ।
असङ्गसुखसौख्येन कालं नयति नीतिमान् ॥ १७॥
अभ्यासात्साधुशास्त्राणां करणात्पुण्यकर्मणाम् ।
जन्तोर्यथावदेवेयं वस्तुदृष्टिः प्रसीदति ॥ १८॥
तृतीयां भूमिकां प्राप्य बुद्धोऽनुभवति स्वयम् ॥ १९॥
सरलार्थ : इसके पश्चात् वह योग की असंसर्गनामी तीसरी भूमिका में प्रवेश करता है- ठीक उसी प्रकार, जैसे कोई सुन्दर मनुष्य साफ-सुथरे फूलों के बिछौने पर अवस्थित होता है। शास्त्र जैसा अभिमत व्यक्त करते हैं, उसमें अपनी स्थिर मति को संयुक्त करके, तपस्वियों के आश्रम में वास करता हुआ अध्यात्म शास्त्र की चर्चा करते हुए पाषाण-शय्या पर आरूढ़ होते हुए ही वह सम्पूर्ण आयु बिता देता है। वह नीति पुरुष चित्त को शान्ति पहुँचाने वाले अधिक शोभाप्रद वन भूमि के विहार द्वारा विषयोपभोग से विरत होकर स्वाभाविक रूप में उपलब्ध सुख-साधनों को भोगता हुआ अपना जीवनयापन करता है। सद्ग्रन्थों के अभ्यास और पुण्य कर्मों के किये जाने से प्राणी की वास्तविक पर्यवेक्षण दृष्टि पवित्र होती है। इस तृतीय भूमिका को प्राप्त करके साधक स्वयमेव ज्ञानवान् होकर इस स्थिति का अनुभव करता है॥१५-१९॥
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द्विप्रकारसंसर्गं तस्य भेदमिमं श्रुणु ।
द्विविधोऽयमसंसर्गः सामान्यः श्रेष्ठ एव च ॥ २०॥
नाहं कर्ता न भोक्ता च न बाध्यो न च बाधकः ।
इत्यसंजनमर्थेषु सामान्यासङ्गनामकम् ॥ २१॥
प्राक्कर्मनिर्मितं सर्वमीश्वराधीनमेव वा ।
सुखं वा यदि वा दुःखं कैवात्र तव कर्तृता ॥ २२॥
भोगाभोगा महारोगाः सम्पदः परमापदः ।
वियोगायैव संयोगा आधयो व्याधयो धियाम् ॥ २३॥
कालश्च कलनोद्युक्तः सर्वभावाननारतम् ।
अनास्थयेति भावानां यदभावनमान्तरम् ।
वाक्यार्थलब्धमनसः समान्योऽसावसङ्गमः ॥ २४॥
सरलार्थ : असंसर्ग-सामान्य और श्रेष्ठ भेद से दो तरह का है। मैं न तो कर्ता, न भोक्ता, न बाध्य और न बाधक ही हूँ- इस प्रकार से विषयोपभोग में आसक्ति से रहित होने की भावना ही सामान्य असंसर्ग कहलाती है। सब कुछ पूर्वजन्म कृत कर्मों का प्रतिफल है या सब कुछ परमात्मा के अधीन है-ऐसी मान्यता रखना, सुख हो या दुःख इसमें मेरे किये गये कार्यों का अस्तित्व ही क्या है? भोगसाधनों का अतिसंग्रह महारोगरूप है और समस्त वैभव परम आपत्तियों के स्वरूप हैं। सभी संयोगों की अन्तिम परिणति वियोग के रूप में है। मानसिक चिन्ताएँ अज्ञानग्रस्तों के लिए व्याधिरूप हैं। सभी क्षणभंगुर पदार्थ अनित्य हैं, सभी को काल-कराल अपना ग्रास बनाने में संलग्न है। (शास्त्रवचनों को जान लेने से उत्पन्न) अनास्था से मन में उनके अभाव की भावना को पैदा करता है, यह सामान्य असंसर्ग कहलाता है॥२०-२४॥
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अनेन क्रमयोगेन संयोगेन महात्मनाम् ।
नाहं कर्तेश्वरः कर्ता कर्म वा प्राक्तनं मम ॥ २५॥
कृत्वा दूरतरे नूनमिति शब्दार्थभावनम् ।
यन्मौनमासनं शान्तं तच्छ्रेष्ठासङ्ग उच्यते ॥ २६॥
सरलार्थ : इस प्रकार महान् पुरुषों के निरन्तर सत्संग से जो यह कहे कि मैं कर्ता नहीं, ईश्वर ही कर्ता है या मेरे पूर्व जन्म में किए गये कर्म ही कर्ता हैं। इस प्रकार से समस्त चिन्ताओं और शब्द-अर्थ के भाव को विसर्जित कर देने के पश्चात् जो मौन, आसन और शान्त-भाव की प्राप्ति होती है, वह श्रेष्ठ असंसर्ग कहा जाता है॥२५-२६॥
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सन्तोषामोदमधुरा प्रथमोदेति भूमिका ।
भूमिप्रोदितमात्रोऽन्तरमृताङ्कुरिकेव सा ॥ २७॥
एषा हि परिमृष्टान्तः संन्यासा प्रसवैकभूः ।
द्वितीयां च तृतीयां च भूमिकां प्राप्नुयात्ततः ॥ २८॥
श्रेष्ठा सर्वगता ह्येषा तृतीया भूमिकात्र हि ।
भवति प्रोज्झिताशेषसंकल्पकलनः पुमान् ॥ २९॥
भूमिकात्रितयाभ्यासादज्ञाने क्षयमागते ।
समं सर्वत्र पश्यन्ति चतुर्थीं भूमिकां गताः ॥ ३०॥
अद्वैते स्थैर्यमायाते द्वैते च प्रशमं गते ।
पश्यन्ति स्वप्नवल्लोकं चतुर्थीं भूमिकां गताः ॥ ३१॥
सरलार्थ : अन्त:करण की भूमि में अमृत के छोटे अंकुर के प्रस्फुटन की तरह ही सन्तोष और आह्लादप्रद होने से मधुर प्रतीत होने वाली प्रथम भूमिका का अभ्युदय होता है। इसके उत्पन्न होते ही अन्तरंग में शेष भूमिकाओं के लिए भूमि तैयार हो जाती है। इसके बाद होने वाली दूसरी एवं तीसरी भूमिका में भी साधक कुशलता प्राप्त कर लेता है। इस तीसरी भूमिका को इसलिए सर्वोत्कृष्टता की श्रेणी में गिना गया है; क्योंकि इसमें साधक सभी संकल्पजन्य वृत्तियों को पूर्णत: त्याग देता है। अद्वैतभाव की दृढ़भावना से द्वैतभाव स्वत: समाप्त हो जाता है। चौथी भूमिका को प्राप्त साधक इस लोक को स्वप्न की तरह स्वीकार करता है॥२७-३१॥
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भूमिकात्रितयं जाग्रच्चतुर्थी स्वप्न उच्यते ॥ ३२॥
चित्तं तु शरदभ्रांशविलयं प्रविलीयते ।
सत्त्वावशेष एवास्ते पञ्चमीं भूमिकां गतः ॥ ३३॥
जगद्विकल्पो नोदेति चित्तस्यात्र विलापनात् ।
पञ्चमीं भूमिकामेत्य सुषुप्तपदनामिकाम् ।
शान्ताशेषविशेषांशस्तिष्ठत्यद्वैतमात्रकः ॥ ३४॥
गलितद्वैतनिर्भासो मुदितोऽतःप्रबोधवान् ।
सुषुप्तमन एवास्ते पञ्चमीं भूमिकां गतः ॥ ३५॥
अन्तर्मुखतयातिष्ठन्बहिर्वृत्तिपरोऽपि सन् ।
परिश्रान्ततया नित्यं निद्रालुरिव लक्ष्यते ॥ ३६॥
कुर्वन्नभ्यासमेतस्यां भूमिकायां विवासनः ।
षष्ठीं तुर्याभिधामन्यां क्रमात्पतति भूमिकाम् ॥ ३७॥
यत्र नासन्नसद्रूपो नाहं नाप्यहंकृतिः ।
केवलं क्षीणमननमास्तेऽद्वैतेऽतिनिर्भयः ॥ ३८॥
निर्ग्रन्थिः शान्तसन्देहो जीवन्मुक्तो विभावनः ।
अनिर्वाणोऽपि निर्वाणश्चित्रदीप इव स्थितः ॥ ३९॥
षष्ठ्यां भूमावसौ स्थित्वा सप्तमीं भूमिमाप्नुयात् ॥ ४०॥
सरलार्थ : प्रारम्भिक तीन भूमिकायें जाग्रत्-स्वरूपा हैं तथा चौथी भूमिका स्वप्न कही जाती है। पंचम भूमिका में आरूढ़ होने पर साधक का चित्त शरऋतु के बादलों की तरह विलीन हो जाता है, मात्र सत्त्व ही शेष बचता है। चित्त के विलीन हो जाने से जागतिक विकल्पों का अभ्युदय नहीं होता। सुषुप्तपद नाम की इस पंचम भूमिका में सम्पूर्ण विभेद शान्त हो जाने पर साधक मात्र अद्वैत अवस्था में ही अवस्थित रहता है। द्वैत के समाप्त हो जाने से आत्मबोध से युक्त हर्षित हुआ साधक पंचम भूमिका में जाकर सुषुप्तघन (आनन्दप्रद अवस्था) को प्राप्त कर लेता है। वह बहिर्मुखी व्यवहार करते हुए भी हमेशा अन्तर्मुखी ही रहता है तथा सदा थके हुए की तरह निद्रातुर सा दिखता है। इस भूमिका में कुशलता हासिल करते हुए वासनाविहीन होकर वह साधक क्रमशः तुर्या नाम वाली छठी भूमिका में प्रविष्ट होता है। जहाँ सत्-असत् का अभाव है, अहंकार-अनहंकार भी नहीं है तथा विशुद्ध अद्वैत स्थिति में मननात्मक वृत्ति से रहित होने पर वह अत्यन्त निर्भयता को प्राप्त करता है। हृदय ग्रन्थियों के उद्घाटित होने पर संशय मिट जाते हैं। जीवन्मुक्त होकर उसकी भावशून्यता की सी स्थिति रहती है। निर्वाण को उपलब्ध न किये जाने पर भी उसकी स्थिति निर्वाण पद को प्राप्त साधक जैसी हो जाती है। उस समय वह निश्चेष्ट दीपक की तरह निश्चल रहता है। छठी भूमिका के पश्चात् वह सातवीं भूमिका की स्थिति प्राप्त करता है। विदेह-मुक्त की स्थिति ही सातवीं भूमिका कही गयी है॥३२-४०॥
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विदेहमुक्ततात्रोक्ता सप्तमी योगभूमिका ।
अगम्या वचसां शान्ता सा सीमा सर्वभूमिषु ॥ ४१॥
लोकानुवर्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा देहानुवर्तनम् ।
शास्त्रानुवर्तनं त्यक्त्वा स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ ४२॥
ओङ्कारमात्रमखिलं विश्वप्राज्ञादिलक्षणम् ।
वाच्यवाच्यकताभेदाभेदेनानुपलब्धितः ॥ ४३॥
अकारमात्रं विश्वः स्यादुकारतैजसः स्मृतः ।
प्राज्ञो मकार इत्येवं परिपश्येत्क्रमेण तु ॥ ४४॥
समाधिकालात्प्रागेव विचिन्त्यातिप्रयत्नतः ।
स्थुलसूक्ष्मक्रमात्सर्वं चिदात्मनि विलापयेत् ॥ ४५॥
चिदात्मानं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसदद्वयः ।
परमानन्दसन्देहो वासुदेवोऽहओमिति ॥ ४६॥
आदिमध्यावसानेषु दुःखं सर्वमिदं यतः ।
तस्मात्सर्वं परित्यज्य तत्त्वनिष्ठो भवानघ ॥ ४७॥
अविद्यातिमिरातीतं सर्वाभासविवर्जितम् ।
आनन्दममलं शुद्धं मनोवाचामगोचरम् ॥ ४८॥
प्रज्ञानघनमानन्दं ब्रह्मास्मीति विभावयेत् ॥ ४९॥
इत्युपनिषत् ॥
सरलार्थ : यह भूमिका परम शान्त की है तथा वाणी की सामर्थ्य से अवर्णनीय है। यह सब भूमिकाओं की सीमारूप है तथा यहाँ सम्पूर्ण योग भूमिकाओं की समाप्ति है। लोकाचार, देहाचार और शास्त्रानुगमन को छोड़कर अपने अध्यास को नष्ट करे। विश्व, प्राज्ञ और तैजस के रूप में यह समस्त विश्व ॐकार स्वरूप ही है। वाच्य और वाचक में अभेदता रहती है और भेद होने पर इसकी उपलब्धि सम्भव नहीं। इन्हें क्रमशः इस प्रकार जाने- प्रणव की प्रथम मात्रा अकार विश्व, उकार तैजस और मकार प्राज्ञ रूप है। समाधिकाल से पहले विशेष प्रयासपूर्वक इस सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करके स्थूल और सूक्ष्म से क्रमशः सब कुछ चिदात्मा में विलीन करे। चिदात्मा का स्व-स्वरूप स्वीकार करते हुए ऐसा दृढ़ विश्वास करे- ‘मैं ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्तारूप, अद्वितीय, परम-आनन्द सन्दोह रूप एवं वासुदेव प्रणव ॐकार हूँ।’ चूँकि आदि, मध्य और अन्त में यह सम्पूर्ण प्रपञ्च दुःख देने वाला ही है, इसलिए हे निष्पाप ! सबका परित्याग करके तत्त्वनिष्ठ बने। ‘मैं अज्ञानरूपी अन्धकार से अतीत, सभी प्रकार के आभास से रहित, आनन्दरूप, मलरहित, शुद्ध, मन और वाणी से अगोचर, प्रज्ञानघन, आनन्दस्वरूप ब्रह्म हूँ’, ऐसी भावना करे। यही उपनिषद् है॥४१-४८॥
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ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
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इत्यलक्ष्युपनिषत् ॥
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ओङ्कारार्थतया भातं तुर्योङ्काराग्रभासुरम् ।
तुर्यतुर्यंत्रिपाद्रामं स्वमात्रं कलयेऽन्वहम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा{\म्+}सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ अथ हैनं पैप्पलादोऽङ्गिराः सनत्कुमारश्चाथर्वणमुवाच भगवन्किमादौ प्रयुक्तं ध्यानं ध्यायितव्यं किं तद्ध्यानं को वा ध्याता कश्च ध्येयः ।
स एभ्योथर्वा प्रत्युवाच ।
ओमित्येतदक्षरमादौ प्रयुक्तं ध्यानं ध्यायितव्यमित्येतदक्षरं परं ब्रह्मास्य पादाश्चत्वारो वेदाश्चतुष्पादिदमक्षरं परं ब्रह्म ।
पूर्वास्य मात्रा पृथिव्यकारः ऋग्भिरृग्वेदो ब्रह्मा वसवो गायत्री गार्हपत्यः ।
द्वितीयान्तरिक्षं स उकारः स यजुभिर्यजुर्वेदो विष्णुरुद्रास्त्रिष्टुब्दक्षिणाग्निः ।
तृतीयः द्यौः स मकारः स सामभिः सामवेदो रुद्रा आदित्या जगत्याहवनीयः ।
यावसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा सोमलोक ओङ्कारः साथर्वणमन्त्रैरथर्ववेदः संवर्तकोऽग्निर्मरुतो विराडेकर्षिर्भास्वती स्मृता ।
प्रथमा रक्तपीता महद्ब्रह्म दैवत्या ।
द्वितीया विद्युमती कृष्णा विष्णुदैवत्या ।
तृतीया शुभाशुभा शुक्ला रुद्रदैवत्या ।
यावासानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा विद्युमती सर्ववर्णा पुरुषदैवत्या ।
स एष ह्योङ्कारश्चतुरक्षरश्चतुष्पादश्चतुःशिरश्चतुर्थमात्रः स्थूलमेतद्_ह्रस्वदीर्घप्लुत इति ॥
ॐ ॐ ॐ इति त्रिरुक्त्वा चतुर्थः शान्त आत्माप्लुतप्रणवप्रयोगेण समस्तमोमिति प्रयुक्त आत्मज्योतिः सकृदावर्तते सकृदुच्चारितमात्रः स एष ऊर्ध्वमन्नमयतीत्योङ्कारः ।
प्राणान्सर्वान्प्रलीयत इति प्रलयः ।
प्राणान्सर्वान्परमात्मनि प्रणानयतीत्येतस्मात्प्रणवः ।
चतुर्थावस्थित इति सर्वदेववेदयोनिः सर्ववाच्यवस्तु प्रणवात्मकम् ॥ १॥
देवाश्चेति संधत्तां सर्वेभ्यो दुःखभयेभ्यः संतारयतीति तारणात्तारः । सर्वे देवाः संविशन्तीति विष्णुः । सर्वाणि बृहयतीति ब्रह्मा । सर्वेभ्योऽन्तस्थानेभ्यो ध्येयेभ्यः प्रदीपवत्प्रकाशयतीति प्रकाशः । प्रकाशेभ्यः सदोमित्यन्तः शरीरे विद्युद्वद्द्योतयति मुहुर्मुहुरिति विद्युद्वत्प्रतीयाद्दिशं दिशं भित्त्वा सर्वांल्लोकान्व्याप्नोति व्यापयतीति व्यापनाद्व्यापी महादेवः ॥ 2॥
पूर्वास्य मात्रा जागर्ति जागरितं द्वितीया स्वप्नं तृतीया सुषुप्तिश्चतुर्थी तुरीयं मात्रा मात्राः प्रतिमात्रागताः सम्यक्समस्तानपि पादाञ्जयतीति स्वयंप्रकाशः स्वयं ब्रह्म भवतीत्येष सिद्धिकर एतस्माद्ध्यानादौ प्रयुज्यते । सर्व करणोपसंहारत्वाद्धार्यधारणाद्ब्रह्म तुरीयम् । सर्वकरणानि मनसि संप्रतिष्ठाप्य ध्यानं विष्णुः प्राणं मनसि सह करणैः संप्रतिष्ठाप्य ध्याता रुद्रः प्राणं मनसि सहकरणैर्नादान्ते परमात्मनि संप्रतिष्ठाप्य ध्यायीतेशानं प्रध्यायितव्यं सर्वमिदं ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रास्ते संप्रसूयन्ते सर्वाणि चेन्द्रियाणि सह भूतैर्न कारणं कारणानां ध्याता कारणं तु ध्येयः सर्वैश्वर्यसंपन्नः शंभुराकाशमध्ये ध्रुवं स्तब्ध्वाधिकं क्षणमेकं क्रतुशतस्यापि चतुःसप्तत्या यत्फलं तदवाप्नोति कृत्स्नमोङ्कारगतिं च सर्वध्यानयोगज्ञानानां यत्फलमोङ्कारो वेद पर ईशो वा शिव एको ध्येयः शिवंकरः सर्वमन्यत्परित्यज्य समस्ताथर्वशिखैतामधीत्य द्विजो गर्भवासाद्विमुक्तो विमुच्यत एतामधीत्य द्विजो गर्भवासाद्विमुक्तो विमुच्यत इत्यो{\म्+}सत्यमित्युपनिषत् ॥ 3॥
ॐ भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥
॥ इति अथर्ववेदीय अथर्वशिखोपनिषत्समाप्ता ॥
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अथर्वशिरोपनिषत् शिवाथर्वशीर्षं च अथर्ववेदीय शैव उपनिषत् ॥
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ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँ सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥
स्वस्ति न ऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
सरलार्थ : हे देव ! हम कानों से कल्याणकारी बातें सुनें, आँखों से कल्याणकारी (दृश्य) देखें, हम हृष्ट-पुष्ट अंगों और शरीर से ईश्वर द्वारा प्रदत्त पूरी आयु देवहित कार्यों में बिताएँ। महान् कीर्ति सम्पन्न देवराज इन्द्र हमारा
कल्याण करें। सर्वज्ञाता पूषा देवता हमारा कल्याण करें। अरिष्टनेमि (जिसकी गति अवरुद्ध न की जा सके), तार्क्ष्य (गरुड़) तथा बृहस्पतिदेव हमारा कल्याण करें। त्रिविध तापों की शान्ति हो।
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ॐ देवा ह वै स्वर्गं लोकमायंस्ते रुद्रमपृच्छन्को
भवानिति । सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममासं वर्तामि च
भविश्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति ।
सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं प्राविशत्
सोऽहं नित्यानित्योऽहं व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माब्रह्माहं प्राञ्चः
प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्च उदञ्चोहं
अधश्चोर्ध्वं चाहं दिशश्च प्रतिदिशश्चाहं
पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्यहं सावित्र्यहं
त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् चाहं छन्दोऽहं गार्हपत्यो
दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं
गौर्यहमृगहं यजुरहं सामाहमथर्वाङ्गिरसोऽहं
ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहं
गुह्योहंअरण्योऽहमक्षरमहं क्षरमहं पुष्करमहं
पवित्रमहमुग्रं च मध्यं च बहिश्च
पुरस्ताज्ज्योतिरित्यहमेव सर्वेभ्यो मामेव स सर्वः समां यो
मां वेद स सर्वान्देवान्वेद सर्वांश्च वेदान्साङ्गानपि
ब्रह्म ब्राह्मणैश्च गां गोभिर्ब्राह्माणान्ब्राह्मणेन
हविर्हविषा आयुरायुषा सत्येन सत्यं धर्मेण धर्मं
तर्पयामि स्वेन तेजसा ।
ततो ह वै ते देवा रुद्रमपृच्छन् ते देवा रुद्रमपश्यन् ।
ते देवा रुद्रमध्यायन् ततो देवा ऊर्ध्वबाहवो रुद्रं स्तुवन्ति ॥ १॥
सरलार्थ : एक समय देवताओं ने स्वर्गलोक में जाकर रुद्र से पूछा- आप कौन हैं? रुद्र ने उत्तर दिया- मैं एक हूँ, भूतकाल हूँ, वर्तमान काल हूँ और भविष्यत्काल भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो अन्तर के भी अन्तर में विद्यमान है, जो समस्त दिशाओं में सन्निविष्ट है, वह मैं ही हूँ। मैं ही नित्य और अनित्य, व्यक्त और अव्यक्त, ब्रह्म और अब्रह्म हूँ। मैं ही प्राची (पूर्व) और प्रतीची (पश्चिम), उत्तर और दक्षिण, ऊर्ध्व और अध: आदि दिशाएँ तथा विदिशाएँ हैं। पुमान् (पुरुष), अपुमान् (अपुरुष) और स्त्री भी मैं ही हूँ। मैं ही गायत्री, सावित्री और सरस्वती हूँ। त्रिष्टुप्, जगती और अनुष्टुप् आदि छन्द भी मैं ही हूँ। मैं गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय अग्नि हूँ। मैं सत्य, गौ, गौरी, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और वरिष्ठ हूँ। आपः और तेजस् भी मैं ही हूँ। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद भी मैं ही हूँ। अक्षर-क्षर, गोप्य (छिपाने योग्य) और गुह्य (छिपाया हुआ) भी मैं हूँ। अरण्य, पुष्कर (तीर्थ), पवित्र मैं हूँ। अग्र, मध्य, बाह्य और पुरस्ताद् (पूर्व) आदि दसों दिशाओं में अवस्थित और अनवस्थित ज्योतिरूप शक्ति मुझे ही मानना चाहिए और सब कुछ मुझमें ही व्याप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह समस्त देवों और अङ्गों सहित समस्त वेदों को जानता है। मैं गौओं को गोत्व से, ब्राह्मणों को ब्राह्मणत्व से, हवि को हविष्य से, आयु को आयुष्य से, सत्य को सत्यता से, धर्म को धर्म तत्त्व से तृप्त करता हूँ। यह सुनकर देवगणों ने रुद्र को देखा और उनका ध्यान करने लगे । तत्पश्चात् भुजाएँ उठाकर इस प्रकार स्तुति की॥१॥
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ॐ यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च ब्रह्मा तस्मै वै नमोनमः ॥ १॥
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च स्कन्दस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ३॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्चेन्द्रस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ४॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्चाग्निस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ५॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च वायुस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ६॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च सूर्यस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ७॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च सोमस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ८॥
यो वै रुद्रः स भगवान्ये चाष्टौ ग्रहास्तस्मै वै नमोनमः ॥ ९॥
यो वै रुद्रः स भगवान्ये चाष्टौ प्रतिग्रहास्तस्मै वै नमोनमः ॥ १०॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च भूस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ११॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च भुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १२॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च स्वस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १३॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च महस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १४॥
यो वै रुद्रः स भगवान्या च पृथिवी तस्मै वै नमोनमः ॥ १५॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चान्तरिक्षं तस्मै वै नमोनमः ॥ १६॥
यो वै रुद्रः स भगवान्या च द्यौस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १७॥
यो वै रुद्रः स भगवान्याश्चापस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १८॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च तेजस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १९॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च कालस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २०॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च यमस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २१॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च मृत्युस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २२॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चामृतं तस्मै वै नमोनमः ॥ २३॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चाकाशं तस्मै वै नमोनमः ॥ २४॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च विश्वं तस्मै वै नमोनमः ॥ २५॥
यो वै रुद्रः स भगवान्याच्च स्थूलं तस्मै वै नमोनमः ॥ २६॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सूक्ष्मं तस्मै वै नमोनमः ॥ २७॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च शुक्लं तस्मै नमोनमः ॥ २८॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च कृष्णं तस्मै वै नमोनमः ॥ २९॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च कृत्स्नं तस्मै वै नमोनमः ॥ ३०॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सत्यं तस्मै वै नमोनमः ॥ ३१॥
यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सर्वं तस्मै वै नमोनमः ॥ ३२॥ ॥ २॥
सरलार्थ : हे भगवान् रुद्र ! आप ब्रह्मा स्वरूप हैं, आपको नमन है। हे भगवान् रुद्र ! आप विष्णु स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। हे भगवान् रुद्र ! आप स्कन्द रूप हैं, आपको नमन है। आप इन्द्र स्वरूप, अग्नि स्वरूप, वायु स्वरूप और सूर्य स्वरूप हैं, आपको नमन है। हे भगवान् रुद्र ! आप सोम स्वरूप हैं, अष्टग्रह स्वरूप, प्रतिग्रह स्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप भूः स्वरूप, भुव: स्वरूप, स्वः स्वरूप और मह: स्वरूप हैं, आपको नमन है। हे रुद्र भगवान् ! आप पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौ, आपः और आकाश रूप हैं, आपको नमस्कार है। हे रुद्र भगवान् ! आप विश्वरूप, स्थूलरूप, सूक्ष्मरूप, कृष्ण और शुक्ल स्वरूप हैं, आपको नमन है। आप सत्यरूप और सर्वस्वरूप हैं, आपको बारम्बार नमन है॥२॥
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भूस्ते आदिर्मध्यं भुवः स्वस्ते शीर्षं विश्वरूपोऽसि ब्रह्मैकस्त्वं द्विधा
त्रिधा वृद्धिस्तं शान्तिस्त्वं पुष्टिस्त्वं हुतमहुतं दत्तमदत्तं
सर्वमसर्वं विश्वमविश्वं कृतमकृतं परमपरं परायणं च त्वम् ।
अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।
किं नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतं मार्त्यस्य ।
सोमसूर्यपुरस्तात् सूक्ष्मः पुरुषः ।
सर्वं जगद्धितं वा एतदक्षरं प्राजापत्यं सूक्ष्मं
सौम्यं पुरुषं ग्राह्यमग्राह्येण भावं भावेन सौम्यं
सौम्येन सूक्ष्मं सूक्ष्मेण वायव्यं वायव्येन ग्रसति स्वेन
तेजसा तस्मादुपसंहर्त्रे महाग्रासाय वै नमो नमः ।
हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ।
हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्रो मात्राः परस्तु सः । तस्योत्तरतः शिरो
दक्षिणतः पादौ य उत्तरतः स ओङ्कारः य ओङ्कारः स प्रणवः
यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तः
योऽनन्तस्तत्तारं यत्तारं तत्सूक्ष्मं तच्छुक्लं
यच्छुक्लं तद्वैद्युतं यद्वैद्युतं तत्परं ब्रह्म यत्परं
ब्रह्म स एकः य एकः स रुद्रः य रुद्रः यो रुद्रः स ईशानः य
ईशानः स भगवान् महेश्वरः ॥ ३॥
सरलार्थ : हे रुद्र भगवान् ! भूः, भुवः और स्वः लोक क्रमशः आपके नीचे, मध्य और शीर्ष के लोक हैं। आप विश्वरूप हैं और एक मात्र ब्रह्म हैं; किन्तु भ्रमवश दो और तीन संख्या वाले प्रतीत होते हैं। आप वृद्धि स्वरूप, शान्तिस्वरूप, पुष्टिरूप, हुत-अहुतरूप, दत्तरूप-अदत्तरूप,सर्वरूप-असर्वरूप, विश्व-अविश्वरूप, कृतरूप अकृतरूप, पर- अपररूप और परायणरूप हैं। आपने हमें (देवों को) अमृत स्वरूप सोमपान कराकर अमृतत्व प्रदान किया है। हम ज्योति स्वरूप होकर ज्ञान को प्राप्त हुए हैं। अब कामादि शत्रु हमें क्षति नहीं पहुँचा सकते। आप मर्त्यों (मनुष्यों) के लिए अमृत तुल्य हैं।
[सोम स्थूल ही नहीं, सूक्ष्म दिव्य ज्ञान रूप भी है। सोम रूप ज्ञान को आत्मसात् करके साधक स्वयं ज्योतित हो जाता है। तब दिव्य ज्ञान के साथ स्वाभाविक रूप से योग होता है और कामादि विकार प्रभावी नहीं हो पाते।]
हे देव! आप सोम (चन्द्र) और सूर्य से भी पूर्व उत्पन्न सूक्ष्म पुरुष हैं। आप सम्पूर्ण जगत् का हित करने वाले, अक्षर रूप, प्राजापत्य (प्रजापतियों द्वारा स्तुत्य), सूक्ष्म, सौम्य पुरुष हैं, जो अपने तेज से अग्राह्य को अग्राह्य से, भाव को भाव से, सौम्य को सौम्य से, सूक्ष्म को सूक्ष्म से, वायु को वायु से ग्रस लेते हैं, ऐसे महाग्रास करने वाले आप (रुद्र भगवान्) को नमस्कार है। सभी हृदयों में देवगण, प्राण और आप विराजते हैं।
[मनुष्य के अनम् में जीवन ऊर्जारुप प्राणों, दिव्य संवेदना रूप देवगणों तथा आत्म चेतन रुप में परमात्मा का आवास ऋषि अनुभव करते हैं। उन्हें उनसे सम्बन्धित अनुशासों के माध्यम से सक्रिय एवं फलित किया जा सकता है।]
हृदय में विराजते हुए (वह) आप तीनों मात्राओं (अ, उ, म्) से परे हैं। (हृदय के) उत्तर में उसका सिर है, दक्षिण में पाद हैं, जो उत्तर में विराजमान है, वही ओंकार है। ओंकार को ही ‘प्रणव' कहते हैं और प्रणव ही सर्वव्यापी है। वह सर्वव्यापी प्रणव हो अनन्त है। जो अनन्त है, वही तारक स्वरूप है। जो तारक है, वही सूक्ष्म स्वरूप है। जो सूक्ष्म स्वरूप है, वही शुक्ल है। जो शुक्ल (प्रकाशित) है, वही विद्युत् (विशेष रूप से द्युतिमान्) है। जो विद्युत् है, वही परब्रह्म है। जो परब्रह्म है, वही एक रूप है। जो एक रूप है, वही रुद्र है। जो रुद्र है, वहीं ईशानरूप है। जो ईशान है, वही भगवान् महेश्वर है॥ [ऋषि यहाँ ‘स्व’-जीव चेतना, ईश- नियामक चेतना तथा महेश्वर-परमात्म चेतना तीनों की एकरूपता का आभास करा रहे हैं ।]
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अथ कस्मादुच्यत ओङ्कारो यस्मादुच्चार्यमाण एव
प्राणानूर्ध्वमुत्क्रामयति तस्मादुच्यते ओङ्कारः ।
अथ कस्मादुच्यते प्रणवः यस्मादुच्चार्यमाण एव
ऋग्यजुःसामाथर्वाङ्गिरसं ब्रह्म ब्राह्मणेभ्यः प्रणामयति
नामयति च तस्मादुच्यते प्रणवः ।
अथ कस्मादुच्यते सर्वव्यापी यस्मादुच्चार्यमाण एव
सर्वांलोकान्व्याप्नोति स्नेहो यथा पललपिण्डमिव
शान्तरूपमोतप्रोतमनुप्राप्तो व्यतिषक्तश्च तस्मादुच्यते सर्वव्यापी ।
अथ कस्मादुच्यतेऽनन्तो यस्मादुच्चार्यमाण एव
तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्चास्यान्तो नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽनन्तः ।
अथ कस्मादुच्यते तारं यस्मादुच्चारमाण एव
गर्भजन्मव्याधिजरामरणसंसारमहाभयात्तारयति त्रायते
च तस्मादुच्यते तारम् ।
अथ कस्मादुच्यते शुक्लं यस्मादुच्चार्यमाण एव क्लन्दते
क्लामयति च तस्मादुच्यते शुक्लम् ।
अथ कस्मादुच्यते सूक्ष्मं यस्मादुच्चार्यमाण एव सूक्ष्मो भूत्वा
शरीराण्यधितिष्ठति सर्वाणि चाङ्गान्यमिमृशति तस्मादुच्यते सूक्ष्मम् ।
अथ कस्मादुच्यते वैद्युतं यस्मादुच्चार्यमाण एव व्यक्ते
महति तमसि द्योतयति तस्मादुच्यते वैद्युतम् ।
अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म यस्मात्परमपरं परायणं च
बृहद्बृहत्या बृंहयति तस्मादुच्यते परं ब्रह्म ।
अथ कस्मादुच्यते एकः यः सर्वान्प्राणान्संभक्ष्य
संभक्षणेनाजः संसृजति विसृजति तीर्थमेके व्रजन्ति
तीर्थमेके दक्षिणाः प्रत्यञ्च उदञ्चः
प्राञ्चोऽभिव्रजन्त्येके तेषां सर्वेषामिह सद्गतिः ।
साकं स एको भूतश्चरति प्रजानां तस्मादुच्यत एकः ।
अथ कस्मादुच्यते रुद्रः यस्मादृषिभिर्नान्यैर्भक्तैर्द्रुतमस्य
रूपमुपलभ्यते तस्मादुच्यते रुद्रः ।
अथ कस्मादुच्यते ईशानः यः सर्वान्देवानीशते
ईशानीभिर्जननीभिश्च परमशक्तिभिः ।
अमित्वा शूर णो नुमो दुग्धा इव धेनवः । ईशानमस्य जगतः
स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थिष इति तस्मादुच्यते ईशानः ।
अथ कस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः यस्माद्भक्ता ज्ञानेन
भजन्त्यनुगृह्णाति च वाचं संसृजति विसृजति च
सर्वान्भावान्परित्यज्यात्मज्ञानेन योगेश्वैर्येण महति महीयते
तस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः । तदेतद्रुद्रचरितम् ॥ ४॥
सरलार्थ : ॐकार किस कारण से कहा जाता है? यह इसलिए कहा जाता है कि ॐकार उच्चारित करने में श्वास (प्राणों) को ऊपर की ओर खींचना पड़ता है। प्रणव इसलिए कहा जाता है कि इसका उपयोग (उच्चारण) ऋक्, यजुः, साम, अथर्वाङ्गिरस और ब्राह्मणों को प्रणाम करने के लिए किया जाता है। इसीलिए इसका नाम ‘प्रणव’ ऐसा हुआ है। इसे सर्वव्यापी क्यों कहा जाता है? इसलिए कि जिस प्रकार तिल में तेल विद्यमान (संव्याप्त) है, उसी प्रकार यह अव्यक्त रूप से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है, इसी कारण ‘सर्वव्यापी’ ऐसा कहा जाता है। इसका नाम अनन्त इसलिए है कि इस ‘शब्द’ का उच्चारण करते हुए ऊपर-नीचे और तिरछे कहीं भी इसका अन्त प्रतीत नहीं होता।‘तारक’ नाम इसलिए दिया गया है कि यह गर्भ, जन्म, व्याधि, वृद्धावस्था और मरण से युक्त संसार के भय से तारने वाला है। इसका नाम ‘शुक्ल’ इसलिए है कि यह स्व प्रकाशित है, अन्यों के लिए प्रकाशक है। इसे ‘सूक्ष्म’ इस कारण कहा जाता है कि इसका उच्चारण करने पर यह सूक्ष्म स्वरूप होकर स्थावर आदि सभी शरीरों में अधिष्ठित होता है। इसे ‘वैद्युत’ कहने का कारण यह है कि इसका उच्चारण करने से घोर अन्धकार (अज्ञान) को स्थिति में भी समग्र काया (स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि) विशेष रुप से द्युतिमान् हो जाती है। परब्रह्म कहने का कारण यह है कि वह पर, अपर और परायण (इन तीनों) बृहत् (ध्यापक घटकों) को बृहत्या (विशालता के माध्यम से) व्यापक बनाता है।
[ऋषि द्वारा परमात्म-सत्ता को परब्रह्म कहने का तात्पर्य प्रकट किया गया है- पर+ब्रह्म के संयोग से परब्रह्म बना है। जो पर( अव्यक्त) है तथा जो अपर ( व्यक्त) है, वे एक दूसरे के परायण-एक दूसरे के प्रति जागरूक- परस्पर पूरक हैं। इस भाव को प्रथम पद ‘पर’ से प्रकट किया गया है। जो बृहत्-विशाल है तथा विशालता ( संकीर्णता से मुक्तभाव) से सभी घटकों को व्यापकता प्रदान करता है, उसके लिए दूसरा पद ‘ब्रह्म’ प्रयुक्त किया गया है।]
इसे (ब्रह्म को) एक इसलिए कहा जाता है कि यह समस्त प्राणों का भक्षण करके ‘अज’ स्वरूप होकर उत्पत्ति और संहार करता है। समस्त तीर्थों में वह 'एक' ही (तत्त्व) विद्यमान है। अनेक लोग पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के विभिन्न तीर्थों में परिभ्रमण करते हैं। वहाँ भी उनकी सद्गति का कारण वह एक ही (तत्त्व) है। समस्त प्राणियों में एक रूप में निवास करने के कारण उस तत्त्व को ‘एक’ कहते हैं।‘रुद्र’ इसलिए कहा जाता है कि इसके स्वरूप का ज्ञान ऋषियों को सहज ही हो सकता है। सामान्य जनों को इसका ज्ञान हो सकना कठिन है।‘ईशान’ क्यों कहते हैं, इसलिए कि वह समस्त देवों और उनकी शक्तियों पर अपना प्रभुत्व (ईशत्व) रखता है। (सों हे रुद्र!) आप शूर की हम उसी प्रकार स्तुति करते हैं, जिस प्रकार दुग्ध प्राप्त करने के लिए गौ को प्रसन्न किया जाता है। ( हे रुद्र!) आप ही इन्द्र रूप होकर स्थावर-जंगम संसार के ईश और दिव्य दृष्टि सम्पन्न हैं, इसी कारण आपको ‘ईशान’ नाम से सम्बोधित किया जाता है। आपको भगवान् महेश्वर क्यों कहते हैं? इसलिए कि जो भक्तजन ज्ञान पाने के लिए आपका भजन करते हैं और आप उन पर कृपा- वर्षण करते हैं, वाक् शक्ति का प्रादुर्भाव करते हैं, साथ ही समस्त भावों का परित्याग करके आत्मज्ञान और योग के ऐश्वर्य से अपनी महिमा में स्थित रहते हैं, इसीलिए आपको ‘महेश्वर’ कहा जाता है। इस प्रकार इस रुद्र के चरित का वर्णन हुआ॥
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एको ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः ।
स एव जातः जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ।
एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्मै य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति संचुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा
भुवनानि गोप्ता ।
यो योनिं योनिमधितिष्ठतित्येको येनेदं सर्वं विचरति सर्वम् ।
तमीशानं पुरुषं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ।
क्षमां हित्वा हेतुजालास्य मूलं बुद्ध्या सञ्चितं स्थापयित्वा तु रुद्रे ।
रुद्रमेकत्वमाहुः शाश्वतं वै पुराणमिषमूर्जेण
पशवोऽनुनामयन्तं मृत्युपाशान् ।
तदेतेनात्मन्नेतेनार्धचतुर्थेन मात्रेण शान्तिं संसृजन्ति
पशुपाशविमोक्षणम् ।
या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णेन यस्तां
ध्यायते नित्यं स गच्छेत्ब्रह्मपदम् ।
या सा द्वितीया मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णा वर्णेन
यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम् । या सा
तृतीया मात्रा ईशानदेवत्या कपिला वर्णेन यस्तां
ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम् ।
या सार्धचतुर्थी मात्रा सर्वदेवत्याऽव्यक्तीभूता खं
विचरति शुद्धा स्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते
नित्यं स गच्छेत्पदमनामयम् ।
तदेतदुपासीत मुनयो वाग्वदन्ति न तस्य ग्रहणमयं पन्था
विहित उत्तरेण येन देवा यान्ति येन पितरो येन ऋषयः
परमपरं परायणं चेति ।
वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यम् ।
तमात्मस्थं येनु पश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिर्भवति नेतरेषाम् ।
यस्मिन्क्रोधं यां च तृष्णां क्षमां चाक्षमां हित्वा
हेतुजालस्य मूलम् ।
बुद्ध्या संचितं स्थापयित्वा तु रुद्रे रुद्रमेकत्वमाहुः ।
रुद्रो हि शाश्वतेन वै पुराणेनेषमूर्जेण तपसा नियन्ता ।
अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म
व्योमेति भस्म सर्वंह वा इदं भस्म मन एतानि
चक्षूंषि यस्माद्व्रतमिदं पाशुपतं यद्भस्म नाङ्गानि
संस्पृशेत्तस्माद्ब्रह्म तदेतत्पाशुपतं पशुपाश विमोक्षणाय ॥ ५॥
सरलार्थ : एक ही ऐसा देता है, जो समस्त दिशाओं में निवास करता है। सर्वप्रथम उसी का आविर्भाव हुआ।
वही मध्य और अन्त में स्थित है। वही उत्पन्न होता है और आगे भी उत्पन्न होगा। प्रत्येक में वही संव्याप्त हो रहा है। अन्य कोई नहीं, केवल एक रुद्र ही इस लोक का नियमन (नियंत्रण) कर रहा है। समस्त प्राणी उसी के अन्दर निवास करते हैं और अन्ततः सबका उसी में विलय भी होता है। विश्व का उद्भव और संरक्षण- कर्ता भी वही है, जो समस्त जीवों में संव्याप्त हो रहा है और समस्त प्राणी जिसमें संव्याप्त हो रहे हैं. उस ‘ईशान’ देव के ध्यान से मनुष्य को परम शान्ति का लाभ मिल सकता है। समस्त प्रपञ्चो के हेतु भूत- अज्ञान का परित्याग करके संचित कर्मों को बुद्धि के द्वारा रुद्र में अर्पित करके परमात्मा का एकत्व प्राप्त होता है।
जो शाश्वत और पुराण पुरुष अपनी सामर्थ्य से अन्न आदि प्रदान करके प्राणियों को मृत्युपाश से मुक्त करता है। यही आत्मज्ञान प्रदान करने वाला ॐ चतुर्थ मात्रा से शान्ति प्रदाता और बन्धन मुक्ति प्रदाता है। उन रुदेव की प्रथम मात्रा ब्रह्मा की है, जो लाल वर्ण की है, उसके नियमित ध्यान से ब्रह्मपद प्राप्त होता है। दूसरी मात्रा विष्णु की है, जो कृष्ण वर्ण की है, उसके नियमित ध्यान से विष्णु पद की प्राप्ति होती है। तृतीय मात्रा ईशान की है, जिसका वर्ण पीला है, उसका ध्यान करने से ईशान पद की प्राप्ति होती है। जो अर्ध चतुर्थ मात्रा है, वह समस्त देवों के रूप में अव्यक्त होकर आकाश में विचरण करती है, वह शुद्ध स्फटिक मणि के वर्ण की है, जिसके ध्यान से मुक्ति प्राप्त होती है। मनीषियों का कहना है कि इस अर्थ मात्रा की उपासना ही उचित है; क्योंकि इससे कर्मों के बन्धन कट जाते हैं। इस उत्तरायण (उत्तरी मार्ग) से ही देव, पितर और ऋषिगण गमन करते हैं। यही पर, अपर तथा परायण मार्ग है। बाल के अग्रभाग के तुल्य, सूक्ष्म रूप से हृदय में निवास करने वाले, विश्वरूप, देवरूप, समस्त उत्पन्न हुए लोगों को जानने वाले श्रेष्ठ परमात्मा को जो ज्ञानी जन अपने अन्दर देखते हैं, वे ही शान्ति प्राप्त करते हैं, अन्य किसी को वह शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। तृष्णा, क्रोध आदि हेतु समूह के मूल का परित्याग करके संचित कर्मों का बुद्धिपूर्वक रुद्र में स्थापन करने से रुद्र से एकत्व प्राप्त होता है। रुद्र ही शाश्वत और पुराण (प्राचीन) हैं। अस्तु, वे अपनी शक्ति और तप से सबके नियंत्रक हैं। अग्नि, वायु, जल, स्थल (भूमि) और आकाश ये सभी भस्म रूप हैं। भगवान् पशुपति (बंधन से बंधे प्राणियों के स्वामी) को भस्म का जिसके अङ्ग में स्पर्श नहीं हुआ, वह भी भस्म के समान ही है। इस प्रकार पशुपति रुद्र की ब्रह्मरूप-भस्म पशु (प्राणियों) के बन्धनों को काटने वाली है ॥
[पदार्थ अपने रूप में इसलिए रहता है कि उसमें कणों को जोड़े रहने वाली प्रवृत्ति (वाइन्डिंग टैण्डेन्सी) सक्रिय होती है। भस्म बनने पर उसका वह रूप समाप्त हो जाता है; क्योंकि उसकी वह बाँधे रहने वाली क्षमता समाप्त हो जाती है। पशुपति के रूप में वही आदि सत्ता जीव को काया के साथ बाँधे रहती है तथा ब्रह्मरूप में वही सत्ता बाँधे रहने की प्रवृत्ति से मुक्त रहती है, इसीलिए परब्रह्म को रूप, गुण के बन्धन से मुक्त भस्मरूप कहा गया है।]
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योऽग्नौ रुद्रो योऽप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश । य इमा
विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोऽस्त्वग्नये ।
यो रुद्रोऽग्नौ यो रुद्रोऽप्स्वन्तर्यो ओषधीर्वीरुध आविवेश ।
यो रुद्र इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोनमः ।
यो रुद्रोऽप्सु यो रुद्र ओषधीषु यो रुद्रो वनस्पतिषु । येन
रुद्रेण जगदूर्ध्वंधारितं पृथिवी द्विधा त्रिधा धर्ता
धारिता नागा येऽन्तरिक्षे तस्मै रुद्राय वै नमोनमः ।
मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत् ।
मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः ।
तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्झितः ।
तत्प्राणोऽभिरक्षति शिरोऽन्तमथो मनः ।
न च दिवो देवजनेन गुप्ता न चान्तरिक्षाणि न च भूम इमाः ।
यस्मिन्निदं सर्वमोतप्रोतं तस्मादन्यन्न परं किञ्चनास्ति ।
न तस्मात्पूर्वं न परं तदस्ति न भूतं नोत भव्यं यदासीत् ।
सहस्रपादेकमूर्ध्ना व्याप्तं स एवेदमावरीवर्ति भूतम् ।
अक्षरात्संजायते कालः कालाद्व्यापक उच्यते ।
व्यापको हि भगवान्रुद्रो भोगायमनो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः ।
उच्छ्वासिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते
मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं
भवत्यण्डाद्ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कारः
ॐकारात्सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति ।
अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्भुवम् ।
एतद्धि परमं तपः ।
आपोऽज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरो नम इति ॥ ६॥
सरलार्थ : जो रुद्र, अग्नि और जल में निवास करते हैं। वे ही ओषधियों और वनस्पतियों में भी प्रविष्ट हो गये हैं। जिनके द्वारा यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है, उन अग्नि रूप रुद्र को नमन है। जो रुद्रदेव, अग्नि, ओषधियों तथा वनस्पतियों में वास करते हैं और जिनके द्वारा विश्व और समस्त भुवनों का सृजन किया जाता है, उन्हें नमस्कार है। जो रुद्रदेव जल, वनस्पतियों और ओषधियों में विराजमान हैं, जिनके द्वारा यह समस्त जगत् धारण किया गया है, जो रुद्र द्विधा (शिव और शक्ति) तथा त्रिधा (सत्, रज, तम) से इस पृथिवी को संचालित करते हैं, जिनने नागों (बादलों) को अन्तरिक्ष में प्रतिष्ठित कर रखा है, उन्हें नमन है। भगवान् रुद्र की प्रणवरूष मूर्धा की उपासना करने वाले अथर्वा को उच्च स्थिति प्राप्त करते हैं और उपासना न करने वाले निम्न स्थिति में ही रहते हैं। समस्त देवताओं का सामूहिक स्वरूप रुद्र भगवान् का सिर ही है। उनका प्राण मन और मरतक का रक्षक है। पृथिवी, आकाश अथवा स्वर्ग का संरक्षण करने में देवता स्वयं समर्थ नहीं हैं। सभी कुछ रुद्र भगवान् में ही समाहित है, उनसे परे कुछ भी नहीं है, उनसे पूर्व भी कुछ नहीं था। उनसे पूर्व भूतकाल में और उनसे आगे (भविष्यत्काल) में भी कुछ नहीं है। सहस्त्रपद और एक मस्तक वाले रुद्र समस्त भूतों में संव्याप्त हैं।
[रुद्र का संकल्प निर्धारण एक ही है। अस्तु, उन्हें एक सिर वाला कहा गया है। उनकी गतिशीलता के हजारों पक्ष हैं, इसलिए उन्हें सहस्त्रपाद कहा गया है।]
अक्षर से काल की उत्पत्ति होती है और काल से यह व्यापक कहलाता है। व्यापक और शोभायमान रुद्र जब शयन करने लगते हैं, तब समस्त प्रजा (प्राणि समुदाय) का संहार हो जाता है। जब भगवान् रुद्र श्वास लेते हैं, तो तम उत्पन्न हो जाता है। तम से आपः तत्त्व का प्रादुर्भाव होता है। उसे आपः को (रुद्र द्वारा) अपनी अङ्गुली द्वारा मथे जाने पर शिशिर (आपः तत्त्व का जमा हुआ गाढ़ा रूप) उत्पन्न होता है। उस शिशिर के मथे जाने पर फेन उत्पन्न होता है, फेन से अण्डा और अण्डे से ब्रह्मा का प्रादुर्भाव होता है। तत्पश्चात् ब्रह्मा से वायु और वायु से ओंकार, ओंकार से सावित्री प्रकट होती हैं। सावित्री से गायत्री और गायत्री से लोकों का उद्भव होता है। जब वे (रुद्) तप करते हैं, तब सत्यरूपी मधु क्षरित होता है, जो शाश्वत होता है। यह परम तप है। आपः, ज्योतिः, रस, अमृत, ब्रह्म, भूः, भुवः और स्व: रूप परब्रह्म को नमस्कार है ॥
[इस कण्डिका में आप का अर्थ जल करना उचित नहीं है। वेद में आपः को सृष्टि का मूल क्रियाशील तत्व कहा गया है। आप की उसी अवधारणा से मन्त्र का भाव स्पष्ट होता है। इसी प्रकार शिशिर का अर्थ ऋतु विशेष यह उचित नहीं है। शिशिर का अर्थ जमा हुआ भी होता है, इसी भाब से मन्त्रार्थ स्पष्ट होता है। गाढ़े आपः तत्व को मथने से फेन अर्थात् फला पदार्थ पैदा होता है। वेद और विज्ञान दोनों इस तथ्य से सहमत हैं कि प्रारम्भिक मूल पदार्थ का घनत्व अत्यधिक मा। उसे फुलाकर हलका करने पर ही वह सृष्टि के योग्य बना। ब्रह्माण्ड फेन रूप ही है। इसी प्रकार अणड का अर्थ अण्डा नहीं ब्रह्माण्ड ही उचित है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सृजनशील ‘ब्रह्मा’ का विकास होता है, तब दृश्य सृष्टि बनती है। वायु से ओंकार की उत्पत्ति भी विवेक सम्मत है। ओंकार एक ध्वनि विशेष है। ध्वनि की उत्पत्ति वायु से ही होती है। इसी क्रम से ऋषि ने सृष्टि के विकास के चरण स्पष्ट किये हैं।]
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य इदमथर्वशिरो ब्राह्मणोऽधीते अश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति
अनुपनीत उपनीतो भवति सोऽग्निपूतो भवति स वायुपूतो
भवति स सूर्यपूतो भवति स सर्वेर्देवैर्ज्ञातो भवति स
सर्वैर्वेदैरनुध्यातो भवति स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो
भवति तेन सर्वैः क्रतुभिरिष्टं भवति गायत्र्याः
षष्टिसहस्राणि जप्तानि भवन्ति इतिहासपुराणानां
रुद्राणां शतसहस्राणि जप्तानि भवन्ति ।
प्रणवानामयुतं जप्तं भवति । स चक्षुषः पङ्क्तिं पुनाति ।
आ सप्तमात्पुरुषयुगान्पुनातीत्याह भगवानथर्वशिरः
सकृज्जप्त्वैव शुचिः स पूतः कर्मण्यो भवति ।
द्वितीयं जप्त्वा गणाधिपत्यमवाप्नोति ।
तृतीयं जप्त्वैवमेवानुप्रविशत्यों सत्यमों सत्यमों सत्यम् ॥ ७॥
सरलार्थ : जो ब्राह्मण इस अथर्वशिर उपनिषद् का अध्ययन करता है, वह श्रोत्रिय न हो, तो भी श्रोत्रिय हो जाता है। अनुपवीत व्यक्ति, उपवीत सम्पन्न हो जाता है। वह अग्नि के समान, वायु के समान, सूर्य के समान, सोम के समान और सत्य के समान पवित्र हो जाता है। वह समस्त देवों का ज्ञाता, समस्त वेदों का अध्येता और समस्त तीर्थों का स्न्नातक हो जाता है, वह समस्त यज्ञों के पुण्य का फल तथा साठ हजार गायत्री मन्त्र के जप का फल प्राप्त करता है। उसे इतिहास और पुराणों के अध्ययन का, एक लक्ष रुद्र के जप का तथा दस हजार प्रणव के जप का प्रतिफल प्राप्त होता है। उसका दर्शन पाकर लोग पवित्र हो जाते हैं। वह अपने पूर्व की सात पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। भगवान् ने कहा कि अथर्वशिर के एक बार के जप से साधक पवित्र होकर कल्याण कर्म का अधिकारी बन जाता है। दूसरी बार जप करने से गाणपत्य पद प्राप्त करता है तथा तृतीय बार जप करने से वह सत्यरूष ओंकार में प्रविष्ट हो जाता है। यह सत्यरूप ओंकार ही (त्रिकाल) सत्य है॥
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ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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॥ इत्यथर्वशिर उपनिषत्समाप्ता ॥
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॥ श्रीः ॥
उपनिषद्ब्रह्मयोगिविरचितं विवरणम्
श्रीमदप्पयशिवाचार्यविरचितभाष्योपेता
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ॐ पूर्णमदः पूणमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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अथातोऽद्वयतारकोपनिषदं व्याख्यास्यामो यतये
जितेन्द्रियाय शमदमादिषड्गुणपूर्णाय ॥ १ ॥
सरलार्थ : अब अद्वयतारकोपनिषद् की व्याख्या योगियों, संन्यासियों, जितेन्द्रियों तथा शम,दम आदि षड्गुणों से पूर्ण साधकों के लिए करते हैं॥१॥
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चित्स्वरूपोऽहमिति सदा भावयन् सम्यक् निमीलिताक्षः
किंचिद् उन्मीलिताक्षो वाऽन्तर्दृष्ट्या भ्रूदहरादुपरि
सचिदानन्दतेजःकूटरूपं परं ब्रह्मावलोकयन् तद्रूपो भवति ॥ २ ॥
सरलार्थ : वह नेत्रों को बन्द अथवा अधखुले रखकर अन्त:दृष्टि से भृकुटी के ऊर्ध्व स्थल में ‘मैं चित् स्वरूप हूँ।’ इस प्रकार का भाव चिन्तन करते हुए सच्चिदानन्द के तेज से युक्त कूटरूप (निश्चल) ब्रह्म का दर्शन करता हुआ ब्रह्ममय ही हो जाता है॥२॥
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गर्भजन्मजरामरणसंसारमहद्भयात् संतारयति तस्मात्तारकमिति ।
जीवेश्वरौ मायिकाविति विज्ञाय सर्वविशेषं नेति
नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म ॥ ३ ॥
सरलार्थ : जो (तेजोमय परब्रह्म) गर्भ, जन्म, जरा, मरण एवं संहार आदि पापों से तारता है अर्थात् मुक्ति दिला देता है, उसे ‘तारक’ ब्रह्म कहा गया है। जीव एवं ईश्वर को मायिक (माया से आवृत्) जानते हुए अन्य सभी को ‘नेति-नेति’ कहते हुए छोड़कर जो कुछ शेष बचा रहता है, वही ‘अद्वय ब्रह्म’ कहा गया है॥३॥
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तत्सिद्ध्यैः लक्ष्यत्रयानुसंधानं कर्तव्यः ॥ ४ ॥
सरलार्थ : उस (तेजोमय परब्रह्म) की सिद्धि के लिए तीन लक्ष्यों का अनुसंधान ही करणीय कर्तव्य है॥४॥
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अन्तर्लक्ष्यलक्षणम् -
देहामध्ये ब्रह्मनाडी सुषुम्ना सूर्यरूपिणी पूर्णचन्द्राभा वर्तते । सा तु मूलाधारादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रगामिनी भवति । तन्मध्ये तडित्कोटिसमानकान्त्या मृणालसूत्रवत् सूक्ष्माङ्गी कुण्डलिनीति प्रसिद्धाऽस्ति । तां दृष्ट्वा मनसैव नरः सर्वपापविनाशद्वारा मुक्तो भवति । फालोर्ध्वगललाटविशेषमंडले निरन्तरं तेजस्तारकयोगविस्फारणेन पश्यति चेत् सिद्धो भवति । तर्जन्यग्रोन्मीलितकर्णरन्धद्वये तत्र फूत्कारशब्दो जायते । तत्र स्थिते मनसि चक्षुर्मध्यगतनीलज्योतिस्स्थलं विलोक्य अन्तर्दृष्ट्या निरतिशयसुखं प्राप्नोति । एवं हृदये पश्यति । एवं अन्तर्लक्ष्यलक्षणं मुमुक्षुभिरुपास्यम् ॥ ५ ॥
सरलार्थ : (उस योगी के) शरीर के बीच में ‘सुषुम्ना’ नामक ब्रह्मनाड़ी पूर्ण चन्द्रमा की भाँति प्रकाशयुक्त है। वह मूलाधार से शुरू होकर ब्रह्मरन्ध्र तक विद्यमान है। इस नाड़ी के बीच में कोटि-कोटि विद्युत् के सदृश तेजोमयी मृणालसूत्र की तरह सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति प्रख्यात है। उस शक्ति का मन के द्वारा दर्शन करने मात्र से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर मोक्ष-प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है। मस्तिष्क के ऊपर विशेष मण्डल में निरन्तर विद्यमान तेज (प्रकाश) को तारक-ब्रह्म के योग से जो देखता है, वह सिद्ध हो जाता है। दोनों कानों के छिद्रों को तर्जनी अँगुलियों के अग्रभाग से बन्द कर लेने पर ‘फूत्कार’ (सर्प के फुफकार की तरह) का शब्द सुनाई पड़ता है। उसमें मन को केन्द्रित करके नेत्रों के मध्य नीली ज्योति को आन्तरिक दृष्टि से देखने पर अत्यधिक आनन्दानुभूति होती है। ऐसा ही दर्शन हृदय में भी किया जाता है। इस प्रकार के अन्तर्लक्ष्य (अन्त:करण में देखे जाने योग्य) लक्षणों का अभ्यास मुमुक्षु (मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले साधक) को करना चाहिए॥५॥
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बहिर्लक्ष्यलक्षणम् -
अथ बहिर्लक्ष्यलक्षणम् । नासिकाग्रे चतुर्भिः षड्भिरष्टभिः दशभिः द्वादशभिः क्रमाद् अङ्गुलान्ते नीलद्युतिश्यामत्वसदृग्रक्तभङ्गीस्फुरत् पीतशुक्लवर्णद्वयोपेतं व्योम यदि पश्यति स तु योगी भवति । चलदृष्ट्या व्योमभागवीक्षितुः पुरुषस्य दृष्ट्यग्रे ज्योतिर्मयूखा वर्तन्ते । तद्दर्शनेन योगी भवति । तप्तकाञ्चनसंकाशज्योतिर्मयूखा अपाङ्गन्ते भूमौ वा पश्यति तद्दृष्टिः स्थिरा भवति । शीर्षोपरि द्वादशाङ्गुलसमीक्षितुः अमृतत्वं भवति । यत्र कुत्र स्थितस्य शिरसि व्योमज्योतिर्दृष्टं चेत् स तु योगी भवति ॥ ६ ॥
सरलार्थ : अब ‘बाह्यलक्ष्य’ के लक्षणों का वर्णन करते हैं। नासिका के अग्रभाग से क्रमश: चार, छः, आठ, दस या बारह अंगुल की दूरी पर नील एवं श्याम रंग जैसा, रक्ताभ वर्ण का आकाश, जो पीत शुक्लवर्ण से युक्त होता है; उस आकाश तत्त्व को जो निरन्तर देखता रहता है, वही वास्तव में सच्चा योगी कहलाता है। उस चलायमान दृष्टि से आकाश (रिक्त स्थान) में देखने पर वे ज्योति किरणें स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती हैं, उन दिव्य किरणों को देखने वाला ही योगी होता है। जब दोनों चक्षुओं के कोने में तप्त सुवर्ण की भाँति ज्योति मयूख (किरण) का – दर्शन होता है, तो फिर उसकी दृष्टि एकाग्र हो जाती है। मस्तिष्क के ऊर्ध्व में लगभग १२ अंगुल की दूरी पर ज्योति का दर्शन करने वाला योगी अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य चाहे जिस स्थल पर स्थित सिर के ऊर्ध्व में आकाश ज्योति का दर्शन करता है, वही (पूर्ण) योगी कहलाता है॥६॥
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मध्यलक्ष्यलक्षणम् -
अथ मध्यलक्ष्यलक्षणं प्रातश्चित्रादिर्णाखण्डसूर्यचक्रवत् वह्निज्वालावलीवत् तद्विहीनान्तरिक्षवत् पश्यति । तदाकाराकारितया अवतिष्ठति । तद्भूयोदर्शनेन गुणरहिताकाशं भवति । विस्फुरत् तारकाकारदीप्यमानागाढतमोपमं परमाकाशं भवति । कालानलसमद्योतमानं महाकाशं भवति । सर्वोत्कृष्टपरमद्युतिप्रद्योतमानं तत्त्वाकाशं भवति । कोटिसूर्यप्रकाशवैभवसंकाशं सूर्याकाशं भवति । एवं बाह्याभ्यन्तरस्थ-व्योमपञ्चकं तारकलक्ष्यम् । तद्दर्शी विमुक्तफलः तादृग् व्योमसमानो भवति । तस्मात् तारक एव लक्ष्यं अनमस्कफलप्रदं भवति ॥ ७ ॥
सरलार्थ : इसके अनन्तर अब ‘मध्यलक्ष्य’ के लक्षण का वर्णन करते हैं। जो प्रातः काल के समय में चित्रादि वर्ण से युक्त अखण्ड सूर्य का चक्रवत्, अग्नि की ज्वाला की भाँति तथा उनसे विहीन अन्तरिक्ष के समान देखता है। उस आकार के सदृश होकर प्रतिष्ठित रहता है। पुनः उसके दर्शन मात्र से वह गुणरहित ‘आकाश’ रूप हो जाता है। विस्फुरित (प्रकाशित) होने वाले तारागणों से प्रकाशमान एवं प्रात:काल के अंधेरे की भाँति ‘परमाकाश’ होता है।’महाकाश’ कालाग्नि के समान प्रकाशमान होता है। ‘तत्त्वाकाश’ सर्वोत्कृष्ट प्रकाश एवं प्रखर ज्योतिसम्पन्न होता है। सूर्याकाश’ करोड़ों सूर्यों के सदृश होता है। इस तरह बाह्य एवं अन्त: में प्रतिष्ठित ये ‘पाँच आकाश’ तारक-ब्रह्म के ही लक्ष्य हैं। इस क्रिया विधि द्वारा आकाश का दर्शन करने वाला उसी की भाँति समस्त बन्धनों को काटकर मुक्ति-प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है। तारक का लक्ष्य ही अमनस्क फल-प्रदाता कहा गया है॥७॥
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द्विविधं तारकम् -
तत्तारकं द्विविधं पूर्वार्धं तारकं उत्तरार्धं अमनस्कं चेति । तदेष श्लोको भवति । तद्योगं च द्विधा विद्धि पूर्वोत्तरविधानतः । पूर्वं तु तारकं विद्यात् अमनस्कं तदुत्तरमिति ॥ ८ ॥
सरलार्थ : इस तारक योग की दो विधियाँ बतलाई गई हैं। जिसमें प्रथम पूर्वार्द्ध है और द्वितीय उत्तरार्द्ध। इस सन्दर्भ में यह शेक द्रष्टव्य है-‘यह योग पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दो प्रकार का होता है। पूर्व को ‘तारक’ एवं उत्तर को ‘अमनस्क’ (मनः शून्य होना) कहा गया है॥८॥
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तारकयोगसिद्धिः -
अक्ष्यन्तस्तारयोः चन्द्रसूर्यप्रतिफलनं भवति । तारकाभ्यां सूर्यचंद्रमण्डलदर्शनं ब्रह्माण्डमिव पिण्डाण्डशिरोमध्यस्थाकाशे रवीन्दुमण्डलद्वितयमस्तीति निश्चित्य तारकाभ्यां तद्दर्शनम् । अत्रापि उभयैक्यदृष्ट्या मनोयुक्तं ध्यायेत् । तद्योगाभावे इंद्रियप्रवृत्तेरनवकाशात् । तस्माद अन्तर्दृष्ट्या तारक एवानुसंधेयः ॥ ९ ॥
सरलार्थ : हम आँखों के तारक (पुतलियों) से सूर्य एवं चन्द्र का दर्शन (प्रतिफलन) करते हैं। जिस तरह से हम आँखों के तारकों से ब्रह्म-ब्रह्माण्ड के सूर्य एवं चन्द्र को देखते हैं, वैसे ही अपने सिर रूपी ब्रह्माण्ड के मध्य में विद्यमान सूर्य एवं चन्द्र का निर्धारण करके उनका हमेशा दर्शन करना चाहिए तथा दोनों को एक ही रूप जान करके मन को एकाग्र कर उनका चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि यदि मन को इस भाव से ओत-प्रोत न किया जायेगा, तो समस्त इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्त होने लगेंगी। इस कारण योगी-साधक को अपनी अन्तः की दृष्टि से ‘तारक’ का निरन्तर अनुसंधान करते रहना चाहिए॥९॥
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मूर्तामूरभेदेन द्विविधमनुसन्धेयम् -
तत्तारकं द्विविधं, मूर्तितारकं अमूर्तितारकं चेति । यद् इंद्रियान्तं तत् मूर्तिमत् । यद् भ्रूयुगातीतं तत् अमूर्तिमत् । सर्वत्र अन्तःपदार्थ- विवेचने मनोयुक्ताभ्यास इष्यते । तारकाभ्यां तदूर्ध्वस्थसत्त्वदर्शनात् मनोयुक्तेन अन्तरीक्षणेन सच्चिदानन्दस्वरूपं ब्रह्मैव । तस्मात् शुक्लतेजोमयं ब्रह्मेति सिद्धम् । तद्ब्रह्म मनःसहकारिचक्षुषा अन्तर्दृष्ट्या वेद्यं भवति । एवं अमूर्तितारकमपि । मनोयुक्तेन चक्षुषैव दहरादिकं वेद्यं भवति । रूपग्रहणप्रयोजनस्य मनश्चक्षुरधीनत्वात् बाह्यवदान्तरेऽपि आत्ममनश्चक्षुःसंयोगेनैव रूपग्रहणकार्योदयात् । तस्मात् मनोमयुक्ता अन्तर्दृष्टितारकप्रकाशाय भवति ॥ १० ॥
सरलार्थ : इस ‘तारक’ की दो विधियाँ कही गई हैं, जिसमें प्रथम मूर्त (मूर्ति)एवं द्वितीय अमूर्त (अमूर्ति) है। जो इन्द्रियों के अन्त (अर्थात् मनश्चक्षु) में है, वह मूर्त तारक है तथा जो दोनों भृकुटियों से बाहर है, वह अमूर्त है। आन्तरिक पदार्थों के विवेचन में सर्वत्र मन को एकाग्र करके अभ्यास करते रहना चाहिए। सात्त्विक-दर्शन से युक्त मन द्वारा अपने अन्त:करण में सतत निरीक्षण करने से दोनों तारकों के ऊर्ध्व भाग में सच्चिदानन्दमय ज्योतिरूप परब्रह्म का दर्शन होता है। इससे ज्ञात होता है कि ब्रह्म शुक्ल-शुभ्र तेज स्वरूप है। उस ब्रह्म को मनसहित नेत्रों की अन्त:दृष्टि से देखकर जानना चाहिए। अमूर्त तारक भी इसी विधि से मन: संयुक्त नेत्रों से ज्ञात हो जाता है। रूप दर्शन के सम्बन्ध में मन नेत्रों के आश्रित रहता है और बाहर के सदृश अन्त: में भी रूप ग्रहण का कार्य इन दोनों के द्वारा ही सम्पन्न होता है। इस कारण मन के सहित नेत्रों के द्वारा ही ‘तारक’ का प्रकाश होता है॥१०॥
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तारकयागस्वरूपम् -
भूयुगमध्यबिले दृष्टिं तद्द्वारा ऊर्ध्वस्थितजेज आविर्भूतं तारकयोगो भवति । तेन सह मनोयुक्तं तारकं सुसंयोज्य प्रयत्नेन भ्रूयुग्मं सावधानतया किंचित् ऊर्ध्वं उत्क्षेपयेत् । इति पूर्वतारकयोगः । उत्तरं तु अमूर्तिमत् अमनस्कं इत्युच्यते । तालुमूलोर्ध्वभागे महान् ज्योतिर्मयूखो वर्तते । तद्योगिभिर्ध्येयम् । तस्मात् अणिमादि सिद्धिर्भवति ॥ ११ ॥
सरलार्थ : जो मनुष्य अपनी आन्तरिक दृष्टि के द्वारा दोनों भृकुटियों के स्थल से थोड़ा सा ऊपरी भाग में स्थित तेजोमय प्रकाश का दर्शन करता है, वही तारक योगी होता है। उसके साथ मन के द्वारा तारक की सुसंयोजना करते हुए प्रयत्नपूर्वक दोनों भौंहों को कुछ थोड़ा सा ऊँचाई पर स्थिर करे। यही तारक का पूर्वार्द्ध योग कहलाता है। द्वितीय उत्तरार्द्ध भाग को अमूर्त कहा गया है। तालु-मूल के ऊर्ध्व भाग में महान ज्योति किरण मण्डल स्थित है। उसी का ध्यान योगियों का ध्येय (लक्ष्य) होता है। उसी से अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं॥११॥
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शाम्भवीमुद्रा -
अन्तर्बाह्यलक्ष्ये दृष्टौ निमेषोन्मेषवर्जितायां सत्यां शांभवी मुद्रा भवति । तन्मुद्रारूढज्ञानिनिवासात् भूमिः पवित्रा भवति । तद्दृष्ट्वा सर्वे लोकाः पवित्रा भवन्ति । तादृशपरमयोगिपूजा यस्य लभ्यते सोऽपि मुक्तो भवति ॥ १२ ॥
सरलार्थ : योगी-साधक की अन्तः एवं बाह्य लक्ष्य को देखने की सामर्थ्य वाली दृष्टि जब स्थिर हो जाती है, तब वह स्थिति ही शांभवी मुद्रा कहलाती है। इस मुद्रा से ओत-प्रोत ज्ञानी पुरुष का निवास स्थल अत्यन्त पवित्र माना जाता है तथा सभी लोक उसकी दृष्टि-मात्र से पवित्र हो जाते हैं। जो भी इस परम योगी की पूजा करता है, वह उसको प्राप्त करते हुए मुक्ति का अधिकारी हो जाता है॥१२॥
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अन्तर्लक्ष्यविकल्पाः -
अन्तर्लक्ष्यज्वलज्योतिःस्वरूपं भवति । परमगुरूपदेशेन सहस्रारे जलज्ज्योतिर्वा बुद्धिगुहानिहितचिज्ज्योतिर्वा षोडशान्तस्थ तुरीयचैतन्यं वा अन्तर्लक्ष्यं भवति । तद्दर्शनं सदाचार्यमूलम् ॥ १३ ॥
सरलार्थ : अन्तर्लक्ष्य उज्वल शुभ्र ज्योति के रूप में हो जाता है। परम सद्गुरु का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर सहस्र दल कमल में स्थित उज्वल-ज्योति अथवा बुद्धि-गुहा में स्थित रहने वाली ज्योति अथवा फिर वह सोलह कला के अन्त: में विद्यमान तुरीय चैतन्य स्वरूप अन्तर्लक्ष्य होता है। यही दर्शन सदाचार का मूल है॥१३॥
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आचार्यलक्षणम् -
आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
योगज्ञो योगनिष्ठश्च सदा योगात्मकः शुचिः ॥ १४ ॥
गुरुभक्तिसमायुक्तः पुरुषज्ञो विशेषतः ।
एवं लक्षणसंपन्नो गुरुरित्यभिधीयते ॥ १५ ॥
सरलार्थ : वेदज्ञान से सम्पन्न, आचार्य (श्रेष्ठ आचरण वाला), विष्णुभक्त, मत्सर आदि विकारों से रहित, योग का ज्ञाता, योग के प्रति निष्ठा रखने वाला, योगात्मा, पवित्रता युक्त, गुरुभक्त, परमात्मा की प्राप्ति में विशेष रूप से संलग्न रहने वाला- इन उपर्युक्त लक्षणों से सम्पन्न पुरुष ही गुरु रूप में अभिहित किया जाता है॥१४-१५॥
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गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः ।
अंधकारनिरोधित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥ १६ ॥
सरलार्थ : ‘गु’ अक्षर का अर्थ है-अन्धकार एवं ‘रु’ अक्षर का अर्थ है-अन्धकार को रोकने में समर्थ । अन्धकार (अज्ञान) को दूर करने वाला ही गुरु कहलाता है॥१६॥
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गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः ।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परायणम् ॥ १७ ॥
सरलार्थ : गुरु ही परम ब्रह्म परमात्मा है, गुरु ही परम (श्रेष्ठ) गति है, गुरु ही पराविद्या है और गुरु ही परायण (उत्तम आश्रय) है॥१७॥
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गुरुरेव पराकाष्ठा गुरुरेव परं धनम् ।
यस्मात्तदुपदेष्टासौ तस्मात्-गुरुतरो गुरुरिति ॥ १८ ॥
सरलार्थ : गुरु ही पराकाष्ठा है, गुरु ही परम (श्रेष्ठ) धन है। जो श्रेष्ठ उपदेश करता है, वही गुरु से गुरुतर अर्थात् श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम गुरु है, ऐसा जानना चाहिए॥१८॥
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ग्रन्थाभ्यासफलम् -
यः सकृदुच्चारयति तस्य संसारमोचनं भवति । सर्वजन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति । सर्वान् कामानवाप्नोति । सर्वपुरुषार्थ सिद्धिर्भवति । य एवं वेद । इति उपनिषत् ॥
सरलार्थ : जो मनुष्य एक बार (गुरु या इस उपनिषद् का) उच्चारण (पाठ) करता है, उसकी संसार-सागर से निवृत्ति हो जाती है। समस्त जन्मों के पाप तत्क्षण ही विनष्ट हो जाते हैं। समस्त इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति हो जाती है। सभी पुरुषार्थ सफल-सिद्ध हो जाते हैं। जो ऐसा जानता है, वही उपनिषद् का यथार्थ ज्ञानी है, यही उपनिषद् है॥१९॥
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ॐ पूर्णमदः पूणमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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यत्रान्तर्याम्यादिभेदस्तत्त्वतो न हि युज्यते ।
निर्भेदं परमाद्वैतं स्वमात्रमवशिष्यते ॥
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
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अन्तःशरीरे निहितो गुहायामज एको नित्यमस्य
पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरे संचरन्यं पृथिवी न वेद ।
यस्यापःशरीरं यो अपोऽन्तरे संचरन्यमापो न विदुः ।
यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोऽन्तरे संचरन्यं तेजो न वेद ।
यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरे संचरन्यं वायुर्न वेद ।
यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरे संचरन्यमाकाशो न वेद ।
यस्य मनः शरीरं यो मनोऽन्तरे संचरन्यं मनो न वेद ।
यस्य बुद्धिः शरीरं यो बुद्धिमन्तरे संचरन्यं बुद्धिर्न वेद ।
यस्याहंकारः शरीरं योऽहंकारमन्तरे संचरन्यमहंकारो न वेद ।
यस्य चित्तं शरीरं यश्चित्तमन्तरे संचरन्यं चित्तं न वेद ।
यस्याव्यक्तं शरीरं योऽव्यक्तमन्तरे संचरन्यमव्यक्तं न वेद ।
यस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन्यम्क्षरं न वेद ।
यस्य मृयुः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन्यं मृत्युर्न वेद ।
स एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः ।
अहं ममेति यो भावो देहाक्षादावनात्मनि । अध्यासोऽयं निरस्तव्यो
विदुषा ब्रह्मनिष्ठया ॥ १॥
सरलार्थ : शरीर के अन्दर स्थित हृदय रूपी गुहा में एक (अद्वितीय), अज (कभी जन्म न लेने वाला), नित्य (शाश्वत) निवास करता है । पृथिवी इसका शरीर है, यह पृथिवी के अन्दर रहता है; किन्तु पृथिवी इस को नहीं जानती । जल जिसका शरीर है, जो जल में निवास करता है, पर जल को उसका ज्ञान नहीं है । तेज जिसका शरीर है, जो तेज के अन्तर्गत संचरित होता है, पर तेज जिसे नहीं जानता । वायु जिसका शरीर है, जो वायु के अन्दर संचरित होता है, पर वायु जिसे नहीं जानता । आकाश जिसका शरीर है, जो आकाश में संचरित होता है, पर आकाश जिसे नहीं जानता । मन जिसका शरीर है, जो मन में संचरित होता है, पर मन जिसे नहीं जानता । बुद्धि जिसका शरीर है, जो बुद्धि में निवास करता है, पर बुद्धि जिसे जानती नहीं । जिसका शरीर अहंकार है, जो अहंकार में निवास करता है, पर अहंकार जिसे जानता नहीं । चित्त जिसका शरीर है, जो चित्त में संचरित होता है, पर चित्त जिसे जानता नहीं । अव्यक्त जिसका शरीर है, जो अव्यक्त में संचरित होता है, पर अव्यक्त जिसे जानती नहीं । अक्षर जिसका शरीर है, जो अक्षर में संचरित होता है, पर अक्षर जिसे जानता नहीं । जिसका शरीर मृत्यु है, जो मृत्यु में संचरित होता है, पर मृत्यु जिसे जानती नहीं- वही सर्वभूतों में स्थित उनका अन्तरात्मा है, वह निष्पाप है और वही एक दिव्य देवनारायण है । शरीर और इन्द्रियादि अनात्म विषय हैं । इनके विषय में ‘मैं और मेरा का भाव’ अध्यास (भ्रान्ति) मात्र है, इसलिए विद्वान् को चाहिए कि वह ब्रह्मनिष्ठा (ब्रह्मज्ञान) के द्वारा इस अध्यास (भ्रान्ति) को दूर करे ॥१॥
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ज्ञात्वा स्वं प्रत्यगात्मानं बुद्धितद्वृत्तिसाक्षिणम् ।
सोऽहमित्येव तद्वृत्त्या स्वान्यत्रात्म्यमात्मनः ॥ २॥
सरलार्थ : अपने को ही बुद्धि और उसकी वृत्ति का साक्षी मानकर स्वयं को प्रत्यगात्मा समझे । वह मैं ही हूँ । इस ‘सोऽहम्’ वृत्ति से अपने अतिरिक्त समस्त पदार्थों से आत्म बुद्धि का परित्याग कर दे ॥२॥
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लोकानुवर्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा देहानुवर्तनम् ।
शास्त्रानुवर्तनं त्यक्त्वा स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ ३॥
सरलार्थ : लोकानुवर्तन (संसार का अनुसरण) छोड़कर देहानुवर्तन भी त्याग देना चाहिए । देहानुवर्तन के पश्चात् शास्त्रानुवर्तन भी त्याग दे, इसके बाद आत्म-अध्यास (आत्म-भ्रान्ति) का भी परित्याग कर देना चाहिए ॥३॥
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स्वात्मन्येव सदा स्थित्या मनो नश्यति योगिनः ।
युक्त्या श्रुत्या स्वानुभूत्या ज्ञात्वा सार्वात्म्यमात्मनः ॥ ४॥
सरलार्थ : सदा अपने आत्म स्वरूप में स्थित रहकर युक्ति, श्रुति (श्रवण) और स्वानुभूति द्वारा सबको अपना ही आत्म स्वरूप जानकर योगी पुरुष का मन विनष्ट होता है ॥४॥
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निद्राया लोकवार्तायाः शब्दादेरात्मविस्मृतेः ।
क्वचिन्नवसरं दत्त्वा चिन्तयात्मानमात्मनि ॥ ५॥
सरलार्थ : निद्रा, लोकवार्ता, शब्दादि विषयों तथा आत्म विस्मृति का कभी अवसर न आने देकर आत्मा में आत्मा का चिन्तन करना चाहिए ॥५॥
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मातापित्रोर्मलोद्भूतं मलमांसमयं वपुः ।
त्यक्त्वा चण्डालवद्दूरं ब्रह्मभूय कृती भव ॥ ६॥
सरलार्थ : माता और पिता के मल (मैल) से उत्पन्न हुए इस शरीर को, जिसमें मल और मांस भरा है, इसे चाण्डाल के समान दूर करके (काया के साथ स्व के बोध को त्यागकर) ब्रह्मरूप होकर कृतार्थ हो ॥६॥
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घटाकाशं महाकाश इवात्मानं परात्मनि ।
विलाप्याखण्डभावेन तूष्णीं भव सदा मुने ॥ ७॥
सरलार्थ : हे मुने ! महाकाश में घटाकाश के समान परमात्मा में आत्मा को विलीन करके अखण्ड भाव से सदैव शान्त रहो ॥७॥
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स्वप्रकाशमधिष्ठानं स्वयंभूय सदात्मना ।
ब्रह्माण्डमपि पिण्डाण्डं त्यज्यतां मलभाण्डवत् ॥ ८॥
सरलार्थ : स्वप्रकाशित, स्वयंभू और अधिष्ठान (ब्रह्म) रूप होकर ब्रह्माण्ड और पिण्डाण्ड का भी विष्ठा-पात्र के समान परित्याग कर देना चाहिए ॥८॥
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चिदात्मनि सदानन्दे देहरूढामहंधियम् ।
निवेश्य लिङ्गमुत्सृज्य केवलो भव सर्वदा ॥ ९॥
सरलार्थ : शरीर के ऊपर आरूढ़ अहं-बुद्धि को सदानन्द और चित्त स्वरूप आत्मा में लगाकर लिङ्ग (स्वज्ञानचिह्न) को छोड़कर सर्वदा केवल आत्मरूप हो ॥९॥
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यत्रैष जगदाभासो दर्पणान्तःपुरं यथा ।
तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा कृतकृत्यो भवानघ ॥ १०॥
सरलार्थ : हे निष्पाप ! जिस प्रकार दर्पण में (विशाल) पुर (नगर) दिखाई देता है, उसी प्रकार अपने को ‘मैं ब्रह्म हूँ,’ ऐसा जानकर कृतार्थ हो ॥१०॥
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अहंकारग्रहान्मुक्तः स्वरूपमुपपद्यते ।
चन्द्रवद्विमलः पूर्णः सदानन्दः स्वयंप्रभः ॥ ११॥
सरलार्थ : अहंकार से मुक्त हुआ पुरुष आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है । वह चन्द्रमा के समान विमल होकर पूर्ण सदानन्द और स्वप्रकाश बनता है ॥११॥
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क्रियानाशाद्भवेच्चिन्तानाशोऽस्माद्वासनाक्षयः ।
वासनाप्रक्षयो मोक्षः सा जीवन्मुक्तिरिष्यते ॥ १२॥
सरलार्थ : (सांसारिक) क्रियानाश से चिन्ता विनष्ट होती है और चिन्तानाश से वासना का क्षय होता है । वासना का विनष्ट हो जाना मोक्ष है और इसे ही जीवन्मुक्ति भी कहते हैं ॥१२॥
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सर्वत्र सर्वतः सर्वब्रह्ममात्रावलोकनम् ।
सद्भावभावानादाढ्याद्वासनालयमश्नुते ॥ १३॥
सरलार्थ : जो सर्वत्र सब तरफ सभी को मात्र ‘ब्रह्म’ रूप में देखता है और जिसकी सद्भावना दृढ़ हो गई है, उसकी वासना का लय हो जाता है अर्थात् वासना विनष्ट हो जाती है ॥१३॥
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प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्तव्यज़् कदाचन ।
प्रमादो मृत्युरित्याहुर्विद्यायां ब्रह्मवादिनः ॥ १४॥
सरलार्थ : ब्रह्मनिष्ठा में कभी प्रमाद न करे, क्योंकि प्रमाद ही मृत्यु है, ऐसा विद्या के ज्ञाता ब्रह्मवादी कहते हैं ॥१४॥
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यथापकृष्टं शैवालं क्षणमात्रं न तिष्ठति ।
आवृणोति तथा माया प्राज्ञं वापि पराङ्मुखम् ॥ १५॥
सरलार्थ : जिस प्रकार शैवाल को पानी के ऊपर से कुछ हटा देने के बाद वह क्षण मात्र भी वहाँ नहीं ठहरती (और पूर्ववत् पानी को ढक लेती है), उसी प्रकार बुद्धिमान् व्यक्ति भी यदि ब्रह्मनिष्ठा से थोड़ा भी हट जाये या दूर हो जाये, तो माया उसे आवृत कर लेती है ॥१५॥
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जीवतो यस्य कैवल्यं विदेहोऽपि स केवलः ।
समाधिनिष्ठतामेत्य निर्विकल्पो भवानघ ॥ १६॥
सरलार्थ : जिसे जीवित स्थिति में ही कैवल्यावस्था प्राप्त हो गयी हो, वह विदेह (देहरहित) होने पर केवल (ब्रह्म) ही रहेगा । इसलिए हे निष्पाप ! समाधिनिष्ठ होकर निर्विकल्प बनो ॥१६॥
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अज्ञानहृदयग्रन्थेर्निःशेषविलयस्तदा ।
समाधिना विकल्पेन यदाद्वैतात्मदर्शनम् ॥ १७॥
सरलार्थ : जिस समय निर्विकल्प समाधि से अद्वैत आत्मा का दर्शन होता है, उसी समय हृदय की अज्ञान-रूपा ग्रन्थि का पूर्णरूपेण विनाश और विलय हो जाता है ॥१७॥
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अत्रात्मत्वं दृढीकुर्वन्नहमादिषु संत्यजन् ।
उदासीनतया तेषु तिष्ठेद्घटपटादिवत् ॥ १८॥
सरलार्थ : आत्मत्व अर्थात् आत्मभाव को दृढ़ करके, अहंकारादि का परित्याग करके उनसे उसी प्रकार से उदासीन रहे, जिस प्रकार बरतन-वस्त्रादि के प्रति उदासीन भाव रखा जाता है ॥१८॥
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ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं मृषामात्रा उपाधयः ।
ततः पूर्णं स्वमात्मानं पश्येदेकात्मना स्थितम् ॥ १९॥
सरलार्थ : ब्रह्मा से स्तम्ब (तृण) पर्यन्त समस्त उपाधियाँ मिथ्या हैं, इसलिए सदा एक स्वरूप में अवस्थित रहने वाले अपने पूर्ण आत्मा का ही सर्वत्र दर्शन करना चाहिए ॥१९॥
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स्वयं ब्रह्मा स्वयं विष्णुः स्वयमिन्द्रः स्वयं शिवः ।
स्वयं विश्वमिदं सर्वं स्वस्मादन्यन्न किंचन ॥ २०॥
सरलार्थ : स्वयं ब्रह्मा, स्वयं विष्णु, स्वयं इन्द्र, स्वयं शिव, स्वयं विश्व और स्वयं ही यह सब कुछ है । स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ॥२०॥
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स्वात्मन्यारोपिता शेषाभासवस्तुनिरासतः ।
स्वयमेव परंब्रह्म पूर्णमद्वयमक्रियम् ॥ २१॥
सरलार्थ : अपनी आत्मा में समस्त वस्तुओं का आभास (रस्सी में सर्प की तरह) केवल आरोपित है, उसका निराकरण कर देने से वह स्वतः पूर्ण, अद्वैत और अक्रिय परब्रह्म बन जाता है ॥२१॥
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असत्कल्पो विकल्पोऽयं विश्वमित्येकवस्तुनि ।
निर्विकारे निराकारे निर्विशेषे भिदा कुतः ॥ २२॥
सरलार्थ : एक ही आत्मा रूपी वस्तु में जो यह विकल्प प्रतीत होता है, वह प्रायः मिथ्या है; क्योंकि निर्विकार, निराकार और निर्विशेष में भेद ही कहाँ है? ॥२२॥
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द्रष्टृदर्शनदृश्यादिभावशून्ये निरामये ।
कल्पार्णव इवात्यन्तं परिपूर्णे चिदात्मनि ॥ २३॥
सरलार्थ : वह चैतन्य (आत्मा) द्रष्टा, दर्शन और दृश्य आदि भावों से शून्य है, जो निरामय (निर्दोष) तथा प्रलय-कालीन सागर की तरह परिपूर्ण है ॥२३॥
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तेजसीव तमो यत्र विलीनं भ्रान्तिकारणम् ।
अद्वितीये परे तत्त्वे निर्विशेषे भिदा कुतः ॥ २४॥
सरलार्थ : जिस प्रकार अन्धकार प्रकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार अद्वितीय परम तत्त्व में भ्रान्ति का कारण भी विलुप्त हो जाता है । वह आत्मा अवयव रहित है, अस्तु, उसमें भेद कहाँ है? ॥२४॥
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एकात्मके परे तत्त्वे भेदकर्ता कथं वसेत् ।
सुषुप्तौ सुखमात्रायां भेदः केनावलोकितः ॥ २५॥
सरलार्थ : एकात्मक परमतत्त्व में भेदकर्ता किस प्रकार रह सकता है? सुषुप्तावस्था में सुख मात्र है, उसमें भेद किसके द्वारा देखा गया है ॥२५॥
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चित्तमूलो विकल्पोऽयं चित्ताभावे न कश्चन ।
अतश्चित्तं समाधेयि प्रत्यग्रूपे परात्मनि ॥ २६॥
सरलार्थ : इस विकल्प (भेद) का मूल कारण चित्त है । यदि चित्त न हो, तो कोई भी विकल्प नहीं है । अत: प्रत्यग् रूप परमात्मा में अपने चित्त को समाधिस्थ (समाहित) कर दो ॥२६॥
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अखण्डानन्दमात्मानं विज्ञाय स्वस्वरूपतः ।
बहिरन्तः सदानन्दरसास्वादनमात्मनि ॥ २७॥
सरलार्थ : अखण्डानन्द रूप आत्मा को अपना वास्तविक स्वरूप जानकर, सदा इसे आत्मा में ही बाहर और अन्दर आनन्द रस का आस्वादन, करो ॥२७॥
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वैराग्यस्य फलं बोधो बोधस्योपरतिः फलम् ।
स्वानन्दानुभवच्छान्तिरेषैवोपरतेः फलम् ॥ २८॥
सरलार्थ : वैराग्य का फल बोध (ज्ञान) है, ज्ञान का फल उपरति (विषयों से विरत होना) है और उपरति का फल आत्मानन्द के अनुभव से प्राप्त शान्ति है ॥२८॥
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यद्युत्तरोत्तराभावे पूर्वरूपं तु निष्फलम् ।
निवृत्तिः परमा तृप्तिरानन्दोऽनुपमः स्वतः ॥ २९॥
सरलार्थ : उपर्युक्त वस्तुओं में जो उत्तरोत्तर न हो, उससे पूर्व की वस्तु निष्फल है । विषयों से निवृत्ति ही परम तृप्ति है और आत्मा का आनन्द स्वयं ही अनुपम है ॥२९॥
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मायोपाधिर्जगद्योनिः सर्वज्ञत्वादिलक्षणः ।
पारोक्ष्यशबलः सत्याद्यात्मकस्तत्पदाभिधः ॥ ३०॥
सरलार्थ : मायारूप उपाधि से युक्त, जगत् का कारणरूप सर्वज्ञत्व आदि लक्षणों से युक्त, परोक्ष रूप से शबल (अर्थात् मायावेष्टित) ब्रह्म जो सत्यादि स्वरूप वाला है, वही ‘तत्’ शब्द से विख्यात है ॥३०॥
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आलम्बनतया भाति योऽस्मत्प्रत्ययशब्दयोः ।
अन्तःकरणसंभिन्नबोधः स त्वंपदाभिधः ॥ ३१॥
सरलार्थ : जो ‘मैं’ शब्द तथा प्रत्यय का आश्रय स्वरूप प्रतीत होता है, जिसका ज्ञान अन्त:करण से मिथ्या है, वह (जीव) ‘त्वम्’ शब्द से जाना जाता है ॥३१॥
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मायाविद्ये विहायैव उपाधी परजीवयोः ।
अखण्डं सच्चिदानन्दं परं ब्रह्म विलक्ष्यते ॥ ३२॥
सरलार्थ : ब्रह्म एवं जीव की क्रमश: माया और अविद्या- यह दो ऐसी उपाधियाँ हैं, जिनका परित्याग कर देने से अखण्ड सच्चिदानंद परब्रह्म ही भासित होता है (दिखाई पड़ता है) ॥३२॥
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इत्थं वाक्यैस्तथार्थानुसन्धानं श्रवणं भवेत् ।
युक्त्या संभावितत्वानुसन्धानं मननं तु तत् ॥ ३३॥
सरलार्थ : इस प्रकार ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों द्वारा उनके (जीव और ब्रह्म के एकत्व का) अर्थ और अनुसंधान करना ‘ श्रवण’ है और जो कुछ सुना गया है, उसके अर्थ पर युक्तिपूर्वक विचार-विमर्श करके अनुसंधान करना ‘मनन’ है ॥३३॥
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ताभ्यं निर्विचिकित्सेऽर्थे चेतसः स्थापितस्य यत् ।
एकतानत्वमेतद्धि निदिध्यासनमुच्यते ॥ ३४॥
सरलार्थ : श्रवण और मनन द्वारा सन्देह रहित हुए अर्थ में चित्त को स्थापित करके एकतानत्व प्राप्त करना-यह ‘निदिध्यासन’ है ॥३४॥
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ध्यातृध्याने परित्यज्य क्रमाद्ध्येयैकगोचरम् ।
निवातदीपवच्चित्तं समाधिरभिधीयते ॥ ३५॥
सरलार्थ : इसके पश्चात् ध्याता और ध्यान का परित्याग करके ध्येय में ही चित्त को स्थापित करें । वायुरहित स्थान में रखे दीपक की तरह जब चित्त निश्चल बन जाए, यही समाधि है ॥३५॥
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वृत्तयस्तु तदानीमप्यज्ञाता आत्मगोचराः ।
स्मरणादनुमीयन्ते व्युत्थितस्य समुत्थिताः ॥ ३६॥
सरलार्थ : समाधि की अवस्था में वृत्तियाँ केवल आत्मगोचर होती हैं, इसके कारण प्रतीत नहीं होतीं; किन्तु समाधि में से उठे हुए साधक की उन उन्नत वृत्तियों का स्मरण द्वारा अनुमान लगाया जाता है ॥३६॥
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अनादाविह संसारे संचिताः कर्मकोटयः ।
अनेन विलयं यान्ति शुद्धो धर्मो विवर्धते ॥ ३७॥
सरलार्थ : इस अनादि जगत् में करोड़ों कर्म एकत्र हो जाते हैं, किन्तु समाधि के द्वारा उनका विलय हो जाता है और शुद्ध धर्म की वृद्धि होती है ॥३७॥
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धर्ममेघमिमं प्राहुः समाधिं योगवित्तमाः ।
वर्षत्येष यथा धर्मामृतधाराः सहस्रशः ॥ ३८॥
सरलार्थ : उत्तम कोटि के योगवेत्ता इस समाधि को ‘धर्ममेघ’ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ के समान ही धर्मामृत रूप सहस्रों धाराओं की वर्षा करती है ॥३८॥
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अमुना वासनाजाले निःशेषं प्रविलापिते ।
समूलोन्मूलिते पुण्यपापाख्ये कर्मसंचये ॥ ३९॥
वाक्यमप्रतिबद्धं सत्प्राक्परोक्षावभासिते ।
करामलकमवद्बोधपरोक्षं प्रसूयते ॥ ४०॥
सरलार्थ : इस समाधि के द्वारा वासना का जाल पूर्णरूपेण लय को प्राप्त हो जाता है एवं जब पुण्य-पाप नामवाला कर्मसमूह समूल रूप से विनष्ट हो जाता है, तब (तत्त्वमसि आदि) वाक्यों के माध्यम से पहले परोक्ष -ज्ञान प्रतिभासित होता है और बाद में (वह) हस्तामलकवत् अपरोक्ष बोध (तत्त्वज्ञान) को प्रकट करता है ॥३९-४०॥
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वासनानुदयो भोग्ये वैराग्यस्य तदावधिः ।
अहंभावोदयाभावो बोधस्य परमावधिः ॥ ४१॥
सरलार्थ : भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति में भी वासना उदित न हो, तब वैराग्य की स्थिति जान लेनी चाहिए और जब अहं-भाव के उदय का अभाव हो जाए अर्थात् जब वैसी (अहंकार होने योग्य) परिस्थिति बन जाने पर भी अहं न आये, तब ज्ञान की परम स्थिति जाननी चाहिए ॥४१॥
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लीनवृत्तेरनुत्पत्तिर्मर्यादोपरतेस्तु सा ।
स्थितप्रज्ञो यतिरयं यः सदानन्दमश्नुते ॥ ४२॥
सरलार्थ : लीन वृत्तियाँ पुनः उदित न हों, तो वह उपरति की स्थिति समझनी चाहिए । इस स्थिति वाला यति ‘स्थितप्रज्ञ’ कहलाता है, जो सदा आनन्दानुभूति करता रहता है ॥४२॥
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ब्रह्मण्येव विलीनात्मा निर्विकारो विनिष्क्रियः ।
ब्रह्मात्मनोः शोधितयोरेकभावावगाहिनि ॥ ४३॥
निर्विकल्पा च चिन्मात्रा वृत्तिः प्रज्ञेति कथ्यते ।
सा सर्वदा भवेद्यस्य स जीवन्मुक्त इष्यते ॥ ४४॥
सरलार्थ : जिसका आत्मतत्त्व एकमात्र ब्रह्म में ही विलीन हुआ हो, वह निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है । ब्रह्म और आत्मा के एकत्व के अनुसंधान में लीन हुई वृत्ति जब विकल्प रहित (ऊहापोह रहित) और मात्र चैतन्य रूप बन जाती है, तब उसे प्रज्ञा कहते हैं । वह (प्रज्ञा) जिसमें सर्वदा विद्यमान रहती है, वह ‘जीवन्मुक्त’ कहलाता है ॥४३-४४॥
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देहेन्द्रियेष्वहंभाव इदंभावस्तदन्यके ।
यस्य नो भवतः क्वापि स जीवन्मुक्त इष्यते ॥ ४५॥
सरलार्थ : शरीर और इन्द्रियों में जिसका अहं-भाव न हो तथा इनके अतिरिक्त अन्य पदार्थों पर भी जिसका ममत्व न हो, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥४५॥
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न प्रत्यग्ब्रह्मणोर्भेदं कदापि ब्रह्मसर्गयोः ।
प्रज्ञया यो विजानाति स जीवन्मुक्त इष्यते ॥ ४६॥
सरलार्थ : जो जीव और ब्रह्म में तथा ब्रह्म और सृष्टि में भेद बुद्धि नहीं रखता, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥४६॥
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साधुभिः पूज्यमानेऽस्मिन्पीड्यमानेऽपि दुर्जनैः ।
समभावो भवेद्यस्य स जीवन्मुक्त इष्यते ॥ ४७॥
सरलार्थ : सज्जनों द्वारा पूजे जाने पर और दुर्जनों द्वारा ताड़ित किये जाने पर भी जिसमें समभाव बना रहे, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥४७॥
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विज्ञातब्रह्मतत्त्वस्य यथापूर्वं न संसृतिः ।
अस्ति चेन्न स विज्ञातब्रह्मभावो बहिर्मुखः ॥ ४८॥
सरलार्थ : जिसके द्वारा ब्रह्म तत्त्व जान लिया गया है, संसार के प्रति उसकी दृष्टि पूर्ववत् नहीं रहती । इसलिए यदि वह संसार को पूर्व के समान ही देखता है, तो यह जानना चाहिए कि वह अभी तक ब्रह्म भाव को समझा नहीं है और बहिर्मुख है ॥४८॥
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सुखाद्यनुभवो यावत्तावत्प्रारब्धमिष्यते ।
फलोदयः क्रियापूर्वो निष्क्रियो नहि कुत्रचित् ॥ ४९॥
सरलार्थ : जब तक सुख आदि का अनुभव होता है, तब तक इसे प्रारब्ध भोग मानना चाहिए, क्योंकि कोई भी फल पूर्व में क्रिया करने के कारण ही उदित होता है । बिना क्रिया के कोई फल नहीं मिलता ॥४९॥
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अहं ब्रह्मेति विज्ञानात्कल्पकोटिशतार्जितम् ।
संचितं विलयं याति प्रबोधात्स्वप्नकर्मवत् ॥ ५०॥
सरलार्थ : जिस प्रकार जाग्रत् हो जाने पर स्वप्न रूप कर्म विनष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा ज्ञान हो जाने पर करोड़ों कल्पों से अर्जित कर्म विलीन हो जाते हैं ॥५०॥
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स्वमसङ्गमुदासीनं परिज्ञाय नभो यथा ।
न श्लिष्यते यतिः किंचित्कदाचिद्भाविकर्मभिः ॥ ५१॥
सरलार्थ : योगी आकाश के सदृश अपने को असङ्ग और उदासीन जानकर भावी कर्मों में किञ्चित् भी लिप्त नहीं होता ॥५१॥
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न नभो घटयोगेन सुरागन्धेन लिप्यते ।
तथात्मोपाधियोगेन तद्धर्मे नैव लिप्यते ॥ ५२॥
सरलार्थ : जिस प्रकार सुरा-कुम्भ में स्थित आकाश, सुरा की गन्ध से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शरीर रूपी उपाधि के साथ संयुक्त रहने पर भी आत्मा उसके गुण-धर्मों से प्रभावित नहीं होता ॥५२॥
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ज्ञानोदयात्पुरारब्धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति ।
अदत्त्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्टबाणवत् ॥ ५३॥
सरलार्थ : जिस प्रकार छोड़ा हुआ बाण निर्धारित लक्ष्य को बेधता ही है, उसी प्रकार ज्ञानोदय होने से पूर्व किये गये कर्म का फल अवश्य मिलता है अर्थात् ज्ञान उत्पन्न हो जाने से पूर्व जो कृत्य किये गये थे, उनका फल ज्ञान उत्पन्न हो जाने से विनष्ट नहीं होता ॥५३॥
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व्याघ्रबुद्ध्या विनिर्मुक्तो बाणः पश्चात्तु गोमतौ ।
न तिष्ठति भिनत्त्येव लक्ष्यं वेगेन निर्भरम् ॥ ५४॥
सरलार्थ : बाघ समझकर छोड़ा गया बाण यह जान लेने पर कि ‘यह बाघ नहीं गाय है’, रुकता नहीं और वेगपूर्वक लक्ष्य वेध करता ही है, उसी प्रकार ज्ञान हो जाने पर भी पूर्वकृत कर्म का फल मिलता ही है ॥५४॥
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अजरोऽस्म्यमरोऽस्मीति य आत्मानं प्रपद्यते ।
तदात्मना तिष्ठतोऽस्य कुतः प्रारब्धकल्पना ॥ ५५॥
सरलार्थ : ‘मैं अजर और अमर हूँ’, इस प्रकार अपने आत्मरूप को जो स्वीकार कर लेता है, वह आत्मरूप में ही स्थित रहता है, फिर उसे प्रारब्ध कर्म की कल्पना ही कैसे हो सकती है ॥५५॥
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प्रारब्धं सिद्ध्यति तदा यदा देहात्मना स्थितिः ।
देहात्मभावो नैवेष्टः प्रारब्धं त्यज्यतामतः ॥ ५६॥
सरलार्थ : प्रारब्ध कर्म उसी समय सिद्ध होता है, जब देह में आत्मभाव होता है; परन्तु देह में आत्मभाव रखना इष्ट नहीं है । अस्तु, देह के ऊपर आत्म बुद्धि का परित्याग करके प्रारब्ध कर्म का परित्याग करना चाहिए ॥५६॥
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प्रारब्धकल्पनाप्यस्य देहस्य भ्रान्तिरेव हि ॥ ५७॥
अध्यस्तस्य कुतस्तत्त्वमसत्यस्य कुतो जनिः ।
अजातस्य कुतो नाशः प्रारब्धमसतः कुतः ॥ ५८॥
सरलार्थ : देह के प्रति भ्रान्ति ही प्राणी के प्रारब्ध की परिकल्पना है और आरोपित अथवा भ्रान्त धारणा से जो कल्पित हो, वह सत्य कैसे हो सकता है? जो सत्य नहीं है, उसका जन्म कहाँ से हो और जिसका जन्म नहीं है, उसका विनाश कैसे हो? अस्तु, जो असत् है, उसका प्रारब्ध कर्म कैसे बने ? ॥५७-५८॥
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ज्ञानेनाज्ञानकार्यस्य समूलस्य लयो यदि ।
तिष्ठत्ययं कथं देह इति शङ्कावतो जडान् ।
समाधातुं बाह्यदृष्ट्या प्रारब्धं वदति श्रुतिः ॥ ५९॥
सरलार्थ : यदि अज्ञान (देहासक्ति आदि ) का पूर्ण विलय ज्ञान में हो जाये, तो फिर देह का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है, ऐसी शंका जड़ (स्थूल) बुद्धि वाले ही करते हैं ॥५९॥
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न तु देहादिसत्यत्वबोधनाय विपश्चिताम् ।
परिपूर्णमनाद्यन्तमप्रमेयमविक्रियम् ॥ ६०॥
सरलार्थ : बहिर्मुखी दृष्टि वाले (अज्ञानियों) को समझाने के लिए श्रुति प्रारब्ध की बात कहती है । ज्ञानियों के लिए या देहादि की सत्यता प्रकट करने के लिए प्रारब्ध का उल्लेख नहीं किया गया है ॥६०॥
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सद्घनं चिद्घनं नित्यमानन्दघनमव्ययम् ।
प्रत्यगेकरसं पूर्णमनन्तं सर्वतोमुखम् ॥ ६१॥
अहेयमनुपादेयमनाधेयमनाश्रयम् ।
निर्गुणं निष्क्रियं सूक्ष्मं निर्विकल्पं निरञ्जनम् ॥ ६२॥
अनिरूप्यस्वरूपं यन्मनोवाचामगोचरम् ।
सत्समृद्धं स्वतःसिद्धं शुद्धं बुद्धमनोदृशम् ॥ ६३॥
सरलार्थ : वस्तुतः परिपूर्ण, आदि-अन्तरहित, अप्रमेय, विकाररहित, सद्घन, चिद्घन, नित्य, आनन्दघन, अव्यय, प्रत्यग्, एकरस, पूर्ण, अनन्त, सब ओर मुख वाला, त्याग और ग्रहण न करने वाला, किसी आधार के ऊपर न रहने वाला और किसी का आश्रय भी न लेने वाला, निर्गुण, क्रियारहित, सूक्ष्म स्वरूप, निर्विकल्प, दोष-दुर्गुण रहित, अनिरूप्य (जिसका निरूपण नहीं किया जा सकता, ऐसे स्वरूप वाला), मन और वाणी द्वारा अगोचर, सत्समृद्ध, (सतोगुण की अधिकता वाला) स्वतः सिद्ध, शुद्ध, बुद्ध, अनीदृश (जिसकी किसी के साथ तुलना न की जा सके)- वह एक ही अद्वैत रूप ब्रह्म है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ॥६१-६३॥
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स्वानुभूत्या स्वयं ज्ञात्वा स्वमात्मानमखण्डितम् ।
स सिद्धः सुसुखं तिष्ठ निर्विकल्पात्मनात्मनि ॥ ६४॥
सरलार्थ : इस प्रकार अपनी अनुभूति से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखण्डित जानकर सिद्ध हो और निर्विकल्प आत्मा से अपने को सुख पूर्ण स्थिति में प्रतिष्ठित कर ॥६४॥
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क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत् ।
अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महदद्भुतम् ॥ ६५॥
सरलार्थ : (गुरु के इस उपदेश से शिष्य को ज्ञान हो गया और वह कहने लगा -) जिस जगत् को अभी मैंने देखा था, वह कहाँ चला गया ? किसके द्वारा वह हटा लिया गया? वह कहाँ लीन हो गया? बहुत आश्चर्य का विषय है कि अभी तो वह मुझे दिखाई पड़ रहा था, क्या वह अब नहीं है? ॥६५॥
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किं हेयं किमुपादेयं किमन्यत्किं विलक्षणम् ।
अखण्डानन्दपीयूषपूर्णब्रह्ममहार्णवे ॥ ६६॥
सरलार्थ : अखण्ड आनन्द रूप पीयूष से पूरित ब्रह्म रूप सागर में अब मेरे लिए क्या त्याग करने योग्य है? क्या ग्रहण करने योग्य है? अन्य कुछ है भी क्या? यह कैसी विलक्षणता है? ॥६६॥
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न किंचिदत्र पश्यामि न शृणोमि न वेद्म्यहम् ।
स्वात्मनैव सदानन्दरूपेणास्मि स्वलक्षणः ॥ ६७॥
सरलार्थ : यहाँ मैं न कुछ देखता हूँ, न सुनता हूँ और न ही कुछ जानता हूँ; क्योंकि मैं सदा आनन्दरूप से अपने आत्मतत्त्व में ही स्थित हूँ और स्वयं ही अपने लक्षण वाला हूँ ॥६७॥
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असङ्गोऽहमनङ्गोऽहमलिङ्गोऽहं हरिः ।
प्रशान्तोऽहमनन्तोऽहं परिपूर्णश्चिरन्तनः ॥ ६८॥
सरलार्थ : मैं सङ्ग रहित हूँ,अङ्ग रहित हूँ, चिह्न रहित और स्वयं हरि हूँ । मैं प्रशान्त हूँ, अनन्त हूँ, परिपूर्ण और चिरन्तन अर्थात् प्राचीन से प्राचीन हूँ ॥६८॥
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अकर्ताहमभोक्ताहमविकारोऽहमव्ययः ।
शुद्ध बोधस्वरूपोऽहं केवलोऽहं सदाशिवः ॥ ६९॥
सरलार्थ : मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ, अविकारी और अव्यय हूँ । मैं शुद्ध बोधस्वरूप और केवल सदाशिव हूँ ॥६९॥
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एतां विद्यामपान्तरतमाय ददौ । अपान्तरतमो ब्रह्मणे ददौ ।
ब्रह्मा घोराङ्गिरसे ददौ । घोराङ्गिरा रैक्वाय ददौ । रैक्वो रामाय ददौ ।
रामः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो ददावित्येतन्निर्वाणानुशासनं
वेदानुशासनं वेदानुशासनमित्युपनिषत् ॥ ७०॥
सरलार्थ : यह विद्या (सदाशिव) गुरु ने अपान्तरतम नामक (देवपुत्र) ब्राह्मण को दी थी । अपान्तरतम ने ब्रह्मा को दी थी । ब्रह्मा ने घोर आङ्गिरस को दी । घोर आङ्गिरस ने रैक्व को दी । रैक्व ने राम (परशुराम) को दी । राम ने समस्त प्राणियों के लिए प्रदान की । यह निर्वाण (प्राप्त करने) का अनुशासन है, वेद का अनुशासन है और वेद का आदेश है । इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई ॥७०॥
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
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इति अध्यात्मोपनिषत्समाप्ता ॥
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॥ अन्नपूर्णोपनिषत् ॥
सर्वापह्नवसंसिद्धब्रह्ममात्रतयोज्ज्वलम् ।
त्रैपदं श्रीरामतत्त्वं स्वमात्रमिति भावये ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ निदाघो नाम योगीन्द्र ऋभुं ब्रह्मविदां वरम् ।
प्रणम्य दण्डवद्भूमावुत्थाय स पुनर्मुनिः ॥ १॥
आत्मतत्त्वमनुब्रूहीत्येवं पप्रच्छ सादरम् ।
कयोपासनया ब्रह्मन्नीदृशं प्राप्तवानसि ॥ २॥
तां मे ब्रूहि महाविद्यां मोक्षसाम्राज्यदायिनीम् ।
निदाघ त्वं कृतार्थोऽसि शृणु विद्यां सनातनीम् ॥ ३॥
यस्या विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तो भविष्यसि ।
मूलशृङ्गाटमध्यस्था बिन्दुनादकलाश्रया ॥ ४॥
नित्यानन्दा निराधारा विख्याता विलसत्कचा ।
विष्टपेशी महालक्ष्मीः कामस्तारो नतिस्तथा ॥ ५॥
भगवत्यन्नपूर्णेति ममाभिलषितं ततः ।
अन्नं देहि ततः स्वाहा मन्त्रसारेति विश्रुता ॥ ६॥
सप्तविंशति वर्णात्मा योगिनीगणसेविता ॥ ७॥
ऐं ह्रीं सौं श्रीं क्लीमोन्नमो भगवत्यन्नपूर्णे
ममाभिलषितमन्नं देहि स्वाहा ।
इति पित्रोपदिष्टोऽस्मि तदादिनियमः स्थितः ।
कृतवान्स्वाश्रमाचारो मन्त्रानुष्ठानमन्वहम् ॥ ८॥
एवं गते बहुदिने प्रादुरासीन्ममाग्रतः ।
अन्नपूर्णा विशालाक्षी स्मयमानमुखाम्बुजा ॥ ९॥
तां दृष्ट्वा दण्डवद्भूमौ नत्वा प्राञ्जलिरास्थितः ।
अहो वत्स कृतार्थोऽसि वरं वरय मा चिरम् ॥ १०॥
एवमुक्तो विशालाक्ष्या मयोक्तं मुनिपुङ्गव ।
आत्मतत्त्वं मनसि मे प्रादुर्भवतु पार्वति ॥ ११॥
तथैवास्थिति मामुक्त्वा तत्रैवान्तरधीयत ।
तदा मे मतिरुत्पन्ना जगद्वैचित्र्यदर्शनात् ॥ १२॥
भ्रमः पञ्चविधो भाति तदेवेह समुच्यते ।
जीवेश्वरौ भिन्नरूपाविति प्राथमिको भ्रमः ॥ १२॥
आत्मनिष्ठं कर्तृगुणं वास्तवं वा द्वितीयकः ।
शरीरत्रयसंयुक्तजीवः सङ्गी तृतीयकः ॥ १३॥
जगत्कारणरूपस्य विकारित्वं चतुर्थकः ।
कारणाद्भिन्नजगतः सत्यत्वं पञ्चमो भ्रमः ।
पञ्चभ्रमनिवृत्तिश्च तदा स्फुरति चेतसि ॥ १५॥
बिम्बप्रतिबिम्बदर्शनेन भेदभ्रमो निवृत्तः ।
स्फटिकलोहितदर्शनेन पारमार्थिककर्तृत्वभ्रमो निवृत्तः ।
घटमठाकाशदर्शनेन सङ्गीतिभ्रमो निवृत्तः ।
रज्जुसर्पदर्शनेन कारणाद्भिन्नजगतः सत्यत्वभ्रमो निवृत्तः ।
कनकरुचकदर्शनेन विकारित्वभ्रमो निवृत्तः ।
तदाप्रभृति मच्चित्तं ब्रह्माकारमभूत्स्वयम् ।
निदाघ त्वमपीत्थं हि तत्त्वज्ञानमवाप्नुहि ॥ १६॥
निदाघः प्रणतो भूत्वा ऋभुं पप्रच्छ सादरम् ।
ब्रूहि मे श्रद्दधानाय ब्रह्मविद्यामनुत्तमाम् ॥ १७॥
तथेत्याह ऋभुः प्रीतस्तत्त्वज्ञां वदामि ते ।
महाकर्ता महाभोक्ता महात्यागी भवानघ ।
स्वस्वरूपानुसन्धानमेवं कृत्वा सुखी भव ॥ १८॥
नित्योदितं विमलमाद्यमनतरूपं
ब्रह्मास्मि नेतरकलाकलनं हि किंचित् ।
इत्येव भावय निरञ्जनतामुपेतो
निर्वाणमेहि सकलामलशान्तवृत्तिः ॥ १९॥
यदिदं दृश्यते किंचित्तत्तन्नास्तीति भावय ।
यथा गन्धर्वनगरं यथा वारि मरुस्थले ॥ २०॥
यत्तु नो दृश्यते किंचिद्यन्नु किंचिदिव स्थितम् ।
मनःषष्ठेन्द्रियातीतं तन्मयो भव वै मुने ॥ २१॥
अविनाशि चिदाकाशं सर्वात्मकमखण्डितम् ।
नीरन्ध्रं भूरिवाशेषं तदस्मीति विभावय ॥ २२॥
यदा संक्षीयते चित्तमभावात्यन्तभावनात् ।
चित्सामान्यस्वरूपस्य सत्तासामान्यता तदा ॥ २३॥
नूनं चैत्यांशरहिता चिद्यदात्मनि लीयते ।
असद्रूपवदत्यच्छा सत्तासामान्यता तदा ॥ २४॥
दृष्टिरेषा हि परमा सदेहादेहयोः समा ।
मुक्तयोः संभवत्येव तुर्यातीतपदाभिधा ॥ २५॥
व्युत्थितस्य भवत्येषा समाधिस्थस्य चानघ ।
ज्ञस्य केवलमज्ञस्य न भवत्येव बोधजा ।
अनानन्दसमानन्दमुग्धमुग्धमुखद्युतिः ॥ २६॥
चिरकालपरिक्षीणमननादिपरिभ्रमः ।
पदमासाद्यते पुण्यं प्रज्ञयैवैकया तथा ॥ २७॥
इमं गुणसमाहारमनात्मत्वेन पश्यतः ।
अन्तःशीतलया यासौ समाधिरिति कथ्यते ॥ २८॥
अवासनं स्थिरं प्रोक्तं मनोध्यानं तदेव च ।
तदेव केवलीभानं शान्ततैव च तत्सदा ॥ २९॥
तनुवासनमत्युच्चैः पदायोद्यतमुच्यते ।
अवासगं मनोऽकर्तृपदं तस्मादवाप्यते ॥ ३०॥
घनवासनमेतत्तु चेतःकर्तृत्वभावनम् ।
सर्वदुःखप्रदं तस्माद्वासनां तनुतां नयेत् ॥ ३१॥
चेतसा सम्परित्यज्य सर्वभावात्मभावनाम् ।
सर्वमाकाशतामेति नित्यमन्तर्मुखस्थितेः ॥ ३२॥
यथा विपणगा लोका विहरन्तोऽप्यसत्समाः ।
असंबन्धात्तथा ज्ञस्य ग्रामोऽपि विपिनोपमः ॥ ३३॥
अन्तर्मुखतया नित्यं सुप्तो बुद्धो व्रजन्पठन् ।
पुरं जनपदं ग्राममरण्यमिव पश्यति ॥ ३४॥
अन्तःशीतलतायां तु लब्धायां शीतलं जगत् ।
अन्तस्तृष्णोपतप्तानां दावदाहमयं जगत् ॥ ३५॥
भवत्यखिलजन्तूनां यदन्तस्तद्बहिः स्थितम् ॥ ३६॥
यस्त्वात्मरतिरेवान्तः कुर्वन्कर्मेन्द्रियैः क्रियाः ।
न वशो हर्षशोकाभ्यां स समाहित उच्यते ॥ ३७॥
आत्मवत्सर्वभूतानि परद्रव्याणि लोष्ठवत् ।
स्वभावादेव न भयाद्यः पश्यति स पश्यति ॥ ३८॥
अद्यैव मृतिरायातु कल्पान्तनिचयेन वा ।
नासौ कलङ्कमाप्नोति हेम पङ्कगतं यथा ॥ ३९॥
कोऽहं कथमिदं किं वा कथं मरणजन्मनी ।
विचारयान्तरे वेत्थं महत्तत्फलमेष्यसि ॥ ४०॥
विचारेण परिज्ञातस्वभावस्य सतस्तव ।
मनः स्वरूपमुत्सृज्य शममेष्यति विज्वरम् ॥ ४१॥
विज्वरत्वं गतं चेतस्तव संसारवृत्तिषु ।
न निमज्जति तद्ब्रह्मन्गोष्पदेष्विव वारणः ॥ ४२॥
कृपणं तु मनो ब्रह्मन्गोष्पदेऽपि निमज्जति ।
कार्ये गोष्पदतोयेऽपि विशीर्णो मशको यथा ॥ ४३॥
यावद्यावन्मुनिश्रेष्ठ स्वयं संतज्यतेऽखिलम् ।
तावत्तावत्परालोकः परमात्मैव शिष्यते ॥ ४४॥
यावत्सर्वं न संत्यक्तं तावदात्मा न लभ्यते ।
सर्ववस्तुपरित्यागे शेष आत्मेति कथ्यते ॥ ४५॥
आत्मावलोकनार्थं तु तस्मात्सर्वं परित्यजेत् ।
सर्वं संत्यज्य दूरेण यच्छिष्टं तन्मयो भव ॥ ४६॥
सर्वं किंचिदिदं दृश्यं दृश्यते यज्जगद्गतम् ।
चिन्निष्पन्दांशमात्रं तन्नान्यत्किंचन शाश्वतम् ॥ ४७॥
समाहिता नित्यतृप्ता यथाभूतार्थदर्शिनी ।
ब्रह्मन्समाधिशब्देन परा प्रज्ञोच्यते बुधैः ॥ ४८॥
अक्षुब्धा निरहंकारा द्वन्द्वेष्वननुपातिनी ।
प्रोक्ता समाधिशब्देन मेरोः स्थिरतरा स्थितिः ॥ ४९॥
निश्चिता विगताभीष्टा हेयोपदेयवर्जिता ।
ब्रह्मन्समाधिशब्देन परिपूर्णा मनोगतिः ॥ ५०॥
केवलं चित्प्रकाशांशकल्पिता स्थिरतां गता ।
तुर्या सा प्राप्यते दृष्टिर्महद्भिर्वेदवित्तमैः ॥ ५१॥
अदूरगतसादृश्या सुषुप्तस्योपलक्ष्यते ।
मनोहंकारविलये सर्वभावान्तरस्थिता ॥ ५२॥
समुदेति परानन्दा या तनुः पारमेश्वरी ।
मनसैव मनश्छित्त्वा सा स्वयं लभ्यते गतिः ॥ ५३॥
तदनु विषयवासनाविनाश-
स्तदनु शुभः परमः स्फुटप्रकाशः ।
तदनु च समतावशात्स्वरूपे
परिणमनं महतामचिन्त्यरूपम् ॥ ५४॥
अखिलमिदमनन्तमनन्तमात्मतत्त्वं
दृढपरिणामिनि चेतसि स्थितोऽन्तः ।
बहिरुपशमिते चराचरात्मा
स्वयमनुभूयत एव देवदेवः ॥ ५५॥
असक्तं निर्मलं चित्तं युक्तं संसार्यविस्फुटम् ।
सक्तं तु दीर्घतपसा मुक्तमप्यतिबद्धवत् ॥ ५६॥
अन्तःसंसक्तिनिर्मुक्तो जीवो मधुरवृत्तिमान् ।
बहिः कुर्वन्नकुर्वन्वा कर्ता भोक्ता न हि क्वचित् ॥ ५७॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
निदाघ उवाच ॥
सङ्गः कीदृश इत्युक्तः कश्च बन्धाय देहिनाम् ।
कश्च मोक्षाय कथितः कथं त्वेष चिकित्स्यते ॥ १॥
देहदेहिविभागैकपरित्यागेन भावना ।
देहमात्रे हि विश्वासः सङ्गो बन्धाय कथ्यते ॥ २॥
सर्वमात्मेदमत्राहं किं वाञ्छामि त्यजामि किम् ।
इत्यसङ्गस्थितिं विद्धि जीवन्मुक्ततनुस्थिताम् ॥ ३॥
नाहमस्मि न चान्योस्ति न चायं न च नेतरः ।
सोऽसङ्ग इति सम्प्रोक्तो ब्रह्मास्मीत्येव सर्वदा ॥ ४॥
नाभिनन्दति नैष्कर्म्यं न कर्मस्वनुषज्जते ।
सुसमो यः परित्यागी सोऽसंसक्त इति स्मृतः ॥ ५॥
सर्वकर्मफलादीनां मनसैव न कर्मणा ।
निपुणो यः परित्यागी सोऽसंसक्त इति स्मृतः ॥ ६॥
असंकल्पेन सकलाश्चेष्टा नाना विजृंभिताः ।
चिकित्सिता भवन्तीह श्रेयः सम्पादयन्ति हि ॥ ७॥
न सक्तमिह चेष्टासु न चिन्तासु न वस्तुषु ।
न गमागमचेष्टासु न कालकलनासु च ॥ ८॥
केवलं चिति विश्रम्य किंचिच्चैत्यावलंब्यपि ।
सर्वत्र नीरसमिह तिष्ठत्यात्मरसं मनः ॥ ९॥
व्यवहारमिदं सर्वं मा करोतु करोतु वा ।
अकुर्वन्वापि कुर्वन्वा जीवः स्वात्मरतिक्रियः ॥ १०॥
अथवा तमपि त्यक्त्वा चैत्यांशं शान्तचिद्घनः ।
जीवस्तिष्ठति संशान्तो ज्वलन्मणिरिवात्मनि ॥ ११॥
चित्ते चैत्यदशाहीने या स्थितिः क्षीणचेतसाम् ।
सोच्यते शान्तकलना जाग्रत्येव सुषुप्तता ॥ १२॥
एषा निदाघ सौषुप्तस्थितिरभ्यासयोगतः ।
प्रौढा सती तुरीयेति कथिता तत्त्वकोविदैः ॥ १३॥
अस्यां तुरीयावस्थायां स्थितिं प्राप्याविनाशिनीम् ।
आनन्दैकान्तशीलत्वादनानन्दपदं गतः ॥ १४॥
अनानन्दमहानन्दकालातीतस्ततोऽपि हि ।
मुक्त इत्युच्यते योगी तुर्यातीतपदं गतः ॥ १५॥
परिगलितसमस्तजन्मपाशः
सकलविलीनतमोमयाभिमानः ।
परमरसमयीं परात्मसत्तां
जलगतसैन्धवखण्डवन्महात्मा ॥ १६॥
जडाजडदृशोर्मध्ये यत्तत्त्वं पारमार्थिकम् ।
अनुभूतिमयं तस्मात्सारं ब्रह्मेति कथ्यते ॥ १७॥
दृश्यसंवलितो बन्धस्तन्मुक्तौ मुक्तिरुच्यते ।
द्रव्यदर्शनसंबन्धे यानुभूतिरनामया ॥ १८॥
तामवष्टभ्य तिष्ठ त्वं सौषुप्तीं भजते स्थितिम् ।
सैव तुर्यत्वमाप्नोति तस्यां दृष्टिं स्थिरां कुरु ॥ १९॥
आत्मा स्थूलो न चैवाणुर्न प्रत्यक्षो न चेतरः ।
न चेतनो न च जडो न चैवासन्न सन्मयः ॥ २०॥
नाहं नान्यो न चैवैको न चानेकोऽद्वयोऽव्ययः ।
यदीदं दृश्यतां प्राप्तं मनः सर्वेन्द्रियास्पदम् ॥ २१॥
दृश्यदर्शनसंबन्धे यत्सुखं पारमार्थिकम् ।
तदतीतं पदं यस्मात्तन्न किंचिदिवैव तत् ॥ २२॥
न मोक्षो नभसः पृष्ठे न पाताले न भूतले ।
सर्वाशासंक्षये चेतःक्षयो मोक्ष इतीष्यते ॥ २३॥
मोक्षो मेऽस्त्विति चिन्तान्तर्जाता चेदुत्थितं मनः ।
मननोत्थे मनस्यैष बन्धः सांसारिको दृढः ॥ २४॥
आत्मन्यतीते सर्वस्मात्सर्वरूपेऽथ वा तते ।
को बन्धः कश्च वा मोक्षो निर्मूलं मननं कुरु ॥ २५॥
अध्यात्मरतिराशान्तः पूर्णपावनमानसः ।
प्राप्तानुत्तमविश्रान्तिर्न किंचिदिह वाञ्छति ॥ २६॥
सर्वाधिष्ठानसन्मात्रे निर्विकल्पे चिदात्मनि ।
यो जीवति गतस्नेहः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २७॥
नापेक्षते भविष्यच्च वर्तमाने न तिष्ठति ।
न संस्मरत्यतीतं च सर्वमेव करोति च ॥ २८॥
अनुबन्धपरे जन्तावसंसर्गमनाः सदा ।
भक्ते भक्तसमाचरः शठे शठ इव स्थितः ॥ २९॥
बालो बालेषु वृद्धेषु वृद्धो धीरेषु धैर्यवान् ।
युवा यौवनवृत्तेषु दुःखितेषु सुदुःखधीः ॥ ३०॥
धीरधीरुदितानन्दः पेशलः पुण्यकीर्तनः ।
प्राज्ञः प्रसन्नमधुरो दैन्यादपगताशयः ॥ ३१॥
अभ्यासेन परिस्पन्दे प्राणानां क्षयमागते ।
मनः प्रशममायाति निर्वाणमवशिष्यते ॥ ३२॥
यतो वाचो निवर्तन्ते विकल्पकलनान्विताः ।
विकल्पसंक्षयाज्जन्तोः पदं तदवशिष्यते ॥ ३३॥
अनाद्यन्तावभासात्मा परमात्मैव विद्यते ।
इत्येतन्निश्चयं स्फारं सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः ॥ ३४॥
यथाभूतार्थदर्शित्वमेतावद्भुवनत्रये ।
यदात्मैव जगत्सर्वमिति निश्चित्य पूर्णता ॥ ३५॥
सर्वमात्मैव कौ दृष्टौ भावाभावौ क्व वा स्थितौ ।
क्व बन्धमोक्षकलने ब्रह्मैवेदं विजृम्भते ॥ ३६॥
सर्वमेकं परं व्योम को मोक्षः कस्य बन्धता ।
ब्रह्मेदं बृंहिताकारं बृहद्बृहदवस्थितम् ॥ ३७॥
दूरादस्तमितद्वित्वं भवात्मैव त्वमात्मना ।
सम्यगालोकिते रूपे काष्ठपाषाणवाससाम् ॥ ३८॥
मनागपि न भेदोऽस्ति क्वासि संकल्पनोन्मुखः ।
आदावन्ते च संशान्तस्वरूपमविनाशि यत् ॥ ३९॥
वस्तूनामात्मनश्चैतत्तन्मयो भव सर्वदा ।
द्वैताद्वैतसमुद्भेदैर्जरामरणविभ्रमैः ॥ ४०॥
स्फुरत्यात्मभिरात्मैव चित्तैरब्धीव वीचिभिः ।
आपत्करञ्जपरशुं पराया निर्वृतेः पदम् ॥ ४१॥
शुद्धमात्मानमालिङ्ग्य नित्यमन्तस्थया धिया ।
यः स्थितस्तं क आत्मेह भोगो बाधयितुं क्षमः ॥ ४२॥
कृतस्फारविचारस्य मनोभोगादयोऽरयः ।
मनागपि न भिन्दन्ति शैलं मन्दानिला इव ॥ ४३॥
नानात्वमस्ति कलनासु न वस्तुतोऽन्त-
र्नानाविधासु सरसीव जलादिवान्यत् ।
इत्येकनिश्चयमयः पुरुषो विमुक्त
इत्युच्यते समवलोकितसम्यगर्थः ॥ ४४॥
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
विदेहमुक्तेः किं रूपं तद्वान्को वा महामुनिः ।
कं योगं समुपस्थाय प्राप्तवान्परमं पदम् ॥ १॥
सुमेरोर्वसुधापीठे माण्डव्यो नाम वै मुनिः ।
कौण्डिन्यात्तत्त्वमास्थाय जीवन्मुक्तो भवत्यसौ ॥ २॥
जीवन्मुक्तिदशां प्राप्य कदाचिद्ब्रह्मवित्तमः ।
सर्वेन्द्रियाणि संहर्तुं मनश्चक्रे महामुनिः ॥ ३॥
बद्धपद्मासनस्तिष्ठन्नर्धोन्मीलितलोचनः ।
बाह्यानाभ्यान्तरांश्चैव स्पर्शान्परिहरञ्छनैः ॥ ४॥
ततः स्वमनसः स्थैर्यं मनसा विगतैनसा ।
अहो नु चञ्चलमिदं प्रत्याहृतमपि स्फुटम् ॥ ५॥
पटाद्घटमुपायाति घटाच्छकटमुत्कटम् ।
चित्तमर्थेषु चरति पादपेष्विव मर्कटः ॥ ६॥
पञ्च द्वाराणि मनसा चक्षुरादीन्यमून्यलम् ।
बुद्धीन्द्रियाभिधानानि तान्येवालोकयाम्यहम् ॥ ७॥
हन्तेन्द्रियगणा यूयं त्यजताकुलतां शनैः ।
चिदात्मा भगवान्सर्वसाक्षित्वेन स्थितोऽस्म्यहम् ॥ ८॥
तेनात्मना बहुज्ञेन निर्ज्ञाताश्चक्षुरादयः ।
परिनिर्वामि शान्तोऽस्मि दिष्ट्यास्मि विगतज्वरः ॥ ९॥
स्वात्मन्येवावतिष्ठेऽहं तुर्यरूपपदेऽनिशम् ।
अन्तरेव शशामास्य क्रमेण प्राणसन्ततिः ॥ १०॥
ज्वालाजालपरिस्पन्दो दग्धेन्धन इवानलः ।
तदितोऽस्तं गत इव ह्यस्तं गत इवोदितः ॥ ११॥
समः समरसाभासस्तिष्ठामि स्वच्छतां गतः ।
प्रबुद्धोऽपि सुषुप्तिस्थः सुषुप्तिस्थः प्रबुद्धवान् ॥ १२॥
तुर्यमालम्ब्य कायान्तस्तिष्ठामि स्तम्भितस्थितिः ।
सबाह्याभ्यन्तरान्भावान्स्थूलान्सूक्ष्मतरानपि ॥ १३॥
त्रैलोक्यसंभवांस्त्यक्त्वा संकल्पैकविनिर्मितान् ।
सह प्रणवपर्यन्तदीर्घनिःस्वनतन्तुना ॥ १४॥
जहाविन्द्रियतन्मात्रजालं खग इवानलः ।
ततोऽङ्गसंविदं स्वच्छां प्रतिभासमुपागताम् ॥ १५॥
सद्योजातशिशुज्ञानं प्राप्तवान्मुनिपुङ्गवः ।
जहौ चित्तं चैत्यदशां स्पन्दशक्तिमिवानिलः ॥ १६॥
चित्सामान्यमथासाद्य सत्तामात्रात्मकं ततः ।
सुषुप्तपदमालम्ब्य तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ १७॥
सुषुप्तस्थैर्यमासाद्य तुर्यरूपमुपाययौ ।
निरानन्दोऽपि सानन्दः सच्चासच्च बभूव सः ॥ १८॥
ततस्तु संबभूवासौ यद्गिरामप्यगोचरः ।
यच्छून्यवादिनां शून्यं ब्रह्म ब्रह्मविदां च यत् ॥ १९॥
विज्ञानमात्रं विज्ञानविदां यदमलात्मकम् ।
पुरुषः सांख्यदृष्टीनामीश्वरो योगवादिनाम् ॥ २०॥
शिवः शैवागमस्थानां कालः कालैकवादिनाम् ।
यत्सर्वशास्त्रसिद्धान्तं यत्सर्वहृदयानुगम् ॥ २१॥
यत्सर्वं सर्वगं वस्तु यत्तत्त्वं तदसौ स्थितः ।
यदनुक्तमनिष्पन्दं दीपकं तेजसामपि ॥ २२॥
स्वानुभूत्यैकमानं च यत्तत्त्वं तदसौ स्थितः ।
यदेकं चाप्यनेकं च साञ्जनं च निरञ्जनम् ।
यत्सर्वं चाप्यसर्वं च यत्तत्त्वं तदसु स्थितः ॥ २३॥
अजममरमनाद्यमाद्यमेकं
पदममलं सकलं च निष्कलं च ।
स्थित इति स तदा नभःस्वरूपा-
दपिविमलस्थितिरीश्वरः क्षणेन ॥ २४॥
इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
जीवन्मुक्तस्य किं लक्ष्म ह्याकाशगमनादिकम् ।
तथा चेन्मुनिशार्दूल तत्र नैव प्रलक्ष्यते ॥ १॥
अनात्मविदमुक्तोऽपि नभोविहरणादिकम् ।
द्रव्यमन्त्रक्रियाकालशक्त्याप्नोत्येव स द्विजः ॥२॥
नात्मज्ञस्यैष विषय आत्मज्ञो ह्यात्ममात्रदृक् ।
आत्मनात्मनि संतृप्तो नाविद्यामनुधावति ॥ ३॥
ये ये भावाः स्थिता लोके तानविद्यामयान्विदुः ।
त्यक्ताविद्यो महायोगी कथं तेषु निमज्जति ॥ ४॥
यस्तु मूढोऽल्पबुद्धिर्वा सिद्धिजालानि वाञ्छति ।
सिद्धिसाधनैर्योगैस्तानि साधयति क्रमात् ॥ ५॥
द्रव्यमन्त्रक्रियाकालयुक्तयः साधुसिद्धिदाः ।
परमात्मपदप्राप्तौ नोपकुर्वन्ति काश्चन ॥ ६॥
यस्येच्छा विद्यते काचित्सा सिद्धिं साधयत्यहो ।
निरिच्छोः परिपूर्णस्य नेच्छा संभवति क्वचित् ॥ ७॥
सर्वेच्छाजालसंज्ञान्तावात्मलाभो भवेन्मुने ।
स कथं सिद्धिजालानि नूनं वाञ्छन्त्यचित्तकः ॥ ८॥
अपि शीतरुचावर्के सुतीक्ष्णेऽपीन्दुमण्डले ।
अप्यधः प्रसरत्यग्नौ जीवन्मुक्तो न विस्मयी ॥ ९॥
अधिष्ठाने परे तत्त्वे कल्पिता रज्जुसर्पवत् ।
कल्पिताश्चर्यजालेषु नाभ्युदेति कुतूहलम् ॥ १०॥
ये हि विज्ञातविज्ञेया वीतरागा महाधियः ।
विच्छिन्नग्रन्थयः सर्वे ते स्वतन्त्रास्तनौ स्थितः ॥ ११
सुखदुःखदशाधीरं साम्यान्न प्रोद्धरन्ति यम् ।
निश्वासा इव शैलेन्द्रं चित्तं तस्य मृतं विदुः ॥ १२॥
आपत्कार्पण्यमुत्साहो मदो मान्द्यं महोत्सवः ।
यं नयन्ति न वैरूप्यं तस्य नष्टं मनो विदुः ॥ १३॥
द्विविधचित्तनाशोऽस्ति सरूपोऽरूप एव च ।
जीवन्मुक्तौ सरूपः स्यादरूपो देहमुक्तिगः ॥ १४॥
चित्तसत्तेह दुःखाय चित्तनाशः सुखाय च ।
चित्तसत्तं क्षयं नीत्वा चित्तं नाशमुपानयेत् ॥ १५॥
मनस्तां मूढतां विद्धि यदा नश्यति सानघ ।
चित्तनाशाभिधानं हि तत्स्वरूपमितीरितम् ॥ १६॥
मैत्र्यादिभिर्गुणैर्युक्तं भवत्युत्तमवासनम् ।
भूयो जन्मविनिर्मुक्तं जीवन्मुक्तस्य तन्मनः ॥ १७॥
सरूपोऽसौ मनोनाशो जीवन्मुक्तस्य विद्यते ।
निदाघाऽरूपनाशस्तु वर्तते देहमुक्तिके ॥ १८॥
विदेहमुक्त एवासौ विद्यते निष्कलात्मकः ।
समग्राग्र्यगुणाधारमपि सत्त्वं प्रलीयते ॥ १९॥
विदेहमुक्तौ विमले पदे परमपावने ।
विदेहमुक्तिविषये तस्मिन्सत्त्वक्षयात्मके ॥ २०॥
चित्तनाशे विरूपाख्ये न किंचिदिह विद्यते ।
न गुणा नागुणास्तत्र न श्रीर्नाश्रीर्न लोकता ॥ २१॥
न चोदयो नास्तमयो न हर्षामर्षसंविदः ।
न तेजो न तमः किंचिन्न सन्ध्यादिनरात्रयः ।
न सत्तापि न चासत्ता न च मध्यं हि तत्पदम् ॥ २२॥
ये हि पारं गता बुद्धेः संसाराडम्बरस्य च ।
तेषां तदास्पदं स्फारं पवनानामिवाम्बरम् ॥ २३॥
संशान्तदुःखमजडात्मकमेकसुप्त-
मानन्दमन्थरमपेतरजस्तमो यत् ।
आकाशकोशतनवोऽतनवो महान्त-
स्तस्मिन्पदे गलितचित्तलवा भवन्ति ॥ २४॥
हे निदाघ महाप्राज्ञ निर्वासनमना भव ।
बलाच्चेतः समाधाय निर्विकल्पमना भव ॥ २५॥
यज्जगद्भासकं भानं नित्यं भाति स्वतः स्फुरत् ।
स एव जगतः साक्षी सर्वात्मा विमलाकृतिः ॥ २६॥
प्रतिष्ठा सर्वभूतानां प्रज्ञानघनलक्षणः ।
तद्विद्याविषयं ब्रह्म सत्यज्ञानसुखाद्वनम् ॥ २७॥
एकं ब्रह्माहमस्मीति कृतकृत्यो भवेन्मुनिः ॥ २८॥
सर्वाधिष्ठानमद्वन्द्वं परं ब्रह्म सनातनम् ।
सच्चिदानन्दरूपं तदवाङ्मनसगोचरम् ॥ २९॥
न तत्र चन्द्रार्कवपुः प्रकाशते
न वान्ति वातः सकलाश्च देवताः ।
स एव देवः कृतभावभूतः
स्वयं विशुद्धो विरजः प्रकाशते ॥ ३०॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३१॥
द्वौ सुपर्णौ शरीरेऽस्मिञ्जीवेशाख्यौ सह स्थितौ ।
तयोर्जीवः फलं भुङ्क्ते कर्मणो न महेश्वरः ॥ ३२॥
केवलं साक्षिरूपेण विना भोगो महेश्वरः ।
प्रकाशते स्वयं भेदः कल्पितो मायया तयोः ।
चिच्चिदाकारतो भिन्ना न भिन्ना चित्त्वहानितः ॥ ३३॥
तर्कतश्च प्रमाणाच्च चिदेकत्वव्यवस्थितेः ।
चिदेकत्वपरिज्ञाने न शोचति न मुह्यति ॥ ३४॥
अधिष्ठानं समस्तस्य जगतः सत्यचिद्घनम् ।
अहमस्मीति निश्चित्य वीतशोको भवेन्मुनिः ॥ ३५॥
स्वशरीरे स्वयंज्योतिस्वरूपं सर्वसाक्षिणम् ।
क्षीणदोषाः प्रपश्यन्ति नेतरे माययावृताः ॥ ३६॥
तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ।
नानुध्यायाद्बहूञ्छब्दान्वाचो विग्लापनं हि तत् ॥ ३७॥
बालेनैव हि तिष्ठासेन्निर्विद्य ब्रह्मवेदनम् ।
ब्रह्मविद्यां च बाल्यं च निर्विद्य मुनिरात्मवान् ॥ ३८॥
अन्तर्लीनसमारम्भः शुभाशुभमहाङ्कुरम् ।
संसृतिव्रततेर्बीजं शरीरं विद्धि भौतिकम् ॥ ३९॥
भावाभावदशाकोशं दुःखरत्नसमुद्गकम् ।
बीजमस्य शरीरस्य चित्तमाशावशानुगम् ॥ ४०॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य वृत्तिव्रततिधारिणः ।
एकं प्राणपरिस्पन्दो द्वितीयो दृढभावना ॥ ४१॥
यदा प्रस्पन्दन्ते प्राणो नाडीसंस्पर्शनोद्यतः ।
तदा संवेदनमयं चित्तमाशु प्रजायते ॥ ४२॥
सा हि सर्वगता संवित्प्राणस्पन्देन बोध्यते ।
संवित्संरोधनं श्रेयः प्राणादिस्पन्दनं वरम् ॥ ४३॥
योगिनश्चित्तशान्त्यर्थं कुर्वन्ति प्राणरोधनम् ।
प्राणायामैस्तथा ध्यानैः प्रयोगैर्युक्तिकल्पितैः ॥ ४४॥
चित्तोपशान्तिफलदं परमं विद्धि कारणम् ।
सुखदं संविदः स्वास्थ्यं प्राणसंरोधनं विदुः ॥ ४५॥
दृढभावनया त्यक्तपूर्वापरविचारणम् ।
यदादानं पदार्थस्य वासना सा प्रकीर्तिता ॥ ४६॥
यदा न भाव्यते किंचिद्धेयोपादेयरूपि यत् ।
स्थीयते सकलं त्यक्त्वा तदा चित्तं न जायते ॥ ४७॥
अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः ।
अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा ॥ ४८॥
यदा न भाव्यते भावः क्वचिज्जगति वस्तुनि ।
तदा हृदम्बरे शून्ये कथं चित्तं प्रजायते ॥ ४९॥
यदभावनमास्थाय यदभावस्य भावनम् ।
यद्यथा वस्तुदर्शित्वं तदचित्तत्वमुच्यते ॥ ५०॥
सर्वमन्तः परित्यज्य शीतलाशयवर्ति यत् ।
वृत्तिस्थमपि तच्चित्तमसद्रूपमुदाहृतम् ॥ ५१॥
भ्रष्टबीजोपमा येषां पुनर्जननवर्जिता ।
वासनारसनाहीना जीवन्मुक्ता हि ते स्मृताः ॥ ५२॥
सत्त्वरूपपरिप्राप्तचित्तास्ते ज्ञानपारगाः ।
अचित्ता इति कथ्यन्ते देहान्ते व्योमरूपिणः ॥ ५३॥
संवेद्यसम्परित्यागात्प्राणस्पन्दनवासने ।
समूलं नश्यतः क्षिप्रं मूलच्छेदादिव द्रुमः ॥ ५४॥
पूर्वदृष्टमदृष्टं वा यदस्याः प्रतिभासते ।
संविदस्तत्प्रयत्नेन मार्जनीयं विजानता ॥ ५५॥
तदमार्जनमात्रं हि महासंसारतां गतम् ।
तत्प्रमार्जनमात्रं तु मोक्ष इत्यभिधीयते ॥ ५६॥
अजडो गलितानन्दस्त्यक्तसंवेदनो भव ॥ ५७॥
संविद्वस्तुदशालम्बः सा यस्येह न विद्यते ।
सोऽसंविदजडः प्रोक्तः कुर्वन्कार्यशतान्यपि ॥ ५८॥
संवेद्येन हृदाकाशे मनागपि न लिप्यते ।
यस्यासावजडा संविज्जीवन्मुक्तः स कथ्यते ॥ ५९॥
यदा न भाव्यते किंचिन्निर्वासनतयात्मनि ।
बालमूकादिविज्ञानमिव च स्थीयते स्थिरम् ॥ ६०॥
तदा जाड्यविनिर्मुक्तमसंवेदनमाततम् ।
आश्रितं भवति प्राज्ञो यस्माद्भूयो न लिप्यते ॥ ६१॥
समस्ता वासनास्त्यक्त्वा निर्विकल्पसमाधितः ।
तन्मयत्वादनाद्यन्ते तदप्यन्तर्विलीयते ॥ ६२॥
तिष्ठन्गच्छन्स्पृशञ्जिघ्रन्नपि तल्लेपवर्जितः ।
अजडो गलितानन्दस्त्यक्तसंवेदनः सुखी ॥ ६३॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य कष्टचेष्टायुतोऽपि सन् ।
तरेद्दुःखाम्बुधेः पारमपारगुणसागरः ॥ ६४॥
विशेषं सम्परित्यज्य सन्मात्रं यदलेपकम् ।
एकरूपं महारूपं सत्तायास्तत्पदं विदुः ॥ ६५॥
कालसत्ता कलासत्ता वस्तुसत्तेयमित्यपि ।
विभागकलनां त्यक्त्वा सन्मात्रैकपरो भव ॥ ६६॥
सत्तासामान्यमेवैकं भावयन्केवलं विभुः ।
परिपूर्णः परानन्दि तिष्ठापूरितदिग्भरः ॥ ६७॥
सत्तासामान्यपर्यन्ते यत्तत्कलनयोज्झितम् ।
पदमाद्यमनाद्यन्तं तस्य बीजं न विद्यते ॥ ६८॥
तत्र संलीयते संविन्निर्विकल्पं च तिष्ठति ।
भूयो न वर्तते दुःखे तत्र लब्धपदः पुमान् ॥ ६९॥
तद्धेतुः सर्वभूतानां तस्य हेतुर्न विद्यते ।
स सारः सर्वसाराणां तस्मात्सारो न विद्यते ॥ ७०॥
तस्मिंश्चिद्दर्पणे स्फारे समस्ता वस्तुदृष्टयः ।
इमास्ताः प्रतिबिम्बन्ति सरसीव तटद्रुमाः ॥ ७१॥
तदमलमरजं तदात्मतत्त्वं
तदवगतावुपशान्तिमेति चेतः ।
अवगतविगतैकतत्स्वरूपो
भवभयमुक्तपदोऽसि सम्यगेव ॥ ७२॥
एतेषां दुःखबीजानां प्रोक्तं यद्यन्मयोत्तरम् ।
तस्य तस्य प्रयोगेण शीघ्रं तत्प्राप्यते पदम् ॥ ७३॥
सत्तासामान्यकोटिस्थे द्रागित्येव पदे यदि ।
पौरुषेण प्रयत्नेन बलात्संत्यज्य वासनाम् ॥ ७४॥
स्थितिं बध्नासि तत्त्वज्ञ क्षणमप्यक्षयात्मिकाम् ।
क्षणेऽस्मिन्नेव तत्साधु पदमासादयस्यलम् ॥७५॥
सत्तासामान्यरूपे वा करोषि स्थितिमादरात् ।
तत्किंचिदधिकेनेह यत्नेनाप्नोषि तत्पदम् ॥ ७६॥
संवित्तत्त्वे कृतध्यानो निदाघ यदि तिष्ठसि ।
तद्यत्नेनाधिकेनोच्चैरासादयसि तत्पदम् ॥ ७७॥
वासनासम्परित्यागे यदि यत्नं करोषि भोः ।
यावद्विलीनं न मनो न तावद्वासनाक्षयः ॥ ७८॥
न क्षीणा वासना यावच्चित्तं तावन्न शाम्यति ।
यावन्न तत्त्वविज्ञानं तावच्चित्तशमः कुतः ॥ ७९॥
यावन्न चित्तोपशमो न तावत्तत्त्ववेदनम् ।
यावन्न वासनानाशस्तावत्तत्त्वागमः कुतः ।
यावन्न तत्त्वसम्प्राप्तिर्न तावद्वासनक्षयः ॥ ८०॥
तत्त्वज्ञानं मनोनाशो वासनाक्षय एव च ।
मिथः कारणतां गत्वा दुःसाधानि स्थितान्यतः ॥ ८१॥
भोगेच्छां दूरतस्त्यक्त्वा त्रयमेतत्समाचर ॥ ८२॥
वासनाक्षयविज्ञानमनोनाशा महामते ।
समकालं चिराभ्यस्ता भवन्ति फलदा मताः ॥ ८३॥
त्रिभिरेभिः समभ्यस्तैर्हृदयग्रन्थयो दृढाः ।
निःशेषमेव त्रुट्यन्ति बिसच्छेदाद्गुणा इव ॥ ८४॥
वासनासम्परित्यागसमं प्राणनिरोधनम् ।
विदुस्तत्त्वविदस्तस्मात्तदप्येवं समाहरेत् ॥ ८५॥
वासनासम्परित्यागाच्चित्तं गच्छत्यचित्तताम् ।
प्राणस्पन्दनिरोधाच्च यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ८६॥
प्राणायामदृढाध्यासैर्युक्त्या च गुरुदत्तया ।
आसनाशनयोगेन प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ८७॥
निःसङ्गव्यवहारत्वाद्भवभावनवर्जनात् ।
शरीरनाशदर्शित्वाद्वासना न प्रवर्तते ॥ ८८॥
यः प्राणपवनस्पन्दश्चित्तस्पन्दः स एव हि ।
प्राणस्पन्दजये यत्नः कर्तव्यो धीमतोच्चकैः ॥ ८९॥
न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम् ।
शुद्धां संविदमाश्रित्यवीतरागः स्थिरो भव ॥ ९०॥
संवेद्यवर्जितमनुत्तममाद्यमेकं
संविदत्पदं विकलनं कलयन्महात्मन् ।
हृद्येव तिष्ठ कलनारहितः क्रियां तु
कुर्वन्नकर्तृपदमेत्य शमोदितश्रीः ॥ ९१॥
मनागपि विचारेण चेतसः स्वस्य निग्रहः ।
पुरुषेण कृतो येन तेनाप्तं जन्मनः फलम् ॥ ९२॥
इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
गच्छतस्तिष्ठतो वापि जाग्रतः स्वपतोऽपि वा ।
न विचारपरं चेतो यस्यासौ मृत उच्यते ॥ १॥
सम्यग्ज्ञानसमालोकः पुमाऽज्ञेयसमः स्वयम् ।
न बिभेति न चादत्ते वैवश्यं न च दीनताम् ॥ २॥
अपवित्रमपथ्यं च विषसंसर्गदूषितम् ।
भुक्तं जरयति ज्ञानी क्लिन्नं नष्ठं च मृष्टवत् ॥ ३॥
सञ्ण्गत्यागं विदुर्मोक्षं सङ्गत्यागादजन्मता ।
सङ्गं त्यज त्वं भावानां जीवन्मुक्तो भवानघ ॥ ४॥
भावाभावे पदार्थानां हर्षामर्षविकारदा ।
मलिना वासना यैषा साऽसङ्ग इति कथ्यते ॥ ५॥
जीवन्मुक्तशरीराणामपुनर्जन्मकारिणी ।
मुक्ता हर्षविषादाभ्यां शुद्धा भवति वासना ॥ ६॥
दुःखैर्न ग्लानिमायासि हृदि हृष्यसि नो सुखैः ।
आशावैवश्यमुत्सृज्य निदाघाऽसङ्गतां व्रज ॥ ७॥
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नमदृष्टोभयकोटिकम् ।
चिन्मात्रमक्षयं शान्तमेकं ब्रह्मास्मि नेतरत् ॥ ८॥
इति मत्वाहमित्यन्तर्मुक्तामुक्तवपुः पुमान् ।
एकरूपः प्रशान्तात्मा मौनी स्वात्मसुखो भव ॥ ९॥
नास्ति चित्तं न चाविद्या न मनो न च जीवकः ।
ब्रह्मैवैकमनाद्यन्तमब्धिवत्प्रविजृम्भते ॥ १०॥
देहे यावदहंभावो दृश्येऽस्मिन्यावदात्मता ।
यावन्ममेदमित्यास्था तावच्चित्तादिविभ्रमः ॥ ११॥
अन्तर्मुखतया सर्वं चिद्वह्नौ त्रिजगत्तृणम् ।
जुह्वन्तोऽन्तर्निवर्तन्ते मुने चित्तादिविभ्रमाः ॥ १२॥
चिदात्मास्मि निरंशोऽस्मि परापरविवर्जितः ।
रूपं स्मरन्निजं स्फारं मा स्मृत्या संमितो भव ॥ १३॥
अध्यात्मशास्त्रमन्त्रेण तृष्णाविषविषूचिका ।
क्षीयते भावितेनान्तः शरदा मिहिका यथा ॥ १४॥
परिज्ञाय परित्यागो वासानानं य उत्तमः ।
सत्तासामान्यरूपत्वात्तत्कैवल्यपदं विदुः ॥ १५॥
यन्नास्ति वासना लीना तत्सुषुप्तं न सिद्धये ।
निर्बीजा वासना यत्र तत्तुर्यं सिद्धिदं स्मृतम् ॥ १६॥
वासनायास्तथा वह्नेरृणव्याधिद्विषामपि ।
स्नेहवैरविषाण च शेषः स्वल्पोऽपि बाधते ॥ १७॥
निर्दग्धवासनाबीजः सत्तासामान्यरूपवान् ।
सदेहो वा विदेहो वा न भूयो दुःखभाग्भवेत् ॥ १८॥
एतावदेवाविद्यात्वं नेदं ब्रह्मेति निश्चयः ।
एष एव क्षयस्तस्या ब्रह्मेदमिति निश्चयः ॥ १९॥
ब्रह्म चिद्ब्रह्म भुवनं ब्रह्म भूतपरम्परा ।
ब्रह्माहं ब्रह्म चिच्छत्रुर्ब्रह्म चिन्मित्रबान्धवाः ॥ २०॥
ब्रह्मैव सर्वमित्येव भाविते ब्रह्म वै पुमान् ।
सर्वत्रावस्थितं शान्तं चिद्ब्रह्मेत्यनुभूयते ॥ २१॥
असंस्कृताध्वगालोके मनस्यन्यत्र संस्थिते ।
या प्रतीतिरनागसका तच्चिद्ब्रह्मास्मि सर्वगम् ॥ २२॥
प्रशान्तसर्वसंकल्पं विगताखिलकौतुकम् ।
विगताशेषसंरंभं चिदात्मानं समाश्रय ॥ २३॥
एवं पूर्णधियो धीराः समा नीरागचेतसः ।
न नन्दन्ति न निन्दन्ति जीवितं मरणं तथा ॥ २४॥
प्राणोऽयमनिशं ब्रह्मस्पन्दशक्तिः सदागतिः ।
सबाह्याभ्यन्तरे देहेप्राणोऽसावूर्ध्वगः स्थितः ॥ २५॥
अपानोऽप्यनिशं ब्रह्मस्पन्दशक्तिः सदागतिः ।
सबाह्याभ्यन्तरे देहे अपानोऽयमवाक्स्थितः ॥ २६॥
जाग्रतः स्वपतश्चैव प्राणायामोऽयमुत्तमः ।
प्रवर्तते ह्यभिज्ञस्य तं तावच्छ्रेयसे शृणु ॥ २७॥
द्वादशाङ्गुलपर्यन्तं बाह्यमाक्रमतां ततः ।
प्राणाङ्गनामा संस्पर्शो यः स पूरक उच्यते ॥ २८॥
अपानश्चन्द्रमा देहमाप्याययति सुव्रत ।
प्राणः सूर्योऽग्निरथ वा पचत्यनत्रिदं वपुः ॥ २९॥
प्राणक्षयसमीपस्थमपानोदयकोटिगम् ।
अपानप्राणयोरैक्यं चिदात्मानं समाश्रय ॥ ३०॥
अपानोऽस्तंगतो यत्र प्राणो नाभ्युदितः क्षणम् ।
कलाकलङ्करहितं तच्चित्तत्त्वं समाश्रय ॥ ३१॥
नापानोऽस्तंगतो यत्र प्राणश्चास्तमुपागतः ।
नासाग्रगमनावर्तं तच्चित्तत्त्वमुपाश्रय ॥ ३२॥
आभासमात्रमेवेदं न सनासज्जगत्त्रयम् ।
इत्यन्यकलनात्यागं सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः ॥ ३३॥
आभासमात्रकं ब्रह्मंश्चित्तदर्शकलङ्कितम् ।
ततस्तदपि संत्यज्य निराभासो भवोत्तम ॥३४॥
भयप्रदमकल्याणं धैर्यसर्वस्वहारिणम् ।
मनःपिशाचमुत्सार्य योऽसि सोऽसि स्थिरो भव ॥ ३५॥
चिद्व्योमेव किलास्तीह परापरविवर्जितम् ।
सर्वत्रासंभवच्चैत्यं यत्कल्पान्तेऽवशिष्यते ॥ ३६॥
वाञ्छाक्षणे तु या तुष्टिस्तत्र वाञ्छैव कारणम् ।
तुष्टिस्त्वतुष्टिपर्यन्ता तस्माद्वाञ्छां परित्यज ॥ ३७॥
आशा यातु निराशात्वमभावं यातु भावना ।
अमनस्त्वं मनो यातु तवासङ्गेन जीवतः ॥ ३८॥
वासनारहितैरन्तरिन्द्रियैराहरन्क्रिया ।
न विकारमवाप्नोषि खवत्क्षोभशतैरपि ॥ ३९॥
चित्तोन्मेषनिमेषाभ्यां संसारप्रलयोदयौ ।
वासनाप्राणसंरोधमनुन्मेषं मनः कुरु ॥ ४०॥
प्राणोन्मेषनिमेषाभ्यां संसृतेः प्रलयोदयौ ।
तमभ्यासप्रयोगाभ्यामुन्मेषरहितं कुरु ॥ ४१॥
मौर्ख्योन्मेषनिमेषाभ्यां कर्मणां प्रलयोदयौ ।
तद्विलीनं कुरु बलाद्गुरुशास्त्रार्थसंगमैः ॥ ४२॥
असंवित्स्पन्दमात्रेण याति चित्तमचित्तताम् ।
प्राणानां वा निरोधेन तदेव परमं पदम् ॥ ४३॥
दृश्यदर्शनसंबन्धे यत्सुखं पारमार्थिकम् ।
तदन्तैकान्तसंवित्त्या ब्रह्मदृष्ट्यावलोकय ॥ ४४॥
यत्र नाभ्युदितं चित्तं तद्वै सुखमकृत्रिमम् ।
क्षयातिशयनिर्मुक्तं नोदेति न च शाम्यति ॥ ४५॥
यस्य चित्तं न चित्ताख्यं चित्तं चित्तत्त्वमेव हि ।
तदेव तुर्यावस्थायं तुर्यातीतं भवत्यतः ॥ ४६॥
संन्यस्तसर्वसंकल्पः समः शान्तमना मुनिः ।
संन्यासयोगयुक्तात्मा ज्ञानवान्मोक्षवान्भव ॥ ४७॥
सर्वसंकल्पसंशान्तं प्रशान्तघनवासनम् ।
न किंचिद्भावनाकारं यत्तद्ब्रह्म परं विदुः ॥ ४८॥
सम्यग्ज्ञानावरोधेन नित्यमेकसमाधिना ।
सांख्य एवावबुद्धा ये ते सांख्या योगिनः परे ॥ ४९॥
प्राणाद्यनिलसंशान्तौ युक्त्या ये पदमागताः ।
अनामयमनाद्यन्तं ते स्मृता योगयोगिनः ॥ ५०॥
उपादेयं तु सर्वेषां शातं पदमकृत्रिमम् ।
एकार्थाभ्यसनं प्राणरोधश्चेतः परिक्षयः ॥ ५१॥
एकस्मिन्नेव संसिद्धे संसिद्ध्यन्ति परस्परम् ।
अविनाभाविनी नित्यं जन्तूनां प्राणचेतसी ॥ ५२॥
आधाराधेयवच्चैते एकभावे विनश्यतः ।
कुरुतः स्वविनाशेन कार्यं मोक्षाख्यमुत्तमम् ॥ ५३॥
सर्वमेतद्धिया त्यक्त्वा यदि तिष्ठसि निश्चलः ।
तदाहंकारविलये त्वमेव परमं पदम् ॥ ५४॥
महाचिदेकैवेहास्ति महासत्तेति योच्यते ।
निष्कलंका समा शुद्धा निरहंकाररूपिणी ॥ ५५॥
सकृद्विभाता विमला नित्योदयवती समा ।
सा ब्रह्म परमात्मेति नामभिः परिगीयते ॥ ५६॥
सैवाहमिति निश्चित्य निदाघ कृतकृत्यवान् ।
न भूतं न भविष्यच्च चिन्तयामि कदाचन ॥ ५७॥
दृष्टिमालम्ब्य तिष्ठामि वर्तमानामिहात्मना ।
इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्स्यामि सुन्दरम् ॥ ५८॥
न स्तौमि न च निन्दामि आत्मनोऽन्यन्नहि क्वचित् ।
न तुष्यामि शुभप्राप्तौ न खिद्याम्यशुभागमे ॥ ५९॥
प्रशान्तचापलं वीतशोकमस्तसमीहितम् ।
मनो मम मुने शान्तं तेन जीवाम्यनामयः ॥ ६०॥
अयं बन्धुः परश्चायं ममायमयमन्यकः ।
इति ब्रह्मन्न जानामि संस्पर्शं न ददाम्यहम् ॥ ६१॥
वासनामात्रसंत्यागाज्जरामरणवर्जितम् ।
सवासनं मनो ज्ञानं ज्ञेयं निर्वासनं मनः ॥ ६२॥
चित्ते त्यक्ते लयं याति द्वैतमेतच्च सर्वतः ।
शिष्यते परमं शान्तमेकमगच्छमनामयम् ॥ ६३॥
अनन्तमजमव्यक्तमजरं शान्तमच्युतम् ।
अद्वितीयमनाद्यन्तं यदाद्यमुपलम्भनम् ॥ ६४॥
एकमाद्यन्तरहितं चिन्मात्रममलं ततम् ।
खादप्यतितरां सूक्ष्मं तद्ब्रह्मास्मि न संशयः ॥ ६५॥
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नं स्वच्छं नित्योदितं ततम् ।
सर्वार्थमयमेकार्थं चिन्मात्रममलं भव ॥ ६६॥
सर्वमेकमिदं शान्तमादिमध्यान्तवर्जितम् ।
भावाभावमजं सर्वमिति मत्वा सुखी भव ॥ ६७॥
न बद्धोऽस्मि न मुक्तोऽस्मि ब्रह्मैवास्मि निरामयम् ।
द्वैतभावविमुक्तोऽस्मि सच्चिदानन्दलक्षणः ।
एवं भावय यत्नेन जीवन्मुक्तो भविष्यसि ॥ ६८॥
पदार्थवृन्दे देहादिधिया संत्यज्य दूरतः ।
आशीतलान्तःकरणो नित्यमात्मपरो भव ॥ ६९॥
इदं रम्यमिदं नेति बीजं ते दुःखसंततेः ।
तस्मिन्साम्याग्निना दग्धे दुःखस्यावसरः कुतः ॥ ७०॥
शास्त्रसज्जनसम्पर्कैः प्रज्ञामादौ विवर्धयेत् ॥ ७१॥
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म सर्वसंसारभेषजम् ।
अत्यर्थममलं नित्यमादिमध्यान्तवर्जितम् ॥ ७२॥
तथा स्थूलमनाकाशमसंस्पृश्यमचाक्षुषम् ।
न रसं न च गन्धाख्यमप्रमेयमनूपमम् ॥ ७३॥
आत्मानं सच्चिदानन्दमनन्तं ब्रह्म सुव्रत ।
अहमस्मीत्यभिध्यायेद्ध्येयातीतं विमुक्तये ॥ ७४॥
समाधिः संविदुत्पत्तिः परजीवैकतं प्रति ।
नित्यः सर्वगतो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवर्जितः ॥ ७५॥
एकः सन्भिद्यते भ्रान्त्या मायया न स्वरूपतः ।
तस्मादद्वैत एवास्ति न प्रपञ्चो न संसृतिः ॥ ७६॥
यथाकाशो घटाकाशो महाकाश इतीरितः ।
तथा भ्रान्तेर्द्विधा प्रोक्तो ह्यात्मा जीवेश्वरात्मना ॥ ७७॥
यदा मनसि चैतन्यं भाति सर्वत्रगं सदा ।
योगिनोऽऽव्यवधानेन तदा सम्पद्यते स्वयम् ॥ ७८॥
यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येव हि पश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म सम्पद्यते सदा ॥ ७९॥
यदा सर्वाणि भूतानि समाधिस्थो न पश्यति ।
एकीभूतः परेणासौ तदा भवति केवलः ॥ ८०॥
शास्त्रसज्जनसम्पर्कवैराग्याभ्यासरूपिणी ।
प्रथमा भूमिकैषोक्ता मुमुक्षुत्वप्रदायिनी ॥ ८१॥
विचारणा द्वितीया स्यात्तृतीया साङ्गभावना ।
विलापिनी चतुर्थी स्याद्वासना विलयात्मिका ॥ ८२॥
शुद्धसंविन्मनानन्दरूपा भवति पञ्चमी ।
अर्धसुप्तप्रबुद्धाभो जीवन्मुक्तोऽत्र तिष्ठति ॥ ८३॥
असंवेदनरूपा च षष्ठी भवति भूमिका ।
आनन्दैकघनाकारा सुषुप्तसदृशी स्थितिः ॥ ८४॥
तुर्यावस्थोपशान्ता सा मुक्तिरेव हि केवला ।
समता स्वच्छता सौम्या सप्तमी भूमिका भवेत् ॥ ८५॥
तुर्यातीता तु यावस्था परा निर्वाणरूपिणी ।
सप्तमी सा परा प्रौढा विषयो नैव जीवताम् ॥ ८६॥
पूर्वावस्थात्रयं तत्र जाग्रदित्येव संस्थितम् ।
चतुर्थी स्वप्न इत्युक्ता स्वप्नाभं यत्र वै जगत् ॥ ८७॥
आनन्दैकघनाकारा सुषुप्ताख्या तु पञ्चमी ।
असंवेदनरूपा तु षष्ठी तुर्यपदाभिधा ॥ ८८॥
तुर्यातीतपदावस्था सप्तमी भूमिकोत्तमा ।
मनोवचोभिरग्राह्या स्वप्रकाशसदात्मिका ॥ ८९॥
अन्तः प्रत्याहृतिवशाच्चैत्यं चेन्न विभावितम् ।
मुक्त एव न सन्देहो महासमतया तया ॥ ९०॥
न म्रिये न च जीवामि नाहं सन्नाप्यसन्मयः ।
अहं न किंचिच्चिदिति मत्वा धीरो न शोचति ॥ ९१॥
अलेपकोऽहमजरो नीरागः शान्तवासनः ।
निरंशोऽस्मि चिदाकाशमिति मत्वा न शोचति ॥ ९२॥
अहंमत्या विरहितः शुद्धो बुद्धोऽजरोऽमरः ।
शान्तः शमसमाभास इति मत्वा न शोचति ॥ ९३॥
तृणाग्रेष्वम्बरे भानौ नरनागामरेषु च ।
यत्तिष्ठति तदेवाहमिति मत्वा न शोचति ॥ ९४॥
भावनां सर्वभावेभ्यः समुत्सृज्य समुत्थितः ।
अवशिष्टं परं ब्रह्म केवलोऽस्मीति भावय ॥ ९५॥
वाचामतीतविषयो विषयाशादशोज्झितः ।
परानन्दरसाक्षुब्धो रमते स्वात्मनात्मनि ॥ ९६॥
सर्वकर्मपरित्यागी नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
न पुण्येन न पापेन नेतरेण च लिप्यते ॥ ९७॥
स्फटिकः प्रतिबिम्बेन यथा नायाति रञ्जनम् ।
तज्ज्ञः कर्मफलेनान्तस्तथा नायाति रञ्जनम् ॥ ९८॥
विहरञ्जनतावृन्दे देवकीर्तन पूजनैः ।
खेदाह्लादौ न जानाति प्रतिबिम्बगतैरिव ॥ ९९॥
निस्स्तोत्रो निर्विकारश्च पूज्यपूजाविवर्जितः ।
संयुक्तश्च वियुक्तश्च सर्वाचारनयक्रमैः ॥ १००॥
तनुं त्यजतु वा तीर्थे श्वपचस्य गृहेऽथ वा ।
ज्ञानसम्पत्तिसमये मुक्तोऽसौ विगताशयः ॥ १०१॥
संकल्पत्वं हि बन्धस्य कारणं तत्परित्यज ।
मोक्षो भवेदसंकल्पात्तदभ्यासं धिया कुरु ॥ १०२॥
सावधानो भव त्वं च ग्राह्यग्राहकसंगमे ।
अजस्रमेव संकल्पदशाः परिहरञ्शनैः ॥ १०३॥
मा भव ग्राह्यभावात्मा ग्राहकात्मा च मा भव ।
भावनामखिलां त्यक्त्वा यच्छिष्टं तन्मयो भव ॥ १०४॥
किंचिच्चेद्रोचते तुभ्यं तद्बद्धोऽसि भवस्थितौ ।
न किंचिद्रोचते चेत्ते तन्मुक्तोऽसि भवस्थितौ ॥ १०५॥
अस्मात्पदार्थनिचयाद्यावत्स्थावरजङ्गमात् ।
तृणादेर्देहपर्यन्तान्मा किंचित्तत्र रोचताम् ॥ १०६॥
अहंभावानहंभावौ त्यक्त्वा सदसती तथा ।
यदसक्तं समं स्वच्छं स्थितं तत्तुर्यमुच्यते ॥ १०७॥
या स्वच्छा समता शान्ता जीवन्मुक्तव्यवस्थितिः ।
साक्ष्यवस्था व्यवहृतौ सा तुर्या कलनोच्यते ॥ १०८॥
नैतज्जाग्रन्न च स्वप्नः संकल्पानामसंभवात् ।
सुषुप्तभावो नाऽप्येतदभावाज्जडतास्थितेः ॥ १०९॥
शान्तसम्यक्प्रबुद्धानां यथास्थितमिदं जगत् ।
विलीनं तुर्यमित्याहुरबुद्धानां स्थितं स्थिरम् ॥ ११०॥
अहंकारकलात्यागे समतायाः समुद्गमे ।
विशरारौ कृते चित्ते तुर्यावस्थोपतिष्ठते ॥ १११॥
सिद्धान्तोऽध्यात्मशास्त्राणां सर्वापह्नव एव हि ।
नाविद्यास्तीह नो माया शान्तं ब्रह्मेदमक्लमम् ॥ ११२॥
शान्त एव चिदाकाशे स्वच्छे शमसमात्मनि ।
समग्रशक्तिखचिते ब्रह्मेति कलिताभिधे ॥ ११३॥
सर्वमेव परित्यज्य महामौनी भवानघ ।
निर्वाणवान्निर्मननः क्षीणचित्तः प्रशान्तधीः ॥ ११४॥
आत्मन्येवास्व शान्तात्मा मूकान्धबधिरोपमः ।
नित्यमन्तर्मुखः स्वच्छः स्वात्मनान्तः प्रपूर्णधीः ॥ ११५॥
जाग्रत्येव सुषुप्तस्थः कुरु कर्माणि वै द्विज ।
अन्तः सर्वपरित्यागी बहिः कुरु यथागतम् ॥ ११६॥
चित्तसत्ता परं दुःखं चित्तत्यागः परं सुखम् ।
अतश्चित्तं चिदाकाशे नय क्षयमवेदनात् ॥ ११७॥
दृष्ट्वा रम्यमरम्यं वा स्थेयं पाषाणवत्सदा ।
एतावतात्मयत्नेन जिता भवति संसृतिः ॥ ११८॥
वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पप्रचोदितम् ।
नाप्रशान्ताय दातव्यं न चाशिष्याय वै पुनः ॥ ११९॥
अन्नपूर्णोपनिषदं योऽधीते गुर्वनुग्रहात् ।
स जीवन्मुक्ततां प्राप्य ब्रह्मैव भवति स्वयम् ॥ १२०॥
इत्युपनिषत् ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इत्यन्नपूर्णोपनिषत्समाप्ता ॥
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अमृतनादोपनिषत्
अमृतनादोपनिषत्प्रतिपाद्यं पराक्षरम् ।
त्रैपदानन्दसाम्राज्यं हृदि मे भातु सन्ततम् ॥
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ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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शास्त्राण्यधीत्य मेधावी अभ्यस्य च पुनः पुनः ।
परमं ब्रह्म विज्ञाय उल्कावत्तान्यथोत्सृजेत् ॥ १॥
परम ज्ञानवान् मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह शास्त्रादि का अध्ययन करके बारम्बार उनका अभ्यास करते हुए ब्रह्म विद्या की प्राप्ति करे। विद्युत् की कान्ति के समान क्षण-भंगुर इस जीवन को (आलस्य-प्रमाद में) नष्ट न करे ॥ १ ॥
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ओङ्कारं रथमारुह्य विष्णुं कृत्वाथ सारथिम् ।
ब्रह्मलोकपदान्वेषी रुद्राराधनतत्परः ॥ २॥
ॐकार रूपी रथ में आरूढ़ होकर तथा भगवान् विष्णु को अपना सारथि बनाकर ब्रह्मलोक के परमपद का चिन्तन करता हुआ ज्ञानी पुरुष देवाधिदेव भगवान् रुद्र की उपासना में तल्लीन रहे ॥ २ ॥
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तावद्रथेन गन्तव्यं यावद्रथपथि स्थितः ।
स्थित्वा रथपथस्थानं रथमुत्सृज्य गच्छति ॥ ३॥
उस (प्रणवरूपी) रथ के द्वारा तब तक चलना चाहिए, जब तक कि रथ द्वारा चलने योग्य मार्ग पूर्ण न हो जाये। जब वह मार्ग (लक्ष्य) पूर्ण हो जाता है, तब उस रथ को छोड़ कर मनुष्य स्वतः ही प्रस्थान कर जाता है ॥ ३ ॥
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मात्रालिङ्गपदं त्यक्त्वा शब्दव्यञ्जनवर्जितम् ।
अस्वरेण मकारेण पदं सूक्ष्मं च गच्छति ॥ ४॥
प्रणव की अकारादि जो मात्राएँ हैं तथा उन (मात्राओं) में जो लिङ्गभूत पद हैं, उन सभी के आश्रयभूत संसार का चिन्तन करते हुए उसका त्याग कर, स्वरहीन ‘मकार’ वाची ईश्वर का ध्यान करने से साधक की क्रमशः उस सूक्ष्म पद में प्रविष्टि हो जाती है। वह परम तत्त्व सभी प्रपंचों से पूर्णतया दूर है ॥ ४ ॥
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शब्दादिविषयाः पञ्च मनश्चैवातिचञ्चलम् ।
चिन्तयेदात्मनो रश्मीन्प्रत्याहारः स उच्यते ॥ ५॥
शब्द, स्पर्श आदि पाँचों विषय तथा इनको ग्रहण करने वाली समस्त इन्द्रियाँ एवं अति चंचल मन- इनको सूर्य के सदृश अपनी आत्मा की रश्मियों के रूप में देखें अर्थात् आत्मा के प्रकाश से ही मन की सत्ता है और उसी प्रकाश स्वरूप आत्मा को बाह्य सत्ता से शब्द आदि विषय भी सत्तावान् हैं। इस प्रकार से आत्म-चिन्तन को ही प्रत्याहार कहते हैं ॥ ५ ॥
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प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा ।
तर्कश्चैव समाधिश्च षडङ्गो योग उच्यते ॥ ६॥
प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क तथा समाधि इन छ: अंगों से युक्त साधना को योग कहा गया है ॥ ६ ॥
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यथा पर्वतधातूनां दह्यन्ते धमनान्मलाः ।
तथेन्द्रियकृता दोषा दह्यन्ते प्राणनिग्रहात् ॥ ७॥
जिस प्रकार पर्वतों में उत्पन्न स्वर्ण आदि धातुओं का मैल अग्नि में तपाने से भस्म हो जाता है। उसी प्रकार समस्त इन्द्रियों के द्वारा किये गये दोष प्राणायाम की प्रक्रिया द्वारा भस्म हो जाते हैं ॥ ७ ॥
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प्राणायामैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम् ।
प्रत्याहारेण संसर्गाद्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान् ॥ ८॥
किल्बिषं हि क्षयं नीत्वा रुचिरं चैव चिन्तयेत् ॥ ९॥
प्राणायाम के माध्यम से दोषों को तथा धारणा के माध्यम से पापों को जलाकर भस्म कर डालें। प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रिय के संसर्ग से उत्पन्न दोष तथा ध्यान के द्वारा अनीश्वरीय गुणों का नाश होता है। इस प्रकार संचित पापों एवं उन इन्द्रियों के कुसंस्कारों का शमन करते हुए अपने इष्ट के मनोहारी रूप का चिन्तन करना चाहिए ॥ ८-९ ॥
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रुचिरं रेचकं चैव वायोराकर्षणं तथा ।
प्राणायामस्त्रयः प्रोक्ता रेचपूरककुम्भकाः ॥ १०॥
इस प्रकार अपने इष्ट के सुन्दर रूप का ध्यान करते हुए वायु को अन्त:करण में स्थिर रखना, श्वास को निःसृत करना और वायु को अन्दर खींचना । इस प्रकार रेचक, पूरक एवं अन्त:-बाह्य कुम्भक के रूप में तीन तरह के प्राणायाम कहे गये हैं ॥ १०
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सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह ।
त्रिः पठेदायतप्राणः प्राणायामः स उच्यते ॥ ११॥
प्राण शक्ति की वृद्धि करने वाला साधक व्याहृतियों एवं प्रणव सहित सम्पूर्ण गायत्री का उसके शीर्ष भाग सहित तीन बार मानस-पाठ करते हुए पूरक, कुम्भक तथा रेचक करे। इस प्रकार की प्रक्रिया को एक ‘प्राणायाम’ कहा गया है ॥ ११ ॥
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उत्क्षिप्य वायुमाकाशं शून्यं कृत्वा निरात्मकम् ।
शून्यभावेन युञ्जीयाद्रेचकस्येति लक्षणम् ॥ १२॥
(नासिका द्वारा) प्राणवायु को आकाश में निकालकर हृदय को वायु से रहित एवं चिन्तन से रिक्त करते हुए शून्यभाव में मन को स्थिर करने की प्रक्रिया ही ‘रेचक’ है। यही ‘रेचक प्राणायाम’ का लक्षण है ॥ १२
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वक्त्रेणोत्पलनालेन तोयमाकर्षयेन्नरः ।
एवं वायुर्ग्रहीतव्यः पूरकस्येति लक्षणम् ॥ १३॥
जिस प्रकार पुरुष मुख के माध्यम से कमल-नाल द्वारा शनैः-शनैः जल को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मन्द गति से प्राण वायु को अपने अन्त:करण में धारण करना चाहिए। यही प्राणायाम के अन्तर्गत ‘पूरक’ का लक्षण हैं ॥ १३ ॥
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नोच्छ्वसेन्न च निश्वासेत् गात्राणि नैव चालयेत् ।
एवं भावं नियुञ्जीयात् कुम्भकस्येति लक्षणम् ॥ १४॥
श्वास को न तो अन्त:करण में आकृष्ट करे और न ही बहिर्गमन करे तथा शरीर में कोई हलचल भी न करे। इस तरह से प्राण वायु को रोकने की प्रक्रिया को ‘कुम्भक’ प्राणायाम का लक्षण कहा गया है ॥ १४ ॥
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अन्धवत्पश्य रूपाणि शब्दं बधिरवत् शृणु ।
काष्ठवत्पश्य ते देहं प्रशान्तस्येति लक्षणम् ॥ १५॥
जिस भाँति अन्धे को कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी भाँति साधक नाम रूपात्मक अन्य कुछ भी न देखे । शब्द को बधिर की भाँति श्रवण करे और शरीर को काष्ठ की तरह जाने । यही प्रशान्त का लक्षण है ॥ १५ ॥
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मनः सङ्कल्पकं ध्यात्वा संक्षिप्यात्मनि बुद्धिमान् ।
धारयित्वा तथाऽऽत्मानं धारणा परिकीर्तिता ॥ १६॥
बुद्धिमान् मनुष्य मन को संकल्प के रूप में जानकर, उसे आत्मा (बुद्धि) में लय कर दे। तत्पश्चात् उस आत्मारूपी सद्बुद्धि को भी परमात्म सत्ता के ध्यान में स्थिर कर दे। इस तरह की क्रिया को ही धारणा की स्थिति के रूप में जाना जाता है ॥ १६ ॥
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आगमस्याविरोधेन ऊहनं तर्क उच्यते ।
समं मन्येत यं लब्ध्वा स समाधिः प्रकीर्तितः ॥ १७॥
‘ऊहा’ अर्थात् विचार करना ‘तर्क’ कहा जाता है। ऐसे ‘तर्क’ को प्राप्त करके दूसरे अन्य सभी प्राप्त होने वाले पदार्थों को तुच्छ (निकृष्ट) मान लिया जाता है। इस प्रकार की स्थिति को ही ‘समाधि’ की अवस्था कहा जाता है ॥ १७ ॥
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भूमिभागे समे रम्ये सर्वदोषविवर्जिते ।
कृत्वा मनोमयीं रक्षां जप्त्वा चैवाथ मण्डले ॥ १८॥
भूमि को स्वच्छ, समतल करके रमणीय तथा सभी दोषों से रहित क्षेत्र में मानसिक रक्षा करता हुआ रथमण्डल (ॐकार) का जप करे॥ १८ ॥
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पद्मकं स्वस्तिकं वापि भद्रासनमथापि वा ।
बद्ध्वा योगासनं सम्यगुत्तराभिमुखः स्थितः ॥ १९॥
पद्मासन, स्वस्तिकासन और भद्रासन में से किसी एक योगासन में आसीन होकर उत्तराभिमुख हो करके बैठना चाहिए ॥ १९ ॥
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नासिकापुटमङ्गुल्या पिधायैकेन मारुतम् ।
आकृष्य धारयेदग्निं शब्दमेवाभिचिन्तयेत् ॥ २०॥
तत्पश्चात् नासिका के एक छिद्र को एक अँगुली से बन्द करके , दूसरे खुले छिद्र से वायु को खींचे। फिर दोनों नासापुटों को बन्द करके उस प्राण वायु को धारण करे। उस समय तेज:स्वरूप शब्द (ओंकार) का ही चिन्तन करे ॥ २० ॥
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ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ओमित्येकेन रेचयेत् ।
दिव्यमन्त्रेण बहुशः कुर्यादात्ममलच्युतिम् ॥ २१॥
वह शब्द रूप एकाक्षर प्रणव (ॐ) ही ब्रह्म है। तदनन्तर इसी एकाक्षर ब्रह्म ॐकार का ही ध्यान करता हुआ रेचक क्रिया सम्पन्न करे अर्थात् वायु का शनैः-शनैः निष्कासन करे। इस तरह से कई बार इस ‘ओंकार’ रूपी दिव्य मन्त्र से (प्राणायाम की क्रिया द्वारा) अपने चित्त के मल को दूर करना चाहिए ॥ २१ ॥
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पश्चाद्ध्यायीत पूर्वोक्तक्रमशो मन्त्रविद्बुधः ।
स्थूलातिस्थूलमात्रायं नाभेरूर्ध्वरुपक्रमः ॥ २२॥
इस प्रकार प्राणायाम के द्वारा सभी दोषों का शमन करते हुए पूर्व निर्दिष्ट क्रम | के अनुसार ‘ओंकार’ का ध्यान करते हुए प्राणायाम करे। इस तरह का ‘प्रणव गर्भ’ प्राणायाम नाभि के ऊर्ध्व भाग अर्थात् हृदय में ध्यान करते हुए स्थूलातिस्थूल मात्रा में सम्पन्न करे ॥ २२ ॥
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तिर्यगूर्ध्वमधो दृष्टिं विहाय च महामतिः ।
स्थिरस्थायी विनिष्कम्पः सदा योगं समभ्यसेत् ॥ २३॥
अपनी दृष्टि को ऊपर अथवा नीचे की ओर तिरछा घुमाकर केन्द्रित करते हुए बुद्धिमान् साधक स्थिरता पूर्वक निष्कम्प भाव से स्थित होकर योग का अभ्यास करे ॥ २३ ॥
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तालमात्राविनिष्कम्पो धारणायोजनं तथा ।
द्वादशमात्रो योगस्तु कालतो नियमः स्मृतः ॥ २४॥
योगाभ्यास की यह क्रिया तालवृक्ष की भाँति कुछ ही काल में फल प्रदान करने वाली है। इसका अभ्यास पहले से सुनिश्चित योजनानुसार ही करने योग्य है अर्थात् बीच में उसे घटाना, बढ़ाना या रोकना नहीं चाहिए। द्वादश मात्राओं की आवृत्ति भी समान समय में ही पूर्ण करनी चाहिए ॥ २४
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अघोषमव्यञ्जनमस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठमनासिकं च ।
अरेफजातमुभयोष्मवर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ॥ २५॥
इस प्रणव नाम से प्रसिद्ध घोष का उच्चारण बाह्य प्रयत्नों से नहीं होता है। यह व्यञ्जन एवं स्वर भी नहीं है। इसका उच्चारण कण्ठ, तालु, ओष्ठ एवं नासिका आदि से भी नहीं होता। इसका दोनों ओष्ठों के अन्त: में स्थित दन्त नामक क्षेत्र से भी उच्चारण नहीं होता। ‘प्रणव’ वह श्रेष्ठ अक्षर है, जो कभी भी च्युत नहीं होता। ओंकार का प्राणायाम के रूप में अभ्यास करना चाहिए तथा मन गुञ्जायमान घोष में सदैव लगाए रहना चाहिए ॥ २५ ॥
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येनासौ पश्यते मार्गं प्राणस्तेन हि गच्छति ।
अतस्तमभ्यसेन्नित्यं सन्मार्गगमनाय वै ॥ २६॥
योगी पुरुष जिस मार्ग का अवलोकन करता है अर्थात् मन के माध्यम से जिस स्थान को प्रवेश करने योग्य मानता है, उसी मार्ग से प्राण और मन के साथ गमन कर जाता है। प्राण श्रेष्ठ मार्ग से गमन करे, इस हेतु साधक को नित्य-नियमित अभ्यास करते रहना चाहिए ॥ २६ ॥
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हृद्द्वारं वायुद्वारं च मूर्धद्वारमतः परम् ।
मोक्षद्वारं बिलं चैव सुषिरं मण्डलं विदुः ॥ २७॥
वायु के प्रवेश का मार्ग हृदय ही है। इससे ही प्राण सुषुम्णा के मार्ग में प्रवेश करता है। इससे ऊपर ऊर्ध्वगमन करने पर सबसे ऊपर मोक्ष का द्वार ब्रह्मरन्ध्र है। योगी लोग इसे सूर्यमण्डल के रूप में जानते हैं। | इसी सूर्यमण्डल अथवा ब्रह्मरन्ध्र का बेधन करके प्राण का परित्याग करने से मुक्ति प्राप्त होती है ॥ २७॥
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भयं क्रोधमथालस्यमतिस्वप्नातिजागरम् ।
अत्याहरमनाहरं नित्यं योगी विवर्जयेत् ॥ २८॥
भय, क्रोध, आलस्य, अधिक शयन, अत्यधिक जागरण करना, अधिक भोजन करना या फिर बिल्कुल निराहार रहना आदि समस्त दुर्गुणों को योगी सदैव के लिए परित्याग कर दे ॥ २८ ॥
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अनेन विधिना सम्यङ्नित्यमभ्यसतः क्रमात् ।
स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं त्रिभिर्मासैर्न संशयः ॥ २९॥
इस प्रकार नियम पूर्वक जो भी साधक क्रमशः उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ नियमित अभ्यास करता है, उसे तीन मास में ही स्वयमेव ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है ॥ २९ ॥
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चतुर्भिः पश्यते देवान्पञ्चभिस्तुल्यविक्रमः ।
इच्छयाप्नोति कैवल्यं षष्ठे मासि न संशयः ॥ ३०॥
वह योगी-साधक नित्य-नियमित अभ्यास करता हुआ चार मास में ही देव दर्शन की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। पाँच माह में देव-गणों के समान शक्ति-सामर्थ्य से युक्त हो जाता है तथा छ: मास में अपनी इच्छानुसार निःसन्देह कैवल्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है ॥ ३० ॥
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पार्थिवः पञ्चमात्रस्तु चतुर्मात्राणि वारुणः ।
आग्नेयस्तु त्रिमात्रोऽसौ वायव्यस्तु द्विमात्रकः ॥ ३१॥
पृथिवी तत्त्व की धारणा के समय में ओंकार रूप प्रणव की पाँच मात्राओं का, वरुण अर्थात् जल तत्त्व की धारणा के समय में चार मात्राओं का, अग्नि तत्त्व की धारणा के समय में तीन मात्राओं का तथा वायु तत्त्व की धारणा के समय में दो मात्राओं के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए ॥ ३१ ॥
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एकमात्रस्तथाकाशो ह्यर्धमात्रं तु चिन्तयेत् ।
सिद्धिं कृत्वा तु मनसा चिन्तयेदात्मनात्मनि ॥ ३२॥
आकाश तत्त्व की धारणा करते समय प्रणव की एक मात्रा का तथा स्वयं ओंकार रूप प्रणव की धारणा करते समय उसकी अर्द्धमात्रा का चिन्तन करे। अपने शरीर में ही मानसिक धारणा के माध्यम से पंचभूतों की सिद्धि प्राप्त करे और उनका ध्यान करे। इस तरह के कृत्य से प्रणव की धारणा द्वारा पञ्चभूतों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है ॥ ३२
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त्रिंशत्पर्वाङ्गुलः प्राणो यत्र प्राणः प्रतिष्ठितः ।
एष प्राण इति ख्यातो बाह्यप्राणस्य गोचरः ॥ ३३॥
साढ़े तीस अङ्गुल लम्बा प्राण श्वास के रूप में जिसमें प्रतिष्ठित है, वही इस प्राण वायु का वास्तविक आश्रय है। यही कारण है कि इसे प्राण के रूप में जाना जाता है। जो बाह्य प्राण है, उसे इन्द्रियों के द्वारा देखा जाता है ॥ ३३ ॥
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अशीतिश्च शतं चैव सहस्राणि त्रयोदश ।
लक्षश्चैकोननिःश्वास अहोरात्रप्रमाणतः ॥ ३४॥
इस बाह्य प्राण में एक लाख तेरह सहस्र छ: सौ अस्सी नि:श्वासों ( श्वास-प्रश्वास) का आवागमन एक दिन एवं रात्रि में होता है ॥ ३४ ॥
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प्राण आद्यो हृदिस्थाने अपानस्तु पुनर्गुदे ।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमाश्रितः ॥ ३५॥
आदि प्राण का निवास हृदय क्षेत्र में, अपान का निवास गुदा स्थान में, समान का नाभि प्रदेश में एवं उदान का निवास कण्ठ प्रदेश में है ॥ ३५ ॥
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व्यानः सर्वेषु चाङ्गेषु सदा व्यावृत्य तिष्ठति ।
अथ वर्णास्तु पञ्चानां प्राणादीनामनुक्रमात् ॥ ३६॥
व्यान समस्त अङ्ग-प्रत्यङ्गों में व्यापक होकर सदैव प्रतिष्ठित रहता है। अब इसके पश्चात् समस्त प्राण आदि पाँचों वायुओं के रंग का क्रमानुसार वर्णन किया जाता है ॥ ३६॥
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रक्तवर्नो मणिप्रख्यः प्राणो वायुः प्रकीर्तितः ।
अपानस्तस्य मध्ये तु इन्द्रगोपसमप्रभः ॥ ३७॥
इस प्राण वायु को लाल रंग की मणि के सदृश लोहित वर्ण की संज्ञा प्रदान की गई है। अपान वायु को गुदा के बीचो-बीच इन्द्रगोप-बीर बहूटी नामक गहरे लाल (रंग वाले एक बरसाती कीड़े के) रंग का माना गया है ॥ ३७ ॥
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समानस्तु द्वयोर्मध्ये गोक्षीरधवलप्रभः ।
आपाण्डर उदानश्च व्यानो ह्यर्चिस्समप्रभः ॥ ३८॥
नाभि के मध्य क्षेत्र में समान वायु स्थिर है। यह गो-दुग्ध या स्फटिक मणि की भाँति शुभ्र कान्तियुक्त है। उदान वायु का रंग धूसर अर्थात् मटमैला है और व्यान वायु का रंग अग्निशिखा की भाँति तेजस्वी है॥ ३८ ॥
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यस्येदं मण्डलं भित्वा मारुतो याति मूर्धनि ।
यत्र तत्र म्रियेद्वापि न स भूयोऽबिजायते ।
न स भूयोऽभिजायत इत्युपनिषत् ॥ ३९॥
जिस श्रेष्ठ योगी अथवा साधक का प्राण इस मण्डल (पञ्चतत्त्वात्मक शरीर-क्षेत्र, वायु स्थान एवं हृदय प्रदेश) का बेधन कर मस्तिष्क के क्षेत्र में प्रविष्ट कर जाता है, वह अपने शरीर का जहाँ कहीं भी परित्याग करे, पुनः जन्म नहीं लेता अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, यही उपनिषद् है ॥ ३९ ॥
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ॐ सह नाववत्विति शान्तिः ॥
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॥ इति कृष्णयजुर्वेदीय अमृतनादोपनिषत्समाप्ता ॥
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अमृतबिन्दु
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
हरिः ॐ ॥
मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च ।
अशुद्धं कामसंकल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ॥ १॥
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ २॥
यतो निर्विषयस्यास्य मनसो मुक्तिरिष्यते ।
अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा ॥ ३॥
निरस्तविषयासङ्गं संनिरुद्धं मनो हृदि ।
यदाऽऽयात्यात्मनो भावं तदा तत्परमं पदम् ॥ ४॥
तावदेव निरोद्धव्यं यावधृदि गतं क्षयम् ।
एतज्ज्ञानं च ध्यानं च शेषो न्यायश्च विस्तरः ॥ ५॥
नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं न चिन्त्यं चिन्त्यमेव च ।
पक्षपातविनिर्मुक्तं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ६॥
स्वरेण संधयेद्योगमस्वरं भावयेत्परम् ।
अस्वरेणानुभावेन नाभावो भाव इष्यते ॥ ७॥
तदेव निष्कलं ब्रह्म निर्विकल्पं निरञ्जनम् ।
तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा ब्रह्म सम्पद्यते ध्रुवम् ॥ ८॥
निर्विकल्पमनन्तं च हेतुदृष्टान्तवर्जितम् ।
अप्रमेयमनादिं च यज्ज्ञात्वा मुच्यते बुधः ॥ ९॥
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥ १०॥ var मुक्तः
एक एवात्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ११॥
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १२॥
घटसंवृतमाकाशं नीयमानो घटे यथा ।
घटो नीयेत नाकाशः तद्वज्जीवो नभोपमः ॥ १३॥
घटवद्विविधाकारं भिद्यमानं पुनः पुनः ।
तद्भेदे न च जानाति स जानाति च नित्यशः ॥ १४॥ ?var तद्भग्नं
शब्दमायावृतो नैव तमसा याति पुष्करे ।
भिन्ने तमसि चैकत्वमेक एवानुपश्यति ॥ १५॥
शब्दाक्षरं परं ब्रह्म तस्मिन्क्षीणे यदक्षरम् ।
तद्विद्वानक्षरं ध्यायेद्यदीच्छेच्छान्तिमात्मनः ॥ १६॥
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ १७॥
ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः ।
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः ॥ १८॥
गवामनेकवर्णानां क्षीरस्याप्येकवर्णता ।
क्षीरवत्पश्यते ज्ञानं लिङ्गिनस्तु गवां यथा ॥ १९॥
घृतमिव पयसि निगूढं भूते भूते च वसति विज्ञानम् ।
सततं मनसि मन्थयितव्यं मनो मन्थानभूतेन ॥ २०॥
ज्ञाननेत्रं समाधाय चोद्धरेद्वह्निवत्परम् ।
निष्कलं निश्चलं शान्तं तद्ब्रह्माहमिति स्मृतम् ॥ २१॥
सर्वभूताधिवासं यद्भूतेषु च वसत्यपि ।
सर्वानुग्राहकत्वेन तदस्म्यहं वासुदेवः ॥ २२॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
हरिः ॐ ॥
॥ इति कृष्ण यजुर्वेदेऽमृतबिन्दूपनिषत् समाप्ता ॥
॥ अवधूतोपनिषत् ॥
गौणमुख्यावधूतालिहृदयाम्बुजवर्ति यत् ।
तत्त्रैपदं ब्रह्मतत्त्वं स्वमात्रमवशिष्यते ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ अथ ह सांकृतिर्भगवन्तमवधूतं दत्तात्रेयं
परिसमेत्य पप्रच्छ भगवन्कोऽवधूतस्य का स्थितिः किं
लक्ष्म किं संसरणमिति । तं होवाच भगवो दत्तात्रेयः
परमकारुणिकः ॥
अक्षरत्वाद्वरेण्यत्वाद्धृतसंसारबन्धनात् ।
तत्त्वमस्यादिलक्ष्यत्वादवधूत इतीर्यते ॥ १॥
यो विलङ्घ्याश्रमान्वर्णानात्मन्येव स्थितः सदा ।
अतिवर्णाश्रमी योगी अवधूतः स कथ्यते ॥ २॥
तस्य प्रियं शिरः कृत्वा मोदो दक्षिणपक्षकः ।
प्रमोद उत्तरः पक्ष आनन्दो गोष्पदायते ॥ ३॥
गोपालसदृशां शीर्षे नापि मध्ये न चाप्यधः ।
ब्रह्मपुच्छं प्रतिष्ठेति पुच्छाकारेण कारयेत् ॥ ४॥
एवं चतुष्पथं कृत्वा ते यान्ति परमां गतिम् ।
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ॥ ५॥
स्वैरं स्वैरविहरणं तत्संसरणम् । सांबरा वा दिगंबरा वा ।
न तेषां धर्माधर्मौ न मेध्यामेधौ । सदा
सांग्रहण्येष्ट्याश्वमेधमन्तयागं यजते ।
स महामखो महायोगः । कृत्स्नमेतच्चित्रं कर्म।
स्वैरं न विगायेत्तन्महाव्रतम् । न स मूढवल्लिप्यते ।
यथा रविः सर्वरसान्प्रभुङ्क्ते
हुताशनश्चापि हि सर्वभक्षः ।
तथैव योगी विषयान्प्रभुङ्क्ते
न लिप्यते पुण्यपापैश्च शुद्धः ॥ ६॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७॥
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥ ८॥
ऐहिकामुष्मिकव्रातसिद्धै मुक्तेश्च सिद्धये ।
बहुकृत्यं पुरा स्यान्मे तत्सर्वमधुना कृतम् ॥ ९॥
तदेव कृतकृत्यत्वं प्रतियोगिपुरःसरम् ।
अनुसन्दधदेवायमेवं तृप्यति नित्यशः ॥ १०॥
दुःखिनोऽज्ञाः संसरन्तु कामं पुत्राद्यपेक्षया ।
परमानन्दपूर्णोऽहं संसरामि किमिच्छया ॥ ११॥
अनुतिष्ठन्तु कर्माणि परलोकयियासवः ।
सर्वलोकात्मकः कस्मादनुतिष्ठामि किं कथम् ॥ १२॥
व्याचक्षतां ते शास्त्राणि वेदानध्यापयन्तु वा ।
येऽत्राधिकारिणो मे तु नाधिकारोऽक्रियत्वतः ॥ १३॥
निद्राभिक्षे स्नानशौचे नेच्छामि न करोमि च ।
द्रष्टारश्चेत्कल्पयन्तु किं मे स्यादन्यकल्पनात् ॥ १४॥
गुञ्जापुञ्जादि दह्येत नान्यारोपितवह्निना ।
नान्यारोपितसंसारधर्मा नैवमहं भजे ॥ १५॥
शृण्वन्त्वज्ञाततत्त्वास्ते जानन्कस्माञ्छृणोम्यहम् ।
मन्यन्तां संशयापन्ना न मन्येऽहमसंशयः ॥ १६॥
विपर्यस्तो निदिध्यासे किं ध्यानमविपर्यये ।
देहात्मत्वविपर्यासं न कदाचिद्भजाम्यहम् ॥ १७॥
अहं मनुष्य इत्यादिव्यवहारो विनाप्यमुम् ।
विपर्यासं चिराभ्यस्तवासनातोऽवकल्पते ॥ १८॥
आरब्धकर्मणि क्षीणे व्यवहारो निवर्तते ।
कर्मक्षये त्वसौ नैव शामेद्ध्यानसहस्रतः ॥ १९॥
विरलत्वं व्यवहृतेरिष्टं चेद्ध्यानमस्तु ते ।
बाधिकर्मव्यवहृतिं पश्यन्ध्यायाम्यहं कुतः ॥ २०॥
विक्षेपो नास्ति यस्मान्मे न समाधिस्ततो मम ।
विक्षेपो वा समाधिर्वा मनसः स्याद्विकारिणः ।
नित्यानुभवरूपस्य को मेऽत्रानुभवः पृथक् ॥ २१॥
कृतं कृत्यं प्रापणीयं प्राप्तमित्येव नित्यशः ।
व्यवहारो लौकिको वा शास्त्रीयो वान्यथापि वा ।
ममाकर्तुरलेपस्य यथारब्धं प्रवर्तताम् ॥ २२॥
अथवा कृतकृत्येऽपि लोकानुग्रहकाम्यया ।
शास्त्रीयेणैव मार्गेन वर्तेऽहं मम का क्षतिः ॥ २३॥
देवार्चनस्नानशौचभिक्षादौ वर्ततां वपुः ।
तारं जपतु वाक्तद्वत्पठत्वाम्नायमस्तकम् ॥ २४॥
विष्णुं ध्यायतु धीर्यद्वा ब्रह्मानन्दे विलीयताम् ।
साक्ष्यहं किंचिदप्यत्र न कुर्वे नापि कारये ॥ २५॥
कृतकृत्यतया तृप्तः प्राप्तप्राप्यतया पुनः ।
तृप्यन्नेवं स्वमनसा मन्यतेसौ निरन्तरम् ॥ २६॥
धन्योऽहं धन्योऽहं नित्यं स्वात्मानमञ्जसा वेद्मि ।
धन्योऽहं धन्योऽहं ब्रह्मानन्दो विभाति मे स्पष्टम् ॥ २७॥
धन्योऽहं धन्योऽहं दुःखं सांसारिकं न वीक्षेऽद्य ।
धन्योऽहं धन्योऽहं स्वस्याज्ञानं पलायितं क्वापि ॥ २८॥
धन्योऽहं धन्योऽहं कर्तव्यं मे न विद्यते किंचित् ।
धन्योऽहं धन्योऽहं प्राप्तव्यं सर्वमत्र सम्पन्नम् ॥ २९॥
धन्योऽहं धन्योऽहं तृप्तेर्मे कोपमा भवेल्लोके ।
धन्योऽहं धन्योऽहं धन्यो धन्यः पुनः पुनर्धन्यः ॥ ३०॥
अहो पुण्यमहो पुण्यं फलितं फलितं दृढम् ।
अस्य पुण्यस्य सम्पत्तेरहो वयमहो वयम् ॥ ३१॥
अहो ज्ञानमहो ज्ञानमहो सुखमहो सुखम् ।
अहो शास्त्रमहो शास्त्रमहो गुरुरहो गुरुः ॥ ३२॥
इति य इदमधीते सोऽपि कृतकृत्यो भवति । सुरापानात्पूतो भवति ।
स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति । ब्रह्महत्यात्पूतो भवति ।
कृत्याकृत्यात्पूतो भवति । एवं विदित्वा स्वेच्छाचारपरो
भूयादोंसत्यमित्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इत्यवधूतोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ अव्यक्तोपनिषत् ॥
(अव्यक्तनृसिंहोपनिषत्)
(सामवेदीया)
स्वाज्ञानासुरराड्ग्रासस्वज्ञाननरकेसरी ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तं ब्रह्ममात्रं करोतु माम् ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं
ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण-
मस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
(सृष्टेः पुरा निर्विशेषब्रह्मस्थितिः)
हरिः ॐ । पुरा किलेदं न किञ्चन्नासीन्न द्यौर्नान्तरिक्षं
न पृथिवी केवलं ज्योतीरूपमनाद्यनन्तमनण्वस्थूलरूपमरूपं
रूपवदविज्ञेयं ज्ञानरूपमानन्दमयमासीत् ।
(परमेष्ठिप्रादुभविः)
तदनन्यत्तद्द्वेधाभूद्धरितमेकं रक्तमपरम् ।
तत्र यद्रक्तं तत्पुंसो रूपमभूत् । यद्धरितं तन्मायायाः ।
तौ समगच्छतः । तयोर्वीर्यमेवमनन्दत् । तदवर्धत ।
तदण्डमभूधैमम् । तत्परिणममानमभूत् । ततः
परमेष्ठी व्यजायत ।
(परमेष्ठिनः स्वकृत्यजिज्ञासा)
सोऽभिजिज्ञासत किं मे कुलं किं मे
कृत्यमिति । तं ह वागदृश्यमानाभ्युवाच भोभो प्रजापते
त्वमव्यक्तादुत्पन्नोऽसि व्यक्तं ते कृत्यमिति । किमव्यक्तं
यस्मादहमासिषम् । किं तद्व्यक्तं यन्मे कृत्यमिति ।
साब्रवीदविज्ञेयं हि तत्सौम्य तेजः । यदविज्ञेयं तदव्यक्तम् ।
तच्चेज्जिज्ञाससि मावगच्छेति । स होवाच कैषा त्वं
ब्रह्मवाग्यदसि शंसात्मानमिति । सा त्वब्रवीत्तपसा मां
विजिज्ञासस्वेति । स ह सहस्रं समा ब्रह्मचर्यमध्युवासाध्युवास ॥ १॥
द्वितीयः खण्डः
(परमेष्ठिनः आनुष्ठुभीविद्यादर्शनम्)
अथापश्यदृचमानुष्टुभीं परमां विद्यां
यस्याङ्गान्यन्ये मन्त्राः । यत्र ब्रह्म प्रतिष्ठितम् ।
विश्वेदेवाः प्रतिष्ठिताः । यस्तां न वेद किमन्यैर्वेदैः
करिष्यति ।
(आनुष्टुभीविद्यया नृसिंहदर्शनम्)
तां विदित्वा स च रक्तं जिज्ञासयामास ।
तामेवमनूचानां गायन्नासिष्ट । सहस्रं समा
आद्यन्तनिहितोङ्कारेण पदान्यगायत् । सहस्रं
समास्तथैवाक्षरशः । ततोऽपश्यज्ज्योतिर्मयं
श्रियालिङ्गितं सुपर्णरथं शेषफणाच्छदितमौलिं
मृगमुखं नरवपुषं शशिसूर्यहव्यवाहनात्मकनयनत्रयम् ।
(नृसिंहस्तुतिः)
ततः प्रजापतिः प्रणिपपात नमोनम इति । तथैवर्चाथ तमस्तौत् ।
उग्रमित्याह उग्रः खलु वा एष मृगरूपत्वात् । वीरमित्याह
वीरो वा एष वीर्यवत्त्वात् । महाविष्णुमित्याह महतां वा अयं
महान्रोदसी व्याप्य स्थितः । ज्वलन्तमित्याह ज्वलन्निव खल्वसाववस्थितः ।
सर्वतोमुखमित्याह सर्वतः खल्वयं मुखवान्विश्वरूपत्वात् ।
नृसिंहमित्याह यथा यजुरेवैतत् । भीषणमित्याह भीषा वा
अस्मादादित्य उदेति भीतश्चन्द्रमा भीतो वायुर्वाति भीतोऽग्निर्दहति
भीतः पर्जन्यो वर्षति । भद्रमित्याह भद्रः खल्वयं श्रिया जुष्टः ।
मृत्योर्मृत्युमित्याह मृत्योर्वा अयं मृत्युरमृतत्वं प्रजानामन्नादानाम् ।
नमामीत्याह यथा यजुरेवैतत् । अहमित्याह यथा यजुरेवैतत् ॥ २॥
(उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतेजसम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥)
तृतीय खण्डः
(व्यक्तस्वरूपम्)
अथ भगवांस्तमब्रवीत्प्रजापते प्रीतोऽहं किं तवेप्सितं
तदाशंसेति । स होवाच भगवन्नव्यक्तादुत्पन्नोऽस्मि
व्यक्तं मम कृत्यमिति पुराश्रावि । तत्राव्यक्तं भवानित्यज्ञायि
व्यक्तं मे कथयेति । व्यक्तं वै विश्वं चराचरात्मकम् ।
यद्व्यज्यते तद्व्यक्तस्य व्यक्तत्वमिति ।
(जगत्सृष्ट्युपायो ध्यानयज्ञः)
स होवाच न शक्नोमि जगत्स्रष्टुमुपायं मे कथयेति ।
तमुवाच पुरुषः प्रजापते शृणु
सृष्टेरुपायं परमं यं विदित्वा सर्वं ज्ञास्यसि ।
सर्वत्र शक्ष्यसि सर्वं करिष्यसि । मय्यग्नौ स्वात्मानं
हविर्ध्यायेत्तयैवानुष्टुभर्चा । ध्यानयज्ञोऽयमेव ।
(ध्यानयज्ञमहिमा)
एतद्वै महोपनिषद्देवानां गुह्यम् । न ह वा एतस्य साम्ना
नर्चा न यजुषार्थो नु विद्यते । य इमा वेद स सर्वान्कामानवाप्य
सर्वांल्लोकाञ्जित्वा मामेवाभ्युपैति न स पुनरावर्तते य एवं वेदेति ॥ ३॥
चतुर्थः खण्डः
(ध्यानयज्ञेन परमेष्ठिनः सर्वज्ञत्वादिलाभः)
प्रजापतिस्तं यज्ञायं वसीयांसमात्मानं मन्यमानो
मनोयज्ञेनेजे । सप्रणवया तयैवर्चा हविर्ध्यात्वात्मान-
मात्मन्यग्नौ जुहुयात् । सर्वमजानात्सर्वत्राशकत्सर्वमकरोत् ।
(अन्यस्यापि ध्यानयज्ञेन सर्वज्ञत्वादिलाभः)
य एवं विद्वानिमं ध्यानयज्ञमनुतिष्ठेत्स सर्वज्ञोऽनन्तशक्तिः
सर्वकर्ता भवति । स सर्वांॅल्लोकाञ्जित्वा ब्रह्म परं प्राप्नोति ॥ ४॥
पञ्चमः खण्डः
ई(लोकत्रयादिसृष्टिः)
अथ प्रजापतिर्लोकान्सिसृक्षमाणस्तस्या एव विद्याया यानि
त्रिंशदक्षराणि तेभ्यस्त्रींॅल्लोकान् । अथ द्वे द्वे अक्षरे
ताभ्यामुभयतो दधार । तस्या एवर्चो द्वात्रिंशद्भिरक्षरै-
स्तान्देवान्निर्ममे । सर्वैरेव स इन्द्रोऽभवत् । तस्मादिन्द्रो
देवानामधिकोऽभवत् । य एवं वेद समानानामधिको भवेत् ।
(वसुरुद्रादित्यस्रुष्टिः)
तस्या एकादशभिः पादैरेकादश रुद्रान्निर्ममे । तस्या
एकादशभिरेकादशादित्यान्निर्ममे । सर्वैरेव स विष्णुरभवत् ।
तस्माद्विष्णुरादित्यानामधिकोऽभवत् । य एवं वेद समानानामधिको
भवेत् । स चतुर्भिश्चतुर्भिरक्षरैरष्टौ वसूनजनयत् ।
स तस्या आद्यैर्द्वादशभिरक्षरैर्ब्राह्मणमजनयत् ।
दशभिर्दशभिर्विट्क्षत्रे । तस्माद्ब्राह्मणो मुख्यो भवति ।
एवं तन्मुख्यो भवति य एवं वेद ।
तूष्णीं शूद्रमजनयत्तस्माच्छूद्रो निर्विद्योऽभवत् ।
(अहोरात्रसृष्टिः)
न वेदं इवा न नक्तमासीदव्यावृतम् ।
स प्रजापतिरानुष्टुभाभ्यामर्धर्चाभ्यामहोरात्रावकल्पयत् ।
(वेदछन्दस्सृष्टिः)
ततो व्यैच्छत् व्येवास्मा उच्छति । अथो तम एवापहते ।
ऋग्वेदमस्या आद्यात्पादादकल्पयत् । यजुर्द्वितीयात् ।
साम तृतीयात् । अथर्वाङ्गिरसश्चतुर्थात् यदष्टाक्षरपदा
तेन गायत्री । यदेकादशपदा तेन त्रिष्टुप् ।
यच्चतुष्पदा तेन जगती यद्द्वात्रिंशदक्षरा तेनानुष्टुप् ।
सा वा एषा सर्वाणि छन्दांसि । य इमां सर्वाणि छन्दांसि वेद ।
सर्वं जगदानुष्टुभ एवोत्पन्नमनुष्टुप्प्रतिष्ठितं
प्रतितिष्ठति यश्चैवं वेद ॥ ५॥
षष्ठः खण्डः
(स्त्रीपुरुषमिथुनसृष्टिः)
अथ यदा प्रजाः सृष्टा न जायन्ते प्रजापतिः कथं
न्विमाः प्रजाः सृजेयमिति चिन्तयन्नुग्रमितीमामृचं
गातुमुपाक्रामत् । ततः प्रथमपादादुग्ररूपो देवः
प्रादुरभूत् एकः श्यामः पुरतो रक्तः पिनाकी स्त्रीपुंसरूपस्तं
विभज्य स्त्रीषु तस्य स्त्रीरूपं पुंसि च पुंरूपं व्यधात् ।
उभाभ्यानंशाभ्यां सर्वमादिष्टः । ततः प्रजाः प्रजायन्ते ।
य एवं वेद प्रजापतेः सोऽपि त्र्यम्बक इमामृचमुद्गाय-
न्नुद्ग्रथितजटाकलापः प्रत्यो अग्ज्योतिष्यात्मन्येव रन्तारमिति ।
(इन्द्राख्यायिका)
इन्द्रो वै किल देवानामनुजावर आसीत् । तं प्रजापतिरब्रवीद्गच्छ
देवानामधिपतिर्भवेति । सोऽगच्छत् । तं देवा ऊचुरनुजावरोऽसि
त्वमस्माकं कुतस्त्वाधिपत्यमिति । स प्रजापतिमभ्येत्योवाचैवं
देवा ऊचुरनुजावरस्य कुतस्तवाधिपत्यमिति । तं प्रजापतिरिन्द्रं
त्रिकलशैरमृतपूर्णैरानुष्टुभाभिमन्त्रितैरभिषिच्य तं
सुदर्शनेन दक्षिणतो ररक्ष पाञ्चजन्येन वामतो द्वयेनैव
सुरक्षितोऽभवत् । रौक्मे फलके सूर्यवर्चसि मन्त्रमानुष्टुभं
विन्यस्य तदस्य कण्ठे प्रत्यमुञ्चत् । ततः सुदुर्निरीक्षोऽभवत् ।
तस्मै विद्यामानुष्टुभीं प्रादात् । ततो देवास्तमाधिपत्यायानुमेनिरे ।
स स्वराडभूत् । य एवं वेद स्वराड् भवेत् । सोऽमन्यत पृथिवीमपि
कथमपां जयेयमिति । स प्रजापतिमुपाधावत् ।
तस्मात्प्रजापतिः कमठाकारमिन्द्रनागभुजगेन्द्राधारं
भद्रासनं प्रादात् । स पृथिवीमभ्यजयत् । ततः स
उभयोर्लोकयोरधिपतिरभूत् । य एवं वेदोभयोर्लोकयोरधिपतिर्भवति ।
स पृथिवीं जयति ।
(परमात्मप्रतिष्ठासाधनम्)
यो वा अप्रतिष्ठितं शिथिलं भ्रातृवेभ्यो
वसीयान्भवति यश्चैवं वेद यश्चैवं वेद ॥ ६॥
सप्तमः खण्डः
(एतद्विद्याऽध्ययनफलम्)
य इमां विद्यामधीते स सर्वान्वेदानधीते । स सर्वैः क्रतुभिर्यजते ।
स सर्वतीर्थेषु स्नाति । स महापातकोपपातकैः प्रमुच्यते । स
ब्रह्मवर्चसं महदाप्नुयात् । आब्रह्मणः पूर्वानाकल्पाऽश्चोत्तरांश्च
वंशान्पुनीते । नैनमपस्मारादयो रोगा आदिधेयुः । सयक्षाः
सप्रेतपिशाचा अप्येनं स्पृष्ट्वा दृष्ट्वा श्रुत्वा वा
पापिनः पुण्यांॅल्लोकानवाप्नुयुः । चिन्तितमात्रादस्य सर्वेऽर्थाः
सिद्ध्येयुः । पितरमिवैनं सर्वे मन्यन्ते । राजानश्चास्यादेशकारिणो
भवन्ति । न चाचार्यव्यतिरिक्तं श्रेयांसं दृष्ट्वा नमस्कुर्यात् ।
न चास्मादुपावरोहेत् । जीवन्मुक्तश्च भवति । देहान्ते तमसः परं
धाम प्राप्नुयात् । यत्र विराण् नृसिंहोऽवभासते तत्र खलूपासते ।
तत्स्वरूपध्यानपरा मुनय आकल्पान्ते तस्मिन्नेवात्मनि लीयन्ते । न च
पुनरावर्तन्ते ।
(एतद्विद्यासम्प्रदानविधिः)
न चेमां विद्यामश्रद्दधानाय ब्रूयान्नासूयावते
नानूचानाय नाविष्णुभक्ताय नानृतिने नातपसे नादान्ताय
नाशान्ताय नादीक्षिताय नाधर्मशीलाय न हिंसकाय नाब्रह्मचारिण
इत्येषोपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं
ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण-
मस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
इत्यव्यक्तोपनिषत्समाप्ता ॥
[ प्रथम अध्याय ]
ॐ प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपं अकार
उकार मकार इति त्र्यक्षरं प्रणवं तदेतदोमिति ।
यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् ।
ॐ नमो नारायणाय शङ्खचक्रगदाधराय तस्मात्
ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासको वैकुण्ठभवनं गमिष्यति ॥ १॥
सरलार्थ : स्वयं अपने आप में आनन्द स्वरूप विराट् ब्रह्म पुरुष ‘अकार-उकार-मकार’ से युक्त यह तीन अक्षरों वाला ॐकार रूप प्रणव का स्वरूप है। इसका जप करने से योगीजन सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। शंख, चक्र एवं गदा को धारण करने वाले परमात्मा स्वरूप नारायण के लिए नमस्कार है।’ॐ नमो नारायणाय’ नामक इस मन्त्र की उपासना करने वाला मनुष्य वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करता है॥१॥
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अथ यदिदं ब्रह्मपुरं पुण्डरीकं तस्मात्तडिताभमात्रं दीपवत्प्रकाशम् ॥ २॥
सरलार्थ : जो यह हृदय रूपी कमल है, वही ब्रह्मपुर है। केवल अकेला वही क्षेत्र विद्युत् अथवा दीपक के सदृश प्रकाशमान होता है॥२॥
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ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः ।
ब्रह्मण्यः पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्युतः ॥ ३॥
सरलार्थ : देवकी पुत्र भगवान् कृष्ण ब्राह्मणों का हित चाहने वाले हैं, (वे) मधुसूदन.ब्राह्मणों को सदा हित करने वाले हैं, कमल के सदृश नेत्र वाले भगवान् विष्णु ब्राह्मणों के शुभचिन्तक हैं तथा वे अविनाशी भगवान् अच्युत ब्राह्मणों के प्रिय हैं॥३॥
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सर्वभूतस्थमेकं नारायणं कारणपुरुषमकारणं परं ब्रह्मोम् ॥ ४॥
सरलार्थ : समस्त भूत-प्राणियों में स्थित रहने वाले एक मात्र भगवान् नारायण ही कारण रूप विराट् पुरुष हैं, वे स्वयं ही कारणरहित हैं, परब्रह्म हैं, वे प्रणवरूप ॐकार स्वरूप हैं॥४॥
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शोकमोहविनिर्मुक्तो विष्णुं ध्यायन्न सीदति ।
द्वैताद्वैतमभयं भवति ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ ५॥
सरलार्थ : इस प्रकार से भगवान् विष्णु का चिन्तन करने वाला शोक और मोह से मुक्त होकर कभी भी दु:ख को नहीं प्राप्त होता। (वह) द्वैत (भेद बुद्धि वाला), अद्वैत (भेद रहित बुद्धिवाला) हो जाता है। मृत्यु से वह भयरहित हो जाता है। जो भी व्यक्ति इस ब्रह्म में भेद देखता है, वह बार-बार मृत्यु को प्राप्त करता है॥५॥
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हृत्पद्ममध्ये सर्वं यत्तत्प्रज्ञाने प्रतिष्ठितम् ।
प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञानं ब्रह्म ॥ ६॥
सरलार्थ : हृदय कमल के बीच में जो सर्वरूप (चेतन) है, वह प्रज्ञान में प्रतिष्ठित है। यह लोक प्रज्ञा रूप नेत्र से युक्त है या प्रज्ञा से ही गतिशील है। (सर्वत्र) प्रज्ञा ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है, अविनाशी ब्रह्म प्रज्ञान स्वरूप है॥६॥
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स एतेन प्रज्ञेनात्मनास्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे
लोके सर्वान्कामानाप्त्वाऽमृतः समभवदमृतः समभवत् ॥ ७॥
सरलार्थ : वह श्रेष्ठ ज्ञानी इस उत्कृष्ट ज्ञान-सम्पन्न आत्मा के रूप में इस लोक से ऊर्ध्वगमन करके उच्च स्थान पर जाकर स्वर्गलोक में सर्वकामनाओं को प्राप्त करके अमर हो गया॥७॥
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यत्र ज्योतिरजस्रं यस्मिंल्लोकेऽभ्यर्हितम् ।
तस्मिन्मां देहि स्वमानमृते लोके अक्षते अच्युते
लोके अक्षते अमृतत्वं च गच्छत्यों नमः ॥ ८॥
सरलार्थ : जहाँ पर नित्य ज्योति स्थिर रहती है, जिस लोक में सभी प्राणियों की आत्मा के रूप में सेवा होती है, ऐसे उस अमर लोक में आप मुझे स्थान प्रदान करें। इस अविनाशी अमरलोक में कुछ काल के लिए भी रहने वाला जीवन्मुक्त होकर और अमृतत्व प्राप्त करके विदेह (मुक्त) होकर कैवल्य पद को प्राप्त कर लेता है, उस ॐकार (स्वरूप आत्मतत्त्व) को नमस्कार है॥८॥
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[ द्वितीय अध्याय ]
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प्रगलितनिजमायोऽहं निस्तुलदृशिरूपवस्तुमात्रोऽहम् ।
अस्तमिताहन्तोऽहं प्रगलितजगदीशजीवभेदोऽहम् ॥ १॥
सरलार्थ : मेरी स्वयं की माया विशेष रूप से गलित हो गई है। मैं अतुल दर्शन रूप वस्तु मात्र ही हूँ। मेरा अहंकार नष्ट हो चुका है तथा जगत्, ईश्वर एवं जीव जैसे भेद मेरे लिए नष्ट हो गये हैं॥१॥
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प्रत्यगभिन्नपरोऽहं विध्वस्ताशेषविधिनिषेधोऽहम् ।
समुदस्ताश्रमितोऽहं प्रविततसुखपूर्णसंविदेवाहम् ॥ २॥
सरलार्थ : मैं प्रत्यगात्मा से अभिन्न परात्पर ब्रह्म हूँ। मेरे लिए सभी तरह के विधि-निषेध विनष्ट हो चुके हैं। मैं आश्रम धर्म से परे हूँ तथा मैं असीम सुख से परिपूर्ण एवं ज्ञान स्वरूप हूँ॥२॥
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साक्ष्यहमनपेक्षोऽहं निजमहिम्नि संस्थितोऽहमचलोऽहम् ।
अजरोऽहमव्ययोऽहं पक्षविपक्षादिभेदविधुरोऽहम् ॥ ३॥
सरलार्थ : मैं साक्ष्य रूप तथा किसी भी तरह की अपेक्षा से रहित हूँ। मैं अचल होकर अपनी महिमा में ही प्रतिष्ठित हूँ। मैं अजर, अमर हूँ तथा पक्ष-विपक्ष आदि भेद से रहित हूँ॥३॥
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अवबोधैकरसोऽहं मोक्षानन्दैकसिन्धुरेवाहम् ।
सूक्ष्मोऽहमक्षरोऽहं विगलितगुणजालकेवलात्माऽहम् ॥ ४॥
सरलार्थ : मैं एकमात्र ज्ञानरूप, रस स्वरूप हूँ। मोक्ष के आनन्द का एकमात्र सागर हूँ। मैं सूक्ष्म हूँ। मैं अक्षर हूँ। मैं विनष्ट गुण समूह वाला (त्रिगुणातीत) हूँ। मैं तो केवल आत्मा ही हूँ॥४॥
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निस्त्रैगुण्यपदोऽहं कुक्षिस्थानेकलोककलनोऽहम् ।
कूटस्थचेतनोऽहं निष्क्रियधामाहमप्रतर्क्योऽहम् ॥ ५॥
सरलार्थ : मैं त्रिगुणातीत अक्षय परम पद हूँ। मेरे उदर (कुक्षि) में अनेकों लोक विद्यमान हैं। मैं कूटस्थ चैतन्य स्वरूप हूँ, क्रियारहित धाम (आश्रय स्थल) हूँ तथा मैं वितर्क्य रहित हूँ॥५॥
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एकोऽहमविकलोऽहं निर्मलनिर्वाणमूर्तिरेवाहम् ।
निरवयोऽहमजोऽहं केवलसन्मात्रसारभूतोऽहम् ॥ ६॥
सरलार्थ : मैं एक हूँ, मैं अविकल अर्थात् परिपूर्ण हूँ, मैं निर्मल एवं निर्वाण मूर्ति हूँ। मैं अवयवों से रहित तथा मैं ही अजन्मा हूँ। केवल सत्स्वरूप में सब का सारभूत मैं ही हूँ॥६॥
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निरवधिनिजबोधोऽहं शुभतरभावोऽहमप्रभेद्योऽहम् ।
विभुरहमनवद्योऽहं निरवधिनिःसीमतत्त्वमात्रोऽहम् ॥ ७॥
सरलार्थ : मैं अवधिरहित निज बोध रूप हूँ, मैं श्रेष्ठतर भावों से युक्त तथा भेदरहित हूँ। मैं अति विराट् तथा निर्दोष हूँ, अवधि एवं सीमा से रहित केवल आत्म स्वरूप हूँ॥७॥
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वेद्योऽहमगमास्तैराराध्योऽहं सकलभुवनहृद्योऽहम् ।
परमानन्दघनोऽहम् परमानन्दैकभूमरूपोऽहम् ॥ ८॥
सरलार्थ : मैं वेदान्त के द्वारा जाना जाता हूँ, आराधना के योग्य हूँ, सभी भुवनों में अनुपम सुन्दर हूँ, मैं परमानन्दघन स्वरूप हूँ तथा मैं ही परमानन्द रूप एकमात्र भूमा स्वरूप हूँ॥८॥
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शुद्धोऽहमद्वयोऽहं सन्ततभावोऽहमादिशून्योऽहम् ।
शमितान्तत्रितयोऽहं बद्धो मुक्तोऽहमद्भुतात्माहम् ॥ ९॥
सरलार्थ : मैं शुद्ध हूँ, अद्वैत हूँ, सतत भाव रूप हूँ। आदि रहित हूँ। मैं (जीव, प्रकृति एवं ब्रह्म के) त्रित से रहित हूँ। मैं बद्ध, मुक्त और अद्भुत स्वरूप वाला आत्मतत्त्व हूँ॥९॥
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शुद्धोऽहमान्तरोऽहं शाश्वतविज्ञानसमरसात्माहम् ।
शोधितपरतत्त्वोऽहं बोधानन्दैकमूर्तिरेवाहम् ॥ १०॥
सरलार्थ : मैं पवित्र हूँ, अन्तरात्मा हूँ तथा मैं ही सनातन विज्ञान का पूर्ण रस ‘आत्मतत्त्व’ हूँ। शोध (अनुसन्धान) किया जाने वाला परात्पर आत्मतत्त्व हूँ और मैं ही ज्ञान एवं आनन्द की एकमात्र मूर्ति हूँ॥१०॥
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विवेकयुक्तिबुद्ध्याहं जानाम्यात्मानमद्वयम् ।
तथापि बन्धमोक्षादिव्यवहारः प्रतीयते ॥ ११॥
सरलार्थ : मैं विवेक-बुद्धि से युक्त हैं। मैं आत्मा को अद्वैत रूप में जानता हूँ, तब भी (शरीर रहते) बन्ध, मोक्ष आदि व्यवहार वाला हूँ॥११॥
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निवृत्तोऽपि प्रपञ्चो मे सत्यवद्भाति सर्वदा ।
सर्पादौ रज्जुसत्तेव ब्रह्मसत्तैव केवलम् ।
प्रपञ्चाधाररूपेण वर्ततेऽतो जगन्न हि ॥ १२॥
यथेक्षुरससंव्याप्ता शर्करा वर्तते तथा ।
अद्वयब्रह्मरूपेण व्याप्तोऽहं वै जगत्त्रयम् ॥ १३॥
ब्रह्मादिकीटपर्यन्ताः प्राणिनो मयि कल्पिताः ।
बुद्बुदादिविकारान्तस्तरङ्गः सागरे यथा ॥ १४॥
तरङ्गस्थं द्रवं सिन्धुर्न वाञ्छति यथा तथा ।
विषयानन्दवाञ्छा मे मा भूदानन्दरूपतः ॥ १५॥
दारिद्र्याशा यथा नास्ति सम्पन्नस्य तथा मम ।
ब्रह्मानन्दे निमग्नस्य विषयाशा न तद्भवेत् ॥ १६॥
विषं दृष्ट्वाऽमृतं दृष्ट्वा विषं त्यजति बुद्धिमान् ।
आत्मानमपि दृष्ट्वाहमनात्मानं त्यजाम्यहम् ॥ १७॥
घटावभासको भानुर्घटनाशे न नश्यति ।
देहावभासकः साक्षी देहनाशे न नश्यति ॥ १८॥
न मे बन्धो न मे मुक्तिर्न मे शास्त्रं न मे गुरुः ।
मायामात्रविकासत्वान्मायातीतोऽहमद्वयः ॥ १९॥
सरलार्थ : मेरी दृष्टि से प्रपञ्च निवृत्त (दूर) हो गया है, तब भी सर्वदा वह सत्य के सदृश प्रतिभासित होता है। निश्चय ही सर्प आदि में जिस प्रकार रस्सी का अस्तित्व है, उसी प्रकार ही प्रपञ्च का भी अस्तित्व है। केवल मात्र ब्रह्म सत्ता के आधार पर ही प्रपञ्च का व्यवहार है, यह जगत् तो है ही नहीं। जिस तरह शक्कर गन्ने के रस में व्याप्त है, उसी तरह ही अद्वैत ब्रह्म आनन्द रूप में तीनों लोकों में विद्यमान है। जिस प्रकार सागर में बुलबुले से लेकर तरंगें तक कल्पित हैं, उसी प्रकार मेरे द्वारा ब्रह्म से लेकर कीट पर्यन्त प्राणिमात्र कल्पित हैं। जिस तरह समुद्र की तरंगों में रहने वाले जल की इच्छा नहीं करते, उसी तरह केवल आनन्द स्वरूप होने में मुझे विषयों के आनन्द की कोई भी इच्छा नहीं रहती। जिस तरह सम्पत्ति से सम्पन्न व्यक्ति को दरिद्रता की कोई संभावना नहीं रहती, उसी तरह ही ब्रह्म के आनन्द में निमग्न रहने वाले मुझको विषयों की कोई आशा नहीं रहती। बुद्धिमान् पुरुष जिस प्रकार विष और अमृत को देख करके विष का परित्याग कर देता है, उसी प्रकार मैं आत्मा को देख करके अनात्मा का परित्याग कर देता हूँ। जैसे घट (घड़े) को प्रकाश देने वाला सूर्य घड़े के नष्ट होने से स्वयं नष्ट नहीं हो जाता, वैसे ही शरीर को प्रकाश देने वाला साक्षी-परमात्मा, शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। न मेरे लिए कोई बन्धन है और न ही मुक्ति, न मेरे लिए कोई शास्त्र है और न ही मेरा कोई गुरु॥१२-१९॥
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प्राणाश्चलन्तु तद्धर्मैः कामैर्वा हन्यतां मनः ।
आनन्दबुद्धिपूर्णस्य मम दुःखं कथं भवेत् ॥ २०॥
आत्मानमञ्जसा वेद्मि क्वाप्यज्ञानं पलायितम् ।
कर्तृत्वमद्य मे नष्टं कर्तव्यं वापि न क्वचित् ॥ २१॥
सरलार्थ : ये सब तो माया के विकास मात्र हैं तथा मैं (आत्मा) माया से परे स्वयं अद्वैत रूप हूँ। प्राण भले ही निकल जायें और मन चाहे अपने धर्मों एवं कामनाओं से विनाश को प्राप्त हो जाये; परन्तु आनन्द एवं बुद्धि की पूर्णता के कारण मुझे कैसे दुःख प्राप्त हो सकता है? मैं आत्मा को तो अनायास-सहज ही जानता हूँ, मेरा अज्ञान न मालूम कहाँ पलायन कर गया है॥२०-२१॥
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ब्राह्मण्यं कुलगोत्रे च नामसौन्दर्यजातयः ।
स्थूलदेहगता एते स्थूलाद्भिन्नस्य मे नहि ॥ २२॥
क्षुत्पिपासान्ध्यबाधिर्यकामक्रोधादयोऽखिलाः ।
लिङ्गदेहगता एते ह्यलिङ्गस्य न सन्ति हि ॥ २३॥
जडत्वप्रियमोदत्वधर्माः कारणदेहगाः ।
न सन्ति मम नित्यस्य निर्विकारस्वरूपिणः ॥ २४॥
सरलार्थ : अब मेरा कर्तृत्व-भाव बिल्कुल नष्ट हो गया है तथा मुझे कुछ भी करना शेष नहीं है। ब्राह्मण कुल- गोत्र, नाम की सुन्दरता एवं जाति का अस्तित्व तो मात्र स्थूल शरीर में ही होता है, मैं तो स्थूल पदार्थों से बिल्कुल पृथक् हूँ। क्षुधा (भूख), पिपासा (प्यास), अन्धापन, बहरापन, काम-क्रोध आदि सभी तरह के धर्म-लिङ्ग (चिह्न) आदि शरीर में स्थित रहते हैं, मैं तो इस लिंग शरीर से रहित हूँ। मुझमें इनमें से कोई भी विकार नहीं है। जड़ता, प्रियता और आनन्द मनाना आदि कारण शरीर के धर्म हैं॥२२-२४॥
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उलूकस्य यथा भानुरन्धकारः प्रतीयते ।
स्वप्रकाशे परानन्दे तमो मूढस्य जायते ॥ २५॥
चक्षुर्दृष्टिनिरोधेऽभ्रैः सूर्यो नास्तीति मन्यते ।
तथाऽज्ञानावृतो देही ब्रह्म नास्तीति मन्यते ॥ २६॥
यथामृतं विषाद्भिन्नं विषदोषैर्न लिप्यते ।
न स्पृशामि जडाद्भिन्नो जडदोषान्प्रकाशतः ॥ २७॥
सरलार्थ : मैं तो नित्य और निर्विकार स्वरूप से युक्त हूँ, अतः ये (उपर्युक्त) सभी मेरे धर्म नहीं हैं। जैसे उलूक (उल्लू) को सूर्य अन्धकार युक्त दिखाई देता है, वैसे ही मूढ़ (अज्ञानी) मनुष्य को स्वयं प्रकाश स्वरूप परमानन्द में अज्ञान दृष्टिगोचर होता है। जैसे बादलों के कारण चारों ओर से दृष्टि के रुक जाने से लोग समझने लगते हैं कि सूर्य नहीं है, वैसे ही मूढ़ता से आवृत प्राणी यह मान लेता है कि ब्रह्म है ही नहीं। जिस प्रकार से अमृत विष से अलग है, इस कारण विष के दोषों से वह दूषित नहीं होता, उसी प्रकार मैं (आत्मा) जड़ से भिन्न हूँ। अत: जड़ के दोषों का मुझमें स्पर्श नहीं होता॥२५-२७॥
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स्वल्पापि दीपकणिका बहुलं नाशयेत्तमः ।
स्वल्पोऽपि बोधो निबिडे बहुलं नाशयेत्तमः ॥ २८॥
कालत्रये यथा सर्पो रज्जौ नास्ति तथा मयि ।
अहङ्कारादिदेहान्तं जगन्नास्त्यहमद्वयः ॥ २९॥
चिद्रूपत्वान्न मे जाड्यं सत्यत्वान्नानृतं मम ।
आनन्दत्वान्न मे दुःखमज्ञानाद्भाति सत्यवत् ॥ ३०॥
सरलार्थ : जैसे दीपकणिका अर्थात् दीपक की छोटी सी ज्योति भी बहुत बड़े अन्धकार को विनष्ट कर देती है, वैसे ही थोड़े से ज्ञान का प्रकाश भी घने अन्धकार रूपी अज्ञान को विनष्ट कर देता है। जैसे रस्सी में तीनों कालों में कभी भी सर्प नहीं है, वैसे ही अहंकार से लेकर शरीर तक का संसार मेरे अन्दर तीनों काल में नहीं है, मैं तो केवल अद्वैत रूप में ही हूँ। मैं चैतन्य स्वरूप हैं, इसलिए मुझ में जड़ता नहीं है। मैं सत्य स्वरूप हैं, इस कारण मुझ में झूठ नहीं है। मैं आनन्द स्वरूप हूँ॥२८-३०॥
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आत्मप्रबोधोपनिषदं मुहूर्तमुपासित्वा न स पुनरावर्तते न
स पुनरावर्तत इत्युपनिषत् ॥
सरलार्थ : आनन्द स्वरूप होने के कारण मुझ में दु:ख नहीं हैं। ये सभी (जगत्प्रपंच) तो केवल अज्ञान से ही प्रतिभासित होते हैं। इस आत्मप्रबोध उपनिषद् का जो व्यक्ति कुछ क्षण भी उपासना (साक्षात्कार प्राप्त) कर लेता है, वह पुन: इस संसार में नहीं आता है, ऐसी यह उपनिषद् है॥
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ॐ वाङ्मे मनसीति शान्तिः ॥
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इति आत्मबोधोपनिषत्समाप्ता ॥
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यत्र नात्मप्रपञ्चोऽयमपह्नवपदं गतः ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तः परमात्मावशिष्यते ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ अथाङ्गिरास्त्रिविधः पुरुषोऽजायतात्मान्तरात्मा परमात्मा चेति ।
त्वक्चर्ममांसरोमाङ्गुष्ठाङ्गुल्यः पृष्ठवंशनखगुल्फोदर-
नाभिमेढ्रकटूरुकपोलश्रोत्रभ्रूललाटबाहुपार्श्वशिरोऽक्षीणि भवन्ति
जायते म्रियत इत्येष आत्मा ।
अथान्तरात्मानाम पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशमिच्छाद्वेषसुखदुःख-
काममोहविकल्पानादिस्मृतिलिङ्गोदात्तानुदात्तह्र्स्वदीर्घप्लुतः
खलितगर्जितस्फुटितमुदितनृत्तगीतवादित्रप्रलयविजृम्भितादिभिः
श्रोता घ्राता रसयिता नेता कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः
पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राणीति श्रवणघ्राणाकर्षणकर्मविशेषणं
करोत्येषोऽन्तरात्मा ।
अथ परमात्मा नाम यथाक्षर उपासनीयः ।
स च प्राणायामप्रत्याहारधार्णाध्यानसमाधियोगानुमानात्मचिन्तकवटकणिका
वा श्यामाकतण्डुलो वा वालाग्रशतसहस्रविकल्पनाभिः स लभ्यते
नोपलभ्यते न जायते न म्रियते न शुष्यति न क्लिद्यते न दह्यते न कम्पते
न भिद्यते न च्छिद्यते निर्गुणः साक्षिभूतः शुद्धो निरवयवात्मा केवलः
सूक्ष्मो निर्ममो निरञ्जनो निर्विकारः शब्दस्पर्शरूपरसगन्धवर्जितो निर्विकल्पो
निराकाङ्क्षः सर्वव्यापी सोऽचिन्त्यो निर्वर्ण्यश्च पुनात्यशुद्धान्यपूतानि ।
निष्क्रियस्तस्य संसारो नास्ति ।
आत्मसंज्ञः शिवः शुद्ध एक एवाद्वयः सदा ।
ब्रह्मरूपतया ब्रह्म केवलं प्रतिभासते ॥ १॥
सरलार्थ : अङ्गिरा (अंग, अंगी, अंग-ज्ञ आदि दृष्टि से) पुरुष त्रिविध ‘आत्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा’ रूप में प्रादुर्भूत हुआ। जो त्वक्, चर्म, मांस, रोम, अँगूठा, अँगुलियों , पीठ, नख, गुल्फ, उदर, नाभि, जननेन्द्रिय, कटि, जंघा, कपोल, भौंह, मस्तक, भुजाओं, पार्श्वभाग, सिर एवं आँखों आदि के माध्यम से जन्म-मरण के चक्र में घूमता है, वह आत्मा है। अन्तरात्मा (दृश्य पदार्थों में अव्यक्त रूप से स्थित अन्तर्यामी चेतन) वह है, जो पृथ्वी, जल, सुख-दुःख आदि (गुण), काम, मोह, तर्क-वितर्क आदि, स्मृति, लिंग, उदात्त, अनुदात्त, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत आदि (स्वर भेद), स्खलित, गर्जित (मेघ शब्द), स्फुटित, मुदित, नृत्य, गीत, वादित (आदि ध्वनि रूप), प्रलय, विजृम्भण (विकास) आदि के द्वारा श्रवण करने वाला, सुँघने वाला, रस लेने वाला, मनन करने वाला, जानने वाला, कार्य करने वाला, विज्ञानात्मा, पुराण, न्याय, मीमांसा आदि जो धर्मशास्त्रों का ज्ञाता, श्रवण, घ्राण, आकर्षण एवं कार्य विशेष को पूर्ण करता है। परमात्मा नाम से सम्बोधित अक्षर (अविनाशी या ॐकार रूप में ) आराध्य है। वह (परमात्मा) प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, योग, अनुमान, आत्मचिन्तन आदि के द्वारा; वट कणिका (वट वृक्ष के सूक्ष्म बीज), श्यामाक-तण्डुल (सावाँ के सूक्ष्म चावल) तथा अत्यन्त सूक्ष्म बाल के अग्रभाग के सैकड़ों-हजारों हिस्सों से भी अति सूक्ष्म; इस प्रकार से चिन्तन किया जाता हुआ प्राप्त भी होता है और नहीं भी होता है। वह न कभी प्रकट होता है और न ही मरता है, न शुष्क होता है, न आर्द्र होता है, न चलायमान है, न कम्पन करता है, न टूटता है, न स्थिर रहता है, वह तो गुणों से रहित, सर्व प्रमाण भूत, शुद्ध स्वरूप, अवयवरहित आत्मा केवल, सूक्ष्म, निर्मल, निरंजन, विकारहीन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धहीन, ज्ञान से रहित, कल्पना रहित, आकांक्षा से रहित, सर्वत्र व्याप्त, अचिन्त्य एवं इस प्रकार का परमात्मा है कि जिसका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं किया जा सकता। (वह) अशुद्ध-अपवित्र को शुद्ध-पवित्र करता है, वह क्रियारहित है, उस परमात्मा का कोई संसार नहीं है अर्थात् संसार रहित है। ‘आत्मा’ नामक वह परमपवित्र, कल्याणकारी, एकमात्र, अद्वैत, ब्रह्मरूप होने के कारण केवल ब्रह्म ही प्रतिभासित होता है॥१॥
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जगद्रूपतयाप्येतद्ब्रह्मैव प्रतिभासते ।
विद्याविद्यादिभेदेन भावाभावादिभेदतः ॥ २॥
सरलार्थ : इस जगत् के रूप में ब्रह्म ही परिलक्षित होता है। विद्या-अविद्या, भाव-अभाव आदि के भेद से जो भी दृष्टिगोचर होता है, वह अविनाशी ब्रह्म का ही रूप है॥२॥
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गुरुशिष्यादिभेदेन ब्रह्मैव प्रतिभासते ।
ब्रह्मैव केवलं शुद्धं विद्यते तत्त्वदर्शने ॥ ३॥
सरलार्थ : गुरु एवं शिष्य आदि के भेद से ब्रह्म ही दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में यदि देखा जाए, तो यत्र-तत्र-सर्वत्र वह शुद्ध प्रकाश स्वरूप ब्रह्म ही है॥३॥
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न च विद्या न चाविद्या न जगच्च न चापरम् ।
सत्यत्वेन जगद्भानं संसारस्य प्रवर्तकम् ॥ ४॥
सरलार्थ : वस्तुतः न तो विद्या है और न ही अविद्या है, न जगत् है और न ही अन्य कोई वस्तु सत्य है; लेकिन सत्यरूप में जगत् का भान होना ही इस (संसार) का प्रवर्तक (इस प्रकृति का मूल कारण) है॥४॥
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असत्यत्वेन भानं तु संसारस्य निवर्तकम् ।
घटोऽयमिति विज्ञातुं नियमः कोन्वपेक्षते ॥ ५॥
सरलार्थ : यह (संसार) असत्य है, यह भान होना ही इसका निवर्तक (मुक्तिदाता) है, जैसे सामने रखे हुए घट (घड़े) के ज्ञान के लिए कोई भी अन्य नियम (प्रमाण) अपेक्षित नहीं है (वह तो प्रत्यक्ष ही है)॥५॥
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विना प्रमाणसुष्ठुत्वं यस्मिन्सति पदार्थधीः ।
अयमात्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते ॥ ६॥
सरलार्थ : जिस प्रकार से प्रत्येक सामने स्थित पदार्थ का ज्ञान बिना ही प्रमाण के हो जाता है, ठीक उसी प्रकार नित्य-सिद्ध यह आत्मा प्रमाणित (प्रत्यक्ष) होकर ही प्रतिभासित (प्रकाशित) होता है अर्थात् प्रत्येक वस्तु का ब्रह्ममय रूप होने के कारण ब्रह्म के प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं रहती है॥६॥
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न देशं नापि कालं वा न शुद्धिं वाप्यपेक्षते ।
देवदत्तोऽहमित्येतद्विज्ञानं निरपेक्षकम् ॥ ७॥
सरलार्थ : जिस प्रकार देवदत्त आदि नाम के प्रति विज्ञानी (पुरुष) निरपेक्ष (पूर्ण आश्वस्त)हो जाता है, उसी प्रकार वह (आत्मतत्त्व) देश, काल अथवा किसी भी तरह की पवित्रता की अपेक्षा नहीं रखता॥७॥
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तद्वद्ब्रह्मविदोऽप्यस्यब्रह्माहमिति वेदनम् ।
भानुनेव जगत्सर्वं भास्यते यस्य तेजसा ॥ ८॥
सरलार्थ : उसी प्रकार ब्रह्म को जानने वाले का ब्रह्माहम् (मैं ब्रह्म हूँ) ऐसा समझना ही ब्रह्म का साक्षात्कार (प्रत्यक्षानुभूति) है। जिस तरह सूर्य से सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है, उसी तरह ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस ब्रह्म के तेज से प्रकाशित होता है॥८॥
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अनात्मकमसत्तुच्छं किं नु तस्यावभासकम् ।
वेदशास्त्रपुराणानि भूतानि सकलान्यपि ॥ ९॥
सरलार्थ : उस ब्रह्म के प्रत्यक्ष सिद्धत्व में अन्य कोई साक्ष्य देना अनात्मक, असत् एवं तुच्छ है, उसका अवभासक (बोध कराने वाला) कौन है? (अर्थात् कोई नहीं।) वेद, शास्त्र, पुराण एवं समस्त भूत (प्राणि – जगत्) जिसके माध्यम से अर्थवान् हैं, वह (ब्रह्म) तो स्वयं प्रकाशित है॥९॥
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येनार्थवन्ति तं किं नु विज्ञातारं प्रकाशयेत् ।
क्षुधां देहव्यथां त्यक्त्वा बालः क्रीडति वस्तुनि ॥ १०॥
तथैव विद्वान्रमते निर्ममो निरहं सुखी ।
कामान्निष्कामरूपी संचरत्येकचरो मुनिः ॥ ११॥
सरलार्थ : जिस प्रकार बालक भूख अथवा शरीर की किसी भी तरह की पीड़ा-परेशानी को त्याग कर (अर्थात् भूलकर) आकर्षक वस्तुओं (खिलौनों) के साथ क्रीड़ा करता रहता है, उसी प्रकार ही विद्वज्जन ममता-रहित, अहंकाररहित, सुखी रहते हुए ब्रह्म में ही रमण किया करता है। वह (आत्मज्ञानी) सभी तरह की इच्छाओं से मुक्त होकर मुनिरूप में एकान्तवासी होकर विचरण करता रहता है॥१०-११॥
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स्वात्मनैव सदा तुष्टः स्वयं सर्वात्मना स्थितः ।
निर्धनोऽपि सदा तुष्टोऽप्यसहायो महाबलः ॥ १२॥
सरलार्थ : स्वयं अपनी ही आत्मा से सदा सन्तुष्ट तथा अपने को सर्वत्र स्थित मानता हुआ निर्धन भी सदैव सन्तुष्ट एवं असहाय भी अपने को महाबलवान् समझता है॥१२॥
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नित्यतृप्तोऽप्यभुञ्जानोऽप्यसमः समदर्शनः ।
कुर्वन्नपि न कुर्वाणश्चाभोक्ता फलभोग्यपि ॥ १३॥
सरलार्थ : वह किसी भी तरह का भोजन न ग्रहण करता हुआ भी नित्य तृप्त रहता है, देखने में असमान व्यवहार करता हुआ भी सबको बराबर देखने वाला, कार्य करता हुआ भी काम न करता हुआ-सा तथा फल का उपभोग करता हुआ भी भोगरहित माना जाता है॥१३॥
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शरीर्यप्यशरीर्येष परिच्छिन्नोऽपि सर्वगः ।
अशरीरं सदा सन्तमिदं ब्रह्मविदं क्वचित् ॥ १४॥
प्रियाप्रिये न स्पृशतस्तथैव च शुभा शुभे ।
तमसा ग्रस्तवद्भानादग्रस्तोऽपि रविर्जनैः ॥ १५॥
ग्रस्त इत्युच्यते भ्रान्त्या ह्यज्ञात्वा वस्तुलक्षणम् ।
तद्वद्देहादिबन्धेभ्यो विमुक्तं ब्रह्मवित्तमम् ॥ १६॥
पश्यन्ति देहिवन्मूढाः शरीराभासदर्शनात् ।
अहिनिर्ल्वयनीवायं मुक्तदेहस्तु तिष्ठति ॥ १७॥
सरलार्थ : वह आत्मा शरीर में रहते हुए भी अशरीरी है, वह परिच्छिन्न (शरीर में आबद्ध) रहता हुआ भी सर्वत्र गमनशील अर्थात् व्याप्त है। इसलिए शरीररहित उस ब्रह्मज्ञानी को कहीं पर भी प्रिय तथा अप्रिय ज्ञान स्पर्श नहीं करता (अर्थात् वह आत्मा किसी को प्रिय या अप्रिय नहीं समझता), शुभ एवं अशुभ उसे स्पर्श भी नहीं कर सकते। उसकी दृष्टि में सभी समान हैं। जिस प्रकार लोगों के द्वारा सूर्य राहु से ग्रसित न होने पर भी ग्रसित मान लिया जाता है, लोग भ्रान्तिवश उसे ग्रसित मानते हैं; क्योंकि उन्हें वस्तु-स्थिति का पता नहीं होता। उसी प्रकार शरीरादि के बन्धनों से मुक्त श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी को शरीरी के रूप में मानने वाले मूढ़ समझे जाते हैं; वास्तव में वह ब्रह्मज्ञानी (आत्मा) साँप की केंचुली के सदृश शरीर से सर्वथा मुक्त रहता है॥१४-१७॥
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इतस्ततश्चाल्यमानो यत्किञ्चित्प्राणवायुना ।
स्रोतसा नीयते दारु यथा निम्नोन्नतस्थलम् ॥ १८॥
सरलार्थ : यह शरीर प्राण वायु के द्वारा ही इधर-उधर संचालित किया जाता है, जैसे झरने-नदी आदि के स्रोतों द्वारा लकड़ियों को ऊपर-नीचे ले जाया जाता है॥१८॥
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दैवेन नीयते देहो यथा कालोपभुक्तिषु ।
लक्ष्यालक्ष्यगतिं त्यक्त्वा यस्तिष्ठेत्केवलात्मना ॥ १९॥
शिव एव स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः ।
जीवन्नेव सदा मुक्तः कृतार्थो ब्रह्मवित्तमः ॥ २०॥
सरलार्थ : जैसे दैव (भाग्य) के द्वारा देह कालोपभोग (सुख-दु:ख आदि उपभोगों) में ले जाई जाती है, ऐसे जो केवल अपनी आत्मा के सहारे लक्ष्य-अलक्ष्य की गति को त्यागकर स्थिर हो जाता है, वह (आत्मानुभूतियुक्त साधक) ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ साक्षात् भगवान् शिव ही है। शिवस्वरूप वह कृतार्थ ब्रह्मज्ञानी जीवित रहते हुए भी मुक्तावस्था को प्राप्त हो जाता है॥१९-२०॥
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उपाधिनाशाद्ब्रह्मैव सद्ब्रह्माप्येति निर्द्वयम् ।
शैलूषो वेषसद्भावाभावयोश्च यथा पुमान् ॥ २१॥
सरलार्थ : यह (आत्मा), उपाधि (शरीरादि) के विनष्ट हो जाने पर ब्रह्मरूप होकर ब्रह्म में विलीन हो जाता है, जिस तरह विविध वेश को धारण करने पर व्यक्ति नट आदि के रूप में समझा जाता है तथा अपने वास्तविक रूप में आ जाने पर वही (पूर्व जैसा) व्यक्ति समझा जाता है॥२१॥
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तथैव ब्रह्मविच्छ्रेष्ठः सदा ब्रह्मैव नापरः ।
घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्वयम् ॥ २२॥
सरलार्थ : उसी तरह ही ब्रह्म को जानने वाला भी स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। केवल शरीरादि (वेश) के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है। वस्तुत: वह ब्रह्म ही है, उससे भिन्न अन्य और कुछ भी नहीं है। जैसे घट के फूट जाने पर घट के अन्दर का आकाश-आकाश रूप ही हो जाता है॥२२॥
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तथैवोपाधिविलये ब्रह्मैव ब्रह्मवित्स्वयम् ।
क्षीरं क्षीरे यथा क्षिप्तं तैलं तैले जलं जले ॥ २३॥
संयुक्तमेकतां याति तथात्मन्यात्मविन्मुनिः ।
एवं विदेहकैवल्यं सन्मात्रत्वमखण्डितम् ॥ २४॥
ब्रह्मभावं प्रपद्यैष यतिर्नावर्तते पुनः ।
सदात्मकत्वविज्ञानदग्धा विद्यादिवर्ष्मणः ॥ २५॥
सरलार्थ : वैसे ही उपाधि अर्थात् शरीरादि के विलय हो जाने के पश्चात् ब्रह्म को जानने वाला स्वयं ब्रह्म रूप ही हो जाता है। जिस तरह दुग्ध में दुग्ध, तेल में तेल और जल में जल मिला देने पर एक हो जाते हैं; ठीक उसी तरह आत्मज्ञानी मुनि एवं आत्मा की स्थिति भी एक ही है। इस प्रकार विदेह रूप कैवल्य-पद की प्राप्ति के पश्चात् सन्मात्र अखण्डित विग्रहवान् ब्रह्मभाव की प्राप्ति करके पुनः संसारावर्तन (आवागमन)से मुक्त हो जाता है; क्योंकि सदात्मकत्व विज्ञान से उसकी अविद्या दग्ध हो जाती है॥२३-२५॥
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अमुष्य ब्रह्मभूतत्त्वाद्ब्रह्मणः कुत उद्भवः ।
मायाक्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न स्तः स्वात्मनि वस्तुतः ॥ २६॥
सरलार्थ : ऐसे यति के ब्रह्मरूप हो जाने पर यह कैसे हो सकता है कि ब्रह्म का पुनः उद्भव हो। माया के द्वारा रचित बन्धन और मोक्ष वस्तुतः उस ब्रह्म में नहीं हुआ करते॥२६॥
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यथा रज्जौ निष्क्रियायां सर्पाभासविनिर्गमौ ।
अवृतेः सदसत्त्वाभ्यां वक्तव्ये बन्धमोक्षणे ॥ २७॥
सरलार्थ : जिस प्रकार निष्क्रिय रस्सी में सर्प का बोध हो जाने पर यदि वह (सर्पाभास) पुनः समाप्त हो जाता है, तो फिर केवल-मात्र रस्सी ही आभासित होने लगती है। उसी प्रकार आवरण के सत् और असत् भाव को ही बन्धन और मोक्ष कहना चाहिए॥२७॥
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नावृत्तिर्ब्रह्मणः क्वाचिदन्याभावादनावृतम् ।
अस्तीति प्रत्ययो यश्च यश्च नास्तीति वस्तुनि ॥ २८॥
बुद्धेरेव गुणावेतौ न तु नित्यस्य वस्तुनः ।
अतस्तौ मायया क्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न चात्मनि ॥ २९॥
सरलार्थ : ब्रह्म का कोई भी आवरक नहीं होता। वह अन्य के अभाव के कारण अनावृत है। वस्तु के होने या न होने के विषय में जो कुछ भी विश्वास किया जाता है,ये तो वस्तुत: बुद्धि के ही गुण हैं,उस नित्य वस्तु (अविनाशी ब्रह्म) के नहीं। अतः माया के द्वारा प्रादुर्भूत होने वाले बन्धन और मोक्ष आत्मा में नहीं होते॥२८-२९॥
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निष्कले निष्क्रिये शान्ते निरवद्ये निरंजने ।
अद्वितीये परे तत्त्वे व्योमवत्कल्पना कुतः ॥ ३०॥
सरलार्थ : उस कलारहित, निष्क्रिय, शान्त, निष्पाप, निरञ्जन, अद्वितीय परमात्म तत्त्व में आकाश के भेदों की भाँति (घटाकाश, महाकाश आदि) कल्पना कहाँ से हो सकती है?॥३०॥
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न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥ ३१॥
सरलार्थ : सत्य तो यह है कि वह परब्रह्म न तो जन्म लेता है और न ही जन्मरहित है,न वह बन्धन में रहता है, न ही साधक है, न ही वह मोक्ष की इच्छा वाला है और न ही वह मुक्त है (वह इन सबसे परे है।)॥३१॥
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इत्युपनिषत् ॥
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ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
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ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
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आरुणिकाख्योपनिषत्ख्यातसंन्यासिनोऽमलाः ।
यत्प्रबोधाद्यान्ति मुक्तिं तद्रामब्रह्म मे गतिः ॥
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ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
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ॐ आरुणिः प्राजापत्यः प्रजापतेर्लोकं जगाम ।
तं गत्वोवाच । केन भगवन्कर्माण्यशेषतो विसृजामीति ।
तं होवाच प्रजापतिस्तव पुत्रान्भ्रातॄन्बन्ध्वादीञ्छिखां
यज्ञोपवीतं यागं स्वाध्यायं भूर्लोकभुवर्लोकस्वर्लोकमहर्लोक
जनोलोकतपोलोकसत्यलोकं चातलतलातलवितलसुतल
रसातलमहातलपातालं ब्रह्माण्डं च विसृजेत् ।
दण्डमाच्छादनं चैव कौपीनं च परिग्रहेत् ।
शेषं विसृजेदिति ॥ १॥
सरलार्थ : प्रजापति की उपासना करने वाले अरुण के पुत्र आरुणि ब्रह्मलोक में भगवान् ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हुए तथा प्रार्थना करते हुए पूछा- हे भगवन् ! मैं सभी कर्मों का किस तरह से परित्याग कर सकता हूँ। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा- हे ऋषे ! अपने पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव आदि को यज्ञोपवीत, यज्ञ, शिखा और स्वाध्याय को तथा भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जन:लोक, तप:लोक, सत्यलोक और अतल, तलातल, वितल, सुतल, रसातल, महातल तथा पाताल आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का परित्याग कर देना चाहिए। मात्र दण्ड, आच्छादन के लिए वस्त्र एवं कौपीन (लँगोटी) को धारण करना चाहिए। शेष अन्य सभी वस्तुओं का परित्याग कर देना चाहिए॥१॥
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गृहस्थो ब्रह्मचारी वा वानप्रस्थो वा उपवीतं भूमावप्सु
वा विसृजेत् । लौकिकाग्नीनुदराग्नौ समारोपयेत् ।
गायत्रीं च स्ववाचाग्नौ समारोपयेत् । कुटीचरो
ब्रह्मचारी कुटुंबं विसृजेत् । पात्रं विसृजेत् ।
पवित्रं विसृजेत् । दण्डाॅंलोकांश्च विसृजेदिति होवाच ।
अत उर्ध्वममन्त्रवदाचरेत् । ऊर्ध्वगमनं विसृजेत् ।
औषधवदशनमाचरेत् । त्रिसन्ध्यादौ स्नानमाचरेत् ।
सन्धिं समाधावात्मन्याचरेत् । सर्वेषु
वेदेष्वारण्यकमावर्तयेदुपनिषदमावर्तयेदुपनिषदमावर्तय्
एदिति ॥ २॥
सरलार्थ : ब्रह्मचारी हो, गृहस्थ हो या वानप्रस्थी सभी को (अपने-अपने आश्रमों में विहित) दिव्य अग्नियों को अपने जठराग्नि में आरोपित कर लेना चाहिए। गायत्री को अपनी वाणी रूपी अग्नि में प्रतिष्ठित करे। यज्ञोपवीत को पृथ्वी पर अथवा जल में विसर्जित कर देना चाहिए। कुटी में निवास करने वाले ब्रह्मचारी को अपने परिवार (कुटुम्ब) का परित्याग कर देना चाहिए, पात्र का त्याग करे एवं पवित्री (कुशा) को भी त्याग दे। दण्ड और लौकिक अग्नि का भी त्याग करे, ऐसा ब्रह्माजी ने आरुणि से कहा। आगे उन्होंने कहा कि वह मंत्रहीन की तरह आचरण करे। ऊर्ध्व (स्वर्गादि) लोकों में जाने की इच्छा भी न करे। औषधि की भाँति अन्न ग्रहण करे तथा त्रिकाल संध्या-स्नान करे। संध्या काल में समाधिस्थ होकर परब्रह्म परमात्मा का अनुसंधान करे, सभी वेदों में आरण्यकों की आवृत्ति करे अर्थात् पढ़े और मनन करे तथा उपनिषदों का बार-बार अध्ययन करें॥२॥
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खल्वहं ब्रह्मसूचनात्सूत्रं ब्रह्मसूत्रमहमेव
विद्वान्त्रिवृत्सूत्रं त्यजेद्विद्वान्य एवं वेद संन्यस्तं मया
संन्यस्तं मया संन्यस्तं मयेति त्रिरुक्त्वाभयं
सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । सखामागोपायोजः
सखायोऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि वार्त्रघ्नः शर्म मे भव
यत्पापं तन्निवारयेति । अनेन मन्त्रेण कृतं वाइणवं
दण्डं कौपीनं परिग्रहेदौषधवदशनमाचरेदौषधवदशनं
प्राश्नीयाद्यथालाभमश्नीयात् । ब्रह्मचर्यमहिंसा
चापरिग्रहं च सत्यं च यत्नेन हे रक्षत हे रक्षत हे
रक्षत इति ॥ ३॥
सरलार्थ : निश्चय ही ब्रह्म का बोध कराने वाला सूत्र ब्रह्मसूत्र मैं स्वयं ही हूँ, ऐसा जानकर त्रिवृत्सूत्र (उपवीत) का भी परित्याग कर दे। ऐसा जानने वाला विद्वान् ‘मया संन्यस्तम्’ अर्थात् मैंने संन्यास ले लिया, मैंने सर्वस्व का त्याग कर दिया, सब कुछ छोड़ दिया, ऐसा तीन बार कहे। इसके पश्चात् ‘अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ (अर्थात् सभी हिंस्र और अहिंस्र प्राणियों को अभय प्राप्त हो, सम्पूर्ण जगत् मुझमें ही विद्यमान है।) इत्यादि मन्त्र से- हे दण्ड ! आप मेरे मित्र हैं, आप मेरे ओज की रक्षा करें। आप मेरे मित्र तथा आप ही वृत्रासुर का विनाश करने वाले देवराज इन्द्र के वज्र हैं। हे वज्र ! आप हमें सुख प्राप्त करायें तथा हमें संन्यास धर्म से पथभ्रष्ट करने वाला जो भी पाप हो, उसका निवारण करें; यह कहते हुए अभिमंत्रित बाँस का दण्ड और कौपीन (लँगोटी) धारण करे। औषधि की तरह से भोजन ग्रहण करे, जो कुछ भी मिल जाए, उसे अल्पमात्रा में औषधि समझ कर खाए। हे आरुणि ! संन्यास धर्म को ग्रहण करने के उपरान्त ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। हे वत्स ! उन (संन्यास के सभी अनुशासनों) की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करो, रक्षा करो, रक्षा करो॥३॥
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अथातः परमहंसपरिव्राजकानामासनशयनादिकं भूमौ
ब्रह्मचर्यं मृत्पात्रमलाम्बुपात्रं दारुपात्रं वा यतीनां
कामक्रोधहर्षरोषलोभमोहदम्भदर्पेच्छासूयाममत्वाहङ्क्
आरादीनपि परित्यजेत् । वर्षासु ध्रुवशीलोऽष्टौ
मासानेकाकी यतिश्चरेत् द्वावेव वा विचरेद्द्वावेव वा
विचरेदिति ॥ ४॥
सरलार्थ : तदनन्तर (ब्रह्माजी ने पुनः कहा) ब्रह्मभाव को प्राप्त परमहंस परिव्राजकों के लिए पृथ्वी पर ही आसन और शयन आदि का नियम है। मिट्टी के पात्र को या फिर तूंबी अथवा काष्ठ के कमण्डलु को अपने पास रखे। संन्यासियों को काम, क्रोध, हर्ष, शोक, रोष, लोभ, मोह, दम्भ, ईर्ष्या, इच्छा, परनिन्दा एवं ममता और अहंकार आदि का भी परित्याग पूर्ण रूप से कर देना चाहिए। उन्हें वर्षा ऋतु के चार माह तक एक ही स्थान पर स्थिर होकर रहना चाहिए, इसके अतिरिक्त शेष आठ माह एकाकी भ्रमण करे अथवा कम से कम दो माह तक एक ही स्थान में रहे॥४॥
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स खल्वेवं यो विद्वान्सोपनयनादूर्ध्वमेतानि प्राग्वा त्यजेत् ।
पित्रं पुत्रमग्न्युपवीतं कर्म कलत्रं चान्यदपीह यतयो
भिक्षार्थं ग्रामं प्रविशन्ति पाणिपात्रमुदरपात्रं वा ।
ॐ हि ॐ हि ॐ हीत्येतदुपनिषदं विन्यसेत् ॥
खल्वेतदुपनिषदं विद्वान्य एवं वेद पालाशं
बैल्वमाश्वत्थमौदुम्बरं दण्डं मौञ्जीं मेखलां
यज्ञोपवीतं च त्यक्त्वा शूरो य एवं वेद । तद्विष्णोः
परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं
पदमिति । एवं निर्वाणानुशासनं वेदानुशासनं
वेदानुशासनमिति ॥ ५॥
सरलार्थ : इसके समस्त नियम-उपनियम की पूर्ण जानकारी रखने वाला विद्वान् यदि संन्यास धर्म को ग्रहण करना चाहे, तो उसे उपनयन के पश्चात् अथवा पूर्व में भी अपने माता-पिता, पुत्र, अग्नि, उपवीत, कर्म, पत्नी अथवा अन्य और जो भी कुछ हो उन समस्त वस्तुओं-पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए। संन्यास धर्म ग्रहण करने वाले को चाहिए कि वह अपने हाथों को ही पात्र बना ले या फिर अपने उदर (पेट) को ही पात्र रूप में उपयोग कर भिक्षार्थ गाँव में गमन करे। ॐ हि ॐ हि ॐ हि – इस उपनिषद् मन्त्र का उच्चारण करते हुए (भिक्षार्थ गाँव में) प्रवेश करे। यह उपनिषद् है। जो (विद्वान्) इस उपनिषद् को पूर्णरूप से जानता है, वही विद्वान् है। पलाश (छिउल), बेल, पीपल या गूलर आदि में से किसी का दण्ड, पूँज की मेखला धारण कर एवं यज्ञोपवीत आदि का परित्याग कर जो इस (उपनिषद्) को भली प्रकार जान लेता है, वही श्रेष्ठ है, वही शूरवीर है। जो (परमात्मा) आकाश में प्रकाश युक्त सूर्य मण्डल की तरह परम व्योम में चिन्मय तेज के द्वारा सभी ओर संव्याप्त है, ऐसे भगवान् विष्णु के उस परमधाम का विद्वान् उपासक सदैव दर्शन करते हैं। साधना में सतत लगे रहने वाले निष्काम उपासक ब्राह्मण वहाँ पहुँच कर उस परमधाम को और भी प्रदीप्त किए रहते हैं, ऐसे उस पद को विष्णु का परमधाम कहते हैं। इस प्रकार यह निर्वाण (मुक्ति प्राप्ति) का अनुशासन है, वेद का अनुशासन है, यही उपनिषद् है॥५॥
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ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
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इति सामवेदीयारुणिकोपनिषत्समाप्ता ॥
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15. ध्यानबिन्दूपनिषत् [अर्थ सहित]
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ध्यात्वा यद्ब्रह्ममात्रं ते स्वावशेषधिया ययुः ।
योगतत्त्वज्ञानफलं तत्स्वमात्रं विचिन्तये ॥
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ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥
सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ॥ १॥
सरलार्थ : यदि पर्वत की तरह (अनेक जन्मों के सञ्चित) अनेक योजन व्यापकत्व लिए पाप समूह हों, तो भी ध्यान योग साधना द्वारा उनको नष्ट किया जाना सम्भव है, अन्य किसी साधन से उनका नाश सम्भव नहीं॥१॥
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बीजाक्षरं परं बिन्दुं नादो तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ॥ २॥
सरलार्थ : बीजाक्षर (ॐकार) से परे बिन्दु स्थित है और उसके ऊपर नाद विद्यमान है, जिसमें मनोहर शब्द-ध्वनि सुनाई पड़ती है। उस नादध्वनि के अक्षर में विलय हो जाने पर जो शब्द विहीन स्थिति होती है, वही ‘परमपद’ के नाम से जानी गयी है॥२॥
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अनाहतं तु यच्छब्दं तस्य शब्दस्य यत्परम् ।
तत्परं विन्दते यस्तु स योगी छिन्नसंशयः ॥ ३॥
सरलार्थ : उस अनाहत शब्द (मेघ गर्जना की तरह प्रकृति का आदि शब्द) का जो परम कारण तत्त्व है, उससे भी परे परम कारण (निर्विशेष ब्रह्म) स्वरूप को जो योगी प्राप्त कर लेता है, उसके सब संशय नष्ट हो जाते हैं॥३॥
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वालाग्रशतसाहस्रं तस्य भागस्य भागिनः ।
तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ ४॥
यदि बाल (गेहूँ आदि की बाल) के अग्रभाग अर्थात् नोक के एक लाख हिस्से किये जाएँ, (तो उसका एक सूक्ष्म भाग जीव कहलाएगा) , उसके पुन: उतने भाग अर्थात् एक लाख भाग किये जाएँ (इन सूक्ष्मतर भागों को ईश्वर कहा जायेगा) । तत्पश्चात् उस (एक लाखवें) हिस्से के भी पचास हजार हिस्से किये जाने पर जो शेष रहे, उसके भी (साक्ष्य-साक्षी आदि विशेषण के भी) क्षय हो जाने पर जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म शेष रहे, वह उस निरञ्जन (विशुद्ध) ब्रह्म की सत्ता है॥४॥
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पुष्पमध्ये यथा गन्धः पयोमध्ये यथा घृतम् ।
तिलमध्ये यथा तैलं पाषाणाष्विव काञ्चनम् ॥ ५॥
जिस प्रकार पुष्य में गन्ध, दूध में घृत, तिल में तेल तथा सोने की खान के पाषाणों में सोना प्रत्यक्ष रूप से न दिखने पर भी अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है, उसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व सभी प्राणियों में निहित है। हैं॥५॥
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एवं सर्वाणि भूतानि मणौ सूत्र इवात्मनि ।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणिस्थितः ॥ ६॥
स्थिर बुद्धि से सम्पन्न मोहरहित ब्रह्मवेत्ता मणियों में पिरोये गये सूत्र की तरह आत्मा के व्यापकत्व को जानकर उसी ब्रह्म में स्थित रहते हैं॥६॥
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तिलानां तु यथा तैलं पुष्पे गन्ध इवाश्रितः ।
पुरुषस्य शरीरे तु सबाह्याभ्यन्तरे स्थितः ॥ ७॥
जिस प्रकार तिलों में तेल और पुष्पों में गन्ध आश्रित है, उसी प्रकार पुरुष के शरीर के भीतर और बाहर आत्मतत्त्व विद्यमान है॥७॥
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वृक्षं तु सकलं विद्याच्छाया तस्यैव निष्कला ।
सकले निष्कले भावे सर्वत्रात्मा व्यवस्थितः ॥ ८॥
जिस प्रकार वृक्ष अपनी सम्पूर्ण कला के साथ स्थित रहता है और उसकी छाया कलाहीन (निष्कल) होकर रहती है। उसी प्रकार आत्मा कलात्मक स्वरूप और निष्कल (छाया स्थानीय मायारूप) भाव से सभी जगह विद्यमान है॥८॥
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ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ध्येयं सर्वमुमुक्षिभिः ।
पृथिव्यग्निश्च ऋग्वेदो भूरित्येव पितामहः ॥ ९॥
अकारे तु लयं प्राप्ते प्रथमे प्रणवांशके ।
अन्तरिक्षं यजुर्वायुर्भुवो विष्णुर्जनार्दनः ॥ १०॥
उकारे तु लयं प्राप्ते द्वितीये प्रणवांशके ।
द्यौः सूर्यः सामवेदश्च स्वरित्येव महेश्वरः ॥ ११॥
मकारे तु लयं प्राप्ते तृतीये प्रणवांशके ।
अकारः पीतवर्णः स्याद्रजोगुण उदीरितः ॥ १२॥
उकारः सात्त्विकः शुक्लो मकारः कृष्णतामसः ।
अष्टाङ्गं च चतुष्पादं त्रिस्थानं पञ्चदैवतम् ॥ १३॥
ओङ्कारं यो न जानाति ब्रह्मणो न भवेत्तु सः ।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ १४॥
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।
निवर्तन्ते क्रियाः सर्वास्तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ १५॥
ॐ कार रूपी एकाक्षर ब्रह्म ही सभी मुमुक्षुओं का लक्ष्य रहा है। प्रणव के पहले अंश ‘अकार’ में पृथ्वी, अग्नि, ऋग्वेद, भूः तथा पितामह ब्रह्मा का लय होता है। दूसरे अंश ‘उकार’ में अन्तरिक्ष, यजुर्वेद, वायु, भुवः तथा जनार्दन विष्णु का लय होता है। तृतीय अंश ‘मकार’ में द्यौ, सूर्य, सामवेद, स्व: तथा महेश्वर का लय होता है। ‘अकार’ पीतवर्ण और रजोगुण से युक्त है, ‘उकार’ श्वेत वर्ण और सात्त्विक गुण वाला तथा ‘मकार’ कृष्णवर्ण एवं तमोगुण से युक्त है। इस प्रकार ॐकार आठ अङ्ग, चार पैर, तीन नेत्र और पाँच दैवत से युक्त है। जो व्यक्ति ॐकार (प्रणव) से अनभिज्ञ है, उसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। प्रणव को धनुष, आत्मा को बाण और ब्रह्म को ही लक्ष्य कहा जाता है। बिना प्रमाद किये तन्मयतापूर्वक बाण से लक्ष्य का वेधन करना चाहिए। (इसके परिणाम स्वरूप) परावर अर्थात् ब्रह्म के सायुज्यत्व को प्राप्त कर लेने पर सभी क्रियाओं से निवृत्ति (मोक्ष की प्राप्ति) होती है ॥९-१५॥
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ओङ्कारप्रभवा देवा ओङ्कारप्रभवाः स्वराः ।
ओङ्कारप्रभवं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ १६॥
ॐ कार से देवों की उत्पत्ति, ॐकार से स्वर की उत्पत्ति और ॐ कार से ही त्रिलोक के सभी स्थावरजंगम की उत्पत्ति हुई है॥१६॥
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ह्रस्वो दहति पापानि दीर्घः सम्पत्प्रदोऽव्ययः ।
अर्धमात्रा समायुक्तः प्रणवो मोक्षदायकः ॥ १७॥
ॐ का ह्रस्व अंश पापों का दहन करता है, दीर्घ अंश अमृतत्वरूप अक्षय सम्पदा को प्रदान करता है तथा अर्द्धमात्रा से युक्त प्रणव मोक्षदायक है॥१७॥
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तैलधारामिवाच्छिन्नं दीर्घघण्टानिनादवत् ।
अवाच्यं प्रणवस्याग्रं यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १८॥
तेल की अजस्र धारा की तरह, घण्टा के लम्बे निनाद के समान प्रणव के आगे ध्वनिरहित शब्द होता है, उसका ज्ञाता ही वेदवेत्ता है॥१८॥
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हृत्पद्मकर्णिकामध्ये स्थिरदीपनिभाकृतिम् ।
अङ्गुष्ठमात्रमचलं ध्यायेदोङ्कारमीश्वरम् ॥ १९॥
हृदयकमल की कर्णिका के मध्य स्थिर ज्योतिशिखा के समान अंगुष्ठमात्र आकार के नित्य ॐकार रूप परमात्मा का ध्यान करे॥१९॥
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इडया वायुमापुर्य पूरयित्वोदरस्थितम् ।
ओङ्कारं देहमध्यस्थं ध्यायेज्ज्वालवलीवृतम् ॥ २०॥
ब्रह्मा पूरक इत्युक्तो विष्णुः कुम्भक उच्यते ।
रेचो रुद्र इति प्रोक्तः प्राणायामस्य देवताः ॥ २१॥
इड़ा (बायीं नासिका) से वायु को भरकर उदर में स्थापित करे और देह के बीच में ज्योतिर्मय ॐ कार का ध्यान करे। पूरक, कुम्भक और रेचक को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र कहा गया है, ये प्राणायाम के देवता कहलाते हैं॥२०-२१॥
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आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्याननिर्मथनाभ्यासादेव पश्येन्निगूढवत् ॥ २२॥
अन्त:करण और प्रणवाक्षर को नीचे और ऊपर की अरणिरूप बनाकर मंथनरूप ध्यान के अभ्यास से अग्नि की भाँति व्याप्त गूढ़तत्त्व (परमात्मा) का साक्षात्कार करे॥२२॥
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ओङ्कारध्वनिनादेन वायोः संहरणान्तिकम् ।
यावद्बलं समादध्यात्सम्यङ्नादलयावधि ॥ २३॥
प्रणव ध्वनि का, नाद सहित रेचक वायु के विलय हो जाने तक अपनी सामर्थ्यानुसार (तब तक) ध्यान करे, जब तक नाद का भली प्रकार लय नहीं हो जाता॥२३॥
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गमागमस्थं गमनादिशून्य-
मोङ्कारमेकं रविकोटिदीप्तिम् ।
पश्यन्ति ये सर्वजनान्तरस्थं
हंसात्मकं ते विरजा भवन्ति ॥ २४॥
गमन और आगमन में विद्यमान तथा गमनादि से रहित, करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सभी मनुष्यों के अन्त:करण में विराजमान हंसात्मक प्रणव का जो दर्शन करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं॥२४॥
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यन्मनस्त्रिजगत्सृष्टिस्थितिव्यसनकर्मकृत् ।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ २५॥
अष्टपत्रं तु हृत्पद्मं द्वात्रिंशत्केसरान्वितम् ।
तस्य मध्ये स्थितो भानुर्भानुमध्यगतः शशी ॥ २६॥
जो मन त्रिगुणमय संसार के सृजन, पालन और संहार का कारण है, उसके विलय हो जाने पर विष्णु के परमपद की प्राप्ति होती है। अष्टदल और बत्तीस पंखुड़ियों से युक्त जो हृदयकमल है, उसके बीच सूर्य और सूर्य के बीच चन्द्रमा विद्यमान है॥२५-२६॥
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शशिमध्यगतो वह्निर्वह्निमध्यगता प्रभा ।
प्रभामध्यगतं पीठं नानारत्नप्रवेष्टितम् ॥ २७॥
तस्य मध्यगतं देवं वासुदेवं निरञ्जनम् ।
श्रीवत्सकौस्तुभोरस्कं मुक्तामणिविभूषितम् ॥ २८॥
शुद्धस्फटिकसंकाशं चन्द्रकोटिसमप्रभम् ।
एवं ध्यायेन्महाविष्णुमेवं वा विनयान्वितः ॥ २९॥
चन्द्रमा के बीच अग्नि और अग्नि के बीच दीप्ति स्थित है। उसके बीच नानाविध रत्नों से सुसज्जित पीठस्थान है। उस पीठ के बीच निरञ्जन प्रभु वासुदेव विराजमान हैं, जो श्रीवत्स, कौस्तुभमणि एवं मणिमुक्ताओं से विशेष रूप से सुशोभित हैं। शुद्ध स्फटिक के सदृश करोड़ों चन्द्रमा की कान्ति वाले महाविष्णु का विनयान्वित होकर ध्यान करे॥२७-२९॥
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अतसीपुष्पसंकाशं नाभिस्थाने प्रतिष्ठितम् ।
चतुर्भुजं महाविष्णुं पूरकेण विचिन्तयेत् ॥ ३०॥
कुम्भकेन हृदिस्थाने चिन्तयेत्कमलासनम् ।
ब्रह्माणं रक्तगौराभं चतुर्वक्त्रं पितामहम् ॥ ३१॥
पूरक द्वारा साँस अन्दर खींचते समय नाभिस्थान में प्रतिष्ठित अतसी पुष्प के समान चतुर्भुज महाविष्णु भगवान् का ध्यान करना चाहिए॥ कुम्भक द्वारा साँस भीतर रोकने के समय हृदय स्थल में कमल के आसन पर सुशोभित लालिमामय गौर वर्ण वाले चतुर्मुख पितामह ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए॥३०-३१॥
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रेचकेन तु विद्यात्मा ललाटस्थं त्रिलोचनम् ।
शुद्धस्फटिकसंकाशं निष्कलं पापनाशनम् ॥ ३२॥
अञ्जपत्रमधःपुष्पमूर्ध्वनालमधोमुखम् ।
कदलीपुष्पसंकाशं सर्ववेदमयं शिवम् ॥ ३३॥
शतारं शतपत्राढ्यं विकीर्णाम्बुजकर्णिकम् ।
तत्रार्कचन्द्रवह्नीनामुपर्युपरि चिन्तयेत् ॥ ३४॥
पद्मस्योद्घाटनं कृत्वा बोधचन्द्राग्निसूर्यकम् ।
तस्य हृद्बीजमाहृत्य आत्मानं चरते ध्रुवम् ॥ ३५॥
रेचक से साँस छोड़ते हुए ललाट में शुद्ध स्फटिक के सदृश श्वेत रंग के त्रिनेत्रयुक्त, निष्कल(कलारहित) , पाप संहारक भगवान् शिव का ध्यान करना चाहिए॥ नीचे की ओर पुष्पित हुआ, ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग की ओर मुख किये हुए कदली पुष्प की तरह हृदयकमल में सभी वेदों के आधारभूत भगवान् शिव अवस्थित हैं॥ सौ अरे वाले, सौ पत्ते वाले और विकसित पंखुड़ियों से युक्त हदय पद्म में सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का एक के बाद दूसरे का क्रमशः ध्यान करना चाहिए॥ सूर्य, चन्द्र और अग्नि के बोध हेतु सर्वप्रथम हृदयकमल के विकसित होने का ध्यान करे। तत्पश्चात् हृदय कमल में स्थित बीजाक्षरों को ग्रहण करके ही अचल चेतनावस्था की प्राप्ति होती है॥३२-३५॥
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त्रिस्थानं च त्रिमात्रं च त्रिब्रह्म च त्रयाक्षरम् ।
त्रिमात्रमर्धमात्रं वा यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ३६॥
तीन स्थान, तीन मार्ग, त्रिविध ब्रह्म, त्रयाक्षर, त्रिमात्रा तथा अर्द्धमात्रा में जो परमात्मा स्थित है, उसके ज्ञाता ही वेद के तात्पर्य के ज्ञाता हैं॥३६॥
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तैलधारमिवाच्छिन्नदीर्घघण्टानिनादवत् ।
बिन्दुनादकलातीतं यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ३७॥
दीर्घ घण्टा निनाद के सदृश, तेल की अविच्छिन्न धारा की तरह तथा बिन्दु-नाद और कला से अतीत उस परम तत्त्व (ॐकार) को जो जानता है, वही वेदज्ञ है॥३७॥
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यथैवत्पलनालेन तोयमाकर्षयेन्नरः ।
तथैवओत्कर्षयेद्वायुं योगी योगपथे स्थितः ॥ ३८॥
जिस प्रकार मनुष्य कमलनाल से जल को धीरे-धीरे खींचते हैं, उसी प्रकार योगी योगस्थ होकर प्राणायाम द्वारा वायु को धीरे-धीरे ऊर्ध्व भूमिका में ले जाए॥३८॥
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अर्धमात्रात्मकं कृत्वा कोशीभूतं तु पङ्कजम् ।
कर्षयेन्नलमात्रेण भ्रुवोर्मध्ये लयं नयेत् ॥ ३९॥
प्रणव की अर्द्धमात्रा (अव्यक्त नाद उच्चारण) को रस्सी बनाकर हृदयकमल रूपी कूप नाल (सुषुम्ना) मार्ग द्वारा जलरूपा कुण्डलिनी को भौंहों के मध्य में लय करे॥३९॥
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भ्रुवोर्मध्ये ललाटे तु नासिकायास्तु मूलतः ।
जानीयादमृतं स्थानं तद्ब्रह्मायतनं महत् ॥ ४०॥
नासिका के मूल से लेकर भौंहों के बीच में जो ललाट स्थान है, वहाँ तक अमृत स्थान जानना चाहिए, वही ब्रह्म का महान् निवास स्थान है॥४०॥
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आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा ।
ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि भवन्ति षट् ॥ ४१॥
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये छ: योग के अङ्ग कहे गये हैं॥४१॥
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आसनानि च तावन्ति यावन्त्यो जीवजातयः ।
एतेषानतुलान्भेदान्विजानाति महेश्वरः ॥ ४२॥
विश्व में जितनी जीव प्रजातियाँ हैं, उतनी ही आसनों की विधियाँ भी बतायी गई हैं, इस प्रकार के असंख्य भेदों के ज्ञाता भगवान् शंकर हैं॥४२॥
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छिद्रं भद्रं तथा सिंहं पद्मं चेति चतुष्टयम् ।
आधारं प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम् ॥ ४३॥
सिद्ध, भद्र, सिंह और पद्म ये चार प्रमुख आसन हैं, पहला चक्र आधार (मूलाधार) और दूसरा स्वाधिष्ठान है॥४३॥
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योनिस्थानं तयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यते ।
आधाराख्ये गुदस्थाने पङ्कजं यच्चतुर्दलम् ॥ ४४॥
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवन्दिता ।
योनिमध्ये स्थितं लिङ्गं पश्चिमाभिमुखं तथा ॥ ४५॥
मस्तके मणिवद्भिन्नं यो जानाति स योगवित् ।
तप्तचामीकराकारं तडिल्लेखेव विस्फुरत् ॥ ४६॥
चतुरस्रमुपर्यग्नेरधो मेढ्रात्प्रतिष्ठितम् ।
स्वशब्देन भवेत्प्राणः स्वाधिष्ठानं तदाश्रयम् ॥ ४७॥
इन दोनों के बीच में कामरूप प्रजनन स्थान है। गुदा स्थान के आधारचक्र में चतुर्दल कमल विद्यमान है। उसके बीच काम नाम से प्रख्यात प्रजनन-योनि (कुण्डलिनी शक्ति) है, जिसकी अभ्यर्थना सिद्धजन करते हैं। प्रजनन योनि के बीच पश्चिम की ओर पुरुष जननेन्द्रिय लिङ्ग है॥ मस्तक में मणि की तरह जो प्रकाश है, उसे जो जानता है वह योगवेत्ता है। तपे हुए सोने के समान वर्णवाला और तडित् की धारा की तरह विशेष प्रकाशित, अग्निमण्डल से चार अंगुल ऊपर और मेढ़ (मूत्रेन्द्रिय) से नीचे स्वसंज्ञक प्राण विद्यमान है, उसके आश्रय में स्वाधिष्ठान है॥४४-४७॥
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स्वाधिष्ठानं ततश्चक्रं मेढ्रमेव निगद्यते ।
मणिवत्तन्तुना यत्र वायुना पूरितं वपुः ॥ ४८॥
तन्नाभिमण्डलं चक्रं प्रोच्यते मणिपूरकम् ।
द्वादशारमहाचक्रे पुण्यपापनियन्त्रितः ॥ ४९॥
तावज्जीवो भ्रमत्येवं यावत्तत्त्वं न विन्दति ।
ऊर्ध्वं मेढ्रादथो नाभेः कन्दो योऽस्ति खगाण्डवत् ॥ ५०॥
तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणि द्विसप्ततिः ।
तेषु नाडीसहस्रेषु द्विसप्ततिरुदाहृताः ॥ ५१॥
उसके बाद स्थित स्वाधिष्ठान चक्र को मेढ़ ही कहा जाता है। जहाँ मणि के प्रकाश की तरह वायु से पूर्ण शरीर है। नाभिमण्डल में स्थित चक्र को मणिपूरक कहा गया है। वहाँ बारह दल से युक्त महाचक्र में पुण्य और पाप का नियन्त्रण रहता है॥ इस तत्त्वज्ञान को न समझ पाने तक जीवात्मा को भ्रमजाल में ही फैंसे रहना पड़ता है। मेद्र स्थान से ऊपर और नाभि से नीचे पक्षी के अण्डे की तरह कन्द का स्थान है। उसी स्थान से बहत्तर हजार नाड़ियाँ उत्पन्न होती हैं, उन हजारों नाड़ियों में बहत्तर नाड़ियाँ प्रमुख हैं॥४८-५१॥
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प्रधानाः प्राणवाहिन्यो भूयस्तत्र दश स्मृताः ।
इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयका ॥ ५२॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनि ।
अलम्बुसा कुहूरत्र शङ्खिनी दशमी स्मृता ॥ ५३॥
इनमें से दस प्रमुख नाड़ियाँ प्राण का संचार करने वाली हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुसा, कुहू तथा शंखिनी॥५२-५३॥
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एवं नाडीमयं चक्रं विज्ञेयं योगिना सदा ।
सततं प्राणवाहिन्यः सोम सूर्याग्निदेवताः ॥ ५४॥
इडापिङ्गलासुषुम्नास्तिस्रो नाड्यः प्रकीर्तिताः ।
इडा वामे स्थिता भागे पिङ्गला दक्षिणे स्थिता ॥ ५५॥
सुषुम्ना मध्यदेशे तु प्राणमार्गास्त्रयः स्मृताः ।
प्राणोऽपानः समानश्चोदानो व्यानस्तथैव च ॥ ५६॥
नागः कूर्मः कृकरको देवदत्तो धनञ्जयः ।
प्राणाद्याः पञ्च विख्याता नागाद्याः पञ्च वायवः ॥ ५७॥
इस नाड़ी चक्र की जानकारी योग-साधकों को होना आवश्यक है। सतत प्राण का संचार करने वाली इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ सूर्य, चन्द्र और अग्नि देवों से युक्त हैं। इड़ा नाड़ी बायीं ओर, पिङ्गला दाहिनी ओर तथा सुषुम्ना इन दोनों के बीच विद्यमान है, ये तीनों नाड़ियाँ प्राण के संचरण-मार्ग-रूपा हैं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय ये दस प्राण हैं, प्राणादि पाँच प्राण प्रख्यात हैं तथा नागादि पाँच उपप्राण कहे गये हैं॥५४-५७॥
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एते नाडीसहस्रेषु वर्तन्ते जीवरूपिणः ।
प्राणापानवशो जीवो ह्यधश्चोर्ध्वं प्रधावति ॥ ५८॥
इन हजारों नाड़ियों में प्राण जीवरूप से वास करते हैं। प्राण और अपान के वशीभूत होकर जीव ऊपरनीचे आवागमन करता रहता है॥५८॥
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वामदक्षिणमार्गेण चञ्चलत्वान्न दृश्यते ।
आक्षिप्तो भुजदण्डेन यथोच्चलति कन्दुकः ॥ ५९॥
प्राणापानसमाक्षिप्तस्तद्वज्जीवो न विश्रमेत् ।
अपानात्कर्षति प्राणोऽपानः प्राणाच्च कर्षति ॥ ६०॥
खगरज्जुवदित्येतद्यो जानाति स योगवित् ।
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः ॥ ६१॥
हंसहंसेत्यमं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।
शतानि षट्दिवारात्रं सहस्राणेकविंशतिः ॥ ६२॥
एतन्सङ्ख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।
अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा ॥ ६३॥
प्राण कभी दायें तो कभी बायें मार्ग से गमन करता है, परन्तु चञ्चल प्रकृति का होने से देखने में नहीं आता। हाथों से फेंकी हुई गेंद जैसे इधर-उधर दौड़ती है, उसी प्रकार प्राण और अपान द्वारा भली प्रकार फेंकने से जीव को कभी आराम नहीं मिल पाता। अपान और प्राण की एक दूसरे को खींचने की प्रक्रिया उसी प्रकार की है, जैसे रस्सी में आबद्ध पक्षी अपनी ओर खींच लिया जाता है। इस तत्त्व के ज्ञाता को ही योगी कहा जा सकता है। ‘ह’ कार ध्वनि से प्राण बाहर जाता है और ‘स’ कार से पुनः अन्दर प्रवेश करता है। ‘हंस’ ‘हंस’ इस प्रकार का मन्त्र जप जीव हमेशा जपता रहता है। इस अजपा-जप की संख्या दिन-रात में इक्कीस हजार छः सौ होती है। इतनी संख्या में मन्त्र जीव हमेशा जपता है। जो योगियों के लिए मोक्ष प्रदान करने वाली है, यही अजपा गायत्री कहलाती है॥५९-६३॥
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अस्याः सङ्कल्पमात्रेण नरः पापैः प्रमुच्यते ।
अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः ॥ ६४॥
अनया सदृशं पुण्यं न भूतं न भविष्यति ।
येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम् ॥ ६५॥
मुखेनाच्छाद्य तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी ।
प्रबुद्धा वह्नियोगेन मनसा मरुता सह ॥ ६६॥
सूचिवद्गुणमादाय व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्नया ।
उद्घाटयेत्कपाटं तु यथा कुञ्चिकया हठात् ॥ ६७॥
कुण्डलिन्या तया योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ॥ ६८॥
इस (अजपा गायत्री) के संकल्प मात्र से व्यक्ति पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। जिस मार्ग से योग साधक सुगमता से ब्रह्मपद को प्राप्त करता है। जिसके सदृश न कोई विद्या है, न जप है और न ही कोई पुण्य, जो पहले न कभी हुआ है और न आगे कभी हो सकेगा॥ वह्रियोग द्वारा जाग्रत् होने वाली परमेश्वरी (कुण्डलिनी) उस द्वार-पथ को अपने मुँह से आच्छादित करके प्रसुप्त स्थिति में है। वह जाग्रत् किये जाने पर सुषुम्ना मार्ग से मन और प्राण वायु के साथ ऊर्ध्वगमन करती है, जैसे सुई धागे को साथ ले जाती है। योगी मुक्ति द्वार को कुण्डलिनी शक्ति द्वारा उसी प्रकार उद्घाटित करते हैं, जैसे ताली से प्रयासपूर्वक दरवाजे को खोल लिया जाता है॥६४-६८॥
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कृत्वा सम्पुटितौ करौ दृढतरं बध्वाथ पद्मासनम् ।
गाढं वक्षसि सन्निधाय चुबुकं ध्यानं च तच्चेतसि ॥
वारंवारममपातमूर्ध्वमनिलं प्रोच्चारयन्पूरितम् ।
मुञ्चन्प्राणमुपैति बोधमतुलं शक्तिप्रभावान्नरः ॥ ६९॥
सुदृढ़ रूप में पद्मासन लगाकर, दोनों हाथों को सम्पुटित करके ठोड़ी से वक्षभाग (कण्ठकूप) को दृढ़तापूर्वक दबाकर, चित्त में स्वरूप का ध्यान करते हुए बार-बार अपान वायु को ऊपर की ओर चलायमान करता हुआ और अन्दर खींची हुई प्राण वायु को नीचे छोड़ता हुआ योग साधक अतुलित कुण्डलिनी शक्ति के सामर्थ्य बोध. को प्राप्त करता है॥६९॥
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पद्मासनस्थितो योगी नाडीद्वारेषु पूरयन् ।
मारुतं कुम्भयन्यस्तु स मुक्तो नात्र संशयः ॥ ७०॥
जो योगसाधक पद्मासन में बैठकर नाड़ीद्वार से प्राणवायु को खींचकर, कुम्भक द्वारा उसे रोकता है। वह सुनिश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है, इसमें संदेह की गुंजायश नहीं॥७०॥
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अङ्गानां मर्दनं कृत्वा श्रमजातेन वारिणा ।
कट्वम्ललवणत्यागी क्षीरपानरतः सुखी ॥ ७१॥
ब्रह्मचारी मिताहारी योगी योगपरायणः ।
अब्दादूर्ध्वं भवेत्सिद्धो नात्र कार्यां विचारणा ॥ ७२॥
(प्राणायाम के) परिश्रम द्वारा जो स्वेदकण निकले, उन्हें अङ्गों में ही मल ले। कटु, अम्ल और नमक का परित्याग करके दुग्ध का सेवन करने वाला सुखी रहता है। इस प्रकार योगस्थ होकर अल्प आहार करने वाला ब्रह्मचारी योगी एक साल के अन्तराल में ही सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं॥७१-७२॥
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कन्दोर्ध्वकुण्डली शक्तिः स योगी सिद्धिभाजनम् ।
अपानप्राणयोरैक्यं क्षयन्मूत्रपुरीषयोः ॥ ७३॥
युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात् ।
पार्ष्णिभागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्गुदम् ॥ ७४॥
अपानमूर्ध्वमुत्कृष्य मूलबन्धोऽयमुच्यते ।
उड्याणं कुरुते यस्मादविश्रान्तमहाखगः ॥ ७५॥
उड्डियाणं तदेव स्यात्तत्र बन्धो विधीयते ।
उदरे पश्चिमं ताणं नाभेरूर्ध्वं तु कारयेत् ॥ ७६॥
ध्यानबिन्दूपनिषद् कन्द के ऊपरी भाग में स्थित कुण्डलिनी शक्ति से योग साधक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। सतत मूलबन्ध का अभ्यास करने से अपान और प्राण में एकीकरण होता है, मल-मूत्र के क्षीण हो जाने पर बूढ़ा व्यक्ति भी जवान हो जाता है। एड़ी भाग से योनिस्थान को दबाकर मलद्वार को संकुचित करे और अपान वायु को ऊर्ध्व की ओर खींचे, इस क्रिया को मूलबन्ध कहा गया है। उड्डियानबन्ध की विधि में कहा गया है कि जिस प्रकार बिना थका महापक्षी उड़ने की क्रिया करता है, उसी प्रकार पेट की पश्चिम ‘ताण’ क्रिया (पेट को पीछे की ओर सिकोड़ने) के साथ नाभि को ऊपर की ओर खींचना चाहिए ॥ ७३-७६॥
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उड्डियाणोऽप्ययं बन्धो मृत्युमातङ्गकेसरी ।
बध्नाति हि शिरोजातमधोगामिनभोजलम् ॥ ७७॥
ततो जालन्धरो बन्धः कर्मदुःखौघनाशनः ।
जालन्धरे कृते बन्धे कर्णसंकोचलक्षणे ॥ ७८॥
न पीयूषं पतत्यग्नौ न च वायुः प्रधावति ।
कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ॥ ७९॥
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।
न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा ॥ ८०॥
यह उड्डियान बन्ध मृत्यु के निमित्त उसी तरह है, जैसे गजराज के लिए सिंह निमित्त बनता है। जिसमें शिरोनभ (आकाश) से उत्पादित जल को नीचे आने की अपेक्षा ऊपर ही अवरुद्ध कर लिया जाता है, उसे जालन्धर बन्ध कहा गया है। इससे कर्मबन्धन और पापजन्य दु:खों का नाश होता है। जालन्धर बन्ध करते समय कण्ठ को सिकोड़ा जाता है, जिससे वायु की गति रुक जाती है और अमृत के अग्नि में गिरने की सम्भावना नहीं रहती। खेचरी मुद्रा उसे कहते हैं, जिसमें जिह्वा को उल्टाकर कपाल कुहर में प्रविष्ट किया जाए और अपनी दृष्टि को दोनों भौंहों के बीच स्थिर रखा जाए। इसके सिद्ध हो जाने से निद्रा, क्षुधा, पिपासा नहीं सताती और न व्याधि एवं मृत्यु का भय ही रहता है॥७७-८०॥
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न च मूर्च्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ।
पीड्यते न च रोगेण लिप्यते न च कर्मणा ॥ ८१॥
बध्यते न च कालेन यस्य मुद्रस्ति खेचरी ।
चित्तं चरति खे यस्माज्जिह्वा भवति खेगता ॥ ८२॥
तेनैषा खेचरी नाम मुद्रा सिद्धनमस्कृता ।
खेचर्या मुद्रया यस्य विवरं लम्बिकोर्ध्वतः ॥ ८३॥
बिन्दुः क्षरति नो यस्य कामिन्यालिङ्गितस्य च ।
यावद्बिन्दुः स्थितो देहे तावन्मृत्युभयं कुतः ॥ ८४॥
जो खेचरी मुद्रा का ज्ञाता है, उसे न तो मूच्र्छा होती है, न रोग उसे कष्ट देते हैं और न ही वह कर्मों से ही लिप्त हो पाता है। खेचरी मुद्रा से जिसका चित्त आकाश में विचरण करने लगता है और जिसकी जिह्वा भी अन्तरिक्षगामिनी हो जाती है, ऐसा साधक काल के बन्धन से बँधता नहीं है। इसलिए यह ‘खेचरी मुद्रा’ योगियों द्वारा प्रशंसनीय है। इस मुद्रा द्वारा जिसने तालु के छिद्र को अवरुद्ध कर दिया है, उसके द्वारा स्त्री समागम से भी वीर्य का क्षरण नहीं होता और जब तक वीर्य शरीर में विद्यमान रहता है, तब तक मौत के भय की सम्भावना ही कैसी?॥८१-८४॥
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यावद्बद्धा नभोमुद्रा तावद्बिन्दुर्न गच्छति ।
गलितोऽपि यदा बिन्दुः सम्प्राप्तो योनिमण्डले ॥ ८५॥
व्रजत्यूर्ध्वं हठाच्छक्त्या निबद्धो योनिमुद्रया ।
स एव द्विविधो बिन्दुः पाण्डरो लोहितस्तथा ॥ ८६॥
पाण्डरं शुक्रमित्याहुर्लोहिताख्यं महारजः ।
विद्रुमद्रुमसंकाशं योनिस्थाने स्थितं रजः ॥ ८७॥
शशिस्थाने वसेद्बिन्दुःस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम् ।
बिन्दुः शिवो रजः शक्तिर्बिन्दुरिन्दू रजो रविः ॥ ८८॥
खेचरी मुद्रा में रहते हुए वीर्य का क्षरण सम्भव नहीं, फिर भी किसी तरह यदि वीर्य स्खलित होकर योनि में चला जाए, तो उसे हठशक्तिपूर्वक योनिमण्डल से पुनः ऊपर की ओर खींच लेते हैं। वह वीर्य भी सफेद और रक्त वर्ण दोनों तरह का होता है। सफेद वर्ण वाले को शुक्र और रक्त वार्ण वाले को महारज कहा गया है। मुँगे की तरह वर्ण वाला रज (योगी के) योनिस्थान में विद्यमान है और शुक्ल वीर्य चन्द्रस्थान में है, पर इन दोनों के एक होने की सम्भावना बड़ी दुर्लभ है। वीर्य को शिवरूप और रज को शक्तिरूप कहा गया है, वीर्य ही चन्द्रमा और रज ही सूर्य है॥८५-८८॥
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उभयओः सङ्गमादेव प्राप्यते परमं वपुः ।
वायुना शक्तिचालेन प्रेरितं खे यथा रजः ॥ ८९॥
रविणैकत्वमायाति भवेद्दिव्यं वपुस्तदा ।
शुक्लं चन्द्रेण संयुक्तं रजः सूर्यसमन्वितम् ॥ ९०॥
द्वयोः समरसीभावं यो जानाति स योगवित् ।
शोधनं मलजालानां घटनं चन्द्रसूर्ययोः ॥ ९१॥
रसानां शोषणं सम्यङ्महामुद्राभिधीयते ॥ ९२॥
वक्षोन्यस्तहनुर्निपीड्य सुषिरं योनेश्च वामाङ्घ्रिणा
हस्ताभ्यामनुधारयन्प्रविततं पादं तथा दक्षिणम् ॥
आपूर्य श्वसनेन कुक्षियुगलं बध्वा शनैरेचये-
देषा पातकनाशिनी ननु महामुद्रा नृणां प्रोच्यते ॥ ९३॥
इन दोनों के संयुक्त होने पर परम देह की प्राप्ति होती है। वायु को शक्ति से संचालित किये जाने से रज अन्तरिक्ष की ओर प्रेरित होता है और सूर्य से संयुक्त होकर दिव्य शरीर को प्राप्त करता है। शुक्लवर्ण वीर्य चन्द्रमा से और रज सूर्य से युक्त है। इन दोनों की समरसता का जो ज्ञाता है, वही योगवेत्ता है। नाड़ियों में स्थित मल के शोधन के लिए सूर्य और चन्द्र के संयोगत्व और वात, पित्त, कफ आदि रसों के भली प्रकार शोषण किये जाने को महामुद्रा कहा गया है। वक्षस्थल को ठोड़ी से और बायीं एड़ी से योनिस्थल को दबाकर, प्रसारित दाहिने पैर को हाथों से पकड़कर कुक्षियुगल को श्वास से भरकर, कुम्भक करने के बाद धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकाले। इसे योगियों द्वारा सर्वपापनाशिनी महामुद्रा कहा गया है॥८९-९३॥
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अथात्मनिर्णयं व्याख्यास्ये ॥
हृदिस्थाने अष्टदलपद्मं वर्तते तन्मध्ये रेखावलयं कृत्वा जीवात्मरूपं ज्योतीरूपमणुमात्रं वर्तते तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितं भवति सर्वं जानाति सर्वं करोति सर्वमेतच्चरितमहं कर्ताऽहं भोक्ता सुखी दुःखी काणः खञ्जो बधिरो मूकः कृशः स्थूलोऽनेन प्रकारेण स्वतन्त्रवादेन वर्तते॥
पूर्वदले विश्रमते पूर्वं दलं श्वेतवर्णं तदा भक्तिपुरःसरं धर्मे मतिर्भवति ॥
यदाऽग्नेयदले विश्रमते तदाग्नेयदलं रक्तवर्णं तदा निद्रालस्य मतिर्भवति ॥
यदा दक्षिणदले विश्रमते तद्दक्षिणदलं कृष्णवर्णं तदा द्वेषकोपमतिर्भवति ॥
यदा नैरृतदले विश्रमते तन्नैरृतदलं नीलवर्णं तदा पापकर्महिंसामतिर्भवति ॥
यदा पश्चिमदले विश्रमते तत्पश्चिमदलं स्फटिकवर्णं तदा क्रीडाविनोदे मतिर्भवति ॥
यदा वायव्यदले विश्रमते वायव्यदलं माणिक्यवर्णं तदा गमनचलनवैराग्यमतिर्भवति ॥
यदोत्तरदले विश्रमते तदुत्तरदलं पीतवर्णं तदा सुखशृङ्गारमतिर्भवति ॥
यदेशानदले विश्रमते तदीशानदलं वैडूर्यवर्णं तदा दानादिकृपामतिर्भवति ॥
यदा सन्धिसन्धिषु मतिर्भवति तदा वातपित्तश्लेष्ममहाव्याधिप्रकोपो भवति ॥
यदा मध्ये तिष्ठति तदा सर्वं जानाति गायति नृत्यति पठत्यानन्दं करोति ॥
यदा नेत्रश्रमो भवति श्रमनिर्भरणार्थं प्रथमरेखावलयं कृत्वा मध्ये निमज्जनं कुरुते प्रथमरेखाबन्धूकपुष्पवर्णं तदा निद्रावस्था भवति ॥ निद्रावस्थामध्ये स्वप्नावस्था भवति ॥
स्वप्नावस्थामध्ये दृष्टं श्रुतमनुमानसम्भववार्ता इत्यादिकल्पनां करोति तदादिश्रमो भवति ॥
श्रमनिर्हरणार्थं द्वितीयरेखावलयं कृत्वा मध्ये निमज्जनं कुरुते द्वितीयरेखा इन्द्रकोपवर्णं तदा सुषुप्त्यवस्था भवति सुषुप्तौ केवलपरमेश्वरसम्बन्धिनी बुद्दिर्भवति नित्यबोधस्वरूपा भवति पश्चात्परमेश्वरस्वरूपेण प्राप्तिर्भवति ॥
तृतीयरेखावलयं कृत्वा मध्ये निमज्जनं कुरुते तृतीयरेखा पद्मरागवर्णं तदा तुरीयावस्था भवति तुरीये केवलपरमात्मसम्बन्धिनी भवति नित्यबोधस्वरूपा भवति तदा शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतयात्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्तदा प्राणापानयोरैक्यं कृत्वा सर्वं विश्वमात्मस्वरूपेण लक्ष्यं धारयति ।
यदा तुरीयातीतावस्था तदा सर्वेषामानन्दस्वरूपो भवति द्वन्द्वातीतो भवति यावद्देहधारणा वर्तते तावत्तिष्ठति पश्चात्परमात्मस्वरूपेण प्राप्तिर्भवति इत्यनेन प्रकारेण मोक्षो भवतीदमेवात्मदर्शनोपायं भवन्ति ॥
चतुष्पथसमायुक्तमहाद्वारगवायुना ।
सह स्थितत्रिकोणार्धगमने दृश्यतेऽच्युतः ॥ ९४॥
अब आत्मा के सम्बन्ध में विवेचन करते हैं-हृदय स्थल में आठ दल का कमल है, उसके बीच रेखा वलय बनाकर जीवात्मा ज्योतिरूप होकर अणुमात्र स्वरूप में निवास करता है। वह सर्वज्ञाता, सब कुछ करने वाला है और सब कुछ उसी में प्रतिष्ठित है। उसका ऐसा विचार है कि सभी चरित्रों का मैं ही कर्ता, भोक्ता, सुखी, दु:खी, काना, लँगड़ा, बहरा, गूंगा, दुबला और मोटा हूँ; इस प्रकार का उसका स्वतन्त्र व्यवहार रहता है॥ उसे अष्टदल कमल का पूर्वदिशा वाला दल सफेद रंग का है, उस दल में रहते हुए धर्म और भक्तिभाव में मति (श्रद्धा) रहती है॥ जब आग्नेय दिशा के लाल रंग के दल में निवास होता है, तब मति निद्रा और आलस्य से युक्त हो जाती है॥ जब दक्षिण दिशा के काले रंग के दल में निवास होता है, तब द्वेषभाव और क्रोधी स्वभाव की मति रहती है॥ ध्यानबिन्दूपनिषद् नैऋत्य दिशा के नीले रंग वाले दल में निवास करने पर पाप कर्मों और हिंसक वृत्ति वाली मति रहती है॥ जब स्फटिक वर्ण वाले पश्चिम दल में निवास रहता है, तब क्रीड़ा और विनोद में अभिरुचि उत्पन्न हो जाती है। वायव्यकोण के माणिक्य वर्ण वाले दल में निवास होने पर घूमने-फिरने और वैराग्य भाव की ओर झुकाव होता है॥, ॥ जब उत्तर के पीले रंग के दल में निवास करता है, तो सुख-साधन और सजने-सँवरने में अभिरुचि रहती हैं॥ ईशान कोण के वैडूर्यमणि-रंग के दल में रहने पर दान-पुण्य और अनुग्रह करने में अभिरुचि जागती है॥ जब जोड़ों के सन्धिभाग में मति वास करती है, तब वात, पित्त, कफ से सम्बन्धित बड़ी बीमारियों का प्रकोप होता है॥ जब मति मध्य में रहती है, ऐसे में सब कुछ जानने, गाने, नाचने, पढ़ने और आनन्द मनाने में ध्यान रहता है॥ जब आँख श्रमशील रहती है, तो उसे विश्राम देने के उद्देश्य से पहली रेखा का आश्रय लेकर बीच में निमज्जन करती है। वह प्रथम रेखा बन्धूक पुष्प के वर्ण वाली होती है, जिससे निद्रावस्था की प्राप्ति होती है। निद्रावस्था के बीच में ही स्वप्नावस्था रहती है। स्वप्नावस्था के बीच में देखी गई, सुनी हुई और अनुमान की हुई सम्भावित बातों की कल्पना करने से जो श्रम करना पड़ता है॥ उस श्रम के निवारणार्थ द्वितीय रेखा वलय में डुबकी लगाती है। वह दूसरी रेखा वीर-बहूटी के वर्ण की है, जिससे सुषुप्ति अवस्था होती है। इस सुषुप्तावस्था में बुद्धि मात्र परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इसके पश्चात् ही परमेश्वर की प्राप्ति सम्भव है॥ तृतीय रेखा वलय बनाकर जब पद्मराग वर्ण वाली रेखा में निमज्जन किया जाता है, तब तुरीयावस्था प्राप्त होती है। इसमें बुद्धि मात्र परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इस अवस्था में बुद्धि को धीरे-धीरे सबसे पृथक् करते हुए धैर्यपूर्वक मन को आत्म-केन्द्रित करके अन्य कुछ भी विचार ने करे॥ तब प्राण और अपान में एकीकरण करके सम्पूर्ण जगत् को आत्मस्वरूप मानते हुए लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करे। तुरीयातीतावस्था प्राप्त होने पर द्वन्द्वभाव मिटते ही सभी कुछ आनन्दस्वरूप लगने लगता है। जब तक जीव में देहधारणा रहती है, तभी तक वह उसमें निवास करता है, बाद में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होती है, इसी मार्ग से मोक्ष और आत्मदर्शन दोनों की प्राप्ति सम्भव है॥ चारों मार्ग से संयुक्त महाद्वार की ओर गमन करने वाले वायु के साथ स्थिर होने पर अर्द्ध त्रिकोण में जाकर परमात्मा का साक्षात्कार होता है॥९४॥
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पूर्वोक्तत्रिकोणस्थानादुपरि पृथिव्यादिपञ्चवर्णकं ध्येयम् ।
प्राणादिपञ्चवायुश्च बीजं वर्णं च स्थानकम् ।
यकारं प्राणबीजं च नीलजीमूतसन्निभम् ।
रकारमग्निबीजं च अपानादित्यसंनिभम् ॥ ९५॥
पूर्व में कथित त्रिकोण स्थान से ऊपर पृथ्वी आदि पाँच रंग वाले तत्त्व ध्यान के योग्य हैं। इसके साथ बीज, वर्ण और स्थानयुक्त प्राणादि पाँच वायु ध्यान के योग्य हैं। ‘य’कार जो नीले बादलों के समान है, वह प्राण का बीज है। ‘र’ कार आदित्यरूप वर्ण अग्निरूप अपान का बीज है॥९५॥
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लकारं पृथिवीरूपं व्यानं बन्धूकसंनिभम् ।
वकारं जीवबीजं च उदानं शङ्खवर्णकम् ॥ ९६॥
‘ल’ कार बन्धूक पुष्प के रंग वाला पृथ्वीरूप व्यान का बीज है। शंख के रंग वाला ‘व’ कार जीवरूप उदान को बीज है॥९६॥
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हकारं वियत्स्वरूपं च समानं स्फटिकप्रभम् ।
हृन्नाभिनासाकर्णं च पादाङ्गुष्ठादिसंस्थितम् ॥ ९७॥
द्विसप्ततिसहस्राणि नाडीमार्गेषु वर्तते ।
अष्टाविंशतिकोटीषु रोमकूपेषु संस्थिताः ॥ ९८॥
समानप्राण एकस्तु जीवः स एक एव हि ।
रेचकादि त्रयं कुर्याद्दृढचित्तः समाहितः ॥ ९९॥
शनैः समस्तमाकृष्य हृत्सरोरुहकोटरे ।
प्राणापानौ च बध्वा तु प्रणवेन समुच्चरेत् ॥ १००॥
कर्णसङ्कोचनं कृत्वा लिङ्गसङ्कोचनं तथा ।
मूलाधारात्सुषुम्ना च पद्मतन्तुनिभा शुभा ॥ १०१॥
अमूर्तो वर्तते नादो वीणादण्डसमुत्थितः ।
शङ्खनादिभिश्चैव मध्यमेव ध्वनिर्यथा ॥ १०२॥
‘ह’ कार स्फटिक प्रभायुक्त आकाश रूप ‘समान’ का बीज है। हृदय, नाभि, नासिका, कान तथा पैर का अंगुष्ठ-ये समान प्राण के स्थान हैं॥ यह समान बहत्तर हजार नाड़ियों तथा शरीर के अट्ठाईस करोड़ रोम कूपों में रहता है॥ समान और प्राण भिन्न-भिन्न नहीं, अपितु एक हैं, दोनों एक ही जीव हैं। चित्त को दृढ़ता से समाहित कर पूरक, कुम्भक, रेचक तीनों क्रियायें सम्पन्न करे। हृदयकमल के कोटर में धीरे-धीरे सबको आकर्षित करके, प्राणवायु और अपान को अवरुद्ध करते हुए प्रणव (ॐकार) का उच्चारण करे॥ कण्ठ का संकोचन करके लिङ्ग का संकोचन करे, तत्पश्चात् मूलाधार से पद्मतन्तु की तरह प्रकट होने वाली सुषुम्ना नाड़ी का संकोचन करे॥ सुषुम्ना के आश्रित वीणा-दण्ड से उठने वाला अमूर्त नाद सुनाई पड़ता है, जैसे शंखनाद आदि के मध्य (अमूर्त ध्वनि) सुनाई पड़ता है॥९७-१०२॥
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व्योमरन्ध्रगतो नादो मायूरं नादमेव च ।
कपालकुहरे मध्ये चतुर्द्वारस्य मध्यमे ॥ १०३॥
तदात्मा राजते तत्र यथा व्योम्नि दिवाकरः ।
कोदण्डद्वयमध्ये तु ब्रह्मरन्ध्रेषु शक्तितः ॥ १०४॥
स्वात्मानं पुरुषं पश्येन्मनस्तत्र लयं गतम् ।
रत्नानि ज्योत्स्निनादं तु बिन्दुमाहेश्वरं पदम् ।
य एवं वेद पुरुषः स कैवल्यं समश्नुत इत्युपनिषत् ॥ १०५॥
व्योमरन्ध्र (आकाशरन्ध्र) से गमन करने वाला नाद मोर (पक्षी की) ध्वनि के समान रहता है, कपाल कुहर के मध्य चार द्वारों वाला बीच का स्थान है। व्योम में सूर्य के सुशोभित होने के समान ही आत्मा यहाँ प्रतिष्ठित है और ब्रह्म प्राप्ति के स्थान पर ब्रह्मरन्ध्र में कोदण्ड (धनुष) द्वय के बीच शक्ति स्थित है। जहाँ मन को तल्लीन करके अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, वहीं रत्नों से ज्योतिष्मान् नादबिन्दु महेश का स्थान है। जो पुरुष इसका ज्ञाता है, वह कैवल्य पद को प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥१०३-१०५॥
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ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥
सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति ध्यानबिन्दूपनिषत्समाप्ता ॥
16. नादबिन्दूपनिषत् (ऋग्वेदीय योगोपनिषत्) [अर्थ सहित]
वैराजात्मोपासनया सञ्जातज्ञानवह्निना ।
दग्ध्वा कर्मत्रयं योगी यत्पदं याति तद्भजे ॥
सरलार्थ : ज्ञान की अग्नि के माध्यम से सभी तीन कर्मों को जला दिया, और भक्ति के माध्यम से पुनर्जन्म लिया (ब्रह्म), योगिन उस स्थान पर जाता है जहां वह पूजा करता है।
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ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्टितम् ।
सरलार्थ : ओम, वाणी और मन में शांति हो सकती है।
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आविरावीर्म एधि । वेदस्य मा आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ।
ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि ।
तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।
अवतु मामवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ अकारो दक्षिणः पक्ष उकारस्तूत्तरः स्मृतः ।
मकारं पुच्छमित्याहुरर्धमात्रा तु मस्तकम् ॥ १॥
सरलार्थ : ॐ कार रूप हंस का ‘अकार’ दक्षिण पक्ष (दाहिना पंख) तथा ‘उकार’ उत्तर पक्ष (बायाँ पंख) कहा गया है। उसकी पूँछ ही ‘मकार’ है और अर्धमात्रा ही उसका शीर्ष भाग है॥ १ ॥
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पादादिकं गुणास्तस्य शरीरं तत्त्वमुच्यते ।
धर्मोऽस्य दक्षिणश्चक्षुरधर्मो योऽपरः स्मृतः ॥ २॥
सरलार्थ : उस (ॐ कार रूप हंस) के दोनों पैर रजोगुण एवं तमोगुण हैं और (उसका) शरीर सतोगुण कहा गया है। धर्म (उसका) दक्षिण चक्षु है और अधर्म बायाँ चक्षु (नेत्र) कहा गया है ॥ २ ॥
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भूर्लोकः पादयोस्तस्य भुवर्लोकस्तु जानुनि ।
सुवर्लोकः कटीदेशे नाभिदेशे महर्जगत् ॥ ३॥
सरलार्थ : उस (हंस) के दोनों पैरों में भूः (पृथ्वी) लोक स्थित है। उसकी जंघाओं में भुवः (अन्तरिक्ष) लोक केन्द्रित है। स्वः (स्वर्ग) लोक उसके कटिप्रदेश तथा महः लोक उसके नाभि प्रदेश में स्थित है ॥ ३ ॥
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जनोलोकस्तु हृद्देशे कण्ठे लोकस्तपस्ततः ।
भ्रुवोर्ललाटमध्ये तु सत्यलोको व्यवस्थितः ॥ ४॥
सरलार्थ : उसके हृदय स्थल में जनः लोक और कण्ठ प्रदेश में तपोलोक विद्यमान है। ललाट और भौहों के मध्य में सत्य लोक स्थित है ॥ ४॥
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सहस्रार्णमतीवात्र मन्त्र एष प्रदर्शितः ।
एवमेतां समारूढो हंसयोगविचक्षणः ॥ ५॥
न भिद्यते कर्मचारैः पापकोटिशतैरपि ।
आग्नेयी प्रथमा मात्रा वायव्येषा तथापरा ॥ ६॥
सरलार्थ : इस प्रकार से वर्णित सहस्रावयव युक्त प्रणवरूप हंस पर आसीन होकर कर्मानुष्ठान-ध्यान आदि में रत हंस योगी- विचक्षण पुरुष ओंकार की श्रेष्ठ विधि से मनन व चिन्तन करता हुआ सहस्रों-करोड़ों पापों से निवृत्त होकर मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। (‘अकार’ नामक) प्रथम मात्रा ‘आग्नेयी’ कही गयी है और (‘उकार’ नामक) द्वितीया मात्रा ‘वायव्या’ कही गयी है ॥ ५-६ ॥
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भानुमण्डलसंकाशा भवेन्मात्रा तथोत्तरा ।
परमा चार्धमात्रा या वारुणीं तां विदुर्बुधाः ॥ ७॥
सरलार्थ : तत्पश्चात् ‘मकार’ नामक यह तृतीय ‘मात्रा’ सूर्य मण्डल के समतुल्य है। चतुर्थ मात्रा ‘अर्धमात्रा’ के रूप में वारुणी कही गयी है ॥ ७॥
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कालत्रयेऽपि यत्रेमा मात्रा नूनं प्रतिष्ठिताः ।
एष ओङ्कार आख्यातो धारणाभिर्निबोधत ॥ ८॥
सरलार्थ : इन उपर्युक्त चारों मात्राओं में से हर एक मात्रा तीन-तीन काल अथवा कला रूप है। इस प्रकार ‘ॐकार’ को द्वादश कलाओं से युक्त कहा गया है। धारणा, ध्यान एवं समाधि के द्वारा इसे जानने का प्रयास करना चाहिए ॥ ८ ॥
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घोषिणी प्रथमा मात्रा विद्युन्मात्रा तथाऽपरा ।
पतङ्गिनी तृतीया स्याच्चतुर्थी वायुवेगिनी ॥ ९॥
सरलार्थ : प्रथम मात्रा ‘घोषिणी’ कही गई है। द्वितीय मात्रा का नाम ‘विद्युन्मात्रा’ है, तृतीय मात्रा ‘पातङ्गी’ और चतुर्थ मात्रा ‘वायुवेगिनी’ के नाम से जानी जाती है ॥९॥
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पञ्चमी नामधेया तु षष्ठी चैन्द्र्यभिधीयते ।
सप्तमी वैष्णवी नाम अष्टमी शाङ्करीति च ॥ १०॥
सरलार्थ : पाँचवी मात्रा का नाम ‘नामधेया’ है और छठवीं मात्रा ‘ऐन्द्री’ के नाम से जानी जाती है। सातवीं मात्रा का नाम ‘वैष्णवी’ और आठवीं मात्रा ‘शाङ्करी’ के नाम से प्रसिद्ध है ॥ १० ॥
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नवमी महती नाम धृतिस्तु दशमी मता ।
एकादशी भवेन्नारी ब्राह्मी तु द्वादशी परा ॥ ११॥
सरलार्थ : नौवीं मात्रा ‘महती’ तथा दसवीं मात्रा को ‘धृति’ (ध्रुवा) कहा गया है। ग्यारहवीं मात्रा ‘नारी’ (मौनी) और बारहवीं मात्रा ‘ब्राह्मी’ के नाम से जानी जाती है ॥ ११ ॥
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प्रथमायां तु मात्रायां यदि प्राणैर्वियुज्यते ।
भरते वर्षराजासौ सार्वभौमः प्रजायते ॥ १२॥
सरलार्थ : प्रथम मात्रा में यदि साधक अपने प्राणों का परित्याग कर देता है, तो वह भारतवर्ष में सार्वभौमिक चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में प्रादुर्भूत होता है ॥ १२ ॥
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द्वितीयायां समुत्क्रान्तो भवेद्यक्षो महात्मवान् ।
विद्याधरस्तृतीयायां गान्धर्वस्तु चतुर्थिका ॥ १३॥
सरलार्थ : द्वितीय मात्रा में जब साधक के प्राणों का उत्क्रमण होता है, तब वह महान् महिमाशाली यक्ष के रूप में उत्पन्न होता है। तृतीय मात्रा में प्राण त्याग करने पर विद्याधर के रूप में और चतुर्थ मात्रा में प्राण के परित्याग करने से गन्धर्व के रूप में जन्म लेता है ॥ १३ ॥
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पञ्चम्यामथ मात्रायां यदि प्राणैर्वियुज्यते ।
उषितः सह देवत्वं सोमलोके महीयते ॥ १४॥
सरलार्थ : यदि पाँचवीं मात्रा में उस के प्राणों का उत्क्रमण होता है, तो वह ‘तुषित’ नामक देवों के साथ निवास करता हुआ चन्द्रलोक में सम्मानित होता है ॥ १४ ॥
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षष्ठ्यामिन्द्रस्य सायुज्यं सप्तम्यां वैष्णवं पदम् ।
अष्टम्यां व्रजते रुद्रं पशूनां च पतिं तथा ॥ १५॥
सरलार्थ : छठवीं मात्रा में साधक देवराज इन्द्र के सायुज्य पद को प्राप्त करता है। सातवीं मात्रा में भगवान् विष्णु के पद-वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करता है तथा आठवीं मात्रा में पशुपति भगवान् शिव के रुद्रलोक में जाकर उनकी समीपता का लाभ प्राप्त करता है ॥ १५ ॥
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नवम्यां तु महर्लोकं दशम्यां तु जनं व्रजेत् ।
एकादश्यां तपोलोकं द्वादश्यां ब्रह्म शाश्वतम् ॥ १६॥
सरलार्थ : नव मात्रा में महः लोक को, दसवीं मात्रा में जनः लोक (ध्रुवलोक) को प्राप्त होता है। ग्यारहवीं मात्रा में तपोलोक को और बारहवीं मात्रा में साधक शाश्वत ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है ॥ १६ ॥
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ततः परतरं शुद्धं व्यापकं निर्मलं शिवम् ।
सदोदितं परं ब्रह्म ज्योतिषामुदयो यतः ॥ १७॥
सरलार्थ : इससे भी परतर (परे), श्रेष्ठ, व्यापक, शुद्ध, निर्मल, कल्याणकारी, सदैव उदीयमान वह परमब्रह्मतत्त्व है। उसी से सभी तरह की ज्योतियाँ प्रादुर्भूत हुई हैं ॥ १७ ॥
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अतीन्द्रियं गुणातीतं मनो लीनं यदा भवेत् ।
अनूपमं शिवं शान्तं योगयुक्तं सदा विशेत् ॥ १८॥
सरलार्थ : जब श्रेष्ठ साधक का मन समस्त इन्द्रियों एवं सत् , रज और तम आदि तीनों गुणों से परे होकर परमतत्त्व में विलीन हो जाता है, तब वह उपमारहित, कल्याणकारी, शान्तस्वरूप हो जाता है; ऐसी उच्च स्थिति में पहुँचे हुए साधकों को योग युक्त कहा जाना चाहिए ॥ १८ ॥
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तद्युक्तस्तन्मयो जन्तुः शनैर्मुञ्चेत्कलेवरम् ।
संस्थितो योगचारेण सर्वसङ्गविवर्जितः ॥ १९॥
सरलार्थ : उस योगयुक्त और तन्मय हुए साधक को अविद्या आदि दोषों से मुक्त और योग पद्धति से स्वस्थ (आत्मा में स्थित) होकर सभी प्रकार के आसक्ति आदि दोषों से रहित हो जाना चाहिए ॥ १९ ॥
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ततो विलीनपाशोऽसौ विमलः कमलाप्रभुः ।
तेनैव ब्रह्मभावेन परमानन्दमश्नुते ॥ २०॥
सरलार्थ : इस प्रकार उसके समस्त सांसारिक बन्धनों का शमन हो जाता है। वह निर्मल, कैवल्यपद को प्राप्त कर स्वयं ही परमात्म स्वरूप हो जाता है। वह ब्रह्मभाव से परमानन्द को प्राप्त करके असीम आनन्द की अनुभूति करता है ॥ २० ॥
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आत्मानं सततं ज्ञात्वा कालं नय महामते ।
प्रारब्धमखिलं भुञ्जन्नोद्वेगं कर्तुमर्हसि ॥ २१॥
सरलार्थ : हे ज्ञानवान् पुरुष ! तुम सतत प्रयत्न करते हुए आत्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करो। उसी के सच्चिन्तन में अपने समय को लगाओ। प्रारब्ध कर्मानुसार जो भी कष्ट-कठिनाइयाँ सामने आयें, उनको भोगते हुए तुम्हें उद्विग्न नहीं होना चाहिए ॥ २१ ॥
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उत्पन्ने तत्त्वविज्ञाने प्रारब्धं नैव मुञ्चति ।
तत्त्वज्ञानोदयादूर्ध्वं प्रारब्धं नैव विद्यते ॥ २२॥
देहादीनामसत्त्वात्तु यथा स्वप्नो विबोधतः ।
कर्म जन्मान्तरीयं यत्प्रारब्धमिति कीर्तितम् ॥ २३॥
सरलार्थ : आत्मज्ञान के प्रादुर्भूत होने पर भी प्रारब्ध स्वयं त्याग नहीं करता, किन्तु जैसे ही तत्त्वज्ञान का प्राकट्य होता है, वैसे ही प्रारब्ध कर्म का क्षय हो जाता है। जैसा कि स्वप्रलोक के देहादिक असत् होने के कारण जाग्रत् होने पर विलुप्त हो जाते हैं, विगत जन्मों में जो किये हुए कर्म हैं, उन्हीं कर्मों को प्रारब्ध कर्म की संज्ञा प्रदान की गई है ॥ २२-२३ ॥
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तत्तु जन्मान्तराभावात्पुंसो नैवास्ति कर्हिचित् ।
स्वप्नदेहो यथाध्यस्तस्तथैवायं हि देहकः ॥ २४॥
सरलार्थ : ज्ञानी के लिए तो जन्म-जन्मान्तर भी नहीं है। इसलिए प्रारब्ध कर्म ज्ञानी के लिए कभी भी बाधक नहीं होता। जैसे स्वप्रकालीन देह, देह नहीं होती, केवल अध्यास-मात्र ही होती है, वैसे ही यह जाग्रत् अवस्था का शरीर भी अध्यास मात्र ही है ॥ २४ ॥
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अध्यस्तस्य कुतो जन्म जन्माभावे कुतः स्थितिः ।
उपादानं प्रपञ्चस्य मृद्भाण्डस्येव पश्यति ॥ २५॥
सरलार्थ : अध्यस्त (अयथार्थ) की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? और उत्पत्ति के अभाव में उस वस्तु की स्थिति कैसे होगी? इसलिए इस प्रपञ्च का मुख्य उपादान कारण आत्मा ही है। जैसे कि मिट्टी के द्वारा निर्मित पात्रों का उपादान कारण मिट्टी होती है ॥ २५ ॥
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अज्ञानं चेति वेदान्तैस्तस्मिन्नष्टे क्व विश्वता ।
यथा रज्जुअं परित्यज्य सर्पं गृह्णाति वै भ्रमात् ॥ २६॥
तद्वत्सत्यमविज्ञाय जगत्पश्यति मूढधीः ।
रज्जुखण्डे परिज्ञाते सर्परूपं न तिष्ठति ॥ २७॥
सरलार्थ : वेदान्तानुसार ये सभी सांसारिक प्रपञ्च अज्ञानान्धकार के कारण आत्मा में ही प्रतिभासित होते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार के विनष्ट होने पर संसार की स्थिति नहीं रह जाती। जिस तरह भ्रम बुद्धि से ग्रस्त मनुष्य रज्जु बुद्धि का परित्याग कर उसे सर्प बुद्धि से ग्रहण करता है, अर्थात् रस्सी को सर्प समझने लगता है, इसी तरह अज्ञानी (मूढ़) मनुष्य सत्य (आत्मा) का ज्ञान (बोध) न होने के कारण इस भ्रम- बुद्धिवश सांसारिक प्रपञ्च का अवलोकन करता है। जब मनुष्य ठीक तरह से उस रस्सी को पहचान लेता है, तो पूर्व में दृष्टिगोचर होने वाले सर्प की भावना नहीं रह जाती ॥ २६-२७ ॥
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अधिष्ठाने तथा ज्ञाते प्रपञ्चे शून्यतां गते ।
देहस्यापि प्रपञ्चत्वात्प्रारब्धावस्थितिः कृतः ॥ २८॥
सरलार्थ : जिस तरह अधिष्ठान स्वरूप आत्मतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर प्रपञ्च शून्यता को प्राप्त हो जाता है, ऐसी स्थिति में देह भी प्रपञ्चरूप होने के कारण प्रारब्ध की स्थिति किस प्रकार रह सकती है? ॥ २८ ॥
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अज्ञानजनबोधार्थं प्रारब्धमिति चोच्यते ।
ततः कालवशादेव प्रारब्धे तु क्षयं गते ॥ २९॥
सरलार्थ : अज्ञान से ग्रसित लोगों को बोध कराने के लिए प्रारब्ध कर्म की बात कही जाती है। तदनन्तर कालवश ही सांसारिक प्रारब्ध कर्मों का विनाश हो जाता है ॥ २९ ॥
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ब्रह्मप्रणवसन्धानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः ।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव ॥ ३०॥
सरलार्थ : तत्पश्चात् ‘ॐकार’ स्वरूप ब्रह्म की आत्मा के साथ एकता के चिन्तन से नादरूप में स्वयं प्रकाशमान शिव के कल्याणकारी स्वरूप (परब्रह्म) का प्रादुर्भाव उसी प्रकार हो जाता है, जिस प्रकार बादलों के हट जाने पर भगवान् भास्कर प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ३० ॥
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सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय वैष्णवीम् ।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा ॥ ३१॥
सरलार्थ : योगी को सिद्धासन से बैठने के पश्चात् वैष्णवी मुद्रा धारण करनी चाहिए। तदनन्तर दाहिने कान के अन्दर उठते हुए नाद का सतत श्रवण करना चाहिए ॥ ३१ ॥
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अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यमावृणुते ध्वनिम् ।
पक्षाद्विपक्षमखिलं जित्वा तुर्यपदं व्रजेत् ॥ ३२॥
सरलार्थ : इस प्रकार नाद का किया गया अभ्यास बाह्य ध्वनियों को आवृत कर लेता है, इस तरह दोनों पक्षों ‘अकार’ और ‘मकार’ को जीतकर क्रमशः सम्पर्ण ओंकार’ को शनैः-शनै: आत्मसात् कर तुर्यावस्था को प्राप्त कर लेता है॥ ३२ ॥
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श्रूयते प्रथमाभ्यासे नादो नानाविधो महान् ।
वर्धमानस्तथाभ्यासे श्रूयते सूक्ष्मसूक्ष्मतः ॥ ३३॥
सरलार्थ : अभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में यह महान्नाद (अनाहत ध्वनि) विभिन्न तरह से सुनायी देता है। इसके अनन्तर जब अभ्यास अधिक बढ़ जाता है, तब उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप सुनायी पड़ने लगते हैं ॥ ३३ ॥
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आदौ जलधिमूतभेरीनिर्झरसम्भवः ।
मध्ये मर्दलशब्दाभो घण्टाकाहलजस्तथा ॥ ३४॥
अन्ते तु किङ्किणीवंशवीणाभ्रमरनिःस्वनः ।
इति नानाविधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्मसूक्ष्मतः ॥ ३५॥
सरलार्थ : इस नाद की ध्वनि प्रारम्भिक काल में समुद्र, मेघ, भेरी तथा झरनों से उत्पन्न ध्वनि के समान सुनायी देती है। इसके बाद बीच की अवस्था में मृदङ्ग, घंटे और नगाड़े की भाँति यह ध्वनि सुनाई पड़ती है। अन्त में अर्थात् उत्तरावस्था में किङ्किणी, वंशी, वीणा एवं भ्रमर की ध्वनि के समान मधुर नादध्वनि सुनायी पड़ती है। इस प्रकार सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते हुए नाना प्रकार के नाद सुनायी पड़ते हैं ॥ ३४-३५ ॥
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महति श्रूयमाणे तु महाभेर्यादिकध्वनौ ।
तत्र सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत् ॥ ३६॥
सरलार्थ : निरन्तर नाद का अभ्यास करते हुए जब भेरी आदि की ध्वनि तेजी से सुनायी पड़ने लगे, तब उसमें भी सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर नाद के सुनने का विचार करना चाहिए ॥ ३६ ॥
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घनमुत्सृज्य वा सूक्ष्मे सूक्ष्ममुत्सृज्य वा घने ।
रममाणमपि क्षिप्तं मनो नान्यत्र चालयेत् ॥ ३७॥
सरलार्थ : वह घन नाद को छोड़कर सूक्ष्मनाद (मन्द ध्वनि) या फिर सूक्ष्म नाद का परित्याग करके घन नाद में मन को केन्द्रित करे। अन्यत्र और कहीं भी इधर-उधर मन को भ्रमित न होने दे ॥ ३७ ॥
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यत्र कुत्रापि वा नादे लगति प्रथमं मनः ।
तत्र तत्र स्थिरीभूत्वा तेन सार्धं विलीयते ॥ ३८॥
सरलार्थ : साधक का मन सर्वप्रथम जहाँ-कहीं किसी भी सूक्ष्म (अतिमन्द) अथवा घननाद (अभेद्यध्वनि) में लगता है। उसको (मन को) वहीं केन्द्रित करना चाहिए। ऐसा करने से वह (चित्त) स्वयमेव तन्मय होने लगता है ॥ ३८ ॥
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विस्मृत्य सकलं बाह्यं नादे दुग्धाम्बुवन्मनः ।
एकीभूयाथ सहसा चिदाकाशे विलीयते ॥ ३९॥
सरलार्थ : साधक का मन सभी सांसारिक बाह्य-प्रपंचों से विस्मृत होकर दूध में मिश्रित जल की भाँति नाद में एकीभूत हो जाता है। इस प्रकार वह (मन) नाद के साथ अकस्मात् ही चिदाकाश में स्वयं को विलय कर लेता है ॥ ३९ ॥
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उदासीनस्ततो भूत्वा सदाभ्यासेन संयमी ।
उन्मनीकारकं सद्यो नादमेवावधारयेत् ॥ ४०॥
सरलार्थ : संयमी पुरुष को चाहिए कि नाद-श्रवण से भिन्न विषयों-वासनाओं को उपेक्षित करके सतत अभ्यास द्वारा मन को तत्क्षण ही उस नाद में नियोजित करे और सदैव चिन्तन के द्वारा उसी में रमण करता रहे ॥ ४० ॥
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सर्वचिन्तां समुत्सृज्य सर्वचेष्टाविवर्जितः ।
नादमेवानुसंदध्यान्नादे चित्तं विलीयते ॥ ४१॥
सरलार्थ : योगी साधक को चाहिए कि सतत चिन्तन करते हुए समस्त चिन्ताओं का परित्याग कर सभी तरह की चेष्टाओं से मन को हटाकर नाद का ही अनुसन्धान करे; क्योंकि चित्त का नाद में लय हो जाता है ॥ ४१ ॥
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मकरन्दं पिबन्भृङ्गो गन्धान्नापेक्षते तथा ।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि काङ्क्षति ॥ ४२॥
सरलार्थ : जिस प्रकार भ्रमर फूलों का रस ग्रहण करता हुआ पुष्पों के गन्ध की अपेक्षा नहीं रखता है, ठीक वैसे ही सतत नाद में तल्लीन रहने वाला चित्त विषय-वासना आदि की आकांक्षा नहीं करता है ॥ ४२ ॥
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बद्धः सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्तचापलः ।
नादग्रहणतश्चित्तमन्तरङ्गभुजङ्गमः ॥ ४३॥
सरलार्थ : यह चित्त रूपी अन्तरङ्ग भुजङ्ग (सर्प) नाद को सुनने के पश्चात् उस सुन्दर नाद की गन्ध से आबद्ध हो जाता है और तत्क्षण ही सभी तरह की चपलताओं का परित्याग कर देता है ॥ ४३ ॥
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विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धावति ।
मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ॥ ४४॥
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशिताङ्कुशः ।
नादोऽन्तरङ्गसारङ्गबन्धने वागुरायते ॥ ४५॥
अन्तरङ्गसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि च ।
ब्रह्मप्रणवसंलग्ननादो ज्योतिर्मयात्मकः ॥ ४६॥
सरलार्थ : तदनन्तर (वह मन) विश्व (सांसारिकता) को विस्मृत करके तथा एकाग्रता को धारण करके (विषयों में) इधर-उधर कहीं भी नहीं दौड़ता है। विषय-वासना रूपी उद्यान में विचरण करने वाले मन रूपी उन्मत्त गजेन्द्र को वश में करने में यह नादरूपी अति तीक्ष्ण अंकुश ही समर्थ होता है। यह नाद मनरूपी हिरण को बाँधने में जाल का कार्य करता है और मन रूपी तरङ्ग को रोकने में तट का काम करता है। ब्रह्मरूप प्रणव में संयुक्त हुआ यह नाद स्वयं ही प्रकाश स्वरूप होता है ॥ ४४-४६ ॥
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मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ।
तावदाकाशसङ्कल्पो यावच्छब्दः प्रवतते ॥ ४७॥
सरलार्थ : मन वहाँ ही विलय को प्राप्त हो जाता है। वहीं परम श्रेष्ठ भगवान् विष्णु का परम पद है। मन में आकाश तत्त्व का संकल्प तभी तक रहता है, जब तक कि शब्दों का उच्चारण और श्रवण होता है ॥ ४७ ॥
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निःशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मा समीर्यते ।
नादो यावन्मनस्तावन्नादान्तेऽपि मनोन्मनी ॥ ४८॥
सरलार्थ : नि:शब्द होने पर तो वह परमब्रह्म के परमात्म-तत्त्व का अनुभव करने लगता है। नाद के रहने तक ही मन का अस्तित्व बना रहता है। नाद के समापन होने पर मन भी ‘अमन’ (शून्यवत्) हो जाता है ॥ ४८ ॥
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सशब्दश्चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।
सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना भवेत् ॥ ४९॥
निरञ्जने विलीयेते मनोवायू न संशयः ।
नादकोटिसहस्राणि बिन्दुकोटिशतानि च ॥ ५०॥
सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्मप्रणवनादके ।
सर्वावस्थाविनिर्मुक्तः सर्वचिन्ताविवर्जितः ॥ ५१॥
मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशयः ।
शङ्खदुन्दुभिनादं च न श्रुणोति कदाचन ॥ ५२॥
सरलार्थ : सशब्द अर्थात् शब्दयुक्त नाद के अक्षर स्वरूप ब्रह्म में क्षीण (लय) हो जाने पर वह नि:शब्द परमपद कहलाता है। जब सतत नाद का अनुसन्धान करने पर समस्त विषय-वासनाएँ पूर्णरूपेण नष्ट हो जाती हैं, तदुपरान्त मन एवं प्राण दोनों संशयरहित हो उस निराकार परमब्रह्म में लय हो जाते हैं। करोड़ों-करोड़ नाद एवं बिन्दु उस ब्रह्मरूप प्रणव नाद में विलीन हो जाते हैं। वह योगी जाग्रत् , स्वप्न तथा सुषुप्ति आदि सभी अवस्थाओं से मुक्त होकर सभी तरह की चिन्ताओं से रहित हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह योगी मरे हुए व्यक्ति की भाँति रहता है। निश्चय ही वह योगी मुक्तावस्था प्राप्त कर लेता है और वह (योगी) शङ्ख-दुन्दुभि आदि (लौकिक) नाद का श्रवण कभी भी नहीं करता ॥ ४९-५२॥
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काष्ठवज्ज्ञायते देह उन्मन्यावस्थया ध्रुवम् ।
न जानाति स शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा ॥ ५३॥
सरलार्थ : जिस अवस्था में मन ‘अमन’ हो जाता है, उस अवस्था के प्राप्त होने पर शरीर लकड़ी की भाँति चेष्टारहित सा हो जाता है। वह (मन) न शीत जानता है, न गर्मी जानता है और न ही वह सुख-दुःख का अनुभव करता है ॥ ५३ ॥
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न मानं नावमानं च संत्यक्त्वा तु समाधिना ।
अवस्थात्रयमन्वेति न चित्तं योगिनः सदा ॥ ५४॥
सरलार्थ : वह (योगी) मान-अपमान से परे हो जाता है। समाधि द्वारा वह इन सभी का पूर्णतया परित्याग कर देता है। योगी का चित्त तीनों अवस्थाओं-जाग्रत् , स्वप्न, सुषुप्ति आदि का कभी भी अनुगमन नहीं करता है (अर्थात् उससे परे हो जाता है) ॥ ५४॥
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जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्तः स्वरूपावस्थतामियात् ॥ ५५॥
दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यम् वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम् ।
चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बम् स ब्रह्मतारान्तरनादरूपः ॥ ५६॥
इत्युपनिषत् ॥
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सरलार्थ : (वह) योगी जाग्रत् और निद्रा (स्वप्न) की अवस्था से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप में स्थिर हो जाता है। दृश्य वस्तु के अभाव में भी जिसकी दृष्टि स्थिर हो जाती है, बिना प्रयास के ही जिसका प्राण अपने स्थान पर सुस्थिर हो जाता है तथा बिना किसी आश्रय अथवा अवलम्बन के ही जिसका चित्त स्थिरता को प्राप्त हो जाता है, ऐसा वह (योगी) ब्रह्ममय प्रणव नाद के अन्तर्वर्ती तुरीयावस्था (परमानंद) में सदैव स्थित हो जाता है। यही उपनिषद् है ॥ ५५-५६ ॥
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ॐ वाङ्मे मनसीति शान्तिः ॥
इति नादबिन्दूपनिषत्समाप्ता ॥
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
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॥ अथ ईशोपनिषत् ॥
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ॐ ईशा वास्यमिदꣳ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥ १॥
सरलार्थ : सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ये जगत हैं, सब ईशा द्वारा ही व्याप्त है । उसके द्वारा त्यागरूप जो भी तुम्हारे लिए प्रदान किया गया है उसे अनासक्त रूप से भोगो । किसी के भी धन की इच्छा मत करो ॥१॥
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतꣳ समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ २॥
सरलार्थ : इस लोक में करने योग्य कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए । तुम्हारे लिए इसके सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है । इस प्रकार कर्मों का लेप नहीं होता ॥२॥
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असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ।
ताꣳस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥ ३॥
सरलार्थ : असुर्य सम्बन्धी जो लोक और योनियाँ हैं, वे अज्ञान और अन्धकार से आच्छादित हैं । जो मनुष्य आत्म का हनन करते हैं, वे मरकर उन्ही लोकों को प्राप्त होते हैं ॥३॥
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अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥ ४॥
सरलार्थ : वह आत्मतत्व अविचलित, एक तथा मन से भी तीव्र गति वाला है । इसे इन्द्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकतीं क्योंकि यह उन सबसे पहले है । वह स्थिर होते हुए भी सभी गतिशीलों का अतिक्रमण किये हुए है । उसी की सत्ता में ही वायु समस्त प्राणियों के प्रवृतिरूप कर्मों का विभाग करता है ॥४॥
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तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ ५॥
सरलार्थ : वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता । वह दूर है और समीप भी है । वह सबके अंतर्गत है और वही सबके बाहर भी है ॥५॥
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यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ ६॥
सरलार्थ : जो मनुष्य समस्त भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी से भी घृणा कैसे कर सकता है ॥६॥
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यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥ ७॥
सरलार्थ : जिस स्थिति में मनुष्य के लिए सब भूत आत्मा ही हो गए उस समय एकत्व देखने वाले उस ज्ञानी को क्या मोह और क्या शोक रह जाता है ॥७॥
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स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरꣳ शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भू-
र्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥ ८॥
सरलार्थ : वह आत्मा परम तेजोमय, शरीरों से रहित, अक्षत, स्नायु से रहित, शुद्ध, शुभाशुभकर्म-सम्पर्कशून्य, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयंभू है । वही अनादि काल से सब अर्थों की रचना और विभाग करता आया है ॥८॥
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अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाꣳ रताः ॥ ९॥
सरलार्थ : जो अविद्या की उपासना करते हैं, घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं । जो विद्या में रत हैं वे मानो उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं ॥९॥
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अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥ १०॥
सरलार्थ : विद्या का फल अन्य है तथा अविद्या का फल अन्य है । ऐसा हमने उन धीर पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें वह समझाया था ॥१०॥
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विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयꣳ सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ ११॥
सरलार्थ : जो विद्या और अविद्या दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ॥११॥
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अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याꣳ रताः ॥ १२॥
सरलार्थ : जो असम्भूति की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं, और जो सम्भूति में ही रत हैं, वे मानो और भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं ॥१२॥
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अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात् ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥ १३॥
सरलार्थ : सम्भूति का फल अन्य है और असम्भूति का फल अन्य है । ऐसा हमने उन धीर पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें वह समझाया था ॥१३॥
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सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयꣳ सह ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ॥ १४॥
सरलार्थ : जो सम्भूति और विनाशशील दोनों को ही एक साथ जानता है, वह विनाशशील की उपासना से मृत्यु को पार करके अविनाशी की उपासना के द्वारा अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ॥१४॥
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हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥ १५॥
सरलार्थ : वह, सत्य का मुख, स्वर्णरूप ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है । हे पूषन ! तू उस आवरण को हटा दे, जिससे कि सत्यधर्मी को उसका दर्शन हो सके ॥१५॥
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पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य
व्यूह रश्मीन् समूह तेजः ।
यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि
योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥ १६॥
सरलार्थ : हे पोषण करने वाले ! हे ज्ञानस्वरूप ! हे नियन्ता ! हे सूर्य ! हे प्रजापति ! अपनी इन रश्मि समूहों को एकत्र कर के हटा दें । इस तेज को अपने तेज में मिला लें । मैं इस प्रकार उस अतिशय कल्याणतम रूप को देखता हूँ । वह जो परम पुरुष है, वह मैं ही हूँ ॥१६॥
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वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतꣳ शरीरम् ।
ॐ क्रतो स्मर कृतꣳ स्मर क्रतो स्मर कृतꣳ स्मर ॥ १७॥
सरलार्थ : अब यह प्राण उस सर्वात्मक वायु, अनिल, अविनाशी को प्राप्त हो । और शरीर भस्म हो । ॐ … अब किये हुए को स्मरण कर, किये हुए को स्मरण कर ॥१७॥
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अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्
विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नमौक्तिं विधेम ॥ १८॥
सरलार्थ : हे अग्नि ! आप ही धन हैं । सर्वस्व हैं । समस्त कर्मों को जानने वाले हैं । हे देव ! आपकी प्राप्ति में मेरे जो भी प्रतिबन्धक कर्म हैं, उन्हें दूर करें । आपको बार-बार नमस्कार है ॥१८॥
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॥ इति ईशोपनिषत् ॥
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
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एकाक्षरपदारूढं सर्वात्मकमखण्डितम् ।
सर्ववर्जितचिन्मात्रं त्रिपान्नारायणं भजे ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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हरिः ॐ
एकाक्षरं त्वक्षरेऽत्रास्ति सोमे
सुषुम्नायां चेह दृढी स एकः ।
त्वं विश्वभूर्भूतपतिः पुराणः
पर्जन्य एको भुवनस्य गोप्ता ॥ १॥
सरलार्थ : हे भगवन् ! आप अक्षर, सोम, परब्रह्म के रूप में तथा सुषुम्ना में अपनी सत्ता सहित प्रतिष्ठित एक ही अविनाशी तत्त्व एकाक्षर में स्थित रहते हैं। आप ही विश्व के कारणरूप, प्राणिमात्र के स्वामी, पुराण पुरुष एवं सभी रूपों में विद्यमान हैं। (आप ही) पर्जन्य के द्वारा सभी लोकों की रक्षा करने वाले हैं ॥ १ ॥
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विश्वे निमग्नपदवीः कवीनां
त्वं जातवेदो भुवनस्य नाथः ।
अजातमग्रे स हिरण्यरेता
यज्ञैस्त्वमेवैकविभुः पुराणः ॥ २॥
सरलार्थ : आप ही समस्त विश्व-वसुधा के कण-कण में जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान हैं। आप कवियों के आश्रयभूत हैं, समस्त लोकों की रक्षा करने वाले हैं । आप ही हिरण्यरेती (अग्नि) रूप और यज्ञ रूप भी हैं। आप ही एक मात्र विराट् एवं पूर्ण पुरुष हैं ॥ २ ॥
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प्राणः प्रसूतिर्भुवनस्य योनि-
र्व्याप्तं त्वया एकपदेन विश्वम् ।
त्वं विश्वभूर्योनिपारः स्वगर्भे
कुमार एको विशिखः सुधन्वा ॥ ३॥
सरलार्थ : जिस प्रकार माला के प्रत्येक दाने में सूत्र रहता है, उसी प्रकार आप ही प्रमुख रूप से समस्त विश्व में प्राण रूप में संव्याप्त एवं उसके उत्पत्ति के कारण स्वरूप हैं। आपने ही समस्त विश्व को एक पग से माप लिया है, अतः आप ही इस विश्व संरचना के उत्पत्ति स्थल भी हैं। आप ही प्राण रूप में सर्वत्र व्याप्त संसार के रक्षक रूप तथा श्रेष्ठ धनुष को धारण करने वाले कुमार स्वरूप हैं ॥ ३ ॥
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वितत्य बाणं तरुणार्कवर्णं
व्योमान्तरे भासि हिरण्यगर्भः ।
भासा त्वया व्योम्नि कृतः सुतार्क्ष्य-
स्तवं वै कुमारस्त्वमरिष्टनेमिः ॥ ४॥
सरलार्थ : हे परमात्मन्! आप ही मध्याह्नकालीन सूर्य के तेज की भाँति बाण को अपनी ओर आकृष्ट करके, माया द्वारा रचित इन समस्त प्राणियों के हृदयरूप आकाश में प्रकाशमान हिरण्यगर्भ रूप हैं। आपके ही दिव्य प्रकाश से भगवान् भास्कर आकाश में प्रकाशित होते हैं। आप ही देवताओं के सेनापति कार्तिकेय के रूप में प्रतिष्ठित हैं और गरुड़ की तरह सभी अरिष्टों (विघ्नों) का भलीभाँति नियमन करने वाले हैं ॥ ४ ॥
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त्वं वज्रभृद्भूतपतिस्त्वमेव ।
कामः प्रजानां निहितोऽसि सोमे ।
स्वाहा स्वधा यच्च वषट् करोति
रुद्रः पशूनां गुहया निमग्नः ॥ ५॥
सरलार्थ : आप ही वज्र को धारण करने वाले इन्द्र के रूप में तथा रुद्र रूप में समस्त प्रजाओं के स्वामी हैं। आप ही अभीष्ट फलदायी पितरों के रूप में चन्द्रलोक में स्थित हैं तथा देवों एवं पितरों की तृप्ति हेतु सम्पन्न होने वाले यज्ञ और श्राद्ध अर्थात् स्वाहा, स्वधा एवं वषट्कार रूप हैं। आप ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हैं ॥ ५ ॥
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धाता विधाता पवनः सुपर्णो
विष्णुर्वराहो रजनी रहश्च ।
भूतं भविष्यत्प्रभवः क्रियाश्च ।
कालः क्रमस्त्वं परमाक्षरं च ॥ ६॥
सरलार्थ : आप ही धाता तथा विधाता, पवन, गरुड़, विष्णु, वाराह, रात एवं दिन हैं। आप ही भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान भी हैं। सभी क्रियाएँ, कालगति और परमाक्षर रूप में आप ही विद्यमान हैं ॥ ६ ॥
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ऋचो यजूंशि प्रसवन्ति वक्त्रा-
त्सामानि सम्राड्वसुवन्तरिक्षम् ।
त्वं यज्ञनेता हुतभुग्विभुश्च
रुद्रास्तथ दैत्यगणा वसुश्च ॥ ७॥
सरलार्थ : जिसके मुख से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद आदि उत्पन्न होते हैं, वे आप ही हैं। आप ही सम्राट्, वसु, अन्तरिक्ष, यज्ञीय प्रक्रिया सम्पन्न करने वाले, यज्ञीय भाग ग्रहण करने वाले एवं सर्वशक्तिमान् हैं। आप ही एकादश रुद्र, दैत्यरूप एवं सर्वत्र व्याप्त होने वाले हैं ॥ ७ ॥
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स एष देवोऽम्बरगश्च चक्रे
अन्येऽभ्यधिष्ठेत तमो निरुन्ध्यः ।
हिरण्मयं यस्य विभाति सर्वं
व्योमान्तरे रश्मिमिवांशुनाभिः ॥ ८॥
सरलार्थ : विभिन्न रूपों वाले आप ही सूर्य मण्डल में विद्यमान तथा अन्यत्र अज्ञानान्धकार को विनष्ट करते हुए प्रतिष्ठित हैं। जिस विराट् स्वरूप के हृदयरूपी आकाश में ब्रह्माण्ड गर्भिणी ‘सुनाभि’ स्थित है, वह भी आप ही हैं। सूर्यादि में जो प्रकाशमान रश्मियाँ हैं, वे आपकी ही प्रकाश किरणें हैं ॥ ८ ॥
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स सर्ववेत्ता भुवनस्य गोप्ता
ताभिः प्रजानां निहिता जनानाम् ।
प्रोता त्वमोता विचितिः क्रमाणां
प्रजापतिश्छन्दमयो विगर्भः ॥ ९॥
सरलार्थ : वही सब कुछ जानने वाला, समस्त भुवनों का रक्षक एवं समस्त प्राणि-समुदाय का आधार स्वरूप नाभि है। अन्तर्यामी रूप में आप ही सर्वत्र ओत-प्रोत हैं। आप ही विविध प्रकार की गतियों के विश्रान्ति रूप हैं। आप की विष्णु के गर्भ में प्रजापति के रूप में स्थित हैं एवं वेद भी आप ही हैं ॥ ९ ॥
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सामैश्चिदन्तो विरजश्च बाहूं
हिरण्मयं वेदविदां वरिष्ठम् ।
यमध्वरे ब्रह्मविदः स्तुवन्ति
सामैर्यजुर्भिः क्रतुभिस्त्वमेव ॥ १०॥
सरलार्थ : वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ज्ञानीजन रजोगुण से परे, स्वर्ण कान्ति वाले के अन्त को साम आदि वेदों से भी नहीं जान पाते। ब्रह्मवेत्ताजन यज्ञों में यजुर्वेद के मन्त्रों से तथा सामवेदी जन साम मन्त्रों से जिसकी स्तुति करते हैं, वे आप ही हैं ॥ १० ॥
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त्वं स्त्री पुमांस्त्वं च कुमार एक-
स्त्वं वै कुमारी ह्यथ भूस्त्वमेव ।
त्वमेव धाता वरुणश्च राजा
त्वं वत्सरोऽग्न्यर्यम एव सर्वम् ॥ ११॥
सरलार्थ : आप अकेले ही स्त्री, पुरुष, कुमार एवं कुमारी हैं । आप ही पृथिवी हैं। आप ही धाता, वरुण, सम्राट्, संवत्सर, अग्नि और अर्यमा हैं। आप ही सब कुछ हैं ॥ ११ ॥
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मित्रः सुपर्णश्चन्द्र इन्द्रो रुद्र-
स्त्वष्टा विष्णुः सविता गोपतिस्त्वम् ।
त्वं विष्णुर्भूतानि तु त्रासि दैत्यां-
स्त्वयावृतं जगदुद्भवगर्भः ॥ १२॥
सरलार्थ : सूर्य, गरुड़, चन्द्र, वरुण, रुद्र, प्रजापति, विष्णु, सविता, गोपति जो कि वागादि इन्द्रियों के स्वामी कहे जाते हैं, वे आप ही हैं। आप ही विष्णु बन कर समस्त मानव जाति को दैत्यों के भय से त्राण दिलाने वाले हैं। आप ही जगत् के जनक भूगर्भरूप हैं। आपके द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आवृत है ॥ १२ ॥
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त्वं भूर्भुवः स्वस्त्वं हि
स्वयंभूरथ विश्वतोमुखः ।
य एवं नित्यं वेदयते गुहाशयं
प्रभुं पुराणं सर्वभूतं हिरण्मयम् ॥ १३॥
सरलार्थ : आप ही स्वयम्भू एवं विश्वतोमुख हैं। आप ही भू:, भुवः, स्व: आदि में प्रतिष्ठित हैं। जो भी मनुष्य अपने गुहारूप हृदय क्षेत्र में स्थित पुराण पुरुषोत्तम आदिपुरुष को ‘प्राणस्वरूप’ एवं ‘प्रकाश स्वरूप’ जानता है। वह ब्रह्मज्ञानियों की परमगति को , अज्ञानग्रस्त भ्रम बुद्धि का अतिक्रमण करके प्राप्त कर लेता है। यही उपनिषद् है॥ १३ ॥
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हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं
स बुद्धिमान्बुद्धिमतीत्य तिष्ठतीत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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इत्येकाक्षरोपनिषत्समाप्ता ॥
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19. ऐतरेयोपनिषत्
वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥
वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्
संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु
तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
॥ अथ ऐतरेयोपनिषदि प्रथमाध्याये प्रथमः खण्डः ॥
प्रथम अध्याय
प्रथम खण्ड
ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किंचन मिषत् । स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति ॥ १॥
ॐ
सबसे पहले एकमात्र यह आत्मा ही था । उसके सिवा सक्रियरूप कोई भी न था । उसने इच्छा की – ‘लोकों का सृजन करूँ’ ॥१॥
स इमाँ ल्लोकानसृजत । अम्भो मरीचीर्मापोऽदोऽम्भः परेण दिवं
द्यौः प्रतिष्ठाऽन्तरिक्षं मरीचयः ॥
पृथिवी मरो या अधस्तात्त आपः ॥ २॥
उसने इन लोकों का सृजन किया – अम्भ, मरीचि, मर और आप । देव से परे और द्यौ जिसकी प्रतिष्ठा है, वह ‘अम्भ’ है । अन्तरिक्ष ‘मरीचि’ है । पृथ्वी ‘मर’ है । जो नीचे स्थित है वह ‘आप’ है ॥२॥
स ईक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति ॥ सोऽद्भ्य एव पुरुषं
समुद्धृत्यामूर्छयत् ॥ ३॥
उसने उन लोकों के लोकपालों का सृजन करने की इच्छा की । उसने जल से ही पुरुष निकालकर उसे मूर्तिमान किया ॥३॥
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाऽण्डं
मुखाद्वाग्वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतं नासिकाभ्यां प्राणः ॥
प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतमक्षीभ्यां चक्षुश्चक्षुष
आदित्यः कर्णौ निरभिद्येतां कर्णाभ्यां श्रोत्रं
श्रोत्रद्दिशस्त्वङ्निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो
हृदयं निरभिद्यत हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत
नाभ्या अपानोऽपानान्मृत्युः
शिश्नं निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो रेतस आपः ॥ ४॥
उसने सँकल्परूप तप किया । उस तप से अण्डे के सामान मुख उत्पन्न हुआ । मुख से वाक् और वाक्-इन्द्रिय से अग्नि उत्पन्न हुआ । नासिकारन्ध्र प्रकट हुए, नासिकारन्ध्रों से प्राण और प्राण से वायु प्रकट हुआ । आखें प्रकट हुईं, आँखों से चक्षु-इन्द्रिय और चक्षु से सूर्य प्रकट हुआ । कर्ण प्रकट हुए, कर्णों से श्रोत्र-इन्द्रिय और श्रोत्र से दिशाएँ प्रकट हुईं । त्वचा प्रकट हुई, त्वचा से रोम और रोमों से ओषधि एवं वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं । हृदय प्रकट हुआ, हृदय से मन और मन से चन्द्रमा प्रकट हुआ । नाभि प्रकट हुई, नाभि से अपान और अपान से मृत्यु प्रकट हुआ । शिश्न प्रकट हुआ तथा शिश्न से रेतस् और रेतस् से आप उत्पन्न हुआ ॥४॥
॥ इत्यैतरेयोपनिषदि प्रथमाध्याये प्रथमः खण्डः ॥
॥ अथ ऐतरेयोपनिषदि प्रथमाध्याये द्वितीयः खण्डः ॥
द्वितीय खण्ड
ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन्महत्यर्णवे प्रापतन् । तमशनापिपासाभ्यामन्ववार्जत् । ता एनमब्रुवन्नायतनं नः प्रजानीहि यस्मिन्प्रतिष्ठिता अन्नमदामेति ॥ १॥
इस प्रकार सृजित ये सब देवता इस महान् समुद्र को प्राप्त होकर भूख और प्यास से संयुक्त कर दिए गए । वे उससे बोले – ऐसे आश्रयस्थान की व्यवस्था करें, जिसमें स्थित रहकर अन्न का भक्षण कर सकें ॥१॥
ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ।
ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ॥ २॥
उनके लिए गौ लाये । उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए पर्याप्त नही है । उनके लिए अश्व लाये । उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए पर्याप्त नही है ॥२॥
ताभ्यः पुरुषमानयत्ता अब्रुवन् सुकृतं बतेति पुरुषो वाव सुकृतम् ।
ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति ॥ ३॥
उनके लिए पुरुष लाये । उन्होंने कहा यह बहुत सुन्दर बना है । निश्चय पुरुष ही सुन्दर रचना है । उसने कहा – ‘अपने-अपने आश्रयस्थान में प्रवेश कर जाओ’ ॥३॥
अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके
प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविशाद्दिशः
श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा
त्वचंप्राविशंश्चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो
भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन् ॥ ४॥
अग्नि वाक् होकर मुख में प्रवेश कर गया । वायु प्राण होकर नासिकारन्ध्रों में प्रवेश कर गया । सूर्य चक्षु होकर आँखों में प्रवेश कर गया । दिशा श्रोत्र होकर कानों में प्रवेश कर गया । ओषधि और वनस्पति रोम होकर त्वचा में प्रवेश कर गए । चन्द्रमा मन होकर हृदय में प्रवेश कर गया । मृत्यु अपान होकर नाभि में प्रवेश कर गया । जल रेतस् होकर शिश्न में प्रवेश कर गया ॥४॥
तमशनायापिपासे अब्रूतामावाभ्यामभिप्रजानीहीति ते अब्रवीदेतास्वेव
वां देवतास्वाभजाम्येतासु भागिन्न्यौ करोमीति । तस्माद्यस्यै कस्यै
च देवतायै हविर्गृह्यते भागिन्यावेवास्यामशनायापिपासे भवतः ॥ ५॥
भूख-प्यास ने उससे कहा कि हमारे लिए भी व्यवस्था करें । वह बोला – ‘तुम्हें इन देवताओं में ही भाग दूँगा, इन्हीं का भागीदार बनाता हूँ’ । अतः जिस किसी देवता के लिए हवि ग्रहण की जाती है, उसमें भूख और प्यास दोनों ही भागीदार होती हैं ॥५॥
॥ इत्यैतरेयोपनिषदि प्रथमाध्याये द्वितीयः खण्डः ॥
॥ अथ ऐतरेयोपनिषदि प्रथमाध्याये तृतीयः खण्डः ॥
तृतीय खण्ड
स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति ॥ १॥
उसने इच्छा की – ‘अब इन लोक और लोकपालों के लिए अन्न की रचना करूँ’ ॥१॥
सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत ।
या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत् ॥ २॥
उसने अप् (जल) के माध्यम से तप किया । उस तपे हुए जल से मूर्ति उत्पन्न हुई । वह जो मूर्ति उत्पन्न हुई वही अन्न है ॥२॥
तदेनत्सृष्टं पराङ्त्यजिघांसत्तद्वाचाऽजिघृक्षत्
तन्नाशक्नोद्वाचा ग्रहीतुम् ।
स यद्धैनद्वाचाऽग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥ ३॥
रचा गया वह अन्न उससे विमुख होकर भागने की इच्छा करने लगा । तब उसने वाणी द्वारा उसे ग्रहण करने की चेष्टा की । वाणी द्वारा ग्रहण न कर सका । यदि वह वाणी द्वारा ही इसे ग्रहण लेता तो फिर अन्न का वर्णन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ।॥३॥
तत्प्राणेनाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुं स
यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य
हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥ ४॥
उसे प्राण से ग्रहण करने की चेष्टा की । प्राण से ग्रहण न कर सका । यदि वह प्राण से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न के लिए प्राणक्रिया करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥४॥
तच्चक्षुषाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्चक्षुषा ग्रहीतु/न् स
यद्धैनच्चक्षुषाऽग्रहैष्यद्दृष्ट्वा हैवानमत्रप्स्यत् ॥ ५॥
उसे चक्षु से ग्रहण करने की चेष्टा की । चक्षु से ग्रहण न कर सका । यदि वह चक्षु से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को देखने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥५॥
तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुं स
यद्धैनच्छ्रोतेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥ ६॥
उसे श्रोत्र से ग्रहण करने की चेष्टा की । श्रोत्र से ग्रहण न कर सका । यदि वह श्रोत्र से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को सुनने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥६॥
तत्त्वचाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोत्त्वचा ग्रहीतुं स
यद्धैनत्त्वचाऽग्रहैष्यत् स्पृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥ ७॥
उसे त्वचा से ग्रहण करने की चेष्टा की । त्वचा से ग्रहण न कर सका । यदि वह त्वचा से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को स्पर्श करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥७॥
तन्मनसाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोन्मनसा ग्रहीतुं स
यद्धैनन्मनसाऽग्रहैष्यद्ध्यात्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥ ८॥
उसने मन से ग्रहण करने की चेष्टा की । मन से ग्रहण न कर सका । यदि वह मन से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का ध्यान करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥८॥
तच्छिश्नेनाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्छिश्नेन ग्रहीतुं स
यद्धैनच्छिश्नेनाग्रहैष्यद्वित्सृज्य हैवानमत्रप्स्यत् ॥ ९॥
उसे शिश्न से ग्रहण करने की चेष्टा की । शिश्न से ग्रहण न कर सका । यदि वह शिश्न से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का विसर्जन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥९॥
तदपानेनाजिघृक्षत् तदावयत् सैषोऽन्नस्य ग्रहो
यद्वायुरनायुर्वा एष यद्वायुः ॥ १०॥
उसे अपान से ग्रहण करने की चेष्टा की । उसको ग्रहण कर लिया । यह ही अन्न का गृह है । जो वायु अन्न से सम्बन्धित आयु के लिए प्रसिद्द है यही वह है ॥१०॥
स ईक्षत कथं न्विदं मदृते स्यादिति स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति ।
स ईक्षत यदि वाचाऽभिव्याहृतं यदि प्राणेनाभिप्राणितं यदि
चक्षुषा दृष्टं यदि श्रोत्रेण श्रुतं
यदि त्वचा स्पृष्टं यदि मनसा ध्यातं यद्यपानेनाभ्यपानितं
यदि शिश्नेन विसृष्टमथ कोऽहमिति ॥ ११॥
उसने विचार किया – ‘यह मेरे बिना कैसे रहेगा’ । यदि वाणी द्वारा बोल लिया जाए, प्राण द्वारा प्राणन कर लिया जाय, यदि चक्षु द्वारा देख लिया जाय, यदि कान से सुन लिया जाय, यदि त्वचा से स्पर्श कर लिया जाय, यदि मन से चिन्तन कर लिया जाय, यदि अपान से भक्षण कर लिया जाय और शिश्न से विसर्जन कर लिया जाय, तब मैं कौन हुआ ? उसने इच्छा की – ‘किस मार्ग से प्रवेश करूँ’ ॥११॥
स एतमेव सीमानं विदर्यैतया द्वारा प्रापद्यत । सैषा विदृतिर्नाम
द्वास्तदेतन्नाऽन्दनम् ।
तस्य त्रय आवसथास्त्रयः स्वप्ना अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथ
इति ॥ १२॥
उसने इसकी सीमा को विदीर्ण कर द्वार प्राप्त किया । वह यह द्वार ‘विद्रति’ नामवाला है । वही यह आनन्द देने वाला है । उसके तीन आश्रयस्थान ही तीन स्वप्न हैं । यही आश्रय है, यही आश्रय है, यही आश्रय है ॥१२॥
स जातो भूतान्यभिव्यैख्यत् किमिहान्यं वावदिषदिति ।स एतमेव
पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत् । इदमदर्शनमिती ३ ॥ १३॥
तब उस जन्म पाये हुए ने भूत-जगत को ग्रहण किया और कहा – ‘यहाँ दूसरा कौन है’ । उसने इस पुरुष को ही ब्रह्मरूप से देखा । ‘मैंने इसे देख लिया’ ॥१३॥
तस्मादिदन्द्रो नामेदन्द्रो ह वै नाम । तमिदन्द्रं सन्तमिंद्र
इत्याचक्षते परोक्षेण ।
परोक्षप्रिया इव हि देवाः परोक्षप्रिया इव हि देवाः ॥ १४॥
इसलिए वह इदन्द्र नाम वाला हुआ । इदन्द्र ही उसका नाम हैं। इदन्द्र होने पर भी उसे परोक्षरूप से इन्द्र ही पुकारते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं ॥१४॥
॥ इत्यैतरेयोपनिषदि प्रथमाध्याये तृतीयः खण्डः ॥
॥ अथ ऐतरोपनिषदि द्वितीयोध्यायः ॥
द्वितीय अध्याय
ॐ पुरुषे ह वा अयमादितो गर्भो भवति यदेतद्रेतः ।
तदेतत्सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यस्तेजः संभूतमात्मन्येवऽऽत्मानं बिभर्ति
तद्यदा स्त्रियां सिञ्चत्यथैनज्जनयति तदस्य प्रथमं जन्म ॥ १॥
सबसे पहले यह पुरुष शरीर में ही गर्भरूप से रहता है । यह जो रेतस् है, वह सभी अंगों का तेज है, आत्मभाव से उसे स्वयं में ही धारण करता है । जब उसको स्त्री में सिंचन करता है, तब उसको ही उत्पन्न करता है । यही इसका पहला जन्म है ॥१॥
तत्स्त्रिया आत्मभूयं गच्छति यथा स्वमङ्गं तथा । तस्मादेनां न हिनस्ति ।
साऽस्यैतमात्मानमत्र गतं भावयति ॥ २॥
वह स्त्री के ही आत्मभाव को प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार स्वयं का अंग होता है । इसी कारण उसे पीड़ा नहीं देता । वह यहाँ आये हुए उस आत्म का पालन करती है ॥२॥
सा भावयित्री भावयितव्या भवति । तं स्त्री गर्भ बिभर्ति । सोऽग्र
एव कुमारं जन्मनोऽग्रेऽधिभावयति ।
स यत्कुमारं जन्मनोऽग्रेऽधिभावयत्यात्मानमेव तद्भावयत्येषं
लोकानां सन्तत्या ।
एवं सन्तता हीमे लोकास्तदस्य द्वितीयं जन्म ॥ ३॥
तब वह पोषण करने वाली, स्वयं भी पोषण के योग्य होती है । वह स्त्री गर्भ धारण करती है । वह कुमार के रूप में जन्म लेता है, उन्नति करता है । इस प्रकार वह आत्म ही कुमाररूप में जन्म लेता हुआ और उन्नति करता हुआ लोकों का विस्तार करता है । इस प्रकार लोक में संततिरूप से यह ही दूसरा जन्म है ॥३॥
सोऽस्यायमात्मा पुण्येभ्यः कर्मभ्यः प्रतिधीयते । अथास्यायामितर आत्मा
कृतकृत्यो वयोगतः प्रैति ।
स इतः प्रयन्नेव पुनर्जायते तदस्य तृतीयं जन्म ॥ ४॥
वह यह आत्म उसके पुण्यों का प्रतिनिधि हो जाता है । और इसका वह अन्य आत्म कर्तव्यों को पूर्ण करके, आयु पूरी होने पर प्रस्थान करता है । और यहाँ से जाकर ही फिर पुनः जन्म लेता है, यह इसका तीसरा जन्म है ॥४॥
तदुक्तमृषिणा गर्भे नु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि
विश्वा शतं मा पुर आयसीररक्षन्नधः श्येनो जवसा निरदीयमिति
। गर्भ एवैतच्छयानो वामदेव एवमुवाच ॥ ५॥
यही बात ऋषि ने कही है – ‘मैंने गर्भ में रहते हुए ही इन देवताओं के समस्त जन्मों को जान लिया है । मुझे सैकड़ों लोहे के समान कठोर शरीरों ने अवरुद्ध कर रखा था अब मैं बाज़ पक्षी के समान वेग से सबको तोड़ता हुआ बाहर निकल आया हूँ’ । गर्भ में सोए हुए ही वामदेव ऋषि ने इस प्रकार यह कहा ॥५॥
स एवं विद्वानस्माच्छरीरभेदादूर्ध्व उत्क्रम्यामुष्मिन् स्वर्गे लोके
सर्वान् कामानाप्त्वाऽमृतः समभवत् समभवत् ॥ ६॥
इस प्रकार जानने वाला वह इस शरीर को भेदकर, ऊपर की ओर उत्क्रमण करके उस स्वर्गलोक में समस्त कामनाओं से तृप्त होकर अमृत हो गया, हो गया ॥६॥
॥ इत्यैतरोपनिषदि द्वितीयोध्यायः ॥
॥ अथ ऐतरोपनिषदि तृतीयोध्यायः ॥
तृतीय अध्याय
ॐ कोऽयमात्मेति वयमुपास्महे कतरः स आत्मा । येन वा पश्यति येन
वा शृणोति येन वा गंधानाजिघ्रति येन वा वाचं व्याकरोति येन
वा स्वादु चास्वादु च विजानाति ॥ १॥
कौन है वह आत्मा जिसकी हम उपासना करते हैं ? कौन है वह आत्मा जिससे देखा जाता है, जिससे सुना जाता है, जिससे गन्ध को सूँघा जाता है, जिससे वाणी को व्याकरित किया जाता है, जिससे स्वाद और आस्वाद को जाना जाता है ?॥१॥
यदेतद्धृदयं मनश्चैतत् । संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं
प्रज्ञानं मेधा
दृष्टिर्धृतिमतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः संकल्पः क्रतुरसुः कामो
वश इति ।
सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवंति ॥ २॥
यह जो हृदय है वही मन भी है । संज्ञान्, आज्ञान्, विज्ञान, प्रज्ञान, मेधा, द्रष्टि, धृति, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु, काम और वश – ये सब के सब प्रज्ञान् के ही नामधेय हैं ॥२॥
एष ब्रह्मैष इन्द्र एष प्रजापतिरेते सर्वे देवा इमानि च
पञ्चमहाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो
ज्योतींषीत्येतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव ।
बीजानीतराणि चेतराणि चाण्डजानि च जारुजानि च स्वेदजानि चोद्भिज्जानि
चाश्वा गावः पुरुषा हस्तिनो यत्किञ्चेदं प्राणि जङ्गमं च पतत्रि
च यच्च स्थावरं सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रं प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं
प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञानं ब्रह्म ॥ ३॥
यह ब्रह्म है, यह इन्द्र है, यही प्रजापति है, यही समस्त देव और पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज – ये पाँच महाभूत है, यही क्षुद्र जीवों सहित उनके बीज और अण्डज, जरायुज, स्वेदज, उद्भिज्ज, अश्व, गौ, हाथी, एवं मनुष्य है तथा जो कुछ भी यह पँखोंवाले, जंगम और स्थावर, प्राणिवर्ग हैं वह सब प्रज्ञानेत्र हैं । प्रज्ञान में ही प्रतिष्ठित प्रज्ञानेत्र लोक है । प्रज्ञा ही प्रतिष्ठा है, प्रज्ञान् ही ब्रह्म है ॥३॥
स एतेन प्राज्ञेनाऽऽत्मनाऽस्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके सर्वान्
कामानाप्त्वाऽमृतः समभवत् समभवत् ॥ ४॥
वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस स्वर्ग लोक में इस प्रज्ञानरूप आत्म सहित सभी कामनाओं से तृप्त हो अमृत हो गया, हो गया ॥४॥
॥ इत्यैतरोपनिषदि तृतीयोध्यायः ॥
ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म
एधि वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्
संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु
तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
परिव्रज्याधर्मपूगालंकारा यत्पदं ययुः ।
तदहं कठविद्यार्थं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
देवा ह वै भगवन्तमब्रुवन्नधीहि भगवन्ब्रह्मविद्याम्। स प्रजापतिरब्रवीत् ॥ ||१||
एक बार समस्त देवगण भगवान् प्रजापति ब्रह्माजी के समीप जाकर बोले- हे भगवन्! आप कृपा करके हम लोगों को ब्रह्मविद्या का उपदेश करें॥१॥
सशिखान्केशान्निष्कृष्य विसृज्य यज्ञोपवीतं निष्कृष्य ततः पुत्रं दृष्ट्वा त्वं ब्रह्मा त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोंकारस्त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं धाता त्वं विधाता। अथ पुत्रो वदत्यहं ब्रह्माहं यज्ञोऽहं वषट्कारोऽहमोंकारोऽहं स्वाहाहं स्वधाहं धाताहं विधाताहं त्वष्टाहं प्रतिष्ठास्मीति । तान्येतान्यनुव्रजन्नाश्रुमापातयेत्।यदश्रुमापातयेत्प्रजां विच्छिन्द्यात्। प्रदक्षिणमावृत्त्यैतच्यैतच्या-नवेक्षमाणाः प्रत्यायन्ति। स स्वर्ग्यो भवति ॥ ||२||
तब प्रजापति ने कहा- शिखा के साथ बालों को मुण्डन कराकर और यज्ञोपवीत का परित्याग करके, अपने पुत्र को देखकर उससे इस प्रकार कहे कि ‘तुम ब्रह्मा हो, तुम यज्ञ हो, तुम वषट्कार हो, तुम ॐकार हो , तुम स्वाहा हो, तुम स्वधा हो, तुम धाता हो, तुम विधाता हो’। ऐसा सुनने के बाद पुत्र कहे कि ‘मैं ब्रह्मा हूँ, मैं यज्ञ हूँ, मैं वषट्कार हैं, मैं ॐकार हैं, मैं स्वाहा और स्वधा हैं, मैं ही धाता, विधाता, त्वष्टा भी हैं तथा प्रतिष्ठा भी मैं ही हूँ।’ इस प्रकार से परिव्राजक (संन्यासी) होकर घर से बाहर निकलने पर जब पुत्र-पत्नी आदि पीछे-पीछे गमन करें, तो उन्हें देखकर के अश्रुपात न करे। यदि अश्रुपात करेगा, तो उसकी संतान विनष्ट हो जायेगी। तदनन्तर वे समस्त परिवारीजन संन्यासी की प्रदक्षिणा करने के पश्चात् उसे बिना देखे ही यदि वापस लौट जाते हैं, तो इस तरह का संन्यासी देवलोक का अधिकारी होता है॥२॥
ब्रह्मचारी वेदमधीत्य वेदोक्ताचरितब्रह्मचर्यो दारानाहृत्य पुत्रानुत्पाद्य ताननुरूपो पाधिभिर्वितत्येष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैस्तस्य संन्यासो गुरुभिरनुज्ञातस्य बान्धवैश्च ।सोऽरण्यं परेत्य द्वादशरात्रं पयसाग्निहोत्रं जुहुयात्।द्वादशरात्रं पयोभक्षः स्यात्।द्वादशरात्रस्यान्ते-ऽग्नये वैश्वानराय प्रजापतये च प्राजापत्यं च वैष्णवं त्रिकपालमग्निम्। संस्थितानि पूर्वाणि दारुपात्राण्यग्नौ जुहुयात्। मृण्मयान्यप्सु जुहुयात्। तैजसानि गुरवे दद्यात्। मा त्वं मामपहाय परागाः । नाहं त्वामपहाय परागामिति। गार्हपत्यदक्षिणाग्न्याहवनीयेष्वरणिदेशाद्भस्ममुष्टिं पिबेदित्येके। सशिखान्केशान्निष्कृष्य विसृज्य यज्ञोपवीतं भूः स्वाहेत्यप्सु जुहुयात्। अत ऊर्ध्वमनशनमपां प्रवेशमग्रिप्रवेशनं वीराध्वानं महाप्रस्थानं वृद्धाश्रमं वा गच्छेत्। पयसा यं प्राश्नीयात्सोऽस्य सायंहोमः। यत्प्रातः सोऽयं प्रातः । यद्दशैं तद्दर्शम्। यत्पौर्णमास्ये तत्पौर्णमास्यम्। यद्वसन्ते केशश्मश्रुलोमनखानि वापयेत्सोऽस्याग्निष्टोमः ॥ ||३||
ब्रह्मचारी द्वारा वेदों-शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मचर्य का पालन करने के बाद विवाह करके गृहस्थ धर्म को निर्वाह करते हुए पुत्रोत्पत्ति के पश्चात् उनको सुसंस्कृत बनाकर, अपनी शक्ति के अनुसार यज्ञ-हवन आदि करने के उपरान्त अपने इष्ट-मित्रों तथा गुरुजनों से आज्ञा लेकर संन्यास ग्रहण किया जा सकता है। इस प्रकार संन्यास आश्रम में प्रवेश करने वाला वन में जाकर द्वादश रात्रियों तक दुग्ध से अग्निहोत्र करे और साथ ही द्वादश रात्रियों तक केवल दुग्धाहार पर रहे। द्वादश रात्रियों के पश्चात् विष्णु एवं रुद्र से सम्बन्धित चरु को, जो तीन कपाल (मिट्टी के पात्रों) पर सिद्ध किया (पकाया) गया हो; वैश्वानर अग्नि तथा प्रजापति के उद्देश्य से हवन कर दे। अग्निहोत्र में उपयोग किये हुए काष्ठ पात्रों को भी अग्नि में आहुति रूप में समर्पित कर दे। मिट्टी के पात्रों को जलाशय में समर्पित कर दे और स्वर्णादि के बने पदार्थों को अपने गुरु को दे दे। उस समय (गुरु के प्रति) इस प्रकार कहे ‘तुम मुझे छोड़कर दूर गमन न करना तथा मैं तुम्हें त्याग कर दूर नहीं जाऊँगा।’ कुछ शास्त्रों का मत है कि इसके पश्चात् गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय इन तीन प्रकार की यज्ञाग्नियों से अरणियों के पास से एक मुट्ठी भस्म लेकर पान (ग्रहण) करे। शिखा के साथ बालों को मुण्डन कराके तथा यज्ञोपवीत को उतार कर ‘ॐ भूः स्वाहा’ मंत्र को पढ़ते हुए जलाशय में विसर्जित कर दे। तत्पश्चात् अनशन, जल प्रवेश, अग्नि प्रवेश, वीरों के मार्ग का अनुसरण करके महाप्रस्थान करे या फिर किसी वृद्ध संन्यासी के आश्रम में निवास हेतु गमन करे । दुग्ध अथवा जल के सहित जो कुछ भी वह भोजन करे, वही भोजने उसका सायंकालीन यज्ञ है और प्रात:काल के समय में जो भोज्य पदार्थ ग्रहण करे, वही उसका प्रात:कालीन हवन है। अमावस्या के दिन जिस भोजन को ग्रहण करता है, वही उसका दर्शयज्ञ है। पूर्णिमा को जो भोजन ग्रहण करता है, वही उसका पौर्णमास्य यज्ञ है और वसन्त ऋतु में जो वह केश, दाढी, पूँछ, रोएँ, नख आदि कटवाता है, वही उसका अग्निष्टोम कहा गया है॥३॥
संन्यस्याग्निं न पुनरावर्तयेन्मृत्युर्जयमावहमित्यध्यात्ममन्त्राञ्जपेत्। स्वस्ति सर्वजीवेभ्य इत्युक्त्वाऽऽत्मानमनन्यं ध्यायन् तदूर्ध्वबाहुर्विमुक्तमार्गों भवेत्। अनिकेतश्चरेत्। भिक्षाशी यत्किंचिन्नाद्यात् । लवैकं न धावयेज्जन्तुसंरक्षणार्थं वर्षवर्जमिति । तदपि श्लोका भवन्ति ।। ||४||
संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् पुनः अग्नि का आधान अर्थात् अग्नि की स्थापना नहीं करनी चाहिए। केवल ‘मृत्युर्जयमावहम्’ आदि आध्यात्मिक मन्त्रों का जप करना चाहिए। समस्त भूत-प्राणियों का कल्याण हो, ऐसा कहकर केवल आत्मतत्त्व का चिन्तन करता हुआ, ऊर्ध्व की ओर हाथों को उठाये हुए (परमात्मा के अतिरिक्त और किसी से साधन प्राप्त होने की कामना से मुक्त होकर) प्रपञ्च रहित मार्ग में गृहहीन होकर विचरण करे। भिक्षा के द्वारा प्राप्त अन्न के अतिरिक्त और कुछ भी ग्रहण न करे। एक स्थान पर क्षण-मात्र भी न रुके, सतत विचरण करता रहे। जीव-हिंसा से बचे रहने के लिए वर्षाकाल में विचरण की प्रक्रिया को विराम दे दे। इस संदर्भ (संन्यासी की मर्यादा) में कुछ ऐक भी हैं॥४॥
कुण्डिकां चमसं शिक्यं त्रिविष्टपमुपानहौ। शीतोपघातिनीं कन्थां कौपीनाच्छादनं तथा ॥ ||५||
पवित्रं स्नानशाटीं च उत्तरासङ्गमेव च। यज्ञोपवीतं वेदांश्च सर्वं तद्वर्जयेद्यतिः ॥ ||६||
स्नानं पार्न तथा शौचमद्भिः पूताभिराचरेत्। नदीपुलिनशायी स्याद्देवागारेषु वा स्वपेत् ॥ ||७||
नात्यर्थं सुखदुःखाभ्यां शरीरमुपतापयेत्। स्तूयमानो न तुष्येत निन्दितो न शपेत्परान् ॥ ||८||
संन्यास ग्रहण करने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह कुण्डिका, चमस (यज्ञीय पात्र) और शिक्य (झोली) आदि को एवं तिपाई, जूते, (जाड़े को दूर करने वाली) कन्था (कथरी), कौपीन के ऊपर अङ्गाच्छादन करने वाला वस्त्र, कुश की बनी हुई पवित्री, स्नान के पश्चात् धारण करने वाले वस्त्र, उत्तरीय वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा वेदाध्ययन आदि सभी का परित्याग कर दे। वह अपना स्नान, पान एवं शौच आदि कृत्य पवित्र जल से सम्पन्न करे। नदी के तट पर अथवा देव मंदिर में जाकर शयन करे। वह अधिक विश्राम न करे अथवा अधिक परिश्रम से शरीर को व्यर्थ में कष्ट न दे। वह दूसरों के द्वारा अपनी प्रशंसा श्रवण करके न प्रसन्न हो तथा न निन्दा या अपमान किये जाने पर गाली अथवा शाप दे॥५-८॥
ब्रह्मचर्येण संतिष्ठेदप्रमादेन मस्करी। दर्शनं स्पर्शनं केलिः कीर्तनं गुह्यभाषणम्॥ ||९||
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिवृत्तिरेव च। एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ||१०||
विपरीतं ब्रह्मचर्यमनुष्ठेयं मुमुक्षुभिः । यज्जगद्धासकं भानं नित्यं भाति स्वतः स्फुरत् ॥ ||११||
संन्यासी को आलस्य-प्रमाद से रहित होकर संयमपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करते हुए जीवनयापन करना चाहिए। स्त्रियों का दर्शन, स्पर्श, क्रीड़ा, चर्चा, गुह्य (काम तत्त्व से सम्बन्धित) विषयों की बात-चीत, | काम-सङ्कल्प, सम्भोग के लिए प्रयत्न तथा सम्भोग की क्रिया-ये आठ प्रकार के मैथुन विद्वान् पुरुषों के द्वारा बताये गये हैं। उक्त आठ प्रकार के मैथुन के त्याग रूप ब्रह्मचर्य का पालन मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखने वाले लोगों को करना चाहिए॥९-११॥
स एष जगतः साक्षी सर्वात्मा विमलाकृतिः । प्रतिष्ठा सर्वभूतानां प्रज्ञानघनलक्षणः ॥ ||१२||
न कर्मणा न प्रजया न चान्येनापि केनचित्। ब्रह्मवेदनमात्रेण ब्रह्माप्नोत्येव मानवः ।। ||१३||
जो जगत् को प्रकाश देने वाला है, नित्य प्रकाश रूप में स्वप्रकाशित है, वही समस्त जगत् का साक्षी है, निर्मल आकृति वाला (वह) सभी की आत्मा है। वह प्रज्ञानघन के रूप में है, समस्त प्राणि-समुदाय उसी ब्रह्म में प्रतिष्ठित हैं। मनुष्य परब्रह्म परमात्मा को न कर्म के द्वारा, न सन्तान के द्वारा और न ही दूसरे अन्य किसी साधन के द्वारा पा सकता है; अपितु वह उस परब्रह्म को ब्रह्मानुभव के द्वारा ही प्राप्त कर सकता है॥१२-१३॥
तद्विद्याविषयं ब्रह्म सत्यज्ञानसुखाद्वयम्। सारे च गुहावाच्ये मायाज्ञानादिसंज्ञिके ॥ ||१४||
निहितं ब्रह्म यो वेद परमे व्योग्नि संज्ञिते । सोऽश्नुते सकलान्कामान्क्रमेणैव द्विजोत्तमः ॥ ||१५||
प्रत्यगात्मानमज्ञानमायाशक्तेश्च साक्षिणम्।एकं ब्रह्माहमस्मीति ब्रह्मैव भवति स्वयम्॥ ||१६||
वह सत्य-ज्ञान-आनन्द स्वरूप अद्वितीय ब्रह्म इस माया, अज्ञान एवं गुहा आदि नामों से कहे जाने वाले संसार में विद्यमान है। उस ब्रह्म को मात्र विद्या (सद्ज्ञान) के माध्यम से ही जाना जाता है। जो मनुष्य परम व्योम रूपी नित्य धाम में विद्यमान इस अविनाशी ब्रह्म को जानता है, वह (द्विजों में श्रेष्ठ) ब्राह्मण क्रमानुसार समस्त कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। उसकी सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। अज्ञान एवं माया शक्ति के साक्षीरूप प्रत्यगात्मा को जो मनुष्य ‘मैं एक ब्रह्मस्वरूप हूँ’ इस प्रकार जानता है, वह (मनुष्य) स्वयं ही ब्रह्मस्वरूप हो जाता है॥१४-१६॥
ब्रह्मभूतात्मनस्तस्मादेतस्माच्छक्तिमिश्रितात्।अपञ्चीकृत आकाशः संभूतो रज्जुसर्पवत्॥ ||१७||
आकाशाद्वायुसंज्ञस्तु स्पर्शोऽपञ्चीकृतः पुनः ।वायोरग्निस्तथा चाग्नेराप अद्भ्यो वसुन्धरा ॥ ||१८||
तानि सर्वाणि सूक्ष्माणि पञ्चीकृत्येश्वरस्तदा। तेभ्य एव विसृष्टं तद्ब्रह्माण्डादि शिवेन ह॥ ||१९||
ब्रह्माण्डस्योदरे देवा दानवा यक्षकिन्नराः। मनुष्याः पशुपक्ष्याद्यास्तत्तत्कर्मानुसारतः ॥ ||२०||
शक्ति सम्पन्न इस ब्रह्म रूप आत्मा से उसी प्रकार अपञ्चीकृत आकाश अर्थात् शब्द आदि तन्मात्राएँ उत्पन्न हुईं, जिस प्रकार रज्जु (रस्सी) में सर्प की प्रतीति होती है। इसके पश्चात् पुनः आकाश से वायु संज्ञक अपञ्चीकृत स्पर्श-तन्मात्राओं की उत्पत्ति हुई। तदनन्तर वायु से अग्नि की उत्पत्ति, अग्नि से जल की उत्पत्ति और जल से पृथिवी की उत्पत्ति हुई। उन सूक्ष्म भूतों को शिवस्वरूप ईश्वर ने पञ्चीकृत करके उन्हीं से ब्रह्माण्ड आदि की रचना की। ब्रह्माण्ड के उदर में समस्त भूत-प्राणियों के पूर्वकृत कर्मानुसार देव, दानव, यक्ष, किन्नर, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों की सृष्टि-रचना हुई॥१७-२०॥
अस्थिस्न्नाय्वादिरूपोऽयं शरीरं भाति देहिनाम्। योऽयमन्त्रमयो ह्यात्मा भाति सर्वशरीरिणः ॥ ||२१||
ततः प्राणमयो यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थितः । ततो मनोमयो ह्यात्मा विभिन्न श्चान्तरस्थितः ॥ ||२२||
ततो विज्ञान आत्मा तु ततोऽन्यश्चान्तरः स्वतः।आनन्दमय आत्मा तु ततोऽन्यश्चान्तरस्थितः ॥ ||२३||
योऽयमन्त्रमयः सोऽयं पूर्णः प्राणमयेन तु । मनोमयेन प्राणोऽपि तथा पूर्णः स्वभावतः ॥ ||२४||
तथा मनोमयो ह्यात्मा पूर्णो ज्ञानमयेन तु। आनन्देन सदा पूर्णः सदा ज्ञानमयः सुखम्॥ ||२५||
तथानन्दमय श्चापि ब्रह्मणोऽन्येन साक्षिणा। सर्वान्तरेण पूर्णश्च ब्रह्म नान्येन केनचित्॥ ||२६||
अस्थि, स्नायु आदि से निर्मित यह समस्त जीवों को शरीर भी अपने कर्मानुसार ही प्रकाशित हो रहा है। सभी शरीर धारण करने वालों का यह जो अन्नमय आत्मा स्थूल शरीर के माध्यम से प्रकाशित हो रहा है, उससे पृथक् एक प्राणमय आत्मा और है, जो कि इस अन्नमय आत्मा के अन्दर विद्यमान है। इससे भी सूक्ष्म और भिन्न मनोमय आत्मा है, जो प्राणमय के अन्दर स्थित है। इससे सूक्ष्म विज्ञानमय आत्मा है, जो मनोमय आत्मा के अन्दर विद्यमान है। इससे भी अतिसूक्ष्म आनन्दमय आत्मा है, जो विज्ञानमय आत्मा के अन्दर स्थित है। अन्नमय आत्मा प्राणमय से परिपूर्ण है, वैसे ही प्राणमय आत्मा स्वभावानुसार मनोमय आत्मा से पूर्ण है। मनोमय आत्मा विज्ञानमय से पूर्ण है तथा सदा सुखस्वरूप विज्ञानमय आत्मा आनन्दमय से परिपूर्ण रहता है। आनन्दमय आत्मा अपने से अलग साक्षिरूप सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी ब्रह्म के द्वारा परिपूर्ण है। वह ब्रह्म किसी दूसरे के द्वारा नहीं; वरन् अपने आप ही सभी तरफ से परिपूर्ण है॥२१-२६॥
यदिदं ब्रह्मपुच्छाख्यं सत्यज्ञानाद्वयात्मकम् । सारमेव रसं लब्ध्वा साक्षाद्देही सनातनम् ॥ ||२७||
सुखी भवति सर्वत्र अन्यथा सुखिता कुतः। असत्यस्मिन्परानन्दे स्वात्मभूतेऽखिलात्मनाम्॥ ||२८||
को जीवति नरो जातु को वा नित्यं विचेष्टते । तस्मात्सर्वात्मना चित्ते भासमानो ह्यसौ नरः ॥ ||२९||
आनन्दयति दु:खाढयं जीवात्मानं सदा जनः । यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्यत्वादिलक्षणे ॥ ||३०||
निर्भेदं परमाद्वैतं विन्दते च महायतिः । तदेवाभयमित्यन्तं कल्याणं परमामृतम् ॥ ||३१||
सद्रूपं परमं ब्रह्म त्रिपरिच्छेदवर्जितम् । यदा ह्येवैष एतस्मिन्नल्पमप्यन्तरं नरः ॥ ||३२||
विजानाति तदा तस्य भयं स्यान्नात्र संशयः । अस्यैवानन्दकोशेन स्तम्बान्ता विष्णुपूर्वकाः ।। ||३३||
भवन्ति सुखिनो नित्यं तारतम्यक्रमेण तु । तत्तत्पदविरक्तस्य श्रोत्रियस्य प्रसादिनः ॥ ||३४||
स्वरूपभूत आनन्दः स्वयं भाति परे यथा। निमित्तं किंचिदाश्रित्य खलु शब्दः प्रवर्तते ॥ ||३५||
यतो वाचो निवर्तन्ते निमित्तानामभावतः। निर्विशेष परानन्दे कथं शब्दः प्रवर्तते ।। ||३६||
तस्मादेतन्मनः सूक्ष्मं व्यावृत्तं सर्वगोचरम्। यस्माच्छ्रोत्रत्वगक्ष्यादिखादिकर्मेन्द्रियाणि च ।। ||३७||
जो यह ज्ञान एवं सत्य के रूप में अद्वितीय परब्रह्म है, वही सबका आश्रय-स्थल है। वह सबका सार एवं रसस्वरूप है। उस सनातन तत्त्व को पाकर के यह देही (जीवात्मा) सर्वत्र सुखानुभव प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त अन्यत्र सुख का भाव कहाँ है? सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के आत्मस्वरूप इस परानन्द (परमानन्द) ब्रह्म के उपस्थित न रहने पर भला कौन मनुष्य जीवित रह सकता है अथवा कौन-सा प्राणी नित्य चेष्टा करता है? अतः जो सर्वान्तर्यामी रूप से सभी के चित्त में प्रतिभासित होता है, वही परब्रह्म अविनाशी परमात्मा दु:खों से घिरे हुए जीवात्मा को सदैव आनन्द प्रदान करता है। जो अदृश्यत्व आदि लक्षणों से युक्त इस पर-तत्त्व से अभेदरूप परम अद्वैतरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, वही महायति (संन्यासी) है। देश-काल एवं पात्र से अपरिच्छिन्न, सत्यस्वरूप परब्रह्म ही अभयपद, परम अमृततुल्य एवं कल्याणमय है। जब तक मनुष्य को इसमें थोड़ा भी व्यवधान दृष्टिगोचर होता है, तब तक उसे (जन्म-मृत्यु का भय बना रहता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। छोटे से छोटे क्षुद्र तृण से लेकर भगवान् विष्णु तक सभी तारतम्य के अनुसार आनन्द रूप कोश से नित्य ही आनन्द की अनुभूति करते हैं। इस लोक और परलोक कें भोगों से विरक्त, प्रसन्नमना श्रोत्रिय को यह स्वरूप भूत-आनन्द स्वयमेव अनुभूत होता है। यह अनुभूति उसे परमात्म पद के अनुरूप ही होती है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकती; क्योंकि शब्द तो किसी आश्रय के सहारे ही व्यक्त होता है। परातत्त्व में निमित्त का अभाव होने के कारण वाणी वहाँ से वापस लौट आती है। जो सभी विशेषों से रहित परानन्दरूप तत्त्व है, वहाँ पर शब्द की प्रवृत्ति किस प्रकार से हो? इसलिए यह मन अतिसूक्ष्म और सीमित शक्ति से युक्त होकर इधर-उधर सभी जगह गमन करता रहता है; क्योंकि श्रोत्र, त्वक् एवं नेत्रादि ज्ञानेन्द्रियाँ और शब्द स्पर्शादि उनके विषय तथा वाणी, हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियाँ सीमित शक्ति वाली हैं॥२७-३७॥
व्यावृत्तानि परं प्राप्तुं न समर्थानि तानि तु। तब्रह्मानन्दमद्वन्द्वं निर्गुणं सत्यचिद्धनम् ॥ ||३८||
विदित्वा स्वात्मरूपेण न बिभेति कुतश्चन। एवं यस्तु विजानाति स्वगुरोरुपदेशतः ॥ ||३९||
स साध्वसाधुकर्मभ्यां सदा न तपति प्रभुः।तप्यतापकरूपेण विभातमखिलं जगत् ।। ||४०||
इसलिए परमात्म तत्त्व को प्राप्त करने में ये समस्त इन्द्रियाँ समर्थ नहीं हैं। जो पुरुष उस द्वन्द्वातीत, निर्गुण, सत्यस्वरूप और विज्ञानघन ब्रह्मानन्द को ‘यह मेरा ही स्वरूप है, ऐसा जान लेता है, उसे कहीं पर भी भय नहीं व्याप्त होता। इस तरह से जो भी जितेन्द्रिय मनुष्य अपने गुरु के उपदेश द्वारा आत्म साक्षात्कार के माध्यम से ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर लेता है, वह सत्य-असत्य कर्मों के द्वारा कभी भी संतप्त नहीं होता । विषयभोग तापक हैं और चित्त ताप्य है, चित्त एवं उसके विषयों से यह सम्पूर्ण विश्व विभासित हो रहा है॥३८-४०॥
प्रत्यगात्मतया भाति ज्ञानाद्वेदान्तवाक्यजात् । शुद्धमीश्वरचैतन्यं जीवचैतन्यमेव च।। ||४१||
प्रमाता च प्रमाणं च प्रमेयं च फलं तथा। इति सप्तविधं प्रोक्तं भिद्यते व्यवहारतः ।। ||४२||
मायोपाधिविनिर्मुक्तं शुद्धमित्यभिधीयते। मायासंबन्धश्चेशो जीवोऽविद्यावशस्तथा ॥ ||४३||
अन्त:करणसंबन्धात्मातेत्यभिधीयते। तथा तवृत्तिसंबन्धात्प्रमाणमिति कथ्यते ॥ ||४४||
अज्ञातमपि चैतन्यं प्रमेयमिति कथ्यते। तथा ज्ञातं च चैतन्यं फलमित्यभिधीयते ॥ ||४५||
वेदान्त-शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि वह प्रत्येक आत्मा के रूप में है। सात तरह के जिन तत्त्वों को वर्णन किया गया है, वे ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और फल हैं, इसमें व्यावहारिक दृष्टि से भेद माना गया है। परब्रह्म परमात्मा तो शुद्ध-चैतन्य स्वरूप है, वह माया के द्वारा निर्मित उपाधियों से सदा-सर्वदा मुक्त रहता है। मायारूप होने से वह ईश्वर है एवं अविद्या (अज्ञान) के वश में होने के कारण वह जीव हो जाता है। उसका अन्त:करण से सम्बन्ध होने से वही प्रमाता (ज्ञाता) कहा जाता है। उसके चित्त द्वारा अनुभूति के सम्बन्ध से वह प्रमाण संज्ञा को प्राप्त होता है। वह चैतन्य युक्त ब्रह्म जब तक खोजा जाता है, तब तक प्रमेय है। और वही जब ज्ञात हो जाता है, तब फल संज्ञक हो जाता है॥४१-४५॥
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं स्वात्मानं भावयेत्सुधीः। एवं यो वेद तत्त्वेन ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ||४६||
सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारं वच्मि यथार्थतः । स्वयं मृत्वा स्वयं भूत्वा स्वयमेवावशिष्यते ॥ ||४७||
इसलिए बुद्धिमान् पुरुष, अपने आपको ‘मैं सब उपाधियों से मुक्त हूँ-ऐसा मानकर मुक्तावस्था का सतत चिंतन करे। इस प्रकार जो तत्त्वतः जानता है, वह ब्रह्मत्व को प्राप्त करने में सदा ही समर्थ होता है। मैंने वेदान्त के सर्वसिद्धान्तों का सार यथार्थरूप में कहा है। अपने कर्मों से जीव स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त होता है और स्वयं ही अवशिष्ट रूप में बचा रहता है। यह सब आत्मा का ही खेल है, आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा तत्त्व नहीं है। यही इस उपनिषद् का रहस्य है॥४६-४७॥
स्वयं मृत्वा स्वयं भूत्वा स्वयमेवावशिष्यते ॥ इत्युपनिषत् ॥
ॐ सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति कठरुद्रोपनिषत्समाप्ता ॥
ॐ
॥ अथ कठोपनिषद् ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सहवीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
प्रथम अध्याय
प्रथम वल्ली
ॐ
ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥ १॥
प्रसिद्ध है कि फल के इच्छुक वाजश्रवा के पुत्र (उद्दालक) ने यज्ञ में अपना सारा धन दे दिया । उसका एक नचिकेता नाम का पुत्र था ॥१॥
तँ ह कुमारँ सन्तं दक्षिणासु
नीयमानासु श्रद्धाविवेश सोऽमन्यत ॥ २॥
जिस समय दक्षिणा के रूप में देने के लिए गौएँ ले जायी जा रही थीं, छोटा बालक होने पर भी उसमें श्रद्धा का आवेश हुआ । वह विचार करने लगा ॥२॥
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः ।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत् ॥ ३॥
जो जल पी चुकी हैं । जिनका घास खाना समाप्त हो गया है । जिनका दूध भी दुह लिया गया है । जिनमें प्रजनन शक्ति का अभाव हो गया है । ऐसी गौओं का दान करने वाला तो आनन्द-शून्य लोकों को प्राप्त होता है ॥३॥
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति ।
द्वितीयं तृतीयं तँ होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ॥ ४॥
वह अपने पिता से बोला ‘है तात ! आप मुझे किसको देंगे’ ? इसी प्रकार दूसरी तीसरी बार भी पूछने पर पिता ने कहा ‘मैं तुझे मृत्यु को दूँगा’ ॥४॥
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः ।
किँ स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाऽद्य करिष्यति ॥ ५॥
मैं बहुतों में प्रथम और बहुतों में मध्यम हूँ । यम का ऐसा क्या कार्य है जिसे पिता आज मेरे द्वारा सिद्ध करेंगे ॥५॥
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथाऽपरे ।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥ ६॥
पूर्वजों के व्यवहार पर विचार कीजिये तथा अन्य श्रेष्ठ लोगों को भी देखें । मनुष्य खेती की तरह पकता है । मरता है । खेती की ही भाँति फिर उत्पन्न होता है ॥६॥
(यमलोक में नचिकेता)
वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान् ।
तस्यैताँ शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम् ॥ ७॥
ब्राह्मण-अतिथि के रूप में स्वयं अग्नि ही घरों में प्रवेश करते हैं । अतः (हे यमदेव) उनकी शान्ति के लिए जल ले जाईये ॥७॥
आशाप्रतीक्षे संगतँ सूनृतां
चेष्टापूर्ते पुत्रपशूँश्च सर्वान् ।
एतद्वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो
यस्यानश्नन्वसति ब्राह्मणो गृहे ॥ ८॥
जिसके घर में ब्राह्मण बिना भोजन किये रहता है उस अल्पबुद्धि पुरुष की आशाएँ, प्रतीक्षाएँ, उनके संयोग से प्राप्त होने वाले फल, प्रिय वाणी से होने वाले फल, यज्ञ दान आदि शुभ कर्मों के फल, पुत्र, पशु आदि को वह नष्ट कर देता है ।॥८॥
तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे-
ऽनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्यः ।
नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन् स्वस्ति मेऽस्तु
तस्मात्प्रति त्रीन्वरान्वृणीष्व ॥ ९॥
हे ब्राह्मण ! तुम्हें नमस्कार है । मेरा कल्याण हो । तुम नमस्कार योग्य अतिथि होकर भी मेरे घर में तीन रात्रि तक बिना भोजन किये रहे । अतः एक-एक रात्रि के लिए मुझसे तीन वर माँग लो ॥९॥
शान्तसंकल्पः सुमना यथा स्याद्
वीतमन्युर्गौतमो माऽभि मृत्यो ।
त्वत्प्रसृष्टं माऽभिवदेत्प्रतीत
एतत् त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥ १०॥
हे मृत्यो (यमदेव) ! जिस प्रकार भी गौतमवंशीय मेरे पिता मेरे प्रति शाँतसंकल्प, प्रसन्नचित्त, और क्रोधरहित हो जाएँ एवं आपके वापस भेजने पर वे मुझ पर विश्वास करके प्रेमपूर्वक बातचीत करें । तीन वरों में से यह पहला वर माँगता हूँ ॥१०॥
यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत
औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्टः ।
सुखँ रात्रीः शयिता वीतमन्युः
त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात् प्रमुक्तम् ॥ ११॥
मुझसे प्रेरणा पाकर, तुमको मृत्यु के मुँह से छूटकर आया हुआ देखकर अरुण-पुत्र उद्दालक तुमको पूर्ववत् पहचान लेगा । और दुःख एवं क्रोध से रहित होकर शेष रात्रियों में सुख पूर्वक सोयेगा ॥११॥
स्वर्गे लोके न भयं किंचनास्ति
न तत्र त्वं न जरया बिभेति ।
उभे तीर्त्वाऽशनायापिपासे
शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ १२॥
हे मृत्युदेव ! स्वर्गलोक में किसी भी प्रकार का भय नही है । वहाँ आपका भी और जरा (वृद्धवस्था) का भय भी नहीं है । स्वर्गलोक में पुरुष भूख प्यास दोनों से पार होकर शोक रहित होकर आनन्द भोगते हैं ॥१२॥
स त्वमग्निँ स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो
प्रब्रूहि त्वँ श्रद्दधानाय मह्यम् ।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त
एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण ॥ १३॥
हे मृत्यो ! आप स्वर्ग के साधन रूप अग्नि को जानते हैं । अतः आप मुझ श्रद्धालु के प्रति उसका वर्णन करें । स्वर्ग को प्राप्त हुए पुरुष अमृतत्व को प्राप्त होते हैं । यही मैं द्वितीय वर में माँगता हूँ ॥१३॥
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध
स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन् ।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां
विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥ १४॥
हे नचिकेता ! स्वर्गदायिनी अग्नि को जानने वाला मैं तेरे प्रति उसे कहूँगा । तू भलीभाँति उसे समझ । तू इसे अनन्तलोक को प्राप्त कराने वाला, उसका आधार और बुद्धिरुपी गुहा में स्थित जान ॥१४॥
लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै
या इष्टका यावतीर्वा यथा वा ।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तं
अथास्य मृत्युः पुनरेवाह तुष्टः ॥ १५॥
यमराज ने लोकों की आदिकारणभूत अग्नि, उसके चयन की एवं ईंटों आदि की व्याख्या की । नचिकेता ने भी समझकर पुनः यमराज को वह सुनाया । इस पर मृत्यु (यमराज) संतुष्ट होकर बोले ॥१५॥
तमब्रवीत् प्रीयमाणो महात्मा
वरं तवेहाद्य ददामि भूयः ।
तवैव नाम्ना भविताऽयमग्निः
सृङ्कां चेमामनेकरूपां गृहाण ॥ १६॥
महात्मा यम ने प्रसन्न होकर कहा – ‘मैं तुझे एक वर और देता हूँ कि यह अग्नि तेरे नाम से ही प्रसिद्द होगा । और इस अनेक रूपवाली माला को भी ग्रहण करो’ ॥१६॥
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं
त्रिकर्मकृत्तरति जन्ममृत्यू ।
ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा
निचाय्येमाँ शान्तिमत्यन्तमेति ॥ १७॥
इस त्रि-नचिकेता अग्नि का तीन बार चयन करने वाला तीनों से सम्बन्धित होकर, तीन प्रकार के कर्म करता हुआ जन्म-मृत्यु से पार हो जाता है । ब्रह्म से उत्पन्न, स्तुतियोग्य उस देव को जानकर, उसे अनुभव कर, इस अत्यन्त शान्ति को प्राप्त करता है ॥१७॥
त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा
य एवं विद्वाँश्चिनुते नाचिकेतम् ।
स मृत्युपाशान् पुरतः प्रणोद्य
शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ १८॥
जो विद्वान् इस त्रिनचिकेता अग्नि के त्रय को जानकर नचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह मृत्यु के पाश को तोड़कर शोक से पार हो जाता है । और स्वर्गलोक में आनंदित होता है ॥१८॥
एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो
यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।
एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासः
तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व ॥ १९॥
हे नचिकेत ! यही स्वर्ग साधनरूप अग्नि है जो मैंने तुम्हे द्वितीय वरस्वरूप कही । इस अग्नि को सब तेरे ही नाम से जानेंगे । हे नचिकेता ! तीसरा वर माँगो ॥१९॥
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये-
ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके ।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं
वराणामेष वरस्तृतीयः ॥ २०॥
‘कोई कहते हैं कि रहता है, कोई कहते हैं नहीं रहता’ । मरे हुए मनुष्य के विषय में यह जो सन्देह है, आपसे उपदेश पाया हुआ मैं यह जान सकूँ । यही वरों में तीसरा वर है ॥२०॥
देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा
न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः ।
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व
मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥ २१॥
हे नचिकेता ! दवेताओं को भी पूर्वकाल में इस विषय में सन्देह हुआ था । यह सूक्ष्मधर्म आसानी से जाननेयोग्य नहीं है । तू दूसरा वर माँग ले । मुझ पर दबाव न डाल । यह वर मुझे लौटा दे ॥२१॥
देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल
त्वं च मृत्यो यन्न सुज्ञेयमात्थ ।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो
नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥ २२॥
हे मृत्यो ! इस विषय में देवों को भी सन्देह हुआ । आप भी इसे सुविज्ञेय नही कहते । आपके जैसा कहने वाला भी कोई नहीं मिल सकता । इसके सामान अन्य कोई भी वर नहीं है ॥२२॥
शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीष्वा
बहून्पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् ।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व
स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥ २३॥
हे नचिकेत ! सौ वर्ष की आयु वाले पुत्र-पौत्र माँग ले । बहुत से पशु, हाथी, स्वर्ण और अश्व माँग ले । विशाल भूमि माँग ले । स्वयं भी जितने वर्ष चाहे जीवित रह ॥२३॥
एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं
वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च ।
महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि
कामानां त्वा कामभाजं करोमि ॥ २४॥
इसके सामान यदि कोई और वर मानता हो, या धन और चिरस्थायी जीविका माँग ले । हे नचिकेत ! तुम इस महान भूमि के सम्राट बन जाओ । मैं तुम्हे समस्त कामनाओं को भोगने का पात्र बना देता हूँ ॥२४॥
ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके
सर्वान् कामाँश्छन्दतः प्रार्थयस्व ।
इमा रामाः सरथाः सतूर्या
न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः ।
आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व
नचिकेतो मरणं माऽनुप्राक्षीः ॥ २५॥
जो-जो भोग इस मृत्युलोक में दुर्लभ हैं उन सबको तुम स्वच्छंदतापूर्वक माँग लो । यहाँ रथ और बाजों के साथ ये रमणियाँ भी हैं । ऐसी स्त्रियाँ मनुष्य को प्राप्त होने योग्य नहीं हैं । मेरे द्वारा दी गयी इन स्त्रियों से तू अपनी सेवा करा । हे नचिकेत ! तू मुझसे मरण के सम्बन्ध में प्रश्न मत पूछ ॥२५॥
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्
सर्वेंद्रियाणां जरयंति तेजः ।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव
तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥ २६॥
हे यमराज ! ये क्षणभंगुर भोग मरणधर्मा मनुष्य की संपूर्ण इंद्रियों के तेज को क्षीण कर देते हैं । यह समस्त जीवन भी बहुत थोड़ा ही है । ये वाहन, नृत्य-गीत इत्यादि आपके पास ही रहने दें ॥२६॥
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो
लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा ।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं
वरस्तु मे वरणीयः स एव ॥ २७॥
मनुष्य को वित्त (धन) से तृप्त नहीं किया जा सकता है । जब आपका दर्शन पा लिया तो धन तो पा ही लेंगे । जब तक आपका शासन है तब तक हम जीवित भी रहेंगे । मेरे द्वारा माँगा हुआ वर तो वही है ॥२७॥
अजीर्यताममृतानामुपेत्य
जीर्यन्मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन् ।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदान्
अतिदीर्घे जीविते को रमेत ॥ २८॥
जीर्ण हो जाने वाले मनुष्य की मरणधर्मिता को जानने वाला कौन मनुष्य होगा जो ज़रा रहित अमर महात्माओं का संग पाकर भी वर्ण, रति और आमोद-प्रमोद का चिंतन करता हुआ भी अति दीर्घ जीवन में सुख मानेगा ? ॥२८॥
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो
यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत् ।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो
नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥ २९॥
हे मृत्यो ! जिस महान परलोक सम्बन्धी विषय में यह शंका है । उसके विषय में जो भी निश्चित है वह हमसे कहिये । यही जो गूढ़ता में प्रविष्ट हुआ वर है इससे अन्य नचिकेता और कोई वर नहीं माँगता ॥२९॥
॥ इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये प्रथमा वल्ली ॥
द्वितीय वल्ली
अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेय-
स्ते उभे नानार्थे पुरुषँ सिनीतः ।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु
भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥ १॥
‘श्रेय’ अलग है और ‘प्रेय’ अलग है । भिन्न-भिन्न प्रयोजन वाले ये दोनों ही पुरुष को बाँधते हैं । दोनों में से श्रेय को ग्रहण करने वाला कल्याण को प्राप्त होता है । प्रेय का वरण करने वाला यथार्थ से पतित हो जाता है ॥१॥
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतः
तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते
प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद्वृणीते ॥ २॥
श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के समक्ष आते हैं । धीर पुरुष दोनों के स्वरूप पर विचार करके उन्हें पृथक-पृथक समझता है । वह धीर पुरुष प्रेय की अपेक्षा श्रेय का ही वरण करता है । मन्दबुद्धि पुरुष योगक्षेम के निमित्त से प्रेय का वरण करता है ॥२॥
स त्वं प्रियान्प्रियरूपांश्च कामान्
अभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः ।
नैतां सृङ्कां वित्तमयीमवाप्तो
यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥ ३॥
हे नचिकेत ! तूने प्रिय और प्रियरूप भोगों का चिन्तन कर उन्हें त्याग दिया है । उस सम्पत्तिरूप श्रृंखला के बंधन को तू प्राप्त नहीं हुआ जिसमे बहुत से मनुष्य फँस जाते हैं ॥३॥
दूरमेते विपरीते विषूची
अविद्या या च विद्येति ज्ञाता ।
विद्याभीप्सिनं नचिकेतसं मन्ये
न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥ ४॥
जो कि अविद्या और विद्या रूप से जानी जाती हैं । ये दोनों परस्पर विपरीत और भिन्न-भिन्न फल देने वाली हैं । तुझ नचिकेत को मैं विद्याभिलाषी मानता हूँ क्योंकि बहुत से लोभ भी तुझे नहीं लुभा सके ॥४॥
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वयं धीराः पण्डितंमन्यमानाः ।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ ५॥
अविद्या के भीतर स्थित होकर स्वयं को धीर और पंडित मानने वाले मूढ़ पुरुष नाना योनियों में उसी प्रकार भटकते रहते हैं, जिस तरह अन्धे के नियंत्रण में अन्धे ॥५॥
न साम्परायः प्रतिभाति बालं
प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम् ।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी
पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥ ६॥
धन से मोहित हुए और प्रमादी उस अज्ञानी को परलोकसाधन नहीं सूझता । यही लोक है परलोक नहीं है, ऐसा मानने वाला बार-बार मेरे वश को प्राप्त होता है ॥६॥
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः
शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः ।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा
आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥ ७॥
जो बहुतों को सुनने के लिए भी उपलब्ध नहीं है । बहुत जिसे सुनकर भी नहीं समझते । उसको कहने वाला भी आश्चर्यरूप है । उसको प्राप्त करने वाला अति-कुशल है । और उस कुशल द्वारा उपदेश किया हुआ उसका ज्ञाता भी आश्चर्यमय है ॥७॥
न नरेणावरेण प्रोक्त एष
सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः ।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति
अणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् ॥ ८॥
साधारण बुद्धि वाले मनुष्य के द्वारा कहे जाने से या बहुत चिंतन करने से वह सहज ही समझ आ जाये, ऐसा नहीं है । अन्य किसी पुरुष के कहे जाने से वहाँ गति नहीं होती । वह अत्यन्त सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है । वह तर्क से परे है ॥८॥
नैषा तर्केण मतिरापनेया
प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि
त्वादृङ्नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा ॥ ९॥
हे प्रिय ! ज्ञान के निमित्त किसी ज्ञानी द्वारा कही गयी यह बुद्धि तर्क से प्राप्त नहीं होती, जिसे तुमने पाया है । तू सचमुच ही सत्य को धारण करने वाला है । हमें तेरे सामान ही प्रश्न करने वाला प्राप्त हो ॥९॥
जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं
न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत् ।
ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्निः
अनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम् ॥ १०॥
मैं जानता हूँ कि यह कर्मफलरूप निधि अनित्य है । अध्रुव तत्वों से उस ध्रुव की प्राप्ति नहीं हो सकती । तब मेरे द्वारा नचिकेत अग्नि का चयन हुआ । उन अनित्य द्रव्यों से ही मैं नित्य को प्राप्त हुआ हूँ ॥१०॥
कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां
क्रतोरानन्त्यमभयस्य पारम् ।
स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा
धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः ॥ ११॥
हे नचिकेता ! तुमने भोगों से व्याप्त जगत की प्रतिष्ठा को, यज्ञ के अनन्त फल को, निर्भयता की अवधि को, स्तुत्य और महती प्रतिष्ठा जिसका वेद भी गान करते है, उसे धैर्य पूर्वक त्याग दिया है । तुम बुद्धिमान हो ॥११॥
तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं
गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् ।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं
मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ॥ १२॥
कठिनता से दीख पड़ने वाले, गूढ़ता में अनुप्रविष्ट, हृदयरूप गुहा में स्थित, गहनता में रहने वाले उस पुरातन देव को धीर पुरुष आध्यात्मयोग की प्राप्ति द्वारा जानकर हर्ष और शोक को त्याग देता है ॥१२॥
एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः
प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य ।
स मोदते मोदनीयँ हि लब्ध्वा
विवृतँ सद्म नचिकेतसं मन्ये ॥ १३॥
जो मनुष्य इसे सुनकर, विचार करके और भलीभाँति ग्रहण कर उस सूक्ष्म और धर्ममय आत्मतत्व का अनुभव कर लेता है, वह उस आनन्दस्वरुप को पाकर आनन्द में ही मग्न हो जाता है । मैं मानता हूँ कि तुझ नचिकेता के लिए उसका द्वार खुला है ॥१३॥
अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मा-
दन्यत्रास्मात्कृताकृतात् ।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च
यत्तत्पश्यसि तद्वद ॥ १४॥
यह जो धर्म से भी अन्य है । अधर्म से भी अन्य है । इस कार्य-कारण से भी परे है । भूत और भविष्य से भी परे है । ऐसा जिसे आप जानते हैं वह मुझसे कहिये ॥१४॥
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
तपाꣳसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदꣳ संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ १५॥
सम्पूर्ण वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं । समस्त तप जिसकी प्राप्ति के साधन है । जिसको चाहने वाले बृह्मचर्य का पालन करते हैं । उसे मैं संक्षेप में कहता हूँ । ‘ॐ’ ही वह है ॥१५॥
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥ १६॥
यह अक्षर ही बृह्म है । यह अक्षर ही पर है । इस अक्षर को जानकर ही, जो जिसको चाहता है, वह उसका हो जाता है ॥१६॥
एतदालम्बनँ श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ १७॥
यही श्रेष्ठ आलम्बन है । यही पर आलम्बन है । इस आलम्बन को जानकर पुरुष बृह्मलोक में महिमान्वित होता है ॥१७॥
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्
नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ १८॥
यह ज्ञानस्वरुप न तो जन्मता है, न मरता है । न किसी अन्य कारण से हुआ है, न स्वतः ही हुआ है । यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है । शरीर का नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता ॥१८॥
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुँ हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायँ हन्ति न हन्यते ॥ १९॥
यदि मारने वाला उसे मारा जाने वाला समझता है, और और मारा जाने वाला उसे मारा हुआ समझता है, तो वे दोनों ही उसे नहीं जानते । यह आत्मा न तो मारता है न मारा ही जाता है ॥१९॥
अणोरणीयान्महतो महीया-
नात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ २०॥
अणु से भी अणु और महान से भी महान यह आत्मा, जीव की हृदय गुफा में स्थित है । कामना रहित और शोकरहित पुरुष इन्द्रियों के प्रसाद से उस आत्म की महिमा को देखता है ॥२०॥
आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः ।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति ॥ २१॥
स्थित हुआ भी दूर चला जाता है । सोता हुआ भी सब ओर पहुँच जाता है । उस मद से युक्त और मद से रहित देव को मुझसे अन्य कौन जानने में समर्थ है ॥२१॥
अशरीरँ शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ २२॥
अस्थिर शरीरों में रहकर भी शरीररहित हुआ स्थित है । उस महान सर्वव्यापी आत्मा को जानकर धीरपुरुष शोक नहीं करता ॥२२॥
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः
तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूꣳ स्वाम् ॥ २३॥
यह आत्मा न प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है । जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । उसके प्रति वह आत्मा अपने स्वरुप को प्रकट कर देता है ॥२३॥
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ २४॥
जो दुश्चरित्र से निवृत्त नहीं हुआ, जिसका चित्त शान्त और समाहित नहीं है तथा जिसका मन अशान्त है, वह प्रज्ञावान होने पर भी इसे प्राप्त नहीं कर सकता ॥२४॥
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः ।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥ २५॥
जिसके ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही भोजन हैं । यह मृत्यु भी जिसके लिए उपसेचन (शाक आदि) है । वह जहाँ है, जैसा है, उसे कौन जान सकता है ॥२५॥
इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये द्वितीया वल्ली ॥
तृतीय वल्ली
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके
गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति
पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥ १॥
शुभ कर्मफलरूप उस लोक में ऋत का पान करते हुए, बुद्धिरूपी गुफा में प्रविष्ट, परम स्थान में वे दो छाया और धूप के सामान हैं । ऐसा बृह्मवेत्ता कहते हैं। पञ्चाग्नि संपन्न गृहस्थ और तीन नचिकेत अग्नियों वाले भी यही कहते हैं ॥१॥
यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत् परम् ।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतँ शकेमहि ॥ २॥
जो याजकों के लिए सेतु के सामान है, उस नचिकेत अग्नि को और उस पार जाने की इच्छा वाले लोगों के लिए अभय रूप किनारा है, उस परम बृह्म को जानने में हम समर्थ हों ॥२॥
आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३॥
आत्मा को रथी जानो और शरीर को रथ । बुद्धि को सारथी जानो और इस मन को लगाम ॥३॥
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ ४॥
इन्द्रियाँ घोडों के सामान हैं । विषय उन घोड़ों के विचरने के मार्ग हैं । इन्द्रियों और मन के साथ युक्त हुआ वह आत्मा ही भोक्ता है । ऐसा ही मनीषी कहते हैं ॥४॥
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥ ५॥
जो विवेकहीन सदा ही सयंत मन से अयुक्त रहता है, उसकी इन्द्रियाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों की भाँति ही वश में नहीं रहतीं ॥५॥
यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥ ६॥
जो विवेकी सदा संयत मन से युक्त रहता है, उसकी इन्द्रियाँ सारथी के अच्छे घोड़ों की भाँति ही वश में रहती हैं ॥६॥
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः ।
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥ ७॥
जो विवेकहीन सदा ही असंयमित तथा अपवित्र मन रहता है, वह उस पद को प्राप्त नहीं कर सकता, अपितु संसार को ही प्राप्त हो जाता है ॥७॥
यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः ।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते ॥ ८॥
जो विवेकी सदा संयमित तथा पवित्र मन रहता है, वह उस पद को प्राप्त हो जाता है, जहाँ से फिर नहीं जन्मता ॥८॥
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः ।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ९॥
विज्ञान अर्थात बुद्धि जिसकी सारथी है तथा मनरुपी लगाम जिसके वश में है, वह नर सँसार से पार होकर विष्णु के उस परम पद को प्राप्त हो जाता है ॥९॥
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ १०॥
इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय श्रेष्ठ हैं और विषयों से मन श्रेष्ठ है । मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी वह महान आत्मा (महत) श्रेष्ठ है ॥१०॥
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ ११॥
महत से परे अव्यक्त (मूलप्रकृति) है और अव्यक्त से भी परे और श्रेष्ठ पुरुष है । पुरुष से परे कुछ नहीं । वह पराकाष्ठा है । वही परम गति है ॥११॥
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ १२॥
यह आत्मत्त् सभी भूतों में छिपा हुआ भी प्रत्यक्ष नहीं होता । सूक्ष्मदर्शी पुरुष सूक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा उसे देखते हैं ॥१२॥
यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥ १३॥
बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे । मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे । ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे ॥१३॥
उत्तिष्ठत जाग्रत
प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ १४॥
उठो, जागो ! श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा उस बोध को प्राप्त करो । ज्ञानी उस मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण और दुस्तर धार के जैसा ही दुर्गम बताते हैं ॥१४॥
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥ १५॥
जो शब्दरहित, स्पर्शरहित, रूपरहित, रसरहित और गंधरहित है । अविनाशी, नित्य, अनादि, अनन्त है । महत् से भी परे और ध्रुव है । उसे जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है ॥१५॥
नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तँ सनातनम् ।
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते ॥ १६॥
नचिकेता के प्रति मृत्यु द्वारा कहे गए इस सनातन उपाख्यान को कहकर और सुनकर बुद्धिमान पुरुष ब्रह्मलोक में महिमान्वित होते हैं ॥१६॥
य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि ।
प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते ।
तदानन्त्याय कल्पत इति ॥ १७॥
जो पवित्रतापूर्वक इस परम गुह्य ज्ञान को ज्ञानियों की सभा में और श्राद्धकाल में सुनाता है, वह अनन्त फल के लिए योग्य होता है । अनन्त फल के लिए योग्य होता है ॥१७॥
इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये तृतीया वल्ली ॥
द्वितीय अध्याय
प्रथम वल्ली
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू-
स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-
दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥ १॥
स्वयम्भू परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख ही बनाया है । इसलिए मनुष्य बाहर की ओर ही देखता है । अन्तरआत्मा को नहीं देखता । कोई धीर पुरुष ही, अमृतत्व की इच्छा करता हुआ, चक्षु आदि इन्द्रियों का संयम करके उस प्रत्यगआत्मा को देखता है ॥१॥
पराचः कामाननुयन्ति बाला-
स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा
ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ॥ २॥
अल्पज्ञ पुरुष बाह्य भोगों का अनुसरण करते हैं । वे सर्वत्र फैले हुए मृत्यु के पाश में पड़ते हैं । किंतु धीर पुरुष ध्रुव अमृतत्व को जानकर अध्रुव तत्वों के लिए प्रार्थना नहीं करते ॥२॥
येन रूपं रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शाꣳश्च मैथुनान् ।
एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते । एतद्वै तत् ॥ ३॥
जिसके द्वारा रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श और मैथुन को जाना जाता है और यह भी जाना जाता है कि यहाँ क्या शेष रह जाता है, वही यह है ॥३॥
स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ ४॥
स्वप्नावस्था और जाग्रत-अवस्था, इन दोनों को जिसके द्वारा देखा जाता है, उस महान विभु आत्मा को जानकर धीर पुरुष शोक नहीं करता ॥४॥
य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।
ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते । एतद्वै तत् ॥ ५॥
जो, मधुर रस पीने वाले इस जीवात्मा को समीप स्थित और भूत-भविष्य का शाशक जानता है, फिर वह घृणा नहीं करता । यही वह है ॥५॥
यः पूर्वं तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत ।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत । एतद्वै तत् ॥ ६॥
जो पहले तप से प्रकट हुआ, जो पहले जल से प्रकट हुआ, जो हृदयरूपी गुहा में प्रवेश करके सभी भूतों के साथ स्थित हुआ देखता है, यही वह है ॥६॥
या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी ।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत । एतद्वै तत् ॥ ७॥
जो देवतामयी अदिति प्राण के साथ उत्पन्न हुई है । और हृदयरूपी गुहा में प्रविष्ट होकर स्थिर हुयी है । यही वह है ॥७॥
अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः ।
दिवे दिवे ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः । एतद्वै तत् ॥ ८॥
गर्भिणी स्त्रियों के सुपोषित गर्भ की ही भाँति वह जातवेद अग्नि दो अरणियों के बीच स्थित है । जागने वाले और हवि अर्पण करने वाले मनुष्यों के द्वारा प्रतिदिन स्तुति योग्य है । यही वह है ॥८॥
यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति ।
तं देवाः सर्वेऽर्पितास्तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ ९॥
जिससे सूर्य उदय होता है और जिसमे अस्त हो जाता है । जिसमे सब देवता समर्पित हैं । उसका कोई भी उल्लंघन नही करता । यही वह है ॥९॥
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १०॥
जो यहाँ है वही वहाँ है और जो वहाँ है वही यहाँ है । जो उसमे भेद को देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को ही प्राप्त होता है ॥१०॥
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानाऽस्ति किंचन ।
मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति ॥ ११॥
मन से ही यह जानने योग्य है । यहाँ भेद अथवा नानात्व कुछ भी नहीं है । जो यहाँ भेद देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को ही प्राप्त होता है ॥११॥
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति ।
ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते । एतद्वै तत् ॥ १२॥
अंगुष्ठ-मात्र पुरुष वह आत्मा मध्य (अन्तःकरण) में स्थित है । उस भूत और भविष्य के शाशक को जाननेवाला पुरुष फिर घृणा नहीं करता । यही वह है ॥१२॥
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः ।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः । एतद्वै तत् ॥ १३॥
भूत और भविष्य का स्वामी यह अंगुष्ठ-मात्र पुरुष धूमरहित ज्योति के समान है । यह जैसा आज है वैसा ही कल भी है । यही वह है ॥१३॥
यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति ।
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति ॥ १४॥
जिस प्रकार ऊँचे शिखर पर बरसा हुआ जल पर्वत के चारो ओर दौड़ता है । उसी प्रकार धर्मों (स्वभाव) को पृथक देखने वाला उन्हीं के अनुसार दौड़ता है ॥१४॥
यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति ।
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ॥ १५॥
जिस प्रकार शुद्ध जल में डालने पर शुद्ध जल वैसा ही हो जाता है । हे गौतम (नचिकेता) ! उसी प्रकार जानने वाले मुनि का आत्मा भी हो जाता है ॥१५॥
इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये प्रथमा वल्ली ॥
द्वितीय वल्ली
पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः ।
अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते । एतद्वै तत् ॥ १॥
उस सीधे सरल चित्तरूप वाले अजन्मा आत्मा का पुर ग्यारह द्वारों वाला है । उसके अनुष्ठान से मनुष्य शोक को प्राप्त नहीं होता अपितु बन्धनों से छूटकर मुक्त हो जाता है । यही वह है ॥१॥
हँसः शुचिषद्वसुरान्तरिक्षसद्-
होता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसद्
अब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ २॥
स्वयंप्रकाश, शुद्धता में रहने वाला, सबका निवासक, अन्तरिक्ष में स्थित, दाता, वेदी पर स्थित, भ्रमण करने वाला, घर में रहने वाला, मनुष्यों में रहने वाला, श्रेष्ठों में रहने वाला, सत्य में रहने वाला, आकाश में रहने वाला, जल, पृथ्वी, यज्ञ और पर्वत से उत्पन्न होने वाला, वह महान सत्य है ॥२॥
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति ।
मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते ॥ ३॥
जो प्राण को ऊपर उठाता है और अपान को नीचे धकेलता है । मध्य (हृदय) में आसीन उस वामन की सभी देवता उपासना करते हैं ॥३॥
अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः ।
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते । एतद्वै तत् ॥ ४॥
एक शरीर से दुसरे शरीर में जाने वाले इस शरीरस्थ देहि के देह से निकल जाने पर यहाँ भला क्या शेष रह जाता है । यही वह है ॥४॥
न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन ।
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ ॥ ५॥
कोई भी मरणधर्मा जीव न तो प्राण से, न ही अपान से जीवित रहता है । परंतु इन दोनों के इतर जिस पर ये दोनों ही आश्रित हैं उससे ही जीवित रहता है ॥५॥
हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम् ।
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ॥ ६॥
हे गौतम ! गुह्य और सनातन बृह्म तथा मरण को प्राप्त हुआ यह आत्मा जिस प्रकार रहता है, यह मैं तुझे फिर बतलाता हूँ ॥६॥
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ ७॥
अपने कर्म और श्रुतज्ञान के अनुसार कितने ही अन्य जीवात्मा तो शरीर धारण करने के लिए किसी योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही अन्य स्थावर भाव का अनुसरण करते हैं ॥७॥
य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः ।
तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ ८॥
यह जो सो जाने पर भी जागने वाला, काम और कामनाओं द्वारा पुरषों का निर्माण करता जाता है, वही शुक्र भी है, वही ब्रह्म है, वही अमृत भी कहा जाता है । उसीमें समस्त लोक आश्रित हैं, उसका अतिक्रमण कोई भी नहीं कर सकता । यही वह है ॥८॥
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ ९॥
जिस प्रकार यह एक ही अग्नि समस्त भुवनों में प्रविष्ट होकर समस्त रूपों के अनुरूप हो रहा है । उसी प्रकार यह समस्त भूतों का एक ही अन्तरआत्मा और बाहर भी उनके समस्त रूपों के अनुरूप हो रहा है ॥९॥
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ १०॥
जिस प्रकार यह एक ही वायु समस्त भुवनों में प्रविष्ट होकर समस्त रूपों के अनुरूप हो रहा है । उसी प्रकार यह समस्त भूतों का एक ही अन्तरआत्मा और बाहर भी उनके समस्त रूपों के अनुरूप हो रहा है ॥१०॥
सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुः
न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥ ११॥
जिस प्रकार सम्पूर्ण लोक का चक्षु होकर भी सूर्य चक्षु सम्बन्धी बाह्य दोषों से लिप्त नहीं होता । उसी प्रकार यह समस्त भूतों का एक ही अन्तरआत्मा और बाहर भी लोक के दुःखों से लिप्त नही होता ॥११॥
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ १२॥
सबको वश में रखे वाला, यह समस्त भूतों का एक ही अन्तरआत्मा, एक रूप को ही कई रूपों में प्रकट करता है । जो धीर पुरुष उसे स्वयं में स्थित हुआ ही देखते है, उनका सुख शाश्वत है, औरों का नहीं ॥१२॥
नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम्
एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ १३॥
नित्यों में भी नित्य, चेतनों में भी चेतन, अनेकों में एक, यही समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है । जो धीर पुरुष उसे स्वयं में स्थित हुआ ही देखते है, उनकी शान्ति शाश्वत है, औरों की नहीं ॥१३॥
तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्देश्यं परमं सुखम् ।
कथं नु तद्विजानीयां किमु भाति विभाति वा ॥ १४॥
यह ही है वह जिसे अनिर्वचनीय परम सुख माना जाता है । उसे मैं कैसे जान सकूँगा । क्या वह प्रकाशित होता है अथवा नहीं ? ॥१४॥
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १५॥
वहाँ न सूर्य प्रकाशित होता है । न चंद्र और तारे प्रकाशित होते हैं । न यह विद्युत ही प्रकाशित होती है, फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या । उसके प्रकाशित होने से ही ये सभी प्रकाशित होते हैं । उसी के प्रकाश से यह सम्पूर्ण जगत प्रकाशित होता है ॥१५॥
इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये द्वितीया वल्ली ॥
तृतीय वल्ली
ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः ।
तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ १॥
ऊपर की ओर जड़ों वाला और नीचे की और शाखाओं वाला यह सनातन अश्वत्थ वृक्ष है । वही शुक्र भी है, वही ब्रह्म है, वही अमृत भी कहा जाता है । उसीमें समस्त लोक आश्रित हैं, उसका अतिक्रमण कोई भी नहीं कर सकता । यही वह है ॥१॥
यदिदं किं च जगत् सर्वं प्राण एजति निःसृतम् ।
महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ २॥
यह सम्पूर्ण प्राणरूप जगत उसी से निकला और उसी में ही चेष्टा कर रहा है । उस महाभयरूप, उठे हुए वज्र के समान को जानने वाले अमर हो जाते हैं ॥२॥
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ ३॥
उसी के भय से अग्नि तपता है । उसी के भय से सूर्य तपता है । इंद्र, वायु और पाँचवाँ यह मृत्यु, सब उसी के भय से दौड़ते हैं ॥३॥
इह चेदशकद्बोद्धुं प्राक्षरीरस्य विस्रसः ।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥ ४॥
यदि शरीर का पतन होने से पूर्व ही यहाँ उसको जान सका तब तो बन्धन से छूट जाता है और यदि नहीं जान सका तो अनेक कल्पों तक अनेक लोकों शरीर धारण करता है ॥४॥
यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके ।
यथाऽप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके
छायातपयोरिव ब्रह्मलोके ॥ ५॥
जैसा दर्पण में, वैसा अन्तःकरण में दिखाई पड़ता है । जैसा स्वप्न में, वैसा पितृलोक में दिखाई पड़ता है । जैसा जल में, वैसा गंधर्वलोक में दिखाई पड़ता है । ब्रह्मलोक में छाया और धूप की भाँति अनुभव होता है ॥५॥
इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत् ।
पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति ॥ ६॥
पृथक-पृथक रूपों में उत्पन्न इन्द्रियों के पृथक-पृथक भावों को तथा उनके उदय और अस्त को जानकर धीर पुरुष शोक नहीं करता ॥६॥
इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ॥ ७॥
इन्द्रियों से परे मन है । मन से बुद्धि उत्तम है । बुद्धि से भी बढ़कर महत्तत्व है । महत्तत्व से अव्यक्त उत्तम है ॥७॥
अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिङ्ग एव च ।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ॥ ८॥
अव्यक्त से भी परे पुरुष सर्वव्यापक एवं अलिंग है, उसे जानने वाला जीवआत्मा मुक्त हो जाता है और अमृतत्व को प्राप्त होता है ॥८॥
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ ९॥
इसका रूप द्रष्टि में नहीं ठहरता । चक्षुओं से इसे कोई नही देख सकता । मन, हृदय और बुद्धि के द्वारा अनुभव में आता है । जो इसे जानते है वे अमर हो जाते हैं ॥९॥
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् ॥ १०॥
जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के सहित स्थिर होकर बैठ जाती हैं और बुद्धि भी कोई चेष्टा नही करती, वह स्थिति ही परम गति है ॥१०॥
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् ।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥ ११॥
उस इन्द्रियों की स्थिर धारणा को ही योग कहा जाता है । उस समय पुरुष प्रमादरहित होता है क्योंकि योग ही उदय और अस्त होने वाला है ॥११॥
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा ।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥ १२॥
न तो वाणी से, न मन से, न नेत्रों से ही प्राप्त किया जा सकता है । वह ‘है’ – इस प्रकार कहने वाले के अन्यत्र किसे उपलब्ध हो सकता है ॥१२॥
अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः ।
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥ १३॥
वह ‘है’ – इस प्रकार ही उपलब्ध करने योग्य है, और तत्वभाव से भी । दोनों में से जिसे ‘है’ – इस प्रकार की उपलब्द्धि हो गयी है, तात्विक स्वरुप उसके अभिमुख हो जाता है ॥१३॥
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ १४॥
जब इस हृदय के आश्रय में रहने वाली सभी कामनाएँ समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा अमर हो जाता है । यहीं पर ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ॥१४॥
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः ।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम् ॥ १५॥
जब इस हृदय की समस्त ग्रंथियाँ टूटकर खुल जाती हैं, तब वह मरणधर्मा अमर हो जाता है । बस इतना ही वेदान्त का अनुशासन (उपदेश) है ॥१५॥
शतं चैका च हृदयस्य नाड्य-
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥ १६॥
हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं । उनमे से एक मूर्धा की और निकली हुई है । उसके द्वारा ऊपर की ओर जाने वाला अमृतत्व को प्राप्त होता है । शेष अन्य उत्क्रमण के समय विभिन्न गतियों की हेतु होती हैं ॥१६॥
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा
सदा जनानां हृदये संनिविष्टः ।
तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण ।
तं विद्याच्छुक्रममृतं तं विद्याच्छुक्रममृतमिति ॥ १७॥
अन्तरआत्मा वह अँगुष्ठमात्र पुरुष सदैव जीवों के हृदय में स्थित है । उसे मूँज से सींक की भाँति अपने शरीर से धैर्यपूर्वक पृथक करके देखे । उसी को शुक्ररूप और अमृतरूप समझे । उसी को शुक्ररूप और अमृतरूप समझे ॥१७॥
मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा
विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् ।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्यु-
रन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ॥ १८॥
मृत्यु की कही इस विद्या और सम्पूर्ण योगविधि को सुनकर ब्रह्मभाव को प्राप्त हुआ । रज और मृत्यु से मुक्त हुआ । जो अन्य भी कोई आध्यात्म को इस प्रकार जानेगा, वैसा ही होगा ॥१८॥
सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये तृतीया वल्ली ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सहवीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ तत् सत् ॥
॥ कलिसन्तरणोपनिषत् ॥
(कृष्णयजुर्वेदीया)
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यङ्करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
(भगवन्नामस्मरणमात्रेण कलिसन्तरणम्)
हरिः ॐ । द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां
पर्यटन् कलिं सन्तरेयमिति ।
स होवाच ब्रह्मा साधु पृष्टोऽस्मि सर्वश्रुतिरहस्यं गोप्यं
तच्छृणु येन कलिसंसारं तरिष्यसि ।
भगवत आदिपुरुषस्य नारायनस्य नामोच्चारणमात्रेण
निर्धृतकलिर्भवतीति ॥ १॥
द्वापर युग के अन्तिम काल में एक बार देवर्षि नारद पितामह ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हुए और बोले’हे भगवन् ! मैं पृथ्वीलोक में भ्रमण करता हुआ किस प्रकार से कलिकाल से मुक्ति पाने में समर्थ हो सकता हूँ? ब्रह्माजी प्रसन्नमुख हो इस प्रकार बोले-‘हे वत्स! तुमने आज मुझसे अत्यन्त प्रिय बात पूछी है। आज मैं समस्त श्रुतियों का जो अत्यन्त गुप्त रहस्य है, उसे बतलाता हूँ, सुनो। इसके श्रवण मात्र से ही कलियुग में संसारसागर को पार कर लोगे । भगवान् आदि पुरुष श्रीनारायण के पवित्र नाम के उच्चारण मात्र से मनुष्य कलिकाल के समस्त दोषों को विनष्ट कर डालता है॥ १॥
(परब्रह्मावरणविनाशकषोडशनामानि)
नारदः पुनः पप्रच्छ तन्नाम किमिति । स होवाच हिरण्यगर्भः ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥
इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मषनाशनम् ।
नातः परतरोपायः सर्ववेदेषु दृश्यते ॥
षोडशकलावृतस्य जीवस्यावरणविनाशनम् ।
ततः प्रकाशते परं ब्रह्म मेघापाये रविरश्मिमण्डलीवेति ॥ २॥
देवर्षि नारद ने पुन: प्रश्न किया-‘पितामह! वह कौन सा नाम है ?’ तदुपरान्त हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी ने कहा-वह सोलह अक्षरों से युक्त नाम इस प्रकार है-हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे । इस प्रकार ये सोलह नाम कलिकाल के महान् पापों का विनाश करने में सक्षम हैं। इससे श्रेष्ठ अन्य कोई दूसरा उपाय चारों वेदों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। इन सोलह नामों के द्वारा षोडश कलाओं से आवृत जीव के आवरण समाप्त हो जाते हैं। तदनन्तर जिस प्रकार मेघ के विलीन होने पर सूरज की किरणें ज्योतित होने लगती हैं, वैसे ही परब्रह्म का स्वरूप भी दीप्तिमान् होने लगता है॥ २॥
(नामजपमहिमा)
पुनर्नारदः पप्रच्छ भगवन् कोऽस्य विधिरिति ।
तं होवाच नास्य विधिरिति ।
सर्वदा शुचिरशुचिर्वा पठन् ब्राह्मणः सलोकतां समीपतां
सरूपतां सायुज्यमेति ।
यदास्य षोडशकस्य सार्धत्रिकोटीर्जपति तदा ब्रह्महत्यां तरति ।
तरति वीरहत्याम् ।
स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति ।
वृषलीगमनात् पूतो भवति ।
पितृदेवमनुष्याणामपकारात् पूतो भवति ।
सर्वधर्मपरित्यागपापात् सद्यः शुचितामाप्नुयात् ।
सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत् ॥ ३॥
देवर्षि नारद जी ने पुनः प्रश्न किया-हे प्रभु! इस मन्त्र नाम के जप की क्या विधि है? ब्रह्माजी ने कहाइस मन्त्र की कोई विधि नहीं है। शुद्ध हो अथवा अशुद्ध, हर स्थिति में इस मन्त्र-नाम का सतत जप-करने वाला मनुष्य सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एवं सायुज्य आदि सभी तरह की मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जब साधक इस षोडश नाम वाले मन्त्र का साढे तीन करोड़ जप कर लेता है, तब वह ब्रह्म-हत्या के दोष से मुक्त हो जाता है। वह बीरहत्या (या भाई की हत्या) के पाप से भी मुक्त हो जाता है। स्वर्ण की चोरी के पाप से भी मुक्त हो जाता है। पितर, देव और मनुष्यों के अपकार के पापों (दोषों) से भी मुक्त हो जाता है। समस्त धर्मों के त्याग के पाप से वह तुरन्त ही परिशुद्ध हो जाता है। वह शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ऐसी ही यह उपनिषद् है॥ ३ ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यङ्करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
॥ कालाग्निरुद्रोपनिषत् ॥
ब्रह्मज्ञानोपायतया यद्विभूतिः प्रकीर्तिता ।
तमहं कालाग्निरुद्रं भजतां स्वात्मदं भजे ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु
सहवीर्यं करवावहै
तेजस्विनावधीतमस्तु
मा विद्विषावहै
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ अथ कालाग्निरुद्रोपनिषदः संवर्तकोऽग्निर्ऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीकालाग्निरुद्रो देवता श्री कालाग्निरुद्रप्रीत्यर्थे विनियोगः ।। ||१||
इस कालाग्निरुद्रोपनिषद् के ऋषि संवर्तक अग्नि, अनुष्टुप् छन्द और देवता श्रीकालाग्नि रुद्र हैं। श्री कालाग्निरुद्र देव की प्रसन्नता के लिए इसका विनियोग किया जाता है॥
अथ कालाग्निरुद् भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रच्छ अधीहि भगवंस्त्रिपुण्ड्रधिं सतत्त्वं कि द्रव्यं कियस्थानं कति प्रमाणं का रेखाः के मंत्राः का शक्तिः किं दैवतं कः कर्ता कि फलमिति च।। ||२||
किसी समय एक बार सनत्कुमारजी ने भगवान् कालाग्निरुद्रदेव से प्रश्न किया- ‘हे भगवन् ! त्रिपुण्डू की विधि तत्त्वसहित मुझे समझाने की कृपा करें। वह क्या है? उसका स्थान कौन सा है, उसका प्रमाण (अर्थात्-आकार) कितना है, उसकी रेखाएँ कितनी हैं, उसका कौन सा मंत्र है, उसकी शक्ति क्या है, उसका कौन सा देवता है, कौन उसका कर्ता है तथा उसका फल क्या होता है?॥२॥
तं होवाच भगवान्कालाग्निरुद्रः यद्रव्यं तदाग्नेयं भस्म सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः परिगृह्याग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्मेत्यनेना-भिमन्त्र्य मानस्तोक इति समुद्धृत्य मा नो महान्तमिति जलेन संसृज्य त्रियायुषमिति शिरोललाट-वक्ष:स्कन्धेषु त्रियायुषैस्त्र्यम्बकैस्त्रिशक्तिभिस्तिर्यक्तिस्त्रो रेखा: प्रकुर्वीत व्रतमेतच्छाम्भवं सर्वेषु वेदेषु वेदवादिभिरुक्तं भवति तस्मात्तत्समाचरेन्मुमुक्षुर्न पुनर्भवाय ।। ||३||
अथ सनत्कुमारः पप्रच्छ प्रमाणमस्य त्रिपुण्ड्रधारणस्य ॥ ||४||
त्रिधा रेखा भवत्याललाटादाचक्षुषोरामूर्धोराभ्रुवोर्मध्यतश्च ॥ ||५||
यह सुनकर उन भगवान् कालाग्निरुद्र ने सनत्कुमार जी को समझाते हुए कहा कि त्रिपुण्डू का द्रव्य अग्निहोत्र की भस्म ही है। इस भस्म को ‘सद्योजातादि’ पञ्चब्रह्म मंत्रों को पढ़कर धारण करना चाहिए। अग्निरिति भस्म, वायुरिति भस्म, खमिति भस्म, जलमिति भस्म, स्थलमिति भस्म, (पञ्चभूतादि) मन्त्रों से अभिमन्त्रित करे।’मानस्तोक’ मंत्र से अँगुली पर ले तथा’मा नो महान्’ मन्त्र से जल से गीला करके ‘त्रियायुषं’ इस मंत्र से सिर, ललाट, वक्ष एवं कन्धे पर तथा ‘त्रियायुष’ एवं ‘त्र्यम्बक’ मन्त्र के द्वारा तीन रेखाएँ बनाए। इसी का नाम शाम्भव व्रत कहा गया है। इस व्रत का वर्णन वेदज्ञों ने समस्त वेदों में किया है। जो मुमुक्षु जन यह आकांक्षा रखते हैं कि उन्हें पुनर्जन्म न लेना पड़े, तो उन्हें इसे धारण करना चाहिए॥ ऐसा सुनने के पश्चात् सनत्कुमार जी ने पूछा कि त्रिपुण्ड्र की तीन रेखाओं को धारण करने का प्रमाण (लम्बाई आदि) क्या है?॥ भगवान् श्री कालाग्निरुद्र ने उत्तर दिया कि तीन रेखाएँ दोनों नेत्रों के भ्रूमध्य से आरम्भ कर स्पर्श करते हुए ललाट- मस्तक पर्यन्त धारण करे॥३-५॥
यास्य प्रथमा रेखा सा गार्हपत्यश्चाकारो रजो भूर्लोकः स्वात्मा क्रियाशक्तिर्ऋग्वेदः प्रातःसवनं महेश्वरो देवतेति ॥ ||६||
प्रथम रेखा गार्हपत्य अग्निरूप, ‘अ’ कार रूप, रजोगुणरूप, भूलोकरूप, स्वात्मकरूप, क्रियाशक्तिरूप, ऋग्वेदस्वरूप, प्रातः सवनरूप तथा महेश्वरदेव के रूप की है॥६॥
यास्य द्वितीया रेखा सा दक्षिणाग्निरुकारः सत्त्वमन्तरिक्षमन्तरात्मा चेच्छाशक्तिर्यजुर्वेदो माध्यंदिनं सवनं सदाशिवो देवतेति ॥ ||७||
द्वितीय रेखा दक्षिणाग्निरूप, ‘उ’कार रूप, सत्त्वरूप, अन्तरिक्षरूप, अन्तरात्मारूप, इच्छाशक्तिरूप, यजुर्वेदरूप, माध्यन्दिन सवनरूप एवं सदाशिव के रूप की है॥७॥
यास्य तृतीया रेखा साहवनीयो मकारस्तमो द्यौर्लोकः परमात्मा ज्ञानशक्तिः सामवेद स्तृतीयसवनं महादेवो देवतेति ॥ ||८||
तीसरी रेखा आहवनीयाग्नि रूप, ‘म’ कार रूप, तमरूप, द्यु-लोकरूप, परमात्मारूप, ज्ञानशक्तिरूप, सामवेदरूप, तृतीय सवनरूप तथा महादेवरूप की है॥८॥
एवं त्रिपुण्ड्रविधि भस्मना करोति यो विद्वान्ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स महापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति स सर्वान्वेदानधीतो भवति स सर्वान्देवाञ्ज्ञातो भवति स सततं सकलरुद्रमन्त्रजापी भवति स सकलभोगान्भुड्न्क्ते देहं त्यक्त्वा शिवसायुज्यमेति न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तत इत्याह भगवान्कालाग्निरुद्रः।। ||९||
इस तरह से त्रिपुण्ड्र की विधि से जो भी कोई ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी अथवा संन्यासी भस्म को धारण करता है। वह महापातकों एवं उपपातकों से मुक्त हो जाता है। वह समस्त तीर्थों में स्नान करने के सदृश पवित्र हो जाता है, उसे समस्त वेदों के पारायण का फल प्राप्त हो जाता है। वह सम्पूर्ण देवों को जानने में समर्थ हो जाता है। वह समस्त प्रकार के भोगों को भोगकर भगवान् शिव के लोक को प्राप्त करता है। वह पुनः जन्म नहीं लेता। इस प्रकार से भगवान् कालाग्निरुद्रदेव ने सनत्कुमार जी से त्रिपुण्ड्र के धारण करने की विधि का वर्णन किया है॥९॥
यस्त्वेतद्वाधीते सोऽप्येवमेव भवतीत्यों सत्यमित्युपनिषत् ॥ ||१०||
जो मनुष्य इस उपनिषद् का अध्ययन करता है, वह भी उसी रूप में (शिवरूप में) हो जाता है। ॐ ही सत्य है। ऐसी ही यह उपनिषद् है॥१०॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु
सहवीर्यं करवावहै
तेजस्विनावधीतमस्तु
मा विद्विषावहै
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति कालाग्निरुद्रोपनिषत्समाप्ता ॥
कुण्डिकोपनिषत्ख्यातपरिव्राजकसंततिः ।
यत्र विश्रान्तिमगमत्तद्रामपदमाश्रये ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं
ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां
मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं
मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि
सन्तु ते मयि सन्तु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ
ब्रह्मचर्याश्रमे क्षीणे गुरुशुश्रूषणे रतः ।
वेदानधीत्यानुज्ञात उच्यते गुरुणाश्रमी ॥ १॥
दारमाहृत्य सदृशमग्निमाधाय शक्तितः ।
ब्राह्मीमिष्टिं यजेत्तासामहोरात्रेण निर्वपेत् ॥ २॥
वेदों का अध्ययन करने के पश्चात् ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति पर गुरु की सेवा में लगे हुए जिस पुरुष को गुरु (अपने घर) जाने की आज्ञा प्रदान कर देते हैं, वह व्यक्ति आश्रमी कहा जाता है॥ बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अनुकूल स्त्री को स्वीकार करके तथा अपनी शक्ति के अनुसार अग्नि को ग्रहण करके ब्रह्म यज्ञ में संलग्न रहकर अपना जीवन-यापन करे॥१-२॥
संविभज्य सुतानर्थे ग्राम्यकामान्विसृज्य च ।
संचरन्वनमार्गेण शुचौ देशे परिभ्रमन् ॥ ३॥
तदनन्तर अपने पुत्रों में धन को बाँट करके, ग्राम (गाँव-घर) से सम्बन्धित सभी कार्यों को पुत्रों को सौंप करके, पवित्र देश (क्षेत्र) में भ्रमण करते हुए वन के लिए प्रस्थान करना चाहिए॥३॥
वायुभक्षोऽम्बुभक्षो वा विहितैः कन्दमूलकैः ।
स्वशरीरे समाप्याथ पृथिव्यां नाश्रु पातयेत् ॥ ४॥
संन्यासी को वायु अथवा जल सेवन करके अथवा विहित (शास्त्रानुमोदित) कन्द-मूल आदि से सतत अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए। साथ ही (संसार को) शरीर तक सीमित मानकर (मोह-ममतावश) अश्रुपात नहीं करना चाहिए॥४॥
सह तेनैव पुरुषः कथं संन्यस्त उच्यते ।
सनामधेयो यस्मिंस्तु कथं संन्यस्त उच्यते ॥ ५॥
परन्तु इतने सामान्य से कर्म के करने मात्र से कोई भी व्यक्ति संन्यासी नहीं कहा जा सकता है। यह तो साधारण नियम का पालन है, संन्यासी के नियम इससे कहीं अधिक श्रेष्ठ कहे गये हैं॥५॥
तस्मात्फलविशुद्धाङ्गी संन्यासं संहितात्मनाम् ।
अग्निवर्णं विनिष्क्रम्य वानप्रस्थं प्रपद्यते ॥ ६॥
इसके लिए फल की इच्छा न रखते हुए संन्यास धर्म से मुक्ति प्राप्त करके वर्णाश्रम व्यवस्था एवं अग्नि का परित्याग करते हुए वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए॥६॥
लोकवद्भार्ययासक्तो वनं गच्छति संयतः ।
संत्यक्त्वा संसृतिसुखमनुतिष्ठति किं मुधा ॥ ७॥
किंवा दुःखमनुस्मृत्य भोगांस्त्यजति चोच्छ्रितान् ।
गर्भवासभयाद्भीतः शीतोष्णाभ्यां तथैव च ॥ ८॥
साधारण लोगों की तरह स्त्री एवं सांसारिक सुखों का परित्याग कर वन में गमन करके अनुष्ठान आदि करने से क्या लाभ है? अथवा गर्भवास के भय से ठंडी-गर्मी, सुख-दु:ख आदि से भयभीत हुआ मनुष्य सांसारिक भोगों का त्याग क्यों करता है?॥७-८॥
गुह्यं प्रवेष्टुमिच्छामि परं पदमनामयमिति ।
संन्यस्याग्निमपुनरावर्तनं यन्मृत्युर्जायमावहमिति ॥
अथाध्यात्ममन्त्राञ्जपेत् । दीक्षामुपेयात्काषायवासाः ।
कक्षोपस्थलोमानि वर्जयेत् । ऊर्ध्वबाहुर्विमुक्तमार्गो भवति ।
अनिकेतश्चरेभिक्षाशी । निदिध्यासनं दध्यात् । पवित्रं
धारयेज्जन्तुसंरक्षणार्थम् । तदपि श्लोका भवन्ति ।
कुण्डिकां चमकं शिक्यं त्रिविष्टपमुपानहौ ।
शीतोपघातिनीं कन्थां कौपीनाच्छादनं तथा ॥ ९॥
पवित्रं स्नानशाटीं च उत्तरासङ्गमेव च ।
अतोऽतिरिक्तं यत्किंचित्सर्वं तद्वर्जयेद्यतिः ॥ १०॥
इस प्रकार के कृत्य करने का कारण यही है कि वह (संन्यासी) उस गूढ़ परमपद में प्रविष्ट होने की इच्छा रखता है। वह मृत्यु को जीत लेने वाले महाकाल को सतत स्मरण करता रहता है, वह सदा ही आध्यात्मिक मंत्रों का जप करता है तथा काषाय (भगवा) वस्त्रों को धारण करके दीक्षा ग्रहण कर लेता है। कुक्षि (कोख-काँख) और उपस्थ (जननेन्द्रिय) स्थान के बालों को छोड़कर अन्य सभी बालों का क्षौर करा लेता है। वह अपनी दोनों भुजाएँ ऊर्ध्व की ओर करके इच्छानुसार भ्रमण करता है। गृह विहीन वह भिक्षा ग्रहण करके जीवन-यापन करता है। उसे निदिध्यासन करते रहना चाहिए । जन्तुओं से संरक्षण के लिए पवित्री को धारण किये रहना चाहिए। कमण्डलु, चमस, छींको, त्रिविष्टप, जाड़े से रक्षा हेतु गुदड़ी, कौपीनं (लँगोटी), स्नान करने के लिए धोती एवं अँगौछा पास में रखना चाहिए। इन वस्तुओं के अतिरिक्त और सभी कुछ संन्यासी को परित्याग कर देना चाहिए॥९-१०॥
नदीपुलिनशायी स्याद्देवागारेषु बाह्यतः ।
नात्यर्थं सुखदुःखाभ्यां शरीरमुपतापयेत् ॥ ११॥
(वह यदि) चाहे तो अपनी इच्छानुसार नदी के तट पर शयन करे। बिना कोई विशेष कारण के शरीर को सुख-दुःखादि द्वारा कष्ट नहीं देना चाहिए॥११॥
स्नानं पानं तथा शौचमद्भिः पूताभिराचिरेत् ।
स्तूयमानो न तुष्येत निन्दितो न शपेत्परान् ॥ १२॥
स्नान के लिए, पीने के लिए तथा शौचादि के लिए शुद्ध जल का सेवन करना चाहिए। वह न तो स्तुति-प्रशंसा आदि से प्रसन्न हो और न ही निन्दा-अपमान होने पर किसी को शाप आदि ही दे॥१२॥
भिक्षादिवैदलं पात्रं स्नानद्रव्यमवारितम् ।
एवं वृत्तिमुपासीनो यतेन्द्रियो जपेत्सदा ॥ १३॥
भिक्षा के लिए पात्र तथा स्नान आदि के लिए जल जिस किसी भी तरह से मिले, उसे प्राप्त करना चाहिए। इस प्रकार से अनुपम, श्रेष्ठ आचरण को स्वीकार करके यति को सदा ही जप करते रहना चाहिए॥१३॥
विश्वायमनुसंयोगं मनसा भावयेत्सुधीः ।
आकाशाद्वायुर्वायोर्ज्योतिर्ज्योतिष आपोऽद्भ्यः पृथिवी ।
एषां भूतानां ब्रह्म प्रपद्ये । अजरममरमक्षरमव्ययं प्रपद्ये ।
मय्यखण्डसुखांभोधौ बहुधा विश्ववीचयः ।
उत्पद्यन्ते विलीयन्ते मायामारुतविभ्रमात् ॥ १४॥
सुधीजनों को अपने मन में यह भावना करनी चाहिए कि यह विश्वरूप ब्रह्म और मनु अर्थात् प्रणव रूप अक्षर ब्रह्म दोनों एक ही हैं। आकाश से वायु, वायु से ज्योति (अग्नि), ज्योति से जल और जल से पृथ्वी इन सभी भूतों में जो अविनाशी ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है, ऐसे उस (ब्रह्म) को मैं प्राप्त हुआ हूँ। अजर, अमर, अक्षर, अव्यय को (मैं) प्राप्त हुआ हूँ। मैं अखण्ड सुख-सागर रूप हूँ। मेरे मध्य में बहुत सी लहरें मायारूपी वायु के द्वारा प्रादुर्भूत एवं विलीन होती हैं॥१४॥
न मे देहेन संबन्धो मेघेनेव विहायसः ।
अतः कुतो मे तद्धर्मा जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ॥ १५॥
मेरा इस शरीर से उसी तरह का सम्बन्ध नहीं है, जैसे-आकाश का मेघ से कोई भी सम्बन्ध नहीं रहता। अतः इस शरीर के जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में मेरा (जीवात्मा का) क्या सम्बन्ध है?॥१५॥
आकाशवत्कल्पविदूरगोह-
मादित्यवद्भास्यविलक्षणोऽहम् ।
अहार्यवन्नित्यविनिश्चलोऽह-
मम्भोधिवत्पारविवर्जितोऽहम् ॥ १६॥
मैं (जीवात्मा) आकाश की भाँति कल्पना से परे अर्थात् ऊपर हैं, सूर्य के सदृश अन्य सुनहले आकर्षक पदार्थों से पृथक् हूँ, पर्वत की तरह सतत स्थिर रहता हूँ तथा समुद्र की तरह अपार हूँ॥१६॥
नारायणोऽहं नरकान्तकोऽहं
पुरान्तकोऽहं पुरुषोऽहमीशः ।
अखण्डबोधोऽहमशेषसाक्षी
निरीश्वरोऽहं निरहं च निर्ममः ॥ १७॥
मैं ही नारायण हूँ। नरकान्तक (नरकासुर का वध करने वाले), पुरान्तक (त्रिपुरासुर का वध करने वाले), पुरुष तथा ईश्वर भी मैं ही हूँ। मैं ही अखण्ड बोध स्वरूप, समस्त प्राणियों का साक्षी, ईश्वररहित (मेरे ऊपर नियन्त्रण करने वाला कोई नहीं), अहंकाररहित तथा ममतारहित हूँ॥१७॥
तदभ्यासेन प्राणापानौ संयम्य तत्र श्लोका भवन्ति ॥
वृषणापानयोर्मध्ये पाणी आस्थाय संश्रयेत् ।
संदश्य शनकैर्जिह्वां यवमात्रे विनिर्गताम् ॥ १८॥
अब प्राण एवं अपान के अभ्यास के विषय में वर्णन करते हैं। वृषण तथा गुदा के बीच में दोनों हाथों को रखे। दाँतों से जिह्वा को शनैः-शनैः दबाते हुए एक जौ के बराबर बाहर निकाले॥१८॥
माषमात्रां तथा दृष्टिं श्रोत्रे स्थाप्य तथा भुवि ।
श्रवणे नासिके गन्धा यतः स्वं न च संश्रयेत् ॥ १९॥
माष मात्र (उड़द के बराबर) लक्ष्य को अनुसंधान करके दृष्टि को श्रोत्र और पृथ्वी पर स्थिर करे। जिससे श्रवण (शब्द) और नासिका में गन्ध न स्थापित हो सके। १९॥
अथ शैवपदं यत्र तद्ब्रह्म ब्रह्म तत्परम् ।
तदभ्यासेन लभ्येत पूर्वजन्मार्जितात्मनाम् ॥ २०॥
जो ब्रह्म का चिंतन करता है, वही स्वयं ब्रह्म रूप हो जाता है तथा वही शिव है। उस (अविनाशी ब्रह्म) को पूर्व जन्म में किये हुए पुण्य कर्मों के फलस्वरूप अभ्यास द्वारा ही प्राप्त किया जाता है॥२०॥
संभूतैर्वायुसंश्रावैर्हृदयं तप उच्यते ।
ऊर्ध्वं प्रपद्यते देहाद्भित्त्वा मूर्धानमव्ययम् ॥ २१॥
वायु के नाद का प्रकट होना ही हृदय का तप कहा जाता है, वह शरीर को भेदकर ऊर्ध्व की ओर गमन करता हुआ मूर्धा को प्राप्त कर लेता है॥२१॥
स्वदेहस्य तु मूर्धानं ये प्राप्य परमां गतिम् ।
भूयस्ते न निवर्तन्ते परावरविदो जनाः ॥ २२॥
अपने इस शरीर में मूर्धा को प्राप्त कर लेना ही परमगति कहा गया है। जो मनुष्य इस गति को प्राप्त कर लेते हैं, वे ब्रह्मज्ञानी जन आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाते हैं॥२२॥
न साक्षिणं साक्ष्यधर्माः संस्पृशन्ति विलक्षणम् ।
अविकारमुदासीनं गृहधर्माः प्रदीपवत् ॥ २३॥
विकाररहित और उदासीन भावयुक्त साक्षी को साक्ष्य-धर्म वैसे ही स्पर्श नहीं कर सकता, जिस प्रकार गृह-धर्म प्रज्वलित दीप पर कोई भी प्रभाव नहीं डाल सकता॥२३॥
जले वापि स्थले वापि लुठत्वेष जडात्मकः ।
नाहं विलिप्ये तद्धर्मैर्घटधर्मैर्नभो यथा ॥ २४॥
यह जड़ात्मक शरीर चाहे जल-राशि में पड़ा रहे अथवा स्थल अर्थात् जल से रहित भूमि पर पड़ रहे, मैं (जीवात्मा) जो स्वयं चैतन्य रूप हैं, इस कारण से उसमें लिप्त नहीं हो सकता। जैसे घड़े के कारण घटोकाश में किसी भी तरह की विकृति नहीं आने पाती॥२४॥
निष्क्रियोऽस्म्यविकारोऽस्मि निष्कलोऽस्मि निराकृतिः ।
निर्विकल्पोऽस्मि नित्योऽस्मि निरालम्बोऽस्मि निर्द्वयः ॥ २५॥
सर्वात्मकोऽहं सर्वोऽहं सर्वातीतोऽहमद्वयः ।
केवलाखण्डबोधोऽहं स्वानन्दोऽहं निरन्तरः ॥ २६॥
मैं तो निष्क्रिय,विकाररहित,निष्कल,आकृतिरहित,निर्विकल्प,अनित्य, निरालम्ब,अद्वैत,सर्वात्मा, सर्वातीत एवं द्वयरहित हूँ। मैं केवल अखण्ड बोधस्वरूप हूँ तथा निरन्तर स्वयं आनन्दमय हूँ॥२५-२६॥
स्वमेव सर्वतः पश्यन्मन्यमानः स्वमद्वयम् ।
स्वानन्दमनुभुञ्जानो निर्विकल्पो भवाम्यहम् ॥ २७॥
मैं स्वयं को ही सतत देखता हूँ, स्वयं को ही अद्वैत रूप में मानता हुआ, स्वयं के आनन्द का उपभोग करता हुआ, मैं स्वयं ही निर्विकल्प रूप हूँ॥२७॥
गच्छंस्तिष्ठन्नुपविशञ्छयानो वान्यथापि वा ।
यथेच्छया वसेद्विद्वानात्मारामः सदा मुनिः ॥ २८॥ इत्युपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं
ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां
मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं
मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि
सन्तु ते मयि सन्तु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति कुण्डिकोपनिषत्समाप्ता ॥
सतत चला हुआ, रुका हुआ, बैठा हुआ, सोता हुआ या कुछ भी करता हुआ, वह विद्वान् मुनि रूप आत्मा अपने में ही संतुष्ट हुआ अपनी इच्छानुसार जीवनयापन करे,ऐसी ही यह उपनिषद् है॥२८॥
॥ श्री गुरुभ्यो नमः हरिः ॐ ॥
यो रामः कृष्णतामेत्य सार्वात्म्यं प्राप्य लीलया ।
अतोषयद्देवमौनिपटलं तं नतोऽस्म्यहम् ॥ १॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
॥ अथ प्रथम खंडः ॥
हरिः ॐ । श्रीमहाविष्णुं सच्चिदानन्दलक्षणं रामचन्द्रं
दृष्ट्वा सर्वाङ्गसुन्दरं मुनयो वनवासिनो विस्मिता बभूवुः ।
तं होचुर्नोऽवद्यमवतारान्वै गण्यन्ते आलिङ्गामो भवन्तमिति ।
भवान्तरे कृष्णावतारे यूयं गोपिका भूत्व मामालिङ्गथ
अन्ये येऽवतारास्ते हि गोपा न स्त्रीश्च नो कुरु । अन्योन्यविग्रहं
धार्यं तवाङ्गस्पर्शनादिह । शाश्वतस्पर्शयितास्माकं
गृण्हीमोऽवतारान्वयम् ॥ १॥
रुद्रादीनां वचः शृत्वा प्रोवाच भगवान्स्वयम् ।
अङ्गयङ्गं करिष्यामि भवद्वाक्यं करोम्यहम् ॥ २॥
सर्वांग सुन्दर, सच्चिदानन्द स्वरूप, महाविष्णु (के अवतारी) श्री रामचन्द्र जी को देखकर वनवासी मुनिगण बड़े आश्चर्यचकित हुए। (उन्हें धरती पर अवतरित होने के लिए ब्रह्मा जी का आदेश होने पर) ऋषियों ने उनसे (राम से) कहा- हम सब (धरती पर) अवतरित होने को अच्छा नहीं मानते हैं। हम आपका आलिंगन (अत्यधिक निकटता) चाहते हैं। (भगवान् ने कहा-हमारे) अन्य अवतार-कृष्णावतार में तुम सभी गोपिका बनकर मेरा आलिंगन (अतिसंन्निकटता) प्राप्त करो। (ऋषियों ने पुन: कहा- हमारे) जो अन्य अवतार हों, (उनमें) हमें गोप-गोपिका बना दें। आपका सान्निध्य प्राप्त करने की स्थिति में हमें ऐसा शरीर (गोपिका आदि) धारण करना स्वीकार्य है, जो आपको स्पर्श सुख प्रदान कर सके। रुद्र आदि सभी देवों की यह स्नेहयुक्त प्रार्थना सुनकर स्वयं आदि पुरुष भगवान् ने कहा- हे देवों ! मैं अपने अंग-अवयवों के स्पर्श का अवसर तुम्हें निश्चित रूप से प्रदान करता रहूँगा। मैं तुम्हारी इच्छा को अवश्य पूर्ण करूंगा॥१-२॥
मोदितास्ते सुरा सर्वे कृतकृत्याधुना वयम् ।
यो नन्दः परमानन्दो यशोदो मुक्तिगेहिनी ॥ ३॥
माया सा त्रिविधा प्रोक्ता सत्त्वराजसतामसी ।
प्रोक्ता च सात्त्विकी रुद्रे भक्ते ब्रह्मणि राजसी ॥ ४॥
तामसी दैत्यपक्षेषु माया त्रेधा ह्युदाहृता ।
अजेया वैष्णवी माया जप्येन च सुता पुरा ॥ ५॥
देवकी ब्रह्मपुत्र सा या वेदैरुपगीयते ।
निगमो वसुदेवो यो वेदार्थः कृष्णरामयोः ॥ ६॥
स्तुवते सततं यस्तु सोऽवतीर्णो महीतले ।
वने वृन्दावने क्रीडङ्गोपगोपीसुरैः सह ॥ ७॥
गोप्यो गाव ऋचस्तस्य यष्टिका कमलासनः ।
वंशस्तु भगवान् रुद्रः शृङ्गमिन्द्रः सगोसुरः ॥ ८॥
गोकुलं वनवैकुण्ठं तापसास्तत्र ते द्रुमाः ।
लोभक्रोधादयो दैत्याः कलिकालस्तिरस्कृतः ॥ ९॥
परम पुरुष भगवान् का यह आश्वासन प्राप्त करके वे सभी देवगण अत्यधिक आनन्दित होते हुए बोले कि ‘अब हम कृतार्थ हो गये। तदनन्तर वे समस्त देवगण भगवान् की सेवा हेतु प्रकट हुए। भगवान् का परम आनन्दमय स्वरूप ही अंशरूप में नन्दराय जी के रूप में उत्पन्न हुआ। स्वयं साक्षात् मुक्तिदेवी नन्दरानी यशोदा जी के रूप में अवतरित हुईं। सुप्रसिद्ध माया तीन प्रकार की कही गयी है, जिनमें से प्रथम सात्त्विकी, द्वितीय राजसी और तृतीय तामसी । भगवान् के भक्त श्रीरुद्र देव में सात्त्विकी माया विद्यमान है, ब्रह्मा जी में राजसी माया है और असुरों में तामसी माया का प्राकट्य हुआ है। इस कारण से यह तीन प्रकार की बतलायी गयी है। इसके अतिरिक्त जो वैष्णवी-माया है, उसको जीतना हर किसी के लिए असंभव है। इस माया को प्राचीन काल में ब्रह्मा जी भी पराजित नहीं कर सके। देवता भी सदा जिस वैष्णवी माया की स्तुति करते हैं,वही ब्रह्म विद्यामयी वैष्णवी माया ही देवकी के रूप में प्रादुर्भूत हुई। निगम अर्थात् वेद ही वसुदेव हैं, जो निरन्तर मुझ पूर्ण पुरुष नारायण के विराट् स्वरूप की स्तुति करते हैं। वेदों का तात्पर्यभूत ब्रह्म ही श्री बलराम एवं श्रीकृष्ण के रूप में इस पृथ्वी पर अवतरित हुआ। वह मूर्तिमय वेदार्थ ही वृन्दावन में विद्यमान गोप एवं गोपियों के साथ क्रीड़ा करता है। वेदों की ऋचाएँ उन भगवान् श्रीकृष्ण की गौएँ एवं गोपियाँ हैं। ब्रह्माजी ने लकुटी का रूप धारण किया है तथा भगवान् रुद्र वंश(वंशी)बने हुए हैं। सगोसुर इन्द्र (अर्थात् वज्रधारी देव इन्द्र-यहाँ गो का अर्थ वज्र तथा सुर का अर्थ देव लिया गया है।) श्रृंग (सींग का बना वाद्ययंत्र) का रूप धारण किए हुए हैं। गोकुल के नाम से प्रसिद्ध वन के रूप में जहाँ स्वयं साक्षात् वैकुण्ठ प्रतिष्ठित है, वहाँ पर द्रुमों (वृक्षों) के रूप में तप में रत महात्मा स्थित हैं। लोभ-क्रोधादि षड् विकारों ने महान् दैत्य-असुरों का रूप धारण कर लिया है, जो कलियुग में (केवल भगवान् श्रीकृष्ण के नाम जप मात्र से ही) विनष्ट हो जाते हैं॥३-९॥
गोपरूपो हरिः साक्षान्मायाविग्रहधारणः ।
दुर्बोधं कुहकं तस्य मायया मोहितं जगत् ॥ १०॥
दुर्जया सा सुरैः सर्वैर्धृष्टिरूपो भवेद्विजः ।
रुद्रो येन कृतो वंशस्तस्य माया जगत्कथम् ॥ ११॥
बलं ज्ञानं सुराणां वै तेषां ज्ञानं हृतं क्षणात् ।
शेशनागो भवेद्रामः कृष्णो ब्रह्मैव शाश्वतम् ॥ १२॥
अष्टावष्टसहस्रे द्वे शताधिक्यः स्त्रियस्तथा ।
ऋचोपनिषदस्ता वै ब्रह्मरूपा ऋचः स्त्रियाः ॥ १३॥
द्वेषाश्चाणूरमल्लोऽयं मत्सरो मुष्टिको जयः ।
दर्पः कुवलयापीडो गर्वो रक्षः खगो बकः ॥ १४॥
दया सा रोहिणी माता सत्यभामा धरेति वै ।
अघासुरो माहाव्याधिः कलिः कंसः स भूपतिः ॥ १५॥
शमो मित्रः सुदामा च सत्याक्रोद्धवो दमः ।
यः शङ्खः स स्वयं विष्णुर्लक्ष्मीरुपो व्यवस्थितः ॥ १६॥
दुग्धसिन्धौ समुत्पन्नो मेघघोषस्तु संस्मृतः ।
दुग्दोदधिः कृतस्तेन भग्नभाण्डो दधिगृहे ॥ १७॥
क्रीडते बालको भूत्वा पूर्ववत्सुमहोदधौ ।
संहारार्थं च शत्रूणां रक्षणाय च संस्थितः ॥ १८॥
कृपार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्ममात्मजम् ।
यत्स्रष्टुमीश्वरेणासीतच्चक्रं ब्रह्मरूपदृक् ॥ १९॥
स्वयं साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही गोपरूप में लीला-विग्रह का रूप धारण किये हुए हैं। यह नश्वर जगत् माया से ग्रसित है, इस कारण उसके लिए भगवान् श्रीकृष्ण की माया का रहस्य जानना बहुत ही दुष्कर है। वह प्रभु की माया सभी देवताओं के लिए भी दुर्जय है। जिन भगवान् की माया के वश में होकर ब्रह्मा जी लकुटी का रूप धारण किए हुए हैं तथा जिन्होंने भगवान् शिव को वंशी बनने के लिए विवश कर रखा है, उन प्रभु की माया को सामान्य जगत् किस प्रकार जान सकता है? निश्चित रूप से देवों का जो ज्ञान युक्त बल है, उसे भगवान् । की माया ने क्षण भर में हरण कर लिया है। श्रीशेषनाग जी श्री बलराम के रूप में जन्मे और सनातन ब्रह्म ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए। भगवान् श्रीकृष्ण की रुक्मिणी आदि सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ ही वेदों की ऋचाएँ एवं उपनिषद् हैं, इनके अतिरिक्त वेदों की जो ब्रह्म स्वरूपा ऋचाएँ हैं, वे सभी ब्रजभूमि में गोपिकाओं के रूप में अवतरित हुईं। द्वेष ही चाणूर मल्ल के रूप में है, मत्सर ही दुर्जय मुष्टिक रूप में तथा दर्प ही कुवलयापीड़ हाथी के रूप में प्रकट हुआ है। गर्व ही आकाश में गमन करने वाले बकासुर राक्षस के रूप में अवतरित हुआ। माता रोहिणी के रूप में दया का प्राकट्य हुआ है और माँ पृथ्वी ही सत्यभामा के रूप में अवतरित हुई हैं। अघासुर के रूप में महाव्याधि और स्वयं साक्षात् कलि ही राजा कंस के रूप में प्रकट हुआ। श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा जी ही ‘शम’ हैं, सत्य के रूप में अक्रूर जी और दम के रूप में उद्धवजी उत्पन्न हुए। शंख स्वयं विष्णुरूप है और लक्ष्मी का भ्राता होने के कारण वह लक्ष्मी रूप भी है, उसका प्राकट्य क्षीरसागर से हुआ है। मेघ के सदृश उसका गम्भीर घोष नाद है। भगवान् ने दूध-दही के भण्डार से युक्त जो मटके फोड़े तथा उन मटकों से जो दूध-दही प्रवाहित हुआ, उसके रूप में भगवान् ने स्वयं साक्षात् क्षीरसागर को ही प्रादुर्भूत किया है और वे (भगवान् श्रीकृष्ण) उस महासागर में बालक रूप में अवस्थित हो पूर्ववत् क्रीड़ा कर रहे हैं। शत्रुओं के शमन एवं साधुजनों के संरक्षण में वे पूर्णरूपेण तत्पर रहते हैं। समस्त भूत-प्राणियों पर अहैतुकी कृपा करने के लिए एवं अपने आत्मज स्वरूप धर्म के अभ्युदय हेतु ही भगवान् श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ है, ऐसा ही जानना चाहिए। भगवान् महाकाल (शिव) ने श्रीहरि को समर्पित करने के लिए जिस चक्र को उत्पन्न किया था, भगवान् (श्री कृष्ण) के हाथ में शोभायमान वह चक्र भी ब्रह्ममय ही है॥१०-१९॥
जयन्तीसंभवो वायुश्चमरो धर्मसंज्ञितः ।
यस्यासौ ज्वलनाभासः खड्गरूपो महेश्वरः ॥ २०॥
कश्यपोलूखलः ख्यातो रज्जुर्माताऽदितिस्तथा ।
चक्रं शङ्खं च संसिद्धिं बिन्दुं च सर्वमूर्धनि ॥ २१॥
यावन्ति देवरूपाणि वदन्ति विभुधा जनाः ।
नमन्ति देवरूपेभ्य एवमादि न संशयः ॥ २२॥
गदा च काळिका साक्षात्सर्वशत्रुनिबर्हिणी ।
धनुः शार्ङ्गं स्वमायाच शरत्कालः सुभोजनः ॥ २३॥
अब्जकाण्डं जगत्बीजं धृतं पाणौ स्वलीलया ।
गरुडो वटभाण्डीरः सुदामा नारदो मुनिः ॥ २४॥
वृन्दा भक्तिः क्रिया बुद्धीः सर्वजन्तुप्रकाशिनी ।
तस्मान्न भिन्नं नाभिन्नमाभिर्भिन्नो न वै विभुः ।
भूमावुत्तारितं सर्वं वैकुण्ठं स्वर्गवासिनाम् ॥ २५॥
धर्म ने चँवर का रूप धारण किया है, वायुदेव वैजयन्ती माला के रूप में उत्पन्न हुए हैं और महेश्वर ने अग्नि की भाँति चमकते हुए खड्ग का रूप स्वीकार किया है। नन्द जी के घर में कश्यप ऋषि ऊखल के रूप में प्रतिष्ठित हैं तथा माता अदिति रस्सी के रूप में प्रकट हुई हैं। जिस प्रकार समस्त अक्षरों के ऊपर अनुस्वार सुशोभित होता है, वैसे ही सभी के ऊपर जो शोभायमान आकाश है, उसको ही भगवान् श्रीकृष्ण को छत्र समझना चाहिए। व्यास, वाल्मीकि आदि ज्ञानी महात्माजन देवों के जितने रूपों का वर्णन करते हैं और जिनजिन को लोग देवरूप में समझ कर नमन-वंदन करते हैं, वे समस्त देवगण भगवान् श्रीकृष्ण का ही एक मात्र अवलम्बन प्राप्त करते हैं। भगवान् के हाथ की गदा सम्पूर्ण शत्रुओं को विनष्ट करने वाली साक्षात् कालिका है। शार्ङ्गधनुष के रूप में स्वयं वैष्णवी माया ही उपस्थित है तथा प्राणों का संहार करने वाला काल ही भगवान् का बाण है। इस विश्व-वसुधा के बीज स्वरूप कमल को भगवान् ने लीलापूर्वक हाथ में ग्रहण किया है। भाण्डीर वट का रूप गरुड़ ने धारण कर रखा है और देवर्षि नारद उनके सुदामा नामक सखा के रूप में अवतरित हुए हैं। भक्ति ने वृन्दा का रूप धारण किया है। समस्त भूत-प्राणियों को प्रकाश प्रदान करने वाली जो बुद्धि है, वही भगवान् की क्रियाशक्ति है। इस कारण ये गोप एवं गोपिकाएँ आदि सभी भगवान् श्रीकृष्ण से अलग नहीं हैं। तथा विभु-परमात्मा श्रीकृष्ण भी इन सभी से अलग नहीं हैं। उन भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वर्गवासियों को एवं समस्त वैकुण्ठ धाम को पृथिवीतल पर अवतरित कर लिया है, जो भी मनुष्य इस तरह से उन भगवान् को जानता है॥२०-२५॥
सर्वतीर्थफलं लभते य एवं वेद।
देहबन्धाद्विमुच्यते इत्युपनिषत् ।।
वह समस्त तीर्थों के फल को प्राप्त कर लेता है और शारीरिक-बन्धनों से मुक्त हो जाता है, ऐसी ही यह उपनिषद् है ।
॥ इस प्रकार अथर्ववेदीय श्रीकृष्णोपनिषद् समाप्त हुआ ॥
विशेषः- इसके अतिरिक्त निम्नानुसार अतिरिक्त पाठ भी मिलता है —
॥ अथ द्वितीयः खण्डः ॥
शेषो ह वै वासुदेवात् संकर्षणो नाम जीव आसीत् ।
सोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति ।
ततः प्रद्युम्नसंज्ञक आसीत् ।
तस्मात् अहंकारनामानिरुद्धो हिरण्यगर्भोऽजायत ।
तस्मात् दश प्रजापतयो मरीच्याद्याः
स्थाणुदक्षकर्दमप्रियव्रतोत्तनपादवायवो व्यजायन्त ।
तेभ्योः सर्वाणि भूतानि च ।
तस्माच्छेषादेव सर्वाणि च भूतानि समुत्पद्यन्ते ।
तस्मिन्नेव प्रलीयन्ते ।
स एव बहुधा जायमानः सर्वान् परिपाति ।
स एव काद्रवेयो व्याकरणज्योतिषादिशास्त्रणि निर्मिमाणो
बहुभिर्मुमुक्षुभिरुपास्यमानोऽखिलां भुवमेकस्मिन्
शीर्ष्ण सिद्धार्थवदवध्रियमाणः सर्वैर्मुनिभिः
सम्प्रार्थ्यमानः सहस्रशिखराणि मेरोः
शिरोभिरावार्यमाणो महावाय्वहंकारं निराचकार ।
स एव भगवान् भगवन्तं बहुधा विप्रीयमाणः अखिलेन स्वेन
रुपेण युगे युगे तेनैव जयमानः स एव सौमित्रिरैक्ष्वाकः
सर्वाणि धानुषशास्त्राणि सर्वाण्यस्त्रशास्त्राणि बहुधा
विप्रीयमानो रक्षांसि सर्वाणि विनिघ्नंश्चातुर्वर्ण्यधर्मान्
प्रवर्तयामास ।
स एव भगवान् युगसंधिकाले शारदाभ्रसंनिकाशो
रौहिनेयो वासुदेवः सर्वाणि गदाद्यायुधशास्त्राणि
व्याचक्षाणो नैकान् राजन्यमण्डलान्निराचिकीर्षुः
भुभारमखिलं निचखान ।
स एव भगवान् युगे तुरियेऽपि ब्रह्मकुले जायमानः सर्व
उपनिषदः उद्दिधीर्षुः सर्वाणि धर्मशास्त्राणि
विस्तारयिष्णुः सर्वानपि जनान् संतारयिष्णुः
सर्वानपि वैष्णवान् धर्मान् विजृम्भयन्
सर्वानपि पाषण्डान् निचखान ।
स एष जगदन्तर्यामी ।
स एष सर्वात्मकः ।
स एव मुमुक्षुभिर्ध्येयः ।
स एव मोक्षप्रदः ।
एतं स्मृत्वा सर्वेभ्यः पापेभ्यो मुच्यते ।
तन्नाम संकीर्तयन् विष्णुसायुज्यं गच्छति ।
तदेतद् दिवा अधीयानः रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
नक्तमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
तदेतद्वेदानां रहस्यं तदेतदुपनिषदां रहस्यम्
एतदधीयानः सर्वत्रतुफलं लभते
शान्तिमेति मनःशुद्धिमेति सर्वतीर्थफलं लभते
य एवं वेद देहबन्धाद्विमुच्यते इत्युपनिषत् ॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
हरिः ॐ तत्सत्
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
॥ इति कृष्णोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ भारतीरमणमुख्यप्राणंतर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
॥ अथ केनोपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं
माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य
उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
प्रथम खण्ड
ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः
केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः ।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति
चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥ १॥
ॐ
किसकी इच्छा से प्रेरित होकर मन गिरता है । किसके द्वारा नियुक्त होकर वह श्रेष्ठ प्रथम प्राण चलता है । किसकी इच्छा से इस वाणी द्वारा बोलता है । कौन देव चक्षु और श्रोत्र को नियुक्त करता है ॥१॥
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्
वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः ।
चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ २॥
जो श्रोत्र का भी श्रोत्र है । मन का भी मन है । वाणी का भी वाणी है । वही प्राण का भी प्राण है और चक्षु का भी चक्षु है । धीर पुरुष उसे जानकर, जीवन्मुक्त होकर, इस लोक से जाकर जन्म-मृत्यु से रहित हो जाते हैं ॥२॥
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः ।
न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ॥ ३॥
न वहाँ चक्षु पहुँच सकता है । न वाणी जा सकती है । न मन ही पहुँच सकता है । न बुद्धि से जान सकते है । न औरों से सुनकर। उसे कैसे बतलाया जाय ।
अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि ।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे ॥ ४॥
वह विदित से भी परे है और अविदित से भी परे है । ऐसा ही हमने अपने पूर्व पुरुषों से सुना है । जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी ॥३॥
यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५॥
जो वाणी से प्रकाशित नहीँ है, अपितु जिससे वाणी प्रकाशित होती है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं, जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥४॥
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ६॥
जिसे मन द्वारा मनन नहीं किया जा सकता, अपितु मन जिससे मनन करता हुआ जाना जाता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं, जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥५॥
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ७॥
जिसे चक्षु के द्वारा नहीं देखा जा सकता, अपितु जिससे चक्षु देखता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं, जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥६॥
यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ८॥
जिसे श्रोत्र के द्वारा नहीं सुना जा सकता, अपितु श्रोत्र जिससे सुनता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥७॥
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ९॥
जो प्राण के द्वारा प्राणित नहीं है, अपितु प्राण जिससे प्राणित होता है । उसी को तुम ब्रह्म जानो । उसे नहीं जिसकी यह लोक उपासना करता है ॥८॥
॥ इति केनोपनिषदि प्रथमः खण्डः ॥
द्वितीय खण्ड
यदि मन्यसे सुवेदेति दभ्रमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम्।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥ ||१||
यदि ऐसा मानते हो कि ‘मैं अच्छी तरह जानता हूँ’ । तो तुम निश्चय ही ‘ब्रह्म’ का थोड़ा सा ही रूप जानते हो । इसका जो स्वरुप तुझमे है और जो देवताओं में है, वह भी थोड़ा ही है । इसलिए तेरा ऐसा माना हुआ कि ‘जानता हूँ’ निःसंदेह विचारणीय है ॥१॥
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ २॥
न तो मैं यह मानता हूँ कि ‘जानता हूँ’ और न यह मानता हूँ कि ‘नहीं जानता’ । अतः जानता हूँ । जो उसे ‘न तो नहीं जानता हूँ’ और ‘न जानता ही हूँ’ इस प्रकार जानता है, वही जानता है ॥२॥
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ ३॥
जो मानता है कि वह जानने में नहीं आता, उसका वह जाना ही हुआ है । जो मानता है कि वह जानता है, वह नहीं जानता । वह जानने वालों का नहीं जाना हुआ है और नहीं जानने वालों का जाना हुआ है ॥३॥
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥ ४॥
इस प्रतिबोध को जानने वाला ही वास्तव में जानता है । इससे ही अमृतत्व को प्राप्त होता है । उस आत्म से ही शक्ति प्राप्त होती है जबकि विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है ॥४॥
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ ५॥
इस देह के रहते हुए जान लिया तो सत्य है । इस देह के रहते हुए नही जाना पाया तो महान विनाश है । धीर पुरुष सभी भूतों में उसे जानकर, इस लोक से प्रयाण कर अमर हो जाते हैं ॥५॥
॥ इति केनोपनिषदि द्वितीयः खण्डः ॥
तृतीय खण्ड
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो
विजये देवा अमहीयन्त ॥ १॥
ब्रह्म ने ही देवताओं के लिए विजय प्राप्त की । ब्रह्म की उस विजय से देवताओं को अहंकार हो गया । वे समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है । हमारी ही महिमा है ॥१॥
त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ।
तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत
किमिदं यक्षमिति ॥ २॥
यह जानकर वह (ब्रह्म) उनके सामने प्रादुर्भूत हुआ । और वे (देवता) उसको न जान सके कि ‘यह यक्ष कौन है’ ॥२॥
तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि
किमिदं यक्षमिति तथेति ॥ ३॥
तब उन्होंने (देवों ने) अग्नि से कहा कि, ‘हे जातवेद ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । अग्नि ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ ॥३॥
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीत्यग्निर्वा
अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥ ४॥
अग्नि यक्ष के समीप गया । उसने अग्नि से पूछा – ‘तू कौन है’ ? अग्नि ने कहा – ‘मैं अग्नि हूँ, मैं ही जातवेदा हूँ’ ॥४॥
तस्मिꣳस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदꣳ सर्वं
दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ५॥
‘ऐसे तुझ अग्नि में क्या सामर्थ्य है ?’ अग्नि ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे जलाकर भस्म कर सकता हूँ’ ॥५॥
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति ।
तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव
निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ ६॥
तब यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि ‘इसे जला’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को जलाने में समर्थ न होकर वह लौट गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका ॥६॥
अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि
किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥ ७॥
तब उन्होंने ( देवताओं ने) वायु से कहा – ‘हे वायु ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । वायु ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ ॥७॥
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा
अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥ ८॥
वायु यक्ष के समीप गया । उसने वायु से पूछा – ‘तू कौन है’ । वायु ने कहा – ‘मैं वायु हूँ, मैं ही मातरिश्वा हूँ’ ॥८॥
तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ
सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ९॥
‘ऐसे तुझ वायु में क्या सामर्थ्य है’ ? वायु ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे ग्रहण कर सकता हूँ’ ॥९॥
तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति
तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकादातुं स तत एव
निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ १०॥
तब यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि ‘इसे ग्रहण कर’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को ग्रहण करने में समर्थ न होकर वह लौट गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका ॥१०॥
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति
तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥ ११॥
तब उन्होंने (देवताओं ने) इन्द्र से कहा – ‘हे मघवन् ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । इन्द्र ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ । वह यक्ष के समीप गया । उसके सामने यक्ष अन्तर्धान हो गया ॥११॥
स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ
हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥ १२॥
वह इन्द्र उसी आकाश में अतिशय शोभायुक्त स्त्री, हेमवती उमा के पास आ पहुँचा, और उनसे पूछा कि ‘यह यक्ष कौन था’ ॥१२॥
॥ इति केनोपनिषदि तृतीयः खण्डः ॥
चतुर्थ खण्ड
सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति
ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ १॥
उसने स्पष्ट कहा – ‘ब्रह्म है’ । ‘उस ब्रह्म की ही विजय में तुम इस प्रकार महिमान्वित हुए हो’ । तब से ही इन्द्र ने यह जाना कि ‘यह ब्रह्म है’ ॥१॥
तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते
ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ २॥
इस प्रकार ये देव – जो कि अग्नि, वायु और इन्द्र हैं, अन्य देवों से श्रेष्ठ हुए । उन्होंने ही इस ब्रह्म का समीपस्थ स्पर्श किया । उन्होंने ही सबसे पहले जाना कि ‘यह ब्रह्म है’ ॥२॥
तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स
ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ ३॥
इसी प्रकार इन्द्र अन्य सभी देवों से अति श्रेष्ठ हुआ । उसने ही इस ब्रह्म का सबसे समीपस्थ स्पर्श किया । उसने ही सबसे पहले जाना कि ‘यह ब्रह्म है’ ॥३॥
तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा इतीन्न्यमीमिषदा इत्यधिदैवतम् ॥ ४॥
उस ब्रह्म का यही आदेश है । जो कि विद्युत के चमकने जैसा है । नेत्रों के झपकने सा है । यही उसका अधिदैवत रूप है ॥४॥
अथाध्यात्मं यद्देतद्गच्छतीव च मनोऽनेन
चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णँ सङ्कल्पः ॥ ५॥
अब आध्यात्मिक रूप । वह मन ही है । जो उसकी ओर जाता है । निरन्तर स्मरण करता है । संकल्प करता है ॥५॥
तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि
हैनꣳ सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥ ६॥
वह यह बृह्म ही वन (वन्दनीय) है । वन नाम से ही उसकी उपासना करनी चाहिए । जो भी उसे इस प्रकार जान लेता है, समस्त भूतों का वह प्रिय हो जाता है ॥६॥
उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मीं वाव त
उपनिषदमब्रूमेति ॥ ७॥
हे गुरु ! उपनिषद का उपदेश कीजिये । इस प्रकार कहने पर तुझसे उपनिषद कह दी । यह निश्चय ही ब्रह्मविषयक उपनिषद है ॥७॥
तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि
सत्यमायतनम् ॥ ८॥
तप, दम एवं कर्म ही उसकी प्रतिष्ठा हैं । वेद उसके सम्पूर्ण अंग हैं और सत्य उसका आयतन है ॥८॥
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे
लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥ ९॥
जो इस प्रकार इस उपनिषद को जान लेता है, वह पापों को नष्ट करके अनन्त और महान स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है, प्रतिष्ठित होता है ॥९॥
॥ इति केनोपनिषदि चतुर्थः खण्डः ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं
माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य
उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति केनोपनिषत् ॥
कैवल्योपनिषद्वेद्यं कैवल्यानन्दतुन्दिलम् ।
कैवल्यगिरिजारामं स्वमात्रं कलयेऽन्वहम् ॥
ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ अथाश्वलायनो भगवन्तं परमेष्ठिनमुपसमेत्योवाच ।
अधीहि भगवन्ब्रह्मविद्यां वरिष्ठां सदा सद्भिः सेव्यमानां निगूढाम् ।
यथाऽचिरात्सर्वपापं व्यपोह्य परात्परं पुरुषं याति विद्वान् ॥ १॥
महान् ऋषि आश्वलायन भगवान् प्रजापति ब्रह्माजी के समक्ष हाथ में समिधा लिए हुए पहुँचे और कहा – हे भगवन्! आप मुझे सदैव संतजनों के द्वारा सेवित, अतिगोपनीय एवं अतिशय वरिष्ठ उस ‘ब्रह्मविद्या’ का उपदेश प्रदान करें, जिसके द्वारा विद्वज्जन शीघ्र ही समस्त पापों से मुक्त होकर उन ‘परम पुरुष’ परब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं॥१॥
तस्मै स होवाच पितामहश्च श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवैहि ॥ २॥
तदनन्तर ब्रह्माजी ने कहा-हे आश्वलायन ! तुम उस अतिश्रेष्ठ, परात्पर तत्त्व को श्रद्धा, भक्ति, ध्यान (चिंतन) और योगाभ्यास का आश्रय लेकर जानने का प्रयास करो॥२॥
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ।
परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति ॥ ३॥
उस (अमृत) की प्राप्ति न कर्म के द्वारा, न सन्तान के द्वारा और न ही धन के द्वारा हो पाती है। (उस) अमृतत्व को सम्यक् रूप से (ब्रह्म को जानने वालों ने) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त किया है। स्वर्गलोक से भी ऊपर गुहा अर्थात् बुद्धि के गह्वर में प्रतिष्ठित होकर जो ब्रह्मलोक प्रकाश से परिपूर्ण है, ऐसे उस (ब्रह्मलोक) में संयमशील योगीजन ही प्रविष्ट होते हैं॥३॥
वेदान्तविज्ञानसुनिश्र्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः ।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ ४॥
जिन (योगीजनों) ने वेदान्त के विशेष ज्ञान से एवं श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन (अनुभूति) के द्वारा (उस) परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, ऐसे वे पवित्र अन्त:करण से युक्त योगीजन संन्यास-योग के द्वारा ब्रह्मलोक में गमन करके अमृततुल्य हो कल्पान्त में मुक्त हो जाते हैं॥४॥
विविक्तदेशे च सुखासनस्थः शुचिः समग्रीवशिरःशरीरः ।
अन्त्याश्रमस्थः सकलेन्द्रियाणि निरुध्य भक्त्या स्वगुरुं प्रणम्य ॥ ५॥
(योगीजन) स्नान आदि से अपने शरीर को शुद्ध करने के पश्चात् एकान्त स्थान में सुखासन से बैठे। उसके पश्चात् ग्रीवा, सिर तथा शरीर को एक सीध में रखकर समस्त इन्द्रियों को निरोध करके भक्तिपूर्वक अपने गुरु को प्रणाम करें। तदनन्तर संन्यास आश्रम में स्थित (वे) योगीजन अपने हृदय-कमल में रजोगुण से रहित, विशुद्ध, दुःख-शोक से रहित आत्म तत्त्व का विशद चिन्तन करें॥५॥
हृत्पुण्डरीकं विरजं विशुद्धं विचिन्त्य मध्ये विशदं विशोकम् ।
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तरूपं शिवं प्रशान्तममृतं ब्रह्मयोनिम् ॥ ६॥
तमादिमध्यान्तविहीनमेकं विभुं चिदानन्दमरूपमद्भुतम् ।
उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम् ।
ध्यात्वा मुनिर्गच्छति भूतयोनिं समस्तसाक्षिं तमसः परस्तात् ॥ ७॥
इस तरह से जो अचिन्त्य, अव्यक्त तथा अनन्तरूप से युक्त है, कल्याणकारी है, शान्त-चित्त है, अमृत है, जो निखिल ब्रह्माण्ड का मूल कारण है, जिसका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, जो अनुपम है, विभु (विराट्) और चिदानन्द स्वरूप है, अरूप और अद्भुत है, ऐसे उस उमा (ब्रह्मविद्या) के साथ परमेश्वर को, सम्पूर्ण चर-अचर के पालनकर्ता को, शान्त स्वरूप, तीन नेत्रों वाले, नीलकण्ठ को-जो समस्त भूत-प्राणियों का मूल कारण है, सभी का साक्षी है और अविद्या से रहित हो प्रकाशमान हो रहा है, ऐसे उस (प्रकाशपुञ्ज परमात्मा) को योगीजन ध्यान के माध्यम से ग्रहण करते हैं॥६-७॥
स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् ।
स एव विष्णुः स प्राणः स कालोऽग्निः स चन्द्रमाः ॥ ८॥
वही (परात्पर पुरुष) ब्रह्मा है, वही शिव है, वही इन्द्र है, वही अक्षर रूप में शाश्वत ब्रह्म है, वही भगवान् विष्णु है, वही प्राणतत्त्व है, वही कालाग्नि और चन्द्रमा के रूप में भी है॥८॥
स एव सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यं सनातनम् ।
ज्ञात्वा तं मृत्युमत्येति नान्यः पन्था विमुक्तये ॥ ९॥
जो कुछ व्यतीत हो चुका है तथा जो भविष्य में होने वाला है, सभी कुछ वही परात्पर परब्रह्म है; ऐसे उस श्रेष्ठ सनातन परमात्म तत्त्व को प्राप्त करके प्राणी मृत्यु से परे अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। वह फिर जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं फँसता॥९॥
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
सम्पश्यन्ब्रह्म परमं याति नान्येन हेतुना ॥ १०॥
जो मनुष्य अपनी आत्मा को समस्त भूत-प्राणियों के समान देखता है और समस्त भूत-प्राणियों को अपनी अन्तरात्मा में देखता है, ऐसा ही वह (साधक) परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति करता है; वह अन्य दूसरे और किसी उपाय से उस (ब्रह्म) को नहीं प्राप्त कर सकता है॥१०॥
आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ज्ञाननिर्मथनाभ्यासात्पापं दहति पण्डितः ॥ ११॥
ज्ञानीजन अपनी आत्मा अर्थात् अन्त:करण को नीचे की अरणि एवं ॐकार (प्रणव) को ऊर्ध्व की अरणि बनाते हुए ज्ञानरूपी मन्थन के अभ्यास-प्रक्रिया द्वारा जगत् के बन्धनों-पापों को विनष्ट कर डालते हैं। अर्थात् ज्ञानाग्नि में जलाकर भस्म कर देते हैं॥११॥
स एव मायापरिमोहितात्मा शरीरमास्थाय करोति सर्वम् ।
स्त्र्यन्नपानादिविचित्रभोगैः स एव जाग्रत्परितृप्तिमेति ॥ १२॥
वही (जीवात्मा) माया के अधीन हुआ, अति मोहग्रस्त होकर शरीर को ही अपना स्वरूप स्वीकार करते हुए सभी तरह के कर्मों को करता रहता है। वही जाग्रत् अवस्था में स्त्री, अन्न-पान आदि विभिन्न प्रकार के भोगों का उपभोग करता हुआ तृप्ति लाभ प्राप्त करता है॥१२॥
स्वप्ने स जीवः सुखदुःखभोक्ता स्वमायया कल्पितजीवलोके ।
सुषुप्तिकाले सकले विलीने तमोऽभिभूतः सुखरूपमेति ॥ १३॥
स्वप्नावस्था में वही जीव अपनी माया के द्वारा कल्पित जीवलोक में सभी तरह के सुख और दुःख का | उपभोग करने वाला बनता है तथा सुषुप्ति काल में माया द्वारा रचित समस्त प्रपञ्चों के विलीन होने के उपरान्त वह (जीव) तमोगुण से अभिपूरित हुआ सुख के स्वरूप को प्राप्त करता है॥१३॥
पुनश्च जन्मान्तरकर्मयोगात्स एव जीवः स्वपिति प्रबुद्धः ।
पुरत्रये क्रीडति यश्च जीवस्ततस्तु जातं सकलं विचित्रम् ।
आधारमानन्दमखण्डबोधं यस्मिँल्लयं याति पुरत्रयं च ॥ १४॥
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापश्च पृथ्वी विश्वस्य धारिणी ॥ १५॥
तत्पश्चात् पुनः वह जीव जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों की प्रेरणा से सुषुप्ति से स्वप्नावस्था में अवतरित होता है। इसके अनन्तर (वह) जाग्रत् अवस्था में गमन करता है। इस तरह स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर रूप तीनों पुरियों में जो जीव क्रीड़ा करता है, उसी से यह सभी प्रपञ्चों की विचित्रता उत्पन्न होती है। इन सम्पूर्ण प्रपञ्चों का आधार-स्तम्भ आनन्दस्वरूप अखण्ड बोधस्वरूप है, जिसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर रूप तीनों पुरियाँ लय को प्राप्त होती हैं। इसी से प्राण, मन एवं समस्त इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है; आकाश, वायु, अग्नि, जल और समस्त विश्व को धारण-पोषण करने वाली पृथ्वी की उत्पत्ति होती है॥१४-१५॥
यत्परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् ।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत् ॥ १६॥
जो परब्रह्म परमेश्वर समस्त भूत प्राणियों की आत्मा है, जो सभी कार्य-कारण रूप जगत् का महान् आयतन (आधार) है, जो सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, नित्य है, (वह) तत्त्व तुम्हीं हो, तुम वही हो॥१६॥
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादिप्रपञ्चं यत्प्रकाशते ।
तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबन्धैः प्रमुच्यते ॥ १७॥
जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था आदि जो प्रपञ्च प्रतिभासित है, वह परब्रह्म रूप है और वही मैं भी हूँ-ऐसा जानकर जीव समस्त बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है॥१७॥
त्रिषु धामसु यद्भोग्यं भोक्ता भोगश्च यद्भवेत् ।
तेभ्यो विलक्षणः साक्षी चिन्मात्रोऽहं सदाशिवः ॥ १८॥
मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
मयि सर्वं लयं याति तद्ब्रह्माद्वयमस्म्यहम् ॥ १९॥
तीनों अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति) में जो कुछ भी भोक्ता, भोग्य और भोग के रूप में है, उनसे विलक्षण, साक्षीरूप, चिन्मय स्वरूप, वह सदाशिव स्वयं मैं ही हूँ। मैं ही स्वयं वह ब्रह्मरूप हूँ, मुझमें | ही यह सब कुछ प्रादुर्भूत हुआ है, मुझमें ही यह सभी कुछ
स्थित है और मुझमें ही सभी कुछ विलीन हो जाता है; वह अद्वय ब्रह्मरूप परमात्मा मैं ही हूँ॥१८-१९॥
॥ प्रथमः खण्डः ॥ १॥
अणोरणीयानहमेव तद्वन्महानहं विश्वमहं विचित्रम् ।
पुरातनोऽहं पुरुषोऽहमीशो हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि ॥ २०॥
मैं (परब्रह्म) अणु से भी अणु अर्थात् परमाणु हूँ, ठीक ऐसे ही मैं महान् से महानतम अर्थात् विराट्। पुरुष हैं, यह विचित्रताओं से भरा-पूरा सम्पूर्ण विश्व ही मेरा स्वरूप है। मैं पुरातन पुरुष हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं | ही हिरण्यमय पुरुष हूँ और मैं ही शिवस्वरूप (परमतत्त्व हूँ)॥२०॥
अपाणिपादोऽहमचिन्त्यशक्तिः पश्याम्यचक्षुः स शृणोम्यकर्णः ।
अहं विजानामि विविक्तरूपो न चास्ति वेत्ता मम चित्सदाऽहम् ॥ २१
वेदैरनेकैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।
न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्म देहेन्द्रियबुद्धिरस्ति ॥ २२॥
न भूमिरापो न च वह्निरस्ति न चानिलो मेऽस्ति न चाम्बरं च ।
वह हाथ-पैरों से रहित होते हुए भी सतत गतिशील है, जो चिन्तन से परे है, ऐसा शक्ति स्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ। मैं नेत्रों के अभाव में सभी कुछ देखता हूँ, कानों के बिना भी सब कुछ श्रवण करता हूँ, बुद्धि आदि से पृथक् होकर भी मैं सब कुछ जानता हूँ; किन्तु मुझे जानने वाला कोई नहीं है, मैं सदा ही चित् स्वरूप हूँ। समस्त वेद-उपनिषदादि द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। मैं ही वेदान्त का कर्ता हूँ और वेदवेत्ता भी स्वयं मैं ही हूँ॥२१-२२॥
एवं विदित्वा परमात्मरूपं गुहाशयं निष्कलमद्वितीयम् ॥ २३
समस्तसाक्षिं सदसद्विहीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम् ॥
यः शतरुद्रियमधीते सोऽग्निपूतो भवति सुरापानात्पूतो भवति
स ब्रह्महत्यायाः पूतो भवति स सुवर्णस्तेयात्पूतो भवति
स कृत्याकृत्यात्पूतो भवति तस्मादविमुक्तमाश्रितो
भवत्यत्याश्रमी सर्वदा सकृद्वा जपेत् ॥
मुझ (ब्रह्म) को पुण्य-पापादि कर्म स्पर्श नहीं करते , मैं कभी विनष्ट नहीं होता और न ही मेरा कभी जन्म ही होता है। न मेरे शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ ही हैं। मेरे लिए न भूमि है, न जल है, न अग्नि है, न वायु है और न आकाश तत्त्व ही है॥२३॥
अनेन ज्ञानमाप्नोति संसारार्णवनाशनम् । तस्मादेवं
विदित्वैनं कैवल्यं पदमश्नुते कैवल्यं पदमश्नुत इति ॥ २४॥
जो भी मनुष्य अविनाशी ब्रह्म को इस प्रकार से गुहा-अर्थात् बुद्धि के गह्वर में स्थित, निष्कल (अंग विहीन) एवं अद्वितीय,सदसत् से परे, सभी के साक्षीरूप में विद्यमाने जानता है, वह पवित्रतम परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। जो भी मनुष्य इस शतरुद्रिय का पाठ करता है, वह अग्नि के सदृश पवित्र हो जाता है, वायु की भाँति गतिशील रहते हुए शुचिता का वरण करता है। वह सुरापान और ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त हो जाता है; उसे स्वर्ण की चोरी का पाप भी नहीं लगता, शुभाशुभ कर्मों से उसका उद्धार हो जाता है। भगवान् सदाशिव के प्रति समर्पित हो वह अविमुक्त स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसलिए जो (मनुष्य) आश्रम से अतीत हो गये हैं, ऐसे उन परमहंसों को सर्वदा या फिर कम से कम एक बार इस (उपनिषद्) का पाठ अवश्य करना चाहिए॥२४-२५॥
इससे उस विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है, जो ज्ञान भवसागर को नष्ट कर देता है। इस प्रकार इस उपनिषद् को ऐसा जानकर व्यक्ति कैवल्य फल को प्राप्त कर लेता है, कैवल्य पद को प्राप्त हो जाता है॥२६॥
द्वितीयः खण्डः ॥ २॥
ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इत्यथर्ववेदीया कैवल्योपनिषत्समाप्ता ॥
॥ कौषीतकिब्राह्मणोपनिषत् ॥
श्रीमत्कौषीतकीविद्यावेद्यप्रज्ञापराक्षरम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तब्रह्ममात्रं विचिन्तये ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य मा आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।
अवतु मामवतु वक्तारम् ॥
प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
चित्रो ह वै गार्ग्यायणिर्यक्षमाण आरुणिं वव्रे स ह पुत्रं
श्वेतकेतुं प्रजिघाय याजयेति तं हासीनं पप्रच्छ
गौतमस्य पुत्रास्ते संवृतं लोके यस्मिन्माधास्यस्यन्यमहो
बद्ध्वा तस्य लोके धास्यसीति स होवाच नाहमेतद्वेद
हन्ताचार्यं प्रच्छानीति स ह पितरमासाद्य पप्रच्छेतीति
मा प्राक्षीत्कथं प्रतिब्रवाणीति स होवाचाहमप्येतन्न वेद
सदस्येव वयं स्वाध्यायमधीत्य हरामहे यन्नः परे
ददत्येह्युभौ गमिष्याव इति ॥ स ह समित्पाणिश्चित्रं
गार्ग्यायणिं प्रतिचक्रम उपायानीति तं होवाच ब्रह्मार्होसि
गौतम यो मामुपागा एहि त्वा ज्ञपयिष्यामीति ॥ १॥
प्रथम अध्याय
गर्ग के प्रपौत्र सुप्रसिद्ध महात्मा चित्र यज्ञ करनेवाले थे। इसके लिये उन्होंने अरुण के पुत्र उद्दालक को प्रधान ऋत्विक् के रूप में वरण किया । परतु उन प्रसिद्ध उद्दालक मुनि ने स्वयं न पधारकर अपने पुत्र श्वेतकेतु को भेजा और कहा- ‘वत्स ! तुम जाकर चित्रका यज्ञ कराओ । श्वेतकेतु यज्ञ में पधारकर एक ऊँचे आसन पर विराजमान हुए। उन्हें आसन पर बैठे देख चित्र ने पूछा- ‘गौतम-कुमार ! इस लोकमें कोई ऐसा आवृत (आवरणयुक्त ) स्थान है, जिसमें मुझे ले जाकर रखोगे अथवा कोई उससे भिन्न- सर्वथा विलक्षण आवरणशून्य पद है, जिसे जानकर तुम उसी लोकमें मुझे स्थापित करोगे | श्वेतकेतु ने कहा- मैं यह सब नहीं जानता । किंतु यह प्रश्न सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई है। मेरे पिता आचार्य हैं- शास्त्रके गूढ अर्थका ज्ञान रखते हैं, दूसरे लोगों को शास्त्रीय आचार में लगाते और स्वयं भी शास्त्र के अनुकूल ही आचरण करते हैं; अतः उन्हींसे यह बात पूछूँगा । यों कहकर वे अपने पिता आरुणि (उद्दालक ) के पास गये और प्रश्न को सामने रखते हुए बोले- पिताजी ! चित्रने इस इस प्रकार से मुझसे प्रश्न किया है । सो इसके सम्बन्धमें मैं किस प्रकार उचर दूँ ? उद्दालक ने कहा- “वत्स ! मैं भी इस प्रश्नका उत्तर नहीं जानता । अब हमलोग महाभाग चित्र की यज्ञशाला में ही इस तत्त्व का अध्ययन करके इस विद्याको प्राप्त करेंगे । जब दूसरे लोग हमें विद्या और धन देते हैं तो चित्र भी देंगे ही। इसलिये आओ, हम दोनों चित्रके पास चलें | वे प्रसिद्ध आरुणि मुनि हाथमें समिधा ले जिज्ञासु के वेष में गर्ग के प्रपौत्र चित्र के यहाँ गये । ‘मैं विद्या ग्रहण करनेके लिये तुम्हारे पास आया हूँ। इस भावना को व्यक्त करते हुए उन्होंने चित्र के समीप गमन किया । उन्हें इस प्रकार आया देख चित्रने कहा- गौतम ! तुम ब्राह्मणोंमें पूजनीय एव ब्रह्मविद्या के अधिकारी हो; क्योंकि मेरे जैसे लघु व्यक्ति के पास आते समय तुम्हारे मन में अपने बड़प्पन का अभिमान नहीं हुआ है । इसलिये आओ, तुम्हें निश्चय ही इस पूछे हुए विषय का स्पष्ट ज्ञान कराऊँगा’ ॥ १ ॥
स होवाच ये वैके चास्माल्लोकात्प्रयन्ति चन्द्रमसमेव ते
सर्वे गच्छन्ति तेषां प्राणैः पूर्वपक्ष
आप्यायतेऽथापरपक्षे न प्रजनयत्येतद्वै स्वर्गस्य लोकस्य
द्वारं यश्चन्द्रमास्तं यत्प्रत्याह तमतिसृजते य एनं
प्रत्याह तमिह वृष्टिर्भूत्वा वर्षति स इह कीटो वा
पतङ्गो वा शकुनिर्वा शार्दूलो वा सिंहो वा मत्स्यो वा
परश्वा वा पुरुषो वान्यो वैतेषु स्थानेषु प्रत्याजायते
यथाकर्मं यथाविद्यं तमागतं पृच्छति कोऽसीति तं
प्रतिब्रूयाद्विचक्षणादृतवो रेत आभृतं
पञ्चदशात्प्रसूतात्पित्र्यावतस्तन्मा पुंसि कर्तर्येरयध्वं
पुंसा कर्त्रा मातरि मासिषिक्तः स जायमान उपजायमानो
द्वादशत्रयोदश उपमासो द्वादशत्रयोदशेन पित्रा
सन्तद्विदेहं प्रतितद्विदेहं तन्म ऋतवो मर्त्यव आरभध्वं
तेन सत्येन तपसर्तुरस्म्यार्तवोऽस्मि कोऽसि त्वमस्मीति
तमतिसृजते ॥ २॥
सुप्रसिद्ध यज्ञकर्ता चित्र ने इस प्रकार उपदेश आरम्भ किया- ब्रह्मन् ! जो कोई भी अग्निहोत्रादि सत्कर्मो का अनुष्ठान करनेवाले लोग हैं, वे सब के-सब जब इस लोकसे प्रयाण करते हैं तो चन्द्रलोक अर्थात् स्वर्ग में ही जाते हैं । उनके प्राणों से चन्द्रमा शुक्लपक्ष में पुष्टि को प्राप्त होते है । वे (चन्द्रमा) कृष्णपक्ष में उन स्वर्गवासी जीवों की तृप्ति नहीं कर पाते । निश्चय ही यह स्वर्गलोक का द्वार है, जो कि चन्द्रमा के नाम से प्रसिद्ध है । जो अधिकारी उस स्वर्गरूपी चन्द्रमा का प्रत्याख्यान कर देता है, उस पुरुषको उसका वह शुभ संकल्प चन्द्रलोक से भी ऊपर नित्य ब्रह्मलोकमे पहुँचा देता है। परन्तु जो स्वर्गीय सुख के प्रति ही आसक्त होने के कारण उस चन्द्रलोक को अस्वीकार नहीं करता, उस सकाम कर्मी स्वर्गवासी को, उसके पुण्य भोग की समाप्ति होने पर, देववर्ग वृष्टि के रूपमें परिणत करके इस लोकमें ही पुनः बरसा देता है। वह वर्षा के रूप में यहाँ आया हुआ अनुशयी जीव अपनी पूर्व-वासना के अनुसार कीट अथवा पतङ्ग या पक्षी, अथवा व्याघ्र या सिंह अथवा मछली, या सांप-बिच्छू अथवा मनुष्य या दूसरा कोई जीव होकर इनके अनुकूल शरीरों में अपने कर्म और विद्या-उपासना के अनुसार जहाँ-कहीं उत्पन्न होता है। उस अपने समीप आये हुए शिष्य से दयालु एवं तत्त्वज्ञ गुरु इस प्रकार पूछे- वत्स ! तुम कौन हो ? गुरु के इस प्रकार प्रश्न करने पर शिष्य उत्तर दे- ‘हे देवगण ! जो पञ्चदशकलात्मक- शुक्ल और कृष्णपक्ष के हेतुभूत, श्रद्धाद्वारा प्रकट, पितृलोकस्वरूप एवं नाना प्रकार के भोग प्रदान करने में समर्थ हैं, उन चन्द्रमा के निकट से प्रादुर्भूत होकर पुरुषरूप अग्नि में स्थापित हुआ जो श्रद्धा, सौम, वृष्टि और अन्न का परिणामभूत वीर्य है, उस वीर्य के ही रूप में स्थित हुए मुझ अनुशयी जीव को तुमने वीर्याधान करने वाले पुरुष में प्रेरित किया । तत्पश्चात् गर्भाधान करने वाले पुरुष (पिता) के द्वारा तुमने मुझे माता के गर्भ में भी स्थापित करवाया। कुछ सवत्सरों तक जीवन धारण करने वाले पिता के साथ मैं एकता को प्राप्त हुआ था । मैं स्वयं भी कुछ सवत्सरों तक ही जीवन धारण करने वाला होकर ब्रह्मज्ञान अथवा उसके विपरीत मिथ्याज्ञान के निमित्त योनिविशेष में शरीर धारण करके स्थित हूँ | इसलिये अब मुझे अमृतत्व की प्राप्तिके साधनभूत ब्रह्मा के लिये अनेक ऋतुओं तक अक्षय रहने वाली दीर्घ आयु प्रदान करें- ब्रह्मसाक्षात्कारपर्यन्त मेरे दीर्घजीवन के लिये चिरस्थायिनी आयु की पुष्टि करें। क्योंकि यह जानकर मैं देवताओं से प्रार्थना करता हूँ, अतः उसी सत्य से, उसी तपस्या से, जिनका मैं अभी उल्लेख कर आया हूँ, मैं ऋतु हूँ-संवत्सरादिरूप मरणधर्मा मनुष्य हूँ | आर्तव हूँ- ऋतु से उत्पन्न देह हैं। यदि ऐसी बात नहीं है तो आप ही कृपापूर्वक बतायें, मैं कौन हूँ ? क्या जो आप हैं, वही मैं भी हूँ ? उसके इस प्रकार कहनेपर संसार-भय से डरे हुए उस शिष्य को गुरु ब्रह्मविद्या के उपदेश द्वारा भवसागर से पार करके बन्धनमुक्त कर देता है ॥ २ ॥
स एतं देवयानं पन्थानमासाद्याग्निलोकमागच्छति स
वायुलोकं स वरुणलोकं स आदित्यलोकं स इन्द्रलोकं स
प्रजापतिलोकं स ब्रह्मलोकं तस्य ह वा एतस्य
ब्रह्मलोकस्यारोहृदो मुहूर्ता येष्टिहा विरजा नदी तिल्यो
वृक्षः सायुज्यं संस्थानमपराजितमायतनमिन्द्रप्रजापती
द्वारगोपौ विभुं प्रमितं विचक्षणासन्ध्यमितौजाः प्रयङ्कः
प्रिया च मानसी प्रतिरूपा च चाक्षुषी
पुष्पाण्यादायावयतौ वै च
जगत्यम्बाश्चाम्बावयवाश्चाप्सरसोंऽबयानद्यस्तमित्थंविद
अ गच्छति तं ब्रह्माहाभिधावत मम यशसा विरजां
वायं नदीं प्रापन्नवानयं जिगीष्यतीति ॥ ३॥
वह परब्रह्म का उपासक पूर्वोक्त देवयान-मार्ग पर पहुँचकर पहले अग्निलोक में आता है, फिर वायुलोक में आता है; वहाँ से वह सूर्यलोक में आता है, तदनन्तर वरुणलोक में आता है; तत्पश्चात् वह इन्द्रलोक में आता है, इन्द्रलोक से प्रजापतिलोक में आता है तथा प्रजापतिलोक से ब्रह्मलोक में आता है। इस प्रसिद्ध ब्रह्मलोक के प्रवेश-पथ पर पहले ‘आर’ नाम से प्रसिद्ध एक महान् जलाशय है । उस जलाशयसे आगे मुहूर्ताभिमानी देवता हैं, जो काम-क्रोध आदि की प्रवृत्ति उत्पन्न करके ब्रह्मलोक-प्राप्ति के अनुकूल की हुई उपासना और यज्ञ-यागादि के पुण्य को नष्ट करने के कारण येष्टिह कहलाते हैं। उससे आगे विजरा नदी है, जिसके दर्शनमात्र से जरावस्था दूर हो जाती है। उससे आगे इल्य नामक वृक्ष है । ‘इला’ पृथिवी का नाम है, उसका ही स्वरूप होनेसे उसका नाम ‘इल्य है। उससे आगे अनेक देवताओं द्वारा सेव्यमान उद्यान, बावली, कुएँ, तालाब और नदी आदि भांति-भांति के जलाशयों से युक्त एक नगर है, जिसके एक ओर तो विजरा नदी है और दूसरी ओर प्रत्यञ्चा के आकार का (अर्द्धचन्द्राकार ) एक कोटा है । उसके आगे ब्रह्माजीका निवासभूत विशाल मन्दिर है, जो अपराजित नाम से प्रसिद्ध है। सूर्य के समान तेजोमय होने के कारण वह कभी किसी के द्वारा पराजित नहीं होता । मेघ और यज्ञरूप से उपलक्षित वायु और आकाशरूप इन्द्र और प्रजापति उस ब्रह्म-मन्दिर के द्वाररक्षक हैं। | वहाँ विभुप्रमित नामक सभामण्डप है । उसके मध्यमागमें जो वेदी है, वह. ‘विचक्षणा’ नाम से प्रसिद्ध है । वह अत्यन्त विलक्षण है। जिसके बल का कोई माप नहीं है, वह अमितौजाः प्राण ही ब्रह्माजी का सिंहासन पलँग है ! मानसी उनकी प्रिया है। वह मन की कारणभूता अथवा मन को आनन्दित करनेवाली होने से ही मानसी कहलाती है। उसके आभूषण भी उसी के स्वरूपभूत हैं । उसकी छायामूर्ति ‘चाक्षुषी’ नाम से प्रसिद्ध है । वह तैजस नेत्रों की प्रकृति होने के कारण अत्यन्त तेजोमयी है । उसके आभूषणादि भी उसी के समान तेजोमय हैं । जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज-इन चतुर्विध प्राणियों का नाम जगत् है। यह सम्पूर्ण जगत्- जड-चैतन-समुदाय ब्रह्माजी की वाटिका के पुष्प तथा उनके धौत एवं उत्तरीयरूप युगल वस्त्र हैं। वहाँ की अप्सराएँ- साधारण युवतियाँ ‘अम्बा’ और ‘आम्बायवी’ नामसे प्रसिद्ध हैं। जगजननी श्रुतिरूपा होने से वे ‘अम्बा’ कहलाती हैं। तथा अम्ब (अधिक) और अयव (न्यून ) भावसे रहित बुद्धिरूपा होनेसे उनका नाम ‘आम्बायवी’ है । इसके सिवा वहाँ ‘अम्बया’ नाम की नदियाँ बहती हैं। अम्बक ( नेत्र ) रूप ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाने के कारण उनकी ‘अम्बया’ संज्ञा है । उस ब्रह्मलोक को जो इस प्रकार जानता है, वह उसी को प्राप्त होता है। उसे जब कोई अमानव पुरुष आदित्यलोक से ले आता है। उस समय ब्रह्माजी अपने परिचारकों और अप्सराओं से कहते हैं- दौड़ो, उस महात्मा पुरुष का मेरे यश के मेरी प्रतिष्ठा के अनुकूल स्वागत करो, मेरे लोक में ले आने वाली उपासना आदि से निश्चय ही यह उस विजरा नदी के समीप तक आ पहुँचा है, अवश्य ही अब यह कभी जरावस्था को नहीं प्राप्त होगा ॥ ३ ॥
तं पञ्चशतान्यप्सरसां प्रतिधावन्ति शतं मालाहस्ताः
शतमाञ्जनहस्ताः शतं चूर्णहस्ताः शतं वासोहस्ताः
शतं कणाहस्तास्तं ब्रह्मालङ्कारेणालङ्कुर्वन्ति स
ब्रह्मालङ्कारेणालङ्कृतो ब्रह्म विद्वान् ब्रह्मैवाभिप्रैति स
आगच्छत्यारं हृदं तन्मनसात्येति तमृत्वा सम्प्रतिविदो
मज्जन्ति स आगच्छति मुहूर्तान्येष्टिहांस्तेऽस्मादपद्रवन्ति
स आगच्छति विरजां नदीं तां मनसैवात्येति
तत्सुकृतदुष्कृते धूनुते तस्य प्रिया ज्ञातयः
सुकृतमुपयन्त्यप्रिया दुष्कृतं तद्यथा रथेन
धावयन्रथचक्रे पर्यवेक्षत एवमहोरात्रे पर्यवेक्षत एवं
सुकृतदुष्कृते सर्वाणि च द्वन्द्वानि स एष विसुकृतो
विदुष्कृतो ब्रह्म विद्वान्ब्रह्मैवाभिप्रैति ॥४॥
ब्रह्माजी का यह आदेश मिलने पर उसके पास स्वागत के लिये पाँच सौ अप्सराएँ जाती हैं। उनमें से सौ अप्सराएँ तो हाथों में हल्दी, केसर और रोली आदि के चूर्ण लिये रहती हैं। सौ के हाथों में भांति-भांति के दिव्य वस्त्र एव अलङ्कार होते हैं। सौ अप्सराएँ हाथों में फल लिये होती हैं। सौ के हाथों में नाना प्रकार के दिव्य अङ्गराग होते हैं । तथा सौ अप्सराएँ अपने हाथमें भाँति-भाँति की मालाएँ लिये होती हैं । वे उस महात्मा को ब्रह्मोचित अलङ्कारोंसे अलंकृत करती हैं। वह ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्माजी के योग्य अलङ्कारों से अलंकृत हो ब्रह्माजी के स्वरूप को ही प्राप्त कर लेता है । फिर वह ‘आर’ नामक जलाशय के पास आता है और उसे मन के द्वारा सङ्कल्प से ही लाँघ जाता है। उस जलाशयतक पहुँचने पर भी अज्ञानी मनुष्य उसमें डूब जाते हैं। फिर वह ब्रह्मवेत्ता मुहूर्ताभिमानी येष्टिह नामक देवताओं के पास आता है, किंतु वे विघ्नकारी देवता उसके पास से भाग खड़े होते हैं। तत्पश्चात् वह विजरा नदी के तट पर आता है और उसे भी सङ्कल्प से ही पार कर लेता है। वहाँ वह पुण्य और पाप को झाड़ देता है। जो उसके प्रिय कुटुम्बी होते हैं, वे तो उसका पुण्य पाते हैं, और जो उससे द्वेष करनेवाले होते हैं, उन्हें उसका पाप मिलता है। उस विषयमें यह दृष्टान्त है । रथसे यात्रा करने वाला पुरुष रथ को दौड़ाता हुआ रथ के दोनों चक्रों को देखता है; उस समय रथचक्र का जो भूमि से सयोग-वियोग होता है, वह उस द्रष्टा को नहीं प्राप्त होता । इसी प्रकार वह ब्रह्मवेत्ता रात और दिन को देखता है, पुण्य और पापको देखता है, तथा अन्य समस्त द्वन्द को देखता है; द्रष्टा होनेके कारण ही उसका इनसे सम्बन्ध नहीं होता । अतएव यह पुण्य और पाप से रहित होता है। फलतः वह ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म को ही प्राप्त होता है ॥ ४ ॥
स आगच्छति तिल्यं वृक्षं तं ब्रह्मगन्धः प्रविशति स
आगच्छति सायुज्यं संस्थानं तं ब्रह्म स प्रविशति
आगच्छत्यपराजितमायतनं तं ब्रह्मतेजः प्रविशति स
आगच्छतीन्द्रप्रजापती द्वारगोपौ तावस्मादपद्रवतः स
आगच्छति विभुप्रमितं तं ब्रह्मयशः प्रविशति स
आगच्छति विचक्षणामासन्दीं बृहद्रथन्तरे सामनी
पूर्वौ पादौ ध्यैत नौधसे चापरौ पादौ वैरूपवैराजे
शाक्वररैवते तिरश्ची सा प्रज्ञा प्रज्ञया हि विपश्यति स
आगच्छत्यमितौजसं पर्यङ्कं स प्राणस्तस्य भूतं च
भविष्यच्च पूर्वौ पादौ श्रीश्चेरा चापरौ
बृहद्रथन्तरे अनूच्ये भद्रयज्ञायज्ञीये
शीर्षण्यमृचश्च सामानि च प्राचीनातानं यजूंषि
तिरश्चीनानि सोमांशव उपस्तरणमुद्गीथ उपश्रीः
श्रीरुपबर्हणं तस्मिन्ब्रह्मास्ते तमित्थंवित्पादेनैवाग्र
आरोहति तं ब्रह्माह कोऽसीति तं प्रतिब्रूयात् ॥ ५॥
तब वह इल्य वृक्ष के पास आता है, उसकी नासिका में ब्रह्मगन्धका प्रवेश होता है । फिर वह सालज्य नगरके समीप आता है, वहाँ उसकी रसना में उस दिव्यातिदिव्य ब्रह्मरस का प्रवेश होता है, जिसका उसे पहले कभी अनुभव नहीं हुआ रहता । फिर वह अपराजित नामक ब्रह्म-मन्दिर के समीप आता है, वहाँ उसमें ब्रह्मतेज प्रवेश करता है। तत्पश्चात् वह द्वार-रक्षक इन्द्र और प्रजापति के पास आता है। वे उसके सामने से मार्ग छोड़कर हट जाते हैं । तदनन्तर वह विभुप्रमित नामक सभा-मण्डप में आता है; वहाँ उसमें ब्रह्मयश प्रवेश करता है। फिर वह विचक्षणा नामक वेदीके पास आता है । ‘बृहत्’ और ‘रथन्तर’- थे दो साम उसके दोनों अगले पाये हैं और ‘श्यैत’ एव ‘नौधस’ नामक साम उसके दोनों पिछले पाये हैं। ‘वैरूप’ और ‘वैराज’ नामक साम उसके दक्षिण और उत्तर पार्श्व हैं। तथा ‘शाकर’ और रैवत’ साम उसके पूर्व एव पश्चिम पार्श्व हैं। वह समष्टि-बुद्धिरूपा है। वह ब्रह्मवेत्ता उस बुद्धि के द्वारा विशेष दृष्टि प्राप्त कर लेता है। फिर वह ‘अमितौजाः’ नामक पलंग के पास आता है, वह पर्यङ्क प्राणस्वरूप है। भूत और भविष्य ये दोनों काल उसके अगले पाये हैं। और श्रीदेवी एवं भूदेवी- ये दोनों उसके पिछले पाये हैं। उसके दक्षिण-उत्तर भागमें जो ‘अनूच्य’ नामके दीर्घ खटवाङ्ग हैं, वे ‘बृहत्’ और ‘रथन्तर’ नामक साम हैं और पूर्व पश्चिम भागमें जो छोटे खटवाङ्ग हैं, जिन पर मस्तक और पैर रखे जाते हैं, वे ‘भद्र’ और ‘यज्ञायज्ञीय’ नामक साम हे । पूर्व से पश्चिम को जो बड़ी-बड़ी पाटियाँ लगी हैं, वे ऋक और साम के प्रतीक हैं | तथा दक्षिण-उत्तरकी और जो आड़ी-तिरछी पाटियाँ हैं, वे यजुर्वेदस्वरूपा हैं । चन्द्रमाकी कोमल किरणें ही उस पलेंग का नरम-नरम गद्दा है। उद्गीथ ही उस पर विछी हुई उपश्री ( श्वेत चादर ) है । लक्ष्मीजी तकिया हैं । ऐसे दिव्य पर्यङ्क पर ब्रह्माजी विराजमान होते हैं । इस तत्त्वको इस प्रकार जानने वाला ब्रह्मवेत्ता उस पलँग पर पहले पैर रखकर चढता है, तब ब्रह्माजी उससे पूछते हैं- तुम कौन हो ? उनके प्रश्न का वह इस प्रकार उत्तर दे-॥ ५ ॥
ऋतुरस्म्यार्तवोऽस्म्याकाशाद्योनेः सम्भूतो भार्यायै रेतः
संवत्सरस्य तेजोभूतस्य भूतस्यात्मभूतस्य त्वमात्मासि
यस्त्वमसि सोहमस्मीति तमाह कोऽहमस्मीति सत्यमिति ब्रूयात्किं
तद्यत्सत्यमिति यदन्यद्देवेभ्यश्च प्राणेभ्यश्च तत्सदथ
यद्देवाच्च प्राणाश्च तद्यं तदेतया वाचाभिव्याह्रियते
सत्यमित्येतावदिदं सर्वमिदं सर्वमसीत्येवैनं तदाह
तदेतच्छ्लोकेनाप्युक्तम् ॥ ६॥
मैं वसन्त आदि ऋतुरूप हूँ। ऋतुसम्बन्धी हूँ। कारणभूत अव्याकृत आकाश एवं स्वयप्रकाश परब्रह्म परमात्मा से उत्पन्न हुआ हूँ। जो भूत ( अतीत ); भूत ( यथार्थ कारण ), भूत (जडचेतनमय चतुर्विध सर्ग ) और भूत (पञ्चमहाभूतस्वरूप) है, उस संवत्सर का तेज हूँ। आत्मा हूँ। आप आत्मा हैं, जो आप हैं, वही मैं हूँ | इस प्रकार उत्तर देने पर ब्रह्माजी पुनः पूछते हैं- मैं कौन हूँ ? इसके उत्तर में कहे- आप सत्य हैं। जो सत्य है, जिसे तुम सत्य कहते हो, वह क्या है ! ऐसा प्रश्न होनेपर उत्तर दे- जो सम्पूर्ण देवताओं तथा प्राणोंसे भी सर्वथा भिन्न-विलक्षण हो, वह ‘सत्’ है। और जो देवता एवं प्राणरूप है, वइ ‘त्य’ है। वाणीकै द्वारा जिसे ‘सत्य’ कहते हैं, वह यही है। इतना ही यह सब कुछ है । आप यह सब कुछ हैं, इसलिये सत्य हैं ॥ ६ ॥
यजूदरः सामशिरा असावृङ्मूर्तिरव्ययः । स ब्रह्मेति हि
विज्ञेय ऋषिर्ब्रह्ममयो महानिति ॥
तमाह केन पौंस्रानि नामान्याप्नोतीति प्राणेनेति ब्रूयात्केन
स्त्रीनामानीति वाचेति केन नपुंसकनामानीति मनसेति केन
गन्धानिति घ्राणेनेति ब्रूयात्केन रूपाणीति चक्षुषेति केन
शब्दानिति श्रोत्रेणेति केनान्नरसानिति जिह्वयेति केन कर्माणीति
हस्ताभ्यामिति केन सुखदुःखे इति शरीरेणेति केनानन्दं रतिं
प्रजापतिमित्युपस्थेनेति केनेत्या इति पादाभ्यामिति केन धियो
विज्ञातव्यं कामानिति प्रज्ञयेति प्रब्रूयात्तमहापो वै खलु
मे ह्यसावयं ते लोक इति सा या ब्रह्मणि चितिर्या व्यष्टिस्तां
चितिं जयति तां व्यष्टिं व्यश्नुते य एवं वेद य एवं वेद
॥ ७॥
यही बात ऋक्सम्बन्धी मन्त्रद्वारा भी बतायी गयी है | यजुर्वेद जिसका उदर है, सामवेद मस्तक है तथा ऋग्वेद सम्पूर्ण शरीर है, वह अविनाशी परमात्मा ”ब्रह्मा’ के नाम से जाननेयोग्य है । वह ब्रह्ममय–ब्रह्मरूप महान् ऋषि है । तदनन्तर पुनः ब्रह्माजी उस उपासकसे पूछते हे- “तुम मेरे पुरुषवाचक नाम को किससे प्राप्त करते हो, वह उत्तर दे- प्राण से । स्त्रीवाचक नामको किससे ग्रहण करते हो– वाणी से । नपुसकवाचक नामको किससे ग्रहण करते हो– मन से । गन्धको अनुभव किससे करते हो– प्राण से- घ्राणेन्द्रिय से, इस प्रकार कहे । रूप को ग्रहण किससे करते हो– नेत्रसे । शब्दों को किससे सुनते हो– कानोंसे । अन्न के रस का आस्वादन किससे करते हो- जिह्वा से । कर्म किससे करते हो– हाथों से । सुख-दुख का अनुभव किससे करते हो– शरीर से | रति का परिणामरूप आनन्द, रति और प्रजोत्पत्ति का सुख किससे उठाते हो– उपस्थ-इन्द्रिय से, यों कहे । गमन की क्रिया किससे करते हो– दोनो पैरों से । बुद्धि-वृत्ति को, ज्ञातव्य विषयों को और विविध मनोरथ को किससे ग्रहण करते हो प्रज्ञा से, यों कहे । तब ब्रह्मा उससे कहते हैं—जल आदि प्रसिद्ध पाँच महाभूत मेरे स्थान हैं; अतः यह मेरा लोक भी जलादि-तत्त्व प्रधान ही है। तुम मुझसे अभिन्न मेरे उपासक हो, अतः यह तुम्हारा भी लोक है । वह जो ब्रह्माजी की सुप्रसिद्ध विजय तथा सर्वत्र व्याप्ति–सर्वव्यापकता है, उस विजय को तथा उस सर्वव्यापकताको भी वह उपासक प्राप्त कर लेता है, जो इस प्रकार जानता है॥ ७ ॥
द्वितीय अध्याय
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
प्राणो ब्रह्मेति ह स्माह कौषीतकिस्तस्य ह वा एतस्य प्राणस्य
ब्रह्मणो मनो दूतं वाक्परिवेष्ट्री चक्षुर्गात्रं श्रोत्रं
संश्रावयितृ यो ह वा एतस्य प्राणस्य ब्रह्मणो मनो दूतं
वेद दूतवान्भवति यो वाचं परिवेष्ट्रीं
परिवेष्ट्रीमान्भवति तस्मै वा एतस्मै प्राणाय ब्रह्मण एताः
सर्वा देवता अयाचमाना बलिं हरन्ति तथो एवास्मै सर्वाणि
भूतान्ययाचमानायैव बलिं हरन्ति य एवं वेद
तस्योपनिषन्न याचेदिति तद्यथा ग्रामं भिक्षित्वा
लब्धोपविशेन्नाहगतो दत्तमश्नीयामिति य एवैनं
पुरस्तात्प्रत्याचक्षीरंस्त एवैनमुपमन्त्रयन्ते ददाम त
इत्येष धर्मो याचतो भवत्यनन्तरस्तेवैनमुपमन्त्रयन्ते
ददाम त इति ॥ १॥
प्राण ब्रह्म है। यह सुप्रसिद्ध ऋपि कौषीतकि कहते हैं। उन प्रसिद्ध प्राणमय ब्रह्म की यहाँ राजा के रूप में कल्पना की गयी है। उनका मन ही दूत है, वाणी परोसनेवाली स्त्री (रानी ) है, चक्षु सरक्षक (मन्त्री) है, श्रोत्रेन्द्रिय सन्देश सुनानेवाला द्वारपाल है। उन सुप्रसिद्ध प्राणमय ब्रह्म को बुना माँगे ही ये सम्पूर्ण इन्द्रियाभिमानी देवतागण भेंट समर्पित करते हैं उनके अधीन होकर रहते हैं। इसी प्रकार जो इस प्रकार जानता है, उसको भी सम्पूर्ण चराचर प्राणी बिना माँगे ही भेंट देते हैं। उस प्राणोपासक के लिये यह गूढ व्रत है कि वह किसीसे कुछ भी न माँगे ठीक उसी तरह, जैसे कोई भिक्षु गाँव में भीख माँगने पर भी जब कुछ नहीं पाता तो हताश होकर बैठ रहता और कुपित होकर यह प्रतिज्ञा कर लेता है। कि अब से इस गाँव वाले लोगों के देने पर भी यहाँ का अन्न नहीं खाऊँगा । तात्पर्य यह कि वह भिक्षु जिस दृढता से अपनी बात पर डटा रहता है, उसी प्रकार उसको भी अपने व्रत पर अटल रहना चाहिये। जो लोग पहले इस पुरुष को कुछ देनेसे अस्वीकार कर चुके होते हैं, वे ही कुछ न माँगने का निश्चय कर लेने पर इसे देने के लिये निमन्त्रित करते हैं और कहते हैं, ‘आओ, हम तुम्हें देते हैं। दीनतापूर्वक दूसरोंके सामने प्रार्थना करना यह याचक का धर्म होता है। अर्थात् याचना करनेवालेको ही दैन्य-प्रदर्शन करना पड़ता है। याचना और दैन्य-प्रदर्शन से दूर रहनेपर ही उसे लोग यों निमन्त्रण देते हैं कि आओ, हम तुम्हें देंगे ॥ १ ॥
प्राण ब्रह्म है– प्रसिद्ध महात्मा पैङ्गय भी यही कहते हैं। उन प्रसिद्ध प्राणमय ब्रह्म के लिये वाणी से परे चक्षु-इन्द्रिय है, जो वागिन्द्रिय को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है। चक्षु से परे श्रवणेन्द्रिय है, जो चक्षु को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है, श्रवणेन्द्रिय से परे मन है, जो श्रवणेन्द्रिय को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है, क्योंकि मन के सावधान रहने पर ही श्रवणेन्द्रिय सुन पाती है। मन से परे प्राण है, जो मन को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है । उस प्राणमय ब्रह्म को ये सम्पूर्ण देवता उसके न माँगने पर भी उपहार समर्पित करते हैं। इसी प्रकार जो यह जानता है, उस उपासक को भी सम्पूर्ण प्राणी बिना माँगे ही भांति-भांति के उपहार भेंट करते हैं। उसका यह गूढ़ व्रत है कि वह किसी से याचना न करे । इस विषय में यह दृष्टान्त भी है- कोई भिक्षु गाँव में भीख माँगने पर भी जब कुछ नहीं पाता तो हताश होकर बैठ रहता और यह प्रतिज्ञा कर लेता है कि अब यहाँ किसी के देने पर भी अन्न ग्रहण नहीं करूंगा । ऐसी प्रतिज्ञा कर लेने पर जो लोग पहले उसे कुछ देने से अस्वीकार कर चुके होते हैं, वे ही उसे यों कहकर निमन्त्रित करते हैं कि आओ, हम तुम्हें देते हैं। ॥ २ ॥
अथात एकधनावरोधनं
यदेकधनमभिध्यायात्पौर्णमास्यां वामावास्यां वा
शुद्धपक्षे वा पुण्ये नक्षत्रेऽग्निमुपसमाधाय परिसमुह्य
परिस्तीर्य पर्युक्ष पूर्वदक्षिणं जान्वाच्य स्रुवेण वा
चमसेन वा कंसेन वैता आज्याहुतीर्जुहोति
वाङ्नामदेवतावरोधिनी सा मेऽमुष्मादिदमवरुन्द्धां तस्यै
स्वाहा चक्षुर्नाम देवतावरोधिनी सा
मेऽमुष्मादिदमवरुन्द्धां तस्यै स्वाहा श्रोत्रं नाम
देवतावरोधिनी सा मेऽमुष्मादिदमवरुन्द्धां तस्यै स्वाहा
मनो नाम देवतावरोधिनी सा मेऽमुष्मादिदमवरुन्द्धां
तस्यै स्वाहैत्यथ धूमगन्धं
प्रजिघायाज्यलेपेनाङ्गान्यनुविमृज्य
वाचंयमोऽभिप्रवृज्यार्थं ब्रवीत दूतं वा
प्रहिणुयाल्लभते हैव ॥ ३॥
अब एकमात्र धन (प्राण ) के निरोधकी बात बतायी जाती है। यदि एकमात्र धनका (अथवा प्राणका ) चिन्तन करे तो पूर्णिमा को या अमावास्या को अथवा शुक्ल या कृष्णपक्ष की किसी भी पुण्य-तिथि को पवित्र नक्षत्र में अग्नि की स्थापना, परिसमूहन, कुशों का आस्तरण, मन्त्रपूत जलसे अग्नि-वेदी आदिका अभिषेक तथा अग्निपर रक्खे हुए पात्रस्थ घृत का उत्पवन करके दाहिना घुटना पृथ्वी पर टेककर स्रुवा से, चमस से अथवा काँसे की करछुल आदि से निम्नाङ्कित मन्त्र द्वारा घृत की ये आहुतियाँ दे ‘वाड् नाम देवतावरोधिनी सा मेऽमुष्मात् । इदम् अवरुन्धा तस्यै स्वाहा ।’ अर्थात् ‘वाक्’ नामसे प्रसिद्ध देवी अवरोधिनी– उपासककी अभीष्टसिद्धि करनेवाली है, वह मुझ प्राणोपासकके लिये अमुक व्यक्तिसे इस अभीष्ट अर्थकी सिद्धि कराये, उसके लिये यह घृत की आहुति सादर समर्पित है ।’प्राणो नाम देवतावरोधिनी सी मेऽमुष्मात् इदम् अवरुन्धा तस्यै स्वाहा।’ ‘चक्षुर्नाम देवतविरोधिनी सा मेऽमुष्मात् इदम् अवन्ध तस्यै स्वाहा ।’ ‘औन्त्रं नाम देवतावरोधिनी सा मेऽमुष्मात् इदम् । अवरुधां तस्यै स्वाहा ।’ ‘मनो नाम देवतावरोधिनी सा मेऽमुष्मात् इदम् अवरुधां तस्यै स्वाहा ।’ ‘प्रज्ञा नाम देवतावरोधिनी सा मेऽमुष्मात् इदम् अवरुन्धा तस्यै स्वाहा।’ इस प्रकार आहुतियाँ देने के पश्चात् धूमगन्ध को सूँघकर होमावशिष्ट घृत के लेप से अपने अङ्ग का अनुमार्जन (लेपन) करके मौनभाव से धनस्वामी के पास जाय और अभीष्ट अर्थ के विषय में कहे कि इतने धन की मुझे आवश्यकता है, सो आपके यहाँ से मिल जाना चाहिये ।’ अथवा यदि घनस्वामी दूर हो तो उक्त सन्देश कहलाने के लिये उसके पास दूत भेज दे । यों करने से निश्चय ही वह अभीष्ट धन प्राप्त कर लेता है ॥ ३ ॥
अथातो दैवस्मरो यस्य प्रियो बुभूषेयस्यै वा एषां
वैतेषमेवैतस्मिन्पर्वण्यग्निमुपसमाधायैतयैवावृतैता
जुहोम्यसौ स्वाहा चक्षुस्ते मयि जुहोम्यसौ स्वाहा प्रज्ञानं ते
मयि जुहोम्यसौ स्वाहेत्यथ धूमगन्धं
प्रजिघायाज्यलेपेनाङ्गान्यनुविमृज्य वाचंयमोऽभिप्रवृज्य
संस्पर्शं जिगमिषेदपि वाताद्वा
सम्भाषमाणस्तिष्ठेत्प्रियो हैव भवति स्मरन्ति हैवास्य ॥४॥
अब इसके बाद वाक् आदि देवताओं द्वारा साध्य मनोरथ की सिद्धि का प्रकार बताया जाता है। जिस किसी का प्रिय होना चाहे, निश्चय ही उन सबका प्रिय होने के लिये पहले प्राणोपासक को वाक् आदि देवताओं का ही प्रिय बनना चाहिये । किसी एक पर्व के दिन पूर्वोक्त रीति से शुभ पुण्यतिथि एवं मुहूर्त में पहले बताये अनुसार ही अग्नि की स्थापना, परिसमूहन, कुशों का आस्तरण, अग्निवेदी आदि का अभिषेक, घृत को उत्पवन आदि करके निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे ये घृतकी आहुतियाँ दे, ‘पाच ते मयि जुहोम्यसौ स्वाहा ।’- मैं तुम्हारी वाक् इन्द्रिय का अपने में हवन करता हूँ, मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो जाय–इस उद्देश्यसे यह आहुति है। इसी प्रकार- ‘प्राणं ते मयि जुहोम्यसौ स्वाहा । चक्षुस्ते मयि जुहोम्यसौ स्वाहा । श्रोत्रं ते मयि जुहोम्यसौ स्वाहा । मनस्ते मयि जुहोम्यसौ स्वाहा । प्रज्ञा ते मयि जुहोम्यसौ स्वाहा ।’ इसके बाद होम धूम की गन्ध सँधकर होमावशिष्ट घृत के लेप से अपने अङ्ग का अनुमार्जन (लेपन) करके मौनभाव से अभीष्ट व्यक्ति के पास गमन करे और उसके संपर्क में जाने की इच्छा करे । अथवा ऐसी जगह खड़ा रहकर वार्तालाप करे, जहाँ वायु की सहायताले उसके शब्द अभीष्ट व्यकि के कान में पड़ें । फिर तो निश्चय ही वह उसका प्रिय हो जाता है। इतना ही नहीं, उस स्थान से हट जाने पर वहाँ के लोग उसको सदा स्मरण करते हैं ॥ ४ ॥
अथातः सायमन्नं प्रातर्दनमम्तरमग्निहोत्रमित्याचक्षते
यावद्वै
पुरुषो भासते न तावत्प्राणितुं शक्नोति प्राणं तदा वाचि
जुहोति
यावद्वै पुरुषः प्राणिति न तावद्भाषितुं शक्नोति वाचं
तदा प्राणे जुहोत्येतेऽनन्तेऽमृताहुतिर्जाग्रच्च स्वपंश्च
सन्ततमवच्छिन्नं जुहोत्यथ या अन्या आहुतयोऽन्तवत्यस्ताः
कर्ममय्योभवन्त्येतद्ध वै पूर्वे विद्वांसोऽग्निहोत्रं
जुहवांचक्रुः॥ ५॥
अब इसके बाद दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन द्वारा अनुष्ठित, अतएव ‘प्रातर्दन’ नामसे विख्यात और सयम से पूर्ण होनेसे ‘सायमन’ कहलाने वाले आध्यात्मिक अग्निहोत्र का वर्णन करते हैं । निश्चय ही मनुष्य जब तक कोई वाक्य बोलता है, तब तक पूर्णतया श्वास नहीं ले सकता । उस समय वह प्राण का वाणी रूप अग्नि में हवन कर देता है। जब तक पुरुष श्वास खींचता है, तब तक बोल नहीं सकता, उस समय वह वाणी का प्राणरूप अग्नि में हवन कर देता है । ये वाक् और प्राणरूप दो आहुतियाँ अनन्त एव अमृत हैं । जाग्रत् और स्वप्नकाल में भी पुरुष सदा अविच्छिन्नरूप से इन आहुतियों का होम करता रहता है । इसके सिवा अर्थात् वाक्-प्राणरूपा आहुतियों के अतिरिक्त जो दूसरी द्रव्यमयी आहुतियाँ हैं, वे कर्ममयी हैं। यह प्रसिद्ध है कि इस रहस्य को जानने वाले पूर्ववर्ती विद्वान् केवल कर्ममय अग्निहोत्र का अनुष्ठान नहीं करते थे ॥ ५ ॥
उक्थं ब्रह्मेति ह स्माह शुष्कभृङ्गरस्तदृगित्युपासीत
सर्वाणि हास्मै भूतानि श्रैष्ठ्यायाभ्यर्च्यन्ते
तद्यजुरित्युपासीत सर्वाणि हास्मै भूतानि श्रैष्ठ्याय
युज्यन्ते तत्सामेत्युपासीत सर्वाणि हास्मै भूतानि
श्रैष्ठ्याय सन्नमन्ते तच्छ्रीत्युपासीत तद्यश
इत्युपासीत तत्तेज इत्युपासीत तद्यथैतच्छा स्त्राणां
श्रीमत्तमं यशस्वितमं तेजस्वितमं भवति तथो एवैवं
विद्वान्सर्वेषां भूतानां श्रीमत्तमो यशस्वितमस्तेजस्वितमो
भवति तमेतमैष्टकं कर्ममयमात्मानमध्वर्युः संस्करोति
तस्मिन्यजुर्भयं प्रवयति यजुर्मयं ऋङ्मयं होता ऋङ्मयं
साममयमुद्गाता स एष सर्वस्यै त्रयीविद्याया आत्मैष उत
एवास्यात्यैतदात्मा भवति एवं वेद ॥ ६॥
‘उक्थ ( प्राण) ब्रह्म है।’ यह बात सुप्रसिद्ध महात्मा शुष्कभ्रङ्गार कहते हैं। वह उक्थ ऋक् है, इस वुद्धि से उपासना करे। जो प्राणरूप उक्थ में ऋग्बुद्धि कर लेता है। उसकी सम्पूर्ण प्राणी श्रेष्ठता के लिये श्रेष्ठ बनने के लिये अर्चना करते हैं। वह उक्थ यजुर्वेद है, इस बुद्धि से उपासना करे । इससे सम्पूर्ण प्राणी श्रेष्ठता के लिये उसके साथ सहयोग करते हैं। वह उक्थ ‘साम’ है। इस बुद्धि से उपासना करे । उस उपासक के समक्ष सम्पूर्ण प्राणी श्रेष्ठता के लिये मस्तक झुकाते हैं। वह उक्थ ‘श्री’ है, इस बुद्धि से उपासना करे । वह यश’ है, इस भाव से उपासना करे । वह तेज है, इस भाव से उपासना करें । इस विषय में यह दृष्टान्त है, जैसे यह दिव्य धनुष सम्पूर्ण आयुधों में अत्यन्त श्रीसम्पन्न, परम यशस्वी और परम तेजस्वी होता है, उसी प्रकार जो इस प्रकार जानता है वह विद्वान् सम्पूर्ण भूतों में सबसे अधिक श्रीसम्पन्न, परम यशस्वी तथा परम तेजस्वी होता है। इस प्राण को तथा ईंटों की वेदीपर संचित कर्ममय अग्नि को भी अभिन्न एवं आत्मस्वरूप मानकर अर्ध्व्यु नामक ऋत्विक् अपना सस्कार करता है। उस प्राण में ही वह यजुर्वेदसाध्य कर्मो का विस्तार करता है। यजुर्वेदसाध्य कर्म-वितान में होता ऋग्वेदसाध्य कर्मों का विस्तार करता है। ऋग्वेदसाध्य कर्म-वितान में उद्गाता सामवेदसाध्य कर्मों का विस्तार करता है। वह अध्वर्युरूप यह प्राण सम्पूर्ण त्रयी-विद्या का आत्मा है । यह प्रत्यक्षगोचर प्राण ही इस त्रयी-विद्या का आत्मा बताया गया है। जो इस प्राण को इस रूप में जानता है, वह भी प्राणरूप हो जाता है ॥ ६ ॥
अथातः सर्वजितः कौषीतकेस्रीण्युपासनानि भवन्ति
यज्ञोपवीतं कृत्वाप आचम्य त्रिरुदपात्रं
प्रसिच्योद्यन्तमादित्यमुपतिष्ठेत वर्गोऽसि पाप्मानं मे
वृङ्धीत्येतयैवावृता मध्ये सन्तमुद्वर्गोऽसि पाप्मानं म
उद्धृङ्धीत्येतयैवावृतास्ते यन्तं संवर्गोऽसि पाप्मानं
मे संवृङ्धीति यदहोरात्राभ्यां पापं करोति
सन्तद्धृङ्क्ते ॥ ७॥
अब सर्वविजयी कौषीतकि के द्वारा अनुभव में लायी हुई तीन बार की जाने वाली उपासना बतायी जाती है। यज्ञोपवीत को सव्यभाव से बायें कधे पर रखकर, आचमन करके जलपात्र को तीन बार शुद्ध-स्वच्छ जल से पूर्णतः भरकर उदयकाल में भगवान् सूर्य को उपस्थान करे, उनकी आराधना के लिये खड़ा होकर अर्घ्य दे(अर्घ्य देते समय इस मन्त्रका उच्चारण करे-) ‘वर्गोऽसि पाप्मान मे वृडघि ।’- आत्मज्ञान होनेके कारण सम्पूर्ण जगत्को आप तृणकी भाँति त्याग देते हैं, इसलिये वर्ग’ कहलाते हैं; मेरे पापको मुझसे दूर कीजिये । इसी प्रकार मध्याह्नकाल में भी भगवान् सूर्य का उपस्थान करे । ‘उद्वर्गोऽसि पाप्मान में उद्वृधि । फिर इसी प्रकार सायंकालमै अस्त होते हुए भगवान् सूर्य का उपस्थान करे ‘संवर्गोऽसि पाप्मानं मे सवृधि ।’ इस उपासना का फल यह है कि मनुष्य दिन और रात में जो पाप करता है, उसका पूर्णतः परित्याग कर देता है ॥ ७ ॥
अथ मासि मास्यमावास्यायां पश्चाच्चन्द्रमसं
दृश्यमानमुपतिष्ठेतैवावृता हरिततृणाभ्यामथ वाक्
प्रत्यस्यति यत्ते सुसीमं हृदयमधिचन्द्रमसि श्रितम् ॥
तेनामृतत्वस्येशानं माहं पौत्रमघं रुदमिति न
हास्मात्पूर्वाः प्रजाः प्रयन्तीति न
जातपुत्रस्याथाजातपुत्रस्याह ॥ आप्यास्व समेतु ते सन्ते
पयांसि समुयन्तु वाजा यमादित्या
अंशुमाप्याययन्तीत्येतास्तिस्र ऋचो जपित्वा नास्माकं प्राणेन
प्रजया पशुभिराप्यस्वेति दैवीमावृतमावर्त
आदित्यस्यावृतमन्वावर्तयति दक्षिणं बाहुमन्वावर्तते ॥ ८॥
अब दूसरी उपासना बतायी जाती है। प्रत्येक मास की अमावास्या तिथि को, जब सूर्य के पश्चिम भाग में उनकी सुषुम्णा नामक किरण में चन्द्रमा स्थित दिखायी देते हैं , उस समय उनका पूर्वोक्त प्रकार से ही उपस्थान करे । विशेषता इतनी ही है कि अर्ध्वपात्र में दो हरी दूब के अंकुर भी रख ले और उससे अर्घ्य देते हुए चन्द्रमा के प्रति ‘यत्ते’ इत्यादि मन्त्ररूपा वाणी का प्रयोग करे ।- यत्ते सुसीमं हृदयमधि चन्द्रमसि श्रितं तेनामृतत्वस्यैशानं माहं पौत्रमध दम् । ‘हे सोममण्डल की अधिष्ठात्री देवि ! जिसकी सीमा बहुत ही सुन्दर है, ऐसा जो तुम्हारा हृदय- हृदयस्थित आनन्दमय स्वरूप चन्द्रमण्डल में विराजित है, उसके द्वारा तुम अमृतत्व पर भी अधिकार रखती हो। ऐसी कृपा करो, जिससे मुझे पुत्र के शोक से न रोना पड़े।’ यों करने वाले उपासक को यदि पुत्र प्राप्त हो चुका हो तो उसके उस पुत्र की उससे पहले मृत्यु नहीं होती । यदि उसके कोई पुत्र न हुआ हो, तो वह भी पहले की ही भाँति सब कार्य करके अर्घ्यपात्र में दो हरी दूब के अंकुर भी रख ले और निम्नाङ्कित ऋचाओं का जप करे- ‘समेतु ते विश्वतः सोमवृष्ण्यं भवा वाजस्य संगथे ।’ ‘सं ते पयोसि समु यन्तु वाजा संवृष्ण्यान्यभिमातिषाह.। आप्यायमानो अमृताय सोम दिवि श्रवस्युत्तमानि धिष्व |’ ‘यमादित्या अंशुमाप्याययन्ति यमक्षितमक्षितयः पिबन्ति । तेन नौ राजा वरुणो बृहस्पतिरप्याययन्तु भुवनस्य गोपाः |’ इन तीन ऋचाओंका जप करने के पश्चात् चन्द्रमा के सम्मुख दाहिना हाथ उठाये और निम्नाङ्कित मन्त्रका पाठ करे- ‘मामाकं प्राणेन प्रजया पशुभिराप्याययिष्ठा योऽस्मान् । द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तस्य प्राणेन प्रजया पशुभिराप्याययस्व इति दैवीमावृतमावर्त आदित्यस्यावृतमन्वावर्ते इति |’ -यों कहकर अपनी दाहिनी बाँह को अन्वावर्तन करे- बारबार घुमाये । तत्पश्चात् बाँह खींच ले ॥ ८ ॥
अथ पौर्णमास्यां पुरस्ताच्चन्द्रमसं
दृश्यमानमुपतिष्ठेतैतयैवावृता सोमो राजासि
विचक्षणः पञ्चमुखोऽसि प्रजापतिर्ब्राह्मणस्त एकं मुखं
तेन मुखेन राज्ञोऽत्सि तेन मुखेन मामन्नादं कुरु ॥ राजा
त एकं मुखं तेन मुखेन विशोत्सि तेनैव मुखेन मामन्नादं
कुरु ॥ श्येनस्त एकं मुखं तेन मुखेन पक्षिणोऽत्सि तेन
मुखेन मामन्नादं कुरु ॥ अग्निस्त एकं मुखं तेन मुखेनेमं
लोकमत्सि तेन मुखेन मामन्नादं कुरु ॥ सर्वाणि भूतानीत्येव
पञ्चमं मुखं तेन मुखेन सर्वाणि भूतान्यत्सि तेन मुखेन
मामन्नादं कुरु ॥ मास्माकं प्राणेन प्रजया
पशुभिरवक्षेष्ठा योऽस्माद्वेष्टि यं च वयं
द्विष्मस्तस्य प्राणेन प्रजया पशुभिरवक्षीयस्वेति
स्थितिर्दैवीमावृतमावर्त आदित्यस्यावृतमन्वावर्तन्त इति
दक्षिणं बाहुमन्वावर्तते ॥ ९॥
अब अन्य प्रकार की उपासना बतायी जाती है- पूर्णिमा को सायंकाल में जब प्राची दिशा के अङ्कमें चन्द्रदेव का दर्शन होने लगे, उस समय इसी रीति से ( जो पहले बतायी गयी है) चन्द्रमाका उपस्थान करे- उन्हें अर्घ्य प्रदान करे । उपस्थानके समय निम्नाङ्कित मन्त्रका पाठ भी करे- ‘सोमो राजासि विचक्षणः पञ्चमुखोऽसि प्रजापति ब्रह्मणस्त एकं मुखं तेन मुखेन राज्ञोऽसि तेन मुखेन मामन्नादं कुरु । राजा त एकं मुखं तेन मुखेन विशोऽत्सी तेन मुखेन मामन्नादं कुरु । श्येनस्त एकं मुखं तेन मुखेन पक्षिणोऽत्सी तेन मुखेन मामन्नादं कुरु । अग्निष्ट एक मुखं तेन मुखेनेमं लोकमत्सी तेन मुखेन मामन्नादं कुरु । त्वयि पञ्चमं मुख तेन मुखेन सर्वाणि भूतान्यत्सि तेन मुखेन मामन्नादं कुरु । मास्माकं प्राणेन प्रजया पशुभिरवक्षेष्ठा योऽस्मान् देष्टि ये च चयं द्विष्मस्तस्य प्राणेन प्रजया पशुभिरवक्षीयस्वेति, दैवीमावृतमावर्त, आदित्यस्यावृतमन्वावर्ते ।’ इस प्रकार मन्त्रपाठ करते हुए दाहिनी बाँहका अन्वावर्तन करे ॥ ९ ॥
अथ संवेश्यन्जायायै हृदयमभिमृशेत् ॥ यत्ते सुसीमे
हृदये हितमन्तः प्रजापतौ ॥ मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं
माहं पौत्रमघं रुदमिति न हास्मत्पूर्वाः प्रजाः प्रैति ॥१०॥
इस तरह सोमकी प्रार्थनाके पश्चात् ( गर्भाधान के लिये ) पत्नीके समीप बैठनेसे पूर्व उसके हृदय का स्पर्श करे। उस समय निम्नाङ्कित मन्त्र का पाठ करना चाहिये- ‘यत्ते सुसीमे हृदये हितमन्त प्रजापतौ । मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं तेन माहं पौत्रमवं रुदम् । ‘हे सुन्दर सीमन्त वाली सुन्दरी | तुम सोममयी हो, तुम्हारा हृदय (स्तन-मण्डल ) प्रजा संततिका पालक ( पोषक ) है; उसके भीतर जो चन्द्रमण्डलकी ही भाँति अमृतराशि निहित है, उसे मैं जानता हूँ, अपने को उसका जानने वाला मानता हूँ | इस सत्य के प्रभाव से में कभी पुत्रसम्बन्धी शोक से रोदन न करूँ | इस प्रकार प्रार्थना करने से उस उपासक के पहले उसकी संतान की मृत्यु नहीं होती ॥ १० ॥
अथ प्रोष्यान्पुत्रस्य मूर्धानमभिमृशति ॥
अङ्गादङ्गात्सम्भवसि हृदयादधिजायसे ।
आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥ असाविति
नामास्य गृह्णाति । अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं
भव । तेजो वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥ असाविति
नामासि गृह्णाति। येन प्रजापतिः प्रजाः
पर्यगृह्णीतारिष्ट्यै तेन त्वा परिगृह्णाम्यसावित्यथास्य
दक्षिणे कर्णे जपति ॥ अस्मे प्रयन्धि
मघवन्नृजीषिन्नितीन्द्रश्रेष्ठानि द्रविणानि धेहीति
माच्छेत्ता मा व्यथिष्ठाः शतं शरद आयुषो जीव पुत्र
। ते नाम्ना मूर्धानमभिजिघ्राम्यसाविति त्रिरस्य
मूर्धानमभिजिघ्रेद्गवा त्वा हिङ्कारेणाभिहिङ्करोमीति
त्रिरस्य मूर्धानमभिहिङ्कुर्यात् ॥ ११॥
अब दूसरी उपासना बतायी जाती है- परदेश में रहकर वहाँ से लौटा हुआ पुरुष पुत्र के मस्तक का स्पर्श करे और इस मन्त्र को पढ़े- ‘पुत्र ! तुम नरकसे तारने वाले हो । मेरे अङ्ग अङ्गसे प्रकट हुए हो । मेरे हृदयसे तुम्हारा आविर्भाव हुआ है। तुम मेरे अपने ही स्वरूप हो। तुमने मेरी (नरकसे ) रक्षा की है। तुम सौ वर्षोंतक जीवित रहो ।’ ‘वत्स ! तुम पत्थर बनो, कुठार बनो और विछा हुआ सुवर्ण बनो। अर्थात् तुम्हारा शरीर पत्थरके समान सुगठित, बलवान, स्वस्थ एव नीरोग हो। तुम कुठारकी भाँति शत्रुओं का नाश करनेवाले बनो और सब ओर फैली हुई सुवर्णराशिकी भाँति सबके प्रिय बनो। समस्त अंगों का सारभूत, ससार-वृक्ष का बीजरूप जो तेज है, वह तुम्हीं हो, तुम सैकड़ों वर्ष जीवित रहो ।’ ‘वत्स ! प्रजापति ब्रह्माजी अपनी सृष्टिको विनाशसे बचानेके लिये उसे जिस तेजमे सन्पन्न करके परिगृहीत अथवा अनुगृहीत करते हैं, उसी तेजसे सम्पन्न करके मैं तुम्हें सब ओरसे ग्रहण करता हूँ।’ तत्पश्चात् पुत्रके दाहिने कान में इस मन्त्रका जप करे ‘मघवन् ! आप सरल भावको अवलम्बन करके इस पुत्रकी । रक्षा करें । इद्र ! इसे श्रेष्ठ धन प्रदान करें।’ फिर इसी मन्त्रको बायें कान में भी जपे । तनदनन्तर पुत्र का मस्तक सूँघे और इस मन्त्र को पढ़े ‘बेटा ! सतान-परम्परा का उच्छेद न करना । मन, वाणी और शरीरसे तुम्हें कभी पीड़ा न हो। तुम सौ वर्षों तक | जीवित रहो । मैं तुम्हारा अमुक नामसे प्रसिद्ध पिता तुम्हारा नाम लेकर तुम्हारे मस्तकको सँध रहा हूँ।’ (यहाँ ‘असौ के स्थानपर पिता अपना नाम ले।) इस मन्त्रको पढ़कर तीन बार पुत्रका मस्तक सूँघना चाहिये । इसके बाद नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर मस्तकके सत्र और तीन बार हिंकार ( ‘हिम्’ | शब्दका ) उच्चारण करे । मन्त्र इस प्रकार है- ‘वत्स ! गौएँ अपने बछड़ेको बुलानेके लिये जैसे रंभाती हैं, उसी प्रकार वैसे ही प्रेमसे मैं भी तुम्हारे लिये हिङ्कार करता हूँ-हिङ्कारद्वारा तुम्हें अपने पास बुलाता हूँ ॥ ११ ॥
अथातो दैवः परिमर एतद्वै ब्रह्म दीप्यते
यदग्निर्ज्वलत्यथैतन्म्रियते
यन्न ज्वलति तस्यादित्यमेव तेजो गच्छति वायुं प्राण एतद्वै
ब्रह्म
दीप्यते यथादित्यो दृश्यतेऽथैतन्म्रियते यन्न दृश्यते तस्य
चन्द्रमसमेव तेजो गच्छति वायुं प्राण एतद्वै ब्रह्म दीप्यते
यच्चन्द्रमा दृश्यतेऽथैतन्म्रियते यन्न दृश्यते तस्य
विद्युतमेव तेजो
गच्छति वायुं प्राण एतद्वै ब्रह्म दीप्यते
यद्विद्युद्विद्योततेऽथैतन्म्रियते
यन्न विद्योतते तस्य वायुमेव तेजो गच्छति वायुं प्राणस्ता
वा एताः
सर्वा देवता वायुमेव प्रविश्य वायौ सृप्ता न मूर्च्छन्ते
तस्मादेव
पुनरुदीरत इत्यधिदैवतमथाध्यात्मम् ॥ १२॥
अत्र इसके बाद देव-सम्बन्धी ‘परिमर’ का वर्णन किया जाता है । ( यहाँ अग्नि और वाक आदि ही देवता हैं, ये देवता प्राण के सब ओर मृत्युको प्राप्त होते हैं, अतः ब्रह्मस्वरूप प्राणको ही यहाँ ‘परिमर’ कहा गया है।) यह जो प्रत्यक्ष रूपमें अग्नि प्रचलित है। इस रूपमें ब्रह्म ही देदीप्यमान हो रहा है। जब अग्नि प्रज्वलित नहीं होती, उस अवस्थामें यह मर जाती है बुझ जाती है । उस बुझी हुई अग्निका तेज सूर्यमे ही मिल जाता है और प्राण वायुमें प्रवेश कर जाता है। यह जो सूर्य दृष्टिगोचर होता है, निश्चय ही इस रूपमें ब्रह्म ही प्रकाशित हो रहा है। जब यह नहीं दिखायी देता, तब मानो मर जाता है । उस समय उसका तेज चन्द्रमाको ही प्राप्त होता और प्राण वायुमें मिल जाता है। यह जो चन्द्रमा दिखायी देता है, निश्चय ही इसके रूपमें ब्रह्म ही प्रकाशित हो रहा है । फिर जब यह नहीं दिखायी देता, तब भानो यह मर जाता है, उस समय उसका तेज विद्युत् को ही और ऋण वायुको प्राप्त हो जाता है। यह जो बिजली कौंधती है, निश्चय ही इसके रूपमें यह ब्रह्म ही प्रकाशित हो रहा है। फिर जब यह नहीं कौंधती, तब मानो मर जाती है; उस समय उसकी तेज वायु को प्राप्त होता है और प्राण भी वायुमें ही प्रवेश कर जाता है। वे प्रसिद्ध अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा तथा विद्युत्-स्वरूप सम्पूर्ण देवता वायुमें ही प्रवेश करके स्थित होते हैं । वायु (आधिदैविक प्राण ) में विलीन होकर वे विनष्ट नहीं होते; क्योंकि पुनः उस वायुसे ही उनका प्रादुर्भाव होता है । इस प्रकार आधिदैविक दृष्टि है ! अब आध्यात्मिक दृष्टि बतायी जाती है ॥ १२ ॥
एतद्वै ब्रह्म दीप्यते यद्वाचा वदत्यथैतन्म्रियते यन्न वलति
तस्य चक्षुरेव तेजो गच्छति प्राणं प्राण एतद्वै ब्रह्म
दीप्यते
यच्चक्षुषा पश्यत्यथैतन्म्रियते यन्न पश्यति तस्य
श्रोत्रमेव
तेजो गच्छति प्राणं प्राण एतद्वै ब्रह्म दीप्यते यच्छोत्रेण
शृणोत्यथैतन्म्रियते यन्न शृणोति तस्य मन एव तेजो
गच्छति
प्राणं प्राण एतद्वै ब्रह्म दीप्यते यन्मनसा
ध्यायत्यथैतन्म्रियते
यन्न ध्यायति तस्य प्राणमेव तेजो गच्छति प्राणं प्राणस्ता
वा
एताः सर्वा देवताः प्राणमेव प्रविश्य प्राणे सृप्ता न
मूर्छन्ते
तस्माद्धैव पुनरुदीरते तद्यदिह वा एवंविद्वांस उभौ
पर्वतावभिप्रवर्तेयातां तुस्तूर्षमाणो दक्षिणश्चोत्तरश्च
न हैवैनं स्तृण्वीयातामथ य एनं द्विषन्ति यांश्च
स्वयं
द्वेष्टि त एवं सर्वे परितो म्रियन्ते ॥ १३॥
मनुष्य वाणी से जो बातचीत करता है, यह मानो ब्रह्म ही प्रकाशित हो रहा है। जब यह नहीं बोलता, उस समय मानो यह वाक्-इन्द्रिय मर जाती है। उस समय वाणीका तेज नेत्रको प्राप्त हो जाता है और प्राण प्राणवायु में मिल जाता है। यह मनुष्य नेत्रद्वारा जो देखता है, यह मानो ब्रह्म ही प्रकाशित हो रहा है । जब नेत्रसे नहीं देखता, उस समय मानो नेत्रेन्द्रिय मर जाती है। उस समय नेत्रका तेज श्रवणेन्द्रियको प्राप्त हो जाती है तथा प्राण प्राणमें ही मिल जाता है। यह जो श्रवणद्वारा सुनता है, यह मानो ब्रह्म ही प्रकाशित हो रहा है, जब यह नहीं सुनता, तब मानो श्रवणेन्द्रिय मर जाती है । उस समय उसका तेज मनको ही प्राप्त हो जाता है और प्राण प्राण में मिल जाता है । यह जो मन से ध्यान ( चिन्तन ) करता है। यह मानो ब्रह्म ही प्रकाशित हो रहा है । जब चिन्तन नहीं करत, तब मानो मन मर जाता है। उस समय उसका तेज प्राणको ही प्राप्त हो जाता है और प्राण भी प्राणमें ही मिल जाता है । इस प्रकार ये सम्पूर्ण वाक् आदि देवता प्राणमें ही प्रवेश करके स्थित होते हैं । प्राणमें लीन होकर वे नष्ट नहीं होते हैं अतएव पुनः प्राणसे ही उनका प्रादुर्भाव होता है। उस दैव परिमर (प्राण ) को सम्यग्ज्ञान हो जानेपर यदि वे ज्ञानी पुरुष ऐसे दो ऊँचे पर्वतों को जो भूमण्डल के उत्तरी सिरे से लेकर दक्षिणी सिरेतक फैले हों; अपनी इच्छाके अनुसार चलनेको प्रेरित करें तो वे पर्चत इन ज्ञानी महापुरुषों की- हिंसा- उनकी आज्ञाका परित्याग अर्थात् उनकी अवहेलना नहीं कर सकते । इसके सिवा, जो लोग इस ‘दैवपरिमर’ के ज्ञाता पुरुषसे द्वेष करते हैं, अथवा वह स्वयं जिन लोगोंसे द्वेष रखता हो, सब-के-सब सर्वथा नष्ट हो जाते है ॥ १३ ॥
अथातो निःश्रेयसादानं एता ह वै देवता अहं श्रेयसे
विवदमाना अस्माच्छरीरादुच्चक्रमुस्तद्दारुभूतं
शिष्येथैतद्वाक्प्रविवेश तद्वाचा वदच्छिष्य
एवाथैतच्चक्षुः प्रविवेश तद्वाचा वदच्चक्षुषा
पश्यच्छिष्य एवाथैतच्छ्रोत्रं प्रविवेश तद्वाचा
वदच्चक्षुषा पश्यच्छ्रोत्रेण शृण्वन्मनसा
ध्यायच्छिष्य एवाथैतत्प्राणः प्रविवेश तत्तत एव
समुत्तस्थौ तद्देवाः प्राणे निःश्रेयसं विचिन्त्य प्राणमेव
प्रज्ञात्मानमभिसंस्तूय सहैतैः
सर्वैरस्माल्लोकादुच्चक्रमुस्ते
वायुप्रतिष्ठाकाशात्मानः स्वर्ययुस्तहो
एवैवंविद्वान्सर्वेषां
भूतानां प्राणमेव प्रज्ञात्मानमभिसंस्तूय सहैतैः
सर्वैरस्माच्छरीरादुत्क्रामति स वायुप्रतिष्ठाकाशात्मा
न स्वरेति तद्भवति यत्रैतद्देवास्तत्प्राप्य तदमृतो भवति
यदमृता देवाः ॥ १४॥
इसके पश्चात् अब मोक्ष-साधन के गुण से विशिष्ट सर्वश्रेष्ठ प्राण की उपासना बतायी जाती है। एक समय वाक् आदि। सम्पूर्ण देवता अहङ्कारवश अपनी-अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये विवाद करने लगे । वे सब प्राण के साथ ही इस शरीरसे निकल गये । उनके निकल जानेपर वह शरीर काठ की भाँति निश्चेष्ट होकर सो गया । तदनन्तर उस शरीर में वाक् इन्द्रियने प्रवेश किया । तब वह वाणीसे बोलने तो लगा, परन्तु उठ न सका, सोया ही रह गया । तत्पश्चात् चक्षु-इन्द्रियने उस शरीर में प्रवेश किया । तथापि वह वाणीसे बोलता और नेत्रसे देखता हुआ भी सोता ही रहा, उठ न सका । तब उस शरीर में श्रवण-इन्द्रियने प्रवेश किया । उस समय भी वह वाणीसे बोलता, नेत्रसे देखता और कानों से सुनता हुआ भी सोता ही रहा, उठकर बैठ ने सका । तदनन्तर उस शरीरमे मन ने प्रवेश किया । तब भी वह शरीर वाणीसे बोलता, नेत्र से देखता, कानसे सुनता और मनसे चिन्तन करता हुआ भी पड़ा ही रहा। तत्पश्चात् प्राणने उस शरीरमें प्रवेश किया। फिर तो उसके प्रवेश करते ही वह शरीर उठ बैठा । तब उन वाक् आदि देवताओंने प्राणमें ही मोक्ष-साधनकी शक्ति जानकर तथा प्रज्ञास्वरूप प्राणको ही सब ओर व्याप्त समझकर इन प्राण अपान आदि समस्त प्राणों के साथ ही इस शरीररूप लोकसे उक्रमण किया । वे वायुमें-आधिदैविक प्राणमें स्थित हो आकाशस्वरूप होकर स्वर्गलोकमें गये-अपने अधिष्ठातृ-देवता अग्नि आदिके स्वरूपको प्राप्त हो गये । उसी प्रकार इस रहस्यको जाननेवाला विद्वान् सम्पूर्ण भूतों के प्राणको ही प्रज्ञात्मारूपसे प्राप्तकर इन प्राण-अपान आदि समस्त प्राणोंके साथ इस शरीरसे उत्क्रमण करता है । तथा वह वायु में प्रतिष्ठित हो आकाशस्वरूप होकर स्वर्गलोक को गमन करता है । वह विद्वान् वहाँ उस सुप्रसिद्ध प्राण का स्वरूप हो जाता है जिसमें कि ये वाक् आदि देवता स्थित होते हैं । उस प्राणस्वरूप को प्राप्तकर वह विद्वान् प्राणके उस अमृतत्व-गुणसे युक्त हो जाता है, जिस अमृतत्व-गुणसे वे वाक् आदि देवता भी संयुक्त होते हैं ॥ १४ ॥
अथातः पितापुत्रीयं सम्प्रदानमिति चाचक्षते पिता पुत्रं
प्रष्याह्वयति नवैस्तृणैरगारं
संस्तीर्याग्निमुपसमाधायोदकुम्भं सपात्रमुपनिधायाहतेन
वाससा सम्प्रच्छन्नः श्येत एत्य पुत्र उपरिष्टदभिनिपद्यत
इन्द्रियैरस्येन्द्रियाणि संस्पृश्यापि वास्याभिमुखत
एवासीताथास्मै सम्प्रयच्छति वाचं मे त्वयि दधानीति पिता
वाचं ते मयि दध इति पुत्रः प्राणं मे त्वयि दधानीति पिता
प्राणं ते मयि दध इति पुत्रश्चक्षुर्मे त्वयि दधानीति पिता
चक्षुस्ते मयि दध इति पुत्रः श्रोत्रं मे त्वयि दधानीति पिता
श्रोत्रं ते मयि दध इति पुत्रो मनो मे त्वयि दधानीति पिता
मनस्ते मयि दध इति पुत्रोऽन्नरसान्मे त्वयि दधानीति
पितान्नरसांस्ते मयि दध इति पुत्रः कर्माणि मे त्वयि
दधानीति पिता कर्माणि ते मयि दध इति पुत्रः सुखदुःखे मे
त्वयि दधानीति पिता सुखदुःखे ते मयि दध इति पुत्र आनन्दं
रतिं प्रजाइं मे त्वयि दधानीति पिता आनन्दं रतिं प्रजातिं
ते
मयि दध इति पुत्र इत्यां मे त्वयि दधानीति पिता इत्यां ते मयि
दध इति पुत्रो धियो विज्ञातव्यं कामान्मे त्वयि दधानीति
पिउता
धियो विज्ञातव्यं कामांस्ते मयि दध इति पुत्रोऽथ
दक्षिणावृदुपनिष्क्रामति तं पितानुमन्त्रयते यशो
ब्रह्मवर्चसमन्नाद्यं कीर्तिस्त्वा जुषतामित्यथेतरः
सव्यमंसमन्ववेक्षते पाणि नान्तर्धाय वसनान्तेन वा
प्रच्छद्य स्वर्गाल्लोकान्कामानवाप्नुहीति स यद्यगदः
स्यात्पुत्रस्यैश्वर्ये पिता वसेत्परिवा व्रजेद्ययुर्वै
प्रेयाद्यदेवैनं
समापयति तथा समापयितव्यो भवति तथा समापयितव्यो
भवति ॥ १५॥
अब इसके पश्चात् पिता-पुत्रका सम्प्रदान-कर्म बतलाते हैं (पिता पुत्रको अपनी जीवन-शक्ति प्रदान करता है; अतएव इसको पितापुत्रीय सम्प्रदान-कर्म कहते हैं)। पिता यह निश्चय करके कि अब मुझे इस लोकसे प्रयाण करना है, पुत्रको अपने समीप बुलाये । नूतन कुश-कास आदि तृणसे अग्निशालाको आच्छादित करके विधिपूर्वक अग्निकी स्थापना करे । अग्निके उत्तर या पूर्वभागमें जलसे भरा हुआ कलश स्थापित करे । कलशके ऊपर धान्यसे भरा हुआ पात्र भी होना चाहिये । स्वयं भी नवीन धौत (घोती) और उत्तरीय धारण करे । इस प्रकार श्वेत वस्त्र और माला आदि से अलंकृत हो घरमें आकर पुत्रको पुकारे । जब पुत्र समीप आ जाय तो सब ओरसे,उसके ऊपर पड़ जाय अर्थात् उसे अङ्कमें भर ले और अपनी इन्द्रियोंसे उसकी इन्द्रियोंका स्पर्श करे (तात्पर्य यह कि नेत्रसे नेत्रका, नाकसे नाकका तथा अन्य इन्द्रियों से उसकी अन्य इन्द्रियाका स्पर्श करे )। अथवा केवल पुत्रके सम्मुख बैठ जाय और उसे अपनी वाक-इन्द्रिय आदिका दान करे । पिता कहे-‘मैं तुममें अपनी वाक्-न्द्रिय स्थापित करता हूँ।’ पुत्र उत्तर दे- ‘पिताजी ! मैं आपकी वाक्-इन्द्रियको अपनेमें धारण करता हूँ।’ पिता-‘मैं अपने प्राणको तुममें स्थापित करता हूँ।’ पुत्र- ‘आपके प्राण को अपनेमें धारण करता हूँ।’ पिता- ‘अपनी चक्षु-इन्द्रियको तुममें स्थापित करता हूँ।’ पुत्र- ‘आपके चक्षुको अपने धारण करता हूँ।’ पिता- ‘अपने क्षेत्रको तुममें स्थापित करता हूँ।’ पुत्र- ‘आपके श्रोत्र को अपनेमें धारण करता हूँ।’ पिता-‘अपने अन्नके रसको तुममें स्थापित करता हूँ ।’ पुत्र- ‘आपके अन्नरसको अपनेमें धारण करता हूँ ।’ पिता- ‘अपने कमको तुममें स्थापित करता हूँ ।’ पुत्र- ‘आपके कर्मीको अपनेमें धारण करता हूँ।’ पिता-‘अपने सुख और दुःखको तुममें स्थापित करता हूँ।’ पुत्र-‘आपके सुख और दुःखको अपने में धारण करता हूँ ।’ पिता- ‘मैथुन-जनित आनन्द, रति और सन्तानोत्पचिकी शक्ति तुममें स्थापित करता हूँ ।’ पुत्र- ‘आपकी वह शक्ति में अपनेमे धारण करता हूँ ।’ पिता-‘अपनी गतिशक्ति मैं तुममें स्थापित करता हूँ ।’ पुत्र-‘आपकी गतिशक्ति अपने मैं धारण करता हूँ ।’ पिता–‘अपनी बुद्धि-वृत्तिर्योको, बुद्धिके द्वारा ज्ञातव्य विपयको तथा विशेष कामनाओंको तुममें स्थापित करता हूँ।’ पुत्र-‘आपकी बुद्धि-वृत्तियों को, बुद्धिके द्वारा ज्ञातव्य विषयों को तथा कामनाओंको मैं अपनेमें धारण करता हूँ।’ तदनन्तर पुत्र पिता की प्रदक्षिणा करते हुए पूर्व दिशाकी ओर पिताके समीपसे निकलता है । उस समय पिता पीछेसे पुत्रको सम्बोधित करके कहते हैं, ‘यश, ब्रह्मतेज, अन्नको खाने और पचानेकी शक्ति तथा उत्तम कीर्ति—ये समस्त सद्गुण तुम्हारा सेवन करें ।’ पिताके यों कहनेपर पुत्र अपने बायें कन्धे की ओर दृष्टि घुमाकर देखे और हाथ से ओट करके अथवा कपड़ेसे आड़ करके पिताको उत्तर दे’आप अपनी इच्छाके अनुसार कमनीय स्वर्गलोक तथा वहाँ के भोगको प्राप्त करें ।’ इसके बाद यदि पिता नीरोग हो तो वह पुत्रके प्रभुत्वमें ही वहाँ निवास करे अथवा सब कुछ त्यागकर घरसे निकल जाय- सन्यासी हो जाय । अथवा यदि वह परलोकगामी हो जाय तो जिन-जिन वाक् आदि इन्द्रियको उसने पुत्रमें स्थापित किया था, उन सभीकी शक्तिका वह पुत्र उसी प्रकार आश्रय हो जाता है। वे सभी शक्तियाँ उसे प्राप्त होती हैं ( यंही सच्चा उत्तराधिकार है ) ॥ १५ ॥
तृतीय अध्याय
इति तृतीयोऽध्यायः ॥
प्रतर्दनो ह वै दैवोदासिरिन्द्रस्य प्रियं धामोपजगाम युद्धेन
पौरुषेण च तं हेन्द्र उवाच प्रतर्दन वरं ते ददानीति स
होवाच प्रतर्दनस्त्वमेव वृणीश्व यं त्वं मनुष्याय
हिततमं
मन्यस इति तं हेन्द्र उवाच न वै वरं परस्मै वृणीते
त्वमेव
वृणीश्वेत्यवरो वैतर्हि किल म इति होवाच प्रतर्दनोऽथो
खल्विन्द्रः
सत्यादेव नेयाय सत्यं हीन्द्रः स होवाच मामेव
विजानीह्येतदेवाहं
मनुष्याय हिततमं मन्ये यन्मां विजानीयां त्रिशीर्षाणं
त्वाष्ट्रमहनमवाङ्मुखान्यतीन्सालावृकेभ्यः प्रायच्छं
बह्वीः
सन्धा अतिक्रम्य दिवि प्रह्लादीनतृणमहमन्तरिक्षे
पौलोमान्पृथिव्यां कालकाश्यांस्तस्य मे तत्र न लोम च
नामीयते
स यो मां विजानीयान्नास्य केन च कर्मणा लोको मीयते न
मातृवधेन
न पितृवधेन न स्तेयेन न भ्रूणहत्यया नास्य पापं च न
चकृषो मुखान्नीलं वेत्तीति ॥ १॥
ॐ यह प्रसिद्ध है कि राजा दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन (देवासुर-संग्राममें देवताओंकी सहायता करनेके लिये) देवराज इन्द्रके प्रिय धाम स्वर्गलोक में गये । वहाँ उनकी अनुपम युद्धकला और पुरुषार्थ से सन्तुष्ट होकर इन्द्रने उनसे कहा प्रतर्दन ! बोलो, मैं तुम्हें क्या वर दूँ? तब वे प्रसिद्ध वीर प्रतर्दन बोले-‘देवराज ! जिस वरको आप मनुष्य-जाति के लिये परम कल्याणमय मानते हों, वैसा कोई वर मेरे लिये आप स्वयं ही वरण करें। यह सुनकर इन्द्रने कहा-‘राजन् ! लोकमें यह सर्वत्र विदित है कि कोई भी दूसरेके लिये वर नहीं माँगता, अतः तुम्हीं अपने लिये कोई वर माँगो । प्रतर्दन बोला तब तो मेरे लिये वर का अभाव ही रह गया । ( क्योंकि आप स्वयं तो वर माँगेंगे नहीं, और मुझे क्या माँगना चाहिये- इसका मुझको ज्ञान ही नहीं है। ऐसी दशामें मुझे वर मिलने से रहा । ) प्रतर्दन के ऐसा कहने पर निश्चय ही देवराज इन्द्र अपने सत्यसे विचलित नहीं हुए, (वे वर देने की प्रतिज्ञा कर चुके थे, अतः प्रतर्दनके न माँगनेपर भी अपनी ही ओरसे वर देनेको उद्यत हो गये । ) क्योंकि इन्द्र सत्यस्वरूप हैं। उन प्रसिद्ध देवता इन्द्रने कहा-‘प्रतर्दन ! तुम मुझे ही जानो, मेरे ही यथार्थ स्वरूपको समझो। इसे ही मैं मनुष्य जातिके लिये परमकल्याणमय वर मानता हूँ कि वह मुझे भलीभाँति जाने । मैंने त्वष्टा प्रजापतिके पुत्र विश्वरूपको, जिसके तीन मस्तक थे, वज्रसे मार डाला। कितने ही (मिथ्या) संन्यासियोंको जो अपने आश्रमोचित आचारसे भ्रष्ट एवं बहिर्मुख हो चुके थे, टुकड़े-टुकड़े करके भेड़ियोंको बाँट दिया । कितनी ही बार प्रह्लादके परिचारक दैत्य राजाओंको मौतके घाट उतार दिया । पुलोमासुरके परिचारक दान तथा पृथिवीपर रहनेवाले कालखाञ्ज नामक बहुत-से असुरोंका भी समस्त विघ्न-बाधाओंका अतिक्रम करके संहार कर डाला । परतु इतनेपर भी (अहङ्कार और कर्मफलकी कामनासे शून्य होनेके कारण ) मुझ प्रसिद्ध देवराज इन्द्रके एक रोमको भी हानि नहीं पहुँची। मेरा एक बाल भी बॉका नहीं हुआ । इसी प्रकार जो मुझे भलीभाँति जान ले, उसके पुण्यलोकको किसी भी कर्मसे हानि नहीं पहुँचती । मेरे स्वरूपका ज्ञान रखनेवाले पुरुषको बड़े-से-बड़ा पाप भी हानि नहीं पहुँचा सकता । अधिक क्या कहूँ, उसे पाप लगता ही नहीं । पाप करनेकी इच्छा होनेपर भी उसके मुखसे नील आभा नहीं प्रकट होती- उसका मुँह काला नहीं होता ॥१॥
स होवाच प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्मा तं
मामायुरमृतमित्युपास्वायुः
प्राणः प्राणो वा आयुः प्राण उवाचामृतं
यावद्ध्यस्मि`न्छरीरे
प्राणो वसति तावदायुः प्राणेन
ह्येवामुष्मिंल्लोकेऽमृतत्वमाप्नोति
प्रज्ञया सत्यसङ्कल्पं स यो म आयुरमृतमित्युपास्ते
सर्वमायुरस्मिंल्लोक एवाप्नोत्यमृतत्वमक्षितिं स्वर्गे लोके
तद्धैक
आहुरेकभूयं वै प्राणा गच्छन्तीति न हि कश्चन
शक्नुयात्सकृद्वाचा नाम प्रज्ञापयितुं चक्षुषा रूपं
श्रोत्रेण शब्दं मनसा ध्यानमित्येकभूयं वै प्राणा भूत्वा
एकैकं सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञापयन्ति वाचं वदतीं सर्वे
प्राणा
अनुवदन्ति चक्षुः पश्यत्सर्वे प्राणा अनुपश्यन्ति श्रोत्रं
शृण्वत्सर्वे प्राणा अनुशृण्वन्ति मनो ध्यायत्सर्वे प्राणा
अनुध्यायन्ति प्राणं प्राणन्तं सर्वे प्राणा
अनुप्राणन्तीत्येवमुहैवैतदिति हेन्द्र उवाचास्तीत्येव प्राणानां
निःश्रेयसादानमिति ॥ २॥
वे प्रसिद्ध देवराज इन्द्र बोले- मैं प्रज्ञास्वरूप प्राण हूँ। उस प्राण एव प्रजात्मारूपमें विदित मुझ इन्द्रकी तुम आयु और अमृत रूपसे उपासना करो। आयु प्राण है । प्राण ही आयु है तथा प्राण ही अमृत है। जबतक इस शरीरमें प्राण निवास करता है, तबतक ही आयु है। प्राणसे ही प्राणी परलोक अमृतत्वके सुखका अनुभव करता है। प्रज्ञासे मनुष्य सत्यका निश्चय और संकल्प-विकल्प करता है। जो आयु’ और ‘अमृत’ रूपसे मुझ इन्द्रकी उपासना करता है, वह इस लोकमें पूरी आयुतक जीवित रहता है। तथा स्वर्गलोक में जानेपर अक्षय अमृतत्वका सुख भोगता है। | इस प्राणके विषय निश्चय ही कोई-कोई विद्वान् इस प्रकार कहते हैं-अवश्य ही सब प्राण ( वाक् आदि समस्त इन्द्रियाँ और प्राण ) एकीभावको प्राप्त होते हैं । कोई भी मनुष्य एक ही समय वाणीसे नाम सूचित करने, नेत्रसे रूप देखने, कानसे शब्द सुनने और मनसे चिन्तन करने समर्थ नहीं हो सकता। इससे सिद्ध होता है कि अवश्य ही समस्त प्राण एकीभावको प्राप्त होते हैं-एक होकर कार्य करते हैं। ये सब एक-एक विषयका बारी-बारीसे अनुभव कराते हैं। | जब वाणी बोलने लगती है, उस समय अन्य सब प्राण मौन होकर उसका अनुमोदन करते हैं। जब नेत्र देखने लगता है, तब अन्य सब प्राण भी उसके पीछे रहकर देखते हैं। जब कान सुनने लगता है, तब अन्य सब प्राण भी उसका अनुसरण करते हुए सुनते हैं, जब मन चिन्तन करने लगता है, तो अन्य सब प्राण भी उसके साथ रहकर चिन्तन करते हैं तथा मुख्य प्राण जब अपना व्यापार करता है, तब अन्य प्राण भी उसके साथ साथ वैसी ही चेष्टा करते हैं ।’-प्रतर्दनने कहा । यह बात ऐसी ही है-इस प्रकार उन सुप्रसिद्ध देवराज इन्द्र ने उत्तर दिया । सब प्राण एक होते हुए भी जो पाँच प्राण हैं, वे निःश्रेयस ( परम कल्याण ) -रूप हैं; निःसदेह ऐसी ही बात है ॥ २ ॥
जीवति वागपेतो मूकान्विपश्यामो जीवति
चक्षुरपेतोऽन्धान्विपश्यामो
जीवति श्रोत्रापेतो बधिरान्विपश्यामो जीवतो बाहुच्छिन्नो
जीवत्यूरुच्छिन्न इत्येवं हि पश्याम इत्यथ खलु प्राण एव
प्रज्ञात्मेदं शरीरं परिगृह्योत्यापयति
तस्मादेतमेवोक्थमुपासीत
यो वै प्राणः सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राणः सह
ह्येतावस्मिञ्छरीरे वसतः सहोत्क्रामतस्तस्यैषैव
दृष्टिरेतद्विज्ञानं यत्रैतत्पुरुषः सुप्तः स्वप्नं न
कञ्चन
पश्यत्यथास्मिन्प्राण एवैकधा भवति तदैनं
वाक्सर्वैर्नामभिः
सहाप्येति चक्षुः सर्वै रूपैः सहाप्येति श्रोत्रं सर्वैः
शब्दैः
सहाप्येति मनः सर्वैर्ध्यातैः सहाप्येति स यदा प्रतिबुध्यते
यथाग्नेर्ज्वलतो विस्फुलिङ्गा
विप्रतिष्ठेरन्नेवमेवैतस्मादात्मनः
प्राणा यथायतनं विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवेभ्यो
लोकास्तस्यैषैव सिद्धिरेतद्विज्ञानं यत्रैतत्पुरुष आर्तो
मरिष्यन्नाबल्य न्येत्य मोहं नैति तदाहुरुदक्रमीच्चित्तं न
शृणोति न पश्यति वाचा वदत्यथास्मिन्प्राण एवैकधा भवति
तदैनं वाव सर्वैर्नामभिः सहाप्येति चक्षुः सर्वै रूपैः
सहाप्येति श्रोत्रं सर्वैः शब्दैः सहाप्येति मनः
सर्वैर्ध्यातैः
सहाप्येति स यदा प्रतिबुध्यते यथाग्नेर्ज्वलतो विस्फुलिङ्गा
विप्रतिष्ठेरन्नेवमेवैतस्मादात्मनः प्राणा यथायतनं
विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवेभ्यो लोकाः ॥ ३॥
वाक्-इन्द्रियसे वञ्चित होनेपर भी मनुष्य जीवित रहता है; क्योंकि हमलोग गूँगों को प्रत्यक्ष देखते हैं। नेत्रहीन मनुष्य भी जीवित रहता है, क्योंकि हमलोग अंधेको जीवित देखते हैं। श्रवण-इन्द्रियसे रहित होनेपर भी मनुष्य जीवित रहता है, क्योंकि हमलोग बहरों को जीवित देखते हैं। मनशक्तिसे शून्य होनेपर भी मनुष्य जीवन धारण कर सकता हैं, क्योंकि हमलोग छोटे शिशुको जीवित देखते हैं। इतना ही नहीं, प्राण शक्ति के रहने पर बाँह कट जानेपर भी मनुष्य जीवित रहता है, जाँघ कट जाने पर भी वह जीवन धारण कर सकता है ( परतु प्राणके न रहनेपर तो एक क्षण भी जीवित रहना असम्भव है।) यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं । अतः क्रियाशक्ति का उद्बोधक प्राण ही ज्ञानशक्ति का उद्बोधक प्रज्ञात्मा है । ( अतएव यह निःश्रेयसरूप है।) यही इस शरीरको सब ओर से पकड़कर उठाता है। इसीलिये इस प्राणकी ही ‘उक्थ’ रूपसे उपासना करनी चाहिये । निश्चय ही जो प्रसिद्ध प्राण है, वही प्रज्ञा है। अथवा जो प्रज्ञा बतायी गयी है, वही प्राण है, क्योंकि ये प्रजा और प्राण दोनों साथसाथ ही इस शरीरमें रहते हैं और जीवात्मासे मिलकर साथही-साथ यहाँसे उत्क्रमण करते हैं। इस प्राणमय परमात्माका यही दर्शन ( ज्ञान ) है, यही विज्ञान है कि जिस अवस्थामें यह सोया हुआ पुरुष किसी स्वप्नको नहीं देखता, उस समय वह इस मुख्य प्राणमें ही एकीभावको प्राप्त हो जाता है। उस अवस्था में वाक् सम्पूर्ण नामके साथ इस प्राणमें ही लीन हो जाती है। नेत्र समस्त रूपके साथ इसमें ही लीन हो जाता है। कान समग्र शब्द के साथ इसमें ही लीन हो जाता है तथा मन सम्पूर्ण चिन्तनीय विषयों के साथ इसमें ही लयको प्राप्त हो जाता है । वह पुरुष जब जाग उठता है, उस समय, जैसे जलती हुई आगसे सब दिशाओंकी और चिनगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार इस प्राणस्वरूप आत्मा से समस्त वाक् आदि प्राण निकलकर अपने-अपने योग्य स्थानकी ओर जाते हैं। फिर प्राणों से उनके अधिष्ठाता अग्नि आदि देवता प्रकट होते हैं और देवताओंसे लोक-नाम आदि विषय प्रकट होते हैं। | इस प्राणस्वरूप आत्माकी यह आगे बतायी जानेवाली ही सिद्धि है, यही विज्ञान है कि जिस अवस्थामें पुरुष रोगसे आर्त हो मरणासन्न हो जाता है, अत्यन्त निर्बलताको पहुँचकर अचेत हो जाता है—किसीको पहचान नहीं पाता, उस समय कहते हैं कि इसका चित्त ( मन) उत्क्रमण कर गया । इसीलिये यह न तो सुनता है, न देखता है, न वाणीसे कुछ बोलता है और न चिन्तन ही करता है। उस समय इस प्राणमें ही वह एकीभावको प्राप्त हो जाता है। उस अवस्थामें वाक् सम्पूर्ण नामके साथ इसमें लीन हो जाती है । नेत्र समस्त रूपके साथ इसमें लीन हो जाता है । कान समग्र शब्द के साथ इसमें लीन हो जाता है तथा मन सम्पूर्ण चिन्तनीय विषयोंके साथ इसमें लीन हो जाता है। वह पुरुष मृत्युके बाद जब पुनः जागता है-जन्मान्तर ग्रहण करता है, उस समय जैसे जलती हुई आगसे सत्र दिशाओंकी ओर चिनगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार इस प्राणस्वरूप आत्मासे वाक् आदि प्राण प्रकट हो अपने-अपने योग्य स्थानकी ओर चल देते हैं। फिर प्राणों से उनके अधिष्ठाता अग्नि आदि देवता प्रकट होते हैं और देवताओसे लोक- नाम आदि विषय प्रकट होते हैं ॥ ३ ॥
स यदास्माच्छरीरादुत्क्रामति वागस्मात्सर्वाणि
नामान्यभिविसृजते वाचा सर्वाणि नामान्याप्नोति
प्राणोऽस्मात्सर्वान्गन्धानभिविसृजते प्राणेन
सर्वान्गन्धानाप्नोति चक्षुरस्मात्सर्वाणि रूपाण्यभिविसृजते
चक्षुषा सर्वाणि रूपाण्याप्नोति
श्रोत्रमस्मात्सर्वाञ्छब्दानभिविसृजते श्रोत्रेण
सर्वाञ्छब्दानाप्नोति मनोऽस्मात्सर्वाणि ध्यातान्यभिविसृजते
मनसा सर्वाणि ध्यातान्याप्नोति सैषा प्राणे सर्वाप्तिर्यो वै
प्राणः सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राणः स ह
ह्येतावस्मिञ्छरीरे वसतः सहत्क्रामतोऽथ खलु यथा
प्रज्ञायां सर्वाणि भूतान्येकी भवन्ति तद्व्याख्यास्यामः ॥४॥
वह मुमूर्षु पुरुष जब इस शरीरसे उत्क्रमण करता है, उस समय इन सब इन्द्रियों के साथ ही उत्क्रमण करता है। वाक्-इन्द्रिय इस पुरुष के पास सब नामों का त्याग कर देती है (अतः वह नामको ग्रहण नहीं कर पाता ); क्योंकि वाक् इन्द्रियसे ही मनुष्य नामको ग्रहण कर पाता है। घ्राण इन्द्रिय उसके निकट समस्त गन्धका त्याग कर देती है ( अतः वह गन्धसे भी वञ्चित हो जाता है ); क्योंकि घ्राण इन्द्रिय से ही मनुष्य सब प्रकारके गन्धका अनुभव करता है । नेत्र उसके समीप सब रूपों को त्याग देता है; नेत्रसे ही मनुष्य सब रूप ग्रहण करता है। कान उसके समीप समस्त शब्दोंको त्याग देता है; कानसे ही मनुष्य सब प्रकारके शब्दोंको ग्रहण करता है । मन उसके समीप समस्त चिन्तनीय विषयों को त्याग देता है; मनसे ही मनुष्य सब प्रकारके चिन्तनीय विषयों को ग्रहण करता है । यही प्राणस्वरूप आत्मामें सब इन्द्रियों और विषयों को समर्पित हो जाता है। निश्चय ही जो प्राण है, वही प्रज्ञा है अथवा जो प्रज्ञा है, वही प्राण है, क्योंकि ये दोनों इस शरीरमें साथ-साथ ही रहते हैं और साथ-साथ ही इससे उत्क्रमण करते हैं। अब निश्चय ही जिस प्रकार इस प्रज्ञा में सम्पूर्ण भूत एक हो जाते हैं, इसकी हम स्पष्ट शब्दों में व्याख्या करेंगे ॥४॥
वागेवास्मा एकमङ्गमुदूढं तस्यै नाम परस्तात्प्रतिविहिता
भूतमात्रा घ्राणमेवास्या एकमङ्गमुदूढं तस्य गन्धः
परस्तात्प्रतिविहिता भूतमात्रा चक्षुरेवास्या
एकमङ्गमुदूढं
तस्य रूपं परस्तात्प्रतिविहिता भूतमात्रा श्रोत्रमेवास्या
एकमङ्गमुदूढं तस्य शब्दः परस्तात्प्रतिविहिता भूतमात्रा
जिह्वैवास्या एकमङ्गमुदूढं तस्यान्नरसः परस्तात्प्रतिविहिता
भूतमात्रा हस्तावेवास्या एकमङ्गमुदूढं तयोः कर्म
परस्तात्प्रतिविहिता भूतमात्रा शरीरमेवास्या
एकमङ्गमुदूढं
तस्य सुखदुःखे परस्तात्प्रतिविहिता भूतमात्रा उपस्थ एवास्या
एकमङ्गमुदूढं तस्यानन्दो रतिः प्रजातिः परस्तात्प्रतिविहिता
भूतमात्रा पादावेवास्या एकमङ्गमुदूढं तयोरित्या
परस्तात्प्रतिविहिता भूतमात्रा प्रज्ञैवास्या
एकमङ्गमुदूढं
तस्यै धियो विज्ञातव्यं कामाः परस्तात्प्रतिविहिता
भूतमात्रा ॥ ५ ॥
अवश्य ही वाक्-इन्द्रियने इस प्रज्ञा के एक अन्नकी पूर्ति की है। बाहर की और उसके विषयरूपसे कल्पित भूतमात्रा (पञ्चभूतका अंश-विशेष) नाम-शब्द है । निश्चय ही प्राण ( घाणेन्द्रिय) ने भी इस प्रज्ञा के एक अङ्गकी पूर्ति की है। बाहर की ओर उसके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह गन्ध है । निश्चय ही नेत्रने भी इस प्रज्ञा के एक अङ्गकी पूर्ति की है। बाहरकी और उसके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह रूप है । निश्चय ही कान ने भी इस प्रज्ञाके एक अङ्गकी पूर्ति की है। बाहरकी ओर उसके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह शब्द है । निश्चय ही जिह्वाने भी इस प्रज्ञा के एक अङ्गकी पूर्ति की है। बाहरकी और उसके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह अन्नका रस है । निश्चय ही हाथों ने भी इस प्रज्ञाके एक अङ्गकी पूर्ति की है। बाहर की ओर उनके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह कर्म है । निश्चय ही शरीरने भी इस प्रजाके एक अन्नकी पूर्ति की है। बाहरकी और उसके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह सुख और दुःख है। निश्चय ही उपस्थने भी इस प्रजाके एक अङ्गकी पूर्ति की है, बाहर की ओर इसके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह आनन्द, रति और प्रजोत्पत्ति है । निश्चय ही पैरोंने भी इस प्रज्ञा के एक अङ्गकी पूर्ति की है। बाहरकी ओर उनके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह गमन-क्रिया है । अवश्य ही प्रज्ञाने भी इस प्रज्ञाके एक अङ्गकी पूर्ति की है। बाहरकी ओर उसके विषयरूपसे कल्पित जो भूतमात्रा है, वह बुद्धिके द्वारा अनुभव करने योग्य वस्तु और कामनाएँ हैं ॥ ५ ॥
प्रज्ञया वाचं समारुह्य वाचा सर्वाणि सामान्याप्नोति
प्रज्ञया प्राणं समारुह्य प्राणेन सर्वान्गन्धानाप्नोति
प्रज्ञया चक्षुः समारुह्य सर्वाणि रूपाण्याप्नोति प्रज्ञया
श्रोत्रं समारुह्य श्रोत्रेण सर्वाञ्छब्दानाप्नोति प्रज्ञया
जिह्वां समारुह्य जिह्वाया सर्वानन्नरसानाप्नोति प्रज्ञया
हस्तौ समारुह्य हस्ताभ्यां सर्वाणि कर्माण्याप्नोति प्रज्ञया
शरीरं समारुह्य शरीरेण सुखदुःखे आप्नोति प्रज्ञयोपस्थं
समारुह्योपस्थेनानन्दं रतिं प्रजातिमाप्नोति प्रज्ञया पादौ
समारुह्य पादाभ्यां सर्वा इत्या आप्नोति प्रज्ञयैव धियं
समारुह्य प्रज्ञयैव धियो विज्ञातव्यं कामानाप्नोति ॥ ६॥
प्रज्ञासे वाक् इन्द्रियपर आरूढ़ होकर मनुष्य वाणीके द्वारा नामों को ग्रहण करता है । प्रज्ञा से घाणेन्द्रिय पर आरूढ़़ होकर उसके द्वारा समस्त गंधों को ग्रहण करता है । प्रज्ञासे नेत्रपर आरूढ़ होकर नेत्रसे सब रूपों को ग्रहण करता है। प्रज्ञा से श्रवण इन्द्रियपर आरूढ़ होकर उसके द्वारा सब प्रकारके शब्दको ग्रहण करता है। प्रज्ञा से जिह्वापर आरूढ़ होकर जिह्वा से सम्पूर्ण अन्नरसों को ग्रहण करता है। प्रज्ञा से हाथ पर आरूढ़़ होकर हाथ से समस्त कर्मों को ग्रहण करता है । प्रज्ञा से शरीरपर आरूढ़़ होकर शरीरसे भोग और पीड़ा जनित सुख-दुःखको ग्रहण करता है । प्रज्ञा से उपस्थपर आरूढ़ होकर उपस्थ से आनन्द, रति और प्रजोत्पत्तिको ग्रहण करता है। प्रज्ञा से पैरों पर आरूढ़ होकर पैरों से सम्पूर्ण गमन क्रियाओंको ग्रहण करता है । तथा प्रज्ञा से ही बुद्धिपर आरूढ़ होकर उसके द्वारा अनुभव करनेयोग्य वस्तु एवं कामनाओंको ग्रहण करता है ॥ ६ ॥
न हि प्रज्ञापेता वाङ्नाम किंचन प्रज्ञपयेदन्यत्र मे
मनोऽभूदित्याह नाहमेतन्नाम प्राज्ञासिषमिति न हि
प्रज्ञापेतः प्राणो गन्धं कंचन प्रज्ञपयेदन्यत्र मे
मनोऽभूदित्याह नाहमेतं गन्धं प्राज्ञासिषमिति नहि
प्रज्ञापेतं चक्षू रूपं किंचन प्रज्ञपयेदन्यत्र मे
मनोऽभूदित्याह नाहमेतद्रूपं प्राज्ञासिषमिति नहि
प्रज्ञापेतं श्रोत्रं शब्दं कंचन प्रज्ञपयेदन्यत्र मे
मनोऽभूदित्याह नाहमेतं शब्दं प्राज्ञासिषमिति नहि
प्रज्ञापेता जिह्वान्नरसं कंचन प्रज्ञपयेदन्यत्र मे
मनोऽभूदित्याह नाहमेतमन्नरसं प्राज्ञासिषमिति नहि
प्रज्ञापेतौ हतौ कर्म किंचन प्रज्ञपेतामन्यत्र मे
मनोऽभूदित्याह नाहमेतत्कर्म प्राज्ञासिषमिति नहि
प्रज्ञापेतं शरीरं सुखदुःखं किंचन प्रज्ञपयेदन्यत्र
मे मनोऽभूदित्याह नाहमेतत्सुखदुःखं प्राज्ञासिषमिति
नहि प्रज्ञापेत उपस्थ आनन्दं रतिं प्रजातिं कंचन
प्रज्ञपयेदन्यत्र मे मनोऽभूदित्याह नाहमेतमानन्दं रतिं
प्रजातिं प्राज्ञासिषमिति नहि प्रज्ञापेतौ पादावित्यां
कांचन प्रज्ञपयेतामन्यत्र मे मनोऽभूदित्याह
नाहमेतामित्यां
प्राज्ञसिषमिति नहि प्रज्ञापेता धीः काचन सिद्ध्येन्न
प्रज्ञातव्यं प्रज्ञायेत् ॥ ७॥
प्रज्ञा से रहित होनेपर वाक् इन्द्रिय किसी भी नामका बोध नहीं करा सकती; क्योंकि उस अवस्थामें मनुष्य यों कहता है कि मेरा मन अन्यत्र चला गया था । मैं इस नामको नहीं समझ सका । प्रज्ञा से पृथक् होनेपर प्राण-इन्द्रिय किसी भी गन्धका बोध नहीं कर सकती । उस दशामें मनुष्य यों कहता है कि मेरा मन अन्यत्र चला गया था, इसलिये मैं इस गन्धको नहीं जान सका । प्रज्ञा से पृथक् होकर नेत्र किसी भी रूपका ज्ञान नहीं करा सकता । उस दशामें मनुष्य यों कहता है कि मेरा मन अन्यत्र चला गया था, इसलिये मैं इस रूपको नहीं पहचान सका । प्रज्ञा से पृथक् रहकर कान किसी भी शब्दका ज्ञान नहीं करा सकता । उस दशामें मनुष्य यह कहता है कि मेरा मन अन्यत्र चला गया था, इसलिये मैं इस शब्दको नहीं समझ सका । प्रज्ञा से पृथक् रहकर जिह्वा किसी भी अन्न रसका अनुभव नहीं करा सकती । उस दशामें मनुष्य यह कहता है कि मेरा मन अन्यत्र चला गया था, इसलिये मैं इस अन्न-रसको अनुभव न कर सका प्रज्ञासे पृथक् होकर हाथ किसी भी कर्मका ज्ञान नहीं करा सकते । उस दशामें मनुष्य यह कहता है कि मेरा मन अन्यत्र चला गया था, इसलिये मैं इस कर्मको नहीं जान सका । प्रज्ञासे पृथक होकर शरीर किसी सुख दुःखका ज्ञान नहीं करा सकता । उस दशामें मनुष्य कहता है कि मेरा मन अन्यत्र चला गया था, इसलिये मैं इन सुख दुःखको नहीं जान सका । प्रज्ञा से पृथक हो उपस्थ किसी भी आनन्द, रति और प्रजोत्पत्तिका ज्ञान नहीं करा सकता, उस दशा में मनुष्य कहता है कि मेरा मन अन्यत्र गया था, इसलिये मैं इस आनन्द, रति और प्रजोत्पत्तिका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सका । प्रज्ञासे पृथक रहकर दोनों पैर किसी भी गमन-क्रियाका बोध नहीं करा सकते; उस दशा मनुष्य यह कहता है कि मैरा मन अन्यत्र चला गया था, इसलिये मैं इस गमन क्रियाका अनुभव नहीं कर सका । कोई भी बुद्धिवृत्ति प्रज्ञासे पृथक होनेपर नहीं सिद्ध हो सकती, उसके द्वारा ज्ञातव्य वस्तुको बोध नहीं हो सकता ॥ ७ ॥
न वाचं विजिज्ञासीत वक्तारं विद्यान्न गन्धं
विजिज्ञासीत
घ्रातारं विद्यान्न रूपं विजिज्ञासीत रूपविदं विद्यान्न
शब्दं विजिज्ञासीत श्रोतारं विद्यान्नान्नरसं
विजिज्ञासीतान्नरसविज्ञातारं विद्यान्न कर्म विजिज्ञासीत
कर्तारं विद्यान्न सुखदुःखे विजिज्ञासीत
सुखदुःखयोर्विज्ञातारं
विद्यान्नानन्दं रतिं प्रजातिं विजिज्ञासीतानन्दस्य रतेः
प्रजातेर्विज्ञातारं विद्यान्नेत्यां विजिज्ञासीतैतारं
विद्यान्न
मनो विजिज्ञासीत मन्तारं विद्यात्ता वा एता दशैव
भूतमात्रा
अधिप्रज्ञं दश प्रज्ञामात्रा अधिभूतं यद्धि
भूतमात्रा न
स्युर्न प्रज्ञामात्राः स्युर्यद्वा प्रज्ञामात्रा न स्युर्न
भूतमात्राः
स्युः ॥ ८॥
वाणीको जाननेकी इच्छा न करे; वक्ताको-वाणी प्रेरक आत्माको जाने । गन्धको जाननेकी इच्छा न करे। जो गन्धको ग्रहण करनेवाला आत्मा है, उसको जाने । रूपको जाननेकी इच्छा न करे; रूपके ज्ञाता साक्षी आत्माको जाने । शब्द को जाननेकी इच्छा न करे, उसे सुननेवाले आत्माको जाने । अन्नके रसको जाननेकी इच्छा न करे; उस अन्नरसके ज्ञाता आत्माको जाने । कर्मको जाननेकी इच्छा न करे; कर्ता ( आत्मा ) को जाने । सुख-दुःख जाननेकी इच्छा न करे, सुख-दुःखके विज्ञाता (साक्षी आत्मा) को जाने । आनन्द, रति और प्रजोत्पत्तिको जानने की इच्छा न करे; आनन्द, रति और प्रजोत्पत्तिके ज्ञाता (आत्मा ) को जाने । गमन-क्रियाको जाननेकी इच्छा न करे; गमन करनेवाले ( साक्षी आत्मा) को जाने । मनको जाननेकी इच्छा न करे; मनन करनेवाले ( आत्मा ) को जाने । वे ये दस ही भूतमात्राएँ ( नाम आदि विषय ) हैं, जो प्रज्ञामें स्थित हैं तथा प्रज्ञाकी भी दस ही मात्राएँ ( वाक् आदि इन्द्रियरूप ) हैं, जो भूतोंमें स्थित हैं । यदि वे प्रसिद्ध भूतमात्राएँ न हों तो प्रज्ञाकी मात्राएँ भी नहीं रह सकती और प्रज्ञा की मात्राएँ न हों तो भूतमात्राएँ भी नहीं रह सकतीं । इन दोनों में से किसी भी एकके द्वारा किसी भी रूप (विषय अथवा इन्द्रिय) की सिद्धि नहीं हो सकती है। इनमें नानात्व नहीं है। अर्थात् प्रज्ञामात्रा और भूतमात्राका जो स्वरूप है, उसमें भेद नहीं है। वह इस प्रकार समझना चाहिये । जैसे रथकी नेमि अरों में और अरे रथकी नाभिकेआश्रित हैं, इसी प्रकार ये भूतमात्राएँ प्रज्ञामात्रामें स्थित हैं और प्रज्ञामात्राएँ प्राणमें प्रतिष्ठित हैं। वह यह प्राण ही प्रज्ञात्मा, आनन्दमय, अजर और अमृतरूप है । वह न तो अच्छे कर्मसे बढ़ता है और न छोटे कर्मसे छोटा ही होता है । यह प्राण एवं प्रज्ञारूप चेतन परमात्मा ही इस देहाभिमानी पुरुषसे साधु कर्म करवाता है। वह भी उसीसे करवाता है, जिसे इन प्रत्यक्ष लोकसे ऊपर ले जाना चाहता है; तथा जिसे वह इन लोकी अपेक्षा नीचे ले जाना चाहता है, उससे असाधु कर्म करवाता है। यह लोकपाल है, यह लोकको अधिपति है और यह सर्वेश्वर है । इन सब गुणसे युक्त वह प्राण ही मेरा आत्मा है- इस प्रकार जाने । वह मेरा आत्मा है, इस प्रकार जाने ॥ ८ ॥
न ह्यन्यतरतो रूपं किंचन सिद्ध्येन्नो एतन्नाना तद्यथा
रथस्यारेषु नेमिरर्पिता नाभावरा अर्पिता एवमेवैता
भूतमात्राः
प्रज्ञामात्रा स्वर्पिताः प्रज्ञामात्राः प्राणे अर्पिता एष
प्राण एव
प्रज्ञात्मानन्दोऽजरोऽमृतो न साधुना कर्मणा भूयान्नो
एवासाधुना
कर्मणा कनीयानेष ह्येवैनं साधुकर्म कारयति तं
यमन्वानुनेषत्येष एवैनमसाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो
लोकेभ्यो
नुनुत्सत एष लोकपाल एष लोकाधिपतिरेष सर्वेश्वरः स
म आत्मेति
विद्यात्स म आत्मेति विद्यात् ॥ ९॥
चतुर्थ अध्याय
इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
गार्ग्यो ह वै बालाकिरनूचानः संस्पष्ट आस
सोऽयमुशिनरेषु
संवसन्मत्स्येषु कुरुपञ्चालेषु काशीविदेहेष्विति
सहाजातशत्रुं काश्यमेत्योवाच ब्रह्म ते ब्रवाणीति तं
होवाच
अजातशत्रुः सहस्रं दद्मस्त एतस्यां वाचि जनको जनक इति
वा उ
जना धावन्तीति ॥ १॥
गर्गगोत्र में उत्पन्न एवं गार्ग्य नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे, जो बलाका के पुत्र थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदका अध्ययन तो किया ही था, वे वेद के अच्छे वक्ता भी थे। उन दिनों संसार में सब ओर उनकी बड़ी ख्याति थी। वे उशीनर देशके निवासी थे, परन्तु सदा विचरण करते रहनेके कारण कभी मत्स्यदेशमें, कभी कुरु पाञ्चालमें और कभी काशी तथा मिथिला प्रान्त में रहते थे। इस प्रकार वे सुप्रसिद्ध गार्ग्य एक दिन काशीके विद्वान् राजा अजातशत्रुके पास गये और अभिमानपूर्वक बोले-‘राजन् ! मैं तुम्हारे लिये ब्रह्मतत्त्वका उपदेश करूँगा ।’ गार्ग्य के यों कहनेपर उन प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा-‘ब्रह्मन् ! आपकी इस बातपर हम आपको एक हजार गौएँ देते हैं । निश्चय ही आजकल लोग जनक-जनक कहते हुए ही उनके समीप दौड़े जाते हैं ॥ १ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष आदित्ये पुरुषस्तमेवाहमुपास इति
तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा
बृहत्पाण्डरवासा अतिष्ठाः सर्वेषां भूतानां मूर्धेति
वा
अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्तेऽतिष्ठाः सर्वेषां
भूतानां मूर्धा भवति ॥ २॥
तब वे प्रसिद्ध बलाका-पुत्र गार्ग्य बोले-‘राजन् ! यह जो सूर्यमण्डल में अन्तर्यामी पुरुष है, इसीकी में ब्रह्मबुद्धिसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा-‘नहीं नहीं, इसके विषय में आप संवाद न करें । निश्चय ही यह सबसे महान् और शुक्ल वस्त्र धारण करनेवाला है | यह सबका अतिक्रमण करके-सबसे ऊँची स्थितिमें स्थित है तथा यह सबका मस्तक है। इस प्रकार मैं इसकी उपासना करता हूँ इसी प्रकार वह मनुष्य भी, जो इस प्रसिद्ध सूर्यमण्डलान्तर्गत पुरुषकी इस रूप में उपासना करता है, सबका अतिक्रमण करके-सबसे ऊँची स्थितिमें स्थित होता है तथा समस्त भूतों का मस्तक माना जाता है? ॥ २॥
स एतं देवयानं पन्थानमासाद्याग्निलोकमागच्छति स वायुलोकं स वरुणलोकं स आदित्यलोकं स इन्द्रलोकं स प्रजापतिलोकं स ब्रह्मलोकं तस्य ह वा एतस्य ब्रह्मलोकस्य आरो ह्नदो मुहूर्तोऽन्येष्टिहा विरजा नदील्यो वृक्षः सालज्यं संस्थानमपराजितमायतनमिन्द्रप्रजापती द्वारगोपौ । विभुप्रमितं विचक्षणाऽऽसन्द्यमितौजा: पर्यङ्कः प्रिया च मानसी प्रतिरूपा च चाक्षुषी पुष्पाण्यावयतौ वै च जगान्यम्बाश्चाम्बावयवीश्चाप्सरसः।
अम्बया नद्यस्तमित्थंविदा गच्छति तं ब्रह्मा हाभिधावत मम यशसा विरजां वा अयं नदीं प्रापन्न वा अयं जरयिष्यतीति ॥ ||३||
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- यह जो चन्द्रमण्डलमें अन्तर्यामी पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ।’ यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- नहीं नहीं, इसके विषय में आप संवाद न करें। यह सोम राजा है और अन्न का आत्मा है । निश्चय ही इस प्रकार मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह भी, जो इस प्रसिद्ध चन्द्रमण्डलान्तर्गत पुरुष की इस रूपमें उपासना करता है, अन्नका आत्मा होता है’ ॥३ ॥
सहोवाच बालाकिर्य एवैष विद्युति पुरुष एतमेवाहं
ब्रह्मोपास
इति तं होवाचाजातशत्रुर्मा
मैतस्मिन्समवादयिष्ठास्तेजस्यात्मेति
वा अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते तेजस्यात्मा भवति
॥ ४॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- ‘यह जो विद्युन्मण्डल में अन्तर्यामी पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रु ने कहा- नहीं-नहीं, इसके विषय में आप संवाद न करें। यह तेजका आत्मा है- निश्चय ही इस भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह भी, जो इस प्रसिद्ध विद्युन्मण्डलान्तर्गत पुरुष की इस रूप में उपासना करता है, तेजका आत्मा होता है ॥ ४ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष स्तनयित्नौ पुरुष एतमेवाहं
ब्रह्मोपास
इति तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठाः
शब्दस्यात्मेति
वा अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते शब्दस्यात्मा
भवति ॥ ५॥
सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- ‘यह जो मेघमण्डलमें अन्तयामी पुरुष है, इसीकी में ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ।’ यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा-‘नही नहीं, इसके विषय में आप संवाद न करें। यह शब्द का आत्मा है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह भी, जो इसे प्रसिद्ध मेघ मण्डलान्तर्गत पुरुषकी इस रूपमें उपासना करता है, शब्द का आत्मा हो जाता है ॥५॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष आकाशे पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति तं
होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठाः
पूर्णमप्रवर्ति ब्रह्मेति
वा अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते पूर्यते प्रजया
पशुभिर्नो
एव स्वयं नास्य प्रजा पुरा कालात्प्रवर्तते ॥ ६॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- ‘यह जो आकाशमण्डल में अन्तर्यामी पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- नहीं-नहीं, इसके विषय में आप संवाद न करें। यह पूर्ण, प्रवृत्तिशून्य (निष्क्रिय) और ब्रह्म है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ, इसी प्रकार वह भी, जो इस प्रसिद्ध आकाशमण्डलान्तर्गत पुरुष की इस रूप में उपासना करता है, प्रजा और पशुसे पूर्ण होता है। इसके सिवा, न तो स्वयं वह उपासक और न उसकी संतान ही समयसे पहले मृत्युको प्राप्त होती है? ॥ ६ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष वायौ पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा इन्द्रो
वैकुण्ठोऽपराजिता सेनेति वा अहमेतमुपास इति स यो
हैतमेवमुपास्ते जिष्णुर्ह वा पराजिष्णुरन्यतरस्य
ज्ज्यायन्भवति ॥ ७॥
सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले-‘यह जो वायुमण्डलमें अन्तर्यामी पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ ।’ यह सुनकर उनसे प्रसिद्धराजा अजातशत्रुने कहा- नहीं-नहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें। यह इन्द्र (परम ऐश्वर्यंसे सम्पन्न ), वैकुण्ठ (कहीं भी कुण्ठित न होनेवाला ) और कभी परास्त न होनेवाली सेना है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह भी, जो इस प्रसिद्ध वायुमण्डलान्तर्गत पुरुषकी इस रूपमें उपासना करता है, अवश्य ही विजयशील, दूसरोंसे पराजित न होनेवाला और शत्रुओंपर विजय पानेवाला होता है? ॥ ७ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैषोऽग्नौ पुरुषस्तमेवाहमुपास इति
तं
होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा विषासहिरिति
वा
अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते विषासहिर्वा एष
भवति ॥ ८॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले-‘यह जो अग्निमण्डल में अन्तर्यामी पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- ‘नहीं-नहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें। यह विषासहि (दूसरोंके वेग को सह सकनेवाला) है निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह उपासक भी, जो इस प्रसिद्ध अग्निमण्डलान्तर्गत पुरुषकी इस रूपमें उपासना करता है, यह उपासनाके पश्चात् विषासहि होता है। ॥ ८ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैषोऽप्सु पुरुषस्तमेवाहमुपास इति
तं
होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा नाम्न्यस्यात्मेति
वा
अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते नाम्न्यस्यात्मा
भवतीतिअधिदैवतमथाध्यात्मम् ॥ ९॥
सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- यह जो जलमण्डल में अन्तर्यामी पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- नहीं नहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें। यह नामका आत्मा है ( अर्थात् जितने भी नामधारी जीव हैं, उन सबका आत्मा-जीवनरूप है)–निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह भी, जो इस प्रसिद्ध जलमण्डलान्तर्गत पुरुषकी इस रूपमें उपासना करता है, नामधारी जीवमात्रका आत्मा होता है । यह अधिदैवत उपासना बतायी गयी । अब अध्यात्म-उपासना बतायी जाती है ॥ ९ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष आदर्शे पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति तं
होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठाः प्रतिरूप इति
वा
अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते प्रतिरूपो हैवास्य
प्रजायामाजायते नाप्रतिरूपः ॥ १०॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- यह जो दर्पणमें | पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ । यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा-नहीं-नहीं, इसके विषयमे आप संवाद न करें । यह प्रतिरूप है—निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह भी, जो इस दर्पणान्तर्गत पुरुषकी इस रूप में उपासना करता है, उस प्रतिरूपगुणसे विभूषित होता है। उसकी संततिमें सब उसके अनुरूप ही जन्म लेते हैं, प्रतिकूल रूप और स्वभाववाले नहीं ॥ १० ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष प्रतिश्रुत्काया
पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा
द्वितीयोऽनपग
इति वा अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते विन्दते
द्वितीयाद्द्वितीयवान्भवति ॥ ११॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- ‘यह जो प्रतिध्वनिमें पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- नहींनहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें। यह द्वितीय और अनपग है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ । इसी प्रकार- वह भी, जो इस प्रतिध्वनिगत पुरुषकी इस रूप में उपासना करता है, अपने सिवा द्वितीय (स्त्री-पुत्रादि) को प्राप्त करता है तथा सदा द्वितीयवान् बना रहता है ( अर्थात् उन स्त्री-पुत्र आदिसे उसका वियोग नहीं होता ) ॥ ११ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष शब्दः पुरुषमन्वेति
तमेवाहमुपास
इति तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा असुरिति
वा
अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते नो एव स्वयं नास्य
प्रजा
पुराकालात्सम्मोहमेति ॥ १२॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- ‘यह जो जाते हुए पुरुषके पीछे ध्वन्यात्मक शब्द उसका अनुसरण करता है, उसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा-नहीं-नहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें। यह प्रारूप है—निश्चय ही इसी भावसे में इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार वह भी, जो इसकी इस रूप में उपासना करता है, न तो स्वयं पूरी आयुके पहले मृत्युको प्राप्त होता है और न उसकी संतान ही पूर्ण आयुके पहले निधनको प्राप्त होती है। ॥ १२ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष च्छायायां
पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति तं
होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठामृत्युरिति
वा अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते नो एव स्वयं नास्य
प्रजा
पुरा कालात्प्रमीयते ॥ १३॥
सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले-‘यह जो छायामय पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ । यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रु ने कहा-नहीं-नहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें । यह मृत्युरूप है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ । इसी प्रकार वह भी, जो इसकी इस रूपमें उपासना करता है, न तो स्वयं ही समयसे पहले मृत्युको प्राप्त होता है और न उसकी सन्तान ही समयसे पहले जीवनसे हाथ धोती है ॥ १३ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष शारीरः पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठाः
प्रजापतिरिति
वा अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते प्रजायते प्रजया
पशुभिः ॥ १४॥
उन सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य ने कहा-‘यह जो शरीरान्तार्वर्ती पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा नहीं-नहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें । यह प्रजापतिरूप है- निश्चय ही इस भावसे ही मैं इसकी उपासना करता हूँ, इसी प्रकार वह भी, जो इसकी इस रूपमें उपासना करता है, प्रजा और पशुओंसे सम्पन्न होता है? ॥ १४ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष प्राज्ञ आत्मा येनैतत्सुप्तः
स्वप्नमाचरति तमेवाहमुपास इति तं
होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा यमो राजेति
वा अहमेतमुपास इति स यो हैतमेवमुपास्ते सर्वं हास्मा इदं
श्रैष्ठ्याय गम्यते ॥ १५॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- ‘यह जो प्रज्ञासे नित्य संयुक्त प्राणरूप आत्मा है, जिससे एकताको प्राप्त होकर यह सोया हुआ पुरुष स्वप्न मार्ग से विचरता है (नाना प्रकारके स्वप्न को अनुभव करता है); उसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ। यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- नहीं-नहीं, इसके विषय में आप संवाद न करें। यह यम राजा है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ। इसी प्रकार जो इसकी इस रूप में उपासना करता है, उस उपासककी श्रेष्ठताके लिये यह सारा जगत् नियमपूर्वक चेष्टा करता है ॥ १५ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष
दक्षिणेक्षन्पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठा नान्न
आत्माग्निरात्मा ज्योतिष्ट आत्मेति वा अहमेतमुपास इति स यो
हैतमेवमुपास्त एतेषां सर्वेषामात्मा भवति ॥ १६॥
उन सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य ने कहा- ‘यह जो दाहिने नेत्रमें पुरुष है, उसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ । यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- नहीं-नहीं, इसके विषयमें आप संवाद न करें। यह नामका आत्मा, अग्नि का आत्मा तथा ज्योति का आत्मा है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ, इसी प्रकार वह भी, जो इसकी इस रूपमें उपासना करता है, इन सबका आत्मा होता है। ॥ १६ ॥
स होवाच बालाकिर्य एवैष सव्येक्षन्पुरुषस्तमेवाहमुपास
इति
तं होवाचाजातशत्रुर्मामैतस्मिन्समवादयिष्ठाः
सत्यस्यात्मा
विद्युत आत्मा तेजस आत्मेति वा अहमेतमुपास इति स यो
हैतमेवमुपास्त एतेषां सर्वेषामात्मा भवतीति ॥ १७॥
वे सुप्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य बोले – ‘यह जो बायें नेत्र में पुरुष है, इसीकी मैं ब्रह्मरूपसे उपासना करता हूँ । यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- नहीं-नहीं, इसके विषय आप संवाद न करें। यह सत्यका आत्मा, विद्युत् का आत्मा और तेज का आत्मा है- निश्चय ही इसी भावसे मैं इसकी उपासना करता हूँ । इसी प्रकार वह भी, जो इसकी इस रूप में उपासना करता है, इन सबका आत्मा होता है? ॥ १७ ॥
तत उ ह बालाकिस्तूष्णीमास तं होवाचाजातशत्रुरेतावन्नु
बालाकीति एतावद्धीति होवाच बालाकिस्तं
होवाचाजातशत्रुर्मृषा वै किल मा संवदिष्ठा ब्रह्म
ते ब्रवाणीति होवाच यो वै बालाक एतेषां पुरुषाणां
कर्ता यस्य वैतत्कर्म स वेदितव्य इति तत उ ह बालाकिः
समित्पाणिः प्रतिचक्रामोपायानीति तं होवाचजातशत्रुः
प्रतिलोमरूपमेव स्याद्यत्क्षत्रियो ब्राह्मणमुपनयीतैहि व्येव
त्वा ज्ञपयिष्यामीति तं ह पाणावभिपद्य प्रवव्राज तौ
ह सुप्तं पुरुषमीयतुस्तं हाजातशत्रुरामन्त्रयांचक्रे
बृहत्पाण्डरवासः सोमराजन्निति स उ ह तूष्णीमेव शिश्ये
तत उ हैनं यष्ट्या विचिक्षेप स तत एव समुत्तस्थौ तं
होवाचाजातशत्रुः क्वैष एतद्वा लोके पुरुषोऽशयिष्ट
क्वैतदभूत्कुत एतदागादिति तदु ह बालाकिर्न विजज्ञौ ॥ १८॥
उसके बाद बलाकानन्दन गार्ग्य चुप हो गये । तब उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- बालाके ! बस, क्या इतना ही आपका ब्रह्मज्ञान है ? इस प्रश्नपर बलाकानन्दन गार्ग्य बोले- ‘हाँ, इतना ही है । तब उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- ‘तव तो व्यर्थ ही आपने मेरे साथ यह संवाद किया था कि मैं तुम्हें ब्रह्मका उपदेश करूँगा । बलाकानन्दन ! अवश्य ही जो आपके बताये हुए इन सभी सोपाधिक पुरुषका कर्ता है। अथवा ये सभी जिसके कर्म हैं, वही जाननेयोग्य है।’ राजाके यह कहने पर वे प्रसिद्ध बलाकानन्दन गार्ग्य हाथमें समिधा लेकर उनके पास गये और बोले-‘मैं आपको गुरु बनानेके लिये समीप आता हूँ ।’ यह सुनकर उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने कहा- ‘यह विपरीत बात हो जायगी, यदि क्षत्रिय ब्राह्मण को शिष्य बनानेके लिये अपने समीप बुलाये । इसलिये आइये ( एकान्त में चलें ) वहाँ आपको मैं अवश्य ब्रह्मका ज्ञान कराऊँगा ।’ यों कहकर राजाने बालाकि गार्ग्य का हाथ पकड़ लिया और वहाँ से चल दिये । वे दोनों एक सोये हुए पुरुषके पास चले आये । वहाँ प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने उस सोये हुए पुरुषको पुकारा- ओ बृहन् ! हे पाण्डरवासा ! हे सोम राजन् । इस प्रकार सम्बोधन करनेपर भी वह पुरुष चुपचाप सोया ही रहा । तब राजाने उस पुरुषके शरीरपर छड़ीसे आघात किया । वह सोया हुआ पुरुष छड़ीकी चोट लगते ही उठकर खड़ा हो गया । तब बालाकि गार्ग्य से राजा अजातशत्रुने कहा-‘बालाके ! यह पुरुष इस प्रकार अचेत-सा होकर कहाँ सोता था ? किस प्रदेशमें इसको शयन हुआ था ? और इस जाग्रत्-अवस्थाके प्रति यह कहाँसे चला आया है?’ ॥ १८ ॥
तं होवाचाजातशत्रुर्यत्रैष एतद्बालाके पुरुषोऽशयिष्ट
यत्रैतदभूद्यत एतदागाद्धिता नाम हृदयस्य नाड्यो
हृदयात्पुरीततमभिप्रतन्वन्ति यथा सहस्रधा केशो
विपाटितस्तावदण्व्यः पिङ्गलस्याणिम्ना तिष्ठन्ते शुक्लस्य
कृष्णस्य पीतस्य लोहितस्येति तासु तदा भवति यदा सुप्तः
स्वप्नं न कंचन पश्यत्यथास्मिन्प्राण एवैकधा भवति
तथैनं वाक्सर्वैर्नामभिः सहाप्येति मनः सर्वैर्ध्यातैः
सहाप्येति चक्षुः सर्वै रूपैः सहाप्येति श्रोत्रं सर्वैः
शब्दैः सहाप्येति मनः सर्वैर्ध्यातैः सहाप्येति स यदा
प्रतिबुध्यते यथाग्नेर्ज्वलतो विस्फुलिङ्गा
विप्रतिष्ठेरन्नेवमेवैतस्मादात्मनः प्राणा यथायतनं
विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवेभ्यो लोकास्तद्यथा क्षुरः
क्षुरध्याने हितः स्याद्विश्वम्भरो वा विश्वम्भरकुलाय
एवमेवैष प्राज्ञ आत्मेदं शरीरमनुप्रविष्ट आ लोमभ्य
आ नखेभ्यः ॥ १९॥
राजाके इस प्रकार पूछने पर भी बालाकि गार्ग्य इस रहस्य को समझ न सके । तब उनसे प्रसिद्ध राजा अजातशत्रुने फिर कहा- ‘बालाके ! यह पुरुष इस प्रकार अचेत सा होकर जहाँ सोता था, जहाँ इसका शयन हुआ था और इस जाग्रत् अवस्था के प्रति यह जहाँसे आया है, वह स्थान यह है- ‘हिता’ नामसे प्रसिद्ध बहुत सी नाड़ियाँ हैं, जो हृदय कमलसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं। वे हृदय-कमल से निकलकर सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त होकर फैली हुई हैं। इनका परिमाण इस प्रकार है- एक केश को एक हजार बार चीरने पर जो एक खण्ड हो सकता है, उतनी ही सूक्ष्म वे सब-की-सब नाडियाँ हैं। पिङ्गल अर्थात् नाना प्रकार के रंग का जो अति सूक्ष्मतम रस है, उससे वे पूर्ण हैं । शुक्ल, कृष्ण, पीत और रक्त-इन सभी रंग के सूक्ष्मतम अंश से वे युक्त हैं। उन्हीं नाड़ियोंमें वह पुरुष सोते समय स्थित रहता है | जिस समय सोया हुआ पुरुष कोई स्वप्न नहीं देखता, उस समय वह इस प्राणमें ही एकीभावको प्राप्त हो जाता है । उस समय वाक् सम्पूर्ण नाम के साथ इस प्राणमें ही लीन हो जाती है। नेत्र समस्त रूपके साथ इसमें ही लीन हो जाता है। कान समग्र शब्दके साथ इसमें ही लीन हो जाता है तथा मन भी सम्पूर्ण चिन्तनीय विषयोंके साथ इसमें ही लयको प्राप्त हो जाता है । वह पुरुष जब जाग उठता है, उस समय जैसे जलती हुई आगसे सब दिशाओंकी ओर चिनगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार इस प्राणस्वरूप आत्मासे समस्त वाक् आदि प्राण निकलकर अपने-अपने भोग्य-स्थानकी ओर जाते हैं। फिर प्राणों से उनके अधिष्ठाता अग्नि आदि देवता प्रकट होते हैं और देवताओंसे लोक-नाम आदि विषय प्रकट होते हैं ॥१९॥
तमेतमात्मानमेतमात्मनोऽन्ववस्यति यथा श्रेष्ठिनं
स्वास्तद्यथा श्रेष्ठैः स्वैर्भुङ्क्ते यथा वा श्रेष्ठिनं
स्वा भुञ्जन्त एवमेवैष प्राज्ञ आत्मैतैरात्मभिर्भुङ्क्ते ।
यथा श्रेष्ठी स्वैरेवं वैतमात्मानमेत आत्मनोऽन्ववस्यन्ति
यथा श्रेष्ठिनं स्वाः स यावद्ध वा इन्द्र एतमात्मानं न
विजज्ञौ तावदेनमसुरा अभिबभूवुः स यदा विजज्ञावथ
हत्वासुरान्विजित्य सर्वेषां भूतानां श्रैष्ठ्यं
स्वाराज्यमाधिपत्यं पर्येति तथो एवैवं विद्वान्सर्वेषां
भूतानां श्रैष्ठ्यं स्वाराज्यमाधिपत्यं पर्येति य एवं
वेद य एवं वेद ॥ २०॥
उस आत्माकी उपलब्धि का दृष्टान्त इस प्रकार है। जैसे क्षुरधान (छूरा रखनेके लिये बनी हुई चर्ममयी पेटी) में छूरी रक्खा रहता है, उसी प्रकार शरीरान्तर्वती हृदय-कमलमें अङ्गुष्ठमात्र पुरुषके रूप में परमात्माकी उपलब्धि होती है। तथा जिस प्रकार अग्नि अपने नीड़भूत अरणी आदि काष्ठमें सर्वत्र व्याप्त रहती है, उसी प्रकार यह प्रज्ञानवान् आत्मा इस आत्मा नामसे कहे जानेवाले शरीरमें नख से शिखा तक व्याप्त है। उस इस साक्षी आत्माका ये वाक् आदि आत्मा अनुगत सेवककी भाँति अनुसरण करते हैं- ठीक उसी तरह, जैसे श्रेष्ठ गुणसे युक्त धनी का, उसके आश्रित रहनेवाले स्वजन अनुवर्तन करते हैं तथा जिस प्रकार धनी अपने स्वजन के साथ भोजन करता है और स्वजन जैसे उस धनीको ही भोगते हैं, उसी प्रकार यह प्रज्ञावान् आत्मा इन वाक् आदि आत्माके साथ भोगता है तथा निश्चय ही इस आत्माको ये वाक् आदि आत्मा भोगते हैं। वे प्रसिद्ध देवता इन्द्र जबतक इस आत्माको नहीं जानते थे, तबतक असुरगण इनका पराभव करते रहते थे; किंतु जब वे इस आत्माको जान गये, तब असुरों को मारकर, उन्हें पराजित करके सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठताका पद, स्वर्ग का राज्य और त्रिभुवनको आधिपत्य पा गये । उसी प्रकार यह जाननेवाला विद्वान् सम्पूर्ण पापोंका नाश करके समस्त प्राणियों में श्रेष्ठताका पद, स्वराज्य और प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है । जो यह जानता है, जो यह जानता है, उसे पूर्वोक्त फल मिलता है’ ॥ २० ॥
ॐ वाङ्मे मनसीति शान्तिः ॥
इति कौषीतकिब्राह्मणोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ क्षुरिकोपनिषत् ॥
कैवल्यनाडीकान्तस्थपराभूमिनिवासिनम् ।
क्षुरिकोपनिषद्योगभासुरं राममाश्रये ॥
ॐ सहनाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ क्षुरिकां सम्प्रवक्ष्यामि धारणां योगसिद्धये ।
यं प्राप्य न पुनर्जन्म योगयुक्तस्य जायते ॥ १॥
योग की सिद्धि हेतु मैं धारणा रूपी छुरिका के सम्बन्ध में यहाँ वर्णन करता हूँ, जिसे प्राप्त करके योग युक्त हो जाने वाले मनुष्य को पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात् वह आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है ॥१॥
वेदतत्त्वार्थविहितं यथोक्तं हि स्वयंभुवा ।
निःशब्दं देशमास्थाय तत्रासनमवस्थितः ॥ २॥
कूर्मोऽङ्गानीव संहृत्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मात्राद्वादशयोगेन प्रणवेन शनैः शनैः ॥ ३॥
पूरयेत्सर्वमात्मानं सर्वद्वारं निरुध्य च ।
उरोमुखकटिग्रीवं किञ्चिद्भूदयमुन्नतम् ॥ ४॥
प्राणान्सन्धारयेत्तस्मिनासाभ्यन्तरचारिणः ।
भूत्वा तत्र गतः प्राणः शनैरथ समुत्सृजेत् ॥ ५॥
जैसा कि उस स्वयंभू का कथन है और जो भाव वेद के तत्त्वार्थ में सन्निहित है, तदनुसार शब्दरहित स्थान में इसके लिए उचित आसन में स्थित होकर, जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने संकल्प के द्वारा समेट लेता है, वैसे ही मन और हृदय (के भावों) को निरुद्ध करे तथा प्रणव की बारह मात्राओं के माध्यम से धीरे-धीरे प्राण रूप सर्वात्मा को अपने अन्दर पूरित करे । इस समय ( प्राण के) सभी द्वारों को रोक कर छाती, मुख, कमर, गर्दन तथा हृदय को कुछ उन्नत रखे । इस स्थिति में नासिका द्वारा संचरित प्राण को सभी स्थानों में धारण करे । जहाँ-तहाँ प्राणों का संचरण हो जाने पर फिर धीरे-धीरे वायु को बाहर छोड़ दे ॥२-५॥
स्थिरमात्रादृढं कृत्वा अङ्गुष्ठेन समाहितः ।
द्वे गुल्फे तु प्रकुर्वीत जङ्घे चैव त्रयस्त्रयः ॥ ६॥
द्वे जानुनी तथोरुभ्यां गुदे शिश्ने त्रयस्त्रयः ।
वायोरायतनं चात्र नाभिदेशे समाश्रयेत् ॥ ७॥
धारणा युक्त उक्त प्राणायाम का अभ्यास दृढ़ हो जाने पर, पूरी सावधानी के साथ पैर के अंगूठे सहित टखनों में दो-दो बार, जंघाओं या पिंडलियों में तीन-तीन बार, घुटनों और ऊरु (जाँघों) में दो-दो बार तथा गुदा एवं जननेन्द्रिये में तीन-तीन बार प्राणों के संचार की धारणा करे । इसके बाद नाभि प्रदेश में प्राणों की धारणा करे ॥६-७॥
तत्र नाडी सुषुम्ना तु नाडीभिर्बहुभिर्वृता ॥
अणु रक्तश्च पीताश्च कृष्णास्ताम्रा विलोहिताः ॥ ८॥
वहाँ पर इड़ा, पिङ्गला आदि दस नाड़ियों से आवृत सुषुम्ना नाम की ब्रह्म नाड़ी स्थित है। वहाँ भी अनेक नाड़ियाँ स्थित हैं, जो अति सूक्ष्म, लाल, पीली, काली एवं ताँबे के रंग की हैं ॥८॥
अतिसूक्ष्मां च तन्वीं च शुक्लां नाडीं समाश्रयेत् ।
तत्र संचारयेत्प्राणानूर्णनाभीव तन्तुना ॥ ९॥
वहाँ पर जो नाड़ी अति सूक्ष्म, पतली एवं शुक्ल वर्ण की है, उसका आश्रय प्राप्त करना चाहिए। जिस प्रकार ऊर्णनाभि (मकड़ी) अपनी लार के तन्तुओं द्वारा गतिशील होती है, उसी प्रकार योगी को उस नाड़ी मण्डल में प्राणों को संचरित करना चाहिए ॥९॥
ततो रक्तोत्पलाभासं पुरुषायतनं महत्
दहरं पुण्डरीकं तद्वेदान्तेषु निगद्यते ॥ १०॥
तद्भित्त्वा कण्ठमायाति तां नाडीं पूरयन्यतः ।
मनसस्तु क्षुरं गृह्य सुतीक्ष्णं बुद्धिनिर्मलम् ॥ ११॥
उस के बाद वेदान्त में जिसे दहर या पुण्डरीक कहा गया है, वह महत् आयतन वाला हृदय क्षेत्र है। वह क्षेत्र रक्त कमल की तरह सदा प्रकाशित रहता है। उस (हृदयक्षेत्र) के बाद नाड़ियों को पूरित करता हुआ (प्राण-प्रवाह) कण्ठ में आता है। उसके बाद मन:क्षेत्र और उससे परे गुह्य, निर्मल और तीक्ष्ण बुद्धि का स्थान है ॥१०-११॥
पादस्योपरि यन्मध्ये तद्रूपं नाम कृन्तयेत् ।
मनोद्वारेण तीक्ष्णेन योगमाश्रित्य नित्यशः ॥ १२॥
इन्द्रवज्र इति प्रोक्तं मर्मजङ्घानुकीर्तनम् ।
तद्ध्यानबलयोगेन धारणाभिर्निकृन्तयेत् ॥ १३॥
ऊर्वोर्मध्ये तु संस्थाप्य मर्मप्राणविमोचनम् ।
चतुरभ्यासयोगेन छिन्देदनभिशङ्कितः ॥१४॥
इस प्रकार पैरों के ऊपर जो मर्म स्थान हैं, उनके नाम-रूप का चिन्तन करे । नित्य योगाभ्यास का आश्रय लेकर तीक्ष्ण मन के द्वारा जंघाओं से लगा हुआ जो ‘इन्द्रवज्र’ नामक क्षेत्र है, उसका छेदन करे। वहाँ उरुओं के बीच मर्म स्थलों का विमोचन करने वाले प्राण को ध्यान बल और धारणा के योग से स्थापित करके योगाभ्यास द्वारा मन की तीक्ष्ण धारणा से, नि:शंक होकर (मूलाधार से हृदय पर्यन्त) चारों मर्म स्थलों का छेदन करे ॥१२-१४॥
ततः कण्ठान्तरे योगी समूहन्नाडिसञ्चयम् ।
एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये वराः स्मृताः ॥ १५॥
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ।
इडा तिष्ठति वामेन पिङ्गला दक्षिणेन च ॥ १६॥
इसके बाद योगी कण्ठ के अन्दर स्थित नाड़ी समूह में प्राणों को संचरित करे। उस नाड़ी समूह में एक सौ एक नाड़ियाँ हैं । उनके मध्य में पराशक्ति स्थित है । सुषुम्ना नाड़ी परम तत्त्व में लीन रहती है और विरजा नाड़ी ब्रह्ममय है । इड़ा का निवास बायीं ओर है और पिङ्गला दाहिनी ओर स्थित है ॥१५-१६॥
तयोर्मध्ये वरं स्थानं यस्तं वेद स वेदवित् ।
द्वासप्ततिसहस्राणि प्रतिनाडीषु तैतिलम् ॥ १७॥
इन (इड़ा एवं पिङ्गला) दोनों नाड़ियों के मध्य में जो श्रेष्ठ स्थान है, उसे जो जानता है, वह वेद (शाश्वत ज्ञान) को जानने में समर्थ होता है। सभी सूक्ष्म नाड़ियों की संख्या बहत्तर हजार बतायी गयी है, जिन्हें तैतिल कहा गया है ॥१७॥
छिद्यते ध्यानयोगेन सुषुम्नैका न छिद्यते ।
योगनिर्मलधारेण क्षुरेणानलवर्चसा ॥ १८॥
छिन्देन्नाडीशतं धीरः प्रभावादिह जन्मनि ।
जातीपुष्पसमायोगैर्यथा वास्यति तैतिलम् ॥ १९॥
ध्यान योग के द्वारा समस्त नाड़ियों का छेदन किया जा सकता है; किन्तु एक सुषुम्ना ही ऐसी है, जिसका कि छेदन नहीं किया जाता। धीर पुरुष को इस जन्म में आत्मा के प्रभाव से अग्निवत् तेजोमयी एवं योग रूपी निर्मल धार से युक्त (धारणा रूपी) छुरी से सैकड़ों (सभी) नाड़ियों का छेदन करना चाहिए। इससे नाड़ियाँ उसी तरह से सुवास युक्त हो जाती हैं, जिस तरह जाती (चमेली) के पुष्प से तिल (तैल) सुवासित हो जाते हैं ॥१८-१९॥
एवं शुभाशुभैर्भावैः सा नाडीति विभावयेत् ।
तद्भाविताः प्रपद्यन्ते पुनर्जन्मविवर्जिताः ॥ २०॥
इस प्रकार योगी को चाहिए कि वह शुभाशुभ भावों से युक्त विभिन्न नाड़ियों को समझे। उनसे परे सुषुम्ना नाड़ी में धारणा स्थिर करने से योगी पुनर्जन्म से रहित होकर शाश्वत परमब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ॥२०॥
तपोविजितचित्तस्तु निःशब्दं देशमास्थितः ।
निःसङ्गतत्त्वयोगज्ञो निरपेक्षः शनैः शनैः ॥ २१॥
जिस व्यक्ति ने तप के द्वारा अपने चित्त को जीत लिया है, वह व्यक्ति शब्दरहित, एकान्त, निर्जन स्थान में स्थित होकर निःसङ्ग तत्त्व के योग का अभ्यास करे तथा शनैः-शनैः निरपेक्ष हो जाए ॥२१॥
पाशं छित्त्वा यथा हंसो निर्विशङ्कं खमुत्क्रमेत् ।
छिन्नपाशस्तथा जीवः संसारं तरते सदा ॥ २२॥
जिस प्रकार बन्धन-जाल को काटकर हंस नि:शंक होकर आकाश में गमन कर जाता है, उसी प्रकार योगी मनुष्य इस योग के अभ्यास द्वारा सभी बन्धनों के कट जाने के पश्चात् बन्धन-मुक्त होकर संसार-सागर से सदा के लिए पार हो जाता है ॥२२॥
यथा निर्वाणकाले तु दीपो दग्ध्वा लयं व्रजेत् ।
तथा सर्वाणि कर्माणि योगी दग्ध्वा लयं व्रजेत् ॥ २३॥
जिस प्रकार निर्वाण काल में (बुझने के समय) दीप ज्योति सब कुछ जलाकर स्वयं परम प्रकाश में लीन हो जाती है, वैसे ही योगी मनुष्य अपने सभी कर्मों को योगाग्नि से भस्म करके अविनाशी परमात्म तत्त्व में लीन हो जाता है ॥२३॥
प्राणायामसुतीक्ष्णेन मात्राधारेण योगवित् ।
वैराग्योपलघृष्टेन छित्त्वा तं तु न बध्यते ॥ २४॥
वैराग्य रूपी पत्थर पर इस प्राणायाम द्वारा घिसकर तीक्ष्ण की गयी धारणा रूपी छुरी से संसार के सूत्रों के काटने वाले योगी को सांसारिक बन्धन बाँध नहीं पाते ॥२४॥
अमृतत्वं समाप्नोति यदा कामात्स मुच्यते ।
सर्वेषणाविनिर्मुक्तश्छित्त्वा तं तु न बध्यत इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति क्षुरिकोपनिषत्समाप्ता ॥
जब वह कामनाओं से छूट जाता है तथा एषणाओं से रहित हो जाता है, तभी अमृतत्व को प्राप्त कर सकता है और पुन: बन्धनों में नहीं बँधता । यही उपनिषद् है॥२५॥
॥ श्रीगणपत्यथर्वशीर्षोपनिषत् ॥
यं नत्वा मुनयः सर्वे निर्विघ्नं यान्ति तत्पदम् ।
गणेशोपनिषद्वेद्यं तद्ब्रह्मैवास्मि सर्वगम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳ सस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
नमस्ते गणपतये ॥ ||१||
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि ।
त्वमेव केवलं कर्तासि ।
त्वमेव केवलं धर्तासि ।
त्वमेव केवलं हर्तासि ।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ।
त्वं साक्षादात्मासि ॥ ||२||
नित्यं ऋतं वच्मि ।
सत्यं वच्मि ।। ||३||
गणपति भगवान् को प्रणाम है। तुम्हीं साक्षात् प्रत्यक्ष तत्त्व हो। तुम्हीं एकमात्र कर्ता हो, तुम्हीं एकमात्र धर्ता हो और तुम्हीं एकमात्र हेर्ता हो। एकमात्र तुम्हीं इन समस्त रूपों में विद्यमान ब्रह्म हो। तुम्हीं साक्षात् आत्मस्वरूप हो। मैं सदा ऋत (सत्य से परे) बात कहता हूँ, सत्य का ही प्रतिपादन करता हूँ॥१-३॥
अव त्वं माम्।
अव वक्तारम् ।
अव श्रोतारम् ।
अव दातारम् ।
अव धातारम् ।
अवानूचानमव शिष्यम् ।
अव पश्चात्तात् ।
अव पुरस्तात् ।
अव चोत्तरात्तात् ।
अव दक्षिणात्तात् ।
अव चोर्ध्वात्तात् ।
अवाधरात्तात् ।
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ।। ||४||
तुम मेरी रक्षा करो वक्ता (आचार्य) की रक्षा करो। (हम जैसे) श्रोताओं की रक्षा करो। (ज्ञान) दाता की रक्षा करो। धाता (ज्ञानधारक) की रक्षा करो। अनूचान (ज्ञान को क्रिया रूप देने वाले) की रक्षा करो तथा (मुझ) शिष्य की रक्षा करो। आगे से, पीछे से, उत्तर से, दक्षिण से, ऊपर से तथा नीचे की ओर से मेरी रक्षा करो। सभी तरफ से मेरी रक्षा करो, चारों तरफ से मुझे संरक्षण प्रदान करो॥४॥
त्वं वाड्मयस्त्वं चिन्मयः ।
त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः ।
त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि ।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।। ||५||
तुम वाङ्मय (अक्षर स्वरूप) हो, तुम्हीं चिन्मय, आनन्दस्वरूप एवं ब्रह्मरूप हो। तुम्हीं सत्, चित्, आनन्दमय एवं अद्वितीय हो। तुम प्रत्यक्षतया ब्रह्म हो, तुम ज्ञानस्वरूप एवं विज्ञानमय हो॥५॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ।
त्वं चत्वारि वाक्पदानि ।
त्वं गुणत्रयातीतः ।
त्वं कालत्रयातीतः ।
त्वं देहत्रयातीतः ।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्।
त्वं शक्तित्रयात्मकः ।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम्।। ||६||
यह सम्पूर्ण जगत् तुम्हीं से उत्पन्न हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व तुम्हीं में प्रतिष्ठित है। यह सम्पूर्ण विश्व तुम्हीं में विलीन हो रहा है। इस समस्त जगत् की तुम्हीं में प्रतीति हो रही है। तुम भूमि, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश रूप हो। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी आदि वाणी के यह चार विभाग तुम ही हो। तुम तीनों गुणों से भी परे हो। तुम भूत, वर्तमान एवं भविष्यत् तीनों कालों से भी परे कालातीत हो। तुम्हीं तीनों शरीरों स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण से भी परे हो। तुम्हीं नित्य मूलाधार चक्र में प्रतिष्ठित रहते हो। इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान आदि तीनों शक्तियाँ एकमात्र तुम्हीं हो। योगी तुम्हारा ही निरन्तर चिन्तन करते हैं। तुम्हीं ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, ब्रह्म भी हो। ये भू:, भुव:, स्वः तीनों लोक और स्वयं ॐ कार वाची परब्रह्म भी तुम्हीं हो॥६॥
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्।
अनुस्वारः परतरः।
अर्धेन्दुलसितम्।
तारेण रुद्धम्।
एतत्तव मनुस्वरूपम् ॥ ||७||
सर्वप्रथम गण के आदि अक्षर (ग) को उच्चारण करें। तदनन्तर वर्षों के आदि अक्षर (अ) को उच्चारण करें। इसके पश्चात् फिर अनुस्वार का उच्चारण होता है। इस तरह अर्द्धचन्द्र से शोभायमान ‘गं’ ॐ कार के द्वारा अवरुद्ध हो जाने पर तुम्हारे बीज मंत्र का रूप (ॐ गं) ही है॥७॥
गकारः पूर्वरूपम्।
अकारो मध्यमरूपम्।
अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्।
बिन्दुरुत्तररूपम् ।
नादः संधानम्।
संहिता संधिः।
सैषा गणेशविद्या॥ ||८||
इसका प्रथम रूप ‘ग’ कार (ग) है, मध्यम रूप ‘अ’ कार है, अनुस्वार अन्त्यरूप है तथा बिन्दु ही इसका उत्तर रूप है। नाद ही इसका सन्धान है और संहिता इसकी सन्धि कही गई है। ऐसी ही यह गणेश विद्या है॥८॥
गणक ऋषिः ।
निचृद्गायत्री छन्दः ।
श्रीमहागणपतिर्देवता ।
ॐ गम् गणपतये नमः ॥ ||९||
इस मन्त्र के ऋषि-गणक हैं। छन्द निवृद्गायत्री है और देवता-श्री महागणपति हैं। ‘ॐ गं गणपतये नमः’ (यह ही महामन्त्र के नाम से जाना जाता है) ॥९॥
एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥ ||१०||
हम एक दन्त (गणेश जी) को (गुरु-शास्त्रानुसार) जानते हैं, (उन) वक्रतुण्ड का ध्यान करते हैं। वह दन्ती हम सभी को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें (इस मन्त्र को गणेश-गायत्री मन्त्र कहते हैं) ॥१०॥
एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम् ।
अभयं वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ॥११॥
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ॥१२॥
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥१३ ॥
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥१४॥
जो योगी (साधक) एकदन्त, चतुर्भुज स्वरूप, चारों हाथों में पाश, अंकुश, अभय एवं वरदान की मुद्रा धारण करने वाले तथा मूषक (चूहे) के चिह्न वाली ध्वजा को लिए हुए, रक्तवर्ण, विशाल उदर वाले, सूप के सदृश बड़े-बड़े कानों से युक्त, लाल रंग के वस्त्रों से आच्छादित, शरीर पर लाल चन्दन का लेप लगाये हुए, रक्त-पुष्पों से विधिवत् पूजित, भक्त जनों के ऊपर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत् के हेतुभूत, अच्युत, सृष्टि-रचना के पूर्व में प्रादुर्भूत तथा प्रकृति एवं पुरुष से परे विघ्नविनाशक गणेश जी का नित्य प्रति चिन्तन करता है, वह योगी (साधक) समस्त योगीजनों में श्रेष्ठतम एवं अनुपम है॥११-१४॥
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमो नमः॥१५॥
व्रातपति अर्थात् समस्त देव समुदाय के नायक को प्रणाम है, गणपति को नमस्कार है, प्रमथपति अर्थात् भगवान् शिव के नायक के लिए नमन-वन्दन है। लम्बोदर के लिए, एकदन्त के लिए, विघ्नविनाशक के लिए भगवान् शिव के पुत्र के लिए एवं श्री वरदमूर्ति (वर-प्रदाता) के लिए नमन-वन्दन है, बारम्बार प्रणाम है॥१५॥
एतदथर्वशिरो योऽधीते स ब्रह्मभूयाय कल्पते ।
स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते ।
स सर्वतः सुखमेध-ते। स पञ्चमहापातकोपपातकात्प्रमुच्यते ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायंप्रातः प्रयुजानोऽपापो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति ॥१६ ॥
यह अथर्ववेद की उपनिषद् है। जो मनुष्य इस उपनिषद् का अध्ययन करता है, वह ब्रह्मत्वे पद की प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है। सभी तरह के विघ्न उसके लिए बाधक नहीं होते। वह सर्वत्र सुख-शान्ति में वृद्धि प्राप्त करता है। वह मनुष्य पाँच प्रकार के महान् पातकों एवं उपपातकों से मुक्त हो जाता है। शाम के समय में किए हुए पाठ से दिन के पापों का विनाश होता है और प्रातः काल के समय में पाठ करने से रात्रि में किये गये पापों का शमन हो जाता है। जो मनुष्य प्रातः एवं सायं दोनों कालों में इस उपनिषद् का पाठ करता है, वह पापरहित हो जाता है। वह चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को भी प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है॥१६॥
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान्भवति॥१७ ॥
इस अथर्वशीर्ष उपनिषद् का उपदेश शिष्य को ही देना चाहिए, अशिष्य को नहीं। मोहवश जो ज्ञानीपुरुष ऐसा करता है (अशिष्य को देता है) , वह पातकी (पापी) हो जाता है॥१७॥
सहस्त्रावर्तनायं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ।
अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति ।
चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति स विद्यावान्भवति ।
इत्यथर्वणवाक्यम्।
ब्रह्माद्याचरणं विद्यात्।।
न बिभेति कदाचनेति।
यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।
यो लाजैर्यजति स ।
यशोवान्भवति।
स मेधावान्भवति।
यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति । यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते।
अष्टौ ब्राह्मणान्सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति । सूर्यग्रहणे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति ।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते। महापापात्प्रमुच्यते । महादोषात्प्रमुच्यते ॥१८॥
जो मनुष्य इस उपनिषद् का एक सहस्र बार पाठ करता है, वह जो-जो आकांक्षाएँ करता है, उन सभी की सिद्धि इसके द्वारा हो जाती है। इस उपनिषद् के द्वारा जो मनुष्य गणेश जी को स्नान कराता है, वह प्रखर वक्ता बन जाता है। जो मनुष्य चतुर्थी तिथि का व्रत-उपवास करके इसका जप (पाठ) करता है, वह महान् ज्ञानी हो जाता है। यह अथर्वण वाक्य है, जो भी इस उपनिषद् मन्त्र के माध्यम से तपश्चर्या करने का विधान जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। दूर्वांकुरों के द्वारा जो (गणपति का) यजन करता है, वह कुबेर के सदृश हो जाता है। जो लाजा (धान की खील) से यज्ञ करता है, वह यशस्वी एवं मेधावान् हो जाता है। जो एक सहस्र मोदकों (लड्डुओं) से यजन क्रिया सम्पन्न करता है, वह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। जो घृत-युक्त समिधाओं से यज्ञ करता है, वह सभी कुछ प्राप्त कर लेता है। उसकी सभी इच्छाएँ आकांक्षाएँ पूरी हो जाती हैं। जो मनुष्य इसे उपनिषद्-विद्या से आठ ब्राह्मणों को अच्छी तरह से पारंगत बना देता है, वह सूर्य-सदृश तेजस्वी हो जाता है। सूर्य ग्रहण के समय महानदी अथवा प्रतिमा के समक्ष इस उपनिषद्-विद्या का पाठ-जप करने से अभीष्ट मन्त्र सिद्ध होता है। वह महान् विघ्नों, महापातकों (पापों) से मुक्त हो जाता है। वह बड़े से बड़े दोषों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है॥१८॥
स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ।
य एवं वेदेत्युपनिषत् ॥१९॥
जो पुरुष इस उपनिषद् को इस प्रकार से जान लेता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है, सभी कुछ जानने में समर्थ हो जाता है, ऐसी ही यह अथर्ववेदीय उपनिषद् है॥१९॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा सस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति गणपत्युपनिषत्समाप्ता ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳ सस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति
नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति गणपत्युपनिषत्समाप्ता ॥
विषं ब्रह्मातिरिक्तं स्यादमृतं ब्रह्ममात्रकम् ।
ब्रह्मातिरिक्तं विषवद्ब्रह्ममात्रं खगेडहम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ गारुडब्रह्मविद्यां प्रवक्ष्यामि यां ब्रह्मविद्यां नारदाय प्रोवाच नारदो बृत्सेनाय बृहत्सेन इन्द्राय इन्द्रो भरद्वाजाय भरद्वाजो जीवकामेभ्यः शिष्येभ्यः प्रायच्छत्॥ ||१||
अब गारुड़ ब्रह्मविद्या का वर्णन करते हैं; जिस ब्रह्मविद्या को भगवान् ब्रह्मा ने नारद से कहा, नारद ने बृहत्सेन से कहा, बृहत्सेन ने इन्द्र से कहा, इन्द्र ने भरद्वाज से कहा और भरद्वाज ने इस विद्या का शिक्षण जीवकाम (ब्रह्म प्राप्ति द्वारा जीवन धन्य बनाने की इच्छा वाले) शिष्यों को प्रदान किया॥१॥
अस्याः श्रीमहागरुडब्रह्मविद्याया ब्रह्मा ऋषिः। गायत्री छन्दः।
श्रीभगवान्महागरुडो देवता।
श्रीमहागरुडप्रीत्यर्थे मम सकलविषविनाशनार्थे जपे विनियोगः ॥ ||२||
इस श्रीगरुड़ब्रह्मविद्या के ऋषि ब्रह्मा, छन्द-गायत्री, श्रीभगवान् महागरुड़-देवता हैं। श्री महागरुड़ की प्रसन्नता के लिए तथा मेरे समस्त विषों के विनाशार्थ जप में इसका विनियोग किया जाता है॥२॥
ॐ नमो भगवते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । श्रीमहागरुडाय तर्जनीभ्यां स्वाहा।
पक्षीन्द्राय मध्यमाभ्यां वषट्।
श्रीविष्णुवल्लभाय अनामिकाभ्यां हुम्। त्रैलोक्यपरिपूजिताय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् । उग्रभयंकरकालानलरूपाय करतलकरपृष्ठाभ्यां फट्। एवं हृदयादिन्यासः ॥ ||३||
ॐ नमो अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। (दोनों हाथों की तर्जनी अँगुलियों से दोनों अँगूठों का स्पर्श) श्री महागरुडाय तर्जनीभ्यां स्वाहा। (दोनों हाथों के अँगूठों से दोनों तर्जनी अङ्गलियों का स्पर्श) पक्षीन्द्राय मध्यमाभ्यां वषट्। (अँगूठों से मध्यमा अँगुलियों का स्पर्श) । श्री विष्णुवल्लभाय अनामिकाभ्यां हुम्। (अँगूठों से अनामिका अँगुलियों का स्पर्श) त्रैलोक्यपरिपूजिताय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। (अँगूठों से कनिष्ठिका अँगुलियों का स्पर्श) उग्रभयंकर करतलकरपृष्ठाभ्यां फट्। (हथेलियों और उनके पृष्ठ भागों का परस्पर स्पर्श)। इसी तरह से दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों से हृदयादि (शिर, शिखा, कवच, नेत्रादि) का भी न्यास (स्पर्श) करना चाहिए॥३॥
भूर्भवः सुवरोमिति दिग्बन्धः॥ ||४||
गरुड़ापनिषद् ‘भूः भुव: स्व:’ तथा ‘ॐ’ व्याहृतियों एवं प्रणव से दिग्बन्धन की क्रिया सम्पन्न करनी चाहिए॥४॥
ध्यानम्।
स्वस्तिको दक्षिणं पादं वामपादं तु कुञ्चितम् । प्राञ्जलीकृतदोर्युग्मं गरुडं हरिवल्लभम्।
अनन्तो वामकटको यज्ञसूत्रं तु वासुकिः।
तक्षकः कटिसूत्रं तु हारः कर्कोट उच्यते ।
पद्मो दक्षिणकर्णे तु महापद्मस्तु वामके।
शङ्खः शिरःप्रदेशे तु गुलिकस्तु भुजान्तरे। पौण्ड्रकालिकनागाभ्यां चामराभ्यां सुवीजितम्। एलापुत्रकनागाद्यैः सेव्यमानं मुदान्वितम्। कपिलाक्षं गरुत्मन्तं सुवर्णसदृशप्रभम्।
दीर्घबाहुं बृहत्स्कन्धं नागाभरणभूषितम्। आजानुतः सुवर्णाभमाकट्योस्तुहिनप्रभम्। कुङ्कुमारुणमाकण्ठं शतचन्द्रनिभाननम्। नीलाग्रनासिकावक्त्रं सुमहच्चारुकुण्डलम्। दंष्ट्राकरालवदनं किरीटमुकुटोज्ज्वलम्। कुङ्कुमारुणसर्वाङ्ग कुन्देन्दु-धवलाननम् । विष्णुवाह नमस्तुभ्यं क्षेमं कुरु सदा मम ।
एवं ध्यायेत्त्रिसंध्यासु गरुडं नागभूषणम्।
विषं नाशयते शीघ्रं तूलराशिमिवानलः ।। ||५||
ध्यान- जिनका दाहिना पैर स्वस्तिक के आकार के सदृश है, बायाँ पैर घुटने तक सिकोड़ कर रखा है। जिन्होंने दोनों हाथों को प्रणाम की मुद्रा में जोड़ रखा है, जो विष्णुवल्लभ हैं। जिन्होंने अनन्त नामक नाग को बायें हाथ में कड़े के रूप में धारण कर रखा है। यज्ञोपवीत के रूप में वासुकि को धारण किया है। तक्षक को करधनी के रूप में और कर्कोट को गले में हार के सदृश धारण किया है। पद्म नामक नाग को दाहिने कान में और महापद्म को बायें कान में आभूषण की भाँति धारण कर रखा है। शंख नामक नाग को सिर पर एवं गुलिक (नाग) को भुजाओं के मध्य में धारण कर रखा है। पौण्ड्र एवं कालिक नागों को चँवरों के रूप में प्रयुक्त किया गया है। एला तथा पुत्रक आदि नागों के द्वारा प्रसन्नतापूर्वक जिनकी सेवा की जाती है। कपिल वर्ण सदृश नेत्र सुवर्ण के समान कान्ति वाले, लम्बी भुजाओं वाले, चौड़े (विशाल) कन्धे वाले, नागों के अलंकारों से विभूषित, जानु पर्यन्त सुवर्ण के समान कान्ति वाले तथा कटि पर्यन्त हिम के समान श्वेत प्रभा वाले, कुंकुम के समान लाल शरीर वाले, सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान मुख-कान्ति वाले, जिनकी नासिका का अग्रभाग तथा मुख मण्डल नील वर्ण का है। विशाल कुण्डलों से युक्त जिनके कान हैं। भयंकर दाढ़ों से युक्त विकराल मुख वाले, अत्यन्त देदीप्यमान मुकुट धारण करने वाले, कुंकुम लगाने से लाल अंग वाले, कुन्द पुष्प एवं चन्द्र के सदृश धवल मुख वाले, हे विष्णु के वाहन गरुड़देव! आपको नमस्कार है। आप सदैव हमारा कल्याण करें। इस प्रकार तीनों संध्याओं में नागों से अलंकृत गरुड़ का ध्यान करना चाहिए। (इससे प्रसन्न होकर वे गरुड़देव) रुई के ढेर को, अग्नि के द्वारा दग्ध करने के सदृश विष को शीघ्र ही विनष्ट कर देते हैं॥५॥
ओमीमों नमो भगवते श्रीमहागरुड़ाय पक्षीन्द्राय विष्णुवल्लभाय त्रैलोक्यपरिपूजिताय उग्रभयंकरकालानलरूपाय वज्रनखाय वज्रतुण्डाय वज्रदन्ताय वज्रदंष्ट्राय वज्रपुच्छाय वज्र - पक्षालक्षितशरीराय ओमीमेह्येहि श्री महागरुडाप्रतिशासनास्मिन्नाविशाविश दुष्टानां विषं दूषय दृषय स्पृष्टानां विषं नाशय नाशय दन्दशूकानां विषं दारय दारय प्रलीनं विषं प्रणाशय प्रणाशय सर्वविधं नाशय नाशय हुन हुन दह दह पच पच भस्मीकुरु भस्मीकुरु हुं फट् स्वाहा ।। ||६||
पक्षिराज गरुड़, विष्णुवल्लभ (विष्णुप्रिय), तीनों लोकों के द्वारा पूजित किये जाने वाले, उग्र-भयंकर कालाग्नि के सदृश, कठोर नखों से युक्त, कठोर चञ्चु (चोंच) से युक्त, कठोर दाँत वाले, कठोर दाढ़ों वाले, कठोर पूंछ वाले, कठोर पंखों से लक्षित शरीर वाले भगवान् श्रीमहागरुड़ को नमस्कार है। आप आएँ, हे महागरुड़! अपने अनुशासित इस आसन पर आएँ, प्रवेश करें। दुष्टों के विष को दूर करें, दूर करें। जो विष स्पर्श-मात्र से आ जाता है,उसे नष्ट करें, नष्ट करें। रेंगने वाले विषैले सर्पो के विष को दूर करें, दूर करें । प्रलीन (छिपे हुए) विष को दूर हटाएँ, दूर हटाएँ। सभी तरह के विषों को विनष्ट करें, विनष्ट करें। मारें-मारें, जलाएँ-जलाएँ, पचाएँ-पचाएँ। समस्त विषों को भस्मीभूत करें, भस्मीभूत करें। हुं फट् (बीज मन्त्र के सहित गरुड़देव की प्रसन्नता के लिए इस मन्त्र से आहुति समर्पित करें अथवा) आहुति समर्पित है॥ ६ ॥
चन्द्रमण्डलसंकाश सूर्यमण्डलमुष्टिक। पृथ्वीमण्डलमुद्राङ्ग श्रीमहागरुड विषं हर हर हुं फट् स्वाहा ।। ||७||
आप चन्द्रमण्डल के सदृश हैं। आपकी मुष्टिका में सूर्यमण्डल स्थित है, ऐसे आप पृथ्वी मण्डल के सदृश मुद्राङ्गों वाले हे श्रीमहागरुड़! (आप) समस्त विषों का हरण करें-हरण करें, नष्ट करें। हुं फट् (बीज मन्त्र के सहित श्रीगरुड़ की प्रसन्नता के लिए) आहुति समर्पित है॥७॥
ॐ क्षिप स्वाहा ॥ ||८||
ॐ (हे महागरुड़ ! आप विषधरों अथवा विषों को) क्षिपे अर्थात् दूर फेंक दें। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥८॥
ओम सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषाणां च विषरूपिणी विषदूषिणी विषशोषणी विपनाशिनी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषमन्तःप्रलीनं विषं प्रनष्टं विषं हतं ते ब्रह्मणा विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||९||
तत्कारि-मत्कारि (उनकी या हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है,उसे (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों के विष (अर्थात् विषनाशक) विषरूपिणी, विष को दूषित, शोषित, नष्ट एवं हरण करने वाली, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसके द्वारा घातक विष को, अन्तर्लीन विष को प्रणाशक (नष्ट करने वाले) विष को नष्ट कर दिया गया। विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने सहयोग प्रदान किया। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥९॥
ॐ नमो भगवते महागरुडाय विष्णुवाहनाय त्रैलोक्यपरिपूजिताय वज्रनखवज्रतुण्डाय वज्रपक्षालंकृतशरीराय एह्येहि महागरुड विषं छिन्धि छिन्धि आवेशयावेशय हुं फट् स्वाहा ।। ||१०||
(उन) भगवान् महागरुड़ को नमस्कार है। भगवान् विष्णु के वाहन तीनों लोकों में पूजित, वज्रवत् । कठोर नाखून एवं कठोर चोंच वाले तथा अपने शरीर को कठोर पंखों से अलंकृत करने वाले हे गरुड़देव! आप आएँ-आप पधारें । हे महागरुड़! आप आविष्ट (प्रविष्ट) हो करके विष को छिन्न-भिन्न कर दें।’ हुं फट्’ (बीज मन्त्र के सहित गरुड़देव के प्रसन्नतार्थ) आहुति समर्पित है॥१०॥
सुपर्णोऽसि गरुत्मान्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षुः स्तोम आत्मा साम ते तनूर्वामदेव्यं बृहद्रथन्तरे पक्षौ यज्ञायज्ञियं पुच्छं छन्दांस्यङ्गानि धिष्णिया शफा यजूंषि नाम।
सुपर्णोऽसि गरुत्मान्दिवं गच्छ सुवः पत॥ ||११||
हे ऊर्ध्वगामी महागरुड़देव! आप सुन्दर पंखों से युक्त, अग्निदेव के सदृश गतिशील हैं। त्रिवृत् स्तोम आपका शिर और गायत्र (साम) आपके नेत्र हैं। दोनों पंख के रूप में बृहत् एवं रथन्तर साम हैं, यज्ञ आपकी अन्तरात्मा, सभी छन्द आपके शरीर के अंग तथा यजु: आपका नाम है। वामदेव नामक साम आपकी देह, यज्ञायज्ञिय नामक साम आपकी पूँछ एवं धिष्ण्य स्थित अग्नि आपके खुर-नख हैं। हे गरुड़देव ! आप अग्निवत् दिव्य लोक की ओर गमन करें तथा स्वर्गलोक को प्राप्त करें॥११॥
ओम ब्रह्मविद्याममावास्यायां पौर्णमास्यायां पुरोवाच सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं प्रनष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||१२||
प्राचीन काल में यह ब्रह्मविद्या अमावस्या-पूर्णिमा के दिन बताई थी। तत्कारि-मत्कारि (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है (संचरण कर रहा है), उसे (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष अर्थात् विषनाशक है। विष को दूषित एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने उस घातक विष को, अन्तर्लीन विष को, प्रणाशक विष को इन्द्र के वज्र द्वारा नष्ट कर दिया। विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने सहयोग प्रदान किया। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥१२॥
तत्स्त्र्यम्।
यद्यनन्तकदूतोऽसि यदि वानन्तकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||१३||
‘तत्स्त्र्य म्’ (अर्थात् यह बीज मन्त्र सभी प्रकार के विषों को हरण करने में समर्थ है) तुम चाहे अनन्तक के दूत हो अथवा स्वयं अनन्तक हो। तत्कारि-मत्कारि (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित (संचरित) हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों के लिए विष है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्ममय है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस विष को मारकर (उस) प्रणाशक विष को नष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥१३॥
यदि वासुकिदूतोऽसि यदि वा वासुकिः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||१४||
तुम चाहे वासुकि के दूत हो अथवा स्वयं वासुकि हो। तत्कारि-मत्कारि (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित (संचरित) हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष को दूषित, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥१४॥
यदि तक्षकदूतोऽसि यदि वा तक्षकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ।। ||१५||
तुम चाहे तक्षक के दूत हो अथवा तक्षक हो । उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है, विष को दूषित, नष्ट एवं मारने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ही ब्रह्म स्वरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है। (इस निमित्त) आहुति समर्पित है॥१५॥
यदि कर्कोटकदूतोऽसि यदि वा कर्कोटकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||१६||
तुम चाहे कर्कोटक के दूत हो अथवा स्वयं कर्कोटक हो।’तत्कारि-मत्कारि’ (उनकी या हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित (संचरित) हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष अर्थात् विष नाशक है। विष को दूषित करने, मारने एवं नष्ट करने वाली है,ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्म स्वरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥१६॥
यदि महापद्मकदूतोऽसि यदि वा महापद्मकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा॥ ||१७||
तुम चाहे पद्मक के दूत हो अथवा स्वयं पद्मक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥१७॥
यदि महापद्मकदूतोऽसि यदि वा महापद्मकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा॥ ||१८||
तुम चाहे महापद्मक के दूत हो अथवा स्वयं महापद्मक हो।’तत्कारि-मत्कारि’ (उनकी अथवा हमारी) हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने-नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उसे घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है ‘स्वाहा’॥१८॥
यदि शङ्खकदूतोऽसि यदि वा शङ्खकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं तमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||१९||
तुम चाहे शङ्खक के दूत हो या स्वयं शङ्खक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है,ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है, इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥१९॥
यदि गुलिकदूतोऽसि यदि वा गुलिकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||२०||
तुम चाहे गुलिक के दूत हो अथवा स्वयं गुलिक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है। उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥२०॥
यदि पौण्ड्रकालिकदूतोऽसि यदि वा पौण्ड्रकालिकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा॥ ||२१||
तुम चाहे पौण्डुकालिक के दूत हो अथवा स्वयं पौण्डुकालिक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है, ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर विनष्ट कर दिया है। इस विष को नष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥२१॥
यदि नागकदूतोऽसि यदि वा नागकः स्वयं सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||२२||
तुम चाहे नागक के दूत हो अथवा स्वयं नागक हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विष वर्द्धित हो रहा है। ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है। ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर नष्ट कर दिया है। इस विष को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥२२॥
यदि लूतानां प्रलूतानां यदि वृश्चिकानां यदि घोटकानां यदि स्थावरजङ्गमानां सचरति सचरति तत्कारी मत्कारी विषनाशिनी विषदूषिणी विषहारिणी हतं विषं नष्टं विषं हतमिन्द्रस्य वज्रेण विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ॥ ||२३||
तुम चाहे मकड़ी, बड़ी (श्रेष्ठ) मकड़ी हो चाहे वृश्चिक (बिच्छू) हो, चाहे घुड़दौड़ सर्प हो और चाहे स्थावर-जंगम हो। उनकी अथवा हमारी हिंसा करने वाला जो विप वर्द्धित एवं संचरित हो रहा है। ऐसे उस विष को (ब्रह्मविद्या) जो कि विषों की विष है। विष को दूषित करने, मारने, नष्ट एवं हरण करने वाली है, ऐसी वह जो स्वयं ब्रह्मरूपा है, उसने इन्द्र के वज्र द्वारा उस घातक विष को मारकर नष्ट कर दिया। इस विष को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥२३॥
अनन्तवासुकितक्षककर्कोटकपद्मकमहापद्मकशङ्खकगुलिकपौण्ड्रकालिकनागक इत्येषां दिव्यानां महानागानां महानागादिरूपाणां विषतुण्डानां विषदन्तानां विषदंष्ट्राणां विषाङ्गानां विषपुच्छानां विश्वचाराणां वृश्चिकानां लूतानां प्रलूतानां मूषिकाणां गृहगौलिकानां गृहगोधिकानां घ्रणासानां गृहगिरिगह्वरकालानलवल्मीकोद्भूतानां तार्णानां पार्णानां काष्ठदारुवृक्षकोटरस्थानां मूलत्वग्दारुनिर्यासपत्रपुष्पफलोद्भूतानां दुष्टकीटकपिश्चानमार्जारजम्बुकव्याघ्रवराहाणां जरायुजाण्डजोद्भज्जस्वेदजानां शस्त्रबाणक्षतस्फोटव्रणमहाव्रणकृतानां कृत्रिमाणामन्येषां भूतवेतालकूष्माण्डुपिशाचप्रेतराक्षसयक्षभयप्रदानां विषतुण्डदंष्ट्राणां विषाङ्गानां विषपुच्छानां विषाणां विषरूपिणी विषदूषिणी विषशोषिणी विषनाशिनी विषहारिणी हतं विषं नष्ट विषमन्त:प्रलीनं विषं प्रनष्टं विषं हतं ते ब्रह्मणा विषमिन्द्रस्य वज्रेण स्वाहा ।। ||२४||
अनन्तक, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्मक, महापद्मक, शङ्खक, गुलिक, पौण्ड्रकालिक आदि सभी नाग तथा अन्य सभी दिव्य महानाग एवं महानागों के आदि रूपों वाले, विषैले चञ्चु (चोंच) वाले, विषैले दाँत वाले, विषैले दाढ़ वाले, विषैले अंगों वाले, विषैली पूँछ वाले, सभी जगह विचरण करने वाले, विषैले वृश्चिक (बिच्छू), मकड़ी, प्रकृष्ट (बड़ी) मकड़ी, मूषिका (चुहिया), गृहगौलिक (छबूंदर), गृह गोधिका (छिपकली), घोटक (घृणा उत्पन्न करने वाले विषैले कीटाणु), घरों में स्थित फर्श, दीवारों के छोटे-छोटे छिद्रों आदि में रहने वाले कालानल (विषैले कीड़े), चींटी-चींटे, दीमक आदि उत्पन्न होने वाले, तृण, पत्तों, काष्ठ, पेड़, वृक्षों के कोटर (पोले स्थान) आदि में स्थित रहने वाले, जड़, तना, वृक्ष आदि के छाल, पत्ते, पुष्प एवं फलों आदि से उद्भूत होने वाले, विषैले दुष्ट कीट, बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, सियार, व्याघ्र (बघर्रा), वराह आदि विचरण करने वाले विषैले जानवर, जरायुज (पशु-मनुष्य आदि), अण्डज (अण्डों से उत्पन्न), उभिज्ज (पेड़-पौधे) एवं स्वेदज (पसीने से प्रादुर्भूत प्राणी), शस्त्र (हाथ से लेकर प्रहार करने वाले), बाण (फेंककर मारने वाले) आदि से क्षत-विक्षत अंग, फोड़े, घाव एवं बड़े घावों से प्रकट होने वाले बड़े कीटक, कृत्रिम एवं अन्य विष, भूत, बेताल, कूष्माण्ड, प्रेत, पिशाच, राक्षस, यक्ष आदि भय प्रदान करने वाले, विषैली चंचु (चोंच) वाले, विषैले दाढ़ वाले, विषैले अंगों वाले, विषैली पूँछ वाले हों, (परन्तु) विषों की विष अर्थात् विष नाशक (वह ब्रह्मविद्या) समस्त विषों को दूषित करने वाली, विषों को शोषित करने वाली, विषों को विनष्ट करने वाली, विषों को हरण करने वाली है। (वह ब्रह्मविद्या) इन सभी विषों को मारे, नष्ट करे। उस (ब्रह्मविद्या) ने इन घातक विषों को, अन्तर्लीन छिपे हुए विष को, प्रणाशक विषों को नष्ट कर दिया है। इन सभी विषों को विनष्ट करने में इन्द्र के वज्र ने भी सहयोग प्रदान किया है, ‘स्वाहा’॥२४॥
य इमां ब्रह्मविद्याममावास्यायां पठेच्छृणुयाद्वा यावज्जीवं न हिंसन्ति सर्पाः ।
अष्टौ ब्राह्मणान्ग्राहयित्वा तृणेन मोचयेत्।
शतं ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा चक्षुषा मोचयेत् ।
सहस्त्रं ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा मनसा मोचयेत्। सर्पाञ्जलेन मुञ्चन्ति। तृणेन मुञ्चन्ति।
काष्ठेन मुञ्चन्तीत्याह भगवा-न्ब्रह्मेत्युपनिषत् ॥ ||२५||
जो साधक (मनुष्य) इस ब्रह्मविद्या का अमावस्या के दिन पाठ करता या श्रवण करता है, उसका जब तक जीवन रहता है, तब तक उसे सर्प (आदि विषैले जन्तु) नहीं काटते । (इस ब्रह्मविद्या को) आठ ब्राह्मणों को ग्रहण (स्वीकार) करवाकर तृण (जड़ी-बूटी) के द्वारा विष को मुक्त करना चाहिए। सौ ब्राह्मणों को (इसे) ग्रहण करवा करके नेत्रों से (विष को) मुक्त करना चाहिए। हजार ब्राह्मणों को (इसे) ग्रहण करवाकर मन से (अर्थात् संकल्प शक्ति से) ही (विष को) मुक्त करना चाहिए। सर्प-विष, जल, तृण एवं काष्ठ के उपचार से भी छोड़ता नहीं है। (इस प्रयोग से मुक्त कर देता है।) ऐसा ही भगवान् ब्रह्मा जी ने इस गरुडोपनिषद् को ऋषियों के समक्ष उपदिष्ट किया है। यही उपनिषद् है॥२५॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति श्रीगारुडोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ गर्भोपनिषत् ॥
यद्गर्भोपनिषद्वेद्यं गर्भस्य स्वात्मबोधकम् ।
शरीरापह्नवात्सिद्धं स्वमात्रं कलये हरिम् ॥
ॐ सहनाववत्विति शान्तिः ॥
ॐ पञ्चात्मकं पञ्चसु वर्तमानं षडाश्रयं
षड्गुणयोगयुक्तम् ।
तत्सप्तधातु त्रिमलं द्वियोनि
चतुर्विधाहारमयं शरीरं भवति ॥
पञ्चात्मकमिति कस्मात् पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशमिति ।
अस्मिन्पञ्चात्मके
शरीरे का पृथिवी का आपः किं तेजः को वायुः किमाकाशम् ।
तत्र यत्कठिनं सा पृथिवी यद्द्रवं ता आपो यदुष्णं
तत्तेजो यत्सञ्चरति स वायुः यत्सुषिरं तदाकाशमित्युच्यते ॥
तत्र पृथिवी धारणे आपः पिण्डीकरणे तेजः प्रकाशने
वायुर्गमने आकाशमवकाशप्रदाने । पृथक् श्रोत्रे
शब्दोपलब्धौ त्वक् स्पर्शे चक्षुषी रूपे जिह्वा रसने
नासिकाऽऽघ्राणे उपस्थश्चानन्दनेऽपानमुत्सर्गे बुद्ध्या
बुद्ध्यति मनसा सङ्कल्पयति वाचा वदति । षडाश्रयमिति
कस्मात् मधुराम्ललवणतिक्तकटुकषायरसान्विन्दते ।
षड्जर्षभगान्धारमध्यमपञ्चमधैवतनिषादाश्चेति ।
इष्टानिष्टशब्दसंज्ञाः प्रतिविधाः सप्तविधा भवन्ति ॥ १॥
var प्रणिधानाद्दशविधा भवन्ति
शुक्लो रक्तः कृष्णो धूम्रः पीतः कपिलः पाण्डुर इति ।
सप्तधातुमिति कस्मात् यदा देवदत्तस्य द्रव्यादिविषया
जायन्ते ॥ परस्परं सौम्यगुणत्वात् षड्विधो रसो
रसाच्छोणितं शोणितान्मांसं मांसान्मेदो मेदसः
स्नावा स्नाव्नोऽस्थीन्यस्थिभ्यो मज्जा मज्ज्ञः शुक्रं
शुक्रशोणितसंयोगादावर्तते गर्भो हृदि व्यवस्थां
नयति । हृदयेऽन्तराग्निः अग्निस्थाने पित्तं पित्तस्थाने
वायुः वायुस्थाने हृदयं प्राजापत्यात्क्रमात् ॥ २॥
ऋतुकाले सम्प्रयोगादेकरात्रोषितं कलिलं भवति
सप्तरात्रोषितं बुद्बुदं भवति अर्धमासाभ्यन्तरेण पिण्डो
भवति मासाभ्यन्तरेण कठिनो भवति मासद्वयेन शिरः
सम्पद्यते मासत्रयेण पादप्रवेशो भवति । अथ चतुर्थे मासे
जठरकटिप्रदेशो भवति । पञ्चमे मासे पृष्ठवंशो भवति ।
षष्ठे मासे मुखनासिकाक्षिश्रोत्राणि भवन्ति । सप्तमे
मासे जीवेन संयुक्तो भवति । अष्टमे मासे सर्वसम्पूर्णो
भवति । पितू रेतोऽतिरिक्तात् पुरुषो भवति । मातुः
रेतोऽतिरिक्तात्स्त्रियो भवन्त्युभयोर्बीजतुल्यत्वान्नपुंसको
भवति । व्याकुलितमनसोऽन्धाः खञ्जाः कुब्जा वामना
भवन्ति । अन्योन्यवायुपरिपीडितशुक्रद्वैध्याद्द्विधा
तनुः स्यात्ततो युग्माः प्रजायन्ते ॥ पञ्चात्मकः समर्थः
पञ्चात्मकतेजसेद्धरसश्च सम्यग्ज्ञानात् ध्यानात्
अक्षरमोङ्कारं चिन्तयति । तदेतदेकाक्षरं ज्ञात्वाऽष्टौ
प्रकृतयः षोडश विकाराः शरीरे तस्यैवे देहिनाम् । अथ
मात्राऽशितपीतनाडीसूत्रगतेन प्राण आप्यायते । अथ
नवमे मासि सर्वलक्षणसम्पूर्णो भवति पूर्वजातीः स्मरति
कृताकृतं च कर्म विभाति शुभाशुभं च कर्म विन्दति ॥ ३॥
नानायोनिसहस्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया ।
आहारा विविधा भुक्ताः पीताश्च विविधाः स्तनाः ॥
जातस्यैव मृतस्यैव जन्म चैव पुनः पुनः ।
अहो दुःखोदधौ मग्नः न पश्यामि प्रतिक्रियाम् ॥
यन्मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
एकाकी तेन दह्यामि गतास्ते फलभोगिनः ॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि सांख्यं योगं समाश्रये ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं प्रपद्ये महेश्वरम् ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं प्रपद्ये
भगवन्तं नारायणं देवम् ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ।
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि ध्याये ब्रह्म सनातनम् ॥
अथ जन्तुः स्त्रीयोनिशतं योनिद्वारि
सम्प्राप्तो यन्त्रेणापीड्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु
वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति जन्ममरणं
न च कर्म शुभाशुभम् ॥ ४॥
शरीरमिति कस्मात्
साक्षादग्नयो ह्यत्र श्रियन्ते ज्ञानाग्निर्दर्शनाग्निः
कोष्ठाग्निरिति । तत्र कोष्ठाग्निर्नामाशितपीतलेह्यचोष्यं
पचतीति । दर्शनाग्नी रूपादीनां दर्शनं करोति ।
ज्ञानाग्निः शुभाशुभं च कर्म विन्दति । तत्र त्रीणि
स्थानानि भवन्ति हृदये दक्षिणाग्निरुदरे गार्हपत्यं
मुखमाहवनीयमात्मा यजमानो बुद्धिं पत्नीं निधाय
मनो ब्रह्मा लोभादयः पशवो धृतिर्दीक्षा सन्तोषश्च
बुद्धीन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि कर्मेन्द्रियाणि हवींषि शिरः
कपालं केशा दर्भा मुखमन्तर्वेदिः चतुष्कपालं
शिरः षोडश पार्श्वदन्तोष्ठपटलानि सप्तोत्तरं
मर्मशतं साशीतिकं सन्धिशतं सनवकं स्नायुशतं
सप्त शिरासतानि पञ्च मज्जाशतानि अस्थीनि च ह
वै त्रीणि शतानि षष्टिश्चार्धचतस्रो रोमाणि कोट्यो
हृदयं पलान्यष्टौ द्वादश पलानि जिह्वा पित्तप्रस्थं
कफस्याढकं शुक्लं कुडवं मेदः प्रस्थौ द्वावनियतं
मूत्रपुरीषमाहारपरिमाणात् । पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं
परिसमाप्तं पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तमिति ॥
ॐ
सह नाववत्विति शान्तिः ॥
इति गर्भोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ गोपालतापिन्युपनिषत् ॥
श्रीमत्पञ्चपदागारं सविशेषतयोज्ज्वलम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तं निर्विशेषं हरिं भजे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
गोपालतापनं कृष्णं याज्ञवल्क्यं वराहकम् ।
शाट्यायनी हयग्रीवं दत्तात्रेयं च गारुडम् ॥
हरिः ॐ सच्चिदानन्दरूपय कृष्णायाक्लिष्टकर्मणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे ॥
मुनयो ह वै ब्राह्मणमूचुः । कः परमो देवः कुतो मृत्युर्बिभेति ।
कस्य विज्ञानेनाखिलं विज्ञातं भवति । केनेदं विश्वं संसरतीति ।
तदुहोवाच ब्राह्मणः । कृष्णो वै परमं दैवतम् ।
गोविन्दान्मृत्युर्बिभेति । गोपीजनवल्लभज्ञानेनैतद्विज्ञातं भवति ।
स्वाहेदं विश्वं संसरतीति । तदुहोचुः । कः कृष्णः । गोविन्दश्च
कोऽसाविति । गोपीजनवल्लभश्च कः । का स्वाहेति । तानुवाच ब्राह्मणः ।
पापकर्षणो गोभूमिवेदवेदितो गोपीजनविद्याकलापप्रेरकः ।
तन्माया चेति सकलं परं ब्रह्मैव तत् । यो ध्यायति रसति भजति
सोऽमृतो भवतीति । ते होचुः । किं तद्रूपं किं रसनं किमाहो
तद्भजनं तत्सर्वं विविदिषतामाख्याहीति । तदुहोवाच हैरण्यो
गोपवेषमभ्रामं कल्पद्रुमाश्रितम् । तदिह श्लोका भवन्ति ॥
सत्पुण्डरीकनयनं मेघाभं वैद्युताम्बरम् ।
द्विभुजं ज्ञानमुद्राढ्यं वनमालिनमीश्वरम् ॥ १॥
गोपगोपीगवावीतं सुरद्रुमतलाश्रितम् ।
दिव्यालंकरणोपेतं रत्नपङ्कजमध्यगम् ॥ २॥
कालिन्दीजलकल्लोलसङ्गिमारुतसेवितम् ।
चिन्तयञ्चेतसा कृष्णं मुक्तो भवति संसृतेः ॥ ३॥ इति॥
तस्य पुना रसनमितिजलभूमिं तु सम्पाताः । कामादि कृष्णायेत्येकं
पदम् । गोविन्दायेति द्वितीयम् । गोपीजनेति तृतीयम् । वल्लभेति तुरीयम् ।
स्वाहेति पञ्चममिति पञ्चपदं जपन्पञ्चाङ्गं द्यावाभूमी
सूर्याचन्द्रमसौ तद्रूपतया ब्रह्म सम्पद्यत इति । तदेष श्लोकः
क्लीमित्येतदादावादाय कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभायेति
बृहन्मानव्यासकृदुच्चरेद्योऽसौ गतिस्तस्यास्ति मङ्क्षु नान्या
गतिः स्यादिति । भक्तिरस्य भजनम् । एतदिहामुत्रोपाधिनैराश्ये-
नामुष्मिन्मनःकल्पनम् । एतदेव च नैष्कर्म्यम् ।
कृष्णं तं विप्रा बहुधा यजन्ति
गोविन्दं सन्तं बहुधा आराधयन्ति ।
गोपीजनवल्लभो भुवनानि दध्रे
स्वाहाश्रितो जगदेतत्सुरेताः ॥ १॥
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
जन्येजन्ये पञ्चरूपो बभूव ।
कृष्णस्तदेकोऽपि जगद्धितार्थं
शब्देनासौ पञ्चपदो विभाति ॥ २॥ इति॥
ते होचुरुपासनमेतस्य परमात्मनो गोविन्दस्याखिलाधारिणो
ब्रूहीति । तानुवाच यत्तस्य पीठं हैरण्याष्टपलाशमम्बुजं
तदन्तराधिकानलास्त्रयुगं तदन्तरालाद्यर्णाखिलबीजं कृष्णाय
नम इति बीजाढ्यं सब्रह्मा ब्राह्मणमादायानङ्गगायत्रीं
यथावदालिख्य भूमण्डलं शूलवेष्टितं कृत्वाङ्गवासुदेवादि-
रुक्मिण्यादिस्वशक्तिं नन्दादिवसुदेवादिपार्थादिनिध्यादिवीतं
यजेत्सन्ध्यासु प्रतिपत्तिभिरुपचारैः । तेनास्याखिलं भवत्यखिलं
भवतीति ॥ २॥ तदिह श्लोका भवन्ति ।
एको वशी सर्वगः कृष्ण ईड्य
एकोऽपि सन्बहुधा यो विभाति ।
तं पीठं येऽनुभजन्ति धीरा-
स्तेषां सिद्धिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ ३॥
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनाना-
मेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तं पीठगं येऽनुभजन्ति धीरा-
स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ ४॥
एतद्विष्णोः परमं पदं ये
नित्योद्युक्तास्तं यजन्ति न कामात् ।
तेषामसौ गोपरूपःप्रयत्ना-
त्प्रकाशयेदात्मपदं तदेव ॥ ५॥
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो विद्यां तस्मै गोपयति स्म कृष्णः ।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं
मुमुक्षुः शरणं व्रजेत् ॥ ६॥
ओङ्कारेणान्तरितं ये जपन्ति
गोविन्दस्य पञ्चपदं मनुम् ।
तेषामसौ दर्शयेदात्मरूपं
तस्मान्मुमुक्षुरभ्यसेन्नित्यशान्तिः ॥ ७॥
एतस्मा एव पञ्चपदादभूव-
न्गोविन्दस्य मनवो मानवानाम् ।
दशार्णाद्यास्तेऽपि संक्रन्दनाद्यै-
रभ्यस्यन्ते भूतिकामैर्यथावत् ॥ ८॥
पप्रच्छुस्तदुहोवाच ब्रह्मसदनं चरतो मे ध्यातः
स्तुतः परमेश्वरः परार्धान्ते सोऽबुध्यत । कोपदेष्टा
मे पुरुषः पुरस्तादाविर्बभूव । ततः प्रणतो मायानुकूलेन
हृदा मह्यमष्टादशार्णस्वरूपं सृष्टये दत्त्वान्तर्हितः ।
पुनस्ते सिसृक्षतो मे प्रादुरभूवन् ।
तेष्वक्षरेषु विभज्य भविष्यज्जगद्रूपं प्राकाशयम् ।
तदिह कादाकालात्पृथिवीतोऽग्निर्बिन्दोरिन्दुस्तत्सम्पातात्तदर्क इति ।
क्लींकारादजस्रं कृष्णादाकाशं खाद्वायुरुत्तरात्सुरभिविद्याः
प्रादुरकार्षमकार्षमिति । तदुत्तरात्स्त्रीपुंसादिभेदं
सकलमिदं सकलमिदमिति ॥ ३॥
एतस्यैव यजनेन चन्द्रध्वजो गतमोहमात्मानं वेदयति ।
ओङ्कारालिकं मनुमावर्तयेत् । सङ्गरहितोभ्यानयत् । तद्विष्णोः
परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।
तस्मादेनं नित्यमावर्तवेन्नित्यमावर्तयेदिति । ॥४॥
तदाहुरेके यस्य प्रथमपदाद्भूमिर्द्वितीयपदाज्जलं
तृतीयपदात्तेजश्चतुर्थपदाद्वायुश्चरमपदाद्व्योमेति ।
वैष्णवं पञ्चव्याहृतिमथं मन्त्रं कृष्णावभासकं
कैवल्यस्य सृत्यै सततमावर्तयेत्सततमावर्तयेदिति ॥ ५॥
तदत्र गाथाः
यस्य चाद्यपदाद्भूमिर्द्वितीयात्सलिलोद्भवः ।
तृतीयात्तेज उद्भूतं चतुर्थाद्गन्धवाहनः ॥ १॥
पञ्चमादम्बरोत्पत्तिस्तमेवैकं समभ्यसेत् ।
चन्द्रध्वजोऽगमद्विष्णोः परमं पदमव्ययम् ॥ २॥
ततो विशुद्धं विमलं विशोक-
मशेषलोभादिनिरस्तसङ्गम् ।
यत्तत्पदं पञ्चपदं तदेव
स वासुदेवो न यतोऽन्यदस्ति ॥ ३॥
तमेकं गोविन्दं सच्चिदानन्दविग्रहं पञ्चपदं
वृन्दावनसुरभूरुहतलासीनं सततं मरुद्गणोऽहं
परमया स्तुत्या स्तोष्यामि ॥
ॐ नमो विश्वस्वरूपाय विश्वस्थित्यन्तहेतवे ।
विश्वेश्वराय विश्वाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ १॥
नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे ।
कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ २॥
नमः कमलनेत्राय नमः कमलमालिने ।
नमः कमलनाभाय कमलापतये नमः ॥ ३॥
बर्हापीडाभिरामाय रामायाकुण्ठमेधसे ।
रमामानसहंसाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ ४॥
कंसवंशविनाशाय केशिचाणूरघातिने ।
वृषभध्वजवन्द्याय पार्थसारथये नमः ॥ ५॥
वेणुनादविनोदाय गोपालायाहिमर्दिने ।
कालिन्दीकूललोलाय लोलकुण्डलधारिणे ॥ ६॥
पल्लवीवदनाम्भोजमालिने नृत्तशालिने ।
नमः प्रणतपालाय श्रीकृष्णाय नमोनमः ॥ ७॥
नमः पापप्रणाशाय गोवर्धनधराय च ।
पूतनाजीवितान्ताय तृणावर्तासुहारिणे ॥ ८॥
निष्कलाय विमोहाय शुद्धायाशुद्धवैरिणे ।
अद्वितीयाय महते श्रीकृष्णाय नमोननमः ॥ ९॥
प्रसीद परमानन्द प्रसीद परमेश्वर ।
आधिव्याधिभुजङ्गेन दष्टं मामुद्धर प्रभो ॥ १०॥
श्रीकृष्ण रुक्मिणीकान्त गोपीजनमनोहर ।
संसारसागरे मग्नं मामुद्धर जगद्गुरो ॥ ११॥
केशव क्लेशहरण नारायण जनार्दन ।
गोविन्द परमानन्द मां समुद्धर माधव ॥ १२॥
अथैवं स्तुतिभिराराधयामि । तथा यूयं पञ्चपदं जपन्तः
श्रीकृष्णं ध्यायन्तः संसृतिं तरिष्यथेति होवाच
हैरण्यगर्भः । अमुं पञ्चपदं मनुमार्तयेयेद्यः स
यात्यनायासतः केवलं तत्पदं तत् । अनेजदेकं मनसो जवीयो
नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षदिति । तस्मात्कृष्ण एव परमं
देवस्तं ध्यायेत् । तं रसयेत् । तं यजेत् । तं भजेत् ।
ॐ तत्सदित्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति गोपालपूर्वतापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥
ॐ एकदा हि व्रजस्त्रियः सकामाः शर्वरीमुषित्वा
सर्वेश्वरं गोपालं कृष्णमूचिरे । उवाच ताः
कृष्ण अमुकस्मै ब्राह्मणाय भैक्ष्यं दातव्यमिति
दुर्वासस इति । कथं यास्यामो जलं तीर्त्वा यमुनायाः ।
यतः श्रेयो भवति कृष्णेति ब्रह्मचारीत्युक्त्वा मार्गं
वो दास्यति । यं मां स्मृत्वाऽगाधा गाधा भवति ।
यं मां स्मृत्वाऽपूतः पूतो भवति । यं मां स्मृत्वाऽव्रती
व्रती भवति । यं मां स्मृत्वा सकामो निष्कामो भवति ।
यं मां स्मृत्वाऽश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति । यं मां
स्मृत्वाऽगाधतः स्पर्शरहितापि सर्वा सरिद्गाधा भवति ।
श्रुत्वा तद्वाक्यं हि वै रौद्रं स्मृत्वा तद्वाक्येन तीर्त्वा
तत्सौर्यां हि वै गत्वाश्रमं पुण्यतमं हि वै नत्वा मुनिं
श्रेष्ठतमं हि वै रौद्रं चेति । दत्त्वास्मै ब्राह्मणाय
क्षीरमयं घृतमयमिष्टतमं हि वै मृष्टतमं
हि तुष्टः स्नात्वा भुक्त्वा हित्वशिषं प्रयुज्यान्नं ज्ञात्वादात् ।
कथं यास्यामो तीर्त्वा सौर्याम् । स होवाच मुनिर्दुर्वासनं
मां स्मृत्वा वो दास्यतीति मार्गम् । तासां मध्ये हि श्रेष्ठा
गान्धर्वी ह्युवाच तं तं हि वै तामिः । एवं कथं कृष्णो
ब्रह्मचारी । कथं दुर्वासनो मुनिः । तां हि मुख्यां विधाय
पूर्वमनुकृत्वा तूष्णीमासुः । शब्दवानाकाशः शब्दाकाशाभ्यां
भिन्नः । तस्मिन्नाकाशस्तिष्ठति । आकाशे तिष्ठति
स ह्याकाशस्तं न वेद । स ह्यात्मा ।
अहं कथं भोक्ता भवामि । रूपवदिदं तेजो रूपाग्निभ्यां
भिन्नम् । तस्मिन्नग्निस्तिष्ठति । अग्नौ तिष्ठति अग्निस्तं
न वेद । स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि । रसवत्य
आपो रसाद्भ्यां भिन्नाः । तास्वापस्तिष्ठन्ति । अप्सु
भूमिर्गन्धभूमिभ्यां भिन्ना । तस्यां भूमिस्तिष्ठति ।
भूमौ तिष्ठति । भूमिस्तं न वेद । स ह्यात्मा । अहं कथं
भोक्ता भवामि । इदं हि मनसैवेदं मनुते । तानिदं हि गृह्णाति ।
यत्र सर्वमात्मैवाभूत्तत्र कुत्र वा मनुते । कथं वा गच्छतीति ।
स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि । अयं हि कृष्णो यो हि
प्रेष्ठः शरीरद्वयकारणं भवति । द्वा सुपर्णा भवतो
ब्रह्मणोऽहं संभूतस्तथेतरो भोक्ता भवति । अन्यो हि साक्षी
भवतीति । वृक्षधर्मे तौ तिष्ठतः । अतू भोक्तभोक्तारौ । पूर्वो
हि भोक्ता भवति । तथेतरोऽभोक्ता कृष्णो भवतीति । यत्र विद्याविद्ये
न विदाम । विद्याविद्याभ्यां भिन्नो विद्यामयो हि यः कथं विषयी
भवतीति । यो ह वै कामेन कामान्कामयते स कामी भवति । यो ह वै
त्वकामेन कामान्कामयते सोऽकामी भवति । जन्मजराभ्यां
भिन्नः स्थाणुरयमच्छेद्योऽयं योऽसौ सूर्ये तिष्ठति योऽसौ
गोषु तिष्ठति । योऽसौ गोपान्पालयति । योऽसौ सर्वेषु देवेषु
तिष्ठति । योऽसौ सर्वैर्देवैर्गीयते । योऽसौ सर्वेषु भूतेष्वाविश्य
भूतानि विदधाति स वो हि स्वामी भवति । सा होवाच गान्धर्वी ।
कथं वास्मासु जातो गोपालः कथं वा ज्ञातोऽसौ त्वया मुने कृष्णः ।
को वास्य मन्त्रः किं स्थानम् । कथं वा देवक्या जातः । को वास्य
जायाग्रामो भवति । कीदृशी पूजास्य गोपालस्य भवति । साक्षात्प्रकृति-
परोऽयमात्मा गोपालः कथं त्ववतीर्णो भूम्यां हि वै
सा गान्धर्वी मुनिमुवाच । स होवाच तां हि वै पूर्वं नारायणो
यस्मिंल्लोका ओताश्च प्रोताश्च तस्य हृत्पद्माजातोऽब्जयोनिस्तपस्तपस्तप्त्वा
तस्मै ह वरं ददौ । स कामप्रश्नमेव वव्रे । तं हास्मै ददौ ।
स होवाचाब्जयोनिः यो वावताराणां मध्ये श्रेष्ठोऽवतारः
को भवति । येन लोकास्तुष्टा भवन्ति । यं स्मृत्वा मुक्ता
अस्मात्संसाराद्भवन्ति । कथं वास्यावतारस्य ब्रह्मता भवति ।
स होवाच तं हि वै नारायणो देवः । सकाम्या मेरोः शृङ्गे
यथा सप्तपुर्यो भवन्ति तथा निष्काम्याः सकाम्या
भूगोपालचक्रे सप्तपुर्यो भवन्ति । तासां मध्ये साक्षाद्ब्रह्म
गोपालपुरी भवति । सकाम्या निष्काम्या देवानां सर्वेषां
भूतानां भवति । अथास्य भजनं भवति । यथा हि वै सरसि
पद्मं तिष्ठति तथा भूम्यां तिष्ठति । चक्रेण रक्षिता
मथुरा । तस्माद्गोपालपुरी भवति बृहद्बृहद्वनं मधोर्मधुवनं
तालस्तालवनं काम्यं काम्यवनं बहुला बहुलवनं कुमुदः
कुमुदवनं खदिरः खदिरवनं भद्रो भद्रवनं भाण्डीर इति
भाण्डीरवनं श्रीवनं लोहवनं वृन्दावनमेतैरावृता पुरी
भवति । तत्र तेष्वेव गगनेश्वेवं देवा मनुष्या गन्धर्वा नागाः
किंनरा गायन्ति नृत्यन्तीति । तत्र द्वादशादित्या एकादश रुद्रा
अष्टौ वसवः सप्त मुनयो ब्रह्मा नारदश्च पञ्च विनायका
वीरेश्वरो रुद्रेश्वरोऽम्बिकेश्वरो गणेश्वरो नीलकण्ठेश्वरो विश्वेश्वरो
गोपालेश्वरो भद्रेश्वर इत्यष्टावन्यानि लिङ्गानि चतुर्विंशतिर्भवन्ति ।
द्वे वने स्तः कृष्णवनं भद्रवनम् । तयोरन्तर्द्वादश वनानि
पुण्यानि पुण्यतमानि । तेश्वेव देवास्तिष्ठन्ति । सिद्धाः सिद्धिं प्राप्ताः ।
तत्र हि रामस्य राममूर्तिः प्रद्युम्नस्य प्रद्युम्नमूर्तिरनिरुद्धस्य-
अनिरुद्धमूर्तिः कृष्णस्य कृष्णमूर्तिः । वनेश्वेवं मथुरास्वेवं
द्वादश मूर्तयो भवन्ति । एकां हि रुद्रा यजन्ति । द्वितीयां हि ब्रह्मा यजति ।
तृतीयां ब्रह्मजा यजन्ति । चतुर्थीं मरुतो यजन्ति । पञ्चमीं विनायका
यजन्ति । षष्ठीं च वसवो यजन्ति । सप्तमीमृषयो यजन्ति ।
नवमीमप्सरसो यजन्ति । दशमी वै ह्यन्तर्धाने तिष्ठति । एकादशीति-
स्वपदानुगा । द्वादशीति भूम्यां तिष्ठति । तां हि ये यजन्ति ते
मृत्युं तरन्ति । मुक्तिं लभन्ते । गर्भजन्मजरामरणतापत्रयात्मकदुःखं
तरन्ति । तदप्येते श्लोका भवन्ति ।
सम्प्राप्य मथुरा रम्यां सदा ब्रह्मादिवन्दिताम् ।
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गरक्षितां मुसलादिभिः ॥ १॥
यत्रासौ संस्थितः कृष्णः स्त्रीभिः शक्त्या समाहितः ।
रमानिरुद्धप्रद्युम्नै रुक्मिण्या सहितो विभुः ॥ २॥
चतुःशब्दो भवेदेको ह्योंकारश्च उदाहृतः । तस्मादेव
परो रजसेति सोऽहमित्यवधार्यात्मानं गोपालोऽहमिति भावयेत् ।
स मोक्षमश्नुते । स ब्रह्मत्वमधिगच्छति । स ब्रह्मविद्भवति ।
स गोपाञ्जीवानात्मत्वेन सृष्टिपर्यन्तमालाति । स गोपालो
ह्यों भवति । तत्सत्सोऽहम् । परं ब्रह्म कृष्णात्मको
नित्यानन्दैक्यस्वरूपः सोऽहम् । तत्सद्गोपालोऽहमेव । परं
सत्यमबाधितं सोऽहमित्यत्मानमादाय मनसैक्यं कुर्यात् ।
आत्मानं गोपालोऽहमिति भावयेत् । स एवाव्यक्तोऽनन्तो नित्यो गोपालः ।
मथुरायां स्थितिर्ब्रह्मन्सर्वदा मे भविष्यति ।
शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाधरस्य वै ॥ १॥
विश्वरूपं परंज्योतिः स्वरूपं रूपवर्जितम् ।
मथुरामण्डले यस्तु जम्बूद्वीपे स्थितोऽपि वा ॥ २॥
योऽर्चयेत्प्रतिमां मां च स मे प्रियतरो भुवि ।
तस्यामधिष्ठितः कृष्णरूपी पूज्यस्त्वया सदा ॥ ३॥
चतुर्धा चास्यावतारभेदत्वेन यजन्ति माम् ।
युगानुवर्तिनो लोका यजन्तीह सुमेधसः ॥ ४॥
गोपालं सानुजं कृष्णं रुक्मिण्या सह तत्परम् ।
गोपालोऽहमजो नित्यः प्रद्युम्नोऽहं सनातनः ॥ ५॥
रामोऽहमनिरुद्धोऽहमात्मानं चार्चयेद्बुधः ।
मयोक्तेन स धर्मेण निष्कामेन विभागशः ॥ ६॥
तैरहं पूजनीयो हि भद्रकृष्णनिवासिभिः ।
तद्धर्मगतिहीना ये तस्यां मयि परायणाः ॥ ७॥
कलिना ग्रसिता ये वै तेषां तस्यामवस्थितिः ।
यथा त्वं सह पुत्रैस्तु यथा रुद्रो गणैः सह ॥ ८॥
यथा श्रियाभियुक्तोऽहं तथा भक्तो मम प्रियः ।
स होवाचाब्जयोनिश्चतुर्भिर्देवैः कथमेको देवः स्यात् ।
एकमक्षरं यद्विश्रुतमनेकाक्षरं कथं संभूतम् ।
स होवाच हि तं पूर्वमेकमेवाद्वितीयं ब्रह्मासीत् ।
तस्मादव्यक्तमेकाक्षरम् । तस्मदक्षरान्महत् ।
महतोऽहङ्कारः । तस्मादहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणि ।
तेभ्यो भूतानि । तैरावृतमक्षरम् ।
अक्षरोऽहमोंकारोऽयमजरोऽमरोऽभयोऽमृतो ब्रह्माभयं हि वै ।
स मुक्तोऽहमस्मि । अक्षरोऽहमस्मि ।
सत्तामात्रं चित्स्वरूपं प्रकाशं व्यापकं तथा ॥ ९॥
एकमेवाद्वयं ब्रह्म मायया च चतुष्टयम् ।
रोहिणीतनयो विश्व अकाराक्षरसंभवः ॥ १०॥
तैजसात्मकः प्रद्युम्न उकाराक्षरसंभवः ।
प्राज्ञात्मकोऽनिरुद्धोऽसौ मकाराक्षरसंभवः ॥ ११॥
अर्धमात्रात्मकः कृष्णो यस्मिन्विश्वं प्रतिष्ठितम् ।
कृष्णात्मिका जगत्कर्त्री मूलप्रकृती रुक्मिणी ॥ १२॥
व्रजस्त्रीजनसंभूतः श्रुतिभ्यो ज्ञानसंगतः ।
प्रणवत्वेन प्रकृतित्वं वदन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ १३॥
तस्मादोंकारसंभूतो गोपालो विश्वसंस्थितः ।
क्लीमोंकारस्यैकतत्वं वदन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ १४॥
मथुरायां विशेषेण मां ध्यायन्मोक्षमश्नुते ।
अष्टपत्रं विकसितं हृत्पद्मं तत्र संस्थितम् ॥ १५॥
दिव्यध्वजातपत्रैस्तु चिह्नितं चरणद्वयम् ।
श्रीवत्सलाञ्छनं हृत्स्थं कौस्तुभं प्रभया युतम् ॥ १६॥
चतुर्भुजं शङ्खचक्रशार्ङ्गपद्मगदान्वितम् ।
सुकेयूरान्वितं बाहुं कण्ठमालसुशोभितम् ॥ १७॥
द्युमत्किरीटमभयं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ।
हिरण्मयं सौम्यतनुं स्वभक्तायाभयप्रदम् ॥ १८॥
ध्यायेन्मनसि मां नित्यं वेणुशृङ्गधरं तु वा ।
मथ्यते तु जगत्सर्वं ब्रह्मज्ञानेन येन वा ॥ १९॥
मत्सारभूतं यद्यत्स्यान्मथुरा सा निगद्यते ।
अष्टदिक्पालकैर्भूमिपद्मं विकसितं जगत् ॥ २०॥
संसारार्णवसंजातं सेवितं मम मानसे ।
चन्द्रसूर्यत्विषो दिव्या ध्वजा मेरुर्हिरण्मयः ॥ २१॥
आतपत्रं ब्रह्मलोकमथोर्ध्वं चरणं स्मृतम् ।
श्रीवत्सस्य स्वरूपं तु वर्तते लाञ्छनैः सह ॥ २२॥
श्रीवत्सलक्षणं तस्मात्कथ्यते ब्रह्मवादिभिः ।
येन सूर्याग्निवाक्चन्द्रतेजसा स्वस्वरूपिणा ॥ २३॥
वर्तते कौस्तुभाख्यमणिं वदन्तीशमानिनः ।
सत्त्वं रजस्तम इति अहंकारश्चतुर्भुजः ॥ २४॥
पञ्चभूतात्मकं शङ्खं करे रजसि संस्थितम् ।
बालस्वरूपमित्यन्तं मनश्चक्रं निगद्यते ॥ २५॥
आद्या माया भवेच्छार्ङ्गं पद्मं विश्वं करे स्थितम् ।
आद्या विद्या गदा वेद्या सर्वदा मे करे स्थिता ॥ २६॥
धर्मार्थकामकेयूरैर्दिव्यैर्दिव्यमयेरितैः ।
कण्ठं तु निर्गुणं प्रोक्तं माल्यते आद्ययाऽजया ॥ २७॥
माला निगद्यते ब्रह्मंस्तव पुत्रैस्तु मानसैः ।
कूटस्थं सत्त्वरूपं च किरीटं प्रवदन्ति माम् ॥ २८॥
क्षीरोत्तरं प्रस्फुरन्तं कुण्डलं युगलं स्मृतम् ।
ध्यायेन्मम प्रियं नित्यं स मोक्षमधिगच्छति ॥ २९॥
स मुक्तो भवति तस्मै स्वात्मानं तु ददामि वै ।
एतत्सर्वं मया प्रोक्तं भविष्यद्वै विधे तव ॥ ३०॥
स्वरूपं द्विविधं चैव सगुणं निर्गुणात्मकम् ॥ ३१॥
स होवाचाब्जयोनिः । व्यक्तीनां मूर्तीनां प्रोक्तानां कथं
चाभरणानि भवन्ति । कथं वा देवा यजन्ति । रुद्रा यजन्ति ।
ब्रह्मा यजति । ब्रह्मजा यजन्ति । विनायका यजन्ति । द्वादशादित्या
यजन्ति । वसवो यजन्ति । गन्धर्वा यजन्ति । सपदानुगा अन्तर्धाने
तिष्ठन्ति । कां मनुष्या यजन्ति । सहोवाच तं हि वै नारायणो
देव आद्या व्यक्ता द्वादश मूर्तयः सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु
देवेषु सर्वेषु मनुष्येषु तिष्ठन्तीति । रुद्रेषु रौद्री
ब्रह्माणीषु ब्राह्मी देवेषु दैवी मनुष्येषु मानवी विनायकेषु
विघ्नविनाशिनी आदित्येषु ज्योतिर्गन्धर्वेषु गान्धर्वी अप्सरःस्वेवं
गौर्वसुष्वेवं काम्या अन्तर्धानेष्वप्रकाशिनी आविर्भावतिरोभावा
स्वपदे तिष्ठन्ति । तामसी राजसी सात्त्विकी मानुषी विज्ञानघन
आनन्दसच्चिदानन्दैकरसे भक्तियोगे तिष्ठति ।
ॐ प्राणात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै प्राणात्मने नमोनमः ॥ १॥
ॐ श्रीकृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै नमोनमः ॥ २॥
ॐअपानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै अपानात्मने नमोनमः ॥ ३॥
ॐ श्रीकृष्णायानिरुद्धाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ४॥
ॐ व्यानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै व्यानात्मने नमोनमः ॥ ५॥
ॐ श्रीकृष्णाय रामाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ६॥
ॐउदानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै उदानात्मने नमोनमः ॥ ७॥
ॐ श्रीकृष्णाय देवकीनन्दनाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ८॥
ॐ समानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै समानात्मने नमोनमः ॥ ९॥
ॐ श्रीगोपालाय निजस्वरूपाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १०॥
ॐ योऽसौ प्रधानात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ११॥
ॐ योऽसाविन्द्रियात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १२॥
ॐ योऽसौ भूतात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १३॥
ॐ योऽसावुत्तमपुरुषो गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तमै वै नमोनमः ॥ १४॥
ॐ योऽसौ ब्रह्म परं वै ब्रह्म ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १५॥
ॐ योऽसौ सर्वभूतात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै नमोनमः ॥ १६॥
ॐ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीतोऽन्तर्यामी गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १७॥
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः
साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ १८॥
रुद्राय नमः । आदित्याय नमः । विनायकाय नमः । सूर्याय नमः ।
विद्यायै नमः । इन्द्राय नमः । अग्नये नमः । यमाय नमः ।
निरृतये नमः । वरुणाय नमः । वायवे नमः । कुबेराय नमः ।
ईशानाय नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ।
दत्त्वा स्तुतिं पुण्यतमां ब्रह्मणे स्वस्वरूपिणे ।
कर्तृत्वं सर्वभूतानामन्तर्धानो बभूव सः ॥ १९॥
ब्रह्मणे ब्रह्मपुत्रेभ्यो नारदात्तु श्रुतं मुने ।
तथा प्रोक्तं तु गान्धर्वि गच्छ त्वं स्वालयान्तिकम् ॥ २०॥ इति॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति गोपालोत्तरतापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ छान्दोग्योपनिषत् ॥
॥ अथ छान्दोग्योपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्च्क्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिकारणमस्त्वनिकारणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ प्रथमोऽध्यायः ॥
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत ।
ओमिति ह्युद्गायति तस्योपव्याख्यानम् ॥ १.१.१॥
एषां भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या अपो रसः ।
अपामोषधयो रस ओषधीनां पुरुषो रसः
पुरुषस्य वाग्रसो वाच ऋग्रस ऋचः साम रसः
साम्न उद्गीथो रसः ॥ १.१.२॥
स एष रसानाꣳरसतमः परमः परार्ध्योऽष्टमो
यदुद्गीथः ॥ १.१.३॥
कतमा कतमर्क्कतमत्कतमत्साम कतमः कतम उद्गीथ
इति विमृष्टं भवति ॥ १.१.४॥
वागेवर्क्प्राणः सामोमित्येतदक्षरमुद्गीथः ।
तद्वा एतन्मिथुनं यद्वाक्च प्राणश्चर्क्च साम च ॥ १.१.५॥
तदेतन्मिथुनमोमित्येतस्मिन्नक्षरे सꣳसृज्यते
यदा वै मिथुनौ समागच्छत आपयतो वै
तावन्योन्यस्य कामम् ॥ १.१.६॥
आपयिता ह वै कामानां भवति य एतदेवं
विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्ते ॥ १.१.७॥
तद्वा एतदनुज्ञाक्षरं यद्धि किंचानुजानात्योमित्येव
तदाहैषो एव समृद्धिर्यदनुज्ञा समर्धयिता ह वै
कामानां भवति य एतदेवं विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्ते ॥ १.१.८॥
तेनेयं त्रयीविद्या वर्तते ओमित्याश्रावयत्योमिति
शꣳसत्योमित्युद्गायत्येतस्यैवाक्षरस्यापचित्यै महिम्ना
रसेन ॥ १.१.९॥
तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद ।
नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति
श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति
खल्वेतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति ॥ १.१.१०॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
देवासुरा ह वै यत्र संयेतिरे उभये प्राजापत्यास्तद्ध
देवा उद्गीथमाजह्रुरनेनैनानभिभविष्याम इति ॥ १.२.१॥
ते ह नासिक्यं प्राणमुद्गीथमुपासांचक्रिरे
तꣳ हासुराः पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयं जिघ्रति
सुरभि च दुर्गन्धि च पाप्मना ह्येष विद्धः ॥ १.२.२॥
अथ ह वाचमुद्गीथमुपासांचक्रिरे ताꣳ हासुराः पाप्मना
विविधुस्तस्मात्तयोभयं वदति सत्यं चानृतं च
पाप्मना ह्येषा विद्धा ॥ १.२.३॥
अथ ह चक्षुरुद्गीथमुपासांचक्रिरे तद्धासुराः
पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयं पश्यति दर्शनीयं
चादर्शनीयं च पाप्मना ह्येतद्विद्धम् ॥ १.२.४॥
अथ ह श्रोत्रमुद्गीथमुपासांचक्रिरे तद्धासुराः
पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयꣳ शृणोति श्रवणीयं
चाश्रवणीयं च पाप्मना ह्येतद्विद्धम् ॥ १.२.५॥
अथ ह मन उद्गीथमुपासांचक्रिरे तद्धासुराः
पाप्मना विविधुस्तस्मात्तेनोभयꣳसंकल्पते संकल्पनीयंच
चासंकल्पनीयं च पाप्मना ह्येतद्विद्धम् ॥ १.२.६॥
अथ ह य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासांचक्रिरे
तꣳहासुरा ऋत्वा विदध्वंसुर्यथाश्मानमाखणमृत्वा
विध्वꣳसेतैवम् ॥ १.२.७॥
यथाश्मानमाखणमृत्वा विध्वꣳसत एवꣳ हैव
स विध्वꣳसते य एवंविदि पापं कामयते
यश्चैनमभिदासति स एषोऽश्माखणः ॥ १.२.८॥
नैवैतेन सुरभि न दुर्गन्धि विजानात्यपहतपाप्मा ह्येष
तेन यदश्नाति यत्पिबति तेनेतरान्प्राणानवति एतमु
एवान्ततोऽवित्त्वोत्क्रमति व्याददात्येवान्तत इति ॥ १.२.९॥
तꣳ हाङ्गिरा उद्गीथमुपासांचक्र एतमु एवाङ्गिरसं
मन्यन्तेऽङ्गानां यद्रसः ॥ १.२.१०॥
तेन तꣳ ह बृहस्पतिरुद्गीथमुपासांचक्र एतमु एव बृहस्पतिं
मन्यन्ते वाग्घि बृहती तस्या एष पतिः ॥ १.२.११ ॥
तेन तꣳ हायास्य उद्गीथमुपासांचक्र एतमु एवायास्यं
मन्यन्त आस्याद्यदयते ॥ १.२.१२॥
तेन तꣳह बको दाल्भ्यो विदांचकार ।
स ह नैमिशीयानामुद्गाता बभूव स ह स्मैभ्यः
कामानागायति ॥ १.२.१३॥
आगाता ह वै कामानां भवति य एतदेवं
विद्वानक्षरमुद्गीथमुपास्त इत्यध्यात्मम् ॥ १.२.१४॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
अथाधिदैवतं य एवासौ तपति
तमुद्गीथमुपासीतोद्यन्वा एष प्रजाभ्य उद्गायति ।
उद्यꣳस्तमो भयमपहन्त्यपहन्ता ह वै भयस्य
तमसो भवति य एवं वेद ॥ १.३.१॥
समान उ एवायं चासौ चोष्णोऽयमुष्णोऽसौ
स्वर इतीममाचक्षते स्वर इति प्रत्यास्वर इत्यमुं
तस्माद्वा एतमिमममुं चोद्गीथमुपासीत ॥ १.३.२॥
अथ खलु व्यानमेवोद्गीथमुपासीत यद्वै प्राणिति
स प्राणो यदपानिति सोऽपानः ।
अथ यः प्राणापानयोः संधिः स व्यानो यो व्यानः
सा वाक् ।
तस्मादप्राणन्ननपानन्वाचमभिव्याहरति ॥ १.३.३॥
या वाक्सर्क्तस्मादप्राणन्ननपानन्नृचमभिव्याहरति
यर्क्तत्साम तस्मादप्राणन्ननपानन्साम गायति
यत्साम स उद्गीथस्तस्मादप्राणन्ननपानन्नुद्गायति ॥ १.३.४॥
अतो यान्यन्यानि वीर्यवन्ति कर्माणि यथाग्नेर्मन्थनमाजेः
सरणं दृढस्य धनुष आयमनमप्राणन्ननपानꣳस्तानि
करोत्येतस्य हेतोर्व्यानमेवोद्गीथमुपासीत ॥ १.३.५॥
अथ खलूद्गीथाक्षराण्युपासीतोद्गीथ इति
प्राण एवोत्प्राणेन ह्युत्तिष्ठति वाग्गीर्वाचो ह
गिर इत्याचक्षतेऽन्नं थमन्ने हीदꣳसर्वꣳस्थितम् ॥ १.३.६॥
द्यौरेवोदन्तरिक्षं गीः पृथिवी थमादित्य
एवोद्वायुर्गीरग्निस्थꣳ सामवेद एवोद्यजुर्वेदो
गीरृग्वेदस्थं दुग्धेऽस्मै वाग्दोहं यो वाचो
दोहोऽन्नवानन्नादो भवति य एतान्येवं
विद्वानुद्गीथाक्षराण्युपास्त उद्गीथ इति ॥ १.३.७॥
अथ खल्वाशीःसमृद्धिरुपसरणानीत्युपासीत
येन साम्ना स्तोष्यन्स्यात्तत्सामोपधावेत् ॥ १.३.८॥
यस्यामृचि तामृचं यदार्षेयं तमृषिं यां
देवतामभिष्टोष्यन्स्यात्तां देवतामुपधावेत् ॥ १.३.९॥
येन च्छन्दसा स्तोष्यन्स्यात्तच्छन्द उपधावेद्येन
स्तोमेन स्तोष्यमाणः स्यात्तꣳस्तोममुपधावेत् ॥ १.३.१०॥
यां दिशमभिष्टोष्यन्स्यात्तां दिशमुपधावेत् ॥ १.३.११॥
आत्मानमन्तत उपसृत्य स्तुवीत कामं
ध्यायन्नप्रमत्तोऽभ्याशो ह यदस्मै स कामः समृध्येत
यत्कामः स्तुवीतेति यत्कामः स्तुवीतेति ॥ १.३.१२॥
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीतोमिति ह्युद्गायति
तस्योपव्याख्यानम् ॥ १.४.१॥
देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्राविशꣳस्ते
छन्दोभिरच्छादयन्यदेभिरच्छादयꣳस्तच्छन्दसां
छन्दस्त्वम् ॥ १.४.२॥
तानु तत्र मृत्युर्यथा मत्स्यमुदके परिपश्येदेवं
पर्यपश्यदृचि साम्नि यजुषि ।
ते नु विदित्वोर्ध्वा ऋचः साम्नो यजुषः स्वरमेव
प्राविशन् ॥ १.४.३॥
यदा वा ऋचमाप्नोत्योमित्येवातिस्वरत्येवꣳसामैवं
यजुरेष उ स्वरो यदेतदक्षरमेतदमृतमभयं तत्प्रविश्य
देवा अमृता अभया अभवन् ॥ १.४.४॥
स य एतदेवं विद्वानक्षरं प्रणौत्येतदेवाक्षरꣳ
स्वरममृतमभयं प्रविशति तत्प्रविश्य यदमृता
देवास्तदमृतो भवति ॥ १.४.५॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
अथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः स उद्गीथ
इत्यसौ वा आदित्य उद्गीथ एष प्रणव ओमिति
ह्येष स्वरन्नेति ॥ १.५.१॥
एतमु एवाहमभ्यगासिषं तस्मान्मम त्वमेकोऽसीति
ह कौषीतकिः पुत्रमुवाच रश्मीꣳस्त्वं पर्यावर्तयाद्बहवो
वै ते भविष्यन्तीत्यधिदैवतम् ॥ १.५.२॥
अथाध्यात्मं य एवायं मुख्यः
प्राणस्तमुद्गीथमुपासीतोमिति ह्येष स्वरन्नेति ॥ १.५.३॥
एतमु एवाहमभ्यगासिषं तस्मान्मम त्वमेकोऽसीति ह
कौषीतकिः पुत्रमुवाच प्राणाꣳस्त्वं
भूमानमभिगायताद्बहवो वै मे भविष्यन्तीति ॥ १.५.४॥
अथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः
स उद्गीथ इति होतृषदनाद्धैवापि
दुरुद्गीथमनुसमाहरतीत्यनुसमाहरतीति ॥। १.५.५॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
इयमेवर्गग्निः साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढ़ꣳ साम
तस्मादृच्यध्यूढꣳसाम गीयत इयमेव
साग्निरमस्तत्साम ॥ १.६.१॥
अन्तरिक्षमेवर्ग्वायुः साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳ साम
तस्मादृच्यध्यूढꣳ साम गीयतेऽन्तरिक्षमेव सा
वायुरमस्तत्साम ॥ १.६.२॥
द्यौरेवर्गादित्यः साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳ साम
तस्मादृच्यध्यूढꣳ साम गीयते द्यौरेव
सादित्योऽमस्तत्साम ॥ १.६.३॥
नक्षत्रान्येवर्क्चन्द्रमाः साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳ साम
तस्मादृच्यध्यूढꣳ साम गीयते नक्षत्राण्येव सा चन्द्रमा
अमस्तत्साम ॥ १.६.४॥
अथ यदेतदादित्यस्य शुक्लं भाः सैवर्गथ यन्नीलं परः
कृष्णं तत्साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳ साम
तस्मादृच्यध्यूढꣳ साम गीयते ॥ १.६.५॥
अथ यदेवैतदादित्यस्य शुक्लं भाः सैव
साथ यन्नीलं परः कृष्णं तदमस्तत्सामाथ
य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते
हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणस्वात्सर्व एव
सुवर्णः ॥ १.६.६॥
तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी
तस्योदिति नाम स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित
उदेति ह वै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेद ॥ १.६.७॥
तस्यर्क्च साम च गेष्णौ
तस्मादुद्गीथस्तस्मात्त्वेवोद्गातैतस्य हि गाता
स एष ये चामुष्मात्पराञ्चो लोकास्तेषां चेष्टे
देवकामानां चेत्यधिदैवतम् ॥ १.६.८॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
अथाध्यात्मं वागेवर्क्प्राणः साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳ
साम तस्मादृच्यध्यूढꣳसाम गीयते।
वागेव सा प्राणोऽमस्तत्साम ॥ १.७.१॥
चक्षुरेवर्गात्मा साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳसाम
तस्मादृच्यध्यूढꣳसाम गीयते ।
चक्षुरेव सात्मामस्तत्साम ॥ १.७.२॥
श्रोत्रमेवर्ङ्मनः साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳसाम
तस्मादृच्यध्यूढꣳसाम गीयते ।
श्रोत्रमेव सा मनोऽमस्तत्साम ॥ १.७.३॥
अथ यदेतदक्ष्णः शुक्लं भाः सैवर्गथ यन्नीलं परः
कृष्णं तत्साम तदेतदेतस्यामृच्यध्यूढꣳसाम
तस्मादृच्यध्यूढꣳसाम गीयते ।
अथ यदेवैतदक्ष्णः शुक्लं भाः सैव साथ यन्नीलं परः
कृष्णं तदमस्तत्साम ॥ १.७.४॥
अथ य एषोऽन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते सैवर्क्तत्साम
तदुक्थं तद्यजुस्तद्ब्रह्म तस्यैतस्य तदेव रूपं यदमुष्य रूपं
यावमुष्य गेष्णौ तौ गेष्णौ यन्नाम तन्नाम ॥ १.७.५॥
स एष ये चैतस्मादर्वाञ्चो लोकास्तेषां चेष्टे मनुष्यकामानां
चेति तद्य इमे वीणायां गायन्त्येतं ते गायन्ति
तस्मात्ते धनसनयः ॥ १.७.६॥
अथ य एतदेवं विद्वान्साम गायत्युभौ स गायति
सोऽमुनैव स एष चामुष्मात्पराञ्चो
लोकास्ताꣳश्चाप्नोति देवकामाꣳश्च ॥ १.७.७॥
अथानेनैव ये चैतस्मादर्वाञ्चो लोकास्ताꣳश्चाप्नोति
मनुष्यकामाꣳश्च तस्मादु हैवंविदुद्गाता ब्रूयात् ॥ १.७.८॥
कं ते काममागायानीत्येष ह्येव कामागानस्येष्टे य
एवं विद्वान्साम गायति साम गायति ॥ १.७.९॥
॥ इति सप्तमः खण्डः ॥
त्रयो होद्गीथे कुशला बभूवुः शिलकः शालावत्यश्चैकितायनो
दाल्भ्यः प्रवाहणो जैवलिरिति ते होचुरुद्गीथे
वै कुशलाः स्मो हन्तोद्गीथे कथां वदाम इति ॥ १.८.१॥
तथेति ह समुपविविशुः स ह प्रावहणो जैवलिरुवाच
भगवन्तावग्रे वदतां ब्राह्मणयोर्वदतोर्वाचꣳ श्रोष्यामीति
॥ १.८.२॥
स ह शिलकः शालावत्यश्चैकितायनं दाल्भ्यमुवाच
हन्त त्वा पृच्छानीति पृच्छेति होवाच ॥ १.८.३॥
का साम्नो गतिरिति स्वर इति होवाच स्वरस्य का
गतिरिति प्राण इति होवाच प्राणस्य का
गतिरित्यन्नमिति होवाचान्नस्य का गतिरित्याप
इति होवाच ॥ १.८.४॥
अपां का गतिरित्यसौ लोक इति होवाचामुष्य लोकस्य
का गतिरिति न स्वर्गं लोकमिति नयेदिति होवाच स्वर्गं
वयं लोकꣳ सामाभिसंस्थापयामः स्वर्गसꣳस्तावꣳहि
सामेति ॥ १.८.५॥
तꣳ ह शिलकः शालावत्यश्चैकितायनं
दाल्भ्यमुवाचाप्रतिष्ठितं वै किल ते दाल्भ्य साम
यस्त्वेतर्हि ब्रूयान्मूर्धा ते विपतिष्यतीति मूर्धा ते
विपतेदिति ॥ १.८.६॥
हन्ताहमेतद्भगवतो वेदानीति विद्धीति होवाचामुष्य
लोकस्य का गतिरित्ययं लोक इति होवाचास्य लोकस्य
का गतिरिति न प्रतिष्ठां लोकमिति नयेदिति होवाच
प्रतिष्ठां वयं लोकꣳ सामाभिसꣳस्थापयामः
प्रतिष्ठासꣳस्तावꣳ हि सामेति ॥ १.८.७॥
तꣳ ह प्रवाहणो जैवलिरुवाचान्तवद्वै किल ते
शालावत्य साम यस्त्वेतर्हि ब्रूयान्मूर्धा ते विपतिष्यतीति
मूर्धा ते विपतेदिति हन्ताहमेतद्भगवतो वेदानीति
विद्धीति होवाच ॥ १.८.८॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
अस्य लोकस्य का गतिरित्याकाश इति होवाच
सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त
आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानकाशः
परायणम् ॥ १.९.१॥
स एष परोवरीयानुद्गीथः स एषोऽनन्तः परोवरीयो
हास्य भवति परोवरीयसो ह लोकाञ्जयति
य एतदेवं विद्वान्परोवरीयाꣳसमुद्गीथमुपास्ते ॥ १.९.२॥
तꣳ हैतमतिधन्वा शौनक उदरशाण्डिल्यायोक्त्वोवाच
यावत्त एनं प्रजायामुद्गीथं वेदिष्यन्ते परोवरीयो
हैभ्यस्तावदस्मिꣳल्लोके जीवनं भविष्यति ॥ १.९.३॥
तथामुष्मिꣳल्लोके लोक इति स य एतमेवं विद्वानुपास्ते
परोवरीय एव हास्यास्मिꣳल्लोके जीवनं भवति
तथामुष्मिꣳल्लोके लोक इति लोके लोक इति ॥ १.९.४॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
मटचीहतेषु कुरुष्वाटिक्या सह जाययोषस्तिर्ह
चाक्रायण इभ्यग्रामे प्रद्राणक उवास ॥ १.१०.१॥
स हेभ्यं कुल्माषान्खादन्तं बिभिक्षे तꣳ होवाच ।
नेतोऽन्ये विद्यन्ते यच्च ये म इम उपनिहिता इति
॥ १.१०.२॥
एतेषां मे देहीति होवाच तानस्मै प्रददौ
हन्तानुपानमित्युच्छिष्टं वै मे पीतꣳस्यादिति होवाच
॥ १.१०.३॥
न स्विदेतेऽप्युच्छिष्टा इति न वा
अजीविष्यमिमानखादन्निति होवाच कामो म
उदपानमिति ॥ १.१०.४॥
स ह खादित्वातिशेषाञ्जायाया आजहार साग्र एव
सुभिक्षा बभूव तान्प्रतिगृह्य निदधौ ॥ १.१०.५॥
स ह प्रातः संजिहान उवाच यद्बतान्नस्य लभेमहि
लभेमहि धनमात्राꣳराजासौ यक्ष्यते स मा
सर्वैरार्त्विज्यैर्वृणीतेति ॥ १.१०.६॥
तं जायोवाच हन्त पत इम एव कुल्माषा इति
तान्खादित्वामुं यज्ञं विततमेयाय ॥ १.१०.७॥
तत्रोद्गातॄनास्तावे स्तोष्यमाणानुपोपविवेश
स ह प्रस्तोतारमुवाच ॥ १.१०.८॥
प्रस्तोतर्या देवता प्रस्तावमन्वायत्ता तां चेदविद्वान्प्रस्तोष्यसि
मूर्धा ते विपतिष्यतीति ॥ १.१०.९॥
एवमेवोद्गातारमुवाचोद्गातर्या देवतोद्गीथमन्वायत्ता
तां चेदविद्वानुद्गास्यसि मूर्धा ते विपतिष्यतीति ॥ १.१०.१०॥
एवमेव प्रतिहर्तारमुवाच प्रतिहर्तर्या देवता
प्रतिहारमन्वायत्ता तां चेदविद्वान्प्रतिहरिष्यसि मूर्धा ते
विपतिष्यतीति ते ह समारतास्तूष्णीमासांचक्रिरे
॥ १.१०.११॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
अथ हैनं यजमान उवाच भगवन्तं वा अहं
विविदिषाणीत्युषस्तिरस्मि चाक्रायण इति होवाच ॥ १.११.१॥
स होवाच भगवन्तं वा अहमेभिः सर्वैरार्त्विज्यैः
पर्यैषिषं भगवतो वा अहमवित्त्यान्यानवृषि ॥ १.११.२॥
भगवाꣳस्त्वेव मे सर्वैरार्त्विज्यैरिति तथेत्यथ
तर्ह्येत एव समतिसृष्टाः स्तुवतां यावत्त्वेभ्यो धनं
दद्यास्तावन्मम दद्या इति तथेति ह यजमान उवाच
॥ १.११.३॥
अथ हैनं प्रस्तोतोपससाद प्रस्तोतर्या देवता
प्रस्तावमन्वायत्ता तां चेदविद्वान्प्रस्तोष्यसि मूर्धा ते
विपतिष्यतीति मा भगवानवोचत्कतमा सा देवतेति
॥ १.११.४॥
प्राण इति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि
प्राणमेवाभिसंविशन्ति प्राणमभ्युज्जिहते सैषा देवता
प्रस्तावमन्वायत्ता तां चेदविद्वान्प्रास्तोष्यो
मूर्धा ते व्यपतिष्यत्तथोक्तस्य मयेति ॥ १.११.५॥
अथ हैनमुद्गातोपससादोद्गातर्या देवतोद्गीथमन्वायत्ता
तां चेदविद्वानुद्गास्यसि मूर्धा ते विपतिष्यतीति
मा भगवानवोचत्कतमा सा देवतेति ॥ १.११.६॥
आदित्य इति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि
भूतान्यादित्यमुच्चैः सन्तं गायन्ति सैषा
देवतोद्गीथमन्वायत्ता तां चेदविद्वानुदगास्यो
मूर्धा ते व्यपतिष्यत्तथोक्तस्य मयेति ॥ १.११.७॥
अथ हैनं प्रतिहर्तोपससाद प्रतिहर्तर्या देवता
प्रतिहारमन्वायत्ता तां चेदविद्वान्प्रतिहरिष्यसि
मूर्धा ते विपतिष्यतीति मा भगवानवोचत्कतमा
सा देवतेति ॥ १.११.८॥
अन्नमिति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतन्यन्नमेव
प्रतिहरमाणानि जीवन्ति सैषा देवता प्रतिहारमन्वायत्ता
तां चेदविद्वान्प्रत्यहरिष्यो मूर्धा ते व्यपतिष्यत्तथोक्तस्य
मयेति तथोक्तस्य मयेति ॥ १.११.९॥
॥ इति एकादशः खण्डः ॥
अथातः शौव उद्गीथस्तद्ध बको दाल्भ्यो ग्लावो वा
मैत्रेयः स्वाध्यायमुद्वव्राज ॥ १.१२.१॥
तस्मै श्वा श्वेतः प्रादुर्बभूव तमन्ये श्वान
उपसमेत्योचुरन्नं नो भगवानागायत्वशनायामवा
इति ॥ १.१२.२॥
तान्होवाचेहैव मा प्रातरुपसमीयातेति तद्ध बको दाल्भ्यो
ग्लावो वा मैत्रेयः प्रतिपालयांचकार ॥ १.१२.३॥
ते ह यथैवेदं बहिष्पवमानेन स्तोष्यमाणाः सꣳरब्धाः
सर्पन्तीत्येवमाससृपुस्ते ह समुपविश्य
हिं चक्रुः ॥ १.१२.४॥
ओ३मदा३मों३पिबा३मों३ देवो वरुणः
प्रजपतिः सविता२न्नमिहा२हरदन्नपते३ऽन्नमिहा
२हरा२हरो३मिति ॥ १.१२.५॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
अयं वाव लोको हाउकारः वायुर्हाइकारश्चन्द्रमा
अथकारः । आत्मेहकारोऽग्निरीकारः ॥ १.१३.१॥
आदित्य ऊकारो निहव एकारो विश्वे देवा
औहोयिकारः प्रजपतिर्हिंकारः प्राणः स्वरोऽन्नं या
वाग्विराट् ॥ १.१३.२॥
अनिरुक्तस्त्रयोदशः स्तोभः संचरो हुंकारः ॥ १.१३.३॥
दुग्धेऽस्मै वाग्दोहं यो वाचो दोहोऽन्नवानन्नादो भवति
य एतामेवꣳसाम्नामुपनिषदं वेदोपनिषदं वेदेति ॥ १.१३.४॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥
समस्तस्य खलु साम्न उपासनꣳ साधु यत्खलु साधु
तत्सामेत्याचक्षते यदसाधु तदसामेति ॥ २.१.१॥
तदुताप्याहुः साम्नैनमुपागादिति साधुनैनमुपागादित्येव
तदाहुरसाम्नैनमुपागादित्यसाधुनैनमुपगादित्येव
तदाहुः ॥ २.१.२॥
अथोताप्याहुः साम नो बतेति यत्साधु भवति साधु बतेत्येव
तदाहुरसाम नो बतेति यदसाधु भवत्यसाधु बतेत्येव
तदाहुः ॥ २.१.३॥
स य एतदेवं विद्वानसाधु सामेत्युपास्तेऽभ्याशो ह यदेनꣳ
साधवो धर्मा आ च गच्छेयुरुप च नमेयुः ॥ २.१.४॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
लोकेषु पञ्चविधꣳ सामोपासीत पृथिवी हिंकारः ।
अग्निः प्रस्तावोऽन्तरिक्षमुद्गीथ आदित्यः प्रतिहारो
द्यौर्निधनमित्यूर्ध्वेषु ॥ २.२.१॥
अथावृत्तेषु द्यौर्हिंकार आदित्यः
प्रस्तावोऽन्तरिक्षमुद्गीथोऽग्निः प्रतिहारः पृथिवी
निधनम् ॥ २.२.२॥
कल्पन्ते हास्मै लोका ऊर्ध्वाश्चावृत्ताश्च य एतदेवं
विद्वाꣳल्लोकेषु पञ्चविधं सामोपास्ते ॥ २.२.३॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
वृष्टौ पञ्चविधꣳ सामोपासीत पुरोवातो हिंकारो
मेघो जायते स प्रस्तावो वर्षति स उद्गीथो विद्योतते
स्तनयति स प्रतिहार उद्गृह्णाति तन्निधनम् ॥ २.३.१॥
वर्षति हास्मै वर्षयति ह य एतदेवं विद्वान्वृष्टौ
पञ्चविधꣳसामोपास्ते ॥ २.३.२॥
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
सर्वास्वप्सु पञ्चविधꣳसामोपासीत मेघो यत्सम्प्लवते
स हिंकारो यद्वर्षति स प्रस्तावो याः प्राच्यः स्यन्दन्ते
स उद्गीथो याः प्रतीच्यः स प्रतिहारः
समुद्रो निधनम् ॥ २.४.१॥
न हाप्सु प्रैत्यप्सुमान्भवति य एतदेवं विद्वान्सर्वास्वप्सु
पञ्चविधꣳसामोपास्ते ॥ २.४.२॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
ऋतुषु पञ्चविधꣳ सामोपासीत वसन्तो हिंकारः
ग्रीष्मः प्रस्तावो वर्षा उद्गीथः शरत्प्रतिहारो
हेमन्तो निधनम् ॥ २.५.१॥
कल्पन्ते हास्मा ऋतव ऋतुमान्भवति य एतदेवं
विद्वानृतुषु पञ्चविधꣳ सामोपास्ते ॥ २.५.२॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
पशुषु पञ्चविधꣳ सामोपासीताजा हिंकारोऽवयः
प्रस्तावो गाव उद्गीथोऽश्वाः प्रतिहारः
पुरुषो निधनम् ॥ २.६.१॥
भवन्ति हास्य पशवः पशुमान्भवति य एतदेवं
विद्वान्पशुषु पञ्चविधꣳ सामोपास्ते ॥ २.६.२॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
प्राणेषु पञ्चविधं परोवरीयः सामोपासीत प्राणो
हिंकारो वाक्प्रस्तावश्चक्षुरुद्गीथः श्रोत्रं प्रतिहारो
मनो निधनं परोवरीयाꣳसि वा एतानि ॥ २.७.१॥
परोवरीयो हास्य भवति परोवरीयसो ह लोकाञ्जयति
य एतदेवं विद्वान्प्राणेषु पञ्चविधं परोवरीयः
सामोपास्त इति तु पञ्चविधस्य ॥ २.७.२॥
॥ इति सप्तमः खण्डः ॥
अथ सप्तविधस्य वाचि सप्तविध्ꣳ सामोपासीत
यत्किंच वाचो हुमिति स हिंकारो यत्प्रेति स प्रस्तावो
यदेति स आदिः ॥ २.८.१॥
यदुदिति स उद्गीथो यत्प्रतीति स प्रतिहारो
यदुपेति स उपद्रवो यन्नीति तन्निधनम् ॥ २.८.२॥
दुग्धेऽस्मै वाग्दोहं यो वाचो दोहोऽन्नवानन्नादो भवति
य एतदेवं विद्वान्वाचि सप्तविधꣳ सामोपास्ते ॥ २.८.३॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
अथ खल्वमुमादित्यꣳसप्तविधꣳ सामोपासीत सर्वदा
समस्तेन साम मां प्रति मां प्रतीति सर्वेण
समस्तेन साम ॥ २.९.१॥
तस्मिन्निमानि सर्वाणि भूतान्यन्वायत्तानीति
विद्यात्तस्य यत्पुरोदयात्स हिंकारस्तदस्य
पशवोऽन्वायत्तास्तस्मात्ते हिं कुर्वन्ति
हिंकारभाजिनो ह्येतस्य साम्नः ॥ २.९.२॥
अथ यत्प्रथमोदिते स प्रस्तावस्तदस्य मनुष्या
अन्वायत्तास्तस्मात्ते प्रस्तुतिकामाः प्रशꣳसाकामाः
प्रस्तावभाजिनो ह्येतस्य साम्नः ॥ २.९.३॥
अथ यत्संगववेलायाꣳ स आदिस्तदस्य वयाꣳस्यन्वायत्तानि
तस्मात्तान्यन्तरिक्षेऽनारम्बणान्यादायात्मानं
परिपतन्त्यादिभाजीनि ह्येतस्य साम्नः ॥ २.९.४॥
अथ यत्सम्प्रतिमध्यंदिने स उद्गीथस्तदस्य
देवा अन्वायत्तास्तस्मात्ते सत्तमाः
प्राजापत्यानामुद्गीथभाजिनो ह्येतस्य साम्नः ॥ २.९.५॥
अथ यदूर्ध्वं मध्यंदिनात्प्रागपराह्णात्स
प्रतिहारस्तदस्य गर्भा अन्वायत्तास्तस्मात्ते
प्रतिहृतानावपद्यन्ते प्रतिहारभाजिनो
ह्येतस्य साम्नः ॥ २.९.६॥
अथ यदूर्ध्वमपराह्णात्प्रागस्तमयात्स
उपद्रवस्तदस्यारण्या अन्वायत्तास्तस्मात्ते पुरुषं
दृष्ट्वा कक्षꣳश्वभ्रमित्युपद्रवन्त्युपद्रवभाजिनो
ह्येतस्य साम्नः ॥ २.९.७॥
अथ यत्प्रथमास्तमिते तन्निधनं तदस्य
पितरोऽन्वायत्तास्तस्मात्तान्निदधति निधनभाजिनो
ह्येतस्य साम्न एवं खल्वमुमादित्यꣳ सप्तविधꣳ
सामोपास्ते ॥ २.९.८॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
अथ खल्वात्मसंमितमतिमृत्यु सप्तविधꣳ
सामोपासीत हिंकार इति त्र्यक्षरं प्रस्ताव
इति त्र्यक्षरं तत्समम् ॥ २.१०.१॥
आदिरिति द्व्यक्षरं प्रतिहार इति चतुरक्षरं
तत इहैकं तत्समम् ॥ २.१०.२॥
उद्गीथ इति त्र्यक्षरमुपद्रव इति चतुरक्षरं
त्रिभिस्त्रिभिः समं भवत्यक्षरमतिशिष्यते
त्र्यक्षरं तत्समम् ॥ २.१०.३॥
निधनमिति त्र्यक्षरं तत्सममेव भवति
तानि ह वा एतानि द्वाविꣳशतिरक्षराणि ॥ २.१०.४॥
एकविꣳशत्यादित्यमाप्नोत्येकविꣳशो वा
इतोऽसावादित्यो द्वाविꣳशेन परमादित्याज्जयति
तन्नाकं तद्विशोकम् ॥ २.१०.५॥
आप्नोती हादित्यस्य जयं परो हास्यादित्यजयाज्जयो
भवति य एतदेवं विद्वानात्मसंमितमतिमृत्यु
सप्तविधꣳ सामोपास्ते सामोपास्ते ॥ २.१०.६॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
मनो हिंकारो वाक्प्रस्तावश्चक्षुरुद्गीथः श्रोत्रं प्रतिहारः
प्राणो निधनमेतद्गायत्रं प्राणेषु प्रोतम् ॥ २.११.१॥
स एवमेतद्गायत्रं प्राणेषु प्रोतं वेद प्राणी भवति
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति
महान्कीर्त्या महामनाः स्यात्तद्व्रतम् ॥ २.११.२॥
॥ इति एकदशः खण्डः ॥
अभिमन्थति स हिंकारो धूमो जायते स प्रस्तावो
ज्वलति स उद्गीथोऽङ्गारा भवन्ति स प्रतिहार
उपशाम्यति तन्निधनꣳ सꣳशाम्यति
तन्निधनमेतद्रथंतरमग्नौ प्रोतम् ॥ २.१२.१॥
स य एवमेतद्रथंतरमग्नौ प्रोतं वेद ब्रह्मवर्चस्यन्नादो
भवति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया
पशुभिर्भवति महान्कीर्त्या न प्रत्यङ्ङग्निमाचामेन्न
निष्ठीवेत्तद्व्रतम् ॥ २.१२.२॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः
स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः प्रति स्त्रीं सह शेते
स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं पारं गच्छति
तन्निधनमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतम् ॥ २.१३.१॥
स य एवमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतं वेद
मिथुनी भवति मिथुनान्मिथुनात्प्रजायते
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति
महान्कीर्त्या न कांचन परिहरेत्तद्व्रतम् ॥ २.१३.२॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
उद्यन्हिंकार उदितः प्रस्तावो मध्यंदिन उद्गीथोऽपराह्णः
प्रतिहारोऽस्तं यन्निधनमेतद्बृहदादित्ये प्रोतम् ॥ २.१४.१॥
स य एवमेतद्बृहदादित्ये प्रोतं वेद तेजस्व्यन्नादो
भवति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया
पशुभिर्भवति महान्कीर्त्या तपन्तं न निन्देत्तद्व्रतम्
॥ २.१४.२॥
॥ इति चतुर्दशः खण्डः ॥
अभ्राणि सम्प्लवन्ते स हिंकारो मेघो जायते
स प्रस्तावो वर्षति स उद्गीथो विद्योतते स्तनयति
स प्रतिहार उद्गृह्णाति तन्निधनमेतद्वैरूपं पर्जन्ये प्रोतम्
॥ २.१५.१॥
स य एवमेतद्वैरूपं पर्जन्ये प्रोतं वेद
विरूपाꣳश्च सुरूपꣳश्च पशूनवरुन्धे
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति
महान्कीर्त्या वर्षन्तं न निन्देत्तद्व्रतम् ॥ २.१५.२॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
वसन्तो हिंकारो ग्रीष्मः प्रस्तावो वर्षा उद्गीथः
शरत्प्रतिहारो हेमन्तो निधनमेतद्वैराजमृतुषु प्रोतम्
॥ २.१६.१॥
स य एवमेतद्वैराजमृतुषु प्रोतं वेद विराजति
प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन सर्वमायुरेति
ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति
महान्कीर्त्यर्तून्न निन्देत्तद्व्रतम् ॥ २.१६.२॥
॥ इति षोडशः खण्डः ॥
पृथिवी हिंकारोऽन्तरिक्षं प्रस्तावो द्यौरुद्गीथो
दिशः प्रतिहारः समुद्रो निधनमेताः शक्वर्यो
लोकेषु प्रोताः ॥ २.१७.१॥
स य एवमेताः शक्वर्यो लोकेषु प्रोता वेद लोकी भवति
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति
महान्कीर्त्या लोकान्न निन्देत्तद्व्रतम् ॥ २.१७.२॥
॥ इति सप्तदशः खण्डः ॥
अजा हिंकारोऽवयः प्रस्तावो गाव उद्गीथोऽश्वाः प्रतिहारः
पुरुषो निधनमेता रेवत्यः पशुषु प्रोताः ॥ २.१८.१॥
स य एवमेता रेवत्यः पशुषु प्रोता वेद
पशुमान्भवति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति
महान्प्रजया पशुभिर्भवति महान्कीर्त्या
पशून्न निन्देत्तद्व्रतम् ॥ २.१८.२॥
॥ इति अष्टादशः खण्डः ॥
लोम हिंकारस्त्वक्प्रस्तावो माꣳसमुद्गीथोस्थि
प्रतिहारो मज्जा निधनमेतद्यज्ञायज्ञीयमङ्गेषु
प्रोतम् ॥ २.१९.१॥
स य एवमेतद्यज्ञायज्ञीयमङ्गेषु प्रोतं वेदाङ्गी भवति
नाङ्गेन विहूर्छति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति
महान्प्रजया पशुभिर्भवति महान्कीर्त्या संवत्सरं
मज्ज्ञो नाश्नीयात्तद्व्रतं मज्ज्ञो
नाश्नीयादिति वा ॥ २.१९.२॥
॥ इति एकोनविंशः खण्डः ॥
अग्निर्हिंकारो वायुः प्रस्ताव आदित्य उद्गीथो
नक्षत्राणि प्रतिहारश्चन्द्रमा निधनमेतद्राजनं
देवतासु प्रोतम् ॥ २.२०.१॥
स य एवमेतद्राजनं देवतासु प्रोतं वेदैतासामेव
देवतानाꣳसलोकताꣳसर्ष्टिताꣳसायुज्यं गच्छति
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति
महान्कीर्त्या ब्राह्मणान्न निन्देत्तद्व्रतम् ॥ २.२०.२॥
॥ इति विंशः खण्डः ॥
त्रयी विद्या हिंकारस्त्रय इमे लोकाः स
प्रस्तावोऽग्निर्वायुरादित्यः स उद्गीथो नक्षत्राणि
वयाꣳसि मरीचयः स प्रतिहारः सर्पा गन्धर्वाः
पितरस्तन्निधनमेतत्साम सर्वस्मिन्प्रोतम् ॥ २.२१.१॥
स य एवमेतत्साम सर्वस्मिन्प्रोतं वेद सर्वꣳ ह
भवति ॥ २.२१.२॥
तदेष श्लोको यानि पञ्चधा त्रीणी त्रीणि
तेभ्यो न ज्यायः परमन्यदस्ति ॥ २.२१.३॥
यस्तद्वेद स वेद सर्वꣳ सर्वा दिशो बलिमस्मै हरन्ति
सर्वमस्मीत्युपासित तद्व्रतं तद्व्रतम् ॥ २.२१.४॥
॥ इति एकविंशः खण्डः ॥
विनर्दि साम्नो वृणे पशव्यमित्यग्नेरुद्गीथोऽनिरुक्तः
प्रजापतेर्निरुक्तः सोमस्य मृदु श्लक्ष्णं वायोः
श्लक्ष्णं बलवदिन्द्रस्य क्रौञ्चं बृहस्पतेरपध्वान्तं
वरुणस्य तान्सर्वानेवोपसेवेत वारुणं त्वेव वर्जयेत् ॥ २.२२.१॥
अमृतत्वं देवेभ्य आगायानीत्यागायेत्स्वधां
पितृभ्य आशां मनुष्येभ्यस्तृणोदकं पशुभ्यः
स्वर्गं लोकं यजमानायान्नमात्मन आगायानीत्येतानि
मनसा ध्यायन्नप्रमत्तः स्तुवीत ॥ २.२२.२॥
सर्वे स्वरा इन्द्रस्यात्मानः सर्व ऊष्माणः
प्रजापतेरात्मानः सर्वे स्पर्शा मृत्योरात्मानस्तं
यदि स्वरेषूपालभेतेन्द्रꣳशरणं प्रपन्नोऽभूवं
स त्वा प्रति वक्ष्यतीत्येनं ब्रूयात् ॥ २.२२.३॥
अथ यद्येनमूष्मसूपालभेत प्रजापतिꣳशरणं
प्रपन्नोऽभूवं स त्वा प्रति पेक्ष्यतीत्येनं
ब्रूयादथ यद्येनꣳ स्पर्शेषूपालभेत मृत्युꣳ शरणं
प्रपन्नोऽभूवं स त्वा प्रति धक्ष्यतीत्येनं ब्रूयात्
॥ २.२२.४॥
सर्वे स्वरा घोषवन्तो बलवन्तो वक्तव्या इन्द्रे बलं
ददानीति सर्व ऊष्माणोऽग्रस्ता अनिरस्ता विवृता
वक्तव्याः प्रजापतेरात्मानं परिददानीति सर्वे स्पर्शा
लेशेनानभिनिहिता वक्तव्या मृत्योरात्मानं
परिहराणीति ॥ २.२२.५॥
॥ इति द्वाविंशः खण्डः ॥
त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमस्तप
एव द्वितीयो ब्रह्मचार्याचार्यकुलवासी
तृतीयोऽत्यन्तमात्मानमाचार्यकुलेऽवसादयन्सर्व
एते पुण्यलोका भवन्ति ब्रह्मसꣳस्थोऽमृतत्वमेति ॥ २.२३.१॥
प्रजापतिर्लोकानभ्यतपत्तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयी विद्या
सम्प्रास्रवत्तामभ्यतपत्तस्या अभितप्ताया एतान्यक्षराणि
सम्प्रास्र्वन्त भूर्भुवः स्वरिति ॥ २.२३.२॥
तान्यभ्यतपत्तेभ्योऽभितप्तेभ्य ॐकारः
सम्प्रास्रवत्तद्यथा शङ्कुना सर्वाणि पर्णानि
संतृण्णान्येवमोंकारेण सर्वा वाक्संतृण्णोंकार एवेदꣳ
सर्वमोंकार एवेदꣳ सर्वम् ॥ २.२३.३॥
॥ इति त्रयोविंशः खण्डः ॥
ब्रह्मवादिनो वदन्ति यद्वसूनां प्रातः सवनꣳ रुद्राणां
माध्यंदिनꣳ सवनमादित्यानां च विश्वेषां च
देवानां तृतीयसवनम् ॥ २.२४.१॥
क्व तर्हि यजमानस्य लोक इति स यस्तं न विद्यात्कथं
कुर्यादथ विद्वान्कुर्यात् ॥ २.२४.२॥
पुरा प्रातरनुवाकस्योपाकरणाज्जघनेन
गार्हपत्यस्योदाङ्मुख उपविश्य स वासवꣳ
सामाभिगायति ॥ २.२४.३॥
लो३कद्वारमपावा३र्णू ३३ पश्येम त्वा वयꣳ
रा ३३३३३ हु ३ म् आ ३३ ज्या ३ यो ३ आ ३२१११
इति ॥ २.२४.४॥
अथ जुहोति नमोऽग्नये पृथिवीक्षिते लोकक्षिते
लोकं मे यजमानाय विन्दैष वै यजमानस्य लोक
एतास्मि ॥ २.२४.५॥
अत्र यजमानः परस्तादायुषः स्वाहापजहि
परिघमित्युक्त्वोत्तिष्ठति तस्मै वसवः प्रातःसवनꣳ
सम्प्रयच्छन्ति ॥ २.२४.६॥
पुरा माध्यंदिनस्य
सवनस्योपाकरणाज्जघनेनाग्नीध्रीयस्योदङ्मुख
उपविश्य स रौद्रꣳसामाभिगायति ॥ २.२४.७॥
लो३कद्वारमपावा३र्णू३३ पश्येम त्वा वयं
वैरा३३३३३ हु३म् आ३३ज्या ३यो३आ३२१११इति
॥ २.२४.८॥
अथ जुहोति नमो वायवेऽन्तरिक्षक्षिते लोकक्षिते
लोकं मे यजमानाय विन्दैष वै यजमानस्य लोक
एतास्मि ॥ २.२४.९॥
अत्र यजमानः परस्तादायुषः स्वाहापजहि
परिघमित्युक्त्वोत्तिष्ठति तस्मै रुद्रा
माध्यंदिनꣳसवनꣳसम्प्रयच्छन्ति ॥ २.२४.१०॥
पुरा तृतीयसवनस्योपाकरणाज्जघनेनाहवनीयस्योदङ्मुख
उपविश्य स आदित्यꣳस वैश्वदेवꣳ सामाभिगायति
॥ २.२४.११॥
लो३कद्वारमपावा३र्णू३३पश्येम त्वा वयꣳ स्वारा
३३३३३ हु३म् आ३३ ज्या३ यो३आ ३२१११ इति
॥ २.२४.१२॥
आदित्यमथ वैश्वदेवं लो३कद्वारमपावा३र्णू३३ पश्येम
त्वा वयꣳसाम्रा३३३३३ हु३म् आ३३ ज्या३यो३आ ३२१११
इति ॥ २.२४.१३॥
अथ जुहोति नम आदित्येभ्यश्च विश्वेभ्यश्च देवेभ्यो
दिविक्षिद्भ्यो लोकक्षिद्भ्यो लोकं मे यजमानाय
विन्दत ॥ २.२४.१४॥
एष वै यजमानस्य लोक एतास्म्यत्र यजमानः
परस्तादायुषः स्वाहापहत परिघमित्युक्त्वोत्तिष्ठति
॥ २.२४.१५॥
तस्मा आदित्याश्च विश्वे च देवास्तृतीयसवनꣳ
सम्प्रयच्छन्त्येष ह वै यज्ञस्य मात्रां वेद य एवं वेद
य एवं वेद ॥ २.२४.१६॥
॥ इति चतुर्विंशः खण्डः ॥
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः ॥
असौ वा आदित्यो देवमधु तस्य द्यौरेव
तिरश्चीनवꣳशोऽन्तरिक्षमपूपो मरीचयः पुत्राः ॥ ३.१.१॥
तस्य ये प्राञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्राच्यो मधुनाड्यः ।
ऋच एव मधुकृत ऋग्वेद एव पुष्पं ता अमृता
आपस्ता वा एता ऋचः ॥ ३.१.२॥
एतमृग्वेदमभ्यतपꣳस्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज
इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यꣳरसोऽजायत ॥ ३.१.३॥
तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा
एतद्यदेतदादित्यस्य रोहितꣳरूपम् ॥ ३.१.४॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
अथ येऽस्य दक्षिणा रश्मयस्ता एवास्य दक्षिणा
मधुनाड्यो यजूꣳष्येव मधुकृतो यजुर्वेद एव पुष्पं
ता अमृत आपः ॥ ३.२.१॥
तानि वा एतानि यजूꣳष्येतं
यजुर्वेदमभ्यतपꣳस्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं
वीर्यमन्नाद्यꣳरसोजायत ॥ ३.२.२॥
तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा
एतद्यदेतदादित्यस्य शुक्लꣳ रूपम् ॥ ३.२.३॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
अथ येऽस्य प्रत्यञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्रतीच्यो
मधुनाड्यः सामान्येव मधुकृतः सामवेद एव पुष्पं
ता अमृता आपः ॥ ३.३.१॥
तानि वा एतानि सामान्येतꣳ
सामवेदमभ्यतपꣳस्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं
वीर्यमन्नाद्यꣳरसोऽजायत ॥ ३.३.२॥
तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा
एतद्यदेतदादित्यस्य कृष्णꣳरूपम् ॥ ३.३.३॥
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
अथ येऽस्योदञ्चो रश्मयस्ता एवास्योदीच्यो
मधुनाड्योऽथर्वाङ्गिरस एव मधुकृत
इतिहासपुराणं पुष्पं ता अमृता आपः ॥ ३.४.१॥
ते वा एतेऽथर्वाङ्गिरस एतदितिहासपूराणमभ्यतपꣳ
स्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियां
वीर्यमन्नाद्यꣳरसोऽजायत ॥ ३.४.२॥
तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा
एतद्यदेतदादित्यस्य परं कृष्णꣳरूपम् ॥ ३.४.३॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
अथ येऽस्योर्ध्वा रश्मयस्ता एवास्योर्ध्वा
मधुनाड्यो गुह्या एवादेशा मधुकृतो ब्रह्मैव
पुष्पं ता अमृता आपः ॥ ३.५.१॥
ते वा एते गुह्या आदेशा एतद्ब्रह्माभ्यतपꣳ
स्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं
वीर्यमन्नाद्यꣳरसोऽजायत ॥ ३.५.२॥
तद्व्यक्षरत्तदादित्यमभितोऽश्रयत्तद्वा
एतद्यदेतदादित्यस्य मध्ये क्षोभत इव ॥ ३.५.३॥
ते वा एते रसानाꣳरसा वेदा हि रसास्तेषामेते
रसास्तानि वा एतान्यमृतानाममृतानि वेदा
ह्यमृतास्तेषामेतान्यमृतानि ॥ ३.५.४॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
तद्यत्प्रथमममृतं तद्वसव उपजीवन्त्यग्निना मुखेन न वै
देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा
तृप्यन्ति ॥ ३.६.१॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३.६.२॥
स य एतदेवममृतं वेद वसूनामेवैको भूत्वाग्निनैव
मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स य एतदेव
रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३.६.३॥
स यावदादित्यः पुरस्तादुदेता पश्चादस्तमेता
वसूनामेव तावदाधिपत्यꣳस्वाराज्यं पर्येता ॥ ३.६.४॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
अथ यद्द्वितीयममृतं तद्रुद्रा उपजीवन्तीन्द्रेण
मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं
दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३.७.१॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३.७.२॥
स य एतदेवममृतं वेद रुद्राणामेवैको भूत्वेन्द्रेणैव
मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव
रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३.७.३॥
स यावदादित्यः पुरस्तादुदेता पश्चादस्तमेता
द्विस्तावद्दक्षिणत उदेतोत्तरतोऽस्तमेता रुद्राणामेव
तावदाधिपत्यꣳस्वाराज्यं पर्येता ॥ ३.७.४॥
॥ इति सप्तमः खण्डः ॥
अथ यत्तृतीयममृतं तदादित्या उपजीवन्ति वरुणेन
मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं
दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३.८.१॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३.८.२॥
स य एतदेवममृतं वेदादित्यानामेवैको भूत्वा वरुणेनैव
मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव
रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३.८.३॥
स यावदादित्यो दक्षिणत उदेतोत्तरतोऽस्तमेता
द्विस्तावत्पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेतादित्यानामेव
तावदाधिपत्यꣳस्वाराज्यं पर्येता ॥ ३.८.४॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
अथ यच्चतुर्थममृतं तन्मरुत उपजीवन्ति सोमेन
मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं
दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३.९.१॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३.९.२॥
स य एतदेवममृतं वेद मरुतामेवैको भूत्वा सोमेनैव
मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव
रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३.९.३॥
स यावदादित्यः पश्चादुदेता पुरस्तादस्तमेता
द्विस्तावदुत्तरत उदेता दक्षिणतोऽस्तमेता मरुतामेव
तावदाधिपत्य्ꣳस्वाराज्यं पर्येता ॥ ३.९.४॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
अथ यत्पञ्चमममृतं तत्साध्या उपजीवन्ति ब्रह्मणा
मुखेन न वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं
दृष्ट्वा तृप्यन्ति ॥ ३.१०.१॥
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति ॥ ३.१०.२॥
स य एतदेवममृतं वेद साध्यानामेवैको भूत्वा
ब्रह्मणैव मुखेनैतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यति स एतदेव
रूपमभिसंविशत्येतस्माद्रूपादुदेति ॥ ३.१०.३॥
स यावदादित्य उत्तरत उदेता दक्षिणतोऽस्तमेता
द्विस्तावदूर्ध्वं उदेतार्वागस्तमेता साध्यानामेव
तावदाधिपत्यꣳस्वाराज्यं पर्येता ॥ ३.१०.४॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
अथ तत ऊर्ध्व उदेत्य नैवोदेता नास्तमेतैकल एव
मध्ये स्थाता तदेष श्लोकः ॥ ३.११.१॥
न वै तत्र न निम्लोच नोदियाय कदाचन ।
देवास्तेनाहꣳसत्येन मा विराधिषि ब्रह्मणेति ॥ ३.११.२॥
न ह वा अस्मा उदेति न निम्लोचति सकृद्दिवा हैवास्मै
भवति य एतामेवं ब्रह्मोपनिषदं वेद ॥ ३.११.३॥
तद्धैतद्ब्रह्मा प्रजापतय उवाच प्रजापतिर्मनवे
मनुः प्रजाभ्यस्तद्धैतदुद्दालकायारुणये ज्येष्ठाय पुत्राय
पिता ब्रह्म प्रोवाच ॥ ३.११.४॥
इदं वाव तज्ज्येष्ठाय पुत्राय पिता ब्रह्म
प्रब्रूयात्प्रणाय्याय वान्तेवासिने ॥ ३.११.५॥
नान्यस्मै कस्मैचन यद्यप्यस्मा इमामद्भिः परिगृहीतां
धनस्य पूर्णां दद्यादेतदेव ततो भूय इत्येतदेव
ततो भूय इति ॥ ३.११.६॥
॥ इति एकादशः खण्डः ॥
गायत्री वा ईदꣳ सर्वं भूतं यदिदं किं च वाग्वै गायत्री
वाग्वा इदꣳ सर्वं भूतं गायति च त्रायते च ॥ ३.१२.१॥
या वै सा गायत्रीयं वाव सा येयं पृथिव्यस्याꣳ हीदꣳ
सर्वं भूतं प्रतिष्ठितमेतामेव नातिशीयते ॥ ३.१२.२॥
या वै सा पृथिवीयं वाव सा यदिदमस्मिन्पुरुषे
शरीरमस्मिन्हीमे प्राणाः प्रतिष्ठिता एतदेव
नातिशीयन्ते ॥ ३.१२.३॥
यद्वै तत्पुरुषे शरीरमिदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः
पुरुषे हृदयमस्मिन्हीमे प्राणाः प्रतिष्ठिता एतदेव
नातिशीयन्ते ॥ ३.१२.४॥
सैषा चतुष्पदा षड्विधा गायत्री तदेतदृचाभ्यनूक्तम्
॥ ३.१२.५॥
तावानस्य महिमा ततो ज्यायाꣳश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य सर्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवीति ॥ ३.१२.६॥
यद्वै तद्ब्रह्मेतीदं वाव तद्योयं बहिर्धा
पुरुषादाकाशो यो वै स बहिर्धा पुरुषादाकाशः ॥ ३.१२.७॥
अयं वाव स योऽयमन्तः पुरुष अकाशो यो वै सोऽन्तः
पुरुष आकाशः ॥ ३.१२.८॥
अयं वाव स योऽयमन्तर्हृदय आकाशस्तदेतत्पूर्णमप्रवर्ति
पूर्णमप्रवर्तिनीꣳश्रियं लभते य एवं वेद ॥ ३.१२.९॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
तस्य ह वा एतस्य हृदयस्य पञ्च देवसुषयः
स योऽस्य प्राङ्सुषिः स प्राणस्तच्चक्षुः
स आदित्यस्तदेतत्तेजोऽन्नाद्यमित्युपासीत
तेजस्व्यन्नादो भवति य एवं वेद ॥ ३.१३.१॥
अथ योऽस्य दक्षिणः सुषिः स व्यानस्तच्छ्रोत्रꣳ
स चन्द्रमास्तदेतच्छ्रीश्च यशश्चेत्युपासीत
श्रीमान्यशस्वी भवति य एवं वेद ॥ ३.१३.२॥
अथ योऽस्य प्रत्यङ्सुषिः सोऽपानः
सा वाक्सोऽग्निस्तदेतद्ब्रह्मवर्चसमन्नाद्यमित्युपासीत
ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भवति य एवं वेद ॥ ३.१३.३॥
अथ योऽस्योदङ्सुषिः स समानस्तन्मनः
स पर्जन्यस्तदेतत्कीर्तिश्च व्युष्टिश्चेत्युपासीत
कीर्तिमान्व्युष्टिमान्भवति य एवं वेद ॥ ३.१३.४॥
अथ योऽस्योर्ध्वः सुषिः स उदानः स वायुः
स आकाशस्तदेतदोजश्च महश्चेत्युपासीतौजस्वी
महस्वान्भवति य एवं वेद ॥ ३.१३.५॥
ते वा एते पञ्च ब्रह्मपुरुषाः स्वर्गस्य लोकस्य
द्वारपाः स य एतानेवं पञ्च ब्रह्मपुरुषान्स्वर्गस्य
लोकस्य द्वारपान्वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते
स्वर्गं लोकं य एतानेवं पञ्च ब्रह्मपुरुषान्स्वर्गस्य
लोकस्य द्वारपान्वेद ॥ ३.१३.६॥
अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु
सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव
तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषे ज्योतिः ॥ ३.१३.७॥
तस्यैषा दृष्टिर्यत्रितदस्मिञ्छरीरे सꣳस्पर्शेनोष्णिमानं
विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्यत्रैतत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव
नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोति तदेतद्दृष्टं च
श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुष्यः श्रुतो भवति य एवं वेद
य एवं वेद ॥ ३.१३.८॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत ।
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिꣳल्लोके
पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत
॥ ३.१४.१॥
मनोमयः प्राणशरीरो भारूपः सत्यसंकल्प
आकाशात्मा सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः
सर्वमिदमभ्यत्तोऽवाक्यनादरः ॥ ३.१४.२॥
एष म आत्मान्तर्हृदयेऽणीयान्व्रीहेर्वा यवाद्वा
सर्षपाद्वा श्यामाकाद्वा श्यामाकतण्डुलाद्वैष
म आत्मान्तर्हृदये ज्यायान्पृथिव्या
ज्यायानन्तरिक्षाज्ज्यायान्दिवो ज्यायानेभ्यो
लोकेभ्यः ॥ ३.१४.३॥
सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः
सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादर एष म आत्मान्तर्हृदय
एतद्ब्रह्मैतमितः प्रेत्याभिसंभवितास्मीति यस्य स्यादद्धा
न विचिकित्सास्तीति ह स्माह शाण्डिल्यः शाण्डिल्यः
॥ ३.१४.४॥
॥ इति चतुर्दशः खण्डः ॥
अन्तरिक्षोदरः कोशो भूमिबुध्नो न जीर्यति दिशो
ह्यस्य स्रक्तयो द्यौरस्योत्तरं बिलꣳ स एष कोशो
वसुधानस्तस्मिन्विश्वमिदꣳ श्रितम् ॥ ३.१५.१॥
तस्य प्राची दिग्जुहूर्नाम सहमाना नाम दक्षिणा
राज्ञी नाम प्रतीची सुभूता नामोदीची तासां
वायुर्वत्सः स य एतमेवं वायुं दिशां वत्सं वेद न
पुत्ररोदꣳ रोदिति सोऽहमेतमेवं वायुं दिशां वत्सं
वेद मा पुत्ररोदꣳरुदम् ॥ ३.१५.२॥
अरिष्टं कोशं प्रपद्येऽमुनामुनामुना
प्राणं प्रपद्येऽमुनामुनामुना भूः प्रपद्येऽमुनामुनामुना
भुवः प्रपद्येऽमुनामुनामुना स्वः प्रपद्येऽमुनामुनामुना
॥ ३.१५.३॥
स यदवोचं प्राणं प्रपद्य इति प्राणो वा इदꣳ सर्वं
भूतं यदिदं किंच तमेव तत्प्रापत्सि ॥ ३.१५.४॥
अथ यदवोचं भूः प्रपद्य इति पृथिवीं प्रपद्येऽन्तरिक्षं
प्रपद्ये दिवं प्रपद्य इत्येव तदवोचम् ॥ ३.१५.५॥
अथ यदवोचं भुवः प्रपद्य इत्यग्निं प्रपद्ये वायुं
प्रपद्य आदित्यं प्रपद्य इत्येव तदवोचम् ॥ ३.१५.६॥
अथ यदवोचꣳस्वः प्रपद्य इत्यृग्वेदं प्रपद्ये यजुर्वेदं प्रपद्ये
सामवेदं प्रपद्य इत्येव तदवोचं तदवोचम् ॥ ३.१५.७॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विꣳशति वर्षाणि
तत्प्रातःसवनं चतुर्विꣳशत्यक्षरा गायत्री गायत्रं
प्रातःसवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राणा वाव वसव
एते हीदꣳसर्वं वासयन्ति ॥ ३.१६.१॥
तं चेदेतस्मिन्वयसि किंचिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा
वसव इदं मे प्रातःसवनं माध्यंदिनꣳसवनमनुसंतनुतेति
माहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव
तत एत्यगदो ह भवति ॥ ३.१६.२॥
अथ यानि चतुश्चत्वारिꣳशद्वर्षाणि तन्माध्यंदिनꣳ
सवनं चतुश्चत्वारिꣳशदक्षरा त्रिष्टुप्त्रैष्टुभं
माध्यंदिनꣳसवनं तदस्य रुद्रा अन्वायत्ताः प्राणा
वाव रुद्रा एते हीदꣳसर्वꣳरोदयन्ति ॥ ३.१६.३॥
तं चेदेतस्मिन्वयसि किंचिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा रुद्रा
इदं मे माध्यंदिनꣳसवनं तृतीयसवनमनुसंतनुतेति
माहं प्राणानाꣳरुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव
तत एत्यगदो ह भवति ॥ ३.१६.४॥
अथ यान्यष्टाचत्वारिꣳशद्वर्षाणि
तत्तृतीयसवनमष्टाचत्वारिꣳशदक्षरा
जगती जागतं तृतीयसवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः
प्राणा वावादित्या एते हीदꣳसर्वमाददते ॥ ३.१६.५॥
तं चेदेतस्मिन्वयसि किंचिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा
अदित्या इदं मे तृतीयसवनमायुरनुसंतनुतेति माहं
प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव
तत एत्यगदो हैव भवति ॥ ३.१६.६॥
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः
स किं म एतदुपतपसि योऽहमनेन न प्रेष्यामीति
स ह षोडशं वर्षशतमजीवत्प्र ह षोडशं
वर्षशतं जीवति य एवं वेद ॥ ३.१६.७॥
॥ इति षोडशः खण्डः ॥
स यदशिशिषति यत्पिपासति यन्न रमते ता अस्य
दीक्षाः ॥ ३.१७.१॥
अथ यदश्नाति यत्पिबति यद्रमते तदुपसदैरेति ॥ ३.१७.२॥
अथ यद्धसति यज्जक्षति यन्मैथुनं चरति स्तुतशस्त्रैरेव
तदेति ॥ ३.१७.३॥
अथ यत्तपो दानमार्जवमहिꣳसा सत्यवचनमिति
ता अस्य दक्षिणाः ॥ ३.१७.४॥
तस्मादाहुः सोष्यत्यसोष्टेति पुनरुत्पादनमेवास्य
तन्मरणमेवावभृथः ॥ ३.१७.५॥
तद्धैतद्घोर् आङ्गिरसः कृष्णाय
देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचापिपास एव स बभूव
सोऽन्तवेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्येताक्षितमस्यच्युतमसि
प्राणसꣳशितमसीति तत्रैते द्वे ऋचौ भवतः ॥ ३.१७.६॥
आदित्प्रत्नस्य रेतसः ।
उद्वयं तमसस्परि ज्योतिः पश्यन्त उत्तरꣳस्वः
पश्यन्त उत्तरं देवं देवत्रा सूर्यमगन्म
ज्योतिरुत्तममिति ज्योतिरुत्तममिति ॥ ३.१७.७॥
॥ इति सप्तदशः खण्डः ॥
मनो ब्रह्मेत्युपासीतेत्यध्यात्ममथाधिदैवतमाकाशो
ब्रह्मेत्युभयमादिष्टं भवत्यध्यात्मं चाधिदैवतं च
॥ ३.१८.१॥
तदेतच्चतुष्पाद्ब्रह्म वाक्पादः प्राणः पादश्चक्षुः
पादः श्रोत्रं पाद इत्यध्यात्ममथाधिदैवतमग्निः
पादो वायुः पादा अदित्यः पादो दिशः पाद
इत्युभयमेवादिष्टं भवत्यध्यात्मं चैवाधिदैवतं च
॥ ३.१८.२॥
वागेव ब्रह्मणश्चतुर्थः पादः सोऽग्निना ज्योतिषा
भाति च तपति च भाति च तपति च कीर्त्या यशसा
ब्रह्मवर्चसेन य एवं वेद ॥ ३.१८.३॥
प्राण एव ब्रह्मणश्चतुर्थः पादः स वायुना ज्योतिषा
भाति च तपति च् भाति च तपति च कीर्त्या यशसा
ब्रह्मवर्चसेन य एवं वेद ॥ ३.१८.४॥
चक्षुरेव ब्रह्मणश्चतुर्थः पादः स आदित्येन ज्योतिषा
भाति च तपति च भाति च तपति च कीर्त्या यशसा
ब्रह्मवर्चसेन य एवं वेद ॥ ३.१८.५॥
श्रोत्रमेव ब्रह्मणश्चतुर्थः पादः स दिग्भिर्ज्योतिषा
भाति च तपति च भाति च तपति च कीर्त्या यशसा
ब्रह्मवर्चसेन य एवं वेद य एवं वेद ॥ ३.१८.६॥
॥ इति अष्टादशः खण्डः ॥
आदित्यो ब्रह्मेत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानमसदेवेदमग्र
आसीत् । तत्सदासीत्तत्समभवत्तदाण्डं निरवर्तत
तत्संवत्सरस्य मात्रामशयत तन्निरभिद्यत ते आण्डकपाले
रजतं च सुवर्णं चाभवताम् ॥ ३.१९.१॥
तद्यद्रजतꣳ सेयं पृथिवी यत्सुवर्णꣳ सा द्यौर्यज्जरायु
ते पर्वता यदुल्बꣳ समेघो नीहारो या धमनयस्ता
नद्यो यद्वास्तेयमुदकꣳ स समुद्रः ॥ ३.१९.२॥
अथ यत्तदजायत सोऽसावादित्यस्तं जायमानं घोषा
उलूलवोऽनूदतिष्ठन्त्सर्वाणि च भूतानि सर्वे च
कामास्तस्मात्तस्योदयं प्रति प्रत्यायनं प्रति घोषा
उलूलवोऽनूत्तिष्ठन्ति सर्वाणि च भूतानि सर्वे च कामाः
॥ ३.१९.३॥
स य एतमेवं विद्वानादित्यं ब्रह्मेत्युपास्तेऽभ्याशो ह
यदेनꣳ साधवो घोषा आ च गच्छेयुरुप च
निम्रेडेरन्निम्रेडेरन् ॥ ३.१९.४॥
॥ इति एकोनविंशः खण्डः ॥
॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥
जानश्रुतिर्ह पौत्रायणः श्रद्धादेयो बहुदायी बहुपाक्य आस
स ह सर्वत आवसथान्मापयांचक्रे सर्वत एव
मेऽन्नमत्स्यन्तीति ॥ ४.१.१॥
अथ हꣳसा निशायामतिपेतुस्तद्धैवꣳ हꣳ सोहꣳ समभ्युवाद
हो होऽयि भल्लाक्ष भल्लाक्ष जानश्रुतेः पौत्रायणस्य
समं दिवा ज्योतिराततं तन्मा प्रसाङ्क्षी स्तत्त्वा
मा प्रधाक्षीरिति ॥ ४.१.२॥
तमु ह परः प्रत्युवाच कम्वर एनमेतत्सन्तꣳ सयुग्वानमिव
रैक्वमात्थेति यो नु कथꣳ सयुग्वा रैक्व इति ॥ ४.१.३॥
यथा कृतायविजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेनꣳ सर्वं
तदभिसमैति यत्किंच प्रजाः साधु कुर्वन्ति यस्तद्वेद
यत्स वेद स मयैतदुक्त इति ॥ ४.१.४॥
तदु ह जानश्रुतिः पौत्रायण उपशुश्राव
स ह संजिहान एव क्षत्तारमुवाचाङ्गारे ह सयुग्वानमिव
रैक्वमात्थेति यो नु कथꣳ सयुग्वा रैक्व इति ॥ ४.१.५॥
यथा कृतायविजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेनꣳ सर्वं
तदभिसमैति यत्किंच प्रजाः साधु कुर्वन्ति यस्तद्वेद
यत्स वेद स मयैतदुक्त इति ॥ ४.१.६॥
स ह क्षत्तान्विष्य नाविदमिति प्रत्येयाय तꣳ होवाच
यत्रारे ब्राह्मणस्यान्वेषणा तदेनमर्च्छेति ॥ ४.१.७॥
सोऽधस्ताच्छकटस्य पामानं कषमाणमुपोपविवेश
तꣳ हाभ्युवाद त्वं नु भगवः सयुग्वा रैक्व
इत्यहꣳ ह्यरा३ इति ह प्रतिजज्ञे स ह क्षत्ताविदमिति
प्रत्येयाय ॥ ४.१.८ ॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
तदु ह जानश्रुतिः पौत्रायणः षट्शतानि गवां
निष्कमश्वतरीरथं तदादाय प्रतिचक्रमे तꣳ हाभ्युवाद
॥ ४.२.१॥
रैक्वेमानि षट्शतानि गवामयं निष्कोऽयमश्वतरीरथोऽनु
म एतां भगवो देवताꣳ शाधि यां देवतामुपास्स इति
॥ ४.२.२॥
तमु ह परः प्रत्युवाचाह हारेत्वा शूद्र तवैव सह
गोभिरस्त्विति तदु ह पुनरेव जानश्रुतिः पौत्रायणः
सहस्रं गवां निष्कमश्वतरीरथं दुहितरं तदादाय
प्रतिचक्रमे ॥ ४.२.३॥
तꣳ हाभ्युवाद रैक्वेदꣳ सहस्रं गवामयं
निष्कोऽयमश्वतरीरथ इयं जायायं ग्रामो
यस्मिन्नास्सेऽन्वेव मा भगवः शाधीति ॥ ४.२.४ ॥
तस्या ह मुखमुपोद्गृह्णन्नुवाचाजहारेमाः शूद्रानेनैव
मुखेनालापयिष्यथा इति ते हैते रैक्वपर्णा नाम
महावृषेषु यत्रास्मा उवास स तस्मै होवाच ॥ ४.२.५ ॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
वायुर्वाव संवर्गो यदा वा अग्निरुद्वायति वायुमेवाप्येति
यदा सूर्योऽस्तमेति वायुमेवाप्येति यदा चन्द्रोऽस्तमेति
वायुमेवाप्येति ॥ ४.३.१॥
यदाप उच्छुष्यन्ति वायुमेवापियन्ति
वायुर्ह्येवैतान्सर्वान्संवृङ्क्त इत्यधिदैवतम् ॥ ४.३.२॥
अथाध्यात्मं प्राणो वाव संवर्गः स यदा स्वपिति प्राणमेव
वागप्येति प्राणं चक्षुः प्राणꣳ श्रोत्रं प्राणं मनः प्राणो
ह्येवैतान्सर्वान्संवृङ्क्त इति ॥ ४.३.३॥
तौ वा एतौ द्वौ संवर्गौ वायुरेव देवेषु प्राणः प्राणेषु
॥ ४.३.४॥
अथ ह शौनकं च कापेयमभिप्रतारिणं च काक्षसेनिं
परिविष्यमाणौ ब्रह्मचारी बिभिक्षे तस्मा उ ह न ददतुः
॥ ४.३.५॥
स होवाच महात्मनश्चतुरो देव एकः कः स जगार
भुवनस्य गोपास्तं कापेय नाभिपश्यन्ति मर्त्या
अभिप्रतारिन्बहुधा वसन्तं यस्मै वा एतदन्नं तस्मा
एतन्न दत्तमिति ॥ ४.३.६॥
तदु ह शौनकः कापेयः प्रतिमन्वानः प्रत्येयायात्मा देवानां
जनिता प्रजानाꣳ हिरण्यदꣳष्ट्रो बभसोऽनसूरिर्महान्तमस्य
महिमानमाहुरनद्यमानो यदनन्नमत्तीति वै वयं
ब्रह्मचारिन्नेदमुपास्महे दत्तास्मै भिक्षामिति ॥ ४.३.७॥
तस्म उ ह ददुस्ते वा एते पञ्चान्ये पञ्चान्ये दश
सन्तस्तत्कृतं तस्मात्सर्वासु दिक्ष्वन्नमेव दश कृतꣳ सैषा
विराडन्नादी तयेदꣳ सर्वं दृष्टꣳ सर्वमस्येदं दृष्टं
भवत्यन्नादो भवति य एवं वेद य एवं वेद ॥ ४.३.८॥
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
सत्यकामो ह जाबालो जबालां मातरमामन्त्रयांचक्रे
ब्रह्मचर्यं भवति विवत्स्यामि किंगोत्रो न्वहमस्मीति
॥ ४.४.१॥
सा हैनमुवाच नाहमेतद्वेद तात यद्गोत्रस्त्वमसि
बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवने त्वामलभे
साहमेतन्न वेद यद्गोत्रस्त्वमसि जबाला तु नामाहमस्मि
सत्यकामो नाम त्वमसि स सत्यकाम एव जाबालो
ब्रवीथा इति ॥ ४.४.२॥
स ह हारिद्रुमतं गौतममेत्योवाच ब्रह्मचर्यं भगवति
वत्स्याम्युपेयां भगवन्तमिति ॥ ४.४.३॥
तꣳ होवाच किंगोत्रो नु सोम्यासीति स होवाच
नाहमेतद्वेद भो यद्गोत्रोऽहमस्म्यपृच्छं मातरꣳ
सा मा प्रत्यब्रवीद्बह्वहं चरन्ती परिचरिणी यौवने
त्वामलभे साहमेतन्न वेद यद्गोत्रस्त्वमसि जबाला तु
नामाहमस्मि सत्यकामो नाम त्वमसीति सोऽहꣳ
सत्यकामो जाबालोऽस्मि भो इति ॥ ४.४.४॥
तꣳ होवाच नैतदब्राह्मणो विवक्तुमर्हति समिधꣳ
सोम्याहरोप त्वा नेष्ये न सत्यादगा इति तमुपनीय
कृशानामबलानां चतुःशता गा निराकृत्योवाचेमाः
सोम्यानुसंव्रजेति ता अभिप्रस्थापयन्नुवाच
नासहस्रेणावर्तेयेति स ह वर्षगणं प्रोवास ता यदा
सहस्रꣳ सम्पेदुः ॥ ४.४.५॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
अथ हैनमृषभोऽभ्युवाद सत्यकाम३ इति
भगव इति ह प्रतिशुश्राव प्राप्ताः सोम्य सहस्रꣳ स्मः
प्रापय न आचार्यकुलम् ॥ ४.५.१॥
ब्रह्मणश्च ते पादं ब्रवाणीति ब्रवीतु मे भगवानिति
तस्मै होवाच प्राची दिक्कला प्रतीची दिक्कला
दक्षिणा दिक्कलोदीची दिक्कलैष वै सोम्य चतुष्कलः
पादो ब्रह्मणः प्रकाशवान्नाम ॥ ४.५.२॥
स य एतमेवं विद्वाꣳश्चतुष्कलं पादं ब्रह्मणः
प्रकाशवानित्युपास्ते प्रकाशवानस्मिꣳल्लोके भवति
प्रकाशवतो ह लोकाञ्जयति य एतमेवं विद्वाꣳश्चतुष्कलं
पादं ब्रह्मणः प्रकाशवानित्युपास्ते ॥ ४.५.३॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
अग्निष्टे पादं वक्तेति स ह श्वोभूते ग
आभिप्रस्थापयांचकार ता यत्राभि सायं
बभूवुस्तत्राग्निमुपसमाधाय गा उपरुध्य समिधमाधाय
पश्चादग्नेः प्राङुपोपविवेश ॥ ४.६.१॥
तमग्निरभ्युवाद सत्यकाम३ इति भगव इति
ह प्रतिशुश्राव ॥ ४.६.२॥
ब्रह्मणः सोम्य ते पादं ब्रवाणीति ब्रवीतु मे भगवानिति
तस्मै होवाच पृथिवी कलान्तरिक्षं कला द्यौः कला
समुद्रः कलैष वै सोम्य चतुष्कलः पादो
ब्रह्मणोऽनन्तवान्नाम ॥ ४.६.३॥
स य एतमेवं विद्वाꣳश्चतुष्कलं पादं
ब्रह्मणोऽनन्तवानित्युपास्तेऽनन्तवानस्मिꣳल्लोके
भवत्यनन्तवतो ह लोकाञ्जयति य एतमेवं विद्वाꣳश्चतुष्कलं
पादं ब्रह्मणोऽनन्तवानित्युपास्ते ॥ ४.६.४॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
हꣳसस्ते पादं वक्तेति स ह श्वोभूते गा
अभिप्रस्थापयांचकार ता यत्राभि सायं
बभूवुस्तत्राग्निमुपसमाधाय गा उपरुध्य समिधमाधाय
पश्चादग्नेः प्राङुपोपविवेश ॥ ४.७.१॥
तꣳहꣳस उपनिपत्याभ्युवाद सत्यकाम३ इति भगव
इति ह प्रतिशुश्राव ॥ ४.७.२॥
ब्रह्मणः सोम्य ते पादं ब्रवाणीति ब्रवीतु मे भगवानिति
तस्मै होवाचाग्निः कला सूर्यः कला चन्द्रः कला
विद्युत्कलैष वै सोम्य चतुष्कलः पादो ब्रह्मणो
ज्योतिष्मान्नाम ॥ ४.७.३॥
स य एतमेवं विद्वाꣳश्चतुष्कलं पादं ब्रह्मणो
ज्योतिष्मानित्युपास्ते ज्योतिष्मानस्मिꣳल्लोके भवति
ज्योतिष्मतो ह लोकाञ्जयति य एतमेवं विद्वाꣳश्चतुष्कलं
पादं ब्रह्मणो ज्योतिष्मानित्युपास्ते ॥ ४.७.४॥
॥ इति सप्तमः खण्डः ॥
मद्गुष्टे पादं वक्तेति स ह श्वोभूते गा अभिप्रस्थापयांचकार
ता यत्राभि सायं बभूवुस्तत्राग्निमुपसमाधाय गा
उपरुध्य समिधमाधाय पश्चादग्नेः प्राङुपोपविवेश ॥ ४.८.१॥
तं मद्गुरुपनिपत्याभ्युवाद सत्यकाम३ इति भगव इति
ह प्रतिशुश्राव ॥ ४.८.२॥
ब्रह्मणः सोम्य ते पादं ब्रवाणीति ब्रवीतु मे भगवानिति
तस्मै होवाच प्राणः कला चक्षुः कला श्रोत्रं कला मनः
कलैष वै सोम्य चतुष्कलः पादो ब्रह्मण आयतनवान्नाम
॥ ४.८.३॥
स यै एतमेवं विद्वाꣳश्चतुष्कलं पादं ब्रह्मण
आयतनवानित्युपास्त आयतनवानस्मिꣳल्लोके
भवत्यायतनवतो ह लोकाञ्जयति य एतमेवं
विद्वाꣳश्चतुष्कलं पादं ब्रह्मण आयतनवानित्युपास्ते
॥ ४.८.४॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
प्राप हाचर्यकुलं तमाचर्योऽभ्युवाद सत्यकाम३ इति
भगव इति ह प्रतिशुश्राव ॥ ४.९.१॥
ब्रह्मविदिव वै सोम्य भासि को नु त्वानुशशासेत्यन्ये
मनुष्येभ्य इति ह प्रतिजज्ञे भगवाꣳस्त्वेव मे कामे ब्रूयात्
॥ ४.९.२॥
श्रुतꣳह्येव मे भगवद्दृशेभ्य आचार्याद्धैव विद्या विदिता
साधिष्ठं प्रापतीति तस्मै हैतदेवोवाचात्र ह न किंचन
वीयायेति वीयायेति ॥ ४.९.३॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
उपकोसलो ह वै कामलायनः सत्यकामे जाबाले
ब्रह्मचार्यमुवास तस्य ह द्वादश वार्षाण्यग्नीन्परिचचार
स ह स्मान्यानन्तेवासिनः समावर्तयꣳस्तं ह स्मैव न
समावर्तयति ॥ ४.१०.१॥
तं जायोवाच तप्तो ब्रह्मचारी कुशलमग्नीन्परिचचारीन्मा
त्वाग्नयः परिप्रवोचन्प्रब्रूह्यस्मा इति तस्मै हाप्रोच्यैव
प्रवासांचक्रे ॥ ४.१०.२॥
स ह व्याधिनानशितुं दध्रे तमाचार्यजायोवाच
ब्रह्मचारिन्नशान किं नु नाश्नासीति स होवाच
बहव इमेऽस्मिन्पुरुषे कामा नानात्यया व्याधीभिः
प्रतिपूर्णोऽस्मि नाशिष्यामीति ॥ ४.१०.३॥
अथ हाग्नयः समूदिरे तप्तो ब्रह्मचारी कुशलं नः
पर्यचारीद्धन्तास्मै प्रब्रवामेति तस्मै होचुः प्राणो ब्रह्म
कं ब्रह्म खं ब्रह्मेति ॥ ४.१०.४॥
स होवाच विजानाम्यहं यत्प्राणो ब्रह्म कं च तु खं च न
विजानामीति ते होचुर्यद्वाव कं तदेव खं यदेव खं तदेव
कमिति प्राणं च हास्मै तदाकाशं चोचुः ॥ ४.१०.५॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
अथ हैनं गार्हपत्योऽनुशशास पृथिव्यग्निरन्नमादित्य
इति य एष आदित्ये पुरुषो दृश्यते सोऽहमस्मि स
एवाहमस्मीति ॥ ४.११.१॥
स य एतमेवं विद्वानुपास्तेऽपहते पापकृत्यां लोकी भवति
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति नास्यावरपुरुषाः क्षीयन्त उप
वयं तं भुञ्जामोऽस्मिꣳश्च लोकेऽमुष्मिꣳश्च य एतमेवं
विद्वानुपास्ते ॥ ४.११.२॥
॥ इति एकादशः खण्डः ॥
अथ हैनमन्वाहार्यपचनोऽनुशशासापो दिशो नक्षत्राणि
चन्द्रमा इति य एष चन्द्रमसि पुरुषो दृश्यते सोऽहमस्मि
स एवाहमस्मीति ॥ ४.१२.१॥
स य एतमेवं विद्वानुपास्तेऽपहते पापकृत्यां लोकी भवति
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति नास्यावरपुरुषाः क्षीयन्त उप
वयं तं भुञ्जामोऽस्मिꣳश्च लोकेऽमुष्मिꣳश्च य एतमेवं
विद्वानुपास्ते ॥ ४.१२.२॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
अथ हैनमाहवनीयोऽनुशशास प्राण आकाशो द्यौर्विद्युदिति
य एष विद्युति पुरुषो दृश्यते सोऽहमस्मि स
एवाहमस्मीति ॥ ४.१३.१॥
स य एतमेवं विद्वानुपास्तेऽपहते पापकृत्यां लोकी भवति
सर्वमयुरेति ज्योग्जीवति नास्यावरपुरुषाः क्षीयन्त उप
वयं तं भुञ्जामोऽस्मिꣳश्च लोकेऽमुष्मिꣳश्च य एतमेवं
विद्वानुपास्ते ॥ ४.१३.२॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
ते होचुरुपकोसलैषा सोम्य तेऽस्मद्विद्यात्मविद्या
चाचार्यस्तु ते गतिं वक्तेत्याजगाम
हास्याचार्यस्तमाचार्योऽभ्युवादोपकोसल३ इति
॥ ४.१४.१॥
भगव इति ह प्रतिशुश्राव ब्रह्मविद इव सोम्य ते मुखं भाति
को नु त्वानुशशासेति को नु मानुशिष्याद्भो इतीहापेव
निह्नुत इमे नूनमीदृशा अन्यादृशा इतीहाग्नीनभ्यूदे
किं नु सोम्य किल तेऽवोचन्निति ॥ ४.१४.२॥
इदमिति ह प्रतिजज्ञे लोकान्वाव किल सोम्य तेऽवोचन्नहं
तु ते तद्वक्ष्यामि यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्त
एवमेवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यत इति ब्रवीतु मे
भगवानिति तस्मै होवाच ॥ ४.१४.३॥
॥ इति चतुर्दशः खण्डः ॥
य एषोऽक्षिणि पुरुषो दृश्यत एष आत्मेति
होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति
तद्यद्यप्यस्मिन्सर्पिर्वोदकं वा सिञ्चति वर्त्मनी एव
गच्छति ॥ ४.१५.१॥
एतꣳ संयद्वाम इत्याचक्षत एतꣳ हि सर्वाणि
वामान्यभिसंयन्ति सर्वाण्येनं वामान्यभिसंयन्ति
य एवं वेद ॥ ४.१५.२॥
एष उ एव वामनीरेष हि सर्वाणि वामानि नयति
सर्वाणि वामानि नयति य एवं वेद ॥ ४.१५.३॥
एष उ एव भामनीरेष हि सर्वेषु लोकेषु भाति
सर्वेषु लोकेषु भाति य एवं वेद ॥ ४.१५.४॥
अथ यदु चैवास्मिञ्छव्यं कुर्वन्ति यदि च
नार्चिषमेवाभिसंभवन्त्यर्चिषोऽहरह्न
आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षडुदङ्ङेति
मासाꣳस्तान्मासेभ्यः संवत्सरꣳ
संवत्सरादादित्यमादित्याच्चन्द्रमसं चन्द्रमसो विद्युतं
तत् पुरुषोऽमानवः स एनान्ब्रह्म गमयत्येष देवपथो
ब्रह्मपथ एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्तं नावर्तन्ते
नावर्तन्ते ॥ ४.१५.५॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
एष ह वै यज्ञो योऽयं पवते एष ह यन्निदꣳ सर्वं पुनाति
यदेष यन्निदꣳ सर्वं पुनाति तस्मादेष एव यज्ञस्तस्य
मनश्च वाक्च वर्तनी ॥ ४.१६.१॥
तयोरन्यतरां मनसा सꣳस्करोति ब्रह्मा वाचा
होताध्वर्युरुद्गातान्यतराꣳस यत्रौपाकृते प्रातरनुवाके
पुरा परिधानीयाया ब्रह्मा व्यवदति ॥ ४.१६.२॥
अन्यतरामेव वर्तनीꣳ सꣳस्करोति हीयतेऽन्यतरा
स यथैकपाद्व्रजन्रथो वैकेन चक्रेण वर्तमानो
रिष्यत्येवमस्य यज्ञोरिष्यति यज्ञꣳ रिष्यन्तं
यजमानोऽनुरिष्यति स इष्ट्वा पापीयान्भवति ॥ ४.१६.३॥
अथ यत्रोपाकृते प्रातरनुवाके न पुरा परिधानीयाया ब्रह्मा
व्यवदत्युभे एव वर्तनी सꣳस्कुर्वन्ति न हीयतेऽन्यतरा
॥ ४.१६.४॥
स यथोभयपाद्व्रजन्रथो वोभाभ्यां चक्राभ्यां वर्तमानः
प्रतितिष्ठत्येवमस्य यज्ञः प्रतितिष्ठति यज्ञं प्रतितिष्ठन्तं
यजमानोऽनुप्रतितिष्ठति स इष्ट्वा श्रेयान्भवति ॥ ४.१६.५॥
॥ इति षोडशः खण्डः ॥
प्रजापतिर्लोकानभ्यतपत्तेषां तप्यमानानाꣳ
रसान्प्रावृहदग्निं पृथिव्या वायुमन्तरिक्षातादित्यं दिवः
॥ ४.१७.१॥
स एतास्तिस्रो देवता अभ्यतपत्तासां तप्यमानानाꣳ
रसान्प्रावृहदग्नेरृचो वायोर्यजूꣳषि सामान्यादित्यात्
॥ ४.१७.२॥
स एतां त्रयीं विद्यामभ्यतपत्तस्यास्तप्यमानाया
रसान्प्रावृहद्भूरित्यृग्भ्यो भुवरिति यजुर्भ्यः स्वरिति
सामभ्यः ॥ ४.१७.३॥
तद्यदृक्तो रिष्येद्भूः स्वाहेति गार्हपत्ये जुहुयादृचामेव
तद्रसेनर्चां वीर्येणर्चां यज्ञस्य विरिष्टꣳ संदधाति
॥ ४.१७.४॥
स यदि यजुष्टो रिष्येद्भुवः स्वाहेति दक्षिणाग्नौ
जुहुयाद्यजुषामेव तद्रसेन यजुषां वीर्येण यजुषां यज्ञस्य
विरिष्टꣳ संदधाति ॥ ४.१७.५॥
अथ यदि सामतो रिष्येत्स्वः स्वाहेत्याहवनीये
जुहुयात्साम्नामेव तद्रसेन साम्नां वीर्येण साम्नां यज्ञस्य
विरिष्टं संदधाति ॥ ४.१७.६॥
तद्यथा लवणेन सुवर्णꣳ संदध्यात्सुवर्णेन रजतꣳ
रजतेन त्रपु त्रपुणा सीसꣳ सीसेन लोहं लोहेन दारु
दारु चर्मणा ॥ ४.१७.७॥
एवमेषां लोकानामासां देवतानामस्यास्त्रय्या विद्याया
वीर्येण यज्ञस्य विरिष्टꣳ संदधाति भेषजकृतो ह वा
एष यज्ञो यत्रैवंविद्ब्रह्मा भवति ॥ ४.१७.८॥
एष ह वा उदक्प्रवणो यज्ञो यत्रैवंविद्ब्रह्मा भवत्येवंविदꣳ
ह वा एषा ब्रह्माणमनुगाथा यतो यत आवर्तते
तत्तद्गच्छति ॥ ४.१७.९॥
मानवो ब्रह्मैवैक ऋत्विक्कुरूनश्वाभिरक्षत्येवंविद्ध
वै ब्रह्मा यज्ञं यजमानꣳ सर्वाꣳश्चर्त्विजोऽभिरक्षति
तस्मादेवंविदमेव ब्रह्माणं कुर्वीत नानेवंविदं नानेवंविदम्
॥ ४.१७.१०॥
॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥
यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च ह वै श्रेष्ठश्च
भवति प्राणो वाव ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ॥ ५.१.१॥
यो ह वै वसिष्ठं वेद वसिष्ठो ह स्वानां भवति
वाग्वाव वसिष्ठः ॥ ५.१.२॥
यो ह वै प्रतिष्ठां वेद प्रति ह तिष्ठत्यस्मिꣳश्च
लोकेऽमुष्मिꣳश्च चक्षुर्वाव प्रतिष्ठा ॥ ५.१.३॥
यो ह वै सम्पदं वेद सꣳहास्मै कामाः पद्यन्ते
दैवाश्च मानुषाश्च श्रोत्रं वाव सम्पत् ॥ ५.१.४॥
यो ह वा आयतनं वेदायतनꣳ ह स्वानां भवति
मनो ह वा आयतनम् ॥ ५.१.५॥
अथ ह प्राणा अहꣳश्रेयसि व्यूदिरेऽहꣳश्रेयानस्म्यहꣳ
श्रेयानस्मीति ॥ ५.१.६॥
ते ह प्राणाः प्रजापतिं पितरमेत्योचुर्भगवन्को नः
श्रेष्ठ इति तान्होवाच यस्मिन्व उत्क्रान्ते शरीरं
पापिष्ठतरमिव दृश्येत स वः श्रेष्ठ इति ॥ ५.१.७॥
सा ह वागुच्चक्राम सा संवत्सरं प्रोष्य पर्येत्योवाच
कथमशकतर्ते मज्जीवितुमिति यथा कला अवदन्तः
प्राणन्तः प्राणेन पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण
ध्यायन्तो मनसैवमिति प्रविवेश ह वाक् ॥ ५.१.८॥
चक्षुर्होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्य पर्येत्योवाच
कथमशकतर्ते मज्जीवितुमिति यथान्धा अपश्यन्तः
प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा शृण्वन्तः श्रोत्रेण
ध्यायन्तो मनसैवमिति प्रविवेश ह चक्षुः ॥ ५.१.९॥
श्रोत्रꣳ होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्य पर्येत्योवाच
कथमशकतर्ते मज्जीवितुमिति यथा बधिरा अशृण्वन्तः
प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा
ध्यायन्तो मनसैवमिति प्रविवेश ह श्रोत्रम् ॥ ५.१.१०॥
मनो होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्य पर्येत्योवाच
कथमशकतर्ते मज्जीवितुमिति यथा बाला अमनसः
प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा
शृण्वन्तः श्रोत्रेणैवमिति प्रविवेश ह मनः ॥ ५.१.११॥
अथ ह प्राण उच्चिक्रमिषन्स यथा सुहयः
पड्वीशशङ्कून्संखिदेदेवमितरान्प्राणान्समखिदत्तꣳ
हाभिसमेत्योचुर्भगवन्नेधि त्वं नः श्रेष्ठोऽसि
मोत्क्रमीरिति ॥ ५.१.१२॥
अथ हैनं वागुवाच यदहं वसिष्ठोऽस्मि त्वं
तद्वसिष्ठोऽसीत्यथ हैनं चक्षुरुवाच यदहं
प्रतिष्ठास्मि त्वं तत्प्रतिष्ठासीति ॥ ५.१.१३॥
अथ हैनꣳश्रोत्रमुवाच यदहं सम्पदस्मि त्वं
तत्सम्पदसीत्यथ हैनं मन उवाच यदहमायतनमस्मि
त्वं तदायतनमसीति ॥ ५.१.१४॥
न वै वाचो न चक्षूꣳषि न श्रोत्राणि न
मनाꣳसीत्याचक्षते प्राणा इत्येवाचक्षते प्राणो
ह्येवैतानि सर्वाणि भवति ॥ ५.१.१५॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
स होवाच किं मेऽन्नं भविष्यतीति यत्किंचिदिदमा
श्वभ्य आ शकुनिभ्य इति होचुस्तद्वा एतदनस्यान्नमनो
ह वै नाम प्रत्यक्षं न ह वा एवंविदि किंचनानन्नं
भवतीति ॥ ५.२.१॥
स होवाच किं मे वासो भविष्यतीत्याप इति
होचुस्तस्माद्वा एतदशिष्यन्तः
पुरस्ताच्चोपरिष्टाच्चाद्भिः परिदधति
लम्भुको ह वासो भवत्यनग्नो ह भवति ॥ ५.२.२॥
तद्धैतत्सत्यकामो जाबालो गोश्रुतये वैयाघ्रपद्यायोक्त्वोवाच
यद्यप्येनच्छुष्काय स्थाणवे ब्रूयाज्जायेरन्नेवास्मिञ्छाखाः
प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ५.२.३॥
अथ यदि महज्जिगमिषेदमावास्यायां दीक्षित्वा पौर्णमास्याꣳ
रात्रौ सर्वौषधस्य मन्थं दधिमधुनोरुपमथ्य ज्येष्ठाय
श्रेष्ठाय स्वाहेत्यग्नावाज्यस्य हुत्वा मन्थे
सम्पातमवनयेत् ॥ ५.२.४॥
वसिष्ठाय स्वाहेत्यग्नावाज्यस्य हुत्वा मन्थे
सम्पातमवनयेत्प्रतिष्ठायै स्वाहेत्यग्नावाज्यस्य हुत्वा
मन्थे सम्पातमवनयेत्सम्पदे स्वाहेत्यग्नावाज्यस्य हुत्वा
मन्थे सम्पातमवनयेदायतनाय स्वाहेत्यग्नावाज्यस्य हुत्वा
मन्थे सम्पातमवनयेत् ॥ ५.२.५॥
अथ प्रतिसृप्याञ्जलौ मन्थमाधाय जपत्यमो नामास्यमा
हि ते सर्वमिदꣳ स हि ज्येष्ठः श्रेष्ठो राजाधिपतिः
स मा ज्यैष्ठ्यꣳ श्रैष्ठ्यꣳ राज्यमाधिपत्यं
गमयत्वहमेवेदꣳ सर्वमसानीति ॥ ५.२.६॥
अथ खल्वेतयर्चा पच्छ आचामति तत्सवितुर्वृणीमह
इत्याचामति वयं देवस्य भोजनमित्याचामति श्रेष्ठꣳ
सर्वधातममित्याचामति तुरं भगस्य धीमहीति सर्वं पिबति
निर्णिज्य कꣳसं चमसं वा पश्चादग्नेः संविशति चर्मणि वा
स्थण्डिले वा वाचंयमोऽप्रसाहः स यदि स्त्रियं
पश्येत्समृद्धं कर्मेति विद्यात् ॥ ५.२.७॥
तदेष श्लोको यदा कर्मसु काम्येषु स्त्रियꣳ स्वप्नेषु
पश्यन्ति समृद्धिं तत्र जानीयात्तस्मिन्स्वप्ननिदर्शने
तस्मिन्स्वप्ननिदर्शने ॥ ५.२.८॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
श्वेतकेतुर्हारुणेयः पञ्चालानाꣳ समितिमेयाय
तꣳ ह प्रवाहणो जैवलिरुवाच कुमारानु
त्वाशिषत्पितेत्यनु हि भगव इति ॥ ५.३.१॥
वेत्थ यदितोऽधि प्रजाः प्रयन्तीति न भगव इति वेत्थ
यथा पुनरावर्तन्त३ इति न भगव इति वेत्थ
पथोर्देवयानस्य पितृयाणस्य च व्यावर्तना३ इति
न भगव इति ॥ ५.३.२॥
वेत्थ यथासौ लोको न सम्पूर्यत३ इति न भगव इति
वेत्थ यथा पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो
भवन्तीति नैव भगव इति ॥ ५.३.३ ॥
अथानु किमनुशिष्ठोऽवोचथा यो हीमानि न
विद्यात्कथꣳ सोऽनुशिष्टो ब्रुवीतेति स हायस्तः
पितुरर्धमेयाय तꣳ होवाचाननुशिष्य वाव किल मा
भगवानब्रवीदनु त्वाशिषमिति ॥ ५.३.४ ॥
पञ्च मा राजन्यबन्धुः प्रश्नानप्राक्षीत्तेषां
नैकंचनाशकं विवक्तुमिति स होवाच यथा मा त्वं
तदैतानवदो यथाहमेषां नैकंचन वेद
यद्यहमिमानवेदिष्यं कथं ते नावक्ष्यमिति ॥ ५.३.५॥
स ह गौतमो राज्ञोऽर्धमेयाय तस्मै ह प्राप्तायार्हां चकार
स ह प्रातः सभाग उदेयाय तꣳ होवाच मानुषस्य
भगवन्गौतम वित्तस्य वरं वृणीथा इति स होवाच तवैव
राजन्मानुषं वित्तं यामेव कुमारस्यान्ते
वाचमभाषथास्तामेव मे ब्रूहीति स ह कृच्छ्री बभूव
॥ ५.३.६॥
तꣳ ह चिरं वसेत्याज्ञापयांचकार तꣳ होवाच
यथा मा त्वं गौतमावदो यथेयं न प्राक्त्वत्तः पुरा विद्या
ब्राह्मणान्गच्छति तस्मादु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव
प्रशासनमभूदिति तस्मै होवाच ॥ ५.३.७
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
असौ वाव लोको गौतमाग्निस्तस्यादित्य एव
समिद्रश्मयो धूमोऽहरर्चिश्चन्द्रमा अङ्गारा नक्षत्राणि
विस्फुलिङ्गाः ॥ ५.४.१॥
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धां जुह्वति
तस्या अहुतेः सोमो राजा संभवति ॥ ५.४.२ ॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
पर्जन्यो वाव गौतमाग्निस्तस्य वायुरेव समिदभ्रं धूमो
विद्युदर्चिरशनिरङ्गाराह्रादनयो विस्फुलिङ्गाः ॥ ५.५.१॥
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमꣳ राजानं जुह्वति
तस्या आहुतेर्वर्षꣳ संभवति ॥ ५.५.२॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
पृथिवी वाव गौतमाग्निस्तस्याः संवत्सर एव
समिदाकाशो धूमो रात्रिरर्चिर्दिशोऽङ्गारा
अवान्तरदिशो विस्फुलिङ्गाः ॥ ५.६.१॥
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वर्षं जुह्वति
तस्या आहुतेरन्नꣳ संभवति ॥ ५.६.२॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
पुरुषो वाव गौतमाग्निस्तस्य वागेव समित्प्राणो धूमो
जिह्वार्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिङ्गाः ॥ ५.७.१॥
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या
आहुते रेतः सम्भवति ॥ ५.७.२॥
॥ इति सपतमः खण्डः ॥
योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते
स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा
विस्फुलिङ्गाः ॥ ५.८.१॥
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति
तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति ॥ ५.८.२ ॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
इति तु पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्तीति
स उल्बावृतो गर्भो दश वा नव वा मासानन्तः शयित्वा
यावद्वाथ जायते ॥ ५.९.१॥
स जातो यावदायुषं जीवति तं प्रेतं दिष्टमितोऽग्नय
एव हरन्ति यत एवेतो यतः संभूतो भवति ॥ ५.९.२॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
तद्य इत्थं विदुः। ये चेमेऽरण्ये श्रद्धा तप इत्युपासते
तेऽर्चिषमभिसंभवन्त्यर्चिषोऽहरह्न
आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षडुदङ्ङेति
मासाꣳस्तान् ॥ ५.१०.१॥
मासेभ्यः संवत्सरꣳ संवत्सरादादित्यमादित्याच्चन्द्रमसं
चन्द्रमसो विद्युतं तत्पुरुषोऽमानवः स एनान्ब्रह्म
गमयत्येष देवयानः पन्था इति ॥ ५.१०.२॥
अथ य इमे ग्राम इष्टापूर्ते दत्तमित्युपासते ते
धूममभिसंभवन्ति धूमाद्रात्रिꣳ
रात्रेरपरपक्षमपरपक्षाद्यान्षड्दक्षिणैति
मासाꣳस्तान्नैते संवत्सरमभिप्राप्नुवन्ति ॥ ५.१०.३॥
मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकादाकाशमाकाशाच्चन्द्रमसमेष
सोमो राजा तद्देवानामन्नं तं देवा भक्षयन्ति ॥ ५.१०.४॥
तस्मिन्यवात्सम्पातमुषित्वाथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते
यथेतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति
धूमो भूत्वाभ्रं भवति ॥ ५.१०.५॥
अभ्रं भूत्वा मेघो भवति मेघो भूत्वा प्रवर्षति
त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति
जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति
यो रेतः सिञ्चति तद्भूय एव भवति ॥ ५.१०.६॥
तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां
योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं
वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां
योनिमापद्येरञ्श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा
चण्डालयोनिं वा ॥ ५.१०.७॥
अथैतयोः पथोर्न कतरेणचन तानीमानि
क्षुद्राण्यसकृदावर्तीनि भूतानि भवन्ति जायस्व
म्रियस्वेत्येतत्तृतीयꣳस्थानं तेनासौ लोको न सम्पूर्यते
तस्माज्जुगुप्सेत तदेष श्लोकः ॥ ५.१०.८॥
स्तेनो हिरण्यस्य सुरां पिबꣳश्च गुरोस्तल्पमावसन्ब्रह्महा
चैते पतन्ति चत्वारः पञ्चमश्चाचरꣳस्तैरिति ॥ ५.१०.९॥
अथ ह य एतानेवं पञ्चाग्नीन्वेद न सह
तैरप्याचरन्पाप्मना लिप्यते शुद्धः पूतः पुण्यलोको भवति
य एवं वेद य एवं वेद ॥ ५.१०.१०॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
प्राचीनशाल औपमन्यवः सत्ययज्ञः
पौलुषिरिन्द्रद्युम्नो भाल्लवेयो जनः शार्कराक्ष्यो
बुडिल आश्वतराश्विस्ते हैते महाशाला महाश्रोत्रियाः
समेत्य मीमाꣳसां चक्रुः को न आत्मा किं ब्रह्मेति ॥ ५.११.१॥
ते ह सम्पादयांचक्रुरुद्दालको वै भगवन्तोऽयमारुणिः
सम्प्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति तꣳ
हन्ताभ्यागच्छामेति तꣳ हाभ्याजग्मुः ॥ ५.११.२॥
स ह सम्पादयांचकार प्रक्ष्यन्ति मामिमे
महाशाला महाश्रोत्रियास्तेभ्यो न सर्वमिव प्रतिपत्स्ये
हन्ताहमन्यमभ्यनुशासानीति ॥ ५.११.३॥
तान्होवाचाश्वपतिर्वै भगवन्तोऽयं कैकेयः
सम्प्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति
तꣳहन्ताभ्यागच्छामेति तꣳहाभ्याजग्मुः ॥ ५.११.४॥
तेभ्यो ह प्राप्तेभ्यः पृथगर्हाणि कारयांचकार
स ह प्रातः संजिहान उवाच न मे स्तेनो जनपदे न
कर्दर्यो न मद्यपो नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी
कुतो यक्ष्यमाणो वै भगवन्तोऽहमस्मि यावदेकैकस्मा
ऋत्विजे धनं दास्यामि तावद्भगवद्भ्यो दास्यामि
वसन्तु भगवन्त इति ॥ ५.११.५॥
ते होचुर्येन हैवार्थेन पुरुषश्चरेत्तꣳहैव
वदेदात्मानमेवेमं वैश्वानरꣳ सम्प्रत्यध्येषि तमेव नो
ब्रूहीति ॥ ५.११.६॥
तान्होवाच प्रातर्वः प्रतिवक्तास्मीति ते ह समित्पाणयः
पूर्वाह्णे प्रतिचक्रमिरे तान्हानुपनीयैवैतदुवाच ॥ ५.११.७॥
॥ इति एकादशः खण्डः ॥
औपमन्यव कं त्वमात्मानमुपास्स इति दिवमेव भगवो
राजन्निति होवाचैष वै सुतेजा आत्मा वैश्वानरो यं
त्वमात्मानमुपास्से तस्मात्तव सुतं प्रसुतमासुतं कुले
दृश्यते ॥ ५.१२.१॥
अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य
ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते
मूधा त्वेष आत्मन इति होवाच मूर्धा ते
व्यपतिष्यद्यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५.१२.२॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
अथ होवाच सत्ययज्ञं पौलुषिं प्राचीनयोग्य कं
त्वमात्मानमुपास्स इत्यादित्यमेव भगवो राजन्निति
होवाचैष वै विश्वरूप आत्मा वैश्वानरो यं
त्वमात्मानमुपास्से तस्मात्तव बहु विश्वरूपं कुले
दृश्यते ॥ ५.१३.१॥
प्रवृत्तोऽश्वतरीरथो दासीनिष्कोऽत्स्यन्नं पश्यसि
प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले
य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते चक्षुषेतदात्मन इति
होवाचान्धोऽभविष्यो यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५.१३.२॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
अथ होवाचेन्द्रद्युम्नं भाल्लवेयं वैयाघ्रपद्य कं
त्वमात्मानमुपास्स इति वायुमेव भगवो राजन्निति
होवाचैष वै पृथग्वर्त्मात्मा वैश्वानरो यं
त्वमात्मानमुपास्से तस्मात्त्वां पृथग्बलय आयन्ति
पृथग्रथश्रेणयोऽनुयन्ति ॥ ५.१४.१॥
अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य
ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते
प्राणस्त्वेष आत्मन इति होवाच प्राणस्त
उदक्रमिष्यद्यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५.१४.२॥
॥ इति चतुर्दशः खण्डः ॥
अथ होवाच जनꣳशार्कराक्ष्य कं त्वमात्मानमुपास्स
इत्याकाशमेव भगवो राजन्निति होवाचैष वै बहुल
आत्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपस्से तस्मात्त्वं
बहुलोऽसि प्रजया च धनेन च ॥ ५.१५.१॥
अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य
ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते
संदेहस्त्वेष आत्मन इति होवाच संदेहस्ते व्यशीर्यद्यन्मां
नागमिष्य इति ॥ ५.१५.२॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
अथ होवाच बुडिलमाश्वतराश्विं वैयाघ्रपद्य कं
त्वमात्मानमुपास्स इत्यप एव भगवो राजन्निति होवाचैष
वै रयिरात्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्से
तस्मात्त्वꣳरयिमान्पुष्टिमानसि ॥ ५.१६.१॥
अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य
ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते
बस्तिस्त्वेष आत्मन इति होवाच बस्तिस्ते व्यभेत्स्यद्यन्मां
नागमिष्य इति ॥ ५.१६.२॥
॥ इति षोडशः खण्डः ॥
अथ होवाचोद्दालकमारुणिं गौतम कं त्वमात्मानमुपस्स
इति पृथिवीमेव भगवो राजन्निति होवाचैष वै
प्रतिष्ठात्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्से
तस्मात्त्वं प्रतिष्ठितोऽसि प्रजया च पशुभिश्च ५.१७.१॥
अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियमत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य
ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते
पादौ त्वेतावात्मन इति होवाच पादौ ते व्यम्लास्येतां
यन्मां नागमिष्य इति ५.१७.२॥
॥ इति सप्तदशः खण्डः ॥
तान्होवाचैते वै खलु यूयं पृथगिवेममात्मानं
वैश्वानरं विद्वाꣳसोऽन्नमत्थ यस्त्वेतमेवं
प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते स सर्वेषु
लोकेषु सर्वेषु भूतेषु सर्वेष्वात्मस्वन्नमत्ति ॥ ५.१८.१॥
तस्य ह वा एतस्यात्मनो वैश्वानरस्य मूर्धैव
सुतेजाश्चक्षुर्विश्वरूपः प्राणः पृथग्वर्त्मात्मा संदेहो
बहुलो बस्तिरेव रयिः पृथिव्येव पादावुर एव वेदिर्लोमानि
बर्हिर्हृदयं गार्हपत्यो मनोऽन्वाहार्यपचन आस्यमाहवनीयः
॥ ५.१८.२॥
॥ इति अष्टादशः खण्डः ॥
तद्यद्भक्तं प्रथममागच्छेत्तद्धोमीयꣳ स यां
प्रथमामाहुतिं जुहुयात्तां जुहुयात्प्राणाय स्वाहेति
प्राणस्तृप्यति ॥ ५.१९.१॥
प्राणे तृप्यति चक्षुस्तृप्यति चक्षुषि
तृप्यत्यादित्यस्तृप्यत्यादित्ये तृप्यति द्यौस्तृप्यति
दिवि तृप्यन्त्यां यत्किंच द्यौश्चादित्यश्चाधितिष्ठतस्तत्तृप्यति
तस्यानुतृप्तिं तृप्यति प्रजया पशुभिरन्नाद्येन तेजसा
ब्रह्मवर्चसेनेति ॥ ५.१९.२॥
॥ इति एकोनविंशः खण्डः ॥
अथ यां द्वितीयां जुहुयात्तां जुहुयाद्व्यानाय स्वाहेति
व्यानस्तृप्यति ॥ ५.२०.१॥
व्याने तृप्यति श्रोत्रं तृप्यति श्रोत्रे तृप्यति
चन्द्रमास्तृप्यति चन्द्रमसि तृप्यति दिशस्तृप्यन्ति
दिक्षु तृप्यन्तीषु यत्किंच दिशश्च चन्द्रमाश्चाधितिष्ठन्ति
तत्तृप्यति तस्यानु तृप्तिं तृप्यति प्रजया पशुभिरन्नाद्येन
तेजसा ब्रह्मवर्चसेनेति ॥ ५.२०.२॥
॥ इति विंशः खण्डः ॥
अथ यां तृतीयां जुहुयात्तां जुहुयादपानाय
स्वाहेत्यपानस्तृप्यति ॥ ५.२१.१॥
अपाने तृप्यति वाक्तृप्यति वाचि तृप्यन्त्यामग्निस्तृप्यत्यग्नौ
तृप्यति पृथिवी तृप्यति पृथिव्यां तृप्यन्त्यां यत्किंच
पृथिवी चाग्निश्चाधितिष्ठतस्तत्तृप्यति
तस्यानु तृप्तिं तृप्यति प्रजया पशुभिरन्नाद्येन तेजसा
ब्रह्मवर्चसेनेति ॥ ५.२१.२॥
॥ इति एकविंशः खण्डः ॥
अथ यां चतुर्थीं जुहुयात्तां जुहुयात्समानाय स्वाहेति
समानस्तृप्यति ॥ ५.२२.१॥
समाने तृप्यति मनस्तृप्यति मनसि तृप्यति पर्जन्यस्तृप्यति
पर्जन्ये तृप्यति विद्युत्तृप्यति विद्युति तृप्यन्त्यां यत्किंच
विद्युच्च पर्जन्यश्चाधितिष्ठतस्तत्तृप्यति तस्यानु तृप्तिं
तृप्यति प्रजया पशुभिरन्नाद्येन तेजसा ब्रह्मवर्चसेनेति
॥ ५.२२.२ ॥
॥ इति द्वाविंशः खण्डः ॥
अथ यां पञ्चमीं जुहुयात्तां जुहुयादुदानाय
स्वाहेत्युदानस्तृप्यति ॥ ५.२३.१॥
उदाने तृप्यति त्वक्तृप्यति त्वचि तृप्यन्त्यां वायुस्तृप्यति
वायौ तृप्यत्याकाशस्तृप्यत्याकाशे तृप्यति यत्किंच
वायुश्चाकाशश्चाधितिष्ठतस्तत्तृप्यति तस्यानु तृप्तिं
तृप्यति प्रजया पशुभिरन्नाद्येन तेजसा ब्रह्मवर्चसेन
॥ ५.२३.२॥
॥ इति त्रयोविंशः खण्डः ॥
स य इदमविद्वाग्निहोत्रं जुहोति यथाङ्गारानपोह्य
भस्मनि जुहुयात्तादृक्तत्स्यात् ॥ ५.२४.१॥
अथ य एतदेवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति तस्य सर्वेषु लोकेषु
सर्वेषु भूतेषु सर्वेष्वात्मसु हुतं भवति ॥ ५.२४.२॥
तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैवꣳहास्य सर्वे
पाप्मानः प्रदूयन्ते य एतदेवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति
॥ ५.२४.३॥
तस्मादु हैवंविद्यद्यपि चण्डालायोच्छिष्टं
प्रयच्छेदात्मनि हैवास्य तद्वैश्वानरे हुतꣳ स्यादिति
तदेष श्लोकः ॥ ५.२४.४॥
यथेह क्षुधिता बाला मातरं पर्युपासत एवꣳ सर्वाणि
भूतान्यग्निहोत्रमुपासत इत्यग्निहोत्रमुपासत इति ॥ ५.२४.५॥
॥ इति चतुर्विंशः खण्डः ॥
॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥
॥ षष्ठोऽध्यायः ॥
श्वेतकेतुर्हारुणेय आस तꣳ ह पितोवाच श्वेतकेतो
वस ब्रह्मचर्यं न वै सोम्यास्मत्कुलीनोऽननूच्य
ब्रह्मबन्धुरिव भवतीति ॥ ६.१.१॥
स ह द्वादशवर्ष उपेत्य चतुर्विꣳशतिवर्षः
सर्वान्वेदानधीत्य महामना अनूचानमानी स्तब्ध
एयाय तꣳह पितोवाच ॥ ६.१.२॥
श्वेतकेतो यन्नु सोम्येदं महामना अनूचानमानी
स्तब्धोऽस्युत तमादेशमप्राक्ष्यः येनाश्रुतꣳ श्रुतं
भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति कथं नु भगवः
स आदेशो भवतीति ॥ ६.१.३॥
यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातꣳ
स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्
॥ ६.१.४॥
यथा सोम्यैकेन लोहमणिना सर्वं लोहमयं विज्ञातꣳ
स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं लोहमित्येव
सत्यम् ॥ ६.१.५॥
यथा सोम्यिकेन नखनिकृन्तनेन सर्वं कार्ष्णायसं विज्ञातꣳ
स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं कृष्णायसमित्येव
सत्यमेवꣳसोम्य स आदेशो भवतीति ॥ ६.१.६॥
न वै नूनं भगवन्तस्त एतदवेदिषुर्यद्ध्येतदवेदिष्यन्कथं
मे नावक्ष्यन्निति भगवाꣳस्त्वेव मे तद्ब्रवीत्विति तथा
सोम्येति होवाच ॥ ६.१.७॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् ।
तद्धैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं
तस्मादसतः सज्जायत ॥ ६.२.१॥
कुतस्तु खलु सोम्यैवꣳस्यादिति होवाच कथमसतः
सज्जायेतेति। सत्त्वेव सोम्येदमग्र
आसीदेकमेवाद्वितीयम् ॥ ६.२.२॥
तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत तत्तेज
ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत ।
तस्माद्यत्र क्वच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव
तदध्यापो जायन्ते ॥ ६.२.३॥
ता आप ऐक्षन्त बह्व्यः स्याम प्रजायेमहीति ता
अन्नमसृजन्त तस्माद्यत्र क्व च वर्षति तदेव भूयिष्ठमन्नं
भवत्यद्भ्य एव तदध्यन्नाद्यं जायते ॥ ६.२.४॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
तेषां खल्वेषां भूतानां त्रीण्येव बीजानि
भवन्त्याण्डजं जीवजमुद्भिज्जमिति ॥ ६.३.१॥
सेयं देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन
जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति ॥ ६.३.२॥
तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकां करवाणीति सेयं
देवतेमास्तिस्रो देवता अनेनैव जीवेनात्मनानुप्रविश्य
नामरूपे व्याकरोत् ॥ ६.३.३॥
तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकामकरोद्यथा तु खलु
सोम्येमास्तिस्रो देवतास्त्रिवृत्त्रिवृदेकैका भवति
तन्मे विजानीहीति ॥ ६.३.४ ॥
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
यदग्ने रोहितꣳरूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां
यत्कृष्णं तदन्नस्यापागादग्नेरग्नित्वं वाचारम्भणं
विकारो नामधेयं त्रीणि रूपाणीत्येव सत्यम् ॥ ६.४.१॥
यदादित्यस्य रोहितꣳरूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां
यत्कृष्णं तदन्नस्यापागादादित्यादादित्यत्वं वाचारम्भणं
विकारो नामधेयं त्रीणि रूपाणीत्येव सत्यम् ॥ ६.४.२॥
यच्छन्द्रमसो रोहितꣳरूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां
यत्कृष्णं तदन्नस्यापागाच्चन्द्राच्चन्द्रत्वं वाचारम्भणं
विकारो नामधेयं त्रीणि रूपाणीत्येव सत्यम् ॥ ६.४.३॥
यद्विद्युतो रोहितꣳरूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां
यत्कृष्णं तदन्नस्यापागाद्विद्युतो विद्युत्त्वं वाचारम्भणं
विकारो नामधेयं त्रीणि रूपाणीत्येव सत्यम् ॥ ६.४.४॥
एतद्ध स्म वै तद्विद्वाꣳस आहुः पूर्वे महाशाला
महाश्रोत्रिया न नोऽद्य
कश्चनाश्रुतममतमविज्ञातमुदाहरिष्यतीति ह्येभ्यो
विदांचक्रुः ॥ ६.४.५॥
यदु रोहितमिवाभूदिति तेजसस्तद्रूपमिति तद्विदांचक्रुर्यदु
शुक्लमिवाभूदित्यपाꣳरूपमिति तद्विदांचक्रुर्यदु
कृष्णमिवाभूदित्यन्नस्य रूपमिति तद्विदांचक्रुः ॥ ६.४.६॥
यद्वविज्ञातमिवाभूदित्येतासामेव देवतानाꣳसमास इति
तद्विदांचक्रुर्यथा तु खलु सोम्येमास्तिस्रो देवताः
पुरुषं प्राप्य त्रिवृत्त्रिवृदेकैका भवति तन्मे विजानीहीति
॥ ६.४.७॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
अन्नमशितं त्रेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्ठो
धातुस्तत्पुरीषं भवति यो मध्यमस्तन्माꣳसं
योऽणिष्ठस्तन्मनः ॥ ६.५.१॥
आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते तासां यः स्थविष्ठो
धातुस्तन्मूत्रं भवति यो मध्यमस्तल्लोहितं योऽणिष्ठः
स प्राणः ॥ ६.५.२॥
तेजोऽशितं त्रेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्ठो
धातुस्तदस्थि भवति यो मध्यमः स मज्जा
योऽणिष्ठः सा वाक् ॥ ६.५.३॥
अन्नमयꣳहि सोम्य मनः आपोमयः प्राणस्तेजोमयी
वागिति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति तथा
सोम्येति होवाच ॥ ६.५.४॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
दध्नः सोम्य मथ्यमानस्य योऽणिमा स उर्ध्वः समुदीषति
तत्सर्पिर्भवति ॥ ६.६.१॥
एवमेव खलु सोम्यान्नस्याश्यमानस्य योऽणिमा स उर्ध्वः
समुदीषति तन्मनो भवति ॥ ६.६.२॥
अपाꣳसोम्य पीयमानानां योऽणिमा स उर्ध्वः समुदीषति
सा प्राणो भवति ॥ ६.६.३ ॥
तेजसः सोम्याश्यमानस्य योऽणिमा स उर्ध्वः समुदीषति
सा वाग्भवति ॥ ६.६.४॥
अन्नमयꣳ हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति
भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति तथा सोम्येति होवाच
॥ ६.६.६॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
षोडशकलः सोम्य पुरुषः पञ्चदशाहानि माशीः
काममपः पिबापोमयः प्राणो नपिबतो विच्छेत्स्यत
इति ॥ ६.७.१॥
स ह पञ्चदशाहानि नशाथ हैनमुपससाद किं ब्रवीमि
भो इत्यृचः सोम्य यजूꣳषि सामानीति स होवाच न वै
मा प्रतिभान्ति भो इति ॥ ६.७.२॥
तꣳ होवाच यथा सोम्य महतोऽभ्या हितस्यैकोऽङ्गारः
खद्योतमात्रः परिशिष्टः स्यात्तेन ततोऽपि न बहु
दहेदेवꣳसोम्य ते षोडशानां कलानामेका कलातिशिष्टा
स्यात्तयैतर्हि वेदान्नानुभवस्यशानाथ मे विज्ञास्यसीति
॥ ६.७.३॥
स हशाथ हैनमुपससाद तꣳ ह यत्किंच पप्रच्छ
सर्वꣳह प्रतिपेदे ॥ ६.७.४॥
तꣳ होवाच यथा सोम्य महतोऽभ्याहितस्यैकमङ्गारं
खद्योतमात्रं परिशिष्टं तं तृणैरुपसमाधाय
प्राज्वलयेत्तेन ततोऽपि बहु दहेत् ॥ ६.७.५॥
एवꣳ सोम्य ते षोडशानां कलानामेका
कलातिशिष्टाभूत्सान्नेनोपसमाहिता प्राज्वाली
तयैतर्हि वेदाननुभवस्यन्नमयꣳहि सोम्य मन आपोमयः
प्राणस्तेजोमयी वागिति तद्धास्य विजज्ञाविति विजज्ञाविति
॥ ६.७.६॥
॥ इति सप्तमः खण्डः ॥
उद्दालको हारुणिः श्वेतकेतुं पुत्रमुवाच स्वप्नान्तं मे सोम्य
विजानीहीति यत्रैतत्पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा
सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेनꣳ
स्वपितीत्याचक्षते स्वꣳह्यपीतो भवति ॥ ६.८.१॥
स यथा शकुनिः सूत्रेण प्रबद्धो दिशं दिशं
पतित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्रयत
एवमेव खलु सोम्य तन्मनो दिशं दिशं
पतित्वान्यत्रायतनमलब्ध्वा प्राणमेवोपश्रयते
प्राणबन्धनꣳ हि सोम्य मन इति ॥ ६.८.२ ॥
अशनापिपासे मे सोम्य विजानीहीति
यत्रैतत्पुरुषोऽशिशिषति नामाप एव तदशितं नयन्ते
तद्यथा गोनायोऽश्वनायः पुरुषनाय इत्येवं तदप
आचक्षतेऽशनायेति तत्रितच्छुङ्गमुत्पतितꣳ सोम्य
विजानीहि नेदममूलं भविष्यतीति ॥ ६.८.३॥
तस्य क्व मूलꣳ स्यादन्यत्रान्नादेवमेव खलु सोम्यान्नेन
शुङ्गेनापो मूलमन्विच्छाद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजो
मूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ
सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः
सत्प्रतिष्ठाः ॥ ६.८.४॥
अथ यत्रैतत्पुरुषः पिपासति नाम तेज एव तत्पीतं नयते
तद्यथा गोनायोऽश्वनायः पुरुषनाय इत्येवं तत्तेज
आचष्ट उदन्येति तत्रैतदेव शुङ्गमुत्पतितꣳ सोम्य
विजानीहि नेदममूलं भविष्यतीति ॥ ६.८.५॥
तस्य क्व मूलꣳ स्यादन्यत्राद्भ्य्ऽद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजो
मूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ
सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठा
यथा तु खलु सोम्येमास्तिस्रो देवताः पुरुषं प्राप्य
त्रिवृत्त्रिवृदेकैका भवति तदुक्तं पुरस्तादेव भवत्यस्य
सोम्य पुरुषस्य प्रयतो वाङ्मनसि सम्पद्यते मनः प्राणे
प्राणस्तेजसि तेजः परस्यां देवतायाम् ॥ ६.८.६॥
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदꣳ सर्वं तत्सत्यꣳ स
आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव मा
भगवान्विज्ञापयत्विति तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.८.७॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
यथा सोम्य मधु मधुकृतो निस्तिष्ठन्ति नानात्ययानां
वृक्षाणाꣳरसान्समवहारमेकताꣳरसं गमयन्ति ॥ ६.९.१॥
ते यथा तत्र न विवेकं लभन्तेऽमुष्याहं वृक्षस्य
रसोऽस्म्यमुष्याहं वृक्षस्य रसोऽस्मीत्येवमेव खलु
सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सति सम्पद्य न विदुः सति
सम्पद्यामह इति ॥ ६.९.२ ॥
त इह व्यघ्रो वा सिꣳहो वा वृको वा वराहो वा कीटो वा
पतङ्गो वा दꣳशो वा मशको वा यद्यद्भवन्ति तदाभवन्ति
॥ ६.९.३ ॥
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदꣳ सर्वं तत्सत्यꣳ स आत्मा
तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति
तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.९.४॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
इमाः सोम्य नद्यः पुरस्तात्प्राच्यः स्यन्दन्ते
पश्चात्प्रतीच्यस्ताः समुद्रात्समुद्रमेवापियन्ति स समुद्र
एव भवति ता यथा तत्र न विदुरियमहमस्मीयमहमस्मीति
॥ ६.१०.१॥
एवमेव खलु सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सत आगम्य न विदुः
सत आगच्छामह इति त इह व्याघ्रो वा सिꣳहो वा
वृको वा वराहो वा कीटो वा पतङ्गो वा दꣳशो वा मशको वा
यद्यद्भवन्ति तदाभवन्ति ॥ ६.१०.२॥
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदꣳ सर्वं तत्सत्यꣳ स आत्मा
तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति
तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.१०.३॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
अस्य सोम्य महतो वृक्षस्य यो मूलेऽभ्याहन्याज्जीवन्स्रवेद्यो
मध्येऽभ्याहन्याज्जीवन्स्रवेद्योऽग्रेऽभ्याहन्याज्जीवन्स्रवेत्स
एष जीवेनात्मनानुप्रभूतः पेपीयमानो मोदमानस्तिष्ठति
॥ ६.११.१॥
अस्य यदेकाꣳ शाखां जीवो जहात्यथ सा शुष्यति
द्वितीयां जहात्यथ सा शुष्यति तृतीयां जहात्यथ सा
शुष्यति सर्वं जहाति सर्वः शुष्यति ॥ ६.११.२॥
एवमेव खलु सोम्य विद्धीति होवाच जीवापेतं वाव किलेदं
म्रियते न जीवो म्रियते इति स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदꣳ
सर्वं तत्सत्यꣳ स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव
मा भगवान्विज्ञापयत्विति तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.११.३॥
॥ इति एकादशः खण्डः ॥
न्यग्रोधफलमत आहरेतीदं भगव इति भिन्द्धीति भिन्नं
भगव इति किमत्र पश्यसीत्यण्व्य इवेमा धाना भगव
इत्यासामङ्गैकां भिन्द्धीति भिन्ना भगव इति किमत्र
पश्यसीति न किंचन भगव इति ॥ ६.१२.१॥
तꣳ होवाच यं वै सोम्यैतमणिमानं न निभालयस
एतस्य वै सोम्यैषोऽणिम्न एवं महान्यग्रोधस्तिष्ठति
श्रद्धत्स्व सोम्येति ॥ ६.१२.२॥
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदद्ꣳ सर्वं तत्सत्यꣳ स आत्मा
तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति
तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.१२.३॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
लवणमेतदुदकेऽवधायाथ मा प्रातरुपसीदथा इति
स ह तथा चकार तꣳ होवाच यद्दोषा लवणमुदकेऽवाधा
अङ्ग तदाहरेति तद्धावमृश्य न विवेद ॥ ६.१३.१॥
यथा विलीनमेवाङ्गास्यान्तादाचामेति कथमिति लवणमिति
मध्यादाचामेति कथमिति लवणमित्यन्तादाचामेति
कथमिति लवणमित्यभिप्रास्यैतदथ मोपसीदथा इति
तद्ध तथा चकार तच्छश्वत्संवर्तते तꣳ होवाचात्र
वाव किल तत्सोम्य न निभालयसेऽत्रैव किलेति ॥ ६.१३.२॥
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदꣳ सर्वं तत्सत्यꣳ स आत्मा
तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति
तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.१३.३॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
यथा सोम्य पुरुषं गन्धारेभ्योऽभिनद्धाक्षमानीय तं
ततोऽतिजने विसृजेत्स यथा तत्र प्राङ्वोदङ्वाधराङ्वा
प्रत्यङ्वा प्रध्मायीताभिनद्धाक्ष आनीतोऽभिनद्धाक्षो
विसृष्टः ॥ ६.१४.१॥
तस्य यथाभिनहनं प्रमुच्य प्रब्रूयादेतां दिशं गन्धारा
एतां दिशं व्रजेति स ग्रामाद्ग्रामं पृच्छन्पण्डितो मेधावी
गन्धारानेवोपसम्पद्येतैवमेवेहाचार्यवान्पुरुषो वेद
तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ सम्पत्स्य इति
॥ ६.१४.२॥
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदꣳ सर्वं तत्सत्यꣳ स आत्मा
तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति
तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.१४.३॥
॥ इति चतुर्दशः खण्डः ॥
पुरुषꣳ सोम्योतोपतापिनं ज्ञातयः पर्युपासते जानासि
मां जानासि मामिति तस्य यावन्न वाङ्मनसि सम्पद्यते
मनः प्राणे प्राणस्तेजसि तेजः परस्यां देवतायां
तावज्जानाति ॥ ६.१५.१॥
अथ यदास्य वाङ्मनसि सम्पद्यते मनः प्राणे प्राणस्तेजसि
तेजः परस्यां देवतायामथ न जानाति ॥ ६.१५.२॥
स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदꣳ सर्वं तत् सत्यꣳ स आत्मा
तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति भूय एव मा भगवान्विज्ञापयत्विति
तथा सोम्येति होवाच ॥ ६.१५.३॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
पुरुषꣳ सोम्योत
हस्तगृहीतमानयन्त्यपहार्षीत्स्तेयमकार्षीत्परशुमस्मै
तपतेति स यदि तस्य कर्ता भवति तत एवानृतमात्मानं
कुरुते सोऽनृताभिसंधोऽनृतेनात्मानमन्तर्धाय
परशुं तप्तं प्रतिगृह्णाति स दह्यतेऽथ हन्यते ॥ ६.१६.१॥
अथ यदि तस्याकर्ता भवति ततेव सत्यमात्मानं कुरुते
स सत्याभिसन्धः सत्येनात्मानमन्तर्धाय परशुं तप्तं
प्रतिगृह्णाति सन दह्यतेऽथ मुच्यते ॥ ६.१६.२॥
स यथा तत्र नादाह्येतैतदात्म्यमिदꣳ सर्वं तत्सत्यꣳ स
आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति तद्धास्य विजज्ञाविति
विजज्ञाविति ॥ ६.१६.३॥
॥ इति षोडशः खण्डः ॥
॥ इति षष्ठोऽध्यायः ॥
॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
अधीहि भगव इति होपससाद सनत्कुमारं नारदस्तꣳ
होवाच यद्वेत्थ तेन मोपसीद ततस्त ऊर्ध्वं वक्ष्यामीति
स होवाच ॥ ७.१.१॥
ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदꣳ सामवेदमाथर्वणं
चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यꣳ राशिं
दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां
भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्याꣳ
सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि ॥ ७.१.२॥
सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नात्मविच्छ्रुतꣳ ह्येव मे
भगवद्दृशेभ्यस्तरति शोकमात्मविदिति सोऽहं भगवः
शोचामि तं मा भगवाञ्छोकस्य पारं तारयत्विति
तꣳ होवाच यद्वै किंचैतदध्यगीष्ठा नामैवैतत् ॥ ७.१.३॥
नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ
इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः पित्र्यो राशिर्दैवो
निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या
क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्या
नामैवैतन्नामोपास्स्वेति ॥ ७.१.४ ॥
स यो नाम ब्रह्मेत्युपास्ते यावन्नाम्नो गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति यो नाम ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति
भगवो नाम्नो भूय इति नाम्नो वाव भूयोऽस्तीति तन्मे
भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.१.५॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
वाग्वाव नाम्नो भूयसी वाग्वा ऋग्वेदं विज्ञापयति यजुर्वेदꣳ
सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं
पित्र्यꣳराशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां
ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्याꣳ सर्पदेवजनविद्यां
दिवं च पृथिवीं च वायुं चाकाशं चापश्च तेजश्च
देवाꣳश्च मनुष्याꣳश्च पशूꣳश्च वयाꣳसि च
तृणवनस्पतीञ्श्वापदान्याकीटपतङ्गपिपीलकं
धर्मं चाधर्मं च सत्यं चानृतं च साधु चासाधु च
हृदयज्ञं चाहृदयज्ञं च यद्वै वाङ्नाभविष्यन्न धर्मो
नाधर्मो व्यज्ञापयिष्यन्न सत्यं नानृतं न साधु नासाधु
न हृदयज्ञो नाहृदयज्ञो वागेवैतत्सर्वं विज्ञापयति
वाचमुपास्स्वेति ॥ ७.२.१॥
स यो वाचं ब्रह्मेत्युपास्ते यावद्वाचो गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति यो वाचं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति
भगवो वाचो भूय इति वाचो वाव भूयोऽस्तीति तन्मे
भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.२.२॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
मनो वाव वाचो भूयो यथा वै द्वे वामलके द्वे वा कोले
द्वौ वाक्षौ मुष्टिरनुभवत्येवं वाचं च नाम च
मनोऽनुभवति स यदा मनसा मनस्यति
मन्त्रानधीयीयेत्यथाधीते कर्माणि कुर्वीयेत्यथ कुरुते
पुत्राꣳश्च पशूꣳश्चेच्छेयेत्यथेच्छत इमं च
लोकममुं चेच्छेयेत्यथेच्छते मनो ह्यात्मा मनो हि लोको
मनो हि ब्रह्म मन उपास्स्वेति ॥ ७.३.१ ॥
स यो मनो ब्रह्मेत्युपास्ते यावन्मनसो गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति यो मनो ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति
भगवो मनसो भूय इति मनसो वाव भूयोऽस्तीति
तन्मे भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.३.२॥
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
संकल्पो वाव मनसो भूयान्यदा वै संकल्पयतेऽथ
मनस्यत्यथ वाचमीरयति तामु नाम्नीरयति नाम्नि
मन्त्रा एकं भवन्ति मन्त्रेषु कर्माणि ॥ ७.४.१॥
तानि ह वा एतानि संकल्पैकायनानि संकल्पात्मकानि
संकल्पे प्रतिष्ठितानि समकॢपतां द्यावापृथिवी
समकल्पेतां वायुश्चाकाशं च समकल्पन्तापश्च
तेजश्च तेषाꣳ सं कॢप्त्यै वर्षꣳ संकल्पते
वर्षस्य संकॢप्त्या अन्नꣳ संकल्पतेऽन्नस्य सं कॢप्त्यै
प्राणाः संकल्पन्ते प्राणानाꣳ सं कॢप्त्यै मन्त्राः संकल्पन्ते
मन्त्राणाꣳ सं कॢप्त्यै कर्माणि संकल्पन्ते कर्मणां
संकॢप्त्यै लोकः संकल्पते लोकस्य सं कॢप्त्यै सर्वꣳ
संकल्पते स एष संकल्पः संकल्पमुपास्स्वेति ॥ ७.४.२ ॥
स यः संकल्पं ब्रह्मेत्युपास्ते संकॢप्तान्वै स लोकान्ध्रुवान्ध्रुवः
प्रतिष्ठितान् प्रतिष्ठितोऽव्यथमानानव्यथमानोऽभिसिध्यति
यावत्संकल्पस्य गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति यः
संकल्पं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगवः संकल्पाद्भूय इति
संकल्पाद्वाव भूयोऽस्तीति तन्मे भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.४.३॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
चित्तं वाव सं कल्पाद्भूयो यदा वै चेतयतेऽथ
संकल्पयतेऽथ मनस्यत्यथ वाचमीरयति तामु नाम्नीरयति
नाम्नि मन्त्रा एकं भवन्ति मन्त्रेषु कर्माणि ॥ ७.५.१॥
तानि ह वा एतानि चित्तैकायनानि चित्तात्मानि चित्ते
प्रतिष्ठितानि तस्माद्यद्यपि बहुविदचित्तो भवति
नायमस्तीत्येवैनमाहुर्यदयं वेद यद्वा अयं
विद्वान्नेत्थमचित्तः स्यादित्यथ यद्यल्पविच्चित्तवान्भवति
तस्मा एवोत शुश्रूषन्ते चित्तꣳह्येवैषामेकायनं
चित्तमात्मा चित्तं प्रतिष्ठा चित्तमुपास्स्वेति ॥ ७.५.२ ॥
स यश्चित्तं ब्रह्मेत्युपास्ते चित्तान्वै स लोकान्ध्रुवान्ध्रुवः
प्रतिष्ठितान्प्रतिष्ठितोऽव्यथमानानव्यथमानोऽभिसिध्यति
यावच्चित्तस्य गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति यश्चित्तं
ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगवश्चित्ताद्भूय इति चित्ताद्वाव
भूयोऽस्तीति तन्मे भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.५.३॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
ध्यानं वाव चित्ताद्भूयो ध्यायतीव पृथिवी
ध्यायतीवान्तरिक्षं ध्यायतीव द्यौर्ध्यायन्तीवापो
ध्यायन्तीव पर्वता देवमनुष्यास्तस्माद्य इह मनुष्याणां
महत्तां प्राप्नुवन्ति ध्यानापादाꣳशा इवैव ते भवन्त्यथ
येऽल्पाः कलहिनः पिशुना उपवादिनस्तेऽथ ये प्रभवो
ध्यानापादाꣳशा इवैव ते भवन्ति ध्यानमुपास्स्वेति ॥ ७.६.१॥
स यो ध्यानं ब्रह्मेत्युपास्ते यावद्ध्यानस्य गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति यो ध्यानं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति
भगवो ध्यानाद्भूय इति ध्यानाद्वाव भूयोऽस्तीति
तन्मे भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.६.२॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
विज्ञानं वाव ध्यानाद्भूयः विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति
यजुर्वेदꣳ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं
पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यꣳराशिं दैवं निधिं
वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां
क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्याꣳसर्पदेवजनविद्यां दिवं च
पृथिवीं च वायुं चाकाशं चापश्च तेजश्च देवाꣳश्च
मनुष्याꣳश्च पशूꣳश्च वयाꣳसि च
तृणवनस्पतीञ्छ्वापदान्याकीटपतङ्गपिपीलकं
धर्मं चाधर्मं च सत्यं चानृतं च साधु चासाधु च
हृदयज्ञं चाहृदयज्ञं चान्नं च रसं चेमं च लोकममुं
च विज्ञानेनैव विजानाति विज्ञानमुपास्स्वेति ॥ ७.७.१ ॥
स यो विज्ञानं ब्रह्मेत्युपास्ते विज्ञानवतो वै स
लोकाञ्ज्ञानवतोऽभिसिध्यति यावद्विज्ञानस्य गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति यो विज्ञानं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगवो
विज्ञानाद्भूय इति विज्ञानाद्वाव भूयोऽस्तीति तन्मे
भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.७.२॥
॥ इति सप्तमः खण्डः ॥
बलं वाव विज्ञानाद्भूयोऽपि ह शतं विज्ञानवतामेको
बलवानाकम्पयते स यदा बली भवत्यथोत्थाता
भवत्युत्तिष्ठन्परिचरिता भवति परिचरन्नुपसत्ता
भवत्युपसीदन्द्रष्टा भवति श्रोता भवति मन्ता भवति
बोद्धा भवति कर्ता भवति विज्ञाता भवति बलेन वै पृथिवी
तिष्ठति बलेनान्तरिक्षं बलेन द्यौर्बलेन पर्वता बलेन
देवमनुष्या बलेन पशवश्च वयाꣳसि च तृणवनस्पतयः
श्वापदान्याकीटपतङ्गपिपीलकं बलेन लोकस्तिष्ठति
बलमुपास्स्वेति ॥ ७.८.१॥
स यो बलं ब्रह्मेत्युपास्ते यावद्बलस्य गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति यो बलं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगवो
बलाद्भूय इति बलाद्वाव भूयोऽस्तीति तन्मे
भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.८.२॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
अन्नं वाव बलाद्भूयस्तस्माद्यद्यपि दश
रात्रीर्नाश्नीयाद्यद्यु ह
जीवेदथवाद्रष्टाश्रोतामन्ताबोद्धाकर्ताविज्ञाता
भवत्यथान्नस्यायै द्रष्टा भवति श्रोता भवति मन्ता
भवति बोद्धा भवति कर्ता भवति विज्ञाता
भवत्यन्नमुपास्स्वेति ॥ ७.९.१॥
स योऽन्नं ब्रह्मेत्युपास्तेऽन्नवतो वै स
लोकान्पानवतोऽभिसिध्यति यावदन्नस्य गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति योऽन्नं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति
भगवोऽन्नाद्भूय इत्यन्नाद्वाव भूयोऽस्तीति तन्मे
भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.९.२॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
आपो वावान्नाद्भूयस्तस्माद्यदा सुवृष्टिर्न भवति
व्याधीयन्ते प्राणा अन्नं कनीयो भविष्यतीत्यथ यदा
सुवृष्टिर्भवत्यानन्दिनः प्राणा भवन्त्यन्नं बहु
भविष्यतीत्याप एवेमा मूर्ता येयं पृथिवी यदन्तरिक्षं
यद्द्यौर्यत्पर्वता यद्देवमनुष्यायत्पशवश्च वयाꣳसि च
तृणवनस्पतयः श्वापदान्याकीटपतङ्गपिपीलकमाप
एवेमा मूर्ता अप उपास्स्वेति ॥ ७.१०.१॥
स योऽपो ब्रह्मेत्युपास्त आप्नोति सर्वान्कामाꣳस्तृप्तिमान्भवति
यावदपां गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति योऽपो
ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगवोऽद्भ्यो भूय इत्यद्भ्यो वाव
भूयोऽस्तीति तन्मे भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.१०.२॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
तेजो वावाद्भ्यो भूयस्तद्वा एतद्वायुमागृह्याकाशमभितपति
तदाहुर्निशोचति नितपति वर्षिष्यति वा इति तेज एव
तत्पूर्वं दर्शयित्वाथापः सृजते तदेतदूर्ध्वाभिश्च
तिरश्चीभिश्च विद्युद्भिराह्रादाश्चरन्ति तस्मादाहुर्विद्योतते
स्तनयति वर्षिष्यति वा इति तेज एव तत्पूर्वं दर्शयित्वाथापः
सृजते तेज उपास्स्वेति ॥ ७.११.१॥
स यस्तेजो ब्रह्मेत्युपास्ते तेजस्वी वै स तेजस्वतो
लोकान्भास्वतोऽपहततमस्कानभिसिध्यति यावत्तेजसो गतं
तत्रास्य यथाकामचारो भवति यस्तेजो ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति
भगवस्तेजसो भूय इति तेजसो वाव भूयोऽस्तीति तन्मे
भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.११.२॥
॥ इति एकादशः खण्डः ॥
आकाशो वाव तेजसो भूयानाकाशे वै सूर्याचन्द्रमसावुभौ
विद्युन्नक्षत्राण्यग्निराकाशेनाह्वयत्याकाशेन
शृणोत्याकाशेन प्रतिशृणोत्याकाशे रमत आकाशे न रमत
आकाशे जायत आकाशमभिजायत आकाशमुपास्स्वेति
॥ ७.१२.१॥
स य आकाशं ब्रह्मेत्युपास्त आकाशवतो वै स
लोकान्प्रकाशवतोऽसंबाधानुरुगायवतोऽभिसिध्यति
यावदाकाशस्य गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति
य आकाशं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगव आकाशाद्भूय इति
आकाशाद्वाव भूयोऽस्तीति तन्मे भगवान्ब्रवीत्विति
॥ ७.१२.२॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
स्मरो वावाकाशाद्भूयस्तस्माद्यद्यपि बहव आसीरन्न
स्मरन्तो नैव ते कंचन शृणुयुर्न मन्वीरन्न विजानीरन्यदा
वाव ते स्मरेयुरथ शृणुयुरथ मन्वीरन्नथ विजानीरन्स्मरेण
वै पुत्रान्विजानाति स्मरेण पशून्स्मरमुपास्स्वेति ॥ ७.१३.१॥
स यः स्मरं ब्रह्मेत्युपास्ते यावत्स्मरस्य गतं तत्रास्य
यथाकामचारो भवति यः स्मरं ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगवः
स्मराद्भूय इति स्मराद्वाव भूयोऽस्तीति तन्मे
भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.१३.२॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
आशा वाव स्मराद्भूयस्याशेद्धो वै स्मरो मन्त्रानधीते
कर्माणि कुरुते पुत्राꣳश्च पशूꣳश्चेच्छत इमं च
लोकममुं चेच्छत आशामुपास्स्वेति ॥ ७.१४.१॥
स य आशां ब्रह्मेत्युपास्त आशयास्य सर्वे कामाः
समृध्यन्त्यमोघा हास्याशिषो भवन्ति यावदाशाया
गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति य आशां
ब्रह्मेत्युपास्तेऽस्ति भगव आशाया भूय इत्याशाया वाव
भूयोऽस्तीति तन्मे भगवान्ब्रवीत्विति ॥ ७.१४.२॥
॥ इति चतुर्दशः खण्डः ॥
प्राणो वा आशाया भूयान्यथा वा अरा नाभौ समर्पिता
एवमस्मिन्प्राणे सर्वꣳसमर्पितं प्राणः प्राणेन याति
प्राणः प्राणं ददाति प्राणाय ददाति प्राणो ह पिता प्राणो
माता प्राणो भ्राता प्राणः स्वसा प्राण आचार्यः
प्राणो ब्राह्मणः ॥ ७.१५.१॥
स यदि पितरं वा मातरं वा भ्रातरं वा स्वसारं वाचार्यं
वा ब्राह्मणं वा किंचिद्भृशमिव प्रत्याह
धिक्त्वास्त्वित्येवैनमाहुः पितृहा वै त्वमसि मातृहा वै
त्वमसि भ्रातृहा वै त्वमसि स्वसृहा वै त्वमस्याचार्यहा
वै त्वमसि ब्राह्मणहा वै त्वमसीति ॥ ७.१५.२॥
अथ यद्यप्येनानुत्क्रान्तप्राणाञ्छूलेन समासं
व्यतिषंदहेन्नैवैनं ब्रूयुः पितृहासीति न मातृहासीति
न भ्रातृहासीति न स्वसृहासीति नाचार्यहासीति
न ब्राह्मणहासीति ॥ ७.१५.३॥
प्राणो ह्येवैतानि सर्वाणि भवति स वा एष एवं पश्यन्नेवं
मन्वान एवं विजानन्नतिवादी भवति तं
चेद्ब्रूयुरतिवाद्यसीत्यतिवाद्यस्मीति ब्रूयान्नापह्नुवीत
॥ ७.१५.४॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
एष तु वा अतिवदति यः सत्येनातिवदति सोऽहं भगवः
सत्येनातिवदानीति सत्यं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति सत्यं
भगवो विजिज्ञास इति ॥ ७.१६.१॥
॥ इति षोडशः खण्डः ॥
यदा वै विजानात्यथ सत्यं वदति नाविजानन्सत्यं वदति
विजानन्नेव सत्यं वदति विज्ञानं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति
विज्ञानं भगवो विजिज्ञास इति ॥ ७.१७.१॥
॥ इति सप्तदशः खण्डः ॥
यदा वै मनुतेऽथ विजानाति नामत्वा विजानाति मत्वैव
विजानाति मतिस्त्वेव विजिज्ञासितव्येति मतिं भगवो
विजिज्ञास इति ॥ ७.१८.१॥
॥ इति अष्टादशः खण्डः ॥
यदा वै श्रद्दधात्यथ मनुते नाश्रद्दधन्मनुते
श्रद्दधदेव मनुते श्रद्धा त्वेव विजिज्ञासितव्येति
श्रद्धां भगवो विजिज्ञास इति ॥ ७.१९.१॥
॥ इति एकोनविंशतितमः खण्डः ॥
यदा वै निस्तिष्ठत्यथ श्रद्दधाति
नानिस्तिष्ठञ्छ्रद्दधाति निस्तिष्ठन्नेव श्रद्दधाति
निष्ठा त्वेव विजिज्ञासितव्येति निष्ठां भगवो
विजिज्ञास इति ॥ ७.२०.१॥
॥ इति विंशतितमः खण्डः ॥
यदा वै करोत्यथ निस्तिष्ठति नाकृत्वा निस्तिष्ठति
कृत्वैव निस्तिष्ठति कृतिस्त्वेव विजिज्ञासितव्येति
कृतिं भगवो विजिज्ञास इति ॥ ७.२१.१॥
॥ इति एकविंशः खण्डः ॥
यदा वै सुखं लभतेऽथ करोति नासुखं लब्ध्वा करोति
सुखमेव लब्ध्वा करोति सुखं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति
सुखं भगवो विजिज्ञास इति ॥ ७.२२.१॥
॥ इति द्वाविंशः खण्डः ॥
यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं
भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो
विजिज्ञास इति ॥ ७.२३.१॥
॥ इति त्रयोविंशः खण्डः ॥
यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स
भूमाथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति
तदल्पं यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मर्त्य्ꣳ स
भगवः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति स्वे महिम्नि यदि वा
न महिम्नीति ॥ ७.२४.१॥
गोअश्वमिह महिमेत्याचक्षते हस्तिहिरण्यं दासभार्यं
क्षेत्राण्यायतनानीति नाहमेवं ब्रवीमि ब्रवीमीति
होवाचान्योह्यन्यस्मिन्प्रतिष्ठित इति ॥ ७.२४.२॥
॥ इति चतुर्विंशः खण्डः ॥
स एवाधस्तात्स उपरिष्टात्स पश्चात्स पुरस्तात्स
दक्षिणतः स उत्तरतः स एवेदꣳ सर्वमित्यथातोऽहंकारादेश
एवाहमेवाधस्तादहमुपरिष्टादहं पश्चादहं पुरस्तादहं
दक्षिणतोऽहमुत्तरतोऽहमेवेदꣳ सर्वमिति ॥ ७.२५.१॥
अथात आत्मादेश एवात्मैवाधस्तादात्मोपरिष्टादात्मा
पश्चादात्मा पुरस्तादात्मा दक्षिणत आत्मोत्तरत
आत्मैवेदꣳ सर्वमिति स वा एष एवं पश्यन्नेवं मन्वान एवं
विजानन्नात्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्दः स
स्वराड्भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति
अथ येऽन्यथातो विदुरन्यराजानस्ते क्षय्यलोका भवन्ति
तेषाꣳ सर्वेषु लोकेष्वकामचारो भवति ॥ ७.२५.२॥
॥ इति पञ्चविंशः खण्डः ॥
तस्य ह वा एतस्यैवं पश्यत एवं मन्वानस्यैवं विजानत
आत्मतः प्राण आत्मत आशात्मतः स्मर आत्मत आकाश
आत्मतस्तेज आत्मत आप आत्मत
आविर्भावतिरोभावावात्मतोऽन्नमात्मतो बलमात्मतो
विज्ञानमात्मतो ध्यानमात्मतश्चित्तमात्मतः
संकल्प आत्मतो मन आत्मतो वागात्मतो नामात्मतो मन्त्रा
आत्मतः कर्माण्यात्मत एवेदꣳसर्वमिति ॥ ७.२६.१॥
तदेष श्लोको न पश्यो मृत्युं पश्यति न रोगं नोत दुःखताꣳ
सर्वꣳ ह पश्यः पश्यति सर्वमाप्नोति सर्वश इति
स एकधा भवति त्रिधा भवति पञ्चधा
सप्तधा नवधा चैव पुनश्चैकादशः स्मृतः
शतं च दश चैकश्च सहस्राणि च
विꣳशतिराहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः
स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षस्तस्मै
मृदितकषायाय तमसस्पारं दर्शयति
भगवान्सनत्कुमारस्तꣳ स्कन्द इत्याचक्षते
तꣳ स्कन्द इत्याचक्षते ॥ ७.२६.२॥
॥ इति षड्विंशः खण्डः ॥
॥ इति सप्तमोऽध्यायः ॥
॥ अष्टमोऽध्यायः ॥
अथ यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म
दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशस्तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं
तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति ॥ ८.१.१॥
तं चेद्ब्रूयुर्यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म
दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः किं तदत्र विद्यते यदन्वेष्टव्यं
यद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति स ब्रूयात् ॥ ८.१.२॥
यावान्वा अयमाकाशस्तावानेषोऽन्तर्हृदय अकाश
उभे अस्मिन्द्यावापृथिवी अन्तरेव समाहिते
उभावग्निश्च वायुश्च सूर्याचन्द्रमसावुभौ
विद्युन्नक्षत्राणि यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्वं
तदस्मिन्समाहितमिति ॥ ८.१.३॥
तं चेद्ब्रूयुरस्मिꣳश्चेदिदं ब्रह्मपुरे सर्वꣳ समाहितꣳ
सर्वाणि च भूतानि सर्वे च कामा यदैतज्जरा वाप्नोति
प्रध्वꣳसते वा किं ततोऽतिशिष्यत इति ॥ ८.१.४॥
स ब्रूयात्नास्य जरयैतज्जीर्यति न वधेनास्य हन्यत
एतत्सत्यं ब्रह्मपुरमस्मिकामाः समाहिताः एष
आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको
विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पो यथा ह्येवेह
प्रजा अन्वाविशन्ति यथानुशासनम् यं यमन्तमभिकामा
भवन्ति यं जनपदं यं क्षेत्रभागं तं तमेवोपजीवन्ति
॥ ८.१.५॥
तद्यथेह कर्मजितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यजितो
लोकः क्षीयते तद्य इहात्मानमनुविद्य व्रजन्त्येताꣳश्च
सत्यान्कामाꣳस्तेषाꣳ सर्वेषु लोकेष्वकामचारो
भवत्यथ य इहात्मानमनिवुद्य व्रजन्त्येतꣳश्च
सत्यान्कामाꣳस्तेषाꣳ सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति
॥ ८.१.६॥
॥ इति प्रथमः खण्डः ॥
स यदि पितृलोककामो भवति संकल्पादेवास्य पितरः
समुत्तिष्ठन्ति तेन पितृलोकेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.१॥
अथ यदि मातृलोककामो भवति संकल्पादेवास्य मातरः
समुत्तिष्ठन्ति तेन मातृलोकेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.२॥
अथ यदि भ्रातृलोककामो भवति संकल्पादेवास्य भ्रातरः
समुत्तिष्ठन्ति तेन भ्रातृलोकेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.३॥॥
अथ यदि स्वसृलोककामो भवति संकल्पादेवास्य स्वसारः
समुत्तिष्ठन्ति तेन स्वसृलोकेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.४॥
अथ यदि सखिलोककामो भवति संकल्पादेवास्य सखायः
समुत्तिष्ठन्ति तेन सखिलोकेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.५॥
अथ यदि गन्धमाल्यलोककामो भवति संकल्पादेवास्य
गन्धमाल्ये समुत्तिष्ठतस्तेन गन्धमाल्यलोकेन सम्पन्नो
महीयते ॥ ८.२.६॥
अथ यद्यन्नपानलोककामो भवति संकल्पादेवास्यान्नपाने
समुत्तिष्ठतस्तेनान्नपानलोकेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.७॥
अथ यदि गीतवादित्रलोककामो भवति संकल्पादेवास्य
गीतवादित्रे समुत्तिष्ठतस्तेन गीतवादित्रलोकेन सम्पन्नो
महीयते ॥ ८.२.८॥
अथ यदि स्त्रीलोककामो भवति संकल्पादेवास्य स्त्रियः
समुत्तिष्ठन्ति तेन स्त्रीलोकेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.९॥
यं यमन्तमभिकामो भवति यं कामं कामयते सोऽस्य
संकल्पादेव समुत्तिष्ठति तेन सम्पन्नो महीयते ॥ ८.२.१०॥
॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
त इमे सत्याः कामा अनृतापिधानास्तेषाꣳ सत्यानाꣳ
सतामनृतमपिधानं यो यो ह्यस्येतः प्रैति न तमिह
दर्शनाय लभते ॥ ८.३.१॥
अथ ये चास्येह जीवा ये च प्रेता यच्चान्यदिच्छन्न
लभते सर्वं तदत्र गत्वा विन्दतेऽत्र ह्यस्यैते सत्याः
कामा अनृतापिधानास्तद्यथापि हिरण्यनिधिं निहितमक्षेत्रज्ञा
उपर्युपरि सञ्चरन्तो न विन्देयुरेवमेवेमाः सर्वाः प्रजा
अहरहर्गच्छन्त्य एतं ब्रह्मलोकं न विन्दन्त्यनृतेन हि
प्रत्यूढाः ॥ ८.३.२॥
स वा एष आत्मा हृदि तस्यैतदेव निरुक्तꣳ हृद्ययमिति
तस्माद्धृदयमहरहर्वा एवंवित्स्वर्गं लोकमेति ॥ ८.३.३॥
अथ य एष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं
ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यत एष आत्मेति
होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति तस्य ह वा एतस्य
ब्रह्मणो नाम सत्यमिति ॥ ८.३.४॥
तानि ह वा एतानि त्रीण्यक्षराणि सतीयमिति
तद्यत्सत्तदमृतमथ यत्ति तन्मर्त्यमथ यद्यं तेनोभे
यच्छति यदनेनोभे यच्छति तस्माद्यमहरहर्वा
एवंवित्स्वर्गं लोकमेति ॥ ८.३.५॥
॥ इति तृतीयः खण्डः ॥
अथ य आत्मा स सेतुर्धृतिरेषां लोकानामसंभेदाय
नैतꣳ सेतुमहोरात्रे तरतो न जरा न मृत्युर्न शोको न
सुकृतं न दुष्कृतꣳ सर्वे पाप्मानोऽतो
निवर्तन्तेऽपहतपाप्मा ह्येष ब्रह्मलोकः ॥ ८.४.१॥
तस्माद्वा एतꣳ सेतुं तीर्त्वान्धः सन्ननन्धो भवति
विद्धः सन्नविद्धो भवत्युपतापी सन्ननुपतापी भवति
तस्माद्वा एतꣳ सेतुं तीर्त्वापि नक्तमहरेवाभिनिष्पद्यते
सकृद्विभातो ह्येवैष ब्रह्मलोकः ॥ ८.४.२॥
तद्य एवैतं ब्रह्मलोकं ब्रह्मचर्येणानुविन्दन्ति
तेषामेवैष ब्रह्मलोकस्तेषाꣳ सर्वेषु लोकेषु कामचारो
भवति ॥ ८.४.३॥
॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥
अथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तद्ब्रह्मचर्येण
ह्येव यो ज्ञाता तं विन्दतेऽथ यदिष्टमित्याचक्षते
ब्रह्मचर्यमेव तद्ब्रह्मचर्येण ह्येवेष्ट्वात्मानमनुविन्दते
॥ ८.५.१॥
अथ यत्सत्त्रायणमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तद्ब्रह्मचर्येण
ह्येव सत आत्मनस्त्राणं विन्दतेऽथ यन्मौनमित्याचक्षते
ब्रह्मचर्यमेव तब्ब्रह्मचर्येण ह्येवात्मानमनुविद्य मनुते '॥ ८.५.२॥
अथ यदनाशकायनमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तदेष
ह्यात्मा न नश्यति यं ब्रह्मचर्येणानुविन्दतेऽथ
यदरण्यायनमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तदरश्च ह वै
ण्यश्चार्णवौ ब्रह्मलोके तृतीयस्यामितो दिवि तदैरं
मदीयꣳ सरस्तदश्वत्थः सोमसवनस्तदपराजिता
पूर्ब्रह्मणः प्रभुविमितꣳ हिरण्मयम् ॥ ८.५.३॥
तद्य एवैतवरं च ण्यं चार्णवौ ब्रह्मलोके
ब्रह्मचर्येणानुविन्दन्ति तेषामेवैष ब्रह्मलोकस्तेषाꣳ
सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति ॥ ८.५.४॥
॥ इति पञ्चमः खण्डः ॥
अथ या एता हृदयस्य नाड्यस्ताः पिङ्गलस्याणिम्नस्तिष्ठन्ति
शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः
पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष पीत एष लोहितः
॥ ८.६.१॥
तद्यथा महापथ आतत उभौ ग्रामौ गच्छतीमं चामुं
चैवमेवैता आदित्यस्य रश्मय उभौ लोकौ गच्छन्तीमं चामुं
चामुष्मादादित्यात्प्रतायन्ते ता आसु नाडीषु सृप्ता
आभ्यो नाडीभ्यः प्रतायन्ते तेऽमुष्मिन्नादित्ये सृप्ताः
॥ ८.६.२॥
तद्यत्रैतत्सुप्तः समस्त्ः सम्प्रसन्नः स्वप्नं न विजानात्यासु
तदा नाडीषु सृप्तो भवति तं न कश्चन पाप्मा स्पृशति
तेजसा हि तदा सम्पन्नो भवति ॥ ८.६.३॥
अथ यत्रैतदबलिमानं नीतो भवति तमभित आसीना
आहुर्जानासि मां जानासि मामिति स
यावदस्माच्छरीरादनुत्क्रान्तो भवति तावज्जानाति
॥ ८.६.४॥
अथ यत्रैतदस्माच्छरीरादुत्क्रामत्यथैतैरेव
रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते स ओमिति वा होद्वा मीयते
स यावत्क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छत्येतद्वै खलु
लोकद्वारं विदुषां प्रपदनं निरोधोऽविदुषाम् ॥ ८.६.५॥
तदेष श्लोकः । शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां
मूर्धानमभिनिःसृतैका । तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्त्युत्क्रमणे भवन्ति ॥ ८.६.६॥
॥ इति षष्ठः खण्डः ॥
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको
विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः सोऽन्वेष्टव्यः
स विजिज्ञासितव्यः स सर्वाꣳश्च लोकानाप्नोति
सर्वाꣳश्च कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह
प्रजापतिरुवाच ॥ ८.७.१॥
तद्धोभये देवासुरा अनुबुबुधिरे ते होचुर्हन्त
तमात्मानमन्वेच्छामो यमात्मानमन्विष्य सर्वाꣳश्च
लोकानाप्नोति सर्वाꣳश्च कामानितीन्द्रो हैव
देवानामभिप्रवव्राज विरोचनोऽसुराणां तौ
हासंविदानावेव समित्पाणी प्रजापतिसकाशमाजग्मतुः
॥ ८.७.२॥
तौ ह द्वात्रिꣳशतं वर्षाणि ब्रह्मचर्यमूषतुस्तौ ह
प्रजापतिरुवाच किमिच्छन्तावास्तमिति तौ होचतुर्य
आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको
विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः सोऽन्वेष्टव्यः
स विजिज्ञासितव्यः स सर्वाꣳश्च लोकानाप्नोति सर्वाꣳश्च
कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति भगवतो वचो
वेदयन्ते तमिच्छन्ताववास्तमिति ॥ ८.७.३॥
तौ ह प्रजापतिरुवाच य एषोऽक्षिणि पुरुषो दृश्यत
एष आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेत्यथ योऽयं
भगवोऽप्सु परिख्यायते यश्चायमादर्शे कतम एष
इत्येष उ एवैषु सर्वेष्वन्तेषु परिख्यायत इति होवाच
॥ ८.७.४॥
॥ इति सप्तमः खण्डः ॥
उदशराव आत्मानमवेक्ष्य यदात्मनो न विजानीथस्तन्मे
प्रब्रूतमिति तौ होदशरावेऽवेक्षांचक्राते तौ ह
प्रजापतिरुवाच किं पश्यथ इति तौ होचतुः
सर्वमेवेदमावां भगव आत्मानं पश्याव आ लोमभ्यः आ
नखेभ्यः प्रतिरूपमिति ॥ ८.८.१॥
तौ ह प्रजापतिरुवाच साध्वलंकृतौ सुवसनौ परिष्कृतौ
भूत्वोदशरावेऽवेक्षेथामिति तौ ह साध्वलंकृतौ
सुवसनौ परिष्कृतौ भूत्वोदशरावेऽवेक्षांचक्राते
तौ ह प्रजापतिरुवाच किं पश्यथ इति ॥ ८.८.२॥
तौ होचतुर्यथैवेदमावां भगवः साध्वलंकृतौ सुवसनौ
परिष्कृतौ स्व एवमेवेमौ भगवः साध्वलंकृतौ सुवसनौ
परिष्कृतावित्येष आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति
तौ ह शान्तहृदयौ प्रवव्रजतुः ॥ ८.८.३॥
तौ हान्वीक्ष्य प्रजापतिरुवाचानुपलभ्यात्मानमननुविद्य
व्रजतो यतर एतदुपनिषदो भविष्यन्ति देवा वासुरा वा ते
पराभविष्यन्तीति स ह शान्तहृदय एव
विरोचनोऽसुराञ्जगाम तेभ्यो हैतामुपनिषदं
प्रोवाचात्मैवेह महय्य आत्मा परिचर्य आत्मानमेवेह
महयन्नात्मानं परिचरन्नुभौ लोकाववाप्नोतीमं चामुं चेति
॥ ८.८.४॥
तस्मादप्यद्येहाददानमश्रद्दधानमयजमानमाहुरासुरो
बतेत्यसुराणाꣳ ह्येषोपनिषत्प्रेतस्य शरीरं भिक्षया
वसनेनालंकारेणेति सꣳस्कुर्वन्त्येतेन ह्यमुं लोकं
जेष्यन्तो मन्यन्ते ॥ ८.८.५॥
॥ इति अष्टमः खण्डः ॥
अथ हेन्द्रोऽप्राप्यैव देवानेतद्भयं ददर्श यथैव
खल्वयमस्मिञ्छरीरे साध्वलंकृते साध्वलंकृतो भवति
सुवसने सुवसनः परिष्कृते परिष्कृत
एवमेवायमस्मिन्नन्धेऽन्धो भवति स्रामे स्रामः परिवृक्णे
परिवृक्णोऽस्यैव शरीरस्य नाशमन्वेष नश्यति
नाहमत्र भोग्यं पश्यामीति ॥ ८.९.१॥
स समित्पाणिः पुनरेयाय तꣳ ह प्रजापतिरुवाच
मघवन्यच्छान्तहृदयः प्राव्राजीः सार्धं विरोचनेन
किमिच्छन्पुनरागम इति स होवाच यथैव खल्वयं
भगवोऽस्मिञ्छरीरे साध्वलंकृते साध्वलंकृतो भवति
सुवसने सुवसनः परिष्कृते परिष्कृत
एवमेवायमस्मिन्नन्धेऽन्धो भवति स्रामे स्रामः
परिवृक्णे परिवृक्णोऽस्यैव शरीरस्य नाशमन्वेष
नश्यति नाहमत्र भोग्यं पश्यामीति ॥ ८.९.२॥
एवमेवैष मघवन्निति होवाचैतं त्वेव ते
भूयोऽनुव्याख्यास्यामि वसापराणि द्वात्रिꣳशतं वर्षाणीति
स हापराणि द्वात्रिꣳशतं वर्षाण्युवास तस्मै होवाच
॥ ८.९.३॥
॥ इति नवमः खण्डः ॥
य एष स्वप्ने महीयमानश्चरत्येष आत्मेति
होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति स ह शान्तहृदयः
प्रवव्राज स हाप्राप्यैव देवानेतद्भयं ददर्श
तद्यद्यपीदꣳ शरीरमन्धं भवत्यनन्धः स भवति यदि
स्राममस्रामो नैवैषोऽस्य दोषेण दुष्यति ॥ ८.१०.१॥
न वधेनास्य हन्यते नास्य स्राम्येण स्रामो घ्नन्ति त्वेवैनं
विच्छादयन्तीवाप्रियवेत्तेव भवत्यपि रोदितीव नाहमत्र
भोग्यं पश्यामीति ॥ ८.१०.२॥
स समित्पाणिः पुनरेयाय तꣳ ह प्रजापतिरुवाच
मघवन्यच्छान्तहृदयः प्राव्राजीः किमिच्छन्पुनरागम
इति स होवाच तद्यद्यपीदं भगवः शरीरमन्धं भवत्यनन्धः
स भवति यदि स्राममस्रामो नैवैषोऽस्य दोषेण दुष्यति
॥ ८.१०.३॥
न वधेनास्य हन्यते नास्य स्राम्येण स्रामो घ्नन्ति त्वेवैनं
विच्छादयन्तीवाप्रियवेत्तेव भवत्यपि रोदितीव नाहमत्र
भोग्यं पश्यामीत्येवमेवैष मघवन्निति होवाचैतं त्वेव ते
भूयोऽनुव्याख्यास्यामि वसापराणि द्वात्रिꣳशतं वर्षाणीति
स हापराणि द्वात्रिꣳशतं वर्षाण्युवास तस्मै होवाच
॥ ८.१०.४॥
॥ इति दशमः खण्डः ॥
तद्यत्रैतत्सुप्तः समस्तः सम्प्रसन्नः स्वप्नं न विजानात्येष
आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति स ह शान्तहृदयः
प्रवव्राज स हाप्राप्यैव देवानेतद्भयं ददर्श नाह
खल्वयमेवꣳ सम्प्रत्यात्मानं जानात्ययमहमस्मीति
नो एवेमानि भूतानि विनाशमेवापीतो भवति नाहमत्र
भोग्यं पश्यामीति ॥ ८.११.१॥
स समित्पाणिः पुनरेयाय तꣳ ह प्रजापतिरुवाच
मघवन्यच्छान्तहृदयः प्राव्राजीः किमिच्छन्पुनरागम इति
स होवाच नाह खल्वयं भगव एवꣳ सम्प्रत्यात्मानं
जानात्ययमहमस्मीति नो एवेमानि भूतानि
विनाशमेवापीतो भवति नाहमत्र भोग्यं पश्यामीति
॥ ८.११.२॥
एवमेवैष मघवन्निति होवाचैतं त्वेव ते
भूयोऽनुव्याख्यास्यामि नो एवान्यत्रैतस्माद्वसापराणि
पञ्च वर्षाणीति स हापराणि पञ्च वर्षाण्युवास
तान्येकशतꣳ सम्पेदुरेतत्तद्यदाहुरेकशतꣳ ह वै वर्षाणि
मघवान्प्रजापतौ ब्रह्मचर्यमुवास तस्मै होवाच ॥ ८.११.३॥
॥ इति एकादशः खण्डः ॥
मघवन्मर्त्यं वा इदꣳ शरीरमात्तं मृत्युना
तदस्यामृतस्याशरीरस्यात्मनोऽधिष्ठानमात्तो वै
सशरीरः प्रियाप्रियाभ्यां न वै सशरीरस्य सतः
प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वाव सन्तं न
प्रियाप्रिये स्पृशतः ॥ ८.१२.१॥
अशरीरो वायुरभ्रं विद्युत्स्तनयित्नुरशरीराण्येतानि
तद्यथैतान्यमुष्मादाकाशात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसम्पद्य
स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यन्ते ॥ ८.१२.२॥।
एवमेवैष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात्समुत्थाय परं
ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते स उत्तमपुरुषः
स तत्र पर्येति जक्षत्क्रीडन्रममाणः स्त्रीभिर्वा यानैर्वा
ज्ञातिभिर्वा नोपजनꣳ स्मरन्निदꣳ शरीरꣳ स यथा
प्रयोग्य आचरणे युक्त एवमेवायमस्मिञ्छरीरे
प्राणो युक्तः ॥ ८.१२.३॥
अथ यत्रैतदाकाशमनुविषण्णं चक्षुः स चाक्षुषः
पुरुषो दर्शनाय चक्षुरथ यो वेदेदं जिघ्राणीति स आत्मा
गन्धाय घ्राणमथ यो वेदेदमभिव्याहराणीति स
आत्माभिव्याहाराय वागथ यो वेदेदꣳ शृणवानीति
स आत्मा श्रवणाय श्रोत्रम् ॥ ८.१२.४॥
अथ यो वेदेदं मन्वानीति सात्मा मनोऽस्य दैवं चक्षुः
स वा एष एतेन दैवेन चक्षुषा मनसैतान्कामान्पश्यन्रमते
य एते ब्रह्मलोके ॥ ८.१२.५॥
तं वा एतं देवा आत्मानमुपासते तस्मात्तेषाꣳ सर्वे च
लोका आत्ताः सर्वे च कामाः स सर्वाꣳश्च लोकानाप्नोति
सर्वाꣳश्च कामान्यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति ह
प्र्जापतिरुवाच प्रजापतिरुवाच ॥ ८.१२.६॥
॥ इति द्वादशः खण्डः ॥
श्यामाच्छबलं प्रपद्ये शबलाच्छ्यामं प्रपद्येऽश्व
इव रोमाणि विधूय पापं चन्द्र इव राहोर्मुखात्प्रमुच्य
धूत्वा शरीरमकृतं कृतात्मा
ब्रह्मलोकमभिसंभवामीत्यभिसंभवामीति ॥ ८.१३.१॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
आकाशो वै नाम नामरूपयोर्निर्वहिता ते यदन्तरा
तद्ब्रह्म तदमृतꣳ स आत्मा प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये
यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानां यशो राज्ञां यशोविशां
यशोऽहमनुप्रापत्सि स हाहं यशसां यशः
श्येतमदत्कमदत्कꣳ श्येतं लिन्दु माभिगां लिन्दु
माभिगाम् ॥ ८.१४.१॥
॥ इति चतुर्दशः खण्डः ॥
तधैतद्ब्रह्मा प्रजापतयै उवाच प्रजापतिर्मनवे मनुः
प्रजाभ्यः आचार्यकुलाद्वेदमधीत्य यथाविधानं गुरोः
कर्मातिशेषेणाभिसमावृत्य कुटुम्बे शुचौ देशे
स्वाध्यायमधीयानो धर्मिकान्विदधदात्मनि सर्वैन्द्रियाणि
सम्प्रतिष्ठाप्याहिꣳसन्सर्व भूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः
स खल्वेवं वर्तयन्यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते
न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते ॥ ८.१५.१॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
॥ इति अष्टमोऽध्यायः ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्च्क्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिकारणमस्त्वनिकारणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति छान्दोग्योऽपनिषद् ॥
॥ जाबालदर्शनोपनिषत् ॥
यमाद्यष्टाङ्गयोगेद्धं ब्रह्ममात्रप्रबोधतः ।
योगिनो यत्पदं यान्ति तत्कैवल्यपदं भजे ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥
सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु
धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ दत्तात्रेयो महायोगी भगवान्भूतभावनः ।
चतुर्भुजो महाविष्णुर्योगसाम्राज्यदीक्षितः ॥ १॥
तस्य शिष्यो मुनिवरः सांकृतिर्नाम भक्तिमान् ।
पप्रच्छ गुरुमेकान्ते प्राञ्जलिर्विनयान्वितः ॥ २॥
भगवन्ब्रूहि मे योगं साष्टाङ्गं सप्रपञ्चकम् ।
येन विज्ञातमात्रेण जीवन्मुक्तो भवाम्यहम् ॥ ३॥
सांकृते श्रुणु वक्ष्यामि योगं साष्टाङ्गदर्शनम् ।
यमश्च नियमश्चैव तथैवासनमेव च ॥ ४॥
प्राणायामस्तथा ब्रह्मन्प्रत्याहारस्ततः परम् ।
धारणा च तथा ध्यानं समाधिश्चाष्टमं मुने ॥ ५॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं दयार्जवम् ।
क्षमा धृतिर्मिताहारः शौचं चैव यमा दश ॥ ६॥
वेदोक्तेन प्रकारेण विना सत्यं तपोधन ।
कायेन मनसा वाचा हिंसाऽहिंसा न चान्यथा ॥ ७॥
आत्मा सर्वगतोऽच्छेद्यो न ग्राह्य इति मे मतिः ।
स चाहिंसा वरा प्रोक्ता मुने वेदान्तवेदिभिः ॥ ८॥
चक्षुरादीन्द्रियैर्दृष्टं श्रुतं घ्रातं मुनीश्वर ।
तस्यैवोक्तिर्भवेत्सत्यं विप्र तन्नान्यथा भवेत् ॥ ९॥
सर्वं सत्यं परं ब्रह्म न चान्यदिति या मतिः ।
तच्च सत्यं वरं प्रोक्तं वेदान्तज्ञानपारगैः ॥ १०॥
अन्यदीये तृणे रत्ने काञ्चने मौक्तिकेऽपि च ।
मनसा विनिवृत्तिर्या तदस्तेयं विदुर्बुधाः ॥ ११॥
आत्मन्यनात्मभावेन व्यवहारविवर्जितम् ।
यत्तदस्तेयमित्युक्तमात्मविद्भिर्महामते ॥ १२॥
कायेन वाचा मनसा स्त्रीणां परिविवर्जनम् ।
ऋतौ भार्यां तदा स्वस्य ब्रह्मचर्यं तदुच्यते ॥ १३॥
ब्रह्मभावे मनश्चारं ब्रह्मचर्यं परन्तप ॥ १४॥
स्वात्मवत्सर्वभूतेषु कायेन मनसा गिरा ।
अनुज्ञा या दया सैव प्रोक्ता वेदान्तवेदिभिः ॥ १५॥
पुत्रे मित्रे कलत्रे च रिपौ स्वात्मनि सन्ततम् ।
एकरूपं मुने यत्तदार्जवं प्रोच्यते मया ॥ १६॥
कायेन मनसा वाचा शत्रुभिः परिपीडिते ।
बुद्धिक्षोभनिवृत्तिर्या क्षमा सा मुनिपुङ्गव ॥ १७॥
वेदादेव विनिर्मोक्षः संसारस्य न चान्यथा ।
इति विज्ञाननिष्पत्तिर्धृतिः प्रोक्ता हि वैदिकैः ।
अहमात्मा न चान्योऽस्मीत्येवमप्रच्युता मतिः ॥ १८॥
अल्पमृष्टाशनाभ्यां च चतुर्थांशावशेषकम् ।
तस्माद्योगानुगुण्येन भोजनं मितभोजनम् ॥ १९॥
स्वदेहमलनिर्मोक्षो मृज्जलाभ्यां महामुने ।
यत्तच्छौचं भवेद्बाह्यं मानसं मननं विदुः ।
अहं शुद्ध इति ज्ञानं शौचमाहुर्मनीषिणः ॥ २०॥
अत्यन्तमलिनो देहो देही चात्यन्तनिर्मलः ।
उभयोरन्तरं ज्ञात्वा कस्य शौचं विधीयते ॥ २१॥
ज्ञानशौचं परित्यज्य बाह्ये यो रमते नरः ।
स मूढः काऽचनं त्यक्त्वा लोष्ठं गृह्णाति सुव्रत ॥ २२॥
ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः ।
न चास्ति किंचित्कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्त्ववित् ॥ २३॥
लोकत्रयेऽपि कर्तव्यं किंचिन्नास्त्यात्मवेदिनाम् ॥ २४॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मुनेऽहिंसादिसाधनैः ।
आत्मानमक्षरं ब्रह्म विद्धि ज्ञानात्तु वेदनात् ॥ २५॥
इति प्रथमः खण्डः ॥ १॥
तपः सन्तोषमास्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम् ।
सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो व्रतम् ॥ १॥
एते च नियमाः प्रोक्तास्तान्वक्ष्यामि क्रमाच्छृणु ॥ २॥
वेदोक्तेन प्रकारेण कृच्छ्रचान्द्रयणादिभिः ।
शरीरशोषणं यत्तत्तप इत्युच्यते बुधैः ॥ ३॥
को वा मोक्षः कथं तेन संसारं प्रतिपन्नवान् ।
इत्यालोकनमर्थज्ञास्तपः शंसन्ति पण्डिताः ॥ ४॥
यदृच्छालाभतो नित्यं प्रीतिर्या जायते नृणाम् ।
तत्सन्तोषं विदुः प्राज्ञाः परिज्ञानैकतत्पराः ॥ ५॥
ब्रह्मादिलोकपर्यन्ताद्विरक्त्या यल्लभेत्प्रियम् ।
सर्वत्र विगतस्नेहः संतोषं परमं विदुः ।
श्रौते स्मार्ते च विश्वासो यत्तदास्तिक्यमुच्यते ॥ ६॥
न्यायार्जितधनं श्रान्ते श्रद्धया वैदिके जने ।
अन्यद्वा यत्प्रदीयन्ते तद्दानं प्रोच्यते मया ॥ ७॥
रागाद्यपेतं हृदयं वागदुष्टानृतादिना ।
हिंसादिरहितं कर्म यत्तदीश्वरपूजनम् ॥ ८॥
सत्यं ज्ञानमनन्तं च परानन्दं परं ध्रुवम् ।
प्रत्यगित्यवगन्तव्यं वेदान्तश्रवणं बुधाः ॥ ९॥
वेदलौकिकमार्गेषु कुत्सितं कर्म यद्भवेत् ।
तस्मिन्भवति या लज्जा ह्रीः सैवेति प्रकीर्तिता ।
वैदिकेषु च सर्वेषु श्रद्धा या सा मतिर्भवेत् ॥ १०॥
गुरुणा चोपदिष्टोऽपि तत्र संबन्धवर्जितः ।
वेदोक्तेनैव मार्गेण मन्त्राभ्यासो जपः स्मृतः ॥ ११॥
कल्पसूत्रे तथा वेदे धर्मशास्त्रे पुराणके ।
इतिहासे च वृत्तिर्या स जपः प्रोच्यते मया ॥ १२॥
जपस्तु द्विविधः प्रोक्तो वाचिको मानसस्तथा ॥ १३॥
वाचिकोपांशुरुच्चैश्च द्विविधः परिकीर्तितः ।
मानसोमननध्यानभेदाद्द्वैविध्यमाश्रितः ॥ १४॥
उच्चैर्जपादुपांशुश्च सहस्रगुणमुच्यते ।
मानसश्च तथोपांशोः सहस्रगुणमुच्यते ॥ १५॥
उच्चैर्जपश्च सर्वेषां यथोक्तफलदो भवेत् ।
नीचैःश्रोत्रेण चेन्मन्त्रः श्रुतश्चेन्निष्फलं भवेत् ॥ १६॥ इति॥
इति द्वितीयः खण्डः ॥ २॥
स्वस्तिकं गोमुखं पद्मं वीरसिंहासने तथा ।
भद्रं मुक्तासनं चैव मयूरासनमेव च ॥ १॥
सुखासनसमाख्यं च नवमं मुनिपुङ्गव ।
जानूर्वोरन्तरे कृत्वा सम्यक् पादतले उभे ॥ २॥
समग्रीवशिरःकायः स्वस्तिकं नित्यमभ्यसेत् ।
सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपार्श्वे नियोजयेत् ॥ ३॥
दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं तत्प्रचक्षते ।
अङ्गुष्ठावधि गृह्णीयाद्धस्ताभ्यां व्युत्क्रमेण तु ॥ ४॥
ऊर्वोरुपरि विप्रेन्द्र कृत्वा पादतलद्वयम् ।
पद्मासनं भवेत्प्राज्ञ सर्वरोगभयापहम् ॥ ५॥
दक्षिणेतरपादं तु दक्षिणोरुणि विन्यसेत् ।
ऋजुकायः समासीनो वीरासनमुदाहृतम् ॥ ६॥
गुल्फौ तु वृषणस्याधः सीवन्याः पार्श्वयोः क्षिपेत् ।
पार्श्वपादौ च पाणिभ्यां दृढं बद्ध्वा सुनिश्चलम् ।
भद्रासनं भवेदेतद्विषरोगविनाशनम् ॥ ७॥
निपीड्य सीवनीं सूक्ष्मं दक्षिणेतरगुल्फतः ।
वामं याम्येन गुल्फेन मुक्तासनमिदं भवेत् ॥ ८॥
मेढ्रादुपरि निक्षिप्य सव्यं गुल्फं ततोपरि ।
गुल्फान्तरं च संक्षिप्य मुक्तासनमिदं मुने ॥ ९॥
कूर्पराग्रे मुनिश्रेष्ठ निक्षिपेन्नाभिपार्श्वयोः ।
भूम्यां पाणितलद्वन्द्वं निक्षिप्यैकाग्रमानसः ॥ १०॥
समुन्नतशिरःपादो दण्डवद्व्योम्निसंस्थितः ।
मयूरासनमेतत्स्यात्सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ११॥
येन केन प्रकारेण सुखं धैर्यं च जायते ।
तत्सुखासनमित्युक्तमशक्तस्तत्समाश्रयेत् ॥ १२॥
आसनं विजितं येन जितं तेन जगत्त्रयम् ।
अनेन विधिना युक्तः प्राणायामं सदा कुरु ॥ १३॥ इति॥
इति तृतीयः खण्डः ॥ ३॥
शरीरं तावदेव स्यात्षण्णवत्यङ्गुलात्मकम् ।
देहमध्ये शिखिस्थानं तप्तजाम्बूनदप्रभम् ॥ १॥
त्रिकोणं मनुजानां तु सत्यमुक्तं हि सांकृते ।
गुदात्तु द्व्यङ्गुलादूर्ध्वं मेढ्रात्तु द्व्यन्ङ्गुलादधः ॥ २॥
देहमध्यं मुनिप्रोक्तमनुजानीहि सांकृते ।
कन्दस्थानं मुनिश्रेष्ठ मूलाधारान्नवाङ्गुलम् ॥ ३॥
चतुरङ्गुलमायामविस्तारं मुनिपुङ्गव ।
कुक्कुटाण्डसमाकारं भूषितं तु त्वगादिभिः ॥ ४॥
तन्मध्ये नाभिरित्युक्तं योगज्ञैर्मुनिपुङ्गव ।
कन्दमध्यस्थिता नाडी सुषुम्नेति प्रकीर्तिता ॥ ५॥
तिष्ठन्ति परितस्तस्या नाडयो मुनिपुङ्गव ।
द्विसप्ततिसहस्राणि तासां मुख्याश्चतुर्दश ॥ ६॥
सुषुम्ना पिङ्गला तद्वदिडा चैव सरस्वती ।
पूषा च वरुणा चैव हस्तिजिह्वा यशस्विनी ॥ ७॥
अलम्बुसा कुहुश्चैव विश्वोदरी तपस्विनी ।
शङ्खिनी चैव गान्धारा इति मुख्याश्चतुर्दश ॥ ८॥
तासां मुख्यतमास्तिस्रस्तिसृष्वेकोत्तमोत्तमा ।
ब्रह्मनाडीति सा प्रोक्ता मुने वेदान्तवेदिभिः ॥ ९॥
पृष्ठमध्यस्थितेनान्स्था वीणादण्डेन सुव्रत ।
सह मस्तकपर्यन्तं सुषुम्ना सुप्रतिष्ठिता ॥ १०॥
नाभिकन्दादधः स्थानं कुण्डल्या द्व्यङ्गुलं मुने ।
अष्टप्रकृतिरूपा सा कुण्डली मुनिसत्तम ॥ ११॥
यथावद्वायुचेष्टां च जलान्नादीनि नित्यशः ।
परितः कन्दपार्श्वेषु निरुध्यैव सदा स्थिता ॥ १२॥
स्वमुखेन समावेष्ट्य ब्रह्मरन्ध्रमुखं मुने ।
सुषुम्नाया इडा सव्ये दक्षिणे पिङ्गला स्थिता ॥ १३॥
सरस्वती कुहुश्चैव सुषुम्नापार्श्वयोः स्थिते ।
गान्धारा हस्तिजिह्वा च इडायाः पृष्ठपार्श्वयोः ॥ १४॥
पूषा यशस्विनी चैव पिङ्गला पृष्ठपूर्वयोः ।
कुहोश्च हस्तिजिह्वाया मध्ये विश्वोदरी स्थिता ॥ १५॥
यशस्विन्याः कुहोर्मध्ये वरुणा सुप्रतिष्ठिता ।
पूषाश्च सरस्वत्या मध्ये प्रोक्ता यशस्विनी ॥ १६॥
गान्धारायाः सरस्वत्या मध्ये प्रोक्ता च शङ्खिनी ।
अलम्बुसा स्थिता पायुपर्यन्तं कन्दमध्यगा ॥ १७॥
पूर्वभागे सुषुम्नाया राकायाः संस्थिता कुहूः ।
अधश्चोर्ध्वं स्थिता नाडी याम्यनासान्तमिष्यते ॥ १८॥
इअडा तु सव्यनासान्तं संस्थिता मुनिपुङ्गव ।
यशस्विनी च वामस्य पादाङ्गुष्ठान्तमिष्यते ॥ १९॥
पूषा वामाक्षिपर्यन्ता पिङ्गलायास्तु पृष्ठतः ।
पयस्विनी च याम्यस्य कर्णान्तं प्रोच्यते बुधैः ॥ २०॥
सरस्वती तथा चोर्ध्वगता जिह्वा तथा मुने ।
हस्तिजिह्वा तथा सव्यपादाङ्गुष्ठान्तमिष्यते ॥ २१॥
शङ्खिनी नाम या नाडी सव्यकर्णान्तमिष्यते ।
गान्धारा सव्यनेत्रान्ता प्रोक्ता वेदान्तवेदिभिः ॥ २२॥
विश्वोदराभिधा नाडी कन्दमध्ये व्यवस्थिता ।
प्राणोऽपानस्तथा व्यानः समानोदान एव च ॥ २३॥
नागः कूर्मश्च कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ।
एते नाडीषु सर्वासु चरन्ति दश वायवः ॥ २४॥
तेषु प्राणादयः पञ्च मुख्याः पञ्चसु सुव्रत ।
प्राणसंज्ञस्तथापानः पूज्यः प्राणस्तयोर्मुने ॥ २५॥
आस्यनासिकयोर्मध्ये नाभिमध्ये तथा हृदि ।
प्राणसंज्ञोऽनिलो नित्यं वर्तते मुनिसत्तम ॥ २६॥
अपानो वर्तते नित्यं गुदमध्योरुजानुषु ।
उदरे सकले कट्यां नाभौ जङ्घे च सुव्रत ॥ २७॥
व्यानः श्रोत्राक्षिमध्ये च कुकुभ्द्यां गुल्फयोरपि ।
प्राणस्थाने गले चैव वर्तते मुनिपुङ्गव ॥ २८॥
उदानसंज्ञो विज्ञेयः पादयोर्हस्तयोरपि ।
समानः सर्वदेहेषु व्याप्य तिष्ठत्यसंशयः ॥ २९॥
नागादिवायवः पञ्चत्वगस्थ्यादिषु संस्थिताः ।
निःश्वासोच्छ्वासकासाश्च प्राणकर्म हि सांकृते ॥ ३०॥
अपानाख्यस्य वायोस्तु विण्मूत्रादिविसर्जनम् ।
समानः सर्वसामीप्यं करोति मुनिपुङ्गव ॥ ३१॥
उदान ऊर्ध्वगमनं करोत्येव न संशयः ।
व्यानो विवादकृत्प्रोक्तो मुने वेदान्तवेदिभिः ॥ ३२॥
उद्गारादिगुणः प्रोक्तो व्यानाख्यस्य महामुने ।
धनञ्जयस्य शोभादि कर्म प्रोक्तं हि सांकृते ॥ ३३॥
निमीलनादि कूर्मस्य क्षुधा तु कृकरस्य च ।
देवदत्तस्य विप्रेन्द्र तन्द्रीकर्म प्रकीर्तितम् ॥ ३४॥
सुषुम्नायाः शिवो देव इडाया देवता हरिः ।
पिङ्गलाया विरञ्चिः स्यात्सरस्वत्या विराण्मुने ॥ ३५॥
पूषाधिदेवता प्रोक्ता वरुणा वायुदेवता ।
हस्तिजिह्वाभिधायास्तु वरुणो देवता भवेत् ॥ ३६॥
यशस्विन्या मुनिश्रेष्ठ भगवान्भास्करस्तथा ।
अलम्बुसाया अबात्मा वरुणः परिकीर्तितः ॥ ३७॥
कुहोः क्षुद्देवता प्रोक्ता गान्धारी चन्द्रदेवता ।
शङ्खिन्याश्चन्द्रमास्तद्वत्पयस्विन्याः प्रजापतिः ॥ ३८॥
विश्वोदराभिधायास्तु भगवान्पावकः पतिः ।
इडायां चन्द्रमा नित्यं चरत्येव महामुने ॥ ३९॥
पिङ्गलायां रविस्तद्वन्मुने वेदविदां वर ।
पिङ्गलायामिडायां तु वायोः संक्रमणं तु यत् ॥ ४०॥
तदुत्तरायणं प्रोक्तं मुने वेदान्तवेदिभिः ।
इडायां पिङ्गलायां तु प्राणसंक्रमणं मुने ॥ ४१॥
दक्षिणायनमित्युक्तं पिङ्गलायामिति श्रुतिः ।
इडापिङ्गलयोः संधिं यदा प्राणः समागतः ॥ ४२॥
अमावास्या तदा प्रोक्ता देहे देहभृतां वर ।
मूलाधारं यदा प्राणः प्रविष्टः पण्डितोत्तम ॥ ४३॥
तदाद्यं विषुवं प्रोक्तं तपसैस्तापतोत्तम ।
प्राणसंज्ञो मुनिश्रेष्ठ मूर्धानं प्राविशद्यदा ॥ ४४॥
तदन्त्यं विषुवं प्रोक्तं तापसैस्तत्त्वचिन्तकैः ।
निःश्वासोच्छ्वासनं सर्वं मासानां संक्रमो भवेत् ॥ ४५॥
इडायाः कुण्डलीस्थानं यदा प्राणः समागतः ।
सोमग्रहणमित्युक्तं तदा तत्त्वविदां वर ॥ ४६॥
यदा पिङ्गलया प्राणः कुण्डलीस्थानमागतः ।
तदातदा भवेत्सूर्यग्रहण मुनिपुङ्गव ॥ ४७॥
श्रीपर्वतं शिरःस्थाने केदारं तु ललाटके ।
वाराणसी महाप्राज्ञ भ्रुवोर्घ्राणस्य मध्यमे ॥ ४८॥
कुरुक्षेत्रं कुचस्थाने प्रयागं हृत्सरोरुहे ।
चिदम्बरं तु हृन्मध्ये आधारे कमलालयम् ॥ ४९॥
आत्मतीर्थं समुत्सृज्य बहिस्तीर्थानि यो व्रजेत् ।
करस्थं स महारत्नं त्यक्त्वा काचं विमार्गते ॥ ५०॥
भावतीर्थं परं तीर्थं प्रमाणं सर्वकर्मसु ।
अन्यथालिङ्ग्यते कान्ता अन्यथालिङ्ग्यते सुता ॥ ५१॥
तीर्थानि तोयपूर्णानि देवान्काष्ठादिनिर्मितान् ।
योगिनो न प्रपूज्यन्ते स्वात्मप्रत्ययकारणात् ॥ ५२॥
बहिस्तीर्थात्परं तीर्थमन्तस्तीर्थं महामुने ।
आत्मतीर्थं महातीर्थमन्यत्तीर्थं निरर्थकम् ॥ ५३॥
चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुद्ध्यति ।
शतशोऽपि जलैर्धौतं सुराभाण्डमिवशुचि ॥ ५४॥
विषुवायनकालेषु ग्रहणे चान्तरे सदा ।
वाराणस्यादिके स्थाने स्नात्वा शुद्धो भवेन्नरः ॥ ५५॥
ज्ञानयोगपराणां तु पादप्रक्षालितं जलम् ।
भावशुद्ध्यर्थमज्ञानां तत्तीर्थं मुनिपुङ्गव ॥ ५६॥
तीर्थे ज्ञाने जपे यज्ञे काष्ठे पाषाणके सदा ।
शिवं पश्यति मूढात्मा शिवे देहे प्रतिष्ठिते ॥ ५७॥
अन्तस्थं मां परित्यज्य बहिष्ठं यस्तु सेवते ।
हस्तस्थं पिण्डमुत्सृज्य लिहेत्कूर्परमात्मनः ॥ ५८॥
शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिनः ।
अज्ञानं भावनार्थाय प्रतिमाः परिकल्पिताः ॥ ५९॥
अपूर्वमपरं ब्रह्म स्वात्मानं सत्यमद्वयम् ।
प्रज्ञानघनमानन्दं यः पश्यति स पश्यति ॥ ६०॥
नाडीपुञ्जं सदा सारं नरभावं महामुने ।
समुत्सृज्यात्मनात्मानमहमित्येव धारय ॥ ६१॥
अशरीरं शरीरेषु महान्तं विभुमीश्वरम् ।
आनन्दमक्षरं साक्षान्मत्वा धीरो न शोचति ॥ ६२॥
विभेदजनके ज्ञाने नष्टे ज्ञानबलान्मुने ।
आत्मनो ब्रह्मणो भेदमसन्तं किं करिष्यति ॥ ६३॥ इति॥
इति चतुर्थः खण्डः ॥ ४॥
सम्यक्कथय मे ब्रह्मनाडीशुद्धिं समासतः ।
यथा शुद्ध्या सदा ध्यायञ्जीवन्मुक्तो भवाम्यहम् ॥ १॥
सांकृते श्रुणु वक्ष्यामि नाडीशुद्धिं समासतः ।
विध्युक्तकर्मसंयुक्तः कामसंकल्पवर्जितः ॥ २॥
यमाद्यष्टाङ्गसंयुक्तः शान्तः सत्यपरायणः ।
स्वात्मन्यवस्थितः सम्यग्ज्ञानिभिश्च सुशिक्षितः ॥ ३॥
पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले वनेऽथवा ।
मनोरमे शुचौ देशे मठं कृत्वा समाहितः ॥ ४॥
आरभ्य चासनं पश्चात्प्राङ्मुखोदङ्मुखोऽपि वा ।
समग्रीवशिरःकायः संवृतास्यः सुनिश्चलः ॥ ५॥
नासाग्रे शशभृद्बिम्बे बिन्दुमध्ये तुरीयकम् ।
स्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्राभ्यां सुसमाहितः ॥ ६॥
इडया प्राणमाकृष्य पूरयित्वोदरे स्थितम् ।
ततोऽग्निं देहमध्यस्थं ध्यायञ्ज्वालावलीयुतम् ॥ ७॥
बिन्दुनादसमायुक्तमग्निबीजं विचिन्तयेत् ।
पश्चाद्विरेचयेत्सम्यक्प्राणं पिङ्गलया बुधः ॥ ८॥
पुनः पिङ्गलयापूर्य वह्निबीजमनुस्मरेत् ।
पुनर्विरचयेद्धीमानिडयैव शनैः शनैः ॥ ९॥
त्रिचतुर्वासरं वाथ त्रिचतुर्वारमेव च ।
षट्कृत्वा विचरेन्नित्यं रहस्येवं त्रिसन्धिषु ॥ १०॥
नाडीशुद्धिमवाप्नोति पृथक् चिह्नोपलक्षितः ।
शरीरलघुता दीप्तिर्वह्नेर्जाठरवर्तिनः ॥ ११॥
नादाभिव्यक्तिरित्येतच्चिह्नं तत्सिद्धिसूचकम् ।
यावदेतानि सम्पश्येत्तावदेवं समाचरेत् ॥ १२॥
अथवैतत्परित्यज्य स्वात्मशुद्धिं समाचरेत् ।
आत्मा शुद्धः सदा नित्यः सुखरूपः स्वयंप्रभः ॥ १३॥
अज्ञानान्मलिनो भाति ज्ञानच्छुद्धो भवत्ययम् ।
अज्ञानमलपङ्कं यः क्षालयेज्ज्ञानतो यतः ।
स एव सर्वदा शुद्धो नान्यः कर्मरतो हि सः ॥ १४॥ इति॥
इति पञ्चमः खण्डः ॥ ५॥
प्राणायामक्रमं वक्ष्ये सांकृते श्रुणु सादरम् ।
प्राणायाम इति प्रोक्तो रेचपूरककुम्भकैः ॥ १॥
वर्णत्रयात्मकाः प्रोक्ता रेचपूरककुम्भकाः ।
स एष प्रणवः प्रोक्तः प्राणायामस्तु तन्मयः ॥ २॥
इडया वायुमाकृष्य पूरयित्वोदरे स्थितम् ।
शनैः षोडशभिर्मात्रैरकारं तत्र संस्मरेत् ॥ ३॥
पूरितं धारयेत्पश्चाच्चतुःषष्ट्या तु मात्रया ।
उकारमूर्तिमन्त्रापि संस्मरन्प्रणवं जपेत् ॥ ४॥
यावद्वा शक्यते तावद्धारयेज्जपतत्परः ।
पूरितं रेचयेत्पश्चान्मकारेणानिलं बुधः ॥ ५॥
शनैः पिङ्गलया तत्र द्वात्रिंशन्मात्रया पुनः ।
प्राणायामो भवेदेवं ततश्चैवं समभ्यसेत् ॥ ६॥
पुनः पिङ्गलयापूर्य मात्रैः षोडशभिस्तथा ।
अकारमूर्तिमत्रापि स्मरेदेकाग्रमानसः ॥ ७॥
धारयेत्पूरितं विद्वान्प्रणवं संजपन्वशी ।
उकारमूर्तिं स ध्यायंश्चतुःषष्ट्या तु मात्रया ॥ ८॥
मकारं तु स्मरन्पश्चाद्रेचयेदिडयानिलम् ।
एवमेव पुनः कुर्यादिडयापूर्य बुद्धिमान् ॥ ९॥
एवं समभ्यसेन्नित्यं प्राणायामं मुनीश्वर ।
एवमभ्यासतो नित्यं षण्मासाद्यत्नवान्भवेत् ॥ १०॥
वत्सराद्ब्रह्मविद्वान्स्यात्तस्मान्नित्यं समभ्यसेत् ।
योगाभ्यासरतो नित्यं स्वधर्मनिरतश्च यः ॥ ११॥
प्राणसंयमनेनैव ज्ञानान्मुक्तो भविष्यति ।
बाह्यादापूरणं वायोःरुदरे पूरको हि सः ॥ १२॥
सम्पूर्णकुम्भवद्वायोर्धारणं कुम्भको भवेत् ।
बहिर्विरचनं वायोरुदराद्रचेकः स्मृतः ॥ १३॥
प्रस्वेदजनको यस्तु प्राणायामेषु सोऽधमः ।
कंपनं मध्यमं विद्यादुत्थानं चोत्तमं विदुः ॥ १४॥
पूर्वंपूर्वं प्रकुर्वीत यावदुत्थानसंभवः ।
संभवत्युत्तमे प्राज्ञः प्राणायामे सुखी भवेत् ॥ १५॥
प्राणायमेन चित्तं तु शुद्धं भवति सुव्रत ।
चित्ते शुद्धे शुचिः साक्षात्प्रत्यग्ज्योतिर्व्यवस्थितः ॥ १६॥
प्राणश्चित्तेन संयुक्तः परमात्मनि तिष्ठति ।
प्राणायामपरस्यास्य पुरुषस्य महात्मनः ॥ १७॥
देहश्चोत्तिष्ठते तेन किंचिज्ज्ञानाद्विमुक्तता ।
रेचकं पूरकं मुक्त्वा कुम्भकं नित्यमभ्यसेत् ॥ १८॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सम्यग्ज्ञानमवाप्नुयात् ।
मनोजवत्वमाप्नोति पलितादि च नश्यति ॥ १९॥
प्राणायामैकनिष्ठस्य न किंचिदपि दुर्लभम् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन प्राणायामान्समभ्यसेत् ॥ २०॥
विनियोगान्प्रवक्ष्यामि प्राणायामस्य सुव्रत ।
सन्ध्ययोर्ब्राह्मकालेऽपि मध्याह्ने वाथवा सदा ॥ २१॥
बाह्यं प्राणं समाकृष्य पूरयित्वोदरेण च ।
नासाग्रे नाभिमध्ये च पादाङ्गुष्ठे च धारयेत् ॥ २२॥
सर्वरोगविनिर्मुक्तो जीवेद्वर्षशतं नरः ।
नासाग्रधारणाद्वापि जितो भवति सुव्रत ॥ २३॥
सर्वरोगनिवृत्तिः स्यान्नाभिमध्ये तु धारणात् ।
शरीरलघुता विप्र पादाङ्गुष्ठनिरोधनात् ॥ २४॥
जिह्वया वायुमाकृष्य यः पिबेत्सततं नरः ।
श्रमदाहविनिर्मुक्तो योगी नीरोगतामियात् ॥ २५॥
जिह्वया वायुमाकृष्य जिह्वामूले निरोधयेत् ।
पिबेदमृतमव्यग्रं सकलं सुखमाप्नुयात् ॥ २६॥
इडया वायुमाकृष्य भ्रुवोर्मध्ये निरोधयेत् ।
यः पिबेदमृतं शुद्धं व्याधिभिर्मुच्यते हि सः ॥ २७॥
इडया वेदतत्त्वज्ञस्तथा पिङ्गलयैव च ।
नाभौ निरोधयेत्तेन व्याधिभिर्मुच्यते नरः ॥ २८॥
मासमात्रं त्रिसन्ध्यायां जिह्वयारोप्य मारुतम् ।
अमृतं च पिबेन्नाभौ मन्दंमन्दं निरोधयेत् ॥ २९॥
वातजाः पित्तजा दोषा नश्यन्त्येव न संशयः ।
नासाभ्यां वायुमाकृष्य नेत्रद्वन्द्वे निरोधयेत् ॥ ३०॥
नेत्ररोगा विनश्यन्ति तथा श्रोत्रनिरोधनात् ।
तथा वायुं समारोप्य धारयेच्छिरसि स्थितम् ॥ ३१॥
शिरोरोगा विनश्यन्ति सत्यमुक्तं हि सांकृते ।
स्वस्तिकासनमास्थाय समाहितमनास्तथा ॥ ३२॥
अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य प्रणवेन शनैः शनैः ।
हस्ताभ्यां धारयेत्सम्यक्कर्णादिकरणानि च ॥ ३३॥
अङ्गुष्ठाभ्यां मुने श्रोत्रे तर्जनीभ्यां तु चक्षुषी ।
नासापुटवधानाभ्यां प्रच्छाद्य करणानि वै ॥ ३४॥
आनन्दाविर्भवो यावत्तावन्मूर्धनि धारणात् ।
प्राणः प्रयात्यनेनैव ब्रह्मरन्ध्रं महामुने ॥ ३५॥
ब्रह्मरन्ध्रं गते वायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनघ ।
शङ्खध्वनिनिभश्चादौ मध्ये मेघध्वनिर्यथा ॥ ३६॥
शिरोमध्यगते वायौ गिरिप्रस्रवणं यथा ।
पश्चात्प्रीतो महाप्राज्ञः साक्षादात्मोन्मुखो भवेत् ॥ ३७॥
पुनस्तज्ज्ञाननिष्पत्तिर्योगात्संसारनिह्नुतिः ।
दक्षिणोत्तरगुल्फेन सीविनीं पीडयेत्स्थिरम् ॥ ३८॥
सव्येतरेण गुल्फेन पीडयेद्बुद्धिमान्नरः ।
जान्वोरधः स्थितां सन्धिं स्मृत्वा देवं त्रियम्बकम् ॥ ३९॥
विनायकं च संस्मृत्य तथा वागीश्वरीं पुनः ।
लिङ्गनालात्समाकृष्य वायुमप्यग्रतो मुने ॥ ४०॥
प्रणवेन नियुक्तेन बिन्दुयुक्तेन बुद्धिमान् ।
मूलाधारस्य विप्रेन्द्र मध्ये तं तु निरोधयेत् ॥ ४१॥
निरुध्य वायुना दीप्तो वह्निरूहति कुण्डलीम् ।
पुनः सुषुम्नया वायुर्वह्निना सह गच्छति ॥ ४२॥
एवमभ्यासतस्तस्य जितो वायुर्भवेद्भृशम् ।
प्रस्वेदः प्रथमः पश्चात्कम्पनं मुनिपुङ्गव ॥ ४३॥
उत्थानं च शरीरस्य चिह्नमेतज्जितेऽनले ।
एवमभ्यासतस्तस्य मूलरोगो विनश्यति ॥ ४४॥
भगन्दरं च नष्टं स्यात्सर्वरोगाश्च सांकृते ।
पातकानि विनश्यन्ति क्षुद्राणि च महान्ति च ॥ ४५॥
नष्टे पापे विशुद्धं स्याच्चित्तदर्पणमद्भुतम् ।
पुनर्ब्रह्मादिभोगेभ्यो वैराग्यं जयते हृदि ॥ ४६॥
विरक्तस्य तु संसाराज्ज्ञानं कैवल्यसाधनम् ।
तेन पापापहानिः स्याज्ज्ञात्वा देवं सदाशिवम् ॥ ४७॥
ज्ञानामृतरसो येन सकृदास्वादितो भवेत् ।
स सर्वकार्यमुत्सृज्य तत्रैव परिधावति ॥ ४८॥
ज्ञानस्वरूपमेवाहुर्जगदेतद्विलक्षणम् ।
अर्थस्वरूपमज्ञानात्पश्यन्त्यन्ये कुदृष्टयः ॥ ४९॥
आत्मस्वरूपविज्ञानादज्ञानस्य परिक्षयः ।
क्षीणेऽज्ञाने महाप्राज्ञ रागादीनां परिक्षयः ॥ ५०॥
रागाद्यसंभवे प्राज्ञ पुण्यपापविमर्दनम् ।
तयोर्नाशे शरीरेण न पुनः सम्प्रयुज्यते ॥ ५१॥ इति॥
इति षष्ठः खण्डः ॥ ६॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रत्याहारं महामुने ।
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु स्वभावतः ॥ १॥
बलादाहरणां तेषां प्रत्याहारः स उच्यते ।
यत्पश्यति तु तत्सर्वं ब्रह्म पश्यन्समाहितः ॥ २॥
प्रत्याहारो भवेदेष ब्रह्मविद्भिः पुरोदितः ।
यद्यच्छुद्धमशुद्धं वा करोत्यामरणान्तिकम् ॥ ३॥
तत्सर्वं ब्रह्मणे कुर्यात्प्रत्याहारः स उच्यते ।
अथवा नित्यकर्माणि ब्रह्माराधनबुद्धितः ॥ ४॥
काम्यानि च तथा कुर्यात्प्रत्याहारः स उच्यते ।
अथवा वायुमाकृष्य स्थानात्स्थानं निरोधयेत् ॥ ५॥
दन्तमूलात्तथा कण्ठे कण्ठादुरसि मारुतम् ।
उरोदेशात्समाकृष्य नाभिदेशे निरोधयेत् ॥ ६॥
नाभिदेशात्समाकृष्य कुण्डल्यां तु निरोधयेत् ।
कुण्डलीदेशतो विद्वान्मूलाधारे निरोधयेत् ॥ ७॥
अथापानात्कटिद्वन्द्वे तथोरौ च सुमध्यमे ।
तस्माज्जानुद्वये जङ्घे पादाङ्गुष्ठे निरोधयेत् ॥ ८॥
प्रत्याहारोऽयमुक्तस्तु प्रत्याहारस्मरैः पुरा ।
एवमभ्यासयुक्तस्य पुरुषस्य महात्मनः ॥ ९॥
सर्वपापानि नश्यन्ति भवरोगश्च सुव्रत ।
नासाभ्यां वायुमाकृष्य निश्चलः स्वस्तिकासनः ॥ १०॥
पूरयेदनिलं विद्वानापादतलमस्तकम् ।
पश्चात्पादद्वये तद्वन्मूलाधरे तथैव च ॥ ११॥
नाभिकन्दे च हृन्मध्ये कण्ठमूले च तालुके ।
भ्रुवोर्मध्ये ललाटे च तथा मूर्धनि धारयेत् ॥ १२॥
देहे स्वात्ममतिं विद्वान्समाकृष्य समाहितः ।
आत्मनात्मनि निर्द्वन्द्वे निर्विकल्पे निरोधयेत् ॥ १३॥
प्रत्याहारः समाख्यातः साक्षाद्वेदान्तवेदिभिः ।
एवमभ्यसतस्तस्य न किंचिदपि दुर्लभम् ॥ १४॥ इति॥
इति सप्तमः खण्डः ॥ ७॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि धारणाः पञ्च सुव्रत ।
देहमध्यगते व्योम्नि बाह्याकाशं तु धारयेत् ॥ १॥
प्राणे बाह्यानिलं तद्वज्ज्वलने चाग्निमौदरे ।
तोयं तोयांशके भूमिं भूमिभागे महामुने ॥ २॥
हयवरलकाराख्यं मन्त्रमुच्चारयेत्क्रमात् ।
धारणैषा परा प्रोक्ता सर्वपापविशोधिनी ॥ ३॥
जान्वन्तं पृथिवी ह्यंशो ह्यपां पय्वन्तमुच्यते ।
हृदयांशस्तथाग्नंशो भ्रूमध्यान्तोऽनिलांशकः ॥ ४॥
आकाशांशस्तथा प्राज्ञ मूर्धांशः परिकीर्तितः ।
ब्रह्माणं पृथिवीभागे विष्णुं तोयांशके तथा ॥ ५॥
अग्न्यंशे चे महेशानमीश्वरं चानिलांशके ।
आकाशांशे महाप्राज्ञ धारयेत्तु सदाशिवम् ॥ ६॥
अथवा तव वक्ष्यामि धारणां मुनिपुङ्गव ।
पुरुषे सर्वशास्तारं बोधानन्दमयं शिवम् ॥ ७॥
धारयेद्बुद्धिमान्नित्यं सर्वपापविशुद्धये ।
ब्रह्मादिकार्यरूपाणि स्वे स्वे संहृत्य कारणे ॥ ८॥
सर्वकारणमव्यक्तमनिरूप्यमचेतनम् ।
साक्षादात्मनि सम्पूर्णे धारयेत्प्रणवेन तु ।
इन्द्रियाणि समाहृत्य मनसात्मनि योजयेत् ॥ ९॥ इति॥
इत्यष्टमः खण्डः ॥ ८॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ध्यानं संसारनाशनम् ।
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म सर्वसंसारभेषजम् ॥ १॥
ऊर्ध्वरेतं विश्वरूपं विरूपाक्षं महेश्वरम् ।
सोऽहमित्यादरेणैव ध्यायेदोगीश्वरेश्वरम् ॥ २॥
अथवा सत्यमीशानं ज्ञानमानन्दमद्वयम् ।
अत्यर्थमचलं नित्यमादिमध्यान्तवर्जितम् ॥ ३॥
तथा स्थूलमनाकाशमसंस्पृश्यमचाक्षुषम् ।
न रसं न च गन्धाख्यमप्रमेयमनूपमम् ॥ ४॥
आत्मानं सच्चिदानन्दमनन्तं ब्रह्म सुव्रत ।
अहमस्मीत्यभिध्यायेद्ध्येयातीतं विमुक्तये ॥ ५॥
एवमभ्यासयुक्तस्य पुरुषस्य महात्मनः ।
क्रमाद्वेदान्तविज्ञानं विजायेत न संशयः ॥ ६॥ इति॥
इति नवमः खण्डः ॥ ९॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि समाधिं भवनाशनम् ।
समाधिः संविदुत्पत्तिः परजीवैकतां प्रति ॥ १॥
नित्यः सर्वगतो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवर्जितः ।
एकः सन्भिद्यते भ्रान्त्या मायया न स्वरूपतः ॥ २॥
तस्मादद्वैतमेवास्ति न प्रपञ्चो न संसृतिः ।
यथाकाशो घटाकाशो मठाकाश इतीरितः ॥ ३॥
तथा भ्रान्तैर्द्विधा प्रोक्तो ह्यात्मा जीवेश्वरात्मना ।
नाहं देहो न च प्राणो नेन्द्रियाणि मनो नहि ॥ ४॥
सदा साक्षिस्वरूपत्वाच्छिव एवास्मि केवलः ।
इति धीर्या मुनिश्रेष्ठ सा समाधिरिहोच्यते ॥ ५॥
साहं ब्रह्म न संसारी न मत्तोऽन्यः कदाचन ।
यथा फेनतरङ्गादि समुद्रादुत्थितं पुनः ॥ ६॥
समुद्रे लीयते तद्वज्जगन्मय्यनुलीयते ।
तस्मान्मनः पृथङ् नास्ति जगन्माया च नास्ति हि ॥ ७॥
यस्यैवं परमात्मायं प्रत्यग्भूतः प्रकाशितः ।
स तु याति च पुंभावं स्वयं साक्षात्परामृतम् ॥ ८॥
यदा मनसि चैतन्यं भाति सर्वत्रगं सदा ।
योगिनोऽव्यवधानेन तदा सम्पद्यते स्वयम् ॥ ९॥
यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येव हि पश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १०॥
यदा सर्वाणि भूतानि समाधिस्थो न पश्यति ।
एकीभूतः परेणाऽसौ तदा भवति केवलः ॥ ११॥
यदा पश्यति चात्मानं केवलं परमार्थतः ।
मायामात्रं जगत्कृत्स्नं तदा भवति निर्वृतिः ॥ १२॥
एवमुक्त्वा स भगवान्दत्तात्रेयो महामुनिः ।
सांकृतिः स्वस्वरूपेण सुखमास्तेऽतिनिर्भयः ॥ १३॥ इति॥
इति दशमः खण्डः ॥ १०॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥
सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु
धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति श्रीजाबालदर्शनोपनिषत्समाप्ता ॥
जाबालोपनिषत्
जाबालोपनिषत्ख्यातं संन्यासज्ञानगोचरम् ।
वस्तुतस्त्रैपदं ब्रह्म स्वमात्रमवशिष्यते ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ बृहस्पतिरुवाच याज्ञवल्क्यं यदनु कुरुक्षेत्रं
देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् ।
अविमुक्तं वै कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां
भूतानां ब्रह्मसदनम् ।
तस्माद्यत्र क्वचन गच्छति तदेव मन्येत तदविमुक्तमेव ।
इदं वै कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां
भूतानां ब्रह्मसदनम् ॥
अत्र हि जन्तोः प्राणेषूत्क्रममाणेषु रुद्रस्तारकं ब्रह्म
व्याचष्टे येनासावमृती भूत्वा मोक्षी भवति
तस्मादविमुक्तमेव निषेवेत अविमुक्तं न
विमुञ्चेदेवमेवैतद्याज्ञवल्क्यः ॥ १॥
अथ हैनमत्रिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं य एषोऽनन्तोऽव्यक्त
आत्मा तं कथमहं विजानीयामिति ॥
स होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽविमुक्त उपास्यो य
एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति ॥
सोऽविमुक्तः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । वरणायां नाश्यां च
मध्ये प्रतिष्ठित इति ॥
का वै वरणा का च नाशीति ।
सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवति ॥
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति ॥
कतमं चास्य स्थानं भवतीति । भ्रुवोर्घ्राणस्य च यः
सन्धिः स एष द्यौर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति । एतद्वै
सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद उपासत इति । सोऽविमुक्त उपास्य इति
। सोऽविमुक्तं ज्ञानमाचष्टे । यो वैतदेवं वेदेति ॥ २॥
अथ हैनं ब्रह्मचारिण ऊचुः किं जप्येनामृतत्वं ब्रूहीति ॥
स होवाच याज्ञवल्क्यः । शतरुद्रियेणेत्येतान्येव ह वा
अमृतस्य नामानि ॥
एतैर्ह वा अमृतो भवतीति एवमेवैतद्याज्ञवल्क्यः ॥ ३॥
अथ हैनं जनको वैदेहो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच
भगवन्संन्यासं ब्रूहीति । स होवाच याज्ञवल्क्यः ।
ब्रह्मचर्यं परिसमाप्य गृही भवेत् । गृही भूत्वा वनी
भवेत् । वनी भूत्वा प्रव्रजेत् । यदि वेतरथा
ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा ॥
अथ पुनरव्रती वा व्रती वा स्नातको वाऽस्नातको
वोत्सन्नग्निको वा यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत् ।
तद्धैके प्राजापत्यामेवेष्टि,न् कुर्वन्ति । तदु तथा न
कुर्यादाग्नेयीमेव कुर्यात् ॥
अग्निर्ह वै प्राणः प्राणमेव तथा करोति ॥
त्रैधातवीयामेव कुर्यात् । एतयैव त्रयो धातवो यदुत
सत्त्वं रजस्तम इति ॥
अयं ते योनिरृत्विजो यतो जातः प्राणादरोचथाः । तं
प्राणं जानन्नग्न आरोहाथा नो वर्धय रयिम् । इत्यनेन
मन्त्रेणाग्निमाजिघ्रेत् ॥
एष ह वा अग्नेर्योनिर्यः प्राणः प्राणं गच्छ
स्वाहेत्येवमेवैतदाह ॥
ग्रामादग्निमाहृत्य पूर्वदग्निमाघ्रापयेत् ॥
यद्यग्निं न विन्देदप्सु जुहुयात् । आपो वै सर्वा देवताः
सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुहोमि स्वाहेति हुत्वोधृत्य
प्राश्नीयात्साज्यं हविरनामयं मोक्षमन्त्रः त्रय्यैवं
वदेत् । एतद्ब्रह्मैतदुपासितव्यम् । एवमेवैतद्भगवन्निति वै
याज्ञवल्क्यः ॥ ४॥
अथ हैनमत्रिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं पृच्छामि त्वा
याज्ञवल्क्य अयज्ञोपवीति कथं ब्राह्मण इति । स होवाच
याज्ञवल्क्यः । इदमेवास्य तद्यज्ञोपवीतं य आत्मापः
प्राश्याचम्यायं विधिः परिव्राजकानाम् । वीराध्वाने वा
अनाशके वा अपां प्रवेशे वा अग्निप्रवेशे वा महाप्रस्थाने वा
। अथ परिव्राड्विवर्णवासा मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिरद्रोही
भैक्षणो ब्रह्मभूयाय भवतीति । यद्यातुरः स्यान्मनसा
वाचा संन्यसेत् । एष पन्था ब्रह्मणा हानुवित्तस्तेनैति
संन्यासी ब्रह्मविदित्येवमेवैष भगवन्याज्ञवल्क्य ॥ ५॥
तत्र
परमहंसानामसंवर्तकारुणिश्वेतकेतुदुर्वासऋभुनिदाघजड
भरतदत्तात्रेयरैवतक-
प्रभृतयोऽव्यक्तलिङ्गा अव्यक्ताचारा अनुन्मत्ता
उन्मत्तवदाचरन्तस्त्रिदण्डं कमण्डलुं शिक्यं पात्रं
जलपवित्रं शिखां यज्ञोपवीतं च इत्येतत्सर्वं
भूःस्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मानमन्विच्छेत् ॥
यथा जातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्तद्ब्रह्ममार्गे
सम्यक्सम्पन्नः शुद्धमानसः प्राणसन्धारणार्थं
यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन्नुदरपात्रेण
लाभालाभयोः समो भूत्वा
शून्यागारदेवगृहतृणकूटवल्मीकवृक्षमूलकुलालशालाग्
निहोत्रगृहनदीपुलिनगिरिकुहरकन्दरकोटरनिर्झरस्थण्डिलेषु
तेष्वनिकेतवास्य प्रयत्नो निर्ममः
शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठोऽशुभकर्म-
निर्मूलनपरः संन्यासेन देहत्यागं करोति स परमहंसो
नाम परमहंसो नामेति ॥ ६॥
ॐ पूर्णमद इति शातिः ॥
इत्यथर्ववेदीया जाबालोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ जाबाल्युपनिषत् ॥
जाबाल्युपनिषद्वेद्यपदतत्त्वस्वरूपकम् ।
पारमैश्वर्यविभवं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ आप्यायन्तु मामाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं
ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा
ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेस्तु
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथ हैनं भगवन्तं जाबालिं पैप्पलादिः
पप्रच्छ भगवन्मे ब्रूहि परमतत्त्वरहस्यम् । किं
तत्त्वं को जीवः कः पशुः क ईशः को मोक्षोपाय इति ।
स तं होवाच साधु पृष्टं सर्वं निवेदयामि
यथाज्ञातमिति । पुनः स तमुवाच कुतस्त्वया ज्ञातमिति ।
पुनः स तमुवाच षडाननादिति । पुनः स तमुवाच
तेनाथ कुतो ज्ञातमिति । पुनः स तमुवाच तेनेशानादिति ।
पुनः स तमुवाच कथं तस्मात्तेन ज्ञातमिति । पुनः स
तमुवाच तदु[पासनादिति । पुनः स तमुवाच भगवन्कृपया
मे सरहस्यं सर्वं निवेदयेति । स तेन पृष्टः सर्वं
निवेदयामास तत्त्वम् । पशुपतिरहङ्काराविष्टः
संसारी जीवः स एव पशुः । सर्वज्ञः पञ्चकृत्यसम्पन्नः
सर्वेश्वर ईशः पशुपतिः । के पशव इति पुनः स तमुवाच जीवाः
पशव उक्ताः । तत्पतित्वात्पशुपतिः । स पुनस्तं होवाच कथं
जीवाः पशव इति । कथं तत्पतिरिति । स तमुवाच यथा तृणाशिनो
विवेकहीनाः परप्रेष्याः कृष्यादिकर्मसु नियुक्ताः
सकलदुःखसहाः स्वस्वामिबध्यमाना गवादयः पशवः ।
यथा तत्स्वामिन इव सर्वज्ञ ईशः पशुपतिः । तज्ज्ञानं
केनोपायेन जायते । पुनः स तमुवाच विभूतिधारणादेव ।
तत्प्रकारः कथमिति । कुत्रकुत्र धार्यम् । पुनः स तमुवाच
सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैर्भस्म संगृह्याग्निरिति
भस्मेत्यनेनाभिमन्त्र्य मानस्तोक इति समुद्धृत्य जलेन
संसृज्य त्र्यायुपमिति शिरोललाटवक्षःस्कन्धेष्विति
तिसृभिस्त्र्यायुपैस्त्रियम्बकैस्तिस्रो रेखाः प्रकुर्वीत ।
व्रतमेतच्छाम्भवं सर्वेषु वेदेषु वेदवादिभिरुक्तं
भवति । तत्समाचरेन्मुमुक्षुर्न पुनर्भवाय । अथ
सनत्कुमारः प्रमाणं पृच्छति । त्रिपुण्ड्रधारणस्य
त्रिधः रेखा आललाटादाचक्षुषोराभ्रुवोर्मध्यतश्च ।
यास्य प्रथमा रेखा सा गार्हपत्यश्चाकारो रजो भूर्लोकः
स्वात्मा क्रियाशक्तिः ऋग्वेदः प्रातःसवनं प्रजापतिर्देवो
देवतेति । यास्य द्वितीया रेखा सा दक्षिणाग्निरुकारः
सत्वमन्तरिक्षमन्तरात्मा चेच्छाशक्तिर्यजुर्वेदो
माध्यन्दिनसवनं विष्णुर्देवो देवतेति । यास्य तृतीया रेखा
साहवनीयो मकारस्तमो द्यौर्लोकः परमात्मा ज्ञानशक्तिः
सामवेदस्तृतीयसवनं महादेवो देवतेति त्रिपुण्ड्रं भस्मना
करोति । यो विद्वान्ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स
महापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति । स सर्वान्देवान्ध्यातो
भवति । स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति । स सकलरुद्रमन्त्रजापी
भवति । न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते ॥ इति । ॐ सत्यमित्युपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्तु मामाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं
ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा
ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेस्तु
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति श्रीजाबाल्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ तारसारोपनिषत् ॥
(शुक्लयजुर्वेदीया)
यन्नारायणतारार्थसत्यज्ञानसुखाकृति ।
त्रिपान्नारायणाकरं तद्ब्रह्मैवास्मि केवलम् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
(अविमुक्तोपासनोपदेशः)
बृहस्पतिरुवाच याज्ञवल्क्यं यदनु कुरुक्षेत्रं देवानां
देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनं तस्माद्यत्र
क्वचन गच्घ्छेत्तदेव मन्येतेति । इदं वै कुरुक्षेत्रं देवानां
देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् । अत्र हि जन्तोः
प्राणेषूत्क्रममाणेषु रुद्रस्तारकं ब्रह्म व्याचष्टे
येनासावमृतीभूत्वा मोक्षी भवति । तस्मादविमुक्तमेव निषेवेत ।
अविमुक्तं न विमुञ्चेत् । एवमेवैष भगवन्निति वै याज्ञवल्क्यः ॥ १॥
(नारायणस्थूलाष्टाक्षरतारकम्)
अथ हैनं भारद्वाजः पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं किं तारकम् ।
किं तारयतीति । स होवाच याज्ञवल्क्यः । ॐ नमो नारायणायेति
तारकं चिदात्मकमित्युपासितव्यम् । ओमित्येकाक्षरमात्मस्वरूपम् ।
नम इति द्व्यक्षरं प्रकृतिस्वरूपम् । नारायणायेति पञ्चाक्षरं
परंब्रह्मस्वरूपम् । इति य एवं वेद । सोऽमृतो भवति । ओमिति ब्रह्मा
भवति । नकारो विष्णुर्भवति । मकारो रुद्रो भवति । नकार ईश्वरो भवति ।
रकारोऽण्डं विराड् भवति । यकारः पुरुषो भवति । णकारो भगवान्भवति ।
यकारः परमात्मा भवति । एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं वेद
परमपुरुषो भवति ।
अयमृग्वेदः प्रथमः पादः ॥ १॥
(नारायणसूक्ष्माष्टाक्षरतारकम्)
ॐइत्येतदक्षरं परं ब्रह्म । तदेवोपासितव्यम् । एतदेव
सूक्ष्माष्टाक्षरं भवति । तदेतदष्टात्मकोऽष्टधा
भवति । अकारः प्रथमाक्षरो भवति । उकारो द्वितीयाक्षरो भवति ।
मकारस्तृतीयाक्षरो भवति । बिन्दुस्तुरीयाक्षरो भवति । नादः
पञ्चमाक्षरो भवति । कला षष्ठाक्षरो भवति । कलातीता
सप्तमाक्षरो भवति । तत्परश्चाष्टमाक्षरो भवति ।
तारकत्त्वात्तारको भवति । तदेव तारकं ब्रह्म त्वं विद्धि ।
तदेवोपासितव्यम् ॥ १॥
(प्रणवावयवदेवताः)
अत्रैते श्लोका भवन्ति ॥
अकारादभवद्ब्रह्मा जाम्बवानितिसंज्ञकः ।
उकाराक्षरसंभूत उपेन्द्रो हरिनायकः ॥ १॥
मकाराक्षरसंभूतः शिवस्तु हनुमान्स्मृतः ।
बिन्दुरीश्वरसंज्ञस्तु शत्रुघ्नश्चक्रराट् स्वयम् ॥ २॥
नादो महाप्रभुर्ज्ञेयो भरतः शङ्खनामकः ।
कलायाः पुरुषः साक्षाल्लक्ष्मणो धरणीधरः ॥ ३॥
कलातीता भगवती स्वयं सीतेति संज्ञिता ।
तत्परः परमात्मा च श्रीरामः पुरुषोत्तमः ॥ ४॥
(श्रीरामस्य सर्वात्मकत्वम्)
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वम् । तस्योपव्याख्यानं भूतं
भव्यं भविष्यद्यच्चान्यत्तत्त्वमन्त्रवर्णदेवताछन्दो
ऋक्कलाशक्तिसृष्ट्यात्मकमिति । य एवं वेद ।
यजुर्वेदो द्वितीयः पादः ॥ २॥
(जाम्बवदाद्यष्टतनुमन्त्राः)
अथ हैनं भारद्वाजो याज्ञवल्क्यमुवाचाथ कैर्मन्त्रैः
परमात्मा प्रीतो भवति स्वात्मानं दर्शयति तन्नो ब्रूहि
भगव इति ।
स होवाच याज्ञवल्क्यः ।
ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवानकारवाच्यो
जाम्बवान्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १॥
ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवानुकारवाच्य
उपेन्द्रस्वरूपो हरिनायको भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २॥
ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवान्मकारवाच्यः
शिवस्वरूपो हनूमान्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ३॥
ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवान्बिन्दुस्वरूपः
शत्रुघ्नो भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ४॥
ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवान्नादस्वरूपो
भरतो भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ५॥
ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवान्कलास्वरूपो
लक्ष्मणो भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ६॥
ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवान्कलातीता
भगवती सीता चित्स्वरूपा भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ७॥
यथा प्रथममन्त्रोक्तावाद्यन्तौ तथा सर्वमन्त्रेषु द्रष्टव्यम् ।
उकारवाच्य उपेन्द्रस्वरूपो हरिनायकः २ मकारवाच्यः
शिवस्वरूपो हनुमान् ३ बिन्दुस्वरूपः शत्रुघ्नः ४ नादस्वरूपो
भरतः ५ कलास्वरूपो लक्ष्मणः ६ कलातीता भगवती सीता
चित्स्वरूपा ७ ॐ यो ह वै श्रीपरमात्मा नारायणः स भगवांस्तत्परः
परमपुरुषः पुराणपुरुषोत्तमो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसत्य-
परमानन्ताद्वयपरिपूर्णः परमात्मा ब्रह्मैवाहं रामोऽस्मि
भूर्भुवः सुवस्तस्मै नमोनमः ॥ ८॥
(विद्यापठनमन्त्रार्थज्ञानयोः फलम्)
एतदष्टविधमन्त्रं योऽधीते सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो
भवति । स आदित्यपूतो भवति । स स्थाणुपूतो भवति । स सर्वैर्देवैर्ज्ञातो
भवति । तेनेतिहासपुराणानं रुद्राणां शतसहस्राणि जप्तानि फलानि
भवन्ति । श्रीमन्नारायणाष्टाक्षरानुस्मरणेन गायत्र्याः
शतसहस्रं जप्तं भवति । प्रणवानामयुतं जप्तं भवति ।
दशपूर्वान्दशोत्तरान्पुनाति । नारायणपदमवाप्नोति य एवं वेद ।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥
इत्युपनिषत् ॥
सामवेदस्तृतीयः पादः ॥ ३॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति तारसारोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ तुरीयातीतोपनिषत् ॥
ॐ तुरीयातीतोपनिषद्वेद्यं यत्परमाक्षरम् ।
तत्तुर्यातीतचिन्मात्रं स्वमात्रं चिन्तयेऽन्वहम् ॥
तुरीयातीतसंन्यासपरिव्राजाक्षमालिका ।
अव्यक्तैकाक्षरं पूर्णा सूर्याक्ष्यध्यात्मकुण्डिका ॥
हरिः ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथ तुरीयातीतावधूतानां कोऽयं मार्गस्तेषां का
स्थितिरिति पितामहो भगवन्तं पितरमादिनारायणं
परिसमेत्योवाच।
तमाह भगवन्नारायणो योऽयमवधूतमार्गस्थो लोके
दुर्लभतरो नतु बाहुल्यो यद्येको भवति स एव नित्यपूतः स एव
वैराग्यमूर्तिः स एव ज्ञानाकारः स एव वेदपुरुष इति
ज्ञानिनो मन्यन्ते ।
महापुरुषो यस्तच्चित्तं मय्येवावतिष्ठते ।
अहं च तस्मिन्नेवावस्थितः सोऽयमादौ तावत्क्रमेण
कुटीचको बहूदकत्वं प्राप्य बहूदको हंसत्वमवलम्ब्य
हंसः परमहंसो भूत्वा स्वरूपानुसन्धानेन
सर्वप्रपञ्चं विदित्वा दण्डकमण्डलुकटिसूत्र-
कौपीनाच्छादनं स्वविध्युक्तक्रियादिकं सर्वमप्सु
संन्यस्य दिगम्बरो भूत्वा विवर्णजीर्णवल्कलाजिन-
परिग्रहमपि संत्यज्य तदूर्ध्वममन्त्रवदाचरन्क्षौरा-
भ्यङ्गस्नानोर्ध्वपुण्ड्रादिकं विहाय लौकिकवैदिकम-
प्युपसंहृत्य सर्वत्र पुण्यापुण्यवर्जितो ज्ञानाज्ञानमपि
विहाय शीतोष्णसुखदुःखमानावमानं निर्जित्य वासनात्रय-
पूर्वकं निन्दानिन्दागर्वमत्सरदम्भदर्पद्वेषकामक्रोधलोभ
मोहहर्षामर्षासूयात्मसंरक्षणादिकं दग्ध्वा स्ववपुः
कुणपाकारमिव पश्यन्नयत्नेनानियमेन लाभालाभौ समौ
कृत्वा गोवृत्त्या प्राणसन्धारणं कुर्वन्यत्प्राप्तं तेनैव
निर्लोलुपः सर्वविद्यापाण्डित्यप्रपञ्चं भस्मीकृत्य स्वरूपं
गोपयित्वा ज्येष्ठाज्येष्ठत्वानपलापकः सर्वोत्कृष्टत्व-
सर्वात्मकत्वाद्वैतं कल्पयित्वा मत्तो व्यतिरिक्तः कश्चिन्ना-
न्योऽस्तीति देवगुह्यादिधनमात्मन्युपसंहृत्य दुःखेन नोद्विग्नः
सुखेन नानुमोदको रागे निःस्पृहः सर्वत्र शुभाशुभयो-
रनभिस्नेहः सर्वेन्द्रियोपरमः स्वपूर्वापन्नाश्रमाचारविद्या-
धर्मप्राभवमननुस्मरन्त्यक्तवर्णाश्रमाचारः सर्वदा
दिवानक्तसमत्वेनास्वप्नः सर्वदासंचारशीलो
देहमात्रवशिष्टो जलस्थलकमण्डलुः सर्वदानुन्मत्तो
बालोन्मत्तपिशाचवदेकाकी संचरन्नसंभाषणपरः
स्वरूपध्यानेन निरालम्बमवलम्ब्य स्वात्मनिष्ठानुकूलेन
सर्वं विस्मृत्य तुरीयातीतावधूतवेषेणाद्वैतनिष्ठापरः
प्रणवात्मकत्वेन देहत्यागं करोति यः सोऽवधूतः स
कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषत् ॥
ॐ तत्सत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णामेवाशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति तुरीयातीतोपनिषत्समाप्ता ॥
तेजोबिन्दूपनिषत्
यत्र चिन्मात्रकलना यात्यपह्नवमञ्जसा ।
तच्चिन्मात्रमखण्डैकरसं ब्रह्म भवाम्यहम् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ तेजोबिन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदिसंस्थितम् ।
आणवं शाम्भवं शान्तं स्थूलं सूक्ष्मं परं च यत् ॥ १॥
दुःखाढ्यं च दुराराध्यं दुष्प्रेक्ष्यं मुक्तमव्ययम् ।
दुर्लभं तत्स्वयं ध्यानं मुनीनां च मनीषिणाम् ॥ २॥
यताहारो जितक्रोधो जितसङ्गो जितेन्द्रियः ।
निर्द्वन्द्वो निरहङ्कारो निराशीरपरिग्रहः ॥ ३॥
अगम्यागमकर्ता यो गम्याऽगमयमानसः ।
मुखे त्रीणि च विन्दन्ति त्रिधामा हंस उच्यते ॥ ४॥
परं गुह्यतमं विद्धि ह्यस्ततन्द्रो निराश्रयः ।
सोमरूपकला सूक्ष्मा विष्णोस्तत्परमं पदम् ॥ ५॥
त्रिवक्त्रं त्रिगुणं स्थानं त्रिधातुं रूपवर्जितम् ।
निश्चलं निर्विकल्पं च निराकारं निराश्रयम् ॥ ६॥
उपाधिरहितं स्थानं वाङ्मनोऽतीतगोचरम् ।
स्वभावं भावसङ्ग्राह्यमसङ्घातं पदाच्च्युतम् ॥ ७॥
अनानानन्दनातीतं दुष्प्रेक्ष्यं मुक्तिमव्ययम् ।
चिन्त्यमेवं विनिर्मुक्तं शाश्वतं ध्रुवमच्युतम् ॥ ८॥
तद्ब्रह्मणस्तदध्यात्मं तद्विष्णोस्तत्परायणम् ।
अचिन्त्यं चिन्मयात्मानं यद्व्योम परमं स्थितम् ॥ ९॥
अशून्यं शून्यभावं तु शून्यातीतं हृदि स्थितम् ।
न ध्यानं च न च ध्याता न ध्येयो ध्येय एव च ॥ १०॥
सर्वं च न परं शून्यं न परं नापरात्परम् ।
अचिन्त्यमप्रबुद्धं च न सत्यं न परं विदुः ॥ ११॥
मुनीनां सम्प्रयुक्तं च न देवा न परं विदुः ।
लोभं मोहं भयं दर्पं कामं क्रोधं च किल्बिषम् ॥ १२॥
शीतोष्णे क्षुत्पिपासे च सङ्कल्पकविकल्पकम् ।
न ब्रह्मकुलदर्पं च न मुक्तिग्रन्थिसञ्चयम् ॥ १३॥
न भयं न सुखं दुःखं तथा मानावमानयोः ।
एतद्भावविनिर्मुक्तं तद्ग्राह्यं ब्रह्म तत्परम् ॥ १४॥
यमो हि नियमस्त्यागो मौनं देशश्च कालतः ।
आसनं मूलबन्धश्च देहसाम्यं च दृक्स्थितिः ॥ १५॥
प्राणसंयमनं चैव प्रत्याहारश्च धारणा ।
आत्मध्यानं समाधिश्च प्रोक्तान्यङ्गानि वै क्रमात् ॥ १६॥
सर्वं ब्रह्मेति वै ज्ञानादिन्द्रियग्रामसंयमः ।
यमोऽऽयमिति सम्प्रोक्तोऽभ्यसनीयो मुहुर्मुहुः ॥ १७॥
सजातीयप्रवाहश्च विजातीयतिरस्कृतिः ।
नियमो हि परानन्दो नियमात्क्रियते बुधैः ॥ १८॥
त्यागः प्रपञ्चरूपस्य सच्चिदात्मावलोकनात् ।
त्यागो हि महता पूज्यः सद्यो मोक्षप्रदायकः ॥ १९॥
यस्माद्वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
यन्मौनं योगिभिर्गम्यं तद्भजेत्सर्वदा बुधः ॥ २०॥
वाचो यस्मान्निवर्तन्ते तद्वक्तुं केन शक्यते ।
प्रपञ्चो यदि वक्तव्यः सोऽपि शब्दविवर्जितः ॥ २१॥
इति वा तद्भवेन्मौनं सर्वं सहजसंज्ञितम् ।
गिरां मौनं तु बालानामयुक्तं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २२॥
आदावन्ते च मध्ये च जनो यस्मिन्न विद्यते ।
येनेदं सततं व्याप्तं स देशो विजनः स्मृतः ॥ २३॥
कल्पना सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां निमेषतः ।
कालशब्देन निर्दिष्टं ह्यखण्डानन्दमद्वयम् ॥ २४॥
सुखेनैव भवेद्यस्मिन्नजस्रं ब्रह्मचिन्तनम् ।
आसनं तद्विजानीयादन्यत्सुखविनाशनम् ॥ २५॥
सिद्धये सर्वभूतादि विश्वाधिष्ठानमद्वयम् ।
यस्मिन्सिद्धिं गताः सिद्धास्तत्सिद्धासनमुच्यते ॥ २६॥
यन्मूलं सर्वलोकानां यन्मूलं चित्तबन्धनम् ।
मूलबन्धः सदा सेव्यो योग्योऽसौ ब्रह्मवादिनाम् ॥ २७॥
अङ्गानां समतां विद्यात्समे ब्रह्मणि लीयते ।
नो चेन्नैव समानत्वमृजुत्वं शुष्कवृक्षवत् ॥ २८॥
दृष्टीं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत् ।
सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी ॥ २९॥
द्रष्टृदर्शनदृश्यानां विरामो यत्र वा भवेत् ।
दृष्टिस्तत्रैव कर्तव्या न नासाग्रावलोकिनी ॥ ३०॥
चित्तादिसर्वभावेषु ब्रह्मत्वेनैव भावनात् ।
निरोधः सर्ववृत्तीनां प्राणायामः स उच्यते ॥ ३१॥
निषेधनं प्रपञ्चस्य रेचकाख्यः समीरितः ।
ब्रह्मैवास्मीति या वृत्तिः पूरको वायुरुच्यते ॥ ३२॥
ततस्तद्वृत्तिनैश्चल्यं कुम्भकः प्राणसंयमः ।
अयं चापि प्रबुद्धानामज्ञानां घ्राणपीडनम् ॥ ३३॥
विषयेष्वात्मतां दृष्ट्वा मनसश्चित्तरञ्जकम् ।
प्रत्याहारः स विज्ञेयोऽभ्यसनीयो मुहुर्मुहुः ॥ ३४॥
यत्र यत्र मनो याति ब्रह्मणस्तत्र दर्शनात् ।
मनसा धारणं चैव धारणा सा परा मता ॥ ३५॥
ब्रह्मैवास्मीति सद्वृत्त्या निरालम्बतया स्थितिः ।
ध्यानशब्देन विख्यातः परमानन्ददायकः ॥ ३६॥
निर्विकारतया वृत्त्या ब्रह्माकारतया पुनः ।
वृत्तिविस्मरणं सम्यक्समाधिरभिधीयते ॥ ३७॥
इमं चाकृत्रिमानन्दं तावत्साधु समभ्यसेत् ।
लक्ष्यो यावत्क्षणात्पुंसः प्रत्यक्त्वं सम्भवेत्स्वयम् ॥ ३८॥
ततः साधननिर्मुक्तः सिद्धो भवति योगिराट् ।
तत्स्वं रूपं भवेत्तस्य विषयो मनसो गिराम् ॥ ३९॥
समाधौ क्रियमाणे तु विघ्नान्यायान्ति वै बलात् ।
अनुसन्धानराहित्यमालस्यं भोगलालसम् ॥ ४०॥
लयस्तमश्च विक्षेपस्तेजः स्वेदश्च शून्यता ।
एवं हि विघ्नबाहुल्यं त्याज्यं ब्रह्मविशारदैः ॥ ४१॥
भाववृत्त्या हि भावत्वं शून्यवृत्त्या हि शून्यता ।
ब्रह्मवृत्त्या हि पूर्णत्वं तया पूर्णत्वमभ्यसेत् ॥ ४२॥
ये हि वृत्तिं विहायैनां ब्रह्माख्यां पावनीं पराम् ।
वृथैव ते तु जीवन्ति पशुभिश्च समा नराः ॥ ४३॥
ये तु वृत्तिं विजानन्ति ज्ञात्वा वै वर्धयन्ति ये ।
ते वै सत्पुरुषा धन्या वन्द्यास्ते भुवनत्रये ॥ ४४॥
येषां वृत्तिः समा वृद्धा परिपक्वा च सा पुनः ।
ते वै सद्ब्रह्मतां प्राप्ता नेतरे शब्दवादिनः ॥ ४५॥
कुशला ब्रह्मवार्तायां वृत्तिहीनाः सुरागिणः ।
तेऽप्यज्ञानतया नूनं पुनरायान्ति यान्ति च ॥ ४६॥
निमिषार्धं न तिष्ठन्ति वृत्तिं ब्रह्ममयीं विना ।
यथा तिष्ठन्ति ब्रह्माद्याः सनकाद्याः शुकादयः ॥ ४७॥
कारणं यस्य वै कार्यं कारणं तस्य जायते ।
कारणं तत्त्वतो नश्येत्कार्याभावे विचारतः ॥ ४८॥
अथ शुद्धं भवेद्वस्तु यद्वै वाचामगोचरम् ।
उदेति शुद्धचित्तानां वृत्तिज्ञानं ततः परम् ॥ ४९॥
भावितं तीव्रवेगेन यद्वस्तु निश्चयात्मकम् ।
दृश्यं ह्यदृश्यतां नीत्वा ब्रह्माकारेण चिन्तयेत् ॥ ५०॥
विद्वान्नित्यं सुखे तिष्ठेद्धिया चिद्रसपूर्णया ॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
अथ ह कुमारः शिवं पप्रच्छाऽखण्डैकरस-
चिन्मात्रस्वरूपमनुब्रूहीति । स होवाच परमः शिवः ।
अखण्डैकरसं दृश्यमखण्डैकरसं जगत् ।
अखण्डैकरसं भावमखण्डैकरसं स्वयम् ॥ १॥
अखण्डैकरसो मन्त्र अखण्डैकरसा क्रिया ।
अखण्डैकरसं ज्ञानमखण्डैकरसं जलम् ॥ २॥
अखण्डैकरसा भूमिरखण्डैकरसं वियत् ।
अखण्डैकरसं शास्त्रमखण्डैकरसा त्रयी ॥ ३॥
अखण्डैकरसं ब्रह्म चाखण्डैकरसं व्रतम् ।
अखण्डैकरसो जीव अखण्डैकरसो ह्यजः ॥ ४॥
अखण्डैकरसो ब्रह्मा अखण्डैकरसो हरिः ।
अखण्डैकरसो रुद्र अखण्डैकरसोऽस्म्यहम् ॥ ५॥
अखण्डैकरसो ह्यात्मा ह्यखण्डैकरसो गुरुः ।
अखण्डैकरसं लक्ष्यमखण्डैकरसं महः ॥ ६॥
अखण्डैकरसो देह अखण्डैकरसं मनः ।
अखण्डैकरसं चित्तमखण्डैकरसं सुखम् ॥ ७॥
अखण्डैकरसा विद्या अखण्डैकरसोऽव्ययः ।
अखण्डैकरसं नित्यमखण्डैकरसं परम् ॥ ८॥
अखण्डैकरसं किञ्चिदखण्डैकरसं परम् ।
अखण्डैकरसादन्यन्नास्ति नास्ति षडानन ॥ ९॥
अखण्डैकरसान्नास्ति अखण्डैकरसान्न हि ।
अखण्डैकरसात्किञ्चिदखण्डैकरसादहम् ॥ १०॥
अखण्डैकरसं स्थूलं सूक्ष्मं चाखण्डरूपकम् ।
अखण्डैकरसं वेद्यमखण्डैकरसो भवान् ॥ ११॥
अखण्डैकरसं गुह्यमखण्डैकरसादिकम् ।
अखण्डैकरसो ज्ञाता ह्यखण्डैकरसा स्थितिः ॥ १२॥
अखण्डैकरसा माता अखण्डैकररसः पिता ।
अखण्डैकरसो भ्राता अखण्डैकरसः पतिः ॥ १३॥
अखण्डैकरसं सूत्रमखण्डैकरसो विराट् ।
अखण्डैकरसं गात्रमखण्डैकरसं शिरः ॥ १४॥
अखण्डैकरसं चान्तरखण्डैकरसं बहिः ।
अखण्डैकरसं पूर्णमखण्डैकरसामृतम् ॥ १५॥
अखैण्डैकरसं गोत्रमखण्डैकरसं गृहम् ।
अखण्डैकरसं गोप्यमखण्डैकरसशशी ॥ १६॥
अखण्डैकरसास्तारा अखण्डैकरसो रविः ।
अखण्डैकरसं क्षेत्रमखण्डैकरसा क्षमा ॥ १७॥
अखण्डैकरस शान्त अखण्डैकरसोऽगुणः ।
अखण्डैकरसः साक्षी अखण्डैकरसः सुहृत् ॥ १८॥
अखण्डैकरसो बन्धुरखण्डैकरसः सखा ।
अखण्डैकरसो राजा अखण्डैकरसं पुरम् ॥ १९॥
अखण्डैकरसं राज्यमखण्डैकरसाः प्रजाः ।
अखण्डैकरसं तारमखण्डैकरसो जपः ॥ २०॥
अखण्डैकरसं ध्यानमखण्डैकरसं पदम् ।
अखण्डैकरसं ग्राह्यमखण्डैकरसं महत् ॥ २१॥
अखण्डैकरसं ज्योतिरखण्डैकरसं धनम् ।
अखण्डैकरसं भोज्यमखण्डैकरसं हविः ॥ २२॥
अखण्डैकरसो होम अखण्डैकरसो जपः ।
अखण्डैकरसं स्वर्गमखण्डैकरसः स्वयम् ॥ २३॥
अखण्डैकरसं सर्वं चिन्मात्रमिति भावयेत् ।
चिन्मात्रमेव चिन्मात्रमखण्डैकरसं परम् ॥ २४॥
भववर्जितचिन्मात्रं सर्वं चिन्मात्रमेव हि ।
इदं च सर्वं चिन्मात्रमयं चिन्मयमेव हि ॥ २५॥
आत्मभावं च चिन्मात्रमखण्डैकरसं विदुः ।
सर्वलोकं च चिन्मात्रं वत्ता मत्ता च चिन्मयम् ॥ २६॥
आकाशो भूर्जलं वायुरग्निर्ब्रह्मा हरिः शिवः ।
यत्किञ्चिद्यन्न किञ्चिच्च सर्वं चिन्मात्रमेव हि ॥ २७॥
अखण्डैकरसं सर्वं यद्यच्चिन्मात्रमेव हि ।
भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं चिन्मात्रमेव हि ॥ २८॥
द्रव्यं कालं च चिन्मात्रं ज्ञानं ज्ञेयं चिदेव हि ।
ज्ञाता चिन्मात्ररूपश्च सर्वं चिन्मयमेव हि ॥ २९॥
सम्भाषणं च चिन्मात्रं यद्यच्चिन्मात्रमेव हि ।
असच्च सच्च चिन्मात्रमाद्यन्तं चिन्मयं सदा ॥ ३०॥
आदिरन्तश्च चिन्मात्रं गुरुशिष्यादि चिन्मयम् ।
दृग्दृश्यं यदि चिन्मात्रमस्ति चेच्चिन्मयं सदा ॥ ३१॥
सर्वाश्चर्यं हि चिन्मात्रं देहं चिन्मात्रमेव हि ।
लिङ्गं च कारणं चैव चिन्मात्रान्न हि विद्यते ॥ ३२॥
अहं त्वं चैव चिन्मात्रं मूर्तामूर्तादिचिन्मयम् ।
पुण्यं पापं च चिन्मात्रं जीवश्चिन्मात्रविग्रहः ॥ ३३॥
चिन्मात्रान्नास्ति सङ्कल्पश्चिन्मात्रान्नास्ति वेदनम् ।
चिन्मात्रान्नास्ति मन्त्रादि चिन्मात्रान्नास्ति देवता ॥ ३४॥
चिन्मात्रान्नास्ति दिक्पालाश्चिन्मात्राद्व्यावहारिकम् ।
चिन्मात्रात्परमं ब्रह्म चिन्मात्रान्नास्ति कोऽपि हि ॥ ३५॥
चिन्मात्रान्नास्ति माया च चिन्मात्रान्नास्ति पूजनम् ।
चिन्मात्रान्नास्ति मन्तव्यं चिन्मात्रान्नास्ति सत्यकम् ॥ ३६॥
चिन्मात्रान्नास्ति कोशादि चिन्मात्रान्नास्ति वै वसु ।
चिन्मात्रान्नास्ति मौनं च चिन्मात्रान्नस्त्यमौनकम् ॥ ३७॥
चिन्मात्रान्नास्ति वैराग्यं सर्वं चिन्मात्रमेव हि ।
यच्च यावच्च चिन्मात्रं यच्च यावच्च दृश्यते ॥ ३८॥
यच्च यावच्च दूरस्थं सर्वं चिन्मात्रमेव हि ।
यच्च यावच्च भूतादि यच्च यावच्च लक्ष्यते ॥ ३९॥
यच्च यावच्च वेदान्ताः सर्वं चिन्मात्रमेव हि ।
चिन्मात्रान्नास्ति गमनं चिन्मात्रान्नास्ति मोक्षकम् ॥ ४०॥
चिन्मात्रान्नास्ति लक्ष्यं च सर्वं चिन्मात्रमेव हि ।
अखण्डैकरसं ब्रह्म चिन्मात्रान्न हि विद्यते ॥ ४१॥
शास्त्रे मयि त्वयीशे च ह्यखण्डैकरसो भवान् ।
इत्येकरूपतया यो वा जानात्यहं त्विति ॥ ४२॥
सकृज्ज्ञानेन मुक्तिः स्यात्सम्यग्ज्ञाने स्वयं गुरुः ॥ ४३॥
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
कुमारः पितरमात्मानुभवमनुब्रूहीति पप्रच्छ ।
स होवाच परः शिवः ।
परब्रह्मस्वरूपोऽहं परमानन्दमस्म्यहम् ।
केवलं ज्ञानरूपोऽहं केवलं परमोऽस्म्यहम् ॥ १॥
केवलं शान्तरूपोऽहं केवलं चिन्मयोऽस्म्यहम् ।
केवलं नित्यरूपोऽहं केवलं शाश्वतोऽस्म्यहम् ॥ २॥
केवलं सत्त्वरूपोऽहमहं त्यक्त्वाहमस्म्यहम् ।
सर्वहीनस्वरूपोऽहं चिदाकाशमयोऽस्म्यहम् ॥ ३॥
केवलं तुर्यरूपोऽस्मि तुर्यातीतोऽस्मि केवलः ।
सदा चैतन्यरूपोऽस्मि चिदानन्दमयोऽस्म्यहम् ॥ ४॥
केवलाकाररूपोऽस्मि शुद्धरूपोऽस्म्यहं सदा ।
केवलं ज्ञानरूपोऽस्मि केवलं प्रियमस्म्यहम् ॥ ५॥
निर्विकल्पस्वरूपोऽस्मि निरीहोऽस्मि निरामयः ।
सदाऽसङ्गस्वरूपोऽस्मि निर्विकारोऽहमव्ययः ॥ ६॥
सदैकरसरूपोऽस्मि सदा चिन्मात्रविग्रहः ।
अपरिच्छिन्नरूपोऽस्मि ह्यखण्डानन्दरूपवान् ॥ ७॥
सत्परानन्दरूपोऽस्मि चित्परानन्दमस्म्यहम् ।
अन्तरान्तररूपोऽहमवाङ्मनसगोचरः ॥ ८॥
आत्मानन्दस्वरूपोऽहं सत्यानन्दोऽस्म्यहं सदा ।
आत्मारामस्वरूपोऽस्मि ह्ययमात्मा सदाशिवः ॥ ९॥
आत्मप्रकाशरूपोऽस्मि ह्यात्मज्योतिरसोऽस्म्यहम् ।
आदिमध्यान्तहीनोऽस्मि ह्याकाशसदृशोऽस्म्यहम् ॥ १०॥
नित्यशुद्धचिदानन्दसत्तामात्रोऽहमव्ययः ।
नित्यबुद्धविशुद्धैकसच्चिदानन्दमस्म्यहम् ॥ १॥
नित्यशेषस्वरूपोऽस्मि सर्वातीतोऽस्म्यहं सदा ।
रूपातीतस्वरूपोऽस्मि परमाकाशविग्रहः ॥ १२॥
भूमानन्दस्वरूपोऽस्मि भाषाहीनोऽस्म्यहं सदा ।
सर्वाधिष्ठानरूपोऽस्मि सर्वदा चिद्घनोऽस्म्यहम् ॥ १३॥
देहभावविहीनोऽस्मि चिन्ताहीनोऽस्मि सर्वदा ।
चित्तवृत्तिविहीनोऽहं चिदात्मैकरसोऽस्म्यहम् ॥ १४॥
सर्वदृश्यविहीनोऽहं दृग्रूपोऽस्म्यहमेव हि ।
सर्वदा पूर्णरूपोऽस्मि नित्यतृप्तोऽस्म्यहं सदा ॥ १५॥
अहं ब्रह्मैव सर्वं स्यादहं चैतन्यमेव हि ।
अहमेवाहमेवास्मि भूमाकाशस्वरूपवान् ॥ १६॥
अहमेव महानात्मा ह्यहमेव परात्परः ।
अहमन्यवदाभामि ह्यहमेव शरीरवत् ॥ १७॥
अहं शिष्यवदाभामि ह्ययं लोकत्रयाश्रयः ।
अहं कालत्रयातीत अहं वेदैरुपासितः ॥ १८॥
अहं शास्त्रेण निर्णीत अहं चित्ते व्यवस्थितः ।
मत्त्यक्तं नास्ति किञ्चिद्वा मत्त्यक्तं पृथिवी च वा ॥ १९॥
मयातिरिक्तं यद्यद्वा तत्तन्नास्तीति निश्चिनु ।
अहं ब्रह्मास्मि सिद्धोऽस्मि नित्यशुद्धोऽस्म्यहं सदा ॥ २०॥
निर्गुणः केवलात्मास्मि निराकारोऽस्म्यहं सदा ।
केवलं ब्रह्ममात्रोऽस्मि ह्यजरोऽस्म्यमरोऽस्म्यहम् ॥ २१॥
स्वयमेव स्वयं भामि स्वयमेव सदात्मकः ।
स्वयमेवात्मनि स्वस्थः स्वयमेव परा गतिः ॥ २२॥
स्वयमेव स्वयं भञ्जे स्वयमेव स्वयं रमे ।
स्वयमेव स्वयं ज्योतिः स्वयमेव स्वयं महः ॥ २३॥
स्वस्यात्मनि स्वयं रंस्ये स्वात्मन्येव विलोकये ।
स्वात्मन्येव सुखासीनः स्वात्ममात्रावशेषकः ॥ २४॥
स्वचैतन्ये स्वयं स्थास्ये स्वात्मराज्ये सुखे रमे ।
स्वात्मसिंहासने स्थित्वा स्वात्मनोऽन्यन्न चिन्तये ॥ २५॥
चिद्रूपमात्रं ब्रह्मैव सच्चिदानन्दमद्वयम् ।
आनन्दघन एवाहमहं ब्रह्मास्मि केवलम् ॥ २६॥
सर्वदा सर्वशून्योऽहं सर्वात्मानन्दवानहम् ।
नित्यानन्दस्वरूपोऽहमात्माकाशोऽस्मि नित्यदा ॥ २७॥
अहमेव हृदाकाशश्चिदादित्यस्वरूपवान् ।
आत्मनात्मनि तृप्तोऽस्मि ह्यरूपोऽस्म्यहमव्ययः ॥ २८॥
एकसङ्ख्याविहीनोऽस्मि नित्यमुक्तस्वरूपवान् ।
आकाशादपि सूक्ष्मोऽहमाद्यन्ताभाववानहम् ॥ २९॥
सर्वप्रकाशरूपोऽहं परावरसुखोऽस्म्यहम् ।
सत्तामात्रस्वरूपोऽहं शुद्धमोक्षस्वरूपवान् ॥ ३०॥
सत्यानन्दस्वरूपोऽहं ज्ञानानन्दघनोऽस्म्यहम् ।
विज्ञानमात्ररूपोऽहं सच्चिदानन्दलक्षणः ॥ ३१॥
ब्रह्ममात्रमिदं सर्वं ब्रह्मणोऽन्यन्न किञ्चन ।
तदेवाहं सदानन्दं ब्रह्मैवाहं सनातनम् ॥ ३२॥
त्वमित्येतत्तदित्येतन्मत्तोऽन्यन्नास्ति किञ्चन ।
चिच्चैतन्यस्वरूपोऽहमहमेव शिवः परः ॥ ३३॥
अतिभावस्वरूपोऽहमहमेव सुखात्मकः ।
साक्षिवस्तुविहीनत्वात्साक्षित्वं नास्ति मे सदा ॥ ३४॥
केवलं ब्रह्ममात्रत्वादहमात्मा सनातनः ।
अहमेवादिशेषोऽहमहं शेषोऽहमेव हि ॥ ३५॥
नामरूपविमुक्तोऽहमहमानन्दविग्रहः ।
इन्द्रियाभावरूपोऽहं सर्वभावस्वरूपकः ॥ ३६॥
बन्धमुक्तिविहीनोऽहं शाश्वतानन्दविग्रहः ।
आदिचैतन्यमात्रोऽहमखण्डैकरसोऽस्म्यहम् ॥ ३७॥
वाङ्मनोऽगोचरश्चाहं सर्वत्र सुखवानहम् ।
सर्वत्र पूर्णरूपोऽहं भूमानन्दमयोऽस्म्यहम् ॥ ३८॥
सर्वत्र तृप्तिरूपोऽहं परामृतरसोऽस्म्यहम् ।
एकमेवाद्वितीयं सद्ब्रह्मैवाहं न संशयः ॥ ३९॥
सर्वशून्यस्वरूपोऽहं सकलागमगोचरः ।
मुक्तोऽहं मोक्षरूपोऽहं निर्वाणसुखरूपवान् ॥ ४०॥
सत्यविज्ञानमात्रोऽहं सन्मात्रानन्दवानहम् ।
तुरीयातीतरूपोऽहं निर्विकल्पस्वरूपवान् ॥ ४१॥
सर्वदा ह्यजरूपोऽहं नीरागोऽस्मि निरञ्जनः ।
अहं शुद्धोऽस्मि बुद्धोऽस्मि नित्योऽस्मि प्रभुरस्म्यहम् ॥ ४२॥
ओङ्कारार्थस्वरूपोऽस्मि निष्कलङ्कमयोऽस्म्यहम् ।
चिदाकारस्वरूपोऽस्मि नाहमस्मि न सोऽस्म्यहम् ॥ ४३॥
न हि किञ्चित्स्वरूपोऽस्मि निर्व्यापारस्वरूपवान् ।
निरंशोऽस्मि निराभासो न मनो नेन्द्रियोऽस्म्यहम् ॥ ४४॥
न बुद्धिर्न विकल्पोऽहं न देहादित्रयोऽस्म्यहम् ।
न जाग्रत्स्वप्नरूपोऽहं न सुषुप्तिस्वरूपवान् ॥ ४५॥
न तापत्रयरूपोऽहं नेषणात्रयवानहम् ।
श्रवणं नास्ति मे सिद्धेर्मननं च चिदात्मनि ॥ ४६॥
सजातीयं न मे किञ्चिद्विजातीयं न मे क्वचित् ।
स्वगतं च न मे किञ्चिन्न मे भेदत्रयं क्वचित् ॥ ४७॥
असत्यं हि मनोरूपमसत्यं बुद्धिरूपकम् ।
अहङ्कारमसिद्धीति नित्योऽहं शाश्वतो ह्यजः ॥ ४८॥
देहत्रयमसद्विद्धि कालत्रयमसत्सदा ।
गुणत्रयमसत्विद्धि ह्ययं सत्यात्मकः शुचिः ॥ ४९॥
श्रुतं सर्वमसत्द्विद्धि वेदं सर्वमसत्सदा ।
शास्त्रं सर्वमसत्द्विद्धि ह्यहं सत्यचिदात्मकः ॥ ५०॥
मूर्तित्रयमसद्विद्धि सर्वभूतमसत्सदा ।
सर्वतत्त्वमसद्विद्धि ह्ययं भूमा सदाशिवः ॥ ५१॥
गुरुशिष्यमसद्विद्धि गुरोर्मन्त्रमसत्ततः ।
यद्दृश्यं तदसद्विद्धि न मां विद्धि तथाविधम् ॥ ५२॥
यच्चिन्त्यं तदसद्विद्धि यन्न्यायं तदसत्सदा ।
यद्धितं तदसद्विद्धि न मां विद्धि तथाविधम् ॥ ५३॥
सर्वान्प्राणानसद्विद्धि सर्वान्भोगानसत्त्विति ।
दृष्टं श्रुतमसद्विद्धि ओतं प्रोतमसन्मयम् ॥ ५४॥
कार्याकार्यमसद्विद्धि नष्टं प्राप्तमसन्मयम् ।
दुःखादुःखमसद्विद्धि सर्वासर्वमन्मयम् ॥ ५५॥
पूर्णापूर्णमसद्विद्धि धर्माधर्ममसन्मयम् ।
लाभालाभावसद्विद्धि जयाजयमसन्मयम् ॥ ५६॥
शब्दं सर्वमसद्विद्धि स्पर्शं सर्वमसत्सदा ।
रूपं सर्वमसद्विद्धि रसं सर्वमसन्मयम् ॥ ५७॥
गन्धं सर्वमसद्विद्धि सर्वाज्ञानमसन्मयम् ।
असदेव सदा सर्वमसदेव भवोद्भवम् ॥ ५८॥
असदेव गुणं सर्वं सन्मात्रमहमेव हि ।
स्वात्ममन्त्रं सदा पश्येत्स्वात्ममन्त्रं सदाभ्यसेत् ॥ ५९॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं दृश्यपापं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमन्यमन्त्रं विनाशयेत् ॥ ६०॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं देहदोषं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं जन्मपापं विनाशयेत् ॥ ६१॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं मृत्युपाशं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं द्वैतदुःखं विनाशयेत् ॥ ६२॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं भेदबुद्धिं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं चिन्तादुःखं विनाशयेत् ॥ ६३॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं बुद्धिव्याधिं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं चित्तबन्धं विनाशयेत् ॥ ६४॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वव्याधीन्विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वशोकं विनाशयेत् ॥ ६५॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं कामादीन्नाशयेत्क्षणात् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं क्रोधशक्तिं विनाशयेत् ॥ ६६॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं चित्तवृत्तिं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सङ्कल्पादीन्विनाशयेत् ॥ ६७॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं कोटिदोषं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वतन्त्रं विनाशयेत् ॥ ६८॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमात्माज्ञानं विनाशयेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमात्मलोकजयप्रदः ॥ ६९॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमप्रतर्क्यसुखप्रदः ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमजडत्वं प्रयच्छति ॥ ७०॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमनात्मासुरमर्दनः ।
अहं ब्रह्मास्मि वज्रोऽयमनात्माख्यगिरीन्हरेत् ॥ ७१॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयमनात्माख्यासुरान्हरेत् ।
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं सर्वांस्तान्मोक्षयिष्यति ॥ ७२॥
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोऽयं ज्ञानानन्दं प्रयच्छति ।
सप्तकोटिमहामन्त्रं जन्मकोटिशतप्रदम् ॥ ७३॥
सर्वमन्त्रान्समुत्सृज्य एतं मन्त्रं समभ्यसेत् ।
सद्यो मोक्षमवाप्नोति नात्र सन्देहमण्वपि ॥ ७४॥
इति तृतीयोध्यायः ॥ ३॥
कुमारः परमेश्वरं पप्रच्छ जीवन्मुक्तविदेहमुक्तयोः
स्थितिमनुब्रूहीति । स होवाच परः शिवः ।
चिदात्माहं परात्माहं निर्गुणोऽहं परात्परः ।
आत्ममात्रेण यस्तिष्ठेत्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ १॥
देहत्रयातिरिक्तोऽहं शुद्धचैतन्यमस्म्यहम् ।
ब्रह्माहमिति यस्यान्तः स जीवनमुक्त उच्यते ॥ २॥
आनन्दघनरूपोऽस्मि परानन्दघनोऽस्म्यहम् ।
यस्य देहादिकं नास्ति यस्य ब्रह्मेति निश्चयः ।
परमानन्दपूर्णो यः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ३॥
यस्य किञ्चिदहं नास्ति चिन्मात्रेणावतिष्ठते ।
चैतन्यमात्रो यस्यान्तश्चिन्मात्रैकस्वरूपवान् ॥ ४॥
सर्वत्र पूर्णरूपात्मा सर्वत्रात्मावशेषकः ।
आनन्दरतिरव्यक्तः परिपूर्णश्चिदात्मकः ॥ ५॥
शुद्धचैतन्यरूपात्मा सर्वसङ्गविवर्जितः ।
नित्यानन्दः प्रसन्नात्मा ह्यन्यचिन्ताविवर्जितः ॥ ६
किञ्चिदस्तित्वहीनो यः स जीवन्मुक्त उच्यते ।
न मे चित्तं न मे बुद्धिर्नाहङ्कारो न चेन्द्रियम् ॥ ७॥
न मे देहः कदाचिद्वा न मे प्राणादयः क्वचित् ।
न मे माया न मे कामो न मे क्रोधः परोऽस्म्यहम् ॥ ८॥
न मे किञ्चिदिदं वापि न मे किञ्चित्क्वचिज्जगत् ।
न मे दोषो न मे लिङ्गं न मे चक्षुर्न मे मनः ॥ ९॥
न मे श्रोत्रं न मे नासा न मे जिह्वा न मे करः ।
न मे जाग्रन्न मे स्वप्नं न मे कारणमण्वपि ॥ १०॥
न मे तुरीयमिति यः स जीवन्मुक्त उच्यते ।
इदं सर्वं न मे किञ्चिदयं सर्वं न मे क्वचित् ॥ ११॥
न मे कालो न मे देशो न मे वस्तु न मे मतिः ।
न मे स्नानं न मे सन्ध्या न मे दैवं न मे स्थलम् ॥ १२॥
न मे तीर्थं न मे सेवा न मे ज्ञानं न मे पदम् ।
न मे बन्धो न मे जन्म न मे वाक्यं न मे रविः ॥ १३॥
न मे पुण्यं न मे पापं न मे कार्यं न मे शुभम् ।
ने मे जीव इति स्वात्मा न मे किञ्चिज्जगत्रयम् ॥ १४॥
न मे मोक्षो न मे द्वैतं न मे वेदो न मे विधिः ।
न मेऽन्तिकं न मे दूरं न मे बोधो न मे रहः ॥ १५॥
न मे गुरुर्न मे शिष्यो न मे हीनो न चाधिकः ।
न मे ब्रह्म न मे विष्णुर्न मे रुद्रो न चन्द्रमाः ॥ १६॥
न मे पृथ्वी न मे तोयं न मे वायुर्न मे वियत् ।
न मे वह्निर्न मे गोत्रं न मे लक्ष्यं न मे भवः ॥ १७॥
न मे ध्याता न मे ध्येयं न मे ध्यानं न मे मनुः ।
न मे शीतं न मे चोष्णं न मे तृष्णा न मे क्षुधा ॥ १८॥
न मे मित्रं न मे शत्रुर्न मे मोहो न मे जयः ।
न मे पूर्वं न मे पश्चान्न मे चोर्ध्वं न मे दिशः ॥ १९॥
न मे वक्तव्यमल्पं वा न मे श्रोतव्यमण्वपि ।
न मे गन्तव्यमीषद्वा न मे ध्यातव्यमण्वपि ॥ २०॥
न मे भोक्तव्यमीषद्वा न मे स्मर्तव्यमण्वपि ।
न मे भोगो न मे रागो न मे यागो न मे लयः ॥ २१॥
न मे मौर्ख्यं न मे शान्तं न मे बन्धो न मे प्रियम् ।
न मे मोदः प्रमोदो वा न मे स्थूलं न मे कृशम् ॥ २२॥
न मे दीर्घं न मे ह्रस्वं न मे वृद्धिर्न मे क्षयः ।
अध्यारोपोऽपवादो वा न मे चैकं न मे बहु ॥ २३॥
न मे आन्ध्यं न मे मान्द्यं न मे पट्विदमण्वपि ।
न मे मांसं न मे रक्तं न मे मेदो न मे ह्यसृक् ॥ २४॥
न मे मज्जा न मेऽस्थिर्वा न मे त्वग्धातु सप्तकम् ।
न मे शुक्लं न मे रक्तं न मे नीलं नमे पृथक् ॥ २५॥
न मे तापो न मे लाभो मुख्यं गौणं न मे क्वचित् ।
न मे भ्रान्तिर्न मे स्थैर्यं न मे गुह्यं न मे कुलम् ॥ २६॥
न मे त्याज्यं न मे ग्राह्यं न मे हास्यं न मे नयः ।
न मे वृत्तं न मे ग्लानिर्न मे शोष्यं न मे सुखम् ॥ २७॥
न मे ज्ञाता न मे ज्ञानं न मे ज्ञेयं न मे स्वयम् ।
न मे तुभ्यं नमे मह्यं न मे त्वं च न मे त्वहम् ॥ २८॥
न मे जरा न मे बाल्यं न मे यौवनमण्वपि ।
अहं ब्रह्मास्म्यहं ब्रह्मास्म्यहं ब्रह्मेति निश्चयः ॥ २९॥
चिदहं चिदहं चेति स जीवन्मुक्त उच्यते ।
ब्रह्मैवाहं चिदेवाहं परो वाहं न संशयः ॥ ३०॥
स्वयमेव स्वयं हंसः स्वयमेव स्वयं स्थितः ।
स्वयमेव स्वयं पश्येत्स्वात्मराज्ये सुखं वसेत् ॥ ३१॥
स्वात्मानन्दं स्वयं भोक्ष्येत्स जीवन्मुक्त उच्यते ।
स्वयमेवैकवीरोऽग्रे स्वयमेव प्रभुः स्मृतः ॥ ३२॥
ब्रह्मभूतः प्रशान्तात्मा ब्रह्मानन्दमयः सुखी ।
स्वच्छरूपो महामौनी वैदेही मुक्त एव सः ॥ ३३॥
सर्वात्मा समरूपात्मा शुद्धात्मा त्वहमुत्थितः ।
एकवर्जित एकात्मा सर्वात्मा स्वात्ममात्रकः ॥ ३४॥
अजात्मा चामृतात्माहं स्वयमात्माहमव्ययः ।
लक्ष्यात्मा ललितात्माहं तूष्णीमात्मस्वभाववान् ॥ ३५॥
आनन्दात्मा प्रियो ह्यात्मा मोक्षात्मा बन्धवर्जितः ।
ब्रह्मैवाहं चिदेवाहमेवं वापि न चिन्त्यते ॥ ३६॥
चिन्मात्रेणैव यस्तिष्ठेद्वैदेही मुक्त एव सः ॥ ३७॥
निश्चयं च परित्यज्य अहं ब्रह्मेति निश्चयम् ।
आनन्दभरितस्वान्तो वैदेही मुक्त एव सः ॥ ३८॥
सर्वमस्तीति नास्तीति निश्चयं त्यज्य तिष्ठति ।
अहं ब्रह्मास्मि नास्मीति सच्चिदानन्दमात्रकः ॥ ३९॥
किञ्चित्क्वचित्कदाचिच्च आत्मानं न स्पृशत्यसौ ।
तूष्णीमेव स्थितस्तूष्णीं तूष्णीं सत्यं न किञ्चन ॥ ४०॥
परमात्मा गुणातीतः सर्वात्मा भूतभावनः ।
कालभेदं वस्तुभेदं देशभेदं स्वभेदकम् ॥ ४१॥
किञ्चिद्भेदं न तस्यास्ति किञ्चिद्वापि न विद्यते ।
अहं त्वं तदिदं सोऽयं कालात्मा कालहीनकः ॥ ४२॥
शून्यात्मा सूक्ष्मरूपात्मा विश्वात्मा विश्वहीनकः ।
देवात्मादेवहीनात्मा मेयात्मा मेयवर्जितः ॥ ४३॥
सर्वत्र जडहीनात्मा सर्वेषामन्तरात्मकः ।
सर्वसङ्कल्पहीनात्मा चिन्मात्रोऽस्मीति सर्वदा ॥ ४४॥
केवलः परमात्माहं केवलो ज्ञानविग्रहः ।
सत्तामात्रस्वरूपात्मा नान्यत्किञ्चिज्जगद्भयम् ॥ ४५॥
जीवेश्वरेति वाक्क्वेति वेदशास्त्राद्यहं त्विति ।
इदं चैतन्यमेवेति अहं चैतन्यमित्यपि ॥ ४६॥
इति निश्चयशून्यो यो वैदेही मुक्त एव सः ।
चैतन्यमात्रसंसिद्धः स्वात्मारामः सुखासनः ॥ ४७॥
अपरिच्छिन्नरूपात्मा अणुस्थूलादिवर्जितः ।
तुर्यतुर्या परानन्दो वैदेही मुक्त एव सः ॥ ४८॥
नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः ।
तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः ॥ ४९॥
योगात्मा योगयुक्तात्मा बन्धमोक्षविवर्जितः ।
गुणागुणविहीनात्मा देशकालादिवर्जितः ॥ ५०॥
साक्ष्यसाक्षित्वहीनात्मा किञ्चित्किञ्चिन्न किञ्चन ।
यस्य प्रपञ्चमानं न ब्रह्माकारमपीह न ॥ ५१॥
स्वस्वरूपे स्वयञ्ज्योतिः स्वस्वरूपे स्वयंरतिः ।
वाचामगोचरानन्दो वाङ्मनोगोचरः स्वयम् ॥ ५२॥
अतीतातीतभावो यो वैदेही मुक्त एव सः ।
चित्तवृत्तेरतीतो यश्चित्तवृत्त्यवभासकः ॥ ५३॥
सर्ववृत्तिविहीनात्मा वैदेही मुक्त एव सः ।
तस्मिन्काले विदेहीति देहस्मरणवर्जितः ॥ ५४॥
ईषन्मात्रं स्मृतं चेद्यस्तदा सर्वसमन्वितः ।
परैरदृष्टबाह्यात्मा परमानन्दचिद्धनः ॥ ५५॥
परैरदृष्टबाह्यात्मा सर्ववेदान्तगोचरः ।
ब्रह्मामृतरसास्वादो ब्रह्मामृतरसायनः ॥ ५६॥
ब्रह्मामृतरसासक्तो ब्रह्मामृतरसः स्वयम् ।
ब्रह्मामृतरसे मग्नो ब्रह्मानन्दशिवार्चनः ॥ ५७॥
ब्रह्मामृतरसे तृप्तो ब्रह्मानन्दानुभावकः ।
ब्रह्मानन्दशिवानन्दो ब्रह्मानन्दरसप्रभः ॥ ५८॥
ब्रह्मानन्दपरं ज्योतिर्ब्रह्मानन्दनिरन्तरः ।
ब्रह्मानन्दरसान्नादो ब्रह्मानन्दकुटुम्बकः ॥ ५९॥
ब्रह्मानन्दरसारूढो ब्रह्मानन्दैकचिद्धनः ।
ब्रह्मानन्दरसोद्बाहो ब्रह्मानन्दरसम्भरः ॥ ६०॥
ब्रह्मानन्दजनैर्युक्तो ब्रह्मानन्दात्मनि स्थितः ।
आत्मरूपमिदं सर्वमात्मनोऽन्यन्न कञ्चन ॥ ६१॥
सर्वमात्माहमात्मास्मि परमात्मा परात्मकः ।
नित्यानन्द स्वरूपात्मा वैदेही मुक्त एव सः ॥ ६२॥
पूर्णरूपो महानात्मा प्रीतात्मा शाश्वतात्मकः ।
सर्वान्तर्यामिरूपात्मा निर्मलात्मा निरात्मकः ॥ ६३॥
निर्विकारस्वरूपात्मा शुद्धात्मा शान्तरूपकः ।
शान्ताशान्तस्वरूपात्मा नैकात्मत्वविवर्जितः ॥ ६४॥
जीवात्मपरमात्मेति चिन्तासर्वस्ववर्जितः ।
मुक्तामुक्तस्वरूपात्मा मुक्तामुक्तविवर्जितः ॥ ६५॥
बन्धमोक्षस्वरूपात्मा बन्धमोक्षविवर्जितः ।
द्वैताद्वैतस्वरूपात्मा द्वैताद्वैतविवर्जितः ॥ ६६॥
सर्वासर्वस्वरूपात्मा सर्वासर्वविवर्जितः ।
मोदप्रमोदरूपात्मा मोदादिविनिवर्जितः ॥ ६७॥
सर्वसङ्कल्पहीनात्मा वैदेही मुक्त एव सः ।
निष्कलात्मा निर्मलात्मा बुद्धात्मापुरुषात्मकः ॥ ६८॥
आनन्दादिविहीनात्मा अमृतात्मामृतात्मकः ।
कालत्रयस्वरूपात्मा कालत्रयविवर्जितः ॥ ६९॥
अखिलात्मा ह्यमेयात्मा मानात्मा मानवर्जितः ।
नित्यप्रत्यक्षरूपात्मा नित्यप्रत्यक्षनिर्णयः ॥ ७०॥
अन्यहीनस्वभावात्मा अन्यहीनस्वयम्प्रभः ।
विद्याविद्यादिमेयात्मा विद्याविद्यादिवर्जितः ॥ ७१॥
नित्यानित्यविहीनात्मा इहामुत्रविवर्जितः ।
शमादिषट्कशून्यात्मा मुमुक्षुत्वादिवर्जितः ॥ ७२॥
स्थूलदेहविहीनात्मा सूक्ष्मदेहविवर्जितः ।
कारणादिविहीनात्मा तुरीयादिविवर्जितः ॥ ७३॥
अन्नकोशविहीनात्मा प्राणकोशविवर्जितः ।
मनःकोशविहीनात्मा विज्ञानादिविवर्जितः ॥ ७४॥
आनन्दकोशहीनात्मा पञ्चकोशविवर्जितः ।
निर्विकल्पस्वरूपात्मा सविकल्पविवर्जितः ॥ ७५॥
दृश्यानुविद्धहीनात्मा शब्दविद्धविवर्जितः ।
सदा समाधिशून्यात्मा आदिमध्यान्तवर्जितः ॥ ७६॥
प्रज्ञानवाक्यहीनात्मा अहम्ब्रह्मास्मिवर्जितः ।
तत्त्वमस्यादिहीनात्मा अयमात्मेत्यभावकः ॥ ७७॥
ओङ्कारवाच्यहीनात्मा सर्ववाच्यविवर्जितः ।
अवस्थात्रयहीनात्मा अक्षरात्मा चिदात्मकः ॥ ७८॥
आत्मज्ञेयादिहीनात्मा यत्किञ्चिदिदमात्मकः ।
भानाभानविहीनात्मा वैदेही मुक्त एव सः ॥ ७९॥
आत्मानमेव वीक्षस्व आत्मानं बोधय स्वकम् ।
स्वमात्मानं स्वयं भुङ्क्ष्व स्वस्थो भव षडानन ॥ ८०॥
स्वमात्मनि स्वयं तृप्तः स्वमात्मानं स्वयं चर ।
आत्मानमेव मोदस्व वैदेही मुक्तिको भवेत्युपनिषत् ॥
इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
निदाघो नाम वै मुनिः पप्रच्छ ऋभुं
भगवन्तमात्मानात्मविवेकमनुब्रूहीति ।
स होवाच ऋभुः ।
सर्ववाचोऽवधिर्ब्रह्म सर्वचिन्तावधिर्गुरुः ।
सर्वकारणकार्यात्मा कार्यकारणवर्जितः ॥ १॥
सर्वसङ्कल्परहितः सर्वनादमयः शिवः ।
सर्ववर्जितचिन्मात्रः सर्वानन्दमयः परः ॥ २॥
सर्वतेजःप्रकाशात्मा नादानन्दमयात्मकः ।
सर्वानुभवनिर्मुक्तः सर्वध्यानविवर्जितः ॥ ३॥
सर्वनादकलातीत एष आत्माहमव्ययः ।
आत्मानात्मविवेकादिभेदाभेदविवर्जितः ॥ ४॥
शान्ताशान्तादिहीनात्मा नादान्तर्ज्योतिरूपकः ।
महावाक्यार्थतो दूरो ब्रह्मास्मीत्यतिदूरतः ॥ ५॥
तच्छब्दवर्ज्यस्त्वंशब्दहीनो वाक्यार्थवर्जितः ।
क्षराक्षरविहीनो यो नादान्तर्ज्योतिरेव सः ॥ ६॥
अखण्डैकरसो वाहमानन्दोऽस्मीति वर्जितः ।
सर्वातीतस्वभावात्मा नादान्तर्ज्योतिरेव सः ॥ ७॥
आत्मेति शब्दहीनो य आत्मशब्दार्थवर्जितः ।
सच्चिदानन्दहीनो य एषैवात्मा सनातनः ॥ ८॥
स निर्देष्टुमशक्यो यो वेदवाक्यैरगम्यतः ।
यस्य किञ्चिद्बहिर्नास्ति किञ्चिदन्तः कियन्न च ॥ ९॥
यस्य लिङ्गं प्रपञ्चं वा ब्रह्मैवात्मा न संशयः ।
नास्ति यस्य शरीरं वा जीवो वा भूतभौतिकः ॥ १०॥
नामरूपादिकं नास्ति भोज्यं वा भोगभुक्च वा ।
सद्वाऽसद्वा स्थितिर्वापि यस्य नास्ति क्षराक्षरम् ॥ ११॥
गुणं वा विगुणं वापि सम आत्मा न संशयः ।
यस्य वाच्यं वाचकं वा श्रवणं मननं च वा ॥ १२॥
गुरुशिष्यादिभेदं वा देवलोकाः सुरासुराः ।
यत्र धर्ममधर्मं वा शुद्धं वाशुद्धमण्वपि ॥ १३॥
यत्र कालमकालं वा निश्चयः संशयो न हि ।
यत्र मन्त्रममन्त्रं वा विद्याविद्ये न विद्यते ॥ १४॥
द्रष्टृदर्शनदृश्यं वा ईषन्मात्रं कलात्मकम् ।
अनात्मेति प्रसङ्गो वा ह्यनात्मेति मनोऽपि वा ॥ १५॥
अनात्मेति जगद्वापि नास्ति नास्ति निश्चिनु ।
सर्वसङ्कल्पशून्यत्वात्सर्वकार्यविवर्जनात् ॥ १६॥
केवलं ब्रह्ममात्रत्वान्नास्त्यनात्मेति निश्चिनु ।
देहत्रयविहीनत्वात्कालत्रयविवर्जनात् ॥ १७॥
जीवत्रयगुणाभावात्तापत्रयविवर्जनात् ।
लोकत्रयविहीनत्वात्सर्वमात्मेति शासनात् ॥ १८॥
चित्ताभाच्चिन्तनीयं देहाभावाज्जरा न च ।
पादाभावाद्गतिर्नास्ति हस्ताभावात्क्रिया न च ॥ १९॥
मृत्युर्नास्ति जनाभावाद्बुद्ध्यभावात्सुखादिकम् ।
धर्मो नास्ति शुचिर्नास्ति सत्यं नास्ति भयं न च ॥ २०॥
अक्षरोच्चारणं नास्ति गुरुशिष्यादि नास्त्यपि ।
एकाभावे द्वितीयं न न द्वितीये न चैकता ॥ २१॥
सत्यत्वमस्ति चेत्किञ्चिदसत्यं न च सम्भवेत् ।
असत्यत्वं यदि भवेत्सत्यत्वं न घटिष्यति ॥ २२॥
शुभं यद्यशुभं विद्धि अशुभाच्छुभमिष्यते ।
भयं यद्यभवं विद्धि अभयाद्भयमापतेत् ॥ २३॥
बन्धत्वमपि चेन्मोक्षो बन्धाभावे क्व मोक्षता ।
मरणं यदि चेज्जन्म जन्माभावे मृतिर्न च ॥ २४॥
त्वमित्यपि भवेच्चाहं त्वं नो चेदहमेव न ।
इदं यदि तदेवास्ति तदभादिदं न च ॥ २५॥
अस्तीति चेन्नास्ति तदा नास्ति चेदस्ति किञ्चन ।
कार्यं चेत्कारणं किञ्चित्कार्याभावे न कारणम् ॥ २६॥
द्वैतं यदि तदाऽद्वैतं द्वैताभावे द्वयं न च ।
दृश्यं यदि दृगप्यस्ति दृश्याभावे दृगेन न ॥ २७॥
अन्तर्यदि बहिः सत्यमन्ता भावे बहिर्न च ।
पूर्णत्वमस्ति चेत्किञ्चिदपूर्णत्वं प्रसज्यते ॥ २८॥
तस्मादेतत्क्वचिन्नास्ति त्वं चाहं वा इमे इदम् ।
नास्ति दृष्टान्तिकं सत्ये नास्ति दार्ष्टान्तिकं ह्यजे ॥ २९॥
परम्ब्रह्माहमस्मीति स्मरणस्य मनो न हि ।
ब्रह्ममात्रं जगदिदं ब्रह्ममात्रं त्वमप्यहम् ॥ ३०॥
चिन्मात्रं केवलं चाहं नास्त्यनात्म्येति निश्चिनु ।
इदं प्रपञ्चं नास्त्येव नोत्पन्नं नो स्थितं क्वचित् ॥ ३१॥
चित्तं प्रपञ्चमित्याहुर्नास्ति नास्त्येव सर्वदा ।
न प्रपञ्चं न चित्तादि नाहङ्कारो न जीवकः ॥ ३२॥
मायाकार्यादिकं नास्ति माया नास्ति भयं नहि ।
कर्ता नास्ति क्रिया नास्ति श्रवणं मननं नहि ॥ ३३॥
समाधिद्वितयं नास्ति मातृमानादि नास्ति हि ।
अज्ञानं चापि नास्त्येव ह्यविवेकं कदाचन ॥ ३४॥
अनुबन्धचतुष्कं न सम्बन्धत्रयमेव न ।
न गङ्गा न गया सेतुर्न भूतं नान्यदस्ति हि ॥ ३५॥
न भूमिर्न जलं नाग्निर्न न वायुर्न च खं क्वचित् ।
न देवा न च दिक्पाला न वेदा न गुरुः क्वचित् ॥ ३६॥
न दूरं नास्तिकं नालं न मध्यं न क्वचित्स्थितम् ।
नाद्वैतं द्वैतसत्यं वा ह्यसत्यं वा इदं न च ॥ ३७॥
बन्धमोक्षादिकं नास्ति सद्वाऽसद्वा सुखादि वा ।
जातिर्नास्ति गतिर्नास्ति वर्णो नास्ति न लौकिकम् ॥ ३८॥
सर्वं ब्रह्मेति नास्त्येव ब्रह्म इत्यपि नास्ति हि ।
चिदित्येवेति नास्त्येव चिदहम्भाषणं न हि ॥ ३९॥
अहं ब्रह्मास्मि नास्त्येव नित्यशुद्धोऽस्मि न क्वचित् ।
वाचा यदुच्यते किञ्चिन्मनसा मनुते क्वचित् ॥ ४०॥
बुद्ध्या निश्चिनुते नास्ति चित्तेन ज्ञायते नहि ।
योगी योगादिकं नास्ति सदा सर्वं सदा न च ॥ ४१॥
अहोरात्रादिकं नास्ति स्नानध्यानादिकं नहि ।
भ्रान्तिरभ्रान्तिर्नास्त्येव नास्त्यनात्मेति निश्चिनु ॥ ४२॥
वेदशास्त्रं पुराणं च कार्यं कारणमीश्वरः ।
लोको भूतं जनस्त्वैक्यं सर्वं मिथ्या न संशयः ॥ ४३॥
बन्धो मोक्षः सुखं दुःखं ध्यानं चित्तं सुरासुराः ।
गौणं मुख्यं परं चान्यत्सर्वं मिथ्या न संशयः ॥ ४४॥
वाचा वदति यत्किञ्चित्सङ्कल्पैः कल्प्यते च यत् ।
मनसा चिन्त्यते यद्यत्सर्वं मिथ्या न संशयः ॥ ४५॥
बुद्ध्या निश्चीयते किञ्चिच्चित्ते निश्चीयते क्वचित् ।
शास्त्रैः प्रपञ्च्यते यद्यन्नेत्रेणैव निरीक्ष्यते ॥ ४६॥
श्रोत्राभ्यां श्रूयते यद्यदन्यत्सद्भावमेव च ।
नेत्रं श्रोत्रं गात्रमेव मिथ्येति च सुनिश्चितम् ॥ ४७॥
इदमित्येव निर्दिष्टमयमित्येव कल्प्यते ।
त्वमहं तदिदं सोऽहमन्यत्सद्भावमेव च ॥ ४८॥
यद्यत्सम्भाव्यते लोके सर्वसङ्कल्पसम्भ्रमः ।
सर्वाध्यासं सर्वगोप्यं सर्वभोगप्रभेदकम् ॥ ४९॥
सर्वदोषप्रभेदाच्च नास्त्यनात्मेति निश्चिनु ।
मदीयं च त्वदीयं च ममेति च तवेति च ॥ ५०॥
मह्यं तुभ्यं मयेत्यादि तत्सर्वं वितथं भवेत् ।
रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्मा सृष्टेस्तु कारणम् ॥ ५१॥
संहारे रुद्र इत्येवं सर्वं मिथ्येति निश्चिनु ।
स्नानं जपस्तपो होमः स्वाध्यायो देवपूजनम् ॥ ५२॥
मन्त्रं तन्त्रं च सत्सङ्गो गुणदोषविजृम्भणम् ।
अन्तःकरणसद्भाव अविद्याश्च सम्भवः ॥ ५३॥
अनेककोटिब्रह्माण्डं सर्वं मिथ्येति निश्चिनु ।
सर्वदेशिकवाक्योक्तिर्येन केनापि निश्चितम् ॥ ५४॥
दृश्यते जगति यद्यद्यद्यज्जगति वीक्ष्यते ।
वर्तते जगति यद्यत्सर्वं मिथ्येति निश्चिनु ॥ ५५॥
येन केनाक्षरेणोक्तं येन केन विनिश्चितम् ।
येन केनापि गदितं येन केनापि मोदितम् ॥ ५६॥
येन केनापि यद्दत्तं येन केनापि यत्कृतम् ।
यत्र यत्र शुभं कर्म यत्र यत्र च दुष्कृतम् ॥ ५७॥
यद्यत्करोषि सत्येन सर्वं मिथ्येति निश्चिनु ।
त्वमेव परमात्मासि त्वमेव परमो गुरुः ॥ ५८॥
त्वमेवाकाशरूपोऽसि साक्षिहीनोऽसि सर्वदा ।
त्वमेव सर्वभावोऽसि त्वं ब्रह्मासि न संशयः ॥ ५९॥
कालहीनोऽसि कालोऽसि सदा ब्रह्मासि चिद्घनः ।
सर्वतः स्वस्वरूपोऽसि चैतन्यघनवानसि ॥ ६०॥
सत्योऽसि सिद्धोऽसि सनातनोऽसि
मुक्तोऽसि मोक्षोऽसि मुदामृतोऽसि ।
देवोऽसि शान्तोऽसि निरामयोऽसि
ब्रह्मासि पूर्णोऽसि परात्परोऽसि ॥ ६१॥
समोऽसि सच्चापि सनातनोऽसि
सत्यादिवाक्यैः प्रतिबोधितोऽसि ।
सर्वाङ्गहीनोऽसि सदा स्थितोऽसि
ब्रह्मेन्द्ररुद्रादिविभावितोऽसि ॥ ६२॥
सर्वप्रपञ्चभ्रमवर्जितोऽसि
सर्वेषु भूतेषु च भासितोऽसि ।
सर्वत्र सङ्कल्पविवर्जितोऽसि
सर्वागमान्तार्थविभावितोऽसि ॥ ६३॥
सर्वत्र सन्तोषसुखासनोऽसि
सर्वत्र गत्यादिविवर्जितोऽसि ।
सर्वत्र लक्ष्यादिविवर्जितोऽसि
ध्यातोऽसि विष्ण्वादिसुरैरजस्रम् ॥ ६४॥
चिदाकारस्वरूपोऽसि चिन्मात्रोऽसि निरङ्कुशः ।
आत्मन्येव स्थितोऽसि त्वं सर्वशून्योऽसि निर्गुणः ॥ ६५॥
आनन्दोऽसि परोऽसि त्वमेक एवाद्वितीयकः ।
चिद्घनानन्दरूपोऽसि परिपूर्णस्वरूपकः ॥ ६६॥
सदसि त्वमसि ज्ञोऽसि सोऽसि जानासि वीक्षसि ।
सच्चिदानन्दरूपोऽसि वासुदेवोऽसि वै प्रभुः ॥ ६७॥
अमृतोऽसि विभुश्चासि चञ्चलो ह्यचलो ह्यसि ।
सर्वोऽसि सर्वहीनोऽसि शान्ताशान्तविवर्जितः ॥ ६८॥
सत्तामात्रप्रकाशोऽसि सत्तासामान्यको ह्यसि ।
नित्यसिद्धिस्वरूपोऽसि सर्वसिद्धिविवर्जितः ॥ ६९॥
ईषन्मात्रविशून्योऽसि अणुमात्रविवर्जितः ।
अस्तित्ववर्जितोऽसि त्वं नास्तित्वादिविवर्जितः ॥ ७०॥
लक्ष्यलक्षणहीनोऽसि निर्विकारो निरामयः ।
सर्वनादान्तरोऽसि त्वं कलाकाष्ठाविवर्जितः ॥ ७१॥
ब्रह्मविष्ण्वीशहीनोऽसि स्वस्वरूपं प्रपश्यसि ।
स्वस्वरूपावशेषोऽसि स्वानन्दाब्धौ निमज्जसि ॥ ७२॥
स्वात्मराज्ये स्वमेवासि स्वयम्भावविवर्जितः ।
शिष्टपूर्णस्वरूपोऽसि स्वस्मात्किञ्चिन्न पश्यसि ॥ ७३॥
स्वस्वरूपान्न चलसि स्वस्वरूपेण जृम्भसि ।
स्वस्वरूपादनन्योऽसि ह्यहमेवासि निश्चिनु ॥ ७४॥
इदं प्रपञ्चं यत्किञ्चिद्यद्यज्जगति विद्यते ।
दृश्यरूपं च दृग्रूपं सर्वं शशविषाणवत् ॥ ७५॥
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कारश्च तेजश्च लोकं भुवनमण्डलम् ॥ ७६॥
नाशो जन्म च सत्यं च पुण्यपापजयादिकम् ।
रागः कामः क्रोधलोभौ ध्यानं ध्येयं गुणं परम् ॥ ७७॥
गुरुशिष्योपदेशादिरादिरन्तं शमं शुभम् ।
भूतं भव्यं वर्तमानं लक्ष्यं लक्षणमद्वयम् ॥ ७८॥
शमो विचारः सन्तोषो भोक्तृभोज्यादिरूपकम् ।
यमाद्यष्टाङ्गयोगं च गमनागमनात्मकम् ॥ ७९॥
आदिमध्यान्तरङ्गं च ग्राह्यं त्याज्यं हरिः शिवः ।
इन्द्रियाणि मनश्चैव अवस्थात्रितयं तथा ॥ ८०॥
चतुर्विंशतितत्त्वं च साधनानां चतुष्टयम् ।
सजातीयं विजातीयं लोका भूरादयः क्रमात् ॥ ८१॥
सर्ववर्णाश्रमाचारं मन्त्रतन्त्रादिसङ्ग्रहम् ।
विद्याविद्यादिरूपं च सर्ववेदं जडाजडम् ॥ ८२॥
बन्धमोक्षविभागं च ज्ञानविज्ञानरूपकम् ।
बोधाबोधस्वरूपं वा द्वैताद्वैतादिभाषणम् ॥ ८३॥
सर्ववेदान्तसिद्धान्तं सर्वशास्त्रार्थनिर्णयम् ।
अनेकजीवसद्भावमेकजीवादिनिर्णयम् ॥ ८४॥
यद्यद्ध्यायति चित्तेन यद्यत्सङ्कल्पते क्वचित् ।
बुद्ध्या निश्चीयते यद्यद्गुरुणा संशृणोति यत् ॥ ८५॥
यद्यद्वाचा व्याकरोति यद्यदाचार्यभाषणम् ।
यद्यत्स्वरेन्द्रियैर्भाव्यं यद्यन्मीमांसते पृथक् ॥ ८६॥
यद्यन्न्यायेन निर्णीतं महद्भिर्वेदपारगैः ।
शिवः क्षरति लोकान्वै विष्णुः पाति जगत्त्रयम् ॥ ८७॥
ब्रह्मा सृजति लोकान्वै एवमादिक्रियादिकम् ।
यद्यदस्ति पुराणेषु यद्यद्वेदेषु निर्णयम् ॥ ८८॥
सर्वोपनिषदां भावं सर्वं शशविषाणवत् ।
देहोऽहमिति सङ्कल्पं तदन्तःकरणं स्मृतम् ॥ ८९॥
देहोऽहमिति सङ्कल्पो महत्संसार उच्यते ।
देहोऽहमिति सङ्कल्पस्तद्बन्धमिति चोच्यते ॥ ९०॥
देहोऽहमिति सङ्कल्पस्तद्दुःखमिति चोच्यते ।
देहोऽहमिति यद्भानं तदेव नरकं स्मृतम् ॥ ९१॥
देहोऽहमिति सङ्कल्पो जगत्सर्वमितीर्यते ।
देहोऽहमिति सङ्कल्पो हृदयग्रन्थिरीरितिः ॥ ९२॥
देहोऽहमिति यज्ज्ञानं तदेवाज्ञानमुच्यते ।
देहोऽहमिति यज्ज्ञानं तदसद्भावमेव च ॥ ९३॥
देहोऽहमिति या बुद्धिः सा चाविद्येति भण्यते ।
देहोऽहमिति यज्ज्ञानं तदेव द्वैतमुच्यते ॥ ९४॥
देहोऽहमिति सङ्कल्पः सत्यजीवः स एव हि ।
देहोऽहमिति यज्ज्ञानं परिच्छिन्नमितीरितम् ॥ ९५॥
देहोऽहमिति सङ्कल्पो महापापमिति स्फुटम् ।
देहोऽहमिति या बुद्धिस्तृष्णा दोषामयः किल ॥ ९६॥
यत्किञ्चिदपि सङ्कल्पस्तापत्रयमितीरितम् ।
कामं क्रोधं बन्धनं सर्वदुःखं
विश्वं दोषं कालनानास्वरूपम् ।
यत्किञ्चेदं सर्वसङ्कल्पजालं
तत्किञ्चेदं मानसं सोम विद्धि ॥ ९७॥
मन एव जगत्सर्वं मन एव महारिपुः ।
मन एव हि संसारो मन एव जगत्त्रयम् ॥ ९८॥
मन एव महद्दुःखं मन एव जरादिकम् ।
मन एव हि कालश्च मन एव मलं तथा ॥ ९९॥
मन एव हि सङ्कल्पो मन एव हि जीवकः ।
मन एव हि चित्तं च मनोऽहङ्कार एव च ॥ १००॥
मन एव महद्बन्धं मनोऽन्तःकरणं च तत् ।
मन एव हि भूमिश्च मन एव हि तोयकम् ॥ १०१॥
मन एव हि तेजश्च मन एव मरुन्महान् ।
मन एव हि चाकाशं मन एव हि शब्दकम् ॥ १०२॥
स्पर्शं रूपं रसं गन्धं कोशाः पञ्च मनोभवाः ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि मनोमयरितीरितम् ॥ १०३॥
दिक्पाला वसवो रुद्रा आदित्याश्च मनोमयाः ।
दृश्यं जडं द्वन्द्वजातमज्ञानं मानसं स्मृतम् ॥ १०४॥
सङ्कल्पमेव यत्किञ्चित्तत्तन्नास्तीति निश्चिनु ।
नास्ति नास्ति जगत्सर्वं गुरुशिष्यादिकं नहीत्युपनिषत् ॥ १०५॥
इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
ऋभुः ॥ सर्वं सच्चिन्मयं विद्धि सर्वं सच्चिन्मयं ततम् ।
सच्चिदानन्दमद्वैतं सच्चिदानन्दमद्वयम् ॥ १॥
सच्चिदानन्दमात्रं हि सच्चिदानन्दमन्यकम् ।
सच्चिदानन्दरूपोऽहं सच्चिदानन्दमेव खम् ॥ २॥
सच्चिदानन्दमेव त्वं सच्चिदानन्दकोऽस्म्यहम् ।
मनोबुद्धिरहङ्कारचित्तसङ्घातका अमी ॥ ३॥
न त्वं नाहं न चान्यद्वा सर्वं ब्रह्मैव केवलम् ।
न वाक्यं न पदं वेदं नाक्षरं न जडं क्वचित् ॥ ४॥
न मध्यं नादि नान्तं वा न सत्यं न निबन्धजम् ।
न दुःखं न सुखं भावं न माया प्रकृतिस्तथा ॥ ५॥
न देहं न मुखं घ्राणं न जिह्वा न च तालुनी ।
न दन्तोष्ठौ ललाटं च निश्वासोच्छ्वास एव च ॥ ६॥
न स्वेदमस्थि मांसं च न रक्तं न च मूत्रकम् ।
न दूरं नान्तिकं नाङ्गं नोदरं न किरीटकम् ॥ ७॥
न हस्तपादचलनं न शास्त्रं न च शासनम् ।
न वेत्ता वेदनं वेद्यं न जाग्रत्स्वप्नसुप्तयः ॥ ८॥
तुर्यातीतं न मे किञ्चित्सर्वं सच्चिन्मयं ततम् ।
नाध्यात्मिकं नाधिभूतं नाधिदैवं न मायिकम् ॥ ९॥
न विश्वतैजसः प्राज्ञो विराट्सूत्रात्मकेश्वरः ।
न गमागमचेष्टा च न नष्टं न प्रयोजनम् ॥ १०॥
त्याज्यं ग्राह्यं न दूष्यं वा ह्यमेध्यामेध्यकं तथा ।
न पीनं न कृशं क्लेदं न कालं देशभाषणम् ॥ ११॥
न सर्वं न भयं द्वैतं न वृक्षतृणपर्वताः ।
न ध्यानं योगसंसिद्धिर्न ब्रह्मवैश्यक्षत्रकम् ॥ १२॥
न पक्षी न मृगो नाङ्गी न लोभो मोह एव च ।
न मदो न च मात्सर्यं कामक्रोधादयस्तथा ॥ १३॥
न स्त्रीशूद्रबिडालादि भक्ष्यभोज्यादिकं च यत् ।
न प्रौढहीनो नास्तिक्यं न वार्तावसरोऽति हि ॥ १४॥
न लौकिको न लोको वा न व्यापारो न मूढता ।
न भोक्ता भोजनं भोज्यं न पात्रं पानपेयकम् ॥ १५॥
न शत्रुमित्रपुत्रादिर्न माता न पिता स्वसा ।
न जन्म न मृतिर्वृद्धिर्न देहोऽहमिति भ्रमः ॥ १६॥
न शून्यं नापि चाशून्यं नान्तःकरणसंसृतिः ।
न रात्रिर्न दिवा नक्तं न ब्रह्मा न हरिः शिवः ॥ १७॥
न वारपक्षमासादि वत्सरं न च चञ्चलम् ।
न ब्रह्मलोको वैकुण्ठो न कैलासो न चान्यकः ॥ १८॥
न स्वर्गो न च देवेन्द्रो नाग्निलोको न चाग्निकः ।
न यमो यमलोको वा न लोका लोकपालकाः ॥ १९॥
न भूर्भुवःस्वस्त्रैलोक्यं न पातालं न भूतलम् ।
नाविद्या न च विद्या च न माया प्रकृतिर्जडा ॥ २०॥
न स्थिरं क्षणिकं नाशं न गतिर्न च धावनम् ।
न ध्यातव्यं न मे ध्यानं न मन्त्रो न जपः क्वचित् ॥ २१॥
न पदार्था न पूजार्हं नाभिषेको न चार्चनम् ।
न पुष्पं न फलं पत्रं गन्धपुष्पादिधूपकम् ॥ २२॥
न स्तोत्रं न नमस्कारो न प्रदक्षिणमण्वपि ।
न प्रार्थना पृथग्भावो न हविर्नाग्निवन्दनम् ॥ २३॥
न होमो न च कर्माणि न दुर्वाक्यं सुभाषणम् ।
न गायत्री न वा सन्धिर्न मनस्यं न दुःस्थितिः ॥ २४॥
न दुराशा न दुष्टात्मा न चाण्डालो न पौल्कसः ।
न दुःसहं दुरालापं न किरातो न कैतवम् ॥ २५॥
न पक्षपातं न पक्षं वा न विभूषणतस्करौ ।
न च दम्भो दाम्भिको वा न हीनो नाधिको नरः ॥ २६॥
नैकं द्वयं त्रयं तुर्यं न महत्वं न चाल्पता ।
न पूर्णं न परिच्छिन्नं न काशी न व्रतं तपः ॥ २७॥
न गोत्रं न कुलं सूत्रं न विभुत्वं न शून्यता ।
न स्त्री न योषिन्नो वृद्धा न कन्या न वितन्तुता ॥ २८॥
न सूतकं न जातं वा नान्तर्मुखसुविभ्रमः ।
न महावाक्यमैक्यं वा नाणिमादिविभूतयः ॥ २९॥
सर्वचैतन्यमात्रत्वात्सर्वदोषः सदा न हि ।
सर्वं सन्मात्ररूपत्वात्सच्चिदानन्दमात्रकम् ॥ ३०॥
ब्रह्मैव सर्वं नान्योऽस्ति तदहं तदहं तथा ।
तदेवाहं तदेवाहं ब्रह्मैवाहं सनातनम् ॥ ३१॥
ब्रह्मैवाहं न संसारी ब्रह्मैवाहं न मे मनः ।
ब्रह्मैवाहं न मे बुद्धिर्ब्रह्मैवाहं न चेन्द्रियः ॥ ३२॥
ब्रह्मैवाहं न देहोऽहं ब्रह्मैवाहं न गोचरः ।
ब्रह्मैवाहं न जीवोऽहं ब्रह्मैवाहं न भेदभूः ॥ ३३॥
ब्रह्मैवाहं जडो नाहमहं ब्रह्म न मे मृतिः ।
ब्रह्मैवाहं न च प्राणो ब्रह्मैवाहं परात्परः ॥ ३४॥
इदं ब्रह्म परं ब्रह्म सत्यं ब्रह्म प्रभुर्हि सः ।
कालो ब्रह्म कला ब्रह्म सुखं ब्रह्म स्वयम्प्रभम् ॥ ३५॥
एकं ब्रह्म द्वयं ब्रह्म मोहो ब्रह्म शमादिकम् ।
दोषो ब्रह्म गुणो ब्रह्म दमः शान्तं विभुः प्रभुः ॥ ३६॥
लोको ब्रह्म गुरुर्ब्रह्म शिष्यो ब्रह्म सदाशिवः ।
पूर्वं ब्रह्म परं ब्रह्म शुद्धं ब्रह्म शुभाशुभम् ॥ ३७॥
जीव एव सदा ब्रह्म सच्चिदानन्दमस्म्यहम् ।
सर्वं ब्रह्ममयं प्रोक्तं सर्वं ब्रह्ममयं जगत् ॥ ३८॥
स्वयं ब्रह्म न सन्देहः स्वस्मादन्यन्न किञ्चन ।
सर्वमात्मैव शुद्धात्मा सर्वं चिन्मात्रमद्वयम् ॥ ३९॥
नित्यनिर्मलरूपात्मा ह्यात्मनोऽन्यन्न किञ्चन ।
अणुमात्रलसद्रूपमणुमात्रमिदं जगत् ॥ ४०॥
अणुमात्रं शरीरं वा ह्यणुमात्रमसत्यकम् ।
अणुमात्रमचिन्त्यं वा चिन्त्यं वा ह्यणुमात्रकम् ॥ ४१॥
ब्रह्मैव सर्वं चिन्मात्रं ब्रह्ममात्रं जगत्त्रयम् ।
आनन्दं परमानन्दमन्यत्किञ्चिन्न किञ्चन ॥ ४२॥
चैतन्यमात्रमोङ्कारं ब्रह्मैव सकलं स्वयम् ।
अहमेव जगत्सर्वमहमेव परं पदम् ॥ ४३॥
अहमेव गुणातीत अहमेव परात्परः ।
अहमेव परं ब्रह्म अहमेव गुरोर्गुरुः ॥ ४४॥
अहमेवाखिलाधार अहमेव सुखात्सुखम् ।
आत्मनोऽन्यज्जगन्नास्ति आत्मनोऽन्यत्सुखं न च ॥ ४५॥
आत्मनोऽन्या गतिर्नास्ति सर्वमात्ममयं जगत् ।
आत्मनोऽन्यन्नहि क्वापि आत्मनोऽन्यत्तृणं नहि ॥ ४६॥
आत्मनोऽन्यत्तुषं नास्ति सर्वमात्ममयं जगत् ।
ब्रह्ममात्रमिदं सर्वं ब्रह्ममात्रमसन्न हि ॥ ४७॥
ब्रह्ममात्रं श्रुतं सर्वं स्वयं ब्रह्मैव केवलम् ।
ब्रह्ममात्रं वृतं सर्वं ब्रह्ममात्रं रसं सुखम् ॥ ४८॥
ब्रह्ममात्रं चिदाकाशं सच्चिदानन्दमव्ययम् ।
ब्रह्मणोऽन्यतरन्नास्ति ब्रह्मणोऽन्यज्जगन्न च ॥ ४९॥
ब्रह्मणोऽन्यदह नास्ति ब्रह्मणोऽन्यत्फलं नहि ।
ब्रह्मणोऽन्यत्तृणं नास्ति ब्रह्मणोऽन्यत्पदं नहि ॥ ५०॥
ब्रह्मणोऽन्यद्गुरुर्नास्ति ब्रह्मणोऽन्यमसद्वपुः ।
ब्रह्मणोऽन्यन्न चाहन्ता त्वत्तेदन्ते नहि क्वचित् ॥ ५१॥
स्वयं ब्रह्मात्मकं विद्धि स्वस्मादन्यन्न किञ्चन ।
यत्किञ्चिद्दृश्यते लोके यत्किञ्चिद्भाष्यते जनैः ॥ ५२॥
यत्किञ्चिद्भुज्यते क्वापि तत्सर्वमसदेव हि ।
कर्तृभेदं क्रियाभेदं गुणभेदं रसादिकम् ॥ ५३॥
लिङ्गभेदमिदं सर्वमसदेव सदा सुखम् ।
कालभेदं देशभेदं वस्तुभेदं जयाजयम् ॥ ५४॥
यद्यद्भेदं च तत्सर्वमसदेव हि केवलम् ।
असदन्तःकरणकमसदेवेन्द्रियादिकम् ॥ ५५॥
असत्प्राणादिकं सर्वं सङ्घातमसदात्मकम् ।
असत्यं पञ्चकोशाख्यमसत्यं पञ्च देवताः ॥ ५६॥
असत्यं षड्विकारादि असत्यमरिवर्गकम् ।
असत्यं षडृतुश्चैव असत्यं षड्रसस्तथा ॥ ५७॥
सच्चिदानन्दमात्रोऽहमनुत्पन्नमिदं जगत् ।
आत्मैवाहं परं सत्यं नान्याः संसारदृष्टयः ॥ ५८॥
सत्यमानन्दरूपोऽहं चिद्घनानन्दविग्रहः ।
अहमेव परानन्द अहमेव परात्परः ॥ ५९॥
ज्ञानाकारमिदं सर्वं ज्ञानानन्दोऽहमद्वयः ।
सर्वप्रकाशरूपोऽहं सर्वाभावस्वरूपकम् ॥ ६०॥
अहमेव सदा भामीत्येवं रूपं कुतोऽप्यसत् ।
त्वमित्येवं परं ब्रह्म चिन्मयानन्दरूपवान् ॥ ६१॥
चिदाकारं चिदाकाशं चिदेव परमं सुखम् ।
आत्मैवाहमसन्नाहं कूटस्थोऽहं गुरुः परः ॥ ६२॥
सच्चिदानन्दमात्रोऽहमनुत्पन्नमिदं जगत् ।
कालो नास्ति जगन्नास्ति मायाप्रकृतिरेव न ॥ ६३॥
अहमेव हरिः साक्षादहमेव सदाशिवः ।
शुद्धचैतन्यभावोऽहं शुद्धसत्त्वानुभावनः ॥ ६४॥
अद्वयानन्दमात्रोऽहं चिद्घनैकरसोऽस्म्यहम् ।
सर्वं ब्रह्मैव सततं सर्वं ब्रह्मैव केवलम् ॥ ६५॥
सर्वं ब्रह्मैव सततं सर्वं ब्रह्मैव चेतनम् ।
सर्वान्तर्यामिरूपोऽहं सर्वसाक्षित्वलक्षणः ॥ ६६॥
परमात्मा परं ज्योतिः परं धाम परा गतिः ।
सर्ववेदान्तसारोऽहं सर्वशास्त्रसुनिश्चितः ॥ ६७॥
योगानन्दस्वरूपोऽहं मुख्यानन्दमहोदयः ।
सर्वज्ञानप्रकाशोऽस्मि मुख्यविज्ञानविग्रहः ॥ ६८॥
तुर्यातुर्यप्रकाशोऽस्मि तुर्यातुर्यादिवर्जितः ।
चिदक्ष्रोऽन् सत्योऽहं वासुदवोऽजररोऽमरः ॥ ६९॥
अहं ब्रह्म चिदाकाशं नित्यं ब्रह्म निरञ्जनम् ।
शुद्धं बुद्धं सदामुक्तमनामकमरूपकम् ॥ ७०॥
सच्चिदानन्दरूपोऽहमनुन्त्पन्नमिदं जगत् ।
सत्यासत्यं जगन्नास्ति सङ्कल्पकलनादिकम् ॥ ७१॥
नित्यानन्दमयं ब्रह्म केवलं सर्वदा स्वयम् ।
अनन्तमव्ययं शान्तमेकरूपमनामयम् ॥ ७२॥
मत्तोऽन्यदस्ति चेन्मिथ्या यथा मरुमरीचिका ।
वन्ध्याकुमारवचने भीतिश्चेदस्ति किञ्चन ॥ ७३॥
शशशृङ्गेण नागेन्द्रो मृतश्चेज्जगदस्ति तत् ।
मृगतृष्णाजलं पीत्वा तृप्तश्चेदस्त्विदं जगत् ॥ ७४॥
नरशृङ्गेण नष्टश्चेत्कश्चिदस्त्विदमेव हि ।
गन्धर्वनगरे सत्ये जगद्भवति सर्वदा ॥ ७५॥
गगने नीलिमासत्ये जगत्सत्यं भविष्यति ।
शुक्तिकारजतं सत्यं भूषणं चेज्जगद्भवेत् ॥ ७६॥
रज्जुसर्पेण दष्टश्चेन्नरो भवतु संसृतिः ।
जातरूपेण बाणेन ज्वालाग्नौ नाशिते जगत् ॥ ७७॥
विन्ध्याटव्यां पायसान्नमस्ति चेज्जगदुद्भवः ।
रम्भास्तम्भेन काष्ठेन पाकसिद्धौ जगद्भवेत् ॥ ७८॥
सद्यः कुमारिकरूपैः पाके सिद्धे जगद्भवेत् ।
चित्रस्थदीपैस्तमसो नाशश्चेदस्त्विदं जगत् ॥ ७९॥
मासात्पूर्वं मृतो मर्त्यो ह्यागतश्चेज्जगद्भवेत् ।
तक्रं क्षीरस्वरूपं चेत्क्वचिन्नित्यं जगद्भवेत् ॥ ८०॥
गोस्तनादुद्भवं क्षीरं पुनरारोपणे जगत् ।
भूरजोऽब्धौ समुत्पन्ने जगद्भवतु सर्वदा ॥ ८१॥
कूर्मरोम्णा गजे बद्धे जगदस्तु मदोत्कटे ।
नालस्थतन्तुना मेरुश्चालितश्चेज्जगद्भवेत् ॥ ८२॥
तरङ्गमालया सिन्धुर्बद्धश्चेदस्त्विदं जगत् ।
अग्नेरधश्चेज्ज्वलनं जगद्भवतु सर्वदा ॥ ८३॥
ज्वालावह्निः शीतलश्चेदस्तिरूपमिदं जगत् ।
ज्वालाग्निमण्डले पद्मवृद्धिश्चेज्जगदस्त्विदम् ॥ ८४॥
महच्छैलेन्द्रनीलं वा सम्भवच्चेदिदं जगत् ।
मेरुरागत्य पद्माक्षे स्थितश्चेदस्त्विदं जगत् ॥ ८५॥
निगिरेच्चेद्भृङ्गसूनुर्मेरुं चलवदस्त्विदम् ।
मशकेन हते सिंहे जगत्सत्यं तदास्तु ते ॥ ८६॥
अणुकोटरविस्तीर्णे त्रैलोक्यं चेज्जगद्भवेत् ।
तृणानलश्च नित्यश्चेत्क्षणिकं तज्जगद्भवेत् ॥ ८७॥
स्वप्नदृष्टं च यद्वस्तु जागरे चेज्जगद्भवः ।
नदीवेगो निश्चलश्चेत्केनापीदं भवेज्जगत् ॥ ८८॥
क्षुधितस्याग्निर्भोज्यश्चेन्निमिषं कल्पितं भवेत् ।
जात्यन्धै रत्नविषयः सुज्ञातश्चेज्जगत्सदा ॥ ८९॥
नपुंसककुमारस्य स्त्रीसुखं चेद्भवज्जगत् ।
निर्मितः शशशृङ्गेण रथश्चेज्जगदस्ति तत् ॥ ९०॥
सद्योजाता तु या कन्या भोगयोग्या भवेज्जगत् ।
वन्ध्या गर्भाप्ततत्सौख्यं ज्ञाता चेदस्त्विदं जगत् ॥ ९१॥
काको वा हंसवद्गच्छेज्जगद्भवतु निश्चलम् ।
महाखरो वा सिंहेन युध्यते चेज्जगत्स्थितिः ॥ ९२॥
महाखरो गजगतिं गतश्चेज्जगदस्तु तत् ।
सम्पूर्णचन्द्रसूर्यश्चेज्जगद्भातु स्वयं जडम् ॥ ९३॥
चन्द्रसूर्यादिकौ त्यक्त्वा राहुश्चेद्दृश्यते जगत् ।
भृष्टबीजसमुत्पन्नवृद्धिश्चेज्जगदस्तु सत् ॥ ९४॥
दरिद्रो धनिकानां च सुखं भुङ्क्ते तदा जगत् ।
शुना वीर्येण सिंहस्तु जितो यदि जगत्तदा ॥ ९५॥
ज्ञानिनो हृदयं मूढैर्ज्ञातं चेत्कल्पनं तदा ।
श्वानेन सागरे पीते निःशेषेण मनो भवेत् ॥ ९६॥
शुद्धाकाशो मनुष्येषु पतितश्चेत्तदा जगत् ।
भूमौ वा पतितं व्योम व्योमपुष्पं सुगन्धकम् ॥ ९७॥
शुद्धाकाशे वने जाते चलिते तु तदा जगत् ।
केवले दर्पणे नास्ति प्रतिबिम्बं तदा जगत् ॥ ९८॥
अजकुक्षौ जगन्नास्ति ह्यात्मकुक्षौ जगन्नहि ।
सर्वथा भेदकलनं द्वैताद्वैतं न विद्यते ॥ ९९॥
मायाकार्यमिदं भेदमस्ति चेद्ब्रह्मभावनम् ।
देहोऽहमिति दुःखं चेद्ब्रह्माहमिति निश्चयः ॥ १००॥
हृदयग्रन्थिरस्तित्वे छिद्यते ब्रह्मचक्रकम् ।
संशये समनुप्राप्ते ब्रह्मनिश्चयमाश्रयेत् ॥ १०१॥
अनात्मरूपचोरश्चेदात्मरत्नस्य रक्षणम् ।
नित्यानन्दमयं ब्रह्म केवलं सर्वदा स्वयम् ॥ १०२॥
एवमादिसुदृष्टान्तैः साधितं ब्रह्ममात्रकम् ।
ब्रह्मैव सर्वभवनं भुवनं नाम सन्त्यज ॥ १०३॥
अहं ब्रह्मेति निश्चित्य अहम्भावं परित्यज ।
सर्वमेव लयं याति सुप्तहस्तस्थपुष्पवत् ॥ १०४॥
न देहो न च कर्माणि सर्वं ब्रह्मैव केवलम् ।
न भूतं न च कार्यं च न चावस्थाचतुष्टयम् ॥ १०५॥
लक्षणात्रयविज्ञानं सर्वं ब्रह्मैव केवलम् ।
सर्वव्यापारमुत्सृज्य ह्यहं ब्रह्मेति भावय ॥ १०६॥
अहं ब्रह्म न सन्देहो ह्यहं ब्रह्म चिदात्मकम् ।
सच्चिदानन्दमात्रोऽहमिति निश्चित्य तत्त्यज ॥ १०७॥
शाङ्करीयं महाशास्त्रं न देयं यस्य कस्यचित् ।
नास्तिकाय कृतघ्नाय दुर्वृत्ताय दुरात्मने ॥ १०८॥
गुरुभक्तिविशुद्धान्तःकरणाय महात्मने ।
सम्यक्परीक्ष्य दातव्यं मासं षाण्मासवत्सरम् ॥ १०९॥
सर्वोपनिषदभ्यासं दूरतस्त्यज्य सादरम् ।
तेजोबिन्दूपनिषदमभ्यसेत्सर्वदा मुदा ॥ ११०॥
सकृदभ्यासमात्रेण ब्रह्मैव भवति स्वयम् ।
ब्रह्मैव भवति स्वयमित्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥
सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
इति तेजोबिन्दूपनिषत्समाप्ता ॥
॥ तैत्तिरीयोपनिषत् ॥
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः । हरिः ॐ ।
प्रथमा शीक्षावल्ली
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा ।
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः ।
नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।
अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ १॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
शिक्षाशास्त्रार्थसङ्ग्रहः
ॐ शीक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः स्वरः । मात्रा बलम् ।
साम सन्तानः । इत्युक्तः शीक्षाध्यायः ॥ १॥
इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
संहितोपासनम्
सह नौ यशः । सह नौ ब्रह्मवर्चसम् ।
अथातः सꣳहिताया उपनिषदम् व्याख्यास्यामः ।
पञ्चस्वधिकरणेषु ।
अधिलोकमधिज्यौतिषमधिविद्यमधिप्रजमध्यात्मम् ।
ता महासꣳहिता इत्याचक्षते । अथाधिलोकम् ।
पृथिवी पूर्वरूपम् । द्यौरुत्तररूपम् ।
आकाशः सन्धिः ॥ १॥
वायुः सन्धानम् । इत्यधिलोकम् । अथाधिजौतिषम् ।
अग्निः पूर्वरूपम् । आदित्य उत्तररूपम् । आपः सन्धिः ।
वैद्युतः सन्धानम् । इत्यधिज्यौतिषम् । अथाधिविद्यम् ।
आचार्यः पूर्वरूपम् ॥ २॥
अन्तेवास्युत्तररूपम् । विद्या सन्धिः ।
प्रवचनꣳसन्धानम् ।
इत्यधिविद्यम् । अथाधिप्रजम् । माता पूर्वरूपम् ।
पितोत्तररूपम् । प्रजा सन्धिः । प्रजननꣳसन्धानम् ।
इत्यधिप्रजम् ॥ ३॥
अथाध्यात्मम् । अधराहनुः पूर्वरूपम् ।
उत्तराहनूत्तररूपम् । वाक्सन्धिः । जिह्वासन्धानम् ।
इत्यध्यात्मम् । इतीमामहासꣳहिताः ।
य एवमेता महासꣳहिता व्याख्याता वे`द ।
सन्धीयते प्रजया पशुभिः ।
ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन सुवर्ग्येण लोकेन ॥ ४॥
इति तृतीयोऽनुवाकः ॥
मेधादिसिद्ध्यर्था आवहन्तीहोममन्त्राः
यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः ।
छन्दोभ्योऽध्यमृतात्सम्बभूव ।
स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु ।
अमृतस्य देव धारणो भूयासम् ।
शरीरं मे विचर्षणम् । जिह्वा मे मधुमत्तमा ।
कर्णाभ्यां भूरिविश्रुवम् ।
ब्रह्मणः कोशोऽसि मेधया पिहितः ।
श्रुतं मे गोपाय । आवहन्ती वितन्वाना ॥ १॥
कुर्वाणाऽचीरमात्मनः । वासाꣳसि मम गावश्च ।
अन्नपाने च सर्वदा । ततो मे श्रियमावह ।
लोमशां पशुभिः सह स्वाहा ।
आमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
विमाऽऽयन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
प्रमाऽऽयन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
दमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ।
शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ॥ २॥
यशो जनेऽसानि स्वाहा । श्रेयान् वस्यसोऽसानि स्वाहा ।
तं त्वा भग प्रविशानि स्वाहा ।
स मा भग प्रविश स्वाहा ।
तस्मिन् सहस्रशाखे । निभगाऽहं त्वयि मृजे स्वाहा ।
यथाऽऽपः प्रवताऽऽयन्ति । यथा मासा अहर्जरम् ।
एवं मां ब्रह्मचारिणः । धातरायन्तु सर्वतः स्वाहा ।
प्रतिवेशोऽसि प्रमाभाहि प्रमापद्यस्व ॥ ३॥
इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
व्याहृत्युपासनम्
भूर्भुवः सुवरिति वा एतास्तिस्रो व्याहृतयः ।
तासामुहस्मै तां चतुर्थीम् । माहाचमस्यः प्रवेदयते ।
मह इति । तद्ब्रह्म । स आत्मा । अङ्गान्यन्या देवताः ।
भूरिति वा अयं लोकः । भुव इत्यन्तरिक्षम् ।
सुवरित्यसौ लोकः ॥ १॥
मह इत्यादित्यः । आदित्येन वाव सर्वेलोक महीयन्ते ।
भूरिति वा अग्निः । भुव इति वायुः । सुवरित्यादित्यः ।
मह इति चन्द्रमाः । चन्द्रमसा वाव
सर्वाणि ज्योतीꣳषि महीयन्ते । भूरिति वा ऋचः ।
भुव इति सामानि ।
सुवरिति यजूꣳषि ॥ २॥
मह इति ब्रह्म । ब्रह्मणा वाव सर्वेवेदा महीयन्ते ।
भूरिति वै प्राणः । भुव इत्यपानः । सुवरिति व्यानः ।
मह इत्यन्नम् । अन्नेन वाव सर्वे प्राण महीयन्ते ।
ता वा एताश्चतस्रश्चतुर्ध । चतस्रश्चतस्रो व्याहृतयः ।
ता यो वेद ।
स वेद ब्रह्म । सर्वेऽस्मैदेवा बलिमावहन्ति ॥ ३॥
इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
मनोमयत्वादिगुणकब्रह्मोपासनया स्वाराज्यसिद्धिः
स य एषोऽन्तहृदय आकाशः ।
तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः । अमृतो हिरण्मयः ।
अन्तरेण तालुके । य एषस्तन इवावलम्बते । सेन्द्रयोनिः ।
यत्रासौ केशान्तो विवर्तते । व्यपोह्य शीर्षकपाले ।
भूरित्यग्नौ प्रतितिष्ठति । भुव इति वायौ ॥ १॥
सुवरित्यादित्ये । मह इति ब्रह्मणि । आप्नोति स्वाराज्यम् ।
आप्नोति मनसस्पतिम् । वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः ।
श्रोत्रपतिर्विज्ञानपतिः । एतत्ततो भवति ।
आकाशशरीरं ब्रह्म ।
सत्यात्म प्राणारामं मन आनन्दम् ।
शान्तिसमृद्धममृतम् ।
इति प्राचीन योग्योपास्व ॥ २॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥
पृथिव्याद्युपाधिकपञ्चब्रह्मोपासनम्
पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशोऽवान्तरदिशाः ।
अग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्रमा नक्षत्राणि ।
आप ओषधयो वनस्पतय आकाश आत्मा । इत्यधिभूतम् ।
अथाध्यात्मम् । प्राणो व्यानोऽपान उदानः समानः ।
चक्षुः श्रोत्रं मनो वाक् त्वक् ।
चर्ममाꣳस स्नावास्थि मज्जा ।
एतदधिविधाय ऋषिरवोचत् ।
पाङ्क्तं वा इदꣳसर्वम् ।
पाङ्क्तेनैव पाङ्क्तग् स्पृणोतीति ॥ १॥ इति सप्तमोऽनुवाकः ॥
प्रणवोपासनम्
ओमिति ब्रह्म । ओमितीदꣳसर्वम् ।
ओमित्येतदनुकृतिर्हस्म वा अप्योश्रावयेत्याश्रावयन्ति ।
ओमिति सामानि गायन्ति । ॐꣳशोमिति शस्त्राणि शꣳसन्ति ।
ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति ।
ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । ओमित्यग्निहोत्रमनुजानाति ।
ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति ।
ब्रह्मैवोपाप्नोति ॥ १॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः ॥
स्वाध्यायप्रशंसा
ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च ।
सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च ।
तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च ।
अतिथयश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च ।
प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च ।
प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च ।
सत्यमिति सत्यवचा राथी तरः ।
तप इति तपोनित्यः पौरुशिष्टिः ।
स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः ।
तद्धि तपस्तद्धि तपः ॥ १॥ इति नवमोऽनुवाकः ॥
ब्रह्मज्ञ्यानप्रकाशकमन्त्रः
अहं वृक्षस्य रेरिवा । कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव ।
ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि ।
द्रविणꣳसवर्चसम् । सुमेध अमृतोक्षितः ।
इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् ॥ १॥ इति दशमोऽनुवाकः ॥
शिष्यानुशासनम्
वेदमनूच्याचार्योन्तेवासिनमनुशास्ति ।
सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः ।
आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः ।
सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् ।
कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् ।
स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ॥ १॥
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव ।
पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव ।
यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि ।
यान्यस्माकꣳसुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ॥ २॥
नो इतराणि । ये के चारुमच्छ्रेयाꣳसो ब्राह्मणाः ।
तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम् । श्रद्धया देयम् ।
अश्रद्धयाऽदेयम् । श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् ।
भिया देयम् । संविदा देयम् ।
अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात् ॥ ३॥
ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः ।
अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तत्र वर्तेरन् ।
तथा तत्र वर्तेथाः । अथाभ्याख्यातेषु ।
ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः ।
अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तेषु वर्तेरन् ।
तथा तेषु वर्तेथाः । एष आदेशः । एष उपदेशः ।
एषा वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम् ।
एवमु चैतदुपास्यम् ॥ ४॥ इत्येकादशऽनुवाकः ॥
उत्तरशान्तिपाठः
शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा ।
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः ।
नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम् । ऋतमवादिषम् ।
सत्यमवादिषम् । तन्मामावीत् । तद्वक्तारमावीत् ।
आवीन्माम् । आवीद्वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ १॥ इति द्वादशोऽनुवाकः ॥
॥ इति शीक्षावल्ली समाप्ता ॥
द्वितीया ब्रह्मानन्दवल्ली
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
उपनिषत्सारसङ्ग्रहः
ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम् । तदेषाऽभुक्ता ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।
यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् ।
सोऽश्नुते सर्वान् कामान्सह । ब्रह्मणा विपश्चितेति ॥
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः ।
वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी ।
पृथिव्या ओषधयः । ओषधीभ्योन्नम् । अन्नात्पुरुषः ।
स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः । तस्येदमेव शिरः ।
अयं दक्षिणः पक्षः । अयमुत्तरः पक्षः ।
अयमात्मा । इदं पुच्छं प्रतिष्ठा ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
पञ्चकोशोविवरणम्
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवीꣳश्रिताः ।
अथो अन्नेनैव जीवन्ति । अथैनदपि यन्त्यन्ततः ।
अन्नꣳहि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात् सर्वौषधमुच्यते ।
सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति । येऽन्नं ब्रह्मोपासते ।
अन्नꣳहि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात् सर्वौषधमुच्यते ।
अन्नाद् भूतानि जायन्ते । जातान्यन्नेन वर्धन्ते ।
अद्यतेऽत्ति च भूतानि । तस्मादन्नं तदुच्यत इति ।
तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात् । अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः ।
तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव ।
तस्य पुरुषविधताम् । अन्वयं पुरुषविधः ।
तस्य प्राण एव शिरः । व्यानो दक्षिणः पक्षः ।
अपान उत्तरः पक्षः । आकाश आत्मा ।
पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥
इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
प्राणं देवा अनु प्राणन्ति । मनुष्याः पशवश्च ये ।
प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात् सर्वायुषमुच्यते ।
सर्वमेव त आयुर्यन्ति । ये प्राणं ब्रह्मोपासते ।
प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात् सर्वायुषमुच्यत इति ।
तस्यैष एव शारीर आत्मा । यः पूर्वस्य ।
तस्माद्वा एतस्मात् प्राणमयात् । अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः ।
तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव ।
तस्य पुरुषविधताम् । अन्वयं पुरुषविधः ।
तस्य यजुरेव शिरः । ऋग्दक्षिणः पक्षः । सामोत्तरः पक्षः ।
आदेश आत्मा । अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥ इति तृतीयोऽनुवाकः ॥
यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् । न बिभेति कदाचनेति ।
तस्यैष एव शारीर आत्मा । यः पूर्वस्य ।
तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात् । अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः ।
तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव ।
तस्य पुरुषविधताम् ।
अन्वयं पुरुषविधः । तस्य श्रद्धैव शिरः ।
ऋतं दक्षिणः पक्षः ।
सत्यमुत्तरः पक्षः । योग आत्मा । महः पुच्छं प्रतिष्ठा ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
विज्ञानं यज्ञं तनुते । कर्माणि तनुतेऽपि च ।
विज्ञानं देवाः सर्वे ।
ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते । विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद ।
तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति । शरीरे पाप्मनो हित्वा ।
सर्वान्कामान् समश्नुत इति । तस्यैष एव शारीर आत्मा ।
यः पूर्वस्य । तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् ।
अन्योऽन्तर आत्माऽऽनन्दमयः । तेनैष पूर्णः ।
स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधताम् ।
अन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्रियमेव शिरः ।
मोदो दक्षिणः पक्षः ।
प्रमोद उत्तरः पक्षः । आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
असन्नेव स भवति । असद्ब्रह्मेति वेद चेत् ।
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद । सन्तमेनं ततो विदुरिति ।
तस्यैष एव शारीर आत्मा । यः पूर्वस्य ।
अथातोऽनुप्रश्नाः । उताविद्वानमुं लोकं प्रेत्य ।
कश्चन गच्छती३ 3 for prolonging the vowel in the form । अऽऽ ।
आहो विद्वानमुं लोकं प्रेत्य । कश्चित्समश्नुता३ उ ।
सोऽकामयत । बहुस्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत ।
स तपस्तप्त्वा । इदꣳसर्वमसृजत । यदिदं किञ्च ।
तत्सृष्ट्वा । तदेवानुप्राविशत् । तदनु प्रविश्य ।
सच्च त्यच्चाभवत् ।
निरुक्तं चानिरुक्तं च । निलयनं चानिलयनं च ।
विज्ञानं चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् ।
यदिदं किञ्च । तत्सत्यमित्याचक्षते ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥
अभयप्रतिष्ठा
असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत ।
तदात्मान स्वयमकुरुत । तस्मात्तत्सुकृतमुच्यत इति ।
यद्वै तत् सुकृतम् । रसो वै सः ।
रसꣳह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति । को ह्येवान्यात्कः
प्राण्यात् । यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ।
एष ह्येवाऽऽनन्दयाति ।
यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं
प्रतिष्ठां विन्दते । अथ सोऽभयं गतो भवति ।
यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते ।
अथ तस्य भयं भवति । तत्वेव भयं विदुषोऽमन्वानस्य ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥ इति सप्तमोऽनुवाकः ॥
ब्रह्मानन्दमीमांसा
भीषाऽस्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूर्यः ।
भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रश्च । मृत्युर्धावति पञ्चम इति ।
सैषाऽऽनन्दस्य मीमाꣳसा भवति ।
युवा स्यात्साधुयुवाऽध्यायकः ।
आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः ।
तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् ।
स एको मानुष आनन्दः । ते ये शतं मानुषा आनन्दाः ॥ १॥
स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दाः ।
स एको देवगन्धर्वाणामानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं देवगन्धर्वाणामानन्दाः ।
स एकः पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दः ।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दाः ।
स एक आजानजानां देवानामानन्दः ॥ २॥
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं आजानजानां देवानामानन्दाः ।
स एकः कर्मदेवानां देवानामानन्दः ।
ये कर्मणा देवानपियन्ति । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं कर्मदेवानां देवानामानन्दाः ।
स एको देवानामानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं देवानामानन्दाः । स एक इन्द्रस्याऽऽनन्दः ॥ ३॥
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतमिन्द्रस्याऽऽनन्दाः ।
स एको बृहस्पतेरानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं बृहस्पतेरानन्दाः । स एकः प्रजापतेरानन्दः ।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ।
ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः ।
स एको ब्रह्मण आनन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ॥ ४॥
स यश्चायं पुरुषे । यश्चासावादित्ये । स एकः ।
स य एवंवित् । अस्माल्लोकात्प्रेत्य ।
एतमन्नमयमात्मानमुपसङ्क्रामति ।
एतं प्राणमयमात्मानमुपसङ्क्रामति ।
एतं मनोमयमात्मानमुपसङ्क्रामति ।
एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसङ्क्रामति ।
एतमानन्दमयमात्मानमुपसङ्क्रामति ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ ५॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः ॥
यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् ।
न बिभेति कुतश्चनेति ।
एतꣳह वाव न तपति ।
किमहꣳसाधु नाकरवम् । किमहं पापमकरवमिति ।
स य एवं विद्वानेते आत्मान स्पृणुते ।
उभे ह्येवैष एते आत्मान स्पृणुते । य एवं वेद ।
इत्युपनिषत् ॥ १॥ इति नवमोऽनुवाकः ॥
॥ इति ब्रह्मानन्दवल्ली समाप्ता ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
तृतीया भृगुवल्ली
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
भृगुर्वै वारुणिः । वरुणं पितरमुपससार ।
अधीहि भगवो ब्रह्मेति । तस्मा एतत्प्रोवाच ।
अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनो वाचमिति ।
तꣳहोवाच । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ।
येन जातानि जीवन्ति ।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति ।
स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥ १॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
पञ्चकोशान्तःस्थितब्रह्मनिरूपणम्
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् । अन्नाद्ध्येव खल्विमानि
भुतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि जीवन्ति ।
अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय ।
पुनरेव वरुणं पितरमुपससार ।
अधीहि भगवो ब्रह्मेति । तꣳहोवाच ।
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति ।
स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥ १॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात् । प्राणाद्ध्येव खल्विमानि
भूतानि जायन्ते । प्राणेन जातानि जीवन्ति ।
प्राणं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय ।
पुनरेव वरुणं पितरमुपससार ।
अधीहि भगवो ब्रह्मेति । तꣳहोवाच ।
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति ।
स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥ १॥ इति तृतीयोऽनुवाकः ॥
मनो ब्रह्मेति व्यजानात् । मनसो ह्येव खल्विमानि
भूतानि जायन्ते । मनसा जातानि जीवन्ति ।
मनः प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय ।
पुनरेव वरुणं पितरमुपससार ।
अधीहि भगवो ब्रह्मेति । तꣳहोवाच ।
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति ।
स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥ १॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात् । विज्ञानाद्ध्येव खल्विमानि
भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति ।
विज्ञानं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय ।
पुनरेव वरुणं पितरमुपससार ।
अधीहि भगवो ब्रह्मेति । तꣳहोवाच ।
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति ।
स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥ १॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । आनन्दाध्येव खल्विमानि
भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति ।
आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति ।
सैषा भार्गवी वारुणी विद्या । परमे व्योमन्प्रतिष्ठिता ।
स य एवं वेद प्रतितिष्ठति । अन्नवानन्नादो भवति ।
महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन ।
महान् कीर्त्या ॥ १॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥
अन्नब्रह्मोपासनम्
अन्नं न निन्द्यात् । तद्व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् ।
शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् ।
शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् ।
स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति ।
अन्नवानन्नादो भवति । महान्भवति प्रजया
पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान् कीर्त्या ॥ १॥
इति सप्तमोऽनुवाकः ॥
अन्नं न परिचक्षीत । तद्व्रतम् । आपो वा अन्नम् ।
ज्योतिरन्नादम् । अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम् ।
ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिताः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् ।
स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति ।
अन्नवानन्नादो भवति । महान्भवति प्रजया
पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान् कीर्त्या ॥ १॥
इत्यष्टमोऽनुवाकः ॥
अन्नं बहु कुर्वीत । तद्व्रतम् । पृथिवी वा अन्नम् ।
आकाशोऽन्नादः । पृथिव्यामाकाशः प्रतिष्ठितः ।
आकाशे पृथिवी प्रतिष्ठिता ।
तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् ।
स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति ।
अन्नवानन्नादो भवति । महान्भवति प्रजया
पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान् कीर्त्या ॥ १॥
इति नवमोऽनुवाकः ॥
सदाचारप्रदर्शनम् । ब्रह्मानन्दानुभवः
न कञ्चन वसतौ प्रत्याचक्षीत । तद्व्रतम् ।
तस्माद्यया कया च विधया बह्वन्नं प्राप्नुयात् ।
अराध्यस्मा अन्नमित्याचक्षते ।
एतद्वै मुखतोऽन्नꣳराद्धम् ।
मुखतोऽस्मा अन्नꣳराध्यते ।
एतद्वै मध्यतोऽन्नꣳराद्धम् ।
मध्यतोऽस्मा अन्नꣳराध्यते ।
एदद्वा अन्ततोऽन्नꣳराद्धम् ।
अन्ततोऽस्मा अन्न राध्यते ॥ १॥
य एवं वेद । क्षेम इति वाचि । योगक्षेम इति प्राणापानयोः ।
कर्मेति हस्तयोः । गतिरिति पादयोः । विमुक्तिरिति पायौ ।
इति मानुषीः समाज्ञाः । अथ दैवीः । तृप्तिरिति वृष्टौ ।
बलमिति विद्युति ॥ २॥
यश इति पशुषु । ज्योतिरिति नक्षत्रेषु ।
प्रजातिरमृतमानन्द इत्युपस्थे । सर्वमित्याकाशे ।
तत्प्रतिष्ठेत्युपासीत । प्रतिष्ठावान् भवति ।
तन्मह इत्युपासीत । महान्भवति । तन्मन इत्युपासीत ।
मानवान्भवति ॥ ३॥
तन्नम इत्युपासीत । नम्यन्तेऽस्मै कामाः ।
तद्ब्रह्मेत्युपासीत । ब्रह्मवान्भवति ।
तद्ब्रह्मणः परिमर इत्युपासीत ।
पर्येणं म्रियन्ते द्विषन्तः सपत्नाः ।
परि येऽप्रिया भ्रातृव्याः ।
स यश्चायं पुरुषे । यश्चासावादित्ये । स एकः ॥ ४॥
स य एवंवित् । अस्माल्लोकात्प्रेत्य ।
एतमन्नमयमात्मानमुपसङ्क्रम्य ।
एतं प्राणमयमात्मानमुपसङ्क्रम्य ।
एतं मनोमयमात्मानमुपसङ्क्रम्य ।
एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसङ्क्रम्य ।
एतमानन्दमयमात्मानमुपसङ्क्रम्य ।
इमाँल्लोकन्कामान्नी कामरूप्यनुसञ्चरन् ।
एतत् साम गायन्नास्ते । हा ३ वु हा ३ वु हा ३ वु ॥ ५॥
अहमन्नमहमन्नमहमन्नम् ।
अहमन्नादोऽ३हमन्नादोऽ३अहमन्नादः ।
अहꣳश्लोककृदहꣳश्लोककृदहꣳश्लोककृत् ।
अहमस्मि प्रथमजा ऋता३स्य ।
पूर्वं देवेभ्योऽमृतस्य ना३भाइ ।
यो मा ददाति स इदेव मा३अऽवाः ।
अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि ।
अहं विश्वं भुवनमभ्यभवा३म् ।
सुवर्न ज्योतीः । य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥ ६॥
इति दशमोऽनुवाकः ॥
॥ इति भृगुवल्ली समाप्ता ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ हरिः ॐ ॥
॥ त्रिपुरातापिन्युपनिषत् ॥
त्रिपुरातापिनीविद्यावेद्यचिच्छक्तिविग्रहम् ।
वस्तुतश्चिन्मात्ररूपं परं तत्त्वं भजाम्यहम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथैतस्मिन्नन्तरे भगवान्प्राजापत्यं वैष्णवं विलयकारणं
रूपमाश्रित्य त्रिपुराभिधा भगवतीत्येवमादिशक्त्या भूर्भुवः स्वस्त्रीणि
स्वर्गभूपातालानि त्रिपुराणि हरमायात्मकेन हीङ्कारेण हृल्लेखाख्या
भगवती त्रिकूटावसाने निलये विलये धाम्नि महसा घोरेण प्राप्नोति । सैवेयं
भगवती त्रिपुरेति व्यापठ्यते । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो
नः प्रचोदयात् परो रजसे सावदोम् । जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो
निदहाति वेद । स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धना-
न्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । शताक्षरी परमा विद्या त्रयीमयी साष्टार्णा
त्रिपुरा परमेश्वरी । आद्यानि चत्वारि पदानि परब्रह्मविकासीनि । द्वितीयानि
शक्त्याख्यानि । तृतीयानि शैवानि । तत्र लोका वेदाः शास्त्राणि पुराणानि
धर्माणि वै चिकित्सितानि ज्योतींषि शिवशक्तियोगादित्येवं घटना व्यापठ्यते ।
अथैतस्य परं गह्वरं व्याख्यास्यामो महामनुसमुद्भवं तदिति । ब्रह्म
शाश्वतम् । परो भगवान्निर्लक्षणो निरञ्जनो निरुपाधिराधिरहितो देवः ।
उन्मीलते पश्यति विकासते चैतन्यभावं कामयत इति । स एको देवः शिवरूपी
दृश्यत्वेन विकासते यतिषु यज्ञेषु योगिषु कामयते ।
कामं जायते स एष निरञ्जनोऽकामत्वेनोज्जृम्भते ।
अकचटतपयशान्सृजते । तस्मादीश्वरः कामोऽभिधीयते ।
तत्परिभाषया कामः ककारं व्याप्नोति । काम एवेदं
तत्तदिति ककारो गृह्यते । भस्मात्तत्पदार्थ इति य एवं वेद ।
सवितुर्वरेण्यमिति षूङ् प्राणिप्रसवे सविता प्राणिनः सूते
प्रसूते शक्तिम् । सूते त्रिपुरा शक्तिराद्येयं त्रिपुरा
परमेश्वरी महाकुण्डलिनी देवी । जातवेदसमण्डलं योऽधीते
सर्वं व्याप्यते । त्रिकोणशक्तिरेकारेण महाभागेन प्रसूते ।
तस्मादेकार एव गृह्यते । वरेण्यं श्रेष्ठं भजनीयमक्षरं
नमस्कार्यम् । तस्माद्वरेण्यमेकाराक्षरं गृह्यत इति
य एवं वेद । भर्गो देवस्य धीमहीत्येवं व्याख्यास्यामः ।
धकारो धारणा । धियैव धार्यते भगवान्परमेश्वरः ।
भर्गो देवो मध्यवर्ति तुरीयमक्षरं साक्षात्तुरीयं सर्वं
सर्वान्तर्भूतम् । तुरीयाक्षरमीकारं पदानां
मध्यवर्तीत्येवं व्याख्यातं भर्गोरूपं व्याचक्षते ।
तस्माद्भर्गो देवस्य धीमहीत्येवमीकाराक्षरं गृह्यते ।
महीत्यस्य व्याख्यानं महत्त्वं जडत्वं काठिन्यं विद्यते
यस्मिन्नक्षतेरेतन्महि लकारः परं धाम । काठिन्याढ्यं
ससागरं सपर्वतं स सप्तद्वीपं सकाननमुज्ज्वलद्रूपं
मण्डलमेवोक्तं लकारेण ।
पृथ्वी देवी महीत्यनेन व्याचक्षते । धियो यो नः प्रचोदयात् ।
परमात्मा सदाशिव आदिभूतः परः । स्थाणुभूतेन लकारेण
ज्योतिर्लिङ्गमात्मानं धियो बुद्धयः परे वस्तुनि ध्यानेच्छारहितं
निर्विकल्पके प्रचोदयात्प्रेरयेदित्युच्चारणरहितं चेतसैव
चिन्तयित्वा भावयेदिति । परो रजसे सावदोमिति तदवसाने परं
ज्योतिरमलं हृदि दैवतं चैतन्यं चिल्लिङ्गं हृदयागारवासिनी
हृल्लेखेत्यादिना स्पष्टं वाग्भवकूटं पञ्चाक्षरं
पञ्चभूतजनकं पञ्चकलामयं व्यापठ्यत इति । य एवं वेद ।
अथ तु परं कामकलाभूतं कामकूटमाहुः । तत्सवितुर्वरेण्य-
मित्यादिद्वात्रिंशदक्षरीं पठित्वा तदिति परमात्मा सदाशिवोऽकशरं
विमलं निरुपाधितादात्न्यप्रतिपादनेन हकाराक्षरं शिवरूपं
निरक्षरमक्षरं व्यालिख्यत इति । तत्परागव्यावृत्तिमादाय शक्तिं दर्शयति ।
तत्सवितुरिति पूर्वेणाध्वना सूर्याधश्चन्द्रिकां व्यालिख्य
मूलादिब्रह्मरन्ध्रगं साक्षरमद्वितीयमाचक्षत इत्याह भगवन्तं
देवं शिवशक्त्यात्मकमेवोदितम् ।
शिवोऽयं परमं देवं शक्तिरेषा तु जीवज्जा ।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगाद्धंसस्ततत्पदमुच्यते ॥ १॥
तस्मादुज्जृम्भते कामः कामात्कामः परः शिवः ।
कार्णोऽयं कामदेवोऽयं वरेण्यं भर्ग उच्यते ॥ २॥
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवः क्षीरं सेचनीयमक्षरं
समधुघ्नमक्षरं परमात्मजीवात्मनोर्योगात्तदिति
स्पष्टमक्षरं तृतीयं ह इति तदेव सदाशिव एव
निष्कल्मष आद्यो देवोऽन्त्यमक्षरं व्याक्रियते ।
परमं पदं धीति धारणं विद्यते जडत्वधारणं
महीति लकारः शिवाधस्तात्तु लकारार्थः स्पष्टमन्त्यमक्षरं
परमं चैतन्यं धियो यो नः प्रचोदयात्परो रजसे सावदोमित्येवं
कूटं कामकलालयं षडध्वपरिवर्तको वैष्णवं परमं
धामैति भगवांश्चैतस्माद्य एवं वेद । अथैतस्मादपरं
तृतीयं शक्तिकूटं प्रतिपद्यते । द्वात्रिंशदक्षर्या गायत्र्या
तत्सवितुर्वरेण्यं तस्मादात्मन आकाश आकाशाद्वायुः स्फुरति
तदधीनं वरेण्यं समुदीयमानं सवितुर्वा योग्यो जीवात्मपरमात्म-
समुद्भवस्तं प्रकाशशक्तिरूपं जीवाक्षरं स्पष्टमापद्यते ।
भर्गो देवस्य धीत्यनेनाधाररूपशिवात्माक्षरं गण्यते ।
महीत्यादिनाशेषं काम्यं रमणीयं दृश्यं शक्तिकूटं
स्पष्टीकृतमिति । एवं पञ्चदशाक्षरं त्रैपुरं योऽधीते स
सर्वान्कामानवाप्नोति । स सर्वांल्लोकाञ्जयति । स सर्वा वाचो विजृम्भयति ।
स रुद्रत्वं प्राप्नोति । स वैष्णवं धाम भित्त्वा परं ब्रह्म प्राप्नोति ।
य एवं वेद । इत्याद्यां विद्यामभिधायैतस्याः शक्तिकूटं
शक्तिशिवाद्यं लोपामुद्रेयम् ।
द्वितीये धामनि पूर्वेणैव मनुना बिन्दुहीना शक्तिभूतहृल्लेखा
क्रोधमुनिनाधिष्ठिता । तृतीये धामनि पूर्वस्या एव विद्याया
यद्वाग्भवकूटं तेनैव मानवीं चान्द्रीं कौबेरीं विद्यामाचक्षते ।
मदनाधः शिवं वाग्भवम् । तदूर्ध्वं कामकलामयम् ।
शक्त्यूर्ध्वं शक्तिमिति मानवी विद्या । चतुर्थे धामनि
शिवशक्त्याख्यमन्यत्तृतीयं चेयं चान्द्री विद्या । पञ्चमे धामनि
ध्येयेयं चान्द्री कामाधः शिवाद्यकामा । सैव कौबेरि षष्ठे
धामनि व्याचक्षत इति । य एवं वेद । हित्वेकारं तुरीयस्वरं सर्वादौ
सूर्याचन्द्रमस्केन कामेश्वर्येवागस्त्यसंज्ञा । सप्तमे धामनि
तृतीयमेतस्या एव पूर्वोक्तायाः कामाद्यं द्विधाधः कं मदनकलाद्यं
शक्तिबीजं वाग्भवाद्यं तयोरर्धावशिरस्कं कृत्वा नन्दिविद्येयम् ।
अष्टमे धामनि वाग्भवमागस्त्यं वागर्थकलामयं कामकलाभिधं
सकलमायाशक्तिः प्रभाकरी विद्येयम् । नवमे धामनि पुनरागस्त्यं
वाग्भवं शक्तिमन्मथशिवशक्तिमन्मथोर्वीमायाकामकलालयं
चन्द्रसूर्यानङ्गधूर्जटिमहिमालयं तृतीयं षण्मुखीयं विद्या ।
दशमे धामनि विद्याप्रकाशितया भूय एवागस्त्यविद्यां पठित्वा भूय
एवेमामन्त्यमायां परमशिवविद्येयमेकादशे धामनि भूय एवागस्त्यं
पठित्वा एतस्या एव वाग्भवं यद्धनजं कामकलालयं च तत्सहजं कृत्वा
लोपामुद्रायाः शक्तिकूटराजं पठित्वा वैष्णवी विद्या द्वादशे धामनि
व्याचक्षत इति । य एवं वेद ।
तान्होवाच । भगवान्सर्वे यूयं श्रुत्वा पूर्वां कामाख्यां
तुरीयरूपां तुरीयातीतां सर्वोत्कटां सर्वमन्त्रासनगतां
पीठोपपीठदेवतापरिवृतां सकलकलाव्यापिनीं देवतां सामोदां
सपरागां सहृदयां सामृतां सकलां सेन्द्रियां सदोदितां
परां विद्यां स्पष्टीकृत्वा हृदये निधाय विज्ञायानिलयं
गमयित्वा त्रिकूटां त्रिपुरां परमां मायां श्रेष्ठां परां
वैष्णवीं संनिधाय हृदयकमलकर्णिकायां परां भगवतीं
लक्ष्मीं मायां सदोदितां महावश्यकरीं मदनोन्मादनकारिणीं
धनुर्बाणधारिणीं वाग्विजृम्भिणीं चन्द्रमण्डलमध्यवर्तिनीं
चन्द्रकलां सप्तदशीं महानित्योपस्थितां पाशाङ्कुशमनोज्ञ-
पाणिपल्लवां समुद्यदर्कनिभां त्रिनेत्रां विचिन्त्य देवीं महालक्ष्मीं
सर्वलक्ष्मीमयीं सर्वलक्षणसम्पन्नां हृदये चैतन्यरूपिणीं
निरञ्जनां त्रिकूटाख्यां स्मितमुखीं सुन्दरीं महामायां
सर्वसुभगां महाकुण्डलिनीं त्रिपीठमध्यवर्तिनीमकथादिश्रीपीठे
परां भैरवीं चित्कलां महात्रिपुरां देवीं ध्यायेन्महाध्यान-
योगेनेयमेवं वेदेति महोपनिषत् ॥ इति प्रथमोपनिषत् ॥ १॥
अथातो जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा त्रैपुरी व्यक्तिर्लक्ष्यते ।
जातवेदस इत्येकर्चसूक्तस्याद्यमध्यमावसानेषु तत्र स्थानेषु
विलीनं बीजसागररूपं व्याचक्ष्वेत्यृषय ऊचुः । तान्होवाच
भगवाञ्जातवेदसे सुनवाम सोमं तदत्यम्रवाणीं विलोमेन पठित्वा
प्रथमस्याद्यं तदेवं दीर्घं द्वितीयस्याद्यं सुनवाम सोममित्यनेन
कौलं वामं श्रेष्ठं सोमं महासौभाग्यमाचक्षते । स
सर्वसम्पत्तिभूतं प्रथमं निवृत्तिकारणं द्वितीयं स्थितिकारणं
तृतीयं सर्गकारणमित्यनेन करशुद्धिं कृत्वा त्रिपुराविद्यां
स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा महाविद्येश्वरी-
विद्यामाचक्षते त्रिपुरेश्वरीं जातवेदस इति । जाते आद्यक्षरे मातृकायाः
शिरसि बैन्दवममृतरूपिणीं कुण्डलिनीं त्रिकोणरूपिणीं चेति वाक्यार्थः ।
एवं प्रथमस्याद्यं वाग्भवम् । द्वितीयं कामकलालयम् । जात
इत्यनेन परमात्मनो जृम्भणम् । जात इत्यादिना परमात्मा शिव उच्यते ।
जातमात्रेण कामी कामयते काममित्यादिना पूर्णं व्याचक्षते ।
तदेव सुनवाम गोत्रारूढं मध्यवर्तिनामृतमध्येनार्णेन
मन्त्रार्णान्स्पष्टीकृत्वा । गोत्रेति नामगोत्रायामित्यादिना स्पष्टं
कामकलालयं शेषं वाममित्यादिना । पूर्वेणाध्वना विद्येयं
सर्वरक्षाकरी व्याचक्षते । एवमेतेन विद्यां त्रिपुरेशीं स्पष्टीकृत्वा
जातवेदस इत्यादिना जातो देव एक ईश्वरः परमो ज्योतिर्मन्त्रतो वेति तुरीयं
वरं दत्त्वा बिन्दुपूर्णज्योतिःस्थानं कृत्वा प्रथमस्याद्यं द्वितीयं च
तृतीयं च सर्वरक्षाकरीसंबन्धं कृत्वा विद्यामात्मासनरूपिणीं
स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा रक्षाकरीं
विद्यां स्मृत्वाद्यन्तयोर्धाम्नोः शक्तिशिवरूपिणीं विनियोज्य स इति
शक्त्यात्मकं वर्णं सोममिति शैवात्मकं धाम जानीयात् । यो जानीते
स सुभगो भवति । एवमेतां चक्रासनगतां त्रिपुरवासिनीं सदोदितां
शिवशक्त्यात्मिकमवेदितां जातवेदाः शिव इति सेति
शक्त्यात्माक्षरमिति शिवादिशक्त्यन्तरालभूतां त्रिकूटादिचारिणीं
सूर्याचन्द्रनमस्कां मन्त्रासनगतां त्रिपुरं महालक्ष्मीं
सदोदितां स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि
पठित्वा पूर्वं सदात्मासनरूपां विद्यां स्मृत्वा वेद इत्यादिना
विश्वाहसंततोदयबैन्दवमुपरि विन्यस्य सिद्धासनस्थां त्रिपुरां
मालिनीं विद्यां स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि
पठित्वा त्रिपुरां सुन्दरीं श्रित्वा कले अक्षरे विचिन्त्य मूर्तिभूतां
मूर्तिरूपिणीं सर्वविद्येश्वरीं त्रिपुरां विद्यां स्पष्टीकृत्वा
जातवेदस इत्यादि पठित्वा त्रिपुरां लक्ष्मीं श्रित्वाग्निं निदहाति
सैवेयमग्न्यानने ज्वलतीति विचिन्त्य त्रिज्योतिषमीश्वरीं त्रिपुरामम्बां
विद्यां स्पष्टीकुर्यात् । एवमेतेन स नः पर्षदति दुर्गाणि
विश्वेत्यादिपरप्रकाशिनी प्रत्यग्भूता कार्या । विद्येयमाह्वानकर्माणि
सर्वतो धीरेति व्याचक्षते । एवमेतद्विद्याष्टकं महामाया-
देव्यङ्गभूतं व्याचक्षते । देवा ह वै भगवन्तमब्रुवन्महाचक्रनायकं
नो ब्रूहीति सार्वकामिकं सर्वाराध्यं सर्वरूपं विश्वतोमुखं
मोक्षद्वारं यद्योगिन उपविश्य परं ब्रह्म भित्त्वा निर्वाणमुपविशन्ति ।
तान्होवाच भगवाञ्श्रीचक्रं व्याख्यास्याम इति । त्रिकोणं त्र्यस्रं कृत्वा
तदन्तर्मध्यवृत्तमानयष्टिरेखामाकृष्य विशालं नीत्वाग्रतो
योनिं कृत्वा पूर्वयोन्यग्ररूपिणीं मानयष्टिं कृत्वा तां सर्वोर्ध्वां
नीत्वा योनिं कृत्वाद्यं त्रिकोणं चक्रं भवति । द्वितीयमन्तरालं भवति ।
तृतीयमष्टयोन्यङ्कितं भवति । अथाष्टारचक्राद्यन्तविदिक्कोणाग्रतो
रेखां नीत्वा साध्याद्याकर्षणबद्धरेखां नीत्वेत्येवमथोर्ध्व-
सम्पुटयोन्यङ्कितं कृत्वा कक्षाभ्य ऊर्ध्वगरेखाचतुष्टयं
कृत्वा यथाक्रमेण मानयष्टिद्वयेन दशयोन्यङ्कितं चक्रं भवति ।
अनेनैव प्रकारेण पुनर्दशारचक्रं भवति । मध्यत्रिकोणाग्रचतुष्टया-
द्रेखाचराग्रकोणेषु संयोज्य तद्दशारांशतोनीतां मानयष्टिरेखां
योजयित्वा चतुर्दशारं चक्रं भवति । ततोऽष्टपत्रसंवृतं चक्रं भवति ।
षोडशपत्रसंवृतं चक्रं चतुर्द्वारं भवति । ततः पार्थिवं चक्रं
चतुर्द्वारं भवति । एवं सृष्टियोगेन चक्रं व्याख्यातम् । नवात्मकं
चक्रं प्रातिलोम्येन वा वच्मि । प्रथमं चक्रं त्रैलोक्यमोहनं भवति ।
साणिमाद्यष्टकं भवति । समात्रष्टकं भवति । ससर्वसंक्षोभिण्यादिदशकं
भवति । सप्रकटं भवति । त्रिपुरयाधिष्ठितं भवति । ससर्वसंक्षोभिणीमुद्रया
जुष्टं भवति । द्वितीयं सर्वाशापरिपूरकं चक्रं भवति ।
सकामाद्याकर्षिणीषोडशकं भवति । सगुप्तं भवति । त्रिपुरेश्वर्याधिष्ठितं
भवति । सर्वविद्राविणीमुद्रया जुष्टं भवति । तृतीयं सर्वसंक्षोभणं चक्रं भवति । सानङ्गकुसुमाद्यष्टकं भवति । सगुप्ततरं भवति ।
त्रिपुरसुन्दर्याधिष्ठितं भवति । सर्वाकर्षिणीमुद्रया जुष्टं भवति ।
तुरीयं सर्वसौभाग्यदायकं चक्रं भवति ।
ससर्वसंक्षोभिण्यादिद्विसप्तकं भवति । ससम्प्रदायं भवति ।
त्रिपुरवासिन्याधिष्ठितं भवति । ससर्ववशंकरिणीमुद्रया
जुष्टं भवति । तुरीयान्तं सर्वार्थसाधकं चक्रं भवति ।
ससर्वसिद्धिप्रदादिदशकं भवति । सकलकौलं भवति ।
त्रिपुरामहालक्ष्म्याधिष्ठितं भवति । महोन्मादिनीमुद्रया
जुष्टं भवति । षष्ठं सर्वरक्षाकरं चक्रं भवति ।
ससर्वज्ञत्वादिदशकं भवति । सनिगर्भं भवति ।
त्रिपुरमालिन्याधिष्ठितं भवति । महाङ्कुशमुद्रया जुष्टं
भवति । सप्तमं सर्वरोगहरं चक्रं भवति । सर्ववशिन्याद्यष्टकं
भवति । सरहस्यं भवति । त्रिपुरसिद्ध्याधिष्ठितं भवति ।
सखेचरीमुद्रया जुष्टं भवति । अष्टमं सर्वसिद्धिप्रदं
चक्रं भवति । सायुधचतुष्टयं भवति । सपरापररहस्यं
भवति । त्रिपुराम्बयाधिष्ठितं भवति । बीजमुद्रयाधिष्ठितं
भवति । नवमं चक्रनायकं सर्वानन्दमयं चक्रं भवति ।
सकामेश्वर्यादित्रिकं भवति । सातिरहस्यं भवति । महात्रिपुर-
सुन्दर्याधिष्ठितं भवति । योनिमुद्रया जुष्टं भवति ।
संक्रामन्ति वै सर्वाणि च्छन्दांसि चकाराणि । तदेव चक्रं
श्रीचक्रम् । तस्य नाभ्यामग्निमण्डले सूर्याचन्द्रमसौ ॥
तत्रोंकारपीठं पूजयित्वा तत्राक्षरं बिन्दुरूपं तदन्तर्गत-
व्योमरूपिणीं विद्यां परमां स्मृत्वा महात्रिपुरसुन्दरीमावाह्य ।
क्षीरेण स्नापिते देवि चन्दनेन विलेपिते । बिल्वपत्रार्चिते देवि दुर्गेऽहं
शरणं गतः । इत्येकयर्चा प्रार्थ्य मायालक्ष्मी तन्त्रेण
पूजयेदिति भगवानब्रवीत् । एतैर्मन्त्रैर्भगवतीं यजेत् । ततो देवी
प्रीता भवति । स्वात्मानं दर्शयति । तस्माद्य एतैर्मन्त्रैर्यजति स
ब्रह्म पश्यति । स सर्वं पश्यति । सोऽमृतत्वं च गच्छति ।
य एवं वेदेति महोपनिषत् ॥
इति द्वितीयोपनिषत् ॥ २॥
देवा ह वै मुद्राः सृजेमेति भगवन्तमब्रुवन् ।
तान्होवाच भगवानवनिकृतजानुमण्डलं विस्तीर्य
पद्मासनं कृत्वा मुद्राः सृजतेति । स सर्वानाकर्षयति
यो योनिमुद्रामधीते । स सर्वं वेत्ति । स सर्वफलमश्नुते ।
स सर्वान्भञ्जयति । स विद्वेषिणं स्तम्भयति । मध्यमे
अनामिकोपरि विन्यस्य कनिष्ठिकाङ्गुष्ठतोऽधीते
मुक्तयोस्तर्जन्योर्दण्डवदधस्तादेवंविधा प्रथमा सम्पद्यते ।
सैव मिलितमध्यमा द्वितीया । तृतीयाङ्कुशाकृतिरिति ।
प्रातिलोम्येन पाणी सङ्घर्षयित्वाङ्गुष्ठौ साग्रिमौ
समाधाय तुरीया । परस्परं कनीयसेदं मध्यमाबद्धे
अनामिके दण्डिन्यौ तर्जन्यावालिङ्ग्यावष्टभ्य मध्यमानख-
मिलिताङ्गुष्ठौ पञ्चमी । सैवाग्रेऽङ्कुशाकृतिः षष्ठी ।
दक्षिणशये वामबाहुं कृत्वान्योन्यानामिके कनीयसीमध्यगते
मध्यमे तर्जन्याक्रान्ते सरलास्वङ्गुष्ठौ खेचरी सप्तमी ।
सर्वोर्ध्वे सर्वसंहृति स्वमध्यमानामिकान्तरे कनीयसि
पार्श्वयोस्तर्जन्यावङ्कुशाढ्ये युक्ता साङ्गुष्ठयोगतोऽन्योन्यं
सममञ्जलिं कृत्वाष्टमी । परस्परमध्यमापृष्ठवर्तिन्यावनामिके
तर्जन्याक्रान्ते समे मध्यमे आदायाङ्गुष्ठौ मध्यवर्तिनौ
नवमी प्रतिपद्यत इति ।
सैवेयं कनीयसे समे अन्तरितेऽङ्गुष्ठौ समावन्तरितौ
कृत्वा त्रिखण्डापद्यत इति । पञ्च बाणाः पञ्चाद्या
मुद्राः स्पष्टाः । क्रोमङ्कुशा । हसख्फ्रें खेचरी ।
हंस्रौ बीजाष्टमी वाग्भवाद्या नवमी दशमी च
सम्पद्यत इति । य एवं वेद । अथातः कामकलाभूतं चक्रं
व्याख्यास्यामो ह्रीं क्लीमैं ब्लूॅं स्रौमेते पञ्च कामाः
सर्वचक्रं व्यावर्तन्ते । मध्यमं कामं सर्वावसाने
सम्पुटीकृत्य ब्लूङ्कारेण सम्पुटं व्याप्तं कृत्वा द्विरैन्दवेन
मध्यवर्तिना साध्यं बद्ध्वा भूर्जपत्रे यजति । तच्चक्रं
यो वेत्ति स सर्वं वेत्ति । स सकलाॅंल्लोकानाकर्षयति । स सर्वं
स्तम्भयति । नीलीयुक्तं चक्रं शत्रून्मारयति । गतिं
स्तम्भयति । लाक्षायुक्तं कृत्वा सकललोकं वशीकरोति ।
नवलक्षजपं कृत्वा रुद्रत्वं प्राप्नोति । मातृकया वेष्टितं
कृत्वा विजयी भवति । भगाङ्ककुण्डं कृत्वाग्निमाधाय पुरुषो
हविषा हुत्वा योषितो वशीकरोति । वर्तुले हुत्वा श्रियमतुलं
प्राप्नोति । चतुरस्रे हुत्वा वृष्टिर्भवति । त्रिकोणे हुत्वा
शत्रून्मारयति । गतिं स्तम्भयति । पुष्पाणि हुत्वा विजयी भवति ।
महारसैर्हुत्वा परमानन्दनिर्भरो भवति । गणानां त्वा गणपतिं
हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् । ज्येष्ठराजं
ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रुण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ।
इत्येवमाद्यमक्षरं तदन्त्यबिन्दुपूर्णमित्यनेनाङ्गं स्पृशति ।
गं गणेशाय नम इति गणेशं नमस्कुर्वीत । ॐ नमो भगवते
भस्माङ्गरागायोग्रतेजसे हनहन दहदह पचपच मथमथ
विध्वंसयविध्वंसय हलभञ्जन शूलमूले व्यञ्जनसिद्धिं कुरुकुरु
समुद्रं पूर्वप्रतिष्ठिअतं शोषयशोषय स्तम्भयस्तम्भय
परमन्त्रपरयन्त्रपरतन्त्रपरदूतपरकटकपरच्छेदनकर
विदारयविदारय च्छिन्धिच्छिन्धि ह्रीं फट् स्वाहा । अनेन क्षेत्राध्यक्षं
पूजयेदिति । कुलकुमारि विद्महे मन्त्रकोटिसुधीमहि । तन्नः कौलिः प्रचोदयात् ।
इति कुमार्यर्चनं कृत्वा यो वै साधकोऽभिलिखति सोऽमृतत्वं गच्छति ।
स यश आप्नोति । स परमायुष्यमथ वा परं ब्रह्म भित्त्वा तिष्ठति ।
य एवं वेदेति महोपनिषत् ।
इति तृतीयोपनिषत् ॥ ३॥
देवा ह वै भगवन्तमब्रुवन्देव गायत्रं हृदयं नो
व्याख्यातं त्रैपुरं सर्वोत्तमम् । जातवेदससूक्तेनाख्यातं
नस्त्रैपुराष्टकम् । यदिष्ट्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् ।
अथ मृत्युंजयं नो ब्रूहीत्येवं ब्रुवतां सर्वेषां देवानां
श्रुत्वेदं वाक्यमथातस्त्र्यम्बकेनानुष्टुभेन मृत्युंजयं दर्शयति ।
कस्मात्त्र्यम्बकमिति । त्रयाणां पुराणामम्बकं स्वामिनं तस्मादुच्यते
त्र्यम्बकमिति । अथ कस्मादुच्यते यजामह इति । यजामहे सेवामहे वस्तु
महेत्यक्षरद्वयेन कूटत्वेनाक्षरैकेण मृत्युंजयमित्युच्यते ।
तस्मादुच्यते यजामह इति । अथ कस्मादुच्यते सुगन्धिमिति । सर्वतो यश
आप्नोति । तस्मादुच्यते सुगन्धिमिति । अथ कस्मादुच्यते पुष्टिवर्धनमिति ।
यत्सर्वांल्लोकान्सृजति यत्सर्वांल्लोकांस्तारयति यत्सर्वांल्लोकान्व्याप्नोति
तस्मादुच्यते पुष्टिवर्धनमिति । अथ कस्मादुच्यते उर्वारुकमिव
बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयेति । संलग्नत्वादुर्वारुकमिव मृत्योः संसारबन्धनात्संलग्नत्वाद्बद्धत्वान्मोक्षीभवति मुक्तो भवति ।
अथ कस्मादुच्यते मामृतादिति अमृतत्वं प्राप्नोत्यक्षरं
प्राप्नोति स्वयं रुद्रो भवति ।
देवा ह वै भगवन्तमूचुः सर्वं नो व्याख्यातम् ।
अथ कैर्मन्त्रैः स्तुता भगवती स्वात्मानं दर्शयति
तान्सर्वाञ्छैवान्वैष्णवान्सौरान्गाणेशान्नो
ब्रूहीति । स होवाच भगवांस्त्र्यम्बकेनानुष्टुभेन
मृत्युंजयमुपासयेत् । पूर्वेणाध्वना व्याप्तमेकाक्षरमिति
स्मृतम् । ॐ नमः शिवायेति याजुषमन्त्रोपासको
रुद्रत्वं प्राप्नोति । कल्याणं प्राप्नोति । य एवं वेद । तद्विष्णोः
परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।
विष्णोः सर्वतोमुखस्य स्नेहो यथा पललपिण्डमोतप्रोतमनुव्याप्तं
व्यतिरिक्तं व्याप्नुत इति व्याप्नुवतो विष्णोस्तत्परमं पदं परं व्योमेति
परमं पदं पश्यन्ति वीक्षन्ते । सूरयो ब्रह्मादयो देवास इति
सदा हृदय अदधते । तस्माद्विष्णोः स्वरूपं वसति तिष्ठति
भूतेश्विति वासुदेव इति । ॐ नम इति त्रीण्यक्षराणि । भगवत इति
चत्वारि । वासुदेवायेति पञ्चाक्षराणि । एतद्वै वासुदेवस्य
द्वादशार्णमभ्येति । सोपप्लवं तरति । स सर्वमायुरेति । विन्दते
प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यं च तमश्नुते प्रत्यगानन्दं
ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपमकार उकारो मकार इति । तानेकधा
संभवति तदोमिति । हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता
वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा
ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् । हंस इत्येतन्मनोरक्षरद्वितीयेन
प्रभापुञ्जेन सौरेण धृतमब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं
सत्या-प्रभा-पुञ्जि-न्युषा-सन्ध्या-प्रज्ञाभिः
शक्तिभिः पूर्वं सौरमधीयानः सर्वं फलमश्नुते ।
स व्योम्नि परमे धामनि सौरे निवसते ।
गणानां त्वति त्रैष्टुभेन पूर्वेणाध्वना मनुनैकार्णेन
गणाधिपमभ्यर्च्य गणेशत्वं प्राप्नोति । अथ गायत्री
सावित्री सरस्वत्यजपा मातृका प्रोक्ता तया सर्वमिदं व्याप्तम् ।
ऐं वागीश्वरि विद्महे क्लीं कामेश्वरी धीमहि । सौस्तन्नः शक्तिः
प्रचोदयादिति । गायत्री प्रातः सावित्री मध्यन्दिने सरस्वती सायमिति
निरन्तरमजपा । हंस इत्येव मातृका । पञ्चाशद्वर्णविग्रहेणा-
कारादिक्षकारान्तेन व्याप्तानि भुवनानि शास्त्राणि
च्छन्दांसीत्येवं भगवतीं सर्वं व्याप्नोतीत्येव तस्यै वै नमोनम इति ।
तान्भगवानब्रवीदेतैर्मन्त्रैर्नित्यं देवीं यः स्तौति स सर्वं पश्यति ।
सोऽमृतत्वं च गच्छति । य एवं वेदेत्युपनिषत् ॥
इति तुरीयोपनिषत् ॥ ४॥
देवा ह वै भगवन्तमब्रुवन्स्वामिन्नः कथितं स्फुटं
क्रियाकाण्डं सविषयं त्रैपुरमिति । अथ परमनिर्विशेषं
कथयस्वेति । तान्होवाच भगवांस्तुरीयया माययान्त्यया
निर्दिष्टं परमं ब्रह्मेति । परमपुरुषं चिद्रूपं
परमात्मेति । श्रोता मन्ता द्रष्टादेष्टा स्प्रष्टाघोष्टा
विज्ञाता प्रज्ञाता सर्वेषां पुरुषाणामन्तःपुरुषः
स आत्मा स विज्ञेय इति । न तत्र लोका अलोका न तत्र देवा अदेवाः
पशवोऽपशवस्तापसो न तापसः पौल्कसो न पौल्कसो
विप्रा न विप्राः । स इत्येकमेव परं ब्रह्म विभ्राजते निर्वाणम् ।
न तत्र देवा ऋषयः पितर ईशते प्रतिबुद्धः सर्वविद्येति ।
तत्रैते श्लोका भवन्ति ।
अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा ।
यतो निर्विषयो नाम मनसो मुक्तिरिष्यते ॥ १॥
मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च ।
अशुद्धं कामसंकल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ॥ २॥
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धनं विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः ॥ ३॥
निरस्तविषयासङ्गं संनिरुध्य मनो हृदि ।
यदा यात्यमनीभावस्तदा तत्परमं पदम् ॥ ४॥
तावदेव निरोद्धव्यं यावधृदिगतं क्षयम् ।
एतज्ज्ञानं च ध्यानं च शेषोऽन्यो ग्रन्थविस्तरः ॥ ५॥
नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं न चिन्त्यं चिन्त्यमेव च ।
पक्षपातविनिर्मुक्तं ब्रह्म सम्पद्यते ध्रुवम् ॥ ६॥
स्वरेण सल्लयेद्योगी स्वरं संभावयेत्परम् ।
अस्वरेण तु भावेन न भावो भाव इष्यते ॥ ७॥
तदेव निष्कलं ब्रह्म निर्विकल्पं निरञ्जनम् ।
तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा ब्रह्म सम्पद्यते क्रमात् ॥ ८॥
निर्विकल्पमनन्तं च हेतुदृष्टान्तवर्जितम् ।
अप्रमेयमनाद्यन्तं यज्ज्ञात्वा मुच्यते बुधः ॥ ९॥
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः ।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ॥ १०॥
एक एवात्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १२॥
एक एव हि भूतात्मा भूतेभूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १२॥
घटसंवृतमाकाशं नीयमाने घटे यथा ।
घटो नीयेत नाकाशं तथा जीवो नभोपमः ॥ १३॥
घटवद्विविधाकारं भिद्यमां पुनः पुनः ।
तद्भेदे च न जानाति स जानाति च नित्यशः ॥ १४॥
शब्दमायावृतो यावत्तावत्तिष्ठति पुष्कले ।
भिन्ने तमसि चैकत्वमेक एवानुपश्यति ॥ १५॥
शब्दार्णमपरं ब्रह्म तस्मिन्क्षीणे यदक्षरम् ।
तद्विद्वानक्षरं ध्यायेद्यदीच्छेच्छान्तिमात्मनः ॥ १६॥
द्वे ब्रह्मणी हि मन्तव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ १७॥
ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः ।
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः ॥ १८॥
गवामनेकवर्णानां क्षीरस्याप्येकवर्णता ।
क्षीरवत्पश्यति ज्ञानी लिङ्गिनस्तु गवां यथा ॥ १९॥
ज्ञाननेत्रं समाधाय स महत्परमं पदम् ।
निष्कलं निश्चलं शान्तं ब्रह्माहमिति संस्मरेत् ॥ २०॥
इत्येकं परब्रह्मरूपं सर्वभूताधिवासं तुरीयं
जानीते सोऽक्षरे परमे व्योमन्यधिवसति । य एतां विद्यां
तुरीयां ब्रह्मयोनिस्वरूपां तामिहायुषे शरणमहं
प्रपद्ये । आकाशाद्यनुक्रमेण सर्वेषां वा एतद्भूतानामाकाशः
परायणम् । सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव जायन्ते ।
आकाश एव लीयन्ते । तस्मादेव जातानि जीवन्ति । तस्मादाकाशजं
बीजं विन्द्यात् । तदेवाकाशपीठं स्पार्शनं पीठं
तेजःपीठममृतपीठं रत्नपीठं जानीयात् । यो जानीते
सोऽमृतत्वं च गच्छति । तस्मादेतां तुरीयां श्रीकामराजीयामेकादशधा
भिन्नमेकाक्षरं ब्रह्मेति यो जानीते स तुरीयं पदं प्राप्नोति ।
य एवं वेदेति महोपनिषत् ॥
इति पञ्चमोपनिषत् ॥ ५॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
॥ इति श्रीत्रिपुरातापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ त्रिपुरोपनिषत् ॥
त्रिपुरोपनिषद्वेद्यपारमैश्वर्यवैभवम् ।
अखण्डानन्दसाम्राज्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् ।
अवतु वक्तारम् । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ तिस्रः पुरास्त्रिपथा विश्वचर्षणा अत्राकथा अक्षराः
सन्निविष्टाः ।
अधिष्ठायैना अजरा पुराणी महत्तरा महिमा देवतानाम् ॥ १॥
नवयोनिर्नवचक्राणि दधिरे नवैव योगा नव योगिन्यश्च ।
नवानां चक्रा अधिनाथाः स्योना नव मुद्रा नव भद्रा महीनाम् ॥ २॥
एका सा आसीत् प्रथमा सा नवासीदासोनविंशादासोनत्रिंशत् ।
चत्वारिंशादथ तिस्रः समिधा उशतीरिव मातरो मा विशन्तु ॥ ३॥
ऊर्ध्वज्वलज्वलनं ज्योतिरग्रे तमो वै तिरश्श्चीनमजरं तद्रजोऽभूत् ।
आनन्दनं मोदनं ज्योतिरिन्दो रेता उ वै मण्डला मण्डयन्ति ॥ ४॥
तिस्रश्च [ यास्तिस्रो ] रेखाः सदनानि
भूमेस्त्रिविष्टपास्त्रिगुणास्त्रिप्रकाराः ।
एतत्पुरं [ एतत्त्रयं ] पूरकं पूरकाणामत्र [
पूरकाणां मन्त्री ] प्रथते मदनो मदन्या ॥ ५॥
मदन्तिका मानिनी मंगला च सुभगा च सा सुन्दरी सिद्धिमत्ता ।
लज्जा मतिस्तुष्टिरिष्टा च पुष्टा लक्ष्मीरुमा ललिता लालपन्ती ॥ ६॥
इमां विज्ञाय सुधया मदन्ती परिसृता तर्पयन्तः स्वपीठम् ।
नाकस्य पृष्ठे वसन्ति परं धाम त्रैपुरं चाविशन्ति ॥ ७॥
कामो योनिः कामकला व्रजपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पूरूच्येषा विश्वमातादिविद्या ॥ ८॥
षष्ठं सप्तममथ वह्निसारथिमस्या मूलत्रिक्रमा देशयन्तः ।
कथ्यं कविं कल्पकं काममीशं तुष्टुवांसो अमृतत्वं
भजन्ते ॥ ९॥
त्रिविष्टपं त्रिमुखं विश्वमातुर्नवरेखाः स्वरमध्यं तदीले ।
[ पुरं हन्त्रीमुखं विश्वमातू रवे रेखा स्वरमध्यं तदेषा । ]
बृहत्तिथिर्दशा पञ्चादि नित्या सा षोडशी पुरमध्यं बिभर्ति ॥ १०॥
यद्वा मण्डलाद्वा स्तनबिंबमेकं मुखं चाधस्त्रीणि गुहा सदनानि ।
कामी कलां काम्यरूपां विदित्वा [ चिकित्वा ] नरो जायते
कामरूपश्च काम्यः [ कामः ] ॥ ११॥
परिसृतम् झषमाद्यं [ झषमाजं ] फलं च
भक्तानि योनीः सुपरिष्कृताश्च ।
निवेदयन्देवतायै महत्यै स्वात्मीकृते सुकृते सिद्धिमेति ॥ १२॥
सृण्येव सितया विश्वचर्षणिः पाशेनैव प्रतिबध्नात्यभीकाम् ।
इषुभिः पञ्चभिर्धनुषा च विध्यत्यादिशक्तिररुणा विश्वजन्या ॥ १३॥
भगः शक्तिर्भगवान्काम ईश उभा दाताराविह सौभगानाम् ।
समप्रधानौ समसत्वौ समोजौ तयोः शक्तिरजरा विश्वयोनिः ॥ १४॥
परिस्रुता हविषा भावितेन प्रसङ्कोचे गलिते वैमनस्कः ।
शर्वः सर्वस्य जगतो विधाता धर्ता हर्ता विश्वरूपत्वमेति ॥ १५॥
इयं महोपनिषत्त्रैपुर्या यामक्षरं परमो गीर्भिरीट्टे ।
एषर्ग्यजुः परमेतच्च सामायमथर्वेयमन्या च विद्या ॥ १६॥
ॐ ह्रीम् ॐ ह्रीमित्युपनिषत् ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् ।
अवतु वक्तारम् । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति त्रिपुरोपनिषत् ॥
त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषत्
योगज्ञानैकसंसिद्धशिवतत्त्वतयोज्ज्वलम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तं परंब्रह्म भवाम्यहम् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ त्रिशिखी ब्राह्मण आदित्यलोकं जगाम तं गत्वोवाच ।
भगवन् किं देहः किं प्राणः किं कारण किमात्मा स
होवाच सर्वमिदं शिव एव विजानीहि । किंतु नित्यः शुद्धो
निरञ्जनो विभुरद्वयः शिव एकः स्वेन भासेदं सर्वं
दृष्ट्वा तप्तायःपिण्डवदेकं भिन्नवदवभासते ।
तद्भासकं किमिति चेदुच्यते । सच्छब्दवाच्य-
मविद्याशबलं ब्रह्म । ब्रह्मणोऽव्यक्तम् । अव्यक्तान्महत् ।
महतोऽहङ्कारः । अहङ्कारात्पञ्चतन्मात्राणि ।
पञ्चतन्मात्रेभ्यः पञ्चमहाभूतानि ।
पञ्चमहाभूतेभ्योऽखिलं जगत् ॥
तदखिलं किमिति । भूतविकारविभागादिरिति । एकस्मिन्पिण्डे
कथं भूतविकारविभाग इति । तत्तत्कार्यकारणभेदरूपे-
णांशतत्त्ववाचकवाच्यस्थानभेदविषयदेवताकोश-
भेदविभागा भवन्ति । अथाकाशोऽन्तःकरणमनोबुद्धि-
चिताहङ्कारः । वायुः समानोदानव्यानापानप्राणाः ।
वह्निः श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानि । आपः शब्दस्पर्श-
रूपरसगन्धाः । पृथिवी वाक्पाणिपादपायूपस्थाः ।
ज्ञानसङ्कल्पनिश्चयानुसन्धानाभिमाना आकाश-
कार्यान्तःकरणविषयाः । समीकरणोन्ननयनग्रहण-
श्रवणोच्छ्वासा वायुकार्यप्राणादिविषयाः ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा अग्निकार्यज्ञानेन्द्रिय-
विषया अबाश्रिताः । वचनादानगमनविसर्गानन्दाः
पृथिवीकार्यकर्मेन्द्रियविषयाः । कर्मज्ञानेन्द्रिय-
विषयेषु प्राणतन्मात्रविषया अन्तर्भूताः ।
मनोबुद्ध्योश्चित्ताहङ्कारौ चान्तर्भूतौ ।
अवकाशविधूतदर्शनपिण्डीईकरणधारणाः सूक्ष्मतमा
जैवतन्मात्रविषयाः । एवं द्वादशाङ्गानि
आध्यात्मिकान्याधिभौतिकान्याधिदैविकानि । अत्र
निशाकरचतुर्मुखदिग्वातार्कवरुणाश्व्यग्नीन्द्रोपेन्द्र-
प्रजापतियमा इत्यक्षाधिदेवतारूपैर्द्वादश-
नाड्यन्तःप्रवृत्ताः प्राणा एवाङ्गानि अङ्गज्ञानं
तदेव ज्ञातेति । अथ व्योमानिलानलजलान्नानां
पञ्चीकरणमिति । ज्ञातृत्वं समानयोगेन श्रोत्रद्वारा
शब्दगुणो वागधिष्ठित आकाशे तिष्ठति आकाशस्तिष्ठति ।
मनोव्यानयोगेन त्वग्द्वारा स्पर्शगुणः पाण्यधिष्ठितो
वायौ तिष्ठति वायुस्तिष्ठति । बुद्धिरुदानयोगेन
चक्षुर्द्वारा रूपगुणः पादाधिष्ठितोऽग्नौ
तिष्ठत्यग्निस्तिष्ठति । चित्तमपानयोगेन जिह्वाद्वारा
रसगुण उपस्थाधिष्ठितोऽप्सु तिष्ठत्यापस्तिष्ठन्ति ।
अहङ्कारः प्राणयोगेन घ्राणद्वारा गन्धगुणो
गुदाधिष्ठितः पृथिव्यां तिष्ठति पृथिवी तिष्ठति
य एवं वेद । अत्रैते श्लोका भवन्ति ।
पृथग्भूते षोडश कलाः स्वार्थभागान्परान्क्रमात् ।
अन्तःकरणव्यानाक्षिरसपायुनभःक्रमात् ॥ १॥
मुख्यात्पूर्वोत्तरैर्भागैर्भूतेभूते चतुश्चतुः ।
पूर्वमाकाशमाश्रित्य पृथिव्यादिषु संस्थिताः ॥ २॥
मुख्यादूर्ध्वे परा ज्ञेया न परानुत्तरान्विदुः ।
एवमंशो ह्यभूत्तस्मात्तेभ्यश्चांशो ह्यभूत्तथा ॥ ३॥
तस्मादन्योन्यमाश्रित्य ह्योतं प्रोतमनुक्रमात् ।
पञ्चभूतमयी भूमिः सा चेतनसमन्विता ॥ ४॥
तत ओषधयोऽन्नं च ततः पिण्डाश्चतुर्विधाः ।
रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः ॥ ५॥
केचित्तद्योगतः पिण्डा भूतेभ्यः संभवाः क्वचित् ।
तस्मिन्नन्नमयः पिण्डो नाभिमण्डलसंस्थिताः ॥ ६॥
अस्य मध्येऽस्ति हृदयं सनालं पद्मकोशवत् ।
सत्त्वान्तर्वर्तिनो देवाः कर्त्रहङ्कारचेतनाः ॥ ७॥
अस्य बीजं तमःपिण्डं मोहरूपं जडं घनम् ।
वर्तते कण्ठमाश्रित्य मिश्रीभूतमिदं जगत् ॥ ८॥
प्रत्यगानन्दरूपात्मा मूर्ध्नि स्थाने परे पदे ।
अनन्तशक्तिसंयुक्तो जगद्रूपेण भासते ॥ ९॥
सर्वत्र वर्तते जाग्रत्स्वप्नं जाग्रति वर्तते ।
सुषुप्तं च तुरीयं च नान्यावस्थासु कुत्रचित् ॥ १०॥
सर्वदेशेष्वनुस्यूतश्चतूरूपः शिवात्मकः ।
यथा महाफले सर्वे रसाः सर्वप्रवर्तकाः ॥ ११॥
तथैवान्नमये कोशे कोशास्तिष्ठन्ति चान्तरे ।
यथा कोशस्तथा जीवो यथा जीवस्तथा शिवः ॥ १२॥
सविकारस्तथा जीवो निर्विकारस्तथा शिवः ।
कोशास्तस्य विकारास्ते ह्यवस्थासु प्रवर्तकाः ॥ १३॥
यथा रसाशये फेनं मथनादेव जायते ।
मनो निर्मथनादेव विकल्पा बहवस्तथा ॥ १४॥
कर्मणा वर्तते कर्मी तत्त्यागाच्छान्तिमाप्नुयात् ।
अयने दक्षिणे प्राप्ते प्रपञ्चाभिमुखं गतः ॥ १५॥
अहङ्काराभिमानेन जीवः स्याद्धि सदाशिवः ।
स चाविवेकप्रकृतिसङ्गत्या तत्र मुह्यते ॥ १६॥
नानायोनिशतं गत्वा शेतेऽसौ वासनावशात् ।
विमोक्षात्संचरत्येव मत्स्यः कूलद्वयं यथा ॥ १७॥
ततः कालवशादेव ह्यात्मज्ञानविवेकतः ।
उत्तराभिमुखो भूत्वा स्थानात्स्थानान्तरं क्रमात् ॥ १८॥
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणान्योगाभ्यासं स्थितश्चरन् ।
योगात्सञ्जायते ज्ञानं ज्ञानाद्योगः प्रवर्तते ॥ १९॥
योगज्ञानपरो नित्यं स योगी न प्रणश्यति ।
विकारस्थं शिवं पश्येद्विकारश्च शिवेन तु ॥ २०॥
योगप्रकाशकं योगैर्ध्यायेच्चानन्य भावनः ।
योगज्ञाने न विद्येते तस्य भावो न सिद्ध्यति ॥ २१॥
तस्मादभ्यासयोगेन मनःप्राणान्निरोधयेत् ।
योगी निशितधारेण क्षुरेणैव निकृन्तयेत् ॥ २२॥
शिखा ज्ञानमयी वृत्तिर्यमाद्यष्टाङ्गसाधनैः ।
ज्ञानयोगः कर्मयोग इति योगो द्विधा मतः ॥ २३॥
क्रियायोगमथेदानीं श्रुणु ब्राह्मणसत्तम ।
अव्याकुलस्य चित्तस्य बन्धनं विषये क्वचित् ॥ २४॥
यत्संयोगो द्विजश्रेष्ठ स च द्वैविध्यमश्नुते ।
कर्म कर्तव्यमित्येव विहितेष्वेव कर्मसु ॥ २५॥
बन्धनं मनसो नित्यं कर्मयोगः स उच्यते ।
यत्त चित्तस्य सततमर्थे श्रेयसि बन्धनम् ॥ २६॥
ज्ञानयोगः स विज्ञेयः सर्वसिद्धिकरः शिवः ।
यस्योक्तलक्षणे योगे द्विविधेऽप्यव्ययं मनः ॥ २७॥
स याति परमं श्रेयो मोक्षलक्षणमञ्जसा ।
देहेन्द्रियेषु वैराग्यं यम इत्युच्यते बुधैः ॥ २८॥
अनुरक्तिः परे तत्त्वे सततं नियमः स्मृतः ।
सर्ववस्तुन्युदासीनभावमासनमुत्तमम् ॥ २९॥
जगत्सर्वमिदं मिथ्याप्रतीतिः प्राणसंयमः ।
चित्तस्यान्तर्मुखीभावः प्रत्याहारस्तु सत्तम ॥ ३०॥
चित्तस्य निश्चलीभावो धारणा धारणं विदुः ।
सोऽहं चिन्मात्रमेवेति चिन्तनं ध्यानमुच्यते ॥ ३१॥
ध्यानस्य विस्मृतिः सम्यक्समाधिरभिधीयते ।
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं दयार्जवम् ॥ ३२॥
क्षमा धृतिर्मिताहारः शौचं चेति यमादश ।
तपःसन्तुष्टिरास्तिक्यं दानमाराधनं हरेः ॥ ३३॥
वेदान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो व्रतम् ॥ इति ।
आसनानि तदङ्गानि स्वस्तिकादीनि वै द्विज ॥ ३४॥
वर्ण्यन्ते स्वस्तिकं पादतलयोरुभयोरपि ।
पूर्वोत्तरे जानुनी द्वे कृत्वासनमुदीरितम् ॥ ३५॥
सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपार्श्वे नियोजयेत् ।
दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोर्मुखं यथा ॥ ३६॥
एकं चरणमन्यस्मिन्नूरावारोप्य निश्चलः ।
आस्ते यदिदमेनोघ्नं वीरासनमुदीरितम् ॥ ३७॥
गुदं नियम्य गुल्फाभ्यां व्युत्क्रमेण समाहितः ।
योगासनं भवेदेतदिति योगविदो विदुः ॥ ३८॥
ऊर्वोरुपरिवै धत्ते यदा पादतले उभे ।
पद्मासनं भवेदेतत्सर्वव्याधिविषापहम् ॥ ३९॥
पद्मासनं सुसंस्थाप्य तदङ्गुष्ठद्वयं पुनः ।
व्युत्क्रमेणैव हस्ताभ्यां बद्धपद्मासनं भवेत् ॥ ४०॥
पद्मासनं सुसंस्थाप्य जानूर्वोरन्तरे करौ ।
निवेश्य भूमावातिष्ठेद्व्योमस्थः कुक्कुटासनः ॥ ४१॥
कुक्कुटासनबन्धस्थो दोर्भ्यां संबध्य कन्धरम् ।
शेते कूर्मवदुत्तान एतदुत्तानकूर्मकम् ॥ ४२॥
पादाङ्गुष्ठौ तु पाणिभ्यां गृहीत्वा श्रवणावधि ।
धनुराकर्षकाकृष्टं धनुरासनमीरितम् ॥ ४३॥
सीवनीं गुल्फदेशाभ्यां निपीड्य व्युत्क्रमेण तु ।
प्रसार्य जानुनोर्हस्तावासनं सिंहरूपकम् ॥ ४४॥
गुल्फौ च वृषणस्याधः सीवन्युभयपार्श्वयोः ।
निवेश्य पादौ हस्ताभ्यां बध्वा भद्रासनं भवेत् ॥ ४५॥
सीवनीपार्श्वमुभयं गुल्फाभ्यां व्युत्क्रमेण तु ।
निपीड्यासनमेतच्च मुक्तासनमुदीरितम् ॥ ४६॥
अवष्टभ्य धरां सम्यक्तलाभ्यां हस्तयोर्द्वयोः ।
कूर्परौ नाभिपार्श्वे तु स्थापयित्वा मयूरवत् ॥ ४७॥
समुन्नतशिरःपादं मयूरासनमिष्यते ।
वामोरुमूले दक्षाङ्घ्रिं जान्वोर्वेष्टितपाणिना ॥ ४८॥
वामेन वामाङ्गुष्ठं तु गृहीतं मत्स्यपीठकम् ।
योनिं वामेन सम्पीड्य मेढ्रादुपरि दक्षिणम् ॥ ४९॥
ऋजुकायः समासीनः सिद्धासनमुदीरितम् ।
प्रसार्य भुवि पादौ तु दोर्भ्यामङ्गुष्ठमादरात् ॥ ५०॥
जानूपरि ललाटं तु पश्चिमं तानमुच्यते ।
येनकेन प्रकारेण सुखं धार्यं च जायते ॥ ५१॥
तत्सुखासनमित्युक्तमशक्तस्तत्समाचरेत् ।
आसनं विजितं येन जितं तेन जगत्त्रयम् ॥ ५२॥
यमैश्च नियमैश्चैव आसनैश्च सुसंयतः ।
नाडीशुद्धिं च कृत्वादौ प्राणायामं समाचरेत् ॥ ५३॥
देहमानं स्वाङ्गुलिभिः षण्णवत्यङ्गुलायतम् ।
प्राणः शरीरादधिको द्वादशाङ्गुलमानतः ॥ ५४॥
देहस्थमनिलं देहसमुद्भूतेन वह्निना ।
न्यूनं समं वा योगेन कुर्वन्ब्रह्मविदिष्यते ॥ ५५॥
देहमध्ये शिखिस्थानं तप्तजाम्बूनदप्रभम् ।
त्रिकोणं द्विपदामन्यच्चतुरस्रं चतुष्पदम् ॥ ५६॥
वृत्तं विहङ्गमानां तु षडस्रं सर्पजन्मनाम् ।
अष्टास्रं स्वेदजानां तु तस्मिन्दीपवदुज्ज्वलम् ।
कन्दस्थानं मनुष्याणां देहमध्यं नवाङ्गुलम् ।
चतुरङ्गुलमुत्सेधं चतुरङ्गुलमायतम् ॥ ५७॥
अण्डाकृति तिरश्चां च द्विजानां च चतुष्पदाम् ।
तुन्दमध्यं तदिष्टं वै तन्मध्यं नाभिरिप्यते ॥ ५८॥
तत्र चक्रं द्वादशारं तेषु विष्ण्वादिमूर्तयः ।
अहं तत्र स्थितश्चक्रं भ्रामयामि स्वमायया ॥ ५९॥
अरेषु भ्रमते जीवः क्रमेण द्विजसत्तम ।
तन्तुपञ्जरमध्यस्था यथा भ्रमति लूतिका ॥ ६०॥
प्राणाधिरूढश्चरति जीवस्तेन विना नहि ।
तस्योर्ध्वे कुण्डलीस्थानं नाभेस्तिर्यगथोर्ध्वतः ॥ ६१॥
अष्टप्रकृतिरूपा सा चाष्टधा कुण्डलीकृता ।
यथावद्वायुसारं च ज्वलनादि च नित्यशः ॥ ६२
परितः कन्दपार्श्वे तु निरुध्येव सदा स्थिता ।
मुखेनैव समावेष्ट्य ब्रह्मरन्ध्रमुखं तथा ॥ ६३॥
योगकालेन मरुता साग्निना बोधिता सती ।
स्फुरिता हृदयाकाशे नागरूपा महोज्ज्वला ॥ ६४॥
अपनाद्द्वयङ्गुलादूर्ध्वमधो मेढ्रस्य तावता ।
देहमध्यं मनुष्याणां हृन्मध्यं तु चतुष्पदाम् ॥ ६५॥
इतरेषां तुन्दमध्ये प्राणापानसमायुताः ।
चतुष्प्रकारद्व्ययुते देहमध्ये सुषुम्नया ॥ ६६॥
कन्दमध्ये स्थिता नाडी सुषुम्ना सुप्रतिष्ठिता ।
पद्मसूत्रप्रतीकाशा ऋजुरूर्ध्वप्रवर्तिनी ॥ ६७॥
ब्रह्मणो विवरं यावद्विद्युदाभासनालकम् ।
वैष्णवी ब्रह्मनाडी च निर्वाणप्राप्तिपद्धतिः ॥ ६८॥
इडा च पिङ्गला चैव तस्याः सव्येतरे स्थिते ।
इडा समुत्थिता कन्दाद्वामनासापुटावधि ॥ ६९॥
पिङ्गला चोत्थिता तस्माद्दक्षनासापुटावधि ।
गान्धारी हस्तिजिह्वा च द्वे चान्ये नाडिके स्थिते ॥ ७०॥
पुरतः पृष्ठतस्तस्य वामेतरदृशौ प्रति ।
पूषा यशस्विनी नाड्यौ तस्मादेव समुत्थिते ॥ ७१॥
सव्येतरश्रुत्यवधि पायुमूलादलम्बुअसा ।
अधोगता शुभा नाडी मेढ्रान्तावधिरायता ॥ ७२॥
पादाङ्गुष्ठावधिः कन्दादधोयाता च कौशिकी ।
दशप्रकारभूतास्ताः कथिताः कन्दसम्भवाः ॥ ७३॥
तन्मूला बहवो नाड्यः स्थूलसूक्ष्माश्च नाडिकाः ।
द्वासप्ततिसहस्राणि स्थूलाः सूक्ष्माश्च नाडयः ॥ ७४॥
संख्यातुं न शक्यन्ते स्थूलमूलाः पृथग्विधाः ।
यथाश्वत्थदले सूक्ष्माः स्थूलाश्च विततास्तथा ॥ ७५॥
प्राणापानौ समानश्च उदानो व्यान एव च ।
नागः कूर्मश्च कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ॥ ७६॥
चरन्ति दशनाडीषु दश प्राणादिवायवः ।
प्राणादिपञ्चकं तेषु प्रधानं तत्र च द्वयम् ॥ ७७॥
प्राण एवाथवा ज्येष्ठो जीवात्मानं बिभर्ति यः ।
आस्यनासिकयोर्मध्यं हृदयं नाभिमण्डलम् ॥ ७८॥
पादाङ्गुष्ठमिति प्राणस्थानानि द्विजसत्तम ।
अपानश्चरति ब्रह्मन्गुदमेढ्रोरुजानुषु ॥ ७९॥
समानः सर्वगात्रेषु सर्वव्यापी व्यवस्थितः ।
उदानः सर्वसन्धिस्थः पादयोर्हस्तयोरपि ॥ ८०॥
व्यानः श्रोत्रोरुकट्यां च गुल्फस्कन्धगलेषु च ।
नागादिवायवः पञ्च त्वगस्थादिषु संस्थिताः ॥ ८१॥
तुन्दस्थजलमन्नं च रसादीनि समीकृतम् ।
तुन्दमध्यगतः प्राणस्तानि कुर्यात्पृथक्पृथक् ॥ ८२॥
इत्यादिचेष्टनं प्राणः करोति च पृथक्स्थितम् ।
अपानवायुर्मूत्रादेः करोति च विसर्जनम् ॥ ८३॥
प्राणापानादिचेष्टादि क्रियते व्यानवायुना ।
उज्जीर्यते शरीरस्थमुदानेन नभस्वता ॥ ८४॥
पोषणादिशरीरस्य समानः कुरुते सदा ।
उद्गारादिक्रियो नागः कूर्मोऽक्षादिनिमीलनः ॥ ८५॥
कृकरः क्षुतयोः कर्ता दत्तो निद्रादिकर्मकृत् ।
मृतगात्रस्य शोभादेर्धनञ्जय उदाहृतः ॥ ८६॥
नाडीभेदं मरुद्भेदं मरुतां स्थानमेव च ।
चेष्टाश्च विविधास्तेषां ज्ञात्वैव निजसत्तम ॥ ८७॥
शुद्धौ यतेत नाडीनां पूर्वोक्तज्ञानसंयुतः ।
विविक्तदेशमासाद्य सर्वसंबन्धवर्जितः ॥ ८८॥
योगाङ्गद्रव्यसम्पूर्णं तत्र दारुमये शुभे ।
आसने कल्पिते दर्भकुशकृष्णाजिनादिभिः ॥ ८९॥
तावदासनमुत्सेधे तावद्द्वयसमायते ।
उपविश्यासनं सम्यक्स्वस्तिकादि यथारुचि ॥ ९०॥
बध्वा प्रागासनं विप्रो ऋजुकायः समाहितः ।
नासाग्रन्यस्तनयनो दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन् ॥ ९१॥
रसनां तालुनि न्यस्य स्वस्थचित्तो निरामयः ।
आकुञ्चितशिरः किंचिन्निबध्नन्योगमुद्रया ॥ ९२॥
हस्तौ यथोक्तविधिना प्राणायामं समाचरेत् ।
रेचनं पूरणं वायोः शोधनं रेचनं तथा ॥ ९३॥
चतुर्भिः क्लेशनं वायोः प्राणायाम उदीर्यते ।
हस्तेन दक्षिणेनैव पीडयेन्नासिकापुटम् ॥ ९४॥
शनैः शनैरथ बहिः प्रक्षिपेत्पिङ्गलानिलम् ।
इडया वायुमापूर्य ब्रह्मन्षोडशमात्रया ॥ ९५॥
पूरितं कुम्भयेत्पश्चाच्चतुःषष्ट्या तु मात्रया ।
द्वात्रिंशन्मात्रया सम्यग्रेचयेत्पिङ्गलानिलम् ॥ ९६॥
एवं पुनः पुनः कार्यं व्युत्क्रमानुक्रमेण तु ।
सम्पूर्णकुम्भवद्देहं कुम्भयेन्मातरिश्वना ॥ ९७॥
पूरणान्नाडयः सर्वाः पूर्यन्ते मातरिश्वना ।
एवं कृते सति ब्रह्मंश्चरन्ति दश वायवः ॥ ९८॥
हृदयाम्भोरुहं चापि व्याकोचं भवति स्फुटम् ।
तत्र पश्येत्परात्मानं वासुदेवमकल्मषम् ॥ ९९॥
प्रातर्मध्यन्दिने सायमर्धरात्रे च कुम्भकान् ।
शनैरशीतिपर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत् ॥ १००॥
एकाहमात्रं कुर्वाणः सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
संवत्सरत्रयादूर्ध्वं प्राणायामपरो नरः ॥ १०१॥
योगसिद्धो भवेद्योगी वायुजिद्विजितेन्द्रियः ।
अल्पाशी स्वल्पनिद्रश्च तेजस्वी बलवान्भवेत् ॥ १०२॥
अपमृत्युमतिक्रम्य दीर्घमायुरवाप्नुयात् ।
प्रस्वेदजननं यस्य प्राणायामस्तु सोऽधमः ॥ १०३॥
कंपनं वपुषो यस्य प्राणायामेषु मध्यमः ।
उत्थानं वपुषो यस्य स उत्तम उदाहृतः ॥ १०४॥
अधमे व्याधिपापानां नाशः स्यान्मध्यमे पुनः ।
पापरोगमहाव्याधिनाशः स्यादुत्तमे पुनः ॥ १०५॥
अल्पमूत्रोऽल्पविष्ठश्च लघुदेहो मिताशनः ।
पट्विन्द्रियः पटुमतिः कालत्रयविदात्मवान् ॥ १०६॥
रेचकं पूरकं मुक्त्वा कुम्भीकरणमेव यः ।
करोति त्रिषु कालेषु नैव तस्यास्ति दुर्लभम् ॥ १०७॥
नाभिकन्दे च नासाग्रे पादाङ्गुष्ठे च यत्नवान् ।
धारयेन्मनसा प्राणान्सन्ध्याकालेषु वा सदा ॥ १०८॥
सर्वरोगैर्विनिर्मुक्तो जीवेद्योगी गतक्लमः ।
कुक्षिरोगविनाशः स्यान्नाभिकन्देषु धारणात् ॥ १०९॥
नासाग्रे धारणाद्दीर्घमायुः स्याद्देहलाघवम् ।
ब्राह्मे मुहूर्ते सम्प्राप्ते वायुमाकृष्य जिह्वया ॥ ११०॥
पिबतस्त्रिषु मासेषु वाक्सिद्धिर्महती भवेत् ।
अभ्यासतश्च षण्मासान्महारोगविनाशनम् ॥ १११॥
यत्र यत्र धृतो वायुरङ्गे रोगादिदूषिते ।
धारणादेव मरुतस्तत्तदारोग्यमश्नुते ॥ ११२॥
मनसो धारणादेव पवनो धारितो भवेत् ।
मनसः स्थापने हेतुरुच्यते द्विजपुङ्गव ॥ ११३॥
करणानि समाहृत्य विषयेभ्यः समाहितः ।
अपानमूर्ध्वमाकृष्येदुदरोपरि धारयेत् ॥ ११४॥
बन्धन्कराभ्यां श्रोत्रादिकरणानि यथातथम् ।
युञ्जानस्य यथोक्तेन वर्त्मना स्ववशं मनः ॥ ११५॥
मनोवशात्प्राणवायुः स्ववशे स्थाप्यते सदा ।
नासिकापुटयोः प्राणः पर्यायेण प्रवर्तते ॥ ११६॥
तिस्रश्च नाडिकास्तासु स यावन्तं चरत्ययम् ।
शङ्खिनीविवरे याम्ये प्राणः प्राणभृतां सताम् ॥ ११७॥
तावन्तं च पुनः कालं सौम्ये चरति सन्ततम् ।
इत्थं क्रमेण चरता वायुना वायुजिन्नरः ॥ ११८॥
अहश्च रात्रिं पक्षं च मासमृत्वयनादिकम् ।
अन्तर्मुखो विजानीयात्कालभेदं समाहितः ॥ ११९॥
अङ्गुष्ठादिस्वावयवस्फुरणादशनेरपि ।
अरिष्टैर्जीवितस्यापि जानीयात्क्षयमात्मनः ॥१२०॥
ज्ञात्वा यतेत कैवल्यप्राप्तये योगवित्तमः ।
पादाङ्गुष्ठे कराङ्गुष्ठे स्फुरणं यस्य न श्रुतिः ॥ १२१॥
तस्य संवत्सरादूर्ध्वं जीवितस्य क्षयो भवेत् ।
मणिबन्धे तथा गुल्फे स्फुरणं यस्य नश्यति ॥ १२२॥
षण्मासावधिरेतस्य जीवितस्य स्थितिर्भवेत् ।
कूर्परे स्फुरणं यस्य तस्य त्रैमासिकी स्थितिः ॥ १२३॥
कुक्षिमेहनपार्श्वे च स्फुरणानुपलम्भने ।
मासावधिर्जीवितस्य तदर्धस्य तु दर्शने ॥ १२४॥
आश्रिते जठरद्वारे दिनानि दश जीवितम् ।
ज्योतिः खद्योतवद्यस्य तदर्धं तस्य जीवितम् ॥ १२५॥
जिह्वाग्रादर्शने त्रीणि दिनानि स्थितिरात्मनः ।
ज्वालाया दर्शने मृत्युर्द्विदिने भवति ध्रुवम् ॥ १२६॥
एवमादीन्यरिष्टानि दृष्टायुःक्षयकारणम् ।
निःश्रेयसाय युञ्जीत जपध्यानपरायणः ॥ १२७॥
मनसा परमात्मानं ध्यात्वा तद्रूपतामियात् ।
यद्यष्टादशभेदेषु मर्मस्थानेषु धारणम् ॥ १२८॥
स्थानात्स्थानं समाकृष्य प्रत्याहारः स उच्यते ।
पादाङ्गुष्ठं तथा गुल्फं जङ्गामध्यं तथैव च ॥ १२९॥
मध्यमूर्वोश्च मूलं पायुर्हृदयमेव च ।
मेहनं देहमध्यं च नाभिं च गलकूर्परम् ॥ १३०॥
तालुमूलं च मूलं च घ्राणस्याक्ष्णोश्च मण्डलम् ।
भ्रुवोर्मध्ये ललाटं च मूलमूर्ध्वं च जानुनी ॥ १३१॥
मूलं च करयोर्मूलं महान्त्येतानि वै द्विज ।
पञ्चभूतमये देहे भूतेष्वेतेषु पञ्चसु ॥ १३२॥
मनसो धारणं यत्यद्युक्तस्य च यमादिभिः ।
धारणा सा च संसारसागरोत्तरकारणम् ॥ १३३॥
आजानुपादपर्यन्तं पृथिवीस्थानमिष्यते ।
पित्तला चतुरस्रा च वसुधा वज्रलाञ्छिता ॥ १३४॥
स्मर्तव्या पञ्चघटिकास्तत्रारोप्यप्रभञ्जनम् ।
आजानुकटिपर्यन्तमपां स्थानं प्रकीर्तितम् ॥ १३५॥
अर्धचन्द्रसमाकारं श्वेतमर्जुनलाञ्छितम् ।
स्मर्तव्यमम्भःश्वसनमारोप्य दशनाडिकाः ॥ १३६॥
आदेहमध्यकट्यन्तमग्निस्थानमुदाहृतम् ।
तत्र सिन्दूरवर्णोऽग्निर्ज्वलनं दशपञ्च च ॥ १३७॥
स्मर्तव्यो नाडिकाः प्राणं कृत्वा कुम्भे तथेरितम् ।
नाभेरुपरि नासान्तं वायुस्थानं तु तत्र वै ॥ १३८॥
वेदिकाकारवद्धूम्रो बलवान्भूतमारुतः ।
स्मर्तव्यः कुम्भकेनैव प्राणमारोप्य मारुतम् ॥ १३९॥
घटिकाविंशतिस्तस्माद्घ्राणाद्ब्रह्मबिलावधि ।
व्योमस्थानं नभस्तत्र भिन्नाञ्जनसमप्रभम् ॥ १४०॥
व्योम्नि मारुतमारोप्य कुम्भकेनैव यत्नवान् ।
पृथिव्यंशे तु देहस्य चतुर्बाहुं किरीटिनम् ॥ १४१॥
अनिरुद्धं हरिं योगी यतेत भवमुक्तये ।
अबंशे पूरयेद्योगी नारायणमुदग्रधीः ॥ १४२॥
प्रद्युम्नमग्नौ वाय्वंशे संकर्षणमतः परम् ।
व्योमांशे परमात्मानं वासुदेवं सदा स्मरेत् ॥ १४३॥
अचिरादेव तत्प्राप्तिर्युञ्जानस्य न संशयः ।
बध्वा योगासनं पूर्वं हृद्देशे हृदयाञ्जलिः ॥ १४४॥
नासाग्रन्यस्तनयनो जिह्वां कृत्वा च तालुनि ।
दन्तैर्दन्तानसंस्पृश्य ऊर्ध्वकायः समाहितः ॥ १४५॥
संयमेच्चेन्द्रियग्राममात्मबुद्ध्या विशुद्धया ।
चिन्तनं वासुदेवस्य परस्य परमात्मनः ॥ १४६॥
स्वरूपव्याप्तरूपस्य ध्यानं कैवल्यसिद्धिदम् ।
याममात्रं वासुदेवं चिन्तयेत्कुम्भकेन यः ॥ १४७॥
सप्तजन्मार्जितं पापं तस्य नश्यति योगिनः ।
नाभिकन्दात्समारभ्य यावद्धृदयगोचरम् ॥ १४८॥
जाग्रद्वृत्तिं विजानीयात्कण्ठस्थं स्वप्नवर्तनम् ।
सुषुप्तं तालुमध्यस्थं तुर्यं भ्रूमध्यसंस्थितम् ॥ १४९॥
तुर्यातीतं परं ब्रह्म ब्रह्मरन्ध्रे तु लक्षयेत् ।
जाग्रद्वृत्तिं समारभ्य यावद्ब्रह्मबिलान्तरम् ॥ १५०॥
तत्रात्मायं तुरीयस्य तुर्यान्ते विष्णुरुच्यते ।
ध्यानेनैव समायुक्तो व्योम्नि चात्यन्तनिर्मले ॥ १५१॥
सूर्यकोटिद्युतिरथं नित्योदितमधोक्षजम् ।
हृदयाम्बुरुहासीनं ध्यायेद्वा विश्वरूपिणम् ॥ १५२॥
अनेकाकारखचितमनेकवदनान्वितम् ।
अनेकभुजसंयुक्तमनेकायुधमण्डितम् ॥ १५३॥
ननावर्णधरं देवं शातमुग्रमुदायुधम् ।
अनेकनयानाकीर्णं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ १५४॥
ध्यायतो योगिनः सर्वमनोवृत्तिर्विनश्यति ।
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थं चैतन्यज्योतिरव्ययम् ॥ १५५॥
कदम्बगोलकाकारं तुर्यातीतं परात्परम् ।
अनन्तमानन्दमयं चिन्मयं भास्करं विभुम् ॥ १५६॥
निवातदीपसदृशमकृत्रिममणिप्रभम् ।
ध्यायतो योगिनस्तस्य मुक्तिः करतले स्थिता ॥ १५७॥
विश्वरूपस्य देवस्य रूपं यत्किञ्चिदेव हि ।
स्थवीयः सूक्ष्ममन्यद्वा पश्यन्हृदयपङ्कजे ॥ १५८॥
ध्यायतो योगिनो यस्तु साक्षादेव प्रकाशते ।
अणिमादिफलं चैव सुखेनैवोपजायते ॥ १५९॥
जीवात्मनः परस्यापि यद्येवमुभयोरपि ।
अहमेव परंब्रह्म ब्रह्माहमिति संस्थितिः ॥ १६०॥
समाधिः स तु विज्ञेयः सर्ववृत्तिविवर्जितः ।
ब्रह्म सम्पद्यते योगी न भूयः संसृतिं व्रजेत् ॥ १६१॥
एवं विशोध्य तत्त्वानि योगी निःस्पृहचेतसा ।
यथा निरिन्धनो वह्निः स्वयमेव प्रशाम्यति ॥ १६२॥
ग्राह्याभावे मनः प्राणो निश्चयज्ञानसंयुतः ।
शुद्धसत्त्वे परे लीनो जीवः सैन्धवपिण्डवत् ॥ १६३॥
मोहजालकसंघातो विश्वं पश्यति स्वप्नवत् ।
सुषुप्तिवद्यश्चरति स्वभावपरिनिश्चलः ॥ १६४॥
निर्वाणपदमाश्रित्य योगी कैवल्यमश्नुत इत्युपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ दक्षिणामूर्त्युपनिषत् ॥
यन्मौनव्याख्यया मौनिपटलं क्षणमात्रतः ।
महामौनपदं याति स हि मे परमा गतिः ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ ब्रह्मावर्ते महाभाण्डीरवटमूले महासत्राय समेता
महर्षयः शौनकादयस्ते ह समित्पाणयस्तत्त्वजिज्ञासवो
मार्कण्डेयं चिरऽजीविनमुपसमेत्य पप्रच्छुः केन त्वं
चिरं जीवसि केन वानन्दमनुभवसीति । परमरहस्यशिव-
तत्त्वज्ञानेनेति स होवाच । किं तत्परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानम् ।
तत्र को देवः । के मन्त्राः । को जपः । का मुद्रा । का निष्ठा ।
किं तज्ज्ञानसाधनम् । कः परिकरः । को बलिः । कः कालः ।
किं तत्स्थानमिति । स होवाच । येन दक्षिणामुखः शिवोऽपरोक्षीकृतो
भवति तत्परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानम् । यः सर्वोपरमे काले
सर्वानात्मन्युपसंहृत्य स्वात्मानन्दसुखे मोदते प्रकाशते
वा स देवः । अत्रैते मन्त्ररहस्यश्लोका भवन्ति । मेधा
दक्षिणामूर्तिमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः ।
देवता दक्षिणास्यः । मन्त्रेणाङ्गन्यासः । ॐ आदौ नम उच्चार्य
ततो भगवते पदम् । दक्षिणेति पदं पश्चान्मूर्तये पदमुद्धरेत् ॥ १॥
अस्मच्छब्दं चतुर्थ्यन्तं मेधां प्रज्ञां पदं वदेत् ।
समुच्चार्य ततो वायुबीजं च्छं च ततः पठेत् ।
अग्निजायां ततस्त्वेष चतुर्विंशाक्षरो मनुः ॥ २॥
ध्यानम् ॥
स्फटिकरजतवर्णं मौक्तिकीमक्षमाला-
ममृतकलशविद्यां ज्ञानमुद्रां कराग्रे ।
दधतमुरगकक्ष्यं चन्द्रचूडं त्रिनेत्रं
विधृतविविधभूषं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥ ३॥
मन्त्रेण न्यासः ।
आदौ वेदादिमुच्चार्य स्वराद्यं सविसर्गकम् ।
पञ्चार्णं तत उद्धृत्य अन्तरं सविसर्गकम् ।
अन्ते समुद्धरेत्तारं मनुरेष नवाक्षरः ॥ ४॥
मुद्रां भद्रार्थदात्रीं स परशुहरिणं बाहुभिर्बाहुमेकं
जान्वासक्तं दधानो भुजगबिलसमाबद्धकक्ष्यो वटाधः ।
आसीनश्चन्द्रखण्डप्रतिघटितजटाक्षीरगौरस्त्रिनेत्रो
दद्यादाद्यः शुकाद्यैर्मुनिभिरभिवृतो भावशुद्धिं भवो नः ॥ ५॥
मन्त्रेण न्यासः ब्रह्मर्षिन्यासः -
तारं ब्रूंनम उच्चार्य मायां वाग्भवमेव च ।
दक्षिणापदमुच्चार्य ततः स्यान्मूर्तये पदम् ॥ ६॥
ज्ञानं देहि पदं पश्चाद्वह्निजायां ततो न्यसेत् ।
मनुरष्टादशार्णोऽयं सर्वमन्त्रेषु गोपितः ॥ ७॥
भस्मव्यापाण्डुरङ्गः शशिशकलधरो ज्ञानमृद्राक्षमाला-
वीणापुस्तैर्विराजत्करकमलधरो योगपट्टाभिरामः ।
व्याख्यापीठे निषण्णो मुनिवरनिकरैः सेव्यमानः प्रसन्नः
सव्यालः कृत्तिवासाः सततमवतु नो दक्षिणामूर्तिरीशः ॥ ८॥
मन्त्रेण न्यासः । [ब्रह्मर्षिन्यासः ।]
तारं परं रमाबीजं वदेत्सांबशिवाय च ।
तुभ्यं चानलजायां मनुर्द्वादशवर्णकः ॥ ९॥
वीणां करैः पुस्तकमक्षमालां
बिभ्राणमभ्राभगलं वराढ्यम् ।
फणीन्द्रकक्ष्यं मुनिभिः शुकाद्यैः
सेव्यं वटाधः कृतनीडमीडे ॥ १०॥
विष्णू ऋषिरनुष्टुप् छन्दः । देवता दक्षिणास्यः ।
मन्त्रेण न्यासः ।
तारं नमो भगवते तुभ्यं वटपदं ततः ।
मूलेति पदमुच्चार्य वासिने पदमुद्धरेत् ॥ ११॥
प्रज्ञामेधापदं पश्चादादिसिद्धिं ततो वदेत् ।
दायिने पदमुच्चार्य मायिने नम उद्धरेत् ॥ १२॥
वागीशाय ततः पश्चान्महाज्ञानपदं ततः ।
वह्निजायां ततस्त्वेष द्वात्रिंशद्वर्णको मनुः ।
आनुष्टुभो मन्त्रराजः सर्वमन्त्रोत्तमोतमः ॥ १३॥
ध्यानम् ।
मुद्रापुस्तकवह्निनागविलसद्बाहुं प्रसन्नाननं
मुक्ताहारविभूषणं शशिकलाभास्वत्किरीटोज्ज्वलम् ।
अज्ञानापहमादिमादिमगिरामर्थं भवानीपतिं
न्यग्रोधान्तनिवासिनं परगुरुं ध्यायाम्यभीष्टाप्तये ॥ १४॥
मौनमुद्रा ।
सोऽहमिति यावदास्थितिः सनिष्ठा भवति ।
तदभेदेन मन्त्राम्रेडनं ज्ञानसाधनम् ।
चित्ते तदेकतानता परिकरः । अङ्गचेष्टार्पणं बलिः ।
त्रीणि धामानि कालः । द्वादशान्तपदं स्थानमिति ।
ते ह पुनः श्रद्दधानास्तं प्रत्यूचुः ।
कथं वाऽस्योदयः । किं स्वरूपम् । को वाऽस्योपासक इति ।
स होवाच ।
वैराग्यतैलसम्पूर्णे भक्तिवर्तिसमन्विते ।
प्रबोधपूर्णपात्रे तु ज्ञप्तिदीपं विलोकयेत् ॥ १५॥
मोहान्धकारे निःसारे उदेति स्वयमेव हि ।
वैराग्यमरणिं कृत्वा ज्ञानं कृत्वोत्तरारणिम् ॥ १६॥
गाढतामिस्रसंशान्त्यै गूढमर्थं निवेदयेत् ।
मोहभानुजसंक्रान्तं विवेकाख्यं मृकण्डुजम् ॥ १७॥
तत्त्वाविचारपाशेन बद्धं द्वैतभयातुरम् ।
उज्जीवयन्निजानन्दे स्वस्वरूपेण संस्थितः ॥ १८॥
शेमुषी दक्षिणा प्रोक्ता सा यस्याभीक्षणे मुखम् ।
दक्षिणाभिमुखः प्रोक्तः शिवोऽसौ ब्रह्मवादिभिः ॥ १९॥
सर्गादिकाले भगवान्विरिञ्चि-
रुपास्यैनं सर्गसामर्थ्यमाप्य ।
तुतोष चित्ते वाञ्छितार्थांश्च लब्ध्वा
धन्यः सोपास्योपासको भवति धाता ॥ २०॥
य इमां परमरहस्यशिवतत्त्वविद्यामधीते स सर्वपापेभ्यो मुक्तो भवति ।
य एवं वेद स कैवल्यमनुभवतीत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति दक्षिणामूर्त्युपनिषत्समाप्ता ॥
श्रीदत्तात्रेयोपनिषत्
दत्तात्रेयीब्रह्मविद्यासंवेद्यानन्दविग्रहम् ।
त्रिपान्नारायणाकरं दत्तात्रेयमुपास्महे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ सत्यक्षेत्रे ब्रह्मा नारायणं महासाम्राज्यं किं
तारकं तन्नो ब्रूहि भगवन्नित्युक्तः सत्यानन्द सात्त्विकं मामकं
धामोपास्वेत्याह । सदा दत्तोऽहमस्मीति प्रत्येतत्संवदन्ति येन ते
संसारिणो भवन्ति नारायणेनैवं विवक्षितो ब्रह्मा विश्वरूपधरं
विष्णुं नारायणं दत्तात्रेअयं ध्यात्वा सद्वदति । दमिति हंसः ।
दामिति दीर्घं तद्बीजं नाम बीजस्थम् । दामित्येकाक्षरं भवति ।
तदेतत्तारकं भवति । तदेवोपासितव्यं विज्ञेयं गर्भादितारणम् ।
गायत्री छन्दः । सदाशिव ऋषिः । दत्तात्रेयो देवता । वटबीजस्थमिव
दत्तबीजस्थं सर्वं जगत् । एतदैवाक्षरं व्याख्यातम् ।
दत्तात्रेयषडक्षरमन्त्रः
व्याख्यास्ये षडक्षरम् । ओमिति प्रथमम् । श्रीमिति द्वितीयम् ।
ह्रीमिति तृतीयम् । क्लीमिति चतुर्थम् । ग्लौमिति पञ्चमम् ।
द्रामिति षट्कम् । षडक्षरोऽयं भवति । सर्वसम्पद्वृद्धिकरी भवति ।
योगानुभवो भवति । गायत्री छन्दः । सदाशिव ऋषिः । दत्तात्रेयो
देवता । ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं द्रां इति षडक्षरोऽयं भवति ।
द्रमित्युक्त्वा द्रामित्युक्त्वा वा दत्तात्रेयाय नम इत्यष्टाक्षरः ।
दत्तात्रेयायेति सत्यानन्दचिदात्मकम् । नम इति पूर्णानन्दकविग्रहम् ।
गायत्री छन्दः । सदाशिव ऋषिः । दत्तात्रेयो देवता । दत्तात्रेयायेति
कीलकम् । तदेव बीजम् । नमः शक्तिर्भवति । ओमिति प्रथमम् । आमिति
द्वितीयम् । ह्रीमिति तृतीयम् । क्रोमिति चतुर्थम् । एहीति तदेव वदेत् ।
दत्तात्रेयेति स्वाहेति मन्त्रराजोऽयं द्वादशाक्षरः । जगती छन्दः ।
सदाशिव ऋषिः । दत्तात्रेयो देवता । ओमिति बीजम् ।
स्वाहेति शक्तिः । सम्बुद्धिरिति कीलकम् । द्रमिति हृदये ।
ह्रीं क्लीमिति शीर्षे । एहीति शिखायाम् । दत्तेति कवचे ।
आत्रेयेति चक्षुषि । स्वाहेत्यस्त्रे । तन्मयो भवति ।
य एवं वेद । षोडशाक्षरं व्याख्यास्ये ।
प्राणं देयम् । मानं देयम् । चक्षुर्देयम् । श्रोत्रं देयम् ।
षड्दशशिरश्छिनत्ति षोडशाक्षरमन्त्रे न देयो भवति ।
अतिसेवापरभक्तगुणवच्छिष्याय वदेत् । ओमिति प्रथमं भवति ।
ऐमिति द्वितीयम् । क्रोमिति तृतीयम् । क्लीमिति चतुर्थम् ।
क्लूमिति पञ्चमम् । ह्रामिति षष्ठम् । ह्रीमिति
सप्तमम् । ह्रूमित्यष्टमम् । सौरिति नवमम् ।
दत्तात्रेयायेति चतुर्दशम् । स्वाहेति षोडशम् ।
गायत्री छन्दः । सदाशिव ऋषिः । दत्तात्रेयो देवता ।
ॐ बीजम् । स्वाहा शक्तिः । चतुर्थ्यन्तं कीलकम् ।
ओमिति हृदये । क्लां क्लीं क्लूमिति शिखायाम् । सौरिति
कवचे । चतुर्थ्यन्तं चक्षुषि । स्वाहेत्यस्त्रे । यो
नित्यमधीयानः सच्चिदानन्द सुखी मोक्षी भवति ।
सौरित्यन्ते श्रीवैष्णव इत्युच्यते । तज्जापी विष्णुरूपी
भवति । अनुष्टुप् छन्दो व्याख्यास्ये । सर्वत्र
सम्बुद्धिरिमानीत्युच्यन्ते । दत्तात्रेय हरे कृष्ण
उन्मत्तानन्ददायक । दिगम्बर मुने बालपिशाच
ज्ञानसागर ॥ १॥ इत्युपनिषत् । अनुष्टुप् छन्दः ।
सदाशिव ऋषिः । दत्तात्रेयो देवता दत्तात्रेयेति हृदये ।
हरे कृष्णेति शीर्षे । उन्मत्तानन्देति शिखायाम् ।
दायकमुन इति कवचे । दिगम्बरेति चक्षुषि ।
पिशाचज्ञानसागरेत्यस्त्रे । आनुष्टुभोऽयं
मयाधीतः । अब्रह्मजन्मदोषाश्च प्रणश्यन्ति ।
सर्वोपकारी मोक्षी भवति । य एवं वेदेत्युपनिषत् ॥ १॥
इति प्रथमः खण्डः ॥ १॥
ओमिति व्याहरेत् । ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय
स्मरणमात्रसन्तुष्टाय महाभयनिवारणाय
महाज्ञानप्रदाय चिदानन्दात्मने बालोन्मत्त-
पिशाचवेषायेति महायोगिनेऽवधूतायेति
अनसूयानन्दवर्धनायात्रिपुत्रायेति सर्वकामफल-
प्रदाय ओमिति व्याहरेत् । भवबन्धमोचनायेति
ह्रीमिति व्याहरेत् । सकलविभूति दायेति क्रोमिति व्याहरेत् ।
साध्याकर्षणायेति सौरिति व्याहरेत् । सर्वमनः-
क्षोभणायेति श्रीमिति व्याहरेत् । महोमिति व्याहरेत् ।
चिरञ्जीविने वषडिति व्याहरेत् । वशीकुरुवशीकुरु
वौषडिति व्याहरेत् । आकर्षयाकर्षय हुमिति
व्याहरेत् । विद्वेषयविद्वेषय फडिति व्याहरेत् ।
उच्चाटयोच्चाटय ठठेति व्याहरेत् । स्तम्भय-
स्तम्भय खखेति व्याहरेत् । मारयमारय नमः
सम्पन्नाय नमः सम्पन्नाय स्वाहा पोषयपोषय
परमन्त्रपरयन्त्रपरतन्त्रांश्छिन्धिच्छिन्धि
ग्रहान्निवारयनिवारय व्याधीन्निवारयनिवारय दुःखं
हरयहरय दारिद्र्यं विद्रावयविद्रावय देहं
पोषयपोषय चित्तं तोषयतोषयेति सर्वमन्त्र-
सर्वयन्त्रसर्वतन्त्रसर्वपल्लवस्वरूपायेति ॐ नमः
शिवायेत्युपनिषत् ॥ २॥
इति द्वितीयः खण्डः ॥ २॥
य एवं वेद । अनुष्टुप् छन्दः । सदाशिव ऋषिः ।
दत्तात्रेयो देवता । ओमिति बीजम् । स्वाहेति शक्तिः ।
द्रामिति कीलकम् । अष्टमूर्त्यष्टमन्त्रा भवन्ति ।
यो नित्यमधीते वाय्वग्निसोमादित्यब्रह्मविष्णुरुद्रैः
पूतो भवति । गायत्र्या शतसहस्रं जप्तं भवति ।
महारुद्रशतसहस्रजापी भवति । प्रणवायुतकोटिजप्तो भवति ।
शतपूर्वाञ्छतापरान्पुनाति । स पङ्क्तिपावनो भवति ।
ब्रह्महत्यादिपातकैर्मुक्तो भवति । गोहत्यादिपातकैर्मुक्तो भवति ।
तुलापुरुषादिदानैः प्रपापानतः पूतो भवति ।
अशेषपापान्मुक्तो भवति । भक्ष्याभक्ष्यपापैर्मुक्तो भवति ।
सर्वमन्त्रयोगपारीणो भवति । स एव ब्राह्मणो भवति ।
तस्माच्छिष्यं भक्तं प्रतिगृह्णीयात् । सोऽनन्तफलमश्नुते ।
स जीवन्मुक्तो भवतीत्याह भगवान्नारायणो ब्रह्माणमित्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति दत्तात्रेयोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ देवी उपनिषत् ॥
॥ अथ देव्युपनिषत् ॥
अथर्ववेदीय शाक्तोपनिषत् ॥
श्रीदेव्युपनिषद्विद्यावेद्यापारसुखाकृति ।
त्रैपदं ब्रह्मचैतन्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभि-
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दध्हातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः । कासि त्वं महादेवि ।
साब्रवीदहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं
जगच्छून्यं चाशून्यं च ।
अहमानन्दानानन्दाः विज्ञानाविज्ञाने अहम् । ब्रह्मा ब्रह्मणि
वेदितव्ये । इत्याहाथर्वणि श्रुतिः ॥ १॥
अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ।
वेदोऽहमवेदोऽहम् । विद्याहमविद्याहम् । अजाहमनजाहम् ।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधाम्यहम् ।
विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि । अहं
दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये ३ यजमानाय सुन्वते ॥ २॥
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनामहं सुवे पितरमस्य
मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद स
देवीपदमाप्नोति । ते देवा अब्रुवन् ।
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥ ३॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणमहं प्रपद्ये सुतरां नाशयते तमः ॥ ४॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति
। सा नो मन्द्रेशमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतु ॥ ५॥
कालरात्रिं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥ ६॥
महालक्ष्मीश्च विद्महे सर्वसिद्धिश्च धीमहि ।
तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥ ७॥
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव । तां देवा
अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ ८॥
कामो योनिः कामकला वज्रपाणिर्गुहा हसा ।
मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः पुनर्गुहा सकला मायया च
पुनः कोशा विश्वमाता दिवि द्योम् ॥ ९॥
एषात्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी
पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या ।
य एवं वेद स शोकं तरति ।
नमस्ते अस्तु भगवति भवति मातरस्मान्पातु सर्वतः ।
सैषाष्टौ वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा
द्वादशादित्याः । सैषा विश्वेदेवाः
सोमपा असोमपाश्च । सैषा यातुधानु असुरा रक्षांसि
पिशाचयक्षाः सिद्धाः ।
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि । सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः ।
सैषा ग्रहा नक्षत्रज्योतींषि
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ।
तापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ॥ १०॥
वियदाकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् । अर्धेन्दुलसितं
देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥ ११॥
एवमेकाक्षरं मन्त्रं यतयः शुद्धचेतसः ।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥ १२॥
वाङ्मया ब्रह्मभूतस्मात्षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् । सूर्यो
वामश्रोत्रबिन्दुः संयुताष्टकतृतीयकः ॥ १३॥
नारायणेन संयुक्तो वायुश्चाधरसंयुतः । विच्चे
नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥ १४॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ॥ १५॥
नमामि त्वामहं देवीं महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् ॥ १६॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यतेऽज्ञेया ।
यस्या अन्तो न विद्यते तस्मादुच्यतेऽनन्ता ।
यस्या ग्रहणं नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽलक्ष्या । यस्या
जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽजा ।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यत एका । एकैव विश्वरूपिणी
तस्मादुच्यते नैका ऽत एवोच्यतेऽज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ।
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ॥ १७॥
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ।
[दुर्गात्संत्रायते यस्माद्देवी दुर्गेति कथ्यते ॥ १८॥
प्रपद्ये शरणं देवीं दुंदुर्गे दुरितं हर ॥]
तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥ १९॥
इदमथर्वशीर्षं योऽधीते
पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमवाप्नोति ।
इदमथर्वशीर्षं ज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति ।
शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं च विन्दति ।
शतमष्टोत्तरं चास्याः पुरश्चर्याविधिः स्मृतः ॥ २०॥
दशवारं पठेद्यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते । महादुर्गाणि
तरति महादेव्याः प्रसादतः ॥ २१॥
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
तत्सायं प्रातः प्रयुञ्जानः पापोऽपापो भवति । निशीथे
तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति ।
नूतनप्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति ।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्यां महादेवी संनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति
। य एवं वेदेत्युपनिषत् ॥ २२॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभि-
र्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति श्रीदेव्युपनिषत्समाप्ता ॥
ध्यात्वा यद्ब्रह्ममात्रं ते स्वावशेषधिया ययुः ।
योगतत्त्वज्ञानफलं तत्स्वमात्रं विचिन्तये ॥
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ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥
सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ॥ १॥
सरलार्थ : यदि पर्वत की तरह (अनेक जन्मों के सञ्चित) अनेक योजन व्यापकत्व लिए पाप समूह हों, तो भी ध्यान योग साधना द्वारा उनको नष्ट किया जाना सम्भव है, अन्य किसी साधन से उनका नाश सम्भव नहीं॥१॥
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बीजाक्षरं परं बिन्दुं नादो तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ॥ २॥
सरलार्थ : बीजाक्षर (ॐकार) से परे बिन्दु स्थित है और उसके ऊपर नाद विद्यमान है, जिसमें मनोहर शब्द-ध्वनि सुनाई पड़ती है। उस नादध्वनि के अक्षर में विलय हो जाने पर जो शब्द विहीन स्थिति होती है, वही ‘परमपद’ के नाम से जानी गयी है॥२॥
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अनाहतं तु यच्छब्दं तस्य शब्दस्य यत्परम् ।
तत्परं विन्दते यस्तु स योगी छिन्नसंशयः ॥ ३॥
सरलार्थ : उस अनाहत शब्द (मेघ गर्जना की तरह प्रकृति का आदि शब्द) का जो परम कारण तत्त्व है, उससे भी परे परम कारण (निर्विशेष ब्रह्म) स्वरूप को जो योगी प्राप्त कर लेता है, उसके सब संशय नष्ट हो जाते हैं॥३॥
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वालाग्रशतसाहस्रं तस्य भागस्य भागिनः ।
तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ ४॥
सरलार्थ : यदि बाल (गेहूँ आदि की बाल) के अग्रभाग अर्थात् नोक के एक लाख हिस्से किये जाएँ, (तो उसका एक सूक्ष्म भाग जीव कहलाएगा) , उसके पुन: उतने भाग अर्थात् एक लाख भाग किये जाएँ (इन सूक्ष्मतर भागों को ईश्वर कहा जायेगा) । तत्पश्चात् उस (एक लाखवें) हिस्से के भी पचास हजार हिस्से किये जाने पर जो शेष रहे, उसके भी (साक्ष्य-साक्षी आदि विशेषण के भी) क्षय हो जाने पर जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म शेष रहे, वह उस निरञ्जन (विशुद्ध) ब्रह्म की सत्ता है॥४॥
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पुष्पमध्ये यथा गन्धः पयोमध्ये यथा घृतम् ।
तिलमध्ये यथा तैलं पाषाणाष्विव काञ्चनम् ॥ ५॥
सरलार्थ : जिस प्रकार पुष्य में गन्ध, दूध में घृत, तिल में तेल तथा सोने की खान के पाषाणों में सोना प्रत्यक्ष रूप से न दिखने पर भी अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है, उसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व सभी प्राणियों में निहित है। हैं॥५॥
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एवं सर्वाणि भूतानि मणौ सूत्र इवात्मनि ।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणिस्थितः ॥ ६॥
सरलार्थ : स्थिर बुद्धि से सम्पन्न मोहरहित ब्रह्मवेत्ता मणियों में पिरोये गये सूत्र की तरह आत्मा के व्यापकत्व को जानकर उसी ब्रह्म में स्थित रहते हैं॥६॥
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तिलानां तु यथा तैलं पुष्पे गन्ध इवाश्रितः ।
पुरुषस्य शरीरे तु सबाह्याभ्यन्तरे स्थितः ॥ ७॥
सरलार्थ : जिस प्रकार तिलों में तेल और पुष्पों में गन्ध आश्रित है, उसी प्रकार पुरुष के शरीर के भीतर और बाहर आत्मतत्त्व विद्यमान है॥७॥
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वृक्षं तु सकलं विद्याच्छाया तस्यैव निष्कला ।
सकले निष्कले भावे सर्वत्रात्मा व्यवस्थितः ॥ ८॥
सरलार्थ : जिस प्रकार वृक्ष अपनी सम्पूर्ण कला के साथ स्थित रहता है और उसकी छाया कलाहीन (निष्कल) होकर रहती है। उसी प्रकार आत्मा कलात्मक स्वरूप और निष्कल (छाया स्थानीय मायारूप) भाव से सभी जगह विद्यमान है॥८॥
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ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ध्येयं सर्वमुमुक्षिभिः ।
पृथिव्यग्निश्च ऋग्वेदो भूरित्येव पितामहः ॥ ९॥
अकारे तु लयं प्राप्ते प्रथमे प्रणवांशके ।
अन्तरिक्षं यजुर्वायुर्भुवो विष्णुर्जनार्दनः ॥ १०॥
उकारे तु लयं प्राप्ते द्वितीये प्रणवांशके ।
द्यौः सूर्यः सामवेदश्च स्वरित्येव महेश्वरः ॥ ११॥
मकारे तु लयं प्राप्ते तृतीये प्रणवांशके ।
अकारः पीतवर्णः स्याद्रजोगुण उदीरितः ॥ १२॥
उकारः सात्त्विकः शुक्लो मकारः कृष्णतामसः ।
अष्टाङ्गं च चतुष्पादं त्रिस्थानं पञ्चदैवतम् ॥ १३॥
ओङ्कारं यो न जानाति ब्रह्मणो न भवेत्तु सः ।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ १४॥
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।
निवर्तन्ते क्रियाः सर्वास्तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ १५॥
सरलार्थ : ॐ कार रूपी एकाक्षर ब्रह्म ही सभी मुमुक्षुओं का लक्ष्य रहा है। प्रणव के पहले अंश ‘अकार’ में पृथ्वी, अग्नि, ऋग्वेद, भूः तथा पितामह ब्रह्मा का लय होता है। दूसरे अंश ‘उकार’ में अन्तरिक्ष, यजुर्वेद, वायु, भुवः तथा जनार्दन विष्णु का लय होता है। तृतीय अंश ‘मकार’ में द्यौ, सूर्य, सामवेद, स्व: तथा महेश्वर का लय होता है। ‘अकार’ पीतवर्ण और रजोगुण से युक्त है, ‘उकार’ श्वेत वर्ण और सात्त्विक गुण वाला तथा ‘मकार’ कृष्णवर्ण एवं तमोगुण से युक्त है। इस प्रकार ॐकार आठ अङ्ग, चार पैर, तीन नेत्र और पाँच दैवत से युक्त है। जो व्यक्ति ॐकार (प्रणव) से अनभिज्ञ है, उसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। प्रणव को धनुष, आत्मा को बाण और ब्रह्म को ही लक्ष्य कहा जाता है। बिना प्रमाद किये तन्मयतापूर्वक बाण से लक्ष्य का वेधन करना चाहिए। (इसके परिणाम स्वरूप) परावर अर्थात् ब्रह्म के सायुज्यत्व को प्राप्त कर लेने पर सभी क्रियाओं से निवृत्ति (मोक्ष की प्राप्ति) होती है ॥९-१५॥
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ओङ्कारप्रभवा देवा ओङ्कारप्रभवाः स्वराः ।
ओङ्कारप्रभवं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ १६॥
सरलार्थ : ॐ कार से देवों की उत्पत्ति, ॐकार से स्वर की उत्पत्ति और ॐ कार से ही त्रिलोक के सभी स्थावरजंगम की उत्पत्ति हुई है॥१६॥
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ह्रस्वो दहति पापानि दीर्घः सम्पत्प्रदोऽव्ययः ।
अर्धमात्रा समायुक्तः प्रणवो मोक्षदायकः ॥ १७॥
सरलार्थ : ॐ का ह्रस्व अंश पापों का दहन करता है, दीर्घ अंश अमृतत्वरूप अक्षय सम्पदा को प्रदान करता है तथा अर्द्धमात्रा से युक्त प्रणव मोक्षदायक है॥१७॥
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तैलधारामिवाच्छिन्नं दीर्घघण्टानिनादवत् ।
अवाच्यं प्रणवस्याग्रं यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १८॥
सरलार्थ : तेल की अजस्र धारा की तरह, घण्टा के लम्बे निनाद के समान प्रणव के आगे ध्वनिरहित शब्द होता है, उसका ज्ञाता ही वेदवेत्ता है॥१८॥
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हृत्पद्मकर्णिकामध्ये स्थिरदीपनिभाकृतिम् ।
अङ्गुष्ठमात्रमचलं ध्यायेदोङ्कारमीश्वरम् ॥ १९॥
सरलार्थ : हृदयकमल की कर्णिका के मध्य स्थिर ज्योतिशिखा के समान अंगुष्ठमात्र आकार के नित्य ॐकार रूप परमात्मा का ध्यान करे॥१९॥
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इडया वायुमापुर्य पूरयित्वोदरस्थितम् ।
ओङ्कारं देहमध्यस्थं ध्यायेज्ज्वालवलीवृतम् ॥ २०॥
ब्रह्मा पूरक इत्युक्तो विष्णुः कुम्भक उच्यते ।
रेचो रुद्र इति प्रोक्तः प्राणायामस्य देवताः ॥ २१॥
सरलार्थ : इड़ा (बायीं नासिका) से वायु को भरकर उदर में स्थापित करे और देह के बीच में ज्योतिर्मय ॐ कार का ध्यान करे। पूरक, कुम्भक और रेचक को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र कहा गया है, ये प्राणायाम के देवता कहलाते हैं॥२०-२१॥
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आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्याननिर्मथनाभ्यासादेव पश्येन्निगूढवत् ॥ २२॥
सरलार्थ : अन्त:करण और प्रणवाक्षर को नीचे और ऊपर की अरणिरूप बनाकर मंथनरूप ध्यान के अभ्यास से अग्नि की भाँति व्याप्त गूढ़तत्त्व (परमात्मा) का साक्षात्कार करे॥२२॥
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ओङ्कारध्वनिनादेन वायोः संहरणान्तिकम् ।
यावद्बलं समादध्यात्सम्यङ्नादलयावधि ॥ २३॥
सरलार्थ : प्रणव ध्वनि का, नाद सहित रेचक वायु के विलय हो जाने तक अपनी सामर्थ्यानुसार (तब तक) ध्यान करे, जब तक नाद का भली प्रकार लय नहीं हो जाता॥२३॥
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गमागमस्थं गमनादिशून्य-
मोङ्कारमेकं रविकोटिदीप्तिम् ।
पश्यन्ति ये सर्वजनान्तरस्थं
हंसात्मकं ते विरजा भवन्ति ॥ २४॥
सरलार्थ : गमन और आगमन में विद्यमान तथा गमनादि से रहित, करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सभी मनुष्यों के अन्त:करण में विराजमान हंसात्मक प्रणव का जो दर्शन करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं॥२४॥
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यन्मनस्त्रिजगत्सृष्टिस्थितिव्यसनकर्मकृत् ।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ २५॥
अष्टपत्रं तु हृत्पद्मं द्वात्रिंशत्केसरान्वितम् ।
तस्य मध्ये स्थितो भानुर्भानुमध्यगतः शशी ॥ २६॥
सरलार्थ : जो मन त्रिगुणमय संसार के सृजन, पालन और संहार का कारण है, उसके विलय हो जाने पर विष्णु के परमपद की प्राप्ति होती है। अष्टदल और बत्तीस पंखुड़ियों से युक्त जो हृदयकमल है, उसके बीच सूर्य और सूर्य के बीच चन्द्रमा विद्यमान है॥२५-२६॥
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शशिमध्यगतो वह्निर्वह्निमध्यगता प्रभा ।
प्रभामध्यगतं पीठं नानारत्नप्रवेष्टितम् ॥ २७॥
तस्य मध्यगतं देवं वासुदेवं निरञ्जनम् ।
श्रीवत्सकौस्तुभोरस्कं मुक्तामणिविभूषितम् ॥ २८॥
शुद्धस्फटिकसंकाशं चन्द्रकोटिसमप्रभम् ।
एवं ध्यायेन्महाविष्णुमेवं वा विनयान्वितः ॥ २९॥
सरलार्थ : चन्द्रमा के बीच अग्नि और अग्नि के बीच दीप्ति स्थित है। उसके बीच नानाविध रत्नों से सुसज्जित पीठस्थान है। उस पीठ के बीच निरञ्जन प्रभु वासुदेव विराजमान हैं, जो श्रीवत्स, कौस्तुभमणि एवं मणिमुक्ताओं से विशेष रूप से सुशोभित हैं। शुद्ध स्फटिक के सदृश करोड़ों चन्द्रमा की कान्ति वाले महाविष्णु का विनयान्वित होकर ध्यान करे॥२७-२९॥
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अतसीपुष्पसंकाशं नाभिस्थाने प्रतिष्ठितम् ।
चतुर्भुजं महाविष्णुं पूरकेण विचिन्तयेत् ॥ ३०॥
कुम्भकेन हृदिस्थाने चिन्तयेत्कमलासनम् ।
ब्रह्माणं रक्तगौराभं चतुर्वक्त्रं पितामहम् ॥ ३१॥
सरलार्थ : पूरक द्वारा साँस अन्दर खींचते समय नाभिस्थान में प्रतिष्ठित अतसी पुष्प के समान चतुर्भुज महाविष्णु भगवान् का ध्यान करना चाहिए॥ कुम्भक द्वारा साँस भीतर रोकने के समय हृदय स्थल में कमल के आसन पर सुशोभित लालिमामय गौर वर्ण वाले चतुर्मुख पितामह ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए॥३०-३१॥
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रेचकेन तु विद्यात्मा ललाटस्थं त्रिलोचनम् ।
शुद्धस्फटिकसंकाशं निष्कलं पापनाशनम् ॥ ३२॥
अञ्जपत्रमधःपुष्पमूर्ध्वनालमधोमुखम् ।
कदलीपुष्पसंकाशं सर्ववेदमयं शिवम् ॥ ३३॥
शतारं शतपत्राढ्यं विकीर्णाम्बुजकर्णिकम् ।
तत्रार्कचन्द्रवह्नीनामुपर्युपरि चिन्तयेत् ॥ ३४॥
पद्मस्योद्घाटनं कृत्वा बोधचन्द्राग्निसूर्यकम् ।
तस्य हृद्बीजमाहृत्य आत्मानं चरते ध्रुवम् ॥ ३५॥
सरलार्थ : रेचक से साँस छोड़ते हुए ललाट में शुद्ध स्फटिक के सदृश श्वेत रंग के त्रिनेत्रयुक्त, निष्कल(कलारहित) , पाप संहारक भगवान् शिव का ध्यान करना चाहिए॥ नीचे की ओर पुष्पित हुआ, ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग की ओर मुख किये हुए कदली पुष्प की तरह हृदयकमल में सभी वेदों के आधारभूत भगवान् शिव अवस्थित हैं॥ सौ अरे वाले, सौ पत्ते वाले और विकसित पंखुड़ियों से युक्त हदय पद्म में सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का एक के बाद दूसरे का क्रमशः ध्यान करना चाहिए॥ सूर्य, चन्द्र और अग्नि के बोध हेतु सर्वप्रथम हृदयकमल के विकसित होने का ध्यान करे। तत्पश्चात् हृदय कमल में स्थित बीजाक्षरों को ग्रहण करके ही अचल चेतनावस्था की प्राप्ति होती है॥३२-३५॥
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त्रिस्थानं च त्रिमात्रं च त्रिब्रह्म च त्रयाक्षरम् ।
त्रिमात्रमर्धमात्रं वा यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ३६॥
सरलार्थ : तीन स्थान, तीन मार्ग, त्रिविध ब्रह्म, त्रयाक्षर, त्रिमात्रा तथा अर्द्धमात्रा में जो परमात्मा स्थित है, उसके ज्ञाता ही वेद के तात्पर्य के ज्ञाता हैं॥३६॥
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तैलधारमिवाच्छिन्नदीर्घघण्टानिनादवत् ।
बिन्दुनादकलातीतं यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ३७॥
सरलार्थ : दीर्घ घण्टा निनाद के सदृश, तेल की अविच्छिन्न धारा की तरह तथा बिन्दु-नाद और कला से अतीत उस परम तत्त्व (ॐकार) को जो जानता है, वही वेदज्ञ है॥३७॥
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यथैवत्पलनालेन तोयमाकर्षयेन्नरः ।
तथैवओत्कर्षयेद्वायुं योगी योगपथे स्थितः ॥ ३८॥
सरलार्थ : जिस प्रकार मनुष्य कमलनाल से जल को धीरे-धीरे खींचते हैं, उसी प्रकार योगी योगस्थ होकर प्राणायाम द्वारा वायु को धीरे-धीरे ऊर्ध्व भूमिका में ले जाए॥३८॥
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अर्धमात्रात्मकं कृत्वा कोशीभूतं तु पङ्कजम् ।
कर्षयेन्नलमात्रेण भ्रुवोर्मध्ये लयं नयेत् ॥ ३९॥
सरलार्थ : प्रणव की अर्द्धमात्रा (अव्यक्त नाद उच्चारण) को रस्सी बनाकर हृदयकमल रूपी कूप नाल (सुषुम्ना) मार्ग द्वारा जलरूपा कुण्डलिनी को भौंहों के मध्य में लय करे॥३९॥
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भ्रुवोर्मध्ये ललाटे तु नासिकायास्तु मूलतः ।
जानीयादमृतं स्थानं तद्ब्रह्मायतनं महत् ॥ ४०॥
सरलार्थ : नासिका के मूल से लेकर भौंहों के बीच में जो ललाट स्थान है, वहाँ तक अमृत स्थान जानना चाहिए, वही ब्रह्म का महान् निवास स्थान है॥४०॥
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आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा ।
ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि भवन्ति षट् ॥ ४१॥
सरलार्थ : आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये छ: योग के अङ्ग कहे गये हैं॥४१॥
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आसनानि च तावन्ति यावन्त्यो जीवजातयः ।
एतेषानतुलान्भेदान्विजानाति महेश्वरः ॥ ४२॥
सरलार्थ : विश्व में जितनी जीव प्रजातियाँ हैं, उतनी ही आसनों की विधियाँ भी बतायी गई हैं, इस प्रकार के असंख्य भेदों के ज्ञाता भगवान् शंकर हैं॥४२॥
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छिद्रं भद्रं तथा सिंहं पद्मं चेति चतुष्टयम् ।
आधारं प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम् ॥ ४३॥
सरलार्थ : सिद्ध, भद्र, सिंह और पद्म ये चार प्रमुख आसन हैं, पहला चक्र आधार (मूलाधार) और दूसरा स्वाधिष्ठान है॥४३॥
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योनिस्थानं तयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यते ।
आधाराख्ये गुदस्थाने पङ्कजं यच्चतुर्दलम् ॥ ४४॥
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवन्दिता ।
योनिमध्ये स्थितं लिङ्गं पश्चिमाभिमुखं तथा ॥ ४५॥
मस्तके मणिवद्भिन्नं यो जानाति स योगवित् ।
तप्तचामीकराकारं तडिल्लेखेव विस्फुरत् ॥ ४६॥
चतुरस्रमुपर्यग्नेरधो मेढ्रात्प्रतिष्ठितम् ।
स्वशब्देन भवेत्प्राणः स्वाधिष्ठानं तदाश्रयम् ॥ ४७॥
सरलार्थ : इन दोनों के बीच में कामरूप प्रजनन स्थान है। गुदा स्थान के आधारचक्र में चतुर्दल कमल विद्यमान है। उसके बीच काम नाम से प्रख्यात प्रजनन-योनि (कुण्डलिनी शक्ति) है, जिसकी अभ्यर्थना सिद्धजन करते हैं। प्रजनन योनि के बीच पश्चिम की ओर पुरुष जननेन्द्रिय लिङ्ग है॥ मस्तक में मणि की तरह जो प्रकाश है, उसे जो जानता है वह योगवेत्ता है। तपे हुए सोने के समान वर्णवाला और तडित् की धारा की तरह विशेष प्रकाशित, अग्निमण्डल से चार अंगुल ऊपर और मेढ़ (मूत्रेन्द्रिय) से नीचे स्वसंज्ञक प्राण विद्यमान है, उसके आश्रय में स्वाधिष्ठान है॥४४-४७॥
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स्वाधिष्ठानं ततश्चक्रं मेढ्रमेव निगद्यते ।
मणिवत्तन्तुना यत्र वायुना पूरितं वपुः ॥ ४८॥
तन्नाभिमण्डलं चक्रं प्रोच्यते मणिपूरकम् ।
द्वादशारमहाचक्रे पुण्यपापनियन्त्रितः ॥ ४९॥
तावज्जीवो भ्रमत्येवं यावत्तत्त्वं न विन्दति ।
ऊर्ध्वं मेढ्रादथो नाभेः कन्दो योऽस्ति खगाण्डवत् ॥ ५०॥
तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणि द्विसप्ततिः ।
तेषु नाडीसहस्रेषु द्विसप्ततिरुदाहृताः ॥ ५१॥
सरलार्थ : उसके बाद स्थित स्वाधिष्ठान चक्र को मेढ़ ही कहा जाता है। जहाँ मणि के प्रकाश की तरह वायु से पूर्ण शरीर है। नाभिमण्डल में स्थित चक्र को मणिपूरक कहा गया है। वहाँ बारह दल से युक्त महाचक्र में पुण्य और पाप का नियन्त्रण रहता है॥ इस तत्त्वज्ञान को न समझ पाने तक जीवात्मा को भ्रमजाल में ही फैंसे रहना पड़ता है। मेद्र स्थान से ऊपर और नाभि से नीचे पक्षी के अण्डे की तरह कन्द का स्थान है। उसी स्थान से बहत्तर हजार नाड़ियाँ उत्पन्न होती हैं, उन हजारों नाड़ियों में बहत्तर नाड़ियाँ प्रमुख हैं॥४८-५१॥
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प्रधानाः प्राणवाहिन्यो भूयस्तत्र दश स्मृताः ।
इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयका ॥ ५२॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनि ।
अलम्बुसा कुहूरत्र शङ्खिनी दशमी स्मृता ॥ ५३॥
सरलार्थ : इनमें से दस प्रमुख नाड़ियाँ प्राण का संचार करने वाली हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुसा, कुहू तथा शंखिनी॥५२-५३॥
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एवं नाडीमयं चक्रं विज्ञेयं योगिना सदा ।
सततं प्राणवाहिन्यः सोम सूर्याग्निदेवताः ॥ ५४॥
इडापिङ्गलासुषुम्नास्तिस्रो नाड्यः प्रकीर्तिताः ।
इडा वामे स्थिता भागे पिङ्गला दक्षिणे स्थिता ॥ ५५॥
सुषुम्ना मध्यदेशे तु प्राणमार्गास्त्रयः स्मृताः ।
प्राणोऽपानः समानश्चोदानो व्यानस्तथैव च ॥ ५६॥
नागः कूर्मः कृकरको देवदत्तो धनञ्जयः ।
प्राणाद्याः पञ्च विख्याता नागाद्याः पञ्च वायवः ॥ ५७॥
सरलार्थ : इस नाड़ी चक्र की जानकारी योग-साधकों को होना आवश्यक है। सतत प्राण का संचार करने वाली इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ सूर्य, चन्द्र और अग्नि देवों से युक्त हैं। इड़ा नाड़ी बायीं ओर, पिङ्गला दाहिनी ओर तथा सुषुम्ना इन दोनों के बीच विद्यमान है, ये तीनों नाड़ियाँ प्राण के संचरण-मार्ग-रूपा हैं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय ये दस प्राण हैं, प्राणादि पाँच प्राण प्रख्यात हैं तथा नागादि पाँच उपप्राण कहे गये हैं॥५४-५७॥
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एते नाडीसहस्रेषु वर्तन्ते जीवरूपिणः ।
प्राणापानवशो जीवो ह्यधश्चोर्ध्वं प्रधावति ॥ ५८॥
सरलार्थ : इन हजारों नाड़ियों में प्राण जीवरूप से वास करते हैं। प्राण और अपान के वशीभूत होकर जीव ऊपरनीचे आवागमन करता रहता है॥५८॥
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वामदक्षिणमार्गेण चञ्चलत्वान्न दृश्यते ।
आक्षिप्तो भुजदण्डेन यथोच्चलति कन्दुकः ॥ ५९॥
प्राणापानसमाक्षिप्तस्तद्वज्जीवो न विश्रमेत् ।
अपानात्कर्षति प्राणोऽपानः प्राणाच्च कर्षति ॥ ६०॥
खगरज्जुवदित्येतद्यो जानाति स योगवित् ।
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः ॥ ६१॥
हंसहंसेत्यमं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।
शतानि षट्दिवारात्रं सहस्राणेकविंशतिः ॥ ६२॥
एतन्सङ्ख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।
अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा ॥ ६३॥
सरलार्थ : प्राण कभी दायें तो कभी बायें मार्ग से गमन करता है, परन्तु चञ्चल प्रकृति का होने से देखने में नहीं आता। हाथों से फेंकी हुई गेंद जैसे इधर-उधर दौड़ती है, उसी प्रकार प्राण और अपान द्वारा भली प्रकार फेंकने से जीव को कभी आराम नहीं मिल पाता। अपान और प्राण की एक दूसरे को खींचने की प्रक्रिया उसी प्रकार की है, जैसे रस्सी में आबद्ध पक्षी अपनी ओर खींच लिया जाता है। इस तत्त्व के ज्ञाता को ही योगी कहा जा सकता है। ‘ह’ कार ध्वनि से प्राण बाहर जाता है और ‘स’ कार से पुनः अन्दर प्रवेश करता है। ‘हंस’ ‘हंस’ इस प्रकार का मन्त्र जप जीव हमेशा जपता रहता है। इस अजपा-जप की संख्या दिन-रात में इक्कीस हजार छः सौ होती है। इतनी संख्या में मन्त्र जीव हमेशा जपता है। जो योगियों के लिए मोक्ष प्रदान करने वाली है, यही अजपा गायत्री कहलाती है॥५९-६३॥
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अस्याः सङ्कल्पमात्रेण नरः पापैः प्रमुच्यते ।
अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः ॥ ६४॥
अनया सदृशं पुण्यं न भूतं न भविष्यति ।
येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम् ॥ ६५॥
मुखेनाच्छाद्य तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी ।
प्रबुद्धा वह्नियोगेन मनसा मरुता सह ॥ ६६॥
सूचिवद्गुणमादाय व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्नया ।
उद्घाटयेत्कपाटं तु यथा कुञ्चिकया हठात् ॥ ६७॥
कुण्डलिन्या तया योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ॥ ६८॥
सरलार्थ : इस (अजपा गायत्री) के संकल्प मात्र से व्यक्ति पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। जिस मार्ग से योग साधक सुगमता से ब्रह्मपद को प्राप्त करता है। जिसके सदृश न कोई विद्या है, न जप है और न ही कोई पुण्य, जो पहले न कभी हुआ है और न आगे कभी हो सकेगा॥ वह्रियोग द्वारा जाग्रत् होने वाली परमेश्वरी (कुण्डलिनी) उस द्वार-पथ को अपने मुँह से आच्छादित करके प्रसुप्त स्थिति में है। वह जाग्रत् किये जाने पर सुषुम्ना मार्ग से मन और प्राण वायु के साथ ऊर्ध्वगमन करती है, जैसे सुई धागे को साथ ले जाती है। योगी मुक्ति द्वार को कुण्डलिनी शक्ति द्वारा उसी प्रकार उद्घाटित करते हैं, जैसे ताली से प्रयासपूर्वक दरवाजे को खोल लिया जाता है॥६४-६८॥
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कृत्वा सम्पुटितौ करौ दृढतरं बध्वाथ पद्मासनम् ।
गाढं वक्षसि सन्निधाय चुबुकं ध्यानं च तच्चेतसि ॥
वारंवारममपातमूर्ध्वमनिलं प्रोच्चारयन्पूरितम् ।
मुञ्चन्प्राणमुपैति बोधमतुलं शक्तिप्रभावान्नरः ॥ ६९॥
सरलार्थ : सुदृढ़ रूप में पद्मासन लगाकर, दोनों हाथों को सम्पुटित करके ठोड़ी से वक्षभाग (कण्ठकूप) को दृढ़तापूर्वक दबाकर, चित्त में स्वरूप का ध्यान करते हुए बार-बार अपान वायु को ऊपर की ओर चलायमान करता हुआ और अन्दर खींची हुई प्राण वायु को नीचे छोड़ता हुआ योग साधक अतुलित कुण्डलिनी शक्ति के सामर्थ्य बोध. को प्राप्त करता है॥६९॥
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पद्मासनस्थितो योगी नाडीद्वारेषु पूरयन् ।
मारुतं कुम्भयन्यस्तु स मुक्तो नात्र संशयः ॥ ७०॥
सरलार्थ : जो योगसाधक पद्मासन में बैठकर नाड़ीद्वार से प्राणवायु को खींचकर, कुम्भक द्वारा उसे रोकता है। वह सुनिश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है, इसमें संदेह की गुंजायश नहीं॥७०॥
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अङ्गानां मर्दनं कृत्वा श्रमजातेन वारिणा ।
कट्वम्ललवणत्यागी क्षीरपानरतः सुखी ॥ ७१॥
ब्रह्मचारी मिताहारी योगी योगपरायणः ।
अब्दादूर्ध्वं भवेत्सिद्धो नात्र कार्यां विचारणा ॥ ७२॥
सरलार्थ : (प्राणायाम के) परिश्रम द्वारा जो स्वेदकण निकले, उन्हें अङ्गों में ही मल ले। कटु, अम्ल और नमक का परित्याग करके दुग्ध का सेवन करने वाला सुखी रहता है। इस प्रकार योगस्थ होकर अल्प आहार करने वाला ब्रह्मचारी योगी एक साल के अन्तराल में ही सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं॥७१-७२॥
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कन्दोर्ध्वकुण्डली शक्तिः स योगी सिद्धिभाजनम् ।
अपानप्राणयोरैक्यं क्षयन्मूत्रपुरीषयोः ॥ ७३॥
युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात् ।
पार्ष्णिभागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्गुदम् ॥ ७४॥
अपानमूर्ध्वमुत्कृष्य मूलबन्धोऽयमुच्यते ।
उड्याणं कुरुते यस्मादविश्रान्तमहाखगः ॥ ७५॥
उड्डियाणं तदेव स्यात्तत्र बन्धो विधीयते ।
उदरे पश्चिमं ताणं नाभेरूर्ध्वं तु कारयेत् ॥ ७६॥
सरलार्थ : ध्यानबिन्दूपनिषद् कन्द के ऊपरी भाग में स्थित कुण्डलिनी शक्ति से योग साधक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। सतत मूलबन्ध का अभ्यास करने से अपान और प्राण में एकीकरण होता है, मल-मूत्र के क्षीण हो जाने पर बूढ़ा व्यक्ति भी जवान हो जाता है। एड़ी भाग से योनिस्थान को दबाकर मलद्वार को संकुचित करे और अपान वायु को ऊर्ध्व की ओर खींचे, इस क्रिया को मूलबन्ध कहा गया है। उड्डियानबन्ध की विधि में कहा गया है कि जिस प्रकार बिना थका महापक्षी उड़ने की क्रिया करता है, उसी प्रकार पेट की पश्चिम ‘ताण’ क्रिया (पेट को पीछे की ओर सिकोड़ने) के साथ नाभि को ऊपर की ओर खींचना चाहिए ॥ ७३-७६॥
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उड्डियाणोऽप्ययं बन्धो मृत्युमातङ्गकेसरी ।
बध्नाति हि शिरोजातमधोगामिनभोजलम् ॥ ७७॥
ततो जालन्धरो बन्धः कर्मदुःखौघनाशनः ।
जालन्धरे कृते बन्धे कर्णसंकोचलक्षणे ॥ ७८॥
न पीयूषं पतत्यग्नौ न च वायुः प्रधावति ।
कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ॥ ७९॥
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।
न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा ॥ ८०॥
सरलार्थ : यह उड्डियान बन्ध मृत्यु के निमित्त उसी तरह है, जैसे गजराज के लिए सिंह निमित्त बनता है। जिसमें शिरोनभ (आकाश) से उत्पादित जल को नीचे आने की अपेक्षा ऊपर ही अवरुद्ध कर लिया जाता है, उसे जालन्धर बन्ध कहा गया है। इससे कर्मबन्धन और पापजन्य दु:खों का नाश होता है। जालन्धर बन्ध करते समय कण्ठ को सिकोड़ा जाता है, जिससे वायु की गति रुक जाती है और अमृत के अग्नि में गिरने की सम्भावना नहीं रहती। खेचरी मुद्रा उसे कहते हैं, जिसमें जिह्वा को उल्टाकर कपाल कुहर में प्रविष्ट किया जाए और अपनी दृष्टि को दोनों भौंहों के बीच स्थिर रखा जाए। इसके सिद्ध हो जाने से निद्रा, क्षुधा, पिपासा नहीं सताती और न व्याधि एवं मृत्यु का भय ही रहता है॥७७-८०॥
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न च मूर्च्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ।
पीड्यते न च रोगेण लिप्यते न च कर्मणा ॥ ८१॥
बध्यते न च कालेन यस्य मुद्रस्ति खेचरी ।
चित्तं चरति खे यस्माज्जिह्वा भवति खेगता ॥ ८२॥
तेनैषा खेचरी नाम मुद्रा सिद्धनमस्कृता ।
खेचर्या मुद्रया यस्य विवरं लम्बिकोर्ध्वतः ॥ ८३॥
बिन्दुः क्षरति नो यस्य कामिन्यालिङ्गितस्य च ।
यावद्बिन्दुः स्थितो देहे तावन्मृत्युभयं कुतः ॥ ८४॥
सरलार्थ : जो खेचरी मुद्रा का ज्ञाता है, उसे न तो मूच्र्छा होती है, न रोग उसे कष्ट देते हैं और न ही वह कर्मों से ही लिप्त हो पाता है। खेचरी मुद्रा से जिसका चित्त आकाश में विचरण करने लगता है और जिसकी जिह्वा भी अन्तरिक्षगामिनी हो जाती है, ऐसा साधक काल के बन्धन से बँधता नहीं है। इसलिए यह ‘खेचरी मुद्रा’ योगियों द्वारा प्रशंसनीय है। इस मुद्रा द्वारा जिसने तालु के छिद्र को अवरुद्ध कर दिया है, उसके द्वारा स्त्री समागम से भी वीर्य का क्षरण नहीं होता और जब तक वीर्य शरीर में विद्यमान रहता है, तब तक मौत के भय की सम्भावना ही कैसी?॥८१-८४॥
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यावद्बद्धा नभोमुद्रा तावद्बिन्दुर्न गच्छति ।
गलितोऽपि यदा बिन्दुः सम्प्राप्तो योनिमण्डले ॥ ८५॥
व्रजत्यूर्ध्वं हठाच्छक्त्या निबद्धो योनिमुद्रया ।
स एव द्विविधो बिन्दुः पाण्डरो लोहितस्तथा ॥ ८६॥
पाण्डरं शुक्रमित्याहुर्लोहिताख्यं महारजः ।
विद्रुमद्रुमसंकाशं योनिस्थाने स्थितं रजः ॥ ८७॥
शशिस्थाने वसेद्बिन्दुःस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम् ।
बिन्दुः शिवो रजः शक्तिर्बिन्दुरिन्दू रजो रविः ॥ ८८॥
सरलार्थ : खेचरी मुद्रा में रहते हुए वीर्य का क्षरण सम्भव नहीं, फिर भी किसी तरह यदि वीर्य स्खलित होकर योनि में चला जाए, तो उसे हठशक्तिपूर्वक योनिमण्डल से पुनः ऊपर की ओर खींच लेते हैं। वह वीर्य भी सफेद और रक्त वर्ण दोनों तरह का होता है। सफेद वर्ण वाले को शुक्र और रक्त वार्ण वाले को महारज कहा गया है। मुँगे की तरह वर्ण वाला रज (योगी के) योनिस्थान में विद्यमान है और शुक्ल वीर्य चन्द्रस्थान में है, पर इन दोनों के एक होने की सम्भावना बड़ी दुर्लभ है। वीर्य को शिवरूप और रज को शक्तिरूप कहा गया है, वीर्य ही चन्द्रमा और रज ही सूर्य है॥८५-८८॥
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उभयओः सङ्गमादेव प्राप्यते परमं वपुः ।
वायुना शक्तिचालेन प्रेरितं खे यथा रजः ॥ ८९॥
रविणैकत्वमायाति भवेद्दिव्यं वपुस्तदा ।
शुक्लं चन्द्रेण संयुक्तं रजः सूर्यसमन्वितम् ॥ ९०॥
द्वयोः समरसीभावं यो जानाति स योगवित् ।
शोधनं मलजालानां घटनं चन्द्रसूर्ययोः ॥ ९१॥
रसानां शोषणं सम्यङ्महामुद्राभिधीयते ॥ ९२॥
वक्षोन्यस्तहनुर्निपीड्य सुषिरं योनेश्च वामाङ्घ्रिणा
हस्ताभ्यामनुधारयन्प्रविततं पादं तथा दक्षिणम् ॥
आपूर्य श्वसनेन कुक्षियुगलं बध्वा शनैरेचये-
देषा पातकनाशिनी ननु महामुद्रा नृणां प्रोच्यते ॥ ९३॥
सरलार्थ : इन दोनों के संयुक्त होने पर परम देह की प्राप्ति होती है। वायु को शक्ति से संचालित किये जाने से रज अन्तरिक्ष की ओर प्रेरित होता है और सूर्य से संयुक्त होकर दिव्य शरीर को प्राप्त करता है। शुक्लवर्ण वीर्य चन्द्रमा से और रज सूर्य से युक्त है। इन दोनों की समरसता का जो ज्ञाता है, वही योगवेत्ता है। नाड़ियों में स्थित मल के शोधन के लिए सूर्य और चन्द्र के संयोगत्व और वात, पित्त, कफ आदि रसों के भली प्रकार शोषण किये जाने को महामुद्रा कहा गया है। वक्षस्थल को ठोड़ी से और बायीं एड़ी से योनिस्थल को दबाकर, प्रसारित दाहिने पैर को हाथों से पकड़कर कुक्षियुगल को श्वास से भरकर, कुम्भक करने के बाद धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकाले। इसे योगियों द्वारा सर्वपापनाशिनी महामुद्रा कहा गया है॥८९-९३॥
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अथात्मनिर्णयं व्याख्यास्ये ॥
हृदिस्थाने अष्टदलपद्मं वर्तते तन्मध्ये रेखावलयं कृत्वा जीवात्मरूपं ज्योतीरूपमणुमात्रं वर्तते तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितं भवति सर्वं जानाति सर्वं करोति सर्वमेतच्चरितमहं कर्ताऽहं भोक्ता सुखी दुःखी काणः खञ्जो बधिरो मूकः कृशः स्थूलोऽनेन प्रकारेण स्वतन्त्रवादेन वर्तते॥
पूर्वदले विश्रमते पूर्वं दलं श्वेतवर्णं तदा भक्तिपुरःसरं धर्मे मतिर्भवति ॥
यदाऽग्नेयदले विश्रमते तदाग्नेयदलं रक्तवर्णं तदा निद्रालस्य मतिर्भवति ॥
यदा दक्षिणदले विश्रमते तद्दक्षिणदलं कृष्णवर्णं तदा द्वेषकोपमतिर्भवति ॥
यदा नैरृतदले विश्रमते तन्नैरृतदलं नीलवर्णं तदा पापकर्महिंसामतिर्भवति ॥
यदा पश्चिमदले विश्रमते तत्पश्चिमदलं स्फटिकवर्णं तदा क्रीडाविनोदे मतिर्भवति ॥
यदा वायव्यदले विश्रमते वायव्यदलं माणिक्यवर्णं तदा गमनचलनवैराग्यमतिर्भवति ॥
यदोत्तरदले विश्रमते तदुत्तरदलं पीतवर्णं तदा सुखशृङ्गारमतिर्भवति ॥
यदेशानदले विश्रमते तदीशानदलं वैडूर्यवर्णं तदा दानादिकृपामतिर्भवति ॥
यदा सन्धिसन्धिषु मतिर्भवति तदा वातपित्तश्लेष्ममहाव्याधिप्रकोपो भवति ॥
यदा मध्ये तिष्ठति तदा सर्वं जानाति गायति नृत्यति पठत्यानन्दं करोति ॥
यदा नेत्रश्रमो भवति श्रमनिर्भरणार्थं प्रथमरेखावलयं कृत्वा मध्ये निमज्जनं कुरुते प्रथमरेखाबन्धूकपुष्पवर्णं तदा निद्रावस्था भवति ॥ निद्रावस्थामध्ये स्वप्नावस्था भवति ॥
स्वप्नावस्थामध्ये दृष्टं श्रुतमनुमानसम्भववार्ता इत्यादिकल्पनां करोति तदादिश्रमो भवति ॥
श्रमनिर्हरणार्थं द्वितीयरेखावलयं कृत्वा मध्ये निमज्जनं कुरुते द्वितीयरेखा इन्द्रकोपवर्णं तदा सुषुप्त्यवस्था भवति सुषुप्तौ केवलपरमेश्वरसम्बन्धिनी बुद्दिर्भवति नित्यबोधस्वरूपा भवति पश्चात्परमेश्वरस्वरूपेण प्राप्तिर्भवति ॥
तृतीयरेखावलयं कृत्वा मध्ये निमज्जनं कुरुते तृतीयरेखा पद्मरागवर्णं तदा तुरीयावस्था भवति तुरीये केवलपरमात्मसम्बन्धिनी भवति नित्यबोधस्वरूपा भवति तदा शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतयात्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्तदा प्राणापानयोरैक्यं कृत्वा सर्वं विश्वमात्मस्वरूपेण लक्ष्यं धारयति ।
यदा तुरीयातीतावस्था तदा सर्वेषामानन्दस्वरूपो भवति द्वन्द्वातीतो भवति यावद्देहधारणा वर्तते तावत्तिष्ठति पश्चात्परमात्मस्वरूपेण प्राप्तिर्भवति इत्यनेन प्रकारेण मोक्षो भवतीदमेवात्मदर्शनोपायं भवन्ति ॥
चतुष्पथसमायुक्तमहाद्वारगवायुना ।
सह स्थितत्रिकोणार्धगमने दृश्यतेऽच्युतः ॥ ९४॥
सरलार्थ : अब आत्मा के सम्बन्ध में विवेचन करते हैं-हृदय स्थल में आठ दल का कमल है, उसके बीच रेखा वलय बनाकर जीवात्मा ज्योतिरूप होकर अणुमात्र स्वरूप में निवास करता है। वह सर्वज्ञाता, सब कुछ करने वाला है और सब कुछ उसी में प्रतिष्ठित है। उसका ऐसा विचार है कि सभी चरित्रों का मैं ही कर्ता, भोक्ता, सुखी, दु:खी, काना, लँगड़ा, बहरा, गूंगा, दुबला और मोटा हूँ; इस प्रकार का उसका स्वतन्त्र व्यवहार रहता है॥ उसे अष्टदल कमल का पूर्वदिशा वाला दल सफेद रंग का है, उस दल में रहते हुए धर्म और भक्तिभाव में मति (श्रद्धा) रहती है॥ जब आग्नेय दिशा के लाल रंग के दल में निवास होता है, तब मति निद्रा और आलस्य से युक्त हो जाती है॥ जब दक्षिण दिशा के काले रंग के दल में निवास होता है, तब द्वेषभाव और क्रोधी स्वभाव की मति रहती है॥ ध्यानबिन्दूपनिषद् नैऋत्य दिशा के नीले रंग वाले दल में निवास करने पर पाप कर्मों और हिंसक वृत्ति वाली मति रहती है॥ जब स्फटिक वर्ण वाले पश्चिम दल में निवास रहता है, तब क्रीड़ा और विनोद में अभिरुचि उत्पन्न हो जाती है। वायव्यकोण के माणिक्य वर्ण वाले दल में निवास होने पर घूमने-फिरने और वैराग्य भाव की ओर झुकाव होता है॥, ॥ जब उत्तर के पीले रंग के दल में निवास करता है, तो सुख-साधन और सजने-सँवरने में अभिरुचि रहती हैं॥ ईशान कोण के वैडूर्यमणि-रंग के दल में रहने पर दान-पुण्य और अनुग्रह करने में अभिरुचि जागती है॥ जब जोड़ों के सन्धिभाग में मति वास करती है, तब वात, पित्त, कफ से सम्बन्धित बड़ी बीमारियों का प्रकोप होता है॥ जब मति मध्य में रहती है, ऐसे में सब कुछ जानने, गाने, नाचने, पढ़ने और आनन्द मनाने में ध्यान रहता है॥ जब आँख श्रमशील रहती है, तो उसे विश्राम देने के उद्देश्य से पहली रेखा का आश्रय लेकर बीच में निमज्जन करती है। वह प्रथम रेखा बन्धूक पुष्प के वर्ण वाली होती है, जिससे निद्रावस्था की प्राप्ति होती है। निद्रावस्था के बीच में ही स्वप्नावस्था रहती है। स्वप्नावस्था के बीच में देखी गई, सुनी हुई और अनुमान की हुई सम्भावित बातों की कल्पना करने से जो श्रम करना पड़ता है॥ उस श्रम के निवारणार्थ द्वितीय रेखा वलय में डुबकी लगाती है। वह दूसरी रेखा वीर-बहूटी के वर्ण की है, जिससे सुषुप्ति अवस्था होती है। इस सुषुप्तावस्था में बुद्धि मात्र परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इसके पश्चात् ही परमेश्वर की प्राप्ति सम्भव है॥ तृतीय रेखा वलय बनाकर जब पद्मराग वर्ण वाली रेखा में निमज्जन किया जाता है, तब तुरीयावस्था प्राप्त होती है। इसमें बुद्धि मात्र परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने वाली और नित्य बोधस्वरूपा होती है। इस अवस्था में बुद्धि को धीरे-धीरे सबसे पृथक् करते हुए धैर्यपूर्वक मन को आत्म-केन्द्रित करके अन्य कुछ भी विचार ने करे॥ तब प्राण और अपान में एकीकरण करके सम्पूर्ण जगत् को आत्मस्वरूप मानते हुए लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करे। तुरीयातीतावस्था प्राप्त होने पर द्वन्द्वभाव मिटते ही सभी कुछ आनन्दस्वरूप लगने लगता है। जब तक जीव में देहधारणा रहती है, तभी तक वह उसमें निवास करता है, बाद में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होती है, इसी मार्ग से मोक्ष और आत्मदर्शन दोनों की प्राप्ति सम्भव है॥ चारों मार्ग से संयुक्त महाद्वार की ओर गमन करने वाले वायु के साथ स्थिर होने पर अर्द्ध त्रिकोण में जाकर परमात्मा का साक्षात्कार होता है॥९४॥
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पूर्वोक्तत्रिकोणस्थानादुपरि पृथिव्यादिपञ्चवर्णकं ध्येयम् ।
प्राणादिपञ्चवायुश्च बीजं वर्णं च स्थानकम् ।
यकारं प्राणबीजं च नीलजीमूतसन्निभम् ।
रकारमग्निबीजं च अपानादित्यसंनिभम् ॥ ९५॥
सरलार्थ : पूर्व में कथित त्रिकोण स्थान से ऊपर पृथ्वी आदि पाँच रंग वाले तत्त्व ध्यान के योग्य हैं। इसके साथ बीज, वर्ण और स्थानयुक्त प्राणादि पाँच वायु ध्यान के योग्य हैं। ‘य’कार जो नीले बादलों के समान है, वह प्राण का बीज है। ‘र’ कार आदित्यरूप वर्ण अग्निरूप अपान का बीज है॥९५॥
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लकारं पृथिवीरूपं व्यानं बन्धूकसंनिभम् ।
वकारं जीवबीजं च उदानं शङ्खवर्णकम् ॥ ९६॥
सरलार्थ : ‘ल’ कार बन्धूक पुष्प के रंग वाला पृथ्वीरूप व्यान का बीज है। शंख के रंग वाला ‘व’ कार जीवरूप उदान को बीज है॥९६॥
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हकारं वियत्स्वरूपं च समानं स्फटिकप्रभम् ।
हृन्नाभिनासाकर्णं च पादाङ्गुष्ठादिसंस्थितम् ॥ ९७॥
द्विसप्ततिसहस्राणि नाडीमार्गेषु वर्तते ।
अष्टाविंशतिकोटीषु रोमकूपेषु संस्थिताः ॥ ९८॥
समानप्राण एकस्तु जीवः स एक एव हि ।
रेचकादि त्रयं कुर्याद्दृढचित्तः समाहितः ॥ ९९॥
शनैः समस्तमाकृष्य हृत्सरोरुहकोटरे ।
प्राणापानौ च बध्वा तु प्रणवेन समुच्चरेत् ॥ १००॥
कर्णसङ्कोचनं कृत्वा लिङ्गसङ्कोचनं तथा ।
मूलाधारात्सुषुम्ना च पद्मतन्तुनिभा शुभा ॥ १०१॥
अमूर्तो वर्तते नादो वीणादण्डसमुत्थितः ।
शङ्खनादिभिश्चैव मध्यमेव ध्वनिर्यथा ॥ १०२॥
सरलार्थ : ‘ह’ कार स्फटिक प्रभायुक्त आकाश रूप ‘समान’ का बीज है। हृदय, नाभि, नासिका, कान तथा पैर का अंगुष्ठ-ये समान प्राण के स्थान हैं॥ यह समान बहत्तर हजार नाड़ियों तथा शरीर के अट्ठाईस करोड़ रोम कूपों में रहता है॥ समान और प्राण भिन्न-भिन्न नहीं, अपितु एक हैं, दोनों एक ही जीव हैं। चित्त को दृढ़ता से समाहित कर पूरक, कुम्भक, रेचक तीनों क्रियायें सम्पन्न करे। हृदयकमल के कोटर में धीरे-धीरे सबको आकर्षित करके, प्राणवायु और अपान को अवरुद्ध करते हुए प्रणव (ॐकार) का उच्चारण करे॥ कण्ठ का संकोचन करके लिङ्ग का संकोचन करे, तत्पश्चात् मूलाधार से पद्मतन्तु की तरह प्रकट होने वाली सुषुम्ना नाड़ी का संकोचन करे॥ सुषुम्ना के आश्रित वीणा-दण्ड से उठने वाला अमूर्त नाद सुनाई पड़ता है, जैसे शंखनाद आदि के मध्य (अमूर्त ध्वनि) सुनाई पड़ता है॥९७-१०२॥
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व्योमरन्ध्रगतो नादो मायूरं नादमेव च ।
कपालकुहरे मध्ये चतुर्द्वारस्य मध्यमे ॥ १०३॥
तदात्मा राजते तत्र यथा व्योम्नि दिवाकरः ।
कोदण्डद्वयमध्ये तु ब्रह्मरन्ध्रेषु शक्तितः ॥ १०४॥
स्वात्मानं पुरुषं पश्येन्मनस्तत्र लयं गतम् ।
रत्नानि ज्योत्स्निनादं तु बिन्दुमाहेश्वरं पदम् ।
य एवं वेद पुरुषः स कैवल्यं समश्नुत इत्युपनिषत् ॥ १०५॥
सरलार्थ : व्योमरन्ध्र (आकाशरन्ध्र) से गमन करने वाला नाद मोर (पक्षी की) ध्वनि के समान रहता है, कपाल कुहर के मध्य चार द्वारों वाला बीच का स्थान है। व्योम में सूर्य के सुशोभित होने के समान ही आत्मा यहाँ प्रतिष्ठित है और ब्रह्म प्राप्ति के स्थान पर ब्रह्मरन्ध्र में कोदण्ड (धनुष) द्वय के बीच शक्ति स्थित है। जहाँ मन को तल्लीन करके अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, वहीं रत्नों से ज्योतिष्मान् नादबिन्दु महेश का स्थान है। जो पुरुष इसका ज्ञाता है, वह कैवल्य पद को प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥१०३-१०५॥
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ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥
सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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इति ध्यानबिन्दूपनिषत्समाप्ता ॥
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(ऋग्वेदीय योगोपनिषत्)
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वैराजात्मोपासनया सञ्जातज्ञानवह्निना ।
दग्ध्वा कर्मत्रयं योगी यत्पदं याति तद्भजे ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्टितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य मा आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ।
ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि ।
तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।
अवतु मामवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ अकारो दक्षिणः पक्ष उकारस्तूत्तरः स्मृतः ।
मकारं पुच्छमित्याहुरर्धमात्रा तु मस्तकम् ॥ १॥
सरलार्थ : ॐ कार रूप हंस का ‘अकार’ दक्षिण पक्ष (दाहिना पंख) तथा ‘उकार’ उत्तर पक्ष (बायाँ पंख) कहा गया है। उसकी पूँछ ही ‘मकार’ है और अर्धमात्रा ही उसका शीर्ष भाग है॥ १ ॥
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पादादिकं गुणास्तस्य शरीरं तत्त्वमुच्यते ।
धर्मोऽस्य दक्षिणश्चक्षुरधर्मो योऽपरः स्मृतः ॥ २॥
सरलार्थ : उस (ॐ कार रूप हंस) के दोनों पैर रजोगुण एवं तमोगुण हैं और (उसका) शरीर सतोगुण कहा गया है। धर्म (उसका) दक्षिण चक्षु है और अधर्म बायाँ चक्षु (नेत्र) कहा गया है ॥ २ ॥
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भूर्लोकः पादयोस्तस्य भुवर्लोकस्तु जानुनि ।
सुवर्लोकः कटीदेशे नाभिदेशे महर्जगत् ॥ ३॥
सरलार्थ : उस (हंस) के दोनों पैरों में भूः (पृथ्वी) लोक स्थित है। उसकी जंघाओं में भुवः (अन्तरिक्ष) लोक केन्द्रित है। स्वः (स्वर्ग) लोक उसके कटिप्रदेश तथा महः लोक उसके नाभि प्रदेश में स्थित है ॥ ३ ॥
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जनोलोकस्तु हृद्देशे कण्ठे लोकस्तपस्ततः ।
भ्रुवोर्ललाटमध्ये तु सत्यलोको व्यवस्थितः ॥ ४॥
सरलार्थ : उसके हृदय स्थल में जनः लोक और कण्ठ प्रदेश में तपोलोक विद्यमान है। ललाट और भौहों के मध्य में सत्य लोक स्थित है ॥ ४॥
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सहस्रार्णमतीवात्र मन्त्र एष प्रदर्शितः ।
एवमेतां समारूढो हंसयोगविचक्षणः ॥ ५॥
न भिद्यते कर्मचारैः पापकोटिशतैरपि ।
आग्नेयी प्रथमा मात्रा वायव्येषा तथापरा ॥ ६॥
सरलार्थ : इस प्रकार से वर्णित सहस्रावयव युक्त प्रणवरूप हंस पर आसीन होकर कर्मानुष्ठान-ध्यान आदि में रत हंस योगी- विचक्षण पुरुष ओंकार की श्रेष्ठ विधि से मनन व चिन्तन करता हुआ सहस्रों-करोड़ों पापों से निवृत्त होकर मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। (‘अकार’ नामक) प्रथम मात्रा ‘आग्नेयी’ कही गयी है और (‘उकार’ नामक) द्वितीया मात्रा ‘वायव्या’ कही गयी है ॥ ५-६ ॥
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भानुमण्डलसंकाशा भवेन्मात्रा तथोत्तरा ।
परमा चार्धमात्रा या वारुणीं तां विदुर्बुधाः ॥ ७॥
सरलार्थ : तत्पश्चात् ‘मकार’ नामक यह तृतीय ‘मात्रा’ सूर्य मण्डल के समतुल्य है। चतुर्थ मात्रा ‘अर्धमात्रा’ के रूप में वारुणी कही गयी है ॥ ७॥
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कालत्रयेऽपि यत्रेमा मात्रा नूनं प्रतिष्ठिताः ।
एष ओङ्कार आख्यातो धारणाभिर्निबोधत ॥ ८॥
सरलार्थ : इन उपर्युक्त चारों मात्राओं में से हर एक मात्रा तीन-तीन काल अथवा कला रूप है। इस प्रकार ‘ॐकार’ को द्वादश कलाओं से युक्त कहा गया है। धारणा, ध्यान एवं समाधि के द्वारा इसे जानने का प्रयास करना चाहिए ॥ ८ ॥
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घोषिणी प्रथमा मात्रा विद्युन्मात्रा तथाऽपरा ।
पतङ्गिनी तृतीया स्याच्चतुर्थी वायुवेगिनी ॥ ९॥
सरलार्थ : प्रथम मात्रा ‘घोषिणी’ कही गई है। द्वितीय मात्रा का नाम ‘विद्युन्मात्रा’ है, तृतीय मात्रा ‘पातङ्गी’ और चतुर्थ मात्रा ‘वायुवेगिनी’ के नाम से जानी जाती है ॥९॥
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पञ्चमी नामधेया तु षष्ठी चैन्द्र्यभिधीयते ।
सप्तमी वैष्णवी नाम अष्टमी शाङ्करीति च ॥ १०॥
सरलार्थ : पाँचवी मात्रा का नाम ‘नामधेया’ है और छठवीं मात्रा ‘ऐन्द्री’ के नाम से जानी जाती है। सातवीं मात्रा का नाम ‘वैष्णवी’ और आठवीं मात्रा ‘शाङ्करी’ के नाम से प्रसिद्ध है ॥ १० ॥
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नवमी महती नाम धृतिस्तु दशमी मता ।
एकादशी भवेन्नारी ब्राह्मी तु द्वादशी परा ॥ ११॥
सरलार्थ : नौवीं मात्रा ‘महती’ तथा दसवीं मात्रा को ‘धृति’ (ध्रुवा) कहा गया है। ग्यारहवीं मात्रा ‘नारी’ (मौनी) और बारहवीं मात्रा ‘ब्राह्मी’ के नाम से जानी जाती है ॥ ११ ॥
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प्रथमायां तु मात्रायां यदि प्राणैर्वियुज्यते ।
भरते वर्षराजासौ सार्वभौमः प्रजायते ॥ १२॥
सरलार्थ : प्रथम मात्रा में यदि साधक अपने प्राणों का परित्याग कर देता है, तो वह भारतवर्ष में सार्वभौमिक चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में प्रादुर्भूत होता है ॥ १२ ॥
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द्वितीयायां समुत्क्रान्तो भवेद्यक्षो महात्मवान् ।
विद्याधरस्तृतीयायां गान्धर्वस्तु चतुर्थिका ॥ १३॥
सरलार्थ : द्वितीय मात्रा में जब साधक के प्राणों का उत्क्रमण होता है, तब वह महान् महिमाशाली यक्ष के रूप में उत्पन्न होता है। तृतीय मात्रा में प्राण त्याग करने पर विद्याधर के रूप में और चतुर्थ मात्रा में प्राण के परित्याग करने से गन्धर्व के रूप में जन्म लेता है ॥ १३ ॥
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पञ्चम्यामथ मात्रायां यदि प्राणैर्वियुज्यते ।
उषितः सह देवत्वं सोमलोके महीयते ॥ १४॥
सरलार्थ : यदि पाँचवीं मात्रा में उस के प्राणों का उत्क्रमण होता है, तो वह ‘तुषित’ नामक देवों के साथ निवास करता हुआ चन्द्रलोक में सम्मानित होता है ॥ १४ ॥
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षष्ठ्यामिन्द्रस्य सायुज्यं सप्तम्यां वैष्णवं पदम् ।
अष्टम्यां व्रजते रुद्रं पशूनां च पतिं तथा ॥ १५॥
सरलार्थ : छठवीं मात्रा में साधक देवराज इन्द्र के सायुज्य पद को प्राप्त करता है। सातवीं मात्रा में भगवान् विष्णु के पद-वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करता है तथा आठवीं मात्रा में पशुपति भगवान् शिव के रुद्रलोक में जाकर उनकी समीपता का लाभ प्राप्त करता है ॥ १५ ॥
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नवम्यां तु महर्लोकं दशम्यां तु जनं व्रजेत् ।
एकादश्यां तपोलोकं द्वादश्यां ब्रह्म शाश्वतम् ॥ १६॥
सरलार्थ : नव मात्रा में महः लोक को, दसवीं मात्रा में जनः लोक (ध्रुवलोक) को प्राप्त होता है। ग्यारहवीं मात्रा में तपोलोक को और बारहवीं मात्रा में साधक शाश्वत ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है ॥ १६ ॥
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ततः परतरं शुद्धं व्यापकं निर्मलं शिवम् ।
सदोदितं परं ब्रह्म ज्योतिषामुदयो यतः ॥ १७॥
सरलार्थ : इससे भी परतर (परे), श्रेष्ठ, व्यापक, शुद्ध, निर्मल, कल्याणकारी, सदैव उदीयमान वह परमब्रह्मतत्त्व है। उसी से सभी तरह की ज्योतियाँ प्रादुर्भूत हुई हैं ॥ १७ ॥
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अतीन्द्रियं गुणातीतं मनो लीनं यदा भवेत् ।
अनूपमं शिवं शान्तं योगयुक्तं सदा विशेत् ॥ १८॥
सरलार्थ : जब श्रेष्ठ साधक का मन समस्त इन्द्रियों एवं सत् , रज और तम आदि तीनों गुणों से परे होकर परमतत्त्व में विलीन हो जाता है, तब वह उपमारहित, कल्याणकारी, शान्तस्वरूप हो जाता है; ऐसी उच्च स्थिति में पहुँचे हुए साधकों को योग युक्त कहा जाना चाहिए ॥ १८ ॥
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तद्युक्तस्तन्मयो जन्तुः शनैर्मुञ्चेत्कलेवरम् ।
संस्थितो योगचारेण सर्वसङ्गविवर्जितः ॥ १९॥
सरलार्थ : उस योगयुक्त और तन्मय हुए साधक को अविद्या आदि दोषों से मुक्त और योग पद्धति से स्वस्थ (आत्मा में स्थित) होकर सभी प्रकार के आसक्ति आदि दोषों से रहित हो जाना चाहिए ॥ १९ ॥
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ततो विलीनपाशोऽसौ विमलः कमलाप्रभुः ।
तेनैव ब्रह्मभावेन परमानन्दमश्नुते ॥ २०॥
सरलार्थ : इस प्रकार उसके समस्त सांसारिक बन्धनों का शमन हो जाता है। वह निर्मल, कैवल्यपद को प्राप्त कर स्वयं ही परमात्म स्वरूप हो जाता है। वह ब्रह्मभाव से परमानन्द को प्राप्त करके असीम आनन्द की अनुभूति करता है ॥ २० ॥
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आत्मानं सततं ज्ञात्वा कालं नय महामते ।
प्रारब्धमखिलं भुञ्जन्नोद्वेगं कर्तुमर्हसि ॥ २१॥
सरलार्थ : हे ज्ञानवान् पुरुष ! तुम सतत प्रयत्न करते हुए आत्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करो। उसी के सच्चिन्तन में अपने समय को लगाओ। प्रारब्ध कर्मानुसार जो भी कष्ट-कठिनाइयाँ सामने आयें, उनको भोगते हुए तुम्हें उद्विग्न नहीं होना चाहिए ॥ २१ ॥
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उत्पन्ने तत्त्वविज्ञाने प्रारब्धं नैव मुञ्चति ।
तत्त्वज्ञानोदयादूर्ध्वं प्रारब्धं नैव विद्यते ॥ २२॥
देहादीनामसत्त्वात्तु यथा स्वप्नो विबोधतः ।
कर्म जन्मान्तरीयं यत्प्रारब्धमिति कीर्तितम् ॥ २३॥
सरलार्थ : आत्मज्ञान के प्रादुर्भूत होने पर भी प्रारब्ध स्वयं त्याग नहीं करता, किन्तु जैसे ही तत्त्वज्ञान का प्राकट्य होता है, वैसे ही प्रारब्ध कर्म का क्षय हो जाता है। जैसा कि स्वप्रलोक के देहादिक असत् होने के कारण जाग्रत् होने पर विलुप्त हो जाते हैं, विगत जन्मों में जो किये हुए कर्म हैं, उन्हीं कर्मों को प्रारब्ध कर्म की संज्ञा प्रदान की गई है ॥ २२-२३ ॥
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तत्तु जन्मान्तराभावात्पुंसो नैवास्ति कर्हिचित् ।
स्वप्नदेहो यथाध्यस्तस्तथैवायं हि देहकः ॥ २४॥
सरलार्थ : ज्ञानी के लिए तो जन्म-जन्मान्तर भी नहीं है। इसलिए प्रारब्ध कर्म ज्ञानी के लिए कभी भी बाधक नहीं होता। जैसे स्वप्रकालीन देह, देह नहीं होती, केवल अध्यास-मात्र ही होती है, वैसे ही यह जाग्रत् अवस्था का शरीर भी अध्यास मात्र ही है ॥ २४ ॥
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अध्यस्तस्य कुतो जन्म जन्माभावे कुतः स्थितिः ।
उपादानं प्रपञ्चस्य मृद्भाण्डस्येव पश्यति ॥ २५॥
सरलार्थ : अध्यस्त (अयथार्थ) की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? और उत्पत्ति के अभाव में उस वस्तु की स्थिति कैसे होगी? इसलिए इस प्रपञ्च का मुख्य उपादान कारण आत्मा ही है। जैसे कि मिट्टी के द्वारा निर्मित पात्रों का उपादान कारण मिट्टी होती है ॥ २५ ॥
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अज्ञानं चेति वेदान्तैस्तस्मिन्नष्टे क्व विश्वता ।
यथा रज्जुअं परित्यज्य सर्पं गृह्णाति वै भ्रमात् ॥ २६॥
तद्वत्सत्यमविज्ञाय जगत्पश्यति मूढधीः ।
रज्जुखण्डे परिज्ञाते सर्परूपं न तिष्ठति ॥ २७॥
सरलार्थ : वेदान्तानुसार ये सभी सांसारिक प्रपञ्च अज्ञानान्धकार के कारण आत्मा में ही प्रतिभासित होते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार के विनष्ट होने पर संसार की स्थिति नहीं रह जाती। जिस तरह भ्रम बुद्धि से ग्रस्त मनुष्य रज्जु बुद्धि का परित्याग कर उसे सर्प बुद्धि से ग्रहण करता है, अर्थात् रस्सी को सर्प समझने लगता है, इसी तरह अज्ञानी (मूढ़) मनुष्य सत्य (आत्मा) का ज्ञान (बोध) न होने के कारण इस भ्रम- बुद्धिवश सांसारिक प्रपञ्च का अवलोकन करता है। जब मनुष्य ठीक तरह से उस रस्सी को पहचान लेता है, तो पूर्व में दृष्टिगोचर होने वाले सर्प की भावना नहीं रह जाती ॥ २६-२७ ॥
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अधिष्ठाने तथा ज्ञाते प्रपञ्चे शून्यतां गते ।
देहस्यापि प्रपञ्चत्वात्प्रारब्धावस्थितिः कृतः ॥ २८॥
सरलार्थ : जिस तरह अधिष्ठान स्वरूप आत्मतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर प्रपञ्च शून्यता को प्राप्त हो जाता है, ऐसी स्थिति में देह भी प्रपञ्चरूप होने के कारण प्रारब्ध की स्थिति किस प्रकार रह सकती है? ॥ २८ ॥
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अज्ञानजनबोधार्थं प्रारब्धमिति चोच्यते ।
ततः कालवशादेव प्रारब्धे तु क्षयं गते ॥ २९॥
सरलार्थ : अज्ञान से ग्रसित लोगों को बोध कराने के लिए प्रारब्ध कर्म की बात कही जाती है। तदनन्तर कालवश ही सांसारिक प्रारब्ध कर्मों का विनाश हो जाता है ॥ २९ ॥
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ब्रह्मप्रणवसन्धानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः ।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव ॥ ३०॥
सरलार्थ : तत्पश्चात् ‘ॐकार’ स्वरूप ब्रह्म की आत्मा के साथ एकता के चिन्तन से नादरूप में स्वयं प्रकाशमान शिव के कल्याणकारी स्वरूप (परब्रह्म) का प्रादुर्भाव उसी प्रकार हो जाता है, जिस प्रकार बादलों के हट जाने पर भगवान् भास्कर प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ३० ॥
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सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय वैष्णवीम् ।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा ॥ ३१॥
सरलार्थ : योगी को सिद्धासन से बैठने के पश्चात् वैष्णवी मुद्रा धारण करनी चाहिए। तदनन्तर दाहिने कान के अन्दर उठते हुए नाद का सतत श्रवण करना चाहिए ॥ ३१ ॥
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अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यमावृणुते ध्वनिम् ।
पक्षाद्विपक्षमखिलं जित्वा तुर्यपदं व्रजेत् ॥ ३२॥
सरलार्थ : इस प्रकार नाद का किया गया अभ्यास बाह्य ध्वनियों को आवृत कर लेता है, इस तरह दोनों पक्षों ‘अकार’ और ‘मकार’ को जीतकर क्रमशः सम्पर्ण ओंकार’ को शनैः-शनै: आत्मसात् कर तुर्यावस्था को प्राप्त कर लेता है॥ ३२ ॥
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श्रूयते प्रथमाभ्यासे नादो नानाविधो महान् ।
वर्धमानस्तथाभ्यासे श्रूयते सूक्ष्मसूक्ष्मतः ॥ ३३॥
सरलार्थ : अभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में यह महान्नाद (अनाहत ध्वनि) विभिन्न तरह से सुनायी देता है। इसके अनन्तर जब अभ्यास अधिक बढ़ जाता है, तब उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप सुनायी पड़ने लगते हैं ॥ ३३ ॥
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आदौ जलधिमूतभेरीनिर्झरसम्भवः ।
मध्ये मर्दलशब्दाभो घण्टाकाहलजस्तथा ॥ ३४॥
अन्ते तु किङ्किणीवंशवीणाभ्रमरनिःस्वनः ।
इति नानाविधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्मसूक्ष्मतः ॥ ३५॥
सरलार्थ : इस नाद की ध्वनि प्रारम्भिक काल में समुद्र, मेघ, भेरी तथा झरनों से उत्पन्न ध्वनि के समान सुनायी देती है। इसके बाद बीच की अवस्था में मृदङ्ग, घंटे और नगाड़े की भाँति यह ध्वनि सुनाई पड़ती है। अन्त में अर्थात् उत्तरावस्था में किङ्किणी, वंशी, वीणा एवं भ्रमर की ध्वनि के समान मधुर नादध्वनि सुनायी पड़ती है। इस प्रकार सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते हुए नाना प्रकार के नाद सुनायी पड़ते हैं ॥ ३४-३५ ॥
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महति श्रूयमाणे तु महाभेर्यादिकध्वनौ ।
तत्र सूक्ष्मं सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत् ॥ ३६॥
सरलार्थ : निरन्तर नाद का अभ्यास करते हुए जब भेरी आदि की ध्वनि तेजी से सुनायी पड़ने लगे, तब उसमें भी सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर नाद के सुनने का विचार करना चाहिए ॥ ३६ ॥
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घनमुत्सृज्य वा सूक्ष्मे सूक्ष्ममुत्सृज्य वा घने ।
रममाणमपि क्षिप्तं मनो नान्यत्र चालयेत् ॥ ३७॥
सरलार्थ : वह घन नाद को छोड़कर सूक्ष्मनाद (मन्द ध्वनि) या फिर सूक्ष्म नाद का परित्याग करके घन नाद में मन को केन्द्रित करे। अन्यत्र और कहीं भी इधर-उधर मन को भ्रमित न होने दे ॥ ३७ ॥
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यत्र कुत्रापि वा नादे लगति प्रथमं मनः ।
तत्र तत्र स्थिरीभूत्वा तेन सार्धं विलीयते ॥ ३८॥
सरलार्थ : साधक का मन सर्वप्रथम जहाँ-कहीं किसी भी सूक्ष्म (अतिमन्द) अथवा घननाद (अभेद्यध्वनि) में लगता है। उसको (मन को) वहीं केन्द्रित करना चाहिए। ऐसा करने से वह (चित्त) स्वयमेव तन्मय होने लगता है ॥ ३८ ॥
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विस्मृत्य सकलं बाह्यं नादे दुग्धाम्बुवन्मनः ।
एकीभूयाथ सहसा चिदाकाशे विलीयते ॥ ३९॥
सरलार्थ : साधक का मन सभी सांसारिक बाह्य-प्रपंचों से विस्मृत होकर दूध में मिश्रित जल की भाँति नाद में एकीभूत हो जाता है। इस प्रकार वह (मन) नाद के साथ अकस्मात् ही चिदाकाश में स्वयं को विलय कर लेता है ॥ ३९ ॥
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उदासीनस्ततो भूत्वा सदाभ्यासेन संयमी ।
उन्मनीकारकं सद्यो नादमेवावधारयेत् ॥ ४०॥
सरलार्थ : संयमी पुरुष को चाहिए कि नाद-श्रवण से भिन्न विषयों-वासनाओं को उपेक्षित करके सतत अभ्यास द्वारा मन को तत्क्षण ही उस नाद में नियोजित करे और सदैव चिन्तन के द्वारा उसी में रमण करता रहे ॥ ४० ॥
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सर्वचिन्तां समुत्सृज्य सर्वचेष्टाविवर्जितः ।
नादमेवानुसंदध्यान्नादे चित्तं विलीयते ॥ ४१॥
सरलार्थ : योगी साधक को चाहिए कि सतत चिन्तन करते हुए समस्त चिन्ताओं का परित्याग कर सभी तरह की चेष्टाओं से मन को हटाकर नाद का ही अनुसन्धान करे; क्योंकि चित्त का नाद में लय हो जाता है ॥ ४१ ॥
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मकरन्दं पिबन्भृङ्गो गन्धान्नापेक्षते तथा ।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि काङ्क्षति ॥ ४२॥
सरलार्थ : जिस प्रकार भ्रमर फूलों का रस ग्रहण करता हुआ पुष्पों के गन्ध की अपेक्षा नहीं रखता है, ठीक वैसे ही सतत नाद में तल्लीन रहने वाला चित्त विषय-वासना आदि की आकांक्षा नहीं करता है ॥ ४२ ॥
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बद्धः सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्तचापलः ।
नादग्रहणतश्चित्तमन्तरङ्गभुजङ्गमः ॥ ४३॥
सरलार्थ : यह चित्त रूपी अन्तरङ्ग भुजङ्ग (सर्प) नाद को सुनने के पश्चात् उस सुन्दर नाद की गन्ध से आबद्ध हो जाता है और तत्क्षण ही सभी तरह की चपलताओं का परित्याग कर देता है ॥ ४३ ॥
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विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धावति ।
मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ॥ ४४॥
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशिताङ्कुशः ।
नादोऽन्तरङ्गसारङ्गबन्धने वागुरायते ॥ ४५॥
अन्तरङ्गसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि च ।
ब्रह्मप्रणवसंलग्ननादो ज्योतिर्मयात्मकः ॥ ४६॥
सरलार्थ : तदनन्तर (वह मन) विश्व (सांसारिकता) को विस्मृत करके तथा एकाग्रता को धारण करके (विषयों में) इधर-उधर कहीं भी नहीं दौड़ता है। विषय-वासना रूपी उद्यान में विचरण करने वाले मन रूपी उन्मत्त गजेन्द्र को वश में करने में यह नादरूपी अति तीक्ष्ण अंकुश ही समर्थ होता है। यह नाद मनरूपी हिरण को बाँधने में जाल का कार्य करता है और मन रूपी तरङ्ग को रोकने में तट का काम करता है। ब्रह्मरूप प्रणव में संयुक्त हुआ यह नाद स्वयं ही प्रकाश स्वरूप होता है ॥ ४४-४६ ॥
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मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ।
तावदाकाशसङ्कल्पो यावच्छब्दः प्रवतते ॥ ४७॥
सरलार्थ : मन वहाँ ही विलय को प्राप्त हो जाता है। वहीं परम श्रेष्ठ भगवान् विष्णु का परम पद है। मन में आकाश तत्त्व का संकल्प तभी तक रहता है, जब तक कि शब्दों का उच्चारण और श्रवण होता है ॥ ४७ ॥
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निःशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मा समीर्यते ।
नादो यावन्मनस्तावन्नादान्तेऽपि मनोन्मनी ॥ ४८॥
सरलार्थ : नि:शब्द होने पर तो वह परमब्रह्म के परमात्म-तत्त्व का अनुभव करने लगता है। नाद के रहने तक ही मन का अस्तित्व बना रहता है। नाद के समापन होने पर मन भी ‘अमन’ (शून्यवत्) हो जाता है ॥ ४८ ॥
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सशब्दश्चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।
सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना भवेत् ॥ ४९॥
निरञ्जने विलीयेते मनोवायू न संशयः ।
नादकोटिसहस्राणि बिन्दुकोटिशतानि च ॥ ५०॥
सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्मप्रणवनादके ।
सर्वावस्थाविनिर्मुक्तः सर्वचिन्ताविवर्जितः ॥ ५१॥
मृतवत्तिष्ठते योगी स मुक्तो नात्र संशयः ।
शङ्खदुन्दुभिनादं च न श्रुणोति कदाचन ॥ ५२॥
सरलार्थ : सशब्द अर्थात् शब्दयुक्त नाद के अक्षर स्वरूप ब्रह्म में क्षीण (लय) हो जाने पर वह नि:शब्द परमपद कहलाता है। जब सतत नाद का अनुसन्धान करने पर समस्त विषय-वासनाएँ पूर्णरूपेण नष्ट हो जाती हैं, तदुपरान्त मन एवं प्राण दोनों संशयरहित हो उस निराकार परमब्रह्म में लय हो जाते हैं। करोड़ों-करोड़ नाद एवं बिन्दु उस ब्रह्मरूप प्रणव नाद में विलीन हो जाते हैं। वह योगी जाग्रत् , स्वप्न तथा सुषुप्ति आदि सभी अवस्थाओं से मुक्त होकर सभी तरह की चिन्ताओं से रहित हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह योगी मरे हुए व्यक्ति की भाँति रहता है। निश्चय ही वह योगी मुक्तावस्था प्राप्त कर लेता है और वह (योगी) शङ्ख-दुन्दुभि आदि (लौकिक) नाद का श्रवण कभी भी नहीं करता ॥ ४९-५२॥
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काष्ठवज्ज्ञायते देह उन्मन्यावस्थया ध्रुवम् ।
न जानाति स शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा ॥ ५३॥
सरलार्थ : जिस अवस्था में मन ‘अमन’ हो जाता है, उस अवस्था के प्राप्त होने पर शरीर लकड़ी की भाँति चेष्टारहित सा हो जाता है। वह (मन) न शीत जानता है, न गर्मी जानता है और न ही वह सुख-दुःख का अनुभव करता है ॥ ५३ ॥
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न मानं नावमानं च संत्यक्त्वा तु समाधिना ।
अवस्थात्रयमन्वेति न चित्तं योगिनः सदा ॥ ५४॥
सरलार्थ : वह (योगी) मान-अपमान से परे हो जाता है। समाधि द्वारा वह इन सभी का पूर्णतया परित्याग कर देता है। योगी का चित्त तीनों अवस्थाओं-जाग्रत् , स्वप्न, सुषुप्ति आदि का कभी भी अनुगमन नहीं करता है (अर्थात् उससे परे हो जाता है) ॥ ५४॥
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जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्तः स्वरूपावस्थतामियात् ॥ ५५॥
दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यम् वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम् ।
चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बम् स ब्रह्मतारान्तरनादरूपः ॥ ५६॥
इत्युपनिषत् ॥
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सरलार्थ : (वह) योगी जाग्रत् और निद्रा (स्वप्न) की अवस्था से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप में स्थिर हो जाता है। दृश्य वस्तु के अभाव में भी जिसकी दृष्टि स्थिर हो जाती है, बिना प्रयास के ही जिसका प्राण अपने स्थान पर सुस्थिर हो जाता है तथा बिना किसी आश्रय अथवा अवलम्बन के ही जिसका चित्त स्थिरता को प्राप्त हो जाता है, ऐसा वह (योगी) ब्रह्ममय प्रणव नाद के अन्तर्वर्ती तुरीयावस्था (परमानंद) में सदैव स्थित हो जाता है। यही उपनिषद् है ॥ ५५-५६ ॥
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ॐ वाङ्मे मनसीति शान्तिः ॥
इति नादबिन्दूपनिषत्समाप्ता ॥
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॥ नारदपरिव्राजकोपनिषत् ॥
पारिव्राज्यधर्मपूगालङ्कारा यत्प्रबोधतः ।
दशप्रणवलक्ष्यार्थं यान्ति तं राममाश्रये ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥
स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
परिव्राट्त्रिशिखी सीताचूडानिर्वाणमण्डलम्
दक्षिणा शरभं स्कन्दं महानारायणाद्वयम् ॥
अथ कदाचित्परिव्राजकाभरणो नारदः सर्वलोकसंचारं
कुर्वन्नपूर्वपुण्यस्थलानि पुण्यतीर्थानि तीर्थीकुर्वन्नवलोक्य
चित्तशुद्धिं प्राप्य निर्वैरः शान्तो दान्तः सर्वतो
निर्वेदमासाद्य स्वरूपानुसन्धानमनुसन्धय
नियमानन्दविशेषगण्यं मुनिजनैरुपसंकीर्णं
नैमिषारण्यं पुण्यस्थलमवलोक्य सरिगमपधनिस-
संज्ञैर्वैराग्यबोधकरैः स्वरविशेषैः प्रापञ्चिक-
पराङ्मुखाइर्हरिकथालापैः स्थावरजङ्गमनामकै-
र्भगवद्भक्तिविशेषाइर्नरमृगकिंपुरुषामरकिंनर-
अप्सरोगणान्संमोहयन्नागतं ब्रह्मात्मजं भगवद्भक्तं
नारदमवलोक्य द्वादशवर्षसत्रयागोपस्थिताः
श्रुताध्ययनसम्पन्नाः सर्वज्ञास्तपोनिष्ठापराश्च
ज्ञानवैराग्यसम्पन्नाः शौनकादिमहर्षयः
प्रत्युत्थानं कृत्वा नत्वा यथोचितातिथ्यपूर्वकमुपवेशयित्वा
स्वयं सर्वेऽप्युपविष्टा भो भगवन्ब्रह्मपुत्र कथं
मुक्त्युपायोऽस्माकं वक्तव्य इत्युक्तस्तान्स होवाच नारदः
सत्कुलभवोपनीतः सम्यगुपनयनपूर्वकं चतुश्चत्वारिंशत्-
संस्कारसम्पन्नः स्वाभिमतैकगुरुसमीपे स्वशाखाध्ययन-
पूर्वकं सर्वविद्याभ्यासं कृत्वा द्वादशवर्षशुश्रूषा-
पूर्वकं ब्रह्मचर्यं पञ्चविंशतिवत्सरं गार्हस्थ्यं
पञ्चविंशतिवत्सरं वानप्रस्थाश्रमं तद्विधिवत्क्रमान्निर्वर्त्य
चतुर्विधब्रह्मचर्यं षड्विधं गार्हस्थ्यं चतुर्विधं
वानप्रस्थधर्मं सम्यगभ्यस्य तदुचितं कर्म सर्वं निर्वर्त्य
साधनचतुष्टयसम्पन्नः सर्वसंसारोपरि मनोवाक्काय-
कर्मभिर्यथाशानिवृत्तस्तथा वासनैषणोपर्यपि निर्वैरः
शान्तो दान्तः संन्यासी परमहंसाश्रमेणास्खलितस्वस्वरूप-
ध्यानेन देहत्यागं करोति स मुक्तो भवति स मुक्तो भवतीत्युपनिषत् ॥
इति प्रथमोपदेशः ॥ १॥
अथ हैनं भगवन्तं नारदं सर्वे शौनकादयः
पप्रच्छुर्भो भगवन्संन्यासविधिं नो ब्रूहीति
तानवलोक्य नारदस्तत्स्वरूपं सर्वं पितामहमुखेनैव
ज्ञातुमुचितमित्युक्त्वा सत्रयागपूर्त्यनन्तरं तैः सह
सत्यलोकं गत्वा विधिवद्ब्रह्मनिष्ठापरं परमेष्ठिनं
नत्वा स्तुत्वा यथोचितं तदाज्ञया तैः सहोपविश्य
नारदः पितामहमुवाच गुरुस्त्वं जनकस्त्वं सर्वविद्या-
रहसज्ञः सर्वज्ञस्त्वमतो मत्तो मदिष्टं रहस्यमेकं
वक्तव्यं त्वद्विना मदभिमतरहस्यं वक्तुं कः समर्थः ।
किमितिचेत्पारिव्राज्यस्वरूपक्रमं नो ब्रूहीति नारदेन
प्रार्थितः परमेष्ठि सर्वतः सर्वानवलोक्य मुहूर्तमात्रं
समाधिनिष्ठो भूत्वा संसारातिनिवृत्यन्वेषण इति
निश्चित्य नारदमवलोक्य तमाह पितामहः ।
पुरा मत्पुत्र पुरुषसूक्तोपनिषद्रहस्यप्रकारं
निरतिशयाकारावलम्बिना विराट्पुरुषेणोपदिष्टं रहस्यं
ते विविच्योच्यते तत्क्रममतिरहस्यं बाढमवहितो भूत्वा
श्रूयतां भो नारद विधिवदादावनुपनीतोपनयानन्तरं
तत्सत्कुलप्रसूतः पितृमातृविधेयः पितृसमीपादन्यत्र
सत्सम्प्रदायस्थं श्रद्धावन्तं सत्कुलभवं श्रोत्रियं
शास्त्रवात्सल्यं गुणवन्तमकुटिलं सद्गुरुमासाद्य नत्वा
यथोपयोगशुश्रूषापूर्वकं स्वाभिमतं विज्ञाप्य
द्वादशवर्षसेवापुरःसरं सर्वविद्याभ्यासं कृत्वा
तदनुज्ञया स्वकुलानुरूपामभिमतकन्यां विवाह्य
पञ्चविंशतिवत्सरं गुरुकुलवासं कृत्वाथ गुर्वनुज्ञया
गृहस्थोचितकर्म कुर्वन्दौर्ब्राह्मण्यनिवृत्तिमेत्य
स्ववंशवृद्धिकामः पुत्रमेकमासाद्य गार्हस्थ्योचित-
पञ्चविंशतिवत्सरं तीर्त्वा ततः पञ्चचिंशतिवत्सरपर्यन्तं
त्रिषवणमुदकस्पर्शनपूर्वकं चतुर्थकालमेकवारमाहार-
माहरन्नयमेक एव वनस्थो भूत्वा पुरग्रामप्राक्तनसञ्चारं
विहाय निकारविरहिततदाश्रितकर्मोचितकृत्यं निर्वर्त्य
दृष्टश्रवणविषयवैतृष्ण्यमेत्य चत्वारिंशत्संकार-
सम्पन्नः सर्वतो विरक्तश्चित्तशुद्धिमेत्याशासूयेर्ष्याहङ्कारं
दग्ध्वा साधनचतुष्टयसम्पन्नः संन्यस्तुमर्हतीत्युपनिषत् ॥
इति द्वितीयोपदेशः ॥ २॥
अथ हैनं नारदः पितामहं पप्रच्छ भगवन्केन
संन्यासाधिकारी वेत्येवमादौ संन्यासाधिकारिणं
निरूप्य पश्चात्संन्यासविधिरुच्यते अवहितः शृणु ।
अथ षण्डः पतितोऽङ्गविकलः स्त्रैणो बधिरोऽर्भको
मूकः पाषण्डश्चक्री लिङ्गी वैखानसहरद्विजौ
भृतकाध्यापकः शिपिविष्टोऽनग्निको वैराग्यवन्तोऽप्येते
न संन्यासार्हाः संन्यस्ता यद्यपि महावाक्योपदेशेन
अधिकारिणः पूर्वसंन्यासी परमहंसाधिकारी ॥--
परेणैवात्मनश्चापि परस्यैवात्मना तथा ।
अभयं समवाप्नोति स परिव्राडिति स्मृतिः ॥ १॥
षण्डोऽथ विकलोऽप्यन्धो बालकश्चापि पातकी ।
पतितश्च परद्वारी वैखानसहरद्विजौ ॥ २॥
चक्री लिङ्गी च पाषण्डी शिपिविष्टोऽप्यनग्निकः ।
द्वित्रिवारेण संन्यस्तो भृतकाध्यापकोऽपि च ।
एते नार्हन्ति संन्यासमातुरेण विना क्रमम् ॥ ३॥
आतुरकालः कथमार्यसंमतः ॥--
प्राणस्योत्क्रमणासन्नकालस्त्वातुरसंज्ञकः ।
नेतरस्त्वातुरः कालो मुक्तिमार्गप्रवर्तकः ॥ ४॥
आतुरेऽपि च संन्यासे तत्तन्मन्त्रपुरःसरम् ।
मन्त्रावृत्तिं च कृत्वैव संन्यसेद्विधिवद्बुधः ॥ ५॥
आतुरेऽपि क्रमे वापि प्रैषभेदो न कुत्रचित् ।
न मन्त्रं कर्मरहितं कर्म मन्त्रमपेक्षते ॥ ६॥
अकर्म मन्त्ररहितं नातो मन्त्रं परित्यजेत् ।
मन्त्रं विना कर्म कुर्याद्भस्मन्याहुतिवद्भवेत् ॥ ७॥
विध्युक्तकर्मसंक्षेपात्संन्यासस्त्वातुरः स्मृतः ।
तस्मादातुरसंन्यासे मन्त्रावृत्तिविधिर्मुने ॥ ८॥
आहिताग्निर्विरक्तश्चेद्देशान्तरगतो यदि ।
प्राजापत्येष्टिमप्स्वेव निर्वृत्यैवाथ संन्यसेत् ॥ ९॥
मनसा वाथ विध्युक्तमन्त्रावृत्त्याथवा जले ।
श्रुत्यनुष्ठानमार्गेण कर्मानुष्ठानमेव वा ॥ १०॥
समाप्य संन्यसेद्विद्वान्नो चेत्पातित्यमाप्नुयात् ॥ ११॥
यदा मनसि सञ्जातं वैतृष्ण्यं सर्ववस्तुषु ।
तदा संन्यासमिच्छेत पतितः स्याद्विपर्यये ॥ १२॥
विरक्तः प्रव्रजेद्धीमान्सरक्तस्तु गृहे वसेत् ।
सरागो नरकं याति प्रव्रजन्हि द्विजाधमः ॥ १३॥
यस्यैतानि सुगुप्तानि जिह्वोपस्थोदरं करः ।
संन्यसेदकृतोद्वाहो ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यवान् ॥ १४॥
संसारमेव निःसारं दृष्ट्वा सारदिदृक्षया ।
प्रव्रजन्त्यकृतोद्वाहाः परं वैराग्यमाश्रिताः ॥ १५॥
प्रवृत्तिलक्षणं कर्म ज्ञानं संन्यासलक्षणम् ।
तस्माज्ज्ञानं पुरस्कृत्य संन्यसेदिह बुद्धिवान् ॥ १६॥
यदा तु विदितं तत्त्वं परं ब्रह्म सनातनम् ।
तदैकदण्डं संगृह्य सोपवीतां शिखां त्यजेत् ॥ १७॥
परमात्मनि यो रक्तो विरक्तोऽपरमात्मनि ।
सर्वैषणाविनिर्मुक्तः स भैक्षं भोक्तुमर्हति ॥ १८॥
पूजितो वन्दितश्चैव सुप्रसन्नो यथा भवेत् ।
तथा चेत्ताड्यमानस्तु तदा भवति भैक्षभुक् ॥ १९॥
अहमेवाक्षरं ब्रह्म वासुदेवाख्यमद्वयम् ।
इति भावो ध्रुवो यस्य तदा भवति भैक्षभुक् ॥ २०॥
यस्मिञ्शान्तिः शमः शौचं सत्यं सन्तोष आर्जवम् ।
अकिञ्चनमदम्भश्च स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ २१॥
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम् ।
कर्मणा मनसा वाचा तदा भवति भैक्षभुक् ॥ २२॥
दशलक्षणकं धर्ममनुतिष्ठन्समाहितः ।
वेदान्तान्विधिवच्छृत्वा संन्यस्तेदनृणो द्विजः ॥ २३॥
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ २४॥
अतीतान्न स्मरेद्भोगान्न तथानागतानपि ।
प्राप्तांश्च नामिनन्देद्यः स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ २५॥
अन्तस्थानीन्द्रियाण्यन्तर्बहिष्ठान्विषयान्बहिः ।
शक्नोति यः सदा कर्तुं स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ २६॥
प्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति ।
तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ २७॥
कौपीनयुगलं कन्था दण्ड एकः परिग्रहः ।
यतेः परमहंसस्य नाधिकं तु विधीयते ॥ २८॥
यदि वा कुरुते रागादधिकस्य परिग्रहम् ।
रौरवं नरकं गत्वा तिर्यग्योनिषु जायते ॥ २९॥
विशीर्णान्यमलान्येव चेलानि ग्रथितानि तु ।
कृत्वा कन्थां बहिर्वासो धारयेद्धातुरञ्जितम् ॥ ३०॥
एकवासा अवासा वा एकदृष्टिरलोलुपः ।
एक एव चरेन्नित्यं वर्षास्वेकत्र संवसेत् ॥ ३१॥
कुटुम्बं पुत्रदारांश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः ।
यज्ञं यज्ञोपवीतं च त्यक्त्वा गूढश्चरीद्यतिः ॥ ३२॥
कामः क्रोधस्तथा दर्पो लोभमोहादयश्च ये ।
तांस्तु दोषान्परित्यज्य परिव्राण्निर्ममो भवेत् ॥ ३३॥
रागद्वेषवियुक्तात्मा समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
प्राणिहिंसानिवृत्तश्च मुनिः स्यात्सर्वनिःस्पृहः ॥ ३४॥
दम्भाहङ्कारनिर्मुक्तो हिंसापैशून्यवर्जितः ।
आत्मज्ञानगुणोपेतो यतिर्मोक्षमवाप्नुयात् ॥ ३५॥
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयः ।
संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं निगच्छति ॥ ३६॥
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ ३७॥
श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च भुक्त्वा च दृष्ट्वा घ्रात्वा च यो नरः ।
न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः ॥ ३८॥
यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा ।
स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम् ॥ ३९॥
संमानाद्ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव ।
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा ॥ ४०॥
सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते ।
सुखं चरति लोकेऽस्मिन्नवमन्ता विनश्यति ॥ ४१॥
अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन ।
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ ४२॥
क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् ।
सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत् ॥ ४३॥
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निराशिषः ।
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ॥ ४४॥
इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च ।
अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥ ४५॥
अस्थिस्थूणं स्नायुबद्धं मांसशोणितलेपितम् ।
चर्मावबद्धं दुर्गन्धि पूर्णं मूत्रपुरीषयोः ॥ ४६॥
जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम् ।
रजस्वलमनित्यं च भूतावासैमं त्यजेत् ॥ ४७॥
मांसासृक्पूयविण्मूत्रस्नायुमज्जास्थिसंहतौ ।
देहे चेत्प्रीतिमान्मूढो भविता नरकेऽपि सः ॥ ४८॥
सा कालपुत्रपदवी सा माहावीचिवागुरा ।
सासिपत्रवनश्रेणी या देहेऽहमिति स्थितिः ॥ ४९॥
सा त्याज्या सर्वयत्नेन सर्वनाशेऽप्युपस्थिते ।
स्प्रष्टव्या सा न भव्येन सश्वमांसेव पुल्कसी ॥ ५०॥
प्रियेषु स्वेषु सुकृतमप्रियेषु च दुष्कृतम् ।
विसृज्य ध्यानयोगेन ब्रह्माप्येति सनातनम् ॥ ५१॥
अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा सङ्गाञ्शनैः शनैः ।
सर्वद्वन्द्वैर्विनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते ॥ ५२॥
एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थमसहायकः ।
सिद्धिमेकस्य पश्यन्हि न जहाति न हीयते ॥ ५३॥
कपालं वृक्षमूलानि कुचेलान्यसहायता ।
समता चैव सर्वस्मिन्नैतन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥ ५४॥
सर्वभूतहितः शान्तस्त्रिदण्डी सकमण्डलुः ।
एकारामः परिव्रज्य भिक्षार्थं ग्राममाविशेत् ॥ ५५॥
एको भिक्षुर्यथोक्तः स्याद्वावेव मिथुनं स्मृतम् ।
त्रयो ग्रामः समाख्यात ऊर्ध्वं तु नगरायते ॥ ५६॥
नगरं न हि कर्तव्यं ग्रामो वा मिथुनं तथा ।
एतत्त्रयं प्रकुर्वाणः स्वधर्माच्च्यवते यतिः ॥ ५७॥
राजवार्तादितेषां स्याद्भिक्षावार्ता परस्परम् ।
स्नेहपैशून्यमात्सर्यं संनिकर्षान्न संशयः ॥ ५८॥
एकाकी निःस्पृहस्तिष्ठेन हि केन सहालपेत् ।
दद्यान्नारायणेत्येव प्रतिवाक्यं सदा यतिः ॥ ५९॥
एकाकी चिन्तयेद्ब्रह्म मनोवाक्कायकर्मभिः ।
मृत्युं च नाभिनन्देत जीवितं वा कथंचन ॥ ६०॥
कालमेव प्रतीक्षेत यावदायुः समाप्यते ।
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् ॥ ६१॥
अजिह्वः षण्डकः पङ्गुरन्धो बधिर एव च ।
मुग्धश्च मुच्यते भिक्षुः षड्भिरेतैर्न संशयः ॥ ६२॥
इदमिष्टमिदं नेति योऽश्नन्नपि न सज्जति ।
हितं सत्यं मितं वक्ति तमजिह्वं प्रचक्षते ॥ ६३॥
अद्यजातां यथा नारीं तथा षोडशवार्षिकीम् ।
शतवर्षं च यो दृष्ट्वा निर्विकारः स षण्डकः ॥ ६४॥
भिक्षार्थमटनं यस्य विण्मूत्रकरणाय च ।
योजनान्न परं याति सर्वथा पङ्गुरेव सः ॥ ६५॥
तिष्ठतो व्रजतो वापि यस्य चक्षुर्न दूरगम् ।
चतुर्युगां भुवं मुक्त्वा परिव्राट् सोऽन्ध उच्यते ॥ ६६॥
हिताहितं मनोरामं वचः शोकावहं तु यत् ।
श्रुत्वापि न शृणोतीव बधिरः स प्रकीर्तितः ॥ ६७॥
सान्निध्ये विषयाणां यः समर्थो विकलेन्द्रियः ।
सुप्तवद्वर्तते नित्यं स भिक्षुर्मुग्ध उच्यते ॥ ६८॥
नटादिप्रेक्षणं द्यूतं प्रमदासुहृदं तथा ।
भक्ष्यं भोज्यमुदक्यां च षण्न पश्येत्कदाचन ॥ ६९॥
रागं द्वेषं मदं मायां द्रोहं मोहं परात्मसु ।
षडेतानि यतिर्नित्यं मनसापि न चिन्तयेत् ॥ ७०॥
मञ्चकं शुक्लवस्त्रं च स्त्रीकथालौल्यमेव च ।
दिवा स्वापं च यानं च यतीनां पातकानि षट् ॥ ७१॥
दूरयात्रां प्रयत्नेन वर्जयेदात्मचिन्तकः ।
सदोपनिषदं विद्यामभ्यसेन्मुक्तिहैतुकीम् ॥ ७२॥
न तीर्थसेवी नित्यं स्यान्नोपवासपरो यतिः ।
न चाध्ययनशीलः स्यान्न व्याख्यानपरो भवेत् ॥ ७३॥
अपापमशठं वृत्तमजिह्मं नित्यमाचरेत् ।
इन्द्रियाणि समाहृत्य कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ॥ ७४॥
क्षीणेन्द्रियमनोवृत्तिर्निराशीर्निष्परिग्रहः ।
निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च ॥ ७५॥
निर्ममो निरहङ्कारो निरपेक्षो निराशिषः ।
विविक्तदेशसंसक्तो मुच्यते नात्र संशय इति ॥ ७६॥
अप्रमत्तः कर्मभक्तिज्ञानसम्पन्नः स्वतन्त्रो
वैराग्यमेत्य ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो वा
मुख्यवृत्तिका चेद्ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही
भवेद्गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेद्यदिवेतरतथा
ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वाथ
पुनरव्रती वा व्रती वा स्नातको वाऽस्नातको
वोत्सन्नाग्निरनग्निको वा यदहरेव विरजेत्तदहरेव
प्रव्रजेत्तद्धैके प्राजापत्यामेवेष्टिं कुर्वन्यथवा
न कुर्यादग्नेय्यमेव कुर्यादग्निर्हिप्राणः प्राणमेवैतया
करोति तस्मात्त्रैधातवीयामेव कुर्यादेतैव त्रयो धातवो
यदुत सत्त्वं रजस्तम इति ॥
अयं ते योनिरृत्वियो यतो जातो अरोचथाः ।
तं जानन्नग्न आरोहाथानो वर्धया रयिमित्यनेन
मन्त्रेणाग्निमाजिघ्रेदेश वा अग्नेर्योनिर्यः प्राणः
प्राणं गच्छ स्वां योनिं गच्छ
स्वाहेत्येवमेवैतदाहवनीयादग्निमाहृत्य
पूर्ववदग्निमाजिघ्रेद्यदग्निं न विन्देदप्सु जुहुयादापो
वै सर्वा देवताः सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुहोमि स्वाहेति
हुत्वोधृत्य तदुदकं प्राश्नीयात्साज्यं हविरनामयं
मोदमिति शिखां यज्ञोपवीतं पितरं पुत्रं कलत्रं कर्म
चाध्ययनं मन्त्रान्तरं विसृज्यैव
परिव्रजत्यात्मविन्मोक्षमन्त्रैस्त्रैधातवीयैर्विधेस्तद्ब्रह्म
तदुपासितव्यमेवैतदिति ॥
पितामहं पुनः पप्रच्छ नारदः कथमयज्ञोपवीती
ब्राह्मण इति ॥ तमाह पितामहः ॥
सशिखं वपनं कृत्वा बहिःसूत्रं त्यजेद्बुधः ।
यदक्षरं परं ब्रह्म तत्सूत्रमिति धारयेत् ॥ ७७॥
सूचनात्सूत्रमित्याहुः सूत्रं नाम परं पदम् ।
तत्सूत्रं विदितं येन स विप्रो वेदपारगः ॥ ७८॥
येन सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।
तत्सूत्रं धारयेद्योगी योगवित्तत्त्वदर्शनः ॥ ७९॥
बहिःसूत्रं त्यजेद्विद्वान्योगमुत्तममास्थितः ।
ब्रह्मभावमिदं सूत्रं धारयेद्यः सचेतनः ।
धारणात्तस्य सूत्रस्य नोच्छिष्टो नाशुचिर्भवेत् ॥ ८०॥
सूत्रमन्तर्गतं येषां ज्ञानयज्ञोपवीतिनाम् ।
ते वै सूत्रविदो लोके ते च यज्ञोपवीतिनः ॥ ८१॥
ज्ञानशिखिनो ज्ञाननिष्ठा ज्ञानयज्ञोपवीतिनः ।
ज्ञानमेव परं तेषां पवित्रं ज्ञानमुच्यते ॥ ८२॥
अग्नेरिव शिखा नान्या यस्य ज्ञानमयी शिखा ।
स शिखीत्युच्यते विद्वान्नेतरे केशधारिणः ॥ ८३॥
कर्मण्यधिकृता ये तु वैदिके ब्राह्मणादयः ।
तेभिर्धार्यमिदं सूत्रं क्रियाङ्गं तद्धि वै स्मृतम् ॥ ८४॥
शिखा ज्ञानमयी यस्य उपवीतं च तन्मयम् ।
ब्राह्मण्यं सकलं तस्य इति ब्रह्मविदो विदुरिति ॥ ८५॥
तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मणः परिव्रज्य परिव्राडेकशाटी
मुण्डोऽपरिग्रहः शरीरक्लेशासहिष्णुश्चेदथवा
यथाविधिश्चेज्जातरूपधरो भूत्वा सपुत्रमित्रकलत्राप्त-
बन्धाद्वीनि स्वाध्यायं सर्वकर्माणि संन्यस्यायं
ब्रह्माण्डं च सर्वं कौपीनं दण्डमाच्छादनं
च त्यक्त्वा द्वन्द्वसहिष्णुर्न शीतं न चोष्णं न सुखं
न दुःखं न निद्रा न मानावमाने च षडूर्मिवर्जितो निन्दाहङ्कारमत्सरगर्वदम्भेर्ष्यासूयेच्छाद्वेष-
सुखदुःखकामक्रोधलोभमोहादीन्विसृज्य स्ववपुः
शवाकारमिव स्मृत्वा स्वव्यतिरिक्तं सर्वमन्तर्बहिरमन्यमानः
कस्यापि वन्दनमकृत्वा न नमस्कारो न स्वाहाकारो
न स्वधाकारो न निन्दास्तुतिर्यादृच्छिको भवेद्यदृच्छा-
लाभसन्तुष्टः सुवर्णादीन्न परिग्रहेन्नावाहनं न विसर्जनं
न मन्त्रं नामन्त्रं न ध्यानं नोपासनं न लक्ष्यं नालक्ष्यं
न पृथक् नापृथक् न त्वन्यत्र सर्वत्रानिकेतः स्थिरमतिः शून्यागारवृक्षमूलदेवगृहतृणकूटकुलालशालाग्निहोत्र-
शालाग्निदिगन्तरनदीतटपुलिनभूगृहकन्दरनिर्झरस्थण्डिलेषु वने वा श्वेतकेतुऋभुनिदाघऋषभदुर्वासःसंवर्तकदत्तात्रेयरैवतक-
वदव्यक्तलिङ्गोऽव्यक्ताचारो बालोन्मत्तपिशाचवदनुन्मत्तोन्मत्त-
वदाचरंस्त्रिदण्डं शिक्यं पात्रं कमण्डलुं कटिसूत्रं च तत्सर्वं
भूःस्वाहेत्यप्सु परित्यज्य कटिसूत्रं च कौओपीनं दण्डं वस्त्रं
कमण्डलुं सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेदात्मानमन्विच्छेद्यथा
जातरूपधरो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहस्तत्त्वब्रह्ममार्गे सम्यक् सम्पन्नः
शुद्धमानसः प्राणसन्धारणार्थं यथोक्तकाले करपात्रेणान्येन वा
याचिताहारमाहरन् लाभलाभे समो भूत्वा निर्ममः
शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः
संन्यस्य पूर्णानन्दैकबोधस्तद्ब्रह्माहमस्मीति
ब्रह्मप्रणवमनुस्मरन्भ्रमरकीटन्यायेन शरीरत्रयमुत्सृज्य
संन्यासेनैव देहत्यागं करोति स कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषत् ॥
इति तृतीयोपदेशः ॥ ३॥
त्यक्त्वा लोकांश्च वेदांश्च विषयानिन्द्रियाणि च ।
आत्मन्येव स्थितो यस्तु स याति परमां गतिम् ॥ १॥
नामगोत्रादिवरणं देशं कालं श्रुतं कुलम् ।
ययो वृत्तं व्रतं शीलं ख्यापयेन्नैव सद्यतिः ॥ २॥
न सम्भाषेत्स्त्रियं काञ्चित्पूर्वदृष्टां च न स्मरेत् ।
कथां च वर्जयेत्तासां न पश्येल्लिखितामपि ॥ ३॥
एतच्चतुष्टयं मोहात्स्त्रीणामाचरतो यतेः ।
चित्तं विक्रियतेऽवश्यं तद्विकारात्प्रणश्यति ॥ ४॥
तृष्णा क्रोधोऽनृतं माया लोभमोहौ प्रियाप्रिये ।
शिल्पं व्याख्यानयोगश्च कामो रागपरिग्रहः ॥ ५॥
अहङ्कारो ममत्वं च चिकित्सा धर्मसाहसम् ।
प्रायश्चित्तं प्रवासश्च मन्त्रौषधगराशिषः ॥ ६॥
प्रतिषिद्धानि चैतानि सेवमानो व्रजेदधः ।
आगच्छ गच्छ तिष्ठेति स्वागतं सुहृदोऽपि वा ॥ ७॥
सन्माननं च न ब्रूयान्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
प्रतिग्रहं न गृह्णीयान्नैव चान्यं प्रदापयेत् ॥ ८॥
प्रेरयेद्वा तया भिक्षुः स्वप्नेऽपि न कदाचन ।
जायाभ्रातृसुतादीनां बन्धूनां च शुभाशुभम् ॥ ९॥
श्रुत्वा दृष्ट्वा न कम्पेत शोकहर्षौ त्यजेद्यतिः ।
अहिंसासत्यमस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहः ॥ १०॥
अनौद्धत्त्यमदीनत्वं प्रसादः स्थैर्यमार्जवम् ।
अस्नेहो गुरुशुश्रूषा श्रद्धा क्षान्तिर्दमः शमः ॥ ११॥
उपेक्षा धैर्यमाधुर्ये तितिक्षा करुणा तथा ।
ह्रीस्तथा ज्ञानविज्ञाने योगो लघ्वशनं धृतिः ॥ १२॥
एष स्वधर्मो विख्यातो यतीनां नियतात्मनाम् ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थः सर्वत्र समदर्शनः ॥ १३॥
तुरीयः परमो हंसः साक्षान्नारायणो यतिः ।
एकरात्रं वसेद्ग्रामे नगरे पञ्चरात्रकम् ॥ १४॥
वर्षाभ्योऽन्यत्र वर्षासु मासांश्च चतुरो वसेत् ।
द्विरात्रं वा वसेद्ग्रामे भिक्षुर्यदि वसेत्तदा ॥ १५॥
रागादयः प्रसज्येरंस्तेनासौ नारकी भवेत् ।
ग्रामान्ते निर्जने देशे नियतात्माऽनिकेतनः ॥ १६॥
पर्यटेत्कीटवद्भूमौ वर्षास्वेकत्र संवसेत् ।
एकवासा अवासा वा एकदृष्टिरलोलुपः ॥ १७॥
अदूषयन्सतां मार्गं ध्यानयुक्तो महीं चरेत् ।
शुचौ देशे सदा भिक्षुः स्वधर्ममनुपालयन् ॥ १८॥
पर्यटेत सदा योगी वीक्षयन्वसुधातलम् ।
न रात्रौ न च मध्याह्ने सन्ध्ययोर्नैव पर्यटन् ॥ १९॥
न शून्ये न च दुर्गे वा प्राणिबाधाकरे न च ।
एकरात्रं वसेद्ग्रामे पत्तने तु दिनत्रयम् ॥ २०॥
पुरे दिनद्वयं भिक्षुर्नगरे पञ्चरात्रकम् ।
वर्षास्वेकत्र तिष्ठेत स्थाने पुण्यजलावृते ॥ २१॥
आत्मवत्सर्वभूतानि पश्यन्भिक्षुश्चरेन्महीम् ।
अन्धवत्कुञ्जवच्चैव बधिरोन्मत्तमूकवत् ॥ २२॥
स्नानं त्रिषवणं प्रोक्तं बहूदकवनस्थयोः ।
हंसे तु सकृदेव स्यात्परहंसे न विद्यते ॥ २३॥
मौनं योगासनं योगस्तितिक्षैकान्तशीलता ।
निःस्पृहत्वं समत्वं च सप्तैतान्यैकदण्डिनाम् ॥ २४॥
परहंसाश्रमस्थो हि स्नानादेरविधानतः ।
अशेषचित्तवृत्तीनां त्यागं केवलमाचरेत् ॥ २५॥
त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमज्जामेदोस्थिसंहतौ ।
विण्मूत्रपूये रमतां क्रिमीणां कियदन्तरम् ॥ २६॥
क्व शरीरमशेषाणां श्लेष्मादीनां महाचयः ।
क्व चाङ्गशोभासौभाग्यकमनीयादयो गुणाः ॥ २७॥
मांसासृक्पूयविण्मूत्रस्नायुमज्जास्थिसंहतौ ।
देहे चेत्प्रीतिमान्मूढो भविता नरकेऽपि सः ॥ २८॥
स्त्रीणामवाच्यदेशस्य क्लिन्ननाडीव्रणस्य च ।
अभेदेऽपि मनोमेदाज्जनः प्रायेण वञ्च्यते ॥ २९॥
चर्मखण्डं द्विधा भिन्नमपानोद्गारधूपितम् ।
ये रमन्ति नमस्तेभ्यः साहसं किमतः परम् ॥ ३०॥
न तस्य विद्यते कार्यं न लिङ्गं वा विपश्चितः ।
निर्ममो निर्भयः शान्तो निर्द्वन्द्वोऽवर्णभोजनः ॥ ३१॥
मुनिः कौपीनवासाः स्यान्नग्नो वा ध्यानतत्परः ।
एवं ज्ञानपरो योगी ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ३२॥
लिङ्गे सत्यपि खल्वस्मिञ्ज्ञानमेव हि कारणम् ।
निर्मोक्षायेह भूतानां लिङ्गग्रामो निरर्थकः ॥ ३३॥
यन्न सन्तं न चासन्तं नाश्रुतं न बहुश्रुतम् ।
न सुवृत्तं न दुर्वृत्तं वेद कश्चित्स ब्राह्मणः ॥ ३४॥
तस्मादलिङ्गो धर्मज्ञो ब्रह्मवृत्तमनुव्रतम् ।
गूढधर्माश्रितो विद्वानज्ञानचरितं चरेत् ॥ ३५॥
सन्दिग्धः सर्वभूतानां वर्णाश्रमविवर्जितः ।
अन्धवज्जडवच्चापि मूकवच्च महीं चरेत् ॥ ३६॥
तं दृष्ट्वा शान्तमनसं स्पृहयन्ति दिवौकसः ।
लिङ्गाभावात्तु कैवल्यमिति ब्रह्मानुशासनमिति ॥ ३७॥
अथ नारदः पितामहं संन्यासविधिं नो ब्रूहीति पप्रच्छ ।
पितामहस्तथेत्यङ्गीकृत्यातुरे वा क्रमे वापि
तुरीयाश्रमस्वीकारारार्थं कृच्छ्रप्रायश्चित्त-
पूर्वकमष्टश्राद्धं कुर्याद्देवर्षिदिव्यमनुष्य-
भूतपितृमात्रात्मेत्यष्टश्राद्धानि कुर्यात् ।
प्रथमं सत्यवसुसंज्ञकान्विश्वान्देवान्देवश्राद्धे
ब्रह्मविष्णुमहेश्वरानृषिश्राद्धे देवर्षिक्षत्रियर्षि-
मनुष्यर्षीन् दिव्यश्राद्धे वसुरुद्रादुत्यरूपान्मनुष्यश्राद्धे सनकसनन्दनसनत्कुमारसनत्सुजातान्भूतश्राद्धे
मातृपितामहीप्रपितामहीरात्मश्राद्धे
आत्मपितृपितामहाञ्जीवत्पितृकश्चेत्पितरं त्यक्त्वा
आत्मपितामहप्रपितामहानिति सर्वत्र युग्मक्लृप्त्या
ब्राह्मणानर्चयेदेकाध्वरपक्षेऽष्टाध्वरपक्षे वा स्वशाखानुगतमन्त्रैरष्टश्राद्धान्यष्टदिनेषु वा
एकदिने वा पितृयागोक्तविधानेन ब्राह्मणानभ्यर्च्य
मुक्त्यन्तं यथाविधि निर्वर्त्य पिण्डप्रदानानि निर्वर्त्य
दक्षिणातांबूलैस्तोषयित्वा ब्राह्मणन्प्रेषयित्वा
शेषकर्मसिद्ध्यर्थं सप्तकेशान्विसृज्य
--'शेषकर्मप्रसिद्ध्यर्थं केशान्सप्ताष्ट वा द्विजः ।
संक्षिप्य वापयेत्पूर्वं केशश्मश्रुनखानि चे'ति
सप्तकेशान्संरक्ष्य कक्षोपस्थवर्जं क्षौरपूर्वकं
स्नात्वा सायंसन्ध्यावन्दनं निर्वर्त्य सहस्रगायत्रीं
जप्त्वा ब्रह्मयज्ञं निर्वर्त्य स्वाधीनाग्निमुपस्थाप्य
स्वशाखोपसंहरणं कृत्वा तदुक्तप्रकारेणाज्याहुति-
माज्यभागान्तं हुत्वाहुतिविधि,न् समाप्यात्मादिभिस्त्रिवारं
सक्तुप्राशनं कृत्वाचमनपूर्वकमग्निं संरक्ष्य
स्वयमग्नेरुत्तरतः कृष्णजिनोपरि स्थित्वा पुराणश्रवणपूर्वकं
जागरणं कृत्वा चतुर्थयामान्ते स्नात्वा तदग्नौ चरुं
श्रपयित्वा पुरुषसूक्तेनान्नस्य षोडशाहुतिर्हुत्वा
विरजाहोमं कृत्वा अथाचम्य सदक्षिणं वस्त्रं सुवर्णपात्रं
धेनुं दत्वा समाप्य ब्रह्मोद्वासनं कृत्वा ।
संमासिञ्चन्तु मरुतः समिन्द्रः संबृहस्पतिः ।
संमायमग्निः सिञ्चत्वायुषा च धनेन च
बलेन चायुष्मन्तः करोतु मेति ।
या ते अग्ने यज्ञिया तनूस्तयेह्यारोहात्मात्मानम् ।
अच्छा वसूनि कृण्वन्नस्मे नर्या पुरूणि ।
यज्ञो भूत्वा यज्ञमासीद स्वां योनिं जातवेदो भुव
आजायमानः स क्षय एधीत्यनेनाग्निमात्मन्यारोप्य
ध्यात्वाग्निं प्रदक्षिणनमस्कारपूर्वकमुद्वास्य
प्रातःसन्ध्यामुपास्य सहस्रगायत्रीपूर्वकं
सूर्योपस्थानं कृत्वा नाभिदघ्नोदकमुपविश्य
अष्टदिक्पालकार्घ्यपूर्वकं गायत्र्युद्वासनं
कृत्वा सावित्रीं व्याहृतिषु प्रवेशयित्वा ।
अहं वृक्षस्य रेरिव । कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव ।
ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीवस्वमृतमस्मि ।
द्रविणं मे सवर्चसं सुमेधा अमृतोक्षितः ।
इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् ।
यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः । छन्दोभ्योध्यमृतात्संबभूव ।
स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु । अमृतस्य देवधारणो भूयासम् ।
शरीरं मे विचर्षणम् । जिह्वा मे मधुमत्तमा ।
कर्णाभ्यां भूरि विश्रवम् । ब्रह्मणः कोशोऽसि मेधयापिहितः ।
श्रुतं मे गोपाय । दारेषणायाश्च वित्तेषणायाश्च
लोकेषणायाश्च व्युत्थितोऽहं ॐ भूः संन्यस्तं मया
ॐ भुवः संन्यस्तं मया ॐ सुवः संन्यस्तं मया
ॐ भूर्भुवःसुवः संन्यस्तं मयेति मन्द्रमध्यमतालज-
ध्वनिभिर्मनसा वाचोच्चार्याभयं सर्वभूतेभ्यो
मत्तः सर्वं प्रवर्तते स्वहेत्यनेन जलं प्राश्य प्राच्यां दिशि
पूर्णाञ्जलिं प्रक्षिप्योंस्वाहेति शिखामुत्पाठ्य ।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च्य शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।
यज्ञोपवीत बहिर्न निवसेत्त्वमन्तः प्रविश्य मध्ये ह्यजस्रं
परमं पवित्रं यशो बलं ज्ञानवैराग्यं मेधां प्रयच्छेति
यज्ञोपवीतं छित्त्वा उदकाञ्जलिना सह ॐ भूः समुद्रं गच्छ
स्वाहेत्यप्सु जुहुयादों भूः संन्यस्तं मया ॐ भुवः संन्यस्तं मया
ॐ सुवः संन्यस्तं मयेति त्रिरुक्त्वा त्रिवारमभिमन्त्र्य तज्जलं
प्राश्याचम्य ॐ भूः स्वाहेत्यप्सु वस्त्रं कटिसूत्रमपि विसृज्य
सर्वकर्मनिर्वर्तकोऽहमिति स्मृत्वा जातरूपधरो भूत्वा
स्वरूपानुसन्धानपूर्वकमूर्ध्वबाहुरुदीचीं
गच्छेत्पूर्ववद्विद्वत्संन्यासी चेद्गुरोः सकाशात्प्रणव-
महावाक्योपदेशं प्राप्य यथासुखं विहरन्मत्तः कश्चिन्नान्यो
व्यतिरिक्त इति फलपत्रोदकाहारः पर्वतवनदेवालयेषु
संचरेत्संन्यस्याथ दिगंबरः सकलसंचारकः
सर्वदानन्दस्वानुभवैकपूर्णहृदयः कर्मातिदूरलाभः
प्राणायामपरायणः फलरसत्वक्पत्रमूलोदकैर्मोक्षार्थी
गिरिकन्दरेषु विसृजेद्देहं स्मरंस्तारकम् ।
विविदिषासंन्यासी चेच्छतपथं गत्वाचार्यादिभिर्विप्रैस्तिष्ठ तिष्ठ महाभाग दण्डं वस्त्रं कमण्डलुं गृहाण प्रणव महावाक्यग्रहणार्थं
गुरुनिकटमागच्छेत्याचार्यैर्दण्डकटिसूत्रकौपीनं
शाटीमेकां कमण्डलुं पादादिमस्तकप्रमाणमव्रणं
समं सौम्यमकाकपृष्ठं सलक्षणं वैणवं
दण्डमेकमाचमनपूर्वकं सखा मा गोपायौजः
सखायोऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि वार्त्रग्नः शर्म मे भव
यत्पापं तन्निवारयेति दण्डं परिग्रहेज्जगज्जीवनं
जीवनाधारभूतं मा ते मा मन्त्रयस्व सर्वदा
सर्वसौम्येति प्रणवपूर्वकं कमण्डलुं परिग्रह्य
कौपीनाधारं कटिसूत्रमोमिति गुह्याच्छादकं
कौपीनमोमिति शीतवातोष्णत्राणकरं देहैकरक्षणमोमिति
कटिसूत्रकौपीनवस्त्रमाचमनपूर्वकं योगपट्टाभिषिक्तो
भूत्वा कृतार्थोऽहमिति मत्वा स्वाश्रमाचारपरो भवेदित्युपनिषत् ॥
इति चतुर्थोपदेशः ॥ ४॥
अथ हैनं पितामहं नारदः पप्रच्छ
भगवन्सर्वकर्मनिवर्तकः संन्यास इति त्वयैवोक्तः
पुनः स्वाश्रमाचारपरो भवेदित्युच्यते ।
ततः पितामह उवाच ।
शरीरस्य देहिनो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयावस्थाः
सन्ति तदधीनाः कर्मज्ञानवैराग्यप्रवर्तकाः
पुरुषा जन्तवस्तदनुकूलाचाराः सन्ति तथैव
चेद्भगवन्संन्यासाः कतिभेदास्तदनुष्ठानभेदाः
कीदृशास्तत्त्वतोऽस्माकं वक्तुमर्हसीति ।
तथेत्यङ्गीकृत्य तु पितामहेन संन्यासभेदैराचारभेदज़्
कथमिति चेत्तत्त्वतस्त्वेक एव संन्यासः अज्ञानेनाशक्तिवशा-
त्कर्मलोपश्च त्रैविध्यमेत्य वैराग्यसंन्यासो
ज्ञानवैराग्यसंन्यासः कर्मसंन्यासश्चेति
चातुर्विध्यमुपागतस्तद्यथेति दुष्टमदनाभाच्चेति
विषयवैतृष्ण्यमेत्य प्राक्पुण्यकर्मवशात्संन्यस्तः
स वैराग्यसंन्यासी शास्त्रज्ञानात्पापपुण्यलोकानुभव-
श्रवणात्प्रपञ्चोपरतः क्रोधेर्ष्यासूयाहङ्कारा-
भिमानात्मकसर्वसंसारं निर्वृत्य दारेषणाधनेषणा-
लोकेषणात्मकदेहवासनां शास्त्रवासनां लोकवासनां
त्यक्त्वा वमनान्नमिव प्रकृतीयं सर्वमिदं हेयं मत्वा
साधनचतुष्टयसम्पन्नो यः संन्यसति स एव ज्ञानसंन्यासी ।
क्रमेण सर्वमभ्यस्य सर्वमनुभूय ज्ञानवैराग्याभ्यां
स्वरूपानुसन्धानेन देहमात्रावशिष्टः संन्यस्य
जातरूपधरो भवति स ज्ञानवैराग्यसंन्यासी ।
ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भूत्वा वानप्रस्थाश्रममेत्य
वैराग्यभावेऽप्याश्रमक्रमानुसारेण यः
संन्यस्यति स कर्मसंन्यासी ।
ब्रह्मचर्येण संन्यस्य संन्यासाज्जातरूपधरो
वैराग्यसंन्यासी ।
विद्वत्संन्यासी ज्ञानसंन्यासी विविदिषासंन्यासी
कर्मसंन्यासी ।
कर्मसंन्यासोऽपि द्विविधः निमित्तसंन्यासोऽनिमित्तसंन्यासश्चेति ।
निमित्तस्त्वातुरः । अनिमित्तः क्रमसंन्यासः ।
आतुरः सर्वकर्मलोपः प्राणस्योत्क्रमणकालसंन्यासः
स निमित्तसंन्यासः ।
दृढाङ्गो भूत्वा सर्वं कृतकं नश्वरमिति देहादिकं
सर्वं हेयं प्राप्य ।
हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिधिर्दुरोणसत् ।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ।
ब्रह्मव्यतिरिक्तं सर्वं नश्वरमिति निश्चित्याथो क्रमेण यः संन्यस्यति
स संन्यासोऽनिमित्तसंन्यासः ।
संन्यासः षड्विधो भवति ।
कुटीचको बहूदको हंसः परमहंसः तुरीयातीतोऽवधूतश्चेति ।
कुटीचकः शिखायज्ञोपवीती दण्डकमण्डलुधरः कौपीनकन्थाधरः
पितृमातृगुर्वाराधनपरः पिठरखनित्रशिक्यादिमन्त्रसाधनपर
एकत्रान्नादनपरः श्वेतोर्ध्वपुण्ड्रधारी त्रिदण्डः ।
बहूदकः शिखादिकन्थाधरस्त्रिपुण्ड्रधारी कुटीचकवत्सर्वसमो
मधुकरवृत्त्याष्टकवलाशी हंसो जटाधारी त्रिपुण्ड्रोर्ध्वपुण्ड्रधारी
असंक्लृप्तमाधुकरान्नाशी कौपीनखण्डतुण्डधारी ।
परमहंसः शिखायज्ञोपवीतरहितः पञ्चगृहेश्वेकरात्रान्नादनपरः
करपात्री एककौपीनधारी शाटीमेकामेकं वैणवं दण्डमेकशाटीधरो
वा भस्मोद्धूलनपरः सर्वत्यागी ।
तुरीयातीतो गोमुखः फलाहारी । अन्नाहारी चेद्गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो
दिगंबरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः ।
अवधूतस्त्वनियमोऽभिशस्तपतितवर्जनपूर्वकं सर्ववर्णेष्वजगर-
वृत्त्याहारपरः स्वरूपानुसन्धानपरः ।
आतुरो जीवति चेत्क्रमसंन्यासः कर्तव्यः
कुटीचकबहूदकहंसानां ब्रह्मच-
र्याश्रमादितुरीयाश्रमवत् कुटीचकादीनां
संन्यासविधिः ।
परमहंसादित्रयाणां न कटीसूत्रं न कौपीनं
न वस्त्रं न कमण्डलुर्न दण्डः सार्ववर्णैक-
भैक्षाटनपरत्वं जातरूपधरत्वं विधिः ।
संन्यासकालेऽप्यलंबुद्धिपर्यन्तमधीत्य
तदनन्तरं कटीसूत्रं कौपीनं दण्डं वस्त्रं
कमण्डलुं सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेन्न
कन्थावेशो नाध्येतव्यो न श्रोतव्यमन्यत्किञ्चित्प्रणवादन्यं
न तर्कं पठेन्न शब्दमपि बृहच्छब्दान्नाध्यापयेन्न
महद्वाचोविग्लापनं गिरा पाण्यादिना संभाषणं
नान्यस्माद्वा विशेषेण न शूद्रस्त्रीपतितोदक्यासंभाषणं
न यतेर्देवपूजा नोत्सवदर्शनं तीर्थयात्रावृत्तिः ।
पुनर्यतिविशेषः ।
कुटीचस्यैकत्र भिक्षा बहूदकस्यासंक्लृप्तं
माधुकरं हंसस्याष्टगृहेष्वष्टकवलं
परमहंसस्य पञ्चगृहेषु करपात्रं
फलाहारो गोमुखं तुरीयातीतस्यावधूतस्याजगरवृत्तिः
सार्ववर्णिकेषु यतिर्नैकरात्रं वसेन्न कस्यापि
नमेत्तुरीयातीतावधूतयोर्न ज्येष्ठो यो न स्वरूपज्ञः
स ज्येष्ठोऽपि कनिष्ठो हस्ताभ्यां नद्युत्तरणं
न कुर्यान्न वृक्षमारोहेन्न यानादिरूढो न
क्रयविक्रयपरो न किञ्चिद्विनिमयपरो न दाम्भिको
नानृतवादी न यतेः किंचित्कर्तव्यमस्त्यस्तिचेत्सांकर्यम् ।
तस्मान्मननादौ संन्यासिनामधिकारः ।
आतुरकुटीचकयोर्भूर्लोको बहूदकस्य
स्वर्गलोको हंसस्य तपोलोकः परमहंसस्य
सत्यलोकस्तुरीयातीतावधूतयोः स्वात्मन्येव
कैवल्यं स्वरूपानुसन्धानेन भ्रमरकीटन्यायवत् ।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेव समाप्नोति नान्यथा श्रुतिशासनम् ।
तदेवं ज्ञात्वा स्वरूपानुसन्धानं विनान्यथाचारपरो
न भवेत्तदाचारवशात्तत्तल्लोकप्राप्तिर्ज्ञान-
वैराग्यसम्पन्नस्य स्वस्मिन्नेव मुक्तिरिति न सर्वत्राचारप्रसक्ति-
स्तदाचारः । जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तेष्वेकशरीरस्य जाग्रत्काले
विश्वः स्वप्नकाले तैजसः सुषुप्तिकाले प्राज्ञः
अवस्थाभेदादवस्थेश्वरभेदः कार्यभेदात्कारणभेदस्तासु
चतुर्दशकारणानां बाह्यवृत्तयोऽतर्वृतयस्तेषा-
मुपादानकारणम् ।
वृत्तयश्चत्वारः मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तं चेति ।
तत्तद्वृत्तिव्यापारभेदेन पृथगाचारभेदः ।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम् ।
तुरीयमक्षरमिति ज्ञात्वा जागरिते सुषुप्त्यवस्थापन्न
इव यद्यच्छृतं यद्यदृष्टं तत्सत्सर्वमविज्ञातमिव
यो वसेत्तस्य स्वप्नावस्थायामपि तादृगवस्था भवति ।
स जीवन्मुक्त इति वदन्ति । सर्वश्रुत्यर्थप्रतिपादनमपि तस्यैव
मुक्तिरिति । भिक्षुर्नैहिकामुष्मिकापेक्षः । यद्यपेक्षास्ति
तदनुरूपो भवति । स्वरूपानुसन्धानव्यतिरिक्तान्यशास्त्रा-
भ्यासैरुष्ट्रकुङ्कुमभारवद्व्यर्थो न योगशास्त्र-
प्रवृत्तिर्न साङ्ख्यशास्त्राभ्यासो न मन्त्रतन्त्रव्यापारः ।
इतरशास्त्रप्रवृत्तिर्यतेरस्ति चेच्छवालङ्कारवच्चर्मकारव-
दतिविदूरकर्माचारविद्यादूरो न प्रणवकीर्तनपरो यद्यत्कर्म
करोति तत्तत्फलमनुभवति एरण्डतैलफेनवदतः सर्वं परित्यज्य
तत्प्रसक्तं मनोदण्डं करपात्रं दिगम्बरं दृष्ट्वा
परिव्रजेद्भिक्षुः । बालोन्मत्तपिशाचवन्मरणं जीवितं वा न
काङ्क्षेत कालमेव प्रतीक्षेत निर्देशभृतकन्यायेन परिव्राडिति ।
तितिक्षाज्ञानवैराग्यशमादिगुणवर्जितः ।
भिक्षामात्रेण जीवि स्यात्स यतिर्यतिवृत्तिहा ॥ १॥
न दण्डधारणेन न मुण्डनेन न वेषेण न दम्भाचारेण
मुक्तिः । ज्ञानदण्डो धृतो येन एकदण्डी स उच्यते ।
काष्ठदण्डो धृतो येन सर्वाशी ज्ञानवर्जितः ।
स याति नरकान्घोरान्महारौरवसंज्ञितान् ॥ २॥
प्रतिष्ठा सूकरीविष्ठासमा गीता महर्षिभिः ।
तस्मादेनां परित्यज्य कीटवत्पर्यटेद्यतिः ॥ ३॥
अयाचितं यथालाभं भोजनाच्छादनं भवेत् ।
परेच्छया च दिग्वासाः स्नानं कुर्यात्परेच्छया ॥ ४॥
स्वप्नेऽपि यो युक्तः स्याज्जाग्रतीव विशेषतः ।
ईदृक्चेष्टः स्मृतः श्रेष्ठो वरिष्ठो ब्रह्मवादिनाम् ॥ ५॥
अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् ।
प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासङ्गाद्विनिर्गतः ॥ ६॥
अभिपूजितलाभांश्च जुगुप्सेतैव सर्वशः ।
अभिपूजितलाभैस्तु यतिर्मुक्तोऽपि बध्यते ॥ ७॥
प्राणयात्रानिमित्तं च व्यङ्गारे भुक्तवज्जने ।
काले प्रशस्ते वर्णानां भिक्षार्थं पर्यटेद्गृहान् ॥ ८॥
पाणिपात्रश्चरन्योगी नासकृद्भैक्षमाचरेत् ।
तिष्ठन्भुञ्ज्याच्चरन्भुञ्ज्यान्मध्येनाचमनं तथा ॥ ९॥
अब्धिवद्धृतमर्यादा भवन्ति विशादाशयाः ।
नियतिं न विमुञ्चन्ति महान्तो भास्करा एव ॥ १०॥
आस्येन तु यदाहारं गोवन्मृगयते मुनिः ।
तदा समः स्यात्सर्वेषु सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ ११॥
अनिन्द्यं वै व्रजन्गेहं निन्द्यं गेहं तु वर्जयेत् ।
अनावृते विशेद्द्वारि गेहे नैवावृते व्रजेत् ॥ १२॥
पांसुना च प्रतिच्छन्नशून्यागारप्रतिश्रयः ।
वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः ॥ १३॥
यत्रास्तमितशायी स्यान्निरग्निरनिकेतनः ।
यथालब्धोपजीवी स्यान्मुनिर्दान्तो जितेन्द्रियः ॥ १४॥
निष्क्रम्य वनमास्थाय ज्ञानयज्ञो जितेन्द्रियः ।
कालकाङ्क्षी चरन्नेव ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ १५॥
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा चरति यो मुनिः ।
न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ॥ १६॥
निर्मानश्चानहङ्कारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः ।
नैव क्रुध्यति न द्वेष्टि नानृतं भाषते गिरा ॥ १७॥
पुण्यायतनचारी च भूतानामविहिंसकः ।
काले प्राप्ते भवद्भैक्षं कल्प्यते ब्रह्मभूयसे ॥ १८॥
वानप्रस्थगृहस्थाभ्यां न संसृज्येत कर्हिचित् ।
अज्ञातचर्यां लिप्सेत न चैनं हर्ष आविशेत् ॥ १९॥
अध्वा सूर्येण निर्दिष्टः कीटवद्विचरेन्महीम् ।
आशीर्युक्तानि कर्माणि हिंसायुक्तानि यानि च ॥ २०॥
लोकसंग्रहयुक्तानि नैव कुर्यान्न कारयेत् ।
नासच्छात्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम् ।
अतिवादांस्त्यजेत्तर्कान्पक्षं कञ्चन नाश्रयेत् ॥ २१॥
न शिष्याननुबध्नीत ग्रन्थान्नैवाभ्यसेद्बहून् ।
न व्याख्यामुपयुञ्जीत नारम्भानारभेत्क्वचित् ॥ २२॥
अव्यक्तलिङ्गोऽव्यक्तार्थो मुनिरुन्मत्तबालवत् ।
कविर्मूकवदात्मानं तद्दृष्ट्या दर्शयेन्नृणाम् ॥ २३॥
न कुर्यान्न वदेत्किञ्चिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा ।
आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः ॥ २४॥
एकश्चरेन्महीमेतां निःसङ्गः संयतेन्द्रियः ।
आत्मक्रीड आत्मरतिरात्मवान्समदर्शनः ॥ २५॥
बुधो बालकवत्क्रीडेत्कुशलो जडवच्चरेत् ।
वदेदुन्मत्तवद्विद्वान् गोचर्यां नैगमश्चरेत् ॥२६॥
क्षिप्रोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽपि वा ।
ताडितः संनिरुद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः ॥ २७॥
विष्ठितो मूत्रितो वाज्ञैर्बहुधैवं प्रकम्पितः ।
श्रेयस्कामः कृच्छ्रगत आत्मनात्मानमुद्धरेत् ॥ २८॥
संमाननं परां हानिं योगर्द्धेः कुरुते यतः ।
जनेनावमतो योगी योगसिद्धिं च विन्दति ॥ २९॥
तथा चरेत वै योगी सतां धर्ममदूषयन् ।
जना यथावमन्येरन्गच्छेयुर्नैव सङ्गतिम् ॥ ३०॥
जरायुजाण्डजादीनां वाङ्मनःकायकर्मभिः ।
युक्तः कुर्वीत न द्रोहं सर्वसङ्गांश्च वर्जयेत् ॥ ३१॥
कामक्रोधौ तथा दर्पलोभमोहादयश्च ये ।
तांस्तु दोषान्परित्यज्य परिव्राड् भयवर्जितः ॥ ३२॥
भैक्षाशनं च मौनित्वं तपो ध्यानं विशेषतः ।
सम्यग्ज्ञानं च वैराग्यं धर्मोऽयं भिक्षुके मतः ॥ ३३॥
काषायवासाः सततं ध्यानयोगपरायणः ।
ग्रामान्ते वृक्षमूले वा वसेद्देवालयेऽपि वा ॥ ३४॥
भैक्षेण वर्तयेन्नित्यं नैकान्नाशी भवेत्क्वचित् ।
चित्तशुद्धिर्भवेद्यावत्तावन्नित्यं चरेत्सुधीः ॥ ३५॥
ततः प्रव्रज्य शुद्धात्मा संचरेद्यत्र कुत्रचित् ।
बहिरन्तश्च सर्वत्र सम्पश्यन्हि जनार्दनम् ॥ ३६॥
सर्वत्र विचरेन्मौनी वायुवद्वीतकल्मषः ।
समदुःखसुखः क्षान्तो हस्तप्राप्तं च भक्षयेत् ॥ ३७॥
निर्वैरेण समं पश्यन्द्विजगोश्वमृगादिषु ।
भावयन्मनसा विष्णुं परमात्मानमीश्वरम् ॥ ३८॥
चिन्मयं परमानन्दं ब्रह्मैवाहमिति स्मरन् ।
ज्ञात्वैवं मनोदण्डं धृत्वा आशानिवृत्तो भूत्वा
आशाम्बरधरो भूत्वा सर्वदा मनोवाक्कायकर्मभिः
सर्वसंसारमुत्सृज्य प्रपञ्चावाङ्मुखः
स्वरूपानुसन्धानेन भ्रमरकीटन्यायेन मुक्तो
भवतीत्युपनिषत् ॥
इति पञ्चमोपदेशः ॥ ५॥
अथ नारदः पितामहमुवाच ।
भगवन् तदभ्यासवशात् भ्रमकीटन्यायवत्तदभ्यासः कथमिति ।
तमाह पितामहः ।
सत्यवाग्ज्ञानवैराग्याभ्यां विशिष्टदेहावशिष्टो
वसेत् । ज्ञानं शरीरं वैराग्यं जीवनं विद्धि
शान्तिदान्ती नेत्रे मनोमुखं बुद्धिः कला
पञ्चविंशतितत्त्वान्यवयव अवस्था
पञ्चमहाभूतानि कर्म भक्तिज्ञानवैराग्यं शाखा
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयाश्चतुर्दशकरणानि
पङ्कस्तम्भाकाराणीति । एवमपि नावमतिपङ्कं कर्णधार
इव यन्तेव गजं स्वबुद्ध्या वशीकृत्य स्वव्यतिरिक्तं सर्वं
कृतकं नश्वरमिति मत्वा विरक्तः पुरुषः सर्वदा
ब्रह्माहमिति व्यवहरेन्नान्यत्किञ्चिद्वेदितव्यं स्वव्यतिरेकेण ।
जीवन्मुक्तो वसेत्कृतकृत्यो भवति । न नाहं ब्रह्मेति
व्यवहरेत्किन्तु ब्रह्माहमस्मीत्यजस्रं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
तुरीयावस्थां प्राप्य तुरीयातीतत्वं व्रजेद्दिवा जाग्रन्नक्तं
स्वप्नं सुषुप्तमर्धरात्रं गतमित्येकावस्थायां
चतस्रोऽवस्थास्त्वेकैककरणाधीनानां चतुर्दशकरणानां व्यापारश्चक्षुरादीनाम् ।
चक्षुषो रूपग्रहणं श्रोत्रयोः शब्दग्रहणं
जिह्वाया रसास्वादनं घ्राणस्य गन्धग्रहणं
वचसो वाग्व्यापारः पाणेरादानं पादयोः संचारः
पायोरुत्सर्ग उपस्थस्यानन्दग्रहणं त्वचः स्पर्शग्रहणम् ।
तदधीना च विषयग्रहणबुद्धिः बुद्ध्या बुद्ध्यति
चित्तेन चेतयत्यहङ्कारेणाहङ्करोति । विसृज्य जीव
एतान्देहाभिमानेन जीवो भवति । गृहाभिमानेन गृहस्थ
इव शरीरे जीवः संचरति । प्राग्दले पुण्यावृत्तिराग्नेयां
निद्रालस्यौ दक्षिणायां क्रौर्यबुद्धिर्नैरृत्यां पापबुद्धिः
पश्चिमे क्रीडारतिर्वायव्यां गमने बुद्धिरुत्तरे शान्तिरीशान्ये
ज्ञानं कर्णिकायां वैराग्यं केसरेष्वात्मचिन्ता इत्येवं
वक्त्रं ज्ञात्वा जीवदवस्थां प्रथमं जाग्रद्द्वितीयं
स्वप्नं तृतीयं सुषुप्तं चतुर्थं तुरीयं चतुर्भिर्विरहितं
तुरीयातीतम् । विश्वतैजसप्राज्ञतटस्थभेदैरेक एव एको देवः
साक्षी निर्गुणश्च तद्ब्रह्माहमिति व्याहरेत् ।
नो चेज्जाग्रदवस्थायां जाग्रदादिचतस्रोऽवस्थाः स्वप्ने
स्वप्नादिचतस्रोऽवस्थाः सुषुप्ते सुषुप्त्यादिचतस्रोऽवस्थाः
तुरीये तुरीयादिचतस्रोऽवस्थाः नत्वेवं तुरीयातीतस्य निर्गुणस्य ।
स्थूलसूक्ष्मकारणरूपैर्विश्वतैजसप्राज्ञेश्वरैः
सर्वावस्थासु साक्षी त्वेक एवावतिष्ठते । उत तटस्थो द्रष्टा
तटस्थो न द्रष्टा द्रष्टृत्वान्न द्रष्टैव कर्तृत्वभोक्तृत्व
अहङ्कारादिभिः स्पृष्टो जीवः जीवेतरो न स्पृष्टः । जीवोऽपि
न स्पृष्ट इति चेन्न । जीवाभिमानेन क्षेत्राभिमानः ।
शरीराभिमानेन जीवत्वम् । जीवत्वं घटाकाशमहाकाशव-
द्व्यवधानेऽस्ति । व्यवधानवशादेव हंसः सोऽहमिति
मन्त्रेणोच्छ्वासनिःश्वासव्यपदेशेनानुसन्धानं करोति ।
एवं विज्ञाय शरीराभिमानं त्यजेन्न शरीराभिमानी भवति ।
स एव ब्रह्मेत्युच्यते।
त्यक्तसङ्गो जितक्रोधो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ।
पिधाय बुद्ध्या द्वाराणि मनो ध्याने निवेशयेत् ॥ १॥
शून्येष्वेवावकाशेषु गुहासु च वनेषु च ।
नित्ययुक्तः सदा योगी ध्यानं सम्यगुपक्रमेत् ॥ २॥
आतिथ्यश्राद्धयज्ञेषु देवयात्रोत्सवेषु च ।
महाजनेषु सिद्ध्यर्थी न गच्छेद्योगवित्क्वचित् ॥ ३॥
यथैनमवमन्यन्ते जनाः परिभवन्ति च ।
तथा युक्तश्चेद्योगी सतां वर्त्म न दूषयेत् ॥ ४॥
वाग्दण्डः कर्मदण्डश्च मनोदण्डश्च ते त्रयः ।
यस्यैते नियता दण्डाः स त्रिदण्डी महायतिः ॥ ५॥
विधूमे च प्रशान्ताग्नौ यस्तु माधुकरीं चरेत् ।
गृहे च विप्र्मुख्यानां यतिः सर्वोत्तमः स्मृतः ॥ ६॥
दण्डभिक्षां च यः कुर्यात्स्वधर्मे व्यसनं विना ।
यस्तिष्ठति न वैराग्यं याति नीचयतिर्हि सः ॥ ७॥
यस्मिन्गृहे विशेषेण लभेद्भिक्षां च वासनात् ।
तत्र नो याति यो भूयः स यतिर्नेतरः स्मृतः ॥ ८॥
यः शरीरेन्द्रियादिभ्यो विहीनं सर्वसाक्षिणम् ।
पारमार्थिक विज्ञानं सुखात्मानं स्वयंप्रभम् ॥ ९॥
परतत्त्वं विजानाति सोऽतिवर्णाश्रमी भवेत् ।
वर्णाश्रमादयो देहे मायया परिकल्पिताः ॥ १०॥
नात्मनो बोधरूपस्य मम ते सन्ति सर्वदा ।
इति यो वेद वेदान्तैः सोऽतिवर्णाश्रमी भवेत् ॥ ११॥
यस्य वर्णाश्रमाचारो गलितः स्वात्मदर्शनात् ।
स वर्णानाश्रमान्सर्वानतीत्य स्वात्मनि स्थितः ॥ १२॥
योऽतीत्य स्वाश्रमान्वर्णानात्मन्येव स्थितः पुमान् ।
सोऽतिवर्णाश्रमी प्रोक्तः सर्ववेदार्थवेदिभिः ॥ १३॥
तस्मादन्यगता वर्णा आश्रमा अपि नारद ।
आत्मन्यारोपिताः सर्वे भ्रान्त्या तेनात्मवेदिना ॥ १४॥
न विधिर्न निषेधश्च वर्ज्यावर्ज्य कल्पना ।
ब्रह्मविज्ञानिनामस्ति तथा नान्यच्च नारद ॥ १५॥
विरज्य सर्वभूतेभ्य आविरिञ्चिपदादपि ।
घृणां विपाठ्य सर्वस्मिन्पुत्रमित्रादिकेष्वपि ॥ १६॥
श्रद्धालुर्मुक्तिमार्गेषु वेदान्तज्ञानलिप्सया ।
उपायनकरो भूत्वा गुरुं ब्रह्मविदं व्रजेत् ॥ १७॥
सेवाभिः परितोष्यैनं चिरकालं समाहितः ।
सदा वेदान्तवाक्यार्थं श्रुणुयात्सुसमाहितः ॥ १८॥
निर्ममो निरहङ्कारः सर्वसङ्गविवर्जितः ।
सदा शान्त्यादियुक्तः सन्नात्मन्वात्मानमीक्षते ॥ १९॥
संसारदोषदृष्ट्यैव विरक्तिर्जायते सदा ।
विरक्तस्य तु संसारात्संन्यासः स्यान्न संशयः ॥ २०॥
मुमुक्षुः परहंसाख्यः साक्षान्मोक्षैकसाधनम् ।
अभ्यसेद्ब्रह्मविज्ञानं वेदान्तश्रवणादिना ॥ २१॥
ब्रह्मविज्ञानलाभाय परहंस समाह्वयः ।
शान्तिदान्त्यादिभिः सर्वैः साधनैः सहितो भवेत् ॥ २२॥
वेदान्ताभ्यासनिरतः शान्तो दान्तो जितेन्द्रियः ।
निर्भयो निर्ममो नित्यो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ॥ २३॥
जीर्णकौपीनवासाः स्यान्मुण्डी नग्नोऽथवा भवेत् ।
प्राज्ञो वेदान्तविद्योगी निर्ममो निरहङ्कृतिः ॥ २४॥
मित्रादिषु समो मैत्रः समस्तेष्वेव जन्तुषु ।
एको ज्ञानी प्रशान्तात्मा स सन्तरति नेतरः ॥ २५॥
गुरूणां च हिते युक्तस्तत्र संवत्सरं वसेत् ।
नियमेष्वप्रमात्तस्तु यमेषु च सदाभवेत् ॥ २६॥
प्राप्य चान्ते ततश्चैव ज्ञानयोगमनुत्तमम् ।
अविरोधेन धर्मस्य संचरेत्पृथिवीमिमाम् ॥ २७॥
ततः संवत्सरस्यान्ते ज्ञानयोगमनुत्तमम् ।
आश्रमत्रयमुत्सृज्य प्राप्तश्च परमाश्रमम् ॥ २८॥
अनुज्ञाप्य गुरूंश्चैव चरेद्धि पृथिवीमिमाम् ।
त्यक्तसङ्गो जितक्रोधो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ॥ २९॥
द्वाविमौ न विरज्येते विपरीतेन कर्मणा ।
निरारम्भो गृहस्थश्च कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥ ३०॥
माद्यति प्रमदां दृष्ट्वा सुरां पीत्वा च माद्यति ।
तस्माद्दृष्टिविषं नारीं दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ३१॥
संभाषणं सह स्त्रीभिरालापः प्रेक्षणं तथा ।
नृत्तं गानं सहासं च परिवादांश्च वर्जयेत् ॥ ३२॥
न स्नानं न जपः पूजा न होमो नैव साधनम् ।
नाग्निकार्यादिकार्यं च नैतस्यास्तीह नारद ॥ ३३॥
नार्चनं पितृकार्यं च तीर्थयात्रा व्रतानि च ।
धर्माधर्मादिकं नास्ति न विधिर्लौकिकी क्रिया ॥ ३४॥
सन्त्यजेत्सर्वकर्माणि लोकाचारं च सर्वशः ।
कृमीकीटपतङ्गाश्च तथा योगी वनस्पतीन् ॥ ३५॥
न नाशयेद्बुधो जीवन्परमार्थमतिर्यतिः ।
नित्यमन्तर्मुखः स्वच्छः प्रशान्तात्मा स्वपूर्णधीः ॥ ३६॥
अन्तःसङ्गपरित्यागी लोके विहर नारद ।
नाराजके जनपदे चरत्येकचरो मुनिः ॥ ३७॥
निःस्तुतिर्निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च ।
चलाचलनिकेतश्च यतिर्यादृच्छिको भवेदित्युपनिषत् ॥
इति षष्ठोपदेशः ॥ ६॥
अथ यतेर्नियमः कथमिति पृष्टं नारदं पितामहः
पुरस्कृत्य विरक्तः सन्यो वर्षासु ध्रुवशीलोऽष्टौ
मास्येकाकी चरन्नेकत्र निवसेद्भिक्षुर्भयात्सारङ्गवदेकत्र
न तिष्ठेस्वगमननिरोधग्रहणं न कुर्याद्धस्ताभ्यां
नद्युत्तरणं न कुर्यान्न वृक्षारोहणमपि न
देवोत्सवदर्शनं कुर्यान्नैकत्राशी न बाह्यदेवार्चनं
कुर्यात्स्वव्यतिरिक्तं सर्वं त्यक्त्वा मधुकरवृत्त्याहारमहारन्कृशो
भूत्वा मेदोवृद्धिमकुर्वन्नाज्यं रुधिरमिव त्यजेदेकत्रान्नं
पललमिव गन्धलेपनमशुद्धिलेपनमैव क्षारमन्त्यजमिव
वस्त्रमुच्छिष्टपात्रमिवाभ्यङ्गं स्त्रीसङ्गमिव
मित्राह्लादकं मूत्रमिव स्पृहां गोमांसमिव ज्ञातचरदेशं
चण्डालवाटिकामिव स्त्रियमहिमिव सुवर्णं कालकूटमिव
सभास्थलं स्मशानस्थलमिव राजधानीं कुम्भीपाकमिव
शवपिण्डवदेकत्रान्नं न देहान्तरदर्शनं प्रपञ्चवृत्तिं
परित्यज्य स्वदेशमुत्सृज्य ज्ञातचरदेशं विहाय
विस्मृतपदार्थं पुनः प्राप्तहर्ष इव स्वमानन्दमनुस्मर-
न्स्वशरीराभिमानदेशविस्मरणं मत्वा शवमिव हेयमुपगम्य
कारागृहविनिर्मुक्तचोरवत्पुत्राप्तबन्धुभवस्थलं
विहाय दूरतो वसेत् ।
अयत्नेन प्राप्तमाहरन्ब्रह्मप्रणवध्यानानुसन्धानपरो
भूत्वा सर्वकर्मनिर्मुक्तः कामक्रोधलोभमोहमद-
मात्सर्यादिकं दग्ध्वा त्रिगुणातीतः षडूर्मिरहितः
षड्भावविकारशून्यः । सत्यवाक्छुचिरद्रोही ग्राम
एकरात्रं पत्तने पञ्चरात्रं क्षेत्रे पञ्चरात्रं तीर्थे
पञ्चरात्रमनिकेतः स्थिरमतिर्नानृतवादी गिरिकन्दरेषु
वसेदेक एव द्वौ वा चरेत् ग्रामं त्रिभिर्नगरं चतुर्भि-
र्ग्राममित्येकश्चरेत् । भिक्षुश्चतुर्दशकरणानां
न तत्रावकाशं दद्यादविच्छिन्नज्ञानाद्वैराग्यसम्पत्ति-
मनुभूय मत्तो न कश्चिन्नान्यो व्यतिरिक्त इत्यात्मन्यालोच्य
सर्वतः स्वरूपमेव पश्यञ्जीवन्मुक्तिमवाप्य प्रारब्ध-
प्रतिभासनाशपर्यन्तं चतुर्विधं स्वरूपं ज्ञात्वा
देहपतनपर्यन्तं स्वरूपानुसन्धानेन वसेत् ।
त्रिषवणस्नानं कुटीचकस्य बहूदकस्य द्विवारं
हंसस्यैकवारं परमहंसस्य मानसस्नानं
तुरीयातीतस्य भस्मस्नानमवधूतस्य वायव्यस्नानं
ऊर्ध्वपुण्ड्रं कुटीचकस्य त्रिपुण्ड्रं बहूदकस्य
ऊर्ध्वपुण्ड्रं त्रिपुण्ड्रं हंसस्य भस्मोद्धूलनं
परमहंसस्य तुरीयातीतस्य तिलकपुण्ड्रमवधूतस्य न
किञ्चित् । तुरीयातीतावधूतयोः ऋतुक्षौरं कुटीचकस्य
ऋतुद्वयक्षौरं बहूदकस्य न क्षौरं हंसस्य
परमहंसस्य च न क्षौरम् । अस्तिचेदयनक्षौरम् ।
तुरीयातीतावधूतयोः न क्षौरम् । कुटीचकस्यैकान्नं
माधुकरं बहूदकस्य हंसपरमहंसयोः करपात्रं
तुरीयातीतस्य गोमुखं अवधूतस्याजगरवृत्तिः । शाटिद्वयं
कुटीचकस्य बहूदकस्यैकशाटी हंसस्य खण्डं
दिगंबरं परमहंसस्य एककौपीनं वा तुरीयातीतावधूतयो-
र्जातरूपधरत्वं हंसपरमहंसयोरजिनं न त्वन्येषाम् ।
कुटीचकबहूदकयोर्देवार्चनं हंसपरमहंसयो-
र्मानसार्चनं तुरीयातीतावधूतयोः सोहंभावना ।
कुटीचकबहूदकयोर्मन्त्रजपाधिकारो हंसपरमहंसयो-
र्ध्यानाधिकारस्तुरीयातीतावधूतयोर्न त्वन्याधिकार-
स्तुरीयातीतावधूतयोर्महावाक्योपदेशाधिकारः
परमहंसस्यापि । कुटीचकबहूदकहंसानां
नान्यस्योपदेशाधिकारः। कुटीचकबहूदकयोर्मानुषप्रणवः
हंसपरमहंसयोरान्तरप्रणवः तुरीयातीतावधूतयोर्ब्रह्मप्रणवः ।
कुटीचकबहूदकयोः श्रवणं हंसपरमहंसयोर्मननं
तुरीयातीतावधूतयोर्निदिध्यासः । सर्वेषामात्मनुसन्धानं
विधिरित्येव मुमुक्षुः सर्वदा संसारतारकं तारकमनुस्मर-
ञ्जीवन्मुक्तो वसेदधिकारविशेषेण कैवल्यप्राप्त्युपाय-
मन्विष्येद्यतिरित्युपनिषत् ॥
इति सप्तमोपदेशः ॥ ७॥
अथ हैनं भगवन्तं परमेष्ठिनं नारदः
पप्रच्छ संसारतारकं प्रसन्नो ब्रूहीति ।
तथेति परमेष्ठी वक्तुमुचक्रमे ओमिति ब्रह्मेति
व्यष्टिसमष्टिप्रकारेण । का व्यष्टिः का
समष्टिः संहारप्रणवः सृष्टिप्रणव-
श्चान्तर्बहिश्चोभयात्मकत्वात्त्रिविधो
ब्रह्मप्रणवः । अन्तःप्रणवो व्यावहारिकप्रणवः ।
बाह्यप्रणव आर्षप्रणवः । उभयात्मको
विराट्प्रणवः । संहारप्रणवो ब्रह्मप्रणव
अर्धमात्राप्रणवः । ओमितिब्रह्म । ओमित्येकाक्षर-
मन्तःप्रणवं विद्धि । सचाष्टधा भिद्यते ।
अकारोकारमकारार्धमात्रानादबिन्दुकलाशक्तिश्चेति ।
तत्र चत्वार अकारश्चायुतावयवान्वित उकारः
सहस्रावयवान्वितो मकारः शतावयवोपेतोऽर्धमात्रा-
प्रणवोऽनन्तावयवाकारः । सगुणो विराट्प्रणवः संहारो
निर्गुणप्रणव उभयात्मकोत्पत्तिप्रणवो यथाप्लुतो
विराट्प्लुतः प्लुतसंहारो विराट्प्रणवः षोडशमात्रात्मकः
षट्त्रिंशत्तत्त्वातीतः । षोडशमात्रात्मकत्वं
कथमित्युच्यते । अकारः प्रथमोकारो द्वितीया मकार-
स्तृतीयार्धमात्रा चतुर्थी नादः पञ्चमी बिन्दुः
षष्ठी कला सप्तमी कलातीताष्टमी शान्तिर्नवमी
शान्त्यतीता दशमी उन्मन्येकादशी मनोन्मनी द्वादशी
पुरी त्रयोदशी मध्यमा चतुर्दशी पश्यन्ती पञ्चदशी
परा । षोडशी पुनश्चतुःषष्टिमात्रा प्रकृति-
पुरुषद्वैविध्यमासाद्याष्टाविंशत्युत्तरभेदमात्रा-
स्वरूपमासाद्य सगुणनिर्गुणत्वमुपेत्यैकोऽपि ब्रह्मप्रणवः
सर्वाधारः परंज्योतिरेष सर्वेश्वरो विभुः । सर्वदेवमयः
सर्वप्रपञ्चाधारगर्भितः ॥ १॥
सर्वाक्षरमयः कालः सर्वागममयः शिवः ।
सर्वश्रुत्युत्तमो मृग्यः सकलोपनिषन्मयः ॥ २॥
भूतं भव्यं भविष्यद्यत्त्रिकालोदितमव्ययम् ।
तदप्योङ्कारमेवायं विद्धि मोक्षप्रदायकम् ॥ ३॥
तमेवात्मानमित्येतद्ब्रह्मशब्देन वर्णितम् ।
तदेकममृतमजरमनुभूय तथोमिति ॥ ४॥
सशरीरं समारोप्य तन्मयत्वं तथोमिति ।
त्रिशरीरं तमात्मानं परंब्रह्म विनिश्चिनु ॥ ५॥
परंब्रह्मानुसन्दध्याद्विश्वादीनां क्रमः क्रमात् ।
स्थूलत्वात्स्थूलभुक्त्वाच्च सूक्ष्मत्वात्सूक्ष्मभुक् परम् ॥ ६॥
ऐकत्वानन्दभोगाच्च सोऽयमात्मा चतुर्विधः ।
चतुष्पाज्जागरितः स्थूलः स्थूलप्रज्ञो हि विश्वभुक् ॥ ७॥
एकोनविंशतिमुखः साष्टाङ्गः सर्वगः प्रभु ।
स्थूलभुक् चतुरात्माथ विश्वो वैश्वानरः पुमान् ॥ ८॥
विश्वजित्प्रथमः पादः स्वप्नस्थानगतः प्रभुः ।
सूक्ष्मप्रज्ञः स्वतोऽष्टाङ्ग एको नान्यः परंतप ॥ ९॥
सूक्ष्मभुक् चतुरात्माथ तैजसो भूतराडयम् ।
हिरण्यगर्भः स्थूलोऽन्तर्द्वितीयः पाद उच्यते ॥ १०॥
कामं कामयते यावद्यत्र सुप्तो न कञ्चन ।
स्वप्नं पश्यति नैवात्र तत्सुषुप्तमपि स्फुटम् ॥ ११॥
एकीभूतः सुषुप्तस्थः प्रज्ञानघनवान्सुखी ।
नित्यानन्दमयोऽप्यात्मा सर्वजीवान्तरस्थितः ॥ १२॥
तथाप्यानन्दभुक् चेतोमुखः सर्वगतोऽव्ययः ।
चतुरात्मेश्वरः प्राज्ञस्तृतीयः पादसंज्ञितः ॥ १३॥
एष सर्वेश्वरश्चैष सर्वज्ञः सूक्ष्मभावनः ।
एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ ॥ १४॥
भूतानां त्रयमप्येतत्सर्वोपरमबाधकम् ।
तत्सुषुप्तं हि यत्स्वप्नं मायामात्रं प्रकीर्तितम् ॥ १५॥
चतुर्थश्चतुरात्मापि सच्चिदेकरसो ह्ययम् ।
तुरीयावसितत्त्वाच्च एकैकत्वनुसारतः ॥ १६॥
ज्ञातानुज्ञात्रननुज्ञातृविकल्पज्ञानसाधनम् ।
विकल्पत्रयमत्रापि सुषुप्तं स्वप्नमान्तरम् ॥ १७॥
मायामात्रं विदित्वैवं सच्चिदेकरसो ह्ययम् ।
विभक्तो ह्ययमादेशो न स्थूलप्रज्ञमन्वहम् ॥ १८॥
न सूक्ष्मप्रज्ञमत्यन्तं न प्रज्ञं न क्वचिन्मुने ।
नैवाप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञमान्तरम् ॥ १९॥
नाप्रज्ञमपि न प्रज्ञाघनं चादृष्टमेव च ।
तदलक्षणमग्राह्यं यद्व्यवहार्यमचिन्त्य-
मव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं
शिवं शान्तमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स ब्रह्म
प्रणवः स विज्ञेयो नापरस्तुरीयः सर्वत्र
भानुवन्मुमुक्षूणामाधारः स्वयंज्योतिर्ब्रह्माकाशः
सर्वदा विराजते परंब्रह्मत्वादित्युपनिषत् ॥
इति अष्टमोपदेशः ॥ ८॥
अथ ब्रह्मस्वरूपं कथमिति नारदः पप्रच्छ ।
तं होवाच पितामहः किं ब्रह्मस्वरूपमिति ।
अन्योसावन्योहमस्मीति ये विदुस्ते पशवो न स्वभाव-
पशवस्तमेवं ज्ञात्वा विद्वान्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।
कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा
भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् ।
संयोग एषां नत्वात्मभावा-
दात्मा ह्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥ १॥
ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्
देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।
यः कारणानि निखिलानि तानि
कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥ २॥
तमेकस्मिंस्त्रिवृतं षोडशान्तं
शतार्धारं विंशप्रतित्यराभिः ।
अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं
त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम् ॥ ३॥
पञ्चस्रोतोम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्त्रां
पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम् ।
पञ्चावर्तां पञ्चदुःखौघवेगां
पञ्चशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः ॥ ४॥
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते
तस्मिन्हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥ ५॥
उद्गीथमेतत्परमं तु ब्रह्म
तस्मिंस्त्रयं स्वप्रतिष्ठाक्षरं च ।
अत्रान्तरं वेदविदो विदित्वा
लीनाः परे ब्रह्मणि तत्परायणाः ॥ ६॥
संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च
व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः ।
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावा-
ज्ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ ७॥
ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा
ह्येका भोक्तृभोगार्थयुक्ता ।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता
त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत् ॥ ८॥
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः
क्षरात्मानावीशते देव एकः ।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावा-
द्भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ॥ ९॥
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः
क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्रहाणिः ।
तस्याभिध्यानात्तृतयं देहभेदे
विश्वैश्वर्यं केवल आत्मकामः ॥ १०॥
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं
नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित् ।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा
सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ ११॥
आत्मविद्या तपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत्परम् ।
य एवं विदित्वा स्वरूपमेवानुचिन्तयं-
स्तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥ १२॥
तस्माविराड्भूतं भव्यं
भविष्यद्भवत्यनश्वरस्वरूपम् ।
अणोरणीयान्महतो महीया-
नात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको
धातुःप्रसादान्महिमानमीशम् ॥ १३॥
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता
पश्यत्यचक्षुः स श्रुणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता
तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥ १४॥
अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेश्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ १५॥
सर्वस्य धातारमचिन्त्यशक्तिं
सर्वागमान्तार्थविशेषवेद्यम् ।
परात्परं परमं वेदितव्यं
सर्वावसाने सकृद्वेदितव्यम् ॥ १६॥
कविं पुराणं पुरुषोत्तमोत्तमं
सर्वेश्वरं सर्वदेवैरुपास्यम् ।
अनादि मध्यान्तमनन्तमव्ययं
शिवाच्युताम्भोरुहगर्भभूधरम् ॥ १७॥
स्वेनावृतं सर्वमिदं प्रपञ्चं
पञ्चात्मकं पञ्चसु वर्तमानम् ।
पञ्चीकृतानन्तभवप्रपञ्चं
पञ्चीकृतस्वावयवैरसंवृतम् ।
परात्परं यन्महतो महान्तं
स्वरूपतेजोमयशाश्वतं शिवम् ॥ १७॥
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमनसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ १८॥
नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं न स्थूलं नास्थूलं
न ज्ञानं नाज्ञानं नोभयतःप्रज्ञमग्राह्य-
मव्यवहार्यं स्वान्तःस्थितः स्वयमेवेति य एवं वेद
स मुक्तो भवति स मुक्तो भवतीत्याह भगवान्पितामहः ।
स्वस्वरूपज्ञः परिव्राट् परिव्राडेकाकी चरति
भयत्रस्तसारङ्गवत्तिष्ठति । गमनविरोधं न करोति ।
स्वशरीरव्यतिरिक्तं सर्वं त्यक्त्वा ष्ट्पदवृत्त्या स्थित्वा
स्वरूपानुसन्धानं कुर्वन्सर्वमनन्यबुद्ध्या
स्वस्मिन्नेव मुक्तो भवति । स परिव्राट् सर्वक्रियाकारकनिवर्तको
गुरुशिष्यशास्त्रादिविनिर्मुक्तः सर्वसंसारं विसृज्य
चामोहितः परिव्राट् कथं निर्धनिकः सुखी धनवा-
ञ्ज्ञानाज्ञानोभयातीतः सुखदुःखातीतः
स्वयंज्योतिप्रकाशः सर्ववेद्यः सर्वज्ञः सर्वसिद्धिदः
सर्वेश्वरः सोऽहमिति । तद्विष्णोः परमं पदं यत्र
गत्वा न निवर्तन्ते योगिनः । सूर्यो न तत्र भाति
न शशाङ्कोऽपि न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते
तत्कैवल्यमित्युपनिषत् ॥
इति नवमोपदेशः ॥ ९॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति नारदपरिव्राजकोपनिषत्समाप्ता ॥
नारायणोपनिषत् अथवा नारायण अथर्वशीर्ष
कृष्णयजुर्वेदीया
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
(प्रथमः खण्डः
नारायणात् सर्वचेतनाचेतनजन्म)
ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति ।
नारायणात्प्राणो जायते । मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।
नारायणाद् ब्रह्मा जायते । नारायणाद् रुद्रो जायते ।
नारायणादिन्द्रो जायते । नारायणात्प्रजापतयः प्रजायन्ते ।
नारायणाद्द्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि च छन्दाꣳसि ।
नारायणादेव समुत्पद्यन्ते । नारायणे प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते ॥
(एतदृग्वेदशिरोऽधीते ।)
(द्वितीयः खण्डः
नारायणस्य सर्वात्मत्वम्)
ॐ । अथ नित्यो नारायणः । ब्रह्मा नारायणः । शिवश्च नारायणः ।
शक्रश्च नारायणः । द्यावापृथिव्यौ च नारायणः ।
कालश्च नारायणः । दिशश्च नारायणः । ऊर्ध्वंश्च नारायणः ।
अधश्च नारायणः । अन्तर्बहिश्च नारायणः । नारायण एवेदꣳ सर्वम् ।
यद्भूतं यच्च भव्यम् । निष्कलो निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः
शुद्धो देव एको नारायणः । न द्वितीयोऽस्ति कश्चित् । य एवं वेद ।
स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति ॥
(एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते ।)
(तृतीयः खण्डः
नारायणाष्टाक्षरमन्त्रः)
ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नम इति पश्चात् । नारायणायेत्युपरिष्टात् ।
ओमित्येकाक्षरम् । नम इति द्वे अक्षरे । नारायणायेति पञ्चाक्षराणि ।
एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम् ।
यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति । अनपब्रुवस्सर्वमायुरेति ।
विन्दते प्राजापत्यꣳ रायस्पोषं गौपत्यम् ।
ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत इति । य एवं वेद ॥
(एतत्सामवेदशिरोऽधीते । ओं नमो नारायणाय)
(चतुर्थः खण्डः
नारायणप्रणवः)
प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम् । अकार उकार मकार इति ।
तानेकधा समभरत्तदेतदोमिति ।
यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् ।
ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासकः । वैकुण्ठभुवनलोकं गमिष्यति ।
तदिदं परं पुण्डरीकं विज्ञानघनम् । तस्मात्तटिदाभमात्रम् ।
( bhAshya तस्मात् तटिदिव प्रकाशमात्रम्)
ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनोम् । var ब्रह्मण्यो मधुसूदनयोम्
सर्वभूतस्थमेकं नारायणम् । कारणरूपमकार परं ब्रह्मोम् ।
एतदथर्वशिरोयोधीते ॥
विद्याऽध्ययनफलम् ।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
माध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः पञ्चमहापातकोपपातकात् प्रमुच्यते ।
सर्व वेद पारायण पुण्यं लभते ।
नारायणसायुज्यमवाप्नोति नारायण सायुज्यमवाप्नोति ।
य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
॥ निरालम्बोपनिषत् ॥
यत्रालम्बालम्बिभावो विद्यते न कदाचन ।
ज्ञविज्ञसम्यग्ज्ञालम्बं निरालम्बं हरिं भजे ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ नमः शिवाय गुरवे सच्चिदानन्द मूर्तये ।
निष्प्रपञ्चाय शान्ताय निरालम्बाय तेजसे ॥
निरालम्बं समाश्रित्य सालम्बं विजहाति यः ।
स संन्यासी च योगी च कैवल्यं पदमश्नुते ।
एषमज्ञानजन्तूनां समस्तारिष्टशान्तये ।
यद्यद्बोद्धव्यमखिलं तदाशङ्क्य ब्रवीम्यहम् ॥
किं ब्रह्म । क ईश्वरः । को जीवः । का प्रकृतिः ।
कः परमात्मा । को ब्रह्मा । को विष्णुः । को रुद्रः ।
क इन्द्रः । कः शमनः । कः सूर्यः । कश्चन्द्रः ।
के सुराः । के असुराः । के पिशाचाः । के मनुष्याः ।
काः स्त्रियः । के पश्वादयः । किं स्थावरम् ।
के ब्राह्मणादयः । का जातिः । किं कर्म । किमकर्म ।
किं ज्ञानम् । किमज्ञानम् । किं सुखम् । किं दुःखम् ।
कः स्वर्गः । को नरकः । को बन्धः । को मोक्षः ।
क उपास्यः । कः शिष्यः । को विद्वान् । को मूढः ।
किमासुरम् । किं तपः । किं परमं पदम् ।
किं ग्राह्यम् । किमग्राह्यम् । कः संन्यासीत्याहशङ्क्याह
ब्रह्मेति । स होवाच महदहङ्कारपृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशत्वेन
बृहद्रूपेणाण्डकोशेन कर्मज्ञानार्थरूपतया
भासमानमद्वितीयमखिलोपाधिविनिर्मुक्तं
तत्सकलशक्त्युपबृंहितमनाद्यनन्तं
शुद्धं शिवं शान्तं निर्गुणमित्यादि-
वाच्यमनिर्वाच्यं चैतन्यं ब्रह्म ॥ ईश्वर इति च ॥
ब्रह्मैव स्वशक्तिं प्रकृत्यभिधेयामाश्रित्य
लोकान्सृष्ट्वा प्रविश्यान्तर्यामित्वेन ब्रह्मादीनां
बुद्धीन्द्रियनियन्तृत्वादीश्वरः ॥ जीव इति च
ब्रह्मविष्ण्वीशानेन्द्रादीनां नामरूपद्वारा
स्थूलोऽहमिति मिथ्याध्यासवशाज्जीवः ।सोऽहमेकोऽपि
देहारम्भकभेदवशाद्बहुजीवः । प्रकृतिरिति च
ब्रह्मणः सकाशान्नानाविचित्रजगन्निर्माण-
सामार्थ्यबुद्धिरूपा ब्रह्मशक्तिरेव प्रकृतिः ।
परमात्मेति च देहादेः परतरत्वद्ब्राह्मैव परमात्मा
स ब्रह्मा स विष्णुः स इन्द्रः स शमनः स सूर्यः
स चन्द्रस्ते सुरास्ते असुरास्ते पिशाचास्ते मनुष्यास्ताः
स्त्रियस्ते पश्वादयस्तत्स्थावरं ते ब्राह्मणादयः ।
सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन । जातिरिति च ।
न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्थिनः ।
न जातिरात्मनो जातिर्व्यवहारप्रकल्पिता । कर्मेति च
क्रियमाणेन्द्रियैः कर्मण्यहं करोमीत्यध्यात्मनिष्ठतया
कृतं कर्मैव कर्म । अकर्मेति च कर्तृत्वभोक्तृत्वा-
द्यहङ्कारतया बन्धरूपं जन्मादिकारणं
नित्यनैमित्तिकयागव्रततपोदानादिषु फलाभिसन्धानं
यत्तदकर्म ।
ज्ञानमिति च देहेन्द्रियनिग्रहसद्गुरूपासन-
श्रवणमनननिदिध्यासनैर्यद्यदृग्दृश्यस्वरूपं
सर्वान्तरस्थं सर्वसमं घटपटादिपदार्थ-
मिवाविकारं विकारेषु चैतन्यं विना किञ्चिन्नास्तीति
साक्षात्कारानुभवो ज्ञानम् । अज्ञानमिति च
रज्जौ सर्पभ्रान्तिरिवाद्वितीये सर्वानुस्यूते सर्वमये
ब्रह्मणि देवतिर्यङ्नरस्थावरस्त्रीपुरुषवर्णाश्रम-
बन्धमोक्षोपाधिनानात्मभेदकल्पित ज्ञानमज्ञानम् ।
सुखमिति च सच्चिदानन्दस्वरूपं ज्ञात्वानन्दरूपा
या स्थितिः सैव सुखम् । दुःखमिति अनात्मरूपः
विषयसङ्कल्प एव दुःखम् । स्वर्ग इति च सत्संसर्गः
स्वर्गः । नरक इति च असत्संसारविषयजनसंसर्ग एव
नरकः । बन्ध इति च अनाद्यविद्यावासनया जातोऽहमि-
त्यादिसङ्कल्पो बन्धः । पितृमातृसहोदरदारापत्य-
गृहारामक्षेत्रममता संसारावरणसङ्कल्पो बन्धः ।
कर्तृत्वाद्यहङ्कारसङ्कल्पो बन्धः । अणिमाद्यष्टैश्व-
र्याशासिद्धसङ्कल्पो बन्धः । देवमनुष्याद्युपासना-
कामसङ्कल्पो बन्धः । यमाद्यष्टाङ्गयोगसङ्कल्पो
बन्धः । वर्णाश्रमधर्मकर्मसङ्कल्पो बन्धः ।
आज्ञाभयसंशयात्मगुणसङ्कल्पो बन्धः । यागव्रत-
तपोदानविधिविधानज्ञानसम्भवो बन्धः । केवलमोक्षा-
पेक्षासङ्कल्पो बन्धः । सङ्कल्पमात्रसंभवो बन्धः ।
मोक्ष इति च नित्यानित्यवस्तुविचारादनित्यसंसारसुख-
दुःखविषयसमस्तक्षेत्रममताबन्धक्षयो मोक्षः ।
उपास्य इति च सर्वशरीरस्थचैतन्यब्रह्मप्रापको गुरुरुपास्यः ।
शिष्य इति च विद्याध्वस्तप्रपञ्चावगाहितज्ञानावशिष्टं
ब्रह्मैव शिष्यः । विद्वानिति च सर्वान्तरस्थस्वसंविद्रूपवि-
द्विद्वान् । मूढ इति च कर्तृत्वाद्यहङ्कारभावारूढो मूढः ।
आसुरमिति च ब्रह्मविष्ण्वीशानेन्द्रादीना-
मैश्वर्यकामनया निरशनजपाग्निहोत्रादि-
ष्वन्तरात्मानं सन्तापयति चात्युग्रराग-
द्वेषविहिंसा दम्भाद्यपेक्षितं तप आसुरम् ।
तप इति च ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्यपरोक्ष-
ज्ञानाग्निना ब्रह्माद्यैश्वर्याशासिद्धसङ्कल्प-
बीजसन्तापं तपः । परमं पदमिति च
प्राणेन्द्रियाद्यन्तःकरणगुणादेः परतरं
सच्चिदानन्दमयं नित्यमुक्तब्रह्मस्थानं
परमं पदम् । ग्राह्यमिति च देशकालवस्तु-
परिच्छेदराहित्यचिन्मात्रस्वरूपं ग्राह्यम् ।
अग्राह्यमिति च स्वस्वरूपव्यतिरिक्तमायामय-
बुद्धीन्द्रियगोचरजगत्सत्यत्वचिन्तनमग्राह्यम् ।
संन्यासीति च सर्वधर्मान्परित्यज्य निर्ममो
निरहङ्कारो भूत्वा ब्रह्मेष्टं शरणमुपगम्य
तत्त्वमसि अहं ब्रह्मास्मि सर्वं खल्विदं ब्रह्म
नेह नानास्ति किञ्चनेत्यादिमहावाक्यार्था-
नुभवज्ञानाद्ब्रह्मैवाहमस्मीति निश्चित्य
निर्विकल्पसमाधिना स्वतन्त्रो यतिश्चरति स संन्यासी
स मुक्तः स पूज्यः स योगी स परमहंसः सोऽवधूतः
स ब्राह्मण इति । इदं निरालम्बोपनिषदं योऽधीते
गुर्वनुग्रहतः सोऽग्निपूतो भवति स वायुपूतो भवति
न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते पुनर्नाभिजायते
पुनर्नाभिजायत इत्युपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति निरालम्बोपनिषत्समाप्ता ॥
निर्वाणोपनिषत्
(ऋग्वेदीय संन्यासोपनिषत्)
निर्वाणोपनिषद्वेद्यं निर्वाणानन्दतुन्दिलम् ।
त्रैपदानन्दसाम्राज्यं स्वमात्रमिति चिन्तयेत् ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य मा आणीस्थः ।
श्रुतं मे मा प्रहासीः । अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ।
ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि ।
तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।
अवतु मामवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथ निर्वाणोपनिषदं व्याख्यास्यामः ।
परमहंसः सोऽहम् । परिव्राजकाः पश्चिमलिङ्गाः ।
मन्मथ क्षेत्रपालाः । गगनसिद्धान्तः अमृतकल्लोलनदी ।
अक्षयं निरञ्जनम् । निःसंशय ऋषिः ।
निर्वाणोदेवता । निष्कुलप्रवृत्तिः । निष्केवलज्ञानम् ।
ऊर्ध्वाम्नायः । निरालम्ब पीठः । संयोगदीक्षा ।
वियोगोपदेशः । दीक्षासन्तोषपानं च ।
द्वादशावदित्यावलोकनम् । विवेकरक्षा ।
करुणैव केलिः । आनन्दमाला ।
एकान्तगुहायां मुक्तासनसुखगोष्टी । अकल्पितभिक्षाशी ।
हंसाचारः ।सर्वभूतान्तर्वर्ती हंस इति प्रतिपादनम् ।
धैर्यकन्था । उदासीन कौपीनम् । विचारदण्डः ।
ब्रह्मावलोकयोगपट्टः ।श्रियां पादुका । परेच्छाचरणम् ।
कुण्डलिनीबन्धः । परापवादमुक्तो जीवन्मुक्तः ।
शिवयोगनिद्रा च । खेचरीमुद्रा च । परमानन्दी ।
निर्गतगुणत्रयम् । विवेकलभ्यं मनोवागगोचरम् ।
अनित्यं जगद्यज्जनितं स्वप्नजगदभ्रगजादितुल्यम् ।
तथा देहादिसङ्घातं मोहगुणजालकलितं तद्रज्जुसर्पवत्कल्पितम् ।
विष्णुविद्यादिशताभिधानलक्ष्यम् ।
अङ्कुशो मार्गः । शून्यं न सङ्केतः ।
परमेश्वरसत्ता । सत्यसिद्धयोगो मठः ।
अमरपदं तत्स्वरूपम् ।
आदिब्रह्मस्वसंवित् । अजपा गायत्री । विकारदण्डो ध्येयः ।
मनोनिरोधिनी कन्था । योगेन सदानन्दस्वरूपदर्शनम् ।
आनन्द भिक्षाशी । महाश्मशानेऽप्यानन्दवने वासः ।
एकान्तस्थानम् । आनन्दमठम् । उन्मन्यवस्था ।
शारदा चेष्टा । उन्मनी गतिः । निर्मलगात्रम् ।
निरालम्बपीठम् । अमृतकल्लोलानन्दक्रिया ।
पाण्डरगगनम् । महासिद्धान्तः ।
शमदमादिदिव्यशक्त्याचरणे क्षेत्रपात्रपटुता ।
परावरसंयोगः । तारकोपदेशाः । अद्वैतसदानन्दो देवता ।
नियमः स्वातरिन्द्रियनिग्रहः ।
भयमोहशोकक्रोधत्यागस्त्यागः । अनियामकत्वनिर्मलशक्तिः ।
स्वप्रकाशब्रह्मतत्त्वे शिवशक्तिसम्पुटित प्रपञ्चच्छेदनम् ।
तथा पत्राक्षाक्षिकमण्डलुः ।
भवाभावदहनम् । बिभ्रत्याकाशाधारम् ।
शिवं तुरीयं यज्ञोपवीतम् । तन्मया शिखा ।
चिन्मयं चोत्सृष्टिदण्डम् । सन्तताक्षिकमण्डलुम् ।
कर्मनिर्मूलनं कन्था । मायाममताहङ्कारदहनम् ।
स्प्रशाने अनाहताङ्गी । निस्त्रैगुण्यस्वरूपानुसन्धानं समयम् ।
भ्रान्तिहरणम् । कामादिवृत्तिदहनम् । काठिन्यदृढकौपीनम् ।
चीराजिनवासः । अनाहतमन्त्रः । अक्रिययैव जुष्टम् ।
स्वेच्छाचारस्वस्वभावो मोक्षः परं ब्रह्म ।
प्लववदाचरणम् । ब्रह्मचर्यशान्तिसंग्रहणम् ।
ब्रह्मचर्याश्रमेऽधीत्य ससर्वसंविन्न्यासं संन्यासम् ।
अन्ते ब्रह्माखण्डाकारम् । नित्यं सर्वसन्देहनाशनम् ।
एतन्निर्वाणदर्शनम् ।
शिष्यं पुत्रं विना न देयमित्युपनिषत् ।
ॐ वाङ्मे मनसीति शान्तिः ॥
इति निर्वाणोपनिषत् समाप्ता ।
॥ नृसिंहतापिन्युपनिषत् ॥
यत्तुर्योङ्काराग्रपराभूमिस्थिरवरासनम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्ततुर्यंतुर्यमहं महः ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ आपो वा इदमासंस्तत्सलिलमेव ।
स प्रजापतिरेकः पुष्करपर्णे समभवत् ।
तस्यान्तर्मनसि कामः समवर्तत इदं सृजेयमिति ।
तस्माद्यत्पुरुषो मनसाभिगच्छति तद्वाचा वदति
तत्कर्मणा करोति तदेषभ्यनूक्ता ।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषेति
उपैनं तदुपनमति यत्कामो भवति य एवं वेद
स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा स एतं मन्त्रराजं
नारसिंहमानुष्टभमपश्यत्तेन वै सर्वमिदमसृजत
यदिदं किञ्च । तस्मात्सर्वमानुष्टुभमित्याचक्षते
यदिदं किञ्च । अनुष्टुभो वा इमानि भूतानि जायन्ते
अनुष्टुभा जातानि जीवन्ति अनुष्टुभं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति
तस्यैषा भवति अनुष्टुप्प्रथमा भवति
अनुष्टुबुत्तमा भवति वाग्वा अनुष्टुप् वाचैव प्रयन्ति
वाचोद्यन्ति परमा वा एषा छन्दसां यदनुष्टुबिति ॥ १॥
ससागरां सपर्वतां सप्तद्वीपां वसुन्धरां तत्साम्नः
प्रथमं पादं जानीयात्
यक्षगन्धर्वाप्सरोगणसेवितमन्तरिक्षं
तत्साम्नो द्वितीयं पादं जानीयाद्वसुरुद्रादित्यैः
सर्वैर्देवैः सेवितं दिवं तत्साम्नस्तृतीयं पादं जानीयात्
ब्रह्मस्वरूपं निरञ्जनं परमव्योम्निकं तत्साम्नश्चतुर्थं
पादं जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति
ऋग्यजुःसामाथर्वाणश्चत्वारो वेदाः साङ्गाः
सशाखाश्चत्वारः पादा भवन्ति किं ध्यानं किं दैवतं
कान्यङ्गानि कानि दैवतानि किं छन्दः क ऋषिरिति ॥ २॥
स होवाच प्रजापतिः स यो ह वै सावित्र्यस्याष्टाक्षरं
पदं श्रियाभिषिक्तं तत्साम्नोऽङ्गं वेद श्रिया
हैवाभिषिच्यते सर्वे वेदाः प्रणवादिकास्तं प्रणवं
तत्साम्नोऽङ्गं वेद स त्रींल्लोकाञ्जयति चतुर्विंशत्यक्षरा
महालक्ष्मीर्यजुस्तत्साम्नोऽङ्गं वेद स आयुर्यशःकीर्ति-
ज्ञानेइश्वर्यवान्भवति तस्मादिदं साङ्गं साम
जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति सावित्रीं
प्रणवं यजुर्लक्ष्मीं स्त्रीशूद्राय नेच्छन्ति
द्वात्रिंशदक्षरं साम जानीयाद्यो जानीते
सोऽमृतत्वं च गच्छति सावित्रीं लक्ष्मीं यजुः प्रणवं
यदि जानीयात् स्त्री शूद्रः स मृतोऽधो गच्छति
तस्मात्सर्वदा नाचष्टे यद्याचष्टे
स आचार्यस्तेनैव स मृतोऽधो गच्छति ॥ ३॥
स होवाच प्रजापतिः अग्निर्वै देवा इदं सर्वं विश्वा
भूतानि प्राणा वा इन्द्रियाणि पशवोऽन्नमभृतं
सम्राट् स्वराड्विराट् तत्साम्नः प्रथमं पादं जानीयात्
ऋग्यजुःसामाथर्वरूपः सूर्योऽन्तरादित्ये हिरण्मयः
पुरुषस्तत्साम्नो द्वितीयं पादं जानीयात् य ओषधीनां
प्रभुर्भवति ताराधिपतिः सोमस्तत्साम्नस्तृतीयं पादं
जानीयात् स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेन्द्रः सोऽक्षरः
परमः स्वराट् तत्साम्नश्चतुर्थं पादं जानीयाद्यो जानीते
सोऽमृतत्वं च गच्छति उग्रं प्रथमस्याद्यं ज्वलं
द्वितीयस्याद्यं नृसिंहं तृतीयस्याद्यं मृत्युं
चतुर्थस्याद्यं साम जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं च
गच्छति तस्मादिदं साम यत्र कुत्रचिन्नाचष्टे यदि
दातुमपेक्षते पुत्राय शुश्रूषवे दास्यत्यन्यस्मै
शिष्याय वा चेति ॥ ४॥
स होवाच प्रजापतिः क्षीरोदार्णवशायिनं नृकेसरिविग्रहं
योगिध्येयं परं पदं साम जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं
च गच्छति वीरं प्रथमस्याद्यार्धान्त्यं तं स
द्वितीयस्याद्यार्धान्त्यं हं भी तृतीयस्याद्यार्धान्त्यं
मृत्युं चतुर्थस्याद्यार्धान्त्यं साम तु जानीयाद्यो जानीते
variation found with syAdyArdhAntyam vs syArdhAntyam
सोऽमृतत्वं च गच्छति तस्मादिदं साम येन
केनचिदाचार्यमुखेन यो जानीते स तेनैव शरीरेण
संसारान्मुच्यते मोचयति मुमुक्षुर्भवति जपात्तेनैव शरीरेण
देवतादर्शनं करोति तस्मादिदमेव मुख्यद्वारं कलौ
नान्येषां भवति तस्मादिदं साङ्गं साम जानीयाद्यो जानीते
सोऽमृतत्वं च गच्छति ॥ ५॥
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम् ।
ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं शङ्करं नीललोहितम् ॥
उमापतिः पशुपतिः पिनाकी ह्यमितद्युतिः ।
ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां
ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्यो वै यजुर्वेदवाच्यस्तं
साम जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति
महाप्रथमान्तार्धस्याद्यन्तवतो द्वितीयान्तार्धस्याद्यं
षणं तृतीयान्तार्धस्याद्यं नामा चतुर्थान्तार्धस्याद्यं
साम जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति तस्मादिदं साम
सच्चिदानन्दमयं परं ब्रह्म तमेववंविद्वानमृत
इह भवति तस्मादिदं साङ्गं साम जानीयाद्यो जानीते
सोऽमृतत्वं च गच्छति ॥ ६॥
विश्वसृज एतेन वै विश्वमिदमसृजन्त यद्विश्वमसृजन्त
तस्माद्विश्वसृजो विश्वमेनाननु प्रजायते ब्रह्मणः
सलोकतां सार्ष्टितां सायुज्यं यान्ति तस्मादिदं
साङ्गं साम जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति
विष्णुं प्रथमान्त्यं मुखं द्वितीयान्त्यं भद्रं
तृतीयान्त्यं म्यहं चतुर्थ्यान्तं साम जानीयाद्यो
var chaturthasyAntaM
जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति स्त्रीपुंसयोर्वा इहैव
स्थातुमपेक्षते तस्मै सर्वैश्वैर्यं ददाति यत्र कुत्रापि
म्रियते देहान्ते देवः परमं ब्रह्म तारकं व्याचष्टे
येनासावमृतीभूत्वा सोऽमृतत्वं च गच्छति
तस्मादिदं साम मध्यगं जपति तस्मादिदं सामाङ्गं
प्रजापतिस्तस्मादिदं सामाङ्गं प्रजापतिर्य एवं वेदेति
महोपनिषत् । य एतां महोपनिषदं वेद स
कृतपुरश्चरणो महाविष्णुर्भवति महाविष्णुर्भवति ॥ ७॥
इति प्रथमोपनिषत् ॥ १॥
देवा ह वै मृत्योः पाप्मभ्यः संसाराच्च बिभीयुस्ते
प्रजापतिमुपाधावंस्तेभ्य एतं मन्त्रराजं
नारसिंहमानुष्टुभं प्रायच्छत्तेन वै ते मृत्युमजयन्
पाप्मानं चातरन्संसारं चातरंस्तस्माद्यो मृत्योः
पाप्मभ्यः संसाराच्च बिभीयात्स एतं मन्त्रराजं
नारसिंहमानुष्टुभं प्रतिगृह्णीयात्स मृत्युं तरति
स पाप्मानं तरति स संसारं तरति तस्य ह वै प्रणवस्य
या पूर्वा मात्रा पृथिव्यकारः स ऋग्भिरृग्वेदो ब्रह्मा
वसवो गायत्री गार्हपत्यः सा साम्नः प्रथमः पादो भवति
द्वितीयान्तरिक्षं स उकारः स यजुर्भिर्यजुर्वेदो विष्णुरुद्रा-
स्त्रिष्टुब्दक्षिणाग्निः सा साम्नो द्वितीयः पादो भवति
तृतीया द्यौः स मकारः स सामभिः सामवेदो रुद्रा
आदित्या जगत्याहवनीयः सा साम्नस्तृतीयः पादो भवति
यावसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा स सोमलोक ओङ्कारः
सोऽथर्वणैर्मन्त्रैरथर्ववेदः संवर्तकोऽग्निर्मरुतो
विराडेकर्षिर्भास्वती स्मृता सा साम्नश्चतुर्थः
पादो भवति ॥ १॥
अष्टाक्षरः प्रथमः पादो भवत्यष्टाक्षरास्त्रयः
पादा भवन्त्येवं द्वात्रिंशदक्षराणि सम्पद्यन्ते
द्वात्रिंशदक्षरा वा अनुष्टुब्भवत्यनुष्टुभा
सर्वमिदं सृष्टमनुष्टुभा सर्वमुपसंहृतं
तस्य हैतस्य पञ्चाङ्गानि भवन्ति चत्वारः
पादाश्चत्वार्यङ्गानि भवन्ति सप्रणवं सर्वं
पञ्चमं भवति हृदयाय नमः शिरसे स्वाहा
शिखायै वषट् कवचाय हुं अस्त्राय फडिति
प्रथमं प्रथमेन संयुज्यते द्वितीयं द्वितीयेन
तृतीयं तृतीयेन चतुर्थं चतुर्थेन पञ्चमं
पञ्चमेन व्यतिषजति व्यतिषिक्ता वा इमे
लोकास्तस्माद्व्यतिषिक्तान्यङ्गानि भवन्ति
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्मात्प्रत्यक्षरमुभयत
ओङ्कारो भवति अक्षराणां न्यासमुपदिशन्ति
ब्रह्मवादिनः ॥ २॥
तस्य ह वा उग्रं प्रथमं स्थानं जानीयाद्यो
जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति वीरं द्वितीयं स्थानं
महाविष्णुं तृतीयं स्थानं ज्वलन्तं चतुर्थं
स्थानं सर्वतोमुखं पञ्चमं स्थानं नृसिंहं
षष्ठं स्थानं भीषणं सप्तमं स्थानं
भद्रमष्टमं स्थानं मृत्युमृत्युं नवमं स्थानं
नमामि दशमं स्थानमहमेकादशं स्थानं
जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति एकादशपदा
वा अनुष्टुब्भवत्यनुष्टुभा सर्वमिदं सृष्टमनुष्टुभा
सर्वमिदमुपसंहृतं तस्मात्सर्वानुष्टुभं जानीयाद्यो
जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति ॥ ३॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्नथ कस्मादुच्यत
उग्रमिति स होवाच प्रजापतिर्यस्मात्स्वमहिम्ना
सर्वाꣳल्लोकान्सर्वान्देवान्सर्वानात्मनः सर्वाणि
भूतान्युद्वृह्णात्यजस्रं सृजति विसृजति
विवासयत्त्युद्ग्राह्यत उद्गृह्यते स्तुहि श्रुतं गर्तसदं
युवानं मृगं न भीममुपहन्तुमुग्रं
मृडाजरित्रे रुद्रस्तवानो अन्यन्ते अस्मन्निवपन्तु सेनाः
var सिंहस्तवानो
तस्मादुच्यत उग्रमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते वीरमिति यस्मात्स्वमहिम्ना
सर्वाm+ल्लोकान्सर्वान्देवान्सर्वानात्मनः सर्वाणि
भूतानि विरमति विरामयत्यजस्रं सृजति विसृजति वासयति
यतो वीरः कर्मण्यः सुदृक्षो युक्तग्रावा जायते
देवकामस्तस्मादुच्यते वीरमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते महाविष्णुमिति यस्मात्स्वमहिम्ना
सर्वाm+ल्लोकान्सर्वान्देवान्सर्वानात्मनः सर्वाणि
भूतानि व्याप्नोति व्यापयति स्नेहो यथा
पललपिण्डं शान्तमूलमोतं प्रोतमनुव्यासं
variation पललपिण्डमोतप्रोतमनुप्राप्तं
व्यतिषिक्तो व्यापयते
यस्मान्न जातः परो अन्यो अस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा
प्रजापतिः प्रजया संविदानः त्रीणि ज्योतींषि सचते
सषोडषीं तस्मादुच्यते महाविष्णुमिति ॥
var षोडषीति ।
अथ कस्मादुच्यते ज्वलन्तमिति यस्मात्स्वमहिम्ना
सर्वाॅंल्लोकान्सर्वान्देवान्सर्वानात्मनः सर्वाणि
स्वतेजसा ज्वलति ज्वालयति ज्वाल्यते ज्वालयते सविता प्रसविता
दीप्तो दीपयन्दीप्यमानः ज्वलं ज्वलिता
तपन्वितपन्त्संतपन्रोचनो
रोचमानः शोभनः शोभमानः कल्याणस्तस्मादुच्यते
ज्वलन्तमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते सर्वतोमुखमिति यस्मात्स्वमहिम्ना
सर्वाm+ल्लोकान्सर्वान्देवान्सर्वानात्मनः सर्वाणि भूतानि
स्वयमनिन्द्रियोऽपि सर्वतः पश्यति सर्वतः शृणोति
सर्वतो गच्छति सर्वत आदत्ते सर्वगः सर्वगतस्तिष्ठति ।
एकः पुरस्ताद्य इदं बभूव यतो बभूव भुवनस्य गोपाः ।
यमप्येति भुवनं साम्पराये नमामि तमहं
सर्वतोमुखमिति तस्मादुच्यते सर्वतोमुखमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते नृसिंहमिति यस्मात्सर्वेषां भूतानां
ना वीर्यतमः श्रेष्ठतमश्च सिंहो वीर्यतमः
श्रेष्ठतमश्च । तस्मान्नृसिंह आसीत्परमेश्वरो
जगद्धितं वा एतद्रूपं यदक्षरं भवति प्रतद्विष्णुस्तवते
variation प्रतद्विष्णुः स्तवते
वीर्याय मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः । यस्योरुषु
त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा तस्मादुच्यते
नृसिंहमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते भीषणमिति यस्माद्भीषणं
यस्य रूपं दृष्ट्वा सर्वे लोकाः सर्वे देवाः
सर्वाणि भूतानि भीत्या पलायन्ते स्वयं यतः कुतश्च
न बिभेति भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः
भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चम
इति तस्मादुच्यते भीषणमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते भद्रमिति यस्मात्स्वयं भद्रो भूत्वा
सर्वदा भद्रं ददाति रोचनो रोचमानः शोभनः
शोभमानः कल्याणः । भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम
देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं
यदायुः तस्मादुच्यते भद्रमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते मृत्युमृत्युमिति यस्मात्स्वमहिम्ना
स्वभक्तानां स्मृत एव मृत्युमपमृत्युं च मारयति ।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य
देवाः यस्य छायामृतं यो मृत्युमृत्युः कस्मै
देवाय हविषा विधेम तस्मादुच्यते मृत्युमृत्युमिति ॥
अथ कस्मादुच्यते नमामीति यस्माद्यं सर्वे देवा नमन्ति
मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्च । प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं
वदत्युक्थ्यं
variation वदत्युक्थं
यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि
चक्रिरे तस्मादुच्यते नमामीति ॥
अथ कस्मादुच्यतेऽहमिति । अहमस्मि प्रथमजा ऋतास्य
पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य नाभिः । variation नाभायि
यो मा ददाति स इदेवमावाः अहमन्नमन्नमदन्तमद्मि अहं विश्वं
variation अहमन्नमन्नमदन्तमाद्यि
भुवनमभ्यभवां सुवर्णज्योतिर्य एवं वेदेति महोपनिषत् ॥ ४॥
इति द्वितीयोपनिषत् ॥ २॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्नानुष्टुभस्य
मन्त्रराजस्य नारसिंहस्य शक्तिं बीजं नो
ब्रूहि भगवन्निति स होवाच प्रजापतिर्माया वा
एषा नारसिंही सर्वमिदं सृजति सर्वमिदं रक्षति
सर्वमिदं संहरति तस्मान्मायामेतां शक्तिं
विद्याद्य एतां मायां शक्तिं वेद स पाप्मानं
तरति स मृत्युं तरति स संसारं तरति सोऽमृतत्वं
च गच्छति महतीं श्रियमश्नुते मीमांसन्ते
ब्रह्मवादिनो ह्रस्वा दीर्घा प्लुता चेति ॥
यदि ह्रस्वा भवति सर्वं पाप्मानं दहत्यमृतत्वं
च गच्छति यदि दीर्घा भवति महतीं
श्रियमाप्नोत्यमृतत्वं च गच्छति यदि प्लुता भवति
ज्ञानवान्भवत्यमृतत्वं च गच्छति तदेतदृषिणोक्तं
निदर्शनं स ईं पाहि य ऋजीषी तरुत्रः श्रियं
लक्ष्मीमौपलामम्बिकां गां षष्ठीं च
यामिन्द्रसेनेत्युदाहुः तां विद्यां ब्रह्मयोनिं
सरूपामिहायुषे शरणमहं प्रपद्ये सर्वेषां वा
variation सरूपां तामिहायुषे
एतद्भूतानामाकाशः परायणं सर्वाणि ह वा इमानि
भूतान्याकाशादेव जायन्त आकाशादेव जातानि
जीवन्त्याकाशं प्रयत्यभिसंविशन्ति तस्मादाकाशं
बीजं विद्यात्तदेव ज्यायस्तदेतदृषिणोक्तं निदर्शनं
हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता
वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ॥
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जागोजा ऋतजा अद्रिजा
ऋतं बृहत् ॥
य एवं वेदेति महोपनिषत् ॥
इति तृतीयोपनिषत् ॥ ३॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्ननुष्टुभस्य
मन्त्रराजस्य नारसिंहस्याङ्गमन्त्रान्नो
ब्रूहि भगव इति स होवाच प्रजापतिः प्रणवं
सावित्रीं यजुर्लक्ष्मीं नृसिंहगायत्रीमित्यङ्गानि
जानीयाद्यो जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति ॥ १॥
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव सर्वं
ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा
चतुष्पाज्जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग
एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः
प्रथमः पादः । स्वप्नस्थानेऽन्तप्रज्ञः
सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक्तैजसो
द्वितीयः पादः । यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं
कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तं
सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एकानन्दमयो
ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयो पादः ।
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष
योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानां
नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं
न प्रज्ञं नाप्रज्ञं न प्रज्ञानघनमदृष्ट-
मव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्य-
मैकात्म्यप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं
शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ २॥
अथ सावित्री गायत्र्या यजुषा प्रोक्ता तया
सर्वमिदं व्याप्तं घृणिरिति द्वे अक्षरे सूर्य
इति त्रीणि एतद्वै सावित्रस्याष्टाक्षरं पदं
श्रियाभिषिक्तं य एवं वेद श्रिया हैवाभिषिच्यते ।
तदेतदृचाभ्युक्तं ऋचो अक्षरे परमे
व्योमन्यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदुः । यस्तन्न वेद
किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासत
इति न ह वा एतस्यर्चा न यजुषा न साम्नार्थोऽस्ति
यः सावित्रीं वेदेति । ॐ भूर्लक्ष्मीर्भुवर्लक्ष्मीः
स्वर्लक्ष्मीः कालकर्णी तन्नो महालक्ष्मीः
प्रचोदयात् इत्येषा वै महालक्ष्मीर्यजुर्गायत्री
चतुर्विंशत्यक्षरा भवति । गायत्री वा इदं सर्वं
यदिदं किञ्च तस्माद्य एतां महालक्ष्मीं
याजुषीं वेद महतीं श्रियमश्नुते ।
ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि ।
तन्नः सिंहः प्रचोदयात् इत्येषा वै नृसिंहगायत्री
देवानां वेदानां निदानं भवति य एवं वेद
निदानवान्भवति ॥ ३॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्नथ कैर्मन्त्रैः
स्तुतो देवः प्रीतो भवति स्वात्मानं दर्शयति
तन्नो ब्रूहि भगवन्निति स होवाच प्रजापतिः ।
ॐ यो ह वै नृसिंहो देवो भगवान्यश्च
ब्रह्मा भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ १॥
[यथा प्रथममन्त्रोक्तावाद्यन्तौ तथा
सर्वमन्त्रेषु द्रष्टव्यौ]॥ यश्च विष्णुः ॥ २॥
यश्च महेश्वरः ॥ ३॥ यश्च पुरुषः ॥ ४॥
यश्चेश्वरः ॥ ५॥ या सरस्वती ॥ ६॥ या श्रीः ॥ ७॥
या गौरी ॥ ८॥ या प्रकृतिः ॥ ९॥ या विद्या ॥ १०॥
यश्चोङ्कारः ॥ ११॥ याश्चतस्रोऽर्धमात्राः ॥ १२॥
ये वेदाः साङ्गाः सशाखाः सेतिहासाः ॥ १३॥
ये च पञ्चाग्नयः ॥ १४॥ याः सप्त महाव्याहृतयः ॥ १५॥
ये चाष्टौ लोकपालाः ॥ १६॥ ये चाष्टौ वसवः ॥ १७॥
ये चैकादश रुद्राः ॥ १८॥ ये च द्वादशादित्याः ॥ १९॥
ये चाष्टौ ग्रहाः ॥ २०॥ यानि च पञ्चमहाभूतानि ॥ २१॥
यश्च कालः ॥ २२॥ यश्च मनुः ॥ २३॥ यश्च मृत्युः ॥ २४॥
यश्च यमः ॥ २५॥ यश्चान्तकः ॥ २६॥ यश्च प्राणः ॥ २७॥
यश्च सूर्यः ॥ २८॥ यश्च सोमः ॥ २९॥
यश्च विराट् पुरुषः ॥ ३०॥ यश्च जीवः ॥ ३१॥
यच्च सर्वम् ॥ ३२॥ इति द्वात्रिंशत् इति
तान्प्रजापतिरब्रवीदेतैर्मन्त्रैर्नित्यं देवं स्तुवध्वम् ।
ततो देवः प्रीतो भवति स्वात्मानं दर्शयति तस्माद्य
एतैर्मन्त्रैर्नित्यं देवं स्तौति स देवं पश्यति सोऽमृतत्वं
च गच्छति य एवं वेदेति महोपनिषत् ॥
इति चतुर्थ्युपनिषत् ॥ ४॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्नानुष्टुभस्य
मन्त्रराजस्य नारसिंहस्य महाचक्रं नाम
चक्रं नो ब्रूहि भगव इति सार्वकामिकं मोक्षद्वारं
यद्योगिन उपदिशन्ति स होवाच प्रजापतिः षडक्षरं
वा एतत्सुदर्शनं महाचक्रं तस्मात्षडरं
भवति षट्पत्रं चक्रं भवति षड्वा ऋतव ऋतुभिः
सम्मितं भवति मध्ये नाभिर्भवति नाभ्यां वा एते अराः
प्रतिष्ठिता मायया एतत्सर्वं वेष्टितं भवति
नात्मानं माया स्पृशति तस्मान्मायया बहिर्वेष्टितं
भवति । अथाष्टारमष्टपत्रं चक्रं भवत्यष्टाक्षरा
वै गायत्री गायत्र्या सम्मितं भवति बहिर्मायया
वेष्टितं भवति क्षेत्रं क्षेत्रं वै मायैषा सम्पद्यते ।
अथ द्वादशारं द्वादशपत्रं चक्रं भवति
द्वादशाक्षरा वै जगती जगत्या सम्मितं भवति
बहिर्मायया वेष्टितं भवति । अथ षोडशारं
षोडशपत्रं चक्रं भवति षोडशकलो वै पुरुषः
पुरुष एवेदं सर्वं पुरुषेण सम्मितं भवति
मायया बहिर्वेष्टितं
भवति । अथ द्वात्रिंशदरं द्वात्रिंशत्पत्रं चक्रं
भवति द्वात्रिंशदक्षरा वा अनुष्टुब्भवत्यनुष्टुभा
सर्वमिदं भवति बहिर्मायया वेष्टितं भवत्यरैर्वा
एतत्सुबद्धं भवति वेदा वा एते अराः पत्रैर्वा
एतत्सर्वतः परिक्रामति छन्दांसि वै पत्राणि ॥ १॥
एतत्सुदर्शनं महाचक्रं तस्य मध्ये नाभ्यां
तारकं यदक्षरं नारसिंहमेकाक्षरं
तद्भवति षट्सु पत्रेषु षडक्षरं सुदर्शनं
भवत्यष्टसु पत्रेष्वष्टाक्षरं नारायणं
भवति द्वादशसु पत्रेषु द्वादशाक्षरं वासुदेवं
भवति षोडशसु पत्रेषु मातृकाद्याः सबिन्दुकाः
षोडश स्वरा भवन्ति द्वात्रिंशत्सु पत्रेषु
द्वात्रिंशदक्षरं मन्त्रराजं नारसिंहमानुष्टुभं
भवति तद्वा एतत्सुदर्शनं नाम चक्रं सार्वकामिकं
मोक्षद्वारमृङ्मयं यजुर्मयं साममयं
ब्रह्ममयममृतमयं भवति तस्य पुरस्ताद्वसव
आसते रुद्रा दक्षिणत आदित्याः पश्चाद्विश्वेदेवा
उत्तरतो ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा नाभ्यां सूर्याचन्द्रमसौ
पार्श्वयोस्तदेतदृचाभ्युक्तम् । ऋचो अक्षरे परमे
व्योमन्यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदुः । यस्तन्न वेद
किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासत इति
तदेतत्सुदर्शनं महाचक्रं बालो वा युवा वा
वेद स महान्भवति स गुरुः सर्वेषां
मन्त्राणामुपदेष्टा भवत्यनुष्टुभा होमं
कुर्यादनुष्टुभार्चनं कुर्यात्तदेतद्रक्षोघ्नं
मृत्युतारकं गुरुणा लब्धं कण्ठे बाहौ
शिखायां वा बध्नीत सप्तद्वीपवती भूमिर्दक्षिणार्थं
नावकल्पते तस्माच्छ्रद्धया यां काञ्चिद्गां
दद्यात्स दक्षिणा भवति ॥ २॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्नानुष्टुभस्य
मन्त्रराजस्य नारसिंहस्य फलं नो ब्रूहि
भगव इति स होवाच प्रजापतिर्य एतं मन्त्रराजं
नारसिंहमानुष्टुभं नित्यमधीते सोऽग्नोपूतो
भवति स वायुपूतो भवति स आदित्यपूतो भवति
स सोमपूतो भवति स सत्यपूतो भवति स ब्रह्मपूतो
भवति स विष्णुपूतो भवति स रुद्रपूतो भवति
स सर्वपूतो भवति स सर्वपूतो भवति ॥ ३॥
य एतं मन्त्रराजं नारसिंहमानुष्टुभं
नित्यमधीते स मृत्युं तरति स पाप्मानं तरति
स भ्रूणहत्यां तरति स वीरहत्यां तरति स सर्वहत्यां
तरति स संसारं तरति स सर्वं तरति स सर्वं तरति ॥ ४॥
य एतं मन्त्रराजं नारसिंहमानुष्टुभं
नित्यमधीते सोऽग्निं स्तम्भयति स वायुं स्तम्भयति
स आदित्यं स्तम्भयति स स्तोमं स्तम्भयति स उदकं
स्तम्भयति स सर्वान्देवान्स्तम्भयति स
सर्वान्ग्रहान्स्तम्भयति स विषं स्तम्भयति
स विषं स्तम्भयति ॥ ५॥
य एतं मन्त्रराजं नारसिंहमानुष्टुभं
नित्यमधीते स देवानाकर्षयति स यक्षानाकर्षयति
स नागानाकर्षयति स ग्रहानाकर्षयति स
मनुष्यानाकर्षयति स सर्वानाकर्षयति स
सर्वानाकर्षयति ॥ ६॥
य एतं मन्त्रराजं नारसिंहमानुष्टुभं
नित्यमधीते स भूर्लोकं जयति स भुवर्लोकं जयति
स स्वर्लोकं जयति स महर्लोकं जयति स जनोलोकं
जयति स तपोलोकं जयति स सत्यलोकं जयति स
सर्वांल्लोकाञ्जयति स सर्वांल्लोकाञ्जयति ॥ ७॥
य एतं मन्त्रराजमानुष्टुभं नित्यमधीते
सोऽग्निष्टोमेन यजते स उक्थ्येन यजते स षोडशिना
यजते स वाजपेयेन यजते सोऽतिरात्रेण यजते
सोऽप्तोर्यामेण यजते सोऽश्वमेधेन यजते स सर्वैः
क्रतुभिर्यजते स सर्वैः क्रतुभिर्यजते ॥ ८॥
य एतं मन्त्रराजं नारसिंहमानुष्टुभं
नित्यमधीते स ऋचोऽधीते स यजूंष्यधीते स
सामान्यधीते सोऽथर्वणमधीते सोऽङ्गिरसमधीते
स शाखा अधीते स पुराणान्यधीते स कल्पानधीते
स गाथामधीते स नाराशंसीरधीते स प्रणवमधीते
यः प्रणवमधीते स सर्वमधीते स सर्वमधीते ॥ ९॥
अनुपनीतशतमेकमेकेनोपनीतेन तत्सममुपनीतशतमेकमेकेन
गृहस्थेन तत्समं गृहस्थशतमेकमेकेन
वानप्रस्थेन तत्समं वानप्रस्थशतमेकमेकेन
यतिना तत्समं यतीनां तु शतं पूर्णमेकमेकेन
रुद्रजापकेन तत्समं रुद्रजापकशतमेकमेकेन-
अथर्वशिरःशिखाध्यापकेन तत्सममथर्वशिरः-
शिखाध्यापकशतमेकमेकेन तापनीयोपनिषद-
ध्यापकेन तत्समं तापनीयोपनिषदध्यापक-
शतमेकमेकेन मन्त्रराजध्यापकेन तत्समं तद्वा
एतत्परमं धाम मन्त्रराजाध्यापकस्य यत्र न
सूर्यस्तपति यत्र न वायुर्वाति यत्र न चन्द्रमा भाति
यत्र न नक्षत्राणि भान्ति यत्र नाग्निर्दहति यत्र न
मृत्युः प्रविशति यत्र न दुःखं सदानन्दं
परमानन्दं शान्तं शाश्वतं सदाशिवं
ब्रह्मादिवन्दितं योगिध्येयं परमं पदं यत्र
गत्वा न निवर्तन्ते योगिनः ॥
तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततम् । तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः
समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ।
तदेतन्निष्कामस्य भवति तदेतन्निष्कामस्य भवति
य एवं वेदेति महोपनिषत् ॥ १०॥
इति पञ्चमोपनिषत् ॥ ५॥
इति नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषत् ॥
॥ नृसिंहोत्तरतापिन्युपनिषत् ॥
नृसिंहोत्तरतापिन्यां तुर्यतुर्यात्मकं महः ।
परमाद्वैतसाम्राज्यं प्रत्यक्षमुपलभ्यते ॥
ॐ देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्नणोरणीयां-
समिममात्मानमोङ्कारं नो व्याचक्ष्वेति
तथेत्योमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव सर्वं
ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म तमेतमात्मानमोमिति
ब्रह्मणैकीकृत्य ब्रह्म चात्मानमोमित्येकीकृत्य
तदेकमजरममृतमभयमोमित्यनुभूय
तस्मिन्निदं सर्वं त्रिशरीरमारोप्य तन्मयं हि
तदेवेति संहरेदोमिति तं वा एतं त्रिशरीरमात्मानं
त्रिशरीरं परं ब्रह्मानुसन्दध्यात्स्थूलत्वात्-
स्थूलभुक्त्वाच्च सूक्ष्मत्वात्सूक्ष्मभुक्त्वा-
च्चैक्यादानन्दभोगाच्च सोऽयमात्मा
चतुष्पाज्जागरितस्थानः स्थूलप्रज्ञः सप्ताङ्ग
एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुक् चतुरात्मा विश्वो
वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥
स्वप्नस्थानः सूक्ष्मप्रज्ञः सप्ताङ्ग
एकोनविंशतिमुखः सूक्ष्मभुक् चतुरात्मा
तैजसो हिरण्यगर्भो द्वितीयः पादः ॥
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न
कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तं
सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन
एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखश्चतुरात्मा
प्राज्ञ ईश्वरस्तृतीयः पादः ॥
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्यामेष
योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानं
त्रयमप्येतत्सुषुप्तं स्वप्नं मायामात्रं
चिदेकरसो ह्ययमात्माथ तुरीयश्चतुरात्मा
तुरीयावसितत्वादेकैकस्योतानुज्ञात्रनुज्ञाविकल्पै-
स्त्रयमप्यत्रापिसुषुप्तं स्वप्नं मायामात्रं
चिदेकरसो ह्ययमात्माथायमादेशो न
स्थूलप्रज्ञं न सूक्ष्मप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं
न प्रज्ञं नाप्रज्ञं न प्रज्ञानघन-
मदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षण-
मचिन्त्यमचिन्त्यमव्यपदेश्यमैकात्म्यप्रत्ययसारं
प्रपञ्चोपशमं शिवं शान्तमद्वैतं चतुर्थं
मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेय ईश्वरग्रासस्तुरीयस्तुरीयः ॥
इति प्रथमः खण्डः ॥ १॥
तं वा एतमात्मानं जाग्रत्यस्वप्नमसुषुप्तं
स्वप्नेऽजाग्रतमसुषुप्तं सुषुप्तेऽजाग्रतमस्वप्नं
तुरीयेऽजाग्रतमस्वप्नमसुषुप्तमव्यभिचारिणं
नित्यानन्दं सदेकरसं ह्येव चक्षुषो द्रष्टा
श्रोत्रस्य द्रष्टा वाचो द्रष्टा मनसो द्रष्टा
बुद्धेर्द्रष्टा प्राणस्य द्रष्टा तमसो द्रष्टा
सर्वस्य द्रष्टा ततः सर्वस्मादन्यो विलक्षणचक्षुषः
साक्षी श्रोत्रस्य साक्षी वाचः साक्षी मनसः साक्षीः
बुद्धेः साक्षी प्राणस्य साक्षी तमसः साक्षी
सर्वस्य साक्षी ततोऽविक्रियो महाचैतन्योऽस्मात्सर्वस्मात्प्रियतम
आनन्दघनं ह्येवमस्मात्सर्वस्मात्पुरतः
सुविभातमेकरसमेवाजरममृतमभयं
ब्रह्मैवाप्यजयैनं चतुष्पादं मात्राभिरोङ्कारेण
चैकीकुर्याज्जागरितस्थानश्चतुरात्मा विश्वो
वैश्वानरश्चतूरूपोङ्कार एव चतूरूपो var चतूरूपोऽकार
ह्ययमकारः स्थूलसूक्ष्मबीजसाक्षिभिरकाररूपै-
राप्तेरादिमत्त्वाद्वा स्थूलत्वात्सूक्ष्मत्वाद्-
बीजत्वात्साक्षित्वाच्चाप्नोति ह वा इदं सर्वमादिश्च
भवति य एवं वेद ॥
स्वप्नस्थानश्चतुरात्मा तैजसो हिरण्यगर्भश्चतूरूप
उकार एव चतूरूपो ह्ययमुकारः स्थूलसूक्ष्मबीज-
साक्षिभिरुकाररूपैरुत्कर्षादुभयत्वात्स्थूलत्वात्-
सूक्ष्मत्वाद्बीजत्वात्साक्षित्वाच्चोत्कर्षति ह वै
ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति य एवं वेद ॥
सुषुप्तस्थानश्चतुरात्मा प्राज्ञईश्वरश्चतुरूपो
मकार एव चतूरूपो ह्ययं मकारः स्थूलसूक्ष्म-
बीजसाक्षिभिर्मकाररूपैर्मितेरपीतेर्वा स्थूलत्वात्-
सूक्ष्मत्वाद्बीजत्वात्साक्षित्वाच्च मिनोति ह वा
इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥
मात्रामात्राः प्रतिमात्राः कुर्यादथ तुरीय ईश्वरग्रासः
स स्वराट् स्वयमीश्वरः स्वप्रकाशश्चतुरात्मो-
तानुज्ञात्रनुज्ञाविकल्पैरोतो ह्ययमात्मा ह्यथैवेदं var यथेदं
सर्वमन्तकाले कालाग्निः सूर्य उस्रैरनुज्ञातो ह्ययमात्मा
ह्यस्य सर्वस्य स्वात्मानं ददातीदं सर्वं
स्वात्मानमेव करोति यथा तमः सवितन् ज्ञैकरसो
ह्ययमात्मा चिद्रूप एव यथा दाह्यं दग्ध्वाग्निरविकल्पो
ह्ययमात्मा वाङ्मनोऽगोचरत्वाच्चिद्रूपश्चतूरूप
ॐकार एव चतूरूपो ह्ययमोङ्कार ओतानुज्ञात्रनुज्ञा-
विकल्पैरोङ्काररूपैरात्मैव नामरूपात्मकं हीदं
सर्वं तुरीयत्वाच्चिद्रूपत्वाच्चोतत्वादनुज्ञातृत्वाद-
नुज्ञानत्वादविकल्परूपत्वाच्चाविकल्परूपं हीदं
सर्वं नैव तत्र काचन भिदास्त्यथ var मिदास्त्यथ
तस्यायमादेशोऽमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः
शिवोऽद्वैत ओङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं
य एवं वेदैष वीरो नारसिंहेन वानुष्टुभा
मन्त्रराजेन तुरीयं विद्यादेष ह्यात्मानं प्रकाशयति
सर्वसंहारसमर्थः परिभवासहः प्रभुर्व्याप्तः
सदोज्ज्वलोऽविद्यातत्कार्यहीनः स्वात्मबन्धहरः सर्वदा
द्वैतरहित आनन्दरूपः सर्वाधिष्ठानः सन्मात्रो
निरस्ताविद्यातमोमोहोऽहमेवेति तस्मादेवमेवेममात्मानं
परं ब्रह्मानुसन्दध्यादेष वीरो नृसिंह एवेति ॥
इति द्वितीयः खण्डः ॥ २॥
तस्य ह वै प्रणवस्य या पूर्वा मात्रा सा प्रथमः
पादो भवति द्वितीया द्वितीयस्य तृतीया तृतीयस्य
चतुर्थ्योतानुज्ञात्रनुज्ञाविकल्परूपा तया तुरीयं
चतुरात्मानमन्विष्य चतुर्थपादेन च तया
तुरीयेणानुचिन्तयन्ग्रसेत्तस्य ह वा एतस्य प्रणवस्य
या पूर्वा मात्रा सा पृथिव्यकारः स ऋग्भिरृग्वेदो
ब्रह्मा वसवो गायत्री गार्हपत्यः सा प्रथमः पादो
भवति । भवति च सर्वेषु पादेषु चतुरात्मा स्थूलसूक्ष्म-
बीजसाक्षिभिर्द्वितीयान्तरिक्षं स उकारः स यजुर्भिर्यजुर्वेदो
विष्णुरुद्रास्त्रिष्टुब्दक्षिणाग्निः सा द्वितीयः
पादो भवति च सर्वेषु पादेषु चतुरात्मा
स्थूलसूक्ष्मबीजसाक्षिभिस्तृतीया द्यौः स मकारः
स सामभिः सामवेदो रुद्रादित्या जगत्याहवनीयः सा
तृतीयः पादो भवति । भवति च सर्वेषु पादेषु
चतुरात्मा स्थूलसूक्ष्मबीजसाक्षिभिर्याऽवसानेऽस्य
चतुर्थ्यर्धमात्रा सा सोमलोक ॐकारः साथर्वणै-
र्मन्त्रैरथर्ववेदः संवर्तकोऽग्निर्मरुतो विराडेकर्षिर्भास्वती
स्मृता सा चतुर्थः पादो भवति । भवति च सर्वेषु पादेषु
चतुरात्मा स्थूलसूक्ष्मबीजसाक्षिभिर्मात्रा मात्राः
प्रतिमात्राः कृत्वोतानुज्ञात्रनुज्ञाविकल्परूपं
चिन्तयन्ग्रसेज्ज्ञोऽमृतो हुतसंवित्कः शुद्धः संविष्टो
निर्विघ्न इममसुनियमेऽनुभूयेहेदं सर्वं दृष्ट्वा स
प्रपञ्चहीनोऽथ सकलः साधारोऽमृतमयश्चतुरात्माथ
महापीठे सपरिवारं तमेतं चतुःसप्तात्मानं
चतुरात्मानं मूलाग्नावग्निरूपं प्रणवं
सन्दध्यात्सप्तात्मानं चतुरात्मानमकारं रुद्रं
भ्रूमध्ये सप्तात्मानं चतुरात्मानं चतुःसप्तात्मानं
चतुरात्मानमोङ्कारं सर्वेश्वरं द्वादशान्ते
सप्तात्मानं चतुरात्मानं चतुःसप्तात्मानमोङ्कारं
तुरीयमानन्दामृतरूपं षोडशान्तेऽथानन्दामृतेनै-
तांश्चतुर्धा सम्पूज्य तथा ब्रह्माणमेव विष्णुमेव
रुद्रमेव विभक्तांस्त्रीनेवाविभक्तांस्त्रीनेव लिङ्गरूपानेव
च सम्पूज्योपहारैश्चतुर्धाथ लिङ्गात्संहृत्य var लिङ्गान्
तेजसा शरीरत्रयं संव्याप्य तदधिष्ठानमात्मानं
संज्वाल्य तत्तेज आत्मचैतन्यरूपं बलमवष्टभ्य
गुणैरैक्यं सम्पाद्य महास्थूलं महासूक्ष्मे
महासूक्ष्मं महाकारणे च संहृत्य मात्राभिरोता-
नुज्ञात्रनुज्ञाविकल्परूपं चिन्तयन्ग्रसेत् ॥
इति तृतीयः खण्डः ॥ ३॥
तं वा एतमात्मानं परमं ब्रह्मोङ्कारं
तुरीयोङ्काराग्रविद्योतमनुष्टुभा नत्वा प्रसाद्योमिति
संहृत्याहमित्यनुसन्दध्यादथैतमेवात्मानं
परमं ब्रह्मोङ्कारं तुरीयोङ्काराग्रविद्योतमेका-
दशात्मानं नारसिंहं नत्वोमिति संहरन्नानुसन्दध्या-
दथैतमेवमात्मानं परमं ब्रह्मोङ्कारं
तुरीयोङ्काराग्रविद्योतं प्रणवेन संचिन्त्यानुष्टुभा
नत्वा सच्चिदानन्दपूर्णात्मसु नवात्मकं
सच्चिदानन्दपूर्णात्मानं परं ब्रह्म सम्भाव्याह-
मित्यात्मानमादाय मनसा ब्रह्मणैकीकुर्याद्यदनुष्टुभैव var नमसा
वा एष उपवसन्नेष हि सर्वत्र सर्वदा सर्वात्मा सन्
सर्वमत्ति नृसिंहोऽसौ परमेश्वरोऽसौ हि सर्वत्र सर्वदा
सर्वात्मा सन्त्सर्वमत्ति नृसिंह एवैकल एष तुरीय
एष एवोग्र एष एव वीर एष एव महानेष एव विष्णुरेष
एव ज्वलन्नेष एव सर्वतोमुख एष एव नृसिंह एष एव
भीषण एष एव भद्र एष एव मृत्युमृत्युरेष एव
नमाम्येष एवाहमेवं योगारूढो ब्रह्मण्येवानुष्टुभं
सन्दध्यादोङ्कार इति ॥ तदेतौ श्लोकौ भवतः ॥
संस्तभ्य सिंहं स्वसुतान्गुणार्थान्-
संयोज्य शृङ्गैरृषभस्य हत्वा ॥
वश्यां स्फुरन्तीमसतीं निपीड्य
सम्भक्ष्य सिंहेन स एष वीरः ॥
शृङ्गप्रोतान्पादान्स्पृष्ट्वा हत्वा तानग्रसत्स्वयम् ।
नत्वा च बहुधा दृष्ट्वा नृसिंहः स्वयमुद्बभाविति ॥
इति चतुर्थः खण्डः ॥ ४॥
अथैष उ एव अकार आप्ततमार्थ आत्मन्येव
नृसिंहे देवे ब्रह्मणि वर्तत एष ह्येवाप्ततम
एष हि साक्ष्येष ईश्वरस्तत्सर्वगतो न हीदं
सर्वमेष हि व्याप्ततमैदं सर्वं यदयमात्मा
मायामात्र एष एवोग्र एष हि व्याप्ततम एष
एव वीर एष हि व्याप्ततम एष एव महानेष
हि व्याप्ततम एष एव विष्णुरेष हि व्याप्ततम
एष एव ज्वलन्नेष हि व्याप्ततम एष एव
सर्वतोमुख एष हि व्याप्ततम एष एव नृसिंह
एष हि व्याप्ततम एष एव भीषण एष हि
व्याप्ततम एष एव भद्र एष हि व्याप्ततम
एष एव मृत्युमृत्युरेष हि व्याप्ततम एष
एव नमाम्येष हि व्याप्ततम एष एवाहमेष
हि व्याप्ततम आत्मैव नृसिंहो देवो ब्रह्म भवति
य एवं वेद सोऽकामो निष्काम आप्तकाम
आत्मकामेन तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव
समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येत्यथैष
एवोङ्कार उत्कृष्टतमार्थ आत्मन्येव नृसिंहे
देवे ब्रह्मणि वर्तते तस्मादेष सत्यस्वरूपो न
ह्यन्यदस्त्यप्रमेयमनात्मप्रकाशमेष हि
स्वप्रकाशोऽसङ्गोऽन्यन्न वीक्षत आत्मातो
नान्यथा प्राप्तिरात्ममात्रं ह्येतदुत्कृष्टमेष
एवोग्र एष ह्येवोत्कृष्ट एष एव विष्णुरेष
ह्येवोत्कृष्ट एष एव ज्वलन्नेष ह्येवोत्कृष्ट
एष एव सर्वतोमुख एष ह्येवोत्कृष्ट एष एव
नृसिंह एष ह्येवोत्कृष्ट एष एव भीषण
एष ह्येवोत्कृष्ट एष एव भद्र एष ह्येवोत्कृष्ट
एष एव मृत्युमृत्युरेष ह्येवोत्कृष्ट एष
एव नमाम्येष ह्येवोत्कृष्ट एष एवाहमेष
ह्येवोत्कृष्टस्तस्मादात्मानमेवैनं जानीयादात्मैव
नृसिंहो देवो ब्रह्म भवति य एवं वेद सोऽकामो
निष्काम आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा
उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते ब्रह्मैव
सन्ब्रह्माप्येत्यथैष एव मकारो महाविभूत्यर्थ
आत्मन्यैव नृसिंहे देवे ब्रह्मणि वर्तते
तस्मादयमनल्पोऽभिन्नरूपः स्वप्रकाशो ब्रह्मैवाप्ततम
उत्कृष्टतम एतदेव ब्रह्मापि सर्वज्ञं महामायं
महाविभूत्येतदेवोग्रमेतद्धि महाविभूत्येतदेव
वीरमेतद्धि महाविभूत्यतदेव महदेतद्धि
महाविभूत्येतदेव विष्ण्वेतद्धि महाविभूत्येतदेव
ज्वलदेतद्धि महाविभूत्येतदेव सर्वतोमुखमेतद्धि
महाविभूत्येतदेव नृसिंहमेतद्धि महाविभूत्येतदेव
भीषणमेतद्धि महाविभूत्येतदेव भद्रमेतद्धि
महाविभूत्येतदेव मृत्युमृत्य्वेतद्धि महाविभूत्येतदेव
नमाम्येतद्धि महाविभूत्येतदेवाहमेतद्धि महाविभूति
तस्मादकारोकाराभ्यामिममात्मानमाप्ततममुत्कृष्टतमं
चिन्मात्रं सर्वद्रष्टारं सर्वसाक्षिणं सर्वग्रासं
सर्वप्रेमास्पदं सच्चिदानन्दमात्रमेकरसं
पुरतोऽस्मात्सर्वस्मात्सुविभातमन्विष्याप्ततममुत्कृष्टतमं
महामायं महाविभूति सच्चिदानन्दमात्रमेकरसं
पुरमेव ब्रह्म मकारेण जानीयादात्मैव नृसिंहो देवः var परमेव
परमेव ब्रह्म भवति य एवं वेद सोऽकामो निष्काम
आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव
समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येतीति ह प्रजापतिरुवाच
प्रजापतिरुवाच ॥
इति पञ्चमः खण्डः ॥ ५॥
ते देवा इममात्मानं ज्ञातुमैच्छंस्तान्हासुरः
पाप्मा परिजग्राह त ऐक्षन्तहन्तैनमासुरं
पाप्मानं ग्रसाम इत्येतमेवोङ्काराग्रविद्योतं
तुरीयतुरीयमात्मानमुग्रमनुग्रं वीरमवीरं
महान्तममहान्तं विष्णुमविष्णुं
ज्वलन्तमज्वलन्तं सर्वतोमुखमसर्वतोमुखं
नृसिंहमनृसिंहं भीषणमभीषणं
भद्रमभद्रं मृत्युमृत्युममृत्युमृत्युं
नमाम्यनमाम्यहमनहं नृसिंहानुष्टुभैव
बुबुधिरे तेभ्यो हासावासुरः पाप्मा
सच्चिदानन्दघनज्योतिरभवत्तस्मादपक्वकषाय
इममेवोङ्काराग्रविद्योतं तुरीयतुरीयमात्मानं
नृसिंहानुष्टुभैव जानीयात्तस्यासुरः पाप्मा
सच्चिदानन्दघनज्योतिर्भवति ते देवा ज्योतिष उत्तितीर्षवो
द्वितीयाद्भयमेव पश्यन्त इममेवोङ्काराग्रविद्योतं
तुरीयतुरीयमात्मानमनुष्टुभान्विष्य प्रणवेनैव
तस्मिन्नवस्थितास्तेभ्यस्तज्ज्योतिरस्य सर्वस्य पुरतः
सुविभातमविभातमद्वैतमचिन्त्यमलिङ्गं
स्वप्रकाशमानन्दघनं शून्यमभवदेवंवित्स्वप्रकाशं
परमेव ब्रह्म भवति ते देवाः पुत्रैषणायाश्च
वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च ससाधनेभ्यो
व्युत्थाय निराकारा निष्परिग्रहा अशिखा अयज्ञोपवीता
अन्धा बधिरा मुग्धाः क्लीबा मूका उन्मत्त इव
परिवर्तमानाः शान्ता दान्ता उपरतास्तितिक्षवः
समाहिता आत्मरतय आत्मक्रीडा आत्ममिथुना
आत्मानन्दाः प्रणवमेव परं ब्रह्मात्मप्रकाशं
शून्यं जानन्तस्तत्रैव परिसमाप्तास्तस्माद्देवानां
व्रतमाचरन्नोङ्कारे परे ब्रह्मणि पर्यवसितो भवेत्स
आत्मन्येवात्मानं परं ब्रह्म पश्यति ॥
तदेष श्लोकः ॥
शृङ्गेश्वशृङ्गं संयोज्य सिंहं शृङ्गेषु योजयेत् ।
शृङ्गाभ्यां शृङ्गमाबध्य त्रयो देवा उपासत इति ॥
इति षष्ठः खण्डः ॥ ६॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन् भूय एव नो
भगवान्विज्ञापयत्विति तथेत्यजत्वादमरत्वाद-
जरत्वादमृतत्वादशोकत्वादमोहत्वादनशनायत्वाद-
पिपासत्वादद्वैतत्वाच्चाकरेणेममात्मान-
मन्विष्योत्कृष्टत्वादुत्पादकत्वादुत्प्रवेष्टत्वादु-
त्थापयितृत्वादुद्द्रष्टृत्वादुत्कर्तृत्वादुत्पथ-
वारकत्वाद्दुद्ग्रासत्वादुद्भ्रान्तत्वादुत्तीर्णविकृतत्वा-
च्चोङ्कारेणेममात्मानं परमं ब्रह्म
नृसिंहमन्विष्याकारेणेममात्मानमुकारं
पूर्वार्धमाकृष्य सिंहीकृत्योत्तरार्धेन तं
सिंहमाकृष्य महत्त्वान्महस्त्वान्मानत्वा-
न्मुक्तत्वान्महादेवत्वान्महेश्वरत्वान्महासत्त्वा-
न्महाचित्त्वान्महानन्दत्वान्महाप्रभुत्वाच्च
मकारार्धेनानेनात्मनैकीकुर्यादशरीरो
निरिन्द्रियोऽप्राणोऽतमाः सच्चिदानन्दमात्रः
स स्वराड् भवति य एवं वेद कस्त्वमित्यहमिति
होवाचैवमेवेदं सर्वं तस्मादहमिति सर्वाभिधानं
तस्यादिरयमकारः स एव भवति । सर्वं ह्ययमात्मायं
हि सर्वान्तरो न हीदं सर्वमहमिति होवाचैव
निरात्मकमात्मैवेदं सर्वं तस्मात्सर्वात्मकेनाकारेण
सर्वात्मकमात्मानमन्विच्छेद्ब्रह्मैवेदं सर्वं
सच्चिदानन्दरूपं सच्चिदानन्दरूपमिदं सर्वं
सद्धीदं सर्वं सत्सदिति चिद्धीदं सर्वं काशते
प्रकाशते चेति किं सदितीदमिदं नेत्यनुभूतिरिति
कैषेतीयमियं नेत्यवचनेनैवानुभवन्नुवाचैवमेव
चिदानन्दावप्यवचनेनैवानुभवन्नुवाच सर्वमन्यदिति
स परमानन्दस्य ब्रह्मणो नाम ब्रह्मेति तस्यान्त्योऽयं
मकारः स एव भवति तस्मान्मकारेण परमं
ब्रह्मान्विच्छेत्किमिदमेवमित्युकार इत्येवाहाविचिकित्सन्-
तस्मादकारेणेममात्मानमन्विष्य मकारेण ब्रह्मणानु-
सन्दध्यादुकारेणाविचिकित्सन्नशरीरोऽनिन्द्रियोऽप्राणोऽतमाः
सच्चिदानन्दमात्रः स स्वराड् भवति य एवं वेद
ब्रह्म वा इदं सर्वमत्तृत्वादुग्रत्वाद्वीरत्वान्महत्वाद्-
विष्णुत्वाज्ज्वलत्वात्सर्वतोमुखत्वान्नृसिंहत्वाद्भीषणत्वा-
द्भद्रत्वान्मृत्युमृत्युत्वान्नमामित्वादहंत्वादिति सततं
ह्येतद्ब्रह्मोग्रत्वाद्वीरत्वान्महत्त्वाद्विष्णुत्वाज्ज्वलत्वा-
सर्वतोमुखत्वान्नृसिंहत्वाद्भीषणत्वाद्भद्रत्वा-
न्मृत्युमृत्युत्वान्नमामित्वादिति तस्मादकारेण परमं
ब्रह्मान्विष्य मकारेण मन आद्यवितारं मन आदिसाक्षिण-
मन्विच्छेत्स यदैतत्सर्वमपेक्षते तदैतत्सर्वमस्मिन्प्रविशति
स यदा प्रतिबुध्यते तदेतत्सर्वमस्मादेवोत्तिष्ठति तदेव
तत्सर्वं निरूह्य प्रत्यूह्य सम्पीड्य संज्वाल्य सम्भक्ष्य
स्वात्मानमेवैषां ददात्यत्युग्रोऽतिवीरोतिमहानिति
विष्णुरतिज्वलन्नतिसर्वतोमुखोऽतिनृसिंहोऽतिभीषणोऽति-
भद्रोतिमृत्युमृत्युरतिनमाम्यत्यहं भूत्वा स्वे महिम्नि
सदा समासते तस्मादेनमकारार्थेन परेण
ब्रह्मणैकीकुर्यादुकारेणाविचिकित्सन्नशरीरो
निरिन्द्रियोऽप्राणोऽमनः सच्चिदानन्दमात्रः स स्वराड् भवति
य एवं वेद ॥
तदेष श्लोकः ॥
शृङ्गं शृङ्गार्धमाकृष्य शृङ्गेणानेन योजयेत् ।
शृङ्गमेनं परे शृङ्गे तमनेनापि योजयेत् ॥
इति सप्तमः खण्डः ॥ ७॥
अथ तुरीयेणोतश्च प्रोतश्च ह्ययमात्मा
नृसिंहोऽस्मिन्सर्वमयं सर्वात्मानं हि
सर्वं नैवातोऽद्वयो ह्ययमात्मैकल एवाविकल्पो
न हि वस्तु सदयं ह्योत इव सद्घनोऽयं चिद्घन
आनन्दघन एवैकरसोऽव्यवहार्यः केनचनाद्वितीय
ओतश्च प्रोतश्चैष ओङ्कार एवं नैवमिति पृष्ट
ओमित्येवाह वाग्वा ओङ्कारो वागेवेदं सर्वं न
ह्यशब्दमिवेहास्ति चिन्मयो ह्ययमोङ्कारश्चिन्मयमिदं
सर्वं तस्मात्परमेश्वर एवैकमेव तद्भवत्येत-
दमृतमयमेतद्ब्रह्माभयं वै ब्रह्म भवति
य एवं वेदेति रहस्यमनुज्ञाता ह्ययमात्मैष
ह्यस्य सर्वस्य स्वात्मानमनुजानाति न हीदं सर्वं
स्वत आत्मविन्न ह्ययमोतो नानुज्ञाताऽसङ्गत्वाद-
विकारित्वादसत्त्वादन्यस्यानुज्ञाता ह्ययमोङ्कार
ओमिति ह्यनुजानाति वाग्वा ओङ्कारो वागेवेदं
सर्वमनुजानाति चिन्मयो ह्ययमोङ्कारश्चिद्धीदं
सर्वं निरात्मकमात्मसात्करोति तस्मात्परमेश्वर
एवैकमेव तद्भवत्येतदमृतमभयमेतद्ब्रह्माभयं
वै ब्रह्माभयं हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेदेति
रहस्यमनुज्ञैकरसो ह्ययमात्मा प्रज्ञानघन
एवायं यस्मात्सर्वात्पुरतः सुविभातोऽतश्चिद्घन
एव न ह्ययमोतो नानुज्ञातैतदात्म्यं हीदं सर्वं
सदेवानुज्ञैकरसो ह्ययमोङ्कार ओमिति ह्येवानुजानाति
वाग्वा ओङ्कारो वागेव ह्यनुजानाति चिन्मयो
ह्ययमोङ्कारश्चिदेव ह्यनुज्ञा तस्मात्परमेश्वर
एवैकमेव तद्भवत्येतदमृतमभयमेतद्ब्रह्माभयं
वै ब्रह्माभयं हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेदेति
रहस्यमविकल्पो ह्ययमात्माऽद्वितीयत्वादविकल्पो
ह्ययमोङ्कारोऽद्वितीयत्वादेव चिन्मयो ह्ययमोङ्कार-
स्तस्मात्परमेश्वर एवैकमेव तद्भवत्यविकल्पोऽपि
नात्र काचन भिदास्ति नैव तत्र काचन भिदास्त्यत्र
हि भिदामिव मन्यमानः शतधा सहस्रधा भिन्नो
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति तदेतदद्वयं स्वप्रकाशं
महानन्दमात्मा एवैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्माभयं
वै ब्रह्माभयं हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेदेति
रहस्यम् ॥
इत्यष्टमः खण्डः ॥ ८॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्निममेव नो
भगवन्नोङ्कारमात्मानमुपदिशेति
तथेत्युपद्रष्टानुमन्तैष आत्मा
नृसिंहश्चिद्रूप एवाविकारो ह्युपलब्धः
सर्वस्य सर्वत्र न ह्यस्ति द्वैतसिद्धिरात्मैव
सिद्धोऽद्वितीयो मायया ह्यन्यदिव स वा एष
आत्मा पर एषैव सर्वं तथाहि प्राज्ञे सैषाऽविद्या
जगत्सर्वमात्मा परमात्मैव
स्वप्रकाशोऽप्यविषयज्ञानत्वाज्जानन्नेव
ह्यन्यत्रान्यन्न विजानात्यनुभूतेर्माया च var ह्यत्र न
तमोरूपानुभूतिस्तदेतज्जडं मोहात्मकम-
नन्तमिदं रूपस्यास्य व्यञ्जिका नित्यनिवृत्तापि
मूढैरात्मेव दृष्टास्य सत्त्वमसत्त्वं च
दर्शयति सिद्धत्वासिद्धत्वाभ्यां स्वतन्त्रा-
स्वतन्त्रत्वेन सैषा वटबीजसामान्यवदनेक-
वटशक्तिरेकैव । तद्यथा वटबीजसामन्यमेक-
मनेकान्स्वाव्यतिरिक्तान्वटान्सबीजानुत्पाद्य तत्र
तत्र पूर्णं सत्तिष्ठत्येवमेवैषा माया
स्वाव्यतिरिक्तानि पूर्णानि क्षेत्राणि दर्शयित्वा
जीवेशावभासेन करोति माया चाविद्या च
स्वयमेव भवति सैषा चित्रा सुदृढा
बह्वङ्कुरा स्वयं गुणभिन्नाङ्कुरेष्वपि
गुणभिन्ना सर्वत्र ब्रह्मविष्णुशिवरूपिणी
चैतन्यदीप्ता तस्मादात्मन एव त्रैविध्यं
सर्वत्र योनित्वमभिमन्ता जीवो नियन्तेश्वरः
सर्वाहम्मानी हिरण्यगर्भस्त्रिरूप ईश्वर-
वद्व्यक्तचैतन्यःसर्वगो ह्येष ईश्वरः
क्रियाज्ञानात्मा सर्वं सर्वमयं सर्वे जीवाः
सर्वमयाः सर्वास्ववस्थासु तथाप्यल्पाः
स वा एष भूतानीन्द्रियाणि विराजं देवताः
कोशांश्च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढो
मूढ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव तस्मादद्वय
एवायमात्मा सन्मात्रो नित्यः शुद्धो बुद्धः
सत्यो मुक्तो निरञ्जनो विभुरद्वयानन्दः परः
प्रत्यगेकरसः प्रमाणैरेतैरवगतः सत्तामात्रं
हीदं सर्वं सदेव पुरस्तात्सिद्धं हि ब्रह्म न
ह्यत्र किञ्चानुभूयते नाविद्यानुभवात्मा
न स्वप्रकाशे सर्वसाक्षिण्यविक्रियेऽद्वये
पश्यतेहापि सन्मात्रमसदन्यत्सत्यं हीत्थं
पुरस्तादयोनि स्वात्मस्थमानन्दचिद्घनं
सिद्धं ह्यसिद्धं तद्विष्णुरीशानो ब्रह्मान्यदपि
सर्वं सर्वगतं सर्वमत एव शुद्धोऽबाध्यस्वरूपो
बुद्धः सुखस्वरूप आत्मा न ह्येतन्निरात्मकमपि
नात्मा पुरतो हि सिद्धो न हीदं सर्वं कदाचिदात्मा
हि स्वमहिमस्थो निरपेक्ष एक एव साक्षी स्वप्रकाशः
किं तन्नित्यमात्मात्र ह्येव न विचिकित्स्यमेतद्धीदं
सर्वं साधयति द्रष्टा द्रष्टुः साक्ष्यविक्रियः
सिद्धो निरवद्यो बाह्याभ्यन्तरवीक्षणात्सुविस्फुटतमः
स परस्ताद्ब्रूतैष दृष्टोऽदृष्टोऽव्यवहार्योऽप्यल्पो
नाल्पः साक्ष्यविशेषोऽनन्योऽसुखदुःखोऽद्वयः
परमात्मा सर्वज्ञोऽनन्तोऽभिन्नोऽद्वयः सर्वदा
संवित्तिर्मायया नासंवित्तिः स्वप्रकाशे यूयमेव
दृष्टाः किमद्वयेन द्वितीयमेव न यूयमेव
ब्रूह्येव भगवन्निति देवा ऊचुर्यूयमेव दृश्यते
चेन्नात्मज्ञा असङ्गो ह्ययमात्माऽतो यूयमेव
स्वप्रकाशा इदं हि सत्संविन्मयत्वाद्यूयमेव
नेति होचुर्हन्तासङ्गा वयमिति होचुः कथं
पश्यन्तीति होवाच न वयं विद्म इति होचुस्ततो
यूयमेव स्वप्रकाशा इति होवाच न च
सत्संविन्माया एतौ हि पुरस्तात्सुविभातमव्यवहार्य-
मेवाद्वयं ज्ञातो नैष विज्ञातो विदिताविदितात्पर
var for naiSha ह्येवैष
इति होचुः स होवाच तद्वा एतद्ब्रह्माद्वयं
ब्रह्मत्वान्नित्यं शुद्धं बुद्धं मुक्तं सत्यं
सूक्ष्मं परिपूर्णमद्वयं सदानन्दचिन्मात्र-
मात्मैवाव्यवहार्यं केन च तत्तदेतदात्मान-
मोमित्यपश्यन्तः पश्यत तदेतत्सत्यमात्मा
ब्रह्मैव ब्रह्मात्मैवात्र ह्येव न विचिकित्स्यमित्यों
सत्यं तदेतत्पण्डिता एव पश्यन्त्येतद्ध्यशब्द-
मस्पर्शमरूपमरसमगन्धमवक्तव्यमना-
दातव्यमगन्तव्यमविसर्जयितव्यमनानन्दयितव्य-
ममन्तव्यमबोद्धव्यममनहङ्कर्तयितव्यम-
चेतयितव्यमप्राणयितव्यमनपानयितव्यम-
व्यानयितव्यमनुदानयितव्यमसमानयितव्यम-
निन्द्रियमविषयमकरणमलक्षणमसङ्गम-
गुणमविक्रियमव्यपदेश्यमसत्त्वमरस्कम-
तमस्कममायमभयमप्यौपनिषदमेव
सुविभातं सकृद्विभातं पुरतोऽस्मात्सर्वस्मा-
त्सुविभातमद्वयं पश्यत हंसः सोऽहमिति स var पश्यताहं स
होवाच किमेष दृष्टोऽदृष्टो वेति दृष्टो
विदिताविदितात्पर इति होचुः क्वैषा कथमिति होचुः
किं तेन न किंचनेति होचुर्यूयमेवाश्चर्यरूपा
इति होवाच न चेत्याहुरोमित्यनुजानीध्वं ब्रूतैनमिति
ज्ञातोऽज्ञातश्चेति होचुर्नचैनमिति होचुरिति
ब्रूतैवैनमात्मसिद्धमिति होवाच पश्याम
एव भगवो न च वयं पश्यामो नैव वयं वक्तुं
शक्नुमो नमस्तेऽस्तु भगवन् प्रसीदेति होचुर्न
भेतव्यं पृच्छतेति होवाच क्वैषनुज्ञेत्येष var कैषानुज्ञेत्येष
एवात्मेति होवाच ते होचुर्नमस्तुभ्यं वयं त इति ह
प्रजापतिर्देवाननु शशासानुशशासेति ॥
तदेष श्लोकः ॥
ओतमोतेन जानीयादनुज्ञातारमान्तरम् ।
अनुज्ञामद्वयं लब्ध्वा उपद्रष्टारमाव्रजेत् ॥
इति नवमः खण्डः ॥ ९॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति नृसिंहोत्तरतापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ पञ्चब्रह्मोपनिषत् ॥
ब्रह्मादिपञ्चब्रह्माणो यत्र विश्रान्तिमाप्नुयुः ।
तदखण्डसुखाकारं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
अथ पैप्पलादो भगवान्भो किमादौ किं जातमिति । सद्यो जातमिति ।
किं भगव इति । अघोर इति । किं भगव इति । वामदेव इति ।
किं वा पुनरिमे भगव इति । तत्पुरुष इति । किं वा पुनरिमे भगव इति ।
सर्वेषां दिव्यानां प्रेरयिता ईशान इति । ईशानो भूतभव्यस्य
सर्वेषां देवयोगिनाम् । कति वर्णाः । कति भेदाः । कति शक्तयः ।
यत्सर्वं तद्गुह्यम् । तस्मै नमो महादेवाय महारुद्राय प्रोवाच
तस्मै भगवान्महेशः ।
गोप्याद्गोप्यतरं लोके यद्यस्ति श्रुणु शाकल ।
सद्यो जातं मही पूषा रमा ब्रह्मः त्रिवृत्स्वरः ॥ १॥
ऋग्वेदो गार्हपत्यं च मन्त्राः सप्तस्वरास्तथा ।
वर्णं पीतं क्रिया शक्तिः सर्वाभीष्टफलप्रदम् ॥ २॥
अघोरं सलिलं चन्द्रं गौरी वेद द्वितीयकम् ।
नीर्दाभं स्वरं सान्द्रं दक्षिणाग्निरुदाहृतम् ॥ ३॥
पञ्चाशद्वर्णसंयुक्तं स्थितिरिच्छक्रियान्वितम् ।
शक्तिरक्षणसंयुक्तं सर्वाघौघविनाशनम् ॥ ४॥
सर्वदुष्टप्रशमनं सर्वैश्वर्यफलप्रदम् ।
वामदेव महाबोधदायकं पावनात्मकम् ॥ ५॥
विद्यालोकसमायुक्तं भानुकोटिसमप्रभम् ।
प्रसन्नं सामवेदाख्यं नानाष्टकसमन्वितम् ॥ ६॥
धीरस्वरमधीनं चावहनीयमनुत्तमम् ।
ज्ञानसंहारसंयुक्तं शक्तिद्वयसमन्वितम् ॥ ७॥
वर्णं शुक्लं तमोमिश्रं पूर्णबोधकरं स्वयम् ।
धामत्रयनियन्तारं धामत्रयसमन्वितम् ॥ ८॥
सर्वसौभाग्यदं नॄणां सर्वकर्मफलप्रदम् ।
अष्टाक्षरसमायुक्तमष्टपत्रान्तरस्थितम् ॥ ९॥
यत्तत्पुरुषं प्रोक्तं वायुमण्डलसंवृतम् ।
पञ्चाग्निना समायुक्तं मन्त्रशक्तिनियामकम् ॥ १०॥
पञ्चाशत्स्वरवर्णाख्यमथर्ववेदस्वरूपकम् ।
कोटिकोटिगणाध्यक्षं ब्रह्माण्डाखण्डविग्रहम् ॥ ११॥
वर्णं रक्तं कामदं च सर्वाधिव्याधिभेषजम् ।
सृष्टिस्थितिलयादीनां कारणं सर्वशक्तिधृक् ॥ १२॥
अवस्थात्रितयातीतं तुरीयं ब्रह्मसंज्ञितम् ।
ब्रह्मविष्ण्वादिभिः सेव्यं सर्वेषां जनकं परम् ॥ १३॥
ईशानं परमं विद्यात्प्रेरकं बुद्धिसाक्षिणम् ।
आकाशात्मकमव्यक्तमोङ्कारस्वरभूषितम् ॥ १४॥
सर्वदेवमयं शान्तं शान्त्यतीतं स्वराद्बहिः ।
अकारादिस्वराध्यक्षमाकाशमयविग्रहम् ॥ १५॥
पञ्चकृत्यनियन्तारं पञ्चब्रह्मात्मकं बृहत् ।
पञ्चब्रह्मोपसंहारं कृत्वा स्वात्मनि संस्थितः ॥ १६॥
स्वमायावैभवान्सर्वान्संहृत्य स्वात्मनि स्थितः ।
पञ्चब्रह्मात्मकातीतो भासते स्वस्वतेजसा ॥ १७॥
आदावन्ते च मध्ये च भाससे नान्यहेतुना ।
मायया मोहिताः शम्भोर्महादेवं जगद्गुरुम् ॥ १८॥
न जानन्ति सुराः सर्वे सर्वकारणकारणम् ।
न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य परात्परं पुरुषं विश्वधाम ॥ १९॥
येन प्रकाशते विश्वं यत्रैव प्रविलीयते ।
तद्ब्रह्म परमं शान्तं तद्ब्रह्मास्मि परमं पदम् ॥ २०॥
पञ्चब्रह्म परं विद्यात्सद्योजातादिपूर्वकम् ।
दृश्यते श्रूयते यच्च पञ्चब्रह्मात्मकं स्वयम् ॥ २१॥
पञ्चधा वर्तमानं तं ब्रह्मकार्यमिति स्मृतम् ।
ब्रह्मकार्यमिति ज्ञात्वा ईशानं प्रतिपद्यते ॥ २२॥
पञ्चब्रह्मात्मकं सर्वं स्वात्मनि प्रविलाप्य च ।
सोऽहमस्मीति जानीयाद्विद्वान्ब्रह्माऽमृतो भवेत् ॥ २३॥
इत्येतद्ब्रह्म जानीयाद्यः स मुक्तो न संशयः ।
पञ्चाक्षरमयं शम्भुं परब्रह्मस्वरूपिणम् ॥ २४॥
नकारादियकारान्तं ज्ञात्वा पञ्चाक्षरं जपेत् ।
सर्वं पञ्चात्मकं विद्यात्पञ्चब्रह्मात्मतत्त्वतः ॥ २५॥
पञ्चब्रह्मात्मिकीं विद्यां योऽधीते भक्तिभावितः ।
स पञ्चात्मकतामेत्य भासते पञ्चधा स्वयम् ॥ २६॥
एवमुक्त्वा महादेवो गालवस्य महात्मनः ।
कृपां चकार तत्रैव स्वान्तर्धिमगमत्स्वयम् ॥ २७॥
यस्य श्रवणमात्रेणाश्रुतमेव श्रुतं भवेत् ।
अमतं च मतं ज्ञातमविज्ञातं च शाकल ॥ २८॥
एकेनैव तु पिण्डेन मृत्तिकायाश्च गौतम ।
विज्ञातं मृण्मयं सर्वं मृदभिन्नं हि कायकम् ॥ २९॥
एकेन लोहमणिना सर्वं लोहमयं यथा ।
विज्ञातं स्यादथैकेन नखानां कृन्तनेन च ॥ ३०॥
सर्वं कार्ष्णायसं ज्ञातं तदभिन्नं स्वभावतः ।
कारणाभिन्नरूपेण कार्यं कारणमेव हि ॥ ३१॥
तद्रूपेण सदा सत्यं भेदेनोक्तिर्मृषा खलु ।
तच्च कारणमेकं हि न भिन्नं नोभयात्मकम् ॥ ३२॥
भेदः सर्वत्र मिथ्यैव धर्मादेरनिरूपणात् ।
अतश्च कारणं नित्यमेकमेवाद्वयं खलु ॥ ३३॥
अत्र कारणमद्वैतं शुद्धचैतन्यमेव हि ।
अस्मिन्ब्रह्मपुरे वेश्म दहरं यदिदं मुने ॥ ३४॥
पुण्डरीकं तु तन्मध्ये आकाशो दहरोऽस्ति तत् ।
स शिवः सच्चिदानन्दः सोऽन्वेष्टव्यो मुमुक्षिभिः ॥ ३५॥
अयं हृदि स्थितः साक्षी सर्वेषामविशेषतः ।
तेनायं हृदयं प्रोक्तः शिवः संसारमोचकः ॥ ३६॥
इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति पञ्चब्रह्मोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ परब्रह्मोपनिषत् ॥
परब्रह्मोपनिषदि वेद्याखण्डसुखाकृति ।
परिव्राजकहृद्गेयं परितस्त्रैपदं भजे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथ हैनं महाशालः शौनकोऽङ्गिरसं भगवन्तं पिप्पलादं
विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ दिव्ये ब्रह्मपुरे के सम्प्रतिष्ठिता भवन्ति । कथं
सृज्यन्ते । नित्यात्मन एष महिमा । विभज्य एष महिमा विभुः । क एषः ।
तस्मै स होवाच । एतत्सत्यं यत्प्रब्रवीमि ब्रह्मविद्यां वरिष्ठां देवेभ्यः
प्राणेभ्यः । परब्रह्मपुरे विरजं निष्कलं शुभमक्षरं विरजं विभाति ।
स नियच्छति मधुकरः श्वेव विकर्मकः । अकर्मा स्वामीव स्थितः । कर्मतरः
कर्षकवत्फलमनुभवति । कर्ममर्मज्ञाता कर्म करोति । कर्ममर्म ज्ञात्वा
कर्म कुर्यात् । को जालं विक्षिपेदेको नैनमपकर्षत्यपकर्षति । प्राणदेवा-
श्चत्वारः । ताः सर्वा नाड्यः सुषुप्तश्येनाकाशवत् । यथा श्येनः
खमाश्रित्य याति स्वमालयं कुलायम् । एवं सुषुप्तं ब्रूत । अयं च परश्च
स सर्वत्र हिरण्मये परे कोशे । अमृता ह्येषा नाडी त्रयं संचरति । तस्य
त्रिपादं ब्रह्म । एषात्रेष्य ततोऽनुतिष्ठति । अन्यत्र ब्रूत । अयं च परं च
सर्वत्र हिरण्मये कोशे ।
यथैष देवदत्तो यष्ट्या च ताड्यमानो नैवैति ।
एवमिष्टापूर्तकर्मशुभाशुभैर्न लिप्यते । यथा
कुमारको निष्काम आनन्दमभियाति । तथैष देवः
स्वप्न आनन्दमभियाति वेद एव परं ज्योतिः । ज्योतिषामा
ज्योतिरानन्दयत्येवमेव । तत्परं यच्चित्तं परमात्मान-
मानन्दयति । शुभ्रवर्णमाजायतेश्वरात् । भूयस्तेनैव
मार्गेण स्वप्नस्थानं नियच्छति । जलूकाभाववद्यथा-
काममाजायतेश्वरात् । तावतात्मानमानन्दयति । परसन्धि
यदपरसन्धीति । तत्परं नापरं त्यजति । तदैव कपालष्टकं
सन्धाय य एष स्तन इवावलम्बते सेन्द्रयोनिः स वेदयोनिरिति ।
अत्र जाग्रति । शुभाशुभातिरिक्तः शुभाशुभैरपि कर्मभिर्न लिप्यते ।
य एष देवोऽन्यदेवास्य सम्प्रसादोऽन्तर्याम्यसङ्गचिद्रूपः
पुरुषः । प्रणवहंसः परं ब्रह्म । न प्राणहंसः । प्रणवो
जीवः । आद्या देवता निवेदयति । य एवं वेद । तत्कथं निवेदयते ।
जीवस्य ब्रह्मत्वमापादयति । सत्त्वमथास्य पुरुषस्यान्तः
शिखोपवीतत्वं ब्राह्मणस्य । मुमुक्षोरन्तः शिखोपवीतधारणम् ।
बहिर्लक्ष्यमाणशिखायज्ञोपवीतधारणं कर्मिणो गृहस्थस्य ।
अन्तरुपवीतलक्षणं तु बहिस्तन्तुवदव्यक्तमन्तस्तत्त्वमेलनम् ।
न सन्नासन्न सदसद्भिन्नाभिन्नं न चोभयम् । न सभागं
न निर्भागं न चाप्युभयरूपकम् ॥
ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं हेयं मिथ्यत्वकारणादिति ।
पञ्चपाद्ब्रह्मणो न किंचन । चतुष्पादन्तर्वर्तिनोऽन्त-
र्जीवब्रह्मणश्चत्वारि स्थानानि । नाभिहृदयकण्ठमूर्धसु
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयावस्थाः । आहवनीयगार्हपत्य-
दक्षिणसभ्याग्निषु । जागरिते ब्रह्मा स्वप्ने विष्णुः
सुषुप्तौ रुद्रस्तुरीयमक्षरं चिन्मयम् । तस्माच्चतुरवस्था ।
चतुरङ्गुलवेष्टनमिव षण्णवतितत्त्वानि तन्तुवद्विभज्य तदा
हितं त्रिगुणीकृत्य द्वात्रिंशत्तत्त्वनिष्कर्षमापाद्य
ज्ञानपूतं त्रिगुणस्वरूपं त्रिमूर्तित्वं पृथग्विज्ञाय
नवब्रह्माख्यनवगुणोपेतं ज्ञात्वा नवमानमितस्त्रिगुणीकृत्य
सूर्येन्द्वग्निकलास्वरूपत्वेनैकीकृत्याद्यन्तरेकत्वमपि मध्ये
त्रिरावृत्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरत्वमनुसंधायाद्यन्तमेकीकृत्य
चिद्ग्रन्थावद्वैतग्रन्थिं कृत्वा नाभ्यादिब्रह्मबिलप्रमाणं
पृथक् पृथक् सप्तविंशतितत्त्वसंबन्धं त्रिगुणोपेतं
त्रिमूर्तिलक्षणलक्षितमप्येकत्वमापाद्य वामांसादिदक्षिणकण्ठ्यन्तं
विभाव्याद्यन्तग्रहसंमेलनमेकं ज्ञात्वा मूलमेकं सत्यं
मृण्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।
हंसेति वर्णद्वयेनान्तः शिखोपवीतित्वं निश्चित्य ब्राह्मणत्वं ब्रह्मध्यानार्हत्वं
यतित्वमलक्षितान्तःशिखोपवीतित्वमेवं बहिर्लक्षितकर्मशिखा ज्ञानोपवीतं
गृहस्थस्याभासब्रह्मणत्वस्य केशसमूहशिखाप्रत्यक्षकार्पासतन्तु-
कृतोपवीतत्वं चतुर्गुणीकृत्य चतुर्विंशतितत्त्वापादनतन्तुकृत्त्वं
नवतत्त्वमेकमेव ॥ परंब्रह्म तत्प्रतिसरयोग्यत्वाद्बहुमार्गप्रवृत्तिं
कल्पयन्ति । सर्वेषां ब्रह्मादीनां देवर्षीणां मनुष्याणां मूर्तिरेका ।
ब्रह्मैकमेव । ब्राह्मणत्वमेकमेव । वर्णाश्रमाचारविशेषाः पृथक्पृथक्
शिखावर्णाश्रमिणामेककैव । अपवर्गस्य यतेः शिखायज्ञोपवीतमूलं
प्रणवमेकमेव वदन्ति । हंसः शिखा । प्रणव उपवीतम् । नादः संधानम् ।
एष धर्मो नेतरो धर्मः । तत्कथमिति । प्रणवहंसो नादस्त्रिवृत्सूत्रं
स्वहृदि चैतन्ये तिष्ठति त्रिविधं ब्रह्म । तद्विद्धि प्रापञ्चिकशिखोपवीतं त्यजेत् ।
सशिखं वपनं कृत्वा बहिःसूत्रं त्यजेद्बुधः ।
यदक्षरं परंब्रह्म तत्सूत्रमिति धारयेत् ॥ १॥
पुनर्जन्मनिवृत्यर्थं मोक्षस्याहर्निशं स्मरेत् ।
सूचनात्सूत्रमित्युक्तं सूत्रं नाम परं पदम् ॥ २॥
तत्सूत्रं विदितं येन स मुमुक्षुः स भिक्षुकः ।
स वेदवित्सदाचारः स विप्रः पङ्क्तिपावनः ॥ ३॥
येन सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।
तत्सूत्रं धारयेद्योगी योगविद्ब्राह्मणो यतिः ॥ ४॥
बहिःसूत्रं त्यजेद्विप्रो योगविज्ञानतत्परः ।
ब्रह्मभावमिदं सूत्रं धारयेद्यः स मुक्तिभाक् ॥ ५॥
नाशुचित्वं न चोच्छिष्टं तस्य सूत्रस्य धारणात् ।
सूत्रमन्तर्गतं येषां ज्ञानयज्ञोपवीतिनाम् ॥ ६॥
ये तु सूत्रविदो लोके ते च यज्ञोपवीतिनः ।
ज्ञानशिखिनो ज्ञाननिष्ठा ज्ञानयज्ञोपवीतिनः ।
ज्ञानमेव परं तेषां पवित्रं ज्ञानमीरितम् ॥ ७॥
अग्नेरिव शिखा नान्या यस्य ज्ञानमयी शिखा ।
स शिखीत्युच्यते विद्वान्नेतरे केशधारिणः ॥ ८॥
कर्मण्यधिकृतः ये तु वैदिके लौकिकेऽपि वा ।
ब्राह्मणाभासमात्रेण जीवन्ते कुक्षिपूरकाः ।
व्रजन्ते निरयं ते तु पुनर्जन्मनि जन्मनि ॥ ९॥
वामांसदक्षकण्ठ्यन्तं ब्रह्मसूत्रं तु सव्यतः ।
अन्तर्बहिरिवात्यर्थं तत्त्वतन्तुसमन्वितम् ॥ १०॥
नाभ्यादिब्रह्मरन्ध्रान्तप्रमाणं धारयेत्सुधीः ।
तेभिर्धार्यमिदं सूत्रं क्रियाङ्गं तन्तुनिर्मितम् ॥ ११॥
शिखा ज्ञानमयी यस्य उपवीतं च तन्मयम् ।
ब्राह्मण्यं सकलं तस्य नेतरेषां तु किंचन ॥ १२॥
इदं यज्ञोपवीतं तु परमं यत्परायणम् ।
विद्वान्यज्ञोपवीती संधारयेद्यः स मुक्तिभाक् ॥ १३॥
बहिरन्तश्चोपवीती विप्रः संन्यस्तुमर्हति ।
एकयज्ञोपवीती तु नैव संन्यस्तुमर्हति ॥ १४॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मोक्षापेक्षी भवेद्यतिः ।
बहिःसूत्रं परित्यज्य स्वान्तःसूत्रं तु धारयेत् ॥ १५॥
बहिःप्रपञ्चशिखोपवीतित्वमनादृत्य प्रणवहंसशिखोपवीतित्वमवलम्ब्य
मोक्षसाधनं कुर्यादित्याह भगवाञ्छौनक इत्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति परब्रह्मोपनिषत्समाप्ता॥
॥ परमहंसपरिव्राजकोपनिषत् ॥
पारिव्राज्यधर्मवन्तो यज्ज्ञानाद्ब्रह्मतां ययुः ।
तद्ब्रह्म प्रणवैकार्थं तुर्यतुर्यं हरिं भजे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः ।
स्वस्तो नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ अथ पितामहः स्वपितरमादिनारायणमुपसमेत्य
प्रणम्य पप्रच्छ भगवंस्त्वन्मुखाद्वर्णाश्रमधर्म-
क्रमं सर्वं श्रुतं विदितमवगतम् ।
इदानीं परमहंसपरिव्राजकलक्षणं वेदितुमिच्छामि कः
परिव्रजनाधिकारी कीदृशं परिव्राजकलक्षणं कः
परमहंसः परिव्राजकत्वं कथं तत्सर्वं मे ब्रूहीति ।
स होवाच भगवानादिनारायणः ।
सद्गुरुसमीपे सकलविद्यापरिश्रमज्ञो भूत्वा विद्वान्सर्व-
मैहिकामुष्मिकसुखश्रमं ज्ञात्वैषणात्रयवासनात्रय-
ममत्वाहङ्कारादिकं वमनान्नमिव हेयमधिगम्य मोक्ष-
मार्गैकसाधनो ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भवेत् ।
गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ।
यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा ।
अथ पुनरव्रती वा व्रती वा स्नातको वाऽस्नातको वोत्सन्नाग्नि-
रनग्निको वा यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेदिति बुद्ध्वा
सर्वसंसारेषु विरक्तो ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो वा
पितरं मातरं कलत्रपुत्रमाप्तबन्धुवर्गं तदभावे शिष्यं
सहवासिनं वानुमोदयित्वा तद्धैके प्राजापत्यामेवेष्टिं कुर्वन्ति
तदु तथा न कुर्यात् । आग्नेय्यामेव कुर्यात् ।
अग्निर्हि प्राणः प्राणमेवैतया करोति त्रैधातवीयामेव कुर्यात् ।
एतयैव त्रयो धातवो यदुत सत्त्वं रजस्तम इति ।
अयं ते योनिरृत्वियो यतो जातो आरोचथाः ।
तं जानन्नग्न आरोहाथानो वर्धया रयिमित्यनेन मन्त्रेणाग्नि-
माजिघ्रेत् ।
एष वा अग्नेर्योनिर्यः प्राणं गच्छ स्वां योनिं गच्छस्वा-
हेत्येवमेवैतदाह ।
ग्रामाच्छ्रोत्रियागारादग्निमाहृत्य स्वविध्युक्तक्रमेण
पूर्ववदग्निमाजिघ्रेत् ।
यद्यातुरो वाग्निं न विनेदप्सु जुहुयात् ।
आपो वै सर्वा देवताः सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुहोमि स्वाहेति
हुत्वोद्धृत्य प्राश्नीयात् साज्यं हविरनामयम् ।
एष विधिर्वीराध्वाने वाऽनाशके वा सम्प्रवेशे वाग्निप्रवेशे
वा महाप्रस्थाने वा ।
यद्यातुरः स्यान्मनसा वाचा वा संन्यसेदेष पन्थाः ।
स्वस्थक्रमेणैव चेदात्मश्राद्धं विरजाहोमं कृत्वाग्नि-
मात्मन्यारोप्य लौकिकवैदिकसाम्र्थ्यं स्वचतुर्दशकरण-
प्रवृत्तिं च पुत्रे समारोप्य तदभावे शिष्ये वा तदभावे
स्वात्मन्येव वा ब्रह्मा त्वं यज्ञस्त्वमित्यभिमन्त्र्य ब्रह्म-
भावनया ध्यात्वा सावित्रीप्रवेशपूर्वकमप्सु सर्वविद्यार्थ-
स्वरूपां ब्राह्मण्याधारां वेदमातरं क्रमाद्व्याहृतिषु
त्रिषु प्रविलाप्य व्याहृतित्रयमकारोकारमकारेषु प्रविलाप्य
तत्सावधानेनापः प्राश्य प्रणवेन शिखामुत्कृष्य
यज्ञोपवीतं छित्त्वा वस्त्रमपि भूमौ वाप्सु वा विसृज्य
ॐ भूः स्वाहा ॐ भुवः स्वाहा ॐ सुवः स्वाहेत्यनेन
जातरूपधरो भूत्वा स्वं रूपं ध्यायन्पुनः पृथक्
प्रणवव्याहृतिपूर्वकं मनसा वचसापि संन्यस्तं मया
संन्यस्तं मया संन्यस्तं मयेति मन्द्रमध्यमतारध्वनि-
भिस्त्रिवारं त्रिगुणीकृतप्रेषोच्चारणं कृत्वा प्रणवैक-
ध्यानपरायणः सन्नभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहेत्यूर्ध्व-
बाहुर्भूत्वा ब्रह्माहमस्मीति तत्त्वमस्यादिवाक्यार्थस्वरूपा-
नुसन्धानं कुर्वन्नुदीचिं दिशं गच्छेत् ।
जातरूपधरश्चरेत् । एष संन्यासः ।
तदधिकारी न भवेद्यदि गृहस्थप्रार्थनापूर्वकमभयं
सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते सखा मा गोपायौजः
सखा योऽसीन्द्रस्य व्रजोऽसि वार्गघ्नः शर्म मे भव यत्पापं
तन्निवारयेत्यनेन मन्त्रेण प्रणवपूर्वकं सलक्षणं वाइणवं
दण्डं कटिसूत्रं कौपीनं कमण्डलुं विवर्णवस्त्रमेकं
परिगृह्य सद्गुरुमुपगम्य नत्वा गुरुमुखात्तत्त्वमसीति
महावाक्यं प्रणवपूर्वकमुपलभ्याथ जीर्णवल्कलाजिनं
धृत्वाथ जलावतरणमूर्ध्वगमनमेकभिक्षां परित्यज्य
त्रिकालस्नानमाचरन्वेदान्तश्रवणपूर्वकं प्रणवानुष्ठानं
कुर्वन्ब्रह्ममार्गे सम्यक् सम्पन्नः स्वाभिमतमात्मनि गोपयित्वा
निर्ममोऽध्यात्मनिष्ठः कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्य-
दम्भदर्पाहङ्कारासूयागर्वेच्छाद्वेषहर्षामर्ष-
ममत्वादींश्च हित्वा ज्ञानवैराग्ययुक्तो वित्तस्त्रीपराङ्मुखः
शुद्धमानसः सर्वोपनिषदर्थमालोच्य ब्रह्मचर्या-
परिग्रहाहिंसासत्यं यत्नेन रक्षञ्जितेन्द्रियो बहिरन्तःस्नेहवर्जितः
शरीरसंधारणार्थं वा त्रिषु वर्णेष्वभिशस्तपतितवर्जितेषु
पशुरद्रोही भैक्ष्यमाणो ब्रह्मभूयाय भवति ।
सर्वेषु कालेषु लाभालाभौ समौ कृत्वा परपात्रमधूकरे-
णान्नमश्नन्मेदोवृद्धिमकुर्वन्कृशीभूत्वा ब्रह्माहमस्मीति
भावयन्गुर्वर्थं ग्राममुपेत्य ध्रुवशीलोऽष्टौ मास्येकाकी
चरेद्द्वावेवाचरेत् ।
यदालंबुद्धिर्भवेत्तदा कुटीचको वा बहूदको वा हंसो वा
परमहंसो वा तत्तन्मन्त्रपूर्वकं कटिसूत्रं कौपीनं दण्डं
कमण्डलुं सर्वमप्सु विसृज्याथ जातरूपधरश्चरेत् ।
ग्राम एकरात्रं तीर्थे त्रिरात्रं पत्तने पञ्चरात्रं क्षेत्रे
सप्तरात्रमनिकेतः स्थिरमतिरनग्निसेवी निर्विकारो नियमानियाम-
मुत्सृज्य प्राणसन्धारणार्थमयमेव लाभालाभौ समौ
कृत्वा गोवृत्त्या भैक्षमाचरन्नुदकस्थलकमण्डलुर्-
रबाधकरहस्यस्थलवासो न पुनर्लाभालाभरतः शुभाशुभ-
कर्मनिर्मूलनपरः सर्वत्र भूतलशयनः क्षौरकर्मपरित्यक्तो
युक्तचातुर्मास्यव्रतनियमः शुक्लध्यानपरायणोऽर्थस्त्रीपुर-
पराङ्मुखोऽनुन्मत्तोऽप्युन्मत्तवदाचरन्नव्यक्तलिङ्गोऽलिङ्गोऽव्य-
क्ताचारो दिवानक्तसमत्वेनास्वप्नः स्वरूपानुसन्धानब्रह्म-
प्रणवध्यानमार्गेणावहितः संन्यासेन देहत्यागं करोति स
परमहंसपरिव्राजको भवति ।
भगवन् ब्रह्मप्रणवः कीदृश इति ब्रह्मा पृच्छति ।
स होवाच नारायणः ।
ब्रह्मप्रणवः षोडशमात्रात्मकः सोऽवस्थाचतुष्टय-
चतुष्टयगोचरः ।
जाग्रदवस्थायां जाग्रदादिचरस्रोऽवस्थाः स्वप्ने स्वप्नादि-
चतस्रोवस्थाः सुषुप्तौ सुषुप्त्यादिचतस्रोऽवस्थातुरीये
तुरीयादिचतस्रोऽवस्था भवन्तीति ।
जाग्रदवस्थायां विश्वस्य चातुर्विध्यं विश्वविश्वो विश्वतैजसो
विश्वप्राज्ञो विश्वतुरीय इति ।
स्वप्नावस्थायां तैजसस्य चातुर्विध्यं
तैजसविश्वस्तैजसतैजसस्तैजसप्राज्ञस्तैजसतुरीय इति ।
सुषुप्त्यवस्थायां प्राज्ञस्य चातुर्विध्यं प्राज्ञविश्वः
प्राज्ञतैजसः प्राज्ञप्राज्ञः प्राज्ञतुरीय इति।
तुरीयावस्थायां तुरीयस्य चातुर्विध्यं
तुरीयविश्वस्तुरीयतैजसस्तुरीयप्राज्ञस्तुतुरीयतुरीय इति ।
ते क्रमेण षोडशमात्रा रूढाः अकारे जाग्रद्विश्व उकारे
जाग्रत्तैजसो मकारे जाग्रत्प्राज्ञ अर्धमात्रायां जाग्रत्तुरीयो
बिन्दौ स्वप्नविश्वोनादे स्वप्नतैजसः कलायां स्वप्नप्राज्ञः
कलातीते स्वप्नतुरीयः शान्तौ सुषुप्तविश्वः शान्त्यातीते
सुषुप्ततैजस उन्मन्यां सुषुप्तप्राज्ञो मनोन्मन्यां
सुषुप्ततुरीयः पुर्यां तुरीयविश्वो मध्यमायां तुरीयतैजसः
पश्यन्तां तुरीयप्राज्ञः परायां तुरीयतुरीयः ।
जाग्रन्मात्राचतुष्टयमकारांशं स्वप्नमात्राचतुष्टय-
मुकारांशं सुषुप्तिमात्राचतुष्टयं मकारांशं
तुरीयमात्राचतुष्टयमर्धमात्रांशम् ।
अयमेव ब्रह्मप्रणवः । स परमहंसतुरीयातीतावधूतैरुपास्यः ।
तेनैव ब्रह्म प्रकाशते तेन विदेहमुक्तिः ।
भगवन् कथमयज्ञोपवीत्त्यशिखी सर्वकर्मपरित्यक्तः कथं
ब्रह्मनिष्ठापरः कथं ब्राह्मण इति ब्रह्मा पृच्छति ।
स होवाच विष्णुर्भोभोऽर्भक यस्यास्त्यद्वैतमात्मज्ञानं
तदेव यज्ञोपवीतम् ।
तस्य ध्याननिष्ठैव शिखा । तत्कर्म स पवित्रम् ।
स सर्वकर्मकृत् । स ब्राह्मणः । स ब्रह्मनिष्ठापरः ।
स देवः । स ऋषिः । स तपस्वी । स श्रेष्ठः ।
स एव सर्वज्येष्ठः । स एव जगद्गुरुः । स एवाहं विद्धि ।
लोके परमहंसपरिव्राजको दुर्लभतरो यद्येकोऽस्ति ।
स एव नित्यपूतः । स एव वेदपुरुषो महापुरुषो यस्तच्चित्तं
मय्येवावतिष्ठते । अहं च तस्मिन्नेवावस्थितः ।
स एव नित्यतृप्तः । स शीतोष्णसुखदुःखमानावमानवर्जितः ।
स निन्दामर्षसहिष्णुः । स षडूर्मिवर्जितः ।
षड्भावविकारशून्यः । स ज्येष्ठाज्येष्ठव्यवधानरहितः ।
स स्वव्यतिरेकेण नान्यद्रष्टा । आशाम्बरो ननमस्कारो न
स्वाहाकारो न स्वधाकारश्च नविसर्जनपरो निन्दास्तुति-
व्यतिरिक्तो नमन्त्रतन्त्रोपासको देवान्तरध्यानशून्यो
लक्ष्यालक्ष्यनिवर्तकः सर्वोपरतः ससच्चिदानन्दाद्वय-
चिद्घनः सम्पूर्णानन्दैकबोधो ब्रह्मैवाहममीत्यनवरतं
ब्रह्मप्रणवानुसन्धानेन यः कृतकृत्यो भवति स ह
परमहंसपरिव्राडित्युपनिषत् ॥
हरिः ॐ तत्सत् ।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति परमहंसपरिव्राजकोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ परमहंसोपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवंसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
हरिः ॐ ॥
अथ योगिनं परमहंसनं कोऽयं मार्नस्तेषं का स्थितिरिति नारदो
भगवन्तमुपगत्योवाच । तं भगवानाः । योऽयं परमहंसमार्गो
लोके दुर्लभतरो न तु बाहुल्यो यद्येको भवति स एव नित्यपूतस्थः
स एव वेदपुरुष इति विदुषो मन्यन्ते महापुरुषो यच्चित्तं
तत्सर्वदा मय्येवावतिष्टते तस्मादहं च तस्मिन्नेवावस्थीयते ।
असौ स्वपुत्रमित्रकलत्रबन्व्वादीञ्शिखायज्ञोपवीते
स्वाध्यायं च सर्वकर्माणि
संन्यस्यायं ब्रह्माण्डं च हित्वा कौपीनं दण्डमाच्छादनं च
स्वशरीरोपभोगार्थाय च लोकस्योपकारार्थाय च परिग्रहेत्तच्च न
मुख्योऽस्ति कोऽयं मुख्य इति चेदयं मुख्यः ॥ १॥
न दण्डं न शिखं न यज्ञोपवीतं न चाच्छादनं चरति परमहंसः ।
न शितं न चोष्णं न सुखं न दुःखं न मानावमाने च षडूर्मिवर्जं
निन्दागर्वमत्सरदम्मदर्पेच्छाद्वेषसुखदुःखकामकोधलोभमोहहर्षसु
उयाहंकारादींश्च हित्वा स्ववपुः कुणपमिव दृष्यते
यतस्तद्वपुरपध्वस्तं संशयविपरीतमिथ्याज्ञानानां यो हेतुस्तेन
नित्यनिवृत्तस्तन्नित्यबोधस्तत्स्वयमेवावस्थितिस्तं
शन्तमचलमद्वयानन्दविज्ञानघन एवास्मि ।
तदेव मम परम्धाम तदेव शिखा च तदेवोपवीत च ।
परमात्मात्मनोरेकत्वज्ञानेन तयोर्भेद एव विभग्नः सा सध्या ॥ २॥
सर्वान्कामान्परित्यज्य अद्वैते परमस्थितिः ।
ज्ञानदण्डो धृतो येन एकदण्डो स उच्यते ॥
काष्ठदण्डो धृतो येन सर्वाशि ज्ञानवर्जितः ।
स याति नरकान्धोरान्महारौरवसञ्ज्ञकान् ॥
इदमन्तरं ज्ञात्वा स परमहंसः ॥ ३॥
आशाम्बरो न नमर्कारो न स्वधाकारो न निन्दा न स्तुतिर्यादृच्छिको
भवेद्भिक्षुर्नाऽऽवाहनं न विसर्जनं न मन्त्रं न ध्यानं
नोपासनं च न लक्ष्यं नाकक्ष्यं न पृथग्नापृथगहं
न न त्वं न सर्व चानिकेतस्थितिरेव भिक्षुः सौवर्णादीनं
नैव परिग्नहेन्न लोकं नावलोकं चाऽऽबाधकं क इति
चेद्बाधकोऽस्त्येव यस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन दृष्टं
च स ब्रह्महा भवेत् ।
यस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन ग्राह्यं च स आत्महा भवेत् ।
तस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन न दृष्टं च न
स्पृष्टं च न ग्राह्यं च । सर्वे कामा मनोगता
व्यावर्तन्ते । दुःखे नोद्विग्नः सुखे न स्पृहा त्यागो रागे सर्वत्र
शुभाशुभयोरनभिस्नेहो न द्वेष्टि न मोदं च । सर्वेषामिन्द्रियाणां
गतिरुपरमते य आत्मन्येवावस्थीयते
यत्पूर्णानन्दैकबोधस्तदब्रह्माहमस्मीति
कृतकृत्यो भवति कृतकृत्यो भवति ॥ ४॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवंसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
हरिः ॐ ॥
इति श्रीपरमहंसोपनिषत्समाप्ता ॥
पाशुपतब्रह्मोपनिषत्
पाशुपतब्रह्मविद्यासंवेद्यं परमाक्षरम् ।
परमानन्दसम्पूर्णं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथ ह वै स्वयंभूर्ब्रह्मा प्रजाः सृजानीति कामकामो जायते
कामेश्वरो वैश्रवणः । वैश्रवणो ब्रह्मपुत्रो वालखिल्यः स्वयंभुवं
परिपृच्छति जगतां का विद्या का देवता जाग्रत्तुरीययोरस्य को देवो यानि
तस्य वशानि कालाः कियत्प्रमाणाः कस्याज्ञया रविचन्द्रग्रहादयो भासन्ते
कस्य महिमा गगनस्वरूप एतदहं श्रोतुमिच्छामि नान्यो जानाति
त्वं ब्रूहि ब्रह्मन् । स्वयंभूरुवाच कृत्स्नजगतां मातृका विद्या
द्वित्रिवर्णसहिता द्विवर्णमाता त्रिवर्णसहिता । चतुर्मात्रात्मकोङ्कारो मम
प्राणात्मिका देवता । अहमेव जगत्त्रयस्यैकः पतिः । मम वशानि सर्वाणि
युगान्यपि । अहोरात्रादयो मत्संवर्धिताः कालाः । मम रूपा
रवेस्तेजश्चन्द्रनक्षत्रग्रहतेजांसि च । गगनो मम त्रिशक्तिमायास्वरूपः
नान्यो मदस्ति । तमोमायात्मको रुद्रः सात्विकमायात्मको विष्णू
राजसमायात्मको ब्रह्मा ।
इन्द्रादयस्तामसराजसात्मिका न सात्विकः कोऽपि अघोरः
सर्वसाधारणस्वरूपः । समस्तयागानां रुद्रः पशुपतिः कर्ता ।
रुद्रो यागदेवो विष्णुरध्वर्युर्होतेन्द्रो देवता यज्ञभुग्
मानसं ब्रह्म माहेश्वरं ब्रह्म मानसं हंसः
सोऽहं हंस इति । तन्मययज्ञो नादानुसंधानम् ।
तन्मयविकारो जीवः । परमात्मस्वरूपो हंसः । अन्तर्बहिश्चरति
हंसः । अन्तर्गतोऽनकाशान्तर्गतसुपर्णस्वरूपो हंसः ।
षण्णवतितत्त्वतन्तुवद्व्यक्तं चित्सूत्रत्रयचिन्मयलक्षणं
नवतत्त्वत्रिरावृतं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरात्मकमग्नित्रयकलोपेतं
चिद्ग्रन्थिबन्धनम् । अद्वैतग्रन्थिः यज्ञसाधारणाङ्गं
बहिरन्तर्ज्वलनं यज्ञाङ्गलक्षणब्रह्मस्वरूपो हंसः ।
उपवीतलक्षणसूत्रब्रह्मगा यज्ञाः । ब्रह्माङ्गलक्षणयुक्तो
यज्ञसूत्रम् । तद्ब्रह्मसूत्रम् । यज्ञसूत्रसंबंधी ब्रह्मयज्ञः ।
तत्स्वरूपोऽङ्गानि मात्राणि मनो यज्ञस्य हंसो यज्ञसूत्रम् ।
प्रणवं ब्रह्मसूत्रं ब्रह्मयज्ञमयम् । प्रणवान्तर्वर्ती हंसो
ब्रह्मसूत्रम् । तदेव ब्रह्मयज्ञमयं मोक्षक्रमम् ।
ब्रह्मसन्ध्याक्रिया मनोयागः । सन्ध्याक्रिया मनोयागस्य लक्षणम् ।
यज्ञसूत्रप्रणवब्रह्मयज्ञक्रियायुक्तो ब्राह्मणः । ब्रह्मचर्येण
हरन्ति देवाः । हंससूत्रचर्या यज्ञाः । हंसप्रणवयोरभेदः ।
हंसस्य प्रार्थनास्त्रिकालाः । त्रिकालस्त्रिवर्णाः । त्रेताग्न्यनुसन्धानो यागः ।
त्रेताग्न्यात्माकृतिवर्णोङ्कारहंसानुसन्धानोऽन्तर्यागः ।
चित्स्वरूपवत्तन्मयं तुरीयस्वरूपम् । अन्तरादित्ये ज्योतिःस्वरूपो हंसः ।
यज्ञाङ्गं ब्रह्मसम्पत्तिः । ब्रह्मप्रवृत्तौ तत्प्रणवहंससूत्रेणैव
ध्यानमाचरन्ति । प्रोवाच पुनः स्वयंभुवं प्रतिजानीते ब्रह्मपुत्रो
ऋषिर्वालखिल्यः । हंससूत्राणि कतिसंख्यानि कियद्वा प्रमाणम् ।
हृद्यादित्यमरीचीनां पदं षण्णवतिः । चित्सूत्रघ्राणयोः स्वर्निर्गता
प्रणवधारा षडङ्गुलदशाशीतिः । वामबाहुर्दक्षिणकठ्योरन्तश्चरति
हंसः परमात्मा ब्रह्मगुह्यप्रकारो नान्यत्र विदितः । जानन्ति तेऽमृतफलकाः ।
सर्वकालं हंसं प्रकाशकम् । प्रणवहंसान्तर्ध्यानप्रकृतिं विना न मुक्तिः ।
नवसूत्रान्परिचर्चितान् । तेऽपि यद्ब्रह्म चरन्ति । अन्तरादित्ये न ज्ञातं
मनुष्याणाम् । जगदादित्यो रोचत इति ज्ञात्वा ते मर्त्या विबुधास्तपन
प्रार्थनायुक्ता आचरन्ति ।
वाजपेयः पशुहर्ता अध्वर्युरिन्द्रो देवता अहिंसा
धर्मयागः परमहंसोऽध्वर्युः परमात्मा देवता
पशुपतिः ब्रह्मोपनिषदो ब्रह्म । स्वाध्याययुक्ता
ब्राह्मणाश्चरन्ति । अश्वमेधो महायज्ञकथा ।
तद्राज्ञा ब्रह्मचर्यमाचरन्ति । सर्वेषां
पूर्वोक्तब्रह्मयज्ञक्रमं मुक्तिक्रममिति ब्रह्मपुत्रः
प्रोवाच । उदितो हंस ऋषिः । स्वयंभूस्तिरोदधे । रुद्रो
ब्रह्मोपनिषदो हंसज्योतिः पशुपतिः प्रणवस्तारकः स एवं वेद ।
हंसात्ममालिकावर्णब्रह्मकालप्रचोदिता ।
परमात्मा पुमानिति ब्रह्मसम्पत्तिकारिणी ॥ १॥
अध्यात्मब्रह्मकल्पस्याकृतिः कीदृशी कथा ।
ब्रह्मज्ञानप्रभासन्ध्याकालो गच्छति धीमताम् ।
हंसाख्यो देवमात्माख्यमात्मतत्त्वप्रजा कथम् ॥ २॥
अन्तःप्रणवनादाख्यो हंसः प्रत्ययबोधकः ।
अन्तर्गतप्रमागूढं ज्ञाननालं विराजितम् ॥ ३॥
शिवशक्त्यात्मकं रूपं चिन्मयानन्दवेदितम् ।
नादबिन्दुकला त्रीणि नेत्रं विश्वविचेष्टितम् ॥ ४॥
त्रियङ्गानि शिखा त्रीणि द्वित्राणां संख्यमाकृतिः ।
अन्तर्गूढप्रमा हंसः प्रमाणान्निर्गतं बहिः ॥ ५॥
ब्रह्मसूत्रपदं ज्ञेयं ब्राह्मं विध्युक्तलक्षणम् ।
हंसार्कप्रणवध्यानमित्युक्तो ज्ञानसागरे ॥ ६॥
एतद्विज्ञानमत्रेण ज्ञानसागरपारगः ।
स्वतः शिवः पशुपतिः साक्षी सर्वस्य सर्वदा ॥ ७॥
सर्वेषां तु मनस्तेन प्रेरितं नियमेन तु ।
विषये गच्छति प्राणश्चेष्टते वाग्वदत्यपि ॥ ८॥
चक्षुः पश्यति रूपाणि श्रोत्रं सर्वं शृणोत्यपि ।
अन्यानि कानि सर्वाणि तेनैव प्रेरितानि तु ॥ ९॥
स्वं स्वं विषयमुद्दिश्य प्रवर्तन्ते निरन्तरम् ।
प्रवर्तकत्वं चाप्यस्य मायया न स्वभावतः ॥ १०॥
श्रोत्रमात्मनि चाध्यस्तं स्वयं पशुपतिः पुमान् ।
अनुप्रविश्य श्रोत्रस्य ददाति श्रोत्रतां शिवः ॥ ११॥
मनः स्वात्मनि चाध्यस्तं प्रविश्य परमेश्वरः ।
मनस्त्वं तस्य सत्त्वस्थो ददाति नियमेन तु ॥ १२॥
स एव विदितादन्यस्तथैवाविदितादपि ।
अन्येषामिन्द्रियाणां तु कल्पितानामपीश्वरः ॥ १३॥
तत्तद्रूपमनु प्राप्य ददाति नियमेन तु ।
ततश्चक्षुश्च वाक्चैव मनश्चान्यानि खानि च ॥ १४॥
न गच्छन्ति स्वयंज्योतिःस्वभावे परमात्मनि ।
अकर्तृविषयप्रत्यक्प्रकाशं स्वात्मनैव तु ॥ १५॥
विना तर्कप्रमाणाभ्यां ब्रह्म यो वेद वेद सः ।
प्रत्यगात्मा परंज्योतिर्माया सा तु महत्तमः ॥ १६॥
तथा सति कथं मायासंभवः प्रत्यगात्मनि ।
तस्मात्तर्कप्रमाणाभ्यां स्वानुभूत्या च चिद्घने ॥ १७॥
स्वप्रकाशैकसंसिद्धे नास्ति माया परात्मनि ।
व्यावहारिकदृष्ट्येयं विद्याविद्या न चान्यथा ॥ १८॥
तत्त्वदृष्ट्या तु नास्त्येव तत्त्वमेवास्ति केवलम् ।
व्यावहारिक दृष्टिस्तु प्रकाशाव्यभिचारितः ॥ १९॥
प्रकाश एव सततं तस्मादद्वैत एव हि ।
अद्वैतमिति चोक्तिश्च प्रकाशाव्यभिचारतः ॥ २०॥
प्रकाश एव सततं तस्मान्मौनं हि युज्यते ।
अयमर्थो महान्यस्य स्वयमेव प्रकाशितः ॥ २१॥
न स जीवो न च ब्रह्मा न चान्यदपि किंचन ।
न तस्य वर्णा विद्यन्ते नाश्रमाश्च तथैव च ॥ २२॥
न तस्य धर्मोऽधर्मश्च न निषेधो विधिर्न च ।
यदा ब्रह्मात्मकं सर्वं विभाति तत एव तु ॥ २३॥
तदा दुःखादिभेदोऽयमाभासोऽपि न भासते ।
जगज्जीवादिरूपेण पश्यन्नपि परात्मवित् ॥ २४॥
न तत्पश्यति चिद्रूपं ब्रह्मवस्त्वेव पश्यति ।
धर्मधर्मित्ववार्ता च भेदे सति हि भिद्यते ॥ २५॥
भेदाभेदस्तथा भेदाभेदः साक्षात्परात्मनः ।
नास्ति स्वात्मातिरेकेण स्वयमेवास्ति सर्वदा ॥ २६॥
ब्रह्मैव विद्यते साक्षाद्वस्तुतोऽवस्तुतोऽपि च ।
तथैव ब्रह्मविज्ज्ञानी किं गृह्णाति जहाति किम् ॥ २७॥
अधिष्ठानमनौपम्यमवाङ्मनसगोचरम् ।
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रं रूपवर्जितम् ॥ २८॥
अचक्षुःश्रोत्रमत्यर्थं तदपाणिपदं तथा ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूख्मं च तदव्ययम् ॥ २९॥
ब्रह्मैवेदममृतं तत्पुरस्ताद्-
ब्रह्मानन्दं परमं चैव पश्चात् ।
ब्रह्मानन्दं परमं दक्षिणे च
ब्रह्मानन्दं परमं चोत्तरे च ॥ ३०॥
स्वात्मन्येव स्वयं सर्वं सदा पश्यति निर्भयः ।
तदा मुक्तो न मुक्तश्च बद्धस्यैव विमुक्तता ॥ ३१॥
एवंरूपा परा विद्या सत्येन तपसापि च ।
ब्रह्मचर्यादिभिर्धर्मैर्लभ्या वेदान्तवर्त्मना ॥ ३२॥
स्वशरीरे स्वयंज्योतिःस्वरूपं पारमार्थिकम् ।
क्षीणदोषः प्रपश्यन्ति नेतरे माययावृताः ॥ ३३॥
एवं स्वरूपविज्ञानं यस्य कस्यास्ति योगिनः ।
कुत्रचिद्गमनं नास्ति तस्य सम्पूर्णरूपिणः ॥ ३४॥
आकाशमेकं सम्पूर्णं कुत्रचिन्न हि गच्छति ।
तद्वद्ब्रह्मात्मविच्छ्रेष्ठः कुत्रचिन्नैव गच्छति ॥ ३५॥
अभक्ष्यस्य निवृत्त्या तु विशुद्धं हृदयं भवेत् ।
आहारशुद्धौ चित्तस्य विशुद्धिर्भवति स्वतः ॥ ३६॥
चित्तशुद्धौ क्रमाज्ज्ञानं त्रुट्यन्ति ग्रन्थयः स्फुटम् ।
अभक्ष्यं ब्रह्मविज्ञानविहीनस्यैव देहिनः ॥ ३७॥
न सम्यग्ज्ञानिनस्तद्वत्स्वरूपं सकलं खलु ।
अहमन्नं सदान्नाद इति हि ब्रह्मवेदनम् ॥ ३८॥
ब्रह्मविद्ग्रसति ज्ञानात्सर्वं ब्रह्मात्मनैव तु ।
ब्रह्मक्षत्रादिकं सर्वं यस्य स्यादोदनं सदा ॥ ३९॥
यस्योपसेचनं मृत्युस्तं ज्ञानी तादृशः खलु ।
ब्रह्मस्वरूपविज्ञानाज्जगद्भोज्यं भवेत्खलु ॥ ४०॥
जगदात्मतया भाति यदा भोज्यं भवेत्तदा ।
ब्रह्मस्वात्मतया नित्यं भक्षितं सकलं तदा ॥ ४१॥
यदाभासेन रूपेण जगद्भोज्यं भवेत तत् ।
मानतः स्वात्मना भातं भक्षितं भवति ध्रुवम् ॥ ४२॥
स्वस्वरूपं स्वयं भुङ्क्ते नास्ति भोज्यं पृथक् स्वतः ।
अस्ति चेदस्तितारूपं ब्रह्मैवास्तित्वलक्षणम् ॥ ४३॥
अस्तितालक्षणा सत्ता सत्ता ब्रह्म न चापरा ।
नास्ति सत्तातिरेकेण नास्ति माया च वस्तुतः ॥ ४४॥
योगिनामात्मनिष्ठानां माया स्वात्मनि कल्पिता ।
साक्षिरूपतया भाति ब्रह्मज्ञानेन बाधिता ॥ ४५॥
ब्रह्मविज्ञानसम्पन्नः प्रतीतमखिलं जगत् ।
पश्यन्नपि सदा नैव पश्यति स्वात्मनः पृथक् ॥ ४६॥ इत्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति पाशुपतब्रह्मोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ पैङ्गलोपनिषत् ॥
शुक्लयजुर्वेदीय सामान्य उपनिषत् ॥
पैङ्गलोपनिषद्वेद्यं परमानन्दविग्रहम् ।
परितः कलये रामं परमाक्षरवैभवम् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथ ह पैङ्ग़लो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्य
द्वादशवर्शशुश्रूषापूर्वकं
परमरहस्यकैवल्यमनुब्रूहीति पप्रच्छ । स होवाच
याज्ञ्नवल्क्यः सदेव सोम्येदमग्र आसीत् ।
तन्नित्यमुक्तमविक्रियं सत्यज्ञानानन्दं परिपूर्णं
सनातनमेकमेवाद्वितीयं ब्रह्म ।
तस्मिन्मरुशुक्तिकास्थाणुस्फटिकादौ
जलरौप्यपुरुषरेखादिवल्लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी
गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं
यत्तत्साक्षिचैतन्यमासीत् । सा पुनर्विकृतिं प्राप्य
सत्त्वोद्रिक्ताऽव्यक्ताख्यावरणशक्तिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं
यत्तदीश्वरचैतन्यमासीत् । स स्वाधीनमायः सर्वज्ञः
सृष्टिस्थितिलयानामादिकर्ता जगदङ्कुररूपो भवति ।
स्वस्मिन्विलीनं सकलं जगदाविर्भावयति ।
प्राणिकर्मवशादेष पटो यद्वत्प्रसारितः
प्राणिकर्मक्षयात्पुनस्तिरोभावयति । तस्मिन्नेवाखिलं विश्वं
सङ्कोचितपटवद्वर्तते । ईशाधिष्ठितावरणशक्तितो
रजोद्रिक्ता महदाख्या विक्षेपशक्तिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं
यत्तद्धिरण्यगर्भचैतन्यमासीत् । स महत्तत्त्वाभिमानी
स्पष्टास्पष्टवपुर्भवति ।
हिरण्यगर्भाधिष्ठितविक्षेपशक्तितस्तमोद्रिक्ताहङ्काराभिधा
स्थूलशक्तिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं
यत्तद्विराटचैतन्यमासीत् । स तदभिमानी स्पष्टवपुः
सर्वस्थूलपालको विष्णुः प्रधानपुरुषो भवति ।
तस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः
। अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । तानि पञ्च तन्मात्राणि
त्रिगुणानि भवन्ति । स्रष्टुकामो जगद्योनिस्तमोगुणमधिष्ठाय
सूक्ष्मतन्मात्राणि भूतानि स्थूलीकर्तुं सोऽकामयत ।
सृष्टेः परिमितानि भूतान्येकमेकं द्विधा विधाय
पुनश्चतुर्धा कृत्वा स्वस्वेतरद्वितीयांशैः पञ्चधा
संयोज्य पञ्चीकृतभूतैरनन्तकोटिब्रह्माण्डानि
तत्तदण्डोचितगोलकस्थूलशरीराण्यसृजत् । स
पञ्चभूतानां रजोंशांश्चतुर्धा कृत्वा
भागत्रयात्पञ्चवृत्त्यात्मकं प्राणमसृजत् । स तेषां
तुर्यभागेन कर्मेन्द्रियाण्यसृजत् । स तेषां सत्त्वांशं
चतुर्धा कृत्वा भागत्रयसमष्टितः
पञ्चक्रियावृत्त्यात्मकमन्तःकरणमसृजत् । स तेषां
सत्त्वतुरीयभागेन ज्ञानेन्द्रियाण्यसृजत् । सत्त्वसमष्टित
इन्द्रियपालकानसृजत् । तानि सृष्टान्यण्डे प्राचिक्षिपत्
। तदाज्ञया समष्ट्यण्डं व्याप्य तान्यतिष्ठन् ।
तदाज्ञयाहङ्कारसमन्वितो विराट् स्थूलान्यरक्षत् ।
हिरण्यगर्भस्तदाज्ञया सूक्ष्माण्यपालयत् । अण्डस्थानि तानि
तेन विना स्पन्दितुं चेष्टितुं वा न शेकुः । तानि
चेतनीकर्तुं सोऽकामयत ब्रह्माण्डब्रह्मरन्ध्राणि
समस्तव्यष्टिमस्तकान्विदार्य तदेवानुप्राविशत् । तदा
जडान्यपि तानि चेतनवत्स्वकर्माणि चक्रिरे । सर्वज्ञेशो
मायालेशसमन्वितो व्यष्टिदेहं प्रविश्य तया मोहितो
जीवत्वमगमत् ।
शरीरत्रयतादात्म्यात्कर्तृत्वभोक्तृत्वतामगमत् ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिमूर्च्छामरणधर्मयुक्तो
घटीयन्त्रवदुद्विग्नो जातो मृत इव कुलालचक्रन्यायेन
परिभ्रमतीति ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
अथ पैङ्गलो याज्ञवल्क्यमुवाच सर्वलोकानां
सृष्टिस्थित्यन्तकृद्विभूरीशः कथं जीवत्वमगमदिति । स
होवाच याज्ञवल्क्यः स्थूलसूक्ष्मकारणदेहोद्भवपूर्वकं
जीवेश्वरस्वरूपं विविच्य कथयामीति
सावधानेनैकाग्रतया श्रूयताम् । ईशः
पञ्चीकृतमहाभूतलेशानादाय
व्यष्टिसमष्ट्यात्मकस्थूलशरीराणि यथाक्रममकरोत् ।
कपालचर्मान्त्रास्थिमांसनखानि पृथिव्यंशाः ।
रक्तमूत्रलालास्वेदादिकमवंशाः ।
क्षुत्तृष्णोष्णमोहमैथुनाद्या अग्न्यंशाः ।
प्रचारणोत्तारणश्वासादिका वाय्वंशाः । कामक्रोधादयो
व्योमांशाः । एतत्सङ्घातं कर्मणि सञ्चितं त्वगादियुक्तं
बाल्याद्यवस्थाभिमानास्पदं बहुदोपाश्रयं स्थूलशरीरं
भवति ॥
अथापञ्चीकृतमहाभूतरजोंशभागत्रयसमष्टितः
प्राणमसृजत् । प्राणापानव्यानोदानसमानाः प्राणवृत्तयः
। नागकूर्मकृकरदेवदत्तधनञ्जया उपप्राणाः ।
हृदासननाभिकण्ठसर्वाङ्गानि स्थानानि ।
आकाशादिरजोगुणतुरीयभागेन कर्मेन्द्रियमसृजत् ।
वाक्पाणिपादपायूपास्थास्तद्वृत्तयः ।
वचनादानगमनविसर्गानन्दास्तद्विषयाः ॥
एवं भूतसत्त्वांशभागत्रयसमष्टितोऽन्तःकरणमसृजत्
। अन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहङ्कारास्तद्वृत्तयः ।
सङ्कल्पनिश्चयस्मरणाभिमानानुसन्धानास्तद्विषयाः ।
गलवदननाभिहृदयभ्रूमध्यं स्थानम् ।
भूतसत्वतुरीयभागेन ज्ञानेन्द्रियमसृजत् ।
श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिव्हाघ्राणास्तद्वृत्तयः ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धास्तद्विषयाः ।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवह्नीन्द्रोपेन्द्रमृत्युकाः । चन्द्रो
विष्णुश्चतुर्वक्त्रः शम्भुश्च कारणाधिपाः ॥
अथान्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञामयानन्दमयाः पञ्च
कोशाः । अन्नरसेनैव भूत्वान्नरसेनाभिवृद्धिं
प्राप्यान्नरसमयपृथिव्यां यद्विलीयते सोऽन्नमयकोशः ।
तदेव स्थूलशरीरम् । कर्मेन्द्रियैः सह प्राणादिपञ्चकं
प्राणमयकोशः । ज्ञानेन्द्रियैः सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोशः ।
एतत्कोशत्रयं लिङ्गशरीरम् ।
स्वरूपाज्ञानमानन्दमयकोशः । तत्कारणशरीरम् ॥
अथ ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं कर्मेन्द्रियपञ्चकं
प्राणादिपञ्चकं वियदादिपञ्चकमन्तःकरणचतुष्टयं
कामकर्मतमांस्यष्टपुरम् ॥
इशाज्ञया विराजो व्यष्टिदेहं प्रविश्य बुद्धिमधिष्ठाय
विश्वत्वमगमत् । विज्ञानात्मा चिदाभासो विश्वो व्यावहारिको
जाग्रत्स्थूलदेहाभिमानी कर्मभूरिति च विश्वस्य नाम
भवति । ईशाज्ञया सूत्रात्मा व्यष्टिसूक्ष्मशरीरं
प्रविश्य मन अधिष्ठाय तैजसत्वमगमत् । तैजसः
प्रातिभासिकः स्वप्नकल्पित इति तैजसस्य नाम भवति ।
ईशाज्ञया मायोपाधिरव्यक्तसमन्वितो व्यष्टिकारणशरीरं
प्रविश्य प्राज्ञत्वमगमत् । प्राज्ञोविच्छिन्नः पारमार्थिकः
सुषुप्त्यभिमानीति प्राज्ञस्य नाम भवति ।
अव्यक्तलेशाज्ञानाच्छादितपारमार्थिकजीवस्य
तत्त्वमस्यादिवाक्यानि ब्रह्मणैकतां जगुः
नेतरयोर्व्यावहारिकप्रातिभासिकयोः ।
अन्तःकरणप्रतिबिम्बितचैतन्यं यत्तदेवावस्थात्रयभाग्भवति
। स जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थाः प्राप्य घटीयन्त्रवदुद्विग्नो
जातो मृत इव स्थितो भवति । अथ
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिमूर्च्छामरणाद्यवस्थाः पञ्च भवन्ति
॥
तत्तद्देवताग्रहान्वितैः श्रोत्रादिज्ञानेन्द्रियैः
शब्द्याद्यर्थविषयग्रहणज्ञानं जाग्रदवस्था भवति ।
तत्र भ्रूमध्यं गतो जीव आपादमस्तकं व्याप्य
कृषिश्रवणाद्यखिलक्रियाकर्ता भवति । तत्तत्फलभुक् च
भवति । लोकान्तरगतः कर्मार्जितफलं स एव भुङ्क्ते । स
सार्वभौमवद्व्यवहाराच्छ्रान्त अन्तर्भवनं प्रवेष्टुं
मार्गमाश्रित्य तिष्ठति । करणोपरमे
जाग्रत्संस्कारोत्थप्रबोधवद्ग्राह्यग्राहकरूपस्फुरणं
स्वप्नावस्था भवति । तत्र विश्व एव
जाग्रद्व्यवहारलोपान्नाडीमध्यं चरंस्तैजसत्वमवाप्य
वासनारूपकं जगद्वैचित्र्यं स्वभासा भासयन्यथेप्सितं
स्वयं भुङ्क्ते ॥
चित्तैककरणा सुषुप्त्यवस्था भवति ।
भ्रमविश्रान्तशकुनिः पक्षौ संहृत्य नीडाभिमुखं यथा
गच्छति तथा जीवोऽपि जाग्रत्स्वप्नप्रपञ्चे व्यवहृत्य
श्रान्तोऽज्ञानं प्रविश्य स्वानन्दं भुङ्क्ते ॥
अकस्मान्मुद्गरदण्डाद्यैस्ताडितवद्भयाज्ञानाभ्यामिन्द्रियसङ्घ्
आतैः कम्पन्निव मृततुल्या मूर्च्छा भवति ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिमूर्च्छावस्थानामन्या
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं सर्वजीवभयप्रदा स्थूलदेहविसर्जनी
मरणावस्था भवति । कर्मेन्द्रियाणि ज्ञानेन्द्रियाणि
तत्तद्विषयान्प्राणान्संहृत्य कामकर्मान्वित
अविद्याभूतवेष्टितो जीवो देहान्तरं प्राप्य लोकान्तरं
गच्छति । प्राक्कर्मफलपाकेनावर्तान्तरकीटवद्विश्रान्तिं
नैव गच्छति । सत्कर्मपरिपाकतो बहूनां जन्मनामन्ते
नृणां मोक्षेच्छा जायते । तदा सद्गुरुमाश्रित्य
चिरकालसेवया बन्धं मोक्षं कश्चित्प्रयाति । अविचारकृतो
बन्धो विचारान्मोक्षो भवति । तस्मात्सदा विचारयेत् ।
अध्यारोपापवादतः स्वरूपं निश्चयीकर्तुं शक्यते ।
तस्मात्सदा विचारयेज्जगज्जीवपरमात्मनो
जीवभावजगद्भावबाधे प्रत्यगभिन्नं ब्रह्मैवावशिष्यत
इति ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
अथ हैनं पैङ्गलः प्रपच्छ याज्ञवल्क्यं
महावाक्यविवरणमनुब्रूहीति । स होवाच
याज्ञवल्क्यस्तत्त्वमसि त्वं तदसि त्वं ब्रह्मास्यहं
ब्रह्मास्मीत्यनुसन्धानं कुर्यात् । तत्र पारोक्ष्यशबलः
सर्वज्ञत्वादिलक्षणो मायोपाधिः सच्चिदानन्दलक्षणो
जगद्योनिस्तत्पदवाच्यो भवति । स
एवान्तःकरणसम्भिन्नबोधोऽस्मत्प्रत्ययावलम्बनस्त्वम्पदवाच्यो
भवति । परजीवोपाधिमायाविद्ये विहाय तत्त्वंपदलक्ष्यं
प्रत्यगभिन्नं ब्रह्म । तत्त्वमसीत्यहं ब्रह्मास्मीति
वाक्यार्थविचारः श्रवणं भवति । एकान्तेन
श्रवणार्थानुसन्धानं मननं भवति ।
श्रवणमनननिर्विचिकित्सेऽर्थे वस्तुन्येकतानवत्तया
चेतःस्थापनं निदिध्यासनं भवति । ध्यातृध्याने विहाय
निवातस्थितदीपवद्ध्येयैकगोचरं चित्तं समाधिर्भवति ।
तदानीमात्मगोचरा वृत्तयः समुत्थिता अज्ञाता भवन्ति ।
ताः स्मरणादनुमीयन्ते । इहानादिसंसारे सञ्चिताः
कर्मकोटयोऽनेनैव विलयं यान्ति ।
ततोभ्यासपाटवात्सहस्रशः सदामृतधारा वर्षति । ततो
योगवित्तमाः समाधिं धर्ममेघं प्राहुः । वासनाजाले
निःशेषममुना प्रविलापिते कर्मसञ्चये पुण्यपापे
समूलोन्मूलिते प्राक्परोक्षमपि
करतलामलकवद्वाक्यमप्रतिबद्धापरोक्षसाक्षात्कारं
प्रसूयते । तदा जीवन्मुक्तो भवति ॥
ईशः पञ्चीकृतभूतानामपञ्चीकरणं कर्तुं
सोऽकामयत । ब्रह्माण्डतद्गतलोकान्कार्यरूपांश्च
कारणत्वं प्रापयित्वा ततः सूक्ष्माङ्गं कर्मेन्द्रियाणि
प्राणांश्च ज्ञानेन्द्रियाण्यन्तःकरणचतुष्टयं
चैकीकृत्य सर्वाणि भौतिकानि कारणे भूतपञ्चके संयोज्य
भूमिं जले जलं वह्नौ वह्निं वायौ वायुमाकाशे
चाकाशमहङ्कारे चाहङ्कारं महति महदव्यक्तेऽव्यक्तं
पुरुषे क्रमेण विलीयते । विराद्ड्ढिरण्यगर्भेश्वरा
उपाधिविलयात्परमात्मनि लीयन्ते ।
पञ्चीकृतमहाभूतसम्भवकर्मसञ्चितस्थूलदेहः
कर्मक्षयात्सत्कर्मपरिपाकतोऽपञ्चीकरणं प्राप्य
सूक्ष्मेणैकीभूत्वा कारणरूपत्वमासाद्य तत्कारणं
कूटस्थे प्रत्यगात्मनि विलीयते । विश्वतैजसप्राज्ञाः
स्वस्वोपाधिलयात्प्रत्यगात्मनि लीयन्ते । अण्डं ज्ञानाग्निना
दग्धं कारणैः सह परमात्मनि लीनं भवति । ततो ब्राह्मणः
समाहितो भूत्वा तत्त्वंपदैक्यमेव सदा कुर्यात् । ततो
मेघापायेंऽशुमानिवात्माविर्भवति । ध्यात्वा
मध्यस्थमात्मानं कलशान्तरदीपवत् ।
अङ्गुष्ठमात्रमात्मानमधूमज्योतिरूपकम् ॥ १॥
प्रकाशयन्तमन्तःस्थं ध्यायेत्कूटस्थमव्ययम् ।
ध्यायन्नास्ते मुनिश्चैव चासुप्तेरामृतेस्तु यः ॥ २॥
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयः स धन्यः कृतकृत्यवान् ।
जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते ।
विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ३॥
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथा रसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
तदेव शिष्यत्यमलं निरामयम् ॥ ४॥ इति ॥ इति
तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
अथ हैनं पैङ्गलः प्रपच्छ याज्ञवल्क्यं ज्ञानिनः किं
कर्म का च स्थितिरिति । स होवाच याज्ञवल्क्यः ।
अमानित्वादिसम्पन्नो मुमुक्षुरेकविंशतिकुलं तारयति ।
ब्रह्मविन्मात्रेण कुलमेकोत्तरशतं तारयति ।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च । बुद्धिं तु
सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ १॥
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । जङ्गमानि
विमानानि हृदयानि मनीषिणः ॥ २॥
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्महर्षयः । ततो नारायणः
साक्षाद्धृदये सुप्रतिष्ठितः ॥ ३॥
प्रारब्धकर्मपर्यन्तमहिनिर्मोकवद्व्यवहरति ।
चन्द्रवच्चरते देही स मुक्तश्चानिकेतनः ॥ ४॥
तीर्थे श्वपचगृहे वा तनुं विहाय याति कैवल्यम् ।
प्राणानवकीर्य याति कैवल्यम् ॥
तं पश्चाद्दिग्बलिं कुर्यादथवा खननं चरेत् । पुंसः
प्रव्रजनं प्रोक्तं नेतराय कदाचन ॥ ५॥
नाशौचं नाग्निकार्यं च न पिण्डं नोदकक्रिया । न
कुर्यात्पार्वणादीनि ब्रह्मभूताय भिक्षवे ॥ ६॥
दग्धस्य दहनं नास्ति पक्वस्य पचनं यथा ।
ज्ञानाग्निदग्धदेहस्य न च श्राद्धं न च क्रिया ॥ ७॥
यावच्चोपाधिपर्यन्तं तावच्छुश्रूषयेद्गुरुम् ।
गुरुवद्गुरुभार्यायां तत्पुत्रेषु च वर्तनम् ॥ ८॥
शुद्धमानसः शुद्धचिद्रूपः सहिष्णुः सोऽहमस्मि सहिष्णुः
सोऽहमस्मीति प्राप्ते ज्ञानेन विज्ञाने ज्ञेये परमात्मनि हृदि
संस्थिते देहे लब्धशान्तिपदं गते तदा
प्रभामनोबुद्धिशून्यं भवति । अमृतेन तृप्तस्य पयसा किं
प्रयोजनम् । एवं स्वात्मानं ज्ञात्वा वेदैः प्रयोजनं किं
भवति । ज्ञानामृततृप्तयोगिनो न किञ्चित्कर्तव्यमस्ति
तदस्ति चेन्न स तत्त्वविद्भवति । दूरस्थोऽपि न दूरस्थः
पिण्डवर्जितः पिण्डस्थोऽपि प्रत्यगात्मा सर्वव्यापी भवति ।
हृदयं निर्मलं कृत्वा चिन्तयित्वाप्यनामयम् । अहमेव
परं सर्वमिति पश्येत्परं सुखम् ॥ ९॥
यथा जले जलं क्षिप्तं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम् ।
अविशेषो भवेत्त्द्वज्जिवात्मपरमात्मनोः ॥ १०॥
देहे ज्ञानेन दीपिते बुद्धिरखण्डाकाररूपा यदा भवति
तदा विद्वान्ब्रह्मज्ञानाग्निना कर्मबन्धं निर्दहेत् । ततः
पवित्रं परमेश्वराख्यमद्वैतरूपं विमलाम्बराभम् ।
यथोदके तोयमनुप्रविष्टं तथात्मरूपो निरुपाधिसंस्थितः
॥ ११॥
आकाशवत्सूक्ष्मशरीर आत्मा न दृश्यते वायुवदन्तरात्मा ।
स बाह्यमभ्यन्तरनिश्चलात्मा ज्ञानोल्कयापश्यति
चान्तरात्मा ॥ १२॥
यत्रयत्र मृतो ज्ञानी येन वा केन मृत्युना । यथा
सर्वगतं व्योम तत्रतत्र लयं गतः ॥ १३॥
घटाकाशमिवात्मानं विलयं वेत्ति तत्त्वतः । स गच्छति
निरालम्बं ज्ञानालोकं समन्ततः ॥ १४॥
तपेद्वर्षसहस्राणि एकपादस्थितो नरः । एतस्य ध्यानयोगस्य
कलां नार्हति षोडशीम् ॥ १५॥
इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयं तत्सर्वं ज्ञातुमिच्छति । । अपि
वर्षसहस्रायुः शास्त्रान्तं नाधिगच्छति ॥ १६॥
विज्ञेयोऽक्षरतन्मात्रो जीवितं वापि चञ्चलम् । विहाय
शास्त्रजालानि यत्सत्यं तदुपासताम् ॥ १७॥
अनन्तकर्मशौचं च जपो यज्ञस्तथैव च ।
तीर्थयात्राभिगमनं यावत्तत्त्वं न विन्दति ॥ १८॥
अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् । द्वे पदे
बन्धमोक्षाय न ममेति ममेति च ॥ १९॥
ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते । मनसो ह्युन्मनी भावे
द्वैतं नैवोपलभ्यते ॥ २०॥
यदा यात्युन्मनीभावस्तदा तत्परमं पदम् । यत्रयत्र मनो
याति तत्रतत्र परं पदम् ॥ २१॥
तत्रतत्र परं ब्रह्म सर्वत्र समवस्थितम् ।
हन्यान्मुष्टिभिराकाशं क्षुधार्तः खण्डयेत्तुषम् ॥ २२॥
नाहं ब्रह्मेति जानाति तस्य मुक्तिर्न जायते । य
एतदुपनिषदं नित्यमधीते सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो
भवति । स आदित्यपूतो भवति । स ब्रह्मपूतो भवति । स
विष्णुपूतो भवति । स रुद्रपूतो भवति । स सर्वेषु
तीर्थेषु स्नातो भवति । स सर्वेषु वेदेष्वधीतो भवति ।
स सर्ववेदव्रतचर्यासु चरितो भवति । तेनेतिहासपुराणानां
रुद्राणां शतसहस्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति ।
प्रणवानामयुतं जप्तं भवति । दश
पूर्वान्दशोत्तरान्पुनाति । स पङ्क्तिपावनो भवति । स
महान्भवति ।
ब्रह्महत्यासुरापानस्वर्णस्तेयगुरुतल्पगमनतत्संयोगिपातकेभ्य
ः पूतो भवति । तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः
। दिवीव चक्षुराततम् ॥ तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः
समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥ ॐ सत्यमित्युपनिषत्
॥
ॐ पूर्णामद इति शान्तिः ॥
इति पैङ्गलोपनिष्त्समाप्ता ॥
प्रश्नोपनिषत्
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
प्रथमः प्रश्नः ।
ॐ सुकेशा च भारद्वाजः शैब्यश्च सत्यकामः सौर्यायणी च गार्ग्यः
कौसल्यश्चाश्वलायनो भार्गवो वैदर्भिः कबन्धी कात्यायनस्ते हैते
ब्रह्मपरा ब्रह्मनिष्ठाः परं ब्रह्मान्वेषमाणा एष ह वै तत्सर्वं
वक्ष्यतीति ते ह समित्पाणयो भगवन्तं पिप्पलादमुपसन्नाः ॥ १.१॥
तान्ह स ऋषिरुवाच भूय एव तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया
संवत्सरं संवत्स्यथ यथाकामं प्रश्नान् पृच्छत यदि
विज्ञास्यामः सर्वं ह वो वक्ष्याम इति ॥ १.२॥
अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य पप्रच्छ ।
भगवन् कुते ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति ॥ १.३॥
तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः स तपोऽतप्यत
स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते । रयिं च प्राणं
चेत्येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति ॥ १.४॥
आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमा रयिर्वा एतत्
सर्वं यन्मूर्तं चामूर्तं च तस्मान्मूर्तिरेव रयिः ॥ १.५॥
अथादित्य उदयन्यत्प्राचीं दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणान्
रश्मिषु सन्निधत्ते । यद्दक्षिणां यत् प्रतीचीं यदुदीचीं यदधो
यदूर्ध्वं यदन्तरा दिशो यत् सर्वं प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान्
रश्मिषु सन्निधत्ते ॥ १.६॥
स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्राणोऽग्निरुदयते ।
तदेतदृचाऽभ्युक्तम् ॥ १.७॥
विश्वरूपं हरिणं जातवेदसं
परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम् ।
सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः
प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ॥ १.८॥
संवत्सरो वै प्रजापतिस्तस्यायने दक्षिणं चोत्तरं च ।
तद्ये ह वै तदिष्टापूर्ते कृतमित्युपासते ते चान्द्रमसमेव
लोकमभिजयन्ते । त एव पुनरावर्तन्ते तस्मादेत ऋषयः
प्रजाकामा दक्षिणं प्रतिपद्यन्ते । एष ह वै रयिर्यः
पितृयाणः ॥ १.९॥
अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया
विद्ययाऽऽत्मानमन्विष्यादित्यमभिजयन्ते । एतद्वै
प्राणानामायतनमेतदमृतमभयमेतत् परायणमेतस्मान्न पुनरावर्तन्त
इत्येष निरोधस्तदेष श्लोकः ॥ १.१०॥
पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिं
दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम् ।
अथेमे अन्य उ परे विचक्षणं
सप्तचक्रे षडर आहुरर्पितमिति ॥ १.११॥
मासो वै प्रजापतिस्तस्य कृष्णपक्ष एव रयिः शुक्लः प्रणस्तस्मादेत
ऋषयः शुक्ल इष्टं कुर्वन्तीतर इतरस्मिन् ॥ १.१२॥
अहोरात्रो वै प्रजापतिस्तस्याहरेव प्राणो रात्रिरेव रयिः प्राणं वा एते
प्रस्कन्दन्ति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते ब्रह्मचर्यमेव तद्यद्रात्रौ
रत्या संयुज्यन्ते ॥ १.१३॥
अन्नं वै प्रजापतिस्ततो ह वै तद्रेतस्तस्मादिमाः प्रजाः
प्रजायन्त इति ॥ १.१४॥
तद्ये ह वै तत् प्रजापतिव्रतं चरन्ति ते मिथुनमुत्पादयन्ते ।
तेषामेवैष ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्यं येषु सत्यं
प्रतिष्ठितम् ॥ १.१५॥
तेषामसौ विरजो ब्रह्मलोको न येषु जिह्ममनृतं न
माया चेति ॥ १.१६॥
इति प्रश्नोपनिषदि प्रथमः प्रश्नः ॥
द्वितीयः प्रश्नः ।
अथ हैनं भार्गवो वैदर्भिः पप्रच्छ । भगवन् कत्येव
देवाः प्रजां विधारयन्ते कतर एतत् प्रकाशयन्ते कः
पुनरेषां वरिष्ठ इति ॥ २.१॥
तस्मै स होवाचाकाशो ह वा एष देवो वायुरग्निरापः
पृथिवी वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रं च । ते प्रकाश्याभिवदन्ति
वयमेतद्बाणमवष्टभ्य विधारयामः ॥ २.२॥
तान् वरिष्ठः प्राण उवाच । मा मोहमापद्यथ अहमेवैतत्
पञ्चधाऽऽत्मानं प्रविभज्यैतद्बाणमवष्टभ्य विधारयामीति
तेऽश्रद्दधाना बभूवुः ॥ २.३॥
सोऽभिमानादूर्ध्वमुत्क्रामत इव तस्मिन्नुत्क्रामत्यथेतरे सर्व
एवोत्क्रामन्ते तस्मिंश्च प्रतिष्ठमाने सर्व एव प्रतिष्ठन्ते । तद्यथा
मक्षिका मधुकरराजानमुत्क्रामन्तं सर्व एवोत्क्रमन्ते तस्मिंष्च
प्रतिष्ठमाने सर्व एव प्रातिष्टन्त एवं वाङ्मनष्चक्षुः श्रोत्रं
च ते प्रीताः प्राणं स्तुन्वन्ति ॥ २.४॥
एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य
एष पर्जन्यो मघवानेष वायुः
एष पृथिवी रयिर्देवः
सदसच्चामृतं च यत् ॥ २.५॥
अरा इव रथनाभौ प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
ऋचो यजूꣳषि सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रह्म च ॥ २.६॥
प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायसे ।
तुभ्यं प्राण प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति
यः प्राणैः प्रतितिष्ठसि ॥ २.७॥
देवानामसि वह्नितमः पितॄणां प्रथमा स्वधा ।
ऋषीणां चरितं सत्यमथर्वाङ्गिरसामसि ॥ २.८॥
इन्द्रस्त्वं प्राण तेजसा रुद्रोऽसि परिरक्षिता ।
त्वमन्तरिक्षे चरसि सूर्यस्त्वं ज्योतिषां पतिः ॥ २.९॥
यदा त्वमभिवर्षस्यथेमाः प्राण ते प्रजाः ।
आनन्दरूपास्तिष्ठन्ति कामायान्नं भविष्यतीति ॥ २.१०॥
व्रात्यस्त्वं प्राणैकर्षरत्ता विश्वस्य सत्पतिः ।
वयमाद्यस्य दातारः पिता त्वं मातरिश्व नः ॥ २.११॥
या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि ।
या च मनसि सन्तता शिवां तां कुरु मोत्क्रमीः ॥ २.१२॥
प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम् ।
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्च प्रज्ञां च विधेहि न इति ॥ २.१३॥
इति प्रश्नोपनिषदि द्वितीयः प्रश्नः ॥
तृतीयः प्रश्नः
अथ हैनं कौशल्यश्चाश्वलायनः पप्रच्छ । भगवन् कुत
एष प्राणो जायते कथमायात्यस्मिञ्शरीर आत्मानं वा
प्रविभज्य कथं प्रतिष्ठते केनोत्क्रमते कथं बाह्यमभिधत्ते
कथमध्यात्ममिति ॥ ३.१॥
तस्मै स होवाचातिप्रश्नान् पृच्छसि ब्रह्मिष्ठोऽसीति
तस्मात्तेऽहं ब्रवीमि ॥ ३.२॥
आत्मन एष प्राणो जायते । यथैषा पुरुषे
छायैतस्मिन्नेतदाततं
मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे ॥ ३.३॥
यथा सम्रादेवाधिकृतान् विनियुङ्क्ते । एतन् ग्रामानोतान्
ग्रामानधितिष्ठस्वेत्येवमेवैष प्राण इतरान् प्राणान् पृथक्
पृथगेव सन्निधत्ते ॥ ३.४॥
पायूपस्थेऽपानं चक्षुःश्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां प्राणः स्वयं
प्रातिष्ठते मध्ये तु समानः । एष ह्येतद्धुतमन्नं समं नयति
तस्मादेताः सप्तार्चिषो भवन्ति ॥ ३.५॥
हृदि ह्येष आत्मा । अत्रैतदेकशतं नाडीनां तासां शतं
शतमेकैकस्या द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखानाडीसहस्राणि
भवन्त्यासु व्यानश्चरति ॥ ३.६॥
अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन
पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम् ॥ ३.७॥
आदित्यो ह वै बाह्यः प्राण उदयत्येष ह्येनं चाक्षुषं
प्राणमनुगृह्णानः । पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्य
अपानमवष्टभ्यान्तरा यदाकाशः स समानो वायुर्व्यानः ॥ ३.८॥
तेजो ह वा उदानस्तस्मादुपशान्ततेजाः । पुनर्भवमिन्द्रियैर्मनसि
सम्पद्यमानैः ॥ ३.९॥
यच्चित्तस्तेनैष प्राणमायाति । प्राणस्तेजसा युक्तः सहात्मना
तथासङ्कल्पितं लोकं नयति ॥ ३.१०॥
य एवं विद्वान् प्राणं वेद न हास्य प्रजा हीयतेऽमृतो
भवति तदेषः श्लोकः ॥ ३.११॥
उत्पत्तिमायतिं स्थानं विभुत्वं चैव पञ्चधा ।
अध्यात्मं चैव प्राणस्य विज्ञायामृतमश्नुते
विज्ञायामृतमश्नुत इति ॥ ३.१२॥
इति प्रश्नोपनिषदि तृतीयः प्रश्नः ॥
चतुर्थः प्रश्नः ।
अथ हैनं सौर्यायणि गार्ग्यः पप्रच्छ । भगवन्नेतस्मिन् पुरुषे
कानि स्वपन्ति कान्यस्मिञ्जाग्रति कतर एष देवः स्वप्नान् पश्यति
कस्यैतत् सुखं भवति कस्मिन्नु सर्वे सम्प्रतिष्ठिता भवन्तीति ॥ ४.१॥
तस्मै स होवाच यथा गार्ग्य मरीचयोऽर्कस्यास्तं गच्छतः सर्वा
एतस्मिंस्तेजोमण्डल एकीभवन्ति ताः पुनः पुनरुदयतः प्रचरन्त्येवं
ह वै तत् सर्वं परे देवे मनस्येकीभवति तेन तर्ह्येष पुरुषो न
शृणोति न पश्यति न जिघ्रति न रसयते न स्पृशते नाभिवदते
नादत्ते नानन्दयते न विसृजते नेयायते स्वपितीत्याचक्षते ॥ ४.२॥
प्राणाग्नय एवैतस्मिन् पुरे जाग्रति । गार्हपत्यो ह वा एषोऽपानो
व्यानोऽन्वाहार्यपचनो यद्गार्हपत्यात् प्रणीयते प्रणयनादाहवनीयः
प्राणः ॥ ४.३॥
यदुच्छ्वासनिःश्वासावेतावाहुती समं नयतीति स समानः । मनो ह
वाव यजमानः । इष्टफलमेवोदानः । स एनं यजमानमहरहर्ब्रह्म
गमयति ॥ ४.४॥
अत्रैष देवः स्वप्ने महिमानमनुभवति । यद्दृष्टं
दृष्टमनुपश्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थमनुशृणोति
देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति दृष्टं
चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चाननुभूतं च
सच्चासच्च सर्वं पश्यति सर्वः पश्यति ॥ ४.५॥
स यदा तेजसाऽभिभूतो भवति । अत्रैष देवः स्वप्नान्न
पश्यत्यथ यदैतस्मिञ्शरीर एतत्सुखं भवति ॥ ४.६॥
स यथा सोभ्य वयांसि वसोवृक्षं सम्प्रतिष्ठन्ते । एवं
ह वै तत् सर्वं पर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते ॥ ४.७॥
पृथिवी च पृथिवीमात्रा चापश्चापोमात्रा च तेजश्च तेजोमात्रा च
वायुश्च वायुमात्रा चाकाशश्चाकाशमात्रा च चक्षुश्च द्रष्टव्यं
च श्रोत्रं च श्रोतव्यं च घ्राणं च घ्रातव्यं च रसश्च
रसयितव्यं च त्वक्च स्पर्शयितव्यं च वाक्च वक्तव्यं च हस्तौ
चादातव्यं चोपस्थश्चानन्दयितव्यं च पायुश्च विसर्जयितव्यं च
यादौ च गन्तव्यं च मनश्च मन्तव्यं च बुद्धिश्च बोद्धव्यं
चाहङ्कारश्चाहङ्कर्तव्यं च चित्तं च चेतयितव्यं च तेजश्च
विद्योतयितव्यं च प्राणश्च विधारयितव्यं च ॥ ४.८॥
एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता
विज्ञानात्मा पुरुषः । स परेऽक्षर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते ॥ ४.९॥
परमेवाक्षरं प्रतिपद्यते स यो ह वै तदच्छायमशरीरमलोहितं
शुभ्रमक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य । स सर्वज्ञः सर्वो भवति ।
तदेष श्लोकः ॥ ४.१०॥
विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः प्राणा भूतानि सम्प्रतिष्ठन्ति यत्र
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति ॥ ४.११॥
इति प्रश्नोपनिषदि चतुर्थः प्रश्नः ॥
पञ्चमः प्रश्नः ।
अथ हैनं शैब्यः सत्यकामः पप्रच्छ । स यो ह वै
तद्भगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तमोङ्कारमभिध्यायीत । कतमं वाव
स तेन लोकं जयतीति । तस्मै स होवाच ॥ ५.१॥
एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः ।
तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति ॥ ५.२॥
स यद्येकमात्रमभिध्यायीत स तेनैव संवेदितस्तूर्णमेव
जगत्यामभिसम्पद्यते । तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तत्र
तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया सम्पन्नो महिमानमनुभवति ॥ ५.३॥
अथ यदि द्विमात्रेण मनसि सम्पद्यते सोऽन्तरिक्षं
यजुर्भिरुन्नीयते सोमलोकम् । स सोमलोके विभुतिमनुभूय
पुनरावर्तते ॥ ५.४॥
यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभि-
ध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः । यथा पादोदरस्त्वचा विनिर्मुच्यत
एवं ह वै स पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकं
स एतस्माज्जीवघनात् परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते । तदेतौ
श्लोकौ भवतः ॥ ५.५॥
तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता
अन्योन्यसक्ताः अनविप्रयुक्ताः ।
क्रियासु बाह्याभ्यन्तरमध्यमासु
सम्यक् प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः ॥ ५.६॥
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत् तत् कवयो वेदयन्ते ।
तमोङ्कारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति ॥ ५.७॥
इति प्रश्नोपनिषदि पञ्चमः प्रश्नः ॥
षष्ठः प्रश्नः ।
अथ हैनं सुकेशा भारद्वाजः पप्रच्छ । भगवन् हिरण्यनाभः
कौसल्यो राजपुत्रो मामुपेत्यैतं प्रश्नमपृच्छत । षोडशकलं
भारद्वाज पुरुषं वेत्थ । तमहं कुमारमब्रुवं नाहमिमं वेद ।
यद्यहमिममवेदिषं कथं ते नावक्ष्यमिति । समूलो वा एष
परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति तस्मान्नार्हम्यनृतं वक्तुम् । स
तूष्णीं रथमारुह्य प्रवव्राज । तं त्वा पृच्छामि क्वासौ पुरुष
इति ॥ ६.१॥
तस्मै स होवाचेहैवान्तःशरीरे सोम्य स पुरुषो
यस्मिन्नताः षोडशकलाः प्रभवन्तीति ॥ ६.२॥
स ईक्षाचक्रे । कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि
कस्मिन्वा प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामीति ॥ ६.३॥
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं
मनः । अन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च
॥ ६.४॥
स यथेमा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं
गच्छन्ति भिद्येते तासां नामरूपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते । एवमेवास्य
परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति
भिद्येते चासां नामरूपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते स एषोऽकलोऽमृतो
भवति तदेष श्लोकः ॥ ६.५॥
अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्ठिताः ।
तं वेद्यं पुरुषं वेद यथ मा वो मृत्युः परिव्यथा इति ॥ ६.६॥
तान् होवाचैतावदेवाहमेतत् परं ब्रह्म वेद । नातः
परमस्तीति ॥ ६.७॥
ते तमर्चयन्तस्त्वं हि नः पिता योऽस्माकमविद्यायाः परं पारं
तारयसीति । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ६.८॥
इति प्रश्नोपनिषदि षष्ठः प्रश्नः ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ प्राणाग्निहोत्रोपनिषत् ॥
शरीरयज्ञसंशुद्धचित्तसंजातबोधतः ।
मुनयो यत्पदं यान्ति तद्रामपदमाश्रये ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं
करवावहै ॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथातः सर्वोपनिषत्सारं संसारज्ञानातीत-
मन्त्रसूक्तं शारीरयज्ञं व्याख्यास्यामः । यस्मिन्नेव
पुरुषः शरीरे विनाप्यग्निहोत्रेण विनापि सांख्ययोगेन
संसारविमुक्तिर्भवतीति । स्वेन विधिनान्नं भूमौ निक्षिप्य
या ओषधीः सोमराज्ञीरिति तिसृभिरन्नपत इति द्वाभ्या-
मनुमन्त्रयते । या ओषधयः सोमराज्ञीर्बह्वीः शतविचक्षणाः ।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चत्वंहसः ॥ १॥
याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः ।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चत्वंहसः ॥ २॥
जीवला नघारिषां माते बध्नामोषधिम् ।
यातयायु रुपाहरादप रक्षांसि चातयात् ॥ ३॥
अन्नपतेऽन्नस्य नो वेह्यनमीवस्य शुष्मिणः ।
प्रप्रदातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ॥ ४॥
यदन्नमग्निर्बहुधा विराद्धि
रुद्रैः प्रजग्धं यदि वा पिशाचैः ।
सर्वं तदीशानो अभयं कृणोतु
शिवमीशानाय स्वाहा ॥ ५॥
अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुखः ।
त्वं यज्ञस्त्वं ब्रह्मा त्वं रुद्रस्तवं विष्णुस्त्वं वषट्कार
आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोंनमः ।
आपः पुनन्तु पृथिवीं पृथिवी पूता पुनातु माम् ।
पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम् ।
यदुच्छिष्टमभोज्यं यद्वा दुश्चरितं मम ।
सर्वं पुनन्तु मामापोऽसतां च प्रतिग्रहं स्वाहा ।
अमृतमस्य मृतोपस्तरणमस्यमृतं प्राणे जुहोम्यमाशिष्यान्तोऽसि ।
प्राणाय स्वाहा । अपानाय स्वाहा । व्यानाय स्वाहा । उदानाय स्वाहा ।
समानाय स्वाहा । इति कनिष्ठिकाङ्गुल्याङ्गुष्ठेन च प्राणे जुहोति ।
अनामिकयापाने । मध्यमया व्याने । सर्वाभिरुदाने । प्रदेशिन्या समाने ।
तूष्णीमेकामेकऋषौ जुहोति । द्वे आहवनीये ।
एकां दक्षिणाग्नौ । एकां गार्हपत्ये । एकां सर्वप्रायश्चित्तीये ॥
अथापिधानमस्यमृतत्वायोपस्पृश्य पुनरादाय पुनरुपस्पृशेत् ।
स ते प्राणा वाऽऽपो गृहीत्वा हृदयमन्वालभ्य जपेत् ।
प्राणो अग्निः परमात्मा पञ्चवायुभिरावृतः ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो न मे भीतिः कदाचन ॥ १॥
इति प्रथमः खण्डः ॥ १॥
विश्वोऽसि वैश्वानरो विश्वरूपं त्वया धार्यते
जायमानम् । विश्वं त्वाहुतथः सर्वा यत्र
ब्रह्माऽमृतोऽसि । महानवोऽयं पुरुषो
योऽङ्गुष्ठाग्रे प्रतिष्ठितः । तमद्भिः परिषिञ्चामि
सोऽस्यान्ते अमृताय च । अनावित्येष बाह्यात्मा
ध्यायेताग्निहोत्रं जोहोमीति । सर्वेषामेव सूनुर्भवति ।
अस्य यज्ञपरिवृता आहुतीर्होमयति । स्वशरीरे यज्ञं
परिवर्तयामीति । चत्वारोऽग्नयस्ते किंभागधेयाः ।
तत्रसूर्योऽग्निर्नाम सूर्यमण्डलाकृतिः सहस्ररश्मि-
परिवृत एकऋषिर्भूत्वा मूर्धनि तिष्ठति । यस्मादुक्तो
दर्शनाग्निर्नाम चतुराकृतिराहवनीयो भूत्वा मुखे तिष्ठति ।
शारीरोग्निर्नाम जराप्रणुदा हविरवस्कन्दति । अर्धचन्द्राकृति-
र्दक्षिणाग्निर्भूत्वा हृदये तिष्ठति तत्र कोष्ठाग्निरिति ।
कोष्ठाग्निर्नामाशितपीतलीढखादितानि सम्यग्व्यष्ट्यां
श्रपयित्वा गार्हपत्यो भूत्वा नाभ्यां तिष्ठति ।
प्रायश्चित्तयस्त्वधस्तात्तिर्यक् तिस्रो हिमांशुप्रभाभिः
प्रजननकर्मा ॥
इति द्वितीयः खण्डः ॥ २॥
अस्य शरीरयज्ञस्य यूपरशनाशोभितस्य
को यजमानः । का पत्नी । के ऋत्विजः । के सदस्याः ।
कानि यज्ञपात्राणि । कानि हवींषि । का वेदिः ।
कोत्तरवेदिः । को द्रोणकलशः । को रथः । कः पशुः ।
कोऽध्वर्युः । को होता । को ब्राह्मणाच्छंसी ।
कः प्रतिप्रस्थाता । कः प्रस्तोता । को मैत्रावरुणः ।
क उद्गाता । का धारापोता । के दर्भाः । कः स्रुवः ।
काज्यस्थाली । कावाघारौ । कावाज्यभागौ । केऽत्र
याजाः । के अनुयाजाः । केडा । कः सूक्तवाकः ।
कः शंयोर्वाकः । का हिंसा । के पत्नीसंयाजाः ।
को यूपः । का रशना । का इष्टयः । का दक्षिणा ।
किमवभृतमिति ॥
इति तृतीयः खण्डः ॥ ३॥
अस्य शारीरयज्ञस्य यूपरशनाशोभितस्यात्मा यजमानः ।
बुद्धिः पत्नी । वेदा महर्त्विजः । अहङ्कारोऽध्वर्युः । चित्तं
होता । प्राणो ब्राह्मणच्छंसी । अपानः प्रतिप्रस्थाता ।
व्यानः प्रस्तोता । उदान उद्गाता । समानो मैत्रवरुणः ।
शरीरं वेदिः । नासिकोत्तरवेदिः । मूर्धा द्रोणकलशः ।
पादो रथः । दक्षिणहस्तः स्रुवः । सव्यहस्त आज्यस्थाली ।
श्रोत्रे आघारौ । चक्षुषी आज्यभागौ । ग्रीवा धारापोता ।
तन्मात्राणि सदस्याः । महाभूतानि प्रयाजाः । भूतानि
गुणा अनुयाजाः । जिह्वेडा । दन्तोष्ठौ सूक्तवाकः । तालुः
शंयोर्वाकः । स्मृतिर्दया क्षान्तिरहिंसा पत्नीसंयाजाः ।
ओङ्कारो यूपः । आशा रशना । मनो रथः । कामः पशुः ।
केशा दर्भाः । बुद्धीन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि । कर्मेन्द्रियाणि
हवींषि । अहिंसा इष्टयः । त्यागो दक्षिणा । अवभृतं
मरणात् । सर्वा ह्यस्मिन्देवताः शरीरेऽधिसमाहिताः ।
वाराणस्यां मृतो वापि इदं वा ब्रह्म यः पठेत् । एकेन
जन्मना जन्तुर्मोक्षं च प्राप्नुयादिति मोक्षं च
प्राप्नुयादित्युपनिषत् ॥ ३॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति प्राणाग्निहोत्रोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ बह्वृचोपनिषत् ॥
॥ अथ बह्वृचोपनिषत्॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् ।
अवतु वक्तारम् । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
बह्वृचाख्यब्रह्मविद्यामहाखण्डार्थवैभवम् ।
अखण्डानन्दसाम्राज्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
हरिः ॐ ॥
देवी ह्येकाग्र एवासीत् । सैव जगदण्डमसृजत् ।
कामकलेति विज्ञायते । शृंगारकलेति विज्ञायते ॥ १॥
तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत् । विष्णुरजीजनत् ।
रुद्रोऽजीजनत् । सर्वे मरुद्गणा अजीजनत् ।
गन्धर्वाप्सरसः किन्नरा वादित्रवादिनः समन्तादजीजनत् ।
भोग्यमजीजनत्। सर्वमजीजनत् । सर्वं शाक्तमजीजनत् ।
अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जं जरायुजम् यत्किंचैतत् प्राणि
स्थावरजंगमं मनुष्यमजीजनत् ॥ २॥
सैषा परा शक्तिः । सैषा शांभवीविद्या
कादिविद्येति वा हादिविद्येति वा सादिविद्येति वा ।
रहस्यमोमों वाचि प्रतिष्ठा ॥ ३॥
सैव पुरत्रयं शरीरत्रयं व्याप्य बहिरन्तरवभासयन्ती
देशकालवस्त्वन्तरसंगान्महात्रिपुरसुन्दरी वै प्रत्यक्चितिः ॥
४॥
सैवात्मा ततोऽन्यमसत्यमनात्मा । अत एषा
ब्रह्मासंवित्तिर्भावभावकलाविनिर्मुक्ता
चिद्विद्याऽद्वितीयब्रह्मसंवित्तिः सच्चिदानन्दलहरी
महात्रिपुरसुन्दरी बहिरन्तरनुप्रविश्य स्वयमेकैव विभाति ।
यदस्ति सन्मात्रम् । यद्विभाति चिन्मात्रम् ।
यत्प्रियमानन्दं तदेतत् पूर्वाकारा महात्रिपुरसुन्दरी ।
त्वं चाहं च सर्वं विश्वं सर्वदेवता इतरत्
सर्वं महात्रिपुरसुन्दरी । सत्यमेकं ललिताख्यं वस्तु
तदद्वितीयमखण्डार्थं परं ब्रह्म ॥ ५॥
पञ्चरूपपरित्यागा दर्वरूपप्रहाणतः ।
अधिष्ठानं परं तत्त्वमेकं सच्छिष्यते महत् ॥ इति ॥ ६॥
प्रज्ञानं ब्रह्मेति वा अहं ब्रह्मास्मीति वा भाष्यते ।
तत्त्वमसीत्येव संभाष्यते ।
अयमात्मा ब्रह्मेति वा ब्रह्मैवाहमस्मीति वा ॥ ७॥
योऽहमस्मीति वा सोहमस्मीति वा योऽसौ सोऽहमस्मीति वा
या भाव्यते सैषा षोडशी श्रीविद्या पञ्चदशाक्षरी
श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी बालांबिकेति बगलेति वा मातंगीति
स्वयंवरकल्याणीति भुवनेश्वरीति चामुण्डेति चण्डेति
वाराहीति तिरस्करिणीति राजमातंगीति वा शुकश्यामलेति वा
लघुश्यामलेति वा अश्वारूढेति वा प्रत्यंगिरा धूमावती
सावित्री गायत्री सरस्वती ब्रह्मानन्दकलेति ॥ ८॥
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् । यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तन्न वेद किं ऋचा करिष्यति।
य इत्तद्विदुस्त इमे समासते। इत्युपनिषत् ॥ ९॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।
आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् ।
अवतु वक्तारम् । अवतु वक्तारम् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति बह्वृचोपनिषत् ॥
॥ बृहज्जाबालोपनिषत् ॥
यज्ज्ञानाग्निः स्वातिरिक्तभ्रमं भस्म करोति तत् ।
बृहज्जाबालनिगमशिरोवेद्यमहं महः ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं
यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ आपो वा इदमसत्सलिलमेव । स प्रजापतिरेकः पुष्करपर्णे
समभवत् ।
तस्यान्तर्मनसि कामः समवर्तत इदं सृजेयमिति ।
तस्माद्यत्पुरुषो
मनसाभिगच्छति । तद्वाचा वदति । तत्कर्मणा करोति ।
तदेषाभ्यनूक्ता ।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि । मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् । हृदि प्रतीष्या कवयो
मनीषेति ।
उपैनं तदुपनमति । यत्कामो भवति । य एवं वेद । स
तपोऽतप्यत ।
स तपस्तप्त्वा । स एतं भुसुण्डः कालाग्निरुद्रमगमदागत्य भो
विभूतेर्माहात्म्यं ब्रूहीति तथेति प्रत्यवोचद्भुसुण्डं
वक्ष्यमाणं किमिति
विभूतिरुद्राक्षयोर्माहात्म्यं बभाणेति आदावेव पैप्पलादेन
सहोक्तमिति
तत्फलश्रुतिरिति तस्योर्ध्वं किं वदामेति ।
बृहज्जाबालाभिधां मुक्तिश्रुतिं
ममोपदेशं कुरुष्वेति । ॐ तदेति । सद्योजातात्पृथिवी ।
तस्याः स्यान्निवृत्तिः ।
तस्याः कपिलवर्णानन्दा । तद्गोमयेन विभूतिर्जाता ।
वामदेवादुदकम् ।
तस्मात्प्रतिष्ठा । तस्याः कृष्णवर्णाभद्रा । तद्गोमयेन
भसितं जातम् ।
अघोराद्वह्निः । तस्माद्विद्या । तस्या रक्तवर्णा सुरभिः ।
तद्गोमयेन भस्म जातम् ।
तत्पुरुषाद्वायुः । तस्माच्छान्तिः । तस्याः श्वेतवर्णा
सुशीला । तस्या
गोमयेन क्षारं जातम् । ईशानादाकाशम् ।
तस्माच्छान्त्यतीता ।
तस्याश्चित्रवर्णा सुमनाः । तद्गोमयेन रक्षा जाता ।
विभूतिर्भसितं भस्म
क्षारं रक्षेति भस्मनो भवन्ति पञ्च नामानि ।
पञ्चभिर्नामभिर्भृशमैश्वर्यकारणाद्भूतिः । भस्म
सर्वाघभक्षणात् ।
भासनाद्भसितम् । क्षारणदापदां क्षारम् ।
भूतप्रेतपिशाचब्रह्मराक्षसापस्मारभवभीतिभ्योऽभिरक्षण
अद्रक्षेति ॥
प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ १॥
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रमग्नीषोमात्मकं भस्मस्नानविधिं
पप्रच्छ ।
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकं भस्म सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो
बहिश्च ॥
अग्नीषोमात्मकं विश्वमित्यग्निराचक्षते ।
रौद्री घोरा या तैजसी तनूः । सोमः शक्त्यमृतमयः
शक्तिकरी तनूः ।
अमृतं यत्प्रतिष्ठा सा तेजोविद्याकला स्वयम् ।
स्थूलसूक्ष्मेषु भूतेषु स एव रसतेजसी ॥ १॥
द्विविधा तेजसो वृत्तिः सूर्यात्मा चानलात्मिका ।
तथैव रसशक्तिश्च सोमात्मा चानलात्मिका ॥ २॥
वैद्युदादिमयं तेजो मधुरादिमयो रसः ।
तेजोरसविभेदैस्तु वृत्तमेतच्चराचरम् ॥ ३॥
अग्नेरमृतनिष्पत्तिरमृतेनाग्निरेधते ।
अत एव हविः क्लृप्तमग्नीषोमात्मकं जगत् ॥ ४॥
ऊर्ध्वशक्तिमयं सोम अधोशक्तिमयोऽनलः ।
ताभ्यां सम्पुटितस्तस्माच्छश्वद्विश्वमिदं जगत् ॥ ५॥
अग्नेरूर्ध्वं भवत्येषा यावत्सौम्यं परामृतम् ।
यावदग्न्यात्मकं सौम्यममृतं विसृत्यधः ॥ ६॥
अत एव हि कालाग्निरधस्ताच्छक्तिरूर्ध्वगा ।
यावदादहनश्चोर्ध्वमधस्तात्पावनं भवेत् ॥ ७॥
आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयमूर्ध्वगः ।
तथैव निम्नगः सोमः शिवशक्तिपदास्पदः ॥ ८॥
शिवश्चोर्ध्वमयः शक्तिरूर्ध्वशक्तिमयः शिवः ।
तदित्थं शिवशक्तिभ्यां नाव्याप्तमिह किंचन ॥ ९॥
असकृच्चाग्निना दग्धं जगत्तद्भस्मसात्कृतम् ।
अग्नेर्वीर्यमिदं प्राहुस्तद्वीर्यं भस्म यत्ततः ॥ १०॥
यश्चेत्थं भस्मसद्भावं ज्ञात्वाभिस्नाति भस्मना ।
अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैर्दग्धपापः स उच्यते ॥ ११॥
अग्नेर्वीर्यं च तद्भस्म सोमेनाप्लावितं पुनः ।
अयोगयुक्त्या प्रकृतेरधिकाराय कल्पते ॥ १२॥
योगयुक्त्या तु तद्भस्म प्लाव्यमानं समन्ततः ।
शाक्तेनामृतवर्षेण ह्यधिकारान्निवर्तते ॥ १३॥
अतो मृत्युञ्जयायेत्थममृतप्लावनं सताम् ।
शिवशक्त्यमृतस्पर्शे लब्ध एव कुतो मृतिः ॥ १४॥
यो वेद गहनं गुह्यं पावनं च तथोदितम् ।
अग्नीषोमपुटं कृत्वा न स भूयोऽभिजायते ॥ १५॥
शिवाग्निना तनुं दग्ध्वा शक्तिसोमामृतेन यः ।
प्लावयेद्योगमार्गेण सोऽमृतत्वाय कल्पते सोऽमृत्वाय कल्पत
इति ॥ १६॥
द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ २॥
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रं विभूतियोगमनुब्रूहीति होवाच
विकटाङ्गामुन्मत्तां महाखलां मलिनामशिवादिचिह्नान्वितां
पुनर्धेनुं कृशाङ्गां वत्सहीनामशान्तामदुघ्धदोहिनीं
निरिन्द्रियां जग्धतृणां केशचेलास्थिभक्षिणीं सन्धिनीं
नवप्रसूतां रोगार्तां गां विहाय
प्रशस्तगोमयमाहरेद्गोमयं स्वस्थं ग्राह्यं शुभे स्थाने वा
पतितमपरित्यज्यात ऊर्ध्वं मर्दयेद्गव्येन गोमयग्रहणं कपिला
वा धवला वा अलाभे तदन्या गौः स्याद्दोषवर्जिता
कपिलागोर्भस्मोक्तं लब्धं गोभस्म नो चेदन्यगोक्षारं यत्र
क्वापि स्थितं च यत्तन्न हि धार्यं संस्कारसहितं
धार्यम् ।
तत्रैते श्लोका भवन्ति ।
विद्याशक्तिः समस्तानां शक्तिरित्यभिधीयते ।
गुणत्रयाश्रया विद्या सा विद्या च तदाश्रया ॥ १॥
गुणत्रयमिदं धेनुर्विद्याभूद्गोमयं शुभम् ।
मूत्रं चोपनिषत्प्रोक्तं कुर्याद्भस्म ततः परम् ॥
वत्सस्तु स्मृतयश्चास्य तत्सम्भूतं तु गोमयम् ।
आगाव इति मन्त्रेण धेनुं तत्राभिमन्त्रयेत् ॥ ३॥
गावो भग गावो इति प्राशयेत्तर्पणं जलम् ।
उपोष्य च चतुर्दश्यां शुक्ले कृष्णेऽथवा व्रती ॥ ४॥
परेद्युः प्रातरुत्थाय शुचिर्भूत्वा समाहितः ।
कृतस्नानो धौतवस्त्रः पयोर्धं च सृजेच्च गाम् ॥ ५॥
उत्थाप्य गां प्रयत्नेन गायत्र्या मूत्रमाहरेत् ।
सौवर्णे राजते ताम्रे धारयेन्मृण्मये घटे ॥ ६॥
पौष्करेऽथ पलाशे वा पात्रे गोशृङ्ग एव वा ।
आदधीत हि गोमूत्रं गन्धद्वारेति गोमयम् ॥ ७॥
अभूमिपातं गृह्णीयात्पात्रे पूर्वोदिते गृही ।
गोमयं शोधयेद्विद्वान्श्रीर्मे भजतुमन्त्रतः ॥ ८॥
अलक्ष्मीर्म इति मन्त्रेण गोमयं धान्यवर्जितम् ।
संत्वासिंचामि मन्त्रेण गोमये क्षिपेत् ॥ ९॥
पञ्चानां त्विति मन्त्रेण पिण्डानां च चतुर्दश ।
कुर्यात्संशोध्य किरणैः सौरकैराहरेत्ततः ॥ १०॥
निदध्यादथ पूर्वोक्तपात्रे गोमयपिण्डकान् ।
स्वगृह्योक्तविधानेन प्रतिष्ठाप्याग्निमीजयेत् ॥ ११॥
पिण्डांश्च निक्षिपेत्तत्र आद्यन्तं प्रणवेन तु ।
षडक्षरस्य सूक्तस्य व्याकृतस्य तथाक्षरैः ॥ १२॥
स्वाहान्ते जुहुयात्तत्र वर्णदेवाय पिण्डकान् ।
आघारावाज्यभागौ च प्रक्षिपेद्व्याहृतीः सुधीः ॥ १३॥
ततो निधनपतये त्रयोविंशज्जुहोति च ।
होतव्याः पञ्च ब्रह्माणि नमो हिरण्यबाहवे ॥ १४॥
इति सर्वाहुतिर्हुत्वा चतुर्थ्यन्तैश्च मन्त्रकैः ।
ऋतंसत्यं कद्रुद्राय यस्य वकङ्कतीति च ॥ १५॥
एतैश्च जुहुयाद्विद्वाननाज्ञातत्रयं तथा ।
व्याहृतीरथ हुत्वा च ततः स्विष्टकृतं हुनेत् ॥ १६॥
होमशेषं तु निर्वर्त्य पूर्णपात्रोदकं तथा ।
पूर्णमसीति यजुषा जलेनान्येन बृंहयेत् ॥ १७॥
ब्राह्मणेष्वमृतमिति तज्जलं शिरसि क्षिपेत् ।
प्राच्यामिति दिशां लिङ्गैर्दिक्षु तोयं विनिक्षिपेत् ॥ १८॥
ब्रह्मणे दक्षिणां दत्त्वा शान्त्यै पुलकमाहरेत् ।
आहरिष्यामि देवानां सर्वेषां कर्मगुप्तये ॥ १९॥
जातवेदसमेनं त्वां पुलकैश्छादयाम्यहम् ।
मन्त्रेणानेन तं वह्निं पुलकैश्छादयेत्ततः ॥ २०॥
त्रिदिनं ज्वलनस्थित्यै छादनं पुलकैः स्मृतम् ।
ब्राह्मणान्भोजयेद्भक्त्या स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः ॥ २१॥
भस्माधिक्यमभीप्सुस्तु अधिकं गोमयं हरेत् ।
दिनत्रयेण यदि वा एकस्मिन्दिवसेऽथवा ॥ २२॥
तृतीये वा चतुर्थे वा प्रातः स्नात्वा सिताम्बरः ।
शुक्लयज्ञोपवीती च शुक्लमाल्यानुलेपनः ॥ २३॥
शुक्लदन्तो भस्मदिग्धो मन्त्रेणानेन मन्त्रवित् ।
ॐ तद्ब्रह्मेति चोच्चार्य पौलकं भस्म संत्यजेत् ॥ २४॥
तत्र चावाहनमुखानुपचारांस्तु षोडश ।
कुर्याद्व्याहृतिभिस्त्वेवं ततोऽग्निमुपसंहरेत् ॥ २५॥
अग्निर्भस्मेति मन्त्रेण गृह्णीयाद्भस्म चोत्तरम् ।
अग्निरित्यादिमन्त्रेण प्रमृज्य च ततः परम् ॥ २६॥
संयोज्य गन्धसलिलैः कपिलामूत्रकेण वा ।
चन्द्रकुङ्कुमकाश्मीरमुशिरं चन्दनं तथा ॥ २७॥
अगरुत्रितयं चैव चूर्णयित्वा तु सूक्ष्मतः ।
क्षिपेद्भस्मनि तच्चूर्णमोमिति ब्रह्ममन्त्रतः ॥ २८॥
प्रणवेनाहरेद्विद्वान्बृहतो वटकानथ ।
अणोरणीयनिति हि मन्त्रेण च विचक्षणः ॥ २९॥
इत्थं भस्म सुसम्पाद्य शुष्कमादय मन्त्रवित् ।
प्रणवेन विमृज्याथ सप्तप्रणवमन्त्रितम् ॥ ३०॥
ईशानेति शिरोदेशे मुखं तत्पुरुषेण तु ।
उरुदेशमघोरेण गुह्यं वामेन मन्त्रयेत् ॥ ३१॥
सद्योजातेन वै पादान्सर्वाङ्गं प्रणवेन तु ।
तत उद्धूल्य सर्वाङ्गमापादतलमस्तकम् ॥ ३२॥
आचम्य वसनं धौतं ततश्चैतत्प्रधारयेत् ।
पुनराचम्य कर्म स्वं कर्तुमर्हसि सत्तम ॥ ३३॥
अथ चतुर्विधं भस्म कल्पम् ।
प्रथममनुकल्पम् । द्वितीयमुपकल्पम् ।
उपोपकल्पं तृतीयम् । अकल्पं चतुर्थम् ।
अग्निहोत्रं समुद्भूतं विरजानलजमनुकल्पम् ।
वने शुष्कं शकृत्संगृह्य कल्पोक्तविधिना
कल्पितमुपकल्पं स्यात् ।
अरण्ये शुष्कगोमयं चूर्णीकृत्य गोमूत्रैः पिण्डीकृत्य
यथाकल्पं संस्कृतमुपोपकल्पम् । शिवालयस्थमकल्पं
शतकल्पं च ।
इत्थं चतुर्विधं भस्म पापं निकृन्तयेन्मोक्षं ददातीति
भगवान्कालाग्निरुद्रः ॥ ३४॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ३॥
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रं भस्मस्नानविधिं ब्रूहीति
होवाचाथ प्रणवेन विमृज्याथ
सप्तप्रणवेनाभिमन्त्रितमागमेन तु तेनैव दिग्बन्धनं
कारयेत्पुनरपि तेनास्त्रमन्त्रेणाङ्गानि
मूर्धादीन्युद्धूलयेन्मलस्नानमिदमीशानाद्यैः
पञ्चभिर्मन्त्रैस्तनुं क्रमाद्धूलयेत् ।
ईशानेति शिरोदेशं मुखं तत्पुरुषेण तु । ऊरुदेशमघोरेण
गुह्यकं वामदेवतः ।
सद्योजातेन वै पादो सर्वाङ्गं प्रणवेन तु । आपादतलमस्तकं
सर्वाङ्गं तत उद्धूलाचम्य
वसनं धौतं श्वेतं प्रधारयेद्विधिस्नानमिदम् ॥
तत्र श्लोका भवन्ति ।
भस्ममुष्टिं समादाय संहितामन्त्रमन्त्रिताम् ।
मस्तकात्पादपर्यन्तं मलस्नानं पुरोदितम् ॥ १॥
तन्मन्त्रेणैव कर्तव्यं विधिस्नानं समाचरेत् ।
ईशाने पञ्चधा भस्म विकिरेन्मूर्ध्नि यत्रतः ॥ २॥
मुखे चतुर्थवक्त्रेण अघोरेणाष्टधा हृदि ।
वामेन गुह्यदेशे तु त्रिदशस्थानभेदतः ॥ ३॥
अष्टावन्तेन साध्येन पादावद्धूल्य यत्रतः ।
सर्वाङ्गोद्धूलनं कार्यं राजन्यस्य यथाविधि ॥ ४॥
मुखं विना च तत्सर्वमुद्धूल्य क्रमयोगतः ।
सन्ध्याद्वये निशीथे च तथा पूर्वावसानयोः ॥ ५॥
सुप्त्वा भुक्त्वा पयः पीत्वा कृत्वा चावश्यकादिकम् ।
स्त्रियं नपुंसकं गृध्रं बिडालं बकमूषिकम् ॥ ६॥
स्पृष्ट्वा तथाविधानन्यान्भस्मस्नानं समाचरेत् ।
देवाग्निगुरुवृद्धानां समीपेऽन्त्यजदर्शने ॥ ७॥
अशुद्धभूतले मार्गे कुर्यानोद्धूलनं व्रती ।
शङ्खतोयेन मूलेन भस्मना मिश्रणं भवेत् ॥ ८॥
योजितं चन्दनेनैव वारिणा भस्मसंयुतम् ।
चन्दनेन समालिम्पेज्ज्ञानदं चूर्णमेव तत् ॥ ९॥
मध्याह्नात्प्राग्जलैर्युक्तं तोयं तदनुवर्जयेत् ॥
अथ भुसुण्डो भगवन्तं कालाग्निरुद्रं त्रिपुण्ड्रविधिं
पप्रच्छ ॥
तत्रैते श्लोका भवन्ति ।
त्रिपुण्ड्रं कारयेत्पश्चाद्ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।
मध्याङ्गुलिभिरादाय तिसृभिर्मूलमन्त्रतः ॥ १०॥
अनामामध्यमाङ्गुष्ठैरथवा स्यात्त्रिपुण्ड्रकम् ।
उद्धूलयेन्मुखं विप्रः क्षत्रियस्तच्छिरोदिनम् ॥ ११॥
द्वात्रिंशस्थानके चार्धं षोडशस्थानकेऽपि वा ।
अष्टस्थाने तथा चैव पञ्चस्थानेऽपि योजयेत् ॥ १२॥
उत्तमाङ्गे ललाटे च कर्णयोर्नेत्रयोस्तथा ।
नासावक्रे गले चैवमंसद्वयमतः परम् ॥ १३॥
कूर्परे मणिबन्धे च हृदये पार्श्वयोर्द्वयोः ।
नाभौ गुह्यद्वये चैवमूर्वोः स्फिग्बिम्बजानुनी ॥ १४॥
जङ्घाद्वये च पादौ च द्वात्रिंशत्स्थानमुत्तमम् ।
अष्टमूर्त्यष्टविद्येशान्दिक्पालान्वसुभिः सह ॥ १५॥
धरो ध्रुवश्च सोमश्च कृपश्चैवानिलोऽनलः ।
प्रत्यूपश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टावितीरिताः ॥ १६॥
एतेषां नाममन्त्रेण त्रिपुण्ड्रान्धारयेद्बुधः ।
विदध्यात्षोडशस्थाने त्रिपुण्ड्रं तु समाहितः ॥ १७॥
शीर्षके च ललाटे च कर्णे कण्ठेंऽसकद्वये ।
कूर्परे मणिबन्धे च हृदये नाभिपार्श्वयोः ॥ १८॥
पृष्ठे चैकं प्रतिस्थानं जपेत्तत्राधिदेवताः ।
शिवं शक्तिं च सादाख्यमीशं विद्याख्यमेव च ॥ १९॥
वामादिनवशक्तीश्च एताः षोडश देवताः ।
नासत्यो दस्रकश्चैव अश्विनौ द्वौ समीरितौ ॥ २०॥
अथवा मूर्ध्न्यलीके च कर्णयोः श्वसने तथा ।
बाहुद्वये च हृदये नाभ्यामूर्वोर्युगे तथा ॥ २१॥
जानुद्वये च पदयोः पृष्ठभागे च षोडश ।
शिवश्चेन्द्रश्च रुद्रार्कौ विघ्नेशो विष्णुरेव च ॥ २२॥
श्रीश्चैव हृदयेशश्च तथा नाभौ प्रजापतिः ।
नागश्च नागकन्याश्च उभे च ऋषिकन्यके ॥ २३॥
पादयोश्च समुद्राश्च तीर्थाः पृष्ठेऽपि च स्थिताः ।
एवं वा षोडशस्थानमष्टस्थानम्थोच्यते ॥ २४॥
गुरुस्थानं ललाटं च कर्णद्वयमनन्तरम् ।
असयुग्मं च हृदयं नाभिरित्यष्टमं भवेत् ॥ २५॥
ब्रह्मा च ऋषयः सप्त देवताश्च प्रकीर्तिताः ।
अथवा मस्तकं बाहू हृदयं नाभिरेव च ॥ २६॥
पञ्चस्थानान्यमून्याहुर्भस्मतत्त्वविदो जनाः ।
यथासम्भवतः कुर्याद्देशकलाद्यपेक्षया ॥ २७॥
उद्धूलनेऽप्यशक्तश्चेत्त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत् ।
ललाटे हृदये नाभौ गले च मणिबन्धयोः ॥ २८॥
बाहुमध्ये बाहुमूले पृष्ठे चैव च शीर्षके ॥
ललाटे ब्रह्मणे नमः । हृदये हव्यवाहनाय नमः ।
नाभौ स्कन्दाय नमः । गले विष्णवे नमः ।
मध्ये प्रभञ्जनाय नमः । मणिबन्धे वसुभ्यो नमः ।
पृष्ठे हरये नमः । कुकुदि शम्भवे नमः ।
शिरसि परमात्मने नमः । इत्यादिस्थानेषु त्रिपुण्ड्रं
धारयेत् ॥
त्रिनेत्रं त्रिगुणाधारं त्रयाणां जनकं प्रभुम् ।
स्मरन्नमः शिवायेति ललाटे तत्त्रिपुण्ड्रकम् ॥ २९॥
कूर्पराधः पितृभ्यां तु ईशानाभ्यां तथोपरि ।
ईशाभ्यां नम इत्युक्त्वा पार्श्वयोश्च त्रिपुण्ड्रकम् ॥ ३०॥
स्वच्छाभ्यां नम इत्युक्त्वा धारयेत्तत्प्रकोष्ठयोः ।
भीमायेति तथा पृष्ठे शिवायेति च पार्श्वयोः ॥ ३१॥
नीलकण्ठाय शिरसि क्षिपेत्सर्वात्मने नमः ।
पापं नाशयते कृत्स्नमपि जन्मान्तरार्जितम् ॥ ३२॥
कण्ठोपरि कृतं पापं नष्टं स्यात्तत्र धारणात् ।
कर्णे तु धारणात्कर्णरोगादिकृतपातकम् ॥ ३३॥
बाह्वोबाहुकृतं पापं वक्षःसु मनसा कृतम् ।
नाभ्यां शिश्नकृतं पापं पृष्ठे गुदकृतं तथा ॥ ३४॥
पार्श्वयोर्धारणात्पापं परस्त्र्यालिङ्गनादिकम् ।
तद्भस्मधारणं कुर्यात्सर्वत्रैव त्रिपुण्ड्रकम् ॥ ३५॥
ब्रह्मविष्णुमहेशानां त्रय्यग्नीनां च धारणम् ।
गुणलोकत्रयाणां च धारणं तेन वै श्रुतम् ॥ ३६॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ४॥
मानस्तोकेन मन्त्रेण मन्त्रितं भस्म धारयेत् ।
ऊर्ध्वपुण्ड्रं भवेत्सामं मध्यपुण्ड्रं त्रियायुषम् ॥ १॥
त्रियायुषाणि कुरुते ललाटे च भुजद्वये ।
नाभौ शिरसि हृत्पार्श्वे ब्राह्मणाः क्षत्रियास्तथा ॥ २॥
त्रैवर्णिकानां सर्वेषामग्निहोत्रसमुद्भवम् ।
इदं मुख्यं गृहस्थानां विरजानलजं भवेत् ॥ ३॥
विरजानलजं चैव धार्यं प्रोक्तं महर्षिभिः ।
औपासनसमुत्पन्नं गृहस्थानां विशेषतः ॥ ४॥
समिदग्निसमुत्पन्नं धार्यं वै ब्रह्मचारिणा ।
शूद्राणां श्रोत्रियागारपचनाग्निसमुद्भवम् ॥ ५॥
अन्येषामपि सर्वेषां धार्यं चैवानलोद्भवम् ।
यतीनां ज्ञानदं प्रोक्तं वनस्थानां विरक्तिदम् ॥ ६॥
अतिवर्णाश्रमाणां तु श्मशानाग्निसमुद्भवम् ।
सर्वेषां देवालयस्थं भस्म शिवाग्निजं शिवयोगिनाम् ।
शिवालयस्थं तल्लिङ्गलिप्तं वा मन्त्रसंस्कारदग्धं वा ॥
तत्रैते श्लोका भवन्ति ।
तेनाधीतं श्रुतं तेन तेन सर्वमनुष्ठितम् ।
येन विप्रेण शिरसि त्रिपुण्ड्रं भस्मना धृतम् ॥ ७॥
त्यक्तवर्णाश्रमाचारो लुप्तसर्वक्रियोऽपि यः ।
सकृत्तिर्यक्त्रिपुण्ड्राङ्कधारणात्सोऽपि पूज्यते ॥ ८॥
ये भस्मधारणं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्ति मानवाः ।
तेषां नास्ति विनिर्मोक्षः संसाराज्जन्मकोटिभिः ॥ ९॥
महापातकयुक्तानां पूर्वजन्मार्जितागसाम् ।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलनद्वेषो जायते सुदृढं बुधाः ॥ १०॥
येषां कोपो भवेद्ब्रह्मंॅल्ललाटे भस्मदर्शनात् ।
तेषामुत्पत्तिसाङ्कर्यमनुमेयं विपश्चिता ॥ ११॥
येषां नास्ति मुने श्रद्धा श्रौते भस्मनि सर्वदा ।
गर्भाधानादिसंस्कारस्तेषां नास्तीति निश्चयः ॥ १२॥
ये भस्मधारिणं दृष्ट्वा नराः कुर्वन्ति ताडनम् ।
तेषां चण्डालतो जन्म ब्रह्मन्नूह्यं विपश्चिता ॥ १३॥
येषां क्रोधो भवेद्भस्मधारणे तत्प्रमाणके ।
ते महापातकैर्युक्ता इति शास्त्रस्य निश्चयः ॥ १४॥
त्रिपुण्ड्ऱकं ये विनिन्दन्ति निन्दन्ति शिवमेव ते ।
धारयन्ति च ये भक्त्या धारयन्ति शिवं च ते ॥ १५॥
धिग्भस्मरहितं भालं धिग्ग्राममशिवालयम् ।
धिगनीशार्चनं जन्म धिग्विद्यामशिवाश्रयाम् ॥ १६॥
रुद्राग्नेर्यत्परं वीर्यं तद्भस्म परिकीर्तितम् ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु वीर्यवान्भस्मसंयुतः ॥ १७॥
भस्मनिष्ठस्य दह्यन्ते दोषा भस्माग्निसङ्गमात् ।
भस्मस्नानविशुद्धात्मा भस्मनिष्ठ इति स्मृतः ॥ १८॥
भस्मसन्दिग्धसर्वाङ्गो भस्मदीप्तत्रिपुण्ड्रकः ।
भस्मशायी च पुरुषो भस्मनिष्ठ इति स्मृतः ॥ १९॥
इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ५॥
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रं नामपञ्चकस्य माहात्म्यं
ब्रूहीति होवाच । अथ वसिष्ठवंशजस्य शतभार्यासमेतस्य
धनञ्जयस्य ब्राह्मणस्य ज्येष्ठभार्यापुत्रः करुण इति नाम
तस्य शुचिस्मिता भार्या । असौ करुणो भ्रातृवैरमसहमानो
भवानीतटस्थं नृसिंहमगमत् । तत्र
देवसमीपेऽन्येनोपायनार्थं
समर्पितं जम्बीरफलं गृहीत्वाजिघ्रत्तदा तत्रस्था
अशपन्पाप
मक्षिको भव वर्षाणां शतमिति । सोऽपि शापमादाय मक्षिकः
सन्स्वचेष्टितं तस्यै निवेद्य मां रक्षेति स्वभार्यामवदत्तदा
मक्षिकोऽभवत्तमेवं ज्ञात्वा ज्ञातयस्तैलमध्ये ह्यमारयन्त्सा
मृतं पतिमादायारुन्धतीमगमद्भो शुचिस्मिते
शोकेनालमरुन्धत्याहामुं
जीवयाम्यद्य विभूतिमादायेति एषाग्निहोत्रजं भस्म ॥
मृत्युञ्जयेन मन्त्रेण मृतजन्तौ तदाक्षिपत् ।
मन्दवायुस्तदा जज्ञे व्यजनेन शुचिस्मिते ॥ १॥
उदतिष्ठत्तदा जन्तुर्भस्मनोऽस्य प्रभावतः ।
ततो वर्षशते पूर्णे ज्ञातिरेको ह्यमारयत् ॥ २॥
भस्मैव जीवयामास काश्यां पञ्च तदाभवन् ।
देवानपि तथाभूतान्मामप्येतादृशं पुरा ॥ ३॥
तस्मात्तु भस्मनां जन्तुं जीवयामि तदानघे ।
इत्येवमुक्त्वा भगवान्दधीचिः समजायत ॥ ४॥
स्वरूपं च ततो गत्वा स्वमाश्रमपदं ययाविति ॥
इदानीमस्य भस्मनः सर्वाघभक्षणसामर्थ्यं
विधत्त इत्याह । श्रीगौतमविवाहकाले तामहल्यां
दृष्ट्वा सर्वे देवाः कामातुरा अभवन् तदा
नष्टज्ञाना दुर्वाससं गत्वा पप्रच्छुस्तद्दोषं
शमयिष्यामीत्युवाच ततः शतरुद्रेण मन्त्रेण
मन्त्रितं भस्म वै पुरा मयापि दत्तं ब्रह्महत्यादि शान्तम् ।
इत्येवमुक्त्वा दुर्वासा दत्तवान्भस्म चोत्तमम् ।
जाता मद्वचनात्सर्वे यूयं तेऽधिकतेजसः ॥ ५॥
शतरुद्रेण मन्त्रेण भस्मोद्धूलितविग्रहाः ।
निर्धूतरजसः सर्वे तत्क्षणाच्च वयं मुने ॥ ६॥
आश्चर्यमेतज्जानीमो भस्मसामर्थ्यमीदृशम् ।
अस्य भस्मनः शक्तिमन्यां शृणु ।
एतदेव हरिशङ्करयोर्ज्ञानप्रदम् ।
ब्रह्महत्यादि पापनाशकम् ।
महाविभूतिदमिति शिववक्षसि स्थितं नखेनादाय
प्रणवेनाभिमन्त्र्य गायत्र्या पञ्चाक्षरेणाभिमन्त्र्य
हरिर्मस्तकगात्रेषु समर्पयेत् । तथा हृदि ध्यायस्वेति
हरिमुक्त्वा हरः स्वहृदि ध्यात्वा दृष्टो दृष्ट इति
शिवमाह ।
ततो भस्म भक्षयेति हरिमाह हरस्ततः ।
भक्षयिष्ये शिवं भस्म स्नात्वाहं भस्मना पुरा ॥ ७॥
पृष्टेश्वरं भक्तिगम्यं भस्माभक्षयदच्युतः ।
तत्राश्चर्यमतीवासीत्प्रतिबिम्बसमद्युतिः ॥ ८॥
वासुदेवः शुद्धमुक्ताफलवर्णोऽभवत्क्षणात् ।
तदाप्रभृति शुक्लाभो वासुदेवः प्रसन्नवान् ॥ ९॥
न शक्यं भस्मनो ज्ञानं प्रभावं ते कुतो विभो ।
नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु त्वामहं शरणं गतः ॥ १०॥
त्वत्पादयुगले शम्भो भक्तिरस्तु सदा मम ।
भस्मधारणसम्पन्नो मम भक्तो भविष्यति ॥ ११॥
अत एवैषा भूतिर्भूतिकरीत्युक्ता । अस्य पुरस्ताद्वसव
आसन्रुद्रा दक्षिणत आदित्याः पश्चाद्विश्वेदेवा
उत्तरतो ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा याभ्यां सूर्याचन्द्रमसौ
पार्श्वयोस्तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदुः ।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ।
य एतद्बृहज्जाबालं सार्वकामिकं मोक्षद्वारमृङ्मयं
यजुर्मयं साममयं ब्रह्ममयममृतमयं भवति ।
य एतद्बृहज्जाबालं बालो वा वेद स महान्भवति ।
स गुरुः सर्वेषां मन्त्राणामुपदेष्टा भवति ।
मृत्युतारकं गुरुणा लब्धं कण्ठे बाहौ शिखायां
वा बध्नीत । सप्तद्वीपवती भूभिर्दक्षिणार्थं नावकल्पते ।
तस्माच्छ्रद्धया यां काञ्चिद्गां दद्यात्सा दक्षिणा भवति ॥ १२॥
इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥ ६॥
अथ जनको वैदेहो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच
भगवान् त्रिपुण्ड्रविधिं नो ब्रूहीति स होवाच
सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः परिगृह्याग्निरिति
भस्मेत्यभिमन्त्र्य मानस्तोक इति समुद्धृत्य
त्रियायुषमिति जलेन सम्मृज्य त्र्यम्बकमिति
शिरोललाटवक्षःस्कन्धेषु धृत्वा पूतो भवति
मोक्षी भवति । शतरुद्रेण यत्फलमवप्नोति तत्फलमश्नुते
स एष भस्मज्योतिरिति वै याज्ञवल्क्यः ॥ १॥
जनको ह वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यं भस्मधारणात्किं
फलमश्नुत इति स होवाच तद्भस्मधारणादेव
मुक्तिर्भवति तद्भस्मधारणादेव शिवसायुज्यमवाप्नोति
न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते स एष भस्मज्योतिरिति
वै याज्ञवल्क्यः ॥ २॥
जनको ह वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यं भस्मधारणात्किं
फलमश्नुते न वेति तत्र परमहंसानामसंवर्तक-
आरुणिश्वेतकेतुदुर्वासऋभुनिदाघजडभरतदत्तात्रेय-
रैवतकभुसुण्डप्रभृतयो विभूतिधारणादेवमुक्ताः स्युः
स एष भस्मज्योतिरिति वै याज्ञवल्क्यः ॥ ३॥
जनको ह वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्य भस्मस्नानेन
किं जायत इति यस्य कस्यचिच्छरीरे यावन्तो रोमकूपास्तावन्ति
लिङ्गानि भूत्वा तिष्ठन्ति ब्राह्मणो वा क्षत्रियो वा वैश्यो वा
शूद्रो वा तद्भस्मधारणादेतच्छब्दस्य रूपं
यस्यां तस्यां ह्येवावतिष्ठते ॥ ४॥
जनको ह वैदेहः स होवाच पैप्पलादेन सह
प्रजापतिलोअकं जगाम तं गत्वोवाच भो प्रजापते
त्रिपुण्ड्रस्य माहात्म्यं ब्रूहीति तं प्रजापतिरब्रवीद्-
यथैवेश्वरस्य माहात्म्यं तथैव त्रिपुण्ड्रस्येति ॥ ५॥
अथ पैप्पलादो वैकुण्ठं जगाम तं गत्वोवाच
भो विष्णो त्रिपुण्ड्रस्य माहात्म्यं ब्रूहीति यथैवेश्वरस्य
माहात्म्यं तथैव त्रिपुण्ड्रकस्येति विष्णुराह ॥ ६॥
अथ पैप्पलादः कालाग्निरुद्रं परिसमेत्योवाचाधीहि
भगवन् त्रिपुण्ड्रस्य विधिमिति त्रिपुण्ड्रस्य विधिर्मया
वक्तुं न शक्य इति सत्यमिति होवाचाथ भस्मच्छन्नः
संसारान्मुच्यते भस्मशय्याशयानस्तच्छब्दगोचरः
शिवसायुज्यमवाप्नोति न स पुनरावर्तते रुद्राध्यायी
सन्नमृतत्वं च गच्छति स एष भस्मज्योतिर्विभूति-
धारणाद्ब्रह्मैकत्वं च गच्छति विभूतिधारणादेव
सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति विभूतिधारणाद्वाराणस्यां
स्नानेन यत्फलमवाप्नोति तत्फलमश्नुते स एष
भस्मज्योतिर्यस्य कस्यचिच्छरीरे त्रिपुण्ड्रस्य लक्ष्म वर्तते
प्रथमा प्रजापतिर्द्वितीया विष्णुस्तृतीया सदाशिव इति
स एष भस्मज्योतिरिति स एष भस्मज्योतिरिति ॥ ७॥
अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः
पप्रच्छाधीहि भगवन्रुद्राक्षधारणविधिं
स होवाच रुद्रस्य नयनादुत्पन्ना रुद्राक्षा इति
लोके ख्यायन्ते सदाशिवः संहारकाले संहारं
कृत्वा संहाराक्षं मुकुलीकरोति तन्नयनाज्जाता
रुद्राक्षा इति होवाच तस्माद्रुद्राक्षत्वमिति तद्रुद्राक्षे
वाग्विषये कृते दशगोप्रदानेन यत्फलमवाप्नोति
तत्फलमश्नुते स एष भस्मज्योती रुद्राक्ष इति
तद्रुद्राक्षं करेण स्पृष्ट्वा धारणमात्रेण
द्विसहस्रगोप्रदानफलं भवति । तद्रुद्राक्षे
एकादशरुद्रत्वं च गच्छति । तद्रुद्राक्षे शिरसि
धार्यमाणे कोटिगोप्रदानफलं भवति । एतेषां
स्थानानां कर्णयोः फलं वक्तुं न शक्यमिति होवाच ।
मूर्ध्नि चत्वारिंशच्छिखायामेकं त्रयं वा
श्रोत्रयोर्द्वादश कर्णे द्वात्रिंशद्बाह्वोः षोडश
षोडश द्वादश द्वादश मणिबन्धयोः षट्
षडङ्गुष्ठयोस्ततः सन्ध्यां सकुशोऽहरहरुपा-
सीताग्निर्ज्योतिरित्यादिभिरग्नौ जुहुयात् ॥ ८॥
इति सप्तमं ब्राह्मणम् ॥ ७॥
अथ बृहज्जाबालस्य फलं नो ब्रूहि भगवन्निति
स होवाच य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते
सोऽग्निपूतो भवति स वायुपूतो भवति स आदित्यपूतो भवति
स सोमपूतो भवति स ब्रह्मपूतो भवति स विष्णुपूतो भवति
स रुद्रपूतो भवति स सर्वपूतो भवति स सर्वपूतो भवति ॥ १॥
य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते सोऽग्निं स्तम्भयति
स वायुं स्तम्भयति स आदित्यं स्तम्भयति स सोमं स्तम्भयति
स उदकं स्तम्भयति स सर्वान्देवान्स्तम्भयति स
सर्वान्ग्रहान्स्तम्भयति स विषं स्तम्भयति स विषं
स्तम्भयति ॥ २॥
य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते स मृत्युं तरति स
पाप्मानं
तरति स ब्रह्महत्यां तरति स भ्रूणहत्यां तरति स
वीरहत्यां
तरति स सर्वहत्यां तरति स संसारं तरति स सर्वं तरति
स सर्वं तरति ॥ ३॥
य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते स भूर्लोकं जयति स
भुवर्लोकं जयति
स सुवर्लोकं जयति स महर्लोकं जयति स तपोलोकं जयति
स जनोलोकं जयति स सत्यलोकं जयति स सर्वांल्लोकाञ्जयति ॥ ४॥
य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते स ऋचोऽधीते स
यजूंष्यधीते
स सामान्यधीते सोऽथर्वणमधीते सोऽङ्गिरसमधीते स शाखा
अधीते स कल्पानधीते स नारशंसीरधीते स पुरणान्यधीते
स ब्रह्मप्रणवमधीते स ब्रह्मप्रणवमधीते ॥ ५॥
अनुपनीतशतमेकमेकेनोपनीतेन तत्सममुपनीतशतमेकमेकेन
गृहस्थेन तत्समं गृहस्थशतमेकमेकेन वानप्रस्थेन
तत्समं वानप्रस्थशतमेकेमेकेन यतिना तत्समं यतीनां तु
शतं पूर्णमेकमेकेन रुद्रजापकेन तत्समं
रुद्रजापकशतमेकेमेकेन
अथर्वशिरःशिखाध्यापकेन तत्सममथर्वशिरःशाखा-
ध्यापकशतमेकमेकेन बृहज्जाबालोपनिषदध्यापकेन
तत्समं तद्वा एतत्परं धाम बृहज्जबालोपनीषज्जपशीलस्य
यत्र न सूर्यस्तपति यत्र न वायुर्वाति यत्र न चन्द्रमा भाति
यत्र न नक्षत्राणि भान्ति यत्र नाग्निर्दहति यत्र न मृत्युः
प्रविशति
यत्र न दुःखानि प्रविशन्ति सदानन्दं परमानन्दं शान्तं
शाश्वतं सदाशिवं ब्रह्मादिवन्दितं योगिध्येयं परं पदं
यत्र गत्वा न निवर्तन्ते योगिनस्तदेतदृचाभ्युक्तम् । तद्विष्णोः
परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षु--?--
तम् ॥
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं
पदम् ॥
ॐ सत्यमित्युपनिषत् ॥ ६॥
इत्यष्टमं ब्राह्मणम् ॥ ८॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिदधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इत्यथर्ववेदीय बृहज्जाबालोपनिषत्समाप्ता ॥
बृहदारण्यकोपनिषत्
काण्व पाठः ।
A मधु काण्ड[उपदेश काण्ड]
अध्याय I ब्राह्मण i-vi मन्त्राः ८० 1-...
अध्याय II ब्राह्मण i-vi मन्त्राः ६६ 1-...
B मुनि [yAj~navalkya] काण्ड [उपपत्ति काण्ड]
अध्याय III ब्राह्मण i-ix मन्त्राः ९२ 1-...
अध्याय IV ब्राह्मण i-vi मन्त्राः ९२ 1-...
C खिल काण्ड[उपासना काण्ड]
अध्याय V ब्राह्मण i-xv मन्त्राः ३३ 1-...
अध्याय VI ब्राह्मण i-v मन्त्राः ७५ 1-...
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथ प्रथमोऽध्यायः ।
अथ प्रथमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १ [I.i.1]
उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः । सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणो
व्यात्तमग्निर्वैश्वानरः संवत्सर आत्माऽश्वस्य मेध्यस्य । द्यौः
पृष्ठमन्तरिक्षमुदरं पृथिवी पाजस्यं दिशः पार्श्वे
अवान्तरदिशः पर्शव ऋतवोऽङ्गानि मासाश्चार्धमासाश्च
पर्वाण्यहोरात्राणि प्रतिष्ठा नक्षत्राण्यस्थीनि नभो
माꣳसान्यूवध्यꣳ सिकताः सिन्धवो गुदा यकृच्च क्लोमानश्च
पर्वता ओषधयश्च वनस्पतयश्च लोमान्युद्यन्पूर्वार्धो
निम्लोचञ्जघनार्धो यद्विजृम्भते तद्विद्योतते यद्विधूनुते
तत्स्तनयति यन्मेहति तद्वर्षति वागेवास्य वाक् ॥ १॥
मन्त्र २ [I.i.2]
अहर्वा अश्वं पुरस्तान्महिमाऽन्वजायत तस्य पूर्वे समुद्रे योनी
रात्रिरेनं पश्चान्महिमाऽन्वजायत तस्यापरे समुद्रे योनिरेतौ वा अश्वं
महिमानावभितः सम्बभूवतुर्हयो भूत्वा देवानवहद् वाजी गन्धर्वान्
अर्वाऽसुरान् अश्वो मनुष्यान् समुद्र एवास्य बन्धुः समुद्रो योनिः ॥ २॥
इति प्रथमं ब्राहमणम् ॥
अथ द्वितीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १ [I.ii.1]
नैवेह किंचनाग्र आसीन् मृत्युनैवेदमावृतमासीदशनाययाऽशनाया
हि मृत्युस्तन्मनोऽकुरुताऽऽत्मन्वी स्यामिति । सोऽर्चन्नचरत्
तस्यार्चत आपोऽजायन्तार्चते वै मे कमभूदिति । तदेवार्क्यस्यार्कत्वम् ।
कꣳ ह वा अस्मै भवति य एवमेतदर्कस्यार्कत्वं वेद ॥ १॥
मन्त्र २[I.ii.2]
आपो वा अर्क तद्यदपाꣳ शर आसीत् तत्समहन्यत । सा पृथिव्यभवत्
तस्यामश्राम्यत् तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य तेजो रसो निरवर्तताग्निः ॥ २॥
मन्त्र ३ [I.ii.3]
स त्रेधाऽऽत्मानं व्यकुरुताऽऽदित्यं तृतीयं वायुं तृतीयꣳ ।
स एष प्राणस्त्रेधा विहितस्तस्य प्राची दिक्षिरोऽसौ चासौ चेर्माव
अथास्य प्रतीची दिक्पुच्छमसौ चासौ च सक्थ्यौ दक्षिणा चोदीची
च पार्श्वे द्यौः पृष्ठमन्तरिक्षमुदरमियमुरः स एषोऽप्सु
प्रतिष्ठितो यत्र क्व चैति तदेव प्रतितिष्ठत्येवं विद्वान् ॥ ३॥
मन्त्र ४[I.ii.4]
सोऽकामयत द्वितीयो म आत्मा जायेतेति । स मनसा वाचं
मिथुनꣳ समभवदशनाया मृत्युस्तद्यद्रेत आसीत् स
संवत्सरोऽभवन् न ह पुरा ततः संवत्सर आस । तमेतावन्तं
कालमबिभर्यावान्संवत्सरस्तमेतावतः कालस्य परस्तादसृजत ।
तं जातमभिव्याददात् स भाणकरोत् सैव वागभवत् ॥ ४॥
मन्त्र ५[I.ii.5]
स ऐक्षत यदि वा इममभिमꣳस्ये कनीयोऽन्नं करिष्य इति ।
स तया वाचा तेनाऽऽत्मनेदꣳ सर्वमसृजत यदिदं
किञ्चर्चो यजूꣳषि सामानि छन्दाꣳसि यज्ञान् प्रजाः
पशून् स यद्यदेवासृजत तत्तदत्तुमध्रियत । सर्वं वा अत्तीति
तददितेरदितित्वꣳ । सर्वस्यैतस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नं भवति
य एवमेतददितेरदितित्वं वेद ॥ ५॥
मन्त्र ६[I.ii.6]
सोऽकामयत भूयसा यज्ञेन भूयो यजेयेति । सोऽश्राम्यत् स
तपोऽतप्यत । तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य यशो वीर्यमुदक्रामत् प्राणा
वै यशो वीर्यम् । तत् प्राणेषूत्क्रान्तेषु शरीरꣳ श्वयितुमध्रियत
तस्य शरीर एव मन आसीत् ॥ ६॥
मन्त्र ७[I.ii.7]
सोऽकामयत मेध्यं म इदꣳ स्यादात्मन्व्यनेन स्यामिति । ततोऽश्वः
समभवद् यदश्वत् तन्मेध्यमभूदिति । तदेवाश्वमेधस्याश्वमेधत्वं
एष ह वा अश्वमेधं वेद य एनमेवं वेद । तमनवरुध्यैवामन्यत ।
तꣳ संवत्सरस्य परस्तादात्मन आलभत । पशून्देवताभ्यः
प्रत्यौहत् तस्मात्सर्वदेवत्यं प्रोक्षितं प्राजापत्यमालभन्त एष ह वा
अश्वमेधो य एष तपति तस्य संवत्सर आत्माऽयमग्निरर्कस्तस्येमे लोका
आत्मानस्तावेतावर्काश्वमेधौ । सो पुनरेकैव देवता भवति मृत्युरेवाप
पुनर्मृत्युं जयति नैनं मृत्युराप्नोति मृत्युरस्याऽऽत्मा
भवत्येतासां देवतानामेको भवति ॥ ७॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ तृतीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १ [I.iii.1]
द्वया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च । ततः कानीयसा एव देवा ज्यायसा
असुरास्त एषु लोकेष्वस्पर्धन्त । ते ह देवा ऊचुर्हन्तासुरान्यज्ञ
उद्गीथेनात्ययामेति ॥ १॥
मन्त्र २[I.iii.2]
ते ह वाचमूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यो वागुदगायद् यो वाचि
भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणं वदति तदात्मने । ते विदुरनेन
वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य पाप्मनाऽविध्यन् स यः स
पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपं वदति स एव स पाप्मा ॥ २॥
मन्त्र ३[I.iii.3]
अथ ह प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यः प्राण उदगायद्
यः प्राणे भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणं जिघ्रति तदात्मने ।
ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य
पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपं जिघ्रति स एव
स पाप्मा ॥ ३॥
मन्त्र ४[I.iii.4]
अथ ह चक्षुरूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यश्चक्षुरुदगायद्
यश्चक्षुषि भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणं पश्यति
तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य
पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपं पश्यति स एव
स पाप्मा ॥ ४॥
मन्त्र ५[I.iii.5]
अथ ह श्रोत्रमूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यः श्रोत्रमुदगायद्
यः श्रोत्रे भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणꣳ शृणोति
तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य
पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपꣳ शृणोति स
एव स पाप्मा ॥ ५॥
मन्त्र ६[I.iii.6]
अथ ह मन ऊचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्यो मन उदगायद्
यो मनसि भोगस्तं देवेभ्य आगायद् यत्कल्याणꣳ सङ्कल्पयति
तदात्मने । ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य
पाप्मनाऽविध्यन् स यः स पाप्मा यदेवेदमप्रतिरूपꣳ सङ्कल्पयति स
एव स पाप्मैवमु खल्वेता देवताः पाप्मभिरुपासृजन् पाप्मभिसुपासृजन्
एवमेनाः पाप्मनाऽविध्यन् ॥ ६॥
मन्त्र ७[I.iii.7]
अथ हेममासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायेति । तथेति । तेभ्य एष
प्राण उदगायत् ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति । तमभिद्रुत्य
पाप्मनाविध्यन् । स यथाश्मानमृत्वा लोष्टो विध्वꣳसेतैवꣳ
हैव विध्वꣳसमाना विष्वञ्चो विनेशुस्ततो देवा अभवन् पराऽसुराः ।
भवत्यात्मना पराऽस्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद ॥ ७॥
मन्त्र ८[I.iii.8]
ते होचुः क्व नु सोऽभूद् यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्तरिति सोऽयास्य
आङ्गिरसोऽङ्गानाꣳ हि रसः ॥ ८॥
मन्त्र ९[I.iii.9]
सा वा एषा देवता दूर्नाम दूरꣳ ह्यस्या मृत्युर्दूरꣳ ह वा
अस्मान्मृत्युर्भवति य एवं वेद ॥ ९॥
मन्त्र १०[I.iii.10]
सा वा एषा देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्य यत्राऽऽसां
दिशामन्तस्तद्गमयां चकार तदासां पाप्मनो विन्यदधात् तस्मान्न
जनमियान् नान्तमियान् नेत्पाप्मानं मृत्युमन्ववायानीति ॥ १०॥
मन्त्र ११[I.iii.11]
सा वा एषा देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्याथैना
मृत्युमत्यवहत् ॥ ११॥
मन्त्र १२[I.iii.12]
स वै वाचमेव प्रथमामत्यवहत् सा यदा मृत्युमत्यमुच्यत
सोऽग्निरभवत् सोऽयमग्निः परेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यते ॥ १२॥
मन्त्र १३[I.iii.13]
अथ प्राणमत्यवहत् स यदा मृत्युमत्यमुच्यत स वायुरभवत् सोऽयं
वायुः परेण मृत्युमतिक्रान्तः पवते ॥ १३॥
मन्त्र १४[I.iii.14]
अथ चक्षुरत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स आदित्योऽभवत्
सोऽसावादित्यः परेण मृत्युमतिक्रान्तस्तपति ॥ १४॥
मन्त्र १५[I.iii.15]
अथ श्रोत्रमत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत ता
दिशोऽभवꣳस्ता इमा दिशः परेण मृत्युमतिक्रान्ताः ॥ १५॥
मन्त्र १६[I.iii.16]
अथ मनोऽत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स चन्द्रमा अभवत्
सोऽसौ चन्द्रः परेण मृत्युमतिक्रान्तो भात्येवꣳ ह वा एनमेषा
देवता मृत्युमतिवहति य एवं वेद ॥ १६॥
मन्त्र १७[I.iii.17]
अथाऽऽत्मनेऽन्नाद्यमागायद् यद्धि किञ्चान्नमद्यतेऽनेनैव तदद्यत
इह प्रतितिष्ठति ॥ १७॥
मन्त्र १८[I.iii.18]
ते देवा अब्रुवन्न् एतावद्वा इदꣳ सर्वं यदन्नं तदात्मन
आगासीरनु नोऽस्मिन्नन्न आभजस्वेति । ते वै माऽभिसंविशतेति ।
तथेति । तꣳ समन्तं परिण्यविशन्त । तस्माद्यदनेनान्नमत्ति
तेनैतास्तृप्यन्त्येवꣳ ह वा एनꣳ स्वा अभिसंविशन्ति भर्ता
स्वानाꣳ श्रेष्ठः पुर एता भवत्यन्नादोऽधिपतिर्य एवं वेद ।
य उ हैवंविदꣳ स्वेषु प्रतिप्रतिर्बुभूषति न हैवालं भार्येभ्यो
भवत्यथ य एवैतमनुभवति यो वैतमनु भार्यान् बुभूर्षति स
हैवालं भार्येभ्यो भवति ॥ १८॥
मन्त्र १९[I.iii.19]
सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गानाꣳ हि रसः । प्राणो वा अङ्गानाꣳ रसः ।
प्राणो हि वा अङ्गानाꣳ रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति
तदेव तच्छुष्यत्येष हि वा अङ्गानाꣳ रसः ॥ १९॥
मन्त्र २०[I.iii.20]
एष उ एव बृहस्पतिर्वाग्वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु
बृहस्पतिः ॥ २०॥
मन्त्र २१[I.iii.21]
एष उ एव ब्रह्मणस्पतिर्वाग्वै ब्रह्म तस्या एष पतिस्तस्मादु
ब्रह्मणस्पतिः ॥ २१॥
मन्त्र २२[I.iii.22]
एष उ एव साम वाग्वै सामैष सा चामश्चेति तत्साम्नः सामत्वम् ।
यद्वेव समः प्लुषिणा समो मशकेन समो नागेन सम एभिस्त्रिभिर्लोकैः
समोऽनेन सर्वेण तस्माद्वेव सामाश्नुते साम्नः सायुज्यꣳ सलोकतां
य एवमेतत्साम वेद ॥ २२॥
मन्त्र २३[I.iii.23]
एष उ वा उद्गीथः । प्राणो वा उत् प्राणेन हीदꣳ सर्वमुत्तब्धम् ।
वागेव गीथोच्च गीथा चेति स उद्गीथः ॥ २३॥
मन्त्र २४[I.iii.24]
तद्धापि ब्रह्मदत्तश्चैकितानेयो राजानं भक्षयन्नुवाचायं त्यस्य
राजा मूर्धानं विपातयताद् यदितोऽयास्य आङ्गिरसोऽन्येनोदगायदिति ।
वाचा च ह्येव स प्राणेन चोदगायदिति ॥ २४॥
मन्त्र २५[I.iii.25]
तस्य हैतस्य साम्नो यः स्वं वेद भवति हास्य स्वम् । तस्य वै स्वर
एव स्वम् । तस्मादार्त्विज्यं करिष्यन्वाचि स्वरमिच्छेत तया वाचा
स्वरसम्पन्नयाऽऽर्त्विज्यं कुर्यात् तस्माद्यज्ञे स्वरवन्तं दिदृक्षन्त
एवाथो यस्य स्वं भवति । भवति हास्य स्वं य एवमेतत्साम्नः स्वं
वेद ॥ २५॥
मन्त्र २६[I.iii.26]
तस्य हैतस्य साम्नो यः सुवर्णं वेद भवति हास्य सुवर्णम् । तस्य वै
स्वर एव सुवर्णम् । भवति हास्य सुवर्णं य एवमेतत्साम्नः सुवर्णं
वेद ॥ २६॥
मन्त्र २७[I.iii.27]
तस्य हैतस्य साम्नो यः प्रतिष्ठां वेद प्रति ह तिष्ठति । तस्य
वै वागेव प्रतिष्ठा वाचि हि खल्वेष एतत्प्राणः प्रतिष्ठितो गीयते
ऽन्न इत्यु हैक आहुः ॥ २७॥
मन्त्र २८[I.iii.28]
अथातः पवमानानामेवाभ्यारोहः । स वै खलु प्रस्तोता साम
प्रस्तौति । स यत्र प्रस्तुयात् तदेतानि जपेदसतो मा सद् गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमयेति । स यदाहासतो मा
सद्गमयेति मृत्युर्वा असत् सदमृतं मृत्योर्माऽमृतं गमयामृतं
मा कुर्वित्येवैतदाह । तमसो मा ज्योतिर्गमयेति मृत्युर्वै तमो
ज्योतिरमृतं मृत्योर्मामृतं गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह ।
मृत्योर्मामृतं गमयेति नात्र तिरोहितमिवास्त्यथ यानीतराणि
स्तोत्राणि तेष्वात्मनेऽन्नाद्यमागायेत् तस्मादु तेषु वरं वृणीत यं
कामं कामयेत तꣳ । स एष एवंविदुद्गाताऽऽत्मने वा यजमानाय वा
यं कामं कामयते तमागायति । तद्धैतल्लोकजिदेव न हैवालोक्यताया
आशास्ति य एवमेतत्साम वेद ॥ २८॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ चतुर्थं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १ [I.iv.1]
आत्मैवेदमग्र आसीत्पुरुषविधः । सोऽनुवीक्ष्य नान्यदात्मनोऽपश्यत्
सोऽहमस्मीत्यग्रे व्याहरत् ततोऽहन्नामाभवत् । तस्मादप्येतर्ह्यामन्त्रितो
ऽहमयमित्येवाग्र उक्त्वाऽथान्यन्नाम प्रब्रूते यदस्य भवति । स
यत्पूर्वोऽस्मात्सर्वस्मात्सर्वान्पाप्मन औषत् तस्मात्पुरुषः । ओषति ह
वै स तं योऽस्मात्पूर्वो बुभूषति य एवं वेद ॥ १॥
मन्त्र २[I.iv.2]
सोऽबिभेत् तस्मादेकाकी बिभेति । स हायमीक्षां चक्रे यन्मदन्यन्नास्ति
कस्मान्नु बिभेमीति । तत एवास्य भयं वीयाय । कस्माद्ध्यभेष्यत्
द्वितीयाद्वै भयं भवति ॥ २॥
मन्त्र ३[I.iv.3]
स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते । स द्वितीयमैच्छत्
स हैतावानास यथा स्त्रीपुमाꣳसौ सम्परिष्वक्तौ ।
स इममेवाऽऽत्मानं द्वेधाऽपातयत् । ततः पतिश्च पत्नी
चाभवताम् । तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति ह स्माऽऽह
याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाशः स्त्रिया पूर्यत एव । ताꣳ समभवत्
ततो मनुष्या अजायन्त ॥ ३॥
मन्त्र ४[I.iv.4]
सो हेयमीक्षां चक्रे कथं नु माऽऽत्मन एव जनयित्वा
सम्भवति । हन्त तिरोऽसानीति । सा गौरभवद् ऋषभ
इतरस्ताꣳ समेवाभवत् ततो गावोऽजायन्त । वडवेतराऽभवद्
अश्ववृष इतरो गर्दभीतरा गर्दभ इतरस्ताꣳ समेवाभवत्
तत एकशफमजायत अजेतराऽभवद् वस्त इतरोऽविरितरा मेष
इतरस्ताꣳ समेवाभवत् ततोऽजावयोऽजायन्तैवमेव यदिदं किञ्च
मिथुनमा पिपीलिकाभ्यस्तत्सर्वमसृजत ॥ ४॥
मन्त्र ५[I.iv.5]
सोऽवेदहं वाव सृष्टिरस्म्यहꣳ हीदꣳ सर्वमसृक्षीति ।
ततः सृष्टिरभवत् सृष्ट्याꣳ हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद ॥ ५॥
मन्त्र ६[I.iv.6]
अथेत्यभ्यमन्थत् स मुखाच्च योनेर्हस्ताभ्यां
चाग्निमसृजत । तस्मादेतदुभयमलोमकमन्तरतोऽलोमका
हि योनिरन्तरतस्तद्यदिदमाहुरमुं यजामुं यजेत्येकैकं
देवमेतस्यैव सा विसृष्टिरेष उ ह्येव सर्वे देवा अथ
यत्किञ्चेदमार्द्रं तद्रेतसोऽसृजत तदु सोमः । एतावद्वा
इदꣳ सर्वमन्नं चैवान्नादश्च सोम एवान्नमग्निरन्नादः ।
सैषा ब्रह्मणोऽतिसृष्टिर्यच्छ्रेयसो देवानसृजताथ यन्मर्त्यः
सन्नमृतानसृजत तस्मादतिसृष्टिरतिसृष्ट्याꣳ हास्यैतस्यां
भवति य एवं वेद ॥ ६॥
मन्त्र ७[I.iv.7]
तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतासौ
नामाऽयमिदꣳरूप इति । तदिदमप्येतर्हि नामरूपाभ्यामेव
व्याक्रियतेऽसौ नामायमिदꣳरूप इति । स एष इह प्रविष्ट आ
नखाग्रेभ्यो यथा क्षुरः क्षुरधानेऽवहितः स्याद् विश्वम्भरो वा
विश्वम्भरकुलाये तं न पश्यन्त्यकृत्स्नो हि सः प्राणन्नेव प्राणो
नाम भवति वदन्वाक् पश्यंश्चक्षुः शृण्वञ्ह्रोत्रं मन्वानो
मनस्तान्यस्यैतानि कर्मनामान्येव । स योऽत एकैकमुपास्ते न स
वेदाकृत्स्नो ह्येषोऽत एकैकेन भवत्यात्मेत्येवोपासीतात्र ह्येते
सर्व एकं भवन्ति । तदेतत्पदनीयमस्य सर्वस्य यदयमात्माऽनेन
ह्येतत्सर्वं वेद । यथा ह वै पदेनानुविन्देदेवं कीर्तिꣳ श्लोकं
विन्दते य एवं वेद ॥ ७॥
मन्त्र ८[I.iv.8]
तदेतत्प्रेयः पुत्रात् प्रेयो वित्तात् प्रेयोऽन्यस्मात् सर्वस्मादन्तरतरं
यदयमात्मा । स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात् प्रियꣳ
रोत्स्यतीतीश्वरो ह तथैव स्यादात्मानमेव प्रियमुपासीत । स य
आत्मानमेव प्रियमुपास्ते न हास्य प्रियं प्रमायुकं भवति ॥ ८॥
मन्त्र ९[I.iv.9]
तदाहुर्यद्ब्रह्मविद्यया सर्वं भविष्यन्तो मनुष्या मन्यन्ते किमु
तद्ब्रह्मावेद् यस्मात्तत्सर्वमभवदिति ॥ ९॥
मन्त्र १०[I.iv.10]
ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् तदात्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मीति ।
तस्मात्तत्सर्वमभवत् तद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्
तथर्षीणां तथा मनुष्याणाम् । तद्धैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेवः
प्रतिपेदेऽहं मनुरभवꣳ सूर्यश्चेति । तदिदमप्येतर्हि
य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति इति स इदꣳ सर्वं भवति तस्य ह
न देवाश्चनाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषाꣳ स भवत्यथ योऽन्यां
देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद । यथा पशुरेवꣳ
स देवानाम् । यथा ह वै बहवः पशवो मनुष्यं भुञ्ज्युरेवमेकैकः
पुरुषो देवान्भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं भवति
किमु बहुषु तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः ॥ १०॥
मनुष्यास्विद्युर्मन्त्र ११
मन्त्र ११[I.iv.11]
ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव । तदेकꣳ सन्न व्यभवत् तच्छ्रेयो
रूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो
रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति । तस्मात्क्षत्रात्परं नास्ति
तस्माद्ब्राह्मणः क्षत्रियमधस्तादुपास्ते राजसूये । क्षत्र एव तद्यशो
दधाति सैषा क्षत्रस्य योनिर्यद्ब्रह्म । तस्माद्यद्यपि राजा परमतां
गच्छति ब्रह्मैवान्तत उपनिश्रयति स्वां योनिम् । य उ एनꣳ हिनस्ति
स्वाꣳ स योनिमृच्छति । स पापीयान्भवति यथा श्रेयाꣳसꣳ
हिꣳसित्वा ॥ ११॥
मन्त्र १२[I.iv.12]
स नैव व्यभवत् स विशमसृजत यान्येतानि देवजातानि गणश
आख्यायन्ते वसवो रुद्रा आदित्या विश्वे देवा मरुत इति ॥ १२॥
मन्त्र १३[I.iv.13]
स नैव व्यभवत् स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै
पूषेयꣳ हीदꣳ सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च ॥ १३॥
मन्त्र १४[I.iv.14]
स नैव व्यभवत् तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत धर्मम् ।
तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात् परं नास्त्यथो
अबलीयान् बलीयाꣳसमाशꣳसते धर्मेण यथा राज्ञैवम् । यो वै स
धर्मः सत्यं वै तत् तस्मात्सत्यं वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्मं
वा वदन्तꣳ सत्यं वदतीत्येतद्ध्येवैतदुभयं भवति ॥ १४॥
मन्त्र १५[I.iv.15]
तदेतद्ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रस्तदग्निनैव देवेषु ब्रह्माभवद्
ब्राह्मणो मनुष्येषु क्षत्रियेण क्षत्रियो वैश्येन वैश्यः शूद्रेण
शूद्रस्तस्मादग्नावेव देवेषु लोकमिच्छन्ते ब्राह्मणे मनुष्येष्वेताभ्याꣳ
हि रूपाभ्यां ब्रह्माभवदथ यो ह वा अस्माल्लोकात्स्वं
लोकमदृष्ट्वा प्रैति स एनमविदितो न भुनक्ति यथा वेदो
वाऽननूक्तोऽन्यद्वा कर्माकृतम् । यदि ह वा अप्यनेवंविन्महत्पुण्यं
कर्म करोति तद्धास्यान्ततः क्षीयत एवाऽऽत्मानमेव लोकमुपासीत । स
य आत्मानमेव लोकमुपास्ते न हास्य कर्म क्षीयतेऽस्माद्ध्येवाऽऽत्मनो
यद्यत्कामयते तत्तत्सृजते ॥ १५॥
मन्त्र १६[I.iv.16]
अथो अयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः स यज्जुहोति यद्यजते
तेन देवानां लोकोऽथ यदनुब्रूते तेन ऋषीणामथ यत् पितृभ्यो
निपृणाति अथ यत्प्रजामिच्छते तेन पितृणामथ यन्मनुष्यान्वासयते
यदेभ्योऽशनं ददाति तेन मनुष्याणामथ यत्पशुभ्यस्तृणोदकं
विन्दति तेन पशूनां यदस्य गृहेषु श्वापदा वयाꣳस्या पिपीलिकाभ्य
उपजीवन्ति तेन तेषां लोको यथा ह वै स्वाय लोकायारिष्टिमिच्छेद्
एवꣳ हैवंविदे सर्वदा सर्वाणि भूतान्यरिष्टिमिच्छन्ति । तद्वा
एतद्विदितं मीमाꣳसितम् ॥ १६॥
मन्त्र १७[I.iv.17]
आत्मैवेदमग्र आसीदेक एव । सोऽकामयत जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ
वित्तं मे स्यात् अथ कर्म कुर्वीयेत्येतावान्वै कामो नेच्छꣳश्चनातो
भूयो विन्देत् तस्मादप्येतर्ह्येकाकी कामयते जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ
वित्तं मे स्यादथ कर्म कुर्वीयेति । स यावदप्येतेषामेकैकं
न प्राप्नोत्यकृत्स्न एव तावन् मन्यते । तस्यो कृत्स्नता । मन
एवास्याऽऽत्मा वाग्जाया प्राणः प्रजा चक्षुर्मानुषं वित्तं चक्षुषा
हि तद्विन्दते श्रोत्रं दैवꣳ श्रोत्रेण हि तच्छृणोत्यात्मैवास्य
कर्माऽऽत्मना हि कर्म करोति । स एष पाङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्तः पशुः
पाङ्क्तः पुरुषः पाङ्क्तमिदꣳ सर्वं यदिदं किञ्च । तदिदꣳ
सर्वमाप्नोति य एवं वेद ॥ १७॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥
अथ पञ्चमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[I.v.1]
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽऽजनयत्पिता । एकमस्य साधारणं द्वे
देवानभाजयत् ॥ त्रीण्यात्मनेऽकुरुत पशुभ्य एकं प्रायच्छत् ।
तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न ॥ कस्मात्तानि
न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदा । यो वै तामक्षितिं वेद सोऽन्नमत्ति
प्रतीकेन स देवानपिगच्छति स ऊर्जमुपजीवतीति श्लोकाः ॥ १॥
मन्त्र २[I.v.2]
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाऽजनयत्पितेति मेधया हि तपसाजनयत्
पितैकमस्य साधारणमितीदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते ।
स य एतदुपास्ते न स पाप्मनो व्यावर्तते मिश्रꣳ ह्येतत् । द्वे
देवानभाजयदिति हुतं च प्रहुतं च तस्माद् देवेभ्यो जुह्वति च प्र
च जुह्वत्यथो आहुर्दर्शपूर्णमासाविति । तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात् ।
पशुभ्य एकं प्रायच्छदिति तत्पयः । पयो ह्येवाग्रे मनुष्याश्च
पशवश्चोपजीवन्ति । तस्मात् कुमारं जातं घृतं वै वाग्रे
प्रतिलेहयन्ति स्तनं वाऽनुधापयन्त्यथ वत्सं जातमाहुरतृणाद
इति । तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च नेति पयसि
हीदꣳ सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न । तद्यदिदमाहुः
संवत्सरं पयसा जुह्वदप पुनर्मृत्युं जयतीति न तथा विद्याद्
यदहरेव जुहोति तदहः पुनर्मृत्युमपजयत्येवं विद्वान् सर्वꣳ
हि देवेभ्योऽन्नाद्यं प्रयच्छति । कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि
सर्वदेति पुरुषो वा अक्षितिः स हीदमन्नं पुनः पुनर्जनयते ।
यो वै तामक्षितिं वेदेति पुरुषो वा अक्षितिः । स हीदमन्नं धिया
धिया जनयते कर्मभिर्यद्धैतन्न कुर्यात् क्षीयेत ह । सोऽन्नमत्ति
प्रतीकेनेति मुखं प्रतीकं मुखेनेत्येतत् स देवानपिगच्छति स
ऊर्जमुपजीवतीति प्रशꣳसा ॥ २॥
मन्त्र ३[I.v.3]
त्रीण्यात्मनेऽकुरुतेति मनो वाचं प्राणं तान्यात्मनेऽकुरुतान्यत्रमना
अभूवं नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति
मनसा शृणोति । कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा
धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव । तस्मादपि
पृष्ठत उपस्पृष्टो मनसा विजानाति । यः कश्च शब्दो वागेव
सैषा ह्यन्तमायत्तैषा हि न । प्राणोऽपानो व्यान उदानः समानोऽन
इत्येतत्सर्वं प्राण एवैतन्मयो वा अयमात्मा वाङ्मयो मनोमयः प्राणमयः ॥ ३॥
मन्त्र ४[I.v.4]
त्रयो लोका एत एव वागेवायं लोको मनोऽन्तरिक्षलोकः प्राणोऽसौ लोकः ॥ ४॥
मन्त्र ५[I.v.5.]
त्रयो वेदा एत एव वागेवर्ग्वेदो मनो यजुर्वेदः प्राणः सामवेदः ॥ ५॥
मन्त्र ६[I.v.6]
देवाः पितरो मनुष्या एत एव वागेव देवा मनः पितरः प्राणो मनुष्याः ।
मन्त्र ७[I.v.7]
पिता माता प्रजैत एव मन एव पिता वाङ्माता प्राणः प्रजा ॥ ७॥
मन्त्र ८[.I.v.8]
विज्ञातं विजिज्ञास्यमविज्ञातमेत एव यत्किञ्च विज्ञातं
वाचस्तद्रूपं वाग्घि विज्ञाता वागेनं तद्भूत्वाऽवति ॥ ८॥
मन्त्र ९[I.v.9]
यत्किञ्च विजिज्ञास्यं मनसस्तद्रूपं मनो हि विजिज्ञास्यं मन एनं
तद्भूत्वाऽवति ॥ ९॥
मन्त्र १०[I.v.10]
यत्किञ्चाविज्ञातं प्राणस्य तद्रूपं प्राणो ह्यविज्ञातः प्राण एनं
तद्भूत्वाऽवति ॥ १०॥
मन्त्र ११[I.v.11]
तस्यै वाचः पृथिवी शरीरं ज्योती रूपमयमग्निस्तद्यावत्येव वाक्
तावती पृथिवी तावानयमग्निः ॥ ११॥
मन्त्र १२[I.v.12]
अथैतस्य मनसो द्यौः शरीरं ज्योतीरूपमसावादित्यस्तद्यावदेव
मनस्तावती द्यौस्तावानसावादित्यस्तौ मिथुनꣳ समैतां ततः
प्राणोऽजायत । स इन्द्रः स एषोऽसपत्नो द्वितीयो वै सपत्नो नास्य
सपत्नो भवति य एवं वेद ॥ १२॥
मन्त्र १३[I.v.13]
अथैतस्य प्राणस्याऽऽपः शरीरं ज्योतीरूपमसौ चन्द्रस्तद्यावानेव
प्राणस्तावत्य आपस्तावानसौ चन्द्रः । त एते सर्व एव समाः
सर्वेऽनन्ताः । स यो हैतानन्तवत उपास्तेऽन्तवन्तꣳ स लोकं
जयत्यथ यो हैताननन्तानुपास्तेऽनन्तꣳ स लोकं जयति ॥ १३॥
मन्त्र १४[I.v.14]
स एष संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलस्तस्य रात्रय एव पञ्चदश
कला ध्रुवैवास्य षोडशी कला । स रात्रिभिरेवाऽऽ च पूर्यते
ऽप च क्षीयते । सोऽमावास्याꣳ रात्रिमेतया षोडश्या कलया
सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते । तस्मादेताꣳ
रात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विच्छिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव
देवताया अपचित्यै ॥ १४॥ अपचित्यै
मन्त्र १५[I.v.15]
यो वै स संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलोऽयमेव स
योऽयमेवंवित्पुरुषस्तस्य वित्तमेव पञ्चदश कला आत्मैवास्य
षोडशी कला । स वित्तेनैवाऽऽ च पूर्यतेऽप च क्षीयते ।
तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा प्रधिर्वित्तम् । तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं
जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनाऽगादित्येवाऽऽहुः ॥ १५॥
मन्त्र १६[I.v.16]
अथ त्रयो वाव लोकाः मनुष्यलोका पितृलोको देवलोक इति । सोऽयं
मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा कर्मणा पितृलोको विद्यया
देवलोको देवलोको वै लोकानाꣳ श्रेष्ठस्तस्माद्विद्यां प्रशꣳसन्ति ॥ १६॥
मन्त्र १७[I.v.17]
अथातः सम्प्रत्तिर्यदा प्रैष्यन्मन्यतेऽथ पुत्रमाह त्वं ब्रह्म
त्वं यज्ञस्त्वं लोक इति । स पुत्रः प्रत्याहाहं ब्रह्माहं यज्ञो
ऽहम् लोक इति । यद्वै किञ्चानूक्तं तस्य सर्वस्य ब्रह्मेत्येकता ।
ये वै के च यज्ञास्तेषाꣳ सर्वेषां यज्ञ इत्येकता ।
ये वै केच लोकास्तेषाꣳ सर्वेषां लोक इत्येकतैतावद्वा
इदꣳ सर्वमेतन्मा सर्वꣳ सन्नयमितोऽभुनजदिति ।
तस्मात् पुत्रमनुशिष्टं लोक्यमाहुस्तस्मादेनमनुशासति । स
यदैवंविदस्माल्लोकात्प्रैत्यथैभिरेव प्राणैः सह पुत्रमाविशति ।
स यद्यनेन किञ्चिदक्ष्णयाऽकृतं भवति तस्मादेनꣳ
सर्वस्मात्पुत्रो मुञ्चति । तस्मात् पुत्रो नाम । स पुत्रेणैवास्मिंॅल्लोके
प्रतितिष्ठत्यथैनमेते दैवाः प्राणा अमृता आविशन्ति ॥ १७॥
मन्त्र १८[I.v.18]
पृथिव्यै चैनमग्नेश्च दैवी वागाविशति । सा वै दैवी वाग्यया
यद्यदेव वदति तत्तद्भवति ॥ १८॥
मन्त्र १९[I.v.19]
दिवश्चैनमादित्याच्च दैवं मन आविशति । तद्वै दैवं मनो
येनाऽऽनन्द्येव भवत्यथो न शोचति ॥ १९॥
मन्त्र २०[I.v.20]
अद्भ्यश्चैनं चन्द्रमसश्च दैवः प्राण आविशति । स वै दैवः
प्राणो यः सञ्चरꣳश्चासञ्चरꣳश्च न व्यथतेऽथो
न रिष्यति । स एवंवित्सर्वेषां भूतानामात्मा भवति । यथैषा
देवतैवꣳ स यथैतां देवताꣳ सर्वाणि भूतान्यवन्त्येवꣳ
हैवंविदꣳ सर्वाणि भूतान्यवन्ति । यदु किञ्चेमाः प्रजाः
शोचन्त्यमैवाऽऽसां तद्भवति पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै
देवान्पापं गच्छति ॥ २०॥
मन्त्र २१[I.v.21]
अथातो व्रतमीमाꣳसा । प्रजापतिर्ह कर्माणि ससृजे । तानि
सृष्टान्यन्योऽन्येनास्पर्धन्त वदिष्याम्येवाहमिति वाग्दध्रे
द्रक्ष्याम्यहमिति चक्षुः श्रोष्याम्यहमिति श्रोत्रम् । एवमन्यानि
कर्माणि यथाकर्म । तानि मृत्युः श्रमो भूत्वोपयेमे तान्याप्नोत्
तान्याप्त्वा मृत्युरवारुन्ध । तस्माच्छ्राम्यत्येव वाक् श्राम्यति
चक्षुः श्राम्यति श्रोत्रमथेममेव नाऽऽप्नोद् योऽयं
मध्यमः प्राणस्तानि ज्ञातुं दध्रिरेऽयं वै नः श्रेष्ठो
यः सञ्चरꣳश्चासञ्चरꣳश्च न व्यथतेऽथो न
रिष्यति । हन्तास्यैव सर्वे रूपमसामेति । त एतस्यैव सर्वे
रूपमभवꣳस्तस्मादेत एतेनाऽऽख्यायन्ते प्राणा इति । तेन ह वाव
तत्कुलमाचक्षते यस्मिन्कुले भवति य एवं वेद । य उ हैवंविदा
स्पर्धतेऽनुशुष्यत्यनुशुष्य हैवान्ततो म्रियत इत्यध्यात्मम् ॥ २१॥
मन्त्र २२[I.v.22]
अथाधिदैवतं ज्वलिष्याम्येवाहमित्यग्निर्दध्रे तप्स्याम्यहमित्यादित्यो
भास्याम्यहमिति चन्द्रमा एवमन्या देवता यथादैवतꣳ । स
यथैषां प्राणानां मध्यमः प्राण एवमेतासां देवतानां वायुर्निम्लोचन्ति
ह्यन्या देवता न वायुः । सैषाऽनस्तमिता देवता यद्वायुः ॥ २२॥
मन्त्र २३[I.v.23]
अथैष श्लोको भवति यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छतीति
प्राणाद्वा एष उदेति प्राणेऽस्तमेति तं देवाश्चक्रिरे धर्मꣳ,
स एवाद्य स उ श्व इति । यद्वा एतेऽमुर्ह्यध्रियन्त तदेवाप्यद्य
कुर्वन्ति । तस्मादेकमेव व्रतं चरेत् प्राण्याच्चैवापान्याच्च नेन्मा
पाप्मा मृत्युराप्नवदिति । यद्यु चरेत् समापिपयिषेत् तेनो एतस्यै
देवतायै सायुज्यꣳ सलोकतां जयति ॥ २३॥
इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥
अथ षष्ठं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[I.vi.1]
त्रयं वा इदं नाम रूपं कर्म । तेषां नाम्नां वागित्येतदेषामुक्थमतो
हि सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्ति । एतदेषाꣳ सामैतद्धि सर्वैर्नामभिः
सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्ति ॥ १॥
मन्त्र २[I.vi.2]
अथ रूपाणां चक्षुरित्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि रूपाण्युत्तिष्ठन्ति ।
एतदेषाꣳ सामैतद्धि सर्वै रूपैः समम् । एतदेषां ब्रह्मैतद्धि
सर्वाणि रूपाणि बिभर्ति ॥ २॥
मन्त्र ३[I.vi.3]
अथ कर्मणामात्मेत्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि
कर्माण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषाꣳ सामैतद्धि सर्वैः कर्मभिः समं
एतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि कर्माणि बिभर्ति । तदेतत्त्रयꣳ
सदेकमयमात्माऽऽत्मो एकः सन्नेतत्त्रयम् । तदेतदमृतꣳ सत्येन
छन्नम् । प्राणो वा अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्यामयं प्राणश्छन्नः ॥ ३॥
इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥
॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि प्रथमोऽध्यायः ॥
अथ द्वितीयोऽध्यायः ।
अथ प्रथमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[II.i.1]
ॐ दृप्तबालाकिर्हानूचानो गार्ग्य आस । स होवाचाजातशत्रुं काश्यं
ब्रह्म ते ब्रवाणीति । स होवाचाजातशत्रुः सहस्रमेतस्यां वाचि दद्मो
जनको जनक इति वै जना धावन्तीति ॥ १॥
मन्त्र २[II.i.2]
स होवाच गार्ग्यो य एवासावादित्ये पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति ।
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । अतिष्ठाः सर्वेषां
भूतानां मूर्धा राजेति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते
ऽतिष्ठाः सर्वेषां भूतानां मूर्धा राजा भवति ॥ २॥
मन्त्र ३[II.i.3]
स होवाच गार्ग्यो य एवासौ चन्द्रे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति ।
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । बृहन् पाण्डरवासाः
सोमो राजेति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्तेऽहरहर्ह
सुतः प्रसुतो भवति नास्यान्नं क्षीयते ॥ ३॥
मन्त्र ४[II.i.4]
स होवाच गार्ग्यो य एवासौ विद्युति पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति ।
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठास्तेजस्वीति वा अहमेतमुपास
इति । स य एतमेवमुपास्ते तेजस्वी ह भवति तेजस्विनी हास्य प्रजा
भवति ॥ ४॥
मन्त्र ५[II.i.5]
स होवाच गार्ग्यो य एवायमाकाशे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति ।
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठाः । पूर्णमप्रवर्तीति
वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते पूर्यते प्रजया
पशुभिर्नास्यास्माल्लोकात्प्रजोद्वर्तते ॥ ५॥
मन्त्र ६[II.i.6]
स होवाच गार्ग्यो य एवायं वायौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास
इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । इन्द्रो
वैकुण्ठोऽपराजिता सेनेति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते
जिष्णुर्हापराजिष्णुर्भवत्यन्यतस्त्यजायी ॥ ६॥
मन्त्र ७[II.i.7]
स होवाच गार्ग्यो य एवायमग्नौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति ।
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । विषासहिरिति
वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते विषासहिर्ह भवति
विषासहिर्हास्य प्रजा भवति ॥ ७॥
मन्त्र ८[II.i.8]
स होवाच गार्ग्यो य एवायमप्सु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास
इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठाः । प्रतिरूप
इति वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते प्रतिरूपꣳ
हैवैनमुपगच्छति नाप्रतिरूपमथो प्रतिरूपोऽस्माज्जायते ॥ ८॥
मन्त्र ९[II.i.9]
स होवाच गार्ग्यो य एवायमादर्शे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति ।
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । रोचिष्णुरिति
वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते रोचिष्णुर्ह
भवति रोचिष्णुर्हास्य प्रजा भवत्यथो यैः सन्निगच्छति
सर्वाꣳस्तानतिरोचते ॥ ९॥
मन्त्र १०[II.i.10]
स होवाच गार्ग्यो य एवायं यन्तं पश्चाछब्दोऽनूदेत्येतमेवाहं
ब्रह्मोपास इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । असुरिति
वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते सर्वꣳ हैवास्मिꣳल्लोक
आयुरेति नैनं पुरा कालात्प्राणो जहाति ॥ १०॥
मन्त्र ११[II.i.11]
स होवाच गार्ग्यो य एवायं दिक्षु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति ।
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । द्वितीयोऽनपग इति
वा अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते द्वितीयवान्ह भवति नास्माद्
गणश्छिद्यते ॥ ११॥
मन्त्र १२[II.i.12]
स होवाच गार्ग्यो य एवायं छायामयः पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास
इति । स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा । मृत्युरिति वा
अहमेतमुपास इति । स य एतमेवमुपास्ते सर्वꣳ हैवास्मिꣳल्लोक
आयुरेति नैनं पुरा कालान्मृत्युरागच्छति ॥ १२॥
मन्त्र १३[II.i.13]
स होवाच गार्ग्यो य एवायमात्मनि पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति । स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्ठा आत्मन्वीति वा अहमेतमुपास इति ।
स य एतमेवमुपास्त आत्मन्वी ह भवत्यात्मन्विनी हास्य प्रजा भवति ।
स ह तूष्णीमास गार्ग्यः ॥ १३॥
मन्त्र १४[II.i.14]
स होवाचाजातशत्रुरेतावन्नू ३ इत्येतावद्धीति । नैतावता विदितं
भवतीति । स होवाच गार्ग्य उप त्वा यानीति ॥ १४॥
मन्त्र १५[II.i.15]
स होवाचाजातशत्रुः प्रतिलोमं चैतद्यद्ब्राह्मणः
क्षत्रियमुपेयाद् ब्रह्म मे वक्ष्यतीति । व्येव त्वा
ज्ञपयिष्यामीति । तं पाणावादायोत्तस्थौ । तौ ह पुरुषꣳ
सुप्तमाजग्मतुस्तमेतैर्नामभिरामन्त्रयांचक्रे बृहन्पाण्डरवासः
सोम राजन्निति । स नोत्तस्थौ । तं पाणिनाऽऽपेषं बोधयांचकार ।
स होत्तस्थौ ॥ १५॥
मन्त्र १६[II.i.16]
स होवाचाजातशत्रुर्यत्रैष एतत् सुप्तोऽभूद् य एष विज्ञानमयः
पुरुषः क्वैष तदाऽभूत् कुत एतदागादिति । तदु ह न मेने गार्ग्यः ॥ १६॥
मन्त्र १७[II.i.17]
स होवाचाजातशत्रुर्यत्रैष एतत्।सुप्तोऽभूद् य एष विज्ञानमयः
पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय
आकाशस्तस्मिञ्छेते । तानि यदा गृह्णाति अथ हैतत्पुरुषः
स्वपिति नाम । तद्गृहीत एव प्राणो भवति गृहीता वाग् गृहीतं
चक्षुर्गृहीतꣳ श्रोत्रं गृहीतं मनः ॥ १७॥
मन्त्र १८[II.i.18]
स यत्रैतत्स्वप्न्यया चरति ते हास्य लोकास्तदुतेव महाराजो
भवत्युतेव महाब्राह्मण उतेवोच्चावचं निगच्छति । स यथा
महाराजो जानपदान्गृहीत्वा स्वे जनपदे यथाकामं परिवर्तेतैवमेवैष
एतत्प्राणान्गृहीत्वा स्वे शरीरे यथाकामं परिवर्तते ॥ १८॥ गृहीत्वा
स्वे शरीरे यथाकामम् परिवर्तते
मन्त्र १९[II.i.19]
अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्यचन वेद हिता नाम नाड्यो
द्वासप्ततिः सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते । ताभिः
प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते । स यथा कुमारो वा महाराजो वा
महाब्राह्मणो वाऽतिघ्नीमानन्दस्य गत्वा शयीतैवमेवैष एतच्छेते ॥ १९॥
मन्त्र २०[II.i.20]
स यथोर्णभिस्तन्तुनोच्चरेद् यथाऽग्नेः क्षुद्रा विष्फुलिङ्गा
व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे
देवाः सर्वाणि भूतानि व्युच्चरन्ति । सर्वे ॥। व्युच्चरन्ति
तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम् ॥ २०॥
इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥
अथ द्वितीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[II.ii.1]
यो ह वै शिशुꣳ साधानꣳ सप्रत्याधानꣳ सस्थूणꣳ
सदामं वेद सप्त ह द्विषतो भ्रातृव्यानवरुणद्ध्ययं वाव
शिशुर्योऽयं मध्यमः प्राणस्तस्येदमेवाऽऽधानमिदं प्रत्याधानं
प्राणः स्थूणाऽन्नं दाम ॥ १॥
मन्त्र २[II.ii.2]
तमेताः सप्ताक्षितय उपतिष्ठन्ते तद्या इमा अक्षꣳल्लोहिन्यो
राजयस्ताभिरेनꣳ रुद्रोऽन्वायत्तोऽथ या अक्षन्नापस्ताभिः पर्जन्यो
या कनीनका तयाऽऽदित्यो यत्कृष्णं, तेनाग्निर्यच्छुक्लं तेनेन्द्रो
ऽधरयैनं वर्तन्या पृथिव्यन्वायत्ता द्यौरुत्तरया । नास्यान्नं
क्षीयते य एवं वेद ॥ २॥
मन्त्र ३[II.ii.3]
तदेष श्लोको भवति । अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन्यशो
निहितं विश्वरूपम् । तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीरे वागष्टमी
ब्रह्मणा संविदानेति । अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्न इतीदं तच्छिरः
एष ह्यर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नः । तस्मिन्यशो निहितं
विश्वरूपमिति प्राणा वै यशो निहितं विश्वरूपं प्राणानेतदाह ।
तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीर इति प्राणा वा ऋषयः प्राणाणेतदाह ।
वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति वाग्घ्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते ॥ ३॥
मन्त्र ४[II.ii.4]
इमावेव गोतमभरद्वाजावयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव
विश्वामित्रजमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव
वसिष्ठकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिर्वाचा
ह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति । सर्वस्यात्ता भवति
सर्वमस्यान्नं भवति य एवं वेद ॥ ४॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ तृतीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[II.iii.1]
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च
स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च ॥ १॥
मन्त्र २[II.iii.2]
तदेतन्मूर्तं यदन्यद्वायोश्चान्तरिक्षाच्चैतन्मर्त्यमेतत्स्थितं
एतत्सत् । तस्यैतस्य मूर्तस्यैतस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य
सत एष रसो य एष तपति सतो ह्येष रसः ॥ २॥
मन्त्र ३[II.iii.3]
अथामूर्तं वायुश्चान्तरिक्षं चैतदमृतमेतद्यदेतत्त्यत्
तस्यैतस्यामूर्तस्यै तस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष रसो
य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्तस्य ह्येष रस । इत्यधिदैवतम् ॥ ३॥
मन्त्र ४[II.iii.4]
अथाध्यात्ममिदमेव मूर्तं यदन्यत्प्राणाच्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश
एतन्मर्त्यमेतत्स्थितमेतत्सत् तस्यैतस्य मूर्तस्यै तस्य
मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य सत एष रसो यच्चक्षुः सतो ह्येष
रसः ॥ ४॥
मन्त्र ५[II.iii.5]
अथामूर्तं प्राणश्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश एतदमृतमेतद्यद्
एतत्त्यं तस्यैतस्यामूर्तस्यैतस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष
रसो योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्त्यस्य ह्येष रसः ॥ ५॥
मन्त्र ६[II.iii.6]
तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपम् । यथा माहारजनं वासो यथा पाण्ड्वाविकं
यथेन्द्रगोपो यथाऽग्न्यर्चिर्यथा पुण्डरीकं यथा सकृद्विद्युत्तꣳ ।
सकृद्विद्युत्तेव ह वा अस्य श्रीर्भवति य एवं वेदा थात आदेशो
नेति नेति न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत् परमस्त्यथ नामधेयꣳ सत्यस्य
सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम् ॥ ६॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ चतुर्थं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[II.iv.1]
मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि ।
हन्त तेऽनया कात्यायन्याऽन्तं करवाणीति ॥ १॥
मन्त्र २[II.iv.2]
सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन
पूर्णा स्यात् कथं तेनामृता स्यामिति । नेति होवाच याज्ञवल्क्यो
यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितꣳ स्यादमृतत्वस्य
तु नाऽऽशाऽस्ति वित्तेनेति ॥ २॥
मन्त्र ३[II.iv.3]
सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् । यदेव
भगवान्वेद तदेव मे ब्रूहीति ॥ ३॥
मन्त्र ४[II.iv.4]
स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया बतारे नः सती प्रियं भाषस एह्यास्स्व
व्याख्यास्यामि ते । व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ॥ ४॥
मन्त्र ५[II.iv.5]
स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय
पतिः प्रियो भवति । न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु
कामाय जाया प्रिया भवति । न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति । न वा अरे वित्तस्य
कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति ।
न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय
ब्रह्म प्रियं भवति । न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं
भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति । न वा अरे लोकानां
कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति । न
वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया
भवन्ति । न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु
कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति । न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं
भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मा वा अरे द्रष्टव्यः
श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो । मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन
श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदꣳ सर्वं विदितम् ॥ ५॥
मन्त्र ६[II.iv.6]
ब्रह्म तं परादाद्योऽन्यत्राऽऽत्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तं
परादाद्योऽन्यत्राऽऽत्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो
लोकान्वेद देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं
परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद् योऽन्यत्रात्मनः
सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीदꣳ
सर्वं यदयमात्मा ॥ ६॥
मन्त्र ७[II.iv.7]
स यथा दुन्दुभेर्हन्यमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय
दुन्दुभेस्तु ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ७॥
मन्त्र ८[II.iv.8]
स यथा शङ्खस्य ध्मायमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय
शङ्खस्य तु ग्रहणेन शङ्खध्मस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ८॥
मन्त्र ९[II.iv.9]
स यथा वीणायै वाद्यमानायै न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय
वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ९॥
मन्त्र १०[II.iv.10]
स यथाऽऽर्द्रैधाग्नेरभ्याहितात्पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं
वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः
सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः
सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्य्सामवेदसथर्वाङ्गिरससितिहासस्पुराणं
विद्यासुपनिषदस्श्लोकास्सूत्राणि अनुव्याख्यानानि व्याख्याननि अस्यैवैतानि
निःश्वसितानि ॥ १०॥
मन्त्र ११[II.iv.11]
स यथा सर्वासामपाꣳ समुद्र एकायनमेवꣳ सर्वेषाꣳ
स्पर्शानां त्वगेकायनमेवꣳ सर्वेषां गन्धानां नासिकैकायनं
एवꣳ सर्वेषाꣳ रसानां जिह्वैकायनमेवꣳ सर्वेषाꣳ
रूपाणां चक्षुरेकायनमेवꣳ सर्वेषाꣳ शब्दानाꣳ
श्रोत्रमेकायनमेवꣳ सर्वेषाꣳ सङ्कल्पानां मन एकायनं
एवꣳ सर्वासां विद्यानाꣳ हृदयमेकायनमेवꣳ सर्वेषां
कर्मणाꣳ हस्तावेकायनमेवꣳ सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनं
एवꣳ सर्वेषां विसर्गाणां पायुरेकायनमेवꣳ सर्वेषामध्वनां
पादावेकायनमेवꣳ सर्वेषां वदानां वागेकायनम् ॥ ११॥
मन्त्र १२[II.iv.12]
स यथा सैन्धवखिल्य उदके प्रास्त उदकमेवानुविलीयेत न
हास्योद्ग्रहणायेव न हास्योद्ग्रहणायैव स्याद् यतो यतस्त्वाददीत
लवणमेवैवं वा अर इदं महद् भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन
एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय एतेभ्यस्भूतेभ्यस्समुत्थाय
तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य सञ्ज्ञाऽस्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच
याज्ञवल्क्यः ॥ १२॥
मन्त्र १३[II.iv.13]
सा होवाच मैत्रेय्यत्रैव मा भगवानमूमुहद् न प्रेत्य सञ्ज्ञाऽस्तीति ।
स होवाच न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यलं वा अर इदं विज्ञानाय ॥ १३॥
मन्त्र १४[II.iv.14]
यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर इतरं
पश्यति तदितर इतरꣳ शृणोति तदितर इतरमभिवदति तदितर
इतरं मनुते तदितर इतरं विजानाति । यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत्
तत्केन कं जिघ्रेत् तत्केन कं पश्येत् तत्केन कꣳ शृणुयात् तत्केन
कमभिवदेत् तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं विजानीयात् । येनेदꣳ
सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद् विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति ॥ १४॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥
अथ पञ्चमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[II.v.1]
इयं पृथिवी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि
भूतानि मधु यश्चायमस्यां पृथिव्यां तेजोमयोऽमृतमयः
पुरुषो यश्चायमध्यात्मꣳ शारीरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः
अमृतमयस्पुरुषसयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ
सर्वम् ॥ १॥
मन्त्र २[II.v.2]
इमा आपः सर्वेषां भूतानां मध्वसामपाꣳ सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमास्वप्सु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः यश्चायमध्यात्मꣳ
रैतसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतं
इदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ २॥
मन्त्र ३[II.v.3]
अयमग्निः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याग्नेः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नग्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
वाङ्मयस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतं
इदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ३॥
मन्त्र ४[II.v.4]
अयं वायुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य वायोः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्वायौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
प्राणस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतम्।
इदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ४॥
मन्त्र ५[II.v.5]
अयमादित्यः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याऽऽदित्यस्य सर्वाणि
भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नादित्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो
यश्चायमध्यात्मं चाक्षुषस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव
स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ५॥
मन्त्र ६[II.v.6]
इमा दिशः सर्वेषां भूतानां मध्वासां दिशाꣳ सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमासु दिक्षु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मꣳ
श्रौत्रः प्रातिश्रुत्कस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स
योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ६॥
मन्त्र ७[II.v.7]
अयं चन्द्रः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य चन्द्रस्य सर्वाणि
भूतानि मधु यश्चायमस्मिंश्चन्द्रे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो
यश्चायमध्यात्मं मानसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स
योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ७॥
मन्त्र ८[II.v.8]
इयं विद्युत्सर्वेषां भूतानं मध्वस्यै विद्युतः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्यां विद्युति तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
तैजसस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतं
इदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ८॥
मन्त्र ९[II.v.9]
अयꣳ स्तनयित्नुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य स्तनयित्नोः सर्वाणि
भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्स्तनयित्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो
यश्चायमध्यात्मꣳ शाब्दः सौवरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो
ऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ९॥
मन्त्र १०[II.v.10]
अयमाकाशः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याऽऽकाशस्य सर्वाणि
भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नाकाशे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो
यश्चायमध्यात्मꣳ हृद्याकाशस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः
ऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ १०॥
मन्त्र ११[II.v.11]
अयं धर्मः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य धर्मस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्धर्मे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
धार्मस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतं
इदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ ११॥
मन्त्र १२[II.v.12]
इदꣳ सत्यꣳ सर्वेषां भूतानां मध्वस्य सत्यस्य सर्वाणि
भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्सत्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो
यश्चायमध्यात्मꣳ सात्यस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स
योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ १२॥
मन्त्र १३[II.v.13]
इदं मानुषꣳ सर्वेषां भूतानां मध्वस्य मानुषस्य सर्वाणि
भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्मानुषे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो
यश्चायमध्यात्मं मानुषस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स
योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ १३॥
मन्त्र १४[II.v.14]
अयमात्मा सर्वेषां भूतानां मध्वस्याऽऽत्मनः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नात्मनि तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमात्मा
तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं
ब्रह्मेदꣳ सर्वम् ॥ १४॥
मन्त्र १५[II.v.15]
स वा अयमात्मा सर्वेषां भूतानामधिपतिः सर्वेषां भूतानाꣳ
राजा । तद्यथा रथनाभौ च रथनेमौ चाराः सर्वे समर्पिता
एवमेवास्मिन्नात्मनि सर्वाणि भूतानि सर्वे देवाः सर्वे लोकाः सर्वे प्राणाः
सर्व एत आत्मानः समर्पिताः ॥ १५॥
मन्त्र १६[II.v.16]
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । उवाच
तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत् । तद्वां नरा सनये दꣳस उग्रं
आविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम् । दध्यङ् ह यन्मध्वाथर्वणो वां
अश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदीमुवाचेति ॥ १६॥
मन्त्र १७[II.v.17]
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेतदृषिः
पश्यन्नवोचत् । आथर्वणायाश्विनौ दधीचेऽश्व्यꣳ शिरः
प्रत्यैरयतम् । स वां मधु प्रवोचदृतायन् त्वाष्ट्रं यद् दस्रावपि
कक्ष्यं वामिति ॥ १७॥
मन्त्र १८[II.v.18]
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेतदृषिः
पश्यन्नवोचत् पुरश्चक्रे द्विपदः पुरश्चक्रे चतुष्पदः । पुरः
स पक्षी भूत्वा पुरः पुरुष आविशदिति । स वा अयं पुरुषः सर्वासु
पूर्षु पुरिशयो नैनेन किंचनानावृतं नैनेन किंचनासंवृतम् ॥ १८॥
मन्त्र १९[II.v.19]
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेतदृषिः
पश्यन्नवोचत् । रूपꣳरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं
प्रतिचक्षणाय । इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः
शता दशेतिययं वै हरयोऽयं वै दश च सहस्रणि बहूनि
चानन्तानि च । तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यमयमात्मा
ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशासनम् ॥ १९॥
इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥
अथ षष्ठं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[II.vi.1]
अथ वꣳशः पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः पौतिमाष्यात्
पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः कौशिकात् कौशिकः कौण्डिन्यात्
कौण्डिन्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कौशिकाच्च गौतमाच्च गौतमः ॥ १॥
मन्त्र २[II.vi.2]
आग्निवेश्यादग्निवेश्यः शाण्डिल्याच्चानभिम्लाताच्चानभिम्लात
आनभिम्लातादनभिम्लात अनभिम्लातादनभिम्लातो गौतमाद् गौतमः
सैतवप्राचीनयोग्याभ्याꣳ, सैतवप्राचीनयोग्यौ पाराशर्यात्
पाराशर्यो भारद्वाजाद् भारद्वाजो भारद्वाजाच्च गौतमाच्च
गौतमो भारद्वाजाद् भारद्वाजः पाराशर्यात् पाराशर्यो वैजवापायनाद्
वैजवापायनः कौशिकायनेः कौशिकायनिः ॥ २॥
मन्त्र ३[II.vi.3]
घृतकौशिकाद् घृतकौशिकः पाराशर्यायणात् पारशर्यायणः
पाराशर्यात् पाराशर्यो जातूकर्ण्याज् जातूकर्ण्य आसुरायणाच्च यास्काच्च्-
ऽऽसुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्धनेरौपजन्धनिरासुरासुरिर्भारद्वाजाद्
भारद्वाज आत्रेयादत्रेयो माण्टेर्माण्टिर्गौतमाद् गौतमो गौतमाद् गौतमो
वात्स्याद् वात्स्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात् कैशोर्यः
काप्यः कुमारहारितात् कुमारहारितो गालवाद् गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्
विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो बाभ्रवाद् वत्सनपाद्बाभ्रवः
पथः सौभरात् पन्थाः सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य
आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्
विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच आथर्वणाद्
दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वꣳसनान् मृत्युः प्राध्वꣳसनः प्रध्वꣳसनात्
प्रध्वꣳसन एकर्षेः एकर्षिर्विप्रचित्तेर्विप्रचित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः
सनारोः सनारुः सनातनात् सनातनः सनगात् सनगः परमेष्ठिनः
परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु ब्रह्मणे नमः ॥ ३॥
इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥
॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि द्वितीयोऽध्यायः ॥
अथ तृतीयोध्यायः ॥
अथ प्रथमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १ [III.i.1]
ॐ जनको ह वैदेहो बहुदक्षिणेन यज्ञेनेजे । तत्र ह कुरुपञ्चालानां
ब्राह्मणा अभिसमेता बभूवुस्तस्य ह जनकस्य वैदेहस्य विजिज्ञासा
बभूव कः स्विदेषां ब्राह्मणानामनूचानतम इति । स ह गवाꣳ
सहस्रमवरुरोध दशदश पादा एकैकस्याः शृङ्गयोराबद्धा बभूवुः ॥ १॥
मन्त्र २ [III.i.2]
तान्होवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वो ब्रह्मिष्ठः स एता गा
उदजतामिति । ते ह ब्राह्मणा न दधृषुरथ ह याज्ञवल्क्यः स्वमेव
ब्रह्मचारिणमुवाचैताः सौम्योदज सामश्रवा३ इति । ता होदाचकार ।
ते ह ब्राह्मणाश्चुक्रुधुः कथं नु नो ब्रह्मिष्ठो ब्रुवीतेत्यथ ह
जनकस्य वैदेहस्य होताऽश्वलो बभूव । स हैनं पप्रच्छ त्वं
नु खलु नो याज्ञवल्क्य ब्रह्मिष्ठोऽसी३ इति । स होवाच नमो वयं
ब्रह्मिष्ठाय कुर्मो गोकामा एव वयꣳ स्म इति । तꣳ ह तत एव
प्रष्टुं दध्रे होताऽश्वलः ॥ २॥
मन्त्र ३ [III.i.3]
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदꣳ सर्वं मृत्युनाऽऽप्तꣳ, सर्वं
मृत्युनाऽभिपन्नं केन यजमानो मृत्योराप्तिमतिमुच्यत इति ।
होत्रर्त्विजाऽइना वाचा वाग्वै यज्ञस्य होता । तद्येयं वाक् सोऽयमग्निः
स होता सा मुक्तिः साऽतिमुक्तिः ॥ ३॥
मन्त्र ४ [III.i.4]
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदꣳ सर्वमहोरात्राभ्यामाप्तꣳ,
सर्वमहोरात्राभ्यामभिपन्नं केन यजमानोऽहोरात्रयोराप्तिमतिमुच्यत
इत्यध्वर्युणर्त्विजा चक्षुषाऽऽदित्येन चक्षुर्वै
यज्ञस्याध्वर्युस्तद्यदिदं चक्षुः सोऽसावादित्यः सोऽध्वर्युः सा
मुक्तिः साऽतिमुक्तिः ॥ ४॥
मन्त्र ५ [III.i.5]
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदꣳ सर्वं
पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामाप्तꣳ, सर्वं
पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामभिपन्नं केन यजमानः
पूर्वपक्षापरपक्षयोराप्तिमतिमुच्यत इत्युद्गात्रर्त्विजा वायुना प्राणेन
प्राणो वै यज्ञस्योद्गाता । तद्योऽयं प्राणः स वायुः स उद्गाता सा मुक्तिः
साऽतिमुक्तिः ॥ ५॥
मन्त्र ६ [III.i.6]
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदमन्तरिक्षमनारम्बणमिव केनाऽऽक्रमेन
यजमानः स्वर्गं लोकमाक्रमत इति ब्रह्मणर्त्विजा मनसा चन्द्रेण
मनो वै यज्ञस्य ब्रह्मा । तद्यदिदं मनः सोऽसौ चन्द्रः स ब्रह्मा
सा मुक्तिः सातिमुक्तिरित्यतिमोक्षा अथ सम्पदः ॥ ६॥
मन्त्र ७ [III.i.7]
याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्यर्ग्भिर्होतास्मिन्यज्ञे करिष्यतीति ।
तिसृभिरिति । कतमास्तास्तिस्र इति । पुरोनुवाक्या च याज्या च शस्यैव
तृतीया । किं ताभिर्जयतीति । यत् किञ्चेदं प्राणभृदिति ॥ ७॥
मन्त्र ८ [III.i.8]
याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्याध्वर्युरस्मिन्यज्ञ आहुतीर्होष्यतीति ।
तिस्र इति । कतमास्तास्तिस्र इति । या हुता उज्ज्वलन्ति या हुता अतिनेदन्ते या
हुता अधिशेरते । किं ताभिर्जयतीति । या हुता उज्ज्वलन्ति देवलोकमेव
ताभिर्जयति दीप्यत इव हि देवलोको । या हुता अतिनेदन्ते पितृलोकमेव
ताभिर्जयत्यतीव हि पितृलोको । या हुता अधिशेरते मनुष्यलोकमेव
ताभिर्जयत्यध इव हि मनुष्यलोकः ॥ ८॥
मन्त्र ९ [III.i.9]
याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्य ब्रह्मा यज्ञं दक्षिणतो
देवताभिर्गोपायतीत्येकयेति । कतमा सैकेति । मन एवेत्यनन्तं वै
मनो ंअन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति ॥ ९॥
मन्त्र १० [III.i.10]
याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्योद्गाताऽस्मिन्यज्ञे स्तोत्रियाः स्तोष्यतीति ।
तिस्र इति । कतमास्तास्तिस्र इति । पुरोनुवाक्या च याज्या च शस्यैव
तृतीया कतमास्ता या अध्यात्ममिति । प्राण एव पुरोनुवाक्याऽपानो याज्या
व्यानः शस्या । किं ताभिर्जयतीति । पृथिवीलोकमेव पुरोनुवाक्यया
जयत्यन्तरिक्षलोकं याज्यया द्युलोकꣳ शस्यया ततो ह होताऽश्वल
उपरराम ॥ १०॥
इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥
अथ द्वितीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[III.ii.1]
अथ हैनं जारत्कारव आर्तभागः पप्रच्छ । याज्ञवल्क्येति होवाच
कति ग्रहाः कत्यतिग्रहा इत्यष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहा इति ये तेऽष्टौ
ग्रहा अष्टावतिग्रहाः कतमे त इति ॥ १॥
मन्त्र २[III.ii.2]
प्राणो वै ग्रहः । सोऽपानेनातिग्राहेण गृहीतोऽपानेन हि
गन्धाञ्जिघ्रति ॥ २॥
मन्त्र ३[III.ii.3]
वाग्वै ग्रहः । स नाम्नातिग्राहेण गृहीतो वाचा हि नामान्यभिवदति ॥ ३॥
मन्त्र ४[III.ii.4]
जिह्वा वै ग्रहः । स रसेनातिग्राहेण गृहीतो जिह्वया हि रसान्विजानाति ॥ ४॥
मन्त्र ५[III.ii.5]
चक्षुर्वै ग्रहः । स रूपेणातिग्राहेण गृहीतश्चक्षुषा हि रूपाणि
पश्यति ॥ ५॥
मन्त्र ६[III.ii.6]
श्रोत्रं वै ग्रहः । स शब्देनातिग्राहेण गृहीतः श्रोत्रेण हि
शब्दाञ्शृणोति ।
मन्त्र ७[III.ii.7]
मनो वै ग्रहः । स कामेनातिग्राहेण गृहीतो मनसा हि कामान्कामयते ॥ ७॥
मन्त्र ८[III.ii.8]
हस्तौ वै ग्रहः । स कर्मणाऽतिग्राहेण गृहीतो हस्ताभ्याꣳ हि
कर्म करोति ॥ ८॥
मन्त्र ९[II.ii.9]
त्वग्वै ग्रहः । स स्पर्शेनातिग्राहेण गृहीतस्त्वचा हि स्पर्शान्वेदयत ।
इत्येतेऽष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहाः ॥ ९॥
मन्त्र १०[III.ii.10]
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदꣳ सर्वं मृत्योरन्नं का स्वित्सा देवता
यस्या मृत्युरन्नमित्यग्निर्वै मृत्युः सोऽपामन्नमप पुनर्मृत्युं
जयति ॥ १०॥
मन्त्र ११[III.ii.11]
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियत उदस्मात्प्राणाः
क्रामन्त्यहो३ नेति नेति होवाच याज्ञवल्क्योऽत्रैव समवनीयन्ते स
उच्छ्वयत्याध्मायति आध्मातो मृतः शेते ॥ ११॥
मन्त्र १२[III.ii.12]
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियते किमेनं न जहातीति ।
नामेत्यनन्तं वै नामानन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति ॥ १२॥
मन्त्र १३[III.ii.13]
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रास्य पुरुषस्य मृतस्याग्निं वागप्येति वातं
प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रं दिशः श्रोत्रं पृथिवीꣳ
शरीरमाकाशमात्मौषधीर्लोमानि वनस्पतीन्केशा अप्सु लोहितं च
रेतश्च निधीयते क्वायं तदा पुरुषो भवतीत्यहर सौम्य हस्तं
आर्तभागेति होवाऽऽचावामेवैतस्य वेदिष्यावो न नावेतत्सजन इति । तौ
होत्क्रम्य मन्त्रयां चक्राते तौ ह यदूचतुः कर्म हैव तदूचतुरथ
ह यत्प्रशꣳसतुः कर्म हैव तत् प्रशꣳसतुः पुण्यो वै पुण्येन
कर्मणा भवति पापः पापेनेति । ततो ह जारत्कारव आर्तभाग उपरराम ॥ १३॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ तृतीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[III.iii.1]
अथ हैनं भुज्युर्लाह्यायनिः पप्रच्छ । याज्ञवल्क्येति
होवाच मद्रेषु चरकाः पर्यव्रजाम ते पतञ्चलस्य काप्यस्य
गृहानैम । तस्याऽऽसीद् दुहिता गन्धर्वगृहीता तमपृच्छाम
कोऽसीति । सोऽब्रवीत् सुधन्वाऽऽङ्गिरस इति । तं यदा
लोकानामन्तानपृच्छामाथैतदथैनमब्रूम क्व पारिक्षिता अभवन्निति
क्व पारिक्षिता अभवन् स त्वा पृच्छामि याज्ञवल्क्य क्व पारिक्षिता
अभवन्निति ॥ १॥
मन्त्र २[III.iii.2]
स होवाचोवाच वै सोऽगच्छन्वै ते तद् यत्राश्वमेधयाजिनो
गच्छन्तीति । क्व न्वश्वमेधयाजिनो गच्छन्तीति । द्वात्रिꣳशतं
वै देवरथाह्न्यान्ययं लोकस्तꣳ समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति
ताꣳ समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति । तद्यावती क्षुरस्य
धारा यावद्वा मक्षिकायाः पत्रं तावानन्तरेणाऽऽकाशस्तान् इन्द्रः
सुपर्णो भूत्वा वायवे प्रायच्छत् तान् वायुरात्मनि धित्वा तत्रागमयद्यत्र
अश्वमेधयाजिनोऽभवन्नित्येवमिव वै स वायुमेव प्रशशꣳस
तस्माद्वायुरेव व्यष्टिर्वायुः समष्टिरप पुनर्मृत्युं जयति य एवं
वेद । ततो ह भुज्युर्लाह्यायनिरुपरराम ॥ २॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ चतुर्थं ब्रह्मणम् ।
मन्त्र १[III.iv.1]
अथ हैनमूषस्तश्चाक्रायणः पप्रच्छ । याज्ञवल्क्येति होवाच
यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त
आत्मा सर्वान्तरः । कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो । यः प्राणेन प्राणिति
स त आत्मा सर्वान्तरो योऽपानेनापानिति स त आत्मा सर्वान्तरो यो व्यानेन
व्यानिति स त आत्मा सर्वान्तरो य उदानेनोदानिति स त आत्मा सर्वान्तर
एष त आत्मा सर्वान्तरः ॥ १॥
मन्त्र २[III.iv.2]
स होवाचोषस्तश्चाक्रायणः यथा विब्रूयादसौ गौरसावश्व
इत्येवमेवैतद्व्यपदिष्टं भवति । यदेव साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म
य आत्मा सर्वान्तरः तं मे व्याचक्ष्वेति । एष त आत्मा सर्वान्तरः ।
कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो । न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येर्न श्रुतेः
श्रोतारꣳ शृणुया न मतेर्मन्तारं मन्वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातारं
विजानीया एष त आत्मा सर्वान्तरोऽतोऽन्यदार्तं ततो होषस्तस्चाक्रायण
उपरराम ॥ २॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥
अथ पञ्चमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[III.v.1]
अथ हैनं कहोलः कौषीतकेयः पप्रच्छ पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति
होवाच यदेव साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे
व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा सर्वान्तरः । कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो ।
योऽशनायापिपासे शोकं मोहं जरां मृत्युमत्येत्येतं वै तमात्मानं
विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च
व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति । या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा
या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतस्तस्माद्ब्राह्मणः
पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत् । बाल्यं च पाण्डित्यं च
निर्विद्याथ मुनिरमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः । स
ब्राह्मणः केन स्याद् येन स्यात् तेनेदृश एवातोऽन्यदार्तम् । य एवं
वेद एवातोऽन्यदार्तम् । ततो ह कहोलः कौषीतकेय उपरराम ॥ १॥
इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥
अथ षष्ठं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[III.vi.1]
अथ हैनं गार्गी वाचक्नवी पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच
यदिदꣳ सर्वमप्स्वोतं च प्रोतं च कस्मिन्नु खल्वाप
ओताश्च प्रोताश्चेति । वायौ गार्गीति । कस्मिन्नु खलु वायुरोतश्च
प्रोतश्चेत्यन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खल्वन्तरिक्षलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति । गन्धर्वलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु गन्धर्वलोका
ओताश्च प्रोताश्चेत्यादित्यलोकेषु गार्गीति । कस्मिन् नु खल्वादित्यलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति । चन्द्रलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खलु
चन्द्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । नक्षत्रलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु
खलु नक्षत्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । देवलोकेषु गार्गीति ।
कस्मिन्नु खलु देवलोका ओताश्च प्रोताश्चेति इन्द्रलोकेषु गार्गीति ।
कस्मिन्नु खल्विन्द्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति । प्रजापतिलोकेषु
गार्गीति । कस्मिन्नु खलु प्रजापतिलोका ओताश्च प्रोताश्चेति ।
ब्रह्मलोकेषु गार्गीति । कस्मिन्नु खलु ब्रह्मलोका ओताश्च प्रोताश्चेति ।
स होवाच गार्गि मातिप्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यपप्तदनतिप्रश्न्यां
वै देवतामतिपृच्छसि । गार्गि माऽतिप्राक्षीरिति । ततो ह गार्गी
वाचक्नव्युपरराम ॥ १॥
इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥
अथ सप्तमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[III.vii.1]
अथ हैनमूद्दालक आरुणिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति
होवाच मद्रेष्ववसाम पतञ्चलस्य काप्यस्य गृहेषु
यज्ञमधीयानास्तस्याऽऽसीद्भार्या गन्धर्वगृहीता । तमपृच्छाम
कोऽसीति । सोऽब्रवीत् कबन्ध आथर्वण इति । सोऽब्रवीत्पतञ्चलं
काप्यं याज्ञिकाꣳश्च वेत्थ नु त्वं काप्य तत्सूत्रं येनायं
च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि सन्दृब्धानि
भवन्तीति । सोऽब्रवीत्पतञ्चलः काप्यो नाहं तद् भगवन् वेदेति ।
सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकाꣳश्चः वेत्थ नु त्वं काप्य
तमन्तर्यामिणं य इमं च लोकं परं च लोकꣳ सर्वाणि च भूतानि
योऽन्तरो यमयतीति । सोऽब्रवीत् पतञ्चलः काप्यो नाहं तं भगवन्
वेदेति । सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकाꣳश्च यो वै तत्
काप्य सूत्रं विद्यात्तं चान्तर्यामिणमिति स ब्रह्मवित् स लोकवित् स
देववित् स वेदवित् स भूतवित् स आत्मवित् स सर्वविदिति तेभ्योऽब्रवीत्
तदहं वेद । तच्चेत्त्वं याज्ञवल्क्य सूत्रमविद्वाꣳस्तं
चान्तर्यामिणं ब्रह्मगवीरुदजसे मूर्धा ते विपतिष्यतीति । वेद वा अहं
गौतम तत्सूत्रं तं चान्तर्यामिणमिति । यो वा इदं कश्चिद्ब्रूयात् वेद
वेदेति । यथा वेत्थ तथा ब्रूहीति ॥ १॥
मन्त्र २[III.vii.2]
स होवाच वायुर्वै गौतम तत्सूत्रं वायुना वै गौतम सूत्रेणायं
च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि सन्दृब्धानि भवन्ति ।
तस्माद्वै गौतम पुरुषं प्रेतमाहुर्व्यस्रꣳसिषतास्याङ्गानीति
वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि भवन्तीत्येवमेवैतद्
याज्ञवल्क्यान्तर्यामिणं ब्रूहीति ॥ २॥
मन्त्र ३[III.vii.3]
यः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद
यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त
आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ३॥
मन्त्र ४[III.vii.4]
योऽप्सु तिष्ठन्नद्भ्योऽन्तरो यमापो न विदुः यस्यापः शरीरं
योऽपोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ४॥
मन्त्र ५[III.vii.5]
योऽग्नौ तिष्ठन्नग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्निः शरीरं
योऽग्निमन्तरो यमयति एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ ५॥
मन्त्र ६[III.vii.6]
योऽन्तरिक्षे तिष्ठन्नन्तरिक्षादन्तरो यमन्तरिक्षं न वेद
यस्यान्तरिक्षꣳ शरीरं योऽन्तरिक्षमन्तरो यमयत्येष त
आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ६॥
मन्त्र ७[III.vii.7]
यो वायौ तिष्ठन्वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो
वायुमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ७॥
मन्त्र ८[III.vii.8]
यो दिवि तिष्ठन्दिवोऽन्तरो यं द्यौर्न वेद यस्य द्यौः शरीरं यो
दिवमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ८॥
मन्त्र ९[III.vii.9]
य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्याऽऽदित्यः
शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ९॥
मन्त्र १०[III.vii.10]
यो दिक्षु तिष्ठन्दिग्भ्योऽन्तरो यं दिशो न विदुर्यस्य दिशः शरीरं
यो दिशोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १०॥
मन्त्र ११[III.vii.11]
यश्चन्द्रतारके तिष्ठꣳचन्द्रतारकादन्तरो यं चन्द्रतारकं
न वेद यस्य चन्द्रतारकꣳ शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो
यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ ११॥
मन्त्र १२[III.vii.12]
य आकाशे तिष्ठन्नाकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याऽऽकाशः
शरीरं य आकाशमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १२॥
मन्त्र १३[III.vii.13]
यस्तमसि तिष्ठꣳस्तमसोऽन्तरो यं तमो न वेद यस्य तमः
शरीरं यस्तमोऽन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥ १३॥
मन्त्र १४[III.vii.14]
यस्तेजसि तिष्ठꣳस्तेजसोऽन्तरो यं तेजो न वेद यस्य तेजः शरीरं
यस्तेजोऽन्तरो यमयत्य्स एष त आत्माऽन्तर्याम्यमृत इत्यधिदैवतं
अथाधिभूतम् ॥ १४॥
मन्त्र १५[III.vii.15]
यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यꣳ सर्वाणि
भूतानि न विदुर्यस्य सर्वाणि भुतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो
यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृत इत्यधिभूतमथाध्यात्मम् ॥ १५॥
मन्त्र १६[III.vii.16]
यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरं
यः प्राणमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १६॥
मन्त्र १७[III.vii.17]
यो वाचि तिष्ठन्वाचोऽन्तरो यं वाङ्न वेद यस्य वाक् शरीरं यो
वाचमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १७॥
मन्त्र १८[III.vii.18]
यश्चक्षुषि तिष्ठꣳश्चक्षुषोऽन्तरो यं चक्षुर्न
वेद यस्य चक्षुः शरीरं यश्चक्षुरन्तरो यमयत्येष त
आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १८॥
मन्त्र १९[III.vii.19]
यः श्रोत्रे तिष्ठञ्छ्रोत्रादन्तरो यꣳ श्रोत्रं न वेद
यस्य श्रोत्रꣳ शरीरं यः श्रोत्रमन्तरो यमयत्य्स एष त
आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ १९॥
मन्त्र २०[III.vii.20]
यो मनसि तिष्ठन्मनसोऽन्तरो यं मनो न वेद यस्य मनः शरीरं
यो मनोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ २०॥
मन्त्र २१[III.vii.21]
यस्त्वचि तिष्ठꣳस्त्वचोऽन्तरो यं त्वङ्न वेद यस्य त्वक् शरीरं
यस्त्वचमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ २१॥
मन्त्र २२[III.vii.22]
यो विज्ञाने तिष्ठन्विज्ञानादन्तरो यꣳ विज्ञानं न वेद
यस्य विज्ञानꣳ शरीरं यो विज्ञानमन्तरो यमयत्येष त
आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ २२॥
मन्त्र २३[III.vii.23]
यो रेतसि तिष्ठन् रेतसोऽन्तरो यꣳ रेतो न वेद यस्य रेतः
शरीरं यो रेतोऽन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतोऽदृष्टो
द्रष्टाऽश्रुतः श्रोताऽमतो मन्ताऽविज्ञतो विज्ञाता । नान्योऽतोऽस्ति
द्रष्टा नान्योऽतोऽस्ति श्रोता नान्योऽतोऽस्ति मन्ता नान्योऽतोऽस्ति
विज्ञातैष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतोऽतोऽन्यदार्तं ततो होद्दालक
आरुणिरुपरराम ॥ २३॥
इति सप्तमं ब्राह्मणम् ॥
अथ अष्टमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[III.viii.1]
अथ ह वाचक्नव्युवाच ब्राह्मणा भगवन्तो हन्ताहमिमं द्वौ
प्रश्नौ प्रक्ष्यामि तौ चेन्मे वक्ष्यति न वै जातु युष्माकमिमं
कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति । पृच्छ गार्गीति ॥ १॥
मन्त्र २[III.viii.2]
सा होवाचाहं वै त्वा याज्ञवल्क्य यथा काश्यो वा वैदेहो वोग्रपुत्र
उज्ज्यं धनुरधिज्यं कृत्वा द्वौ बाणवन्तौ सपत्नातिव्याधिनौ हस्ते
कृत्वोपोत्तिष्ठेदेवमेवाहं त्वा द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थाम् ।
तौ मे ब्रूहीति । पृच्छ गार्गीति ॥ २॥
मन्त्र ३[III.viii.3]
सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा
द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते
कस्मिꣳस्तदोतं च प्रोतं चेति ॥ ३॥
मन्त्र ४[III.viii.4]
स होवाच यदूर्ध्वं गार्गि दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा
द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत
आकाशे तदोतं च प्रोतं चेति ॥ ४॥
मन्त्र ५[III.viii.5]
सा होवाच नमस्तेऽस्तु याज्ञवल्क्य यो म एतं व्यवोचोऽपरस्मै
धारयस्वेति । पृच्छ गार्गीति ॥ ५॥
मन्त्र ६[III.viii.6]
सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक् पृथिव्याः यदन्तरा
द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते
आचक्षते कस्मिꣳस्तदोतं च प्रोतं चेति ॥ ६॥
मन्त्र ७[III.viii.7]
स होवाच यदूर्ध्वं गार्गि दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा
द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत
आकाश एव तदोतं च प्रोतं चेति । कस्मिन्नु खल्वाकाश ओतश्च
प्रोतश्चेति ॥ ७॥
मन्त्र ८[III.viii.8]
स होवाचैतद्वै तदक्षरऽ गार्गि ब्राह्मणा
अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमो-
ऽवाय्वनाकाशमसङ्गं अचक्षुष्कमश्रोत्रमवाग्
अमनोऽतेजस्कमप्राणममुखममात्रं अनन्तरमबाह्यं न तदश्नाति
किं चन न तदश्नाति कश्चन ॥ ८॥
मन्त्र ९[III.viii.9]
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ
तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ
विधृते तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि
निमेषा मुहूर्ता अहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा इति
विधृतास्तिष्ठन्त्येतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि प्राच्योऽन्या
नद्यः स्यन्दन्ते श्वेतेभ्यः पर्वतेभ्यः प्रतीच्योऽन्या यां यां
च दिशमन्वेतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ददतो मनुष्याः
प्रशꣳसन्ति यजमानं देवा दर्वीं पितरोऽन्वायत्ताः ॥ ९॥
मन्त्र १०[III.viii.10]
यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वाऽस्मिꣳल्लोके जुहोति यजते
तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति लोको भवति
यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वाऽस्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य
एतदक्षरं गार्गि विदित्वाऽस्माल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मणः ॥ १०॥
मन्त्र ११[III.viii.11]
तद्वा एतदक्षरं गार्ग्यदृष्टं द्रष्टृश्रुतꣳ श्रोत्त्रमतं
मन्त्रविज्ञातं विज्ञातृ नान्यदतोऽस्ति द्रष्टृ नान्यदतोऽस्ति
श्रोतृ नान्यदतोऽस्ति मन्तृ नान्यदतोऽस्ति विज्ञात्त्रेतस्मिन्नु
खल्वक्षरे गार्ग्याकाश ओतश्च प्रोतश्चेति ॥ ११॥
मन्त्र १२[III.viii.12]
सा होवाच ब्राह्मणा भगवन्तस्तदेव बहु मन्येध्वं यदस्मान्नमस्कारेण
मुच्येध्वं न वै जातु युष्माकमिमं कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति ततो ह
वाचक्नव्युपरराम ॥ १२॥
इत्यष्टमं ब्राह्मणम् ॥
अथ नवमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[III.ix.1]
अथ हैनं विदग्धः शाकल्यः पप्रच्छ कति देवा याज्ञवल्क्येति ।
स हैतयैव निविदा प्रतिपेदे यावन्तो वैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते
त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च सहस्रेत्योमिति होवाच कत्येव
देवा याज्ञवल्क्येति । त्रयस्त्रिꣳशदित्योमिति होवाच । कत्येव देवा
याज्ञवल्क्येति । षडित्योमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति ।
त्रय इत्योमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्य्द्वावित्योमिति होवाच ।
कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्यध्यर्ध इत्योमिति होवाच । कत्येव देवा
याज्ञवल्क्येत्येक इत्योमिति होवाच । कतमे ते त्रयश्च त्री च शता
त्रयश्च त्री च सहस्रेति ॥ १ ॥
मन्त्र २[III.ix.2]
स होवाच महिमान एवैषामेते त्रयस्त्रिꣳशत्त्वेव देवा इति कतमे
ते त्रयस्त्रिꣳशदित्यष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्यास्ते
एकत्रिꣳशदिन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिꣳशाविति ॥ २॥
मन्त्र ३[III.ix.3]
कतमे वसव इत्यग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं
चाऽऽदित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव
एतेषु हीदं वसु सर्वꣳ हितमिति तस्माद्वसव इति ॥ ३॥
मन्त्र ४[III.ix.4]
कतमे रुद्रा इति । दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते
यदाऽस्माच्छरीरान्मर्त्यादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति
तस्माद्रुद्रा इति ॥ ४॥
मन्त्र ५[III.ix.5]
कतम आदित्या इति । द्वादश वै मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते
हीदꣳ सर्वमाददाना यन्ति ते यदिदꣳ सर्वमाददाना यन्ति
तस्मादादित्या इति ॥ ५॥
मन्त्र ६[III.ix.6]
कतम इन्द्रः कतमः प्रजापतिरिति । स्तनयित्नुरेवेन्द्रो यज्ञः
प्रजापतिरिति । कतमः स्तनयित्नुरित्यशनिरिति । कतमो यज्ञ इति ।
पशव इति ॥ ६॥
मन्त्र ७[III.ix.7]
कतमे षडित्यग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं
चाऽऽदित्यश्च द्यौश्चैते षड् एते हीदꣳ सर्वं षडिति ॥ ७॥
मन्त्र ८[III.ix.8]
कतमे ते त्रयो देवा इति इम एव त्रयो लोका एषु हीमे सर्वे देवा इति ।
कतमौ तौ द्वौ देवावित्यन्नं चैव प्राणश्चेति । कतमोऽध्यर्ध
इति । योऽयं पवत इति ॥ ८॥
मन्त्र ९[III.ix.9]
तदाहुर्यदयमेक एव एक इवैव पवते ।आथ कथमध्यर्ध इति ।
यदस्मिन्निदꣳ सर्वमध्यार्ध्नोत् तेनाध्यर्ध इति । कतम एको देव
इति । प्राण इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते ॥ ९॥
मन्त्र १०[III.ix.10]
पृथिव्येव यस्याऽऽयतनमग्निर्लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, परायणं स वै वेदिता स्याद्
याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं
यमात्थ य एवायꣳ शारीरः पुरुषः स एष । वदैव शाकल्य
तस्य का देवतेत्यमृतमिति होवाच ॥ १०॥
मन्त्र ११[III.ix.11]
काम एव यस्याऽऽयतनꣳ हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं
पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, स वै वेदिता स्याद्
याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं
यमात्थ य एवायं काममयः पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का
देवतेति । स्त्रिय इति होवाच ॥ ११॥
मन्त्र १२[III.ix.12]
रूपाण्येव यस्याऽऽयतनं चक्षुर्लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, स वै वेदिता स्याद् याज्ञवल्क्य ।
वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं यमात्थ
य एवासावादित्ये पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति ।
सत्यमिति होवाच ॥ १२॥
मन्त्र १३[III.ix.13]
आकाश एव यस्याऽऽयतनꣳ श्रोत्रं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं
पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, स वै वेदिता स्याद्
याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं
यमात्थ य एवायꣳ श्रौत्रः प्रातिश्रुत्कः पुरुषः स एष वदैव
शाकल्य तस्य का देवतेति । दिश इति होवाच ॥ १३॥
मन्त्र १४[III.ix.14]
तम एव यस्याऽऽयतनꣳ हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं
पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, स वै वेदिता स्याद्
याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं
यमात्थ य एवायं छायामयः पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य
का देवतेति । मृत्युरिति होवाच ॥ १४॥
मन्त्र १५[III.ix.15]
रूपाण्येव यस्याऽऽयतनं चक्षुर्लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, परायणं स वै वेदिता स्याद्
याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं
यमात्थ य एवायमादर्शे पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का
देवतेत्यसुरिति होवाच ॥ १५॥
मन्त्र १६[III.ix.16]
आप एव यस्याऽऽयतनꣳ हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, परायणं स वै वेदिता स्याद्
याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं
यमात्थ य एवायमप्सु पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति ।
वरुण इति होवाच ॥ १६॥
मन्त्र १७[III.ix.17]
रेत एव यस्याऽऽयतनꣳ हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो वै तं
पुरुषं विद्यात्सर्वस्याऽऽत्मनः परायणꣳ, स वै वेदिता स्याद्
याज्ञवल्क्य । वेद वा अहं तं पुरुषꣳ सर्वस्याऽऽत्मनः परायणं
यमात्थ य एवायं पुत्रमयः पुरुषः स एष वदैव शाकल्य तस्य
का देवतेति । प्रजापतिरिति होवाच ॥ १७॥
मन्त्र १८[III.ix.18]
शाकल्येति होवाच याज्ञवल्क्यस्त्वाꣳ स्विदिमे ब्राह्मणा
अङ्गारावक्षयणमक्रता३ इति ॥ १८॥
मन्त्र १९[III.ix.19]
याज्ञवल्क्येति होवाच शाकल्यो यदिदं कुरुपञ्चालानां
ब्राह्मणानत्यवादीः किं ब्रह्म विद्वानिति । दिशो वेद सदेवाः सप्रतिष्ठा
इति । यद्दिशो वेत्थ सदेवाः सप्रतिष्ठाः ॥ १९॥
मन्त्र २०[III.ix.20]
किन्देवतोऽस्यां प्राच्यां दिश्यसीत्यादित्यदेवत इति । स
आदित्यः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । चक्षुषीति । कस्मिन्नु चक्षुः
प्रतिष्ठितमिति । रूपेष्विति चक्षुषा हि रूपाणि पश्यति । कस्मिन्नु
रूपाणि प्रतिष्ठितानीति । हृदय इति होवाच हृदयेन हि रूपाणि जानाति
हृदये ह्येव रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २०॥
मन्त्र २१[III.ix.21]
किन्देवतोऽस्यां दक्षिणायां दिश्यसीति । यमदेवत इति । स यमः
कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । यज्ञ इति । कस्मिन्नु यज्ञः प्रतिष्ठित इति।
दक्षिणायामिति । कस्मिन्नु दक्षिणा प्रतिष्ठितेति श्रद्धायामिति यदा
ह्येव श्रद्धत्तेऽथ दक्षिणां ददाति श्रद्धायाꣳ ह्येव दक्षिणा
प्रतिष्ठितेति कस्मिन्नु श्रद्धा प्रतिष्ठितेति हृदय इति होवाच
हृदयेन हि श्रद्धां जानाति हृदये ह्येव श्रद्धा प्रतिष्ठिता
भवतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २१॥
मन्त्र २२[III.ix.22]
किन्देवतोऽस्यां प्रतीच्यां दिश्यसीति । वरुणदेवत इति । स वरुणः
कस्मिन् प्रतिष्ठित इत्यप्स्विति । कस्मिन्न्वापः प्रतिष्ठितेति रेतसीति ।
कस्मिन्नु रेतः प्रतिष्ठितेति इति हृदय इति तस्मादपि प्रतिरूपं
जातमाहुर्हृदयादिव सृप्तो हृदयादिव निर्मित इति हृदये ह्येव
रेतः प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २२॥
मन्त्र २३[III.ix.23]
किन्देवतोऽस्यामुदीच्यां दिश्यसीति । सोमदेवत इति । स सोमः
कस्मिन्प्रतिष्ठित इति । दीक्षायामिति । कस्मिन्नु दीक्षा प्रतिष्ठितेति
सत्य इति तस्मादपि दीक्षितमाहुः सत्यं वदेति सत्ये ह्येव दीक्षा
प्रतिष्ठितेति कस्मिन्नु सत्यं प्रतिष्ठितमिति हृदय इति होवाच
हृदयेन हि सत्यं जानाति हृदये ह्येव सत्यं प्रतिष्ठितं
भवतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २३॥
मन्त्र २४[III.ix.24]
किन्देवतोऽस्यां ध्रुवायां दिश्यसीत्यग्निदेवत इति । सोऽग्निः
कस्मिन्प्रतिष्ठित इति वाचीति । कस्मिन्नु वाक्प्रतिष्ठितेति हृदय इति ।
कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितमिति
मन्त्र २५[III.ix.25]
अहल्लिकेति होवाच याज्ञवल्क्यो यत्रैतदन्यत्रास्मन्मन्यासै ।
यद्ध्येतदन्यत्रास्मत्स्याच्छ्वानो वैनदद्युर्वयाꣳसि
वैनद्विमथ्नीरन्निति ॥ २५॥
मन्त्र २६[III.ix.26]
कस्मिन्नु त्वं चात्मा च प्रतिष्ठितौ स्थ इति । प्राण इति । कस्मिन्नु
प्राणः प्रतिष्ठित इत्यपान इति । कस्मिन्न्वपानः प्रतिष्ठित इति ।
व्यान इति । कस्मिन्नु व्यानः प्रतिष्ठित इत्युदान इति । कस्मिन्नूदानः
प्रतिष्ठित इति । समान इति । स एष नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न
हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो
न व्यथते न रिष्यत्येतान्यष्टावायतनान्यष्टौ लोका अष्टौ देवा
अष्टौ पुरुषाः । स यस्तान्पुरुषान्निरुह्य प्रत्युह्यात्यक्रामत् तं
त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि । तं चेन्मे न विवक्ष्यसि मूर्धा
ते विपतिष्यतीति । तꣳ ह न मेने शाकल्यस्तस्य ह मूर्धा विपपात
अपि हास्य परिमोषिणोऽस्थीन्यपजह्रुरन्यन्मन्यमानाः ॥ २६॥
मन्त्र २७[III.ix.27]
अथ होवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वः कामयते स मा पृच्छतु
सर्वे वा मा पृच्छत यो वः कामयते तं वः पृच्छामि सर्वान्वा
वः पृच्छामीति । ते ह ब्राह्मणा न दधृषुः ॥ २७॥
मन्त्र २८[III.ix.28]
तान्हैतैः श्लोकैः पप्रच्छ यथा वृक्षो वनस्पतिस्तथैव
पुरुषोऽमृषा तस्य लोमानि पर्णानि त्वगस्योत्पाटिका बहिः ॥ १॥ त्वच
एवास्य रुधिरं प्रस्यन्दि त्वच उत्पटः तस्मात्तदतृण्णात्प्रैति रसो
वृक्षादिवाऽऽहतात् ॥ २॥ माꣳसान्यस्य शकराणि किनाटꣳ
स्नाव तत्स्थिरम् । अस्थीन्यन्तरतो दारूणि मज्जा मज्जोपमा कृता ॥ ३॥
यद्वृक्षो वृक्णो रोहति मूलान्नवतरः पुनः मर्त्यः
स्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्प्ररोहति ॥ ४॥ रेतस इति मा
वोचत जीवतस्तत्प्रजायते धानारुह इव वै वृक्षोऽञ्जसा प्रेत्य
सम्भवः ॥ ५॥ यत्समूलमावृहेयुर्वृक्षं न पुनराभवेत् । मर्त्यः
स्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्प्ररोहति ॥ ६॥ जात एव न जायते
को न्वेनं जनयेत्पुनः विज्ञानमानन्दं ब्रह्म रातिर्दातुः परायणं
तिष्ठमानस्य तद्विद इति ॥ ७॥ ॥ २८ ॥
इति नवमं ब्राह्मणम् ॥
॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि तृतीयोऽध्यायः ॥
अथ चतुर्तोऽध्यायः ।
अथ प्रथमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १ [IV.i.1]
ॐ जनको ह वैदेह आसां चक्रेऽथ ह याज्ञवल्क्य आवव्राज । तꣳ
होवाच याज्ञवल्क्य किमर्थमचारीः पशूनिच्छन्नण्वन्तानित्युभयमेव
सम्राड् इति होवाच ॥ १॥
मन्त्र २[IV.i.2]
यत्ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन् मे जित्वा शैलिनिर्वाग्वै
ब्रह्मेति । यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात् तथा
तच्छैलिरब्रवीद् वाग्वै ब्रह्मेत्यवदतो हि किꣳ स्यादित्यब्रवीत्तु ते
तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति ।
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । वागेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा
प्रज्ञेत्येनदुपासीत । का प्रज्ञता याज्ञवल्क्य । वागेव सम्राड्
इति होवाच वाचा वै सम्राड् बन्धुः प्रज्ञायत ऋग्वेदो यजुर्वेदः
सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः
सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानीष्टꣳ हुतमाशितं पायितमयं च
लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि वाचैव सर्वाणि च भूतानि
वाचा एव सम्राट् प्रज्ञायन्ते वाग्वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनं
वाग्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य
एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्यृषभꣳ सहस्रं ददामीति होवाच
जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति ॥ २॥
मन्त्र ३[IV.i.3]
यदेव ते कश्चिदब्रवीत्तच्छृणवामेत्यब्रवीन्म ऊदङ्कः शौल्बायनः
प्राणो वै ब्रह्मेति । यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्
तथा तच्छौल्वायनोऽब्रवीत् प्राणो वै ब्रह्मेत्यप्राणतो हि
किꣳ स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य ।
प्राण एवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रियमित्येनदुपासीत ।
का प्रियता याज्ञवल्क्य । प्राण एव सम्राड् इति होवाच प्राणस्य
वै सम्राट् कामायायाज्यं याजयत्यप्रतिगृह्यस्य प्रतिगृह्णात्यपि
तत्र वधाशङ्कं भवति यां दिशमेति प्राणस्यैव सम्राट् कामाय
प्राणो वै सम्राट् परमं ब्रह्म । नैनं प्राणो जहाति सर्वाण्येनं
भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते ।
हस्त्यृषभꣳ सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स
होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥ ३॥
मन्त्र ४[IV.i.4]
यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे
बर्कुर्वार्ष्णश्चक्षुर्वै ब्रह्मेति । यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्
ब्रूयात् तथा तद्वार्ष्णोऽब्रवीत्च्चक्षुर्वै ब्रह्मेत्यपश्यतो
हि किꣳ स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य ।
चक्षुरेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा सत्यमित्येतदुपासीत । का
सत्यता याज्ञवल्क्य । चक्षुरेव सम्राड् इति होवाच चक्षुषा वै
सम्राट् पश्यन्तमाहुरद्राक्षीरिति । स आहाद्राक्षमिति तत्सत्यं भवति
चक्षुर्वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनं चक्षुर्जहाति सर्वाण्येनं
भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते ।
हस्त्यृषभꣳ सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स
होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥४॥
मन्त्र ५[IV.i.5]
यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे गर्दभीविपीतो
भारद्वाजः श्रोत्रं वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्
तथा तद्भारद्वाजोऽब्रवीच्छ्रोत्रं वै ब्रह्मेत्यशृण्वतो
हि किꣳ स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य ।
श्रोत्रमेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठाऽनन्तमित्येनदुपासीत ।
काऽनन्तता याज्ञवल्क्य । दिश एव सम्राड् इति होवाच तस्माद्वै
सम्राड् अपि यां काञ्च दिशं गच्छति नैवास्या अन्तं गच्छत्यनन्ता
हि दिशो दिशो वै सम्राट् श्रोत्रꣳश्रोत्रं वै सम्राट् परमं
ब्रह्म । नैनꣳ श्रोत्रं जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति ।
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्यृषभꣳ
सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः
पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥ ५॥
मन्त्र ६[IV.i.6]
यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे सत्यकामो जाबालो
मनो वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात् तथा
तज्जाबालो अब्रवीन् मनो वै ब्रह्मेत्यमनसो हि किꣳ स्यादित्यब्रवीत्तु
ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड्
इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । मन एवाऽऽयतनमाकाशः
प्रतिष्ठाऽऽनन्द इत्येनदुपासीत । काऽऽनन्दता याज्ञवल्क्य ।
मन एव सम्राड् इति होवाच मनसा वै सम्राट् स्त्रियमभिहार्यते तस्यां
प्रतिरूपः पुत्रो जायते स आनन्दो । मनो वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनं
मनो जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति
य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्यृषभꣳ सहस्रं ददामीति होवाच
जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति ॥ ६॥
मन्त्र ७[IV.i.7]
यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे विदग्धः शाकल्यो
हृदयं वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्
तथा तच्छाकल्योऽब्रवीद् धृदयं वै ब्रह्मेत्यहृदयस्य हि
किꣳ स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठां । न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य ।
हृदयमेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा स्थितिरित्येनदुपासीत । का
स्थितिता याज्ञवल्क्य । हृदयमेव सम्राड् इति होवाच हृदयं वै
सम्राट् सर्वेषां भूतानामायतनꣳ हृदयं वै सम्राट्, सर्वेषां
भूतानां प्रतिष्ठा हृदये ह्येव सम्राट् सर्वाणि भूतानि प्रतिष्ठितानि
भवन्ति हृदयं वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनꣳ हृदयं
जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य
एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्यृषभꣳ सहस्रं ददामीति होवाच
जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति ॥ ७॥
इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥
अथ द्वितीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[IV.ii.1]
जनको ह वैदेहः कूर्चादुपावसर्पन्नुवाच नमस्तेऽस्तु याज्ञवल्क्यानु
मा शाधीति । स होवाच यथा वै सम्राण् महान्तमध्वानमेष्यन्रथं
वा नावं वा समाददीतैवमेवैताभिरुपनिषद्भिः समाहितात्माऽस्यसि
एवं वृन्दारक आढ्यः सन्नधीतवेद उक्तोपनिषत्क इतो विमुच्यमानः
क्व गमिष्यसीति । नाहं तद् भगवन् वेद यत्र गमिष्यामीत्यथ वै
तेऽहं तद्वक्ष्यामि यत्र गमिष्यसीति । ब्रवीतु भगवानिति ॥ १॥
मन्त्र २[IV.ii.2]
इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तं वा एतमिन्धꣳ
सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेणैव परोक्षप्रिया इव हि देवाः
प्रत्यक्षद्विषः ॥ २॥
मन्त्र ३[IV.ii.3]
अथैतद्वामेऽक्षणि पुरुषरूपमेषाऽस्य पत्नी विराट् तयोरेष
सꣳस्तावो य एषोऽन्तर्हृदय आकाशोऽथैनयोरेतदन्नं
य एषोऽन्तर्हृदये लोहितपिण्डोऽथैनयोरेतत्प्रावरणं
यदेतदन्तर्हृदये जालकमिवाथैनयोरेषा सृतिः सञ्चरणी
यैषा हृदयादूर्ध्वा नाड्युच्चरति । यथा केशः सहस्रधा
भिन्न एवमस्यैता हिता नाम नाड्योऽन्तर्हृदये प्रतिष्ठिता
भवन्त्येवमस्य एताशितास्नाम नाड्यसन्तर्हृदये प्रतिष्ठितास्भवन्ति
एताभिर्वा एतदास्रवदास्रवति तस्मादेष प्रविविक्ताहारतर इवैव
भवत्यस्माच्छारीरादात्मनः ॥ ३॥
मन्त्र ४[IV.ii.4]
तस्य प्राची दिक्प्राञ्चः प्राणाः दक्षिणा दिग्दक्षिणे प्राणाः प्रतीची
दिक्प्रत्यञ्चः प्राणा उदीची दिगुदञ्चः प्राणाः ऊर्ध्वा दिगूर्ध्वाः
प्राणाः अवाची दिगवाञ्चः प्राणाः सर्वा दिशः सर्वे प्राणाः । स एष
नेति नेत्याऽत्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो
न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्य्व्यथते असङ्गस्न हि
सज्यते असितस्न व्यथते न रिष्यति अभयं वै जनक प्राप्तोऽसीति
होवाच याज्ञवल्क्यः । स होवाच जनको वैदेहोऽभयं त्वा गच्छताद्
याज्ञवल्क्य यो नो भगवन्न् अभयं वेदयसे नमस्तेऽस्त्विमे विदेहा
अयमहमस्मि ॥ ४॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ तृतीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[IV.iii.1]
जनकꣳ ह वैदेहं याज्ञवल्क्यो जगाम स मेने न वदिष्य
इति स मेने न वदिष्य इत्यथ ह यज्जनकश्च वैदेहो
याज्ञवल्क्यश्चाग्निहोत्रे समूदाते तस्मै ह याज्ञवल्क्यो वरं ददौ ।
स ह कामप्रश्नमेव वव्रे । तꣳ हास्मै ददौ । तꣳ ह सम्राडेव
पूर्वं पप्रच्छ ॥ १॥
मन्त्र २[IV.iii.2]
याज्ञवल्क्य किञ्ज्योतिरयं पुरुष इत्यादित्यज्योतिः सम्राड् इति
होवाचाऽऽदित्येनैवायं ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपल्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २॥
मन्त्र ३[IV.iii.3]
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष इति । चन्द्रमा
एवास्य ज्योतिर्भवतीति चन्द्रमसैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म
कुरुते विपल्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ ३॥
मन्त्र ४[IV.iii.4]
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष
इत्यग्निरेवास्य ज्योतिर्भवत्यग्निनैवायं ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते
कर्म कुरुते विपल्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ ४॥
मन्त्र ५[IV.iii.5]
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ
किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष इति । वागेवास्य ज्योतिर्भवतीति वाचैवायं
ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति । तस्माद्वै सम्राड् अपि
यत्र स्वः पाणिर्न विनिर्ज्ञायतेऽथ यत्र वागुच्चरत्युपैव तत्र
न्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ ५॥
मन्त्र ६[IV.iii.6]
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां
वाचि किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मैवास्य ज्योतिर्भवत्यात्मनैवायं
ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति ॥ ६॥
मन्त्र ७[IV.iii.7]
कतम आत्मेति । योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः
विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः पुरुषः पुरुषस्स समानः
सन्नुभौ लोकावनुसञ्चरति । ध्यायतीव लेलायतीव स हि स्वप्नो
भूत्वेमं लोकमतिक्रामति मृत्यो रूपाणि ॥ ७॥
मन्त्र ८[IV.iii.8]
स वा अयं पुरुषो जायमानः शरीरमभिसम्पद्यमानः पाप्मभिः
सꣳसृज्यते । स उत्क्रामन्म्रियमाणः पाप्मनो विजहाति ॥ ८॥
मन्त्र ९[IV.iii.9]
तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवत इदं च परलोकस्थानं
च सन्ध्यं तृतीयꣳ स्वप्नस्थानं तस्मिन्सन्ध्ये स्थाने
तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यतीदं च परलोकस्थानं च अथ
यथाक्रमोऽयं परलोकस्थाने भवति तमाक्रममाक्रम्योभयान्पाप्मन
आनन्दाꣳश्च पश्यति । पश्यति स यत्र प्रस्वपित्यस्य लोकस्य
सर्वावतो मात्रामपादाय स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन
ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति ॥ ९॥
मन्त्र १०[IV.iii.10]
न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ
रथान्रथयोगान्पथः सृजते । न तत्राऽऽनन्दा मुदः प्रमुदो
भवन्त्यथाऽऽनन्दान्मुदः प्रमुदः सृजते । न तत्र वेशान्ताः
पुष्करिण्यः स्रवन्त्यो भवन्त्यथ वेशान्तान्पुष्करिणीः स्रवन्तीः
सृजते स हि कर्ता ॥ १०॥
मन्त्र ११[IV.iii.11]
तदेते श्लोका भवन्ति स्वप्नेन शारीरमभिप्रहत्या सुप्तः
सुप्तानभिचाकशीति । शुक्रमादाय पुनरैति स्थानꣳ हिरण्मयः
पुरुष एकहꣳसः ॥ ११॥
मन्त्र १२[IV.iii.12]
प्राणेन रक्षन्नपरं कुलायं बहिष्कुलायादमृतश्चरित्वा स
ईयतेऽमृतो यत्रकामꣳ हिरण्मयः पुरुष एकहꣳसः ॥ १२॥
मन्त्र १३[IV.iii.13]
स्वप्नान्त उच्चावचमीयमानो रूपाणि देवः कुरुते बहूनि । उतेव स्त्रीभिः
सह मोदमानो जक्षदुतेवापि भयानि पश्यन् ॥ १३॥
मन्त्र १४[IV.iii.14]
आराममस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चनेति । तं नाऽऽयतं
बोधयेदित्याहुः । दुर्भिषज्यꣳ हास्मै भवति यमेष न
प्रतिपद्यते ॥ १४॥ अथो खल्वाहुर्जागरितदेश एवास्यैष यानि ह्येव
जाग्रत् पश्यति तानि सुप्त इत्यत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति ।
सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षाय ब्रूहीति ॥ १४॥
मन्त्र १५[IV.iii.15]
स वा एष एतस्मिन्सम्प्रसादे रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं
च पापं च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति स्वप्नायैव एव स
यत्तत्र किञ्चित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष
इत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य । सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत
ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीति ॥ १५॥
मन्त्र १६[IV.iii.16]
स वा एष एतस्मिन्त्स्वप्ने रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च
पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव आद्रवति बुद्धान्ताय
एव स यत्तत्र किञ्चित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं
पुरुष इत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य । सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत
ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीति ॥ १६॥
मन्त्र १७[IV.iii.17]
स वा एष एतस्मिन्बुद्धान्ते रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं
च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति स्वप्नान्तायैव ॥ १७॥ आद्रवति
स्वप्नान्ताय एव
मन्त्र १८[IV.iii.18]
तद्यथा महामत्स्य उभे कूलेऽनुसञ्चरति पूर्वं चापरं चैवमेवायं
पुरुष एतावुभावन्तावनुसञ्चरति स्वप्नान्तं च बुद्धान्तं च ॥
१८॥ अन्तौ अनुसञ्चरति स्वप्नान्तम् च बुद्धान्तम् च
मन्त्र १९[IV.iii.19]
तद्यथास्मिन्नाऽकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः
सꣳहत्य पक्षौ संलयायैव ध्रियत ध्रियते एवमेवायं पुरुष
एतस्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कं चन कामं कामयते न कं
चन स्वप्नं पश्यति ॥ १९॥ स्वप्नम् पश्यति
मन्त्र २०[IV.iii.20]
ता वा अस्यैता हिता नाम नाड्यो यथा केशः सहस्रधा भिन्नस्तावताऽणिम्ना
तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णा ।
नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णासथ यत्रैनं घ्नन्तीव
जिनन्तीव हस्तीव विच्छाययति गर्तमिव पतति यदेव जाग्रद्भयं
पश्यति तदत्राविद्यया मन्यतेऽथ यत्र देव इव राजेवाहमेवेदꣳ
सर्वोऽस्मीति मन्यते सोऽस्य परमो लोकाः ॥ २०॥
मन्त्र २१[IV.iii.21]
तद्वा अस्यैतदतिच्छन्दा अपहतपाप्माभयꣳ रूपम् । तद्यथा प्रियया
स्त्रिया सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नाऽऽन्तरमेवमेवायं
पुरुषः प्राज्ञेनाऽऽत्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद
नाऽऽन्तरम् । सम्परिष्वक्तस्न बाह्यम् किम् चन वेद न अन्तरं तद्वा
अस्यैतदाप्तकाममात्मकाममकामं रूपम् शोकान्तरम् ॥ २१॥
मन्त्र २२[IV.iii.22]
अत्र पिताऽपिता भवति माताऽमाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा
अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाऽभ्रूणहा चाण्डालोऽचण्डालः
पौल्कसोऽपौल्कसो श्रमणोऽश्रमण स्तापसोऽतापसोऽनन्वागतं
पुण्येनानन्वागतं पापेन अश्रमणस्तापससतापससनन्वागतस्पुण्येन
अनन्वागतस्पापेन तीर्णो हि तदा सर्वाञ्छोकान्हृदयस्य भवति ॥ २२॥
मन्त्र २३[IV.iii.23]
यद्वै तन्न पश्यति पश्यन्वै तन्न पश्यति न हि
द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यत्पश्येत् ॥ २३॥
मन्त्र २४[IV.iii.24]
यद्वै तन्न जिघ्रति जिघ्रन्वै तन्न जिघ्रति न हि
घ्रातुर्घ्रातेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यज्जिघ्रेत् ॥ २४॥
मन्त्र २५[IV.iii.25]
यद्वै तन्न रसयते रसयन्वै तन्न रसयते न हि रसयितू
रसयितेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यद्रसयेत् ॥ २५॥
मन्त्र २६[IV.iii.26]
यद्वै तन्न वदति वदन्वै तन्न वदति न हि वक्तुर्वक्तेर्विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्वदेत् ॥ २६॥
मन्त्र २७[IV.iii.27]
यद्वै तन्न शृणोति शृण्वन्वै तन्न शृणोति न हि श्रोतुः
श्रुतेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यच्छृणुयात् ॥ २७॥
मन्त्र २८[IV.iii.28]
यद्वै तन्न मनुते मन्वानो वै तन्न मनुते न हि मन्तुर्मतेर्विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं
यन्मन्वीत ॥ २८॥
मन्त्र २९[IV.iii.29]
यद्वै तन्न स्पृशति स्पृशन्वै तन्न स्पृशति न हि स्प्रष्टुः
स्पृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यत्स्पृशेत् ॥ २९॥
मन्त्र ३०[IV.iii.30]
यद्वै तन्न विजानाति विजानन्वै तन्न विजानाति न हि
विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यद्विजानीयात् ॥ ३०॥
मन्त्र ३१[IV.iii.31]
यत्र वा अन्यदिव स्यात् तत्रान्योऽन्यत्पश्येदन्योऽन्यज्जिघ्रेद्
अन्योऽन्यद्रसयेदन्योऽन्यद्वदेदन्योऽन्यच्छृणुयादन्योऽन्यन्मन्वीता
न्योऽन्यत्स्पृशेदन्योऽन्यद्विजानीयात् ॥ ३१॥
मन्त्र ३२[IV.iii.32]
सलिल एको द्रष्टाद्वैतो भवत्येष ब्रह्मलोकः सम्राड् इति
हैनमनुशशास याज्ञवल्क्य। एषास्य परमा गतिरेषास्य परमा सम्पद्
एषोऽस्य परमो लोक एषोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवाऽऽनन्दस्यान्यानि
भूतानि मात्रामुपजीवन्ति ॥ ३२॥
मन्त्र ३३[IV.iii.33]
स यो मनूष्याणाꣳ राद्धः समृद्धो भवत्यन्येषामधिपतिः
सर्वैर्मानुष्यकैर्भोगैः सम्पन्नतमः अन्येषां सम्पन्नतमस्स
मनुष्याणां परम आनन्दोऽथ ये शतं मनुष्याणामानन्दाः स एकः
पितृणां जितलोकानामानन्दोऽथ ये शतं पितृणां जितलोकानामानन्दाः
स एको गन्धर्वलोक आनन्दोऽथ ये शतं गन्धर्वलोक आनन्दाः
स एकः कर्मदेवानामानन्दो ये कर्मणा देवत्वमभिसम्पद्यन्तेऽथ
ये शतं कर्मदेवानामानन्दाः स एक आजानदेवानामानन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतोऽथ ये शतमाजानदेवानामानन्दाः
स एकः प्रजापतिलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो
अथ ये शतं प्रजापतिलोक आनन्दाः स एको ब्रह्मलोक आनन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतोऽथैष एव परम आनन्द एष ब्रह्मलोकः
सम्राड् इति होवाच याज्ञवल्क्यः । सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत
ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीत्यत्र ह याज्ञवल्क्यो बिभयांचकारः
मेधावी राजा सर्वेभ्यो माऽन्तेभ्य उदरौत्सीदिति ॥ ३३॥
मन्त्र ३४[IV.iii.34]
स वा एष एतस्मिन्स्वप्नान्ते रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं
च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव ॥ ३४॥
मन्त्र ३५[IV.iii.35]
तद्यथाऽनः सुसमाहितमुत्सर्जद्यायादेवमेवायꣳ शारीर आत्मा
प्राज्ञेनाऽऽत्मनाऽन्वारूढ उत्सर्जन्याति यत्रैतदूर्ध्वोच्छ्वासी
भवति ॥ ३५॥ उत्सर्जम् याति यत्रैतदूर्ध्वोच्छ्वासी भवति ॥ ३५॥
मन्त्र ३६[IV.iii.36]
स यत्रायमणिमानं न्येति जरया वोपतपता वाऽणिमानं निगच्छति
तद्यथाऽऽम्रं वोदुम्बरं वा पिप्पलं वा बन्धनात्प्रमुच्यत एवमेवायं
पुरुष एभ्योऽङ्गेभ्यः सम्प्रमुच्य पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति
प्राणायैव ॥ ३६॥ प्राणाय एव
मन्त्र ३७[IV.iii.37]
तद्यथा राजानमायन्तमुग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्योऽन्नैः
पानैरवसथैः प्रतिकल्पन्ते अयमायात्ययमागच्छतीत्येवꣳ
हैवंविदꣳ सर्वाणि भूतानि प्रतिकल्पन्त इदं
ब्रह्माऽऽयातीदमागच्छतीति ॥ ३७॥
मन्त्र ३८[IV.iii.38]
तद्यथा राजानं प्रयियासन्तमुग्राः प्रत्येनसः
सूतग्रामण्योऽभिसमायन्त्येवमेवेममात्मानमन्तकाले सर्वे प्राणा
अभिसमायन्ति यत्रैतदूर्ध्वोच्छ्वासी भवति ॥ ३८॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ चतुर्थं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[IV.iv.1]
स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्य सम्मोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा
अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स
यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ्पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति ॥ १॥
मन्त्र २[IV.iv.2]
एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकीभवति न जिघ्रतीत्याहुरेकीभवति
न रसयतीत्याहुरेकीभवति न वदतीत्याहुरेकीभवति
न शृणोतीत्याहुरेकीभवति न मनुत इत्याहुरेकीभवति न
स्पृशतीत्याहुरेकीभवति न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं
प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो
वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति
प्राणमनूत्क्रामन्तꣳ सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति । सविज्ञानो भवति
सविज्ञानमेवान्ववक्रामति । तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा
च ॥ २॥
मन्त्र ३[IV.iv.3]
तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं
गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसꣳहरत्येवमेवायमात्मेदꣳ
शरीरं निहत्याविद्यां
गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्याऽऽत्मानमुपसꣳहरति ॥ ३॥
मन्त्र ४[IV.iv.4]
तद्यथा पेशस्कारी पेशसो मात्रामपादायान्यन्नवतरं कल्याणतरꣳ
रूपं तनुत एवमेवायमात्मेदꣳ शरीरं निहत्याविद्यां
गमयित्वाऽन्यन्नवतरं कल्याणतरꣳ रूपं कुरुते पित्र्यं वा
गान्धर्वं वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मं वाऽन्येषां वा भूतानाम् ॥
४॥ ब्राह्मम् वा प्राजापत्यम् वा दैवम् वा अन्येभ्यस्वा भूतेभ्यस्
मन्त्र ५[IV.iv.5]
स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयः प्राणमयश्चक्षुर्मयः
श्रोत्रमयः पृथिवीमय आपोमयो वायुमय आकाशमयस्तेजोमयोऽतेजोमयः
काममयोऽकाममयः क्रोधमयोऽक्रोधमयो धर्ममयोऽधर्ममयः
सर्वमयस्श्रोत्रमयसाकाशमयस्वायुमयस्तेजोमय-
सापोमयस्पृथिवीमयस्क्रोधमयसक्रोधमय- शर्षमयसहर्षमयस्
तद्यदेतदिदम्मयोऽदोमय इति यथाकारी यथाचारी तथा भवति ।
साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः पुण्येन कर्मणा
भवति पापः पापेन । अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स
यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते
यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते ॥ ५॥
मन्त्र ६[IV.iv.6]
तदेष श्लोको भवति । तदेव सक्तः सह कर्मणैति लिङ्गं मनो
यत्र निषक्तमस्य । प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किञ्चेह करोत्ययम् ।
तस्माल्लोकात्पुनरैत्यस्मै लोकाय कर्मण् इति नु कामयमानोऽथाकामयमानो
योऽकामो निष्काम भवति आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति
ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति ॥ ६॥
मन्त्र ७[IV.iv.7]
तदेष श्लोको भवति यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि
श्रिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुत इति ॥
तद्यथाऽहिनिर्व्लयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेदꣳ
शरीरꣳ शेतेऽथायमशरीरोऽमृतः प्राणो ब्रह्मैव तेज एव
सोऽहं भगवते सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः ॥ ७॥
मन्त्र ८[IV.iv.8]
तदेते श्लोका भवन्ति । अणुः पन्था विततः पुराणो माꣳ
स्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव । तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविदः स्वर्गं
लोकमित ऊर्ध्वं विमुक्ताः ॥ ८॥
मन्त्र ९[IV.iv.9]
तस्मिञ्छुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलꣳ हरितं लोहितं च । एष
पन्था ब्रह्मणा हानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्पुण्यकृत्तैजसश्च ॥ ९॥
मन्त्र १०[IV.iv.10]
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते । ततो भूय इव ते तमो य
उ विद्यायाꣳ रताः ॥ १०॥
मन्त्र ११[IV.iv.11]
अनन्दा नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ताꣳस्ते
प्रेत्याभिगच्छन्त्यविद्वाꣳसोऽबुधो जनाः ॥ ११॥
मन्त्र १२[IV.iv.12]
आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः किमिच्छन्कस्य कामाय
शरीरमनुसञ्ज्वरेत् ॥ १२॥
मन्त्र १३[IV.iv.13]
यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आत्माऽस्मिन्सन्देह्ये गहने प्रविष्टः । स
विश्वकृत् स हि सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव ॥ १३॥
मन्त्र १४[IV.iv.14]
इहैव सन्तोऽथ विद्मस्तद्वयं न चेदवेदिर्महती विनष्टिः । ये
तद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥ १४॥
मन्त्र १५[IV.iv.15]
यदैतमनुपश्यत्यात्मानं देवमञ्जसा । ईशानं भूतभव्यस्य न ततो
विजुगुप्सते ॥ १५॥
मन्त्र १६[IV.iv.16]
यस्मादर्वाक्संवत्सरोऽहोभिः परिवर्तते । तद्देवा ज्योतिषां
ज्योतिरायुर्होपासतेऽमृतम् ॥ १६॥
मन्त्र १७[IV.iv.17]
यस्मिन्पञ्च पञ्चजना आकाशश्च प्रतिष्ठितः । तमेव मन्य
आत्मानं विद्वान्ब्रह्मामृतोऽमृतम् ॥ १७॥
मन्त्र १८[IV.iv.18]
प्राणस्य प्राणमुत चक्षुषश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो
ये मनो विदुः । ते निचिक्युर्ब्रह्म पुराणमग्र्यम् ॥ १८॥
मन्त्र १९[IV.iv.19]
मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानाऽस्ति किं चन । मृत्योः स
मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १९॥
मन्त्र २०[IV.iv.20]
एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम् । विरजः पर आकाशादज
आत्मा महान्ध्रुवः ॥ २०॥
मन्त्र २१[IV.iv.21]
तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ।
नानुध्यायाद्बहूञ्छब्दान् वाचो विग्लापनꣳ हि तदिति ॥ २१॥
मन्त्र २२[IV.iv.22]
स वा एष महानज आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु य
एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः
सर्वस्याधिपतिः स न साधुना कर्मणा भूयान्नो एवासाधुना कनीयानेष
सर्वेश्वर एष भूताधिपतिरेष भूतपाल एष सेतुर्विधरण एषां
लोकानामसम्भेदाय । तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति
यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेनैतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्य्विदित्वा
मुनिस्भवति एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्त्येतद्ध स्म
वै तत्पूर्वे विद्वाꣳसः प्रजां न कामयन्ते किं प्रजया करिष्यामो
येषां नोऽयमात्माऽयं लोक इति । ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च
वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति
या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते
एषणे एव भवतः । स एष नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यते
ऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते
न रिष्यत्येतमु हैवैते न तरत इत्यतः पापमकरवमित्यतः
कल्याणमकरवमित्युभे उ हैवैष एते तरति नैनं कृताकृते
तपतः ॥ २२॥
मन्त्र २३[IV.iv.23]
तदेतदृचाभ्युक्तम् । एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न वर्धते कर्मणा
नो कनीयान् । तस्यैव स्यात् पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा
पापकेनेति । तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो
भूत्वाऽऽत्मन्येवाऽऽत्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति नैनं पाप्मा
तरति सर्वं पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तपति सर्वं पाप्मानं तपति
विपापो विरजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवति एष ब्रह्मलोकः सम्राड् इति
होवाच याज्ञवल्क्यः । सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि माम् चापि सह
दास्यायेति ॥ २३॥
मन्त्र २४[IV.iv.24]
स वा एष महानज आत्माऽन्नादो वसुदानो विन्दते वसु य एवं वेद ॥ २४॥
मन्त्र २५[IV.iv.25]
स वा एष महानज आत्माऽजरोऽमरोऽमृतोऽभयो ब्रह्माभयं वै
ब्रह्माभयꣳ हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद ॥ २५॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ।
अथ पञ्चमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[IV.v.1]
अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुर्मैत्रेयी च कात्यायनी च
तयोर्ह मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव स्त्रीप्रज्ञैव तर्हि कात्यायन्यथ
ह याज्ञवल्क्योऽन्यद्वृत्तमुपाकरिष्यन् ॥ १॥
मन्त्र २[IV.v.2]
मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्यः प्रव्रजिष्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि ।
हन्त तेऽनया कत्यायान्याऽन्तं करवाणीति ॥ २॥
मन्त्र ३[IV.v.3]
सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन
पूर्णा स्यात् स्यां न्वहं तेनामृताऽऽहो३ नेति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो
यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितꣳ स्यादमृतत्वस्य
तु नाऽऽशाऽस्ति वित्तेनेति ॥ ३॥
मन्त्र ४[IV.v.4]
सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् । यदेव
भगवान्वेद तदेव मे ब्रूहीति ॥ ४॥
मन्त्र ५[IV.v.5]
स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया वै खलु नो भवती सती प्रियमवृधद्
धन्त तर्हि भवत्येतद् व्याख्यास्यामि ते व्याचक्षाणस्य तु मे
निदिध्यासस्वेति ॥ ५॥
मन्त्र ६[IV.v.6]
स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय
पतिः प्रियो भवति । न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु
कामाय जाया प्रिया भवति । न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति । न वा अरे वित्तस्य कामाय
वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति ॥ न वा अरे
पशूनां कामाय पशवः प्रिया भवन्ति आत्मनस्तु कामाय पशवः प्रिया
भवन्ति । न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु
कामाय ब्रह्म प्रियं भवति । न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं
प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति । न वा अरे
लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति ।
न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः
प्रिया भवन्ति । न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु
कामाय वेदाः प्रिया भवन्ति । न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि
भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति । न वा अरे सर्वस्य
कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मा
वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनि
खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदꣳ सर्वं विदितम् ।
मन्त्र ७[IV.v.7]
ब्रह्म तं परादाद् योऽन्यत्राऽऽत्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तं परादाद्
योऽन्यत्राऽऽत्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुः योऽन्यत्राऽऽत्मनो
लोकान्वेद देवास्तं परादुः योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद वेदास्तं
परादुर्योऽन्यत्रात्मनो वेदान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्राऽऽत्मनो
भूतानि वेद सर्वं तं परादाद् योऽन्यत्राऽऽत्मनः सर्वं वेदेदं
ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमे वेदा इमानि भूतानीदꣳ सर्वं
यदयमात्मा ॥ ७॥
मन्त्र ८[IV.v.8]
स यथा दुन्दुभेर्हन्यमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय
दुन्दुभेस्तु ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ८॥
मन्त्र ९[IV.v.9]
स यथा शङ्खस्य ध्मायमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय
शङ्खस्य तु ग्रहणेन शङ्खध्मस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ९॥
मन्त्र १०[IV.v.10]
स यथा वीणायै वाद्यमानायै न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद्ग्रहणाय
वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ १०॥
मन्त्र ११[IV.v.11]
स यथाऽऽर्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं
वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः
सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः
सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि इष्टꣳ हुतमाशितं पायितमयं
च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि
निःश्वसितानि ॥ ११॥ सामवेदसथर्वाङ्गिरससितिहासस्पुराणं
विद्यासुपनिषदस्श्लोकास्सूत्राणि अनुव्याख्यानानि व्याख्याननि दत्तं
मन्त्र १२[IV.v.12]
स यथा सर्वासामपाꣳ समुद्र एकायनमेवꣳ सर्वेषाꣳ
स्पर्शानां त्वगेकायनमेवꣳ सर्वेषां गन्धानां नासिकैकायनं
एवꣳ सर्वेषाꣳ रसानां जिह्वैकायनमेवꣳ सर्वेषाꣳ
रूपाणां चक्षुरेकायनमेवꣳ सर्वेषं शब्दानां श्रोत्रमेकायनं
एवꣳ सर्वेषाꣳ सङ्कल्पानां मन एकायनमेवꣳ सर्वासां
विद्यानाꣳ हृदयमेकायनमेवꣳ सर्वेषां कर्मणाꣳ
हस्तावेकायनमेवꣳ सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनमेवꣳ
सर्वेषां विसर्गाणां पायुरेकायनमेवꣳ सर्वेषामध्वनां
पादावेकायनमेवꣳ सर्वेषां वेदानां वागेकायनम् ॥ १२॥
मन्त्र १३[IV.v.13]
स यथा सैन्धवघनोऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नो रसघन एवै वं
वा अरेऽयमात्मानन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानघन एवैतेभ्यो
भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनयष्यतिति प्रज्ञानघनसेव
एतेभ्यस्भूतेभ्यस्समुत्थाय तानि एव अनुविनयति न प्रेत्य
सञ्ज्ञाऽस्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः ॥ १३॥
मन्त्र १४[IV.v.14]
सा होवाच मैत्रेय्यत्रैव मा भगवान्मोहान्तमापीपिपन् न वा अहमिमं
विजानामीति स होवाच न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यविनाशी वा
अरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा ॥ १४॥
मन्त्र १५[IV.v.15]
यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतरं
जिघ्रति तदितर इतरꣳ रसयते तदितर इतरमभिवदति तदितर
इतरꣳ शृणोति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरꣳ स्पृशति
तदितर इतरं विजानाति । यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं
पश्येत् तत्केन कं जिघ्रेत् तत्केन कꣳ रसयेत् तत्केन कमभिवदेत्
तत्केन कꣳ शृणुयात् तत्केन कं मन्वीत तत्केन कꣳ स्पृशेत्
तत्केन कं विजानीयाद्येनेदꣳ सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात्
स एष नेति नेत्याऽत्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यते
ऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यति । विज्ञातारमरे
केन विजानीयादित्युक्तानुशासनासि मैत्रेय्येतावदरे खल्वमृतत्वमिति
होक्त्वा याज्ञवल्क्यो विजहार ॥ १५॥
इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥
अथ षष्ठं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[IV.vi.1]
अथ वꣳशः पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः पौतिमाष्यात्
पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः कौशिकात् कौशिकः कौण्डिन्यात्
कौण्डिन्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कौशिकाच्च गौतमाच्च गौतमः ॥ १॥
मन्त्र २[IV.vi.2]
आग्निवेश्यादग्निवेश्यो गार्ग्याद् गार्ग्यो गार्ग्याद् गार्ग्यो गौतमाद् गौतमः
सैतवात् सैतवः पाराशर्यायणात् पाराशार्यायणो गार्ग्यायणाद् गार्ग्यायण
उद्दालकायनादुद्दालकायनो जाबालायनाज् जाबालायनो माध्यन्दिनायनान्
माध्यन्दिनायनः सौकरायणात् सौकरायणः काषायणात् काषायणः
सायकायनात् सायकायनः कौशिकायनेः कौशिकायनिः ॥ २॥
मन्त्र ३[IV.vi.3]
घृतकौशिकाद् घृतकौशिकः पाराशर्यायणात् पाराशर्यायणः
पाराशर्यात् पाराशर्यो जातूकर्ण्याज् जातूकर्ण्य आसुरायणाच्च यास्काच्चा
ऽऽसुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्धनेरौपजन्धनिरासुरेरासुरिर्भारद्वाजाद्
भारद्वाज आत्रेयादात्रेयो माण्टेर्माण्टिर्गौतमाद् गौतमो गौतमाद् गौतमो
वात्स्याद् वात्स्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात् कैशोर्यः
काप्यः कुमारहारितात् कुमारहारितो गालवाद् गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्
विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो बाभ्रवाद् वत्सनपाद्बाभ्रव
पथः सौभरात् पन्थाः सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य
आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्
विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽव्श्विभ्यामश्विनौ दधीच आथर्वणाद्
दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वꣳसनान् मृत्युः प्राध्वꣳसनः प्रध्वꣳसनात्
प्रध्वꣳसन एकर्षेरेकर्षिर्विप्रचित्तेः विप्रचित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः
सनारोः सनारुः सनातनात् सनातनः सनगात् सनगः परमेष्ठिनः
परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु ब्रह्मणे नमः ॥ ३॥
इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥
॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि चतुर्थोऽध्यायः ॥
अथ पञ्चमोऽध्यायः ।
अथ प्रथमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.i.1]
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते । ॐ३ खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति
ह स्माऽऽह कौरव्यायणीपुत्रो । वेदोऽयम्ं ब्राह्मणा विदुर्वेदैनेन
यद्वेदितव्यम् ॥ १॥
इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥
अथ द्वितीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.ii.1]
त्रयाः प्राजापत्याः प्रजापतौ पितरि ब्रह्मचर्यमूषुर्देवा मनुष्या
असुरा उषित्वा ब्रह्मचर्यं देवा ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति । तेभ्यो
हैतदक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति । व्यज्ञासिष्मेति
होचुर्दाम्यतेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति ॥ १॥
मन्त्र २[V.ii.2]
अथ हैनं मनुष्या ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति । तेभ्यो
हैतदेवाक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति । व्यज्ञासिष्मेति
होचुर्दत्तेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति ॥ २॥
मन्त्र ३[V.ii.3]
अथ हैनमसुरा ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति । तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच
द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति । व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दयध्वमिति न
आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति । तदेतदेवैषा दैवी वागनुवदति
स्तनयित्नुर्द द द इति दाम्यत दत्त दयध्वमिति । तदेतत्त्रयꣳ
शिक्षेद् दमं दानं दयामिति ॥ ३॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ तृतीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.iii.1]
एष प्रजापतिर्यद्धृदयमेतद्ब्रह्मैतत्सर्वम् । तदेतत्त्र्यक्षरꣳ
हृदयमिति । हृ इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य
एवं वेद । द इत्येकमक्षरं ददत्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद ।
यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य एवं वेद ॥ १॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ चतुर्थं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.iv.1]
तद्वै तदेतदेव तदास सत्यमेव । स यो हैतं महद्यक्षं
प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति जयतीमाꣳल्लोकाञ् जित इन्न्वसावसद्
य एवमेतन्महद्यक्षं प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति सत्यꣳ
ह्येव ब्रह्म ॥ १॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥
अथ पञ्चमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.v.1]
अप एवेदमग्र आसुस्ता आपः सत्यमसृजन्त सत्यं ब्रह्म
ब्रह्म प्रजापतिं प्रजापतिर्देवाꣳस्ते देवाः सत्यमेवोपासते
तदेतत्त्र्यक्षरꣳ सत्यमिति । स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षरं
यमित्येकमक्षरम् । प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यं मध्यतोऽनृतं
तदेतदनृतमुभयतः सत्येन परिगृहीतꣳ सत्यभूयमेव भवति ।
नैनंविद्वाꣳसमनृतꣳ हिनस्ति ॥ १॥
मन्त्र २[V.v.2]
तद्यत्तत्सत्यमसौ स आदित्यो । य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषो
यश्चायं दक्षिणेऽक्षन् पुरुषस्तावेतावन्योऽन्यस्मिन्प्रतिष्ठितौ
रश्मिभिरेषोऽस्मिन्प्रतिष्ठितः प्राणैरयममुष्मिन् स
यदोत्क्रमिष्यन्भवति शुद्धमेवैतन्मण्डलं पश्यति नैनमेते
रश्मयः प्रत्यायन्ति ॥ २॥
मन्त्र ३[V.v.3]
य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्तस्य भूरिति शिर एकꣳ शिर
एकमेतदक्षरं भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति
प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते अक्षरे । तस्योपनिषदहरिति ।
हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद ॥ ३॥
मन्त्र ४[V.v.4]
योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तस्य भूरिति शिरः एकꣳ शिर
एकमेतदक्षरं भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति
प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते अक्षरे । तस्योपनिषदहमिति ।
हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद ॥ ४॥
इति पज्ञ्चमं ब्राह्मणम् ॥
अथ षष्ठं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.vi.1]
मनोमयोऽयं पुरुषो भाःसत्यस्तस्मिन्नन्तर्हृदये यथा व्रीहिर्वा यवो
वा स एष सर्वस्य सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति
यदिदं किञ्च ॥ १॥
इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥
अथ सप्तमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.vii.1]
विद्युद् ब्रह्मेत्याहुर्विदानाद्विद्युद् विद्यत्येनं पाप्मनो य एवं वेद
विद्युद्ब्रह्मेति । विद्युद्ध्येव ब्रह्म ॥ १॥
इति सप्तमं ब्राह्मणम् ॥
अथ अथाष्टमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.viii.1]
वाचं धेनुमुपासीत । तस्याश्चत्वारः स्तनाः स्वाहाकारो वषट्कारो
हन्तकारः स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च
वषट्कारं च हन्तकारं मनुष्याः स्वधाकारं पितरः । तस्याः प्राण
ऋषभो मनो वत्सः ॥ १॥
इत्यष्टमं ब्राह्मणम् ॥
अथ नवमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.ix.1]
अयमाग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते
यदिदमद्यते । तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति ।
स यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैनं घोषꣳ शृणोति ॥ १॥
इति नवमं ब्राह्मणम् ॥
अथ दशमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.x.1]
यदा वै पुरुषोऽस्माल्लोकात्प्रैति स वायुमागच्छति तस्मै स तत्र
विजिहीते यथा रथचक्रस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते । स
आदित्यमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथालम्बरस्य खं तेन स
ऊर्ध्व आक्रमते । स चन्द्रमसमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा
दुन्दुभेः खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते । स लोकमागच्छत्यशोकमहिमं
तस्मिन्वसति शाश्वतीः समाः ॥ १॥
इति दशमं ब्राह्मणम् ॥
एकादशं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.xi.1]
एतद्वै परमं तपो यद्व्याहितस्तप्यते परमꣳ हैव लोकं
जयति य एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमरण्यꣳ हरन्ति
परमꣳ हैव लोकं जयति य एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं
प्रेतमग्नावभ्यादधति परमꣳ हैव लोकं जयति य एवं वेद ॥ ११॥
इति एकादशं ब्राह्मणम् ॥
अथ द्वादशं ब्राह्मणम् । [V.xii.1]
अन्नं ब्रह्मेत्येक आहुस्तन्न तथा
पूयति वा अन्नमृते प्राणात्
प्राणो ब्रह्मेत्येक आहुस्तन्न तथा
शुष्यति वै प्राण ऋतेऽन्नाद्
एते ह त्वेव देवते
एकधाभूयं भूत्वा
परमतां गच्छतस्तद्ध स्माऽऽह प्रातृदः पितरं
किꣳ स्विदेवैवं विदुषे साधु कुर्यां
किमेवास्मा असाधु कुर्यामिति ।
स ह स्माह पाणिना
मा
प्रातृद
कस्त्वेनयोरेकधाभूयं भूत्वा परमतां गच्छतीति ।
तस्मा उ हैतदुवाच
वीत्यन्नं वै वि
अन्ने हीमानि सर्वाणि भूतानि विष्टानि ।
रमिति
प्राणो वै रं
प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ते ।
सर्वाणि ह वा अस्मिन् भूतानि विशन्ति
सर्वाणि भूतानि रमन्ते
य एवं वेद ॥ १२॥
इति द्वादशं ब्राह्मणम् ॥
अथ त्रयोदशं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.xiii.1]
उक्थं प्राणो वा उक्थं प्राणो हीदꣳ सर्वमुत्थापयत्युद्धास्मा
धस्मादुक्थविद्वीरस्तिष्ठत्युक्थस्य सायुज्यꣳ सलोकतां जयति य
एवं वेद ॥ १॥
मन्त्र २[V.xiii.2]
यजुः प्राणो वै यजुः प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि युज्यन्ते । युज्यन्ते
हास्मै सर्वाणि भूतानि श्रैष्ठ्याय यजुषः सायुज्यꣳ सलोकतां
जयति य एवं वेद ॥ २॥
मन्त्र ३[V.xiii.3]
साम प्राणो वै साम प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि सम्यञ्चि । सम्यञ्चि
हास्मै सर्वाणि भूतानि श्रैष्ठ्याय कल्पन्ते साम्नः सायुज्यꣳ
सलोकतां जयति य एवं वेद ॥ ३॥
मन्त्र ४[V.xiii.4]
क्षत्रं प्राणो वै क्षत्रं प्राणो हि वै क्षत्रं त्रायते हैनं प्राणः
क्षणितोः । प्र क्षत्रमत्रमप्नोति क्षत्रस्य सायुज्यꣳ सलोकतां
जयति य एवं वेद ॥ ४॥
इति त्रयोदशं ब्राह्मणम् ॥
अथ चतुर्दशं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.xiv.1]
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षरꣳ ह वा एकं
गायत्र्यै पदमेतदु हैवास्या एतत् स यावदेषु त्रिषु लोकेषु तावद्ध
जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद ॥ १॥
मन्त्र २[V.xiv.2]
ऋचो यजूꣳषि सामानीत्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षरꣳ ह वा एकं
गायत्र्यै पदम् । एतदु हैवास्या एतत् स यावतीयं त्रयी विद्या तावद्ध
जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद ॥ २॥
मन्त्र ३[V.xiv.3]
प्राणोऽपानो व्यान इत्यष्टावक्षराणि अष्टाक्षरꣳ ह वा एकं गायत्र्यै
पदमेतदु हैवास्या एतत् स यावदिदं प्राणि तावद्ध जयति योऽस्या
एतदेवं पदं वेद अथास्या एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य
एष तपति यद्वै चतुर्थं तत्तुरीयं दर्शतं पदमिति ददृश
इव ह्येष परोरजा इति सर्वमु ह्येवैष रज उपर्युपरि तपत्येवꣳ
हैव श्रिया यशसा तपति योऽस्या एतदेवं पदं वेद ॥ ३॥
मन्त्र ४[V.xiv.4]
सैषा गायत्र्येतस्मिꣳस्तुरीये दर्शते पदे परोरजसि प्रतिष्ठिता
तद्वै तत्सत्ये प्रतिष्ठितं चक्षुर्वै सत्यं चक्षुर्हि
वै सत्यं तस्माद्यदिदानीं द्वौ विवदमानावेयातामहम् अदर्शं
अहमश्रौषमिति य एव एवं ब्रूयादहम् अदर्शमिति तस्मा एव
श्रद्दध्याम । तद्वै तत्सत्यं बले प्रतिष्ठितं प्राणो वै बलं
तत्प्राणे प्रतिष्ठितं तस्मादाहुर्बलꣳ सत्यादोगीय इत्येवं वेषा
गायत्र्यध्यात्मं प्रतिष्ठिता । सा हैषा गयाꣳस्तत्रे प्राणा वै
गयास्तत्प्राणाꣳस्तत्रे तद्यद्गयाꣳस्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम ।
स यामेवामूꣳ सावित्रीमन्वाहैषैव सा । स यस्मा अन्वाह तस्य
प्राणाꣳस्त्रायते ॥ ४॥
मन्त्र ५[V.xiv.5]
ताꣳ हैतामेके सावित्रीमनुष्टुभमन्वाहुर्वागनुष्टुब् एतद्वाचमनुब्रूम
इति । न तथा कुर्याद् गायत्रीमेवानुब्रूयाद् । यदि ह वा अप्येवंविद्बह्विव
प्रतिगृह्णाति न हैव तद्गायत्र्या एकं चन पदं प्रति ॥ ५॥
मन्त्र ६[V.xiv.6]
स य इमाꣳस्त्रींल्लोकान्पूर्णान्प्रतिगृह्णीयात् सोऽस्या एतत्प्रथमं
पदमाप्नुयाद् । अथ यावतीयं त्रयी विद्या यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात्
सोऽऽस्या एतद्द्वितीयं पदमाप्नुयादथ यावदिदं प्राणि
यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात् सोऽस्या एतत्तृतीयं पदमाप्नुयादथास्या
एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति नैव केन
चनाप्यं कुत उ एतावत्प्रतिगृह्णीयात् ॥ ६॥
मन्त्र ७[V.xiv.7]
तस्या उपस्थानं गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न
हि पद्यसे । नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा
प्रापदिति यं द्विष्यादसावस्मै कामो मा समृद्धीति वा न हैवास्मै स
कामः समृद्ध्यते यस्मा एवमुपतिष्ठतेऽहमदः प्रापमिति वा ॥ ७॥
मन्त्र ८[V.xiv.8]
एतद्ध वै तज्जनको वैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच यन्नु हो
तद्गायत्रीविदब्रूथा अथ कथꣳ हस्ती भूतो वहसीति । मुखꣳ
ह्यस्याः सम्राण् न विदां चकारेति होवाच । तस्या अग्निरेव मुखं
यदि ह वा अपि बह्विवाग्नावभ्यादधति सर्वमेव तत्सन्दहत्येवꣳ
हैवैवंविद् यद्यपि बह्विव पापं कुरुते सर्वमेव तत्सम्प्साय शुद्धः
पूतोऽजरोऽमृतः सम्भवति ॥ ८॥
इति चतुर्दशं ब्राह्मणम् ॥
अथ पञ्चदशं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[V.xv.1]
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्न् अपावृणु
सत्यधर्माय दृष्टये । पूषन्न् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य
व्यूह रश्मीन् । समूह तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि ।
योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि । वायुरनिलममृतमथेदं
भस्मान्तꣳ शरीरम् । ॐ३ क्रतो स्मर कृतꣳ स्मर क्रतो स्मर
कृतꣳ स्मर । अग्ने नय सुपथा रायेऽस्मान् विश्वानि देव वयुनानि
विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥ १॥
इति पञ्चदशं ब्राह्मणम् ॥
॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि पञ्चमोऽध्यायः ॥
अथ षष्ठोऽध्यायः ।
अथ प्रथमं ब्राह्मणम् ॥
मन्त्र १[VI.i.1]
ॐ यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च
श्रेष्ठश्च स्वानां भवति । प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ।
ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवत्यपि च येषां बुभूषति य
एवं वेद ॥ १॥
मन्त्र २[VI.i.2]
यो ह वै वसिष्ठां वेद वसिष्ठः स्वानां भवति । वाग्वै वसिष्ठा ।
वसिष्ठः स्वानां भवत्यपि च येषां बुभूषति , य एवं वेद ॥ २॥
मन्त्र ३[VI.i.3]
यो ह वै प्रतिष्ठां वेद प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति दुर्गे ।
चक्षुर्वै प्रतिष्ठा चक्षुषा हि समे च दुर्गे च प्रतितिष्ठति ।
प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति दुर्गे य एवं वेद ॥ ३॥
मन्त्र ४[VI.i.4]
यो ह वै सम्पदं वेद सꣳ हास्मै पद्यते यं कामं कामयते ।
श्रोत्रं वै सम्पच्छ्रोत्रे हीमे सर्वे वेदा अभिसम्पन्नाः । सꣳ
हास्मै पद्यते यं कामं कामयते य एवं वेद ॥ ४॥
मन्त्र ५[VI.i.5]
यो ह वा आयतनं वेदाऽऽयतनꣳ स्वानां भवति आयतनं जनानाम् ।
मनो वा आयतनमायतनꣳ स्वानां भवत्यायतनं जनानां य एवं
वेद ॥ ५॥
मन्त्र ६[VI.i.6]
यो ह वै प्रजातिं वेद प्रजायते ह प्रजया पशुभी रेतो वै प्रजातिः ।
प्रजायते ह प्रजया पशुभिर्य एवं वेद ॥ ६॥
मन्त्र ७[VI.i.7]
ते हेमे प्राणा अहꣳश्रेयसे विवदमाना ब्रह्म जग्मुस्तद्धोचुः को नो
वसिष्ठ इति । तद्धोवाच यस्मिन्व उत्क्रान्त इदꣳ शरीरं पापीयो
मन्यते स वो वसिष्ठ इति ॥ ७॥
मन्त्र ८[VI.i.8]
वाग्घोच्चक्राम । सा संवत्सरं प्रोष्या।आ।आगत्योवाच कथमशकत
मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथाऽकला अवदन्तो वाचा प्राणन्तः
प्राणेन पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वाꣳसो मनसा
प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह वाक् ॥ ८॥
मन्त्र ९[VI.i.9]
चक्षुर्होच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथमशकत
मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथान्धा अपश्यन्तश्चक्षुषा
प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वाꣳसो
मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह चक्षुः ॥ ९॥
मन्त्र १०[VI.i.10]
श्रोत्रꣳ होच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच
कथमशकत मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथा बधिरा अशृण्वन्तः
श्रोत्रेण प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा
विद्वाꣳसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह
श्रोत्रम् ॥ १०॥
मन्त्र ११[VI.i.11]
मनो होच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथमशकत
मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथा मुग्धा अविद्वाꣳसो मनसा
प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः
श्रोत्रेण प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह मनः ॥ ११॥
मन्त्र १२[VI.i.12]
रेतो होच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथमशकत
मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथा क्लीबा अप्रजायमाना रेतसा प्राणन्तः
प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण
विद्वाꣳसो मनसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह रेतः ॥ १२॥
मन्त्र १३[VI.i.13]
अथ ह प्राण उत्क्रमिष्यन् यथा महासुहयः सैन्धवः
पड्वीशशङ्कून्संवृहेदेवꣳ हैवेमान्प्राणान्संववर्ह । ते होचुर्मा
भगव उत्क्रमीर्न वै शक्ष्यामस्त्वदृते जीवितुमिति । तस्यो मे बलिं
कुरुतेति तथेति ॥ १३॥
मन्त्र १४[VI.i.14]
सा ह वागुवाच यद्वा अहं वसिष्ठाऽस्मि त्वं तद्वसिष्ठोऽसीति ।
यद् वा अहं प्रतिष्ठास्मि त्वं तत्प्रतिष्ठोऽसीति चक्षुर्यद्वा
अहꣳ सम्पदस्मि त्वं तत् सम्पदसीति श्रोत्रम् । यद् वा
अहमायतनमस्मि त्वं तदायतनमसीति मनो यद्वा अहं प्रजातिरस्मि
त्वं तत् प्रजातिरसीति रेतस्तस्यो मे किमन्नं किं वास इति । यदिदं
किञ्चाऽऽश्वभ्य आ कृमिभ्य आ कीटपतङ्गेभ्यस्तत्तेऽन्नमापो
वास इति । न ह वा अस्यानन्नं जग्धं भवति नानन्नं प्रतिगृहीतं
य एवमेतदनस्यान्नं वेद । तद् विद्वाꣳसः श्रोत्रिया अशिष्यन्त
आचामन्त्यशित्वाऽऽचामन्त्येतमेव तदनमनग्नं कुर्वन्तो मन्यन्ते ॥ १४॥
इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥
अथ द्वितीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[VI.ii.1]
श्वेतकेतुर्ह वा आरुणेयः पञ्चालानां परिषदमाजगाम । स आजगाम
जैवलिं प्रवाहणं परिचारयमाणम् । तमुदीक्ष्याभ्युवाद कुमारा३ इति ।
स भोः ३ इति प्रतिशुश्राव अनुशिष्टोऽन्वसि पित्रेत्योमिति होवाच ॥ १॥
मन्त्र २[VI.ii.2]
वेत्थ यथेमाः प्रजाः प्रयत्यो विप्रतिपद्यन्ता३ इति । नेति होवाच ।
वेत्थो यथेमं लोकं पुनरापद्यन्ता३ इति । नेति हैवोवाच । वेत्थो
यथाऽसौ लोक एवं बहुभिः पुनःपुनः प्रयद्भिर्न सम्पूर्यता३ इति
नेति हैवोवाच । वेत्थो यतिथ्यामाहुत्याꣳ हुतायामापः पुरुषवाचो
भूत्वा समुत्थाय वदन्ती३ इति । नेति हैवोवाच । वेत्थो देवयानस्य वा
पथः प्रतिपदं पितृयाणस्य वा यत्कृत्वा देवयानं वा पन्थानं
प्रतिपद्यन्ते पितृयाणं वाऽपि हि न ऋषेर्वचः श्रुतं द्वे
सृती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानां ताभ्यामिदं
विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं चेति । नाहमत एकं चन
वेदेति होवाच ॥ २॥
मन्त्र ३[VI.ii.3]
अथैनं वसत्योपमन्त्रयां चक्रेऽनादृत्य वसतिं कुमारः
प्रदुद्राव । स आजगाम पितरं तꣳ होवाचेति वाव किल नो
भवान्पुराऽनुशिष्टानवोच इति । कथꣳ, सुमेध इति । पञ्च
मा प्रश्नान्राजन्यबन्धुरप्राक्षीत् ततो नैकञ्चन वेदेति । कतमे त
इति इम इति ह प्रतीकान्युदाजहार ॥ ३॥
मन्त्र ४[VI.ii.4]
स होवाच तथा नस्त्वं तात जानीथा यथा यदहं किञ्च वेद
सर्वमहं तत्तुभमवोचम् । प्रेहि तु तत्र प्रतीत्य ब्रह्मचर्यं
वत्स्याव इति । भवानेव गच्छत्विति । स आजगाम गौतमो यत्र
प्रवाहणस्य जैवलेरास । तस्मा आसनमाहृत्योदकमहारयां चकाराथ
हास्मा अर्घ्यं चकार । तꣳ होवाच वरं भगवते गौतमाय दद्म
इति ॥ ४॥
मन्त्र ५[VI.ii.5]
स होवाच प्रतिज्ञातो म एष वरो यां तु कुमारस्यान्ते
वाचमभाषथास्तां मे ब्रूहीति ॥ ५॥
मन्त्र ६[VI.ii.6]
स होवाच दैवेषु वै गौतम तद्वरेषु मानुषाणां ब्रूहीति ॥ ६॥
मन्त्र ७[VI.ii.7]
स होवाच विज्ञायते हास्ति हिरण्यस्यापात्तं गोअश्वानां दासीनां प्रवाराणां
परिधानस्य मा नो भवान्बहोरनन्तस्यापर्यन्तस्याभ्यवदान्यो भूदिति ।
स वै गौतम तीर्थेनेच्छासा इत्युपैम्यहं भवन्तमिति वाचा ह स्मैव
पूर्व उपयन्ति । स होपायनकीर्त्योवास ॥ ७॥
मन्त्र ८[VI.ii.8]
स होवाच तथा नस्त्वं गौतम माऽपराधास्तव च पितामहा यथेयं
विद्येतः पूर्वं न कस्मिꣳश्चन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं
वक्ष्यामि को हि त्वैवं ब्रुवन्तमर्हति प्रत्याख्यातुमिति ॥ ८॥
मन्त्र ९[VI.ii.9]
असौ वै लोकोऽग्निर्गौतम । तस्याऽऽदित्य एव समिद् रश्मयो धूमो
ऽहरर्चिर्दिशोऽङ्गारा अवान्तरदिशो विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ
देवाः श्रद्धां जुह्वति तस्या आहुत्यै सोमो राजा सम्भवति ॥ ९॥
मन्त्र १०[VI.ii.10]
पर्जन्यो वा अग्निर्गौतम । तस्य संवत्सर एव समिदभ्राणि धूमो
विद्युदर्चिरशनिरङ्गारा ह्रादुनयो विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ
देवाः सोमꣳ राजानं जुह्वति तस्या आहुत्यै वृष्टिः सम्भवति ॥ १०॥
मन्त्र ११[VI.ii.11]
अयं वै लोकोऽग्निर्गौतम । तस्य पृथिव्येव समिद्
अग्निर्धूमो रात्रिरर्चिश्चन्द्रमा अङ्गारा नक्षत्राणि
विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वृष्टिं जुह्वति तस्या आहुत्या
अन्नꣳ सम्भवति ॥ ११॥
मन्त्र १२[VI.ii.12]
पुरुषो वा अग्निर्गौतम । तस्य व्यात्तमेव समित् प्राणो धूमो
वागर्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ
देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुत्यै रेतः सम्भवति ॥ १२॥
मन्त्र १३[VI.ii.13]
योषा वा आग्निर्गौतम । तस्या उपस्थ एव समिल्लोमानि
धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा
विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुत्यै पुरुषः
सम्भवति । स जीवति यावज्जीवत्यथ यदा म्रियते । १३॥
मन्त्र १४[VI.ii.14]
अथैनमग्नये हरन्ति । तस्याग्निरेवाग्निर्भवति समित्समिद्
धूमो धूमोऽर्चिरर्चिरङ्गारा अङ्गारा विस्फुलिङ्गा
विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः पुरुषं जुह्वति तस्या आहुत्यै
पुरुषो भास्वरवर्णः सम्भवति ॥ १४॥
मन्त्र १५[VI.ii.15]
ते य एवमेतद्विदुर्ये चामी अरण्ये श्रद्धाꣳ सत्यमुपासते
तेऽर्चिरभिसम्भवन्त्यर्चिषोऽहोऽह्न आपूर्यमाणपक्षं
आपूर्यमाणपक्षाद्यान्षण्मासानुदङ्ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं
देवलोकादादित्यमादित्याद्वैद्युतं तान्वैद्युतान्पुरुषो मानस एत्य
ब्रह्मलोकान् गमयति ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति ।
तेषां न पुनरावृत्तिः ।
मन्त्र १६[VI.ii.16]
अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते
धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रिꣳ, रात्रेरपक्षीयमाणपक्षं
अपक्षीयमाणपक्षाद्यान्षण्मासान्दक्षिणादित्य एति मासेभ्यः
पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं
भवन्ति ताꣳस्तत्र देवा यथा सोमꣳ राजानमाप्यायस्व
अपक्षीयस्वेत्येवमेनाꣳस्तत्र भक्षयन्ति । तेषां यदा
तत्पर्यवैत्यथेममेवाऽऽकाशमभिनिष्पद्यन्ते आकाशाद्वायुं
वायोर्वृष्टिं वृष्टेः पृथिवीं ते पृथिवीं प्राप्यान्नं भवन्ति ते
पुनः पुरुषाग्नौ हूयन्ते ततो योषाग्नौ जायन्ते ते लोकान्प्रत्युथायिनस्त
एवमेवानुपरिवर्तन्तेऽथ य एतौ पन्थानौ न विदुस्ते कीटाः पतङ्गा
यदिदं दन्दशूकम् ॥ १६॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ तृतीयं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[VI.iii.1]
स यः कामयते महत्प्राप्नुयामित्युदगयन आपूर्यमाणपक्षस्य
पुण्याहे द्वादशाहमुपसद्व्रती भूत्वौदुम्बरे कꣳसे चमसे वा
सर्वौषधं फलानीति सम्भृत्य परिसमुह्य परिलिप्याग्निमुपसमाधाय
परिस्तीर्याऽऽवृताऽऽज्यꣳ सꣳस्कृत्य पुꣳसा नक्षत्रेण
मन्थꣳ सन्नीय जुहोति । यावन्तो देवास्त्वयि जातवेदस्तिर्यञ्चो
घ्नन्ति पुरुषस्य कामान् तेभ्योऽहं भागधेयं जुहोमि ते मा तृप्ताः
सर्वैः कामैस्तर्पयन्तु स्वाहा । या तिरश्ची निपद्यतेऽहं विधरणी
इति तां त्वा घृतस्य धारया यजे सꣳराधनीमहꣳ । स्वाहा ॥ १॥
मन्त्र २[VI.iii.2]
ज्येष्ठाय स्वाहा श्रेष्ठाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे
सꣳस्रवमवनयति । प्राणाय स्वाहा वसिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे सꣳस्रवमवनयति । वाचे स्वाहा प्रतिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ
हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति । चक्षुषे स्वाहा सम्पदे स्वाहेति
अग्नौ हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति । श्रोत्राय स्वाहाऽऽयतनाय
स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति । मनसे स्वाहा प्रजात्यै
स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति । रेतसे स्वाहेति अग्नौ
हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति ॥ २॥
मन्त्र ३[VI.iii.3]
अग्नये स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति । सोमाय
स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति । भूः स्वाहेत्यग्नौ
हुत्वा मन्थे सꣳस्रवमवनयति । भुवः स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे सꣳस्रवमवनयति । स्वः स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे
सꣳस्रवमवनयति । भूर्भुवः स्वः स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे सꣳस्रवमवनयति । ब्रह्मणे स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे सꣳस्रवमवनयति । क्षत्राय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे सꣳस्रवमवनयति । भूताय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे
सꣳस्रवमवनयति । भविष्यते स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे
सꣳस्रवमवनयति । विश्वाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे
सꣳस्रवमवनयति । सर्वाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे
सꣳस्रवमवनयति । प्रजापतये स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे
सꣳस्रवमवनयति ॥ ३॥
मन्त्र ४[VI.iii.4]
अथैनमभिमृशति भ्रमदसि ज्वलदसि
पूर्णमसि प्रस्तब्धमस्येकसभमसि हिङ्कृतमसि
हिङ्क्रियमाणमस्युद्गीथमस्युद्गीयमानमसि श्रावितमसि
प्रत्याश्रावितमस्यर्द्रे सन्दीप्तमसि विभूरसि प्रभूरस्यन्नमसि
ज्योतिरसि निधनमसि संवर्गोऽसीति ॥ ४॥
मन्त्र ५[VI.iii.5]
अथैनमुद्यच्छत्यमꣳस्यामꣳ हि ते महि । स हि
राजेशानोऽधिपतिः स माꣳ राजेशनोऽधिपतिं करोत्विति ॥ ५॥
मन्त्र ६[VI.iii.6]
अथैनमाचामति तत्सवितुर्वरेण्यम् । मधु वाता ऋतायते मधु
क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः । भूः स्वाहा । भर्गो
देवस्य धीमहि मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवꣳ रजः । मधु
द्यौरस्तु नः पिता । भुवः स्वाहा । धियो यो नः प्रचोदयात् । मधुमान्नो
वनस्पतिर्मधुमाꣳ अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः । स्वः
स्वाहेति । सर्वां च सावित्रीमन्वाह सर्वाश्च मधुमतीरहमेवेदꣳ
सर्वं भूयासम् । भूर्भुवः स्वः स्वाहेत्यन्तत आचम्य पाणी प्रक्षाल्य
जघनेनाग्निं प्राक्षिराः संविशति । प्रातरादित्यमुपतिष्ठते
दिशामेकपुण्डरीकमसि अहं मनुष्याणामेकपुण्डरीकं भूयासमिति ।
यथेतमेत्य जघनेनाग्निमासीनो वꣳशं जपति ॥ ६॥
मन्त्र ७[VI.iii.7]
तꣳ हैतमूद्दालक आरुणिर्वाजसनेयाय याज्ञवल्क्यायान्तेवासिन
उक्त्वोवाचापि य एनꣳ शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् शुष्के स्थाणौ
निषिञ्चेत् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ७॥
मन्त्र ८[VI.iii.8]
एतमु हैव वाजसनेयो याज्ञवल्क्यो मधुकाय पैङ्ग्यायान्तेवासिन
उक्त्वोवाचापि य एनꣳ शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् स्थाणौ निषिञ्चेत्
जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ८॥
मन्त्र ९[VI.iii.9]
एतमु हैव मधुकः पैङ्ग्यश्चूलाय भागवित्तयेऽन्तेवासिन
उक्त्वोवाचापि य एनꣳ शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् जायेरञ्छाखाः
प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ९॥
मन्त्र १०[VI.iii.10]
एतमु हैव चूलो भागवित्तिर्जानकय आयस्थूणायान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य
एनꣳ शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् यसेनम् शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेत्
जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ १०॥
मन्त्र ११[VI.iii.11]
एतमु हैव जानकिरयस्थूणः सत्यकामाय जाबालायान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि
य एनꣳ शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः
पलाशानीति ॥ ११॥
मन्त्र १२[VI.iii.12]
एतमु हैव सत्यकामो जाबालोऽन्तेवासिभ्य उक्त्वोवाचापि य एनꣳ
शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ।
तमेतं नापुत्राय वाऽनन्तेवासिने वा ब्रूयात् ॥ १२॥
मन्त्र १३[VI.iii.13]
चतुरौदुम्बरो भवत्यौदुम्बरः स्रुव औदुम्बरश्चमस औदुम्बर
इध्म औदुम्बर्या उपमन्थन्यौ । दश ग्राम्याणि धान्यानि भवन्ति
व्रीहियवास्तिलमाषा अणुप्रियङ्गवो गोधूमाश्च मसूराश्च खल्वाश्च
खलकुलाश्च तान्पिष्टान्दधनि मधुनि घृत उपसिञ्चत्याज्यस्य
जुहोति ॥ १३॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥
अथ चतुर्थं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[VI.iv.1]
एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधय
ओषधीनां पुष्पाणि पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः ॥ १॥
मन्त्र २[VI.iv.2]
स ह प्रजापतिरीक्षांचक्रे हन्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति स
स्त्रियꣳ ससृजे । ताꣳ सृष्ट्वाऽध उपास्त तस्मात्स्त्रियमध
उपासीत स एतं प्राञ्चं ग्रावाणमात्मन एव समुदपारयत्
तेनैनामभ्यसृजत् ॥ २॥
मन्त्र ३[VI.iv.3]
तस्या वेदिरुपस्थो लोमानि बर्हिश्चर्माधिषवणे समिद्धो मध्यतस्तौ
मुष्कौ । स यावान्ह वै वाजपेयेन यजमानस्य लोको भवति तावानस्य
लोको भवति य एवं विद्वानधोपहासं चरत्यासाꣳ स्त्रीणाꣳ
सुकृतं वृङ्क्तेऽथ य इदमविद्वानधोपहासं चरत्याऽस्य स्त्रियः
सुकृतं वृञ्जते ॥ ३॥
मन्त्र ४[VI.iv.4]
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको
मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान् कुमारहारित आह एतद् ध स्म
वै तद् विद्वान् कुमारहारितसाह बहवो मर्या ब्राह्मणायना निरिन्द्रिया
विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रयन्ति य इदमविद्वाꣳसोऽधोपहासं चरन्तीति ।
बहु वा इदꣳ सुप्तस्य वा जाग्रतो वा रेतः स्कन्दति ॥ ४॥
मन्त्र ५[VI.iv.5]
तदभिमृशेदनु वा मन्त्रयेत यन्मेऽद्य रेतः पृथिवीमस्कान्त्सीद्
यदोषधीरप्यसरद् यदपः । इदमहं तद्रेत आददे
पुनर्मामैत्विन्द्रियं पुनस्तेजः पुनर्भगः । पुनरग्निर्धिष्ण्या
यथास्थानं कल्पन्तामित्यनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामादायान्तरेण स्तनौ वा
भ्रुवौ वा निमृज्यात् ॥ ५॥
मन्त्र ६[VI.iv.6]
अथ यद्युदक आत्मानं पश्येत् तदभिमन्त्रयेत मयि तेज
इन्द्रियं यशो द्रविणꣳ सुकृतमिति । श्रीर्ह वा एषा स्त्रीणां
यन्मलोद्वासास्तस्मान्मलोद्वाससं यशस्विनीमभिक्रम्योपमन्त्रयेत ॥ ६॥
मन्त्र ७[VI.iv.7]
सा चेदस्मै न दद्यात् काममेनामवक्रिणीयात् सा चेदस्मै नैव दद्यात्
काममेनां यष्ट्या वा पाणिना वोपहत्यातिक्रामेदिन्द्रियेण ते यशसा यश
आदद इत्ययशा एव भवति ॥ ७॥
मन्त्र ८[VI.iv.8]
सा चेदस्मै दद्यादिन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामीति यशस्विनावेव
भवतः ॥ ८॥
मन्त्र ९[VI.iv.9]
स यामिच्छेत् कामयेत मेति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखꣳ
सन्धायोपस्थमस्या अभिमृश्य जपेदङ्गादङ्गात्सम्भवसि
हृदयादधिजायसे । स त्वमङ्गकषायोऽसि दिग्धविद्धमिव
मादयेमाममूं मयीति ॥ ९॥
मन्त्र १०[VI.iv.10]
अथ यामिच्छेन् न गर्भं दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन
मुखꣳ सन्धायाभिप्राण्यापान्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदद इत्यरेता
एव भवति ॥ १०॥
मन्त्र ११[VI.iv.11]
अथ यामिच्छेद् दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखꣳ
सन्धायापान्याभिप्राण्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदधामीति गर्भिण्येव
भवति ॥ ११॥
मन्त्र १२[VI.iv.12]
अथ यस्य जायायै जारः स्यात् तं चेद् द्विष्यादामपात्रेऽग्निमुपसमाधाय
प्रतिलोमꣳ शरबर्हिस्तीर्त्वा तस्मिन्नेताः शरभृष्टीः
प्रतिलोमाः सर्पिषाऽक्ता जुहुयान् मम समिद्धेऽहौषीः प्राणापानौ
त आददेऽसाविति । मम समिद्धेऽहौषीः पुत्रपशूꣳस्त आददे
ऽसाविति । मम समिद्धेऽहौषीरिष्टासुकृते त आददेऽसाविति ।
मम समिद्धेऽहौषीराशापराकाशौ त आददेऽसाविति । स वा एष
निरिन्द्रियो विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रैति यमेवंविद्ब्राह्मणः शपति ।
तस्मादेवंवित्छ्रोत्रियस्य दारेण नोपहासमिच्छेदुत ह्येवंवित्परो
भवति ॥ १२॥
मन्त्र १३[VI.iv.13]
अथ यस्य जायामार्तवं विन्देत् त्र्यहं कꣳसे न पिबेदहतवासा
नैनां वृषलो न वृषल्युपहन्यात् अपहन्यात् त्रिरात्रान्त आप्लुत्य
व्रीहीनवघातयेत् ॥ १३॥
मन्त्र १४[VI.iv.14]
स य इच्छेत् पुत्रो मे शुक्लो जायेत वेदमनुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति
क्षीरौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै ॥ १४॥
मन्त्र १५[VI.iv.15]
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे कपिलः पिङ्गलो जायेत द्वौ वेदावनुब्रुवीत
सर्वमायुरियादिति दध्योदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ
जनयितवै ॥ १५॥
मन्त्र १६[VI.iv.16]
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत त्रीन्वेदाननुब्रुवीत
सर्वमायुरियादित्युदौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ
जनयितवै ॥ १६॥
मन्त्र १७[VI.iv.17]
अथ य इच्छेद् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति तिलौदनं
पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै ॥ १७॥
मन्त्र १८[VI.iv.18]
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डितो विगीतः समितिङ्गमः शुश्रूषितां
वाचं भाषिता जायेत सर्वान्वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति
माꣳसौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै ।
औक्षेण वाऽऽर्षभेण वा ॥ १८॥
मन्त्र १९[VI.iv.19]
अथाभिप्रातरेव स्थालीपाकावृताऽऽज्यं चेष्टित्वा
स्थालीपाकस्योपघातं जुहोत्यग्नये स्वाहाऽनुमतये स्वाहा देवाय सवित्रे
सत्यप्रसवाय स्वाहेति हुत्वोद्धृत्य प्राश्नाति । प्राश्येतरस्याः
प्रयच्छति । प्रक्षाल्य पाणी उदपात्रं पूरयित्वा तेनैनां
त्रिरभ्युक्षत्युत्तिष्ठातो विश्वावसोऽन्यामिच्छ प्रपूर्व्याꣳ सं
जायां पत्या सहेति ॥ १९॥
मन्त्र २०[VI.iv.20]
अथैनामभिपद्यतेऽमोऽहमस्मि सा त्वꣳ सा त्वमस्यमोऽहꣳ
सामाहमस्मि ऋक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम् । तावेहि सꣳरभावहै
सह रेतो दधावहै पुꣳसे पुत्राय वित्तय इति ॥ २०॥
मन्त्र २१[VI.iv.21]
अथास्या ऊरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति । तस्यामर्थं
निष्ठाय मुखेन मुखꣳ सन्धाय त्रिरेनामनुलोमामनुमार्ष्टि
विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिꣳशतु आसिञ्चतु
प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते । गर्भं धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि
पृथुष्टुके । गर्भं ते आश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ ॥ २१॥
मन्त्र २२[VI.iv.22]
हिरण्मयी अरणी याभ्यां निर्मन्थतामाश्विनौ तं ते गर्भꣳ हवामहे
दशमे मासि सूतये । यथाऽग्निगर्भा पृथिवी यथा द्यौरिन्द्रेण
गर्भिणी वायुर्दिशां यथा गर्भ एवं गर्भं दधामि तेऽसाविति ॥ २२॥
मन्त्र २३[VI.iv.23]
सोष्यन्तीमद्भिरभ्युक्षति यथा वायुः पुष्करिणीꣳ समिङ्गयति
सर्वतः । एवा ते गर्भ एजतु सहावैतु जरायुणा । इन्द्रस्यायं व्रजः
कृतः सार्गलः सपरिश्रयः । तमीन्द्र निर्जहि गर्भेण सावराꣳ
सहेति ॥ २३॥
मन्त्र २४[VI.iv.24]
जातेऽग्निमुपसमाधायाङ्क आधाय कꣳसे पृषदाज्यꣳ सन्नीय
पृषदाज्यस्योपघातं जुहोत्यस्मिन्सहस्रं पुष्यासमेधमानः स्वे
गृहे । अस्योपसन्द्यां मा च्छैत्सीत् प्रजया च पशुभिश्च स्वाहा ।
मयि प्राणाꣳस्त्वयि मनसा जुहोमि स्वाहा । यत् कर्मणाऽत्यरीरिचं
यद्वा न्यूनमिहाकरम् । अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्वान् स्विष्टꣳ सुहुतं
करोतु नः स्वाहेति ॥ २४॥
मन्त्र २५[VI.iv.25]
अथास्य दक्षिणं कर्णमभिनिधाय वाग्वागिति त्रिरथ दधि मधु
घृतꣳ सन्नीयानन्तर्हितेन जातरूपेण प्राशयति । भूस्ते दधामि
भुवस्ते दधामि स्वस्ते दधामि भूर्भुवः स्वः सर्वं त्वयि दधामीति ॥ २५॥
मन्त्र २६[VI.iv.26]
अथास्य नाम करोति वेदोऽसीति । तदस्यैतद्गुह्यमेव नाम भवति ॥ २६॥
मन्त्र २७[VI.iv.27]
अथैनं मात्रे प्रदाय स्तनं प्रयच्छति यस्ते स्तनः शशयो यो
मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रो येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि
सरस्वति तमिह धातवे करिति ॥ २७॥
मन्त्र २८[VI.iv.28]
अथास्य मातरमभिमन्त्रयते । इलाऽसि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनत् ।
सा त्वं वीरवती भव याऽस्मान्वीरवतोऽकरदिति । तं वा एतमाहुरतिपिता
बताभूरतिपितामहो बताभूः । परमां बत काष्ठां प्रापयच्छ्रिया
यशसा ब्रह्मवर्चसेन य एवंविदो ब्राह्मणस्य पुत्रो जायत इति ॥ २८॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥
अथ पञ्चमं ब्राह्मणम् ।
मन्त्र १[VI.v.1]
अथ वꣳशः । पौतिमाषीपुत्रः कात्यायनीपुत्रात् कात्यायनीपुत्रो
गौतमीपुत्राद् गौतमीपुत्रो भारद्वाजीपुत्राद् भारद्वाजीपुत्रः
पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्र औपस्वस्तीपुत्रादौपस्वस्तीपुत्रः
पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्रः कात्यायनीपुत्रात् कात्यायनीपुत्रः
कौशिकीपुत्रात् कौशिकीपुत्र आलम्बीपुत्राच्च वैयाघ्रपदीपुत्राच्च
वैयाघ्रपदीपुत्रः काण्वीपुत्राच्च कापीपुत्राच्च कापीपुत्रः ॥ १॥
मन्त्र २[VI.v.2]
आत्रेयीपुत्रादात्रेयीपुत्रो गौतमीपुत्राद् गौतमीपुत्रो भारद्वाजीपुत्राद्
भारद्वाजीपुत्रः पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्रो वात्सीपुत्राद् वात्सीपुत्रः
पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्रो वार्कारुणीपुत्राद् वार्कारुणीपुत्रो
वार्कारुणीपुत्राद् वार्कारुणीपुत्र आर्तभागीपुत्रादार्तभागीपुत्रः
शौङ्गीपुत्राच्चौङ्गीपुत्रः साङ्कृतीपुत्रात् साङ्कृतीपुत्र
आलम्बायनीपुत्रादालम्बायनीपुत्र आलम्बीपुत्रादालम्बीपुत्रो जायन्तीपुत्राज्
जायन्तीपुत्रो माण्डूकायनीपुत्रान् माण्डूकायनीपुत्रो माण्डूकीपुत्रान्
माण्डूकीपुत्रः शाण्डिलीपुत्राच्छाण्डिलीपुत्रो राथीतरीपुत्राद् राथीतरीपुत्रो
भालुकीपुत्राद् भालुकीपुत्रः क्रौञ्चिकीपुत्राभ्यां क्रौञ्चिकीपुत्रौ
वैदभृतीपुत्राद् वैदभृतीपुत्रः कार्शकेयीपुत्रात् कार्शकेयीपुत्रः
प्राचीनयोगीपुत्रात् प्राचीनयोगीपुत्रः साञ्जीवीपुत्रात् साञ्जीवीपुत्रः
प्राश्नीपुत्रादासुरिवासिनः प्राश्नीपुत्र आसुरायणादासुरायण आसुरेरासुरिः ॥ २॥
मन्त्र ३[VI.v.3]
याज्ञवल्क्याद् याज्ञवल्क्य ऊद्दालकादूद्दालकोऽरुणादरुण
उपवेशेरुपवेशिः कुश्रेः कुश्रिर्वाजश्रवसो वाजश्रवा जीह्वावतो
बाध्योगाज् जीह्वावान्बाध्योगोऽसिताद्वार्षगणादसितो वार्षगणो
हरितात्कश्यपाद्द् हरितः कश्यपः शिल्पात्कश्यपाच्छिल्पः
कश्यपः कश्यपान्नैध्रुवेः कश्यपो नैध्रुविर्वाचो वागम्भिण्याः
अम्भिण्यादित्यादादित्यानीमानि शुक्लानि यजूꣳषि वाजसनेयेन
याज्ञवल्क्येनाऽऽख्ययन्ते ॥ ३॥
मन्त्र ४[VI.v.4]
समानमा साञ्जीवीपुत्रात् सञ्जिवीपुत्रो माण्डूकायनेर्माण्डूकायनिर्माण्डव्यान्
माण्डव्यः कौत्सात् कौत्सो माहित्थेर्माहित्थिर्वामकक्षायणाद् वामकक्षायणः
शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यो वात्स्याद् वात्स्यः कुश्रेः कुश्रिर्यज्ञवचसो
राजस्तम्बायनाद् यज्ञवचा राजस्तम्बायनस्तुरात्कावषेयात् तुरः
कावषेयः प्रजापतेः प्रजापतिर्ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु । ब्रह्मणे
नमः ॥ ४॥
इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥
इति बृहदारण्यकोपनिषदि षष्ठोऽध्यायः ॥
इति वाजसनेयके बृहदारण्यकोपनिषत्समाप्ता ॥
ब्रह्मविद्योपनिषत्
स्वाविद्यातत्कार्यजातं यद्विद्यापह्नवं गतम् ।
तद्धंसविद्यानिष्पन्नं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥
सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथ ब्रह्मविद्योपनिषदुच्यते ॥
प्रसादाद्ब्रह्मणस्तस्य विष्णोरद्भुतकर्मणः ।
रहस्यं ब्रह्मविद्याया ध्रुवाग्निं सम्प्रचक्षते ॥ १॥
ॐइत्येकाक्षरं ब्रह्म यदुक्तं ब्रह्मवादिभिः ।
शरीरं तस्य वक्ष्यामि स्थानं कालत्रयं तथा ॥ २॥
तत्र देवास्त्रयः प्रोक्ता लोका वेदास्त्रयोऽग्नयः ।
तिस्रो मात्रार्धमात्रा च त्र्यक्षरस्य शिवस्य तु ॥ ३॥
ऋग्वेदो गार्हपत्यं च पृथिवी ब्रह्म एव च ।
आकारस्य शरीरं तु व्याख्यातं ब्रह्मवादिभिः ॥ ४॥
यजुर्वेदोऽन्तरिक्षं च दक्षिणाग्निस्तथैव च ।
विष्णुश्च भगवान्देव उकारः परिकीर्तितः ॥ ५॥
सामवेदस्तथा द्यौश्चाहवनीयस्तथैव च ।
ईश्वरः परमो देवो मकारः परिकीर्तितः ॥ ६॥
सूर्यमण्डलमध्येऽथ ह्यकारः शङ्खमध्यगः ।
उकारश्चन्द्रसंकाशस्तस्य मध्ये व्यवस्थितः ॥ ७॥
मकारस्त्वग्निसंकाशो विधूमो विद्युतोपमः ।
तिस्रो मात्रास्तथा ज्ञेया सोमसूर्याग्निरूपिणः ॥ ८॥
शिखा तु दीपसंकाशा तस्मिन्नुपरि वर्तते ।
अर्धमात्र तथा ज्ञेया प्रणवस्योपरि स्थिता ॥ ९॥
पद्मसूत्रनिभा सूक्ष्मा शिखा सा दृश्यते परा ।
सा नाडी सूर्यसंकाशा सूर्यं भित्त्वा तथापरा ॥ १०॥
द्विसप्ततिसहस्राणि नाडीं भित्त्वा च मूर्धनि ।
वरदः सर्वभूतानां सर्वं व्याप्यावतिष्ठति ॥ ११॥
कांस्यघण्टानिनादस्तु यथा लीयति शान्तये ।
ओङ्कारस्तु तथा योज्यः शान्तये सर्वमिच्छता ॥ १२॥
यस्मिन्विलीयते शब्दस्तत्परं ब्रह्म गीयते ।
धियं हि लीयते ब्रह्म सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १३॥
वायुः प्राणस्तथाकाशस्त्रिविधो जीवसंज्ञकः ।
स जीवः प्राण इत्युक्तो वालाग्रशतकल्पितः ॥ १४॥
नाभिस्थाने स्थितं विश्वं शुद्धतत्त्वं सुनिर्मलम् ।
आदित्यमिव दीप्यन्तं रश्मिभिश्चाखिलं शिवम् ॥ १५॥
सकारं च हकारं च जीवो जपति सर्वदा ।
नाभिरन्ध्राद्विनिष्क्रान्तं विषयव्याप्तिवर्जितम् ॥ १६॥
तेनेदं निष्कलं विद्यात्क्षीरात्सर्पिर्यथा तथा ।
कारणेनात्मना युक्तः प्राणायामैश्च पञ्चभिः ॥ १७॥
चतुष्कला समायुक्तो भ्राम्यते च हृदिस्थितः ।
गोलकस्तु यदा देहे क्षीरदण्डेन वा हतः ॥ १८॥
एतस्मिन्वसते शीघ्रमविश्रान्तं महाखगः ।
यावन्निश्वसितो जीवस्तावन्निष्कलतां गतः ॥ १९॥
नभस्थं निष्कलं ध्यात्वा मुच्यते भवबन्धनात्
अनाहतध्वनियुतं हंसं यो वेद हृद्गतम् ॥ २०॥
स्वप्रकाशचिदानन्दं स हंस इति गीयते ।
रेचकं पूरकं मुक्त्वा कुम्भकेन स्थितः सुधीः ॥ २१॥
नाभिकन्दे समौ कृत्वा प्राणापानौ समाहितः ।
मस्तकस्थामृतास्वादं पीत्वा ध्यानेन सादरम् ॥ २२॥
दीपाकारं महादेवं ज्वलन्तं नाभिमध्यमे ।
अभिषिच्यामृतेनैव हंस हंसेति यो जपेत् ॥ २३॥
जरामरणरोगादि न तस्य भुवि विद्यते ।
एवं दिने दिने कुर्यादणिमादिविभूतये ॥ २४॥
ईश्वरत्वमवाप्नोति सदाभ्यासरतः पुमान् ।
बहवो नैकमार्गेण प्राप्ता नित्यत्वमागताः ॥ २५॥
हंसविद्यामृते लोके नास्ति नित्यत्वसाधनम् ।
यो ददाति महाविद्यां हंसाख्यां पारमेश्वरीम् ॥ २६॥
तस्य दास्यं सदा कुर्यात्प्रज्ञया परया सह ।
शुभं वाऽशुभमन्यद्वा यदुक्तं गुरुणा भुवि ॥ २७॥
तत्कुर्यादविचारेण शिष्यः सन्तोषसंयुतः ।
हंसविद्यामिमां लब्ध्वा गुरुशुश्रूषया नरः ॥ २८॥
आत्मानमात्मना साक्षाद्ब्रह्म बुद्ध्वा सुनिश्चलम् ।
देहजात्यादिसम्बन्धान्वर्णाश्रमसमन्वितान् ॥ २९॥
वेदशास्त्राणि चान्यानि पदपांसुमिव त्यजेत् ।
गुरुभक्तिं सदा कुर्याच्छ्रेयसे भूयसे नरः ॥ ३०॥
गुरुरेव हरिः साक्षान्नान्य इत्यब्रवीच्छृतिः ॥ ३१॥
श्रुत्या यदुक्तं परमार्थमेव
तत्संशयो नात्र ततः समस्तम् ।
श्रुत्या विरोधे न भवेत्प्रमाणं
भवेदनर्थाय विना प्रमाणम् ॥ ३२॥
देहस्थः सकलो ज्ञेयो निष्कलो देहवर्जितः ।
आप्तोपदेशगम्योऽसौ सर्वतः समवस्थितः ॥ ३३॥
हंसहंसेति यो ब्रूयाद्धंसो ब्रह्मा हरिः शिवः ।
गुरुवक्त्रात्तु लभ्येत प्रत्यक्षं सर्वतोमुखम् ॥ ३४॥
तिलेषु च यथा तैलं पुष्पे गन्ध इवाश्रितः ।
पुरुषस्य शरीरेऽस्मिन्स बाह्याभ्यन्तरे तथा ॥ ३५॥
उल्काहस्तो यथालोके द्रव्यमालोक्य तां त्यजेत् ।
ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्चाज्ज्ञानं परित्यजेत् ॥ ३६॥
पुष्पवत्सकलं विद्याद्गन्धस्तस्य तु निष्कलः ।
वृक्षस्तु सकलं विद्याच्छाया तस्य तु निष्कला ॥ ३७॥
निष्कलः सकलो भावः सर्वत्रैव व्यवस्थितः ।
उपायः सकलस्तद्वदुपेयश्चैव निष्कलः ॥ ३८॥
सकले सकलो भावो निष्कले निष्कलस्तथा ।
एकमात्रो द्विमात्रश्च त्रिमात्रश्चैव भेदतः ॥ ३९॥
अर्धमात्र परा ज्ञेया तत ऊर्ध्वं परात्परम् ।
पञ्चधा पञ्चदैवत्यं सकलं परिपठ्यते ॥ ४०॥
ब्रह्मणो हृदयस्थानं कण्ठे विष्णुः समाश्रितः ।
तालुमध्ये स्थितो रुद्रो ललाटस्थो महेश्वरः ॥ ४१॥
नासाग्रे अच्युतं विद्यात्तस्यान्ते तु परं पदम् ।
परत्वात्तु परं नास्तीत्येवं शास्त्रस्य निर्णयः ॥ ४२॥
देहातीतं तु तं विद्यान्नासाग्रे द्वादशाङ्गुलम् ।
तदन्तं तं विजानीयात्तत्रस्थो व्यापयेत्प्रभुः ॥ ४३॥
मनोऽप्यन्यत्र निक्षिप्तं चक्षुरन्यत्र पातितम् ।
तथापि योगिनां योगो ह्यविच्छिन्नः प्रवर्तते ॥ ४४॥
एतत्तु परमं गुह्यमेतत्तु परमं शुभम् ।
नातः परतरं किञ्चिन्नातः परतरं शुभम् ॥ ४५॥
शुद्धज्ञानामृतं प्राप्य परमाक्षरनिर्णयम् ।
गुह्याद्गुह्यतमं गोप्यं ग्रहणीयं प्रयत्नतः ॥ ४६॥
नापुत्राय प्रदातव्यं नाशिष्याय कदाचन ।
गुरुदेवाय भक्ताय नित्यं भक्तिपराय च ॥ ४७॥
प्रदातव्यमिदं शास्त्रं नेतरेभ्यः प्रदापयेत् ।
दातास्य नरकं याति सिद्ध्यते न कदाचन ॥ ४८॥
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः ।
यत्र तत्र स्थितो ज्ञानी परमाक्षरवित्सदा ॥ ४९॥
विषयी विषयासक्तो याति देहान्तरे शुभम् ।
ज्ञानादेवास्य शास्त्रस्य सर्वावस्थोऽपि मानवः ॥ ५०॥
ब्रह्महत्याश्वमेधाद्यैः पुण्यपापैर्न लिप्यते ।
चोदको बोधकश्चैव मोक्षदश्च परः स्मृतः ॥ ५१॥
इत्येषं त्रिविधो ज्ञेय आचार्यस्तु महीतले ।
चोदको दर्शयेन्मार्गं बोधकः स्थानमाचरेत् ॥ ५२॥
मोक्षदस्तु परं तत्त्वं यज्ज्ञात्वा परमश्नुते ।
प्रत्यक्षयजनं देहे संक्षेपाच्छृणु गौतम ॥ ५३॥
तेनेष्ट्वा स नरो याति शाश्वतं पदमव्ययम् ।
स्वयमेव तु सम्पश्येद्देहे बिन्दुं च निष्कलम् ॥ ५४॥
अयने द्वे च विषुवे सदा पश्यति मार्गवित् ।
कृत्वायामं पुरा वत्स रेचपूरककुम्भकान् ॥ ५५॥
पूर्वं चोभयमुच्चार्य अर्चयेत्तु यथाक्रमम् ।
नमस्कारेण योगेन मुद्रयारभ्य चार्चयेत् ॥ ५६॥
सूर्यस्य ग्रहणं वत्स प्रत्यक्षयजनं स्मृतम् ।
ज्ञानात्सायुज्यमेवोक्तं तोये तोयं यथा तथा ॥ ५७॥
एते गुणाः प्रवर्तन्ते योगाभ्यासकृतश्रमैः ।
तस्माद्योगं समादाय सर्वदुःखबहिष्कृतः ॥ ५८॥
योगध्यानं सदा कृत्वा ज्ञानं तन्मयतां व्रजेत् ।
ज्ञानात्स्वरूपं परमं हंसमन्त्रं समुच्चरेत् ॥ ५९॥
प्राणिनां देहमध्ये तु स्थितो हंसः सदाच्युतः ।
हंस एव परं सत्यं हंस एव तु शक्तिकम् ॥ ६०॥
हंस एव परं वाक्यं हंस एव तु वादिकम् ।
हंस एव परो रुद्रो हंस एव परात्परम् ॥ ६१॥
सर्वदेवस्य मध्यस्थो हंस एव महेश्वरः ।
पृथिव्यादिशिवान्तं तु अकाराद्याश्च वर्णकाः ॥ ६२॥
कूटान्ता हंस एव स्यान्मातृकेति व्यवस्थिताः ।
मातृकारहितं मन्त्रमादिशन्ते न कुत्रचित् ॥ ६३॥
हंसज्योतिरनूपम्यं मध्ये देवं व्यवस्थितम् ।
दक्षिणामुखमाश्रित्य ज्ञानमुद्रां प्रकल्पयेत् ॥ ६४॥
सदा समाधिं कुर्वीत हंसमन्त्रमनुस्मरन् ।
निर्मलस्फटिकाकारं दिव्यरूपमनुत्तमम् ॥ ६५॥
मध्यदेशे परं हंसं ज्ञानमुद्रात्मरूपकम् ।
प्राणोऽपानः समानश्चोदानव्यानौ च वायवः ॥ ६६॥
पञ्चकर्मेन्द्रियैरुक्ताः क्रियाशक्तिबलोद्यताः ।
नागः कूर्मश्च कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ॥ ६७॥
पञ्चज्ञानेन्द्रियैर्युक्ता ज्ञानशक्तिबलोद्यताः ।
पावकः शक्तिमध्ये तु नाभिचक्रे रविः स्थितः ॥ ६८॥
बन्धमुद्रा कृता येन नासाग्रे तु स्वलोचने ।
अकारेवह्निरित्याहुरुकारे हृदि संस्थितः ॥ ६९॥
मकारे च भ्रुवोर्मध्ये प्राणशक्त्या प्रबोधयेत् ।
ब्रह्मग्रन्थिरकारे च विष्णुग्रन्थिर्हृदि स्थितः ॥ ७०॥
रुद्रग्रन्थिर्भ्रुवोर्मध्ये भिद्यतेऽक्षरवायुना ।
अकारे संस्थितो ब्रह्मा उकारे विष्णुरास्थितः ॥ ७१॥
मकारे संस्थितो रुद्रस्ततोऽस्यान्तः परात्परः ।
कण्ठं सङ्कुच्य नाड्यादौ स्तम्भिते येन शक्तितः ॥ ७२॥
रसना पीड्यमानेयं षोडशी वोर्ध्वगामिनि ।
त्रिकूटं त्रिविधा चैव गोलाखं निखरं तथा ॥ ७३॥
त्रिशङ्खवज्रमोङ्कारमूर्ध्वनालं भ्रुवोर्मुखम् ।
कुण्डलीं चालयन्प्राणान्भेदयन्शशिमण्डलम् ॥ ७४॥
साधयन्वज्रकुम्भानि नवद्वाराणि बन्धयेत् ।
सुमनःपवनारूढः सरागो निर्गुणस्तथा ॥ ७५॥
ब्रह्मस्थाने तु नादः स्याच्छाकिन्यामृतवर्षिणी ।
षट्चक्रमण्डलोद्धारं ज्ञानदीपं प्रकाशयेत् ॥ ७६॥
सर्वभूतस्थितं देवं सर्वेशं नित्यमर्चयेत् ।
आत्मरूपं तमालोक्य ज्ञानरूपं निरामयम् ॥ ७७॥
दृश्यन्तं दिव्यरूपेण सर्वव्यापी निरञ्जनः ।
हंस हंस वदेद्वाक्यं प्राणिनां देहमाश्रितः ।
सप्राणापानयोर्ग्रन्थिरजपेत्यभिधीयते ॥ ७८॥
सहस्रमेकं द्वयुतं षट्शतं चैव सर्वदा ।
उच्चरन्पठितो हंसः सोऽहमित्यभिधीयते ॥ ७९॥
पूर्वभागे ह्यधोलिङ्गं शिखिन्यां चैव पश्चिमम् ।
ज्योतिर्लिङ्गं भ्रुवोर्मध्ये नित्यं ध्यायेत्सदा यतिः ॥ ८०॥
अच्युतोऽहमचिन्त्योऽहमतर्क्योऽहमजोऽस्म्यहम् ।
अप्राणोऽहमकायोऽहमनङ्गोऽस्म्यभयोऽस्म्यहम् ॥ ८१॥
अशब्दोऽहमरूपोऽहमस्पर्शोऽस्म्यहमद्वयः ।
अरसोऽहमगन्धोऽहमनादिरमृतोऽस्म्यहम् ॥ ८२॥
अक्षयोऽहमलिङ्गोऽहमजरोऽस्म्यकलोऽस्म्यहम् ।
अप्राणोऽहममूकोऽहमचिन्त्योऽस्म्यकृतोऽस्म्यहम् ॥ ८३॥
अन्तर्याम्यहमग्राह्योऽनिर्देश्योऽहमलक्षणः ।
अगोत्रोऽहमगात्रोऽहमचक्षुष्कोऽस्म्यवागहम् ॥ ८४॥
अदृश्योऽहमवर्णोऽहमखण्डोऽस्म्यहमद्भुतः ।
अश्रुतोऽहमदृष्टोऽहमन्वेष्टव्योऽमरोऽस्म्यहम् ॥ ८५॥
अवायुरप्यनाकाशोऽतेजस्कोऽव्यभिचार्यहम् ।
अमतोऽहमजातोऽहमतिसूक्ष्मोऽविकार्यहम् ॥ ८६॥
अरजस्कोऽतमस्कोऽहमसत्त्वोस्म्यगुणोऽस्म्यहम् ।
अमायोऽनुभवात्माहमनन्योऽविषयोऽस्म्यहम् ॥ ८७॥
अद्वैतोऽहमपूर्णोऽहमबाह्योऽहमनन्तरः ।
अश्रोतोऽहमदीर्घोऽहमव्यक्तोऽहमनामयः ॥ ८८॥
अद्वयानन्दविज्ञानघनोऽस्म्यहमविक्रियः ।
अनिच्छोऽहमलेपोऽहमकर्तास्म्यहमद्वयः ॥ ८९॥
अविद्याकार्यहीनोऽहमवाग्रसनगोचरः ।
अनल्पोऽहमशोकोऽहमविकल्पोऽस्म्यविज्वलन् ॥ ९०॥
आदिमध्यान्तहीनोऽहमाकाशसदृशोऽस्म्यहम् ।
आत्मचैतन्यरूपोऽहमहमानन्दचिद्घनः ॥ ९१॥
आनन्दामृतरूपोऽहमात्मसंस्थोहमन्तरः ।
आत्मकामोहमाकाशात्परमात्मेश्वरोस्म्यहम् ॥ ९२॥
ईशानोस्म्यहमीड्योऽहमहमुत्तमपूरुषः ।
उत्कृष्टोऽहमुपद्रष्टा अहमुत्तरतोऽस्म्यहम् ॥ ९३॥
केवलोऽहं कविः कर्माध्यक्षोऽहं करणाधिपः ।
गुहाशयोऽहं गोप्ताहं चक्षुषश्चक्षुरस्म्यहम् ॥ ९४॥
चिदानन्दोऽस्म्यहं चेता चिद्घनश्चिन्मयोऽस्म्यहम् ।
ज्योतिर्मयोऽस्म्यहं ज्यायाञ्ज्योतिषां ज्योतिरस्म्यहम् ॥ ९५॥
तमसः साक्ष्यहं तुर्यतुर्योऽहं तमसः परः ।
दिव्यो देवोऽस्मि दुर्दर्शो दृष्टाध्यायो ध्रुवोऽस्म्यहम् ॥ ९६॥
नित्योऽहं निरवद्योऽहं निष्क्रियोऽस्मि निरञ्जनः ।
निर्मलो निर्विकल्पोऽहं निराख्यातोऽस्मि निश्चलः ॥ ९७॥
निर्विकारो नित्यपूतो निर्गुणो निःस्पृहोऽस्म्यहम् ।
निरिन्द्रियो नियन्ताहं निरपेक्षोऽस्मि निष्कलः ॥ ९८॥
पुरुषः परमात्माहं पुराणः परमोऽस्म्यहम् ।
परावरोऽस्म्यहं प्राज्ञः प्रपञ्चोपशमोऽस्म्यहम् ॥ ९९॥
परामृतोऽस्म्यहं पूर्णः प्रभुरस्मि पुरातनः ।
पूर्णानन्दैकबोधोऽहं प्रत्यगेकरसोऽस्म्यहम् ॥ १००॥
प्रज्ञातोऽहं प्रशान्तोऽहं प्रकाशः परमेश्वरः ।
एकदा चिन्त्यमानोऽहं द्वैताद्वैतविलक्षणः ॥ १०१॥
बुद्धोऽहं भूतपालोऽहं भारूपो भगवानहम् ।
महाज्ञेयो महानस्मि महाज्ञेयो महेश्वरः ॥ १०२॥
विमुक्तोऽहं विभुरहं वरेण्यो व्यापकोऽस्म्यहम् ।
वैश्वानरो वासुदेवो विश्वतश्चक्षुरस्म्यहम् ॥ १०३॥
विश्वाधिकोऽहं विशदो विष्णुर्विश्वकृदस्म्यहम् ।
शुद्धोऽस्मि शुक्रः शान्तोऽस्मि शाश्वतोऽस्मि शिवोऽस्म्यहम् ॥ १०४॥
सर्वभूतान्तरात्महमहमस्मि सनातनः ।
अहं सकृद्विभातोऽस्मि स्वे महिम्नि सदा स्थितः ॥ १०५॥
सर्वान्तरः स्वयंज्योतिः सर्वाधिपतिरस्म्यहम् ।
सर्वभूताधिवासोऽहं सर्वव्यापी स्वराडहम् ॥ १०६॥
समस्तसाक्षी सर्वात्मा सर्वभूतगुहाशयः ।
सर्वेन्द्रियगुणाभासः सर्वेन्द्रियविवर्जितः ॥ १०७॥
स्थानत्रयव्यतीतोऽहं सर्वानुग्राहकोऽस्म्यहम् ।
सच्चिदानन्द पूर्णात्मा सर्वप्रेमास्पदोऽस्म्यहम् ॥ १०८॥
सच्चिदानन्दमात्रोऽहं स्वप्रकाशोऽस्मि चिद्घनः ।
सत्त्वस्वरूपसन्मात्रसिद्धसर्वात्मकोऽस्म्यहम् ॥ १०९॥
सर्वाधिष्ठानसन्मात्रः स्वात्मबन्धहरोऽस्म्यहम् ।
सर्वग्रासोऽस्म्यहं सर्वद्रष्टा सर्वानुभूरहम् ॥ ११०॥
एवं यो वेद तत्त्वेन स वै पुरुष उच्यत इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति ब्रह्मविद्योपनिषत्समाप्ता ॥
ब्रह्मोपनिषत्
ॐ शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं भगवन्तं
पिप्पलादमपृच्छत् । दिव्ये ब्रह्मपुरे सम्प्रतिष्टिता
भवन्ति कथं सृजन्ति कस्यैष महिमा बभूव यो
ह्मषे महिमा बभूव क एषः ।
तस्मै स होवाच ब्रह्मविद्यं वरिष्ठाम् । प्राणो ह्येष
आत्मा । आत्मनो महिमा बभुव देवानामायुः स देवानां
निधनमनिधनं दिव्ये ब्रह्मपुरे विरजं निष्कलं
शुभ्रमक्षरं यद्ब्रह्म विभाति स नियच्छति
मघुकरराजानं माक्षिकवदिति । यथा माक्षीकैकेन
तन्तुना जालं वक्षिपति तेनापकर्षति तथैवैष प्राणो
यदा याति संसृष्टमाकृष्य । प्राणदेवतास्ताः सर्वा
नाड्यः । सुष्वपे श्येनाकाशवद्यथा खं श्येनमाश्रित्य
याति स्वमालयमेवं सुषुप्तो ब्रूते यथैवैष देवदत्तो
यष्ट्याऽपि ताड्यमानो न यत्येवमिष्टापूर्तैः
शुभाशुभैर्न लिप्यते । यथा कुमारो निष्काम
आनन्दमुपयाति तथैवैष देवदत्तः स्वप्न आनन्दमभियाति ।
वेद एव परं ज्योतिः ज्योतिष्कामो ज्योतिरानन्दयते ।
भूयस्तेनैव स्वप्नाय गच्छति जलौकावत् । यथा
जलौकाऽग्रमग्रं नयत्यात्मानं नयति परं संधय ।
यत्परं नापरं त्यजति स जाग्रदभिधियते । यथैवैष
कपालाष्टकं संनयति । तमेव स्तन इव लम्बते
वेददेवयोनः । यत्र जाग्रति शुभाशुभं निरुक्तमस्य
देवस्य स सम्प्रसारोऽन्थर्यामी खगः कर्कटकः पुष्करः
पुरुषः ग्राणो हिंसा परापरं ब्रह्म आत्मा देवता वेदयति ।
य एवं वेद स परं ब्रह्म धं क्षेत्रज्ञमुपैति ॥ १॥
अथास्य पुरुषस्य चत्वारि स्थानानि भवन्ति
नाभिर्हृदयं कण्ठं भूर्धेति । तत्र चतुष्पादं
ब्रह्म विभाति । जागरितं स्वप्नं सुषुप्तं तुरीयमिति ।
जागरिते ब्रह्मा स्वप्ने विष्णुः सुषुप्तौ रुद्रस्तुरीयं
परमाक्षरं आदित्यश्च विष्णुश्चेश्वरश्च स पुरुषः
स प्राणः स जीवः सोऽग्निः सेश्वरश्च जाग्रत्तेषं मध्ये
यत्परं ब्रह्म विभाति । स्वयममनस्कमश्रोत्रमपाणिपादं
ज्योतिर्वर्जितं न तत्र लोका न लोका वेदा न वेदा देवा न
देवा यज्ञा न यज्ञ माता न माता पिता न पिता स्नुष न
स्नुष चाण्डालो न चाण्डालः पैल्कसो न पैल्कसः श्रमणो न
श्रमणः पशवो न पशवस्तापसो न तापस इत्येकमेव
परं ब्रह्म विभाति । हृद्याकाशे तद्विज्ञानमाकाशं
तत्सुषिरमाकाशं तद्वेद्यं हृद्याकाशं यस्मिन्निदं
संचरति वचरति यस्मिन्निदं सर्वमोतं प्रोतं । सं
विभोः प्रजा ज्ञायेरन् । न तत्र देवा ऋषयः पितर रिशते
प्रतिबुद्धः सर्वविदिति ॥ २॥
हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ।
हृदि प्राणश्च ज्योतिश्च त्रिवृत्सूत्रं च यन्महत् ॥
हृदि चैतन्ये तिष्ठति यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रपं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥
सशिखं वपनं कृत्वा बहिःसूत्रं त्यजेद्बुधः ।
यदक्षरं परं ब्रह्म तत्सूत्रमिति धारयेत् ॥
सूचनात्सूत्रमित्याहुः सूत्रं नाम परं पदम् ।
तत्सूत्रं विदितं येन स विप्रो वेदपारगः ॥
तेन सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।
तत्सूत्रं धारयेद्योगी योगवित्तत्त्वदर्शिवान् ॥
बहिःसूत्रं त्यजेद्विद्वान्योगमुत्तममास्थितः ।
ब्रह्मभावमयं सूत्रं धारयेद्यः स चेतनः ॥
धारणात्तस्य सूत्रस्य नोच्छिष्ठो नाशुचिर्भवेत् ।
सूत्रमन्तर्गतं येषां ज्ञानयज्ञोपवीतिनाम् ॥
ते चै सूत्रविदो लोके ते च यज्ञोपवीतिनः ।
ज्ञानशिखिनो ज्ञाननिष्ठा ज्ञानयज्ञोपवीतिहः ॥
ज्ञानमेव परं तेषां पवित्रं ज्ञानमुत्तमम् ।
अग्नेरिव शिखा नान्या यस्य ज्ञानमयी शिखा ॥
स शिखीत्युच्यते विद्वानितरे केशधारिणः ॥ ३॥
कर्मण्यधिकृता ये तु वैदिके ब्राह्मणादयः ।
तैः संधार्यमिद सूत्रं क्रियाङ्गं तद्धि वै स्मृतम् ॥
शिखा ज्ञानमयी यस्य उपवीतं च तन्मयम् ।
ब्राह्मण्यं सकलं तस्य इति ब्रह्मविदो विदुः ॥
इदं यज्ञोपवीतं तु पवित्रं यत्परायणम् ।
स विद्वान्यज्ञोपवीती स्यात्स यज्ञः स च यज्ञवित् ॥
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥
एको मनीषी निष्कियाणां बहूनामेकं सन्तं बहुधा यः करोति ।
तमात्मानं येऽनुपष्यन्ति धीरास्तेषं शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥
आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्याननोर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत् ॥
तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पिरापः स्त्रोतःस्वरणीषु चान्निः ।
एवमात्माऽऽत्मनि गृह्मतेऽसौ सत्येनैनं तपसा योऽनुपश्यति ॥
ऊर्णनाभिर्यथा तन्तून्सृजते संहरत्यपि ।
जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः ॥
पद्मकोशप्रतीकाशं सुषिरं चाप्यधोमुखम् ।
हृदयं तद्विजानीयाद्विश्वस्याऽऽयतनं महत् ॥
नेत्रस्थं जाग्रतं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं विनिर्दिषेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥
यदात्मा प्रज्ञयाऽऽत्मानं संधत्ते परमात्मनि ।
तेन संध्या ध्यानमेव तस्मात्सन्ध्याभिवन्दनम् ॥
निरोदकाध्यानसंध्या वाक्कायक्लेशवर्जिता ।
संधिनी सर्वभूतानां सा संध्या ह्येकदण्डिनाम् ॥
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आन्नन्दमेतज्जीवस्य यं ज्ञात्वा मुच्यते बुधः ॥
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्प्रिवार्पितम् ।
आत्मातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत्परम् ।
सर्वात्मैकत्वरीपेण तद्ब्रह्मोपनिषत्परमिति ॥ ४॥
इत्यथर्ववेदे ब्रह्मोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ भस्मजाबालोपनिषत् ॥
यत्साम्यज्ञानकालाग्निस्वातिरिक्तास्तिताभ्रमम् ।
करोति भस्म निःशेषं तद्ब्रह्मैवास्मि केवलम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथ जाबालो भुसुण्डः कैलासशिखरावासमोंकारस्वरूपिणं
महादेवमुमार्धकृतशेखरं सोमसूर्याग्निनयनमनन्तेन्दुरविप्रभं
व्याघ्रचर्माम्बरधरं मृगहस्तं भस्मोद्धूलितविग्रहं
तिर्यक्त्रिपुण्ड्ररेखाविराजमानभालप्रदेशं स्मितसम्पूर्णपञ्चविध-
पञ्चाननं वीरासनारूढमप्रमेयमनाद्यनन्तं निष्कलं निर्गुणं
शातं निरञ्जनमनामयं हुंफट्कुर्वाणं शिवनामान्यनिशमुच्चरन्तं
हिरण्यबाहुं हिरण्यरूपं हिरण्यवर्णं हिरण्यनिधिमद्वैतं चतुर्थं
ब्रह्मविष्णुरुद्रातीतमेकमाशास्यं भगवन्तं शिवं प्रणम्य
मुहुर्मुहुरभ्यर्च्य श्रीफलदलैस्तेन भस्मना च नतोत्तमाङ्गः
कृताञ्जलिपुटः पप्रच्छाधीहि भगवन्वेदसारमुद्धृत्य
त्रिपुण्ड्रविधिं यस्मादन्यानप्रेक्षमेव मोक्षोपलब्धिः ।
किं भस्मनो द्रव्यम् । कानि स्थानानि । मनवोऽप्यत्र के वा ।
कति वा तस्य धारणम् । के वात्राधिकारिणः । नियमस्तेषां
को वा । मामन्तेवासिनमनुशासयामोक्षमिति । अथ स होवाच
भगवान्परमेश्वरः परमकारुणिकः प्रमथान्सुरानपि
सोऽन्वीक्ष्य पूतं प्रातरुदयाद्गोमयं ब्रह्मपर्णे निधाय
त्र्यम्बकमिति मन्त्रेण शोषयेत् । येन केनापि तेजसा
तत्स्वगृह्योक्तमार्गेण प्रतिष्ठाप्य वह्निं तत्र तद्गोमयद्रव्यं
निधाय सोमाय स्वाहेति मन्त्रेण ततस्तिलब्रीहिभिः साज्यैर्जुहुयात् ।
अयं तेनाष्टोत्तरसहस्रं सार्धमेतद्वा । तत्राज्यस्य पर्णमयी
जुहूर्भवति । तेन न पापं शृणोति । तद्घोममन्त्रस्र्यम्बकमित्येव
अन्ते स्विष्टकृत्पूर्णाहुतिस्तेनैवाष्टदिक्षु बलिप्रदानम् ।
तद्भस्म गायत्र्या सम्प्रोक्ष्य तद्धैमे राजते ताम्रे मृण्मये
वा पात्रे निधाय रुद्रमन्त्रैः पुनरभ्युक्ष्य शुद्धदेशे संस्थापयेत् ।
ततो भोजयेद्ब्राह्मणान् । ततः स्वयं पूतो भवति । मानस्तोक इति सद्यो
जातमित्यादि पञ्चब्रह्ममन्त्रैर्भस्म संगृह्याग्निरिति भस्म वायुरिति
भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म देवा भस्म
ऋषयो भस्म । सर्वं ह वा एतदिदं भस्म । पूतं पावनं नमामि
सद्यः समस्ताघशासकमिति शिरसाभिनम्य । पूते वामहस्ते
वामदेवायेति निधाय त्र्यम्बकमिति सम्प्रोक्ष्य शुद्धं शुद्धेनेति
संमृज्य संशोध्य तेनैवापादशीर्षमुद्धूलनमाचरेत् ।
तत्र ब्रह्ममन्त्राः पञ्च । ततः शेषस्य भस्मनो विनियोगः ।
तर्जनीमध्यमानामिकाभिरग्नेर्भस्मासीति भस्म संगृह्य
मूर्धानमिति मूर्धन्यग्रे न्यसेत् । त्र्यम्बकमिति ललाटे
नीलग्रीवायेति कण्ठे कण्ठस्य दक्षिणे पार्श्वे त्र्यायुषमिति
वामेति कपोलयोः कालायेति नेत्रयोस्त्रिलोचनायेति श्रोत्रयोः
शृणवामेति वक्त्रे प्रब्रवामेति हृदये आत्मन इति नाभौ
नाभिरिति मन्त्रेण दक्षिणभुजमूले भवायेति तन्मध्ये रुद्रायेति
तन्मणिबन्धे शर्वायेति तत्करपृष्ठे पशुपतय इति वामबाहुमूले
उग्रायेति तन्मध्ये अग्रेवधायेति तन्मणिबन्धे दूरेवधायेति
तत्करपृष्ठे नमो हन्त्र इति अंसे शङ्करायेति यथाक्रमं
भस्म धृत्वा सोमायेति शिवं नत्वा ततः प्रक्षाल्य तद्भस्मापः
पुनन्त्विति पिबेत् । नाधो त्याज्यं नाधो त्याज्यम् ।
एतन्मध्याह्नसायाह्नेषु त्रिकालेषु विधिवद्भस्मधारणमप्रमादेन
कार्यम् । प्रमादात्पतितो भवति । ब्राह्मणानामयमेव धर्मोऽयमेव
धर्मः । एवं भस्मधारणमकृत्वा नाश्नीयादापोऽन्नमन्यद्वा ।
प्रमादात्त्यक्त्वा भस्मधारणं न गायत्रीं जपेत् । न जुहुयादग्नौ
तर्पयेद्देवानृषीन्पित्रादीन् ।
अयमेव धर्मः सनातनः सर्वपापनाशको मोक्षहेतुः । नित्योऽयं धर्मो
ब्राह्मणानां ब्रह्मचारिगृहिवानप्रस्थयतीनाम् । एतदकरणे
प्रत्यवैति ब्राह्मणः । अकृत्वा प्रमादेनैतदष्टोत्तरशतं
जलमध्ये स्थित्वा गायत्रीं जप्त्वोपोषणेनैकेन शुद्धो भवति ।
यतिर्भस्मधारणं त्यक्त्वैकदोपोष्य द्वादशसहस्रप्रणवं
जप्त्वा शुद्धो भवति । अन्यथेन्द्रो यतीन्सालावृकेभ्यः
पातयति । भस्मनो यद्यभावस्तदा नर्यभस्मदाहनजन्यमन्यद्वावश्यं
मन्त्रपूतं धार्यम् ।
एतत्प्रातः प्रयुञ्जानो रत्रिकृतात्पापात्पूतो भवति ।
स्वर्णस्तेयात्प्रमुच्यते । मध्यन्दिने माध्यन्दिनं
कृत्वोपस्थानान्तं ध्यायमान आदित्याभिमुखोऽधीयानः
सुरापानात्पूतो भवति । स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति ।
ब्राह्मणवधात्पूतो भवति । गोवधात्पूतो भवति ।
अश्ववधात्पूतो भवति । गुरुवधात्पूतो भवति ।
मातृवधात्पूतो भवति । पितृवधात्पूतो भवति ।
त्रिकालमेतत्प्रयुञ्जानः सर्ववेदपारायणफलमवाप्नोति ।
सर्वतीर्थफलमश्नुते । अनपब्रुवः सर्वमायुरेति ।
विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यम् ।
एवमावर्तयेदुपनिषदमित्याह भगवान्सदाशिवः
साम्बः सदाशिवः साम्बः ॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
अथ भुसुण्डो जाबालो महादेवं साम्बं प्रणम्य पुनः
पप्रच्छ किं नित्यं ब्राह्मणानां कर्तव्यं यदकरणे
प्रत्यवैति ब्राह्मणः । कः पूजनीयः । को वा ध्येयः । कः
स्मर्तव्यः । कथं ध्येयः । क्व स्थातव्यमेतद्ब्रूहीति । समासेन
तं होवाच । प्रागुदयान्निर्वर्त्य शौचादिकं ततः स्नायात् ।
मार्जनं रुद्रसूक्तैः । ततश्चाहतं वासः परिधत्ते पाप्मनोपहृत्यै ।
उद्यन्तमादित्यमभिध्यायन्नुद्धूलिताङ्गं कृत्वा यथास्थानं
भस्मना त्रिपुण्ड्रं श्वेतेनैव रुद्राक्षाञ्छ्वेतान्बिभृयात् ।
नैतत्संमर्शः । तथान्ये । मूर्ध्नि चत्वारिंशत् । शिखायामेकं
त्रयं वा । श्रोत्रयोर्द्वादश । कण्ठे द्वात्रिंशत् । बाह्वोः
षोडशषोडश । द्वादशद्वादश मणिबन्धयोः । षट्षडङ्गुष्ठयोः ।
ततः सन्ध्यां सकुशोऽहरहरुपासीत । अग्निर्ज्योतिरित्यादिभिरग्नौ जुहुयात् ।
शिवलिङ्गं त्रिसन्ध्यमभ्यर्च्य कुशेष्वासीनो ध्यात्वा साम्बं
मामेव वृषभारूढं हिरण्यबाहुं हिरण्यवर्णं हिरण्यरूपं
पशुपाशविमोचकं पुरुषं कृष्णपिङ्गलमूर्ध्वरेतं विरूपाक्षं
विश्वरूपं सहस्राक्षं सहस्रशीर्षं सहस्रचरणं विश्वतोबाहुं
विश्वात्मानमेकमद्वैतं निष्कलं निष्क्रियं शान्तं शिवमक्षरमव्ययं
हरिहरहिरण्यगर्भस्रष्टारमप्रमेयमनाद्यन्तं रुद्रसूक्तैरभिषिच्य
सितेन भस्मना श्रीफलदलैश्च त्रिशाखैरार्द्रैरनार्द्रैर्वा ।
नैतत्र संस्पर्शः । तत्पूजासाधनं कल्पयेच्च नैवेद्यम् ।
ततश्चैकादशगुणरुद्रो जपनीयः । एकगुणोऽनन्तः । षडक्षरोऽष्टाक्षरो
वा शैवो मन्त्रो जपनीयः । ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नम इति पश्चात् ।
ततः शिवायेत्यक्षरत्रयम् । ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नम इति पश्चात् ।
ततो महादेवयेति पञ्चाक्षराणि । नातस्तारकः परमो मन्त्रः । तारकोऽयं
पञ्चाक्षरः । कोऽयं शैवो मनुः । शैवस्तारकोऽयमुपदिश्यते
मनुरविमुक्ते शैवेभ्यो जीवेभ्यः । शैवोऽयमेव मन्त्रस्तारयति ।
स एव ब्रह्मोपदेशः ।
ब्रह्म सोमोऽहं पवनः सोमोऽहं पवते सोमोऽहं
जनिता मतीनां सोमोऽहं जनिता पृथिव्याः सोमोऽहं
जनिताऽग्नेः सोमोऽहं जनिता सूर्यस्य सोमोऽहं
जनितेन्द्रस्य सोमोऽहं जनितोत विष्णोः सोमोऽहमेव
जनिता स यश्चन्द्रमसो देवानां भूर्भुवस्वरादीनां
सर्वेषां लोकानां च । विश्वं भूतं भुवनं चित्रं
बहुधा जातं जायमानं च यत्सर्वस्य सोमोऽहमेव
जनिता विश्वाधिको रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भादीनहं
जायमानान्पश्यामि । यो रुद्रो अग्नौ यो अप्सु य ओषधीषु
यो रुद्रो विश्वा भुवना विवेशैवमेव । अयमेवात्मान्तरात्मा
ब्रह्मज्योतिर्यस्मान्न मत्तोऽन्यः परः । अहमेव परो विश्वाधिकः ।
मामेव विदित्वामृतत्वमेति । तरति शोकम् । मामेव विदित्वा
सांसृतिकीं रुजं द्रावयति । तस्मादहं रुद्रो यः सर्वेषां
परमा गतिः । सोऽहं सर्वाकारः । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ।
येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तं मामेव
विदित्वोपासीत । भूतेभिर्देवेभिरभिष्टुतोऽहमेव । भीषास्माद्वातः
पवते । भीषोदेति सूर्यः । भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च । सोमोऽत
एव योऽहं सर्वेषामधिष्ठाता सर्वेषां च भूतानां
पालकः । सोऽहं पृथिवी । सोऽहमापः । सोऽहं तेजः । सोऽहं वायुः ।
सोऽहं कालः । सोऽहं दिशः । सोऽहमात्मा । मयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
ब्रह्मविदाप्नोति परम् । ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ।
अचक्षुर्विश्वतश्चक्षुरकर्णो विश्वतः कर्णोऽपादो
विश्वतःपादोऽपाणिर्विश्वतःपाणिराहमशिरा विश्वतःशिरा
विद्यामन्त्रैकसंश्रयो विद्यारूपो विद्यामयो विश्वेश्वरोऽहमजरोऽहम् ।
मामेवं विदित्वा संसृतिपाशात्प्रमुच्यते । तस्मादहं
पशुपाशविमोचकः । पशवश्चामानवान्तं मध्यवर्तिनश्च
युक्तात्मानो यतन्ते मामेव प्राप्तुम् । प्राप्यन्ते मां न पुनरावर्तन्ते ।
त्रिशूलगां काशीमधिश्रित्य त्यक्तासवोऽपि मय्येव संविशन्ति ।
प्रज्वलवह्निगं हविर्यथा न यजमानमासादयति तथासौ त्यक्त्वा
कुणपं न तत्तादृशं पुरा प्राप्नुवन्ति । एष एवादेशः । एष
उपदेशः । एष एव परमो धर्मः । सत्यात्तत्र कदाचिन्न प्रमदितव्यं
तत्रोद्धूलनत्रिपुण्ड्राभ्याम् । तथा रुद्राद्याक्षधारणात्तथा
मदर्चनाच्च । प्रमादेनापि नान्तर्देवसदने पुरीषं कुर्यात् ।
व्रतान्न प्रमदितव्यम् । तद्धि तपस्तद्धि तपः काश्यामेव मुक्तिकामानाम् ।
न तत्त्याज्यं न तत्त्याज्यं मोचकोऽहमविमुक्ते निवसताम् ।
नाविमुक्तात्परमं स्थानम् । नाविमुक्तात्परमं स्थानम् ।
काश्यां स्थानानि चत्वारि । तेषामभ्यर्हितमन्तर्गृहम् ।
तत्राप्यविमुक्तमभ्यर्हितम् । तत्र स्थानानि पञ्च । तन्मध्ये
शिवागारमभ्यर्हितम् । तत्र प्राच्यामैश्वर्यस्थानम् ।
दक्षिणायां विचालनस्थानम् । पश्चिमायां वैराग्यस्थानम् ।
उत्तरायां ज्ञानस्थानम् । तस्मिन्यदन्तर्निर्लिप्तमव्ययमनाद्यन्त-
मशेषवेदवेदान्तवेद्यमनिर्देश्यमनिरुक्तमप्रच्यवमाशास्यमद्वैतं
सर्वाधारमनाधारमनिरीक्ष्यमहरहर्ब्रह्मविष्णुपुरन्दराद्यमरवरसेवितं
मामेव ज्योतिःस्वरूपं लिङ्गं मामेवोपासितव्यं तदेवोपासितव्यम् ।
नैव भावयन्ति तल्लिङ्गं भानुश्चन्द्रोऽग्निर्वायुः ।
स्वप्रकाशं विश्वेश्वराभिधं पातालमधितिष्ठति ।
तदेवाहम् । तत्रार्चितोऽहम् । साक्षादर्चितः ।
त्रिशाखैर्बिल्वदलैर्दीप्तैर्वा योऽभिसम्पूजयेन्मन्मना
मय्याहितासुर्मय्येवार्पिताखिलकर्मा भस्मदिग्धाङ्गो
रुद्राक्षभूषणो मामेव सर्वभावेन प्रपन्नो
मदेकपूजानिरतः सम्पूजयेत् । तदहमश्नामि ।
तं मोचयामि संसृतिपाशात् । अहरहरभ्यर्च्य
विश्वेश्वरं लिङ्गं तत्र रुद्रसूक्तैरभिषिच्य तदेव
स्नपनपयस्त्रिः पीत्वा महापातकेभ्यो मुच्यते । न
शोकमाप्नोति । मुच्यते संसारबन्धनात् । तदनभ्यर्च्य
नाश्नीयात्फलमन्नमन्यद्वा । यदश्नीयाद्रेतोभक्षीभवेत् ।
नापः पिबेत् । यदि पिबेत्पूयपो भवेत् । प्रमादेनैकदा
त्वनभ्यर्च्य मां भुक्त्वा भोजयित्वा केशान्वापयित्वा
गव्यानां पञ्च संगृह्योपोष्य जले रुद्रस्नानम् ।
जपेत्त्रिवारं रुद्रानुवाकम् । आदित्यं पश्यन्नभिध्याय-
न्स्वकृतकर्मकृद्रौद्रेरेव मन्त्रैः कुर्यान्मार्जनम् ।
ततो भोजयित्वा ब्राह्मणान्पूतो भवति । अन्यथा परेतो
यातनामश्नुते । पत्रैः फलैर्वा जलैर्वान्यैर्वाभिपूज्य
विश्वेश्वरं मां ततोऽश्नीयात् । कापिलेन पयसाभिषिच्य
रुद्रसूक्तेन मामेव शिवलिङ्गरूपिणं ब्रह्महत्यायाः
पूतो भवति । कापिलेनाज्येनाभिषिच्य स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति ।
मधुनाभिषिच्य गुरुदारगमनात्पूतो भवति । सितया
शर्करयाभिषिच्य सर्वजीववधात्पूतो भवति ।
क्षीरादिभिरेतैरभिषिच्य सर्वानवाप्नोति कामान् ।
इत्येकैकं महान्प्रस्थशतं महान्प्रस्थशतमानैः
शतैरभिपूज्य मुक्तो भवति संसारबन्धनात् । मामेव
शिवलिङ्गरूपिणमार्द्रायां पौर्णमास्यां वामावास्यायां
वा महाव्यतीपाते ग्रहणे संक्रान्तावभिषिच्य तिलैः
सतण्डुलैः सयवैः सम्पूज्य बिल्वदलैरभ्यर्च्य कापिलेनाज्यान्वित-
गन्धसारधूपैः परिकल्प्य दीपं नैवेद्यं साज्यमुपहारं
कल्पयित्वा दद्यात्पुष्पाञ्जलिम् । एवं प्रयतोऽभ्यर्च्य मम
सायुज्यमेति । शतैर्महाप्रस्थैरखण्डैस्तण्डुलैरभिषिच्य
चन्द्रलोककामश्चन्द्रलोकमवाप्नोति । तिलैरेतावद्भिरभिषिच्य
वायुलोककामो वायुलोकमवाप्नोति । माषैरेतावद्भिरभिषिच्य
वरुणलोककामो वरुणलोकमवाप्नोति । यवैरेतावद्भिरभिषिच्य
सूर्यलोककामः सूर्यलोकमवाप्नोति । एतैरेतावद्भिर्द्विगुणैरभिषिच्य
स्वर्गलोककामः स्वर्गलोकमवाप्नोति । एतैरेतावद्भिश्चतुर्गुणैरभिषिच्य
चतुर्जालं ब्रह्मकोशं यन्मृत्युर्नावपश्यति । तमतीत्य मल्लोककामो
मल्लोकमवाप्नोति नान्यं मल्लोकात्परम् । यमवाप्य न शोचति ।
न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते । लिङ्गरूपिणं मां सम्पूज्य
चिन्तयन्ति योगिनः सिद्धाः सिद्धिं गताः । यजन्ति यज्वानः ।
मामेव स्तुवन्ति वेदाः साङ्गाः सोपनिषदः सेतिहासः ।
न मत्तोऽन्यदहमेव सर्वम् । मयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
ततः काश्यां प्रयतैरेवाहमन्वहं पूज्यः । तत्र गणा
रौद्रानना नानामुखा नानाशस्त्रधारिणो नानारूपधरा
नानाचिह्निताः । ते सर्वे भस्मदिग्धाङ्गा रुद्राक्षाभरणाः
कृताञ्जलयो नित्यमभिध्यायन्ति । तत्र पूर्वस्यं दिशि ब्रह्मा
कृताञ्जलिरहर्निशं मामुपास्ते । दक्षिणस्यां दिशि
विष्णुः कृत्वैव मूर्धाञ्जलिं मामुपास्ते । प्रतीच्यामिन्द्रः
सन्नताङ्ग उपास्ते । उदीच्यामग्निकायमुमानुरक्ता हेमाङ्गविभूषणा
हेमवस्त्रा मामुपासते मामेव वेदाश्चतुर्मूर्तिधराः । दक्षिणायां दिशि
मुक्तिस्थानं तन्मुक्तिमण्डपसंज्ञितम् । तत्रानेकगणाः पालकाः
सायुधाः पापघातकाः । तत्र ऋषयः शांभवाः पाशुपता
महाशैवा वेदावतंसं शैवं पञ्चाक्षरं जपन्तस्तारकं
सप्रणवं मोदमानास्तिष्ठन्ति । तत्रैका रत्नवेदिका । तत्राहमासीनः
काश्यां त्यक्तकुणपाञ्छैवानानीय स्वस्याङ्के संनिवेश्य
भसितरुद्राक्षभूषितानुपस्पृश्य मा भूदेतेषां जन्म
मृतिश्चेति तारकं शवं मनुमुपदिशामि ।
ततस्ते मुक्ता मामनुविशन्ति विज्ञानमयेनाङ्गेन ।
न पुनरावर्तन्ते हुताशनप्रतिष्ठं हविरिव तत्रैव
मुक्त्यर्थमुपदिश्यते शैवोऽयं मन्त्रः पञ्चाक्षरः ।
तन्मुक्तिस्थानम् । तत ओङ्काररूपम् । ततो मदर्पितकर्मणां
मदाविष्टचेतसां मद्रूपता भवति । नान्येषमियं
ब्रह्मविद्येयं ब्रह्मविद्या । मुमुक्षवः काश्यामेवासीना
वीर्यवन्तो विद्यावन्तः । विज्ञानमयं ब्रह्मकोशम् ।
चतुर्जालं ब्रह्मकोशम् । यन्मृत्युर्नावपश्यति । यं ब्रह्मा
नावपश्यति । यं विष्णुर्नावपश्यति । यमिन्द्राग्नी नावपश्येताम् ।
यं वरुणादयो नावपश्यन्ति । तमेव तत्तेज प्लुष्टविड्भावं
हैममुमां संश्लिष्य वसन्तं चन्द्रकोटिसमप्रभं
चन्द्रकिरीटं सोमसूर्याग्निनयनं भूतिभूषितविग्रहं
शिवं मामेवमभिध्यायन्तो मुक्तकिल्बिषास्त्यक्तबन्धा
मय्येव लीना भवन्ति । ये चान्ये काश्यां पुरीष कारिणः
प्रतिग्रहरतास्त्यक्तभस्मधारणास्त्यक्तरुद्राक्षधारणास्त्यक्त-
सोमवारव्रतास्त्यक्तग्रहयागास्त्यक्तविश्वेश्वरार्चनास्त्यक्त-
पञ्चाक्षरजपास्त्यक्तभैरवार्चना भैरवीं घोरादियातनां
नानाविधां काश्यां परेता भुक्त्वा ततः शुद्धा मां प्रपद्यन्ते
च । अन्तर्गृहे रेतो मूत्रं पुरीषं वा विसृजन्ति तदा तेन सिञ्चन्ते
पितॄन् । तमेव पापकारिणं मृतं पश्यन्नीललोहितो भैरवस्तं
पातयत्यस्रमण्डले ज्वलज्ज्वलनकुण्डेष्वन्येष्वपि । ततश्चाप्रमादेन
निवसेदप्रमादेन निवसेत्काश्यां लिङ्गरूपिण्यामित्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति भस्मजाबालोपनिषत्समाप्ता ॥
भावनोपनिषत् अथवा श्रीचक्रोपनिषत्
स्वाविद्यापदतत्कार्यं श्रीचक्रोपरि भासुरम् ।
बिन्दुरूपशिवाकारं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथ भावनोपनिषत् ।
हरिः ॐ ।
आत्मानमखण्डमण्डलाकारमवृत्य सकलब्रह्माण्डमण्डलं
स्वप्रकाशं ध्यायेत् । ॐ श्रीगुरुः सर्वकारणभूता शक्तिः ।
तेन नवरन्ध्ररूपो देहः । नवशक्तिरूपं श्रीचक्रम् ।
वाराही पितृरूपा । कुरुकुल्ला बलिदेवता माता । पुरुषार्थाः
सागराः । देहो नवरत्नद्वीपः । त्वगादिसप्तधातुभिरनेकैः
संयुक्ताः सङ्कल्पाः कल्पतरवः । तेजः कल्पकोद्यानम् । रसनया
भाव्यमाना मधुराम्लतिक्तकटुकषायलवणभेदाः षड्रसाः
षडृतवः क्रियाशक्तिः पीठम् । कुण्डलिनी ज्ञानशक्तिर्गृहम् ।
इच्छाशक्तिर्महात्रिपुरसुन्दरी । ज्ञाता होता ज्ञानमग्निः
(ज्ञानमर्घ्यम्) ज्ञेयं हविः । ज्ञातृज्ञानज्ञेयानामभेदभावनं
श्रीचक्रपूजनम् । नियतिसहिताः शृङ्गारादयो नव रसा
अणिमादयः । कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यपुण्यपापमया
ब्राह्म्याद्यष्टशक्तयः । (आधरनवकम् मुद्राशक्तयः ।)
पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशश्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणवाक्पाणिपादपायूपस्थमनोविकाराः
(कामाकर्षिण्यादि) षोडष शक्तयः ।
वचनादानगमनविसर्गानन्दहानो(पादानो)पेक्षा(ख्य)-
भुद्धयोऽनङ्गकुसुमादिशक्तयोऽष्टौ । अलम्बुसा
कुहूर्विश्वोदरी वरुणा हस्तिजिह्वा यशस्वत्यश्विनी गान्धारी
पूषा शङ्खिनी सरस्वतीडा पिङ्गला सुषुम्ना चेति चतुर्दश
नाड्यः । सर्वसंक्षोभिण्यादिचतुर्दशारगा देवताः ।
प्राणापानव्यानोदानसमाननागकूर्मकृकरदेवदत्तधनञ्जया इति
दश वायवः । सर्वसिद्धिप्रदा देव्यो बहिर्दशारगा देवताः ।
एतद्वायुदशकसंसर्गोपाधिभेधेन रेचकपूरकशोषकदाहप्लावका
(रेचकः पाचकः शोषको दाहकः प्लावका इति) प्राणमुख्यत्वेन
पञ्चधोऽस्ति (जठराग्निर्भवति) । क्षारको दारकः क्षोभको
मोहको जृम्भक इत्यपालनमुख्यत्वेन पञ्चविधोऽस्ति ।
तेन मनुष्याणां मोहको दाहको (नागप्राधान्येन पञ्चबिधास्ते
मनुष्याणां देहगा) भक्ष्यभोज्यशोष्यलेह्यपेयात्मकं
चतुर्विधमन्नं (पञ्चविधमन्नं) पाचयति। एता
दश वह्निकलाः सर्वज्ञत्वाद्यन्तर्दशारगा देवताः ।
शीतोष्णसुखदुःखेच्छासत्त्वरजस्तमोगुणा वशिन्यादिशक्तयोऽष्तौ ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः पञ्चतन्मात्राः पञ्चपुष्पबाणा
मन इक्षुधनुः । वश्यो वाणो रागः पाशः । द्वेषोऽङ्कुशः ।
अव्यक्तमहत्तत्त्वमहदहङ्कार इति कामेश्वरी-वज्रेश्वरी-
भगमालिन्योऽन्तस्त्रिकोणाग्रगा देवताः । (निरुपाधिकसंविदेव
कामेश्वर । सदानन्दपूर्ण स्वात्मेव परदेवता ललिता ।
लौहित्यमेतस्य सर्वस्य विमर्श । अनन्यचित्तत्वेन च
सिद्धिः । भावनायाः क्रिया उपचरः । अहं त्वमस्ति नास्ति
कर्तव्यमकर्तव्यमुपासितव्यमिति विकल्पानामात्मनि विलापनम् होमः ।
भवनाविषयाणामभेदभवना तर्पणम् ।) पञ्चदशतिथिरूपेण
कालस्य परिणामावलोकनस्थितिः पञ्चदशनित्याः । श्रद्धानुरूपा
धीर्देवता । तयोः कामेश्वरी सदानन्दघना परिपूर्णस्वात्मैक्यरूपा
देवता । सलिलमिति लौहित्यकारणं सत्त्वम् । कर्तव्यमकर्तव्यमिति
भावनायुक्त उपचारः । अस्ति नास्तीति कर्तव्यतानूपचारः ।
बाह्याभ्यन्तःकरणानां रूपग्रहणयोग्यतास्त्त्वित्यावाहनम् ।
तस्य बाह्याभ्यन्तःकरणानामेकरूपविषयग्रहणमासनम् ।
रक्तशुक्लपदैकीकरणं पाद्यम् । उज्ज्वलदामोदानन्दासनदानमर्घ्यम् ।
स्वच्छं स्वतःसिद्धमित्याचमनीयम् । चिच्चन्द्रमयीति
सर्वाङ्गस्रवणं स्नानम् । चिदग्निस्वरूपपरमानन्दशक्तिस्फुरणं
वस्त्रम् । प्रत्येकं सप्तविंशतिधा
भिन्नत्वेनेच्छाज्ञानक्रियात्मकब्रह्मग्रन्थिमद्रसतन्तुब्रह्मनाडी
ब्रह्मसूत्रम् । स्वव्यतिरिक्तवस्तुसङ्गरहितस्मरणां विभूषणम् ।
सच्चित्सुखपरिपूर्णतास्मरणं गन्धः । समस्तविषयाणां
मनसः स्थैर्येणानुसंधानं कुसुमम् । तेषामेव सर्वदा स्वीकरणं
धूपः । पवनावच्छिन्नोत्ध्वज्वलनसच्चिदुल्काकाशदेहो दीपः ।
समस्तयातायातवर्ज्यं नैवेद्यम् । अवस्थात्रयाणामेकीकरणं ताम्बूलम् ।
मूलाधारादाब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं ब्रह्मरन्ध्रादामूलाधारपर्यन्तं
गतागतरूपेण प्रादक्षिण्यम् । तुर्यावस्था नमस्कारः ।
देहशून्यप्रमातृतानिमज्जनं बलिहरणम् । सत्यमस्ति
लर्तव्यमकर्तव्यमौदासीन्यनित्यात्मविलापनं होमः । स्वयं
तत्पादुकानिमज्जनं परिपूर्णध्यानम् । एवं मुहूर्तत्रयं (मुहूर्तद्वितयं
मुहूर्तमात्रं वा) भावनापरो जीवन्मुक्तो भवति स एव शिवयोगीति
गद्यते। आदिमतेनान्तश्चक्रभावनाः । तस्य देवतात्मैक्यसिद्धिः ।
चिन्तितकार्याण्ययत्नेन सिद्ध्यन्ति । स एव शिवयोगीति कथ्यते ।
कादिहादिमतोक्तेन भावना प्रतिपादिता । जीवन्मुक्तो भवति । य एवं
वेद । इत्युपनिषत् । (सोऽथर्वशिरोऽधीते ।)
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इत्यथर्वणवेदे भावनोपनिषत्सम्पूर्णा ॥
॥ भिक्षुकोपनिषत् ॥
भिक्षूणां पटलं यत्र विश्रान्तिमगमत्सदा ।
तन्त्रैपदं ब्रह्मतत्त्वं ब्रह्ममात्रं करोतु माम् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं
पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ अथ भिक्षूणां मोक्षार्थिनां
कुटीचकबहूदकहंसपरमहंसाश्वेति चत्वारः ।
कुटीचका नाम गौतमभरद्वाजयाज्ञवल्क्यवसिष्ट -
प्रभृतयोऽष्टौ ग्रासांश्वरन्तो
योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते ।
अथ बहूदका नाम त्रिदण्डकमण्डलुशिखा -
यज्ञोपवीतकाषायवस्त्रधारिणो
ब्रह्मर्षिगृहे मधुमांसं वर्जयित्वाष्टौ
ग्रासान्भैक्षाचरणं कृत्वा
योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते ।
अथ हंसा नाम ग्राम एकरात्रं नगरे पञ्चरात्रं
क्षेत्रे सप्तरात्रं तदुपरि न वसेयुः ।
गोमूत्रगोमयाहारिणो नित्यं चान्द्रायणपरायणा
योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते ।
अथ परमहंसा नाम संवर्तकारुणिश्वेतकेतुजडभरत -
दत्तात्रेयशुकवामदेवहारीतकप्रभृतयोऽष्टौ
ग्रासांश्वरन्तो
योगमार्गे मोक्षमेव प्रार्थयन्ते ।
वृक्षमूले शून्यगृहे श्मशानवासिनो वा
साम्बरा वा दिगम्बरा वा ।
न तेषां धर्माधर्मौ लाभालाभौ
शुद्धाशुद्धौ द्वैतवर्जिता समलोष्टाश्मकाञ्चनाः
सर्ववर्णेषु भैक्षाचरणं कृत्वा सर्वत्रात्मैवेति पश्यन्ति ।
अथ जातरूपधरा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः
शुक्लध्यानपरायणा आत्मनिष्टाः प्राणसंधारणार्थे
यथोक्तकाले भैक्षमाचरन्तः शून्यागारदेवगृह -
तृणकूटवल्मीकवृक्षमूलकुलालशालाग्निहोत्रशालानदीपुलिन -
गिरिकन्दरकुहरकोटरनिर्झरस्थण्डिले तत्र ब्रह्ममार्गे
सम्यक्सम्पन्नाः शुद्धमानसाः परमहंसाचरणेन
संन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं
पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति भिक्षुकोपनिषत्समाप्ता ॥
मण्डलब्राह्मणोपनिषत्
बाह्यान्तस्तारकाकरं व्योमपञ्चकविग्रहम् ।
राजयोगैकसंसिद्धं रामचन्द्रमुपास्महे ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ याज्ञवल्क्यो ह वै महामुनिरादित्यलोकं जगाम ।
तमादित्यं नत्वा भो भगवन्नादित्यात्मतत्त्वमनुब्रूहीति ।
सहोवाच नारायणः ।
ज्ञानयुक्तयमाद्यष्टाङ्गयोग उच्यते ।
शीतोष्णाहारनिद्राविजयः सर्वदा शान्तिर्निश्चलत्वं
विषयेन्द्रियनिग्रहश्चैते यमाः ।
गुरुभक्तिः सत्यमार्गानुरक्तिः सुखागतवस्त्वनुभवश्च
तद्वस्त्वनुभवेन तुष्टिर्निःसङ्गता एकान्तवासो मनोनिवृत्तिः
फलानभिलाषो वैराग्यभावश्च नियमाः ।
सुखासनवृत्तिश्चीरवासाश्चैवमासननियमो भवति ।
पूरककुम्भकरेचकैः षोडशचतुष्षष्टि-
द्वात्रिऽन्शत्सङ्ख्यया यथाक्रमं प्राणायामः ।
विषयेभ्य इन्द्रियार्थेभ्यो मनोनिरोधनं प्रत्याहारः ।
सर्वशरीरेषु चैतन्यैकतानता ध्यानम् ।
विषयव्यावर्तनपूर्वकं चैतन्ये चेतःस्थापनं
धारणं भवति ।
ध्यानविस्मृतिः समाधिः ।
एवं सूक्ष्माङ्गानि । य एवं वेद स मुक्तिभाग्भवति ॥ १॥
देहस्य पञ्चदोषा भवन्ति कामक्रोधनिःश्वासभयनिद्राः ।
तन्निरासस्तु निःसङ्कल्पक्षमालघ्वाहारप्रमादतातत्त्वसेवनम् ।
निद्राभयसरीसृपं हिंसादितरङ्गं तृष्णावर्तं
दारपङ्कं संसारवार्धिं तर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य
सत्त्वादिगुणानतिक्रम्य तारमवलोकयेत् ।
भ्रूमध्ये सच्चिदानन्दतेजःकूटरूपं तारकं ब्रह्म ।
तदुपायं लक्ष्यत्रयावलोकनम् ।
मूलाधारादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं सुषुम्ना सूर्याभा ।
मृणालतन्तुसूक्ष्मा कुण्डलिनी । ततो तमोनिवृत्तिः ।
तद्दर्शनात्सर्वपापनिवृत्तिः । तर्जन्यग्रोन्मीलितकर्णरन्ध्रद्वये
फूत्कारशब्दो जायते । तत्र स्थिते मनसि चक्षुर्मध्य नीलज्योतिः
पश्यति । एवं हृदयेऽपि । बहिर्लक्ष्यं तु नासाग्रे चतुः-
षडष्टदशद्वादशाङ्गुलीभिः क्रमान्नीलद्युतिश्यामत्व-
सदृग्रक्तभङ्गीस्फुरत्पीतवर्णद्वयोपेतं व्योमत्वं पश्यति
स तु योगी चलनदृष्ट्या व्योमभागवीक्षितुः पुरुषस्य
दृष्ट्यग्रे ज्योतिर्मयूखा वर्तन्ते । तद्दृष्टिः स्थिरा भवति ।
शीर्षोपरि द्वादशाङ्गुलिमानज्योतिः पश्यति तदाऽमृतत्वमेति ।
मध्यलक्ष्यं तु प्रातश्चित्रादिवर्णसूर्यचन्द्रवह्निज्वाला-
वलीवत्तद्विहीनान्तरिक्षवत्पश्यति ।
तदाकाराकारी भवति । अभ्यासान्निर्विकारं
गुणरहिताकाशं भवति । विस्फुरत्तारकाकारगाढ-
तमोपमं पराकाशं भवति । कालानलसमं
द्योतमानं महाकाशं भवति । सर्वोत्कृष्ट-
परमाद्वितीयप्रद्योतमानं तत्त्वाकाशं भवति ।
कोटिसूर्यप्रकाशं सूर्याकाशं भवति ।
एवमभ्यासात्तन्मयो भवति । य एवं वेद ॥ २॥
तद्योगं च द्विधा विद्धि पूर्वोत्तरविभागतः ।
पूर्वं तु तारकं विद्यादमनस्कं तदुत्तरमिति ।
तारकं द्विविधम् । मूर्तितारकममूर्तितारकमिति ।
यदिन्द्रियान्तं तन्मूर्तितारकम् । यद्भ्रूयुगातीतं
तदमूर्तितारकमिति । उभयमपि मनोयुक्तमभ्यसेत् ।
मनोयुक्तान्तरदृष्टिस्तारकप्रकाशाय भवति ।
भ्रूयुगमध्यबिले तेजस आविर्भावः । एतत्पूर्वतारकम् ।
उत्तरं त्वमनस्कम् । तालुमूलोर्ध्वभागे महाज्योतिर्विद्यते ।
तद्दर्शनादणिमादिसिद्धिः । लक्ष्येऽन्तर्बाह्यायां
दृष्टौ निमेषोन्मेषवर्जितायां च इयं शाम्भवी
मुद्रा भवति । सर्वतन्त्रेषु गोप्यमहाविद्या भवति ।
तज्ज्ञानेन संसारनिवृत्तिः । तत्पूजनं मोक्षफलदम् ।
अन्तर्लक्ष्यं जलज्योतिःस्वरूपं भवति । महर्षिवेद्यं
अन्तर्बाह्येन्द्रियैरदृश्यम् ॥ ३॥
सहस्रारे जलज्योतिरन्तर्लक्ष्यम् । बुद्धिगुहायां
सर्वाङ्गसुन्दरं पुरुषरूपमन्तर्लक्ष्यमित्यपरे ।
शीर्षान्तर्गतमण्डलमध्यगं पञ्चवक्त्रमुमासहायं
नीलकण्ठं प्रशान्तमन्तर्लक्ष्यमिति केचित् ।
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तर्लक्ष्यमित्येके ।
उक्तविकल्पं सर्वमात्मैव । तल्लक्ष्यं शुद्धात्मदृष्ट्या
वा यः पश्यति स एव ब्रह्मनिष्ठो भवति । जीवः
पञ्चविंशकः स्वकल्पितचतुर्विंशतितत्त्वं परित्यज्य
षड्विंशः परमात्माहमिति निश्चयाज्जीवन्मुक्तो भवति ।
एवमन्तर्लक्ष्यदर्शनेन जीवन्मुक्तिदशायां स्वयमन्तर्लक्ष्यो
भूत्वा परमाकाशाखण्डमण्डलो भवति ॥ ४॥
इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥
अथ ह याज्ञवल्क्य आदित्यमण्डलपुरुषं पप्रच्छ ।
भगवन्नन्तर्लक्ष्यादिकं बहुधोक्तम् । मया तन्न
ज्ञातम् । तद्ब्रूहि मह्यम् । तदुहोवाच पञ्चभूत-
कारणं तडित्कूटाभं तद्वच्चतुःपीठम् । तन्मध्ये
तत्त्वप्रकाशो भवति । सोऽतिगूढ अव्यक्तश्च ।
तज्ज्ञानप्लवाधिरूढेन ज्ञेयम् । तद्बाह्याभ्यन्तर्लक्ष्यम् ।
तन्मध्ये जगल्लीनम् । तन्नादबिन्दुकलातीतमखण्डमण्डलम् ।
तत्सगुणनिर्गुणस्वरूपम् । तद्वेत्ता विमुक्तः । आदावग्निमण्डलम् ।
तदुपरि सूर्यमण्डलम् । तन्मध्ये सुधाचन्द्रमण्डलम् ।
तन्मध्येऽखण्डब्रह्मतेजोमण्डलम् । तद्विद्युल्लेखावच्छुक्ल-
भास्वरम् । तदेव शाम्भवीलक्षणम् । तद्दर्शने तिस्रो मूर्तय
अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलितदर्शनममादृष्टिः ।
अर्धोन्मीलितं प्रतिपत् । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति । तासु
पूर्णिमाभ्यासः कर्तव्यः तल्लक्ष्यं नासाग्रम् । तदा
तालुमूले गाढतमो दृश्यते । तदभ्यासादखण्डमण्डलाकार-
ज्योतिर्दृश्यते । तदेव सच्चिदानन्दं ब्रह्म भवति । एवं
सहजानन्दे यदा मनो लीयते तदा शान्तो भवी भवति । तामेव
खेचरीमाहुः । तदभ्यासान्मनःस्थैर्यम् । ततो वायुस्थैर्यम् ।
तच्चिह्नानि । आदौ तारकवद्दृश्यते । ततो वज्रदर्पणम् । तत
उपरि पूर्णचन्द्रमण्डलम् । ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमाद्दृश्यते ॥ १॥
तदा पश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिकधूम्र-
बिन्दुनादकलानक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसवर्णनव-
रत्नादिप्रभा दृश्यन्ते । तदेव प्रणवस्वरूपम् ।
प्राणापानयोरैक्यं कृत्वा धृतकुम्भको नासाग्र-
दर्शनदृढभावनया द्विकराङ्गुलिभिः षण्मुखी-
करणेन प्रणवध्वनिं निशम्य मनस्तत्र लीनं भवति ।
तस्य न कर्मलेपः । रवेरुदयास्तमययोः किल कर्म
कर्तव्यम् । एवंविदश्चिदादित्यस्योदयास्तमयाभावा-
त्सर्वकर्माभावः । शब्दकाललयेन दिवारात्र्यतीतो भूत्वा
सर्वपरिपूर्णज्ञानेनोन्यान्यवस्थावशेन ब्रह्मैक्यं
भवति । उन्मन्या अमनस्कं भवति । तस्य निश्चिन्ता
ध्यानम् । सर्वकर्मनिराकरणमावाहनम् ।
निश्चयज्ञानमासनम् । उन्मनीभावः पाद्यम् ।
सदाऽमनस्कमर्घ्यम् । सदादीप्तिरपारामृतवृत्तिः
स्नानम् । सर्वत्र भावना गन्धः । दृक्स्वरूपावस्थान-
मक्षताः । चिदाप्तिः पुष्पम् । चिदग्निस्वरूपं धूपः ।
चिदादित्यस्वरूपं दीपः । परिपूर्णचन्द्रामृतरसस्यैकीकरणं
नैवेद्यम् । निश्चलत्वं प्रदक्षिणम् । सोहंभावो नमस्कारः ।
मौनं स्तुतिः । सर्वसन्तोषो विसर्जनमिति य एवं वेद । ॥ २॥
एवं त्रिपुट्यां निरस्तायां निस्तरङ्गसमुद्रवन्निवात-
स्थितदीपवदचलसम्पूर्णभावाभावविहीनकैवल्यद्योतिर्भवति ।
जाग्रन्निन्दान्तःपरिज्ञानेन ब्रह्मविद्भवति ।
सुषुप्तिसमाध्योर्मनोलयाविशेषेऽपि महदस्त्युभयो-
र्भेदस्तमसि लीनत्वान्मुक्तिहेतुत्वाभावाच्च । समाधौ
मृदिततमोविकारस्य तदाकाराकारिताखण्डाकार-
वृत्त्यात्मकसाक्षिचैतन्ये प्रपञ्चलयः सम्पद्यते
प्रपञ्चस्य मनःकल्पितत्वात् । ततो भेदाभावात्कदाचि-
द्बहिर्गतेऽपि मिथ्यात्वभानात् । सकृद्विभातसदानन्दा-
नुभवैकगोचरो ब्रह्मवित्तदेव भवति । यस्य सङ्कल्पनाशः
स्यात्तस्य मुक्तिः करे स्थिता । तस्माद्भावाभावौ परित्यज्य
परमात्मध्यानेन मुक्तो भवति । पुनःपुनः सर्वावस्थासु
ज्ञानज्ञेयौ ध्यानध्येयौ लक्ष्यालक्ष्ये दृश्यादृश्ये
चोहापोहादि परित्यज्य जीवन्मुक्तो भवेत् । य एवं वेद ॥ ३॥
पञ्चावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः ।
जाग्रति प्रवृत्तो जीवः प्रवृत्तिमार्गासक्तः ।
पापफलनरकादिमांस्तु शुभकर्मफलस्वर्गमस्त्विति
काङ्क्षते । स एव स्वीकृतवैराग्यात्कर्मफलजन्माऽलं
संसारबन्धनमलमिति विमुक्त्यभिमुखो निवृत्तिमार्ग-
प्रवृत्तो भवति । स एव संसारतारणाय गुरुमाश्रित्य
कामादि त्यक्त्वा विहितकर्माचरन्साधनचतुष्टयसम्पन्नो
हृदयकमलमध्ये भगवत्सत्तामात्रान्तर्लक्ष्यरूपमासाद्य
सुषुप्त्यवस्थाया मुक्तब्रह्मानन्दस्मृतिं लब्ध्वा
एक एवाहमद्वितीयः कञ्चित्कालमज्ञानवृत्त्या
विस्मृतजाग्रद्वासनानुफलेन तैजसोऽस्मीति तदुभयनिवृत्त्या
प्राज्ञ इदानीमस्मीत्यहमेक एव स्थानभेदादवस्थाभेदस्य
परंतु नहि मदन्यदिति जातविवेकः शुद्धाद्वैतब्रह्माहमिति
भिदागन्धं निरस्य स्वान्तर्विजृम्भितभानुमण्डलध्यान-
तदाकाराकारितपरंब्रह्माकारितमुक्तिमार्गमारूढः
परिपक्वो भवति । सङ्कल्पादिकं मनो बन्धहेतुः । तद्वियुक्तं
मनो मोक्षाय भवति । तद्वांश्चक्षुरादिबाह्यप्रपञ्चरतो
विगतप्रपञ्चगन्धः सर्वजगदात्मत्वेन पश्यंस्त्यक्ताहङ्कारो
ब्रह्माहमस्मीति चिन्तयन्निदं सर्वं यदयमात्मेति
भावयन्कृतकृत्यो भवति ॥ ४॥
सर्वपरिपूर्णतुरीयातीतब्रह्मभूतो योगी भवति ।
तं ब्रह्मेति स्तुवन्ति । सर्वलोकस्तुतिपात्रः सर्वदेश-
संचारशीलः परमात्मगगने बिन्दुं निक्षिप्य
शुद्धाद्वैताजाड्यसहजामनस्कयोगनिद्राखण्डा-
नन्दपदानुवृत्त्या जीवन्मुक्तो भवति । तच्चानन्द-
समुद्रमग्ना योगिनो भवन्ति । तदपेक्षया इन्द्रादयः
स्वल्पानन्दाः । एवं प्राप्तानन्दः परमयोगी भवतीत्युपनिषत् ॥ ५॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ २॥
याज्ञवल्क्यो महामुनिर्मण्डलपुरुषं पप्रच्छ
स्वामिन्नमनस्कलक्षणमुक्तमपि विस्मृतं
पुनस्तल्लक्षणं ब्रूहीति । तथेति मण्डलपुरुषोऽब्रवीत् ।
इदममनस्कमतिरहस्यम् । यज्ज्ञानेन कृतार्थो
भवति तन्नित्यं शांभवीमुद्रान्वितम् । परमात्मदृष्ट्या
तत्प्रत्ययलक्ष्याणि दृष्ट्वा तदनु सर्वेशमप्रमेयमजं
शिवं परमाकाशं निरालम्बमद्वयं ब्रह्मविष्णुरुद्रादीना-
मेकलक्ष्यं सर्वकारणं परंब्रह्मात्मन्येव पश्यमानो
गुहाविहरणमेव निश्चयेन ज्ञात्वा भावाभावादिद्वन्द्वातीतः
संविदितमनोन्मन्यनुभवस्तदनन्तरमखिलेन्द्रियक्षयवशादमनस्क-
सुखब्रह्मानन्दसमुद्रे मनःप्रवाहयोगरूपनिवातस्थितदीपवदचलं
परंब्रह्म प्राप्नोति । ततः शुष्कवृक्षवन्मूर्च्छानिद्रामय-
निःश्वासोच्छ्वासाभावान्नष्टद्वन्द्वः सदाचञ्चलगात्रः
परमशान्तिं स्वीकृत्य मनः प्रचारशून्यं परमात्मनि लीनं भवति ।
पयस्रावानन्तरं धेनुस्तनक्षीरमिव सर्वेन्द्रियवर्गे परिनष्टे
मनोनाशं भवति तदेवामनस्कम् । तदनु नित्यशुद्धः
परमात्माहमेवेति तत्त्वमसीत्युपदेशेन त्वमेवाहमहमेव
त्वमिति तारकयोगमार्गेणाखण्डानन्दपूर्णः कृतार्थो भवति ॥ १॥
परिपूर्णपराकाशमग्नमनाः प्राप्तोन्मन्यवस्थः
संन्यस्तसर्वेन्द्रियवर्गः अनेकजन्मार्जितपुण्यपुञ्जपक्व-
कैवल्यफलोऽखण्डानन्दनिरस्तसर्वक्लेशकश्मलो ब्रह्माहमस्मीति
कृतकृत्यो भवति । त्वमेवाहं न भेदोऽस्ति पूर्णत्वात्परमात्मनः ।
इत्युच्चरन्त्समालिङ्ग्य शिष्यं ज्ञप्तिमनीनयत् ॥ २॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ३॥
अथ ह याज्ञवल्क्यो मण्डलपुरुषं पप्रच्छ
व्योमपञ्चकलक्षणं विस्तरेणानुब्रूहीति । स
होवाचाकाशं पराकाशं महाकाशं
सूर्याकाशं परमाकाशमिति पञ्च भवन्ति ।
बाह्याभ्यन्तरमन्धकारमयमाकाशम् ।
बाह्यस्याभ्यन्तरे कालानलसदृशं पराकाशम् ।
सबाह्याभ्यन्तरेऽपरिमितद्युतिनिभं तत्त्वं महाकाशम् ।
सबाह्याभ्यन्तरे सूर्यनिभं सूर्याकाशम् ।
अनिर्वचनीयज्योतिः सर्वव्यापकं निरतिशयानन्दलक्षणं
परमाकाशम् । एवं तत्तल्लक्ष्यदर्शनात्तत्तद्रूपो भवति ।
नवचक्रं षडाधारं त्रिलक्ष्यं व्योमपञ्चकम् ।
सम्यगेतन्न जानाति स योगी नामतो भवेत् ॥ १॥
इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ४॥
सविषयं मनो बन्धाय निर्विषयं मुक्तये भवति ।
अतः सर्वं जगच्चित्तगोचरम् । तदेव चित्तं निराश्रयं
मनोन्मन्यवस्थापरिपक्वं लययोग्यं भवति । तल्लयं
परिपूर्णे मयि समभ्यसेत् । मनोलयकारणमहमेव ।
अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः ।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः ।
यन्मनस्त्रिजगत्सृष्टिस्थितिव्यसनकर्मकृत् ।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ।
तल्लयाच्छुद्धाद्वैतसिद्धिर्भेदाभावात् ।
एतदेव परमतत्त्वम् । स तज्ज्ञो बालोन्मत्त-
पिशाचवज्जडवृत्त्या लोकमाचरेत् एवममनस्काभ्यासेनैव
नित्यतृप्तिरल्पमूत्रपुरीषमितभोजनदृढाङ्गा-
जाड्यनिद्रादृग्वायुचलनाभावब्रह्मदर्शनाज्ज्ञात-
सुखस्वरूपसिद्धिर्भवति । एवं चिरसमाधिजनित-
ब्रह्मामृतपानपरायणोऽसौ संन्यासी परमहंस
अवधूतो भवति । तद्दर्शनेन सकलं जगत्पवित्रं भवति ।
तत्सेवापरोऽज्ञोऽपि मुक्तो भवति । तत्कुलमेकोत्तरशतं तारयति ।
तन्मातृपितृजायापत्यवर्गं च मुक्तं भवतीत्युपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति मण्डलब्राह्मणोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ मन्त्रिकोपनिषत् ॥
स्वाविद्याद्वयतत्कार्यापह्नवज्ञानभासुरम् ।
मन्त्रिकोपनिषद्वेद्यं रामचन्द्रमहं भजे ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ अष्टपादं शुचिं हंसं त्रिसूत्रमणुमव्ययम् ।
त्रिवर्त्मानं तेजसोहं सर्वतःपश्यन्न पश्यति ॥ १॥
भूतसंमोहने काले भिन्ने तमसि वैखरे ।
अन्तः पश्यन्ति सत्त्वस्था निर्गुणं गुणगह्वरे ॥ २॥
अशक्यः सोऽन्यथा द्रष्टुं ध्यायमानः कुमारकैः ।
विकारजननीमज्ञामष्टरूपामजां ध्रुवाम् ॥ ३॥
ध्यायतेऽध्यासिता तेन तन्यते प्रेर्यते पुनः ।
सूयते पुरुषार्थं च तेनैवाधिष्ठितं जगत् ॥ ४॥
गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी ।
सितासिता च रक्ता च सर्वकामदुधा विभोः ॥ ५॥
पिबन्त्येनामविषयामविज्ञातां कुमारकाः ।
एकस्तु पिबते देवः स्वच्छन्दोऽत्र वशानुगः ॥ ६॥
ध्यानक्रियाभ्यां भगवान्भुङ्क्तेऽसौ प्रसहद्विभुः ।
सर्वसाधारणीं दोग्ध्रीं पीयमानां तु यज्वमिः ॥ ७॥
पश्यन्त्यस्यां महात्मानः सुवर्णं पिप्पलाशनम् ।
उदासीनं ध्रुवं हंसं स्नातकाध्वर्यवो जगुः ॥ ८॥
शंसन्तमनुशंसन्ति बह्वृचाः शास्त्रकोविदाः ।
रथन्तरं बृहत्साम सप्तवैधैस्तु गीयते ॥ ९॥
मन्त्रोपनिषदं ब्रह्म पदक्रमसमन्वितम् ।
पठन्ति भार्गवा ह्येते ह्यथर्वाणो भृगूत्तमाः ॥ १०॥
सब्रह्मचारिवृत्तिश्च स्तम्भोऽथ फलितस्तथा ।
अनड्वान्रोहितोच्छिष्टः पश्यन्तो बहुविस्तरम् ॥ ११॥
कालः प्राणश्च भगवान्मृत्युः शर्वो महेश्वरः ।
उग्रो भवश्च रुद्रश्च ससुरः सासुरस्तथा ॥ १२॥
प्रजापतिर्विराट् चैव पुरुषः सलिलमेव च ।
स्तूयते मन्त्रसंस्तुत्यैरथर्वविदितैर्विभुः ॥ १३॥
तं षड्विंशक इत्येते सप्तविंशं तथापरे ।
पुरुषं निर्गुणं साङ्ख्यमथर्वशिरसो विदुः ॥ १४॥
चतुर्विंशतिसंख्यातं व्यक्तमव्यक्तमेव च ।
अद्वैतं द्वैतमित्याहुस्त्रिधा तं पञ्चधा तथा ॥ १५॥
ब्रह्माद्यं स्थावरान्तं च पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।
तमेकमेव पश्यन्ति परिशुभ्रं विभुं द्विजाः ॥ १६॥
यस्मिन्सर्वमिदं प्रोतं ब्रह्म स्थावरजङ्गमम् ।
तस्मिन्नेव लयं यान्ति स्रवन्त्यः सागरे यथा ॥ १७॥
यस्मिन्भावाः प्रलीयन्ते लीनाश्चाव्यक्ततां ययुः ।
पश्यन्ति व्यक्ततां भूयो जायन्ते बुद्बुदा इव ॥ १८॥
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं चैव कारणैर्विद्यते पुनः ।
एवं स भगवान्देवं पश्यन्त्यन्ये पुनः पुनः ॥ १९॥
ब्रह्म ब्रह्मेत्यथायान्ति ये विदुर्ब्राह्मणास्तथा ।
अत्रैव ते लयं यान्ति लीनाश्चाव्यक्तशालिनः ॥
लीनाश्चाव्यक्तशालिन इत्युपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति मन्त्रिकोपनिषत्समाप्ता ॥
महानारायणोपनिषत्
हरिः ॐ ॥ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्यर्यमा ।
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥
नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि ।
सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।
अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
प्रथमोऽनुवाकः ।
अम्भस्यपारे भुवनस्य मध्ये नाकस्य पृष्ठे महतो महीयान् ।
शुक्रेण ज्योतीꣳषि समनुप्रविष्टः प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तः ॥ १॥
यस्मिन्निदꣳ सं च वि चैति सर्वं यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
तदेव भूतं तदु भव्यमा इदं तदक्षरे परमे व्योमन् ॥ २॥
येनावृतं खं च दिवं मही च येनादित्यस्तपति तेजसा भ्राजसा च ।
यमन्तः समुद्रे कवयो वयन्ति यदक्षरे परमे प्रजाः ॥ ३॥
यतः प्रसूता जगतः प्रसूती तोयेन जीवान् व्यचसर्ज भूम्याम् ।
यदोषधीभिः पुरुषान् पशूꣳश्च विवेश भूतानि चराचराणि ॥ ४॥
अतः परं नान्यदणीयसꣳ हि परात्परं यन्महतो महान्तम् ।
यदेकमव्यक्तमनन्तरूपं विश्वं पुराणं तमसः परस्तात् ॥ ५॥
तदेवर्तं तदु सत्यमाहुस्तदेव ब्रह्म परमं कवीनाम् ।
इष्टापूर्तं बहुधा जातं जायमानं विश्वं बिभर्ति भुवनस्य नाभिः ॥ ६॥
तदेवाग्निस्तद्वायुस्तत्सूर्यस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रममृतं तद्ब्रह्म तदापः स प्रजापतिः ॥ ७॥
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि ।
कला मुहूर्ताः काष्ठाश्चाहोरात्राश्च सर्वशः ॥ ८॥
अर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरश्च कल्पन्ताम् ।
स आपः प्रदुधे उभे इमे अन्तरिक्षमथो सुवः ॥ ९॥
नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये परिजग्रभत् ।
न तस्येशे कश्चन तस्य नाम महद्यशः ॥ १०॥
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा मनीशा मनसाभिक्लृप्तो य एनं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ ११॥
परमात्म- हिरण्यगर्भ- सूक्त
अद्भ्यः सम्भूतो हिरण्यगर्भ इत्यष्टौ ॥
अद्भ्य सम्भूतः पृथिव्यौ रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताधि ।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तत्पुरुषस्य विश्वमाजानमग्रे । १।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेवं विद्वानभृत इह भवति नान्यःपन्थाविद्यतेऽयनाय । २।
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुथा विजायते ।
तस्य धीराः परिजानन्ति योनिम् मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः । ३।
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः । पूर्वो यो देवेभ्यो
जातः नमो रुचाय ब्राह्मये । ४।
रुचं ब्राह्मं जनयन्तः देवा अग्रे तदब्रुवन् । यस्त्वैवं
ब्राह्मणो विद्यात् तस्य देवा असन् वशे । ५।
ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ अहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपम् ।
अश्विनौ व्यात्तम् इष्टं मनिषाण अमुं मनिषाण सर्वं
मनिषाण । ६। इति उत्तरनारायणानुवाकः ।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १॥
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ २॥
य आत्मदा बलंदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ३॥
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रꣳ रसया सहाहुः ।
यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ४॥
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अस्यैक्षेतां मनसा रेजमाने ।
यत्राधि सूर उदितौ व्येति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ५॥
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढे येन सुवः स्तभितं येन नाकः ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ६॥
आपो ह यन्महतीर्विश्वमायं दक्षं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां निरवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७॥
यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद्दक्षं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।
यो देवेश्वधि देव एक कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ८॥
एष हि देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो हि जातः स उ गर्भे अन्तः ।
स विजायमानः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्मुखास्तिष्ठति विश्वतोमुखः ॥ १२॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो हस्त उत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां नमति सं पतत्रैर्द्यावापृथिवी जनयन् देव एकः ॥ १३॥
वेनस्तत् पश्यन् विश्वा भुवनानि विद्वान् यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ।
यस्मिन्निदꣳसं च वि चैकꣳस ओतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु ॥ १४॥
प्र तद्वोचे अमृतं नु विद्वान् गन्धर्वो नाम निहितं गुहासु ।
त्रीणि पदा निहिता गुहासु यस्तद्वेद सवितुः पिता सत् ॥ १५॥
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामान्यभ्यैरयन्त ॥ १६॥
परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः परि लोकान् परि दिशः परि सुवः ।
ऋतस्य तन्तुं विततं विचृत्य तदपश्यत् तदभवत् प्रजासु ॥ १७॥
परीत्य लोकान् परीत्य भूतानि परीत्य सर्वाः प्रदिशो दिशश्च ।
प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्यात्मनात्मानमभिसम्बभूव ॥ १८॥
सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् ।
सनिं मेधामयासिषम् ॥ १९॥
उद्दीप्यस्व जातवेदोऽपघ्नन्निऋतिं मम । पशूꣳश्च
मह्यममावह जीवनं च दिशो दिश ॥ २०॥
मा नो हिꣳसीज्जातवेदो गामश्वं पुरुषं जगत् ।
अबिभ्रदग्न आगहि श्रिया मा परिपातय ॥ २१॥
पुरुषस्य विद्महे सहस्राक्षस्य महादेवस्य धीमहि ।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ २२॥
गायत्र्याः ।
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ २३॥
तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥ २४॥
तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो नन्दिः प्रचोदयात् ॥ २५॥
तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि । तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात् ॥ २६॥
तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि । तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥ २७॥
वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि । तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ २८॥
नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि । तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ २९॥
वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदꣳष्ट्राय धीमहि । तन्नो नारसिꣳहः प्रचोदयात् ॥ ३०॥
भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि । तन्नो आदित्य्यः प्रचोदयात् ॥ ३१॥
वैश्वानरय विद्महे लालीलाय धीमहि । तन्नो अग्निः प्रचोदयात् ॥ ३२॥
कात्यायनाय विद्महे कन्याकुमारि धीमहि । तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात् ॥ ३३॥
[पाठभेदः:
चतुर्मुखाय विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि । तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि । तन्नो भानुः प्रचोदयात् ॥
पावकाय विद्महे सप्तजिह्वाय धीमहि । तन्नो वैश्वानरः प्रचोदयात् ॥
महाशूलिन्यै विद्महे महादुर्गायै धीमहि । तन्नो भगवती प्रचोदयात् ॥
सुभगायै विद्महे कमलमालिन्यै धीमहि । तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥
नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि । तन्नः सर्पः प्रचोदयात् ॥]
सहस्रपरमा देवी शतमूला शताङ्कुरा । सर्वꣳहरतु मे
पापं दूर्वा दुःस्वप्ननाशिनी ॥ ३४॥
काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः परुषः परि । एवा नो
दूर्वे प्रतनु सहस्रेण शतेन च ॥ ३५॥
या शतेन प्रतनोषि सहस्रेण विरोहसि । तस्यास्ते देवीष्टके
विधेम हविषा वयम् ॥ ३६॥
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरा । शिरसा
धारयिष्यामि रक्षस्व मां पदे पदे ॥ ३७॥
भूमिर्धेनुर्धरणी लोकधारिणी । उद्धृतासि वराहेण
कृष्णेन शतबाहुना ॥ ३८॥
मृत्तिके हन पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ।
मृत्तिके ब्रह्मदत्तासि काश्यपेनाभिमन्त्रिता ।
मृत्तिके देहि मे पुष्टिं त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ ३९॥
मृत्तिके प्रतिष्ठिते सर्वं तन्मे निर्णुद मृत्तिके । त्वया
हतेन पापेन गच्छामि परमां गतिम् ॥ ४०॥
यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कृधि । मघवञ्छग्धि
तव तन्न ऊतये विद्विषो विमृधो जहि ॥ ४१॥
स्वस्तिदा विशस्पतिर्वृत्रहा विमृधो वशी । वृषेन्द्रः
पुर एतु नः स्वस्तिदा अभयङ्करः ॥ ४२॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ४३॥
आपान्तमन्युस्तृपलप्रभर्मा धुनिः
शिमीवाञ्छरुमाꣳऋजीषी ।
सोमो विश्वान्यतसावनानि नार्वागिन्द्रं प्रतिमानानि देभुः ॥ ४४॥
ब्रह्मजज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः ।
स बुध्निया उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः ॥ ४५॥
स्योना पृथिवि भवान् नृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः
शर्म सप्रथाः ॥ ४६॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीꣳ सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥ ४७॥
श्रीर्मे भजतु अलक्ष्मीर्मे नश्यतु ।
विष्णुमुखा वै
देवाश्छन्दोभिरिमाॅंल्लोकाननपजय्यमभ्यजयन् ।
महाꣳ इन्द्रो वज्रबाहुः षोडशी शर्म यच्छतु ॥ ४८॥
स्वस्ति नो मघवा करोतु । हन्तु पाप्मानं योऽस्मान् द्वेष्टि ॥ ४९॥
सोमानꣳ स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते कक्षीवन्तं य औशिजम् ।
शरीरं यज्ञशमलं कुसीदं तस्मिन्त्सीदतु योऽस्मान् द्वेष्टि ॥ ५०॥
चरणं पवित्रं विततं पुराणं येन पूतस्तरति दुष्कृतानि ।
तेन पवित्रेण शुद्धेन पूता अति पाप्मानमरातिं तरेम ॥ ५१॥
सजोषा इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहञ्छूर विद्वान् ।
जहि शत्रूꣳरप मृधो नुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः ॥ ५२॥
सुमित्रा न आप ओषधयः सन्तु ।
दुर्मित्रास्तस्मै भूयासुर्योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ॥ ५३॥
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय
चक्षसे । यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेऽह नः ।
उशतीरिव मातरः । तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय
जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥ ५४॥
हिरण्यशृङ्गं वरुणं प्रपद्ये तीर्थ मे देहि याचितः ।
यन्मया भुक्तमसाधूनां पापेभ्यश्च प्रतिग्रहः ॥ ५५॥
यन्मे मनसा वाचा कर्मणा वा दुष्कृतं कृतम् ।
तन्न इन्द्रो वरुणो बृहस्पतिः सविता च पुनन्तु पुनः पुनः ॥ ५६॥
नमोऽग्नयेऽप्सुमते नम इन्द्राय नमो वरुणाय नमो वारुण्यै
नमोऽद्भ्यः ॥ ५७॥
यदपां क्रूरं यदमेध्यं यदशान्तं तदपगच्छतात् ॥ ५८॥
अत्याशनादतीपानाद् यच्च उग्रात् प्रतिग्रहात् ।
तन्मे वरुणो राजा पाणिना ह्यवमर्शतु ॥ ५९॥
सोऽहमपापो विरजो निर्मुक्तो मुक्तकिल्बिषः ।
नाकस्य पृष्ठमारुह्य गच्छेद्ब्रह्मसलोकताम् ॥ ६०॥
यश्चाप्सु वरुणः स पुनात्वघमर्षणः ॥ ६१॥
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमꣳ सचता परुष्णिया ।
असिक्निअ मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया ॥ ६२॥
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ।
ततो रात्रिरजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ ६३॥
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ॥ ६४॥
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो सुवः ॥ ६५॥
यत्पृथिव्याꣳ रजः स्वमान्तरिक्षे विरोदसी ।
इमाꣳस्तदापो वरुणः पुनात्वघमर्षणः ॥
पुनन्तु वसवः पुनातु वरुणः पुनात्वघमर्षणः ।
एष भूतस्य मध्ये भुवनस्य गोप्ता ॥
एष पुण्यकृतां लोकानेष मृत्योर्हिरण्मयम् ।
द्यावापृथिव्योर्हिरण्मयꣳ सꣳश्रितꣳ सुवः ।
स नः सुवः सꣳशिशाधि ॥ ६६॥
आर्द्रं ज्वलतिज्योतिरहमस्मि । ज्योतिर्ज्वलति ब्रह्माहमस्मि ।
योऽहमस्मि ब्रह्माहमस्मि । अहमस्मि ब्रह्माहमस्मि । अहमेवाहं
मां जुहोमि स्वाहा ॥ ६७॥
अकार्यवकीर्णी स्तेनो भ्रूणहा गुरुतल्पगः ।
वरुणोऽपामघमर्षणस्तस्मात् पापात् प्रमुच्यते ॥ ६८॥
रजोभूमिस्त्व माꣳ रोदयस्व प्रवदन्ति धीराः ॥ ६९॥
आक्रान्त्समुद्रः प्रथमे विधर्मञ्जनयन्प्रजा भुवनस्य राजा ।
वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे सुवान इन्दुः ॥ ७०॥
द्वितीयोऽवानुकः ।
जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो निदहाति वेदः ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ॥ १॥
दुर्गा सूक्तम् ।
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीꣳ शरणमहं प्रपद्ये सुतरसि तरसे नमः ॥ २॥
अग्ने त्वं पारया नव्यो अस्मान् स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा ।
पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी भवा तोकाय तनयाय शंयोः ॥ ३॥
विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदः सिन्धुं न वावा दुरितातिपर्षि ।
अग्ने अत्रिवन्मनसा गृणानोऽस्माकं बोध्यविता तनूनाम् ॥ ४॥
पृतनाजितꣳ सहमानमुग्नमग्निꣳ हुवेम परमात्सधस्तात् ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा क्षामद्देवो अति दुरितात्यग्निः ॥ ५॥
प्रत्नोषि कमीड्यो अध्वरेषु सनाच्च होता नव्यश्च सत्सि ।
स्वां चाग्ने तनुवं पिप्रयस्वास्मभ्यं च सौभगमायजस्व ॥ ६॥
गोभिर्जुष्टमयुजो निषिक्तं तवेन्द्र विष्णोरनुसंचरेम ।
नाकस्य पृष्ठमभि संवसानो वैष्णवीं लोक इह मादयन्ताम् ॥ ७॥
तृतीयोऽनुवाकः ।
भूरन्नमग्नये पृथिव्यै स्वाहा भुवोऽन्नं
वायवेऽन्तरिक्षाय स्वाहा सुवरन्नमादित्याय दिवे स्वाहा
भूर्भुवस्सुवरन्नं चन्द्रमसे दिग्भ्यः स्वाहा नमो देवेभ्यः
स्वधा पितृभ्यो भूर्भुवः सुवरन्नमोम् ॥ १॥
चतुर्थोऽनुवाकः ।
भूरग्नये पृथिव्यै स्वाहा भुवो वायवेऽन्तरिक्षाय स्वाहा
सुवरादित्याय दिवे स्वाहा भुर्भुवस्सुवश्चन्द्रमसे दिग्भ्यः
स्वाहा
नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यो भूर्भुवःसुवरग्न ओम् ॥ १॥
पञ्चमोऽनुवाकः ।
भूरग्नये च पृथिव्यै च महुते च स्वाहा भुवो वायवे
चान्तरिक्षाय च महते च स्वाहा सुवरादित्याय च दिवे च
महते च स्वाहा भूर्भुवस्सुवश्चन्द्रमसे च
नक्षत्रेभ्यश्च
दिग्भ्यश्च महते च स्वाहा नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यो
भुर्भुवः सुवर्महरोम् ॥ १॥
षष्ठोऽनुवाकः ।
पाहि नो अग्न एनसे स्वाहा पाहि नो विश्ववेदसे स्वाहा
यज्ञं पाहि विभावसो स्वाहा सर्वं पाहि शतक्रतो स्वाहा ॥ १॥
सप्तमोऽनुवाकः ।
पाहि नो अग्न एकया पाह्युत द्वितीयया पाह्यूर्ज तृतीयया
पाहि गीर्भिश्चतसृभिर्वसो स्वाहा ॥ १॥
अष्टमोऽनुवाकः ।
यश्छन्दसामृषभो
विश्वरूपश्छन्दोभ्यश्चन्दाꣳस्याविवेश । सताꣳशिक्यः
प्रोवाचोपनिषदिन्द्रो ज्येष्ठ इन्द्रियाय ऋषिभ्यो नमो
देवेभ्यः स्वधा
पितृभ्यो भूर्भुवस्सुवश्छन्द ओम् ॥ १॥
नवमोऽनुवाकः ।
नमो ब्रह्मणे धारणं मे अस्त्वनिराकरणं धारयिता भूयासं
कर्णयोः श्रुतं मा च्योढं ममामुष्य ओम् ॥ १॥
दशमोऽनुवाकः ।
ऋतं तपः सत्यं तपः श्रुतं तपः शान्तं तपो दमस्तपः
शमस्तपो दानं तपो यज्ञं तपो भूर्भुवः
सुवर्ब्रह्मैतदुपास्वैतत्तपः ॥ १॥
एकादशोऽनुवाकः ।
यथा वृक्षस्य सम्पुष्पितस्य दूराद्गन्धो वात्येवं पुण्यस्य
कर्मणो दूराद्गन्धो वाति यथासिधारां कर्तेऽवहितमवक्रामे
यद्युवे युवे हवा विह्वयिष्यामि कर्तं
पतिष्यामीत्येवममृतादात्मानं जुगुप्सेत् ॥ १॥
द्वादशोऽनुवाकः ।
अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥ १॥
सप्त प्राणा प्रभवन्ति तस्मात् सप्तार्चिषः समिधः सप्त जिह्वाः ।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशयान्निहिताः सप्त सप्त ॥ २॥
अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वेऽस्मात्स्यन्दन्ते सिन्धवः सर्वरूपाः ।
अतश्च विश्वा ओषधयो रसाश्च येनैष भूतस्तिष्ठत्यन्तरात्मा ॥ ३॥
ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् ।
श्येनो गृध्राणाꣳस्वधितिर्वनानाꣳसोमः पवित्रमत्येति रेभन् ॥ ४॥
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीं प्रजां जनयन्तीꣳ सरूपाम् ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ ५॥
हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ ६॥
यस्माज्जाता न परा नैव किंचनास य आविवेश भुवनानि विश्वा ।
प्रजापतिः प्रजया संविदानस्त्रीणि ज्योतीꣳषि सचते स षोडशी ॥ ६ क॥
विधर्तारꣳ हवामहे वसोः कुविद्वनाति नः । सवितारं नृचक्षसम् ॥ ६ ख॥
घृतं मिमिक्षिरे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतमुवस्य धाम ।
अनुष्वधमावह मादयस्व स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम् ॥ ७॥
समुद्रादूर्मिर्मधुमाꣳ उदारदुपाꣳशुना सममृतत्वमानट् ।
घृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः ॥ ८॥
वयं नाम प्रब्रवामा घृतेनास्मिन् यज्ञे धारयामा नमोभिः ।
उप ब्रह्मा शृणवच्छस्यमान चतुःशृङ्गोऽवमीद्गौर एतत् ॥ ९॥
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याꣳ आविवेश ॥ १०॥
त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो घृतमन्वविन्दन् ।
इन्द्र एकꣳ सूर्य एकं जजान वेनादेकꣳ स्वधया निष्टतक्षुः ॥ ११॥
यो देवानां प्रथमं पुरस्ताद्विश्वाधिको रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानꣳ स नो देवः
शुभयास्मृत्या संयुनक्तु ॥ १२॥
यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चित् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥ १३॥
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ।
परेण नाकं निहितं गुहायां बिभ्राजते यद्यतयो विशन्ति ॥ १४॥
वेदान्तविज्ञानविनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः ।
ते ब्रह्मलोके तु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ १५॥
दह्रं विपापं वरवेश्मभूत यत् पुण्डरीकं पुरमध्यसꣳस्थम् ।
तत्रापि दह्रे गगनं विशोकं तस्मिन् यदन्तस्तदुपासितव्यम् ॥ १६॥
यो वेदादौ स्वरः प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठितः ।
तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः ॥ १७॥
त्रयोदशोऽनुवाकः ।
सहस्रशीर्षं देवं विश्वाक्षं विश्वशम्भुवम् ।
विश्वं नारायणं देवमक्षरं परमं प्रभुम् ॥ १॥
विश्वतः परमं नित्यं विश्वं नारायणꣳ हरिम् ।
विश्वमेवेदं पुरुषस्तद्विश्वमुपजीवति ॥ २॥
पतिं विश्वस्यात्मेश्वरꣳ शाश्वतꣳ शिवमच्युतम् ।
नारायणं महाज्ञेयं विश्वात्मानं परायणम् ॥ ३॥
नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः ।
नारायणः परो ज्योतिरात्मा नारायणः परः ॥ ४॥
नारायणः परो ध्याता ध्यानं नारायणः परः ।
यच्च किञ्चिज्जगत्यस्मिन् दृश्यते श्रूयतेऽपि वा ।
अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ॥ ५॥
अनन्तमव्ययं कविꣳ समुद्रेऽन्तं विश्वशम्भुवम् ।
पद्मकोशप्रतीकाशꣳ हृदयं चाप्यधोमुखम् ॥ ६॥
अधो निष्ट्या वितस्त्यान्ते नाभ्यामुपरि तिष्ठति ।
हृदयं तद्विजानीयाद्विश्वस्यायतनं महत् ॥ ७॥
सन्ततꣳ सिराभिस्तु लम्बत्याकोशसन्निभम् ।
तस्यान्ते सुषिरꣳ सूक्ष्मं तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ ८॥
तस्य मध्ये महानग्निर्विश्वार्चिर्विश्वतोमुखः ।
सोऽग्रभुग्विभजन्तिष्ठन्नाहारमजरः कविः ॥ ९॥
तिर्यगूर्ध्वमधःशायी रश्मयस्तस्य सन्तताः ।
सन्तापयति स्वं देहमापादतलमस्तकम् ।
तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता ॥ १०॥
नीलतोयदमध्यस्था विद्युल्लेखेव भास्वरा ।
नीवारशूक्वत्तन्वी पीता भास्वत्यणूपम ॥ ११॥
तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः ।
स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् ॥ १२॥
चतुर्दशोऽनुवाकः ।
आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति तत्र ता ऋचस्तदृचा मण्डलꣳ
स ऋचां लोकोऽथ य एष एतस्मिन्मण्डलेऽर्चिर्दीप्यते तानि सामानि स
साम्नां लोकोऽथ य एष एतस्मिन्मण्डलेऽर्चिषि पुरुषस्तानि
यजूꣳषि स यजुषा मण्डलꣳ स यजुषां लोकः सैषा त्रय्येव
विद्या तपति य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषः ॥ १॥
पञ्चदशोऽनुवाकः ।
आदित्यो वै तेज ओजो बलं यशश्चक्षुः श्रोत्रमात्मा मनो मन्युर्मनुर्मृत्युः
सत्यो मित्रो वायुराकाशः प्राणो लोकपालः कः किं कं तत्सत्यमन्नममृतो
जीवो विश्वः कतमः स्वयम्भु ब्रह्मैतदमृत एष पुरुष एष
भूतानामधिपतिर्ब्रह्मणः सायुज्यꣳ सलोकतामाप्नोत्येतासामेव
देवतानाꣳ सायुज्यꣳ सार्ष्टिताꣳ समानलोकतामाप्नोति य एवं
वेदेत्युपनिषत् ॥ १॥
घृणिः सूर्य आदित्योमर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति तद्ब्रह्म तदाप
आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम् ॥ २॥
षोडशोऽनुवाकः ।
निधनपतये नमः । निधनपतान्तिकाय नमः ।
ऊर्ध्वाय नमः । ऊर्ध्वलिङ्गाय नमः ।
हिरण्याय नमः । हिरण्यलिङ्गाय नमः ।
सुवर्णाय नमः । सुवर्णलिङ्गाय नमः ।
दिव्याय नमः । दिव्यलिङ्गाय नमः ।
भवाय नमः। भवलिङ्गाय नमः ।
शर्वाय नमः । शर्वलिङ्गाय नमः ।
शिवाय नमः । शिवलिङ्गाय नमः ।
ज्वलाय नमः । ज्वललिङ्गाय नमः ।
आत्माय नमः । आत्मलिङ्गाय नमः ।
परमाय नमः । परमलिङ्गाय नमः ।
एतत्सोमस्य सूर्यस्य सर्वलिङ्गꣳ स्थापयति पाणिमन्त्रं पवित्रम् ॥ १॥
सप्तदशोऽनुवाकः ।
सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः ।
भवे भवे नातिभवे भवस्व माम् । भवोद्भवाय नमः ॥ १॥
अष्टदशोऽनुवाकः ।
वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय
नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो
बलाय नमो बलप्रमथाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो
मनोन्मनाय नमः ॥ १॥
एकोनविंशोऽनुवाकः ।
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । सर्वतः शर्व
सर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ १॥
विंशोऽनुवाकः ।
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ १॥
एकविंशोऽनुवाकः ।
ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां
ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ॥ १॥
द्वाविंशोऽनुवाकः ।
नमो हिरण्यबाहवे हिरण्यवर्णाय हिरण्यरूपाय हिरण्यपतये।
अम्बिकापतय उमापतये पशुपतये नमो नमः ॥ १॥
त्रयोविंशोऽनुवाकः ।
ऋतꣳ सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम् ।
ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय वै नमो नमः ॥ १॥
चतुर्विंशोऽनुवाकः ।
सर्वो वै रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमो अस्तु । पुरुषो वै रुद्रः
सन्महो नमो नमः ।
विश्वं भूतं भुवनं चित्रं बहुधा जातं जायमानं च यत् ।
सर्वो ह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ १॥
पञ्चविंशोऽनुवाकः ।
कद्रुद्राय प्रचेतसे मीढुष्टमाय तव्यसे । वोचेम शंतमꣳ हृदे ।
सर्वोह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ १॥
षड्विंशोऽनुवाकः ।
यस्य वैकङ्कत्यग्निहोत्रहवणी भवति प्रत्येवास्याहुतयस्तिष्ठत्यथो
प्रतिष्ठित्यै ॥ १॥
सप्तविंशोऽनुवाकः ।
कृणुष्व पाज इति पञ्च ।
कृणुष्व पाजः प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवाॅं इभेन ।
तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः ॥ १॥
तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृशता शोशुचानः ।
तपूंष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो वि सृज विश्वगुल्काः ॥ २॥
प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशी अस्या अदब्धः ।
यो नो दूरे अघशं सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरादधर्षीत ॥ ३॥
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्व न्यमित्रांॅ ओषतात्तिग्महेते ।
यो नो अरातिं समिधान चक्रे नीचातं धक्ष्यतसं न शुष्कम् ॥ ४॥
ऊर्ध्वो भव प्रतिं विद्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने ।
अवस्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ ५॥
अष्टाविंशोऽनुवाकः ।
अदितिर्देवा गन्धर्वा मनुष्याः पितरोऽसुरास्तेषाꣳ
सर्वभूतानां माता मेदिनी महती मही सावित्री गायत्री
जगत्युर्वी पृथ्वी बहुला विश्वा भूता कतमा काया सा
सत्येत्यमृतेति वासिष्ठः ॥ १॥
एकोनत्रिंशोऽनुवाकः ।
आपो वा इदꣳ सर्वं विश्वा भूतान्यापः प्राणा वा आपः
पशव आपोऽन्नमापोऽमृतमापः सम्राडापो विराडापः
स्वराडापश्छन्दाꣳस्यापो ज्योतीꣳष्यापो यजूꣳष्यापः
सत्यमापः सर्वा देवता आपो भूर्भुवः सुवराप ओम् ॥ १॥
त्रिंशोऽनुवाकः ।
आपः पुनन्तु पृथिवीं पृथिवी पूता पुनातु माम् ।
पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम् ॥ १॥
यदुच्छिष्टमभोज्यं यद्वा दुश्चरितं मम ।
सर्वं पुनन्तु मामापोऽसतां च प्रतिग्रहꣳ स्वाहा ॥ २॥
एकत्रिंशोऽनुवाकः ।
अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः ।
पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यदह्ना पापमकार्षम् ।
मनसा वाचा हस्ताभ्याम् । पद्भ्यामुदरेण शिश्ना ।
अहस्तदवलिम्पतु । यत्किञ्च दुरितं मयि । इदमहं
माममृतयोनी । सत्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ॥ १॥
द्वात्रिंशोऽनुवाकः ।
सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः ।
पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद्रात्रिया पापमकार्षम् ।
मनसा वाचा हस्ताभ्याम् । पद्भ्यामुदरेण शिश्ना । रात्रिस्तदवलुम्पतु ।
यत्किञ्च दुरितं मयि । इअदमहं माममृतयोनी । सूर्ये
ज्योतिषि स्वाहा ॥ १॥
त्रयस्त्रिंशोऽनुवाकः ।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म । अग्निर्देवता ब्रह्म इत्यार्षम् ।
गायत्रं छन्दं परमात्मं सरूपम् । सायुज्यं विनियोगम् ॥ १॥
चतुस्त्रिंशोऽनुवाकः ।
आयातु वरदा देवी अक्षरं ब्रह्म संमितम् ।
गायत्री छन्दसां मातेदं ब्रह्म जुषस्व नः ॥ १॥
यदह्नात्कुरुते पापं तदह्नात्प्रतिमुच्यते ।
यद्रात्रियात्कुरुते पापं तद्रात्रियात्प्रतिमुच्यते ।
सर्ववर्णे महादेवि सन्ध्याविद्ये सरस्वति ॥ २॥
पञ्चत्रिंशोऽनुवाकः ।
ओजोऽसि सहोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानां धामनामासि विश्वमसि
विश्वायुअः सर्वमसि सर्वायुरभिभूरों गायत्रीमावाहयामि
सावित्रीमावाहयामि सरस्वतीमावाहयामि छन्दर्हीनावाहयामि
श्रियमावाहयामि गायत्रिया गायत्री छन्दो विश्वामित्र ऋषिः
सविता देवताग्निर्मुखं ब्रह्मा शिरो विष्णुहृदयꣳ रुद्रः शिखा
पृथिवी योनिः प्राणापानव्यानोदानस्माना सप्राणा श्वेतवर्णा
सांख्यायनसगोत्रा गायत्री चतुर्विंशत्यक्षरा त्रिपदा ष्ट्कुक्षिः
पञ्चशीर्षोपनयने विनियोगः ॥ १॥
ॐ भूः । ॐ भुवः । ओꣳसुवः । ॐ महः । ॐ जनः । ॐ तपः ।
ओꣳ सत्यम् । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् । ओमापो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म
भूर्भुवः सुवरोम् ॥ २॥
षट्त्रिंशोऽनुवाकः ।
उत्तमे शिखरे देवि जाते भूम्यां पर्वतमूर्धनि ।
ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् ॥ १॥
स्तुतो मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ती पवने द्विजाता ।
आयुः पृथिव्यां द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यं दत्वा
प्रजातुं ब्रह्मलोकम् ॥ २॥
सप्तत्रिंशोऽनुवाकः ।
घृणिः सूर्य आदित्यो न प्रभा वात्यक्षरम् । मधु क्षरन्ति तद्रसम् ।
सत्यं वै तद्रसमापो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम् ॥ १॥
त्रिसुपर्णमन्त्रः १
अष्टत्रिंशोऽनुवाकः ।
ब्रह्ममेतु माम् । मधुमेतु माम् । ब्रह्ममेव मधुमेतु माम् । यास्ते सोम
प्रजा वत्सोऽभि सो अहम् । दुःष्वप्नहन् दुरुष्षह । यास्ते सोम
प्राणाꣳस्ताञ्जुहोमि ॥ १॥
त्रिसुपर्णमयाचितं ब्राह्मणाय दद्यात् । ब्रह्महत्यां वा एते घ्नन्ति ।
ये ब्राह्मणास्त्रिसुपर्णं पठन्ति । ते सोमं प्राप्नुवन्ति । आ
सहस्रात् पङ्क्तिं पुनन्ति । ॐ ॥ २॥
त्रिसुपर्णमन्त्रः २
एकोनचत्वारिंशोऽनुवाकः ।
ब्रह्म मेधया । मधु मेधया । ब्रह्ममेव मधुमेधया ॥ १॥
अद्यानो देव सवितः प्रजावत्सावीः सौभगम् । परा
दुःष्वप्नियꣳ सुव ॥ २॥
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद्भद्रं तन्मम आसुव ॥ ३॥
मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ॥ ४॥
मधु नक्तमुतोषसि मधुमत्पार्थिवꣳ रजः । मधुद्यौरस्तु नः पिता ॥ ५॥
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाꣳ अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥ ६॥
य इमं त्रिसुपर्णमयाचितं ब्राह्मणाय दद्यात् ।
भ्रूणहत्यां वा एते घ्नन्ति ।
ये ब्राह्मणास्त्रिसुपर्णं पठन्ति । ते सोमं प्राप्नुवन्ति । आ
सहस्रात्पङ्क्तिं पुनन्ति । ॐ ॥ ७॥
त्रिसुपर्णमन्त्रः ३
चत्वारिंशोऽनुवाकः ।
ब्रह्म मेधवा । मधु मेधवा । ब्रह्ममेव मधु मेधवा ॥ १॥
ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् ।
श्येनो गृद्धाणाꣳ स्वधितिर्वनानाꣳ सोमः पवित्रमत्येति
रेभत् ॥ २॥
हꣳसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ ३॥
ऋचे त्वा ऋचे त्वा समित्स्रवन्ति सरितो न धेनाः ।
अन्तर्हृदा मनसा पूयमानाः । घृतस्य धारा अभिचाकशीमि ॥ ४॥
हिरण्ययो वेतसो मध्य आसाम् । तस्मिन्त्सुपर्णो मधुकृत् कुलायी भजन्नास्ते
मधु देवताभ्यः । तस्यासते हरयः सप्त तीरे स्वधां
दुहाना अमृतस्य धाराम् ॥ ५॥
य इदं त्रिसुपर्णमयाचितं ब्राह्मणाय दद्यात् ।
वीरहत्यां वा एते घ्नन्ति ।
ये ब्राह्मणास्त्रिसुपर्णं पठन्ति । ते सोमं प्राप्नुवन्ति ।
आसहस्रात् पङ्क्तिं पुनन्ति । ॐ ॥ ६॥
एकचत्वारिंशोऽनुवाकः ।
मेधादेवी जुषमाणा न आगाद्विश्वाची भद्रा सुमनस्यमाना ।
त्वया जुष्टा जुषमाणा दुरुक्तान्बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥ १॥
त्वया जुष्ट ऋषिर्भवति देवि त्वया ब्रह्मागतश्रीरुत त्वया ।
त्वया जुष्टश्चित्रं विन्दते वसु सा नो जुषस्व द्रविणेन मेधे ॥ २॥
द्विचत्वारिंशोऽनुवाकः ।
मेधां म इन्द्रो ददातु मेअधां देवी सरस्वती ।
मेधां मे अश्विनावुभावाधत्तां पुष्करस्रजौ ॥ १॥
अप्सरासु च या मेधा गन्धर्वेषु च यन्मनः ।
दैवी मेधा सरस्वती स मां मेधा सुरभिर्जुषताꣳ स्वाहा ॥ २॥
त्रिचत्वारिंशोऽनुवाकः ।
आ मां मेधा सुरभिर्विश्वरूपा हिरण्यवर्णा जगती जगम्या ।
ऊर्जस्वती पयसा पिन्वमाना सा मां मेधा सुप्रतीका जुषताम् ॥ १॥
चतुश्चत्वारिंशोऽनुवाकः ।
मयि मेधां मयि प्रजां मय्यग्निस्तेजो दधातु ।
मयि मेधां मयि प्रजां मयीन्द्र इन्द्रियं दधातु ।
मयि मेधां मयि प्रजां मयि सूर्यो भ्राजो दधातु ॥ १॥
पञ्चचत्वारिंशोऽनुवाकः ।
अपैतु मृत्युरमृतं न आगन्वैवस्वतो नो अभयं कृणोतु ।
पर्णं वनस्पतेरिवाभि नः शीयताꣳरयिः सचतां नः शचीपतिः ॥ १॥
षट्चत्वारिंशोऽनुवाकः ।
परं मृत्यो अनुपरेहि पन्थां यस्ते स्व इतरो देवयानात् ।
चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा नः प्रजाꣳ रीरिषो मोत वीरान् ॥ १॥
सप्तचत्वारिंशोऽनुवाकः ।
वातं प्राणं मनसान्वारभामहे प्रजापतिं यो भुवनस्य गोपाः ।
स नो मृत्योस्त्रायतां पात्वꣳहसो ज्योग्जीवा जराम शीमहि ॥ १॥
अष्टचत्वारिंशोऽनुवाकः ।
अमुत्रभूयादध यद्यमस्य बृहस्पते अभिशस्तेरमुञ्चः ।
प्रत्यौहतामश्विना मृत्युमस्मद्देवानामग्ने भिषजा शचीभिः ॥ १॥
एकोनपञ्चाशोऽनुवाकः ।
हरिꣳ हरन्तमनुयन्ति देवा विश्वस्येशानं वृषभं मतीनाम् ।
ब्रह्मसरूपमनु मेदमागादयनं मा विवधीर्विक्रमस्व ॥ १॥
पञ्चाशोऽनुवाकः ।
शल्कैरग्निमिन्धान उभौ लोकौ सनेमहम् ।
उभयोर्लोकयोरृध्वाति मृत्युं तराम्यहम् ॥ १॥
एकपञ्चाशोऽनुवाकः ।
मा छिदो मृत्यो मा वधीर्मा मे बलं विवृहो मा प्रमोषीः ।
प्रजां मा मे रीरिष आयुरुग्र नृचक्षसं त्वा हविषा विधेम ॥ १॥
द्विपञ्चाशोऽनुवाकः ।
मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम् ।
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं प्रिया मा नस्तनुवो रुद्र रीरिषः ॥ १॥
त्रिपञ्चाशोऽनुवाकः ।
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः ।
वीरान्मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्तो नमसा विधेम ते ॥ १॥
चतुष्पञ्चाशोऽनुवाकः ।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव ।
यत्कामस्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयꣳ स्याम पतयो रयीणाम् ॥ १॥
पञ्चपञ्चाशोऽनुवाकः ।
स्वस्तिदा विशस्पतिर्वृत्रहा विमृधो वशी ।
वृषेन्द्रः पुर एतु नः स्वस्तिदा अभयङ्करः ॥ १॥
षट्पञ्चाशोऽनुवाकः ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥ १॥
सप्तपञ्चाशोऽनुवाकः ।
ये ते सहस्रमयु पाशा मृत्यो मर्त्याय हन्तवे ।
तान् यज्ञस्य मायया सर्वानवयजामहे ॥ १॥
अष्टपञ्चाशोऽनुवाकः ।
मृत्यवे स्वाहा मृत्यवे स्वाहा ॥ १॥
एकोनषष्टितमोऽनुवाकः ।
देवकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
मनुष्यकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
पितृकृतस्यैसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
आत्मकृतस्यैनसो।वयाजनमसि स्वाहा ।
अन्यकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
अस्मत्कृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
यद्दिवा च नक्तं चैनश्चकृम तस्यावयजनमसि स्वाहा ।
यत्स्वपन्तश्च जाग्रतश्चैनश्चकृम तस्यावयजनमसि स्वाहा ।
यत्सुषुप्तश्च जाग्रतश्चैनश्चकृम तस्यावयजनमसि स्वाहा ।
यद्विद्वाꣳसश्चाविद्वाꣳसश्चैनश्चकृम
तस्यावयजनमसि स्वाहा ।
एनस एनसोऽवयजनमसि स्वाहा ॥ १॥
षष्टितमोऽनुवाकः ।
यद्वो देवाश्चकृम जिह्वयां गुरु मनसो वा प्रयुती देवहेडनम् ।
अरावा यो नो अभि दुच्छुनायते तस्मिन् तदेनो वसवो निधेतन स्वाहा ॥ १॥
एकषष्टितमोऽनुवाकः ।
कामोऽकार्षीन्नमो नमः । कामोऽकार्शीत्कामः करोति नाहं करोमि कामः कर्ता
नाहं कर्ता कामः कारयिता नाहं कारयिता एष ते काम कामाय स्वाहा ॥ १॥
द्विषष्टितमोऽनुवाकः ।
मन्युरकार्षीन्नमो नमः । मन्युरकार्षीन्मन्युः करोति नाहं
करोमि मन्युः कर्ता नाहं कर्ता
मन्युः कारयिता नाहं कारयिता एष ते मन्यो मन्यवे स्वाहा ॥ १॥
त्रिषष्टितमोऽनुवाकः ।
तिलाञ्जुहोमि सरसान् सपिष्टान् गन्धार मम चित्ते रमन्तु स्वाहा ॥ १॥
गावो हिरण्यं धनमन्नपानꣳ सर्वेषाꣳ श्रियै स्वाहा ॥ २॥
श्रियं च लक्ष्मीं च पुष्टिं च कीर्तिं चानृण्यताम् ।
ब्राह्मण्यं बहुपुत्रताम् । श्रद्धामेधे प्रजाः संददातु स्वाहा ॥ ३॥
चतुःषष्टितमोऽनुवाकः ।
तिलाः कृष्णास्तिलाः श्वेतास्तिलाः सौम्या वशानुगाः ।
तिलाः पुनन्तु मे पापं यत्किञ्चिद् दुरितं मयि स्वाहा ॥ १॥
चोरस्यान्नं नवश्राद्धं ब्रह्महा गुरुतल्पगः ।
गोस्तेयꣳ सुरापानं भ्रूणहत्या तिला शान्तिꣳ शमयन्तु स्वाहा ॥ २॥
श्रीश्च लक्ष्मीश्च पुष्टीश्च कीर्तिं चानृण्यताम् ।
ब्रह्मण्यं बहुपुत्रताम् । श्रद्धामेधे प्रज्ञा तु जातवेदः
संददातु स्वाहा ॥ ३॥
पञ्चषष्टितमोऽनुवाकः ।
प्राणापानव्यानोदानसमाना मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ १॥
वाङ्मनश्चक्षुःश्रोत्रजिह्वाघ्राणरेतोबुद्ध्याकूतिःसङ्कल्पा
मे शुध्यन्तां ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ २॥
त्वक्चर्ममांसरुधिरमेदोमज्जास्नायवोऽस्थीनि मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भुयासꣳ स्वाहा ॥ ३॥
शिरःपाणिपादपार्श्वपृष्ठोरूधरजङ्घाशिश्नोपस्थपायव्
ओ मे शुध्यन्तां ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ ४॥
उत्तिष्ठ पुरुष हरित पिङ्गल लोहिताक्षि देहि देहि
ददापयिता मे शुध्यन्तां ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ ५॥
षट्षष्टितमोऽनुवाकः ।
पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशा मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ १॥
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ २॥
मनोवाक्कायकर्माणि मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ ३॥
अव्यक्तभावैरहङ्कारैर्-
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ ४॥
आत्मा मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भुयासꣳ स्वाहा ॥ ५॥
अन्तरात्मा मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ ६॥
परमात्मा मे शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ ७॥
क्षुधे स्वाहा । क्षुत्पिपासाय स्वाहा । विविट्यै स्वाहा ।
ऋग्विधानाय स्वाहा । कषोत्काय स्वाहा । ॐ स्वाहा ॥ ८॥
क्षुत्पिपासामलं ज्येष्ठामललक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वान्निर्णुद मे पाप्मानꣳ स्वाहा ॥ ९॥
अन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयमानन्दमयमात्मा मे
शुध्यन्तां
ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासꣳ स्वाहा ॥ १०॥
सप्तषष्टितमोऽनुवाकः ।
अग्नये स्वाहा । विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा । ध्रुवाय भूमाय
स्वाहा । ध्रुवक्षितये स्वाहा ।
अच्युतक्षितये स्वाहा । अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा ॥
धर्माय स्वाहा । अधर्माय स्वाहा । अद्भ्यः स्वाहा ।
ओषधिवनस्पतिभ्यः स्वाहा । रक्षोदेवजनेभ्यः स्वाहा ।
गृह्याभ्यः स्वाहा । अवसानेभ्यः स्वाहा । अवसानपतिभ्यः
स्वाहा । सर्वभूतेभ्यः स्वाहा । कामाय स्वाहा । अन्तरिक्षाय
स्वाहा । यदेजति जगति यच्च चेष्टति नाम्नो भागोऽयं
नाम्ने स्वाहा । पृथिव्यै स्वाहा । अन्तरिक्षाय स्वाहा । दिवे
स्वाहा । सूर्याय स्वाहा । चन्द्रमसे स्वाहा । नक्षत्रेभ्यः
स्वाहा । इन्द्राय स्वाहा । बृहस्पतये स्वाहा । प्रजापतये
स्वाहा । ब्रह्मणे स्वाहा । स्वधा पितृभ्यः स्वाहा । नमो
रुद्राय पशुपतये स्वाहा । देवेभ्यः स्वाहा । पितृभ्यः
स्वधास्तु । भूतेभ्यो नमः । मनुष्येभ्यो हन्ता । प्रजापतये
स्वाहा । परमेष्ठिने स्वाहा ॥ १॥
यथा कूपः शतधारः सहस्रधारो अक्षितः ।
एवा मे अस्तु धान्यꣳ सहस्रधारमक्षितम् ॥ धनधान्यै स्वाहा ॥ २॥
ये भूताः प्रचरन्ति दिवानक्तं बलिमिच्छन्तो वितुदस्य
प्रेष्याः ।
तेभ्यो बलिं पुष्टिकामो हरामि मयि पुष्टिं पुष्टिपतिर्दधातु स्वाहा ॥ ३॥
अष्टषष्टितमोऽनुवाकः ।
ॐ तद्ब्रह्म । ॐ तद्वायुअः । ॐ तदात्मा । ॐ तत्सत्यम् ।
ॐ तत्सर्वम् । ॐ तत्पुरोर्नमः ॥ १॥
ॐ अन्तश्वरति भूतेषु गुहायां विश्वमूर्तिषु । त्वं
यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमिन्द्रस्त्वꣳ रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं
ब्रह्म त्वं प्रजापतिः । त्वं तदाप आपो ज्योती रसोऽमृतं
ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम् ॥ २॥
एकोनसप्ततितमोऽनुवाकः ।
श्रद्धायां प्राणे निविष्टोऽमृतं जुहोमि ।
श्रद्धायामपाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि ।
श्रद्धायां व्याने निविष्टोऽमृतं जुहोमि ।
श्रद्धायामुदाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि ।
श्रद्धायाꣳ समाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि ।
ब्रह्मणि म आत्मामृतत्वाय ॥ १॥
अमृतोपस्तरणमसि ॥ २॥
श्रद्धायां प्राणे निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिवो मा
विशाप्रदाहाय । प्राणाय स्वाहा ॥
श्रद्धायामपाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिवो मा
विशाप्रदाहाय । अपानाय स्वाहा ॥
श्रद्धायां व्याने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिवो मा
विशाप्रदाहाय । व्यानाय स्वाहा ॥
श्रद्धायामुदाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिवो मा
विशाप्रदाहाय । उदानाय स्वाहा ॥
श्रद्धायाꣳ समाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिवो मा
विशाप्रदाहाय । समानाय स्वाहा ॥
ब्रह्मणि म आत्मामृतत्वाय ॥ ३॥
अमृतापिधानमसि ॥ ४॥
एकसप्ततितमोऽनुवाकः ।
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽङ्गुष्ठं च समाश्रितः ।
ईशः सर्वस्य जगतः प्रभुः प्रीणातु विश्वभुक् ॥ १॥
द्विसप्ततितमोऽनुवाकः ।
वाङ् म आसन् । नसोः प्राणः । अक्ष्योश्चक्षुः । कर्णयोः
श्रोत्रम् । बाहुवोर्बलम् । उरुवोरोजः । अरिष्टा
विश्वान्यङ्गानि तनूः । तनुवा मे सह नमस्ते अस्तु मा मा हिꣳसीः ॥ १॥
त्रिसप्ततितमोऽनुवाकः ।
वयः सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः ।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्यस्मान्निधयेव बद्धान् ॥ १॥
चतुःसप्ततितमोऽनुवाकः ।
प्राणानां ग्रन्थिरसि रुद्रो मा विशान्तकः ।
तेनान्नेनाप्यायस्व ॥ १॥
पञ्चसप्ततितमोऽनुवाकः ।
नमो रुद्राय विष्णवे मृत्युर्मे पाहि ॥ १॥
षट्सप्ततितमोऽनुवाकः ।
त्वमग्ने द्युभिस्त्वमाशुशुक्षणिस्त्वमद्भ्यस्त्वमश्मनस्परि ।
त्वं वनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वं नृणां नृपते जायसे शुचिः ॥ १॥
सप्तसप्ततितमोऽनुवाकः ।
शिवेन मे संतिष्ठस्व स्योनेन मे संतिष्ठस्व ब्रह्मवर्चसेन मे
संतिष्ठस्व यज्ञस्यर्द्धिमनुसंतिष्ठस्वोप ते यज्ञ नम
उप ते नम उप ते नमः ॥ १॥
अष्टसप्ततितमोऽनुवाकः ।
सत्यं परं परꣳ सत्यꣳ सत्येन न
सुवर्गाल्लोकाच्च्यवन्ते कदाचन
सताꣳ हि सत्यं तस्मात्सत्ये रमन्ते ॥ १॥
तप इति तपो नानशनात्परं यद्धि परं तपस्तद्
दुर्धर्षं तद् दुराधष तस्मात्तपसि रमन्ते ॥ २॥
दम इति नियतं ब्रह्मचारिणस्तस्माद्दमे रमन्ते ॥ ३॥
शम इत्यरण्ये मुनस्तमाच्छमे रमन्ते ॥ ४॥
दानमिति सर्वाणि भूतानि प्रशꣳसन्ति दानान्नातिदुष्करं
तस्माद्दाने रमन्ते ॥ ५॥
धर्म इति धर्मेण सर्वमिदं परिगृहीतं
धर्मान्नातिदुश्चरं तस्माद्धर्मे रमन्ते ॥ ६॥
प्रजन इति भूयाꣳसस्तस्मात् भूयिष्ठाः प्रजायन्ते तस्मात्
भूयिष्ठाः प्रजनने रमन्ते ॥ ७॥
अग्नय इत्याह तस्मादग्नय आधातव्याः ॥ ८॥
अग्निहोत्रमित्याह तस्मादग्निहोत्रे रमन्ते ॥ ९॥
यज्ञ इति यज्ञेन हि देवा दिवं गतास्तस्माद्यज्ञे रमन्ते ॥ १०॥
मानसमिति विद्वाꣳसस्तस्माद्विद्वाꣳस एव मानसे रमन्ते ॥ ११॥
न्यास इति ब्रह्मा ब्रह्मा हि परः परो हि ब्रह्मा तानि वा
एतान्यवराणि तपाꣳसि न्यास एवात्यरेचयत् य एवं वेदेत्युपनिषत् ॥ १२॥
एकोनाशीतितमोऽनुवाकः ।
प्राजापत्यो हारुणिः सुपर्णेयः प्रजापतिं पितरमुपससार किं
भगवन्तः परमं वदन्तीति तस्मै प्रोवाच ॥ १॥
सत्येन वायुरावाति सत्येनादित्यो रोचते दिवि सत्यं वाचः
प्रतिष्ठा सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितं तस्मात्सत्यं परमं वदन्ति ॥ २॥
तपसा देवा देवतामग्र आयन् तपसार्षयः सुवरन्वविन्दन्
तपसा सपत्नान्प्रणुदामारातीस्तपसि सर्वं प्रतिष्ठितं
तस्मात्तपः परमं वदन्ति ॥ ३॥
दमेन दान्ताः किल्बिषमवधून्वन्ति दमेन ब्रह्मचारिणः
सुवरगच्छन् दमो भूतानां दुराधर्षं दमे सर्वं
प्रतिष्ठितं तस्माद्दमः परमं वदन्ति ॥ ४॥
शमेन शान्ताः शिवमाचरन्ति शमेन नाकं मुनयोऽन्वविन्दन्
शमो भूतानां दुराधर्षं शमे सर्वं प्रतिष्ठितं
तस्माच्छमः परमं वदन्ति ॥ ५॥
दानं यज्ञानां वरूथं दक्षिणा लोके दातारꣳ
सर्वभूतान्युपजीवन्ति दानेनारातीरपानुदन्त दानेन
द्विषन्तो मित्रा भवन्ति दाने सर्वं प्रतिष्ठितं तस्माद्दानं
परमं वदन्ति ॥ ६॥
धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठ प्रजा
उपसर्पन्ति धर्मेण पापमपनुदति धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं
तस्माद्धर्मं परमं वदन्ति ॥ ७॥
प्रजननं वै प्रतिष्ठा लोके साधु प्रजायास्तन्तुं तन्वानः
पितृणामनुणो भवति तदेव तस्यानृणं तस्मात् प्रजननं
परमं वदन्ति ॥ ८॥
अग्नयो वै त्रयी विद्या देवयानः पन्था गार्हपत्य ऋक्
पृथिवी रथन्तरमन्वाहार्यपचनः यजुरन्तरिक्षं
वामदेव्यमाहवनीयः साम सुवर्गो लोको बृहत्तस्मादग्नीन्
परमं वदन्ति ॥ ९॥
अग्निहोत्रꣳ सायं प्रातर्गृहाणां निष्कृतिः स्विष्टꣳ
सुहुतं यज्ञक्रतूनां प्रायणꣳ सुवर्गस्य लोकस्य
ज्योतिस्तस्मादग्निहोत्रं परमं वदन्ति ॥ १०॥
यज्ञ इति यज्ञो हि देवानां यज्ञेन हि देवा दिवं गता
यज्ञेनासुरानपानुदन्त यज्ञेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति यज्ञे
सर्वं प्रतिष्ठितं तस्माद्यज्ञं परमं वदन्ति ॥ ११॥
मानसं वै प्राजापत्यं पवित्रं मानसेन मनसा साधु
पश्यति ऋषयः प्रजा असृजन्त मानसे सर्वं प्रतिष्ठितं
तस्मान्मानसं परमं वदन्ति ॥ १२॥
न्यास इत्याहुर्मनीषिणो ब्रह्माणं ब्रह्मा विश्वः कतमः
स्वयम्भूः प्रजापतिः संवत्सर इति ॥ १३॥
संवत्सरोऽसावादित्यो य एष आदित्ये पुरुषः स परमेष्ठी ब्रह्मात्मा ॥ १४॥
याभिरादित्यस्तपति रश्मिभिस्ताभिः पर्जन्यो वर्षति
पर्जन्येनौषधिवनस्पतयः प्रजायन्त ओषधिवनस्पतिभिरन्नं
भवत्यन्नेन प्राणाः प्राणैर्बलं बलेन तपस्तपसा श्रद्धा
श्रद्धया मेधा मेधया मनीषा मनीषया मनो मनसा
शान्तिः शान्त्या चित्तं चित्तेन स्मृतिः स्मृत्या स्मारꣳ
स्मारेण विज्ञानं विज्ञानेनात्मानं वेदयति तस्मादन्नं
ददन्सर्वाण्येतानि ददात्यन्नात्प्राणा भवन्ति भूतानां
प्राणैर्मनो मनसश्च विज्ञानं विज्ञानादानन्दो ब्रह्म योनिः ॥ १५॥
स वा एष पुरुषः पञ्चधा पञ्चात्मा येन सर्वमिदं
प्रोतं पृथिवी चान्तरिक्षं च द्यौश्च
दिशश्चावान्तरदिशाश्च स वै सर्वमिदं जगत्स
सभूतꣳ स भव्यं जिज्ञासक्लृप्त ऋतजा रयिष्ठाः
श्रद्धा सत्यो पहस्वान्तमसोपरिष्टात् । ज्ञात्वा तमेवं
मनसा हृदा च भूयो न मृत्युमुपयाहि
विद्वान् । तस्मान्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः ॥ १६॥
वसुरण्वो विभूरसि प्राणे त्वमसि सन्धाता ब्रह्मन् त्वमसि
विश्वसृत्तेजोदास्त्वमस्यग्नेरसि वर्चोदास्त्वमसि सूर्यस्य
द्युम्नोदास्त्वमसि चन्द्रमस उपयामगृहीतोऽसि ब्रह्मणे त्वा महसे ॥ १७॥
ओमित्यात्मानं युञ्जीत । एतद्वै महोपनिषदं देवानां
गुह्यम् । य एवं वेद ब्रह्मणो महिमानमाप्नोति तस्माद्ब्रह्मणो
महिमानमित्युपनिषत् ॥ १८॥
अशीतितमोऽनुवाकः ।
तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी
शरीरमिध्ममुरो वेदिर्लोमानि बर्हिर्वेदः शिखा हृदयं यूपः
काम आज्यं मन्युः पशुस्तपो।आग्निर्दमः शमयिता दानं
दक्षिणा वाग्घोता प्राण उद्गाता चक्षुरध्वर्युर्मनो ब्रह्मा
श्रोत्रमग्नीत् यावद्ध्रियते सा दीक्षा यदश्नाति
तद्धविर्यत्पिबति तदस्य सोमपानं यद्रमते तदुपसदो
यत्सञ्चरत्युपविशत्युत्तिष्ठते च स प्रवर्ग्यो यन्मुखं
तदाहवनीयो या व्याहृतिरहुतिर्यदस्य विज्ञान तज्जुहोति
यत्सायं प्रातरत्ति तत्समिधं यत्प्रातर्मध्यन्दिनꣳ सायं
च तानि सवनानि ये अहोरात्रे ते दर्शपूर्णमासौ
येऽर्धमासाश्च मासाश्च ते चातुर्मास्यानि य ऋतवस्ते
पशुबन्धा ये संवत्सराश्च परिवत्सराश्च तेऽहर्गणाः
सर्ववेदसं वा एतत्सत्रं यन्मरणं तदवभृथ एतद्वै
जरामर्यमग्निहोत्रꣳसत्रं य एवं विद्वानुदगयने प्रमीयते
देवानामेव महिमानं गत्वादित्यस्य सायुज्यं गच्छत्यथ यो
दक्षिणे प्रमीयते पितृणामेव महिमानं गत्वा चन्द्रमसः
सायुज्यं गच्छत्येतौ वै सूर्याचन्द्रमसोर्महिमानौ ब्राह्मणो
विद्वानभिजयति तस्माद् ब्रह्मणो महिमानमित्युपनिषत् ॥ १॥
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्यर्यमा । शं
न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः ।
नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम् । ऋतमवादिषम् ।
सत्यमवादिषम् । तन्मामावीत् । तद्वक्तारमावीत् । आवीन्माम् । आविद्वक्तारम् ॥
ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति महानारायणोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ महानारायण उपनिषत् ॥
महावाक्योपनिषत्
यन्महावाक्यसिद्धान्तमहाविद्याकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
अथ होवाच भगवान्ब्रह्मापरोक्षानुभवपरोपनिषदं
व्याख्यास्यामः । गुह्याद्गुह्यपरमेषा न प्राकृतायोपदेष्टव्या ।
सात्विकायान्तर्मुखाय परिशुश्रूषवे । अथ
संसृतिबन्धमोक्षयोर्विद्याविद्ये चक्षुषी उपसंहृत्य
विज्ञायाविद्यालोकाण्डस्तमोदृक् । तमो हि
शारीरप्रपञ्चमाब्रह्मस्थावरान्तमनन्ताखिलाजाण्डभूतम् ।
निखिलनिगमोदितसकामकर्मव्यवहारो लोकः ।
नैषोऽन्धकारोऽयमात्मा ।विद्या हि काण्डान्तरादित्यो
ज्योतिर्मण्डलं ग्राह्यं नापरम् । असावादित्यो ब्रह्मेत्यजपयोपहितं
हंसः सोऽहम् । प्राणापानाभ्यां प्रतिलोमानुलोमाभ्यां
समुपलभ्यैवं सा चिरं लब्ध्वा त्रिवृदात्मनि
ब्रह्मण्यभिध्यायमाने सच्चिदानन्दः परमात्माविर्भवति ।
सहस्रभानुमच्छुरितापूरितत्वादलिप्या पारावारपूर इव ।
नैषा समाधिः । नैषा योगसिद्धिः । नैषा मनोलयः ।
ब्रह्मैक्यं तत् । आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे ।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरः । नामानि कृत्वाऽभिवदन्यदास्ते ।
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार । शक्रः प्रविद्वान्प्रदिशश्चतस्रः ।
तमेव विद्वानमृत इह भवति । नान्यः पन्था अयनाय विद्यते ।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः । तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्ते । यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।
सोऽहमर्कः परं ज्योतिरर्कज्योतिरहं शिवः ।
आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतिरसावदोम् ।
य एतदथर्वशिरोऽधीते । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं
पापं नाशयति । सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
तत्सायं प्रातः प्रयुञ्जानः पापोऽपापो भवति ।
मध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः
पञ्चमहापातकोपपातकात्प्रमुच्यते ।
सर्ववेदपारायणपुण्यं लभते ।
श्रीमहाविष्णुसायुज्यमवाप्नोतीत्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः । हरिः ॐ तत्सत्
इति महावाक्योपनिषत्समाप्ता ॥
॥ महोपनिषत् ॥
यन्महोपनिषद्वेद्यं चिदाकाशतया स्थितम् ।
परमाद्वैतसाम्राज्यं तद्रामब्रह्म मे गतिः ॥
ॐ आप्यायन्तु मामाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिरकरणम-
स्त्वनिराकारणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथातो महोपनिषदं व्याख्यास्यमस्तदाहुरेको ह वै नारायण
आसीन्न ब्रह्मा नेशानो नापो नाग्नीषोमौ नेमे द्यावापृथिवी न
नक्षत्राणि न सूर्यो न चन्द्रमाः । स एकाकी न रमते । तस्य
ध्यानान्तःस्थस्य यज्ञस्तोममुच्यते । तस्मिन्पुरुषाश्चतुर्दश
जायन्ते । एका कन्या । दशेन्द्रियाणि मन एकादशं तेजः ।
द्वादशोऽहङ्कारः । त्रयोदशकः प्राणः । चतुर्दश आत्मा ।
पञ्चदशी बुद्धिः । भूतानि पञ्च तन्मात्राणि । पञ्च महाभूतानि ।
स एकः पञ्चविंशतिः पुरुषः । तत्पुरुषं पुरुषो निवेश्य नास्य
प्रधानसंवत्सरा जायन्ते । संवत्सरादधिजायन्ते । अथ पुनरेव
नारायणः सोऽन्यत्कामो मनसाध्यायत । तस्य ध्यानान्तःस्थस्य
ललाटात्त्र्यक्षः शूलपाणिः पुरुषो जायते । बिभ्रच्छ्रियं यशः
सत्यं ब्रह्मचर्यं तपो वैराग्यं मन ऐश्वर्यं सप्रणवा व्याहृतय
ऋग्यजुःसामाथर्वाङ्गिरसः सर्वाणि छन्दांसि तान्यङ्गे
समाश्रितानि । तस्मादीशानो महादेवो महादेवः । अथ पुनरेव
नारायणः सोऽन्यत्कामो मनसाध्यायत । तस्य ध्यानान्तःस्थस्य
ललाटात्स्वेदोऽपपत् । ता इमाः प्रतता आपः । ततस्तेजो हिरण्मयमण्डलम् ।
तत्र ब्रह्मा चतुर्मुखोऽजायत । सोऽध्याय्त् । पूर्वाभिमुखो भूत्वा
भूरिति व्याहृतिर्गायत्रं छन्द ऋग्वेदोऽग्निर्देवता । पश्चिमाभिमुखो
भूत्वा भुवरिति व्याहृतिस्त्रैष्टुभं छन्दो यजुर्वेदो वायुर्देवता ।
उत्तराभिमुखो भूत्वा स्वरिति व्याहृतिर्जाग्रतं छन्दः सामवेदः सूर्यो
देवता । दक्षिणाभिमुखो भूत्वा महरितिव्याहृतिरानुष्टभ
छन्दोऽथर्ववेदाः सोमो देवता ।
सहस्रशीर्षं देवं सहस्राक्षं विश्वसम्भुवम् ।
विश्वतः परमं नित्यं विश्वं नारायणं हरिम् ।
विश्वमेवेदं पुरुषस्तद्विश्वमुपजीवति ।
पतिं विश्वेश्वरं देवं समुद्रे विश्वरूपिणम् ।
पद्मकोशप्रतीकाशं लम्बत्याकोशसंनिभम् ।
हृदयं चाप्यधोमुखं सन्तत्यै सीत्कराभीश्च ।
तस्य मध्ये महानर्चिर्विश्वर्चिर्विश्वतोमुखम् ।
तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता ।
तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थिता ।
स ब्रह्मा स ईशानः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराडिति महोपनिषत् ॥
इति प्रथमोध्यायः ॥ १॥
शुको नाम महातेजाः स्वरूपानन्दतत्परः ।
जातमात्रेण मुनिराड् यत्सत्यं तदवाप्तवान् ॥ १॥
तेनासौ स्वविवेकेन स्वयमेव महामनाः ।
प्रविचार्य चिरं साधु स्वात्मनिश्चयमाप्तवान् ॥ २॥
अनाख्यत्वादगम्यत्वान्मनःषष्ठेन्द्रियस्थितेः ।
चिन्मात्रमेवमात्माणुराकाशादपि सूक्ष्मकः ॥ ३॥
चिदणोः परमस्यान्तः कोटिब्रह्माण्डरेणवः ।
उत्पत्तिस्थितिमभ्येत्य लीयन्ते शक्तिपर्ययात् ॥ ४॥
आकाशं बाह्यशून्यत्वादनाकाशं तु चित्त्वतः ।
न किंचिद्यदनिर्देश्यं वस्तु सत्तेति किंचन ॥ ५॥
चेतनोऽसौ प्रकाशत्वाद्वेद्याभावाच्छिलोपमः ।
स्वात्मनि व्योमनि स्वस्थे जगदुन्मेषचित्रकृत् ॥ ६॥
तद्भामात्रमिदं विश्वमिति न स्यात्ततः पृथक् ।
जगद्भेदोऽपि तद्भानमिति भेदोऽपि तन्मयः ॥ ७॥
सर्वगः सर्वसम्बन्धो गत्यभावान्न गच्छति ।
नास्त्यसावश्रयाभावात्सद्रूपत्वादथास्ति च ॥ ८॥
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म रातेर्दातुः परायणम् ।
सर्वसंकल्पसंन्यासश्चेतसा यत्परिग्रहः ॥ ९॥
जाग्रतः प्रत्ययाभावं यस्याहुः प्रत्ययं बुधाः ।
यत्संकोचविकासाभ्यां जगत्प्रलयसृष्टयः ॥ १०॥
निष्ठा वेदान्तवाक्यानामथ वाचामगोचरः ।
अहं सच्चित्परानन्दब्रह्मैवास्मि न चेतरः ॥ ११॥
स्वयैव सूक्ष्मया बुद्ध्या सर्वं विज्ञातवाञ्छुकः ।
स्वयं प्राप्ते परे वस्तुन्यविश्रान्तमनाः स्थितः ॥ १२॥
इदं वस्त्विति विश्वासं नासावात्मन्युपाययौ ।
केवलं विररामास्य चेतो विषयचापलम् ।
भोगेभ्यो भूरिभङ्गेभ्यो धाराभ्य इव चातकः ॥ १३॥
एकदा सोऽमलप्रज्ञो मेरावेकान्तसंस्थितः ।
पप्रच्छ पितरं भक्त्या कृष्णद्वैपायनं मुनिम् ॥ १४॥
संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं मुने ।
कथं च प्रशमं याति किं यत्कस्य कदा वद ॥ १५॥
एवं पृष्टेन मुनिना व्यासेनाखिलमात्मजे ।
यथावदखिलं प्रोक्तं वक्तव्यं विदितात्मना ॥ १६॥
अज्ञासिषं पूर्वमेवमहमित्यथ तत्पितुः ।
स शुकः स्वकया बुद्ध्या न वाक्यं बहु मन्यते ॥ १७॥
व्यासोऽपि भगवान्बुद्ध्वा पुत्राभिप्रायमीदृशम् ।
प्रत्युवाच पुनः पुत्रं नाहं जानामि तत्त्वतः ॥ १८॥
जनको नाम भूपालो विद्यते मिथिलापुरे ।
यथावद्वेत्त्यसौ वेद्यं तस्मात्सर्वमवाप्स्यसि ॥ १९॥
पित्रेत्युक्तः शुकः प्रायात्सुमेरोर्वसुधातलम् ।
विदेहनगरीं प्राप जनकेनाभिपालिताम् ॥ २०॥
आवेदितोऽसौ याष्टीकैर्जनकाय महात्मने ।
द्वारि व्याससुतो राजञ्छुकोऽत्र स्थितवानिति ॥ २१॥
जिज्ञासार्थं शुकस्यासावास्तामेवेत्यवज्ञया ।
उक्त्वा बभूव जनकस्तूष्णीं सप्त दिनान्यथ ॥ २२॥
ततः प्रवेशयामास जनकः शुकमङ्गणे ।
तत्राहानि स सप्तैव तथैवावसदुन्मनाः ॥ २३॥
ततः प्रवेशयामास जनकोऽन्तःपुराजिरे ।
राजा न दृश्यते तावदिति सप्तदिनानि तम् ॥ २४॥
तत्रोन्मदाभिः कान्ताभिर्भोजनैर्भोगसंचयैः ।
जनको लालयामास शुकं शशिनिभाननम् ॥ २५॥
ते भोगास्तानि भोज्यानि व्यासपुत्रस्य तन्मनः ।
नाजह्वुर्मन्दपवनो बद्धपीठमिवाचलम् ॥ २६॥
केवलं सुसमः स्वच्छो मौनी मुदितमानसः ।
सम्पूर्ण इव शीतांशुरतिष्ठदमलः शुकः ॥ २७॥
परिज्ञातस्वभावं तं शुकं स जनको नृपः ।
आनीय मुदितात्मानमवलोक्य ननाम ह ॥ २८॥
निःशेषितजगत्कार्यः प्राप्ताखिलमनोरथः ।
किमीप्सितं तवेत्याह कृतस्वागत आह तम् ॥ २९॥
संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं गुरो ।
कथं प्रशममायाति यथावत्कथयाशु मे ॥३०॥
यथावदखिलं प्रोक्तं जनकेन महात्मना ।
तदेव तत्पुरा प्रोक्तं तस्य पित्रा महाधिया ॥ ३१॥
स्वयमेव मया पूर्वमभिज्ञातं विशेषतः ।
एतदेव हि पृष्टेन पित्रा मे समुदाहृतम् ॥ ३२॥
भवताप्येष एवार्थः कथितो वाग्विदां वर ।
एष एव हि वाक्यार्थः शास्त्रेषु परिदृश्यते ॥ ३३॥
मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् ।
क्षीयते दग्धसंसारो निःसार इति निश्चितः ॥ ३४॥
तत्किमेतन्महाभाग सत्यं ब्रूहि ममाचलम् ।
त्वत्तो विश्रममाप्नोमि चेतसा भ्रमता जगत् ॥ ३५॥
श्रुणु तावदिदानीं त्वं कथ्यमानमिदं मया ।
श्रीशुकं ज्ञानविस्तारं बुद्धिसारान्तरान्तरम् ॥ ३६॥
यद्विज्ञानात्पुमान्सद्यो जीवन्मुक्तत्वमाप्नुयात् ॥ ३७॥
दृश्यं नास्तीति बोधेन मनसो दृश्यमार्जनम् ।
सम्पन्नं चेत्तदुत्पन्ना परा निर्वाणनिर्वृतिः ॥ ३८॥
अशेषेण परित्यागो वासनायां य उत्तमः ।
मोक्ष इत्युच्यते सद्भिः स एव विमलक्रमः ॥ ३९॥
ये शुद्धवासना भूयो न जन्मानर्थभागिनः ।
ज्ञातज्ञेयास्त उच्यन्ते जीवन्मुक्ता महाधियः ॥ ४०॥
पदार्थभावनादार्ढ्यं बन्ध इत्यभिधीयते ।
वासनातानवं ब्रह्मन्मोक्ष इत्यभिधीयते ॥ ४१॥
तपः प्रभृतिना यस्मै हेतुनैव विना पुनः ।
भोगा इह न रोचन्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४२॥
आपतत्सु यथाकालं सुखदुःखेष्वनारतः ।
न हृष्यति ग्लायति यः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४३॥
हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्यदृष्टिभिः ।
न परामृश्यते योऽन्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४४॥
अहंकारमयीं त्यक्त्वा वासनां लीलयैव यः ।
तिष्ठति ध्येयसंत्यागी स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४५॥
ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु ।
सुषुप्तिवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४६॥
अध्यात्मरतिरासीनः पूर्णः पावनमानसः ।
प्राप्तानुत्तमविश्रान्तिर्न किंचिदिह वाञ्छति ।
यो जीवति गतस्नेहः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४७॥
संवेद्येन हृदाकाशे मनागपि न लिप्यते ।
यस्यासावजडा संवित्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४८॥
रागद्वेषौ सुखं दुःखं धर्माधर्मौ फलाफले ।
यः करोत्यनपेक्ष्यैव स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४९॥
मौनवान्निरहंभावो निर्मानो मुक्तमत्सरः ।
यः करोति गतोद्वेगः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५०॥
सर्वत्र विगतस्नेहो यः साक्षिवदवस्थितः ।
निरिच्छो वर्तते कार्ये स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५१॥
येन धर्ममधर्मं च मनोमननमीहितम् ।
सर्वमन्तः परित्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५२॥
यावती दृश्यकलना सकलेयं विलोक्यते ।
सा येन सुष्ठु संत्यक्ता स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५३॥
कट्वम्ललवणं तिक्तममृष्टं मृष्टमेव च ।
सममेव च यो भुङ्क्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५४॥
जरामरणमापच्च राज्यं दारिद्र्यमेव च ।
रम्यमित्येव यो भुङ्क्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५५॥
धर्माधर्मौ सुखं दुःखं तथा मरणजन्मनी ।
धिया येन सुसंत्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५६॥
उद्वेगानन्दरहितः समया स्वच्छया धिया ।
न शोचते न चोदेति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५७॥
सर्वेच्छाः सकलाः शङ्काः सर्वेहाः सर्वनिश्चयाः ।
धिया येन परित्यक्ताः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५८॥
जन्मस्थितिविनाशेषु सोदयास्तमयेषु च ।
सममेव मनो यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५९॥
न किंचन द्वेष्टि तथा न किंचिदपि काङ्क्षति ।
भुङ्क्ते यः प्रकृतान्भोगान्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६०॥
शान्तसंसारकलनः कलावानपि निष्कलः ।
यः सचित्तोऽपि निश्चित्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६१॥
यः समस्तार्थजालेषु व्यवहार्यपि निःस्पृहः ।
परार्थेष्विव पूर्णात्मा स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६२॥
जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते ।
विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ६३॥
विदेहमुक्तो नोदेति नास्तमेति न शाम्यति ।
न सन्नासन्न दूरस्थो न चाहं न च नेतरः ॥ ६४॥
ततः स्तिमितगंभीरं न तेजो न तमस्ततम् ।
अनाख्यमनभिव्यक्तं सत्किंचिदवशिष्यते ॥ ६५॥
न शून्यं नापि चाकारो न दृश्यं नापि दर्शनम् ।
न च भूतपदार्थौघसदनन्ततया स्थितम् ॥ ६६॥
किमप्यव्यपदेशात्मा पूर्णात्पूर्णतराकृतिः ।
न सन्नासन्न सदसन्न भावो भावनं न च ॥ ६७॥
चिन्मात्रं चैत्यरहितमनन्तमजरं शिवम् ।
अनादिमध्यपर्यन्तं यदनादि निरामयम् ॥ ६८॥
द्रष्टृदर्शनदृश्यानां मध्ये यद्दर्शनं स्मृतम् ।
नातः परतरं किंचिन्निश्चयोऽस्त्यपरो मुने ॥ ६९॥
स्वयमेव त्वया ज्ञातं गुरुतश्च पुनः श्रुतम् ।
स्वसंकल्पवशाद्बद्धो निःसंकल्पाद्विमुच्यते ॥ ७०॥
तेन स्वयं त्वया ज्ञातं ज्ञेयं यस्य महात्मनः ।
भोगेभ्यो ह्यरतिर्जाता दृश्याद्वा सकलादिह ॥ ७१॥
प्राप्तं प्राप्तव्यमखिलं भवता पूर्णचेतसा ।
स्वरूपे तपसि ब्रह्मन्मुक्तस्त्वं भ्रान्तिमुत्सृज ॥ ७२॥
अतिबाह्यं तथा बाह्यमन्तराभ्यन्तरं धियः ।
शुक पश्यन्न पश्येस्त्वं साक्षी सम्पूर्णकेवलः ॥ ७३॥
विशश्राम शुकस्तूष्णीं स्वस्थे परमवस्तुनि ।
वीतशोकभयायासो निरीहश्छिन्नसंशयः ॥ ७४॥
जगाम शिखरं मेरोः समाध्यर्थमखण्डितम् ॥ ७५॥
तत्र वर्षसहस्राणि निर्विकल्पसमाधिना ।
देशे स्थित्वा शशामासावात्मन्यस्नेहदीपवत् ॥ ७६॥
व्यपगतकलनाकलङ्कशुद्धः
स्वयममलात्मनि पावने पदेऽसौ ।
सलिलकण इवांबुधौ महात्मा
विगलितवासनमेकतां जगाम ॥ ७७॥
इति महोपनिषत् । इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
निदाघो नाम मुनिराट् प्राप्तविद्यश्च बालकः ।
विहृतस्तीर्थयात्रार्थं पित्रानुज्ञातवान्स्वयम् ॥ १॥
सार्धत्रिकोटितीर्थेषु स्नात्वा गृहमुपागतः ।
स्वोदन्तं कथयामास ऋभुं नत्वा महायशाः ॥ २॥
सार्धत्रिकोटितीर्थेषु स्नानपुण्यप्रभावतः ।
प्रादुर्भूतोमनसि मे विचारः सोऽयमीदृशः ॥ ३॥
जायते म्रियते लोको म्रियते जननाय च ।
अस्थिरः सर्व एवेमे सचराचरचेष्टिताः ।
सर्वापदां पदं पापा भावा विभवभूमयः ॥ ४॥
अयःशलाकासदृशाः परस्परमसङ्गिनः ।
शुष्यन्ते केवला भावा मनःकल्पनयानया ॥ ५॥
भावेष्वरतिरायाता पथिकस्य मरुष्विव ।
शाम्यतीदं कथं दुःखमिति तप्तोऽस्मि चेतसा ॥ ६॥
चिन्तानिचयचक्राणि नानन्दाय धनानि मे ।
सम्प्रसूतकलत्राणि गृहाण्युग्रापदामिव ॥ ७॥
इयमस्मि स्थितोदारा संसारे परिपेलवा ।
श्रीर्मुने परिमोहाय सापि नूनं न शर्मदा ॥ ८॥
आयुः पल्लवकोणाग्रलम्बाम्बुकणभङ्गुरम् ।
उन्मत्त इव संत्यज्य याम्यकाण्डे शरीरकम् ॥ ९॥
विषयाशी विषासङ्गपरिजर्जरचेतसाम् ।
अप्रौढात्मविवेकानामायुरायासकारणम् ॥ १०॥
युज्यते वेष्टनं वायोराकाशस्य च खण्डनम् ।
ग्रन्थनं च तरङ्गाणामास्था नायुषि युज्यते ॥ ११॥
प्राप्यं सम्प्राप्यते येन भूयो येन न शोच्यते ।
पराया निर्वृतेः स्थानं यत्तज्जीवितमुच्यते ॥ १२॥
तरवोऽपि हि जीवन्ति जीवन्ति मृगपक्षिणः ।
स जीवति मनो यस्य मननेनोपजीवति ॥ १३॥
जातास्त एव जगति जन्तवः साधुजीविताः ।
ये पुनर्नेह जायन्ते शेषा जरठगर्दभाः ॥ १४॥
भारो विवेकिनः शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिणः ।
अशान्तस्य मनो भारो भारोऽनात्मविदो वपुः ॥ १५॥
अहंकारवशादापदहंकाराद्दुराधयः ।
अहंकारवशादीहा नाहंकारात्परो रिपुः ॥ १६॥
अहंकारवशाद्यद्यन्मया भुक्तं चराचरम् ।
तत्तत्सर्वमवस्त्वेव वस्त्वहंकाररिक्तता ॥ १७॥
इतश्चेतश्च सुव्यग्रं व्यर्थमेवाभिधावति ।
मनो दूरतरं याति ग्रामे कौलेयको यथा ॥ १८॥
क्रूरेण जडतां याता तृष्णाभार्यानुगामिना ।
वशः कौलेयकेनेव ब्रह्मन्मुक्तोऽस्मि चेतसा ॥ १९॥
अप्यब्धिपानान्महतः सुमेरून्मूलनादपि ।
अपि वह्न्यशनाद्ब्रह्मन्विषमश्चित्तनिग्रहः ॥ २०॥
चित्तं कारणमर्थानां तस्मिन्सति जगत्त्रयम् ।
तस्मिन्क्षीणे जगत्क्षीणं तच्चिकित्स्यं प्रयत्नतः ॥ २१॥
यां यामहं मुनिश्रेष्ठ संश्रयामि गुणश्रियम् ।
तां तां कृन्तति मे तृष्णा तन्त्रीमिव कुमूषिका ॥ २२॥
पदं करोत्यलङ्घ्येऽपि तृप्ता विफलमीहते ।
चिरं तिष्ठति नैकत्र तृष्णा चपलमर्कटी ॥ २३॥
क्षणमायाति पातालं क्षणं याति नभस्थलम् ।
क्षणं भ्रमति दिक्कुञ्जे तृष्णा हृत्पद्मषट्पदी ॥ २४॥
सर्वसंसारदुःखानां तृष्णैका दीर्घदुःखदा ।
अन्तःपुरस्थमपि या योजयत्यतिसंकटे ॥ २५॥
तृष्णाविषूचिकामन्त्रश्चिन्तात्यागो हि स द्विज ।
स्तोकेनानन्दमायाति स्तोकेनायाति खेदताम् ॥ २६॥
नास्ति देहसमः शोच्यो नीचो गुणविवर्जितः ॥ २७॥
कलेवरमहंकारगृहस्थस्य महागृहम् ।
लुठत्वभ्येतु वा स्थैर्यं किमनेन गुरो मम ॥ २८॥
पङ्क्तिबद्धेन्द्रियपशुं वल्गत्तृष्णागृहाङ्गणम् ।
चित्तभृत्यजनाकीर्णं नेष्टं देहगृहं मम ॥ २९॥
जिह्वामर्कटिकाक्रान्तवदनद्वारभीषणम् ।
दृष्टदन्तास्थिशकलं नेष्टं देहगृहं मम ॥ ३०॥
रक्तमांसमयस्यास्य सबाह्याभ्यन्तरे मुने ।
नाशैकधर्मिणो ब्रूहि कैव कायस्य रम्यता ॥ ३१॥
तडित्सु शरदभ्रेषु गन्धर्वनगरेषु च ।
स्थैर्यं येन विनिर्णीतं स विश्वसितु विग्रहे ॥ ३२॥
शैशवे गुरुतो भीतिर्मातृतः पितृतस्तथा ।
जनतो ज्येष्ठबालाच्च शैशवं भयमन्दिरम् ॥ ३३॥
स्वचित्तबिलसंस्थेन नानाविभ्रमकारिणा ।
बलात्कामपिशाचेन विवशः परिभूयते ॥ ३४॥
दासाः पुत्राः स्त्रियश्चैव बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
हसन्त्युन्मत्तकमिव नरं वार्धककम्पितम् ॥ ३५॥
दैन्यदोषमयी दीर्घा वर्धते वार्धके स्पृहा ।
सर्वापदामेकसखी हृदि दाहप्रदायिनी ॥ ३६॥
क्वचिद्वा विद्यते यैषा संसारे सुखभावना ।
आयुः स्तम्बमिवासाद्य कालस्तामपि कृन्तति ॥ ३७॥
तृणं पांसुं महेन्द्रं च सुवर्णं मेरुसर्षपम् ।
आत्मंभरितया सर्वमात्मसात्कर्तुमुद्यतः ।
कालोऽयं सर्वसंहारी तेनाक्रान्तं जगत्त्रयम् ॥ ३८॥
मांसपाञ्चालिकायास्तु यन्त्रलोलेअङ्गपञ्जरे ।
स्नाय्वस्थिग्रन्थिशालिन्याः स्त्रियः किमिव शोभनम् ॥ ३९॥
त्वङ्मांसरक्तबाष्पाम्बु पृथक्कृत्वा विलोचने ।
समालोकय रम्यं चेत्किं मुधा परिमुह्यसि ॥ ४०॥
मेरुशृङ्गतटोल्लासिगङ्गाचलरयोपमा ।
दृष्टा यस्मिन्मुने मुक्ताहारस्योल्लासशालिता ॥ ४१॥
श्मशानेषु दिगन्तेषु स एव ललनास्तनः ।
श्वभिरास्वाद्यते काले लघुपिण्ड इवान्धसः ॥ ४२॥
केशकज्जलधारिण्यो दुःस्पर्शा लोचनप्रियाः ।
दुष्कृताग्निशिखा नार्यो दहन्ति तृणवन्नरम् ॥ ४३॥
ज्वलतामतिदूरेऽपि सरसा अपि नीरसाः ।
स्त्रियो हि नरकाग्नीनामिन्धनं चारु दारुणम् ॥ ४४॥
कामनाम्ना किरातेन विकीर्णा मुग्धचेतसः ।
नार्यो नरविहङ्गानामङ्गबन्धनवागुराः ॥ ४५॥
जन्मपल्वलमत्स्यानां चित्तकर्दमचारिणाम् ।
पुंसां दुर्वासनारज्जुर्नारी बडिशपिण्डिका ॥ ४६॥
सर्वेषां दोषरत्नानां सुसमुद्गिकयानया ।
दुःखशृङ्खलया नित्यमलमस्तु मम स्त्रिया ॥ ४७॥
यस्य स्त्री तस्य भोगेच्छा निःस्त्रीकस्य क्व भोगभूः ।
स्त्रियं त्यक्त्वा जगत्त्यक्तं जगत्त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ ४८॥
दिशोऽपि न हि दृश्यन्ते देशोऽप्यन्योपदेशकृत् ।
शैला अपि विशीर्यन्ते शीर्यन्ते तारका अपि ॥ ४९॥
शुष्यन्त्यपि समुद्राश्च ध्रुवोऽप्यध्रुवजीवनः ।
सिद्धा अपि विनश्यन्ति जीर्यन्ते दानवादयः ॥ ५०॥
परमेष्ठ्यपि निष्ठावान्हीयते हरिरप्यजः ।
भावोऽप्यभावमायाति जीर्यन्ते वै दिगीश्वराः ॥ ५१॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च सर्वा वा भूतजातयः ।
नाशमेवानुधावन्ति सलिलानीव वाडवम् ॥ ५२॥
आपदः क्षणमायान्ति क्षणमायान्ति सम्पदः ।
क्षणं जन्माथ मरणं सर्वं नश्वरमेव तत् ॥ ५३॥
अशूरेण हताः शूरा एकेनापि शतं हतम् ।
विषं विषयवैषम्यं न विषं विषमुच्यते ॥ ५४॥
जन्मान्तरघ्ना विषया एकजन्महरं विषम् ।
इति मे दोषदावाग्निदग्धे सम्प्रति चेतसि ॥ ५५॥
स्फुरन्ति हि न भोगाशा मृगतृष्णासरःस्वपि ।
अतो मां बोधयाशु त्वं तत्त्वज्ञानेन वै गुरो ॥ ५६॥
नो चेन्मौनं समास्थाय निर्मानो गतमत्सरः ।
भावयन्मनसा विष्णुं लिपिकर्मार्पितोपमः ॥ ५७॥
इति महोपनिषत् । इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
निदाघ तव नास्तन्यज्ज्ञेयं ज्ञानवतां वर ।
प्रज्ञया त्वं विजानासि ईश्वरानुगृहीतया ।
चित्तमालिन्यसंजातं मार्जयामि भ्रमं मुने ॥ १॥
मोक्षद्वारे द्वारपालश्चत्वारः परिकीर्तिताः ।
शमो विचारः सन्तोषश्चतुर्थः साधुसङ्गमः ॥ २॥
एकं वा सर्वयत्नेन सर्वमुत्सृज्य संश्रयेत् ।
एकस्मिन्वशगे यान्ति चत्वारोऽपि वशं गताः ॥ ३॥
शास्त्रैः सज्जनसम्पर्कपूर्वकैश्च तपोदमैः ।
आदौ संसारमुक्त्यर्थं प्रज्ञामेवाभिवर्धयेत् ॥ ४॥
स्वानुभूतेश्च शास्त्रस्य गुरोश्चेवैकवाक्यता ।
यस्याभ्यासेन तेनात्म सततं चावलोक्यते ॥ ५॥
संकल्पाशानुसन्धानवर्जनं चेत्प्रतिक्षणम् ।
करोषि तदचित्तत्वं प्राप्त एवासि पावनम् ॥ ६॥
चेतसो यदकर्तृत्वं तत्समाधानमीरितम् ।
तदेव केवलीभावं साशुभा निर्वृतिः परा ॥ ७॥
चेतसा सम्परित्यज्य सर्वभावात्मभावनाम् ।
यथा तिष्ठसि तिष्ठ त्वं मूकान्धबधिरोपमः ॥ ८॥
सर्वं प्रशान्तमजमेकमनादिमध्य-
माभास्वरं स्वदनमात्रमचैत्यचिह्नम् ।
सर्वं प्रशान्तमिति शब्दमयी च दृष्टि-
र्बाधार्थमेव हि मुधैव तदोमितीदम् ॥ १०॥
नित्यप्रबुद्धचित्तस्त्वं कुर्वन्वापि जगत्क्रियाम् ।
आत्मैकत्वं विदित्वा त्वं तिष्ठाक्षुब्धमहाब्धिवत् ॥ ११॥
तत्त्वावबोध एवासौ वासनातृणपावकः ।
प्रोक्तः समाधिशब्देन नतु तूष्णीमवस्थितिः ॥ १२॥
निरिच्छे संस्थिते रत्ने यथा लोकः प्रवर्तते ।
सत्तामात्रे परे तत्त्वे तथैवायं जगद्गणः ॥ १३॥
अतश्चात्मनि कर्तृत्वमकर्तृत्वं च वै मुने ।
निरिच्छत्वादकर्तासौ कर्ता संनिधिमात्रतः ॥ १४॥
ते द्वे ब्रह्मणि विन्देति कर्तृताकर्तृते मुने ।
यत्रैवैष चमत्कारस्तमाश्रित्य स्थिरो भव ॥ १५॥
तस्मान्नित्यमकर्ताहमिति भावनयेद्धया ।
परमामृतनाम्नी सा समतैवावशिष्यते ॥ १६॥
निदाघ शृणु सत्त्वस्था जाता भुवि महागुणाः ।
ते नित्यमेवाभ्युदिता मुदिताः स्व इवेन्दवः ॥ १७॥
नापदि ग्लानिमायान्ति निशि हेमाम्बुजं यथा ।
नेहन्ते प्रकृतादन्यद्रमन्ते शिष्टवर्त्मनि ॥ १८॥
आकृत्यैव विराजन्ते मैत्र्यादिगुणवृत्तिभिः ।
समाः समरसाः सौम्य सततं साधुवृत्तयः ॥ १९॥
अब्धिवद्धतमर्याद भवति विशदाशयाः ।
नियतिं न विमुञ्चन्ति महान्तो भास्करा इव ॥ २०॥
कोऽहं कथमिदं चेति संसारमलमाततम् ।
प्रविचार्यं प्रयत्नेन प्राज्ञेन सहसाधुना ॥ २१॥
नाकर्मसु नियोक्तव्यं नानार्येण सहावसेत् ।
द्रष्टव्यः सर्वसंहर्ता न मृत्युरवहेलया ॥ २२॥
शरीरमस्थिमांसं च त्यक्त्वा रक्ताद्यशोभनम् ।
भूतमुक्तावलीतन्तुं चिन्मात्रमवलोकयेत् ॥ २३॥
उपादेयानुपतनं हेयैकान्तविसर्जनम् ।
यदेतन्मनसो रूपं तद्बाह्यं विद्धि नेतरत् ॥ २४॥
गुरुशास्त्रोक्तमार्गेण स्वानुभूत्या च चिद्घने ।
ब्रह्मैवाहमिति ज्ञात्वा वीतशोको भवेन्मुनिः ॥ २५॥
यत्र निशितासिशतपातनमुत्पलताडनवत्सोढव्यमग्निना
दाहो हिमसेचनमिवाङ्गारवर्तनं चन्दनचर्चेव
निरवधिनाराचविकिरपातो निदाघविनोदनधारा-
गृहशीकरवर्षणमिव स्वशिरच्छेदः सुखनिद्रेव
मूकीकरणमाननमुद्रेव बाधिर्यं महानुपचय इवेदं
नावहेलनया भवितव्यमेवं दृढवैराग्याद्बोधो भवति ॥
गुरुवाक्यसमुद्भूतस्वानुभूत्यादिशुद्धया ।
यस्याभ्यासेन तेनात्मा सततं चावलोक्यते ॥ २६॥
विनष्टदिग्भ्रमस्यापि यथापूर्वं विभाति दिक् ।
तथा विज्ञानविध्वस्तं जगन्नास्तीति भावय ॥ २७॥
न धनान्य्पकुर्वन्ति न मित्राणि न बान्धवाः ।
न कायक्लेशवैधुर्यं न तीर्थायतनाश्रयः ।
केवलं तन्मनोमात्रमयेनासाद्यते पदम् ॥ २८॥
यानि दुःखानि या तृष्णा दुःसहा ये दुराधयः ।
शान्तचेतःसु तत्सर्वं तमोऽर्केष्विव नश्यति ॥ २९॥
मातरीव परं यान्ति विषमाणि मृदूनि च ।
विश्वासमिह भूतानि सर्वाणि शमशालिनि ॥ ३०॥
न रसायनपानेन न लक्ष्म्यालिङ्गितेन च ।
न तथा सुखमाप्नोति शमेनान्तर्यथा जनः ॥ ३१॥
श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च भुक्त्वा च दृष्ट्वा ज्ञात्वा शुभाशुभम् ।
न हृष्यति ग्लायति यः स शान्त इति कथ्यते ॥ ३२॥
तुषारकरबिंबाच्छं मनो यस्य निराकुलम् ।
मरणोत्सवयुद्धेषु स शान्त इति कथ्यते ॥ ३३॥
तपस्विषु बहुज्ञेषु याजकेषु नृपेषु च ।
बलवत्सु गुणाढ्येषु शमवानेव राजते ॥ ३४॥
सन्तोषामृतपानेन ये शान्तास्तृप्तिमागताः ।
आत्मारामा महात्मानस्ते महापदमागताः ॥ ३५॥
अप्राप्तं हि परित्यज्य सम्प्राप्ते समतां गतः ।
अदृष्टखेदाखेदो यः सन्तुष्ट इति कथ्यते ॥ ३६॥
नाभिनन्दत्यसम्प्राप्तं प्राप्तं भुङ्क्ते यथेप्सितम् ।
यः स सौम्यसमाचारः सन्तुष्ट इति कथ्यते ॥ ३७॥
रमते धीर्यताप्राप्ते साध्वीवाऽन्तःपुराजिरे ।
सा जीवन्मुक्ततोदेति स्वरूपानन्ददायिनी ॥ ३८॥
यथाक्षणं यथाशास्त्रं यथादेशं यथासुखम् ।
यथासंभवसत्सङ्गमिमं मोक्षपथक्रमम् ।
तावद्विचारयेत्प्राज्ञो यावद्विश्रान्तिमात्मनि ॥ ३९॥
तुर्यविश्रान्तियुक्तस्य निवृत्तस्य भवार्णवात् ।
जीवतोऽजीवतश्चैव गृहस्थस्याथवा यतेः ॥ ४०॥
नाकृतेन कृतेनार्थो न श्रुतिस्मृतिविभ्रमैः ।
निर्मन्दर इवाम्बोधिः स तिष्ठति यथास्थितः ॥ ४१॥
सर्वात्मवेदनं शुद्धं यदोदेति तवात्मकम् ।
भाति प्रसृतिदिक्कालबाह्यं चिद्रूपदेहकम् ॥ ४२॥
एवमात्मा यथा यत्र समुल्लासमुपागतः ।
तिष्ठत्याशु तथा तत्र तद्रूपश्च विराजते ॥ ४३॥
यदिदं दृश्यते सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
तत्सुषुप्ताविव स्वप्नः कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥ ४४॥
ऋतमात्मा परंब्रह्म सत्यमित्यादिका बुधैः ।
कल्पिता व्यवहारार्थं यस्य संज्ञा महात्मनः ॥ ४५॥
यथा कटकशब्दार्थः पृथग्भावो न काञ्चनात् ।
न हेमकटकात्तद्वज्जगच्छब्दार्थता परा ॥ ४६॥
तेनेयमिन्द्रजालश्रीर्जगति प्रवितन्यते ।
द्रष्टुदृश्यस्य सत्तान्तर्बन्ध इत्यभिधीयते ॥ ४७॥
द्रष्टा दृश्यवशाद्बद्धो दृश्याभावे विमुच्यते ।
जगत्त्वमहमित्यादिसर्गात्मा दृश्यमुच्यते ॥ ४८॥
मनसैवेन्द्रजालश्रीर्जगति प्रवितन्यते ।
यावदेतत्संभवति तावन्मोक्षो न विद्यते ॥ ४९॥
ब्रह्मणा तन्यते विश्वं मनसैव स्वयंभुवा ।
मनोमयमतो विश्वं यन्नाम परिदृश्यते ॥ ५०॥
न बाह्ये नापि हृदये सद्रूपं विद्यते मनः ।
यदर्थं प्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते ॥ ५१॥
संकल्पनं मनो विद्धि संकल्पस्तन्न विद्यते ।
यत्र संकल्पनं तत्र मनोऽस्तीत्यवगम्यताम् ॥ ५२॥
संकल्पमनसी भिन्ने न कदाचन केनचित् ।
संकल्पजाते गलिते स्वरूपमवशिष्यते ॥ ५३॥
अहं त्वं जगतित्यादौ प्रशान्ते दृश्यसंभ्रमे ।
स्यात्तादृशी केवलता दृश्ये सत्तामुपागते ॥ ५४॥
महाप्रलयसम्पत्तौ ह्यसत्तां समुपागते ।
अशेषदृश्ये सर्गादौ शान्तमेवावशिष्यते ॥ ५५॥
अस्त्यनस्तमितो भास्वानजो देवो निरामयः ।
सर्वदा सर्वकृत्सर्वः परमात्मेत्युदाहृतः ॥ ५६॥
यतो वाचो निवर्तन्ते यो मुक्तैरवगम्यते ।
यस्य चात्मादिकाः संज्ञाः कल्पिता न स्वभावतः ॥ ५७॥
चित्ताकाशं चिदाकाशमाकाशं च तृतीयकम् ।
द्वाभ्यां शून्यतरं विद्धि चिदाकाशं महामुने ॥ ५८॥
देशाद्देशान्तरप्राप्तौ संविदो मध्यमेव यत् ।
निमेषेण चिदाकाशं तद्विद्धि मुनिपुङ्गव ॥ ५९॥
तस्मिन्निरस्तनिःशेषसंकल्पस्थितिमेषि चेत् ।
सर्वात्मकं पदं शान्तं तदा प्राप्नोष्यसंशयः ॥ ६०॥
उदितौदार्यसौन्दर्यवैराग्यरसगर्भिणी ।
आनन्दस्यन्दिनी यैषा समाधिरभिधीयते ॥ ६१॥
दृश्यासंभवबोधेन रागद्वेषादितानवे ।
रतिर्बलोदिता यासौ समाधिरभिधीयते ॥ ६२॥
दृश्यासंभवबोधो हि ज्ञानं ज्ञेयं चिदात्मकम् ।
तदेव केवलीभावं ततोऽन्यत्सकलं मृषा ॥ ६३॥
मत्त ऐरावतो बद्धः सर्षपीकोणकोटरे ।
मशकेन कृतं युद्धं सिंहौघैरेणुकोटरे ॥ ६४॥
पद्माक्षे स्थापितो मेरुर्निगीर्णो भृङ्गसूनुना ।
निदाघ विद्धि तादृक्त्वं जगतेतद्भ्रमात्मकम् ॥ ६५॥
चित्तमेव हि संसारो रोगादिक्लेशदूषितम् ।
तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥ ६६॥
मनसा भाव्यमानो हि देहतां याति देहकः ।
देहवासनया मुक्तो देहधर्मैर्न लिप्यते ॥ ६७॥
कल्पं क्षणीकरोत्यन्तः क्षणं नयति कल्पताम् ।
मनोविलाससंसार इति मे निश्चिता मतिः ॥ ६८॥
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमनसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ ६९॥
तद्ब्रह्मानन्दमद्वन्द्वं निर्गुणं सत्यचिद्घनम् ।
विदित्वा स्वात्मनो रूपं न बिभेति कदाचन ॥ ७०॥
परात्परं यन्महतो महान्तं
स्वरूपतेजोमयशाश्वतं शिवम् ।
कविं पुराणं पुरुषं सनातनं
सर्वेश्वरं सर्वदेवैरुपास्यम् ॥ ७१॥
अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् ।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च ।
ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ॥ ७२॥
जीवेश्वरादिरूपेण चेतनाचेतनात्मकम् ।
ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन कल्पिता ।
जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः ॥ ७३॥
त्रिणाचिकादियोगान्ता ईश्वरभ्रान्तिमाश्रिताः ।
लोकायतादिसांख्यान्ता जीवविभ्रान्तिमाश्रिताः ॥ ७४॥
तस्मान्मुमुक्षिभिर्नैव मतिर्जीवेशवादयोः ।
कार्या किंतु ब्रह्मतत्त्वं निश्चलेन विचार्यताम् ॥ ७५॥
अविशेषेण सर्वं तु यः पश्यति चिदन्वयात् ।
स एव साक्षाद्विज्ञानी स शिवः स हरिर्विधिः ॥ ७६॥
दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ॥ ७७॥
उत्पन्नशक्तिर्बोधस्य त्यक्तनिःशेषकर्मणः ।
योगिनः सहजावस्था स्वयमेवोपजायते ॥ ७८॥
यदा ह्येवैष एतस्मिन्नल्पमप्यन्तरं नरः ।
विजानाति तदा तस्य भयं स्यान्नत्र संशयः ॥ ७९॥
सर्वगं सच्चिदानन्दं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते ।
अज्ञानचक्षुर्नेक्षेत भास्वन्तं भानुमन्दह्वत् ॥ ८०॥
प्रज्ञानमेव तद्ब्रह्म सत्यप्रज्ञानलक्षणम् ।
एवं ब्रह्मपरिज्ञानादेव मर्त्याऽमृतो भवेत् ॥ ८१॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ८२॥
अनात्मतां परित्यज्य निर्विकारौ जगत्स्थितौ ।
एकनिष्ठतयान्तस्थः संविन्मात्रपरो भव ॥ ८३॥
मरुभूमौ जलं सर्वं मरुभूमात्रमेव तत् ।
जगत्त्रयमिदं सर्वं चिन्मात्रं स्वविचारतः ॥ ८४॥
लक्ष्यालक्ष्यमतिं त्यक्त्वा यस्तिष्ठेत्केवलात्मना ।
शिव एव स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः ॥ ८५॥
अधिष्ठानमनौपम्यमवाङ्मनसगोचरम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं च तदव्ययम् ॥ ८६॥
सर्वशक्तेर्महेशस्य विलासो हि मनो जगत् ।
संयमासंयमाभ्यां च संसारं शान्तिमन्वगात् ॥ ८७॥
मनोव्याधेश्चिकित्सार्थमुपायं कथयामि ते ।
यद्यत्स्वाभिमतं वस्तु तत्त्यजन्मोक्षमश्नुते ॥ ८८॥
स्वायत्तमेकान्तहितं स्वेप्सितत्यागवेदनम् ।
यस्य दुष्करतां यातं धिक्तं पुरुषकीटकम् ॥ ८९॥
स्वपौरुषेकसाध्येन स्वेप्सितत्यागरूपिणा ।
मनःप्रशममात्रेण विना नास्ति शुभा गतिः ॥ ९०॥
असंकल्पनशस्त्रेण छिन्नं चित्तमिदं यदा ।
सर्वं सर्वगतं शान्तं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ९१॥
भव भावनया मुक्तो मुक्तः परमया धिया ।
धारयात्मानमव्यग्रो ग्रस्तचित्तं चितः पदम् ॥ ९२॥
परं पौरुषमाश्रित्य नीत्वा चित्तमचित्तताम् ।
ध्यानतो हृदयाकाशे चिति चिच्चक्रधारया ॥ ९३॥
मनो मारय निःशङ्कं त्वां प्रबध्नन्ति नारयः ॥ ९४॥
अयं सोऽहमिदं तन्म एतावन्मात्रकं मनः ।
तदभावनमात्रेण दात्रेणेव विलीयते ॥ ९५॥
छिन्नाभ्रमण्डलं व्योम्नि यथा शरदि धूयते ।
वातेन कल्पकेनैव तथान्तर्धूयते मनः ॥ ९६॥
कल्पान्तपवना वान्तु यान्तु चैकत्वमर्णवाः ।
तपन्तु द्वादशादित्या नास्ति निर्मनसः क्षतिः ॥ ९७॥
असंकल्पनमात्रैकसाध्ये सकलसिद्धिदे ।
असंकल्पातिसाम्राज्ये तिष्ठवष्टब्धतत्पदः ॥ ९८॥
न हि चञ्चलताहीनं मनः क्वचन दृश्यते ।
चञ्चलत्वं मनोधर्मो वह्नेर्धर्मो यथोष्णता ॥ ९९॥
एषा हि चञ्चलास्पन्दशक्तिश्चित्तत्वसंस्थिता ।
तां विद्धि मानसीं शक्तिं जगदाडंबरात्मिकाम् ॥ १००॥
यत्तु चञ्चलताहीनं तन्मनोऽमृतमुच्यते ।
तदेव च तपः शास्त्रसिद्धान्ते मोक्ष उच्यते ॥ १०१॥
तस्य चञ्चलता यैषा त्वविद्या वासनात्मिका ।
वासनापरनाम्नीं तां विचारेण विनाशय ॥ १०२॥
पौरुषेण प्रयत्नेन यस्मिन्नैव पदे मनः ।
योज्यते तत्पदं प्राप्य निर्विकल्पो भवानघ ॥ १०३॥
अतः पौरुषमाश्रित्य चित्तमाक्रम्य चेतसा ।
विशोकं पदमालम्ब्य निरातङ्कः स्थिरो भव ॥ १०४॥
मन एव समर्थं हि मनसो दृढनिग्रहे ।
अराजकः समर्थः स्याद्राज्ञो निग्रहकर्मणि ॥ १०५॥
तृष्णाग्राहगृहीतानां संसारार्णवपातिनाम् ।
आवर्तैरूह्यमानानां दूरं स्वमन एव नौः ॥ १०६॥
मनसैव मनश्छित्त्वा पाशं परमबन्धनम् ।
भवादुत्तारयात्मानं नासावन्येन तार्यते ॥ १०७॥
या योदेति मनोनाम्नी वासना वासितान्तरा ।
तां तां परिहरेत्प्राज्ञस्ततोऽविद्याक्षयो भवेत् ॥ १०८॥
भोगैकवासनां त्यक्त्वा त्यज त्वं भेदवासनाम् ।
भावाभावौ ततस्त्यक्त्या निर्विकल्पः सुखी भव ॥ १०९॥
एष एव मनोनाशस्त्वविद्यानाश एव च ।
यत्तत्संवेद्यते किंचित्तत्रास्थापरिवर्जनम् ॥ ११०॥
अनास्थैव हि निर्वाणं दुःखमास्थापरिग्रहः ॥ १११॥
अविद्या विद्यमानैव नष्टप्रज्ञेषु दृश्यते ।
नाम्नैवाङ्गीकृताकारा सम्यक्प्रज्ञस्य सा कुतः ॥ ११२॥
तावत्संसारभृगुषु स्वात्मना सह देहिनम् ।
आन्दोलयति नीरन्ध्रं दुःखकण्टकशालिषु ॥ ११३॥
अविद्या यावदस्यास्तु नोत्पन्ना क्षयकारिणी ।
स्वयमात्मावलोकेच्छा मोहसंक्षयकारिणी ॥ ११४॥
अस्याः परं प्रपश्यन्ताः स्वात्मनाशः प्रजायते ।
दृष्टे सर्वगते बोधे स्वयं ह्येषा विलीयते ॥ ११५॥
इच्छामात्रमविद्येयं तन्नाशो मोक्ष उच्यते ।
स चासंकल्पमात्रेण सिद्धो भवति वै मुने ॥ ११६॥
मनागपि मनोव्योम्नि वासनारजनी क्षये ।
कालिका तनुतामेति चिदादित्याप्रकाशनात् ॥ ११७॥
चैतान्युपातरहितं सामान्येन च सर्वगम् ।
यच्चित्तत्त्वमनाख्येयं स आत्मा परमेश्वरः ॥ ११८॥
सर्वं च खल्विदं ब्रह्म नित्यचिद्घनमक्षतम् ।
कल्पनान्या मनोनाम्नी विद्यते न हि काचन ॥ ११९॥
न जायते न म्रियत्ते किंचिदत्र जगत्त्रये ।
न च भावविकाराणां सत्ता क्वचन विद्यते ॥ १२०॥
केवलं केवलाभासं सर्वसामान्यमक्षतम् ।
चैत्यानुपातरहितं चिन्मात्रमिह विद्यते ॥ १२१॥
तस्मिन्नित्ये तते शुद्धे चिन्मात्रे निरुपद्रवे ।
शान्ते शमसमाभोगे निर्विकारे चिदात्मनि ॥ १२२॥
यैषा स्वभावाभिमतं स्वयं संकल्प्य धावति ।
चिच्चैत्यं स्वयमम्लानं माननान्मन उच्यते ।
अतः संकल्पसिद्धेयं संकल्पेनैव नश्यति ॥ १२३॥
नाहं ब्रह्मेति संकल्पात्सुदृढाद्बध्यते मनः ।
सर्वं ब्रह्मेति संकल्पात्सुदृढान्मुच्यते मनः ॥ १२४॥
कृशोऽहं दुःखबद्धोऽहं हस्तपादादिमानहम् ।
इति भावानुरूपेण व्यवहारेण बध्यते ॥ १२५॥
नाहं दुःखी न मे देहो बन्धः कोऽस्यात्मनि स्थितः ।
इति भावानुरूपेण व्यवहारेण मुच्यते ॥ १२६॥
नाहं मांसं न चास्थीनि देहादन्यः परोऽस्म्यहम् ।
इति निश्चितवानन्तः क्षीणाविद्यो विमुच्यते ॥ १२७॥
कल्पितेयमविद्येयमनात्मन्यात्मभावनात् ।
परं पौरुषमाश्रित्य यत्नात्परमया धिया ।
भोगेच्छां दूरतस्त्यक्त्वा निर्विकल्पः सुखी भव ॥ १२८॥
मम पुत्रो मम धनमहं सोऽयमिदं मम ।
इतीयमिन्द्रजालेन वासनैव विवल्गति ॥ १२९॥
मा भवाज्ञो भव ज्ञस्त्वं जहि संसारभावनाम् ।
अनात्मन्यात्मभावेन किमज्ञ इव रोदिषि ॥ १३०॥
कस्तवायं जडो मूको देहो मांसमयोऽशुचिः ।
यदर्थं सुखदुःखाभ्यामवशः परिभूयसे ॥ १३१॥
अहो नु चित्रं यत्सत्यं ब्रह्म तद्विस्मृतं नृणाम् ।
तिष्ठतस्तव कार्येषु मास्तु रागानुरञ्जना ॥ १३२॥
अहो नु चित्रं पद्मोत्थैर्बद्धास्तन्तुभिरद्रयः ।
अविद्यमान या विद्या तया विश्वं खिलीकृतम् ॥ १३३॥
इदं तद्वज्रतां यातं तृणमात्रं जगत्त्रयम् ॥
इत्युपनिषत् ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
ऋभुः ॥ अथापरं प्रवक्ष्यामि शृणु तात यथायथम् ।
अज्ञानभूः सप्तपदा ज्ञभूः सप्तपदैव हि ॥ १॥
पदान्तराण्यसंख्यानि प्रभवन्त्यन्यथैतयोः ।
स्वरूपावस्थितिर्मुक्तिस्तद्भ्रंशोऽहंत्ववेदनम् ॥ २॥
शुद्धसन्मात्रसंवित्तेः स्वरूपान्न चलन्ति ये ।
रागद्वेषादयो भावास्तेषां नाज्ञत्वसंभवः ॥ ३॥
यः स्वरूपपरिभ्रंशश्चेत्वार्थे चिति मज्जनम् ।
एतस्मादपरो मोहो न भूतो न भविष्यति ॥ ४॥
अर्थादर्थान्तरं चित्ते याति मध्ये तु या स्थितिः ।
सा ध्वस्तमननाकारा स्वरूपस्थितिरुच्यते ॥ ५॥
संशान्तसर्वसंकल्पा या शिलावदवस्थितिः ।
जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्ता सा स्वरूपस्थितिः परा ॥ ६॥
अहन्तांशे क्षते शान्ते भेदनिष्पन्दचित्तता ।
अजडा या प्रचलति तत्स्वरूपमितीरितम् ॥ ७॥
बीजं जाग्रत्तथा जाग्रन्महाजाग्रत्तथैव च ।
जाग्रत्स्वप्नस्तथा स्वप्नः स्वप्नजाग्रत्सुषुप्तिकम् ॥ ८॥
इति सप्तविधो मोहः पुनरेष परस्परम् ।
श्लिष्टो भवत्यनेकाग्र्यं श्रुणु लक्षणमस्य तु ॥ ९॥
प्रथमं चेतनं यत्स्यादनाख्यं निर्मलं चितः ।
भविष्यच्चित्तजीवादिनामशब्दार्थभाजनम् ॥ १०॥
बीजरूपस्थितं जाग्रद्बीजजाग्रत्तदुच्यते ।
एषा ज्ञप्तेर्नवावस्था त्वजाग्रत्संस्थितिं श्रुणु ॥ ११॥
नवप्रसूतस्य परादयं चाहमिदं मम ।
इति यः प्रत्ययः स्वस्थस्तज्जाग्रत्प्रागभावनात् ॥ १२॥
अयं सोऽहमिदं तन्म इति जन्मान्तरोदितः ।
पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजाग्रदिति स्फुटम् ॥ १३॥
अरूढमथवा रूढं सर्वथा तन्मयात्मकम् ।
यज्जाग्रतो मनोराज्यं यज्जाग्रत्स्वप्न उच्यते ॥ १४॥
द्विचन्द्रशुक्तिकारूप्यमृगतृष्णादिभेदतः ।
अभ्यासं प्राप्य जाग्रत्तत्स्वप्नो नानाविधो भवेत् ॥ १५॥
अल्पकालं मया दृष्टमेतन्नोदेति यत्र हि ।
परामर्षः प्रबुद्धस्य स स्वप्न इति कथ्यते ॥ १६॥
चिरं संदर्शनाभावादप्रफुल्लं बृहद्वचः ।
चिरकालानुवृत्तिस्तु स्वप्नो जाग्रदिवोदितः ॥ १७॥
स्वप्नजाग्रदिति प्रोक्तं जाग्रत्यपि परिस्फुरत् ।
षडवस्था परित्यागो जडा जीवस्य या स्थितिः ॥ १८॥
भविष्यद्दुःखबोधाढ्या सौषुप्तिः सोच्यते गतिः ।
जगत्तस्यामवस्थायामन्तस्तमसि लीयते ॥ १९॥
सप्तावस्था इमाः प्रोक्ता मया ज्ञानस्य वै द्विज ।
एकैका शतसंख्यात्र नानाविभवरूपिणी ॥ २०॥
इमां सप्तपदां ज्ञानभूमिमाकर्णयानघ ।
नानया ज्ञातया भूयो मोहपङ्के निमज्जति ॥ २१॥
वदन्ति बहुभेदेन वादिनो योगभूमिकाः ।
मम त्वभिमता नूनमिमा एव शुभप्रदाः ॥ २२॥
अवबोधं विदुर्ज्ञानं तदिदं साप्तभूमिकम् ।
मुक्तिस्तु ज्ञेयमित्युक्ता भूमिकासप्तकात्परम् ॥ २३॥
ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता ।
विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसी ॥ २४॥
सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका ।
पदार्थभावना षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ २५॥
आसामन्तस्थिता मुक्तिर्यस्यां भूयो न शोचति ।
एतासां भूमिकानां त्वमिदं निर्वचनं श्रुणु ॥ २६॥
स्थितः किं मूढ एवास्मि प्रेक्षेऽहं शास्त्रसज्जनैः ।
वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः ॥ २७॥
शास्त्रसज्जनसम्पर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् ।
सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा ॥ २८॥
विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेषु रक्तता ।
यत्र सा तनुतामेति प्रोच्यते तनुमानसी ॥ २९॥
भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्ते तु विरतेर्वशात् ।
सत्त्वात्मनि स्थिते शुद्धे सत्त्वापत्तिरुदाहृता ॥ ३०॥
दशाचतुष्टयाभ्यासादसंसर्गकला तु या ।
रूढसत्त्वचमत्कारा प्रोक्ता संसक्तिनामिका ॥ ३१॥
भूमिकापञ्चकाभ्यासात्स्वात्मारामतया दृढम् ।
आभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ॥ ३२॥
परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनावबोधनम् ।
पदार्थभावना नाम षष्ठी भवति भूमिका ॥ ३३॥
भूमिषट्कचिराभ्यासाद्भेदस्यानुपलम्बनात् ।
यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ ३४॥
एषा हि जीवन्मुक्तेषु तुर्यावस्थेति विद्यते ।
विदेहमुक्तिविषयं तुर्यातीतमतः परम् ॥ ३५॥
ये निदाघ महाभागाः साप्तमीं भूमिमाश्रिताः ।
आत्मारामा महात्मानस्ते महत्पदमागताः ॥ ३६॥
जीवन्मुक्ता न मज्जन्ति सुखदुःखरसस्थिते ।
प्रकृतेनाथ कार्येण किंचित्कुर्वन्ति वा न वा ॥ ३७॥
पार्श्वस्थबोधिताः सन्तः पूर्वाचरक्रमागतम् ।
आचारमाचरत्येव सुप्तबुद्धवदुत्थिताः ॥ ३८॥
भूमिकासप्तकं चैतद्धीमतामेव गोचरम् ।
प्राप्य ज्ञानदशामेतां पशुम्लेच्छादयोऽपि ये ॥ ३९॥
सदेहा वाप्यदेहा वा ते मुक्ता नात्र संशयः ।
ज्ञप्तिर्हि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन्सति विमुक्तता ॥ ४०॥
मृगतृष्णाम्बुबुद्ध्य्यादिशान्तिमात्रात्मकस्त्वसौ ।
ये तु मोहार्णवात्तीर्णास्तैः प्राप्तं परमं पदम् ॥ ४१॥
ते स्थिता भूमिकास्वासु स्वात्मलाभपरायणाः ।
मनःप्रशमनोपायो योग इत्यभिधीयते ॥ ४२॥
सप्तभूमिः स विज्ञेयः कथितास्ताश्च भूमिकाः ।
एतासां भूमिकानां तु गमं ब्रह्माभिधं पदम् ॥ ४३॥
त्वत्ताहन्तात्मता यत्र परता नास्ति काचन ।
न क्वचिद्भावकलना न भावाभाव गोचरा ॥ ४४॥
सर्वं शान्तं निरालम्बं व्योमस्थं शाश्वतं शिवम् ।
अनामयमनाभासमनामकमकारणम् ॥ ४५॥
न सन्नसन्न मध्यान्तं न सर्वं सर्वमेव च ।
मनोवचोभिरग्राह्यं पूर्णात्पूर्णं सुखात्सुखम् ॥ ४६॥
असंवेदनमाशान्तमात्मवेदनमाततम् ।
सत्ता सर्वपदार्थानां नान्या संवेदनादृते ॥ ४७॥
संबन्धे द्रष्टृदृश्यानां मध्ये दृष्टिर्हि यद्वपुः ।
द्रष्टृदर्शनदृश्यादिवर्जितं तदिदं पदम् ॥ ४८॥
देशाद्देशं गते चित्ते मध्ये यच्चेतसो वओउः ।
अजाड्यसंविन्मननं तन्मयो भव सर्वदा ॥ ४९॥
अजाग्रत्स्वप्ननिद्रस्य यत्ते रूपं सनातनम् ।
अचेतनं चाजडं च तन्मयो भव सर्वदा ॥ ५०॥
जडतां वर्जयित्वैकां शिलाया हृदयं हि तत् ।
अमनस्कस्वरूपं यत्तन्मयो भव सर्वदा ।
चित्तं दूरे परित्यज्य योऽसि सोऽसि स्थिरो भव ॥ ५१॥
पूर्वं मनः समुदितं परमात्मतत्त्वा-
त्तेनाततं जगदिदं सविकल्पजालम् ।
शून्येन शून्यमपि विप्र यथाम्बरेण
नीलत्वमुल्लसति चारुतराभिधानम् ॥ ५२॥
संकल्पसंक्षयद्गलिते तु चित्ते
संसारमोहमिहिका गलिता भवन्ति ।
स्वच्छं विभाति शरदीव खमागतायां
चिन्मात्रमेकमजमाद्यमनन्तमन्तः ॥ ५३॥
अकर्तृकमरङ्गं च गगने चित्रमुत्थितम् ।
अद्रष्टृकं स्वानुभवमनिद्रस्वप्नदर्शनम् ॥ ५४॥
साक्षिभूते समे स्वच्छे निर्विकल्पे चिदात्मनि ।
निरिच्छं प्रतिबिम्बन्ति जगन्ति मुकुरे यथा ॥ ५५॥
एकं ब्रह्म चिदाकाशं सर्वात्मकमखण्डितम् ।
इति भावय यत्नेन चेतश्चाञ्चल्यशान्तये ॥ ५६॥
रेखोपरेखावलिता यथैका पीवरी शिला ।
तथा त्रैलोक्यवलितं ब्रह्मैकमिह दृश्यताम् ॥ ५७॥
द्वितीयकारणाभावादनुत्पन्नमिदं जगत् ।
ज्ञातं ज्ञातव्यमधुना दृष्टं द्रष्टव्यमद्भुतम् ॥ ५८॥
विश्रान्तोऽस्मि चिरं श्रान्तश्चिन्मात्रान्नास्ति किंचन ।
पश्य विश्रान्तसन्देहं विगताशेषकौतुकम् ॥ ५९॥
निरस्तकल्पनाजालमचित्तत्वं परं पदम् ।
त एव भूमतां प्राप्ताः संशान्ताशेषकिल्बिषाः ॥ ६०॥
महाधियः शान्तधियो ये याता विमनस्कताम् ।
जन्तोः कृतविचारस्य विगलद्वृत्तिचेतसः ॥ ६१॥
मननं त्यजतो नित्यं किंचित्परिणतं मनः ।
दृश्यं सन्त्यजतो हेयमुपादेयमुपेयुषः ॥ ६२॥
द्रष्टारं पश्यतो नित्यमद्रष्टारमपश्यतः ।
विज्ञातव्ये परे तत्त्वे जागरूकस्य जीवतः ॥ ६३॥
सुप्तस्य धनसंमोहमये संसारवर्त्मनि ।
अत्यन्तपक्ववैराग्यादरसेषु रसेष्वपि ॥ ६४॥
संसारवासनाजाले खगजाल इवाधुना ।
त्रोटिते हृदयग्रन्थौ श्लथे वैराग्यरंहसा ॥ ६५॥
कातकं फलमासाद्य यथा वारि प्रसीदति ।
तथा विज्ञानवशतः स्वभावः सम्प्रसीदति ॥ ६६॥
नीरागं निरुपासङ्गं निर्द्वन्द्वं निरुपाश्रयम् ।
विनिर्याति मनो मोहाद्विहङ्गः पञ्जरादिव ॥ ६७॥
शान्तसन्देहदौरात्म्यं गतकौतुकविभ्रमम् ।
परिपूर्णान्तरं चेतः पूर्णेन्दुरिव राजते ॥ ६८॥
नाहं न चान्यदस्तीह ब्रह्मैवास्मि निरामयम् ।
इत्थं सदस्तोर्मध्याद्यः पश्यति स पश्यति ॥ ६९॥
अयत्नोपतेष्वक्षिदृग्दृश्येषु यथा मनः ।
नीरागमेव पतति तद्वत्कार्येषु धीरधीः ॥ ७०॥
परिज्ञायोपभुक्तो हि भोगो भवति तुष्टये ।
विज्ञाय सेवितश्चोरो मैत्रीमेति न चोरताम् ॥ ७१॥
अशङ्कितापि सम्प्राप्ता ग्रामयात्रा यथाध्वगैः ।
प्रेक्ष्यते तद्वदेव ज्ञैर्भोगश्रीरवलोक्यते ॥ ७२॥
मनसो निगृहीतस्य लीलाभोगोऽल्पकोऽपि यः ।
तमेवालब्धविस्तारं क्लिष्टत्वाद्बहु मन्यते ॥ ७३॥
बद्धमुक्तो महीपालो ग्रासमात्रेण तुष्यति ।
परैरबद्धो नाक्रान्तो न राष्ट्रं बहु मन्यते ॥ ७४॥
हस्तं हतेन सम्पीड्य दन्तैर्दन्तान्विचूर्ण्य च ।
अङ्गान्यङ्गैरिवाक्रम्य जयेदादौ स्वकं मनः ॥ ७५॥
मनसो विजयान्नान्या गतिरस्ति भवार्णवे ।
महानरकसाम्राज्ये मत्तदुष्कृतवारणाः ॥ ७६॥
आशाशरशलाकाढ्या दुर्जया हीन्द्रियारयः ।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ॥ ७७॥
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।
तावन्निशीव वेताला वसन्ति हृदि वासनाः ।
एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ॥ ७८॥
भृत्योऽभिमतकर्तृत्वान्मन्त्री सर्वार्थकारणात् ।
सामन्तश्चेन्द्रियाक्रान्तेर्मनो मन्ये विवेकिनः ॥ ७९॥
लालनात्स्निग्धललना पालानात्पालकः पिता ।
सुहृदुत्तमविन्यासान्मनो मन्ये मनीषिणः ॥ ८०॥
स्वालोकतः शास्त्रदृशा स्वबुद्ध्या स्वानुभावतः ।
प्रयच्छति परां सिद्धिं त्यक्त्वात्मानं मनःपिता ॥ ८१॥
सुहृष्टः सुदृढः स्वच्छः सुक्रान्तः सुप्रबोधितः ।
स्वगुणेनोर्जितो भाति हृदि हृद्यो मनोमणिः ॥ ८२॥
एनं मनोमणिं ब्रह्मन्बहुपङ्ककलङ्कितम् ।
विवेकवारिणा सिद्ध्यै प्रक्षाल्यालोकवान्भव ॥ ८३॥
विवेकं परमाश्रित्य बुद्ध्या सत्यमवेक्ष्य च ।
इन्द्रियारीनलं छित्त्वा तीर्णो भव भवार्णवात् ॥ ८४॥
आस्थामात्रमनन्तानां दुःखानामाकरं विदुः ।
अनास्थामात्रमभितः सुखानामालयं विदुः ॥ ८५॥
वासनातन्तुबद्धोऽयं लोको विपरिवर्तते ।
सा प्रसिद्धातिदुःखाय सुखायोच्छेदमागता ॥ ८६॥
धीरोऽप्यतिबहुज्ञोऽपि कुलजोऽपि महानपि ।
तृष्णया बध्यते जन्तुः सिंहः शृङ्खलया यथा ॥ ८७॥
परमं पौरुषं यत्नमास्थादाय सृद्यमम् ।
यथाशास्त्रमनुद्वेगमाचरन्को न सिद्धिभाक् ॥ ८८॥
अहं सर्वमिदं विश्वं परमात्माहमच्युतः ।
नान्यदस्तीति संवित्त्या परमा सा ह्यहङ्कृतिः ॥ ८९॥
सर्वस्माद्व्यतिरिक्तोऽहं वालाग्रादप्यहं तनुः ।
इति या संविदो ब्रह्मन्द्वितीयाहङ्कृतिः शुभा ॥ ९०॥
मोक्षायैषा न बन्धाय जीवन्मुक्तस्य विद्यते ॥ ९१॥
पाणिपादादिमात्रोऽयमहमित्येष निश्चयः ।
अहंकारस्तृतीयोऽसौ लैकिकस्तुच्छ एव सः ॥ ९२॥
जीव एव दुरात्मासौ कन्दः संसारदुस्तरोः ।
अनेनाभिहतो जन्तुरधोऽधः परिधावति ॥ ९३॥
अनया दुरहंकृत्या भावात्संत्यक्तया चिरम् ।
शिष्टाहंकारवाञ्जन्तुः शमवान्याति मुक्तताम् ॥ ९४॥
प्रथमौ द्वावहंकारावङ्गीकृत्य त्वलौकिकौ ।
तृतीयाहंकृतिस्त्याज्या लौकिकी दुःखदायिनी ॥ ९५॥
अथ ते अपि संत्यज्य सर्वाहंकृतिवर्जितः ।
स तिष्ठति तथात्युच्चैः परमेवाधिरोहति ॥ ९६॥
भोगेच्छामात्रको बन्धस्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते ।
मनसोऽभ्युदयो नाशो मनोनाशो महोदयः ॥ ९७॥
ज्ञमनो नाशमभ्येति मनोऽज्ञस्य हि शृङ्खला ।
नानन्दं न निरानन्दं न चलं नाचलं स्थिरम् ।
न सन्नासन्न चैतेषां मध्यं ज्ञानिमनो विदुः ॥ ९८॥
यथा सौक्ष्म्याच्चिदाभास्य आकाशो नोपलक्ष्यते ।
तथा निरंशश्चिद्भावः सर्वगोऽपि न लक्ष्यते ॥ ९९॥
सर्वसंकल्परहिता सर्वसंज्ञाविवर्जिता ।
सैषा चिदविनाशात्मा स्वात्मेत्यादिकृताभिधा ॥ १००॥
आकाशशतभागाण्छा ज्ञेषु निष्कलरूपिणी ।
सकलामलसंसारस्वरूपैकात्मदर्शिनी ॥ १०१॥
नास्तमेति न चोदेति नोत्तिष्ठति न तिष्ठति ।
न च याति न चायाति न च नेह न चेह चित् ॥ १०२॥
सैषा चियमलाकारा निर्विकल्पा निरास्पदा ॥ १०३॥
आदौ शमदमप्रायैर्गुणैः शिष्यं विशोधयेत् ।
पश्चात्सर्वमिदं ब्रह्म शुद्धस्त्वमिति बोधयेत् ॥ १०४॥
अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत् ।
महानरकजालेषु स तेन विनियोजितः ॥ १०५॥
प्रबुद्धबुद्धेः प्रक्षीणभोगेच्छस्य निराशिषः ।
नास्त्यविद्यामलमिति प्राज्ञस्तूपदिशेद्गुरुः ॥ १०६॥
सति दीप इवालोकः सत्यर्क इव वासरः ।
सति पुष्प इवामोदश्चिति सत्यं जगत्तथा ॥ १०७॥
प्रतिभासत एवेदं न जगत्परमार्थतः ।
ज्ञानदृष्टौ प्रसन्नायां प्रबोधविततोदये ॥ १०८॥
यथावज्ज्ञास्यसि स्वस्थो मद्वाग्वृष्टिबलाबलम् ।
अविद्ययैवोत्तमया स्वार्थनाशोद्यमार्थया ॥ १०९॥
विद्या सम्प्राप्यते ब्रह्मन्सर्वदोषापहारिणी ।
शाम्यति ह्यस्त्रमस्त्रेण मलेन क्षाल्यते मलम् ॥ ११०॥
शमं विषं विषेणैति रिपुणा हन्यते रिपुः ।
ईदृशी भूतमायेयं या स्वनाशेन हर्षदा ॥ १११॥
न लक्ष्यते स्वभावोऽस्या वीक्ष्यमाणैव नश्यति ।
नास्त्येषा परमार्थेनेत्येवं भावनयेद्धया ॥ ११२॥
सर्वं ब्रह्मेति यस्यान्तर्भावना सा हि मुक्तिदा ।
भेददृष्टिरविद्येयं सर्वथा तां विसर्जयेत् ॥ ११३॥
मुने नासाद्यते तद्धि पदमक्षयमुच्यते ।
कुतो जातेयमिति ते द्विज मास्तु विचारणा ॥ ११४॥
इमां कथमहं हन्मीत्येषा तेऽस्तु विचारणा ।
अस्तं गतायां क्षीणायामस्यां ज्ञास्यसि तत्पदम् ॥ ११५॥
यत एषा यथा चैषा यथा नष्टेत्यखण्डितम् ।
तदस्या रोगशालाया यत्नं कुरु चिकित्सने ॥ ११६॥
यथैषा जन्मदुःखेषु न भूयस्त्वां नियोक्ष्यति ।
स्वात्मनि स्वपरिस्पन्दैः स्फुरत्यच्छैश्चिदर्णवः ॥ ११७॥
एकात्मकमखण्डं तदित्यन्तर्भाव्यतां दृढम् ।
किंचित्क्षुभितरूपा सा चिच्छक्तिश्चिन्मयार्णवे॥ ११८॥
तन्मयैव स्फुरत्यच्छा तत्रैवोर्मिरिवार्णवे ।
आत्मन्येवात्मना व्योम्नि यथा सरसि मारुतः ॥ ११९॥
तथैवात्मात्मशक्त्यैव स्वात्मन्येवैति लोलताम् ।
क्षणं स्फुरति सा देवी सर्वशक्तितया तथा ॥ १२०॥
देशकालक्रियाशक्तिर्न यस्याः सम्प्रकर्षणे ।
स्वस्वभावं विदित्वोच्चैरप्यनन्तपदे स्थिता ॥ १२१॥
रूपं परिमितेनासौ भावयत्यविभाविता ।
यदैवं भावितं रूपं तया परमकान्तया ॥ १२२॥
तदैवैनामनुगता नामसंख्यादिका दृशः ।
विकल्पकलिताकारं देशकालक्रियास्पदम् ॥ १२३॥
चितो रूपमिदं ब्रह्मन्क्षेत्रज्ञ इति कथ्यते ।
वासनाः कल्पयन्सोऽपि यात्यहंकारतां पुनः ॥ १२४॥
अहङ्कारो विनिर्णेता कलङ्की बुद्धिरुच्यते ।
बुद्धिः संकल्पिताकारा प्रयाति मननास्पदम् ॥ १२५॥
मनो घनविकल्पं तु गच्छतीन्द्रियतां शनैः ।
पाणिपादमयं देहमिन्द्रियाणि विदुर्बुधाः ॥ १२६॥
एवं जीवो हि संकल्पवासनारज्जुवेष्टितः ।
दुःखजालपरीतात्मा क्रमादायाति नीचताम् ॥ १२७॥
इति शक्तिमयं चेतो घनाहंकारतां गतम् ।
कोशकारक्रिमिरिव स्वेच्छया याति बन्धनम् ॥ १२८॥
स्वयं कल्पित तन्मात्राजालभ्यन्तरवर्ति च ।
परां विवशतामेति शृङ्खलाबद्धसिंहवत् ॥ १२९॥
क्वचिन्मनः क्वचिद्बुद्धिः क्वचिज्ज्ञानं क्वचित्क्रिया ।
क्वचिदेतदहंकारः क्वचिच्चित्तमिति स्मृतम् ॥ १३०॥
क्वचित्प्रकृतिरित्युक्तं क्वचिन्मायेति कल्पितम् ।
क्वचिन्मलमिति प्रोक्तं क्वचित्कर्मेति संस्मृतम् ॥ १३१॥
क्वचिद्बन्ध इति ख्यातं क्वचित्पुर्यष्टकं स्मृतम् ।
प्रोक्तं क्वचिदविद्येति क्वचिदिच्छेति संमतम् ॥ १३२॥
इअमं संसारमखिलमाशापाशविधायकम् ।
दधदन्तःफलैर्हीनं वटधाना वटं यथा ॥ १३३॥
चिन्तानलशिखादग्धं कोपाजगरचर्वितम् ।
कामाब्धिकल्लोलरतं विस्मृतात्मपितामहम् ॥ १३४॥
समुद्धर मनो ब्रह्मन्मातङ्गमिव कर्दमात् ।
एवं जीवाश्रिता भावा भवभावनयाहिताः ॥ १३५॥
ब्रह्मणा कल्पिताकारा लक्षशोऽप्यथ कोटिशः ।
संख्यातीताः पुरा जाता जायन्तेऽद्यापि चाभितः ॥ १३६॥
उत्पत्स्यन्तेऽपि चैवान्ये कणौघा इव निर्झरात् ।
केचित्प्रथमजन्मानः केचिज्जन्मशताधिकाः ॥ १३७॥
केचिच्चासंख्यजन्मानः केचिद्द्वित्रिभवान्तराः ।
केचित्किन्नरगन्धर्वविद्याधरमहोरगाः ॥ १३८॥
केचिदर्केन्दुवरुणास्त्र्यक्षाधोक्षजपद्मजाः ।
केचिद्ब्रह्मणभूपालवैश्यशूद्रगणाः स्थिताः ॥ १३९॥
केचित्तृणौषधीवृक्षफलमूलपतङ्गकाः ।
केचित्कदम्बजम्बीरसालतालतमालकाः ॥ १४०॥
केचिन्महेन्द्रमलयसह्यमन्दरमेरवः ।
केचित्क्षारोदधिक्षीरघृतेक्षुजलराशयः ॥ १४१॥
केचिद्विशालाः कुकुभः केचिन्नद्यो महारयाः ।
विहायस्युच्चकैः केचिन्निपतन्त्युत्पतन्ति च ॥ १४२॥
कन्तुका इव हस्तेन मृत्युनाऽविरतं हताः ।
भुक्त्वा जन्मसहस्राणि भूयः संसारसंकटे ॥ १४३॥
पतन्ति केचिदबुधाः सम्प्राप्यापि विवेकताम् ।
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नमात्मतत्त्वं स्वशक्तितः ॥ १४४॥
लीलयैव यदादत्ते दिक्कालकलितं वपुः ।
तदेव जीवपर्यायवासनावेशतः परम् ॥ १४५॥
मनः सम्पद्यते लोलं कलनाकलनोन्मुखम् ।
कलयन्ती मनःशक्तिरादौ भावयति क्षणात् ॥ १४६॥
आकाशभावनामच्छां शब्दबीजरसोन्मुखीम् ।
ततस्तद्घनतां यातं घनस्पन्दक्रमान्मनः ॥ १४७॥
भावयत्यनिलस्पन्दं स्पर्शबीजरसोन्मुखम् ।
ताभ्यामाकाशवाताभ्यां दृढाभ्यासवशात्ततः ॥ १४८॥
शब्दस्पर्शस्वरूपाभ्यां संघर्षाज्जन्यतेऽनलः ।
रूपतन्मात्रसहितं त्रिभिस्तैः सह संमितम् ॥ १४९॥
मनस्ताद्दृग्गुणगतं रसतन्मात्रवेदनम् ।
क्षणाच्चेतत्यपां शैत्यं जलसंवित्ततो भवेत् ॥ १५०॥
ततस्तादृग्गुणगतं मनो भावयति क्षणात् ।
गन्धतन्मात्रमेतस्माद्भूमिसंवित्ततो भवेत् ॥ १५१॥
अथेत्थंभूततन्मात्रवेष्टितं तनुतां जहत् ।
वपुर्वह्निकणाकारं स्फुरितं व्योम्नि पश्यति ॥ १५२॥
अहंकारकलायुक्तं बुद्धिबीजसमन्वितम् ।
तत्पुर्यष्टकमित्युक्तं भूतहृत्पद्मषट्पदम् ॥ १५३॥
तस्मिंस्तु तीव्रसंवेगाद्भावयद्भासुरं वपुः ।
स्थूलतामेति पाकेन मनो बिल्वफलं यथा ॥ १५४॥
मूषास्थद्रुतहेमाभं स्फुरितं विमलाम्बरे ।
संनिवेशमथादत्ते तत्तेजः स्वस्वभावतः ॥ १५५॥
ऊर्ध्वं शिरःपिण्डमयमधः पादमयं तथा ।
पार्श्वयोर्हस्तसंस्थानं मध्ये चोदरधर्मिणम् ॥ १५६॥
कालेन स्फुटतामेत्य भवत्यमलविग्रहम् ।
बुद्धिसत्त्वबलोत्साहविज्ञानैश्वर्यसंस्थितः ॥ १५७॥
स एव भगवान्ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ।
अवलोक्य वपुर्ब्रह्मा कान्तमात्मीयमुत्तमम् ॥ १५८॥
चिन्तामभ्येत्य भगवांस्त्रिकालामलदर्शनः ।
एतस्मिन्परमाकाशे चिन्मात्रैकात्मरूपिणी ॥ १५९॥
अदृष्टपारपर्यन्ते प्रथमं किं भवेदिति ।
इति चिन्तितवान्ब्रह्मा सद्यो जातामलात्मदृक् ॥ १६०॥
अपश्यत्सर्गवृन्दानि समतीतान्यनेकशः ।
स्मरत्यथो स सकलान्सर्वधर्मगुणक्रमात् ॥ १६१॥
लीलया कल्पयामास चित्राः संकल्पतः प्रजाः ।
नानाचारसमारम्भा गन्धर्वनगरं यथा ॥ १६२॥
तासां स्वर्गापवर्गार्थं धर्मकामार्थसिद्धये ।
अनन्तानि विचित्राणि शास्त्राणि समकल्पयत् ॥ १६३॥
विरञ्चिरूपान्मनसः कल्पितत्वाज्जगत्स्थितेः ।
तावत्स्थितिरियं प्रोक्ता तन्नाशे नाशमाप्नुयात् ॥ १६४॥
न जायते न म्रियते क्वचित्किंचित्कदाचन ।
परमार्थेन विप्रेन्द्र मिथ्या सर्वं तु दृश्यते ॥ १६५॥
कोशमाशाभुजङ्गानां संसाराडंबरं त्यज ।
असदेतदिति ज्ञात्वा मातृभावं निवेशय ॥ १६६॥
गन्धर्वनगरस्यार्थे भूषितेऽभूषिते तथा ।
अविद्यांशे सुतादौ वा कः क्रमः सुखदुःखयोः ॥ १६७॥
धनदारेषु वृद्धेषु दुःखयुक्तं न तुष्टता ।
वृद्धायां मोहमायायां कः समाश्वासवानिह ॥ १६८॥
यैरेव जायते रागो मूर्खस्याधिकतां गतैः ।
तैरेव भागैः प्राज्ञस्य विराग उपजायते ॥ १६९॥
अतो निदाघ तत्त्वज्ञ व्यवहारेषु संसृतेः ।
नष्टं नष्टमुपेक्षस्व प्राप्तं प्राप्तमुपाहर ॥ १७०॥
अनागतानां भोगानामवाञ्छनमकृत्रिमम् ।
आगतानां च संभोग इति पण्डितलक्षणम् ॥ १७१॥
शुद्धं सदसतोर्मध्यं पदं बुद्ध्वावलंब्य च ।
सबाह्याभ्यन्तरं दृश्यं मा गृहाण विमुञ्च मा ॥ १७२॥
यस्य चेच्छा तथानिच्छा ज्ञस्य कर्मणि तिष्ठतः ।
न तस्य लिप्यते प्रज्ञा पद्मपत्रमिवाम्बुभिः ॥ १७३॥
यदि ते नेन्द्रियार्थश्रीः स्पन्दते हृदि वै द्विज ।
तदा विज्ञातविज्ञेया समुत्तीर्णो भवार्णवात् ॥ १७४॥
उच्चैःपदाय परया प्रज्ञया वासनागणात् ।
पुष्पाद्गन्धमपोह्यारं चेतोवृत्तिं पृथक्कुरु ॥ १७५॥
संसाराम्बुनिधावस्मिन्वासनाम्बुपरिप्लुते ।
ये प्रज्ञानावमारूढास्ते तीर्णाः पण्डिताः परे ॥ १७६॥
न त्यजन्ति न वाञ्छन्ति व्यवहारं जगद्गतम् ।
सर्वमेवानुवर्तन्ते पारावारविदो जनाः ॥ १७७॥
अनन्तस्यात्मतत्त्वस्य सत्तासामान्यरूपिणः ।
चितश्चेत्योन्मुखत्वं यत्तत्संकल्पाङ्कुरं विदुः ॥ १७८॥
लेशतः प्राप्तसत्ताकः स एव घनतां शनैः ।
याति चित्तत्वमापूर्य दृढं जाड्याय मेघवत् ॥ १७९॥
भावयन्ति चितिश्चैत्यं व्यतिरिक्तमिवात्मनः ।
संकल्पतामिवायाति बीजमङ्कुरतामिव ॥ १८०॥
संकल्पनं हि संकल्पः स्वयमेव प्रजायते ।
वर्धते स्वयमेवाशु दुःखाय न सुखाय यत् ॥ १८१॥
मा संकल्पय संकल्पं मा भावं भावय स्थितौ ।
संकल्पनाशने यत्तो न भूयोऽननुगच्छति ॥ १८२॥
भावनाभावमात्रेण संकल्पः क्षीयते स्वयम् ।
संकल्पेनैव संकल्पं मनसैव मनो मुने ॥ १८३॥
छित्त्वा स्वात्मनि तिष्ठ त्वं किमेतावति दुष्करम् ।
यथैवेदं नभः शून्यं जगच्छून्यं तथैव हि ॥ १८४॥
तण्डुलस्य यथा चर्म यथा ताम्रस्य कालिमा ।
नश्यति क्रियया विप्र पुरुषस्य तथा मलम् ॥ १८५॥
जीवस्य तण्डुलस्येव मलं सहजमप्यलम् ।
नश्यत्येव न सन्देहस्तस्मादुद्योगवान्भवेत् ॥ १८६॥
इति महोपनिषत् ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
अन्तरास्थां परित्यज्य भावश्रीं भावनामयीम् ।
योऽसि सोऽसि जगत्यस्मिंल्लीलया विहरानघ ॥ १॥
सर्वत्राहमकर्तेति दृढभावनयानया ।
परमामृतनाम्नी सा समतैवावशिष्यते ॥ २॥
खेदोल्लासविलासेषु स्वात्मकर्तृतयैकया ।
स्वसंकल्पे क्षयं याते समतैवावशिष्यते ॥ ३॥
समता सर्वभावेषु यासौ सत्यपरा स्थितिः ।
तस्यामवस्थितं चित्तं न भूयो जन्मभाग्भवेत् ॥ ४॥
अथवा सर्वकर्तृत्वमकर्तृत्वं च वै मुने ।
सर्वं त्यक्त्वा मनः पीत्वा योऽसि सोऽसि स्थिरो भव ॥ ५॥
शेषस्थिरो समाधानो येन त्यजसि तत्त्यज ।
चिन्मनःकलनाकारं प्रकाशतिमिरादिकम् ॥ ६॥
वासनां वासितारं च प्राणस्पन्दनपूर्वकम् ।
समूलमखिलं त्यक्त्वा व्योमसाम्यः प्रशान्तधीः ॥ ७॥
हृदयात्सम्परित्यज्य सर्ववासनपङ्क्तयः ।
यस्तिष्ठति गतव्यग्रः स मुक्तः परमेश्वरः ॥ ८॥
दृष्टं द्रष्टव्यमखिलं भ्रान्तं भ्रान्त्या दिशो दश ।
युक्त्या वै चरतो ज्ञस्य संसारो गोष्पदाकृतिः ॥ ९॥
सबाह्याभ्यन्तरे देहे ह्यध ऊर्ध्वं च दिक्षु च ।
इत आत्मा ततोऽप्यात्मा नास्त्यनात्ममयं जगत् ॥ १०॥
न तदस्ति न यत्राहं न तदस्ति न तन्मयम् ।
किमन्यदभिवाञ्छामि सर्वं सच्चिन्मयं ततम् ॥ ११॥
समस्तं खल्विदं ब्रह्म सर्वमात्मेदमाततम् ।
अहमन्य इदं चान्यदिति भ्रान्तिं त्यजानघ ॥ १२॥
तते ब्रह्मघने नित्ये संभवन्ति न कल्पिताः ।
न शोकोऽस्ति न मोहोऽस्ति न जरास्ति न जन्म वा ॥ १३॥
यदस्तीह तदेवास्ति विज्वरो भव सर्वदा ।
यथाप्राप्तानुभवतः सर्वत्रानभिवाञ्छनात् ॥ १४॥
त्यागादानपरित्यागी विज्वरो भव सर्वदा ।
यस्येदं जन्म पाश्चात्यं तमाश्वेव महामते ॥ १५॥
विशन्ति विद्या विमला मुक्ता वेणुमिवोत्तमम् ।
विरक्तमनसां सम्यक्स्वप्रसङ्गादुदाहृतम् ॥ १६॥
द्रष्टुर्दृश्यसमायोगात्प्रत्ययानन्दनिश्चयः ।
यस्तं स्वमात्मतत्त्वोत्थं निष्पन्दं समुपास्महे ॥ १७॥
द्रष्टृदर्शनदृश्यानि त्यक्त्वा वासनया सह ।
दर्शनप्रत्ययाभासमात्मानं समुपास्महे ॥ १८॥
द्वयोर्मध्यगतं नित्यमस्तिनास्तीति पक्षयोः ।
प्रकाशनं प्रकाशानामात्मानं समुपास्महे ॥ १९॥
सन्त्यज्य हृद्गुहेशानं देवमन्यं प्रयान्ति ये ।
ते रत्नमभिवाञ्छन्ति त्यक्तहस्तस्थकौस्तुभाः ॥ २०॥
उत्थितानुत्थितानेतानिन्द्रियारीन्पुनः पुनः ।
हन्याद्विवेकदण्डेन वज्रेणेव हरिर्गिरीन् ॥ २१॥
संसाररात्रिदुःस्वप्ने शून्ये देहमये भ्रमे ।
सर्वमेवापवित्रं तद्दृष्टं संसृतिविभ्रमम् ॥ २२॥
अज्ञानोपहतो बाल्ये यौवने वनिताहतः ।
शेषे कलत्रचिन्तार्तः किं करोति नराधमः ॥ २३॥
सतोऽसत्ता स्थिता मूर्ध्नि रम्याणां मूर्ध्न्यरम्यता ।
सुखानां मूर्ध्निदुःखानि किमेकं संश्रयाम्यहम् ॥ २४॥
येषां निमेषणामेषौ जगतः प्रलयोदयौ ।
तादृशाः पुरुषा यान्ति मादृशां गणनैव का ॥ २५॥
संसार एव दुःखानां सीमान्त इति कथ्यते ।
तन्मध्ये पतिते देहे सुखमासाद्यते कथम् ॥ २६॥
प्रबुद्धोऽस्मि प्रबुद्धोऽस्मि दुष्टश्चोरोऽयमात्मनः ।
मनो नाम निहन्म्येनं मनसास्मि चिरं हृतः ॥ २७॥
मा खेदं भज हेयेषु नोपादेयपरो भव ।
हेयादेयादृशौ त्यक्त्वा शेषस्थः सुस्थिरो भव ॥ २८॥
निराशता निर्भयता नित्यता समता ज्ञता ।
निरीहता निष्क्रियता सौम्यता निर्विकल्पता ॥ २९॥
धृर्मैत्री मनस्तुष्टिर्मृदुता मृदुभाषिता ।
हेयोपादेयनिर्मुक्ते ज्ञे तिष्ठन्त्यपवासनम् ॥ ३०॥
गृहीततृष्णाशबरीवासनाजालमाततम् ।
संसारवारिप्रसृतं चिन्तातन्तुभिराततम् ॥ ३१॥
अनया तीक्ष्णया तात छिन्धि बुद्धिशलाकया ।
वात्ययेवाम्बुदं जालं छित्त्वा तिष्ठ तते पदे ॥ ३२॥
मनसैव मनश्छित्त्वा कुठारेणेव पादपम् ।
पदं पावनमासाद्य सद्य एव स्थिरो भव ॥ ३३॥
तिष्ठन्गच्छन्त्स्वपञ्जाग्रन्निवसन्नुत्पतन्पतन् ।
असदेवेदमित्यन्तं निश्चित्यास्तां परित्यज ॥ ३४॥
दृश्यमाश्रयसीदं चेत्तत्सच्चितोऽसि बन्धवान् ।
दृश्यं सन्त्यजसीदं चेत्तदाऽचित्तोऽसि मोक्षवान् ॥ ३५॥
नाहं नेदमिति ध्यायंस्तिष्ठ त्वमचलाचलः ।
आत्मनो जगतश्चान्तर्द्रष्टृदृश्यदशान्तरे ॥ ३६॥
दर्शनाख्यं स्वमात्मानं सर्वदा भावयन्भव ।
स्वाद्यस्वादकसंत्यक्तं स्वाद्यस्वादकमध्यगम् ॥ ३७॥
स्वदनं केवलं ध्यायन्परमात्ममयो भव ।
अवलम्ब्य निरालम्बं मध्येमध्ये स्थिरो भव ॥ ३८॥
रज्जुबद्धा विमुच्यन्ते तृष्णाबद्धा न केनचित् ।
तस्मान्निदाघ तृष्णा त्वं त्यज संकल्पवर्जनात् ॥ ३९॥
एतामहंभावमयीपपुण्यां
छित्त्वानहंभाव शलाकयैव ॥
स्वभावजां भव्यभवन्तभूमौ
भव प्रशान्ताखिलभूतभीतिः ॥ ४०॥
अहमेषां पदार्थानामेते च मम जीवितम् ।
नाहमेभिर्विना किंचिन्न मयैते विना किल ॥ ४१॥
इत्यन्तर्निश्चयं त्यक्त्वा विचार्य मनसा सह ।
नाहं पदार्थस्य न मे पदार्थ इति भाविते ॥ ४२॥
अन्तःशीतलया बुद्ध्या कुर्वतो लीलया क्रियाम् ।
यो नूनं वासनात्यागो ध्येयो ब्रह्मन्प्रकीर्तितः ॥ ४३॥
सर्वं समतया बुद्ध्या यः कृत्वा वासनाक्षयम् ।
जहाति निर्ममो देहं नेयोऽसौ वासनाक्षयः ॥ ४४॥
अहंकारमयीं त्यक्त्वा वासनां लीलयैव यः ।
तिष्ठति ध्येयसंत्यागी स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४५॥
निर्मूलं कलनां त्यक्त्वा वासनां यः शमं गतः ।
ज्ञेयं त्यागमिमं विद्धि मुक्तं तं ब्राह्मणोत्तमम् ॥ ४६॥
द्वावेतौ ब्रह्मतां यातौ द्वावेतौ विगतज्वरौ ।
आपतत्सु यथाकालं सुखदुःखेष्वनारतौ ।
संन्यासियोगिनौ दान्तौ विद्धि शान्तौ मुनीश्वर ॥ ४७॥
ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु ।
सुषुप्तवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४८॥
हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्यदृष्टिभिः ।
न हृष्यति ग्लायति यः परामर्शविवर्जितः ॥ ४९॥
बाह्यार्थवासनोद्भूता तृष्णा बद्धेति कथ्यते ।
सर्वार्थवासनोन्मुक्ता तृष्णा मुक्तेति भण्यते ॥ ५०॥
इदमस्तु ममेत्यन्तमिच्छां प्रार्थनयान्विताम् ।
तां तीक्ष्णां शृङ्खलां विद्धि दुःखजन्मभयप्रदाम् ॥ ५१॥
तामेतां सर्वभावेषु सत्स्वसत्सु च सर्वदा ।
संत्यज्य परमोदारं पदमेति महामनाः ॥ ५२॥
बन्धास्थामथ मोक्षास्थां सुखदुःखदशामपि ।
त्यक्त्वा सदसदास्थां त्वं तिष्ठाक्षुब्धमहाब्धिवत् ॥ ५३॥
जायते निश्चयः साधो पुरुषस्य चतुर्विधः ॥ ५४॥
आपादमस्तकमहं मातापितृविनिर्मितः ।
इत्येको निश्चयो ब्रह्मन्बन्धायासविलोकनात् ॥ ५५॥
अतीतः सर्वभावेभ्यो वालाग्रादप्यहं तनुः ।
इति द्वितीयो मोक्षाय निश्चयो जायते सताम् ॥ ५६॥
जगज्जाल पदार्थात्मा सर्व एवाहमक्षयः ।
तृतीयो निश्चयश्चोक्तो मोक्षायैव द्विजोत्तम ॥ ५७॥
अहं जगद्वा सकलं शून्यं व्योम समं सदा ।
एवमेष चतुर्थोऽपि निश्चयो मोक्षसिद्धिदः ॥ ५८॥
एतेषां प्रथमः प्रोक्तस्तृष्णया बन्धयोग्यया ।
शुद्धतृष्णास्त्रयः स्वच्छा जीवन्मुक्ता विलासिनः ॥ ५९॥
सर्वं चाप्यहमेवेति निश्चयो यो महामते ।
तमादाय विषादाय न भूयो जायते मतिः ॥ ६०॥
शून्यं तत्प्रकृतिर्माया ब्रह्मविज्ञानमित्यपि ।
शिवः पुरुष ईशानो नित्यमात्मेति कथ्यते ॥ ६१॥
द्वैताद्वैतसमुद्भूतैर्जगन्निर्माणलीलया ।
परमात्ममयीशक्तिरद्वैतैव विजृम्भते ॥ ६२॥
सर्वातीतपदालम्बी परिपूर्णैकचिन्मयः ।
नोद्वेगी न च तुष्टात्मा संसारे नावसीदति ॥ ६३॥
प्राप्तकर्मकरो नित्यं शत्रुमित्रसमानदृक् ।
ईहितानीहितैर्मुक्तो न शोचति न काङ्क्षति ॥ ६४॥
सर्वस्याभिमतं वक्ता चोदितः पेशलोक्तिमान् ।
आशयज्ञश्च भूतानां संसारे नावसीदति ॥ ६५॥
पूर्वां दृष्टिमवष्टभ्य ध्येयत्यागविलासिनीम् ।
जीवन्मुक्ततया स्वस्थो लोके विहर विज्वरः ॥ ६६॥
अन्तःसंत्यक्तसर्वाशो वीतरागो विवासनः ।
बहिःसर्वसमाचारो लोके विहर विज्वरः ॥ ६७॥
बहिःकृत्रिमसंरंभो हृदि संरम्भवर्जितः ।
कर्ता बहिरकर्तान्तर्लोके विहर शुद्धधीः ॥ ६८॥
त्यक्ताहंकृतिराश्वस्तमतिराकाशशोभनः ।
अगृहीतकलङ्काङ्को लोके विहर शुद्धधीः ॥ ६९॥
उदारः पेशलाचारः सर्वाचारानुवृत्तिमान् ।
अन्तःसङ्गपरित्यागी बहिःसंभारवानिव ।
अन्तर्वैराग्यमादाय बहिराशोन्मुखेहितः ॥ ७०॥
अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ ७१॥
भावाभावविनिर्मुक्तं जरामरणवर्जितम् ।
प्रशान्तकलनारभ्यं नीरागं पदमाश्रय ॥ ७२॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः स्वच्छा निष्कामा विगतामया ।
आदाय विहरन्नेवं संकटेषु न मुह्यति ॥ ७३॥
वैराग्येणाथ शास्त्रेण महत्त्वादिगुणैरपि ।
यत्संकल्पहरार्थं तत्स्वयमेवोन्नयेन्मनः ॥ ७४॥
वैराग्यात्पूर्णतामेति मनो नाशवशानुगम् ।
आशया रक्ततामेति शरदीव सरोऽमलम् ॥ ७५॥
तमेव भुक्तिविरसं व्यापारौघं पुनः पुनः ।
दिवसेदिवसे कुर्वन्प्राज्ञ कस्मान्न लज्जते ॥ ७६॥
चिच्चैत्यकलितो बन्धस्तन्मुक्तौ मुक्तिरुच्यते ।
चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रहः ॥ ७७॥
एतन्निश्चयमादाय विलोकय धियेद्धया ।
स्वयमेवात्मनात्मानमानन्दं पदमाप्स्यसि ॥ ७८॥
चिदहं चिदिमे लोकाश्चिदाशाश्चिदिमाः प्रजाः ।
दृश्यदर्शननिर्मुक्तः केवलामलरूपवान् ॥ ७९॥
नित्योदितो निराभासो द्रष्टा साक्षी चिदात्मकः ॥ ८०॥
चैत्यनिर्मुक्तचिद्रूपं पूर्णज्योतिःस्वरूपकम् ।
संशान्तसर्वसंवेद्यं संविन्मात्रमहं महत् ॥ ८१॥
संशान्तसर्वसंकल्पः प्रशान्तसकलेषणः ।
निर्विकल्पपदं गत्वा स्वस्थो भव मुनीश्वर ॥ ८२॥ इति ।
य इमां महोपनिषदं ब्राह्मणो नित्यमधीते ।
अश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति । अनुपनीत उपनीतो भवति ।
सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो भवति । स सोमपूतो भवति ।
स सत्यपूतो भवति । स सर्वपूतो भवति । स सर्वर्देवैर्ज्ञातो भवति ।
स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति । स सर्वैर्देवैरनुध्यातो भवति ।
स सर्वक्रतुभिरिष्टवान्भवति । गायत्र्याः षष्टिसहस्राणि
जप्तानि फलानि भवन्ति । इतिहासपुराणानां शतसहस्राणि जप्तानि
फलानि भवन्ति । प्रणवानामयुतं जप्तं भवति ।
आचक्षुषः पङ्क्तिं पुनाति । आसप्तमान्पुरुषयुगान्पुनाति ।
इत्याह भगवान् हिरण्यगर्भः । जप्येनामृतत्त्वं च
गच्छतीत्युपनिषत् । ॥ इति षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं
ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणम-
स्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति महोपनिषत्समाप्ता॥
माण्डूक्योपनिषत्
॥ अथ माण्डूक्योपनिषत् ॥
ॐ इत्येतदक्षरमिदꣳ सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ १॥
सर्वं ह्येतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ २॥
जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥ ३॥
स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥ ४॥
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं
पश्यति तत् सुषुप्तम् । सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन
एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥ ५॥
एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य
प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥ ६॥
नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं
न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं
अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं
शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७॥
सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा
अकार उकारो मकार इति ॥ ८॥
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्
वाऽऽप्नोति ह वै सर्वान् कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥ ९॥
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षात्
उभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति
नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥ १०॥
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा
मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥ ११॥
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत
एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मानं य एवं वेद ॥ १२॥
॥ इति माण्डूक्योपनिषत् समाप्ता ॥
॥ मुक्तिकोपनिषत्
॥
ईशाद्यष्टोत्तरशतवेदान्तपटलाशयम् ।
मुक्तिकोपनिषद्वेद्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
हरिः ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ अयोध्यानगरे रम्ये रत्नमण्डपमध्यमे ।
सीताभरतसौमित्रिशत्रुघ्नाद्यैः समन्वितम् ॥ १॥
सनकाद्यैर्मुनिगणैर्वसिष्ठाद्यैः शुकादिभिः ।
अन्यैर्भागवतैश्चापि स्तूयमानमहर्निशम् ॥ २॥
धीविक्रियासहस्राणां साक्षिणं निर्विकारिणम् ।
स्वरूपध्याननिरतं समाधिविरमे हरिम् ॥ ३॥
भक्त्या शुश्रूषया रामं स्तुवन्पप्रच्च्ह मारुतिः ।
राम त्वं परमात्मसि सच्चिदानन्दविग्रहः ॥ ४॥
इदानीं त्वां रघुश्रेष्ठ प्रणमामि मुहुर्मुहुः ।
त्वद्रूपं ज्ञातुमिच्च्हामि तत्त्वतो राम मुक्तये ॥ ५॥
अनायासेन येनाहं मुच्येयं भवबन्धनात् ।
कृपया वद मे राम येन मुक्तो भवाम्यहम् ॥ ६॥
साधु पृष्टं महाबाहो वदामि शृणु तत्त्वतः ।
वेदान्ते सुप्रतिष्ठोऽहं वेदान्तं समुपाश्रय ॥ ७॥
वेदान्ताः के रघुश्रेष्ठ वर्तन्ते कुत्र ते वद ।
हनूमञ्च्हृणु वक्ष्यामि वेदान्तस्थितिमञ्जसा ॥ ८॥
निश्वासभूता मे विष्णोर्वेदा जाताः सुविस्तराः ।
तिलेषु तैलवद्वेदे वेदान्तः सुप्रतिष्ठितः ॥ ९॥
राम वेदाः कतिविधास्तेषां शाखाश्च राघव ।
तासूपनिषदाः काः स्युः कृपया वद तत्त्वतः ॥ १०॥
श्रीराम उवाच ।
ऋग्वेदादिविभागेन वेदाश्चत्वार ईरिताः ।
तेषां शाखा ह्यनेकाः स्युस्तासूपनिषदस्तथा ॥ ११॥
ऋग्वेदस्य तु शाखाः स्युरेकविंशतिसङ्ख्यकाः ।
नवाधिकशतं शाखा यजुषो मारुतात्मज ॥ १२॥
सहस्रसङ्ख्यया जाताः शाखाः साम्नः परन्तप ।
अथर्वणस्य शाखाः स्युः पञ्चाशद्भेदतो हरे ॥ १३॥
एकैकस्यास्तु शाखाया एकैकोपनिषन्मता ।
तासामेकामृचं यश्च पठते भक्तितो मयि ॥ १४॥
स मत्सायुज्यपदवीं प्राप्नोति मुनिदुर्लभाम् ।
राम केचिन्मुनिश्रेष्ठा मुक्तिरेकेति चक्षिरे ॥ १५॥
केचित्त्वन्नामभजनात्काश्यां तारोपदेशतः ।
अन्येतु साङ्ख्ययोगेन भक्तियोगेन चापरे ॥ १६॥
अन्ये वेदान्तवाक्यार्थविचारात्परमर्षयः ।
सालोक्यादिविभागेन चतुर्धा मुक्तिरीरिता ॥ १७॥
सहोवाच श्रीरामः ।
कैवल्यमुक्तिरेकैव परमार्थिकरूपिणी ।
दुराचाररतो वापि मन्नामभजनात्कपे ॥ १८॥
सालोक्यमुक्तिमाप्नोति न तु लोकान्तरादिकम् ।
काश्यां तु ब्रह्मनालेऽस्मिन्मृतो मत्तारमाप्नुयात् ॥ १९॥
पुनरावृत्तिरहितां मुक्तिं प्राप्नोति मानवः ।
यत्र कुत्रापि वा काश्यां मरणे स महेश्वरः ॥ २०॥
जन्तोर्दक्षिणकर्णे तु मत्तारं समुपादिशेत् ।
निर्धूताशेषपापौघो मत्सारूप्यं भजत्ययम् ॥ २१॥
सैव सालोक्यसारूप्यमुक्तिरत्यभिधीयते ।
सदाचाररतो भूत्वा द्विजो नित्यमनन्यधीः ॥ २२॥
मयि सर्वात्मको भावो मत्सामीप्यं भजत्ययम् ।
सैव सालोक्यसारूप्यसामीप्या मुक्तिरिष्यते ॥ २३॥
गुरूपदिष्टमार्गेण ध्यायन्मद्गुणमव्ययम् ।
मत्सायुज्यं द्विजः सम्यग्भजेद्भ्रमरकीटवत् ॥ २४॥
सैव सायुज्यमुक्तिः स्याद्ब्रह्मानन्दकरी शिवा ।
चतुर्विधा तु या मुक्तिर्मदुपासनया भवेत् ॥ २५॥
इयं कैवल्यमुक्तिस्तु केनोपायेन सिद्ध्यति ।
माण्डूक्यमेकमेवालं मुमुक्षूणां विमुक्तये ॥ २६॥
तथाप्यसिद्धं चेज्ज्ञानं दशोपनिषदं पठ ।
ज्ञानं लब्ध्वा चिरादेव मामकं धाम यास्यसि ॥ २७॥
तथापि दृढता न चेद्विद्ज्ञानस्याञ्जनासुत ।
द्वात्रिंशाख्योपनिषदं समभ्यस्य निवर्तय ॥ २८॥
विदेहमुक्ताविच्च्हा चेदष्टोत्तरशतं पठ ।
तासां क्रम सशान्तिं च श्रुणु वक्ष्यामि तत्त्वतः ॥ २९॥
ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः ।
ऐतरेयं च च्हान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा ॥ ३०॥
ब्रह्मकैवल्यजाबालश्वेताश्वो हंस आरुणिः ।
गर्भो नारायणो हंसो बिन्दुर्नादशिरः शिखा ॥ ३१॥
मैत्रायणी कौषीतकी बृहज्जाबालतापनी ।
कालाग्निरुद्रमैत्रेयी सुबालक्षुरिमन्त्रिका ॥ ३२॥
सर्वसारं निरालम्बं रहस्यं वज्रसूचिकम् ।
तेजोनादध्यानविद्यायोगतत्त्वात्मबोधकम् ॥ ३३॥
परिव्राट् त्रिशिखी सीता चूडा निर्वाणमण्डलम् ।
दक्षिणा शरभं स्कन्दं महानारायणाह्वयम् ॥ ३४॥
रहस्यं रामतपनं वासुदेवं च मुद्गलम् ।
शाण्डिल्यं पैङ्गलं भिक्षुमहच्च्हारीरकं शिखा ॥ ३५॥
तुरीयातीतसंन्यासपरिव्राजाक्षमालिका ।
अव्यक्तैकाक्षरं पूर्णा सूर्याक्ष्यध्यात्मकुण्डिका ॥ ३६॥
सावित्र्यात्मा पाशुपतं परं ब्रह्मावधूतकम् ।
त्रिपुरातपनं देवीत्रिपुरा कठभावना ।
हृदयं कुण्डली भस्म रुद्राक्षगणदर्शनम् ॥ ३७॥
तारसारमहावाक्य पञ्चब्रह्माग्निहोत्रकम् ।
गोपालतपनं कृष्णं याज्ञवल्क्यं वराहकम् ॥ ३८॥
शाट्यायनी हयग्रीवं दत्तात्रेयं च गारुडम् ।
कलिजाबालिसौभाग्यरहस्यऋचमुक्तिका ॥ ३९॥
एवमष्टोत्तरशतं भावनात्रयनाशनम् ।
ज्ञानवैराग्यदं पुंसां वासनात्रयनाशनम् ॥ ४०॥
पूर्वोत्तरेषु विहिततत्तच्च्हान्तिपुरःसरम् ।
वेदविद्याव्रतस्नातदेशिकस्य मुखात्स्वयम् ॥ ४१॥
गृहीत्वाष्टोत्तरशतं ये पठन्ति द्विजोत्तमाः ।
प्रारब्धक्षयपर्यन्तं जीवन्मुक्ता भवन्ति ते ॥ ४२॥
ततः कालवशादेव प्रारब्धे तु क्षयं गते ।
वैदेहीं मामकीं मुक्तिं यान्ति नास्त्यत्रसंशयः ॥ ४३॥
सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरशतम् ।
सकृच्च्ह्रवणमात्रेण सर्वाघौघनिकृन्तनम् ॥ ४४॥
मयोपदिष्टं शिष्याय तुभ्यं पवननन्दन ।
इदं शास्त्रं मयादिष्टं गुह्यमष्टोत्तरं शतम् ॥ ४५॥
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि पठतां बन्धमोचकम् ।
राज्यं देयं धनं देयं याचतः कामपूरणम् ॥ ४५॥
इदमष्टोत्तरशतं न देयं यस्य कस्यचित् ।
नास्तिकाय कृतघ्नाय दुराचाररताय वै ॥ ४७॥
मद्भक्तिविमुखायापि शास्त्रगर्तेषु मुह्यते ।
गुरुभक्तिविहीनाय दातव्यं न कदाचन ॥ ४८॥
सेवापराय शिष्याय हितपुत्राय मारुते ।
मद्भक्ताय सुशीलाय कुलीनाय सुमेधसे ॥ ४९॥
सम्यक् परीक्ष्य दातव्यमेवमष्टोत्तरं शतम् ।
यः पठेच्च्हृणुयाद्वापि स मामेति न संशयः । तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टीऽहमस्मि ।
असूयकायानृजवे शठाय मा मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् ।
यमेव विद्याश्रुतमप्रमत्तं मेधाविनं ब्रह्मचर्योपपन्नम् ।
तस्मा इमामुपसन्नाय सम्यक् परीक्ष्य दद्याद्वैष्णवीमात्मनिष्ठाम् ॥ १॥
अथ हैनं श्रीरामचन्द्रं मारुतिः पप्रच्च्ह
ऋग्वेदादिविभागेन पृथक् शान्तिमनुब्रूहीति ।
स होवाच श्रीरामः ।
ऐतरेयकौषीतकीनादबिन्द्वात्मप्रबोधनिर्वाण
मुद्गलाक्षमालिकात्रिपुरासौभाग्यबह्वृचा
नामृग्वेदगतानां दशसंख्याकानामुपनिषदां
वाङ्मे मनसीति शान्तिः ॥ १॥
ईशावास्यबृहदारण्यजाबालहंसपरमहंससुबाल
मन्त्रिकानिरालम्बत्रिशिखीब्राह्मणमण्डलब्राह्मणाद्वयतारक
पैङ्गलभिक्षुतुरीयातीताध्यात्मतारसारयाज्ञवल्क्य
शाट्यायनीमुक्तिकानां शुक्लयजुर्वेदगतानामेकोनविंशति
संख्याकानामुपनिषदां पूर्णमद इति शान्तिः ॥ २॥
कठवल्लीतैत्तिरीयकब्रह्मकैवल्यश्वेताश्वतरगर्भ
नारायणामृतबिन्द्वमृतनादकालाग्निरुद्रक्षुरिका
सर्वसारशुकरहस्यतेजोबिन्दुध्यानबिन्दुब्रह्मविद्या
योगतत्त्वदक्षिणामूर्तिस्कन्दशारीरकयोगशिखैकाक्षर
अक्ष्यवधूतकठरुद्रहृदययोगकुण्डलिनीपञ्चब्रह्म
प्राणाग्निहोत्रवराहकलिसन्तरणसरस्वतीरहस्यानां
कृष्णयजुर्वेदगतानां द्वात्रिंशत्संख्याकानमुपनिषदां
सह नाववत्विति शान्तिः ॥ ३॥
केनच्हान्दोग्यारुणिमैत्रायणिमैत्रेयीवज्रसूचिकायोगचूडामणि
वासुदेवमहत्संन्यासाव्यक्तकुण्डिकासावित्रीरुद्राक्षजाबालदर्शन
जाबालीनां सामवेदगतानां षोडशसंख्याकाना
मुपनिषदानामाप्यायन्त्विति शान्तिः ॥ ४॥
प्रश्नमुण्डकमाण्डुक्याथर्वशिरोऽथर्वशिखाबृहज्जाबाल
नृसिंहतापनीनारदपरिव्राजकसीताशरभमहानारायण
रामरहस्यरामतापनीशाण्डिल्यपरमहंसपरिव्राजक
अन्नपूर्णासूर्यात्मपाशुपतपरब्रह्मत्रिपुरातपनदेवीभावना
ब्रह्मजाबालगणपतिमहावाक्यगोपालतपनकृष्णहयग्रीव
दत्तात्रेयगारुडानामथर्ववेदगतानामेकत्रिंशत्संख्याकाना
मुपनिषदां भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥ ५॥
मुमुक्षवः पुरुषाः साधनचतुष्टयसंपन्नाः
श्रद्धावन्तः सुकुलभवं श्रोत्रियं शास्त्रवात्सल्य
गुणवन्तमकुटिलं सर्वभूतहितेरतं दयासमुद्रं सद्गुरुं
विधिवदुपसंगम्योपहारपाणयोऽष्टोत्तरशतोपनिषदं
विधिवदधीत्य श्रवणमनननिदिध्यासनानि नैरन्तर्येण कृत्वा
प्रारब्धक्षयाद्देहत्रयभंगं प्राप्योपाधिविनिर्मुक्त
घटाकाशवत्परिपूर्णता विदेहमुक्तिः । सैव कैवल्यमुक्तिरिति ।
अत एव ब्रह्मलोकस्था अपि ब्रह्ममुखाद्वेदान्तश्रवणादि कृत्वा
तेन सह कैवल्यं लभन्ते । अतः सर्वेषां कैवल्यमुक्तिर्ज्ञानमात्रेणोक्ता ।
न कर्मसांख्ययोगोपासनादिभिरित्युपनिषत् ॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
तथा हैनं श्रीरामचन्द्रं मारुतिः पप्रच्च्ह ।
केयं वा तत्सिद्धिः सिद्ध्या वा किं प्रयोजनमिति ।
सहोवाच श्रीरामः । पुरुषस्य कर्तृत्वभोक्तृत्व
सुखदुःखादिलक्षणश्चित्तधर्मः क्लेशरूपत्वाद्बन्धो
भवति । तन्निरोधनं जीवन्मुक्तिः । उपाधिविनिर्मुक्त
घटाकाशवत्प्रारब्धक्षयाद्विदेहमुक्तिः ।
जीवन्मुक्तिविदेहमुक्त्योरष्टोत्तरशतोपनिषदः प्रमाणम् ।
कर्तृत्वादिदुःखनिवृत्तिद्वारा नित्यानन्दावाप्तिः प्रयोजनं
भवति । तत्पुरुषप्रयत्नसाध्यं भवति । यथा पुत्रकामेष्टिना
पुत्रं वाणिज्यादिना वित्तं ज्योतिष्टोमेन स्वर्गं तथा
पुरुषप्रयत्नसाध्यवेदान्तश्रवणादिजनितसमाधिना
जीवन्मुक्त्यादिलाभो भवति । सर्ववासनाक्षयात्तल्लाभः ।
अत्र श्लोका भवन्ति ॥
उच्च्हास्त्रं शास्त्रितं चेति पौरुषं द्विविधं मतम् ।
अत्रोच्च्हस्त्रमनर्थाय परमार्थाय शास्त्रितम् ॥ १॥
लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयापि च ।
देहवासनया ज्ञानं यथावन्नैव जायते ॥ २॥
द्विविधा वासनाव्यूहः शुभश्चैवाशुभश्च तौ ।
वासनौघेन शुद्धेन तत्र चेदनुनीयसे ॥ ३॥
तत्क्रमेणाशु तेनैव मामकं पदमाप्नुहि ।
अथ चेदशुभो भावस्त्वां योजयति संकटे ॥ ४॥
प्राक्तनस्तदसौ यत्नाज्जेतव्यो भवता कपे ।
शुभाशुभाभ्यां मार्गाभ्यां वहन्ती वासनासरित् ॥ ५॥
पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि ।
अशुभेषु समाविष्टं शुभेष्वेवावतारयेत् ॥ ६॥
अशुभाच्चालितं याति शुभं तस्मादपीतरत् ।
पौरुषेण प्रयत्नेन लालयेच्चित्तबालकम् ॥७॥
द्रागभ्यासवशाद्याति यदा ते वासनोदयम् ।
तदाभ्यासस्य साफल्यं विद्धि त्वममरिमर्दन ॥ ८॥
सन्दिग्धायामपि भृशं शुभामेव समाचर ।
शुभायां वासनावृद्धौ न दोषाय मरुत्सुत ॥ ९॥
वासनाक्षयविज्ञानमनोनाशा महामते ।
समकालं चिराभ्यस्ता भवन्ति फलदा मताः ॥ १०॥
त्रय एवं समं यावन्नाभ्यस्ताश्च पुनः पुनः ।
तावन्न पदसंप्राप्तिर्भवत्यपि समाशतैः ॥ ११॥
एकैकशो निषेव्यन्ते यद्येते चिरमप्यलम् ।
तन्न सिद्धिं प्रयच्च्हन्ति मन्त्राः संकीर्तिता इव ॥ १२॥
त्रिभिरेतैश्चिराभ्यस्तैर्हृदयग्रन्थयो दृढाः ।
निःशङ्कमेव त्रुठ्यन्ति बिसच्च्हेदाद्गुणा इव ॥ १३॥
जन्मान्तशताभ्यस्ता मिथ्या संसारवासना ।
सा चिराभ्यासयोगेन विना न क्षीयते क्वचित् ॥ १४॥
तस्मात्सौम्य प्रयत्नेन पौरुषेण विवेकिना ।
भोगेच्च्हां दूरतस्त्यक्त्वा त्रयमेव समाश्रय ॥ १५॥
तस्माद्वासनया युक्तं मनो बद्धं विदुर्बुधाः ।
सम्यग्वासनया त्यक्तं मुक्तमित्यभिधीयते ।
मनोनिर्वासनीभावमाचराशु महाकपे ॥ १६॥
सम्यगालोचनात्सत्याद्वासना प्रविलीयते ।
वासनाविलये चेतः शममायाति दीपवत् ॥ १७॥
वासनां संपरित्यज्य मयि चिन्मात्र विग्रहे ।
यस्तिष्ठति गतो व्यग्रः सोऽहं सच्चित्सुखात्मकः ॥ १८॥
समाधिमथ कार्याणि मा करोतु करोतु वा ।
हृदयेनात्तसर्वेहो मुक्त एवोत्तमाशयः ॥ १९॥
नैष्कर्म्येण न तस्यार्थस्तस्यार्थोऽस्ति न कर्मभिः ।
न ससाधनजाप्याभ्यां यस्य निर्वासनं मनः ॥ २०॥
संत्यक्तवासनान्मौनादृते नास्त्युत्तमं पदम् ॥ २१॥
वासनाहीनमप्येतच्चक्षुरादीन्द्रियं स्वतः ।
प्रवर्तते बहिः स्वाऽर्थे वासनामात्रकारणम् ॥ २२॥
अयत्नोपनतेष्वक्षि दृग्द्रव्येषु यथा पुनः ।
नीरागमेव पतति तद्वत्कार्येषु धीरधीः ॥ २३॥
भावसंवित्प्रकटितामनुरूपा च मारुते ।
चित्तस्योत्पत्युपरमा वासनां मुनयो विदुः ॥ २४॥
दृढाभ्यस्तपदार्थैकभावनादतिचञ्चलम् ।
चित्तं संजायते जन्मजरामरणकारणम् ॥ २५॥
वासनावशतः प्राणस्पन्दस्तेन च वासना ।
क्रियते चित्तबीजस्य तेन बीजाङ्कुरक्रमः ॥ २६॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने ।
एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः ॥ २७॥
असङ्गव्यवहारत्वाद्भवभावनवर्जनात् ।
शरीरनाशदर्शित्वाद्वासना न प्रवर्तते ।
वासनासंपरित्यागाच्चितं गच्च्हत्यचित्तताम् ॥ २८॥
अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः ।
अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा ॥ २९॥
अव्युत्पन्नमना यावद्भवानज्ञाततत्पदः ।
गुरुशास्त्रप्रमाणैस्तु निर्णीतं तावदाचर ॥ ३०॥
ततः पक्वकषायेण नूनं विज्ञात वस्तुना ।
शुभोऽप्यसौ त्वया त्याज्यो वासनौघो निराधिना ॥ ३१॥
द्विविधचित्तनाशोऽस्ति सरूपोऽरूप एव च ।
जीवन्मुक्तः सरूपः स्यादरूपो देहमुक्तिगः ॥ ३२॥
अस्य नाशमिदानीं त्वं पावने श्रुणु सादरम् ॥ ३३।
चित्तानाशाभिधानं हि यदा ते विद्यते पुनः ।
मैत्र्यादिभिर्गुणैर्युक्तं शान्तिमेति न संशयः ।
भूयोजन्मविनिर्मुक्तं जीवन्मुक्तस्य तन्मनः ॥ ३४॥
सरूपोऽसौ मनोनाशो जीवन्मुक्तस्य विद्यते ।
अरूपस्तु मनोनाशो वैदेही मुक्तिगो भवेत् ॥ ३५॥
सहस्राङ्कुरशाखात्मफलपल्लवशालिनः ॥ ३६॥
अस्य संसारवृक्षस्य मनोमूलमिदं स्थितम् ।
संकल्प एव तन्मन्ये संकल्पोपशमेन तत् ॥ ३७॥
शोषयाशु यथा शोषमेति संसारपादपः ।
उपाय एक एवास्ति मनसः स्वस्य निग्रहे ॥ ३८॥
मनसोऽभ्युदयो नाशो मनोनाशो महोदयः ।
ज्ञमनो नाशमभ्येति मनो ज्ञस्य हि शृङ्खला ॥ ३९॥
तावन्निशीव वेताला वल्गन्ति हृदि वासनाः ।
एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ॥ ४०॥
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ॥ ४१॥
हस्तं हस्तेन संपीड्य दन्तैर्दन्तान्विचूर्ण्य च ।
अङ्गान्यङ्गैः समाक्रम्य जयेदादौ स्वकं मनः ॥ ४२॥
उपविश्योपविश्यैकां चिन्तकेन मुहुर्मुहुः ।
न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम् ॥ ४३॥
अङ्कुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतङ्गजः ।
अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसंगतिरेव च ॥ ४४॥
वासनासंपरित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम् ।
एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल ॥ ४५॥
सतीषु युक्तिष्वेतासु हठान्नियमन्ति ये ।
चेतसो दीपमुत्सृज्य विचिन्वन्ति तमोऽञ्जनैः ॥ ४६॥
विमूढाः कर्तुमुद्युक्ता ये हठाच्चेतसो जयम् ।
ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं बिसतन्तुभिः ॥ ४७॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य वृत्तिव्रततिधारणः ।
एकं प्राणपरिस्पन्दो द्वितीयं दृढभावना ॥ ४८॥
सा हि सर्वगता संवित्प्राणास्पन्देन चाल्यते ।
चित्तैकाग्र्याद्यतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते ॥ ४९॥
तत्साधनमथो ध्यानं यथावदुपदिश्यते ।
विनाप्यविकृतिं कृत्स्नां संभवव्यत्ययक्रमात् ।
यशोऽरिष्टं च चिन्मात्रं चिदानन्दं विचिन्तय ॥ ५०॥
अपानेऽस्तंगते प्राणो यावन्नाभ्युदितो हृदि ।
तावत्सा कुंभकावस्था योगिभिर्यानुभूयते ॥ ५१॥
बहिरस्तंगते प्राणे यावन्नापान उद्गतः ।
तावत्पूर्णां समावस्थां बहिष्ठं कुम्भकं विदुः ॥ ५२॥
ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृतं विना ।
संप्रज्ञातसमाधिः स्याद्ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः ॥ ५३॥
प्रशान्तवृत्तिकं चित्तं परमानन्ददायकम् ।
असंप्रज्ञातनामायं समाधिर्योगिनां प्रियः ॥ ५४॥
प्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम् ।
अतद्व्यावृत्तिरूपोऽसौ समाधिर्मुनिभावितः ॥ ५५॥
ऊर्ध्वपूर्णमधःपूर्णं मध्यपूर्णं शिवात्मकम् ।
साक्षाद्विधिमुखो ह्येष समाधिः पारमार्थिकः ॥ ५६॥
दृढभावनया त्यक्तपूर्वापरविचारणम् ।
यदादानं पदार्थस्य वासना सा प्रकीर्तिता ॥ ५७॥
भावितं तीव्रसंवेगादात्मना यत्तदेव सः ।
भवत्याशु कपिश्रेष्ठ विगतेतरवासनः ॥ ५८॥
तादृग्रूपो हि पुरुषो वासनाविवशीकृतः ।
संपश्यति यदैवैतत्सद्वस्त्विति विमुह्यति ॥ ५९॥
वासनावेगवैचित्र्यात्स्वरूपं न जहाति तत् ।
भ्रान्तं पश्यति दुर्दृष्टिः सर्वं मदवशादिव ॥ ६०॥
वासना द्विविधा प्रोक्ता शुद्धा च मलिना तथा ।
मलिना जन्महेतुः स्याच्च्हुद्धा जन्मविनाशिनी ॥ ६१॥
अज्ञानसुघनाकारा घनाहंकारशालिनी ।
पुनर्जन्मकरी प्रोक्ता मलिना वासना बुधैः ।
पुनर्जन्माङ्कुरं त्यक्त्वा स्थितिः संभृष्टबीजवत् ॥ ६२॥
बहुशास्त्रकथाकन्थारोमन्थेन वृथैव किम् ।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम् ॥ ६३॥
दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ॥ ६४॥
अधीत्य चतुरो वेदान्सर्वशास्त्राण्यनेकशः ।
ब्रह्मतत्त्वं न जानाति दर्वी पाकरसं यथा ॥ ६५॥
स्वदेहाशुचिगन्धेन न विरज्येत यः पुमान् ।
विरागकारणं तस्य किमन्यदुपदिश्यते ॥ ६६॥
अत्यन्तमलिनो देहो देही चात्यन्तनिर्मलः ।
उभयोरन्तरं ज्ञात्वा कस्य शौचं विधीयते ॥ ६७॥
बद्धो हि वासनाबद्धो मोक्षः स्याद्वासनाक्षयः ।
वासनां संपरित्यज्य मोक्षार्थित्वमपि त्यज ॥ ६८॥
मानसीर्वासनाः पूर्वं त्यक्त्वा विषयवासनाः ।
मैत्र्यादिवासनानाम्नीर्गृहाणामलवासनाः ॥ ६९॥
ता अप्यतः परित्यज्य ताभिर्व्यवहरन्नपि ।
अन्तःशान्तः समस्नेहो भव चिन्मात्रवासनः ॥ ७०॥
तामप्यथ परित्यज्य मनोबुद्धिसमन्विताम् ।
शेषस्थिरसमाधानो मयि त्वं भव मारुते ॥ ७१॥
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनामगोत्रं मम रूपमीदृशं
भजस्व नित्यं पवनात्मजार्तिहन् ॥ ७२॥
दृशिस्वरूपं गगनोपमं परं
सकृद्विभातं त्वजमेकमक्षरम् ।
अलेपकं सर्वगतं यदद्वयं
तदेव चाहं सकलं विमुक्तॐ ॥ ७३॥
दृशिस्तु शुद्धोऽहमविक्रियात्मको
न मेऽस्ति कश्चिद्विषयः स्वभावतः ।
पुरस्तिरश्चोर्ध्वमधश्च सर्वतः
सुपूर्णभूमाहमितीह भावय ॥ ७४॥
अजोऽमरश्चैव तथाजरोऽमृतः
स्वयंप्रभः सर्वगतोऽहमव्ययः ।
न कारणं कार्यमतीत्य निर्मलः
सदैव तृप्तोऽहमितीह भावय ॥ ७५॥
जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते ।
विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ७६॥
तदेतदृचाभ्युक्तम् ॥
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥
ॐ सत्यमित्युपनिषत् ।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति मुक्तिकोपनिषत्समाप्ता ॥
मुण्डकोपनिषत्
॥ श्रीः॥
॥ मुण्डकोपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ ॐ ब्रह्मणे नमः ॥
॥ प्रथममुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता
भुवनस्य गोप्ता । स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय
ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥ १॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तं
पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् ।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह
भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥ २॥
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ ३॥
तस्मै स होवाच ।
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म
यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥ ४॥
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ ५॥
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्ण-
मचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं
तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः ॥ ६॥
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति ।
यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि
तथाऽक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् ॥ ७॥
तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते ।
अन्नात् प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् ॥ ८॥
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तापः ।
तस्मादेतद्ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायाते ॥ ९॥
॥ इति मुण्डकोपनिषदि प्रथममुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
॥ प्रथममुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥
तदेतत् सत्यं मन्त्रेषु कर्माणि कवयो
यान्यपश्यंस्तानि त्रेतायां बहुधा सन्ततानि ।
तान्याचरथ नियतं सत्यकामा एष वः
पन्थाः सुकृतस्य लोके ॥ १॥
यदा लेलायते ह्यर्चिः समिद्धे हव्यवाहने ।
तदाऽऽज्यभागावन्तरेणाऽऽहुतीः प्रतिपादयेत् ॥ २॥
यस्याग्निहोत्रमदर्शमपौर्णमास-
मचातुर्मास्यमनाग्रयणमतिथिवर्जितं च ।
अहुतमवैश्वदेवमविधिना हुत-
मासप्तमांस्तस्य लोकान् हिनस्ति ॥ ३॥
काली कराली च मनोजवा च
सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा ।
स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी
लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥ ४॥
एतेषु यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकालं
चाहुतयो ह्याददायन् ।
तं नयन्त्येताः सूर्यस्य रश्मयो यत्र
देवानां पतिरेकोऽधिवासः ॥ ५॥
एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः
सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमानं वहन्ति ।
प्रियां वाचमभिवदन्त्योऽर्चयन्त्य
एष वः पुण्यः सुकृतो ब्रह्मलोकः ॥ ६॥
प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा
अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म ।
एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा
जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति ॥ ७॥
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः ।
जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ ८॥
अविद्यायं बहुधा वर्तमाना वयं
कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बालाः ।
यत् कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात्
तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते ॥ ९॥
इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं
नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः ।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं
लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥ १०॥
तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये
शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्यां चरन्तः ।
सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति
यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा ॥ ११॥
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो
निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन ।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥ १२॥
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय ।
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच
तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् ॥ १३॥
॥ इति मुण्डकोपनिषदि प्रथममुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥
॥ द्वितीय मुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
तदेतत् सत्यं
यथा सुदीप्तात् पावकाद्विस्फुलिङ्गाः
सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः ।
तथाऽक्षराद्विविधाः सोम्य भावाः
प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति ॥ १॥
दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः ।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः ॥ २॥
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥ ३॥
अग्नीर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ
दिशः श्रोत्रे वाग् विवृताश्च वेदाः ।
वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां
पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ॥ ४॥
तस्मादग्निः समिधो यस्य सूर्यः
सोमात् पर्जन्य ओषधयः पृथिव्याम् ।
पुमान् रेतः सिञ्चति योषितायां
बह्वीः प्रजाः पुरुषात् सम्प्रसूताः ॥ ५॥
तस्मादृचः साम यजूंषि दीक्षा
यज्ञाश्च सर्वे क्रतवो दक्षिणाश्च ।
संवत्सरश्च यजमानश्च लोकाः
सोमो यत्र पवते यत्र सूर्यः ॥ ६॥
तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः
साध्या मनुष्याः पशवो वयांसि ।
प्राणापानौ व्रीहियवौ तपश्च
श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्यं विधिश्च ॥ ७॥
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्
सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः ।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा
गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ॥ ८॥
अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वेऽस्मात्
स्यन्दन्ते सिन्धवः सर्वरूपाः ।
अतश्च सर्वा ओषधयो रसश्च
येनैष भूतैस्तिष्ठते ह्यन्तरात्मा ॥ ९॥
पुरुष एवेदं विश्वं कर्म तपो ब्रह्म परामृतम् ।
एतद्यो वेद निहितं गुहायां
सोऽविद्याग्रन्थिं विकिरतीह सोम्य ॥ १०॥
॥ इति मुण्डकोपनिषदि द्वितीयमुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
॥ द्वितीय मुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥
आविः संनिहितं गुहाचरं नाम
महत्पदमत्रैतत् समर्पितम् ।
एजत्प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ
सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम् ॥ १॥
यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु च
यस्मिँल्लोका निहिता लोकिनश्च ।
तदेतदक्षरं ब्रह्म स प्राणस्तदु वाङ्मनः
तदेतत्सत्यं तदमृतं तद्वेद्धव्यं सोम्य विद्धि ॥ २॥
धनुर् गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं
शरं ह्युपासा निशितं सन्धयीत ।
आयम्य तद्भावगतेन चेतसा
लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥ ३॥
प्रणवो धनुः शारो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत् तन्मयो भवेत् ॥ ४॥
यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं
मनः सह प्राणैश्च सर्वैः ।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो
विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥ ५॥
अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः ।
स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः ।
ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः
पाराय तमसः परस्तात् ॥ ६॥
यः सर्वज्ञः सर्वविद् यस्यैष महिमा भुवि ।
दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥
मनोमयः प्राणशरीरनेता
प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय ।
तद् विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा
आनन्दरूपममृतं यद् विभाति ॥ ७॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ८॥
हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् ।
तच्छुभ्रं ज्योतिषं ज्योतिस्तद् यदात्मविदो विदुः ॥ ९॥
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १०॥
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद् ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण ।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥ ११॥
॥ इति मुण्डकोपनिषदि द्वितीयमुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥
॥ तृतीय मुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ १॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनिशया शोचति मुह्यमानः ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य
महिमानमिति वीतशोकः ॥ २॥
यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं
कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् ।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय
निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥ ३॥
प्रणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति
विजानन् विद्वान् भवते नातिवादी ।
आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावा-
नेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥ ४॥
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ।
अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो
यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥ ५॥
सत्यमेव जयते नानृतं
सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ॥ ६॥
बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं
सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति ।
दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च
पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥ ७॥
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा
नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्व-
स्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं
ध्यायमानः ॥ ८॥
एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो
यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवेश ।
प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां
यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा ॥ ९॥
यं यं लोकं मनसा संविभाति
विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान् ।
तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-
स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेत् भूतिकामः ॥ १०॥
॥ इति मुण्डकोपनिषदि तृतीयमुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
॥ तृतीयमुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥
स वेदैतत् परमं ब्रह्म धाम
यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम् ।
उपासते पुरुषं ये ह्यकामास्ते
शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः ॥ १॥
कामान् यः कामयते मन्यमानः
स कामभिर्जायते तत्र तत्र ।
पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु
इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥ २॥
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ ३॥
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो
न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात् ।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वां-
स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥ ४॥
सम्प्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः
कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः
ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा
युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ॥ ५॥
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः
संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसत्त्वाः ।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले
परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ ६॥
गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा
देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु ।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा
परेऽव्यये सर्वे एकीभवन्ति ॥ ७॥
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽ
स्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ ८॥
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद
ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति ।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो
विमुक्तोऽमृतो भवति ॥ ९॥
तदेतदृचाऽभ्युक्तम् ।
क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः
स्वयं जुह्वत एकर्षिं श्रद्धयन्तः ।
तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत
शिरोव्रतं विधिवद् यैस्तु चीर्णम् ॥ १०॥
तदेतत् सत्यमृषिरङ्गिराः
पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते ।
नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ११॥
॥ इति मुण्डकोपनिषदि तृतीयमुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥
॥ इत्यथर्ववेदीय मुण्डकोपनिषत्समाप्ता ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः॥॥शान्तिः ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ मुद्गलोपनिषत् ॥
श्रीमत्पुरुषसूक्तार्थं पूर्णानन्दकलेवरम् ।
पुरुषोत्तमविख्यातं पूर्णं ब्रह्म भवाम्यहम् ॥
ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता
मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥
वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीते-
नाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ पुरुषसूक्तार्थनिर्णयं व्याख्यास्यामः
पुरुषसंहितायां पुरुषसूक्तार्थः संग्रहेण प्रोच्यते ।
सहस्रशीर्षेत्यत्र सशब्दोऽनन्तवाचकः ।
अनन्तयोजनं प्राह दशाङ्गुलवचस्तथा ॥ १॥
तस्य प्रथमया विष्णोर्देशतो व्याप्तिरीरिता ।
द्वितीयया चास्य विष्णोः कालतो व्याप्तिरुच्यते ॥ २॥
विष्णोर्मोक्षप्रदत्वं च कथितं तु तृतीयया ।
एतावानिति मन्त्रेण वैभवं कथितं हरेः ॥ ३॥
एतेनैव च मन्त्रेण चतुर्व्यूहो विभाषितः ।
त्रिपादित्यनया प्रोक्तमनिरुद्धस्य वैभवम् ॥ ४॥
तस्माद्विराडित्यनया पादनारायणाद्धरेः ।
प्रकृतेः पुरुषस्यापि समुत्पत्तिः प्रदर्शिता ॥ ५॥
यत्पुरुषेणेत्यनया सृष्टियज्ञः समीरितः ।
सप्तास्यासन्परिधयः समिधश्च समीरिताः ॥ ६॥
तं यज्ञमिति मन्त्रेण सृष्टियज्ञः समीरितः ।
अनेनैव च मन्त्रेण मोक्षश्च समुदीरितः ॥ ७॥
तस्मादिति च मन्त्रेण जगत्सृष्टिः समीरिता ।
वेदाहमिति मन्त्राभ्यां वैभवं कथितं हरेः ॥ ८॥
यज्ञेनेत्युपसंहारः सृष्टेर्मोक्षस्य चेरितः ।
य एवमेतज्जानाति स हि मुक्तो भवेदिति ॥ ९॥ १॥
अथ तथा मुद्गलोपनिषदि पुरुषसूक्तस्य वैभवं
विस्तरेण प्रतिपादितम् । वासुदेव इन्द्राय भगवज्ज्ञानमुपदिश्य
पुनरपि सूक्ष्मश्रवणाय प्रणतायेन्द्राय परमरहस्यभूतं
पुरुषसूक्ताभ्यां खण्डद्वयाभ्यामुपादिशत् ।
द्वौ खण्डावुच्येते । योऽय मुक्तः स पुरुषो
नामरूपज्ञानागोचरं संसारिणामतिदुर्ज्ञेयं
विषयं विहाय क्लेशादिभिः संक्लिष्टदेवादिजिहीर्षया
सहस्रकलावयवकल्याणं दृष्टमात्रेण मोक्षदं
वेषमाददे । तेन वेषेण भूम्यादिलोकं व्याप्यानन्त-
योजनमत्यतिष्ठत् । पुरुषो नारायणो भूतं भव्यं
भविष्यच्चासीत् । स च सर्वस्मान्महिम्नो ज्यायान् ।
तस्मान्न कोऽपि ज्यायान् । महापुरुष आत्मानं
चतुर्धा कृत्वा त्रिपादेन परमे व्योम्नि चासीत् । इतरेण
चतुर्थेनानिरुद्धनारायणेन विश्वान्यासन् । स च
पादनारायणो जगत्स्रष्टुं प्रकृतिमजनयत् । स
समृद्धकायः सन्सृष्टिकर्म न जज्ञिवान् ।
सोऽनिरुद्धनारायणस्तस्मै सृष्टिमुपादिशत् ।
ब्रह्मंस्तवेन्द्रियाणि याजकानि ध्यात्वा कोशभूतं
दृढं ग्रन्थिकलेवरं हविर्ध्यात्वा मां हविर्भुजं
ध्यात्वा वसन्तकालमाज्यं ध्यात्वा ग्रीष्ममिध्मं
ध्यात्वा शरदृतुं रसं ध्यात्वैवमग्नौ हुत्वाङ्ग-
स्पर्शात्कलेवरो वज्रं हीष्यते । ततः स्वकार्यान्सर्व-
प्राणिजीवान्सृष्ट्वा पश्वाद्याः प्रादुर्भविष्यन्ति ।
ततः स्थावरजङ्गमात्मकं जगद्भविष्यति । एतेन
जीवात्मनोर्योगेन मोक्षप्रकारश्च कथित इत्यनुसन्धेयम् ।
य इमं सृष्टियज्ञं जानाति मोक्षप्रकारं च
सर्वमायुरेति ॥ २॥
एको देवो बहुधा निविष्ट अजायमानो बहुधा विजायते ।
तमेतमग्निरित्यध्वर्यव उपासते । यजुरित्येष हीदं
सर्वं युनक्ति । सामेति छन्दोगाः । एतस्मिन्हीदं सर्वं
प्रतिष्ठितम् । विषमिति सर्पाः । सर्प इति सर्पविदः ।
ऊर्गिति देवाः । रयिरिति मनुष्याः । मायेत्यसुराः ।
स्वधेति पितरः । देवजन इति देवजनविदः । रूपमिति गन्धर्वाः ।
गन्धर्व इति अप्सरसः । तं यथायथोपासते तथैव भवति ।
तस्माद्ब्राह्मणः पुरुषरूपं परंब्रह्मैवाहमिति
भावयेत् । तद्रूपो भवति । य एवं वेद ॥ ३॥
तद्ब्रह्म तापत्रयातीतं षट्कोशविनिर्मुक्तं षडूर्मिवर्जितं
पञ्चकोशातीतं षड्भावविकारशून्यमेवमादि-
सर्वविलक्षणं भवति । तापत्रयं त्वाध्यात्मिकाधिभौति-
काधिदैविकं कर्तृकर्मकार्यज्ञातृज्ञानज्ञेय-
भोक्तृभोगभोग्यमिति त्रिविधम् । त्वङ्मांसशोणितास्थि-
स्नायुमज्जाः षट्कोशाः । कामक्रोधलोभमोहमद-
मात्सर्यमित्यरिषड्वर्गः । अन्नमयप्राणमयमनोमय-
विज्ञानमयानन्दमया इति पञ्चकोशाः ।
प्रियात्मजननवर्धनपरिणामक्षयनाशाः षड्भावाः ।
अशनायापिपासाशोकमोहजरामरणानीति षडूर्मयः ।
कुलगोत्रजातिवर्णाश्रमरूपाणि षड् भ्रमाः ।
एतद्योगेन परमपुरुषो जीवो भवति नान्यः ।
य एतदुपनिषदं नित्यमधीते सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो
भवति । स आदित्यपूतो भवति । अरोगी भवति । श्रीमांश्च भवति ।
पुत्रपौत्रादिभिः समृद्धो भवति । विद्वांश्च भवति ।
महापातकात्पूतो भवति । सुरापानात्पूतो भवति ।
अगम्यागमनात्पूतो भवति । मातृगमनात्पूतो भवति ।
दुहितृस्नुषाभिगमनात्पूतो भवति । स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति ।
वेदिजन्महानात्पूतो भवति । गुरोरशुश्रूषणात्पूतो भवति ।
अयाज्ययाजनात्पूतो भवति । अभक्ष्यभक्षणात्पूतो भवति ।
उग्रप्रतिग्रहात्पूतो भवति । परदारगमनात्पूतो भवति ।
कामक्रोधलोभमोहेर्ष्यादिभिरबाधितो भवति । सर्वेभ्यः
पापेभ्यो मुक्तो भवति । इह जन्मनि पुरुषो भवति तस्मादेत-
त्पुरुषसूक्तार्थमतिरहस्यं राजगुह्यं देवगुह्यं गुह्यादपि
गुह्यतरं नादीक्षितायोपदिशेत् ।
नानूचानाय । नायज्ञशीलाय । नावैष्णवाय ।
नायोगिने । न बहुभाषिणे । नाप्रियवादिने ।
नासंवत्सरवेदिने । नातुष्टाय । नानधीतवेदायोपदिशेत् ।
गुरुरप्येवंविच्छुचौ देशे पुण्यनक्षत्रे
प्राणानायम्य पुरुषं ध्यायन्नुपसन्नाय
शिष्याय दक्षिणकर्णे पुरुषसूक्तार्थमुपदिशेद्विद्वान् ।
न बहुशो वदेत् । यातयामो भवति । असकृत्कर्णमुपदिशेत् ।
एतत्कुर्वाणोऽध्येताध्यापकश्च इह जन्मनि पुरुषो
भवतीत्युपनिषत् ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठित-
माविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा
प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि
सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु
मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति मुद्गलोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ मैत्रायण्युपनिषत् ॥
॥ अथ मैत्रायण्युपनिषत् ॥
सामवेदीय सामान्य उपनिषत् ॥
वैराग्योत्थभक्तियुक्तब्रह्ममात्रप्रबोधतः ।
यत्पदं मुनयो यान्ति तत्त्रैपदमहं महः ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोतमथो
बलमिन्द्रियाणि च ।
सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां
मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य
उपनिषत्सु
धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
मैत्रायणी कौषितकी बृहज्जाबालतापनी ।
कालाग्निरुद्रमैत्रेयी सुबालक्षुरमन्त्रिका ।
ॐ बृहद्रथो ह वै नाम राजा राज्ये ज्येष्ठं पुत्रं
निधापयित्वेदमशाश्वतं मन्यमानः शारीरं
वैराग्यमुपेतोऽरण्यं निर्जगाम स तत्र परमं तप
आस्थायादित्यमीक्षमाण ऊर्ध्वबाहुस्तिष्ठत्यन्ते सहस्रस्य
मुनिरन्तिकमाजगामाग्निरिवाधूमकस्तेजसा
निर्दहन्निवात्मविद्भगवाञ्छाकायन्य उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वरं
वृणीश्वेति राजानमब्रवीत्स तस्मै नमस्कृत्योवाच
भगवन्नाहमात्मवित्त्वं तत्त्वविच्छृणुमो वयं स त्वं नो
ब्रूहीत्येतद्वृतं पुरस्तादशक्यं मा पृच्छ
प्रश्नमैक्ष्वाकान्यान्कामान्वृणीश्वेति शाकायन्यस्य
चरणवभिमृश्यमानो राजेमां गाथां जगाद ॥ १॥
भगवन्नस्थिचर्मस्नायुमज्जामांसशुक्रशोणितश्लेष्माश्रुदू
षिते विण्मूत्रवातपित्तकफसङ्घाते दुर्गन्धे
निःसारेऽस्मिञ्छरीरे किं कामोपभोगैः ॥ २॥
कामक्रोधलोभभयविषादेर्ष्येष्टवियोगानिष्टसम्प्रयोगक्षु
त्पिपासाजरामृत्युरोगशोकाद्यैरभिहतेऽस्मिञ्छरीरे किं
कामोपभोगैः ॥ ३॥
सर्वं चेदं क्षयिष्णु पश्यामो यथेमे
दंशमशकादयस्तृणवन्नश्यतयोद्भूतप्रध्वंसिनः ॥ ४॥
अथ किमेतैर्वा परेऽन्ये महाधनुर्धराश्चक्रवर्तिनः
केचित्सुद्युम्नभूरिद्युम्नेन्द्रद्युम्नकुवलयाश्वयौवनाश्ववद्धिया
श्वाश्वपतिः शशबिन्दुर्हारिश्चन्द्रोऽम्बरीषो
ननूक्तस्वयातिर्ययातिनरण्योक्षसेनोत्थमरुत्तभरतप्रभृतयो
राजानो मिषतो बन्धुवर्गस्य महतीं श्रियं
त्यक्त्वास्माल्लोकादमुं लोकं प्रयान्ति ॥ ५॥
अथ किमेतैर्वा परेऽन्ये
गन्धर्वासुरयक्षराक्षसभूतगणपिशाचोरगग्रहादीनां
निरोधनं पश्यामः ॥ ६॥
अथ किमेतैर्वान्यानां शोषणं महार्णवानां शिखरिणां
प्रपतनं ध्रुवस्य प्रचलनं स्थानं वा तरूणां
निमज्जनं पृथिव्याः स्थानादपसरणं सुराणं
सोऽहमित्येतद्विधेऽस्मिन्संसारे किं
कामोपभोगैर्यैरेवाश्रितस्यासकृदिहावर्तनं दृश्यत
इत्युद्धर्तुमर्हसीत्यन्धोदपानस्थो भेक इवाहमस्मिन्संसारे
भगवंस्त्वं नो गतिस्त्वं नो गतिः ॥ ७॥ इति प्रथमः
प्रपाठकः ॥
अथ भगवाञ्छाकायन्यः सुप्रीतोऽब्रवीद्राजानं महाराज
बृहद्रथेक्ष्वाकुवंशध्वजशीर्षात्मजः कृतकृत्यस्त्वं
मरुन्नाम्नो विश्रुतोऽसीत्ययं वा व खल्वात्मा ते कतमो
भगवान्वर्ण्य इति तं होवाच इति ॥ १॥
य एषो बाह्यावष्टम्भनेनोर्ध्वमुत्क्रान्तो
व्यथमानोऽव्यथमानस्तमः प्रणुदत्येष आत्मेत्याह
भगवानथ य एष सम्प्रसादोऽस्माञ्छरीरात्समुत्थाय
परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यत एष आत्मेति
होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति ॥ २॥
अथ खल्वियं ब्रह्मविद्या सर्वोपनिषद्विद्या वा राजन्नस्माकं
भगवता मैत्रेयेण व्याख्याताहं ते
कथयिष्यामीत्यथापहतपाप्मानस्तिग्मतेजस ऊर्ध्वरेतसो
वालखिल्या इति श्रुयन्तेऽथैते
प्रजापतिमब्रुवन्भगवञ्शकटमिवाचेतनमिदं शरीरं
कस्यैष खल्वीदृशो महिमातीन्द्रियभूतस्य
येनैतद्विधमिदं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयितास्य को
भगवन्नेतदस्माकं ब्रूहीति तान्होवाच ॥ ३॥
यो ह खलु वाचोपरिस्थः श्रूयते स एव वा एष शुद्धः
पूतः शून्यः शान्तो प्राणोऽनीशत्माऽनन्तोऽक्षय्यः स्थिरः
शाश्वतोऽजः स्वतन्त्रः स्वे महिम्नि तिष्ठत्यनेनेदं शरीरं
चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता चैषोऽस्येति ते
होचुर्भगवन्कथमनेनेदृशेनानिच्छेनैतद्विधमिदं
चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता चैषोऽस्येति कथमिति
तान्होवाच ॥ ४॥
स वा एष सूक्ष्मोऽग्राह्योऽदृश्यः पुरुषसंज्ञको
बुद्धिपूर्वमिहैवावर्ततेंऽशेन सुषुप्तस्यैव बुद्धिपूर्वं
निबोधयत्यथ योह खलु वावाइतस्यांशोऽयं
यश्चेतनमात्रः प्रतिपूरुषं क्षेत्रज्ञः
सङ्कल्पाध्यवसायाभिमानलिङ्गः प्रजापतिर्विश्वक्षस्तेन
चेतनेनेदं शरीरं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता
चैषोऽस्येति ते होचुर्भगवन्नीदृशस्य कथमंशेन
वर्तनमिति तान्होवाच ॥ ५॥
प्रजापतिर्वा एषोऽग्रेऽतिष्ठत्स नारमतैकः स
आत्मनमभिध्यायद्बव्हीः प्रजा असृजत्त अस्यैवात्मप्रबुद्धा
अप्राणा स्थाणुरिव तिष्ठमाना अपश्यत्स नारमत
सोऽमन्यतैतासं प्रतिबोधनायाभ्यन्तरं प्राविशानीत्यथ स
वायुमिवात्मानं कृत्वाभ्यन्तरं प्राविशत्स एको नाविशत्स
पञ्चधात्मानं प्रविभज्योच्यते यः प्राणोऽपानः समान
उदानो व्यान इति ॥ ६॥
अथ योऽयमूर्ध्वमुत्क्रामतीत्येष वाव स प्राणोऽथ
योयमावञ्चं संक्रामत्वेष वाव सोऽपानोऽथ योयं
स्थविष्ठमन्नधातुमपाने स्थापयत्यणिष्ठं चाङ्गेऽङ्गे
समं नयत्येष वाव स समानोऽथ योऽयं पीताशितमुद्गिरति
निगिरतीति चैष वाव स उदानोऽथ येनैताः शिरा
अनुव्याप्ता एष वाव स व्यानः ॥ ७॥
अथोपांशुरन्तर्याम्यमिभवत्यन्तर्याममुपांशुमेतयोरन्तराले
चौष्ण्यं मासवदौष्ण्यं स पुरुषोऽथ यः पुरुषः
सोऽग्निर्वैश्वानरोऽप्यन्यत्राप्युक्तमयमग्निर्वैश्वानरो
योऽयमनन्तः पुरुषो येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते
तस्यैष घोषो भवति यदेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स
यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैनं घोषं शृणोति ॥ ८॥
स वा एष पञ्चधात्मानं प्रविभज्य निहितो गुहायां
मनोमयः प्राणशरीरो बहुरूपः सत्यसं कल्प आत्मेति स वा
एषोऽस्य हृदन्तरे तिष्ठन्नकृतार्थोऽमन्यतार्थानसानि
तत्स्वानीमानि भित्त्वोदितः पञ्चभी रश्मिभिर्विषयानत्तीति
बुद्धीन्द्रियाणि यानीमान्येतान्यस्य रश्मयः कर्मेन्द्रियाण्यस्य
हया रथः शरीरं मनो नियन्ता प्रकृतिमयोस्य प्रतोदनेन
खल्वीरितं परिभ्रमतीदं शरीरं चक्रमिव मृते च
नेदं शरीरं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता
चैषोऽस्येति ॥ ९॥
स वा एष आत्मेत्यदो वशं नीत इव सितासितैः
कर्मफलैरभिभूयमान इव प्रतिशरीरेषु
चरत्यव्यक्तत्वात्सूक्ष्मत्वाददृश्यत्वादग्राह्यत्वान्निर्ममत्वा
च्चानवस्थोऽकर्ता कर्तेवावस्थितः ॥ १०॥
स वा एष शुद्धः स्थिरोऽचलश्चालेपोऽव्यग्रो निःस्पृहः
प्रेक्षकवदवस्थितः स्वस्य चरितभुग्गुणमयेन
पटेनात्मानमन्तर्धीयावस्थित इत्यवस्थित इति ॥ ११॥ इति
द्वितीयः प्रपाठकः ॥
ते होचुर्भगवन्यद्येवमस्यात्मनो महिमानं सूचयसीत्यन्यो
वा परः कोऽयमात्मा सितासितैः कर्मफलैरभिभूयमानः
सदसद्योनिमापद्यत इत्यवाचीं वोर्ध्वां वा गतं
द्वन्द्वैरभिभूयमानः परिभ्रमतीति कतम एष इति
तान्होवाच ॥ १॥
अस्ति खल्वन्योऽपरो भूतात्मा योऽयं सितासितैः
कर्मफलैरभिभूयमानः सदसदयोनिमापद्यत इत्यवाचीं
वोर्ध्वां गतिं द्वन्द्वैरभिभूयमानः
परिभ्रमतीत्यस्योपव्याख्यानं पञ्च तन्मात्राणि
भूतशब्देनोच्यन्ते पञ्च महाभूतानि
भूतशब्देनोच्यन्तेऽथ तेषां यः समुदायः
शरीरमित्युक्तमथ यो ह खलु वाव शरीरमित्युक्तं स
भूतात्मेत्युक्तमथास्ति तस्यात्मा बिन्दुरिव पुष्कर इति स वा
एषोऽभिभूतः
प्राकृत्यैर्गुणैरित्यतोऽभिभूतत्वात्संमूढत्वं
प्रयात्यसंमूढस्त्वादात्मस्थं प्रभुं भगवन्तं
कारयितारं नापश्यद्गुणौघैस्तृप्यमानः
कलुषीकृतास्थिरश्चञ्चलो लोलुप्यमानः सस्पृहो
व्यग्रश्चाभिमानत्वं प्रयात इत्यहं सो ममेदमित्येवं
मन्यमानो निबध्नात्यात्मनात्मानं जालेनैव खचरः
कृतस्यानुफलैरभिभूयमानः परिभ्रमतीति ॥ २॥
अथान्यत्राप्युक्तं यः कर्ता सोऽयं वै भूतात्मा करणैः
कारयितान्तःपुरुषोऽथ यथाग्निनायःपिण्डो वाभिभूतः
कर्तृभिर्हन्यमानो नानात्वमुपैत्येवं वाव खल्वसौ
भूतात्मान्तःपुरुषेणाभिभूतो गुणैर्हन्यमानो
नानात्वमुपैत्यथ यत्त्रिगुणं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिणतं
भूतत्रिगुणमेतद्वै नानात्वस्य रूपं तानि ह वा इमानि
गुणानि पुरुषेणेरितानि चक्रमिव चक्रिणेत्यथ यथायःपिण्डे
हन्यमाने नाग्निरभिभूयत्येवं नाभिभूयत्यसौ
पुरुषोऽभिभूयत्ययं भूतात्मोपसंश्लिष्टत्वादिति ॥ ३॥
अथान्यत्राप्युक्तं शरीरमिदं मैथुनादेवोद्भूतं
संविदपेतं निरय एव मूत्रद्वारेण
निष्क्रामन्तमस्थिभिश्चितं मांसेनानुलिप्तं
चर्मणावबद्धं विण्मूत्रपित्तकफमज्जामेदोवसाभिरन्यैश्च
मलैर्बहुभिः परिपूर्णं कोश इवावसन्नेति ॥ ४॥
अथान्यत्राप्युक्तं संमोहो भयं विषादो निद्रा तन्द्री व्रणो
जरा शोकः क्षुत्पिपासा कार्पण्यं क्रोधो नास्तिक्यमज्ञानं
मात्सर्यं वैकारुण्यं मूढत्वं निर्व्रीडत्वं
निकृतत्वमुद्धातत्वमसमत्वमिति तामसान्वितस्तृष्णा स्नेहो
रागो लोभो हिंसा रतिर्दृष्टिव्यापृतत्वमीर्ष्या
काममवस्थितत्वं चञ्चलत्वं जिहीर्षार्थोपार्जनं
मित्रानुग्रहणं परिग्रहावलम्बोऽनिष्टेष्विन्द्रियार्थेषु
द्विष्टिरिष्टेश्वभिषङ्ग इति राजसान्वितैः परिपूर्ण
एतैरभिभूत इत्ययं भूतात्मा
तस्मान्नानारूपाण्याप्नोतीत्याप्नोतीति ॥ ५॥ तृतीयः
प्रपाठकः ॥
ते ह खल्वथोर्ध्वरेतसोऽतिविस्मिता अतिसमेत्योचुर्भगवन्नमस्ते
त्वं नः शाधि त्वमस्माकं गतिरन्या न विद्यत इत्यस्य
कोऽतिथिर्भूतात्मनो येनेदं हित्वामन्येव सायुज्यमुपैति
तान्होवाच ॥ १॥
अथान्यत्राप्युक्तं महानदीषूर्मय इव निवर्तकमस्य
यत्पुराकृतं समुद्रवेलेव दुर्निवार्यमस्य मृत्योरागमनं
सदसत्फलमयैर्हि पाशैः पशुरिव बद्धं
बन्धनस्थस्येवास्वातन्त्र्यं यमविषयस्थस्यैव
बहुभयावस्थं मदिरोन्मत्त इवामोदममदिरोन्मत्तं पाप्मना
गृहीत इव भ्राम्यमाणं महोरगदष्ट इव विपदृष्टं
महान्धकार इव रागान्धमिन्द्रजालमिव मायामयं स्वप्नमिव
मिथ्यादर्शनं कदलीगर्भ इवासारं नट इव क्षणवेषं
चित्रभित्तिरिव मिथ्यामनोरममित्यथोक्तम् ॥ शब्दस्पर्शादयो
येऽर्था अनर्था इव ते स्थिताः । येष्वासक्तस्तु भूतात्मा न
स्मरेच्च परं पदम् ॥ २॥
अयं वा व खल्वस्य प्रतिविधिर्भूतात्मनो यद्येव
विद्याधिगमस्य धर्मस्यानुचरणं स्वाश्रमेष्वानुक्रमणं
स्वधर्म एव सर्वं धत्ते
स्तम्भशाखेवेतराण्यनेनोर्ध्वभाग्भवत्यन्यथधः पतत्येष
स्वधर्माभिभूतो यो वेदेषु न स्वधर्मातिक्रमेणाश्रमी
भवत्याश्रमेष्वेवावस्थितस्तपस्वी चेत्युच्यत एतदप्युक्तं
नातपस्कस्यात्मध्यानेऽधिगमः कर्मशुद्धिर्वेत्येवं ह्याह ॥
तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात्सम्प्राप्यते मनः ।
मनसा प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तत इति ॥ ३॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति ॥
यथा निरिन्धनो वह्निः स्वयोनावुपशाम्यति ।
तथा वृत्तिक्षयाच्चित्तं स्वयोनावुपशाम्यति ॥ १॥
स्वयोनावुपशान्तस्य मनसः सत्यगामिनः ।
इन्द्रियार्थाविमूढस्यानृताः कर्मवशानुगाः ॥ २॥
चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत् ।
यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥ ३॥
चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् ।
प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुते॥ ४॥
समासक्तं यदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरे ।
यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्तत्को न मुच्येत बन्धनात् ॥ ५॥
मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च ।
अशुद्धं कामसङ्कल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ॥ ६॥
लयविक्षेपरहितं मनः कृत्वा सुनिश्चलम् ।
यदा यात्यमनीभावं तदा तत्परमं पदम् ॥ ७॥
तावदेव निरोद्धव्यं हृदि यावत्क्षयं गतम् ।
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रन्थविस्तराः ॥ ८॥
समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो
निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं लभेत् ।
न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा
स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते ॥ ९॥
अपामपोऽग्निरग्नौ वा व्योम्नि व्योम न लक्षयेत् ।
एवमन्तर्गतं चित्तं पुरुषः प्रतिमुच्यते ॥ १०॥
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतमिति ॥ ११॥
अथ यथेयं कौत्सायनिस्तुतिः ॥
त्वं ब्रह्मा त्वं च वै विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं प्रजापतिः ।
त्वमग्निर्वरुणो वायुस्त्वमिन्द्रस्त्वं निशाकरः ॥ १२॥
त्वं मनुस्त्वं यमश्च त्वं पृथिवी त्वमथाच्युतः ।
स्वार्थे स्वाभाविकेऽर्थे च बहुधा तिष्ठसे दिवि ॥ १३॥
विश्वेश्वर नमस्तुभ्यं विश्वात्मा विश्वकर्मकृत् ।
विश्वभुग्विश्वमायस्त्वं विश्वक्रीडारतिः प्रभुः ॥ १४॥
नमः शान्तात्मने तुभ्यं नमो गुह्यतमाय च ।
अचिन्त्यायाप्रमेयाय अनादिनिधनाय चेति ॥ १५॥ ॥ ४॥
तमो वा इदमेकमास तत्पश्चात्परेणेरितं विषयत्वं
प्रयात्येतद्वै रजसो रूपं तद्रजः खल्वीरितं विषमत्वं
प्रयात्येतद्वै तमसो रूपं तत्तमः खल्वीरितं तमसः
सम्प्रास्रवत्येतद्वै सत्त्वस्य रूपं तत्सत्त्वमेवेरितं
तत्सत्त्वात्सम्प्रास्रवत्सोंऽशोऽयं यश्चेतनमात्रः
प्रतिपुरुषं क्षेत्रज्ञः सङ्कल्पाध्यवसायाभिमानलिङ्गः
प्रजापतिस्तस्य प्रोक्ता अग्र्यास्तनवो ब्रह्मा रुद्रो विष्णुरित्यथ
यो ह खलु वावास्य राजसोंऽशोऽसौ स योऽयं ब्रह्माथ यो ह
खलु वावास्य तामसोंऽशोऽसौ स योऽयं रुद्रोऽथ यो ह
खलु वावास्य सात्विकोंऽशोऽसौ स एवं विष्णुः स वा एष
एकस्त्रिधाभूतोऽष्टधैकादशधा द्वादशधापरिमितधा
चोद्भूत उद्भूतत्वाद्भूतेषु चरति प्रतिष्ठा
सर्वभूतानामधिपतिर्बभूवेत्यसावात्मान्तर्बहिश्चान्तर्बहिस्
ह्च ॥ ५॥ चतुर्थः प्रपाठकः ॥
द्विधा वा एष आत्मानं बिभर्त्ययं यः प्राणो
यश्चासावादित्योऽथ द्वौ वा एतावास्तां पञ्चधा
नामान्तर्बहिश्चाहोरात्रे तौ व्यावर्तेते असौ वा आदित्यो
बहिरात्मान्तरात्मा प्राणो बहिरात्मा गत्यान्तरात्मनानुमीयते
। गतिरित्येवं ह्याह यः
कश्चिद्विद्वानपहतपाप्माध्यक्षोऽवदातमनास्तन्निष्ठ
आवृत्तचक्षुः सोऽन्तरात्मागत्या बहिरात्मनोऽनुमीयते
गतिरित्येवं ह्याहाथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो
यः पश्यति मां हिरण्यवत्स एषोऽन्तरे हृत्पुष्कर
एवाश्रितोऽन्नमत्ति ॥ १॥
अथ य एषोऽन्तरे हृत्पुष्कर एवाश्रितोऽन्नमत्ति स
एषोऽग्निर्दिवि श्रितः सौरः कालाख्योऽदृश्यः
सर्वभूतान्नमत्ति कः पुष्करः किमयं वेद वा व
तत्पुष्करं योऽयमाकाशोऽस्येमाश्चतस्रो दिशश्चतस्र
उपदिशः संस्था अयमर्वागग्निः परत एतौ
प्राणादित्यावेतावुपासीतोमित्यक्षरेण व्याहृतिभिः सावित्र्या
चेति ॥ २॥
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं चाथ यन्मूर्तं
तदसत्यं यदमूर्तं तत्सत्यं तद्ब्रह्म यद्ब्रह्म
तज्ज्योतिर्यज्ज्योतिः स आदित्यः स वा एष ओमित्येतदात्मा स
त्रेधात्मानं व्यकुरुत ओमिति तिस्रो मात्रा एताभिः सर्वमिदमोतं
प्रोतं चैवास्मिन्नित्येवं ह्याहैतद्वा आदित्य ओमित्येवं
ध्यायंस्तथात्मानं युञ्जीतेति ॥ ३॥
अथान्यत्राप्युक्तमथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः
स उद्गीथ इत्यसावादित्य उद्गीथ एव प्रणव इत्येवं
ह्याहोद्गीथः प्रणवाख्यं प्रणेतारं नामरूपं विगतनिद्रं
विजरमविमृत्युं पुनः पञ्चधा ज्ञेयं निहितं
गुहायामित्येवं ह्याहोर्ध्वमूलं वा आब्रह्मशाखा
आकाशवाय्वग्न्युदकभूम्यादय एकेनात्तमेतद्ब्रह्म
तत्तस्यैतत्ते यदसावादित्य ओमित्येतदक्षरस्य
चैतत्तस्मादोमित्यनेनैतदुपासीताजस्रमित्येकोऽस्य रसं
बोधयीत इत्येवं ह्याहैतदेवाक्षरं पुण्यमेतदेवाक्षरं
ज्ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥ ४॥
अथान्यत्राप्युक्तं स्तनयत्येपास्य तनूर्या ओमिति
स्त्रीपुंनपुंसकमिति लिङ्गवत्येषाथाग्निर्वायुरादित्य इति
भास्वत्येषाथ रुद्रो विष्णुरित्यधिपतिरित्येषाथ गार्हपत्यो
दक्षणाग्निराहवनीय इति मुखवत्येषाथ ऋग्यजुःसामेति
विजानात्येषथ भूर्भुवस्वरिति लोकवत्येषाथ भूतं
भव्यं भविष्यदिति कालवत्येषाथ प्राणोऽग्निः सूर्यः इति
प्रतापवत्येषाथान्नमापश्चन्द्रमा इत्याप्यायनवत्येषाथ
बुद्धिर्मनोऽहङ्कार इति चेतनवत्येषाथ प्राणोऽपानो व्यान
इति प्राणवत्येके त्यजामीत्युक्तैताह प्रस्तोतार्पिता
भवतीत्येवं ह्याहैतद्वै सत्यकाम परं चापरं च
यदोमित्येतदक्षरमिति ॥ ५॥
अथ व्यात्तं वा इदमासीत्सत्यं प्रजापतिस्तपस्तप्त्वा
अनुव्याहरद्भूर्भुवःस्वरित्येषा हाथ प्रजापतेः स्थविष्ठा
तनूर्वा लोकवतीति स्वरित्यस्याः शिरो नाभिर्भुवो भूः पादा
आदित्यश्चक्षुरायत्तः पुरुषस्य महतो मात्राश्चक्षुषा
ह्ययं मात्राश्चरिति सत्यं वै चक्षुरक्षिण्युपस्थितो हि
पुरुषः सर्वार्थेषु
वदत्येतस्माद्भूर्भुवःस्वरित्युपासीतान्नं हि
प्रजापतिर्विश्वात्मा विश्वचक्षुरिवोपासितो भवतीत्येवं
ह्याहैषा वै प्रजापतिर्विश्वभृत्तनूरेतस्यामिदं
सर्वमन्तर्हितमस्मिॅंश्च सर्वस्मिन्नेषान्तर्हितेति
तस्मादेषोपासीतेति ॥ ६॥
तत्सवितुर्वरेण्यमित्यसौ वा आदित्यः सविता स वा एवं
प्रवरणाय आत्मकामेनेत्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ भर्गो देवस्य
धीमहीति सविता वै तेऽवस्थिता योऽस्य भर्गः कं
सञ्चितयामीत्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ धियो यो नः प्रचोदयादिति
बुद्धयो वै धियस्ता योऽस्माकं
प्रचोदयादित्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ भर्ग इति यो ह वा
अस्मिन्नादित्ये निहितस्तारकेऽक्षिणि चैष भर्गाख्यो
भाभिर्गतिरस्य हीति भर्गो भर्जति वैष भर्ग इति
ब्रह्मवादिनोऽथ भर्ग इति भासयतीमाॅंल्लोकानिति
रञ्जयतीमानि भूतानि गच्छत इति
गच्छत्यस्मिन्नागच्छत्यस्मा इमाः
प्रजास्तस्माद्भारकत्वाद्भर्गः शत्रून्सूयमानत्वात्सूर्यः
सव्नात्सविता दानादादित्यः
पवनात्पावमानोऽथायोऽथायनादादित्य इत्येवं ह्याह
खल्वात्मनात्मामृताख्यश्चेता मन्ता गन्ता स्रष्टा
नन्दयिता कर्ता वक्ता रसयिता घ्राता स्पर्शयिता च
विभुविग्रहे सन्निष्ठा इत्येवं ह्याहाथ यत्र द्वैतीभूतं
विज्ञानं तत्र हि शृणोति पश्यति जिघ्रतीति रसयते चैव
स्पर्शयति सर्वमात्मा जानीतेति यत्राद्वैतीभूतं विज्ञानं
कार्यकारणनिर्मुक्तं निर्वचनमनौपम्यं निरुपाख्यं किं
तदङ्ग वाच्यम् ॥ ७॥
एष हि खल्वात्मेशानः शंभुर्भवो रुद्रः
प्रजापतिर्विश्वसृड्ढिरण्यगर्भः सत्यं प्राणो हंसः शान्तो
विष्णुर्नारायणोऽर्कः सविता धाता सम्राडिन्द्र इन्दुरिति य
एष तपत्यग्निना पिहितः सहस्राक्षेण हिरण्मयेनानन्देनैष
वाव विजिज्ञासितव्योऽन्वेष्टव्यः सर्वभूतेभ्योऽभयं
दत्त्वारण्यं गत्वाथ
बहिःकृतेन्द्रियार्थान्स्वशरीरादुपलभतेऽथैनमिति
विश्वरूपं हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं
तपन्तम् । सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः
प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ॥ ८॥ इति पञ्चमः प्रपाठकः ॥
। अथ प्रपाठक ६ ।
द्विधा वा एष आत्मानं बिभर्त्ययं यः प्राणो
यश्चासा आदित्योऽथ द्वौ वा एता अस्य पन्थाना
अन्तर्बहिश्चाहोरात्रेणैतौ व्यावर्तेते असौ वा आदित्यो
बहिरात्मान्तरात्मा प्राणोऽतो बहिरात्मक्या
गत्यान्तरात्मनोऽनुमीयते गतिरित्येवं हि आहाथ यः
कश्चिद्विद्वानपहतपाप्माऽक्षाध्यक्षोऽवदातमनास्तन्निष्ठ
आवृत्तचक्षुः सो अन्तरात्मक्या गत्या बहिरात्मनोऽनुमीयते
गतिरित्येवं ह आह अथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो यः
पश्यतीमां हिरण्यवस्थात् स एषोऽन्तरे हृत्पुष्कर
एवाश्रितोऽन्नमत्ति ॥ १॥
अथ य एषोऽन्तरे हृत्पुष्कर एवाश्रितोऽन्नमत्ति स एषोऽग्निर्दिवि
श्रितः सौरः कालाख्योऽदृश्यः सर्वभूतान्यन्नमत्तीति कः
पुष्करः
किंमयो वेति इअदं वा व तत्पुष्करं योऽयमाकाशोऽस्येमाः
चतस्रो दिशश्चतस्र उपदिशो दलसंस्था आसमर्वाग्विचरत एतौ
प्राणादित्या एता उपासितोमित्येतदक्षरेण व्याहृतिभिः
सावित्र्या चेति ॥ २॥
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं च । अथ यन्मूर्तं
तदसत्यम् यदमूर्तं तत्सत्यम् तद्ब्रह्म तज्ज्योतिः यज्ज्योतिः स
आदित्यः स वा एष ओमित्येतदात्माभवत् स त्रेधात्मानं व्याकुरुत
ओमिति तिस्रो मात्रा एताभिः सर्वमिदमोतं प्रोतं चैवास्मीति एवं
ह्याहैतद्वा आदित्य ओमित्येवं ध्यायत आत्मानं युञ्जीतेति ॥ ३॥
अथान्यत्रापि उक्तमथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः
स उद्गीथ इति असौ वा आदित्य उद्गीथ एष प्रणवा इति । एवं
ह्याहोद्गीथं प्रणवाख्यं प्रणेतारं भारूपं
विगतनिद्रं विजरं विमृत्युं
त्रिपदं त्र्यक्षरं पुनः पञ्चधा ज्ञेयं निहितं गुहायामित्येवं
ह्याहोर्ध्वमूलं त्रिपाद्ब्रह्म शाखा आकाश वाय्वग्न्युदकभूम्यादय
एकोऽश्वत्थनामैतद्ब्रह्मैतस्यैतत्तेजो यदसा आदित्यः ओमित्येतदक्षरस्य
चैतत्तस्मादोमित्यनेनैतदुपासीताजस्रमित्येकोऽस्य सम्बोधयितेत्येवं
ह्याह :
एतदेवाक्षरं पुण्यमेतदेवाक्षरं परम् ।
एतदेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥ ॥ ४॥
अथान्यत्राप्युक्तं स्वनवत्येषास्यस्तनुर्या ओमिति स्त्रीपुंनपुंसकेति
लिङ्गवती एषाऽथाग्निर्वायुरादित्य इति भास्वति एषा अथ ब्रह्म
रुद्रो
विष्णुरित्यधिपतिवती एषाऽथ गार्हपत्यो दक्षिणाग्निराहवनीया इति
मुखवती एषाऽथ ऋग्यजुःसामेति विज्ञानवती एषा
भूर्भुवःस्वरिति
लोकवती एषाऽथ भूतं भव्यं भविष्यदिति कालवती एषाऽथ
प्राणोऽग्निः
सूर्य इति प्रतापवती एषाऽथान्नमापश्चन्द्रमा इत्याप्यायनवती
एषाऽथ बुद्धिर्मनोऽहङ्कारा इति चेतनवती एषाऽथ प्राणोऽपानो
व्यान
इति प्राणवती एषेति अत ओमित्युक्तेनैताः प्रस्तुता अर्चिता अर्पिता
भवन्तीति एवं ह्याहैतद्वै सत्यकाम परां चापरां
च ब्रह्म यदोमित्येतदक्षरमिति ॥ ५॥
अथाव्याहृतं वा इदमासीत् स सत्यं
प्रजापतिस्तपस्तप्त्वाऽनुव्याहरद्भूर्भुवःस्वरिति ।
एषैवास्य प्रजापतेः स्थविष्ठा तनुर्या लोकवतीति
स्वरित्यस्याः शिरो नाभिर्भुवो
भूः पादा आदित्यश्चक्षुः चक्षुरायता हि पुरुषस्य
महती मात्रा चक्षुषा
ह्ययं मात्राश्चरति सत्यं वै चक्षुः
अक्षिण्यवस्थितो हि पुरुषः सर्वार्थेषु चरति
एतस्माद्भूर्भुवःस्वरित्युपासीतानेन हि
प्रजापतिर्विश्वात्मा विश्वचक्षुरिवोपासितो भवतीति एवं ह्याहैषा
वै प्रजापतेर्विश्वभृत्तनुरेतस्यामिदं सर्वमन्तर्हितमस्मिन्
च सर्वस्मिन्नेषा अन्तर्हितेति तस्मादेषोपासीता ॥ ६॥
तत्सवितुर्वरेण्यमित्यसौ वा आदित्यः सविता स वा एवं प्रवरणीय
आत्मकामेनेत्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ भर्गो देवस्य धीमहीति
सविता वै देवस्ततो योऽस्य भर्गाख्यस्तं
चिन्तयामीत्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ
धियो यो नः प्रचोदयादिति बुद्धयो वै धियस्तायोऽस्माकं
प्रचोदयादित्याहुर्ब्रह्मवादिनः अथ भर्गा इति यो ह वा अमुष्मिन्नादित्ये
निहितस्तारकोऽक्षिणि वैष भर्गाख्यः भाभिर्गतिरस्य हीति भर्गः
भर्जयतीति
वैष भर्ग इति रुद्रो ब्रह्मवादिनोऽथ भ इति भासयतीमान् लोकान् र
इति
रंजयतीमानि भूतानि ग इति गच्छन्त्यस्मिन्नागच्छन्त्यस्मादिमाः
प्रजास्तस्माद्भ-रग-त्वाद्भर्गः शाश्वत् सूयमानात् सूर्यः सवनात्
सविताऽदानात् आदित्यः पवनात्पावनोऽथापोप्यायनादित्येवं ह्याह
खल्वात्मनोऽत्मा नेतामृताख्यश्चेता मन्ता गन्तोत्सृष्टानन्दयिता
कर्ता वक्ता रसयिता घ्राता द्रष्टा श्रोता स्पृशति च विभुर्विग्रहे
सन्निविष्टा इत्येवं ह्याह अथ यत्र द्वैतीभूतं विज्ञानं तत्र हि
शृणोति
पश्यति जिघ्रति रसयति चैव स्पर्शयति सर्वमात्मा जानीतेति
यत्राद्वैतीभूतं
विज्ञानं कार्यकारणकर्मनिर्मुक्तं निर्वचनमनौपम्यं निरुपाख्यां
किं तदवाच्यम् ॥ ७॥
एष हि खल्वात्मेशानः शम्भुर्भवो रुद्रः प्रजापतिर्विश्वसृक्
हिरण्यगर्भः सत्यं प्राणो हंसः शास्ता विष्णुर्नारायणोऽर्कः
सविता धाता विधाता सम्राडिन्द्र इन्दुरिति य एष तपत्यग्निरिवाग्निना
पिहितः सहस्राक्षेण हिरण्मयेनाण्डेन एष वा जिज्ञासितव्योऽन्वेष्टव्यः
सर्वभूतेभ्योऽभयं दत्वारण्यं गत्वाथ
बहिःकृत्वीन्द्रियार्थान्स्वाच्छरीरादुपलभेत एनमिति ।
विश्वरूपं हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम् ।
सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ॥
॥ ८॥
तस्माद्वा एष उभयात्मैवं विदात्मन्येवाभिद्यायत्यात्मन्येव
यजतीति ध्यानं प्रयोगस्थं मनो विद्वद्भिष्टुतं
मनःपूतिमुच्छिष्टोपहतमित्यनेन तत्पावयेत् मन्त्रं पठति
उच्छिष्टोच्छिष्टोपहितं यच्च पापेन दत्तं मृतसूतकाद्वा
वसोः पवित्रमग्निः सवितुश्च रश्मयः पुनन्त्वन्नं मम दुष्कृतं
च यदन्यत् अद्भिः पुरस्तात्परिदधाति प्राणाय स्वाहापानाय
स्वाहा व्यानाय स्वाहा समानाय स्वाहोदानाय स्वाहेति
पञ्चभिरभिजुहोति
अथावाशिष्टं यतवागश्नात्यतोऽद्भिर्भूय
एवोपरिष्टात्परिदधात्याचान्तो
भूत्वात्मेज्यानः प्राणोऽग्निर्विश्वोऽसीति च
द्वाभ्यामात्मानमभिध्यायेत्
प्राणोऽग्निः परमात्मा वै पञ्चवायुः समाश्रितः स प्रीतः प्रीणातु
विश्वं
विश्वभुक् विश्वोऽसि वैश्वानरोऽसि विश्वं त्वया
धार्यते जायमानम् विशन् तु त्वामाहुतयश्च
सर्वाः प्रजास्तत्र यत्र विश्वामृतोऽसीति एवं न विधिना
खल्वनेनात्तानत्वं पुनरुपैति ॥ ९॥
अथापरं वेदितव्यमुत्तरो विकारोऽस्यात्मयज्ञस्य यथान्नमन्नादश्चेति
अस्योपव्याख्यानं पुरुषश्चेता प्रधानान्तःस्थः स एव भोक्ता
प्राकृतमन्नं भुङ्क्त इति तस्यायं भूतात्मा ह्यन्नमस्यकर्ता
प्रधानः
तस्मात्त्रिगुणं भोज्यं भोक्ता पुरुषोऽन्तस्थः अत्र दृष्टं नाम
प्रत्ययम्
यस्माद्बीजसम्भवा हि पशवस्तस्माद्बीजं भोज्यमनेनैव प्रधानस्य
भोज्यत्वं
व्याख्यातं तस्माद्भोक्ता पुरुषो भोज्या प्रकृतिस्तत्स्थो भुङ्क्त इति
प्राकृतमन्नं
त्रिगुणभेदपरिणमत्वान्महदाद्यं विशेषान्तं लिङ्गमनेनैव
चतुर्दशविधस्य
मार्गस्य व्याख्या कृता भवति सुखदुःखमोहसंज्ञं
ह्यन्नभूतमिदं जगत्
न हि बीजस्य स्वादुपरिग्रहोऽस्तीति यावन्नप्रसूतिः तस्याप्येवं
तिसृष्ववस्थास्वन्नत्वं
भवति कौमारं यौवनं जरा परिणमत्वातत्दन्नत्वमेवं प्रधानस्य
व्यक्ततां
गतस्योपलब्धिर्भवति तत्र बुद्ध्यादीनि स्वादुनि
भवन्त्यध्यवसायसङ्कल्पाभिमाना इति
अथेन्द्रियार्थान् पञ्चस्वादुनि भवन्ति एवं सर्वाणीन्द्रियकर्माणि
प्राणकर्माणि
एवं व्यक्तमन्नमव्यक्तमन्नम् अस्य निर्गुणो भोक्ता
भोक्तृत्वाच्चैतन्यं
प्रसिद्धं तस्य यथाग्निर्वै देवानामन्नदः
सोमोऽन्नमग्निनैवान्नमित्येवंवित्
सोमसंज्ञोऽयंभूतत्माऽग्निसंज्ञोऽप्यव्यक्तमुखा इति वचनात्पुरुषो
ह्यव्यक्तमुखेन त्रिगुणं भुङ्क्त इति यो हैवं वेद संन्यासी योगी
चात्मयाजी चेति अथ यद्वन्न कश्चिच्छून्यागारे कामिन्यः
प्रविष्टाः स्पृशतीन्द्रियार्थान् तद्वद् यो न स्पृशति
प्रविष्टान् संन्यासी योगी चात्मयाजी चेति ॥ १०॥
परं वा एतदात्मनो रूपं यदन्नमन्नमयो ह्ययं प्राणोऽथ न
यद्यश्नात्यमन्ताऽश्रोताऽस्प्रष्टाऽद्रष्टाऽवक्ताऽघ्रातारसयिता
भवति प्राणांश्चोत्सृजतीति एवं ह्याहाथ यदि खल्वश्नाति
प्राणसमृद्धो
भूत्वा मन्ता भवति श्रोता भवति
स्प्रष्टा भवति वक्ता भवति रसयिता
भवति घ्राता भवति द्रष्टा भवतीति एवं ह्याह अन्नाद्वै प्रजाः
प्रजायन्ते
याः कश्चित्पृथिवीशृताः । अतोऽन्नेनैव जीवन्ति अथैतदपि यन्ति
अन्ततः ॥ ११॥
अथान्यत्रापि उक्तम् सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्यहरहः
प्रपतन्त्यन्नमभिजिघृक्षमाणानि सूर्यो रश्मिभिराददात्यन्नं
तेनासौ तपत्यन्नेनाभिषिक्ताः पचन्तीमे प्राणा अग्निर्वा
अन्नेनोज्ज्वलत्यन्नकामेनेदं प्रकल्पितं ब्रह्मणा
अतोऽन्नमात्मेत्युपासीतेत्वेयं
ह्याह । अनाद्भूतानि जायन्ते जातान्यन्नेन
वर्धन्ते अद्यतेऽत्ति च भूतानि
तस्मादन्नं तदुच्यते ॥ १२॥
अथान्यत्रापि उक्तम् : विश्वभृद्वै नामैषा तनुर्भगवतो
विष्णोर्यदिदमन्नं प्राणो वा अन्नस्य रसो मनः प्राणस्य
विज्ञानं मनस आनन्दं विज्ञानस्येति अन्नवान् प्राणवान्
मनश्वान् विज्ञानवान् आनन्दवान् च भवति यो हैवं वेद
यावान्तीह वै भूतान्यन्नमदन्ति तावत्स्वन्तस्थोऽन्नमत्ति यो हैवंवेद
।
अन्नमेव विजरन्नमन्नं संवननं स्मृतम् । अन्नं पशूनां
प्राणोऽन्नं ज्येष्ठमन्नं भिषक् स्मृतम् ॥ १३॥
अथान्यात्रप्युक्तम् : अन्नं वा अस्य सर्वस्य योनिः कालश्चान्नस्य
सूर्यो योनिः कालस्य तस्यैतद्रूपं यन् निमेषादिकालात्सम्भृतं
द्वादशात्मकं वत्सरमेतस्याग्नेयमर्धमर्धं वारुणं मघाद्यं
श्रविष्ठार्धमाग्नेयं क्रमेणोत्क्रमेण सार्पाद्यं श्रविष्ठार्धान्तं
सौम्यम् तत्रैकैकमात्मनो नवांशकं सचारकविधम्
सौक्ष्म्यत्वादेतत्प्रमाणमनेनैव प्रमीयते हि कालः न विना प्रमाणेन
प्रमेयस्योपलब्धिः प्रमेयोऽपि प्रमाणतां
पृथक्त्वादुपैत्यात्मसम्बोधनार्थमित्येवं
ह्याह । यावत्यो वै कालस्य कलास्तावतीषु चरत्यसौ यः कालं
ब्रह्मेत्युपासीत
कालस्तस्यातिदूरमपसरतीति एवं ह्याह :
कालात्स्रवन्ति भूतानि कालाद्वृद्धिं प्रयान्ति च ।
काले चास्तं नियच्छन्ति कालो मूर्तिरमूर्तिमान् ॥ ॥ १४॥
द्वे वाव ब्रह्मणो रुपे कालश्चाकालश्चाथ यः
प्रागादित्यात्सोऽकालोऽकालोऽथ
य आदित्यद्यः स कालः सकलः सकलस्य वा एतद्रूपं यत्संवत्सरः
संवत्सरात्खल्वेवेमाः प्रजाः प्रजायन्ते संवत्सरेणेह वै जाता
विवर्धन्ते
संवत्सरे प्रत्यस्तं यन्ति तस्मात्संवत्सरो वै प्रजापतिः कालोऽन्नं
ब्रह्मनीडमात्मा
चेत्येवं ह्याह
कालः पचति भूतानि सर्वाण्येव महात्मनि ।
यस्मिन् तु पच्यते कालो यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ॥ १५॥
विग्रहवानेष कालः सिन्धुराजः प्रजानाम् एष तत्स्थः सविताख्यो
यस्मादेवेमे चन्द्रर्क्षग्रह संवत्सरादयः सूयन्ते अथैभ्यः
सर्वमिदमत्र वा यत्किञ्चित्शुभाशुभं दृश्यन्तेह लोके
तदेतेभ्यस्तस्मादादित्यात्मा ब्रह्माथ कालसंज्ञमादित्यमुपासीतादित्यो
ब्रह्मेत्येकेऽथ एवं ह्याह ।
होता भोक्ता हविर्मन्त्रो यज्ञो विष्णुः प्रजापतिः ।
सर्वः कश्चित्प्रभुः साक्षी योऽमुष्मिन्भाति मण्डले ॥ ॥ १६॥
ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत् एकोऽनन्तः प्रागनन्तो दक्षिणोऽनन्तः
प्रतीच्यनन्त उदीच्यनन्त ऊर्ध्वान् चाऽवान् च सर्वतोऽनन्तः
न ह्यास्य प्राच्यादि दिशः कल्पन्तेऽथ तिर्यग्वान् चोर्ध्वं वा
अनूह्य एष परमात्माऽपरिमितोऽतर्क्योऽचिन्त्य एष आकाशात्मा
एवैष कृत्स्नक्षय एको जागर्तीति एतस्मादाकाशादेष खल्विदं
चेतामात्रं बोधयति अनेनैव चेदम् ध्यायते अस्मिन् च प्रत्यस्तं
याति अस्यैतद्भास्वरं रूपं यदमुष्मिन्नादित्ये तपति अग्नौ
चाधुमके
यज्ज्योतिश्चित्रतरमुदरस्तोऽथ वा यः पचत्यन्नम् इत्येवं ह्याह
यश्चैषोऽग्नौ
यश्चायं हृदये यश्चासावादित्ये स एष एका इत्येकस्य हैकत्वमेति
य एवं वेद ॥ १७॥
तथा तत्प्रयोगकल्पः प्राणायामः प्रत्याहारो ध्यानं धारणा
तर्कः समाधिः षडङ्गा इत्युच्यते योगः अनेन यदा पश्यन्पश्यति
रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् तदा विद्वान्पुण्यपापे
विहाय परेऽव्यये सर्वमेकीकरोति एवं ह्याह :
यथा पर्वतमादीप्तं नाश्रयन्ति मृगद्विजाः ।
तद्वद्ब्रह्मविदो दोषा नाश्रयन्ति कदाचन ॥
॥ १८॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : यदा वै बहिर्विद्वान्मनो नियम्येन्द्रियार्थान्
च प्राणो निवेशयित्वा निःसङ्कल्पस्ततस्तिष्ठेत् अप्राणादिह
यस्मात्सम्भूतः प्राणसंज्ञको जीवस्तस्मात्प्राणो वै तुर्याख्ये
धारयेत्प्राणम् इत्येवं ह्याह :
अचित्तं चित्तमध्यस्तमचिन्त्यं गुह्यमुत्तमम् ।
तत्र चित्तं निधायेत तच्च लिङ्गं निराश्रयम् ॥ ॥ १९॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : अतः परास्य धारणा तालुरसनाग्रनिपीडना-
द्वाङ्मनःप्राणनिरोधनाद्ब्रह्म तर्केण पश्यति यदात्मनाऽऽत्मान-
मणोरणीयांसं द्योतमानं मनःक्षयात्पश्यति तदात्मनात्मानं
दृष्ट्वा निरात्मा भवति निरात्मकत्वादसङ्ख्योऽयोनिश्चिन्त्यो
मोक्षलक्षणमित्येतत्परं रहस्यम् इत्येवं ह्याह :
चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् ।
प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुता इति ॥ ॥ २०॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : ऊर्ध्वगा नाडी सुषुम्नाख्या
प्राणसञ्चारिणी
ताल्वन्तर्विच्छिन्ना तया प्राणोङ्कारमनोयुक्तयोर्ध्वमुत्क्रमेत्
ताल्वध्याग्रं
परिवर्त्य इन्द्रियाण्यसंयोज्य महिमा महिमानं निरीक्षेता ततो
निरात्वकमेति
निरात्मकत्वान्न सुखदुःखभाग्भवति केवलत्वं लभता इत्येवं
ह्याह :
परः पूर्वं प्रतिष्ठाप्य निगृहीतानिलं ततः ।
तीर्त्वा पारमपारेण पश्चाद्युञ्जीत मूर्ध्वनि ॥ ॥ २१॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : द्वे वा व ब्रह्मणी अभिध्येये
शब्दश्चाशब्दश्च
अथ शब्देनैवाशब्दमाविष्क्रियते अथ तत्र ओमिति
शब्दोऽनेनोर्ध्वमुत्क्रान्तोऽशब्दे
निधनमेति अथाहैषा गतिरेतदमृतम् अतत्सायुज्यत्वम्
निर्वृतत्वम् तथा चेति
अथ यथोर्णनाभिस्तन्तुनोर्ध्वमुत्क्रान्तोऽवकाशं लभतीत्येवं वा व
खल्वासावभिध्याता ओमित्यनेनोर्ध्वमुत्क्रान्तः स्वातन्त्र्यं लभते
अन्यथा परे शब्दवादिनः :
श्रवणाङ्गुष्ठयोगेनान्तर्हृदयाकाशशब्दमाकर्णयन्ति सप्तविधेयं
तस्योपमा यथा नद्यः किङ्किणी कांस्यचक्रकभेक विःकृन्दिका
वृष्टिर्निवाते
वदतीति तं पृथग्लक्षणमतीत्य परेऽशब्देऽव्यक्ते ब्रह्मण्यस्तं
गताः तत्र तेऽपृथग्धर्मिणोऽपृथग्विवेक्या यथा सम्पन्ना
मधुत्वं नानारसा इत्येवं ह्याह :
द्वे ब्रह्मणि वेदितव्ये शब्दब्रह्म परां च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ॥ २२॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : यः शब्दस्तदोमित्येतदक्षरम्
यदस्याग्रं तच्छान्तमशब्दमभयमशोकमानन्दं तृप्तं
स्थिरमचलममृतमच्युतं ध्रुवं विष्णुसंज्ञितं सर्वापरत्वाय
तदेता उपसीतेत्येवं ह्याह :
योऽसौ परापरो देवा ॐकारो नाम नामतः ।
निःशब्दः शून्यभूतस्तु मूर्ध्नि स्थाने ततोऽभ्यसेत् ॥ ॥ २३॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : धनुः शरीरम् ओमित्येतच्छरः
शिखास्य मनः तमोलक्षणं भित्वा तमोऽतमाविष्टमागच्छति
अथाविष्टं भित्वाऽलातचक्रमिव स्फुरन्तमादित्यवर्णमूर्जस्वन्तं
ब्रह्म तमसः पर्यमपश्यद्यदमुष्मिन्नादित्येऽथ सोमेऽग्नौ
विद्युति विभाति अथ खल्वेनं दृष्ट्वाऽमृतत्वं गच्छतीत्येवं
ह्याह :
ध्यानमन्तःपरे तत्त्वे लक्ष्येषु च निधीयते ।
अतोऽविशेषविज्ञानं विशेषमुपगच्छति ॥
मानसे च विलीने तु यत्सुखं चात्मसाक्षिकम् ।
तद्ब्रह्म चामृतं शुक्रं सा गतिर्लोक एव सः ॥ ॥ २४॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : निद्रेवान्तर्हितेन्द्रियः शुद्धितमया
धिया स्वप्न इव यः पश्यतीन्द्रियबिलेऽविवशः प्रणवाख्यं
प्रणेतारं भारूपं विगतनिद्रं विजरं विमृत्युं विशोकं
च सोऽपि प्रणवाख्यः प्रणेता भारूपः विगत निद्रः विजरः
विमृत्युर्विशोको भवतीत्येवं ह्याह :
एवं प्राणमथोङ्कारं यस्मात्सर्वमनेकधा ।
युनक्ति युञ्जते वापि यस्माद्योग इति स्मृतः ॥
एकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च ।
सर्वभावपरित्यागो योग इत्यभिधीयते ॥ ॥ २५॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : यथा वाप्सु चारिणः शाकुनिकः
सूत्रयन्त्रेणोद्धृत्योदरेऽग्नौ जुहोत्येवं वा व
खल्विमान्प्राणानोमित्यनेनोद्धृत्यानामयेऽग्नौ जुहोति
अतस्तप्तोर्विवसोऽथ यथा तप्तोर्वि सार्पिस्तृणकाष्ठसंस्पर्शे-
नोज्ज्वलतीत्येवं वा व खल्वसावप्राणाख्यः प्राणसंस्पर्शेनोज्ज्वलति
अथ यदुज्ज्वलत्येतद्ब्रह्मणो रूपं चैतद्विष्णोः परमं पदम्
चैतद्रुद्रस्य रुद्रत्वमेतत्तदपरिमितधा चात्मानं विभज्य
पूरयतीमां लोकानित्येवं ह्याह :
वह्नेश्च यद्वत्खलु विस्फुलिङ्गाः सूर्यान्मयूखाश्च तथैव
तस्य
प्राणादयो वै पुनरेव तस्माद् अभ्युच्चरन्तीह यथाक्रमेण ॥
॥ २६॥
अथान्यत्राप्युक्तम्:ब्रह्मणो वा वैतत्तेजः परस्यामृतस्याशरीरस्य
यच्छरीरस्यौष्ण्यमस्यैतद्घृतमथाविः सन् नभसि निहितं
वैतदेकाग्रेणैवमन्तर्हृदयाकाशं विनुदन्ति यत्तस्य ज्योतिरिव
सम्पद्यतीति अतस्तद्भावम् अचिरेणैति भूमावयस्पिण्डं निहितं
यथाऽचिरेणैति भूमित्वम् मृद्वत्संस्थमयस्पिण्डं
यथाग्न्ययस्कारादयो
नाभिभवन्ति प्रणश्यति चित्तं तथाश्रयेण सहैवमित्येवं ह्याह :
हृद्याकाशमयं कोशमानन्दं परमालयम् ।
स्वं योगश्च ततोऽस्माकं तेजश्चैवाग्निसूर्ययोः ॥ ॥ २७॥
अथान्यत्राप्युक्तम् : भूतेन्द्रियार्थानतिक्रम्य ततः प्रव्रज्याज्यं
धृतिदण्डं धनुर्गृहीत्वाऽनभिमानमयेन चैवेषुणा तं ब्रह्म
द्वारपारं निहत्याद्यं संमोहमौली तृष्णेर्ष्याकुण्डली
तन्द्रीराघवेत्र्यभिमानाध्यक्षः क्रोधज्यं प्रलोभदण्डं
धनुर्गृहीत्वेच्छामयेन चैवेषुणेमानि खलु भूतानि हन्ति
तं हत्वोंकारप्लवेनान्तर्हृदयाकाशस्य पारं तीर्त्वाविर्भूते
अन्तराकाशे शनकैरवटैवावटकृद्धातुकामः संविशत्येवं
ब्रह्मशालां विशेत् ततश्चतुर्जालं ब्रह्मकोशं प्रणुदेत्
गुर्वागमेनेति :
अतः शुद्धः पूतः शून्यः शान्तोऽप्राणो निरात्माऽनन्तोऽक्षय्यः
स्थिरः शाश्वतोऽजः स्वतन्त्रः स्वे महिम्नि तिष्ठति अतः स्वे महिम्नि
तिष्ठमानम् दृष्ट्वाऽवृत्तचक्रमिव सञ्चारचक्रमालोकयति
इत्येवं ह्याह :
षड्भिर्मासैस्तु युक्तस्य नित्यमुक्तस्य देहिनः
अनन्तः परमो गुह्यः सम्यग्योगः प्रवर्तते ॥
रजस्तमोभ्यां विद्धस्य सुसमिद्धस्य देहिनः
पुत्रदारकुटुम्बेषु सक्तस्य न कदाचन ॥ ॥ २८॥
एवमुक्त्वाऽन्तर्हृदयः शकायन्यस्तस्मै नमस्कृत्वाऽनया
ब्रह्मविद्यया राजन् ब्रह्मणः पन्थानमारूढाः पुत्राः
प्रजापतेरिति सन्तोषं द्वन्द्वतितिक्षां शान्तत्वं
योगाभ्यासादवाप्नोतीति
एतद्गुह्यतमं नापुत्राय नाशिष्याय नाशान्ताय कीर्तयेदिति
अनन्यभक्ताय सर्वगुणसम्पन्नाय दद्यात् ॥ ॥ २९॥
ॐ शुचौ देशे शुचिः सत्त्वस्थः सदधीयानः सद्वादी
सद्ध्यायी सद्याजी स्यादिति । अतः सद्ब्रह्मणि सत्यभिलाषिणि
निर्वृत्त्योऽनस्तत्फलच्छिन्नपाशो निराशः परेष्वात्मवद्विगतभयो
निष्कामोऽक्षय्यमपरिमितं सुखमाक्रम्य तिष्ठति । परमं
वै शेवधेरिव परस्योद्धरणं यन्निष्कामत्वम् । स हि सर्वकाममयः
पुरुषोऽध्यवसायसङ्कल्पाभिमानलिङ्गो बद्दः । अतस्तद्विपरीतो मुक्तः ।
अत्रैक आहुर्गुणः प्रकृतिभेदवशासध्यवसायात्मबन्धमुपागतो।
अध्यवसायस्य दोषक्षयाद्धि मोक्षः मनसा ह्येव पश्यति मनसा
शृणोति कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा
धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव गुणौघैरुह्यमानः
कलुषीकृतश्चास्थिरश्चलो लुप्यमानः सस्पृहो
व्यग्रश्चाभिमानित्वं
प्रयात इति अहं सो ममेदमित्येवं मन्यमानो निबध्नात्यात्मनात्मान्ं
जालेनेव खेचरः । अतः पुरुषोऽध्यावसायसङ्कल्पाबिमानलिङ्गो बद्दः
अतस्तद्विपरीतो मुक्तः तस्मान्निरध्यवसायो निःसङ्कल्पो
निरभिमानस्तिष्ठेत्
एतन्मोक्षलक्षणम् एषात्र ब्रह्मपदवी एषोऽत्र द्वारविवरोऽनेनास्य
तमसः पारं गमिष्यति । अत्र हि सर्वे कामाः समाहिता
इत्यत्रोदाहरन्ति :
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ।
बुद्धिश न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् ॥
एतदुक्त्वान्तर्हृदयः शाकायन्यस्तस्मै नमस्कृत्वा यथावदुपचारी
कृतकृत्यो मरुदुत्तरायणं गतो न ह्यत्रोद्वर्त्मना गतिः एषोऽत्र
ब्रह्मपथः सौरं स्द्वारं भित्त्वोर्द्ध्वेन विनिर्गता इत्यत्रोदाहरन्ति
:
अनन्ता रश्मयस्तस्य दीपवद्यः स्थितो हृदि ।
सितासिताः कद्रुनीलाः कपिला मृदुलोहिताः ॥
ऊर्ध्वमेकः स्थितस्तेषां यो भिभित्वा सूर्यमण्डलम् ।
ब्रह्मलोकमतिक्रम्य तेन यान्ति परां गतिम् ॥
यदस्यान्यद्रश्मिशतमूर्ध्वमेव व्यवस्थितम् ।
तेन देवनिकायानां स्वधामानि प्रपद्यते ॥
ये नैकरूपाश्चाधस्ताद्रश्मयोऽस्य मृदुप्रभाः ।
इह कर्मोपभोगाय तैः संसरति सोऽवषः ।
तस्मात्सर्गस्वर्गापवर्गहेतुर्भगवानसावादित्य इति ॥
॥ ३०॥
किमात्मकानि वा एतानीन्द्रियाणि प्रचरन्त्युद्गन्ता चैतेषामिह
को नियन्ता वेत्याह । प्रत्याहात्मात्मकानीत्यात्मा ह्येषामुद्गन्ता
वाप्सरसो भानवीयाश्च मरीचयो नाम अथ पञ्चभिः
रश्मिभिर्विषयानत्ति कतम आत्मेति योऽयं शुद्धः पूतः
शून्यः शान्तादिलक्षणोक्तः स्वकैर्लिङ्गैरुपगृह्यः
तस्यैतल्लिङ्गमलिङ्गस्याग्नेर्यदौष्ण्यमाविष्टं चापां यः
शिवतमोरस इत्येके । अथ वाक्ष्रोत्रं चक्षुर्मनः प्राण इत्येके,
अथ बुद्धिर्धृतिः स्मृतिः प्रज्ञा तदित्येके अथ ते एतस्यैवं
यथैवेह बीजस्याङ्कुरावाथधूमार्चिर्विष्फुलिङ्गा इवाग्नेश्चेति
अत्रोदाहरन्ति :
वह्नेश्च यद्वत्खलु विष्फुलिङ्गाः
सूर्यान्मयूखाश्च तथैव तस्य ।
प्राणादयो वै पुनरेव तस्मा-
दभ्युच्चरन्तीह यथाक्रमेण ॥ ॥ ३१॥
तस्माद्वा एतस्मादात्मनि सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे वेदाः
सर्वे देवाः सर्वाणि च भूतान्युच्चरन्ति तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यमिति
अथ यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा निश्चरन्त्येवं वा
एतस्य महतो
भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसा
इतिहासः
पुराणम् विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि
व्याख्यानान्यस्यैवैतानि विश्वा भूतानि ॥ ३२॥
पञ्चेष्टको वा एषोऽग्निः संवत्सरः तस्येमा इष्टका यो
वसन्तो ग्रीष्मो वर्षाः शरद्धेमन्तः स
शिरःपक्षसीपृच्छपृष्टवान्
एषोऽग्निः पुरुषविदः सेयं प्रजापतेः प्रथमा चितिः
करैर्यजमानमन्तरिक्षमुत्क्षिओप्त्वा वायवे प्रायच्छत्
प्राणो वै वायुः प्राणोऽग्निस्तस्येमा इष्टका यः प्राणो
व्यानोऽपानः समान उदानः स
शिरःपक्षसीपृष्ठपुच्छवानेषोऽग्निः
पुरुषविदस्तदिदमन्तरिक्षं प्रजापतेर्द्वितीया चितिः करैर्यजमानं
दिवमुत्क्षिप्तेन्द्राय प्रायच्छत् असौ वा आदित्य इन्द्रः सैषोऽग्निः
तस्येमा इष्टका यदृग्यजुः सामाथर्वाङ्गिरसा इतिहासं पुराणं
स शिरःपक्षसीपुच्छपृष्ठवानेषोऽग्निः पुरुषविदः सैषा
द्यौः प्रजापतेस्तृतीया चितिः करैर्यजमानस्यात्मविदेऽवदानं
करोति यथात्मविदुत्क्षिप्य ब्रह्मणे प्रायच्छत्
तत्रानन्दी मोदी भवति ॥ ३३॥
पृथिवीगार्हपत्योऽन्तरिक्षं दक्षिणाग्निर्द्यौराहवनीयः
तत एव पवमानपावकशुचय आविष्कृतमेतेनास्य
यज्ञम् यतः पवमानपावकशुचिसंघातो हि जाठरः
तस्मादग्निर्यष्टव्यः चेतव्यः स्तोतव्योऽभिध्यातव्यः
यजमानो हविर्गृहीत्वा देवताभिध्यानमिच्छति :
हिरण्यवर्णः शकुनो हृद्यादित्ये प्रतिष्ठितः
मद्गुर्हंसस्तेजोवृषः सोऽस्मिन्नग्नौ यजामहे
इति चापि मन्त्रार्थं विचिनोति । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोऽस्याभिध्येयं
यो बुद्ध्यन्तस्थो ध्यायीह मनःशान्तिपदमनुसरत्यात्मन्येव
धत्तेऽत्रेमे श्लोका भवन्ति :
१ यथा निरिन्धनो वह्निः स्वयोनावुपशाम्यते
तथा वृत्तिक्षयाच्चित्तं स्वयोनावुपशाम्यते ।
२ स्वयोनावुपशान्तस्य मनसः सत्यकामतः
इन्द्रियार्थविमूढस्यानृताः कर्मवशानुगाः ।
३ चित्तमेव हि संसारम् तत्प्रयत्नेन शोधयेत्
यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत्सनातनम् ।
४ चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम्
प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुते ।
५ समासक्तं यथा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरे
यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्तत्को न मुच्येत बन्धनात् ।
६ मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च
अशुद्धं कामसम्पर्कात् शुद्धं कामविवर्जितम् ।
७ लय विक्षेपरहितं मनः कृत्वा सुनिश्चलम्
यदा यात्यमनीभावं तदा तत्परमं पदम् ।
८ तावन्मनो निरोद्धव्यं हृदि यावत्क्षयं गतम्
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषान्ये ग्रन्थविस्तराः ।
९ समाधिनिर्धौतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत्
न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते ।
१० अपामापोऽग्निरग्नौ वा व्योम्नि व्योम न लक्षयेत्
एवमन्तर्गतं यस्य मनः स परिमुच्यते ।
११ मन एव मनुष्याणं कारणं बन्धमोक्षयोः
बन्धाय विषयासंगिं मोक्षो निर्विषयं स्मृतम् ।
अतोऽनग्निहोत्र्यनग्निचिदज्ञानभिध्यायिनां ब्राह्मणः
पदव्योमानुस्मरणं विरुद्धम् तस्मादग्निर्यष्टव्यः चेतव्यः
स्तोतव्योऽभिध्यातव्यः ॥ ३४॥
नमोऽग्नये पृथिवी क्षिते लोकस्मृते लोकम्स्मै यजमानाय धेहि
नमो वायवेऽन्तरिक्षक्षिते लोकस्मृते लकमस्मै यजमानाय धेहि
नम आदित्याय दिविक्षिते लोकस्मृते लोकमस्मै यजमानाय धेहि
नमो ब्रह्मणे सर्वक्षिते सर्वस्मृते सर्वमस्मै यजमानाय धेहि
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय विष्णवे
योऽसा आदित्ये पुरुषः सोऽसा अहम् एष ह वै सत्यधर्मो यदादित्यस्य
आदित्यत्वं तच्छुक्लम् पुरुषम् अलिङ्गम् नभसोऽन्तर्गतस्य
तेजसोंऽशमात्रमेतद्यदादित्यस्य मध्य इवेत्य् अक्षिण्यग्नौ
चैतद्ब्रह्मैतदमृतमेतद्भर्गः एतत्सत्यधर्मो नभसोऽन्तर्गतस्य
तेजसोंऽशमात्रमेतद्यदादित्यस्य मध्ये अमृतं यस्य हि सोमः प्राणा
वा अप्ययंकुरा एतक़्द्ब्रह्मैतदमृतमेतद्भर्गः एतत्सत्यधर्मो
नभसोऽन्तर्गतस्य तेजसोऽंशमात्रम् एतद्यदादित्यस्य मध्ये
यजुर्दीप्यत्यौमापोज्योतिरसोऽमृतंब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ।
अष्टपादं शुचिं हंसं त्रिसूत्रमणुमव्ययम्
द्विधर्मोऽन्धं तेजसेन्धं सर्वं पश्यन्पश्यति
नभसोऽन्तर्गतस्य तेजसोऽन्शमात्रमेतद्यदादित्यस्य मध्ये उदित्वा
मयूखे भवत एतत्सवित्सत्यधर्म एतद्यजुरेतत्तप
एतदग्निरेतद्वायुरेतत्प्राण
एतदाप एतच्चन्द्रमा
एतच्छुक्रमेतदमृतमेतद्ब्रह्मविषयमेतद्भानुरर्णवस्तस्मिन्नेव
यजमानः सैन्धव इव व्लीयन्त एषा वै ब्रह्मैकतात्र हि सर्वे कामाः
समाहिता
इत्यत्रोदाहरन्ति :
अंशुधारय इवाणुवातेरितः संस्फुरत्यसावन्तर्गः सुराणाम् यो
हैवंवित्स सवित्
स द्वैतवित् सैकधामेतः स्यात्तदात्मकश्च : ये विन्दव
इवाभ्युच्चरन्त्यजस्रम्
विद्युदिवाभ्रार्चिषः परमे व्योमन् तेऽऋचिषो वै यशस
आश्रयवासाज्जटाभिरूपा
इव कृष्णवर्त्मनः ॥ ३५॥
द्वे वा व खल्वेते ब्रह्मज्योतिषो रूपके शान्तमेकं समृद्धं चैकम्
अथ यच्छन्तं तस्याधारं खम् अथ यत्समृद्धमिदं तस्यान्नम्
तस्मान्मन्त्रौषधाज्यामिषपुरोडाशस्थालीपाकादिभिर्यष्टव्यमन्त-
र्वेद्यामास्न्यवशिष्टैरन्नपानैश्चास्यमाहवनीयमिति मत्वा तेजसः
समृद्ध्यै पुण्यलोकविजित्यर्थायामृतत्वाय चात्रोदाहरन्ति :
अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामो यमराज्यमग्निष्टोमेनाभिययति
सोमराज्यमुक्थेन सूर्यराज्यं षोडशीना स्वाराज्यमतिरात्रेण
प्राजापत्यमासहस्रसंवत्सरान्तक्रतुनेति :
वर्त्याधारस्नेहयोगाद्यथा दीपस्य संस्थितिः ।
अन्तर्याण्डोपयोगादिमौ स्थितावात्मशिची तथा ॥
॥ ३६॥
तस्मादोमित्यनेनैतदुपासीतापरिमितं तेजस्तत्त्रेधभिहितमग्नावादित्ये
प्राणेऽथैषा नाड्यन्नबहुमित्येषाग्नौ हुतमादित्यं गमयति अतो यो
रसोऽस्रवत् स उद्गीथं वर्षति तेनेमे प्राणाः प्राणेभ्यः प्रजा
इत्यत्रोदाहरन्ति :
यद्धविरग्नौ हूयते तदादित्यं गमयति तत्सूर्यो रश्मिभिर्वर्षति
तेनान्नं भवति अन्नाद्भूतानामुत्पत्तिरित्येवं ह्याह :
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ॥
॥ ३७॥
अग्निहोत्रं जुह्वानो लोभजालं भिनत्ति अतः संमोहं छित्वा न
क्रोधान्स्तुन्वानः काममभिध्यायमानस्ततश्चतुर्जालं
ब्रह्मकोशं भिन्ददतः परमाकाशमत्र हि सौर
सौम्याग्नेयसात्विकानि मण्डलानि भित्त्वा ततः शुद्धः
सत्त्वान्तरस्थमचलममृतमच्युतं ध्रुवं विष्णुसंज्ञितम्
सर्वापरं धाम सत्यकामसर्वज्ञत्वसंयुक्तम् स्वतन्त्रम्
चैतन्यम् स्वे महिम्नि तिष्ठमानं पश्यति अत्रोदाहरन्ति :
रविमध्ये स्थितः सोमः सोममध्ये हुताशनः ।
तेजोमध्ये स्थितं सत्त्वं सत्त्वमध्ये स्थितोऽच्युतः ॥
शरीरप्रादेशाङ्गुष्ठमात्रमणोरप्यन्वयं ध्यात्वातःपरमतां
गच्छति अत्र हि सर्वे कामाः समाहिता इति अत्रोदाहरन्ति :
अङ्गुष्ठप्रादेशशरीरमात्रं प्रदीपप्रतापवद्विस्त्रिधा हि
तद्ब्रह्माभिष्टूयमानं महो देवो भुवनान्याविवेश ।
ॐ नमो ब्रह्मणे नमः ॥ ॥ ३८॥
इति षष्ठः प्रपाठकः ॥
प्रपाठक ७ ।
अग्निर्गायत्रं त्रिवृद्रथन्तरं वसन्तः प्राणो नक्षत्राणि
वसवः पुरस्तादुद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति पुनर्विश्नति
अन्तर्विवएणेक्षन्ति अचिन्त्योऽमूर्तो गभीरो
गुणभुग्भयोऽनिर्वृत्तिर्योगीश्वरः
सर्वज्ञो मघोऽप्रमेयोऽनाद्यन्तः श्रीमान् अजो धीमाननिर्देश्यः
सर्वसृक् सर्वस्यात्मा सर्वभुक् सर्वस्येशानः
सर्वस्यान्तरान्तरः ॥ १॥
इन्द्रस्त्रिष्टुप् पञ्चदशो बृहद्ग्रीष्मो व्यानः सोमो रुद्रा दक्षिणत
उद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति पुनर्विशन्ति अन्तर्विवरेण
ईक्षन्ति : अनाद्यन्तोऽपरिमितोऽपरिच्छिन्नोऽपरप्रयोज्यः
स्वतन्त्रोऽलिङ्गोऽमूर्तोऽनन्तशक्तिर्धाता भास्करः ॥ २॥
मरुतो जगती सप्तदशो वैरूपम् वर्षा अपानः शुक्र
आदित्याः पश्चादुद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति पुनर्विशन्ति
अन्तर्विवरेणेक्षन्ति तच्छान्तमशब्दमभयमशोकमानन्दम् तृप्तम्
स्थिरमचलममृतमच्युतम् ध्रुवम् विष्णुसंज्ञितम् सर्वापरं
धाम ॥ ३॥
विश्वे देवा अनुष्टुबेकविंशो वैराजः शरत्समानो वरुणः साध्या
उत्तरत उद्यन्ति तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति पुनर्विशन्ति
अन्तर्विवरेणेक्षन्ति अन्तःशुद्धः पूतः शून्यः शान्तोऽप्राणो
निरात्मानन्तः ॥ ४॥
मित्रावरुणौ पङ्क्तिस्त्रिणवत्रयस्त्रिंशो शाक्वररैवते हेमन्त
शिशिरा उदानोऽङ्गिरसश्चन्द्रमा ऊर्ध्वा उद्यन्ति तपन्ति
वर्षन्ति स्तुवन्ति पुनर्विशन्ति अन्तर्विवरेणेक्षन्ति प्रणवाख्यं
प्रणेतारम्
भारूपम् विगतनिद्रम् विजरम् विमृत्युम् विशोकम् ॥ ५॥
शनिराहुकेतुरगरक्षोयक्षनरविहगशरभेभादयोऽधस्तादुद्यन्ति
तपन्ति वर्षन्ति स्तुवन्ति पुनर्विशन्ति अन्तर्विवरेणेक्षन्ति
यः प्राज्ञो विधरणः सर्वान्तरोऽक्षरः शुद्धः पूतः भान्तः
क्षान्तः शान्तः ॥ ६॥
एष हि खल्वात्मन्तर्हृदयेऽणीयानिद्धोऽग्निरिव
विश्वरूपोऽस्यैवान्नमिदं
सर्वमस्मिन्नोता इमाः प्रजाः एष आत्मापहतपाप्मा विजरो
विमृत्युर्विशोकोऽविचिकित्सोऽविपाशः सत्यसङ्कल्पः सत्यकामः
एष परमेश्वरः एष भूताधिपतिः एष भूतपालः एष सेतुः
विधरणः
एष हि खल्वात्मेशानः शम्भुर्भवओरुद्रः प्रजापतिर्
विश्वसृखिरण्यगर्भः
सत्यं प्राणो हंसः शस्ताच्युतो विष्णुर्नारायणः यश्चैषोऽग्नौ
यश्चायं
हृदयेवयश्चासावादित्ये स एष एकः तस्मै ते विश्वरूपाय सत्ये
नभसि हिताय नमः ॥ ७॥
अथेदानीं ज्ञानोपसर्गा राजन्मोहजालस्यैष वै योनिः यदस्वर्गैः
सह स्वर्गस्यैष वाट्ये पुरस्तादुक्तेऽप्यधः स्तम्बेनाश्लिष्यन्ति
अथ ये चान्ये ह नित्यप्रमुदिता नित्यप्रवसिता नित्ययाचनका
नित्यं शिल्पोपजीविनोऽथ ये चान्ये ह पुरयाचका अयाज्ययाचकाः
शुद्रशिष्याः शूद्रश्च शास्त्रविद्वांसोऽथ ये चान्ये ह
चाटजटनटभटप्रव्रजितरङ्गावतारिणो राजकर्मणि पतितादयोऽथये
चान्ये ह यक्षराक्षसभूतगणपिशाचोरगग्रहादीनामर्थं
पुरस्कृत्य शमयाम इत्येवं ब्रुवाणा अथ ये चान्ये ह वृथा
कषायकुण्डलिनः कापालिनोऽथ ये चान्ये ह वृथा
तर्कदृष्टान्तकुहकेन्द्रजालैर्वैदिकेषु परिस्थातुमिच्छन्ति तैः सह
न संवस्त् प्रकाश्यभूता वै ते तस्करा अस्वर्ग्या इत्येवं ह्याह :
नैरात्म्यवादकुहकैर्मिथ्यादृष्टान्तहेतुभिः ।
भ्राम्यन्लोको न जानाति वेदविद्यान्तरन्तु यत् ॥
॥ ८॥
बृहस्पतिर्वै शुक्रो भूत्वेन्द्रस्याभयायासुरेभ्यः
क्षयायेमामविद्यामसृजत्
तया शिवमशिवमित्युद्दिशन्त्यशिवं शिवमिति
वेदादिशास्त्रहिंसकधर्माभिध्यानमस्त्विति
वदन्ति अतो नैनामभिधीयेतान्यथैषा बन्ध्येवैषा रतिमात्रं
फलमस्या वृत्तच्युतस्येव नारम्भणीयेत्येवं ह्याह :
दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता ।
विद्याभीप्सितुं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवो लोलुपन्ते ॥
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतमश्नुते ॥
अविद्यायामन्तरे वेष्ट्यमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः ।
दन्द्रम्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव
नीयमाना यथान्धाः ॥ ॥ ९॥
देवासुरा ह वै य आत्मकामा ब्रह्मणोऽन्तिकं प्रयाताः तस्मै
नमस्कृत्वोचुः भगवन् वयमात्मकामाः स त्वं नो ब्रूहीति
अतश्चिरं ध्यात्वाऽमन्यतान्यतामानो वै तेऽसुरा
अतोऽन्यतममेतेषामुक्तम्
तदिमे मूढा
उपजीवन्त्यभिष्वङ्गिणस्तर्याभिघातिनोऽनृताभिशंसिनः
सत्यमिवानृतं पश्यन्तीन्द्रजालवदित्यतो यद्वेदेष्वाभिहितं तत्सत्यं
यद्वेदेषूक्तं तद्विद्वांस उपजीवन्ति तस्माद्ब्राह्मणो
नावैदिकमधीयीतायमर्थः
स्यादिति ॥ १०॥
एतद्वा व तत्स्वरूपं नभसः खेऽन्तर्भूतस्य यत्परं
तेजस्तत्त्रेधाभिहितमग्ना आदित्ये प्राण एतद्वा व तत्स्वरूपं
नभसः खेऽन्तर्भूतस्य यदोमित्येतदक्षरमनेनैव तदुद्बुध्न्यति
उदयति उच्छ्वसति अजस्रं ब्रह्मधीयालम्बं वात्रैवैतत्समीरणे
नभसि प्रसाखयैवोत्क्रम्य स्कधात्स्कन्धमनुसर्त्यप्सु प्रक्षेपको
लवणस्येव घृतस्य
चौष्ण्यमिवाभिध्यातुर्विस्तृतिरिवैतदित्यात्रोदाहरन्ति :
अथ कस्मादुच्यते वैद्युतो यस्मादुच्चारितमात्र एव सर्वं शरीरं
विद्योतयति तस्मादोमित्यनेनैतदुपासीतापरिमितं तेजः ।
१ पुरुषश्चक्षुषो योऽयं दक्षिणोऽक्षिण्यवस्थितः ।
इन्द्रोऽयमस्य जायेयं सव्ये चाक्षिण्यवस्थिता ॥
२ समागमस्तयोरेव हृदयान्तर्गते सुषौ ।
तेजस्तल्लोहितस्यात्र पिण्ड एवोभयोस्तयोः ॥
३ हृदयादायाति तावच्चक्षुष्यस्मिन्प्रतिष्ठिता ।
सारणी सा तयोर्नाडी द्वयोरेका द्विधा सती ॥
४ मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ।
मारुतस्तूरसि चरन्मन्द्रं जनयति स्वरम् ॥
५ खजाग्नियोगाद् हृदि सम्प्रयुक्तमणोर्ह्यणुर्द्विरणुः कण्ठदेशे ।
जिह्वाग्रदेशे त्र्यणुकं च विद्धि विनिर्गतं मातृकमेवमाहुः ॥
६ न पश्यन्मृत्युम्ं पश्यति न रोगं नोत दुःखताम् ।
सर्वं हि पश्यन्पश्यति सर्वमाप्नोति सर्वशः ॥
७ चाक्षुषः स्वप्नचारी च सुप्तः सुप्तात्परश्च यः ।
भेदाश्चैतेऽस्य चत्वारस्तेभ्यस्तुर्यं महत्तरम् ॥
८ त्रिष्वेकपाच्चरेद्ब्रह्म त्रिपाच्चरति चोत्तरे ।
सत्यानृतोपभोगार्थाः द्वैतीभावो महात्मन इति
द्वैतीभावो महात्मन इति ॥ ॥ ११॥
इति सप्तमः प्रपाठकः ॥
ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
इति मैत्रायण्युपनिषत्समाप्ता ॥
मैत्रेय्युपनिषत्
श्रुत्याचार्योपदेशेन मुनयो यत्पदं ययुः ।
तत्स्वानुभूतिसंसिद्धं स्वमात्रं ब्रह्म भावये ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रम् ।
अथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्याम् । मा मा ब्रह्म निराकरो-
दनिराकरणमस्तु । अनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते
य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ बृहद्रथो वै नाम राजा राज्ये ज्येष्ठं
पुत्रं निधापयित्वेदमशाश्वतं मन्यमानः
शरीरं वैराग्यमुपेतोऽरण्यं निर्जगाम । स तत्र
परमं तप आस्थायादित्यमीक्षमाण ऊर्ध्वबाहु-
स्तिष्ठत्यन्ते सहस्रस्य मुनिरन्तिकमाजगामाग्नि
रिवाधूमकस्तेजसा निर्दहन्निवात्मविद्भगवाञ्छा-
कायन्य उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वरं वृणीश्वेति
राजानमब्रवीत्स तस्मै नमस्कृत्योवाच
भगवन्नाहमात्मवित्त्वं तत्त्वविच्छृणुमो वयं
स त्वं नो ब्रूहीत्येतद्वृत्तं पुरस्तादशक्यं मा
पृच्छ प्रश्नमैक्ष्वाकान्यान्कामान्वृणीश्वेति
शाकायन्यस्य चरणावभिमृश्यमानो
राजेमां गाथां जगाद ॥ १॥
अथ किमएतैर्मान्यनां शोषणं महार्णवानां
शिखरिणां प्रपतनं ध्रुवस्य प्रचलनं स्थानं
वा तरूणां निमज्जनं पृथिव्याः स्थानादपसरणं
सुराणां सोऽहमित्येतद्विधेऽस्मिन्संसारे किं
कामोपभोगैर्यैरेवाश्रितस्यासकृदुपावर्तनं
दृश्यत इत्युद्धर्तुमर्हसीत्यन्धोदपानस्थो भेक
इवाहमस्मिन्संसारे भगवंस्त्वं नो गतिरिति ॥ २॥
भगवञ्शरीरमिदं मैथुनादेवोद्भूतं संविदपेतं
निरय एव मूत्रद्वारेण निष्क्रान्तमस्थिभिश्चितं
मांसेनानुलिप्तं चर्मणावबद्धं विण्मूत्रवातपित्त-
कफमज्जामेदोवसाभिरन्यैश्च मलैर्बहुभिः
परिपूर्णमेतादृशे शरीरे वर्तमानस्य भगवंस्त्वं
नो गतिरिति ॥ ३॥
अथ भगवाञ्छकायन्यः सुप्रीतोऽब्रवीद्राजानं
महाराज बृहद्रथेक्ष्वाकुर्वंशध्वजशीर्षात्मज्ञः
कृतकृत्यस्त्वं मरुन्नाम्नो विश्रुतोऽसीत्ययं
खल्वात्मा ते कतमो भगवान्वर्ण्य इति तं होवाच ॥
शब्दस्पर्शमया येऽर्था अनर्था इव ते स्थिताः ।
येषां सक्तस्तु भूतात्मा न स्मरेच्च परं पदम् ॥ १॥
तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात्सम्प्राप्यते मनः ।
मनसा प्राप्यते ह्यात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्तते ॥ २॥
यथा निरिन्धनो वह्निः स्वयोनावुपशाम्यति ।
तथा वृत्तिक्षयच्चित्तं स्वयोनावुपशाम्यति ॥ ३॥
स्वयोनावुपशान्तस्य मनसः सत्यगामिनः ।
इन्द्रियार्थविमूढस्यानृताः कर्मवशानुगाः ॥ ४॥
चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत् ।
यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥ ५॥
चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् ।
प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमक्षयमश्नुते ॥ ६॥
समासक्तं यदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरम् ।
यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्तत्को न मुच्येत बन्धनात् ॥ ७॥
हृत्पुण्डरीकमध्ये तु भावयेत्परमेश्वरम् ।
साक्षिणं बुद्धिवृत्तस्य परमप्रेमगोचरम् ॥ ८॥
अगोचरं मनोवाचामवधूतादिसम्प्लवम् ।
सत्तामात्रप्रकाशैकप्रकाशं भावनातिगम् ॥ ९॥
अहेयमनुपादेयमसामान्यविशेषणम् ।
ध्रुवं स्तिमितगम्भीरं न तेजो न तमस्ततम् ।
निर्विकल्पं निराभासं निर्वाणमयसंविदम् ॥ १०॥
नित्यः शुद्धो बुद्धमुक्तस्वभावः
सत्यः सूक्ष्मः संविभुश्चाद्वितीयः ।
आनन्दाब्धिर्यः परः सोऽह-
मस्मि प्रत्यग्धातुर्नात्र संशीतिरस्ति ॥ ११॥
आनन्दमन्तर्निजमाश्रयं त-
माशापिशाचीमवमनयन्तम् ।
आलोकयन्तं जगदिन्द्रजाल-
मापत्कथं मां प्रविशेदसङ्गम् ॥ १२॥
वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः
कर्मानुसारेण फलं लभन्ते ।
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः
स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति ॥ १३॥
वर्णाश्रमं सावयवं स्वरूप-
माद्यन्तयुक्तं ह्यतिकृच्छ्रमात्रम् ।
पुत्रादिदेहेष्वभिमानशून्यं
भूत्वा वसेत्सौख्यतमे ह्यनन्त इति ॥ १४॥ ४॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
अथ भगवान्मैत्रेयः कैलासं जगाम तं गत्वोवाच
भो भगवन्परमतत्त्वरहस्यमनुब्रूहीति ॥
स होवाच महादेवः ॥
देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ।
त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहम्भावेन पूजयेत् ॥ १॥
अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः।
स्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ २॥
ब्रह्मामृतं पिबेद्भैक्षमाचरेद्देहरक्षणे ।
वसेदेकान्तिको भूत्वा चैकान्ते द्वैतवर्जिते ।
इत्येवमाचरेद्धीमान्स एवं मुक्तिमाप्नुयात् ॥ ३॥
जातं मृतमिदं देहं मातापितृमलात्मकम् ।
सुखदुःखालयामेध्यं स्पृष्ट्वा स्नानं विधीयते ॥ ४॥
धातुबद्धं महारोगं पापमन्दिरमध्रुवम् ।
विकाराकारविस्तीर्णं स्पृष्ट्वा स्नानं विधीयते ॥ ५॥
नवद्वारमलस्रावं सदा काले स्वभावजम् ।
दुर्गन्धं दुर्मलोपेतं स्पृष्ट्वा स्नानं विधीयते ॥ ६॥
मातृसूतकसम्बन्धं सूतके सह जायते ।
मृतसूतकजं देहं स्पृष्ट्वा स्नानं विधीयते ॥ ७॥
अहम्ममेति विण्मूत्रलेपगन्धादिमोचनम् ।
शुद्धशौचमिति प्रोक्तं मृज्जलाभ्यां तु लौकिकम् ॥ ८॥
चित्तशुद्धिकरं शौचं वासनात्रयनाशनम् ।
ज्ञानवैराग्यमृत्तोयैः क्षालनाच्छौचमुच्यते ॥ ९॥
अद्वैतभावनाभैक्षमभक्ष्यं द्वैतभावनम् ।
गुरुशास्त्रोक्तभावेन भिक्षोर्भैक्षं विधीयते ॥ १०॥
विद्वान्स्वदेशमुत्सृज्य संन्यासानन्तरं स्वतः ।
कारागारविनिर्मुक्तचोरवद्दूरतो वसेत् ॥ ११॥
अहङ्कारसुतं वित्तभ्रातरं मोहमन्दिरम् ।
आशापत्नी त्यजेद्यावत्तावन्मुक्तो न संशयः ॥ १२॥
मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः ।
सूतकद्वयसम्प्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १३॥
हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति ।
नास्तमेति न चोदेति कथं सन्ध्यामुपास्महे ॥ १४॥
एकमेवाद्वितीयं यद्गुरोर्वाक्येन निश्चितम् ।
एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम् ॥ १५॥
असंशयवतां मुक्तिः संशयाविष्टचेतसाम् ।
न मुक्तिर्जन्मजन्मान्ते तस्माद्विश्वासमाप्नुयात् ॥ १६॥
कर्मत्यागान्न संन्यासो न प्रेषोच्चारणेन तु ।
सन्धौ जीवात्मनोरैक्यं संन्यासः परिकीर्तितः ॥ १७॥
वमनाहारवद्यस्य भाति सर्वेषणादिषु ।
तस्याधिकारः संन्यासे त्यक्तदेहाभिमानिनः ॥ १८॥
यदा मनसि वैराग्यं जातं सर्वेषु वस्तुषु ।
तदैव संन्यसेद्विद्वानन्यथा पतितो भवेत् ॥ १९॥
द्रव्यार्थमन्नवस्त्रार्थं यः प्रतिष्ठार्थमेव वा ।
संन्यसेद्दुभयभ्रष्टः स मुक्तिं नाप्तुमर्हति ॥ २०॥
उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम् ।
अधमा मन्त्रचिन्ता च तीर्थभ्रान्त्यधमाधमा ॥ २१॥
अनुभूतिं विना मूढो वृथा ब्रह्मणि मोदते ।
प्रतिबिम्बितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत् ॥ २२॥
न त्यजेच्चेद्यतिर्मुक्तो यो माधुकरमातरम् ।
वैराग्यजनकं श्रद्धाकलत्रं ज्ञाननन्दनम् ॥ २३॥
धनवृद्धा वयोवृद्धा विद्यावृद्धास्तथैव च ।
ते सर्वे ज्ञानवृद्धस्य किंकराः शिष्यकिंकराः ॥ २४॥
यन्मायया मोहितचेतसो मा-
मात्मानमापूर्णमलब्धवन्तः ।
परं विदग्दोधरपूरणाय
भ्रमन्ति काका इव सूरयोऽपि ॥ २५॥
पाषाणलोहमणिमृण्मयविग्रहेषु
पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्षोः ।
तस्माद्यतिः स्वहृदयार्चनमेव कुर्या-
द्बाह्यार्चनं परिहरेदपुनर्भवाय ॥ २६॥
अन्तःपूर्णो बहिःपूर्णः पूर्णकुम्भ इवार्णवे ।
अन्तःशून्यो बहिःशून्यः शून्यकुम्भ इवाम्बरे ॥२७॥
मा भव ग्राह्यभावात्मा ग्राहकात्मा च मा भव ।
भावनामखिलं त्यक्त्वा यच्छिष्टं तन्मयो भव ॥ २८॥
द्रष्टृदर्शनदृश्यानि त्यक्त्वा वासनया सह ।
दर्शनप्रथमाभासमात्मानं केवलं भज ॥ २९॥
संशान्तसर्वसंकल्पा या शिलावदवस्थितिः ।
जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्ता सा स्वरूपस्थितिः परा ॥ ३०॥
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
अहमस्मि परश्चास्मि ब्रह्मास्मि प्रभवोऽस्म्यहम् ।
सर्वलोकगुरुश्चामि सर्वलोकेऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ १॥
अहमेवास्मि सिद्धोऽस्मि शुद्धोऽस्मि परमोऽस्म्यहम् ।
अहमस्मि सोमोऽस्मि नित्योऽस्मि विमलोऽस्म्यहम् ॥ २॥
विज्ञानोऽस्मि विशेषोऽस्मि सोमोऽस्मि सकलोऽस्म्यहम् ।
शुभोऽस्मि शोकहीनोऽस्मि चैतन्योऽस्मि समोऽस्म्यहम् ॥ ३॥
मानावमानहीनोऽस्मि निर्गुणोऽस्मि शिवोऽस्म्यहम् ।
द्वैताद्वैतविहीनोऽस्मि द्वन्द्वहीनोऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ ४॥
भावाभावविहीनोऽस्मि भासाहीनोऽस्मि भास्म्यहम् ।
शून्याशून्यप्रभावोऽस्मि शोभनाशोभनोऽस्म्यहम् ॥ ५॥
तुल्यातुल्यविहीनोऽस्मि नित्यः शुद्धः सदाशिवः ।
सर्वासर्वविहीनोऽस्मि सात्त्विकोऽस्मि सदास्म्यहम् ॥ ६॥
एकसङ्ख्याविहीनोऽस्मि द्विसङ्ख्यावाहनं न च ।
सदसद्भेदहीनोऽस्मि सङ्कल्प्स्रहितोस्म्यहम् ॥ ७॥
नानात्मभेदहीनोऽस्मि ह्यखण्डानन्दविग्रहः ।
नाहमस्मि न चान्योऽस्मि देहादिरहितोऽस्म्यहम् ॥ ८॥
आश्रयाश्रयहीनोऽस्मि आधाररहितोऽस्म्यहम् ।
बन्धमोक्षादिहीनोऽस्मि शुद्धब्रह्मास्मि सोऽस्म्यहम् ॥ ९॥
चित्तादिसर्वहीनोऽस्मि परमोऽस्मि परात्परः ।
सदा विचाररूपोऽस्मि निर्विचारोऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ १०॥
अकारोकाररूपोऽस्मि मकरोऽस्मि सनातनः ।
धातृध्यानविहीनोऽस्मि ध्येयहीनोऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ ११॥
सर्वपूर्णस्वरूपोऽस्मि सच्चिदानन्दलक्षणः ।
सर्वतीर्थस्वरूपोऽस्मि परमात्मास्म्यहं शिवः ॥ १२॥
लक्ष्यालक्ष्यविहीनोऽस्मि लयहीनरसोऽस्म्यहम् ।
मातृमानविहीनोऽस्मि मेयहीनः शिवोऽस्म्यहम् ॥ १३॥
न जगत्सर्वद्रष्टास्मि नेत्रादिरहितोस्म्यहम् ।
प्रवृद्धोऽस्मि प्रबुद्धोऽस्मि प्रसन्नोऽस्मि परोऽस्म्यहम् ॥ १४॥
सर्वेन्द्रियविहीनोऽस्मि सर्वकर्मकृदप्यहम् ।
सर्ववेदान्ततृप्तोऽस्मि सर्वदा सुलभोऽस्म्यहम् ॥ १५॥
मुदितामुदिताख्योऽस्मि सर्वमौनफलोऽस्म्यहम् ।
नित्यचिन्मात्ररूपोऽस्मि सदा सच्चिन्मयोऽस्म्यहम् ॥ १६॥
यत्किञ्चिदपि हीनोऽस्मि स्वल्पमप्यति नास्म्यहम् ।
हृदयग्रन्थिहीनोऽस्मि हृदयाम्भोजमध्यगः ॥ १७॥
षड्विकारविहीनोऽस्मि षट्कोषरहितोऽस्म्यहम् ।
अरिषड्वर्गमुक्तोऽस्मि अन्तरादन्तरोऽस्म्यहम् ॥ १८॥
देशकालविमुक्तोऽस्मि दिगम्बरसुखोऽस्म्यहम् ।
नास्ति नास्ति विमुक्तोऽस्मि नकारहितोऽस्म्यहम् ॥ १९॥
अखण्डाकाशरूपोऽस्मि ह्यखण्डाकारमस्म्यहम् ।
प्रपञ्चमुक्तचित्तोऽस्मि प्रपञ्चरहितोऽस्म्यहम् ॥ २०॥
सर्वप्रकाशरूपोऽस्मि चिन्मात्रज्योतिरस्म्यहम् ।
कालत्रयविमुक्तोऽस्मि कामादिरहितोऽस्म्यहम् ॥ २१॥
कायिकादिविमुक्तोऽस्मि निर्गुणः केवलोऽस्म्यहम् ।
मुक्तिहीनोऽस्मि मुक्तोऽस्मि मोक्षहीनोऽस्म्यहम् सदा ॥ २२॥
सत्यासत्यादिहीनोऽस्मि सन्मात्रान्नास्म्यहं सदा ।
गन्तव्यदेशहीनोऽस्मि गमनादिविवर्जितः ॥ २३॥
सर्वदा समरूपोऽस्मि शान्तोऽस्मि पुरुषोत्तमः ।
एवं स्वानुभवो यस्य सोऽहमस्मि न संशयः ॥ २४॥
यः शृणोति सकृद्वापि ब्रह्मैव भवति स्वयमित्युपनिषत् ॥
इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
ॐ आप्यान्तु मामाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्र-
मथो बलमिन्द्रियाणि च । सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरो-
दनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य
उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति मैत्रेय्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ याज्ञवल्क्योपनिषत् ॥
संन्यासज्ञानसम्पन्ना यान्ति यद्वैष्णवं पदम् ।
तद्वै पदं ब्रह्मतत्त्वं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथ जनको ह वैदेहो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच
भगवन्संन्यासमनुब्रूहीति कथं संन्यासलक्षणम् । स
होवाच याज्ञवल्क्यो ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भवेत् ।
गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत् । यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव
प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा । अथ पुनर्व्रती वाव्रती वा स्नातको
वाऽस्नातको वा उत्सन्नाग्निरनग्नोकोऽवा यदहरेव विरजेत्तदहरेव
प्रव्रजेत् । तदेके प्राजापत्यामेवेष्टिं कुर्वन्ति । अथ वा न
कुर्यादाग्नेय्यामेव कुर्यात् । अग्निर्हि प्राणः । प्राणमेवैतया करोति ।
त्रैधातवीयामेव कुर्यात् । एतयैव त्रयो धातवो यदुत सत्त्वं
रजस्तम इति अयं ते योनिरृत्विजो यतो जातो अरोचथाः । तं जानन्नग्न
आरोहाथानो वर्धया रयिमित्यनेन मन्त्रेणाग्निमाजिघ्रेत् । एष वा
अग्नेर्योनिर्यः प्राणं गच्छ स्वां योनिं गच्छ स्वाहेत्येवमेवैत-
दाग्रामादग्निमाहृत्य पूर्ववदग्निमाजिघ्रेत् यदग्निं न विन्देदप्सु
जुहुयादापो वै सर्वा देवताः सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुहोमि स्वाहेति
साज्यं हविरनामयम् । मोक्षमन्त्रस्त्रय्येवं वेद तद्ब्रह्म
तदुपासितव्यम् । शिखां यज्ञोपवीतं छित्त्वा संन्यस्तं मयेति
त्रिवारमुच्चरेत् । एवमेवैतद्भगवन्निति वै याज्ञवल्क्यः ॥ १॥
अथ हैनमत्रिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं यज्ञोपवीती
कथं ब्राह्मण इति । स होवाच याज्ञवल्क्य इदं
प्रणवमेवास्य तद्यज्ञोपवीतं य आत्मा । प्राश्याचम्यायं
विधिरथ वा परिव्राड्विवर्णवासा मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिरद्रोही
भैक्षमाणो ब्रह्म भूयाय भवति । एष पन्थाः
परिव्राजकानां वीराध्वनि वाऽनाशके वापां प्रवेशे
वाग्निप्रवेशे वा महाप्रस्थाने वा । एष पन्था ब्रह्मणा
हानुवित्तस्तेनेति स संन्यासी ब्रह्मविदिति । एवमेवैष भगवन्निति
वै याज्ञवल्क्य । तत्र परमहंसा नाम संवर्तकारुणि-
श्वेतकेतुदूर्वासऋभुनिदाघदत्तात्रेयशुकवामदेव-
हारीतकप्रभृतयोऽव्यक्तलिङ्गाऽव्यक्ताचारा अनुन्मत्ता
उन्मत्तवदाचरन्तः परस्त्रीपुरपराङ्मुखास्त्रिदण्डं
कमण्डलुं भुक्तपात्रं जलपवित्रं शिखां यज्ञोपवीतं
बहिरन्तश्चेत्येतत्सर्वं भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मान-
मन्विच्छेत् । यथा जातरूपधरा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहा-
स्तत्त्वब्रह्ममार्गे सम्यक्सम्पन्नाः शुद्धमानसाः
प्राणसन्धारणार्थं यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचर-
न्नुदरपात्रेण लाभालाभौ समौ भूत्वा करपात्रेण वा
कमण्डलूदकपो भैक्षमाचरन्नुदरमात्रसंग्रहः
पात्रान्तरशून्यो जलस्थलकमण्डलुरबाधकरहःस्थल-
निकेतनो लाभालाभौ समौ भूत्वा शून्यागारदेवगृह-
तृणकूटवल्मीकवृक्षमूलकुलालशालाग्निहोत्रशालानदी-
पुलुनगिरिकुहरकोटरकन्दरनिर्झरस्थण्डिलेष्वनिकेतनिवास्य-
प्रयत्नःशुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः संन्यासेन
देहत्यागं करोति स परमहंसो नामेति । आशाम्बरो न
नमस्कारो न दारपुत्राभिलाषी लक्ष्यालक्ष्यनिर्वर्तकः
परिव्राट् परमेश्वरो भवति । अत्रैते श्लोका भवन्ति ।
यो भवेत्पूर्वसंन्यासी तुल्यो वै धर्मतो यदि ।
तस्मै प्रणामः कर्तव्यो नेतराय कदाचन ॥ १॥
प्रमादिनो बहिश्चित्ताः पिशुनाः कलहोत्सुकाः ।
संन्यासिनोऽपि दृश्यन्ते देवसंदूषिताशयाः ॥ २॥
नामादिभ्यः परे भूम्नि स्वाराज्ये चेत्स्थितोऽद्वथे ।
प्रणमेत्कं तदात्मज्ञो न कार्यं कर्मणा तदा ॥ ३॥
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ।
प्रणमेद्दण्डवद्भूमावाश्वचण्डालगोखरम् ॥ ४॥
मांसपाञ्चालिकायास्तु यन्त्रलोकेऽङ्गपञ्जरे ।
स्नाय्वस्थिग्रन्थिशालिन्यः स्त्रियः किमिव शोभनम् ॥ ५॥
त्वङ्मांसरक्तबाष्पाम्बु पृथक्कृत्वा विलोचने ।
समालोकय रम्यं चेत्किं मुधा परिमुह्यसि ॥ ६॥
मेरुशृङ्गतटोल्लासि गङ्गाजलस्योपमा ।
दृष्टा यस्मिन्मुने मुक्ताहारस्योल्लसशालिता ॥ ७॥
श्मनानेषु दिगन्तेषु स एव ललनास्तनः ।
श्वभिरास्वाद्यते काले लघुपिण्ड इवान्धसः ॥ ८॥
केशकज्जलधारिण्यो दुःस्पर्शा लोचनप्रियाः ।
दुष्कृताग्निशिखा नार्यो दहन्ति तृणवन्नरम् ॥ ९॥
ज्वलना अतिदूरेऽपि सरसा अपि नीरसाः ।
स्त्रियो हि नरकाग्नीनामिन्धनं चारु दारुणम् ॥ १०॥
कामनाम्ना किरातेन विकीर्णा मुग्धचेतसः ।
नार्यो नरविहङ्गानामङ्गबन्धनवागुराः ॥ ११॥
जन्मपल्वलमत्स्यानां चित्तकर्दमचारिणाम् ।
पुंसां दुर्वासनारज्जुर्नारीबडिशपिण्डिका ॥ १२॥
सर्वेषां दोषरत्नानां सुसमुद्गिकयानया ।
दुःखशृङ्खलया नित्यमलमस्तु मम स्त्रिया ॥ १३॥
यस्य स्त्री तस्य भोगेच्छा निस्त्रीकस्य क्व भोगभूः ।
स्त्रियं त्यक्त्वा जगत्त्यक्तं जगत्त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ १४॥
अलभ्यमानस्तनयः पितरौ क्लेशयेच्चिरम् ।
लब्धो हि गर्भपातेन प्रसवेन च बाधते ॥ १५॥
जातस्य ग्रहरोगादि कुमारस्य च धूर्तता ।
उपनीतेऽप्यविद्यत्वमनुद्वाहश्च पण्डिते ॥ १६॥
यूनश्च परदारादि दारिद्र्यं च कुटुम्बिनः ।
पुत्रदुःखस्य नास्त्यन्तो धनी चेन्म्रियते तदा ॥ १७॥
न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो यतिः ।
न च वाक्चपलश्चैव ब्रह्मभूतो जितेन्द्रियः ॥ १८॥
रिपौ बद्धे स्वदेहे च समैकात्म्यं प्रपश्यतः ।
विवेकिनः कुतः कोपः स्वदेहावयवेष्विव ॥ १९॥
अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोपः कथं न ते ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रसह्य परिपन्थिनि ॥ २०॥
नमोऽस्तु मम कोपाय स्वाश्रयज्वालिने भृशम् ।
कोपस्य मम वैराग्यदायिने दोषबोधिने ॥ २१॥
यत्र सुप्ता जना नित्यं प्रबुद्धस्तत्र संयमी ।
प्रबुद्धा यत्र ते विद्वान्सुषुप्तिं याति योगिराट् ॥ २२॥
चिदिहास्तीति चिन्मात्रमिदं चिन्मयमेव च ।
चित्त्वं चिदहमेते च लोकाश्चिदिति भावय ॥ २३॥
यतीनां तदुपादेयं पारहंस्यं परं पदम् ।
नातः परतरं किञ्चिद्विद्यते मुनिपुङ्गवः ॥ २४॥
इत्युपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति याज्ञवल्क्योपनिषत्समाप्ता ॥
योगकुण्डलिन्युपनिषत्
योगकुण्डल्युपनिषद्योगसिद्धिहृदासनम् ।
निर्विशेषब्रह्मतत्त्वं स्वमात्रमिति चिन्तये ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ हेतुद्वयं हि चित्तस्य वासना च समीरणः ।
तयोर्विनष्ट एकस्मिंस्तद्द्वावपि विनश्यतः ॥ १॥
तयोरादौ समीरस्य जयं कुर्यान्नरः सदा ।
मिताहारश्चासनं च शक्तिश्चालस्तृतीयकः ॥ २॥
एतेषां लक्षणं वक्ष्ये शृणु गौतम सादरम् ।
सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जितः ॥ ३॥
भुज्यते शिवसम्प्रीत्यै मिताहारः स उच्यते ।
आसनं द्विविधं प्रोक्तं पद्मं वज्रासनं तथा ॥ ४॥
ऊर्वोरुपरि चेद्धत्ते उभे पादतले यथा ।
पद्मासनं भवेदेतत्सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ५॥
वामाङ्घ्रिमूलकन्दाधो ह्यन्यं तदुपरि क्षिपेत् ।
समग्रीवशिरःकायो वज्रासनमितीरितम् ॥ ६॥
कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सञ्चालयेद्बुधः ।
स्वस्थानादाभ्रुवोर्मध्यं शक्तिचालनमुच्यते ॥ ७॥
तत्साधने द्वयं मुख्यं सरस्वत्यास्तु चालनम् ।
प्राणरोधमथाभ्यासादृज्वी कुण्डलिनी भवेत् ॥ ८॥
तयोरादौ सरस्वत्याश्चालनं कथयामि ते ।
अरुन्धत्येव कथिता पुराविद्भिः सरस्वती ॥ ९॥
यस्याः सञ्चालनेनैव स्वयं चलति कुण्डली ।
इडायां वहति प्राणे बद्ध्वा पद्मासनं दृढम् ॥ १०॥
द्वादशाङ्गुलदैर्घ्यं च अम्बरं चतुरङ्गुलम् ।
विस्तीर्य तेन तन्नाडीं वेष्टयित्वा ततः सुधीः ॥ ११॥
अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां तु हस्ताभ्यां धारयेद्धृढम् ।
स्वशक्त्या चालयेद्वामे दक्षिणेन पुनःपुनः ॥ १२॥
मुहूर्तद्वयपर्यन्तं निर्भयाच्चालयेत्सुधीः ।
ऊर्ध्वमाकर्षयेत्किञ्चित्सुषुम्नां कुण्डलीगताम् ॥ १३॥
तेन कुण्डलिनी तस्याः सुषुम्नाया मुखं व्रजेत् ।
जहाति तस्मात्प्राणोऽयं सुषुम्नां व्रजति स्वतः ॥ १४॥
तुन्दे तु तानं कुर्याच्च कण्ठसङ्कोचने कृते ।
सरस्वत्यां चालनेन वक्षसश्चोर्ध्वगो मरुत् ॥ १५॥
सूर्येण रेचयेद्वायुं सरस्वत्यास्तु चालने ।
कण्ठसङ्कोचनं कृत्वा वक्षसश्चोर्ध्वगो मरुत् ॥ १६॥
तस्मात्सञ्चालयेन्नित्यं शब्दगर्भां सरस्वतीम् ।
यस्याः सञ्चालनेनैव योगी रोगैः प्रमुच्यते ॥ १७॥
गुल्मं जलोदरः प्लीहा ये चान्ये तुन्दमध्यगाः ।
सर्वे ते शक्तिचालेन रोगा नश्यन्ति निश्चयम् ॥ १८॥
प्राणरोधमथेदानीं प्रवक्ष्यामि समासतः ।
प्राणश्च दहनो वायुरायामः कुम्भकः स्मृतः ॥ १९॥
स एव द्विविधः प्रोक्तः सहितः केवलस्तथा ।
यावत्केवलसिद्धिः स्यात्तावत्सहितमभ्यसेत् ॥ २०॥
सूर्योज्जायी शीतली च भस्त्री चैव चतुर्थिका ।
भेदैरेव समं कुम्भो यः स्यात्सहितकुम्भकः ॥ २१॥
पवित्रे निर्जने देशे शर्करादिविवर्जिते ।
धनुःप्रमाणपर्यन्ते शीताग्निजलवर्जिते ॥ २२॥
पवित्रे नात्युच्चनीचे ह्यासने सुखदे सुखे ।
बद्धपद्मासनं कृत्वा सरस्वत्यास्तु चालनम् ॥ २३॥
दक्षनाड्या समाकृष्य बहिष्ठं पवनं शनैः ।
यथेष्टं पूरयेद्वायुं रेचयेदिडया ततः ॥ २४॥
कपालशोधने वापि रेचयेत्पवनं शनैः ।
चतुष्कं वातदोषं तु कृमिदोषं निहन्ति च ॥ २५॥
पुनः पुनरिदं कार्यं सूर्यभेदमुदाहृतम् ।
मुखं संयम्य नाडिभ्यामाकृष्य पवनं शनैः ॥ २६॥
यथा लगति कण्ठात्तु हृदयावधि सस्वनम् ।
पूर्ववत्कुम्भयेत्प्राणं रेचयेदिडया ततः ॥ २७॥
शीर्षोदितानलहरं गलश्लेष्महरं परम् ।
सर्वरोगहरं पुण्यं देहानलविवर्धनम् ॥ २८॥
नाडीजलोदरं धातुगतदोषविनाशनम् ।
गच्छतस्तिष्ठतः कार्यमुज्जाय्याख्यं तु कुम्भकम् ॥ २९॥
जिह्वया वायुमाकृष्य पूर्ववत्कुम्भकादनु ।
शनैस्तु घ्राणरन्ध्राभ्यां रेचयेदनिलं सुधीः ॥ ३०॥
गुल्मप्लीहादिकान्दोषान्क्षयं पित्तं ज्वरं तृषाम् ।
विषाणि शीतली नाम कुम्भकोऽयं निहन्ति च ॥ ३१॥
ततः पद्मासनं बद्ध्वा समग्रीवोदरः सुधीः ।
मुखं संयम्य यत्नेन प्राणं घ्राणेन रेचयेत् ॥ ३२॥
यथा लगति कण्ठात्तु कपाले सस्वनं ततः ।
वेगेन पूरयेत्किञ्चिधृत्पद्मावधि मारुतम् ॥ ३३॥
पुनर्विरेचयेत्तद्वत्पूरयेच्च पुनः पुनः ।
यथैव लोहकाराणां भस्त्रा वेगेन चाल्यते ॥ ३४॥
तथैव स्वशरीरस्थं चालयेत्पवनं शनैः ।
यथा श्रमो भवेद्देहे तथा सूर्येण पूरयेत् ॥ ३५॥
यथोदरं भवेत्पूर्णं पवनेन तथा लघु ।
धारयन्नासिकामध्यं तर्जनीभ्यां विना दृढम् ॥ ३६॥
कुम्भकं पूर्ववत्कृत्वा रेचेयेदिडयानिलम् ।
कण्ठोत्थितानलहरं शरीराग्निविवर्धनम् ॥ ३७॥
कुण्डलीबोधकं पुण्यं पापघ्नं शुभदं सुखम् ।
ब्रह्मनाडीमुखान्तस्थकफाद्यर्गलनाशनम् ॥ ३८॥
गुणत्रयसमुद्भूतग्रन्थित्रयविभेदकम् ।
विशेषेणैव कर्तव्यं भस्त्राख्यं कुम्भकं त्विदम् ॥ ३९॥
चतुर्णामपि भेदानां कुम्भके समुपस्थिते ।
बन्धत्रयमिदं कार्यं योगिभिर्वीतकल्मषैः ॥ ४०॥
प्रथमो मूलबन्धस्तु द्वितीयोड्डीयणाभिधः ।
जालन्धरस्तृतीयस्तु तेषां लक्षणमुच्यते ॥ ४१॥
अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात् ।
आकुञ्चनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते ॥ ४२॥
अपाने चोर्ध्वगे याते सम्प्राप्ते वह्निमण्डले ।
ततोऽनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुनाऽऽहता ॥ ४३॥
ततो यातौ वह्न्यपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम् ।
तेनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा ॥ ४४॥
तेन कुण्डलिनी सुप्ता सन्तप्ता सम्प्रबुध्यते ।
दण्डाहतभुजङ्गीव निःश्वस्य ऋजुतां व्रजेत् ॥ ४५॥
बिलप्रवेशतो यत्र ब्रह्मनाड्यन्तरं व्रजेत् ।
तस्मान्नित्यं मूलबन्धः कर्तव्यो योगिभिः सदा ॥ ४६॥
कुम्भकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियाणकः ।
बन्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः ॥ ४७॥
तस्मादुड्डीयणाख्योऽयं योगिभिः समुदाहृतः ।
सति वज्रासने पादौ कराभ्यां धारयेद्दृढम् ॥ ४८॥
गुल्फदेशसमीपे च कन्दं तत्र प्रपीडयेत् ।
पश्चिमं तानमुदरे धारयेद्-हृदये गले ॥ ४९॥
शनैः शनैर्यदा प्राणस्तुन्दसन्धिं निगच्छति ।
तुन्ददोषं विनिर्धूय कर्तव्यं सततं शनैः ॥ ५०॥
पूरकान्ते तु कर्तव्यो बन्धो जालन्धराभिधः ।
कण्ठसङ्कोचरूपोऽसौ वायुमार्गनिरोधकः ॥ ५१॥
अधस्तात्कुञ्चनेनाशु कण्ठसङ्कोचने कृते ।
मध्ये पश्चिमतानेन स्यात्प्राणो ब्रह्मनाडिगः ॥ ५२॥
पूर्वोक्तेन क्रमेणैव सम्यगासनमास्थितः ।
चालनं तु सरस्वत्याः कृत्वा प्राणं निरोधयेत् ॥ ५३॥
प्रथमे दिवसे कार्यं कुम्भकानां चतुष्टयम् ।
प्रत्येकं दशसङ्ख्याकं द्वितीये पञ्चभिस्तथा ॥ ५४॥
विशत्यलं तृतीयेऽह्नि पञ्चवृद्ध्या दिने दिने ।
कर्तव्यः कुम्भको नित्यं बन्धत्रयसमन्वितः ॥ ५५॥
दिवा सुप्तिर्निशायां तु जागरादतिमैथुनात् ।
बहुसङ्क्रमणं नित्यं रोधान्मूत्रपुरीषयोः ॥ ५६॥
विषमाशनदोषाच्च प्रयासप्राणचिन्तनात् ।
शीघ्रमुत्पद्यते रोगः स्तम्भयेद्यदि संयमी ॥ ५७॥
योगाभ्यासेन मे रोग उत्पन्न इति कथ्यते ।
ततोऽभ्यासं त्यजेदेवं प्रथमं विघ्न उच्यते ॥ ५८॥
द्वितीयं संशयाख्यं च तृतीयं च प्रमत्तता ।
आलस्याख्यं चतुर्थं च निद्रारूपं तु पञ्चमम् ॥ ५९॥
षष्ठं तु विरतिर्भ्रान्तिः सप्तमं परिकीर्तितम् ।
विषमं चाष्टमं चैव अनाख्यं नवमं स्मृतम् ॥ ६०॥
अलब्धिर्योगतत्त्वस्य दशमं प्रोच्यते बुधैः ।
इत्येतद्विघ्नदशकं विचारेण त्यजेद्बुधः ॥ ६१॥
प्राणाभ्यासस्ततः कार्यो नित्यं सत्त्वस्थया धिया ।
सुषुम्ना लीयते चित्तं तथा वायुः प्रधावति ॥ ६२॥
शुष्के मले तु योगी च स्याद्गतिश्चलिता ततः ।
अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात् ॥ ६३॥
आकुञ्चनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते ।
अपानश्चोर्ध्वगो भूत्वा वह्निना सह गच्छति ॥ ६४॥
प्राणस्थानं ततो वह्निः प्राणापानौ च सत्वरम् ।
मिलित्वा कुण्डलीं याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः ॥ ६५॥
तेनाग्निना च सन्तप्ता पवनेनैव चालिता ।
प्रसार्य स्वशरीरं तु सुषुम्ना वदनान्तरे ॥ ६६॥
ब्रह्मग्रन्थिं ततो भित्त्वा रजोगुणसमुद्भवम् ।
सुषुम्ना वदने शीघ्रं विद्युल्लेखेव संस्फुरेत् ॥ ६७॥
विष्णुग्रन्थिं प्रयात्युच्चैः सत्वरं हृदि संस्थिता ।
ऊर्ध्वं गच्छति यच्चास्ते रुद्रग्रन्थिं तदुद्भवम् ॥ ६८॥
भ्रुवोर्मध्ये तु संभिद्य याति शीतांशुमण्डलम् ।
अनाहताख्यं यच्चक्रं दलैः षोडशभिर्युतम् ॥ ६९॥
तत्र शीतांशुसञ्जातं द्रवं शोषयति स्वयम् ।
चलिते प्राणवेगेन रक्तं पीतं रवेर्ग्रहात् ॥ ७०॥
यातेन्दुचक्रं यत्रास्ते शुद्धश्लेष्मद्रवात्मकम् ।
तत्र सिक्तं ग्रसत्युष्णं कथं शीतस्वभावकम् ॥ ७१॥
तथैव रभसा शुक्लं चन्द्ररूपं हि तप्यते ।
ऊर्ध्वं प्रवहति क्षुब्धा तदैवं भ्रमतेतराम् ॥ ७२॥
तस्यास्वादवशाच्चित्तं बहिष्ठं विषयेषु यत् ।
तदेव परमं भुक्त्वा स्वस्थः स्वात्मरतो युवा ॥ ७३॥
प्रकृत्यष्टकरूपं च स्थानं गच्छति कुण्डली ।
क्रोडीकृत्य शिवं याति क्रोडीकृत्य विलीयते ॥ ७४॥
इत्यधोर्ध्वरजः शुक्लं शिवे तदनु मारुतः ।
प्राणापानौ समौ याति सदा जातौ तथैव च ॥ ७५॥
भूतेऽल्पे चाप्यनल्पे वा वाचके त्वतिवर्धते ।
धवयत्यखिला वाता अग्निमूषाहिरण्यवत् ॥ ७६॥
आधिभौतिकदेहं तु आधिदैविकविग्रहे ।
देहोऽतिविमलं याति चातिवाहिकतामियात् ॥ ७७॥
जाड्यभावविनिर्मुक्तममलं चिन्मयात्मकम् ।
तस्यातिवाहिकं मुख्यं सर्वेषां तु मदात्मकम् ॥ ७८॥
जायाभवविनिर्मुक्तिः कालरूपस्य विभ्रमः ।
इति तं स्वस्वरूपा हि मती रज्जुभुजङ्गवत् ॥ ७९॥
मृषैवोदेति सकलं मृषैव प्रविलीयते ।
रौप्यबुद्धिः शुक्तिकायां स्त्रीपुंसोर्भ्रमतो यथा ॥ ८०॥
पिण्डब्रह्माण्डयोरैक्यं लिङ्गसूत्रात्मनोरपि ।
स्वापाव्याकृतयोरैक्यं स्वप्रकाशचिदात्मनोः ॥ ८१॥
शक्तिः कुण्डलिनी नाम बिसतन्तुनिभा शुभा ।
मूलकन्दं फणाग्रेण दृष्ट्वा कमलकन्दवत् ॥ ८२॥
मुखेन पुच्छं संगृह्य ब्रह्मरन्ध्रसमन्विता ।
पद्मासनगतः स्वस्थो गुदमाकुञ्च्य साधकः ॥ ८३॥
वायुमूर्ध्वगतं कुर्वन्कुम्भकाविष्टमानसः ।
वाय्वाघातवशादग्निः स्वाधिष्ठानगतो ज्वलन् ॥ ८४॥
ज्वलनाघातपवनाघातोरून्निद्रितोऽहिराट् ।
ब्रह्मग्रन्थिं ततो भित्त्वा विष्णुग्रन्थिं भिनत्त्यतः ॥ ८५॥
रुद्रग्रन्थिं च भित्त्वैव कमलानि भिनत्ति षट् ।
सहस्रकमले शक्तिः शिवेन सह मोदते ॥ ८६॥
सैवावस्था परा ज्ञेया सैव निर्वृतिकारिणी इति ॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
अथाहं सम्प्रवक्ष्यामि विद्यां खेचरिसंज्ञिकाम् ।
यथा विज्ञानवानस्या लोकेऽस्मिन्नजरोऽमरः ॥ १॥
मृत्युव्याधिजराग्रस्तो दृष्ट्वा विद्यामिमां मुने ।
बुद्धिं दृढतरां कृत्वा खेचरीं तु समभ्यसेत् ॥ २॥
जरामृत्युगदघ्नो यः खेचरीं वेत्ति भूतले ।
ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यासप्रयोगतः ॥ ३॥
तं मुने सर्वभावेन गुरुं मत्वा समाश्रयेत् ।
दुर्लभा खेचरी विद्या तदभ्यासोऽपि दुर्लभः ॥ ४॥
अभ्यासं मेलनं चैव युगपन्नैव सिध्यति ।
अभ्यासमात्रनिरता न विन्दन्ते ह मेलनम् ॥ ५॥
अभ्यासं लभते ब्रह्मञ्जन्मजन्मान्तरे क्वचित् ।
मेलनं तु जन्मनां शतान्तेऽपि न लभ्यते ॥ ६॥
अभ्यासं बहुजन्मान्ते कृत्वा तद्भावसाधितम् ।
मेलनं लभते कश्चिद्योगी जन्मान्तरे क्वचित् ॥ ७॥
यदा तु मेलनं योगी लभते गुरुवक्त्रतः ।
तदा तत्सिद्धिमाप्नोति यदुक्ता शास्त्रसन्ततौ ॥ ८॥
ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव मेलनं लभते यदा ।
तदा शिवत्वमाप्नोति निर्मुक्तः सर्वसंसृतेः ॥ ९॥
शास्त्रं विनापि संबोद्धुं गुरवोऽपि न शक्नुयुः ।
तस्मात्सुदुर्लभतरं लभ्यं शास्त्रमिदं मुने ॥ १०॥
यावन्न लभ्यते शास्त्रं तावद्गां पर्यटेद्यतिः ।
यदा संलभ्यते शास्त्रं तदा सिद्धिः करे स्थिता ॥ ११॥
न शास्त्रेण विना सिद्धिर्दृष्टा चैव जगत्त्रये ।
तस्मान्मेलनदातारं शास्त्रदातारमच्युतम् ॥ १२॥
तदभ्यासप्रदातारं शिवं मत्वा समाश्रयेत् ।
लब्ध्वा शास्त्रमिदं मह्यमन्येषां न प्रकाशयेत् ॥ १३॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गोपनीयं विजानता ।
यत्रास्ते च गुरुर्ब्रह्मन्दिव्ययोगप्रदायकः ॥ १४॥
तत्र गत्वा च तेनोक्तविद्यां संगृह्य खेचरीम् ।
तेनोक्तः सम्यगभ्यासं कुर्यादादावतन्द्रितः ॥ १५॥
अनया विद्यया योगी खेचरीसिद्धिभाग्भवेत् ।
खेचर्या खेचरीं युञ्जन्खेचरीबीजपूरया ॥ १६॥
खेचराधिपतिर्भूत्वा खेचरेषु सदा वसेत् ।
खेचरावसथं वह्निमम्बुमण्डलभूषितम् ॥ १७॥
आख्यातं खेचरीबीजं तेन योगः प्रसिध्यति ।
सोमांशनवकं वर्णं प्रतिलोमेन चोद्धरेत् ॥ १८॥
तस्मात्त्र्यंशकमाख्यातमक्षरं चन्द्ररूपकम् ।
तस्मादप्यष्टमं वर्णं विलोमेन परं मुने ॥ १९॥
तथा तत्परमं विद्धि तदादिरपि पञ्चमी ।
इन्दोश्च बहुभिन्ने च कूटोऽयं परिकीर्तितः ॥ २०॥
गुरूपदेशलभ्यं च सर्वयोगप्रसिद्धिदम् ।
यत्तस्य देहजा माया निरुद्धकरणाश्रया ॥ २१॥
स्वप्नेऽपि न लभेत्तस्य नित्यं द्वादशजप्यतः ।
य इमां पञ्च लक्षाणि जपेदपि सुयन्त्रितः ॥ २२॥
तस्य श्रीखेचरीसिद्धिः स्वयमेव प्रवर्तते ।
नश्यन्ति सर्वविघ्नानि प्रसीदन्ति च देवताः ॥ २३॥
वलीपलितनाशश्च भविष्यति न संशयः ।
एवं लब्ध्वा महाविद्यामभ्यासं कारयेत्ततः ॥ २४॥
अन्यथा क्लिश्यते ब्रह्मन्न सिद्धिः खेचरीपथे ।
यदभ्यासविधौ विद्यां न लभेद्यः सुधामयीम् ॥ २५॥
ततः संमेलकादौ च लब्ध्वा विद्यां सदा जपेत् ।
नान्यथा रहितो ब्रह्मन्न किञ्चित्सिद्धिभाग्भवेत् ॥ २६॥
यदिदं लभ्यते शास्त्रं तदा विद्यां समाश्रयेत् ।
ततस्तदोदितां सिद्धिमाशु तां लभते मुनिः ॥ २७॥
तालुमूलं समुत्कृष्य सप्तवासरमात्मवित् ।
स्वगुरूक्तप्रकारेण मलं सर्वं विशोधयेत् ॥ २८॥
स्नुहिपत्रनिभं शस्त्रं सुतीक्ष्णं स्निग्धनिर्मलम् ।
समादाय ततस्तेन रोममात्रं समुच्छिनेत् ॥ २९॥
हित्वा सैन्धवपथ्याभ्यां चूर्णिताभ्यां प्रकर्षयेत् ।
पुनः सप्तदिने प्राप्ते रोममात्रं समुच्छिनेत् ॥ ३०॥
एवं क्रमेण षण्मासं नित्योद्युक्तः समाचरेत् ।
षण्मासाद्रसनामूलं सिराबद्धं प्रणश्यति ॥ ३१॥
अथ वागीश्वरीधाम शिरो वस्त्रेण वेष्टयेत् ।
शनैरुत्कर्षयेद्योगी कालवेलाविधानवित् ॥ ३२॥
पुनः षण्मासमात्रेण नित्यं सङ्घर्षणान्मुने ।
भ्रूमध्यावधि चाप्येति तिर्यक्कणबिलावधिः ॥ ३३॥
अधश्च चुबुकं मूलं प्रयाति क्रमचारिता ।
पुनः संवत्सराणां तु तृतीयादेव लीलया ॥ ३४॥
केशान्तमूर्ध्वं क्रमति तिर्यक् शाखावधिर्मुने ।
अधस्तात्कण्ठकूपान्तं पुनर्वर्षत्रयेण तु ॥ ३५॥
ब्रह्मरन्ध्रं समावृत्य तिष्ठेदेव न संशयः ।
तिर्यक् चूलितलं याति अधः कण्ठबिलावधि ॥ ३६॥
शनैः शनैर्मस्तकाच्च महावज्रकपाटभित् ।
पूर्वं बीजयुता विद्या ह्याख्याता यतिदुर्लभा ॥ ३७॥
तस्याः षडङ्गं कुर्वीत तया षट्स्वरभिन्नया ।
कुर्यादेवं करन्यासं सर्वसिद्ध्यादिहेतवे ॥ ३८॥
शनैरेवं प्रकर्तव्यमभ्यासं युगपन्नहि ।
युगपद्वर्तते यस्य शरीरं विलयं व्रजेत् ॥ ३९॥
तस्माच्छनैः शनैः कार्यमभ्यासं मुनिपुङ्गव ।
यदा च बाह्यमार्गेण जिह्वा ब्रह्मबिलं व्रजेत् ॥ ४०॥
तदा ब्रह्मार्गलं ब्रह्मन्दुर्भेद्यं त्रिदशैरपि ।
अङ्गुल्यग्रेण संघृष्य जिह्वामात्रं निवेशयेत् ॥ ४१॥
एवं वर्षत्रयं कृत्वा ब्रह्मद्वारं प्रविश्यति ।
ब्रह्मद्वारे प्रविष्टे तु सम्यङ्मथनमाचरेत् ॥ ४२॥
मथनेन विना केचित्साधयन्ति विपश्चितः ।
खेचरीमन्त्रसिद्धस्य सिध्यते मथनं विना ॥ ४३॥
जपं च मथनं चैव कृत्वा शीघ्रं फलं लभेत् ।
स्वर्णजां रौप्यजां वापि लोहजां वा शलाकिकाम् ॥ ४४॥
नियोज्य नासिकारन्ध्रं दुग्धसिक्तेन तन्तुना ।
प्राणान्निरुध्य हृदये सुखमासनमात्मनः ॥ ४५॥
शनैः सुमथनं कुर्याद्भ्रूमध्ये न्यस्य चक्षुषी ।
षण्मासं मथनावस्था भावेनैव प्रजायते ॥ ४६॥
यथा सुषुप्तिर्बालानां यथा भावस्तथा भवेत् ।
न सदा मथनं शस्तं मासे मासे समाचरेत् ॥ ४७॥
सदा रसनया योगी मार्गं न परिसंक्रमेत् ।
एवं द्वादशवर्षान्ते संसिद्धिर्भवति ध्रुवा ॥ ४८॥
शरीरे सकलं विश्वं पश्यत्यात्माविभेदतः ।
ब्रह्माण्डोऽयं महामार्गो राजदन्तोर्ध्वकुण्डली ॥ ४९॥ इति॥
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
मेलनमनुः । ह्रीं भं सं पं फं सं क्षम् । पद्मज उवाच ।
अमावास्या च प्रतिपत्पौर्णमासी च शङ्कर ।
अस्याः का वर्ण्यते संज्ञा एतदाख्याहि तत्त्वतः ॥ १॥
प्रतिपद्दिनतोऽकाले अमावास्या तथैव च ।
पौर्णमास्यां स्थिरीकुर्यात्स च पन्था हि नान्यथा ॥ २॥
कामेन विषयाकाङ्क्षी विषयात्काममोहितः ।
द्वावेव सन्त्यजेन्नित्यं निरञ्जनमुपाश्रयेत् ॥ ३॥
अपरं सन्त्यजेत्सर्वं यदिच्छेदात्मनो हितम् ।
शक्तिमध्ये मनः कृत्वा मनः शक्तेश्च मध्यगम् ॥ ४॥
मनसा मन आलोक्य तत्त्यजेत्परमं पदम् ।
मन एव हि बिन्दुश्च उत्पत्तिस्थितिकारणम् ॥ ५॥
मनसोत्पद्यते बिन्दुर्यथा क्षीरं घृतात्मकम् ।
न च बन्धनमध्यस्थं तद्वै कारणमानसम् ॥ ६॥
चन्द्रार्कमध्यमा शक्तिर्यत्रस्था तत्र बन्धनम् ।
ज्ञात्वा सुषुम्नां तद्भेदं कृत्वा वायुं च मध्यगम् ॥ ७॥
स्थित्वासौ बैन्दवस्थाने घ्राणरन्ध्रे निरोधयेत् ।
वायुं बिन्दुं समाख्यातं सत्त्वं प्रकृतिमेव च ॥ ८॥
षट् चक्राणि परिज्ञात्वा प्रविशेत्सुखमण्डलम् ।
मूलाधारं स्वाधिष्ठानं मणिपूरं तृतीयकम् ॥ ९॥
अनाहतं विशुद्धं च आज्ञाचक्रं च षष्ठकम् ।
आधारं गुदमित्युक्तं स्वाधिष्ठानं तु लैङ्गिकम् ॥ १०॥
मणिपूरं नाभिदेशं हृदयस्थमनाहतम् ।
विशुद्धिः कण्ठमूले च आज्ञाचक्रं च मस्तकम् ॥ ११॥
षट् चक्राणि परिज्ञात्वा प्रविशेत्सुखमण्डले ।
प्रविशेद्वायुमाकृष्य तयैवोर्ध्वं नियोजयेत् ॥ १२॥
एवं समभ्यसेद्वायुं स ब्रह्माण्डमयो भवेत् ।
वायुं बिन्दुं तथा चक्रं चित्तं चैव समभ्यसेत् ॥ १३॥
समाधिमेकेन समममृतं यान्ति योगिनः ।
यथाग्निर्दारुमध्यस्थो नोत्तिष्ठेन्मथनं विना ॥ १४॥
विना चाभ्यासयोगेन ज्ञानदीपस्तथा न हि ।
घटमध्यगतो दीपो बाह्ये नैव प्रकाशते ॥ १५॥
भिन्ने तस्मिन्घटे चैव दीपज्वाला च भासते ।
स्वकायं घटमित्युक्तं यथा दीपो हि तत्पदम् ॥ १६॥
गुरुवाक्यसमाभिन्ने ब्रह्मज्ञानं स्फुटीभवेत् ।
कर्णधारं गुरुं प्राप्य कृत्वा सूक्ष्मं तरन्ति च ॥ १७॥
अभ्यासवासनाशक्त्या तरन्ति भवसागरम् ।
परायामङ्कुरीभूय पश्यन्तां द्विदलीकृता ॥ १८॥
मध्यमायां मुकुलिता वैखर्यां विकसीकृता ।
पूर्वं यथोदिता या वाग्विलोमेनास्तगा भवेत् ॥ १९॥
तस्या वाचः परो देवः कूटस्थो वाक्प्रबोधकः ।
सोऽहमस्मीति निश्चित्य यः सदा वर्तते पुमान् ॥ २०॥
शब्दैरुच्चावचैर्नीचैर्भाषितोऽपि न लिप्यते ।
विश्वश्च तैजसश्चैव प्राज्ञश्चेति च ते त्रयः ॥ २१॥
विराड्ढिरण्यगर्भश्च ईश्वरश्चेति ते त्रयः ।
ब्रह्माण्डं चैव पिण्डाण्डं लोका भूरादयः क्रमात् ॥ २२॥
स्वस्वोपाधिलयादेव लीयन्ते प्रत्यगात्मनि ।
अण्डं ज्ञानाग्निना तप्तं लीयते कारणैः सह ॥ २३॥
परमात्मनि लीनं तत्परं ब्रह्मैव जायते ।
ततः स्तिमितगम्भीरं न तेजो न तमस्ततम् ॥ २४॥
अनाख्यमनभिव्यक्तं सत्किञ्चिदवशिष्यते ।
ध्यात्वा मध्यस्थमात्मानं कलशान्तरदीपवत् ॥ २५॥
अङ्गुष्ठमात्रमात्मानमधूमज्योतिरूपकम् ।
प्रकाशयन्तमन्तस्थं ध्यायेत्कूटस्थमव्ययम् ॥ २६॥
विज्ञानात्मा तथा देहे जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितः ।
मायया मोहितः पश्चाद्बहुजन्मान्तरे पुनः ॥ २७॥
सत्कर्मपरिपाकात्तु स्वविकारं चिकीर्षति ।
कोऽहं कथमयं दोषः संसाराख्य उपागतः ॥ २८॥
जाग्रत्स्वप्ने व्यवहरन्त्सुषुप्तौ क्व गतिर्मम ।
इति चिन्तापरो भूत्वा स्वभासा च विशेषतः ॥ २९॥
अज्ञानात्तु चिदाभासो बहिस्तापेन तापितः ।
दग्धं भवत्येव तदा तूलपिण्डमिवाग्निना ॥ ३०॥
दहरस्थः प्रत्यगात्मा नष्टे ज्ञाने ततः परम् ।
विततो व्याप्य विज्ञानं दहत्येव क्षणेन तु ॥ ३१॥
मनोमयज्ञानमयान्सम्यग्दग्ध्वा क्रमेण तु ।
घटस्थदीपवच्छश्वदन्तरेव प्रकाशते ॥ ३२॥
ध्यायन्नास्ते मुनिश्चैवमासुप्तेरामृतेस्तु यः ।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयः स धन्यः कृतकृत्यवान् ॥ ३३॥
जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते ।
विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ३४॥
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं
तदेव शिष्यत्यमलं निरामयम् ॥ ३५॥ इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति योगकुण्डलिन्युपनिषत्समाप्ता ॥
योगचूडामण्युपनिषत्
मूलाधारादिषट्चक्रं सहस्रारोपरि स्थितम् ।
योगज्ञानैक फलकं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं
ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा
ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेस्तु
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु
ते मयि सन्तु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ योगचूडामणिं वक्ष्ये योगिनां हितकाम्यया ।
कैवल्यसिद्धिदं गूढं सेवितं योगवित्तमैः ॥ १॥
आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा ।
ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि भवन्ति षट् ॥ २॥
एकं सिद्धासनं प्रोक्तं द्वितीयं कमलासनम् ।
षट्चक्रं षोडशाधारं त्रिलक्ष्यं व्योमपञ्चकम् ॥ ३॥
स्वदेहे यो न जानाति तस्य सिद्धिः कथं भवेत् ।
चतुर्दलं स्यादाधारं स्वाधिष्ठानं च षड्दलम् ॥ ४॥
नाभौ दशदलं पद्मं हृदये द्वादशारकम् ।
षोडशारं विशुद्धाख्यं भ्रूमध्ये द्विदलं तथा ॥ ५॥
सहस्रदलसङ्ख्यातं ब्रह्मरन्ध्रे महापथि ।
आधारं प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम् ॥ ६॥
योनिस्थानं द्वयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यते ।
कामाख्यं तु गुदस्थाने पङ्कजं तु चतुर्दलम् ॥ ७॥
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवन्दिता ।
तस्य मध्ये महालिङ्गं पश्चिमाभिमुखं स्थितम् ॥ ८॥
नाभौ तु मणिवद्बिम्बं यो जानाति स योगवित् ।
तप्तचामीकराभासं तडिल्लेखेव विस्फुरत् ॥ ९॥
त्रिकोणं तत्पुरं वह्नेरधोमेढ्रात्प्रतिष्ठितम् ।
समाधौ परमं ज्योतिरनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ १०॥
तस्मिन्दृष्टे महायोगे यातायातो न विद्यते ।
स्वशब्देन भवेत्प्राणः स्वाधिष्ठानं तदाश्रयः ॥ ११॥
स्वाधिष्ठाश्रयादस्मान्मेढ्रमेवभिधीयते ।
तन्तुना मणिवत्प्रोतो योऽत्र कन्दः सुषुम्नया ॥ १२॥
तन्नाभिमण्डले चक्रं प्रोच्यते मणिपूरकम् ।
द्वादशारे महाचक्रे पुण्यपापविवर्जिते ॥ १३॥
तावज्जीवो भ्रमत्येवं यावत्तत्त्वं न विन्दति ।
ऊर्ध्वं मेढ्रादधो नाभेः कन्दे योनिः खगाण्डवत् ॥ १४॥
तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणां द्विसप्ततिः ।
तेषु नाडीसहस्रेषु द्विसप्ततिरुदाहृता ॥ १५॥
प्रधानाः प्राणवाहिन्यो भूयस्तासु दशस्मृताः ।
इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयगा ॥ १६॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी ।
अलम्बुसा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी स्मृता ॥ १७॥
एतन्नाडीमहाचक्रं ज्ञातव्यं योगिभिः सदा ।
इडा वामे स्थिता भागे दक्षिणे पिङ्गला स्थिता ॥ १८॥
सुषुम्ना मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि ।
दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे ॥ १९॥
यशस्विनी वामकर्णे चानने चापुअलम्बुसा ।
कुहूश्च लिङ्गदेशे तु मूलस्थाने तु शङ्खिनी ॥ २०॥
एवं द्वारं समाश्रित्य तिष्ठन्ते नाडयः क्रमात् ।
इडापिङ्गलासौषुम्नाः प्राणमार्गे च संस्थिताः ॥ २१॥
सततं प्राणवाहिन्यः सोमसूर्याग्निदेवताः ।
प्राणापानसमानाख्या व्यानोदानौ च वायवः ॥ २२॥
नागः कूर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ।
हृदि प्राणः स्थितो नित्यमपानो गुदमण्डले ॥ २३॥
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः ।
व्यानः सर्वशरीरे तु प्रधानाः पञ्चवायवः ॥ २४॥
उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने तथा ।
कृकरः क्षुत्करो ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे ॥ २५॥
न जहाति मृतं वापि सर्वव्यापी धनञ्जयः ।
एते नाडीषु सर्वासु भ्रमन्ते जीवजन्तवः ॥ २६॥
आक्षिप्तो भुजदण्डेन यथा चलति कन्दुकः ।
प्राणापानसमाक्षिप्तस्तथा जीवो न तिष्ठति ॥ २७॥
प्राणापानवशो जीवो ह्यधश्चोर्ध्वं च धावति ।
वामदक्षिणमार्गाभ्यां चञ्चलत्वान्न दृश्यते ॥ २८॥
रज्जुबद्धो यथा श्येनो गतोऽप्याकृष्यते पुनः ।
गुणबद्धस्तथा जीवः प्राणापानेन कर्षति ॥ २९॥
प्राणापानवशो जीवो ह्यधश्चोर्ध्वं च गच्छति ।
अपानः कर्षति प्राणं प्राणोऽपानं च कर्षति ॥ ३०॥
ऊर्ध्वाधःसंस्थितावेतौ यो जानाति स योगवित् ।
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः ॥ ३१॥
हंसहंसेत्यमुं मत्रं जीवो जपति सर्वदा ।
षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः ॥ ३१॥
एतत्सङ्ख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।
अजपानाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा ॥ ३३॥
अस्याः सङ्कल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः ॥ ३४॥
अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति ।
कुण्डलिन्या समुद्भूता गायत्री प्राणधारिणी ॥३५॥
प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स वेदवित् ।
कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्तिरष्टधा कुण्डलाकृतिः ॥ ३६॥
ब्रह्मद्वारमुखं नित्यं मुखेनाच्छाय तिष्ठति ।
येन द्वारेण गन्तव्यं ब्रह्मद्वारमनामयम् ॥ ३७॥
मुखेनाच्छाद्य तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी ।
प्रबुद्धा वह्नियोगेन मनसा मरुता सह ॥ ३८॥
सूचिवद्गात्रमादाय व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्नया ।
उद्घाटयेत्कवाटं तु यथाकुञ्चिकया गृहम् ।
कुण्डलिन्यां तथा योगी मोक्षद्वारं प्रभेदयेत् ॥ ३९॥
कृत्वा सम्पुटितौ करौ दृढतरं बध्वा तु पद्मासनं
गाढं वक्षसि संनिधाय चुबुकं ध्यानं च तच्चेष्टितम् ।
वारंवारमपानमूर्ध्वमनिलं प्रोच्छारयेत्पूरितं
मुञ्चन्प्राणमुपैति बोधमतुलं शक्तिप्रभावान्नरः ॥ ४०॥
अङ्गानां मर्दनं कृत्वा श्रमसंजातवारिणा ।
कट्वम्ललवणत्यागी क्षीरभोजनमाचरेत् ॥४१॥
ब्रह्मचारी मिताहारी योगी योगपरायणः ।
अब्दादूर्ध्वं भवेत्सिद्धो नात्र कार्या विचारणा ॥ ४२॥
सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जितः ।
भुञ्जते शिवसम्प्रीत्या मिताहारी स उच्यते ॥ ४३॥
कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्तिरष्टधा कुण्डलीकृतिः ।
बन्धनाय च मूढानां योगिनां मोक्षदा सदा ॥ ४४॥
महामुद्रा नभोमुद्रा ओड्याणं च जलन्धरम् ।
मूलबन्धं च यो वेत्ति स योगी मुक्तिभाजनम् ॥ ४५॥
पार्ष्णिघातेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्दृढम् ।
अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबन्धो विधीयते ॥ ४६॥
अपानप्राणयोरैक्यं क्षयान्मूत्रपुरीषयोः ।
युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात् ॥ ४७॥
ओड्याणं कुरुते यस्मादविश्रान्तं महाखगः ।
ओड्डियाणं तदेव स्यान्मृत्युमातङ्गकेसरी ॥ ४८॥
उदरात्पश्चिमं ताणमधो नाभेर्निगद्यते ।
ओड्याणमुदरे बन्धस्तत्र बन्धो विधीयते ॥ ४९॥
बध्नाति हि शिरोजातमधोगामि नभोजलम् ।
ततो जालन्धरो बन्धः कष्टदुःखौघनाशनः ॥ ५०॥
जालन्धरे कृते बन्धे कण्ठसङ्कोचलक्षणे ।
न पीयूषं पतत्यग्नौ न च वायुः प्रधावति ॥ ५१॥
कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ।
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ॥ ५२॥
न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा ।
न च मूर्च्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ॥ ५३॥
पीड्यते न च रोगेण लिख्यते न स कर्मभिः ।
बाध्यते न च केनापि यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ॥ ५४॥
चित्तं चरति खे यस्माज्जिह्वा चरति खे यतः ।
तेनेयं खेचरी मुद्रा सर्वसिद्धनमस्कृता ॥५५॥
बिन्दुमूलशरीरणि शिरास्तत्र प्रतिष्ठिताः ।
भावयन्ती शरीराणि आपादतलमस्तकम् ॥ ५६॥
खेचर्या मुद्रितं येन विवरं लम्बिकोर्ध्वतः ।
न तस्य क्षीयते बिन्दुः कामिन्यालिङ्गितस्य च ॥ ५७॥
यावद्बिन्दुः स्थितो देहे तावन्मृत्युभयं कुतः ।
यावद्बद्धा नभोमुद्रा तावद्बिन्दुर्न गच्छति ॥ ५८॥
ज्वलितोऽपि यथा बिन्दुः सम्प्राप्तश्च हुताशनम् ।
व्रजत्यूर्ध्वं गतः शक्त्या निरुद्धो योनिमुद्रया ॥ ५९॥
स पुनर्द्विविधो बिन्दुः पाण्डरो लोहितस्तथा ।
पाण्डरं शुक्लमित्याहुर्लोहिताख्यं महारजः ॥ ६०॥
सिन्दूरव्रातसङ्काशं रविस्थानस्थितं रजः ।
शशिस्थानस्थितं शुक्लं तयोरैक्यं सुदुर्लभम् ॥ ६१॥
बिन्दुर्ब्रह्मा रजः शक्तिर्बिन्दुरिन्दू रजो रविः ।
उभयोः सङ्गमादेव प्राप्यते परमं पदम् ॥ ६२॥
वायुना शक्तिचालेन प्रेरितं च यथा रजः ।
याति बिन्दुः सदैकत्वं भवेद्दिव्यवपुस्तदा ॥ ६३॥
शुक्लं चन्द्रेण संयुक्तं रजः सूर्येण सङ्गतम् ।
तयोः समरसैकत्वं यो जानाति स योगवित् ॥ ६४॥
शोधनं नाडिजालस्य चालनं चन्द्रसूर्ययोः ।
रसानां शोषणं चैव महामुद्राभिधीयते ॥ ६५॥
वक्षोन्यस्तहनुः प्रपीड्य सुचिरं योनिं च वामाङ्गिणा
हस्ताभ्यामनुधारयन्प्रसरितं पादं तथा दक्षिणम् ।
आपूर्य श्वसनेन कुक्षियुगलं बध्वा शनै रेचये-
त्सेयं व्याधिविनाशिनी सुमहती मुद्रा नृणां कथ्यते ॥ ६६॥
चन्द्रांशेन समभ्यस्य सूर्यांशेनाभ्यसेत्पुनः ।
या तुल्या तु भवेत्सङ्ख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत् ॥ ६७॥
नहि पथ्यमपथ्यं वा रसाः सर्वेऽपि नीरसाः ।
अतिभुक्तं विषं घोरं पीयूषमिव जीर्यते ॥ ६८॥
क्षयकुष्ठगुदावर्तगुल्माजीर्णपुरोगमाः ।
तस्य रोगाः क्षयं यान्ति महामुद्रां तु योऽभ्यसेत् ॥ ६९॥
कथितेयं महामुद्रा महासिद्धिकरी नृणाम् ।
गोपनीया प्रयत्नेन न देया यस्य कस्यचित् ॥ ७०॥
पद्मासनं समारुह्य समकायशिरोधरः ।
नासाग्रदृष्टिरेकान्ते जपेदोङ्कारमव्ययम् ॥ ७१॥
ॐ नित्यं शुद्धं बुद्धं निर्विकल्पं निरञ्जनं
निराख्यातमनादिनिधनमेकं तुरीयं यद्भूतं
भवद्भविष्यत्परिवर्तमानं सर्वदाऽनवच्छिन्नं
परंब्रह्म तस्माज्जाता परा शक्तिः स्वयं ज्योतिरात्मिका ।
आत्मन आकाशः संभूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः ।
अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । एतेषां पञ्चभूतानां
पतयः पञ्च सदाशिवेश्वररुद्रविष्णुब्रह्माणश्चेति ।
तेषां ब्रह्मविष्णुरुद्राश्चोत्पत्तिस्थितिलयकर्तारः ।
राजसो ब्रह्मा सात्विको विष्णुस्तामसो रुद्र इति एते त्रयो गुणयुक्ताः ।
ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव । धाता च सृष्टौ
विष्णुश्च स्थितौ रुद्रश्च नाशे भोगाय चन्द्र इति
प्रथमजा बभूवुः । एतेषां ब्रह्मणो लोका देवतिर्यङ्ग-
रस्थावराश्च जायन्ते । तेषां मनुष्यादीनां
पञ्चभूतसमवायः शरीरम् । ज्ञानकर्मेन्द्रियै-
र्ज्ञानविषयैः प्राणादिपञ्चवायुमनोबुद्धिचित्ताहङ्कारैः
स्थूलकल्पितैः सोऽपि स्थूलप्रकृतिरित्युच्यते । ज्ञानकर्मेन्द्रियै-
र्ज्ञानविषयैः प्राणादिपञ्चवायुमनोबुद्धिभिश्च
सूक्ष्मस्थोऽपि लिङ्गमेवेत्युच्यते । गुणत्रययुक्तं कारणम् ।
सर्वेषामेवं त्रीणि शरीराणि वर्तन्ते । जाग्रत्स्वप्नसुषुप्ति-
तुरीयाश्चेत्यवस्थाश्चतस्रः तासामवस्थानामधिपतय-
श्चत्वारः पुरुषा विश्वतैजसप्राज्ञात्मानश्चेति ।
विश्वो हि स्थूलभुङ्नित्यं तैजसः प्रविविक्तभुक् ।
आनन्दभुक्तया प्राज्ञः सर्वसाक्षीत्यतः परः ॥ ७२॥
प्रणतः सर्वदा तिष्ठेत्सर्वजीवेषु भोगतः ।
अभिरामस्तु सर्वासु ह्यवस्थासु ह्यधोमुखः ॥ ७३॥
अकार उकारो मकारश्चेति वेदास्त्रयो लोकास्त्रयो
गुणास्त्रीण्यक्षराणि त्रयः स्वरा एवं प्रणवः प्रकाशते ।
अकारो जाग्रति नेत्रे वर्तते सर्वजन्तुषु ।
उकारः कण्ठतः स्वप्ने मकारो हृदि सुप्तितः ॥ ७४॥
विराड्विश्वः स्थूलश्चाकारः ।
हिरण्यगर्भस्तैजसः सूक्ष्मश्च उकारः ।
कारणाव्याकृतप्राज्ञश्च मकारः ।
अकारो राजसो रक्तो ब्रह्म चेतन उच्यते ।
उकारः सात्त्विकः शुक्लो विष्णुरित्यभिधीयते ॥ ७५॥
मकारस्तामसः कृष्णो रुद्रश्चेति तथोच्यते ।
प्रणवात्प्रभवो ब्रह्मा प्रणवात्प्रभवो हरिः ॥ ७६॥
प्रणवात्प्रभवो रुद्रः प्रणवो हि परो भवेत् ।
अकारे लीयते ब्रह्मा ह्युकारे लीयते हरिः ॥ ७७॥
मकारे लीयते रुद्रः प्रणवो हि प्रकाशते ।
ज्ञानिनामूर्ध्वगो भूयादज्ञाने स्यादधोमुखः ॥ ७८॥
एवं वै प्रणवस्तिष्ठेद्यस्तं वेद स वेदवित् ।
अनाहतस्वरूपेण ज्ञानिनामूर्ध्वगो भवेत् ॥ ७९॥
तैलधारामिवाच्छिन्नं दीर्घघण्टानिनादवत् ।
प्रणवस्य ध्वनिस्तद्वत्तदग्रं ब्रह्म चोच्यते ॥ ८०॥ज्योतिर्मयं तदग्रं स्यादवाच्यं बुद्धिसूक्ष्मतः ।
ददृशुर्ये महात्मानो यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ८१॥
जाग्रन्नेत्रद्वयोर्मध्ये हंस एव प्रकाशते ।
सकारः खेचरी प्रोक्तस्त्वंपदं चेति निश्चितम् ॥ ८२॥
हकारः परमेशः स्यात्तत्पदं चेति निश्चितम् ।
सकारो ध्यायते जन्तुर्हकारो हि भवेद्धृवम् ॥ ८३॥
इन्द्रियैर्बध्यते जीव आत्मा चैव न बध्यते ।
ममत्वेन भवेज्जीवो निर्ममत्वेन केवलः ॥ ८४॥
भूर्भुवः स्वरिमे लोकाः सोमसूर्याग्निदेवताः ।
यस्य मात्रासु तिष्ठन्ति तत्परं ज्योतिरोमिति ॥ ८५॥
क्रिया इच्छा तथा ज्ञानं ब्राह्मी रौद्री च वैष्णवी ।
त्रिधा मात्रास्थितिर्यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति ॥ ८६॥
वचसा तज्जपेन्नित्यं वपुषा तत्समभ्यसेत् ।
मनसा तज्जपेन्नित्यं तत्परं ज्योतिरोमिति ॥ ८७॥
शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि यो जपेत्प्रणवं सदा ।
न स लिप्यति पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ ८८॥
चले वाते चलो बिन्दुर्निश्चले निश्चलो भवेत् ।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरुन्धयेत् ॥ ८९॥
यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवो न मुञ्चति ।
मरणं तस्य निष्क्रान्तिस्ततो वायुं निरुन्धयेत् ॥ ९०॥
यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवो न मुञ्चति ।
यावद्दृष्टिर्भ्रुवोर्मध्ये तावत्कालं भयं कुतः ॥ ९१॥
अल्पकालभयाद्ब्रह्मन्प्राणायमपरो भवेत् ।
योगिनो मुनश्चैव ततः प्राणान्निरोधयेत् ॥ ९२॥
षड्विंशदङ्गुलिर्हंसः प्रयाणं कुरुते बहिः ।
वामदक्षिणमार्गेण प्राणायामो विधीयते ॥ ९३॥
शुद्धिमेति यदा सर्वं नाडीचक्रं मलाकुलम् ।
तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहणक्षमः ॥ ९४॥
बद्धपद्मासनो योगी प्राणं चन्द्रेण पूरयेत् ।
धारयेद्वा यथाशक्त्या भूयः सूर्येण रेचयेत् ॥ ९५॥
अमृतोदधिसंकाशं गोक्षीरधवलोपमम् ।
ध्यात्वा चन्द्रमसं बिम्बं प्राणायामे सुखी भवेत् ॥ ९६॥
स्फुरत्प्रज्वलसंज्वालापूज्यमादित्यमण्डलम् ।
ध्यात्वा हृदि स्थितं योगी प्राणायामे सुखी भवेत् ॥ ९७॥
प्राणं चेदिडया पिबेन्नियमितं भूयोऽन्यथा रेचये-
त्पीत्वा पिङ्गलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद्वामया ।
सूर्याचन्द्रमसोरनेन विधिना बिन्दुद्वयं ध्यायतः
शुद्धा नाडिगणा भवन्ति यमिनो मासद्वयादूर्ध्वतः ॥ ९८॥
यथेष्टधारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम् ।
नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधनात् ॥ ९९॥
प्राणो देहस्थितो यावदपानं तु निरुन्धयेत् ।
एकश्वासमयी मात्रा ऊर्ध्वाधो गगने गतिः ॥ १००॥
रेचकः पूरकश्चैव कुम्भकः प्रणवात्मकः ।
प्राणायामो भवेदेवं मात्राद्वादशसंयुतः ॥ १०१॥
मात्राद्वादशसंयुक्तौ दिवाकरनिशाकरौ ।
दोषजालमबध्नन्तौ ज्ञातव्यौ योगिभिः सदा ॥ १०२॥
पूरकं द्वादशं कुर्यात्कुम्भकं षोडशं भवेत् ।
रेचकं दश चोङ्कारः प्राणायामः स उच्यते ॥ १०३॥
अधमे द्वादशमात्रा मध्यमे द्विगुणा मता ।
उत्तमे त्रिगुणा प्रोक्ता प्राणायामस्य निर्णयः ॥ १०४॥
अधमे स्वेदजननं कम्पो भवति मध्यमे ।
उत्तमे स्थानमाप्नोति ततो वायुं निरुन्धयेत् ॥ १०५॥
बद्धपद्मासनो योगी नमस्कृत्य गुरुं शिवम् ।
नासाग्रदृष्टिरेकाकी प्राणायामं समभ्यसेत् ॥ १०६॥
द्वाराणां नव संनिरुध्य मरुतं बध्वा दृढां धारणां
नीत्वा कालमपानवह्निसहितं शक्त्या समं चालितम् ।
आत्मध्यानयुतस्त्वनेन विधिना घ्रिन्यस्य मूर्ध्नि स्थिरं
यावत्तिष्ठति तावदेव महतां सङ्गो न संस्तूयते ॥ १०७॥
प्राणायामो भवेदेवं पातकेन्धनपावकः ।
भवोदधिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभिः सदा ॥ १०८॥
आसनेन रुजं हन्ति प्राणायामेन पातकम् ।
विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण मुञ्चति ॥ १०९॥
धारणाभिर्मनोधैर्यं याति चैतन्यमद्भुतम् ।
समाधौ मोक्षमाप्नोति त्यक्त्वा कर्म शुभाशुभम् ॥ ११०॥
प्राणायामद्विषट्केन प्रत्याहारः प्रकीर्तितः ।
प्रत्याहारद्विषट्केन जायते धारणा शुभा ॥ १११॥
धारणाद्वादश प्रोक्तं ध्यानं योगविशारदैः ।
ध्यानद्वादशकेनैव समाधिरभिधीयते ॥ ११२॥
यत्समाधौ परंज्योतिरनन्तं विश्वतोमुखम् ।
तस्मिन्दृष्टे क्रियाकर्म यातायातो न विद्यते ॥ ११३॥
संबद्धासनमेढ्रमङ्घ्रियुगलं कर्णाक्षिनासापुट-
द्वाराद्यङ्गुलिभिर्नियम्य पवनं वक्त्रेण वा पूरितम् ।
बध्वा वक्षसि बह्वयानसहितं मूर्ध्नि स्थिरं धारये-
देवं यान्ति विशेषतत्त्वसमतां योगीश्वरास्तन्मनः ॥ ११४॥
गगनं पवने प्राप्ते ध्वनिरुत्पद्यते महान् ।
घण्टादीनां प्रवाद्यानां नादसिद्धिरुदीरिता ॥ ११५॥
प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत् ।
प्राणायामवियुक्तेभ्यः सर्वरोगसमुद्भवः ॥ ११६॥
हिक्का कासस्तथा श्वासः शिरःकर्णाक्षिवेदनाः ।
भवन्ति विविधा रोगाः पवनव्यत्ययक्रमात् ॥ ११७॥
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ॥ ११८॥
युक्तंयुक्तं त्यजेद्वायुं युक्तंयुक्तं प्रपूरयेत् ।
युक्तंयुक्तं प्रबध्नीयादेवं सिद्धिमवाप्नुयात् ॥ ११९॥
चरतां चक्षुरादीनां विषयेषु यथाक्रमम् ।
यत्प्रत्याहरणं तेषां प्रत्याहरः स उच्यते ॥ १२०॥
यथा तृतीयकाले तु रविः प्रत्याहरेत्प्रभाम् ।
तृतीयङ्गस्थितो योगी विकारं मनसं हरेदीत्युपनिषत् ।
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण-
मस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु
धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति योगचूडामण्युपनिषत्समाप्ता ॥
योगतत्त्वोपनिषत्
योगैश्वर्यं च कैवल्यं जायते यत्प्रसादतः ।
तद्वैष्णवं योगतत्त्वं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
योगतत्त्वं प्रवक्ष्यामि योगिनां हितकाम्यया ।
यच्छृत्वा च पठित्वा च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १॥
विष्णुर्नाम महायोगी महाभूतो महातपाः ।
तत्त्वमार्गे यथा दीपो दृश्यते पुरुषोत्तमः ॥ २॥
तमाराध्य जगन्नाथं प्रणिपत्य पितामहः ।
पप्रच्छ योगतत्त्वं मे ब्रूहि चाष्टाङ्गसंयुतम् ॥ ३॥
तमुवाच हृषीकेशो वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः ।
सर्वे जीवाः सुखैर्दुखैर्मायाजालेन वेष्टिताः ॥ ४॥
तेषां मुक्तिकरं मार्गं मायाजालनिकृन्तनम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिनाशनं मृत्युतारकम् ॥ ५॥
नानामार्गैस्तु दुष्प्रापं कैवल्यं परमं पदम् ।
पतिताः शास्त्रजालेषु प्रज्ञया तेन मोहिताः ॥ ६॥
अनिर्वाच्यं पदं वक्तुं न शक्यं तैः सुरैरपि ।
स्वात्मप्रकाशरूपं तत्किं शास्त्रेण प्रकाशते ॥ ७॥
निष्कलं निर्मलं शान्तं सर्वातीतं निरामयम् ।
तदेव जीवरूपेण पुण्यपापफलैर्वृतम् ॥ ८॥
परमात्मपदं नित्यं तत्कथं जीवतां गतम् ।
सर्वभावपदातीतं ज्ञानरूपं निरञ्जनम् ॥ ९॥
वारिवत्स्फुरितं तस्मिंस्तत्राहंकृतिरुत्थिता ।
पञ्चात्मकमभूत्पिण्डं धातुबद्धं गुणात्मकम् ॥ १०॥
सुखदुःखैः समायुक्तं जीवभावनया कुरु ।
तेन जीवाभिधा प्रोक्ता विशुद्धैः परमात्मनि ॥ ११॥
कामक्रोधभयं चापि मोहलोभमदो रजः ।
जन्ममृत्युश्च कार्पण्यं शोकस्तन्द्रा क्षुधा तृषा ॥ १२॥
तृष्णा लज्जा भयं दुह्खं विषादो हर्ष एव च ।
एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्तः स जीवः केवलो मतः ॥ १३॥
तस्माद्दोषविनाशार्थमुपायं कथयामि ते ।
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम् ॥ १४॥
योगो हि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ॥ १५॥
अज्ञानादेव संसारो ज्ञानादेव विमुच्यते ।
ज्ञानस्वरूपमेवादौ ज्ञानं ज्ञेयैकसाधनम् ॥ १६॥
ज्ञातं येन निजं रूपं कैवल्यं परमं पदम् ।
निष्कलं निर्मलं साक्षात्सच्चिदानन्दरूपकम् ॥ १७॥
उत्पत्तिस्थितिसंहारस्फूर्तिज्ञानविवर्जितम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमथ योगं ब्रवीमि ते ॥ १८॥
योगो हि बहुधा ब्रह्मन्भिद्यते व्यवहारतः ।
मन्त्रयोगो लयश्चैव हठोऽसौ राजयोगतः ॥ १९॥
आरम्भश्च घटश्चैव तथा परिचयः स्मृतः ।
निष्पत्तिश्चेत्यवस्था च सर्वत्र परिकीर्तिता ॥ २०॥
एतेषां लक्षणं ब्रह्मन्वक्ष्ये शृणु समासतः ।
मातृकादियुतं मन्त्रं द्वादशाब्दं तु यो जपेत् ॥ २१॥
क्रमेण लभते ज्ञानमणिमादिगुणान्वितम् ।
अल्पबुद्धिरिमं योगं सेवते साधकाधमः ॥ २२॥
लययोगश्चित्तलयः कोटिशः परिकीर्तितः ।
गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्भुञ्जन्ध्यायेन्निष्कलमीश्वरम् ॥ २३॥
स एव लययोगः स्याद्धठयोगमतः शृणु ।
यमश्च नियमश्चैव आसनं प्राणसंयमः ॥ २४॥
प्रत्याहारो धारणा च ध्यानं भ्रूमध्यमे हरिम् ।
समाधिः समतावस्था साष्टाङ्गो योग उच्यते ॥ २५॥
महामुद्रा महाबन्धो महावेधश्च खेचरी ।
जालन्धरोड्डियाणश्च मूलबन्धैस्तथैव च ॥ २६॥
दीर्घप्रणवसन्धानं सिद्धान्तश्रवणं परम् ।
वज्रोली चामरोली च सहजोली त्रिधा मता ॥ २७॥
एतेषां लक्षणं ब्रह्मन्प्रत्येकं शृणु तत्त्वतः ।
लघ्वाहारो यमेष्वेको मुख्या भवति नेतरः ॥ २८॥
अहिंसा नियमेष्वेका मुख्या वै चतुरानन ।
सिद्धं पद्मं तथा सिंहं भद्रं चेति चतुष्टयम् ॥ २९॥
प्रथमाभ्यासकाले तु विघ्नाः स्युश्चतुरानन ।
आलस्यं कत्थनं धूर्तगोष्टी मन्त्रादिसाधनम् ॥ ३०॥
धातुस्त्रीलौल्यकादीनि मृगतृष्णामयानि वै ।
ज्ञात्वा सुधीस्त्यजेत्सर्वान्विघ्नान्पुण्यप्रभावतः ॥ ३१॥
प्राणायामं ततः कुर्यात्पद्मासनगतः स्वयम् ।
सुशोभनं मठं कुर्यात्सूक्ष्मद्वारं तु निर्व्रणम् ॥ ३२॥
सुष्ठु लिप्तं गोमयेन सुधया वा प्रयत्नतः ।
मत्कुणैर्मशकैर्लूतैर्वर्जितं च प्रयत्नतः ॥ ३३॥
दिने दिने च संमृष्टं संमार्जन्या विशेषतः ।
वासितं च सुगन्धेन धूपितं गुग्गुलादिभिः ॥ ३४॥
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।
तत्रोपविश्य मेधावी पद्मासनसमन्वितः ॥ ३५॥
ऋजुकायः प्राञ्जलिश्च प्रणमेदिष्टदेवताम् ।
ततो दक्षिणहस्तस्य अङ्गुष्ठेनैव पिङ्गलाम् ॥ ३६॥
निरुध्य पूरयेद्वायुमिडया तु शनैः शनैः ।
यथाशक्त्यविरोधेन ततः कुर्याच्च कुम्भकम् ॥ ३७॥
पुनस्त्यजेत्पिङ्गलया शनैरेव न वेगतः ।
पुनः पिङ्गलयापूर्य पूरयेदुदरं शनैः ॥ ३८॥
धारयित्वा यथाशक्ति रेचयेदिडया शनैः ।
यया त्यजेत्तयापूर्य धारयेदविरोधतः ॥ ३९॥
जानु प्रदक्षिणीकृत्य न द्रुतं न विलम्बितम् ।
अङ्गुलिस्फोटनं कुर्यात्सा मात्रा परिगीयते ॥ ४०॥
इडया वायुमारोप्य शनैः षोडशमात्रया ।
कुम्भयेत्पूरितं पश्चाच्चतुःषष्ट्या तु मात्रया ॥ ४१॥
रेचयेत्पिङ्गलानाड्या द्वात्रिंशन्मात्रया पुनः ।
पुनः पिङ्गलयापूर्य पूर्ववत्सुसमाहितः ॥ ४२॥
प्रातर्मध्यन्दिने सायमर्धरात्रे च कुम्भकान् ।
शनैरशीतिपर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत् ॥ ४३॥
एवं मासत्रयाभ्यासान्नाडीशुद्धिस्ततो भवेत् ।
यदा तु नाडीशुद्धिः स्यात्तदा चिह्नानि बाह्यतः ॥ ४४॥
जायन्ते योगिनो देहे तानि वक्ष्याम्यशेषतः ।
शरीरलघुता दीप्तिर्जाठराग्निविवर्धनम् ॥ ४५॥
कृशत्वं च शरीरस्य तदा जायेत निश्चितम् ।
योगाविघ्नकराहारं वर्जयेद्योगवित्तमः ॥ ४६॥
लवणं सर्षपं चाम्लमुष्णं रूक्षं च तीक्ष्णकम् ।
शाकजातं रामठादि वह्निस्त्रीपथसेवनम् ॥ ४७॥
प्रातःस्नानोपवासादिकायक्लेशांश्च वर्जयेत् ।
अभ्यासकाले प्रथमं शस्तं क्षीराज्यभोजनम् ॥ ४८॥
गोधूममुद्गशाल्यन्नं योगवृद्धिकरं विदुः ।
ततः परं यथेष्टं तु शक्तः स्याद्वायुधारणे ॥ ४९॥
यथेष्टवायुधारणाद्वायोः सिद्ध्येत्केवलकुम्भकः ।
केवले कुम्भक सिद्धे रेचपूरविवर्जिते ॥ ५०॥
न तस्य दुर्लभं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।
प्रस्वेदो जायते पूर्वं मर्दनं तेन कारयेत् ॥ ५१॥
ततोऽपि धारणाद्वायोः क्रमेणैव शनैः शनैः ।
कम्पो भवति देहस्य आसनस्थस्य देहिनः ॥ ५२॥
ततोऽधिकतराभ्यासाद्दार्दुरी स्वेन जायते ।
यथा च दर्दुरो भाव उत्प्लुन्योत्प्लुत्य गच्छति ॥ ५३॥
पद्मासनस्थितो योगी तथा गच्छति भूतले ।
ततोऽधिकतरभ्यासाद्भूमित्यागश्च जायते ॥ ५४॥
पद्मासनस्थ एवासौ भूमिमुत्सृज्य वर्तते ।
अतिमानुषचेष्टादि तथा सामर्थ्यमुद्भवेत् ॥ ५५॥
न दर्शयेच्च सामर्थ्यं दर्शनं वीर्यवत्तरम् ।
स्वल्पं वा बहुधा दुःखं योगी न व्यथते तदा ॥ ५६॥
अल्पमूत्रपुरीषश्च स्वल्पनिद्रश्च जायते ।
कीलवो दृषिका लाला स्वेददुर्गन्धतानने ॥ ५७॥
एतानि सर्वथा तस्य न जायन्ते ततः परम् ।
ततोऽधिकतराभ्यासाद्बलमुत्पद्यते बहु ॥ ५८॥
येन भूचर सिद्धिः स्याद्भूचराणां जये क्षमः ।
व्याघ्रो वा शरभो व्यापि गजो गवय एव वा ॥ ५९॥
सिंहो वा योगिना तेन म्रियन्ते हस्तताडिताः ।
कन्दर्पस्य यथा रूपं तथा स्यादपि योगिनः ॥ ६०॥
तद्रूपवशगा नार्यः काङ्क्षन्ते तस्य सङ्गमम् ।
यदि सङ्गं करोत्येष तस्य बिन्दुक्षयो भवेत् ॥ ६१॥
वर्जयित्वा स्त्रियाः सङ्गं कुर्यादभ्यासमादरात् ।
योगिनोऽङ्गे सुगन्धश्च जायते बिन्दुधारणात् ॥ ६२॥
ततो रहस्युपाविष्टः प्रणवं प्लुतमात्रया ।
जपेत्पूर्वार्जितानां तु पापानां नाशहेतवे ॥ ६३॥
सर्वविघ्नहरो मन्त्रः प्रणवः सर्वदोषहा ।
एवमभ्यासयोगेन सिद्धिरारम्भसम्भवा ॥ ६४॥
ततो भवेद्धठावस्था पवनाभ्यासतत्परा ।
प्राणोऽपानो मनो बुद्धिर्जीवात्मपरमात्मनोः ॥ ६५॥
अन्योन्यस्याविरोधेन एकता घटते यदा ।
घटावस्थेति सा प्रोक्ता तच्चिह्नानि ब्रवीम्यहम् ॥ ६६॥
पूर्वं यः कथितोऽभ्यासश्चतुर्थांशं परिग्रहेत् ।
दिवा वा यदि वा सायं याममात्रं समभ्यसेत् ॥ ६७॥
एकवारं प्रतिदिनं कुर्यात्केवलकुम्भकम् ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो यत्प्रत्याहरणं स्फुटम् ॥ ६८॥
योगी कुम्भकमास्थाय प्रत्याहारः स उच्यते ।
यद्यत्पश्यति चक्षुर्भ्यां तत्तदात्मेति भावयेत् ॥ ६९॥
यद्यच्छृणोति कर्णाभ्यां तत्तदात्मेति भावयेत् ।
लभते नासया यद्यत्तत्तदात्मेति भावयेत् ॥ ७०॥
जिह्वया यद्रसं ह्यत्ति तत्तदात्मेति भावयेत् ।
त्वचा यद्यत्स्पृशेद्योगी तत्तदात्मेति भावयेत् ॥ ७१॥
एवं ज्ञानेन्द्रियाणां तु तत्तत्सौख्यं सुसाधयेत् ।
याममात्रं प्रतिदिनं योगी यत्नादतन्द्रितः ॥ ७२॥
यथा वा चित्तसामर्थ्यं जायते योगिनो ध्रुवम् ।
दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिः क्षणाद्दूरगमस्तथा ॥ ७३॥
वाक्सिद्धिः कामरूपत्वमदृश्यकरणी तथा ।
मलमूत्रप्रलेपेन लोहादेः स्वर्णता भवेत् ॥ ७४॥
खे गतिस्तस्य जायेत सन्तताभ्यासयोगतः ।
सदा बुद्धिमता भाव्यं योगिना योगसिद्धये ॥ ७५॥
एते विघ्ना महासिद्धेर्न रमेत्तेषु बुद्धिमान् ।
न दर्शयेत्स्वसामर्थ्यं यस्यकस्यापि योगिराट् ॥ ७६॥
यथा मूढो यथा मूर्खो यथा बधिर एव वा ।
तथा वर्तेत लोकस्य स्वसामर्थ्यस्य गुप्तये ॥ ७७॥
शिष्याश्च स्वस्वकार्येषु प्रार्थयन्ति न संशयः ।
तत्तत्कर्मकरव्यग्रः स्वाभ्यासेऽविस्मृतो भवेत् ॥ ७८॥
अविस्मृत्य गुरोर्वाक्यमभ्यसेत्तदहर्निशम् ।
एवं भवेद्धठावस्था सन्तताभ्यासयोगतः ॥ ७९॥
अनभ्यासवतश्चैव वृथागोष्ठ्या न सिद्ध्यति ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन योगमेव सदाभ्यसेत् ॥ ८०॥
ततः परिचयावस्था जायतेऽभ्यासयोगतः ।
वायुः परिचितो यत्नादग्निना सह कुण्डलीम् ॥ ८१॥
भावयित्वा सुषुम्नायां प्रविशेदनिरोधतः ।
वायुना सह चित्तं च प्रविशेच्च महापथम् ॥ ८२॥
यस्य चित्तं स्वपवनं सुषुम्नां प्रविशेदिह ।
भूमिरापोऽनलो वायुराकाशश्चेति पञ्चकः ॥ ८३॥
येषु पञ्चसु देवानां धारणा पञ्चधोद्यते ।
पादादिजानुपर्यन्तं पृथिवीस्थानमुच्यते ॥ ८४॥
पृथिवी चतुरस्रं च पीतवर्णं लवर्णकम् ।
पार्थिवे वायुमारोप्य लकारेण समन्वितम् ॥ ८५॥
ध्यायंश्चतुर्भुजाकारं चतुर्वक्त्रं हिरण्मयम् ।
धारयेत्पञ्चघटिकाः पृथिवीजयमाप्नुयात् ॥ ८६॥
पृथिवीयोगतो मृत्युर्न भवेदस्य योगिनः ।
आजानोः पायुपर्यन्तमपां स्थानं प्रकीर्तितम् ॥ ८७॥
आपोऽर्धचन्द्रं शुक्लं च वंबीजं परिकीर्तितम् ।
वारुणे वायुमारोप्य वकारेण समन्वितम् ॥ ८८॥
स्मरन्नारायणं देवं चतुर्बाहुं किरीटिनम् ।
शुद्धस्फटिकसङ्काशं पीतवाससमच्युतम् ॥ ८९॥
धारयेत्पञ्चघटिकाः सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
ततो जलाद्भयं नास्ति जले मृत्युर्न विद्यते ॥ ९०॥
आपायोर्हृदयान्तं च वह्निस्थानं प्रकीर्तितम् ।
वह्निस्त्रिकोणं रक्तं च रेफाक्षरसमुद्भवम् ॥ ९१॥
वह्नौ चानिलमारोप्य रेफाक्षरसमुज्ज्वलम् ।
त्रियक्षं वरदं रुद्रं तरुणादित्यसंनिभम् ॥ ९२॥
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं सुप्रसन्नमनुस्मरन् ।
धारयेत्पञ्चघटिका वह्निनासौ न दाह्यते ॥ ९३॥
न दह्यते शरीरं च प्रविष्टस्याग्निमण्डले ।
आहृदयाद्भ्रुवोर्मध्यं वायुस्थानं प्रकीर्तितम् ॥ ९४॥
वायुः षट्कोणकं कृष्णं यकाराक्षरभासुरम् ।
मारुतं मरुतां स्थाने यकाराक्षरभासुरम् ॥ ९५॥
धारयेत्तत्र सर्वज्ञमीश्वरं विश्वतोमुखम् ।
धारयेत्पञ्चघटिका वायुवद्व्योमगो भवेत् ॥ ९६॥
मरणं न तु वायोश्च भयं भवति योगिनः ।
आभ्रूमध्यात्तु मूर्धान्तमाकाशस्थानमुच्यते ॥ ९७॥
व्योम वृत्तं च धूम्रं च हकाराक्षरभासुरम् ।
आकाशे वायुमारोप्य हकारोपरि शङ्करम् ॥ ९८॥
बिन्दुरूपं महादेवं व्योमाकारं सदाशिवम् ।
शुद्धस्फटिकसङ्काशं धृतबालेन्दुमौलिनम् ॥ ९९॥
पञ्चवक्त्रयुतं सौम्यं दशबाहुं त्रिलोचनम् ।
सर्वायुधैर्धृताकारं सर्वभूषणभूषितम् ॥ १००॥
उमार्धदेहं वरदं सर्वकारणकारणम् ।
आकाशधारणात्तस्य खेचरत्वं भवेद्ध्रुवम् ॥ १०१॥
यत्रकुत्र स्थितो वापि सुखमत्यन्तमश्नुते ।
एवं च धारणाः पञ्च कुर्याद्योगी विचक्षणः ॥ १०२॥
ततो दृढशरीरः स्यान्मृत्युस्तस्य न विद्यते ।
ब्रह्मणः प्रलयेनापि न सीदति महामतिः ॥ १०३॥
समभ्यसेत्तथा ध्यानं घटिकाषष्टिमेव च ।
वायुं निरुध्य चाकाशे देवतामिष्टदामिति ॥ १०४॥
सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम् ।
निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत् ॥ १०५॥
दिनद्वादशकेनैव समाधिं समवाप्नुयात् ।
वायुं निरुध्य मेधावी जीवन्मुक्तो भवत्ययम् ॥ १०६॥
समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः ।
यदि स्वदेहमुत्स्रष्टुमिच्छा चेदुत्सृजेत्स्वयम् ॥ १०७॥
परब्रह्मणि लीयेत न तस्योत्क्रान्तिरिष्यते ।
अथ नो चेत्समुत्स्रष्टुं स्वशरीरं प्रियं यदि ॥ १०८॥
सर्वलोकेषु विहरन्नणिमादिगुणान्वितः ।
कदाचित्स्वेच्छया देवो भूत्वा स्वर्गे महीयते ॥ १०९॥
मनुष्यो वापि यक्षो वा स्वेच्छयापीक्षणद्भवेत् ।
सिंहो व्याघ्रो गजो वाश्वः स्वेच्छया बहुतामियात् ॥ ११०॥
यथेष्टमेव वर्तेत यद्वा योगी महेश्वरः ।
अभ्यासभेदतो भेदः फलं तु सममेव हि ॥ १११॥
पार्ष्णिं वामस्य पादस्य योनिस्थाने नियोजयेत् ।
प्रसार्य दक्षिणं पादं हस्ताभ्यां धारयेद्दृढम् ॥ ११२॥
चुबुकं हृदि विन्यस्य पूरयेद्वायुना पुनः ।
कुम्भकेन यथाशक्ति धारयित्वा तु रेचयेत् ॥ ११३॥
वामाङ्गेन समभ्यस्य दक्षाङ्गेन ततोऽभ्यसेत् ।
प्रसारितस्तु यः पादस्तमूरूपरि नामयेत् ॥ ११४॥
अयमेव महाबन्ध उभयत्रैवमभ्यसेत् ।
महाबन्धस्थितो योगी कृत्वा पूरकमेकधीः ॥ ११५॥
वायुना गतिमावृत्य निभृतं कर्णमुद्रया ।
पुटद्वयं समाक्रम्य वायुः स्फुरति सत्वरम् ॥ ११६॥
अयमेव महावेधः सिद्धैरभ्यस्यतेऽनिशम् ।
अन्तः कपालकुहरे जिह्वां व्यावृत्य धारयेत् ॥ ११७॥
भ्रूमध्यदृष्टिरप्येषा मुद्रा भवति खेचरी ।
कण्ठमाकुञ्च्य हृदये स्थापयेद्दृढया धिया ॥ ११८॥
बन्धो जालन्धराख्योऽयं मृत्युमातङ्गकेसरी ।
बन्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः ॥ ११९॥
उड्यानाख्यो हि बन्धोऽयं योगिभिः समुदाहृतः ।
पार्ष्णिभागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्दृढम् ॥ १२०॥
अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य योनिबन्धोऽयमुच्यते ।
प्राणापानौ नादबिन्दू मूलबन्धेन चैकताम् ॥ १२१॥
गत्वा योगस्य संसिद्धिं यच्छतो नात्र संशयः ।
करणी विपरीताख्या सर्वव्याधिविनाशिनी ॥ १२२॥
नित्यमभ्यासयुक्तस्य जाठराग्निविवर्धनी ।
आहारो बहुलस्तस्य सम्पाद्यः साधकस्य च ॥ १२३॥
अल्पाहारो यदि भवेदग्निर्देहं हरेत्क्षणात् ।
अधःशिरश्चोर्ध्वपादः क्षणं स्यात्प्रथमे दिने ॥ १२४॥
क्षणाच्च किञ्चिदधिकमभ्यसेत्तु दिनेदिने ।
वली च पलितं चैव षण्मासार्धान्न दृश्यते ॥ १२५॥
याममात्रं तु यो नित्यमभ्यसेत्स तु कालजित् ।
वज्रोलीमभ्यसेद्यस्तु स योगी सिद्धिभाजनम् ॥ १२६॥
लभ्यते यदि तस्यैव योगसिद्धिः करे स्थिता ।
अतीतानागतं वेत्ति खेचरी च भवेद्ध्रुवम् ॥ १२७॥
अमरीं यः पिबेन्नित्यं नस्यं कुर्वन्दिने दिने ।
वज्रोलीमभ्यसेन्नित्यममरोलीति कथ्यते ॥ १२८॥
ततो भवेद्राजयोगो नान्तरा भवति ध्रुवम् ।
यदा तु राजयोगेन निष्पन्ना योगिभिः क्रिया ॥ १२९॥
तदा विवेकवैराग्यं जायते योगिनो ध्रुवम् ।
विष्णुर्नाम महायोगी महाभूतो महातपाः ॥ १३०॥
तत्त्वमार्गे यथा दीपो दृश्यते पुरुषोत्तमः ।
यः स्तनः पूर्वपीतस्तं निष्पीड्य मुदमश्नुते ॥ १३१॥
यस्माज्जातो भगात्पूर्वं तस्मिन्नेव भगे रमन् ।
या माता सा पुनर्भार्या या भार्या मातरेव हि ॥ १३२॥
यः पिता स पुनः पुत्रो यः पुत्रः स पुनः पिता ।
एवं संसारचक्रं कूपचक्रेण घटा इव ॥ १३३॥
भ्रमन्तो योनिजन्मानि श्रुत्वा लोकान्समश्नुते ।
त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्तिस्रः सन्ध्यास्त्रयः स्वराः ॥ १३४॥
त्रयोऽग्नयश्च त्रिगुणाः स्थिताः सर्वे त्रयाक्षरे ।
त्रयाणामक्षराणां च योऽधीतेऽप्यर्धमक्षरम् ॥ १३५॥
तेन सर्वमिदं प्रोतं तत्सत्यं तत्परं पदम् ।
पुष्पमध्ये यथा गन्धः पयोमध्ये यथा घृतम् ॥ १३६॥
तिलमध्ये यथा तैलं पाषाणेष्विव काञ्चनम् ।
हृदि स्थाने स्थितं पद्मं तस्य वक्त्रमधोमुखम् ॥ १३७॥
ऊर्ध्वनालमधोबिन्दुस्तस्य मध्ये स्थितं मनः ।
अकारे रेचितं पद्ममुकारेणैव भिद्यते ॥ १३८॥
मकारे लभते नादमर्धमात्रा तु निश्चला ।
शुद्धस्फटिकसङ्काशं निष्कलं पापनाशनम् ॥ १३९॥
लभते योगयुक्तात्मा पुरुषस्तत्परं पदम् ।
कूर्मः स्वपाणिपादादिशिरश्चात्मनि धारयेत् ॥ १४०॥
एवं द्वारेषु सर्वेषु वायुपूरितरेचितः ।
निषिद्धं तु नवद्वारे ऊर्ध्वं प्राङ्निश्वसंस्तथा ॥ १४१॥
घटमध्ये यथा दीपो निवातं कुम्भकं विदुः ।
निषिद्धैर्नवभिर्द्वारैर्निर्जने निरुपद्रवे ॥ १४२॥
निश्चितं त्वात्ममात्रेणावशिष्टं योगसेवयेत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति योगतत्त्वोपनिषत् समाप्ता ॥
योगशिखोपनिषत्
योगज्ञाने यत्पदाप्तिसाधनत्वेन विश्रुते ।
तत्रैपदं ब्रह्मतत्त्वं स्वमात्रमवशिष्यते ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
सर्वे जीवाः सुखैर्दुःखैर्मायाजालेन वेष्टिताः ।
तेषां मुक्तिः कथं देव कृपया वद शङ्कर ॥ १॥
सर्वसिद्धिकरं मार्गं मायाजालनिकृन्तनम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिनाशनं सुखदं वद ॥ २॥
इति हिरण्यगर्भः पप्रच्छ स होवाच महेश्वरः ।
नानामार्गैस्तु दुष्प्रापं कैवल्यं परमं पदम् ॥ ३॥
सिद्धिमार्गेण लभते नान्यथा पद्मसंभव ।
पतिताः शास्त्रजालेषु प्रज्ञया तेन मोहिताः ॥ ४॥
स्वात्मप्रकाशरूपं तत्किं शास्त्रेण प्रकाश्यते ।
निष्कलं निर्मलं शान्तं सर्वातीतं निरामयम् ॥ ५॥
तदेव जीवरूपेण पुण्यपापफलैर्वृतम् ।
परमात्मपदं नित्यं तत्कथं जीवतां गतम् ॥ ६॥
तत्त्वातीतं महादेव प्रसादात्कथयेश्वर ।
सर्वभावपदातीतं ज्ञानरूपं निरञ्जनम् ॥ ७॥
वायुवत्स्फुरितं स्वस्मिंस्तत्राहंकृतिरुत्थिता ।
पञ्चात्मकमभूत्पिण्डं धातुबद्धं गुणात्मकम् ॥ ८॥
सुखदुःखैः समायुक्तं जीवभावनया कुरु ।
तेन जीवामिधा प्रोक्ता विशुद्धे परमात्मनि ॥ ९॥
कामक्रोधभयं चापि मोहलोभमथो रजः ।
जन्म मृत्युश्च कार्पण्यं शोकस्तन्द्रा क्षुधा तृषा ॥ १०॥
तृष्णा लज्जा भयं दुःखं विषादो हर्ष एव च ।
एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्तः स जीवः शिव उच्यते ॥ ११॥
तस्माद्दोषविनाशार्थमुपायं कथयामि ते ।
ज्ञानं केचिद्वदन्त्यत्र केवलं तन्न सिद्धये ॥ १२॥
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ॥ १३॥
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।
ज्ञानस्वरूपमेवादौ ज्ञेयं ज्ञानैकसाधनम् ॥ १४॥
अज्ञानं कीदृशं चेति प्रविचार्यं मुमुक्षुणा ।
ज्ञातं येन निजं रूपं कैवल्यं परमं पदम् ॥ १५॥
असौ दोषैर्विनिर्मुक्तः कामक्रोधभयादिभिः ।
सर्वदोषैर्वृतो जीवः कथं ज्ञानेन मुच्यते ॥ १६॥
स्वात्मरूपं यथा ज्ञानं पूर्णं तद्व्यापकं तथा ।
कामक्रोधादिदोषाणां स्वरूपान्नास्ति भिन्नता ॥ १७॥
पश्चात्तस्य विधिः किंनु निषेधोऽपि कथं भवेत् ।
विवेकी सर्वदा मुक्तः संसारभ्रमवर्जितः ॥ १८॥
परिपूर्णं स्वरूपं तत्सत्यं कमलसंभव ।
सकलं निष्कलं चैव पूर्णत्वाच्च तदेव हि ॥ १९॥
कलिना स्फूर्तिरूपेण संसारभ्रमतां गतम् ।
निष्कलं निर्मलं साक्षात्सकलं गगनोपमम् ॥ २०॥
उत्पत्तिस्थितिसंहारस्फूर्तिज्ञानविवर्जितम् ।
एतद्रूपं समायातः स कथं मोहसागरे ॥ २१॥
निमज्जति महाबाहो त्यक्त्वा विद्यां पुनः पुनः ।
सुखदुःखादिमोहेषु यथा संसारिणां स्थितिः ॥ २२॥
तथा ज्ञानी यदा तिष्ठेद्वासनावासितस्तदा ।
तयोर्नास्ति विशेषोऽत्र समा संसारभावना ॥ २३॥
ज्ञानं चेदीदृशं ज्ञातमज्ञानं कीदृशं पुनः ।
ज्ञाननिष्ठो विरक्तोऽपि धर्मज्ञो विजितेन्द्रियः ॥ २४॥
विना देहेन योगेन न मोक्षं लभते विधे ।
अपक्वाः परिपक्वाश्च देहिनो द्विविधाः स्मृताः ॥ २५॥
अपक्वा योगहीनास्तु पक्वा योगेन देहिनः ।
सर्वो योगाग्निना देहो ह्यजडः शोकवर्जितः ॥ २६॥
जडस्तु पार्थिवो ज्ञेयो ह्यपक्वो दुःखदो भवेत् ।
ध्यानस्थोऽसौ तथाप्येवमिन्द्रियैर्विवशो भवेत् ॥ २७॥
तानि गाढं नियम्यापि तथाप्यन्यैः प्रबाध्यते ।
शीतोष्णसुखदुःखाद्यैर्व्याधिभिर्मानसैस्तथा ॥ २८॥
अन्यैर्नानाविधैर्जीवैः शस्त्राग्निजलमारुतैः ।
शरीरं पीड्यते तैस्तैश्चित्तं संक्षुभ्यते ततः ॥ २९॥
तथा प्राणविपत्तौ तु क्षोभमायाति मारुतः ।
ततो दुःखशतैर्व्यापत्ं चित्तं क्षुब्धं भवेन्नृणाम् ॥ ३०॥
देहावसानसमये चित्ते यद्यद्विभावयेत् ।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येवं जन्मकारणम् ॥ ३१॥
देहान्ते किं भवेज्जन्म तन्न जानन्ति मानवाः ।
तस्माज्ज्ञानं च वैराग्यं जीवस्य केवलं श्रमः ॥ ३२॥
पिपीलिका यथा लग्ना देहे ध्यानाद्विमुच्यते ।
असौ किं वृश्चिकैर्द्रष्टो देहान्ते वा कथं सुखी ॥ ३३॥
तस्मान्मूढा न जानन्ति मिथ्यातर्केण वेष्टिताः ।
अहंकृतिर्यदा यस्य नष्टा भवति तस्य वै ॥ ३४॥
देहस्त्वपि भवेन्नष्टो व्याधयश्चास्य किं पुनः ।
जलाग्निशस्त्रखातादिबाधा कस्य भविष्यति ॥ ३५॥
यदा यदा परिक्षीणा पुष्टा चाहंकृतिर्भवेत् ।
तमनेनास्य नश्यन्ति प्रवर्तन्ते रुगादयः ॥ ३६॥
कारणेन विना कार्यं न कदाचन विद्यते ।
अहंकारं विना तद्वद्देहे दुःखं कथं भवेत् ॥ ३७॥
शरीरेण जिताः सर्वे शरीरं योगिभिर्जितम् ।
तत्कथं कुरुते तेषां सुखदुःखादिकं फलम् ॥ ३८॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः कामक्रोधादिकं जितम् ।
तेनैव विजितं सर्वं नासौ केनापि बाध्यते ॥ ३९॥
महाभूतानि तत्त्वानि संहृतानि क्रमेण च ।
सप्तधातुमयो देहो दग्धा योगाग्निना शनैः ॥ ४०॥
देवैरपि न लक्ष्येत योगिदेहो महाबलः ।
भेदबन्धविनिर्मुक्तो नानाशक्तिधरः परः ॥ ४१॥
यथाकाशस्तथा देह आकाशादपि निर्मलः ।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरो दृश्यः स्थूलात्स्थूलो जडाज्जडः ॥ ४२॥
इच्छारूपो हि योगीन्द्रः स्वतन्त्रस्त्वजरामरः ।
क्रीडते त्रिषु लोकेषु लीलया यत्रकुत्रचित् ॥ ४३॥
अचिन्त्यशक्तिमान्योगी नानारूपाणि धारयेत् ।
संहरेच्च पुनस्तानि स्वेच्छया विजितेन्द्रियः ॥ ४४॥
नासौ मरणमाप्नोति पुनर्योगबलेन तु ।
हठेन मृत एवासौ मृतस्य मरणं कुतः ॥ ४५॥
मरणं यत्र सर्वेषां तत्रासौ परिजीवति ।
यत्र जीवन्ति मूढास्तु तत्रासौ मृत एव वै ॥ ४६॥
कर्तव्यं नैव तस्यास्ति कृतेनासौ न लिप्यते ।
जीवन्मुक्तः सदा स्वच्छः सर्वदोषविवर्जितः ॥ ४७॥
विरक्ता ज्ञानिनश्चान्ये देहेन विजिताः सदा ।
ते कथं योगिभिस्तुल्या मांसपिण्डाः कुदेहिनः ॥ ४८॥
देहान्ते ज्ञानिभिः पुण्यात्पापाच्च फलमाप्यते ।
ईदृशं तु भवेत्तत्तद्भुक्त्वा ज्ञानी पुनर्भवेत् ॥ ४९॥
पश्चात्पुण्येन लभते सिद्धेन सह सङ्गतिम् ।
ततः सिद्धस्य कृपया योगी भवति नान्यथा ॥ ५०॥
ततो नश्यति संसारो नान्यथा शिवभाषितम् ।
योगेन रहितं ज्ञानं न मोक्षाय भवेद्विधे ॥ ५१॥
ज्ञानेनैव विना योगो न सिद्ध्यति कदाचन ।
जन्मान्तरैश्च बहुभिर्योगो ज्ञानेन लभ्यते ॥ ५२॥
ज्ञानं तु जन्मनैकेन योगादेव प्रजायते ।
तस्मायोगात्परतरो नास्ति मार्गस्तु मोक्षदः ॥ ५३॥
प्रविचार्य चिरं ज्ञानं मुक्तोऽहमिति मन्यते ।
किमसौ मननादेव मुक्तो भवति तत्क्षणात् ॥ ५४॥
पश्चाज्जन्मशन्तान्तरैर्योगादेव विमुच्यते ।
न तथा भवतो योगाज्जन्ममृत्यू पुनः पुनः ॥ ५५॥
प्राणापानसमायोगाच्चन्द्रसूर्यैकता भवेत् ।
सप्तधातुमयं देहमग्निना रञ्जयेद्ध्रुवम् ॥ ५६॥
व्याधयस्तस्य नश्यन्ति च्छेदखातादिकास्तथा ,
तदासौ परमाकाशरूपो देह्यवतिष्ठति ॥ ५७॥
किं पुनर्बहुनोक्तेन मरणं नास्ति तस्य वै ।
देहीव दृश्यते लोके दग्धकर्पूरवत्स्वयम् ॥ ५८॥
चित्तं प्राणेन संबद्धं सर्वजीवेषु संस्थितम् ।
रज्ज्वा यद्वत्सुसंबद्धः पक्षी तद्वदिदं मनः ॥ ५९॥
नानाविधैर्विचारैस्तु न बाध्यं जायते मनः ।
तस्मात्तस्य जयोपायः प्राण एव हि नान्यथा ॥ ६०॥
तर्कैर्जल्पैः शास्त्रजालैर्युक्तिभिर्मन्त्रभेषजैः ।
न वशो जायते प्राणः सिद्धोपायं विना विधे ॥ ६१॥
उपायं तमविज्ञाय योगमार्गे प्रवर्तते ।
खण्डज्ञानेन सहसा जायते क्लेशवत्तरः ॥ ६२॥
यो जित्वा पवनं मोहाद्योगमिच्छति योगिनाम् ।
सोऽपक्वं कुम्भमारुह्य सागरं तर्तुमिच्छति ॥ ६३॥
यस्य प्राणो विलीनोऽन्तः साधके जीविते सति ।
पिण्डो न पतितस्तस्य चित्तं दोषैः प्रबाधते ॥ ६४॥
शुद्धे चेतसि तस्यैव स्वात्मज्ञानं प्रकाशते ।
तस्माज्ज्ञानं भवेद्योगाज्जन्मनैकेन पद्मज ॥ ६५॥
तस्माद्योगं तमेवादौ साधको नित्यमभ्यसेत् ।
मुमुक्षुभिः प्राणजयः कर्तव्यो मोक्षहेतवे ॥ ६६॥
योगात्परतरं पुण्यं योगात्परतरं शिवम् ।
योगात्परतरं सूक्ष्मं योगात्परतरं नहि ॥ ६७॥
योऽपानप्राणयोरैक्यं स्वरजोरेतसोस्तथा ।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगो जीवात्मपरमात्मनोः ॥ ६८॥
एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते ।
अथ योगशिखां वक्ष्ये सर्वज्ञानेषु चोत्तमाम् ॥ ६९॥
यदानुध्यायते मन्त्रं गात्रकम्पोऽथ जायते ।
आसनं पद्मकं बद्ध्वा यच्चान्यदपि रोचते ॥ ७०॥
नासाग्रे दृष्टिमारोप्य हस्तपादौ च संयतौ ।
मनः सर्वत्र संगृह्य ॐकारं तत्र चिन्तयेत् ॥ ७१॥
ध्यायते सततं प्राज्ञो हृत्कृत्वा परमेश्वरम् ।
एकस्तम्भे नवद्वारे त्रिस्थूणे पञ्चदैवते ॥ ७२॥
ईदृशे तु शरीरे वा मतिमान्नोपलक्षयेत् ।
आदित्यमण्डलाकारं रश्मिज्वालासमाकुलम् ॥ ७३॥
तस्य मध्यगतं वह्निं प्रज्वलेद्दीपवर्तिवत् ।
दीपशिखा तु या मात्रा सा मात्रा परमेश्वरे ॥ ७४॥
भिन्दन्ति योगिनः सूर्यं योगाभ्यासेन वै पुनः ।
द्वितीयं सुषुम्नाद्वारं परिशुभ्रं समर्पितम् ॥ ७५॥
कपालसम्पुटं पीत्वा ततः पश्यति तत्पदम् ।
अथ न ध्यायते जन्तुरालस्याच्च प्रमादतः ॥ ७६॥
यदि त्रिकालमागच्छेत्स गच्छेत्पुण्यसम्पदम् ।
पुण्यमेतत्समासाद्य संक्षिप्य कथितं मया ॥ ७७॥
लब्धयोगोऽथ बुद्ध्येत प्रसन्नं परमेश्वरम् ।
जन्मान्तरसहस्रेषु यदा क्षीणं तु किल्बिषम् ॥ ७८॥
तदा पश्यति योगेन संसारोच्छेदनं महत् ।
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि योगाभ्यासस्य लक्षणम् ॥ ७९॥
मरुज्जयो यस्य सिद्धः सेवयेत्तं गुरुं सदा ।
गुरुवस्त्रप्रसादेन कुर्यात्प्राणजयं बुधः ॥ ८०॥
वितस्तिप्रमितं दैर्घ्यं चतुरङ्गुलविस्तृतम् ।
मृदुलं धवलं प्रोक्तं वेष्टनाम्बरलक्षणम् ॥ ८१॥
निरुध्य मारुतं गाढं शक्तिचालनयुक्तितः ।
अष्टधा कुण्डलीभूतामृज्वीं कुर्यात्तु कुण्डलीम् ॥ ८२॥
पायोराकुञ्चनं कुर्यात्कुण्डलीं चालयेत्तदा ।
मृत्युचक्रगतस्यापि तस्य मृत्युभयं कुतः ॥ ८३॥
एतदेव परं गुह्यं कथितं तु मया तव ।
वज्रासनगतो नित्यमूर्ध्वाकुञ्चनमभ्यसेत् ॥ ८४॥
वायुना ज्वलितो वह्निः कुण्डलीमनिशं दहेत् ।
सन्तप्ता साग्निना जीवशक्तिस्त्रैलोक्यमोहिनी ॥ ८५॥
प्रविशेच्चन्द्रतुण्डे तु सुषुम्नावदनान्तरे ।
वायुना वह्निना सार्धं ब्रह्मग्रन्थिं भिनत्ति सा ॥ ८६॥
विष्णुग्रन्थिं ततो भित्त्वा रुद्रग्रन्थौ च तिष्ठति ।
ततस्तु कुम्भकैर्गाढं पूरयित्वा पुनःपुनः ॥ ८७॥
अथाभ्यसेत्सूर्यभेदमुज्जायीं चापि शीतलीम् ।
भस्त्रां च सहितो नाम स्याच्चतुष्टयकुम्भकः ॥ ८८॥
बन्धत्रयेण संयुक्तः केवलप्राप्तिकारकः ।
अथास्य लक्षणं सम्यक्कथयामि समासतः ॥ ८९॥
एकाकिना समुपगम्य विविक्तदेशं
प्राणादिरूपममृतं परमार्थतत्त्वम् ।
लघ्वाशिना धृतिमता परिभावितव्यं
संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥ ९०॥
सूर्यनाड्या समाकृष्य वायुमभ्यासयोगिना ।
विधिवत्कुम्भकं कृत्वा रेचयेच्छ्रीतरश्मिना ॥ ९१॥
उदरे बहुरोगघ्नं क्रिमिदोषं निहन्ति च ।
मुहुर्मुहुरिदं कार्यं सूर्यभेदमुदाहृतम् ॥ ९२॥
नाडीभ्यां वायुमाकृष्य कुण्डल्याः पार्श्वयोः क्षिपेत् ।
धारयेदुदरे पश्चाद्रेचयेदिडया सुधीः ॥ ९३॥
कण्ठे कफादि दोषघ्नं शरीराग्निविवर्धनम् ।
नाडीजलापहं धातुगतदोषविनाशनम् ॥ ९४॥
गच्छतस्तिष्ठतः कार्यमुज्जायाख्यं तु कुम्भकम् ।
मुखेन वायुं संगृह्य घ्राणरन्ध्रेण रेचयेत् ॥ ९५॥
शीतलीकरणं चेदं हन्ति पित्तं क्षुधां तृषम् ।
स्तनयोरथ भस्त्रेव लोहकारस्य वेगतः ॥ ९६॥
रेच्येत्पूरयेद्वायुमाश्रमं देहगं धिया ।
यथा श्रमो भवेद्देहे तथा सूर्येण पूरयेत् ॥ ९७॥
कण्ठसंकोचनं कृत्वा पुनश्चन्द्रेण रेचयेत् ।
वातपित्तश्लेष्महरं शरीराग्निविवर्धनम् ॥ ९८॥
कुण्डलीबोधकं वक्त्रदोषघ्नं शुभदं सुखम् ।
ब्रह्मनाडीमुखान्तस्थकफाद्यर्गलनाशनम् ॥ ९९॥
सम्यग्बन्धुसमुद्भूतं ग्रन्थित्रयविभेदकम् ।
विशेषेणैव कर्तव्यं भस्त्राख्यं कुम्भकं त्विदम् ॥ १००॥
बन्धत्रयमथेदानीं प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम् ।
नित्यं कृतेन तेनासौ वायोर्जयमवाप्नुयात् ॥ १०१॥
चतुर्णामपि भेदानां कुम्भके समुपस्थिते ।
बन्धत्रयमिदं कार्यं वक्ष्यमाणं मयहि तत् ॥ १०२॥
प्रथमो मूलबन्धस्तु द्वितीयोड्डीयनाभिधः ।
जालन्धारस्तृतीयस्तु लक्षणं कथयाम्यहम् ॥ १०३॥
गुदं पार्ष्ण्या तु सम्पीड्य पायुमाकुञ्चलेद्बलात् ।
वारंवारं यथा चोर्ध्वं समायाति समीरणः ॥ १०४॥
प्राणापानौ नादबिन्दू मूलबन्धेन चैकताम् ।
गत्वा योगस्य संसिद्धिं यच्छतो नात्र संशयः ॥ १०५॥
कुम्भकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियानकः ।
बन्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः ॥ १०६
तस्मादुड्डीयनाख्योऽयं योगिभिः समुदाहृतः ।
उड्डियानं तु सहजं गुरुणा कथितं सदा ॥ १०७॥
अभ्यसेत्तदतन्द्रस्तु वृद्धोऽपि तरुणो भवेत् ।
नाभेरूर्ध्वमधश्चापि त्राणं कुर्यात्प्रयत्नतः ॥ १०८॥
षाण्मासमभ्यसेन्मृत्युं जयत्येव न संशयः ।
पूरकान्ते तु कर्तव्यो बन्धो जालन्धराभिधः ॥ १०९॥
कण्ठसंकोचरूपोऽसौ वायुर्मार्गनिरोधकः ।
कण्ठमाकुञ्च्य हृदये स्थापयेद्दृढमिच्छया ॥ ११०॥
बन्धो जालन्धराख्योऽयममृताप्यायकारकः ।
अधस्तात्कुञ्चनेनाशु कण्ठसंकोचने कृते ॥ १११॥
मध्ये पश्चिमतानेन स्यात्प्राणो ब्रह्मनाडिगः ।
वज्रासनस्थितो योगी चालयित्वा तु कुण्डलीम् ॥ ११२॥
कुर्यादनन्तरं भस्त्रीं कुण्डलीमाशु बोधयेत् ।
भिद्यन्ते ग्रन्थयो वंशे तप्तलोहशलाकया ॥ ११३॥
तथैव पृष्ठवंशः स्याद्ग्रन्थिभेदस्तु वायुना ।
पिपीलिकायां लग्नायां कण्डूस्तत्र प्रवर्तते ॥ ११४॥
सुषुम्नायां तथाभ्यासात्सततं वायुना भवेत् ।
रुद्रग्रन्थिं ततो भित्त्वा ततो याति शिवात्मकम् ॥ ११५॥
चन्द्रसूर्यौ समौ कृत्वा तयोर्योगः प्रवर्तते ।
गुणत्रयमतीतं स्याद्ग्रन्थित्रयविभेदनात् ॥ ११६॥
शिवशक्तिसमायोगे जायते परमा स्थितिः ।
यथा करी करेणैव पानीयं प्रपिबेत्सदा ॥ ११७॥
सुषुम्नावज्रनालेन पवमानं ग्रसेत्तथा ।
वज्रदण्डसमुद्भूता मणयश्चैकविंशतिः ॥ ११८॥
सुषुम्नायां स्थितः सर्वे सूत्रे मणिगणा इव ।
मोक्षमार्गे प्रतिष्ठानात्सुषुम्ना विश्वरूपिणी ॥ ११९॥
यथैव निश्चितः कालश्चन्द्रसूर्यनिबन्धनात् ।
आपूर्य कुम्भितो वायुर्बहिर्नो याति साधके ॥ १२०॥
पुनःपुनस्तद्वदेव पश्चिमद्वारलक्षणम् ।
पूरितस्तु स तद्द्वारैरीषत्कुम्भकतां गतः ॥ १२१॥
प्रविशेत्सर्वगात्रेषु वायुः पश्चिममार्गतः ।
रेचितः क्षीणतां याति पूरितः पोषयेत्ततः ॥ १२२॥
यत्रैव जातं सकलेवरं मन-
स्तत्रैव लीनं कुरुते स योगात् ।
स एव मुक्तो निरहंकृतिः सुखी
मूढा न जानन्ति हि पिण्डपातिनः ॥ १२३॥
चित्तं विनिष्टं यदि भासितं स्या-
त्तत्र प्रतीतो मरुतोऽपि नाशः ।
न चेद्यदि स्यान्न तु तस्य शास्त्रं
नात्मप्रतीतिर्न गुरुर्न मोक्षः ॥ १२४॥
जलूका रुधिरं यद्वद्बलादाकर्षति स्वयम् ।
ब्रह्मनाडी तथा धातून्सन्तताभ्यासयोगतः ॥ १२५॥
अनेनाभ्यासयोगेन नित्यमासनबन्धतः ।
चित्तं विलीनतामेति बिन्दुर्नो यात्यधस्तथा ॥ १२६॥
रेचकं पूरकं मुक्त्वा वायुना स्थीयते स्थिरम् ।
नाना नादाः प्रवर्तन्ते संस्रवेच्चन्द्रमण्डलम् ॥ १२७॥
नश्यन्ति क्षुत्पिपासाद्याः सर्वदोषास्ततस्तदा ।
स्वरूपे सच्चिदानन्दे स्थितिमाप्नोति केवलम् ॥ १२८॥
कथितं तु तव प्रीत्या ह्येतदभ्यासलक्षणम् ।
मन्त्रो लयो हठो राजयोगोऽन्तर्भूमिकाः क्रमात् ॥ १२९॥
एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोऽभिधीयते ।
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः ॥ १३०॥
हंसहंसेति मन्त्रोऽयं सर्वैर्जीवश्च जप्यते ।
गुरुवाक्यात्सुषुम्नायां विपरीतो भवेज्जपः ॥ १३१॥
सोऽहंसोऽहमिति प्रोक्तो मन्त्रयोगः स उच्यते ।
प्रतीतिर्मन्त्रयोगाच्च जायते पश्चिमे पथि ॥ १३२॥
हकारेण तु सूर्यः स्यात्सकारेणेन्दुरुच्यते ।
सूर्याचन्द्रमसोरैक्यं हठ इत्यभिधीयते ॥ १३३॥
हठेन ग्रस्यते जाड्यं सर्वदोषसमुद्भवम् ।
क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तयोरैक्यं यदा भवेत् ॥ १३४॥
तदैक्ये साधिते ब्रह्मंश्चित्तं याति विलीनताम् ।
पवनः स्थैर्यमायाति लययोगोदये सति ॥ १३५॥
लयात्सम्प्राप्यते सौख्यं स्वात्मानदं परं पदम् ।
योनिमध्ये महाक्षेत्रे जपाबन्धूकसंनिभम् ॥ १३६॥
रजो वसति जन्तूनां देवीतत्त्वं समावृतम् ।
रजसो रेतसो योगाद्राजयोग इति स्मृतः ॥ १३७॥
अणिमादिपदं प्राप्य राजते राजयोगतः ।
प्राणापानसमायोगो ज्ञेयं योगचतुष्टयम् ॥ १३८॥
संक्षेपात्कथितं ब्रह्मन्नान्यथा शिवभाषितम् ।
क्रमेण प्राप्यते प्राप्यमभ्यासादेव नान्यथा ॥ १३९॥
एकेनैव शरीरेण योगाभ्यासाच्छनैःशनैः ।
चिरात्सम्प्राप्यते मुक्तिर्मर्कटक्रम एव सः ॥ १४०॥
योगसिद्धिं विना देहः प्रमादाद्यदि नश्यति ।
पूर्ववासनया युक्तः शरीरं चान्यदाप्नुयात् ॥ १४१॥
ततः पुण्यवशात्सिद्धो गुरुणा सह संगतः ।
पश्चिमद्वारमार्गेण जायते त्वरितं फलम् ॥ १४२॥
पूर्वजन्मकृताभ्यासात्सत्त्वरं फलमश्नुते ।
एतदेव हि विज्ञेयं तत्काकमतमुच्यते ॥ १४३॥
नास्ति काकमतादन्यदभ्यासाख्यमतः परम् ।
तेनैव प्राप्यते मुक्तिर्नान्यथा शिवभाषितम् ॥ १४४॥
हठयोगक्रमात्काष्ठासहजीवलयादिकम् ।
नाकृतं मोक्षमार्गं स्यात्प्रसिद्धां पश्चिमं विना ॥ १४५॥
आदौ रोगाः प्रणश्यन्ति पश्चाज्जाड्यं शरीरजम् ।
ततः समरसो भूत्वा चन्द्रो वर्षत्यनारतम् ॥ १४६॥
धातूंश्च संग्रहेद्वह्निः पवनेन समन्ततः ।
नाना नादाः प्रवर्तन्ते मार्दवं स्यात्कलेवरे ॥ १४७॥
जित्वा वृष्ट्यादिकं जाड्यं खेचरः स भवेन्नरः ।
सर्वज्ञोसौ भवेत्कामरूपः पवनवेगवान् ॥ १४८॥
क्रीडते त्रिषु लिकेषु जायन्ते सिद्धयोऽखिलाः ।
कर्पूरे लीयमाने किं काठिन्यं तत्र विद्यते ॥ १४९॥
अहंकारक्षये तद्वद्देहे कठिना कुतः ।
सर्वकर्ता च योगीन्द्रः स्वतन्त्रोऽनन्तरूपवान् ॥ १५०॥
जीवन्मुक्तो महायोगी जायते नात्र संशयः ।
द्विविधाः सिद्धयो लोके कल्पिताऽकल्पितास्तथा ॥ १५१॥
रसौषधिक्रियाजालमन्त्राभ्यासाधिसाधनात् ।
सिद्ध्यन्ति सिद्धयो यास्तु कल्पितास्ताः प्रकीर्तिताः ॥ १५२॥
अनित्या अल्पवीर्यास्ताः सिद्धयः साधनोद्भवाः ।
साधनेन विनाप्येवं जायन्ते स्वत एव हि ॥ १५३॥
स्वात्मयोगैकनिष्ठेषु स्वातन्त्र्याद्दीश्वरप्रियाः ।
प्रभूताः सिद्धयो यास्ताः कल्पनारहिताः स्मृताः ॥ १५४।
सिद्धानित्या महावीर्या इच्छारूपाः स्वयोगजाः ।
चिरकालात्प्रजायन्ते वासनारहितेषु च ॥ १५५॥
तास्तु गोप्या महायोगात्परमात्मपदेऽव्यये ।
विना कार्यं सदा गुप्तं योगसिद्धस्य लक्षणम् ॥ १५६॥
यथाकाशं समुद्दिश्य गच्छद्भिः पथिकैः पथि ।
नाना तीर्थानि दृश्यन्ते नानामार्गास्तु सिद्धयः ॥ १५७॥
स्वयमेव प्रजायन्ते लाभालाभविवर्जिते ।
योगमार्गे तथैवेदं सिद्धिजालं प्रवर्तते ॥ १५८॥
परीक्षकैः स्वर्णकारैर्हेम सम्प्रोच्यते यथा ।
सिधिभिर्लक्षयेत्सिद्धं जीवन्मुक्तं तथैव च ॥ १५९॥
अलौकिकगुणस्तस्य कदाचिद्दृश्यते ध्रुवम् ।
सिद्धिभिः परिहीनं तु नरं बद्धं तु लक्षयेत् ॥ १६०॥
अजरामरपिण्डो यो जीवन्मुक्तः स एव हि ।
पशुकुक्कुटकीटाद्या मृतिं सम्प्राप्नुवन्ति वै ॥ १६१॥
तेषां किं पिण्डपातेन मुक्तिर्भवति पद्मज ।
न बहिः प्राण आयाति पिण्डस्य पतनं कुतः ॥ १६२॥
पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्न तु हन्यते ।
देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा ॥ १६३॥
अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते ।
विमतानि शरीराणि इन्द्रियाणि तथैव च ॥ १६४॥
ब्रह्म देहत्वमापन्नं वारि बुद्बुदतामिव ।
दशद्वार पुरं देहं दशनाडीमहापथम् ॥ १६५॥
दशभिर्वायुभिर्व्याप्तं दशेन्द्रियपरिच्छदम् ।
षडाधारापवरकं षडन्वयमहावनम् ॥ १६६॥
चतुःपीठसमाकीर्णं चतुराम्नायदीपकम् ।
बिन्दुनादमहालिङ्गं शिवशक्तिनिकेतनम् ॥ १६७॥
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।
गुदमेढ्रान्तरालस्थं मूलाधारं त्रिकोणकम् ॥ १६८॥
शिवस्य जीवरूपस्य स्थानं तद्धि प्रचक्षते ।
यत्र कुण्डलिनीनाम परा शक्तिः प्रतिष्ठिता ॥ १६९॥
यस्मादुत्पद्यते वायुर्यस्माद्वह्निः प्रवर्तते ।
यस्मादुत्पद्यते बिन्दुर्यस्मान्नादः प्रवर्तते ॥ १७०॥
यस्मादुत्पद्यते हंसो यस्मादुत्पद्यते मनः ।
तदेतत्कामरूपाख्यं पीठं कामफलप्रदम् ॥ १७१॥
स्वाधिष्ठानाह्वयं चक्रं लिङ्गमूले षडस्रके ।
नाभिदेशे स्थितं चक्रं दशारं मणिपूरकम् ॥ १७२॥
द्वादशारं महाचक्रं हृदये चाप्यनाहतम् ।
तदेतत्पूर्णगिर्याख्यं पीठं कमलसंभव ॥ १७३॥
कण्ठकूपे विशुद्ध्याख्यं यच्चक्रं षोडशास्रकम् ।
पीठं जालन्धर नाम तिष्ठत्यत्र सुरेश्वर ॥ १७४॥
आज्ञा नाम भ्रुवोर्मध्ये द्विदलं चक्रमुत्तमम् ।
उड्यानाख्यं महापीठमुपरिष्टात्प्रतिष्ठितम् ॥ १७५॥
चतुरस्रं धरण्यादौ ब्रह्मा तत्राधिदेवता ।
अर्धचन्द्राकृति चलं विष्णुस्तस्याधिदेवता ॥ १७६॥
त्रिकोणमण्डलं वह्नी रुद्रस्तस्याधिदेवता ।
वायोर्बिम्बं तु षट्कोणमीश्वरोऽस्याधिदेवता ॥ १७७॥
आकाशमण्डलं वृत्तं देवतास्य सदाशिवः ।
नादरूपं भ्रुवोर्मध्ये मनसो मण्डलं विदुः ॥ १७८॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
पुनर्योगस्य माहात्म्यं श्रोतुमिच्छामि शङ्कर ।
यस्य विज्ञानमात्रेण खेचरीसमतां व्रजेत् ॥ १॥
शृणु ब्रह्मन्प्रवक्ष्यामि गोपनीयं प्रयत्नतः ।
द्वादशाब्दं तु शुश्रूषां यः कुर्यादप्रमादतः ॥ २॥
तस्मै वाच्यं यथातथ्यं दान्ताय ब्रह्मचारिणे ।
पाण्डित्यादर्थलोभाद्वा प्रमादाद्वा प्रयच्छति ॥ ३॥
तेनाधीतं श्रुतं तेन तेन सर्वमनुष्ठितम् ।
मूलमन्त्रं विजानाति यो विद्वान्गुरुदर्शितम् ॥ ४॥
शिवशक्तिमयं मन्त्रं मूलाधारात्समुत्थितम् ।
तस्य मन्त्रस्य वै ब्रह्मञ्छ्रोता वक्ता च दुर्लभः ॥ ५॥
एतत्पीठमिति प्रोक्तं नादलिङ्गं चिदात्मकम् ।
तस्य विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेज्जनः ॥ ६॥
अणिमादिकमैश्वर्यमचिरादेव जायते ।
मननात्प्राणनाच्चैव मद्रूपस्यावबोधनात् ॥ ७॥
मन्त्रमित्युच्यते ब्रह्मन्मदधिष्ठानतोऽपि वा ।
मूलत्वात्सर्वमन्त्राणां मूलाधारात्समुद्भवात् ॥ ८॥
मूलस्वरूपलिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः ।
सूक्ष्मत्वात्कारणात्वाच्च लयनाद्गमनादपि ॥ ९॥
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ।
संनिधानात्समस्तेषु जन्तुष्वपि च सन्ततम् ॥ १०॥
सूचकत्वाच्च रूपस्य सूत्रमित्यभिधीयते ।
महामाया महालक्ष्मीर्महादेवी सरस्वती ॥ ११॥
आधारशक्तिरव्यक्ता यया विश्वं प्रवर्तते ।
सूक्ष्माभा बिन्दुरूपेण पीठरूपेण वर्तते ॥ १२॥
बिन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिङ्गमुपस्थितम् ।
प्राणेनोच्चार्यते ब्रह्मन्षण्मुखीकरणेन च ॥ १३॥
गुरूपदेशमार्गेण सहसैव प्रकाशते ।
स्थूलं सूक्ष्मं परं चेति त्रिविधं ब्रह्मणो वपुः ॥ १४॥
पञ्चब्रह्ममयं रूपं स्थूलं वैराजमुच्यते ।
हिरण्यगर्भं सूक्ष्मं तु नादं बीजत्रयात्मकम् ॥ १५॥
परं ब्रह्म परं सत्यं सच्चिदानन्दलक्षणम् ।
अप्रमेयमनिर्देश्यमवाङ्मनसगोचरम् ॥ १६॥
शुद्धं सूक्ष्मं निराकारं निर्विकारं निरञ्जनम् ।
अनन्तमपरिच्छेद्यमनूपममनामयम् ॥ १७॥
आत्ममन्त्रसदाभ्यासात्परतत्त्वं प्रकाशते ।
तदभिव्यक्तचिह्नानि सिद्धिद्वाराणि मे शृणु ॥ १८॥
दीपज्वालेन्दुखद्योतविद्युन्नक्षत्रभास्वराः ।
दृश्यन्ते सूक्ष्मरूपेण सदा युक्तस्य योगिनः ॥ १९॥
अणिमादिकमैश्वर्यमचिरात्तस्य जायते ।
नास्ति नादात्परो मन्त्रो न देवः स्वात्मनः परः ॥ २०॥
नानुसन्धेः परा पूजा न हि तृप्तेः परं मुखम् ।
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वदा सिद्धिमिच्छता ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय कृत कृत्यः सुखी भवेत् ॥ २१॥
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ २२॥ इति ॥
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
यन्नमस्यं चिदाख्यातं यत्सिद्धीनां च कारणम् ।
येन विज्ञातमात्रेण जन्मबन्धात्प्रमुच्यते ॥ १॥
अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते ।
मूलाधारगता शक्तिः स्वाधारा बिन्दुरूपिणी ॥ २॥
तस्यामुत्पद्यते नादः सूक्ष्मबीजादिवाङ्कुरः ।
तां पश्यन्तीं विदुर्विश्वं यया पश्यन्ति योगिनः ॥ ३॥
हृदये व्यज्यते घोषो गर्जत्पर्जन्यसंनिभः ।
तत्र स्थिता सुरेशान मध्यमेत्यभिधीयते ॥ ४॥
प्राणेन च स्वराख्येन प्रथिता वैखरी पुनः ।
शाखापल्लवरूपेण ताल्वादिस्थानघट्टनात् ॥ ५॥
अकारादिक्षकारान्तान्यक्षराणि समीरयेत् ।
अक्षरेभ्यः पदानि स्युः पदेभ्यो वाक्यसंभवः ॥ ६॥
सर्वे वाक्यात्मका मन्त्रा वेदशास्त्राणि कृत्स्नशः ।
पुराणानि च काव्यानि भाषाश्च विविधा अपि ॥ ७॥
सप्तस्वराश्च गाथाश्च सर्वे नादसमुद्भवाः ।
एषा सरस्वती देवी सर्वभूतगुहाश्रया ॥ ८॥
वायुना वह्नियुक्तेन प्रेर्यमाणा शनैः शनैः ।
तद्विवर्तपदैर्वाक्यैरित्येवं वर्तते सदा ॥ ९॥
य इमां वैखरी शक्तिं योगी स्वात्मनि पश्यति ।
स वाक्सिद्धिमवाप्नोति सरस्वत्याः प्रसादतः ॥ १०॥
वेदशास्त्रपुराणानां स्वयं कर्ता भविष्यति ।
यत्र बिन्दुश्च नादश्च सोमसूर्याग्निवायवः ॥ ११॥
इन्द्रियाणि च सर्वाणि लयं गच्छन्ति सुव्रत ।
वायवो यत्र लीयन्ते मनो यत्र विलीयते ॥ १२॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिंस्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ १३॥
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ १४॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
एतत्क्षराक्षरातीतमनक्षरमितीर्यते ॥ १५॥
क्षरः सर्वाणि भूतानि सूत्रात्माऽक्षर उच्यते ।
अक्षरं परमं ब्रह्म निर्विशेषं निरञ्जनम् ॥ १६॥
अलक्षणमलक्षं तदप्रतर्क्यमनूपमम् ।
अपारपारमच्छेद्यमचिन्त्यमतिनिर्मलम् ॥ १७॥
आधारं सर्वभूतानामनाधारमनामयम् ।
अप्रमाणमनिर्देश्यमप्रमेयमतीन्द्रियम् ॥ १८॥
अस्थूलमनणुह्रस्वमदीर्घमजमव्ययम् ।
अशब्दमस्पर्शरूपमचक्षुःश्रोत्रनामकम् ॥ १९॥
सर्वज्ञं सर्वगं शान्तं सर्वेषां हृदये स्थितम् ।
सुसंवेद्यं गुरुमतात्सुदुर्बोधमचेतसाम् ॥ २०॥
निष्कलं निर्गुणं शान्तं निर्विकारं निराश्रयम् ।
निर्लेपकं निरापायं कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ २१॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमःपारे प्रतिष्ठितम् ।
भावाभावविनिर्मुक्तं भावनामात्रगोचरम् ॥ २२॥
भक्तिगम्यं परं तत्त्वमन्तर्लीनेन चेतसा ।
भावनामात्रमेवात्र कारणं पद्मसंभव ॥ २३॥
यथा देहान्तरप्राप्तेः कारणं भावना नृणाम् ।
विषयं ध्यायतः पुंसो विषये रमते मनः ॥ २४॥
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येवात्र विलीयते ।
सर्वज्ञत्वं परेशत्वं सर्वसम्पूर्णशक्तिता ।
अनन्तशक्तिमत्त्वं च मदनुस्मरणाद्भवेत् ॥ २५॥ इति॥
इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
चैतनस्यैकरूपत्वद्भेदो युक्तो न कर्हिचित् ।
जीवत्वं च तथा ज्ञेयं रज्ज्वां सर्पग्रहो यथा ॥ १॥
रज्ज्वज्ञानात्क्षणेनैव यद्वद्रज्जुर्हि सर्पिणी ।
भाति तद्वच्चितिः साक्षाद्विश्वाकारेण केवला ॥ २॥
उपादानं प्रपञ्चस्य ब्रह्मणोऽन्यन्न विद्यते ।
तस्मात्सर्वप्रपञ्चोऽयं ब्रह्मैवास्ति न चेतरत् ॥ ३॥
व्याप्यव्याप्यकता मिथ्या सर्वमात्मेति शासनात् ।
इति ज्ञाते परे तत्त्वे भेदस्यावसरः कुतः ॥ ४॥
ब्रह्मणः सर्वभूतानि जायन्ते परमात्मनः ।
तस्मादेतानि ब्रह्मैव भवन्तीति विचिन्तय ॥ ५॥
ब्रह्मैव सर्वनामानि रूपाणि विविधानि च ।
कर्माण्यपि समग्राणि बिभर्तीति विभावय ॥ ६॥
सुवर्णाज्जायमानस्य सुवर्णत्वं च शाश्वतम् ।
ब्रह्मणो जायमानस्य ब्रह्मत्वं च तथा भवेत् ॥ ७॥
स्वल्पमप्यन्तरं कृत्वा जीवात्मपरमात्मनोः ।
यस्तिष्ठति विमूढात्मा भयं तस्यापि भाषितम् ॥ ८॥
यदज्ञानद्भवेद्द्वैतमितरत्तत्प्रपश्यति ।
आत्मत्वेन तदा सर्वं नेतरत्तत्र चाण्वपि ॥ ९॥
अनुभूतोऽप्ययं लोको व्यवहारक्षमोऽपि सन् ।
असद्रूपो यथा स्वप्न उत्तरक्षणबाधितः ॥ १०॥
स्वप्ने जागरितं नास्ति जागरे स्वप्नता नहि ।
द्वयमेव लये नास्ति लयोऽपि ह्यनयोर्न च ॥ ११॥
त्रयमेव भवेन्मिथ्या गुणत्रयविनिर्मितम् ।
अस्य द्रष्टा गुणातीतो नित्यो ह्येष चिदात्मकः ॥ १२॥
यद्वन्मृदि घटभ्रान्तिः शुक्तौ हि रजतस्थितिः ।
तद्वद्ब्रह्मणि जीवत्वं वीक्षमाणे विनश्यति ॥ १३॥
यथा मृदि घटो नाम कनके कुण्डलाभिधा ।
शुक्तौ हि रजतख्यातिर्जीवशब्दस्तथा परे ॥ १४॥
यथैव व्योम्नि नीलत्वं यथा नीरं मरुस्थले ।
पुरुषत्वं यथा स्थाणौ तद्वद्विश्वं चिदात्मनि ॥ १५॥
यथैव शून्यो वेतालो गन्धर्वाणं पुरं यथा ।
यथाकाशे द्विचन्द्रत्वं तद्वत्सत्ये जगत्स्थितिः ॥ १६॥
यथा तरङ्गकल्लोलैर्जलमेव स्फुरत्यलम् ।
घटनाम्ना यथा पृथ्वी पटनाम्ना हि तन्तवः ॥ १७॥
जगन्नाम्ना चिदाभाति सर्वं ब्रह्मैव केवलम् ।
यथा वन्ध्यासुतो नास्ति यथा नस्ति मरौ जलम् ॥ १८॥
यथा नास्ति नभोवृक्षस्तथा नास्ति जगत्स्थितिः ।
गृह्यमाने घटे यद्वन्मृत्तिका भाति वै बलात् ॥ १९॥
वीक्ष्यमाणे प्रपञ्चे तु ब्रह्मैवाभाति भासुरम् ।
सदैवात्मा विशुद्धोऽस्मि ह्यशुद्धो भाति वै सदा ॥ २०॥
यथैव द्विविधा रज्जुर्ज्ञानिनोऽज्ञानिनोऽनिशम् ।
यथैव मृन्मयः कुंभस्तद्वद्देहोऽपि चिन्मयः ॥ २१॥
आत्मानात्मविवेकोऽयं मुधैव क्रियते बुधैः ॥
सर्पत्वेन यथा रज्जू रजतत्वेन शुक्तिका ॥ २२॥
विनिर्णीता विमूढेन देहत्वेन तथात्मता ।
घटत्वेन यथा पृथ्वी जलत्वेन मरीचिका ॥ २३॥
गृहत्वेन हि काष्ठानि खड्गत्वेन हि लोहता ।
तद्वदात्मनि देहत्वं पश्यत्यज्ञानयोगतः ॥ २४॥ इति॥
इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
पुनर्योगं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्मस्वरूपकम् ।
समाहितमना भूत्वा शृणु ब्रह्मन्यथाक्रमम् ॥ १॥
दशद्वारपुरं देहं दशनाडीमहापथम् ।
दशभिर्वायुभिर्व्याप्तं दशेन्द्रियपरिच्छदम् ॥ २॥
षडाधारापवरकं षडन्वयमहावनम् ।
चतुःपीठसमाकीर्णं चतुराम्नायदीपकम् ॥ ३॥
बिन्दुनादमहालिङ्गविष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ॥ ४॥
गुदमेढ्रान्तरालस्थं मूलाधारं त्रिकोणकम् ।
शिवस्य जीवरूपस्य स्थानं तद्धि प्रचक्षते ॥ ५॥
यत्र कुण्डलिनी नाम परा शक्तिः प्रतिष्ठिता ।
यस्मादुत्पद्यते वायुर्यस्माद्वह्निः प्रवर्तते ॥ ६॥
यस्मादुत्पद्यते बिन्दुर्यस्मान्नादः प्रवर्तते ।
यस्मादुत्पद्यते हंसो यस्मादुत्पद्यते मनः ॥ ७॥
तदेतत्कामरूपाख्यं पीठं कामफलप्रदम् ।
स्वाधिष्ठानह्वयं चक्रं लिङ्गमूले षडस्रकम् ॥ ८॥
नाभिदेशे स्थितं चक्रं दशास्रं मणिपूरकम् ।
द्वादशारं महाचक्रं हृदये चाप्यनाहतम् ॥ ९॥
तदेतत्पूर्णगिर्याख्यं पीठं कमलसंभव ।
कण्ठकूपे विशुद्धाख्यं यच्चक्रं षोडशास्रकम् ॥ १०॥
पीठं जालन्धरं नाम तिष्ठत्यत्र चतुर्मुख ।
आज्ञा नाम भ्रुवोर्मध्ये द्विदलं चक्रमुत्तमम् ॥ ११॥
उड्यानाख्यं महापीठमुपरिष्टात्प्रतिष्ठितम् ।
स्थानान्येतानि देहेऽस्मिञ्छक्तिरूपं प्रकाशते ॥ १२॥
चतुरस्रधरण्यादौ ब्रह्मा तत्राधिदेवता ।
अर्धचन्द्राकृति जलं विष्णुस्तस्याधिदेवता ॥ १३॥
त्रिकोणमण्डलं वह्नी रुद्रस्तस्याधिदेवता ।
वायोर्बिंबं तु षट्कोणं संकर्षोऽत्राधिदेवता ॥ १४॥
आकाशमण्डलं वृत्तं श्रीमन्नारायणोऽत्राधिदेवता ।
नादरूपं भ्रुवोर्मध्ये मनसो मण्डलं विदुः ॥ १५॥
शांभवस्थानमेतत्ते वर्णितं पद्मसंभव ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि नाडीचक्रस्य निर्णयम् ॥ १६॥
मूलाधारत्रिकोणस्था सुषुम्ना द्वादशाङ्गुला ।
मूलार्धच्छिन्नवंशाभा ब्रह्मनाडीति सा स्मृता ॥ १७॥
इडा च पिङ्गला चैव तस्याः पार्श्वद्वये गते ।
विलंबिन्यामनुस्यूते नासिकान्तमुपागते ॥ १८॥
इडायां हेमरूपेण वायुर्वामेन गच्छति ।
पिङ्गलायां तु सूर्यात्मा याति दक्षिणपार्श्वतः ॥ १९॥
विलंबिनीति या नाडी व्यक्ता नाभौ प्रतिष्ठिता ।
तत्र नाड्यः समुत्पन्नस्तिर्यगूर्ध्वमधोमुखाः ॥ २०॥
तन्नाभिचक्रमित्युक्तं कुक्कुटाण्डमिव स्थितम् ।
गान्धारी हस्तिजिह्वा च तस्मान्नेत्रद्वयं गते ॥ २१॥
पूषा चालम्बुसा चैव श्रोत्रद्वयमुपागते ।
शूरा नाम महानाडी तस्माद्भ्रूमध्यमाश्रिता ॥ २२॥
विश्वोदरी तु या नाडी सा भुङ्क्तेऽन्नं चतुर्विधम् ।
सरस्वती तु या नाडी सा जिह्वान्तं प्रसर्पति ॥ २३॥
राकाह्वया तु या नाडी पीत्वा च सलिलं क्षणात् ।
क्षुतमुत्पादयेद् घ्राणे श्लेष्माणं संचिनोति च ॥ २४॥
कण्ठकूपोद्भवा नाडी शङ्खिनाख्या त्वधोमुखी ।
अन्नसारं समादाय मूर्ध्नि संचिनुते सदा ॥ २५॥
नाभेरधोगतास्तिस्रो जाडयः स्युरधोमुखः ।
मलं त्यजेत्कुहूर्नाडी मूत्रं मुञ्चति वारुणी ॥ २६॥
चित्राख्या सीविनि नाडी शुक्लमोचनकारणी ।
नाडीचक्रमिति प्रोक्तं बिन्दुरूपमतः शृणु ॥ २७॥
स्थूलं सूक्ष्मं परं चेति त्रिविधं ब्रह्मणो वपुः ।
स्थूलं शुक्लात्मकं बिन्दुः सूक्ष्मं पञ्चाग्निरूपकम् ॥ २८॥
सोमात्मकः परः प्रोक्तः सदा साक्षी सदाच्युतः ।
पातालानामधोभागे कालाग्निर्यः प्रतिष्ठितः ॥ २९॥
समूलाग्निः शरीरेऽग्निर्यस्मान्नादः प्रजायते ।
वडवाग्निः शरीरस्थो ह्यस्थिमध्ये प्रवर्तते ॥ ३०॥
काष्ठपाषाणयोर्वह्निर्ह्यस्थिमध्ये प्रवर्तते ।
काष्ठपाषणजो वह्निः पार्थिवो ग्रहणीगतः॥ ३१॥
अन्तरिक्षगतो वह्निर्वैद्युतः स्वान्तरात्मकः ।
नभस्थः सूर्यरूपोऽग्निर्नाभिमण्डलमाश्रितः ॥ ३२॥
विषं वर्षति सूर्योऽसौ स्रवत्यमृतमुन्मुखः ।
तालुमूले स्थितश्चन्द्रः सुधां वर्षत्यधोमुखः ॥ ३३॥
भ्रूमध्यनिलयो बिन्दुः शुद्धस्फटिकसंनिभः ।
महाविष्णोश्च देवस्य तत्सूक्ष्मं रूपमुच्यते ॥ ३४॥
एतत्पञ्चाग्निरूपं यो भावयेद्बुद्धिमान्धिया ।
तेन भुक्तं च पीतं च हुतमेव न संशयः ॥ ३५॥
सुखसंसेवितं स्वप्नं सुजीर्णमितभोजनम्।ज् ।
शरीरशुद्धिं कृत्वादौ सुखमासनमास्थितः ॥ ३६॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं रेचपूरककुम्भकैः ।
गुदमाकुञ्च्य यत्नेन मूलशक्तिं प्रपूजयेत् ॥ ३७॥
नाभौ लिङ्गस्य मध्ये तु उड्यानाख्यं च बन्धयेत् ।
उड्डीय याति तेनैव शक्तितोड्यानपीठकम् ॥ ३८॥
कण्ठं सङ्कोचयेत्किंचिद्बन्धो जालन्धरि ह्ययम् ।
बन्धयेत्खेचरि मुद्रां दृढचित्तः समाहितः ॥ ३९॥
कपालविवरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ।
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ॥ ४०॥
खेचर्या मुद्रितं येन विवरं लम्बिकोर्ध्वतः ।
न पीयूषं पतत्यग्नौ न च वायुः प्रधावति ॥ ४१॥
न क्षुधा न तृषा निद्रा नैवालस्यं प्रजायते ।
न च मृत्युर्भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ॥ ४२॥
ततः पूर्वापरे व्योम्नि द्वादशान्तेऽच्युतात्मके ।
उड्ड्यानपीठे निर्द्वन्द्वे निरालम्बे निरञ्जने ॥ ४३॥
ततः पङ्कजमध्यस्थं चन्द्रमण्डलमध्यगम् ।
नारायणमनुध्यायेत्स्रवतममृतं सदा ॥ ४४॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिद्नृष्टे परावरे ॥ ४५॥
अथ सिद्धिं प्रवक्ष्यामि सुखोपायं सुरेश्वर ।
जितेन्द्रियाणां शान्तानां जितश्वासविचेतसाम् ॥ ४६॥
नादे मनोलयं ब्रह्मन्दूरश्रवणकारणम् ।
बिन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ॥ ४७॥
कालात्मनि मनो लीनं त्रिकालज्ञानकारणम् ।
परकायमनोयोगः परकायप्रवेशकृत् ॥ ४८॥
अमृतं चिन्तयेन्मूर्ध्नि क्षुत्तृषाविषशान्तये ।
पृथिव्यां धारयेच्चित्तं पातालगमनं भवेत् ॥ ४९॥
सलिले धारयेच्चित्तं नाम्भसा परिभूयते ।
अग्नौ सन्धारयेच्चित्तमग्निना दह्यते न सः ॥ ५०॥
वायौ मनोलयं कुर्यादाकाशगमनं भवेत् ।
आकाशे धारयेच्चित्तमणिमादिकमाप्नुयात् ॥ ५१॥
विराड्रूपे मनो युञ्जन्महिमानमवाप्नुयात् ।
चतुर्मुखे मनो युञ्जञ्जगत्सृष्टिकरो भवेत् ॥ ५२॥
इन्द्ररूपिणमात्मानं भावयन्मर्त्यभोगवान् ।
विष्णुरूपे महायोगी पालयेदखिलं जगत् ॥ ५३॥
रुद्ररूपे महायोगी संहरत्येव तेजसा ।
नारायणे मनो युञ्जन्सर्वसिद्धिमवाप्नुयात् ॥ ५४॥
यथा संकल्पयेद्योगी योगयुक्तो जितेन्द्रियः ।
तथा तत्तदवाप्नोति भाव एवात्र कारणम् ॥ ५५॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाच्युतः ।
न गुरोरधिकः कश्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ५६॥
दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम् ।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफलं भवेत् ॥ ५७॥
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशोस्तथा गुरुः ।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयोः ॥ ५८॥
नाद्वैतवादं कुर्वीत गुरुणा सह कुत्रचित् ।
अद्वैतं भावयेद्भक्त्या गुरोर्देवस्य चात्मनः ॥ ५९॥
योगशिखां महागुह्यं यो जानाति महामतिः ।
न तस्य किंचिदज्ञातं त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ६०॥
न पुण्यपापे नास्वस्थो न दुःखं न पराजयः ।
न चास्ति पुनरावृत्तिरस्मिन्संसारमण्डले ॥ ६१॥
सिद्धौ चित्तं न कुर्वीत चञ्चलत्वेन चेतसः ।
तथा विज्ञाततत्त्वोऽसौ मुक्त एव न संशयः ॥ ६२॥
इत्युपनिषत् ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
उपासनाप्रकारं मे ब्रूहि त्वं परमेश्वर ।
येन विज्ञातमात्रेण मुक्तो भवति संसृतेः ॥ १॥
उपासनाप्रकारं ते रहस्यं श्रुतिसारकम् ।
हिरण्यगर्भ वक्ष्यामि श्रुत्वा सम्यगुपासय ॥ २॥
सुषुम्नायै कुण्डलीन्यै सुधायै चन्द्रमण्डलात् ।
मनोन्मन्यै नमस्तुभ्यं महाशक्त्यै चिदात्मने ॥ ३॥
शतं चैका च हृदयस्य नाड्य-
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विश्वङ्ङ्न्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥ ४॥
एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता ।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी ॥ ५॥
इडा तिष्ठति वामेन पिङ्गला दक्षिणेन तु ।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित् ॥ ६॥
प्राणान्सन्धारयेत्तस्मिन्नासाभ्यान्तरचारिणः ।
भूत्वा तत्रायतप्राणः शनैरेव समभ्यसेत् ॥ ७॥
गुदस्य पृष्ठभागेऽस्मिन्वीणादण्डः स देहभृत् ।
दीर्घास्तिदेहपर्यन्तं ब्रह्मनाडीति कथ्यते ॥ ८॥
तस्यान्ते सुषिरं सूक्ष्मं ब्रह्मनाडीति सूरभिः ।
इडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्ना सूर्यरूपिणी ॥ ९॥
सर्वं प्रतिष्ठितं तस्मिन्सर्वगं विश्वतोमुखम् ।
तस्य मध्यगताः सूर्यसोमाग्निपरमेश्वराः ॥ १०॥
भूतलोका दिशः क्षेत्राः समुद्राः पर्वताः शिलाः ।
द्वीपाश्च निम्नगा वेदाः शास्त्रविद्याकलाक्षराः ॥ ११॥
स्वरमन्त्रपुराणानि गुणाश्चैते च सर्वशः ।
बीजं बीजात्मकस्तेषां क्षेत्रज्ञः प्राणवायवः ॥ १२॥
सुषुम्नान्तर्गतं विश्वं तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
नानानाडीप्रसवगं सर्वभूतान्तरात्मनि ॥ १३॥
ऊर्ध्वमूलमधःशाखं वायुमार्गेण सर्वगम् ।
द्विसप्ततिसहस्राणि नाड्यः स्युर्वायुगोचराः ॥ १४॥
सर्वमार्गेण सुषिरास्तिर्यञ्चः सुषिरात्मताः ।
अधश्चोर्ध्वं च कुण्डल्याः सर्वद्वारनिरोधनात् ॥ १५॥
वायुना सह जीवोर्ध्वज्ञानान्मोक्षमवाप्नुयात् ।
ज्ञात्वा सुषुम्नां तद्भेदं कृत्वा पायुं च मध्यगम् ॥ १६॥
कृत्वा तु चैन्दवस्थाने घ्राणरन्ध्रे निरोधयेत् ।
द्विसप्ततिसहस्राणि नाडीद्वाराणि पञ्जरे ॥ १७॥
सुषुम्ना शाम्भवी शक्तिः शेषास्त्वन्ये निरर्थकाः ।
हृल्लेखे परमानन्दे तालुमूले व्यवस्थिते ॥ १८॥
अत ऊर्ध्वं निरोधे तु मध्यमं मध्यमध्यमम् ।
उच्चारयेत्परां शक्तिं ब्रह्मरन्ध्रनिवासिनीम् ।
यदि भ्रमरसृष्टिः स्यात्संसारभ्रमणं त्यजेत् ॥ १९॥
गमागमस्थं गमनादिशून्यं
चिद्रूपदीपं तिमिरान्धनाशम् ।
पश्यामि तं सर्वजनान्तरस्थं
नमामि हंसं परमात्मरूपम् ॥ २०॥
अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः ।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिषोऽन्तर्गतं मनः ।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ २१॥
केचिद्वदन्ति चाधारं सुषुम्ना च सरस्वती ।
आधाराज्जायते विश्वं विश्वं तत्रैव लीयते ॥ २२॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरुपादं समाश्रयेत् ।
आधारशक्तिनिद्रायां विश्वं भवति निद्रया ॥ २३॥
तस्यां शक्तिप्रबोधेन त्रैलोक्यं प्रतिबुध्यते ।
आधारं यो विजानाति तमसः परमश्नुते ॥ २४॥
तस्य विज्ञानमात्रेण नरः पापैः प्रमुच्यते ॥ २५॥
आधारचक्रमहसा विद्युत्पुञ्जसमप्रभा ।
तदा मुक्तिर्न सन्देहो यदि तुष्टः स्वयं गुरुः ॥ २६॥
आधारचक्रमहसा पुण्यपापे निकृन्तयेत् ।
आधारवातरोधेन लीयते गगनान्तरे ॥ २७॥
आधारवातरोधेन शरीरं कंपते यदा ।
आधारवातरोधेन योगी नृत्यति सर्वदा ॥ २८॥
आधारवातरोधेन विश्वं तत्रैव दृश्यते ।
सृष्टिमाधारमाधारमाधारे सर्वदेवताः ।
आधारे सर्ववेदाश्च तस्मादाधारमाश्रयेत् ॥ २९॥
आधारे पश्चिमे भागे त्रिवेणीसङ्गमो भवेत् ।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च नरः पापात्प्रमुच्यते ॥ ३०॥
आहारे पश्चिमं लिङ्गं कवाटं तत्र विद्यते ।
तस्योद्घाटनमात्रेण मुच्यते भवबन्धनात् ॥ ३१॥
आधारपश्चिमे भागे चन्द्रसूर्यौ स्थिरौ यदि ।
तत्र तिष्ठति विश्वेशो ध्यात्वा ब्रह्ममयो भवेत् ॥ ३२॥
आधारपश्चिमे भागे मूर्तिस्तिष्ठति संज्ञया ।
षट् चक्राणि च निर्भिद्य ब्रह्मरन्ध्राद्बहिर्गतम् ॥ ३३॥
वामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया ।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यान्तस्ते यान्ति परमां गतिम् ॥ ३४॥
सुषुम्नायां यदा हंसस्त्वध ऊर्ध्वं प्रधावति ।
सुषुम्नायां यदा प्राणं भ्रामयेद्यो निरन्तरम् ॥ ३५॥
सुषुम्नायां यदा प्राणः स्थिरो भवति धीमताम् ।
सुषुम्नायां प्रवेशेन चन्द्रसूर्यौ लयं गतौ ॥ ३६॥
तदा समरसं भावं यो जानाति स योगवित् ।
सुषुम्नायां यदा यस्य म्रियते मनसो रयः ॥ ३७॥
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणैकमपि तिष्टति ।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणार्धमपि तिष्ठति ॥ ३८॥
सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुवत् ।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत् ॥ ३९॥
भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्चिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम् ॥ ४०॥
गङ्गायां सागरे स्नात्वा नत्वा च मणिकर्णिकाम् ।
मध्यनाडीविचारस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ४१॥
श्रीशैलदर्शनान्मुक्तिर्वाराणस्यां मृतस्य च ।
केदारोदकपानेन मध्यनाडीप्रदर्शनात् ॥ ४२॥
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
सुषुम्नाध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ४३॥
सुषुम्नायां सदा गोष्ठीं यः कश्चित्कुरुते नरः ।
स मुक्तः सर्वपापेभ्यो निश्रेयसमवाप्नुयात् ॥ ४४॥
सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परं जपः ।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः ॥ ४५॥
अनेकयज्ञदानानि व्रतानि नियमास्तथा ।
सुषुम्नाध्यानलेशस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ४६॥
ब्रह्मरन्ध्रे महास्थाने वर्तते सततं शिवा ।
चिच्छक्तिः परमादेवी मध्यमे सुप्रतिष्ठिता ॥ ४७॥
मायाशक्तिर्ललाटाग्रभागे व्योमाम्बुजे तथा ।
नादरूपा पराशक्तिर्ललाटस्य तु मध्यमे ॥ ४८॥
भागे बिन्दुमयी शक्तिर्ललाटस्यापरांशके ।
बिन्दुमध्ये च जीवात्मा सूक्ष्मरूपेण वर्तते ॥ ४९॥
हृदये स्थूलरूपेण मध्यमेन तु मध्यगे ॥ ५०॥
प्राणापानवशो जीवो ह्यधश्चोर्ध्वं च धावति ।
वामदक्षिणमार्गेण चञ्चलत्वान्न दृश्यते ॥ ५१॥
आक्षिप्तो भुजदण्डेन यथोच्चलति कन्दुकः ।
प्राणापानसमाक्षिप्तस्तथा जीवो न विश्रमेत् ॥ ५२॥
अपानः कर्षति प्राणं प्राणोऽपानं च कर्षति ।
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुनः ॥ ५३॥
हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।
तद्विद्वानक्षरं नित्यं यो जानाति स योगवित् ॥ ५४॥
कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्तिर्मुक्तिरूपा हि योगिनाम् ।
बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स योगवित् ॥ ५५॥
भूर्भुवःस्वरिमे लोकाश्चन्द्रसूर्याऽग्निदेवताः ।
यासु मात्रासु तिष्ठन्ति तत्परं ज्योतिरोमिति ॥ ५६॥
त्रयः कालास्त्रयो देवास्त्रयो लोकास्त्रयः स्वराः ।
त्रयो वेदाः स्थिता यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति ॥ ५७॥
चित्ते चलति संसारो निश्चलं मोक्ष उच्यते ।
तस्माच्चित्तं स्थिरीकुर्यात्प्रज्ञया परया विधे ॥ ५८॥
चित्तं कारणमर्थानां तस्मिन्सति जगत्त्रयम् ।
तस्मिन्क्षीणे जगत्क्षीणं तच्चिकित्स्यं प्रयत्नतः ॥ ५९॥
मनोहं गगनाकारं मनोहं सर्वतोमुखम् ।
मनोहं सर्वमात्मा च न मनः केवलः परः ॥ ६०॥
मनः कर्माणि जायन्ते मनो लिप्यति पातकैः ।
मनश्चेदुन्मनीभूयान्न पुण्यं न च पातकम् ॥ ६१॥
मनसा मन आलोक्य वृत्तिशून्यं यदा भवेत् ।
ततः परं परब्रह्म दृश्यते च सुदुर्लभम् ॥ ६२॥
मनसा मन आलोक्य मुक्तो भवति योगवित् ।
मनसा मन आलोक्य उन्मन्यन्तं सदा स्मरेत् ॥ ६३॥
मनसा मन आलोक्य योगनिष्ठः सदा भवेत् ।
मनसा मन आलोक्य दृश्यन्ते प्रत्यया दश ॥ ६४॥
यदा प्रत्यया दृश्यन्ते तदा योगीश्वरो भवेत् ॥ ६५॥
बिन्दुनादकलाज्योतीरवीन्दुध्रुवतारकम् ।
शान्तं च तदतीतं च परंब्रह्म तदुच्यते ॥ ६६॥
हसत्युल्लसति प्रीत्या क्रीडते मोदते तदा ।
तनोति जीवनं बुद्ध्या बिभेति सर्वतोभयात् ॥ ६७॥
रोध्यते बुध्यते शोके मुह्यते न च सम्पदा ।
कंपते शत्रुकार्येषु कामेन रमते हसन् ॥ ६८॥
स्मृत्वा कामरतं चित्तं विजानीयात्कलेवरे ।
यत्र देशे वसेद्वायुश्चित्तं तद्वसति ध्रुवम् ॥ ६९॥
मनश्चन्द्रो रविर्वायुर्दृष्टिरग्निरुदाहृतः ।
बिन्दुनादकला ब्रह्मन् विष्णुब्रह्मेशदेवताः ॥ ७०॥
सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना भवेत् ।
निरञ्जने विलीयेत मरुन्मनसि पद्मज ॥ ७१॥
यो वै नादः स वै बिन्दुस्तद्वै चित्तं प्रकीर्तितम् ।
नादो बिन्दुश्च चित्तं च त्रिभिरैक्यं प्रसादयेत् ॥ ७२॥
मन एव हि बिन्दुश्च उत्पत्तिस्थितिकारणम् ।
मनसोत्पद्यते बिन्दुर्यथा क्षीरं घृतात्मकम् ॥ ७३॥
षट् चक्राणि परिज्ञात्वा प्रविशेत्सुखमण्डलम् ।
प्रविशेद्वायुमाकृष्य तथैवोर्ध्वं नियोजयेत् ॥ ७४॥
वायुं बिन्दुं तथा चक्रं चित्तं चैव समभ्यसेत् ।
समाधिमेकेन समममृतं यान्ति योगिनः ॥ ७५॥
यथाग्निर्दारुमध्यस्थो नोत्तिष्ठेन्मथनं विना ।
विना चाभ्यासयोगेन ज्ञानदीपस्तथा नहि ॥ ७६॥
घटमध्ये यथा दीपो बाह्ये नैव प्रकाशते ।
भिन्ने तस्मिन् घटे चैव दीपज्वाला च भासते ॥ ७७॥
स्वकायं घटमित्युक्तं यथा जीवो हि तत्पदम् ।
गुरुवाक्यसमाभिन्ने ब्रह्मज्ञानं प्रकाशते ॥ ७८॥
कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्वाक्यं प्लववदृढम् ।
अभ्यासवासनाशक्त्या तरन्ति भवसागरम् ॥ ७९॥
इत्युपनिषत् । इति योगशिखोपनिषदि षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनवधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ ॐ तत्सत् ॥
इति योगशिखोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ श्रीरामतापिन्युपनिषत् ॥
श्रीरामतापनीयार्थं भक्तध्येयकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं श्रीरामब्रह्म मे गतिः ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ चिन्मयेऽस्मिन्महाविष्णौ जाते दशरथे हरौ ।
रघोः कुलेऽखिलं राति राजते यो महीस्थितः ॥ १॥
स राम इति लोकेषु विद्वद्भिः प्रकटीकृतः ।
राक्षसा येन मरणं यान्ति स्वोद्रेकतोऽथवा ॥ २॥
रामनाम भुवि ख्यातमभिरामेण वा पुनः ।
राक्षसान्मर्त्यरूपेण राहुर्मनसिजं यथा ॥ ३॥
प्रभाहीनांस्तथा कृत्वा राज्यार्हाणां महीभृताम् ।
धर्ममार्गं चरित्रेण ज्ञानमार्गं च नामतः ॥ ४॥
तथा ध्यानेन वैराग्यमैश्वर्यं स्वस्य पूजनात् ।
तथा रात्यस्य रामाख्या भुवि स्यादथ तत्त्वतः ॥ ५॥
रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि ।
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥ ६॥
चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिणः ।
उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना ॥ ७॥
रूपस्थानां देवतानां पुंस्त्र्यङ्गास्त्रादिकल्पना ।
द्वित्तत्वारिषडष्टानां दश द्वादश षोडश ॥ ८॥
अष्टादशामी कथिता हस्ताः शङ्खादिभिर्युताः ।
सहस्रान्तास्तथा तासां वर्णवाहनकल्पना ॥ ९॥
शक्तिसेनाकल्पना च ब्रह्मण्येवं हि पञ्चधा ।
कल्पितस्य शरीरस्य तस्य सेनादिकल्पना ॥ १०॥
ब्रह्मादीनां वाचकोऽयं मन्त्रोऽन्वर्थादिसंज्ञकः ।
जप्तव्यो मन्त्रिणा नैवं विना देवः प्रसीदति ॥ ११॥
क्रियाकर्मेज्यकर्तॄणामर्थं मन्त्रो वदत्यथ ।
मननान्त्राणनान्मन्त्रः सर्ववाच्यस्य वाचकः ॥ १२॥
सोऽभयस्यास्य देवस्य विग्रहो यन्त्रकल्पना ।
विना यन्त्रेण चेत्पूजा देवता न प्रसीदति ॥ १३॥
इति रामपूर्वतापिन्युपनिषदि प्रथमोपनिषत् ॥ १॥
स्वर्भूर्ज्योतिर्मयोऽनन्तरूपी स्वेनैव भासते ।
जीवत्वेन समो यस्य सृष्टिस्थितिलयस्य च ॥ १॥
कारणत्वेन चिच्छक्त्या रजःसत्त्वतमोगुणैः ।
यथैव वटबीजस्थः प्राकृतश्च महान्द्रुमः ॥ २॥
तथैव रामबीजस्थं जगदेतच्चराचरम् ।
रेफारूढा मूर्तयः स्युः शक्तयस्तिस्र एव चेति ॥ ३॥
इति रामतापिन्युओअनिषदि द्वितीयोपनिषत् ॥ २॥
सीतारामौ तन्मयावत्र पूज्यौ
जातान्याभ्यां भुवनानि द्विसप्त ।
स्थितानि च प्रहितान्येव तेषु
ततो रामो मानवो माययाधात् ॥ १॥
जगत्प्राणायात्मनेऽस्मै नमः स्या-
न्नमस्त्वैक्यं प्रवदेत्प्राग्गुणेनेति ॥ २॥
इति रामतापिन्युपनिषदि तृतीयोपनिषत् ॥ ३॥
जीववाची नमो नाम चात्मारामेति गीयते ।
तदात्मिका या चतुर्थी तथा मायेति गीयते ॥ १॥
मन्त्रोयं वाचको रामो रामो वाच्यः स्याद्योगएतयोः ।
फलतश्चैव सर्वेषां साधकानां न संशयः ॥ २॥
यथा नामी वाचकेन नाम्ना योऽभिमुखो भवेत् ।
तथा बीजात्मको मन्त्रो मन्त्रिणोऽभिमुखो भवेत् ॥ ३॥
बीजशक्तिं न्यसेद्दक्षवामयोः स्तनयोरपि ।
कीलो मध्ये विना भाव्यः स्ववाञ्छाविनियोगवान् ॥ ४॥
सर्वेषामेव मन्त्राणामेष साधारणः क्रमः ।
अत्र रामोऽनन्तरूपस्तेजसा वह्निना समः ॥ ५॥
सत्त्वनुष्णगुविश्वश्चेदग्नीषोमात्मकं जगत् ।
उत्पन्नः सीतया भाति चन्द्रश्चन्द्रिकया यथा ॥ ६॥
प्रकृत्या सहितः श्यामः पीतवासा जटाधरः ।
द्विभुजः कुण्डली रत्नमाली धीरो धनुर्धरः ॥ ७॥
प्रसन्नवदनो जेता घृष्ट्यष्टकविभूषितः ।
प्रकृत्या परमेश्वर्या जगद्योन्याङ्किताङ्कभृत् ॥ ८॥
हेमाभया द्विभुजया सर्वालङ्कृतया चिता ।
श्लिष्टः कमलधारिण्या पुष्टः कोसलजात्मजः ॥ ९॥
दक्षिणे लक्ष्मणेनाथ सधनुष्पाणिना पुनः ।
हेमाभेनानुजेनैव तथा कोणत्रयं भवेत् ॥ १०॥
तथैव तस्य मन्त्रस्य यस्याणुश्च स्वङेन्तया ।
एवं त्रिकोणरूपं स्यात्तं देवा ये समाययुः ॥ ११॥
स्तुतिं चक्रुश्च जगतः पतिं कल्पतरौ स्थितम् ।
कामरूपाय रामाय नमो मायामयाय च ॥ १२॥
नमो वेदादिरूपाय ओङ्काराय नमो नमः ।
रमाधराय रामाय श्रीरामायात्ममूर्तये ॥ १३॥
जानकीदेहभूषाय रक्षोघ्नाय शुभाङ्गिने ।
भद्राय रघुवीराय दशास्यान्तकरूपिणे ॥ १४॥
रामभद्र महेश्वास रघुवीर नृपोत्तम ।
भो दशास्यान्तकास्माकं रक्षां देहि श्रियं च ते ॥ १५॥
त्वमैश्वर्यं दापयाथ सम्प्रत्याश्वरिमारणम् ।
कुर्विति स्तुत्य देवाद्यास्तेन सार्धं सुखं स्थिताः ॥ १६॥
स्तुवन्त्येवं हि ऋषयस्तदा रावण आसुरः ।
रामपत्नीं वनस्थां यः स्वनिवृत्त्यर्थमाददे ॥ १७॥
स रावण इति ख्यातो यद्वा रावाच्च रावणः ।
तद्व्याजेनेक्षितुं सीतां रामो लक्ष्मण एव च ॥ १८॥
विचेरतुस्तदा भूमौ देवीं संदृश्य चासुरम् ।
हत्वा कबन्धं शबरीं गत्वा तस्याज्ञया तया ॥ १९॥
पूजितो वायुपुत्रेण भक्तेन च कपीश्वरम् ।
आहूय शंसतां सर्वमाद्यन्तं रामलक्ष्मणौ ॥ २०॥
स तु रामे शङ्कितः सन्प्रत्ययार्थं च दुन्दुभेः ।
विग्रहं दर्शयामास यो रामस्तमचिक्षिपत् ॥ २१॥
सप्त सालान्विभिद्याशु मोदते राघवस्तदा ।
तेन हृष्टः कपीन्द्रोऽसौ स रामस्तस्य पत्तनम् ॥ २२॥
जगामागर्जदनुजो वालिनो वेगतो गृहात् ।
तदा वाली निर्जगाम तं वालिनमथाहवे ॥ २३॥
निहत्य राघवो राज्ये सुग्रीवं स्थापयत्ततः ।
हरीनाहूय सुग्रीवस्त्वाह चाशाविदोऽधुना ॥ २४॥
आदाय मैथिलीमद्य ददताश्वाशु गच्छत ।
ततस्ततार हनुमानब्धिं लङ्कां समाययौ ॥ २५॥
सीतां दृष्ट्वाऽसुरान्हत्वा पुरं दग्ध्वा तथा स्वयम् ।
आगत्य रामेण सह न्यवेदयत तत्त्वतः ॥ २६॥
तदा रामः क्रोधरूपी तानाहूयाथ वानरान् ।
तैः सार्धमादायास्त्राणि पुरीं लङ्कां समाययौ ॥ २७॥
तां दृष्ट्वा उदधीशेन सार्धं युद्धमकारयत् ।
घटश्रोत्रसहस्राक्षजिद्भ्यां युक्तं तमाहवे॥ २८॥
हत्वा बिभीषणं तत्र स्थाप्याथ जनकात्मजाम् ।
आदायाङ्कस्थितां कृत्वा स्वपुरं तैर्जगाम सः ॥ २९॥
ततः सिंहासनस्थः सन् द्विभुजो रघुनन्दनः ।
धनुर्धरः प्रसन्नात्मा सर्वाभरणभूषितः ॥ ३०॥
मुद्रां ज्ञानमयीं याम्ये वामे तेजप्रकाशिनीम् ।
धृत्वा व्याख्याननिरतश्चिन्मयः परमेश्वरः ॥ ३१॥
उदग्दक्षिणयोः स्वस्य शत्रुघ्नभरतौ ततः ।
हनूमन्तं च श्रोतारमग्रतः स्यात्त्रिकोणगम् ॥ ३२॥
भरताधस्तु सुग्रीवं शत्रुघ्नाधो बिभीषणम् ।
पश्चिमे लक्ष्मणं तस्य धृतच्छ्रत्रं सचामरम् ॥ ३३॥
तदधस्तौ तालवृन्तकरौ त्र्यस्रं पुनर्भवेत् ।
एवं षट्कोणमादौ स्वदीर्घाङ्गैरेष संयुतः ॥ ३४॥
द्वितीयं वासुदेवाद्यैराग्नेयादिषु संयुतः ।
तृतीयं वायुसूनुं च सुग्रीवं भरतं तथा ॥ ३५॥
बिभीषणं लक्ष्मणं च अङ्गदं चारिमर्दनम् ।
जाम्बवन्तं च तैर्युक्तस्ततो धृष्टिर्जयन्तकः ॥ ३६॥
विजयश्च सुराष्ट्रश्च राष्ट्रवर्धन एव च ।
अशोको धर्मपालश्च सुमन्त्रश्चैभिरावृतः ॥ ३७॥
ततः सहस्रदृग्वह्निर्धर्मज्ञो वरुणोऽनिलः ।
इन्द्वीशधात्रनन्ताश्च दशभिश्चैभिरावृतः ॥ ३८॥
बहिस्तदायुधैः पूज्यो नीलादिभिरलङ्कृतः ।
वसिष्ठवामदेवादिमुनिभिः समुपासितः ॥ ३९॥
एवमुद्देशतः प्रोक्तं निर्देशस्तस्य चाधुना ।
त्रिरेखापुटमालिख्य मध्ये तारद्वयं लिखेत् ॥ ४०॥
तन्मध्ये बीजमालिख्य तदधः साध्यमालिखेत् ।
द्वितीयान्तं च तस्योर्ध्वं षष्ठ्यन्तं साधकं तथा ॥ ४१॥
कुरु द्वयं च तत्पार्श्वे लिखेद्बीजान्तरे रमाम् ।
तत्सर्वं प्रणवाभ्यां च वेष्टयेच्छुद्धबुद्धिमान् ॥ ४२॥
दीर्घभाजि षडस्रे तु लिखेद्बीजं हृदादिभिः ।
कोणपार्श्वे रमामाये तदग्रेऽनङ्गमालिखेत् ॥ ४३॥
क्रोधं कोणाग्रान्तरेषु लिख्य मन्त्र्यभितो गिरम् ।
वृत्तत्रयं साष्टपत्रं सरोजे विलिखेत्स्वरान् ॥ ४४॥
केसरे चाष्टपत्रे च वर्गाष्टकमथालिखेत् ।
तेषु मालामनोर्वर्णान्विलिखेदूर्मिसंख्यया ॥ ४५॥
अन्ते पञ्चाक्षराण्येवं पुनरष्टदलं लिखेत् ।
तेषु नारायणाष्टार्णांलिख्य तत्केसरे रमाम् ॥ ४६॥
तद्बहिर्द्वादशदलं विलिखेद्द्वादशाक्षरम् ।
अथों नमो भगवते वासुदेवाय इत्ययम् ॥ ४७॥
आदिक्षान्तान्केसरेषु वृत्ताकारेण संलिखेत् ।
तद्बहिः षोडशदलं लिख्य तत्केसरे हृयम् ॥ ४८॥
वर्मास्त्रनतिसंयुक्तं दलेषु द्वादशाक्षरम् ।
तत्सन्धिष्विरजादीनां मन्त्रान्मन्त्री समालिखेत् ॥ ४९॥
ह्रं स्रं भ्रं व्रं लूॅं श्रं ज्रं च लिखेत्सम्यक्ततो बहिः ।
द्वात्रिंशारं महापद्मं नादबिन्दुसमायुतम् ॥ ५०॥
विलिखेन्मन्त्रराजार्णांस्तेषु पत्रेषु यत्नतः ।
ध्यायेदष्टवसूनेकादशरुद्रांश्च तत्र वै ॥ ५१॥
द्वादशेनांश्च धातारं वषट्कारं च तद्बहिः ।
भूगृहं वज्रशूलाढ्यं रेखात्रयसमन्वितम् ॥ ५२॥
द्वारोपतं च राश्यादिभूषितं फणिसंयुतम् ।
अनन्तो वासुकिश्चैव तक्षः कर्कोटपद्मकः ॥ ५३॥
महापद्मश्च शङ्खश्च गुलिकोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।
एवं मण्डलमालिख्य तस्य दिक्षु विदिक्षु च ॥ ५४॥
नारसिंहं च वाराहं लिखेन्मन्त्रद्वयं तथा ।
कूटो रेफानुग्रहेन्दुनादशक्त्यादिभिर्युतः ॥ ५५॥
यो नृसिंहः समाख्यातो ग्रहमारणकर्मणि ।
अन्त्याङ्घ्रीशवियद्बिन्दुनादैर्बीजं च सौकरम् ॥ ५६॥
हुंकारं चात्र रामस्य मालमन्त्रोऽधुनेरितः ।
तारो नतिश्च निद्रायाः स्मृतिर्भेदश्च कामिका ॥ ५७॥
रुद्रेण संयुता वह्निमेधामरविभूषिता ।
दीर्घा क्रूरयुता ह्लादिन्यथो दीर्घसमायुता ॥ ५८॥
क्षुधा क्रोधिन्यमोघा च विश्वमप्यथ मेधया ।
युक्ता दीर्घज्वालिनी च सुसूक्ष्मा मृत्युरूपिणी ॥ ५९॥
सप्रतिष्ठा ह्लादिनी त्वक्क्ष्वेलप्रीतिश्च सामरा ।
ज्योतिस्तीक्ष्णाग्निसंयुक्ता श्वेतानुस्वारसंयुता ॥ ६०॥
कामिकापञ्चमूलान्तस्तान्तान्तो थान्त इत्यथ ।
स सानन्तो दीर्घयुतो वायुः सूक्ष्मयुतो विषः ॥ ६१॥
कामिका कामका रुद्रयुक्ताथोऽथ स्थिरातपा ।
तापनी दीर्घयुक्ता भूरनलोऽनन्तगोऽनिलः ॥ ६२॥
नारायणात्मकः कालः प्राणाभो विद्यया युतः ।
पीतारातिस्तथा लान्तो योन्या युक्तस्ततो नतिः ॥ ६३॥
सप्तचत्वारिंशद्वर्णगुणान्तःस्पृङ्मनुः स्वयम् ।
राज्याभिषिक्तस्य तस्य रामस्योक्तक्रमाल्लिखेत् ॥ ६४॥
इदं सर्वात्मकं यन्त्रं प्रागुक्तमृषिसेवितम् ।
सेवकानां मोक्षकरमायुरारोग्यवर्धनम् ॥ ६५॥
अपुत्राणां पुत्रदं च बहुना किमनेन वै ।
प्राप्नुवन्ति क्षणात्सम्यगत्र धर्मादिकानपि ॥ ६६॥
इदं रहस्यं परममीश्वरेणापि दुर्गमम् ।
इदं यन्त्रं समाख्यातं न देयं प्राकृते जने ॥ ६७॥ इति॥
इति तुरीयोपनिषत् ॥
ॐ भूतादिकं शोधयेद्द्वारपूजां
कृत्वा पद्माद्यासनस्थः प्रसन्नः ।
अर्चाविधावस्य पीठाधरोर्ध्व-
पार्श्वार्चनं मध्यपद्मार्चनं च ॥ १॥
कृत्वा मृदुश्लक्ष्णसुतूलिकायां
रत्नासने देशिकमर्चयित्वा ।
शक्तिं चाधाराख्यकां कूर्मनागौ
पृथिव्यब्ज स्वासनाधः प्रकल्प्य ॥ २॥
विघ्नेशं दुर्गां क्षेत्रपालं च वाणीं
बीजादिकांश्चाग्निदेशादिकांश्च ।
पीठस्याङ्घ्रिष्वेव धर्मादिकांश्च
नत्वा पूर्वाद्यासु दीक्ष्वर्चयेच्च ॥ ३॥
मध्ये क्रमादर्कविध्वग्नितेजां-
स्युपर्युपर्यादिमैरर्चितानि ।
रजः सत्वं तम एतान् वृत्त-
त्रयं बीजाढ्यं क्रमाद्भावयेच्च ॥ ४॥
आशाव्याशास्वप्यथात्मानमन्त-
रात्मानं वा परमात्मानमन्तः ।
ज्ञानात्मानं चार्चयेत्तस्य दिक्षु
मायाविद्ये ये कलापारतत्त्वे ॥ ५॥
सम्पूजयेद्विमलादीश्च शक्ती-
रभ्यर्चयेद्देवमवाहयेच्च ।
अङ्गव्यूहानिलजाद्यैश्च पूज्य
घृष्ट्यादिकैर्लोकपालैस्तदस्त्रैः ॥ ६॥
वसिष्ठाद्यैर्मुनिभिर्नीलमुख्यै-
राराधयेद्राघवं चन्दनाद्यैः ।
मुख्योपहारैर्विविधैश्च पूज्यै-
स्तस्मै जपादींश्च सम्यक्प्रकल्प्य ॥ ७॥
एवंभूतं जगदाधारभूतं
रामं वन्दे सच्चिदानन्दरूपम् ।
गदारिशङ्खाब्जधरं भवारिं
स यो ध्यायेन्मोक्षमाप्नोति सर्वः ॥ ८॥
विश्वव्यापी राघवो यस्तदानी-
मन्तर्दधे श्ङ्खचक्रे गदाब्जे ।
धृत्वा रमासहितः सानुजश्च
सपत्तनः सानुगः सर्वलोकी ॥ ९॥
तद्भक्ता ये लब्धकामांश्च भुक्त्वा
तथा पदं परमं यान्ति ते च ।
इमा ऋचः सर्वकामार्थदाश्च
ये ते पठन्त्यमला यान्ति मोक्षम् ॥ १०॥
इति पञ्चमोऽपनिषत् ॥
चिन्मयेऽस्मिंस्त्रयोदश । स्वभूर्ज्योतिस्तिस्रः ।
सीतारामावेका । जीववाची षट्षष्टिः ।
भूतादिकमेकादश । पञ्चखण्डेषु त्रिनवतिः ।
इति श्रीरामपूर्वतापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥
रामोत्तरतापिन्युपनिषत्
ॐ बृहस्पतिरुवाच याज्ञवल्क्यम् । यदनु कुरुक्षेत्रं
देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां
ब्रह्मसदनमविमुक्तं वै कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं
सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् । तस्माद्यत्र क्वचन
गच्छति तदेव मन्येतेतीदं वै कुरुक्षेत्रं देवानां
देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् ।
अत्र हि जन्तोः प्राणेषूत्क्रममाणेषु रुद्रस्तारकं
ब्रह्म व्याचष्टे येनासावमृतीभूत्वा मोक्षीभवति ।
तस्मादविमुक्तमेव निषेवेत । अविमुक्तं न विमुञ्चेत् ।
एवमेवैतद्याज्ञवल्क्य ॥ १॥
अथ हैनं भारद्वाजः पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं किं
तारकं किं तारयतीति । स होवाच याज्ञवल्क्यस्तारकं
दीर्घानलं बिन्दुपूर्वकं दीर्घानलं पुनर्मायां
नमश्चन्द्राय नमो भद्राय नम इत्येतद्ब्रह्मात्मिकाः
सच्चिदानन्दाख्या इत्युपासितव्यम् । अकारः प्रथमाक्षरो
भवति । उकारोद्वितीयाक्षरो भवति । मकारस्तृतीयाक्षरो
भवति । अर्धमात्रश्चतुर्थाक्षरो भवति । बिन्दुः पञ्चमाक्षरो
भवति । नादः षष्ठाक्षरो भवति । तारकत्वात्तारको भवति ।
तदेव तारकं ब्रह्म त्वं विद्धि । तदेवोपासितव्यमिति ज्ञेयम् । गर्भजन्मजरामरणसंसारमहद्भयात्संतारयतीति ।
तस्मादुच्यते षडक्षरं तारकमिति । । य एतत्तारकं ब्रह्म
ब्राह्मणो नित्यमधीते । स पाप्मानं तरति । स मृत्युं तरति ।
स ब्रह्महत्यां तरति । स भ्रूणहत्यां तरति। स संसारं तरति ।
स सर्वं तरति । सोऽविमुक्तमाश्रितो भवति । स महान्भवति ।
सोऽमृतत्वं च गच्छति ॥ २॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति ।
अकारक्षरसंभूतः सौमित्रिर्विश्वभावनः ।
उकाराक्षरसंभूतः शत्रुघ्नस्तैजसात्मकः ॥ १॥
प्राज्ञात्मकस्तु भरतो मकाराक्षरसंभवः ।
अर्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः ॥ २॥
श्रीरामसांनिध्यवशाज्जगदाधारकारिणी ।
उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम् ॥ ३॥
सा सीता भवति ज्ञेया मूलप्रकृतिसंज्ञिता ।
प्रणवत्वात्प्रकृतिरिति वदन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ ४॥ इति॥
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भव्यं भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव ।
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव । सर्वं
ह्येतद्ब्रह्म । अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा
चतुष्पाज्जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग
एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः
प्रथमः पादः ॥ स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः
सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक् तैजसो
द्वितीयः पादः । यत्र सुप्तो न कंचन कामं
कामयते न कंचन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम् ।
सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघनएवानन्दमयो
ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ।
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष
योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ।
नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं
न प्रज्ञं नाप्रज्ञं न प्रज्ञानघनमदृश्य-
मव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्य-
मेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं
शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते । स आत्मा स विज्ञेयः
सदोज्ज्वलोऽविद्यातत्कार्यहीनः स्वात्मबन्धहरः सर्वदा
द्वैतरहित आनन्दरूपः सर्वाधिष्ठानसन्मात्रो
निरस्ताविद्यातमोमोहोऽहमेवेति संभाव्याहमोंत-
त्सद्यत्परंब्रह्म रामचन्द्रश्चिदात्मकः ।
सोऽहमोन्तद्रामभद्रपरंज्योतीरसोऽहमोमित्या-
त्मानमादाय मनसा ब्रह्मणैकीकुर्यात् ॥
सदा रामोऽहमस्मीति तत्त्वतः प्रवदन्ति ये ।
न ते संसारिणो नूनं राम एव न संशयः ॥ इत्युपनिषत् ॥
य एवं वेद स मुक्तो भवतीति याज्ञवल्क्यः ॥
अथ हैनमत्रिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं य
एषोऽनन्तोऽव्यक्तपरिपूर्णानन्दैकचिदात्मा
तं कथमहं विजानीयामिति । स होवाच याज्ञवल्क्यः ।
सोऽविमुक्त उपास्योऽयम् । एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा
सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति । सोऽविमुक्तः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति ।
वरणायां नास्यां च मध्ये प्रतिष्ठित इति ॥
का वै वरणा का च नासीति । जन्मान्तरकृतान्सर्वा-
न्दोषन्वारयतीति तेन वरणा भवतीति ।
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नासी भवतीति ।
कतमच्चास्य स्थानं भवतीति । भ्रुवोर्घ्राणस्य च
यः सन्धिः स एष द्यौर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति ।
एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद उपासत इति ॥
सोऽविमुक्त उपास्य इति । सोऽविमुक्तं ज्ञानमाचष्टे यो
वा एतदेवं वेद ॥ अथ तं प्रत्युवाच ।
श्रीरामस्य मनुं काश्यां जजाप वृषभध्वजः ।
मन्वन्तरसहस्रैस्तु जपहोमार्चनादिभिः ॥१॥
ततः प्रसन्नो भगवाञ्छ्रीरामः प्राह शंकरम् ।
वृणीश्व यदभीष्टं तद्दास्यामि परमेश्वर ॥ २॥ इति ॥
अथ सच्चिदानन्दात्मानं श्रीराममीश्वरः पप्रच्छ ।
मणिकर्ण्यां मम क्षेत्रे गङ्गायां वा तटे पुनः ।
म्रियेत देही तज्जन्तोर्मुक्तिर्नाऽतो वरान्तरम् ॥ ३॥ इति ॥
अथ स होवाच श्रीरामः ॥
क्षेत्रेऽस्मिंस्तव देवेश यत्र कुत्रापि वा मृताः ।
कृमिकीटादयोऽप्याशु मुक्ताः सन्तु न चान्यथा ॥ ४॥
अविमुक्ते तव क्षेत्रे सर्वेषां मुक्तिसिद्धये ।
अहं संनिहितस्तत्र पाषाणप्रतिमादिषु ॥ ५॥
क्षेत्रेऽस्मिन्योऽर्चयेद्भक्त्या मन्त्रेणानेन मां शिव ।
ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ६॥
त्वत्तो वा ब्रह्मणो वापि ये लभन्ते षडक्षरम् ।
जीवन्तो मन्त्रसिद्धाः स्युर्मुक्ता मां प्राप्नुवन्ति ते ॥ ७॥
मुमूर्षोर्दक्षिणे कर्णे यस्य कस्यापि वा स्वयम् ।
उपदेक्ष्यसि मन्मन्त्रं स मुक्तो भविता शिव ॥ ८॥
इति श्रीरामचन्द्रेणोक्तम् ॥ अथ हैनं भारद्वाजो
याज्ञवल्क्यमुवाचाथ कैर्मन्त्रैः स्तुतः श्रीरामचन्द्रः
प्रीतो भवति । स्वात्मानं दर्शयति तान्नो ब्रूहि भगवन्निति ।
स होवाच याज्ञवल्क्यः ॥ पूर्वं सत्यलोके श्रीरामचन्द्रेणैवं
शिक्षितो ब्रह्मा पुनरेतया गाथया नमस्करोति ॥
विश्वरूपधरं विष्णुं नारायणमनामयम् ।
पूर्णानन्दैकविज्ञानं परं ब्रह्मस्वरूपिणम् ॥
मनसा संस्मरन्ब्रह्म तुष्टाव परमेश्वरम् ।
ॐ यो ह वै श्रीरामचन्द्रः स भगवानद्वैतपरमानन्द
आत्मा यत्परं ब्रह्म भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमो नमः ॥ १॥
यथा प्रथममन्त्रोक्तावाद्यन्तौ तथा सर्वमन्त्रेषु ज्ञातव्यौ ॥
यश्चाखण्डैकरसात्मा ॥ २॥ यच्च ब्रह्मानन्दामृतम् ॥ ३॥
यत्तारकं ब्रह्म ॥ ४॥ यो ब्रह्मा विष्णुर्महेश्वरो यः सर्वदेवात्मा ॥ ५॥
ये सर्वे वेदाः साङ्गाः सशाखाः सेतिहासपुराणाः ॥ ६॥
यो जीवान्तरात्मा ॥ ७॥ यः सर्वभूतान्तरात्मा ॥ ८॥
ये देवासुरमनुष्यादिभावाः ॥ ९॥ ये मत्स्यकूर्माद्यवताराः ॥ १०॥
योऽन्तःकरणचतुष्टयात्मा ॥ ११॥ यश्च प्राणः ॥ १२॥
यश्च यमः ॥ १३॥ यश्चान्तकः ॥ १४॥ यश्च मृत्युः ॥ १५॥
यच्चामृतम् ॥ १६॥ यानि च पञ्चमहाभूतानि ॥ १७॥
यः स्थावरजङ्गमात्मा ॥ १८॥ ये पञ्चाग्नयः ॥ १९॥
याः सप्त महाव्याहृतयः ॥ २०॥ या विद्या ॥ २१॥
या सरस्वती ॥ २२॥ या लक्ष्मीः ॥ २३॥ या गौरी ॥ २४॥
या जानकी ॥ २५॥ यच्च त्रैलोक्यम् ॥ २६॥ यः सूर्यः ॥ २७॥
यः सोमः ॥ २८॥ यानि च नक्षत्राणि ॥ २९॥ ये च नव ग्रहाः ॥ ३०॥
ये चाष्टौ लोकपालाः ॥ ३१॥ ये चाष्टौ वसवः ॥ ३२॥
ये चैकादश रुद्राः ॥ ३३॥ ये च द्वदिशादित्याः ॥ ३४॥
यच्च भूतं भव्यं भविष्यत् ॥ ३५॥
यद्ब्रह्माण्डस्य बहिर्व्याप्तम् ॥ ३६॥ यो हिरण्यगर्भः ॥ ३७॥
या प्रकृतिः ॥ ३८॥ यश्चोङ्कारः ॥ ३९॥
याश्चतस्रोऽर्धमात्राः ॥ ४०॥ यः परमपुरुषः ॥ ४१॥
यश्च महेश्वरः ॥ ४२॥ यश्च महादेवः ॥ ४३॥
य ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ ४४॥ यो महाविष्णुः ॥ ४५॥
यः परमात्मा ॥ ४६॥ यो विज्ञानात्मा ॥ ४७॥
ॐ यो ह वै श्रीरामचन्द्रः स भगवानद्वैतपरमानन्द आत्मा ।
यः सच्चिदानन्दाद्वैतैकचिदात्मा भूर्भुवः सुवस्तस्मै
वै नमो नमः ॥ इति तान्ब्रह्माब्रवीत् । सप्तचत्वारिंशन्मन्त्रैर्नित्यं
देवं स्तुवध्वम् । ततो देवः प्रीतो भवति । स्वात्मानं दर्शयति ।
तस्माद्य एतैर्मन्त्रैर्नित्यं देवं स्तौति स देवं पश्यति ।
सोऽमृतत्वं गच्छतीति महोपनिषत् ॥ ५॥
अथ हैनं भारद्वाजो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच
श्रीराममन्त्रराजस्य माहात्म्यमनुब्रूहीति । स होवाच याज्ञवल्क्यः ।
स्वप्रकाशः परंज्योतिः स्वानुभूत्यैकचिन्मयः ।
तदेव रामचन्द्रस्य मनोराद्यक्षरः स्मृतः ॥ १॥
अखण्डैकरसानन्दस्तारकब्रह्मवाचकः ।
रामायेति सुविज्ञेयः सत्यानन्दचिदात्मकः ॥ २॥
नमःपदं सुविज्ञेयं पूर्णानन्दैककारणम् ।
सदा नमन्ति हृदये सर्वे देवा मुमुक्षवः ॥ ३॥ इति ॥
य एवं मन्त्रराजं श्रीरामचन्द्रषडक्षरं नित्यमधीते ।
सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो भवति । स आदित्यपूतो भवति ।
स सोमपूतो भवति । स ब्रह्मपूतो भवति । स विष्णुपूतो भवति ।
स रुद्रपूतो भवति । सर्वैर्देवैर्ज्ञातो भवति । सर्वक्रतुभिरिष्टवान्भवति ।
तेनेतिहासपुराणानां रुद्राणां शतसहस्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति ।
श्रीरामचन्द्रमनुस्मरणेन गायत्र्यः शतसहस्राणि जप्तानि फलानि
भवन्ति । प्रणवानामयुतकोटिजपा भवन्ति । दश पूर्वान्दशोत्तरान्पुनाति ।
स पङ्क्तिपावनो भवति । स महान्भवति । सोऽमृतत्वं च गच्छति ॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति ।
गाणपत्येषु शैवेषु शाक्तसौरेष्वभीष्टदः ।
वैष्णवेष्वपि सर्वेषु राममन्त्रः फलाधिकः ॥ ४॥
गाणपत्यादि मन्त्रेषु कोटिकोटिगुणाधिकः ।
मन्त्रस्तेष्वप्यनायासफलदोऽयं षडक्षरः ॥ ५॥
षडक्षरोऽयं मन्त्रः स्यात्सर्वाघौघनिवारणः ।
मन्त्रराज इति प्रोक्तः सर्वेषामुत्तमोत्तमः ॥ ६॥
कृतं दिने यद्दुरितं पक्षमासर्तुवर्षजम् ।
सर्वं दहति निःशेषं तूलराशिमिवानलः ॥ ७॥
ब्रह्महत्यासहस्राणि ज्ञानाज्ञानकृतानि च ।
स्वर्णस्तेयसुरापानगुरुतल्पायुतानि च ॥ ८॥
कोटिकोटिसहस्राणि उपपातकजान्यपि ।
सर्वाण्यपि प्रणश्यन्ति राममन्त्रानुकीर्तनात् ॥ ९॥
भूतप्रेतपिशाचाद्याः कूष्माण्डब्रह्मराक्षसाः ।
दूरादेव प्रधावन्ति राममन्त्रप्रभावतः ॥ १०॥
ऐहलौकिकमैश्वर्यं स्वर्गाद्यं पारलौकिकम् ।
कैवल्यं भगवत्त्वं च मन्त्रोऽयं साधयिष्यति ॥ ११॥
ग्राम्यारण्यपशुघ्नत्वं संचितं दुरुतं च यत् ।
मद्यपानेन यत्पापं तदप्याशु विनाशयेत् ॥ १२॥
अभक्ष्यभखक्षणोत्पन्नं मिथ्याज्ञानसमुद्भवम् ।
सर्वं विलीयते राममन्त्रस्यास्यैव कीर्तनात् ॥ १३॥
श्रोत्रियस्वर्णहरणाद्यच्च पापमुपस्थितम् ।
रत्नादेश्चापहारेण तदप्याशु विनाशयेत् ॥ १४॥
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं हत्वा च किल्बिषम् ।
संचिनोति नरो मोहाद्यद्यत्तदपि नाशयेत् ॥ १५॥
गत्वापि मातरं मोहादगम्याश्चैव योषितः ।
उपास्यानेन मन्त्रेण रामस्तदपि नाशयेत् ॥ १६॥
महापातकपापिष्ठसङ्गत्या संचितं च यत् ।
नाशयेत्तत्कथालापशयनासनभोजनैः ॥ १७॥
पितृमातृवधोत्पन्नं बुद्धिपूर्वमघं च यत् ।
तदनुष्ठानमात्रेणसर्वमेतद्विलीयते ॥ १८॥
यत्प्रयागादितीर्थोक्तप्रायश्चित्तशतैरपि ।
नैवापनोद्यते पापं तदप्याशु विनाशयेत् ॥ १९॥
पुण्यक्षेत्रेषु सर्वेषु कुरुक्षेत्रादिषु स्वयम् ।
बुद्धिपूर्वमघं कृत्वा तदप्याशुविनाशयेत् ॥ २०॥
कृच्छ्रैस्तप्तपराकाद्यैर्नानाचान्द्रायणैरपि ।
पापं च नापनोद्यं यत्तदप्याशु विनाशयेत् ॥ २१॥
आत्मतुल्यसुवर्णादिदानैर्बहुविधैरपि ।
किंचिदप्यपरिक्षीणं तदप्याशु विनाशयेत् ॥ २२॥
अवस्थात्रितयेष्वेवबुद्धिपूर्वमघं च यत् ।
तन्मन्त्रस्मरणेनैव निःशेषं प्रविलीयते ॥ २३॥
अवस्थात्रितयेष्वेवं मूलबन्धमन्त्रं च यत् ।
तत्तन्मन्त्रोपदेशेन सर्वमेतत्प्रणश्यति ॥ २४॥
आब्रह्मबीजदोषाश्च नियमातिक्रमोद्भ्वाः ।
स्त्रीणां च पुरुषाणां च मन्त्रेणानेन नाशिताः ॥ २५॥
येषु येष्वपि देशेषु रामभद्र उपास्यते ।
दुर्भिक्षादिभयं तेषु न भवेत्तु कदाचन ॥ २६॥
शान्तः प्रसन्नवदनो ह्यक्रोधो भक्तवत्सलः ।
अनेन सदृशो मन्त्रो जगत्स्वपि न विद्यते ॥ २७॥
सम्यगाराधितो रामः प्रसीदत्येव सत्वरम् ।
ददात्यायुष्यमैश्वर्यमन्ते विष्णुपदं च यत् ॥ २८॥
तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततम् । तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते ।
विष्णोर्यत्परमं पदम् । ॐ सत्यमित्युपनिषत् ॥ ६॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति रामोत्तरतापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥
इति रामतापिन्युपनिषत्समाप्ता॥
॥ श्रीरामरहस्योपनिषत् ॥
कैवल्यश्रीस्वरूपेण राजमानं महोऽव्ययम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तं श्रीरामपदमाश्रये ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ रहस्यं रमतपतं वासुदेवं च मुद्गलम् ।
शाण्डिल्यं पैङ्गलं भिक्षुं महच्छारीरकं शिखा ॥ १॥
सनकाद्या योगिवर्या अन्ये च ऋषयस्तथा ।
प्रह्लादाद्या विष्णुभक्ता हनूमन्तमथाब्रुवन् ॥ २॥
वायुपुत्र महाबाहो किंतत्त्वं ब्रह्मवादिनाम् ।
पुराणेष्वष्टादशसु स्मृतिष्वष्टादशस्वपि ॥ ३॥
चतुर्वेदेषु शास्त्रेषु विद्यास्वाध्यात्मिकेऽपि च ।
सर्वेषु विद्यादानेषु विघ्नसूर्येशशक्तिषु ।
एतेषु मध्ये किं तत्त्वं कथय त्वं महाबल ॥ ४॥
हनूमान्होवाच ॥
भो योगीन्द्राश्चैव ऋषयो विष्णुभक्तास्तथैव च ।
श्रुणुध्वं मामकीं वाचं भवबन्धविनाशिनीम् ॥ ५॥
एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्म तारकम् ।
राम एव परं ब्रह्म तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम् ॥ ६॥
वायुप्त्रेणोक्तास्ते योगीन्द्रा ऋषयो विष्णुभक्ता
हनूमन्तं पप्रच्छुः रामस्याङ्गानि नो ब्रूहीति ।
हनूमान्होवाच । वायुपुत्रं विघ्नेशं वाणीं दुर्गां
क्षेत्रपालकं सूर्यं चन्द्रं नारायणं नारसिंहं
वायुदेवं वाराहं तत्सर्वान्त्समात्रान्त्सीतं लक्ष्मणं
शत्रुघ्नं भरतं विभीषणं सुग्रीवमङ्गदं
जाम्बवन्तं प्रणवमेतानि रामस्याङ्गानि जानीथाः ।
तान्यङ्गानि विना रामो विघ्नकरो भवति ।
पुनर्वायुपुत्रेणोक्तास्ते हनूमन्तं पप्रच्छुः ।
आञ्जनेय महाबल विप्राणां गृहस्थानां प्रणवाधिकारः
कथं स्यादिति । स होवाच श्रीराम एवोवाचेति । येषामेव
षडक्षराधिकारो वर्तते तेषां प्रणवाधिकारः स्यान्नान्येषाम् ।
केवलमकारोकारमकारार्धमात्रासहितं प्रणवमूह्य
यो राममन्त्रं जपति तस्य शुभकरोऽहं स्याम् । तस्य
प्रणवस्थाकारस्योकारस्य मकरास्यार्धमात्रायाश्च
ऋषिश्छन्दो देवता तत्तद्वर्णावर्णावस्थानं
स्वरवेदाग्निगुणानुच्चार्यान्वहं प्रणवमन्त्रद्द्विगुणं
जप्त्वा पश्चाद्राममन्त्रं यो जपेत् स रामो भवतीति
रामेणोक्तास्तस्माद्रामाङ्गं प्रणवः कथित इति ॥
विभीषण उवाच ॥
सिंहासने समासीनं रामं पौलस्त्यसूदनम् ।
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ पौलस्त्यो वाक्यमब्रवीत् । । ७॥
रघुनाथ महाबाहो केवलं कथितं त्वया ।
अङ्गानां सुलभं चैव कथनीयं च सौलभम् ॥ ८॥
श्रीराम उवाच । अथ पञ्च दण्डकानि पितृघ्नो
मातृघ्नो ब्रह्मघ्नो गुरुहननः कोटियतिघ्नोऽनेककृतपापो
यो मम षण्णवतिकोटिनामानि जपति स तेभ्यः पापेभ्यः
प्रमुच्यते । स्वयमेव सच्चिदानन्दस्वरूपो भवेन्न किम् ।
पुनरुवाच विभीषणः । तत्राप्य शक्तोऽयं किं करोति ।
स होवाचेमम् । कैकसेय पुरश्चरणविधावशक्तो
यो मम महोपनिषदं मम गीतां मन्नामसहस्रं
मद्विश्वरूपं ममाष्टोत्तरशतं रामशताभिधानं
नारदोक्तस्तवराजं हनूमत्प्रोक्तं मन्त्रराजात्मकस्तवं
सीतास्तवं च रामषडक्षरीत्यादिभिर्मन्त्रैर्यो मां
नित्यं स्तौति तत्सदृशो भवेन्न किं भवेन्न किम् ॥
इति रामरहस्योपनिषदि प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
सनकाद्या मुनयो हनूमन्तं पप्रच्छुः ।
आञ्जनेय महाबल तारकब्रह्मणो रामचन्द्रस्य
मन्त्रग्रामं नो ब्रूहीति ।
हनूमान्होवाच ।
वह्निस्थं शयनं विष्णोरर्धचन्द्रविभूषितम् ।
एकाक्षरो मनुः प्रोक्तो मन्त्रराजः सुरद्रुमः ॥ १॥
ब्रह्मा मुनिः स्याद्गायत्रं छन्दो रामस्य देवता ।
दीर्घार्धेन्दुयुजाङ्गानि कुर्याद्वह्न्यात्मनो मनोः ॥ २॥
बीजशक्त्यादि बीजेन इष्टार्थे विनियोजयेत् ।
सरयूतीरमन्दारवेदिकापङ्कजासने ॥ ३॥
श्यामं विरासनासीनं ज्ञानमुद्रोपशोभितम् ।
वामोरुन्यस्ततद्धस्तं सीतालक्ष्मणसंयुतम् ॥ ४॥
अवेक्षमाणमात्मानमात्मन्यमिततेजसम् ।
शुद्धस्फटिकसंकाशं केवलं मोक्षकाङ्क्षया ॥ ५॥
चिन्तयन्परमात्मानं भानुलक्षं जपेन्मनुम् ।
वह्निर्नारायणो नाड्यो जाठरः केवलोऽपि च ॥ ६॥
द्व्यक्षरो मन्त्रराजोऽयं सर्वाभीष्टप्रदस्ततः ।
एकाक्षरोक्तमृष्यादि स्यादाद्येन षडङ्गकम् ॥ ७॥
तारमायारमानङ्गवाक्स्वबीजैश्च षड्विधः ,
त्र्यक्षरो मन्त्रराजः स्यात्सर्वाभीष्टफलप्रदः ॥ ८॥
द्व्यक्षरश्चन्द्रभद्रान्तो द्विविधश्चतुरक्षरः ।
ऋष्यादि पूर्ववज्ज्ञेयमेतयोश्च विचक्षणैः ॥ ९॥
सप्रतिष्ठौ रमौ वायौ हृत्पञ्चार्णो मनुर्मतः ।
विश्वामित्रऋषिः प्रोक्तः पङ्क्तिश्छन्दोऽस्य देवता ॥१०॥
रामभद्रो बीजशक्तिः प्रथमार्णमिति क्रमात् ।
भ्रूमध्ये हृदि नाभ्यूर्वोः पादयोर्विन्यसेन्मनुम् ॥ ११॥
षडङ्गं पूर्ववद्विद्यान्मन्त्रार्णैर्मनुनास्त्रकम् ।
मध्ये वनं कल्पतरोर्मूले पुष्पलतासने ॥ १२॥
लक्ष्मणेन प्रगुणितमक्ष्णः कोणेन सायकम् ।
अवेक्षमाणं जानक्या कृतव्यजनमीश्वरम् ॥ १३॥
जटाभारलसच्छीर्षं श्यामं मुनिगणावृतम् ।
लक्ष्मणेन धृतच्छत्रमथवा पुष्पकोपरि ॥ १४॥
दशास्यमथनं शान्तं ससुग्रीवविभीषणम् ।
एवं लब्ध्वा जयार्थी तु वर्णलक्षं जपेन्मनुम् ॥ १५॥
स्वकामशक्तिवाग्लक्ष्मीस्तवाद्याः पञ्चवर्णकाः ।
षडक्षरः षड्विधः स्याच्चतुर्वर्गफलप्रदः ॥ १६॥
पञ्चाशन्मातृकामन्त्रवर्णप्रत्येकपूर्वकम् ।
लक्ष्मीवाङ्मन्मथादिश्च तारादिः स्यादनेकधा ॥ १७॥
श्रीमायामन्मथैकैक बीजाद्यन्तर्गतो मनुः ।
चतुर्वर्णः स एव स्यात्षड्वर्णो वाञ्छितप्रदः ॥ १८॥
स्वाहान्तो हुंफडन्तो वा नत्यन्तो वा भवेदयम् ।
अष्टाविंशत्युत्तरशतभेदः षड्वर्ण ईरितः ॥ १९॥
ब्रह्मा संमोहनः शक्तिर्दक्षिणामूर्तिरेव च ।
अगस्त्यश्च शिवः प्रोक्ता मुनयोऽक्रमादिमे ॥ २०॥
छन्दो गायत्रसंज्ञं च श्रीरामश्चैव देवता ।
अथवा कामबीजादेर्विश्वामित्रो मुनिर्मनोः ॥ २१॥
छन्दो देव्यादिगायत्री रामभद्रोऽस्य देवता ।
बीजशक्ती यथापूर्वं षड्वर्णान्विन्यसेत्क्रमात् ॥ २२॥
ब्रह्मरन्ध्रे भ्रुवोर्मध्ये हृन्नाभ्यूरुषु पादयोः ।
बीजैः षड्दीर्घयुक्तैर्वा मन्त्रार्णैवा षडङ्गकम् ॥ २३॥
कालाभोधरकान्तिकान्तमनिशं वीरासनाध्यासितं
मुद्रां ज्ञानमयीं दधानमपरं हस्तांबुजं जानुनि ।
सीतां पार्श्वगतां सरोरुहकरां विद्युन्निभां राघवं
पश्यन्तं मुकुटाङ्गदादिविविधाकल्पोज्ज्वलाङ्गं भजे ॥ २४॥
श्रीरामश्चन्द्रभद्रान्तो ङेन्तो नतियुतो द्विधा ।
सप्ताक्षरो मन्त्रराजः सर्वकामफलप्रदः ॥ २५॥
तारादिसहितः सोऽपि द्विविधोऽष्टाक्षरो मतः ।
तारं रामश्चतुर्थ्यतः क्रोडास्त्रं वह्नितल्पगा ॥ २६॥
अष्टार्णोऽयं परो मन्त्रो ऋष्यादिः स्यात्षडर्णवत् ।
पुनरष्टाक्षरस्याथ राम एव ऋषिः स्मृतः ॥ २७॥
गायत्रं छन्द इत्यस्य देवता राम एव च ।
तारं श्रीबीजयुग्मं च बीजशक्त्यादयो मताः ॥ २८॥
षडङ्गं च ततः कुर्यान्मन्त्रार्णैरेव बुद्धिमान् ।
तारं श्रीबीजयुग्मं च रामाय नम उच्चरेत् ॥ २९॥
ग्लौंमों बीजं वदेन्मायां हृद्रामाय पुनश्च ताम् ।
शिवोमाराममन्त्रोऽयं वस्वर्णस्तु वसुप्रदः ॥ ३०॥
ऋषिः सदाशिवः प्रोक्तो गायत्रं छन्द उच्यते ।
शिवोमारामचन्द्रोऽत्र देवता परिकीर्तितः ॥ ३१॥
दीर्घया माययाङ्गानि तारपञ्चार्णयुक्तया ।
रामं त्रिनेत्रं सोमार्धधारिणं शूलिनं परम् ।
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं कपर्दिनमुपास्महे ॥ ३२॥
रामाभिरामां सौन्दर्यसीमां सोमावतंसिकाम् ।
पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरां ध्यायेत्त्रिलोचनाम् ॥ ३३॥
ध्यायन्नेवं वर्णलक्षं जपतर्पणतत्परः ।
बिल्वपत्रैः फलैः पुष्पैस्तिलाज्यैः पङ्कजैर्हुनेत् ॥ ३४॥
स्वयमायान्ति निधयः सिद्धयश्च सुरेप्सिताः ।
पुनरष्टाक्षरस्याथ ब्रह्मगायत्र राघवाः ॥ ३५॥
ऋष्यादयस्तु विज्ञेयाः श्रीबीजं मम शक्तिकम् ।
तत्प्रीत्यै विनियोगश्च मन्त्रार्णैरङ्गकल्पना ॥ ३६॥
केयूराङ्गदकङ्कणैर्मणिगतैर्विद्योतमानं सदा
रामं पार्वणचन्द्रकोटिसदृशच्छत्रेण वै राजितम् ।
हेमस्तम्भसहस्रषोडशयुते मध्ये महामण्डपे
देवेशं भरतादिभिः परिवृतं रामं भजे श्यामलम् ॥ ३७॥
किं मन्त्रैर्बहुभिर्विनश्वरफलैरायाससाध्यैर्वृता
किंचिल्लोभवितानमात्रविफलैः संसारदुःखावहैः ।
एकः सन्नपि सर्वमन्त्रफलदो लोभादिदोषोज्झितः
श्रीरामः शरणं ममेति सततं मन्त्रोऽयमष्टाक्षरः ॥ ३८॥
एवमष्टाक्षरः सम्यक् सप्तधा परिकीर्तितः ।
रामसप्ताक्षरो मन्त्र आद्यन्ते तारसंयुतः ॥ ३९॥
नवार्णो मन्त्रराजः स्याच्छेषं षड्वर्णवन्न्यसेत् ।
जानकीवल्लभं ङेन्तं वह्नेर्जायाहुमादिकम् ॥ ४०॥
दशाक्षरोऽयं मन्त्रः स्यात्सर्वाभीष्टफलप्रदः ।
दशाक्षरस्य मन्त्रस्य वसिष्ठोऽस्य ऋषिर्विराट् ॥ ४१॥
छन्दोऽस्य देवता रामः सीतापाणिपरिग्रहः ।
आद्यो बीजं द्विठः शक्तिः कामेनाङ्गक्रिया मता ॥ ४२॥
शिरोललाटभ्रूमध्ये तालुकर्णेषु हृद्यपि ।
नाभूरुजानुपादेषु दशार्णान्विन्यसेन्मनोः ॥ ४३॥
अयोध्यानगरे रत्नचित्रे सौवर्णमण्डपे ।
मन्दारपुष्पैराबद्धविताने तोरणाञ्चिते ॥ ४४॥
सिंहासने समासीनं पुष्पकोपरि राघवम् ।
रक्षोभिर्हरिभिर्देवैर्दिव्ययानगतैः शुभैः ॥ ४५॥
संस्तूयमानं मुनिभिः प्रह्वैश्च परिसेवितम् ।
सीतालङ्कृतवामाङ्गं लक्ष्मणेनोपसेवितम् ॥४६॥
श्यामं प्रसन्नवदनं सर्वाभरणभूषितम् ।
ध्यायन्नेवं जपेन्मन्त्रं वर्णलक्षमनन्यधीः ॥ ४७॥
रामं ङेन्तं धनुष्पाणयेऽन्तः स्याद्वह्निसुन्दरी ।
दशाक्षरोऽयं मन्त्रः स्यान्मुनिर्ब्रह्मा विराट् स्मृतः ॥ ४८॥
छन्दस्तु देवता प्रोक्तो रामो राक्षसमर्दनः ।
शेषं तु पूर्ववत्कुर्याच्चापबाणधरं स्मरेत् ॥ ४९॥
तारमायारमानङ्गवाक्स्वबीजैश्च षड्विधः ।
दशार्णो मन्त्रराजः स्याद्रुद्रवर्णात्मको मनुः ॥ ५०॥
शेषं षडर्णवज्ज्ञेयं न्यासध्यानादिकं बुधैः ।
द्वादशाक्षरमन्त्रस्य श्रीराम ऋषिरुच्यते ॥ ५१॥
जगती छन्द इत्युक्तं श्रीरामो देवता मतः ।
प्रणवो बीजमित्युक्तः क्लीं शक्तिर्ह्रीं च कीलकम् ॥ ५२॥
मन्त्रेणाङ्गानि विन्यस्य शिष्टं पूर्ववदाचरेत् ।
तारं मायां समुच्चार्य भरताग्रज इत्यपि ॥ ५३॥
रामं क्लीं वह्निजायान्तं मन्त्रोयं द्वादशाक्षरः ।
ॐ हृद्भगवते रामचन्द्रभद्रौ च ङेयुतौ ॥ ५४॥
अर्कार्णो द्विविधोऽप्यस्य ऋषिध्यानादिपूर्ववत् ।
छन्दस्तु जगती चैव मन्त्रार्णैरङ्गकल्पना ॥ ५५॥
श्रीरामेति पदं चोक्त्वा जयराम ततः परम् ।
जयद्वयं वदेत्प्राज्ञो रामेति मनुराजकः ॥ ५६॥
त्रयोदशार्ण ऋष्यादि पूर्ववत्सर्वकामदः ।
पदद्वयद्विरावृत्तेरङ्गं ध्यानं दशार्णवत् ॥ ५७॥
तारादिसहितः सोऽपि स चतुर्दशवर्णकः ।
त्रयोदशार्णमुच्चार्य पश्चाद्रामेति योजयेत् ॥ ५८॥
स वै पञ्चदशार्णस्तु जपतां कल्पभूरुहः ।
नमश्च सीतापतये रामायेति हनद्वयम् ॥ ५९॥
ततस्तु कवचास्त्रान्तः षोडशाक्षर ईरितः ।
तस्यागस्त्यऋषिश्छन्दो बृहती देवता च सः ॥ ६०॥
रां बीजं शक्तिरस्त्रं च कीलकं हुमितीरितम् ।
द्विपञ्चत्रिचतुर्वर्णैः सर्वैरङ्गं न्यसेत्क्रमात् ॥ ६१॥
तारादिसहितः सोऽपि मन्त्रः सप्तदशाक्षरः ।
तारं नमो भगवते रां ङेन्तं महा ततः ॥ ६२॥
पुरुषाय पदं पश्चाद्धृदन्तोऽष्टदशाक्षरः ।
विश्वामित्रो मुनिश्छन्दो गायत्रं देवता च सः ॥ ६३॥
कामादिसहितः सोऽपि मन्त्र एकोनविंशकः ।
तारं नामो भगवते रामायेति पदं वदेत् ॥ ६४॥
सर्वशब्दं समुच्चार्य सौभाग्यं देहि मे वदेत् ।
वह्निजायां तथोच्चार्य मन्त्रो विंशार्णको मतः ॥ ६५॥
तारं नमो भगवते रामाय सकलं वदेत् ।
आपन्निवारणायेति वह्निजायां ततो वदेत् ॥ ६६॥
एकविंशार्णको मन्त्रः सर्वाभीष्टफलप्रदः ।
तारं रमा स्वबीजं च ततो दाशरथाय च ॥ ६७॥
ततः सीतावल्लभाय सर्वाभीष्टपदं वदेत् ।
ततो दाय हृदन्तोऽयं मन्त्रो द्वाविंशदक्षरः ॥ ६८॥
तारं नमो भगवते वीररामाय संवदेत् ।
कल शत्रून् हन द्वन्द्वं वह्निजायां ततो वदेत् ॥ ६९॥
त्रयोविंशाक्षरोमन्त्रः सर्वशत्रुनिबर्हणः ।
विश्वामित्रो मुनिः प्रोक्तो गायत्रीछन्द उच्यते ॥ ७०॥
देवता वीररामोऽसौ बीजाद्याः पूर्ववन्मताः ।
मूलमन्त्रविभागेन न्यासान्कृत्वा विचक्षणः ॥ ७१॥
शरं धनुषि सन्धाय तिष्ठन्तं रावणोन्मुखम् ।
वज्रपाणिं रथारूढं रामं ध्यात्वा जपेन्मनुम् ॥ ७२॥
तारं नमो भगवते श्रीरामाय पदं वदेत् ।
तारकब्रह्मणे चोक्त्वा मां तारय पदं वदेत् ॥ ७३॥
नमस्तारात्मको मन्त्रश्चतुर्विंशतिमन्त्रकः ।
बीजादिकं यथा पूर्वं सर्वं कुर्यात्षडर्णवत् ॥ ७४॥
कामस्तारो नतिश्चैव ततो भगवतेपदम् ।
रामचन्द्राय चोच्चार्य सकलेति पदं वदेत् ॥ ७५॥
जनवश्यकरायेति स्वाहा कामात्मको मनुः ।
सर्ववश्यकरो मन्त्रः पञ्चविंशतिवर्णकः ॥ ७६॥
आदौ तारेण संयुक्तो मन्त्रः षड्विंशदक्षरः ।
अन्तेऽपि तारसंयुक्तः सप्तविंशतिवर्णकः ॥ ७७॥
तारं नमो भगवते रक्षोघ्नविशदाय च ।
सर्वविघ्नान्त्समुच्चार्य निवारय पदद्वयम् ॥ ७८॥
स्वाहान्तो मन्त्रराजोऽयमष्टाविंशतिवर्णकः ।
अन्ते तारेण संयुक्त एकोनत्रिंशदक्षरः ॥ ७९॥
आदौ स्वबीजसंयुक्तस्त्रिंशद्वर्णात्मको मनुः ।
अन्तेऽपि तेन संयुक्त एकत्रिंशात्मकः स्मृतः ॥ ८०॥
रामभद्र महेश्वास रघुवीर नृपोत्तम ।
भो दशास्यान्तकास्माकं श्रियं दापय देहि मे ॥ ८१॥
आनुष्टुभ ऋषी रामश्छन्दोऽनुष्टुप्स देवता ।
रां बीजमस्य यं शक्तिरिष्टार्थे विनियोजयेत् ॥ ८२॥
पादं हृदि च विन्यस्य पादं शिरसि विन्यसेत् ।
शिखायां पञ्चभिर्न्यस्य त्रिवर्णैः कवचं न्यसेत् ॥ ८३॥
नेत्रयोः पञ्चवर्णैश्च दापयेत्यस्त्रमुच्यते ।
चापबाणधरं श्यामं ससुग्रीवबिभीषणम् ॥ ८४॥
हत्वा रावणमायान्तं कृतत्रैलोक्यरक्षणम् ।
रामचन्द्रं हृदि ध्यात्वा दशलक्षं जपेन्मनुम् ॥ ८५॥
वदेद्दाशरथायेति विद्महेति पदं ततः ।
सीतापदं समुद्धृत्य वल्लभाय ततो वदेत् ॥ ८६॥
धीमहीति वदेत्तन्नो रामश्चापि प्रचोदयात्
तारादिरेषा गायत्री मुक्तिमेव प्रयच्छति ॥ ८७॥
मायादिरपि वैदुष्ट्यं रामादिश्च श्रियःपदम् ।
मदनेनापि संयुक्तः स मोहयति मेदिनीम् ॥ ८८॥
पञ्च त्रीणि षडर्णैश्च त्रीणि चत्वारि वर्णकैः ।
चत्वारि च चतुर्वर्णैरङ्गन्यासं प्रकल्पयेत् ॥ ८९॥
बीजध्यानादिकं सर्वं कुर्यात्षड्वर्णवत्क्रमात् ।
तारं नमो भगवते चतुर्थ्या रघुनन्दनम् ॥ ९०॥
रक्षोघ्नविशदं तद्वन्मधुरेति वदेत्ततः ।
प्रसन्नवदनं ङेन्तं वदेदमिततेजसे ॥ ९१॥
बलरामौ चतुर्थ्यन्तौ विष्णुं ङेन्तं नतिस्ततः ।
प्रोक्तो मालामनुः सप्तचत्वारिंशद्भिरक्षरैः ॥ ९२॥
ऋषिश्छन्दो देवतादि ब्रह्मानुष्टुभराघवाः ।
सप्तर्तुसप्तदश षड्रुद्रसंख्यैः षडङ्गकम् ॥ ९३॥
ध्यानं दशाक्षरं प्रोक्तं लक्षमेकं जपेन्मनुम् ।
श्रियं सीतां चतुर्थ्यन्तां स्वाहान्तोऽयं षडक्षरः ॥ ९४॥
जनकोऽस्य ऋषिश्छन्दो गायत्री देवता मनोः ।
सीता भगवती प्रोक्ता श्रीं बीजं नतिशक्तिकम् ॥ ९५॥
कीलं सीता चतुर्थ्यन्तमिष्टार्थे विनियोजयेत् ।
दीर्घस्वरयुताद्येन षडङ्गानि प्रकल्पयेत् ॥ ९६॥
स्वर्णाभामम्बुजकरां रामालोकनतत्पराम् ।
ध्यायेत्षट्कोणमध्यस्थरामाङ्कोपरि शोभिताम् ॥ ९७॥
लकारं तु समुद्धृत्य लक्ष्मणाय नमोन्तकः ।
अगस्त्यऋषिरस्याथ गायत्रं छन्द उच्यते ॥ ९८॥
लक्ष्मणो देवता प्रोक्तो लं बीजं शक्तिरस्य हि ।
नमस्तु विनियोगो हि पुरुषार्थ चतुष्टये ॥ ९९॥
दीर्घभाजा स्वबीजेन षडङ्गानि प्रकल्पयेत् ।
द्विभुजं स्वर्णरुचिरतनुं पद्मनिभेक्षणम् ॥ १००॥
धनुर्बाणधरं देवं रामाराधनतत्परम् ।
भकारं तु समुद्धृत्य भरताय नमोन्तकः ॥ १०१॥
अगस्त्यऋषिरस्याथ शेषं पूर्ववदाचरेत् ।
भरतं श्यामलं शान्तं रामसेवापरायणम् ॥ १०२॥
धनुर्बाणधरं वीरं कैकेयीतनयं भजे ।
शं बीजं तु समुद्धृत्य शत्रुघ्नाय नमोन्तकः ।
ऋष्यादयो यथापूर्वं विनियोगोऽरिनिग्रहे ॥ १०३॥
द्विभुजं स्वर्णवर्णाभं रामसेवापरायणम् ।
लवणासुरहन्तारं सुमित्रातनयं भजे ॥ १०४॥
हृं हनुमांश्चतुर्थ्यन्तं हृदन्तो मन्त्रराजकः ।
रामचन्द्र ऋषिः प्रोक्तो योजयेत्पूर्ववत्क्रमात् ॥ १०५॥
द्विभुजं स्वर्णवर्णाभं रामसेवापरायणम् ।
मौञ्जीकौपीनसहितं मां ध्यायेद्रामसेवकम् ॥ इति॥ १०६॥
इति रामरहस्योपनिषदि द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
सनकाद्या मुनयो हनूमन्तं पप्रच्छुः ।
आञ्जनेय महाबल पूर्वोक्तमन्त्राणां
पूजापीठमनुब्रूहीति । हनुमान् होवाच ।
आदौ षट्कोणम् । तन्मध्ये रामबीजं सश्रीकम् ।
तदधोभागे द्वितीयान्तं साध्यम् । बीजोर्ध्वभागे
षष्ठ्यन्तं साधकम् । पार्श्वे दृष्टिबीजे तत्परितो
जीवप्राणशक्तिवश्यबीजानि । तत्सर्वं सन्मुखोन्मुखाभ्यां
प्रणवाभ्यां वेष्टनम् । अग्नीशासुरवायव्यपुरःपृष्ठेषु
षट्कोणेषु दीर्घभाञ्जि । हृदयादिमन्त्राः क्रमेण ।
रां रीं रूं रैं रौं रः इति दीर्घभाजि तद्युक्तहृदयाद्यस्त्रान्तम् ।
षट्कोणपार्श्वे रमामायाबीजे । कोणाग्रे वाराहं हुमिति ।
तद्बीजान्तराले कामबीजम् । परितो वाग्भवम् । ततो वृत्तत्रयं
साष्टपत्रम् । तेषु दलेषु स्वरानष्टवर्गान्प्रतिदलं
मालामनुवर्णषट्कम् । अन्ते पञ्चाक्षरम् ।
तद्दलकपोलेष्वष्टवर्णान् । पुनरष्टदलपद्मम् ।
तेषु दलेषु नारायणाष्टाक्षरो मन्त्रः । तद्दलकपोलेषु
श्रीबीजम् । ततो वृत्तम् । ततो द्वादशदलम् । तेषु दलेषु
वासुदेवद्वादशाक्षरो मन्त्रः । तद्दलकपोलेष्वादिक्षान्तान् ।
ततो वृत्तम् । ततः षोडशदलम् । तेषु दलेषु हुं फट्
नतिसहितरामद्वादशाक्षरम् । तद्दलकपोलेषु मायाबीजम् ।
सर्वत्र प्रतिकपोलं द्विरावृत्त्या ह्रं स्रं भ्रं ब्रं भ्रमं श्रुं
ज्रम् । ततो वृत्तम् । ततो द्वात्रिंशद्दलपद्मम् । तेषु दलेषु
नृसिंहमन्त्रराजानुष्टुभमन्रः । तद्दलकपोलेश्वष्टव-
स्वेकादशरुद्रद्वादशादित्यमन्त्राः प्रणवादिनमोन्ता-
श्चतुर्थ्यन्ताः क्रमेण । तद्बहिर्वषट्कारं परितः । ततो
रेखात्रययुक्तं भूपुरम् । द्वादशदिक्षु राश्यादिभूषितम् ।
अष्टनागैरधिष्ठितम् । चतुर्दिक्षु नारसिंहबीजम् ।
विदिक्षु वाराहबीजम् । एतत्सर्वात्मकं यन्त्रं सर्वकामप्रदं
मोक्षप्रदं च । एकाक्षरादिनवाक्षरान्तानामेतद्यन्त्रं
भवति । तद्दशावरणात्मकं भवति । षट्कोणमध्ये
साङ्गं राघवं यजेत् । षट्कोणेष्वङ्गैः
प्रथमा वृतिः । अष्टदलमूले आत्माद्यावरणम् ।
तदग्रे वासुदेवाद्यावरणम् । द्वितीयाष्टदलमूले
घृष्टाद्यावरणम् । तदग्रे हनूमदाद्यावरणम् ।
द्वादशदलेषु वसिष्ठाद्यावरणम् । षोडशदलेशु
नीलाद्यावरणम् । द्वात्रिंशद्दलेषु ध्रुवाद्यावरणम् ।
भूपुरान्तरिन्द्राद्यावरणम् । तद्बहिर्वज्राद्यावरणम् ।
एवमभ्यर्च्य मनुं जपेत् ॥
अथ दशाक्षरादिद्वात्रिंशदक्षरान्तानां मन्त्राणां
पूजापीठमुच्यते । आदौ षट्कोणम् । तन्मध्ये स्वबीजम् ।
तन्मध्ये साध्यनामानि । एवं कामबीजवेष्टनम् । तं
शिष्टेन नवार्णेन वेष्टनम् । षट्कोणेषु
षडङ्गान्यग्नीशासुरवायव्यपूर्वपृष्ठेषु ।
तत्कपोलेषु श्रीमाये । कोणाग्रे क्रोधम् । ततो वृत्तम् ।
ततोऽष्टदलम् । तेषु दलेषु षट्संख्यया
मालामनुवर्णान् । तद्दलकपोलेषु षोडश स्वराः ।
ततो वृत्तम् । तत्परित आदिक्षान्तम् । तद्बहिर्भूपुरम्
साष्टशूलाग्रम् । दिक्षु विदिक्षु नारसिंहवाराहे ।
एतन्महायन्त्रम् । आधारशक्त्यादिवैष्णवपीठम् ।
अङ्गैः प्रथमा वृतिः । मध्ये रामम् । वामभागे
सीताम् । तत्पुरतः शार्ङ्गं शरं च । अष्टदलमूले
हनुमदादिद्वितीयावरणम् । घृष्ट्यादितृतीयावरणम् ।
इन्द्रादिभिश्चतुर्थी । वज्रादिभिः पञ्चमी । एतद्यन्त्राराधन-
पूर्वकं दशाक्षरादिमन्त्रं जपेत् । ॥
इति रामरहस्योपनिषदि तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
सनकाद्या मुनयो हनूमन्तं पप्रच्छुः ।
श्रीराममन्त्राणां पुरश्चरणविधिमनुब्रूहीति ।
हनूमान्होवाच ।
नित्यं त्रिषवणस्नायी पयोमूलफलादिभुक् ।
अथवा पायसाहारो हविष्यान्नाद एव वा ॥ १॥
षड्सैश्च परित्यक्तः स्वाश्रमोक्तविधिं चरन् ।
वनितादिषु वाक्कर्ममनोभिर्निःस्पृहः शुचिः ॥ २॥
भूमिशायी ब्रह्मचारी निष्कामो गुरुभक्तिमान् ।
स्नानपूजाजपध्यानहोमतर्पणतत्परः ॥ ३॥
गुरूपदिष्टमार्गेण ध्यायन्राममनन्यधीः ।
सूर्येन्दुगुरुदीपादिगोब्राह्मणसमीपतः ॥ ४॥
श्रीरामसन्निधौ मौनी मन्त्रार्थमनुचिन्तयन् ।
व्याघ्रचर्मासने स्थित्वा स्वस्तिकाद्यासनक्रमात् ॥ ५॥
तुलसीपारिजातश्रीवृक्षमूलादिकस्थले ।
पद्माक्षतुलसीकाष्ठरुद्राक्षकृतमालया ॥ ६॥
मातृकामालया मन्त्री मनसैव मनुं जपेत् ।
अभ्यर्च्य वैष्णवे पीठे जपेदक्षरलक्षकम् ॥ ७॥
तर्पयेत्तद्दशांशेन पायसात्तद्दशांशतः ।
जुहुयाद्गोघृतेनैव भोजयेत्तद्दशांशतः ॥ ८॥
ततः पुष्पाञ्जलिं मूलमन्त्रेण विधिवच्चरेत् ।
ततः सिद्धमनुर्भूत्वा जीवन्मुक्तो भवेन्मुनिः ॥ ९॥
अणिमादिर्भजत्येनं यूनं वरवधूरिव ।
ऐहिकेषु च कार्येषु महापत्सु च सर्वदा ॥ १०॥
नैव योज्यो राममन्त्रः केवलं मोक्षसाधकः ।
ऐहिके समनुप्राप्ते मां स्मरेद्रामसेवकम् ॥ ११॥
यो रामं संस्मरेन्नित्यं भक्त्या मनुपरायणः ।
तस्याहमिष्टसंसिद्ध्यै दीक्षितोऽस्मि मुनीश्वराः ॥ १२॥
वाञ्छितार्थं प्रदास्यामि भक्तानां राघवस्य तु ।
सर्वथा जागरूकोऽस्मि रामकार्यधुरन्धरः ॥ १३॥
इति रामरहस्योपनिषदि चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
सनकाद्या मुनयो हनूमन्तं पप्रच्छुः ।
श्रीराममन्त्रार्थमनुब्रूहीति । हनूमान्होवाच ।
सर्वेषु राममन्त्रेषु मन्त्रराजः षडक्षरः ।
एकधाय द्विधा त्रेधा चतुर्धा पञ्चधा तथा ॥ १॥
षट्सप्तधाष्टधा चैव बहुधायं व्यवस्थितः ।
षडक्षरस्य माहात्म्यं शिवो जानाति तत्त्वतः ॥ २॥
श्रीराममन्त्रराजस्य सम्यगर्थोऽयमुच्यते ।
नारायणाष्टाक्षरे च शिवपञ्चाक्षरे तथा ।
सार्थकार्णद्वयं रामो रमन्ते यत्र योगिनः ।
रकारो वह्निवचनः प्रकाशः पर्यवस्यति ॥ ३॥
सच्चिदानन्दरूपोऽस्य परमात्मार्थ उच्यते ।
व्यञ्जनं निष्कलं ब्रह्म प्राणो मायेति च स्वरः ॥ ४॥
व्यञ्जनैः स्वरसंयोगं विद्धि तत्प्राणयोजनम् ।
रेफो ज्योतिर्मये तस्मात्कृतमाकरयोजनम् ॥ ५॥
मकारोऽभ्युदयार्थत्वात्स मायेति च कीर्त्यते ।
सोऽयं बीजं स्वकं यस्मात्समायं ब्रह्म चोच्यते ॥ ६॥
सबिन्दुः सोऽपि पुरुषः शिवसूर्येन्दुरूपवान् ।
ज्योतिस्तस्य शिखा रूपं नादः सप्रकृतिर्मतः ॥ ७॥
प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ समायाद्ब्रह्मणः स्मृतौ ।
बिन्दुनादात्मकं बीजं वह्निसोमकलात्मकम् ॥ ८॥
अग्नीषोमात्मकं रूपं रामबीजे प्रतिष्ठितम् ।
यथैव वटबीजस्थः प्राकृतश्च महाद्रुमः ॥ ९॥
तथैव रामबीजस्थं जगदेतच्चराचरम् ।
बीजोक्तमुभयार्थत्वं रामनामनि दृश्यते ॥ १०॥
बीजं मायाविनिर्मुक्तं परं ब्रह्मेति कीर्त्यते ।
मुक्तिदं साधकानां च मकारो मुक्तिदो मतः ॥ ११॥
मारूपत्वादतो रामो भुक्तिमुक्तिफलप्रदः ।
आद्यो र तत्पदार्थः स्यान्मकरस्त्वंपदार्थवान् ॥ १२॥
तयोः संयोजनमसीत्यर्थे तत्त्वविदो विदुः ।
नमस्त्वमर्थो विज्ञेयो रामस्तत्पदमुच्यते ॥ १३॥
असीत्यर्थे चतुर्थी स्यादेवं मन्त्रेषु योजयेत् ।
तत्त्वमस्यादिवाक्यं तु केवलं मुक्तिदं यतः ॥ १४॥
भुक्तिमुक्तिप्रदं चैतत्तस्मादप्यतिरिच्यते ।
मनुष्वेतेषु सर्वेषामधिकारोऽस्ति देहिनाम् ॥ १५॥
मुमुक्षूणां विरक्तानां तथा चाश्रमवासिनाम् ।
प्रणवत्वात्सदा ध्येयो यतीनां च विशेषतः ।
राममन्त्रार्थविज्ञानी जीवन्मुक्तो न संशयः ॥ १६॥
य इमामुपनिषदमधीते सोऽग्निपूतो भवति ।
स वायुपूतो भवति । सुरापानात्पूतो भवति ।
स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति । ब्रह्महत्यापूतो भवति ।
स राममन्त्राणां कृतपुरश्चरणो रामचन्द्रो भवति ।
तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
सदा रामोऽहमस्मीति तत्त्वतः प्रवदन्ति ये ।
न ते संसारिणो नूनं राम एव न संशयः ॥ ॐ सत्यमित्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति श्रीरामरहस्योपनिषत्समाप्ता ॥
॥ रुद्रहृदयोपनिषत् ॥
यद्ब्रह्म रुद्रहृदयमहाविद्याप्रकाशितम् ।
तद्ब्रह्ममात्रावस्थानपदवीमधुना भजे ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
हृदयं कुण्डली भस्मरुद्राक्षगणदर्शनम् ।
तारसारं महावाक्यं पञ्चब्रह्माग्निहोत्रकम् ॥ १॥
प्रणम्य शिरसा पादौ शुको व्यासमुवाच ह ।
को देवः सर्वदेवेषु कस्मिन्देवाश्च सर्वशः ॥ २॥
कस्य शुश्रूषणान्नित्यं प्रीता देवा भवन्ति मे ।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच पिता शुकम् ॥ ३॥
सर्वदेवात्मको रुद्रः सर्वे देवाः शिवात्मकाः ।
रुद्रस्य दक्षिणे पार्श्वे रविर्ब्रह्मा त्रयोऽग्नयः ॥ ४॥
वामपार्श्वे उमा देवी विष्णुः सोमोऽपि ते त्रयः ।
या उमा सा स्वयं विष्णुर्यो विष्णुः स हि चन्द्रमाः ॥ ५॥
ये नमस्यन्ति गोविन्दं ते नमस्यन्ति शङ्करम् ।
येऽर्चयन्ति हरिं भक्त्या तेऽर्चयन्ति वृषध्वजम् ॥ ६॥
ये द्विषन्ति विरूपाक्षं ते द्विषन्ति जनार्दनम् ।
ये रुद्रं नाभिजानन्ति ते न जानन्ति केशवम् ॥ ७॥
रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दनः ।
यो रुद्रः स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशनः ॥ ८॥
ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्कं जगत् ।
पुंलिङ्गं सर्वमीशानं स्त्रीलिङ्गं भगवत्युमा ॥ ९॥
उमारुद्रात्मिकाः सर्वाः ग्रजाः स्थावरजङ्गमाः ।
व्यक्तं सर्वमुमारूपमव्यक्तं तु महेश्वरम् ॥ १०॥
उमा शङ्करयोगो यः स योगो विष्णुरुच्यते ।
यस्तु तस्मै नमस्कारं कुर्याद्भक्तिसमन्वितः ॥ ११॥
आत्मानं परमात्मानमन्तरात्मानमेव च ।
ज्ञात्वा त्रिविधमात्मानं परमात्मानमाश्रयेत् ॥ १२॥
अन्तरात्मा भवेद्ब्रह्मा परमात्मा महेश्वरः ।
सर्वेषामेव भूतानां विष्णुरात्मा सनातनः ॥ १३॥
अस्य त्रैलोक्यवृक्षस्य भूमौ विटपशाखिनः ।
अग्रं मध्यं तथा मूलं विष्णुब्रह्ममहेश्वराः ॥ १४॥
कार्यं विष्णुः क्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वरः ।
प्रयोजनार्थं रुद्रेण मूर्तिरेका त्रिधा कृता ॥ १५॥
धर्मो रुद्रो जगद्विष्णुः सर्वज्ञानं पितामहः ।
श्रीरुद्र रुद्र रुद्रेति यस्तं ब्रूयाद्विचक्षणः ॥ १६॥
कीर्तनात्सर्वदेवस्य सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः ॥ १७॥
रुद्रो ब्रह्मा उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः ।
रुद्रो विष्णुरुमा लक्ष्मीस्तस्मै तस्यै नमो नमः ॥ १८॥
रुद्रः सूर्य उमा छाया तस्मै तस्यै नमो नमः ।
रुद्रः सोम उमा तारा तस्मै तस्यै नमो नमः ॥ १९॥
रुद्रो दिवा उमा रात्रिस्तस्मै तस्यै नमो नमः ।
रुद्रो यज्ञ उमा वेदिस्तस्मै तस्यै नमो नमः ॥ २०॥
रुद्रो वह्निरुमा स्वाहा तस्मै तस्यै नमो नमः ।
रुद्रो वेद उमा शास्तं तस्मै तस्यै नमो नमः ॥ २१॥
रुद्रो वृक्ष उमा वल्ली तस्मै तस्यै नमो नमः ।
रुद्रो गन्ध उमा पुष्पं तस्मै तस्यै नमो नमः ॥ २२॥
रुद्रोऽर्थ अक्षरः सोमा तस्मै तस्यै नमो नमः ।
रुद्रो लिङ्गमुमा पीठं तस्मै तस्यै नमो नमः ॥ २३॥
सर्वदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात्पृथक्पृथक् ।
एभिर्मन्त्रपदैरेव नमस्यामीशपार्वती ॥ २४॥
यत्र यत्र भवेत्सार्धमिमं मन्त्रमुदीरयेत् ।
ब्रह्महा जलमध्ये तु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २५॥
सर्वाधिष्ठानमद्वन्द्वं परं ब्रह्म सनातनम् ।
सच्चिदानन्दरूपं तदवाङ्मनसगोचरम् ॥ २६॥
तस्मिन्सुविदिते सर्वं विज्ञातं स्यादिदं शुक ।
तदात्मकत्वात्सर्वस्य तस्माद्भिन्नं नहि क्वचित् ॥ २७॥
द्वे विद्ये वेदितव्ये हि परा चैवापरा च ते ।
तत्रापरा तु विद्यैषा ऋग्वेदो यजुरेव च ॥ २८॥
सामवेदस्तथाथर्ववेदः शिक्षा मुनीश्वर ।
कल्पो व्याकरणं चैव निरुक्तं छन्द एव च ॥ २९॥
ज्योतिषं च यथा नात्मविषया अपि बुद्धयः ।
अथैषा परमा विद्या ययात्मा परमाक्षरम् ॥ ३०॥
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रं रूपवर्जितम् ।
अचक्षुःश्रोत्रमत्यर्थं तदपाणिपदं तथा ॥ ३१॥
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं च तदव्ययम् ।
तद्भूतयोनिं पश्यन्ति धीरा आत्मानमात्मनि ॥ ३२॥
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यो यस्य ज्ञानमयं तपः ।
तस्मादत्रान्नरूपेण जायते जगदावलिः ॥ ३३॥
सत्यवद्भाति तत्सर्वं रज्जुसर्पवदास्थितम् ।
तदेतदक्षरं सत्यं तद्विज्ञाय विमुच्यते ॥ ३४॥
ज्ञानेनैव हि संसारविनाशो नैव कर्मणा ।
श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं स्वगुरुं गच्छेद्यथाविधि ॥ ३५॥
गुरुस्तस्मै परां विद्यां दद्याद्ब्रह्मात्मबोधिनीम् ।
गुहायां निहितं साक्षादक्षरं वेद चेन्नरः ॥ ३६॥
छित्वाऽविद्यामहाग्रन्थिं शिवं गच्छेत्सनातनम् ।
तदेतदमृतं सत्यं तद्बोद्धव्यं मुमुक्षिभिः ॥ ३७॥
धनुस्तारं शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ ३८॥
लक्ष्यं सर्वगतं चैव शरः सर्वगतो मुखः ।
वेद्धा सर्वगतश्चैव शिवलक्ष्यं न संशयः ॥ ३९॥
न तत्र चन्द्रार्कवपुः प्रकाशते
न वान्ति वाताः सकला देवताश्च ।
स एष देवः कृतभावभूतः
स्वयं विशुद्धो विरजः प्रकाशते ॥ ४०॥
द्वौ सुपर्णौ शरीरेऽस्मिञ्जीवेशाक्ष्यौ सह स्थितौ ।
तयोर्जीवः फलं भुङ्क्ते कर्मणो न महेश्वरः ॥ ४१॥
केवलं साक्षिरूपेण विना भोगं महेश्वरः ।
प्रकाशते स्वयं भेदः कल्पितो मायया तयोः ॥ ४२॥
घटाकाशमठाकाशौ यथाकाशप्रभेदतः ।
कल्पितौ परमौ जीवशिवरूपेण कल्पितौ ॥ ४३॥
तत्त्वतश्च शिवः साक्षाच्चिज्जीवश्च स्वतः सदा ।
चिच्चिदाकारतो भिन्ना न भिन्ना चित्त्वहानितः ॥ ४४॥
चितश्चिन्न चिदाकारद्भिद्यते जडरूपतः ।
भिद्यते चेज्जडो भेदश्चिदेका सर्वदा खलु ॥ ४५॥
तर्कतश्च प्रमाणाच्च चिदेकत्वव्यवस्थितेः ।
चिदेकत्वपरिज्ञाने न शोचति न मुह्यति ॥ ४६॥
अद्वैतं परमानन्दं शिवं याति तु कैवलम् ॥ ४७॥
अधिष्ठानं समस्तस्य जगतः सत्यचिद्घनम् ।
अहमस्मीति निश्चित्य वीतशोको भवेन्मुनिः ॥ ४८॥
स्वशरीरे स्वयं ज्योतिःस्वरूपं सर्वसाक्षिणम् ।
क्षीणदोषाः प्रपश्यन्ति नेतरे माययावृताः ॥ ४९॥
एवं रूपपरिज्ञानं यस्यास्ति परयोगिनः ।
कुत्रचिद्गमनं नास्ति तस्य पूर्णस्वरूपिणः ॥ ५०॥
आकाशमेकं सम्पूर्णं कुत्रचिन्नैव गच्छति ।
तद्वत्स्वात्मपरिज्ञानी कुत्रचिन्नैव गच्छति ॥ ५१॥
स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म यो वेद वै मुनिः ।
ब्रह्मैव भवति स्वस्थः सच्चिदानन्द मातृकः ॥ ५२॥
इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति रुद्रहृदयोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ रुद्राक्षजाबालोपनिषत् ॥
रुद्राक्षोपनिषद्वेद्यं महारुद्रतयोज्ज्वलम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तशिवमात्रपदं भजे ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणम-
स्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि
सन्तु ते मयि सन्तु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथ हैनं कालाग्निरुद्रं भुसुण्डः पप्रच्छ कथं
रुद्राक्षोत्पत्तिः । तद्धारणात्किं फलमिति । तं होवाच
भगवान्कालाग्निरुद्रः । त्रिपुरवधार्थमहं निमीलिताक्षोऽभवम् ।
तेभ्यो जलबिन्दवो भूमौ पतितास्ते रुद्राक्षा जाताः ।
सर्वानुग्रहार्थाय तेषां नामोच्चारणमात्रेण
दशगोप्रदानफलं दर्शनस्पर्शनाभ्यां द्विगुणं
फलमत ऊर्ध्वं वक्तुं न शक्नोमि । तत्रैते श्लोका भवन्ति ।
कस्मिंस्थितं तु किं नाम कथं वा धार्यते नरैः ।
कतिभेदमुखान्यत्र कैर्मन्त्रैर्धार्यते कथम् ॥ १॥
दिव्यवर्षसहस्राणि चक्षुरुन्मीलितं मया ।
भूमावक्षिपुटाभ्यां तु पतिता जलबिन्दवः ॥ २॥
तत्राश्रुबिन्दवो जाता महारुद्राक्षवृक्षकाः ।
स्थावरत्वमनुप्राप्य भक्तानुग्रहकारणात् ॥ ३॥
भक्तानां धारणात्पापं दिवारात्रिकृतं हरेत् ।
लक्षं तु दर्शनात्पुण्यं कोटिस्तद्धारणाद्भवेत् ॥ ४॥
तस्य कोटिशतं पुण्यं लभते धारणान्नरः ।
लक्षकोटिसहस्राणि लक्षकोटिशतानि च ॥ ५॥
तज्जपाल्लभते पुण्यं नरो रुद्राक्षधारणात् ।
धात्रीफलप्रमाणं यच्छ्रेष्ठमेतदुदाहृतम् ॥ ६॥
बदरीफलमात्रं तु मध्यमं प्रोच्यते बुधैः ।
अधमं चणमात्रं स्यात्प्रक्रियैषा मयोच्यते ॥ ७॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चेति शिवाज्ञया ।
वृथा जाताः पृथिव्यां तु तज्जातीयाः शुभाक्षकाः ॥ ८॥
श्वेतास्तु ब्राह्मणा ज्ञेयाः क्षत्रिया रक्तवर्णकाः ।
पीतास्तु वैश्या विज्ञेयाः कृष्णाः शूद्रा उदाहृताः ॥ ९॥
ब्राह्मणो बिभृयाच्छ्वेतात्रक्तात्राजा तु धारयेत् ।
पीतान्वैश्यस्तु बिभृयात्कृष्णाञ्छूद्रस्तु धारयेत् ॥ १०॥
समाः स्निग्धा दृढाः स्थूलाः कण्टकैः संयुताः शुभाः ।
कृमिदष्टं भिन्नभिन्नं कण्टकैर्हीनमेव च ॥ ११॥
व्रणयुक्तमयुक्तं च षड्रुद्राक्षाणि वर्जयेत् ।
स्वयमेव कृतं द्वारं रुद्राक्षं स्यादिहोत्तमम् ॥ १२॥
यत्तु पौरुषयत्नेन कृतं तन्मध्यमं भवेत् ।
समान्स्निग्धान्दृढान्स्थूलान्क्षौमसूत्रेण धारयेत् ॥ १३॥
सर्वगात्रेण सौम्येन सामान्यानि विचक्षणः ।
निकषे हेमरेखाभा यस्य रेखा प्रदृश्यते ॥ १४॥
तदक्षममुत्तमं विद्यात्तद्धार्यं शिवपूजकैः ।
शिखायामेकरुद्राक्षं त्रिशतं शिरसा वहेत् ॥ १५॥
षट्त्रिंशतं गले दध्यात्बाहोः षोडशषोडश ।
मणिबन्धे द्वादशैव स्कन्धे पञ्चशतं वहेत् ॥ १६॥
अष्टोत्तरशतैर्मालामुपवीतं प्रकल्पयेत् ।
द्विसरं त्रिसरं वापि सराणां पञ्चकं तथा ॥ १७॥
सराणां सप्तकं वापि बिभृयात्कण्ठदेशतः ।
मुकुटे कुण्डले चैव कर्णिकाहारकेऽपि वा ॥ १८॥
केयूरकटके सूत्रं कुक्षिबन्धे विशेषतः ।
सुप्ते पीते सदाकालं रुद्राक्षं धारयेन्नरः ॥ १९॥
त्रिशतं त्वधमं पञ्चशतं मध्यममुच्यते ।
सहस्रमुत्तमं प्रोक्तमेवं भेदेन धारयेत् ॥ २०॥
शिरसीशानमन्त्रेण कण्ठे तत्पुरुषेण तु ।
अघोरेण गले धार्यं तेनैव हृदयेऽपि च ॥ २१॥
अघोरबीजमन्त्रेण करयोर्धारयेत्सुधीः ।
पञ्चाशदक्षग्रथितान्व्योमव्याप्यपि चोदरे ॥ २२॥
पञ्च ब्रह्मभिरङ्गैशच त्रिमाला पञ्च सप्त च ।
ग्रथित्वा मूलमन्त्रेण सर्वाण्यक्षाणि धारयेत् ॥ २३॥
अथ हैनं भगवन्तं कालाग्निरुद्रं भुसुन्डः पप्रच्छ
रुद्राक्षाणां भेदेन यदक्षं यत्स्वरूपं यत्फलमिति ।
तत्स्वरूपं मुखयुक्तमरिष्टनिरसनं कामाभीष्टफलं
ब्रूहीति होवाच । तत्रैते श्लोका भवन्ति ॥
एकवक्त्रं तु रुद्राक्षं परतत्त्वस्वरूपकम् ।
तद्धारणात्परे तत्त्वे लीयते विजितेन्द्रियः ॥ १॥
द्विवक्त्रं तु मुनिश्रेष्ठ चार्धनारीश्वरात्मकम् ।
धारणादर्धनारीशः प्रीयते तस्य नित्यशः ॥ २॥
त्रिमुखं चैव रुद्राक्षमग्नित्रयस्वरूपकम् ।
तद्धारणाच्च हुतभुक्तस्य तुष्यति नित्यदा ॥ ३॥
चतुर्मुखं तु रुद्राक्षं चतुर्वक्त्रस्वरूपकम् ।
तद्धारणाच्चतुर्वक्त्रः प्रीयते तस्य नित्यदा ॥ ४॥
पञ्चवक्त्रं तु रुद्राक्षं पञ्चब्रह्मस्वरूपकम् ।
पञ्चवक्त्रः स्वयं ब्रह्म पुंहत्यां च व्यपोहति ॥ ५॥
षड्वक्त्रमपि रुद्राक्षं कार्तिकेयाधिदैवतम् ।
तद्धारणान्महाश्रीः स्यान्महदारोग्यमुत्तमम् ॥ ६॥
मतिविज्ञानसम्पत्तिशुद्धये धारयेत्सुधीः ।
विनायकाधिदैवं च प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ७॥
सप्तवक्त्रं तु रुद्राक्षं सप्तमाधिदैवतम् ।
तद्धारणान्महाश्रीः स्यान्महदारोग्यमुत्तमम् ॥ ८॥
महती ज्ञानसम्पत्तिः शुचिर्धारणतः सदा ।
अष्टवक्त्रं तु रुद्राक्षमष्टमात्राधिदैवतम् ॥ ९॥
वस्वष्टकप्रियं चैव गङ्गाप्रीतिकरं तथा ।
तद्धारणादिमे प्रीता भवेयुः सत्यवादिनः ॥ १०॥
नववक्त्रं तु रुद्राक्षं नवशक्त्यधिदैवतम् ।
तस्य धारणमात्रेण प्रीयन्ते नवशक्तयः ॥ ११॥
दशवक्त्रं तु रुद्राक्षं यमदैवत्यमीरितम् ।
दर्शनाच्छान्तिजनकं धारणान्नात्र संशयः ॥ १२॥
एकादशमुखं त्वक्षं रुद्रैकादशदैवतम् ।
तदिदं दैवतं प्राहुः सदा सौभाग्यवर्धनम् ॥ १३॥
रुद्राक्षं द्वादशमुखं महाविष्णुस्वरूपकम् ।
द्वादशादित्यरूपं च बिभर्त्येव हि तत्परम् ॥ १४॥
त्रयोदशमुखं त्वक्षं कामदं सिद्धिदं शुभम् ।
तस्य धारणमात्रेण कामदेवः प्रसीदति ॥ १५॥
चतुर्दशमुखं चाक्षं रुद्रनेत्रसमुद्भवम् ।
सर्वव्याधिहरं चैव सर्वदारोग्यमाप्नुयात् ॥ १६॥
मद्यं मांसं च लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च ।
श्लेष्मातकं विड्वराहमभक्ष्यं वर्जयेन्नरः ॥ १७॥
ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेऽपि च ।
दर्शेषु पूर्णमासे च पूर्णेषु दिवसेषु च ।
रुद्राक्षधारणात्सद्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १८॥
रुद्राक्षमूलं तद्ब्रह्मा तन्नालं विष्णुरेव च ।
तन्मुखं रुद्र इत्याहुस्तद्बिन्दुः सर्वदेवताः ॥ १९॥ इति ॥
अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रच्छाधीहि
भगवन्रुद्राक्षधारणविधिम् । तस्मिन्समये निदाघ-
जडभरतदत्तात्रेयकात्यायनभरद्वाजकपिलवसिष्ठ-
पिप्पलादादयश्च कालाग्निरुद्रं परिसमेत्योचुः । अथ
कालाग्निरुद्रः किमर्थं भवतामागमनमिति होवाच ।
रुद्राक्षधारणविधिं वै सर्वे श्रोतुमिच्छामह इति । अथ
कालाग्निरुद्रः प्रोवाच । रुद्रस्य नयनादुत्पन्ना रुद्राक्षा
इति लोके ख्यायन्ते । अथ सदाशिवः संहारकाले संहारं
कृत्वा संहाराक्षं मुकुलीकरोति । तन्नयनाज्जाता रुद्राक्षा
इति होवाच । तस्माद्रुद्राक्षत्वमिति कालाग्निरुद्रः प्रोवाच ।
तद्रुद्राक्षे वाग्विषये कृते दशगोप्रदानेन यत्फलमवाप्नोति
तत्फलमश्नुते । स एष भस्मज्योती रुद्राक्ष इति । तद्रुद्राक्षं
करेण स्पृष्ट्वा धारणमात्रेण द्विसहस्रगोप्रदानफलं
भवति । तद्रुद्राक्षे कर्णयोर्धार्यमाणे एकादशसहस्रगोप्रदानफलं
भवति । एकादशरुद्रत्वं च गच्छति । तद्रुद्राक्षे शिरसि
धार्यमाणे कोटिगोप्रदानफलं भवति । एतेषां स्थानानां
कर्णयोः फलं वक्तुं न शक्यमिति होवाच । य इमां रुद्राक्षजाबालोपनिषदं
नित्यमधीते बालो वा युवा वा वेद स महान्भवति । स गुरुः सर्वेषां
मन्त्राणामुपदेष्टा भवति एतैरेव होमं कुर्यात् । एतैरेवार्चनम् ।
तथा रक्षोघ्नं मृत्युतारकं गुरुणा लब्धं कण्ठे बाहौ
शिखायां वा बध्नीत । सप्तद्वीपवती भूमिर्दक्षिणार्थं नावकल्पते ।
तस्माच्छ्रद्धया यां काञ्चिद्गां दद्यात्सा दक्षिणा भवति ।
य इमामुपनिषदं ब्राह्मणः सायमधीयानो दिवसकृतं पापं
नाशयति । मध्याह्नेऽधीयानः षड्जन्मकृतं पापं नाशयति ।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानोऽनेकजन्मकृतं पापं नाशयति ।
षट्सहस्रलक्षगायत्रीजपफलमवाप्नोति । ब्रह्महत्यासुरापान-
स्वर्णस्तेयगुरुदारगमनतत्संयोगपातकेभ्यः पूतो भवति ।
सर्वतीर्थफलमश्नुते । पतितसंभाषणात्पूतो भवति ।
पङ्क्तिशतसहस्रपावनो भवति । शिवसायुज्यमवाप्नोति । न च
पुनरावर्तते न च पुनरावर्तत इत्योंसत्यमित्युपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं
ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणम-
स्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति रुद्राक्षजाबालोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ वज्रसूचिका उपनिषत् ॥
॥ श्री गुरुभ्यो नमः हरिः ॐ ॥
यज्ञ्ज्ञानाद्यान्ति मुनयो ब्राह्मण्यं परमाद्भुतम् ।
तत्रैपद्ब्रह्मतत्त्वमहमस्मीति चिंतये ॥
ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
चित्सदानन्दरूपाय सर्वधीवृत्तिसाक्षिणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय ब्रह्मणेऽनन्तरूपिणे ॥
ॐ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम् ।
दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञानचक्षुषाम् ॥ १॥
ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव
प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम् ।
तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं
ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति ॥
तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । अतीतानागतानेकदेहानां
जीवस्यैकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसंभवात् सर्वशरीराणां
जीवस्यैकरूपत्वाच्च । तस्मात् न जीवो ब्राह्मण इति ॥
तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत् तन्न । आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां
पञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वात्
जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनत् ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो
रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्णः इति नियमाभावात् ।
पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसंभवाच्च ।
तस्मात् न देहो ब्राह्मण इति ॥
तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न । तत्र
जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसंभवात् महर्षयो बहवः सन्ति ।
ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको
वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः,
वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां
जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मात्
न जाति ब्राह्मण इति ॥
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत् तन्न । क्षत्रियादयोऽपि
परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति । तस्मात् न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥
तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत् तन्न । सर्वेषां प्राणिनां
प्रारब्धसञ्चितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः
क्रियाः कुर्वन्तीति । तस्मात् न कर्म ब्राह्मण इति ॥
तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत् तन्न । क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः
सन्ति । तस्मात् न धार्मिको ब्राह्मण इति ॥
तर्हि को वा ब्रह्मणो नाम । यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं
षडूर्मिषड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं
स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन
वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयं
अनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतळामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य
कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भाव मात्सर्य
तृष्णा आशा मोहादिरहितो दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत
एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति शृतिस्मृतीतिहासपुराणाभ्यामभिप्रायः
अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव ।
सच्चिदानान्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥
॥ इति वज्रसूच्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ भारतीरमणमुख्यप्राणंतर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
वराहोपनिषत्
श्रीमद्वाराहोपनिषद्वेद्याखण्डसुखाकृति ।
त्रिपान्नारायणाख्यं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधी तमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ अथ ऋभुर्वै महामुनिर्देवमानेन द्वादशवत्सरं
तपश्चचार । तदवसाने वराहरूपी भगवान्प्रादुरभूत् ।
स होवाचोत्तिष्ठोत्तिष्ठ वरं वृणीश्वेति । सोदतिष्ठत् ।
तस्मै नमस्कृत्योवाच भगवन्कामिभिर्यद्यत्कामितं
तत्तत्त्वत्सकाशात्स्वप्नेऽपि न याचे । समस्तवेदशास्त्रेतिहासपुराणानि
समस्तविद्याजालानि ब्रह्मादयः सुराः सर्वे त्वद्रूपज्ञानान्मुक्तिमाहुः ।
अतस्त्वद्रूपप्रतिपादिकां ब्रह्मविद्यां ब्रूहीति होवाच । तथेति स होवाच
वराहरूपी भगवान् । चतुर्विंशतितत्त्वानि केचिदिच्छन्ति वादिनः ।
केचित्षट्त्रिंशत्तत्त्वानि केचित्षण्णवतीनि च ॥ १॥
तेषां क्रमं प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ।
ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चैव श्रोत्रत्वग्लोचनादयः ॥ २॥
कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैव वाक्पाण्यङ्घ्र्यादयः क्रमात् ।
प्राणादतस्तु पञ्चैव पञ्च शब्दादयस्तथा ॥ ३॥
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तं चेति चतुष्टयम् ।
चतुर्विंशतितत्त्वानि तानि ब्रह्मविदो विदुः ॥ ४॥
एतैस्तत्त्वैः समं पञ्चीकृतभूतानि पञ्च च ।
पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च ॥ ५॥
देहत्रयं स्थूलसूक्ष्मकारणानि विदुर्बुधाः ।
अवस्थात्रितयं चैव जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः ॥ ६॥
आहत्य तत्त्वजातानां षट्त्रिंशन्मुनयो विदुः ।
पूर्वोक्तैस्तत्त्वजातैस्तु समं तत्त्वानि योजयेत् ॥ ७॥
षड्भावविकृतिश्चास्ति जायते वर्धतेऽपि च ।
परिणामं क्षयं नाशं षड्भावविकृतिं विदुः ॥ ८॥
अशना च पिपासा च शोकमोहौ जरा मृतिः ।
एते षडूर्मयः प्रोक्ताः षट्कोशानथ वच्मि ते ॥ ९॥
त्वक्च रक्तं मांसमेदोमज्जास्थीनि निबोधत ।
कामक्रोधौ लोभमोहौ मदो मात्सर्यमेव च ॥ १०॥
एतेऽरिषड्वा विश्वश्च तैजसः प्राज्ञ एव च ।
जीवत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि च गुणत्रयम् ॥ ११॥
प्रारब्धागाम्यर्जितानि कर्मत्रयमितीरितम् ।
वचनादानगमनविसर्गानन्दपञ्चकम् ॥ १२॥
सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च अभिमानोऽवधारणा ।
मुदिता करुणा मैत्री उपेक्षा च चतुष्टयम् ॥ १३॥
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवह्नीन्द्रोपेन्द्रमृत्युकाः ।
तथा चन्द्रश्चतुर्वक्त्रो रुद्रः क्षेत्रज्ञ ईश्वरः ॥ १४॥
आहत्य तत्त्वजातानां षण्णवत्यस्तु कीर्तिताः ।
पूर्वोक्ततत्त्वजातानां वैलक्षण्यमनामयम् ॥ १५॥
वराहरूपिणं मां ये भजन्ति मयि भक्तितः ।
विमुक्ताज्ञानतत्कार्या जीवन्मुक्ता भवन्ति ते ॥ १६॥
ये षण्णवतितत्त्वज्ञा यत्र कुत्राश्रमे रताः ।
जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ १७॥ इति॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
ऋभुर्नाम महायोगी क्रोडरूपं रमापतिम् ।
वरिष्ठां ब्रह्मविद्यां त्वमधीहि भगवन्मम ।
एवं स स्पृष्टो भगवान्प्राह भक्तार्तिभञ्जनः ॥ १॥
स्ववर्णाश्रमधर्मेण तपसा गुरुतोषणात् ।
साधनं प्रभवेत्पुंसां वैराग्यादिचतुष्टयम् ॥ २॥
नित्यानित्यविवेकश्च इहामुत्र विरागता ।
शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षा तां समभ्यसेत् ॥ ३॥
एवं जितेन्द्रियो भूत्वा सर्वत्र ममतामतिम् ।
विहाय साक्षिचैतन्ये मयि कुर्यादहंमतिम् ॥ ४॥
दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं तत्रापि नरविग्रहम् ।
ब्राह्मण्यं च महाविष्णोर्वेदान्तश्रवणादिना ॥ ५॥
अतिवर्णाश्रमं रूपं सच्चिदानन्दलक्षणम् ।
यो न जानाति सोऽविद्वान्कदा मुक्तो भविष्यति ॥ ६॥
अहमेव सुखं नान्यदन्यच्चेन्नैव तत्सुखम् ।
अमदर्थं न हि प्रेयो मदर्थं न स्वतःप्रियम् ॥ ७॥
परप्रेमास्पदतया मा न भूवमहं सदा ।
भूयासमिति यो द्रष्टा सोऽहं विष्णुर्मुनीश्वर ॥ ८॥
न प्रकाशोऽहमित्युक्तिर्यत्प्रकाशैकबन्धना ।
स्वप्रकाशं तमात्मानमप्रकाशः कथं स्पृशेत् ॥ ९॥
स्वयं भातं निराधारं ये जानन्ति सुनिश्चितम् ।
ते हि विज्ञानसम्पन्ना इति मे निश्चिता मतिः ॥ १०॥
स्वपूर्णात्मातिरेकेण जगज्जीवेश्वरादयः ।
न सन्ति नास्ति माया च तेभ्यश्चाहं विलक्षणः ॥ ११॥
अज्ञानान्धतमोरूपं कर्मधर्मादिलक्षणम् ।
स्वयंप्रकाशमात्मानं नैव मां स्प्रष्टुमार्हति ॥ १२॥
सर्वसाक्षिणमात्मानं वर्णाश्रमविवर्जितम् ।
ब्रह्मरूपतया पश्यन्ब्रह्मैव भवति स्वयम् ॥ १३॥
भासमानमिदं सर्वं मानरूपं परं पदम् ।
पश्यन्वेदान्तमानेन सद्य एव विमुच्यते ॥ १४॥
देहात्मज्ञानवज्ज्ञानं देहात्मज्ञानबाधकम् ।
आत्मन्येव भवेद्यस्य स नेच्छन्नपि मुच्यते ॥ १५॥
सत्यज्ञानानन्दपूर्णलक्षणं तमसः परम् ।
ब्रह्मानन्दं सदा पश्यन्कथं बध्येत कर्मणा ॥ १६॥
त्रिधामसाक्षिणं सत्यज्ञानानन्दादिलक्षणम् ।
त्वमहंशब्दलक्ष्यार्थमसक्तं सर्वदोषतः ॥ १७॥
सर्वगं सच्चिदात्मानं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते ।
अज्ञानचक्षुर्नेक्षेत भास्वन्तं भानुमन्धवत् ॥ १८॥
प्रज्ञानमेव तद्ब्रह्म सत्यप्रज्ञालक्षणम् ।
एवं ब्रह्मपरिज्ञानादेव मर्त्योऽमृतो भवेत् ॥ १९॥
तद्ब्रह्मानन्दमद्वन्द्वं निर्गुणं सत्यचिद्घनम् ।
विदित्वा स्वात्मनो रूपं न बिभेति कुतश्चन ॥ २०॥
चिन्मात्रं सर्वगं नित्यं सम्पूर्णं सुखमद्वयम् ।
साक्षाद्ब्रह्मैव नान्योऽस्तीत्येवं ब्रह्मविदां स्थितिः ॥ २१॥
अज्ञस्य दुःखौघमयं ज्ञस्यानन्दमयं जगत् ।
अन्धं भुवनमन्धस्य प्रकाशं तु सुचक्षुषाम् ॥ २२॥
अनन्ते सच्चिदानन्दे मयि वाराहरूपिणी ।
स्थितेऽद्वितीयभावः स्यात्को बन्धः कश्च मुच्यते ॥ २३॥
स्वस्वरूपं तु चिन्मात्रं सर्वदा सर्वदेहिनाम् ।
नैव देहादिसङ्घातो घटवद्दृशिगोचरः ॥ २४॥
स्वात्मनोऽन्यदिवाभातं चराचरमिदं जगत् ।
स्वात्ममात्रतया बुद्ध्वा तदस्मीति विभावय ॥ २५॥
स्वस्वरूपं स्वयं भुङ्क्ते नास्ति भोज्यं पृथक् स्वतः ।
अस्ति चेदस्तितारूपं ब्रह्मैवास्तित्वलक्षणम् ॥ २६॥
ब्रह्मविज्ञानसम्पन्नः प्रतीतमखिलं जगत् ।
पश्यन्नपि सदा नैव पश्यति स्वात्मनः पृथक् ॥ २७॥
मत्स्वरूपपरिज्ञानात्कर्मभिर्न स बध्यते ॥ २८॥
यः शरीरेन्द्रियादिभ्यो विहीनं सर्वसाक्षिणम् ।
परमार्थैकविज्ञानं सुखात्मानं स्वयंप्रभम् ॥ २९॥
स्वस्वरूपतया सर्वं वेद स्वानुभवेन यः ।
स धीरः स तु विज्ञेयः सोऽहं तत्त्वं ऋभो भव ॥ ३०॥
अतः प्रपञ्चानुभवः सदा न हि
स्वरूपबोधानुभवः सदा खलु ।
इति प्रपश्यन्परिपूर्णवेदनो
न बन्धमुक्तो न च बद्ध एव तु ॥ ३१॥
स्वस्वरूपानुसन्धानान्नृत्यन्तं सर्वसाक्षिणम् ।
मुहूर्तं चिन्तयेन्मां यः सर्वबन्धैः प्रमुच्यते ॥ ३२॥
सर्वभूतान्तरस्थाय नित्यमुक्तचिदात्मने ।
प्रत्यक्चैतन्यरूपाय मह्यमेव नमोनमः ॥ ३३॥
त्वं वहमस्मि भगवो देवतेऽहं वै त्वमसि ।
तुभ्यं मह्यमनन्ताय मह्यं तुभ्यं चिदात्मने ॥ ३४॥
नमो मह्यं परेशाय नमस्तुभ्यं शिवाय च ।
किं करोमि क्व गच्छामि किं गृह्णामि त्यजामि किम् ॥ ३५॥
यन्मया पूरितं विश्वं महाकल्पांबुना यथा ।
अन्तःसङ्गं बहिःसङ्गमात्मसङ्गं च यस्त्यजेत् ।
सर्वसङ्गनिवृत्तात्मा स मामेति न संशयः ॥ ३६॥
अहिरिव जनयोगं सर्वदा वर्जयेद्यः
कुणपमिव सुनारीं त्यक्तुकामो विरागी ।
विषमिव विषयादीन्मन्यमानो दुरन्ता-
ञ्जगति परमहंसो वासुदेवोऽहमेव ॥ ३७॥
इदं सत्यमिदं सत्यं सत्यमेतदिहोच्यते ।
अहं सत्यं परं ब्रह्म मत्तः किञ्चिन्न विद्यते ॥ ३८॥
उप समीपे यो वासो जीवात्मपरमात्मनोः ।
उपवासः स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम् ॥ ३९॥
कायशोषणमात्रेण का तत्र ह्यविवेकिनाम् ।
वल्मीकताडनादेव मृतः किं नु महोरगः ॥ ४०॥
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद परोक्षज्ञानमेव तत् ।
अहं ब्रह्मेति चेद्वेद साक्षात्कारः स उच्यते ॥ ४१॥
यस्मिन्काले स्वमात्मानं योगी जानाति केवलम् ।
तस्मात्कालात्समारभ्य जीवन्मुक्तो भयेदसौ ॥ ४२॥
अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् ।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च ॥ ४३॥
ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ।
बाह्यचिन्ता न कर्तव्या तथैवान्तरचिन्तिका ।
सर्वचिन्तां समुत्सृज्य स्वस्थो भव सदा ऋभो ॥ ४४॥
सङ्कल्पमात्रकलनेन जगत्समग्रं
सङ्कल्पमात्रकलने हि जगद्विलासः ।
सङ्कल्पमात्रमिदमुत्सृज निर्विकल्प-
माश्रित्य मामकपदं हृदि भावयस्व ॥ ४५॥
मच्चिन्तनं मत्कथनमन्योन्यं मत्प्रभाषणम् ।
मदेकपरमो भूत्वा कालं नय महामते ॥ ४६॥
चिदिहास्तीति चिन्मात्रमिदं चिन्मयमेव च ।
चित्त्वं चिदहमेते च लोकाश्चिदिति भावय ॥ ४७॥
रागं नीरागतां नीत्वा निर्लेपो भव सर्वदा ।
अज्ञानजन्यकर्त्रादिकारकोत्पन्नकर्मणा ॥ ४८॥
श्रुत्युत्पन्नात्मविज्ञानप्रदीपो बाध्यते कथम् ।
अनात्मनां परित्यज्य निर्विकारो जगत्स्थितौ ॥ ४९॥
एकनिष्ठतयान्तस्थसंविन्मात्रपरो भव ।
घटाकाशमठाकाशौ महाकाशे प्रतिष्ठितौ ॥ ५०॥
एवं मयि चिदाकाशे जीवेशौ परिकल्पितौ ।
या च प्रागात्मनो माया तथान्ते च तिरस्कृता ॥ ५१॥
ब्रह्मवादिभिरुद्गीता सा मायेति विवेकतः ।
मायातत्कार्यविलये नेश्वरत्वं न जीवता ॥ ५२॥
ततः शुद्धश्चिदेवाहं व्योमवन्निरुपाधिकः ।
जीवेश्वरादिरूपेण चेतनाचेतनात्मकम् ॥ ५३॥
ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन कल्पिता ।
जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः ॥ ५४॥
त्रिणाचिकादियोगान्ता ईश्वरभ्रान्तिमाश्रिताः ।
लोकायतादिसाङ्ख्यान्ता जीवविश्रान्तिमाश्रिताः ॥ ५५॥
तस्मान्मुमुक्षिभिर्नैव मतिर्जीवेशवादयोः ।
कार्या किन्तु ब्रह्मतत्त्वं निश्चलेन विचार्यताम् ॥ ५६।
अद्वितीयब्रह्मतत्त्वं न जानन्ति यथा तथा ।
भ्रान्ता एवाखिलास्तेषां क्व मुक्तिः क्वेह वा सुखम् ॥ ५७॥
उत्तमाधमभावश्चेत्तेषां स्यादस्ति तेन किम् ।
स्वप्नस्थराज्यभिक्षाभ्यां प्रबुद्धः स्पृशते खलु ॥ ५८॥
अज्ञाने बुद्धिविलये निद्रा सा भण्यते बुधैः ।
विलीनाज्ञानतत्कार्ये मयि निद्रा कथं भवेत् ॥ ५९॥
बुद्धेः पूर्णविकासोऽयं जागरः परिकीर्त्यते ।
विकारादिविहीनत्वाज्जागरो मे न विद्यते ॥ ६०॥
सूक्ष्मनाडिषु सञ्चारो बुद्धेः स्वप्नः प्रजायते ।
सञ्चारधर्मरहिते मयि स्वप्नो न विद्यते ॥ ६१॥
सुषुप्तिकाले सकले विलीने तमसावृते ।
स्वरूपं महदानन्दं भुङ्क्ते विश्वविवर्जितः ॥ ६२॥
अविशेषेण सर्वं तु यः पश्यति चिदन्वयात् ।
स एव साक्षाद्विज्ञानी स शिवः स हरिर्विधिः ॥ ६३॥
दीर्घस्वप्नमिदं यत्तद्दीर्घं वा चित्तविभ्रमम् ।
दीर्घं वापि मनोराज्यं संसारं दुःखसागरम् ।
सुप्तेरुत्थाय सुप्त्यन्तं ब्रह्मैकं प्रविचिन्त्यताम् ॥ ६४॥
आरोपितस्य जगतः प्रविलापनेन
चित्तं मदात्मकतया परिकल्पितं नः ।
शत्रून्निहत्य गुरुषट्कगणान्निपाता-
द्गन्धद्विपो भवति केवलमद्वितीयः ॥ ६५॥
अद्यास्तमेतु वपुराशशितारमास्तां
कस्तावतापि मम चिद्वपुषो विशेषः ।
कुम्भे विनश्यति चिरं समवस्थिते वा
कुम्भाम्बरस्य नहि कोऽपि विशेषलेशः ॥ ६६॥
अहिनिर्ल्वयनी सर्पनिर्मोको जीववर्जितः ।
वल्मीके पतितस्तिष्ठेत्तं सर्पो नाभिमन्यते ॥ ६७॥
एवं स्थूलं च सूक्ष्मं च शरीरं नाभिमन्यते ।
प्रत्यग्ज्ञानशिखिध्वस्ते मिथ्याज्ञाने सहेतुके ।
नेति नेतीति रूपत्वादशरीरो भवत्ययम् ॥ ६८॥
शास्त्रेण न स्यात्परमार्थदृष्टिः
कार्यक्षमं पश्यति चापरोक्षम् ।
प्रारब्धनाशात्प्रतिभाननाश
एवं त्रिधा नश्यति चात्ममाया ॥ ६९॥
ब्रह्मत्वे योजिते स्वामिञ्जीवभावो न गच्छति ।
अद्वैते बोधिते तत्त्वे वासना विनिवर्तते ॥ ७०॥
प्रारब्धान्ते देहहानिर्मायेति क्षीयतेऽखिला ।
अस्तीत्युक्ते जगत्सर्वं सद्रसं ब्रह्म तद्भवेत् ॥ ७१॥
भातीत्युक्ते जगत्सर्वं भानं ब्रह्मैव केवलम् ।
मरुभूमौ जलं सर्वं मरुभूमात्रमेव तत् ।
जगत्त्रयमिदं सर्वं चिन्मात्रं स्वविचारतः ॥ ७२॥
अज्ञानमेव न कुतो जगतः प्रसङ्गो
जीवेशदेशिकविकल्पकथातिदूरे ।
एकान्तकेवलचिदेकरसस्वभावे
ब्रह्मैव केवलमहं परिपूर्णमस्मि ॥ ७३॥
बोधचन्द्रमसि पूर्णविग्रहे
मोहराहुमुषितात्मतेजसि ।
स्नानदानयजनादिकाः
क्रिया मोचनावधि वृथैव तिष्ठते ॥ ७४॥
सलिले सैन्धवं यद्वत्साम्यं भवति योगतः ।
तथात्ममनसोरैक्यं समाधिरिति कथ्यते ॥ ७५॥
दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ॥ ७६॥
उत्पन्नशक्तिबोधस्य त्यक्तनिःशेषकर्मणः ।
योगिनः सहजावस्था स्वयमेव प्रकाशते ॥ ७७॥
रसस्य मनसश्चैव चञ्चलत्वं स्वभावतः ।
रसो बद्धो मनो बद्धं किं न सिद्ध्यति भूतले ॥ ७८॥
मूर्च्छितो हरति व्याधिं मृतो जीवयति स्वयम् ।
बद्धः खेचरतां धत्ते ब्रह्मत्वं रसचेतसि ॥ ७९॥
इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः ।
मारुतस्य लयो नाथस्तन्नाथं लयमाश्रय ॥ ८०॥
निश्चेष्टो निर्विकारश्च लयो जीवति योगिनाम् ।
उच्छिन्नसर्वसङ्कल्पो निःशेषाशेषचेष्टितः ।
स्वावगम्यो लयः कोऽपि मनसां वागगोचरः ॥ ८१॥
पुङ्खानुपुङ्खविषयेक्षणतत्परोऽपि
ब्रह्मावलोकनधियं न जहाति योगी ।
सङ्गीतताललयवाद्यवशं गतापि
मौलिस्थकुम्भपरिरक्षणधीर्नटीव ॥ ८२॥
सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ॥ ८३॥
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
नहि नानास्वरूपं स्यादेकं वस्तु कदाचन ।
तस्मादखण्ड एवास्मि यन्मदन्यन्न किञ्चन ॥ १॥
दृश्यते श्रूयते यद्यद्ब्रह्मणोऽन्यन्न तद्भवेत् ।
नित्यशुद्ध विमुक्तैकमखण्डानन्दमद्वयम् ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्परं ब्रह्माहमेव तत् ॥ २॥
आनन्दरूपोऽहमखण्डबोधः
परात्परोऽहं घनचित्प्रकाशः ।
मेघा यथा व्योम न च स्पृशन्ति
संसारदुःखानि न मां स्पृशन्ति ॥ ३॥
सर्वं सुखं विद्धि सुदुःखनाशा-
त्सर्वं च सद्रूपमसत्यनाशात् ।
चिद्रूपमेव प्रतिभानयुक्तं
तस्मादखण्डं मम रूपमेतत् ॥ ४॥
न हि जनिर्मरणं गमनागमौ
न च मलं विमलं न च वेदनम् ।
चिन्मयं हि सकलं विराजते
स्फुटतरं परमस्य तु योगिनः ॥ ५॥
सत्यचिद्घनमखण्डमद्वयं
सर्वदृश्यरहितं निरामयम् ।
यत्पदं विमलमद्वयं शिवं
तत्सदाहमिति मौनमाश्रय ॥ ६॥
जन्ममृत्युसुखदुःखवर्जितं
जातिनीतिकुलगोत्रदूरगम् ।
चिद्विवर्तजगतोऽस्य कारणं
तत्सदाहमिति मौनमाश्रय ॥ ७॥
पूर्णमद्वयमखण्डचेतनं
विश्वभेदकलनादिवर्जितम् ।
अद्वितीयपरसंविदंशकं
तत्सदाहमिति मौनमाश्रय ॥ ८॥
केनाप्यबाधितत्वेन त्रिकालेऽप्येकरूपतः ।
विद्यमानत्वमस्त्येतत्सद्रूपत्वं सदा मम ॥ ९॥
निरुपाधिकनित्यं यत्सुप्तौ सर्वसुखात्परम् ।
सुखरूपत्वमस्त्येतदानन्दत्वं सदा मम ॥ १०॥
दिनकरकिरणैर्हि शार्वरं तमो
निबिडतरं झटिति प्रणाशमेति ।
घनतरभवकारणं तमो यद्द्-
हरिदिनकृत्प्रभया न चान्तरेण ॥ ११॥
मम चरणस्मरणेन पूजया च
स्वकतमसः परिमुच्यते हि जन्तुः ।
न हि मरणप्रभवप्रणाशहेतु-
र्मम चरणस्मरणादृतेऽस्ति किञ्चित् ॥ १२॥
आदरेण यथा स्तौति धनवन्तं धनेच्छया ।
तथा चेद्विश्वकर्तारं को न मुच्येत बन्धनात् ॥ १३॥
आदित्यसन्निधौ लोकश्चेष्टते स्वयमेव तु ।
तथा मत्सन्निधावेव समस्तं चेष्टते जगत् ॥ १४॥
शुक्तिकाया यथा तारं कल्पितं मायया तथा ।
महदादि जगन्मायामयं मय्येव केवलम् ॥ १५॥
चण्डालदेहे पश्वादिस्थावरे ब्रह्मविग्रहे ।
अन्येषु तारतम्येन स्थितेषु न तथा ह्यहम् ॥ १६॥
विनष्टदिग्भ्रमस्यापि यथापूर्वं विभाति दिक् ।
तथा विज्ञानविध्वस्तं जगन्मे भाति तन्न हि ॥ १७॥
न देहो नेन्द्रियप्राणो न मनोबुद्ध्यहंकृति ।
न चित्तं नैव माया च न च व्योमादिकं जगत् ॥ १८॥
न कर्ता नैव भोक्ता च न च भोजयिता तथा ।
केवलं चित्सदानन्दब्रह्मैवाहं जनार्दनः ॥ १९॥
जलस्य चलनादेव चञ्चलत्वं यथा रवेः ।
तथाहङ्कारसम्बधादेव संसार आत्मनः ॥ २०॥
चित्तमूलं हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत् ।
हन्त चित्तमहत्तायां कैषा विश्वासता तव ॥ २१॥
क्व धनानि महीपानां ब्रह्मणः क्व जगन्ति वा ।
प्राक्तनानि प्रयातानि गताः सर्गपरम्परः ।
कोटयो ब्रह्मणां याता भूपा नष्टाः परागवत् ॥ २२॥
स चाध्यात्माभिमानोऽपि विदुषोऽयासुरत्वतः ।
विदुषोऽप्यासुरश्चेत्स्यान्निष्फलं तत्त्वदर्शनम् ॥ २३॥
उत्पाद्यमाना रागाद्या विवेकज्ञानवह्निना ।
यदा तदैव दह्यन्ते कुतस्तेषां प्ररोहणम् ॥ २४॥
यथा सुनिपुणः सम्यक् परदोषेक्षणे रतः ।
तथा चेन्निपुणः स्वेषु को न मुच्येत बन्धनात् ॥ २५॥
अनात्मविदमुक्तोऽपि सिद्धिजालानि वाञ्छति ।
द्रव्यमन्त्रक्रियाकालयुक्त्याप्नोति मुनीश्वर ॥ २६॥
नात्मज्ञस्यैष विषय आत्मज्ञो ह्यात्ममात्रदृक् ।
आत्मनात्मनि सन्तृप्तो नाविद्यामनुधावति ॥ २७॥
ये केचन जगद्भावास्तानविद्यामयान्विदुः ।
कथं तेषु किलात्मज्ञस्त्यक्ताविद्यो निमज्जति ॥ २८॥
द्रव्यमन्त्रक्रियाकालयुक्तयः साधुसिद्धिदाः ।
परमात्मपदप्राप्तौ नोपकुर्वन्ति काश्चन ॥ २९॥
सर्वेच्छाकलनाशान्तावात्मलाभोदयाभिधः ।
स पुनः सिद्धिवाञ्छायां कथमर्हत्यचित्ततः ॥ ३०॥ इति॥
इति तृतीयोध्यायः ॥ ३॥
अथ ह ऋभुं भगवन्तं निदाघः पप्रच्छ जीवन्मुक्तिलक्षणमनुब्रूहीति ।
तथेति स होवाच । सप्तभूमिषु जीवन्मुक्ताश्चत्वारः ।
शुभेच्छा प्रथमा भूमिका भवति । विचारणा द्वितीया । तनुमानसी तृतीया ।
सत्त्वापत्तिस्तुरीया । असंसक्तिः पञ्चमी । पदार्थभावना षष्ठी । तुरीयगा सप्तमी ।
प्रणवात्मिका भूमिका अकारोकारमकारार्धमात्रात्मिका । स्थूलसूक्ष्मबीजसाक्षिभेदेनाकारादयश्चतुर्विधाः ।
तदवस्था जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयाः ।
अकारस्थूलांशे जाग्रद्विश्वः ।
सूक्ष्मांशे तत्तैजसः । बीजांशे तत्प्राज्ञः । साक्ष्यंशे तत्तुरीयः ।
उकारस्थूलांशे स्वप्नविश्वः ।
सूक्ष्मांशे तत्तैजसः । बीजांशे तत्प्राज्ञः । साक्ष्यंशे तत्तुरीयः ।
मकारस्थूलांशे सुषुप्तविश्वः ।
सूक्ष्मांशे तत्तैजसः । बीजांशे तत्प्राज्ञः । साक्ष्यंशे तत्तुरीयः ।
अर्धमात्रास्थूलांशे तुरीयविश्वः ।
सूक्ष्मांशे तत्तैजसः । बीजांशे तत्प्राज्ञः । साक्ष्यंशे तुरीयतुरीयः ।
अकारतुरीयांशाः प्रथमद्वितीयतृतीयभूमिकाः ।
उकारतुरीयांशा चतुर्थी भूमिका ।
मकारतुरीयांशा पञ्चमी ।
अर्धमात्रातुरीयांशा षष्ठी ।
तदतीता सप्तमी ।
भूमित्रयेषु विहरन्मुमुक्षुर्भवति ।
तुरीयभूम्यां विहरन्ब्रह्मविद्भवति ।
पञ्चमभूम्यां विहरन्ब्रह्मविद्वरो भवति ।
षष्ठभूम्यां विहरन्ब्रह्मविद्वरीयान्भवति ।
सप्तमभूम्यां विहरन्ब्रह्मविद्वरिष्ठो भवति ।
तत्रैते श्लोका भवन्ति ।
ज्ञानभूमिः शुभेच्छा स्यात्प्रथमा समुदीरिता ।
विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा ॥ १॥
सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका ।
पदार्थभावना षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ २॥
स्थितः किं मूढ एवास्मि प्रेक्ष्योऽहं शास्त्रसज्जनैः ।
वैराग्यपूर्णमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः ॥ ३॥
शास्त्रसज्जनसम्पर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् ।
सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा ॥ ४॥
विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेषु रक्तता ।
यत्र सा तनुतामेति प्रोच्यते तनुमानसी ॥ ५॥
भूमिकात्रितयाभ्यासाचित्तेऽर्थविरतेर्वशात् ।
सत्वात्मनि स्थिते शुद्धे सत्त्वापत्तिरुदाहृता ॥ ६॥
दशाचतुष्टयाभ्यासादसंसर्गफला तु या ।
रूढसत्त्वचमत्कारा प्रोक्ता संसक्तिनामिका ॥ ७॥
भूमिकापञ्चकाभ्यासात्स्वात्मारामतया भृशम् ।
आभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ॥ ८॥
परप्रयुक्तेन चिरं प्रत्ययेनावबोधनम् ।
पदार्थभावनानाम षष्ठी भवति भूमिका ॥ ९॥
षड्भूमिकाचिराभ्यासद्भेदस्यानुपलम्भनात् ।
यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ १०॥
शुभेच्छादित्रयं भूमिभेदाभेदयुतं स्मृतम् ।
यथावद्वेद बुद्ध्येदं जगज्जाग्रति दृश्यते ॥ ११॥
अद्वैते स्थैर्यमायाते द्वैते च प्रशमं गते ।
पश्यन्ति स्वप्नवल्लोकं तुर्यभूमि सुयोगतः ॥ १२॥
विच्छिन्नशरदभ्रांशविलयं प्रविलीयते ।
सत्वावशेष एवास्ते हि निदाघ दृढीकुरु ॥ १३॥
पञ्चभूमिं समारुह्य सुषुप्तिपदनामिकाम् ।
शान्ताशेषविशेषांशस्तिष्ठत्यद्वैतमात्रके ॥ १४॥
अन्तर्मुखतया नित्यं बहिर्वृत्तिपरोऽपि सन् ।
परिश्रान्ततया नित्यं निद्रालुरिव लक्ष्यते ॥ १५॥
कुर्वन्नभ्यासमेतस्यां भूम्यां सम्यग्विवासनः ।
सप्तमी गाढसुप्ताख्या क्रमप्राप्ता पुरातनी ॥ १६॥
यत्र नासन्न सद्रूपो नाहं नाप्यनहंकृतिः ।
केवलं क्षीणमनन आस्तेऽद्वैतेऽतिनिर्भयः ॥ १७॥
अन्तःशून्यो बहिःशून्यः शून्यकुम्भ इवाम्बरे ।
अन्तःपूर्णो बहिःपूर्णः पूर्णकुम्भ इवार्णवे ॥ १८॥
मा भव ग्राह्यभावात्मा ग्राहकात्मा च मा भव ।
भावनामखिलां त्यक्त्वा यच्छिष्टं तन्मयो भव ॥ १९॥
द्र्ष्टृदर्शनदृश्यानि त्यक्त्वा वासनया सह ।
दर्शनप्रथमाभासमात्मानं केवलं भज ॥ २०॥
यथास्थितमिदं यस्य व्यवहारयतोऽपि च ।
अस्तङ्गतं स्थितं व्योम स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २१॥
नोदेति नास्तमायाति सुखे दुःखे मनःप्रभा ।
यथाप्राप्तस्थितिर्यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २२॥
यो जागर्ति सुषुप्तिस्थो यस्य जाग्रन्न विद्यते ।
यस्य निर्वासनो बोधः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २३॥
रागद्वेषभयादीनामनुरूपं चरन्नपि ।
योऽन्तर्व्योमवदच्छन्नः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २४॥
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
कुर्वतोऽकुर्वतो वापि स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २५॥
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोन्मुक्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २६॥
यः समस्तार्थजालेषु व्यवहार्यपि शीतलः ।
परार्थेष्विव पूर्णात्मा स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २७॥
प्रजहाति यदा कामान्सर्वांश्चित्तगतान्मुने ।
मयि सर्वात्मके तुष्टः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २८॥
चैत्यवर्जितचिन्मात्रे पदे परमपावने ।
अक्षुब्धचित्तो विश्रान्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ २९॥
इदं जगदहं सोऽयं दृश्यजातमवास्तवम् ।
यस्य चित्ते न स्फुरति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ३०॥
सद्ब्रह्मणि स्थिरे स्फारे पूर्णे विषयवर्जिते ।
आचार्यशास्त्रमार्गेण प्रविश्याशु स्थिरो भव ॥ ३१॥
शिवो गुरुः शिवो वेदः शिव देवः शिवः प्रभुः ।
शिवोऽस्म्यहं शिवः सर्वं शिवदन्यन्न किञ्चन ॥ ३२॥
तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ।
नानुध्यायाद्बहूञ्छब्दान्वाचो विग्लापनं हि तत् ॥ ३३॥
शुको मुक्तो वामदेवोऽपि मुक्त-
स्ताभ्यां विना मुक्तिभाजो न सन्ति ।
शुकमार्गं येऽनुसरन्ति धीराः
सद्यो मुक्तास्ते भवन्तीह लोके ॥ ३४॥
वामदेवं येऽनुसरन्ति नित्यं
मृत्वा जनित्वा च पुनःपुनस्तत् ।
ते वै लोके क्रममुक्ता भवन्ति
योगैः साङ्ख्यैः कर्मभिः सत्त्वयुक्तैः ॥ ३५॥
शुकश्च वामदेवश्च द्वे सृती देवनिर्मिते ।
शुकः विहङ्गमः प्रोक्तो वामदेवः पिपीलिका ॥ ३६॥
अतद्व्यावृत्तिरूपेण साक्षाद्विधिमुखेन वा ।
महावाक्यविचारेण साङ्ख्ययोगसमाधिना ॥ ३७॥
विदित्वा स्वात्मनो रूपं सम्प्रज्ञातसमाधितः ।
शुकमार्गेण विरजाः प्रयान्ति परमं पदम् ॥ ३८॥
यमाद्यासनजायासहठाभ्यासात्पुनःपुनः ।
विघ्नबाहुल्यसञ्जात अणिमादिवशादिह ॥ ३९॥
अलब्ध्वापि फलं सम्यक्पुनर्भूत्वा महाकुले ।
पुनर्वासनयैवायं योगाभ्यासं पुनश्चरन् ॥ ४०॥
अनेकजन्माभ्यासेन वामदेवेन वै पथा ।
सोऽपि मुक्तिं समाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ४१॥
द्वाविमावपि पन्थानौ ब्रह्मप्राप्तिकरौ शिवौ ।
सद्योमुक्तिप्रदश्चैकः क्रममुक्तिप्रदः परः ।
अत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥ ४२॥
यस्यानुभवपर्यन्ता बुद्धिस्तत्त्वे प्रवर्तते ।
तद्दृष्टिगोचराः सर्वे मुच्यन्ते सर्वपातकैः ॥ ४३॥
खेचरा भूचराः सर्वे ब्रह्मविद्दृष्टिगोचराः ।
सद्य एव विमुच्यन्ते कोटिजन्मार्जितैरघैः ॥ ४४॥ इति॥
इति चतुर्थोऽद्यायः ॥ ४॥
अथ हैनं ऋभुं भगवन्तं निदाघः पप्रच्छ
योगाभ्यासविधिमनुब्रूहीति । तथेति स होवाच ।
पञ्चभूतात्मको देहः पञ्चमण्डलपूरितः ।
काठिन्यं पृथिवीमेका पानीयं तद्द्रवाकृति ॥ १॥
दीपनं च भवेत्तेजः प्रचारो वायुलक्षणम् ।
आकाशः सत्त्वतः सर्वं ज्ञातव्यं योगमिच्छता ॥ २॥
षट्शतान्यधिकान्यत्र सहस्राण्येकविंशतिः ।
अहोरात्रवहिः श्वासैर्वायुमण्डलघाततः ॥ ३॥
तत्पृथ्वीमण्डले क्षीणे वलिरायाति देहिनाम् ।
तद्वदापो गणापाये केशाः स्युः पाण्डुराः क्रमात् ॥ ४॥
तेजःक्षये क्षुधा कान्तिर्नश्यते मारुतक्षये ।
वेपथुः संभवेन्नित्यं नाम्भसेनैव जीवति ॥ ५॥
इत्थंभूतं क्षयान्नित्यं जीवितं भूतधारणम् ।
उड्ड्याणं कुरुते यस्मादविश्रान्तं महाखगः ॥ ६॥
उड्डियाणं तदेव स्यात्तत्र बन्धोऽभिधीयते ।
उड्डियाणो ह्यसौ बन्धो मृत्युमातङ्गकेशरी ॥ ७॥
तस्य मुक्तिस्तनोः कायात्तस्य बन्धो हि दुष्करः ।
अग्नौ तु चालिते कुक्षौ वेदना जायते भृशम् ॥ ८॥
न कार्या क्षुधि तेनापि नापि विण्मूत्रवेगिना ।
हितं मितं च भोक्तव्यं स्तोकं स्तोकमनेकधा ॥ ९॥
मृदुमध्यममन्त्रेषु क्रमान्मन्त्रं लयं हठम् ।
लयमन्त्रहठा योगा योगो ह्यष्टाङ्गसंयुतः ॥ १०॥
यमश्च नियमश्चैव तथा चासनमेव च ।
प्राणायमस्तथा पश्चात्प्रत्याहारस्तथा परम् ॥ ११॥
धारणा च तथा ध्यानं समधिश्चाष्टमो भवेत् ।
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं दयार्जवम् ॥ १२॥
क्षमा धृतिर्मिताहारः शौचं चेति यमा दश ।
तपः सन्तोषमास्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम् ॥ १३॥
सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो व्रतम् ।
एते हि नियमाः प्रोक्ता दशधैव महामते ॥ १४॥
एकादशासनानि स्युश्चक्रादि मुनिसत्तम ।
चक्रं पद्मासनं कूर्मं मयूरं कुक्कुटं तथा ॥ १५॥
वीरासनं स्वस्तिकं च भद्रं सिंहासनं तथा ।
मुक्तासनं गोमुखं च कीर्तितं योगवित्तमैः ॥ १६॥
सव्योरु दक्षिणे गुल्फे दक्षिणं दक्षिणेतरे ।
निदध्यादृजुकायस्तु चक्रासनमिदं मतम् ॥ १७॥
पूरकः कुम्भकस्तद्वद्रेचकः पूरकः पुनः ।
प्राणायामः स्वनाडीभिस्तस्मान्नाडीः प्रचक्षते ॥ १८॥
शरीरं सर्वजन्तूनां षण्णवत्यङ्गुलात्मकम् ।
तन्मध्ये पायुदेशात्तु द्व्यङ्गुलात्परतः परम् ॥ १९॥
मेढ्रदेशादधस्तात्तु द्व्यङ्गुलान्मध्यमुच्यते ।
मेढ्रान्नवाङ्गुलादूर्ध्वं नाडीनां कन्दमुच्यते ॥ २०॥
चतुरङ्गुलमुत्सेधं चतुरङ्गुलमायतम् ।
अण्डाकारं परिवृतं मेदोमज्जास्थिशोणितैः ॥ २१॥
तत्रैव नाडीचक्रं तु द्वादशारं प्रतिष्ठितम् ।
शरीरं ध्रियते येन वर्तते तत्र कुण्डली ॥ २२॥
ब्रह्मरन्ध्रं सुषुम्णा या वदनेन पिधाय सा ।
अलम्बुसा सुषुम्णायाः कुहूर्नाडी वसत्यसौ ॥ २३॥
अनन्तरारयुग्मे तु वारुणा च यशस्विनी ।
दक्षिणारे सुषुम्णायाः पिङ्गला वर्तते क्रमात् ॥ २४॥
तदन्तरारयोः पूषा वर्तते च पयस्विनी ।
सुषुम्ना पश्चिमे चारे स्थिता नाडी सरस्वती ॥ २५॥
शङ्खिनी चैव गान्धारी तदनन्तरयोः स्थिते ।
उत्तरे तु सुषुम्नाया इडाख्या निवसत्यसौ ॥ २६॥
अनन्तरं हस्तिजिह्वा ततो विश्वोदरी स्थिता ।
प्रदक्षिणक्रमेणैव चक्रस्यारेषु नाडयः ॥ २७॥
वर्तन्ते द्वादश ह्येता द्वादशानिलवाहकाः ।
पटवत्संस्थिता नाड्यो नानावर्णाः समीरिताः ॥ २८॥
पटमध्यं तु यत्स्थानं नाभिचक्रं तदुच्यते ।
नादाधारा समाख्याता ज्वलन्ती नादरूपिणी ॥ २९॥
पररन्ध्रा सुषुम्ना च चत्वारो रत्नपूरिताः ।
कुण्डल्या पिहितं शश्वद्ब्रह्मरन्ध्रस्य मध्यमम् ॥ ३०॥
एवमेतासु नाडीषु धरन्ति दशवायवः ।
एवं नाडीगतिं वायुगतिं ज्ञात्वा विचक्षणः ॥ ३१॥
समग्रीवशिरः कायः संवृतास्यः सुनिश्चलः ।
नासाग्रे चैव हृन्मध्ये बिन्दुमध्ये तुरीयकम् ॥ ३२॥
स्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्राभ्यां सुसमाहितः ।
अपानं मुकुलीकृत्य पायुमाकृष्य चोन्मुखम् ॥ ३३॥
प्रणवेन समुत्थाप्य श्रीबीजेन निवर्तयेत् ।
स्वात्मानं च श्रियं ध्यायेदमृतप्लावनं तथा ॥ ३४॥
कालवञ्चनमेतद्धि सर्वमुख्यं प्रचक्षते ।
मनसा चिन्तिता कार्यं मनसा येन सिध्यति ॥ ३५॥
जलेऽग्निज्वलनाच्छाखापल्लवानि भवन्ति हि ।
नाधन्यं जागतं वाक्यं विपरीता भवेत्क्रिया ॥ ३६॥
मार्गे बिन्दुं समाबध्य वह्निं प्रज्वाल्य जीवने ।
शोषयित्वा तु सलिलं तेन कायं दृढं भवेत् ॥ ३७॥
गुदयोनिसमायुक्त आकुञ्चत्येककालतः ।
अपानमूर्ध्वगं कृत्वा समानोन्ने नियोजयेत् ॥ ३८॥
स्वात्मानं च श्रियं ध्यायेदमृतप्लावनं ततः ।
बलं समारभेद्योगं मध्यमद्वारभागतः ॥ ३९॥
भावयेदूर्ध्वगत्यर्थं प्राणापानसुयोगतः ।
एष योगो वरो देहे सिद्धिमार्गप्रकाशकः ॥ ४०॥
यथैवापाङ्गतः सेतुः प्रवाहस्य निरोधकः ।
तथा शरीरगा च्छाया ज्ञातव्या योगिभिः सदा ॥ ४१॥
सर्वासामेव नाडीनामेष बन्धः प्रकीर्तितः ।
बन्धस्यास्य प्रसादेन स्फुटीभवति देवता ॥ ४२॥
एवं चतुष्पथो बन्धो मार्गत्रयनिरोधकः ।
एकं विकासयन्मार्गं येन सिद्धाः सुसङ्गताः ॥ ४३॥
उदानमूर्ध्वगं कृत्वा प्राणेन सह वेगतः ।
बन्धोऽयं सर्वनाडीनामूर्ध्वं याति निरोधकः ॥ ४४॥
अयं च सम्पुटो योगो मूलबन्धोऽप्ययं मतः ।
बन्धत्रयमनेनैव सिद्ध्यत्यभ्यासयोगतः ॥ ४५॥
दिवारात्रमविच्छिन्नं यामेयामे यदा यदा ।
अनेनाभ्यासयोगेन वायुरभ्यसितो भवेत् ॥ ४६॥
वायावभ्यसिते वह्निः प्रत्यहं वर्धते तनौ ।
वह्नौ विवर्धमाने तु सुखमन्नादि जीर्यते ॥ ४७॥
अन्नस्य परिपाकेन रसवृद्धिः प्रजायते ।
रसे वृद्धिं गते नित्यं वर्धन्ते धातवस्तथा ॥ ४८॥
धातूनां वर्धनेनैव प्रबोधो वर्तते तनौ ।
दह्यन्ते सर्वपापानि जन्मकोट्यर्जितानि च ॥ ४९॥
गुदमेढ्रान्तरालस्थं मूलाधारं त्रिकोणकम् ।
शिवस्य बिन्दुरूपस्य स्थानं तद्धि प्रकाशकम् ॥ ५०॥
यत्र कुण्डलिनी नाम परा शक्तिः प्रतिष्ठिता ।
यस्मादुत्पद्यते वायुर्यस्माद्वह्निः प्रवर्धते ॥ ५१॥
यस्मादुत्पद्यते बिन्दुर्यस्मान्नादः प्रवर्धते ।
यस्मादुत्पद्यते हंसो यस्मादुत्पद्यते मनः ॥ ५२॥
मूलाधारादिषट्चक्रं शक्तिस्थानमुदीरितम् ।
कण्ठादुपरि मूर्धान्तं शांभवं स्थानमुच्यते ॥ ५३॥
नाडीनामाश्रयः पिण्डो नाड्यः प्राणस्य चाश्रयः ।
जीवस्य निलयः प्राणो जीवो हंसस्य चाश्रयः ॥ ५४॥
हंसः शक्तेरधिष्ठानं चराचरमिदं जगत् ।
निर्विकल्पः प्रसन्नात्मा प्राणायां समभ्यसेत् ॥ ५५॥
सम्यग्बन्धत्रयस्थोऽपि लक्ष्यलक्षणकारणम् ।
वेद्यं समुद्धरेन्नित्यं सत्यसन्धानमानसः ॥ ५६॥
रेचकं पूरकं चैव कुम्भमध्ये निरोधयेत् ।
दृश्यमाने परे लक्ष्ये ब्रह्मणि स्वयमाश्रितः ॥ ५७॥
बाह्यस्थविषयं सर्वं रेचकः समुदाहृतः ।
पूरकं शास्त्रविज्ञानं कुम्भकं स्वगतं स्मृतम् ॥ ५८॥
एवमभ्यासचित्तश्चेत्समुक्तो नात्र संशयः ।
कुम्भकेन समारोप्य कुम्भकेन पूरयेत् ॥ ५९॥
कुम्भेन कुम्भयेत्कुम्भं तदन्तस्थः परं शिवम् ।
पुनरास्फालयेदद्य सुस्थिरं कण्ठमुद्रया ॥ ६०॥
वायूनां गतिमावृत्य धृत्वा पूरककुम्भकौ ।
समहस्तयुगं भूमौ समं पादयुगं तथा ॥ ६१॥
वेधकक्रमयोगेन चतुष्पीठं तु वायुना ।
आस्फालयेन्महामेरुं वायुवक्त्रे प्रकोटिभिः ॥ ६२॥
पुटद्वयं समाकृष्य वायुः स्फुरति सत्वरम् ।
सोमसूर्याग्निसंबधाज्जानीयादमृताय वै ॥ ६३॥
मेरुमध्यगता देवाश्चलन्ते मेरुचालनात् ।
आदौ सञ्जायते क्षिप्रं वेधोऽस्य ब्रह्मग्रन्थितः ॥ ६४॥
ब्रह्मग्रन्थिं ततो भित्त्वा विष्णुग्रन्थिं भिनत्त्यसौ ।
विष्णुग्रन्थिं ततो भित्त्वा रुद्रग्रन्थिं भिनत्त्यसौ ॥ ६५॥
रुद्रग्रन्थिं ततो भित्त्वा छित्वा मोहमलं तथा ।
अनेकजन्मसंस्कारगुरुदेवप्रसादतः ॥ ६६॥
योगाभ्यासात्ततो वेधो जायते तस्य योगिनः ।
इडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्नानाडिमण्डले ॥ ६७॥
मुद्राबन्धविशेषेण वायुमूर्ध्वं च कारयेत् ।
ऱ्हस्वो दहति पापानि दीर्घो मोक्षप्रदायकः ॥ ६८॥
आप्यायनः प्लुतो वापि त्रिविधोच्चारणेन तु ।
तैलधारामिवच्छिन्नं दीर्घघण्टानिनादवत् ॥ ६९॥
अवाच्यं प्रणवस्याग्रं यस्तं वेद स वेदवित् ।
ऱ्हस्वं बिन्दुगतं दैर्घ्यं ब्रह्मरन्ध्रगतं प्लुतम् ।
द्वादशान्तगतं मन्त्रं प्रसादं मन्त्रसिद्धये ॥ ७०
सर्वविघ्नहरश्चायं प्रणवः सर्वदोषहा ।
आरंभश्च घटश्चैव पुनः परिचयस्तथा ॥ ७१॥
निष्पत्तिश्चेति कथिताश्चतस्रस्तस्य भूमिकाः ।
कारणत्रयसंभूतं बाह्यं कर्म परित्यजन् ॥ ७२॥
आन्तरं कर्म कुरुते यत्रारंभः स उच्यते ।
वायुः पश्चिमतो वेधं कुर्वन्नापूर्य सुस्थिरम् ॥ ७३॥
यत्र तिष्ठति सा प्रोक्ता घटाख्या भूमिका बुधैः ।
न सजीवो न निर्जीवः काये तिष्ठति निश्चलम् ।
यत्र वायुः स्थिरः खे स्यात्सेयं प्रथमभूमिका ॥ ७४॥
यत्रात्मना सृष्टिलयौ जीवन्मुक्तिदशागतः ।
सहजः कुरुते योगं सेयं निष्पत्तिभूमिका ॥ ७५॥ इति॥
एतदुपनिषदं योऽधीते सोऽग्निपूतो भवति ।
स वायुपूतो भवति । सुरापानात्पूतो भवति ।
स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति । स जीवन्मुक्तो भवति ।
तदेतदृचाभ्युक्तम् । तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततम् । तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते ।
विष्णोर्यत्परमं पदमित्युपनिषत् ॥
इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधी तमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति वराहोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ वासुदेवोपनिषत् ॥
(सामवेदीय)
यत्सर्वहृदयागारं यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
वस्तुतो यन्निराधारं वासुदेवपदं भजे ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणम-
स्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
(ऊर्ध्वपुण्ड्रविधिजिज्ञासा)
ॐ नमस्कृत्य भगवान्नारदः सर्वेश्वरं वासुदेवं पप्रच्छ
अधीहि भगवन्नूर्ध्वपुण्ड्रविधिं द्रव्यमन्त्रस्थानादिसहितं मे
ब्रूहीति ।
(गोपीचन्दनस्वरूपम्)
तं होवाच भगवान्वासुदेवो वैकुण्ठस्थानादुत्पन्नं
मम प्रीतिकरं मद्भक्तैर्ब्रह्मादिभिर्धारितं विष्णुचन्दनं
ममाङ्गे प्रतिदिनमालिप्तं गोपीभिः प्रक्षालनाद्गोपीचन्दन-
माख्यातं मदङ्गलेपनं पुण्यं चक्रतीर्थान्तःस्थितं
चक्रसमायुक्तं पीतवर्णं मुक्तिसाधनं भवति ।
(गोपीचन्दनोद्धारधारणयोर्विधानम्)
अथ गोपीचन्दनं नमस्कृत्वोद्धृत्य ।
गोपीचन्दन पापघ्न विष्णुदेहसमुद्भव ।
चक्राङ्कित नमस्तुभ्यं धारणान्मुक्तिदो भव ।
इमं मे गङ्गे इति जलमादाय विष्णोर्नुकमिति मर्दयेत् ।
अतो देवा अवन्तु न इत्येतन्मन्त्रैर्विष्णुगायत्र्या केशवादि-
नामभिर्वा धारयेत् ।
(ब्रह्मचार्यादीनां धारणाप्रकारः)
ब्रह्मचारी वानप्रस्थो वा
ललाटहृदयकण्ठबाहूमूलेषु वैष्णवगायत्र्या
कृष्णादिनामभिर्वा धारयेत् । इति त्रिवारमभिमन्त्र्य
शङ्खचक्रगदापाणे द्वारकानिलयाच्युत । गोविन्द
पुण्डरीकाक्ष रक्ष मां शरणागतम् । इति ध्यात्वा
गृहस्थो ललाटादिद्वादशस्थलेष्वनामिकाङ्गुल्या
वैष्णवगायत्र्या केशवादिनामभिर्वा धारयेत् ।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा ललाटहृदयकण्ठबाहूमूलेषु
वैष्णवगायत्र्या कृष्णादिनामभिर्वा धारयेत् ।
यतिस्तर्जन्या शिरोललाटहृदयेषु प्रणवेनैव धारयेत् ।
(त्रिपुण्ड्रस्य त्रिमूर्त्यादिरूपत्वम्)
ब्रह्मादयस्त्रयो मूर्तयस्तिस्रो व्याहृतयस्त्रीणि छन्दांसि
त्रयोऽग्नय इति ज्योतिष्मन्तस्त्रयः कालास्तिस्रोऽवस्थास्त्रय
आत्मानः पुण्ड्रात्रय ऊर्ध्वा अकार उकारो मकार एते
प्रणवमयोर्ध्वपुण्ड्रास्तदात्मा सदेतदोमिति । तानेकधा
समभवत् । ऊर्ध्वमुन्नमयत इत्योङ्काराधिकारी ।
तस्मादूर्ध्वपुण्ड्रं धारयेत् । परमहंसो ललाटे
प्रणवेनैकमूर्ध्वपुण्ड्रं वा धारयेत् ।
(वासुदेवध्यानप्रकारः)
तत्त्वप्रदीपप्रकाशं स्वात्मानं पश्यन्योगी
मत्सायुज्यमवाप्नोति । अथ वा न्यस्तहृदयपुण्ड्रमध्ये
वा हृदयकमलमध्ये वा ।
तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता ।
नीलतोयदमध्यस्थाद्विद्युल्लेखेव भास्वरा ।
नीवारशूकवत्तन्वी परमात्मा व्यवस्थित इति ।
अतः पुण्ड्रस्थं हृदयपुण्डरीकेषु तमभ्यसेत् ।
क्रमादेवं स्वात्मानं भावयेन्मां परं हरिम् ।
एकाग्रमनसा यो मां ध्यायते हरिमव्ययम् ।
हृत्पङ्कजे च स्वात्मानं स मुक्तो नात्र संशयः ।
मद्रूपमद्वयं ब्रह्म आदिमध्यान्तवर्जितम् ।
स्वप्रभं सच्चिदानन्दं भक्त्या जानाति चाव्ययम् ।
(वासुदेवस्य सर्वात्मत्वम्)
एको विष्णुरनेकेषु जङ्गमस्थावरेषु च ।
अनुस्युतो वसत्यात्मा भूतेष्वहमवस्थितः ।
तैलं तिलेषु काष्ठेषु वह्निः क्षीरे घृतं यथा ।
गन्धः पुष्पेषु भूतेषु तथात्मावस्थितो ह्यहम् ।
(बासुदेवध्यानस्थानेषु गोपीचन्दनधारणम्)
ब्रह्मरन्ध्रे भ्रुवोर्मध्ये हृदये चिद्रविं हरिम् ।
गोपीचन्दनमालिप्य तत्र ध्यात्वाप्नुयात्परम् ।
ऊर्ध्वदण्डोर्ध्वरेताश्च ऊर्ध्वपुण्ड्रोर्ध्वयोगवान् ।
ऊर्ध्वं पदमवाप्नोति यतिरूर्ध्वचतुष्कवान् ।
इत्येतन्निश्चितं ज्ञानं मद्भक्त्या सिध्यति स्वयम् ।
नित्यमेकाग्रभक्तिः स्याद्गोपीचन्दनधारणात् ।
(गोपीचन्दनभस्मनोर्धारणविधिः)
ब्राह्माणानां तु सर्वेषां वैदिकानामनुत्तमम् ।
गोपीचन्दनवारिभ्यामूर्ध्वपुण्ड्रं विधीयते ।
यो गोपीचन्दनाभावे तुलसीमूलमृत्तिकाम् ।
मुमुक्षुर्धारयेन्नित्यमपरोक्षात्मसिद्धये ।
अतिरात्राग्निहोत्रभस्मनाग्नेर्भसितमिदंविष्णुस्त्रीणि
पदेति मन्त्रैर्वैष्णवगायत्र्या प्रणवेनोद्धूलनं कुर्यात् ।
एवं विधिना गोपीचन्दनं च धारयेत् ।
यस्त्वधीते वा स सर्वपातकेभ्यः पूतो भवति ।
पापबुद्धिस्तस्य न जायते । स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति ।
स सर्वैर्यज्ञैर्याजितो भवति । स सर्वैर्देवैः पूज्यो भवति ।
श्रीमन्नारायणे मय्यचञ्चला भक्तिश्च भवति ।
स सम्यग्ज्ञानं च लब्ध्वा विष्णुसायुज्यमवाप्नोति ।
न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते इत्याह भगवान्वासुदेवः ।
यस्त्वेतद्वाधीते सोऽप्येवमेव भवतीत्यों सत्यमित्युपनिषत् ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिद्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म
निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकणं मेस्तु
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति वासुदेवोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ शरभोपनिषत् ॥
सर्वं सन्त्यज्य मुनयो यद्भजन्त्यात्मरूपतः ।
तच्छारभं त्रिपाद्ब्रह्म स्वमात्रमवशिष्यते ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथ हैनं पैप्पलादो ब्रह्माणमुवाच भो भगवन्
ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये को वा अधिकतरो ध्येयः
स्यात्तत्त्वमेव नो ब्रूहीति ।
तस्मै स होवाच पितामहश्च
हे पैप्पलाद शृणु वाक्यमेतत् ।
बहूनि पुण्यानि कृतानि येन
तेनैव लभ्यः परमेश्वरोऽसौ ।
यस्याङ्गजोऽहं हरिरिन्द्रमुख्या
मोहान्न जानन्ति सुरेन्द्रमुख्याः ॥ १॥
प्रभुं वरेण्यं पितरं महेशं
यो ब्रह्माणं विदधाति तस्मै ।
वेदांश्च सर्वान्प्रहिणोति चाग्र्यं
तं वै प्रभुं पितरं देवतानाम् ॥ २॥
ममापि विष्णोर्जनकं देवमीड्यं
योऽन्तकाले सर्वलोकान्संजहार ॥ ३॥
स एकः श्रेष्ठश्च सर्वशास्ता स एव वरिष्ठश्च ।
यो घोरं वेषमास्थाय शरभाख्यं महेश्वरः ।
नृसिंहं लोकहन्तारं संजघान महाबलः ॥ ४॥
हरिं हरन्तं पादाभ्यामनुयान्ति सुरेश्वराः ।
मावधीः पुरुषं विष्णुं विक्रमस्व महानसि ॥ ५॥
कृपया भगवान्विष्णुं विददार नखैः खरैः ।
चर्माम्बरो महावीरो वीरभद्रो बभूव ह ॥ ६॥
स एको रुद्रो ध्येयः सर्वेषां सर्वसिद्धये । यो ब्रह्मणः पञ्चवक्रहन्ता
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ ७॥
यो विस्फुलिङ्गेन ललाटजेन सर्वं जगद्भस्मसात्संकरोति ।
पुनश्च सृष्ट्वा पुनरप्यरक्षदेवं स्वतन्त्रं प्रकटीकरोति ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ ८॥
यो वामपादेन जघान कालं घोरं पपेऽथो हालहलं दहन्तम् ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ ९॥
यो वामपादार्चितविष्णुनेत्रस्तस्मै ददौ चक्रमतीव हृष्टः ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ १०॥
यो दक्षयज्ञे सुरसङ्घान्विजित्य
विष्णुं बबन्धोरगपाशेन वीरः ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ ११॥
यो लीलयैव त्रिपुरं ददाह
विष्णुं कविं सोमसूर्याग्निनेत्रः ।
सर्वे देवाः पशुतामवापुः
स्वयं तस्मात्पशुपतिर्बभूव ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ १२॥
यो मत्स्यकूर्मादिवराहसिंहा-
न्विष्णुं क्रमन्तं वामनमादिविष्णुम् ।
विविक्लवं पीड्यमानं सुरेशं
भस्मीचकार मन्मथं यमं च ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ १३॥
एवं प्रकारेण बहुधा प्रतुष्ट्वा
क्षमापयामासुर्नीलकण्ठं महेश्वरम् ।
तापत्रयसमुद्भूतजन्ममृत्युजरादिभिः ।
नाविधानि दुःखानि जहार परमेश्वरः ॥१४॥
एवं मन्त्रैः प्रार्थ्यमान आत्मा वै सर्वदेहिनाम् ।
शङ्करो भगवानाद्यो ररक्ष सकलाः प्रजाः ॥ १५॥
यत्पादाम्भोरुहद्वन्द्वं मृग्यते विष्णुना सह ।
स्तुत्वा स्तुत्यं महेशानमवाङ्मनसगोचरम् ॥ १६॥
भक्त्या नम्रतनोर्विष्णोः प्रसादमकरोद्विभुः ।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कदाचनेति ॥ १७॥
अणोरणीयान्महतो महीया-
नात्मास्यजन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको
धातुःप्रसादान्महिमानमीशम् ॥ १८॥
वसिष्ठवैयासकिवामदेव-
विरिञ्चिमुख्यैर्हृदि भाव्यमानः ।
सनत्सुजातादिसनातनाद्यै-
रीड्यो महेशो भगवानादिदेवः ॥ १९॥
सत्यो नित्यः सर्वसाक्षी महेशो
नित्यानन्दो निर्विकल्पो निराख्यः ।
अचिन्त्यशक्तिर्भगवान्गिरीशः
स्वाविद्यया कल्पितमानभूमिः ॥ २०॥
अतिमोहकरी माया मम विष्णोश्च सुव्रत ।
तस्य पादाम्बुजध्यानाद्दुस्तरा सुतरा भवेत् ॥ २१॥
विष्णुर्विश्वजगद्योनिः स्वांशभूतैः स्वकैः सह ।
ममांशसंभवो भूत्वा पालयत्यखिलं जगत् ॥ २२॥
विनाशं कालतो याति ततोऽन्यत्सकलं मृषा ।
ॐ तस्मै महाग्रासाय महादेवाय शूलिने ।
महेश्वराय मृडाय तस्मै रुद्राय नमो अस्तु ॥ २३॥
एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतायनेकशः ।
त्रींल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ २४॥
चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च द्वाभ्यां पञ्चमिरेव च ।
हूयते च पुनर्द्वाभ्यां स मे विष्णुः प्रसीदतु ॥ २५॥
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ २६॥
शरा जीवास्तदङ्गेषु भाति नित्यं हरिः स्वयम् ।
ब्रह्मैव शरभः साक्षान्मोक्षदोऽयं महामुने ॥ २७॥
मायावशादेव देवा मोहिता ममतादिभिः ।
तस्य माहात्म्यलेशांशं वक्तुं केनाप्य शक्यते ॥ २८॥
परात्परतरं ब्रह्म यत्परात्परतो हरिः ।
परात्परतरो हीशस्तस्मात्तुल्योऽधिको न हि ॥ २९॥
एक एव शिवो नित्यस्ततोऽन्यत्सकलं मृषा ।
तस्मात्सर्वान्परित्यज्य ध्येयान्विष्ण्वादिकान्सुरान् ॥ ३०॥
शिव एव सदा ध्येयः सर्वसंसारमोचकः ।
तस्मै महाग्रासाय महेश्वराय नमः ॥ ३१॥
पैप्पलादं महाशास्त्रं न देयं यस्य कस्यचित् ।
नास्तिकाय कृतघ्नाय दुर्वृत्ताय दुरात्मने ॥ ३२॥
दांभिकाय नृशंसाय शठायानृतभाषिणे ।
सुव्रताय सुभक्ताय सुवृत्ताय सुशीलिने ॥ ३३॥
गुरुभक्ताय दान्ताय शान्ताय ऋजुचेतसे ।
शिवभक्ताय दातव्यं ब्रह्मकर्मोक्तधीमते ॥ ३४॥
स्वभक्तायैव दातव्यमकृतघ्नाय सुव्रतम् ।
न दातव्यं सदा गोप्यं यत्नेनैव द्विजोत्तम ॥ ३५॥
एतत्पैप्पलादं महाशास्त्रं योऽधीते श्रावयेद्द्विजः
स जन्ममरणेभ्यो मुक्तो भवति । यो जानीते सोऽमृतत्वं
च गच्छति । गर्भवासाद्विमुक्तो भवति । सुरापानात्पूतो
भवति । स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति । ब्रह्महत्यात्पूतो
भवति । गुरुतल्पगमनात्पूतो भवति । स सर्वान्वेदानधीतो
भवति । स सर्वान्देवान्ध्यातो भवति । स समस्तमहापातको-
पपातकात्पूतो भवति । तस्मादविमुक्तमाश्रितो भवति ।
स सततं शिवप्रियो भवति । स शिवसायुज्यमेति । न स
पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते । ब्रह्मैव भवति । इत्याह
भगवान्ब्रह्मेत्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति शरभोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ शाट्यायनीयोपनिषत् ॥
शाट्यायनीब्रह्मविद्याखण्डाकारसुखाकृति ।
यतिवृन्दहृदागारं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ १॥
समासक्तं सदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरे ।
यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्तत्को न मुच्येत बन्धनात् ॥ २॥
वित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत् ।
यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥ ३॥
नावेदविन्मनुते तं बृहन्तं
नाब्रह्मवित्परमं प्रैति धाम ।
विष्णुक्रान्तं वासुदेवं विजान-
न्विप्रो विप्रत्वं गच्छते तत्त्वदर्शी ॥ ४॥
अथाह यत्परमं ब्रह्म सनातनं
ये श्रोत्रिया अकामहता अधीयुः ।
शान्तो दान्त उपरतिस्तितिक्षुहु-
र्योऽनूचानो ह्यभिजज्ञौ समानः ॥ ५॥
त्यक्तेषणो ह्यनृणस्तं विदित्वा
मौनी वसेदाश्रमे यत्र कुत्र ।
अथाश्रमं चरमं सम्प्रविश्य
यथोपपत्तिं पञ्चमात्रां दधानः ॥ ६॥
त्रिदण्डमुपवीतं च वासः कौपीनवेष्टनम् ।
शिक्यं पवित्रमित्येतद्विभृयाद्यावदायुषम् ॥ ७॥
पञ्चैतास्तु यतेर्मात्रास्ता मात्रा ब्रह्मणे श्रुताः ।
न त्यजेद्यावदुत्क्रान्तिरन्तेऽपि निखनेत्सह ॥ ८॥
विष्णुलिङ्गं द्विधा प्रोक्तं व्यक्तमव्यक्तमेव च ।
तयोरेकमपि त्यक्त्वा पतत्येव न संशयः ॥ ९॥
त्रिदण्डं वैष्णवं लिङ्गं विप्राणां मुक्तिसाधनम् ।
निर्वाणं सर्वधर्माणामिति वेदानुशासनम् ॥ १०॥
अथ खलु सौम्य कुटीचको बहूदको हंसः परमहंस
इत्येते परिव्राजकाश्चतुर्विधा भवन्ति । सर्व एते विष्णुलिङ्गिनः
शिखिनोपवीतिनः शुद्धचित्ता आत्मानमात्मना ब्रह्म
भावयन्तः शुद्धचिद्रूपोपासनरता जपयमवन्तो
नियमवन्तः सुशीलिनः पुण्यश्लोका भवन्ति । तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
कुटीचको बहूदकश्चापि हंसः
परमहंस इव वृत्त्या च भिन्नाः ।
सर्व एते विष्णुलिङ्गं दधाना
वृत्त्या व्यक्तं बहिरन्तश्च नित्यम् ।
पञ्चयज्ञा वेदशिरःप्रविष्टाः
क्रियावन्तोऽमी सङ्गता ब्रह्मविद्याम् ।
त्यक्त्वा वृक्षं वृक्षमूलं श्रितासः
संन्यस्तपुष्पा रसमेवाश्नुवानाः ।
विष्णुक्रीडा विष्णुरतयो विमुक्ता
विष्ण्वात्मका विष्णुमेवापियन्ति ॥ ११॥
त्रिसन्ध्यं शक्तितः स्नानं तर्पणं मार्जनं तथा ।
उपस्थानं पञ्चयज्ञान्कुर्यादामरणान्तिकम् ॥ १२॥
दशभिः प्रणवैः सप्तव्याहृतिभिश्चतुष्पदा ।
गायत्रीजपयज्ञश्च त्रिसन्ध्यं शिरसा सह ॥ १३॥
योगयज्ञः सदैकाग्रभक्त्या सेवा हरेर्गुरोः ।
अहिंसा तु तपोयज्ञो वाङ्मनःकायकर्मभिः ॥ १४॥
नानोपनिषदभ्यासः स्वाध्यायो यज्ञ ईरितः ।
ॐइत्यात्मानमव्यग्रो ब्रह्मण्यग्ना जुहोति यत् ॥ १५॥
ज्ञानयज्ञः स विज्ञेयः सर्वयज्ञोत्तमोत्तमः ।
ज्ञानदण्डा ज्ञानशिखा ज्ञानयज्ञोपवीतिनः ॥ १६॥
शिखा ज्ञानमयी यस्य उपवीतं च तन्मयम् ।
ब्राह्मण्यं सकलं तस्य इति वेदानुशासनम् ॥ १७॥
अथ खलु सौम्येत परिव्राजका यथा प्रादुर्भवन्ति
तथा भवन्ति । कामक्रोधलोभमोहदम्भदर्पासूया-
ममत्वाहङ्कारादींस्तितीर्य मानावमानौ निन्दास्तुती
च वर्जयित्वा वृक्ष इव तिष्ठासेत् । छिद्यमानो न
ब्रूयात् । तदैवं विद्वांस इहैवामृता भवन्ति ।
तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
बन्धुपुत्रमनुमोदयित्वा-
नवेक्ष्यमाणो द्वन्द्वसहः प्रशान्तः ।
प्राचीमुदीचिं वा निर्वर्तयंश्चरेत
पात्री दण्डी युगमात्रावलोकी ।
शिखी मुण्डी चोपवीती कुटुम्बी
यात्रामात्रं प्रतिगृह्णन्मनुष्यात् ॥ १८॥
अयाचितं याचितं वोत भैक्षं
मृद्दार्वलाबूफलपर्णपात्रम् ।
क्षीणं क्षौमं तृणं कन्थाजिने च पर्ण-
माच्छादनं स्यादहतं वा विमुक्तः ॥ १९॥
ऋतुसन्धौ मुण्डयेन्मुण्डमात्रं
नाधो नाक्षं जातु शिखां न वापयेत् ।
चतुरो मासान्ध्रुवशीलतः स्या-
त्स यावत्सुप्तोऽन्तरात्मा पुरुषो विश्वरूपः ।
अन्यानथाष्टौ पुनरुत्थितेऽस्मि-
न्स्वकर्मलिप्सुर्विहरेद्वा वसेद्वा ॥ २०॥
देवाग्न्यगारे तरुमूले गुहायां
वसेदसङ्गोऽलक्षितशीलवृत्तः ।
अनिन्धनो ज्योतिरिवोपशान्तो
न चोद्विजेदुद्विजेद्यत्र कुत्र ॥ २१॥
आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः ।
किमिच्छन्कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् ॥ २२॥
तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ।
नानुध्यायाद्बहूञ्छब्दान्वाचो विग्लापनं हि तत् ॥ २३॥
बाल्येनैव हि तिष्ठासेन्निर्विद्य ब्रह्मवेदनम् ।
ब्रह्मविद्या च बाल्यं च निर्विद्य मुनिरात्मवान् ॥ २४॥
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ २५॥
अथ खलु सौम्येदं परिव्राज्यं नैष्ठिकमात्मधर्मं
यो विजहाति स वीरहा भवति । स ब्रह्महा भवति । स भ्रूणहा
भवति । स महापातकी भवति । य इमां वैष्णवीं निष्ठां
परित्यज्यति । स स्तेनो भवति । स गुरुतल्पगो भवति । स मित्रध्रुग्भवति ।
स कृतघ्नो भवति । स सर्वस्माल्लोकात्प्रच्युतो भवति ।
तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
स्तेनः सुरापो गुरुतल्पगामी
मित्रध्रुगेते निष्कृतेर्यान्ति शुद्धिम् ।
व्यक्तमव्यक्तं वा विधृतं विष्णुलिङ्गं
त्यजन्न शुद्ध्येदखिलैरात्मभासा ॥ २६॥
त्यक्त्वा विष्णोर्लिङ्गमन्तर्बहिर्वा
यः स्वाश्रमं सेवतेऽनाश्रमं वा ।
प्रत्यपत्तिं भजते वातिमूढो
नैषां गतिः कल्पकोट्यापि दृष्टा ॥ २७॥
त्यक्त्वा सर्वाश्रमान्धीरो वसेन्मोक्षाश्रमे चिरम् ।
मोक्षाश्रमात्परिभ्रष्टो न गतिस्तस्य विद्यते ॥ २८॥
पारिव्राज्यं गृहीत्वा तु यः स्वधर्मे न तिष्ठति ।
तमारूढच्युतं विद्यादिति वेदानुशासनम् ॥ २९॥
अथ खलु सौम्येमं सनातनमात्मधर्मं वैष्णवीं
निष्ठां लब्ध्वा यस्तामदूषयन्वर्तते स वशी भवति ।
स पुण्यश्लोको भवति । स लोकज्ञो भवति । स वेदान्तज्ञो भवति ।
स ब्रह्मज्ञो भवति । स सर्वज्ञो भवति । स स्वराड् भवति ।
स परं ब्रह्म भगवन्तमाप्नोति । स पितॄन्सम्बन्धिनो
बान्धवान्सुहृदो मित्राणि च भवादुत्तरयति । तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
शतं कुलानां प्रथमं बभूव
तथा पराणां त्रिशतं समग्रम् ।
एते भवन्ति सुकृतस्य लोके
येषं कुले संन्यसतीह विद्वान् ॥ ३०॥
त्रिंशत्परास्त्रिंशदपरांस्त्रिंशच्च परतः परान् ।
उत्तरयति धर्मिष्ठः परिव्राडिति वै श्रुतिः ॥ ३१॥
संयस्तमिति यो ब्रूयात्कण्ठस्थप्राणवानपि ।
तारिताः पितरस्तेन इति वेदानुशासनम् ॥ ३२॥
अथ खलु सौम्येमं सनातनमात्मधर्मं वैष्णवीं
निष्ठां नासमाप्य प्रब्रूयात् । नानूचानाय
नानात्मविदे नावीतरागाय नाविशुद्धाय नानुपसन्नाय
नाप्रयतमानसायेति ह स्माहुः । तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम
गोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि ।
असूयकायानृजवे शठाय
मा मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् ॥ ३३॥
यमेव विद्याश्रुतमप्रमत्तं
मेधाविनं ब्रह्मचर्योपपन्नम् ।
अस्मा इमामुपसन्नाय सम्यक्
परीक्ष्य दद्याद्वैष्णवीमात्मनिष्ठाम् ॥ ३४॥
अध्यापिता ये गुरुं नाद्रियन्ते
विप्रा वाचा मनसा कर्मणा वा ।
यथैव तेन न गुरुर्भोजनीय-
स्तथैव चानं न भुनक्ति श्रुतं तत् ॥ ३५॥
गुरुरेव परो धर्मो गुरुरेव परा गतिः ।
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाभिनन्दति ।
तस्य श्रुतं तथा ज्ञानं स्रवत्यामघटाम्बुवत् ॥ ३६॥
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
स ब्रह्मवित्परं प्रेयादिति वेदानुशासनम् ॥ ३७॥
इत्युपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति शाट्यायनीयोपनिषत्समाप्ता ॥
शाण्डिल्योपनिषत्
शाण्डिल्योपनिषत्प्रोक्तयमाद्यष्टाङ्गयोगिनः ।
यद्बोधाद्यान्ति कैवल्यं स रामो मे परा गतिः ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
शाण्डिल्यो ह वा अथर्वाणं पप्रच्छात्मलाभोपायभूत-
मष्टाङ्गयोगमनुब्रूहीति । स होवाचाथर्वा यमनियमासन-
प्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि ।
तत्र दश यमाः । तथा नियमाः । आसनान्यष्टौ । त्रयःप्राणायामाः ।
पञ्चप्रत्याहाराः । तथा धारणा । द्विप्रकारं ध्यानम् ।
समाधिस्त्वेकरूपः । तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यदयाजप-
क्षमाधृतिमिताहारशौचानि चेति यमादश । तत्र हिंसा नाम
मनोवाक्कायकर्मभिः सर्वभूतेषु सर्वदा क्लेशजननम् ।
सत्यं नाम मनोवाक्कायकर्मभिर्भूतहितयथार्थाभिभाषणम् ।
अस्तेयं नाम मनोवाक्कायकर्मभिः परद्रव्येषु निःस्पृहा ।
ब्रह्मचर्यं नाम सर्वावस्थासु मनोवाक्कायकर्मभिः सर्वत्र मैथुनत्यागः ।
दया नाम सर्वभूतेषु सर्वत्रानुग्रहः । आर्जवं नाम मनोवाक्कायकर्मणां
विहिताविहितेषु जनेषु प्रवृत्तौ निवृत्तौ वा एकरूपत्वम् । क्षमा नाम
प्रियाप्रियेषु सर्वेषु ताडनपूजनेषु सहनम् । धृतिर्नामार्थहानौ
स्वेष्टबन्धुवियोगे तत्प्राप्तौ सर्वत्र चेतः स्थापनम् । मिताहारो नाम
चतुर्थांशावशेषकसुस्निग्धमधुराहारः । शौचं नाम द्विविधं
बाह्यमान्तरं चेति । तत्र मृज्जलाभ्यां बाह्यम् । मनःशुद्धिरान्तरम् ।
तदध्यात्मविद्यया लभ्यम् ॥ १॥
तपःसन्तोषास्तिक्यदानेश्वरपूजनसिद्धान्तश्रवणह्रीमतिजपो
व्रतानि दश नियमाः । तत्र तपो नाम विध्युक्तकृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः
शरीरशोषणम् । सन्तोषो नाम यदृच्छालाभसन्तुष्टिः ।
आस्तिक्यं नाम वेदोक्तधर्माधर्मेषु विश्वासः । दानं नाम
न्यायार्जितस्य धनधान्यादिः श्रद्धयार्ह्तिभ्यः प्रदानम् ।
ईश्वरपूजनं नाम प्रसन्नस्वभावेन यथाशक्ति विष्णुरुद्रादि
पूजनम् । सिद्धान्तश्रवणं नाम वेदान्तार्थविचारः ।
ह्रीर्नाम वेदलौकिकमार्गकुत्सितकर्मणि लज्जा । मतिर्नाम
वेदविहितकर्ममार्गेषु श्रद्धा । जपो नाम विधिवद्गुरूपदिष्ट-
वेदाविरुद्धमन्त्राभ्यासः । तद्द्विविधं वाचिकं मानसं चेति ।
मानसं तु मनसा ध्यानयुक्तम् । वाचिकं द्विविधमुच्चै-
रुपांशुभेदेन । उच्चैरुच्चारणं यथोक्तफलम् । उपांशु
सहस्रगुणम् । मानसं कोटिगुणम् । व्रतं नाम वेदोक्तविधि-
निषेधानुष्ठाननैयत्यम् ॥ २॥
स्वस्तिकगोमुखपद्मवीरसिंहभद्रमुक्तमयूराख्यान्यासनान्यष्टौ ।
स्वस्तिकं नाम--जानूर्वोन्तरे सम्यक्कृत्वा पादतले उभे ।
ऋजुकायः समासीनः स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते ॥ १॥
सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपार्श्वे नियोजयेत् ।
दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखं यथा ॥ २॥
अङ्गुष्ठेन निबध्नीयाद्धस्ताभ्यां व्युत्क्रमेण च ।
ऊर्वोरुपरि शाण्डिल्य कृत्वा पादतले उभे ।
पद्मासनं भवेदेतत्सर्वेषामपि पूजितम् ॥ ३॥
एकं पादमथैकस्मिन्विन्यस्योरुणि संस्थितः ।
इतरस्मिंस्तथा चोरूं वीरासनमुदीरितम् ॥ ४॥
दक्षिणं सव्यगुल्फेन दक्षिणेन तथेतरम् ।
हस्तौ च जान्वोः संस्थाप्य स्वाङ्गुलीश्च प्रसार्य च ॥ ५॥
व्यक्तवक्त्रो निरीक्षेत नासाग्रं सुसमाहितः ।
सिंहासनं भवेदेतत्पूजितं योगिभिः सदा ॥ ६॥
योनीं वामेन सम्पीड्य मेढ्राद्रुपरि दक्षिणम् ।
भ्रूमध्ये च मनोलक्ष्यं सिद्धासनमिदं भवेत् ॥ ७॥
गुल्फौ तु वृषणस्याधः सीवन्याः पार्श्वयोः क्षिपेत् ।
पादपार्श्वे तु पाणिभ्यां दृढं बध्वा सुनिश्चलम् ।
भद्रासनं भवेदेतत्सर्वव्याधिविषापहम् ॥ ८॥
सम्पीड्य सीविनीं सूक्ष्मां गुल्फेनैव तु सव्यतः ।
सव्यं दक्षिणगुल्फेन मुक्तासनमुदीरितम् ॥ ९॥
अवष्टभ्य धरां सम्यक्तलाभ्यां तु करद्वयोः ।
हस्तयोः कूर्परौ चापि स्थापयेन्नाभिपार्श्वयओः ॥ १०॥
समुन्नतशिरःपादो दण्डवद्व्योम्नि संस्थितः ।
मयूरासनमेतत्तु सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ११॥
शरीरान्तर्गताः सर्वे रोगा विनश्यन्ति । विषाणि जीर्यन्ते ।
येन केनासनेन सुखधारणं भवत्यशक्तस्तत्समाचरेत् ।
येनासनं विजितं जगत्त्रयं तेन विजितं भवति ।
यमनियमाभ्यां संयुक्तः पुरुषः प्राणायामं चरेत् ।
तेन नाड्यः शुद्धा भवन्ति ॥ ३॥
अथ हैनमथर्वाणं शाण्डिल्यः पप्रच्छ केनोपायेन
नाड्यः शुद्धाः स्युः । नाड्यः कतिसंख्याकाः ।
तासामुत्पत्तिः कीदृशी । तासु कति वयवस्तिष्ठन्ति ।
तेषां कानि स्थानानि । तत्कर्माणि कानि ।
देहे यानि यानि विज्ञातव्यानि तत्सर्वं मे ब्रूहीति ।
स होवाच अथर्वाण अथेदं शरीरं षण्णवत्यङ्गुलात्मकं
भवति । शरीरात्प्राणो द्वादशाङ्गुलाधिको भवति ।
शरीरस्थं प्राणमग्निना सह योगाभ्यासेन समं न्यूनं वा
यः करोति स योगिपुङ्गवो भवति । देहमध्ये शिखिस्थानं
त्रिकोणं तप्तजाम्बूनदप्रभं मनुष्याणाम् ।
चतुष्पदां चतुरस्रम् । विहङ्गानां वृत्ताकारम् ।
तन्मध्ये शुभा तन्वी पावकी शिखा तिष्ठति ।
गुदाद्व्यङ्गुलादूर्ध्वं मेढ्राद्व्यङ्गुलादधो देहमध्यं
मनुष्याणां भवति । चतुष्पदां हृन्मध्यम् ।
विहङ्गानां तुङ्गमध्यम् । देहमध्यं नवाङ्गुलं
चतुरङ्गुलमुत्सेधायतमण्डाकृति । तन्मध्ये नाभिः ।
तत्र द्वादशारयुतं चक्रम् । तच्चक्रमध्ये
पुण्यपापप्रचोदितो जीवो भ्रमति । तन्तुपञ्जरमध्यस्थलूतिका
यथा भ्रमति तथा चासौ तत्र प्राणश्चरति । देहेऽस्मिञ्जीवः
प्राणारूढो भवेत् । नाभेस्तिर्यगधऊर्ध्वं कुण्डलिनीस्थानम् ।
अष्टप्रकृतिरूपाष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति ।
यथावद्वायुसंचारं जलान्नादीनि परितः स्कन्धः पार्श्वेषु
निरुध्यैनं मुखेनैव समावेष्ट्य ब्रह्मरन्ध्रं योगकाले
चापानेनाग्निना च स्फुरति । हृदयाकाशे महोज्ज्वला
ज्ञानरूपा भवति । मध्यस्थकुण्डलिनीमाश्रित्य
मुख्या नाड्यश्चतुर्दश भवन्ति । तत्र सुषुम्ना
विश्वधारिणी मोक्षमार्गेति चाचक्षते ।
गुदस्य पृष्ठभागे वीणादण्डाश्रिता मूर्धपर्यन्तं
ब्रह्मरन्ध्रे विज्ञेया व्यक्ता सूक्ष्मा वैष्णवी भवति ।
सुषुम्नायाः सव्यभागे इडा तिष्ठति । दक्षिणभागे
पिङ्गला इडायां चन्द्रश्चरति । पिङ्गलायां रविः ।
तमोरूपश्चन्द्रः । रजोरूपो रविः । विषभागो रविः ।
अमृतभागश्चन्द्रमाः । तावेव सर्वकालं धत्ते ।
सुषुम्ना कालभोक्त्री भवति । सुषुम्ना पृष्ठपार्श्वयोः
सरस्वतीकुहू भवतः । यशस्विनीकुहूमध्ये वारुणी प्रतिष्ठिता
भवति । पूषासरस्वतीमध्ये पयस्विनी भवति । गान्धारी-
सरस्वतिमध्ये यशस्विनी भवति । कन्दमयेऽलम्बुसा भवति।
सुषुम्नापूर्वभागे मेढ्रान्तं कुहूर्भवति । कुण्डलिन्या
अधश्चोर्ध्वं वारुणी सर्वगामिनी भवति । यशस्विनी सौम्या च
पादाङ्गुष्ठान्तमिष्यते । पिङ्गला चोर्ध्वगा याम्यनासान्तं
भवति । पिङ्गलायाः पृष्ठतो याम्यनेत्रानतं पूषा भवति ।
याम्यकर्णान्तं यशस्विनी भवति । जिह्वाया ऊर्ध्वानतं सरस्वती भवति ।
आसव्यकर्णान्तमूर्ध्वगा शङ्खिनी भवति । इडापृष्ठभागा-
त्सव्यनेत्रान्तगा गान्धारी भवति । पायुमूलादधोर्ध्वगालम्बुसा
भवति । एताश्च चतुर्दशसु नाडीष्वन्या नाड्यः संभवन्ति ।
तास्वन्यास्तास्वन्या भवन्तीति विज्ञेयाः ॥
यथाश्वत्थादिपत्रं शिराभिर्व्याप्तमेवं शरीरं नाडीभिर्व्याप्तम् ।
प्राणापानसमानोदानव्याना नागकूर्मकृकरदेवदत्तधनञ्जया
एते दश वायवः सर्वासु नाडीषु चरन्ति । आस्यनासिकाकण्ठनाभि-
पादाङ्गुष्ठद्वयकुण्डल्यधश्चोर्ध्वभागेषु प्राणः संचरति ।
श्रोत्राक्षिकटिगुल्फघ्राणगलस्फिग्देशेषु व्यानः संचरति ।
गुदमेढ्रोरुजानूदरवृषणकटिजङ्घानाभिगुदाग्न्यगारेष्वपानः
संचरति । सर्वसन्धिस्थ उदानः । पादहस्तयोरपि सर्वगात्रेषु सर्वव्यापी
समानः । भुक्तान्नरसादिकं गात्रेग्निना सह व्यापयन्द्विसप्ततिसहस्रेषु
नाडीमार्गेषु चरन्समानवायुरग्निना सह साङ्गोपाङ्गकलेवरं
व्याप्नोति । नागादिवायवः पञ्चत्वगस्थ्यादिसंभवाः । तुन्दस्थं
जलमन्नं च रसादिषु समीरितं तुन्दमध्यगतः प्रागस्तानि पृथक्कुर्यात् ।
अग्नेरुपरि जलं स्थाप्य जलोपर्यन्नादीनि संस्थाप्य स्वयमपानं सम्प्राप्य
तेनैव सह मारुतः प्रयाति देहमध्यगतं ज्वलनम् । वायुना पालितो
वह्निरपानेन शनैर्देहमध्ये ज्वलति । ज्वलनो ज्वालाभिः प्राणेन कोष्ठमध्यगतं
जलमत्युष्णमकरोत् । जलोपरि समर्पितव्यञ्जनसंयुक्तमन्नं वह्निसंयुक्तवारिणा
पक्वमकरोत् । तेन स्वेदमूत्रजलरक्तवीर्यरूपरसपुरीषादिकं प्राणः
पृथक्कुर्यात् । समानवायुना सह सर्वासु नाडीषु रसं व्यापयञ्छ्वासरूपेण
देहे वायुश्चरति । नवभिर्व्योमरन्ध्रैः शरीरस्य वायवः कुर्वन्ति विण्मूत्रादिविसर्जनम् ।
निश्वासोच्छ्वासकासश्च प्राणकर्मोच्यते । विण्मूत्रादिविसर्जनमपानवायुकर्म ।
हानोपादानचेष्टादि व्यानकर्म । देहस्योन्नयनादिकमुदानकर्म ।
शरीरपोषणादिकं समानकर्म । उद्गारादि नागकर्म । निमीलनादि कूर्मकर्म ।
क्षुत्करणं कृकरकर्म । तन्द्रा देवदत्तकर्म । श्लेष्मादि धनञ्जयकर्म ।
एवं नाडीस्थानं वायुस्थानं तत्कर्म च सम्यग्ज्ञात्वा नाडीसंशोधनं कुर्यात् ॥ ४॥
यमनियमयुतः पुरुषः सर्वसङ्गविवर्जितः कृतविद्यः
सत्यधर्मरतो जितक्रोधो गुरुशुश्रूषानिरतः पितृमातृविधेयः
स्वाश्रमोक्तसदाचारविद्वच्छिक्षितः फलमूलोदकान्वितं
तपोवनं प्राप्य रम्यदेशे ब्रह्मघोषसमन्विते
स्वधर्मनिरतब्रह्मवित्समावृते फलमूलपुष्पवारिभिः
सुसम्पूर्णे देवायतने नदीतीरे ग्रामे नगरे वापि सुशोभनमठं
नात्युच्चनीचायतमल्पद्वारं गोमयादिलिप्तं सर्वरक्षासमन्वितं
कृत्वा तत्र वेदान्तश्रवणं कुर्वन्योगं समारभेत् । आदौ
विनायकं सम्पूज्य स्वेष्टदेवतां नत्वा पूर्वोक्तासने स्थित्वा
प्राङ्मुख उदङ्मुखो वापि मृद्वासनेषु जितासनगतो
विद्वान्समग्रीवशिरोनासाग्रदृग्भ्रूमध्ये शशभृद्बिंबं
पश्यन्नेत्राभ्याममृतं पिबेत् । द्वादशमात्रया इडया
वायुमापूर्योदरे स्थितं ज्वालावलीयुतं रेफबिन्दुयुक्तमग्निमण्डलयुतं
ध्यायेद्रेचयेत्पिङ्गलया । पुनः पिङ्गलयापूर्य कुम्भित्वा
रेचयेदिडया । त्रिचतुस्त्रिचतुःसप्तत्रिचातुर्मासपर्यन्तं त्रिसन्धिषु
तदन्तरालेषु च षट्कृत्व आचरेन्नाडीशुद्धिर्भवति । ततः
शरीरे लघुदीप्तिवह्निवृद्धिनादाभिव्यक्तिर्भवति ॥ ५॥
प्राणापानसमायोगः प्राणायामो भवति ।
रेचकपूरककुम्भकभेदेन स त्रिविधः ।
ते वर्णात्मकाः । तस्मात्प्रणव एव प्राणायामः
पद्माद्यासनस्थः पुमान्नासाग्रे
शशभृद्बिम्बज्योत्स्नाजालवितानिताकारमूर्ती रक्ताङ्गी
हंसवाहिनी दण्डहस्ता बाला गायत्री भवति । उकारमूर्तिः
श्वेताङ्गी तार्क्ष्यवाहिनी युवती चक्रहस्ता सावित्री भवति ।
मकारमूर्तिः कृष्णाङ्गी वृषभवाहिनी वृद्धा
त्रिशूलधारिणी सरस्वती भवति । अकारादित्रयाणां
सर्वकारणमेकाक्षरं परंज्योतिः प्रणवं भवतीति ध्यायेत् ।
इडया बाह्याद्वायुमापूर्य षोडशमात्राभिरकारं
चिन्तयन्पूरितं वायुं चतुःषष्टिमात्राभिः कुम्भयित्वोकारं
ध्यायन्पूरितं पिङ्गलया द्वात्रिंशन्मात्रया मकारमूर्ति-
ध्यानेनैवं क्रमेण पुनः पुनः कुर्यात् ॥ ६॥
अथासनदृढो योगी वशी मितहिताशनः
सुषुम्नानाडीस्थमलशोषार्थं योगी
बद्धपद्मासनो वायुं चन्द्रेणापूर्य
यथाशक्ति कुम्भयित्वा सूर्येण रेचयित्वा
पुनः सूर्येणापूर्य कुम्भयित्वा चन्द्रेण
विरेच्य यया त्यजेत्तया सम्पूर्य धारयेत् ।
तदेते श्लोका भवन्ति ।
प्राणं प्रागिडया पिबेन्नियमितं भूयोऽन्यया रेचये-
त्पीत्वा पिङ्गलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद्वामया ।
सूर्याचन्द्रमसोरनेन विधिनाऽभ्यासं सदा तन्वतां
शुद्धा नाडिगणा भवन्ति यमिनां मासत्रयादूर्ध्वतः ॥ १॥
प्रातर्मध्यन्दिने सायमर्धरात्रे तु कुम्भकान् ।
शनैरशीतिपर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत् ॥ २॥
कनीयसि भवेत्स्वेदः कंपो भवति मध्यमे ।
उत्तिष्ठत्त्युत्तमे प्राणरोधे पद्मासनं महत् ॥ ३॥
जलेन श्रमजातेन गात्रमर्दनमाचरेत् ।
दृढता लघुता चापि तस्य गात्रस्य जायते ॥ ४॥
अभ्यासकाले प्रथमं शस्तं क्षीराज्यभोजनम् ।
ततोऽभ्यासे स्थिरीभूते न तावन्नियमग्रहः ॥ ५॥
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ॥ ६॥
युक्तं युक्तं त्यजेद्वायुं युक्तं युक्तं च पूरयेत् ।
युक्तं युक्तं च बध्नीयादेवं सिद्धिमवाप्नुयात् ॥ ७॥
यथेष्टधारणाद्वायोरनलस्य प्रदीपनम् ।
नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधनात् ॥ ८॥
विधिवत्प्राणसंयामैर्नाडीचक्रे विशोधिते ।
सुषुम्नावदनं भित्त्वा सुखाद्विशति मारुतः ॥ ९॥
मारुते मध्यसंचारे मनःस्थैर्यं प्रजायते ।
यो मनःसुस्थिरो भावः सैवावस्था मनोन्मनी ॥ १०॥
पूरकान्ते तु कर्तव्यो बन्धो जालन्धराभिधः ।
कुम्भकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियाणकः ॥ ११॥
अधस्तात्कुञ्चनेमाशु कण्ठसङ्कोचने कृते ।
मध्ये पश्चिमतानेन स्यात्प्राणो ब्रह्मनाडिगः ॥ १२॥
अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य प्राणं कण्ठादधो नयन् ।
योगी जराविनिर्मुक्तः षोडशो वयसा भवेत् ॥१३॥
सुखासनस्थो दक्षनाड्या बहिस्थं पवनं
समाकृष्याकेशमानखाग्रं कुम्भयित्वा सव्यनाड्या
रेचयेत् । तेन कपालशोधनं वातनाडीगतसर्वरोग-
सर्वविनाशनं भवति । हृदयादिकण्ठपर्यन्तं सस्वनं
नासाभ्यां शनैः पवनमाकृष्य यथाशक्ति
कुम्भयित्वा इडया विरेच्य गच्छंस्तिष्ठन्कुर्यात् ।
तेन श्लेष्महरं जठराग्निवर्धनं भवति । वक्त्रेण
सीत्कारपूर्वकं वायुं गृहीत्वा यथाशक्ति कुम्भयित्वा
नासाभ्यां रेचयेत् । तेन क्षुत्तृष्णालस्यनिद्रा न जायते ।
जिह्वया वायुं गृहीत्वा यथाशक्ति कुम्भयित्वा नासाभ्यां
रेचयेत् । तेन गुल्मप्लीहज्वरपित्तक्षुधादीनि नश्यन्ति ॥
अथ कुम्भकः । स द्विविधः सहितः केवलश्चेति । रेचकपूरकयुक्तः
सहितः तद्विवर्जितः केवलः । केवलसिद्धिपर्यन्तं सहितमभ्यसेत् ।
केवलकुम्भके सिद्धे त्रिषु लोकेषु न तस्य दुर्लभं भवति ।
केवलकुम्भकात्कुण्डलिनीबोधो जायते । ततः कृशवपुः
प्रसन्नवदनो निर्मललोचनोऽभिव्यक्तनादो निर्मुक्तरोगजालो
जितबिन्दुः पट्वग्निर्भवति ।
अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता ।
एषा सा वैष्णवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥ १४॥
अन्तर्लक्ष्यविलीनचित्तपवनो योगी सदा वर्तते
दृष्ट्या निश्चलतारया बहिरधः पश्यन्नपश्यन्नपि ।
मुद्रेयं खलु खेचरी भवति सा लक्ष्यैकताना शिवा
शून्याशून्यविवर्जितं स्फुरति सा तत्त्वं पदं वैष्णवी ॥ १५॥
अर्धोन्मीलितलोचनः स्थिरमना नासाग्रदत्तेक्षण-
श्चन्द्रार्कावपि लीनतामुपनयन्निष्पन्दभावोत्तरम् ।
ज्योतीरूपमशीषबाह्यरहितं देदीप्यमानं परं
तत्त्वं तत्परमस्ति वस्तुविषयं शाण्डिल्य विद्धीह तत् ॥ १६॥
तारं ज्योतिषि संयोज्य किञ्चिदुन्नमयन्भ्रुवौ ।
पूर्वाभ्यासस्य मार्गोऽयमुन्मनीकारकः क्षणात् ॥ १७॥
तस्मात्खेचरीमुद्रामभ्यसेत् । तत उन्मनी भवति ।
ततो योगनिद्रा भवति । लब्धयोगनिद्रस्य योगिनः कालो नास्ति ।
शक्तिमध्ये मनः कृत्वा शक्तिं मानसमध्यगाम् ।
मनसा मन आलोक्य शाण्डिल्य त्वं सुखी भव ॥ १८॥
खमध्ये कुरु चात्मानमात्ममध्ये च खं कुरु ।
सर्वं च खमयं कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तय ॥ १९॥
बाह्यचिन्ता न कर्तव्या तथैवान्तरचिन्तिका ।
सर्वचिन्तां परित्यज्य चिन्मात्रपरमो भव ॥ २०॥
कर्पूरमनले यद्वत्सैन्धवं सलिले यथा ।
तथा च लीयमानं च मनस्तत्त्वे विलीयते ॥ २१॥
ज्ञेयं सर्वप्रतीतं च तज्ज्ञानं मन उच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं समं नष्टं नान्यः पन्था द्वितीयकः ॥ २२।
ज्ञेयवस्तुपरित्यागाद्विलयं याति मानसम् ।
मानसे विलयं याते कैवल्यमवशिष्यते ॥ २३॥
द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं मुनीश्वर ।
योगस्तद्वृत्तिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम् ॥ २४॥
तस्मिन्निरोधिते नूनमुपशान्तं मनो भवेत् ।
मनःस्पन्दोपशान्तायं संसारः प्रविलीयते ॥ २५॥
सूर्यालोकपरिस्पन्दशान्तौ व्यवहृतिर्यथा ।
शास्त्रसज्जनसम्पर्कवैराग्याभ्यासयोगतः ॥ २६॥
अनास्थायां कृतास्थायां पूर्वं संसारवृत्तिषु ।
यथाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोहितात् ॥ २७॥
एकतत्त्वदृढाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।
पूरकाद्यनिलायामादृढाभ्यासदखेदजात् ॥ २८॥
एकान्तध्यानयोगाच्च मनःस्पन्दो निरुध्यते ।
ओङ्कारोच्चारणप्रान्तशब्दतत्त्वानुभावनात् ।
सुषुप्ते संविदा ज्ञाते प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ २९॥
तालुमूलगतां यत्नाज्जिह्वयाक्रम्य घण्टिकाम् ।
ऊर्ध्वरन्ध्रं गते प्राणे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३०॥
प्राणे गलितसंवित्तौ तालूर्ध्वं द्वादशान्तगे ।
अभ्यासादूर्ध्वरन्ध्रेण प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३१॥
द्वादशाङ्गुलपर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३२॥
भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते ।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३३॥
ओमित्येव यदुद्भूतं ज्ञानं ज्ञेयात्मकं शिवम् ।
असंस्पृष्टविकल्पांशं प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३४॥
चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने ।
अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३५॥
एभिः क्रमैस्तथान्यैश्च नानासंकल्पकल्पितैः ।
नानादेशिकवक्त्रस्थैः प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३६॥
आकुञ्चनेन कुण्डलिन्याः कवाटमुद्घाट्य मोक्षद्वारं विभेदयेत् ।
येन मार्गेण गन्तव्यं तद्द्वारं मुखेनाच्छाद्य प्रसुप्ता
कुण्डलिनी कुटिलाकारा सर्पवद्वेष्टिता भवति । सा शक्तिर्येन
चालिता स्यात्स तु मुक्तो भवति । सा कुण्डलिनी कण्ठोर्ध्वभागे
सुप्ता चेद्योगिनां मुक्तये भवति । बन्धनायाधो मूढानाम् ।
इडादिमार्गद्वयं विहाय सुषुम्नामार्गेणागच्छेत्तद्विष्णोः
परमं पदम् ।
मरुदभ्यसनं सर्वं मनोयुक्तं समभ्यसेत्
इतरत्र न कर्तव्या मनोवृत्तिर्मनीषिणा ॥ ३७॥
दिवा न पूजयेद्विष्णुं रात्रौ नैव प्रपूजयेत् ।
सततं पूजयेद्विष्णुं दिवारात्रं न पूजयेत् ॥ ३८॥
सुषिरो ज्ञानजनकः पञ्चस्रोतःसमन्वितः ।
तिष्ठते खेचरी मुद्रा तस्मिन्स्थाने न संशयः ॥ ३९॥
सव्यदक्षिणनाडीस्थो मध्ये चरति मारुतः ।
तिष्ठतः खेचरी मुद्रा तस्मिन्स्थाने न संशयः ॥ ४०॥
इडापिङ्गलयोर्मध्ये शून्यं चैवानिलं ग्रसेत् ।
तिष्ठन्ती खेचरी मुद्रा तत्र सत्यं प्रतिष्ठितम् ॥ ४१॥
सोमसूर्यद्वयोर्मध्ये निरालम्बतले पुनः ।
संस्थिता व्योमचक्रे सा मुद्रा नाम्ना च खेचरी ॥ ४२॥
छेदनचालनदाहैः फलां परां जिह्वां कृत्वा
दृष्टिं भ्रूमध्ये स्थाप्य कपालकुहरे जिह्वा विपरीतगा
यदा भवति तदा खेचरी मुद्रा जायते । जिह्वा चित्तं च
खे चरति तेनोर्ध्वजिह्वः पुमानमृतो भवति । वामपादमूलेन
योनिं सम्पीड्य दक्षिणपादं प्रसार्य तं कराभ्यां धृत्वा
नासाभ्यां वायुमापूर्य कण्ठबन्धं समारोप्योर्ध्वतो
वायुं धारयेत् । तेन सर्वक्लेशहानिः । ततः पीयूषमिव
विषं जीर्यते । क्षयगुल्मगुदावर्तजीर्णत्वगादिदोषा नश्यन्ति ।
एष प्राणजयोपायः सर्वमृत्यूपघातकः । वामपादपार्ष्णिं
योनिस्थाने नियोज्य दक्षिणचरणं वामोरूपरि संस्थाप्य
वायुमापूर्य हृदये चुबुकं निधाय योनिमाकुञ्च्य मनोमध्ये
यथाशक्ति धारयित्वा स्वात्मानं भावयेत् । तेनापरोक्षसिद्धिः ।
बाह्यात्प्राणं समाकृष्य पूरयित्वोदरे स्थितम् ।
नाभिमध्ये च नासाग्रे पदाङ्गुष्ठे च यत्नतः ॥ ४३॥
धारयेन्मनसा प्राणं सन्ध्याकालेषु वा सदा ।
सर्वरोगविनिर्मुक्तो भवेद्योगी गतक्लमः ॥ ४४॥
नासाग्रे वायुविजयं भवति । नाभिमध्ये सर्वरोगविनाशः ।
पादाङ्गुष्ठदारणाच्छरीरलघुता भवति ।
रसनाद्वायुमाकृष्य यः पिबेत्सतततं नरः ।
श्रमदाहौ तु न स्यातां नश्यन्ति व्याधयस्तथा ॥ ४५॥
सन्ध्ययोर्ब्राह्मणः काले वायुमाकृष्य यः पिबेत् ।
त्रिमासात्तस्य कल्याणी जायते वाक् सरस्वती ॥ ४६॥
एवं षण्मासाभ्यासात्सर्वरोगनिवृत्तिः ।
जिह्वया वायुमानीय जिह्वामूले निरोधयेत् ।
यः पिबेदमृतं विद्वान्सकलं भद्रमश्नुते ॥ ४७॥
आत्मन्यात्मानमिडया धारयित्वा भ्रुवोन्तरे ।
विभेद्य त्रिदशाहारं व्याधिस्थोऽपि विमुच्यते ॥ ४८॥
नाडीभ्यां वायुमारोप्य नाभौ तुन्दस्य पार्श्वयोः ।
घटिकैकां वहेद्यस्तु व्याधिभिः स विमुच्यते ॥ ४९॥
मासमेकं त्रिसन्ध्यं तु जिह्वयारोप्य मारुतम् ।
विभेद्य त्रिदशाहारं धारयेत्तुन्दमध्यमे ॥ ५०॥
ज्वराः सर्वेऽपि नश्यन्ति विषाणि विविधानि च ।
मुहूर्तमपि यो नित्यं नासाग्रे मनसा सह ॥ ५१॥
सर्वं तरति पाप्मानं तस्य जन्म शतार्जितम् ।
तारसंयमात्सकलविषयज्ञानं भवति ।
नासाग्रे चित्तसंयमादिन्द्रलोकज्ञानम् ।
तदधश्चित्तसंयमादग्निलोकज्ञानम् ।
चक्षुषि चित्तसंयमात्सर्वलोकज्ञानम् ।
श्रोत्रे चित्तस्य संयमाद्यमलोकज्ञानम् ।
तत्पार्श्वे संयमान्निरृतिलोकज्ञानम् ।
पृष्ठभागे संयमाद्वरुणलोकज्ञानम् ।
वामकर्णे संयमाद्वायुलोकज्ञानम् ।
कण्ठे संयमात्सोमलोकज्ञानम् ।
वामचक्षुषि संयमाच्छिवलोकज्ञानम् ।
मूर्ध्नि संयमाद्ब्रह्मलोकज्ञानम् ।
पादादोभागे संयमादतललोकज्ञानम् ।
पादे संयमाद्वितललोकज्ञानम् ।
पादसन्धौ संयमान्नितललोकज्ञानम् ।
जङ्घे संयमात्सुतललोकज्ञानम् ।
जानौ संयमान्महातललोकज्ञानम् ।
ऊरौ चित्तसंयमाद्रसातललोकज्ञानम् ।
कटौ चित्तसंयमात्तलातललोकज्ञानम् ।
नाभौ चित्तसंयमाद्भूलोकज्ञानम् ।
कुक्षौ संयमाद्भुवर्लोकज्ञानम् ।
हृदि चित्तस्य संयमात्स्वर्लोकज्ञानम् ।
हृदयोर्ध्वभागे चित्तसंयमान्महर्लोकज्ञानम् ।
कण्ठे चित्तसंयमाज्जनोलोकज्ञानम् ।
भ्रूमध्ये चित्तसंयमात्तपोलोकज्ञानम् ।
मूर्ध्नि चित्तसंयमात्सत्यलोकज्ञानम् ।
धर्माधर्मसंयमादतीतानागतज्ञानम् ।
तत्तज्जन्तुध्वनौ चित्तसंयमात्सर्वजन्तुरुतज्ञानम् ।
संचितकर्मणि चित्तसंयमात्पूर्वजातिज्ञानम् ।
परचित्ते चित्तसंयमात्परचित्तज्ञानम् ।
कायरूपे चित्तसंयमादन्यादृश्यरूपम् ।
बले चित्तसंयमाद्धनुमदादिबलम् ।
सूर्ये चित्तसंयमाद्भुवनज्ञानम् ।
चन्द्रे चित्तसंयमात्ताराव्यूहज्ञानम् ।
ध्रुवे तद्गतिदर्शनम् । स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम् ।
नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् । कण्ठकूपे क्षुत्पिपासा निवृत्तिः ।
कूर्मनाड्यां स्थैर्यम् । तारे सिद्धदर्शनम् ।
कायाकाशसंयमादाकाशगमनम् ।
तत्तत्स्थाने संयमात्तत्तत्सिद्धयो भवन्ति ॥ ७॥
अथ प्रत्याहारः । स पञ्चविधः विषयेषु विचरतामिन्द्रियाणां
बलादाहरणं प्रत्याहरः । यद्यत्पश्यति तत्सर्वमामेति प्रत्याहारः ।
नित्यविहितकर्मफलत्यागः प्रत्याहारः ।
सर्वविषयपराङ्मुखत्वं प्रत्याहारः ।
अष्टादशसु मर्मस्थानेषु क्रमाद्धारणं प्रत्याहारः ।
पादाङ्गुष्ठगुल्फजङ्घाजानूरुपायुमेढ्रनाभिहृदय-
कण्ठकूपतालुनासाक्षिभ्रूमध्यललाटमूर्ध्नि स्थानानि ।
तेषु क्रमादारोहावरोहक्रमेण प्रत्याहरेत् ॥ ८॥
अथ धारणा । सा त्रिविधा । आत्मनि मनोधारणं दहराकाशे
बाह्याकाशधारणं पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशेषु
पञ्चमूर्तिधारणं चेति ॥ ९॥
अथ ध्यानम् । तद्द्विविधं सगुणं निर्गुणं चेति ।
सगुणं मूर्तिध्यानम् । निर्गुणमात्मयाथात्म्यम् ॥ १०॥
अथ समाधिः । जीवात्मपरमात्मैक्यावस्थात्रिपुटीरहिता
परमानन्दस्वरूपा शुद्धचैतन्यात्मिका भवति ॥ ११॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
अथ ह शाण्डिल्यो ह वै ब्रह्मऋषिश्चतुर्षु वेदेषु
ब्रह्मविद्यामलभमानः किं नामेत्यथर्वाणं
भगवन्तमुपसन्नः पप्रच्छाधीहि भगवन् ब्रह्मविद्यां
येन श्रेयोऽवाप्स्यामीति । स होवाचाथर्वा शाण्डिल्य सत्यं
विज्ञानमनन्तं ब्रह्म यस्मिन्निदमोतं च प्रोतं च ।
यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वं यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिदं
विज्ञातं भवति । तदपाणिपादमचक्षुःश्रोत्रमजिह्वमशरीर-
मग्राह्यमनिर्देश्यम् । यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा
सह । यत्केवलं ज्ञानगम्यम् । प्रज्ञा च यस्मात्प्रसृता
पुराणी । यदेकमद्वितीयम् । आकाशवत्सर्वगतं सुसूक्ष्मं
निरञ्जनं निष्क्रियं सन्मात्रं चिदानन्दैकरसं शिवं
प्रशान्तममृतं तत्परं च ब्रह्म । तत्त्वमसि । तज्ज्ञानेन हि
विजानीहि य एको देव आत्मशक्तिप्रधानः सर्वज्ञः सर्वेश्वरः
सर्वभूतान्तरात्मा सर्वभूताधिवासः सर्वभूतनिगूढो
भूतयोनिर्योगैकगम्यः । यश्च विश्वं सृजति विश्वं बिभर्ति
विश्वं भुङ्क्ते स आत्मा । आत्मनि तं तं लोकं विजानीहि । मा
शोचीरात्मविज्ञानी शोकस्यान्तं गमिष्यति ॥
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
अथैनं शाण्डिल्योऽथर्वाणं पप्रच्छ यदेकमक्षरं
निष्क्रियं शिवं सन्मात्रं परंब्रह्म । तस्मात्कथमिदं
विश्वं जायते कथं स्थीयते कथमस्मिंल्लीयते । तन्मे संशयं
छेत्तुमर्हसीति । स होवाचाथर्वा सत्यं शाण्डिल्य परंब्रह्म
निष्क्रियमक्षरमिति । अथाप्यस्यारूपस्य ब्रह्मणस्त्रीणि
रूपाणि भवन्ति सकलं निष्कलं सकलनिष्कलं चेति ।
यत्सत्यं विज्ञानमानन्दं निष्क्रियं निरञ्जनं सर्वगतं
सुसूक्ष्मं सर्वतोमुखमनिर्देश्यममृतमस्ति तदिदं निष्कलं
रूपम् । अथास्य या सहजास्त्यविद्या मूलप्रकृतिर्माया
लोहितशुक्लकृष्णा । तया सहायवान् देवः कृष्णपिङ्गलो
ममेश्वर ईष्टे । तदिदमस्य सकलनिष्कलं रूपम् ॥ अथैष
ज्ञानमयेन तपसा चीयमानोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति ।
अथैतस्मात्तप्यमानात्सत्यकामात्त्रीण्यक्षराण्यजायन्त । तिस्रो
व्याहृतयस्त्रिपदा गायत्री त्रयो वेदास्त्रयो देवास्त्रयो वर्णास्त्रयोऽग्नयश्च
जायन्ते । योऽसौ देवो भगवान्सर्वैश्वर्यसम्पन्नः सर्वव्यापी
सर्वभूतानां हृदये संनिविष्टो मायावी मायया क्रीडति स ब्रह्मा
स विष्णुः स रुद्रः स इन्द्रः स सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि स एव
पुरस्तात्स एव पश्चात्स एवोत्तरतः स एव दक्षिणतः स एवाधस्तात्स
एवोपरिष्टात्स एव सर्वम् । अथास्य देवस्यात्मशक्तेरात्मक्रीडस्य
भक्तानुकंपिनो दत्तात्रेयरूपा सुरूपा तनूरवासा इन्दीवरदलप्रख्या
चतुर्बाहुरघोरापापकशिनी । तदिदमस्य सकलं रूपम् ॥ १॥
अथ हैनमथर्वाणं शाण्डिल्यः पप्रच्छ भगवन्सन्मात्रं
चिदानन्दैकरसं कस्मादुच्यते परं ब्रह्मेति । स होवाचाथर्वा
यस्माच्च बृहति बृंहयति च सर्वं तस्मादुच्यते परंब्रह्मेति ।
अथ कस्मादुच्यते आत्मेति । यस्मात्सर्वमाप्नोति सर्वमादत्ते सर्वमत्ति
च तस्मादुच्यते आत्मेति । अथ कस्मादुच्यते महेश्वर इति । यस्मान्महत
ईशः शब्दध्वन्या चात्मशक्त्या च महत ईशते तस्मादुच्यते
महेश्वर इति । अथ कस्मादुच्यते दत्तात्रेय इति । यस्मात्सुदुश्चरं
तपस्तप्यमानायात्रये पुत्रकामायातितरां तुष्टेन भगवता
ज्योतिर्मयेनात्मैव दत्तो यस्माच्चानसूयायामत्रेस्तनयोऽभव-
त्तस्मादुच्यते दत्तात्रेय इति । अथ योऽस्य निरुक्तानि वेद स सर्वं वेद ।
अथ यो ह वै विद्ययैनं परमुपास्ते सोऽहमिति स ब्रह्मविद्भवति ॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति ॥
दत्तात्रेयं शिवं शान्तमिन्द्रनीलनिभं प्रभुम् ।
आत्ममायारतं देवमवधूतं दिगम्बरम् ॥ १॥
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं जटाजूटधरं विभुम् ।
चतुर्बाहुमुदाराङ्गं प्रफ़ुल्लकमलेक्षणम् ॥२॥
ज्ञानयोगनिधिं विश्वगुरुं योगिजनप्रियम् ।
भक्तानुकंपिनं सर्वसाक्षिणं सिद्धसेवितम् ॥ ३॥
एवं यः सततं ध्यायेद्देवदेवं सनातनम् ।
स मुक्तः सर्वपापेभ्यो निःश्रेयसमवाप्नुयात् ॥ ४॥
इत्यों सत्यमित्युपनिषत् ॥
इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति शाण्डिल्योपनिषत्समाप्ता ॥
॥ शारीरकोपनिषत् ॥
तत्त्वग्रामोपायसिद्धं परतत्त्वस्वरूपकम् ।
शारीरोपनिषद्वेद्यं श्रीरामब्रह्म मे गतिः ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ अथातः पृथिव्यादिमहाभूतानां समवायं शरीरम् ।
यत्कठिनं सा पृथिवी यद्द्रवं तदापो यदुष्णं तत्तेजो यत्संचरति
स वायुर्यत्सुषिअरं तदाकाशम्
श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि । श्रोत्रमाकाशे वायौ त्वगग्नौ चक्षुरप्सु
जिह्वा पृथिव्यां घ्राणमिति ।
एवमिन्द्रियाणां यथाक्रमेण शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्चैते
विषयाः पृथिव्यादिमहाभूतेषु क्रमेणोत्पन्नाः ।
वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानि कर्मेन्द्रियाणि ।
तेषां क्रमेण वचनादानगमनविसर्गानन्दश्चैते विषयाः
पृथिव्यादिमहाभूतेषु क्रमेणोत्पनाः ।
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तमत्यन्तःकरणचतुष्टयम् ।
तेषां क्रमेण सङ्कल्पविकल्पाध्यवसायाभिमानावधारणास्वरूपश्चैते
विषयाः ।
मनःस्थानं गलान्तं बुद्धेर्वदनमहङ्कारस्य हृदयं चित्तस्य नाभिरिति ।
अस्थिचर्मनाडीरोममांसाश्चेति पृथिव्यंशाः ।
मूत्रश्लेष्मरक्तशुक्रस्वेदा अबंशाः ।
क्षुत्तृष्णालस्यमोहमैथुनान्यग्नेः ।
प्रचारणविलेखनस्थूलाक्ष्युन्मेषनिमेषादि वायोः ।
कामक्रोधलोभमोहभयान्याकाशस्य ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः पृथिवीगुणाः ।
शब्दस्पर्शरूपरसाश्चापां गुणाः ।
शब्दस्पर्शरूपाण्यग्निगुणाः ।
शब्दस्पर्षाविति वायुगुणौ ।
शब्द एक आकाशस्य ।
सात्त्विकराजसतामसलक्षणानि त्रयो गुणाः ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः ।
अक्रोधो गुरुशुश्रुषा शौचं सन्तोष आर्जवम् ॥ १॥
अमानित्वमदम्भित्वमास्तिकत्वमहिंस्रता ।
एते सर्वे गुणा ज्ञेयाः सात्त्विकस्य विशेषतः ॥ २॥
अहं कर्ताऽस्म्यहं भोक्ताऽस्म्यहं वक्ताऽभिमानवान् ।
एते गुणा राजसस्य प्रोच्यन्ते ब्रह्मवित्तमैः ॥ ३॥
निद्रालस्ये मोहरागौ मैथुनं चौर्यमेव च ।
एते गुणस्तामसस्य प्रोच्यन्ते ब्रह्मवादिभिः ॥ ४॥
ऊर्ध्वे सात्विको मध्ये रजसोऽधस्तामस इति ।
सत्यज्ञानं सात्त्विकम् । धर्मज्ञानं राजसम् । तिमिरान्धं तामसमिति ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयमिति चतुर्विधा अवस्थाः ।
ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियान्तःकरणचतुष्टयं चतुर्दशकरणयुक्तं जाग्रत् ।
अन्तःकरणचतुष्टयैरेव संयुक्तः स्वप्नः ।
चित्तैककरणा सुषुप्तिः ।
केवलजीवयुक्तमेव तुरीयमिति ।
उन्मीलितनिमीलितमध्यस्थजीवपरमात्मनोर्मध्ये जीवात्मा क्षेत्रज्ञ इति विज्ञायते ॥
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया ।
शरीरं सप्तदशभिः सूक्ष्मं तल्लिङ्गमुच्यते ॥ ५॥
मनो बुद्धिरहङ्कारः खानिलाग्निजलानि भूः ।
एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकाराः षोडशापरे ॥ ६॥
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा घ्राणं चैव तु पञ्चमम् ।
पायूपस्थौ करौ पादौ वाक्चैव दशमी मता ॥ ७॥
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च ।
त्रयोविंशतिरेतानि तत्त्वानि प्रकृतानि तु ।
चतुर्विंशतिरव्यक्तं प्रधानं पुरुषः परः ॥ ८॥
इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति कृष्णयजुर्वेदीय शारीरकोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ शुकरहस्योपनिषत् ॥
प्रज्ञानादिमहावाक्यरहस्यादिकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं त्रिपाद्राममहं भजे ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अथातो रहस्योपनिषदं व्याख्यास्यामो देवर्षयो
ब्रह्माणं सम्पूज्य प्रणिपत्य पप्रच्छुर्भगवन्नस्माकं
रहस्योपनिषदं ब्रूहीति । सोऽब्रवीत् ।
पुरा व्यासो महातेजाः सर्ववेदतपोनिधिः ।
प्रणिपत्य शिवं साम्बं कृताञ्जलिरुवाच ह ॥ १॥
श्रीवेदव्यास उवाच ।
देवदेव महाप्राज्ञ पाशच्छेददृढव्रत ।
शुकस्य मम पुत्रस्य वेदसंस्कारकर्मणि ॥ २॥
ब्रह्मोपदेशकालोऽयमिदानीं समुपस्थितः ।
ब्रह्मोपदेशः कर्तव्यो भवताद्य जगद्गुरो ॥ ३॥
ईश्वर उवाच ।
मयोपदिष्टे कैवल्ये साक्षाद्ब्रह्मणि शाश्वते ।
विहाय पुत्रो निर्वेदात्प्रकाशं यास्यति स्वयम् ॥ ४॥
श्रीवेदव्यास उवाच ।
यथा तथा वा भवतु ह्युपनायनकर्मणि ।
उपदिष्टे मम सुते ब्रह्मणि त्वत्प्रसादतः ॥ ५॥
सर्वज्ञो भवतु क्षिप्रं मम पुत्रो महेश्वर ।
तव प्रसादसम्पन्नो लभेन्मुक्तिं चतुर्विधाम् ॥ ६॥
तच्छृत्वा व्यासवचनं सर्वदेवर्षिसंसदि ।
उपदेष्टुं स्थितः शम्भुः साम्बो दिव्यासने मुदा ॥ ७॥
कृतकृत्यः शुकस्तत्र समागत्य सुभक्तिमान् ।
तस्मात्स प्रणवं लब्ध्वा पुनरित्यब्रवीच्छिवम् ॥ ८॥
श्रीशुक उवाच ।
देवादिदेव सर्वज्ञ सच्चिदानन्द लक्षण ।
उमारमण भूतेश प्रसीद करुणानिधे ॥ ९॥
उपदिष्टं परब्रह्म प्रणवान्तर्गतं परम् ।
तत्त्वमस्यादिवाक्यानां प्रज्ञादीनां विशेषतः ॥ १०॥
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन षडङ्गानि यथाक्रमम् ।
वक्तव्यानि रहस्यानि कृपयाद्य सदाशिव ॥ ११॥
श्रीसदाशिव उवाच ।
साधु साधु महाप्राज्ञ शुक ज्ञाननिधे मुने ।
प्रष्टव्यं तु त्वया पृष्टं रहस्यं वेदगर्भितम् ॥ १२॥
रहस्योपनिषन्नाम्ना सषडङ्गमिहोच्यते ।
यस्य विज्ञानमात्रेण मोक्षः साक्षान्न संशयः ॥ १३॥
अङ्गहीनानि वाक्यानि गुरुर्नोपदिशेत्पुनः ।
सषडङ्गान्युपदिशेन्महावाक्यानि कृत्स्नशः ॥ १४॥
चतुर्णामपि वेदानां यथोपनिषदः शिरः ।
इयं रहस्योपनिषत्तथोपनिषदां शिरः ॥ १५॥
रहस्योपनिषद्ब्रह्म ध्यातं येन विपश्चिता ।
तीर्थैर्मन्त्रैः श्रुतैर्जप्यैस्तस्य किं पुण्यहेतुभिः ॥ १६॥
वाक्यार्थस्य विचारेण यदाप्नोति शरच्छतम् ।
एकवारजपेनैव ऋष्यादिध्यानतश्च यत् ॥ १७॥
ॐ अस्य श्रीमहावाक्यमहामन्त्रस्य हंस ऋषिः ।
अव्यक्तगायत्री छन्दः । परमहंसो देवता ।
हं बीजम् । सः शक्तिः । सोऽहं कीलकम् ।
मम परमहंसप्रीत्यर्थे महावाक्यजपे विनियोगः ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
नित्यानन्दो ब्रह्म तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
नित्यानन्दमयं ब्रह्म मध्यमाभ्यां वषट् ।
यो वै भूमा अनामिकाभ्यां हुम् ।
यो वै भूमादिपतिः कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ।
एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ॥
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म हृदयाय नमः ।
नित्यानन्दो ब्रह्म शिरसे स्वाहा ।
नित्यानन्दमयं ब्रह्म शिखायै वषट् ।
यो वै भूमा कवचाय हुम् ।
यो वै भूमाधिपतिः नेत्रत्रयाय वौषट् ।
एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म अस्त्राय फट् ।
भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः ।
ध्यानम् ।
नित्यानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
विश्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ॥
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥ १॥
अथ महावाक्यानि चत्वारि । यथा ।
ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म ॥ १॥
ॐ अहं ब्रह्मास्मि ॥ २॥
ॐ तत्त्वमसि ॥ ३॥
ॐ अयमात्मा ब्रह्म ॥ ४॥
तत्त्वमसीत्यभेदवाचकमिदं ये जपन्ति
ते शिवस्सायुज्यमुक्तिभाजो भवन्ति ॥
तत्पदमहामन्त्रस्य । परमहंसः ऋषिः ।
अव्यक्तगायत्री छन्दः । परमहंसो देवता ।
हं बीजम् । सः शक्तिः । सोऽहं कीलकम् ।
मम सायुज्यमुक्त्यर्थे जपे विनियोगः ।
तत्पुरुषाय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ईशानाय तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
अघोराय मध्यमाभ्यां वषट्
सद्योजाताय अनामिकाभ्यां हुम् ।
वामदेवाय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ।
तत्पुरुषेशानाघोरसद्योजातवामदेवेभ्यो
नमः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।
एवं हृदयादिन्यासः ।
भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः ॥
ध्यानम् ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यादितीतं
शुद्धं बुद्धं मुक्तमप्यव्ययं च ।
सत्यं ज्ञानं सच्चिदानन्दरूपं
ध्यायेदेवं तन्महोभ्राजमानम् ॥
त्वंपद महामन्त्रस्य विष्णुरृषिः ।
गायत्री छन्दः । परमात्मा देवता ।
ऐं बीजम् । क्लीं शक्तिः । सौः कीलकम् ।
मम मुक्त्यर्थे जपे विनियोगः ।
वासुदेवाय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
सङ्कर्षणाय तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
प्रद्युम्नाय मध्यमाभ्यां वषट् ।
अनिरुद्धाय अनामिकाभ्यां हुम् ।
वासुदेवाय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ।
वासुदेवसङ्कर्षणप्रद्युम्नानिरुद्धेभ्यः
करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।
एवं हृदयादिन्यासः ।
भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः ॥
ध्यानम् ॥
जीवत्वं सर्वभूतानां सर्वत्राखण्डविग्रहम् ।
चित्ताहङ्कारयन्तारं जीवाख्यं त्वंपदं भजे ।
असिपदमहामन्त्रस्य मन ऋषिः ।
गायत्री छन्दः । अर्धनारीश्वरो देवता ।
अव्यक्तादिर्बीजम् । नृसिंहः शक्तिः ।
परमात्मा कीलकम् । जीवब्रह्मैक्यार्थे जपे विनियोगः ।
पृथ्वीद्व्यणुकाय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
अब्द्व्यणुकाय तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
तेजोद्व्यणुकाय मध्यमाभ्यां वषट् ।
वायुद्व्यणुकाय अनामिकाभ्यं हुम् ।
आकाशद्व्यणुकाय कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ।
पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशद्व्यणुकेभ्यः
करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।
भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः ॥
ध्यानम् ॥
जीवो ब्रह्मेति वाक्यार्थं यावदस्ति मनःस्थितिः ।
ऐक्यं तत्त्वं लये कुर्वन्ध्यायेदसिपदं सदा ॥
एवं महावाक्यषडङ्गान्युक्तानि ॥
अथ रहस्योपनिषद्विभागशो वाक्यार्थश्लोकाः प्रोच्यन्ते ॥
येनेक्षते शृणोतीदं जिघ्रति व्याकरोति च ।
स्वाद्वस्वादु विजानाति तत्प्रज्ञानमुदीरितम् ॥ १॥
चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वगवादिषु ।
चैतन्यमेकं ब्रह्मातः प्रज्ञानं ब्रह्म मय्यपि ॥ २॥
परिपूर्णः परात्मास्मिन्देहे विद्याधिकारिणि ।
बुद्धेः साक्षितया स्थित्वा स्फुरन्नहमितीर्यते ॥ ३॥
स्वतः पूर्णः परात्मात्र ब्रह्मशब्देन वर्णितः ।
अस्मीत्यैक्यपरामर्शस्तेन ब्रह्म भवाम्यहम् ॥ ४॥
एकमेवाद्वितीयं सन्नामरूपविवर्जितम् ।
सृष्टेः पुराधुनाप्यस्य तादृक्त्वं तदितीर्यते ॥ ५॥
श्रोतुर्देहेन्द्रियातीतं वस्त्वत्र त्वंपदेरितम् ।
एकता ग्राह्यतेऽसीति तदैक्यमनुभूयताम् ॥ ६॥
स्वप्रकाशापरोक्षत्वमयमित्युक्तितो मतम् ।
अहङ्कारादिदेहान्तं प्रत्यगात्मेति गीयते ॥ ७॥
दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते ।
ब्रह्मशब्देन तद्ब्रह्म स्वप्रकाशात्मरूपकम् ॥ ८॥
अनात्मदृष्टेरविवेकनिद्रा-
महं मम स्वप्नगतिं गतोऽहम् ।
स्वरूपसूर्येऽभ्युदिते स्फुटोक्ते-
र्गुरोर्महावाक्यपदैः प्रबुद्धः ॥ ९॥
वाच्यं लक्ष्यमिति द्विधार्थसरणीवाच्यस्य हि त्वंपदे
वाच्यं भौतिकमिन्द्रियादिरपि यल्लक्ष्यं त्वमर्थश्च सः ।
वाच्यं तत्पदमीशताकृतमतिर्लक्ष्यं तु सच्चित्सुखा-
नन्दब्रह्मतदर्थ एष च तयोरैक्यं त्वसीदं पदम् ॥ १०॥
त्वमिति तदिति कार्ये कारणे सत्युपाधौ
द्वितयमितरथैकं सच्चिदानन्दरूपम् ।
उभयवचनहेतु देशकालौ च हित्वा
जगति भवति सोयं देवदत्तो यथैकः ॥ ११॥
कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः ।
कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते ॥ १२॥
श्रवणं तु गुरोः पूर्वं मननं तदनन्तरम् ।
निदिध्यासनमित्येतत्पूर्णबोधस्य कारणम् ॥ १३॥
अन्यविद्यापरिज्ञानमवश्यं नश्वरं भवेत् ।
ब्रह्मविद्यापरिज्ञानं ब्रह्मप्राप्तिकरं स्थितम् ॥ १४॥
महावाक्यान्युपदिशेत्सषडङ्गानि देशिकः ।
केवलं न हि वाक्यानि ब्रह्मणो वचनं यथा ,, १५॥
ईश्वर उवाच ।
एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठ रहस्योपनिषच्छुक ।
मया पित्रानुनीतेन व्यासेन ब्रह्मवादिना ॥ १६॥
ततो ब्रह्मोपदिष्टं वै सच्चिदानन्दलक्षणम् ।
जीवन्मुक्तः सदा ध्यायन्नित्यस्त्वं विहरिष्यसि ॥ १७॥
यो वेदादौ स्वरः प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठितः ।
तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः ॥ १८॥
उपदिष्टः शिवेनेति जगत्तन्मयतां गतः ।
उत्थाय प्रणिपत्येशं त्यक्ताशेषरिग्रहः ॥ १९॥
परब्रह्मपयोराशौ प्लवन्निव ययौ तदा ।
प्रव्रजन्तं तमालोक्य कृष्णद्वैपायनो मुनिः ॥ २०॥
अनुव्रजन्नाजुहाव पुत्रविश्लेषकातरः ।
प्रतिनेदुस्तदा सर्वे जगत्स्थावरजङ्गमाः ॥ २१॥
तच्छृत्वा सकलाकारं व्यासः सत्यवतीसुतः ।
पुत्रेण सहितः प्रीत्या परानन्दमुपेयिवान् ॥ २२॥
यो रहस्योपनिषदमधीते गुर्वनुग्रहात् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः साक्षात्कैवल्यमश्नुते
साक्षात्कैवल्यमश्नुत इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनाधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति शुकरहस्योपनिषत्समाप्ता ॥
श्वेताश्वतरोपनिषत्
ॐ सहनाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
प्रथमोऽध्यायः ।
हरिः ॐ ॥ ब्रह्मवादिनो वदन्ति ।
किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता
जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा ।
अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु
वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥ १॥
कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा
भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या ।
संयोग एषां न त्वात्मभावा-
दात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥ २॥
ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्
देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।
यः कारणानि निखिलानि तानि
कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥ ३॥
तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं
शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः ।
अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं
त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम् ॥ ४॥
पञ्चस्रोतोम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां
पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम् ।
पञ्चावर्तां पञ्चदुःखौघवेगां
पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः ॥ ५॥
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते
अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा
जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति ॥ ६॥
उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म
तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च ।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा
लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः ॥ ७॥
संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च
व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः ।
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृ-
भावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ ८॥
ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा
ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता ।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता
त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत् ॥ ९॥
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः
क्षरात्मानावीशते देव एकः ।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्व-
भावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ॥ १०॥
ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः
क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्रहाणिः ।
तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे
विश्वैश्वर्यं केवल आप्तकामः ॥ ११॥
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं
नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित् ।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा
सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ १२॥
वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिर्न
दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः ।
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्य-
स्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे ॥ १३॥
स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्याननिर्मथनाभ्यासादेवं पश्येन्निगूढवत् ॥ १४॥
तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पि-
रापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः ।
एवमात्माऽत्मनि गृह्यतेऽसौ
सत्येनैनं तपसायोऽनुपश्यति ॥ १५॥
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम् ॥ १६॥
द्वितीयोऽध्यायः ।
युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः ।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत् ॥ १॥
युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे ।
सुवर्गेयाय शक्त्या ॥ २॥
युक्त्वाय मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम् ।
बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान् ॥ ३॥
युञ्जते मन उत युञ्जते धियो
विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः ।
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक
इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः ॥ ४॥
युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक
एतु पथ्येव सूरेः ।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये
धामानि दिव्यानि तस्थुः ॥ ५॥
अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते ।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सञ्जायते मनः ॥ ६॥
सवित्रा प्रसवेन जुषेत ब्रह्म पूर्व्यम् ।
यत्र योनिं कृणवसे न हि ते पूर्तमक्षिपत् ॥ ७॥
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं
हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य ।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान्
स्रोतांसि सर्वाणि भयानकानि ॥ ८॥
प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः
क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत ।
दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं
विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः ॥ ९॥
समे शुचौ शर्करावह्निवालिका-
विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः ।
मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने
गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥ १०॥
नीहारधूमार्कानिलानलानां
खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम् ।
एतानि रूपाणि पुरःसराणि
ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे ॥ ११॥
पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते
पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते ।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः
प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ॥ १२॥
लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं
वर्णप्रसादः स्वरसौष्ठवं च ।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं
योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति ॥ १३॥
यथैव बिम्बं मृदयोपलिप्तं
तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम् ।
तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही
एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः ॥ १४॥
यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं
दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत् ।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः ॥ १५॥
एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः ।
पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः ।
स एव जातः स जनिष्यमाणः
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ॥ १६॥
यो देवो अग्नौ योऽप्सु
यो विश्वं भुवनमाविवेश ।
य ओषधीषु यो वनस्पतिषु
तस्मै देवाय नमो नमः ॥ १७॥
तृतीयोऽध्यायः ।
य एको जालवानीशत ईशनीभिः
सर्वाँल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
य एवैक उद्भवे सम्भवे च
य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ १॥
एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु-
र्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले
संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥ २॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो
विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रै-
र्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥ ३॥
यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च
विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं जनयामास पूर्वं
स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥ ४॥
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी ।
तया नस्तनुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥ ५॥
याभिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥ ६॥
ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं
यथानिकायं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितार-
मीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति ॥ ७॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ ८॥
यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चिद्य-
स्मान्नणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक-
स्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥ ९॥
ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् ।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥ १०॥
सर्वानन शिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः ।
सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥ ११॥
महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्वस्यैष प्रवर्तकः ।
सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः ॥ १२॥
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा
सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो
य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ १३॥
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १४॥
पुरुष एवेदꣳ सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ १५॥
सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १६॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं सुहृत् ॥ १७॥
नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥ १८॥
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता
पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता
तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥ १९॥
अणोरणीयान् महतो महीया-
नात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको
धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥ २०॥
वेदाहमेतमजरं पुराणं
सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य
ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम् ॥ २१॥
चतुर्थोऽध्यायः ।
य एकोऽवर्णो बहुधा शक्तियोगाद्
वरणाननेकान् निहितार्थो दधाति ।
विचैति चान्ते विश्वमादौ च देवः
स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥ १॥
तदेवाग्निस्तदादित्य-
स्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म
तदापस्तत् प्रजापतिः ॥ २॥
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि
त्वं कुमार उत वा कुमारी ।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि
त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥ ३॥
नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्ष-
स्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः ।
अनादिमत् त्वं विभुत्वेन वर्तसे
यतो जातानि भुवनानि विश्वा ॥ ४॥
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां
बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते
जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ ५॥
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यन-
श्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ ६॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽ-
नीशया शोचति मुह्यमानः ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य
महिमानमिति वीतशोकः ॥ ७॥
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ॥ ८॥
छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि
भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति ।
अस्मान् मायी सृजते विश्वमेत-
त्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः ॥ ९॥
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम् ।
तस्यवयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥ १०॥
यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको
यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वम् ।
तमीशानं वरदं देवमीड्यं
निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥ ११॥
यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च
विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं
स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥ १२॥
यो देवानामधिपो
यस्मिन्ल्लोका अधिश्रिताः ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः
कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १३॥
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये
विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं
ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥ १४॥
स एव काले भुवनस्य गोप्ता
विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढः ।
यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देवताश्च
तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति ॥ १५॥
घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं
ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ १६॥
एष देवो विश्वकर्मा महात्मा
सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो
य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ १७॥
यदाऽतमस्तान्न दिवा न रात्रिः
न सन्नचासच्छिव एव केवलः ।
तदक्षरं तत् सवितुर्वरेण्यं
प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥ १८॥
नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं
न मध्ये न परिजग्रभत् ।
न तस्य प्रतिमा अस्ति
यस्य नाम महद् यशः ॥ १९॥
न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एन-
मेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ २०॥
अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते ।
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ॥ २१॥
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि
मा नो गोषु मा न अश्वेषु रीरिषः ।
वीरान् मा नो रुद्र भामितो
वधीर्हविष्मन्तः सदामित् त्वा हवामहे ॥ २२॥
पञ्चमोऽध्यायः ।
द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते
विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ॥ १॥
यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको
विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः ।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे
ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् ॥ २॥
एकैक जालं बहुधा विकुर्व-
न्नस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः ।
भूयः सृष्ट्वा पतयस्तथेशः
सर्वाधिपत्यं कुरुते महात्मा ॥ ३॥
सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक्
प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वान् ।
एवं स देवो भगवान् वरेण्यो
योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः ॥ ४॥
यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः
पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद् यः ।
सर्वमेतद् विश्वमधितिष्ठत्येको
गुणांश्च सर्वान् विनियोजयेद् यः ॥ ५॥
तद् वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं
तद् ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम् ।
ये पूर्वं देवा ऋषयश्च तद् विदु-
स्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः ॥६॥
गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ता
कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता ।
स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा
प्राणाधिपः सञ्चरति स्वकर्मभिः ॥ ७॥
अङ्गुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः
सङ्कल्पाहङ्कारसमन्वितो यः ।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव
आराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः ॥ ८॥
बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ ९॥
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते ॥ १०॥
सङ्कल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहै-
र्ग्रासाम्बुवृष्ट्यात्मविवृद्धिजन्म ।
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही
स्थानेषु रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते ॥ ११॥
स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव
रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति ।
क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां
संयोगहेतुरपरोऽपि दृष्टः ॥ १२॥
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये
विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ १३॥
भावग्राह्यमनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम् ।
कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥ १४॥
षष्ठोऽध्यायः ।
स्वभावमेके कवयो वदन्ति
कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः ।
देवस्यैष महिमा तु लोके
येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ॥ १॥
येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वं ज्ञः
कालकारो गुणी सर्वविद् यः ।
तेनेशितं कर्म विवर्तते ह
पृथिव्यप्तेजोनिलखानि चिन्त्यम् ॥ २॥
तत्कर्म कृत्वा विनिवर्त्य भूय-
स्तत्त्वस्य तावेन समेत्य योगम् ।
एकेन द्वाभ्यां त्रिभिरष्टभिर्वा
कालेन चैवात्मगुणैश्च सूक्ष्मैः ॥ ३॥
आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि
भावांश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः ।
तेषामभावे कृतकर्मनाशः
कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः ॥ ४॥
आदिः स संयोगनिमित्तहेतुः
परस्त्रिकालादकलोऽपि दृष्टः ।
तं विश्वरूपं भवभूतमीड्यं
देवं स्वचित्तस्थमुपास्य पूर्वम् ॥ ५॥
स वृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो
यस्मात् प्रपञ्चः परिवर्ततेऽयम् ।
धर्मावहं पापनुदं भगेशं
ज्ञात्वात्मस्थममृतं विश्वधाम ॥ ६॥
तमीश्वराणां परमं महेश्वरं
तं देवतानां परमं च दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद्-
विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥ ७॥
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते
न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ ८॥
न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके
न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो
न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ॥ ९॥
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः स्वभावतः ।
देव एकः स्वमावृणोति स नो दधातु ब्रह्माप्ययम् ॥ १०॥
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः
साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ ११॥
एको वशी निष्क्रियाणां बहूना-
मेकं बीजं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा-
स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ १२॥
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनाना-
मेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तत्कारणं साङ्ख्ययोगाधिगम्यं
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ १३॥
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १४॥
एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये
स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः ।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ १५॥
स विश्वकृद् विश्वविदात्मयोनि-
र्ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद् यः ।
प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः
संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः ॥ १६॥
स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो
ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता ।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव
नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनाय ॥ १७॥
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवं आत्मबुद्धिप्रकाशं
मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ १८॥
निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् ।
अमृतस्य परं सेतुं दग्धेन्दनमिवानलम् ॥ १९॥
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥ २०॥
तपःप्रभावाद् देवप्रसादाच्च
ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान् ।
अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं
प्रोवाच सम्यगृषिसङ्घजुष्टम् ॥ २१॥
वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम् ।
नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः ॥ २२॥
यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ २३॥
प्रकाशन्ते महात्मन इति ।
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ संन्यासोपनिषत् ॥
संन्यासोपनिषद्वेद्यं संन्यासिपटलाश्रयम् ।
सत्तासामान्यविभवं स्वमात्रमिति भावये ॥
ॐ आप्यायन्तु मामाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण-
मस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ अथातः संन्यासोपनिषदं व्याख्यास्यामो
योऽनुक्रमेण संन्यस्यति स संन्यस्तो भवति । कोऽयं संन्यास
उच्यते कथं संन्यस्तो भवति । य आत्मानं क्रियाभिर्गुप्तं करोति
मातरं पितरं भार्यां पुत्रान्बन्धूननुमोदयित्वा ये
चास्यर्त्विजस्तान्सर्वांश्च पूर्ववत्प्राणित्वा वैश्वानरेष्टिं
निर्वपेत्सर्वस्वं दद्याद्यजमानस्य गा ऋत्विजः सर्वैः पात्रैः
समारोप्य यदाहवनीये गार्हपत्ये वान्वहार्यपचने
सभ्यावसथ्योश्च प्राणापानव्यानोदानसमानान्सर्वान्सर्वेषु
समारोपयेत् । सशिखान्केशान्विसृज्य यज्ञोपवीतं छित्त्वा पुत्रं
दृष्ट्वा त्वं यज्ञस्त्वं सर्वमित्यनुमन्त्रयेत् ।
यद्यपुत्रो भवत्यात्मानमेवेमं ध्यात्वाऽनवेक्षमाणः
प्राचीमुदीचिं वा दिशं प्रव्रजेच्च । त्रिषु वर्णेषु
भिक्षाचर्यं चरेत् । पाणिपात्रेणानाशनं कुर्यात् ।
औषधवदहनमाचरेत् । औषधवदशनं प्राश्नीयात् ।
यथालाभमश्नीयात्प्राणसन्धारणार्थं यथा मेदोवृद्धिर्न
जायते । कृशो भूत्वा ग्राम एकरात्रं नगरे पञ्चरात्रं
चतुरोमासान्वार्षिकान्ग्रामे वा नगरे वापि वसेत् ।
विशीर्णवस्त्रं वल्कलं वा प्रतिगृह्णीयानान्यत्प्रतिगृह्णीयाद्यद्यशक्तो
भवति क्लेशतस्तप्यते तप इति । यो वा एवं क्रमेण संन्यस्यति यो वा
एवं पश्यति किमस्य यज्ञोपवीतं कास्य शिखा कथं वास्योपस्पर्शनमिति ।
तं होवाचेदमेवास्य तद्यज्ञोपवीतं यदात्मध्यानं विद्या शिखा
नीरैः सर्वत्रावस्थितैः कार्यं निर्वर्तयन्नुदरपात्रेण जलतीरे निकेतनम् ।
ब्रह्मवादिनो वदन्त्यस्तमित आदित्ये कथं वास्योपस्पर्शनमिति ।
तान्होवाच यथाहनि तथा रात्रौ नास्य नक्तं न दिवा तदप्येतदृषिणोक्तम् ।
संकृद्दिवा हैवास्मै भवति य एवंविद्वानेतेनात्मानं संधत्ते ॥
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
ॐ चत्वारिंषत्संस्कारसम्पन्नः सर्वतो
विरक्तश्चित्तशुद्धिमेत्याशासूयेर्ष्याहंकारं
दग्ध्वा साधनचतुष्टयसम्पन्न एव संन्यस्तुमर्हति ।
संन्यासं निश्चयं कृत्वा पुनर्न च करोति यः ।
स कुर्यात्कृच्छ्रमात्रं तु पुनः संन्यस्तुमर्हति ।, १॥
संन्यासं पातयेद्यस्तु पतितं न्यासयेत्तु यः ।
संन्यासविघ्नकर्ता च त्रीनेतान्पतितान्विदुः ॥ २॥ इति॥
अथ षण्डः पतितोऽङ्गविकलः स्त्रैणो बधिरोऽर्भको मूकः
पाषण्डश्चक्री लिङ्गी कुष्ठी वैखानसहरद्विजौ
भृतकाध्यापकः शिपिविष्टोऽनग्निको नास्तिको वैराग्यवन्तोऽप्येते
न संन्यासार्हाः । संन्यस्ता यद्यपि महावाक्योपदेशे नाधिकारिणः ॥
आरूढपतितापत्यं कुनखी श्यावदन्तकः ।
क्षीबस्तथाङ्गविकलो नैव संन्यस्तुमर्हति ॥ ३॥
सम्प्रत्यवसितानां च महापातकिनां तथा ।
व्रात्यानामभिशस्तानां संन्यासं न कारयेत् ॥ ४॥
व्रतयज्ञतपोदानहोमस्वाध्यायवर्जितम् ।
सत्यशौचपरिभ्रष्टं संन्यासं न कारयेत् ॥ ५॥
एते नार्हन्ति संन्यासमातुरेण विना क्रमम् ।
ॐ भूः स्वाहेति शिखामुत्पाट्य यज्ञोपवीतं
बहिर्न निवसेत् । यशो बलं ज्ञानं वैराग्यं
मेधां प्रयच्छेति यज्ञोपवीतं छित्त्वा ॐ भूः
स्वाहेत्यप्सु वस्त्रं कटिसूयं च विसृज्य संन्यस्तं
मयेति त्रिवारमभिमन्त्रयेत् ।
संन्यासिनं द्विजं दृष्ट्वा स्थानाच्चलति भास्करः ।
एष मे मण्डलं भित्त्वा परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ६॥
षष्टिं कुलान्यतीतानि षष्टिमागामिकानि च ।
कुलान्युद्धरते प्राज्ञः संन्यस्तमिति यो वदेत् ॥ ७॥
ये च सन्तानजा दोषा ये दोषा देहसंभवाः ।
प्रैषाग्निर्निर्दहेत्सर्वांस्तुषारिन्निव काञ्चनम् ॥ ८॥
सखा मा गोपायेति दण्डं परिग्रहेत् ।
दण्डं तु वाणवं सौम्यं सत्वचं समपर्वकम् ।
पुण्यस्थलसमुत्पन्नं नानाकल्मषशोधितम् ॥ ९॥
अदग्धमहतं कीटैः पर्वग्रन्थिविराजितम् ।
नासादघ्नं शिरस्तुल्यं भ्रुवोर्वा बिभृयाद्यतिः ॥ १०॥
दण्डात्मनोस्तु संयोगः सर्वथा तु विधीयते ।
न दण्डेन विना गच्छेदिषुक्षेपत्रयं बुधः ॥ ११॥
जगज्जीवनं जीवनाधारभूतं माते मामन्त्रयस्व सर्वसौम्येति
कमण्डलुं परिगृह्य योगपट्टाभिषिक्तो भूत्वा यथासुखं विहरेत् ॥
त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज ।
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्त्यज ॥ १२॥
वैराग्यसंन्यासी ज्ञानसंन्यासी ज्ञानवैराग्यसंन्यासी
कर्मसंन्यासीति चातुर्विध्यमुपागतः । तद्यथेति दृष्टानुश्रविक-
विषयवैतृष्ण्यमेत्य प्राक्पुण्यकर्मविशेषात्संन्यस्तः
स वैराग्यसंन्यासी । शास्त्रज्ञानात्पापपुण्यलोकानुभवश्रवणा-
त्प्रपञ्चोपरतो देहवासनां शास्त्रवासनां लोकवासनां त्यक्त्वा
वमनान्नमिव प्रवृत्तिं सर्वं हेयं मत्वा साधनचतुष्टयसम्पन्नो
यः संन्यस्यति स एव ज्ञानसंन्यासी । क्रमेण सर्वमभ्यस्य सर्वमनुभूय
ज्ञानवैराग्याभ्यां स्वरूपानुसन्धानेन देहमात्रावशिष्टः संन्यस्य
जातरूपधरो भवति स ज्ञानवैराग्यसंन्यासी । ब्रह्मचर्यं समाप्य
गृही भूत्वा वानप्रस्थाश्रममेत्य वैराग्याभावेऽप्याश्रमक्रमानुसारेण
यः संन्यस्यति स कर्मसंन्यासी । स संन्यासः षड्विधो भवति
कुटीचकबहूदकहंसपरमहंसतुरीयातीतावधूताश्चेति । कुटीचकः
शिखायज्ञोपवीति दण्डकमण्डलुधरः कौपीनशाटीकन्थाधरः
पितृमातृगुर्वाराधनपरः पिठरखनित्रशिक्यादिमात्रसाधनपर
एकत्रान्नादनपरः श्वेतोर्ध्वपुण्ड्रधारी त्रिदण्डः । बहूदकः शिखादिकन्थाधर-
स्त्रिपुण्ड्रधारी कुटीचकवत्सर्वसमो मधुकरवृत्त्याष्टकवलाशी ।
हंसो जटाधारी त्रिपुण्ड्रोर्ध्वपुण्ड्रधारी असंक्लृप्तमाधूकरान्नाशी
कौपीनखण्डतुण्डधारी । परमहंसः शिखायज्ञोपवीतरहितः पञ्चगृहेषु
करपात्री एककौपीनधारी शाटीमेकामेकं वैणवं दण्डमेकशाटीधरो वा
भस्मोद्धृलनपरः सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखवृत्त्या फलाहारी अन्नाहारी
चेद्गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगंबरः कुणपवच्छरीन्वृत्तिकः ।
अवधूतस्त्वनियमः पतिताभिशस्तवर्जनपूर्वकं सर्ववर्णेष्वजगरवृत्त्याहारपरः स्वरूपानुसन्धानपरः ।
जगत्तावदिदं नाहं सवृक्षतृणपर्वतम् । यद्बाह्यं
जडमत्यन्तं तत्स्यां कथमहं विभुः ॥ १३॥
कालेनाल्पेन विलयी देहो नाहमचेतनः ।
जडया कर्णशष्कुल्या कल्पमानक्षणस्थया ॥ १४॥
शून्याकृतिः शून्यभवः शब्दो नाहमचेतनः ।
त्वचा क्षणविनाशिन्या प्राप्योऽप्राप्योऽयमन्यथा ॥ १५॥
चित्प्रसादोपलब्धात्मा स्पर्शो नाहमचेतनः ।
लब्धात्मा जिह्वया तुच्छो लोलया लोलसत्तया ॥ १६॥
स्वल्पस्यन्दो द्रव्यनिष्ठो रसो नाहमचेतनः ।
दृश्यदर्शनयोर्लीनं क्षयिक्षणविनाशिनोः ॥ १७॥
केवले द्रष्टरि क्षीणं रूपं नाहमचेतनम् ।
नासया गन्धजडया क्षयिण्या परिकल्पितः ॥ १८॥
पेलवो नियताकारो गन्धो नाहमचेतनः ।
निर्ममोऽमननः शान्तो गतपञ्चेन्द्रियभ्रमः ॥ १९॥
शुद्धचेतन एवाहं कलाकलनवर्जितः ।
चैत्यवर्जितचिन्मात्रमहमेषोऽवभासकः ॥ २०॥
सबाह्याभ्यन्तरव्यापी निष्कलोऽहं निरञ्जनः ।
निर्विकल्पचिदाभास एक आत्मास्मि सर्वगः ॥ २१॥
मयैव चेतनेनेमे सर्वे घटपटादयः ।
सूर्यान्ता अवभास्यन्ते दीपेनेवात्मतेजसा ॥ २२॥
मयैवैताः स्फुरन्तीह विचित्रेन्द्रियवृत्तयः ।
तेजसान्तःप्रकाशेन यथाग्निकणपङ्क्तयः ॥ २३॥
अनन्तानन्दसंभोगा परोपशमशालिनी ।
शुद्धेयं चिन्मयी दृष्टिर्जयत्यखिलदृष्टिषु ॥ २४॥
सर्वभावान्तरस्थाय चैत्यमुक्तचिदात्मने ।
प्रत्यक्चैतन्यरूपाय मह्यमेव नमो नमः ॥ २५॥
विचित्राः शक्तयः स्वच्छाः समा या निर्विकारया ।
चिता क्रियन्ते समया कलाकलनमुक्तया ॥ २६॥
कालत्रयमुपेक्षित्र्या हीनायाश्चैत्यबन्धनैः ।
चितश्चैत्यमुपेक्षित्र्याः समतैवावशिष्यते ॥ २७॥
सा हि वाचामगम्यत्वादसत्तामिव शाश्वतीम् ।
नैरात्मसिद्धात्मदशामुपयातैव शिष्यते ॥ २८॥
ईहानीहामयैरन्तर्या चिदावलिता मलैः ।
सा चिन्नोत्पादितुं शक्ता पाशबद्धेव पक्षिणी ॥ २९॥
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन जन्तवः ।
धराविवरमग्नानां कीटानां समतां गताः ॥ ३०॥
आत्मनेऽस्तु नमो मह्यमविच्छिन्नचिदात्मने ।
परामृष्टोऽस्मि लब्धोऽस्मि प्रोदितोऽस्म्यचिरादहम् ।
उद्धृतोऽस्मि विकल्पेभ्यो योऽस्मि सोऽस्मि नमोऽस्तु ते ॥ ३१॥
तुभ्यं मह्यमनन्ताय मह्यं तुभ्यं चिदात्मने ।
नमस्तुभ्यं परेशाय नमो मह्यं शिवाय च ॥ ३२॥
तिष्ठन्नपि हि नासीनो गच्छन्नपि न गच्छति ।
शान्तोऽपि व्यवहारस्थः कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ३३॥
सुलभश्चायमत्यन्तं सुज्ञेयश्चाप्तबन्धुवत् ।
शरीरपद्मकुहरे सर्वेषामेव षट्पदः ॥ ३४॥
न मे भोगस्थितौ वाञ्छा न मे भोगविसर्जने ।
यदायाति तदायातु यत्प्रयाति प्रयातु तत् ॥ ३५॥
मनसा मनसि च्छिन्ने निरहंकारं गते ।
भावेन गलिते भावे स्वस्थस्तिष्ठामि केवलः ॥ ३६॥
निर्भावं निरहंकारं निर्मनस्कमनीहितम् ।
केवलास्पन्दशुद्धात्मन्येव तिष्ठति मे रिपुः ॥ ३७॥
तृष्णारज्जुगणं छित्वा मच्छरीरकपञ्जरात् ।
न जाने क्व गतोड्डीय निरहंकारपक्षिणी ॥ ३८॥
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
यः समः सर्वभूतेषु जीवितं तस्य शोभते ॥ ३९॥
योऽन्तःशीतलया बुद्ध्या रागद्वेषविमुक्तया ।
साक्षिवत्पश्यतीदं हि जीवितं तस्य शोभते ॥ ४०॥
येन सम्यक्परिज्ञाय हेयोपादेयमुज्झता ।
चित्तस्यान्तेऽर्पितं चित्तं जीवितं तस्य शोभते ॥ ४१॥
ग्राह्यग्राहकसंबन्धे क्षीणे शान्तिरुदेत्यलम् ।
स्थितिमभ्यागता शान्तिर्मोक्षनामाभिधीयते ॥ ४२॥
भ्रष्टबीजोपमा भूयो जन्माङ्कुअरविवर्जिता ।
हृदि जीवद्विमुक्तानां शुद्धा भवति वासना ॥ ४३॥
पावनी परमोदारा शुद्धसत्त्वानुपातिनी ।
आत्मध्यानमयी नित्या सुषुप्तिस्थेव तिष्ठति ॥ ४४॥
चेतनं चित्तरिक्तं हि प्रत्यक्चेतनमुच्यते ।
निर्मनस्कस्वभावत्वान्न तत्र कलनामलम् ॥ ४५॥
सा सत्यता सा शिवता सावस्था पारमात्मिकी ।
सर्वज्ञता सा संतृप्तिर्नतु यत्र मनः क्षतम् ॥ ४६॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
निरस्तमननानन्दः संविन्मात्रपरोऽस्म्यहम् ॥ ४७॥
मलं संवेद्यमुत्सृज्य मनो निर्मूलयन्परम् ।
आशापाशानलं छित्त्वा संविन्मात्रपरोऽस्म्यहम् ॥ ४८॥
अशुभाशुभसंकल्पः संशान्तोऽस्मि निरामयः ।
नष्टेष्टानिष्टकलनः संमात्रपरोस्म्यहम् ॥ ४९॥
आत्मतापरते त्यक्त्वा निर्विभागो जगत्स्थितौ ।
वज्रस्तंभवदात्मानमवलंब्य स्थिरोऽस्म्यहम् ॥ ५०॥
निर्मलायां निराशायां स्वसंवित्तौ स्थितोऽस्म्यहम् ।
ईहितानीहितैर्मुक्तो हेयोपादेयवर्जितः ॥ ५१॥
कदान्तस्तोषमेष्यामि स्वप्रकाशपदे स्थितः ।
कदोपशान्तमननो धरणीधरकन्दरे ॥ ५२॥
समेष्यामि शिलासाम्यं निर्विकल्पसमाधिना ।
निरंशध्यानविश्रान्तिमूकस्य मम मस्तके ॥ ५३॥
कदा तार्णं करिष्यन्ति कुलायं वनपुत्रिकाः ।
संकल्पपादपं तृष्णालतं छित्त्वा मनोवनम् ॥ ५४॥
विततां भुवमासाद्य विहराभि यथासुखम् ।
पदं तदनु यातोऽस्मि केवलोऽस्मि जयाम्यहम् ॥ ५५॥
निर्वाणोऽस्मि निरीहोऽस्मि निरंशोऽस्मि निरीप्सितः ।
स्वच्छतोर्जितता सत्ता हृद्यता सत्यता ज्ञता ॥ ५६॥
आनन्दितोपशमता सदा प्रमुदितोदिता ।
पूर्णतोदारता सत्या कान्तिसत्ता सदैकता ॥ ५७॥
इत्येवं चिन्तयन्भिक्षुः स्वरूपस्थितिमञ्जसा ।
निर्विकल्पस्वरूपज्ञो निर्विकल्पो बभूव ह ॥ ५८॥
आतुरो जीवति चेत्क्रमसंन्यासः कर्तव्यः ।
न शूद्रस्त्रीपतितोदक्या संभाषणम् ।
न यतेर्देवपूजनोत्सवदर्शनम् ।
तस्मान्न संन्यासिन एष लोकः ।
आतुरकुटीचकयोर्भूलोकभुवर्लोकौ ।
बहूदकस्य स्वर्गलोकः ।
हंसस्य तपोलोकः । परमहंसस्य सत्यलोकः ।
तुरीयातीतावधूतयोः स्वात्मन्येव कैवल्यं
स्वरूपानुसन्धानेन भ्रमरकीटन्यायवत् ।
स्वरूपानुसन्धानव्यतिरिक्तान्यशास्त्राभ्यास
उष्ट्रकुंकुमभारवद्व्यर्थः । न योगशास्त्रप्रवृत्तिः ।
न सांख्यशास्त्राभ्यासः । न मन्त्रतन्त्रव्यापारः ।
नेतरशास्त्रप्रवृत्तिर्यतेरस्ति । अस्ति चेच्छवालंकारव-
त्कर्माचर विद्यादूरः ।
न परिव्राण्नामसंकीर्तनपरो यद्यत्कर्म करोति तत्तत्फलमनुभवति ।
एरण्डतैलफेनवत्सर्वं परित्यजेत् । न देवताप्रसादग्रहणम् ।
न बाह्यदेवाभ्यर्चनं कुर्यात् । स्वव्यतिरिक्तं सर्वं त्यक्त्वा
मधुकरवृत्त्याहारमाहरन्कृशीभूत्वा मेदोवृद्धिमकुर्वन्विहरेत् ।
माधूकरेण करपात्रेणास्यपात्रेण वा कालं नयेत् ।
आत्मसंमितमाहारमाहरेदात्मवान्यतिः ।
आहारस्य च भागौ द्वौ तृतीयमुदकस्य च ।
वायोः संचरणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत् ॥५९॥
भैक्षेण वर्तयेन्नित्यं नैकान्नाशी भवेत्क्वचित् ।
निरीक्षन्ते त्वनुद्विग्नास्तद्गृहं यत्नतो व्रजेत् ॥ ६०॥
पञ्चसप्तगृहाणां तु भिक्षामिच्छेत्क्रियावताम् ।
गोदोहमात्रमाकाङ्क्षेन्निष्क्रान्तो न पुनर्व्रजेत् ॥ ६१॥
नक्ताद्वरश्चोपवास उपवासादयाचितः ।
अयाचिताद्वरं भैक्ष्यं तस्मात्भैक्षेण वर्धयेत् ॥ ६२॥
नैव सव्यापसव्येन भिक्षाकाले विशेद्गृहान् ।
नातिक्रामेद्गृहं मोहाद्यत्र दोषो न विद्यते ॥ ६३॥
श्रोत्रियान्नं न भिक्षेत श्रद्धाभक्तिबहिष्कृतम् ।
व्रात्यस्यापि गृहे भिक्षेच्छ्रद्धाभक्तिपुरस्कृते ॥ ६४॥
माधूकरमसंक्लृप्तं प्राक्प्रणीतमयाचितम् ।
तात्कालिकं चोपपन्नं भैक्षं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ ६५॥
मनःसंकल्परहितांस्त्रीन्गृहान्पञ्च सप्त वा ।
मधुमक्षिकवत्कृत्वा माधूकरमिति स्मृतम् ॥ ६६॥
प्रातःकाले च पूर्वेद्युर्यद्भक्तैः प्राथितं मुहुः ।
तद्भैक्षं प्राक्प्रणीतं स्यात्स्थितिं कुर्यात्तथापि वा ॥ ६७॥
भिक्षाटनसमुद्योगाद्येन केन निमन्त्रितम् ।
अयाचितं तु तद्भैक्षं भोक्तव्यं च मुमुक्षुभिः ॥ ६८॥
उपस्थानेन यत्प्रोक्तं भिक्षार्थं ब्राह्मणेन तत् ।
तात्कालिकमिति ख्यातं भोक्तव्यं यतिभिस्तदा ॥ ६९॥
सिद्धमन्नं यदानीतं ब्राह्मणेन मठं प्रति ।
उपपन्नमिति प्राहुर्मुनयो मोक्षकाङ्क्षिणः ॥ ७०॥
चरेन्माधूकरं भैक्षं यतिर्म्लेच्छकुलादपि ।
एकान्नं नतु भुञ्जीत बृहस्पतिसमादपि ।
याचितायाचिताभ्यां च भिक्षाभ्यां कल्पयेत्स्थितम् ॥ ७१॥
न वायुः स्पर्शदोषेण नाग्निर्दहनकर्मणा ।
नापो मूत्रपुरीषाभ्यां नान्नदोषेण मस्करी ॥ ७२॥
विधूमे सन्नमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने ।
कालेऽपराह्णे भूयिष्ठे भिक्षाचरणमाचरेत् ॥ ७३॥
अभिशतं च पतितं पापण्डं देवपूजकम् ।
वर्जयित्वा चरेद्भैक्षं सर्ववर्णेषु चापदि ॥ ७४॥
घृतं स्वमूत्रसदृशं मधु स्यात्सुरया समम् ।
तैलं सूकरमूत्रं स्यात्सूपं लशुनसंमितम् ॥ ७५॥
माषापूषादि गोमांसं क्षीरं मूत्रसमं भवेत् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन घृतादीन्वर्जयेद्यतिः ।
घृतसूपादिसंयुक्तमन्नं नाद्यात्कदाचन ॥ ७६॥
पात्रमस्य भवेत्पाणिस्तेन नित्यं स्थितिं नयेत् ।
पाणिपात्रश्चरन्योगी नासकृद्भैक्षमाचरेत् ॥ ७७॥
आस्येन तु यदाहारं गोवन्मृगयते मुनिः ।
तदा समः स्यात्सर्वेषु सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ ७८॥
आज्यं रुधिरमिव त्यजेदेकत्रान्नं पललमिव
गन्धलेपनमशुद्धलेपनमिव क्षारमन्त्यजमिव
वस्त्रमुच्छिष्टपात्रमिवाभ्यङ्गं स्त्रीसङ्गमिव
मित्राह्लादकं मूत्रमिव स्पृहां गोमांसमिव
ज्ञातचरदेशं चण्डालवाटिकादिव स्त्रियमहिमिव
सुवर्णं कालकूटमिव सभास्थलं श्मशानस्थलमिव
राजधानीं कुंभीपाकमिव शवपिण्डवदेकत्रान्नं न
देवतार्चनम् । प्रपञ्चवृत्तिं परित्यय जीवन्मुक्तो भवेत् ॥
आसनं पात्रलोपश्च संचयः शिष्यसंचयः ।
दिवास्वापो वृथालापो यतेर्बन्धकराणि षट् ॥ ७९॥
वर्षाभ्योऽन्यत्र यत्स्थानमासनं तदुदाहृतम् ।
उत्कालाब्वादिपात्राणामेकस्यापीह संग्रहः ॥ ८०॥
यतेः संव्यवहराय पात्रलोपः स उच्यते ।
गृहीतस्य तु दण्डादेर्द्वितीयस्य परिग्रहः ॥ ८१॥
कालान्तरोपभोगार्थं संचयः परिकीर्तितः ।
शुश्रूषालाभपूजार्थं यशोर्थं वा परिग्रहः ॥ ८२॥
शिष्याणां नतु कारुण्याच्छिष्यसंग्रह ईरितः ।
विद्या दिवा प्रकाशत्वादविद्या रात्रिरुच्यते ॥ ८३॥
विद्याभ्यासे प्रमादो यः स दिवास्वाप उच्यते ।
आध्यात्मिकीं कथां मुक्त्वा भिक्षावार्तां विना तथा ॥ ८४॥
अनुग्रहं परिप्रश्नं वृथाजल्पोऽन्य उच्यते ।
एकान्नं मदमात्सर्यं गन्धपुष्पविभूषणम् ॥ ८५॥
ताम्बूलाभ्यञ्जने क्रीडा भोगाकाङ्क्षा रसायनम् ।
कत्थनं कुत्सनं स्वस्ति ज्योतिश्च क्रयविक्रयम् ॥ ८६॥
क्रियाकर्मविवादश्च गुरुवाक्यविलङ्घनम् ।
संधिश्च विग्रहो यानं मञ्चकं शुक्लवस्त्रकम् ॥ ८७॥
शुक्लोत्सर्गो दिवास्वापो भिक्षाधारस्तु तैजसम् ।
विषं चैवायुधं बीजं हिंसां तैक्ष्ण्यं च मैथुनम् ॥ ८८॥
त्यक्तं संन्यासयोगेन गृहधर्मादिकं व्रतम् ।
गोत्रादिचरणं सर्वं पितृमातृकुलं धनम् ।
प्रतिषिद्धानि चैतानि सेवमानो व्रजेदधः ॥ ८९॥
सुजीर्णोऽपि सुजीर्णासु विद्वांस्त्रीषु न विश्वसेत् ।
सुजीर्णास्वपि कन्थासु सज्जते जीर्णमम्बरम् ॥ ९०॥
स्थावरं जङ्गमं बीजं तैजसं विषमायुधम् ।
षडेतानि न गृह्णीयाद्यतिर्मूत्रपुरीषवत् ॥ ९१॥
नैवाददीत पाथेयं यतिः किंचिदनापदि ।
पक्वमापत्सु गृण्हीयाद्यावदन्नं न लभ्यते ॥ ९२॥
नीरुजश्च युवा चैव भिक्षुर्नावसथे वसेत् ।
परार्थं न प्रतिग्राह्यं न दद्याच्च कथंचन ॥ ९३॥
दैन्यभावात्तु भूतानां सौभगाय यतिश्चरेत् ।
पक्वं वा यदि वाऽपक्वं याचमानो व्रजेदधः ॥ ९४॥
अन्नपानपरो भिक्षुर्वस्त्रादीनां प्रतिग्रही ।
आविकं वानाविकं वा तथा पट्टपटानपि ॥ ९५॥
प्रतिगृह्य यतिश्चैतान्पतत्येव न संशयः ।
अद्वैतं नावमाश्रित्य जीवन्मुक्तत्वमाप्नुयात् ॥ ९६॥
वाग्दण्डे मौनमातिष्टेत्कायदण्डे त्वभोजनम् ।
मानसे तु कृते दण्डे प्राणायामो विधीयते ॥ ९७॥
कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते ।
तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥ ९८॥
रथ्यायां बहुवस्त्राणि भिक्षा सर्वत्र लभ्यते ।
भूमिः शय्यास्ति विस्तीर्णा यतयः केन दुःखितः ॥ ९९॥
प्रपञ्चमखिलं यस्तु ज्ञानाग्नौ जुहुयाद्यतिः ।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य सोऽग्निहोत्री महायतिः ॥ १००॥
प्रवृत्तिर्द्विविधा प्रोक्ता मार्जारी चैव वानरी ।
ज्ञानाभ्यासवतामोतुर्वानरीभाक्त्वमेव च ॥ १०१॥
नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः ।
जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोकमाचरेत् ॥ १०२॥
सर्वेषामेव पापानां सङ्घाते समुपस्थिते ।
तारं द्वादशसाहस्रमभ्यसेच्छेदनं हि तत् ॥ १०३॥
यस्तु द्वादशसाहस्रं प्रणवं जपतेऽन्वहम् ।
तस्य द्वादशभिर्मासैः परं ब्रह्म प्रकाशते॥ १०४॥
इत्युपनिषत् हरिः ॐ तत्सत् ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
ॐ आप्यायन्तु मामाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च ॥ सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं
माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरण-
मस्त्वनिराकरणं मेस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि सन्तु । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति संन्यासोपनिषत्समाप्ता ॥
श्रीसरस्वतीरहस्योपनिषत्
प्रतियोगिविनिर्मुक्तब्रह्मविद्यैकगोचरम् ।
अखण्डनिर्विकल्पं तद्रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठित-
माविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे
प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ऋतं वदिष्यामि
सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु अवतु मामवतु वक्तार-
मवतु वक्तारम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ ऋषयो ह वै भगवन्तमाश्वलायनं सम्पूज्य
पप्रच्छुः केनोपायेन तज्ज्ञानं तत्पदार्थावभासकम् ।
यदुपासनया तत्त्वं जानासि भगवन्वद ॥ १॥
सरस्वती दशश्लोक्या सऋचा बीजमिश्रया ।
स्तुत्वा जप्त्वा परां सिद्धिमलभं मुनिपुङ्गवाः ॥ २॥ ऋषय ऊचुः ।
कथं सारस्वतप्राप्तिः केन ध्यानेन सुव्रत ।
महासरस्वती येन तुष्टा भगवती वद ॥ ३॥
स होवाचाश्वलायनः । अस्य श्रीसरस्वतीदशश्लोकीमहामन्त्रस्य ।
अहमाश्वलायन ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । श्री वागीश्वरी देवता ।
यद्वागिति बीजम् । देवीं वाचमिति शक्तिः । प्रणो देवीति कीलकम् ।
विनियोगस्तत्प्रीत्यर्थे । श्रद्धा मेधा प्रज्ञा धारणा वाग्देवता
महासरस्वतीत्येतैरङ्गन्यासः ॥ नीहारहारघनसारसुधाकराभां
कल्याणदां कनकचम्पकदामभूषाम् । उत्तुङ्गपीनकुचकुम्भ-
मनोहराङ्गीं वाणीं नमामि मनसा वचसा विभूत्यै ॥ १॥
ॐ प्रणोदेवीत्यस्य मन्त्रस्य भरद्वाज ऋषिः । गायत्री छन्दः ।
श्रीसरस्वती देवता । प्रणवेन बीजशक्तिः कीलकम् । इष्टार्थे विनियोगः ।
मन्त्रेण न्यासः ॥ या वेदान्तार्थतत्त्वैकस्वरूपा परमार्थतः ।
नामरूपात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती ॥ ॐ प्रणो देवी सरस्वती
वाजेभिर्वाजिनीवती ॥ धीनामवित्र्यवतु ॥ १॥
आ नो दिव इति मन्त्रस्य अत्रिरृषिः । त्रिष्टुप् छन्दः ।
सरस्वती देवता । ह्रीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । इष्टार्थे
विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥ या साङ्गोपाङ्गवेदेषु
चतुर्ष्वेकैव गीयते । अद्वैता ब्रह्मणः शक्तिः सा मां
पातु सरस्वती ॥ ह्रीं आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा सरस्वती
यजतागं तु यज्ञम् । हवं देवी जुजुषाणा घृताची
शग्मां नो वाचमुशती श्रुणोतु ॥ २॥
पावका न इति मन्त्रस्य । मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री
छन्दः । सरस्वती देवता । श्रीमिति बीजशक्तिः कीलकम् ।
इष्टार्थे विनियोगः । मन्त्रेण न्यासः ॥ या वर्णपदवाक्यार्थ-
स्वरूपेणैव वर्तते । अनादिनिधनानन्ता सा मां पातु
सरस्वती ॥ श्रीं पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञं
वष्टु धिया वसुः ॥ ३॥
चोदयित्रीति मन्त्रस्य मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः ।
सरस्वती देवता । ब्लूमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ॥
अध्यात्ममधिदैवं च देवानां सम्यगीश्वरी । प्रत्यगास्ते
वदन्ती या सा मां पातु सरस्वती ॥ ब्लूं चोदयित्री सूनृतानां
चेतन्ती सुमतीनाम् । यज्ञं दधे सरस्वती ॥ ४॥
महो अर्ण इति मन्त्रस्य । मधुच्छन्द ऋषिः । गायत्री छन्दः ।
सरस्वती देवता । सौरिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
अन्तर्याम्यात्मना विश्वं त्रैलोक्यं या नियच्छति ।
रुद्रादित्यारूपस्था यस्यामावेश्य तां पुनः । ध्यायन्ति
सर्वरूपैका सा मां पातु सरस्वती । सौः महो अर्णः
सरस्वती प्रचेतयति केतुना । धियो विश्वा विराजति ॥ ५॥
चत्वारि वागिति मन्त्रस्य उचथ्यपुत्र ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः ।
सरस्वती देवता । ऐमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
या प्रत्यग्दृष्टिभिर्जीवैर्व्यज्यमानानुभूयते । व्यापिनी
ज़्`नप्तिरूपैका सा मां पातु सरस्वती ॥ ऐं चत्वारि वाक्
परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि
निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥ ६॥
यद्राग्वदन्तीति मन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः ।
सरस्वती देवता । क्लीमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
नामजात्यादिभिर्भेदैरष्टधा या विकल्पिता । निर्विकल्पात्मना
व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती ॥ क्लीं यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि
राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा । चतस्र ऊर्जं दुदुहे
पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम ॥ ७॥
देवीं वाचमिति मन्त्रस्य भार्गव ऋषिः । त्रिष्टुप् छन्दः ।
सरस्वती देवता । सौरिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
व्यक्ताव्यक्तगिरः सर्वे वेदाद्या व्याहरन्ति याम् । सर्वकामदुधा
धेनुः सा मां पातु सरस्वती ॥ सौः देवीं वाचमजनयन्त
देवास्ता विश्वरूपाः पशवो वदन्ति । सा नो मन्द्रेषमूर्जं
दुहाना धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतु ॥ ८॥
उत त्व इति मन्त्रस्य बृहस्पतिरृषिः । त्रिष्टुप् छन्दः ।
सरस्वती देवता । समिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
यां विदित्वाखिलं बन्धं निर्मथ्याखिलवर्त्मना । योगी याति
परं स्थानं सा मां पातु सरस्वती ॥ सं उत त्वः पश्यन्न
ददर्श वाचमुत त्वः श्रुण्वन्न श्रुणोत्येनाम् । उतो त्वस्मै
तन्वं १ विसस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥ ९॥
अम्बितम इति मन्त्रस्य गृत्समद ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः ।
सरस्वती देवता । ऐमिति बीजशक्तिः कीलकम् । मन्त्रेण न्यासः ।
नामरूपात्मकं सर्वं यस्यामावेश्य तां पुनः ।
ध्यायन्ति ब्रह्मरूपैका सा मां पातु सरस्वती ॥ ऐं अम्बितमे
नदीतमे देवितमे सरस्वती । अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब
नस्कृधि ॥ १०॥
चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम ।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती ॥ १॥
नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि ।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥ २॥
अक्षसूत्राङ्कुशधरा पाशपुस्तकधारिणी ।
मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु मे सदा ॥ ३॥
कम्बुकण्ठी सुताम्रोष्ठी सर्वाभरणभूषिता ।
महासरस्वती देवी जिह्वाग्रे संनिविश्यताम् ॥ ४॥
या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा ।
भक्तजिह्वाग्रसदना शमादिगुणदायिनी ॥ ५॥
नमामि यामिनीनाथलेखालङ्कृतकुन्तलाम् ।
भवानीं भवसन्तापनिर्वापणसुधानदीम् ॥ ६॥
यः कवित्वं निरातङ्कं भुक्तिमुक्ती च वाञ्छति ।
सोऽभैर्च्यैनां दशश्लोक्या नित्यं स्तौति सरस्वतीम् ॥ ७॥
तस्यैवं स्तुवतो नित्यं समभ्यर्च्य सरस्वतीम् ।
भक्तिश्रद्धाभियुक्तस्य षण्मासात्प्रत्ययो भवेत् ॥ ८॥
ततः प्रवर्तते वाणी स्वेच्छया ललिताक्षरा ।
गद्यपद्यात्मकैः शब्दैरप्रमेयैर्विवक्षितैः ॥ ९॥
अश्रुतो बुध्यते ग्रन्थः प्रायः सारस्वतः कविः ।
इत्येवं निश्चयं विप्राः सा होवाच सरस्वती ॥ १०॥
आत्मविद्या मया लब्ध्वा ब्रह्मणैव सनातनी ।
ब्रह्मत्वं मे सदा नित्यं सच्चिदानन्दरूपतः ॥ ११॥
प्रकृतित्वं ततः सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यतः ।
सत्यमाभाति चिच्छाया दर्पणे प्रतिबिम्बवत् ॥ १२॥
तेन चित्प्रतिबिम्बेन त्रिविधा भाति सा पुनः ।
प्रकृत्यवच्छिन्नतया पुरुषत्वं पुनश्च ते ॥ १३॥
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां बिम्बितो ह्यजः ।
सत्त्वप्रधाना प्रकृतिर्मायेति प्रतिपाद्यते ॥ १४॥
सा माया स्ववशोपाधिः सर्वज्ञस्येश्वरस्य हि ।
वश्यमायत्वमेकत्वं सर्वज्ञत्वं च तस्य तु ॥ १५॥
सात्विकत्वात्समष्टित्वात्साक्षित्वाज्जगतामपि ।
जगत्कर्तुमकर्तुं वा चान्यथा कर्तुमीशते ॥ १६॥
यः स ईश्वर इत्युक्तः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः ।
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम् ॥ १७॥
विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादिब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत् ।
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः ॥ १८॥
आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम् ।
साक्षिणः पुरतो भातं लिङ्गदेहेन संयुतम् ॥ १९॥
चितिच्छायासमावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ।
अस्य जीवत्वमारोपात्साक्षिण्यप्यवभासते ॥ २०॥
आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत् ।
तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति ॥ २१॥
या शक्तिस्त्वद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ।
अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः ॥ २२॥
भेदस्तयोर्विकारः स्यात्सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ।
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ॥ २३॥
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ।
अपेक्ष्य नामरूपद्वे सच्चिदानन्दतत्परः ॥ २४॥
समाधिं सर्वदा कुर्याधृदये वाथ वा बहिः ।
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि ॥ २५॥
दृश्यशब्दानुभेदेन स विकल्पः पुनर्द्विधा ।
कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् ॥ २६॥
ध्यायद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ।
स्वानुभूतिरसावेशाद्दृश्यशब्दाद्यपेक्षितुः ॥ २८॥
निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवान्तस्थितदीपवत् ।
हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन्कस्मिंश्च वस्तुनि ॥ २९॥
समाधिराद्यसन्मात्रान्नामरूपपृथक्कृतिः ।
स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः ॥ ३०॥
एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत्कालं निरन्तरम् ।
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२॥
मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो नहि ।
इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशयः ॥ ३३॥
इत्युपनिषत् ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठित-
माविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा
प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ऋतं वदिष्यामि
सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु
वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति सरस्वतीरहस्योपनिषत्समाप्ता ॥
॥ सर्वसारोपनिषत् ॥
समस्तवेदान्तसारसिद्धान्तार्थकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
सर्वसारं निरालम्बं रहस्यं वज्रसूचिकम् ।
तेजोनादध्यानविद्यायोगतत्त्वात्मबोधकम् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
कथं बन्धः कथं मोक्षः का विद्या काऽविद्येति ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयं च कथम् ।
अन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयकोशाः कथम् ।
कर्ता जीवः पञ्चवर्गः क्षेत्रज्ञः साक्षी कूटस्थोऽन्तर्यामी कथम् ।
प्रत्यगात्मा परात्मा माया चेति कथम् ।
आत्मेश्वरजीवः अनात्मनां देहादीनामात्मत्वेनाभिमन्यते
सोऽभिमान आत्मनो बन्धः । तन्निवृत्तिर्मोक्षः ।
या तदभिमानं कारयति सा अविद्या । सोऽभिमानो यया
निवर्तते सा विद्या । मन आदिचतुर्दशकरणैः
पुष्कलैरादित्याद्यनुगृहीतैः शब्दादीन्विषयान्-
स्थूलान्यदोपलभते तदात्मनो जागरणम् ।
तद्वासनासहितैश्चतुर्दशकरणैः शब्दाद्यभावेऽपि
वासनामयाञ्छब्दादीन्यदोपलभते तदात्मनः स्वप्नम् ।
चतुर्दशकरणो परमाद्विशेषविज्ञानाभावाद्यदा
शब्दादीन्नोपलभते तदात्मनः सुषुप्तम् ।
अवस्थात्रयभावाभावसाक्षी स्वयंभावरहितं
नैरन्तर्यं चैतन्यं यदा तदा तुरीयं चैतन्यमित्युच्यते ।
अन्नकार्याणां कोशानां समूहोऽन्नमयः कोश उच्यते ।
प्राणादिचतुर्दशवायुभेदा अन्नमयकोशे यदा वर्तन्ते
तदा प्राणमयः कोश इत्युच्यते ।
एतत्कोशद्वयसंसक्तं मन आदि चतुर्दशकरणैरात्मा
शब्दादिविषयसङ्कल्पादीन्धर्मान्यदा करोति तदा मनोमयः
कोश इत्युच्यते । एतत्कोशत्रयसंसक्तं तद्गतविशेषज्ञो
यदा भासते तदा विज्ञानमयः कोश इत्युच्यते ।
एतत्कोशचतुष्टयं संसक्तं स्वकारणाज्ञाने
वटकणिकायामिव वृक्षो यदा वर्तते तदानन्दमयः कोश
इत्युच्यते । सुखदुःखबुद्ध्या श्रेयोऽन्तः कर्ता यदा तदा
इष्टविषये बुद्धिः सुखबुद्धिरनिष्टविषये बुद्धिर्दुःखबुद्धिः ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः सुखदुःखहेतवः ।
पुण्यपापकर्मानुसारी भूत्वा प्राप्तशरीरसंयोग-
मप्राप्तशरीरसंयोगमिव कुर्वाणो यदा दृश्यते
तदोपहितजीव इत्युच्यते । मन आदिश्च
प्राणादिश्चेच्छादिश्च सत्त्वादिश्च पुण्यादिश्चैते
पञ्चवर्गा इत्येतेषां पञ्चवर्गाणां धर्मीभूतात्मा
ज्ञानादृते न विनश्यत्यात्मसन्निधौ नित्यत्वेन
प्रतीयमान आत्मोपाधिर्यस्तल्लिङ्गशरीरं
हृद्ग्रन्थिरित्युच्यते तत्र यत्प्रकाशते चैतन्यं स
क्षेत्रज्ञ इत्युच्यते । ज्ञातृज्ञानज्ञेयानामाविर्भाव-
तिरोभावज्ञाता स्वयमाविर्भावतिरोभावरहितः
स्वयंज्योतिः साक्षीत्युच्यते ।
ब्रह्मादिपिपीलिकापर्यन्तं सर्वप्राणिबुद्धिष्ववशिष्टत-
योपलभ्यमानः सर्वप्राणिबुद्धिस्थो यदा तदा कूटस्थ
इत्युच्यते । कूटस्थोपहितभेदानां स्वरूपलाभहेतुर्भूत्वा
मणिगणे सूत्रमिव सर्वक्षेत्रेष्वनुस्यूतत्वेन यदा काश्यते
आत्मा तदान्तर्यामीत्युच्यते ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । सत्यमविनाशि । अविनाशि
नाम देशकालवस्तुनिमित्तेषु विनश्यत्सु यन्न विनश्यति
तदविनाशि । ज्ञानं नामोत्पत्तिविनाशरहितं नैरन्तर्यं
चैतन्यं ज्ञानमुच्यते । अनन्तं नाम मृद्विकारेषु
मृदिव स्वर्णविकारेषु स्वर्णमिव तन्तुविकारेषु
तन्तुरिवाव्यक्तादिसृष्टिप्रपञ्चेषु पूर्णं व्यापकं
चैतन्यमनन्तमित्युच्यते ।
आनन्दं नाम सुखचैतन्यस्वरूपोऽपरिमितानन्द-
समुद्रोऽवशिष्टसुखस्वरूपश्चानन्द इत्युच्यते ।
एतद्वस्तुचतुष्टयं यस्य लक्षणं देशकाल-
वस्तुनिमित्तेश्वव्यभिचारी तत्पदार्थः परमात्मेत्युच्यते ।
त्वंपदार्थादौपाधिकात्तत्पदार्थादौपाधिक-
भेदाद्विलक्षणमाकाशवत्सूक्ष्मं केवलसत्ता-
मात्रस्वभावं परं ब्रह्मेत्युच्यते । माया नाम
अनादिरन्तवती प्रमाणाप्रमाणसाधारणा न सती
नासती न सदसती स्वयमधिका विकाररहिता निरूप्यमाणा
सतीतरलक्षणशून्या सा मायेत्युच्यते । अज्ञानं
तुच्छाप्यसती कालत्रयेऽपि पामराणां वास्तवी च
सत्त्वबुद्धिर्लौकिकानामिदमित्थमित्यनिर्वचनीया वक्तुं न शक्यते ।
नाहं भवाम्यहं देवो नेन्द्रियाणि दशैव तु ।
न बुद्धिर्न मनः शश्वन्नाहङ्कारस्तथैव च ॥ १॥
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो बुद्ध्यादीनां हि सर्वदा ।
साक्ष्यहं सर्वदा नित्यश्चिन्मात्रोऽहं न संशयः ॥ २॥
नाहं कर्ता नैव भोक्ता प्रकृतेः साक्षिरूपकः ।
मत्सान्निध्यात्प्रवर्तन्ते देहाद्या अजडा इव ॥ ३॥
स्थाणुर्नित्यः सदानन्दः शुद्धो ज्ञानमयोऽमलः ।
आत्माहं सर्वभूतानां विभुः साक्षी न संशयः ॥ ४॥
ब्रह्मैवाहं सर्ववेदान्तवेद्यं
नाहं वेद्यं व्योमवातादिरूपम् ।
रूपं नाहं नाम नाहं न कर्म
ब्रह्मैवाहं सच्चिदानन्दरूपम् ॥ ५॥
नाहं देहो जन्ममृत्यु कुतो मे
नाहं प्राणः क्षुत्पिपासे कुतो मे ।
नाहं चेतः शोकमोहौ कुतो मे
नाहं कर्ता बन्धमोक्षौ कुतो म इत्युपनिषत् ॥
ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ सावित्र्युपनिषत् ॥
सावित्र्युपनिषद्वेद्यचित्सावित्रपदोज्ज्वलम् ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तं रामचन्द्रपदं भजे ॥
सावित्र्यात्मा पाशुपतं परं ब्रह्मावधूतकम् ।
त्रिपुरातपनं देवीत्रिपुरा कठभावना ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च । सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म
निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं
मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि
सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥
कः सविता का सावित्री अग्निरेव सविता पृथिवी सावित्री स
यत्राग्निस्तत्पृथिवी यत्र वै पृथिवी तत्राग्निस्ते द्वे योनी
तदेकं मिथुनम् ॥ १॥
कः सविता का सवित्री वरुण एव सवितापः सावित्री स यत्र
वरुणस्तदापो यत्र वा आपस्तद्वरुणस्ते द्वे योनिस्तदेकं
मिथुनम् ॥ २॥
कः सविता का सावित्री वायुरेव सविताकाशः सावित्री स यत्र
वायुस्तदाकाशो यत्र वा आकाशस्तद्वायुस्ते द्वे योनिस्तदेकं
मिथुनम् ॥ ३॥
कः सविता का सावित्री यज्ञ एव सविता छन्दांसि सावित्री स
यत्र यज्ञस्तत्र छन्दांसि यत्र वा छन्दांसि स यज्ञस्ते द्वे
योनिस्तदेकं मिथुनम् ॥ ४॥
कः सविता का सावित्री स्तनयित्रुरेव सविता विद्युत्सावित्री स
यत्र स्तनयित्रुस्तद्विद्युत् यत्र वा विद्युत्तत्र स्तनयित्रुस्ते द्वे
योनिस्तदेकं मिथुनम् ॥ ५॥
कः सविता का सावित्री आदित्य एव सविता द्यौः सावित्री स
यत्रादित्यस्तद्द्यौर्यत्र वा द्यौस्तदादित्यस्ते द्वे योनिस्तदेकं
मिथुनम् ॥ ६॥
कः सविता का सावित्री चन्द्र एव सविता नक्षत्राणि सावित्री
स यत्र चन्द्रस्तन्नक्षत्राणि यत्र वा नक्षत्राणे स चन्द्रमास्ते
द्वे योनिस्तदेकं मिथुनम् ॥ ७॥
कः सविता का सावित्री मन एव सविता वाक् सावित्री स यत्र वा
मनस्तद्वाक् यत्र वा वाक् तन्मनस्ते द्वे योनिस्तदेकं
मिथुनम् ॥ ८॥
कः सविता का सावित्री पुरुष एव सविता स्त्री सावित्री स यत्र
पुरुषस्तत्स्त्री यत्र वा स्त्री स पुरुषस्ते द्वे योनिस्तदेकं
मिथुनम् ॥ ९॥
सावित्र्याः पादत्रयम्
तस्या एव (एष) प्रथमः पादो भूस्तत्सवितुर्वरेण्यमित्यग्निर्वै
वरेण्यमापो वरेण्यं चन्द्रमा वरेण्यम् ॥ १०॥
तस्या एव (एष) द्वितीयः
पादो भर्गमयोऽपि भुवो भर्गो देवस्य धीमहीत्यग्निर्वै भर्ग
आदित्यो वै भर्गश्चन्द्रमा वै भर्गः ॥ ११॥
तस्या एष तृतीयः पादः स्वर्धियो यो नः प्रचोदयादिति
स्त्री चैव पुरुषश्च प्रजनयतः ॥ १२॥
सावित्रीवेदनफलं पुनर्मृत्युञ्जयः
यो वा एतां सावित्रीमेवं वेद स पुनर्मृत्युं जयति ॥ १३॥
बलातिबलयोर्विराट् पुरुष ऋषिः । गायत्री छन्दः ।
गायत्री देवता । अकारोकारमकारा बीजाद्याः ।
क्षुधाऽऽदिनिरसने विनियोगः । क्लामित्यादिषडङ्गम् (षडङ्गन्यासः) ।
ध्यानम् ।
अमृतकरतलाग्रौ (तलार्द्रौ) सर्वसंजीवनाढ्या-
वघहरणसुदक्षौ वेदसारे मयूखे ।
प्रणवमयविकारौ भास्कराकारदेहौ
सततमनूभवेऽहं तौ बलातिबलान्तौ ॥ var बलाती
ॐ ह्रीं बले महादेवि ह्रीं महाबले क्लीं
चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिप्रदे तत्सवितुर्वरदात्मिके
ह्रीं वरेण्यं भर्गो देवस्य वरदात्मिके अतिबले सर्वदयामूर्ते
बले सर्वक्षुच्छ्रमोपनाशिनि धीमहि धियो यो नर्जाते प्रचुर्या
(var बले सर्वक्षुद्भ्रमोपनाशिनि धीमहि धियो यो नर्जाते प्रचुर्यः)
या प्रचोदयादात्मिके प्रणवशिरस्कात्मिके हुं फट् स्वाहा ॥ १४॥
विद्याफलम्
एवं विद्वान् कृतकृत्यो भवति सावित्र्या एव सलोकतां
जयतीत्युपनिषत् ॥ १५॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च । सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोपनिषदं माहं ब्रह्म
निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं
मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि
सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति सावित्र्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ सीतोपनिषत् ॥
इच्छाज्ञानक्रियाशक्तित्रयं यद्भावसाधनम् ।
तद्ब्रह्मसत्तासामान्यं सीतातत्त्वमुपास्महे ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन्का सीता किं रूपमिति ।
स होवाच प्रजापतिः सा सीतेति । मूलप्रकृतिरूपत्वात्सा
सीता प्रकृतिः स्मृता । प्रणवप्रकृतिरूपत्वात्सा सीता
प्रकृतिरुच्यते । सीता इति त्रिवर्णात्मा साक्षान्मायामयी
भवेत् । विष्णुः प्रपञ्चबीजं च माया ईकार उच्यते ।
सकारः सत्यममृतं प्राप्तिः सोमश्च कीर्त्यते ।
तकारस्तारलक्ष्म्या च वैराजः प्रस्तरः स्मृतः ।
ईकाररूपिणी सोमामृतावयवदिव्यालङ्कारस्रङ्मौक्तिका-
द्याभरणलङ्कृता महामायाऽव्यक्तरूपिणी व्यक्ता भवति ।
प्रथमा शब्दब्रह्ममयी स्वाध्यायकाले प्रसन्ना
उद्भावनकरी सात्मिका द्वितीया भूतले हलाग्रे समुत्पन्ना
तृतीया ईकाररूपिणी अव्यक्तस्वरूपा भवतीति सीता
इत्युदाहरन्ति । शौनकीये । श्रीरामसान्निध्यवशा-
ज्जगदानन्दकारिणी । उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम् ।
सीता भगवती ज्ञेया मूलप्रकृतिसंज्ञिता । प्रणवत्वा-
त्प्रकृरिति वदन्ति ब्रह्मवादिन इति । अथातो ब्रह्मजिज्ञासेति च ।
सा सर्ववेदमयी सर्वदेवमयी सर्वलोकमयी सर्वकीर्तिमयी
सर्वधर्ममयी सर्वाधारकार्यकारणमयी महालक्ष्मी-
र्देवेशस्य भिन्नाभिन्नरूपा चेतनाचेतनात्मिका
ब्रह्मस्थावरात्मा तद्गुणकर्मविभागभेदाच्छरीरूपा
देवर्षिमनुष्यगन्धर्वरूपा असुरराक्षसभूतप्रेत-
पिशाचभूतादिभूतशरीरूपा भूतेन्द्रियमनःप्राणरूपेति
च विज्ञायते ।
सा देवी त्रिविधा भवति शक्त्यासना इच्छाशक्तिः
क्रियाशक्तिः साक्षाच्छक्तिरिति । इच्छाशक्तिस्त्रिविधा
भवति । श्रीभूमिनीलात्मिका भद्ररूपिणी प्रभावरूपिणी
सोमसूर्याग्निरूपा भवति । सोमात्मिका ओषधीनां
प्रभवति कल्पवृक्षपुष्पफललतागुल्मात्मिका
औषधभेषजात्मिका अमृतरूपा देवानां महस्तोम-
फलप्रदा अमृतेन तृप्तिं जनयन्ती देवानामन्नेन
पशूनां तृणेन तत्तज्जीवानां सूर्यादिसकलभुवन-
प्रकाशिनी दिवा च रात्रिः कालकलानिमेषमारभ्य
घटिकाष्टयामदिवस(वार)रात्रिभेदेन
पक्षमासर्त्वयनसंवत्सरभेदेन मनुष्याणां
शतायुःकल्पनया प्रकाशमाना चिरक्षिप्रव्यपदेशेन
निमेषमारभ्य परार्धपर्यन्तं कालचक्रं
जगच्चक्रमित्यादिप्रकारेण चक्रवत्परिवर्तमानाः
सर्वस्यैतस्यैव कालस्य विभागविशेषाः प्रकाशरूपाः
कालरूपा भवन्ति । अग्निरूपा अन्नपानादिप्राणिनां
क्षुत्तृष्णात्मिका देवानां मुखरूपा वनौषधीनां
शीतोष्णरूपा काष्ठेष्वन्तर्बहिश्च नित्यानित्यरूपा
भवति । श्रीदेवी त्रिविधं रूपं कृत्वा भगवत्सङ्कल्पानु-
गुण्येन लोकरक्षणार्थं रूपं धारयति । श्रीरिति लक्ष्मीरिति
लक्ष्यमाणा भवतीति विज्ञायते । भूदेवी ससागरांभः-
सप्तद्वीपा वसुन्धरा भूरादिचतुर्दशभुवनाना-
माधाराधेया प्रणवात्मिका भवति । नीला च मुख-
विद्युन्मालिनी सर्वौषधीनां सर्वप्राणिनां पोषणार्थं
सर्वरूपा भवति । समस्तभुवनस्याधोभागे जलाकारात्मिका
मण्डूकमयेति भुवनाधारेति विज्ञायते ॥
क्रियाशक्तिस्वरूपं हरेर्मुखान्नादः । तन्नादाद्बिन्दुः ।
बिन्दोरोङ्कारः । ओङ्कारात्परतो राम वैखानसपर्वतः ।
तत्पर्वते कर्मज्ञानमयीभिर्बहुशाखा भवन्ति । तत्र
त्रयीमयं शास्त्रमाद्यं सर्वार्थदर्शनम् ।
ऋग्यजुःसामरूपत्वात्त्रयीति परिकीर्तिता । कार्यसिद्धेन चतुर्धा
परिकीर्तिता । ऋचो यजूंषि सामानि अथर्वाङ्गिरसस्तथा ।
चातुर्होत्रप्रधानत्वाल्लिङ्गादित्रितयं त्रयी । अथर्वाङ्गिरसं
रूपं सामऋग्यजुरात्मकम् । तथा दिशन्त्याभिचार-
सामान्येन पृथक्पृथक् । एकविंशतिशाखायामृग्वेदः
परिकीर्तितः । शतं च नवशाखासु यजुषामेव जन्मनाम् ।
साम्नः सहस्रशाखाः स्युः पञ्चशाखा अथर्वणः ।
वैखानसमतस्तस्मिन्नादौ प्रत्यक्षदर्शनम् । स्मर्यते
मुनिभिर्नित्यं वैखानसमतः परम् । कल्पो व्याकरणं शिक्षा
निरुक्तं ज्योतिषं छन्द एतानि षडङ्गानि ॥
उपाङ्गमयनं चैव मीमांसान्यायविस्तरः ।
धर्मज्ञसेवितार्थं च वेदवेदोऽधिकं तथा ।
निबन्धाः सर्वशाखा च समयाचारसङ्गतिः ।
धर्मशास्त्रं महर्षिणामन्तःकरणसम्भृतम् ।
इतिहासपुराणाख्यमुपाङ्गं च प्रकीर्तितम् ।
वास्तुवेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्च तथा मुने ।
आयुर्वेदश्च पञ्चैते उपवेदाः प्रकीर्तिताः ।
दण्डो नीतिश्च वार्ता च विद्या वायुजयः परः ।
एकविंशतिभेदोऽयं स्वप्रकाशः प्रकीर्तितः ।
वैखानसऋषेः पूर्वं विष्णोर्वाणी समुद्भवेत् ।
त्रयीरूपेण सङ्कल्प्य वैखानसऋषेः पुरा ।
उदितो यादृशः पूर्वं तादृशं शृणु मेऽखिलम् ।
शश्वद्ब्रह्ममयं रूपं क्रियाशक्तिरुदाहृता ।
साक्षाच्छक्तिर्भगवतः स्मरणमात्ररूपाविर्भाव-
प्रादुर्भावात्मिका निग्रहानुग्रहरूपा भगवत्सहचारिणी
अनपायिनी अनवरतसहाश्रयिणी उदितानुदिताकारा
निमेषोन्मेषसृष्टिस्थितिसंहारतिरोधानानुग्रहादि-
सर्वशक्तिसामर्थ्यात्साक्षाच्छक्तिरिति गीयते ।
इच्छाशक्तिस्त्रिविधा प्रलयावस्थायां विश्रमणार्थं
भगवतो दक्षिणवक्षःस्थले श्रीवत्साकृतिर्भूत्वा
विश्राम्यतीति सा योगशक्तिः । भोगशक्तिर्भोगरूपा
कल्पवृक्षकामधेनुचिन्तामणिशङ्खपद्म-
निध्यादिनवनिधिसमाश्रिता भगवदुपासकानां
कामनया अकामनया वा भक्तियुक्ता नरं
नित्यनैमित्तिककर्मभिरग्निहोत्रादिभिर्वा यमनियमासन-
प्राणायामप्रत्याहारध्यानधारणासमाधिभि-
र्वालमणन्वपि गोपुरप्राकारादिभिर्विमानादिभिः सह
भगवद्विग्रहार्चापूजोपकरणैरर्चनैः स्नानाधिपर्वा
पितृपूजादिभिरन्नपानादिभिर्वा भगवत्प्रीत्यर्थमुक्त्वा
सर्वं क्रियते । अथातो वीरशक्तिश्चतुर्भुजाऽभयवरद-
पद्मधरा किरीटाभरणयुता सर्वदेवैः परिवृता
कल्पतरुमूले चतुर्भिर्गजै रत्नघटैरमृतजलै-
रभिषिच्यमाना सर्वदैवतैर्ब्रह्मादिभिर्वन्द्यमाना
अणिमाद्यष्टैश्वर्ययुता संमुखे कामधेनुना
स्तूयमाना वेदशास्त्रादिभिः स्तूयमाना जयाद्यप्सर-
स्स्त्रीभिः परिचर्यमाणा आदित्यसोमाभ्यां दीपाभ्यां
प्रकाश्यमाना तुम्बुरुनारदादिभिर्गायमाना
राकासिनीवालीभ्यां छत्रेण ह्लादिनीमायाभ्यां चामरेण
स्वाहास्वधाभ्यां व्यजनेन भृगुपुणादिभिरभ्यर्च्यमाना
देवी दिव्यसिंहासने पद्मासनरूढा सकलकारणकार्यकरी
लक्ष्मीर्देवस्य पृथग्भवनकल्पना । अलंचकार स्थिरा
प्रसन्नलोचना सर्वदेवतैः पूज्यमाना वीरलक्ष्मीरिति
विज्ञायत इत्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति सीतोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ सुबालोपनिषत् ॥
॥ अथ सुबालोपनिषत् ॥
बीजाज्ञानमहामोहापह्नवाद्यद्विशिष्यते ।
निर्बीजं त्रैपदं तत्त्वं तदस्मीति विचिन्तये ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ तदाहुः किं तदासीत्तस्मै स होवाच
न सन्नसन्न सदसदिति तस्मात्तमः सञ्जायते
तमसो भूतादिर्भूतादेराकाशमाकाशा-
द्वायुर्वाय्रग्निरग्नेरापोऽद्भ्यः पृथिवी तदण्डं
समभवत्तत्संवत्सरमात्रमुषित्वा द्विधाकरो-
दधस्ताद्भूमिमुपरिष्टादाकाशं मध्ये पुरुषो
दिव्यः सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
सहस्रबाहुरिति सोऽग्रे भूतानां मृत्युमसृजन्त्र्यक्षरं
त्रिशिरस्कं त्रिपादं खण्डपरशुं तस्य ब्रह्माभिधेति
स ब्रह्माणमेव विवेश स मानसान्सप्त पुत्रानसृजत्तेह
विराजः सत्यमानसानसृजन्तेह प्रजापतयो ब्राह्मणोऽस्य
मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च हृदयात्सर्वमिदं जायते ॥
इति प्रथमः खण्डः ॥
अपानान्निषादा यक्षराक्षसगन्धर्वाश्चास्थिभ्यः
पर्वता लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो ललाटात्क्रोधजो रुद्रो
जायते तस्यैतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेवैतद्यदृग्वदो
यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं
निरुक्तं छन्दो ज्योतिषामयनं न्यायो मीमांसा धर्मशास्त्राणि
व्याख्यानान्युपव्याख्यानानि च सर्वाणि च भूतानि
हिरण्यज्योतिर्यस्मिन्नयमात्माधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥
आत्मानं द्विधाकरोदर्धेन स्त्री अर्धेन पुरुषो देवो भूत्वा
देवानसृजदृषिर्भूत्वा ऋषीन्यक्षराक्षसगन्धर्वान्-
ग्राम्यानारण्यांश्च पशूनसृजदितरा गौरितरोऽनड्वानितरो
वडवेतरोऽश्व इतरा गर्दभीतरो गर्दभ इतरा विश्वम्भरीतरो
विश्वम्भरः सोऽन्ते वैश्वानरो भूत्वा सन्दग्ध्वा सर्वाणि
भूतानि पृथिव्यप्सु प्रलीयत आपस्तेजसि प्रलीयन्ते तेजो वायौ
विलीयते वायुराकाशे विलीयत आकाशमिन्द्रियेष्विन्द्रियाणि
तन्मात्रेषु तन्मात्राणि भूतादौ विलीयन्ते भूतादिर्महति
विलीयते महानव्यक्ते विलीयतेऽव्यक्तमक्षरे विलीयते अक्षरं
तमसि विलीयते तमः परे देव एकीभवति परस्तान्न सन्नासन्नासद-
सदित्येतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इति द्वितीयः खण्डः ॥ २॥
असद्वा इदमग्र आसीदजातमभूतमप्रतिष्ठित-
मशब्दमस्पर्शमरूपमरसमगन्धमव्ययम-
महान्तमबृहन्तमजमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥
अप्रमाणममुखमश्रोत्रमवागमनोऽतेजस्कमचक्षु-
ष्कमनामगोत्रमशिरस्कमपाणिपादमस्निग्धमलोहित-
मप्रमेयमह्रस्वमदीर्घमस्थूलमनण्वनल्पमपार-
मनिर्देश्यमनपावृतमप्रतर्क्यमप्रकाश्यमसंवृत-
मनन्तरमबाह्यं न तदश्नाति किंचन न तदश्नाति
कश्चनैतद्वै सत्येन दानेन तपसाऽनाशकेन ब्रह्मचर्येण
निर्वेदनेनानाशकेन षडङ्गेनैव साधयेदेतत्रयं
वीक्षेत दमं दानं दयामिति न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव
समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति य एवं वेद ॥
इति तृतीयः खण्डः ॥ ३॥
हृदयस्य मध्ये लोहितं मांसपिण्डं
यस्मिंस्तद्दहरं पुण्डरीकं कुमुदमिवानेकधा
विकसितं हृदयस्य दश छिद्राणि भवन्ति येषु
प्राणाः प्रतिष्ठिताः स यदा प्राणेन सह
संयुज्यते तदा पश्यति नद्यो नगराणि बहूनि
विविधानि च यदा व्यानेन सह संयुज्यते तदा पश्यति
देवांश्च ऋषींश्च यदापानेन सह संयुज्यते
तदा पश्यति यक्षराक्षसगन्धर्वान्यदा उदानेन
सह संयुज्यते तदा पश्यति देवलोकान्देवान्स्कन्दं
जयन्तं चेति यदा समानेन सह संयुज्यते तदा
पश्यति देवलोकान्धनानि च यदा वैरम्भेण सह
संयुज्यते तदा पश्यति दृष्टं च श्रुतं च भुक्तं
चाभुक्तं च सच्चासच्च सर्वं पश्यति अथेमा
दश दश नाड्यो भवन्ति तासामेकैकस्य द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः
शाखा नाडीसहस्राणि भवन्ति यस्मिन्नयमात्मा स्वपिति
शब्दानां च करोत्यथ यद्द्वितीये सङ्कोशे स्वपिति तदेमं
च लोकं परं च लोकं पश्यति सर्वाञ्छब्दान्विजानाति
स सम्प्रसाद इत्याचक्षते प्राणः शरीरं परिरक्षति हरितस्य
नीलस्य पीतस्य लोहितस्य श्वेतस्य नाड्यो रुधिरस्य पूर्णा
अथात्रैतद्दहरं पुण्डरीकं कुमुदमिवानेकधा विकसितं
यथा केशः सहस्रधा भिन्नस्तथा हिता नाम नाड्यो भवन्ति
हृद्याकाशे परे कोशे दिव्योऽयमात्मा स्वपिति यत्र सुप्तो न
कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति
न तत्र देवा न देवलोका यज्ञा न यज्ञा वा न माता
न पिता न बन्धुर्न बान्धवो न स्तेनो न ब्रह्महा
तेजस्कायममृतं सलिल एवेदं सलिलं वनं भूयस्तेनैव
मार्गेण जाग्राय धावति सम्राडिति होवाच ॥
इति चतुर्थः खण्डः ॥ ४॥
स्थानानि स्थानिभ्यो यच्छति नाडी तेषां
निबन्धनं चक्षुरध्यात्मं द्रष्टव्यमधिभूतमादित्यस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यश्चक्षुषि यो द्रष्टव्ये य आदित्ये
यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो
हृद्याकाशे य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
श्रोत्रमध्यात्मं श्रोतव्यमधिभूतं दिशस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यः श्रोत्रे यः श्रोतव्ये यो दिक्षु
यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो
हृद्याकाशे य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
नासाध्यात्मं घ्रातव्यमधिभूतं पृथिवी तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यो नासायां यो घ्रातव्ये यः
पृथिव्यां यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो
हृद्याकाशे य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
जिह्वाध्यात्मं रसयितव्यमधिभूतं वरुणस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यस्त्वचि यः स्पर्शयितव्ये
यो वरुणे यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो
हृद्याकाशे य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरमममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
त्वगध्यात्मं स्पर्शयितव्यमधिभूतं वायुस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यस्त्वचि यः स्पर्शयितव्ये यो वायौ
यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
मनोऽध्यात्मं मन्तव्यमधिभूतं चन्द्रस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यो मनसि यो मन्तव्ये यश्चन्द्रे
यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
बुद्धिरध्यात्मं बोद्धव्यमधिभूतं ब्रह्मा तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यो बुद्धौ यो बोद्धव्ये यो ब्रह्मणि
यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
अहङ्कारोऽध्यात्ममहंकर्तव्यमधिभूतं
रुद्रस्तत्राधिदैवतं नाडी तेषां निबन्धनं
योऽहङ्कारे योऽहंकर्तव्ये यो रुद्रे यो नाड्यां
यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
चित्तमध्यात्मं चेतयितव्यमधिभूतं
क्षेत्रज्ञस्तत्राधिदैवतं नाडी तेषां निबन्धनं
यश्चित्ते यश्चेतयितव्ये यः क्षेत्रज्ञे यो नाड्यां
यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
वागध्यात्मं वक्तव्यमधिभूतमग्निस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यो वाचि यो वक्तव्ये योऽग्नौ
यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
हस्तावध्यात्ममादातव्यमधिभूतमिन्द्रस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यो हस्ते य आदातव्ये य इन्द्रे यो नाड्यां
यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे य
एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
पादावध्यात्मं गन्तव्यमधिभूतं विष्णुस्तत्राधिदैवतं
नाडी तेषां निबन्धनं यः पादे यो गन्तव्ये यो विष्णौ
यो नाड्यां यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
पायुरध्यात्मं विसर्जयितव्यमधिभूतं
मृत्युस्तत्राधिदैवतं नाडी तेषां निबन्धनं
यः पायौ यो विसर्जयितव्ये यो मृत्यौ यो नाड्यां
यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपासीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
उपस्थोऽध्यात्ममानन्दयितव्यमधिभूतं
प्रजापतिस्तत्राधिदैवतं नाडी तेषां निबन्धनं
य उपस्थे य आनन्दयितव्ये यः प्रजापतौ यो नाड्यां
यः प्राणे यो विज्ञाने य आनन्दे यो हृद्याकाशे
य एतस्मिन्सर्वस्मिन्नन्तरे संचरति सोऽयमात्मा
तमात्मानमुपसीताजरममृतमभयमशोकमनन्तम् ॥
एष सर्वज्ञ एष सर्वेश्वर एष सर्वाधिपतिरेषोऽन्तर्याम्येष
योनिः सर्वस्य सर्वसौख्येरुपास्यमानो न च सर्वसौख्यान्युपास्यति
वेदशास्त्रैरुपास्यमानो न च वेदशास्त्राण्युपास्यति
यस्यानमिदं सर्वे न च योऽन्नं भवत्यतः परं सर्वनयनः
प्रशास्तान्नमयो भूतात्मा प्राणमय इन्द्रियात्मा मनोमयः
संकल्पात्मा विज्ञानमयः कालात्मानन्दमयो लयात्मैकत्वं
नास्ति द्वैतं कुतो मर्त्यं नास्त्यमृतं कुतो नान्तःप्रज्ञो
न बहिःप्रज्ञो नोभयतःप्रज्ञो न प्रज्ञाघनो न प्रज्ञो
नाप्रज्ञोऽपि नो विदितं वेद्यं नास्तीत्येतन्निर्वाणानुशासनमिति
वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इति पञ्चमः खण्डः ॥ ५॥
नैवेह किंचनाग्र आसीदमूलमनाधारमिमाः
प्रजाः प्रजायन्ते दिव्यो देव एको नारायणश्चक्षुश्च
द्रष्टव्यं च नारायणः श्रोत्रं च श्रोतव्यं च
नारायणो घ्राणं च घ्रातव्यं च नारायणो जिह्वा च
रसयितव्यं च नारायणस्त्वक् च स्पर्शयितव्यं च
नारायणो मतश्च मन्तव्यं च नरायणो बुद्धिश्च
बोद्धव्यं च नारायणोऽहङ्कारश्चाहंकार्तव्यं च
नारायणश्चित्तं च चेतयितव्यं च नारायणो वाक् च
वक्तव्यं च नारायणो हस्तौ चादातव्यं च नारायणः
पादौ च गन्तव्यं च नारायणः पायुश्च विसर्जयितव्यं
च नारायण उपस्थश्चानन्दयितव्यं च नारायणो धाता
विधाता कर्ता विकर्ता दिव्यो देव एको नारायण आदित्या रुद्रा
मरुतो वसवोऽश्विनावृचो यजूंषि सामानि मन्त्रोऽग्नि-
राज्याहुतिर्नारायण उद्भवः सम्भवो दिव्यो देव एको नारायणो
माता पिता भ्राता निवासः शरणं सुहृद्गतिर्नारायणो विराजा
सुदर्शनाजितासोम्यामोघाकुमारामृतासत्यामध्यमाना-
सीराशिशुतासूरासूर्यास्वराविज्ञेयानि नाडीनामानि दिव्यानि
गर्जति गायति वाति वर्षति वरुणोऽर्यमा चन्द्रमाः कला
कलिर्धाता ब्रह्मा प्रजापतिर्मघवा दिवसाश्चार्धदिवसाश्च
कलाः कल्पाश्चोर्ध्वं च दिशश्च सर्वं नारायणः ॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनतिरोहति ॥
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥
तदेतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदनुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इति षष्ठः खण्डः ॥ ६॥
अन्तःशरीरे निहितो गुहायामज एको नित्यो यस्य पृथिवी
शरीरं यः पृथिवीमन्तरे संचरन् यं पृथिवी न वेद ॥
यस्यापः शरीरं योऽपोन्तरे संचरन्यमापो न विदुः ॥
यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोन्तरे संचरन् यं तेजो न वेद ॥
यस्य वायुअः शरीरं यो वायुमन्तरे संचरन् य वायुर्न वेद ॥
यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरे संचरन् यमाकाशो न वेद ॥
यस्य मनः शरीरं यो मनोन्तरे संचरन् यं मनो न वेद ॥
यस्य बुद्धिः शरीरं यो बुद्धिमन्तरे संचरन् यं बुद्धिर्न वेद ॥
यस्याहङ्कारः शरीरं योऽहङ्कारमन्तरे संचरन् यमहङ्कारो न वेद ॥
यस्य चित्तं शरीरं यश्चित्तमन्तरे संचरन् यं चित्तं न वेद ॥
यस्याव्यक्तं शरीरं योऽव्यक्तमन्तरे संचरन् यमव्यक्तं न वेद ॥
यस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन् यमक्षरं न वेद ॥
यस्य मृत्युः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन् यं मृत्युर्न वेद ॥
स एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः ॥
एतां विद्यामपान्तरतमाय ददावपान्तरतमो ब्रह्मणे ददौ ब्रह्मा
घोराङ्गिरसे ददौ घोराङ्गिरा रैक्वाय ददौ रैक्वो रामाय ददौ
रामः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो ददावित्येवं निर्वाणानुशासनमिति
वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इति सप्तमः खण्डः ॥ ७॥
अन्तःशरीरे निहितो गुहायां शुद्धः सोऽयमात्मा
सर्वस्य मेदोमांसक्लेदावकीर्णे शरीरमध्येऽत्यन्तोपहते
चित्रभित्तिप्रतीकाशे गन्धर्वनगरोपमे कदलीगर्भवन्निःसारे
जलबुद्बुदवच्चञ्चले निःसृतमात्मानमचिन्त्यरूपं
दिव्यं देवमसङ्गं शुद्धं तेजस्कायमरूपं
सर्वेश्वरमचिन्त्यमशरीरं निहितं गुहायाममृतं
विभ्राजमानमानन्दं तं पश्यन्ति विद्वांसस्तेन लये न पश्यन्ति ॥
इति अष्टमः खण्डः ॥ ८॥
अथ हैनं रैक्वः पप्रच्छ भगवन्कस्मिन्सर्वेऽस्तं
गच्छन्तीति ॥ तस्मै स होवाच चक्षुरेवाप्येति
यच्चक्षुरेवास्तमेति द्रष्टव्यमेवप्येति यो
द्रष्टव्यमेवास्तमेत्यादित्यमेवाप्येति य आदित्यमेवास्तमेति
विराजमेवाप्येति यो विराजमेवास्तमेति प्राणमेवाप्येति यः
प्राणमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति यो विज्ञानमेवास्तमे-
त्यानन्दमेवाप्येति य आनन्दमेवास्तमेति तुरीयमेवाप्येति
यस्तुरीयमेवास्तमेति तदमृतमभयमशोकमनन्त-
निर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
श्रोत्रमेवाप्येति यः श्रोत्रमेवास्तमेति श्रोतव्यएवाप्येति
यः श्रोतव्यमेवास्तमेति दिशमेवाप्येति यो दिशमेवास्तमेति
सुदर्शनामेवाप्येति यः सुदर्शनामेवास्तमेत्यपानमेवाप्येति
योऽपानमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति यो विज्ञानमेवास्तमेति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
नासमेवाप्येति यो नासामेवास्तमेति घ्रातव्यमेवाप्येति
यो घ्रातव्यमेवास्तमेति पृथिविमीवाप्येति यः पृथिवीएवास्तमेति
जितामेवाप्येति यो जितामेवास्तमेति व्यानमेवाप्येति यो
व्यानमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
जिह्वामेवाप्येति यो जिह्वामेवास्तमेति रसयितव्यमेवाप्येति
यो रसयितव्यमेवास्तमेति वरुणमेवाप्येति यो वरुणमेवास्तमेति
सौम्यामेवाप्येति यः सौम्यामेवास्तमेत्युदानमेवाप्येति
य उअदानमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
त्वचमेवाप्येति यस्त्वचमेवास्तमेति स्पर्शयितव्यमेवाप्येति
यः स्पर्शैतव्यमेवास्तमेति वायुमेवाप्येति यो वायुमेवास्तमेति
मोधामेवाप्येति यो मोधामेवास्तमेति समानमेवाप्येति
यः समानमेवास्तमेति विज्ञानएवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
वाचमेवाप्येति यो वाचमेवास्तमेति वक्तव्यमेवाप्येति
यो वक्तव्यमेवास्तमेत्यग्निमेवाप्येति योऽग्निमेवास्तमेति
कुमारामेवाप्येति यः कुमारामेवास्तमेति वैरम्भ-
मेवाप्येति यो वैरम्भमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
हस्तमेवाप्येति यो हस्तमेवास्तमेत्यादातव्यमेवाप्येति
य आदातव्यमेवास्तमेतीन्द्रमेवाप्येति य इन्द्रमेवास्त-
मेत्यमृतामेवाप्येति योऽमृतामेवास्तमेति मुख्यमेवाप्येति
यो मुख्यमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
पादमेवाप्येति यः पादमेवास्तमेति गन्तव्यमेवाप्येति
यो गन्तव्यमेवास्तमेति विष्णुमेवाप्येति यो विष्णुमेवास्तमेति
सत्यामेवाप्येति यः सत्यामेवास्तमेत्त्यन्तर्याममेवाप्येति
योऽन्तर्याममेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
पायुमेवाप्येति यः पायुमेवास्तमेति विसर्जयितव्यमेवाप्येति
यो विसर्जयितव्यमेवास्तमेति मृत्युमेवाप्येति यो मृत्युमेवास्तमेति
मध्यमामेवाप्येति यो मध्यमामेवास्तमेति
प्रभञ्जनमेवाप्येति यः प्रभञ्जनमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
उपस्थमेवाप्येति य उपस्थमेवास्तमेत्यानन्दयितव्यमेवाप्येति
य आनन्दयितव्यमेवास्तमेति प्रजापतिमेवाप्येति यः प्रजापति-
मेवास्तमेति नासीरामेवाप्येति यो नासीरामेवास्तमेति
कुमारमेवाप्येति यः कुमारमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
मन एवाप्येति यो मन एवास्तमेति मन्तव्यमेवाप्येति
यो मन्तव्यमेवास्तमेति चन्द्रमेवाप्येति यश्चन्द्रमेवास्तमेति
शिशुमेवाप्येति यः शिशुमेवास्तमेति श्येनमेवाप्येति यः
श्येनमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
बुद्धिमेवाप्येति यो बुद्धिमेवास्तमेति बोद्धव्यमेवाप्येति
यो बोद्धव्यमेवास्तमेति ब्रह्माणमेवाप्येति यो
ब्रह्माणमेवास्तमेति सूर्यामेवास्तमेति यः सूर्यामेवास्तमेति
कृष्णमेवाप्येति यः कृष्णमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
अहङ्कारमेवाप्येति योऽहङ्कारमेवास्तमे-
त्यहङ्कर्तव्यमेवाप्येति योऽहङ्कर्तव्यमेवास्तमेति
रुद्रमेवाप्येति यो रुद्रमेवास्तमेत्यसुरामेवाप्येति
योऽसुरामेवास्तमेति श्वेतमेवाप्येति यः श्वेतमेवास्तमेति
विज्ञानमेवाप्येति तदमृतमभयमशोकमनन्त-
निर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
चित्तमेवाप्येति यश्चित्तमेवास्तमेति चेतयितव्यमेवाप्येति
यश्चेतयितव्यमेवास्तमेति क्षेत्रज्ञमेवाप्येति यः
क्षेत्रज्ञमेवास्तमेति भास्वतीमेवाप्येति यो भास्वती-
मेवास्तमेति नागमेवाप्येति यो नागमेवास्तमेति विज्ञान-
मेवाप्येति यो विज्ञामेवास्तमेत्यानन्दमेवाप्येति य
आनन्दमेवास्तमेति तुरीयमेवाप्येति यस्तुरीयमेवास्तमेति
तदमृतमभयमशोकमनन्तं निर्बीजमेवाप्येति
तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥
य एवं निर्बीजं वेद निर्बीज एव स भवति न जायते
न म्रियते न मुह्यते न भिद्यते न दह्यते न छिद्यते
न कम्पते न कुप्सते सर्वदहनोऽयमात्मेत्याचक्षते
नैवमात्मा प्रवचनशतेनापि लभ्यते न बहुश्रुतेन
न बुद्धिज्ञानाश्रितेन न मेधया न वेदैर्न यज्ञैर्न
तपोभिरुग्रैर्न सांख्यैर्न योगैर्नाश्रमैर्नान्यैरात्मा-
नमुपुलभन्ते प्रवचनेन प्रशंसया व्युत्थानेन तमेतं
ब्राह्मणा शुश्रुवांसोऽनूचाना उपलभन्ते शान्तो
दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं
पश्यति सर्वस्यात्मा भवति य एवं वेद ॥
इति नवमः खण्डः ॥ ९॥
अथ हैनं रैक्वः पप्रच्छ भगवन्कस्मिन्सर्वे
सम्प्रतिष्ठिता भवन्तीति रसातललोकेष्विति होवाच
कस्मिन्रसातललोका ओताश्च प्रोताश्चेति भूर्लोकेष्विति
होवाच कस्मिन्भूर्लोका ओताश्च प्रोताश्चेति
भुवर्लोकेष्विति होवाच कस्मिन्भुवर्लोका ओताश्च
प्रोताश्चेति सुवर्लोकेष्विति होवाच कस्मिन्सुवर्लोका
ओताश्च प्रोताश्चेति महर्लोकेष्विति होवाच कस्मिन्महर्लोका
ओताश्च प्रोताश्चेति जनोलोकेष्विति होवाच कस्मिन् जनोलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति तपोलोकेष्विति होवाच कस्मिंस्तपोलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति सत्यलोकेष्विति होवाच कस्मिन्सत्यलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति प्रजापतिलोकेष्विति होवाच
कस्मिन्प्रजापतिलोका ओताश्च प्रोताश्चेति ब्रह्मलोकेष्विति
होवाच कस्मिन्ब्रह्मलोका ओताश्च प्रोताश्चेति सर्वलोका
आत्मनि ब्रह्मणि मणय इवौताश्च प्रोताश्चेति
स होवाचैवमेतान् लोकानात्मनि प्रतिष्ठितान्वेदात्मैव
स भवतीत्येतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनमिति
वेदानुशासनम् ॥
इति दशमः खण्डः ॥ १०॥
अथ हैनं रैक्वः पप्रच्छ भगवन्वोऽयं
विज्ञानघन उत्क्रामन्स केन कतरद्वाव
स्थानमुत्सृज्यापक्रामतीति तस्मै स होवाच
हृदयस्थ मध्ये लोहितं मांसपिण्डं
यस्मिऽन्स्तद्दहरं पुण्डरीकं कुमुदमिवानेकधा
विकसितं तस्य मध्ये समुद्रः समुद्रस्य मध्ये
कोशस्तस्मिन्न्नाड्यश्चतस्रो भवन्ति रमारमेच्छाऽपुनर्भवेति
तत्र रमा पुण्येन पुण्यं लोकं नयत्यरमा पापेन
पापमिच्छया यत्स्मरति तदभिसम्पद्यते अपुनर्भवया
कोशं भिनत्ति कोशं भित्त्वा शीर्षकपालं भिनत्ति
शीर्षकपालं भित्त्वा पृथिवीं भिनत्ति पृथिवीं भित्त्वापो
भिनत्त्यापो भित्त्वा तेजो भिनत्ति तेजो भित्त्वा वायुं भिनत्ति वायुं
भित्त्वाकाशं भिनत्त्याकाशं भित्त्वा मनो भिनत्ति
मनो भित्त्वा भूतादिं भिनत्ति भूतादिं भित्त्वा महान्तं
भिनत्ति महान्तं भित्त्वाव्यक्तं भिनत्त्यव्यक्तं भित्त्वाक्षरं
भिनत्त्यक्षरं भित्त्वा मृत्युं भिनत्ति मृत्युर्वै परे देव
एकीभवतीति परस्तान्न सन्नासन्न सदसदित्येतन्निर्वाणा-
नुशासनमिति वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इत्येकादशः खण्डः ॥ ११॥
ॐ नारायणाद्वा अन्नमागतं पक्वं ब्रह्मलोके
महासंवर्तके पुनः पक्वमादित्ये पुनः पक्वं
क्रब्यादि पुनः पक्वं जालकिलक्लिन्नं पर्युषितं
पूतमन्नमयाचितमसंक्लृप्तमश्नीयान्न कंचन याचेत ॥
इति द्वादशः खण्डः ॥ १२॥
बाल्येन तिष्ठासेद्बालस्वभावोऽसङ्गो निरवद्यो
मौनेन पाण्डित्येन निरवधिकारतयोपलभ्येत
कैवल्यमुक्तं निगमनं प्रजापतिरुवाच महत्पदं
ज्ञात्वा वृक्षमूले वसेत कुचेलोऽसहाय एकाकी
समाधिस्थ आत्मकाम आप्तकामो निष्कामो
जीर्णकामो हस्तिनि सिंहे दंशे मशके नकुले
सर्पराक्षसगन्धर्वे मृत्यो रूपाणि विदित्वा न बिभेति
कुतश्चनेति वृक्षमिव तिष्ठासेच्छिद्यमानोऽपि
न कुप्येत न कम्पेतोत्पलमिव तिष्ठासेच्छिद्यमानोऽपि
न कुप्येत न कम्पेताकाशमिव तिष्ठासेच्छिद्यमानोऽपि
न कुप्येत न कम्पेत सत्येन तिष्ठासेत्सत्योऽयमात्मा
सर्वेषामेव गन्धानां पृथिवी हृदयं सर्वेषामेव
रसानामापो हृदयं सर्वेशामेव रूपाणां तेजो
हृदयं सर्वेषामेव स्पर्शानां वायुर्हृदयं
सर्वेषामेव शब्दानामाकाशं हृदयं सर्वेषामेव
गतीनामव्यक्तं हृदयं सर्वेषामेव सत्त्वानां
मृत्युर्हृदयं मृत्युर्वै परे देव एकीभवतीति परस्तान्न
सन्नासन्न सदसदित्येतन्निर्वाणानुशासनमिति
वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इति त्रयोदशः खण्डः ॥ १३॥
ॐ पृथिवी वान्नमापोऽन्नादा आपो वान्नं
ज्योतिरन्नादं ज्योतिर्वान्नं वायुरन्नादो
वायुर्वान्नमाकाशोऽन्नाद आकाशो
वान्नमिन्द्रियाण्यन्नादानीन्द्रियाणि वान्नं
मनोऽन्नादं मनो वान्नं बुद्धिरन्नादा
बुद्धिर्वानमव्यक्तमन्नदमव्यक्तं
वान्नमक्षरमन्नादमक्षरं वान्नं
मृत्युरन्नादो मृत्युर्वै परे देव एकीभवतीति
परस्तान्न सन्नासन्न सदसदित्येतन्निर्वाणा-
नुशासनमिति वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इति चतुर्दशः खण्डः ॥ १४॥
अथ हैनं रैक्वः पप्रच्छ भगवन्योऽयं
विज्ञानघन उत्क्रामन्स केन कतरद्वाव
स्थानं दहतीति तस्मै स होवाच योऽयं
विज्ञानघन उत्क्रामन्प्राणं दहत्यपानं
व्यानमुदानं समानं वैरम्भं मुख्य-
मन्तर्यामं प्रभञ्जनं कुमारं श्येनं
श्वेतं कृष्णं नागं दहति पृथिव्यापस्तेजो-
य्वाकाशं दहति जागरितं स्वप्नं सुषुप्तं
तुरीयं च महतां च लोकं परं च लोकं
दहति लोकालोकं दहति धर्माधर्मं दहत्यभास्कर-
ममर्यादं निरालोकमतः परं दहति महान्तं
दहत्यव्यक्तं दहत्यक्षरं दहति मृत्युं दहति
मृत्युर्वै परे देव एकीभवतीति परस्तान्न सन्नासन्न
सदसदित्येतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनमिति
वेदानुशासनम् ॥
इति पञ्चदशः खण्डः ॥ १५॥
सौबालबीजब्रह्मोपनिषन्नाप्रशान्ताय
दातव्या नापुत्राय नाशिष्याय नासंवत्सर-
रात्रोषिताय नापरिज्ञातकुलशीलाय दातव्या नैव
च प्रवक्तव्या । यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे
तथा गुरौ । तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते
महात्मन इत्येतन्निर्वाणानुशासनमिति
वेदानुशासनमिति वेदानुशासनम् ॥
इति षोडशः खण्डः ॥ १६॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति सुबालोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ सूर्योपनिषत् सूर्याथर्वशीर्षम् च ॥
अथर्ववेदीय सामान्योपनिषत् ।
सूदितस्वातिरिक्तारिसूरिनन्दात्मभावितम् ।
सूर्यनारायणाकारं नौमि चित्सूर्यवैभवम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ अथ सूर्याथर्वाङ्गिरसं व्याख्यास्यामः ।
ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । आदित्यो देवता ।
हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम् । हृल्लेखा शक्तिः ।
वियदादिसर्गसंयुक्तं कीलकम् ।
चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थे विनियोगः ।
षट्स्वरारूढेन बीजेन षडङ्गं रक्ताम्बुजसंस्थितम् ।
सप्ताश्वरथिनं हिरण्यवर्णं चतुर्भुजं
पद्मद्वयाभयवरदहस्तं कालचक्रप्रणेतारं
श्रीसूर्यनारायणं य एवं वेद स वै ब्राह्मणः ।
ॐ भूर्भुवःसुवः । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।
सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च । सूर्याद्वै खल्विमानि
भूतानि जायन्ते ।
सूर्याद्यज्ञः पर्जन्योऽन्नमात्मा नमस्त आदित्य ।
त्वमेव प्रत्यक्षं कर्मकर्तासि । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वमेव प्रत्यक्षं विष्णुरसि ।
त्वमेव प्रत्यक्षं रुद्रोऽसि । त्वमेव प्रत्यक्षमृगसि ।
त्वमेव प्रत्यक्षं यजुरसि ।
त्वमेव प्रत्यक्षं सामासि । त्वमेव प्रत्यक्षमथर्वासि ।
त्वमेव सर्वं छन्दोऽसि ।
आदित्याद्वायुर्जायते । आदित्याद्भूमिर्जायते । आदित्यादापो
जायन्ते । आदित्याज्ज्योतिर्जायते ।
आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते । आदित्याद्देवा जायन्ते ।
आदित्याद्वेदा जायन्ते ।
आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति । असावादित्यो ब्रह्म ।
आदित्योऽन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहङ्काराः । आदित्यो वै
व्यानः समानोदानोऽपानः प्राणः ।
आदित्यो वै श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाः । आदित्यो वै
वाक्पाणिपादपायूपस्थाः ।
आदित्यो वै शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः । आदित्यो वै
वचनादानागमनविसर्गानन्दाः ।
आनन्दमयो ज्ञानमयो विज्ञानानमय आदित्यः । नमो मित्राय
भानवे मृत्योर्मा पाहि ।
भ्राजिष्णवे विश्वहेतवे नमः । सूर्याद्भवन्ति भूतानि
सूर्येण पालितानि तु ।
सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोऽहमेव च । चक्षुर्नो
देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः ।
चक्षुर्धाता दधातु नः । आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय
धीमहि । तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ।
सविता पश्चात्तात्सविता
पुरस्तात्सवितोत्तरात्तात्सविताधरात्तात् ।
सविता नः सुवतु सर्वतातिं सविता नो रासतां दीर्घमायुः ।
ॐइत्येकाक्षरं ब्रह्म । घृणिरिति द्वे अक्षरे । सूर्य
इत्यक्षरद्वयम् । आदित्य इति त्रीण्यक्षराणि ।
एतस्यैव सूर्यस्याष्टाक्षरो मनुः । यः सदाहरहर्जपति स
वै ब्राह्मणो भवति स वै ब्राह्मणो भवति ।
सूर्याभिमुखो जप्त्वा महाव्याधिभयात्प्रमुच्यते ।
अलक्ष्मीर्नश्यति । अभक्ष्यभक्षणात्पूतो भवति ।
अगम्यागमनात्पूतो भवति । पतितसम्भाषणात्पूतो भवति ।
असत्सम्भाषणात्पूतो भवति ।
मध्याह्ने सूराभिमुखः पठेत् ।
सद्योत्पन्नपञ्चमहापातकात्प्रमुच्यते ।
सैषां सावित्रीं विद्यां न किञ्चिदपि न
कस्मैचित्प्रशंसयेत् ।
य एतां महाभागः प्रातः पठति स भाग्यवाञ्जायते ।
पशून्विन्दति । वेदार्थं लभते ।
त्रिकालमेतज्जप्त्वा क्रतुशतफलमवाप्नोति । यो हस्तादित्ये
जपति स महामृत्युं तरति य एवं वेद ॥
इत्युपनिषत् ॥
हरिः ॐ भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥
इति सूर्योपनिषत्समाप्ता ॥
॥ सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषत् ॥
(ऋग्वेदीया)
सौभाग्यलक्ष्मीकैवल्यविद्यावेद्यसुखाकृति ।
त्रिपान्नारायणानन्दरमचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि
प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥
वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा
प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं
वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु
वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
(सौभाग्यलक्ष्मीविद्याजिज्ञासा)
हरिः ॐ ॥ अथ भगवन्तं देवा ऊचुर्हे
भगवन्नः कथय सौभाग्यलक्ष्मीविद्याम् ।
तथेत्यवोचद्भगवानादिनारायणः सर्वे देवा
यूयं सावधानमनसो भूत्वा शृणुत
तुरीयरूपां तुरीयातीतान् सर्वोत्कटां
सर्वमन्त्रासनगतां पीठोपपीठदेवतापरिवृतां
चतुर्भुजां श्रियं हिरण्यवर्णामिति
पञ्चदशर्ग्भिर्ध्यायेत् । अथ पञ्चदश
ऋगात्मकस्य श्रीसूक्तस्यानन्दकर्दमचिक्लीतेन्दिरासुता
ऋषयः । श्रीऋष्याद्या ऋचः
चतुर्दशानमृचामानन्दाद्यृषयः ।
हिरण्यवर्णाद्याद्यत्रयस्यानुष्टुप् छन्दः ।
कांसोस्मीत्यस्य बृहती छन्दः ।
तदन्ययोर्द्वयोस्त्रिष्टुप् । पुनरष्टकस्यानुष्टुप् ।
शेषस्य प्रस्तारपङ्क्तिः । श्र्यग्निर्देवता ।
हिरण्यवर्णामिति बीजम् । कांसोऽस्मीति शक्तिः ।
हिरण्मया चन्द्रा रजतस्रजा हिरण्या हिरण्यवर्णेति
प्रणवादिनमोन्तैश्चतुर्थ्यन्तैरङ्गन्यासः ।
अथ वक्त्रत्रयैरङ्गन्यासः । मस्तकलोचनश्रुतिघ्राण-
वदनकण्ठबाहुद्वयहृदयनाभिगुह्यपायूरुजानुजङ्घेषु
श्रीसूक्तैरेव क्रमशो न्यसेत् । अरुणकमलसंस्था
तद्रजःपुञ्जवर्णा करकमलधृतेष्टाऽभीतियुग्माम्बुजा च ।
मणिकटकविचित्रालङ्कृताकल्पजालैः सकलभुवनमाता
सन्ततं श्रीः श्रियै नः ॥ १॥
(सौभग्यलक्ष्मीचक्रम्)
तत्पीठकर्णिकायां ससाध्यं श्रीबीजम् ।
वस्वादित्यकलापद्मेषु श्रीसूक्तगतार्धार्धर्चा
तद्बहिर्यः शुचिरिति मातृकया च श्रियं यन्त्राङ्गदशकं
च विलिख्य श्रियमावाहयेत् । अङ्गैः प्रथमा वृत्तिः ।
पद्मादिभिर्द्वितीया । सोकेशैस्तृतीया । तदायुधैस्तुरीया
वृत्तिर्भवति । श्रीसूक्तैरावाहनादि । षोडशसहस्रजपः ।
(एकाक्षरीमन्त्रस्य ऋष्यादि)
सौभाग्यरमैकाक्षर्या भृगुनिचृद्गायत्री । श्रिय ऋष्यादयः ।
शमिति बीजशक्तिः । श्रीमित्यादि षडङ्गम् । भूयाद्भूयो
द्विपद्माभयवरदकरा तप्तकार्तस्वराभा शुभ्राभ्राभेभयुग्म-
द्वयकरधृतकुम्भाद्भिरासिच्यमाना । रक्तौघाबद्धमौलि-
र्विमलतरदुकूलार्तवालेपनाढ्या पद्माक्षी पद्मनाभोरसि
कृतवसतिः पद्मगा श्रीः श्रियै नः ॥ १॥
(एकाक्षरीचक्रम्)
तत्पीठम् । अष्टपत्रं वृत्तत्रयं द्वादशराशिखण्डं
चतुरस्रं रमापीठं भवति । कर्णिकायां ससाध्यं श्रीबीजम् ।
विभूतिरुन्नतिः कान्तिः सृष्टिः कीर्तिः सन्नतिर्व्युष्टिः
सत्कृष्टिरृद्धिरिति प्रणवादिनमो तैश्चतुर्थ्यन्तैर्नवशक्तिं
यजेत् । अङ्गे प्रथमा वृतिः ।
वासुदेवाभिर्द्वितीया । बालाक्यादिभिस्तृतीया ।
इन्द्रादिभिश्चतुर्थी भवति ।
द्वादशलक्षजपः ।
(लक्ष्मीमन्त्रविशेषाः)
श्रीलक्ष्मीर्वरदा विष्णुपत्नी
वसुप्रदा हिरण्यरूपा
स्वर्णमालिनी रजतस्रजा स्वर्णप्रभा स्वर्णप्राकारा
पद्मवासिनी पद्महस्ता
पद्मप्रिया मुक्तालङ्कारा चन्द्रसूर्या बिल्वप्रिया ईश्वरी
भुक्तिर्मुक्तिर्विभूतिरृद्धिः समृद्धिः कृष्टिः
पुष्टिर्धनदा धनेश्वरी
श्रद्धा भोगिनी भोगदा सावित्री धात्री
विधात्रीत्यादिप्रणवादिनमोन्ताश्चतुर्थ्यन्ता
मन्त्राः । एकाक्षरवदङ्गादिपीठम् । लक्षजपः ।
दशांशं तर्पणम् ।
दशांशं हवनम् । द्विजतृप्तिः । निष्कामानामेव
श्रीविद्यासिद्धिः ।
न कदापि सकामानामिति ॥ १॥
द्वितीयः खण्डः
(उत्तमाधिकारिणां ज्ञानयोगः)
अथ हैनं देवा ऊचुस्तुरीयया मायया निर्दिष्टं
तत्त्वं ब्रूहीति । तथेति स होवाच ।
योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्धते ।
योऽप्रमत्तस्तु योगेन स योगी रमते चिरम् ॥ १॥
समापय्य निद्रां सिजीर्णेऽल्पभोजी
श्रमत्याज्यबाधे विविक्ते प्रदेशे ।
सदा शीतनिस्तृष्ण एष प्रयत्नोऽथ
वा प्राणरोधो निजाभ्यासमार्गात् ॥ २॥
वक्त्रेणापूर्य वायुं हुतवलनिलयेऽपानमाकृष्य धृत्वा
स्वाङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीभिर्वरकरतलयोः षड्भिरेवं निरुध्य ।
श्रोत्रे नेत्रे च नासापुटयुगलमतोऽनेन मार्गेण सम्यक्-
पश्यन्ति प्रत्ययाशं प्रणवबहुविधध्यानसंलीनचित्ताः ॥ ३॥
(नादाविर्भावपूर्वको ग्रन्थित्रयभेदः)
श्रवणमुखनयननासानिरोधनेनैव कर्तव्यम् ।
शुद्धसुषुम्नासरणौ स्फुटममलं श्रूयते नादः ॥ ४॥
विचित्रघोषसंयुक्तानाहते श्रूयते ध्वनिः ।
दिव्यदेहश्च तेजस्वी दिव्यगन्धोऽप्यरोगवान् ॥ ५॥
सम्पूर्णहृदयः शून्ये त्वारम्भे योगवान्भवेत् ।
द्वितीया विघटीकृत्य वायुर्भवति मध्यगः ॥ ६॥
दृढासनो भवेद्योगी पद्माद्यासनसंस्थितः ।
विष्णुग्रन्थेस्ततो भेदात्परमानन्दसम्भवः ॥ ७॥
अतिशून्यो विमर्दश्च भेरीशब्दस्ततो भवेत् ।
तृतीयां यत्नतो भित्त्वा निनादो मर्दलध्वनिः ॥ ८॥
(अखण्डब्रह्माकारवृत्तिः)
महाशून्यं ततो याति सर्वसिद्धिसमाश्रयम् ।
चित्तानन्दं ततो भित्त्वा सर्वपीठगतानिलः ॥ ९॥
निष्पत्तौ वैष्णवः शब्दः क्वणतीति क्वणो भवेत् ।
एकीभूतं तदा चित्तं सनकादिमुनीडितम् ॥ १०॥
अन्तेऽनन्तं समारोप्य खण्डेऽखण्डं समर्पयन् ।
भूमानं प्रकृतिं ध्यात्वा कृतकृत्योऽमृतो भवेत् ॥ ११॥
(निर्विकल्पभावः)
योगेन योगं संरोध्य भावं भावेन चाञ्जसा ।
निर्विकल्पं परं तत्त्वं सदा भूत्वा परं भवेत् ॥ १२॥
अहंभावं परित्यज्य जगद्भावमनीदृशम् ।
निर्विकल्पे स्थितो विद्वान्भूयो नाप्यनुशोचति ॥ १३॥
सलिले सैन्धावं यद्वत्साम्यं भवति योगतः ।
तथात्ममनसौरेक्यं समाधिरभिधीयते ॥ १४॥
यदा संक्षीयते प्राणो मानसं च प्रलीयते ।
तदा समरसत्वं यत्समाधिरभिधीयते ॥ १५॥
यत्समत्वं तयोरत्र जीवात्मपरमात्मनोः ।
समस्तनष्टसङ्कल्पः समाधिरभिधीयते ॥ १६॥
प्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं निरामयम् ।
सर्वशून्यं निराभासं समाधिरभिधीयते ॥ १७॥
तृतीय खण्डः
(आधारचकम्)
स्वयमुच्चलिते देहे देही नित्यसमाधिना ।
निश्चलं तं विजानीयात्समाधिरभिधीयते ॥ १८॥
यत्रयत्र मनो याति तत्रतत्र परं पदम् ।
तत्रतत्र परं ब्रह्म सर्वत्र समवस्थितम् ॥ १९॥ इति॥ ॥ २॥
अथ हैनं देवा ऊचुर्नवचक्रविवेकमनुब्रूहीति ।
तथेति स होवाच आधारे ब्रह्मचक्रं त्रिरावृत्तं
भगमण्डलाकारम् । तत्र मूलकन्दे शक्तिः पावकाकारं
ध्यायेत् । तत्रैव कामरूपपीठं सर्वकामप्रदं भवति ।
इत्याधारचक्रम् । द्वितीयं स्वाधिष्ठानचक्रं
षड्दलम् । तन्मध्ये पश्चिमाभिमुखं लिङ्गं
प्रवालाङ्कुरसदृशं ध्यायेत् । तत्रैवोड्याणपीठं
जगदाकर्षणसिद्धिदं भवति । तृतीयं
नाभिचक्रं पञ्चावर्तं सर्पकुटिलाकारम् ।
तन्मध्ये कुण्डलिनीं बालार्ककोटिप्रभां
तनुमध्यां ध्यायेत् । सामर्थ्यशक्तिः सर्वसिद्धिप्रदा
भवति । मणिपूरचक्रं हृदयचक्रम् ।
अष्टदलमधोमुखम् । तन्मध्ये ज्योतिर्मयलिङ्गाकारं
ध्यायेत् । सैव हंसकला सर्वप्रिया सर्वलोकवश्यकरी
भवति । कण्ठचक्रं चतुरङ्गुलम् । तत्र वामे इडा
चन्द्रनाडी दक्षिणे पिङ्गला सूर्यनाडी तन्मध्ये सुषुम्नां
श्वेतवर्णां ध्यायेत् । य एवं वेदानाहता सिद्धिदा भवति ।
तालुचक्रम् । तत्रामृतधाराप्रवाहः ।
घण्टिकालिङ्गमूलचक्ररन्ध्रे राजदन्तावलम्बिनीविवरं
दशद्वादशारम् । तत्र शून्यं ध्यायेत् । चित्तलयो भवति ।
सप्तमं भ्रूचक्रमङ्गुष्ठमात्रम् । तत्र ज्ञाननेत्रं
दीपशिखाकारं ध्यायेत् । तदेव कपालकन्दवाक्सिद्धिदं
भवति । आज्ञाचक्रमष्टमम् । ब्रह्मरन्ध्रं निर्वाणचक्रम् ।
तत्र सूचिकागृहेतरं धूम्रशिखाकारं ध्यायेत् । तत्र
जालन्धरपीठं मोक्षप्रदं भवतीति परब्रह्मचक्रम् ।
नवममाकाशचक्रम् । तत्र षोडशदलपद्ममूर्ध्वमुखं
तन्मध्यकर्णिकात्रिकूटाकारम् । तन्मध्ये ऊर्ध्वशक्तिः ।
तां पश्यन्ध्यायेत् । तत्रैव पूर्णगिरिपीठं
सर्वेच्छासिद्धिसाधनं भवति । सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषदं
नित्यमधीते योऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो भवति । स
सकलधनधान्यसत्पुत्रकलत्रहयभूगजपशुमहिषीदासीदास-
योगज्ञानवान्भवति । न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तत
इत्युपनिषत् ।
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम्
आविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा
प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि
सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु
वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति श्रीसौभाग्यलक्ष्म्युपनिषत्समाप्ता ॥
॥ स्कन्दोपनिषत् ५१ ॥
यत्रासंभवतां याति स्वातिरिक्तभिदाततिः । ।
संविन्मात्रं परं ब्रह्म तत्स्वमात्रं विजृम्भते ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अच्युतोऽस्मि महादेव तव कारुण्यलेशतः ।
विज्ञानघन एवास्मि शिवोऽस्मि किमतः परम् ॥ १॥
न निजं निजवद्भाति अन्तःकरणजृम्भणात् ।
अन्तःकरणनाशेन संविन्मात्रस्थितो हरिः ॥ २॥
संविन्मात्रस्थितश्चाहमजोऽस्मि किमतः परम् ।
व्यतिरिक्तं जडं सर्वं स्वप्नवच्च विनश्यति ॥ ३॥
चिज्जडानां तु यो द्रष्टा सोऽच्युतो ज्ञानविग्रहः ।
स एव हि महादेवः स एव हि महाहरिः ॥ ४॥
स एव हि ज्योतिषां ज्योतिः स एव परमेश्वरः ।
स एव हि परं ब्रह्म तद्ब्रह्माहं न संशयः ॥ ५॥
जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः ।
तुषेण बद्धो व्रीहिः स्यात्तुषाभावेन तण्डुलः ॥ ६॥
एवं बद्धस्तथा जीवः कर्मनाशे सदाशिवः ।
पाशबद्धस्तथा जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः ॥ ७॥
शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे ।
शिवस्य हृदयं विष्णुः विष्णोश्च हृदयं शिवः ॥ ८॥
यथा शिवमयो विष्णुरेवं विष्णुमयः शिवः ।
यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि ॥ ९॥
यथान्तरं न भेदाः स्युः शिवकेशवयोस्तथा ।
देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ॥ १०॥
त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहंभावेन पूजयेत् ।
अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः ।
स्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ ११॥
ब्रह्मामृतं पिबेद्भैक्ष्यमाचरेद्देहरक्षणे ।
वसेदेकान्तिको भूत्वा चैकान्ते द्वैतवर्जिते ।
इत्येवमाचरेद्धीमान्स एवं मुक्तिमाप्नुयात् ॥ १२॥
श्रीपरमधाम्ने स्वस्ति चिरायुष्योन्नम इति ।
विरिञ्चिनारायणशङ्करात्मकं नृसिंह देवेश तव
प्रसादतः ।
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तमव्ययं वेदात्मकं ब्रह्म निजं विजानते
॥ १३॥
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततम् ॥ १४॥
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं
पदम् ।
इत्येतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनमिति
वेदानुशासनमित्युपनिषत् ॥ १५॥
॥ इति कृष्णयजुर्वेदीय स्कन्दोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ हंसोपनिषत् ॥
हंसाख्योपनिषत्प्रोक्तनादालिर्यत्र विश्रमेत् ।
तदाधारं निराधारं ब्रह्ममात्रमहं महः ॥
ॐ पूर्णमद इति शान्तिः ॥
गौतम उवाच ।
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
ब्रह्मविद्याप्रबोधो हि केनोपायेन जायते ॥ १॥
सनत्कुमार उवाच ।
विचार्य सर्ववेदेषु मतं ज्ञात्वा पिनाकिनः ।
पार्वत्या कथितं तत्त्वं शृणु गौतम तन्मम ॥ २॥
अनाख्येयमिदं गुह्यं योगिनां कोशसंनिभम् ।
हंसस्याकृतिविस्तारं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ ३॥
अथ हंसपरमहंसनिर्णयं व्याख्यास्यामः ।
ब्रह्मचारिणे शान्ताय दान्ताय गुरुभक्ताय ।
हंसहंसेति सदा ध्यायन्सर्वेषु देहेषु व्याप्य वर्तते ॥
यथा ह्यग्निः काष्ठेषु तिलेषु तैलमिव तं विदित्वा
मृत्युमत्येति ।
गुदमवष्टभ्याधाराद्वायुमुत्थाप्यस्वाधिष्ठां त्रिः
प्रदिक्षिणीकृत्य मणिपूरकं च गत्वा अनाहतमतिक्रम्य
विशुद्धौ
प्राणान्निरुध्याज्ञामनुध्यायन्ब्रह्मरन्ध्रं ध्यायन्
त्रिमात्रोऽहमित्येवं सर्वदा ध्यायन् । अथो
नादमाधाराद्ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं शुद्धस्फटिकसङ्काशं
स वै ब्रह्म परमात्मेत्युच्यते ॥ १॥
अथ हंस ऋषिः । अव्यक्ता गायत्री छन्दः । परमहंसो
देवता । अहमिति बीजम् । स इति शक्तिः ।
सोऽहमिति कीलकम् । षट् सङ्ख्यया
अहोरात्रयोरेकविंशतिसहस्राणि षट् शतान्यधिकानि
भवन्ति ।
सूर्याय सोमाय निरञ्जनाय निराभासाय तनु सूक्ष्मं
प्रचोदयादिति अग्नीषोमाभ्यां वौषट्
हृदयाद्यङ्गन्यासकरन्यासौ भवतः । एवं कृत्वा हृदये
अष्टदले हंसात्मानं ध्यायेत् । अग्नीषोमौ
पक्षावोङ्कारः शिरो बिन्दुस्तु नेत्रं मुखं रुद्रो रुद्राणी
चरणौ बाहू कालश्चाग्निश्चोभे पार्श्वे भवतः ।
पश्यत्यनागारश्च शिष्टोभयपार्श्वे भवतः । एषोऽसौ
परमहंसो भानुकोटिप्रतीकाशः । येनेदं व्याप्तम् ।
तस्याष्टधा वृत्तिर्भवति । पूर्वदले पुण्ये मतिः आग्नेये
निद्रालस्यादयो भवन्ति याम्ये क्रूरे मतिः नैरृते पापे
मनीषा वारुण्यां क्रीडा वायव्ये गमनादौ बुद्धिः सौम्ये
रतिप्रीतिः ईशाने द्रव्यादानं मध्ये वैराग्यं केसरे
जाग्रदवस्था कर्णिकायां स्वप्नं लिङ्गे सुषुप्तिः पद्मत्यागे
तुरीयं यदा हंसो नादे लीनो भवति तदा
तुर्यातीतमुन्मननमजपोपसंहारमित्यभिधीयते । एवं सर्वं
हंसवशात्तस्मान्मनो हंसो विचार्यते । स एव जपकोट्या
नादमनुभवति एवं सर्वं हंसवशान्नादो दशविधो जायते
। चिणीति प्रथमः । चिञ्चिणीति द्वितीयः ।
घण्टानादस्तृतीयः । शङ्खनादश्चतुर्थः ।
पञ्चमतन्त्रीनादः । षष्ठस्तालनादः । सप्तमो वेणुनादः
। अष्टमो मृदङ्गनादः । नवमो भेरीनादः ।
दशमो मेघनादः । नवमं परित्यज्य दशममेवाभ्यसेत् ।
प्रथमे चिञ्चिणीगात्रं द्वितीये गात्रभञ्जनम् । तृतीये
खेदनं याति चतुर्थे कम्पते शिरः ॥
पञ्चमे स्रवते तालु षष्ठेऽमृतनिषेवणम् । सप्तमे
गूढविज्ञानं परा वाचा तथाष्टमे ॥
अदृश्यं नवमे देहं दिव्यं चक्षुस्तथामलम् । दशमे
परमं ब्रह्म भवेद्ब्रह्मात्मसंनिधौ ॥
तस्मिन्मनो विलीयते मनसि सङ्कल्पविकल्पे दग्धे पुण्यपापे
सदाशिवः शक्त्यात्मा सर्वत्रावस्थितः स्वयंज्योतिः शुद्धो
बुद्धो नित्यो निरञ्जनः शान्तः प्रकाशत इति ॥
इति वेदप्रवचनं वेदप्रवचनम् ॥ २॥
ॐ पूर्णमद इति शान्तिः ॥
इति हंसोपनिषत्समाप्ता ॥
हयग्रीवोपनिषत्
स्वज्ञोऽपि यत्प्रसादेन ज्ञानं तत्फलमाप्नुयात् ।
सोऽयं हयास्यो भगवान्हृदि मे भातु सर्वदा ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ ॥ नारदो ब्रह्माणमुपसमेत्योवाचाधीहि भगवन्
ब्रह्मविद्यां वरिष्ठां यया चिरात्सर्वपापं व्यपोह्य
ब्रह्मविद्यां लब्ध्वैश्वर्यवान्भवति । ब्रह्मोवाच
हयग्रीवदैवत्यान्मन्त्रान्यो वेद स श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणानि वेद ।
स सर्वैश्वर्यवान्भवति । त एते मन्त्राः ।
विश्वोत्तीर्णस्वरूपाय चिन्मयानन्दरूपिणे ।
तुभ्यं नमो हयग्रीव विद्याराजाय स्वाहा स्वाहा नमः ॥ १॥
ऋग्यजुःसामरूपाय वेदाहरणकर्मणे ।
प्रणवोद्गीथवपुषे महाश्वशिरसे नमः स्वाहा स्वाहा नमः ॥ २॥
उद्गीथ प्रणवोद्गीथ सर्ववागीश्वरेश्वर ।
सर्ववेदमयाचिन्त्य सर्वं बोधय बोधय स्वाहा स्वाहा नमः ॥ ३॥
ब्रह्मात्रिरविसवितृभार्गवा ऋषयः । गायत्रीत्रिष्टुबनुष्टुप् छन्दांसि ।
श्रीमान् हयग्रीवः परमात्मा देवतेति । ह्लौ(ह्सौ)मिति बीजम् ।
सोऽहमिति शक्तिः । ह्लू(ह्सौ)मिति कीलकम् । भोगमोक्षयोर्विनियोगः ।
अकारोकारमकारैरङ्गन्यासः । ध्यानम् ।
शङ्खचक्रमहामुद्रापुस्तकाढ्यं चतुर्भुजम् ।
सम्पूर्णचन्द्रसंकाशं हयग्रीवमुपास्महे ॥
ॐ श्रीमिति द्वे अक्षरे । ह्लौ(ह्सौ)मित्येकाक्षरम् । ॐ नमो
भगवत इति सप्ताक्षराणि । हयग्रीवायेति पञ्चाक्षराणि ।
विष्णव इति त्र्यक्षराणि । मह्यं मेधां प्रज्ञामिति
षडक्षराणि , प्रयच्छ स्वाहेति पञ्चाक्षराणि ।
हयग्रीवस्य तुरीयो भवति ॥ ४॥
ॐ श्रीमिति द्वे अक्षरे । ह्लौ(ह्सौ)मित्येकाक्षरम् । ऐमैमैमिति
त्रीण्यक्षराणि । क्लीं क्लीमिति द्वे अक्षरे । सौः सौरिति द्वे अक्षरे ।
ह्रीमित्येकाक्षरम् । ॐ नमो भगवत इति सप्ताक्षराणि ।
मह्यं मेधां प्रज्ञामिति षडक्षराणि । प्रयच्छ
स्वाहेति पञ्चाक्षराणि । पञ्चमो मनुर्भवति ॥ ५॥
इति हयग्रीवोपनिषत्सु प्रथमोपनिषत् ॥ १ ॥
हयग्रीवैकाक्षरेण ब्रह्मविद्यां प्रवक्ष्यामि । ब्रह्मा
महेश्वराय महेश्वरः संकर्षणाय संकर्षणो नारदाय
नारदो व्यासाय व्यासो लोकेभ्यः प्रायच्छदिति
हकारोंसकारोमकारों त्रयमेकस्वरूपं भवति । ह्लौं(ह्सौं)
बीजाक्षरं भवति । बीजाक्षरेण ह्लौं(ह्सौं) रूपेण तज्जापकानां
सम्पत्सारस्वतौ भवतः । तत्स्वरूपज्ञानां वैदेही
मुक्तिश्च भवति । दिक्पालानां राज्ञां नागानां
किन्नराणामधिपतिर्भवति । हयग्रीवैकाक्षरजपशीलाज्ञया
सूर्यादयः स्वतः स्वस्वकर्मणि प्रवर्तन्ते । सर्वेषां
बीजानां हयग्रीवैकाक्षरबीजमनुत्तमं मन्त्रराजात्मकं
भवति । ह्लौं(ह्सौं) हयग्रीवस्वरूपो भवति । अमृतं कुरु कुरु स्वाहा ।
तज्जापकानां वाक्सिद्धिः श्रीसिद्धिरष्टाङ्गयोगसिद्धिश्च
भवति । ह्लौं(ह्सौं) सकलसाम्राज्येन सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।
तानेतान्मन्त्रान्यो वेद अपवित्रः पवित्रो भवति । अब्रह्मचारी
सुब्रह्मचारी भवति । अगम्यागमनात्पूतो भवति । पतितसम्भाषणात्पूतो
भवति । ब्रह्महत्यादिपातकैर्मुक्तो भवति । गृहं ऋहपतिरिव
देही देहान्ते परमात्मानं प्रविशति । प्रज्ञानमानन्दं ब्रह्म
तत्त्वमसि अयमात्मा ब्रह्म अहं ब्रह्मास्मीति महावाक्यैः
प्रतिपादितमर्थं त एते मन्त्राः प्रतिपादयन्ति ।
स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा एते । अथानुमन्त्राञ्जपति ।
यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा ।
चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम ॥ १॥
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी ।
अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ॥ २॥
ओष्ठापिधाना नकुली दन्तैः परिवृता पविः ।
सर्वस्यै वाच ईशाना चारु मामिह वादयेति च वाग्रसः ॥ ३॥
ससर्परीरमतिं बाधमान बृहन्मिमाय जमदग्निदत्त ।
आसूर्यस्य दुरिता तनान श्रवो देवेष्वमृतमजुर्यम् ॥ ४॥
य इमां ब्रह्मविद्यामेकादश्यां पठेद्धयग्रीवप्रभावेन
महापुरुषो भवति । स जीवन्मुक्तो भवति । ॐ नमो ब्रह्मणे
धारणं मे अस्त्वनिराकरणं धारयिता भूयासं कर्णयोः
श्रुतं माच्योढ्वं ममामुष्य ओमित्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
इति हयग्रीवोपनिषत्समाप्ता ॥