जो कोई भक्ति किया चहे भाई।।टेक।।
कर बैराग भसम कर गोला, सो तन मन में चढ़ाई।
ओढ़ के बैठ अधीनता चादर, तज अभिमान बड़ाई।।
प्रेम प्रतीत धरै इक तागा, सो रहे सुरत लगाई।
गगन मंडल बिच अभिरण झलकत, क्यों न सुरत मन लाई।।
शेष सहस मुख निसदिन बरनत, वेद कोट गुण गाई।
शिवसनकादि आदि ब्रह्मादिक, ढूढ़त थाह न पाई।।
नानक नाम कबीर मता है, सो मन प्रगट जनाई।
ध्रुव प्रह्लाद यही रस माते, शिव रहे ताड़ी लाई।।
गुरु की सेवा साध की संगत, निशदिन बढ़त सवाई।
दूलन दास नाम भज बंदे, ठाढ़ काल पछिताई।।
सांझ सुबह एकौ नहि जान, धरि धरि लेई चलावै वाण।।1।।
धनि वे पुरुष धन्नि वे नारी, आवागमन ते लिहल उपवारी।।2।।
यारी सतगुरु किया निगाह, जन बुल्लहि ले चला बियाह।।3।।
श्याम घटा धन घेरि, चहूँ दिशि आइया।
अनहद बाजे घोर जो गगन सुनाइया।।
दामिनि दमकि जो चमकि त्रिवेणी नहाइया।
बुल्ला हृदय विचारि तहाँ मन लाइया।।
सुखमन शीतल सेज हेत ताहि से कीजै।
गगन गुफा में पैठि दरस सतगुरु का लीजै।।
आवागमन न होय ब्रह्म कबहूँ नाहि छीजै।
बुल्ला हृदय प्रेम भरि अम्मर पद लीजै।।
सामहि उगवै सूर भोर ससि जागई।
गंग जमुन के संगम अनहद बाजई।।
अजपा जापहिं जाप सोहं डोरि लागई।
बुल्ला ता में पैठि जोति में गाजई।।
झूठा यह संसार झूठ सब कहत है।
सत शब्द की रहनि कोऊ नहि गहत है।।
बिना सत्त नही गत्त कुगत्त पस्त है।
बुल्ला हृदय विचारि सत्त से रहत है।।
ऐसी बनिज हमारी राम को लेन है।
मन पवना दोऊ दाम साहु को देन है।।
पांच पचीस तिन लादि आपु में बैठि के।
बुल्ला दीन्हों हाँकि जोति में पैठि के।।
क्या भयो ध्यान के किये, हाथ मन ना हुआ।
माला तिलक बनाय देत सबको दुआ।।
आसा लागा डोरि कहत सो भला हुआ।
बुल्ला कहै विचारि, झूठ सेमर घुआ।।
सन्मुख धरे ध्यान तो कर्म नसावई।
निर्गुण जपै अपार परम पद पावई।।
तन छूटे गति होय बहुरि नाहिं आवई।
बुल्ला हृदय विचारि बोलि हरि भावई।।
(मनहर छंद)
जीते हैं जु काम क्रोध, लोभ मोह दूरि किये।
और सब गुणिनि को, मद जिन भान्यो है।।
उपजै न ताप कोई, सीतल सुभाव जा को।
सबही में समता, संतोष उर आन्यो है।।
काहू सों न राग दोष, देत सबही को तोष।
जीवत ही पायो मोष, एक ब्रह्म जान्यो है।।
सुन्दर कहत कछु, महिमा कही न जाय।
ऐसो गुरुदेव दादू, मेरे मन मान्यो है।।
(उपदेश चिंतामणि)
बार बार कह्यो तोहि सावधान क्यूँ न होइ,
ममता की मोट सिर काहे को धरतु है।
मेरो धन मेरो धाम मेरे सुत मेरी बाम,
मरे पसु मेरे ग्राम भूल्यो ही फिरतु है।।
तू तो भयो बावरो विकाइ गई बुद्धि तेरी,
ऐसो अंध कूप गेह ता में तू परतु है।
सुंदर कहत तोहि नेकहू न आवै लाज,
काज को बिगार के अकाज क्यों करतु है।।
जो पर ब्रह्म मिल्यो कोउ चाहत, तौ नित संत समागम कीजै।
अंतर मेटि निरंतर ह्वै करि, ले उन कूँ अपनो मन दीजै।।
वे मुखद्वार उचार करैं कछु, सो अनयास सुधा रस पीजै।
सुन्दर सूर प्रकास भयो जब, और अज्ञान सबै तम छीजै।।
कोउक निंदक कोऊक बंदत, कोउक देतहि आइ जु भच्छन।
कोउक आय लगावत चंदन, कोउक डारत धूरि ततच्छन।।
कोइ कहै यह मूरख दीसत, कोउ कहै यह आहि विचच्छन।
सुन्दर काहु सॅू राग न द्वेष न, ये सब जानहु साधु के लच्छन।।
परिहै बिजुरि ताके ऊपर सूँ अचानक।
धूरि उड़ि जाय, कहूँ ठौर नहिं पाइहै।।
पीछे केऊ जुग महा नरक में परै जाइ।
ऊपर तें जमहू की, मार बहु खाइ है।।
ताके पीछे भूत प्रेत, स्थावर जंगम जोनि।
सहैगो संकट तब, पीछे पछताइहै।।
सुन्दर कहत और, भुगतै अनंत दुख।
संतन कूँ निंदै ता को, सत्यानास जाइ ह्वै।।
बोलत चालत बैठत ऊठत, पीवत खातहुं सूँघत स्वासै।
ऊपर तौ व्यवहार करै सब, भीतर सुप्न समान जु भासै।।
ले करि तीर पतालहि साधत, मारत है पुनि फेर अकासै।
सुन्दर देह क्रिया सब देखत, कोऊक पावत ज्ञानी को आसै।।
संत सदा उपदेस बतावत, केस सबै सिर स्वेत भये हैं।
तू ममता अजहूँ नहिं छाड़त, मौतहु आय सँदेस दये हैं।।
आज कि काल्ह चलै उठि मूरख, तेरे तो देखत केते गये है।
सुंदर क्यों नहिं राम सँभारत, या जग में कहो कौन रहे हैं।।
तू कछु और विचारत है नर,
तेरो विचार घरयोहि रहैगो।
कोटि उपाय करै धन के हित,
भाग लिख्यो तितनोहि लहैगो।।
भोर कि साँझ घरी पल माँझ सु,
काल अचानक आइ गहैगो।
राम भज्यो न कियो कछु सुकिरत,
सुन्दर यूँ पछताइ रहैगो।।
जो उपजै बिनसै गुण धारत, सो यह जानहु अंजन माया।
आव न जाय मरै नहिं जीवत, अच्युत एक निरंजन राया।।
ज्यूँ तरु तत्त्व रहै रस एकहि, आवत जात फिरै यह छाया।
सो परब्रह्म सदा सिर ऊपर, सुंदर ता प्रभु सूँ मन जाया।।
सोवत सोवत सोइ गयो सठ, रोवत रोवत कै बेर रोयो।
गोवत गोवत गोइ धरयो धन, खोवत खोवत तै सब खोयो।।
जोवत जोवत बीति गये दिन, बोवत बोवत तैं विष बोयो।
सुन्दर सुन्दर राम भज्यो नाहिं, ढोवत ढोवत बोझहि ढ़ोयो।।
मारे काम क्रोध सब, लोभ मोह पीसि डारे।
इंद्रिहु कतल करि, कियो रजपूतो है।।
मारयो महामत्त मन, मारे अहंकार भोर।
मारे मद मत्सर हूँ, ऐसो रण रूतो है।।
मारी आसा तृष्णा पुनि, पापिनी साँपिनी दोऊ।
सब को प्रहार करि, निज पद पहूचो है।।
सुन्दर कहत ऐसो, साधु कोई सूर बीर।
बैरी सब मारि के, निचिन्त होइ सूतो है।।
प्रथम देव गुरुदेव जगत में, और न दूजो देवा ।
गुरु पूजे सब देवन पूजे, गुरु सेवा सब सेवा ।।ध्रुव।।
गुरू इष्ट गुरु मन्त्र देवता, गुरू सकल उपचारा ।
गुरू मन्त्र गुरु तन्त्र गुरु है, गुरू सकल संसारा ।।1।।
गुरु आवाह्न ध्यान गुरू है, गुरू पंच विधि पूजा ।
गुरु पद हव्य कव्य गुरु पावक, सकल वेद गुरु दूजा ।।2।।
गुरु होता गुरु याग महापशु, गुरू भागवत ईशा ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु सदाशिव, इन्द्र वरुण दिगधीशा ।।3।।
बिनु गुरु जप तप दान व्यर्थ व्रत, तीरथ फल नहिं दाता ।
‘लछमीपति’ नहिं सिद्ध गुरू बिनु, वृथा जीव जग जाता ।।4।।
रे मन! मूरख जाग सवेरे क्या कायर ह्वै सोता है ।। ध्रुव।।
राम भजन करु पाइ मनुज तन, क्यों आलस में खोता है ।। अन्तरा।।
मानुष के तन दुर्लभ जग में, बड़े भाग से पाता है ।
ताको करत खराब नादाना, याही ते दुख पाता है ।।1।।
जो भूले इन्द्रिय सुख कारण, सो पीछे पछताता है ।
चूकेेंगे सो भूखे रहेंगे, आगे यम से नाता है ।।2।।
आलस करता ताते पामर, यहाँ वहाँ फिर रोता है ।
‘लछमीपति’ परचारि कहत है, जागे आनंद होता है ।।3।।
विषय वासना छुटत न मन से, नाहक नर वैराग करे ।। ध्रुव।।
जल बीच मीन बझे वंशी में, जीभ के कारण प्राण हरे ।
सो रसना वश कियो न योगी, नाहक इन्द्रिय स्वाद मरे ।।1।।
वन में रहत मृगा निशिवासर, न काहू के दोष करे ।
सो मुरली धुनि सूनन कारण, व्याधा वाण से प्राण हरे ।।2।।
नयन के कारण जले पतिंगा, परस पाइ गज राज दहेे ।
नासा कारण भ्रमर नाश भये, पाँचो रस ले पाँच मरे ।।3।।
किये कोटि तीरथ व्रत पूजा, मौनी हो के ध्यान धरे ।
‘लछमीपति’ तब लगि सब झूठा, जब लगि मन नहिं हाथ धरे ।।4।।
रे नादाने मनुआँ करि करार क्यो भूला।।
गर्भवास के बात यादकर जब तू रहे अण्डतूला।
जन्मत ही मुख धरे मातु तन दूध पेट भरि पीया।।
खाइ खेलाइ गमाई बालापन पराधीन ह्वै जीया।
शिशुपन बीते युवापन आये तिय माया लिपटाया।।
काम क्रोध मद लोभ छाय तन दूरि दुराये दाया।
थाके बल आये बूढ़ापन कांपन लागे काया।।
कफ पित्तवात गात भरि छाये कटु भाखत सुत जाया।
मरे भजे नहि कबहुँ राम पद यद्यपि बहुत दुःख पाया।।
‘लछमीपति’ झूठे नर पामर यम के हाथ बिकाया।
गुरु सुमिरन उठि करो सबेरे, भक्ति मुक्ति पददाता।।
चारि पदारथ दाता श्री गुरु, मोह तिमिर कुल घाता।
गुरु विद्या गुरु बंधु सहोदर, गुरू जनक गुरु भ्राता।।
वेद पुराण शास्त्र गुरु करता, श्री भागवत गीता।
जाति धर्म गुण कर्म सकल विधि, गुरु मूरति परतीता।।
गुरु निर्गुण गुरु सरगुण सुन्दर, गुरु जंगम वरदाता।
गुरू चतुर्दिक भुवन प्रकाशित, अनल सूर शशि व्राता।।
गुरु अच्छर विज्ञान निरंजन, सकल जीव सुखदाता।
‘लछमीपति’ सब छाड़ि भजो नर, एक गुरू से नाता।।
राम कहत रहु राम कहत रहु, राम कहत रहु भाई।
नहीं तो जमपुर बांधल जैहो, मुशिक चोर की नाई।।
जाके कारण जनम गवायों, हम हम करि अपनाई।
सो सब तेरे काम न दै हैं, प्राण अकेला जाई।।
घर की नारी बहुत हित जासौं, सोवत अंग लगाई।
जब यह हंसा तजिहैं काया, प्रेत प्रेत करि भागी।।
भाई भतीजा परिजन प्रीतम, स्वारथ नेह लगायी।
प्राण पुत्र सम सदा सनेही, सोऊ विलग होई जाई।।
मरण काल कोई संग न जैहैं, चेत करो रे भाई।
‘लछमीपति’ भजु राम चंद्र पद, जो नर चहत भलाई।।
मन तू कौन मंत्र सिखि आये।
पाये बार बार दारुण दुख आपन सीस बिसाये।।
सुपथ सदा हरिनाम भजन तजि कुपथ अनेक चलाये।
असत बोलि ठगि जुआ, चोरि करि बादहि जन्म गंवाये।।
दया शील संतोष छोड़ि के काम क्रोध तन छाये।
सन्त समाज गहे नहीं कबहूं, कुटिल संग सुख पाये।।
दियो न दान कबहुं दीनन को धोखहिं जन्म गँवाये।
निशि निद्रा नारी संग माते, राम कबहु नहीं गाये।।
कुकरम करत तीनों पन बीते केते पाप कमाये।
लछन स्याह मुख लाइ सफेदी अबहुं न लाजि लजाये।।
राम कहु राम कहु राम कहु सुगना।
पंच रंग महल बनौल तोर विधिना,
तेहि बीच केलि करे तबहूँ न सूझना।।
दस दरवाजा यामें खिड़की बा कितना।
तेहि बीच लागल बाटे एके गो झपना।।
दशो दुआर खुलल कहवां लुकौना।
खाय खातिर काली नाग करे बाटे चाहना।।
स्वामी रौनक दास प्रभुजी गगन में लुकौना।
सेवक जगरनाथ लखि काल पछतौना।।
पलटू ऐसे दास जो भरम करे संसार।।
भरम करे संसार होई आसन से पक्का।
भली बुरी कोउ कहै रहे सहि सबका धक्का।।
धीरज धै संतोष रहे दृढ़ होइ ठहराई।
जो कछु आवे सो खाई बचे सो देत लुटाई।।
लगे न माया मोह जगत की छोड़े आशा।
बल तजि निरबल होय सबुर में करे दिलासा।।
काम क्रोध को मारि के करे नींद आहार।
पलटू ऐसे दास को भरम करे संसार।।
हमरे वृन्दावन उर और।
माया काल तहाँ नहीं व्यापे जहाँ रसिक सिर मौर।।
छूटि जाति सत असत वासना मन की दौरा दौर।
भगवत रसिक बतायो श्री गुरु अमल अलौकिक ठौर।।
इतने गुण जामे सो संत।
श्री भागवत मध्य जस गावत श्री मुख कमला कंत।।
हरि को भजन साधु की सेवा सर्व भूत पर दाया।
हिसा लोभ दंभ छल त्यागे विष सम देखे माया।।
सहनशील आशय उदार अति धीरज सहित विवेकी।
सत्य वचन सबको सुख दायक गही अनन्य व्रत एकी।।
इन्द्रिय जित अभिमान न जाके करे जगत को पावन।
भगवत रसिक तासु की संगति तीनहु ताप नसावन।।
चीखि चीखि चसकन सों राम सुधा पीजिये।
राम चरित सागर में रोम रोम भीजिये।।
राग द्वेष जग बढ़ाय, काहे को छीजिये।
पर दुखन को देखत ही आप सों पसीजिये।।
खैचि-खांचि तोड़ि ताड़ि श्रुति को न गीजिये।
जामें रस बन्ध्यो रहे सोई अर्थ कीजिये।।
कछुक काल संतन्ह को दोउ चरण मीजिये।
“ देव” दृष्टि पाय विमल युग युग लौ लीजिये।।
अड़ियल
संत मता है सार और सब जाल पसारा।
परमहंस जग भेष बहे सब मन की लारा।।
संत बिना नही घाट बाट एको नहीं पावे।
अरे हां रे तुलसी भटक भटक,
भ्रम खान संत बिन भव में आवे।।
शास्तर वेद पुराण पढ़े व्याकरण अठारा।
पढ़ि पढ़ि मुए लबार संत गत नाहिं विचारा।।
घर घर कथा पुरान जानकर लोभ बड़ाई।
अरे हां रे तुलसी कुटुम्ब काज,
पच मरे पेट भर सांच न आई।।
जम है बड़ा कराल चाल कोई लखे न भाई।
जब कर बांधे हाथ संत बिन कौन छुड़ाई।।
बड़े कहो भगवान ताहि को मार गिराया।
अरे हां रे तुलसी रामकृष्ण,
अवतार दसो नही बचने पाया।।
संत सरण जो पड़ा ताहि का लगा ठिकाना।
और कहूँ नहि कुशल सकल वैराट चबाना।।
काल संत से डरे सीस चरणन पर डारा।
अरे हां रे तुलसी बिना संत नहीं,
ठौर और कहुँ नांहिं उबारा।।
फूले फूले फिरे देख धन धाम बडाई।
तन फुलेल और तेल चाम को चुपड़े भाई।।
दिना चार का खेल मिले फिर खाक में।
अरे हां रे तुलसी पकड़ फरिस्ते,
करें सलाई आंख में।।
सवैया
तेल फुलेल करे रस केल, सो माया के फेल में सार भुलानो।
मात पिता सुत नार निहारसी, झूठ पसार को देख फुलानो।।
यह दिन चार विचार न लारसो भूल असार के संग तुलानो।
तासे कहे तुलसी निज के तन छूटि गयो जम देत उलानो।।
कवित्त
साध संत से उपाध रहत वेश्या के साथ।
बड़ा कुटिल है कुपाथ, चले पंथ न निहार के।।
करमन के मैले और विष रस के पेले,
सो ऐसे हराम खोर दोजख में परत हैं।
देखत के नीके और करनी के फीके,
सो काढ़ काढ़ टीके उपद्रव को खड़े है।।
खोट मोट मानी आठो गांठ के हरामी,
सो ऐसे कुटिल कामी, काम रागहूँ से भरे है।।
देखत के ज्ञानी कूर खान की निशानी,
अधम ऐसे अभिमानी सो जान हानि करत है।
सांचे संसार लार संतन से फेर फार,
तुलसी मुख पड़त छार, छली छिद्र भरे हैं।।
शब्द
प्रीतम प्रीत पिरानी, दरद कोई विरले जानी ।।टेक।।
डसत भुवंग चढ़त सननननन, जहर लहर लहरानी ।
घनन घनन घन्नाटा आवें, भावे अन्न न पानी ।।
भंवर चक्र की उठत घुमेरें, फिरे दसो दिसि आनी ।
अंदर हाल विहाल हलावत, दुरगम प्रीत निभानी ।।
आशिक इश्क इश्क आसिक से, करना मौत निशानी ।
मुरदा होकर खाक मिले जब, तब पट अमर लिखानी ।।
पिया को रोग सोग तन मन में, सतगुरु सुध अलगानी ।
तुलसी यह मारग मुश्किल का धड़ बिन शीश बिकानी ।।
शब्द
गति को लख पावे संत की ।।टेक।।
लखन अरूप रूप दरसावत, अगम सुनावत अंत की।
तूल मूल स्थूल लखावत, खबर जनावत संत की।।
दृढ़ कर डगर डोर समझावत, तुरत सुझावत पंथ की।
भव भुवंग तज पार चढ़ावत, सत मत नाव अनंत की।।
भेष भये सब साध कहावत, भाषत सारवी जो ग्रंथ की।
शिष्य करें गुरु घाट न जानें, तुलसी नही गति होत महंत की।।
बंधे तुम गाढ़े बंधन आन।।टेक।।
पहिले बंधन पड़ा देह का।
दूसर तिरिया जान।।1।।
तीसर बंधन पुत्र विचारो।
चौथा नाती मान।।2।।
नाती के कहीं नाती होवे।
फिर कहो कौन ठिकान।।3।।
धन संपत और हाट हवेली।
यह बंधन क्या करु बखान।।4।।
चौलड़ पचलड़ सतलड़ रसरी।
बांध लिया अब बहु विधि तान।।5।।
कैसे छूटन होय तुम्हारा।
गहरे खूंटे गड़े निदान।।6।।
मरे बिना तुम छूटो नाहीं।
जीते जी तुम सुनो न कान।।7।।
जगत लाज और कुल मरजादा।
यह बंधन सब उपर ठान।।8।।
लीक पुरानी कभी न छोड़ो।
जो छोड़ो तो जग की हानि।।9।।
क्या क्या कहूँ विपत मैं तुम्हारी।
भटको जोनी भूत मसान।।10।।
तुम तो जगत सत्य कर पकड़ा।
क्यों कर पावो नाम निशान।।11।।
बेड़ी तौक हथकड़ी बांधे।
काल कोठरी कष्ट समान।।12।।
काल दुष्ट तुम बहु विधि बांधा।
तुम खुश होके रहो गलतान।।13।।
ऐसे मूरख दुख सुख जाना।
क्या कहूँ अजब सुजान।।14।।
शरम करो कुछ लज्जा ठानो।
नहिं जमपुर का तुम भोगो डान।।15।।
राधा स्वामी शरण गहो अब।
तौ कुछ पाओ उनसे दान।।16।।
तुम साध कहावत कैसे, मैं पूछूँ तुम से ऐसे।।1।।
मान न छोड़ो क्रोध न छोड़ो, कुटिल वचन नहि सहते।।2।।
कोमल चित न कोमल बोलो, दया भाव नाहि लेसेे।।3।।
आप पुजावत काहू न पूजत, मांग मांग धन जोड़त पैसे।।4।।
काम न छूटा लोभ न छूटा, मोह इर्ष्या डारत पीसे।।5।।
भजन भक्ति अभ्यास न करते, कभी न छूटा तुम इस जम से।।6।।
घर छोड़ा उद्यम पनि छोड़ा, मेहनत कोई न करते।।7।।
देश विदेश फिरो झक मारत, कफन पहिन क्यों लाज लगाते।।8।।
दंभ कपट छल हिरदे बसता, गिरही को आचार दिखाते।।9।।
चौके से हम रोटी खावें, रोटी पूरी भेद समझते।।10।।
बुद्धि विचार न गुरु मिला पूरा, गिरही की भय लज्जा करते।।11।।
साधु चरण अठशठ से उत्तम, भूमि पवित्र जहाँ पग धरते।।12।।
तुम तो कर्म मर्म में भटके, साध नाम अपना क्यों धरते।।13।।
भेष बनाय जगत को ठगते, काल ठगौरी डाली तुम पे।।14।।
अब कुछ समझ करो सत्संगत, डरो जरा नर्कन के दुख से।।15।।
विरह भाव वैराग सम्हालो, भक्ति करो और भागो जग से।।16।।
मन को मारो इन्द्रिन बांधो, सुरत लगाओ शब्द अधर से।।17।।
तब चित कोमन बुद्धि निर्मल, आप होय छूटो मन ठग से।।18।।
अब क्या कहूँ कहा मैं बहुतक, अधिकारी माने इक तुक से।।19।।
जो निर्लज्ज कपटी जग मारे, वह क्या जाने भूत पशू से।।20।।
राधास्वामी कहत सुनाई, मानेंगे कोई हंस वचन से।।21।।
दादू देखा दीदा, सब कोई कहत सुनीदा।।टेक।।
हवा हिरस अन्दर बस कीदा, तब यह दिल भया सीदा।
अनहद नाद गगन गढ़ गरजा, तब रस खाया अमीदा।।
सुखमन सुन्न सुरत महलन में, आया अजर अकीदा।
अष्ट कंवल दल दृग में दर्शन, पाया खुद्द खुदीदा।।
जैसे दूध दूध दधि माखन, बिन मथे भेद न घीदा।
ऐसे तत्त मत्त सत साधन, तब टुक नशा पिया पीदा।।
नहि वह योग ज्ञान मुद्रा तत, यह गत और पदीदा।
जो कोई चिन्ह लीन्ह यह मारग, कारज हो गया जीदा।।
मुरशिद सत्त गगन गुरु लखिया, तनमन कीन उसीदा।
आसिक यार अधर लख पाया, हो गया दीदम दीदा।।
मेरे तुम ही राखनहार दूजा कोई नही।
यह चंचल चहुँ दिस जाय काल तहीं तहीं।।
मैं बहुतक किये उपाय, निश्चल ना रहे।
जहं बरजूं तहं जाय मद माता बहे।।
जहं बरजूँ तहं जाय तुमसे ना डरे।
तासे कहा बसाय, भावे त्यों करे।।
सकल पुकारे साध और मैं केता कहा।
गुरु अंकुश माने नहीं निरभय हो रहा।।
मेरे तुम बिन और न कोय जो इस मन को गहे।
तुम रखो राखनहार दादू तौ रहे।।
तू स्वामी मैं सेवक तेरा।
भावे सिर दे शूली मेरा।।
भावे करवत सिर पर सार।
भावे लेकर गरदन मार।।
भावे गिरिवर गगन गिराय।
भावे दरिया मांहि बहाय।।
भावे चहुँ दिसि अग्नि जराय।
भावे काल दशो दिशि खाय।।
भावे कनक कसौटी देय।
दादू सेवक कस कस लेय।।
अबतो अजपा जपु मन मेरे ।।टेक।।
सुर नर असुर टहलुआ जाके, मुनि गंधर्व जाके चेरे।।1।।
दस औतार देखि मत भूलो, ऐसे रूप घनेरे।।2।।
अलख पुरुष के हाथ बिकाने, जब ते नैंन निहारे।।3।।
अविगत अगम अगोचर अवधू, संग फिरत हैं तेरे।।4।।
कह मलूक तू चेत अचेता, काल न आवे नेरे।।5।।
माया के गुलाम गीदी, क्या जाने बंदगी।।टेक।।
साधुन से धूमधाम, करत चोरन के काम।
द्विजन को पूजा देयं, गरीवन से रिन्दगी।।1।।
कपट को माला लिये, छापा मुद्रा तिलक दिये।
बगल में पोथी दाबे, लायो फरफंदगी।।2।।
कहत मलूक दास, छोड़ दगावाजी आस।
भजहु गोविन्द राय, मेटै तेरी गंदगी।।3।।
नमस्कार स्वामी प्रभो अंतरयामी।
अनामी अकामी सो वारं न पारं।।
अखंड अमोलं अलेखं अतोलं।
विभो वेद पारं अमल निर्विकारं।।
गुणगो अतीतं अगाधं अजीतं।
अमर सुख की राशि अजर अविनाशी।
सो पूरन प्रकाशी अछेदं अभेदं।।
अरूपं अनूपं अनन्तं अपारं।
है सेवम दुखारी, पड़ी भीड़ भारी।।
हरो पीर सारी दया प्रेम पुंज।
कटे कर्म बन्धन, बसे विन्दु सिन्धु।
नमस्कार स्वामी प्रभो अंतरयामी।।
नाभा नभ खेला, कंवल केल सर सैला ।।टेक।।
दरपन नैन सैन मन मांजा, लाजा अलख अकेला ।
पल पर दल दल ऊपर दामिनी, जोत में होत उजेला ।।
अण्डा पार सार लख सूरत सुन्नी सुन्न सुहेला ।
चढ़ गई धाय जाय गढ़ उपर, शब्द सुरत भया मेला ।।
यह सब खेल अखेल अमेला, सिन्धु नीर नद मेला ।
जल जलधार सार पद जैसे, नहीं गुरु नहीं चेला ।।
नाभा नैन अैन अंदर के, खुल गये निरख निहाला ।।
बंगला भजन
अखण्ड मण्डलाकारे, व्याप्त जीनि चराचरे।
गुरु बीने त्रिभुवने बल के देखावे तांरे।।
तीनि सतत विराजित ये देहे द्विदलो परे।
अन्ध जने चक्षु बिने बल केमने देखे ताँरे।।
ज्ञान चक्षु उन्मीलिने गुरु जे दिने कृपा करे।
से दिने ताँरे नयन हेरे भासे शान्ति सुख नीरे।।
स्थिर तड़ित जड़ित येन नव नीरद शोभा करे।
ते मति काल सजि छे भाल अपरूप रूप मझारे।।
घन प्रकाशि तेजो राशि मांझे ताड़का बिहरे रे।
अहा मरी से रूप माधुरी हेरि ले आँखि नाहि फिरे।।
सतगुरु दरस देन हित आए, भाग जगे हमरे ।।टेक।।
आनन्द मंगल पूरि रहे सब शुभ-शुभ भा सगरे ।
पाप समूह दरस ते भागे पुण्य सकल डगरे।।1।।
परम उछाह आजु सभ सखिया सतगुरु पद भज रे ।
तन मन धन आतम करि अर्पण ‘मे ँही ँ’ आजु तरे ।।2।।
जौं निज घट रस चाहो ।।टेक।।
तो अपने को पाँच पाप से, हरदम खूब बचाहो ।।1।।
है एक झूठ नशाँ है दुसरा, तीसर नारी पर के हो ।।2।।
चौथी चोरी पंचम हिंसा, दिल से इन्हें अलगाहो ।।3।।
‘मेँहीँ’ सहजहिं इन्हसे बचन चहो, गुरु पद टहल कमाहो ।।4।।
गुरु मम सुरत को गगन पर चढ़ाना ।
दया करके सतधुन की धारा गहाना ।।
अपनी किरण का सहारा गहाकर ।
परम तेजोमय रूप अपना दिखाना ।।
साधन-भजन-हीन मों सम न कोऊ ।
मेरी इस दुर्बलता को प्रभु जी हटाना ।।
पापों के संस्कार जन्मों के मेरे ।
हैं जो दया कर क्षमा कर मिटाना ।।
तुम्हरो विरद गुरु है पतितन को तारन ।
अपनो विरद राखि ‘मेँहीँ’ निभाना ।।
करो सत्संग नित भाई, सुधारो आचरण अपना।
न भूलो जग प्रपंचो में, यहाँ कोई नहीं अपना।।1।।
न खाओ मांस औ मछली, तजो अंडा व मदिरा को।
परायी नारि मत देखो, समझ माता-सरिस अपना।।2।।
जो करता चौर कर्मों को, दण्ड देता है न्यायालय।
पतित वह लोक दृष्टि में, भूलकर संग मत करना।।3।।
वचन हो सत्य प्रिय मधुरम्, व जीवन स्वावलंबी हो।
कर त्रयकाल संध्या नित, सफल मानव जनम करना।। 4।।
एक प्रभु का भरोसा कर, मिलेंगे अपने उर अन्दर।
‘संत’ की सीख अपनाकर, करो कल्याण कुछ अपना।।5।।
सर्वेश को भज ले सुजन, अखिलेश को तू पाएगा ।
उपलब्ध कर विश्वेश को, तू वही हो जाएगा ।।1।।
मन से मन्त्रवृत्ति करि कर, इष्ट विग्रह ध्यान भी ।
युग दृष्टि सूरत एक कर, घट ज्योति जुगनू पाएगा ।।2।।
विद्युत सितारे बिन्दु शशि, ऊषा प्रभा रवि पूर भी ।
लख ज्योति अनुपम ब्रह्म की, अघ पुंज जल-भुन जाएगा ।।3।।
ज्योति में सुन शब्द अनहद, धुन अनाहत को परख ।
सत्शब्द चेतन धार धरि, धुर धाम निश्चय जाएगा ।।4।।
‘संतसेवी’ को बताया, संत मेँहीँ मर्म यह ।
है धर्म अब तेरा सुजन, कर कर्म उर प्रभु पाएगा ।।5।।
सत्संग बिना सोचो मानव, जग में वह ज्ञान कहाँ होगा ।
जिस ज्ञान की साया में जाकर, अपना कल्याण महा होगा ।।1।।
सत्संग में संत-वचनरूपी, सतज्ञान की गंगा बहती है ।
उसमें अवगाहन यदि न किया, सतपथ का ज्ञान कहाँ होगा ।।2।।
मुक्ति का मारग भक्ति है, जो युक्ती बिना नहीं होती है।
युक्ती से भक्ती यदि न किया, तो भव से त्रण कहाँ होगा ।।3।।
सेवा से सद्गुण हैं आते, जिससे जीवन सुखमय होता ।
जिसमें है सेवा भाव नहीं, ‘शाही’ सुख चैन कहाँ होगा ।।4।।
सतगुरु चूक सम्हारो मोरी ।।टेक।।
मैं हूँ अनाथ दास तो तेरो, तुम हो करुणाकारी ।
पलपल मेरी सूधि करो प्रभु, बिपत्ति पड़ी है भारी ।।1।।
भव दरिया जल अगम बहतु है, गहिर गम्भीर अपारी ।
बिन्दुनाद की नाव बरुँ प्रभू, चढ़ा दो हे कर्णधारी ।।2।।
धाय गहौं गुरु तव पद पंकज, जोती नाद भुजधारी ।
गोद परमपद तुम्हरो स्वामी, ‘हरिनन्दन’ कूँ बैठारी ।।3।।
चलु चलु मन मोरे सतगुरु धाम रे।
जहाँ होत सत्संग हरि गुणगान रे।।1।।
प्रेम भक्ति भाव अरु मिले सद्ज्ञान रे,
विमल विचार होय मिटत अज्ञान रे।
दूर होत हृदय के मिथ्या अभिमान रे,
जहाँ होत सत्संग हरि गुणगान रे।।2।।
काम क्रोध लोभ मोह अरु मद मान रे,
छहो रिपु रहे संग करत हैरान रे।
गुरु शरणागत होउ उबरत प्राण रे,
जहाँ होत सत्संग हरि गुणगान रे।।3।।
विष्णुकान्त जपु गुरुमंत्र धरु ध्यान रे,
सुखमन मंदिर विराजै राजा राम रे।
रिपुगण नाशेे लागे शब्द बेधी वाण रे,
जहाँ होत सत्संग हरि गुणगान रे।।4।।
(स्वागत गान)
स्वागत संत सुजान आपका, स्वागत संत सुजान।
चरण कमल कोमल पराग से, हुआ पवित्र स्थान।।टेक।।
स्वागत का सामान नहीं है, हमलोगों को ज्ञान नहीं है।
मन-गंगा में उठी हैं लहरें, पाने दर्शन दान।।1।।
प्रेम-पुष्प का हार बनाकर, संत-दरस की आस लगाकर।
मन की मैली चादर को ही, रख दी आगे तान।।2।।
इन अँखियन को चैन नहीं है, व्याकुल मन को बैन नहीं है।
अपनी अट-पट वाणी से हम, क्या गायें गुणगान।।3।।
आकर के सौभाग्य जगाया, हम सेवक को गले लगाया।
धन्य भाग्य है इस नगरी का, पूर्ण हुए अरमान।।4।।
(विदाई गान)
गुरुवर हमारे, विदा हो रहे हैं।
विरह-वेदना वे, दिये जा रहे हैं।।टेक।।
विरह की घड़ी में, विदाई करें क्या।
आँसुओं के मोती, भेंट कर रहे हैं।।1।।
ज्यों-ज्यों ही हमसे, दूर जा रहे हैं।
त्यों-त्यों ही अपने, निकट पा रहे हैं।।2।।
आँखों से ओझल, हुए जा रहे हैं।
ख्यालों में उनके, हम खो रहे हैं।।3।।
अब गुरुवर दयालु, हृदय आ बसे हैं।
‘लाल दास’ हम तो, मगन हो रहे हैं।।4।।
जग अनित्य यह जान, मनुआ गुरु गुरु बोल।।टेक।।
बड़ा भयंकर विषय बतासा, क्यों रखता तू इसकी आशा।।
अंत काम नहीं आवे प्यारे, विषयन विष का घोल।।मनुआ।।1
तन धन परिजन मान की ममता, मोह लहर यह हरती क्षमता।
अंत काल क्या साथ चलेगा, कर विचार दिल खोल।।मनुआ।।2
गुरु की शरण गहो मन मूरख, भक्ति-युक्ति लो शीश चरण रख।
जप अरु ध्यान धरो उर अन्तर, ज्ञान सीख अनमोल।।मनुआ।।3
दृष्टि जोड़ि इक नोक बनाकर, दृढ़ हो बैठो द्वादस ऊपर।
अंधकार के पार सिधारो, यह शूरो का खेल।।मनुआ।।4
सदाचार का संबल लेकर, गुरू चरण में प्रीति जोड़िकर।
स्वरूपानंद मोह मद सपना, त्यागो जगत झमेल।।मनुआ।।5
जय जय गुरुदेव, जय जय हो गुरुदेव ।।टेक।।
ज्ञानदाता गुरुदेव, ध्यानदाता गुरुदेव ।
मुक्तिदाता गुरुदेव, सुखदाता गुरुदेव ।।
शब्द रूप गुरुदेव, ज्योति रूप गुरुदेव।
प्रेम रूप गुरुदेव, जगतारण गुरुदेव।।
विन्दु रूप गुरुदेव, चन्द्र रूप गुरुदेव।
सूर्य रूप गुरुदेव घट में देखो गुरुदेव।।
फटे मोह तम पुंज, कटे यमराज फंद।
धरि गुरुदेव संग, मिलो प्रभु पद कंज।।
छोड़ घोर अंधकार, लोभ काम क्रोध पार।
तजि सकल विकार, भजो भजो सर्वाधार।।
चित्त नाम को सँभाल, धसो गगन मँझार।
देखो विमल बहार, स्वरूपानंद मन मार।।
अरे मन रैया, छोड़ी दे बलैया।
मानि ले तू गुरु के वचऽन
कि यम राजा दगनी दागतौ रे।।1।।
खैनी बीड़ी छोड़ॉे, मद्य मांस त्यागॉे।
इहो छिकै तामसी भोजऽन
कि शाकाहारी आहार ग्रहण करु हो।।2।।
झूठ चोरी जारी, अरु बटमारी।
इहो सब छिकै बुरा कर्म;
कि नरकोॅ में बड़ा दुख पैभेॅ हो।।3।।
करु नित सत्संग, गहि ले गुरु शरण।
स्वरूपानंद छोडू माया के संग;
कि भव दुख बहुते सहलोॅ हो।।4।।
टेर सुनो गुरुदेव हमारे।।टेक।।
दीन मलिन मैं सदुगुण हीना, आन पड़ा अब द्वार तुम्हारे।
एक बार तो हँस के कह दो, आज ही से हो गये तुम्हारे।।1।।
काम क्रोध मद लोभ ये वैरी, नीच कर्म में मुझको डारे।
नहिं निज बुद्धि बल कुछ भी क्षमता, एक सहारा है बस तेरे।।2।।
प्रबल विषय की आग धधकती, तपत कलेजा फटता गुरुवर।
स्वरूपानंद दर्द व्याकुल अब, कर गहि ले चल पार पियारे।।3।।
क्यों मन मस्त हुआ दीवाना, दुनिया में तेरा कौन ठिकाना।।टेक।।
धन दौलत और संपति सगरी, छोड़ चलोगे जो है अपना।।
झूठा दंभ किया रे मूरख, अंत काल कुछ संग न जाना।।1।।
परिजन प्रीतम प्यारी घरनी, रचि-पचि इसमें समय बिताना।।
अंतकाल कोई काम न आवे, स्वारथरत ये सभी सगाना।।2।।
देह तुम्हारी भई पुरानी, क्यो नहीं सोचा सत्संग जाना।।
दाग पड़ा जो दिल के भीतर, संत ज्ञान से उसे छुड़ाना।।3।।
सात्विक भोजन सज्जन रहनी, साधु संत की सेवा करना।।
चोरी हिंसा अंडा-मछली, झूठ नशा परत्रिय को तजना।।4।।
गुरु भेद का संबल लेकर, अन्तर तम को फाड़ उड़ाना।।
यहि विधि भव दुःख पार करो अब, स्वरूपानन्द जान जग सपना।।5।।