सुकिरत करि ले नाम सुमिरि ले, को जानै कल की ।
जगत में खबर नहीं पल की ।। टेक।।
झूठ कपट करि माया जोरिन, बात करैं छल की ।
पाप की पोट धरे सिर ऊपर, किस बिधि ह्वै हलकी ।।1।।
यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मिट्टी की ।
साँस साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।2।।
काया अंदर हंसा बोलै, खुसियाँ कर दिल की ।
जब यह हंसा निकरि जाहिंगे, मिट्टी जंगल की ।।3।।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, याही बात असल की ।
ज्ञान बैराग दया मन राखो, कहै कबीरा दिल की ।।4।।
अखण्ड साहिब का नाम, और सब खण्ड है ।
खण्डित मेरु सुमेरु, खण्ड ब्रह्मण्ड है।।
थिर न रहै धन धाम, सो जीवन धुन्ध है ।
लख चौरासी जीव, पड़े जम फन्द है ।।
जाका गुरु से हेत, सोई निर्बन्ध है ।
उन साधुन के संग, सदा आनंद है ।।
चंचल मन थिर राखु, जबै भल रंग है ।
तेरे निकट उलटि भरि पीव, सो अमृत गंग है ।।
दया भाव चित राखु, भक्ति को अंग है ।
कहै कबीर चित चेत, सो जगत पतंग है ।।
हमारे मन कब भजिहो गुरुनाम ।।टेक।।
बालापन जनमत ही खोयो, ज्वानी में ब्यापा काम ।
बृद्ध भये तन थाकन लागे, लटकन लागे चाम ।।1।।
कानन बहिर नैन नहिं सूझै, भये दाँत बेकाम ।
घर की त्रिया बिमुख होइ बैठी, पुत्र कियो कलकान ।।2।।
खटिया से भुइयाँ कर दीन्हीं, जम का गड़ा निसान ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, दुविधा में निकसत प्रान ।।3।।
फूल एक फुललै बलमा के देशवा, सतगुरु दिहल लखाय हे ।
सुरत सनेहिया से सबद परेखल, मन भेलै परम हुलास हे ।।
सुखमन घाट के साँकरी बाट हे, हम धनि अलप वयेस हे ।
चन्द्र बदन मोर अंगिया पसीज गेेलै, नैना से ढरि गेले लोर हे ।।
एक दिन मन मोरा उलटि समाओल, देखलौं बलमुवाँ के देश हे ।
झिलमिल ज्योति झलामल झलके, मन भेलै परम हुलास हे ।।
साहब कबीर येहो मंगल गावल, सब्द परेखु टकसार हे ।
आपन-आपन सखि साँवर बाँधो, वहाँ नहीं पैंचा उधार हे ।।
यह मन है बड़ जालिम साधो, यह मन है बड़ जालिम।
जाको मन से काम काम पड़ो है, तिस ही होई है मालूम।।
मन के कारण इनकी छाया तेहि छाया में अटके।
निर्गुण सर्गुण मन की बाजी खरे सयाने भटके।।
रस्सातल इक्कीस ब्रह्मण्डा सब पर अदल चलावे।
षठ रस में भोगी मन राजा सो कैसे बस आवे।।
सबके उपर नाम निरक्षर तहँ ले मन को राखे।
तब मन की गति समझ पड़े, यह सत कबीर मुख भारवे।।
अवधू माया तजी न जाई।।
घर को छोड़ि बिस्तर को बाँधा बिस्तर छोड़ि के फेरी।
बेटा छोड़ के चेला कीन्हा तौ मति माया घेरी।।
जैसे बेल बाग में उरझा माँहि रे उरझाई।
छोड़े से वह छूटत नाहीं, अधिक अधिक उरझाई।।
काम तजे ते क्रोध न जाई, क्रोध तजे ते लोभा।
लोभ तजे अहंकार न जाई मान बड़ाई शोभा।।
मन बैरागी माया त्यागी शब्द में सुरत समाई।
कहे कबीर सुनो भाई साधो यह गम विरले पाई।।
ब्याह जे मोर कराय दे हो बाबा, तोरा संग न होयत निवाह हो।
बूढ़ न बयस तरुण नहीं बालक ऐसो बड़ जोग हमार हो।।
वृन्दावन से लकड़ी कटैहो अक्षयवट के मूल हो।
ऊँच के माड़व बान्धि हो हो बाबा निहुरि न कान्त हमार हो।।
सत्तपुर से वर मंगैहो कोहबर दशमी द्वार हो।
पाँच सजन मिलि माड़व बैठिहो, करु बाबा कन्यादान हो।।
सुख सागर से सिन्दुर मंगैहो, पिया से दिलैहो भरि मांग हो।
मोट के सिन्दुर दिलैहो हो बाबा झलकत जैते ससुराल हो।।
अबकी के चूक बकसु मोर साहब जनम जनम होयब चेरि हो।
दास कबीर यह कोहबर गावल संत जन लेहु न विचार हो।।
करो जतन सखी साईं मिलन की।।
गुड़वा-गुड़िया सूप सुपलिया तजि दे बुधि लड़कैया खेलन की।
देवता पित्तर भुइयाँ भवानी यह मारग चौरासी चलन की।।
ऊँचा महल अजब रंग बंगला साईं की सेज वहाँ लागी फुलन की।
तन मन धन सब अर्पण कर वहँ सुरत सम्हारी पैयाँ परु सजन की।।
कहे कबीर निर्भय होय हंसा, कुंजी बता दियो ताला खोलन की।
मिलना कठिन है, कैसे मिलौंगी पिय जाय।
समुझ सोच पग धरु जतन से बार बार डिग जाय।।
ऊँची गैल राह रपटीली पाव नहीं ठहराय।
लोक लाज कुल की मर्यादा देखत मन सकुचाय।।
नैहर वास बसौं पीहर में लाज तजी नहीं जाय।
अधर भूमि जहाँ महल पिया का हमपै चढ़ो न जाय।।
धनि भई बारी पुरुष भये भोला सुरत झकोला खाय।
दूती सतगुरु मिले बीच में, दीन्हों भेद बताय।।
साहब कबीर पिया से भेंटे शीतल कंठ लगाय।
मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा।
आसन मारि मंदिर में बैठे, नाम छोड़ि पूजन लागे पथरा।।
कनवां फराय जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय योगी होय गेले बकरा।
जंगल जाय जोगी, धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होय गेले हिजरा।।
मथवा मुराय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बांची के होय गैले लबरा।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवाजवा बांधल जैवे पकड़ा।।
पाँच सखी मिलि एकमत केलाैं, एके पलंगिया रहलों सोय हे।
जब जब अहो मोरा आलस आवे, तब तब लेहू न जगाय हे।।
एक सखी पूछे पिय की पियारी, दोसरो पूछे साधु भाव हे।
कौन रंग आहो मोरा सतगुरु साहेब से हो मोरा दियो न बताय हे।।
अद्भुत रूप अरवंड हो साहेब, सेत ध्वजा फहराइ हे।
सेत ध्वजा पर पदुम विराजै, वही छेके पुरुष हमार हे।।
उत्तर हे सखी अगम अगोचर, अजर अमर वह देश हे।
पिवि लेहो अरे हंसा उर्द्धमुख धरवा, जैसे सुरंगी के दूध हे।।
साहब कबीर मुख मंगल गावल, शब्द परेखो टकसार हे।
अवरी के गौना बहुरि न औना, फिर न मनुष अवतार हे।।
अबधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।।
वन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।
उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।।
सुरत निरत सों मेला करिकै, अनहद नाद बजावै ।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।
ककहरा
इश्क बिना नहीं मिलिहै साहिब, केतो भेष बनावै।
इश्क मासूक न छिपै छिपाये, केतो छिपै छिपावै।।
इत उत इहाँ, उहाँ सब छोड़ा, निश्चल गहु गुरु चरणा।
या से सुक्ख होय दुख नाशै, मेटे जीवन मरना।।
आदि नाम है जाँहि पहुँ, सोई गुरु है सार।
जे कृत्रिम कँह ध्यावही, ते भव होय न पार।।
टीम टाम बाहर बहुतेरे, दिल दासी से बंधा।
करै आरती शंखबाज धुनि, छुटै न घरकै धंधा।।
टिकुली सेन्दुर टकुआ चरखा, दासी ने फरमाया।
कचे बचे ने मांगि मिठाई, मगन भया मन आया।।
जिन सेवक पूजा दिया, ताहि दियो आशीष।
जहाँ नहीं कछु तहँ भे ठाढ़े, भस्म करैं जगदीश।।
ठग बहुतेरे भेष बनावें, गले लगावैं फँसी।
स्वांग बनाये कौन नफा है, जो न भजे अविनाशी।।
ठोकर सहे गुरु के द्वारे, ठीक ठौर तब पावै।
ठक ठक जनम मरन का मेटै, जम के हाथ न आवे।।
मृतक होय गुरुपद गहे, ठीस करै सब दूर।
कायर ते नहीं भक्ति ह्वै, ठानि रहै कोई सूर।।
मानत नहिं मन मोरा साधो, मानत नहिं मन मोरा हो ।
बार बार मैैं मन सुमझावौं, जग में जीवन थोरा हो ।।1।।
या काया को गर्ब न कीजै, क्या साँवर क्या गोरा हो ।
बिना भक्ति तन काम न आवै, कोटि सुगँधि चभोरा हो ।।2।।
या माया जनि देखि रे भूलौ, क्या हाथी क्या घोड़ा हो ।
जोरि-जोरि धन बहुत बिगूचे, लाखन कोटि करोरा हो ।।3।।
दुबिधा दुरमति औ चतुराई, जनम गयौ नर बौरा होे ।
अजहूँ आनि मिलौ सत संगति, सतगुरु मान निहोरा हो ।।4।।
लेत उठाइ परत भुइँ गिरि गिरि, ज्यों बालक बिन कोरा हो ।
कहै कबीर चरन चित राखो, ज्यों सूई बिच डोरा होे ।।5।।
नरहरि मति अति चंचल मेरी , कैसे भगति करूँ मैं तेरी ।।टेक।।
मै तोहि देखूँ, तू मोहि देखे, प्रीति परस्पर होई ।।1।।
तूँ मोहिं देखै तोहि न देखूँ, यह मति सब विधि खोई ।।2।।
घट घट अंतर रमै निरंतर, मैं देखन नहिं जाना ।
गुन सब तोर मोर सब औगुन, कृत उपकार न माना ।।3।।
मैं अरू मोरि तोरि अस मति सों, करिये मोर निबेरा ।
कहै रैदास कृष्ण करुनामय, जै जै जगदाधारा ।।4।।
भगती ऐसी सुनहु रे भाई।
आई भगति तब गई बड़ाई।।टेक।।
कहा भयो नाचे अरु गाये, कहा भयो तप कीन्हे।।
कहा भयो जे चरण पखारे,जौ लौं तत्व न चीन्हे।।1।। कहा भयो जे मूंड मुडायो, कहा तीर्थ व्रत कीन्हे।
स्वामी दास भगत अरू सेवक, परम तत्व नही चीन्हे।।2।।
कहै रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा को, पिपिलक ह्वै चुनि खाबे।।3।।
निशिवासर वस्तु विचारु सदा, मुख सांच हिये करूणा धन है।
अघ निग्रह संग्रह धर्म कथा, निपरिग्रह साधुन को गुन है।।
कह केशो भीतर जोग जगै, इत बाहर भोग मई तन है।
मन हाथ भये जिनके तिनके, बनही घर है घर ही बन है।।
धर्मदास बिनवौं कर जोड़ी। सतगुरु सुनिये विनती मोरी।।
ज्ञानगूदड़ी करो प्रकाशा। जा से मिटे जीव जग फांसा।।1।।
अलख पुरुष इक कीन्ह पसारा। लख चौरासी धागा डारा।।
पाँच तत्व से गुदड़ी बीनी। तीन गुनन से ठाढ़ी कीन्ही।।2।।
ता में जीव ब्रह्म अरु माया। समरथ ऐसा खेल बनाया।।
शब्द की सूई सुरति कै डोरा। ज्ञान के डोभन सिरजन जोरा।।3।।
सीवन पाँच पचीसो लागी। काम क्रोध मोह मद पागी।।
काया गुदड़ी कै विस्तारा। देखो संतों अगम सिंगारा।।4।।
चांद सुरज दोउ पैबंद लागे। गुरु प्रताप सोवत उठि जागे।।
अब गुदड़ी की करु होशियारी। दाग न लागै देखु विचारी।।5।।
जिन गुदड़ी को कियो विचारा। तिन ही भेटे सिरजनहारा।।
सुमति के साबुन सिरजन धोई। कुमति मैल सब डारो खोई।।6।।
धीरज धूनि ध्यान को आसन। सत कोपीन सहज सिंहासन।।
जोग कमंडल कर गहि लीन्हा। जुगति फावरी मुरसिद दीन्हा।।7।।
सेली शील विवेक की माला। दया की टोपी तन धर्मशाला।।
मेहर मतंगा मत बैसाखी। मृगछाला मन ही की राखी।।8।।
निःश्चय घोती श्वास जनेऊ। अजपा जपै सो जानै भेऊ।।
लकुटी चौकी हिरदा झोरी। छिमा खड़ाऊ पहिरि बहोरी।।9।।
भगति मेखला सुरत सुमरिनी। प्रेम पियाला पीवै मौनी।।
उदास कूबरी कलह निवारी। ममता कुतिया को ललकारी।।10।।
जगत जंजीर बांधि जब दीन्ही। अगम अगोचर खिड़की चीन्ही।।
तत्त तिलक दीन्हे निरबाना। राग त्याग बैराग निधाना।।11।।
गुरु गम चकमक मनसा तूला। ब्रह्म अगिनि परगट करि मूला।।
संशय शोक सकल भ्रम जारी। पांच पचीसो परगट मारी।।12।।
दिल दरपन करि दुविधा खोई। सो बैरागी पक्का होई।।
सुन्न महल में फेरा देई। अमृत रस की भिक्षा लेई।।13।।
दुख सुख मैल जगत कै भावा। तिरवेनी के घाट छुड़ावा।।
तन मन सोधि भयो जब ज्ञाना। तब लख पायो पद निर्वाना।।14।।
अष्ट कंवल दल चक्कर सूझे। जोगी आप आप में बूझे।।
इंगला पिंगला के घर जाई। सुखमन सेज जाय ठहराई।।15।।
ओअं सोहं तत्व विचारा। बंक नाल का किया सम्हारा।।
मन को मारि गगन चढ़ि जाई। मान सरोवर पैठि अन्हाई।।16।।
छूटे कलमल मिले अलेखा। इन नैनन साहिब को देखा।।
अहंकार अभिमान विडारा। घट का चौका करि उजियारा।।17।।
अनहद नाद नाम की पूजा। सत्त पुरुष बिन देव न दूजा।।
हितकर चन्दन तुलसी फूला। चितकर चाउर संपुट मूला।।18।।
सरधा चंवर प्रीति कर धूपा। नूतन नाम साहिब कर रूपा।।
गुदड़ी पहिरे आप अलेखा। जिन यह प्रकट चलाये भेषा।।19।।
सत्त कबीर बकस जब दीन्हा। सुर नर मुनि सब गुदड़ी लीन्हा।।
रहै निरन्तर सतगुरु दाया। संत संगति में सब कुछ पाया।।20।।
ज्ञान गूदड़ी पढ़ै प्रभाता। जनम जनम के पातक नाशा।।
जो जन जाय जपे ये ध्याना। सो लखि पावै पद निर्वाना।।21।।
संझा सुमिरन जो जन करही। जरा मरन भौसागर तरही।।
कहै कबीर सुनो धर्मदासा। ज्ञानगूदड़ी करो प्रकाशा।।21।।
दिन दस नैहरवा खेलि ले, निज सासुर जाना हो ।। टेक।।
इक तो अँधेरी कोठरी, ता में दिया न बाती हो ।
बहियाँ पकरि जम ले चले, कोइ संग न साथी हो ।।1।।
कोठा ऊपर कोठरी, जोगी धुनिया रमाया हो ।
अंग भभूत लगाइ के, जोगी रैन गँवाया हो ।।2।।
गंग जमुन बिच रेतवा, माली बाग लगाया हो ।
कच्ची कली इक तोरि के, मलिया पछताया हो ।।3।।
गिरि परबत कै माछरी, भौसागर आया हो ।
कहै कबीर धर्मदास से, जम बंसी लगाया हो ।।4।।
मंगल
जब हम छेलिये माता के गर्भ में, चहु दिशि लगल केबार हे।
रोई रोई आरजी साहेब से केलिये, करु साहब हमरो उबार हे।।
कौल करार बहुत हम कैलो, करू साहब इतवार हे।
अबकी उबारहु बहुरि न विसरवै, करवै मैं भक्ति तोहार हे।।
हमरो सदगुरु दया के सागर, गर्भ से दिहल उबार हे।
बाहर ऐलों सुधि विसरैलौ, कहाँ कहाँ कैलौं पुकार हे।।
बालापन हम खेल गमैलौं, तरुणी में व्यापल काम हे।
बृद्धापन में रोग सतावे, लटकन लागे चाम हे।।
कुल परिजन सब डाँटन लागल, पुत्र करैय बदनाम हे।
इन्द्री थकित भेले, नैनो न सूझे, शब्द सुनिये नहीं कान हे।।
धर्मदास यह मंगल गावल, छोडु माया के जाल हे।
काम क्रोध मद लोभ को त्यागो, तब पैहो निज धाम हे।।
गुरु बिन तेरो कोई न सहाई।
काकी मात पिता सुत बनिता को काहू का भाई।।
धन धरनी और सम्पत्ति सगरी जो मान्यो अपनाई।
तन छूटे कुछ संग न जाई कहा ताहि लिपटाई।।
दीन दयाल सदा दुख भंजन तासो रूचि न बढ़ाई।
नानक कहत जगत सब मिथ्या ज्यों सपने रैनाई।।
रे मन यह साँची जिय धार।
सकल जगत है जैसे सुपना, बिनसत लगे न वार।।
बालू भीत बनाई रच पच, रहत नहीं दिन चार।
तैसे ही यह सुख माया को उरझो कहा गंवार।।
अजहूँ समझ कुछ बिगड़ो नाहिन भज ले गुरु करतार।
कहे नानक निज मत साधन को भख्यो तोहि पुकार।।
उघरा वह द्वारा, वाह गुरु परिवारा ।।टेक।।
चढ़ गई चंग पतंग संग ज्यों, चंद चकोर निहारा।
सूरत शोर जोर ज्यों खोलत, कुंजी कुलफ किवाड़ा।।
सूरत घाय घसी ज्यों धारा, पैठ निकस गई पारा।
आठ अटा की अटारि मंझारा, देखा पुरुष नियारा।।
निराकार आकार न जोति, नहीं जहां वेद विचारा।
ओंकार करता नहीं कोई, नहिं वहां काल पसारा।।
वह साहिब सब संत पुकारें, और पाखंड पसारा।
सतगुरु चीन्ह दीन्ह यह मारग, नानक नजर निहाला।।
साधो यह मन गह्यो न जाई।।टेक।।
चंचल तृष्णा संग बसत है, याते मन न थिराई।।
कठिन क्रोध घट ही के भीतर या विधि सब बिसराई।
रतन ज्ञान सबको हर लीन्हा, ताते कछु न बसाई।।
जोगी जतन करत सब हारे, गुनी रहे गुन गाई।
जब नानक गुरु भये दयाला, तो सब विधि बनिआई।।
मंगलाचरण एवं भगवद् स्वरूप का वर्णन
राम वाम दिशि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्याणमय सुरतरु तुलसी तोर ।।1।।
तुलसी मिटै न मोह तम किये कोटि गुण ग्राम।
हृदय कमल फूलै नहीं बिनु रविकुल रवि राम।।2।।
सुनत लखत श्रुति नयन बिनु रसना बिनु रस लेत।
वास नासिका बिनु लहे, परसे बिना निकेत।।3।।
अज अद्वैत अनाम अलख रूप गुण रहित जो।
माया-पति सोई राम दास हेतु नरतन धरेउ।।4।।
तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान।
पाप पुण्य द्वैबीज है बबै सो लवै निदान।।5।।
तुलसी यह तन तवा है, तपत सदा त्रैताप।
शान्ति होय जब शान्ति पद, पावै राम प्रताप।।6।।
तुलसी बेद पुराण मत, पूरन शास्त्र विचार।
यह विराग संदीपनी, अखिल ज्ञान को सार।।7।।
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संत स्वभाव का वर्णन
सरल बरन भाषा सरल, सरल अर्थ मय मानि।
तुलसी सरलै संतजन ताहि परी पहिचानि।।8।।
अति शीतल अति ही सुखदाई। सम दम राम भजन अधिकाई।।
जड़ जीवन को करै सचेता जग महँ विचरत हैं एहि हेता।।
तुलसी ऐसे कहूँ कहूँ, धन्य धरनि वह संत।
परकाजे परमारथी प्रीति लिये निबहंत ।।10।।
की मुख पट दीन्हे रहै, यथा अर्थ भाषंत।
तुलसी या संसार में, सो विचार युत संत।।11।।
बोले वचन विचारि कै, लीन्हें संत सुभाव।
तुलसी दुख दुर्वचन के, पंथ देत नाहिं पाँव।।12।।
शत्रु न काहू करि गनै, मित्र गनै नहिं काहि।
तुलसी यह मत संत को, बोलै समता मांहि।।13।।
अति अनन्य गति इन्द्री जीता, जाको हरि बिनु कतहुँन चीता।
मृगतृष्णा सम जग जिय जानी, तुलसी ताहि संत पहिचानी।।14।।
एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
राम रूप स्वती जलद चातक तुलसीदास।।15।।
सो जन जगत जहाज है, जाके राग न दोष।
तुलसी तृष्णा त्यागि के गहै शील सतोष।।16।।
शील गहानि सबकी सहनि, कहनि हीय मुख राम।
तुलसी रहिये यहि रहनी, संत जनन को काम।।17।।
निज संगी निज सम करत, दुरजन मन दुख दून।
मलियाचल है संतजन, तुलसी दोष बिहून।।18।।
कोमल वाणी संत की स्रवत अमृत मय आय।
तुलसी ताहि कठोर मन, सुनत मैन होई जाय।।19।।
अनुभव सुख उत्पति करत, भय भ्रम धरै उठाय।
ऐसी वाणी संत की, जो उर भेदे आय।।20।।
तुलसी कोटि तपन् हरै जो कोउ धारै कान।।21।।
पाप ताप सब शूल नशावे, मोह अंध रवि वचन बहावै।
तुलसी ऐसे सद्गुन साधू, वेद मध्य गुण विदित अगाधू।।22।।
तन करि मन करि वचन करि, काहू दूखत नाहि।
तुलसी ऐसे संतजन राम रूप जग माहिं।।23।।
मुख दीखत पातक हरै, परसत कर्म बिलाहिं।
वचन सुनत मन मोह गत, पूरब भाग मिलाहिं।।24।।
अति कोमल अरु विमल रूचि मानस में मल नाहिं।
तुलसी रत मन होई रहे, अपने साहिब माहिं।।25।।
जाके मन तैं उठि गई, तिल तिल तृष्णा चाहि।
मानसा वाचा कर्मणा, तुलसी बंदत ताहि।।26।।
कंचन कांचहि सम गनै, कामिनी काष्ट पाषाण।
तुलसी ऐसे संत जन, पृथ्वी ब्रह्म समान।।27।।
कंचन को मृतिका करि मानत, कामिनी काष्ठशिला पहिचानत।
तुलसी भूलि गयो रस एहा, ते जन प्रकट राम की देहा।।28।।
अकिंचन इन्द्रिय दमन, रमन राम इकतार।
तुलसी ऐसे संतजन विरले या संसार।।29।।
अहंवाद मैं तैं नहीं, दुष्ट संग नहि कोय।
दुखते दुख नहीं ऊपजै, सुखते सुख नहीं होय।।30।।
सम कंचन कांचै गिनत शत्रु मित्र सम दोई।
तुलसी या संसार में कहत संत जन सोई।।31।।
बिरले बिरले पाइये माया त्यागी संत।
तुलसी कामी कुटिल कलि, केकी केक अनंत।।32।।
मैं तै मेट्यी मोह तम उग्यो आतम भानु।
संतराज सोइ जानिये, तुलसी या सहिदानु।।33।।
*************************
।।संत महिमा का वर्णन।।
को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत की।
जिन्ह के विमल विवेक, शेष महेष न कहि सकत।।34।।
महि पत्री करि सिंधु मसि, तरु लेखनि बनाई।
शाीतल वाणी संत की, सासिहू ते अनुमान।
तुलसी गनपति सो तदपि, महिमा लिखी न जाय।।35।।
धन्य धन्य माता पिता, धन्य पुत्रवर सोय।
तुलसी जो रामहि भजै, जैसे कैसेहुँ होय।।36।।
तुलसी जाके वदन ते, धोखेहुँ निकसत राम।
ताके पग की पगतरी, मेरे तन को चाम।।37।।
तुलसी भगत सुपच भलो, भजै रैन दिन राम।
ऊँचे कुल केहि काम को, जहाँ न हरि को नाम।।38।।
अति ऊँचे भूधरनि पर, भुजगन को स्थान।
तुलसी अति नीचे सुखद, ऊख अन्न अरू पान।।39।।
अति अनन्य जो हरि को दासा, रटे नाम निशि दिन प्रति स्वासा।
तुलसी तेहि समान नाहिं कोई, हम नीके देखा सब कोई।।40।।
जदपि साधु सबही विधि हीना, तदपि समता के न कुलीना।
यह दिन रैन नाम उच्चरै, वह नित मान अगिनि मंह जरै।।41।।
दास रता एक नाम सों, उभय लोक सुख त्यागि।
तुलसी न्यारो रहै, दहै न दुख की आगि।।42।।
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।।शान्ति स्वरूप का वर्णन।।
रैन को भूषण इन्दु है, दिवस को भूषण भानु।
दास को भूषण भक्ति है, भक्ति को भूषण ग्यानु।।43।।
ग्यान को भूषण ध्यान है, ध्यान को भूषण त्याग।
त्याग को भूषण शन्ति पद, तुलसी अमल अदाग।।44।।
अमल अदाग शान्ति पद सारा, सकल क्लेश न करत प्रहारा।
तुलसी उर धारे जो कोई, रहै आनंद सिन्धु मँह सोेई।।45।।
विविध पाप संभव जो तापा, मिटहिं दोष दुख दुसह कलापा।
परम शान्ति सुख रहे समोई, तहँ उत्पात न भेदे आई।।46।।
तुलसी ऐसे शीतल संता, सदा रहै एहि भांति एकंता।
कहा करै खल लोग गुजंगा, कीन्हों गरलशील जो अंगा।।47।।
अति शीतल अतिहि अमल, सकल कामनाहीन।
तुलसी ताहि अतीत गनि, वृत्ति शान्ति लयलीन।।48।।
जो कोई कोप भरे मुंख बैना, सन्मुख हतै गिरा सर पैना।
तुलसी तऊ लेस रिस नाही, सो शीतल कहिये जग मांही।।49।।
सात दीप नौ खंड लौ, तीन लोक जग मांहि।
तुलसी शान्ति समान सुख, अपर दूसरो नाहिं।।50।।
जहाँ शान्ति सद्गुरु की दई, तहाँ क्रोध की जड़ जरि गई।
सकल काम वासना बिलानी, तुलसी वहै शान्ति सहिदानी।।51।।
तुलसी सुखद शान्ति को सागर, संतन गायो करन उजागर।
तामे तन मन रहे समोई, अहं अग्नि नहि दाहे कोई।।52।।
अहंकार की अग्नि में, दहत सकल संसार।
तुलसी बाँचे संतजन, केवल शान्ति आधार।।53।।
महाशान्ति जल परसि कै, शान्त भये जन जोइ।
अहं अगिनि ते नही दहै, कोटि करै जो कोइ।।54।।
तेज होत तन तरनि सों, अचरज मानत लोय।
तुलसी जो पानी भया, बहुरि ना पावक होय।।55।।
जद्यपि शीतल सम सुखद, जग में जीवन प्रान।
तदापि शान्ति जल जनि गिनौ, पावक तेज प्रमान।।56।।
जरै बरै और खीझि खिझावै, राग द्वेष मँह जनम गँवावै।
सपनेहु शान्ति नहीं उन देही, तुलसी जहाँ जहाँ व्रत एही।।57।।
सोई पंडित सोह पारखी, सोई संत सुजान।
सोई सूर सचेत सो, सोई सुमट प्रमाण।।58।।
सोइ ज्ञानी सोइ गुनी जन, सोई दाता ध्यानि।
तुलसी जाके चित्त गई, राग द्वेष की हानि।।59।।
राग द्वेष की अगिनि बुझानी, काम क्रोध वासना नसानी।
तुलसी जबहि शान्ति गृह आई, तब उरही उर फिरी दोहाई।।60।।
फिरी दोहाई राम की, गे कामादिक भाजि।
तुलसी ज्यो रवि के उदय, तुरत जात तम लाजि।।61।।
यह विराग संदीपनी, सुजन सुचित सुनि लेहु।
अनुचित वचन विचारि के, जस सुधारि तस देहु।।62।।
।। राग केदारा ।।
जा दिन सन्त पाहुने आवत ।
तीरथ कोटि अन्हान करे फल दरसन ते ही पावत।।
नेह नयो दिन दिन प्रति उनको चरन कमल चित लावत।
मन वच कर्म और नहिं जानत सुमिरत औ सुमिरावत।।
मिथ्यावाद उपाधि रहित ह्वै विमल विमल जस गावत।
बन्धन कठिन कर्म जो पहिले सोऊ काटि बहावत।।
संगति रहै साधु को अनुदिन भव दुख दूरि नसावत।
सूरदास या जनम मरण तें तुरत परम गति पावत।।
सतगुरु भव सागर डर भारी।
काम, क्रोध मद लोभ भंवर बिच लरजत नाव हमारी।।
तृष्णा लहर उठत दिन राती लागत अति झकझोरा।
ममता पवन अधिक डरपावे काँपत है मन मोरा।।
और महा डर नाना विधि के छिन छिन मैं दुख पाऊँ।
अन्तर्यामी विनती सुनिये यह मैं अरज सुनाऊँ।।
गुरु शुकदेव सहाय करो अब धीरज रहा न कोई।
चरण दास को पार उतारो शरण तुम्हारी खोई।।
हमारे गुरु पूरण दातार ।
अभय दान दीनन्ह को दीन्हें, किन्हें भव जल पार ।।
जनम जनम के बंधन काटे, जम को बंध निवार ।
रंकहुँ ते सो राजा किन्हें, हरि धन दियो अपार ।।
दिन्हें ज्ञान भक्ति पुनि दिन्हें, जोग बतावनिहार ।
तन-मन-वचन सकल सुखदाई, हृदय बुद्धि उजियार ।।
सब दुख गंजन पातक भंजन, रंजन ध्यान विचार ।
सज्जन दुर्जन जो चलि आवे, एकहि दृष्टि निहार ।।
आनंद रूप स्वरूप मयी है, लिप्त नहीं संसार ।
चरणदास गुरु ‘सहजो’ केरे, नमो-नमो बारम्बार ।।
।। राग सोरठ ।।
भया जी हरि रस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधा रस जब ही, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
गंग जमुन बिच आसन मार्यो, चमक चमक चमकारा ।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरणदास किरपा सँू सहजो, भरम करम भयो छारा ।।
मैं गिरिधर के रंग राची,
पंच रंग चोला पहिर सखी री, मैं झिरमिट रमवां जाती।
झिरमिटवां मोहि मोहन मिल्यो, खोल मिली तन गाती।।
जिनके पिया परदेश बसत हैं, लिख लिख भेजत पाती।
मेरा पिय मेरे हीय बसत है, ना कहूँ आती न जाती।।
चंदा जायगा सूरज जायगा, जायगी धरनि आकाशी।
पवन पानी दोनों ही जायेंगे, अचल रहे अविनाशी।।
सुरत निरत को देवलो जोयो, मनसा की कर ली बाती।
अगम घानी को तेल सजोयो, जलती रहे दिन राती।।
जाऊनी सासरिये जाऊनी पीहरिये हरि सूं सैन लगाती।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, हरि चरणा चित लाती।।
हे री मैं तो प्रेम दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोय ।।टेक।।
घायल की गति घायल जानै, कि जिन घायल होय ।
जौहरी की गति जौहरी जानै, कि जिन जौहर होय ।।1।।
गगन मंडल पै सेज पिया की, किस विधि मिलणा होय।
सूली ऊपर सेज हमारी, किस विधि सोवन होय ।।2।।
दरद की मारी बन बन डोलूँ, बैद मिल्या नहिं कोय ।
मीरा की प्रभु पीर मिटैगी, जब बैद सँवरिया होय ।।3।।
।। शब्द ।।
ऊँची अँटरिया, लाल किवड़िया, निरगुण सेज बिछी ।
पचरंगी झालर सुभ सोहै, फूलन फूल कली ।।
बाजूबन्द कड़न्न्ला सोहै, माँग सिंदूर भरी ।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा, सोभा अधिक भली ।।
सेज सुखमणाँ ‘मीराँ’ सोवै, सुभ है आज घड़ी ।
दरिया दरवारा, खुल गया अजर केवाड़ा।।टेक।।
चमकी बीज चली ज्यों धारा, ज्यों बिजुली बिच तारा।
खुल गये चन्द बन्द बदरी का घोर मिटा अंधियारा।।
लौ लगी जाय लगन कै लारा, चाँदनी चौक निहारा।
सूरत सैल करे नभ उपर, बंकनाल पट फाड़ा।।
चढ़ गयी चाँप चली ज्यों धारा, ज्यों मकरी मकतारा।
मैं मिली जाय पाय पिय प्यारा, ज्यों सलिता जल धारा।।
देखा रूप अरूप अलेखा, लेखा वार न पारा।
दरिया दिल दरवेश गये तब, उतरे भवजल पारा।।
अबरी के बार बकसु मोरे साहेब।
तुम लायक सब जोग हे।।1।।
गुनह बकसिहौ, सब भ्रम नासिहौ।
रखिहौ आपन पास हे।।2।।
अछै बिरिछि के तरि लै बैठेहो।
तहवाँ धूप न छाँह हे।।3।।
चांद न सुरज दिवस नहि तहवाँ।
नहि निसु होत बिहान हे।।4।।
अमृत फल मुख चाखन दैहौ।
सेज सुगन्ध सुहाय हे।।5।।
जुग जुग अचल अमर पद दै हौ।
इतना अरज हमार हे।।6।।
भौसागर दुःख दारूण मिटिहैं।
छूटि जैहैं कुल परिवार हे।।7।।
कह दरिया यह मंगल मूला।
अनूप फुलेला जहाँ फूल हे।।8।।
साधो सुनि लीजै साहू सोइ होता,
जो पूरा तौलि रहै मन माता।।टेक।।
उनमुनी की डंडी कीजै, तिरवेणी की तानी।
इक मन पांच सेर तौलन लागे, ज्ञान की राशि लदानी।।1।।
गगन मंडल बिच रचो चौतरा, भँवर गुफा के घाटे।
अजपा जाप जहाँ है दूलहा, बिकरी लाव वोहि हाटे।।2।।
आंख मूंदि आंधर जिनि होवो, चोर माल ले जाई।
चकमक झारि दीपक तहँ बारो, चेतन रहो घरमाई।।3।।
सौदा सुलफ करो बहुभाँति, जातें साहु न डंडे।
कहे दरिया सुन बोधी बनिया, कबहुँ न करो पखंडे।।4।।
ज्ञान रूप को भयो प्रकाश।
भयो अविद्या तम को नाश।।
सूझ परयो निज रूप अभेद।
सहजै मिट्यो जीव को खेद।।
जीव ब्रह्म अंतर नाहि केाय।
एकै रूप सर्व घट सोय।।
जगत विवर्त सू न्यारा जान।
परम अद्वैत रूप निर्वान।।
विमल रूप व्यापक सब ठाईं।
अधर उरध मधि रहत गुसाँईं।।
महा शुद्ध साक्षी चिद्रूप।
परमातम प्रभु परम अनूप।।
निराकार निर्गुण निरवासी।
आदि निरंजन अज अविनासी।।
।।दोहा।।
सकल ठौर में रहत है, सब गुण रहित अपार।
दया कुंवर सो दया करि, सतगुरु कहयो विचार।।
नेति नेति कहि वेद जेहि, गावह है दिन रैन।
दया कुंवर चरन दास गुरु, मोहि लखायो सैन।।
दिन दिन प्रीति अधिक मोहि हरि की।।1।।
काम क्रोध जंजाल भसम भयो,
विरह अगिनि लगी धधकी।।2।।
धुधुकि धुधुकि सुलगति अति निर्मल,
झिलमिल झिलमिल झलकी।।3।।
झरि झरि परत अंगार अधर यारी,
चढ़ि अकाश आगे सरकी।।4।।
झिलमिल झिलमिल बरसै नूरा,
नूर जहूर सदा भरपूरा।।1।।
रूनझुन रूनझुन अनहद वाजै,
भँवर गुंजार गगन चढ़ि गाजै।।2।।
रिमझिम रिमझिम बरसे मोती,
भयो प्रकाश निरंतर जोती।।3।।
निरमल निरमल निरमल नामा,
कह यारी तंह लियो विश्रामा।।4।।
।। शब्द 1 ।।
जाके लगी अनहद तान हो, निरवान निरगुन नाम की ।।1।।
जिकर करके सिखर हेरे, फिकर रारंकार की ।।2।।
जाके लगी अजपा झलकै, जोत देख निसान की ।।3।।
मद्ध मुरली मधुर बाजै, बाएँ किंगरी सारंगी ।।4।।
दाहिने जो घंटा संख बाजै, गैब धुन झनकार की ।।5।।
अकह को यह कथा न्यारी, सीखा नाहीं आन है ।।6।।
जगजीवन प्रान सोध के, मिल रहे सतनाम है ।।7।।
इंगला पिंगला सोधि सुखमन, अजपा जाप जपावनं।
नाद अनहद लम्बिका सुर, बंक नाल सोधावनं।।
जाग्रत सोवे स्वपन जागे, जाग्रत स्वपन सुषोपति।
तुरिया सेती अतीत होवे, सोई है आरुढ़नं।।
दैहिक दैविक भौतिक छूटे, सोई अनन्य कहावनं।
इन्द्री रहित विक्षेप नाही, सोई है अतीतनं।।
छोड़ कथनी कँ है ज्ञान से रहु जुदा।
रैन और दिवस क्या पढ़े गीता।।
केतिक पंडित मुए नरक में सिधारते।
लोभ और मोह बसि रहा रीता।।
बिना रहनी रहै, मुक्ति ना मिलैगी।
काम और क्रोध नाहिं जीता।।
दास पलटू कहै बैठु सत्संग में।
आपु में देखि ले राम सीता।।
पलटू ऐसे दास जो भरम करे संसार।।
भरम करे संसार होई आसन से पक्का।
भली बुरी कोउ कहै रहे सहि सबका धक्का।।
धीरज धै संतोष रहे दृढ़ होइ ठहराई।
जो कछु आवे सो खाई बचे सो देत लुटाई।।
लगे न माया मोह जगत की छोड़े आशा।
बल तजि निरबल होय सबुर में करे दिलासा।।
काम क्रोध को मारि के करे नींद आहार।
पलटू ऐसे दास को भरम करे संसार।।
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इधर से उधर तू जायगा किधर को।
जिधर तू जाव मैं उधर आवौं।।
कोस हज्जार तू जाय चलि पलक में।
ज्ञान की कुटी मैं उहौं छावौं।।
सुमति जंजीर को गले में डारि के।
जहाँ तू जाय मैं खैंचि लावौं।।
दास पलटू कहै मारिहौ ठौर में।
जहाँ मैदान में पकरि पावौं।।
इलम पढ़ा और अमल नहीं, अमल बिनु इलम खाक है जी।
इलम पढ़े और अमल करे, उसके हम तो मुश्ताक हैं जी।।
बेहद्द कथे और हद्द रहे, उसका तो मुख नापाक है जी।
पलटू जोई गुप्तन सोई दीदन वह, तो मारफत की नाक है जी।।
जाय संत सेवा में लगि रहे, यही धर्म जिज्ञासा है जी।
तन मन सेती जब नहीं टरे, करे चरण में दास है जी।।
दीन दयाल हैं संत बड़े, जो पुजबें मन की आस है जी।
पलटू जो संत उपदेश करे, सोई कीजै विश्वास है जी।।
होई राजपूत सो चढ़े मैदान पर, खेत पर पाँच पच्चीस मारे।
काम और क्रोध ये दुष्ट दो बड़े है, ज्ञान के धनुष से इन्हे टारे।।
कूद पड़े जाय के कोट माया महँ आग लगाये के मोह जारे।
दास पलटू कहे सोई राजपूत है, लिये मन जीति तब आप हारे।।
त्रिकुटी घाट को उतरु सँभारि के।
सुखमना खैंचु गुण बाँधि खूटा।।
बीच पहार में साँकरी गली है।
गली में कुंड जल परे फूटा।।
भँवर को देखि के नाव मुरेरु तू।
चली है नाव तब कुंड छूटा।।
दास पलटू कहै नाव सँभारना।
सेत में सेत ब्रह्माण्ड फूटा।।
इक कूप गगन के बीच यारो, जहाँ सुरति की डोर लगावता है।
गुरुमुख होवे सो भरि पीवे, निगुरा नहीं जल पावता है।।
बिन हाथ से ताल मृदंग बजे, बिन जंत्री जंत्र बजावता है।
पलटू बिन कान से हम सुना, वीना कोई सकस बजावता है।।
द्वादस अंगुल बैठे चले चलत अठारह जात है जी।।
सूते के उपर तीस अंगुल, चौसठ मैथुन की थाह है जी।
जती तपी की आठ अंगुल, जोगी की चार ठहराय है जी।।
जिनके बाहर भीतर नाहीं, तेही काल नही खाय है जी।
पलटू जाय आठ अंगुल भीतर को, वाकी देह नहीं नसाय है जी।
गाय बजाय के काल को काटना
और की सुने कछु आप कहना।।
हंसना खेलना बात मीठी कहै।
सकल संसार को बस्सि करना।।
खाइये पीजिये मिलै सोइ पहरिये।
संग्रह त्याग में नाहिं पड़ना।।
बोलु हरि भजन को मगन ह्वै प्रेम से।
चुप्प जब रहै तब ध्यान धरना।।
भेष भगवन्त के चरण को ध्याय के।
ज्ञान की बात से नाहिं टरना।।
मिलै तो लुटाइये तुरत कुछ खाइये।
माया और मोह को ठौर मरना।।
दुक्ख और सुक्ख फिर दुष्ट और मित्र को।
एक सम दृष्टि इक भाव रखना।।
दास पलटू कहै राम कहु बालके।
राम कहु राम कहु सहज तरना।।
धन जननी जिन जाया है, सुत संत सखी री ।।
तन मन धन उन पै ले दीजे, सत्तनाम जिन पाया है ।।
माया जाके निकट न आवै, तिरगुन दूर बहाया है ।।
कंचन काँच औ सत्रु मित्र को, भेद नहीं बिलगाया है ।।
सहज समाधि अखण्डित जा की, जग मिथ्या ठहराया है ।।
‘पलटूदास’ सोई सुतवंती, संत को गोद खेलाया है ।।
देह और गेह परिवार को देख कै।
माया के जोर में फिरै फूला।।
जानता सदा दिन ऐसे ही जायेंगे।
सुन्दरी संग सुखपाल झूला।।
चार जून खात है, बैठिके खुशी से।
बहुत मुटाई के भया थूला।।
सेज बंद बांधि के पान को चाभते।
रैन दिन करत है दूध कूला।।
जानता अमर हूँ मरूँगा अब नहीं।
बाघ की रौष जा काल हूला।।
दास पलटू कहै नाम को याद करू।
ख्वाब की लहर में काह झूला।।
धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय ।।
चादर लीजै धोय मैल है बहुत समानी ।
चल सतगुरु के घाट भरा जहँ निर्मल पानी ।।
चादर भई पुरानी दिनों दिन बार न कीजै ।
सतसंगत में सौद ज्ञान का साबुन दीजै ।।
छूटै कलमल दाग नाम का कलप लगावै ।
चलिये चादर ओढ़ि बहुरि नहिं भवजल आवै ।।
पलटू ऐसा कीजिये मन नहिं मैला होय ।
धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय ।।
कफन को बाँधि के करै जब आशिकी।
आशिक जब होय तब नाहि सोवै।।
चिन्ता बिनु आगि के जरै दिन राति जब।
जीवत ही जान से सती होवै।।
भूख पियास जग आस को छोड़ करि।
आपनी आपु से आप खोवै।।
दास पलटू कहै इश्क मैदान पर।
देइ जब शीश तब नाहि रोवै।।
मन मारे मरता नहीं कीन्हे कोटि उपाय ।।
कीन्हे कोटि उपाय नहीं कोइ मन की जानै ।
मन का मन के माँहि और जनि मन की मानै ।।
हाड़ चाम नहिं मास नहीं कछु रूप न रेखा ।
कैसे लागै हाथ नहीं कोउ मन को देखा ।।
छिन में कथै बैराग छिनै में होवै राजा ।
छिन में रोवै हँसै छिनै में आपु बिराजा ।।
पलटू पल के भर में लाख कोस पर जाय ।
मन मारे मरता नहीं कीन्हे कोटि उपाय ।।
सात पुरी हम देखिया देखा चारो धाम ।।
देखा चारो धाम सबन में पाथर पानी ।
करमन के बसि पड़े मुक्ति की राह भुलानी ।।
चलत चलत पग थके छीन भइ अपनी काया ।
काम क्रोध नहिं मिटे बैठ कर बहुत नहाया ।।
ऊपर डाला धोय मैल दिल बीच समाना ।
पाथर में गयो भूल संत का मरम न जाना ।।
पलटू नाहक पचि मुए सन्तन में है नाम ।
सात पुरी हम देखिया देखा चारो धाम ।।
कहत फिरत हम जोगी, पक्का दुइ सेर खाय ।।
पक्का दुइ सेर खाय, कहै मैं बड़का जोगी ।
सोवै टाँग पसारि, देखत कै बड़ा बिरोगी ।।
हृष्ट पुष्ट होइ रहै, लड़न को नाहीं माँदा ।
काम क्रोध और मोह, करत हैं बाद विवादा ।।
पलटू ऐसा देखि कै, मुँह ना राखो लाय ।
कहत फिरत हम जोगी, पक्का दुइ सेर खाय ।।
भाग रे भाग फक्कीर के बालके, कनक और कामिनी दोइ बाघ लागा।
मार तोहि लेयेंगे पड़ा चिल्लायेगा, बड़ा बेवकूफ तू नाहिं भागा।।
सिंगी िऋषि से तो मारि लिये, बचिहैं नाहिं कोई जो लाख त्यागा।
दास पलटू कहै बचेगा सोई, जो बैठ सत्संग दिन-रात लागा।।
हाथी घोड़ा खाक है कहै सुने सो खाक।।
कहै सुनै सो खाक खाक है मुलुक खजाना।
जोरू बेटा खाक, खाक जो सांचे माना।।
महल अटारी खाक खाक है बाग बगैचा।
सेत सफेदी खाक खाक है हुक्का नैचा।।
साल दुसाला खाक खाक मोतिन कै माला।
नौवत खाना खाक खाक है, ससुरा साला।।
पलटू नाम खुदाय का यही सदा है पाक।
हाथी घोड़ा खाक है कहे सुने सो खाक।।
धूआँ का धौरेहरा, ज्यों बालू की भीत।।
ज्यो बालू की भीत, ताहि को कौन भरोसा।
ज्यो पक्का फल गिरत, डारि से लगे न दोषा।।
काचे घड़े ज्याें नीर, पानी के बीच बतासा।
दारू भीतर अगनि, जीवन की ऐसी आशा।।
पलटू नरतन जात है, घास के उपर शीत।
धूआँ का धौरेहरा, ज्यों बालू की भीत।।
अब से खबरदार रहो भाई।
सतगुरु दीन्हा माल खजाना, राखो जुगति लगाई।
पाव रती घटने नहीं पावे, दिन दिन बढै सवाई।।
क्षमा शील की अलफी पहनो, ज्ञान लंगोटी लगाई।
दया की टोपी सिर पर दे के, और अधिक बनिआई।।
वस्तु पाय गाफिल मत रहना, निशि दिन करो कमाई।
घट के भीतर चोर बसत है, बैठे घात लगाई।।
तन बंदूक सुमति कै सिंगरा, ज्ञान को गच ठहकाई।
सुरति पलीता हरदम सुलगे, कस पर खाक उड़ाई।।
बाहरवाला खड़ा सिपाही, ज्ञान गम्य अधिकाई।
पलटू दास अदि की अदली, हरदम लेत बजाई।।
आरति कीजै संत चरण की। यही उपाय न आन तरन की ।।
संत को जस हरि श्री मुख गावै। संत की रज ब्रह्मा नहिं पावै ।।
संत चरन बैकुंठ है लोचत। संत चरन को तीरथ सोचत ।।
संत राम में अंतर नाहीं। एक रस देखत दोऊ माहीं ।।
लक्ष्मी है संतन्ह की दासी। रज चाहत कैलास के बासी ।।
कोटि मुक्ति संतन्ह की चेरी। ‘पलटू दास’ मूल हम हेरी ।।
पड़ा रह संत के द्वारे, बनत बनत बनि जाय।
तन मन धन सब अरपन करके धका धनी का खाय।।
स्वान विर्त आवे सोई खावे रहे चरण लौ लाय।
मुरदा होय टरै नहि टारे लाख कहे समझाय।।
पटलूदास काम बन जावे जो इतने पै ठहराय।।