॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
श्रीसच्चिदानन्दघन स्वरूपिणे
कृष्णाय चानन्तसुखाभिवर्षिणे ।
विश्वोद्भवस्थाननिरोधहेतवे
नुमो नु वयं भक्तिरसाप्तयेऽनिशम् ॥ १ ॥
नैमिषे सूतमासीनं अभिवाद्य महामतिम् ।
कथामृतरसास्वाद कुशला ऋषयोऽब्रुवन् ॥ २ ॥
ऋषयः ऊचुः -
वज्रं श्रीमाथुरे देशे स्वपौत्रं हस्तिनापुरे ।
अभिषिच्य गते राज्ञि तौ कथं किंच चक्रतुः ॥ ३ ॥
सूत उवाच -
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ४ ॥
महापथं गते राज्ञि परीक्षित् पृथिवीपतिः ।
जगाम मथुरां विप्रा वज्रनाभदिदृक्षया ॥ ५ ॥
पितृव्यमागतं ज्ञात्वा वज्रः प्रेमपरिप्लुतः ।
अभिगम्याभिवाद्याथ निनाय निजमन्दिरम् ॥ ६ ॥
परिष्वज्य स तं वीरः कृष्णैकगतमानसः ।
रोहिण्याद्या हरेः पत्नीः ववन्दायतनागतः ॥ ७ ॥
ताभिः संमानितोऽत्यर्थं परीक्षित् पृथिवीपतिः ।
विश्रान्तः सुखमासीनो वज्रनाभमुवाच ह ॥ ८ ॥
परीक्षिदुवाच -
तात त्वत्पितृभिः नूनं अस्मत् पितृपितामहाः ।
उद्धृता भूरिदुःखौघादहं च परिरक्षितः ॥ ९ ॥
न पारयाम्यहं तात साधु कृत्वोपकारतः ।
त्वामतः प्रार्थयाम्यङ्ग सुखं राज्येऽनुयुज्यताम् ॥ १० ॥
कोशसैन्यादिजा चिन्ता तथारिदमनादिजा ।
मनागपि न कार्या ए सुसेव्याः किन्तु मातरः ॥ ११ ॥
निवेद्य मयि कर्तव्यं सर्वाधिपरिवर्जनम् ।
श्रुत्वैतत् परमप्रीतो वज्रस्तं प्रत्युवाच ह ॥ १२ ॥
वज्रनाभ उवाच -
राज उचितमेतत्ते यदस्मासु प्रभाषसे ।
त्वत्पित्रोपकृतश्चाहं धनुर्विद्याप्रदानतः ॥ १३ ॥
तस्मात् नाल्पापि मे चिन्ता क्षात्रं दृढमुपेयुषः ।
किन्त्वेका परमा चिन्ता तत्र किञ्चिद् विचार्यताम् ॥ १४ ॥
माथुरे त्वभिषिक्तोऽपि स्थितोऽहं निर्जने वने ।
क्व गता वै प्रजात्रत्या अत्र राज्यं प्ररोचते ॥ १५ ॥
इत्युक्तो विष्णुरातस्तु नदादीनां पुरोहितम् ।
शाण्डिल्यमाजुहावाशु वज्रसन्देहमुत्तये ॥ १६ ॥
अथोटजं विहायाशु शाण्डिल्यः समुपागतः ।
पूजितो वज्रनाभेन निषसादासनोत्तमे ॥ १७ ॥
उपोद्घातं विष्णुरातः चकाराशु ततस्त्वसौ ।
उवाच परमप्रीतस्तावुभौ परिसान्त्वयन् ॥ १८ ॥
शाण्डिल्य उवाच -
श्रृणुतं दत्तचित्तौ मे रहस्यं व्रजभूमिजम् ।
व्रजनं व्याप्तिरित्युक्त्या व्यापनाद् व्रज उच्यते ॥ १९ ॥
गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं व्रज उच्यते ।
सदानन्दं परं ज्योतिः मुक्तानां पदमव्ययम् ॥ २० ॥
तस्मिन् नन्दात्मजः कृष्णः सदानन्दाङ्गविग्रहः ।
आत्मारामस्चाप्तकामः प्रेमाक्तैरनुभूयते ॥ २१ ॥
आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ ।
आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते बूढवेदिभिः ॥ २२ ॥
कामास्तु वाञ्छितास्तस्य गावो गोपाश्च गोपिकाः ।
नित्यां सर्वे विहाराद्या आप्तकामस्ततस्त्वयम् ॥ २३ ॥
रहस्यं त्विदमेतस्य प्रकृतेः परमुच्यते ।
प्रकृत्या खेलतस्तस्य लीलान्यैरनुभूयते ॥ २४ ॥
सर्गस्थित्यप्यया जत्र रजःसत्त्वतमोगुणैः ।
लीलैवं द्विविधा तस्य वास्तवी व्यावहारिकी ॥ २५ ॥
वास्तवी तत्स्वसंवेद्या जीवानां व्यावहारिकी ।
आद्यां विना द्वितीया न द्वितीया नाद्यगा क्वचित् ॥ २६ ॥
युवयोः गोचरेयं तु तल्लीला व्यावहारिकी ।
यत्र भूरादयो लोका भुवि माथुरमण्डलम् ॥ २७ ॥
अत्रैव व्रजभूमिः सा यत्र तत्वं सुगोपितम् ।
भासते प्रेमपूर्णानां कदाचिदपि सर्वतः ॥ २८ ॥
कदाचित् द्वापरस्यान्ते रहोलीलाधिकारिणः ।
समवेता यदात्र स्युः यथेदानीं तदा हरिः ॥ २९ ॥
स्वैः सहावतरेत् स्वेषु समावेशार्थमीप्सिताः ।
तदा देवादयोऽप्यन्ये ऽवरन्ति समन्ततः ॥ ३० ॥
सर्वेषां वाञ्छितं कृत्वा हरिरन्तर्हितोऽभवत् ।
तेनात्र त्रिविधा लोकाः स्थिताः पूर्वं न संशयः ॥ ३१ ॥
नित्यास्तल्लिप्सवश्चैव देवाद्याश्चेति भेदतः ।
देवाद्यास्तेषु कृष्णेन द्वारिकां प्रापिताः पुरा ॥ ३२ ॥
पुनर्मौसलमार्गेण स्वाधिकारेषु चापिताः ।
तल्लिप्सूंश्च सदा कृष्णः प्रेमानन्दैकरूपिणः ॥ ३३ ॥
विधाय स्वीयनित्येषु समावेशितवांस्तदा ।
नित्याः सर्वेऽप्ययोग्येषु दर्शनाभावतां गताः ॥ ३४ ॥
व्यावकारिकलीलास्थाः तत्र यन्नाधिकारिणः ।
पश्यन्त्यत्रागतास्तत्मात् निर्जनत्वं समन्ततः ॥ ३५ ॥
तस्माच्चिन्ता न ते कार्या वज्रनाभ मदाज्ञया ।
वासयात्र बहून् ग्रामान् संसिद्धिस्ते भविष्यति ॥ ३६ ॥
कृष्णलीलानुसारेण कृत्वा नामानि सर्वतः ।
त्वया वासयता ग्रामान् संसेव्या भूरियं परा ॥ ३७ ॥
गोवर्द्धने दीर्घपुरे मथुरायां महावने ।
नन्दिग्रामे बृहत्सानौ कार्या राज्यस्थितिस्त्वया ॥ ३८ ॥
नद्यद्रिद्रोणिकुण्डादि कुञ्जान् संसेवतस्तव ।
राज्ये प्रजाः सुसम्पन्नास्त्वं च प्रीतो भविष्यसि ॥ ३९ ॥
सच्चिदानन्दभूरेषा त्वया सेव्या प्रयत्नतः ।
तव कृष्णस्थलान्यत्र स्फुरन्तु मदनुग्रहात् ॥ ४० ॥
वज्र संसेवनादस्य उद्धवस्त्वां मिलिष्यति ।
ततो रहस्यमेतस्मात् प्राप्स्यसि त्वं समातृकः ॥ ४१ ॥
एवमुक्त्वा तु शाण्डिल्यो गतः कृष्णमनुस्मरन् ।
विष्णूरातोऽथ वज्रश्च परां प्रीत्तिमवापतुः ॥ ४२ ॥
इति श्रीस्कान्दे महापुराण् एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये शाण्डील्योपदिष्ट व्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथोमोऽध्यायः ॥ १ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
त्रयोदश स्कन्ध-पहला अध्याय 42
परीक्षित और वज्रनाभ का समागम, शाण्डिल्यमुनि के मुख से भगवान की लीला के रहस्य और व्रजभूमि के महत्त्व का वर्णन
महर्षि व्यास कहते हैं—जिनका स्वरूप है सच्चिदानन्दघन, जो अपने सौन्दर्य और माधुर्यादि गुणों से सब का मन अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और सदा-सर्वदा अनन्त सुख की वर्षा करते रहते हैं, जिनकी ही शक्ति से इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं—उन भगवान श्रीकृष्ण को हम भक्तिरस का आस्वादन करने के लिये नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ १ ॥
नैमिषारण्यक्षेत्र में श्रीसूतजी स्वस्थ चित्त से अपने आसन पर बैठे हुए थे। उस समय भगवान की अमृतमयी लीला कथा के रसिक, उसके रसास्वादन में अत्यन्त कुशल शौनकादि ऋषियों ने सूतजी को प्रणाम करके उनसे यह प्रश्र किया ॥ २ ॥
ऋषियों ने पूछा—सूतजी ! धर्मराज युधिष्ठिर जब श्रीमथुरामण्डल में अनिरुद्धनन्दन वज्र का और हस्तिनापुर में अपने पौत्र परीक्षित का राज्याभिषेक करके हिमालय पर चले गये, तब राजा वज्र और परीक्षित ने कैसे-कैसे कौन-कौन-सा कार्य किया ॥ ३ ॥
सूतजी ने कहा—भगवान नारायण, नरोत्तम नर, देवी सरस्वती और महर्षि व्यास को नमस्कार करके शुद्धचित्त होकर भगवत्तत्त्व को प्रकाशित करनेवाले इतिहासपुराणरूप ‘जय’ का उच्चारण करना चाहिये ॥ ४ ॥ शौनकादि ब्रहमर्षियो ! जब धर्मराज युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण स्वर्गारोहण के लिये हिमालय चले गये, तब सम्राट् परीक्षित एक दिन मथुरा गये। उनकी इस यात्रा का उद्देश्य इतना ही था कि वहाँ चलकर वज्रनाभ से मिल-जुल आयें ॥ ५ ॥ जब वज्रनाभ को यह समाचार मालूम हुआ कि मेरे पितातुल्य परीक्षित मुझ से मिल ने के लिये आ रहे हैं, तब उनका हृदय प्रेम से भर गया। उन्होंने नगर से आगे बढक़र उनकी अगवानी की, चरणों में प्रणाम किया और बड़े प्रेम से उन्हें अपने महल में ले आये ॥ ६ ॥ वीर परीक्षित भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेमी भक्त थे। उनका मन नित्य-निरन्तर आनन्दघन श्रीकृष्णचन्द्र में ही रमता रहता था। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ का बड़े प्रेम से आलिङ्गन किया। इसके बाद अन्त:पुर में जाकर भगवान श्रीकृष्ण की रोहिणी आदि पत्नियों को नमस्कार किया ॥ ७ ॥ रोहिणी आदि श्रीकृष्ण-पत्नियों ने भी सम्राट् परीक्षित का अत्यन्त सम्मान किया। वे विश्राम करके जब आराम से बैठ गये, तब उन्होंने वज्रनाभ से यह बात कही ॥ ८ ॥
राजा परीक्षित ने कहा—‘हे तात ! तुम्हारे पिता और पितामहों ने मेरे पिता-पितामह को बड़े-बड़े सङ्कटों से बचाया है। मेरी रक्षा भी उन्होंने ही की है ॥ ९ ॥ प्रिय वज्रनाभ ! यदि मैं उनके उपकारों का बदला चुकाना चाहूँ तो किसी प्रकार नहीं चु का सकता। इसलिये मैं तुम से प्रार्थना करता हूँ कि तुम सुखपूर्वक अपने राजकाज में लगे रहो ॥ १० ॥ तुम्हें अपने खजानेकी, सेना की तथा शत्रुओं को दबा ने आदि की तनिक भी चिन्ता न करनी चाहिये। तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य है तो केवल एक ही; वह यह कि तुम्हें अपनी इन माताओं की खूब प्रेम से भलीभाँति सेवा करते रहना चाहिये ॥ ११ ॥ यदि कभी तुम्हारे ऊ पर कोई आपत्ति-विपत्ति आये अथवा किसी कारणवश तुम्हारे हृदय में अधिक क्लेश का अनुभव हो, तो मुझ से बताकर निश्चिन्त हो जाना; मैं तुम्हारी सारी चिन्ताएँ दूर कर दूँगा।’ सम्राट् परीक्षित की यह बात सुनकर वज्रनाभ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजा परीक्षित से कहा— ॥ १२ ॥
वज्रनाभ ने कहा—‘महाराज ! आप मुझ से जो कुछ कह रहे हैं, वह सर्वथा आपके अनुरूप है। आपके पिता ने भी मुझे धनुर्वेद की शिक्षा देकर मेरा महान उपकार किया है ॥ १३ ॥ इसलिये मुझे किसी बात की तनिक भी चिन्ता नहीं है; क्योंकि उनकी कृपा से मैं क्षत्रियोचित शूरवीरता से भलीभाँति सम्पन्न हूँ। मुझे केवल एक बात की बहुत बड़ी चिन्ता है, आप उसके सम्बन्ध में कुछ विचार कीजिये ॥ १४ ॥ यद्यपि मैं मथुरामण्डल के राज्य पर अभिषिक्त हूँ, तथापि मैं यहाँ निर्जन वन में ही रहता हूँ। इस बात का मुझे कुछ भी पता नहीं है कि यहाँ की प्रजा कहाँ चली गयी; क्योंकि राज्य का सुख तो तभी है, जब प्रजा रहे’ ॥ १५ ॥ जब वज्रनाभ ने परीक्षित से यह बात कही, तब उन्होंने वज्रनाभ का सन्देह मिटा ने के लिये महर्षि शाण्डिल्य को बुलवाया। ये ही महर्षि शाण्डिल्य पहले नन्द आदि गोपों के पुरोहित थे ॥ १६ ॥ परीक्षित का सन्देश पाते ही महर्षि शाण्डिल्य अपनी कुटी छोडक़र वहाँ आ पहुँचे। वज्रनाभ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया और वे एक ऊँचे आसन पर विराजमान हुए ॥ १७ ॥ राजा परीक्षित ने वज्रनाभ की बात उन्हें कह सुनायी। इसके बाद महर्षि शाण्डिल्य बड़ी प्रसन्नता से उन को सान्त्वना देते हुए कह ने लगे— ॥ १८ ॥
शाण्डिल्यजी ने कहा—‘प्रिय परीक्षित और वज्रनाभ ! मैं तुमलोगों से व्रजभूमि का रहस्य बतलाता हूँ। तुम दत्तचित्त होकर सुनो। ‘व्रज’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति। इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का नाम ‘व्रज’ पड़ा है ॥ १९ ॥ सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक है। इसलिये उसे ‘व्रज’ कहते हैं। वह सदानन्द स्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं ॥ २० ॥ इस परब्रह्म स्वरूप व्रजधाम में नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का निवास है। उनका एक-एक अंग सच्चिदानन्द स्वरूप है। वे आत्माराम और आप्तकाम हैं। प्रेमरस में डूबे हुए रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं ॥ २१ ॥ भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा हैं—राधिका; उनसे रमण करने के कारण ही रहस्य-रसके मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष उन्हें ‘आत्माराम’ कहते हैं ॥ २२ ॥ ‘काम’ शब्द का अर्थ है कामना—अभिलाषा। व्रज में भगवान श्रीकृष्ण के वाञ्छित पदार्थ हैं—गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला-विहार आदि; वे सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसीसे श्रीकृष्ण को ‘आप्तकाम’ कहा गया है ॥ २३ ॥ भगवान श्रीकृष्ण की यह रहस्य-लीला प्रकृति से परे है। वे जिस समय प्रकृति के साथ खेल ने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं ॥ २४ ॥ प्रकृति के साथ होनेवाली लीला में ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान की लीला दो प्रकार की है—एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारि की ॥ २५ ॥ वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है—उसे स्वयं भगवान और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है, वह व्यावहारि की लीला है। वास्तवी लीला के बिना व्यावहारि की लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्यावहारि की लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता ॥ २६ ॥ तुम दोनों भगवान की जिस लीला को देख रहे हो, यह व्यावहारि की लीला है। यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीला के अन्तर्गत हैं। इसी पृथ्वी पर यह मथुरामण्डल है ॥ २७ ॥ यहीं वह व्रजभूमि है, जिसमें भगवान की वह वास्तवी रहस्य-लीला गुप्तरूप से होती रहती है। वह कभी-कभी प्रेमपूर्ण हृदयवाले रसिक भक्तों को सब ओर दीख ने लगती है ॥ २८ ॥ कभी अट्ठाईसवें द्वा पर के अन्त में जब भगवान की रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं, जैसा कि इस समय भी कुछ काल पहले हुए थे, उस समय भगवान अपने अन्तरङ्ग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं। उनके अवतार का यह प्रयोजन होता है कि रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन भी अन्तरङ्ग परिकरों के साथ सम्मिलित होकर लीला-रस का आस्वादन कर सकें। इस प्रकार जब भगवान अवतार ग्रहण करते हैं, उस समय भगवान के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि भी सब ओर अवतार लेते हैं ॥ २९-३० ॥
अभी-अभी जो अवतार हुआ था, उसमें भगवान अपने सभी प्रेमियों की अभिलाषाएँ पूर्ण करके अब अन्तर्धान हो चु के हैं। इससे यह निश्चय हुआ कि यहाँ पहले तीन प्रकार के भक्तजन उपस्थित थे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३१ ॥ उन तीनों में प्रथम तो उनकी श्रेणी है, जो भगवान के नित्य ‘अन्तरङ्ग’ पार्षद हैं—जिनका भगवान से कभी वियोग होता ही नहीं। दूसरे वे हैं, जो एकमात्र भगवान को पाने की इच्छा रखते हैं—उनकी अन्तरङ्ग-लीला में अपना प्रवेश चाहते हैं। तीसरी श्रेणी में देवता आदि हैं। इनमें से जो देवता आदि के अंश से अवतीर्ण हुए थे, उन्हें भगवान ने व्रजभूमि से हटाकर पहले ही द्वार का पहुँचा दिया था ॥ ३२ ॥ फिर भगवान ने ब्राह्मण के शाप से उत्पन्न मूसल को निमित्त बनाकर यदुकुल में अवतीर्ण देवताओं को स्वर्ग में भेज दिया और पुन: अपने-अपने अधिकार पर स्थापित कर दिया। तथा जिन्हें एकमात्र भगवान को ही पाने की इच्छा थी, उन्हें प्रेमानन्द स्वरूप बनाकर श्रीकृष्ण ने सदा के लिये अपने नित्य अन्तरङ्ग पार्षदों में सम्मिलित कर लिया। जो नित्य पार्षद हैं, वे यद्यपि यहाँ गुप्तरूप से होनेवाली नित्यलीला में सदा ही रहते हैं, परन्तु जो उनके दर्शन के अधिकारी नहीं हैं, ऐसे पुरुषों के लिये वे भी अदृश्य हो गये हैं ॥ ३३-३४ ॥ जो लोग व्यावहारिक लीला में स्थित हैं, वे नित्यलीला का दर्शन पाने के अधिकारी नहीं हैं; इसलिये यहाँ आनेवालों को सब ओर निर्जन वन—सूना-ही-सूना दिखायी देता है; क्योंकि वे वास्तविक लीला में स्थित भक्तजनों को देख नहीं सकते ॥ ३५ ॥
इसलिये वज्रनाभ ! तुम्हें तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम मेरी आज्ञा से यहाँ बहुत- से गाँव बसाओ; इससे निश्चय ही तुम्हारे मनोरथों की सिद्धि होगी ॥ ३६ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने जहाँ जैसी लीला की है, उसके अनुसार उस स्थान का नाम रखकर तुम अनेकों गाँव बसाओ और इस प्रकार दिव्य व्रजभूमि का भलीभाँति सेवन करते रहो ॥ ३७ ॥ गोवर्धन, दीर्घपुर (डीग), मथुरा, महावन (गोकुल), नन्दिग्राम (नन्दगाँव) और बृहत्सानु (बरसाना) आदि में तुम्हें अपने लिये छावनी बनवानी चाहिये ॥ ३८ ॥ उन-उन स्थानों में रहकर भगवान की लीला के स्थल नदी, पर्वत, घाटी, सरोवर और कुण्ड तथा कुञ्ज-वन आदि का सेवन करते रहना चाहिये। ऐसा करने से तुम्हारे राज्य में प्रजा बहुत ही सम्पन्न होगी और तुम भी अत्यन्त प्रसन्न रहोगे ॥ ३९ ॥ यह व्रजभूमि सच्चिदानन्दमयी है, अत: तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस भूमि का सेवन करना चाहिये। मैं आशीर्वाद देता हूँ; मेरी कृपा से भगवान की लीला के जित ने भी स्थल हैं, सब की तुम्हें ठीक-ठीक पहचान हो जायगी ॥ ४० ॥ वज्रनाभ ! इस व्रजभूमि का सेवन करते रहने से तुम्हें किसी दिन उद्धवजी मिल जायँगे। फिर तो अपनी माताओंसहित तुम उन्हीं से इस भूमि का तथा भगवान की लीला का रहस्य भी जान लोगे ॥ ४१ ॥
मुनिवर शाण्डिल्यजी उन दोनों को इस प्रकार समझा-बुझाकर भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए अपने आश्रम पर चले गये। उनकी बातें सुनकर राजा परीक्षित और वज्रनाभ दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥ ४२ ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
ऋषयः ऊचुः -
शाण्डिल्ये तौ समादिश्य परावृत्ती स्वमाश्रमम् ।
किं कथं चक्रतुस्तौ तु राजानौ सूत तद् वद ॥ १ ॥
सूत उवाच -
ततस्तु विष्णुरातेन श्रेणीमुख्याः सहस्रशः ।
इन्द्रप्रस्थान् समानाय्य मथुरास्थानमापिताः ॥ २ ॥
माथुरान् ब्राह्मणान् तत्र वानरांश्च पुरातनान् ।
विज्ञाय माननीयत्वं तेषु स्थापैतवान् स्वराट् ॥ ३ ॥
वज्रस्तु तत्सहायेन शाण्डिल्यस्याप्यनुग्रहात् ।
गोविन्दगोपगोपीनां लीलास्थानान्यनुक्रमात् ॥ ४ ॥
विज्ञायाभिधयाऽऽस्थाप्य ग्रामानावासयद् बहून् ।
कुण्डकूपादिपूर्तेन शिवादिस्थापनेन च ॥ ५ ॥
गोविन्दहरिदेवादि स्वरूपारोपणेन च ।
कृष्णाइकभक्तिं स्वे राज्ये ततान च मुमोद ह ॥ ६ ॥
प्रजास्तु मुदितास्तस्य कृष्णकीर्तनतत्पराः ।
परमानन्दसम्पन्ना राज्यं तस्यैव तुष्टुवुः ॥ ७ ॥
एकदा कृष्णपत्न्यस्तु श्रीकृष्णविरहातुराः ।
कालिन्दीं मुदितां वीक्ष्य तत्तासां करुणापरमानसा ॥ १० ॥
कालिन्दी उवाच -
आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका ।
तस्या दास्यप्रभावेण विरहोऽस्मान् न संस्पृशेत् ॥ ११ ॥
तस्या एवांशविस्ताराः सर्वाः श्रीकृष्णनायिकाः ।
नित्यसम्भोग एवास्ति तस्याः साम्मुख्ययोगतः ॥ १२ ॥
स एव सा स सैवास्ति वंशी तत्प्रेमरूपिका ।
श्रीकृष्णनखचन्द्रालि सङ्घाच्चन्द्रावली स्मृता ॥ १३ ॥
रूपान्तरमगृह्णाना तयोः सेवातिलालसा ।
रुक्मिण्यादिसमावेशो मयात्रैव विलोकितः ॥ १४ ॥
युष्माकमपि कृष्णेन विरहो नैव सर्वतः ।
किन्तु एवं न जानीथ तस्माद् व्याकुलतामिताः ॥ १५ ॥
एवमेवात्र गोपीनां अक्रूरावसरे पुरा ।
विरहाभास एवासीद् उद्धवेन समाहितः ॥ १६ ॥
तेनैव भवतीनां चेद् भवेदत्र समागमः ।
तर्हि नित्यं स्वकान्तेन विहारमपि पल्स्यथ ॥ १७ ॥
सूत उवाच -
एवमुक्तास्तु ताः पत्न्यः प्रसन्नां पुनरब्रुवन् ।
उद्धवालोकनेनात्म प्रेष्ठसङ्गमलालसाः ॥ १८ ॥
श्रीकृष्णपत्न्य ऊचुः -
धन्यासि सखि कान्तेन यस्या नैवास्ति विच्युतिः ।
यतस्ते स्वार्थसंसिद्धिः तस्या दास्यो बभूविम ॥ १९ ॥
परन्तूद्धवलाभे स्याद् अस्मत् सर्वार्थसाधनम् ।
तथा वदस्व कालिन्दि तल्लाभोऽपि यथा भवेत् ॥ २० ॥
सूत उवाच -
एवमुक्ता तु कालिन्दी प्रत्युवाचाथ तास्तथा ।
स्मरन्ती कृष्णचन्द्रस्य कलाः षोडशरूपिणीः ॥ २१ ॥
साधनभूमिर्बदरी व्रजता कृष्णेन मंत्रिणे प्रोक्ता ।
तत्रास्ते स तु साक्षात् तद् वयुनं ग्राहयन् लोकान् ॥ २२ ॥
फलभूमिर्व्रजब्ःउमिः दत्ता तस्मै पुरैव सरहस्यम् ।
फलमिह तिरोहितं सत्तद् इहेदानीं स उद्धवोऽलक्ष्यः ॥ २३ ॥
गोवर्द्धनगिरिनिकटे सखीस्थले तद्६रजः कामः ।
तत्रत्याङ्कुरवल्लीरूपेणास्ते स उद्धवो नूनम् ॥ २४ ॥
आत्मोत्सवरूपत्वं हरिणा तस्मै समार्पितं नियतम् ।
तस्मात् तत्र स्थित्वा कुसुमसरःपरिसरे सवज्राभिः ॥ २५ ॥
वीणावेणुमृदङ्गैः कीर्तनकाव्यादिसरससङ्गीतैः ।
उत्सव आरब्धव्यो हरिरतलोकान् समानाय्य ॥ २६ ॥
तत्रोद्धवावलोको भविता नियतं महोत्सवे वितते ।
यौष्माकीणां अभिमतसिद्धिं सविता स एव सवितानाम् ॥ २७ ॥
सूत उवाच -
इति श्रुत्वा प्रसन्नास्ताः कालिन्दीं अभिवन्द्य तत् ।
कथयामासुरागत्य वज्रं प्रति परीक्षितम् ॥ २८ ॥
विष्णुरातस्तु तत् श्रुत्वा प्रसन्नस्तद्युतस्तदा ।
तत्रैवागत्य तत् सर्वं कारयामास सत्वरम् ॥ २९ ॥
गोवर्द्धनाददूरेण वृन्दारण्ये सखीस्थले ।
प्रवृत्तः कुसुमाम्भोधौ कृष्णसंकीर्तनोत्सवः ॥ ३० ॥
वृषभानुसुताकान्त विहारे कीर्तनश्रिया ।
साक्षादिव समावृत्ते सर्वेऽनन्यदृशोऽभवन् ॥ ३१ ॥
ततः पश्यत्सु सर्वेषु तृणगुल्मलताचयात् ।
आजगामोद्धवः स्रग्वी श्यामः पीताम्बरावृतः ॥ ३२ ॥
गुञ्जमालाधरो गायन् वल्लवीवल्लभं मुहुः ।
तदागमनतो रेजे भृशं सङ्कीर्तनोत्सवः ॥ ३३ ॥
चन्द्रिकागमतो यद्वत् स्फाटिकाट्टालभूमणिः ।
अथ सर्वे सुखाम्भोधौ मग्नाः सर्वं विसस्मरुः ॥ ३४ ॥
क्षणेनागतविज्ञाना दृष्ट्वा श्रीकृष्णरूपिणम् ।
उद्धवं पूजयाञ्चक्रुः प्रतिलब्धमनोरथाः ॥ ३५ ॥
इति श्रीस्कान्दे महापुराण् एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये गोवर्धनपर्वतसमीपे परीक्षिदादीनां उद्धवदर्शनवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
त्रयोदश स्कन्ध-दूसरा अध्याय 35
यमुना और श्रीकृष्णपत्नियों का संवाद, कीर्तनोत्सव में उद्धवजी का प्रकट होना
ऋषियों ने पूछा—सूतजी ! अब यह बतलाइये कि परीक्षित और वज्रनाभ को इस प्रकार आदेश देकर जब शाण्डिल्य मुनि अपने आश्रम को लौट गये, तब उन दोनों राजाओं ने कैसे-कैसे और कौन-कौन-सा काम किया ? ॥ १ ॥
सूतजी कह ने लगे—तदनन्तर महाराज परीक्षित ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से हजारों बड़े-बड़े सेठों को बुलवाकर मथुरा में रहने की जगह दी ॥ २ ॥ इनके अतिरिक्त सम्राट् परीक्षित ने मथुरामण्डल के ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरों को, जो भगवान के बड़े ही प्रेमी थे, बुलवाया और उन्हें आदर के योग्य समझकर मथुरानगरी में बसाया ॥ ३ ॥ इस प्रकार राजा परीक्षित की सहायता और महर्षि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने क्रमश: उन सभी स्थानों की खोज की, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रेमी गोप-गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाएँ करते थे। लीलास्थानों का ठीक-ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहाँ-वहाँ की लीला के अनुसार उस-उस स्थान का नाम-करण किया, भगवान के लीलाविग्रहों की स्थापना की तथा उन-उन स्थानों पर अनेकों गाँव बसाये। स्थान-स्थान पर भगवान के नाम से कुण्ड और कुएँ खुदवाये। कुञ्ज और बगीचे लगवाये, शिव आदि देवताओं की स्थापना की ॥ ४-५ ॥ गोविन्ददेव, हरिदेव आदि नामों से भगवद्विग्रह स्थापित किये। इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सब ओर एकमात्र श्रीकृष्णभक्ति का प्रचार किया और बड़े ही आनन्दित हुए ॥ ६ ॥ उनके प्रजाजनों को भी बड़ा आनन्द था, वे सदा भगवान के मधुर नाम तथा लीलाओं के कीर्तन में संलग्र हो परमानन्द के समुद्र में डूबे रहते थे और सदा ही वज्रनाभ के राज्य की प्रशंसा किया करते थे ॥ ७ ॥
एक दिन भगवान श्रीकृष्ण की विरह-वेदना से व्याकुल सोलह हजार रानियाँ अपने प्रियतम पतिदेव की चतुर्थ पटरानी कालिन्दी (यमुनाजी) को आनन्दित देखकर सरलभाव से उनसे पूछ ने लगीं। उनके मन में सौतियाडाह लेशमात्र भी नहीं था ॥ ८ ॥
श्रीकृष्ण की रानियों ने कहा—बहिन कालिन्दी ! जैसे हम सब श्रीकृष्ण की धर्मपत्नी हैं, वैसे ही तुम भी तो हो। हम तो उनकी विरहाग्रि में जली जा रही हैं, उनके वियोग-दु:ख से हमारा हृदय व्यथित हो रहा है; किन्तु तुम्हारी यह स्थिति नहीं है, तुम प्रसन्न हो। इसका क्या कारण है ? कल्याणी ! कुछ बताओ तो सही ॥ ९ ॥
उनका प्रश्र सुनकर यमुनाजी हँस पड़ीं। साथ ही यह सोचकर कि मेरे प्रियतम की पत्नी होने के कारण ये भी मेरी ही बहिनें हैं, पिघल गयीं; उनका हृदय दया से द्रवित हो उठा। अत: वे इस प्रकार कह ने लगीं ॥ १० ॥
यमुनाजी ने कहा—अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा हैं—श्रीराधाजी। मैं दासी की भाँति राधाजी की सेवा करती रहती हूँ; उनकी सेवा का ही यह प्रभाव है कि विरह हमारा स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ११ ॥ भगवान श्रीकृष्ण की जितनी भी रानियाँ हैं, सब-की-सब श्रीराधाजी के ही अंश का विस्तार हैं। भगवान श्रीकृष्ण और राधा सदा एक- दूसरे के सम्मुख हैं, उनका परस्पर नित्य संयोग है; इसलिये राधा के स्वरूप में अंशत: विद्यमान जो श्रीकृष्ण की अन्य रानियाँ हैं, उन को भी भगवान का नित्य-संयोग प्राप्त है ॥ १२ ॥ श्रीकृष्ण ही राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है। तथा राधा की प्यारी सखी चन्द्रावली भी श्रीकृष्ण-चरणों के नखरूपी चन्द्रमाओं की सेवा में आसक्त रहने के कारण ही ‘चन्द्रावली’ नाम से कही जाती है ॥ १३ ॥ श्रीराधा और श्रीकृष्ण की सेवा में उसकी बड़ी लालसा, बड़ी लगन है; इसीलिये वह कोई दूसरा स्वरूप धारण नहीं करती। मैंने यहीं श्रीराधा में ही रुक्मिणी आदि का समावेश देखा है ॥ १४ ॥ तुमलोगों का भी सर्वांश में श्रीकृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु तुम इस रहस्य को इस रूप में जानती नहीं हो, इसीलिये इतनी व्याकुल हो रही हो ॥ १५ ॥ इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर श्रीकृष्ण को नन्दगाँव से मथुरा में ले आये थे, उस अवसर पर जो गोपियों को श्रीकृष्ण से विरह की प्रतीति हुई थी, वह भी वास्तविक विरह नहीं, केवल विरह का आभास था। इस बात को जब तक वे नहीं जानती थीं, तब तक उन्हें बड़ा कष्ट था; फिर जब उद्धवजी ने आकर उनका समाधान किया, तब वे इस बात को समझ सकीं ॥ १६ ॥ यदि तुम्हें भी उद्धवजी का सत्संग प्राप्त हो जाय तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्यविहार का सुख प्राप्त कर लोगी ॥ १७ ॥
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण ! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब श्रीकृष्ण की पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहनेवाली यमुनाजी से पुन: बोलीं। उस समय उनके हृदय में इस बात की बड़ी लालसा थी कि किसी उपाय से उद्धवजी का दर्शन हो, जिससे हमें अपने प्रियतम के नित्य-संयोग का सौभाग्य प्राप्त हो सके ॥ १८ ॥
श्रीकृष्णपत्नियों ने कहा—सखी ! तुम्हारा ही जीवन धन्य है; क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राणनाथ के वियोग का दु:ख नहीं भोगना पड़ता। जिन श्रीराधिकाजी की कृपा से तुम्हारे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी दासी हुर्ईं ॥ १९ ॥ किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि उद्धवजी के मिलने पर ही हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे; इसलिये कालिन्दी ! अब ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे उद्धवजी भी शीघ्र ही मिल जायँ ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्ण की रानियों ने जब यमुनाजी से इस प्रकार कहा, तब वे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की सोलह कलाओं का चिन्तन करती हुई उनसे कह ने लगीं— ॥ २१ ॥ ‘‘जब भगवान श्रीकृष्ण अपने परमधाम को पधार ने लगे, तब उन्होंने अपने मन्त्री उद्धव से कहा—‘उद्धव ! साधना करने की भूमि है बदरिकाश्रम, अत: अपनी साधना पूर्ण करने के लिये तुम वहीं जाओ।’ भगवान की इस आज्ञा के अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात स्वरूप से बदरिकाश्रम में विराजमान हैं और वहाँ जानेवाले जिज्ञासुलोगों को भगवान के बताये हुए ज्ञान का उपदेश करते रहते हैं ॥ २२ ॥ साधन की फलरूपा भूमि है—व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्योंसहित भगवान ने पहले ही उद्धव को दे दिया था। किन्तु वह फलभूमि यहाँ से भगवान के अन्तर्धान होने के साथ ही स्थूल दृष्टि से परे जा चुकी है; इसीलिये इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते ॥ २३ ॥ फिर भी एक स्थान है, जहाँ उद्धवजी का दर्शन हो सकता है। गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान की लीलासहचरी गोपियों की विहार- स्थली है; वहाँ की लता, अङ्कुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धवजी वहाँ निवास करते हैं। लताओं के रूप में उनके रहने का यही उद्देश्य है कि भगवान की प्रियतमा गोपियों की चरणरज उन पर पड़ती रहे ॥ २४ ॥ उद्धवजी के सम्बन्ध में एक निश्चित बात यह भी है कि उन्हें भगवान ने अपना उत्सव- स्वरूप प्रदान किया है। भगवान का उत्सव उद्धवजी का अंग है, वे उससे अलग नहीं रह सकते; इसलिये अब तुमलोग वज्रनाभ को साथ लेकर वहाँ जाओ और कुसुमसरोवर के पास ठहरो ॥ २५ ॥ भगवद्भक्तों की मण्डली एकत्र करके वीणा, वेणु और मृदङ्ग आदि बाजों के साथ भगवान के नाम और लीलाओं के कीर्तन, भगवत्सम्बन्धी काव्य- कथाओं के श्रवण तथा भगवद्गुणगान से युक्त सरस संगीतों द्वारा महान उत्सव आरम्भ करो ॥ २६ ॥ इस प्रकार जब उस महान उत्सव का विस्तार होगा, तब निश्चय है कि वहाँ उद्धवजी का दर्शन मिलेगा। वे ही भलीभाँति तुम सब लोगों के मनोरथ पूर्ण करेंगे’’ ॥ २७ ॥
सूतजी कहते हैं—यमुनाजी की बतायी हुई बातें सुनकर श्रीकृष्ण की रानियाँ बहुत प्रसन्न हुर्ईं। उन्होंने यमुनाजी को प्रणाम किया और वहाँ से लौटकर वज्रनाभ तथा परीक्षित से वे सारी बातें कह सुनायीं ॥ २८ ॥ सब बातें सुनकर परीक्षित को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वज्रनाभ तथा श्रीकृष्णपत्नियों को उसी समय साथ ले उस स्थान पर पहुँचकर तत्काल वह सब कार्य आरम्भ करवा दिया, जो कि यमुनाजी ने बताया था ॥ २९ ॥ गोवर्धन के निकट वृन्दावन के भीतर कुसुमसरोवर पर जो सखियों की विहारस्थली है, वहाँ ही श्रीकृष्णकीर्तन का उत्सव आरम्भ हुआ ॥ ३० ॥ वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी तथा उनके प्रियतम श्रीकृष्ण की वह लीलाभूभि जब साक्षात सङ्कीर्तन की शोभा से सम्पन्न हो गयी, उस समय वहाँ रहनेवाले सभी भक्तजन एकाग्र हो गये; उनकी दृष्टि, उनके मन की वृत्ति कहीं अन्यत्र न जाती थी ॥ ३१ ॥ तदनन्तर सब के देखते-देखते वहाँ फैले हुए तृण, गुल्म और लताओं के समूह से प्रकट होकर श्रीउद्धवजी सब के सामने आये। उनका शरीर श्यामवर्ण था, उसपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे गले में वनमाला और गुंजा की माला धारण किये हुए थे तथा मुख से बारंबार गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं का गान कर रहे थे। उद्धवजी के आगमन से उस सङ्कीर्तनोत्सव की शोभा कई गुनी बढ़ गयी। जैसे स्फटिकमणि की बनी हुई अट्टालिका की छत पर चाँदनी छिटक ने से उसकी शोभा बहुत बढ़ जाती है। उस समय सभी लोग आनन्द के समुद्र में निमग्र हो अपना सब कुछ भूल गये, सुध-बुध खो बैठे ॥ ३२—३४ ॥ थोड़ी देर बाद जब उनकी चेतना दिव्य लोक से नीचे आयी, अर्थात् जब उन्हें होश हुआ, तब उद्धवजी को भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप में उपस्थित देख, अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने के कारण प्रसन्न हो, वे उनकी पूजा करने लगे ॥ ३५ ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
उद्धवमुखेन श्रीमद् भागवतमाहात्म्यवर्णनं
भागवतोपदेशस्य सम्प्रदायकर्मकथनं परीक्षितः
कलिनिग्रहायोद्योगः, भागवतश्रवणेन वजादीनां भगवद्दर्शनं च -
सूत उवाच -
अयोद्धवस्तु तान् दृष्ट्वा कृष्णकीर्तनतत्परान् ।
सत्कृत्याथ परिष्वज्य परीक्षितमुवाच ह ॥ १ ॥
धन्योऽसि राजन् कृष्णैक भक्त्या पूर्णोऽसि नित्यदा ।
यस्त्वं निमग्नचित्तोऽसि कृष्णसंङ्कीर्तनोत्सवे ॥ २ ॥
कृष्णपत्नीषु वज्रे च दिष्ट्या प्रीतिः प्रवर्तिता ।
तवोचितमिदं तात कृष्णदत्ताङ्गवैभव ॥ ३ ॥
द्वारकास्थेषु सर्वेषु धन्या एते न संशयः ।
येषां व्रजनिवासाय पार्थमादिष्टवान् प्रभुः ॥ ४ ॥
श्रीकृष्णस्य मनश्चन्द्रो राधास्यप्रभयान्वितः ।
तद् विहारवनं गोभिः मण्डयन् रोचते सदा ॥ ५ ॥
कृष्णचन्द्रः सदा पूर्णः तस्य षोडश या कलाः ।
चित्सहस्रप्रभभिन्ना अत्रास्ते तत्स्वरूपता॥ ६ ॥
एवं वज्रस्तु राजेन्द्र प्रपन्नभयभञ्जकः ।
श्रीकृष्णदक्षिणे पादे स्थानमेतस्य वर्तते ॥ ७ ॥
अवतारेऽत्र कृष्णेन योगमायातिभाविताः ।
तद्बलेनात्मविस्मृत्या सीदन्त्येते न संशयः ॥ ८ ॥
ऋते कृष्णप्रकाशं तु स्वात्मुबोधो न कस्यचित् ।
तत्प्रकाशस्तु जीवानां मायया पिहितः सदा ॥ ९ ॥
अष्टाविंशे द्वापरान्ते स्वयमेव यदा हरिः ।
उत्सारयेन्निजां मायां तत्प्रकाशो भवेत्तदा ॥ १० ॥
स तु कालो व्यतिक्रान्तः तेनेदमपरं श्रृणु ।
अन्यदा तत्प्रकाशस्तु श्रीमद् भागवताद् भवेत् ॥ ११ ॥
श्रीमद् भागवतं शास्त्रं यत्र भागवतैर्यदा ।
कीर्त्यते श्रूयते चापि श्रीकृष्णस्तत्र निश्चितम् ॥ १२ ॥
श्रीमद् भागवतं यत्र श्लोकं श्लोकार्द्धमेव च ।
तत्रापि भगवान् कृष्णो वल्लवीभिर्वराजते ॥ १३ ॥
भारते पानवं जन्म प्राप्य भागवतं न यैः ।
श्रुतं पापपराधीनैः आत्मघातस्तु तैः कृतः ॥ १४ ॥
श्रीमद् भागवतं शास्त्र्॒अं नित्यं यैः परिसेवितम् ।
पिर्मातुश्च भार्यायाः कुलपङ्क्तिः सुतारिता ॥ १५ ॥
विद्याप्रकाशो विप्राणां राज्ञां शत्रुजयो विशाम् ।
धनं स्वास्थ्यं च शूद्राणां श्रीमद् भागवताद् भवेत् ॥ १६ ॥
योषितां अपरेषां च सर्ववाञ्छितपूरणम् ।
अतो भागवतं नित्यं को न सेवेत भाग्यवान् ॥ १७ ॥
अनेकजन्मसंसिद्धः श्रीम भागवतं लभेत् ।
प्रकाशो भगवद्भक्तेः उद्भवस्तत्र जायते ॥ १८ ॥
सांख्यायनप्रसादाप्तं श्रीमद्भागवतं पुरा ।
बृहस्पतिर्दत्तवान् मे तेनाहं कृष्णवल्लभः ॥ १९ ॥
अखायिकां च तेनोक्तां विष्णुरात निबोध ताम् ।
ज्ञायते सम्प्रदायोऽपि यत्र भागवतश्रुतेः ॥ २० ॥
बृहस्पतिरुवाच -
ईक्षाञ्चक्रे यदा कृष्णो मायापुरुषरूपधृक् ।
ब्रह्मा विष्णुः शिवश्चापि रजः सत्त्वतमोगुणैः ॥ २१ ॥
पुरुषास्त्रय उत्तस्थुः अधिकारान् तदादिशत् ।
उत्पत्तौ पालने चैव संहारे प्रक्रमेण तान् ॥ २२ ॥
ब्रह्मा तु नाभिकमलात् उत्पन्नस्तं व्यजिज्ञपत् ।
ब्रह्मोवाच -
नारायणादिपुरुष परमात्मन् नमोऽस्तु ते ॥ २३ ॥
त्वया सर्गे नियुक्तोऽस्मि पपीयान् मां रजोगुणः ।
त्वत्स्मृतौ नैव बाधेत तथैव कृपया प्रभो ॥ २४ ॥
बृहस्पतिरुवाच -
यदा तु भगवान् तस्मै श्रीमद्भागवतं पुरा ।
उपदिश्याब्रवीद् ब्रह्मन् सेवस्वैनत् स्वसिद्धये ॥ २५ ॥
ब्रह्मा तु परमप्रीतः तेन कृष्णाप्तयेऽनिशम् ।
सप्तावरणभङ्गाय सप्ताहं समवर्तयत् ॥ २६ ॥
श्रीभागवतसप्ताह सेवनाप्तमनोरथः ।
सृष्टिं वितनुते नित्यं ससप्ताहः पुनः पुनः ॥ २७ ॥
विष्णुरप्यर्थयामास पुमांसं स्वार्थसिद्धये ।
प्रजानां पालने पुंसा यदनेनापि कल्पितः ॥ २८ ॥
विष्णुरुवाच -
प्रजानां पालनं देव करिष्यामि यथोचितम् ।
प्रवृत्त्या च निवृत्त्या च कर्मज्ञानप्रयोजनात् ॥ २९ ॥
यदा यदैव कालेन धर्मग्लानिर्भविष्यति ।
धर्मं संस्थापयिष्यामि ह्यवतारैस्तदा तदा ॥ ३० ॥
भोगार्थिभ्यस्तु यज्ञादि फलं दास्यामि निश्चितम् ।
भोगार्थिभ्यो विरक्तेभ्यो मुक्तिं पञ्चविधां तथा ॥ ३१ ॥
येऽपि मोक्षं न वाञ्छन्ति तान् कथं पालयाम्यहम् ।
आत्मानं च श्रियं चापि पालयामि कथं वद ॥ ३२ ॥
तस्मा अपि पुमानाद्यः श्रीभागवतमादिशत् ।
उवाच च पठस्वैनत् तव सर्वार्थसिद्धये ॥ ३३ ॥
ततो विष्णुः प्रसन्नात्मा परमार्थकपालने ।
समर्थोऽभूच्छ्रिया मासि मासि भागवतं स्मरन् ॥ ३४ ॥
यदा विष्णुः स्वयं वक्ता लक्ष्मीश्च श्रवणे रतः ।
तदा भागवतश्रावो मासेनैव पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
यदा लक्ष्मीः स्वयं वक्त्री विष्णुश्च श्रवने रतः ।
मासद्वयं रसास्वादः तदातीव सुशोभते ॥ ३६ ॥
अधिकारे स्थितो विष्णूह् लक्ष्मीर्निश्चिन्तमानसा ।
तेन भागवतास्वादः तस्या भूरि प्रकाशते ॥ ३७ ॥
अथ रुद्रोऽपि तं देवं संहाराधिकृतः पुरा ।
पुमांसं प्रार्थयामास स्वसामर्थ्यविवृद्धये ॥ ३८ ॥
रुद्र उवाच -
नित्ये नैमित्तिके चैव संहारे प्राकृते तथा ।
शक्तयो मम विद्यन्ते देवदेव मम प्रभो ॥ ३९ ॥
आत्यन्तिके तु संहारे मम शक्तिर्न विद्यते ।
महद्दुःखं ममेतत्तु तेन त्वां प्रार्थयाम्यहम् ॥ ४० ॥
बृहस्पतिरुवाच -
श्रीमद् भागवतं तस्मा अपि नारायणो ददौ ।
स तु संसेवनादस्य जिग्ये चापि तमोगुणम् ॥ ४१ ॥
कथा भागवती तेने सेविता वर्षमात्रतः ।
लये त्वात्यन्तिके तेनौ आप शक्तिं सदाशिवः ॥ ४२ ॥
उद्धव उवाच -
श्रीभागवतमाहात्म्य इमां आख्यायिकां गुरोः ।
श्रुत्वा भागवतं लब्ध्वा मुमुदेऽहं प्रणम्य तम् ॥ ४३ ॥
ततस्तु वैष्णवीं रीतिं गृहीत्वा मासमात्रतः ।
श्रीमद् भागवतास्वादो मया सम्यङ्६निषेवितः ॥ ४४ ॥
तावतैव बभूवाहं कृष्णस्य दयितः सखा ।
कृष्णेनाथ नियुक्तोऽहं व्रजे स्वप्रेयसीगणे ॥ ४५ ॥
विरहार्त्तासु गोपीषु स्वयं नित्यविहारिणा ।
श्रीमागवतसन्देशो मन्मुखेन प्रयोजितः ॥ ४६ ॥
तं यथामति लब्ध्वा ता आसन् विरहवर्जिताः ।
नाज्ञासिषं रहस्यं तत् चमत्कारस्तु लोकितः ॥ ४७ ॥
स्वर्वासं प्रार्थ्य कृष्णं च ब्रह्माद्येषु गतेषु मे ।
श्रीमद्भागवते कृष्णः तद् रहस्यं स्वयं ददौ ॥ ४८ ॥
पुरतोऽश्वत्थमूलस्य चकार मयि तद् दृढम् ।
तेनात्र व्रजवल्लीषु वसामि बदरीं गतः ॥ ४९ ॥
तस्मात् नारदकुण्डेऽत्र तिष्ठामि स्वेच्छया सदा ।
कृष्णप्रकाशो भक्तानां श्रीमद्भागवताद् भवेत् ॥ ५० ॥
तदेषामपि कार्यार्थं श्रीमद्भागवतं त्वहम् ।
प्रवक्ष्यामि सहायोऽत्र त्वयैवानुष्ठितो भवेत् ॥ ५१ ॥
सूत उवाच -
विष्णुरातस्तु श्रुत्वा तद् उद्धवं प्रणतोऽब्रवीत् ।
परीक्षिदुवाच -
हरिदास त्वया कार्य श्रीभागवतकीर्तनम् ॥ ५२ ॥
आज्ञाप्योऽहं यथा कार्यः सहायोऽत्र मया तथा ।
सूत उवाच -
श्रुत्वैतद् उद्धवो वाक्यं उवाच प्रीतमानसः ॥ ५३ ॥
उद्धव उवाच -
श्रीकृष्णेन परित्यक्ते भूतले बलवान कलिः ।
करिष्यति परं विघ्नं सत्कार्ये समुपस्थिते ॥ ५४ ॥
तस्माद् दिग्विजयं याहि कलिनिग्रहमाचर ।
अहं तु मासमात्रेण वैष्णवीं रीतिमास्थितः ॥ ५५ ॥
श्रीमद्भागवतास्वादं प्रचार्यं त्वत्सहायतः ।
एतान् सम्प्रापयिष्यामि नित्यधाम्नि मधुद्विषः ॥ ५६ ॥
सूत उवाच -
श्रुत्वैवं तद्वचो राजा मुदितश्चिन्तयाऽऽतुरः ।
तदा विज्ञापयामास स्वाभिप्रायं तमुद्धवम् ॥ ५७ ॥
परीक्शिदुवाच -
कलिं तु निग्रहीष्यामि तात ते वचसि स्थितः ।
श्रीभागवतसम्प्राप्तिः कथं मम भविष्यति ॥ ५८ ॥
अहं तु समनुग्राह्यः तव पादतले श्रितः ।
सूत उवाच -
श्रुत्वैतद् वचनं भूयोऽपि उद्धवस्तं उवाच ह ॥ ५९ ॥
उद्धव उवाच -
राजन् चिन्ता तु ते कापि नैव कार्या कथञ्चन ।
तवैव भगवत् शास्त्रे यतो मुख्याधिकारिता ॥ ६० ॥
एतावत् काल पर्यंतं प्रायो भागवतश्रुतेः ।
वार्तामपि न जानन्ति मनुष्याः कर्मतत्पराः ॥ ६१ ॥
त्वत्प्रसादेन बहवो मनुष्या भारताजिरे ।
श्रीमद्भागवतप्राप्तौ सुखं प्राप्स्यन्ति शाश्वतम् ॥ ६२ ॥
नन्दनन्दनरूपस्तु श्रीशुको भगवान् ऋषिः ।
श्रीमद् भागवतं तुभ्यं श्रावयिष्यत्यसंशयम् ॥ ६३ ॥
तेन प्राप्स्यसि राजन् त्वं नित्यं धाम व्रजेशितुः ।
श्रीभागवतसञ्चारः ततो भुवि भविष्यति ॥ ६४ ॥
तस्मात्त्वं गच्छ राजेन्द्र कलिनिग्रहमाचर ।
सूत उवाच -
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य गतो राजा दिशां जये ॥ ६५ ॥
वज्रस्तु निजराज्येशं प्रतिबाहुं विधाय च ।
तत्रैव मातृभिः साकं तस्थौ भागवताशया ॥ ६६ ॥
अथ वृन्दावने मासं गोवर्धनसमीपतः ।
श्रीमद् भागवास्वादस्तु उद्धवेन प्रवर्तितः ॥ ६७ ॥
तस्मिन् आस्वाद्यमाने तु सच्चिदानन्दरूपिणी ।
प्रचकाशे हरेर्लीला सर्वतः कृष्ण एव च ॥ ६८ ॥
आत्मानं च तदन्तःस्थं सर्वेऽपि ददृशुस्तदा ।
वज्रस्तु दक्षिणे दृष्ट्वा कृष्णपादसरोप्रुहे ॥ ६९ ॥
स्वात्मानं कृष्णवैधुर्यान् मुक्तस्तद्भुव्यशोभत ।
ताश्च तन्मातरं कृष्णे रासरात्रिप्रकाशिनि ॥ ७० ॥
चन्द्रे कलाप्रभारूपं आत्मानं वीक्ष्य विस्मिताः ।
स्वप्रेष्ठविरहव्याधिविमुक्ताः स्वपदं ययुः ॥ ७१ ॥
येऽन्ये च तत्र ते सर्वे नित्यलीलान्तरं गताः ।
व्यावहारिकलोकेभ्यः सद्योऽदर्शनमागताः ॥ ७२ ॥
गोवर्धननिकुञ्जेषु गोषु वृन्दावनादिषु ।
नित्यं कृष्णेन मोदन्ते दृश्यन्ते प्रेमतत्परैः ॥ ७३ ॥
सूत उवाच -
ये एतां भगवत्प्राप्तिं श्रुणुयाच्चापि कीर्तयेत् ।
तस्य वै भगवत् प्राप्तिः दुःखहानिश्च जायते ॥ ७४ ॥
इति श्रीस्कान्दे महापुराण् एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
परीक्षिद् उद्धवसंवादे श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
त्रयोदश स्कन्ध-तीसरा अध्याय 74
श्रीमद्भागवत की परम्परा और उसका माहात्म्य, भागवतश्रवण से श्रोताओं को भगवद्धाम की प्राप्ति
सूतजी कहते हैं—उद्धवजी ने वहाँ एकत्र हुए सब लोगों को श्रीकृष्णकीर्तन में लगा देखकर सभी का सत्कार किया और राजा परीक्षित को हृदय से लगाकर कहा ॥ १ ॥
उद्धवजी ने कहा—राजन् ! तुम धन्य हो, एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति से ही पूर्ण हो ! क्योंकि श्रीकृष्ण-सङ्कीर्तन के महोत्सव में तुम्हारा हृदय इस प्रकार निमग्र हो रहा है ॥ २ ॥ बड़े सौभाग्य की बात है कि श्रीकृष्ण की पत्नियों के प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभ पर तुम्हारा प्रेम है। तात ! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है। क्यों न हो, श्रीकृष्ण ने ही तुम्हें शरीर और वैभव प्रदान किया है; अत: तुम्हारा उनके प्रपौत्र पर प्रेम होना स्वाभाविक ही है ॥ ३ ॥ इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारकावासियों में ये लोग सब से बढक़र धन्य हैं, जिन्हें व्रज में निवास कराने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आज्ञा की थी ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण का मनरूपी चन्द्रमा राधा के मुख की प्रभारूप चाँदनी से युक्त हो उनकी लीलाभूमि वृन्दावन को अपनी किरणों से सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है ॥ ५ ॥ श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमा की भाँति उनमें वृद्धि और क्षयरूप विकार नहीं होते। उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती हैं; इससे उनके सहस्रों भेद हो जाते हैं। इन सभी कलाओं से युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमि में सदा ही विद्यमान रहते हैं; इस भूमि में और उनके स्वरूप में कुछ अन्तर नहीं है ॥ ६ ॥ राजेन्द्र परीक्षित ! इस प्रकार विचार करने पर सभी व्रजवासी भगवान के अङ्ग में स्थित हैं। शरणागतों का भय दूर करनेवाले जो ये वज्र हैं, इनका स्थान श्रीकृष्ण के दाहि ने चरण में है ॥ ७ ॥ इस अवतार में भगवान श्रीकृष्ण ने इन सब को अपनी योगमाया से अभिभूत कर लिया है, उसी के प्रभाव से ये अपने स्वरूप को भूल गये हैं और इसी कारण सदा दुखी रहते हैं। यह बात निस्सन्देह ऐसी ही है ॥ ८ ॥ श्रीकृष्ण का प्रकाश प्राप्त हुए बिना किसीको भी अपने स्वरूप का बोध नहीं हो सकता। जीवों के अन्त:करण में जो श्रीकृष्णतत्त्व का प्रकाश है, उसपर सदा माया का पर्दा पड़ा रहता है ॥ ९ ॥ अट्ठाईसवें द्वा पर के अन्त में जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही सामने प्रकट होकर अपनी माया का पर्दा उठा लेते हैं, उस समय जीवों को उनका प्रकाश प्राप्त होता है ॥ १० ॥ किन्तु अब वह समय तो बीत गया; इसलिये उनके प्रकाश की प्राप्ति के लिये अब दूसरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो ! अट्ठाईसवें द्वा पर के अतिरिक्त समय में यदि कोई श्रीकृष्णतत्त्व का प्रकाश पाना चाहे, तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त हो सकता है ॥ ११ ॥ भगवान के भक्त जहाँ जब कभी श्रीमद्भागवत शास्त्र का कीर्तन और श्रवण करते हैं, वहाँ उस समय भगवान श्रीकृष्ण साक्षात-रूप से विराजमान रहते हैं ॥ १२ ॥ जहाँ श्रीमद्भागवत के एक या आधे श्लोक का ही पाठ होता है, वहाँ भी श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा गोपियों के साथ विद्यमान रहते हैं ॥ १३ ॥ इस पवित्र भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाकर भी जिन लोगों ने पाप के अधीन होकर श्रीमद्भागवत नहीं सुना, उन्होंने मानो अपने ही हाथों अपनी हत्या कर ली ॥ १४ ॥ जिन बड़भागियों ने प्रतिदिन श्रीमद्भागवत शास्त्र का सेवन किया है, उन्होंने अपने पिता, माता और पत्नी—तीनों के ही कुल का भलीभाँति उद्धार कर दिया ॥ १५ ॥ श्रीमद्भागवत के स्वाध्याय और श्रवण से ब्राह्मणों को विद्या का प्रकाश (बोध) प्राप्त होता है, श्रत्रियलोग शत्रुओं पर विजय पाते हैं, वैश्यों को धन मिलता है और शूद्र स्वस्थ—नीरोग बने रहते हैं ॥ १६ ॥ स्त्रियों तथा अन्त्यज आदि अन्य लोगों की भी इच्छा श्रीमद्भागवत से पूर्ण होती है; अत: कौन ऐसा भाग्यवान् पुरुष है, जो श्रीमद्भागवत का नित्य ही सेवन न करेगा ॥ १७ ॥ अनेकों जन्मों तक साधना करते-करते जब मनुष्य पूर्ण सिद्ध हो जाता है, तब उसे श्रीमद्भागवत की प्राप्ति होती है । भागवत से भगवान का प्रकाश मिलता है, जिससे भगवद्भक्ति उत्पन्न होती है ॥ १८ ॥ पूर्वकाल में सांख्यायन की कृपा से श्रीमद्भागवत बृहस्पतिजी को मिला और बृहस्पतिजी ने मुझे दिया; इसीसे मैं श्रीकृष्ण का प्रियतम सखा हो स का हूँ ॥ १९ ॥ परीक्षित ! बृहस्पतिजी ने मुझे एक आख्यायि का भी सुनायी थी, उसे तुम सुनो। इस आख्यायिका से श्रीमद्भागवत-श्रवण के सम्प्रदाय का क्रम भी जाना जा सकता है ॥ २० ॥
बृहस्पतिजी ने कहा था—अपनी माया से पुरुषरूप धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने जब सृष्टि के लिये संकल्प किया, तब उनके दिव्य विग्रह से तीन पुरुष प्रकट हुए। इनमें रजोगुण की प्रधानता से ब्रह्मा, सत्त्वगुण की प्रधानता से विष्णु और तमोगुण की प्रधानता से रुद्र प्रकट हुए। भगवान ने इन तीनों को क्रमश: जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने का अधिकार प्रदान किया ॥ २१-२२ ॥ तब भगवान के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए ब्रह्माजी ने उनसे अपना मनोभाव यों प्रकट किया।
ब्रह्माजी ने कहा—परमात्मन् ! आप नार अर्थात् जल में शयन करने के कारण ‘नारायण’ नाम से प्रसिद्ध हैं, सब के आदिकारण होने से आदिपुरुष हैं; आपको नमस्कार है ॥ २३ ॥ प्रभो ! आपने मुझे सृष्टिकर्म में लगाया है, मगर मुझे भय है कि सृष्टिकाल में अत्यन्त पापात्मा रजोगुण आपकी स्मृति में कहीं बाधा न डालने लग जाय। अत: कृपा करके ऐसी कोई बात बतायें, जिससे आपकी याद बराबर बनी रहे ॥ २४ ॥
बृहस्पतिजी कहते हैं—जब ब्रह्माजी ने ऐसी प्रार्थना की, तब पूर्वकाल में भगवान ने उन्हें श्रीमद्भागवत का उपदेश देकर कहा—‘ब्रह्मन् ! तुम अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये सदा ही इसका सेवन करते रहो’ ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी श्रीमद्भागवत का उपदेश पाकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण की नित्य प्राप्ति के लिये तथा सात आवरणों का भंग करने के लिये श्रीमद्भागवत का सप्ताह- पारायण किया ॥ २६ ॥ सप्ताह-यज्ञ की विधि से सात दिनों तक श्रीमद्भागवत का सेवन करने से ब्रह्माजी के सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। इससे वे सदा भगवत्स्मरण-पूर्वक सृष्टि का विस्तार करते और बारंबार सप्ताह-यज्ञ का अनुष्ठान करते रहते हैं ॥ २७ ॥ ब्रह्माजी की ही भाँति विष्णु ने भी अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिये उन परमपुरुष परमात्मा से प्रार्थना की; क्योंकि उन पुरुषोत्तम ने विष्णु को भी प्रजा-पालनरूप कर्म में नियुक्त किया था ॥ २८ ॥
विष्णु ने कहा—देव ! मैं आपकी आज्ञा के अनुसार कर्म और ज्ञान के उद्देश्य से प्रवृत्ति और निवृत्ति के द्वारा यथोचित रूप से प्रजाओं का पालन करूँगा ॥ २९ ॥ कालक्रम से जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब अनेकों अवतार धारण कर पुन: धर्म की स्थापना करूँगा ॥ ३० ॥ जो भोगों की इच्छा रखनेवाले हैं, उन्हें अवश्य ही उनके किये हुए यज्ञादि कर्मों का फल अर्पण करूँगा; तथा जो संसारबन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, विरक्त हैं, उन्हें उनके इच्छानुसार पाँच प्रकार की मुक्ति भी देता रहूँगा ॥ ३१ ॥ परन्तु जो लोग मोक्ष भी नहीं चाहते, उनका पालन मैं कैसे करूँगा—यह बात समझ में नहीं आती। इसके अतिरिक्त मैं अपनी तथा लक्ष्मीजी की भी रक्षा कैसे कर सकूँगा, इसका उपाय भी बताइये ॥ ३२ ॥
विष्णु की यह प्रार्थना सुनकर आदिपुरुष श्रीकृष्ण ने उन्हें भी श्रीमद्भागवत का उपदेश किया और कहा—‘तुम अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये इस श्रीमद्भागवत-शास्त्र का सदा पाठ किया करो’ ॥ ३३ ॥ उस उपदेश से विष्णुभगवान का चित्त प्रसन्न हो गया और वे लक्ष्मीजी के साथ प्रत्येक मास में श्रीमद्भागवत का चिन्तन करने लगे। इससे वे परमार्थ का पालन और यथार्थरूप से संसार की रक्षा करने में समर्थ हुए ॥ ३४ ॥ जब भगवान विष्णु स्वयं वक्ता होते हैं और लक्ष्मीजी प्रेम से श्रवण करती हैं, उस समय प्रत्येक बार भागवत कथा का श्रवण एक मास में ही समाप्त होता है ॥ ३५ ॥ किन्तु जब लक्ष्मीजी स्वयं वक्ता होती हैं और विष्णु श्रोता बनकर सुनते हैं, तब भागवत कथा का रसास्वादन दो मास तक होता रहता है; उस समय कथा बड़ी सुन्दर, बहुत ही रुचिकर होती है ॥ ३६ ॥ इसका कारण यह है कि विष्णु तो अधिकारारूढ हैं, उन्हें जगत के पालन की चिन्ता करनी पड़ती है; पर लक्ष्मीजी इन झंझटों से अलग हैं, अत: उनका हृदय निश्चिन्त है। इसीसे लक्ष्मीजी के मुख से भागवत कथा का रसास्वादन अधिक प्रकाशित होता है। इसके पश्चात रुद्र ने भी, जिन्हें भगवान ने पहले संहारकार्य में लगाया था, अपनी सामथ्र्य की वृद्धि के लिये उन परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की ॥ ३७-३८ ॥
रुद्र ने कहा—मेरे प्रभु देवदेव ! मुझ में नित्य, नैमित्तिक और प्राकृत संहार की शक्तियाँ तो हैं, पर आत्यन्तिक संहार की शक्ति बिल्कुल नहीं है। यह मेरे लिये बड़े दु:ख की बात है। इसी कमी की पूर्ति के लिये मैं आप से प्रार्थना करता हूँ ॥ ३९-४० ॥
बृहस्पतिजी कहते हैं—रुद्र की प्रार्थना सुनकर नारायण ने उन्हें भी श्रीमद्भागवत का ही उपदेश किया। सदाशिव रुद्र ने एक वर्ष में एक पारायण के क्रम से भागवत कथा का सेवन किया। इसके सेवन से उन्होंने तमोगुण पर विजय पायी और आत्यन्तिक संहार (मोक्ष) की शक्ति भी प्राप्त कर ली ॥ ४१-४२ ॥
उद्धवजी कहते हैं—श्रीमद्भागवत के माहात्म्य के सम्बन्ध में यह आख्यायि का मैंने अपने गुरु श्रीबृहस्पतिजी से सुनी और उनसे भागवत का उपदेश प्राप्त कर उनके चरणों में प्रणाम करके मैं बहुत ही आनन्दित हुआ ॥ ४३ ॥ तत्पश्चात भगवान विष्णु की रीति स्वीकार करके मैंने भी एक मास तक श्रीमद्भागवत कथा का भलीभाँति रसास्वादन किया ॥ ४४ ॥ उतने से ही मैं भगवान श्रीकृष्ण का प्रियतम सखा हो गया। इसके पश्चात भगवान ने मुझे व्रज में अपनी प्रियतमा गोपियों की सेवा में नियुक्त किया ॥ ४५ ॥ यद्यपि भगवान अपने लीलापरिकरों के साथ नित्य विहार करते रहते हैं, इसलिये गोपियों का श्रीकृष्ण से कभी भी वियोग नहीं होता; तथापि जो भ्रम से विरहवेदना का अनुभव कर रही थीं, उन गोपियों के प्रति भगवान ने मेरे मुख से भागवत का सन्देश कहलाया ॥ ४६ ॥ उस सन्देश को अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर गोपियाँ तुरन्त ही विरहवेदना से मुक्त हो गयीं। मैं भागवत के इस रहस्य को तो नहीं समझ सका, किन्तु मैंने उसका चमत्कार प्रत्यक्ष देखा ॥ ४७ ॥ इसके बहुत समय के बाद जब ब्रह्मादि देवता आकर भगवान से अपने परमधाम में पधार ने की प्रार्थना करके चले गये, उस समय पीपल के वृक्ष की जडक़े पास अपने सामने खड़े हुए मुझे भगवान ने श्रीमद्भागवत-विषयक उस रहस्य का स्वयं ही उपदेश किया और मेरी बुद्धि में उसका दृढ़ निश्चय करा दिया। उसी के प्रभाव से मैं बदरिकाश्रम में रहकर भी यहाँ व्रज की लताओं और बेलों में निवास करता हूँ ॥ ४८-४९ ॥ उसी के बल से यहाँ नारदकुण्ड पर सदा स्वेच्छानुसार विराजमान रहता हूँ। भगवान के भक्तों को श्रीमद्भागवत के सेवन से श्रीकृष्ण-तत्त्व का प्रकाश प्राप्त हो सकता है ॥ ५० ॥ इस कारण यहाँ उपस्थित हुए इन सभी भक्तजनों के कार्य की सिद्धि के लिये मैं श्रीमद्भागवत का पाठ करूँगा; किन्तु इस कार्य में तुम्हें ही सहायता करनी पड़ेगी ॥ ५१ ॥
सूतजी कहते हैं—यह सुनकर राजा परीक्षित उद्धवजी को प्रणाम करके उनसे बोले।
परीक्षित ने कहा—हरिदास उद्धवजी ! आप निश्चिन्त होकर श्रीमद्भागवत- कथा का कीर्तन करें ॥ ५२ ॥ इस कार्य में मुझे जिस प्रकार की सहायता करनी आवश्यक हो, उसके लिये आज्ञा दें।
सूतजी कहते हैं—परीक्षित का यह वचन सुनकर उद्धवजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और बोले ॥ ५३ ॥
उद्धवजी ने कहा—राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण ने जबसे इस पृथ्वीतल का परित्याग कर दिया है तबसे यहाँ अत्यन्त बलवान् कलियुग का प्रभुत्व हो गया है। जिस समय यह शुभ अनुष्ठान यहाँ आरम्भ हो जायगा, बलवान् कलियुग अवश्य ही इसमें बहुत बड़ा विघ्र डालेगा ॥ ५४ ॥ इसलिये तुम दिग्विजय के लिये जाओ और कलियुग को जीतकर अपने वश में करो। इधर मैं तुम्हारी सहायता से वैष्णवी रीति का सहारा लेकर एक महीने तक यहाँ श्रीमद्भागवत कथा का रसास्वादन कराऊँगा और इस प्रकार भागवत कथा के रस का प्रसार करके इन सभी श्रोताओं को भगवान मधुसूदन के नित्य गोलोकधाम में पहुँचाऊँगा ॥ ५५-५६ ॥
सूतजी कहते हैं—उद्धवजी की बात सुनकर राजा परीक्षित पहले तो कलियुग पर विजय पाने के विचार से बड़े ही प्रसन्न हुए; परन्तु पीछे यह सोचकर कि मुझे भागवत कथा के श्रवण से वञ्चित रहना ही पड़ेगा, चिन्ता से व्याकुल हो उठे। उस समय उन्होंने उद्धवजी से अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया ॥ ५७ ॥
राजा परीक्षित ने कहा—हे तात ! आपकी आज्ञा के अनुसार तत्पर होकर मैं कलियुग को तो अवश्य ही अपने वश में करूँगा, मगर श्रीमद्भागवत की प्राप्ति मुझे कैसे होगी ॥ ५८ ॥ मैं भी आपके चरणों की शरण में आया हूँ, अत: मुझ पर भी आपको अनुग्रह करना चाहिये।
सूतजी कहते हैं—उनके इस वचन को सुनकर उद्धवजी पुन: बोले ॥ ५९ ॥
उद्धवजी ने कहा—राजन् ! तुम्हें तो किसी भी बात के लिये किसी प्रकार भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इस भागवत-शास्त्र के प्रधान अधिकारी तो तुम्हीं हो ॥ ६० ॥ संसार के मनुष्य नाना प्रकार के कर्मों में रचे-पचे हुए हैं, ये लोग आज तक प्राय: भागवत-श्रवण की बात भी नहीं जानते ॥ ६१ ॥ तुम्हारे ही प्रसाद से इस भारतवर्ष में रहनेवाले अधिकांश मनुष्य श्रीमद्भागवत कथा की प्राप्ति होने पर शाश्वत सुख प्राप्त करेंगे ॥ ६२ ॥ महर्षि भगवान श्रीशुकदेवजी साक्षात नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के स्वरूप हैं, वे ही तुम्हें श्रीमद्भागवत की कथा सुनायेंगे; इसमें तनिक भी सन्देह की बात नहीं है ॥ ६३ ॥ राजन् ! उस कथा के श्रवण से तुम व्रजेश्वर श्रीकृष्ण के नित्यधाम को प्राप्त करोगे। इसके पश्चात इस पृथ्वी पर श्रीमद्भागवत कथा का प्रचार होगा ॥ ६४ ॥ अत: राजेन्द्र परीक्षित ! तुम जाओ और कलियुग को जीतकर अपने वश में करो।
सूतजी कहते हैं—उद्धवजी के इस प्रकार कहने पर राजा परीक्षित ने उनकी परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया और दिग्विजय के लिये चले गये ॥ ६५ ॥ इधर वज्र ने भी अपने पुत्र प्रतिबाहु को अपनी राजधानी मथुरा का राजा बना दिया और माताओं को साथ लेकर उसी स्थान पर, जहाँ उद्धवजी प्रकट हुए थे, जाकर श्रीमद्भागवत सुनने की इच्छा से रहने लगे ॥ ६६ ॥ तदनन्तर उद्धवजी ने वृन्दावन में गोवर्धनपर्वत के निकट एक महीने तक श्रीमद्भागवत कथा के रस की धारा बहायी ॥ ६७ ॥ उस रस का आस्वादन करते समय प्रेमी श्रोताओं की दृष्टि में सब ओर भगवान की सच्चिदानन्दमयी लीला प्रकाशित हो गयी और सर्वत्र श्रीकृष्णचन्द्र का साक्षातकार होने लगा ॥ ६८ ॥ उस समय सभी श्रोताओं ने अपने- को भगवान के स्वरूप में स्थित देखा। वज्रनाभ ने श्रीकृष्ण के दाहि ने चरणकमल में अपने को स्थित देखा और श्रीकृष्ण के विरहशोक से मुक्त होकर उस स्थान पर अत्यन्त सुशोभित होने लगे। वज्रनाभ की वे रोहिणी आदि माताएँ भी रास की रजनी में प्रकाशित होनेवाले श्रीकृष्णरूपी चन्द्रमा के विग्रहमें अपने को कला और प्रभा के रूप में स्थित देख बहुत ही विस्मित हुर्ईं तथा अपने प्राणप्यारे की विरहवेदना से छुटकारा पाकर उनके परमधाम में प्रविष्ट हो गयीं ॥ ६९—७१ ॥ इनके अतिरिक्त भी जो श्रोतागण वहाँ उपस्थित थे, वे भी भगवान की नित्य अन्तरङ्गलीला में सम्मिलित होकर इस स्थूल व्यावहारिक जगत से तत्काल अन्तर्धान हो गये ॥ ७२ ॥ वे सभी सदा ही गोवर्धन-पर्वत के कुञ्ज और झाडिय़ों में, वृन्दावन-काम्यवन आदि वनों में तथा वहाँ की दिव्य गौओं के बीच में श्रीकृष्ण के साथ विचरते हुए अनन्त आनन्द का अनुभव करते रहते हैं। जो लोग श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्र हैं, उन भावुक भक्तों को उनके दर्शन भी होते हैं ॥ ७३ ॥
सूतजी कहते हैं—जो लोग इस भगवत्प्राप्ति की कथा को सुनेंगे और कहेंगे, उन्हें भगवान मिल जायँगे और उनके दु:खों का सदा के लिये अन्त हो जायगा ॥ ७४ ॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
श्रीमद् भागवतस्य वक्तृश्रोतॄणां लक्षणानि, भागवतश्रवणस्य फलं विधिश्च -
ऋषयः ऊचुः -
साधु सूत चिरं जीव चिरमेवं प्रशाधि नः ।
श्रीभागवमाहात्म्यं अपूर्वं त्वन् मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥
तत्स्वरूपं प्रमाणं च विधिं च श्रवणे वद ।
तद्वक्तुर्लक्षणं सूत श्रोतुश्चापि वदाधुना ॥ २ ॥
सूत उवाच -
श्रीमद् भागवतस्याथ श्रीमद्भगवतः सदा ।
स्वरूपमेकमेवास्ति सच्चिदानन्दलक्षणम् ॥ ३ ॥
श्रीकृष्णासक्तभक्तानां तन्माधुर्यप्रकाशकम् ।
समुज्जृम्भति यद्वाक्यं विद्धि भागवतं हि तत् ॥ ४ ॥
ज्ञानविज्ञान भक्त्यङ्ग चतुष्टयपरं वचः ।
मायामर्दनदक्षं च विद्धि भागवतं च तत् ॥ ५ ॥
प्रमाणं तस्य को वेद ह्यनन्तस्याक्षरात्मनः ।
ब्रह्मणे हरिणा तद्दिक् चतुःश्लोक्या प्रदर्शिता ॥ ६ ॥
तदानन्त्यावगाहेन स्वेप्सितावहनक्षमाः ।
ते एव सन्ति भो विप्रा ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ७ ॥
मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां हिताय च ।
परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन कीर्तितः ॥ ८ ॥
ग्रन्तोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ भागवताभिधः ।
कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः ॥ ९ ॥
श्रोतारोऽथ निरूप्यन्ते श्रीमद् विष्णुकथाश्रयाः ।
प्रवरा अवराश्चेति श्रोतारो द्विविधा पताः ॥ १० ॥
प्रवराश्चातको हंसः शुको मीनादयस्तथा ।
अवरा वृकभूरुण्डवृषोष्ट्राद्याः प्रकीर्तिताः ॥ ११ ॥
अखिलोपेक्षया यस्तु कृष्णशास्त्रश्रुतौ व्रती ।
सः चातको यथाम्भोदमुक्ते पाथसि चातकः ॥ १२ ॥
हंसः स्यात् सारमादत्ते यः श्रोता विविधाच्छ्रुतात् ।
दुग्धेनैक्यं गतात्तोयाद् यथा हंसोऽमलं पयः ॥ १३ ॥
शुकः सुष्ठु मितं वक्ति व्यासम् श्रोतॄंश्च हर्षयन् ।
सुपाठितः शुको यद्वत् शिक्षकं पार्श्वगानपि ॥ १४ ॥
शब्दं नानिमिषो जातु करोत्यास्वादयन् रसम् ।
श्रोता स्निग्धो भवेन्मीनो मीनः क्षीरनिधौ यथा ॥ १५ ॥
यस्तुदन् रसिकान् श्रोतॄन् व्रौत्यज्ञो वृको हि सः ।
वेणुस्वनरसासक्तान् वृकोऽरण्ये मृगान् हथा ॥ १६ ॥
भूरुण्डः शिक्षयेदन्यात् श्रुत्वा न स्वयमाचरेत् ।
यथा हिमवतः श्रृंगे भूरुण्डाखो विहंगमः ॥ १७ ॥
सर्वं श्रुतमुपादत्ते सारासारान्धधीर्वृषः ।
स्वादुद्राक्षां खलिं चापि निर्विशेषं यथा वृषः ॥ १८ ॥
स उष्ट्रो मधुरं मुञ्चन् विपरीते रमेत यः ।
यथा निम्बं चरत्युष्ट्रो हित्वाम्रमपि तद्युतम् ॥ १९ ॥
अन्येऽपि बहवो भेदा द्वयोर्भृङ्गखरादयः ।
विज्ञेयास्तत्तदाचारैः तत्तत्प्रकृतिसम्भवैः ॥ २० ॥
यः स्थित्वाभिमुखं प्रणम्य विधिवत्
त्यक्तान्यवादो हरेः ।
लीलाः श्रोतुमभीप्सतेऽतिनिपुणो
नम्रोऽथ कॢपाञ्जलिः ।
शिष्यो विश्वसितोऽनुचिन्तनपरः
प्रश्नेऽनुरक्तः शुचिः ।
नित्यं कृष्णजनप्रियो निगदितः
श्रोता स वै वक्तृभिः ॥ २१ ॥
भावगन्मतिरनपेक्षः सुहृदो दीनेषु स्मानुकम्पो यः ।
बहुधा बोधनचतुरो वक्ता सम्मानितो मुनिभिः ॥ २२ ॥
अथ भारतभृस्थाने श्रीभागवतसेवने ।
विधिं श्रृणुत भो विप्रा येन स्यात् सुखसन्ततिः ॥ २३ ॥
राजसं सत्त्विकं चापि तामसं निर्गुणं तथा ।
चतुर्विधं तु विज्ञेयं श्रीभागवतसेवनम् ॥ २४ ॥
सप्ताहं यज्ञवद् यत्तु सश्रमं सत्वरं मुदा ।
सेवितं राजसं तत्तु बहुपूजादिशोभनम् ॥ २५ ॥
मासेन ऋतुना वापि श्रवणं स्वादसंयुतम् ।
सात्त्विकं यदनायासं समस्तानन्दवर्धनम् ॥ २६ ॥
तामसं यत्तु वर्षेण सालसं श्रद्धया युतम् ।
विस्मृतिस्मृतिसंयुक्तं सेवनं तच्च सौख्यदम् ॥ २७ ॥
वर्षमासदिनानां तु विमुच्य नियमाग्रहम् ।
सर्वदा प्रेमभक्त्यैव सेवनं निर्गुणं मतम् ॥ २८ ॥
पारीक्षितेऽपि संवादे निर्गुणं तत् प्रकीर्तितम् ।
तत्र सप्तदिनाख्यानं तदायुर्दिनसंखय्या ॥ २९ ॥
अन्यत्र त्रिगुणं चापि निर्गुणं च यथेच्छया
यथा कथञ्चित् कर्तव्यं सेवनं भगवच्छ्रुतेः ॥ ३० ॥
ये श्रीकृष्णविहारैक भजनास्वादलोलुपाः ।
मुक्तावपि निराकाङ्क्षाः तेषां भागवतं धनम् ॥ ३१ ॥
येऽपि संसारसन्तापनिर्विण्णा मोक्षकाङ्क्षिणः ।
तेषां भवौषधं चैतत् कलौ सेव्यं प्रयत्नतः ॥ ३२ ॥
ये चापि विषयारामाः सांसारिकसुखस्पृहाः ।
तेषां तु कर्म मार्गेण या सिद्धिः साधुना कलौ ॥ ३३ ॥
सामर्थ्यधनविज्ञानाभावादत्यन्तदुर्लभा ।
तस्मात्तैरपि संसेव्या श्रीमद्भागवती कथा ॥ ३४ ॥
धनं पुत्रांस्तथा दारान् वाहनादि यशो गृहान् ।
असापत्न्यं च राज्यं च दद्यात् भागवती कथा ॥ ३५ ॥
इह लोके वरान् भुक्त्वा भोगान् वै मनसेप्सितान् ।
श्रीभागवतसंगेन यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३६ ॥
यत्र भागवती वार्ता ये च तच्छ्रवणे रताः ।
तेषां संसेवनं कुर्याद् देहेन च धनेन च ॥ ३७ ॥
तदनुग्रहतोऽस्यापि श्रीभागवतसेवनम् ।
श्रीकृष्णव्यतिरिक्तं यत्तत् सर्वं धनसंज्ञितम् ॥ ३८ ॥
कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता वक्ता द्विधा मतः ।
यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं विवर्धते ॥ ३९ ॥
उभयोर्वैपरीत्ये तु रसाभासे फलच्युतिः ।
किन्तु कृष्णार्थिनां सिद्धिः विलम्बेनापि जायते ॥ ४० ॥
धनार्थिनस्तु संसिद्धिः विधिसंपूर्णतावशात् ।
कृष्णार्थिनोऽगुणस्यापि प्रेमैव विधिरुत्तमः ॥ ४१ ॥
आसमाप्ति सकामेन कर्त्तव्यो हि विधिः स्वयम् ।
स्नातो नित्यक्रियां कृत्वा प्राश्य पादोदकं हरेः ॥ ४२ ॥
पुस्तकं च गुरुं चैव पूजयित्वोपचारतः ।
ब्रूयाद् वा श्रृणुयाद् वापि श्रीमद्भागवतं मुदा ॥ ४३ ॥
पयसा वा हविषेण मौनं भोजमाचरेत् ।
ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिं क्रोधलोभादिवर्जनम् ॥ ४४ ॥
कथान्ते कीर्तनं नित्यं समाप्तौ जागरं चरेत् ।
ब्रह्मणान् भोजयित्वा तु दक्षिणाभिः प्रतोषयेत् ॥ ४५ ॥
गुरवे वस्त्रभूषादि दत्त्वा गां च समर्पयेत् ।
एवं कृते विधाने तु लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ४६ ॥
दारागारसुतान् राज्यं धनादि च यदीप्सितम् ।
परंतु शोभते नात्र सकामत्वं विडम्बनम् ॥ ४७ ॥
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम् ।
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ॥ ४८ ॥
इति श्रीस्कान्दे महापुराण् एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये भागवत श्रोतृवक्तृ लक्षणविधिनिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
त्रयोदाश स्कन्ध-चौथा अध्याय 48
श्रीमद्भागवत का स्वरूप, प्रमाण, श्रोता-वक्ता के लक्षण, श्रवणविधि और माहात्म्य
शौनकादि ऋषियों ने कहा—सूतजी ! आपने हमलोगों को बहुत अच्छी बात बतायी। आपकी आयु बढ़े, आप चिरजीवी हों और चिरकाल तक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें। आज हमलोगोंने आपके मुख से श्रीमद्भागवत का अपूर्व माहात्म्य सुना है ॥ १ ॥ सूतजी ! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवत का स्वरूप क्या है ? उसका प्रमाण—उसकी श्लोक-संख्या कितनी है ? किस विधि से उसका श्रवण करना चाहिये ? तथा श्रीमद्भागवत के वक्ता और श्रोता के क्या लक्षण हैं ? अभिप्राय यह कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये ॥ २ ॥
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण ! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान का स्वरूप सदा एक ही है और वह है सच्चिदानन्दमय ॥ ३ ॥ भगवान श्रीकृष्ण में जिनकी लगन लगी है, उन भावुक भक्तों के हृदय में जो भगवान के माधुर्य भाव को अभिव्यक्त करनेवाला, उनके दिव्य माधुर्यरस का आस्वादन करानेवाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो ॥ ४ ॥ जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अङ्गभूत साधन-चतुष्टय को प्रकाशित करनेवाला है तथा जो माया का मर्दन करने में समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो ॥ ५ ॥ श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षर स्वरूप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है ? पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी के प्रति चार श्लोकों में इसका दिग्दर्शन- मात्र कराया था ॥ ६ ॥ विप्रगण ! इस भागवत की अपार गहराई में डुबकी लगाकर इसमें से अपनी अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने में केवल ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं ॥ ७ ॥ परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ परिमित हैं, ऐसे मनुष्यों का हितसाधन करने के लिये श्रीव्यासजी ने परीक्षित और शुकदेवजी के संवाद के रूप में जिसका गान किया है, उसी का नाम श्रीमद्भागवत है। उस ग्रन्थ की श्लोक संख्या अठारह हजार है। इस भवसागर में जो प्राणी कलिरूपी ग्राह से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है ॥ ८-९ ॥
अब भगवान श्रीकृष्ण की कथा का आश्रय लेनेवाले श्रोताओं का वर्णन करते हैं। श्रोता दो प्रकार के माने गये हैं—प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम) ॥ १० ॥ प्रवर श्रोताओं के ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवर के भी ‘वृक’, भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं ॥ ११ ॥ ‘चातक’ कहते हैं पपीहे को। वह जैसे बादल से बरसते हुए जल में ही स्पृहा रखता है, दूसरे जल को छूता ही नहीं—उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोडक़र केवल श्रीकृष्णसम्बन्धी शास्त्रों के श्रवण का व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है ॥ १२ ॥ जैसे हंस दूध के साथ मिलकर एक हुए जल से निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानी को छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रों का श्रवण करके भी उसमें से सारभाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं ॥ १३ ॥ जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणी से शिक्षक को तथा पास आनेवाले दूसरे लोगों को भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथा- वाचक व्यासके मुँह से उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणी में पुन: सुना देता और व्यास एवं अन्यान्य श्रोताओं को अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है ॥ १४ ॥ जैसे क्षीरसागर में मछली मौन रहकर अपलक आँखों से देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती है, उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निॢनमेष नयनों से देखता हुआ मुँह से कभी एक शब्द भी नहीं निकालता और निरन्तर कथारस का ही आस्वादन करता रहता है, वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा गया है ॥ १५ ॥ (ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओं के भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते हैं भेडिय़े को। जैसे भेडिय़ा वन के भीतर वेणु की मीठी आवाज सुनने में लगे हुए मृगों को डरानेवाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मूर्ख कथाश्रवण के समय रसिक श्रोताओं को उद्विग्र करता हुआ बीच-बीच में जोर-जोर से बोल उठता है, वह ‘वृक’ कहलाता है ॥ १६ ॥ हिमालय के शिखर पर एक भूरुण्ड जाति का पक्षी होता है। वह किसी के शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा ही बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेश की बात सुनकर उसे दूसरों को तो सिखाये पर स्वयं आचरण में न लाये, ऐसे श्रोता को ‘भूरुण्ड’ कहते हैं ॥ १७ ॥ ‘वृष’ कहते हैं बैल को। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनों को वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तु का विचार करने में उसकी बुद्धि अंधी— असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है ॥ १८ ॥ जिस प्रकार ऊँट माधुर्यगुण से युक्त आम को भी छोडक़र केवल नीम की ही पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान की मधुर कथा को छोडक़र उसके विपरीत संसारी बातों में रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं ॥ १९ ॥ ये कुछ थोड़े- से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकार के श्रोताओं के ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुत से भेद हैं, इन सब भेदों को उन-उन श्रोताओं के स्वाभाविक आचार-व्यवहारों से परखना चाहिये ॥ २० ॥ जो वक्ता के सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातों को छोडक़र केवल श्रीभगवान की लीला- कथाओं को ही सुनने की इच्छा रखे, समझ ने में अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्यभाव से उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवाय, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे—जो बात समझ में न आये, पूछे और पवित्र भाव से रहे तथा श्रीकृष्ण के भक्तों पर सदा ही प्रेम रखता हो—ऐसे ही श्रोता को वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं ॥ २१ ॥ अब वक्ता के लक्षण बतलाते हैं—जिसका मन सदा भगवान में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तु की अपेक्षा न हो, जो सब का सुहृद् और दीनों पर दया करनेवाला हो तथा अनेकों युक्तियों से तत्त्व का बोध करा दे ने में चतुर हो, उसी वक्ता का मुनिलोग भी सम्मान करते हैं ॥ २२ ॥
विप्रगण ! अब मैं भारतवर्ष की भूमि पर श्रीमद्भागवत कथा का सेवन करने के लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुनें। इस विधि के पालन से श्रोता की सुख-परम्परा का विस्तार होता है ॥ २३ ॥ श्रीमद्भागवत का सेवन चार प्रकार का है—सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण ॥ २४ ॥ जिसमें यज्ञ की भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियों के कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रम से बहुत उतावली के साथ सात दिनों में ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवत का सेवन ‘राजस’ है ॥ २५ ॥ एक या दो महीने में धीरे-धीरे कथा के रस का आस्वादन करते हुए बिना परिश्रम के जो श्रवण होता है, वह पूर्ण आनन्द को बढ़ानेवाला ‘सात्त्विक’ सेवन कहलाता है ॥ २६ ॥ तामस सेवन वह है जो कभी भूल से छोड़ दिया जाय और याद आने पर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्ष तक आलस्य और अश्रद्धा के साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करने की अपेक्षा अच्छा और सुख ही देनेवाला है ॥ २७ ॥ जब वर्ष, महीना और दिनों के नियम का आग्रह छोडक़र सदा ही प्रेम और भक्ति के साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है ॥ २८ ॥ राजा परीक्षित और शुकदेव के संवाद में भी जो भागवत का सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनों की बात आती है, वह राजा की आयु के बचे हुए दिनों की संख्या के अनुसार है, सप्ताह- कथा का नियम करने के लिये नहीं ॥ २९ ॥
भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य स्थानों में भी त्रिगुण (सात्त्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण- सेवन अपनी रुचि के अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवत का सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये ॥ ३० ॥ जो केवल श्रीकृष्ण की लीलाओं के ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादन के लिये लालायित रहते और मोक्ष की भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है ॥ ३१ ॥ तथा जो संसार के दु:खों से घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोग की ओषधि है। अत: इस कलिकाल में इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये ॥ ३२ ॥ इनके अतिरिक्त जो लोग विषयों में ही रमण करनेवाले हैं, सांसारिक सुखों की ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुग में सामथ्र्य, धन और विधि-विधान का ज्ञान न होने के कारण कर्ममार्ग (यज्ञादि) से मिलनेवाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है। ऐसी दशा में उन्हें भी सब प्रकार से अब इस भागवत कथा का ही सेवन करना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ यह श्रीमद्भागवत- की कथा धन, पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य भी दे सकती है ॥ ३५ ॥ सकाम भाव से भागवत का सहारा लेनेवाले मनुष्य इस संसार में मनोवाञ्छित उत्तम भोगों को भोगकर अन्त में श्रीमद्भागवत के ही सङ्ग से श्रीहरि के परमधाम को प्राप्त हो जाते हैं ॥ ३६ ॥
जिनके यहाँ श्रीमद्भागवत की कथा-वार्ता होती हो तथा जो लोग उस कथा के श्रवण में लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धन से करनी चाहिये ॥ ३७ ॥ उन्हींके अनुग्रह से सहायता करनेवाले पुरुष को भी भागवत सेवन का पुण्य प्राप्त होता है। कामना दो वस्तुओं की होती है—श्रीकृष्ण की और धन की। श्रीकृष्ण के सिवा जो कुछ भी चाहा जाय, यह सब धन के अन्तर्गत है; उसकी ‘धन’ संज्ञा है ॥ ३८ ॥ श्रोता और वक्ता भी दो प्रकार के माने गये हैं, एक श्रीकृष्ण को चाहनेवाले और दूसरे धन को। जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथा में रस मिलता है, अत: सुख की वृद्धि होती है ॥ ३९ ॥ यदि दोनों विपरीत विचार के हों तो रसाभास हो जाता है, अत: फल की हानि होती है। किन्तु जो श्रीकृष्ण को चाहनेवाले वक्ता और श्रोता हैं, उन्हें विलम्ब होने पर भी सिद्धि अवश्य मिलती है ॥ ४० ॥ पर धनार्थी को तो तभी सिद्धि मिलती है, जब उनके अनुष्ठान का विधि- विधान पूरा उतर जाय। श्रीकृष्ण की चाह रखनेवाला सर्वथा गुणहीन हो और उसकी विधि में कुछ कमी रह जाय तो भी, यदि उसके हृदय में प्रेम है तो, वही उसके लिये सर्वोत्तम विधि है ॥ ४१ ॥ सकाम पुरुष को कथा की समाप्ति के दिन तक स्वयं सावधानी के साथ सभी विधियों का पालन करना चाहिये। (भागवत कथा के श्रोता और वक्ता दोनों के ही पालन करनेयोग्य विधि यह है—) प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके अपना नित्यकर्म पूरा कर ले। फिर भगवान का चरणामृत पीकर पूजा के सामान से श्रीमद्भागवत की पुस्तक और गुरुदेव (व्यास) का पूजन करे। इसके पश्चात अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक श्रीमद्भागवत की कथा स्वयं कहे अथवा सुने ॥ ४२-४३ ॥ दूध या खीर का मौन भोजन करे। नित्य ब्रह्मचर्य का पालन और भूमि पर शयन करे, क्रोध और लोभ आदि को त्याग दे ॥ ४४ ॥ प्रतिदिन कथा के अन्त में कीर्तन करे और कथा समाप्ति के दिन रात्रि में जागरण करे। समाप्ति होने पर ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा से सन्तुष्ट करे ॥ ४५ ॥ कथा-वाचक गुरु को वस्त्र, आभूषण आदि देकर गौ भी अर्पण करे। इस प्रकार विधि-विधान पूर्ण करने पर मनुष्य को स्त्री, घर, पुत्र, राज्य और धन आदि जो-जो उसे अभीष्ट होता है, वह सब मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है। परन्तु सकामभाव बहुत बड़ी विडम्बना है, वह श्रीमद्भागवत की कथा में शोभा नहीं देता ॥ ४६-४७ ॥ श्रीशुकदेवजी के मुख से कहा हुआ यह श्रीमद्भागवत-शास्त्र तो कलियुग में साक्षात श्रीकृष्ण की प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है ॥ ४८ ॥
समाप्त
॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥
त्रयोदश स्कन्ध-आरती
॥ श्रीहरि: ॥
श्रीमद्भागवत की आरती
आरति अतिपावन पुरान की ॥ आ…
धर्म-भक्ति-विज्ञान-खान की ॥ आ…
महापुरान भागवत निरमल ॥ आ
शुक-मुख-विगलित निगम-कल्प-फल ॥ आ…
परमानन्द-सुधा-रसमय कल ॥ आ…
लीला-रति-रस रस-निधान की ॥ आ…
कलि-मल-मथनि त्रिताप-निवारिनि ॥ आ…
जन्म-मृत्युमय भव-भय-हारिनि ॥ आ…
सेवत सतत सकल सुखकारिनि ॥ आ…
सुमहौषधि हरि-चरित-गान की ॥ आ…
विषय-विलास-विमोह-विनाशिनि ॥ आ…
विमल विराग विवेक विकाशिनि ॥ आ…
भगवत्तत्त्व-रहस्य प्रकाशिनि ॥ आ…
परम ज्योति परमात्म-ज्ञान की ॥ आ…
परमहंस-मुनि-मन उल्लासिनि ॥ आ…
रसिक-हृदय रस-रास-विलासिनि ॥ आ…
भुक्ति, मुक्ति, रतिप्रेम सुदासिनि ॥ आ…
कथा अकिञ्चनप्रिय सुजान की ॥ आ…