स्कन्ध-12 [अध्याय-01]

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ द्वादशस्कन्धः ॥ 

॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
राजोवाच
स्वधामानुगते कृष्णे यदुवंशविभूषणे ।
कस्य वंशोऽभवत्पृथ्व्यामेतदाचक्ष्व मे मुने ॥ १॥

श्रीशुक उवाच
योऽन्त्यः पुरञ्जयो नाम भाव्यो बार्हद्रथो नृप ।
तस्यामात्यस्तु शुनको हत्वा स्वामिनमात्मजम् ॥ २॥

प्रद्योतसंज्ञं राजानं कर्ता यत्पालकः सुतः ।
विशाखयूपस्तत्पुत्रो भविता राजकस्ततः ॥ ३॥

नन्दिवर्धनस्तत्पुत्रः पञ्च प्रद्योतना इमे ।
अष्टात्रिंशोत्तरशतं भोक्ष्यन्ति पृथिवीं नृपाः ॥ ४॥

शिशुनागस्ततो भाव्यः काकवर्णस्तु तत्सुतः ।
क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः ॥ ५॥

विधिसारः सुतस्तस्याजातशत्रुर्भविष्यति ।
दर्भकस्तत्सुतो भावी दर्भकस्याजयः स्मृतः ॥ ६॥

नन्दिवर्धन आजेयो महानन्दिः सुतस्ततः ।
शिशुनागा दशैवैते षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ॥ ७॥

समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपाः ।
महानन्दिसुतो राजन् शूद्रीगर्भोद्भवो बली ॥ ८॥

महापद्मपतिः कश्चिन्नन्दः क्षत्रविनाशकृत् ।
ततो नृपा भविष्यन्ति शूद्रप्रायास्त्वधार्मिकाः ॥ ९॥

स एकच्छत्रां पृथिवीमनुल्लङ्घितशासनः ।
शासिष्यति महापद्मो द्वितीय इव भार्गवः ॥ १०॥

तस्य चाष्टौ भविष्यन्ति सुमाल्यप्रमुखाः सुताः ।
य इमां भोक्ष्यन्ति महीं राजानः स्म शतं समाः ॥ ११॥

नवनन्दान् द्विजः कश्चित्प्रपन्नानुद्धरिष्यति ।
तेषामभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यन्ति वै कलौ ॥ १२॥

स एव चन्द्रगुप्तं वै द्विजो राज्येऽभिषेक्ष्यति ।
तत्सुतो वारिसारस्तु ततश्चाशोकवर्धनः ॥ १३॥

सुयशा भविता तस्य सङ्गतः सुयशः सुतः ।
शालिशूकस्ततस्तस्य सोमशर्मा भविष्यति ॥ १४॥

शतधन्वा ततस्तस्य भविता तद्बृहद्रथः ।
मौर्या ह्येते दश नृपाः सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम् ॥ १५॥

समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कलौ कुरुकुलोद्वह
हत्वा बृहद्रथं मौर्यं तस्य सेनापतिः कलौ ।
पुष्यमित्रस्तु शुङ्गाह्वः स्वयं राज्यं करिष्यति
अग्निमित्रस्ततस्तस्मात्सुज्येष्ठोऽथ भविष्यति ॥ १६॥

वसुमित्रो भद्रकश्च पुलिन्दो भविता ततः ।
ततो घोषः सुतस्तस्माद्वज्रमित्रो भविष्यति ॥ १७॥

ततो भागवतस्तस्माद्देवभूतिरिति श्रुतः ।
शुङ्गा दशैते भोक्ष्यन्ति भूमिं वर्षशताधिकम् ॥ १८॥

ततः कण्वानियं भूमिर्यास्यत्यल्पगुणान् नृप ।
शुङ्गं हत्वा देवभूतिं कण्वोऽमात्यस्तु कामिनम् ॥ १९॥

स्वयं करिष्यते राज्यं वसुदेवो महामतिः ।
तस्य पुत्रस्तु भूमित्रस्तस्य नारायणः सुतः ।
नारायणस्य भविता सुशर्मा नाम विश्रुतः ॥ २०॥

काण्वायना इमे भूमिं चत्वारिंशच्च पञ्च च ।
शतानि त्रीणि भोक्ष्यन्ति वर्षाणां च कलौ युगे ॥ २१॥

हत्वा काण्वं सुशर्माणं तद्भृत्यो वृषलो बली ।
गां भोक्ष्यत्यन्ध्रजातीयः कञ्चित्कालमसत्तमः ॥ २२॥

कृष्णनामाथ तद्भ्राता भविता पृथिवीपतिः ।
श्रीशान्तकर्णस्तत्पुत्रः पौर्णमासस्तु तत्सुतः ॥ २३॥

लम्बोदरस्तु तत्पुत्रस्तस्माच्चिबिलको नृपः ।
मेघस्वातिश्चिबिलकादटमानस्तु तस्य च ॥ २४॥

अनिष्टकर्मा हालेयस्तलकस्तस्य चात्मजः ।
पुरीषभीरुस्तत्पुत्रस्ततो राजा सुनन्दनः ॥ २५॥

चकोरो बहवो यत्र शिवस्वातिररिन्दमः ।
तस्यापि गोमतीपुत्रः पुरीमान् भविता ततः ॥ २६॥

मेदशिराः शिवस्कन्दो यज्ञश्रीस्तत्सुतस्ततः ।
विजयस्तत्सुतो भाव्यश्चन्द्रविज्ञः स लोमधिः ॥ २७॥

एते त्रिंशन्नृपतयश्चत्वार्यब्दशतानि च ।
षट्पञ्चाशच्च पृथिवीं भोक्ष्यन्ति कुरुनन्दन ॥ २८॥

सप्ताभीरा आवभृत्या दशगर्दभिनो नृपाः ।
कङ्काः षोडश भूपाला भविष्यन्त्यतिलोलुपाः ॥ २९॥

ततोऽष्टौ यवना भाव्याश्चतुर्दश तुरुष्ककाः ।
भूयो दश गुरुण्डाश्च मौला एकादशैव तु ॥ ३०॥

एते भोक्ष्यन्ति पृथिवीं दशवर्षशतानि च ।
नवाधिकां च नवतिं मौला एकादश क्षितिम् ॥ ३१॥

भोक्ष्यन्त्यब्दशतान्यङ्ग त्रीणि तैः संस्थिते ततः ।
किलकिलायां नृपतयो भूतनन्दोऽथ वङ्गिरिः ॥ ३२॥

शिशुनन्दिश्च तद्भ्राता यशोनन्दिः प्रवीरकः ।
इत्येते वै वर्षशतं भविष्यन्त्यधिकानि षट् ॥ ३३॥

तेषां त्रयोदश सुता भवितारश्च बाह्लिकाः ।
पुष्पमित्रोऽथ राजन्यो दुर्मित्रोऽस्य तथैव च ॥ ३४॥

एककाला इमे भूपाः सप्तान्ध्राः सप्त कोसलाः ।
विदूरपतयो भाव्या निषधास्तत एव हि ॥ ३५॥

मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः ।
करिष्यत्यपरो वर्णान् पुलिन्दयदुमद्रकान् ॥ ३६॥

प्रजाश्चाब्रह्मभूयिष्ठाः स्थापयिष्यति दुर्मतिः ।
वीर्यवान् क्षत्रमुत्साद्य पद्मवत्यां स वै पुरि ।
अनुगङ्गमाप्रयागं गुप्तां भोक्ष्यति मेदिनीम् ॥ ३७॥

सौराष्ट्रावन्त्याभीराश्च शूरा अर्बुदमालवाः ।
व्रात्या द्विजा भविष्यन्ति शूद्रप्राया जनाधिपाः ॥ ३८॥

सिन्धोस्तटं चन्द्रभागां कौन्तीं काश्मीरमण्डलम् ।
भोक्ष्यन्ति शूद्रा व्रात्याद्या म्लेच्छाश्चाब्रह्मवर्चसः ॥ ३९॥

तुल्यकाला इमे राजन् म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः ।
एतेऽधर्मानृतपराः फल्गुदास्तीव्रमन्यवः ॥ ४०॥

स्त्रीबालगोद्विजघ्नाश्च परदारधनादृताः ।
उदितास्तमितप्राया अल्पसत्त्वाल्पकायुषः ॥ ४१॥

असंस्कृताः क्रियाहीना रजसा तमसाऽऽवृताः ।
प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्यरूपिणः ॥ ४२॥

तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः ।
अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यन्ति पीडिताः ॥ ४३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥


द्वादश स्कन्ध-पहला अध्याय 43

कलियुग के राजवंशों का वर्णन
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण जब अपने परमधाम पधार गये, तब पृथ्वी पर किस वंश का राज्य हुआ ? तथा अब किस का राज्य होगा ? आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—प्रिय परीक्षित ! मैंने तुम्हें नवें स्कन्ध में यह बात बतलायी थी कि जरासन्ध के पिता बृहद्रथ के वंश में अन्तिम राजा होगा पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय। उसके मन्त्री का नाम होगा शुनक। वह अपने स्वामी को मार डालेगा और अपने पुत्र प्रद्योत को राजसिंहासन पर अभिषिक्त करेगा। प्रद्योत का पुत्र होगा पालक, पालक का विशाखयूप, विशाखयूप का राजक और राजक का पुत्र होगा नन्दिवद्र्धन। प्रद्योतवंश में यही पाँच नरपति होंगे। इन की संज्ञा होगी ‘प्रद्योतन’। ये एक सौ अड़तीस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे ॥ २—४ ॥

इसके पश्चात शिशुनाग नाम का राजा होगा। शिशुनाग का काकवर्ण, उसका क्षेमधर्मा और क्षेमधर्मा का पुत्र होगा क्षेत्रज्ञ ॥ ५ ॥ क्षेत्रज्ञ का विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भक का पुत्र अजय होगा ॥ ६ ॥ अजय से नन्दिवद्र्धन और उससे महानन्दि का जन्म होगा। शिशुनाग-वंश में ये दस राजा होंगे। ये सब मिलकर कलियुग में तीन सौ साठ वर्ष तक पृथ्वी पर राज्य करेंगे। प्रिय परीक्षित ! महानन्दि की शूद्रा पत्नी के गर्भ से नन्द नाम का पुत्र होगा। वह बड़ा बलवान् होगा। महानन्दि ‘महापद्म’ नामक निधि का अधिपति होगा। इसीलिये लोग उसे ‘महापद्म’ भी कहेंगे। वह क्षत्रिय राजाओं के विनाश का कारण बनेगा। तभी से राजालोग प्राय: शूद्र और अधार्मिक हो जायँगे ॥ ७—९ ॥

महापद्म पृथ्वी का एकच्छत्र शासक होगा। उसके शासन का उल्लङ्घन कोई भी नहीं कर सकेगा। क्षत्रियों के विनाश में हेतु होने की दृष्टि से तो उसे दूसरा परशुराम ही समझना चाहिये ॥ १० ॥ उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे। वे सभी राजा होंगे और सौ वर्ष तक इस पृथ्वी का उपभोग करेंगे ॥ ११ ॥ कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्वविख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रों का नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जाने पर कलियुग में मौर्यवंशी नरपति पृथ्वी का राज्य करेंगे ॥ १२ ॥ वही ब्राह्मण पहले-पहल चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा के पद पर अभिषिक्त करेगा। चन्द्रगुप्त का पुत्र होगा वारिसार और वारिसार का अशोकवद्र्धन ॥ १३ ॥ अशोकवद्र्धन का पुत्र होगा सुयश। सुयश का सङ्गत, सङ्गत का शालिशूक और शालिशूक का सोमशर्मा ॥ १४ ॥ सोमशर्मा का शतधन्वा और शतधन्वा का पुत्र बृहद्रथ होगा। कुरुवंशविभूषण परीक्षित ! मौर्यवंश के ये दस[1] नरपति कलियुग में एक सौ सैंतीस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे। बृहद्रथ का सेनापति होगा पुष्पमित्र शुङ्ग। वह अपने स्वामी को मारकर स्वयं राजा बन बैठेगा। पुष्पमित्र का अग्रिमित्र और अग्रिमित्र का सुज्येष्ठ होगा ॥ १५-१६ ॥ सुज्येष्ठ का वसुमित्र, वसुमित्र का भद्रक और भद्रक का पुलिन्द, पुलिन्द का घोष और घोष का पुत्र होगा वज्रमित्र ॥ १७ ॥ वज्रमित्र का भागवत और भागवत का पुत्र होगा देवभूति। शुङ्गवंश के ये दस नरपति एक सौ बारह वर्ष तक पृथ्वी का पालन करेंगे ॥ १८ ॥

परीक्षित ! शुङ्गवंशी नरपतियों का राज्यकाल समाप्त होने पर यह पृथ्वी कण्ववंशी नरपतियों के हाथ में चली जायगी। कण्ववंशी नरपति अपने पूर्ववर्ती राजाओं की अपेक्षा कम गुणवाले होंगे। शुङ्गवंश का अन्तिम नरपति देवभूति बड़ा ही लम्पट होगा। उसे उसका मन्त्री कण्ववंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बुद्धिबल से स्वयं राज्य करेगा। वसुदेव का पुत्र होगा भूमित्र, भूमित्र का नारायण और नारायण का सुशर्मा। सुशर्मा बड़ा यशस्वी होगा ॥ १९-२० ॥ कण्ववंश के ये चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुग में तीन सौ पैंतालीस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे ॥ २१ ॥ प्रिय परीक्षित ! कण्ववंशी सुशर्मा का एक शूद्र सेवक होगा—बली। वह अन्ध्रजाति का एवं बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्मा को मारकर कुछ समय तक स्वयं पृथ्वी का राज्य करेगा ॥ २२ ॥ इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्ण का पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा ॥ २३ ॥ पौर्णमास का लम्बोदर और लम्बोदर का पुत्र चिबिलक होगा। चिबिलक का मेघस्वाति, मेघस्वाति का अटमान, अटमान का अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्मा का हालेय, हालेय का तलक, तलक का पुरीषभीरु और पुरीषभीरु का पुत्र होगा राजा सुनन्दन ॥ २४-२५ ॥ परीक्षित ! सुनन्दन का पुत्र होगा च कोर; च कोर के आठ पुत्र होंगे, जो सभी ‘बहु’ कहलायेंगे। इनमें सब से छोटे का नाम होगा शिवस्वाति। वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओं का दमन करेगा। शिवस्वाति का गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरीमान् ॥ २६ ॥ पुरीमान् का मेद:शिरा, मेद:शिरा का शिवस्कन्द, शिवस्कन्द का यज्ञश्री, यज्ञश्री का विजय और विजय के दो पुत्र होंगे—चन्द्रविज्ञ और लोमधि ॥ २७ ॥ परीक्षित ! ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्ष तक पृथ्वी का राज्य भोगेंगे ॥ २८ ॥

परीक्षित ! इसके पश्चात अवभृति-नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कङ्क पृथ्वी का राज्य करेंगे। ये सब-के-सब बड़े लोभी होंगे ॥ २९ ॥ इनके बाद आठ यवन और चौदह तुर्क राज्य करेंगे। इसके बाद दस गुरुण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे ॥ ३० ॥ मौनों के अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे। तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे। जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायगा, तब किलिकिला नाम की नगरी में भूतनन्द नाम का राजा होगा। भूतनन्द का वङ्गिरि, वङ्गिरि का भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक—ये एक सौ छ: वर्ष तक राज्य करेंगे ॥ ३१—३३ ॥ इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब-के-सब बाह्लिक कहलायेंगे। उनके पश्चात पुष्पमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्र का राज्य होगा ॥ ३४ ॥ परीक्षित ! बाह्लिकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशों में राज्य करेंगे। उनमें सात अन्ध्रदेश के तथा सात ही कोसलदेश के अधिपति होंगे, कुछ विदूर-भूमि के शासक और कुछ निषधदेश के स्वामी होंगे ॥ ३५ ॥

इनके बाद मगध देश का राजा होगा विश्वस्फूॢज। यह पूर्वोक्त पुरञ्जय के अतिरिक्त द्वितीय पुरञ्जय कहलायेगा। यह ब्राह्मणादि उच्च वर्णों को पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा ॥ ३६ ॥ इस की बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाश करके शूद्रप्राय जनता की रक्षा करेगा। यह अपने बल-वीर्य से क्षत्रियों को उजाड़ देगा और पद्मवती पुरी को राजधानी बनाकर हरिद्वार से लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वी का राज्य करेगा ॥ ३७ ॥ परीक्षित ! ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालवदेश के ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायँगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायँगे ॥ ३८ ॥ सिन्धुतट, चन्द्रभागा का तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुरी और काश्मीर- मण्डल पर प्राय: शूद्रोंका, संस्कार एवं ब्रह्मतेज से हीन नाममात्र के द्विजों का और म्लेच्छों का राज्य होगा ॥ ३९ ॥

परीक्षित ! ये सब-के-सब राजा आचार-विचार में म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय भिन्न-भिन्न प्रान्तों में राज्य करेंगे। ये सब-के-सब परले सिरे के झूठे, अधार्मिक और स्वल्प दान करनेवाले होंगे। छोटी-छोटी बातों को लेकर ही ये क्रोध के मारे आगबबूला हो जाया करेंगे ॥ ४० ॥ ये दुष्ट लोग स्त्री, बच्चों, गौओं, ब्राह्मणों को मार ने में भी नहीं हिचकेंगे। दूसरे की स्त्री और धन हथिया लेने के लिये ये सर्वदा उत्सुक रहेंगे। न तो इन्हें बढ़ते देर लगेगी और न तो घटते। क्षण में रुष्ट तो क्षण में तुष्ट। इन की शक्ति और आयु थोड़ी होगी ॥ ४१ ॥ इनमें परम्परागत संस्कार नहीं होंगे। ये अपने कर्तव्य-कर्म का पालन नहीं करेंगे। रजोगुण और तमोगुण से अंधे बने रहेंगे। राजा के वेष में वे म्लेच्छ ही होंगे। वे लूट-खसोटकर अपनी प्रजा का खून चूसेंगे ॥ ४२ ॥ जब ऐसे लोगों का शासन होगा, तो देश की प्रजा में भी वैसे ही स्वभाव, आचरण और भाषण की वृद्धि हो जायगी। राजालोग तो उनका शोषण करेंगे ही, वे आपस में भी एक-दूसरे को उत्पीडि़त करेंगे और अन्तत: सब-के-सब नष्ट हो जायँगे ॥ ४३ ॥


[1] मौर्यों की संख्या चन्द्रगुप्त को मिलाकर नौ ही होती है। विष्णुपुराणादि में चन्द्रगुप्त से पाँचवें दशरथ नाम के एक और मौर्यवंशी राजा का उल्लेख मिलता है। उसी को लेकर यहाँ दस संख्या समझनी चाहिये।




स्कन्ध-12 [अध्याय-02]

॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
श्रीशुक उवाच
ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया ।
कालेन बलिना राजन्नङ्क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः ॥ १॥

वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।
धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि ॥ २॥

दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव व्यावहारिके ।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥ ३॥

लिङ्गमेवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः ॥ ४॥

अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दम्भ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम् ॥ ५॥

दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम् ।
उदरंभरता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि ॥ ६॥

दाक्ष्यं कुटुम्बभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम् ।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिराकीर्णे क्षितिमण्डले ॥ ७॥

ब्रह्मविट्क्षत्रशूद्राणां यो बली भविता नृपः ।
प्रजा हि लुब्धै राजन्यैर्निर्घृणैर्दस्युधर्मभिः ॥ ८॥

आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम् ।
शाकमूलामिषक्षौद्रफलपुष्पाष्टिभोजनाः ॥ ९॥

अनावृष्ट्या विनङ्क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः ।
शीतवातातपप्रावृड् हिमैरन्योन्यतः प्रजाः ॥ १०॥

क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव सन्तप्स्यन्ते च चिन्तया ।
त्रिंशद्विंशति वर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम् ॥ ११॥

क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः ।
वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम् ॥ १२॥

पाखण्डप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु ।
चौर्यानृतवृथाहिंसा नानावृत्तिषु वै नृषु ॥ १३॥

शूद्रप्रायेषु वर्णेषु च्छागप्रायासु धेनुषु ।
गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बन्धुषु ॥ १४॥

अणुप्रायास्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु ।
विद्युत्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सद्मसु ॥ १५॥

इत्थं कलौ गतप्राये जनेषु खरधर्मिषु ।
धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवानवतरिष्यति ॥ १६॥

चराचरगुरोर्विष्णोरीश्वरस्याखिलात्मनः ।
धर्मत्राणाय साधूनां जन्मकर्मापनुत्तये ॥ १७॥

शम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः ।
भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति ॥ १८॥ स गो ना सं गो
अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः ।
असिनासाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः ॥ १९॥

विचरन्नाशुना क्षोण्यां हयेनाप्रतिमद्युतिः ।
नृपलिङ्गच्छदो दस्यून् कोटिशो निहनिष्यति ॥ २०॥

अथ तेषां भविष्यन्ति मनांसि विशदानि वै ।
वासुदेवाङ्गरागाति पुण्यगन्धानिलस्पृशाम् ।
पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु ॥ २१॥

तेषां प्रजाविसर्गश्च स्थविष्ठः सम्भविष्यति ।
वासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तौ हृदि स्थिते ॥ २२॥

यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः ।
कृतं भविष्यति तदा प्रजा सूतिश्च सात्त्विकी ॥ २३॥

यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती ।
एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम् ॥ २४॥

येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यन्ति च पार्थिवाः ।
ते त उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः ॥ २५॥

आरभ्य भवतो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम् ।
एतद्वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम् ॥ २६॥

सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि ॥ २७॥

तेनैत ऋषयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।
ते त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः ॥ २८॥

विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः ।
तदाविशत्कलिर्लोकं पापे यद्रमते जनः ॥ २९॥

यावत्स पादपद्माभ्यां स्पृशन्नास्ते रमापतिः ।
तावत्कलिर्वै पृथिवीं पराक्रान्तुं न चाशकत् ॥ ३०॥

यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरन्ति हि ।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिर्द्वादशाब्दशतात्मकः ॥ ३१॥

यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः ।
तदा नन्दात्प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति ॥ ३२॥

यस्मिन् कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि ।
प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः ॥ ३३॥

दिव्याब्दानां सहस्रान्ते चतुर्थे तु पुनः कृतम् ।
भविष्यति यदा नॄणां मन आत्मप्रकाशकम् ॥ ३४॥

इत्येष मानवो वंशो यथा सङ्ख्यायते भुवि ।
तथा विट् शूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगे युगे ॥ ३५॥

एतेषां नामलिङ्गानां पुरुषाणां महात्मनाम् ।
कथामात्रावशिष्टानां कीर्तिरेव स्थिता भुवि ॥ ३६॥

देवापिः शन्तनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः ।
कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ ॥ ३७॥

ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ ।
वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत्प्रथयिष्यतः ॥ ३८॥

कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्तते ॥ ३९॥

राजन्नेते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथापरे ।
भूमौ ममत्वं कृत्वान्ते हित्वेमां निधनं गताः ॥ ४०॥

कृमिविड्भस्मसंज्ञान्ते राजनाम्नोऽपि यस्य च ।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ ४१॥

कथं सेयमखण्डा भूः पूर्वैर्मे पुरुषैर्धृता ।
मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य वा ॥ ४२॥

तेजोबन्नमयं कायं गृहीत्वाऽऽत्मतयाबुधाः ।
महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेऽदर्शनं गताः ॥ ४३॥

ये ये भूपतयो राजन् भुञ्जन्ति भुवमोजसा ।
कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च ॥ ४४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥


द्वादश स्कन्ध-दूसरा अध्याय 44
कलियुग के धर्म
कहते हैं—परीक्षित ! समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्ति का लोप होता जायगा ॥ १ ॥ कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा ॥ २ ॥ विवाह-सम्बन्ध के लिये कुल-शील-योग्यता आदि की परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवती की पारस्परिक रुचि से ही सम्बन्ध हो जायगा। व्यवहार की निपुणता, सच्चाई और ईमानदारी में नहीं रहेगी; जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायगा। स्त्री और पुरुष की श्रेष्ठता का आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मण की पहचान उसके गुण-स्वभाव से नहीं यज्ञोपवीत से हुआ करेगी ॥ ३ ॥ वस्त्र, दण्ड- कमण्डलु आदि से ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियों की पहचान होगी और एक-दूसरे का चिह्न स्वीकार कर लेना ही एक से दूसरे आश्रम में प्रवेश का स्वरूप होगा। जो घूस दे ने या धन खर्च करने में असमर्थ होगा, उसे अदालतों से ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोल-चाल में जितना चालाक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायगा ॥ ४ ॥ असाधुताकी—दोषी होने की एक ही पहचान रहेगी—गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायगा। विवाह के लिये एक-दूसरे की स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधानकी— संस्कार आदि की कोई आवश्यकता न समझी जायगी। बाल आदि सँवारकर कपड़े-लत्ते से लैस हो जाना ही स्नान समझा जायगा ॥ ५ ॥ लोग दूर के तालाब को तीर्थ मानेंगे और निकट के तीर्थ गङ्गा- गोमती, माता-पिता आदि की उपेक्षा करेंगे। सिर पर बड़े-बड़े बाल—काकुल रखाना ही शारीरिक सौन्दर्य का चिह्न समझा जायगा और जीवन का सब से बड़ा पुरुषार्थ होगा—अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाई से बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायगा ॥ ६ ॥ योग्यता चतुराई का सब से बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्ब का पालन कर ले। धर्म का सेवन यश के लिये किया जायगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वी पर दुष्टों का बोलबाला हो जायगा, तब राजा होने का कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रों में जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समय के नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इत ने होंगे कि उनमें और लुटेरों में कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजा की पूँजी एवं पत्नियों तक को छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में भाग जायगी। उस समय प्रजा तरह-तरह के शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी ॥ ७—९ ॥ कभी वर्षा न होगी—सूखा पड़ जायगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायँगे। कभी कड़ाके की सर्दी पड़ेगी, तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी, तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उत्पातों से तथा आपसके सङ्घर्ष से प्रजा अत्यन्त पीडि़त होगी, नष्ट हो जायगी ॥ १० ॥ लोग भूख- प्यास तथा नाना प्रकार की चिन्ताओं से दुखी रहेंगे। रोगों से तो उन्हें छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुग में मनुष्यों की परमायु केवल बीस या तीस वर्ष की होगी ॥ ११ ॥

परीक्षित ! कलिकाल के दोष से प्राणियों के शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमों का धर्म बतलानेवाला वेद-मार्ग नष्टप्राय हो जायगा ॥ १२ ॥ धर्म में पाखण्ड की प्रधानता हो जायगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरों के समान हो जायँगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकार के कुकर्मों से जीवि का चला ने लगेंगे ॥ १३ ॥ चारों वर्णों के लोग शूद्रों के समान हो जायँगे। गौएँ बकरियों की तरह छोटी-छोटी और कम दूध देनेवाली हो जायँगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रमवाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थोंका-सा व्यापार करने लगेंगे। जिन से वैवाहिक सम्बन्ध है, उन्हीं को अपना सम्बन्धी माना जायगा ॥ १४ ॥ धान, जौ, गेहूँ आदि धान्यों के पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षों में अधिकांश शमी के समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायँगे। बादलों में बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थों के घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनि से रहित होने के कारण अथवा जनसंख्या घट जाने के कारण सूने- सू ने हो जायँगे ॥ १५ ॥ परीक्षित ! अधिक क्या कहें—कलियुग का अन्त होते-होते मनुष्यों का स्वभाव गधों-जैसा दु:सह बन जायगा, लोग प्राय: गृहस्थी का भार ढोनेवाले और विषयी हो जायँगे। ऐसी स्थिति में धर्म की रक्षा करने के लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान अवतार ग्रहण करेंगे ॥ १६ ॥

प्रिय परीक्षित ! सर्वव्यापक भगवान विष्णु सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्व स्वरूप होने पर भी चराचर जगत के सच्चे शिक्षक—सद्गुरु हैं। वे साधु—सज्जन पुरुषों के धर्म की रक्षा के लिये, उनके कर्म का बन्धन काटकर उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ा ने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं ॥ १७ ॥ उन दिनों शम्भल-ग्राम में विष्णुयश नाम के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद्भक्ति से पूर्ण होगा। उन्हींके घर कल्किभगवान अवतार ग्रहण करेंगे ॥ १८ ॥ श्रीभगवान ही अष्टसिद्धियों के और समस्त सद्गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़े पर सवार होकर दुष्टों को तलवार के घाट उतारकर ठीक करेंगे ॥ १९ ॥ उनके रोम-रोम से अतुलनीय तेज की किरणें छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़े से पृथ्वी पर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजा के वेष में छिपकर रहनेवाले कोटि- कोटि डाकुओं का संहार करेंगे ॥ २० ॥

प्रिय परीक्षित ! जब सब डाकुओं का संहार हो चुकेगा, तब नगर की और देश की सारी प्रजा का हृदय पवित्रता से भर जायगा; क्योंकि भगवान कल्कि के शरीर में लगे हुए अङ्गराग का स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान के श्रीविग्रह की दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे ॥ २१ ॥ उनके पवित्र हृदयों में सत्त्वमूर्ति भगवान वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहले की भाँति हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी ॥ २२ ॥ प्रजा के नयन-मनोहारी हरि ही धर्म के रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान जब कल्कि के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुग का प्रारम्भ हो जायगा और प्रजा की सन्तान-परम्परा स्वयं ही सत्त्वगुण से युक्त हो जायगी ॥ २३ ॥ जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्र के प्रथम पल में प्रवेश करते हैं, एक राशि पर आते हैं, उसी समय सत्ययुग का प्रारम्भ होता है ॥ २४ ॥

परीक्षित ! चन्द्रवंश और सूर्यवंश में जित ने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सब का मैंने संक्षेप से वर्णन कर दिया ॥ २५ ॥ तुम्हारे जन्म से लेकर राजा नन्द के अभिषेक तक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्ष का समय लगेगा ॥ २६ ॥ जिस समय आकाश में सप्तर्षियों का उदय होता है, उस समय पहले उनमें से दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीच में दक्षिणोत्तर रेखा पर समभाग में अश्विनी आदि नक्षत्रों में से एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है ॥ २७ ॥ उस नक्षत्र के साथ सप्तर्षिगण मनुष्यों की गणना से सौ वर्ष तक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्म के समय और इस समय भी मघा नक्षत्र पर स्थित हैं ॥ २८ ॥

स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रह के साथ श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधाम को पधार गये, उसी समय कलियुग ने संसार में प्रवेश किया। उसी के कारण मनुष्यों की मति-गति पाप की ओर ढुलक गयी ॥ २९ ॥ जब तक लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे, तब तक कलियुग पृथ्वी पर अपना पैर न जमा स का ॥ ३० ॥ परीक्षित ! जिस समय सप्तर्षि मघा-नक्षत्र पर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुग का प्रारम्भ होता है। कलियुग की आयु देवताओं की वर्षगणना से बारह सौ वर्षों की अर्थात् मनुष्यों की गणना के अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्ष की है ॥ ३१ ॥ जिस समय सप्तर्षि मघा से चलकर पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्र में जा चु के होंगे, उस समय राजा नन्द का राज्य रहेगा। तभी से कलियुग की वृद्धि शुरू होगी ॥ ३२ ॥ पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानों का कहना है कि जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम-धाम को प्रयाण किया, उसी दिन, उसी समय कलियुग का प्रारम्भ हो गया ॥ ३३ ॥ परीक्षित ! जब देवताओं की वर्षगणना के अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुग के अन्तिम दिनों में फिर से कल्किभगवान की कृपा से मनुष्यों के मन में सात्त्विकता का सञ्चार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूप को जान सकेंगे और तभी से सत्ययुग का प्रारम्भ भी होगा ॥ ३४ ॥

परीक्षित ! मैंने तो तुम से केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेप से वर्णन किया है। जैसे मनुवंश की गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युग में ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रों की भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये ॥ ३५ ॥ राजन् ! जिन पुरुषों और महात्माओं का वर्णन मैंने तुम से किया है, अब केवल नाम से ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वी पर जहाँ-तहाँ सुनने को मिलती है ॥ ३६ ॥ भीष्मपितामह के पिता राजा शन्तनु के भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप-ग्राम में स्थित हैं। वे बहुत बड़े योगबल से युक्त हैं ॥ ३७ ॥ कलियुग के अन्त में कल्किभगवान की आज्ञा से वे फिर यहाँ आयँगे और पहले की भाँति ही वर्णाश्रमधर्म का विस्तार करेंगे ॥ ३८ ॥ सत्ययुग, त्रेता द्वा पर और कलियुग—ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रम के अनुसार अपने-अपने समय में पृथ्वी के प्राणियों पर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं ॥ ३९ ॥ परीक्षित ! मैंने तुम से जिन राजाओं का वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वी को ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्त में मरकर धूल में मिल गये ॥ ४० ॥ इस शरीर को भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्त में यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राख के रूप में ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीर के या इसके सम्बन्धियों के लिये जो किसी भी प्राणी को सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियों को सताना तो नरक का द्वार है ॥ ४१ ॥ वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डल का शासन करते थे; अब यह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें ॥ ४२ ॥ वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टी के शरीर को अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमान के साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्त में वे शरीर और पृथ्वी दोनों को छोडक़र स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ प्रिय परीक्षित ! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुष से इस पृथ्वी के उपभोग में लगे रहे, उन सब को काल ने अपने विकराल गाल में धर दबाया। अब केवल इतिहास में उनकी कहानी ही शेष रह गयी है ॥ ४४ ॥



स्कन्ध-12 [अध्याय-03]

॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
श्रीशुक उवाच
दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान् नृपान् हसति भूरियम् ।
अहो मा विजिगीषन्ति मृत्योः क्रीडनका नृपाः ॥ १॥

काम एष नरेन्द्राणां मोघः स्याद्विदुषामपि ।
येन फेनोपमे पिण्डे येऽतिविश्रम्भिता नृपाः ॥ २॥

पूर्वं निर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमन्त्रिणः ।
ततः सचिवपौराप्तकरीन्द्रानस्य कण्टकान् ॥ ३॥

एवं क्रमेण जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम् ।
इत्याशाबद्धहृदया न पश्यन्त्यन्तिकेऽन्तकम् ॥ ४॥

समुद्रावरणां जित्वा मां विशन्त्यब्धिमोजसा ।
कियदात्मजयस्यैतन्मुक्तिरात्मजये फलम् ॥ ५॥

यां विसृज्यैव मनवस्तत्सुताश्च कुरूद्वह ।
गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यन्त्यबुद्धयः ॥ ६॥

मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातृणां चापि विग्रहः ।
जायते ह्यसतां राज्ये ममताबद्धचेतसाम् ॥ ७॥

ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः ।
स्पर्धमाना मिथो घ्नन्ति म्रियन्ते मत्कृते नृपाः ॥ ८॥
पृथुः पुरूरवा गाधिर्नहुषो भरतोऽर्जुनः ।
मान्धाता सगरो रामः खट्वाङ्गो धुन्धुहा रघुः ॥ ९॥

तृणबिन्दुर्ययातिश्च शर्यातिः शन्तनुर्गयः ।
भगीरथः कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः ॥ १०॥

हिरण्यकशिपुर्वृत्रो रावणो लोकरावणः ।
नमुचिः शम्बरो भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः ॥ ११॥

अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वराः ।
सर्वे सर्वविदः शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः ॥ १२॥

ममतां मय्यवर्तन्त कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः ।
कथावशेषाः कालेन ह्यकृतार्थाः कृता विभो ॥ १३॥

कथा इमास्ते कथिता महीयसां
विताय लोकेषु यशः परेयुषाम् ।
विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो
वचो विभूतीर्न तु पारमार्थ्यम् ॥ १४॥

यस्तूत्तमश्लोकगुणानुवादः
सङ्गीयतेऽभीक्ष्णममङ्गलघ्नः ।
तमेव नित्यं श‍ृणुयादभीक्ष्णं
कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः ॥ १५॥

राजोवाच
केनोपायेन भगवन् कलेर्दोषान् कलौ जनाः ।
विधमिष्यन्त्युपचितांस्तन्मे ब्रूहि यथा मुने ॥ १६॥

युगानि युगधर्मांश्च मानं प्रलयकल्पयोः ।
कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मनः ॥ १७॥

श्रीशुक उवाच
कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तज्जनैर्धृतः ।
सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोर्नृप ॥ १८॥

सन्तुष्टाः करुणा मैत्राः शान्ता दान्तास्तितिक्षवः ।
आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ॥ १९॥

त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः ।
अधर्मपादैरनृतहिंसासन्तोषविग्रहैः ॥ २०॥

तदा क्रिया तपो निष्ठा नातिहिंस्रा न लम्पटाः ।
त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृप ॥ २१॥

तपःसत्यदयादानेष्वर्धं ह्रसति द्वापरे ।
हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैर्धर्मस्याधर्मलक्षणैः ॥ २२॥

यशस्विनो महाशालाः स्वाध्यायाध्ययने रताः ।
आढ्याः कुटुम्बिनो हृष्टा वर्णाः क्षत्रद्विजोत्तराः ॥ २३॥

कलौ तु धर्महेतुनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः ।
एधमानैः क्षीयमाणो ह्यन्ते सोऽपि विनङ्क्ष्यति ॥ २४॥

तस्मिन् लुब्धा दुराचारा निर्दयाः शुष्कवैरिणः ।
दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदाशोत्तराः प्रजाः ॥ २५॥

सत्त्वं रजस्तम इति दृश्यन्ते पुरुषे गुणाः ।
कालसञ्चोदितास्ते वै परिवर्तन्त आत्मनि ॥ २६॥

प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च ।
तदा कृतयुगं विद्याज्ज्ञाने तपसि यद्रुचिः ॥ २७॥

यदा धर्मार्थकामेषु भक्तिर्भवति देहिनाम् ।
तदा त्रेता रजो वृत्तिरिति जानीहि बुद्धिमन् ॥ २८॥

यदा लोभस्त्वसन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः ।
कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद्रजस्तमः ॥ २९॥

यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम् ।
शोको मोहो भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः ॥ ३०॥
यस्मात्क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः ।
कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः ॥ ३१॥

दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाखण्डदूषिताः ।
राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः ॥ ३२॥

अव्रता वटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिनः ।
तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः ॥ ३३॥

ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः ।
शश्वत्कटुकभाषिण्यश्चौर्यमायोरुसाहसाः ॥ ३४॥

पणयिष्यन्ति वै क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः ।
अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्तां साधु जुगुप्सिताम् ॥ ३५॥

पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम् ।
भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः ॥ ३६॥

पितृभ्रातृसुहृज्ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः ।
ननान्दृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः ॥ ३७॥

शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः ।
धर्मं वक्ष्यन्त्यधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम् ॥ ३८॥

नित्यमुद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिताः ।
निरन्ने भूतले राजन्ननावृष्टिभयातुराः ॥ ३९॥

वासोऽन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणैः ।
हीनाः पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः ॥ ४०॥

कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः ।
त्यक्ष्यन्ति च प्रियान् प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि ॥ ४१॥

न रक्षिष्यन्ति मनुजाः स्थविरौ पितरावपि ।
पुत्रान् सर्वार्थकुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरंभराः ॥ ४२॥

कलौ न राजन् जगतां परं गुरुं
त्रिलोकनाथानतपादपङ्कजम् ।
प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतं
यक्ष्यन्ति पाखण्डविभिन्नचेतसः ॥ ४३॥

यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान् ।
विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिं
प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः ॥ ४४॥

पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसम्भवान् ।
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तमः ॥ ४५॥

श्रुतः सङ्कीर्तितो ध्यातः पूजितश्चादृतोऽपि वा ।
नृणां धुनोति भगवान् हृत्स्थो जन्मायुताशुभम् ॥ ४६॥

यथा हेम्नि स्थितो वह्निर्दुर्वर्णं हन्ति धातुजम् ।
एवमात्मगतो विष्णुर्योगिनामशुभाशयम् ॥ ४७॥

विद्यातपःप्राणनिरोधमैत्री
तीर्थाभिषेकव्रतदानजप्यैः ।
नात्यन्तशुद्धिं लभतेऽन्तरात्मा
यथा हृदिस्थे भगवत्यनन्ते ॥ ४८॥

तस्मात्सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम् ।
म्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम् ॥ ४९॥

म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः ।
आत्मभावं नयत्यङ्ग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः ॥ ५०॥

कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥ ५१॥

कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥ ५२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥


द्वादश स्कन्ध-तीसरा अध्याय 52
राज्य, युगधर्म और कलियुग के दोषों से बच ने का उपाय—नामसङ्कीर्तन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझ पर विजय प्राप्त करने के लिये उतावले हो रहे है, तब वह हँस ने लगती है और कहती है—‘‘कित ने आश्चर्य की बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौत के खिलौ ने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं ॥ १ ॥ राजाओं से यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायँगे, फिर भी वे व्र्यथ में ही मुझे जीत ने की कामना करते हैं। सचमुच इस कामना से अंधे होने के कारण ही वे पानी के बुलबुले के समान क्षणभङ्गुर शरीर पर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं ॥ २ ॥ वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मन के सहित अपनी पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करेंगे—अपने भीतरी शत्रुओं को वश में करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओं को जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रु के मन्ङ्क्षत्रयों, अमात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेना को भी वश में कर लेंगे। जो भी हमारे विजय-मार्ग में काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे ॥ ३ ॥ इस प्रकार धीरे-धीरे क्रम से सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्य की खार्ईं का काम करेगा।’ इस प्रकार वे अपने मन में अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिर पर काल सवार है ॥ ४ ॥

यहीं तक नहीं, जब एक द्वीप उनके वश में हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीप पर विजय करने के लिये बड़ी शक्ति और उत्साह के साथ समुद्रयात्रा करते हैं। अपने मन को, इन्द्रियों को वश में करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उन को वश में करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इत ने परिश्रम और आत्मसंयम का यह कितना तुच्छ फल है !’’ ॥ ५ ॥ परीक्षित ! पृथ्वी कहती है कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोडक़र जहाँ से आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्ध में जीतकर वश में करना चाहते हैं ॥ ६ ॥ जिनके चित्त में यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टों के राज्य में मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपस में लड़ बैठते हैं ॥ ७ ॥ वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ़ ! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं’, इस प्रकार राजालोग एक-दूसरे को कहते-सुनते हैं, एक-दूसरे से स्पद्र्धा करते हैं, मेरे लिये एक-दूसरे को मारते हैं और स्वयं मर मिटते हैं ॥ ८ ॥ पृथु, पुरूरवा, गाधि, नहुष, भरत, सहस्रबाहु, अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वाङ्ग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्व, ककुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर तथा और बहुत- से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभी ने दिग्विजय में दूसरों को हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्यु के ग्रास बन गये। राजन् ! उन्होंने अपने पूरे अन्त:करण से मुझ से ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है’। परन्तु विकराल काल ने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल-पौरुष और शरीर आदि का कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है ॥ ९—१३ ॥

परीक्षित ! संसार में बड़े-बड़े प्रतापी और महान पुरुष हुए हैं। वे लोकों में अपने यश का विस्तार करके यहाँ से चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्य का उपदेश करने के लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणी का विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है ॥ १४ ॥ भगवान श्रीकृष्ण का गुणानुवाद समस्त अमङ्गलों का नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसी का गान करते रहते हैं। जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेममयी भक्ति की लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान के दिव्य गुणानुवाद का ही श्रवण करते रहना चाहिये ॥ १५ ॥

राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! मुझे तो कलियुग में राशि-राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपाय से उन दोषों का नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगों का स्वरूप, उनके धर्म, कल्प की स्थिति और प्रलयकाल के मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान के कालरूप का भी यथावत् वर्णन कीजिये ॥ १६-१७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! सत्ययुग में धर्म के चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान। उस समय के लोग पूरी निष्ठा के साथ अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान का स्वरूप है ॥ १८ ॥ सत्ययुग के लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सब से मित्रता का व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वश में रहते हैं और सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों को वे समान भाव से सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बा की लोग स्वरूपस्थिति के लिये अभ्यास में तत्पर रहते हैं ॥ १९ ॥ परीक्षित ! धर्म के समान अधर्म के भी चार चरण हैं—असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुग में इनके प्रभाव से धीरे-धीरे धर्म के सत्य आदि चरणों का चतुर्थांश क्षीण हो जाता है ॥ २० ॥ राजन् ! उस समय वर्णों में ब्राह्मणों की प्रधानता अक्षुण्ण रहती है। लोगों में अत्यन्त हिंसा और लम्पटता का अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्या में निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्ग का सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदों के पारदर्शी विद्वान् होते हैं ॥ २१ ॥ द्वापरयुग में हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष—अधर्म के इन चरणों की वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्म के चारों चरण—तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं ॥ २२ ॥ उस समय के लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े तत्पर होते हैं। लोगों के कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्राय: लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णों में क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णों की प्रधानता रहती है ॥ २३ ॥ कलियुग में तो अधर्म के चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्म के चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्त में तो उस चतुर्थांश का भी लोप हो जाता है ॥ २४ ॥ कलियुग में लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरे से वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा-तृष्णा की तरङ्गों में बहते रहते हैं। उस समय के अभागे लोगों में शूद्र, केवट आदि की ही प्रधानता रहती है ॥ २५ ॥

सभी प्राणियों में तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। काल की प्रेरणा से समय-समय पर शरीर, प्राण और मन में उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है ॥ २६ ॥ जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुण में स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुण की प्रधानता के समय मनुष्य ज्ञान और तपस्या से अधिक प्रेम करने लगता है ॥ २७ ॥ जिस समय मनुष्यों की प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख-भोगों की ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुण में स्थित होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान परीक्षित ! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है ॥ २८ ॥ जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषों का बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचि के साथ सकाम कर्मों में लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुण की मिश्रित प्रधानता का नाम ही द्वापरयुग है ॥ २९ ॥ जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनता की प्रधानता हो, उसे तमोगुण- प्रधान कलियुग समझना चाहिये ॥ ३० ॥ जब कलियुग का राज्य होता है, तब लोगों की दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्त में कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियों में दुष्टता और कुलटापन की वृद्धि हो जाती है ॥ ३१ ॥ सारे देश में, गाँव-गाँव में लुटेरों की प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंग से वेदों का तात्पर्य निकाल ने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजा की सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूस ने लगते हैं। ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भर ने और जननेन्द्रिय को तृप्त करने में ही लग जाते हैं ॥ ३२ ॥ ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रत से रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ दूसरों को भिक्षा दे ने के बदले स्वयं भीख माँग ने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँवों में बस ने लगते हैं और संन्यासी धन के अत्यन्त लोभी—अर्थपिशाच हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ स्त्रियों का आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपनी कुल मर्यादा का उल्लङ्घन करके लाज-हया—जो उनका भूषण है—छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपट में बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है ॥ ३४ ॥ व्यापारियों के हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी—कौड़ी से लिपटे रहते और छदाम-छदाम के लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या—आपत्तिकाल न होने पर तथा धनी होने पर भी वे निम्र-श्रेणी के व्यापारों को, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझ ने और अपना ने लगते हैं ॥ ३५ ॥ स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों—जब सेवकलोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोडक़र भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो—परन्तु जब वह किसी विपत्ति में पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं,। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं—दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं ॥ ३६ ॥

प्रिय परीक्षित ! कलियुग के मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासना को तृप्त करने के लिये ही किसी से प्रेम करते हैं। वे विषयवासना के वशीभूत होकर इत ने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रों को भी छोडक़र केवल अपनी साली और सालों से ही सलाह लेने लगते हैं ॥ ३७ ॥ शूद्र तपस्वियों का वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्म का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचे सिंहासन पर विराजमान होकर धर्म का उपदेश करने लगते हैं ॥ ३८ ॥ प्रिय परीक्षित ! कलियुग की प्रजा सूखा पडऩे के कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुॢभक्ष और दूसरे शासकों की कर-वृद्धि ! प्रजा के शरीर में केवल अस्थिपञ्जर और मन में केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण रक्षा के लिये रोटी का टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है ॥ ३९ ॥ कलियुग में प्रजा शरीर ढक ने के लिये वस्त्र और पेट की ज्वाला शान्त करने के लिये रोटी, पी ने के लिये पानी और सो ने के लिये दो हाथ जमीन से भी वञ्चित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहनने तक की सुविधा नहीं रहती। लोगों की आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचोंकी-सी हो जाती हैं ॥ ४० ॥ कलियुग में लोग, अधिक धन की तो बात ही क्या, कुछ कौडिय़ों के लिये आपस में वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनों के सद्भाव तथा मित्रता को तिलाञ्जलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ी के लिये अपने सगे-सम्बन्धियों तक की हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं ॥ ४१ ॥ परीक्षित ! कलियुग के क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भर ने की धुन में ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े मा-बाप की भी रक्षा—पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामों में योग्य पुत्रों की भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं ॥ ४२ ॥ परीक्षित ! श्रीभगवान ही चराचर जगत के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलों में अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूप में स्थित हैं। परन्तु कलियुग में लोगों में इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियों के कारण लोगों का चित्त इतना भटक जाता है कि प्राय: लोग अपने कर्म और भावनाओं के द्वारा भगवान की पूजा से भी विमुख हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ मनुष्य मर ने के समय आतुरता की स्थिति में अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान के किसी एक नाम का उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग ! कलियुग से प्रभावित होकर लोग उन भगवान की आराधना से भी विमुख हो जाते हैं ॥ ४४ ॥

परीक्षित ! कलियुग के अनेकों दोष हैं। कुल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानों में भी दोष की प्रधानता हो जाती है। सब दोषों का मूल स्रोत तो अन्त:करण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तम भगवान हृदय में आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्र से ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ भगवान के रूप, गुण, लीला, धाम और नाम के श्रवण, सङ्कीर्तन, ध्यान, पूजन और आदर से वे मनुष्य के हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं। और एक-दो जन्म के पापों की तो बात ही क्या, हजारों जन्मों के पाप के ढेर-के-ढेर भी क्षणभर में भस्म कर देते हैं ॥ ४६ ॥ जैसे सो ने के साथ संयुक्त होकर अग्रि उसके धातुसम्बन्धी मलिनता आदि दोषों को नष्ट कर देती है, वैसे ही साधकों के हृदय में स्थित होकर भगवान विष्णु उनके अशुभ संस्कारों को सदा के लिये मिटा देते हैं ॥ ४७ ॥ परीक्षित ! विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियों के प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधन से मनुष्य के अन्त:करण की वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान पुरुषोत्तम के हृदय में विराजमान हो जाने पर होती है ॥ ४८ ॥

परीक्षित ! अब तुम्हारी मृत्यु का समय निकट आ गया है। अब सावधान हो जाओ। पूरी शक्ति से और अन्त:करण की सारी वृत्तियों से भगवान श्रीकृष्ण को अपने हृदयसिंहासन पर बैठा लो। ऐसा करने से अवश्य ही तुम्हें परमगति की प्राप्ति होगी ॥ ४९ ॥ जो लोग मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकार से परम ऐश्वर्यशाली भगवान का ही ध्यान करना चाहिये। प्यारे परीक्षित ! सब के परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान अपना ध्यान करनेवाले को अपने स्वरूप में लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं ॥ ५० ॥ परीक्षित ! यों तो कलियुग दोषों का खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुग में केवल भगवान श्रीकृष्ण का सङ्कीर्तन करने- मात्र से ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ॥ ५१ ॥ सत्ययुग में भगवान का ध्यान करनेसे, त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करने से और द्वा पर में विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवा से जो फल मिलता है, वह कलियुग में केवल भगवन्नाम का कीर्तन करने से ही प्राप्त हो जाता है ॥ ५२ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-04]

॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
श्रीशुक उवाच
कालस्ते परमाण्वादिर्द्विपरार्धावधिर्नृप ।
कथितो युगमानं च श‍ृणु कल्पलयावपि ॥ १॥

चतुर्युगसहस्रं च ब्रह्मणो दिनमुच्यते ।
स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशाम्पते ॥ २॥

तदन्ते प्रलयस्तावान् ब्राह्मी रात्रिरुदाहृता ।
त्रयो लोका इमे तत्र कल्पन्ते प्रलयाय हि ॥ ३॥

एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक् ।
शेतेऽनन्तासनो विश्वमात्मसात्कृत्य चात्मभूः ॥ ४॥

द्विपरार्धे त्वतिक्रान्ते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।
तदा प्रकृतयः सप्त कल्पन्ते प्रलयाय वै ॥ ५॥

एष प्राकृतिको राजन् प्रलयो यत्र लीयते ।
आण्डकोशस्तु सङ्घातो विघात उपसादिते ॥ ६॥

पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन् न वर्षति ।
तदा निरन्ने ह्यन्योन्यं भक्षमाणाः क्षुधार्दिताः ॥ ७॥

क्षयं यास्यन्ति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः ।
सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्तको रविः ॥ ८॥

रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति ।
ततः सांवर्तको वह्निः सङ्कर्षणमुखोत्थितः ॥ ९॥

दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान् भूविवरानथ ।
उपर्यधः समन्ताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः ॥ १०॥

दह्यमानं विभात्यण्डं दग्धगोमयपिण्डवत् ।
ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम् ॥ ११॥

परः सांवर्तको वाति धूम्रं खं रजसाऽऽवृतम् ।
ततो मेघकुलान्यङ्ग चित्रवर्णान्यनेकशः ॥ १२॥

शतं वर्षाणि वर्षन्ति नदन्ति रभसस्वनैः ।
तत एकोदकं विश्वं ब्रह्माण्डविवरान्तरम् ॥ १३॥

तदा भूमेर्गन्धगुणं ग्रसन्त्याप उदप्लवे ।
ग्रस्तगन्धा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते ॥ १४॥

अपां रसमथो तेजस्ता लीयन्तेऽथ नीरसाः ।
ग्रसते तेजसो रूपं वायुस्तद्रहितं तदा ॥ १५॥

लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम् ।
स वै विशति खं राजंस्ततश्च नभसो गुणम् ॥ १६॥

शब्दं ग्रसति भूतादिर्नभस्तमनुलीयते ।
तैजसश्चेन्द्रियाण्यङ्ग देवान् वैकारिको गुणैः ॥ १७॥

महान् ग्रसत्यहङ्कारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम् ।
ग्रसतेऽव्याकृतं राजन् गुणान् कालेन चोदितम् ॥ १८॥

न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः ।
अनाद्यनन्तमव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम् ॥ १९॥

न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं
तमो रजो वा महदादयोऽमी ।
न प्राणबुद्धीन्द्रियदेवता वा
न सन्निवेशः खलु लोककल्पः ॥ २०॥

न स्वप्नजाग्रन्न च तत्सुषुप्तं
न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः ।
संसुप्तवच्छून्यवदप्रतर्क्यं
तन्मूलभूतं पदमामनन्ति ॥ २१॥

लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा ।
शक्तयः सम्प्रलीयन्ते विवशाः कालविद्रुताः ॥ २२॥

बुद्धीन्द्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम् ।
दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यामाद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २३॥

दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग्भवेत् ।
एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात् ॥ २४॥

बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते ।
मायामात्रमिदं राजन् नानात्वं प्रत्यगात्मनि ॥ २५॥

यथा जलधरा व्योम्नि भवन्ति न भवन्ति च ।
ब्रह्मणीदं तथा विश्वमवयव्युदयाप्ययात् ॥ २६॥

सत्यं ह्यवयवः प्रोक्तः सर्वावयविनामिह ।
विनार्थेन प्रतीयेरन् पटस्येवाङ्ग तन्तवः ॥ २७॥

यत्सामान्यविशेषाभ्यामुपलभ्येत सभ्रमः ।
अन्योन्यापाश्रयात्सर्वमाद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २८॥

विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमन्तरा ।
न निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत् ॥ २९॥

न हि सत्यस्य नानात्वमविद्वान् यदि मन्यते ।
नानात्वं छिद्रयोर्यद्वज्ज्योतिषोर्वातयोरिव ॥ ३०॥

यथा हिरण्यं बहुधा समीयते
नृभिः क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु ।
एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजो
व्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जनैः ॥ ३१॥

यथा घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो
ह्यर्कांशभूतस्य च चक्षुषस्तमः ।
एवं त्वहं ब्रह्म गुणस्तदीक्षितो
ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मबन्धनः ॥ ३२॥

घनो यदार्कप्रभवो विदीर्यते
चक्षुः स्वरूपं रविमीक्षते तदा ।
यदा ह्यहङ्कार उपाधिरात्मनो
जिज्ञासया नश्यति तर्ह्यनुस्मरेत् ॥ ३३॥

यदैवमेतेन विवेकहेतिना
मायामयाहङ्करणात्मबन्धनम् ।
छित्त्वाच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते
तमाहुरात्यन्तिकमङ्ग सम्प्लवम् ॥ ३४॥

नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परन्तप ।
उत्पत्तिप्रलयावेके सूक्ष्मज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ ३५॥

कालस्रोतो जवेनाशु ह्रियमाणस्य नित्यदा ।
परिणामिनामवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः ॥ ३६॥

अनाद्यन्तवतानेन कालेनेश्वरमूर्तिना ।
अवस्था नैव दृश्यन्ते वियति ज्योतिषामिव ॥ ३७॥

नित्यो नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः ।
आत्यन्तिकश्च कथितः कालस्य गतिरीदृशी ॥ ३८॥

एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातुः
नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः ।
लीलाकथास्ते कथिताः समासतः
कार्त्स्न्येन नाजोऽप्यभिधातुमीशः ॥ ३९॥

संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षोर्नान्यः
प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य ।
लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेण
पुंसो भवेद्विविधदुःखदवार्दितस्य ॥ ४०॥

पुराणसंहितामेतामृषिर्नारायणोऽव्ययः ।
नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैपायनाय सः ॥ ४१॥

स वै मह्यं महाराज भगवान् बादरायणः ।
इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसम्मिताम् ॥ ४२॥

एतां वक्ष्यत्यसौ सूतः ऋषिभ्यो नैमिषालये ।
दीर्घसत्रे कुरुश्रेष्ठ सम्पृष्टः शौनकादिभिः ॥ ४३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥


द्वादश स्कन्ध-चौथा अध्याय 43
चार प्रकार के प्रलय
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! (तीसरे स्कन्धमें) परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त काल का स्वरूप और एक-एक युग कितने-कित ने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चु का हूँ। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो ॥ १ ॥ राजन् ! एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के इस दिन को ही कल्प भी कहते हैं। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं ॥ २ ॥ कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रह्मा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है ॥ ३ ॥ इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अंदर समेटकर—लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात शेषशायी भगवान नारायण भी शयन कर जाते हैं ॥ ४ ॥ इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो पराद्र्ध की आयु समाप्त हो जाती है, तब महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं ॥ ५ ॥ राजन् ! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलय में प्रलय का कारण उपस्थित होने पर पञ्चभूतों के मिश्रण से बना हुआ ब्रह्माण्ड अपना स्थूल रूप छोडक़र कारणरूप में स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है ॥ ६ ॥ परीक्षित ! प्रलय का समय आने पर सौ वर्ष तक मेघ पृथ्वी पर वर्षा नहीं करते। किसीको अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक-दूसरे को खा ने लगती है ॥ ७ ॥ इस प्रकार काल के उपद्रव से पीडि़त होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर् तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से समुद्र, प्राणियों के शरीर और पृथ्वी का सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदा की भाँति पृथ्वी पर बरसाते नहीं। उस समय सङ्कर्षण भगवान के मुख से प्रलयकालीन संवर् तक अग्रि प्रकट होती है ॥ ८-९ ॥ वायु के वेग से वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचे के लोकों को भस्म कर देती है। वहाँ के प्राणी तो पहले ही मर चु के होते हैं नीचे से आग की करारी लपटें और ऊ पर से सूर्य की प्रचण्ड गरमी ! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्रह्माण्ड जल ने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबर का उपला जलकर अंगारे के रूप में दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त-प्रचण्ड सांवर् तक वायु सैकड़ों वर्षों तक चलती रहती है। उस समय का आकाश धूएँ और धूल से तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगे बादल आकाश में मँडरा ने लगते हैं और बड़ी भयङ्करता के साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षों तक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रह्माण्ड के भीतर का सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्र हो जाता है ॥ १०—१३ ॥

इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है— अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है ॥ १४ ॥ राजन् ! इसके बाद जल के गुण रस को तेजस्तत्त्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेज में समा जाता है। तदनन्तर वायु तेज के गुण रूप को ग्रस लेता है और तेज रूपरहित होकर वायु में लीन हो जाता है। अब आकाश वायु के गुण स्पर्श को अपने में मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाश में शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहङ्कार आकाश के गुण शब्द को ग्रस लेता है और आकाश शब्दहीन होकर तामस अहङ्कार में लीन हो जाता है। इसी प्रकार तैजस अहङ्कार इन्द्रियों को और वैकारिक (सात्त्विक) अहङ्कार इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवता और इन्द्रियवृत्तियों को अपने में लीन कर लेता है ॥ १५—१७ ॥ तत्पश्चात महत्तत्त्व अहङ्कार को और सत्त्व आदि गुण महत्तत्त्व को ग्रस लेते हैं। परीक्षित ! यह सब काल की महिमा है। उसी की प्रेरणा से अव्यक्त प्रकृति गुणों को ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति-ही-प्रकृत शेष रह जाती है ॥ १८ ॥ वही चराचर जगत का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है। जब वह अपने कार्यों को लीन करके प्रलय के समय साम्यावस्था को प्राप्त हो जाती है, तब काल के अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदि के कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकार के विकार नहीं होते ॥ १९ ॥ उस समय प्रकृति में स्थूल अथवा सूक्ष्मरूप से वाणी, मन, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महत्तत्त्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते। सृष्टि के समय रहनेवाले लोकों की कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती ॥ २० ॥ उस समय स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति—ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्रि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुए के समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्था का तर्क के द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्त को ही जगत का मूलभूत तत्त्व कहते हैं ॥ २१ ॥ इसी अवस्था का नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनों की शक्तियाँ काल के प्रभाव से क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल- स्वरूप में लीन हो जाती हैं ॥ २२ ॥

परीक्षित ! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्ष का स्वरूप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में उनका अधिष्ठान, ज्ञान स्वरूप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सब का तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठान से भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे सर्वथा मिथ्या—-मायामात्र हैं ॥ २३ ॥ जैसे दीपक, नेत्र और रूप—ये तीनों तेज से भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इन से सर्वथा भिन्न है; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठान में अध्यस्त सर्प अपने अधिष्ठान से पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्प से अधिष्ठान का कोई सम्बन्ध नहीं है) ॥ २४ ॥ परीक्षित ! जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धि की ही हैं। अत: इनके कारण अन्तरात्मा में जो विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्व की प्रतीति होती है, वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्व का एकमात्र सत्य आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है ॥ २५ ॥ यह विश्व उत्पत्ति और प्रलय से ग्रस्त है, इसलिये अनेक अवयवों का समूह अवयवी है। अत: यह कभी ब्रह्म में होता है और कभी नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाश में मेघमाला कभी होती है और कभी नहीं होती ॥ २६ ॥ परीक्षित ! जगत के व्यवहार में जित ने भी अवयवी पदार्थ होते हैं, उनके न होने पर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते हैं। क्योंकि वे उनके कारण हैं। जैसे वस्त्ररूप अवयवी के न होने पर भी उसके कारणरूप सूत का अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत के अभाव में भी इस जगत के कारणरूप अवयव की स्थिति हो सकती है ॥ २७ ॥ परन्तु ब्रह्म में यह कार्य-कारणभाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण तो सामान्य वस्तु है और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकार का जो भेद दिखायी देता है, वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेष के बिना सामान्य और सामान्य के बिना विशेष की स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारणभाव का आदि और अन्त दोनों ही मिलते हैं, इसलिये भी वह स्वाप्निक भेद-भाव के समान सर्वथा अवस्तु है ॥ २८ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपञ्चरूप विकार स्वाप्निक विकार के समान ही प्रतीत हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रह्म स्वरूप आत्मा से भिन्न नहीं है। कोई चाहे भी तो आत्मा से भिन्न रूप में अणुमात्र भी इसका निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मा से पृथक् इस की सत्ता मानी भी जाय तो यह भी चिद्रूप आत्मा के समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थिति में वह आत्मा की भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा ॥ २९ ॥ परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि परमार्थ-सत्य वस्तु में नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तु में नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाकाश और घटाकाशका, आकाशस्थित सूर्य और जल में प्रतिबिम्बित सूर्य का तथा बाह्य वायु और आन्तर वायु का भेद मानना ॥ ३० ॥

जैसे व्यवहार में मनुष्य एक ही सो ने को अनेकों रूपों में गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपों में मिलता है; इसी प्रकार व्यवहार में निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणी के द्वारा इन्द्रियातीत आत्म स्वरूप भगवान का भी अनेकों रूपों में वर्णन करते हैं ॥ ३१ ॥ देखो न, बादल सूर्य से उत्पन्न होता है और सूर्य से ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्य के ही अंश नेत्रों के लिये सूर्य का दर्शन होने में बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहङ्कार भी ब्रह्म से ही उत्पन्न होता, ब्रह्म से ही प्रकाशित होता और ब्रह्म के अंश जीव के लिये ब्रह्म स्वरूप के साक्षातकार में बाधक बन बैठता है ॥ ३२ ॥ जब सूर्य से प्रकट होनेवाला बादल तितर-बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरूप सूर्य का दर्शन करने में समर्थ होते हैं। ठीक वैसे ही, जब जीव के हृदय में जिज्ञासा जगती है, तब आत्मा की उपाधि अहङ्कार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरूप का साक्षातकार हो जाता है ॥ ३३ ॥ प्रिय परीक्षित ! जब जीव विवेक के खड्ग से मायामय अहङ्कार का बन्धन काट देता है, तब यह अपने एकरस आत्म स्वरूप के साक्षातकार में स्थित हो जाता है। आत्मा की यह मायामुक्त वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है ॥ ३४ ॥

हे शत्रुदमन ! तत्त्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मा से लेकर तिनके तक जित ने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूप से उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है ॥ ३५ ॥ संसार के परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-शिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उनकी बदलती हुई अवस्थाओं को देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोते के वेग में बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षण में उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है ॥ ३६ ॥ जैसे आकाश में तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूप से नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान के स्वरूपभूत अनादि-अनन्त काल के कारण प्राणियों की प्रतिक्षण होनेवाली उत्पत्ति और प्रलय का भी पता नहीं चलता ॥ ३७ ॥ परीक्षित ! मैंने तुम से चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है ॥ ३८ ॥

हे कुरुश्रेष्ठ ! विश्व-विधाता भगवान नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेप से कहा है, वह सब उन्हीं की लीला- कथा है। भगवान की लीलाओं का पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते ॥ ३९ ॥ जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकार के दु:ख-दावानल से दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुषोत्तम भगवान की लीला- कथारूप रसके सेवन के अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौ का नहीं है। ये केवल लीला-रसायन का सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं ॥ ४० ॥ जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवतपुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायण ने पहले देवर्षि नारद को सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायन को ॥ ४१ ॥ महाराज ! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान श्रीकृष्णद्वैपायन ने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवतसंहिता का उपदेश किया ॥ ४२ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्र में बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्र करने पर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगों को इस संहिता का श्रवण करायेंगे ॥ ४३ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-05]

॥ पञ्चमोऽध्यायः - ५ ॥
श्रीशुक उवाच
अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान् हरिः ।
यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः ॥ १॥

त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥ २॥

न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान् ।
बीजाङ्कुरवद्देहादेर्व्यतिरिक्तो यथानलः ॥ ३॥

स्वप्ने यथा शिरश्छेदं पञ्चत्वाद्यात्मनः स्वयम् ।
यस्मात्पश्यति देहस्य तत आत्मा ह्यजोऽमरः ॥ ४॥

घटे भिन्ने यथाऽऽकाश आकाशः स्याद्यथा पुरा ।
एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म सम्पद्यते पुनः ॥ ५॥

मनः सृजति वै देहान् गुणान् कर्माणि चात्मनः ।
तन्मनः सृजते माया ततो जीवस्य संसृतिः ॥ ६॥

स्नेहाधिष्ठानवर्त्यग्निसंयोगो यावदीयते ।
ततो दीपस्य दीपत्वमेवं देहकृतो भवः ।
रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेऽथ विनश्यति ॥ ७॥

न तत्रात्मा स्वयंज्योतिर्यो व्यक्ताव्यक्तयोः परः ।
आकाश इव चाधारो ध्रुवोऽनन्तोपमस्ततः ॥ ८॥

एवमात्मानमात्मस्थमात्मनैवामृश प्रभो ।
बुद्ध्यानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचिन्तया ॥ ९॥

चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षकः ।
मृत्यवो नोपधक्ष्यन्ति मृत्यूनां मृत्युमीश्वरम् ॥ १०॥

अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् ।
एवं समीक्षन्नात्मानमात्मन्याधाय निष्कले ॥ ११॥

दशन्तं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननैः ।
न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मनः ॥ १२॥

एतत्ते कथितं तात यदात्मा पृष्टवान् नृप ।
हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे ब्रह्मोपदेशो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥

द्वादश स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय 13
श्रीशुकदेवजी का अन्तिम उपदेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित ! इस श्रीमद्भागवत महापुराण में बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरि से पृथक् नहीं हैं, उन्हीं की प्रसाद-लीला और क्रोध-लीला की अभिव्यक्ति हैं ॥ १ ॥ हे राजन् ! अब तुम यह पशुओंकी-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे—यह बात नहीं है ॥ २ ॥ जैसे बीज से अङ्कुर और अङ्कुर से बीज की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देह से दूसरे देह की और दूसरे देह से तीसरे की उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसी से उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकों के शरीर के रूप में उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ी से सर्वथा अलग रहती है—लकड़ी की उत्पत्ति और विनाश से सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदि से सर्वथा अलग हो ॥ ३ ॥ स्वप्नावस्था में ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और मैं मर गया हूँ, मुझे लोग श्मशान में जला रहे हैं; परन्तु ये सब शरीर की ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्मा की नहीं। देखनेवाला तो उन अवस्थाओं से सर्वथा परे, जन्म और मृत्यु से रहित, शुद्ध-बुद्ध परमतत्त्व स्वरूप है ॥ ४ ॥ जैसे घड़ा फूट जाने पर आकाश पहले की ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशता की निवृत्ति हो जाने से लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाश से मिल गया है—वास्तव में तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जाने पर ऐसा मालूम पड़ता है मानो जीव ब्रह्म हो गया। वास्तव में तो वह ब्रह्म था ही, उसकी अब्रह्मता तो प्रतीतिमात्र थी ॥ ५ ॥ मन ही आत्मा के लिये शरीर, विषय और कर्मों की कल्पना कर लेता है; और उस मन की सृष्टि करती है माया (अविद्या)। वास्तव में माया ही जीव के संसार-चक्र में पडऩे का कारण है ॥ ६ ॥ जब तक तेल, तेल रखने का पात्र, बत्ती और आग का संयोग रहता है, तभी तक दीपक में दीपकपना है; वैसे ही उनके ही समान जब तक आत्मा का कर्म, मन, शरीर और इनमें रहनेवाले चैतन्याध्यासके साथ सम्बन्ध रहता है तभी तक उसे जन्म-मृत्यु के चक्र संसार में भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुण की वृत्तियों से उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है ॥ ७ ॥ परन्तु जैसे दीपक के बुझ जाने से तत्त्वरूप तेज का विनाश नहीं होता, वैसे ही संसार का नाश होने पर भी स्वयंप्रकाश आत्मा का नाश नहीं होता। क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सब से परे है, वह आकाश के समान सब का आधार है, नित्य और निश्चल है, वह अनन्त है। सचमुच आत्मा की उपमा आत्मा ही है ॥ ८ ॥

हे राजन् ! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तर में स्थित परमात्मा का साक्षातकार करो ॥ ९ ॥ देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो ! तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा। अजी, तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे ॥ १० ॥ तुम इस प्रकार अनुसंधान—चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूँ। सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ।’ इस प्रकार तुम अपने-आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो ॥ ११ ॥ उस समय अपनी विषैली जीभ लपलपाता हुआ, अपने होठों के को ने चाटता हुआ तक्षक आये और अपने विषपूर्ण मुखों से तुम्हारे पैरों में डस ले— कोई परवा नहीं। तुम अपने आत्म स्वरूप में स्थित होकर इस शरीर को—और तो क्या, सारे विश्व को भी अपने से पृथक् न देखोगे ॥ १२ ॥ आत्म स्वरूप बेटा परीक्षित ! तुम ने विश्वात्मा भगवान की लीला के सम्बन्ध में जो प्रश्र किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १३ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-06]

॥ षष्ठोऽध्यायः- ६ ॥
सूत उवाच
एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्-
व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन ।
तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना
बद्धाञ्जलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः ॥ १॥

राजोवाच
सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना ।
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः ॥ २॥

नात्यद्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम् ।
अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः ॥ ३॥

पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम् ।
यस्यां खलूत्तमश्लोको भगवाननुवर्ण्यते ॥ ४॥

भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम् ।
प्रविष्टो ब्रह्मनिर्वाणमभयं दर्शितं त्वया ॥ ५॥

अनुजानीहि मां ब्रह्मन् वाचं यच्छाम्यधोक्षजे ।
मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून् ॥ ६॥

अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया ।
भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम् ॥ ७॥

सूत उवाच
इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान् बादरायणिः ।
जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः ॥ ८॥ सगोनासंगोगो
परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना ।
समाधाय परं दध्यावस्पन्दासुर्यथा तरुः ॥ ९॥

प्राक्कूले बर्हिष्यासीनो गङ्गाकूल उदङ्मुखः ।
ब्रह्मभूतो महायोगी निःसङ्गश्छिन्नसंशयः ॥ १०॥

तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना ।
हन्तुकामो नृपं गच्छन् ददर्श पथि कश्यपम् ॥ ११॥

तं तर्पयित्वा द्रविणैर्निवर्त्य विषहारिणम् ।
द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम् ॥ १२॥

ब्रह्मभूतस्य राजर्षेर्देहोऽहिगरलाग्निना ।
बभूव भस्मसात्सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम् ॥ १३॥ सगोनासंगोगो
हाहाकारो महानासीद्भुवि खे दिक्षु सर्वतः ।
विस्मिता ह्यभवन् सर्वे देवासुरनरादयः ॥ १४॥

देवदुन्दुभयो नेदुर्गन्धर्वाप्सरसो जगुः ।
ववृषुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः ॥ १५॥

जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम् ।
यथा जुहाव सङ्क्रुद्धो नागान् सत्रे सह द्विजैः ॥ १६॥

सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान् महोरगान् ।
दृष्ट्वेन्द्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ ॥ १७॥

अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान् ।
उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः ॥ १८॥

तं गोपायति राजेन्द्र शक्रः शरणमागतम् ।
तेन संस्तम्भितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ ॥ १९॥

पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः ।
सहेन्द्रस्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते ॥ २०॥

तच्छ्रुत्वाऽऽजुहुवुर्विप्राः सहेन्द्रं तक्षकं मखे ।
तक्षकाशु पतस्वेह सहेन्द्रेण मरुत्वता ॥ २१॥

इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिन्द्रः प्रचालितः ।
बभूव सम्भ्रान्तमतिः सविमानः सतक्षकः ॥ २२॥

तं पतन्तं विमानेन सह तक्षकमम्बरात् ।
विलोक्याङ्गिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः ॥ २३॥

नैष त्वया मनुष्येन्द्र वधमर्हति सर्पराट् ।
अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः ॥ २४॥

जीवितं मरणं जन्तोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा ।
राजंस्ततोऽन्यो नास्त्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः ॥ २५॥

सर्पचौराग्निविद्युद्भ्यः क्षुत्तृट्व्याध्यादिभिर्नृप ।
पञ्चत्वमृच्छते जन्तुर्भुङ्क्त आरब्धकर्म तत् ॥ २६॥

तस्मात्सत्रमिदं राजन् संस्थीयेताभिचारिकम् ।
सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते ॥ २७॥

सूत उवाच
इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन् वचः ।
सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम् ॥ २८॥

सैषा विष्णोर्महामायाबाध्ययालक्षणा यया ।
मुह्यन्त्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः ॥ २९॥

न यत्र दम्भीत्यभया विराजिता
मायाऽऽत्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः ।
न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो
मनश्च सङ्कल्पविकल्पवृत्ति यत् ॥ ३०॥

न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं
श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम् ।
तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं
निषिध्य चोर्मीन्विरमेत्स्वयं मुनिः ॥ ३१॥

परं पदं वैष्णवमामनन्ति
तद्यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः ॥ ३२॥

त एतदधिगच्छन्ति विष्णोर्यत्परमं पदम् ।
अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम् ॥ ३३॥

अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन ।
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ ३४॥

नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
यत्पादाम्बुरुहध्यानात्संहितामध्यगामिमाम् ॥ ३५॥

शौनक उवाच
पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः ।
वेदाश्च कथिता व्यस्ता एतत्सौम्याभिधेहि नः ॥ ३६॥

सूत उवाच
समाहितात्मनो ब्रह्मन् ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।
हृद्याकाशादभून्नादो वृत्तिरोधाद्विभाव्यते ॥ ३७॥

यदुपासनया ब्रह्मन् योगिनो मलमात्मनः ।
द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम् ॥ ३८॥

ततोऽभूत्त्रिवृदोंकारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट् ।
यत्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मणः परमात्मनः ॥ ३९॥

श‍ृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक् ।
येन वाग्व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः ॥ ४०॥

स्वधाम्नो ब्राह्मणः साक्षाद्वाचकः परमात्मनः ।
स सर्वमन्त्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम् ॥ ४१॥

तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह ।
धार्यन्ते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः ॥ ४२॥

ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद्भगवानजः ।
अन्तस्थोष्मस्वरस्पर्शह्रस्वदीर्घादिलक्षणम् ॥ ४३॥

तेनासौ चतुरो वेदांश्चतुर्भिर्वदनैर्विभुः ।
सव्याहृतिकान् सोंकारांश्चातुर्होत्रविवक्षया ॥ ४४॥

पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन् ब्रह्मकोविदान् ।
ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन् ॥ ४५॥

ते परम्परया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः ।
चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः ॥ ४६॥

क्षीणायुषः क्षीणसत्त्वान् दुर्मेधान् वीक्ष्य कालतः ।
वेदान् ब्रह्मर्षयो व्यस्यन् हृदिस्थाच्युतचोदिताः ॥ ४७॥

अस्मिन्नप्यन्तरे ब्रह्मन् भगवान् लोकभावनः ।
ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये ॥ ४८॥

पराशरात्सत्यवत्यामंशांशकलया विभुः ।
अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम् ॥ ४९॥

ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीरुद्धृत्य वर्गशः ।
चतस्रः संहिताश्चक्रे मन्त्रैर्मणिगणा इव ॥ ५०॥

तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः ।
एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः ॥ ५१॥

पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यामुवाच ह ।
वैशम्पायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम् ॥ ५२॥

साम्नां जैमिनये प्राह तथा छन्दोगसंहिताम् ।
अथर्वाङ्गिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमन्तवे ॥ ५३॥

पैलः स्वसंहितामूचे इन्द्रप्रमितये मुनिः ।
बाष्कलाय च सोऽप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम् ॥ ५४॥

चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव ।
पराशरायाग्निमित्र इन्द्रप्रमितिरात्मवान् ॥ ५५॥

अध्यापयत्संहितां स्वां माण्डूकेयमृषिं कविम् ।
तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान् ॥ ५६॥

शाकल्यस्तत्सुतः स्वां तु पञ्चधा व्यस्य संहिताम् ।
वात्स्यमुद्गलशालीयगोखल्यशिशिरेष्वधात् ॥ ५७॥

जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम् ।
बलाकपैलवैतालविरजेभ्यो ददौ मुनिः ॥ ५८॥

बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो वालखिल्याख्यसंहिताम् ।
चक्रे वालायनिर्भज्यः कासारश्चैव तां दधुः ॥ ५९॥

बह्वृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः ।
श्रुत्वैतच्छन्दसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ६०॥

वैशम्पायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन् ।
यच्चेरुर्ब्रह्महत्यांहः क्षपणं स्वगुरोर्व्रतम् ॥ ६१॥

याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन् कियत् ।
चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सुदुश्चरम् ॥ ६२॥

इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया ।
विप्रावमन्त्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति ॥ ६३॥

देवरातसुतः सोऽपि छर्दित्वा यजुषां गणम् ।
ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान् यजुर्गणान् ॥ ६४॥

यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः ।
तैत्तिरीया इति यजुःशाखा आसन् सुपेशलाः ॥ ६५॥

याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मंश्छन्दांस्यधिगवेषयन् ।
गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेऽर्कमीश्वरम् ॥ ६६॥

याज्ञवल्क्य उवाच
ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगता-
मात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुर्विध-
भूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्ताना-
मन्तर्हृदयेषु बहिरपि चाकाश इवोपाधिना-
व्यवधीयमानो भवानेक एव क्षणलव-निमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादान-
विसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति ॥ ६७॥

यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तप-
त्यनुसवनमहरहराम्नायविधिनोप-
तिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिन-
बीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि
तपनमण्डलम् ॥ ६८॥

य इह वाव स्थिरचरनिकराणां
निजनिकेतनानां मन इन्द्रियासु-
गणाननात्मनः स्वयमात्मान्तर्यामी
प्रचोदयति ॥ ६९॥
य एवेमं लोकमतिकरालवदना-
न्धकारसंज्ञाजगरग्रहगिलितं
मृतकमिव विचेतनमवलोक्या-
नुकम्पया परमकारुणिक
ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं
श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने
प्रवर्तयति ॥ ७०॥

अवनिपतिरिवासाधूनां भय-
मुदीरयन्नटति परित आशा-
पालैस्तत्र तत्र कमलकोशा-
ञ्जलिभिरुपहृतार्हणः ॥ ७१॥

अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं
त्रिभुवनगुरुभिरभिवन्दितमहमयात-
यामयजुष्काम उपसरामीति ॥ ७२॥

सूत उवाच
एवं स्तुतः स भगवान् वाजिरूपधरो हरिः ।
यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात्प्रसादितः ॥ ७३॥

यजुर्भिरकरोच्छाखा दशपञ्च शतैर्विभुः ।
जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यन्दिनादयः ॥ ७४॥

जैमिनेः सामगस्यासीत्सुमन्तुस्तनयो मुनिः ।
सुन्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम् ॥ ७५॥

सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान् ।
सहस्रसंहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विज ॥ ७६॥

हिरण्यनाभः कौसल्यः पौष्यञ्जिश्च सुकर्मणः ।
शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवन्त्यो ब्रह्मवित्तमः ॥ ७७॥

उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन् पञ्चशतानि वै ।
पौष्यञ्ज्यावन्त्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान् प्रचक्षते ॥ ७८॥

लौगाक्षिर्माङ्गलिः कुल्यः कुशीदः कुक्षिरेव च ।
पौष्यञ्जिशिष्या जगृहुः संहितास्ते शतं शतम् ॥ ७९॥

कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशति संहिताः ।
शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवन्त्य आत्मवान् ॥ ८०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥


द्वादश स्कन्ध-छठा अध्याय 80
परीक्षित की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत को अपनी आत्मा के रूप में अनुभव करते हैं और व्यवहार में सब के प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यान से श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणों के तनिक और पास खिसक आये तथा अञ्जलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे ॥ १ ॥

राजा परीक्षित ने कहा—भगवन् ! आप करुणा के मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझ पर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान श्रीहरि के स्वरूप और लीलाओं का वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपा से परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ ॥ २ ॥ संसार के प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञान से शून्य हैं और विभिन्न प्रकार के दु:खों के दावानल से दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊ पर भगवन्मय महात्माओं का अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्य की बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है ॥ ३ ॥ मैंने और मेरे साथ और बहुत- से लोगों ने आपके मुखारविन्द से इस श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण किया है। इस पुराण में पद-पद पर भगवान श्रीहरि के उस स्वरूप और उन लीलाओं का वर्णन हुआ है, जिसके गान में बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं ॥ ४ ॥ भगवन् ! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षातकार करा दिया है। अब मैं परम शान्ति स्वरूप ब्रह्म में स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्यु के निमित्त से अथवा दल-के-दल मृत्युओं से भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ ॥ ५ ॥ ब्रह्मन् ! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओं के संस्कार से भी रहित चित्त को इन्द्रियातीत परमात्मा के स्वरूप में विलीन करके अपने प्राणों का त्याग कर दूँ ॥ ६ ॥ आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञान में परिनिष्ठित हो जाने से मेरा अज्ञान सर्वदा के लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान के परम कल्याणमय स्वरूप का मुझे साक्षातकार करा दिया है ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित ने भगवान श्रीशुकदेवजी से इस प्रकार कहकर बड़े प्रेम से उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओं के साथ वहाँ से चले गये ॥ ८ ॥ राजर्षि परीक्षित ने भी बिना किसी बाह्य सहायता के स्वयं ही अपने अन्तरात्मा को परमात्मा के चिन्तन में समाहित किया और ध्यानमग्र हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्ष का ठूँठ हो ॥ ९ ॥ उन्होंने गङ्गाजी के तट पर कुशों को इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्व की ओर हो और उन पर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चु के थे। अब वे ब्रह्म और आत्मा की एकतारूप महायोग में स्थित होकर ब्रह्म स्वरूप हो गये ॥ १० ॥

शौनकादि ऋषियो ! मुनिकुमार शृङ्गी ने क्रोधित होकर परीक्षित को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित को डस ने के लिये उनके पास चला। रास्ते में उसने कश्यप नाम के एक ब्राह्मण को देखा ॥ ११ ॥ कश्यप ब्राह्मण सर्पविष की चिकित्सा करने में बड़े निपुण थे। तक्षक ने बहुत-सा-धन देकर कश्यप को वहीं से लौटा दिया, उन्हें राजा के पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मण के रूप में छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित के पास गया और उन्हें डस लिया ॥ १२ ॥ राजर्षि परीक्षित तक्षक के डस ने के पहले ही ब्रह्म में स्थित हो चु के थे। अब तक्षक के विष की आग से उनका शरीर सब के सामने ही जलकर भस्म हो गया ॥ १३ ॥ पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओं में बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये ॥ १४ ॥ देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ १५ ॥

जब जनमेजय ने सुना कि तक्षक ने मेरे पिताजी को डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणों के साथ विधिपूर्वक सर्पों का अग्रिकुण्ड में हवन करने लगा ॥ १६ ॥ तक्षक ने देखा कि जनमेजय के सर्प-सत्र की प्रज्वलित अग्रि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया ॥ १७ ॥ बहुत सर्पों के भस्म होने पर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षितनन्दन राजा जनमेजय ने ब्राह्मणों से कहा कि ‘ब्राह्मणो ! अब तक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है ?’ ॥ १८ ॥ ब्राह्मणों ने कहा—‘राजेन्द्र ! तक्षक इस समय इन्द्र की शरण में चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षक को स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्रिकुण्ड में गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’ ॥ १९ ॥ परीक्षितनन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणों की बात सुनकर ऋत्विजों से कहा कि ‘ब्राह्मणो ! आपलोग इन्द्र के साथ तक्षक को क्यों नहीं अग्रि में गिरा देते ?’ ॥ २० ॥ जनमेजय की बात सुनकर ब्राह्मणों ने उस यज्ञ में इन्द्र के साथ तक्षक का अग्रिकुण्ड में आवाहन किया। उन्होंने कहा—‘रे तक्षक ! तू मरुद्गण के सहचर इन्द्र के साथ इस अग्रिकुण्ड में शीघ्र आ पड़’ ॥ २१ ॥ जब ब्राह्मणों ने इस प्रकार आकर्षणमन्त्र का पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान—स्वर्गलोक से विचलित हो गये। विमान पर बैठे हुए इन्द्र तक्षक के साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काट ने लगा ॥ २२ ॥ अङ्गिरानन्दन बृहस्पतिजी ने देखा कि आकाश से देवराज इन्द्र विमान और तक्षक के साथ ही अग्रिकुण्ड में गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजय से कहा— ॥ २३ ॥ ‘नरेन्द्र ! सर्पराज तक्षक को मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चु का है। इसलिये यह अजर और अमर है ॥ २४ ॥ राजन् ! जगत के प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्म के अतिरिक्त और कोई भी किसीको सुख-दु:ख नहीं दे सकता ॥ २५ ॥ जनमेजय ! यों तो बहुत- से लोगों की मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदि से तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तों से होती है; परन्तु यह तो कह ने की बात है। वास्तव में तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध- कर्म का ही उपभोग करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! तुम ने बहुत- से निरपराध सर्पों को जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञ का फल केवल प्राणियों की हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्म का ही भोग कर रहे हैं ॥ २७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! महर्षि बृहस्पतिजी की बात का सम्मान करके जनमेजय ने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजी की विधिपूर्वक पूजा की ॥ २८ ॥ ऋषिगण ! (जिससे विद्वान् ब्राह्मण को भी क्रोध आया, राजा को शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजय को क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान विष्णु की महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसीसे भगवान के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियों के द्वारा शरीरों में मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरे को दु:ख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्न से इस को निवृत्त नहीं कर सकते ॥ २९ ॥ (विष्णुभगवान के स्वरूप का निश्चय करके उनका भजन करने से ही माया से निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूप का निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है— इत्याकारक बुद्धि में बार-बार जो दम्भ-कपट का स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्मा के स्वरूप में निर्भय रूप से प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूप में उसका प्रतिपादन किया गया है। माया के आश्रित नाना प्रकार के विवाद, मतवाद भी परमात्मा के स्वरूप में नहीं हैं; क्योंकि वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवाद की तो बात ही क्या, लोक-परलोक के विषयों के सम्बन्ध में सङ्कल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है ॥ ३० ॥ कर्म, उसके सम्पादन की सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनों से अन्वित अहङ्कारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म स्वरूप परमात्मा न तो कभी किसी के द्वारा बाधित होता है और न तो किसी का विरोधी ही है। जो पुरुष उसपर मपद के स्वरूप का विचार करता है, वह मन की मायामयी लहरों, अहङ्कार आदि का बाध करके स्वयं अपने आत्म स्वरूप में विहार करने लगता है ॥ ३१ ॥ जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपद के अतिरिक्त वस्तु का परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णु भगवान का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मत से स्वीकार करती हैं। अपने चित्त को एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्त:करण की अशुद्धियों को, अनात्म-भावनाओं को सदा-सर्वदा के लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभाव से परिपूर्ण हृदय के द्वारा उसी परमपद का आलिङ्गन करते हैं और उसी में समा जाते हैं ॥ ३२ ॥ विष्णु- भगवान का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परम पद है। इस की प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती है, जिनके अन्त:करण में शरीर के प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थों में ममता ही। सचमुच जगत की वस्तुओं में मैंपन और मेरेपन का आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ॥ ३३ ॥ शौनकजी ! जिसे इस परमपद की प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरों की कटु वाणी सहन कर ले और बदले में किसी का अपमान न करे। इस क्षणभङ्गुर शरीर में अहंता-ममता करके किसी भी प्राणी से कभी वैर न करे ॥ ३४ ॥ भगवान श्रीकृष्ण का ज्ञान अनन्त है। उन्हींके चरणकमलों के ध्यान से मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया है। मैं अब उन्हीं को नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ॥ ३५ ॥

शौनकजी ने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी ! वेदव्यासजी के शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदों के आचार्य थे। उन लोगों ने कित ने प्रकार से वेदों का विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ॥ ३६ ॥

सूतजी ने कहा—ब्रह्मन् ! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्र-चित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों के सङ्घर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नाद का अनुभव होता है ॥ ३७ ॥ शौनकजी ! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्त:करण के द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मल को नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म- मृत्युरूप संसारचक्र नहीं है ॥ ३८ ॥ उसी अनाहत नाद से ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओं से युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्तरूप में परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्म स्वरूप होने के कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम वस्तु को भगवान ब्रह्म अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ॐकार के द्वारा ही होता है ॥ ३९ ॥ जब श्रवणेन्द्रिय की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकार को—समस्त अर्थों को प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्त्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सब के अभाव को भी जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐकार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है ॥ ४० ॥ ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्म का साक्षात वाचक है। और úकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदों का सनातन बीज है ॥ ४१ ॥

शौनकजी ! ॐकार के तीन वर्ण हैं — ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्, यजु:, साम—इन तीन नामों; भू:, भुव:, स्व:—इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्यावाले भावों को धारण करते हैं ॥ ४२ ॥ इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजी ने ॐकार से ही अन्त:स्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समाम्राय अर्थात् वर्णमाला की रचना की ॥ ४३ ॥ उसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजों के कर्म बतला ने के लिये ॐकार और व्याहृतियों के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रहमर्षि मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर उन्हें वेदों की शिक्षा दी। वे सभी जब धर्म का उपदेश करने में निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रों को उनका अध्ययन कराया ॥ ४४-४५ ॥ तदनन्तर, उन्हीं लोगों के नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा चारों युगों में सम्प्रदाय के रूप में वेदों की रक्षा होती रही। द्वा पर के अन्त में महर्षियों ने उनका विभाजन भी किया ॥ ४६ ॥ जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियों ने देखा कि समय के फेर से लोगों की आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देश में विराजमान परमात्मा की प्रेरणा से वेदों के अनेकों विभाग कर दिये ॥ ४७ ॥

शौनकजी ! इस वैवस्वत मन्वन्तर में भी ब्रह्मा-शङ्कर आदि लोकपालों की प्रार्थना से अखिल विश्व के जीवनदाता भगवान ने धर्म की रक्षा के लिये महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से अपने अंशांश-कला स्वरूप व्यासके रूप में अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी ! उन्होंने ही वर्तमान युग में वेद के चार विभाग किये हैं ॥ ४८-४९ ॥ जैसे मणियों के समूहमें से विभिन्न जाति की मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान व्यासदेव ने मन्त्र- समुदाय में से भिन्न-भिन्न प्रकरणों के अनुसार मन्त्रों का संग्रह करके उनसे ऋग्, यजु:, साम और अथर्व—ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने चार शिष्यों को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक संहिता की शिक्षा दी ॥ ५०-५१ ॥ उन्होंने ‘बह्वृच’ नाम की पहली ऋक्संहिता पैल को, ‘निगद’ नाम की दूसरी यजु:संहिता वैशम्पायन को, सामश्रुतियों की ‘छन्दोगसंहिता’ जैमिनि को और अपने शिष्य सुमन्तु को ‘अथर्वाङ्गिरस-संहिता’ का अध्ययन कराया ॥ ५२-५३ ॥ शौनकजी ! पैल मुनि ने अपनी संहिता के दो विभाग करके एक का अध्ययन इन्द्रप्रमिति को और दूसरे का बाष्कल को कराया। बाष्कल ने भी अपनी शाखा के चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्रिमित्र को पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्रप्रमिति ने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषि को अपनी संहिता का अध्ययन कराया। माण्डूकेय के शिष्य थे—देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि ऋषियों को वेदों का अध्ययन कराया ॥ ५४—५६ ॥ माण्डूकेय के पुत्र का नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिता के पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्यों को पढ़ाया ॥ ५७ ॥ शाकल्य के एक और शिष्य थे—जातूकण्र्यमुनि। उन्होंने अपनी संहिता के तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्त के साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, वैताल और विरज को पढ़ाया ॥ ५८ ॥ बाष्कल के पुत्र बाष्कलि ने सब शाखाओं से एक ‘वालखिल्य’ नाम की शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासार ने ग्रहण किया ॥ ५९ ॥ इन ब्रहमर्षियों ने पूर्वोक्त सम्प्रदाय के अनुसार ऋग्वेदसम्बन्धी बह्वृच शाखाओं को धारण किया। जो मनुष्य यह वेदों के विभाजन का इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापों से छूट जाता है ॥ ६० ॥

शौनकजी ! वैशम्पायन के कुछ शिष्यों का नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगों ने अपने गुरुदेव के ब्रह्महत्या-जनित पाप का प्रायश्चित्त करने के लिये एक व्रत का अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा ॥ ६१ ॥ वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्यमुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेव से कहा—‘अहो भगवन् ! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रतपालन से लाभ ही कितना है ? मैं आपके प्रायश्चित्त के लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’ ॥ ६२ ॥

याज्ञवल्क्यमुनि की यह बात सुनकर वैशम्पायनमुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा—‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणों का अपमान करनेवाले शिष्य की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अब तक तुम ने मुझ से जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँ से चले जाओ ॥ ६३ ॥ याज्ञवल्क्यजी देवरात के पुत्र थे। उन्होंने गुरुजी की आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेद का वमन कर दिया और वे वहाँ से चले गये। जब मुनियों ने देखा कि याज्ञवल्क्य ने तो यजुर्वेद का वमन कर दिया, तब उनके चित्त में इस बात के लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इस को ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रों को ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिता को चुग लिया। इसीसे यजुर्वेद की वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नाम से प्रसिद्ध हुई ॥ ६४-६५ ॥ शौनकजी ! अब याज्ञवल्क्य ने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजी के पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्यभगवान का उपस्थान करने लगे ॥ ६६ ॥

याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं—मैं ॐकार स्वरूप भगवान सूर्य को नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत के आत्मा और काल स्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जित ने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—चार प्रकार के प्राणी हैं, उन सब के हृदयदेश में और बाहर आकाश के समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधि के धर्मों से असङ्ग रहनेवाले अद्वितीय भगवान ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवों से सङ्घटित संवत्सरों के द्वारा एवं जल के आकर्षण-विकर्षण— आदान-प्रदान के द्वारा समस्त लोकों की जीवनयात्रा चलाते हैं ॥ ६७ ॥ प्रभो ! आप समस्त देवताओं में श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधि से आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दु:खों के बीजों को आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव ! आप सारी सृष्टि के मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डल का पूरी एकाग्रता के साथ ध्यान करते हैं ॥ ६८ ॥ आप सब के आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत में जित ने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणों के प्रेरक हैं[1] ॥ ६९ ॥ यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगर के विकराल मुँहमें पडक़र अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणा स्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्र से ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याण के साधन समय-समय के धर्मानुष्ठानों में लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टों को भयभीत करता हुआ अपने राज्य में विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार, आदि दुष्टों को भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं ॥ ७० ॥ चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थान पर अपनी कमल की कली के समान अञ्जलियों से आपको उपहार समर्पित करते हैं ॥ ७१ ॥ भगवन् ! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकों के गुरु-सदृश महानुभावों से भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलों की इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेद की प्राप्ति हो, जो अब तक किसीको न मिला हो ॥ ७२ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब याज्ञवल्क्यमुनि ने भगवान सूर्य की इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूप से प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेद के उन मन्त्रों का उपदेश किया, जो अब तक किसीको प्राप्त न हुए थे ॥ ७३ ॥ इसके बाद याज्ञवल्क्यमुनि ने यजुर्वेद के असंख्य मन्त्रों से उसकी पंद्रह शाखाओं की रचना की। वही वाजसनेय शाखा के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियों ने ग्रहण किया ॥ ७४ ॥

यह बात मैं पहले ही कह चु का हूँ कि महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन ने जैमिनि मुनि को सामसंहिता का अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तु मुनि और पौत्र थे सुन्वान् ! जैमिनि मुनि ने अपने पुत्र और पौत्र को एक-एक संहिता पढ़ायी ॥ ७५ ॥ जैमिनि मुनि के एक शिष्य का नाम था सुकर्मा। वह एक महान पुरुष था। जैसे एक वृक्ष में बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्माने सामवेद की एक हजार संहिताएँ बना दीं ॥ ७६ ॥ सुकर्मा के शिष्य कोसलदेशनिवासी हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि और ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आवन्त्य ने उन शाखाओं को ग्रहण किया ॥ ७७ ॥ पौष्यञ्जि और आवन्त्य के पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशा के निवासी होने के कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे। उन्हीं को प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिता का अध्ययन किया ॥ ७८ ॥ पौष्यञ्जि के और भी शिष्य थे—लौगाक्षि, माङ्गलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमें से प्रत्येक ने सौ-सौ संहिताओं का अध्ययन किया ॥ ७९ ॥ हिरण्यनाभ का शिष्य था—कृत। उसने अपने शिष्यों को चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्य ने अपने शिष्यों को दीं। इस प्रकार सामवेद का विस्तार हुआ ॥ ८० ॥


[1] ६७, ६८, ६९ इन तीनों वाक्यों द्वारा क्रमश: गायत्रीमन्त्र के ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’, ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’—इन तीन चरणों की व्याख्या करते हुए भगवान सूर्य की स्तुति की गयी है।





स्कन्ध-12 [अध्याय-07]

॥ सप्तमोऽध्यायः - ७ ॥
सूत उवाच
अथर्ववित्सुमन्तुश्च शिष्यमध्यापयत्स्वकाम् ।
संहितां सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान् ॥ १॥

शौक्लायनिर्ब्रह्मबलिर्मोदोषः पिप्पलायनिः ।
वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो श‍ृणु ।
कुमुदः शुनको ब्रह्मन् जाजलिश्चाप्यथर्ववित् ॥ २॥

बभ्रुः शिष्योऽथाङ्गिरसः सैन्धवायन एव च ।
अधीयेतां संहिते द्वे सावर्णाद्यास्तथापरे ॥ ३॥

नक्षत्रकल्पः शान्तिश्च कश्यपाङ्गिरसादयः ।
एते आथर्वणाचार्याः श‍ृणु पौराणिकान् मुने ॥ ४॥

त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः ।
वैशम्पायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे ॥ ५॥

अधीयन्त व्यासशिष्यात्संहितां मत्पितुर्मुखात् ।
एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम् ॥ ६॥

कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योऽकृतव्रणः ।
अधीमहि व्यासशिष्याच्चत्वारो मूलसंहिताः ॥ ७॥

पुराणलक्षणं ब्रह्मन् ब्रह्मर्षिभिर्निरूपितम् ।
श‍ृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः ॥ ८॥

सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्तिरक्षान्तराणि च ।
वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः ॥ ९॥

दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः ।
केचित्पञ्चविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया ॥ १०॥

अव्याकृतगुणक्षोभान्महतस्त्रिवृतोऽहमः ।
भूतमात्रेन्द्रियार्थानां सम्भवः सर्ग उच्यते ॥ ११॥

पुरुषानुगृहीतानामेतेषां वासनामयः ।
विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद्बीजं चराचरम् ॥ १२॥

वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च ।
कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्चोदनयापि वा ॥ १३॥

रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे ।
तिर्यङ्मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः ॥ १४॥

मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वराः ।
ऋषयोंऽशावताराश्च हरेः षड्विधमुच्यते ॥ १५॥

राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः ।
वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये ॥ १६॥

नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः ।
संस्थेति कविभिः प्रोक्तश्चतुर्धास्य स्वभावतः ॥ १७॥

हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेरविद्याकर्मकारकः ।
यं चानुशयिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे ॥ १८॥

व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
मायामयेषु तद्ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः ॥ १९॥

पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु ।
बीजादिपञ्चतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम् ॥ २०॥

विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम् ।
योगेन वा तदाऽऽत्मानं वेदेहाया निवर्तते ॥ २१॥

एवं लक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः ।
मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महान्ति च ॥ २२॥

ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैङ्गं सगारुडं ।
नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम् ॥ २३॥

भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम् ।
वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यमिति त्रिषट् ॥ २४॥

ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः ।
शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम् ॥ २५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥


द्वादश स्कन्ध-सातवाँ अध्याय 25
अथर्ववेद की शाखाएँ और पुराणों के लक्षण
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! मैं कह चु का हूँ कि अथर्ववेद के ज्ञाता सुमन्तु मुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्ध को पढ़ायी। कबन्ध ने उस संहिता के दो भाग करके पथ्य और वेददर्श को उसका अध्ययन कराया ॥ १ ॥ वेददर्श के चार शिष्य हुए—शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि। अब पथ्य के शिष्यों के नाम सुनो ॥ २ ॥ शौनकजी ! पथ्य के तीन शिष्य थे—कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अङ्गिरा-गोत्रोत्पन्न शुनक के दो शिष्य थे—बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगों ने दो संहिताओं का अध्ययन किया। अथर्ववेद के आचार्यों में इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादि के शिष्य सावण्र्य आदि तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आङ्गिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकों के सम्बन्ध में सुनाता हूँ ॥ ३-४ ॥

शौनकजी ! पुराणों के छ: आचार्य प्रसिद्ध हैं—त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत ॥ ५ ॥ इन लोगों ने मेरे पिताजी से एक-एक पुराण-संहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजी ने स्वयं भगवान व्यास से उन संहिताओं का अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्यों से सभी संहिताओं का अध्ययन किया था ॥ ६ ॥ उन छ: संहिताओं के अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजी के शिष्य अकृतव्रण और उन सब के साथ मैंने व्यासजी के शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था ॥ ७ ॥

शौनकजी ! महर्षियों ने वेद और शास्त्रों के अनुसार पुराणों के लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानी से उनका वर्णन सुनो ॥ ८ ॥ शौनकजी ! पुराणों के पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणों के दस लक्षण हैं—विश्व-सर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय। कोई- कोई आचार्य पुराणों के पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणों में दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणों में पाँच। विस्तार करके

दस बतलाते हैं और संक्षेप करके पाँच ॥ ९-१० ॥ (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृति में लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्व से तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक)—तीन प्रकार के अहङ्कार बनते हैं। त्रिविध अहङ्कार से ही पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयों की उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्ति-क्रम का नाम ‘सर्ग’ है ॥ ११ ॥ परमेश्वर के अनुग्रह से सृष्टि का सामथ्र्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मों के अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओं की प्रधानता से जो यह चराचर शरीरात्मक जीव की उपाधि की सृष्टि करते हैं, एक बीज से दूसरे बीज के समान, इसी को विसर्ग कहते हैं ॥ १२ ॥ चर प्राणियों की अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाह की सामग्री है। चर प्राणियों के दुग्ध आदि भी इनमें से मनुष्यों ने कुछ तो स्वभाववश कामना के अनुसार निश्चित कर ली है और कुछ ने शास्त्र के आज्ञानुसार ॥ १३ ॥ भगवान युग-युग में पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदि के रूप में अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारों में वे वेदधर्म के विरोधियों का संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्व की रक्षा के लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है ॥ १४ ॥ मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान के अंशावतार—इन्हीं छ: बातों की विशेषता से युक्त समय को ‘मन्वन्तर’ कहते हैं ॥ १५ ॥ ब्रह्माजी से जित ने राजाओं की सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तानपरम्परा- को ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओं के तथा उनके वंशधरों के चरित्र का नाम ‘वंशानुचरित’ है ॥ १६ ॥ इस विश्वब्रह्माण्ड का स्वभाव से ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं—नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानों ने इन्हीं को ‘संस्था’ कहा है ॥ १७ ॥ पुराणों के लक्षण में ‘हेतु’ नाम से जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तव में वही सर्ग-विसर्ग आदि का हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकार के कर्मकलाप में उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधान की दृष्टि से देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृति में शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधि की दृष्टि से कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ॥ १८ ॥ जीव की वृत्तियों के तीन विभाग हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओं में इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञ के मायामय रूपों में प्रतीत होता है और इन अवस्थाओं से परे तुरीयतत्त्व के रूप में भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसी को यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्द से कहा गया है ॥ १९ ॥ नामविशेष और रूपविशेष से युक्त पदार्थों पर विचार करें, तो वे सत्तामात्र वस्तु के रूप में सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असल में वह सत्ता ही उन विशेषताओं के रूप में प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्याय से शरीर और विश्वब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूप में परम सत्य स्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य-भेद से अधिष्ठान और साक्षी के रूप में ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है ॥ २० ॥ जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियों का त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्ति में ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों के द्वारा आत्मज्ञान का उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृत्ति से निवृत्त हो जाता है ॥ २१ ॥

शौनकादि ऋषियो ! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानों ने इन्हीं लक्षणों के द्वारा पुराणों की यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणों से युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ॥ २२ ॥ उनके नाम ये हैं— ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्रिपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामन पुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ॥ २३-२४ ॥ शौनकजी ! व्यासजी की शिष्य-परम्परा ने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओं का अध्ययन- अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसङ्ग सुनने और पढऩेवालों के ब्रह्मतेज की अभिवृद्धि करता है ॥ २५ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-08]

॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥
शौनक उवाच
सूत जीव चिरं साधो वद नो वदतां वर ।
तमस्यपारे भ्रमतां नॄणां त्वं पारदर्शनः ॥ १॥

आहुश्चिरायुषमृषिं मृकण्डतनयं जनाः ।
यः कल्पान्ते उर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत् ॥ २॥

स वा अस्मत्कुलोत्पन्नः कल्पेऽस्मिन् भार्गवर्षभः ।
नैवाधुनापि भूतानां सम्प्लवः कोऽपि जायते ॥ ३॥

एक एवार्णवे भ्राम्यन् ददर्श पुरुषं किल ।
वटपत्रपुटे तोकं शयानं त्वेकमद्भुतम् ॥ ४॥

एष नः संशयो भूयान् सूत कौतूहलं यतः ।
तं नश्छिन्धि महायोगिन् पुराणेष्वपि सम्मतः ॥ ५॥

सूत उवाच
प्रश्नस्त्वया महर्षेऽयं कृतो लोकभ्रमापहः ।
नारायणकथा यत्र गीता कलिमलापहा ॥ ६॥

प्राप्तद्विजातिसंस्कारो मार्कण्डेयः पितुः क्रमात् ।
छन्दांस्यधीत्य धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुतः ॥ ७॥

बृहद्व्रतधरः शान्तो जटिलो वल्कलाम्बरः ।
बिभ्रत्कमण्डलुं दण्डमुपवीतं समेखलम् ॥ ८॥

कृष्णाजिनं साक्षसूत्रं कुशांश्च नियमर्द्धये ।
अग्न्यर्कगुरुविप्रात्मस्वर्चयन् सन्ध्ययोर्हरिम् ॥ ९॥

सायं प्रातः स गुरवे भैक्ष्यमाहृत्य वाग्यतः ।
बुभुजे गुर्वनुज्ञातः सकृन्नो चेदुपोषितः ॥ १०॥

एवं तपःस्वाध्यायपरो वर्षाणामयुतायुतम् ।
आराधयन् हृषीकेशं जिग्ये मृत्युं सुदुर्जयम् ॥ ११॥

ब्रह्मा भृगुर्भवो दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च येऽपरे ।
नृदेवपितृभूतानि तेनासन्नतिविस्मिताः ॥ १२॥

इत्थं बृहद्व्रतधरस्तपःस्वाध्यायसंयमैः ।
दध्यावधोक्षजं योगी ध्वस्तक्लेशान्तरात्मना ॥ १३॥

तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं महायोगेन योगिनः ।
व्यतीयाय महान् कालो मन्वन्तरषडात्मकः ॥ १४॥

एतत्पुरन्दरो ज्ञात्वा सप्तमेऽस्मिन् किलान्तरे ।
तपोविशङ्कितो ब्रह्मन्नारेभे तद्विघातनम् ॥ १५॥

गन्धर्वाप्सरसः कामं वसन्तमलयानिलौ ।
मुनये प्रेषयामास रजस्तोकमदौ तथा ॥ १६॥

ते वै तदाश्रमं जग्मुर्हिमाद्रेः पार्श्व उत्तरे ।
पुष्पभद्रानदी यत्र चित्राख्या च शिला विभो ॥ १७॥

तदाश्रमपदं पुण्यं पुण्यद्रुमलताञ्चितम् ।
पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामलजलाशयम् ॥ १८॥

मत्तभ्रमरसङ्गीतं मत्तकोकिलकूजितम् ।
मत्तबर्हिनटाटोपं मत्तद्विजकुलाकुलम् ॥ १९॥

वायुः प्रविष्टआदाय हिमनिर्झरशीकरान् ।
सुमनोभिः परिष्वक्तो ववावुत्तम्भयन् स्मरम् ॥ २०॥

उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्रः प्रवालस्तबकालिभिः ।
गोपद्रुमलताजालैस्तत्रासीत्कुसुमाकरः ॥ २१॥

अन्वीयमानो गन्धर्वैर्गीतवादित्रयूथकैः ।
अदृश्यतात्तचापेषुः स्वःस्त्रीयूथपतिः स्मरः ॥ २२॥

हुत्वाग्निं समुपासीनं ददृशुः शक्रकिङ्कराः ।
मीलिताक्षं दुराधर्षं मूर्तिमन्तमिवानलम् ॥ २३॥

ननृतुस्तस्य पुरतः स्त्रियोऽथो गायका जगुः ।
मृदङ्गवीणापणवैर्वाद्यं चक्रुर्मनोरमम् ॥ २४॥

सन्दधेऽस्त्रं स्वधनुषि कामः पञ्चमुखं तदा ।
मधुर्मनो रजस्तोक इन्द्रभृत्या व्यकम्पयन् ॥ २५॥

क्रीडन्त्याः पुञ्जिकस्थल्याः कन्दुकैः स्तनगौरवात् ।
भृशमुद्विग्नमध्यायाः केशविस्रंसितस्रजः ॥ २६॥

इतस्ततो भ्रमद्दृष्टेश्चलन्त्या अनुकन्दुकम् ।
वायुर्जहार तद्वासः सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम् ॥ २७॥

विससर्ज तदा बाणं मत्वा तं स्वजितं स्मरः ।
सर्वं तत्राभवन्मोघमनीशस्य यथोद्यमः ॥ २८॥

त इत्थमपकुर्वन्तो मुनेस्तत्तेजसा मुने ।
दह्यमाना निववृतुः प्रबोध्याहिमिवार्भकाः ॥ २९॥

इतीन्द्रानुचरैर्ब्रह्मन् धर्षितोऽपि महामुनिः ।
यन्नागादहमो भावं न तच्चित्रं महत्सु हि ॥ ३०॥

दृष्ट्वा निस्तेजसं कामं सगणं भगवान् स्वराट् ।
श्रुत्वानुभावं ब्रह्मर्षेर्विस्मयं समगात्परम् ॥ ३१॥

तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।
अनुग्रहायाविरासीन्नरनारायणो हरिः ॥ ३२॥सगोनासंगोगो
तौ शुक्लकृष्णौ नवकञ्जलोचनौ
चतुर्भुजौ रौरववल्कलाम्बरौ ।
पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्
कमण्डलुं दण्डमृजुं च वैणवम् ॥ ३३॥

पद्माक्षमालामुत जन्तुमार्जनं
वेदं च साक्षात्तप एव रूपिणौ ।
तपत्तडिद्वर्णपिशङ्गरोचिषा
प्रांशू दधानौ विबुधर्षभार्चितौ ॥ ३४॥

ते वै भगवतो रूपे नरनारायणावृषी ।
दृष्ट्वोत्थायादरेणोच्चैर्ननामाङ्गेन दण्डवत् ॥ ३५॥

स तत्सन्दर्शनानन्दनिर्वृतात्मेन्द्रियाशयः ।
हृष्टरोमाश्रुपूर्णाक्षो न सेहे तावुदीक्षितुम् ॥ ३६॥

उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व औत्सुक्यादाश्लिषन्निव ।
नमो नम इतीशानौ बभाषे गद्गदाक्षरः ॥ ३७॥

तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च ।
अर्हणेनानुलेपेन धूपमाल्यैरपूजयत् ॥ ३८॥

सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी ।
पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्ठाविदमब्रवीत् ॥ ३९॥

मार्कण्डेय उवाच
किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः
संस्पन्दते तमनु वाङ्मन इन्द्रियाणि ।
स्पन्दन्ति वै तनुभृतामजशर्वयोश्च
स्वस्याप्यथापि भजतामसि भावबन्धुः ॥ ४०॥

मूर्ती इमे भगवतो भगवंस्त्रिलोक्याः
क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै ।
नानाबिभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदं
सृष्ट्वा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभिः ॥ ४१॥

तस्यावितुः स्थिरचरेशितुरङ्घ्रिमूलं
यत्स्थं न कर्मगुणकालरजः स्पृशन्ति ।
यद्वै स्तुवन्ति निनमन्ति यजन्त्यभीक्ष्णं
ध्यायन्ति वेदहृदया मुनयस्तदाप्त्यै ॥ ४२॥

नान्यं तवाङ्घ्र्युपनयादपवर्गमूर्तेः
क्षेमं जनस्य परितो भिय ईश विद्मः ।
ब्रह्मा बिभेत्यलमतो द्विपरार्धधिष्ण्यः
कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम् ॥ ४३॥

तद्वै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलं
हित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरोः परस्य ।
देहाद्यपार्थमसदन्त्यमभिज्ञमात्रं
विन्देत ते तर्हि सर्वमनीषितार्थम् ॥ ४४॥

सत्त्वं रजस्तम इतीश तवात्मबन्धो
मायामयाः स्थितिलयोदयहेतवोऽस्य ।
लीलाधृता यदपि सत्त्वमयी प्रशान्त्यै
नान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम् ॥ ४५॥

तस्मात्तवेह भगवन्नथ तावकानां
शुक्लां तनुं स्वदयितां कुशला भजन्ति ।
यत्सात्वताः पुरुषरूपमुशन्ति सत्त्वं
लोको यतोभयमुतात्मसुखं न चान्यत् ॥ ४६॥

तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने
विश्वाय विश्वगुरवे परदैवतायै ।
नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय
हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय ॥ ४७॥

यं वै न वेद वितथाक्षपथैर्भ्रमद्धीः
सन्तं स्वकेष्वसुषु हृद्यपि दृक्पथेषु ।
तन्माययावृतमतिः स उ एव साक्षा-
दाद्यस्तवाखिलगुरोरुपसाद्य वेदम् ॥ ४८॥

यद्दर्शनं निगम आत्मरहःप्रकाशं
मुह्यन्ति यत्र कवयोऽजपरा यतन्तः-
तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं
वन्दे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम् ॥ ४९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥


द्वादश स्कन्ध-आठवाँ अध्याय 49
मार्कण्डेयजी की तपस्या और वर-प्राप्ति
शौनकजी ने कहा—साधुशिरोमणि सूतजी ! आप आयुष्मान् हों। सचमुच आप वक्ताओं के सिरमौर हैं। जो लोग संसार के अपार अन्धकार में भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँ से निकालकर प्रकाश स्वरूप परमात्मा का साक्षातकार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्र का उत्तर दीजिये ॥ १ ॥ लोग कहते हैं कि मृकण्ड-ऋषि के पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलय ने सारे जगत को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे ॥ २ ॥ परन्तु सूतजी ! वे तो इसी कल्प में हमारे ही वंश में उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगु-वंशी हैं और जहाँ तक हमें मालूम है, इस कल्प में अब तक प्राणियों का कोई प्रलय नहीं हुआ है ॥ ३ ॥ ऐसी स्थिति में यह बात कैसे सत्य हो सकती है कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलय कालीन समुद्र में डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब-उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवट के पत्ते के दो ने में अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्द का दर्शन किया ॥ ४ ॥ सूतजी ! हमारे मन में बड़ा सन्देह है और इस बात को जान ने की बड़ी उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकों में सम्मानित हैं। आप कृपा करके हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये ॥ ५ ॥

सूतजी ने कहा—शौनकजी ! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्र किया। इससे लोगों का भ्रम मिट जायगा। और सब से बड़ी बात तो यह है कि इस कथा में भगवान नारायण की महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं ॥ ६ ॥ शौनकजी ! मृकण्ड ऋषि ने अपने पुत्र मार्कण्डेय के सभी संस्कार समय-समय पर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदों का अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्याय से सम्पन्न हो गये थे ॥ ७ ॥ उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा था। शान्तभाव से रहते थे। सिर पर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षों की छाल का ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथों में कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीर पर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती ॥ ८ ॥ काले मृग का चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश—यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत की पूर्ति के लिये ही ग्रहण किया था। वे सायङ्काल और प्रात:काल अग्रिहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार, मानस-पूजा और ‘मैं परमात्मा का स्वरूप ही हूँ’ इस प्रकार की भावना आदि के द्वारा भगवान की आराधना करते ॥ ९ ॥ सायं-प्रात: भिक्षा लाकर गुरुदेव के चरणों में निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरुजी की आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते ॥ १० ॥ मार्कण्डेयजी ने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्याय में तत्पर रहकर करोड़ों वर्षों तक भगवान की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर ली, जिस को जीतना बड़े-बड़े योगियों के लिये भी कठिन है ॥ ११ ॥ मार्कण्डेयजी की मृत्यु-विजय को देखकर ब्रह्मा, भृगु, शङ्कर, दक्ष प्रजापति, ब्रह्माजी के अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ १२ ॥ आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या, स्वाध्याय और संयम आदि के द्वारा अविद्या आदि सारे क्लेशों को मिटाकर शुद्ध अन्त:करण से इन्द्रियातीत परमात्मा का ध्यान करने लगे ॥ १३ ॥ योगी मार्कण्डेयजी महायोग के द्वारा अपना चित्त भगवान के स्वरूप में जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय—छ: मन्वन्तर व्यतीत हो गये ॥ १४ ॥ ब्रह्मन् ! इस सातवें मन्वन्तर में जब इन्द्र को इस बात का पता चला, तब तो वे उनकी तपस्या से शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्या में विघ्र डालना आरम्भ कर दिया ॥ १५ ॥

शौनकजी ! इन्द्र ने मार्कण्डेयजी की तपस्या में विघ्र डालने के लिये उनके आश्रम पर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मद को भेजा ॥ १६ ॥ भगवन्! वे सब उनकी आज्ञा के अनुसार उनके आश्रम पर गये। मार्कण्डेयजी का आश्रम हिमालय के उत्तर की ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नाम की नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नाम की एक शिला है ॥ १७ ॥ शौनकजी ! मार्कण्डेयजी का आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षों की पंक्तियाँ हैं, उन पर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षों के झुरमुट में स्थान-स्थान पर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जल से भरे जलाशय सब ऋतुओं में एक- से ही रहते हैं ॥ १८ ॥ कहीं मतवाले भौंरे अपनी सङ्गीतमयी गुंजार से लोगों का मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल पञ्चम स्वर में ‘कुहू-कुहू’ कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियों का झुंड खेलता रहता है ॥ १९ ॥ मार्कण्डेय मुनि के ऐसे पवित्र आश्रम में इन्द्र के भेजे हुए वायु ने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनों की नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पों का आलिङ्गन किया और फिर कामभाव को उत्तेजित करते हुए धीरे-धीरे बह ने लगा ॥ २० ॥ कामदेव के प्यारे सखा वसन्त ने भी अपनी माया फैलायी। सन्ध्या का समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणों का विस्तार कर रहे थे। सहस्र-सहस्र डालियोंवाले वृक्ष लताओं का आलिङ्गन पाकर धरती तक झु के हुए थे। नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलों के गुच्छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे ॥ २१ ॥ वसन्त का साम्राज्य देखकर कामदेव ने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ गाने-बजानेवाले गन्धर्व झुंड-के-झुंड चल रहे थे, उसके चारों ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएँ चल रही थीं और अकेला काम ही सब का नायक था। उसके हाथ में पुष्पों का धनुष और उसपर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे ॥ २२ ॥

उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्रिहोत्र करके भगवान की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इत ने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्रिदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों ! उन को देखने से ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्र के आज्ञाकारी सेवकों ने मार्कण्डेय मुनि को इसी अवस्था में देखा ॥ २३ ॥ अब अप्सराएँ उनके सामने नाच ने लगीं। कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदङ्ग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वर में बजाने लगे ॥ २४ ॥ शौनकजी ! अब कामदेव ने अपने पुष्पनिर्मित धनुष पर पञ्चमुख बाण चढ़ाया। उसके बाण के पाँच मुख हैं—शोषण, दीपन, सम्मोहन, तापन और उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगा ने की ताक में था, उस समय इन्द्र के सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेय मुनि का मन विचलित करने के लिये प्रयत्नशील थे ॥ २५ ॥ उनके सामने ही पुञ्जिकस्थली नाम की सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी। स्तनों के भार से बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियों में गुँथे हुए सुन्दर-सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखरकर धरती पर गिरती जा रही थीं ॥ २६ ॥ कभी-कभी वह तिरछी चितवन से इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंद के साथ आकाश की ओर जाते, कभी धरती की ओर और कभी हथेलियों की ओर। वह बड़े हाव-भाव के साथ गेंद की ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वायु ने उसकी झीनी-सी साड़ी को शरीर से अलग कर दिया ॥ २७ ॥ कामदेव ने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनि को मैंने जीत लिया, उनके ऊ पर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनि पर उसका सारा उद्योग निष्फल हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषों के प्रयत्न विफल हो जाते हैं ॥ २८ ॥ शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्या से भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेज से जल ने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँप को जगाकर भाग जाते हैं ॥ २९ ॥ शौनकजी ! इन्द्र के सेवकों ने इस प्रकार मार्कण्डेयजी को पराजित करना चाहा, परन्तु वे रत्तीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मन में इस बात को लेकर तनिक भी अहङ्कार का भाव न हुआ। सच है, महापुरुषों के लिये यह कौन-सी आश्चर्य की बात है ॥ ३० ॥ जब देवराज इन्द्र ने देखा कि कामदेव अपनी सेना के साथ निस्तेज—हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रहमर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ ॥ ३१ ॥

शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा भगवान में चित्त लगा ने का प्रयत्न करते रहते थे। अब उन पर कृपाप्रसाद की वर्षा करने के लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान नारायण प्रकट हुए ॥ ३२ ॥ उन दोनों में एक का शरीर गौरवर्ण था और दूसरे का श्याम। दोनों के ही नेत्र तुरंत के खिले हुए कमल के समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पह ने हुए थे, तो दूसरे वृक्ष की छाल। हाथों में कुश लिये हुए थे और गले में तीन-तीन सूत के यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँस का सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे ॥ ३३ ॥ कमलगट्टे की माला और जीवों को हटा ने के लिये वस्त्र की कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदि के भी पूज्य भगवान नर-नारायण कुछ ऊँचे कद के थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीर से चमकती हुई बिजली के समान पीले-पीले रंग की कान्ति निकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो स्वयं तप ही मूर्तिमान् हो गया हो ॥ ३४ ॥ जब मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि भगवान के साक्षात स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभाव से उठकर खड़े हो गये और धरती पर दण्डवत् लोटकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ भगवान के दिव्य दर्शन से उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियाँ एवं अन्त:करण शान्ति के समुद्र में गोता खा ने लगे। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रों में आँसू उमड़ आये, जिनके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते ॥ ३६ ॥ तदनन्तर वे हाथ जोडक़र उठ खड़े हुए। उनका अङ्ग-अङ्ग भगवान के सामने झु का जा रहा था। उनके हृदय में उत्सुकता तो इतनी थी, मानो वे भगवान का आलिङ्गन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणी से केवल इतना ही कहा—‘नमस्कार ! नमस्कार’ ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने दोनों को आसन पर बैठाया, बड़े प्रेम से उनके चरण पखारे और अघ्र्य, चन्दन, धूप और माला आदि से उनकी पूजा करने लगे ॥ ३८ ॥ भगवान नर-नारायण सुखपूर्वक आसन पर विराजमान थे और मार्कण्डेयजी पर कृपा-प्रसाद की वर्षा कर रहे थे। पूजा के अनन्तर मार्कण्डेय मुनि ने उन सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायण के चरणों में प्रणाम किया और यह स्तुति की ॥ ३९ ॥

मार्कण्डेय मुनि ने कहा—भगवन् ! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमा का कैसे वर्णन करूँ ? आपकी प्रेरणा से ही सम्पूर्ण प्राणियों—ब्रह्मा, शङ्कर तथा मेरे शरीर में भी प्राणशक्ति का सञ्चार होता है और फिर उसी के कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियों में भी बोलने, सोचने-विचार ने और करने-जान ने की शक्ति आती है। इस प्रकार सब के प्रेरक और परम स्वतन्त्र होने पर भी आप अपना भजन करनेवाले भक्तों के प्रेम-बन्धन में बँधे हुए हैं ॥ ४० ॥ प्रभो ! आपने केवल विश्व की रक्षा के लिये ही जैसे मत्स्य-कूर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलो की के कल्याण, उसकी दु:ख-निवृत्ति और विश्व के प्राणियों को मृत्यु पर विजय प्राप्त कराने के लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ी के समान अपने से ही इस विश्व को प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपने में ही लीन भी कर लेते हैं ॥ ४१ ॥ आप चराचर का पालन और नियमन करनेवाले हैं। मैं आपके चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेद के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्ति के लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रभो ! जीव के चारों ओर भय-ही-भय का बोलबाला है। औरों की तो बात ही क्या, आपके कालरूप से स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित—केवल दो परार्ध की है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीरवाले प्राणियों के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्था में आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने के अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शान्ति का उपाय हमारी समझ में नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्ष स्वरूप हैं ॥ ४३ ॥ भगवन् ! आप समस्त जीवों के परम गुरु, सब से श्रेष्ठ और सत्य ज्ञान स्वरूप हैं। इसलिये आत्म स्वरूप को ढक देनेवाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थों को त्याग कर मैं आपके चरणकमलों की ही शरण ग्रहण करता हूँ। कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है, तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है ॥ ४४ ॥ जीवों के परम सुहृद् प्रभो ! यद्यपि सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण आपकी ही मूर्ति हैं—इन्हीं के द्वारा आप जगत की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं फिर भी आपकी सत्त्वगुणमयी मूर्ति ही जीवों को शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियों से जीवों को शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दु:ख, मोह और भय की वृद्धि ही होती है ॥ ४५ ॥ भगवन् ! इसलिये बुद्धिमान पुरुष आपकी और आपके भक्तों की परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर-नारायण की ही उपासना करते हैं। पाञ्चरात्र-सिद्धान्त के अनुयायी विशुद्ध सत्त्व को ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसी की उपासना से आपके नित्यधाम वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। उस धाम की यह विलक्षणता है कि वह लोक होने पर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होने पर भी आत्मानन्द से परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुण को आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्व स्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्ध स्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्ग के प्रवर् तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायण को नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥ आप यद्यपि प्रत्येक जीव की इन्द्रियों तथा उनके विषयों में, प्राणों में तथा हृदय में भी विद्यमान हैं तो भी आपकी माया से जीव की बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियों के जाल में फँसकर आपकी झाँकी से वञ्चित हो जाता है। किन्तु सारे जगत के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होने पर भी जब आपकी कृपा से उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदों की प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात दर्शन कर लेता है ॥ ४८ ॥ प्रभो ! वेद में आपका साक्षातकार करानेवाला वह ज्ञान पूर्णरूप से विद्यमान है, जो आपके स्वरूप का रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करने का यत्न करते रहने पर भी मोहमें पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्ध में जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव में आप देह आदि समस्त उपाधियों में छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ ॥ ४९ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-09]

॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
सूत उवाच
संस्तुतो भगवानित्थं मार्कण्डेयेन धीमता ।
नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम् ॥ १॥

श्रीभगवानुवाच
भो भो ब्रह्मर्षिवर्योऽसि सिद्ध आत्मसमाधिना ।
मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः ॥ २॥

वयं ते परितुष्टाः स्म त्वद्बृहद्व्रतचर्यया ।
वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदेशादभीप्सितम् ॥ ३॥

ऋषिरुवाच
जितं ते देव देवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत ।
वरेणैतावतालं नो यद्भवान् समदृश्यत ॥ ४॥

गृहीत्वाजादयो यस्य श्रीमत्पादाब्जदर्शनम् ।
मनसा योगपक्वेन स भवान् मेऽक्षिगोचरः ॥ ५॥

अथाप्यम्बुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे ।
द्रक्ष्ये मायां यया लोकः सपालो वेद सद्भिदाम् ॥ ६॥

सूत उवाच
इतीडितोऽर्चितः काममृषिणा भगवान् मुने ।
तथेति स स्मयन् प्रागाद्बदर्याश्रममीश्वरः ॥ ७॥

तमेव चिन्तयन्नर्थमृषिः स्वाश्रम एव सः ।
वसन्नग्न्यर्कसोमाम्बुभूवायुवियदात्मसु ॥ ८॥

ध्यायन् सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत् ।
क्वचित्पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसम्प्लुतः ॥ ९॥

तस्यैकदा भृगुश्रेष्ठ पुष्पभद्रातटे मुनेः ।
उपासीनस्य सन्ध्यायां ब्रह्मन् वायुरभून्महान् ॥ १०॥

तं चण्डशब्दं समुदीरयन्तं
बलाहका अन्वभवन् करालाः ।
अक्षस्थविष्ठा मुमुचुस्तडिद्भिः
स्वनन्त उच्चैरभिवर्षधाराः ॥ ११॥

ततो व्यदृश्यन्त चतुःसमुद्राः
समन्ततः क्ष्मातलमाग्रसन्तः ।
समीरवेगोर्मिभिरुग्रनक्र-
महाभयावर्तगभीरघोषाः ॥ १२॥

अन्तर्बहिश्चाद्भिरतिद्युभिः खरैः
शतह्रदाभीरुपतापितं जगत् ।
चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनिर्जलाप्लुतां
क्ष्मां विमनाः समत्रसत् ॥ १३॥

तस्यैवमुद्वीक्षत ऊर्मिभीषणः
प्रभञ्जनाघूर्णितवार्महार्णवः ।
आपूर्यमाणो वरषद्भिरम्बुदैः
क्ष्मामप्यधाद्द्वीपवर्षाद्रिभिः समम् ॥ १४॥

सक्ष्मान्तरिक्षं सदिवं सभागणं
त्रैलोक्यमासीत्सह दिग्भिराप्लुतम् ।
स एक एवोर्वरितो महामुनिर्बभ्राम
विक्षिप्य जटा जडान्धवत् ॥ १५॥

क्षुत्तृट् परीतो मकरैस्तिमिङ्गिलैरुपद्रुतो
वीचिनभस्वता हतः ।
तमस्यपारे पतितो भ्रमन् दिशो
न वेद खं गां च परिश्रमेषितः ॥ १६॥

क्वचिद्गतो महावर्ते तरलैस्ताडितः क्वचित् ।
यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयमन्योन्यघातिभिः ॥ १७॥

क्वचिच्छोकं क्वचिन्मोहं क्वचिद्दुःखं सुखं भयम् ।
क्वचिन्मृत्युमवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दितः ॥ १८॥

अयुतायुतवर्षाणां सहस्राणि शतानि च ।
व्यतीयुर्भ्रमतस्तस्मिन् विष्णुमायावृतात्मनः ॥ १९॥

स कदाचिद्भ्रमंस्तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि द्विजः ।
न्यग्रोधपोतं ददृशे फलपल्लवशोभितम् ॥ २०॥

प्रागुत्तरस्यां शाखायां तस्यापि ददृशे शिशुम् ।
शयानं पर्णपुटके ग्रसन्तं प्रभया तमः ॥ २१॥ सगोनासंगोगो
महामरकतश्यामं श्रीमद्वदनपङ्कजम् ।
कम्बुग्रीवं महोरस्कं सुनासं सुन्दरभ्रुवम् ॥ २२॥

श्वासैजदलकाभातं कम्बुश्रीकर्णदाडिमम् ।
विद्रुमाधरभासेषच्छोणायितसुधास्मितम् ॥ २३॥

पद्मगर्भारुणापाङ्गं हृद्यहासावलोकनम् ।
श्वासैजद्वलिसंविग्ननिम्ननाभिदलोदरम् ॥ २४॥

चार्वङ्गुलिभ्यां पाणिभ्यामुन्नीय चरणाम्बुजम् ।
मुखे निधाय विप्रेन्द्रो धयन्तं वीक्ष्य विस्मितः ॥ २५॥

तद्दर्शनाद्वीतपरिश्रमो मुदा
प्रोत्फुल्लहृत्पद्मविलोचनाम्बुजः ।
प्रहृष्टरोमाद्भुतभावशङ्कितः
प्रष्टुं पुरस्तं प्रससार बालकम् ॥ २६॥

तावच्छिशोर्वै श्वसितेन भार्गवः
सोऽन्तःशरीरं मशको यथाऽऽविशत् ।
तत्राप्यदो न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशो
यथा पुरामुह्यदतीव विस्मितः ॥ २७॥

खं रोदसी भगणानद्रिसागरान्
द्वीपान् सवर्षान् ककुभः सुरासुरान् ।
वनानि देशान् सरितः पुराकरान्
खेटान् व्रजानाश्रमवर्णवृत्तयः ॥ २८॥

महान्ति भूतान्यथ भौतिकान्यसौ
कालं च नानायुगकल्पकल्पनम् ।
यत्किञ्चिदन्यद्व्यवहारकारणं
ददर्श विश्वं सदिवावभासितम् ॥ २९॥

हिमालयं पुष्पवहां च तां नदीं
निजाश्रमं यत्र ऋषीनपश्यत् ।
विश्वं विपश्यञ्छ्वसिताच्छिशोर्वै
बहिर्निरस्तो न्यपतल्लयाब्धौ ॥ ३०॥

तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि प्ररूढं
वटं च तत्पर्णपुटे शयानम् ।
तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेन
निरीक्षितोऽपाङ्गनिरीक्षणेन ॥ ३१॥

अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि ।
अभ्ययादतिसङ्क्लिष्टः परिष्वक्तुमधोक्षजम् ॥ ३२॥

तावत्स भगवान् साक्षाद्योगाधीशो गुहाशयः ।
अन्तर्दधे ऋषेः सद्यो यथेहानीशनिर्मिता ॥ ३३॥

तमन्वथ वटो ब्रह्मन् सलिलं लोकसम्प्लवः ।
तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववत्स्थितः ॥ ३४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे मायादर्शनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९॥


द्वादश स्कन्ध-नवाँ अध्याय 34
मार्कण्डेयजी का माया-दर्शन
सूतजी कहते हैं—जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनि ने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान नर- नारायण ने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजी से कहा ॥ १ ॥

भगवान नारायण ने कहा—सम्मान्य ब्रहमर्षि-शिरोमणि ! तुम चित्त की एकग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्ति से सिद्ध हो गये हो ॥ २ ॥ तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत की निष्ठा देखकर हम तुम पर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो ! मैं समस्त वर देनेवालों का स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझ से माँग लो ॥ ३ ॥

मार्कण्डेय मुनि ने कहा—देवदेवेश ! शरणागत-भयहारी अच्युत ! आपकी जय हो ! जय हो ! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूप का दर्शन कराया ॥ ४ ॥ ब्रह्मा-शङ्कर आदि देवगण योग-साधना के द्वारा एकाग्र हुए मन से ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलों का दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रों के सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है ॥ ५ ॥ पवित्रकीर्ति महानुभावों के शिरोमणि कमलनयन ! फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आप से वर माँगता हूँ। मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रह्म में अनेकों प्रकार के भेद-विभेद देखने लगते हैं ॥ ६ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि ने भगवान नर-नारायण की इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँग लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा—‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवन को चले गये ॥ ७ ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रम पर ही रहकर निरन्तर इस बात का चिन्तन करते रहते कि मुझे माया के दर्शन कब होंगे। वे अग्रि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्त:करणमें—और तो क्या, सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओं से उनका पूजन करते रहते। कभी-कभी तो उनके हृदय में प्रेम की ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाहमें डूबने-उतरा ने लगते, उन्हें इस बात की भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान की पूजा करनी चाहिये ? ॥ ८-९ ॥

शौनकजी ! एक दिन की बात है, सन्ध्या के समय पुष्पभद्रा नदी के तट पर मार्कण्डेय मुनि भगवान की उपासना में तन्मय हो रहे थे। ब्रह्मन् ! उसी समय एकाएक बड़े जोर की आँधी चल ने लगी ॥ १० ॥ उस समय आँधी के कारण बड़ी भयङ्कर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाश में मँडरा ने लगे। बिजली चमक-चमककर कडक़ ने लगी और रथ के धुरे के समान जल की मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वी पर गिर ने लगीं ॥ ११ ॥ यही नहीं, मार्कण्डेय मुनि को ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओर से चारों समुद्र समूची पृथ्वी को निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधी के वेग से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयङ्कर भँवर पड़ रहे हैं और भयङ्कर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थान पर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं ॥ १२ ॥ उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशि में पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊ पर से बड़े वेग से आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि इस जल-प्रलय से सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज—चारों प्रकार के प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी ॥ १३ ॥ उनके सामने ही प्रलयसमुद्र में भयङ्कर लहरें उठ रही थीं, आँधी के वेग से जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्र को और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्र ने द्वीप, वर्ष और पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को डुबा दिया ॥ १४ ॥ पृथ्वी, अन्तरक्षि, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारों का समूह) और दिशाओं के साथ तीनों लोक जल में डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधे के समान जटा फैलाकर यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ भाग- भागकर अपने प्राण बचा ने की चेष्टा कर रहे थे ॥ १५ ॥ वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिङ्गल मच्छ उन पर टूट पड़ते। किसी ओर से हवा का झों का आता, तो किसी ओर से लहरों के थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते- भटकते वे अपार अज्ञानान्धकार में पड़ गये—बेहोश हो गये और इत ने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाश का भी ज्ञान न रहा ॥ १६ ॥ वे कभी बड़े भारी भँवर में पड़ जाते, कभी तरल तरङ्गों की चोट से चञ्चल हो उठते। जब कभी जलजन्तु आपस में एक-दूसरे पर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते ॥ १७ ॥ कहीं शोकग्रस्त हो जाते, तो कहीं मोहग्रस्त। कभी दु:ख-ही-दु:ख के निमित्त आते, तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते, तो कभी तरह-तरह के रोग उन्हें सता ने लगते ॥ १८ ॥ इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि विष्णुभगवान की माया के चक्कर में मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकाल के समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये ॥ १९ ॥

शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि इसी प्रकार प्रलय के जल में बहुत समय तक भटकते रहे। एक बार उन्होंने पृथ्वी के एक टीले पर एक छोटा-सा बरगद का पेड़ देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे ॥ २० ॥ बरगद के पेड़ में ईशान कोण पर एक डाल थी, उसमें एक पत्तों का दोना-सा बन गया था। उसी पर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीर से ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आस-पास का अँधेरा दूर हो रहा था ॥ २१ ॥ वह शिशु मरकतमणि के समान साँवल-साँवला था। मुखकमल पर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था। गरदन शङ्ख के समान उतार-चढ़ाववाली थी। छाती चौड़ी थी। तोते की चोंच के समान सुन्दर नासि का और भौंहें बड़ी मनोहर थीं ॥ २२ ॥ काली-काली घुँघराली अलकें कपोलों पर लटक रही थीं और श्वास लग ने से कभी-कभी हिल भी जाती थीं। शङ्ख के समान घुमावदार कानों में अनार के लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगे के समान लाल-लाल होठों की कान्ति से उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी ॥ २३ ॥ नेत्रों के को ने कमल के भीतरी भाग के समान तनिक लाल-लाल थे। मुसकान और चितवन बरबस हृदय को पकड़ लेती थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपल के पत्ते के समान जान पड़ती और श्वास लेने के समय उसपर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी ॥ २४ ॥ नन्हें-नन्हें हाथों में बड़ी सुन्दर-सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलों से एक चरणकमल को मुख में डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ २५ ॥

शौनकजी ! उस दिव्य शिशु को देखते ही मार्कण्डेय मुनि की सारी थकावट जाती रही। आनन्द से उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो गया। उस नन्हें- से शिशु के इस अद्भुत भाव को देखकर उनके मन में तरह-तरह की शङ्काएँ—‘यह कौन है’ इत्यादि— आ ने लगीं और वे उस शिशु से ये बातें पूछ ने के लिये उसके सामने सरक गये ॥ २६ ॥ अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशु के श्वासके साथ उसके शरीर के भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसी के पेट में चला जाय। उस शिशु के पेट में जाकर उन्होंने सब-की-सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलय के पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके ॥ २७ ॥ उन्होंने उस शिशु के उदर में आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानों के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार-व्यवहार, पञ्चमहाभूत, भूतों से बने हुए प्राणियों के शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पों के भेद से युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालों के द्वारा जगत का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँ तक कहें, यह सम्पूर्ण विश्व न होने पर भी वहाँ सत्य के समान प्रतीत होते देखा ॥ २८-२९ ॥ हिमालय पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तट पर अपना आश्रम और वहाँ रहनेवाले ऋषियों को भी मार्कण्डेयजी ने प्रत्यक्ष ही देखा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व को देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशु के श्वासके द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलय-कालीन समुद्र में गिर पड़े ॥ ३० ॥ अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्र के बीच में पृथ्वी के टीले पर वही बरगद का पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और उसके पत्ते के दो ने में वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरों पर प्रेमामृत से परिपूर्ण मन्द-मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवन से वह मार्कण्डेयजी की ओर देख रहा है ॥ ३१ ॥ अब मार्कण्डेय मुनि इन्द्रियातीत भगवान को जो शिशु के रूप में क्रीडा कर रहे थे और नेत्रों के मार्ग से पहले ही हृदय में विराजमान हो चु के थे, आलिङ्गन करने के लिये बड़े श्रम और कठिनाई से आगे बढ़े ॥ ३२ ॥ परन्तु शौनकजी ! भगवान केवल योगियों के ही नहीं, स्वयं योग के भी स्वामी और सब के हृदय में छिपे रहनेवाले हैं। अभी मार्कण्डेय मुनि उनके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये—ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषों के परिश्रम का पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया ? ॥ ३३ ॥ शौनकजी ! उस शिशु के अन्तर्धान होते ही वह बरगद का वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि मैं तो पहले के समान ही अपने आश्रम में बैठा हुआ हूँ ॥ ३४ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-10]

॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥
सूत उवाच
स एवमनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम् ।
वैभवं योगमायायास्तमेव शरणं ययौ ॥ १॥

मार्कण्डेय उवाच
प्रपन्नोऽस्म्यङ्घ्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे ।
यन्माययापि विबुधा मुह्यन्ति ज्ञानकाशया ॥ २॥

सूत उवाच
तमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन् ।
रुद्राण्या भगवान् रुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः ॥ ३॥

अथोमा तमृषिं वीक्ष्य गिरिशं समभाषत ।
पश्येमं भगवन् विप्रं निभृतात्मेन्द्रियाशयम् ॥ ४॥

निभृतोदझषव्रातं वातापाये यथार्णवम् ।
कुर्वस्य तपसः साक्षात्संसिद्धिं सिद्धिदो भवान् ॥ ५॥

श्रीभगवानुवाच
नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत ।
भक्तिं परां भगवति लब्धवान् पुरुषेऽव्यये ॥ ६॥

अथापि संवदिष्यामो भवान्येतेन साधुना ।
अयं हि परमो लाभो नृणां साधुसमागमः ॥ ७॥

सूत उवाच
इत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान् स सतां गतिः ।
ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम् ॥ ८॥

तयोरागमनं साक्षादीशयोर्जगदात्मनोः ।
न वेद रुद्धधीवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च ॥ ९॥

भगवांस्तदभिज्ञाय गिरीशो योगमायया ।
आविशत्तद्गुहाकाशं वायुश्छिद्रमिवेश्वरः ॥ १०॥

आत्मन्यपि शिवं प्राप्तं तडित्पिङ्गजटाधरम् ।
त्र्यक्षं दशभुजं प्रांशुमुद्यन्तमिव भास्करम् ॥ ११॥

व्याघ्रचर्माम्बरधरं शूलखट्वाङ्गचर्मभिः ।
अक्षमालाडमरुककपालासिधनुः सह ॥ १२॥

बिभ्राणं सहसा भातं विचक्ष्य हृदि विस्मितः ।
किमिदं कुत एवेति समाधेर्विरतो मुनिः ॥ १३॥

नेत्रे उन्मील्य ददृशे सगणं सोमयागतम् ।
रुद्रं त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनिः ॥ १४॥ हहनपापहहमहादेव
तस्मै सपर्यां व्यदधात्सगणाय सहोमया ।
स्वागतासनपाद्यार्घ्यगन्धस्रग्धूपदीपकैः ॥ १५॥

आह चात्मानुभावेन पूर्णकामस्य ते विभो ।
करवाम किमीशान येनेदं निर्वृतं जगत् ॥ १६॥

नमः शिवाय शान्ताय सत्त्वाय प्रमृडाय च ।
रजोजुषेऽप्यघोराय नमस्तुभ्यं तमोजुषे ॥ १७॥

सूत उवाच
एवं स्तुतः स भगवानादिदेवः सतां गतिः ।
परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसंस्तमभाषत ॥ १८॥

श्रीभगवानुवाच
वरं वृणीष्व नः कामं वरदेशा वयं त्रयः ।
अमोघं दर्शनं येषां मर्त्यो यद्विन्दतेऽमृतम् ॥ १९॥

ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्गा भूतवत्सलाः ।
एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः ॥ २०॥

सलोका लोकपालास्तान् वन्दन्त्यर्चन्त्युपासते ।
अहं च भगवान् ब्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वरः ॥ २१॥

न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते ।
नात्मनश्च जनस्यापि तद्युष्मान् वयमीमहि ॥ २२॥

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः ।
ते पुनन्त्युरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः ॥ २३॥

ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येऽस्मद्रूपं त्रयीमयम् ।
बिभ्रत्यात्मसमाधानतपःस्वाध्यायसंयमैः ॥ २४॥

श्रवणाद्दर्शनाद्वापि महापातकिनोऽपि वः ।
शुध्येरन्नन्त्यजाश्चापि किमु सम्भाषणादिभिः ॥ २५॥

सूत उवाच
इति चन्द्रललामस्य धर्मगुह्योपबृंहितम् ।
वचोऽमृतायनमृषिर्नातृप्यत्कर्णयोः पिबन् ॥ २६॥

स चिरं मायया विष्णोर्भ्रामितः कर्शितो भृशम् ।
शिववागमृतध्वस्तक्लेशपुञ्जस्तमब्रवीत् ॥ २७॥

ऋषिरुवाच
अहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम् ।
यन्नमन्तीशितव्यानि स्तुवन्ति जगदीश्वराः ॥ २८॥

धर्मं ग्राहयितुं प्रायः प्रवक्तारश्च देहिनाम् ।
आचरन्त्यनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवन्ति च ॥ २९॥

नैतावता भगवतः स्वमायामयवृत्तिभिः ।
न दुष्येतानुभावस्तैर्मायिनः कुहकं यथा ॥ ३०॥

सृष्ट्वेदं मनसा विश्वमात्मनानुप्रविश्य यः ।
गुणैः कुर्वद्भिराभाति कर्तेव स्वप्नदृग्यथा ॥ ३१॥

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने ।
केवलायाद्वितीयाय गुरवे ब्रह्ममूर्तये ॥ ३२॥

कं वृणे नु परं भूमन् वरं त्वद्वरदर्शनात् ।
यद्दर्शनात्पूर्णकामः सत्यकामः पुमान् भवेत् ॥ ३३॥

वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात्कामाभिवर्षणात् ।
भगवत्यच्युतां भक्तिं तत्परेषु तथा त्वयि ॥ ३४॥

सूत उवाच
इत्यर्चितोऽभिष्टुतश्च मुनिना सूक्तया गिरा ।
तमाह भगवाञ्छर्वः शर्वया चाभिनन्दितः ॥ ३५॥

कामो महर्षे सर्वोऽयं भक्तिमांस्त्वमधोक्षजे ।
आकल्पान्ताद्यशः पुण्यमजरामरता तथा ॥ ३६॥

ज्ञानं त्रैकालिकं ब्रह्मन् विज्ञानं च विरक्तिमत् ।
ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात्पुराणाचार्यतास्तु ते ॥ ३७॥

सूत उवाच
एवं वरान् स मुनये दत्त्वागात्त्र्यक्ष ईश्वरः ।
देव्यै तत्कर्म कथयन्ननुभूतं पुरामुना ॥ ३८॥

सोऽप्यवाप्तमहायोगमहिमा भार्गवोत्तमः ।
विचरत्यधुनाप्यद्धा हरावेकान्ततां गतः ॥ ३९॥

अनुवर्णितमेतत्ते मार्कण्डेयस्य धीमतः ।
अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद्भुतम् ॥ ४०॥

एतत्केचिदविद्वांसो मायासंसृतिरात्मनः ।
अनाद्यावर्तितं नॄणां कादाचित्कं प्रचक्षते ॥ ४१॥

य एवमेतद्भृगुवर्यवर्णितं
रथाङ्गपाणेरनुभावभावितम् ।
संश्रावयेत्संश‍ृणुयादु तावुभौ
तयोर्न कर्माशयसंसृतिर्भवेत् ॥ ४२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १०॥


द्वादश स्कन्ध-दसवाँ अध्याय 42
मार्कण्डेयजी को भगवान शङ्कर का वरदान
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! मार्कण्डेय मुनि ने इस प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया- वैभव का अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस माया से मुक्त होने के लिये मायापति भगवान की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हीं की शरण में स्थित हो गये ॥ १ ॥

मार्कण्डेयजी ने मन-ही-मन कहा—प्रभो ! आपकी माया वास्तव में प्रतीतिमात्र होने पर भी सत्य ज्ञान के समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलों में मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरणकमल ही शरणागतों को सब प्रकार से अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हीं की शरण ग्रहण की है ॥ २ ॥

सूतजी कहते हैं—मार्कण्डेयजी इस प्रकार शरणागति की भावना में तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान शङ्कर भगवती पार्वतीजी के साथ नन्दी पर सवार होकर आकाशमार्ग से विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेयजी को उसी अवस्था में देखा। उनके साथ बहुत- से गण भी थे ॥ ३ ॥ जब भगवती पार्वती ने मार्कण्डेय मुनि को ध्यान की अवस्था में देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह से उमड़ आया। उन्होंने शङ्करजी से कहा—‘भगवन् ! तनिक इस ब्राह्मण की ओर तो देखिये। जैसे तूफान शान्त हो जाने पर समुद्र की लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मण का शरीर, इन्द्रिय और अन्त:करण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियों के दाता आप ही हैं। इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मण की तपस्या का प्रत्यक्ष फल दीजिये’ ॥ ४-५ ॥

भगवान शङ्करने कहा—देवि ! ये ब्रहमर्षि लोक अथवा परलोक की कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या, इनके मन में कभी मोक्ष की भी आकाङ्क्षा नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट- घटवासी अविनाशी भगवान के चरणकमलों में इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है ॥ ६ ॥ प्रिये ! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं। जीवमात्र के लिये सब से बड़े लाभ की बात यही है कि संत पुरुषों का समागम प्राप्त हो ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! भगवान शङ्कर समस्त विद्याओं के प्रवर् तक और सारे प्राणियों के हृदय में विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं। जगत के जित ने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती पार्वती से इस प्रकार कहकर भगवान शङ्कर मार्कण्डेय मुनि के पास गये ॥ ८ ॥ उस समय मार्कण्डेय मुनि की समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भाव में तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत का बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्व के आत्मा स्वयं भगवान गौरी-शङ्कर पधारे हुए हैं ॥ ९ ॥ शौनकजी ! सर्वशक्तिमान् भगवान कैलासपति से यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्था में हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाश के स्थान में अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमाया से मार्कण्डेय मुनि के हृदयाकाश में प्रवेश कर गये ॥ १० ॥ मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि उनके हृदय में तो भगवान शङ्करके दर्शन हो रहे हैं। शङ्करजी के सिर पर बिजली के समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही हैं। तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ। लंबा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी है ॥ ११ ॥ शरीर पर बाघाम्बर धारण किये हुए हैं और हाथों में शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं ॥ १२ ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने हृदय में अकस्मात् भगवान शङ्कर का यह रूप देखकर विस्मित हो गये। ‘यह क्या है ? कहाँ से आया ?’ इस प्रकार की वृत्तियों का उदय हो जाने से उन्होंने अपनी समाधि खोल दी ॥ १३ ॥ जब उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकों के एकमात्र गुरु भगवान शङ्कर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणों के साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने उनके चरणों में माथा टेककर प्रणाम किया ॥ १४ ॥ तदनन्तर मार्कण्डेय मुनि ने स्वागत, आसन, पाद्य, अघ्र्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारों से भगवान शङ्कर, भगवती पार्वती और उनके गणों की पूजा की ॥ १५ ॥ इसके पश्चात मार्कण्डेय मुनि उनसे कह ने लगे—‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो ! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमा से ही पूर्णकाम हैं। आपकी शान्ति और सुख से ही सारे जगत में सुख-शान्ति का विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्था में मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ १६ ॥ मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूप को और सत्त्वगुण से युक्त शान्त स्वरूप को नमस्कार करता हूँ। मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर् तक स्वरूप एवं तमोगुणयुक्त अघोर स्वरूप को नमस्कार करता हूँ’ ॥ १७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनि ने संतों के परम आश्रय देवाधिदेव भगवान शङ्कर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उन पर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्न चित्त से हँसते हुए कह ने लगे ॥ १८ ॥

भगवान शङ्करने कहा—मार्कण्डेयजी ! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं—हम तीनों ही वरदाताओं के स्वामी हैं, हमलोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हमलोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझ से माँग लो ॥ १९ ॥ ब्राह्मण स्वभाव से ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसी के साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होने पर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिये पूरे हृदय से जुट जाते हैं। उनकी सब से बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं ॥ २० ॥ सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवा में संलग्र रहते हैं ॥ २१ ॥ ऐसे शान्त महापुरुष मुझ में, विष्णुभगवान में, ब्रह्मा में, अपने में और सब जीवों में अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा- सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्मा का ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओं की स्तुति और सेवा करते हैं ॥ २२ ॥ मार्कण्डेयजी ! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सब से बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनों में पवित्र करते हैं, परन्तु तुमलोग दर्शनमात्र से ही पवित्र कर देते हो ॥ २३ ॥ हमलोग तो ब्राह्मणों को ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा हमारे वेदमय शरीर को धारण करते हैं ॥ २४ ॥ मार्कण्डेयजी ! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषों के चरित्रश्रवण और दर्शन से ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुमलोगों के सम्भाषण और सहवास आदि से शुद्ध हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है ॥ २५ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! चन्द्रभूषण भगवान शङ्कर की एक-एक बात धर्म के गुप्ततम रहस्य से परिपूर्ण थी। उसके एक-एक अक्षर में अमृत का समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानों के द्वारा पूरी तन्मयता के साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई ॥ २६ ॥ वे चिरकाल तक विष्णुभगवान की माया से भटक चु के थे और बहुत थ के हुए भी थे। भगवान शिव की कल्याणी वाणी का अमृतपान करने से उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान शङ्कर से इस प्रकार कहा ॥ २७ ॥

मार्कण्डेयजी ने कहा—सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान की यह लीला सभी प्राणियों की समझ के परे है। भला, देखो तो सही—ये सारे जगत के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे-जैसे जीवों की वन्दना और स्तुति करते हैं ॥ २८ ॥ धर्म के प्रवचनकार प्राय: प्राणियों को धर्म का रहस्य और स्वरूप समझा ने के लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्म का आचरण करता है, तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं ॥ २९ ॥ जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलों से उसके प्रभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी माया की वृत्तियों को स्वीकार करके किसी की वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस काम के द्वारा आपकी महिमा में कोई त्रुटि नहीं आती ॥ ३० ॥ आपने स्वप्नद्रष्टा के समान अपने मन से ही सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होने पर भी कर्म करनेवाले गुणों के द्वारा कर्ता के समान प्रतीत होते हैं ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आप त्रिगुण स्वरूप होने पर भी उनके परे उनकी आत्मा के रूप में स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञान के मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्म स्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३२ ॥ अनन्त ! आपके श्रेष्ठ दर्शन से बढक़र ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदान के रूप में माँगूँ ? मनुष्य आपके दर्शन से ही पूर्णकाम और सत्यसङ्कल्प हो जाता है ॥ ३३ ॥ आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तों की भी समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेने पर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान में, उनके शरणागत भक्तों में और आप में मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे ॥ ३४ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनि ने सुमधुर वाणी से इस प्रकार भगवान शङ्कर की स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वती की प्रसाद-प्रेरणा से यह बात कही ॥ ३५ ॥ महर्षे ! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मा में तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्पपर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ ॥ ३६ ॥ ब्रह्मन् ! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त विशेष ज्ञानों का एक अधिष्ठानरूप ज्ञान, और वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थिति की प्राप्ति हो जाय। तुम्हें पुराण का आचार्यत्व भी प्राप्त हो ॥ ३७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान शङ्कर मार्कण्डेय मुनि को वर देकर भगवती पार्वती से मार्कण्डेय मुनि की तपस्या और उनके प्रलय-सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन करते हुए वहाँ से चले गये ॥ ३८ ॥ भृगुवंशशिरोमणि मार्कण्डेय मुनि को उनके महायोग का परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान के अनन्यप्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभावभरित हृदय से पृथ्वी पर विचरण किया करते हैं ॥ ३९ ॥ परम ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनि ने भगवान की योगमाया से जिस अद्भुत लीला का अनुभव किया था, वह मैंने आपलोगों को सुना दिया ॥ ४० ॥ शौनकजी ! यह जो मार्कण्डेयजी ने अनेक कल्पोंका—सृष्टिप्रलयों का अनुभव किया, वह भगवान की माया का ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हींके लिये था, सर्वसाधारण के लिये नहीं। कोई- कोई इस माया की रचना को न जानकर अनादिकाल से बार-बार होनेवाले सृष्टि-प्रलय ही इस को भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शङ् का नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्प के हमारे पूर्वज मार्कण्डेयजी की आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी ?) ॥ ४१ ॥ भृगुवंशशिरोमणे ! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेयचरित्र सुनाया है, वह भगवान चक्रपाणि के प्रभाव और महिमा से भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओं के कारण प्राप्त होनेवाले आवागमन के चक्कर से सर्वदा के लिये छूट जाते हैं ॥ ४२ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-11]

॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥
शौनक उवाच
अथेममर्थं पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम् ।
समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान् भागवततत्त्ववित् ॥ १॥

तान्त्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः ।
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यैः ॥ २॥

तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम् ।
येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम् ॥ ३॥

सूत उवाच
नमस्कृत्य गुरून् वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि ।
याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः ॥ ४॥

मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट् ।
निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम् ॥ ५॥

एतद्वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः ।
नाभिः सूर्योऽक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः ॥ ६॥

प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः ।
तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवौ यमः ॥ ७॥

लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः ।
रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघाः पुरुषमूर्धजाः ॥ ८॥

यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः ।
तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया ॥ ९॥

कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः ।
तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात्श्रीवत्समुरसा विभुः ॥ १०॥

स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत् ।
वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ॥ ११॥

बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले ।
मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम् ॥ १२॥

अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः ।
धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते ॥ १३॥

ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत् ।
अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् ॥ १४॥

नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम् ।
कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम् ॥ १५॥

इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम् ।
तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम् ॥ १६॥

मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः ।
परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः ॥ १७॥

भगवान् भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन् ।
धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत् ॥ १८॥

आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम् ।
त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम् ॥ १९॥

अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः ।
विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः ।
नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः ॥ २०॥

वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम् ।
अनिरुद्ध इति ब्रह्मन् मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते ॥ २१॥

स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः ।
अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान् परिभाव्यते ॥ २२॥

अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम् ।
बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान् हरिरीश्वरः ॥ २३॥

द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक्
स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत् ।
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो
विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः ॥ २४॥

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्-
राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य ।
गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत-
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गल पाहि भृत्यान् ॥ २५॥

य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम् ।
तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम् ॥ २६॥

शौनक उवाच
शुको यदाह भगवान् विष्णुराताय श‍ृण्वते ।
सौरो गणो मासि मासि नाना वसति सप्तकः ॥ २७॥

तेषां नामानि कर्माणि नियुक्तानामधीश्वरैः ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः ॥ २८॥

सूत उवाच
अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम् ।
निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्तते ॥ २९॥

एक एव हि लोकानां सूर्य आत्माऽऽदिकृद्धरिः ।
सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः ॥ ३०॥

कालो देशः क्रिया कर्ता करणं कार्यमागमः ।
द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन्नवधोक्तोऽजया हरिः ॥ ३१॥

मध्वादिषु द्वादशसु भगवान् कालरूपधृक् ।
लोकतन्त्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः ॥ ३२॥

धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने ।
पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी ॥ ३३॥

अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुञ्जिकस्थली ।
नारदः कच्छनीरश्च नयन्त्येते स्म माधवम् ॥ ३४॥

मित्रोऽत्रिः पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः ।
रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयन्त्यमी ॥ ३५॥

वसिष्ठो वरुणो रम्भा सहजन्यस्तथा हुहूः ।
शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयन्त्यमी ॥ ३६॥

इन्द्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथाङ्गिराः ।
प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयन्त्यमी ॥ ३७॥

विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः ।
अनुम्लोचा शङ्खपालो नभस्याख्यं नयन्त्यमी ॥ ३८॥

पूषा धनञ्जयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा ।
घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी ॥ ३९॥

क्रतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा ।
विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयन्त्यमी ॥ ४०॥

अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसेनस्तथोर्वशी ।
विद्युच्छत्रुर्महाशङ्खः सहोमासं नयन्त्यमी ॥ ४१॥

भगः स्फूर्जोऽरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पञ्चमः ।
कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयन्त्यमी ॥ ४२॥

त्वष्टा ऋचीकतनयः कम्बलश्च तिलोत्तमा ।
ब्रह्मापेतोऽथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषम्भराः ॥ ४३॥

विष्णुरश्वतरो रम्भा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित् ।
विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयन्त्यमी ॥ ४४॥

एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः ।
स्मरतां सन्ध्ययोर्नॄणां हरन्त्यंहो दिने दिने ॥ ४५॥

द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै ।
चरन् समन्तात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम् ॥ ४६॥

सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिङ्गैरृषयः संस्तुवन्त्यमुम् ।
गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोऽग्रतः ॥ ४७॥

उन्नह्यन्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः ।
चोदयन्ति रथं पृष्ठे नैरृता बलशालिनः ॥ ४८॥

वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः ।
पुरतोऽभिमुखं यान्ति स्तुवन्ति स्तुतिभिर्विभुम् ॥ ४९॥

एवं ह्यनादिनिधनो भगवान् हरिरीश्वरः ।
कल्पे कल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः ॥ ५०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥


द्वादश स्कन्ध-ग्यारहवाँ अध्याय 50
भगवान के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधों का रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन
शौनकजी ने कहा—सूतजी ! आप भगवान के परमभक्त और बहुज्ञों में शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रों के सिद्धान्त के सम्बन्ध में आप से एक विशेष प्रश्र पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ॥ १ ॥ हमलोग क्रियायोग का यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलता- पूर्वक ठीक-ठीक आचरण करने से मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अत: आप हमें यह बतलाइये कि पाञ्चरात्रादि तन्त्रों की विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वों से उनके चरणादि अङ्ग, गरुडादि उपाङ्ग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणों की कल्पना करते हैं ? भगवान आपका कल्याण करें ॥ २-३ ॥

सूतजी ने कहा—शौनकजी ! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदों ने और पाञ्चरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थों ने विष्णुभगवान की जिन विभूतियों का वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेव के चरणों में नमस्कार करके आप- लोगों को वही सुनाता हूँ ॥ ४ ॥ भगवान के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूप में यह त्रिलो की दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—इन नौ तत्त्वों के सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पञ्चभूत—इन सोलह विकारों से बना हुआ है ॥ ५ ॥ यह भगवान का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस् तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासि का है और दिशाएँ कान हैं ॥ ६ ॥ प्रजापति लिङ्ग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं ॥ ७ ॥ लज्जा ऊ पर का होठ है, लोभ नीचे का होठ है, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुष के सिर पर उगे हुए बाल हैं ॥ ८ ॥ शौनकजी ! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाण से सात बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थिति के साथ अपने सात बित्ते का है ॥ ९ ॥

स्वयं भगवान अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणि के बहा ने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योति को ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभा को ही वक्ष:स्थल पर श्रीवत्सरूप से ॥ १० ॥ वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली माया को वनमाला के रूपसे, छन्द को पीताम्बर के रूप से तथा अ+उ+म्—इन तीन मात्रावाले प्रणव को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करते हैं ॥ ११ ॥ देवाधिदेव भगवान सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकों को अभय करनेवाले ब्रह्मलोक को ही मुकुट के रूप में धारण करते हैं ॥ १२ ॥ मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिस पर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभिकमल के रूप में वर्णित हुआ है ॥ १३ ॥ वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियों से युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोद की गदा, जलतत्त्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्र को धारण करते हैं ॥ १४ ॥ आकाश के समान निर्मल आकाश- स्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्म का ही तरकस धारण किये हुए हैं ॥ १५ ॥ इन्द्रियों को ही भगवान के बाणों के रूप में कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथ के बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदि की मुद्राओं से उनकी वरदान, अभयदान आदि के रूप में क्रियाशीलता प्रकट होती है ॥ १६ ॥ सूर्यमण्डल अथवा अग्रि-मण्डल ही भगवान की पूजा का स्थान है, अन्त:करण की शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना ही भगवान की पूजा है ॥ १७ ॥

ब्राह्मणो ! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: पदार्थों का नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान अपने करकमल में धारण करते हैं। धर्म और यश को क्रमश: चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूप से तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठ को छत्ररूप से धारण किये हुए हैं। तीनों वेदों का ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्मा का वहन करते हैं ॥ १८-१९ ॥ आत्म स्वरूप भगवान की उनसे कभी न बिछुडऩेवाली आत्मशक्ति का ही नाम लक्ष्मी है। भगवान के पार्षदों के नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पाञ्चरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियों को ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ॥ २० ॥ शौनकजी ! स्वयं भगवान ही वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियों के रूप में अवस्थित हैं; इसलिये उन्हीं को चतुव्र्यूह के रूप में कहा जाता है ॥ २१ ॥ वे ही जाग्रत्-अवस्था के अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयों को ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्था के अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयों के बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयों को देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्था के अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मन के संस्कारों से युक्त अज्ञान से ढक जाते हैं और वही सब के साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानों के अधिष्ठान रहते हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, आयुध और आभूषणों से युक्त तथा वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र एवं अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियों के रूप में प्रकट सर्व- शक्तिमान् भगवान श्रीहरि ही क्रमश: विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूप से प्रकाशित होते हैं ॥ २३ ॥

शौनकजी ! वही सर्व स्वरूप भगवान वेदों के मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमा से परिपूर्ण हैं। वे अपनी माया से ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामों से इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामों से उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रों में भिन्न के समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तों को आत्म स्वरूप से ही प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥ सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! आप अर्जुन के सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणि के रूप में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के द्रोही भूपालों को भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रज की गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यश का गान करते रहते हैं। गोविन्द ! आपके नाम, गुण और लीलादि का श्रवण करने से ही जीव का मङ्गल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये ॥ २५ ॥

पुरुषोत्तम भगवान के चिह्नभूत अङ्ग, उपाङ्ग और आयुध आदि के इस वर्णन का जो मनुष्य भगवान में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रात:काल पाठ करेगा, उसे सब के हृदय में रहनेवाले ब्रह्म स्वरूप परमात्मा का ज्ञान हो जायगा ॥ २६ ॥

शौनकजी ने कहा—सूतजी ! भगवान श्रीशुकदेवजी ने श्रीमद्भागवत- कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित से (पञ्चम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओं का एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीने में बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्यों के साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियों के नाम क्या हैं ? सूर्य के रूप में भी स्वयं भगवान ही हैं; इसलिये उनके विभाग को हम बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ॥ २७-२८ ॥

सूतजी ने कहा—समस्त प्राणियों के आत्मा भगवान विष्णु ही हैं। अनादि अविद्या से अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से ही समस्त लोकों के व्यवहार-प्रवर् तक प्राकृत सूर्यमण्डल का निर्माण हुआ है। वही लोकों में भ्रमण किया करता है ॥ २९ ॥ असल में समस्त लोकों के आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूप से सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियों ने उनका बहुत रूपों में वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओं के मूल हैं ॥ ३० ॥ शौनकजी ! एक भगवान ही माया के द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूप से नौ प्रकार के कहे जाते हैं ॥ ३१ ॥ कालरूपधारी भगवान सूर्य लोगों का व्यवहार ठीक-ठीक चला ने के लिये चैत्रादि बारह महीनों में अपने भिन्न-भिन्न बारह गणों के साथ चक्कर लगाया करते हैं ॥ ३२ ॥

शौनकजी ! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व—ये चैत्र मास में अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ३३ ॥ अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुञ्जिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प—ये वैशाख मासके कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३४ ॥ मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेन का अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष—ये ज्येष्ठ मासके कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३५ ॥ आषाढ़ में वरुण नामक सूर्य के साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्य का निर्वाह करते हैं ॥ ३६ ॥ श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्य का कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अङ्गिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्य का सम्पादन करते हैं ॥ ३७ ॥ भाद्रपद के सूर्य का नाम है विवस्वान्। उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शङ्खपाल नाग रहते हैं ॥ ३८ ॥ शौनकजी ! माघ मास में पूषा नाम के सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनञ्जय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं ॥ ३९ ॥ फाल्गुन मास का कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्य का है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं ॥ ४० ॥ मार्गशीर्ष मास में सूर्य का नाम होता है अंशु। उनके साथ कश्यप ऋषि, ताक्ष्1र्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशङ्ख नाग रहते हैं ॥ ४१ ॥ पौष मास में भग नामक सूर्य के साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर् कोटक नाग रहते हैं ॥ ४२ ॥ आश्विन मास में त्वष्टा सूर्य, जमदग्रि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्व का कार्यकाल है ॥ ४३ ॥ तथा कार्तिक में विष्णु नामक सूर्य के साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ४४ ॥

शौनकजी ! वे सब सूर्यरूप भगवान की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रात:काल और सायङ्काल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ ये सूर्यदेव अपने छ: गणों के साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोक में विवेकबुद्धि का विस्तार करते हैं ॥ ४६ ॥ सूर्यभगवान के गणों में ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों द्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयश का गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं ॥ ४७ ॥ नागगण रस्सी की तरह उनके रथ को क से रहते हैं। यक्षगण रथ का साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछे से ढकेलते हैं ॥ ४८ ॥ इनके सिवा वालखिल्य नाम के साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रहमर्षि सूर्य की ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं ॥ ४९ ॥ इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान श्रीहरि ही कल्प-कल्प में अपने स्वरूप का विभाग करके लोकों का पालन-पोषण करते-रहते हैं ॥ ५० ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-12]

॥ द्वादशोऽध्यायः - १२ ॥
सूत उवाच
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे ।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्ये सनातनान् ॥ १॥

एतद्वः कथितं विप्रा विष्णोश्चरितमद्भुतम् ।
भवद्भिर्यदहं पृष्टो नराणां पुरुषोचितम् ॥ २॥

अत्र सङ्कीर्तितः साक्षात्सर्वपापहरो हरिः ।
नारायणो हृषीकेशो भगवान् सात्वतां पतिः ॥ ३॥
अत्र ब्रह्म परं गुह्यं जगतः प्रभवाप्ययम् ।
ज्ञानं च तदुपाख्यानं प्रोक्तं विज्ञानसंयुतम् ॥ ४॥

भक्तियोगः समाख्यातो वैराग्यं च तदाश्रयम् ।
पारीक्षितमुपाख्यानं नारदाख्यानमेव च ॥ ५॥

प्रायोपवेशो राजर्षेर्विप्रशापात्परीक्षितः ।
शुकस्य ब्रह्मर्षभस्य संवादश्च परीक्षितः ॥ ६॥

योगधारणयोत्क्रान्तिः संवादो नारदाजयोः ।
अवतारानुगीतं च सर्गः प्राधानिकोऽग्रतः ॥ ७॥

विदुरोद्धवसंवादः क्षत्तृमैत्रेययोस्ततः ।
पुराणसंहिताप्रश्नो महापुरुषसंस्थितिः ॥ ८॥

ततः प्राकृतिकः सर्गः सप्त वैकृतिकाश्च ये ।
ततो ब्रह्माण्डसम्भूतिर्वैराजः पुरुषो यतः ॥ ९॥

कालस्य स्थूलसूक्ष्मस्य गतिः पद्मसमुद्भवः ।
भुव उद्धरणेऽम्भोधेर्हिरण्याक्षवधो यथा ॥ १०॥

ऊर्ध्वतिर्यगवाक्सर्गो रुद्रसर्गस्तथैव च ।
अर्धनारीनरस्याथ यतः स्वायम्भुवो मनुः ॥ ११॥

शतरूपा च या स्त्रीणामाद्या प्रकृतिरुत्तमा ।
सन्तानो धर्मपत्नीनां कर्दमस्य प्रजापतेः ॥ १२॥

अवतारो भगवतः कपिलस्य महात्मनः ।
देवहूत्याश्च संवादः कपिलेन च धीमता ॥ १३॥

नवब्रह्मसमुत्पत्तिर्दक्षयज्ञविनाशनम् ।
ध्रुवस्य चरितं पश्चात्पृथोः प्राचीनबर्हिषः ॥ १४॥

नारदस्य च संवादस्ततः प्रैयव्रतं द्विजाः ।
नाभेस्ततोऽनुचरितम् ऋषभस्य भरतस्य च ॥ १५॥

द्वीपवर्षसमुद्राणां गिरिनद्युपवर्णनम् ।
ज्योतिश्चक्रस्य संस्थानं पातालनरकस्थितिः ॥ १६॥

दक्षजन्म प्रचेतोभ्यस्तत्पुत्रीणां च सन्ततिः ।
यतो देवासुरनरास्तिर्यङ् नगखगादयः ॥ १७॥

त्वाष्ट्रस्य जन्मनिधनं पुत्रयोश्च दितेर्द्विजाः ।
दैत्येश्वरस्य चरितं प्रह्लादस्य महात्मनः ॥ १८॥

मन्वन्तरानुकथनं गजेन्द्रस्य विमोक्षणम् ।
मन्वन्तरावताराश्च विष्णोर्हयशिरादयः ॥ १९॥

कौर्मं धान्वन्तरं मात्स्यं वामनं च जगत्पतेः ।
क्षीरोदमथनं तद्वदमृतार्थे दिवौकसाम् ॥ २०॥

देवासुरमहायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम् ।
इक्ष्वाकुजन्म तद्वंशः सुद्युम्नस्य महात्मनः ॥ २१॥

इलोपाख्यानमत्रोक्तं तारोपाख्यानमेव च ।
सूर्यवंशानुकथनं शशादाद्या नृगादयः ॥ २२॥

सौकन्यं चाथ शर्यातेः ककुत्स्थस्य च धीमतः ।
खट्वाङ्गस्य च मान्धातुः सौभरेः सगरस्य च ॥ २३॥

रामस्य कोसलेन्द्रस्य चरितं किल्बिषापहम् ।
निमेरङ्गपरित्यागो जनकानां च सम्भवः ॥ २४॥

रामस्य भार्गवेन्द्रस्य निःक्षत्रकरणं भुवः ।
ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नहुषस्य च ॥ २५॥

दौष्यन्तेर्भरतस्यापि शन्तनोस्तत्सुतस्य च ।
ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशोऽनुकीर्तितः ॥ २६॥

यत्रावतीर्णो भगवान् कृष्णाख्यो जगदीश्वरः ।
वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्धिश्च गोकुले ॥ २७॥

तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विषः ।
पूतनासुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशोः ॥ २८॥

तृणावर्तस्य निष्पेषस्तथैव बकवत्सयोः ।
(अघासुरवधो धात्रा वत्सपालावगूहनम् ।)
धेनुकस्य सह भ्रातुः प्रलम्बस्य च सङ्क्षयः ॥ २९॥

गोपानां च परित्राणं दावाग्नेः परिसर्पतः ॥ ३०॥

दमनं कालियस्याहेर्महाहेर्नन्दमोक्षणम् ।
व्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोऽच्युतो व्रतैः ॥ ३१॥

प्रसादो यज्ञपत्नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम् ।
गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ ॥ ३२॥

यज्ञाभिषेकं कृष्णस्य स्त्रीभिः क्रीडा च रात्रिषु ।
शङ्खचूडस्य दुर्बुद्धेर्वधोऽरिष्टस्य केशिनः ॥ ३३॥

अक्रूरागमनं पश्चात्प्रस्थानं रामकृष्णयोः ।
व्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः ॥ ३४॥

गजमुष्टिकचाणूरकंसादीनां च यो वधः ।
मृतस्यानयनं सूनोः पुनः सान्दीपनेर्गुरोः ॥ ३५॥

मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम् ।
कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजाः ॥ ३६॥

जरासन्धसमानीतसैन्यस्य बहुशो वधः ।
घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम् ॥ ३७॥

आदानं पारिजातस्य सुधर्मायाः सुरालयात् ।
रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरेः ॥ ३८॥

हरस्य जृम्भणं युद्धे बाणस्य भुजकृन्तनम् ।
प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत् ॥ ३९॥

चैद्यपौण्ड्रकशाल्वानां दन्तवक्त्रस्य दुर्मतेः ।
शम्बरो द्विविदः पीठो मुरः पञ्चजनादयः ॥ ४०॥

माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्च दाहनम् ।
भारावतरणं भूमेर्निमित्तीकृत्य पाण्डवान् ॥ ४१॥

विप्रशापापदेशेन संहारः स्वकुलस्य च ।
उद्धवस्य च संवादो वासुदेवस्य चाद्भुतः ॥ ४२॥

यत्रात्मविद्या ह्यखिला प्रोक्ता धर्मविनिर्णयः ।
ततो मर्त्यपरित्याग आत्मयोगानुभावतः ॥ ४३॥

युगलक्षणवृत्तिश्च कलौ नॄणामुपप्लवः ।
चतुर्विधश्च प्रलय उत्पत्तिस्त्रिविधा तथा ॥ ४४॥

देहत्यागश्च राजर्षेर्विष्णुरातस्य धीमतः ।
शाखाप्रणयनमृषेर्मार्कण्डेयस्य सत्कथा ।
महापुरुषविन्यासः सूर्यस्य जगदात्मनः ॥ ४५॥

इति चोक्तं द्विजश्रेष्ठा यत्पृष्टोऽहमिहास्मि वः ।
लीलावतारकर्माणि कीर्तितानीह सर्वशः ॥ ४६॥

पतितः स्खलितश्चार्तः क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन् ।
हरये नम इत्युच्चैर्मुच्यते सर्वपातकात् ॥ ४७॥

सङ्कीर्त्यमानो भगवाननन्तः
श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।
प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं
यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवातिवातः ॥ ४८॥

मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा
न कथ्यते यद्भगवानधोक्षजः ।
तदेव सत्यं तदु हैव मङ्गलं
तदेव पुण्यं भगवद्गुणोदयम् ॥ ४९॥

तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं
तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।
तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां
यदुत्तमश्लोकयशोऽनुगीयते ॥ ५०॥

न तद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद्ध्वाङ्क्षतीर्थं न तु हंससेवितं
यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः ॥ ५१॥

स वाग्विसर्गो जनताघसम्प्लवो
यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि
यच्छृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ५२॥

नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं
न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे
न ह्यर्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम् ॥ ५३॥

यशः श्रियामेव परिश्रमः परो
वर्णाश्रमाचारतपःश्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयो-
र्गुणानुवादश्रवणादिभिर्हरेः ॥ ५४॥

अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः
क्षिणोत्यभद्राणि शमं तनोति च ।
सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं
ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम् ॥ ५५॥

यूयं द्विजाग्र्या बत भूरिभागा
यच्छश्वदात्मन्यखिलात्मभूतम् ।
नारायणं देवमदेवमीश-
मजस्रभावा भजताऽऽविवेश्य ॥ ५६॥

अहं च संस्मारित आत्मतत्त्वं
श्रुतं पुरा मे परमर्षिवक्त्रात् ।
प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः
सदस्यृषीणां महतां च श‍ृण्वताम् ॥ ५७॥

एतद्वः कथितं विप्राः कथनीयोरुकर्मणः ।
माहात्म्यं वासुदेवस्य सर्वाशुभविनाशनम् ॥ ५८॥

य एवं श्रावयेन्नित्यं यामक्षणमनन्यधीः ।
(श्लोकमेकं तदर्धं वा पादं पादार्धमेव वा ।)
श्रद्धावान् योऽनुश‍ृणुयात्पुनात्यात्मानमेव सः ॥ ५९॥

द्वादश्यामेकादश्यां वा श‍ृण्वन्नायुष्यवान् भवेत् ।
पठत्यनश्नन् प्रयतः ततो भवत्यपातकी ॥ ६०॥

पुष्करे मथुरयां च द्वारवत्यां यतात्मवान् ।
उपोष्य संहितामेतां पठित्वा मुच्यते भयात् ॥ ६१॥

देवता मुनयः सिद्धाः पितरो मनवो नृपाः ।
यच्छन्ति कामान् गृणतः श‍ृण्वतो यस्य कीर्तनात् ॥ ६२॥

ऋचो यजूंषि सामानि द्विजोऽधीत्यानुविन्दते ।
मधुकुल्या घृतकुल्याः पयःकुल्याश्च तत्फलम् ॥ ६३॥

पुराणसंहितामेतामधीत्य प्रयतो द्विजः ।
प्रोक्तं भगवता यत्तु तत्पदं परमं व्रजेत् ॥ ६४॥

विप्रोऽधीत्याप्नुयात्प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम् ।
वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्रः शुध्येत पातकात् ॥ ६५॥

कलिमलसंहतिकालनोऽखिलेशो
हरिरितरत्र न गीयते ह्यभीक्ष्णम् ।
इह तु पुनर्भगवानशेषमूर्तिः
परिपठितोऽनुपदं कथाप्रसङ्गैः ॥ ६६॥

तमहमजमनन्तमात्मतत्त्वं
जगदुदयस्थितिसंयमात्मशक्तिम् ।
द्युपतिभिरजशक्रशङ्कराद्यैः
दुरवसितस्तवमच्युतं नतोऽस्मि ॥ ६७॥

उपचितनवशक्तिभिः स्व आत्मनि
उपरचितस्थिरजङ्गमालयाय ।
भगवत उपलब्धिमात्रधाम्ने
सुरऋषभाय नमः सनातनाय ॥ ६८॥

स्वसुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावो-
ऽप्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम् ।
व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणं
तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि ॥ ६९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे द्वादशस्कन्धार्थनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥


द्वादश स्कन्ध-बारहवाँ अध्याय 68
श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची
सूतजी कहते हैं—भगवद्भक्तिरूप महान धर्म को नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणों को नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मों का संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ ॥ १ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगों ने मुझ से जो प्रश्र किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान विष्णु का यह अद्भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मनुष्यों के श्रवण करनेयोग्य है ॥ २ ॥ इस श्रीमद्भागवतपुराण में सर्वपापापहारी स्वयं भगवान श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सब के हृदय में विराजमान, सब की इन्द्रियों के स्वामी और प्रेमी भक्तों के जीवनधन हैं ॥ ३ ॥ इस श्रीमद्भागवत- पुराण में परम रहस्यमय—अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्व का वर्णन हुआ है। उस ब्रह्म में ही इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है। इस पुराण में उसी परमतत्त्व का अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्ति के साधनों का स्पष्ट निर्देश है ॥ ४ ॥

शौनकजी ! इस महापुराण के प्रथम स्कन्ध में भक्तियोग का भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोग से उत्पन्न एवं उस को स्थिर रखनेवाले वैराग्य का भी वर्णन किया गया है। परीक्षित की कथा और व्यास-नारद-संवाद के प्रसङ्ग से नारदचरित्र भी कहा गया है ॥ ५ ॥ राजर्षि परीक्षित ब्राह्मण का शाप हो जाने पर किस प्रकार गङ्गातट पर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिप्रवर श्रीशुकदेवजी के साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्ध में ही है ॥ ६ ॥

योगधारणा के द्वारा शरीरत्याग की विधि, ब्रह्मा और नारद का संवाद, अवतारों की संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदि के क्रम से प्राकृतिक सृष्टि की उत्पत्ति आदि विषयों का वर्णन द्वितीय स्कन्ध में हुआ है ॥ ७ ॥

तीसरे स्कन्ध में पहले-पहल विदुरजी और उद्धवजीके, तदनन्तर विदुर तथा मैत्रेयजी के समागम और संवाद का प्रसङ्ग है। इसके पश्चात पुराणसंहिता के विषय में प्रश्र है और फिर प्रलयकाल में परमात्मा किस प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है ॥ ८ ॥ गुणों के क्षोभ से प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति-विकृतियों के द्वारा कार्य-सृष्टि का वर्णन है। इसके बाद ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुष की स्थिति का स्वरूप समझाया गया है ॥ ९ ॥ तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म काल का स्वरूप, लोक-पद्म की उत्पत्ति, प्रलय-समुद्र से पृथ्वी का उद्धार करते समय वराहभगवान के द्वारा हिरण्याक्ष का वध; देवता, पशु, पक्षी और मनुष्यों की सृष्टि एवं रुद्रों की उत्पत्ति का प्रसङ्ग है। इसके पश्चात उस अद्र्धनारी-नर के स्वरूप का विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव मनु और स्त्रियों की अत्यन्त उत्तम आद्या प्रकृति शतरूपा का जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापति का चरित्र, उनसे मुनिपत्नियों का जन्म, महात्मा भगवान कपिल का अवतार और फिर कपिलदेव तथा उनकी माता देवहूति के संवाद का प्रसङ्ग आता है ॥ १०-१३ ॥

चौथे स्कन्ध में मरीचि आदि नौ प्रजापतियों की उत्पत्ति, दक्षयज्ञ का विध्वंस, राजर्षि ध्रुव एवं पृथु का चरित्र तथा प्राचीनबर्हि और नारदजी के संवाद का वर्णन है। पाँचवें स्कन्ध में प्रियव्रत का उपाख्यान; नाभि, ऋषभ और भरत के चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियों का वर्णन; ज्योतिश्चक्र के विस्तार एवं पाताल तथा नरकों की स्थिति का निरूपण हुआ है ॥ १४—१६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! छठे स्कन्ध में ये विषय आये हैं—प्रचेताओं से दक्ष की उत्पत्ति; दक्ष- पुत्रियों की सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियों का जन्म-कर्म; वृत्रासुर की उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्ध के विषय बतलाये जाते हैं—) इस स्कन्ध में मुख्यत: दैत्यराज हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लाद के उत्कृष्ट चरित्र का निरूपण है ॥ १७-१८ ॥

आठवें स्कन्ध में मन्वन्तरों की कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरों में होनेवाले जगदीश्वर भगवान विष्णु के अवतार—कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्ति के लिये देवताओं और दैत्यों का समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयों का वर्णन है। नवें स्कन्ध में मुख्यत: राजवंशों का वर्णन है। इक्ष्वाकु के जन्म-कर्म, वंश-विस्तार, महात्मा सुद्युम्र, इला एवं तारा के उपाख्यान—इन सब का वर्णन किया गया है। सूर्यवंश का वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओं का वर्णन, सुकन्या का चरित्र, शर्याति, खट्वाङ्ग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान राम के सर्वपापहारी चरित्र का वर्णन भी इसी स्कन्ध में है। तदनन्तर निमि का देह- त्याग और जनकों की उत्पत्ति का वर्णन है ॥ १९-२४ ॥ भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजी का क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदि की संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्ध में ही हैं। सब के अन्त में ययाति के बड़े लडक़े यदु का वंशविस्तार कहा गया है ॥ २५-२६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! इसी यदुवंश में जगतपति भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्ध में उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेव की पत्नी देव की के गर्भ से उनका जन्म हुआ। गोकुल में नन्दबाबा के घर जाकर बढ़े। पूतना के प्राणों को दूध के साथ पी लिया। बचपन में ही छकड़े को उलट दिया ॥ २७-२८ ॥ तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुर को पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुर को मार डाला ॥ २९ ॥ दावानल से घिरे गोपों की रक्षा की। कालिय नाग का दमन किया। अजगर से नन्दबाबा को छुड़ाया ॥ ३० ॥ इसके बाद गोपियों ने भगवान को पतिरूप से प्राप्त करने के लिये व्रत किया और भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान ने यज्ञपत्नियों पर कृपा की। उनके पतियों—ब्राह्मणों को बड़ा पश्चत्ताप हुआ ॥ ३१ ॥ गोवद्र्धनधारण की लीला करने पर इन्द्र और कामधेनु ने आकर भगवान का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतु की रात्रियों में व्रजसुन्दरियों के साथ रासक्रीड़ा की ॥ ३२ ॥ दुष्ट शङ्खचूड, अरिष्ट, और केशी के वध की लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरा से वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी ने मथुरा के लिये प्रस्थान किया ॥ ३३ ॥ उस प्रसंग पर व्रज-सुन्दरियों ने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्याम ने मथुरा में जाकर वहाँ की सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदि का संहार किया ॥ ३४ ॥ सान्दीपनि गुरु के यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्र को लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो ! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा में निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजी के साथ यदुवंशियों का सब प्रकार से प्रिय और हित किया ॥ ३५ ॥ जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान ने उनका उद्धार करके पृथ्वी का भार हल का किया। कालयवन को मुचुकुन्द से भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सब को वहाँ पहुँचा दिया ॥ ३६ ॥ स्वर्ग से कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान ने दल-के-दल शत्रुओं को युद्ध में पराजित करके रुक्मिणी का हरण किया ॥ ३७ ॥ बाणासुर के साथ युद्ध के प्रसङ्ग में महादेवजी पर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणसुर की भुजाएँ काट डालीं। प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी भौमासुर को मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं ॥ ३८ ॥ शिशुपाल, पौण्ंड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पञ्चजन आदि दैत्यों के बल-पौरुष का वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान के चक्र ने काशी को जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्ध में पाण्डवों को निमित्त बनाकर पृथ्वी का बहुत बड़ा भार उतार दिया ॥ ३९-४० ॥

शौनकादि ऋषियो ! ग्यारहवें स्कन्ध में इस बात का वर्णन हुआ है कि भगवान ने ब्राह्मणों के शाप के बहा ने किस प्रकार यदुवंश का संहार किया। इस स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण और उद्धव का संवाद बड़ा ही अद्भुत है ॥ ४१ ॥ उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णय का निरूपण हुआ है और अन्त में यह बात बतायी गयी है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने आत्मयोग के प्रभाव से किस प्रकार मत्र्य- लोक का परित्याग किया ॥ ४२ ॥ बारहवें स्कन्ध में विभिन्न युगों के लक्षण और उनमें रहनेवाले लोगों के व्यवहार का वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलियुग में मनुष्यों की गति विपरीत होती है। चार प्रकार के प्रलय और तीन प्रकार की उत्पत्ति का वर्णन भी इसी स्कन्ध में है ॥ ४३ ॥ इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित के शरीरत्याग की बात कही गयी है। तदनन्तर वेदों के शाखा-विभाजन का प्रसङ्ग आया है। मार्कण्डेयजी की सुन्दर कथा, भगवान के अङ्ग- उपाङ्गों का स्वरूपकथन और सब के अन्त में विश्वात्मा भगवान सूर्य के गणों का वर्णन है ॥ ४४ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगों ने इस सत्सङ्ग के अवसर पर मुझ से जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसर पर मैंने हर तरह से भगवान की लीला और उनके अवतार- चरित्रों का ही कीर्तन किया है ॥ ४५ ॥

जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दु:ख भोगते अथवा छींकते समय विवशता से भी ऊँचे स्वर से बोल उठता है—‘हरये नम:’, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥ यदि देश, काल एवं वस्तु से अपरिच्छिन्न भगवान श्रीकृष्ण के नाम, लीला, गुण आदि का सङ्कीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदि का श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदय में आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करनेवाले पुरुष के सारे दु:ख मिटा देते हैं—ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकार को और आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है ॥ ४७ ॥ जिस वाणी के द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान के नाम, लीला, गुण आदि का उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होने पर भी निरर्थक है—सारहीन है, सुन्दर होने पर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयों का प्रतिपादन करनेवाली होने पर भी असत् कथा है। जो वाणी और वचन भगवान के गुणों से परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मङ्गलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं ॥ ४८ ॥ जिस वचन के द्वारा भगवान के परम पवित्र यश का गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त काल तक मन को परमानन्द की अनुभूति होती रहती है। मनुष्यों का सारा शोक, चाहे वह समुद्र के समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचन के प्रभाव से सदा के लिये सूख जाता है ॥ ४९ ॥ जिस वाणीसे—चाहे वह रस, भाव, अलङ्कार आदि से युक्त ही क्यों न हो—जगत को पवित्र करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंक ने के स्थान के समान अत्यन्त अपवित्र है। मानससरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाम में विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान रहते हैं ॥ ५० ॥ इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदि की दृष्टि से दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोक में भगवान के सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ॥ ५१ ॥ वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान को अर्पण नहीं किया गया है—वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो—सर्वदा अमङ्गलरूप, दु:ख देनेवाला ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है ? ॥ ५२ ॥ वर्णाश्रम के अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदि के लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है—केवल यश अथवा लक्ष्मी की प्राप्ति। परन्तु भगवान के गुण, लीला, नाम आदि का श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलों की अविचल स्मृति प्रदान करता है ॥ ५३ ॥ भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमङ्गलों को नष्ट कर देती और परम शान्ति का विस्तार करती है। उसी के द्वारा अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, भगवान की भक्ति प्राप्त होती है एवं पर वैराग्य से युक्त भगवान के स्वरूप का ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है ॥ ५४ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं ! क्योंकि आपलोग बड़े प्रेम से निरन्तर अपने हृदय में सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् आदिदेव सब के आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेव से रहित नारायण भगवान को स्थापित करके भजन करते रहते हैं ॥ ५५ ॥ जिस समय राजर्षि परीक्षित अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियों की भरी सभा में सब के सामने श्रीशुकदेवजी महाराज से श्रीमद्भागवत की कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षि के मुख से इस आत्मतत्त्व का श्रवण किया था। आपलोगों ने उसका स्मरण कराकर मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आपलोगों का बड़ा ऋणी हूँ ॥ ५६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! भगवान वासुदेव की एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करनेयोग्य है। मैंने इस प्रसङ्ग में उन्हीं की महिमा का वर्णन किया है; जो सारे अशुभ संस्कारों को धो बहाती है ॥ ५७ ॥ जो मनुष्य एकाग्रचित्त से एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धा के साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीरसहित अपने अन्त:करण को पवित्र बना लेता है ॥ ५८ ॥ जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशी के दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो संयमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहले के पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पाप की प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्त:करण को अपने वश में करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारका में इस पुराण-संहिता का पाठ करता है, वह सारे भयों से मुक्त हो जाता है ॥ ६० ॥ जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तन से देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ ६१ ॥ ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के पाठ से ब्राह्मण को मधुकुल्या, घृतकुल्या और पय:कुल्या (मधु, घी एवं दूध की नदियाँ अर्थात् सब प्रकार की सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवत के पाठ से भी मिलता है ॥ ६२ ॥ जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराणसंहिता का अध्ययन करता है, उसे उसी परमपद की प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान ने किया है ॥ ६३ ॥ इसके अध्ययन से ब्राह्मण को ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञान को प्राप्त करानेवाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रिय को समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेर का पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापों से छुटकारा पा जाता है ॥ ६४ ॥

भगवान ही सब के स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलों को ध्वंस करनेवाले हैं। यों तो उनका वर्णन करने के लिये बहुत- से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवतमहापुराण में तो प्रत्येक कथा-प्रसङ्ग में पद-पद पर सर्व स्वरूप भगवान का ही वर्णन हुआ है ॥ ६५ ॥ वे जन्म-मृत्यु आदि विकारों से रहित, देशकालादिकृत परिच्छेदों से मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही हैं। जगत की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६६ ॥ जिन्हों ने अपने स्वरूप में ही प्रकृति आदि नौ शक्तियों का सङ्कल्प करके इस चराचर जगत की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठानरूप से स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूति स्वरूप है, उन्हीं देवताओं के आराध्यदेव सनातन भगवान के चरणों में मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६७ ॥

श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्द में ही निमग्र थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थिति से उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर की मधुमयी, मङ्गलमयी, मनोहारिणी लीलाओं ने उनकी वृत्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत के प्राणियों पर कृपा करके भगवत्तत्त्व को प्रकाशित करनेवाले इस महापुराण का विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी के चरणों में नमस्कार करता हूँ ॥ ६८ ॥

स्कन्ध-12 [अध्याय-13]

॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥
सूत उवाच
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः
वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥ १॥

पृष्ठे भ्राम्यदमन्दमन्दरगिरिग्रावाग्रकण्डूयनात्
निद्रालोः कमठाकृतेर्भगवतः श्वासानिलाः पान्तु वः ।
यत्संस्कारकलानुवर्तनवशाद्वेलानिभेनाम्भसां
यातायातमतन्द्रितं जलनिधेर्नाद्यापि विश्राम्यति ॥ २॥

पुराणसङ्ख्यासम्भूतिमस्य वाच्यप्रयोजने ।
दानं दानस्य माहात्म्यं पाठादेश्च निबोधत ॥ ३॥
ब्राह्मं दशसहस्राणि पाद्मं पञ्चोनषष्टि च ।
श्रीवैष्णवं त्रयोविंशच्चतुर्विंशति शैवकम् ॥ ४॥

दशाष्टौ श्रीभागवतं नारदं पञ्चविंशतिः ।
मार्कण्डं नव वाह्नं च दशपञ्च चतुःशतम् ॥ ५॥

चतुर्दश भविष्यं स्यात्तथा पञ्चशतानि च ।
दशाष्टौ ब्रह्मवैवर्तं लैङ्गमेकादशैव तु ॥ ६॥

चतुर्विंशति वाराहमेकाशीतिसहस्रकम् ।
स्कान्दं शतं तथा चैकं वामनं दश कीर्तितम् ॥ ७॥

कौर्मं सप्तदशाख्यातं मात्स्यं तत्तु चतुर्दश ।
एकोनविंशत्सौपर्णं ब्रह्माण्डं द्वादशैव तु ॥ ८॥

एवं पुराणसन्दोहश्चतुर्लक्ष उदाहृतः ।
तत्राष्टादशसाहस्रं श्रीभागवतमिष्यते ॥ ९॥

इदं भगवता पूर्वं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे ।
स्थिताय भवभीताय कारुण्यात्सम्प्रकाशितम् ॥ १०॥

आदिमध्यावसानेषु वैराग्याख्यानसंयुतम् ।
हरिलीलाकथाव्राता मृतानन्दितसत्सुरम् ॥ ११॥

सर्ववेदान्तसारं यद्ब्रह्मात्मैकत्वलक्षणम् ।
वस्त्वद्वितीयं तन्निष्ठं कैवल्यैकप्रयोजनम् ॥ १२॥

प्रौष्ठपद्यां पौर्णमास्यां हेमसिंहसमन्वितम् ।
ददाति यो भागवतं स याति परमां गतिम् ॥ १३॥

राजन्ते तावदन्यानि पुराणानि सतां गणे ।
यावन्न दृश्यते साक्षात्श्रीमद्भागवतं परम् ॥ १४॥

(यावद्भागवतं नैव श्रूयतेऽमृतसागरं)
सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते ।
तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित् ॥ १५॥

निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा ।
वैष्णवानां यथा शम्भुः पुराणानामिदं तथा ॥ १६॥

क्षेत्राणां चैव सर्वेषां यथा काशी ह्यनुत्तमा ।
तथा पुराणव्रातानां श्रीमद्भागवतं द्विजाः ॥ १७॥

श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं
यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते ।
तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविस्कृतं
तच्छृण्वन्विपठन्विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः ॥ १८॥

कस्मै येन विभासितोऽयमतुलो ज्ञानप्रदीपः पुरा
तद्रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद्रूपिणा ।
योगीन्द्राय तदात्मनाथ भगवद्राताय कारुण्यतः
तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ॥ १९॥

नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय साक्षिणे ।
य इदं कृपया कस्मै व्याचचक्षे मुमुक्षवे ॥ २०॥

योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे ।
संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत् ॥ २१॥

भवे भवे यथा भक्तिः पादयोस्तव जायते ।
तथा कुरुष्व देवेश नाथस्त्वं नो यतः प्रभो ॥ २२॥

नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥ २३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

॥ इति द्वादशस्कन्धः समाप्तः ॥
॥ संपूर्णोऽयं ग्रन्थः ॥
त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ।
तेन त्वदङ्घ्रिकमले रतिं मे यच्छ शाश्वतीम् ॥

ॐ तत्सत् ॥ 

द्वादश स्कन्ध-तेरहवाँ अध्याय 23
विभिन्न पुराणों की श्लोक-संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा
सूतजी कहते हैं—ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियों के द्वारा जिनके गुण-गान में संलग्र रहते हैं; साम-सङ्गीत के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अङ्ग, पद, क्रम एवं उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते रहते हैं; योगीलोग ध्यान के द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मन से जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं; किन्तु यह सब करते रहने पर भी देवता, दैत्य, मनुष्य— कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूप को पूर्णतया न जान सका, उन स्वयंप्रकाश परमात्मा को नमस्कार है ॥ १ ॥ जिस समय भगवान ने कच्छपरूप धारण किया था और उनकी पीठ पर बड़ा भारी मन्दराचल मथानी की तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचल की चट्टानों की नोक से खुजला ने के कारण भगवान को तनिक सुख मिला। वे सो गये और श्वास की गति तनिक बढ़ गयी। उस समय उस श्वासवायु से जो समुद्र के जल को धक् का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है। आज भी समुद्र उसी श्वासवायु के थपेड़ों के फल स्वरूप ज्वार-भाटों के रूप में दिन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अब तक विश्राम न मिला। भगवान की वही परमप्रभावशाली श्वासवायु आपलोगों की रक्षा करे ॥ २ ॥

शौनकजी ! अब पुराणों की अलग-अलग श्लोक-संख्या, उनका जोड़, श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय और उसका प्रयोजन भी सुनिये। इसके दान की पद्धति तथा दान और पाठ आदि की महिमा भी आपलोग श्रवण कीजिये ॥ ३ ॥ ब्रह्मपुराण में दस हजार श्लोक, पद्मपुराण में पचपन हजार, श्रीविष्णुपुराण में तेईस हजार और शिवपुराण की श्लोक संख्या चौबीस हजार है ॥ ४ ॥ श्रीमद्भागवत में अठारह हजार, नारदपुराण में पच्चीस हजार, मार्कण्डेयपुराण में नौ हजार तथा अग्रिपुराण में पन्द्रह हजार चारसौ श्लोक हैं ॥ ५ ॥ भविष्यपुराण की श्लोक संख्या चौदह हजार पाँच सौ है और ब्रह्मवैवर्तपुराण की अठारह हजार तथा लिङ्गपुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं ॥ ६ ॥ वराहपुराण में चौबीस हजार, स्कन्धपुराण की श्लोक-संख्या इक्यासी हजार एक सौ है और वामनपुराण की दस हजार ॥ ७ ॥ कूर्मपुराण सत्रह हजार श्लोकों का और मत्स्यपुराण चौदह हजार श्लोकों का है। गरुड़पुराण में उन्नीस हजार श्लोक हैं और ब्रह्माण्डपुराण में बारह हजार ॥ ८ ॥ इस प्रकार सब पुराणों की श्लोक संख्या कुल मिलाकर चार लाख होती है। उनमें श्रीमद्भागवत, जैसा कि पहले कहा जा चु का है, अठारह हजार श्लोकों का है ॥ ९ ॥

शौनकजी ! पहले-पहल भगवान विष्णु ने अपने नाभिकमल पर स्थित एवं संसार से भयभीत ब्रह्मा पर परम करुणा करके इस पुराण को प्रकाशित किया था ॥ १० ॥ इसके आदि, मध्य और अन्त में वैराग्य उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी कथाएँ हैं। इस महापुराण में जो भगवान श्रीहरि की लीला कथाएँ हैं, वे तो अमृत स्वरूप हैं ही; उनके सेवन से सत्पुरुष और देवताओं को बड़ा ही आनन्द मिलता है ॥ ११ ॥ आपलोग जानते हैं कि समस्त उपनिषदों का सार है ब्रह्म और आत्मा का एकत्वरूप अद्वितीय सद्वस्तु। वही श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय है। इसके निर्माण का प्रयोजन है एकमात्र कैवल्य-मोक्ष ॥ १२ ॥

जो पुरुष भाद्रपद मास की पूर्णिमा के दिन श्रीमद्भागवत को सो ने के सिंहासन पर रखकर उसका दान करता है, उसे परमगति प्राप्त होती है ॥ १३ ॥ संतों की सभा में तभी तक दूसरे पुराणों की शोभा होती है, जब तक सर्वश्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवत महापुराण के दर्शन नहीं होते ॥ १४ ॥ यह श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदों का सार है। जो इस रस-सुधा का पान करके छक चु का है, वह किसी और पुराण- शास्त्र में रम नहीं सकता ॥ १५ ॥ जैसे नदियों में गङ्गा, देवताओं में विष्णु और वैष्णवों में श्रीशङ्करजी सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत है ॥ १६ ॥ शौनकादि ऋषियो ! जैसे सम्पूर्ण क्षेत्रों में काशी सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत का स्थान सब से ऊँचा है ॥ १७ ॥ यह श्रीमद्भागवतपुराण सर्वथा निर्दोष है। भगवान के प्यारे भक्त वैष्णव इससे बड़ा प्रेम करते हैं। इस पुराण में जीवन्मुक्त परमहंसों के सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय एवं माया के लेश से रहित ज्ञान का गान किया गया है। इस ग्रन्थ की सब से बड़ी विलक्षणता यह है कि इसका नैष्कम्र्य अर्थात् कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति भी ज्ञान-वैराग्य एवं भक्ति से युक्त है। जो इसका श्रवण, पठन और मनन करने लगता है, उसे भगवान की भक्ति प्राप्त हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है ॥ १८ ॥

यह श्रीमद्भागवत भगवत्तत्त्वज्ञान का एक श्रेष्ठ प्रकाशक है। इस की तुलना में और कोई भी पुराण नहीं है। इसे पहले-पहल स्वयं भगवान नारायण ने ब्रह्माजी के लिये प्रकट किया था। फिर उन्होंने ही ब्रह्माजी के रूप से देवर्षि नारद को उपदेश किया और नारदजी के रूप से भगवान श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास को। तदनन्तर उन्होंने ही व्यासरूप से योगीन्द्र शुकदेवजी को और श्रीशुकदेवजी के रूप से अत्यन्त करुणावश राजर्षि परीक्षित को उपदेश किया। वे भगवान परम शुद्ध एवं मायामल से रहित हैं। शोक और मृत्यु उनके पास तक नहीं फटक सकते। हम सब उन्हीं परम सत्य स्वरूप परमेश्वर का ध्यान करते हैं ॥ १९ ॥ हम उन सर्वसाक्षी भगवान वासुदेव को नमस्कार करते हैं, जिन्हों ने कृपा करके मोक्षाभिलाषी ब्रह्माजी को इस श्रीमद्भागवत महापुराण का उपदेश किया ॥ २० ॥ साथ ही हम उन योगिराज ब्रह्म स्वरूप श्रीशुकदेवजी को भी नमस्कार करते हैं, जिन्हों ने श्रीमद्भागवत महापुराण सुनाकर संसार-सर्प से ड से हुए राजर्षि परीक्षित को मुक्त किया ॥ २१ ॥ देवताओं के आराध्यदेव सर्वेश्वर ! आप ही हमारे एकमात्र स्वामी एवं सर्वस्व हैं। अब आप ऐसी कृपा कीजिये कि बार-बार जन्म ग्रहण करते रहने पर भी आपके चरणकमलों में हमारी अविचल भक्ति बनी रहे ॥ २२ ॥ जिन भगवान के नामों का सङ्कीर्तन सारे पापों को सर्वथा नष्ट कर देता है और जिन भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण, उनके चरणों में प्रणति सर्वदा के लिये सब प्रकार के दु:खों को शान्त कर देती है, उन्हीं परमतत्त्व स्वरूप श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २३ ॥

॥ बारहवाँ स्कन्ध समाप्त ॥

सम्पूर्ण ग्रन्थ समाप्त

त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये। तेन त्वदङ्घ्रकमले रतिं मे यच्छ शाश्वतीम् ॥

श्री सद्गुरु महाराज की जय!