॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ एकादशस्कन्धः ॥
॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
श्रीबादरायणिरुवाच
कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः ।
भुवोऽवतारयद्भारं जविष्ठं जनयन् कलिम् ॥ १॥
ये कोपिताः सुबहुपाण्डुसुताः सपत्नै-
र्दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान् ।
कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्
हत्वा नृपान् निरहरत्क्षितिभारमीशः ॥ २॥
भूभारराजपृतनायदुभिर्निरस्य
गुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेयः ।
मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं
यद्यादवं कुलमहो अविषह्यमास्ते ॥ ३॥
नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चि-
न्मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।
अन्तःकलिं यदुकुलस्य विधाय वेणुस्तम्बस्य
वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥ ४॥
एवं व्यवसितो राजन् सत्यसङ्कल्प ईश्वरः ।
शापव्याजेन विप्राणां सञ्जह्रे स्वकुलं विभुः ॥ ५॥
स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम् ।
गीर्भिस्ताः स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रियाः ॥ ६॥
आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां वितत्य ह्यञ्जसा नु कौ ।
तमोऽनया तरिष्यन्तीत्यगात्स्वं पदमीश्वरः ॥ ७॥
राजोवाच
ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम् ।
विप्रशापः कथमभूद्वृष्णीनां कृष्णचेतसाम् ॥ ८॥
यन्निमित्तः स वै शापो यादृशो द्विजसत्तम ।
कथमेकात्मनां भेद एतत्सर्वं वदस्व मे ॥ ९॥
श्रीशुक उवाच
बिभ्रद्वपुः सकलसुन्दरसन्निवेशं
कर्माचरन् भुवि सुमङ्गलमाप्तकामः ।
आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः
संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः ॥ १०॥
कर्माणि पुण्यनिवहानि सुमङ्गलानि
गायज्जगत्कलिमलापहराणि कृत्वा ।
कालात्मना निवसता यदुदेवगेहे
पिण्डारकं समगमन्मुनयो निसृष्टाः ॥ ११॥
विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासा भृगुरङ्गिराः ।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः ॥ १२॥
क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमारा यदुनन्दनाः ।
उपसङ्गृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत् ॥ १३॥
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम् ।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा ॥ १४॥
प्रष्टुं विलज्जती साक्षात्प्रब्रूतामोघदर्शनाः ।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किं स्वित्सञ्जनयिष्यति ॥ १५॥
एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप ।
जनयिष्यति वो मन्दा मुसलं कुलनाशनम् ॥ १६॥
तच्छ्रुत्वा तेऽतिसन्त्रस्ता विमुच्य सहसोदरम् ।
साम्बस्य ददृशुस्तस्मिन् मुसलं खल्वयस्मयम् ॥ १७॥
किं कृतं मन्दभाग्यैर्नः किं वदिष्यन्ति नो जनाः ।
इति विह्वलिता गेहानादाय मुसलं ययुः ॥ १८॥
तच्चोपनीय सदसि परिम्लानमुखश्रियः ।
राज्ञ आवेदयांचक्रुः सर्वयादवसन्निधौ ॥ १९॥
श्रुत्वामोघं विप्रशापं दृष्ट्वा च मुसलं नृप ।
विस्मिता भयसन्त्रस्ता बभूवुर्द्वारकौकसः ॥ २०॥
तच्चूर्णयित्वा मुसलं यदुराजः स आहुकः ।
समुद्रसलिले प्रास्यल्लोहं चास्यावशेषितम् ॥ २१॥
कश्चिन्मत्स्योऽग्रसील्लोहं चूर्णानि तरलैस्ततः ।
उह्यमानानि वेलायां लग्नान्यासन् किलैरकाः ॥ २२॥
मत्स्यो गृहीतो मत्स्यघ्नैर्जालेनान्यैः सहार्णवे ।
तस्योदरगतं लोहं स शल्ये लुब्धकोऽकरोत् ॥ २३॥
भगवान् ज्ञातसर्वार्थ ईश्वरोऽपि तदन्यथा ।
कर्तुं नैच्छद्विप्रशापं कालरूप्यन्वमोदत ॥ २४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
एकादश स्कन्द-पहला अध्याय 24
यदुवंश को ऋषियों का शाप
व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियों के साथ मिलकर बहुत- से दैत्यों का संहार किया तथा कौरव और पाण्डवों में भी शीघ्र मार-काट मचानेवाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ १ ॥ कौरवों ने कपटपूर्ण जूएसे, तरह-तरह के अपमानों से तथा द्रौपदी के केश खींच ने आदि अत्याचारों से पाण्डवों को अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवों को निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों पक्षों में एकत्र हुए राजाओं को मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वी का भार हल का कर दिया ॥ २ ॥ अपने बाहुबल से सुरक्षित यदुवंशियों के द्वारा पृथ्वी के भार—राजा और उनकी सेना का विनाश करके, प्रमाणों के द्वारा ज्ञान के विषय न होनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि लोकदृष्टि से पृथ्वी का भार दूर हो जाने पर भी वस्तुत: मेरी दृष्टि से अभी तक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिस पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वी पर विद्यमान है ॥ ३ ॥ यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आदि विशाल वैभव के कारण उच्छृङ्खल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदि से भी इस की किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बाँसके वन में परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्रि के समान इस यदुवंश में भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाम में जाऊँगा ॥ ४ ॥ राजन् ! भगवान सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मन में निश्चय करके ब्राह्मणों के शाप के बहा ने अपने ही वंश का संहार कर डाला, सब को समेटकर अपने धाम में ले गये ॥ ५ ॥ परीक्षित ! भगवान की वह मूर्ति त्रिलो की के सौन्दर्य का तिरस्कार करनेवाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरी से सब के नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करनेवालों के चित्त उन्होंने छीन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोकसुन्दर थे। जिस ने उनके एक चरणचिह्न का भी दर्शन कर लिया, उसकी बहिर्मुखता दूर भाग गयी, वह कर्मप्रपञ्च से ऊ पर उठकर उन्हीं की सेवा में लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वी में अपनी कीर्ति का विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियों ने बड़ी ही सुन्दर भाषा में वर्णन किया है। वह इसलिये कि मेरे चले जाने के बाद लोग मेरी इस कीर्ति का गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकार से सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धाम को प्रयाण किया ॥ ६-७ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! यदुवंशी बड़े ब्राह्मणभक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धों की नित्य-निरन्तर सेवा करनेवाले थे। सब से बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणों का अपराध कैसे बन गया ? और क्यों ब्राह्मणों ने उन्हें शाप दिया ? ॥ ८ ॥ भगवान के परम प्रेमी विप्रवर ! उस शाप का कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था ? समस्त यदुवंशियों के आत्मा, स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई ? दूसरी दृष्टि से देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उन को ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई ? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ९ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—भगवान श्रीकृष्ण ने वह शरीर धारण करके जिसमें सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थों का सन्निवेश था (नेत्रों में मृगनयन, कन्धों में सिंहस्कन्ध, करों में करि-कर, चरणों में कमल आदि का विन्यास था। ) पृथ्वी में मङ्गलमय कल्याणकारी कर्मों का आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाम में रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्ति की स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रय तक का दान कर सके वह उदार है।) अन्त में श्रीहरि ने अपने कुल के संहार—उपसंहार की इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वी का भार उतर ने में इतना ही कार्य शेष रह गया था ॥ १० ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे परम मङ्गलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करनेवाले लोगों के सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेन की राजधानी द्वारकापुरी में वसुदेवजी के घर यादवों का संहार करने के लिये कालरूप से ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देनेपर—विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अङ्गिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वार का के पास ही पिण्डारकक्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे ॥ ११-१२ ॥
एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्र किया ॥ १३ ॥ वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेष में सजाकर ले गये और कह ने लगे, ‘ब्राह्मणो ! यह कजरारी आँखोंवाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आप से एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछ ने में सकुचाती है। आपलोगों का ज्ञान अमोघ— अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र ?’ ॥ १४-१५ ॥ परीक्षित ! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा—‘मूर्खो ! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुल का नाश करनेवाला होगा ॥ १६ ॥ मुनियों की यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्ब का पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहे का मूसल मिला ॥ १७ ॥ अब तो वे पछता ने लगे और कह ने लगे—‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला ? अब लोग हमें क्या कहेंगे ?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थान में गये ॥ १८ ॥ उस समय उनके चेहरे फी के पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभा में सब यादवों के सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेन से सारी घटना कह सुनायी ॥ १९ ॥ राजन् ! जब सब लोगों ने ब्राह्मणों के शाप की बात सुनी और अपनी आँखों से उस मूसल को देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणों का शाप कभी झूठा नहीं होता ॥ २० ॥ यदुराज उग्रसेन ने उस मूसल को चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहे के बचे हुए छोटे टुकड़े को समुद्र में फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्ध में उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी) ॥ २१ ॥
परीक्षित ! उस लोहे के टुकड़े को एक मछली निगल गयी और चूरा तरङ्गों के साथ बहबहकर समुद्र के किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनों में एरक (बिना गाँठ की एक घास) के रूप में उग आया ॥ २२ ॥ मछली मारनेवाले मछुओं ने समुद्र में दूसरी मछलियों के साथ उस मछली को भी पकड़ लिया। उसके पेट में जो लोहे का टुकड़ा था, उस को जरा नामक व्याध ने अपने बाण के नोक में लगा लिया ॥ २३ ॥ भगवान सब कुछ जानते थे। वे इस शाप को उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभु ने ब्राह्मणों के शाप का अनुमोदन ही किया ॥ २४ ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
श्रीशुक उवाच
गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह ।
अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः ॥ १॥
को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकुन्दचरणाम्बुजम् ।
न भजेत्सर्वतो मृत्युरुपास्यममरोत्तमैः ॥ २॥
तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम् ।
अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत् ॥ ३॥
वसुदेव उवाच
भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम् ।
कृपणानां यथा पित्रोरुत्तमश्लोकवर्त्मनाम् ॥ ४॥
भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च ।
सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम् ॥ ५॥
भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् ।
छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥ ६॥
ब्रह्मंस्तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव ।
यान् श्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते सर्वतोभयात् ॥ ७॥
अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थो भुवि मुक्तिदम् ।
अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया ॥ ८॥
यथा विचित्रव्यसनाद्भवद्भिर्विश्वतोभयात् ।
मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत ॥ ९॥
श्रीशुक उवाच
राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता ।
प्रीतस्तमाह देवर्षिर्हरेः संस्मारितो गुणैः ॥ १०॥
नारद उवाच
सम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ ।
यत्पृच्छसे भागवतान् धर्मांस्त्वं विश्वभावनान् ॥ ११॥
श्रुतोऽनुपठितो ध्यात आदृतो वानुमोदितः ।
सद्यः पुनाति सद्धर्मो देवविश्वद्रुहोऽपि हि ॥ १२॥
त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥ १३॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः ॥ १४॥
प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायम्भुवस्य यः ।
तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिरृषभस्तत्सुतः स्मृतः ॥ १५॥
तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद्ब्रह्मपारगम् ॥ १६॥
तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।
विख्यातं वर्षमेतद्यन्नाम्ना भारतमद्भुतम् ॥ १७॥
स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् ।
उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः ॥ १८॥
तेषां नव नवद्वीपपतयोऽस्य समन्ततः ।
कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिर्द्विजातयः ॥ १९॥
नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः ।
श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः ॥ २०॥
कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।
आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ॥ २१॥
त एते भगवद्रूपं विश्वं सदसदात्मकम् ।
आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यन्तो व्यचरन्महीम् ॥ २२॥
अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्य-
गन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान् ।
मुक्ताश्चरन्ति मुनिचारणभूतनाथ-
विद्याधरद्विजगवां भुवनानि कामम् ॥ २३॥
त एकदा निमेः सत्रमुपजग्मुर्यदृच्छया ।
वितायमानमृषिभिरजनाभे महात्मनः ॥ २४॥
तान् दृष्ट्वा सूर्यसङ्काशान् महाभागवतान् नृप ।
यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे ॥ २५॥
विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान् ।
प्रीतः सम्पूजयांचक्रे आसनस्थान् यथार्हतः ॥ २६॥
तान् रोचमानान् स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान् नव ।
पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः ॥ २७॥
विदेह उवाच
मन्ये भगवतः साक्षात्पार्षदान् वो मधुद्विषः ।
विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरन्ति हि ॥ २८॥
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ॥ २९॥
अत आत्यन्तिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः ।
संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्सङ्गः शेवधिर्नृणाम् ॥ ३०॥
धर्मान् भागवतान् ब्रूत यदि नः श्रुतये क्षमम् ।
यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय दास्यत्यात्मानमप्यजः ॥ ३१॥
श्रीनारद उवाच
एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः ।
प्रतिपूज्याब्रुवन् प्रीत्या ससदस्यर्त्विजं नृपम् ॥ ३२॥
कविरुवाच
मन्येऽकुतश्चिद्भयमच्युतस्य
पादाम्बुजोपासनमत्र नित्यम् ।
उद्विग्नबुद्धेरसदात्मभावाद्विश्वात्मना
यत्र निवर्तते भीः ॥ ३३॥
ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥ ३४॥
यानास्थाय नरो राजन् प्रमाद्येत कर्हिचित् ।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥ ३५॥
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।
करोति यद्यत्सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ ३६॥
भयं द्वितीयाभिनिवेशतः
स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः ।
तन्माययातो बुध आभजेत्तं
भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा ॥ ३७॥
अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयो
ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथौ यथा ।
तत्कर्मसङ्कल्पविकल्पकं मनो
बुधो निरुन्ध्यादभयं ततः स्यात् ॥ ३८॥
शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेर्जन्मानि
कर्माणि च यानि लोके ।
गीतानि नामानि तदर्थकानि
गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥ ३९॥
एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या
जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः ।
हसत्यथो रोदिति रौति
गायत्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः ॥ ४०॥
खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं
यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥ ४१॥
भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र
चैष त्रिक एककालः ।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्युस्तुष्टिः
पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥ ४२॥
इत्यच्युताङ्घ्रिं भजतोऽनुवृत्त्या
भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः ।
भवन्ति वै भागवतस्य राजंस्ततः
परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥ ४३॥
राजोवाच
अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम् ।
यथाचरति यद्ब्रूते यैर्लिङ्गैर्भगवत्प्रियः ॥ ४४॥
हरिरुवाच
सर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः ।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ॥ ४५॥
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥ ४६॥
अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ ४७॥
गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः ॥ ४८॥
देहेन्द्रियप्राणमनोधियां यो
जन्माप्ययक्षुद्भयतर्षकृच्छ्रैः ।
संसारधर्मैरविमुह्यमानः
स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः ॥ ४९॥
न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि सम्भवः ।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः ॥ ५०॥
न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः ।
सज्जतेऽस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः ॥ ५१॥
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥ ५२॥
त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठस्मृति-
रजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् ।
न चलति भगवत्पदारविन्दा-
ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः ॥ ५३॥
भगवत उरुविक्रमाङ्घ्रिशाखा-
नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे ।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स
प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः ॥ ५४॥
विसृजति हृदयं न यस्य
साक्षाद्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः ।
प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्मः
स भवति भागवतप्रधान उक्तः ॥ ५५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
एकादश स्कन्द-दूसरा अध्याय 55
वसुदेवजी के पास श्रीनारदजी का आना और उन्हें राजा जनक तथा नौ योगीश्वरों का संवाद सुनाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुरुनन्दन ! देवर्षि नारद के मन में भगवान श्रीकृष्ण की सन्निधि में रहने की बड़ी लालसा थी। इसलिये वे श्रीकृष्ण के निज बाहुओं से सुरक्षित द्वारकामें—जहाँ दक्ष आदि के शाप का कोई भय नहीं था, विदा कर देने पर भी पुन:-पुन: आकर प्राय: रहा ही करते थे ॥ १ ॥ राजन् ! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओं के भी उपास्य चरणकमलों की दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मङ्गलमय ध्वनि का सेवन करना न चाहे ? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओर से मृत्यु से ही घिरा हुआ है ॥ २ ॥ एक दिन की बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजी के यहाँ पधारे। वसुदेवजी ने उनका अभिवादन किया तथा आराम से बैठ जाने पर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुन: प्रणाम करके उनसे यह बात कही ॥ ३ ॥
वसुदेवजी ने कहा—संसार में माता-पिता का आगमन पुत्रों के लिये और भगवान की ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतों का पदार्पण प्रपञ्च में उलझे हुए दीन-दुखियों के लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मङ्गलमय होता है। परन्तु भगवन् ! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत् स्वरूप हैं। आपका चलना- फिरना तो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होता है ॥ ४ ॥ देवताओं के चरित्र भी कभी प्राणियों के लिये दु:ख के हेतु, तो कभी सुख के हेतु बन जाते हैं। परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं—जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है—उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होती है ॥ ५ ॥ जो लोग देवताओं का जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछार्ईं के समान ठीक उसी रीति से भजन करनेवालों को फल देते हैं; क्योंकि देवता कर्म के मन्त्री हैं, अधीन हैं। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधन से भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं ॥ ६ ॥ ब्रह्मन् ! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शन से ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आप से उन धर्मोंके—साधनों के सम्बन्ध में प्रश्र कर रहे हैं, जिन को मनुष्य श्रद्धा से सुन भर ले तो इस सब ओर से भयदायक संसार से मुक्त हो जाय ॥ ७ ॥ पहले जन्म में मैंने मुक्ति देनेवाले भगवान की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिये नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधना का उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्ररूप में प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान की लीला से मुग्ध हो रहा था ॥ ८ ॥ सुव्रत ! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसारसे—जिसमें दु:ख भी सुख का विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं—अनायास ही पार हो जाऊँ ॥ ९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! बुद्धिमान वसुदेवजी ने भगवान के स्वरूप और गुण आदि के श्रवण के अभिप्राय से ही यह प्रश्र किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्र सुनकर भगवान के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणों के स्मरण में तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्द में भरकर वसुदेवजी से बोले ॥ १० ॥
नारदजी ने कहा—यदुवंशशिरोमणे ! तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्म के सम्बन्ध में है, जो सारे विश्व को जीवन-दान देनेवाला है, पवित्र करनेवाला है ॥ ११ ॥ वसुदेवजी ! यह भागवतधर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानों से सुनने, वाणी से उच्चारण करने, चित्त से स्मरण करने, हृदय से स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करने से ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है—चाहे वह भगवान का एवं सारे संसार का द्रोही ही क्यों न हो ॥ १२ ॥ जिनके गुण, लीला और नाम आदि का श्रवण तथा कीर्तन पतितों को भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याण स्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान नारायण का तुम ने आज मुझे स्मरण कराया है ॥ १३ ॥ वसुदेवजी ! तुम ने मुझ से जो प्रश्र किया है, इसके सम्बन्ध में संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है—ऋषभ के पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेह का शुभ संवाद ॥ १४ ॥ तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनु के एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रत के आग्रीध्र, आग्रीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र हुए ऋषभ ॥ १५ ॥ शास्त्रों ने उन्हें भगवान वासुदेव का अंश कहा है। मोक्षधर्म का उपदेश करने के लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदों के पारदर्शी विद्वान् थे ॥ १६ ॥ उनमें सब से बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान नारायण के परम प्रेमी भक्त थे। उन्हींके नाम से यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था,‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है ॥ १७ ॥ राजर्षि भरत ने सारी पृथ्वी का राज्य-भोग किया, परन्तु अन्त में इसे छोडक़र वन में चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्या के द्वारा भगवान की उपासना की और तीन जन्मों में वे भगवान को प्राप्त हुए ॥ १८ ॥ भगवान ऋषभदेवजी के शेष निन्यानबे पुत्रों में नौ पुत्र तो इस भारतवर्ष के सब ओर स्थित नौ द्वीपों के अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्ड के रचयिता ब्राह्मण हो गये ॥ १९ ॥ शेष नौ संन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्या के सम्पादन में बड़ा परिश्रम किया था और वास्तव में वे उसमें बड़े निपुण थे। वे प्राय: दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियों को परमार्थ-वस्तु का उपदेश किया करते थे। उनके नाम थे—कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ॥ २०-२१ ॥ वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद्रूप जगत को अपने आत्मा से अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करते थे ॥ २२ ॥ उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागों के लोकों में तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओं के स्थानों में वे स्वछन्द विचरते थे। वसुदेवजी ! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे ॥ २३ ॥
एक बार की बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्ष में विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियों के द्वारा एक महान यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञ में जा पहुँचे ॥ २४ ॥ वसुदेवजी ! वे योगीश्वर भगवान के परम प्रेमी भक्त और सूर्य के समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्रि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागत में खड़े हो गये ॥ २५ ॥ विदेहराज निमि ने उन्हें भगवान के परम प्रेमी भक्त जानकर यथायोग्य आसनों पर बैठाया और प्रेम तथा आनन्द से भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ २६ ॥ वे नवों योगीश्वर अपने अङ्गों की कान्ति से इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात ब्रह्माजी के पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा निमि ने विनय से झुककर परम प्रेम के साथ उनसे प्रश्र किया ॥ २७ ॥
विदेहराज निमि ने कहा—भगवन् ! मैं ऐसा समझता हूँ कि आपलोग मधुसूदन भगवान के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान के पार्षद संसारी प्राणियों को पवित्र करने के लिये विचरण किया करते हैं ॥ २८ ॥ जीवों के लिये मनुष्य-शरीर का प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्यु का भय सिर पर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभङ्गुर है। इसलिये अनिश्चित मनुष्य- जीवन में भगवान के प्यारे और उन को प्यार करनेवाले भक्तजनोंका, संतों का दर्शन तो और भी दुर्लभ है ॥ २९ ॥ इसलिये त्रिलोकपावन महात्माओ ! हम आपलोगों से यह प्रश्र करते हैं कि परम कल्याण का स्वरूप क्या है ? और उसका साधन क्या है ? इस संसार में आधे क्षण का सत्सङ्ग भी मनुष्यों के लिये परम निधि है ॥ ३० ॥ योगीश्वरो ! यदि हम सुनने के अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्मों का उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकार से रहित, एकरस भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मों का पालन करनेवाले शरणागत भक्तों को अपने-आप तक का दान कर डालते हैं ॥ ३१ ॥
देवर्षि नारदजी ने कहा—वसुदेवजी ! जब राजा निमि ने उन भगवत्प्रेमी संतों से यह प्रश्र किया, तब उन लोगों ने बड़े प्रेम से उनका और उनके प्रश्र का सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजों के साथ बैठे हुए राजा निमि से बोले ॥ ३२ ॥
पहले उन नौ योगीश्वरों में से कविजी ने कहा—राजन् ! भक्तजनों के हृदय से कभी दूर न होनेवाले अच्युत भगवान के चरणों की नित्य निरन्तर उपासना ही इस संसार में परम कल्याण—आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थों में अहंता एवं ममता हो जाने के कारण जिन लोगों की चित्तवृत्ति उद्विग्र हो रही है, उनका भय भी इस उपासना का अनुष्ठान करने पर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है ॥ ३३ ॥ भगवान ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमता से साक्षात अपनी प्राप्ति के लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुख से बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत धर्म’ समझो ॥ ३४ ॥ राजन् ! इन भागवतधर्मों का अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्रों से पीडि़त नहीं होता और नेत्र बंद करके दौडऩे पर भी अर्थात् विधि-विधान में त्रुटि हो जाने पर भी न तो मार्ग से स्खलित ही होता है और न तो पतित—फल से वञ्चित ही होता है ॥ ३५ ॥ (भागवतधर्म का पालन करनेवाले के लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकार का कर्म ही करे।) वह शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहङ्कारसे, अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की आदतों से स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान नारायण के लिये ही है—इस भाव से उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधर्म है) ॥ ३६ ॥ ईश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ,’ इस प्रकार का भ्रम—विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तु में अभिनिवेश, तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिये अपने गुरु को ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिये ॥ ३७ ॥ राजन् ! सच पूछो तो भगवान के अतिरिक्त, आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। परन्तु न होने पर भी इस की प्रतीति इसका चिन्तन करनेवाले को उसके चिन्तन के कारण, उधर मन लग ने के कारण ही होती है—जैसे स्वप्न के समय स्वप्नद्रष्टा की कल्पना से अथवा जाग्रत् अवस्था में नाना प्रकार के मनोरथों से एक विलक्षण ही सृष्टि दीख ने लगती है। इसलिये विचारवान् पुरुष को चाहिये कि सांसारिक कर्मों के सम्बन्ध में सङ्कल्प-विकल्प करनेवाले मन को रोक दे—कैद कर ले। बस, ऐसा करते ही उसे अभय पदकी, परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी ॥ ३८ ॥ संसार में भगवान के जन्म की और लीला की बहुत-सी मङ्गलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उन को सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओं का स्मरण दिलानेवाले भगवान के बहुत- से नाम भी प्रसिद्ध हैं। लाज-सं कोच छोडक़र उनका गान करते रहना चाहिये। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थान में आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये ॥ ३९ ॥ जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत—नियम ले लेता है, उसके हृदय में अपने परम प्रियतम प्रभु के नाम-कीर्तन से अनुरागका, प्रेम का अङ्कुर उग आता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है। अब वह साधारण लोगों की स्थिति से ऊ पर उठ जाता है। लोगों की मान्यताओं, धारणाओं से परे हो जाता है। दम्भ से नहीं, स्वभाव से ही मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँस ने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊँचे स्वर से भगवान को पुकार ने लगता है, तो कभी मधुर स्वर से उनके गुणों का गान करने लगता है। कभी- कभी जब वह अपने प्रियतम को अपने नेत्रों के सामने अनुभव करता है, तब उन्हें रिझा ने के लिये नृत्य भी करने लगता है ॥ ४० ॥ राजन् ! यह आकाश, वायु, अग्रि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र—सब-के-सब भगवान के शरीर हैं। सभी रूपों में स्वयं भगवान प्रकट हैं। ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है— चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी—उसे अनन्यभाव से भगवद्भाव से प्रणाम करता है ॥ ४१ ॥ जैसे भोजन करनेवाले को प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवनशक्ति का सञ्चार) और क्षुधा-निवृत्ति—ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजन के प्रत्येक क्षण में भगवान के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभु के स्वरूप का अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं में वैराग्य—इन तीनों की एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है ॥ ४२ ॥ राजन् ! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्ति के द्वारा भगवान के चरणकमलों का ही भजन करता है, उसे भगवान के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसार के प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान के स्वरूप की स्फूर्ति—ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परम शान्ति का अनुभव करने लगता है ॥ ४३ ॥
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वर ! अब आप कृपा करके भगवद्भक्त का लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं ? और कैसा स्वभाव होता है ? वह मनुष्यों के साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है ? क्या बोलता है ? और किन लक्षणों के कारण भगवान का प्यारा होता है ? ॥ ४४ ॥
अब नौ योगीश्वरों में से दूसरे हरिजी बोले—राजन् ! आत्म स्वरूप भगवान समस्त प्राणियों में आत्मारूपसे—नियन्तारूप से स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ता को ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्म स्वरूप भगवान में ही आधेयरूप से अथवा अध्यस्तरूप से स्थित हैं, अर्थात् वास्तव में भगवत् स्वरूप ही हैं—इस प्रकार का जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये ॥ ४५ ॥ जो भगवान से प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, दुखी और अज्ञानियों पर कृपा तथा भगवान से द्वेष करनेवालों की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भागवत है ॥ ४६ ॥ और जो भगवान के अर्चा-विग्रह—मूर्ति आदि की पूजा तो श्रद्धा से करता है, परन्तु भगवान के भक्तों या दूसरे लोगों की विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणी का भगवद्भक्त है ॥ ४७ ॥ जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियों के द्वारा शब्द-रूप आदि विषयों का ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छा के प्रतिकूल विषयों से द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयों के मिलने पर हर्षित नहीं होता—उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान की माया है—वह पुरुष उत्तम भागवत है ॥ ४८ ॥ संसार के धर्म हैं—जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमश: शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि को प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान की स्मृति में इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहने पर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है ॥ ४९ ॥ जिसके मन में विषय-भोग की इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति और उनके बीज वासनाओं का उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान वासुदेव में ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद्भक्त है ॥ ५० ॥ जिनका इस शरीर में न तो सत्कुल में जन्म, तपस्या आदि कर्म से तथा न वर्ण, आश्रम एवं जाति से ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान का प्यारा है ॥ ५१ ॥ जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदि में ‘यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकार का भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थों में सम स्वरूप परमात्मा को देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा सङ्कल्प से विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है ॥ ५२ ॥ राजन् ! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्त:करण को भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं—भगवान के ऐसे चरणकमलों से आधे क्षण, आधे पल के लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणों की सन्निधि और सेवा में ही संलग्र रहता है; यहाँ तक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवन की राज्य- लक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृति का तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मी की ओर ध्यान ही नहीं देता; वही पुरुष वास्तव में भगवद्भक्त वैष्णवों में अग्रगण्य है, सब से श्रेष्ठ है ॥ ५३ ॥ रासलीला के अवसर पर नृत्य-गति से भाँति-भाँति के पाद-विन्यास करनेवाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान के चरणों के अङ्गुलि-नख की मणि-चन्द्रिका से जिन शरणागत भक्तजनों के हृदय का विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चु का है, उनके हृदय में वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होने पर सूर्य का ताप नहीं लग सकता ॥ ५४ ॥ विवशता से नामोच्चारण करने पर भी सम्पूर्ण अघ-राशि को नष्ट कर देनेवाले स्वयं भगवान श्रीहरि जिसके हृदय को क्षणभर के लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेम की रस्सी से उनके चरण-कमलों को बाँध रखा है, वास्तव में ऐसा पुरुष ही भगवान के भक्तों में प्रधान है ॥ ५५ ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
राजोवाच
परस्य विष्णोरीशस्य मायिनामपि मोहिनीम् ।
मायां वेदितुमिच्छामो भगवन्तो ब्रुवन्तु नः ॥ १॥
नानुतृप्ये जुषन् युष्मद्वचो हरिकथामृतम् ।
संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यस्तत्तापभेषजम् ॥ २॥
अन्तरिक्ष उवाच
एभिर्भूतानि भूतात्मा महाभूतैर्महाभुज ।
ससर्जोच्चावचान्याद्यः स्वमात्रात्मप्रसिद्धये ॥ ३॥
एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पञ्चधातुभिः ।
एकधा दशधाऽऽत्मानं विभजन् जुषते गुणान् ॥ ४॥
गुणैर्गुणान् स भुञ्जान आत्मप्रद्योतितैः प्रभुः ।
मन्यमान इदं सृष्टमात्मानमिह सज्जते ॥ ५॥
कर्माणि कर्मभिः कुर्वन् सनिमित्तानि देहभृत् ।
तत्तत्कर्मफलं गृह्णन् भ्रमतीह सुखेतरम् ॥ ६॥
इत्थं कर्मगतीर्गच्छन् बह्वभद्रवहाः पुमान् ।
आभूतसम्प्लवात्सर्गप्रलयावश्नुतेऽवशः ॥ ७॥
धातूपप्लव आसन्ने व्यक्तं द्रव्यगुणात्मकम् ।
अनादिनिधनः कालो ह्यव्यक्तायापकर्षति ॥ ८॥
शतवर्षा ह्यनावृष्टिर्भविष्यत्युल्बणा भुवि ।
तत्कालोपचितोष्णार्को लोकांस्त्रीन् प्रतपिष्यति ॥ ९॥
पातालतलमारभ्य सङ्कर्षणमुखानलः ।
दहन्नूर्ध्वशिखो विष्वग्वर्धते वायुनेरितः ॥ १०॥
सांवर्तको मेघगणो वर्षति स्म शतं समाः ।
धाराभिर्हस्तिहस्ताभिर्लीयते सलिले विराट् ॥ ११॥
ततो विराजमुत्सृज्य वैराजः पुरुषो नृप ।
अव्यक्तं विशते सूक्ष्मं निरिन्धन इवानलः ॥ १२॥
वायुना हृतगन्धा भूः सलिलत्वाय कल्पते ।
सलिलं तद्धृतरसं ज्योतिष्ट्वायोपकल्पते ॥ १३॥
हृतरूपं तु तमसा वायौ ज्योतिः प्रलीयते ।
हृतस्पर्शोऽवकाशेन वायुर्नभसि लीयते ॥ १४॥
कालात्मना हृतगुणं नभ आत्मनि लीयते ।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सह वैकारिकैर्नृप ।
प्रविशन्ति ह्यहङ्कारं स्वगुणैरहमात्मनि ॥ १५॥
एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यन्तकारिणी ।
त्रिवर्णा वर्णितास्माभिः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १६॥
राजोवाच
यथैतामैश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभिः ।
तरन्त्यञ्जः स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम् ॥ १७॥
प्रबुद्ध उवाच
कर्माण्यारभमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च ।
पश्येत्पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् ॥ १८॥
नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्ममृत्युना ।
गृहापत्याप्तपशुभिः का प्रीतिः साधितैश्चलैः ॥ १९॥
एवं लोकं परं विद्यान्नश्वरं कर्मनिर्मितम् ।
सतुल्यातिशयध्वंसं यथा मण्डलवर्तिनाम् ॥ २०॥
तस्माद्गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥ २१॥
तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद्गुर्वात्मदैवतः ।
अमाययानुवृत्त्या यैस्तुष्येदात्माऽऽत्मदो हरिः ॥ २२॥
सर्वतो मनसोऽसङ्गमादौ सङ्गं च साधुषु ।
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम् ॥ २३॥
शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वन्द्वसंज्ञयोः ॥ २४॥
सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम् ।
विविक्तचीरवसनं सन्तोषं येन केनचित् ॥ २५॥
श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिन्दामन्यत्र चापि हि ।
मनो वाक्कर्मदण्डं च सत्यं शमदमावपि ॥ २६॥
श्रवणं कीर्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः ।
जन्मकर्मगुणानां च तदर्थेऽखिलचेष्टितम् ॥ २७॥
इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मनः प्रियम् ।
दारान् सुतान् गृहान् प्राणान् यत्परस्मै निवेदनम् ॥ २८॥
एवं कृष्णात्मनाथेषु मनुष्येषु च सौहृदम् ।
परिचर्यां चोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु ॥ २९॥
परस्परानुकथनं पावनं भगवद्यशः ।
मिथो रतिर्मिथस्तुष्टिर्निवृत्तिर्मिथ आत्मनः ॥ ३०॥
स्मरन्तः स्मारयन्तश्च मिथोऽघौघहरं हरिम् ।
भक्त्या सञ्जातया भक्त्या बिभ्रत्युत्पुलकां तनुम् ॥ ३१॥
क्वचिद्रुदन्त्यच्युतचिन्तया क्वचिद्धसन्ति
नन्दन्ति वदन्त्यलौकिकाः ।
नृत्यन्ति गायन्त्यनुशीलयन्त्यजं
भवन्ति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥ ३२॥
इति भागवतान् धर्मान् शिक्षन् भक्त्या तदुत्थया ।
नारायणपरो मायामञ्जस्तरति दुस्तराम् ॥ ३३॥
राजोवाच
नारायणाभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।
निष्ठामर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः ॥ ३४॥
पिप्पलायन उवाच
स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद्बहिश्च ।
देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येन
सञ्जीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ॥ ३५॥
नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा
प्राणेन्द्रियाणि च यथानलमर्चिषः स्वाः ।
शब्दोऽपि बोधकनिषेधतयाऽऽत्ममूल-
मर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धिः ॥ ३६॥
सत्त्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौ
सूत्रं महानहमिति प्रवदन्ति जीवम् ।
ज्ञानक्रियार्थफलरूपतयोरुशक्ति
ब्रह्मैव भाति सदसच्च तयोः परं यत् ॥ ३७॥
नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ
न क्षीयते सवनविद्व्यभिचारिणां हि ।
सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं
प्राणो यथेन्द्रियबलेन विकल्पितं सत् ॥ ३८॥
अण्डेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्चितेषु
प्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र ।
सन्ने यदिन्द्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते
कूटस्थ आशयमृते तदनुस्मृतिर्नः ॥ ३९॥
यर्ह्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या
चेतोमलानि विधमेद्गुणकर्मजानि ।
तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं
साक्षाद्यथामलदृशोः सवितृप्रकाशः ॥ ४०॥
राजोवाच
कर्मयोगं वदत नः पुरुषो येन संस्कृतः ।
विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विन्दते परम् ॥ ४१॥
एवं प्रश्नमृषीन् पूर्वमपृच्छं पितुरन्तिके ।
नाब्रुवन् ब्रह्मणः पुत्रास्तत्र कारणमुच्यताम् ॥ ४२॥
आविर्होत्र उवाच
कर्माकर्मविकर्मेति वेदवादो न लौकिकः ।
वेदस्य चेश्वरात्मत्वात्तत्र मुह्यन्ति सूरयः ॥ ४३॥
परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।
कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥ ४४॥
नाचरेद्यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेन्द्रियः ।
विकर्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥ ४५॥
वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽर्पितमीश्वरे ।
नैष्कर्म्यं लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः ॥ ४६॥
य आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षुः परात्मनः ।
विधिनोपचरेद्देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥ ४७॥
लब्धानुग्रह आचार्यात्तेन सन्दर्शितागमः ।
महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयाऽऽत्मनः ॥ ४८॥
शुचिः सम्मुखमासीनः प्राणसंयमनादिभिः ।
पिण्डं विशोध्य सन्न्यासकृतरक्षोऽर्चयेद्धरिम् ॥ ४९॥
अर्चादौ हृदये चापि यथा लब्धोपचारकैः ।
द्रव्यक्षित्यात्मलिङ्गानि निष्पाद्य प्रोक्ष्य चासनम् ॥ ५०॥
पाद्यादीनुपकल्प्याथ सन्निधाप्य समाहितः ।
हृदादिभिः कृतन्यासो मूलमन्त्रेण चार्चयेत् ॥ ५१॥
साङ्गोपाङ्गां सपार्षदां तां तां मूर्तिं स्वमन्त्रतः ।
पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवासोविभूषणैः ॥ ५२॥
गन्धमाल्याक्षतस्रग्भिर्धूपदीपोपहारकैः ।
साङ्गं सम्पूज्य विधिवत्स्तवैः स्तुत्वा नमेद्धरिम् ॥ ५३॥
आत्मानं तन्मयं ध्यायन् मूर्तिं सम्पूजयेद्धरेः ।
शेषामाधाय शिरसि स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम् ॥ ५४॥
एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये च यः ।
यजतीश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते हि सः ॥ ५५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
एकादश स्कन्द-तीसरा अध्याय 55
माया, माया से पार होने के उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण
राजा निमि ने पूछा—भगवन् ! सर्वशक्तिमान् परमकारण विष्णुभगवान की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अत: अब मैं उस माया का स्वरूप जानना चाहता हूँ, आपलोग कृपा करके बतलाइये ॥ १ ॥ योगीश्वरो ! मैं एक मृत्यु का शिकार मनुष्य हूँ। संसार के तरह-तरह के तापों ने मुझे बहुत दिनों से तपा रखा है। आपलोग जो भगवत् कथारूप अमृत का पान करा रहे हैं, वह उन तापों को मिटा ने की एकमात्र ओषधि है; इसलिये मैं आपलोगों की इस वाणी का सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता। आप कृपया और कहिये ॥ २ ॥
अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्षजी ने कहा—राजन् ! (भगवान की माया स्वरूपत: अनिर्वचनीय है, इसलिये उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि-पुरुष परमात्मा जिस शक्ति से सम्पूर्ण भूतों के कारण बनते हैं और उनके विषय-भोग तथा मोक्ष की सिद्धि के लिये अथवा अपने उपासकों की उत्कृष्ट सिद्धि के लिये स्वनिर्मित पञ्चभूतों के द्वारा नाना प्रकार के देव, मनुष्य आदि शरीरों की सृष्टि करते हैं, उसी को माया कहते हैं ॥ ३ ॥ इस प्रकार पञ्चमहाभूतों के द्वारा बने हुए प्राणिशरीरों में उन्होंने अन्तर्यामीरूप से प्रवेश किया और अपने को ही पहले एक मन के रूप में और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय—इन दस रूपों में विभक्त कर दिया तथा उन्हींके द्वारा विषयों का भोग कराने लगे ॥ ४ ॥ वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पञ्चभूतों के द्वारा निर्मित शरीर को आत्मा—अपना स्वरूप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है। (यह भगवान की माया है) ॥ ५ ॥ अब वह कर्मेन्द्रियों से सकाम कर्म करता है और उनके अनुसार शुभ कर्म का फल सुख और अशुभ कर्म का फल दु:ख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसार में भटक ने लगता है। यह भगवान की माया है ॥ ६ ॥ इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमङ्गलमय कर्मगतियों को, उनके फलों को प्राप्त होता है और महाभूतों के प्रलयपर्यन्त विवश होकर जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म को प्राप्त होता रहता है—यह भगवान की माया है ॥ ७ ॥ जब पञ्चभूतों के प्रलय का समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप इस समस्त व्यक्त सृष्टि को अव्यक्त की ओर, उसके मूल कारण की ओर खींचता है—यह भगवान की माया है ॥ ८ ॥ उस समय पृथ्वी पर लगातार सौ वर्ष तक भयङ्कर सूखा पड़ता है, वर्षा बिलकुल नहीं होती; प्रलयकाल की शक्ति से सूर्य की उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों लोकों को तपाने लगते हैं—यह भगवान की माया है ॥ ९ ॥ उस समय शेषनाग—सङ्कर्षण के मुँह से आग की प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायु की प्रेरणा से वे लपटें पाताललोक से जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं— यह भगवान की माया है ॥ १० ॥ इसके बाद प्रलयकालीन सांवर् तक मेघगण हाथी की सूँड के समान मोटी-मोटी धाराओं से सौ वर्ष तक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जल में डूब जाता है—यह भगवान की माया है ॥ ११ ॥ राजन् ! उस समय जैसे बिना र्ईंधन के आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीर को छोडक़र सूक्ष्म स्वरूप अव्यक्त में लीन हो जाते हैं—यह भगवान की माया है ॥ १२ ॥ वायु पृथ्वी की गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जल के रूप में हो जाती है और जब वही वायु जल के रस को खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्रि बन जाता है— यह भगवान की माया है ॥ १३ ॥ जब अन्धकार अग्रि का रूप छीन लेता है, तब वह अग्रि वायु में लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायु की स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाश में लीन हो जाता है—यह भगवान की माया है ॥ १४ ॥ राजन् ! तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाश के शब्द गुण को हरण कर लेता है जिससे वह तामस अहङ्कार में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहङ्कार में लीन होती हैं। मन सात्त्विक अहङ्कार से उत्पन्न देवताओं के साथ सात्त्विक अहङ्कार में प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकार के कार्यों के साथ अहङ्कार महत्त्व में लीन हो जाता है। महत्तत्त्व प्रकृति में और प्रकृति ब्रह्म में लीन होती है। फिर इसी के उलटे क्रम से सृष्टि होती है। यह भगवान की माया है ॥ १५ ॥ यह सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हम ने आप से वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १६ ॥
राजा निमि ने पूछा—महर्षिजी ! इस भगवान की माया को पार करना उन लोगों के लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बताइये कि जो लोग शरीर आदि में आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं ? ॥ १७ ॥
अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले—राजन् ! स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध आदि बन्धनों में बँधे हुए संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति और दु:ख की निवृत्ति के लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष माया के पार जाना चाहता है, उस को विचार करना चाहिये कि उनके कर्मों का फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है। वे सुख के बदले दु:ख पाते हैं और दु:ख-निवृत्ति के स्थान पर दिनोंदिन दु:ख बढ़ता ही जाता है ॥ १८ ॥ एक धन को ही लो। इससे दिन-पर-दिन दु:ख बढ़ता ही है, इस को पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाय तो आत्मा के लिये तो यह मृत्यु स्वरूप ही है। जो इस की उलझनों में पड़ जाता है, वह अपने-आपको भूल जाता है। इसी प्रकार घर, पुत्र, स्वजन- सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही हैं; यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इन से क्या सुख-शान्ति मिल सकती है ? ॥ १९ ॥ इसी प्रकार जो मनुष्य माया से पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मर ने के बाद प्राप्त होनेवाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं।
क्योंकि इस लोक की वस्तुओं के समान वे भी कुछ सीमित कर्मों के सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वी के छोटे-छोटे राजाओं के समान बराबरवालों से होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुखवालों के प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईष्र्या-द्वेष का भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्यवालों के प्रति घृणा रहती है एवं कर्मों का फल पूरा हो जाने पर वहाँ से पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाश का भय वहाँ भी नहीं छूट पाता ॥ २० ॥ इसलिये जो परम कल्याण का जिज्ञासु हो , उसे गुरुदेव की शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म—वेदों के पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रह्म में परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभव के द्वारा प्राप्त हुई रहस्य की बातों को बता सकें। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहार के प्रपञ्च में विशेष प्रवृत्त न हो ॥ २१ ॥ जिज्ञासु को चाहिये कि गुरु को ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपटभाव से सेवा करे और उनके पास रहकर भागवतधर्मकी—भगवान- को प्राप्त करानेवाले भक्तिभाव के साधनों की क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे। इन्हीं साधनों से सर्वात्मा एवं भक्त को अपने आत्मा का दान करनेवाले भगवान प्रसन्न होते हैं ॥ २२ ॥ पहले शरीर, सन्तान आदि में मन की अनासक्ति सीखे। फिर भगवान के भक्तों से प्रेम कैसा करना चाहिये—यह सीखे। इसके पश्चात प्राणियों के प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनय की निष्कपट भाव से शिक्षा ग्रहण करे ॥ २३ ॥ मिट्टी, जल आदि से बाह्य शरीर की पवित्रता, छल-कपट आदि के त्याग से भीतर की पवित्रता, अपने धर्म का अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों में हर्ष-विषाद से रहित होना सीखे ॥ २४ ॥ सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओं में चेतनरूप से आत्मा और नियन्तारूप से ईश्वर को देखना, एकान्तसेवन, ‘यही मेरा घर है’—ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे- पुरा ने पवित्र चिथड़े, जो कुछ प्रारब्ध के अनुसार मिल जाय, उसी में सन्तोष करना सीखे ॥ २५ ॥ भगवान की प्राप्ति का मार्ग बतलानेवाले शास्त्रों में श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्र की निन्दा न करना, प्राणायाम के द्वारा मनका, मौन के द्वारा वाणी का और वासनाहीनता के अभ्यास से कर्मों का संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थिर रखना और मन को कहीं बाहर न जाने देना सीखे ॥ २६ ॥ राजन् ! भगवान की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीर से जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान के लिये करना सीखे ॥ २७ ॥ यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचार का पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो—सब-का-सब भगवान के चरणों में निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ॥ २८ ॥ जिन संत पुरुषों ने सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का अपने आत्मा और स्वामी के रूप में साक्षातकार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जङ्गम दोनों प्रकार के प्राणियों की सेवा; विशेष करके मनुष्योंकी, मनुष्यों में भी परोपकारी सज्जनों की और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतों की करना सीखे ॥ २९ ॥ भगवान के परम पावन यश के सम्बन्ध में ही एक-दूसरे से बातचीत करना और इस प्रकार के साधकों का इकट्ठेहोकर आपस में प्रेम करना, आपस में सन्तुष्ट रहना और प्रपञ्च से निवृत्त होकर आपस में ही आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करना सीखे ॥ ३० ॥ राजन् ! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापों को एक क्षण में भस्म कर देते हैं। सब उन्हीं का स्मरण करें और एक-दूसरे को स्मरण करावें। इस प्रकार साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते-करते प्रेम- भक्ति का उदय हो जाता है और वे प्रेमोद्रेक से पुलकित-शरीर धारण करते हैं ॥ ३१ ॥ उनके हृदय की बड़ी विलक्षण स्थिति होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अब तक भगवान नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किस से पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे ? इस तरह सोचते- सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान की लीला की स्फूर्ति हो जाने से ऐसा देखकर कि परमैश्वर्य- शाली भगवान गोपियों के डर से छिपे हुए हैं, खिलखिलाकर हँस ने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शन की अनुभूति से आनन्दमग्र हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भाव में स्थित होकर भगवान के साथ बातचीत करने लगते हैं । कभी मानो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणों का गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझा ने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढऩे लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उनकी सन्निधि में स्थित होकर परम शान्ति का अनुभव करते और चुप हो जाते हैं ॥ ३२ ॥ राजन् ! जो इस प्रकार भागवतधर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है ॥ ३३ ॥
राजा निमि ने पूछा—महर्षियो ! आपलोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जाननेवालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा का ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है ? ॥ ३४ ॥
अब पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजी ने कहा—राजन् ! जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त-कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बननेवाला भी है और बनानेवाला भी— परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओं में उनके साक्षी के रूप में विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधि में भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्ता से ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्त:करण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप ‘नारायण’ समझिये ॥ ३५ ॥ जैसे चिनगारियाँ न तो अग्रि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उसपर मतत्त्वमें—आत्म स्वरूप में न तो मन की गति है और न वाणीकी, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पास तक नहीं फटक पातीं। ‘नेति-नेति’—इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी वह यह है—इस रूप में उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उस को बोध करानेवाले जित ने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप से अपना मूल—निषेध का मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेध के आधारकी, आत्मा की सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किस में है—
इन प्रश्रों का कोई उत्तर ही न रहे, निषेध की ही सिद्धि न हो ॥ ३६ ॥ जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही था। सृष्टि का निरूपण करने के लिये उसी को त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया। फिर उसी को ज्ञानप्रधान होने से महत्तत्त्व, क्रियाप्रधान होने से सूत्रात्मा और जीव की उपाधि होने से अहङ्कार के रूप में वर्णन किया गया। वास्तव में जितनी भी शक्तियाँ हैं—चाहे वे इन्द्रियों के अधिष्ठातृदेवताओं के रूप में हों, चाहे इन्द्रियोंके, उनके विषयों के अथवा विषयों के प्रकाश के रूप में हों—सब-का-सब वह ब्रह्म ही है; क्योंकि ब्रह्म की शक्ति अनन्त है। कहाँ तक कहूँ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है—सब कुछ ब्रह्म है। इन से परे जो कुछ है, वह भी ब्रह्म ही है ॥ ३७ ॥ वह ब्रह्म स्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जित ने भी परिवर्तनशील पदार्थ हैं—चाहे वे क्रिया, सङ्कल्प और उनके अभाव के रूप में ही क्यों न हों—सब की भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ता का वह साक्षी है। सब में है। देश, काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न है, अविनाशी है। वह उपलब्धि करनेवाला अथवा उपलब्धि का विषय नहीं है। केवल उपलब्धि स्वरूप—ज्ञान स्वरूप है। जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थानभेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं—वैसे ही ज्ञान एक होने पर भी इन्द्रियों के सहयोग से उसमें अनेकता की कल्पना हो जाती है ॥ ३८ ॥ जगत में चार प्रकार के जीव होते हैं—अंडा फोडक़र पैदा होनेवाले पक्षी-साँप आदि, नाल में बँधे पैदा होनेवाले पशु-मनुष्य, धरती फोडक़र निकलनेवाले वृक्ष-वनस्पति और पसी ने से उत्पन्न होनेवाले खटमल आदि। इन सभी जीव-शरीरों में प्राणशक्ति जीव के पीछे लगी रहती है। शरीरों के भिन्न-भिन्न होने पर भी प्राण एक ही रहता है। सुषुप्ति-अवस्था में जब इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहङ्कार भी सो जाता है—लीन हो जाता है, अर्थात् लिङ्गशरीर नहीं रहता, उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बात की पीछे से स्मृति ही कैसे हो कि मैं सुख से सोया था । पीछे होनेवाली यह स्मृति ही उस समय आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है ॥ ३९ ॥ जब भगवान कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अग्रि की भाँति गुण और कर्मों से उत्पन्न हुए चित्त के सारे मलों को जला डालती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्व का साक्षातकार हो जाता है—जैसे नेत्रों के निर्विकार हो जाने पर सूर्य के प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ॥ ४० ॥
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो ! अब आपलोग हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कम्र्य अर्थात् कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल की निवृत्ति करनेवाला ज्ञान प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥ एक बार यही प्रश्र मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकु के सामने ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों से पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होने पर भी मेरे प्रश्र का उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था ? कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ४२ ॥
अब छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी ने कहा—राजन् ! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहित का उल्लङ्घन)—ये तीनों एकमात्र वेद के द्वारा जाने जाते हैं, इन की व्यवस्था लौकिक रीति से नहीं होती। वेद अपौरुषेय हैं—ईश्वररूप हैं; इसलिये उनके तात्पर्य का निश्चय करना बहुत कठिन है। इसीसे बड़े-बड़े विद्वान् भी उनके अभिप्राय का निर्णय करने में भूल कर बैठते हैं। (इसीसे तुम्हारे बचपन की ओर देखकर—तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियों ने तुम्हारे प्रश्र का उत्तर नहीं दिया) ॥ ४३ ॥ यह वेद परोक्षवादात्मक [1] है। यह कर्मों की निवृत्ति के लिये कर्म का विधान करता है, जैसे बालक को मिठाई आदि का लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञों को स्वर्ग आदि का प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्म में प्रवृत्त करता है ॥ ४४ ॥ जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वह यदि मनमाने ढंग से वेदोक्त कर्मों का परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मों का आचरण न करने के कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है। इसलिये वह मृत्यु के बाद फिर मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥ इसलिये फल की अभिलाषा छोड़- कर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म का ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदों में स्वर्गादिरूप फल का वर्णन है, उसका तात्पर्य फल की सत्यता में नहीं है, वह तो कर्मों में रुचि उत्पन्न कराने के लिये है ॥ ४६ ॥
राजन् ! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र-से-शीघ्र मेरे ब्रह्म स्वरूप आत्मा की हृदय-ग्रन्थि—मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाय, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करे ॥ ४७ ॥ पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे; अपने को भगवान की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसी के द्वारा पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करे ॥ ४८ ॥ पहले स्नानादि से शरीर और सन्तोष आदि से अन्त:करण को शुद्ध करे, इसके बाद भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदि के द्वारा भूतशुद्धि—नाडी-शोधन करे, तत्पश्चात विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदि के न्यास से अङ्गरक्षा करके भगवान की पूजा करे ॥ ४९ ॥ पहले पुष्प आदि पदार्थों का जन्तु आदि निकालकर, पृथ्वी को सम्मार्जन आदिसे, अपने को अव्यग्र होकर और भगवान की मूर्ति को पहलेही की पूजा के लगे हुए पदार्थों के क्षालन आदि से पूजा के योग्य बनाकर फिर आसन पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिडक़कर पाद्य, अघ्र्य आदि पात्रों को स्थापित करे। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर ह्ृदय में भगवान का ध्यान करके फिर उसे सामने की श्रीमूर्ति में चिन्तन करे। तदनन्तर हृदय, सिर, शिखा (हृदयाय नम:, शिर से स्वाहा) इत्यादि मन्त्रों से न्यास करे और अपने इष्टदेव के मूलमन्त्र के द्वारा देश, काल आदि के अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्री से प्रतिमा आदि में अथवा हृदय में भगवान की पूजा करे ॥ ५०-५१ ॥ अपने-अपने उपास्यदेव के विग्रह की हृदयादि अङ्ग, आयुधादि उपाङ्ग और पार्षदोंसहित उसके मूलमन्त्र द्वारा पाद्य, अघ्र्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षत के [2] तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रों द्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान श्रीहरि को नमस्कार करे ॥ ५२-५३ ॥ अपने आपको भगवन्मय ध्यान करते हुए ही भगवान की मूर्ति का पूजन करना चाहिये। निर्माल्य को अपने सिर पर रखे और आदर के साथ भगवद्विग्रह को यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ इस प्रकार जो पुरुष अग्रि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरि की पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥ ५५ ॥
[1] जिसमें शब्दार्थ कुछ और मालूम दे और तात्पर्यार्थ कुछ और हो—उसे परोक्षवाद कहते हैं।
[2] विष्णुभगवान की पूजा में अक्षतों का प्रयोग केवल तिलकालंकार में ही करना चाहिये, पूजा में नहीं—‘नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न केतक्या महेश्वरम्।’
॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
राजोवाच
यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छन्दजन्मभिः ।
चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु नः ॥ १॥
द्रुमिल उवाच
यो वा अनन्तस्य गुणाननन्ता-
ननुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः ।
रजांसि भूमेर्गणयेत्कथञ्चित्कालेन
नैवाखिलशक्तिधाम्नः ॥ २॥
भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः
पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन् ।
स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानमवाप
नारायण आदिदेवः ॥ ३॥
यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशो
यस्येन्द्रियैस्तनुभृतामुभयेन्द्रियाणि ।
ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा
सत्त्वादिभिः स्थितिलयोद्भव आदि कर्ता ॥ ४॥
आदावभूच्छतधृती रजसास्य सर्गे
विष्णुः स्थितौ क्रतुपतिर्द्विजधर्मसेतुः ।
रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य
इत्युद्भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु ॥ ५॥
धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां
नारायणो नरऋषिप्रवरः प्रशान्तः ।
नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म
योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेविताङ्घ्रिः ॥ ६॥
इन्द्रो विशङ्क्य मम धाम जिघृक्षतीति
कामं न्ययुङ्क्त सगणं स बदर्युपाख्यम् ।
गत्वाप्सरोगणवसन्तसुमन्दवातैः
स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः ॥ ७॥
विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः
प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान् ।
मा भैष्ट भो मदन मारुत देववध्वो
गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम् ॥ ८॥
इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः
सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः ।
नैतद्विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं
स्वारामधीरनिकरानतपादपद्मे ॥ ९॥
त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः
स्वौको विलङ्घ्य परमं व्रजतां पदं ते ।
नान्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्
धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि ॥ १०॥
क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्वशैश्ना-
नस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित् ।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे
गोर्मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति ॥ ११॥
इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद्भुतदर्शनाः ।
दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः ॥ १२॥
ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः ।
गन्धेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः ॥ १३॥
तानाह देवदेवेशः प्रणतान् प्रहसन्निव ।
आसामेकतमां वृङ्ध्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम् ॥ १४॥
ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवन्दिनः ।
उर्वशीमप्सरःश्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः ॥ १५॥
इन्द्रायानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम् ।
ऊचुर्नारायणबलं शक्रस्तत्रास विस्मितः ॥ १६॥
हंसस्वरूप्यवददच्युत आत्मयोगं
दत्तः कुमार ऋषभो भगवान् पिता नः ।
विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतिर्णस्तेनाहृता
मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये ॥ १७॥
गुप्तोऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये
क्रौडे हतो दितिज उद्धरताम्भसः क्ष्माम् ।
कौर्मे धृतोऽद्रिरमृतोन्मथने स्वपृष्ठे
ग्राहात्प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम् ॥ १८॥
संस्तुन्वतोऽब्धिपतितान् श्रमणानृषींश्च
शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम् ।
देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा
जघ्नेऽसुरेन्द्रमभयाय सतां नृसिंहे ॥ १९॥
देवासुरे युधि च दैत्यपतीन् सुरार्थे
हत्वान्तरेषु भुवनान्यदधात्कलाभिः ।
भूत्वाथ वामन इमामहरद्बलेः क्ष्मां
याच्ञाच्छलेन समदाददितेः सुतेभ्यः ॥ २०॥
निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिःसप्तकृत्वो
रामस्तु हैहयकुलाप्ययभार्गवाग्निः ।
सोऽब्धिं बबन्ध दशवक्त्रमहन् सलङ्कं
सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः ॥ २१॥
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा
जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्
शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते ॥ २२॥
एवंविधानि कर्माणि जन्मानि च जगत्पतेः ।
भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज ॥ २३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
एकादश स्कन्द-चौथा अध्याय 23
भगवान के अवतारों का वर्णन
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो ! भगवान स्वतन्त्रता से अपने भक्तों की भक्ति के वश होकर अनेकों प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएँ करते हैं। आपलोग कृपा करके भगवान की उन लीलाओं का वर्णन कीजिये, जो वे अब तक कर चु के हैं, कर रहे हैं या करेंगे ॥ १ ॥
अब सातवें योगीश्वर द्रुमिलजी ने कहा—राजन् ! भगवान अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणों को गिन लूँगा, वह मूर्ख है, बालक है। यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वी के धूलि-कणों को गिन ले, परन्तु समस्त शक्तियों के आश्रय भगवान के अनन्त गुणों का कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता ॥ २ ॥ भगवान ने ही पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, आकाश—इन पाँच भूतों की अपने-आप से अपने-आप में सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट् शरीर, ब्रह्माण्ड का निर्माण करके उसमें लीला से अपने अंश अन्तर्यामीरूप से प्रवेश करते हैं, (भोक्तारूप से नहीं, क्योंकि भोक्ता तो अपने पुण्यों के फल स्वरूप जीव ही होता है) तब उन आदिदेव नारायण को ‘पुरुष’ नाम से कहते हैं, यही उनका पहला अवतार है ॥ ३ ॥ उन्हींके इस विराट् ब्रह्माण्ड शरीर में तीनों लोक स्थित हैं। उन्हीं की इन्द्रियों से समस्त देहधारियों की ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बनी हैं। उनके स्वरूप से ही स्वत:सिद्ध ज्ञान का सञ्चार होता है। उनके श्वास-प्रश्वास से सब शरीरों में बल आता है तथा इन्द्रियों में ओज (इन्द्रियों की शक्ति) और कर्म करने की शक्ति प्राप्त होती है। उन्हींके सत्त्व आदि गुणों से संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। इस विराट् शरीर के जो शरीरी हैं, वे ही आदिकर्ता नारायण हैं ॥ ४ ॥ पहले-पहल जगत की उत्पत्ति के लिये उनके रजोगुण के अंश से ब्रह्मा हुए, फिर वे आदिपुरुष ही संसार की स्थिति के लिये अपने सत्त्वांश से धर्म तथा ब्राह्मणों के रक्षक यज्ञपति विष्णु बन गये। फिर वे ही तमोगुण के अंश से जगत के संहार के लिये रुद्र बने। इस प्रकार निरन्तर उन्हीं से परिवर्तनशील प्रजा की उत्पत्ति-स्थिति और संहार होते रहते हैं ॥ ५ ॥
दक्ष प्रजापति की एक कन्या का नाम था मूर्ति। वह धर्म की पत्नी थी। उसके गर्भ से भगवान ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा ‘नर’ और ‘नारायण’ के रूप में अवतार लिया । उन्होंने आत्मतत्त्व का साक्षातकार करानेवाले उस भगवदाराधनरूप कर्म का उपदेश किया, जो वास्तव में कर्मबन्धन से छुड़ानेवाला और नैष्कम्र्य स्थिति को प्राप्त करानेवाला है। उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्म का अनुष्ठान किया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं। वे आज भी बदरिकाश्रम में उसी कर्म का आचरण करते हुए विराजमान हैं ॥ ६ ॥ ये अपनी घोर तपस्या के द्वारा मेरा धाम छीनना चाहते हैं—इन्द्र ने ऐसी आशं का करके स्त्री, वसन्त आदि दल-बल के साथ कामदेव को उनकी तपस्या में विघ्र डालने के लिये भेजा। कामदेव को भगवान की महिमा का ज्ञान न था; इसलिये वह अप्सरागण, वसन्त तथा मन्द-सुगन्ध वायु के साथ बदरिकाश्रम में जाकर स्त्रियों के कटाक्ष बाणों से उह्े. घायल करने की चेष्टा करने लगा ॥ ७ ॥ आदिदेव नर-नारायण ने यह जानकर कि यह इन्द्र का कुचक्र है, भय से काँपते हुए काम आदिकों से हँसकर कहा—उस समय उनके मन में किसी प्रकार का अभिमान या आश्चर्य नहीं था। ‘कामदेव, मलयमारुत और देवाङ्गनाओ ! तुमलोग डरो मत; हमारा आतिथ्य स्वीकार करो। अभी यहीं ठहरो, हमारा आश्रम सूना मत करो’ ॥ ८ ॥ राजन् ! जब नर-नारायण ऋषि ने उन्हें अभयदान देते हुए इस प्रकार कहा, तब कामदेव आदि के सिर लज्जा से झुक गये। उन्होंने दयालु भगवान नर-नारायण से कहा—‘प्रभो ! आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि आप माया से परे और निर्विकार हैं। बड़े-बड़े आत्माराम और धीर पुरुष निरन्तर आपके चरणकमलों में प्रणाम करते रहते हैं ॥ ९ ॥ आपके भक्त आपकी भक्ति के प्रभाव से देवताओं की राजधानी अमरावती का उल्लङ्घन करके आपके परमपद को प्राप्त होते हैं। इसलिये जब वे भजन करने लगते हैं, तब देवतालोग तरह-तरह से उनकी साधना में विघ्र डालते हैं। किन्तु जो लोग केवल कर्मकाण्ड में लगे रहकर यज्ञादि के द्वारा देवताओं को बलि के रूप में उनका भाग देते रहते हैं, उन लोगों के मार्ग में वे किसी प्रकार का विघ्र नहीं डालते। परन्तु प्रभो ! आपके भक्तजन उनके द्वारा उपस्थित की हुई विघ्र-बाधाओं से गिरते नहीं। बल्कि आपके कर-कमलों की छत्रछाया में रहते हुए वे विघ्रों के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ जाते हैं, अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होते ॥ १० ॥ बहुत- से लोग तो ऐसे होते हैं जो भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी एवं आँधी-पानी के कष्टों को तथा रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के वेगों को, जो अपार समुद्रों के समान हैं, सह लेते हैं—पार कर जाते हैं। परन्तु फिर भी वे उस क्रोध के वश में हो जाते हैं, जो गाय के खुर से बने गड्ढे के समान है और जिससे कोई लाभ नहीं है—आत्मनाशक है। और प्रभो ! वे इस प्रकार अपनी कठिन तपस्या को खो बैठते हैं ॥ ११ ॥ जब कामदेव, वसन्त आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति की तब सर्वशक्तिमान् भगवान ने अपने योगबल से उनके सामने बहुत-सी ऐसी रमणियाँ प्रकट करके दिखलायीं, जो अद्भुत रूप-लावण्य से सम्पन्न और विचित्र वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित थीं तथा भगवान की सेवा कर रही थीं ॥ १२ ॥ जब देवराज इन्द्र के अनुचरों ने उन लक्ष्मीजी के समान रूपवती स्त्रियों को देखा, तब उनके महान सौन्दर्य के सामने उनका चेहरा फी का पड़ गया, वे श्रीहीन होकर उनके शरीर से निकलनेवाली दिव्य सुगन्ध से मोहित हो गये ॥ १३ ॥ अब उनका सिर झुक गया। देवदेवेश भगवान नारायण हँसते हुए- से उनसे बोले—‘तुमलोग इनमें से किसी एक स्त्री को, जो तुम्हारे अनुरूप हो, ग्रहण कर लो। वह तुम्हारे स्वर्गलोक की शोभा बढ़ानेवाली होगी ॥ १४ ॥ देवराज इन्द्र के अनुचरों ने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान के आदेश को स्वीकार किया तथा उन्हें नमस्कार किया। फिर उनके द्वारा बनायी हुई स्त्रियों में से श्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी को आगे करके वे स्वर्गलोक में गये ॥ १५ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने इन्द्र को नमस्कार किया तथा भरी सभा में देवताओं के सामने भगवान नर-नारायण के बल और प्रभाव का वर्णन किया। उसे सुनकर देवराज इन्द्र अत्यन्त भयभीत और चकित हो गये ॥ १६ ॥
भगवान विष्णु ने अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत के कल्याण के लिये बहुत- से कलावतार ग्रहण किये हैं। विदेहराज ! हंस, दत्तात्रेय, सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार और हमारे पिता ऋषभ के रूप में अवतीर्ण होकर उन्होंने आत्मसाक्षातकार के साधनों का उपदेश किया है। उन्होंने ही हयग्रीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरों का संहार करके उन लोगों के द्वारा चुराये हुए वेदों का उद्धार किया है ॥ १७ ॥ प्रलय के समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और ओषधियोंकी—धान्यादि की रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके पृथ्वी का रसातल से उद्धार करते समय हिरण्याक्ष का संहार किया। कूर्मावतार ग्रहण करके उन्हीं भगवान ने अमृत-मन्थन का कार्य सम्पन्न करने के लिये अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण किया और उन्हीं भगवान विष्णु ने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त गजेन्द्र को ग्राह से छुड़ाया ॥ १८ ॥ एक बार वालखिल्य ऋषि तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। वे जब कश्यप ऋषि के लिये समिधा ला रहे थे, तो थककर गाय के खुर से बने हुए गड्ढे में गिर पड़े, मानो समुद्र में गिर गये हों। उन्होंने जब स्तुति की, तब भगवान ने अवतार लेकर उनका उद्धार किया। वृत्रासुर को मार ने के कारण जब इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी और वे उसके भय से भागकर छिप गये, तब भगवान ने उस हत्या से इन्द्र की रक्षा की; और जब असुरों ने अनाथ देवाङ्गनाओं को बंदी बना लिया, तब भी भगवान ने ही उन्हें असुरों के चंगुल से छुड़ाया। जब हिरण्यकशिपु के कारण प्रह्लाद आदि संत पुरुषों को भय पहुँच ने लगा, तब उन को निर्भय करने के लिये भगवान ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और हिरण्यकशिपु को मार डाला ॥ १९ ॥ उन्होंने देवताओं की रक्षा के लिये देवासुर संग्राम में दैत्यपतियों का वध किया और विभिन्न मन्वन्तरों में अपनी शक्ति से अनेकों कलावतार धारण करके त्रिभुवन की रक्षा की। फिर वामन-अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचना के बहा ने इस पृथ्वी को दैत्यराज बलि से छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओं को दे दिया ॥ २० ॥ परशुराम-अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया। परशुरामजी तो हैहयवंश का प्रलय करने के लिये मानो भृगुवंश में अग्रि रूप से ही अवतीर्ण हुए थे। उन्हीं भगवान ने रामावतार में समुद्र पर पुल बाँधा एवं रावण और उसकी राजधानी लङ् का को मटियामेट कर दिया। उनकी कीर्ति समस्त लोकों के मल को नष्ट करनेवाली है। सीतापति भगवान राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं ॥ २१ ॥ राजन् ! अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतार ने के लिये ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। फिर आगे चलकर भगवान ही बुद्ध के रूप में प्रकट होंगे और यज्ञ के अनधिकारियों को यज्ञ करते देखकर अनेक प्रकार के तर्क-वितर्कों से मोहित कर लेंगे और कलियुग के अन्त में कल्कि-अवतार लेकर वे ही शूद्र राजाओं का वध करेंगे ॥ २२ ॥ महाबाहु विदेहराज ! भगवान की कीर्ति अनन्त है। महात्माओं ने जगतपति भगवान के ऐसे-ऐसे अनेकों जन्म और कर्मों का प्रचुरता से गान भी किया है ॥ २३ ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः - ५ ॥
राजोवाच
भगवन्तं हरिं प्रायो न भजन्त्यात्मवित्तमाः ।
तेषामशान्तकामानां का निष्ठाविजितात्मनाम् ॥ १॥
चमस उवाच
मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह ।
चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक् ॥ २॥
य एषां पुरुषं साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम् ।
न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥ ३॥
दूरे हरिकथाः केचिद्दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥ ४॥
विप्रो राजन्यवैश्यौ च हरेः प्राप्ताः पदान्तिकम् ।
श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिनः ॥ ५॥
कर्मण्यकोविदाः स्तब्धा मूर्खाः पण्डितमानिनः ।
वदन्ति चाटुकान् मूढा यया माध्व्या गिरोत्सुकाः ॥ ६॥
रजसा घोरसङ्कल्पाः कामुका अहिमन्यवः ।
दाम्भिका मानिनः पापा विहसन्त्यच्युतप्रियान् ॥ ७॥
वदन्ति तेऽन्योन्यमुपासितस्त्रियो
गृहेषु मैथुन्यपरेषु चाशिषः ।
यजन्त्यसृष्टान्नविधानदक्षिणं
वृत्त्यै परं घ्नन्ति पशूनतद्विदः ॥ ८॥
श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया
त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा ।
जातस्मयेनान्धधियः सहेश्वरान्
सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान् खलाः ॥ ९॥
सर्वेषु शश्वत्तनुभृत्स्ववस्थितं
यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम् ।
वेदोपगीतं च न शृण्वतेऽबुधा
मनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया ॥ १०॥
लोके व्यवायामिषमद्यसेवा
नित्यास्तु जन्तोर्न हि तत्र चोदना ।
व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञ-
सुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ॥ ११॥
धनं च धर्मैकफलं यतो वै
ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति ।
गृहेषु युञ्जन्ति कलेवरस्य
मृत्युं न पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् ॥ १२॥
यद्घ्राणभक्षो विहितः सुरायास्तथा
पशोरालभनं न हिंसा ।
एवं व्यवायः प्रजया न रत्या
इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम् ॥ १३॥
ये त्वनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धाः सदभिमानिनः ।
पशून् द्रुह्यन्ति विश्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् ॥ १४॥
द्विषन्तः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम् ।
मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहाः पतन्त्यधः ॥ १५॥
ये कैवल्यमसम्प्राप्ता ये चातीताश्च मूढताम् ।
त्रैवर्गिका ह्यक्षणिका आत्मानं घातयन्ति ते ॥ १६॥
एत आत्महनोऽशान्ता अज्ञाने ज्ञानमानिनः ।
सीदन्त्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथाः ॥ १७॥
हित्वात्यायासरचिता गृहापत्यसुहृच्छ्रियः ।
तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्मुखाः ॥ १८॥
राजोवाच
कस्मिन् काले स भगवान् किं वर्णः कीदृशो नृभिः ।
नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम् ॥ १९॥
करभाजन उवाच
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिरित्येषु केशवः ।
नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेज्यते ॥ २०॥
कृते शुक्लश्चतुर्बाहुर्जटिलो वल्कलाम्बरः ।
कृष्णाजिनोपवीताक्षान् बिभ्रद्दण्डकमण्डलू ॥ २१॥
मनुष्यास्तु तदा शान्ता निर्वैराः सुहृदः समाः ।
यजन्ति तपसा देवं शमेन च दमेन च ॥ २२॥
हंसः सुपर्णो वैकुण्ठो धर्मो योगेश्वरोऽमलः ।
ईश्वरः पुरुषोऽव्यक्तः परमात्मेति गीयते ॥ २३॥
त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः ।
हिरण्यकेशस्त्रय्यात्मा स्रुक्स्रुवाद्युपलक्षणः ॥ २४॥
तं तदा मनुजा देवं सर्वदेवमयं हरिम् ।
यजन्ति विद्यया त्रय्या धर्मिष्ठा ब्रह्मवादिनः ॥ २५॥
विष्णुर्यज्ञः पृश्निगर्भः सर्वदेव उरुक्रमः ।
वृषाकपिर्जयन्तश्च उरुगाय इतीर्यते ॥ २६॥
द्वापरे भगवाञ्श्यामः पीतवासा निजायुधः ।
श्रीवत्सादिभिरङ्कैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥ २७॥
तं तदा पुरुषं मर्त्या महाराजोपलक्षणम् ।
यजन्ति वेदतन्त्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप ॥ २८॥
नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ २९॥
नारायणाय ऋषये पुरुषाय महात्मने ।
विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः ॥ ३०॥
इति द्वापर उर्वीश स्तुवन्ति जगदीश्वरम् ।
नानातन्त्रविधानेन कलावपि यथा शृणु ॥ ३१॥
कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् ।
यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२॥
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं
तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् ।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥ ३३॥
त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं
धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् ।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्वन्दे
महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥ ३४॥
एवं युगानुरूपाभ्यां भगवान् युगवर्तिभिः ।
मनुजैरिज्यते राजन् श्रेयसामीश्वरो हरिः ॥ ३५॥
कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः ।
यत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते ॥ ३६॥
न ह्यतः परमो लाभो देहिनां भ्राम्यतामिह ।
यतो विन्देत परमां शान्तिं नश्यति संसृतिः ॥ ३७॥
कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥ ३८॥
क्वचित्क्वचिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिशः ।
ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ॥ ३९॥
कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ।
ये पिबन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर ।
प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशयाः ॥ ४०॥
देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां
न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥ ४१॥
स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य
त्यक्तान्यभावस्य हरिः परेशः ।
विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद्धुनोति
सर्वं हृदि सन्निविष्टः ॥ ४२॥
नारद उवाच
धर्मान् भागवतानित्थं श्रुत्वाथ मिथिलेश्वरः ।
जायन्तेयान् मुनीन् प्रीतः सोपाध्यायो ह्यपूजयत् ॥ ४३॥
ततोऽन्तर्दधिरे सिद्धाः सर्वलोकस्य पश्यतः ।
राजा धर्मानुपातिष्ठन्नवाप परमां गतिम् ॥ ४४॥
त्वमप्येतान् महाभाग धर्मान् भागवतान् श्रुतान् ।
आस्थितः श्रद्धया युक्तो निःसङ्गो यास्यसे परम् ॥ ४५॥
युवयोः खलु दम्पत्योर्यशसा पूरितं जगत् ।
पुत्रतामगमद्यद्वां भगवानीश्वरो हरिः ॥ ४६॥
दर्शनालिङ्गनालापैः शयनासनभोजनैः ।
आत्मा वां पावितः कृष्णे पुत्रस्नेहं प्रकुर्वतोः ॥ ४७॥
वैरेण यं नृपतयः शिशुपालपौण्ड्रशाल्वादयो गतिविलासविलोकनाद्यैः ।
ध्यायन्त आकृतधियः शयनासनादौ
तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम् ॥ ४८॥
मापत्यबुद्धिमकृथाः कृष्णे सर्वात्मनीश्वरे ।
मायामनुष्यभावेन गूढैश्वर्ये परेऽव्यये ॥ ४९॥
भूभारासुरराजन्यहन्तवे गुप्तये सताम् ।
अवतीर्णस्य निर्वृत्यै यशो लोके वितन्यते ॥ ५०॥
श्रीशुक उवाच
एतच्छ्रुत्वा महाभागो वसुदेवोऽतिविस्मितः ।
देवकी च महाभागा जहतुर्मोहमात्मनः ॥ ५१॥
इतिहासमिमं पुण्यं धारयेद्यः समाहितः ।
स विधूयेह शमलं ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
एकादश स्कन्द-पाँचवाँ अध्याय 52
भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान की पूजाविधि का वर्णन
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान के परमभक्त हैं। कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक-पारलौकिक भोगों की लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वश में नहीं हैं तथा जो प्राय: भगवान का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगों की क्या गति होती है ? ॥ १ ॥
अब आठवें योगीश्वर चमसजी ने कहा—राजन् ! विराट् पुरुष के मुख से सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओं से सत्त्व-रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघों से रज-तमप्रधान वैश्य और चरणों से तम:प्रधान शूद्र की उत्पत्ति हुई है। उन्हीं की जाँघों से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्य, वक्ष:स्थल से वानप्रस्थ और मस् तक से संन्यास—ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं। इन चारों वर्णों और आश्रमों के जन्मदाता स्वयं भगवान ही हैं। वही इनके स्वामी, नियन्ता और आत्मा भी हैं। इसलिये इन वर्ण और आश्रम में रहनेवाला जो मनुष्य भगवान का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य-योनि से भी च्युत हो जाता है; उसका अध:पतन हो जाता है ॥ २-३ ॥ बहुत-सी स्त्रियाँ और शूद्र आदि भगवान की कथा और उनके नामकीर्तन आदि से कुछ दूर पड़ गये हैं। वे आप-जैसे भगवद्भक्तों की दया के पात्र हैं। आपलोग उन्हें कथा-कीर्तन की सुविधा देकर उनका उद्धार करें ॥ ४ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जन्मसे, वेदाध्ययन से तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारों से भगवान के चरणों के निकट तक पहुँच चु के हैं। फिर भी वे वेदों का असली तात्पर्य न समझकर अर्थवाद में लगकर मोहित हो जाते हैं ॥ ५ ॥ उन्हें कर्म का रहस्य मालूम नहीं है। मूर्ख होने पर भी वे अपने को पण्डित मानते हैं और अभिमान में अकड़े रहते हैं। वे मीठी-मीठी बातों में भूल जाते हैं और केवल वस्तु-शून्य शब्द-माधुरी के मोहमें पडक़र चटकीली-भडक़ीली बातें कहा करते हैं ॥ ६ ॥ रजोगुण की अधिकता के कारण उनके सङ्कल्प बड़े घोर होते हैं। कामनाओं की तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँपका, बनावट और घमंड से उन्हें प्रेम होता है। वे पापीलोग भगवान के प्यारे भक्तों की हँसी उड़ाया करते हैं ॥ ७ ॥ वे मूर्ख बड़े-बूढ़ों की नहीं, स्त्रियों की उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थी के सम्बन्ध में ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँ का सब से बड़ा सुख स्त्री-सहवास में ही सीमित है। वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधि का उल्लङ्घन करते और दक्षिणा तक नहीं देते। वे कर्म का रहस्य न जाननेवाले मूर्ख केवल अपनी जीभ को सन्तुष्ट करने और पेट की भूख मिटाने—शरीर को पुष्ट करने के लिये बेचारे पशुओं की हत्या करते हैं ॥ ८ ॥ धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदि के घमंड से अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वर का भी अपमान करते रहते हैं ॥ ९ ॥ राजन् ! वेदों ने इस बात को बार-बार दुहराया है कि भगवान आकाश के समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीरधारियों में स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं। परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणी को तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथों की बात आपस में कहते-सुनते रहते हैं ॥ १० ॥ (वेद विधि के रूप में ऐसे ही कर्मों के करने की आज्ञा देता है कि जिन में मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्य की ओर प्राणी की स्वाभाविक प्रवृति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करने के लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञ के द्वारा ही जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगों की उच्छृङ्खल प्रवृत्ति का नियन्त्रण, उनका मर्यादा में स्थापन। वास्तव में उनकी ओर से लोगों को हटाना ही श्रुति को अभीष्ट है ॥ ११ ॥ धन का एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्म से ही परमतत्त्व का ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है, और निष्ठा में ही परम शान्ति है। परन्तु यह कित ने खेद की बात है कि लोग उस धन का उपयोग घर-गृहस्थी के स्वार्थों में या कामभोग में ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्यु का शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती ॥ १२ ॥ सौत्रामणि यज्ञ में भी सुरा को सूँघ ने का ही विधान है, पी ने का नहीं। यज्ञ में पशु का आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के साथ मैथुन की आज्ञा भी विषयभोग के लिये नहीं, धार्मिक परम्परा की रक्षा के निमित्त सन्तान उत्पन्न करने के लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवाद के वचनों में फँ से हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्म को जानते ही नहीं ॥ १३ ॥ जो इस विशुद्ध धर्म को नहीं जानते, वे घमंडी वास्तव में तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपने को श्रेष्ठ। वे धोखे में पड़े हुए लोग पशुओं की हिंसा करते हैं और मर ने के बाद वे पशु ही उन मारनेवालों को खाते हैं ॥ १४ ॥ यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीर से तो प्रेम की गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरों में रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान से द्वेष करते हैं, उन मूर्खों का अध:पतन निश्चित है ॥ १५ ॥ जिन लोगों ने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इधर के हैं और न उधरके। वे अर्थ, धर्म, काम—इन तीनों पुरुषार्थों में फँ से रहते हैं, एक क्षण के लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगों को आत्मघाती कहते हैं ॥ १६ ॥ अज्ञान को ही ज्ञान माननेवाले इन आत्मघातियों को कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मों की परम्परा कभी शान्त नहीं होती। कालभगवान सदा-सर्वदा इनके मनोरथों पर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदय की जलन, विषाद कभी मिट ने का नहीं ॥ १७ ॥ राजन् ! जो लोग अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्त में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है। (भगवान का भजन न करनेवाले विषयी पुरुषों की यही गति होती है) ॥ १८ ॥
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान किस समय किस रंगका, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियों से उनकी उपासना करते हैं ॥ १९ ॥
अब नवें योगीश्वर करभाजनजी ने कहा—राजन् ! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वा पर और कलि। इन युगों में भगवान के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियों से उनकी पूजा की जाती है ॥ २० ॥ सत्ययुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिर पर जटा होती है, तथा वे वल्कल का ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं ॥ २१ ॥ सत्ययुग के मनुष्य बड़े शान्त,परस्पर वैररहित, सब के हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मन को वश में रखकर ध्यानरूप तपस्या के द्वारा सब के प्रकाशक परमात्मा की आराधना करते हैं ॥ २२ ॥ वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामों के द्वारा भगवान के गुण, लीला आदि का गान करते हैं ॥ २३ ॥ राजन् ! त्रेतायुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभाग में वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञ के रूप में रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रों को धारण किया करते हैं ॥ २४ ॥ उस युग के मनुष्य अपने धर्म में बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयी के द्वारा सर्वदेव स्वरूप देवाधिदेव भगवान श्रीहरि की आराधना करते हैं ॥ २५ ॥ त्रेतायुग में अधिकांश लोग, विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामों से उनके गुण और लीला आदि का कीर्तन करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! द्वापरयुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है साँवला। वे पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, भृगुलता, कौस्तुभ- मणि आदि लक्षणों से वे पहचा ने जाते हैं ॥ २७ ॥ राजन् ! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजों के चिह्न छत्र, चँवर आदि से युक्त परमपुरुष भगवान की वैदिक और तान्त्रिक विधि से आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ वे लोग इस प्रकार भगवान की स्तुति करते हैं—‘हे ज्ञान स्वरूप भगवान वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान प्रद्युम्र और अनिरुद्ध के रूप में हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान को हम नमस्कार करते हैं ॥ २९-३० ॥ राजन् ! द्वापरयुग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान की स्तुति करते हैं। अब कलियुग में अनेक तन्त्रों के विधि-विधान से भगवान की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो— ॥ ३१ ॥
कलियुग में भगवान का श्रीविग्रह होता है कृष्णवर्ण—काले रंगका। जैसे नीलम मणि में से उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अङ्ग की छटा भी उज्ज्वल होती है। वे हृदय आदि अङ्ग, कौस्तुभ आदि उपाङ्ग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं। कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिन में नाम गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है ॥ ३२ ॥ वे लोग भगवान की स्तुति इस प्रकार करते हैं—‘प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करनेयोग्य, माया- मोह के कारण होनेवाले सांसारिक पराजयों का अन्त कर देनेवाले तथा भक्तों की समस्त अभीष्ट वस्तुओं का दान करनेवाले कामधेनु स्वरूप हैं। वे तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाले स्वयं परम तीर्थ स्वरूप हैं; शिव, ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरण में आ जाय, उसे स्वीकार कर लेते हैं। सेवकों की समस्त आॢत और विपत्ति के नाशक तथा संसार-सागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। महापुरुष ! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दों की वन्दना करता हूँ ॥ ३३ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलों की महिमा कौन कहे ? रामावतार में अपने पिता दशरथजी के वचनों से देवताओं के लिये भी वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मी को छोडक़र आपके चरण-कमल वन-वन घूमते फिरे ! सचमुच आप धर्मनिष्ठता की सीमा हैं। और महापुरुष ! अपनी प्रेयसी सीताजी के चाहने पर जान-बूझकर आपके चरण-कमल मायामृग के पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप प्रेम की सीमा हैं। प्रभो ! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दों की वन्दना करता हूँ’ ॥ ३४ ॥
राजन् ! इस प्रकार विभिन्न युगों के लोग अपने-अपने युग के अनुरूप नाम-रूपों द्वारा विभिन्न प्रकार से भगवान की आराधना करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—सभी पुरुषार्थों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीहरि ही हैं ॥ ३५ ॥ कलियुग में केवल सङ्कीर्तन से ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं। इसलिये इस युग का गुण जाननेवाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुग की बड़ी प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं ॥ ३६ ॥ देहाभिमानी जीव संसारचक्र में अनादि काल से भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान की लीला, गुण और नाम के कीर्तन से बढक़र और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसार में भटकना मिट जाता है और परम शान्ति का अनुभव होता है ॥ ३७ ॥ राजन् ! सत्ययुग, त्रेता और द्वा पर की प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुग में हो; क्योंकि कलियुग में कहीं-कहीं भगवान नारायण के शरणागत उन्हींके आश्रय में रहनेवाले बहुत- से भक्त उत्पन्न होंगे। महाराज विदेह ! कलियुग में द्रविड़देश में अधिक भक्त पाये जाते हैं; जहाँ ताम्रपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नाम की नदियाँ बहती हैं। राजन् ! जो मनुष्य इन नदियों का जल पीते हैं, प्राय: उनका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान वासुदेव के भक्त हो जाते हैं ॥ ३८—४० ॥ राजन् ! जो मनुष्य ‘यह करना बा की है, वह करना आवश्यक है’—इत्यादि कर्म-वासनाओं का अथवा भेदबुद्धि का परित्याग करके सर्वात्मभाव से शरणागतवत्सल, प्रेम के वरदानी भगवान मुकुन्द की शरण में आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियों के ऋण से उऋण हो जाता है; वह किसी के अधीन, किसी का सेवक, किसी के बन्धन में नहीं रहता ॥ ४१ ॥ जो प्रेमी भक्त अपने प्रितयतम भगवान के चरणकमलों का अनन्यभावसे—दूसरी भावनाओं, आस्थाओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियों को छोडक़र—भजन करता है, उससे, पहली बात तो यह है कि पापकर्म होते ही नहीं; परन्तु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जायँ तो परमपुरुष भगवान श्रीहरि उसके हृदय में बैठकर वह सब धो-बहा देते और उसके हृदय को शुद्ध कर देते हैं ॥ ४२ ॥
नारदजी कहते हैं—वसुदेवजी ! मिथिलानरेश राजा निमि नौ योगीश्वरों से इस प्रकार भागवतधर्मों का वर्णन सुनकर बहुत ही आनन्दित हुए। उन्होंने अपने ऋत्विज् और आचार्यों के साथ ऋषभनन्दन नव योगीश्वरों की पूजा की ॥ ४३ ॥ इसके बाद सब लोगों के सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो गये। विदेहराज निमि ने उनसे सुने हुए भागवतधर्मों का आचरण किया और परमगति प्राप्त की ॥ ४४ ॥ महाभाग्यवान् वसुदेवजी ! मैंने तुम्हारे आगे जिन भागवतधर्मों का वर्णन किया है, तुम भी यदि श्रद्धा के साथ इनका आचरण करोगे तो अन्त में सब आसक्तियों से छूटकर भगवान का परमपद प्राप्त कर लोगे ॥ ४५ ॥ वसुदेवजी ! तुम्हारे और देव की के यश से तो सारा जगत भरपूर हो रहा है; क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६ ॥ तुमलोगों ने भगवान के दर्शन, आलिङ्गन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने, खिला ने आदि के द्वारा वात्सल्य-स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया है; तुम परम पवित्र हो गये हो ॥ ४७ ॥ वसुदेवजी ! शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओं ने तो वैरभाव से श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन-बोलन आदि का स्मरण किया था। वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते-फिरते—स्वाभाविकरूप से ही। फिर भी उनकी चित्तवृत्ति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्य-मुक्ति के अधिकारी हुए। फिर जो लोग प्रेमभाव और अनुराग से श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति होने में कोई सन्देह है क्या ? ॥ ४८ ॥ वसुदेवजी ! तुम श्रीकृष्ण को केवल अपना पुत्र ही मत समझो। वे सर्वात्मा, सर्वेश्वर, कारणातीत और अविनाशी हैं। उन्होंने लीला के लिये मनुष्यरूप प्रकट करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा है ॥ ४९ ॥ वे पृथ्वी के भारभूत राजवेषधारी असुरों का नाश और संतों की रक्षा करने के लिये तथा जीवों को परम शान्ति और मुक्ति दे ने के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं और इसी के लिये जगत में उनकी कीर्ति भी गायी जाती है ॥ ५० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित ! नारदजी के मुख से यह सब सुनकर परम भाग्यवान् वसुदेवजी और परम भाग्यवती देवकीजी को बड़ा ही विस्मय हुआ। उनमें जो कुछ माया-मोह अवशेष था, उसे उन्होंने तत्क्षण छोड़ दिया ॥ ५१ ॥ राजन् ! यह इतिहास परम पवित्र है। जो एकाग्रचित्त से इसे धारण करता है, वह अपना सारा शोक-मोह दूर करके ब्रह्मपद को प्राप्त होता है ॥ ५२ ॥
॥ षष्ठोऽध्यायः - ६ ॥
श्रीशुक उवाच
अथ ब्रह्माऽऽत्मजैर्देवैः प्रजेशैरावृतोऽभ्यगात् ।
भवश्च भूतभव्येशो ययौ भूतगणैर्वृतः ॥ १॥
इन्द्रो मरुद्भिर्भगवानादित्या वसवोऽश्विनौ ।
ऋभवोऽङ्गिरसो रुद्रा विश्वे साध्याश्च देवताः ॥ २॥
गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धचारणगुह्यकाः ।
ऋषयः पितरश्चैव सविद्याधरकिन्नराः ॥ ३॥
द्वारकामुपसञ्जग्मुः सर्वे कृष्णदिदृक्षवः ।
वपुषा येन भगवान्नरलोकमनोरमः ।
यशो वितेने लोकेषु सर्वलोकमलापहम् ॥ ४॥
तस्यां विभ्राजमानायां समृद्धायां महर्द्धिभिः ।
व्यचक्षतावितृप्ताक्षाः कृष्णमद्भुतदर्शनम् ॥ ५॥
स्वर्गोद्यानोपगैर्माल्यैश्छादयन्तो युदूत्तमम् ।
गीर्भिश्चित्रपदार्थाभिस्तुष्टुवुर्जगदीश्वरम् ॥ ६॥
देवा ऊचुः
नताः स्म ते नाथ पदारविन्दं
बुद्धीन्द्रियप्राणमनोवचोभिः ।
यच्चिन्त्यतेऽन्तर्हृदि भावयुक्तैर्मुमुक्षुभिः
कर्ममयोरुपाशात् ॥ ७॥
त्वं मायया त्रिगुणयाऽऽत्मनि दुर्विभाव्यं
व्यक्तं सृजस्यवसि लुम्पसि तद्गुणस्थः ।
नैतैर्भवानजित कर्मभिरज्यते वै
यत्स्वे सुखेऽव्यवहितेऽभिरतोऽनवद्यः ॥ ८॥
शुद्धिर्नृणां न तु तथेड्य दुराशयानां
विद्याश्रुताध्ययनदानतपःक्रियाभिः ।
सत्त्वात्मनामृषभ ते यशसि प्रवृद्ध-
सच्छ्रद्धया श्रवणसम्भृतया यथा स्यात् ॥ ९॥
स्यान्नस्तवाङ्घ्रिरशुभाशयधूमकेतुः
क्षेमाय यो मुनिभिरार्द्रहृदोह्यमानः ।
यः सात्वतैः समविभूतय आत्मवद्भि-
व्यूहेऽर्चितः सवनशः स्वरतिक्रमाय ॥ १०॥
यश्चिन्त्यते प्रयतपाणिभिरध्वराग्नौ
त्रय्या निरुक्तविधिनेश हविर्गृहीत्वा ।
अध्यात्मयोग उत योगिभिरात्ममायां
जिज्ञासुभिः परमभागवतैः परीष्टः ॥ ११॥
पर्युष्टया तव विभो वनमालयेयं
संस्पर्धिनी भगवती प्रतिपत्निवच्छ्रीः ।
यः सुप्रणीतममुयार्हणमाददन्नो
भूयात्सदाङ्घ्रिरशुभाशयधूमकेतुः ॥ १२॥
केतुस्त्रिविक्रमयुतस्त्रिपतत्पताको
यस्ते भयाभयकरोऽसुरदेवचम्वोः ।
स्वर्गाय साधुषु खलेष्वितराय भूमन्
पादः पुनातु भगवन् भजतामघं नः ॥ १३॥
नस्योतगाव इव यस्य वशे भवन्ति
ब्रह्मादयस्तनुभृतो मिथुरर्द्यमानाः ।
कालस्य ते प्रकृतिपूरुषयोः परस्य
शं नस्तनोतु चरणः पुरुषोत्तमस्य ॥ १४॥
अस्यासि हेतुरुदयस्थितिसंयमाना-
मव्यक्तजीवमहतामपि कालमाहुः ।
सोऽयं त्रिणाभिरखिलापचये प्रवृत्तः
कालो गभीररय उत्तमपूरुषस्त्वम् ॥ १५॥
त्वत्तः पुमान् समधिगम्य यया स्ववीर्यं
धत्ते महान्तमिव गर्भममोघवीर्यः ।
सोऽयं तयानुगत आत्मन आण्डकोशं
हैमं ससर्ज बहिरावरणैरुपेतम् ॥ १६॥
तत्तस्थुषश्च जगतश्च भवानधीशो
यन्माययोत्थगुणविक्रिययोपनीतान् ।
अर्थाञ्जुषन्नपि हृषीकपते न लिप्तो
येऽन्ये स्वतः परिहृतादपि बिभ्यति स्म ॥ १७॥
स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि-
भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः ।
पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणै-
र्यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न विभ्व्यः ॥ १८॥
विभ्व्यस्तवामृतकथोदवहास्त्रिलोक्याः
पादावनेजसरितः शमलानि हन्तुम् ।
आनुश्रवं श्रुतिभिरङ्घ्रिजमङ्गसङ्गै-
स्तीर्थद्वयं शुचिषदस्त उपस्पृशन्ति ॥ १९॥
बादरायणिरुवाच
इत्यभिष्टूय विबुधैः सेशः शतधृतिर्हरिम् ।
अभ्यभाषत गोविन्दं प्रणम्याम्बरमाश्रितः ॥ २०॥
ब्रह्मोवाच
भूमेर्भारावताराय पुरा विज्ञापितः प्रभो ।
त्वमस्माभिरशेषात्मंस्तत्तथैवोपपादितम् ॥ २१॥
धर्मश्च स्थापितः सत्सु सत्यसन्धेषु वै त्वया ।
कीर्तिश्च दिक्षु विक्षिप्ता सर्वलोकमलापहा ॥ २२॥
अवतीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद्रूपमनुत्तमम् ।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः ॥ २३॥
यानि ते चरितानीश मनुष्याः साधवः कलौ ।
शृण्वन्तः कीर्तयन्तश्च तरिष्यन्त्यञ्जसा तमः ॥ २४॥
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम ।
शरच्छतं व्यतीयाय पञ्चविंशाधिकं प्रभो ॥ २५॥
नाधुना तेऽखिलाधार देवकार्यावशेषितम् ।
कुलं च विप्रशापेन नष्टप्रायमभूदिदम् ॥ २६॥
ततः स्वधाम परमं विशस्व यदि मन्यसे ।
सलोकाँल्लोकपालान्नः पाहि वैकुण्ठकिङ्करान् ॥ २७॥
श्रीभगवानुवाच
अवधारितमेतन्मे यदात्थ विबुधेश्वर ।
कृतं वः कार्यमखिलं भूमेर्भारोऽवतारितः ॥ २८॥
तदिदं यादवकुलं वीर्यशौर्यश्रियोद्धतम् ।
लोकं जिघृक्षद्रुद्धं मे वेलयेव महार्णवः ॥ २९॥
यद्यसंहृत्य दृप्तानां यदूनां विपुलं कुलम् ।
गन्तास्म्यनेन लोकोऽयमुद्वेलेन विनङ्क्ष्यति ॥ ३०॥
इदानीं नाश आरब्धः कुलस्य द्विजशापजः ।
यास्यामि भवनं ब्रह्मन्नेतदन्ते तवानघ ॥ ३१॥
श्रीशुक उवाच
इत्युक्तो लोकनाथेन स्वयम्भूः प्रणिपत्य तम् ।
सह देवगणैर्देवः स्वधाम समपद्यत ॥ ३२॥
अथ तस्यां महोत्पातान् द्वारवत्यां समुत्थितान् ।
विलोक्य भगवानाह यदुवृद्धान् समागतान् ॥ ३३॥
श्रीभगवानुवाच
एते वै सुमहोत्पाता व्युत्तिष्ठन्तीह सर्वतः ।
शापश्च नः कुलस्यासीद्ब्राह्मणेभ्यो दुरत्ययः ॥ ३४॥
न वस्तव्यमिहास्माभिर्जिजीविषुभिरार्यकाः ।
प्रभासं सुमहत्पुण्यं यास्यामोऽद्यैव मा चिरम् ॥ ३५॥
यत्र स्नात्वा दक्षशापाद्गृहीतो यक्ष्मणोडुराट् ।
विमुक्तः किल्बिषात्सद्यो भेजे भूयः कलोदयम् ॥ ३६॥
वयं च तस्मिन्नाप्लुत्य तर्पयित्वा पितॄन् सुरान् ।
भोजयित्वोशिजो विप्रान् नानागुणवतान्धसा ॥ ३७॥
तेषु दानानि पात्रेषु श्रद्धयोप्त्वा महान्ति वै ।
वृजिनानि तरिष्यामो दानैर्नौभिरिवार्णवम् ॥ ३८॥
श्रीशुक उवाच
एवं भगवताऽऽदिष्टा यादवाः कुलनन्दन ।
गन्तुं कृतधियस्तीर्थं स्यन्दनान् समयूयुजन् ॥ ३९॥
तन्निरीक्ष्योद्धवो राजन् श्रुत्वा भगवतोदितम् ।
दृष्ट्वारिष्टानि घोराणि नित्यं कृष्णमनुव्रतः ॥ ४०॥
विविक्त उपसङ्गम्य जगतामीश्वरेश्वरम् ।
प्रणम्य शिरिसा पादौ प्राञ्जलिस्तमभाषत ॥ ४१॥
उद्धव उवाच
देवदेवेश योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन ।
संहृत्यैतत्कुलं नूनं लोकं सन्त्यक्ष्यते भवान् ।
विप्रशापं समर्थोऽपि प्रत्यहन्न यदीश्वरः ॥ ४२॥
नाहं तवाङ्घ्रिकमलं क्षणार्धमपि केशव ।
त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि ॥ ४३॥
तव विक्रीडितं कृष्ण नृणां परममङ्गलम् ।
कर्णपीयूषमास्वाद्य त्यजन्त्यन्यस्पृहां जनाः ॥ ४४॥
शय्यासनाटनस्थानस्नानक्रीडाशनादिषु ।
कथं त्वां प्रियमात्मानं वयं भक्तास्त्यजेमहि ॥ ४५॥
त्वयोपभुक्तस्रग्गन्धवासोऽलङ्कारचर्चिताः ।
उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेमहि ॥ ४६॥
वातरशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्रमन्थिनः ।
ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः सन्न्यासिनोऽमलाः ॥ ४७॥
वयं त्विह महायोगिन् भ्रमन्तः कर्मवर्त्मसु ।
त्वद्वार्तया तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तमः ॥ ४८॥
स्मरन्तः कीर्तयन्तस्ते कृतानि गदितानि च ।
गत्युत्स्मितेक्षणक्ष्वेलि यन्नृलोकविडम्बनम् ॥ ४९॥
श्रीशुक उवाच
एवं विज्ञापितो राजन् भगवान् देवकीसुतः ।
एकान्तिनं प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत ॥ ५०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
एकादश स्कन्द-छठा अध्याय 50
देवताओं की भगवान से स्वधाम सिधार ने के लिये प्रार्थना तथा यादवों को प्रभासक्षेत्र जाने की तैयारी करते देखकर उद्धव का भगवान के पास आना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब देवर्षि नारद वसुदेवजी को उपदेश करके चले गये, तब अपने पुत्र सनकादिकों, देवताओं और प्रजापतियों के साथ ब्रह्माजी, भूतगणों के साथ सर्वेश्वर महादेवजी और मरुद्गणों के साथ देवराज इन्द्र द्वारकानगरी में आये। साथ ही सभी आदित्यगण, आठों वसु, अश्विनीकुमार, ऋभु, अङ्गिरा के वंशज ऋषि, ग्यारहों रुद्र, विश्वेदेव, साध्यगण, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर और किन्नर भी वहीं पहुँचे। इन लोगों के आगमन का उद्देश्य यह था कि मनुष्यका-सा मनोहर वेष धारण करनेवाले और अपने श्यामसुन्दर विग्रह से सभी लोगों का मन अपनी ओर खींचकर रमा लेनेवाले भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करें; क्योंकि इस समय उन्होंने अपना श्रीविग्रह प्रकट करके उसके द्वारा तीनों लोकों में ऐसी पवित्र कीर्ति का विस्तार किया है, जो समस्त लोकों के पाप-ताप को सदा के लिये मिटा देती है ॥ १—४ ॥ द्वारकापुरी सब प्रकार की सम्पत्ति और ऐश्वर्यर्यों से समृद्ध तथा अलौकिक दीप्ति से देदीप्यमान हो रही थी। वहाँ आकर उन लोगों ने अनूठी छबि से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किये। भगवान की रूप-माधुरी का निॢनमेष नयनों से पान करने पर भी उनके नेत्र तृप्त न होते थे। वे एकटक बहुत देर तक उन्हें देखते ही रहे ॥ ५ ॥ उन लोगों ने स्वर्ग के उद्यान नन्दन-वन, चैत्ररथ आदि के दिव्य पुष्पों से जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण को ढक दिया और चित्र-विचित्र पदों तथा अर्थों से युक्त वाणी के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे ॥ ६ ॥
देवताओं ने प्रार्थना की—स्वामी ! कर्मों के विकट फंदों से छूट ने की इच्छावाले मुमुक्षुजन भक्ति- भाव से अपने हृदय में जिसका चिन्तन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमल को हमलोगोंने अपनी बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन और वाणी से साक्षात नमस्कार किया है। अहो ! आश्चर्य है ! [1] ॥ ७ ॥ अजित ! आप मायिक रज आदि गुणों में स्थित होकर इस अचिन्त्य नाम-रूपात्मक प्रपञ्च की त्रिगुणमयी माया के द्वारा अपने-आप में ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कर्मों से आप लिप्त नहीं होते हैं; क्योंकि आप राग-द्वेषादि दोषों से सर्वथा मुक्त हैं और अपने निरावरण अखण्ड स्वरूपभूत परमानन्द में मग्र रहते हैं ॥ ८ ॥ स्तुति करनेयोग्य परमात्मन् ! जिन मनुष्यों की चित्तवृत्ति राग-द्वेषादि से कलुषित हैं, वे उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या और यज्ञ आदि कर्म भले ही करें; परंतु उनकी वैसी शुद्धि नहीं हो सकती, जैसी श्रवण के द्वारा संपुष्ट शुद्धान्त:करण सज्जन पुरुषों की आपकी लीला कथा, कीर्ति के विषय में दिनोंदिन बढक़र परिपूर्ण होनेवाली श्रद्धा से होती है ॥ ९ ॥ मननशील मुमुक्षुजन मोक्ष-प्राप्ति के लिये अपने प्रेम से पिघले हुए हृदय के द्वारा जिन्हें लिये-लिये फिरते हैं, पाञ्चरात्र विधि से उपासना करनेवाले भक्तजन समान ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध—इस चतुव्र्यूह के रूप में जिनका पूजन करते हैं और जितेन्द्रिय धीरपुरुष स्वर्गलोक का अतिक्रमण करके भगवद्धाम की प्राप्ति के लिये तीनों समय जिनकी पूजा किया करते हैं, याज्ञिक लोग तीनों वेदों के द्वारा बतलायी हुई विधि से अपने संयत हाथों में हविष्य लेकर यज्ञकुण्ड में आहुति देते और उन्हीं का चिन्तन करते हैं। आपकी आत्मस्वरूपिणी माया के जिज्ञासु योगीजन हृदय के अन्तर्देश में दहरविद्या आदि के द्वारा आपके चरणकमलों का ही ध्यान करते हैं और आपके बड़े-बड़े प्रेमी भक्तजन उन्हीं को अपना परम इष्ट आराध्यदेव मानते हैं। प्रभो ! आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं— विषयवासनाओं को भस्म करने के लिये अग्रि स्वरूप हों। वे अग्रि के समान हमारे पाप-तापों को भस्म कर दें ॥ १०-११ ॥ प्रभो ! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्ष:स्थल पर मुरझायी हुई बासी वनमाला से भी सौत की तरह स्पद्र्धा रखती हैं। फिर भी आप उनकी परवा न कर भक्तों के द्वारा इस बासी माला से की हुई पूजा भी प्रेम से स्वीकार करते हैं। ऐसे भक्तवत्सल प्रभु के चरणकमल सर्वदा हमारी विषय-वासनाओं को जलानेवाले अग्रि स्वरूप हों ॥ १२ ॥ अनन्त ! वामनावतार में दैत्यराज बलि की दी हुई पृथ्वी को नाप ने के लिये जब आपने अपना पग उठाया था और वह सत्यलोक में पहुँच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई बहुत बड़ा विजयध्वज हो। ब्रह्माजी के पखार ने के बाद उससे गिरती हुई गङ्गाजी के जल की तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा रही हों। उसे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गयी थी और देवसेना निर्भय। आपका वह चरणकमल साधुस्वभाव पुरुषों के लिये आपके धाम वैकुण्ठलोक की प्राप्ति का और दुष्टों के लिये अधोगति का कारण है। भगवन् ! आपका वही पादपद्म हम भजन करनेवालों के सारे पाप-ताप धो-बहा दे ॥ १३ ॥ ब्रह्मा आदि जित ने भी शरीरधारी हैं, वे सत्त्व, रज, तम—इन तीनों गुणों के परस्पर विरोधी त्रिविध भावों की टक्कर से जीते-मरते रहते हैं। वे सुख-दु:ख के थपेड़ों से बाहर नहीं हैं और ठीक वैसे ही आपके वश में हैं, जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामी के वश में होते हैं। आप उनके लिये भी काल स्वरूप हैं। उनके जीवन का आदि, मध्य और अन्त आपके ही अधीन है। इतना ही नहीं, आप प्रकृति और पुरुष से भी परे स्वयं पुरुषोत्तम हैं। आपके चरणकमल हमलोगों का कल्याण करें ॥ १४ ॥ प्रभो आप इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं; क्योंकि शास्त्रों ने ऐसा कहा है कि आप प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्व के भी नियन्त्रण करनेवाले काल हैं। शीत, ग्रीष्म और वर्षाकालरूप तीन नाभियोंवाले संवत्सर के रूप में सब को क्षय की ओर ले जानेवाले काल आप ही हैं। आपकी गति अबाध और गम्भीर है। आप स्वयं पुरुषोत्तम हैं ॥ १५ ॥ यह पुरुष आप से शक्ति प्राप्त करके अमोघवीर्य हो जाता है और फिर माया के साथ संयुक्त होकर विश्व के महत्तत्त्वरूप गर्भ का स्थापन करता है। इसके बाद वह महत्तत्त्व त्रिगुणमयी माया का अनुसरण करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहङ्कार और मनरूप सात आवरणों (परतों) वाले इस सुवर्णवर्ण ब्रह्माण्ड की रचना करता है ॥ १६ ॥ इसलिये हृषीकेश ! आप समस्त चराचर जगत के अधीश्वर हैं। यही कारण है कि माया की गुण-विषमता के कारण बननेवाले विभिन्न पदार्थों का उपभोग करते हुए भी आप उनमें लिप्त नहीं होते। यह केवल आपकी ही बात है। आपके अतिरिक्त दूसरे तो स्वयं उनका त्याग करके भी उन विषयों से डरते रहते हैं ॥ १७ ॥ सोलह हजार से अधिक रानियाँ आपके साथ रहती हैं। वे सब अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवन से युक्त मनोहर भौहों के इशारे से और सुरतालापों से प्रौढ़ सम्मोहक कामबाण चलाती हैं और कामकला की विविध रीतियों से आपका मन आकर्षित करना चाहती हैं; परंतु फिर भी वे अपने परिपुष्ट कामबाणों से आपका मन तनिक भी न डिगा सकीं, वे असफल ही रहीं ॥ १८ ॥ आपने त्रिलोकी की पाप-राशि को धो बहा ने के लिये दो प्रकार की पवित्र नदियाँ बहा रखी हैं—एक तो आपकी अमृतमयी लीला से भरी कथानदी और दूसरी आपके पाद-प्रक्षालन के जल से भरी गङ्गाजी। अत: सत्सङ्गसेवी विवेकीजन कानों के द्वारा आपकी कथा-नदी में और शरीर के द्वारा गङ्गाजी में गोता लगाकर दोनों ही तीर्थों का सेवन करते हैं और अपने पाप-ताप मिटा देते हैं ॥ १९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! समस्त देवताओं और भगवान शङ्करके साथ ब्रह्माजी ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की। इसके बाद वे प्रणाम करके अपने धाम में जाने के लिये आकाश में स्थित होकर भगवान से इस प्रकार कह ने लगे ॥ २० ॥
ब्रह्माजी ने कहा—सर्वात्मन् प्रभो ! पहले हमलोगोंने आप से अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतार ने के लिये प्रार्थना की थी। सो वह काम आपने हमारी प्रार्थना के अनुसार ही यथोचितरूप से पूरा कर दिया ॥ २१ ॥ आपने सत्यपरायण साधुपुरुषों के कल्याणार्थ धर्म की स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओं में ऐसी कीर्ति फैला दी, जिसे सुन-सुनाकर सब लोग अपने मन का मैल मिटा देते हैं ॥ २२ ॥ आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत के हित के लिये उदारता और पराक्रम से भरी अनेकों लीलाएँ कीं ॥ २३ ॥ प्रभो ! कलियुग में जो साधुस्वभाव मनुष्य आपकी इन लीलाओं का श्रवण-कीर्तन करेंगे, वे सुगमता से ही इस अज्ञानरूप अन्धकार से पार हो जायँगे ॥ २४ ॥ पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान् प्रभो ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये एक सौ पचीस वर्ष बीत गये हैं ॥ २५ ॥ सर्वाधार ! अब हमलोगों का ऐसा कोई काम बा की नहीं है, जिसे पूर्ण करने के लिये आपके यहाँ रहने की आवश्यकता हो। ब्राह्मणों के शाप के कारण आपका यह कुल भी एक प्रकार से नष्ट हो ही चु का है ॥ २६ ॥ इसलिये वैकुण्ठनाथ ! यदि आप उचित समझें तो अपने परमधाम में पधारिये और अपने सेवक हम लोकपालों का तथा हमारे लोकों का पालन-पोषण कीजिये ॥ २७ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—ब्रह्माजी ! आप जैसा कहते हैं, मैं पहले से ही वैसा निश्चय कर चु का हूँ। मैंने आपलोगों का सब काम पूरा करके पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ २८ ॥ परन्तु अभी एक काम बा की है; वह यह कि यदुवंशी बल-विक्रम, वीरता-शूरता और धन-सम्पत्ति से उन्मत्त हो रहे हैं। ये सारी पृथ्वी को ग्रस लेने पर तुले हुए हैं। इन्हें मैंने ठीक वैसे ही रोक रखा है, जैसे समुद्र को उसके तट की भूमि ॥ २९ ॥ यदि मैं घमंडी और उच्छृङ्खल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला जाऊँगा तो ये सब मर्यादा का उल्लङ्घन करके सारे लोकों का संहार कर डालेंगे ॥ ३० ॥ निष्पाप ब्रह्माजी ! अब ब्राह्मणों के शाप से इस वंश का नाश प्रारम्भ हो चु का है। इसका अन्त हो जाने पर मैं आपके धाम में होकर जाऊँगा ॥ ३१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब अखिललोकाधिपति भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब ब्रह्माजी ने उन्हें प्रणाम किया और देवताओं के साथ वे अपने धाम को चले गये ॥ ३२ ॥ उनके जाते ही द्वारकापुरी में बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े उत्पात उठ खड़े हुए। उन्हें देखकर यदुवंश के बड़े-बूढ़े भगवान श्रीकृष्ण के पास आये। भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे यह बात कही ॥ ३३ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—गुरुजनो ! आजकल द्वारका में जिधर देखिये, उधर ही बड़े-बड़े अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं। आपलोग जानते ही हैं कि ब्राह्मणों ने हमारे वंश को ऐसा शाप दे दिया है, जिसे टाल सकना बहुत ही कठिन है। मेरा ऐसा विचार है कि यदि हमलोग अपने प्राणों की रक्षा चाहते हों तो हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं है। हमलोग आज ही परम पवित्र प्रभासक्षेत्र के लिये निकल पड़ें ॥ ३४-३५ ॥ प्रभासक्षेत्र की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापति के शाप से चन्द्रमा को राजयक्ष्मा रोग ने ग्रस लिया था, उस समय उन्होंने प्रभासक्षेत्र में जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण उस पापजन्य रोग से छूट गये। साथ ही उन्हें कलाओं की अभिवृद्धि भी प्राप्त हो गयी ॥ ३६ ॥ हमलोग भी प्रभासक्षेत्र में चलकर स्नान करेंगे, देवता एवं पितरों का तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुणवाले पकवान तैयार करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे। वहाँ हमलोग उन सत्पात्र ब्राह्मणों को पूरी श्रद्धा से बड़ी-बड़ी दान- दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके द्वारा अपने बड़े-बड़े सङ्कटों को वैसे ही पार कर जायँगे, जैसे कोई जहाज के द्वारा समुद्र पार कर जाय ! ॥ ३७-३८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुलनन्दन ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियों ने एक मत से प्रभास जाने का निश्चय कर लिया और सब अपने-अपने रथ सजाने-जोत ने लगे ॥ ३९ ॥ परीक्षित ! उद्धवजी भगवान श्रीकृष्ण के बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियों को यात्रा की तैयारी करते देखा, भगवान की आज्ञा सुनी और अत्यन्त घोर अपशकुन देखे, तब वे जगत के एकमात्र अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के पास एकान्त में गये, उनके चरणों पर अपना सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोडक़र उनसे प्रार्थना करने लगे ॥ ४०-४१ ॥
उद्धवजी ने कहा—योगेश्वर ! आप देवाधिदेवों के भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओं के श्रवण- कीर्तन से जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। आप चाहते, तो ब्राह्मणों के शाप को मिटा सकते थे। परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंश का संहार करके, इसे समेटकर अवश्य ही इस लोक का परित्याग कर देंगे ॥ ४२ ॥ परन्तु घुँघराली अलकोंवाले श्यामसुन्दर ! मैं आधे क्षण के लिये भी आपके चरणकमलों के त्याग की बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व, मेरे स्वामी ! आप मुझे भी अपने धाम में ले चलिये ॥ ४३ ॥ प्यारे कृष्ण ! आपकी एक-एक लीला मनुष्यों के लिये परम मङ्गलमयी और कानों के लिये अमृत स्वरूप है। जिसे एक बार उस रस का चस का लग जाता है, उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिये लालसा ही नहीं रह जाती। प्रभो ! हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं, हम ने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया; कहाँ तक गिनावें, हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं; और तो क्या, आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थिति में हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं ? ॥ ४४-४५ ॥ हम ने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाये हुए चन्दन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पह ने और आपके धारण किये हुए गहनों से अपने-आपको सजाते रहे। हम आपकी जूठन खानेवाले सेवक हैं। इसलिये हम आपकी माया पर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे। (अत: प्रभो! हमें आपकी माया का डर नहीं है, डर है तो केवल आपके वियोगका) ॥ ४६ ॥ हम जानते हैं कि माया को पार कर लेना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करके अध्यात्मविद्या के लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस प्रकार की कठिन साधना से उन संन्यासियों के हृदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे समस्त वृत्तियों की शान्तिरूप नैष्कम्र्य-अवस्था में स्थित होकर आपके ब्रह्मनामक धाम को प्राप्त होते हैं ॥ ४७ ॥ महायोगेश्वर ! हमलोग तो कर्ममार्ग में ही भ्रम-भटक रहे हैं ! परन्तु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनों के साथ आपके गुणों और लीलाओं की चर्चा करेंगे तथा मनुष्यकी-सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे। साथ ही आपकी चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और हास-परिहास की स्मृति में तल्लीन हो जायँगे। केवल इसीसे हम दुस्तर माया को पार कर लेंगे। (इसलिये हमें माया से पार जाने की नहीं, आपके विरह की चिन्ता है। आप हमें छोडिय़े नहीं, साथ ले चलिये) ॥ ४८-४९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब उद्धवजी ने देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थनाकी, तब उन्होंने अपने अनन्यप्रेमी सखा एवं सेवक उद्धवजी से कहा ॥ ५० ॥
[1] यहाँ साष्टाङ्ग प्रणाम से तात्पर्य है—
दोभ्र्यां पदाभ्यां जानुभ्यामुरसा शिरसा दृशा॥मनसा वचसा चेति प्रणामोऽष्टाङ्ग ईरित:॥
हाथोंसे, चरणोंसे, घुटनोंसे, वक्ष:स्थलसे, सिरसे, नेत्रोंसे, मन से और वाणीसे—इन आठ अङ्गों से किया गया प्रणाम साष्टाङ्ग प्रणाम कहलाता है।
॥ सप्तमोऽध्यायः - ७ ॥
श्रीभगवानुवाच
यदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे ।
ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वर्वासं मेऽभिकाङ्क्षिणः ॥ १॥
मया निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यमशेषतः ।
यदर्थमवतीर्णोऽहमंशेन ब्रह्मणार्थितः ॥ २॥
कुलं वै शापनिर्दग्धं नङ्क्ष्यत्यन्योन्यविग्रहात् ।
समुद्रः सप्तमेऽह्न्येतां पुरीं च प्लावयिष्यति ॥ ३॥
यर्ह्येवायं मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्टमङ्गलः ।
भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृतः ॥ ४॥
न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले ।
जनोऽधर्मरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे ॥ ५॥
त्वं तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजनबन्धुषु ।
मय्यावेश्य मनः संयक् समदृग्विचरस्व गाम् ॥ ६॥
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः ।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम् ॥ ७॥
पुंसोऽयुक्तस्य नानार्थो भ्रमः स गुणदोषभाक् ।
कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ॥ ८॥
तस्माद्युक्तेन्द्रियग्रामो युक्तचित्त इदं जगत् ।
आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधीश्वरे ॥ ९॥
ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम् ।
आत्मानुभवतुष्टात्मा नान्तरायैर्विहन्यसे ॥ १०॥
दोषबुद्ध्योभयातीतो निषेधान्न निवर्तते ।
गुणबुद्ध्या च विहितं न करोति यथार्भकः ॥ ११॥
सर्वभूतसुहृच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चयः ।
पश्यन् मदात्मकं विश्वं न विपद्येत वै पुनः ॥ १२॥
श्रीशुक उवाच
इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप ।
उद्धवः प्रणिपत्याह तत्त्वजिज्ञासुरच्युतम् ॥ १३॥
उद्धव उवाच
योगेश योगविन्यास योगात्मन् योगसम्भव ।
निःश्रेयसाय मे प्रोक्तस्त्यागः सन्न्यासलक्षणः ॥ १४॥
त्यागोऽयं दुष्करो भूमन् कामानां विषयात्मभिः ।
सुतरां त्वयि सर्वात्मन्नभक्तैरिति मे मतिः ॥ १५॥
सोऽहं ममाहमिति मूढमतिर्विगाढः
त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबन्धे ।
तत्त्वञ्जसा निगदितं भवता यथाहं
संसाधयामि भगवन्ननुशाधि भृत्यम् ॥ १६॥
सत्यस्य ते स्वदृश आत्मन आत्मनोऽन्यं
वक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे ।
सर्वे विमोहितधियस्तव माययेमे
ब्रह्मादयस्तनुभृतो बहिरर्थभावाः ॥ १७॥
तस्माद्भवन्तमनवद्यमनन्तपारं
सर्वज्ञमीश्वरमकुण्ठविकुण्ठधिष्ण्यम् ।
निर्विण्णधीरहमु ह वृजिनाभितप्तो
नारायणं नरसखं शरणं प्रपद्ये ॥ १८॥
श्रीभगवानुवाच
प्रायेण मनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणाः ।
समुद्धरन्ति ह्यात्मानमात्मनैवाशुभाशयात् ॥ १९॥
आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः ।
यत्प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसावनुविन्दते ॥ २०॥
पुरुषत्वे च मां धीराः साङ्ख्ययोगविशारदाः ।
आविस्तरां प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपबृंहितम् ॥ २१॥
एकद्वित्रिचतुष्पादो बहुपादस्तथापदः ।
बह्व्यः सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया ॥ २२॥
अत्र मां मार्गयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम् ।
गृह्यमाणैर्गुणैर्लिङ्गैरग्राह्यमनुमानतः ॥ २३॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजसः ॥ २४॥
अवधूतं द्विजं कञ्चिच्चरन्तमकुतोभयम् ।
कविं निरीक्ष्य तरुणं यदुः पप्रच्छ धर्मवित् ॥ २५॥
यदुरुवाच
कुतो बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तुः सुविशारदा ।
यामासाद्य भवाँल्लोकं विद्वांश्चरति बालवत् ॥ २६॥
प्रायो धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवाः ।
हेतुनैव समीहन्ते आयुषो यशसः श्रियः ॥ २७॥
त्वं तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः ।
न कर्ता नेहसे किञ्चिज्जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥ २८॥
जनेषु दह्यमानेषु कामलोभदवाग्निना ।
न तप्यसेऽग्निना मुक्तो गङ्गाम्भःस्थ इव द्विपः ॥ २९॥
त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम् ।
ब्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः ॥ ३०॥
श्रीभगवानुवाच
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा ।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ॥ ३१॥
ब्राह्मण उवाच
सन्ति मे गुरवो राजन् बहवो बुद्ध्युपाश्रिताः ।
यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोऽटामीह तान् शृणु ॥ ३२॥
पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चन्द्रमा रविः ।
कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतङ्गो मधुकृद्गजः ॥ ३३॥
मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः ।
कुमारी शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत् ॥ ३४॥
एते मे गुरवो राजन् चतुर्विंशतिराश्रिताः ।
शिक्षा वृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मनः ॥ ३५॥
यतो यदनुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज ।
तत्तथा पुरुषव्याघ्र निबोध कथयामि ते ॥ ३६॥
भूतैराक्रम्यमाणोऽपि धीरो दैववशानुगैः ।
तद्विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेर्व्रतम् ॥ ३७॥
शश्वत्परार्थसर्वेहः परार्थैकान्तसम्भवः ।
साधुः शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम् ॥ ३८॥
प्राणवृत्त्यैव सन्तुष्येन्मुनिर्नैवेन्द्रियप्रियैः ।
ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्मनः ॥ ३९॥
विषयेष्वाविशन् योगी नानाधर्मेषु सर्वतः ।
गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत् ॥ ४०॥
पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणाश्रयः ।
गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्मदृक् ॥ ४१॥
अन्तर्हितश्च स्थिरजङ्गमेषु
ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन ।
व्याप्त्याव्यवच्छेदमसङ्गमात्मनो
मुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत् ॥ ४२॥
तेजोऽबन्नमयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः ।
न स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसृष्टैर्गुणैः पुमान् ॥ ४३॥
स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्नृणाम् ।
मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः ॥ ४४॥
तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोदरभाजनः ।
सर्वभक्षोऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत् ॥ ४५॥
क्वचिच्छन्नः क्वचित्स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम् ।
भुङ्क्ते सर्वत्र दातॄणां दहन् प्रागुत्तराशुभम् ॥ ४६॥
स्वमायया सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः ।
प्रविष्ट ईयते तत्तत्स्वरूपोऽग्निरिवैधसि ॥ ४७॥
विसर्गाद्याः श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मनः ।
कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ॥ ४८॥
कालेन ह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ ।
नित्यावपि न दृश्येते आत्मनोऽग्नेर्यथार्चिषाम् ॥ ४९॥
गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुञ्चति ।
न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः ॥ ५०॥
बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः ।
लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत् ॥ ५१॥
नातिस्नेहः प्रसङ्गो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित् ।
कुर्वन् विन्देत सन्तापं कपोत इव दीनधीः ॥ ५२॥
कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ ।
कपोत्या भार्यया सार्धमुवास कतिचित्समाः ॥ ५३॥
कपोतौ स्नेहगुणितहृदयौ गृहधर्मिणौ ।
दृष्टिं दृष्ट्याङ्गमङ्गेन बुद्धिं बुद्ध्या बबन्धतुः ॥ ५४॥
शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम् ।
मिथुनीभूय विश्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ॥ ५५॥
यं यं वाञ्छति सा राजन् तर्पयन्त्यनुकम्पिता ।
तं तं समनयत्कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेन्द्रियः ॥ ५६॥
कपोती प्रथमं गर्भं गृह्णती काल आगते ।
अण्डानि सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती ॥ ५७॥
तेषु काले व्यजायन्त रचितावयवा हरेः ।
शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कोमलाङ्गतनूरुहाः ॥ ५८॥
प्रजाः पुपुषतुः प्रीतौ दम्पती पुत्रवत्सलौ ।
शृण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृतौ कलभाषितैः ॥ ५९॥
तासां पतत्रैः सुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः ।
प्रत्युद्गमैरदीनानां पितरौ मुदमापतुः ॥ ६०॥
स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णुमायया ।
विमोहितौ दीनधियौ शिशून् पुपुषतुः प्रजाः ॥ ६१॥
एकदा जग्मतुस्तासामन्नार्थं तौ कुटुम्बिनौ ।
परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम् ॥ ६२॥
दृष्ट्वा तान् लुब्धकः कश्चिद्यदृच्छातो वनेचरः ।
जगृहे जालमातत्य चरतः स्वालयान्तिके ॥ ६३॥
कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ ।
गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतुः ॥ ६४॥
कपोती स्वात्मजान् वीक्ष्य बालकान् जालसंवृतान् ।
तानभ्यधावत्क्रोशन्ती क्रोशतो भृशदुःखिता ॥ ६५॥
सासकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताजमायया ।
स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान् पश्यन्त्यपस्मृतिः ॥ ६६॥
कपोतश्चात्मजान् बद्धानात्मनोऽप्यधिकान् प्रियान् ।
भार्यां चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः ॥ ६७॥
अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः ।
अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ॥ ६८॥
अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता ।
शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः ॥ ६९॥
सोऽहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः ।
जिजीविषे किमर्थं वा विधुरो दुःखजीवितः ॥ ७०॥
तांस्तथैवावृतान् शिग्भिर्मृत्युग्रस्तान् विचेष्टतः ।
स्वयं च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोऽपतत् ॥ ७१॥
तं लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम् ।
कपोतकान् कपोतीं च सिद्धार्थः प्रययौ गृहम् ॥ ७२॥
एवं कुटुम्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्वारामः पतत्रिवत् ।
पुष्णन् कुटुम्बं कृपणः सानुबन्धोऽवसीदति ॥ ७३॥
यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम् ।
गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः ॥ ७४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥
एकादश स्कन्द-सातवाँ अध्याय 74
अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—महाभाग्यवान् उद्धव ! तुम ने मुझ से जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूँ। ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके लोकों में होकर अपने धाम को चला जाऊँ ॥ १ ॥ पृथ्वी पर देवताओं का जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी काम के लिये ब्रह्माजी की प्रार्थना से मैं बलरामजी के साथ अवतीर्ण हुआ था ॥ २ ॥ अब यह यदुवंश, जो ब्राह्मणों के शाप से भस्म हो चु का है, पारस्परिक फूट और युद्ध से नष्ट हो जायगा। आज के सातवें दिन समुद्र इस पुरी-द्वार का को डुबो देगा ॥ ३ ॥ प्यारे उद्धव ! जिस क्षण मैं मत्र्यलोक का परित्याग कर दूँगा, उसी क्षण इसके सारे मङ्गल नष्ट हो जायँगे और थोड़े ही दिनों में पृथ्वी पर कलियुग का बोलबाला हो जायगा ॥ ४ ॥ जब मैं इस पृथ्वी का त्याग कर दूँ, तब तुम इस पर मत रहना; क्योंकि साधु उद्धव ! कलियुग में अधिकांश लोगों की रुचि अधर्म में ही होगी ॥ ५ ॥ अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बान्धवों का स्नेह-सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्यप्रेम से मुझ में अपना मन लगाकर समदृष्टि से पृथ्वी में स्वच्छन्द विचरण करो ॥ ६ ॥ इस जगत में जो कुछ मन से सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है। सप ने की तरह मन का विलास है। इसलिये मायामात्र है, मिथ्या है—ऐसा समझ लो ॥ ७ ॥ जिस पुरुष का मन अशान्त है, असंयत है, उसी को पागल की तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही है। नानात्व का भ्रम हो जाने पर ही ‘यह गुण है’ और ‘यह दोष’ इस प्रकार की कल्पना करनी पड़ती है । जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया है, दृढ़मूल हो गया है, उसी के लिये कर्म [1] अकर्म [2] और विकर्मरूप [3] भेद का प्रतिपादन हुआ है ॥ ८ ॥ इसलिये उद्धव ! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश में कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथ में ले लो और केवल इन्द्रियों को ही नहीं, चित्त की समस्त वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत अपने आत्मा में ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्म से एक है, अभिन्न है ॥ ९ ॥ जब वेदों के मुख्य तात्पर्य—निश्चयरूप ज्ञान और अनुभवरूप विज्ञान से भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्मा के अनुभव में ही आनन्दमग्र रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारियों के आत्मा हो जाओगे। इसलिये किसी भी विघ्र से तुम पीडित नहीं हो स कोगे; क्योंकि उन विघ्रों और विघ्र करनेवालों की आत्मा भी तुम्हीं होगे ॥ १० ॥ जो पुरुष गुण और दोष-बुद्धि से अतीत हो जाता है, वह बालक के समान निषिद्ध कर्म से निवृत्त होता है, परन्तु दोष-बुद्धि से नहीं। वह विहित कर्म का अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुणबुद्धि से नहीं ॥ ११ ॥ जिस ने श्रुतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षातकार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से सम्पन्न हो गया है, वह समस्त प्राणियों का हितैषी सुहृद् होता है और उसकी वृत्तियाँ सर्वथा शान्त रहती हैं। वह समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही स्वरूप—आत्म स्वरूप देखता है; इसलिये उसे फिर कभी जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पडऩा पड़ता ॥ १२ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार आदेश दिया, तब भगवान के परम प्रेमी उद्धवजी ने उन्हें प्रणाम करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से यह प्रश्र किया ॥ १३ ॥
उद्धवजी ने कहा—भगवन् ! आप ही समस्त योगियों की गुप्त पूँजी योगों के कारण और योगेश्वर हैं। आप ही समस्त योगों के आधार, उनके कारण और योग स्वरूप भी हैं। आपने मेरे परम- कल्याण के लिये उस संन्यासरूप त्याग का उपदेश किया है ॥ १४ ॥ परन्तु अनन्त ! जो लोग विषयों के चिन्तन और सेवन में घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और कामनाओं का त्याग अत्यन्त कठिन है। सर्व स्वरूप ! उनमें भी जो लोग आप से विमुख हैं, उनके लिये तो इस प्रकार का त्याग सर्वथा असम्भव ही है ऐसा मेरा निश्चय है ॥ १५ ॥ प्रभो ! मैं भी ऐसा ही हूँ; मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस भाव से मैं आपकी माया के खेल, देह और देह के सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदि में डूब रहा हूँ। अत: भगवन् ! आपने जिस संन्यास का उपदेश किया है, उसका तत्त्व मुझ सेवक को इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूँ ॥ १६ ॥ मेरे प्रभो ! आप भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालों से अबाधित, एकरस सत्य हैं। आप दूसरे के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश आत्म स्वरूप हैं। प्रभो ! मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्त्व का उपदेश करनेवाला आपके अतिरिक्त देवताओं में भी कोई नहीं है। ब्रह्मा आदि जित ने बड़े-बड़े देवता हैं, वे सब शरीराभिमानी होने के कारण आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि माया के वश में हो गयी है। यही कारण है कि वे इन्द्रियों से अनुभव किये जानेवाले बाह्य विषयों को सत्य मानते हैं। इसीलिये मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये ॥ १७ ॥ भगवन् ! इसीसे चारों ओर से दु:खों की दावाग्रि से जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप निर्दोष देश-काल से अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और अविनाशी वैकुण्ठ- लोक के निवासी एवं नर के नित्य सखा नारायण हैं। (अत: आप ही मुझे उपदेश कीजिये) ॥ १८ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव ! संसार में जो मनुष्य ‘यह जगत क्या है ? इसमें क्या हो रहा है ?’ इत्यादि बातों का विचार करने में निपुण हैं, वे चित्त में भरी हुई अशुभ वासनाओं से अपने- आपको स्वयं अपनी विवेकशक्ति से ही प्राय: बचा लेते हैं ॥ १९ ॥ समस्त प्राणियों का विशेषकर मनुष्य का आत्मा अपने हित और अहित का उपदेशक गुरु है। क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमान के द्वारा अपने हित-अहित का निर्णय करने में पूर्णत: समर्थ है ॥ २० ॥ सांख्ययोगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियशक्ति, मन:शक्ति आदि के आश्रयभूत मुझ आत्मतत्त्व को पूर्णत: प्रकटरूप से साक्षातकार कर लेते हैं ॥ २१ ॥ मैंने एक पैरवाले, दो पैरवाले, तीन पैरवाले, चार पैरवाले, चार से अधिक पैरवाले और बिना पैरके—इत्यादि अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया है। उनमें मुझे सब से अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है ॥ २२ ॥ इस मनुष्य-शरीर में एकाग्रचित्त तीक्ष्णबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जानेवाले हेतुओं से जिन से कि अनुमान भी होता है, अनुमान से अग्राह्य अर्थात् अहङ्कार आदि विषयों से भिन्न मुझ सर्वप्रवत्र् तक ईश्वर को साक्षात अनुभव करते हैं [4] ॥ २३ ॥ इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु के संवाद के रूप में है ॥ २४ ॥ एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्र किया ॥ २५ ॥
राजा यदु ने पूछा—ब्रह्मन् ! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुई ? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होने पर भी बालक के समान संसार में विचरते रहते हैं ॥ २६ ॥ ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदि की अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्त्व-जिज्ञासा में प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसी की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती ॥ २७ ॥ मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करने में समर्थ, विद्वान् और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी वाणी से तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड़, उन्मत्त अथवा पिशाच के समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं ॥ २८ ॥ संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आप तक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वन में दावाग्रि लगने पर उससे छूटकर गङ्गाजल में खड़ा हो ॥ २९ ॥ ब्रह्मन् ! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसार के स्पर्श से भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। हम आप से यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कैसे होता है ? आप कृपा करके अवश्य बतलाइये ॥ ३० ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मण-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्र पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजी ने कहा ॥ ३१ ॥
ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजी ने कहा—राजन् ! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत- से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत में मुक्तभाव से स्वच्छन्द विचरता हूँ। तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो ॥ ३२ ॥ मेरे गुरुओं के नाम हैं—पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्रि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हरिन, मछली, पिङ्गला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृङ्गी कीट ॥ ३३-३४ ॥ राजन् ! मैंने इन चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया है और इन्हीं के आचरण से इस लोक में अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है ॥ ३५ ॥ वीरवर ययातिनन्दन ! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुम से कहता हूँ, सुनो ॥ ३६ ॥
मैंने पृथ्वी से उसके धैर्यकी, क्षमा की शिक्षा ली है। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और क्या- क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार से जान या अनजान में आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुष को चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्ग पर ज्यों-का-त्यों चलता रहे ॥ ३७ ॥ पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरों के हित के लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिये ही हुआ है, साधु पुरुष को चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे ॥ ३८ ॥
मैंने शरीर के भीतर रहनेवाले वायु-प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्ति से ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को भी चाहिये कि जित ने से जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये बहुत- से विषय न चाहे। संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिये, जिन से बुद्धि विकृत न हो, मन चञ्चल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाय ॥ ३९ ॥ शरीर के बाहर रहनेवाले वायु से मैंने यह सीखा है कि जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाववाले विषयों में जाय, परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे। किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाय, किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे ॥ ४० ॥ गन्ध वायु का गुण नहीं, पृथ्वी का गुण है। परन्तु वायु को गन्ध का वहन करना पड़ता है। ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्ध से उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधक का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है, तब तक उसे इस की व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपने को शरीर नहीं, आत्मा के रूप में देखनेवाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निॢलप्त रहता है ॥ ४१ ॥
राजन् ! जित ने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर- अचर जित ने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मारूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में है। साधक को चाहिये कि सूत के मनियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असङ्गरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिये साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिये ॥ ४२ ॥ आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायु की प्रेरणा से बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होने पर भी आकाश अछूता रहता है। आकाश की दृष्टि से यह सब कुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य के चक्कर में न जाने किन-किन नामरूपों की सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्मा के साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है ॥ ४३ ॥
जिस प्रकार जल स्वभाव से ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करनेवाला होता है तथा गङ्गा आदि तीर्थों के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं—वैसे ही साधक को भी स्वभाव से ही शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोकपावन होना चाहिये। जल से शिक्षा ग्रहण करनेवाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से लोगों को पवित्र कर देता है ॥ ४४ ॥
राजन् ! मैंने अग्रि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं—सब कुछ अपने पेट में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियों से अपराभूत, भोजनमात्र का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे, किसी का दोष अपने में न आ ने दे ॥ ४५ ॥ जैसे अग्रि कहीं (लकड़ी आदिमें) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय। वह कहीं-कहीं ऐसे रूप में भी प्रकट हो जाता है, जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्रि के समान ही भिक्षारूप हवन करनेवालों के अतीत और भावी अशुभ को भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है ॥ ४६ ॥ साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्रि लंबी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकडिय़ों में रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लंबी-चौड़ी दिखायी पड़ती है—वास्तव में वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य-कारणरूप जगत में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम-रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है ॥ ४७ ॥
मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है ॥ ४८ ॥ जैसे आग की लपट अथवा दीपक की लौ क्षण-क्षण में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है—उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता—वैसे ही जलप्रवाह के समान वेगवान् काल के द्वारा क्षण-क्षण में प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता ॥ ४९ ॥
राजन् ! मैंने सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग—उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती ॥ ५० ॥ स्थूलबुद्धि पुरुषों को जल के विभिन्न पात्रों में प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य उन्हीं में प्रविष्ट-सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपत: सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियों के भेद से ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिन को ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्य के समान एक ही है। स्वरूपत: उसमें कोई भेद नहीं है ॥ ५१ ॥
राजन् ! कहीं किसी के साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायगी और उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा ॥ ५२ ॥ राजन् ! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा ॥ ५३ ॥ उस कबूतर के जोड़े के हृदय में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्म में इत ने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि-से-दृष्टि, अङ्ग-से-अङ्ग और बुद्धि-से-बुद्धि को बाँध रखा था ॥ ५४ ॥ उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे नि:शङ्क होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे ॥ ५५ ॥ राजन् ! कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएँ पूर्ण करती ॥ ५६ ॥ समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये ॥ ५७ ॥ भगवान की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैरवाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अङ्ग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे ॥ ५८ ॥ अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन-सुनकर आनन्दमग्र हो जाते ॥ ५९ ॥ बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ-बाप का स्पर्श करते, कूजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बाप के पास दौड़ आते तब कबूतर-कबूतरी आनन्दमग्र हो जाते ॥ ६० ॥ राजन् ! सच पूछो तो वे कबूतर- कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरे के स्नेहबन्धन से बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इत ने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनिया, लोक-परलोक की याद ही न आती ॥ ६१ ॥ एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिये चारा ला ने जंगल में गये हुए थे। क्योंकि अब उनका कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। वे चारे के लिये चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे ॥ ६२ ॥ इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया ॥ ६३ ॥ कबूतर-कबूतरी बच्चों को खिलाने-पिला ने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये ॥ ६४ ॥ कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हें बच्चे, उनके हृदय के टुकड़े जाल में फँ से हुए हैं और दु:ख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दु:ख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी ॥ ६५ ॥ भगवान की माया से उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुई थी; अपने बच्चों को जाल में फँसा देखकर उसे अपने शरीर की भी सुध- बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी ॥ ६६ ॥ जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दु:खित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी ॥ ६७ ॥ ‘मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय ! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो, देखो, न मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुर्ईं। तब तक मेरा धर्म, अर्थ और काम का मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया ॥ ६८ ॥ हाय ! मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारे पर नाचती थी, सब तरह से मेरे योग्य थी। आज वह मुझे सू ने घर में छोडक़र हमारे सीधे-सादे निश्छल बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही है ॥ ६९ ॥ मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही। मेरा अब संसार में क्या काम है ? मुझ दीन का यह विधुर जीवन— बिना गृहिणी का जीवन जलनका—व्यथा का जीवन है। अब मैं इस सू ने घर में किसके लिये जीऊँ ? ॥ ७० ॥ राजन् ! कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तडफ़ड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान- बूझकर जाल में कूद पड़ा ॥ ७१ ॥ राजन् ! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना ॥ ७२ ॥ जो कुटुम्बी है विषयों और लोगों के सङ्ग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पाता है ॥ ७३ ॥ यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घरगृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढक़र गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह ‘आरूढ़च्युत’ है ॥ ७४ ॥
[1] विहित कर्म।
[2] विहित कर्म का लोप।
[3] निषिद्ध कर्म।
[4] अनुसंधान के दो प्रकार हैं (१) एक स्वप्रकाश तत्त्व के बिना बुद्धि आदि जड पदार्थों का प्रकाश नहीं हो सकता। इस प्रकार अर्थापत्ति के द्वारा और (२) जैसे बसीला आदि औजार किसी कर्ता के द्वारा प्रयुक्त होते हैं। इसी प्रकार यह बुद्धि आदि औजार किसी कर्ता के द्वारा ही प्रयुक्त हो रहे हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आत्मा आनुमानिक है। यह तो देहादि से विलक्षण त्वं पदार्थ के शोधन की युक्तिमात्र है।
॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥
ब्राह्मण उवाच
सुखमैन्द्रियकं राजन् स्वर्गे नरक एव च ।
देहिनां यद्यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद्बुधः ॥ १॥
ग्रासं सुमृष्टं विरसं महान्तं स्तोकमेव वा ।
यदृच्छयैवापतितं ग्रसेदाजगरोऽक्रियः ॥ २॥
शयीताहानि भूरीणि निराहारोऽनुपक्रमः ।
यदि नोपनमेद्ग्रासो महाहिरिव दिष्टभुक् ॥ ३॥
ओजः सहो बलयुतं बिभ्रद्देहमकर्मकम् ।
शयानो वीतनिद्रश्च नेहेतेन्द्रियवानपि ॥ ४॥
मुनिः प्रसन्नगम्भीरो दुर्विगाह्यो दुरत्ययः ।
अनन्तपारो ह्यक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः ॥ ५॥
समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः ।
नोत्सर्पेत न शुष्येत सरिद्भिरिव सागरः ॥ ६॥
दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तद्भावैरजितेन्द्रियः ।
प्रलोभितः पतत्यन्धे तमस्यग्नौ पतङ्गवत् ॥ ७॥
योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादिद्रव्येषु
मायारचितेषु मूढः ।
प्रलोभितात्मा ह्युपभोगबुद्ध्या
पतङ्गवन्नश्यति नष्टदृष्टिः ॥ ८॥
स्तोकं स्तोकं ग्रसेद्ग्रासं देहो वर्तेत यावता ।
गृहानहिंसन्नातिष्ठेद्वृत्तिं माधुकरीं मुनिः ॥ ९॥
अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलो नरः ।
सर्वतः सारमादद्यात्पुष्पेभ्य इव षट्पदः ॥ १०॥
सायन्तनं श्वस्तनं वा न सङ्गृह्णीत भिक्षितम् ।
पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न सङ्ग्रही ॥ ११॥
सायन्तनं श्वस्तनं वा न सङ्गृह्णीत भिक्षुकः ।
मक्षिका इव सङ्गृह्णन् सह तेन विनश्यति ॥ १२॥
पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद्दारवीमपि ।
स्पृशन् करीव बध्येत करिण्या अङ्गसङ्गतः ॥ १३॥
नाधिगच्छेत्स्त्रियं प्राज्ञः कर्हिचिन्मृत्युमात्मनः ।
बलाधिकैः स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा ॥ १४॥
न देयं नोपभोग्यं च लुब्धैर्यद्दुःखसञ्चितम् ।
भुङ्क्ते तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु ॥ १५॥
सुदुःखोपार्जितैर्वित्तैराशासानां गृहाशिषः ।
मधुहेवाग्रतो भुङ्क्ते यतिर्वै गृहमेधिनाम् ॥ १६॥
ग्राम्यगीतं न शृणुयाद्यतिर्वनचरः क्वचित् ।
शिक्षेत हरिणाद्बद्धान्मृगयोर्गीतमोहितात् ॥ १७॥
नृत्यवादित्रगीतानि जुषन् ग्राम्याणि योषिताम् ।
आसां क्रीडनको वश्य ऋष्यशृङ्गो मृगीसुतः ॥ १८॥
जिह्वयातिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः ।
मृत्युमृच्छत्यसद्बुद्धिर्मीनस्तु बडिशैर्यथा ॥ १९॥
इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिणः ।
वर्जयित्वा तु रसनं तन्निरन्नस्य वर्धते ॥ २०॥
तावज्जितेन्द्रियो न स्याद्विजितान्येन्द्रियः पुमान् ।
न जयेद्रसनं यावज्जितं सर्वं जिते रसे ॥ २१॥
पिङ्गला नाम वेश्यासीद्विदेहनगरे पुरा ।
तस्या मे शिक्षितं किञ्चिन्निबोध नृपनन्दन ॥ २२॥
सा स्वैरिण्येकदा कान्तं सङ्केत उपनेष्यती ।
अभूत्काले बहिर्द्वारि बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ २३॥
मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान् पुरुषर्षभ ।
तान् शुल्कदान् वित्तवतः कान्तान् मेनेऽर्थकामुका ॥ २४॥
आगतेष्वपयातेषु सा सङ्केतोपजीविनी ।
अप्यन्यो वित्तवान् कोऽपि मामुपैष्यति भूरिदः ॥ २५॥
एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलम्बती ।
निर्गच्छन्ती प्रविशती निशीथं समपद्यत ॥ २६॥
तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतसः ।
निर्वेदः परमो जज्ञे चिन्ताहेतुः सुखावहः ॥ २७॥
तस्या निर्विण्णचित्ताया गीतं शृणु यथा मम ।
निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा ह्यसिः ॥ २८॥
न ह्यङ्गाजातनिर्वेदो देहबन्धं जिहासति ।
यथा विज्ञानरहितो मनुजो ममतां नृप ॥ २९॥
पिङ्गलोवाच
अहो मे मोहविततिं पश्यताविजितात्मनः ।
या कान्तादसतः कामं कामये येन बालिशा ॥ ३०॥
सन्तं समीपे रमणं रतिप्रदं
वित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय ।
अकामदं दुःखभयाधिशोकमोहप्रदं
तुच्छमहं भजेऽज्ञा ॥ ३१॥
अहो मयाऽऽत्मा परितापितो वृथा
साङ्केत्यवृत्त्यातिविगर्ह्यवार्तया ।
स्त्रैणान्नराद्यार्थतृषोऽनुशोच्यात्
क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती ॥ ३२॥
यदस्थिभिर्निर्मितवंशवंश्यस्थूणं
त्वचा रोमनखैः पिनद्धम् ।
क्षरन्नवद्वारमगारमेतद्विण्मूत्रपूर्णं
मदुपैति कान्या ॥ ३३॥
विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढधीः ।
यान्यमिच्छन्त्यसत्यस्मादात्मदात्काममच्युतात् ॥ ३४॥
सुहृत्प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम् ।
तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा ॥ ३५॥
कियत्प्रियं ते व्यभजन् कामा ये कामदा नराः ।
आद्यन्तवन्तो भार्याया देवा वा कालविद्रुताः ॥ ३६॥
नूनं मे भगवान् प्रीतो विष्णुः केनापि कर्मणा ।
निर्वेदोऽयं दुराशाया यन्मे जातः सुखावहः ॥ ३७॥
मैवं स्युर्मन्दभाग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः ।
येनानुबन्धं निर्हृत्य पुरुषः शममृच्छति ॥ ३८॥
तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसङ्गताः ।
त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम् ॥ ३९॥
सन्तुष्टा श्रद्दधत्येतद्यथा लाभेन जीवती ।
विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥ ४०॥
संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ।
ग्रस्तं कालाहिनात्मानं कोऽन्यस्त्रातुमधीश्वरः ॥ ४१॥
आत्मैव ह्यात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात् ।
अप्रमत्त इदं पश्येद्ग्रस्तं कालाहिना जगत् ॥ ४२॥
ब्राह्मण उवाच
एवं व्यवसितमतिर्दुराशां कान्ततर्षजाम् ।
छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ॥ ४३॥
आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
यथा सञ्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला ॥ ४४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
एकादश स्कन्द-आठवाँ अध्याय 44
अवधूतोपाख्यान—अजगर से लेकर पिङ्गला तक नौ गुरुओं की कथा
अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन् ! प्राणियों को जैसे बिना इच्छाके, बिना किसी प्रयत्नके, रोक ने की चेष्टा करने पर भी पूर्वकर्मानुसार दु:ख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्ग में या नरकमें—कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिये सुख और दु:ख का रहस्य जाननेवाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकार का प्रयत्न न करे ॥ १ ॥ बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय—वह चाहे रूखा-सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट, अधिक हो या थोड़ा—बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन- निर्वाह कर ले और उदासीन रहे ॥ २ ॥ यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकार की चेष्टा न करे, बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चाहिये कि अजगर के समान केवल प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुए भोजन में ही सन्तुष्ट रहे ॥ ३ ॥ उसके शरीर में मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल तीनों हों तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे। निद्रारहित होने पर भी सोया हुआ-सा रहे और कर्मेन्द्रियों के होने पर भी उनसे कोई चेष्टा न करे। राजन् ! मैंने अजगर से यही शिक्षा ग्रहण की है ॥ ४ ॥
समुद्र से मैंने यह सीखा है कि साधक को सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ न होना चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरङ्गों से रहित शान्त समुद्र ॥ ५ ॥ देखो, समुद्र वर्षाऋतु में नदियों की बाढक़े कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म-ऋतु में घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधक को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति से प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घट ने से उदास ही होना चाहिये ॥ ६ ॥
राजन् ! मैंने पतिंगे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखनेवाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव-भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में, नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया है, जिससे जीव भगवान या मोक्ष की प्राप्ति से वञ्चित रह जाता है ॥ ७ ॥ जो मूढ़ कामिनी-कञ्चन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थों में फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोग के लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेकबुद्धि खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है ॥ ८ ॥
राजन् ! संन्यासी को चाहिये कि गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीर के लिये उपयोगी रोटी के कुछ टुकड़े कई घरों से माँग ले[1] ॥ ९ ॥ जिस प्रकार भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे—चाहे वे छोटे हों या बड़े—उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार—उनका रस निचोड़ ले ॥ १० ॥ राजन् ! मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायङ्काल अथवा दूसरे दिन के लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेने को कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियों के समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा ॥ ११ ॥ यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे शाम के लिये किसी प्रकार का संग्रह न करे; यदि संग्रह करेगा, तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ ही जीवन भी गँवा बैठेगा ॥ १२ ॥
राजन् ! मैंने हाथी से यह सीखा कि संन्यासी को कभी पैर से भी काठ की बनी हुई स्त्री का भी स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी के अङ्ग-सङ्ग से हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह भी बँध जायगा [2] ॥ १३ ॥ विवे की पुरुष किसी भी स्त्री को कभी भी भोग्यरूप से स्वीकार न करे; क्योंकि यह उसकी मूर्तिमती मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियों से हाथी की तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषों के द्वारा मारा जायगा ॥ १४ ॥
मैंने मधु निकालनेवाले पुरुष से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन का सञ्चय तो करते रहते हैं, किन्तु वह सञ्चित धन न किसीको दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस, जैसे मधु निकालनेवाला मधुमक्खियों द्वारा सञ्चित रस को निकाल ले जाता है, वैसे ही उनके सञ्चित धन को भी उसकी टोह रखनेवाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है ॥ १५ ॥ तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियों का जोड़ा हुआ मधु उनके खा ने से पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थों के बहुत कठिनाई से सञ्चित किये पदार्थों को, जिन से वे सुखभोग की अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि-अभ्यागतों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ॥ १६ ॥
मैंने हरिन से यह सीखा है कि वनवासी संन्यासी को कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बात की शिक्षा उस हरिन से ग्रहण करे, जो व्याध के गीत से मोहित होकर बँध जाता है ॥ १७ ॥ तुम्हें इस बात का पता है कि हरिनी के गर्भ से पैदा हुए ऋष्यशृङ्ग मुनि स्त्रियों का विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वश में हो गये थे और उनके हाथ की कठपुतली बन गये थे ॥ १८ ॥
अब मैं तुम्हें मछली की सीख सुनाता हूँ। जैसे मछली काँटे में लगे हुए मांसके टुकड़े के लोभ से अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वाद का लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मन को मथकर व्याकुल कर देनेवाली अपनी जिह्वा के वश में हो जाता है और मारा जाता है ॥ १९ ॥ विवे की पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियों पर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वश में नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर दे ने से और भी प्रबल हो जाती है ॥ २० ॥ मनुष्य और सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी तब तक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जब तक रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रिय को वश में कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश में हो गयीं ॥ २१ ॥
नृपनन्दन ! प्राचीन काल की बात है, विदेहनगरी मिथिला में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिङ्गला। मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हे सुनाता हूँ; सावधान होकर सुनो ॥ २२ ॥ वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रि के समय किसी पुरुष को अपने रमणस्थान में ला ने के लिये खूब बन-ठनकर—उत्तम वस्त्राभूषणों से सजकर बहुत देर तक अपने घर के बाहरी दरवाजे पर खड़ी रही ॥ २३ ॥ नररत्न ! उसे पुरुष की नहीं, धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते- जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करने के लिये ही आ रहा है ॥ २४ ॥ जब आने-जानेवाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह सङ्केतजीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अब की बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आवेगा जो मुझे बहुत-सा धन देगा ॥ २५ ॥ उसके चित्त की यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी। वह दरवाजे पर बहुत देर तक टँगी रही। उसकी नींद भी जाती रही। वह कभी बाहर आती, तो कभी भीतर जाती। इस प्रकार आधी रात हो गयी ॥ २६ ॥ राजन् ! सचमुच आशा और सो भी धनकी—बहुत बुरी है। धनी की बाट जोहते- जोहते उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्ति से बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें दु:ख-बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्य का कारण चिन्ता ही थी। परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुख का ही हेतु ॥ २७ ॥ जब पिङ्गला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजन् ! मनुष्य आशा की फाँसी पर लटक रहा है। इस को तलवार की तरह काटनेवाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है ॥ २८ ॥ प्रिय राजन् ! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ों से ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धन से उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोडऩे की इच्छा भी नहीं करता ॥ २९ ॥
पिङ्गला ने यह गीत गाया था—हाय ! हाय ! मैं इन्द्रियों के अधीन हो गयी ! भला ! मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषोंसे, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषयसुख की लालसा करती हूँ। कित ने दु:ख की बात है ! मैं सचमुच मूर्ख हूँ ॥ ३० ॥ देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदय में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देनेवाले हैं। जगत के पुरुष अनित्य हैं और वे नित्य हैं। हाय ! हाय ! मैंने उन को तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्यों का सेवन किया, जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते; उलटे दु:ख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मूर्खता की हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ ॥ ३१ ॥ बड़े खेद की बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीवि का वेश्यावृत्ति का आश्रय लिया और व्यर्थ में अपने शरीर और मन को क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी। मेरा यह शरीर बिक गया है। लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्यों ने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीर से धन और रति-सुख चाहती हूँ। मुझे धिक्कार है ! ॥ ३२ ॥ यह शरीर एक घर है। इसमें हड्डियों के टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं; चाम, रोएँ और नाखूनों से यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, जिन से मल निकलते ही रहते हैं। इसमें सञ्चित सम्पत्ति के नाम पर केवल मल और मूत्र है। मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है, जो इस स्थूलशरीर को अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी ॥ ३३ ॥ यों तो यह विदेहोंकी—जीवन्मुक्तों की नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सब से मूर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्मा को छोडक़र दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ ॥ ३४ ॥ मेरे हृदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुहृद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें खरीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विहार करूँगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं ॥ ३५ ॥ मेरे मूर्ख चित्त ! तू बतला तो सही, जगत के विषयभोगों ने और उन को देनेवाले पुरुषों ने तुझे कितना सुख दिया है। अरे ! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्यों की भी नहीं; क्या देवताओं ने भी भोगों के द्वारा अपनी पत्नियों को सन्तुष्ट किया है ? वे बेचारे तो स्वयं काल के गाल में पड़े-पड़े कराह रहे हैं ॥ ३६ ॥ अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्म से विष्णुभगवान मुझ पर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशा से मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है। अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देनेवाला होगा ॥ ३७ ॥ यदि मैं मन्दभागिनी होती तो मुझे ऐसे दु:ख ही न उठा ने पड़ते, जिन से वैराग्य होता है। मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के सब बन्धनों को काटकर शान्तिलाभ करता है ॥ ३८ ॥ अब मैं भगवान का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगों की दुराशा छोडक़र उन्हीं जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूँ ॥ ३९ ॥ अब मुझे प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जायगा, उसी से निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धा के साथ रहूँगी। मैं अब किसी दूसरे पुरुष की ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर, आत्म स्वरूप प्रभु के साथ ही विहार करूँगी ॥ ४० ॥ यह जीव संसार के कूएँ में गिरा हुआ है। विषयों ने इसे अंधा बना दिया है, कालरूपी अजगर ने इसे अपने मुँहमें दबा रखा है। अब भगवान को छोडक़र इस की रक्षा करने में दूसरा कौन समर्थ है ॥ ४१ ॥ जिस समय जीव समस्त विषयों से विरक्त हो जाता है, उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है। इसलिये बड़ी सावधानी के साथ यह देखते रहना चाहिये कि सारा जगत कालरूपी अजगर से ग्रस्त है ॥ ४२ ॥
अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन् ! पिङ्गला वेश्या ने ऐसा निश्चय करके अपने प्रिय धनियों की दुराशा, उनसे मिल ने की लालसा का परित्याग कर दिया और शान्तभाव से जाकर वह अपनी सेज पर सो रही ॥ ४३ ॥ सचमुच आशा ही सब से बड़ा दु:ख है और निराशा ही सब से बड़ा सुख है; क्योंकि पिङ्गला वेश्या ने जब पुरुष की आशा त्याग दी, तभी वह सुख से सो स की ॥ ४४ ॥
[1] नहीं तो एक ही कमल के गन्ध में आसक्त हुआ भ्रमर जैसे रात्रि के समय उसमें बंद हो जाने से नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्वादवासना से एक ही गृहस्थ का अन्न खा ने से उसके सांसॢगक मोहमें फँसकर यति भी नष्ट हो जायगा।
[2] हाथी पकडऩेवाले तिनकों से ढ के हुए गड्ढे पर कागज की हथिनी खड़ी कर देते हैं। उसे देखकर हाथी वहाँ आता है और गड्ढे में गिरकर फँस जाता है।
॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
ब्राह्मण उवाच
परिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम् ।
अनन्तं सुखमाप्नोति तद्विद्वान्यस्त्वकिञ्चनः ॥ १॥
सामिषं कुररं जघ्नुर्बलिनो ये निरामिषाः ।
तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥ २॥
न मे मानावमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम् ।
आत्मक्रीड आत्मरतिर्विचरामीह बालवत् ॥ ३॥
द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परं गतः ॥ ४॥
क्वचित्कुमारी त्वात्मानं वृणानान् गृहमागतान् ।
स्वयं तानर्हयामास क्वापि यातेषु बन्धुषु ॥ ५॥
तेषामभ्यवहारार्थं शालीन् रहसि पार्थिव ।
अवघ्नन्त्याः प्रकोष्ठस्थाश्चक्रुः शङ्खाः स्वनं महत् ॥ ६॥
सा तज्जुगुप्सितं मत्वा महती वृडिता ततः ।
बभञ्जैकैकशः शङ्खान् द्वौ द्वौ पाण्योरशेषयत् ॥ ७॥
उभयोरप्यभूद्घोषो ह्यवघ्नन्त्याः स्म शङ्खयोः ।
तत्राप्येकं निरभिददेकस्मान्नाभवद्ध्वनिः ॥ ८॥
अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।
लोकाननुचरन्नेतान् लोकतत्त्वविवित्सया ॥ ९॥
वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्वयोरपि ।
एक एव चरेत्तस्मात्कुमार्या इव कङ्कणः ॥ १०॥
मन एकत्र संयुञ्ज्याज्जितश्वासो जितासनः ।
वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणमतन्द्रितः ॥ ११॥
यस्मिन् मनो लब्धपदं यदेतच्छनैः
शनैर्मुञ्चति कर्मरेणून् ।
सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च
विधूय निर्वाणमुपैत्यनिन्धनम् ॥ १२॥
तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो
न वेद किञ्चिद्बहिरन्तरं वा ।
यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्तमिषौ
गतात्मा न ददर्श पार्श्वे ॥ १३॥
एकचार्यनिकेतः स्यादप्रमत्तो गुहाशयः ।
अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनिरेकोऽल्पभाषणः ॥ १४॥
गृहारम्भोऽति दुःखाय विफलश्चाध्रुवात्मनः ।
सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥ १५॥
एको नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया ।
संहृत्य कालकलया कल्पान्त इदमीश्वरः ।
एक एवाद्वितीयोऽभूदात्माधारोऽखिलाश्रयः ॥ १६॥
कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।
सत्त्वादिष्वादिपुरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ १७॥
परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।
केवलानुभवानन्दसन्दोहो निरुपाधिकः ॥ १८॥
केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।
सङ्क्षोभयन् सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥ १९॥
तामाहुस्त्रिगुणव्यक्तिं सृजन्तीं विश्वतोमुखम् ।
यस्मिन् प्रोतमिदं विश्वं येन संसरते पुमान् ॥ २०॥
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णां सन्तत्य वक्त्रतः ।
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥ २१॥
यत्र यत्र मनो देही धारयेत्सकलं धिया ।
स्नेहाद्द्वेषाद्भयाद्वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ २२॥
कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः ।
याति तत्सात्मतां राजन् पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥ २३॥
एवं गुरुभ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।
स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धिं शृणु मे वदतः प्रभो ॥ २४॥
देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतुः
बिभ्रत्स्म सत्त्वनिधनं सततार्त्युदर्कम् ।
तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि
पारक्यमित्यवसितो विचराम्यसङ्गः ॥ २५॥
जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्
पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षया वितन्वन् ।
स्वान्ते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः स देहः
सृष्ट्वास्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मः ॥ २६॥
जिह्वैकतोऽमुमपकर्षति कर्हि तर्षा
शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिः
बह्व्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥ २७॥
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान् ।
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥ २८॥
लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-
न्निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥ २९॥
एवं सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।
विचरामि महीमेतां मुक्तसङ्गोऽनहङ्कृतिः ॥ ३०॥
न ह्येकस्माद्गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात्सुपुष्कलम् ।
ब्रह्मैतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभिः ॥ ३१॥
श्रीभगवानुवाच
इत्युक्त्वा स यदुं विप्रस्तमामन्त्र्य गभीरधीः ।
वन्दितोऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥ ३२॥
अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ।
सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह ॥ ३३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
एकादश स्कन्द-नवाँ अध्याय 33
अवधूतोपाख्यान—कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा
अवधूत दत्तात्रेयजी ने कहा—राजन् ! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठाकरना ही उनके दु:ख का कारण है। जो बुद्धिमान पुरुष यह बात समझकर अकिञ्चनभाव से रहता है—शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता—उसे अनन्त सुख स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ एक कुररपक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीन ने के लिये उसे घेरकर चोंच मार ने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ॥ २ ॥
मुझे मान या अपमान का कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालों को जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालक से ली है। अत: उसी के समान मैं भी मौज से रहता हूँ ॥ ३ ॥ इस जगत में दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्द में मग्र रहते हैं—एक तो भोलाभाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ॥ ४ ॥
एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिये उसने स्वयं ही उनका आतिथ्यसत्कार किया ॥ ५ ॥ राजन् ! उन को भोजन कराने के लिये वह घर के भीतर एकान्त में धान कूट ने लगी। उस समय उसकी कलाई में पड़ी शंख की चूडिय़ाँ जोर-जोर से बज रही थीं ॥ ६ ॥ इस शब्द को निन्दित समझकर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई [1] और उसने एक-एक करके सब चूडिय़ाँ तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूडिय़ाँ रहने दीं ॥ ७ ॥ अब वह फिर धान कूट ने लगी। परन्तु वे दो-दो चूडिय़ाँ भी बज ने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गयी, तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई ॥ ८ ॥ रिपुदमन ! उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमारी कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिये ॥ ९-१० ॥
राजन् ! मैंने बाण बनानेवाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यासके द्वारा अपने मन को वश में कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे ॥ ११ ॥ जब परमानन्द स्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो बहाता है। सत्त्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे र्ईंधन के बिना अग्रि ॥ १२ ॥ इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर—निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थ का भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही दलबल के साथ राजा की सवारी निकल गयी और उसे पता तक न चला ॥ १३ ॥
राजन् ! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाय। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले ॥ १४ ॥ इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पडऩा व्यर्थ और दु:ख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है ॥ १५ ॥
अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सब के प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होनेपर) कालशक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सब के अधिष्ठान हैं, सब के आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय—अपने ही आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूप से विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभव स्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति- प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा विश्व, सूत में ताने-बा ने की तरह ओतप्रोत है और इसी के कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पडऩा पड़ता है ॥ १६—२० ॥ जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं ॥ २१ ॥
राजन् ! मैंने भृङ्गी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से , द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है ॥ २२ ॥ राजन् ! जैसे भृङ्गी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है [2] ॥ २३ ॥
राजन् ! इस प्रकार मैंने इत ने गुरुओं से ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ २४ ॥ यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दु:ख-पर-दु:ख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीर से तत्त्वविचार करने में सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे। इसीलिये मैं इससे असङ्ग होकर विचरता हूँ ॥ २५ ॥ जीव जिस शरीर का प्रिय करने के लिये ही अनेकों प्रकार की कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओं का विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसञ्चय करता है। आयुष्य पूरी होने पर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्ष के समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दु:ख की व्यवस्था कर जाता है ॥ २६ ॥ जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीव को जीभ एक ओर—स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओर—जल की ओर; जननेन्द्रिय एक ओर—स्त्रीसंभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर— कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्द की ओर खींच ने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघ ने के लिये ले जाना चाहती है तो चञ्चल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखने के लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं ॥ २७ ॥ वैसे तो भगवान ने अपनी अचिन्त्य शक्ति माया से वृक्ष, सरीसृप (रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकार की योनियाँ रचीं; परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्यशरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है, जो ब्रह्म का साक्षातकार कर सकती है। इस की रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए ॥ २८ ॥ यद्यपि यह मनुष्यशरीर है तो अनित्य ही—मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परमपुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है; इसलिये अनेक जन्मों के बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि शीघ्र-से- शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषयभोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रहमें यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ॥ २९ ॥ राजन् ! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत से वैराग्य हो गया। मेरे हृदय में ज्ञान-विज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहङ्कार ही। अब मैं स्वच्छन्दरूप से इस पृथ्वी में विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥ राजन् ! अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धि से भी बहुत-कुछ सोचने-समझ ने की आवश्यकता है। देखो ! ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रह्म का अनेकों प्रकार से गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे, तो ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को कैसे जान स कोगे ?) ॥ ३१ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्यारे उद्धव ! गम्भीर-बुद्धि अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को इस प्रकार उपदेश किया। यदु ने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गये ॥ ३२ ॥ हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ॥ ३३ ॥
[1] क्योंकि उससे उसका स्वयं धान कूटना सूचित होता था, जो कि उसकी दरिद्रता का द्यो तक था।
[2] जब उसी शरीर से चिन्तन किये रूप की प्राप्ति हो जाती है; तब दूसरे शरीर से तो कहना ही क्या है? इसलिये मनुष्य को अन्य वस्तु का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये।
॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥
श्रीभगवानुवाच
मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः ।
वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत् ॥ १॥
अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम् ।
गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् ॥ २॥
सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः ।
नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः ॥ ३॥
निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत् ।
जिज्ञासायां सम्प्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम् ॥ ४॥
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः क्वचित् ।
मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम् ॥ ५॥
अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः ।
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक् ॥ ६॥
जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु ।
उदासीनः समं पश्यन् सर्वेष्वर्थमिवात्मनः ॥ ७॥
विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद्देहादात्मेक्षिता स्वदृक् ।
यथाग्निर्दारुणो दाह्याद्दाहकोऽन्यः प्रकाशकः ॥ ८॥
निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान् गुणान् ।
अन्तः प्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान् परः ॥ ९॥
योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि ।
संसारस्तन्निबन्धोयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः ॥ १०॥
तस्माज्जिज्ञासयाऽऽत्मानमात्मस्थं केवलं परम् ।
सङ्गम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम् ॥ ११॥
आचार्योऽरणिराद्यः स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः ।
तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः ॥ १२॥
वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धिर्धुनोति
मायां गुणसम्प्रसूताम् ।
गुणांश्च सन्दह्य यदात्ममेतत्
स्वयं च शाम्यत्यसमिद्यथाग्निः ॥ १३॥
अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः ।
नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम् ॥ १४॥
मन्यसे सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा ।
तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धीः ॥ १५॥
एवमप्यङ्ग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः ।
कालावयवतः सन्ति भावा जन्मादयोऽसकृत् ॥ १६॥
अत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते ।
भोक्तुश्च दुःखसुखयोः को न्वर्थो विवशं भजेत् ॥ १७॥
न देहिनां सुखं किञ्चिद्विद्यते विदुषामपि ।
तथा च दुःखं मूढानां वृथाहङ्करणं परम् ॥ १८॥
यदि प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुखदुःखयोः ।
तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा ॥ १९॥
को न्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके ।
आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः ॥ २०॥
श्रुतं च दृष्टवद्दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः ।
बह्वन्तरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम् ॥ २१॥
अन्तरायैरविहतो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः ।
तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु ॥ २२॥
इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः ।
भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान् दिव्यान् निजार्जितान् ॥ २३॥
स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते ।
गन्धर्वैर्विहरन् मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक् ॥ २४॥
स्त्रीभिः कामगयानेन किङ्किणीजालमालिना ।
क्रीडन् वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः ॥ २५॥
तावत्प्रमोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते ।
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन् कालचालितः ॥ २६॥
यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाजितेन्द्रियः ।
कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः ॥ २७॥
पशूनविधिनालभ्य प्रेतभूतगणान् यजन् ।
नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः ॥ २८॥
कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन् देहेन तैः पुनः ।
देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः ॥ २९॥
लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम् ।
ब्रह्मणोऽपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः ॥ ३०॥
गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान् ।
जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ ॥ ३१॥
यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः ।
नानात्वमात्मनो यावत्पारतन्त्र्यं तदैव हि ॥ ३२॥
यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदीश्वरतो भयम् ।
य एतत्समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः ॥ ३३॥
काल आत्मागमो लोकः स्वभावो धर्म एव च ।
इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ॥ ३४॥
उद्धव उवाच
गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः ।
गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कथं विभो ॥ ३५॥
कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः ।
किं भुञ्जीतोऽत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ॥ ३६॥
एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।
नित्यमुक्तो नित्यबद्धः एक एवेति मे भ्रमः ॥ ३७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १०॥
एकादश स्कन्द-दसवाँ अध्याय 49
लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव ! साधक को चाहिये कि सब तरह से मेरी शरण में रहकर (गीता-पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मों का सावधानी से पालन करे। साथ ही जहाँ तक उनसे विरोध न हो वहाँ तक निष्कामभाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार का भी अनुष्ठान करे ॥ १ ॥ निष्काम होने का उपाय यह है कि स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए अपने चित्त में यह विचार करे कि जगत के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों को सत्य समझकर उनकी प्राप्ति के लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दु:ख ॥ २ ॥ इसके सम्बन्ध में ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न-अवस्था में और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्था में भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकार के विषयों का अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होने के कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होने के कारण पूर्ववत् असत्य ही है ॥ ३ ॥ जो पुरुष मेरी शरण में है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मों का बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये, जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञान की उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानों का भी आदर नहीं करना चाहिये ॥ ४ ॥ अहिंसा आदि यमों का तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमों का पालन शक्ति के अनुसार और आत्मज्ञान के विरोधी न होने पर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुष के लिये यम और नियमों के पालन से भी बढक़र आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूप को जाननेवाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ॥ ५ ॥ शिष्य को अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसी से डाह न करे—किसी का बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्य में कुशल हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरु के चरणों में दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानी से पूरा करे। सदा परमार्थ के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बनाये रखे। किसी के गुणों में दोष न निकाले और व्यर्थ की बात न करे ॥ ६ ॥ जिज्ञासु का परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थों में एक सम आत्मा को देखे और किसी में कुछ विशेषता का आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे ॥ ७ ॥ उद्धव ! जैसे जलनेवाली लकड़ी से उसे जला ने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करने पर जान पड़ता है कि पञ्चभूतों का बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वों का बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उन को जान ने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देह की अपेक्षा आत्मा में महान विलक्षणता है। अतएव देह से आत्मा भिन्न है ॥ ८ ॥ जब आग लकड़ी में प्रज्वलित होती है, तब लकड़ी के उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो, तो लकड़ी के उन गुणों से आग का कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपने को शरीर मान लेता है, तब वह देह के जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणों से सर्वथा रहित होने पर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ॥ ९ ॥ ईश्वर के द्वारा नियन्त्रित माया के गुणों ने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीर का निर्माण किया है। जीव को शरीर और शरीर को जीव समझ लेने के कारण ही स्थूलशरीर के जन्म-मरण और सूक्ष्मशरीर के आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है। जीव को जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है ॥ १० ॥ प्यारे उद्धव ! इस जन्म-मृत्युरूप संसार का कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूप को, आत्मा को जान ने की इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत से अतीत, द्वैत की गन्ध से रहित एवं अपने-आप में ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदि में जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है, उसे क्रमश: मिटा देना चाहिये ॥ ११ ॥ (यज्ञ में जब अरणिमन्थन करके अग्रि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊ पर दो लकडिय़ाँ रहती हैं और बीच में मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्रि की उत्पत्ति के लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊ पर की अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इन से जो ज्ञानाग्रि प्रज्वलित होती है, वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञ में बुद्धिमान शिष्य सद्गुरु के द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणों से बनी हुई विषयों की माया को भस्म कर देता है। तत्पश्चात वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिन से कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सब के भस्म हो जाने पर जब आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्रि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूप में शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहने पर आग बुझ जाती है [1] ॥ १२-१३ ॥
प्यारे उद्धव ! यदि तुम कदाचित् कर्मों के कर्ता और सुख-दुखों के भोक्ता जीवों को अनेक तथा जगत, काल, वेद और आत्माओं को नित्य मानते हो; साथ ही समस्त पदार्थों की स्थिति प्रवाह से नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घट-पट आदि बाह्य आकृतियों के भेद से उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मत के मान ने से बड़ा अनर्थ हो जायगा। (क्योंकि इस प्रकार जगत के कर्ता आत्मा की नित्य सत्ता और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवों के सम्बन्ध से होनेवाली जीवों की जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होने के कारण दूर न हो सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और काल की नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कर्मों का कर्ता तथा सुख-दु:ख का भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दु:ख का फल क्यों भोगना चाहेगा ? इस प्रकार सुख-भोग की समस्या सुलझ जाने पर भी दु:ख- भोग की समस्या तो उलझी ही रहेगी। अत: इस मत के अनुसार जीव को कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी । जब जीव स्वरूपत: परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों से ही वञ्चित रह जायगा ॥ १४—१७ ॥ (यदि यह कहा जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दु:ख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानों को भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ों का भी कभी दु:ख से पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्म से सुख पाने का घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है ॥ १८ ॥ यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि वे लोग सुख की प्राप्ति और दु:ख के नाश का ठीक-ठीक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपाय का पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊ पर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं ॥ १९ ॥ जब मृत्यु उनके सिर पर नाच रही है, तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला, जिस मनुष्य को फाँसी पर लटका ने के लिये वधस्थान पर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं ? कदापि नहीं। (अत: पूर्वोक्त मत माननेवालों की दृष्टि से न सुख ही सिद्ध होगा और न जीव का कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा) ॥ २० ॥
प्यारे उद्धव ! लौकिक सुख के समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालों से होड़ चलती है, अधिक सुख भोगनेवालों के प्रति असूया होती है—उनके गुणों में दोष निकाला जाता है और छोटों से घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होने के साथ ही वहाँ के सुख भी क्षय के निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँ की कामना पूर्ण होने में भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदि की त्रुटियों के कारण बड़े-बड़े विघ्रों की सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि के कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते- होते विघ्रों के कारण नहीं मिल पाता ॥ २१ ॥ यदि यज्ञ-यागादि धर्म बिना किसी विघ्र के पूरा हो जाय, तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्ति का प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ २२ ॥ यज्ञ करनेवाला पुरुष यज्ञों के द्वारा देवताओं की आराधना करके स्वर्ग में जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मों के द्वारा उपाॢजत दिव्य भोगों को देवताओं के समान भोगता है ॥ २३ ॥ उसे उसके पुण्यों के अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उसपर सवार होकर सुर- सुन्दरियों के साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणों का गान करते हैं और उसके रूप- लावण्य को देखकर दूसरों का मन लुभा जाता है ॥ २४ ॥ उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओं को गुञ्जारित करती हैं। वह अप्सराओं के साथ नन्दनवन आदि देवताओं की विहार-स्थलियों में क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँ से ढकेल दिया जाऊँगा ॥ २५ ॥ जब तक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तब तक वह स्वर्ग में चैन की वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहने पर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि काल की चाल ही ऐसी है ॥ २६ ॥
यदि कोई मनुष्य दुष्टों की संगति में पडक़र अधर्मपरायण हो जाय, अपनी इन्द्रियों के वश में होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दा ने में कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाय अथवा प्राणियों को सता ने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओं की बलि देकर भूत और प्रेतों की उपासना में लग जाय, तब तो वह पशुओं से भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरक में जाता है। उसे अन्त में घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञान में ही भटकना पड़ता है ॥ २७-२८ ॥ जित ने भी सकाम और बहिर्मुख करनेवाले कर्म हैं, उनका फल दु:ख ही है। जो जीव शरीर में अहंता-ममता करके उन्हीं में लग जाता है, उसे बार-बार जन्म-पर-जन्म और मत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है ? ॥ २९ ॥ सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझ से भयभीत रहते हैं। औरों की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझ से भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी काल से सीमित—केवल दो पराद्र्ध है ॥ ३० ॥ सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण इन्द्रियों को उनके कर्मों में प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियों को अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मों का फल सुख-दु:ख भोग ने लगता है ॥ ३१ ॥ जब तक गुणों की विषमता है अर्थात् शरीरादि में मैं और मेरेपन का अभिमान है; तभी तक आत्मा के एकत्व की अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जब तक आत्मा की अनेकता है, तब तक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसी के अधीन रहना ही पड़ेगा ॥ ३२ ॥ जब तक परतन्त्रता है, तब तक ईश्वर से भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपन के भाव से ग्रस्त रहकर आत्मा की अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करनेवाले कर्मों का ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोह की प्राप्ति होती है ॥ ३३ ॥ प्यारे उद्धव ! जब माया के गुणों में क्षोभ होता है, तब मुझ आत्मा को ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामों से निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ) ॥ ३४ ॥
उद्धवजी ने पूछा—भगवन् ! यह जीव देह आदि रूप गुणों में ही रह रहा है। फिर देह से होनेवाले कर्मों या सुख-दु:ख आदि रूप फलों में क्यों नहीं बँधता है ? अथवा यह आत्मा गुणों से निॢलप्त है, देह आदि के सम्पर्क से सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धन की प्राप्ति कैसे होती है ? ॥ ३५ ॥ बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणों से पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है ? और मल-त्याग आदि कैसे करता है ? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? ॥ ३६ ॥ अच्युत ! प्रश्र का मर्म जाननेवालों में आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्र का उत्तर दीजिये—एक ही आत्मा अनादि गुणों के संसर्ग से नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असङ्ग होने के कारण नित्यमुक्त भी। इस बात को लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ॥ ३७ ॥
॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥
श्रीभगवानुवाच
बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः ।
गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम् ॥ १॥
शोकमोहौ सुखं दुःखं देहापत्तिश्च मायया ।
स्वप्नो यथात्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तु वास्तवी ॥ २॥
विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम् ।
मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ॥ ३॥
एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते ।
बन्धोऽस्याविद्ययानादिर्विद्यया च तथेतरः ॥ ४॥
अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते ।
विरुद्धधर्मिणोस्तात स्थितयोरेकधर्मिणि ॥ ५॥
सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ
यदृच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे ।
एकस्तयोः खादति पिप्पलान्नमन्यो
निरन्नोऽपि बलेन भूयान् ॥ ६॥
आत्मानमन्यं च स वेद
विद्वानपिप्पलादो न तु पिप्पलादः ।
योऽविद्यया युक् स तु नित्यबद्धो
विद्यामयो यः स तु नित्यमुक्तः ॥ ७॥
देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान् स्वप्नाद्यथोत्थितः ।
अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग्यथा ॥ ८॥
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च ।
गृह्यमाणेष्वहं कुर्यान्न विद्वान् यस्त्वविक्रियः ॥ ९॥
दैवाधीने शरीरेऽस्मिन् गुणभाव्येन कर्मणा ।
वर्तमानोऽबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते ॥ १०॥
एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने ।
दर्शनस्पर्शनघ्राणभोजनश्रवणादिषु ॥ ११॥
न तथा बध्यते विद्वान् तत्र तत्रादयन् गुणान् ।
प्रकृतिस्थोऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः ॥ १२॥
वैशारद्येक्षयासङ्गशितया छिन्नसंशयः ।
प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते ॥ १३॥
यस्य स्युर्वीतसङ्कल्पाः प्राणेन्द्रियमनोधियाम् ।
वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थोऽपि हि तद्गुणैः ॥ १४॥
यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर्येन किञ्चिद्यदृच्छया ।
अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुधः ॥ १५॥
न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्वसाधु वा ।
वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ्मुनिः ॥ १६॥
न कुर्यान्न वदेत्किञ्चिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा ।
आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः ॥ १७॥
शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि ।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः ॥ १८॥
गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यां
देहं पराधीनमसत्प्रजां च ।
वित्तं त्वतीर्थीकृतमङ्ग वाचं
हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी ॥ १९॥
यस्यां न मे पावनमङ्ग कर्म
स्थित्युद्भवप्राणनिरोधमस्य ।
लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्वन्ध्यां
गिरं तां बिभृयान्न धीरः ॥ २०॥
एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि ।
उपारमेत विरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे ॥ २१॥
यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम् ।
मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर ॥ २२॥
श्रद्धालुर्मे कथाः शृण्वन् सुभद्रा लोकपावनीः ।
गायन्ननुस्मरन् कर्म जन्म चाभिनयन् मुहुः ॥ २३॥
मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन् मदपाश्रयः ।
लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने ॥ २४॥
सत्सङ्गलब्धया भक्त्या मयि मां य उपासिता ।
स वै मे दर्शितं सद्भिरञ्जसा विन्दते पदम् ॥ २५॥
उद्धव उवाच
साधुस्तवोत्तमश्लोक मतः कीदृग्विधः प्रभो ।
भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीदृशी सद्भिरादृता ॥ २६॥
एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो ।
प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम् ॥ २७॥
त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुषः प्रकृतेः परः ।
अवतीर्णोऽसि भगवन् स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः ॥ २८॥
श्रीभगवानुवाच
कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः ॥ २९॥
कामैरहतधीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिञ्चनः ।
अनीहो मितभुक्शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥ ३०॥
अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाञ्जितषड्गुणः ।
अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः ॥ ३१॥
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान् ।
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत स सत्तमः ॥ ३२॥
ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वै मां यावान् यश्चास्मि यादृशः ।
भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मताः ॥ ३३॥
मल्लिङ्गमद्भक्तजनदर्शनस्पर्शनार्चनम् ।
परिचर्या स्तुतिः प्रह्वगुणकर्मानुकीर्तनम् ॥ ३४॥
मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव ।
सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम् ॥ ३५॥
मज्जन्मकर्मकथनं मम पर्वानुमोदनम् ।
गीतताण्डववादित्रगोष्ठीभिर्मद्गृहोत्सवः ॥ ३६॥
यात्रा बलिविधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु ।
वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीयव्रतधारणम् ॥ ३७॥
ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वतः संहत्य चोद्यमः ।
उद्यानोपवनाक्रीडपुरमन्दिरकर्मणि ॥ ३८॥
सम्मार्जनोपलेपाभ्यां सेकमण्डलवर्तनैः ।
गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद्यदमायया ॥ ३९॥
अमानित्वमदम्भित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम् ।
अपि दीपावलोकं मे नोपयुञ्ज्यान्निवेदितम् ॥ ४०॥
यद्यदिष्टतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मनः ।
तत्तन्निवेदयेन्मह्यं तदानन्त्याय कल्पते ॥ ४१॥
सूर्योऽग्निर्ब्राह्मणो गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम् ।
भूरात्मा सर्वभूतानि भद्रपूजापदानि मे ॥ ४२॥
सूर्ये तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम् ।
आतिथ्येन तु विप्राग्र्ये गोष्वङ्ग यवसादिना ॥ ४३॥
वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया ।
वायौ मुख्यधिया तोये द्रव्यैस्तोयपुरस्कृतैः ॥ ४४॥
स्थण्डिले मन्त्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि ।
क्षेत्रज्ञं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ॥ ४५॥
धिष्ण्येष्वेष्विति मद्रूपं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः ।
युक्तं चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्नर्चेत्समाहितः ॥ ४६॥
इष्टापूर्तेन मामेवं यो यजेत समाहितः ।
लभते मयि सद्भक्तिं मत्स्मृतिः साधुसेवया ॥ ४७॥
प्रायेण भक्तियोगेन सत्सङ्गेन विनोद्धव ।
नोपायो विद्यते सध्र्यङ् प्रायणं हि सतामहम् ॥ ४८॥
अथैतत्परमं गुह्यं शृण्वतो यदुनन्दन ।
सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत्सखा ॥ ४९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥
एकादश स्कन्द-ग्यारहवाँ अध्याय 49
बद्ध, मुक्त और भक्तजनों के लक्षण
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्यारे उद्धव ! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकार की व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहनेवाले सत्त्वादि गुणों की उपाधि से ही होता है। वस्तुत:—तत्त्वदृष्टि से नहीं। सभी गुण मायामूलक हैं—इन्द्रजाल हैं—जादू के खेल के समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है ॥ १ ॥ जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है—उसमें बिना हुए ही भासता है—मिथ्या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख-दु:ख, शरीर की उत्पत्ति और मृत्यु—यह सब संसार का बखेड़ा माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होने पर भी वास्तविक नहीं है ॥ २ ॥ उद्धव ! शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव करानेवाली आत्मविद्या और बन्धन का अनुभव करानेवाली अविद्या—ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी माया से ही इन की रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है ॥ ३ ॥ भाई ! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान हो, विचार करो—जीव तो एक ही है। वह व्यवहार के लिये ही मेरे अंश के रूप में कल्पित हुआ है, वस्तुत: मेरा स्वरूप ही है। आत्मज्ञान से सम्पन्न होने पर उसे मुक्त कहते हैं और आत्मा का ज्ञान न होने से बद्ध। और यह अज्ञान अनादि होने से बन्धन भी अनादि कहलाता है ॥ ४ ॥ इस प्रकार मुझ एक ही धर्मी में रहने पर भी जो शोक और आनन्दरूप विरुद्ध धर्मवाले जान पड़ते हैं, उन बद्ध और मुक्त जीव का भेद मैं बतलाता हूँ ॥ ५ ॥ (वह भेद दो प्रकार का है—एक तो नित्यमुक्त ईश्वर से जीव का भेद, और दूसरा मुक्त-बद्ध जीव का भेद। पहला सुनो)—जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्त के भेद से भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही शरीर में नियन्ता और नियन्त्रित के रूप से स्थित हैं। ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदय का घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होने के कारण समान हैं और कभी न बिछुडऩे के कारण सखा हैं। इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीररूप वृक्ष के फल सुख-दु:ख आदि भोगता है, परन्तु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दु:ख आदि से असङ्ग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभोक्ता होने पर भी ईश्वर की यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द और सामथ्र्य आदि में भोक्ता जीव से बढक़र है ॥ ६ ॥ साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक रूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को ! इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्यबद्ध है और ईश्वर विद्या स्वरूप होने के कारण नित्यमुक्त है ॥ ७ ॥ प्यारे उद्धव ! ज्ञानसम्पन्न पुरुष भी मुक्त ही है; जैसे स्वप्न टूट जाने पर जगा हुआ पुरुष स्वप्न के स्मर्यमाण शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूलशरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता, परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तव में शरीर से कोई सम्बन्ध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में ही स्थित रहता है, जैसे स्वप्न देखनेवाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वाप्निक शरीर में बँध जाता है ॥ ८ ॥ व्यवहारादि में इन्द्रियाँ शब्द-स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करती हैं; क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुण को ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिये जिस ने अपने निर्विकार आत्म स्वरूप को समझ लिया है, वह उन विषयों के ग्रहण-त्याग में किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता ॥ ९ ॥ यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जित ने भी कर्म होते हैं, सब गुणों की प्रेरणा से ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपने को उन ग्रहण-त्याग आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है ॥ १० ॥
प्यारे उद्धव ! पूर्वोक्त पद्धति से विचार करके विवे की पुरुष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने-बैठने, घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खा ने और सुनने आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता, बल्कि गुणों को ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं—ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष कर्मवासना और फलों से नहीं बँधते। वे प्रकृति में रहकर भी वैसे ही असङ्ग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदि से आकाश, जल की आद्र्रता आदि से सूर्य और गन्ध आदि से वायु। उनकी विमल बुद्धि की तलवार असङ्ग-भावना की सान से और भी तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे संशय-सन्देहों को काट-कूटकर फेंक देते हैं। जैसे कोई स्वप्न से जाग उठा हो, उसी प्रकार वे इस भेदबुद्धि के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं ॥ ११—१३ ॥ जिनके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएँ बिना सङ्कल्प के होती हैं, वे देहमें स्थित रहकर भी उसके गुणों से मुक्त हैं ॥ १४ ॥ उन तत्त्वज्ञ मुक्त पुरुषों के शरीर को चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोग से पूजा करने लगे—वे न तो किसी के सता ने से दुखी होते हैं और न पूजा करने से सुखी ॥ १५ ॥ जो समदर्शी महात्मा गुण और दोष की भेददृष्टि से ऊ पर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करनेवाले की स्तुति करते हैं और न बुरे काम करनेवाले की निन्दा; न वे किसी की अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसीको झिडक़ते ही हैं ॥ १६ ॥ जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं। वे व्यवहार में अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्द में ही मग्र रहते हैं और जड के समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं ॥ १७ ॥
प्यारे उद्धव ! जो पुरुष वेदों का तो पारगामी विद्वान् हो, परन्तु परब्रह्म के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं है वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध की गाय का पालनेवाला ॥ १८ ॥ दूध न देनेवाली गाय, व्यभिचारिणी स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्र के प्राप्त होने पर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणों से रहित वाणी व्यर्थ है। इन वस्तुओं की रखवाली करनेवाला दु:ख- पर-दु:ख ही भोगता रहता है ॥ १९ ॥ इसलिये उद्धव ! जिस वाणी में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक-पावन लीला का वर्णन न हो और लीलावतारों में भी मेरे लोकप्रिय राम-कृष्णादि अवतारों का जिसमें यशोगान न हो, वह वाणी वन्ध्या है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि ऐसी वाणी का उच्चारण एवं श्रवण न करे ॥ २० ॥
प्रिय उद्धव ! जैसा कि ऊ पर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचार के द्वारा आत्मा में जो अनेकता का भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मा में अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसार के व्यवहारों से उपराम हो जाय ॥ २१ ॥ यदि तुम अपना मन परब्रह्म में स्थिर न कर स को, तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो ॥ २२ ॥ मेरी कथाएँ समस्त लोकों को पवित्र करनेवाली एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं। श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओं का गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिये ॥ २३ ॥ मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थ का सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव ! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ २४ ॥ भक्ति की प्राप्ति सत्सङ्ग से होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपद को—वास्तविक स्वरूप को सहजही में प्राप्त हो जाता है ॥ २५ ॥
उद्धवजी ने पूछा—भगवन् ! बड़े-बड़े संत आपकी कीर्ति का गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचार से संत पुरुष का क्या लक्षण है ? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये, जिसका संतलोग आदर करते हैं ? ॥ २६ ॥ भगवन् ! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक और चराचर जगत के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और भक्त का रहस्य बतलाइये ॥ २७ ॥ भगवन् ! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृति से परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाश स्वरूप ब्रह्म हैं। आप से भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीला के लिये स्वेच्छा से ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है। इसलिये वास्तव में आप ही भक्ति और भक्त का रहस्य बतला सकते हैं ॥ २८ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपा की मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणी से वैरभाव नहीं रखता और घोर-से-घोर दु:ख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवन का सार है सत्य, और उसके मन में किसी प्रकार की पापवासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सब का भला करनेवाला होता है ॥ २९ ॥ उसकी बुद्धि कामनाओं से कलुषित नहीं होती। वह संयमी, मधुरस्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रह से सर्वथा दूर रहता है। किसी भी वस्तु के लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्मतत्त्व के चिन्तन में सदा संलग्र रहता है ॥ ३० ॥ वह प्रमादरहित, गम्भीरस्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु—ये छहों उसके वश में रहते हैं। वह स्वयं तो कभी किसी से किसी प्रकार का सम्मान नहीं चाहता, परन्तु दूसरों का सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्ध की बातें दूसरों को समझा ने में बड़ा निपुण होता है और सभी के साथ मित्रता का व्यवहार करता है। उसके हृदय में करुणा भरी होती है। मेरे तत्त्व का उसे यथार्थ ज्ञान होता है ॥ ३१ ॥ प्रिय उद्धव ! मैंने वेदों और शास्त्रों के रूप में मनुष्यों के धर्म का उपदेश किया है, उनके पालन से अन्त:करणशुद्धि आदि गुण और उल्लङ्घन से नरकादि दु:ख प्राप्त होते हैं; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदि में विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजन में लगा रहता है, वह परम संत है ॥ ३२ ॥ मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ—इन बातों को जाने, चाहे न जाने; किन्तु जो अनन्यभाव से मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचार से मेरे परम भक्त हैं ॥ ३३ ॥
प्यारे उद्धव ! मेरी मूर्ति और मेरे भक्तजनों का दर्शन, स्पर्श, पूजा, सेवा-शुश्रूषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मों का कीर्तन करे ॥ ३४ ॥ उद्धव ! मेरी कथा सुनने में श्रद्धा रखे और निरन्तर मेरा ध्यान करता रहे। जो कुछ मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभाव से मुझे आत्मनिवेदन करे ॥ ३५ ॥ मेरे दिव्य जन्म और कर्मों की चर्चा करे। जन्माष्टमी, रामनवमी आदि पर्वों पर आनन्द मनावे और संगीत, नृत्य, बाजे और समाजों द्वारा मेरे मन्दिरों में उत्सव करे- करावे ॥ ३६ ॥ वार्षिक त्यौहारों के दिन मेरे स्थानों की यात्रा करे, जुलूस निकाले तथा विविध उपहारों से मेरी पूजा करे। वैदिक अथवा तान्ङ्क्षत्रक पद्धति से दीक्षा ग्रहण करे। मेरे व्रतों का पालन करे ॥ ३७ ॥ मन्दिरों में मेरी मूर्तियों की स्थापना में श्रद्धा रखे। यदि यह काम अकेला न कर सके, तो औरों के साथ मिलकर उद्योग करे। मेरे लिये पुष्पवाटिका, बगीचे, क्रीड़ा के स्थान, नगर और मन्दिर बनवावे ॥ ३८ ॥ सेवक की भाँति श्रद्धाभक्ति के साथ निष्कपट भाव से मेरे मन्दिरों की सेवा- शुश्रूषा करे—झाड़े-बुहारे, लीपे-पोते, छिडक़ाव करे और तरह-तरह के चौक पूरे ॥ ३९ ॥ अभिमान न करे, दम्भ न करे। साथ ही अपने शुभ कर्मों का ढिंढोरा भी न पीटे। प्रिय उद्धव ! मेरे चढ़ावेकी, अपने काम में लगा ने की बात तो दूर रही, मुझे समर्पित दीपक के प्रकाश से भी अपना काम न ले। किसी दूसरे देवता की चढ़ायी हुई वस्तु मुझे न चढ़ावे ॥ ४० ॥ संसार में जो वस्तु अपने को सब से प्रिय, सब से अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे। ऐसा करने से वह वस्तु अनन्त फल देनेवाली हो जाती है ॥ ४१ ॥
भद्र ! सूर्य, अग्रि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी—ये सब मेरी पूजा के स्थान हैं ॥ ४२ ॥ प्यारे उद्धव ! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों- द्वारा सूर्य में मेरी पूजा करनी चाहिये। हवन के द्वारा अग्रि में, आतिथ्य द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मण में और हरी-हरी घास आदि के द्वारा गौ में मेरी पूजा करे ॥ ४३ ॥ भाई-बन्धु के समान सत्कार के द्वारा वैष्णव में, निरन्तर ध्यान में लगे रहने से हृदयाकाश में, मुख्य प्राण समझ ने से वायु में और जल-पुष्प आदि सामग्रियों द्वारा जल में मेरी आराधना की जाती है ॥ ४४ ॥ गुप्त मन्त्रों द्वारा न्यास करके मिट्टी की वेदी में, उपयुक्त भोगों द्वारा आत्मा में और समदृष्टि द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभी में क्षेत्रज्ञ आत्मा के रूप से स्थित हूँ ॥ ४५ ॥ इन सभी स्थानों में शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओंवाले शान्तमूर्ति श्रीभगवान विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रता के साथ मेरी पूजा करनी चाहिये ॥ ४६ ॥ इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्त से यज्ञ-यागादि इष्ट और कुआँ-बावली बनवाना आदि पूत्र्तकर्मों के द्वारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है तथा संत-पुरुषों की सेवा करने से मेरे स्वरूप का ज्ञान भी हो जाता है ॥ ४७ ॥ प्यारे उद्धव ! मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्सङ्ग और भक्तियोग—इन दो साधनों का एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये। प्राय: इन दोनों के अतिरिक्त संसारसागर से पार होने का और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संतपुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ ॥ ४८ ॥ प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय परम रहस्य की बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद् और प्रेमी सखा हो; साथ ही सुनने के भी इच्छुक हो ॥ ४९ ॥
[1] यहाँ तक यह बात स्पष्ट हो गयी कि स्वयंप्रकाश ज्ञान स्वरूप नित्य एक ही आत्मा है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि धर्म देह के कारण हैं। आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ है, सब अनित्य और मायामय है; इसलिये आत्मज्ञान होते ही समस्त विपत्तियों से मुक्ति मिल जाती है।
॥ द्वादशोऽध्यायः - १२ ॥
श्रीभगवानुवाच
न रोधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म एव च ।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ॥ १॥
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः ।
यथावरुन्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम् ॥ २॥
सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः ।
गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः ॥ ३॥
विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः ।
रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन् युगेऽनघ ॥ ४॥
बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्रकायाधवादयः ।
वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्चाथ विभीषणः ॥ ५॥
सुग्रीवो हनुमान् ऋक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः ।
व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथापरे ॥ ६॥
ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः ।
अव्रतातप्ततपसः सत्सङ्गान्मामुपागताः ॥ ७॥
केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः ।
येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा ॥ ८॥
यं न योगेन साङ्ख्येन दानव्रततपोऽध्वरैः ।
व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासैः प्राप्नुयाद्यत्नवानपि ॥ ९॥
रामेण सार्धं मथुरां प्रणीते
श्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ताः ।
विगाढभावेन न मे वियोग-
तीव्राधयोऽन्यं ददृशुः सुखाय ॥ १०॥
तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता
मयैव वृन्दावनगोचरेण ।
क्षणार्धवत्ताः पुनरङ्ग तासां
हीना मया कल्पसमा बभूवुः ॥ ११॥
ता नाविदन् मय्यनुषङ्गबद्धधियः
स्वमात्मानमदस्तथेदम् ।
यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये
नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे ॥ १२॥
मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोऽबलाः ।
ब्रह्म मां परमं प्रापुः सङ्गाच्छतसहस्रशः ॥ १३॥
तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम् ।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥ १४॥
मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम् ।
याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः ॥ १५॥
उद्धव उवाच
संशयः शृण्वतो वाचं तव योगेश्वरेश्वर ।
न निवर्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मनः ॥ १६॥
श्रीभगवानुवाच
स एष जीवो विवरप्रसूतिः
प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः ।
मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूपं
मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः ॥ १७॥
यथानलः खेऽनिलबन्धुरूष्मा
बलेन दारुण्यधिमथ्यमानः ।
अणुः प्रजातो हविषा समिध्यते
तथैव मे व्यक्तिरियं हि वाणी ॥ १८॥
एवं गदिः कर्मगतिर्विसर्गो
घ्राणो रसो दृक्स्पर्शः श्रुतिश्च ।
सङ्कल्पविज्ञानमथाभिमानः
सूत्रं रजःसत्त्वतमोविकारः ॥ १९॥
अयं हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनिरव्यक्त
एको वयसा स आद्यः ।
विश्लिष्टशक्तिर्बहुधेव भाति
बीजानि योनिं प्रतिपद्य यद्वत् ॥ २०॥
यस्मिन्निदं प्रोतमशेषमोतं
पटो यथा तन्तुवितानसंस्थः ।
य एष संसारतरुः पुराणः
कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते ॥ २१॥
द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनालः
पञ्चस्कन्धः पञ्चरसप्रसूतिः ।
दशैकशाखो द्विसुपर्णनीडस्त्रिवल्कलो
द्विफलोऽर्कं प्रविष्टः ॥ २२॥
अदन्ति चैकं फलमस्य गृध्रा
ग्रामेचरा एकमरण्यवासाः ।
हंसा य एकं बहुरूपमिज्यैर्मायामयं
वेद स वेद वेदम् ॥ २३॥
एवं गुरूपासनयैकभक्त्या
विद्याकुठारेण शितेन धीरः
विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्तः
सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम् ॥ २४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
एकादश स्कन्द-बारहवाँ अध्याय 24
सत्सङ्ग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! जगत में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्सङ्ग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्सङ्ग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूत्र्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता।
कहाँ तक कहूँ—व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्सङ्ग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं ॥ १-२ ॥ निष्पाप उद्धवजी ! यह एक युग की नहीं, सभी युगों की एक-सी बात है। सत्सङ्ग के द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरों को मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्यों में वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृति के बहुत- से जीवों ने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज की गोपियाँ, यज्ञपत्नियाँ और दूसरे लोग भी सत्सङ्ग के प्रभाव से ही मुझे प्राप्त कर सके हैं ॥ ३—६ ॥ उन लोगों ने न तो वेदों का स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषों की उपासना की थी। इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी। बस, केवल सत्सङ्ग के प्रभाव से ही वे मुझे प्राप्त हो गये ॥ ७ ॥ गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रज के हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग—ये तो साधन-साध्य के सम्बन्ध में सर्वथा ही मूढ़बुद्धि थे। इत ने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्हों ने केवल प्रेमपूर्ण भाव के द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये ॥ ८ ॥ उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्सङ्ग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ ॥ ९ ॥ उद्धव ! जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजी के साथ मुझे व्रज से मथुरा ले आये, उस समय गोपियों का हृदय गाढ़ प्रेम के कारण मेरे अनुराग के रंग में रँगा हुआ था। मेरे वियोग की तीव्र व्याधि से वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी ॥ १० ॥ तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ। जब मैं वृन्दावन में था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ—वे रास की रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षण के समान बिता दी थीं; परन्तु प्यारे उद्धव ! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्प के समान हो गयीं ॥ ११ ॥ जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधि में स्थित होकर तथा गङ्गा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेम के द्वारा मुझ में इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले पति-पुत्रादि की भी सुध-बुध नहीं रह गयी थी ॥ १२ ॥ उद्धव ! उन गोपियों में बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूप को नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभाव से मुझ से मिल ने की आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओं ने केवल सङ्ग के प्रभाव से ही मुझ परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया ॥ १३ ॥ इसलिये उद्धव ! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुननेयोग्य तथा सुने हुए विषय का भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियों के आत्म स्वरूप मुझ एक की ही शरण सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरण में आ जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ॥ १४-१५ ॥
उद्धवजी ने कहा—सनकादि योगेश्वरों के भी परमेश्वर प्रभो ! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मन का सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्म का पालन करना चाहिये या सब कुछ छोडक़र आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधा में लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भली-भाँति समझाइये ॥ १६ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! जिस परमात्मा का परोक्षरूप से वर्णन किया जाता है, वे साक्षात अपरोक्ष—प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओं को सत्ता-स्फूर्ति—जीवन-दान करनेवाले हैं, वे ही पहले अनाहत नाद स्वरूप परा वाणी नामक प्राण के साथ मूलाधारचक्र में प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरकचक्र (नाभिस्थान) में आकर पश्यन्ती वाणी का मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणी के रूप में व्यक्त होते हैं। फिर क्रमश: मुख में आकर ह्रस्व-दीर्घादि मात्रा, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल—वैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेते हैं ॥ १७ ॥ अग्रि आकाश में ऊष्मा अथवा विद्युत् के रूप से अव्यक्तरूप में स्थित है। जब बलपूर्वक काष्ठमन्थन किया जाता है, तब वायु की सहायता से वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारी के रूप में प्रकट होती है और फिर आहुति देने पर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रह्म स्वरूप से क्रमश: परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्रकट होता हूँ ॥ १८ ॥ इसी प्रकार बोलना, हाथों से काम करना, पैरों से चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदा से मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मन से संकल्प- विकल्प करना, बुद्धि से समझना, अहङ्कार के द्वारा अभिमान करना, महत्तत्त्व के रूप में सब का ताना- बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सारे विकार कहाँ तक कहूँ—समस्त कर्ता, कारण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं ॥ १९ ॥ यह सब को जीवित करनेवाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड-कमल का कारण है। यह आदि-पुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगति से माया का आश्रय लेकर शक्ति-विभाजन के द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है ॥ २० ॥ जैसे तागों के ताने-बा ने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मा में ही ओतप्रोत है। जैसे सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं है; किन्तु सूत वस्त्र के बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत के न रहने पर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत परमात्म स्वरूप ही है— परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाहरूप से नित्य है। इसका स्वरूप ही है—कर्म की परम्परा तथा इस वृक्ष के फल-फूल हैं—मोक्ष और भोग ॥ २१ ॥ इस संसारवृक्ष के दो बीज हैं—पाप और पुण्य। असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण त ने हैं। पाँच भूत इस की मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर—दो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्ष में वात, पित्त और कफरूप तीन तरह की छाल है। इसमें दो तरह के फल लगते हैं—सुख और दु:ख। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है (इस सूर्यमण्डल का भेदन कर जानेवाले मुक्त पुरुष फिर संसार-चक्र में नहीं पड़ते) ॥ २२ ॥ जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस आदि विषयों में फँ से हुए हैं, वे कामना से भरे हुए होने के कारण गीध के समान हैं। वे इस वृक्ष का दु:खरूप फल भोगते हैं, क्योंकि वे अनेक प्रकार के कर्मों के बन्धन में फँ से रहते हैं। जो अरण्यवासी परमहंस विषयों से विरक्त हैं, वे इस वृक्ष में राजहंसके समान हैं और वे इसका सुखरूप फल भोगते हैं। प्रिय उद्धव ! वास्तव में मैं एक ही हूँ। यह मेरा जो अनेकों प्रकार का रूप है, वह तो केवल मायामय है। जो इस बात को गुरुओं के द्वारा समझ लेता है, वही वास्तव में समस्त वेदों का रहस्य जानता है ॥ २३ ॥ अत: उद्धव ! तुम इस प्रकार गुरुदेव की उपासनारूप अनन्य भक्ति के द्वारा अपने ज्ञान की कुल्हाड़ी को तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानी से जीवभाव को काट डालो। फिर परमात्म स्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्रों को भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूप में ही स्थित हो रहो ॥ २४ ॥ [1]
[1] ईश्वर अपनी माया के द्वारा प्रपञ्चरूप से प्रतीत हो रहा है। इस प्रपञ्च के अध्यासके कारण ही जीवों को अनादि अविद्या से कर्तापन आदि की भ्रान्ति होती
॥ त्रयोऽध्यादशोयः - १३ ॥
श्रीभगवानुवाच
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मनः ।
सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥ १॥
सत्त्वाद्धर्मो भवेद्वृद्धात्पुंसो मद्भक्तिलक्षणः ।
सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते ॥ २॥
धर्मो रजस्तमो हन्यात्सत्त्ववृद्धिरनुत्तमः ।
आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते ॥ ३॥
आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च ।
ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः ॥ ४॥
तत्तत्सात्त्विकमेवैषां यद्यद्वृद्धाः प्रचक्षते ।
निन्दन्ति तामसं तत्तद्राजसं तदुपेक्षितम् ॥ ५॥
सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान् सत्त्वविवृद्धये ।
ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत्स्मृतिरपोहनम् ॥ ६॥
वेणुसङ्घर्षजो वह्निर्दग्ध्वा शाम्यति तद्वनम् ।
एवं गुणव्यत्ययजो देहः शाम्यति तत्क्रियः ॥ ७॥
उद्धव उवाच
विदन्ति मर्त्याः प्रायेण विषयान् पदमापदाम् ।
तथापि भुञ्जते कृष्ण तत्कथं श्वखराजवत् ॥ ८॥
श्रीभगवानुवाच
अहमित्यन्यथा बुद्धिः प्रमत्तस्य यथा हृदि ।
उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः ॥ ९॥
रजोयुक्तस्य मनसः सङ्कल्पः सविकल्पकः ।
ततः कामो गुणध्यानाद्दुःसहः स्याद्धि दुर्मतेः ॥ १०॥
करोति कामवशगः कर्माण्यविजितेन्द्रियः ।
दुःखोदर्काणि सम्पश्यन् रजोवेगविमोहितः ॥ ११॥
रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान् विक्षिप्तधीः पुनः ।
अतन्द्रितो मनो युञ्जन् दोषदृष्टिर्न सज्जते ॥ १२॥
अप्रमत्तोऽनुयुञ्जीत मनो मय्यर्पयञ्छनैः ।
अनिर्विण्णो यथा कालं जितश्वासो जितासनः ॥ १३॥
एतावान् योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः ।
सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धावेश्यते यथा ॥ १४॥
उद्धव उवाच
यदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव ।
योगमादिष्टवानेतद्रूपमिच्छामि वेदितुम् ॥ १५॥
श्रीभगवानुवाच
पुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसाः सनकादयः ।
पप्रच्छुः पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकान्तिकीं गतिम् ॥ १६॥
सनकादय ऊचुः
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रभो ।
कथमन्योन्यसन्त्यागो मुमुक्षोरतितितीर्षोः ॥ १७॥
श्रीभगवानुवाच
एवं पृष्टो महादेवः स्वयम्भूर्भूतभावनः ।
ध्यायमानः प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधीः ॥ १८॥
स मामचिन्तयद्देवः प्रश्नपारतितीर्षया ।
तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा ॥ १९॥ सगोनागोगो
दृष्ट्वा मां त उपव्रज्य कृत्वा पादाभिवन्दनम् ।
ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा पप्रच्छुः को भवानिति ॥ २०॥
इत्यहं मुनिभिः पृष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा ।
यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे ॥ २१॥
वस्तुनो यद्यनानात्वमात्मनः प्रश्न ईदृशः ।
कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रयः ॥ २२॥
पञ्चात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः ।
को भवानिति वः प्रश्नो वाचारम्भो ह्यनर्थकः ॥ २३॥
मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा ॥ २४॥
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः ।
जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मदात्मनः ॥ २५॥
गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया ।
गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्रूप उभयं त्यजेत् ॥ २६॥
जाग्रत्स्वप्नः सुषुप्तं च गुणतो बुद्धिवृत्तयः ।
तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन विनिश्चितः ॥ २७॥
यर्हि संसृतिबन्धोऽयमात्मनो गुणवृत्तिदः ।
मयि तुर्ये स्थितो जह्यात्त्यागस्तद्गुणचेतसाम् ॥ २८॥
अहङ्कारकृतं बन्धमात्मनोऽर्थविपर्ययम् ।
विद्वान् निर्विद्य संसारचिन्तां तुर्ये स्थितस्त्यजेत् ॥ २९॥
यावन्नानार्थधीः पुंसो न निवर्तेत युक्तिभिः ।
जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञः स्वप्ने जागरणं यथा ॥ ३०॥
असत्त्वादात्मनोऽन्येषां भावानां तत्कृता भिदा ।
गतयो हेतवश्चास्य मृषा स्वप्नदृशो यथा ॥ ३१॥
यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणोऽर्थान्
भुङ्क्ते समस्तकरणैर्हृदि तत्सदृक्षान् ।
स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एकः
स्मृत्यन्वयात्त्रिगुणवृत्तिदृगिन्द्रियेशः ॥ ३२॥
एवं विमृश्य गुणतो मनसस्त्र्यवस्था
मन्मायया मयि कृता इति निश्चितार्थाः ।
सञ्छिद्य हार्दमनुमानसदुक्तितीक्ष्ण-
ज्ञानासिना भजत माखिलसंशयाधिम् ॥ ३३॥
ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासं
दृष्टं विनष्टमतिलोलमलातचक्रम् ।
विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति माया
स्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्पः ॥ ३४॥
दृष्टिं ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्ततृष्ण-
स्तूष्णीं भवेन्निजसुखानुभवो निरीहः ।
सन्दृश्यते क्व च यदीदमवस्तुबुद्ध्या
त्यक्तं भ्रमाय न भवेत्स्मृतिरानिपातात् ॥ ३५॥
देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा
सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादपेतमुत दैववशादुपेतं
वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः ॥ ३६॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्
स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं स प्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः
स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३७॥
मयैतदुक्तं वो विप्रा गुह्यं यत्साङ्ख्ययोगयोः ।
जानीत माऽऽगतं यज्ञं युष्मद्धर्मविवक्षया ॥ ३८॥
अहं योगस्य साङ्ख्यस्य सत्यस्यर्तस्य तेजसः ।
परायणं द्विजश्रेष्ठाः श्रियःकीर्तेर्दमस्य च ॥ ३९॥
मां भजन्ति गुणाः सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम् ।
सुहृदं प्रियमात्मानं साम्यासङ्गादयोगुणाः ॥ ४०॥
इति मे छिन्नसन्देहा मुनयः सनकादयः ।
सभाजयित्वा परया भक्त्यागृणत संस्तवैः ॥ ४१॥
तैरहं पूजितः सम्यक् संस्तुतः परमर्षिभिः ।
प्रत्येयाय स्वकं धाम पश्यतः परमेष्ठिनः ॥ ४२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥
एकादश स्कन्द-तेरहवाँ अध्याय 42
हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश का वर्णन
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! सत्त्व, रज और तम—ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्मा के नहीं। सत्त्व के द्वारा रज और तम—इन दो गुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुण की शान्तवृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियों को भी शान्त कर देना चाहिये ॥ १ ॥ जब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, तभी जीव को मेरे भक्तिरूप स्वधर्म की प्राप्ति होती है। निरन्तर सात्त्विक वस्तुओं का सेवन करने से ही सत्त्वगुण की वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती है ॥ २ ॥ जिस धर्म के पालन से सत्त्वगुण की वृद्धि हो, वही सब से श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुण को नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्हींके कारण होनेवाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है ॥ ३ ॥ शास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र और संस्कार— ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुणकी, राजसिक हों तो रजोगुण की और तामसिक हों तो तमोगुण की वृद्धि करती हैं ॥ ४ ॥ इनमें से शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे सात्त्विक हैं, जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुएँ राजसिक हैं ॥ ५ ॥ जब तक अपने आत्मा का साक्षातकार तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणों की निवृत्ति न हो, तब तक मनुष्य को चाहिये कि सत्त्वगुण की वृद्धि के लिये सात्त्विक शास्त्र आदि का ही सेवन करें; क्योंकि उससे धर्म की वृद्धि होती है और धर्म की वृद्धि से अन्त:करण शुद्ध होकर आत्मतत्त्व का ज्ञान होता है ॥ ६ ॥ बाँसों की रगड़ से आग पैदा होती है और वह उनके सारे वन को जलाकर शान्त हो जाती है। वैसे ही यह शरीर गुणों के वैषम्य से उत्पन्न हुआ है। विचार द्वारा मन्थन करने पर इससे ज्ञानाग्रि प्रज्वलित होती है और वह समस्त शरीरों एवं गुणों को भस्म करके स्वयं भी शान्त हो जाती है ॥ ७ ॥
उद्धवजी ने पूछा—भगवन् ! प्राय: सभी मनुष्य इस बात को जानते हैं कि विषय विपत्तियों के घर हैं; फिर भी वे कुत्ते, गधे और बकरे के समान दु:ख सहन करके भी उन्हीं को ही भोगते रहते हैं। इसका क्या कारण है? ॥ ८ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूलकर हृदय से सूक्ष्म-स्थूलादि शरीरों में अहंबुद्धि कर बैठता है—जो कि सर्वथा भ्रम ही है—तब उसका सत्त्वप्रधान मन घोर रजोगुण की ओर झुक जाता है; उससे व्याप्त हो जाता है ॥ ९ ॥ बस, जहाँ मन में रजोगुण की प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प-विकल्पों का ताँता बँध जाता है। अब वह विषयों का चिन्तन करने लगता है और अपनी दुर्बुद्धि के कारण काम के फंदे में फँस जाता है, जिससे फिर छुटकारा होना बहुत ही कठिन है ॥ १० ॥ अब वह अज्ञानी कामवश अनेकों प्रकार के कर्म करने लगता है और इन्द्रियों के वश होकर, यह जानकर भी कि इन कर्मों का अन्तिम फल दु:ख ही है, उन्हीं को करता है, उस समय वह रजोगुण के तीव्र वेग से अत्यन्त मोहित रहता है ॥ ११ ॥ यद्यपि विवे की पुरुष का चित्त भी कभी-कभी रजोगुण और तमोगुण के वेग से विक्षिप्त होता है, तथापि उसकी विषयों में दोषदृष्टि बनी रहती है; इसलिये वह बड़ी सावधानी से अपने चित्त को एकाग्र करने की चेष्टा करता रहता है, जिससे उसकी विषयों में आसक्ति नहीं होती ॥ १२ ॥ साधक को चाहिये कि आसन और है। फिर ‘यह करो, यह मत करो’ इस प्रकार के विधि-निषेध का अधिकार होता है। तब ‘अन्त:करण की शुद्धि के लिये कर्म करो’—यह बात कही जाती है। जब अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब कर्मसम्बन्धी दुराग्रह मिटा ने के लिये यह बात कही जाती है कि भक्ति में विक्षेप डालनेवाले कर्मों के प्रति आदरभाव छोडक़र दृढ़ विश्वास से भजन करो। तत्त्वज्ञान हो जाने पर कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। यही इस प्रसङ्ग का अभिप्राय है। प्राणवायु पर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समय के अनुसार बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे मुझ में अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं, बल्कि और भी उत्साह से उसी में जुड़ जाय ॥ १३ ॥ प्रिय उद्धव ! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियों ने योग का यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मन को सब ओर से खींचकर विराट् आदि में नहीं, साक्षात मुझ में ही पूर्णरूप से लगा दें ॥ १४ ॥
उद्धवजी ने कहा—श्रीकृष्ण ! आपने जिस समय जिस रूपसे, सनकादि परमर्षियों को योग का आदेश दिया था, उस रूप को मैं जानना चाहता हूँ ॥ १५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! सनकादि परमर्षि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। उन्होंने एक बार अपने पिता से योग की सूक्ष्म अन्तिम सीमा के सम्बन्ध में इस प्रकार प्रश्र किया था ॥ १६ ॥
सनकादि परमर्षियों ने पूछा—पिताजी ! चित्त गुणों अर्थात् विषयों में घुसा ही रहता है और गुण भी चित्त की एक-एक वृत्ति में प्रविष्ट रहते ही हैं। अर्थात् चित्त और गुण आपस में मिले-जुले ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो पुरुष इस संसारसागर से पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनों को एक-दूसरे से अलग कैसे कर सकता है ? ॥ १७ ॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! यद्यपि ब्रह्माजी सब देवताओं के शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियों के जन्मदाता हैं। फिर भी सनकादि परमर्षियों के इस प्रकार पूछने पर ध्यान करके भी वे इस प्रश्र का मूलकारण न समझ सके; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्मप्रवण थी ॥ १८ ॥ उद्धव ! उस समय ब्रह्माजी ने इस प्रश्र का उत्तर दे ने के लिये भक्तिभाव से मेरा चिन्तन किया । तब मैं हंस का रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ ॥ १९ ॥ मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजी को आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणों की वन्दना करके मुझ से पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’ ॥ २० ॥ प्रिय उद्धव ! सनकादि परमार्थतत्त्व के जिज्ञासु थे; इसलिये उनके पूछने पर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझ से सुनो— ॥ २१ ॥ ‘ब्राह्मणो ! यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्व से सर्वथा रहित है, तब आत्मा के सम्बन्ध में आप लोगों का ऐसा प्रश्र कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? अथवा मैं यदि उत्तर दे ने के लिये बोलूँ भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदि का आश्रय लेकर उत्तर दूँ ? ॥ २२ ॥ देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पञ्चभूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थरूप से भी अभिन्न हैं। ऐसी स्थिति में ‘आप कौन हैं?’ आप लोगों का यह प्रश्र ही केवल वाणी का व्यवहार है। विचारपूर्वक नहीं है, अत: निरर्थक है ॥ २३ ॥ मनसे, वाणीसे, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझ से भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आप लोग तत्त्वविचार के द्वारा समझ लीजिये ॥ २४ ॥ पुत्रो ! यह चित्त चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीव के देह हैं—उपाधि हैं। अर्थात् आत्मा का चित्त और विषय के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ २५ ॥ इसलिये बार-बार विषयों का सेवन करते रहने से जो चित्त विषयों में आसक्त हो गया है और विषय भी चित्त में प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनों को अपने वास्तविक से अभिन्न मुझ परमात्मा का साक्षातकार करके त्याग देना चाहिये ॥ २६ ॥ जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ सत्त्वादि गुणों के अनुसार होती हैं और बुद्धि की वृत्तियाँ हैं, सच्चिदानन्द का स्वभाव नहीं। इन वृत्तियों का साक्षी होने के कारण जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूति से युक्त है ॥ २७ ॥ क्योंकि बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा होनेवाला यह बन्धन ही आत्मा में त्रिगुणमयी वृत्तियों का दान करता है। इसलिये तीनों अवस्थाओं से विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्त्व में स्थित होकर इस बुद्धि के बन्धन का परित्याग कर दे। तब विषय और चित्त दोनों का युगपत् त्याग हो जाता है ॥ २८ ॥ यह बन्धन अहङ्कार की ही रचना है और यही आत्मा के परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान और परमानन्द स्वरूप को छिपा देता है। इस बात को जानकर विरक्त हो जाय। और अपने तीन अवस्थाओं में अनुगत तुरीय स्वरूप में होकर संसार की चिन्ता को छोड़ दे ॥ २९ ॥ जब तक पुरुष की भिन्न-भिन्न पदार्थों में सत्यत्वबुद्धि, अहंबुद्धि और ममबुद्धि युक्तियों के द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तब तक वह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ-सा रहता है—जैसे स्वप्नावस्था में जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ ॥ ३० ॥ आत्मा से अन्य देह आदि प्रतीयमान नामरूपात्मक प्रपञ्च का कुछ भी अस्तित्व नहीं है। इसलिये उनके कारण होनेवाले वर्णाश्रमादिभेद, स्वर्गादि फल और उनके कारणभूत कर्म—ये सब-के-सब इस आत्मा के लिये वैसे ही मिथ्या हैं; जैसे स्वप्नदर्शी पुरुष के द्वारा देखे हुए सब-के-सब पदार्थ ॥ ३१ ॥
जो जाग्रत् अवस्था में समस्त इन्द्रियों के द्वारा बाहर दीखनेवाले सम्पूर्ण क्षणभङ्गुर पदार्थों को अनुभव करता है और स्वप्नावस्था में हृदय में ही जाग्र्त में देखे हुए पदार्थों के समान ही वासनामय विषयों का अनुभव करता है और सुषुप्ति-अवस्था में उन सब विषयों को समेटकर उनके लय को भी अनुभव करता है, वह एक ही है। जाग्रत् अवस्था के इन्द्रिय, स्वप्नावस्था के मन और सुषुप्ति की संस्कारवती बुद्धि का भी वही स्वामी है। क्योंकि वह त्रिगुणमयी तीनों अवस्थाओं का साक्षी है। ‘जिस मैंने स्वप्न देखा, जो मैं सोया, वही मैं जाग रहा हूँ’—इस स्मृति के बल पर एक ही आत्मा का समस्त अवस्थाओं में होना सिद्ध हो जाता है ॥ ३२ ॥ ऐसा विचारकर मन की ये तीनों अवस्थाएँ गुणों के द्वारा मेरी माया से मेरे अंश स्वरूप जीव में कल्पित की गयी हैं और आत्मा में ये नितान्त असत्य हैं, ऐसा निश्चय करके तुमलोग अनुमान, सत्पुरुषों द्वारा किये गये उपनिषदों के श्रवण और तीक्ष्ण ज्ञानखड्ग के द्वारा सकल संशयों के आधार अहंकार का छेदन करके हृदय में स्थित मुझ परमात्मा का भजन करो ॥ ३३ ॥
यह जगत मन का विलास है, दीखने पर भी नष्टप्राय है, अलातचक्र (लुकारियों की बनेठी) के समान अत्यन्त चञ्चल है और भ्रममात्र है—ऐसा समझे। ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित एक ज्ञान स्वरूप आत्मा ही अनेक-सा प्रतीत हो रहा है। यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्त:-करणरूप तीन प्रकार का विकल्प गुणों के परिणाम की रचना है और स्वप्न के समान माया का खेल है, अज्ञान से कल्पित है ॥ ३४ ॥ इसलिये उस देहादिरूप दृश्य से दृष्टि हटाकर तृष्णारहित इन्द्रियों के व्यापार से हीन और निरीह होकर आत्मानन्द के अनुभव में मग्र हो जाय। यद्यपि कभी-कभी आहार आदि के समय यह देहादिक प्रपञ्च देखने में आता है, तथापि यह पहले ही आत्मवस्तु से अतिरिक्त और मिथ्या समझकर छोड़ा जा चु का है। इसलिये वह पुन: भ्रान्तिमूलक मोह उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता । देहपातपर्यन्त केवल संस्कारमात्र उसकी प्रतीति होती है ॥ ३५ ॥ जैसे मदिरा पीकर उन्मत्त पुरुष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या गिर गया, वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीर से उसने अपने स्वरूप का साक्षातकार किया है, वह प्रारब्धवश खड़ा है, बैठा है या दैववश कहीं गया या आया है—नश्वर शरीरसम्बन्धी इन बातों पर दृष्टि नहीं डालता ॥ ३६ ॥ प्राण और इन्द्रियों के साथ यह शरीर भी प्रारब्ध के अधीन है। इसलिये अपने आरम्भक (बनानेवाले) कर्म जब तक हैं, तब तक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है। परन्तु आत्मवस्तु का साक्षातकार करनेवाला तथा समाधिपर्यन्त योग में आरूढ़ पुरुष, स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रपञ्च के सहित उस शरीर को फिर कभी स्वीकार नहीं करता, अपना नहीं मानता, जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्था के शरीर आदि को ॥ ३७ ॥ सनकादि ऋषियो ! मैंने तुम से जो कुछ कहा है, वह सांख्य और योग दोनों का गोपनीय रहस्य है। मैं स्वयं भगवान हूँ, तुमलोगों को तत्त्वज्ञान का उपदेश करने के लिये ही यहाँ आया हूँ, ऐसा समझो ॥ ३८ ॥ विप्रवरो ! मैं योग, सांख्य, सत्य, ऋत (मधुरभाषण), तेज, श्री, कीर्ति और दम (इन्द्रियनिग्रह)—इन सब की परम गति—परम अधिष्ठान हूँ ॥ ३९ ॥ मैं समस्त गुणों से रहित हूँ और किसी की अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी साम्य, असङ्गता आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझ में ही प्रतिष्ठित हैं; क्योंकि मैं सब का हितैषी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हूँ। सच पूछो तो उन्हें गुण कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सत्त्वादि गुणों के परिणाम नहीं हैं और नित्य हैं ॥ ४० ॥
प्रिय उद्धव ! इस प्रकार मैंने सनकादि मुनियों के संशय मिटा दिये। उन्होंने परम भक्ति से मेरी पूजा की और स्तुतियों द्वारा मेरी महिमा का गान किया ॥ ४१ ॥ जब उन परमर्षियों ने भली- भाँति मेरी पूजा और स्तुति कर ली, तब मैं ब्रह्माजी के सामने ही अदृश्य होकर अपने धाम में लौट आया ॥ ४२ ॥
॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥
उद्धव उवाच
वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः ।
तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता ॥ १॥
भवतोदाहृतः स्वामिन् भक्तियोगोऽनपेक्षितः ।
निरस्य सर्वतः सङ्गं येन त्वय्याविशेन्मनः ॥ २॥
श्रीभगवानुवाच
कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।
मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥ ३॥
तेन प्रोक्ता च पुत्राय मनवे पूर्वजाय सा ।
ततो भृग्वादयोऽगृह्णन् सप्त ब्रह्ममहर्षयः ॥ ४॥
तेभ्यः पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्यकाः ।
मनुष्याः सिद्धगन्धर्वाः सविद्याधरचारणाः ॥ ५॥
किन्देवाः किन्नरा नागा रक्षः किम्पुरुषादयः ।
बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रजःसत्त्वतमोभुवः ॥ ६॥
याभिर्भूतानि भिद्यन्ते भूतानां पतयस्तथा ।
यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवन्ति हि ॥ ७॥
एवं प्रकृतिवैचित्र्याद्भिद्यन्ते मतयो नृणाम् ।
पारम्पर्येण केषाञ्चित्पाखण्डमतयोऽपरे ॥ ८॥
मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ ।
श्रेयो वदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥ ९॥
धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमम् ।
अन्ये वदन्ति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्यागभोजनम् ।
केचिद्यज्ञतपो दानं व्रतानि नियमान् यमान् ॥ १०॥
आद्यन्तवन्त एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः ।
दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठाः क्षुद्रानन्दाः शुचार्पिताः ॥ ११॥
मय्यर्पितात्मनः सभ्य निरपेक्षस्य सर्वतः ।
मयात्मना सुखं यत्तत्कुतः स्याद्विषयात्मनाम् ॥ १२॥
अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः ।
मया सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १३॥
न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ॥ १४॥
न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्करः ।
न च सङ्कर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान् ॥ १५॥
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः ॥ १६॥
निष्किञ्चना मय्यनुरक्तचेतसः
शान्ता महान्तोऽखिलजीववत्सलाः ।
कामैरनालब्धधियो जुषन्ति
यत्तन्नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम ॥ १७॥
बाध्यमानोऽपि मद्भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः ।
प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते ॥ १८॥
यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात् ।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः ॥ १९॥
न साधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव ।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥ २०॥
भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम् ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥ २१॥
धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।
मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ॥ २२॥
कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना ।
विनानन्दाश्रुकलया शुध्येद्भक्त्या विनाऽऽशयः ॥ २३॥
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥ २४॥
यथाग्निना हेम मलं जहाति
ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम् ।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मद्भक्तियोगेन भजत्यथो माम् ॥ २५॥
यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानैः ।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं
चक्षुर्यथैवाञ्जनसम्प्रयुक्तम् ॥ २६॥
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते ॥ २७॥
तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथम् ।
हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भावभावितम् ॥ २८॥
स्त्रीणां स्त्रीसङ्गिनां सङ्गं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान् ।
क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्तयेन्मामतन्द्रितः ॥ २९॥
न तथास्य भवेत्क्लेशो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः ।
योषित्सङ्गाद्यथा पुंसो यथा तत्सङ्गिसङ्गतः ॥ ३०॥
उद्धव उवाच
यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम् ।
ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमर्हसि ॥ ३१॥
श्रीभगवानुवाच
सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम् ।
हस्तावुत्सङ्ग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः ॥ ३२॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः ।
विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेन्द्रियः ॥ ३३॥
हृद्यविच्छिनमोंकारं घण्टानादं बिसोर्णवत् ।
प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत्स्वरम् ॥ ३४॥
एवं प्रणवसंयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत् ।
दशकृत्वस्त्रिषवणं मासादर्वाग्जितानिलः ॥ ३५॥
हृत्पुण्डरीकमन्तःस्थमूर्ध्वनालमधोमुखम् ।
ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्निद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम् ॥ ३६॥
कर्णिकायां न्यसेत्सूर्यसोमाग्नीनुत्तरोत्तरम् ।
वह्निमध्ये स्मरेद्रूपं ममैतद्ध्यानमङ्गलम् ॥ ३७॥
समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम् ।
सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम् ॥ ३८॥
समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम् ।
हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्सश्रीनिकेतनम् ॥ ३९॥
शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम् ।
नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम् ॥ ४०॥
द्युमत्किरीटकटककटिसूत्राङ्गदायुतम् ।
सर्वाङ्गसुन्दरं हृद्यं प्रसादसुमुखेक्षणम् ॥ ४१॥
सुकुमारमभिध्यायेत्सर्वाङ्गेषु मनो दधत् ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाकृष्य तन्मनः ।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ॥ ४२॥
तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
नान्यानि चिन्तयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ॥ ४३॥
तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ ४४॥
एवं समाहितमतिर्मामेवात्मानमात्मनि ।
विचष्टे मयि सर्वात्मन् ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम् ॥ ४५॥
ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः ।
संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः ॥ ४६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥
एकादश स्कन्द-चौदहवाँ अध्याय 46
भक्तियोग की महिमा तथा ध्यानविधि का वर्णन
उद्धवजी ने पूछा—श्रीकृष्ण ! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एक की प्रधानता है ? ॥ १ ॥ मेरे स्वामी ! आपने तो अभी-अभी भक्तियोग को ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसीसे सब ओर से आसक्ति छोडक़र मन आप में ही तन्मय हो जाता है ॥ २ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! यह वेदवाणी समय के फेर से प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टि का समय आया, तब मैंने अपने सङ्कल्प से ही इसे ब्रह्मा को उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्म का ही वर्णन है ॥ ३ ॥ ब्रह्माने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनु को उपदेश किया और उनसे भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति-महर्षियों ने ग्रहण किया ॥ ४ ॥ तदनन्तर इन ब्रहमर्षियों की सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव [1], किन्नर [2], नाग, राक्षस और किम्पुरुष [3] आदि ने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रहमर्षियों से प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियों के स्वभाव—उनकी वासनाएँ सत्त्व, रज और तमोगुण के कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसलिये उनमें और उनकी बुद्धिवृत्तियों में भी अनेकों भेद हैं इसलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उस वेदवाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है ॥ ५—७ ॥ इसी प्रकार स्वभावभेद तथा परम्परागत उपदेश के भेद से मनुष्यों की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचार के वेदविरुद्ध पाखण्डमतावलम्बी हो जाते हैं ॥ ८ ॥ प्रिय उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसीसे वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं ॥ ९ ॥ पूर्वमीमांसक धर्म को, साहित्याचार्य यश को, कामशास्त्री काम को, योगवेत्ता सत्य और शमदमादि को, दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य-जीवन का स्वार्थ— परम लाभ बतलाते हैं ॥ १० ॥ कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फल स्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाशवाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दु:ख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ है—नगण्य है और वे लोक भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पडऩा चाहिये) ॥ ११ ॥
प्रिय उद्धव ! जो सब ओर से निरपेक्ष—बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदि की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्त:करण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चु का है, परमानन्द स्वरूप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है, वह विषयलोलुप प्राणियों को किसी प्रकार मिल नहीं सकता ॥ १२ ॥ जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित—अकिञ्चन है, जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, उसके लिये आकाश का एक-एक कोना आनन्द से भरा हुआ है ॥ १३ ॥ जिस ने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोडक़र न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका, उसके मन में न तो सार्वभौम सम्राट् बन ने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है। वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता ॥ १४ ॥ उद्धव ! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जित ने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शङ्कर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है ॥ १५ ॥ जिसे किसी की अपेक्षा नहीं, जो जगत के चिन्तन से सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन- चिन्तन में तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सब के प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणों की धूल उडक़र मेरे ऊ पर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ ॥ १६ ॥ जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित हैं—यहाँ तक कि शरीर आदि में भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेम के रंग में रँग गया है, जो संसार की वासनाओं से शान्त-उपरत हो चु के हैं और जो अपनी महत्ता—उदारता के कारण स्वभाव से ही समस्त प्राणियों के प्रति दया और प्रेम का भाव रखते हैं, किसी प्रकार की कामना जिनकी बुद्धि का स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्द स्वरूप का अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षता से ही प्राप्त होता है ॥ १७ ॥
उद्धवजी ! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो स का है और संसार के विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं—अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षण में बढऩेवाली मेरी प्रगल्भ भक्ति के प्रभाव से प्राय: विषयों से पराजित नहीं होता ॥ १८ ॥ उद्धव ! जैसे धधकती हुई आग लकडिय़ों के बड़े ढेर को भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप- राशि को पूर्णतया जला डालती है ॥ १९ ॥ उद्धव ! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप- पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त कराने में उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढऩेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ॥ २० ॥ मैं संतों का प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति से ही पकड़ में आता हूँ। मुझे प्राप्त करने का यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगों को भी पवित्र—जातिदोष से मुक्त कर देती है, जो जन्म से ही चाण्डाल हैं ॥ २१ ॥ इसके विपरीत जो मेरी भक्ति से वञ्चित हैं, उनके चित्त को सत्य और दया से युक्त, धर्म और तपस्या से युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करने में असमर्थ है ॥ २२ ॥ जब तक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्द के आँसू आँखों से छलक ने नहीं लगते तथा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने-उतरा ने नहीं लगता, तब तक इसके शुद्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है ॥ २३ ॥ जिसकी वाणी प्रेम से गद्गद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षण के लिये भी रोने का ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिलखिलाकर हँस ने भी लगता है, कहीं लाज छोडक़र ऊँचे स्वर से गा ने लगता है, तो कहीं नाच ने लगता है, भैया उद्धव ! मेरा वह भक्त न केवल अपने को बल्कि सारे संसार को पवित्र कर देता है ॥ २४ ॥ जैसे आग में तपाने पर सोना मैल छोड़ देता है—निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूप में स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोग के द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओं से मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ ॥ २५ ॥ उद्धवजी ! मेरी परमपावन लीला- कथा के श्रवण-कीर्तन से ज्यों-ज्यों चित्त का मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्मवस्तुके—वास्तविक तत्त्व के दर्शन होने लगते हैं—जैसे अंजन के द्वारा नेत्रों का दोष मिटने पर उनमें सूक्ष्म वस्तुओं को देखने की शक्ति आ ने लगती है ॥ २६ ॥
जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयों में फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझ में तल्लीन हो जाता है ॥ २७ ॥ इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलों का चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई ! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथ का राज्य। इसलिये मेरे चिन्तन से तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरहसे—एकाग्रता से मुझ में ही लगा दो ॥ २८ ॥ संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियों का सङ्ग दूर से ही छोडक़र, पवित्र एकान्त स्थान में बैठकर बड़ी सावधानी से मेरा ही चिन्तन करे ॥ २९ ॥ प्यारे उद्धव ! स्त्रियों के सङ्ग से और स्त्रीसङ्गियोंके—लम्पटों के सङ्ग से पुरुष को जैसे क्लेश और बन्धन में पडऩा पड़ता है, वैसा क्लेश और फँसावट और किसी के भी सङ्ग से नहीं होती ॥ ३० ॥
उद्धवजी ने पूछा—कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूपसे, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करे ? ॥ ३१ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही—ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाय, हाथों को अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासि का के अग्रभाग पर जमावे ॥ ३२ ॥ इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक—इन प्राणायामों के द्वारा नाडिय़ों का शोधन करे। प्राणायाम का अभ्यास धीरे- धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीत ने का भी अभ्यास करना चाहिये ॥ ३३ ॥ हृदय में कमलनालगत पतले सूत के समान ॐ कार का चिन्तन करे, प्राण के द्वारा उसे ऊ पर ले जाय और उसमें घण्टानाद के समान स्वर स्थिर करे। उस स्वर का ताँता टूट ने न पावे ॥ ३४ ॥ इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ॐकारसहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राणवायु वश में हो जाता है ॥ ३५ ॥ इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊ पर की ओर है और मुँह नीचे की ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊ पर की ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पँखुडिय़ाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यन्त सुकुमार कॢण का (गद्दी) है ॥ ३६ ॥ कॢणका पर क्रमश: सूर्य, चन्द्रमा और अग्रि का न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अग्रि के अंदर मेरे इस रूप का स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यान के लिये बड़ा ही मङ्गलमय है ॥ ३७ ॥ मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोम से शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनों तक लंबी मनोहर चार भुजाएँ हैं। बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकतमणि के समान सुस्निग्ध कपोल हैं। मुख पर मन्द-मन्द मुसकान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं। वर्षा-कालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिह्न वक्ष:स्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमश: शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गले में वनमाला लटक रही है। चरणों में नूपुर शोभा दे रहे हैं, गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कृपा- प्रसाद की वर्षा कर रही है। उद्धव ! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिये और अपने मन को एक-एक अङ्ग में लगाना चाहिये ॥ ३८—४१ ॥
बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथि की सहायता से मुझ में ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अङ्ग में क्यों न लगे ॥ ४२ ॥ जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे, तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अङ्गों का चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकान की छटा से युक्त मेरे मुख का ही ध्यान करे ॥ ४३ ॥ जब चित्त मुखारविन्द में ठहर जाय, तब उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। तदनन्तर आकाश का चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरूप में आरूढ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे ॥ ४४ ॥ जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योति से मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगता है ॥ ४५ ॥ जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यानयोग के द्वारा मुझ में ही अपने चित्त का संयम करता है, उसके चित्त से वस्तु की अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिये होनेवाले कर्मों का भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ॥ ४६ ॥
[1] श्रम और स्वेदादि दुर्गन्ध से रहित होने के कारण जिनके विषय में ‘ये देवता हैं या मनुष्य’ ऐसा सन्देह हो, वे द्वीपान्तर निवासी मनुष्य।
[2] मुख तथा शरीर की आकृति से कुछ-कुछ मनुष्य के समान प्राणी।
[3] कुछ-कुछ पुरुष के समान प्रतीत होनेवाले वानरादि।
॥ पञ्चदशोऽध्यायः - १५ ॥
श्रीभगवानुवाच
जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः ।
मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः ॥ १॥
उद्धव उवाच
कया धारणया का स्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत ।
कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान् ॥ २॥
श्रीभगवानुवाच
सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणायोगपारगैः ।
तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः ॥ ३॥
अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिन्द्रियैः ।
प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता ॥ ४॥
गुणेष्वसङ्गो वशिता यत्कामस्तदवस्यति ।
एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः ॥ ५॥
अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन् दूरश्रवणदर्शनम् ।
मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम् ॥ ६॥
स्वच्छन्दमृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम् ।
यथासङ्कल्पसंसिद्धिराज्ञाप्रतिहतागतिः ॥ ७॥
त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वं परचित्ताद्यभिज्ञता ।
अग्न्यर्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोऽपराजयः ॥ ८॥
एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः ।
यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यान्निबोध मे ॥ ९॥
भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः ।
अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम ॥ १०॥
महत्यात्मन्मयि परे यथासंस्थं मनो दधत् ।
महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक् पृथक् ॥ ११॥
परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रञ्जयन् ।
कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात् ॥ १२॥
धारयन् मय्यहं तत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम् ।
सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः ॥ १३॥
महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम् ।
प्राकाम्यं पारमेष्ठ्यं मे विन्दतेऽव्यक्तजन्मनः ॥ १४॥
विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे ।
स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रज्ञक्षेत्रचोदनाम् ॥ १५॥
नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते ।
मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात् ॥ १६॥
निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन् विशदं मनः ।
परमानन्दमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते ॥ १७॥
श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि ।
धारयञ्छ्वेततां याति षडूर्मिरहितो नरः ॥ १८॥
मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन् ।
तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ ॥ १९॥
चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि ।
मां तत्र मनसा ध्यायन् विश्वं पश्यति सूक्ष्मदृक् ॥ २०॥
मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनुवायुना ।
मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः ॥ २१॥
यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति ।
तत्तद्भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः ॥ २२॥
परकायं विशन् सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत् ।
पिण्डं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडङ्घ्रिवत् ॥ २३॥
पार्ष्ण्याऽऽपीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्धसु ।
आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम् ॥ २४॥
विहरिष्यन् सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत् ।
विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः ॥ २५॥
यथा सङ्कल्पयेद्बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान् ।
मयि सत्ये मनो युञ्जंस्तथा तत्समुपाश्नुते ॥ २६॥
यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान् ।
कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम ॥ २७॥
मद्भक्त्या शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः ।
तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्ममृत्यूपबृंहिता ॥ २८॥
अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः ।
मद्योगश्रान्तचित्तस्य यादसामुदकं यथा ॥ २९॥
मद्विभूतीरभिध्यायन् श्रीवत्सास्त्रविभूषिताः ।
ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः ॥ ३०॥
उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः ।
सिद्धयः पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः ॥ ३१॥
जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः ।
मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा ॥ ३२॥
अन्तरायान् वदन्त्येता युञ्जतो योगमुत्तमम् ।
मया सम्पद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः ॥ ३३॥
जन्मौषधितपोमन्त्रैर्यावतीरिह सिद्धयः ।
योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत् ॥ ३४॥
सर्वासामपि सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः ।
अहं योगस्य साङ्ख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम् ॥ ३५॥
अहमात्मान्तरो बाह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम् ।
यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा ॥ ३६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥
एकादश स्कन्द-पंद्रहवाँ अध्याय 36
भिन्न-भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मन को अपने वश में करके अपना चित्त मुझ में लगा ने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं ॥ १ ॥
उद्धवजी ने कहा—अच्युत ! कौन-सी धारणा करने से किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है, आप ही योगियों को सिद्धियाँ देते हैं, अत: आप इनका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! धारणायोग के पारगामी योगियों ने अठारह प्रकार की सिद्धियाँ बतलायी हैं। उनमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधानरूप से मुझ में ही रहती हैं और दूसरों में न्यून। तथा दस सत्त्वगुण के विकास से भी मिल जाती हैं ॥ ३ ॥ उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीर की हैं— ‘अणिमा’,‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियों की एक सिद्धि है—‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव करनेवाली सिद्धि ‘प्राकाम्य’ है। माया और उसके कार्यों को इच्छानुसार सञ्चालित करना ‘ईशिता’ नाम की सिद्धि है ॥ ४ ॥ विषयों में रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुख की कामना करे, उसकी सीमा तक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नाम की आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझ में स्वभाव से ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हीं को अंशत: प्राप्त होती हैं ॥ ५ ॥ इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं। शरीर में भूख-प्यास आदि वेगों का न होना, बहुत दूर की वस्तु देख लेना और बहुत दूर की बात सुन लेना, मन के साथ ही शरीर का उस स्थान पर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीर में प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोडऩा, अप्सराओं के साथ होनेवाली देवक्रीड़ा का दर्शन, सङ्कल्प की सिद्धि, सब जगह सब के द्वारा बिना ननु-नच के आज्ञापालन—ये दस सिद्धियाँ सत्त्वगुण के विशेष विकास से होती हैं ॥ ६-७ ॥ भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दु:ख और राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों के वश में न होना, दूसरे के मन आदि की बात जान लेना; अग्रि, सूर्य, जल, विष आदि की शक्ति को स्तम्भित कर देना और किसी से भी पराजित न होना—ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियों को प्राप्त होती हैं ॥ ८ ॥ प्रिय उद्धव ! योग-धारणा करने से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देश के साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणा से कौन- सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह बतलाता हूँ, सुनो ॥ ९ ॥
प्रिय उद्धव ! पञ्चभूतों की सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शरीर हैं। जो साधक केवल मेरे उसी शरीर की उपासना करता है और अपने मन को तदाकार बनाकर उसी में लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीर के अतिरिक्त और किसी भी वस्तु का चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नाम की सिद्धि अर्थात् पत्थर की चट्टान आदि में भी प्रवेश करने की शक्ति—अणुता प्राप्त हो जाती है ॥ १० ॥ महत्तत्त्व के रूप में भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूप में समस्त व्यावहारिक ज्ञानों का केन्द्र हूँ। जो मेरे उस रूप में अपने मन को महत्तत्त्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार आकाशादि पञ्चभूतोंमें—जो मेरे ही शरीर हैं—अलग-अलग मन लगा ने से उन-उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धि के ही अन्तर्गत है ॥ ११ ॥ जो योगी वायु आदि चार भूतों के परमाणुओं को मेरा ही रूप समझकर चित्त को तदाकार कर देता है, उसे‘लघिमा’ सिद्धि प्राप्त हो जाती है—उसे परमाणुरूप काल के [1] समान सूक्ष्म वस्तु बन ने का सामथ्र्य प्राप्त हो जाता है ॥ १२ ॥ जो सात्त्विक अहङ्कार को मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूप में चित्त की धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करनेवाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नाम की सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ १३ ॥ जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मा में अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्तजन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है—जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं ॥ १४ ॥ जो त्रिगुणमयी माया के स्वामी मेरे काल स्वरूप विश्वरूप की धारणा करता है, वह शरीरों और जीवों को अपने इच्छानुसार प्रेरित करने की सामथ्र्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धि का नाम ‘ईशित्व’ है ॥ १५ ॥ जो योगी मेरे नारायण- स्वरूपमें—जिसे तुरीय और भगवान भी कहते हैं—मन को लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ १६ ॥ निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्म स्वरूप में स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलने पर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं ॥ १७ ॥ प्रिय उद्धव ! मेरा वह रूप, जो श्वेत- द्वीप का स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म- मृत्यु और शोक-मोह—इन छ: ऊॢमयों से मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है ॥ १८ ॥ मैं ही समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूप में मन के द्वारा अनाहत नाद का चिन्तन करता है, वह ‘दूरश्रवण’ नाम की सिद्धि से सम्पन्न हो जाता है और आकाश में उपलब्ध होनेवाली विविध प्राणियों की बोली सुन-समझ सकता है ॥ १९ ॥ जो योगी नेत्रों को सूर्य में और सूर्य को नेत्रों में संयुक्त कर देता है और दोनों के संयोग में मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसार को देख सकता है ॥ २० ॥ मन और शरीर को प्राणवायु के सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभाव से वह योगी जहाँ भी जाने का संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है ॥ २१ ॥ जिस समय योगी मन को उपादान- कारण बनाकर किसी देवता आदि का रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मन के अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्त को मेरे साथ जोड़ दिया है ॥ २२ ॥ जो योगी दूसरे शरीर में प्रवेश करना चाहे, वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीर में हूँ। ऐसा करने से उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फूल से दूसरे फूल पर जानेवाले भौंरे के समान अपना शरीर छोडक़र दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है ॥ २३ ॥ योगी को यदि शरीर का परित्याग करना हो तो एड़ी से गुदाद्वार को दबाकर प्राणवायु को क्रमश: हृदय, वक्ष:स्थल, कण्ठ और मस् तक में ले जाय। फिर ब्रह्मरन्ध्र के द्वारा उसे ब्रह्म में लीन करके शरीर का परित्याग कर दे ॥ २४ ॥ यदि उसे देवताओं के विहारस्थलों में क्रीड़ा करने की इच्छा हो, तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूप की भावना करे। ऐसा करने से सत्त्वगुण की अंशस्वरूपा सुर-सुन्दरियाँ विमान पर चढक़र उसके पास पहुँच जाती हैं ॥ २५ ॥ जिस पुरुष ने मेरे सत्यसङ्कल्प स्वरूप में अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसी के ध्यान में संलग्र है, वह अपने मन से जिस समय जैसा सङ्कल्प करता है, उसी समय उसका वह सङ्कल्प सिद्ध हो जाता है ॥ २६ ॥ मैं ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’—इन दोनों सिद्धियों का स्वामी हूँ; इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूप का चिन्तन करके उसी भाव से युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञा को भी कोई टाल नहीं सकता ॥ २७ ॥ जिस योगी का चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्ति के प्रभाव से शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदृष्ट विषयों को भी जान लेती है। और तो क्या—भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं ॥ २८ ॥ जैसे जल के द्वारा जल में रहनेवाले प्राणियों का नाश नहीं होता, वैसे ही जिस योगी ने अपना चित्त मुझ में लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीर को अग्रि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते ॥ २९ ॥ जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शङ्ख-गदा-चक्र-पद्म आदि आयुधों से विभूषित तथा ध्वजा-छत्र-चँवर आदि से सम्पन्न मेरे अवतारों का ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है ॥ ३० ॥
इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योगधारणा के द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णत: प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है ॥ ३१ ॥ प्यारे उद्धव ! जिस ने अपने प्राण, मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूप की धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं ॥ ३२ ॥ परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगों का अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझ से एक हो रहे हैं उनके लिये इन सिद्धियों का प्राप्त होना एक विघ्र ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समय का दुरुपयोग होता है ॥ ३३ ॥ जतग् में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादि के द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सभी योग के द्वारा मिल जाती हैं; परन्तु योग की अन्तिम सीमा—मेरे सारूप्य, सालोक्य आदि की प्राप्ति बिना मुझ में चित्त लगाये किसी भी साधन से नहीं प्राप्त हो सकती ॥ ३४ ॥ ब्रह्मवादियों ने बहुत- से साधन बतलाये हैं—योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियों का एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ ॥ ३५ ॥ जैसे स्थूल पञ्चभूतों में बाहर, भीतर सर्वत्र सूक्ष्म पञ्च-महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतों के अतिरिक्त स्थूल भूतों की कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियों के भीतर द्रष्टारूप से और बाहर दृश्यरूप से स्थित हूँ। मुझ में बाहर-भीतर का भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एक— अद्वितीय आत्मा हूँ ॥ ३६ ॥
[1] पृथ्वी आदि के परमाणुओं में गुरुत्व विद्यमान रहता है। इसीसे उसका भी निषेध करने के लिये काल के परमाणु की समानता बतायी है।
॥ षोडशोऽध्यायः - १५ ॥
उद्धव उवाच
त्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यन्तमपावृतम् ।
सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्भवः ॥ १॥
उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयमकृतात्मभिः ।
उपासते त्वां भगवन् याथातथ्येन ब्राह्मणाः ॥ २॥
येषु येषु च भावेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः ।
उपासीनाः प्रपद्यन्ते संसिद्धिं तद्वदस्व मे ॥ ३॥
गूढश्चरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन ।
न त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते ॥ ४॥
याः काश्च भूमौ दिवि वै रसायां
विभूतयो दिक्षु महाविभूते ।
ता मह्यमाख्याह्यनुभावितास्ते
नमामि ते तीर्थपदाङ्घ्रिपद्मम् ॥ ५॥
श्रीभगवानुवाच
एवमेतदहं पृष्टः प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।
युयुत्सुना विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै ॥ ६॥
ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गर्ह्यमधर्मं राज्यहेतुकम् ।
ततो निवृत्तो हन्ताहं हतोऽयमिति लौकिकः ॥ ७॥
स तदा पुरुषव्याघ्रो युक्त्या मे प्रतिबोधितः ।
अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि ॥ ८॥
अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदीश्वरः ।
अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः ॥ ९॥
अहं गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम् ।
गुनाणां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुणः ॥ १०॥
गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम् ।
सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मनः ॥ ११॥
हिरण्यगर्भो वेदानां मन्त्राणां प्रणवस्त्रिवृत् ।
अक्षराणामकारोऽस्मि पदानि छन्दसामहम् ॥ १२॥
इन्द्रोऽहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट् ।
आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहितः ॥ १३॥
ब्रह्मर्षीणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनुः ।
देवर्षीणां नारदोऽहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु ॥ १४॥
सिद्धेश्वराणां कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्रिणाम् ।
प्रजापतीनां दक्षोऽहं पितॄणामहमर्यमा ॥ १५॥
मां विद्ध्युद्धव दैत्यानां प्रह्लादमसुरेश्वरम् ।
सोमं नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम् ॥ १६॥
ऐरावतं गजेन्द्राणां यादसां वरुणं प्रभुम् ।
तपतां द्युमतां सूर्यं मनुष्याणां च भूपतिम् ॥ १७॥
उच्चैःश्रवास्तुरङ्गाणां धातूनामस्मि काञ्चनम् ।
यमः संयमतां चाहं सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ १८॥
नागेन्द्राणामनन्तोऽहं मृगेन्द्रः शृङ्गिदंष्ट्रिणाम् ।
आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ ॥ १९॥
तीर्थानां स्रोतसां गङ्गा समुद्रः सरसामहम् ।
आयुधानां धनुरहं त्रिपुरघ्नो धनुष्मताम् ॥ २०॥
धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालयः ।
वनस्पतीनामश्वत्थ ओषधीनामहं यवः ॥ २१॥
पुरोधसां वसिष्ठोऽहं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पतिः ।
स्कन्दोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः ॥ २२॥
यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनम् ।
वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचिः ॥ २३॥
योगानामात्मसंरोधो मन्त्रोऽस्मि विजिगीषताम् ।
आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम् ॥ २४॥
स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनुः ।
नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम् ॥ २५॥
धर्माणामस्मि सन्न्यासः क्षेमाणामबहिर्मतिः ।
गुह्यानां सूनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम् ॥ २६॥
संवत्सरोऽस्म्यनिमिषां ऋतूनां मधुमाधवौ ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाभिजित् ॥ २७॥
अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः ।
द्वैपायनोऽस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान् ॥ २८॥
वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम् ।
किम्पुरुषानां हनुमान् विद्याध्राणां सुदर्शनः ॥ २९॥
रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम् ।
कुशोऽस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम् ॥ ३०॥
व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः ।
तितिक्षास्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ ३१॥
ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्वताम् ।
सात्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परा ॥ ३२॥
विश्वावसुः पूर्वचित्तिर्गन्धर्वाप्सरसामहम् ।
भूधराणामहं स्थैर्यं गन्धमात्रमहं भुवः ॥ ३३॥
अपां रसश्च परमस्तेजिष्ठानां विभावसुः ।
प्रभा सूर्येन्दुताराणां शब्दोऽहं नभसः परः ॥ ३४॥
ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः ।
भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसङ्क्रमः ॥ ३५॥
गत्युक्त्युत्सर्गोपादानमानन्दस्पर्शलक्षणम् ।
आस्वादश्रुत्यवघ्राणमहं सर्वेन्द्रियेन्द्रियम् ॥ ३६॥
पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान् ।
विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम् ।
अहमेतत्प्रसङ्ख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः ॥ ३७॥
मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना ।
सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित् ॥ ३८॥
सङ्ख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया ।
न तथा मे विभूतीनां सृजतोऽण्डानि कोटिशः ॥ ३९॥
तेजः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः ।
वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेंऽशकः ॥ ४०॥
एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः सङ्क्षेपेण विभूतयः ।
मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते ॥ ४१॥
वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान् यच्छेद्रियाणि च ।
आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने ॥ ४२॥
यो वै वाङ्मनसी संयगसंयच्छन् धिया यतिः ।
तस्य व्रतं तपो दानं स्रवत्यामघटाम्बुवत् ॥ ४३॥
तस्माद्वचो मनः प्राणान् नियच्छेन्मत्परायणः ।
मद्भक्तियुक्तया बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते ॥ ४४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥
एकादश स्कन्द-सोलहवाँ अध्याय 44
भगवान की विभूतियों का वर्णन
उद्धवजी ने कहा—भगवन् ! आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त। आप आवरणरहित, अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलय के कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी प्राणियों में स्थित हैं; परन्तु जिन लोगों ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही करते हैं ॥ १-२ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियों की परम भक्ति के साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं, वह आप मुझ से कहिये ॥ ३ ॥ समस्त प्राणियों के जीवनदाता प्रभो ! आप समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपने को गुप्त रखकर लीला करते रहते हैं। आप तो सब को देखते हैं, परन्तु जगत के प्राणी आपकी माया से ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते ॥ ४ ॥ अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभो ! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओं में आपके प्रभाव से युक्त जो-जो भी विभूतियाँ हैं, आप कृपा करके मुझ से उनका वर्णन कीजिये। प्रभो ! मैं आपके उन चरणकमलों की वन्दना करता हूँ जो समस्त तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाले हैं ॥ ५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! तुम प्रश्र का मर्म समझनेवालों में शिरोमणि हो। जिस समय कुरुक्षेत्र में कौरव-पाण्डवों का युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओं से युद्ध के लिये तत्पर अर्जुन ने मुझ से यही प्रश्र किया था ॥ ६ ॥ अर्जुन के मन में ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियों को मारना, और सो भी राज्य के लिये, बहुत ही निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषों के समान वह यह सोच रहा था कि ‘मैं मारनेवाला हूँ और ये सब मरनेवाले हैं, यह सोचकर वह युद्ध से उपरत हो गया ॥ ७ ॥ तब मैंने रणभूमि में बहुत-सी युक्तियाँ देकर वीर-शिरोमणि अर्जुन को समझाया था। उस समय अर्जुन ने भी मुझ से यही प्रश्र किया था, जो तुम कर रहे हो ॥ ८ ॥ उद्धवजी ! मैं समस्त प्राणियों का आत्मा, हितैषी, सुहृद् और ईश्वर—नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थों के रूप में हूँ और इन की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का कारण भी हूँ ॥ ९ ॥ गतिशील पदार्थों में मैं गति हूँ। अपने अधीन करनेवालों में मैं काल हूँ। गुणों में मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जित ने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ ॥ १० ॥ गुणयुक्त वस्तुओं में मैं क्रिया- शक्तिप्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानों में ज्ञानशक्तिप्रधान प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं जीव हूँ और कठिनाई से वश में होनेवालों में मन हूँ ॥ ११ ॥ मैं वेदों का अभिव्यक्तिस्थान हिरण्यगर्भ हूँ और मन्त्रों में तीन मात्राओं (अ+उ+म्) वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरों में अकार, छन्दों में त्रिपदा गायत्री हूँ ॥ १२ ॥ समस्त देवताओं में इन्द्र, आठ वसुओं में अग्रि, द्वादश आदित्यों में विष्णु और एकादश रुद्रों में नीललोहित नाम का रुद्र हूँ ॥ १३ ॥ मैं ब्रहमर्षियों में भृगु, राजर्षियों में मनु, देवर्षियों में नारद और गौओं में कामधेनु हूँ ॥ १४ ॥ मैं सिद्धेश्वरों में कपिल, पक्षियों में गरुड़, प्रजापतियों में दक्ष प्रजापति और पितरों में अर्यमा हूँ ॥ १५ ॥ प्रिय उद्धव ! मैं दैत्यों में दैत्यराज प्रह्लाद, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ओषधियों में सोमरस एवं यक्ष-राक्षसों में कुबेर हूँ—ऐसा समझो ॥ १६ ॥ मैं गजराजों में ऐरावत, जलनिवासियों में उनका प्रभु वरुण, तप ने और चमकनेवालों में सूर्य तथा मनुष्यों में राजा हूँ ॥ १७ ॥ मैं घोड़ों में उच्चै:श्रवा, धातुओं में सोना, दण्डधारियों में यम और सर्पों में वासुकि हूँ ॥ १८ ॥ निष्पाप उद्धवजी ! मैं नागराजों में शेषनाग, सींग और दाढ़वाले प्राणियों में उनका राजा सिंह, आश्रमों में संन्यास और वर्णों में ब्राह्मण हूँ ॥ १९ ॥ मैं तीर्थ और नदियों में गङ्गा, जलाशयों में समुद्र, अस्त्र-शस्त्रों में धनुष तथा धनुर्धरों में त्रिपुरारि शङ्कर हूँ ॥ २० ॥
मैं निवासस्थानों में सुमेरु, दुर्गम स्थानों में हिमालय, वनस्पतियों में पीपल और धान्यों में जौ हूँ ॥ २१ ॥ मैं पुरोहितों में वसिष्ठ, वेदवेत्ताओं में बृहस्पति, समस्त सेनापतियों में स्वामिकार्तिक और सन्मार्गप्रवर्तकों में भगवान ब्रह्मा हूँ ॥ २२ ॥ पञ्चमहायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याययज्ञ) हूँ, व्रतों में अहिंसाव्रत और शुद्ध करनेवाले पदार्थों में नित्यशुद्ध वायु, अग्रि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ ॥ २३ ॥ आठ प्रकार के योगों में मैं मनोनिरोधरूप समाधि हूँ। विजय के इच्छुकों में रहनेवाला मैं मन्त्र (नीति) बल हूँ, कौशलों में आत्मा और अनात्मा का विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियों में विकल्प हूँ ॥ २४ ॥ मैं स्त्रियों में मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषों में स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरों में नारायण और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ ॥ २५ ॥ मैं धर्मों में कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रय के त्याग द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभय के साधनों में आत्म स्वरूप का अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय-गोपन के साधनों में मधुर वचन एवं मौन हूँ और स्त्री-पुरुष के जोड़ों में मैं प्रजापति हूँ—जिनके शरीर के दो भागों से पुरुष और स्त्री का पहला जोड़ा पैदा हुआ ॥ २६ ॥ सदा सावधान रहकर जागनेवालों में संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओं में वसन्त, महीनों में मार्गशीर्ष और नक्षत्रों में अभिजित् हूँ ॥ २७ ॥ मैं युगों में सत्ययुग, विवेकियों में महर्षि देवल और असित, व्यासों में श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा कवियों में मनस्वी शुक्राचार्य हूँ ॥ २८ ॥ सृष्टि की उत्पत्ति और लय, प्राणियों के जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्या के जाननेवाले भगवानों में (विशिष्ट महापुरुषोंमें) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तों में तुम (उद्धव), किम्पुरुषों में हनुमान्, विद्याधरों में सुदर्शन (जिस ने अजगर के रूप में नन्दबाबा को ग्रस लिया था और फिर भगवान के पादस्पर्श से मुक्त हो गया था) मैं हूँ ॥ २९ ॥ रत्नों में पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली, तृणों में कुश और हविष्यों में गाय का घी हूँ ॥ ३० ॥ मैं व्यापारियों में रहनेवाली लक्ष्मी, छल-कपट करनेवालों में द्यूतक्रीडा, तितिक्षुओं की तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और सात्त्विक पुरुषों में रहनेवाला सत्त्वगुण हूँ ॥ ३१ ॥ मैं बलवानों में उत्साह और पराक्रम तथा भगवद्भक्तों में भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवों की पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा—इन नौ मूर्तियों में मैं पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ ॥ ३२ ॥ मैं गन्धर्वों में विश्वावसु और अप्सराओं में ब्रह्माजी के दरबार की अप्सरा पूर्वचित्ति हूँ। पर्वतों में स्थिरता और पृथ्वी में शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ ॥ ३३ ॥ मैं जल में रस, तेजस्वियों में परम तेजस्वी अग्रि; सूर्य, चन्द्र और तारों में प्रभा तथा आकाश में उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! मैं ब्राह्मणभक्तों में बलि, वीरों में अर्जुन और प्राणियों में उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ ॥ ३५ ॥ मैं ही पैरों में चल ने की शक्ति, वाणी में बोल ने की शक्ति, पायु में मल-त्याग की शक्ति, हाथों में पकडऩे की शक्ति और जननेन्द्रिय में आनन्दोपभोग की शक्ति हूँ। त्वचा में स्पर्शकी, नेत्रों में दर्शनकी, रसना में स्वाद लेनेकी, कानों में श्रवण की और नासिका में सूँघ ने की शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियों की इन्द्रियशक्ति मैं ही हूँ ॥ ३६ ॥ पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, अहङ्कार, महत्तत्त्व, पञ्चमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम और उनसे परे रहनेवाला ब्रह्म—ये सब मैं ही हूँ ॥ ३७ ॥ इन तत्त्वों की गणना, लक्षणों द्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानरूप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण हूँ और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सब का आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है ॥ ३८ ॥ यदि मैं गिन ने लगूँ तो किसी समय परमाणुओं की गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियों की गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि- कोटि ब्रह्माण्डों की भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियों की गणना तो हो ही कैसे सकती है ॥ ३९ ॥ ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है ॥ ४० ॥
उद्धवजी ! मैंने तुम्हारे प्रश्र के अनुसार संक्षेप से विभूतियों का वर्णन किया। ये सब परमार्थवस्तु नहीं हैं, मनोविकारमात्र हैं, क्योंकि मन से सोची और वाणी से कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है ॥ ४१ ॥ इसलिये तुम वाणी को स्वच्छन्द- भाषण से रो को, मन के सङ्कल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणों को वश में करो और इन्द्रियों का दमन करो। सात्त्विक बुद्धि के द्वारा प्रपञ्चाभिमुख बुद्धि को शान्त करो। फिर तुम्हें संसार के जन्म- मृत्युरूप बीहड़ मार्ग में भटकना नहीं पड़ेगा ॥ ४२ ॥ जो साधक बुद्धि के द्वारा वाणी और मन को पूर्णतया वश में नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल ॥ ४३ ॥ इसलिये मेरे प्रेमी भक्त को चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्तियुक्त बुद्धि से वाणी, मन और प्राणों का संयम करे। ऐसा कर लेने पर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है ॥ ४४ ॥
॥ सप्तदशोऽध्यायः - १७ ॥
उद्धव उवाच
यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः ।
वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि ॥ १॥
यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत् ।
स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तत्समाख्यातुमर्हसि ॥ २॥
पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो ।
यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणेऽभ्यात्थ माधव ॥ ३॥
स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन ।
न प्रायो भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः ॥ ४॥
वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि ।
सभायामपि वैरिञ्च्यां यत्र मूर्तिधराः कलाः ॥ ५॥
कर्त्रावित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन ।
त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति ॥ ६॥
तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः ।
यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो ॥ ७॥
श्रीशुक उवाच
इत्थं स्वभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान् हरिः ।
प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान् ॥ ८॥
श्रीभगवानुवाच
धर्म्य एष तव प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम् ।
वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे ॥ ९॥
आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ।
कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात्कृतयुगं विदुः ॥ १०॥
वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक् ।
उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः ॥ ११॥
त्रेतामुखे महाभाग प्राणान् मे हृदयात्त्रयी ।
विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः ॥ १२॥
विप्रक्षत्रियविट् शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः ।
वैराजात्पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः ॥ १३॥
गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम ।
वक्षःस्थलाद्वने वासः न्यासःशीर्षणि संस्थितः ॥ १४॥
वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः ।
आसन् प्रकृतयो नॄणां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमाः ॥ १५॥
शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम् ।
मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः ॥ १६॥
तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः ।
स्थैर्यं ब्रह्मण्यमैश्वर्यं क्षत्रप्रकृतयस्त्विमाः ॥ १७॥
आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदम्भो ब्रह्मसेवनम् ।
अतुष्टिरर्थोपचयैर्वैश्यप्रकृतयस्त्विमाः ॥ १८॥
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया ।
तत्र लब्धेन सन्तोषः शूद्रप्रकृतयस्त्विमाः ॥ १९॥
अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः ।
कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावोऽन्तेवसायिनाम् ॥ २०॥
अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता ।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः ॥ २१॥
द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्याज्जन्मोपनयनं द्विजः ।
वसन् गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहुतः ॥ २२॥
मेखलाजिनदण्डाक्षब्रह्मसूत्रकमण्डलून् ।
जटिलोऽधौतदद्वासोऽरक्तपीठः कुशान् दधत् ॥ २३॥
स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः ।
नच्छिन्द्यान्नखरोमाणि कक्षोपस्थगतान्यपि ॥ २४॥
रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम् ।
अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदीं जपेत् ॥ २५॥
अग्न्यर्काचार्यगोविप्रगुरुवृद्धसुराञ्शुचिः ।
समाहित उपासीत सन्ध्ये च यतवाग्जपन् ॥ २६॥
आचार्यं मां विजानीयान्नावन्मन्येत कर्हिचित् ।
न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ २७॥
सायं प्रातरुपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत् ।
यच्चान्यदप्यनुज्ञातमुपयुञ्जीत संयतः ॥ २८॥
शुश्रूषमाण आचार्यं सदोपासीत नीचवत् ।
यानशय्यासनस्थानैर्नातिदूरे कृताञ्जलिः ॥ २९॥
एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद्भोगविवर्जितः ।
विद्या समाप्यते यावद्बिभ्रद्व्रतमखण्डितम् ॥ ३०॥
यद्यसौ छन्दसां लोकमारोक्ष्यन् ब्रह्मविष्टपम् ।
गुरवे विन्यसेद्देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्व्रतः ॥ ३१॥
अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम् ।
अपृथग्धीरुपासीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मषः ॥ ३२॥
स्त्रीणां निरीक्षणस्पर्शसंलापक्ष्वेलनादिकम् ।
प्राणिनो मिथुनीभूतानगृहस्थोऽग्रतस्त्यजेत् ॥ ३३॥
शौचमाचमनं स्नानं सन्ध्योपासनमार्जवम् ।
तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्याभक्ष्यासम्भाष्यवर्जनम् ॥ ३४॥
सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनन्दन ।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायसंयमः ॥ ३५॥
एवं बृहद्व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निरिव ज्वलन् ।
मद्भक्तस्तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः ॥ ३६॥
अथानन्तरमावेक्ष्यन् यथा जिज्ञासितागमः ।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद्गुर्वनुमोदितः ॥ ३७॥
गृहं वनं वोपविशेत्प्रव्रजेद्वा द्विजोत्तमः ।
आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथा मत्परश्चरेत् ॥ ३८॥
गृहार्थी सदृशीं भार्यामुद्वहेदजुगुप्सिताम् ।
यवीयसीं तु वयसा तां सवर्णामनुक्रमात् ॥ ३९॥
इज्याध्ययनदानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम् ।
प्रतिग्रहोऽध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम् ॥ ४०॥
प्रतिग्रहं मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम् ।
अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक् तयोः ॥ ४१॥
ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥ ४२॥
शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचित्तो
धर्मं महान्तं विरजं जुषाणः ।
मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्
नातिप्रसक्तः समुपैति शान्तिम् ॥ ४३॥
समुद्धरन्ति ये विप्रं सीदन्तं मत्परायणम् ।
तानुद्धरिष्ये न चिरादापद्भ्यो नौरिवार्णवात् ॥ ४४॥
सर्वाः समुद्धरेद्राजा पितेव व्यसनात्प्रजाः ।
आत्मानमात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान् ॥ ४५॥
एवंविधो नरपतिर्विमानेनार्कवर्चसा ।
विधूयेहाशुभं कृत्स्नमिन्द्रेण सह मोदते ॥ ४६॥
सीदन् विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरेवापदं तरेत् ।
खड्गेन वाऽऽपदाक्रान्तो न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४७॥
वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेन्मृगययापदि ।
चरेद्वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४८॥
शूद्रवृत्तिं भजेद्वैश्यः शूद्रः कारुकटक्रियाम् ।
कृच्छ्रान्मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा ॥ ४९॥
वेदाध्यायस्वधास्वाहा बल्यन्नाद्यैर्यथोदयम् ।
देवर्षिपितृभूतानि मद्रूपाण्यन्वहं यजेत् ॥ ५०॥
यदृच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा ।
धनेनापीडयन् भृत्यान् न्यायेनैवाहरेत्क्रतून् ॥ ५१॥
कुटुम्बेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत्कुटुम्ब्यपि ।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत् ॥ ५२॥
पुत्रदाराप्तबन्धूनां सङ्गमः पान्थसङ्गमः ।
अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा ॥ ५३॥
इत्थं परिमृशन् मुक्तो गृहेष्वतिथिवद्वसन् ।
न गृहैरनुबध्येत निर्ममो निरहङ्कृतः ॥ ५४॥
कर्मभिर्गृहमेधीयैरिष्ट्वा मामेव भक्तिमान् ।
तिष्ठेद्वनं वोपविशेत्प्रजावान् वा परिव्रजेत् ॥ ५५॥
यस्त्वासक्तमतिर्गेहे पुत्रवित्तैषणातुरः ।
स्त्रैणः कृपणधीर्मूढो ममाहमिति बध्यते ॥ ५६॥
अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजात्मजाः ।
अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवन्ति दुःखिताः ॥ ५७॥
एवं गृहाशयाक्षिप्तहृदयो मूढधीरयम् ।
अतृप्तस्ताननुध्यायन् मृतोऽन्धं विशते तमः ॥ ५८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥
एकादश स्कन्द-सत्रहवाँ अध्याय 58
वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण
उद्धवजी ने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण ! आपने पहले वर्णाश्रम-धर्म का पालन करनेवालों के लिये और सामान्यत: मनुष्यमात्र के लिये उस धर्म का उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकार से अपने धर्म का अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणों में उसे भक्ति प्राप्त हो जाय ॥ १-२ ॥ प्रभो ! महाबाहु माधव ! पहले आपने हंसरूप से अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजी को अपने परमधर्म का उपदेश किया था ॥ ३ ॥ रिपुदमन ! बहुत समय बीत जाने के कारण वह इस समय मत्र्यलोक में प्राय: नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गये हैं ॥ ४ ॥ अच्युत ! पृथ्वी में तथा ब्रह्मा की उस सभा में भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्म का प्रवचन, प्रवत्र्तन अथवा संरक्षण कर सके ॥ ५ ॥ इस धर्म के प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्य को मारकर वेदों की रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्म की भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! जब आप पृथ्वीतल से अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्म का लोप ही हो जायगा तो फिर उसे कौन बतावेगा ? ॥ ६ ॥ आप समस्त धर्मों के मर्मज्ञ हैं; इसलिये प्रभो ! आप उस धर्म का वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त करानेवाला है। और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धवजी ने प्रश्र किया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियों के कल्याण के लिये उन्हें सनातन धर्मों का उपदेश दिया ॥ ८ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! तुम्हारा प्रश्र धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रमधर्मी मनुष्यों को परमकल्याण स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। अत: मैं तुम्हें उन धर्मों का उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ९ ॥ जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्यों का ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है ॥ १० ॥ उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणों से युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समय के निष्पाप एवं परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंस स्वरूप शुद्ध परमात्मा की उपासना करते थे ॥ ११ ॥ परम भाग्यवान् उद्धव ! सत्ययुग के बाद त्रेतायुग का आरम्भ होने पर मेरे हृदय से श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्या से होता, अध्वर्यु और उद्गाता के कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञ के रूप से मैं प्रकट हुआ ॥ १२ ॥ विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! विराट् पुरुष भी मैं ही हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरुस्थल से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्म- चर्याश्रम, वक्ष:स्थल से वानप्रस्थाश्रम और मस् तक से संन्यासाश्रम की उत्पत्ति हुई है ॥ १४ ॥ इन वर्ण और आश्रमों के पुरुषों के स्वभाव भी इनके जन्मस्थानों के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानों से उत्पन्न होनेवाले वर्ण और आश्रमों के स्वभाव उत्तम और अधम स्थानों से उत्पन्न होनेवालों के अधम हुए ॥ १५ ॥ शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य—ये ब्राह्मण वर्ण के स्वभाव हैं ॥ १६ ॥ तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य—ये क्षत्रिय वर्ण के स्वभाव हैं ॥ १७ ॥ आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणों की सेवा करना और धनसञ्चय से सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य वर्ण के स्वभाव हैं ॥ १८ ॥ ब्राह्मण, गौ और देवताओं की निष्कपटभाव से सेवा करना और उसी से जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना—ये शूद्र वर्ण के स्वभाव हैं ॥ १९ ॥ अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोक की परवा न करना, झूठमूठ झगडऩा और काम, क्रोध एवं तृष्णा के वश में रहना—ये अन्त्यजों के स्वभाव हैं ॥ २० ॥ उद्धवजी ! चारों वर्णों और चारों आश्रमों के लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें; सत्य पर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभ से बचें और जिन कामों के करने से समस्त प्राणियों की प्रसन्नता और उनका भला हो वही करें ॥ २१ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारों के क्रम से यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुल में रहे और अपनी इन्द्रियों को वश में रखे। आचार्य के बुलाने पर वेद का अध्ययन करे और उसके अर्थ का भी विचार करे ॥ २२ ॥ मेखला, मृगचर्म, वर्ण के अनुसार दण्ड, रुद्राक्ष की माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिर पर जटा रखे, शौकीनी के लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसन पर न बैठे और कुश धारण करे ॥ २३ ॥ स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्याग के समय मौन रहे। और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रिय के बाल और नाखूनों को कभी न काटे ॥ २४ ॥ पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वप्न आदि में वीर्य स्खलित हो जाय, तो जल में स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्री का जप करे ॥ २५ ॥ ब्रह्मचारी को पवित्रता के साथ एकाग्रचित्त होकर अग्रि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओं की उपासना करनी चाहिये तथा सायङ्काल और प्रात:काल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्री का जप करना चाहिये ॥ २६ ॥ आचार्य को मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है ॥ २७ ॥ सायङ्काल और प्रात:काल दोनों समय जो कुछ भिक्षा में मिले वह लाकर गुरुदेव के आगे रख दे। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयम से भिक्षा आदि का यथोचित उपयोग करे ॥ २८ ॥ आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जाने के बाद बड़ी सावधानी से उनसे थोड़ी दूर पर सोवे। थ के हों, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों तो उनके आदेश की प्रतीक्षा में हाथ जोडक़र पास में ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्ति की भाँति सेवा-शुश्रूषा के द्वारा सदा-सर्वदा आचार्य की आज्ञा में तत्पर रहे ॥ २९ ॥ जब तक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तब तक सब प्रकार के भोगों से दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुल में निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न होने दे ॥ ३० ॥
यदि ब्रह्मचारी का विचार हो कि मैं मूर्तिमान् वेदों के निवासस्थान ब्रह्मलोक में जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये। और वेदों के स्वाध्याय के लिये अपना सारा जीवन आचार्य की सेवा में ही समर्पित कर देना चाहिये ॥ ३१ ॥ ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेज से सम्पन्न हो जाता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्रि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियों में मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सब के हृदय में एक ही परमात्मा विराजमान हैं ॥ ३२ ॥ ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासियों को चाहिये कि वे स्त्रियों को देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूर से ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियों पर तो दृष्टिपात तक न करें ॥ ३३ ॥ प्रिय उद्धव ! शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियों में मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीर का संयम—यह ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी—सभी के लिये एक-सा नियम है। अस्पृश्यों को न छूना, अभक्ष्य वस्तुओं को न खाना और जिन से बोलना नहीं चाहिये उनसे न बोलना—ये नियम भी सब के लिये हैं ॥ ३४-३५ ॥ नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमों का पालन करने से अग्रि के समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्या के कारण उसके कर्म-संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ३६ ॥
प्यारे उद्धव ! यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करने की इच्छा न हो—गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्य को दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे—स्ना तक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे ॥ ३७ ॥ ब्रह्मचारी को चाहिये कि ब्रह्मचर्य-आश्रम के बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे। यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है। अथवा उसे चाहिये कि क्रमश: एक आश्रम से दूसरे आश्रम में प्रवेश करे। किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रम के रहकर अथवा विपरीत क्रम से आश्रम-परिवर्तन कर स्वेच्छाचार में न प्रवृत्त हो ॥ ३८ ॥
प्रिय उद्धव ! यदि ब्रह्मचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारी को चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणों से सम्पन्न कुलीन कन्या से विवाह करे। वह अवस्था में अपने से छोटी और अपने ही वर्ण की होनी चाहिये। यदि कामवश अन्य वर्ण की कन्या से और विवाह करना हो, तो क्रमश: अपने से निम्र वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता है ॥ ३९ ॥ यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करने का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को समानरूप से है। परन्तु दान लेने, पढ़ा ने और यज्ञ कराने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है ॥ ४० ॥ ब्राह्मण को चाहिये कि इन तीनों वृत्तियों में प्रतिग्रह अर्थात् दान लेने की वृत्ति को तपस्या, तेज और यश का नाश करनेवाली समझकर पढ़ा ने और यज्ञ कराने के द्वारा ही अपना जीवननिर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियों में भी दोषदृष्टि हो—परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों—तो अन्न कट ने के बाद खेतों में पड़े हुए दा ने बीनकर ही अपने जीवन का निर्वाह कर ले ॥ ४१ ॥ उद्धव ! ब्राह्मण का शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्त में अनन्त आनन्द स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये है ॥ ४२ ॥ जो ब्राह्मण घर में रहकर अपने महान धर्म का निष्कामभाव से पालन करता है और खेतों में तथा बाजारों में गिरे-पड़े दा ने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्त:करण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परम-शान्ति स्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥ जो लोग विपत्ति में पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मण को विपत्तियों से बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियों से उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्र में डूबते हुए प्राणी को नौ का बचा लेती है ॥ ४४ ॥ राजा पिता के समान सारी प्रजा का कष्ट से उद्धार करे—उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजों की रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आप से अपना उद्धार करे ॥ ४५ ॥ जो राजा इस प्रकार प्रजा की रक्षा करता है, वह सारे पापों से मुक्त होकर अन्त समय में सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर चढक़र स्वर्गलोक में जाता है और इन्द्र के साथ सुख भोगता है ॥ ४६ ॥ यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादि से अपनी जीवि का न चला सके, तो वैश्यवृत्ति का आश्रय ले ले, और जब तक विपत्ति दूर न हो जाय तब तक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्ति का सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियों की वृत्ति से भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्था में नीचों की सेवा—जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं—न करे ॥ ४७ ॥ इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकार के द्वारा अथवा विद्यार्थियों को पढ़ाकर अपनी आपत्ति के दिन काट दे, परन्तु नीचों की सेवा, ‘श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले ॥ ४८ ॥ वैश्य भी आपत्ति के समय शूद्रों की वृत्ति सेवा से अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुन ने आदि कारुवृत्ति का आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव ! ये सारी बातें आपत्तिकाल के लिये ही हैं। आपत्ति का समय बीत जाने पर निम्रवर्णों की वृत्ति से जीवि कोपार्जन करने का लोभ न करे ॥ ४९ ॥ गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, काकबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदि के द्वारा मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे ॥ ५० ॥
गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीति से उपाॢजत अपने शुद्ध धन से अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजन को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधि के साथ ही यज्ञ करे ॥ ५१ ॥
प्रिय उद्धव ! गृहस्थ पुरुष कुटुम्ब में आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होने पर भी भजन में प्रमाद न करे। बुद्धिमान पुरुष को यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोक की सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोक के भोग भी नाशवान् ही हैं ॥ ५२ ॥ यह जो स्त्री-पुत्र, भाई- बन्धु और गुरुजनों का मिलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊ पर कुछ बटोही इकट्ठेहो गये हों। सब को अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटने तक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलनेवालों का सम्बन्ध ही बस, शरीर के रहने तक ही रहता है; फिर तो कौन किस को पूछता है ॥ ५३ ॥ गृहस्थ को चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थी में फँ से नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्तभाव से रहे मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो। जो शरीर आदि में अहङ्कार और घर आदि में ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थी के फंदे बाँध नहीं सकते ॥ ५४ ॥ भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मों के द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घर में ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रम में चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले ॥ ५५ ॥ प्रिय उद्धव ! जो लोग इस प्रकार का गृहस्थजीवन न बिताकर घर-गृहस्थी में ही आसक्त हो जाते हैं, स्त्री, पुत्र और धन की कामनाओं में फँसकर हाय-हाय करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलम्पट और कृपण होकर मैं-मेरे के फेर में पड़ जाते हैं, वे बँध जाते हैं ॥ ५६ ॥ वे सोचते रहते हैं—हाय ! हाय! मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; पत्नी के बाल-बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, मेरे न रहने पर ये दीन, अनाथ और दुखी हो जायँगे; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा?’ ॥ ५७ ॥ इस प्रकार घर-गृहस्थी की वासना से जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषयभोगों से कभी तृप्त नहीं होता, उन्हीं में उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरक में जाता है ॥ ५८ ॥
॥ अष्टादशोऽध्यायः - १८ ॥
श्रीभगवानुवाच
वनं विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा ।
वन एव वसेच्छान्तस्तृतीयं भागमायुषः ॥ १॥
कन्दमूलफलैर्वन्यैर्मेध्यैर्वृत्तिं प्रकल्पयेत् ।
वसीत वल्कलं वासस्तृणपर्णाजिनानि च ॥ २॥
केशरोमनखश्मश्रुमलानि बिभृयाद्दतः ।
न धावेदप्सु मज्जेत त्रिकालं स्थण्डिलेशयः ॥ ३॥
ग्रीष्मे तप्येत पञ्चाग्नीन् वर्षास्वासारषाड्जले ।
आकण्ठमग्नः शिशिर एवं वृत्तस्तपश्चरेत् ॥ ४॥
अग्निपक्वं समश्नीयात्कालपक्वमथापि वा ।
उलूखलाश्मकुट्टो वा दन्तोलूखल एव वा ॥ ५॥
स्वयं सञ्चिनुयात्सर्वमात्मनो वृत्तिकारणम् ।
देशकालबलाभिज्ञो नाददीतान्यदाहृतम् ॥ ६॥
वन्यैश्चरुपुरोडाशैर्निर्वपेत्कालचोदितान् ।
न तु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी ॥ ७॥
अग्निहोत्रं च दर्शश्च पूर्णमासश्च पूर्ववत् ।
चातुर्मास्यानि च मुनेराम्नातानि च नैगमैः ॥ ८॥
एवं चीर्णेन तपसा मुनिर्धमनिसन्ततः ।
मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकादुपैति माम् ॥ ९॥
यस्त्वेतत्कृच्छ्रतश्चीर्णं तपो निःश्रेयसं महत् ।
कामायाल्पीयसे युञ्ज्याद्बालिशः कोऽपरस्ततः ॥ १०॥
यदासौ नियमेऽकल्पो जरया जातवेपथुः ।
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य मच्चित्तोऽग्निं समाविशेत् ॥ ११॥
यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु ।
विरागो जायते सम्यङ् न्यस्ताग्निः प्रव्रजेत्ततः ॥ १२॥
इष्ट्वा यथोपदेशं मां दत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे ।
अग्नीन् स्वप्राण आवेश्य निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥ १३॥
विप्रस्य वै सन्न्यसतो देवा दारादिरूपिणः ।
विघ्नान् कुर्वन्त्ययं ह्यस्मानाक्रम्य समियात्परम् ॥ १४॥
बिभृयाच्चेन्मुनिर्वासः कौपीनाच्छादनं परम् ।
त्यक्तं न दण्डपात्राभ्यामन्यत्किञ्चिदनापदि ॥ १५॥
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् ।
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥ १६॥
मौनानीहानिलायामा दण्डा वाग्देहचेतसाम् ।
न ह्येते यस्य सन्त्यङ्ग वेणुभिर्न भवेद्यतिः ॥ १७॥
भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विगर्ह्यान् वर्जयंश्चरेत् ।
सप्तागारानसङ्कॢप्तांस्तुष्येल्लब्धेन तावता ॥ १८॥
बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यतः ।
विभज्य पावितं शेषं भुञ्जीताशेषमाहृतम् ॥ १९॥
एकश्चरेन्महीमेतां निःसङ्गः संयतेन्द्रियः ।
आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान् समदर्शनः ॥ २०॥
विविक्तक्षेमशरणो मद्भावविमलाशयः ।
आत्मानं चिन्तयेदेकमभेदेन मया मुनिः ॥ २१॥
अन्वीक्षेतात्मनो बन्धं मोक्षं च ज्ञाननिष्ठया ।
बन्ध इन्द्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयमः ॥ २२॥
तस्मान्नियम्य षड् वर्गं मद्भावेन चरेन्मुनिः ।
विरक्तः क्षुद्रकामेभ्यो लब्ध्वात्मनि सुखं महत् ॥ २३॥
पुरग्रामव्रजान् सार्थान् भिक्षार्थं प्रविशंश्चरेत् ।
पुण्यदेशसरिच्छैलवनाश्रमवतीं महीम् ॥ २४॥
वानप्रस्थाश्रमपदेष्वभीक्ष्णं भैक्ष्यमाचरेत् ।
संसिध्यत्याश्वसम्मोहः शुद्धसत्त्वः शिलान्धसा ॥ २५॥
नैतद्वस्तुतया पश्येद्दृश्यमानं विनश्यति ।
असक्तचित्तो विरमेदिहामुत्र चिकीर्षितात् ॥ २६॥
यदेतदात्मनि जगन्मनोवाक्प्राणसंहतम् ।
सर्वं मायेति तर्केण स्वस्थस्त्यक्त्वा न तत्स्मरेत् ॥ २७॥
ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वानपेक्षकः ।
सलिङ्गानाश्रमांस्त्यक्त्वा चरेदविधिगोचरः ॥ २८॥
बुधो बालकवत्क्रीडेत्कुशलो जडवच्चरेत् ।
वदेदुन्मत्तवद्विद्वान् गोचर्यां नैगमश्चरेत् ॥ २९॥
वेदवादरतो न स्यान्न पाखण्डी न हैतुकः ।
शुष्कवादविवादे न कञ्चित्पक्षं समाश्रयेत् ॥ ३०॥
नोद्विजेत जनाद्धीरो जनं चोद्वेजयेन्न तु ।
अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन ।
देहमुद्दिश्य पशुवद्वैरं कुर्यान्न केनचित् ॥ ३१॥
एक एव परो ह्यात्मा भूतेष्वात्मन्यवस्थितः ।
यथेन्दुरुदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च ॥ ३२॥
अलब्ध्वा न विषीदेत काले कालेऽशनं क्वचित् ।
लब्ध्वा न हृष्येद्धृतिमानुभयं दैवतन्त्रितम् ॥ ३३॥
आहारार्थं समीहेत युक्तं तत्प्राणधारणम् ।
तत्त्वं विमृश्यते तेन तद्विज्ञाय विमुच्यते ॥ ३४॥
यदृच्छयोपपन्नान्नमद्याच्छ्रेष्ठमुतापरम् ।
तथा वासस्तथा शय्यां प्राप्तं प्राप्तं भजेन्मुनिः ॥ ३५॥
शौचमाचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेत् ।
अन्यांश्च नियमाञ्ज्ञानी यथाहं लीलयेश्वरः ॥ ३६॥
न हि तस्य विकल्पाख्या या च मद्वीक्षया हता ।
आदेहान्तात्क्वचित्ख्यातिस्ततः सम्पद्यते मया ॥ ३७॥
दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान् ।
अजिज्ञासितमद्धर्मो गुरुं मुनिमुपव्रजेत् ॥ ३८॥
तावत्परिचरेद्भक्तः श्रद्धावाननसूयकः ।
यावद्ब्रह्म विजानीयान्मामेव गुरुमादृतः ॥ ३९॥
यस्त्वसंयतषड् वर्गः प्रचण्डेन्द्रियसारथिः ।
ज्ञानवैराग्यरहितस्त्रिदण्डमुपजीवति ॥ ४०॥
सुरानात्मानमात्मस्थं निह्नुते मां च धर्महा ।
अविपक्वकषायोऽस्मादमुष्माच्च विहीयते ॥ ४१॥
भिक्षोर्धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः ।
गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम् ॥ ४२॥
ब्रह्मचर्यं तपः शौचं सन्तोषो भूतसौहृदम् ।
गृहस्थस्याप्यृतौ गन्तुः सर्वेषां मदुपासनम् ॥ ४३॥
इति मां यः स्वधर्मेण भजेन्नित्यमनन्यभाक् ।
सर्वभूतेषु मद्भावो मद्भक्तिं विन्दते दृढाम् ॥ ४४॥
भक्त्योद्धवानपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मोपयाति सः ॥ ४५॥
इति स्वधर्मनिर्णिक्तसत्त्वो निर्ज्ञातमद्गतिः ।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो न चिरात्समुपैति माम् ॥ ४६॥
वर्णाश्रमवतां धर्म एष आचारलक्षणः ।
स एव मद्भक्तियुतो निःश्रेयसकरः परः ॥ ४७॥
एतत्तेऽभिहितं साधो भवान् पृच्छति यच्च माम् ।
यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात्परम् ॥ ४८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥
एकादश स्कन्द-अठारहवाँ अध्याय 48
वानप्रस्थ और संन्यासी के धर्म
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहे, तो अपनी पत्नी को पुत्रों के हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे ॥ १ ॥ उसे वन के पवित्र कन्द-मूल और फलों से ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्र की जगह वृक्षों की छाल पहि ने अथवा घास-पात और मृगछाला से ही काम निकाल ले ॥ २ ॥ केश, रोएँ, नख और मूँछ-दाढ़ीरूप शरीर के मल को हटावे नहीं। दातुन न करे। जल में घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरती पर ही पड़ रहे ॥ ३ ॥ ग्रीष्म ऋतु में पञ्चाग्रि तपे, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर वर्षा की बौछार सहे। जाड़े के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे ॥ ४ ॥ कन्द-मूलों को केवल आग में भूनकर खा ले अथवा समयानुसार प के हुए फल आदि के द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूट ने की आवश्यकता हो तो ओखली में या सिल पर कूट ले, अन्यथा दाँतों से ही चबा-चबाकर खा ले ॥ ५ ॥ वानप्रस्थाश्रमी को चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं—इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिये स्वयं ही सब प्रकार के कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाये हुए अथवा दूसरे समय के सञ्चित पदार्थों को अपने काम में न ले [1] ॥ ६ ॥ नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हीं से समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जाने पर वेदविहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे ॥ ७ ॥ वेदवेत्ताओं ने वानप्रस्थी के लिये अग्रिहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदि का वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थों के लिये है ॥ ८ ॥ इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते मांस सूख जाने के कारण वानप्रस्थी की एक-एक नस दीख ने लगती है। वह इस तपस्या के द्वारा मेरी आराधना करके पहले तो ऋषियों के लोक में जाता है और वहाँ से फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरूप है ॥ ९ ॥ प्रिय उद्धव ! जो पुरुष बड़े कष्ट से किये हुए और मोक्ष देनेवाले इस महान तपस्या को स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि छोटे-मोटे फलों की प्राप्ति के लिये करता है, उससे बढक़र मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये तपस्या का अनुष्ठान निष्कामभाव से ही करना चाहिये ॥ १० ॥
प्यारे उद्धव ! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोचित नियमों का पालन करने में असमर्थ हो जाय, बुढ़ापे के कारण उसका शरीर काँप ने लगे, तब यज्ञाग्रियों को भावना के द्वारा अपने अन्त:करण में आरोपित कर ले और अपना मन मुझ में लगाकर अग्रि में प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं) ॥ ११ ॥ यदि उसकी समझ में यह बात आ जाय कि काम्य कर्मों से उनके फल स्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकों के समान ही दु:खपूर्ण हैं और मन में लोक-परलोक से पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्रियों का परित्याग करके संन्यास ले ले ॥ १२ ॥ जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधि के अनुसार आठों प्रकार के श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञ से मेरा यजन करे। इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विज् को दे दे। यज्ञाग्रियों को अपने प्राणों में लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियों की अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता है, तब देवतालोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियों का रूप धारण करके उसके संन्यास-ग्रहण में विघ्र डालते हैं। वे सोचते हैं कि ‘अरे ! यह तो हमलोगों की अवहेलनाकर, हमलोगों को लाँघकर परमात्मा को प्राप्त होने जा रहा है’ ॥ १४ ॥
यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊ पर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी ढक जाय। तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे। यह नियम आपत्तिकाल को छोडक़र सदा के लिये है ॥ १५ ॥ नेत्रों से धरती देखकर पैर रखे, कपड़े से छानकर जल पिये मुँह से प्रत्येक बात सत्यपूत—सत्य से पवित्र हुई ही निकाले और शरीर से जित ने भी काम करे, बुद्धिपूर्वक— सोच-विचार कर ही करे ॥ १६ ॥ वाणी के लिये मौन, शरीर के लिये निश्चेष्ट स्थिति और मन के लिये प्राणायाम दण्ड हैं। जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीर पर बाँसके दण्ड धारण करने से दण्डी स्वामी नहीं हो जाता ॥ १७ ॥ संन्यासी को चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितों को छोडक़र चारों वर्णों की भिक्षा ले। केवल अनिश्चित सात घरों से जितना मिल जाय, उतने से ही सन्तोष कर ले ॥ १८ ॥ इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्ती के बाहर जलाशय पर जाय, वहाँ हाथ- पैर धोकर जल के द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले, फिर शास्त्रोक्त पद्धति से जिन्हें भिक्षा का भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले; दूसरे समय के लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये ॥ १९ ॥ संन्यासी को पृथ्वी पर अकेले ही विचरना चाहिये। उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वश में हों। वह अपने-आप में ही मस्त रहे, आत्म-प्रेम में ही तन्मय रहे, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्य रखे और सर्वत्र समानरूप से स्थित परमात्मा का अनुभव करता रहे ॥ २० ॥ संन्यासी को निर्जन और निर्भय एकान्त-स्थान में रहना चाहिये। उसका हृदय निरन्तर मेरी भावना से विशुद्ध बना रहे। वह अपने-आपको मुझ से अभिन्न और अद्वितीय, अखण्ड के रूप में चिन्तन करे ॥ २१ ॥ वह अपनी ज्ञाननिष्ठा से चित्त के बन्धन और मोक्ष पर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियों का विषयों के लिये विक्षिप्त होना—चञ्चल होना बन्धन है और उन को संयम में रखना ही मोक्ष है ॥ २२ ॥ इसलिये संन्यासी को चाहिये कि मन एवं पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को जीत ले, भोगों की क्षुद्रता समझकर उनकी ओर से सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने-आप में ही परम आनन्द का अनुभव करे। इस प्रकार वह मेरी भावना से भरकर पृथ्वी में विचरता रहे ॥ २३ ॥ केवल भिक्षा के लिये ही नगर, गाँव, अहीरों की बस्ती या यात्रियों की टोली में जाय। पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन और आश्रमों से पूर्ण पृथ्वी में बिना कहीं ममता जोड़े घूमता- फिरता रहे ॥ २४ ॥ भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियों के आश्रम से ही ग्रहण करे। क्योंकि कटे हुए खेतों के दा ने से बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्त को शुद्ध कर देती है और उससे बचाखुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ २५ ॥
विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् है। इस जगत में कहीं भी अपने चित्त को लगाये नहीं। इस लोक और परलोक में जो कुछ करने-पाने की इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाय ॥ २६ ॥ संन्यासी विचार करे कि आत्मा में जो मन, वाणी और प्राणों का सङ्घातरूप यह जगत है, वह सारा-का-सारा माया ही है। इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूप में स्थित हो जाय और फिर कभी उसका स्मरण भी न करे ॥ २७ ॥ ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्ष की भी अपेक्षा न रखनेवाला मेरा भक्त आश्रमों की मर्यादा में बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नों को छोड़-छाडक़र, वेद-शास्त्र के विधि-निषेधों से परे होकर स्वच्छन्द विचरे ॥ २८ ॥ वह बुद्धिमान होकर भी बालकों के समान खेले। निपुण होकर भी जडवत् रहे, विद्वान् होकर भी पागल की तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियों का जानकार होकर भी पशुवृत्ति से (अनियत आचारवान्) रहे ॥ २९ ॥ उसे चाहिये कि वेदों के कर्मकाण्ड- भाग की व्याख्या में न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्क से बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले ॥ ३० ॥ वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मन में किसी भी प्राणी से उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणी को उद्विग्र न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नता से सह ले; किसी का अपमान न करे। प्रिय उद्धव ! संन्यासी इस शरीर के लिये किसी से भी वैर न करे। ऐसा वैर तो पशु करते हैं ॥ ३१ ॥ जैसे एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न पात्रों में अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों में और अपने में भी स्थित है। सब की आत्मा तो एक है ही, पञ्चभूतों से बने हुए शरीर भी सब के एक ही हैं, क्योंकि सब पाञ्चभौतिक ही तो हैं। (ऐसी अवस्था में किसी से भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध है) ॥ ३२ ॥
प्रिय उद्धव ! संन्यासी को किसी दिन यदि समय पर भोजन न मिले, तो उसे दुखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये। उसे चाहिये कि वह धैर्य रखे। मन में हर्ष और विषाद दोनों प्रकार के विकार न आ ने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्ध के अधीन हैं ॥ ३३ ॥ भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षा से ही प्राणों की रक्षा होती है। प्राण रहने से ही तत्त्व का विचार होता है और तत्त्वविचार से तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है ॥ ३४ ॥ संन्यासी को प्रारब्ध के अनुसार अच्छी या बुरी—जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसी से पेट भर ले। वस्त्र और बिछौ ने भी जैसे मिल जायँ, उन्हीं से काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपन की कल्पना न करे ॥ ३५ ॥ जैसे मैं परमेश्वर होने पर भी अपनी लीला से ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमों का पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमों का लीला से ही आचरण करे। वह शास्त्रविधि के अधीन होकर— विधिकिङ्कर होकर न करे ॥ ३६ ॥ क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुष को भेद की प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्मा के साक्षातकार से नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेद की प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जाने पर वह मुझ से एक हो जाता है ॥ ३७ ॥
उद्धवजी ! (यह तो हुई ज्ञानवान् की बात, अब केवल वैराग्यवान् की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसार के विषयों के भोग का फल दु:ख-ही-दु:ख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्ति के साधनों को न जानता हो तो भगवच्चिन्तन में तन्मय रहनेवाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की शरण ग्रहण करे ॥ ३८ ॥ वह गुरु की दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले। जब तक ब्रह्म का ज्ञान हो, तब तक बड़े आदर से मुझे ही गुरु के रूप में समझता हुआ उनकी सेवा करे ॥ ३९ ॥ किन्तु जिस ने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहों पर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथी बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदय में न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासी का वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यासधर्म का सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओं को, अपने-आपको और अपने हृदय में स्थित मुझको ठग ने की चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्र के संन्यासी की वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनों से हाथ धो बैठता है ॥ ४०-४१ ॥ संन्यासी का मुख्य धर्म है—शान्ति और अहिंसा। वानप्रस्थी का मुख्य धर्म है—तपस्या और भगवद्भाव। गृहस्थ का मुख्य धर्म है—प्राणियों की रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारी का मुख्य धर्म है— आचार्य की सेवा ॥ ४२ ॥ गृहस्थ भी केवल ऋतुकाल में ही अपनी स्त्री का सहवास करे। उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमभाव—ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभी को करनी चाहिये ॥ ४३ ॥ जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभाव से अपने वर्णाश्रमधर्म के द्वारा मेरी सेवा में लगा रहता है और समस्त प्राणियों में मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ ४४ ॥ उद्धवजी ! मैं सम्पूर्ण लोकों का एकमात्र स्वामी, सब की उत्पत्ति और प्रलय का परम कारण ब्रह्म हूँ। नित्य-निरन्तर बढऩेवाली अखण्ड भक्ति के द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालन के द्वारा अन्त:करण को शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्य को—मेरे स्वरूप को जान लेता है और ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥ मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियों का धर्म बतलाया है। यदि इस धर्मानुष्ठान में मेरी भक्ति का पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याण स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हो जाय ॥ ४७ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! तुम ने मुझ से जो प्रश्र किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्म का पालन करनेवाला भक्त मुझ परब्रह्म- स्वरूप को किस प्रकार प्राप्त होता है ॥ ४८ ॥
[1] अर्थात् मुनि इस बात को जानकर कि अमुक पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये और कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं, स्वयं ही नवीन-नवीन कन्द-मूल-फल आदि का सञ्चय करे। देश-कालादि से अनभिज्ञ अन्य जनों के लाये हुए अथवा कालान्तर में सञ्चय किये हुए पदार्थों के सेवन से व्याधि आदि के कारण तपस्या में विघ्र होने की आशं का है।
॥ एकोनविंशोऽध्यायः - १९ ॥
श्रीभगवानुवाच
यो विद्याश्रुतसम्पन्नः आत्मवान् नानुमानिकः ।
मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि सन्न्यसेत् ॥ १॥
ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थो हेतुश्च सम्मतः ।
स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो मदृते प्रियः ॥ २॥
ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्ठं विदुर्मम ।
ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम् ॥ ३॥
तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च ।
नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता ॥ ४॥
तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव ।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावतः ॥ ५॥
ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वाऽऽत्मानमात्मनि ।
सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन् ॥ ६॥
त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो
मायान्तरापतति नाद्यपवर्गयोर्यत् ।
जन्मादयोऽस्य यदमी तव तस्य किं स्यु-
राद्यन्तयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये ॥ ७॥
उद्धव उवाच
ज्ञानं विशुद्धं विपुलं
यथैतद्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम् ।
आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते
त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम् ॥ ८॥
तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे
सन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश ।
पश्यामि नान्यच्छरणं
तवाङ्घ्रिद्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ॥ ९॥
दष्टं जनं सम्पतितं बिलेऽस्मिन्
कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम् ।
समुद्धरैनं कृपयापवर्ग्यै-
र्वचोभिरासिञ्च महानुभाव ॥ १०॥
श्रीभगवानुवाच
इत्थमेतत्पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम् ।
अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम् ॥ ११॥
निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः ।
श्रुत्वा धर्मान् बहून् पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत ॥ १२॥
तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान् ।
ज्ञानवैराग्यविज्ञानश्रद्धाभक्त्युपबृंहितान् ॥ १३॥
नवैकादशपञ्चत्रीन् भावान् भूतेषु येन वै ।
ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम् ॥ १४॥
एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत् ।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद्भावानां त्रिगुणात्मनाम् ॥ १५॥
आदावन्ते च मध्ये च सृज्यात्सृज्यं यदन्वियात् ।
पुनस्तत्प्रतिसङ्क्रामे यच्छिष्येत तदेव सत् ॥ १६॥
श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम् ।
प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते ॥ १७॥
कर्मणां परिणामित्वादाविरिञ्चादमङ्गलम् ।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत् ॥ १८॥
भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ ।
पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परं ॥ १९॥
श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम् ।
परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम ॥ २०॥
आदरः परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम् ।
मद्भक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः ॥ २१॥
मदर्थेष्वङ्ग चेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम् ।
मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम् ॥ २२॥
मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च ।
इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद्व्रतं तपः ॥ २३॥
एवं धर्मैर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम् ।
मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते ॥ २४॥
यदात्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम् ।
धर्मं ज्ञानं सवैराग्यमैश्वर्यं चाभिपद्यते ॥ २५॥
यदर्पितं तद्विकल्पे इन्द्रियैः परिधावति ।
रजस्वलं चासन्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम् ॥ २६॥
धर्मो मद्भक्तिकृत्प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम् ।
गुणेष्वसङ्गो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादयः ॥ २७॥
उद्धव उवाच
यमः कति विधः प्रोक्तो नियमो वारिकर्शन ।
कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो ॥ २८॥
किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते ।
कस्त्यागः किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा ॥ २९॥
पुंसः किंस्विद्बलं श्रीमन् भगो लाभश्च केशव ।
का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च ॥ ३०॥
कः पण्डितः कश्च मूर्खः कः पन्था उत्पथश्च कः ।
कः स्वर्गो नरकः कः स्वित्को बन्धुरुत किं गृहम् ॥ ३१॥
क आढ्यः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः ।
एतान् प्रश्नान् मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते ॥ ३२॥
श्रीभगवानुवाच
अहिंसा सत्यमस्तेयमसङ्गो ह्रीरसञ्चयः ।
आस्तिक्यं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाभयम् ॥ ३३॥
शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धातिथ्यं मदर्चनम् ।
तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम् ॥ ३४॥
एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः ।
पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि ॥ ३५॥
शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयमः ।
तितिक्षा दुःखसम्मर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः ॥ ३६॥
दण्डन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम् ।
स्वभावविजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम् ॥ ३७॥
ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता ।
कर्मस्वसङ्गमः शौचं त्यागः सन्न्यास उच्यते ॥ ३८॥
धर्म इष्टं धनं नॄणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः ।
दक्षिणा ज्ञानसन्देशः प्राणायामः परं बलम् ॥ ३९॥
भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः ।
विद्याऽऽत्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु ॥ ४०॥
श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्याः सुखं दुःखसुखात्ययः ।
दुःखं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित् ॥ ४१॥
मूर्खो देहाद्यहं बुद्धिः पन्था मन्निगमः स्मृतः ।
उत्पथश्चित्तविक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः ॥ ४२॥
नरकस्तम उन्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे ।
गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते ॥ ४३॥
दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः ।
गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसङ्गो विपर्ययः ॥ ४४॥
एत उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः ।
किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः ।
गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः ॥ ४५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥
एकादश स्कन्द-उन्नीसवाँ अध्याय 45
भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! जिस ने उपनिषदादि शास्त्रों के श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मसाक्षातकार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानों पर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दोंमें—जो केवल परोक्षज्ञानी नहीं है, वह यह जानकर कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपञ्च और इस की निवृत्ति का साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझ में लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मा में अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले ॥ १ ॥ ज्ञानी पुरुष का अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ से वह प्रेम नहीं करता ॥ २ ॥ जो ज्ञान और विज्ञान से सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूप को जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सब से प्रिय है। उद्धवजी ! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान के द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्त:करण में धारण करता है ॥ ३ ॥ तत्त्वज्ञान के लेशमात्र का उदय होने से जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्त:करण-शुद्धि के और किसी भी साधन से पूर्णतया नहीं हो सकती ॥ ४ ॥ इसलिये मेरे प्यारे उद्धव ! तुम ज्ञान के सहित अपने आत्म स्वरूप को जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर भक्तिभाव से मेरा भजन करो ॥ ५ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञ के द्वारा अपने अन्त:करण में मुझ सब यज्ञों के अधिपति आत्मा का यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है ॥ ६ ॥ उद्धव ! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—इन तीन विकारों की समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्त में नहीं रहेगा; केवल बीच में ही दीख रहा है। इसलिये इसे जादू के खेल के समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और नष्ट होना—ये छ: भावविकार हैं, इन से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यही नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बाद में भी नहीं रहेगी; इसलिये बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता ॥ ७ ॥
उद्धवजी ने कहा—विश्वरूप परमात्मन् ! आप ही विश्व के स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञान से युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाय, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोग का भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूँढ़ा करते हैं ॥ ८ ॥ मेरे स्वामी ! जो पुरुष इस संसार के विकट मार्ग में तीनों तापों के थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दों की छत्र- छाया के अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता ॥ ९ ॥ महानुभाव ! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुएँ में पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्प ने इसे डस रखा है; फिर भी विषयों के क्षुद्र सुख- भोगों की तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करनेवाली वाणी की सुधा-धारा से इसे सराबोर कर दीजिये ॥ १० ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धवजी ! जो प्रश्र तुम ने मुझ से किया है, यही प्रश्र धर्मराज युधिष्ठिर ने धार्मिकशिरोमणि भीष्मपितामह से किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे ॥ ११ ॥ जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चु का था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन-सम्बन्धियों के संहार से शोक-विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामह से बहुत- से धर्मों का विवरण सुनने के पश्चात मोक्ष के साधनों के सम्बन्ध में प्रश्र किया था ॥ १२ ॥ उस समय भीष्मपितामह के मुख से सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हें सुनाऊँगा। क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्ति के भावों से परिपूर्ण हैं ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जिस ज्ञान से प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—ये नौ, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वों को ब्रह्मा से लेकर तृण तक सम्पूर्ण कार्यों में देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्व को अनुगत रूप से देखा जाता है—वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निश्चय है ॥ १४ ॥ जब जिस एक तत्त्व से अनुगत एकात्मक तत्त्वों को पहले देखता था, उन को पहले के समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रह्म को ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञान को प्राप्त करने की युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जित ने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय का विचार करे ॥ १५ ॥ जो तत्त्ववस्तु सृष्टि के प्रारम्भ में और अन्त में कारणरूप से स्थित रहती है, वही मध्य में भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्य से प्रतीयमान कार्यान्तर में अनुगत भी होती है। फिर उन कार्यों का प्रलय अथवा बाध होने पर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूप से शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे ॥ १६ ॥ श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (महापुरुषों में प्रसिद्धि) और अनुमान—प्रमाणों में यह चार मुख्य हैं। इन की कसौटी पर कस ने से दृश्य-प्रपञ्च अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होने के कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवे की पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपञ्च से विरक्त हो जाता है ॥ १७ ॥ विवे की पुरुष को चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कर्मों के परिणामी—नश्वर होने के कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख—अदृष्ट को भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुख के समान ही अमङ्गल, दु:खदायी एवं नाशवान् समझे ॥ १८ ॥
निष्पाप उद्धवजी ! भक्तियोग का वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चु का हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है, इसलिये मैं तुम्हें फिर से भक्ति प्राप्त होने का श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ ॥ १९ ॥ जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथा में श्रद्धा रखे; निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामों का सङ्कीर्तन करे; मेरी पूजा में अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रों के द्वारा मेरी स्तुति करे ॥ २० ॥ मेरी सेवा-पूजा में प्रेम रखे और सामने साष्टाङ्ग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तों की पूजा मेरी पूजा से बढक़र करे और समस्त प्राणियों में मुझे ही देखे ॥ २१ ॥ अपने एक-एक अङ्ग की चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणी से मेरे ही गुणों का गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ॥ २२ ॥ मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुख का भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ॥ २३ ॥ उद्धवजी ! जो मनुष्य इन धर्मों का पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदय में मेरी प्रेममयी भक्ति का उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तु का प्राप्त होना शेष रह जाता है? ॥ २४ ॥
इस प्रकार के धर्मों का पालन करने से चित्त में जब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मा में लग जाता है; उस समय साधक को धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ॥ २५ ॥ यह संसार विविध कल्पनाओं से भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियों के साथ इधर-उधर भटक ने लगता है। इस प्रकार चित्त में रजोगुण की बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तु में लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोह का भी घर बन जाता है ॥ २६ ॥ उद्धव ! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षातकार हो, वही ज्ञान है; विषयों से असङ्ग—निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं ॥ २७ ॥
उद्धवजी ने कहा—रिपुसूदन ! यम और नियम कित ने प्रकार के हैं ? श्रीकृष्ण ! शम क्या है ? दम क्या है ? प्रभो ! तितिक्षा और धैर्य क्या है ? ॥ २८ ॥ आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋत का भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है ? अभीष्ट धन कौन-सा है ? यज्ञ कि से कहते हैं ? और दक्षिणा क्या वस्तु है ? ॥ २९ ॥ श्रीमान् केशव ! पुरुष का सच्चा बल क्या है ? भग कि से कहते हैं ? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दु:ख क्या है ? ॥ ३० ॥ पण्डित और मूर्ख के लक्षण क्या हैं ? सुमार्ग और कुमार्ग का क्या लक्षण है ? स्वर्ग और नरक क्या हैं ? भाई-बन्धु कि से मानना चाहिये ? और घर क्या है ? ॥ ३१ ॥ धनवान् और निर्धन कि से कहते हैं ? कृपण कौन है ? और ईश्वर कि से कहते हैं ? भक्तवत्सल प्रभो ! आप मेरे इन प्रश्रों का उत्तर दीजिये और साथ ही इनके विरोधी भावों की भी व्याख्या कीजिये ॥ ३२ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘यम’ बारह हैं— अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असङ्गता, लज्जा, असञ्चय (आवश्यकता से अधिक धन आदि न जोडऩा), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमों की संख्या भी बारह ही है। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकार की चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा—इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनों की संख्या बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधकों के लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी ! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं ॥ ३३—३५ ॥ बुद्धि का मुझ में लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियों के संयम का नाम ‘दम’ है। न्याय से प्राप्त दु:ख के सह ने का नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और जननेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है ॥ ३६ ॥ किसी से द्रोह न करना सब को अभय देना ‘दान’ है। कामनाओं का त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र सम स्वरूप, सत्य स्वरूप परमात्मा का दर्शन ही ‘सत्य’ है ॥ ३७ ॥ इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषण को ही महात्माओं ने ‘ऋत’ कहा है। कर्मों में आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओं का त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है ॥ ३८ ॥ धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञान का उपदेश देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है ॥ ३९ ॥ मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह्म और आत्मा का भेद मिट जाता है। पाप करने से घृणा होने का नाम ही ‘लज्जा’ है ॥ ४० ॥ निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है, दु:ख और सुख दोनों की भावना का सदा के लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषयभोगों की कामना ही दु:ख है। जो बन्धन और मोक्ष का तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है ॥ ४१ ॥ शरीर आदि में जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसार की ओर से निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्त की बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुण की वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे ! तमोगुण की वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणों से सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है ॥ ४२-४३ ॥ जिसके चित्त में असन्तोष है, अभाव का बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयों में आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है ॥ ४४ ॥ प्यारे उद्धव ! तुम ने जित ने प्रश्र पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्ग के लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषों का लक्षण अलग-अलग कहाँ तक बताऊँ ? सब का सारांश इत ने में ही समझ लो कि गुणों और दोषों पर दृष्टि जाना ही सब से बड़ा दोष है और गुणदोषों पर दृष्टि न जाकर अपने शान्त नि:सङ्कल्प स्वरूप में स्थित रहे—वही सब से बड़ा गुण है ॥ ४५ ॥
॥ विंशोऽध्यायः - २० ॥
उद्धव उवाच
विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हीश्वरस्य ते ।
अवेक्षतेऽरविन्दाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम् ॥ १॥
वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम् ।
द्रव्यदेशवयःकालान् स्वर्गं नरकमेव च ॥ २॥
गुणदोषभिदा दृष्टिमन्तरेण वचस्तव ।
निःश्रेयसं कथं नॄणां निषेधविधिलक्षणम् ॥ ३॥
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर ।
श्रेयस्त्वनुपलब्धेऽर्थे साध्यसाधनयोरपि ॥ ४॥
गुणदोषभिदादृष्टिर्निगमात्ते न हि स्वतः ।
निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः ॥ ५॥
श्रीभगवानुवाच
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नॄणां श्रेयोविधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ ६॥
निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।
तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ॥ ७॥
यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः ॥ ८॥
तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥ ९॥
स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैरनाशीः काम उद्धव ।
न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत् ॥ १०॥
अस्मिंल्लोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः ।
ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद्भक्तिं वा यदृच्छया ॥ ११॥
स्वर्गिणोऽप्येतमिच्छन्ति लोकं निरयिणस्तथा ।
साधकं ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधकम् ॥ १२॥
न नरः स्वर्गतिं काङ्क्षेन्नारकीं वा विचक्षणः ।
नेमं लोकं च काङ्क्षेत देहावेशात्प्रमाद्यति ॥ १३॥
एतद्विद्वान् पुरा मृत्योरभवाय घटेत सः ।
अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम् ॥ १४॥
छिद्यमानं यमैरेतैः कृतनीडं वनस्पतिम् ।
खगः स्वकेतमुत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलम्पटः ॥ १५॥
अहोरात्रैश्छिद्यमानं बुद्ध्वायुर्भयवेपथुः ।
मुक्तसङ्गः परं बुद्ध्वा निरीह उपशाम्यति ॥ १६॥
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत्स आत्महा ॥ १७॥
यदारम्भेषु निर्विण्णो विरक्तः संयतेन्द्रियः ।
अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः ॥ १८॥
धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यदाश्वनवस्थितम् ।
अतन्द्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत् ॥ १९॥
मनोगतिं न विसृजेज्जितप्राणो जितेन्द्रियः ।
सत्त्वसम्पन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत् ॥ २०॥
एष वै परमो योगो मनसः सङ्ग्रहः स्मृतः ।
हृदयज्ञत्वमन्विच्छन् दम्यस्येवार्वतो मुहुः ॥ २१॥
साङ्ख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः ।
भवाप्ययावनुध्यायेन्मनो यावत्प्रसीदति ॥ २२॥
निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः ।
मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया ॥ २३॥
यमादिभिर्योगपथैरान्वीक्षिक्या च विद्यया ।
ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः ॥ २४॥
यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम् ।
योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन ॥ २५॥
स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।
कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियमः कृतः ।
गुणदोषविधानेन सङ्गानां त्याजनेच्छया ॥ २६॥
जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु ।
वेददुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ॥ २७॥
ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः ।
जुषमाणश्च तान् कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन् ॥ २८॥
प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुनेः ।
कामा हृदय्या नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते ॥ २९॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि ॥ ३०॥
तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः ।
न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥ ३१॥
यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् ।
योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि ॥ ३२॥
सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा ।
स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद्यदि वाञ्छति ॥ ३३॥
न किञ्चित्साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनो मम ।
वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम् ॥ ३४॥
नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर्निःश्रेयसमनल्पकम् ।
तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्य मे भवेत् ॥ ३५॥
न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः ।
साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम् ॥ ३६॥
एवमेतान् मयाऽऽदिष्टाननुतिष्ठन्ति मे पथः ।
क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद्ब्रह्म परमं विदुः ॥ ३७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २०॥
एकादश स्कन्द-बीसवाँ अध्याय 37
ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
उद्धवजी ने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण ! आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है; उसमें कुछ कर्मों को करने की विधि है और कुछ के करने का निषेध है। यह विधि-निषेध कर्मों के गुण और दोष की परीक्षा करके ही तो होता है ॥ १ ॥ वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोमरूप वर्णसंकर, कर्मों के उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु और काल तथा स्वर्ग और नरक के भेदों का बोध भी वेदों से ही होता है ॥ २ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और दोष में भेद करनेवाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियों का कल्याण करने में समर्थ ही कैसे हो ? ॥ ३ ॥ सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ! आपकी वाणी वेद ही पितर, देवता और मनुष्यों के लिये श्रेष्ठ मार्ग-दर्शक का काम करता है; क्योंकि उसी के द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओं का बोध होता है और इस लोक में भी किस का कौन-सा साध्य है और क्या साधन— इसका निर्णय भी उसी से होता है ॥ ४ ॥ प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषों में भेददृष्टि आपकी वाणी वेद के ही अनुसार है, किसी की अपनी कल्पना नहीं; परन्तु प्रश्र तो यह है कि आपकी वाणी ही भेद का निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये ॥ ५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! मैंने ही वेदों में एवं अन्यत्र भी मनुष्यों का कल्याण करने के लिये अधिकारिभेद से तीन प्रकार के योगों का उपदेश किया है। वे हैं—ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्य के परम कल्याण के लिये इनके अतिरिक्त और कोई उपाय कहीं नहीं है ॥ ६ ॥ उद्धवजी ! जो लोग कर्मों तथा उनके फलों से विरक्त हो गये हैं और उनका त्याग कर चु के हैं, वे ज्ञानयोग के अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दु:खबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्मयोग के अधिकारी हैं ॥ ७ ॥ जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्म के शुभकर्म से सौभाग्यवश मेरी लीला- कथा आदि में उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्तियोग का अधिकारी है। उसे भक्तियोग के द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है ॥ ८ ॥ कर्म के सम्बन्ध में जित ने भी विधिनिषेध हैं, उनके अनुसार तभी तक कर्म करना चाहिये, जब तक कर्ममय जगत और उसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखों से वैराग्य न हो जाय अथवा जब तक मेरी लीला- कथा के श्रवण-कीर्तन आदि में श्रद्धा न हो जाय ॥ ९ ॥ उद्धव ! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में स्थित रहकर यज्ञों के द्वारा बिना किसी आशा और कामना के मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कर्मों से दूर रहकर केवल विहित कर्मों का ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरक में नहीं जाना पड़ता ॥ १० ॥ अपने धर्म में निष्ठा रखनेवाला पुरुष इस शरीर में रहते-रहते ही निषिद्ध कर्म का परित्याग कर देता है और रागादि मलों से भी मुक्त—पवित्र हो जाता है। इसीसे अनायास ही उसे आत्मसाक्षातकाररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होने पर मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ ११ ॥ यह विधि-निषेधरूप कर्म का अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकों में रहनेवाले जीव इस की अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीर में अन्त:करण की शुद्धि होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरक का भोगप्रधान शरीर किसी भी साधन के उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान पुरुष को न तो स्वर्ग की अभिलाषा करनी चाहिये और न नरक की ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीर की भी कामना न करनी चाहिये; क्योंकि किसी भी शरीर में गुणबुद्धि और अभिमान हो जाने से अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है ॥ १२-१३ ॥ यद्यपि यह मनुष्य-शरीर ह्ै तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थकी—सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होने के पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदा के लिये छूट जाय—मुक्त हो जाय ॥ १४ ॥ यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराज के दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्ष को छोडक़र उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीर को छोडक़र मोक्ष का भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दु:ख ही भोगता रहता है ॥ १५ ॥ प्रिय उद्धव ! ये दिन और रात क्षण-क्षण में शरीर की आयु को क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भय से काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोडक़र परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन- मरण से निरपेक्ष होकर अपने आत्मा में ही शान्त हो जाता है ॥ १६ ॥ यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलों की प्राप्ति का मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार- सागर से पार जाने के लिये यह एक सुदृढ़ नौ का है। शरण-ग्रहणमात्र से ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवार का सञ्चालन करने लगते हैं और स्मरणमात्र से ही मैं अनुकूल वायु के रूप में इसे लक्ष्य की ओर बढ़ा ने लगता हूँ। इतनी सुविधा होने पर भी जो इस शरीर के द्वारा संसार-सागर से पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्मा का हनन—अध:पतन कर रहा है ॥ १७ ॥
प्रिय उद्धव ! जब पुरुष दोषदर्शन के कारण कर्मों से उद्विग्र और विरक्त हो जाय, तब जितेन्द्रिय होकर वह योग में स्थित हो जाय और अभ्यास—आत्मानुसन्धान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मा में निश्चलरूप से धारण करे ॥ १८ ॥ जब स्थिर करते समय मन चञ्चल होकर इधर-उधर भटक ने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानी से उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वश में कर ले ॥ १९ ॥ इन्द्रियों और प्राणों को अपने वश में रखे और मन को एक क्षण के लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकत को देखता रहे। इस प्रकार सत्त्वसम्पन्न बुद्धि के द्वारा धीरे-धीरे मन को अपने वश में कर लेना चाहिये ॥ २० ॥ जैसे सवार घोड़े को अपने वश में करते समय उसे अपने मनोभाव की पहचान कराना चाहता है—अपनी इच्छा के अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वश में कर लेता है, वैसे ही मन को फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वश में कर लेना भी परम योग है ॥ २१ ॥ सांख्यशास्त्र में प्रकृति से लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टि का जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रम से शरीर आदि का प्रकृति में लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तब तक जारी रखना चाहिये, जब तक मन शान्त—स्थिर न हो जाय ॥ २२ ॥ जो पुरुष संसार से विरक्त हो गया है और जिसे संसार के पदार्थों में दु:ख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनों के उपदेश को भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूप के ही चिन्तन में संलग्र रहता है। इस अभ्यास से बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चञ्चलता, जो अनात्मा शरीर आदि में आत्मबुद्धि करने से हुई है, छोड़ देता है ॥ २३ ॥ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गोंसे, वस्तुतत्त्व का निरीक्षण-परीक्षण करनेवाली आत्मविद्या से तथा मेरी प्रतिमा की उपासनासे—अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग से मन परमात्मा का चिन्तन करने लगता है; और कोई उपाय नहीं है ॥ २४ ॥
उद्धवजी ! वैसे तो योगी कभी कोई निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाय तो योग के द्वारा ही उस पाप को जला डाले, कृच्छ्रचान्द्रायण आदि दूसरे प्रायश्चित्त कभी न करे ॥ २५ ॥ अपने-अपने अधिकार में जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेध के विधान से यही तात्पर्य निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्ति का परित्याग हो जाय; क्योंकि कर्म तो जन्म से ही अशुद्ध हैं, अनर्थ के मूल हैं। शास्त्र का तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है। जहाँ तक हो सके प्रवृत्ति का सं कोच ही करना चाहिये ॥ २६ ॥ जो साधक समस्त कर्मों से विरक्त हो गया हो, उनमें दु:खबुद्धि रखता हो, मेरी लीला कथा के प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोगवासनाएँ दु:खरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्याग में समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगों को तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदय से दु:खजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधा की स्थिति से छुटकारा पाने के लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेम से मेरा भजन करे ॥ २७-२८ ॥ इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोग के द्वारा निरन्तर मेरा भजन करने से मैं उस साधक के हृदय में आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदय की सारी वासनाएँ अपने संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती हैं ॥ २९ ॥ इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्मा का साक्षातकार हो जाता है, तब तो उसके हृदय की गाँठ टूट जाती है, उसके सारे संशय छिन्न- भिन्न हो जाते हैं और कर्मवासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं ॥ ३० ॥ इसीसे जो योगी मेरी भक्ति से युक्त और मेरे चिन्तन में मग्र रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्य की आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्राय: मेरी भक्ति के द्वारा ही हो जाता है ॥ ३१ ॥ कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याणसाधनों से जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोग के प्रभाव से ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है ॥ ३२-३३ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी एवं धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! सब से श्रेष्ठ एवं महान नि:श्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षता का ही दूसरा नाम है। इसलिये जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसी को मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ ३५ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी भक्तों का और उन समदर्शी महात्माओंका; जो बुद्धि से अतीत परमतत्त्व को प्राप्त हो चु के हैं, इन विधि और निषेध से होनेवाले पुण्य और पाप से कोई सम्बन्ध ही नहीं होता ॥ ३६ ॥ इस प्रकार जो लोग मेरे बतलाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्ममार्गों का आश्रय लेते हैं, वे मेरे परम कल्याण स्वरूप धाम को प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्व को जान लेते हैं ॥ ३७ ॥
॥ एकविंशोऽध्यायः - २१ ॥
श्रीभगवानुवाच
य एतान् मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान् ।
क्षुद्रान् कामांश्चलैः प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते ॥ १॥
स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।
विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः ॥ २॥
शुद्ध्यशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु ।
द्रव्यस्य विचिकित्सार्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ ॥ ३॥
धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ ।
दर्शितोऽयं मयाऽऽचारो धर्ममुद्वहतां धुरम् ॥ ४॥
भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्चधातवः ।
आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुताः ॥ ५॥
वेदेन नाम रूपाणि विषमाणि समेष्वपि ।
धातुषूद्धव कल्प्यन्त एतेषां स्वार्थसिद्धये ॥ ६॥
देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम ।
गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम् ॥ ७॥
अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत् ।
कृष्णसारोऽप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम् ॥ ८॥
कर्मण्यो गुणवान् कालो द्रव्यतः स्वत एव वा ।
यतो निवर्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः ॥ ९॥
द्रव्यस्य शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च ।
संस्कारेणाथ कालेन महत्वाल्पतयाथ वा ॥ १०॥
शक्त्याशक्त्याथ वा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने ।
अघं कुर्वन्ति हि यथा देशावस्थानुसारतः ॥ ११॥
धान्यदार्वस्थितन्तूनां रसतैजसचर्मणाम् ।
कालवाय्वग्निमृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः ॥ १२॥
अमेध्यलिप्तं यद्येन गन्धलेपं व्यपोहति ।
भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते ॥ १३॥
स्नानदानतपोऽवस्था वीर्यसंस्कारकर्मभिः ।
मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद्द्विजः ॥ १४॥
मन्त्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम् ।
धर्मः सम्पद्यते षड्भिरधर्मस्तु विपर्ययः ॥ १५॥
क्वचिद्गुणोऽपि दोषः स्याद्दोषोऽपि विधिना गुणः ।
गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव बाधते ॥ १६॥
समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम् ।
औत्पत्तिको गुणः सङ्गो न शयानः पतत्यधः ॥ १७॥
यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः ।
एष धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः ॥ १८॥
विषयेषु गुणाध्यासात्पुंसः सङ्गस्ततो भवेत् ।
सङ्गात्तत्र भवेत्कामः कामादेव कलिर्नृणाम् ॥ १९॥
कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्तनुवर्तते ।
तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम् ॥ २०॥
तया विरहितः साधो जन्तुः शून्याय कल्पते ।
ततोऽस्य स्वार्थविभ्रंशो मूर्च्छितस्य मृतस्य च ॥ २१॥
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम् ।
वृक्षजीविकया जीवन् व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन् ॥ २२॥
फलश्रुतिरियं नॄणां न श्रेयो रोचनं परम् ।
श्रेयो विवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम् ॥ २३॥
उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च ।
आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु ॥ २४॥
न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि ।
कथं युञ्ज्यात्पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः ॥ २५॥
एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः ।
फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि ॥ २६॥
कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः ।
अग्निमुग्धा धूमतान्ताः स्वं लोकं न विदन्ति ते ॥ २७॥
न ते मामङ्ग जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः ।
उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः ॥ २८॥
ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः ।
हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना ॥ २९॥
हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया ।
यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन् खलाः ॥ ३०॥
स्वप्नोपमममुं लोकमसन्तं श्रवणप्रियम् ।
आशिषो हृदि सङ्कल्प्य त्यजन्त्यर्थान् यथा वणिक् ॥ ३१॥
रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः ।
उपासत इन्द्रमुख्यान् देवादीन् न यथैव माम् ॥ ३२॥
इष्ट्वेह देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि ।
तस्यान्त इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः ॥ ३३॥
एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम् ।
मानिनां चातिस्तब्धानां मद्वार्तापि न रोचते ॥ ३४॥
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे ।
परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम् ॥ ३५॥
शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम् ।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ॥ ३६॥
मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना ।
भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ॥ ३७॥
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात् ।
आकाशाद्घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ॥ ३८॥
छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः ।
ओंकाराद्व्यञ्जितस्पर्शस्वरोष्मान्तस्थभूषिताम् ॥ ३९॥
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः ।
अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम् ॥ ४०॥
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च ।
त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद्विराट् ॥ ४१॥
किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत् ।
इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन ॥ ४२॥
मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम् ।
एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम् ।
मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ॥ ४३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१
एकादश स्कन्द-इक्कीसवाँ अध्याय 43
गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं—भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोडक़र चञ्चल इन्द्रियों के द्वारा क्षुद्र भोग भोगते रहते हैं, वे बार-बार जन्म- मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटकते रहते हैं ॥ १ ॥ अपने-अपने अधिकार के अनुसार धर्म में दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनों की व्यवस्था अधिकार के अनुसार की जाती है, किसी वस्तु के अनुसार नहीं ॥ २ ॥ वस्तुओं के समान होने पर भी शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदि का जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थ का ठीक-ठीक निरीक्षण-परीक्षण हो सके और उनमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियन्ङ्क्षत्रत— संकुचित किया जा सके ॥ ३ ॥ उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाज का व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवन के निर्वाहमें भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज प्रवृत्तियों के द्वारा इनके जाल में न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवन को नियन्त्रित और मन को वशीभूत कर लेता है। निष्पाप उद्धव ! यह आचार मैंने ही मनु आदि का रूप धारण करके धर्म का भार ढोनेवाले कर्मजडों के लिये उपदेश किया है ॥ ४ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये पञ्चभूत ही ब्रह्मा से लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियों के शरीरों के मूलकारण हैं। इस तरह वे सब शरीर की दृष्टि से तो समान हैं ही, सब का आत्मा भी एक ही है ॥ ५ ॥ प्रिय उद्धव ! यद्यपि सब के शरीरों के पञ्चभूत समान हैं; फिर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम आदि अलग- अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियों को संकुचित करके—नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सकें ॥ ६ ॥ साधुश्रेष्ठ ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुण-दोषों का विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्मों में लोगों की उच्छृङ्खल प्रवृत्ति न हो, मर्यादा का भङ्ग न होने पावे ॥ ७ ॥ देशों में वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राह्मणभक्त न हों। कृष्णसार मृग के होने पर भी, केवल उन प्रदेशों को छोडक़र जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है। संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं ॥ ८ ॥ समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करनेयोग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें कर्म करने की सामग्री न मिले आगन्तुक दोषों से अथवा स्वाभाविक दोष के कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है ॥ ९ ॥ पदार्थों की शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्व से भी होती है। (जैसे कोई पात्र जल से शुद्ध और मूत्रादि से अशुद्ध हो जाता है। किसी वस्तु की शुद्धि अथवा अशुद्धि में शं का होने पर ब्राह्मणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिडक़ ने से शुद्ध और सूँघ ने से अशुद्ध माने जाते हैं। तत्काल का पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है। बड़े सरोवर और नदी आदि का जल शुद्ध और छोटे गड्ढों का अशुद्ध माना जाता है। इस प्रकार क्रम से समझ लेना चाहिये।) ॥ १० ॥ शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभव के अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रता की व्यवस्था होती है। उसमें भी स्थान और उपयोग करनेवाले की आयु का विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओं के व्यवहार का दोष ठीक तरह से आँ का जाता है। (जैसे धनी-दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्था के भेद से शुद्धि और अशुद्धि की व्यवस्था में अन्तर पड़ जाता है।) ॥ ११ ॥ अनाज, लकड़ी, हाथीदाँत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेल, घी आदि रस, सोना- पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टी के बने पदार्थ समय पर अपने-आप हवा लगनेसे, आग में जलानेसे, मिट्टी लगा ने से अथवा जल में धो ने से शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्था के अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्री के संयोग से शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एक से भी शुद्धि हो जाती है ॥ १२ ॥ यदि किसी वस्तु में कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छील ने से या मिट्टी आदि मल ने से जब उस पदार्थ की गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूप में आ जाय, तब उस को शुद्ध समझना चाहिये ॥ १३ ॥ स्नान, दान, तपस्या, वय, सामथ्र्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को विहित कर्मों का आचरण करना चाहिये ॥ १४ ॥ गुरुमुख से सुनकर भलीभाँति हृदयङ्गम कर लेने से मन्त्र की और मुझे समर्पित कर दे ने से कर्म की शुद्धि होती है। उद्धवजी ! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म—इन छहों के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता है ॥ १५ ॥ कहीं-कहीं शास्त्रविधि से गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राह्मण के लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्र के लिये दोष हैं। और दूध आदि का व्यापार वैश्य के लिये विहित है; परन्तु ब्राह्मण के लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तु के विषय में किसी के लिये गुण और किसी के लिये दोष का विधान गुण और दोषों की वास्तविकता का खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोष का यह भेद कल्पित है ॥ १६ ॥ जो लोग पतित हैं, वे पतितोंका-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जब कि श्रेष्ठ पुरुषों के लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे गृहस्थों के लिये स्वाभाविक होने के कारण अपनी पत्नी का सङ्ग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासी के लिये घोर पाप है। उद्धवजी ! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहले से ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा ? ॥ १७ ॥ जिन-जिन दोषों और गुणों से मनुष्य का चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओं के बन्धन से वह मुक्त हो जाता है। मनुष्यों के लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याण का साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भय को मिटानेवाला है ॥ १८ ॥
उद्धवजी ! विषयों में कहीं भी गुणों का आरोप करने से उस वस्तु के प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होने से उसे अपने पास रखने की कामना हो जाती है और इस कामना की पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा पडऩे पर लोगों में परस्पर कलह होने लगता है ॥ १९ ॥ कलह से असह्य क्रोध की उत्पत्ति होती है और क्रोध के समय अपने हित-अहित का बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञान से शीघ्र ही मनुष्य की कार्याकार्य का निर्णय करने-वाली व्यापक चेतनाशक्ति लुप्त हो जाती है ॥ २० ॥ साधो ! चेतनाशक्ति अर्थात् स्मृति के लुप्त हो जाने पर मनुष्य में मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्य के समान अस्तित्वहीन हो जाता है। अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मूचर्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थिति में न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ ॥ २१ ॥ विषयों का चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है। उसका जीवन वृक्षों के समान जड हो जाता है। उसके शरीर में उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहार की धौंकनी की हवा। उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरेका। वह सर्वथा आत्मवञ्चित हो जाता है ॥ २२ ॥
उद्धवजी ! यह स्वर्गादिरूप फल का वर्णन करनेवाली श्रुति मनुष्यों के लिये उन-उन लोकों को परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती, परन्तु बहिर्मुख पुरुषों के लिये अन्त:करणशुद्धि के द्वारा परम कल्याणमय मोक्ष की विवक्षा से ही कर्मों में रुचि उत्पन्न करने के लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चों से औषधि में रुचि उत्पन्न करने के लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं। (बेटा ! प्रेम से गिलोय का काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी) ॥ २३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसार के विषयभोगों में, प्राणों में और सगे-सम्बन्धियों में सभी मनुष्य जन्म से ही आसक्त हैं और उन वस्तुओं की आसक्ति उनकी आत्मोन्नति में बाधक एवं अनर्थ का कारण है ॥ २४ ॥ वे अपने परम पुरुषार्थ को नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादि का जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियों में भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियों के घोर अन्धकार में आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिर से उन्हें उन्हीं विषयों में क्यों प्रवृत्त करेगा ? ॥ २५ ॥ दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदों का यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों का वर्णन देखते हैं और उन्हीं को परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियों का ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते ॥ २६ ॥ विषय-वासनाओं में फँ से हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्रि के द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कर्मों में ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्त में देवलोक, पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जाने के कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपद का पता नहीं लगता ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धव ! उनके पास साधना है तो केवल कर्म की और उसका कोई फल है तो इन्द्रियों की तृप्ति। उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं; इसीसे वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत के रूप में है, वह परमात्मा मैं उनके हृदय में ही हूँ ॥ २८ ॥ यदि हिंसा और उसके फल मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञ में ही करे— यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्ति का सं कोच है, सन्ध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्राय को न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध किये हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं ॥ २९-३० ॥
उद्धवजी ! स्वर्गादि परलोक स्वप्न के दृश्यों के समान हैं, वास्तव में वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुनने में बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँ के भोगों के लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकार के संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभ की आशा से मूलधन को भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञों द्वारा अपने धन का नाश करते हैं ॥ ३१ ॥ वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुण में स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं। वे उन्हीं सामग्रियों से उतने ही परिश्रम से मेरी पूजा नहीं करते ॥ ३२ ॥ वे जब इस प्रकार की पुष्पिता वाणी—रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोक में यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करके स्वर्ग में जायँगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवार में पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियों को मेरे सम्बन्ध की बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ॥ ३३-३४ ॥
उद्धवजी ! वेदों में तीन काण्ड हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डों के द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्मा की एकता; सभी मन्त्र और मन्त्रद्रष्टा ऋषि इस विषय को खोलकर नहीं, गुप्तभाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्तरूप से कहना ही अभीष्ट है[1] ॥ ३५ ॥ वेदों का नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूॢत्त हैं, इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्र के समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसीसे जैमिनि आदि बड़े- बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥ ३६ ॥ उद्धव ! मैं अनन्तशक्ति- सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणी का विस्तार किया है। जैसे कमलनाल में पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों के अन्त:करण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती है ॥ ३७ ॥ भगवान हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है। जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुख द्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करनेवाले मनरूप निमित्त-कारण के द्वारा हृदयाकाश से अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते है। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), स्वर ( ‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्त:स्थ (य, र, ल, व)—इन वर्णों से विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिन में उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई है ॥ ३८—४० ॥ (चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दों में से कुछ ये हैं—) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट् ॥ ४१ ॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्ड में क्या विधान करती है, उपासनाकाण्ड में किन देवताओं का वर्णन करती है और ज्ञानकाण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है—इन बातों को इस सम्बन्ध में श्रुति के रहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥ ४२ ॥ मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्ड में मेरा ही विधान करती हैं। उपासना काण्ड में उपास्य देवताओं के रूप में वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञान- काण्ड में आकाशादिरूप से मुझ में ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियों का बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझ में भेद का आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्त में सब का निषेध करके मुझ में ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूप से मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥ ४३ ॥
[1] क्योंकि सब लोग इसके अधिकारी नहीं हैं, अन्त:करण शुद्ध होने पर ही यह बात समझ में आती है।
॥ द्वाविंशोऽध्यायः - २२ ॥
उद्धव उवाच
कति तत्त्वानि विश्वेश सङ्ख्यातान्यृषिभिः प्रभो ।
नवैकादश पञ्च त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम ॥ १॥
केचित्षड्विंशतिं प्राहुरपरे पञ्चविंशतिं ।
सप्तैके नव षट्केचिच्चत्वार्येकादशापरे ।
केचित्सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश ॥ २॥
एतावत्त्वं हि सङ्ख्यानामृषयो यद्विवक्षया ।
गायन्ति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि ॥ ३॥
श्रीभगवानुवाच
युक्तं च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा ।
मायां मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम् ॥ ४॥
नैतदेवं यथात्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा ।
एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः ॥ ५॥
यासां व्यतिकरादासीद्विकल्पो वदतां पदम् ।
प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनुशाम्यति ॥ ६॥
परस्परानुप्रवेशात्तत्त्वानां पुरुषर्षभ ।
पौर्वापर्यप्रसङ्ख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम् ॥ ७॥
एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च ।
पूर्वस्मिन् वा परस्मिन् वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः ॥ ८॥
पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसङ्ख्यानमभीप्सताम् ।
यथा विविक्तं यद्वक्त्रं गृह्णीमो युक्तिसम्भवात् ॥ ९॥
अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम् ।
स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत् ॥ १०॥
पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि ।
तदन्यकल्पनापार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः ॥ ११॥
प्रकृतिर्गुणसाम्यं वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः ।
सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ॥ १२॥
सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्म तमोऽज्ञानमिहोच्यते ।
गुणव्यतिकरः कालः स्वभावः सूत्रमेव च ॥ १३॥
पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमहङ्कारो नभोऽनिलः ।
ज्योतिरापः क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव ॥ १४॥
श्रोत्रं त्वग्दर्शनं घ्राणो जिह्वेति ज्ञानशक्तयः ।
वाक्पाण्युपस्थपाय्वङ्घ्रिः कर्माण्यङ्गोभयं मनः ॥ १५॥
शब्दः स्पर्शो रसो गन्धो रूपं चेत्यर्थजातयः ।
गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धयः ॥ १६॥
सर्गादौ प्रकृतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी ।
सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते ॥ १७॥
व्यक्तादयो विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया ।
लब्धवीर्याः सृजन्त्यण्डं संहताः प्रकृतेर्बलात् ॥ १८॥
सप्तैव धातव इति तत्रार्थाः पञ्च खादयः ।
ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेन्द्रियासवः ॥ १९॥
षडित्यत्रापि भूतानि पञ्च षष्ठः परः पुमान् ।
तैर्युक्त आत्मसम्भूतैः सृष्ट्वेदं समुपाविशत् ॥ २०॥
चत्वार्येवेति तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः ।
जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु ॥ २१॥
सङ्ख्याने सप्तदशके भूतमात्रेन्द्रियाणि च ।
पञ्च पञ्चैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः ॥ २२॥
तद्वत्षोडशसङ्ख्याने आत्मैव मन उच्यते ।
भूतेन्द्रियाणि पञ्चैव मन आत्मा त्रयोदश ॥ २३॥
एकादशत्व आत्मासौ महाभूतेन्द्रियाणि च ।
अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ ॥ २४॥
इति नानाप्रसङ्ख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम् ।
सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद्विदुषां किमशोभनम् ॥ २५॥
उद्धव उवाच
प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ ।
अन्योन्यापाश्रयात्कृष्ण दृश्यते न भिदा तयोः ।
प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथाऽऽत्मनि ॥ २६॥
एवं मे पुण्डरीकाक्ष महान्तं संशयं हृदि ।
छेत्तुमर्हसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः ॥ २७॥
त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः ।
त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापरः ॥ २८॥
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिः पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ ।
एष वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः ॥ २९॥
ममाङ्ग मायागुणमय्यनेकधा
विकल्पबुद्धीश्च गुणैर्विधत्ते ।
वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेक-
मथाधिदैवमधिभूतमन्यत् ॥ ३०॥
दृग् रूपमार्कं वपुरत्र रन्ध्रे
परस्परं सिध्यति यः स्वतः खे ।
आत्मा यदेषामपरो य आद्यः
स्वयानुभूत्याखिलसिद्धसिद्धिः ।
एवं त्वगादि श्रवणादि चक्षुर्जिह्वादि
नासादि च चित्तयुक्तम् ॥ ३१॥
योऽसौ गुणक्षोभकृतो विकारः
प्रधानमूलान्महतः प्रसूतः ।
अहं त्रिवृन्मोहविकल्पहेतु-
र्वैकारिकस्तामस ऐन्द्रियश्च ॥ ३२॥
आत्मा परिज्ञानमयो विवादो
ह्यस्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठः ।
व्यर्थोऽपि नैवोपरमेत पुंसां
मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात् ॥ ३३॥
उद्धव उवाच
त्वत्तः परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो ।
उच्चावचान् यथा देहान् गृह्णन्ति विसृजन्ति च ॥ ३४॥
तन्ममाख्याहि गोविन्द दुर्विभाव्यमनात्मभिः ।
न ह्येतत्प्रायशो लोके विद्वांसः सन्ति वञ्चिताः ॥ ३५॥
श्रीभगवानुवाच
मनः कर्ममयं नॄणामिन्द्रियैः पञ्चभिर्युतम् ।
लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते ॥ ३६॥
ध्यायन् मनोऽनु विषयान् दृष्टान् वानुश्रुतानथ ।
उद्यत्सीदत्कर्मतन्त्रं स्मृतिस्तदनु शाम्यति ॥ ३७॥
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यत्स्मरेत्पुनः ।
जन्तोर्वै कस्यचिद्धेतोर्मृत्युरत्यन्तविस्मृतिः ॥ ३८॥
जन्म त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद ।
विषयस्वीकृतिं प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथः ॥ ३९॥
स्वप्नं मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ ।
तत्र पूर्वमिवात्मानमपूर्वं चानुपश्यति ॥ ४०॥
इन्द्रियायनसृष्ट्येदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि ।
बहिरन्तर्भिदा हेतुर्जनोऽसज्जनकृद्यथा ॥ ४१॥
नित्यदा ह्यङ्ग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च ।
कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते ॥ ४२॥
यथार्चिषां स्रोतसां च फलानां वा वनस्पतेः ।
तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः ॥ ४३॥
सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम् ।
सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम् ॥ ४४॥
मा स्वस्य कर्मबीजेन जायते सोऽप्ययं पुमान् ।
म्रियते वामरो भ्रान्त्या यथाग्निर्दारुसंयुतः ॥ ४५॥
निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनम् ।
वयोमध्यं जरामृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव ॥ ४६॥
एता मनोरथमयीर्ह्यन्यस्योच्चावचास्तनूः ।
गुणसङ्गादुपादत्ते क्वचित्कश्चिज्जहाति च ॥ ४७॥
आत्मनः पितृपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ ।
न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षणः ॥ ४८॥
तरोर्बीजविपाकाभ्यां यो विद्वाञ्जन्मसंयमौ ।
तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक् ॥ ४९॥
प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुधः पुमान् ।
तत्त्वेन स्पर्शसम्मूढः संसारं प्रतिपद्यते ॥ ५०॥
सत्त्वसङ्गादृषीन् देवान् रजसासुरमानुषान् ।
तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः ॥ ५१॥
नृत्यतो गायतः पश्यन् यथैवानुकरोति तान् ।
एवं बुद्धिगुणान् पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते ॥ ५२॥
यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव ।
चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः ॥ ५३॥
यथा मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा ।
स्वप्नदृष्टाश्च दाशार्ह तथा संसार आत्मनः ॥ ५४॥
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ ५५॥
तस्मादुद्धव मा भुङ्क्ष्व विषयानसदिन्द्रियैः ।
आत्माग्रहणनिर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम् ॥ ५६॥
क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथ वा ।
ताडितः सन्निरुद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः ॥ ५७॥
निष्ठितो मूत्रितो वाज्ञैर्बहुधैवं प्रकम्पितः ।
श्रेयस्कामः कृच्छ्रगत आत्मनाऽऽत्मानमुद्धरेत् ॥ ५८॥
उद्धव उवाच
यथैवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर ।
सुदुःसहमिमं मन्य आत्मन्यसदतिक्रमम् ॥ ५९॥
विदुषामपि विश्वात्मन् प्रकृतिर्हि बलीयसी ।
ऋते त्वद्धर्मनिरतान् शान्तांस्ते चरणालयान् ॥ ६०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥
एकादश स्कन्द-बाईसवाँ अध्याय 60
तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक
उद्धवजी ने कहा—प्रभो ! विश्वेश्वर ! ऋषियों ने तत्त्वों की संख्या कितनी बतलायी है? आपने तो अभी (उन्नीसवें अध्यायमें) नौ, ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन चु के हैं ॥ १ ॥ किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छ: स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह ॥ २ ॥ इसी प्रकार किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियों के मत में उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण ! ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्राय से बतलाते हैं ? आप कृपा करके हमें बतलाइये ॥ ३ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धवजी ! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषय में जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सब में अन्तर्भूत हैं। मेरी माया को स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है ? ॥ ४ ॥ ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’—इस प्रकार जगत के कारण के सम्बन्ध में विवाद इसलिये होता है कि मेरी शक्तियों—सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियों का रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्ति पर ही आग्रह कर बैठते हैं ॥ ५ ॥ सत्त्व आदि गुणों के क्षोभ से ही यह विविध कल्पनारूप प्रपञ्च—जो वस्तु नहीं केवल नाम है—उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करनेवालों के विवाद का विषय है। जब इन्द्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपञ्च भी निवृत्त हो जाता है और उसकी निवृत्ति के साथ ही सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं ॥ ६ ॥ पुरुषशिरोमणे ! तत्त्वों का एक-दूसरे में अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारण को कार्य में अथवा कार्य को कारण में मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है ॥ ७ ॥ ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्व में बहुत- से दूसरे तत्त्वों का अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किस का किस में अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओं का उनके कारण मिट्टी-सूत आदि में, तो कभी मिट्टी-सूत आदि का घट-पट आदि कार्यों में अन्तर्भाव हो जाता है ॥ ८ ॥ इसलिये वादी-प्रतिवादियों में से जिसकी वाणी ने जिस कार्य को जिस कारण में अथवा जिस कारण को जिस कार्य में अन्तर्भूत करके तत्त्वों की जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसङ्गत ही है ॥ ९ ॥
उद्धवजी ! जिन लोगों ने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि काल से अविद्या से ग्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान कराने के लिये किसी अन्य सर्वज्ञ की आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृति के कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर—इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये) ॥ १० ॥ पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीर में जीव और ईश्वर का अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेद की कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञान की बात, सो तो सत्त्वात्मि का प्रकृति का गुण है ॥ ११ ॥ तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्मा के नहीं, प्रकृति के ही हैं। इन्हीं के द्वारा जगत की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्मा का गुण नहीं, प्रकृति का ही गुण सिद्ध होता है ॥ १२ ॥ इस प्रसङ्ग में सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है और गुणों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वोंकी—दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है) ॥ १३ ॥
उद्धवजी ! (यदि तीनों गुणों को प्रकृति से अलग मान लिया जाय, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलय को देखते हुए मानना चाहिये, तो तत्त्वों की संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनों के अतिरिक्त पचीस ये हैं—) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चु का हूँ ॥ १४ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासि का और रसना—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ; तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध— ये ज्ञानेन्द्रियों के पाँच विषय। इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच— सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियों के द्वारा होनेवाले पाँच कर्म—चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना—इनके द्वारा तत्त्वों की संख्या नहीं बढ़ती। इन्हें कर्मेन्द्रिय स्वरूप ही मानना चाहिये ॥ १५-१६ ॥ सृष्टि के आरम्भ में कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पञ्चभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूप में प्रकृति ही रहती है। वही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की सहायता से जगत की स्थिति, उत्पत्ति और संहारसम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओं का केवल साक्षीमात्र बना रहता है ॥ १७ ॥ महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकार को प्राप्त होते हुए पुरुष के ईक्षण से शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृति का आश्रय लेकर उसी के बल से ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं ॥ १८ ॥
उद्धवजी ! जो लोग तत्त्वों की संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचार से आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमात्मा—जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत दोनों का अधिष्ठान है—ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राणादि की उत्पत्ति तो पञ्चभूतों से ही हुई है [ इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते ] ॥ १९ ॥ जो लोग केवल छ: तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परमपुरुष परमात्मा। वह परमात्मा अपने बनाये हुए पञ्चभूतों से युक्त होकर देह आदि की सृष्टि करता है और उनमें जीवरूप से प्रवेश करता है। (इस मत के अनुसार जीव का परमात्मा में और शरीर आदि का पञ्चभूतों में समावेश हो जाता है) ॥ २० ॥ जो लोग कारण के रूप में चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि आत्मा से तेज, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है और जगत में जित ने पदार्थ हैं, सब इन्हीं से उत्पन्न होते हैं। वे सभी कार्यों का इन्हीं में समावेश कर लेते हैं ॥ २१ ॥ जो लोग तत्त्वों की संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं—पाँच भूत, पाँच तन्मात्राएँ ? पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन और एक आत्मा ॥ २२ ॥ जो लोग तत्त्वों की संख्या सोलह बतलाते हैं, उनकी गणना भी इसी प्रकार है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे आत्मा में मन का भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्वसंख्या सोलह रह जाती है। जो लोग तेरह तत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं कि आकाशादि पाँच भूत, श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक, मन, एक जीवात्मा और परमात्मा—ये तेरह तत्त्व हैं ॥ २३ ॥ ग्यारह संख्या माननेवालों ने पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और इनके अतिरिक्त एक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया है। जो लोग नौ तत्त्व मानते हैं, वे आकाशादि पाँच भूत और मन-बुद्धि अहंकार—ये आठ प्रकृतियाँ और नवाँ पुरुष—इन्हीं को तत्त्व मानते हैं ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार ऋषि- मुनियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से तत्त्वों की गणना की है। सब का कहना उचित ही है, क्योंकि सब की संख्या युक्तियुक्त है। जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मत में बुराई नहीं दीखती। उनके लिये तो सब कुछ ठीक ही है ॥ २५ ॥
उद्धवजी ने कहा—श्यामसुन्दर ! यद्यपि स्वरूपत: प्रकृति और पुरुष दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपस में इत ने घुल-मिल गये हैं कि साधारणत: उनका भेद नहीं जान पड़ता। प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति अभिन्न- से प्रतीत होते हैं। इन की भिन्नता स्पष्ट कैसे हो ? ॥ २६ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! मेरे हृदय में इन की भिन्नता और अभिन्नता को लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं, अपनी युक्तियुक्त वाणी से मेरे सन्देह का निवारण कर दीजिये ॥ २७ ॥ भगवन् ! आपकी ही कृपा से जीवों को ज्ञान होता है और आपकी मायाशक्ति से ही उनके ज्ञान का नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी माया की विचित्र गति आप ही जानते हैं, और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटा ने में समर्थ हैं ॥ २८ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धवजी ! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा—इन दोनों में अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत में जन्म-मरण एवं वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणों के क्षोभ से ही बना है ॥ २९ ॥ प्रिय मित्र ! मेरी माया त्रिगुणात्मि का है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणों से अनेकों प्रकार की भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है। यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टि को तीन भागों में बाँट सकते हैं। वे तीन भाग हैं— अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत ॥ ३० ॥ उदाहरणार्थ—नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है, उसका विषय रूप अधिभूत है और नेत्रगोलक में स्थित सूर्यदेवता का अंश अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरे के आश्रय से सिद्ध होते हैं। और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। परन्तु आकाश में स्थित सूर्यमण्डल इन तीनों की अपेक्षा से मुक्त है, क्योंकि वह स्वत:सिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदों का मूलकारण, उनका साक्षी और उनसे परे है। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाश से समस्त सिद्ध पदार्थों की मूलसिद्धि है। उसी के द्वारा सब का प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षु के तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत्र, जिह्वा, नासि का और चित्त आदि के भी तीन-तीन भेद हैं [1] ॥ ३१ ॥ प्रकृति से महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्व से अहङ्कार। इस प्रकार यह अहङ्कार गुणों के क्षोभ से उत्पन्न हुआ प्रकृति का ही एक विकार है। अहङ्कार के तीन भेद हैं—सात्त्विक, तामस और राजस। यह अहङ्कार ही अज्ञान और सृष्टि की विविधता का मूलकारण है ॥ ३२ ॥ आत्मा ज्ञान स्वरूप है; उसका इन पदार्थों से न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवाद की ही बात है ! अस्ति-नास्ति ( है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूप से जित ने भी वाद-विवाद हैं, सब का मूलकारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवाद का कोई प्रयोजन नहीं है; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे—अपने वास्तविक स्वरूप से विमुख हैं, वे इस विवाद से मुक्त नहीं हो सकते ॥ ३३ ॥
उद्धवजी ने पूछा—भगवन् ! आप से विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापों के फल स्वरूप ऊँची-नीची योनियों में जाते-आते रहते हैं। अब प्रश्र यह है कि व्यापक आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना, अकर्ता का कर्म करना और नित्य-वस्तु का जन्म-मरण कैसे सम्भव है? ॥ ३४ ॥ गोविन्द ! जो लोग आत्मज्ञान से रहित हैं, वे तो इस विषय को ठीक-ठीक सोच भी नहीं सकते। और इस विषय के विद्वान् संसार में प्राय: मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी माया की भूल- भुलैया में पड़े हुए हैं। इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये ॥ ३५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव ! मनुष्यों का मन कर्म-संस्कारों का पुञ्ज है। उन संस्कारों के अनुसार भोग प्राप्त करने के लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं। इसी का नाम है लिङ्ग- शरीर। वही कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक लोक से दूसरे लोक में आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिङ्गशरीर से सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपने को लिङ्गशरीर ही समझ बैठता है, उसी में अहङ्कार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है ॥ ३६ ॥ मन कर्मों के अधीन है। वह देखे हुए या सुने हुए विषयों का चिन्तन करने लगता है और क्षणभर में ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयों में लीन हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वा पर का अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है ॥ ३७ ॥ उन देवादि शरीरों में इसका इतना अभिनिवेश, इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीव को अपने पूर्व शरीर का स्मरण भी नहीं रहता। किसी भी कारण से शरीर को सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है ॥ ३८ ॥ उदार उद्धव ! जब यह जीव किसी भी शरीर को अभेद-भावसे‘मैं’ के रूप में स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथकालीन शरीर में अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है ॥ ३९ ॥ यह वर्तमान देहमें स्थित जीव जैसे पूर्व देह का स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथ में स्थित जीव भी पहले के स्वप्न और मनोरथ को स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथ में पूर्व सिद्ध होने पर भी अपने को नवीन-सा ही समझता है ॥ ४० ॥ इन्द्रियों के आश्रय मन या शरीर की सृष्टि से आत्मवस्तु में यह उत्तम, मध्यम और अधम की त्रिविधता भासती है। उनमें अभिमान करने से ही आत्मा बाह्य और आभ्यन्तर भेदों का हेतु मालूम पडऩे लगता है, जैसे दुष्ट पुत्र को उत्पन्न करनेवाला पिता पुत्र के शत्रु-मित्र आदि के लिये भेद का हेतु हो जाता है ॥ ४१ ॥ प्यारे उद्धव ! काल की गति सूक्ष्म है। उसे साधारणत: देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरों की उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होने के कारण ही प्रतिक्षण होनेवाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते ॥ ४२ ॥ जैसे काल के प्रभाव से दिये की लौ, नदियों के प्रवाह अथवा वृक्ष के फलों की विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियों के शरीरों की आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है ॥ ४३ ॥ जैसे यह उन्हीं ज्योतियों का वही दीपक है, प्रवाह का यह वही जल है—ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तन में व्यर्थ आयु बितानेवाले अविवे की पुरुषों का ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है ॥ ४४ ॥ यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मों के बीज द्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्ति से वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि काष्ठ से युक्त अग्रि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है ॥ ४५ ॥
उद्धवजी ! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु—ये नौ अवस्थाएँ शरीर की ही हैं ॥ ४६ ॥ यह शरीर जीव से भिन्न है और ये उँची- नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथ के अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणों के सङ्ग से इन्हें अपनी मानकर भटक ने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जाने पर इन्हें छोड़ भी देता है ॥ ४७ ॥ पिता को पुत्र के जन्म से और पुत्र को पिता की मृत्यु से अपने-अपने जन्म-मरण का अनुमान कर लेना चाहिये। जन्म-मृत्यु से युक्त देहों का द्रष्टा जन्म और मृत्यु से युक्त शरीर नहीं है ॥ ४८ ॥ जैसे जौ-गेहूँ आदि की फसल बोने पर उग आती है और पक जाने पर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उग ने और काट ने का जाननेवाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक् है; वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओं का साक्षी है, वह शरीर से सर्वथा पृथक् है ॥ ४९ ॥ अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्त्वत: अलग अनुभव नहीं करते और विषयभोग में सच्चा सुख मान ने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं। इसीसे उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है ॥ ५० ॥ जब अविवे की जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में भटक ने लगता है, तब सात्त्विक कर्मों की आसक्ति से वह ऋषिलोक और देवलोक में राजसिक कर्मों की आसक्ति से मनुष्य और असुरयोनियों में तथा तामसी कर्मों की आसक्ति से भूत-प्रेत एवं पशु- पक्षी आदि योनियों में जाता है ॥ ५१ ॥ जब मनुष्य किसीको नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने—तान तोडऩे लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है, तब स्वयं निष्ङ्क्षक्रय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिये बाध्य हो जाता है ॥ ५२ ॥ जैसे नदी- तालाब आदि के जल के हिल ने या चंचल होने पर उसमें प्रतिबिम्बित तट के वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते- से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जानेवालेनेत्र के साथ-साथ पृथ्वी भी घूमती हुई-सी दिखायी देती है, जैसे मन के द्वारा सोचे गये तथा स्वप्न में देखे गये भोग पदार्थ सर्वथा अलीक ही होते हैं, वैसे ही हे दाशाहर् ! आत्मा का विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है ॥ ५३-५४ ॥ विषयों के सत्य न होने पर भी जो जीव विषयों का ही चिन्तन करता रहता है, उसका यह जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्न में प्राप्त अनर्थ-परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती ॥ ५५ ॥
प्रिय उद्धव ! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होनेवाली) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो। आत्म-विषयक अज्ञान से प्रतीत होनेवाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो ॥ ५६ ॥
असाधु पुरुष गर्दन पकडक़र बाहर निकाल दें, वाणी द्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बाँधें, आजीवि का छीन लें, ऊ पर थूक दें, मूत दें अथवा तरह-तरह से विचलित करें, निष्ठा से डिगा ने की चेष्टा करें; उनके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं है। अत: जो अपने कल्याण का इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयों से अपनी विवेक-बुद्धि द्वारा ही—किसी बाह्य साधन से नहीं—अपने को बचा लेना चाहिये। वस्तुत:आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बच ने का एकमात्र साधन है ॥ ५७-५८ ॥
उद्धवजी ने कहा—भगवन् ! आप समस्त वक्ताओं के शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनों से किये गये तिरस्कार को अपने मन में अत्यन्त असह्य समझता हूँ। अत: जैसे मैं इस को समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवन में धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये ॥ ५९ ॥ विश्वात्मन् ! जो आपके भागवतधर्म के आचरण में प्रेमपूर्वक संलग्र हैं, जिन्हों ने आपके चरण-कमलों का ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषों के अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी दुष्टों के द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है ॥ ६० ॥
[1] यथा त्वचा, स्पर्श और वायु ; श्रवण, शब्द और दिशा; जिह्वा, रस और वरुण; नासिका, गन्ध और अश्विनीकुमार; चित्त, चिन्तन का विषय और वासुदेव; मन, मन का विषय और चन्द्रमा; अहङ्कार, अहङ्कार का विषय और रुद्र; बुद्धि, समझ ने का विषय और ब्रह्मा—इन सभी त्रिविध तत्त्वों से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है।
॥ त्रयोविंशोऽध्यायः - २३ ॥
बादरायणिरुवाच
स एवमाशंसित उद्धवेन
भागवतमुख्येन दाशार्हमुख्यः ।
सभाजयन् भृत्यवचो मुकुन्द-
स्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः ॥ १॥
श्रीभगवानुवाच
बार्हस्पत्य स वै नात्र साधुर्वै दुर्जनेरितैः ।
दुरुक्तैर्भिन्नमात्मानं यः समाधातुमीश्वरः ॥ २॥
न तथा तप्यते विद्धः पुमान् बाणैस्तु मर्मगैः ।
यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्यसतां परुषेषवः ॥ ३॥
कथयन्ति महत्पुण्यमितिहासमिहोद्धव ।
तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः ॥ ४॥
केनचिद्भिक्षुणा गीतं परिभूतेन दुर्जनैः ।
स्मरता धृतियुक्तेन विपाकं निजकर्मणाम् ॥ ५॥
अवन्तिषु द्विजः कश्चिदासीदाढ्यतमः श्रिया ।
वार्तावृत्तिः कदर्यस्तु कामी लुब्धोऽतिकोपनः ॥ ६॥
ज्ञातयोऽतिथयस्तस्य वाङ् मात्रेणापि नार्चिताः ।
शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चितः ॥ ७॥
दुःशीलस्य कदर्यस्य द्रुह्यन्ते पुत्रबान्धवाः ।
दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन् प्रियम् ॥ ८॥
तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः ।
धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधुः पञ्चभागिनः ॥ ९॥
तदवध्यानविस्रस्तपुण्यस्कन्धस्य भूरिद ।
अर्थोऽप्यगच्छन्निधनं बह्वायासपरिश्रमः ॥ १०॥
ज्ञातयो जगृहुः किञ्चित्किञ्चिद्दस्यव उद्धव ।
दैवतः कालतः किञ्चिद्ब्रह्मबन्धोर्नृपार्थिवात् ॥ ११॥
स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जितः ।
उपेक्षितश्च स्वजनैश्चिन्तामाप दुरत्ययाम् ॥ १२॥
तस्यैवं ध्यायतो दीर्घं नष्टरायस्तपस्विनः ।
खिद्यतो बाष्पकण्ठस्य निर्वेदः सुमहानभूत् ॥ १३॥
स चाहेदमहो कष्टं वृथात्मा मेऽनुतापितः ।
न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईदृशः ॥ १४॥
प्रायेणार्थाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन ।
इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च ॥ १५॥
यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाघ्या ये गुणिनां गुणाः ।
लोभः स्वल्पोऽपि तान् हन्ति श्वित्रो रूपमिवेप्सितम् ॥ १६॥
अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये ।
नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम् ॥ १७॥
स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः ।
भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च ॥ १८॥
एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम् ।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् ॥ १९॥
भिद्यन्ते भ्रातरो दाराः पितरः सुहृदस्तथा ।
एकास्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः ॥ २०॥
अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यवः ।
त्यजन्त्याशु स्पृधो घ्नन्ति सहसोत्सृज्य सौहृदम् ॥ २१॥
लब्ध्वा जन्मामरप्रार्थ्यं मानुष्यं तद्द्विजाग्र्यताम् ।
तदनादृत्य ये स्वार्थं घ्नन्ति यान्त्यशुभां गतिम् ॥ २२॥
स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं प्राप्य लोकमिमं पुमान् ।
द्रविणे कोऽनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि ॥ २३॥
देवर्षिपितृभूतानि ज्ञातीन् बन्धूंश्च भागिनः ।
असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः ॥ २४॥
व्यर्थयार्थेहया वित्तं प्रमत्तस्य वयोबलम् ।
कुशला येन सिध्यन्ति जरठः किं नु साधये ॥ २५॥
कस्मात्सङ्क्लिश्यते विद्वान् व्यर्थयार्थेहयासकृत् ।
कस्यचिन्मायया नूनं लोकोऽयं सुविमोहितः ॥ २६॥
किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत ।
मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः ॥ २७॥
नूनं मे भगवांस्तुष्टः सर्वदेवमयो हरिः ।
येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लवः ॥ २८॥
सोऽहं कालावशेषेण शोषयिष्येऽङ्गमात्मनः ।
अप्रमत्तोऽखिलस्वार्थे यदि स्यात्सिद्ध आत्मनि ॥ २९॥
तत्र मामनुमोदेरन् देवास्त्रिभुवनेश्वराः ।
मुहूर्तेन ब्रह्मलोकं खट्वाङ्गः समसाधयत् ॥ ३०॥
श्रीभगवानुवाच
इत्यभिप्रेत्य मनसा ह्यावन्त्यो द्विजसत्तमः ।
उन्मुच्य हृदयग्रन्थीन् शान्तो भिक्षुरभून्मुनिः ॥ ३१॥
स चचार महीमेतां संयतात्मेन्द्रियानिलः ।
भिक्षार्थं नगरग्रामानसङ्गोऽलक्षितोऽविशत् ॥ ३२॥
तं वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जनाः ।
दृष्ट्वा पर्यभवन् भद्र बह्वीभिः परिभूतिभिः ॥ ३३॥
केचित्त्रिवेणुं जगृहुरेके पात्रं कमण्डलुम् ।
पीठं चैकेऽक्षसूत्रं च कन्थां चीराणि केचन ॥ ३४॥
प्रदाय च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुनेः ।
अन्नं च भैक्ष्यसम्पन्नं भुञ्जानस्य सरित्तटे ॥ ३५॥
मूत्रयन्ति च पापिष्ठाः ष्ठीवन्त्यस्य च मूर्धनि ।
यतवाचं वाचयन्ति ताडयन्ति न वक्ति चेत् ॥ ३६॥
तर्जयन्त्यपरे वाग्भिः स्तेनोऽयमिति वादिनः ।
बध्नन्ति रज्ज्वा तं केचिद्बध्यतां बध्यतामिति ॥ ३७॥
क्षिपन्त्येकेऽवजानन्त एष धर्मध्वजः शठः ।
क्षीणवित्त इमां वृत्तिमग्रहीत्स्वजनोज्झितः ॥ ३८॥
अहो एष महासारो धृतिमान् गिरिराडिव ।
मौनेन साधयत्यर्थं बकवद्दृढनिश्चयः ॥ ३९॥
इत्येके विहसन्त्येनमेके दुर्वातयन्ति च ।
तं बबन्धुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम् ॥ ४०॥
एवं स भौतिकं दुःखं दैविकं दैहिकं च यत् ।
भोक्तव्यमात्मनो दिष्टं प्राप्तं प्राप्तमबुध्यत ॥ ४१॥
परिभूत इमां गाथामगायत नराधमैः ।
पातयद्भिः स्वधर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम् ॥ ४२॥
द्विज उवाच
नायं जनो मे सुखदुःख हेतुर्न
देवतात्मा ग्रहकर्मकालाः ।
मनः परं कारणमामनन्ति
संसारचक्रं परिवर्तयेद्यत् ॥ ४३॥
मनो गुणान् वै सृजते बलीय-
स्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि ।
शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि
तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवन्ति ॥ ४४॥
अनीह आत्मा मनसा समीहता
हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे ।
मनः स्वलिङ्गं परिगृह्य कामान्
जुषन् निबद्धो गुणसङ्गतोऽसौ ॥ ४५॥
दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि ।
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः
परो हि योगो मनसः समाधिः ॥ ४६॥
समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं
दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम् ।
असंयतं यस्य मनो विनश्य-
द्दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः ॥ ४७॥
मनो वशेऽन्ये ह्यभवन् स्म देवा
मनश्च नान्यस्य वशं समेति ।
भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्
युञ्ज्याद्वशे तं स हि देवदेवः ॥ ४८॥
तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग्-
अमरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित् ।
कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र मर्त्यै-
र्मित्राण्युदासीनरिपून् विमूढाः ॥ ४९॥
देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा
ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः ।
एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण
दुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति ॥ ५०॥
जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत् ।
जिह्वां क्वचित्सन्दशति स्वदद्भि-
स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत् ॥ ५१॥
दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु
किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत् ।
यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित्क्रुध्येत
कस्मै पुरुषः स्वदेहे ॥ ५२॥
आत्मा यदि स्यात्सुखदुःखहेतुः
किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः ।
न ह्यात्मनोऽन्यद्यदि तन्मृषा स्यात्
क्रुध्येत कस्मान्न सुखं न दुःखम् ॥ ५३॥
ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै ।
ग्रहैर्ग्रहस्यैव वदन्ति पीडां
क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः ॥ ५४॥
कर्मास्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे ।
देहस्त्वचित्पुरुषोऽयं सुपर्णः
क्रुध्येत कस्मै न हि कर्ममूलम् ॥ ५५॥
कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ ।
नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्
क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्वम् ॥ ५६॥
न केनचित्क्वापि कथञ्चनास्य
द्वन्द्वोपरागः परतः परस्य ।
यथाहमः संसृतिरूपिणः स्यादेवं
प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः ॥ ५७॥
एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-
मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः ।
अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं
तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव ॥ ५८॥
श्रीभगवानुवाच
निर्विद्य नष्टद्रविणो गतक्लमः
प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम् ।
निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मा-
दकम्पितोऽमूं मुनिराह गाथाम् ॥ ५९॥
सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः ।
मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः ॥ ६०॥
तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया ।
मय्यावेशितया युक्त एतावान् योगसङ्ग्रहः ॥ ६१॥
य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः ।
धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन् द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते ॥ ६२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥
एकादश स्कन्द-तेईसवाँ अध्याय 62
एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! वास्तव में भगवान की लीला कथा ही श्रवण करनेयोग्य है। वे ही प्रेम और मुक्ति के दाता हैं। जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धवजी ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान ने उनके प्रश्र की प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा— ॥ १ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—देवगुरु बृहस्पति के शिष्य उद्धवजी ! इस संसार में प्राय: ऐसे संत पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनों की कटुवाणी से ङ्क्षबधे हुए अपने हृदय को सँभाल सकें ॥ २ ॥ मनुष्य का हृदय मर्मभेदी बाणों से बिंधने पर भी उतनी पीडा का अनुभव नहीं करता, जितनी पीडा उसे दुष्टजनों के मर्मान् तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! इस विषय में महात्मालोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाऊँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो ॥ ४ ॥ एक भिक्षुक को दुष्टों ने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल समझकर कुछ अपने मानसिक उद्गार प्रकट किये थे। उन्हीं का इस इतिहास में वर्णन है ॥ ५ ॥
प्राचीन समय की बात है, उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था ॥ ६ ॥ उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिला ने की तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्म से रीते घर में रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्ति के द्वारा समय पर अपने शरीर को भी सुखी नहीं करता था ॥ ७ ॥ उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगनेवाला व्यवहार नहीं करता था ॥ ८ ॥ वह लोक-परलोक दोनों से ही गिर गया था। बस, यक्षों के समान धन की रखवाली करता रहता था। उस धन से वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनों तक इस प्रकार जीवन बिता ने से उसपर पञ्चमहायज्ञ के भागी देवता बिगड़ उठे ॥ ९ ॥ उदार उद्धवजी ! पञ्चमहायज्ञ के भागियों के तिरस्कार से उसके पूर्व- पुण्यों का सहारा—जिसके बल से अब तक धन टि का हुआ था—जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकट्ठाकिया था, वह धन उसकी आँखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया ॥ १० ॥ उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोप से नष्ट हो गया, कुछ समय के फेर से मारा गया। कुछ साधारण मनुष्यों ने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्ड के रूप में शासकों ने हड़प लिया ॥ ११ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियों ने भी उसकी ओर से मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ता ने घेर लिया ॥ १२ ॥ धन के नाश से उसके हृदय में बड़ी जलन हुई। उसका मन खेद से भर गया। आँसुओं के कारण गला रुँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मन में संसार के प्रति महान दु:खबुद्धि और उत्कट वैराग्य का उदय हो गया ॥ १३ ॥
अब वह ब्राह्मण मन-ही-मन कह ने लगा—‘हाय ! हाय !! बड़े खेद की बात है, मैंने इत ने दिनों तक अपने को व्यर्थ ही इस प्रकार सताया। जिस धन के लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्मकर्म में लगा और न मेरे सुखभोग के ही काम आया ॥ १४ ॥ प्राय: देखा जाता है कि कृपण पुरुषों को धन से कभी सुख नहीं मिलता। इस लोक में तो वे धन कमाने और रक्षा की चिन्ता से जलते रहते हैं और मरने पर धर्म न करने के कारण नरक में जाते हैं ॥ १५ ॥ जैसे थोड़ा-सा भी कोढ़ सर्वाङ्गसुन्दर स्वरूप को बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियों के शुद्ध यश और गुणियों के प्रशंसनीय गुणों पर पानी फेर देता है ॥ १६ ॥ धन कमाने में, कमा लेने पर उस को बढ़ाने, रखने एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोगमें—जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रम का ही सामना करना पड़ता है ॥ १७ ॥ चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहङ्कार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पद्र्धा, लम्पटता, जूआ और शराब—ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं। इसलिये कल्याणकामी पुरुष को चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थ के विरोधी अर्थनामधारी अनर्थ को दूर से ही छोड़ दे ॥ १८-१९ ॥ भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी—जो स्नेहबन्धन से बँधकर बिलकुल एक हुए रहते हैं—सब-के-सब कौड़ी के कारण इत ने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरे के शत्रु बन जाते हैं ॥ २० ॥ ये लोग थोड़े- से धन के लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं। बात-की-बात में सौहार्द-सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डाँट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं। यहाँ तक कि एक-दूसरे का सर्वनाश कर डालते हैं ॥ २१ ॥ देवताओं के भी प्रार्थनीय मनुष्य-जन्म को और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मणशरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ का नाश करते हैं, वे अशुभ गति को प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥ यह मनुष्यशरीर मोक्ष और स्वर्ग का द्वार है, इस को पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य है जो अनर्थों के धाम धन के चक्कर में फँसा रहे ॥ २३ ॥ जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और उनके दूसरे भागीदारों को उनका भाग देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्ष के समान धन की रखवाली करनेवाला कृपण तो अवश्य ही अधोगति को प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ मैं अपने कर्तव्य से च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमाद में अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकीलोग जिन साधनों से मोक्ष तक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं को मैंने धन इकट्ठाकरने की व्यर्थ चेष्टा में खो दिया। अब बुढ़ापे में मैं कौन-सा साधन करूँगा ॥ २५ ॥ मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धन की व्यर्थ तृष्णा से निरन्तर क्यों दुखी रहते हैं ? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसी की माया से अत्यन्त मोहित हो रहा है ॥ २६ ॥ यह मनुष्य-शरीर काल के विकराल गाल में पड़ा हुआ है। इस को धनसे, धन देनेवाले देवताओं और लोगोंसे, भोगवासनाओं और उन को पूर्ण करनेवालों से तथा पुन:-पुन: जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालनेवाले सकाम कर्मों से लाभ ही क्या है ? ॥ २७ ॥
इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेव स्वरूप भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशा में पहुँचाया है और मुझे जगत के प्रति यह दु:ख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुत: वैराग्य ही इस संसार-सागर से पार होने के लिये नौ का के समान है ॥ २८ ॥ मैं अब ऐसी अवस्था में पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभ में ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थ के सम्बन्ध में सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीर को तपस्या के द्वारा सुखा डालूँगा ॥ २९ ॥ तीनों लोकों के स्वामी देवगण मेरे इस सङ्कल्प का अनुमोदन करें। अभी निराश होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वाङ्ग ने तो दो घड़ी में ही भगवद्धाम की प्राप्ति कर ली थी ॥ ३० ॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! उस उज्जैननिवासी ब्राह्मण ने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पन की गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया ॥ ३१ ॥ अब उसके चित्त में किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में कर लिया। वह पृथ्वी पर स्वच्छन्दरूप से विचर ने लगा। वह भिक्षा के लिये नगर और गाँवों में जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था ॥ ३२ ॥ उद्धवजी ! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था। दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरह से उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते ॥ ३३ ॥ कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, रुद्राक्ष- माला और कंथा ही लेकर भाग जाता। कोई तो उसकी लँगोटी और वस्त्र को ही इधर-उधर डाल देते ॥ ३४ ॥ कोई- कोई वे वस्तुएँ देकर और कोई दिखला-दिखलाकर फिर छीन लेते। जब वह अवधूत मधुकरी माँगकर लाता और बाहर नदी-तट पर भोजन करने बैठता, तो पापी लोग कभी उसके सिर पर मूत देते, तो कभी थूक देते। वे लोग उस मौनी अवधूत को तरह-तरह से बोल ने के लिये विवश करते और जब वह इस पर भी न बोलता तो उसे पीटते ॥ ३५-३६ ॥ कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपट ने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो, बाँध लो’ और फिर उसे रस्सी से बाँध ने लगते ॥ ३७ ॥ कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपण ने धर्म का ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रों ने घर से निकाल दिया; तब इस ने भीख माँग ने का रोजगार लिया है ॥ ३८ ॥ ओहो ! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्य में बड़े भारी पर्वत के समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुले से भी बढक़र ढोंगी और दृढ़निश्चयी है’ ॥ ३९ ॥ कोई उस अवधूत की हँसी उड़ाता, तो कोई उसपर अधोवायु छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू पक्षियों को बाँध लेते या पिंजड़े में बंद कर लेते हैं, वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध देते और घरों में बंद कर देते ॥ ४० ॥ किन्तु वह सब कुछ चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदि के कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदि से दैवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग अपमान आदि के द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; परन्तु भिक्षुक के मन में इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब मेरे पूर्वजन्म के कर्मों का फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा ॥ ४१ ॥ यद्यपि नीच मनुष्य तरह-तरह के तिरस्कार करके उसे उसके धर्म से गिरा ने की चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़ता से अपने धर्म में स्थिर रहता और सात्त्विक धैर्य का आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता ॥ ४२ ॥
ब्राह्मण कहता—मेरे सुख अथवा दु:ख का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मन को ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसारचक्र को चला रहा है ॥ ४३ ॥ सचमुच यह मन बहुत बलवान् है। इसी ने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियों की सृष्टि की है। उन वृत्तियों के अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकार के कर्म होते हैं और कर्मों के अनुसार ही जीव की विविध गतियाँ होती हैं ॥ ४४ ॥ मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहने पर भी आत्मा निष्ङ्क्षक्रय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीव का सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञान से सब कुछ देखता रहता है। मन के द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मन को स्वीकार करके उसके द्वारा विषयों का भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मों के साथ आसक्ति होने के कारण वह उनसे बँध जाता है ॥ ४५ ॥ दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत—इन सब का अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान में लग जाय। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है ॥ ४६ ॥ जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मों का फल प्राप्त हो चु का है। अब उनसे कुछ लेना बा की नहीं है। और जिसका मन चञ्चल है अथवा आलस्य से अभिभूत हो रहा है, उस को इन दानादि शुभकर्मों से अब तक कोई लाभ नहीं हुआ ॥ ४७ ॥ सभी इन्द्रियाँ मन के वश में हैं । मन किसी भी इन्द्रिय के वश में नहीं है। यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयङ्कर देव है। जो इस को अपने वश में कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियों का विजेता है ॥ ४८ ॥ सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीर को ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानों को भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्यों को चाहिये कि सब से पहले इसी शत्रु पर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीत ने का प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्यों से झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत के लोगों को ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ॥ ४९ ॥ साधारणत: मनुष्यों की बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मन:कल्पित शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रम के फंदे में फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकार में ही भटकते रहते हैं ॥ ५० ॥
यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दु:ख का कारण है, तो भी उनसे आत्मा का क्या सम्बन्ध ? क्योंकि सुख-दु:ख पहुँचानेवाला भी मिट्टी का शरीर है और भोगनेवाला भी। कभी भोजन आदि के समय यदि अपने दाँतों से ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किस पर क्रोध करेगा ? ॥ ५१ ॥ यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दु:ख के कारण हैं, तो भी इस दु:ख से आत्मा की क्या हानि ? क्योंकि यदि दु:ख के कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओं के रूप में उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं। और देवता सभी शरीरों में एक हैं; जो देवता एक शरीर में हैं; वे ही दूसरे में भी हैं। ऐसी दशा में यदि अपने ही शरीर के किसी एक अङ्ग से दूसरे अङ्ग को चोट लग जाय तो भला, किस पर क्रोध किया जायगा ? ॥ ५२ ॥ यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दु:ख का कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मा से भिन्न कुछ और है ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दु:ख; फिर क्रोध कैसा ? क्रोध का निमित्त ही क्या ? ॥ ५३ ॥ यदि ग्रहों को सुख-दु:ख का निमित्त मानें, तो उनसे भी अजन्मा आत्मा की क्या हानि ? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीर पर ही होता है। ग्रहों की पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीर को ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरों से सर्वथा परे है। तब भला वह किस पर क्रोध करे ? ॥ ५४ ॥ यदि कर्मों को ही सुख-दु:ख का कारण मानें, तो उनसे आत्मा का क्या प्रयोजन ? क्योंकि वे तो एक पदार्थ के जड और चेतन—उभयरूप होने पर ही हो सकते हैं।(जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जाननेवाली होती है, उसी से कर्म हो सकते हैं; अत: वह विकारयुक्त होने के कारण जड होनी चाहिये और हिताहित का ज्ञान रखने के कारण चेतन।) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूप से रहनेवाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मों का तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किस पर करें ? ॥ ५५ ॥ यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दु:ख का कारण है, तो आत्मा पर उसका क्या प्रभाव ? क्योंकि काल तो आत्म स्वरूप ही है। जैसे आग आग को नहीं जला सकती, और बर्फ बर्फ को नहीं गला सकता, वैसे ही आत्म स्वरूप काल अपने आत्मा को ही सुख-दु:ख नहीं पहुँचा सकता। फिर किस पर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत- उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत है ॥ ५६ ॥ आत्मा प्रकृति के स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्ध से भी रहित है। उसे कभी कहीं किसी के द्वारा किसी भी प्रकार से द्वन्द्व का स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकनेवाले अहङ्कार को ही होता है। जो इस बात को जान लेता है, वह फिर किसी भी भय के निमित्त से भयभीत नहीं होता ॥ ५७ ॥ बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस परमात्मनिष्ठा का आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसी का आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेम के दाता भगवान के चरणकमलों की सेवा के द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञान-सागर को अनायास ही पार कर लूँगा ॥ ५८ ॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! उस ब्राह्मण का धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसार से विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वी में स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टों ने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्म में अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकार का गीत गाया करता था ॥ ५९ ॥ उद्धवजी ! इस संसार में मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दु:ख नहीं देता, यह तो उसके चित्त का भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद अज्ञानकल्पित हैं ॥ ६० ॥ इसलिये प्यारे उद्धव ! अपनी वृत्तियों को मुझ में तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मन को वश में कर लो और फिर मुझ में ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधन का इतना ही सार-संग्रह है ॥ ६१ ॥ यह भिक्षुक का गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्त से इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दु:खादि द्वन्द्वों के वश में नहीं होता। उनके बीच में भी वह सिंह के समान दहाड़ता रहता है ॥ ६२ ॥
॥ चतुर्विंशोऽध्यायः - २४ ॥
श्रीभगवानुवाच
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि साङ्ख्यं पूर्वैर्विनिश्चितम् ।
यद्विज्ञाय पुमान् सद्यो जह्याद्वैकल्पिकं भ्रमम् ॥ १॥
आसीज्ज्ञानमथो ह्यर्थ एकमेवाविकल्पितम् ।
यदा विवेकनिपुणा आदौ कृतयुगेऽयुगे ॥ २॥
तन्मायाफलरूपेण केवलं निर्विकल्पितम् ।
वाङ् मनोगोचरं सत्यं द्विधा समभवद्बृहत् ॥ ३॥
तयोरेकतरो ह्यर्थः प्रकृतिः सोभयात्मिका ।
ज्ञानं त्वन्यतमो भावः पुरुषः सोऽभिधीयते ॥ ४॥
तमो रजः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन् गुणाः ।
मया प्रक्षोभ्यमाणायाः पुरुषानुमतेन च ॥ ५॥
तेभ्यः समभवत्सूत्रं महान् सूत्रेण संयुतः ।
ततो विकुर्वतो जातोऽहङ्कारो यो विमोहनः ॥ ६॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिवृत् ।
तन्मात्रेन्द्रियमनसां कारणं चिदचिन्मयः ॥ ७॥
अर्थस्तन्मात्रिकाज्ज्ज्ञे तामसादिन्द्रियाणि च ।
तैजसाद्देवता आसन्नेकादश च वैकृतात् ॥ ८॥
मया सञ्चोदिता भावाः सर्वे संहत्यकारिणः ।
अण्डमुत्पादयामासुर्ममायतनमुत्तमम् ॥ ९॥
तस्मिन्नहं समभवमण्डे सलिलसंस्थितौ ।
मम नाभ्यामभूत्पद्मं विश्वाख्यं तत्र चात्मभूः ॥ १०॥
सोऽसृजत्तपसा युक्तो रजसा मदनुग्रहात् ।
लोकान् सपालान् विश्वात्मा भूर्भुवःस्वरिति त्रिधा ॥ ११॥
देवानामोक आसीत्स्वर्भूतानां च भुवः पदम् ।
मर्त्यादीनां च भूर्लोकः सिद्धानां त्रितयात्परम् ॥ १२॥
अधोऽसुराणां नागानां भूमेरोकोऽसृजत्प्रभुः ।
त्रिलोक्यां गतयः सर्वाः कर्मणां त्रिगुणात्मनाम् ॥ १३॥
योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः ।
महर्जनस्तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गतिः ॥ १४॥
मया कालात्मना धात्रा कर्मयुक्तमिदं जगत् ।
गुणप्रवाह एतस्मिन्नुन्मज्जति निमज्जति ॥ १५॥
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो यो यो भावः प्रसिध्यति ।
सर्वोऽप्युभयसंयुक्तः प्रकृत्या पुरुषेण च ॥ १६॥
यस्तु यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च तस्य सन् ।
विकारो व्यवहारार्थो यथा तैजसपार्थिवाः ॥ १७॥
यदुपादाय पूर्वस्तु भावो विकुरुतेऽपरम् ।
आदिरन्तो यदा यस्य तत्सत्यमभिधीयते ॥ १८॥
प्रकृतिर्यस्योपादानमाधारः पुरुषः परः ।
सतोऽभिव्यञ्जकः कालो ब्रह्म तत्त्रितयं त्वहम् ॥ १९॥
सर्गः प्रवर्तते तावत्पौर्वापर्येण नित्यशः ।
महान् गुणविसर्गार्थः स्थित्यन्तो यावदीक्षणम् ॥ २०॥
विराण्मयासाद्यमानो लोककल्पविकल्पकः ।
पञ्चत्वाय विशेषाय कल्पते भुवनैः सह ॥ २१॥
अन्ने प्रलीयते मर्त्यमन्नं धानासु लीयते ।
धाना भूमौ प्रलीयन्ते भूमिर्गन्धे प्रलीयते ॥ २२॥
अप्सु प्रलीयते गन्ध आपश्च स्वगुणे रसे ।
लीयते ज्योतिषि रसो ज्योती रूपे प्रलीयते ॥ २३॥
रूपं वायौ स च स्पर्शे लीयते सोऽपि चाम्बरे ।
अम्बरं शब्दतन्मात्र इन्द्रियाणि स्वयोनिषु ॥ २४॥
योनिर्वैकारिके सौम्य लीयते मनसीश्वरे ।
शब्दो भूतादिमप्येति भूतादिर्महति प्रभुः ॥ २५॥
स लीयते महान् स्वेषु गुणेसु गुणवत्तमः ।
तेऽव्यक्ते सम्प्रलीयन्ते तत्काले लीयतेऽव्यये ॥ २६॥
कालो मायामये जीवे जीव आत्मनि मय्यजे ।
आत्मा केवल आत्मस्थो विकल्पापायलक्षणः ॥ २७॥
एवमन्वीक्षमाणस्य कथं वैकल्पिको भ्रमः ।
मनसो हृदि तिष्ठेत व्योम्नीवार्कोदये तमः ॥ २८॥
एष साङ्ख्यविधिः प्रोक्तः संशयग्रन्थिभेदनः ।
प्रतिलोमानुलोमाभ्यां परावरदृशा मया ॥ २९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥
एकादश स्कन्द-चौबीसवाँ अध्याय 29
सांख्ययोग
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्र का निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन काल के बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धि-मूलक सुख-दु:खादिरूप भ्रम का तत्काल त्याग कर देता है ॥ १ ॥ युगों से पूर्व प्रलयकाल में आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं—इन सभी अवस्थाओं में यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं ॥ २ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल—अद्वितीय सत्य है; मन और वाणी की उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीव के रूपमें—दृश्य और द्रष्टा के रूपमें—दो भागों में विभक्त-सा हो गया ॥ ३ ॥ उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञान स्वरूप है, पुरुष कहते हैं ॥ ४ ॥ उद्धवजी ! मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण प्रकट हुए ॥ ५ ॥ उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्व में विकार होने पर अहङ्कार व्यक्त हुआ। यह अहङ्कार ही जीवों को मोहमें डालनेवाला है ॥ ६ ॥ वह तीन प्रकार का है—सात्त्विक, राजस और तामस। अहङ्कार पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है; इसलिये वह जड-चेतन—उभयात्मक है ॥ ७ ॥ तामस अहङ्कार से पञ्चतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतों की उत्पत्ति हुई। तथा राजस अहङ्कार से इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहङ्कार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता[1] प्रकट हुए ॥ ८ ॥ ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्हों ने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड मेरा उत्तम निवासस्थान है ॥ ९ ॥ जब वह अण्ड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूप से इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभि से विश्वकमल की उत्पत्ति हुई। उसी पर ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ ॥ १० ॥ विश्वसमष्टि के अन्त:करण ब्रह्माने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुण के द्वारा भू:, भुव:, स्व: अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग—इन तीन लोकों की और इनके लोकपालों की रचना की ॥ ११ ॥ देवताओं के निवासके लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादि के लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदि के लिये भूर्लोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकों से ऊ पर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धों के निवासस्थान हुए ॥ १२ ॥ सृष्टिकार्य में समर्थ ब्रह्माजी ने असुर और नागों के लिये पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकों में त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं ॥ १३ ॥ योग, तपस्या और संन्यासके द्वारा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोग से मेरा परम धाम मिलता है ॥ १४ ॥ यह सारा जगत कर्म और उनके संस्कारों से युक्त है। मैं ही कालरूप से कर्मों के अनुसार उनके फल का विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाहमें पडक़र जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊ पर आ जाता है—कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यगति उच्चगति प्राप्त हो जाती है ॥ १५ ॥ जगत में छोटे-बड़े, मोटे-पतले— जित ने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही सिद्ध होते है ॥ १६ ॥ जिसके आदि और अन्त में जो है, वही बीच में भी है और वही सत्य है। विकार तो केवल व्यवहार के लिये की हुई कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सो ने के विकार, और घड़े-स कोरे आदि मिट्टी के विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बाद में भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अत: बीच में भी वे सोना या मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारण को उपादान बनाकर अ पर (अहंकार आदि) कार्य-वर्ग की सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्य के आदि और अन्त में विद्यमान रहता है, वही सत्य है ॥ १७-१८ ॥ इस प्रपञ्च का उपादान-कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इस को प्रकट करनेवाला काल है। व्यवहार-काल की यह त्रिविधता वस्तुत: ब्रह्म- स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ ॥ १९ ॥ जब तक परमात्मा की ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जब तक उनकी पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है, तब तक जीवों के कर्मभोग के लिये कारण-कार्यरूप से अथवा पिता-पुत्रादि के रूप से यह सृष्टिचक्र निरन्तर चलता रहता है ॥ २० ॥
यह विराट् ही विविध लोकों की सृष्टि, स्थिति और संहार की लीलाभूमि है। जब मैं कालरूप से इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलय का संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनों के साथ विनाशरूप विभाग के योग्य हो जाता है ॥ २१ ॥ उसके लीन होने की प्रक्रिया यह है कि प्राणियों के शरीर अन्न में, अन्न बीज में, बीज भूमि में और भूमि गन्ध-तन्मात्रा में लीन हो जाती है ॥ २२ ॥ गन्ध जल में, जल अपने गुण रस में , रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है ॥ २३ ॥ रूप वायु में, वायु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्दतन्मात्रा में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओं में और अन्तत: राजस अहङ्कार में समा जाती हैं ॥ २४ ॥ हे सौम्य ! राजस अहङ्कार अपने नियन्ता सात्त्विक अहङ्काररूप मन में, शब्दतन्मात्रा पञ्चभूतों के कारण तामस अहङ्कार में और सारे जगत को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहङ्कार महत्तत्त्व में लीन हो जाता है ॥ २५ ॥ ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिप्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी काल में लीन हो जाती है ॥ २६ ॥ काल मायामय जीव में और जीव मुझ अजन्मा आत्मा में लीन हो जाता है। आत्मा किसी में लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है। वह जगत की सृष्टि और लय का अधिष्ठान एवं अवधि है ॥ २७ ॥ उद्धवजी ! जो इस प्रकार विवेकदृष्टि से देखता है, उसके चित्त में यह प्रपञ्च का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय, तो वह अधिक काल तक हृदय में ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है ॥ २८ ॥ उद्धवजी ! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्यविधि बतला दी। इससे सन्देह की गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है ॥ २९ ॥
[1] पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—इस प्रकार ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता हैं।
॥ पञ्चविंशोऽध्यायः - २५ ॥
श्रीभगवानुवाच
गुणानामसमिश्राणां पुमान् येन यथा भवेत् ।
तन्मे पुरुषवर्येदमुपधारय शंसतः ॥ १॥
शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः ।
तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः ॥ २॥
काम ईहा मदस्तृष्णा स्तम्भ आशीर्भिदा सुखम् ।
मदोत्साहो यशः प्रीतिर्हास्यं वीर्यं बलोद्यमः ॥ ३॥
क्रोधो लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञा दम्भः क्लमः कलिः ।
शोकमोहौ विषादार्ती निद्राशा भीरनुद्यमः ॥ ४॥
सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः ।
वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो शृणु ॥ ५॥
सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः ।
व्यवहारः सन्निपातो मनो मात्रेन्द्रियासुभिः ॥ ६॥
धर्मे चार्थे च कामे च यदासौ परिनिष्ठितः ।
गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः ॥ ७॥
प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान् यर्हि गृहाश्रमे ।
स्वधर्मे चानुतिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा ॥ ८॥
पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभिः ।
कामादिभी रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतम् ॥ ९॥
यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्वकर्मभिः ।
तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात्पुरुषं स्त्रियमेव वा ॥ १०॥
यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः ।
तं रजःप्रकृतिं विद्याथिंसामाशास्य तामसम् ॥ ११॥
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे ।
चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते ॥ १२॥
यदेतरौ जयेत्सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम् ।
तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभिः पुमान् ॥ १३॥
यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः सङ्गं भिदा चलम् ।
तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया ॥ १४॥
यदा जयेद्रजः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम् ।
युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्रया हिंसयाऽऽशया ॥ १५॥
यदा चित्तं प्रसीदेत इन्द्रियाणां च निर्वृतिः ।
देहेऽभयं मनोऽसङ्गं तत्सत्त्वं विद्धि मत्पदम् ॥ १६॥
विकुर्वन् क्रियया चाधीरनिवृत्तिश्च चेतसाम् ।
गात्रास्वास्थ्यं मनोभ्रान्तं रज एतैर्निशामय ॥ १७॥
सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेऽक्षमम् ।
मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय ॥ १८॥
एधमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते ।
असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम् ॥ १९॥
सत्त्वाज्जागरणं विद्याद्रजसा स्वप्नमादिशेत् ।
प्रस्वापं तमसा जन्तोस्तुरीयं त्रिषु सन्ततम् ॥ २०॥
उपर्युपरि गच्छन्ति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः ।
तमसाधोऽध आमुख्याद्रजसान्तरचारिणः ॥ २१॥
सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यान्ति नरलोकं रजोलयाः ।
तमोलयास्तु निरयं यान्ति मामेव निर्गुणाः ॥ २२॥
मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत् ।
राजसं फलसङ्कल्पं हिंसाप्रायादि तामसम् ॥ २३॥
कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत् ।
प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम् ॥ २४॥
वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते ।
तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम् ॥ २५॥
सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी रागान्धो राजसः स्मृतः ।
तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः ॥ २६॥
सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी ।
तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा ॥ २७॥
पथ्यं पूतमनायस्तमाहार्यं सात्त्विकं स्मृतम् ।
राजसं चेन्द्रियप्रेष्ठं तामसं चार्तिदाशुचि ॥ २८॥
सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम् ।
तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम् ॥ २९॥
द्रव्यं देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः ।
श्रद्धावस्थाकृतिर्निष्ठा त्रैगुण्यः सर्व एव हि ॥ ३०॥
सर्वे गुणमया भावाः पुरुषाव्यक्तधिष्ठिताः ।
दृष्टं श्रुतमनुध्यातं बुद्ध्या वा पुरुषर्षभ ॥ ३१॥
एताः संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबन्धनाः ।
येनेमे निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः ।
भक्तियोगेन मन्निष्ठो मद्भावाय प्रपद्यते ॥ ३२॥
तस्माद्देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञानसम्भवम् ।
गुणसङ्गं विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः ॥ ३३॥
निःसङ्गो मां भजेद्विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः ।
रजस्तमश्चाभिजयेत्सत्त्वसंसेवया मुनिः ॥ ३४॥
सत्त्वं चाभिजयेद्युक्तो नैरपेक्ष्येण शान्तधीः ।
सम्पद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीवं विहाय माम् ॥ ३५॥
जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसम्भवैः ।
मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत् ॥ ३६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५॥
एकादश स्कन्द-पचीसवाँ अध्याय 36
तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—पुरुषप्रवर उद्धवजी ! प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग गुणों का प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुण से कैसा-कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानी से सुनो ॥ १ ॥ सत्त्वगुण की वृत्तियाँ हैं—शम (मन:संयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयों के प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करने में स्वाभाविक सङ् कोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि ॥ २ ॥ रजोगुण की वृत्तियाँ हैं—इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओं से धन आदि की याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादि के लिये मदजनित उत्साह, अपने यश में प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि ॥ ३ ॥ तमोगुण की वृत्तियाँ हैं—क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि ॥ ४ ॥ इस प्रकार क्रम से सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की अधिकांश वृत्तियों का पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया। अब उनके मेल से होनेवाली वृत्तियों का वर्णन सुनो ॥ ५ ॥ उद्धवजी ! ‘मैं हूँ और यह मेरा है’ इस प्रकार की बुद्धि में तीनों गुणों का मिश्रण है। जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणों के कारण पूर्वोक्त वृत्तियों का उदय होता है, वे सब-के-सब सात्त्विक, राजस और तामस हैं ॥ ६ ॥ जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काम में संलग्र रहता है, तब उसे सत्त्वगुण से श्रद्धा, रजोगुण से रति और तमोगुण से धन की प्राप्ति होती है। यह भी गुणों का मिश्रण ही है ॥ ७ ॥ जिस समय मनुष्य सकाम कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरण में अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों गुणों का मेल ही समझना चाहिये ॥ ८ ॥
मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणों से सत्त्वगुणी पुरुषकी, कामना आदि से रजोगुणी पुरुष की और क्रोध-हिंसा आदि से तमोगुणी पुरुष की पहचान करे ॥ ९ ॥ पुरुष हो, चाहे स्त्री—जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों द्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये ॥ १० ॥ सकामभाव से अपने कर्मों के द्वारा मेरा भजन-पूजन करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रु की मृत्यु आदि के लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये ॥ ११ ॥ सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त है। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणों के द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदि में आसक्त होकर बन्धन में पड़ जाता है ॥ १२ ॥ सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है ॥ १३ ॥ रजोगुण भेदबुद्धि का कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दु:ख, कर्म, यश और लक्ष्मी से सम्पन्न होता है ॥ १४ ॥ तमोगुण का स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढक़र सत्त्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरह की आशाएँ करता है, शोक-मोहमें पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्य के वशीभूत होकर पड़ रहता है ॥ १५ ॥ जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मन में आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुण की वृद्धि समझनी चाहिये। सत्त्वगुण मेरी प्राप्ति का साधन है ॥ १६ ॥ जब काम करते-करते जीव की बुद्धि चञ्चल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है ॥ १७ ॥ जब चित्त ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों को ठीक-ठीक समझ ने में असमर्थ हो जाय और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अज्ञान और विषाद की वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धि पर है ॥ १८ ॥
उद्धवजी ! सत्त्वगुण के बढऩे पर देवताओंका, रजोगुण के बढऩे पर असुरों का और तमोगुण के बढऩे पर राक्षसों का बल बढ़ जाता है। (वृत्तियों में भी क्रमश: सत्त्वादि गुणों की अधिकता होने पर देवत्व, असुरत्व और राक्षसत्वप्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोह की प्रधानता हो जाती है) ॥ १९ ॥ सत्त्वगुण से जाग्रत्-अवस्था, रजोगुण से स्वप्नावस्था और तमोगुण से सुषुप्ति-अवस्था होती है। तुरीय इन तीनों में एक-सा व्याप्त रहता है। वही शुद्ध और एकरस आत्मा है ॥ २० ॥ वेदों के अभ्यास में तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुण के द्वारा उत्तरोत्तर ऊ पर के लोकों में जाते हैं। तमोगुण से जीवों को वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुण से मनुष्यशरीर मिलता है ॥ २१ ॥ जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणों की वृद्धि के समय होती है, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है; जिसकी रजोगुण की वृद्धि के समय होती है, उसे मनुष्यलोक मिलता है और जो तमोगुण की वृद्धि के समय मरता है, उसे नरक की प्राप्ति होती है। परन्तु जो पुरुष त्रिगुणातीत—जीवन्मुक्त हो गये हैं, उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥ जब अपने धर्म का आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्कामभाव से किया जाता है, तब वह सात्त्विक होता है। जिस कर्म के अनुष्ठान में किसी फल की कामना रहती है, वह राजसिक होता है और जिस कर्म में किसीको सता ने अथवा दिखा ने आदि का भाव रहता है, वह तामसिक होता है ॥ २३ ॥ शुद्ध आत्मा का ज्ञान सात्त्विक है। उस को कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है। इन तीनों से विलक्षण मेरे स्वरूप का वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है ॥ २४ ॥ वन में रहना सात्त्विक निवास है, गाँव में रहना राजस है और जूआघर में रहना तामसिक है। इन सब से बढक़र मेरे मन्दिर में रहना निर्गुण निवास है ॥ २५ ॥ अनासक्तभाव से कर्म करनेवाला सात्त्विक है, रागान्ध होकर कर्म करनेवाला राजसिक है और पूर्वापरविचार से रहित होकर करनेवाला तामसिक है। इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरण में रहकर बिना अहङ्कार के कर्म करता है, वह निर्गुण कर्ता है ॥ २६ ॥ आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्त्विक श्रद्धा है, कर्मविषयक श्रद्धा राजस है और जो श्रद्धा अधर्म में होती है, वह तामस है तथा मेरी सेवा में जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है ॥ २७ ॥ आरोग्यदायक, पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्त्विक है। रसनेन्द्रिय को रुचिकर और स्वाद की दृष्टि से युक्त आहार राजस है तथा दु:खदायी और अपवित्र आहार तामस है ॥ २८ ॥ अन्तर्मुखतासे—आत्मचिन्तन से प्राप्त होनेवाला सुख सात्त्विक है। बहिर्मुखतासे—विषयों से प्राप्त होनेवाला राजस है तथा अज्ञान और दीनता से प्राप्त होनेवाला सुख तामस है और जो सुख मुझ से मिलता है, वह तो गुणातीत और अप्राकृत है ॥ २९ ॥
उद्धवजी ! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव- मनुष्य-तिर्यगादि शरीर और निष्ठा—सभी त्रिगुणात्मक हैं ॥ ३० ॥ नररत्न ! पुरुष और प्रकृति के आश्रित जित ने भी भाव हैं, सभी गुणमय हैं—वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियों से अनुभव किये हुए हों, शास्त्रों के द्वारा लोक-लोकान्तरों के सम्बन्ध में सुने गये हों अथवा बुद्धि के द्वारा सोचे-विचारे गये हों ॥ ३१ ॥ जीव को जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उनके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं। हे सौम्य ! सब-के-सब गुण चित्त से ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह भक्तियोग के द्वारा मुझ में ही परिनिष्ठित हो जाता है और अन्तत: मेरा वास्तविक स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है ॥ ३२ ॥ यह मनुष्यशरीर बहुत ही दुर्लभ है। इसी शरीर में तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञान की प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान पुरुषों को गुणों की आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये ॥ ३३ ॥ विचारशील पुरुष को चाहिये कि बड़ी सावधानी से सत्त्वगुण के सेवन से रजोगुण और तमोगुण को जीत ले, इन्द्रियों को वश में कर ले और मेरे स्वरूप को समझकर मेरे भजन में लग जाय। आसक्ति को लेशमात्र भी न रहने दे ॥ ३४ ॥ योगयुक्ति से चित्तवृत्तियों को शान्त करके निरपेक्षता के द्वारा सत्त्वगुण पर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणों से मुक्त होकर जीव अपने जीवभाव को छोड़ देता है और मुझ से एक हो जाता है ॥ ३५ ॥ जीव लिङ्गशरीररूप अपनी उपाधि जीवत्व से तथा अन्त:करण में उदय होनेवाली सत्त्वादि गुणों की वृत्तियों से मुक्त होकर मुझ ब्रह्म की अनुभूति से एकत्वदर्शन से पूर्ण हो जाता है और वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषय में नहीं जाता ॥ ३६ ॥
॥ षड्विंशोऽध्यायः - २६ ॥
श्रीभगवानुवाच
मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मद्धर्म आस्थितः ।
आनन्दं परमात्मानमात्मस्थं समुपैति माम् ॥ १॥
गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया ।
गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः ।
वर्तमानोऽपि न पुमान् युज्यतेऽवस्तुभिर्गुणैः ॥ २॥
सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।
तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ॥ ३॥
ऐलः सम्राडिमां गाथामगायत बृहच्छ्रवाः ।
उर्वशीविरहान्मुह्यन् निर्विण्णः शोकसंयमे ॥ ४॥
त्यक्त्वाऽऽत्मानं व्रजन्तीं तां नग्न उन्मत्तवन्नृपः ।
विलपन्नन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः ॥ ५॥
कामानतृप्तोऽनुजुषन् क्षुल्लकान् वर्षयामिनीः ।
न वेद यान्तीर्नायान्तीरुर्वश्याकृष्टचेतनः ॥ ६॥
ऐल उवाच
अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः ।
देव्या गृहीतकण्ठस्य नायुः खण्डा इमे स्मृताः ॥ ७॥
नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वाभ्युदितोऽमुया ।
मुषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत ॥ ८॥
अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः ।
क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः ॥ ९॥
सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम् ।
यान्तीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद्रुदन् ॥ १०॥
कुतस्तस्यानुभावः स्यात्तेज ईशत्वमेव वा ।
योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीं खरवत्पादताडितः ॥ ११॥
किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा ।
किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥ १२॥
स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं पण्डितमानिनम् ।
योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः ॥ १३॥
सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम् ।
न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा ॥ १४॥
पुंश्चल्यापहृतं चित्तं को न्वन्यो मोचितुं प्रभुः ।
आत्मारामेश्वरमृते भगवन्तमधोक्षजम् ॥ १५॥
बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः ।
मनो गतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः ॥ १६॥
किमेतया नोपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः ।
रज्जुस्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः ॥ १७॥
क्वायं मलीमसः कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोऽशुचिः ।
क्व गुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः ॥ १८॥
पित्रोः किं स्वं नु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्वगृध्रयोः ।
किमात्मनः किं सुहृदामिति यो नावसीयते ॥ १९॥
तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते ।
अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियाः ॥ २०॥
त्वङ् मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंहतौ ।
विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम् ॥ २१॥
अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित् ।
विषयेन्द्रियसंयोगान्मनः क्षुभ्यति नान्यथा ॥ २२॥
अदृष्टादश्रुताद्भावान्न भाव उपजायते ।
असम्प्रयुञ्जतः प्राणान् शाम्यति स्तिमितं मनः ॥ २३॥
तस्मात्सङ्गो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः ।
विदुषां चाप्यविस्रब्धः षड् वर्गः किमु मादृशाम् ॥ २४॥
श्रीभगवानुवाच
एवं प्रगायन् नृपदेवदेवः
स उर्वशीलोकमथो विहाय ।
आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै
उपारमज्ज्ञानविधूतमोहः ॥ २५॥
ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान् ।
सन्त एतस्य छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः ॥ २६॥
सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः ।
निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ॥ २७॥
तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः ।
सम्भवन्ति हि ता नॄणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम् ॥ २८॥
ता ये शृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृताः ।
मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि ॥ २९॥
भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते ।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि ॥ ३०॥
यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम् ।
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा ॥ ३१॥
निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायणम् ।
सन्तो ब्रह्मविदः शान्ता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम् ॥ ३२॥
अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम् ।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोऽर्वाग्बिभ्यतोऽरणम् ॥ ३३॥
सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः ।
देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च ॥ ३४॥
वैतसेनस्ततोऽप्येवमुर्वश्या लोकनिस्पृहः ।
मुक्तसङ्गो महीमेतामात्मारामश्चचार ह ॥ ३५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६॥
एकादश स्कन्द-छब्बीसवाँ अध्याय 35
पुरूरवा की वैराग्योक्ति
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! यह मनुष्यशरीर मेरे स्वरूपज्ञान की प्राप्तिका—मेरी प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्त:करण में स्थित मुझ आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ॥ १ ॥ जीवों की सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयी हैं। जीव ज्ञाननिष्ठा के द्वारा उनसे सदा के लिये मुक्त हो जाता है। सत्त्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं। ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी, उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बँधता नहीं। इसका कारण यह है कि उन गुणों की वास्तविक सत्ता ही नहीं है ॥ २ ॥ साधारण लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग विषयों के सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का सङ्ग कभी न करें; क्योंकि उनका अनुगमन करनेवाले पुरुष की वैसी ही दुर्दशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलनेवाले अंधे की। उसे तो घोर अन्धकार में ही भटकना पड़ता है ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी ॥ ४ ॥ राजा पुरूरवा नग्र होकर पागल की भाँति अपने को छोडक़र भागती हुई उर्वशी के पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौडऩे लगा और कह ने लगा— ‘देवि ! निष्ठुर हृदये ! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’ ॥ ५ ॥ उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इत ने डूब गये थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं ॥ ६ ॥
पुरूरवा ने कहा—हाय-हाय ! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया ! उर्वशी ने अपनी बाहुओं से मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयु के न जाने कित ने वर्ष खो दिये। ओह ! विस्मृति की भी एक सीमा होती है ॥ ७ ॥ हाय-हाय ! इस ने मुझे लूट लिया। सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ—यह भी मैं न जान सका। बड़े खेद की बात है कि बहुत- से वर्षों के दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूम तक न पड़ा ॥ ८ ॥ अहो ! आश्चर्य है ! मेरे मन में इतना मोह बढ़ गया, जिस ने नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवा को भी स्त्रियों का क्रीडामृग (खिलौना) बना दिया ॥ ९ ॥ देखो, मैं प्रजा को मर्यादा में रखनेवाला सम्राट् हूँ। वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोडक़र जाने लगी और मैं पागल होकर नंग-धड़ंग रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। हाय ! हाय ! यह भी कोई जीवन है ॥ १० ॥ मैं गधे की तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्री के पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझ में प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है ॥ ११ ॥ स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं। और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है ॥ १२ ॥ मुझे अपनी ही हानि-लाभ का पता नहीं, फिर भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ। मुझ मूर्ख को धिक्कार है। हाय ! हाय ! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैल की तरह स्त्री के फंदे में फँस गया ॥ १३ ॥ मैं वर्षों तक उर्वशी के होठों की मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई। सच है, कहीं आहुतियों से अग्रि की तृप्ति हुई है ॥ १४ ॥ उस कुलटा ने मेरा चित्त चुरा लिया। आत्माराम जीवन्मुक्तों के स्वामी इन्द्रियातीत भगवान को छोडक़र और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके ॥ १५ ॥ उर्वशी ने तो मुझे वैदिक सूक्त के वचनों द्वारा यथार्थ बात कहकर समझाया भी था; परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी मारी गयी कि मेरे मन का वह भयङ्कर मोह तब भी मिटा नहीं। जब मेरी इन्द्रियाँ ही मेरे हाथ के बाहर हो गयीं, तब मैं समझता भी कैसे ॥ १६ ॥ जो रस्सी के स्वरूप को न जानकर उसमें सर्प की कल्पना कर रहा है और दुखी हो रहा है, रस्सी ने उसका क्या बिगाड़ा है ? इसी प्रकार इस उर्वशी ने भी हमारा क्या बिगाड़ा ? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होने के कारण अपराधी हूँ ॥ १७ ॥ कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्ध से भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुष्पोचित गुण ! परन्तु मैंने अज्ञानवश असुन्दर में सुन्दर का आरोप कर लिया ॥ १८ ॥ यह शरीर माता-पिता का सर्वस्व है अथवा पत्नी की सम्पत्ति ? यह स्वामी की मोल ली हुई वस्तु है, आग का र्ईंधन है अथवा कुत्ते और गीधों का भोजन ? इसे अपना कहें अथवा सुहृद्-सम्बन्धियों का ? बहुत सोचने-विचारने पर भी कोई निश्चय नहीं होता ॥ १९ ॥ यह शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र है। इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दें, इसके सड़ जाने पर इसमें कीड़े पड़ जायँ अथवा जला देने पर यह राख का ढेर हो जाय। ऐसे शरीर पर लोग लट्टू हो जाते हैं और कह ने लगते हैं—‘अहो ! इस स्त्री का मुखड़ा कितना सुन्दर है ! नाक कितनी सुघड़ है और मन्द-मन्द मुसकान कितनी मनोहर है ॥ २० ॥ यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा और हड्डियों का ढेर और मल-मूत्र तथा पीब से भरा हुआ है। यदि मनुष्य इसमें रमता है, तो मल-मूत्र के कीड़ों में और उसमें अन्तर ही क्या है ॥ २१ ॥ इसलिये अपनी भलाई समझनेवाले विवे की मनुष्य को चाहिये कि स्त्रियों और स्त्रीलम्पट पुरुषों का सङ्ग न करे। विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है; अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है ॥ २२ ॥ जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है, उसके लिये मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है ॥ २३ ॥ अत: वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियों से स्त्रियों और स्त्रीलम्पटों का सङ्ग कभी नहीं करना चाहिये। मेरे-जैसे लोगों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं ॥ २४ ॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! राजराजेश्वर पुरूरवा के मन में जब इस तरह के उद्गार उठ ने लगे, तब उसने उर्वशीलोक का परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होने के कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदय में ही आत्म स्वरूप से मेरा साक्षातकार कर लिया और वह शान्तभाव में स्थित हो गया ॥ २५ ॥ इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि पुरूरवा की भाँति कुसङ्ग छोडक़र सत्पुरुषों का सङ्ग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे ॥ २६ ॥ संत पुरुषों का लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझ में लगा रहता है। उनके हृदय में शान्ति का अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सब में सब रूप से स्थित भगवान का ही दर्शन करते हैं। उनमें अहङ्कार का लेश भी नहीं होता, फिर ममता की तो सम्भावना ही कहाँ है। वे सर्दी-गरमी, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों में एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-सम्बन्धी किसी प्रकार का भी परिग्रह नहीं रखते ॥ २७ ॥ परम भाग्यवान् उद्धवजी ! संतों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे ? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला- कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ मनुष्यों के लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप-तापों को वे धो डालती हैं ॥ २८ ॥ जो लोग आदर और श्रद्धा से मेरी लीला- कथाओं का श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणों का आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है—केवल आनन्द, केवल अनुभव , विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है ॥ ३० ॥ उनकी तो बात ही क्या—जिस ने उन संत पुरुषों की शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजडता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला, जिस ने अग्रिभगवान का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अन्धकार का दु:ख हो सकता है ? ॥ ३१ ॥ जो इस घोर संसारसागर में डूब-उतरा रहे हैं, उनके लिये ब्रह्मवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जल में डूब रहे लोगों के लिये दृढ़ नौ का ॥ ३२ ॥ जैसे अन्न से प्राणियों के प्राण की रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुखियों का परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्य के लिये परलोक में धर्म ही एकमात्र पूँजी है—वैसे ही जो लोग संसार से भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय हैं ॥ ३३ ॥ जैसे सूर्य आकाश में उदय होकर लोगों को जगत तथा अपने को देखने के लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपने को तथा भगवान को देखने के लिये अन्तर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद् हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संत के रूप में विद्यमान हूँ ॥ ३४ ॥ प्रिय उद्धव ! आत्मसाक्षातकार होते ही इलानन्दन पुरूरवा को उर्वशी के लोक की स्पृहा न रही। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्दरूप से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा ॥ ३५ ॥
॥ सप्तविंशोऽध्यायः - २७ ॥
उद्धव उवाच
क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो ।
यस्मात्त्वां ये यथार्चन्ति सात्वताः सात्वतर्षभ ॥ १॥
एतद्वदन्ति मुनयो मुहुर्निःश्रेयसं नृणाम् ।
नारदो भगवान् व्यास आचार्योऽङ्गिरसः सुतः ॥ २॥
निःसृतं ते मुखाम्भोजाद्यदाह भगवानजः ।
पुत्रेभ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्यै च भगवान् भवः ॥ ३॥
एतद्वै सर्ववर्णानामाश्रमाणां च सम्मतम् ।
श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद ॥ ४॥
एतत्कमलपत्राक्ष कर्मबन्धविमोचनम् ।
भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर ॥ ५॥
श्रीभगवानुवाच
न ह्यन्तोऽनन्तपारस्य कर्मकाण्डस्य चोद्धव ।
सङ्क्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः ॥ ६॥
वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः ।
त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत् ॥ ७॥
यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः ।
यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे ॥ ८॥
अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे ।
द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत्स्वगुरुं माममायया ॥ ९॥
पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धौतदन्तोऽङ्गशुद्धये ।
उभयैरपि च स्नानं मन्त्रैर्मृद्ग्रहणादिना ॥ १०॥
सन्ध्योपास्त्यादि कर्माणि वेदेनाचोदितानि मे ।
पूजां तैः कल्पयेत्सम्यक् सङ्कल्पः कर्मपावनीम् ॥ ११॥
शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती ।
मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता ॥ १२॥
चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम् ।
उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने ॥ १३॥
अस्थिरायां विकल्पः स्यात्स्थण्डिले तु भवेद्द्वयम् ।
स्नपनं त्वविलेप्यायामन्यत्र परिमार्जनम् ॥ १४॥
द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमादिष्वमायिनः ।
भक्तस्य च यथा लब्धैर्हृदि भावेन चैव हि ॥ १५॥
स्नानालङ्करणं प्रेष्ठमर्चायामेव तूद्धव ।
स्थण्डिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः ॥ १६॥
सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः ।
श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि ॥ १७॥
भूर्यप्यभक्तोपाहृतं न मे तोषाय कल्पते ।
गन्धो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किं पुनः ॥ १८॥
शुचिः सम्भृतसम्भारः प्राग्दर्भैः कल्पितासनः ।
आसीनः प्रागुदग्वार्चेदर्चायामथ सम्मुखः ॥ १९॥
कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चां पाणिना मृजेत् ।
कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत् ॥ २०॥
तदद्भिर्देवयजनं द्रव्याण्यात्मानमेव च ।
प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्भिस्तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत् ॥ २१॥
पाद्यार्घ्याचमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि दैशिकः ।
हृदा शीर्ष्णाथ शिखया गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत् ॥ २२॥
पिण्डे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम ।
अण्वीं जीवकलां ध्यायेन्नादान्ते सिद्धभाविताम् ॥ २३॥
तयाऽऽत्मभूतया पिण्डे व्याप्ते सम्पूज्य तन्मयः ।
आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्ताङ्गं मां प्रपूजयेत् ॥ २४॥
पाद्योपस्पर्शार्हणादीनुपचारान् प्रकल्पयेत् ।
धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम ॥ २५॥
पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलम् ।
उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये ॥ २६॥
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषुधनुर्हलान् ।
मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत् ॥ २७॥
नन्दं सुनन्दं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च ।
महाबलं बलं चैव कुमुदं कमुदेक्षणम् ॥ २८॥
दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून् सुरान् ।
स्वे स्वे स्थाने त्वभिमुखान् पूजयेत्प्रोक्षणादिभिः ॥ २९॥
चन्दनोशीरकर्पूरकुङ्कुमागुरुवासितैः ।
सलिलैः स्नापयेन्मन्त्रैर्नित्यदा विभवे सति ॥ ३०॥
स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया ।
पौरुषेणापि सूक्तेन सामभी राजनादिभिः ॥ ३१॥
वस्त्रोपवीताभरणपत्रस्रग्गन्धलेपनैः ।
अलङ्कुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम् ॥ ३२॥
पाद्यमाचमनीयं च गन्धं सुमनसोऽक्षतान् ।
धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः ॥ ३३॥
गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान् ।
संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत् ॥ ३४॥
अभ्यङ्गोन्मर्दनादर्शदन्तधावाभिषेचनम् ।
अन्नाद्यगीतनृत्यादि पर्वणि स्युरुतान्वहम् ॥ ३५॥
विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभिः ।
अग्निमाधाय परितः समूहेत्पाणिनोदितम् ॥ ३६॥
परिस्तीर्याथ पर्युक्षेदन्वाधाय यथाविधि ।
प्रोक्षण्यासाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ भावयेत माम् ॥ ३७॥
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः ।
लसच्चतुर्भुजं शान्तं पद्मकिञ्जल्कवाससम् ॥ ३८॥
स्फुरत्किरीटकटककटिसूत्रवराङ्गदम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम् ॥ ३९॥
ध्यायन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाभिघृतानि च ।
प्रास्याज्यभागावाघारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः ॥ ४०॥
जुहुयान्मूलमन्त्रेण षोडशर्चावदानतः ।
धर्मादिभ्यो यथा न्यायं मन्त्रैः स्विष्टिकृतं बुधः ॥ ४१॥
अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलिं हरेत् ।
मूलमन्त्रं जपेद्ब्रह्म स्मरन् नारायणात्मकम् ॥ ४२॥
दत्त्वाचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत् ।
मुखवासं सुरभिमत्ताम्बूलाद्यमथार्हयेत् ॥ ४३॥
उपगायन् गृणन् नृत्यन् कर्माण्यभिनयन् मम ।
मत्कथाः श्रावयन् शृण्वन् मुहूर्तं क्षणिको भवेत् ॥ ४४॥
स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि ।
स्तुत्वा प्रसीद भगवन्निति वन्देत दण्डवत् ॥ ४५॥
शिरो मत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम् ।
प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युग्रहार्णवात् ॥ ४६॥
इति शेषां मया दत्तां शिरस्याधाय सादरम् ।
उद्वासयेच्चेदुद्वास्यं ज्योतिर्ज्योतिषि तत्पुनः ॥ ४७॥
अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत् ।
सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहमवस्थितः ॥ ४८॥
एवं क्रियायोगपथैः पुमान् वैदिकतान्त्रिकैः ।
अर्चन्नुभयतः सिद्धिं मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम् ॥ ४९॥
मदर्चां सम्प्रतिष्ठाप्य मन्दिरं कारयेद्दृढम् ।
पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाश्रितान् ॥ ५०॥
पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्वस्वथान्वहम् ।
क्षेत्रापणपुरग्रामान् दत्त्वा मत्सार्ष्टितामियात् ॥ ५१॥
प्रतिष्ठया सार्वभौमं सद्मना भुवनत्रयम् ।
पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्साम्यतामियात् ॥ ५२॥
मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति ।
भक्तियोगं स लभत एवं यः पूजयेत माम् ॥ ५३॥
यः स्वदत्तां परैर्दत्तां हरेत सुरविप्रयोः ।
वृत्तिं स जायते विड् भुग् वर्षाणामयुतायुतम् ॥ ५४॥
कर्तुश्च सारथेर्हेतोरनुमोदितुरेव च ।
कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत्फलम् ॥ ५५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७॥
एकादश स्कन्द-सत्ताईसवाँ अध्याय 55
पुरूरवा की वैराग्योक्ति
उद्धवजी ने पूछा—भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ! जिस क्रियायोग का आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकार से जिस उद्देश्य से आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनरूप क्रियायोग का वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ देवर्षि नारद, भगवान व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोग के द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्यों के परम कल्याण की साधना है ॥ २ ॥ यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्द से ही निकला था। आप से ही ग्रहण करके इसे ब्रह्माजी ने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियों को और भगवान शङ्करने अपनी अद्र्धाङ्गिनी भगवती पार्वतीजी को उपदेश किया था ॥ ३ ॥ मर्यादारक्षक प्रभो ! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी-गृहस्थ आदि आश्रमों के लिये भी परम कल्याणकारी है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री-शूद्रादि के लिये भी यही सब से श्रेष्ठ साधना-पद्धति है ॥ ४ ॥ कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप शङ्कर आदि जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणों का प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धन से मुक्त करनेवाली विधि बतलाइये ॥ ५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धवजी ! कर्मकाण्ड का इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़े में ही पूर्वापर-क्रम से विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥ मेरी पूजा की तीन विधियाँ हैं— वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित। इन तीनों में से मेरे भक्त को जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधि से मेरी आराधना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधि से समय पर यज्ञोपवीत-संस्कार के द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्ति के साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इस की विधि तुम मुझ से सुनो ॥ ८ ॥ भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्मा का पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में , वेदी में, अग्रि में, सूर्य में, जल में, हृदय में अथवा ब्राह्मणमें—चाहे किसी में भी आराधना करे ॥ ९ ॥ उपासक को चाहिये कि प्रात:काल दतुअन करके पहले शरीरशुद्धि के लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकार के मन्त्रों से मिट्टी और भस्म आदि का लेप करके पुन: स्नान करे ॥ १० ॥ इसके पश्चात वेदोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधना का ही सुदृढ़ सङ्कल्प करके वैदिक और तान्ङ्क्षत्रक विधियों से कर्मबन्धनों से छुड़ानेवाली मेरी पूजा करे ॥ ११ ॥ मेरी मूर्ति आठ प्रकार की होती है—पत्थरकी, लकड़ीकी, धातु की , मिट्टी और चन्दन आदिकी, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी ॥ १२ ॥ चल और अचल भेद से दो प्रकार की प्रतिमा ही मुझ भगवान का मन्दिर है। उद्धवजी ! अचल प्रतिमा के पूजन में प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥ चल प्रतिमा के सम्बन्ध में विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु बालुकामयी प्रतिमा में तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दन की तथा चित्रमयी प्रतिमाओं को स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सब को स्नान कराना चाहिये ॥ १४ ॥ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थों से प्रतिमा आदि में मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थों से और भावनामात्र से ही हृदय में मेरी पूजा कर ले ॥ १५ ॥ उद्धवजी ! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातु की प्रतिमा के पूजन में ही उपयोगी हैं। बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टी की वेदी में पूजा करनी हो, तो उसमें मन्त्रों के द्वारा अङ्ग और उसके प्रधान देवताओं की यथास्थान पूजा करनी चाहिये। तथा अग्रि में पूजा करनी हो, तो घृतमिश्रित हवन-सामग्रियों से आहुति देनी चाहिये ॥ १६ ॥ सूर्य को प्रतीक मानकर की जानेवाली उपासना में मुख्यत: अघ्र्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिये। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ ॥ १७ ॥ यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे, तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता। जब मैं भक्ति-श्रद्धापूर्वक समर्पित जल से ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि वस्तुओं के समर्पण से तो कहना ही क्या है ॥ १८ ॥
उपासक पहले पूजा की सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्व की ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके पवित्रता से उन कुशों के आसन पर बैठ जाय। यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजाकार्य प्रारम्भ करे ॥ १९ ॥ पहले विधिपूर्वक अङ्गन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्ति में मन्त्रन्यास करे और हाथ से प्रतिमा पर से पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे। इसके बाद जल से भरे हुए कलश और प्रोक्षणपात्र आदि की पूजा गन्ध-पुष्प आदि से करे ॥ २० ॥ प्रोक्षणपात्र के जल से पूजासामग्री और अपने शरीर का प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अघ्र्य और आचमन के लिये तीन पात्रों में कलश में से जल भरकर रख ले और उनमें पूजा-पद्धति के अनुसार सामग्री डाले। (पाद्यपात्र में श्यामाक—साँवे के दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अघ्र्यपात्र में गन्ध, पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमनपात्र में जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करनेवाले को चाहिये कि तीनों पात्रों को क्रमश: हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्र से अभिमन्ङ्क्षत्रत करके अन्त में गायत्रीमन्त्र से तीनों को अभिमन्ङ्क्षत्रत करे ॥ २१-२२ ॥ इसके बाद प्राणायाम के द्वारा प्राणवायु और भावनाओं द्वारा शरीरस्थ अग्रि के शुद्ध हो जाने पर हृदयकमल में परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखा के समान मेरी जीवकला का ध्यान करे। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकार के अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद—इन पाँच कलाओं के अन्त में उसी जीवकला का ध्यान करते हैं ॥ २३ ॥ वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेज से सारा अन्त:करण और शरीर भर जाय, तब मानसिक उपचारों से मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदि में स्थापना करे। फिर मन्त्रों के द्वारा अङ्गन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! मेरे आसन में धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियों की भावना करे। अर्थात् आसन के चारों कोनों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य—ये चार चारों दिशाओं में डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम-रूप तीन पटरियों की बनी हुई पीठ है; उसपर विमला, उत्कॢषणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसन पर एक अष्टदल कमल है, उसकी कॢण का अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरों की छटा निराली ही है। आसन के सम्बन्ध में ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अघ्र्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये वैदिक और तान्त्रिक विधि से मेरी पूजा करे ॥ २५-२६ ॥ सुदर्शनचक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौमोद की गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल— इन आठ आयुधों की पूजा आठ दिशाओं में करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्तीमाला तथा श्रीवत्सचिह्न की वक्ष:स्थल पर यथास्थान पूजा करे ॥ २७ ॥ नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण—इन आठ पार्षदों की आठ दिशाओंमें; गरुडक़ी सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विष्वक्सेन की चारों कोनों में स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरु की और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि आठ लोकपालों की स्थापना करके प्रोक्षण, अघ्र्यदान आदि क्रम से उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ २८-२९ ॥
प्रिय उद्धव ! यदि सामथ्र्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुवासित जल से मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’, इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्रशीर्षा पुरुष:’ इत्यादि पुरुषसूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि सामगायन का पाठ भी करता रहे ॥ ३०-३१ ॥ मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादि से प्रेमपूर्वक यथावत् मेरा शृङ्गार करे ॥ ३२ ॥ उपासक श्रद्धा के साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियाँ समर्पित करे ॥ ३३ ॥ यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड्डू, हलुआ, दही और दाल आदि विविध व्यञ्जनों का नैवेद्य लगावे ॥ ३४ ॥ भगवान के विग्रह को दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदि से स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थों का लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वों के अवसर पर नाचने-गा ने आदि का भी प्रबन्ध करे ॥ ३५ ॥
उद्धवजी ! तदनन्तर पूजा के बाद शास्त्रोक्त विधि से बने हुए कुण्ड में अग्रि की स्थापना करे। वह कुण्ड मेखला, गर्त और वेदी से शोभायमान हो। उसमें हाथ की हवा से अग्रि प्रज्वलित करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एकत्र कर दे ॥ ३६ ॥ वेदी के चारों ओर कुशकण्डि का करके अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुश बिछाकर मन्त्र पढ़ता हुआ उन पर जल छिडक़े। इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओं का आधानरूप अन्वाधान कर्म करके अग्रि के उत्तर भाग में होमोपयोगी सामग्री रखे और प्रोक्षणीपात्र के जल से प्रोक्षण करे। तदनन्तर अग्रि में मेरा इस प्रकार ध्यान करे ॥ ३७ ॥ ‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सो ने के समान दम-दम दमक रही है। रोम-रोम से शान्ति की वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं। उनमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं। कमल की केसर के समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा है ॥ ३८ ॥ सिर पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, कमर में करधनी और बाँहों में बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न है। गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही है। घुटनों तक वनमाला लटक रही है’ ॥ ३९ ॥ अग्रि में मेरी इस मूर्ति का ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी समिधाओं को घृत में डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आधार नामक दो-दो आहुतियों से और भी हवन करे। तदनन्तर घी से भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियों से आहुति दे ॥ ४० ॥ इसके बाद अपने इष्टमन्त्र से अथवा ‘ॐ नमो
नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र से तथा पुरुषसूक्त के सोलह मन्त्रों से हवन करे। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि धर्मादि देवताओं के लिये भी विधिपूर्वक मन्त्रों से हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति
भी दे ॥ ४१ ॥
इस प्रकार अग्रि में अन्तर्यामीरूप से स्थित भगवान की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द- सुनन्द आदि पार्षदों को आठों दिशाओं में हवनकर्माङ्ग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमा के सम्मुख बैठकर परब्रह्म स्वरूप भगवान नारायण का स्मरण करे और भगवत् स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे ॥ ४२ ॥ इसके बाद भगवान को आचमन करावे और उनका प्रसाद विष्वक्सेन को निवेदन करे। इसके पश्चात अपने इष्टदेव की सेवा में सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पाञ्जलि समर्पित करे ॥ ४३ ॥ मेरी लीलाओं को गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओं का अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाच ने लगे। मेरी लीला- कथाएँ स्वयं सुने और दूसरों को सुनावे। कुछ समय तक संसार और उसके रगड़ों- झगड़ों को भूलकर मुझ में ही तन्मय हो जाय ॥ ४४ ॥ प्राचीन ऋषियों के द्वारा अथवा प्राकृत भक्तों के द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्तोत्रों से मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे—‘भगवन् ! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपाप्रसाद से सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ ४५ ॥ अपना सिर मेरे चरणों पर रख दे और अपने दोनों हाथोंसे—दायें से दाहिना और बायें से बायाँ चरण पकडक़र कहे—‘भगवन् ! इस संसार-सागर में मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो ! आप मेरी रक्षा कीजिये’ ॥ ४६ ॥ इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदर के साथ अपने सिर पर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमा में से एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योति में लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है ॥ ४७ ॥ उद्धवजी ! प्रतिमा आदि में जब जहाँ श्रद्धा हो तब तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियों में तथा अपने हृदय में भी स्थित हूँ ॥ ४८ ॥
उद्धवजी ! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक, तान्ङ्क्षत्रक क्रियायोग के द्वारा मेरी पूजा करता है, वह इस लोक और परलोक में मुझ से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है ॥ ४९ ॥ यदि शक्ति हो, तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे। सुन्दर-सुन्दर फूलों के बगीचे लगवा दे; नित्य की पूजा, पर्व की यात्रा और बड़े-बड़े उत्सवों की व्यवस्था कर दे ॥ ५० ॥ जो मनुष्य पर्वों के उत्सव और प्रतिदिन की पूजा लगातार चल ने के लिये खेत, बाजार, नगर अथवा गाँव मेरे नाम पर समर्पित कर देते हैं, उन्हें मेरे समान ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ॥ ५१ ॥ मेरी मूर्ति की प्रतिष्ठा करने से पृथ्वी का एकच्छत्र राज्य, मन्दिर-निर्माण से त्रिलो की का राज्य, पूजा आदि की व्यवस्था करने से ब्रह्मलोक और तीनों के द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ जो निष्कामभाव से मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोग के द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ५३ ॥ जो अपनी दी हुई या दूसरों की दी हुई देवता और ब्राह्मण की जीवि का हरण कर लेता है, वह करोड़ों वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है ॥ ५४ ॥ जो लोग ऐसे कामों में सहायता, प्रेरणा अथवा अनुमोदन करते हैं, वे भी मर ने के बाद प्राप्त करनेवाले के समान ही फल के भागीदार होते हैं। यदि उनका हाथ अधिक रहा, तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है ॥ ५५ ॥
॥ अष्टाविंशोऽध्यायः - २८ ॥
श्रीभगवानुवाच
परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत् ।
विश्वमेकात्मकं पश्यन् प्रकृत्या पुरुषेण च ॥ १॥
परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निन्दति ।
स आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्यभिनिवेशतः ॥ २॥
तैजसे निद्रयापन्ने पिण्डस्थो नष्टचेतनः ।
मायां प्राप्नोति मृत्युं वा तद्वन्नानार्थदृक् पुमान् ॥ ३॥
किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत् ।
वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च ॥ ४॥
छाया प्रत्याह्वयाभासा ह्यसन्तोऽप्यर्थकारिणः ।
एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम् ॥ ५॥
आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः ।
त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ॥ ६॥
तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्यस्मादन्यो भावो निरूपितः ।
निरूपितेयं त्रिविधा निर्मूला भातिरात्मनि ।
इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम् ॥ ७॥
एतद्विद्वान् मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम् ।
न निन्दति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत् ॥ ८॥
प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा ।
आद्यन्तवदसज्ज्ञात्वा निःसङ्गो विचरेदिह ॥ ९॥
उद्धव उवाच
नैवात्मनो न देहस्य संसृतिर्द्रष्टृदृश्ययोः ।
अनात्मस्वदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते ॥ १०॥
आत्माव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः ।
अग्निवद्दारुवदचिद्देहः कस्येह संसृतिः ॥ ११॥
श्रीभगवानुवाच
यावद्देहेन्द्रियप्राणैरात्मनः सन्निकर्षणम् ।
संसारः फलवांस्तावदपार्थोऽप्यविवेकिनः ॥ १२॥
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ १३॥
यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥ १४॥
शोकहर्षभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः ।
अहङ्कारस्य दृश्यन्ते जन्ममृत्युश्च नात्मनः ॥ १५॥
देहेन्द्रियप्राणमनोऽभिमानो
जीवोऽन्तरात्मा गुणकर्ममूर्तिः ।
सूत्रं महानित्युरुधेव गीतः
संसार आधावति कालतन्त्रः ॥ १६॥
अमूलमेतद्बहुरूपरूपितं
मनोवचःप्राणशरीरकर्म ।
ज्ञानासिनोपासनया शितेन-
च्छित्त्वा मुनिर्गां विचरत्यतृष्णः ॥ १७॥
ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च
प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानम् ।
आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं
कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये ॥ १८॥
यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्-
पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य ।
तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं
नानापदेशैरहमस्य तद्वत् ॥ १९॥
विज्ञानमेतत्त्रियवस्थमङ्ग
गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ ।
समन्वयेन व्यतिरेकतश्च
येनैव तुर्येण तदेव सत्यम् ॥ २०॥
न यत्पुरस्तादुत यन्न पश्चा-
न्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम् ।
भूतं प्रसिद्धं च परेण यद्यत्तदेव
तत्स्यादिति मे मनीषा ॥ २१॥
अविद्यमानोऽप्यवभासते यो
वैकारिको राजससर्ग एषः ।
ब्रह्म स्वयंज्योतिरतो विभाति
ब्रह्मेन्द्रियार्थात्मविकारचित्रम् ॥ २२॥
एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः
परापवादेन विशारदेन ।
छित्त्वात्मसन्देहमुपारमेत
स्वानन्दतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः ॥ २३॥
नात्मा वपुः पार्थिवमिन्द्रियाणि
देवा ह्यसुर्वायुर्जलं हुताशः ।
मनोऽन्नमात्रं धिषणा च सत्त्वमहङ्कृतिः
खं क्षितिरर्थसाम्यम् ॥ २४॥
समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभिर्गुणो
भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः ।
विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं
घनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम् ॥ २५॥
यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणै-
र्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते ।
तथाक्षरं सत्त्वरजस्तमोमलैरहंमतेः
संसृतिहेतुभिः परम् ॥ २६॥
तथापि सङ्गः परिवर्जनीयो
गुणेषु मायारचितेषु तावत् ।
मद्भक्तियोगेन दृढेन यावद्रजो
निरस्येत मनः कषायः ॥ २७॥
यथाऽमयोऽसाधुचिकित्सितो नृणां
पुनः पुनः सन्तुदति प्ररोहन् ।
एवं मनोपक्वकषायकर्म
कुयोगिनं विध्यति सर्वसङ्गम् ॥ २८॥
कुयोगिनो ये विहितान्तरायै-
र्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः ।
ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो
युञ्जन्ति योगं न तु कर्मतन्त्रम् ॥ २९॥
करोति कर्म क्रियते च जन्तुः
केनाप्यसौ चोदित आनिपतात् ।
न तत्र विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि
निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या ॥ ३०॥
तिष्ठन्तमासीनमुत व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम् ।
स्वभावमन्यत्किमपीहमान-
मात्मानमात्मस्थमतिर्न वेद ॥ ३१॥
यदि स्म पश्यत्यसदिन्द्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत् ।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम् ॥ ३२॥
पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्र-
मज्ञानमात्मन्यविविक्तमङ्ग ।
निवर्तते तत्पुनरीक्षयैव
न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा ॥ ३३॥
यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषां
तमो निहन्यान्न तु सद्विधत्ते ।
एवं समीक्षा निपुणा सती मे
हन्यात्तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धेः ॥ ३४॥
एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो
महानुभूतिः सकलानुभूतिः ।
एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ ३५॥
एतावानात्मसम्मोहो यद्विकल्पस्तु केवले ।
आत्मन्नृते स्वमात्मानमवलम्बो न यस्य हि ॥ ३६॥
यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पञ्चवर्णमबाधितम् ।
व्यर्थेनाप्यर्थवादोऽयं द्वयं पण्डितमानिनाम् ॥ ३७॥
योगिनोऽपक्वयोगस्य युञ्जतः काय उत्थितैः ।
उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः ॥ ३८॥
योगधारणया कांश्चिदासनैर्धारणान्वितैः ।
तपोमन्त्रौषधैः कांश्चिदुपसर्गान् विनिर्दहेत् ॥ ३९॥
कांश्चिन्ममानुध्यानेन नामसङ्कीर्तनादिभिः ।
योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्यादशुभदान् शनैः ॥ ४०॥
केचिद्देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरम् ।
विधाय विविधोपायैरथ युञ्जन्ति सिद्धये ॥ ४१॥
न हि तत्कुशलादृत्यं तदायासो ह्यपार्थकः ।
अन्तवत्त्वाच्छरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः ॥ ४२॥
योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत्कल्पतामियात् ।
तच्छ्रद्दध्यान्न मतिमान् योगमुत्सृज्य मत्परः ॥ ४३॥
योगचर्यामिमां योगी विचरन् मदपाश्रयः ।
नान्तरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः ॥ ४४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८॥
एकादश स्कन्द-अट्ठाईसवाँ अध्याय 44
परमार्थ-निरूपण
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्य के भेद से दो प्रकार का जगत जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टि से देखने पर यह सब एक अधिष्ठान- स्वरूप ही है; इसलिये किसी के शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मों की न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये ॥ १ ॥ जो पुरुष दूसरों के स्वभाव और उनके कर्मों की प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधन से च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैत के अभिनिवेशका—उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धि का निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यता के भ्रम को और भी दृढ़ करती हैं ॥ २ ॥ उद्धवजी ! सभी इन्द्रियाँ राजस अहङ्कार के कार्य हैं। जब वे निद्रित हो जाती हैं, तब शरीर का अभिमानी जीव चेतना- शून्य हो जाता है अर्थात् उसे बाहरी शरीर की स्मृति नहीं रहती। उस समय यदि मन बच रहा, तब तो वह सप ने के झूठे दृश्यों में भटक ने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृत्यु के समान गाढ़ निद्रा—सुषुप्ति में लीन हो जाता है। वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्म स्वरूप को भूलकर नाना वस्तुओं का दर्शन करने लगता है, तब वह स्वप्न के समान झूठे दृश्यों में फँस जाता है अथवा मृत्यु के समान अज्ञान में लीन हो जाता है ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! जब द्वैत नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है—यह प्रश्र ही नहीं उठ सकता। विश्व की सभी वस्तुएँ वाणी से कही जा सकती हैं अथवा मन से सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होने के कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही है ॥ ४ ॥ परछार्ईं, प्रतिध्वनि और सीपी आदि में चाँदी आदि के आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्य के हृदय में भय-कम्प आदि का सञ्चार हो जाता है। वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही, परन्तु जब तक ज्ञान के द्वारा इन की असत्यता का बोध नहीं हो जाता, इन की आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक ये भी अज्ञानियों को भयभीत करती रहती हैं ॥ ५ ॥ उद्धवजी ! जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है। वही सर्वशक्तिमान् भी है। जो कुछ विश्व-सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है। अर्थात् वही विश्व बनता है और वही बनाता भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान ही इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है , वह भी वे ही हैं ॥ ६ ॥ अवश्य ही व्यवहारदृष्टि से देखने पर आत्मा इस विश्व से भिन्न है; परन्तु आत्मदृष्टि से उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्म स्वरूप ही है; इसलिये आत्मा में सृष्टि-स्थिति-संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीन-तीन प्रकार की प्रतीतियाँ सर्वथा निर्मूल ही हैं। न होने पर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं। यह सत्त्व, रज और तम के कारण प्रतीत होनेवाली द्रष्टा-दर्शन-दृश्य आदि की त्रिविधता माया का खेल है ॥ ७ ॥ उद्धवजी ! तुम से मैंने ज्ञान और विज्ञान की उत्तम स्थिति का वर्णन किया है। जो पुरुष मेरे इन वचनों का रहस्य जान लेता है, वह न तो किसी की प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह जगत में सूर्य के समान समभाव से विचरता रहता है ॥ ८ ॥ प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणों से यह सिद्ध है कि यह जगत उत्पत्ति- विनाशशील होने के कारण अनित्य एवं असत्य है। यह बात जानकर जगत में असङ्गभाव से विचरना चाहिये ॥ ९ ॥
उद्धवजी ने पूछा—भगवन् ! आत्मा है द्रष्टा और देह है दृश्य। आत्मा स्वयंप्रकाश है और देह है जड। ऐसी स्थिति में जन्म-मृत्युरूप संसार न शरीर को हो सकता है और न आत्मा को। परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है। तब यह होता कि से है ? ॥ १० ॥ आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणों से रहित, शुद्ध, स्वयंप्रकाश और सभी प्रकार के आवरणों से रहित है; तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है। आत्मा अग्रि के समान प्रकाशमान है, तो शरीर काठ की तरह अचेतन। फिर यह जन्म-मृत्युरूप संसार है कि से ? ॥ ११ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—वस्तुत: प्रिय उद्धव ! संसार का अस्तित्व नहीं है तथापि जब तक देह, इन्द्रिय और प्राणों के साथ आत्मा की सम्बन्ध-भ्रान्ति है, तब तक अविवे की पुरुष को वह सत्य-सा स्फुरित होता है ॥ १२ ॥ जैसे स्वप्न में अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तव में वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटने तक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसार के न होने पर भी जो उसमें प्रतीत होनेवाले विषयों का चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म-मृत्युरूप संसार की निवृत्ति नहीं होती ॥ १३ ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूट ने के पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती है, वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्न की विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होनेवाले मोह आदि विकार ॥ १४ ॥ उद्धवजी ! अहङ्कार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्यु का शिकार बनता है। आत्मा से तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ १५ ॥ उद्धवजी ! देह, इन्द्रिय, प्राण और मन में स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है—उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है—तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा की मूर्ति है—गुण और कर्मों का बना हुआ लिङ्गशरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महत्तत्त्व। उसके और भी बहुत- से नाम हैं। वही कालरूप परमेश्वर के अधीन होकर जन्म-मृत्युरूप संसार में इधर-उधर भटकता रहता है ॥ १६ ॥ वास्तव में मन, वाणी, प्राण और शरीर अहङ्कार के ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपों में इसी की प्रतीति होती है। मननशील पुरुष उपासना की शान पर चढ़ाकर ज्ञान की तलवार को अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमानका—अहङ्कार का मूलोच्छेद करके पृथ्वी में निद्र्वन्द्व होकर विचरता है। फिर उसमें किसी प्रकार की आशा-तृष्णा नहीं रहती ॥ १७ ॥ आत्मा और अनात्मा के स्वरूप को पृथक्-पृथक् भलीभाँति समझ लेना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैत का अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है तपस्या के द्वारा हृदय को शुद्ध करके वेदादि शास्त्रों का श्रवण करना।
इनके अतिरिक्त श्रवणानुकूल युक्तियाँ, महापुरुषों के उपदेश और इन दोनों से अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण हैं। सब का सार यही निकलता है कि इस संसार के आदि में जो था तथा अन्त में जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीच में भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है ॥ १८ ॥ उद्धवजी ! सो ने से कंगन, कुण्डल आदि बहुत- से आभूषण बनते हैं; परन्तु जब वे गह ने नहीं बने थे, तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सोना रहेगा। इसलिये जब बीच में उसके कंगन-कुण्डल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है। ठीक ऐसे ही जगत का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। वास्तव में मैं ही सत्य तत्त्व हूँ ॥ १९ ॥ भाई उद्धव ! मन की तीन अवस्थाएँ होती हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओं के कारण तीन ही गुण हैं सत्त्व, रज और तम, और जगत के तीन भेद हैं—अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता)। ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदि में यह त्रिविधता न रहने पर भी जिसकी सत्ता बनी रहती है, वह तुरीयतत्त्व—इन तीनों से परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रह्मतत्त्व ही सत्य है ॥ २० ॥ जो उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय के पश्चात भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीच में भी वह है नहीं—केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है। यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है, वही उसकी परमार्थ-सत्ता है—यह मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ २१ ॥ यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होने पर भी दीख रही है। यह स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है। इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पञ्चभूतादि जित ने चित्र-विचित्र नामरूप हैं उनके रूप में ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है ॥ २२ ॥ ब्रह्मविचार के साधन हैं—श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति। उनमें सहायक हैं—आत्मज्ञानी गुरुदेव ! इनके द्वारा विचार करके स्पष्टरूप से देहादि अनात्म पदार्थों का निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेध के द्वारा आत्मविषयक सन्देहों को छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्द स्वरूप आत्मा में ही मग्र हो जाय और सब प्रकार की विषयवासनाओं से रहित हो जाय ॥ २३ ॥ निषेध करने की प्रक्रिया यह है कि पृथ्वी का विकार होने के कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता, प्राण, वायु, जल, अग्रि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीर के समान ही अन्न के द्वारा होता है। बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड हैं ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! जिसे मेरे स्वरूप का भलीभाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ क्या है ? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं, तो उनसे हानि भी क्या है ? क्योंकि अन्त:करण और बाह्यकरण—सभी गुणमय हैं और आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाश में बादलों के छा जाने अथवा तितर-बितर हो जाने से सूर्य का क्या बनता-बिगड़ता है ? ॥ २५ ॥ जैसे वायु आकाश को सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओं के गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते—क्योंकि ये सब आने-जानेवाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सब का एकरस अधिष्ठान है—वैसे ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इन से सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसार में भटकता है, जो इनमें अहङ्कार कर बैठता है ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! ऐसा होने पर भी तब तक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्यों का सङ्ग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जब तक मेरे सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा मन का रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाय ॥ २७ ॥
उद्धवजी ! जैसे भलीभाँति चिकित्सा न करने पर रोग का समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्य को सताया करता है; वैसे ही जिस मन की वासनाएँ और कर्मों के संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगी को बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी कर देता है ॥ २८ ॥ देवताओं के द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदि के द्वारा किये हुए विघ्रों से यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यासके कारण पुन: योगाभ्यास में ही लग जाता है। कर्म आदि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती ॥ २९ ॥ उद्धवजी ! जीव संस्कार आदि से प्रेरित होकर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कर्म में ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों को प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्त्व का साक्षातकार कर लेता है, वह प्रकृति में स्थित रहने पर भी , संस्कारानुसार कर्म होते रहने पर भी, उनमें इष्ट-अनिष्ट- बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों से युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्द स्वरूप आत्मा के साक्षातकार से उसकी संसारसम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ॥ ३० ॥ जो अपने स्वरूप में स्थित हो गया है, उसे इस बात का भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्म स्वरूप में स्थित—ब्रह्माकार रहती है ॥ ३१ ॥ यदि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में इन्द्रियों के विविध बाह्य विषय, जो कि असत् हैं, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मा से भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूति से सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जाने पर स्वप्न में देखे हुए और जागने पर तिरोहित हुए पदार्थों को कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपने से भिन्न प्रतीयमान पदार्थों को सत्य नहीं मानते ॥ ३२ ॥ उद्धवजी ! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानी ने आत्मा का त्याग कर दिया है और ज्ञानी उस को ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि) अनेकों प्रकार के गुण और कर्मों से युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञान के कारण आत्मा से अभिन्न मान लिये गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होने पर अज्ञान और उसके कार्यों की निवृत्ति हो जाती है। इसलिये अज्ञान की निवृत्ति ही अभीष्ट है। निवृत्तियों के द्वारा न तो आत्मा का ग्रहण हो सकता है और न त्याग ॥ ३३ ॥ जैसे सूर्य उदय होकर मनुष्यों के नेत्रों के सामने से अन्धकार का परदा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते, वैसे ही मेरे स्वरूप का दृढ़ अपरोक्षज्ञान पुरुष के बुद्धिगत अज्ञान का आवरण नष्ट कर देता है। वह इदंरूप से किसी वस्तु का अनुभव नहीं कराता ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकार के विकार नहीं हैं। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्ति में आरूढ़ नहीं होता। इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदि के द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता। आत्मा में देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होने के कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते। सब की और सब प्रकार की अनुभूतियाँ आत्म स्वरूप ही हैं। जब मन और वाणी आत्मा को अपना अविषय समझकर निवृत्त हो जाते हैं, तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से शून्य एक अद्वितीय रह जाता है। व्यवहारदृष्टि से उसके स्वरूप का वाणी और प्राण आदि के प्रवर् तक के रूप में निरूपण किया जाता है ॥ ३५ ॥
उद्धवजी ! अद्वितीय आत्मतत्त्व में अर्थहीन नामों के द्वारा विविधता मान लेना ही मन का भ्रम है, अज्ञान है। सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है, क्योंकि अपने आत्मा के अतिरिक्त उस भ्रम का भी और कोई अधिष्ठान नहीं है। अधिष्ठान-सत्ता में अध्यस्त की सत्ता है ही नहीं। इसलिये सब कुछ आत्मा ही है ॥ ३६ ॥ बहुत- से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाञ्चभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपों के रूप में इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है। परन्तु यह तो अर्थहीन वाणी का आडम्बरमात्र है; क्योंकि तत्त्वत: तो इन्द्रियों की पृथक् सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसीको प्रमाणित कैसे करेंगी ? ॥ ३७ ॥
उद्धवजी ! यदि योगसाधना पूर्ण होने के पहले ही किसी साधक का शरीर रोगादि उपद्रवों से पीडि़त हो, तो उसे इन उपायों का आश्रय लेना चाहिये ॥ ३८ ॥ गरमी-ठंडक आदि को चन्द्रमा-सूर्य आदि की धारणा के द्वारा, वात आदि रोगों को वायुधारणायुक्त आसनों के द्वारा और ग्रह-सर्पादिकृत विघ्रों को तपस्या,मन्त्र एवं ओषधि के द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये ॥ ३९ ॥ काम-क्रोध आदि विघ्रों को मेरे चिन्तन और नाम-संकीर्तन आदि के द्वारा नष्ट करना चाहिये। तथा पतन की ओर ले जानेवाले दम्भ-मद आदि विघ्रों को धीरे-धीरे महापुरुषों की सेवा के द्वारा दूर कर देना चाहिये ॥ ४० ॥ कोई- कोई मनस्वी योगी विविध उपायों के द्वारा इस शरीर को सुदृढ़ और युवावस्था में स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियों के लिये योगसाधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान पुरुष ऐसे विचार का समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है। वृक्ष में लगे हुए फल के समान इस शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है ॥ ४१-४२ ॥ यदि कदाचित् बहुत दिनों तक निरन्तर और आदरपूर्वक योगसाधना करते रहने पर शरीर सुदृढ़ भी हो जाय, तब भी बुद्धिमान पुरुष को अपनी साधना छोडक़र उतने में ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये। उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्ति के लिये ही संलग्र रहना चाहिये ॥ ४३ ॥ जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योगसाधना में संलग्र रहता है, उसे कोई भी विघ्र-बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानन्द की अनुभूति में मग्र हो जाता है ॥ ४४ ॥
॥ एकोनत्रिंशोऽध्यायः - २९ ॥
उद्धव उवाच
सुदुश्चरामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः ।
यथाञ्जसा पुमान् सिद्ध्येत्तन्मे ब्रूह्यञ्जसाच्युत ॥ १॥
प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मनः ।
विषीदन्त्यसमाधानान्मनोनिग्रहकर्शिताः ॥ २॥
अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं
हंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन ।
सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि-
स्त्वन्माययामी विहता न मानिनः ॥ ३॥
किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबन्धो
दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम् ।
योऽरोचयत्सह मृगैः स्वयमीश्वराणां
श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः ॥ ४॥
तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां
सर्वार्थदं स्वकृतविद्विसृजेत को नु ।
को वा भजेत्किमपि विस्मृतयेऽनुभूत्यै
किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः ॥ ५॥
नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश
ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।
योऽन्तर्बहिस्तनुभृतामशुभं विधुन्व-
न्नाचार्यचैत्त्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति ॥ ६॥
श्रीशुक उवाच
इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा
पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः ।
गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो
जगाद सप्रेममनोहरस्मितः ॥ ७॥
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमङ्गलान् ।
यान् श्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम् ॥ ८॥
कुर्यात्सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन् ।
मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः ॥ ९॥
देशान् पुण्यानाश्रयेत मद्भक्तैः साधुभिः श्रितान् ।
देवासुरमनुष्येषु मद्भक्ताचरितानि च ॥ १०॥
पृथक् सत्रेण वा मह्यं पर्वयात्रामहोत्सवान् ।
कारयेद्गीतनृत्याद्यैर्महाराजविभूतिभिः ॥ ११॥
मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम् ।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ॥ १२॥
इति सर्वाणि भूतानि मद्भावेन महाद्युते ।
सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः ॥ १३॥
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिङ्गके ।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ॥ १४॥
नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् ।
स्पर्धासूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥ १५॥
विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकीम् ।
प्रणमेद्दण्डवद्भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥ १६॥
यावत्सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।
तावदेवमुपासीत वाङ् मनःकायवृत्तिभिः ॥ १७॥
सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययात्ममनीषया ।
परिपश्यन्नुपरमेत्सर्वतो मुक्तसंशयः ॥ १८॥
अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम ।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ॥ १९॥
न ह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि ।
मया व्यवसितः सम्यङ् निर्गुणत्वादनाशिषः ॥ २०॥
यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।
तदायासो निरर्थः स्याद्भयादेरिव सत्तम ॥ २१॥
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम् ।
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ॥ २२॥
एष तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सङ्ग्रहः ।
समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गमः ॥ २३॥
अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत् ।
एतद्विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः ॥ २४॥
सुविविक्तं तव प्रश्नं मयैतदपि धारयेत् ।
सनातनं ब्रह्मगुह्यं परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ २५॥
य एतन्मम भक्तेषु सम्प्रदद्यात्सुपुष्कलम् ।
तस्याहं ब्रह्मदायस्य ददाम्यात्मानमात्मना ॥ २६॥
य एतत्समधीयीत पवित्रं परमं शुचि ।
स पूयेताहरहर्मां ज्ञानदीपेन दर्शयन् ॥ २७॥
य एतच्छ्रद्धया नित्यमव्यग्रः शृणुयान्नरः ।
मयि भक्तिं परां कुर्वन् कर्मभिर्न स बध्यते ॥ २८॥
अप्युद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम् ।
अपि ते विगतो मोहः शोकश्चासौ मनोभवः ॥ २९॥
नैतत्त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च ।
अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम् ॥ ३०॥
एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च ।
साधवे शुचये ब्रूयाद्भक्तिः स्याच्छूद्रयोषिताम् ॥ ३१॥
नैतद्विज्ञाय जिज्ञासोर्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।
पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते ॥ ३२॥
ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्तायां दण्डधारणे ।
यावानर्थो नृणां तात तावांस्तेऽहं चतुर्विधः ॥ ३३॥
मर्त्यो यदा त्यक्तसमस्तकर्मा
निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे ।
तदामृतत्वं प्रतिपद्यमानो
मयात्मभूयाय च कल्पते वै ॥ ३४॥
श्रीशुक उवाच
स एवमादर्शितयोगमार्ग-
स्तदोत्तमश्लोकवचो निशम्य ।
बद्धाञ्जलिः प्रीत्युपरुद्धकण्ठो
न किञ्चिदूचेऽश्रुपरिप्लुताक्षः ॥ ३५॥
विष्टभ्य चित्तं प्रणयावघूर्णं
धैर्येण राजन् बहुमन्यमानः ।
कृताञ्जलिः प्राह यदुप्रवीरं
शीर्ष्णा स्पृशंस्तच्चरणारविन्दम् ॥ ३६॥
उद्धव उवाच
विद्रावितो मोहमहान्धकारो
य आश्रितो मे तव सन्निधानात् ।
विभावसोः किं नु समीपगस्य
शीतं तमो भीः प्रभवन्त्यजाद्य ॥ ३७॥
प्रत्यर्पितो मे भवतानुकम्पिना
भृत्याय विज्ञानमयः प्रदीपः ।
हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलं
कोऽन्यं समीयाच्छरणं त्वदीयम् ॥ ३८॥
वृक्णश्च मे सुदृढः स्नेहपाशो
दाशार्हवृष्ण्यन्धकसात्वतेषु ।
प्रसारितः सृष्टिविवृद्धये त्वया
स्वमायया ह्यात्मसुबोधहेतिना ॥ ३९॥
नमोऽस्तु ते महायोगिन् प्रपन्नमनुशाधि माम् ।
यथा त्वच्चरणाम्भोजे रतिः स्यादनपायिनी ॥ ४०॥
श्रीभगवानुवाच
गच्छोद्धव मयादिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम् ।
तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः ॥ ४१॥
ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मषः ।
वसानो वल्कलान्यङ्ग वन्यभुक् सुखनिःस्पृहः ॥ ४२॥
तितिक्षुर्द्वन्द्वमात्राणां सुशीलः संयतेन्द्रियः ।
शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः ॥ ४३॥
मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन् ।
मय्यावेशितवाक् चित्तो मद्धर्मनिरतो भव ।
अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम् ॥ ४४॥
श्रीशुक उवाच
स एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवः
प्रदक्षिणं तं परिसृत्य पादयोः ।
शिरो निधायाश्रुकलाभिरार्द्रधी-
र्न्यषिञ्चदद्वन्द्वपरोऽप्यपक्रमे ॥ ४५॥
सुदुस्त्यजस्नेहवियोगकातरो
न शक्नुवंस्तं परिहातुमातुरः ।
कृच्छ्रं ययौ मूर्धनि भर्तृपादुके
बिभ्रन्नमस्कृत्य ययौ पुनः पुनः ॥ ४६॥
ततस्तमन्तर्हृदि सन्निवेश्य
गतो महाभागवतो विशालाम् ।
यथोपदिष्टां जगदेकबन्धुना
तपः समास्थाय हरेरगाद्गतिम् ॥ ४७॥ स गो ना सं गो गो
य एतदानन्दसमुद्रसम्भृतं
ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम् ।
कृष्णेन योगेश्वरसेविताङ्घ्रिणा
सच्छ्रद्धयासेव्य जगद्विमुच्यते ॥ ४८॥
भवभयमपहन्तुं ज्ञानविज्ञानसारं
निगमकृदुपजह्रे भृङ्गवद्वेदसारम् ।
अमृतमुदधितश्चापाययद्भृत्यवर्गान्
पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोऽस्मि ॥ ४९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९॥
एकादश स्कन्द-उनतीसवाँ अध्याय 49
भागवतधर्मों का निरूपण और उद्धवजी का बदरिकाश्रमगमन
उद्धवजी ने कहा—अच्युत ! जो अपना मन वश में नहीं कर स का है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस योगसाधना को तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अत: अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके ॥ १ ॥ कमलनयन ! आप जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मन को एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करने पर भी सफल न होने के कारण हार मान लेते हैं और उसे वश में न कर पाने के कारण दुखी हो जाते हैं ॥ २ ॥ पद्मलोचन ! आप विश्वेश्वर हैं ! आपके ही द्वारा सारे संसार का नियमन होता है। इसीसे सारासार-विचार में चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलों की शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती; क्योंकि उन्हें योगसाधन और कर्मानुष्ठान का अभिमान नहीं होता। परन्तु जो आपके चरणों का आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधन के घमंड से फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी माया ने उनकी मति हर ली है ॥ ३ ॥ प्रभो ! आप सब के हितैषी सुहृद् हैं। आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकों के अधीन हो जायँ, यह आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेमवश वानरों से भी मित्रता का निर्वाह किया। यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी अपने दिव्य किरीटों को आपके चरणकमल रखने की चौकी पर रगड़ते रहते हैं ॥ ४ ॥ प्रभो ! आप सब के प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। आप अपने अनन्य शरणागतों को सब कुछ दे देते हैं। आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तों को जो कुछ दिया है, उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ देगा ? यह बात किसी प्रकार बुद्धि में ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृति के गर्त में डालनेवाले तुच्छ विषयों में ही फँसा रखनेवाले भोगों को क्यों चाहेगा ? हमलोग आपके चरणकमलों की रज के उपासक हैं। हमारे लिये दुर्लभ ही क्या है ? ॥ ५ ॥ भगवन् ! आप समस्त प्राणियों के अन्त:करण में अन्तर्यामीरूप से और बाहर गुरुरूप से स्थित होकर उनके सारे पाप-ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप को उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजी के समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारों का बदला नहीं चु का सकते। इसीसे वे आपके उपकारों का स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्द का अनुभव करते रहते हैं ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। वे ही सत्त्व- रज आदि गुणों के द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का रूप धारण करके जगत की उत्पत्ति-स्थिति आदि के खेल खेला करते हैं। जब उद्धवजी ने अनुरागभरे चित्त से उनसे यह प्रश्र किया, तब उन्होंने मन्द-मन्द मुसकराकर बड़े प्रेम से कहना प्रारम्भ किया ॥ ७ ॥
श्रीभगवान ने कहा—प्रिय उद्धव ! अब मैं तुम्हें अपने उन मङ्गलमय भागवतधर्मों का उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्यु को अनायास ही जीत लेता है ॥ ८ ॥ उद्धवजी ! मेरे भक्त को चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीर-धीरे उन को करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढ़ाये। कुछ ही दिनों में उसके मन और चित्त मुझ में समर्पित हो जायँगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मों में रम जायँगे ॥ ९ ॥ मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानों में निवास करते हों, उन्हीं में रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्यों में जो मेरे अनन्य भक्त हों, उनके आचरणों का अनुसरण करे ॥ १० ॥ पर्व के अवसरों पर सब के साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाट से मेरी यात्रा आदि के महोत्सव करे ॥ ११ ॥ शुद्धान्त:करण पुरुष आकाश के समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्मा को ही समस्त प्राणियों और अपने हृदय में स्थित देखे ॥ १२ ॥ निर्मलबुद्धि उद्धवजी ! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टि का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूर में समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये ॥ १३-१४ ॥ जब निरन्तर सभी नर-नारियों में मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनों में साधक के चित्त से स्पद्र्धा (होड़), ईष्र्या, तिरस्कार और अहङ्कार आदि दोष दूर हो जाते हैं ॥ १५ ॥ अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टि को और लोक-लज्जा को छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधे को भी पृथ्वी पर गिरकर साष्टाङ्ग दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ १६ ॥ जब तक समस्त प्राणियों में मेरी भावना—भगवद्-भावना न होने लगे, तब तक इस प्रकार से मन, वाणी और शरीर के सभी संकल्पों और कर्मों द्वारा मेरी उपासना करता रहे ॥ १७ ॥ उद्धवजी ! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि—ब्रह्मबुद्धि का अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्म स्वरूप दीख ने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जाने पर सारे संशय-सन्देह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षातकार करके संसारदृष्टि से उपराम हो जाता है ॥ १८ ॥ मेरी प्राप्ति के जित ने साधन हैं, उनमें मैं तो सब से श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मन वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियों से मेरी ही भावना की जाय ॥ १९ ॥ उद्धवजी ! यही मेरा अपना भागवतधर्म है; इस को एक बार आरम्भ कर दे ने के बाद फिर किसी प्रकार की विघ्र-बाधा से इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होने के कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है ॥ २० ॥ भागवतधर्म में किसी प्रकार की त्रुटि पडऩी तो दूर रही—यदि इस धर्म का साधक भय-शोक आदि के अवसर पर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभाव से मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नता के कारण धर्म बन जाते हैं ॥ २१ ॥ विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्व को प्राप्त कर लें ॥ २२ ॥
उद्धवजी ! यह सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का रहस्य मैंने संक्षेप और विस्तार से तुम्हें सुना दिया। इस रहस्य को समझना मनुष्यों की तो कौन कहे, देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है ॥ २३ ॥ मैंने जिस सुस्पष्ट और युक्तियुक्त ज्ञान का वर्णन बार-बार किया है, उसके मर्म को जो समझ लेता है, उसके हृदय की संशय-ग्रन्थियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है ॥ २४ ॥ मैंने तुम्हारे प्रश्र का भलीभाँति खुलासा कर दिया; जो पुरुष हमारे प्रश्रोत्तर को विचारपूर्वक धारण करेगा, वह वेदों के भी परम रहस्य सनातन परब्रह्म को प्राप्त कर लेगा ॥ २५ ॥ जो पुरुष मेरे भक्तों को इसे भलीभाँति स्पष्ट करके समझायेगा, उस ज्ञानदाता को मैं प्रसन्न मन से अपना स्वरूप तक दे डालूँगा, उसे आत्मज्ञान करा दूँगा ॥ २६ ॥ उद्धवजी ! यह तुम्हारा और मेरा संवाद स्वयं तो परम पवित्र है ही, दूसरों को भी पवित्र करनेवाला है। जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और दूसरों को सुनायेगा, वह इस ज्ञानदीप के द्वारा दूसरों को मेरा दर्शन कराने के कारण पवित्र हो जायगा ॥ २७ ॥ जो कोई एकाग्र चित्त से इसे श्रद्धापूर्वक नित्य सुनेगा, उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा ॥ २८ ॥ प्रिय सखे ! तुम ने भलीभाँति ब्रह्म का स्वरूप समझ लिया न ? और तुम्हारे चित्त का मोह एवं शोक तो दूर हो गया न ? ॥ २९ ॥ तुम इसे दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु, भक्तिहीन और उद्धत पुरुष को कभी मत देना ॥ ३० ॥ जो इन दोषों से रहित हो, ब्राह्मणभक्त हो, प्रेमी हो, साधुस्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो, उसी को यह प्रसङ्ग सुनाना चाहिये। यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम-भक्ति रखते हों, तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये ॥ ३१ ॥ जैसे दिव्य अमृतपान कर लेने पर कुछ भी पीना शेष नहीं रहता, वैसे ही यह जान लेने पर जिज्ञासु के लिये और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, ॥ ३२ ॥ प्यारे उद्धव ! मनुष्यों को ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य और राजदण्डादि से क्रमश: मोक्ष, धर्म, काम और अर्थरूप फल प्राप्त होते हैं; परन्तु तुम्हारे- जैसे अनन्य भक्तों के लिये वह चारों प्रकार का फल केवल मैं ही हूँ ॥ ३३ ॥ जिस समय मनुष्य समस्त कर्मों का परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्व से छुड़ाकर अमृत स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझ से मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है ॥ ३४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अब उद्धवजी योगमार्ग का पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चु के थे। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनकी आँखों में आँसू उमड़ आये। प्रेम की बाढ़ से गला रुँध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणी से कुछ बोला न गया ॥ ३५ ॥ उनका चित्त प्रेमावेश से विह्वल हो रहा था, उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रो का और अपने को अत्यन्त सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए सिर से यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श किया तथा हाथ जोडक़र उनसे यह प्रार्थना की ॥ ३६ ॥
उद्धवजी ने कहा—प्रभो ! आप माया और ब्रह्मा आदि के भी मूल कारण हैं। मैं मोह के महान अन्धकार में भटक रहा था। आपके सत्सङ्ग से वह सदा के लिये भाग गया। भला, जो अग्रि के पास पहुँच गया उसके सामने क्या शीत, अन्धकार और उसके कारण होनेवाला भय ठहर सकते हैं ? ॥ ३७ ॥ भगवन् ! आपकी मोहिनी माया ने मेरा ज्ञानदीपक छीन लिया था, परन्तु आपने कृपा करके वह फिर अपने सेवक को लौटा दिया। आपने मेरे ऊ पर महान अनुग्रह की वर्षा की है। ऐसा कौन होगा, जो आपके इस कृपा-प्रसाद का अनुभव करके भी आपके चरणकमलों की शरण छोड़ दे और किसी दूसरे का सहारा ले ? ॥ ३८ ॥ आपने अपनी माया से सृष्टिवृद्धि के लिये दाशाहर्, वृष्णि, अन्धक और सात्वतवंशी यादवों के साथ मुझे सुदृढ़ स्नेहपाश से बाँध दिया था। आज आपने आत्मबोध की तीखी तलवार से उस बन्धन को अनायास ही काट डाला ॥ ३९ ॥ महायोगेश्वर ! मेरा आपको नमस्कार है। अब आप कृपा करके मुझ शरणागत को ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे आपके चरणकमलों में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे ॥ ४० ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धवजी ! अब तुम मेरी आज्ञा से बदरीवन में चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलों के धोवन गङ्गाजल का स्नान-पान के द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ॥ ४१ ॥ अलकनन्दा के दर्शनमात्र से तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव ! तुम वहाँ वृक्षों की छाल पहनना, वन के कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोग की अपेक्षा न रखकर नि:स्पृह-वृत्ति से अपने-आप में मस्त रहना ॥ ४२ ॥ सर्दी-गरमी, सुख-दु:ख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियों को वश में रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूप के ज्ञान और अनुभव में डूबे रहना ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्त में विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझ में ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्म में प्रेम से रम जाना। अन्त में तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियों को पार करके उनसे परे मेरे परमार्थ स्वरूप में मिल जाओगे ॥ ४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान संसार के भेदभ्रम को छिन्न-भिन्न कर देता है। जब उन्होंने स्वयं उद्धवजी को ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणों पर सिर रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि उद्धवजी संयोग-वियोग से होनेवाले सुख-दु:ख के जोड़े से परे थे, क्योंकि वे भगवान के निद्र्वन्द्व चरणों की शरण ले चु के थे; फिर भी वहाँ से चलते समय उनका चित्त प्रेमावेश से भर गया। उन्होंने अपने नेत्रों की झरती हुई अश्रुधारा से भगवान के चरणकमलों को भिगो दिया ॥ ४५ ॥ परीक्षित ! भगवान के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं है। उन्हींके वियोग की कल्पना से उद्धवजी कातर हो गये, उनका त्याग करने में समर्थ न हुए। बार-बार विह्वल होकर मूर्च्छित होने लगे। कुछ समय के बाद उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की पादुकाएँ अपने सिर पर रख लीं और बार-बार भगवान के चरणों में प्रणाम करके वहाँ से प्रस्थान किया ॥ ४६ ॥ भगवान के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी हृदय में उनकी दिव्य छबि धारण किये बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तपोमय जीवन व्यतीत करके जगत के एकमात्र हितैषी भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार उनकी स्वरूपभूत परमगति प्राप्त की ॥ ४७ ॥ भगवान शङ्कर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा किया करते हैं। उन्होंने स्वयं श्रीमुख से अपने परमप्रेमी भक्त उद्धव के लिये इस ज्ञानामृत का वितरण किया। यह ज्ञानामृत आनन्दमहासागर का सार है। जो श्रद्धा के साथ इसका सेवन करता है, वह तो मुक्त हो ही जाता है, उसके सङ्ग से सारा जगत मुक्त हो जाता है ॥ ४८ ॥ परीक्षित ! जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पों से उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदों को प्रकाशित करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने भक्तों को संसार से मुक्त करने के लिये यह ज्ञान और विज्ञान का सार निकाला है। उन्हीं ने जरा-रोगादि भय की निवृत्ति के लिये क्षीरसमुद्र से अमृत भी निकाला था तथा इन्हें क्रमश: अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तों को पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण सारे जगत के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ ॥ ४९ ॥
॥ त्रिंशोऽध्यायः - ३० ॥
राजोवाच
ततो महाभागवते उद्धवे निर्गते वनम् ।
द्वारवत्यां किमकरोद्भगवान् भूतभावनः ॥ १॥
ब्रह्मशापोपसंसृष्टे स्वकुले यादवर्षभः ।
प्रेयसीं सर्वनेत्राणां तनुं स कथमत्यजत् ॥ २॥
प्रत्याक्रष्टुं नयनमबला यत्र लग्नं न शेकुः
कर्णाविष्टं न सरति ततो यत्सतामात्मलग्नम् ।
यच्छ्रीर्वाचां जनयति रतिं किं नु मानं कवीनां
दृष्ट्वा जिष्णोर्युधि रथगतं यच्च तत्साम्यमीयुः ॥ ३॥
ऋषिरुवाच
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च महोत्पातान् समुत्थितान् ।
दृष्ट्वाऽऽसीनान् सुधर्मायां कृष्णः प्राह यदूनिदम् ॥ ४॥
एते घोरा महोत्पाता द्वार्वत्यां यमकेतवः ।
मुहूर्तमपि न स्थेयमत्र नो यदुपुङ्गवाः ॥ ५॥
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च शङ्खोद्धारं व्रजन्त्वितः ।
वयं प्रभासं यास्यामो यत्र प्रत्यक्सरस्वती ॥ ६॥
तत्राभिषिच्य शुचय उपोष्य सुसमाहिताः ।
देवताः पूजयिष्यामः स्नपनालेपनार्हणैः ॥ ७॥
ब्राह्मणांस्तु महाभागान् कृतस्वस्त्ययना वयम् ।
गोभूहिरण्यवासोभिर्गजाश्वरथवेश्मभिः ॥ ८॥
विधिरेष ह्यरिष्टघ्नो मङ्गलायनमुत्तमम् ।
देवद्विजगवां पूजा भूतेषु परमो भवः ॥ ९॥
इति सर्वे समाकर्ण्य यदुवृद्धा मधुद्विषः ।
तथेति नौभिरुत्तीर्य प्रभासं प्रययू रथैः ॥ १०॥
तस्मिन् भगवतादिष्टं यदुदेवेन यादवाः ।
चक्रुः परमया भक्त्या सर्वश्रेयोपबृंहितम् ॥ ११॥
ततस्तस्मिन् महापानं पपुर्मैरेयकं मधु ।
दिष्टविभ्रंशितधियो यद्द्रवैर्भ्रश्यते मतिः ॥ १२॥
महापानाभिमत्तानां वीराणां दृप्तचेतसाम् ।
कृष्णमायाविमूढानां सङ्घर्षः सुमहानभूत् ॥ १३॥
युयुधुः क्रोधसंरब्धा वेलायामाततायिनः ।
धनुर्भिरसिभिर्भल्लैर्गदाभिस्तोमरर्ष्टिभिः ॥ १४॥
पतत्पताकै रथकुञ्जरादिभिः
खरोष्ट्रगोभिर्महिषैर्नरैरपि ।
मिथः समेत्याश्वतरैः सुदुर्मदा
न्यहन् शरैर्दद्भिरिव द्विपा वने ॥ १५॥
प्रद्युम्नसाम्बौ युधि रूढमत्सरा-
वक्रूरभोजावनिरुद्धसात्यकी ।
सुभद्रसङ्ग्रामजितौ सुदारुणौ
गदौ सुमित्रासुरथौ समीयतुः ॥ १६॥
अन्ये च ये वै निशठोल्मुकादयः
सहस्रजिच्छतजिद्भानुमुख्याः ।
अन्योन्यमासाद्य मदान्धकारिता
जघ्नुर्मुकुन्देन विमोहिता भृशम् ॥ १७॥
दाशार्हवृष्ण्यन्धकभोजसात्वता
मध्वर्बुदा माथुरशूरसेनाः ।
विसर्जनाः कुकुराः कुन्तयश्च
मिथस्ततस्तेऽथ विसृज्य सौहृदम् ॥ १८॥
पुत्रा अयुध्यन् पितृभिर्भ्रातृभिश्च
स्वस्रीयदौहित्रपितृव्यमातुलैः ।
मित्राणि मित्रैः सुहृदः सुहृद्भि-
र्ज्ञातींस्त्वहन् ज्ञातय एव मूढाः ॥ १९॥
शरेषु हीयमानेषु भज्यमानेषु धन्वसु ।
शस्त्रेषु क्षीयमानेषु मुष्टिभिर्जह्रुरेरकाः ॥ २०॥
ता वज्रकल्पा ह्यभवन् परिघा मुष्टिना भृताः ।
जघ्नुर्द्विषस्तैः कृष्णेन वार्यमाणास्तु तं च ते ॥ २१॥
प्रत्यनीकं मन्यमाना बलभद्रं च मोहिताः ।
हन्तुं कृतधियो राजन्नापन्ना आततायिनः ॥ २२॥
अथ तावपि सङ्क्रुद्धावुद्यम्य कुरुनन्दन ।
एरकामुष्टिपरिघौ चरन्तौ जघ्नतुर्युधि ॥ २३॥
ब्रह्मशापोपसृष्टानां कृष्णमायावृतात्मनाम् ।
स्पर्धा क्रोधः क्षयं निन्ये वैणवोऽग्निर्यथा वनम् ॥ २४॥
एवं नष्टेषु सर्वेषु कुलेषु स्वेषु केशवः ।
अवतारितो भुवो भार इति मेनेऽवशेषितः ॥ २५॥
रामः समुद्रवेलायां योगमास्थाय पौरुषम् ।
तत्याज लोकं मानुष्यं संयोज्यात्मानमात्मनि ॥ २६॥ सगोनागोगो
रामनिर्याणमालोक्य भगवान् देवकीसुतः ।
निषसाद धरोपस्थे तूष्णीमासाद्य पिप्पलम् ॥ २७॥
बिभ्रच्चतुर्भुजं रूपं भ्राजिष्णु प्रभया स्वया ।
दिशो वितिमिराः कुर्वन् विधूम इव पावकः ॥ २८॥
श्रीवत्साङ्कं घनश्यामं तप्तहाटकवर्चसम् ।
कौशेयाम्बरयुग्मेन परिवीतं सुमङ्गलम् ॥ २९॥
सुन्दरस्मितवक्त्राब्जं नीलकुन्तलमण्डितम् ।
पुण्डरीकाभिरामाक्षं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ ३०॥
कटिसूत्रब्रह्मसूत्रकिरीटकटकाङ्गदैः ।
हारनूपुरमुद्राभिः कौस्तुभेन विराजितम् ॥ ३१॥
वनमालापरीताङ्गं मूर्तिमद्भिर्निजायुधैः ।
कृत्वोरौ दक्षिणे पादमासीनं पङ्कजारुणम् ॥ ३२॥
मुसलावशेषायःखण्डकृतेषुर्लुब्धको जरा ।
मृगास्याकारं तच्चरणं विव्याध मृगशङ्कया ॥ ३३॥
चतुर्भुजं तं पुरुषं दृष्ट्वा स कृतकिल्बिषः ।
भीतः पपात शिरसा पादयोरसुरद्विषः ॥ ३४॥
अजानता कृतमिदं पापेन मधुसूदन ।
क्षन्तुमर्हसि पापस्य उत्तमश्लोक मेऽनघ ॥ ३५॥
यस्यानुस्मरणं नॄणामज्ञानध्वान्तनाशनम् ।
वदन्ति तस्य ते विष्णो मयासाधु कृतं प्रभो ॥ ३६॥
तन्माऽऽशु जहि वैकुण्ठ पाप्मानं मृगलुब्धकम् ।
यथा पुनरहं त्वेवं न कुर्यां सदतिक्रमम् ॥ ३७॥
यस्यात्मयोगरचितं न विदुर्विरिञ्चो
रुद्रादयोऽस्य तनयाः पतयो गिरां ये ।
त्वन्मायया पिहितदृष्टय एतदञ्जः
किं तस्य ते वयमसद्गतयो गृणीमः ॥ ३८॥
श्रीभगवानुवाच
मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृतो हि मे ।
याहि त्वं मदनुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम् ॥ ३९॥
इत्यादिष्टो भगवता कृष्णेनेच्छाशरीरिणा ।
त्रिः परिक्रम्य तं नत्वा विमानेन दिवं ययौ ॥ ४०॥
दारुकः कृष्णपदवीमन्विच्छन्नधिगम्य ताम् ।
वायुं तुलसिकामोदमाघ्रायाभिमुखं ययौ ॥ ४१॥
तं तत्र तिग्मद्युभिरायुधैर्वृतं
ह्यश्वत्थमूले कृतकेतनं पतिम् ।
स्नेहप्लुतात्मा निपपात पादयो
रथादवप्लुत्य सबाष्पलोचनः ॥ ४२॥
अपश्यतस्त्वच्चरणाम्बुजं प्रभो
दृष्टिः प्रणष्टा तमसि प्रविष्टा ।
दिशो न जाने न लभे च शान्तिं
यथा निशायामुडुपे प्रणष्टे ॥ ४३॥
इति ब्रुवति सूते वै रथो गरुडलाञ्छनः ।
खमुत्पपात राजेन्द्र साश्वध्वज उदीक्षतः ॥ ४४॥
तमन्वगच्छन् दिव्यानि विष्णुप्रहरणानि च ।
तेनातिविस्मितात्मानं सूतमाह जनार्दनः ॥ ४५॥
गच्छ द्वारवतीं सूत ज्ञातीनां निधनं मिथः ।
सङ्कर्षणस्य निर्याणं बन्धुभ्यो ब्रूहि मद्दशाम् ॥ ४६॥
द्वारकायां च न स्थेयं भवद्भिश्च स्वबन्धुभिः ।
मया त्यक्तां यदुपुरीं समुद्रः प्लावयिष्यति ॥ ४७॥
स्वं स्वं परिग्रहं सर्वे आदाय पितरौ च नः ।
अर्जुनेनाविताः सर्व इन्द्रप्रस्थं गमिष्यथ ॥ ४८॥
त्वं तु मद्धर्ममास्थाय ज्ञाननिष्ठ उपेक्षकः ।
मन्मायारचनामेतां विज्ञायोपशमं व्रज ॥ ४९॥
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनः पुनः ।
तत्पादौ शीर्ष्ण्युपाधाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम् ॥ ५०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
एकादशस्कन्धे त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३०॥
एकादश स्कन्द-तीसवाँ अध्याय 50
यदुकुल का संहार
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! जब महाभागवत उद्धवजी बदरीवन को चले गये, तब भूतभावन भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका में क्या लीला रची ? ॥ १ ॥ प्रभो ! यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कुल के ब्रह्मशापग्रस्त होने पर सब के नेत्रादि इन्द्रियों के परम प्रिय अपने दिव्य श्रीविग्रह की लीला का संवरण कैसे किया ? ॥ २ ॥ भगवन् ! जब स्त्रियों के नेत्र उनके श्रीविग्रहमें लग जाते थे। तब वे उन्हें वहाँ से हटा ने में असमर्थ हो जाती थीं। जब संत पुरुष उनकी रूपमाधुरी का वर्णन सुनते हैं, तब वह श्रीविग्रह कानों के रास्ते प्रवेश करके उनके चित्त में गड़-सा जाता है, वहाँ से हटना नहीं जानता। उसकी शोभा कवियों की काव्यरचना में अनुराग का रंग भर देती है और उनका सम्मान बढ़ा देती है, इसके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। महाभारत-युद्ध के समय जब वे हमारे दादा अर्जुन के रथ पर बैठे हुए थे, उस समय जिन योद्धाओं ने उसे देखते-देखते शरीर- त्याग किया; उन्हें सारूप्य मुक्ति मिल गयी। उन्होंने अपना ऐसा अद्भुत श्रीविग्रह किस प्रकार अन्तर्धान किया ? ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में बड़े-बड़े उत्पात—अशकुन हो रहे हैं, तब उन्होंने सुधर्मा सभा में उपस्थित सभी यदुवंशियों से यह बात कही— ॥ ४ ॥ श्रेष्ठ यदुवंशियो ! यह देखो, द्वारका में बड़े-बड़े भयङ्कर उत्पात होने लगे हैं। ये साक्षात यमराज की ध्वजा के समान हमारे महान अनिष्ट के सूचक हैं। अब हमें यहाँ घड़ी-दो-घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिये ॥ ५ ॥ स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े यहाँ से शंखोद्धारक्षेत्र में चले जायँ और हम लोग प्रभासक्षेत्र में चलें। आप सब जानते हैं कि वहाँ सरस्वती पश्चिम की ओर बहकर समुद्र में जा मिली हैं ॥ ६ ॥ वहाँ हम स्नान करके पवित्र होंगे, उपवास करेंगे और एकाग्रचित्त से स्नान एवं चन्दन आदि सामग्रियों से देवताओं की पूजा करेंगे ॥ ७ ॥ वहाँ स्वस्तिवाचन के बाद हमलोग गौ, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ और घर आदि के द्वारा महात्मा ब्राह्मणों का सत्कार करेंगे ॥ ८ ॥ यह विधि सब प्रकार के अमङ्गलों का नाश करनेवाली और परम मङ्गल की जननी है। श्रेष्ठ यदुवंशियो ! देवता, ब्राह्मण और गौओं की पूजा ही प्राणियों के जन्म का परम लाभ है’ ॥ ९ ॥
परीक्षित ! सभी वृद्ध यदुवंशियों ने भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसका अनुमोदन किया और तुरंत नौकाओं से समुद्र पार करके रथों द्वारा प्रभासक्षेत्र की यात्रा की ॥ १० ॥ वहाँ पहुँचकर यादवों ने यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार बड़ी श्रद्धा और भक्ति से शान्तिपाठ आदि तथा और भी सब प्रकार के मङ्गलकृत्य किये ॥ ११ ॥ यह सब तो उन्होंने किया; परन्तु दैव ने उनकी बुद्धि हर ली और वे उस मैरेयक नामक मदिरा का पान करने लगे, जिसके नशे से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह पी ने में तो अवश्य मीठी लगती है, परन्तु परिणाम में सर्वनाश करनेवाली है ॥ १२ ॥ उस तीव्र मदिरा के पान से सब-के-सब उन्मत्त हो गये और वे घंमडी वीर एक-दूसरे से लडऩे-झगडऩे लगे। सच पूछो तो श्रीकृष्ण की माया से वे मूढ़ हो रहे थे ॥ १३ ॥ उस समय वे क्रोध से भरकर एक-दूसरे पर आक्रमण करने लगे और धनुष-बाण, तलवार, भाले,गदा, तोमर और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों से वहाँ समुद्रतट पर ही एक-दूसरे से भिड़ गये ॥ १४ ॥ मतवाले यदुवंशी रथों, हाथियों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, खच्चरों, बैलों, भैंसों और मनुष्यों पर भी सवार होकर एक-दूसरे को बाणों से घायल करने लगे—मानो जंगली हाथी एक- दूसरे पर दाँतों से चोट कर रहे हों। सब की सवारियों पर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, पैदल सैनिक भी आपस में उलझ रहे थे ॥ १५ ॥ प्रद्युम्र साम्बसे, अक्रूर भोजसे, अनिरुद्ध सात्यकिसे, सुभद्र संग्रामजित्से, भगवान श्रीकृष्ण के भाई गद उसी नाम के उनके पुत्र से और सुमित्र सुरथ से युद्ध करने लगे। ये सभी बड़े भयङ्कर योद्धा थे और क्रोध में भरकर एक दूसरे का नाश करने पर तुल गये थे ॥ १६ ॥ इनके अतिरिक्त निशठ, उल्मुक, सहस्रजित्, शतजित् और भानु आदि यादव भी एक- दूसरे से गुँथ गये। भगवान श्रीकृष्ण की माया ने तो इन्हें अत्यन्त मोहित कर ही रखा था, इधर मदिरा के नशे ने भी इन्हें अंधा बना दिया था ॥ १७ ॥ दाशाहर्, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, विसर्जन, कुकुर और कुन्ति आदि वंशों के लोग सौहार्द और प्रेम को भुलाकर आपस में मार-काट करने लगे ॥ १८ ॥ मूढ़तावश पुत्र पिताका, भाई भाईका, भानजा मामाका, नाती नानाका, मित्र मित्रका, सुहृद् सुहृद्का, चाचा भतीजे का तथा एक गोत्रवाले आपस में एक-दूसरे का खून करने लगे ॥ १९ ॥ अन्त में जब उनके सब बाण समाप्त हो गये, धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये तब उन्होंने अपने हाथों से समुद्रतट पर लगी हुई एर का नाम की घास उखाडऩी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियों के शाप के कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसल के चूरे से पैदा हुई थी ॥ २० ॥ हे राजन् ! उनके हाथों में आते ही वह घास वज्र के समान कठोर मुद्गरों के रूप में परिणत हो गयी। अब वे रोष में भरकर उसी घासके द्वारा अपने विपक्षियों पर प्रहार करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उन को और बलरामजी को भी अपना शत्रु समझ लिया। उन आततायियों की बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मार ने के लिये उनकी ओर दौड़ पड़े ॥ २१-२२ ॥ कुरुनन्दन ! अब भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी भी क्रोध में भरकर युद्धभूमि में इधर-उधर विचर ने और मुट्ठी-की-मुट्ठी एर का घास उखाड़-उखाडक़र उन्हें मार ने लगे। एर का घास की मुट्ठी ही मुद्गर के समान चोट करती थी ॥ २३ ॥ जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न होकर दावानल बाँसों को ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मशाप से ग्रस्त और भगवान श्रीकृष्ण की माया से मोहित यदुवंशियों के स्पद्र्धामूलक क्रोध ने उनका ध्वंस कर दिया ॥ २४ ॥ जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि समस्त यदुवंशियों का संहार हो चुका, तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोष की साँस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया ॥ २५ ॥
परीक्षित ! बलरामजी ने समुद्रतट पर बैठकर एकाग्रचित्त से परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्मा को आत्म स्वरूप में ही स्थिर कर लिया और मनुष्यशरीर छोड़ दिया ॥ २६ ॥ जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपद में लीन हो गये, तब वे एक पीपल के पेडक़े तले जाकर चुपचाप धरती पर ही बैठ गये ॥ २७ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय अपनी अङ्गकान्ति से देदीप्यमान चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था और धूम से रहित अग्रि के समान दिशाओं को अन्धकार-रहित—प्रकाशमान बना रहे थे ॥ २८ ॥ वर्षाकालीन मेघ के समान साँवले शरीर से तपे हुए सो ने के समान ज्योति निकल रही थी। वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बर की धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मङ्गलमय रूप था ॥ २९ ॥ मुखकमल पर सुन्दर मुसकान और कपोलों पर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमल के समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे ॥ ३० ॥ कमर में करधनी, कंधे पर यज्ञोपवीत, माथे पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, बाँहों में बाजूबंद, वक्ष:स्थल पर हार, चरणों में नूपुर, अँगुलियों में अँगूठियाँ और गले में कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी ॥ ३१ ॥ घुटनों तक वनमाला लट की हुई थी। शङ्ख, चक्र, गदा आदि आयुध मूर्तिमान् होकर प्रभु की सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान अपनी दाहिनी जाँघ पर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे लाल-लाल तलवा रक्त कमल के समान चमक रहा था ॥ ३२ ॥
परीक्षित ! जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बाण की गाँसी बना ली थी। उसे दूर से भगवान का लाल-लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया ॥ ३३ ॥ जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे ! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चु का था, इसलिये डर के मारे काँप ने लगा और दैत्यदलन भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर सिर रखकर धरती पर गिर पड़ा ॥ ३४ ॥ उसने कहा—‘हे मधुसूदन ! मैंने अनजान में यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ ३५ ॥ सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो ! महात्मालोग कहा करते हैं कि आपके स्मरणमात्र से मनुष्यों का अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेद की बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया ॥ ३६ ॥ वैकुण्ठनाथ ! मैं निरपराध हरिणों को मारनेवाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जाने पर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषों का ऐसा अपराध न करूँगा ॥ ३७ ॥ भगवन् ! सम्पूर्ण विद्याओं के पारदर्शी ब्रह्माजी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योगमाया का विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी माया से आवृत है। ऐसी अवस्था में हमारे- जैसे पापयोनि लोग उसके विषय में कह ही क्या सकते हैं ? ॥ ३८ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—हे जरे ! तू डर मत, उठ-उठ ! यह तो तू ने मेरे मन का काम किया है। जा, मेरी आज्ञा से तू उस स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है ॥ ३९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छा से शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याध को यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमान पर सवार होकर स्वर्ग को चला गया ॥ ४० ॥
भगवान श्रीकृष्ण का सारथि दारुक उनके स्थान का पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसी की गन्ध से युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होने के स्थान का अनुमान लगाकर सामने की ओर गया ॥ ४१ ॥ दारुक ने वहाँ जाकर देखा कि भगवान श्रीकृष्ण पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेजवाले आयुध मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा में संलग्र हैं। उन्हें देखकर दारुक के हृदय में प्रेम की बाढ़ आ गयी। नेत्रों से आँसुओं की धारा बह ने लगी। वह रथ से कूदकर भगवान के चरणों पर गिर पड़ा ॥ ४२ ॥ उसने भगवान से प्रार्थना की—‘प्रभो ! रात्रि के समय चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर राह चलनेवाले की जैसी दशा हो जाती है आपके चरणकमलों का दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओं का ज्ञान है और न मेरे हृदय में शान्ति ही है’ ॥ ४३ ॥ परीक्षित ! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान का गरुड़ध्वज रथ पता का और घोड़ों के साथ आकाश में उड़ गया ॥ ४४ ॥ उसके पीछे-पीछे भगवान के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुक के आश्चर्य की सीमा न रही। तब भगवान ने उससे कहा— ॥ ४५ ॥ ‘दारुक ! अब तुम द्वार का चले जाओ और वहाँ यदुवंशियों के पारस्परिक संहार, भैया बलरामजी की परम गति और मेरे स्वधामगमन की बात कहो ’ ॥ ४६ ॥ उनसे कहना कि ‘अब तुमलोगों को अपने परिवारवालों के साथ द्वारका में नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहने पर समुद्र उस नगरी को डुबो देगा ॥ ४७ ॥ सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिता को लेकर अर्जुन के संरक्षण में इन्द्रप्रस्थ चले जायँ ॥ ४८ ॥ दारुक ! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवतधर्म का आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सब की उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्य को मेरी माया की रचना समझकर शान्त हो जाओ’ ॥ ४९ ॥ भगवान का यह आदेश पाकर दारुक ने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिर पर रखकर बारंबार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मन से द्वार का के लिये चल पड़ा ॥ ५० ॥
॥ एकत्रिंशोऽध्यायः - ३१ ॥
श्रीशुक उवाच
अथ तत्रागमद्ब्रह्मा भवान्या च समं भवः ।
महेन्द्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः ॥ १॥
पितरः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः ।
चारणा यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसो द्विजाः ॥ २॥
द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः ।
गायन्तश्च गृणन्तश्च शौरेः कर्माणि जन्म च ॥ ३॥
ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः ।
कुर्वन्तः सङ्कुलं राजन् भक्त्या परमया युताः ॥ ४॥
भगवान् पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः ।
संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत् ॥ ५॥
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम् ।
योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ ६॥ सगोनागोगो
दिवि दुन्दुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात् ।
सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः ॥ ७॥
देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशन्तं स्वधामनि ।
अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः ॥ ८॥
सौदामन्या यथाऽऽकाशे यान्त्या हित्वाभ्रमण्डलम् ।
गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैस्तथा कृष्णस्य दैवतैः ॥ ९॥
ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः ।
विस्मितास्तां प्रशंसन्तः स्वं स्वं लोकं ययुस्तदा ॥ १०॥
राजन् परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा
माया विडम्बनमवेहि यथा नटस्य ।
सृष्ट्वात्मनेदमनुविश्य विहृत्य चान्ते
संहृत्य चात्ममहिमोपरतः स आस्ते ॥ ११॥
मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं
त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम् ।
जिग्येऽन्तकान्तकमपीशमसावनीशः
किं स्वावने स्वरनयन् मृगयुं सदेहम् ॥ १२॥
तथाप्यशेषस्थितिसम्भवाप्यये-
ष्वनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक् ।
नैच्छत्प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं
मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन् ॥ १३॥
य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम् ।
प्रयतः कीर्तयेद्भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ १४॥
दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः ।
पतित्वा चरणावस्रैर्न्यषिञ्चत्कृष्णविच्युतः ॥ १५॥
कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप ।
तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविर्मूर्च्छिताः ॥ १६॥
तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः ।
व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नन्त आननम् ॥ १७॥
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ ।
कृष्णरामावपश्यन्तः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम् ॥ १८॥
प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद्विरहातुराः ।
उपगुह्य पतींस्तात चितामारुरुहुः स्त्रियः ॥ १९॥
रामपत्न्यश्च तद्देहमुपगुह्याग्निमाविशन् ।
वसुदेवपत्न्यस्तद्गात्रं प्रद्युम्नादीन् हरेः स्नुषाः ।
कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्यास्तदात्मिकाः ॥ २०॥
अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः ।
आत्मानं सान्त्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः ॥ २१॥
बन्धूनां नष्टगोत्राणामर्जुनः साम्परायिकम् ।
हतानां कारयामास यथावदनुपूर्वशः ॥ २२॥
द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत्क्षणात् ।
वर्जयित्वा महाराज श्रीमद्भगवदालयम् ॥ २३॥
नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान् मधुसूदनः ।
स्मृत्याशेषाशुभहरं सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ २४॥
स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान् धनञ्जयः ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ॥ २५॥
श्रुत्वा सुहृद्वधं राजन्नर्जुनात्ते पितामहाः ।
त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम् ॥ २६॥
य एतद्देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च ।
कीर्तयेच्छ्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २७॥
इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतार-
वीर्याणि बालचरितानि च शन्तमानि ।
अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन् मनुष्यो
भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत ॥ २८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१॥
॥ समाप्तोऽयमेकादशस्कन्धः ॥
ॐ तत्सत् ॥
एकादश स्कन्द-इकतीसवाँ अध्याय 28
श्रीभगवान का स्वधामगमन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! दारुक के चले जाने पर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएँ तथा गरुड़लोक के विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम-प्रस्थान को देखने के लिये बड़ी उत्सुकता से वहाँ आये। वे सभी भगवान श्रीकृष्ण के जन्म और लीलाओं का गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानों से सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्ति से भगवान पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे ॥ १—४ ॥ सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी और अपने विभूति स्वरूप देवताओं को देखकर अपने आत्मा को स्वरूप में स्थित किया और कमल के समान नेत्र बंद कर लिये ॥ ५ ॥ भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मङ्गलमय आधार और समस्त लोकों के लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियों के समान) अग्रिदेवतासम्बन्धी योगधारणा के द्वारा उस को जलाया नहीं, सशरीर अपने धाम में चले गये ॥ ६ ॥ उस समय स्वर्ग में नगारे बज ने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे इस लोक से सत्य,धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं ॥ ७ ॥ भगवान श्रीकृष्ण की गति मन और वाणी के परे है; तभी तो जब भगवान अपने धाम में प्रवेश करने लगे, तब ब्रह्मादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटना से उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ ॥ ८ ॥ जैसे बिजली मेघमण्डल को छोडक़र जब आकाश में प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्ण की गति के सम्बन्ध में कुछ न जान सके ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी और भगवान शङ्कर आदि देवता भगवान की यह परमयोगमयी गति देखकर बड़े विस्मय के साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोक में चले गये ॥ १० ॥
परीक्षित ! जैसे नट अनेकों प्रकार के स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सब से निर्लेप; वैसे ही भगवान का मनुष्यों के समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी माया का विलासमात्र है— अभिनयमात्र है। वे स्वयं ही इस जगत की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्त में संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूप में ही स्थित हो जाते हैं ॥ ११ ॥ सान्दीपनि गुरु का पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीर के साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रह्मास्त्र से जल चु का था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तव में उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालों के महाकाल भगवान शङ्कर को भी युद्ध में जीत लिया और अत्यन्त अपराधी—अपने शरीर पर ही प्रहार करनेवाले व्याध को भी सदेह स्वर्ग भेज दिया। प्रिय परीक्षित ! ऐसी स्थिति में क्या वे अपने शरीर को सदा के लिये यहाँ नहीं रख सकते थे ? अवश्य ही रख सकते थे ॥ १२ ॥ यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत की स्थिति, उत्पत्ति और संहार के निरपेक्ष कारण हैं, और सम्पूर्ण शक्तियों के धारण करनेवाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीर को इस संसार में बचा रखने की इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीर से मुझे क्या प्रयोजन है ? आत्मनिष्ठ पुरुषों के लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखने की चेष्टा न करें ॥ १३ ॥ जो पुरुष प्रात:काल उठकर भगवान श्रीकृष्ण के परमधामगमन की इस कथा का एकाग्रता और भक्ति के साथ कीर्तन करेगा, उसे भगवान का वही सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्त होगा ॥ १४ ॥
इधर दारुक भगवान श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल होकर द्वार का आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेन के चरणों पर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओं से भिगो ने लगा ॥ १५ ॥ परीक्षित ! उसने अपने को सँभालकर यदुवंशियों के विनाश का पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुखी हुए और मारे शोक के मूर्च्छित हो गये ॥ १६ ॥ भगवान श्रीकृष्ण के वियोग से विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे ॥ १७ ॥ देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलराम को न देखकर शोक की पीड़ा से बेहोश हो गये ॥ १८ ॥ उन्होंने भगवद्विरह से व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों के शव पहचानकर उन्हें हृदय से लगा लिया और उनके साथ चिता पर बैठकर भस्म हो गयीं ॥ १९ ॥ बलरामजी की पत्नियाँ उनके शरीर को, वसुदेवजी की पत्नियाँ उनके शव को और भगवान की पुत्रवधुएँ अपने पतियों की लाशों को लेकर अग्रि में प्रवेश कर गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यान में मग्र होकर अग्रि में प्रविष्ट हो गयीं ॥ २० ॥
परीक्षित ! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान श्रीकृष्ण के विरह से पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हींके गीतोक्त सदुपदेशों का स्मरण करके अपने मन को सँभाला ॥ २१ ॥ यदुवंश के मृत व्यक्तियों में जिन को कोई पिण्ड देनेवाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुन ने क्रमश: विधिपूर्वक करवाया ॥ २२ ॥ महाराज ! भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवास-स्थान छोडक़र एक ही क्षण में सारी द्वार का डुबो दी ॥ २३ ॥ भगवान श्रीकृष्ण वहाँ अब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरणमात्र से ही सारे पाप-तापों का नाश करनेवाला और सर्वमङ्गलों को भी मङ्गल बनानेवाला है ॥ २४ ॥ प्रिय परीक्षित ! पिण्डदान के अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सब को यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया ॥ २५ ॥ राजन् ! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद पर अभिषिक्त करके हिमालय की वीरयात्रा की ॥ २६ ॥ मैंने तुम्हें देवताओं के भी आराध्यदेव भगवान श्रीकृष्ण की जन्मलीला और कर्मलीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है ॥ २७ ॥ परीक्षित ! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्यमाधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्र के अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराण में तथा दूसरे पुराणों में वर्णित परमानन्दमयी बाललीला, कैशोरलीला आदि का सङ्कीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रों के अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्ण के चरणों में पराभक्ति प्राप्त करता है ॥ २८ ॥
॥ इति एकादश स्कन्ध समाप्त ॥
॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥