स्कन्ध-10 [अध्याय-46]

॥ षट्चत्वारिंशोऽध्यायः - ४६ ॥
श्रीशुक उवाच
वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा ।
शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः ॥ १॥

तमाह भगवान् प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित् ।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः ॥ २॥

गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह ।
गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय ॥ ३॥

ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः ।
मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः ।
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम् ॥ ४॥

मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः ।
स्मरन्त्योऽङ्ग विमुह्यन्ति विरहौत्कण्ठ्यविह्वलाः ॥ ५॥

धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान् कथञ्चन ।
प्रत्यागमनसन्देशैर्वल्लव्यो मे मदात्मिकाः ॥ ६॥

श्रीशुक उवाच
इत्युक्त उद्धवो राजन् सन्देशं भर्तुरादृतः ।
आदाय रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ ७॥

प्राप्तो नन्दव्रजं श्रीमान् निम्लोचति विभावसौ ।
छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः ॥ ८॥

वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः ।
धावन्तीभिश्च वास्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान् ॥ ९॥

इतस्ततो विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितैः ।
गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां निःस्वनेन च ॥ १०॥

गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः ।
स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम् ॥ ११॥

अग्न्यर्कातिथिगोविप्रपितृदेवार्चनान्वितैः ।
धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम् ॥ १२॥

सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम् ।
हंसकारण्डवाकीर्णैः पद्मषण्डैश्च मण्डितम् ॥ १३॥

तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम् ।
नन्दः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत् ॥ १४॥

भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम् ।
गतश्रमं पर्यपृच्छत्पादसंवाहनादिभिः ॥ १५॥

कच्चिदङ्ग महाभाग सखा नः शूरनन्दनः ।
आस्ते कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद्वृतः ॥ १६॥

दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना ।
साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा ॥ १७॥

अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन् ।
गोपान् व्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम् ॥ १८॥

अप्यायास्यति गोविन्दः स्वजनान् सकृदीक्षितुम् ।
तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम् ॥ १९॥

दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः ।
दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना ॥ २०॥

स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापाङ्गनिरीक्षितम् ।
हसितं भाषितं चाङ्ग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः ॥ २१॥

सरिच्छैलवनोद्देशान् मुकुन्दपदभूषितान् ।
आक्रीडानीक्षमाणानां मनो याति तदात्मताम् ॥ २२॥

मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ ।
सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा ॥ २३॥

कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं तथा ।
अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः ॥ २४॥

तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट् ।
बभञ्जैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाद्गिरिम् ॥ २५॥

प्रलम्बो धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्तो बकादयः ।
दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया ॥ २६॥

श्रीशुक उवाच
इति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधीः ।
अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः ॥ २७॥

यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च ।
श‍ृण्वन्त्यश्रूण्यवास्राक्षीत्स्नेहस्नुतपयोधरा ॥ २८॥

तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः ।
वीक्ष्यानुरागं परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा ॥ २९॥

उद्धव उवाच
युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद ।
नारायणेऽखिलगुरौ यत्कृता मतिरीदृशी ॥ ३०॥

एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी
रामो मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम् ।
अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य
ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ ॥ ३१॥

यस्मिन् जनः प्राणवियोगकाले
क्षणं समावेश्य मनोविशुद्धम् ।
निर्हृत्य कर्माशयमाशु याति
परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः ॥ ३२॥

तस्मिन् भवन्तावखिलात्महेतौ
नारायणे कारणमर्त्यमूर्तौ ।
भावं विधत्तां नितरां महात्मन्
किं वावशिष्टं युवयोः सुकृत्यम् ॥ ३३॥

आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः ।
प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान् सात्वतां पतिः ॥ ३४॥

हत्वा कंसं रङ्गमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम् ।
यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत् ॥ ३५॥

मा खिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके ।
अन्तर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि ॥ ३६॥

न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः ।
नोत्तमो नाधमो नापि समानस्यासमोऽपि वा ॥ ३७॥

न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः ।
नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च ॥ ३८॥

न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु ।
क्रीडार्थः सोऽपि साधूनां परित्राणाय कल्पते ॥ ३९॥

सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान् ।
क्रीडन्नतीतोऽत्र गुणैः सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ ४०॥

यथा भ्रमरिका दृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते ।
चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः ॥ ४१॥

युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान् हरिः ।
सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः ॥ ४२॥

दृष्टं श्रुतं भूतभवद्भविष्य-
त्स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च ।
विनाच्युताद्वस्तु तरां न वाच्यं
स एव सर्वं परमात्मभूतः ॥ ४३॥

एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता
नन्दस्य कृष्णानुचरस्य राजन् ।
गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपा-
न्वास्तून्समभ्यर्च्य दधीन्यमन्थन् ॥ ४४॥

ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू
रज्जूर्विकर्षद्भुजकङ्कणस्रजः ।
चलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल-
त्विषत्कपोलारुणकुङ्कुमाननाः ॥ ४५॥

उद्गायतीनामरविन्दलोचनं
व्रजाङ्गनानां दिवमस्पृशद्ध्वनिः ।
दध्नश्च निर्मन्थनशब्दमिश्रितो
निरस्यते येन दिशाममङ्गलम् ॥ ४६॥

भगवत्युदिते सूर्ये नन्दद्वारि व्रजौकसः ।
दृष्ट्वा रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चाब्रुवन् ॥ ४७॥

अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः ।
येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः ॥ ४८॥

किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रेतस्य निष्कृतिम् ।
इति स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोऽगात्कृताह्निकः ॥ ४९॥

इति श्रीमद्भागवाते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नन्दशोकापनयनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६॥


दशम स्कन्ध-छियालीसवाँ अध्याय 49
उद्धवजी की व्रजयात्रा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात बृहस्पतिजी के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे बढक़र और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे ॥ १ ॥ एक दिन शरणागतों के सारे दु:ख हर लेनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा— ॥ २ ॥ ‘सौम्यस्वभाव उद्धव ! तुम व्रज में जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरह की व्याधि से बहुत ही दुखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदना से मुक्त करो ॥ ३ ॥ प्यारे उद्धव ! गोपियों का मन नित्य-निरन्तर मुझ में ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियों को छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धि से भी मुझी को अपना प्यारा, अपना प्रियतम—नहीं, नहीं, अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण- पोषण मैं स्वयं करता हूँ ॥ ४ ॥ प्रिय उद्धव ! मैं उन गोपियों का परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आ ने से वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरह की व्यथा से विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं ॥ ५ ॥ मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्न से अपने प्राणों को किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवन का आधार है। उद्धव ! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझ में ही तन्मय रहती हैं’ ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदर से अपने स्वामी का सन्देश लेकर रथ पर सवार हुए और नन्दगाँव के लिये चल पड़े ॥ ७ ॥ परम सुन्दर उद्धवजी सूर्यास्त के समय नन्दबाबा के व्रज में पहुँचे। उस समय जंगल से गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरों के आघात से इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ ढक गया था ॥ ८ ॥ व्रजभूमि में ऋतुमती गौओं के लिये मतवाले साँड़ आपस में लड़ रहे थे। उनकी गर्जना से सारा व्रज गूँज रहा था। थोड़े दिनों की ब्यायी हुई गौएँ अपने थनों के भारी भार से दबी होने पर भी अपने-अपने बछड़ों की ओर दौड़ रही थीं ॥ ९ ॥ सफेद रंग के बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुह ने की ‘घर-घर’ ध्वनि से और बाँसुरियों की मधुर टेर से अब भी व्रज की अपूर्व शोभा हो रही थी ॥ १० ॥ गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनों से सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के मङ्गलमय चरित्रों का गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रज की शोभा और भी बढ़ गयी थी ॥ ११ ॥ गोपों के घरों में अग्रि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरों की पूजा की हुई थी। धूप की सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरों को पुष्पों से सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहों से सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था ॥ १२ ॥ चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलों से लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलों के वन से शोभायमान थे, और हंस, बत्तख आदि पक्षी वन में विहार कर रहे थे ॥ १३ ॥

जब भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रज में आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजी को गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आ गये हों ॥ १४ ॥ समय पर उत्तम अन्न का भोजन कराया और जब वे आराम से पलँग पर बैठ गये, सेवकों ने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी ॥ १५ ॥ तब नन्दबाबा ने उनसे पूछा—‘परम भाग्यवान् उद्धवजी ! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेल से छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशल से तो हैं न ? ॥ १६ ॥ यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अपने पापों के फल स्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। क्योंकि स्वभाव से ही धार्मिक परम साधु यदुवंशियों से वह सदा द्वेष करता था ॥ १७ ॥ अच्छा उद्धवजी ! श्रीकृष्ण कभी हमलोगों की भी याद करते हैं ? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हीं को अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाला यह व्रज है; उन्हीं की गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं ? ॥ १८ ॥ आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुह्ृद्-बान्धवों को देखने के लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या ? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवन से युक्त मुखकमल देख तो लेते ॥ १९ ॥ उद्धवजी ! श्रीकृष्ण का हृदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानलसे, आँधी-पानीसे, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्यु के निमित्तोंसे—जिन्हें टाल ने का कोई उपाय न था—एक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है ॥ २० ॥ उद्धवजी ! हम श्रीकृष्ण के विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदि का स्मरण करते रहते हैं और उसमें इत ने तन्मय रहते हैं कि अब हम से कोई काम-काज नहीं हो पाता ॥ २१ ॥ जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीडा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने अपने एक हाथ पर उठा लिया था; ये वे ही वन के प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओं के साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है ॥ २२ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओं का कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करने के लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान गर्गाचार्यजी ने मुझ से ऐसा ही कहा था ॥ २३ ॥ जैसे सिंह बिना किसी परिश्रम के पशुओं को मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेल में ही दस हजार हाथियों का बल रखनेवाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान बलशाली गजराज कुवलयापीडक़ो मार डाला ॥ २४ ॥ उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुष को वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छड़ी को तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ने एक हाथ से सात दिनों तक गिरिराज को उठाये रखा था ॥ २५ ॥ यहीं सब के देखते-देखते खेल- खेल में उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बक आदि उन बड़े-बड़े दैत्यों को मार डाला, जिन्हों ने समस्त देवता और असुरों पर विजय प्राप्त कर ली थी’ ॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! नन्दबाबा का हृदय यों ही भगवान श्रीकृष्ण के अनुराग-रंग में रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओं का एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेम की बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिल ने की अत्यन्त उत्कण्ठा होने के कारण उनका गला रुँध गया। वे चुप हो गये ॥ २७ ॥ यशोदारानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबा की बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्ण की एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रों से आँसू बहते जाते थे और पुत्रस्नेह की बाढ़ से उनके स्तनों से दूध की धारा बहती जा रही थी ॥ २८ ॥ उद्धवजी नन्दबाबा और यशोदारानी के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति कैसा अगाध अनुराग है—यह देखकर आनन्दमग्र हो गये और उनसे कह ने लगे ॥ २९ ॥

उद्धवजी ने कहा—हे मानद ! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियों में अत्यन्त भाग्यवान् हैं, सराहना करनेयोग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत के बनानेवाले और उसे ज्ञान देनेवाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके हृदय में ऐसा वात्सल्यस्नेह—पुत्रभाव है ॥ ३० ॥ बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसार के उपादानकारण और निमित्तकारण भी हैं। भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान (प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीरों में प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञान स्वरूप जीव है, उसका नियमन करते हैं ॥ ३१ ॥ जो जीव मृत्यु के समय अपने शुद्ध मन को एक क्षण के लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओं को धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्य के समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगति को प्राप्त होता है ॥ ३२ ॥ वे भगवान ही, जो सब के आत्मा और परम कारण हैं, भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वी का भार उतार ने के लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनों का ऐसा सुदृढ़ वात्सल्यभाव है; फिर महात्माओ ! आप दोनों के लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है ॥ ३३ ॥ भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनों में व्रज में आयेंगे और आप दोनों को—अपने माँ-बाप को आनन्दित करेंगे ॥ ३४ ॥ जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियों के द्रोही कंस को रंगभूमि में मार डाला और आपके पास आकर कहा कि ‘मैं व्रज में आऊँगा’, उस कथन को वे सत्य करेंगे ॥ ३५ ॥ नन्दबाबा और माता यशोदाजी ! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्ण को अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठ में अग्रि सदा ही व्यापक रूप से रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियों के हृदय में सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ ३६ ॥ एक शरीर के प्रति अभिमान न होने के कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सब में और सब के प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टि में न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँ तक कि विषमता का भाव रखनेवाला भी उनके लिये विषम नहीं है ॥ ३७ ॥ न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही ॥ ३८ ॥ इस लोक में उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओं के परित्राण के लिये, लीला करने के लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियों में शरीर धारण करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवान अजन्मा हैं। उनमें प्राकृत सत्त्व, रज आदि में से एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणों से अतीत होने पर भी लीला के लिये खेल- खेल में वे सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणों को स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं ॥ ४० ॥ जब बच्चे घुमरीपरेता खेल ने लगते हैं या मनुष्य वेग से चक्कर लगा ने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तव में सब कुछ करनेवाला चित्त ही है; परंतु उस चित्त में अहंबुद्धि हो जाने के कारण, भ्रमवश उसे आत्मा—अपना ‘मैं’ समझ लेने के कारण, जीव अपने को कर्ता समझ ने लगता है ॥ ४१ ॥ भगवान श्रीकृष्ण केवल आप दोनों के ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियों के आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं ॥ ४२ ॥ बाबा ! जो कुछ देखा या सुना जाता है—वह चाहे भूत से सम्बन्ध रखता हो, वर्तमान से अथवा भविष्यसे; स्थावर हो या जङ्गम हो, महान हो अथवा अल्प हो—ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान श्रीकृष्ण से पृथक् हो। बाबा ! श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तव में सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं ॥ ४३ ॥

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपस में बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहने पर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घर की देहलियों पर वास्तुदेव का पूजन किया, अपने घरों को झाड़-बुहारकर साफ किया और फिर दही मथ ने लगीं ॥ ४४ ॥ गोपियों की कलाइयों में कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहुत भली मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गले के हार हिल रहे थे। कानों के कुण्डल हिल- हिलकर उनके कुङ्कुम-मण्डित कपोलों की लालिमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषणों की मणियाँ दीपक की ज्योति से और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे अत्यन्त शोभा से सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं ॥ ४५ ॥ उस समय गोपियाँ— कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण के मङ्गलमय चरित्रों का गान कर रही थीं। उनका वह सङ्गीत दही मथ ने की ध्वनि से मिलकर और भी अद्भुत हो गया तथा स्वर्गलोक तक जा पहुँचा, जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओं का अमङ्गल मिटा देती है ॥ ४६ ॥

जब भगवान भुवनभास्कर का उदय हुआ, तब व्रजाङ्गनाओं ने देखा कि नन्दबाबा के दरवाजे पर एक सो ने का रथ खड़ा है। वे एक-दूसरे से पूछ ने लगीं ‘यह किस का रथ है ?’ ॥ ४७ ॥ किसी गोपी ने कहा—‘कंस का प्रयोजन सिद्ध करनेवाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है ? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुन्दर को यहाँ से मथुरा ले गया था’ ॥ ४८ ॥ किसी दूसरी गोपी ने कहा—‘क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंस का पिण्डदान करेगा ? अब यहाँ उसके आ ने का और क्या प्रयोजन हो सकता है?’ व्रजवासिनी स्त्रियाँ इसी प्रकार आपस में बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्म से निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुँचे ॥ ४९ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-47]

॥ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः - ४७ ॥
श्रीशुक उवाच
तं वीक्ष्य कृष्णानुचरं व्रजस्त्रियः
प्रलम्बबाहुं नवकञ्जलोचनम् ।
पीताम्बरं पुष्करमालिनं लसन्-
मुखारविन्दं परिमृष्टकुण्डलम् ॥ १॥

शुचिस्मिताः कोऽयमपीच्यदर्शनः
कुतश्च कस्याच्युतवेषभूषणः ।
इति स्म सर्वाः परिवव्रुरुत्सुका-
स्तमुत्तमश्लोकपदाम्बुजाश्रयम् ॥ २॥

तं प्रश्रयेणावनताः सुसत्कृतं
सव्रीडहासेक्षणसूनृतादिभिः ।
रहस्यपृच्छन्नुपविष्टमासने
विज्ञाय सन्देशहरं रमापतेः ॥ ३॥

जानीमस्त्वां यदुपतेः पार्षदं समुपागतम् ।
भर्त्रेह प्रेषितः पित्रोर्भवान् प्रियचिकीर्षया ॥ ४॥

अन्यथा गोव्रजे तस्य स्मरणीयं न चक्ष्महे ।
स्नेहानुबन्धो बन्धूनां मुनेरपि सुदुस्त्यजः ॥ ५॥

अन्येष्वर्थकृता मैत्री यावदर्थविडम्बनम् ।
पुम्भिः स्त्रीषु कृता यद्वत्सुमनःस्विव षट्पदैः ॥ ६॥

निःस्वं त्यजन्ति गणिका अकल्पं नृपतिं प्रजाः ।
अधीतविद्या आचार्यं ऋत्विजो दत्तदक्षिणम् ॥ ७॥

खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चातिथयो गृहम् ।
दग्धं मृगास्तथारण्यं जारो भुक्त्वा रतां स्त्रियम् ॥ ८॥

इति गोप्यो हि गोविन्दे गतवाक्कायमानसाः ।
कृष्णदूते व्रजं याते उद्धवे त्यक्तलौकिकाः ॥ ९॥

गायन्त्यः प्रियकर्माणि रुदत्यश्च गतह्रियः ।
तस्य संस्मृत्य संस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययोः ॥ १०॥

काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती कृष्णसङ्गमम् ।
प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत् ॥ ११॥

गोप्युवाच
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशाङ्घ्रिं सपत्न्याः
कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः ।
वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं
यदुसदसि विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् ॥ १२॥

सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा
सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान् भवादृक् ।
परिचरति कथं तत्पादपद्मं तु पद्मा
ह्यपि बत हृतचेता ह्युत्तमश्लोकजल्पैः ॥ १३॥

किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं यदूना-
मधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम् ।
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः
क्षपितकुचरुजस्ते कल्पयन्तीष्टमिष्टाः ॥ १४॥

दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः
कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः ।
चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं काः
अपि च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः ॥ १५॥

विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं चाटुकारै-
रनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात् ।
स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोकाः
व्यसृजदकृतचेताः किं नु सन्धेयमस्मिन् ॥ १६॥

मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा
स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम् ।
बलिमपि बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यः
तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः ॥ १७॥

यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्
सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा विनष्टाः ।
सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना
बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति ॥ १८॥

वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः
कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः ।
ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र-
स्मररुज उपमन्त्रिन् भण्यतामन्यवार्ता ॥ १९॥

प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः किं
वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग ।
नयसि कथमिहास्मान् दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं
सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते ॥ २०॥

अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनाऽऽस्ते
स्मरति स पितृगेहान् सौम्य बन्धूंश्च गोपान् ।
क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां गृणीते
भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु ॥ २१॥

श्रीशुक उवाच
अथोद्धवो निशम्यैवं कृष्णदर्शनलालसाः ।
सान्त्वयन् प्रियसन्देशैर्गोपीरिदमभाषत ॥ २२॥

उद्धव उवाच
अहो यूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिताः ।
वासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मनः ॥ २३॥

दानव्रततपोहोमजपस्वाध्यायसंयमैः ।
श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते ॥ २४॥

भगवत्युत्तमश्लोके भवतीभिरनुत्तमा ।
भक्तिः प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा ॥ २५॥

दिष्ट्या पुत्रान् पतीन् देहान् स्वजनान् भवनानि च ।
हित्वावृणीत यूयं यत्कृष्णाख्यं पुरुषं परम् ॥ २६॥

सर्वात्मभावोऽधिकृतो भवतीनामधोक्षजे ।
विरहेण महाभागा महान् मेऽनुग्रहः कृतः ॥ २७॥

श्रूयतां प्रियसन्देशो भवतीनां सुखावहः ।
यमादायागतो भद्रा अहं भर्तू रहस्करः ॥ २८॥

श्रीभगवानुवाच
भवतीनां वियोगो मे न हि सर्वात्मना क्वचित् ।
यथा भूतानि भूतेषु खं वाय्वग्निर्जलं मही ।
तथाहं च मनः प्राणभूतेन्द्रियगुणाश्रयः ॥ २९॥

आत्मन्येवात्मनाऽऽत्मानं सृजे हन्म्यनुपालये ।
आत्ममायानुभावेन भूतेन्द्रियगुणात्मना ॥ ३०॥

आत्मा ज्ञानमयः शुद्धो व्यतिरिक्तोऽगुणान्वयः ।
सुषुप्तिस्वप्नजाग्रद्भिर्मायावृत्तिभिरीयते ॥ ३१॥

येनेन्द्रियार्थान् ध्यायेत मृषा स्वप्नवदुत्थितः ।
तन्निरुन्ध्यादिन्द्रियाणि विनिद्रः प्रत्यपद्यत ॥ ३२॥

एतदन्तः समाम्नायो योगः साङ्ख्यं मनीषिणाम् ।
त्यागस्तपो दमः सत्यं समुद्रान्ता इवापगाः ॥ ३३॥

यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम् ।
मनसः सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया ॥ ३४॥

यथा दूरचरे प्रेष्ठे मन आविश्य वर्तते ।
स्त्रीणां च न तथा चेतः सन्निकृष्टेऽक्षिगोचरे ॥ ३५॥

मय्यावेश्य मनः कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत् ।
अनुस्मरन्त्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ ॥ ३६॥

या मया क्रीडता रात्र्यां वनेऽस्मिन् व्रज आस्थिताः ।
अलब्धरासाः कल्याण्यो माऽऽपुर्मद्वीर्यचिन्तया ॥ ३७॥

श्रीशुक उवाच
एवं प्रियतमादिष्टमाकर्ण्य व्रजयोषितः ।
ता ऊचुरुद्धवं प्रीतास्तत्सन्देशागतस्मृतीः ॥ ३८॥

गोप्य ऊचुः
दिष्ट्याहितो हतः कंसो यदूनां सानुगोऽघकृत् ।
दिष्ट्याऽऽप्तैर्लब्धसर्वार्थैः कुशल्यास्तेऽच्युतोऽधुना ॥ ३९॥

कच्चिद्गदाग्रजः सौम्य करोति पुरयोषिताम् ।
प्रीतिं नः स्निग्धसव्रीडहासोदारेक्षणार्चितः ॥ ४०॥

कथं रतिविशेषज्ञः प्रियश्च वरयोषिताम् ।
नानुबध्येत तद्वाक्यैर्विभ्रमैश्चानुभाजितः ॥ ४१॥

अपि स्मरति नः साधो गोविन्दः प्रस्तुते क्वचित् ।
गोष्ठीमध्ये पुरस्त्रीणां ग्राम्याः स्वैरकथान्तरे ॥ ४२॥

ताः किं निशाः स्मरति यासु तदा प्रियाभि-
र्वृन्दावने कुमुदकुन्दशशाङ्करम्ये ।
रेमे क्वणच्चरणनूपुररासगोष्ठ्या-
मस्माभिरीडितमनोज्ञकथः कदाचित् ॥ ४३॥

अप्येष्यतीह दाशार्हस्तप्ताः स्वकृतया शुचा ।
सञ्जीवयन् नु नो गात्रैर्यथेन्द्रो वनमम्बुदैः ॥ ४४॥

कस्मात्कृष्ण इहायाति प्राप्तराज्यो हताहितः ।
नरेन्द्रकन्या उद्वाह्य प्रीतः सर्वसुहृद्वृतः ॥ ४५॥

किमस्माभिर्वनौकोभिरन्याभिर्वा महात्मनः ।
श्रीपतेराप्तकामस्य क्रियेतार्थः कृतात्मनः ॥ ४६॥

परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिङ्गला ।
तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाप्याशा दुरत्यया ॥ ४७॥

क उत्सहेत सन्त्यक्तुमुत्तमश्लोकसंविदम् ।
अनिच्छतोऽपि यस्य श्रीरङ्गान्न च्यवते क्वचित् ॥ ४८॥

सरिच्छैलवनोद्देशा गावो वेणुरवा इमे ।
सङ्कर्षणसहायेन कृष्णेनाचरिताः प्रभो ॥ ४९॥

पुनः पुनः स्मारयन्ति नन्दगोपसुतं बत ।
श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तुं नैव शक्नुमः ॥ ५०॥

गत्या ललितयोदारहासलीलावलोकनैः ।
माध्व्या गिरा हृतधियः कथं तं विस्मरामहे ॥ ५१॥

हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन ।
मग्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात् ॥ ५२॥

श्रीशुक उवाच
ततस्ताः कृष्णसन्देशैर्व्यपेतविरहज्वराः ।
उद्धवं पूजयांचक्रुर्ज्ञात्वाऽऽत्मानमधोक्षजम् ॥ ५३॥

उवास कतिचिन्मासान् गोपीनां विनुदन् शुचः ।
कृष्णलीलाकथां गायन् रमयामास गोकुलम् ॥ ५४॥

यावन्त्यहानि नन्दस्य व्रजेऽवात्सीत्स उद्धवः ।
व्रजौकसां क्षणप्रायाण्यासन् कृष्णस्य वार्तया ॥ ५५॥

सरिद्वनगिरिद्रोणीर्वीक्षन् कुसुमितान् द्रुमान् ।
कृष्णं संस्मारयन् रेमे हरिदासो व्रजौकसाम् ॥ ५६॥

दृष्ट्वैवमादि गोपीनां कृष्णावेशात्मविक्लवम् ।
उद्धवः परमप्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ ॥ ५७॥

एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो
गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढभावाः ।
वाञ्छन्ति यद्भवभियो मुनयो वयं च
किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य ॥ ५८॥

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः
कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः ।
नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोपि साक्षा-
च्छ्रेयस्तनोत्यगदराज इवोपयुक्तः ॥ ५९॥

नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः
स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्याः ।
रासोत्सवेऽस्य भुजदण्डगृहीतकण्ठ-
लब्धाशिषां य उदगाद्व्रजवल्लवीनाम् ॥ ६०॥

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् ।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥ ६१॥

या वै श्रियार्चितमजादिभिराप्तकामै-
र्योगेश्वरैरपि यदात्मनि रासगोष्ठ्याम् ।
कृष्णस्य तद्भगवतश्चरणारविन्दं
न्यस्तं स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापम् ॥ ६२॥

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः ।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ॥ ६३॥

श्रीशुक उवाच
अथ गोपीरनुज्ञाप्य यशोदां नन्दमेव च ।
गोपानामन्त्र्य दाशार्हो यास्यन्नारुरुहे रथम् ॥ ६४॥

तं निर्गतं समासाद्य नानोपायनपाणयः ।
नन्दादयोऽनुरागेण प्रावोचन्नश्रुलोचनाः ॥ ६५॥

मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्णपादाम्बुजाश्रयाः ।
वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रह्वणादिषु ॥ ६६॥

कर्मभिर्भ्राम्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया ।
मङ्गलाचरितैर्दानै रतिर्नः कृष्ण ईश्वरे ॥ ६७॥

एवं सभाजितो गोपैः कृष्णभक्त्या नराधिप ।
उद्धवः पुनरागच्छन्मथुरां कृष्णपालिताम् ॥ ६८॥

कृष्णाय प्रणिपत्याह भक्त्युद्रेकं व्रजौकसाम् ।
वसुदेवाय रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात् ॥ ६९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे उद्धवप्रतियाने सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७॥


दशम स्कन्ध-सैंतालीसवाँ अध्याय 69
उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! गोपियों ने देखा कि श्रीकृष्ण के सेवक उद्धवजी की आकृति और वेषभूषा श्रीकृष्ण से मिलती-जुलती है। घुटनों तक लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र हैं, शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गले में कमलपुष्पों की माला है, कानों में मणिजटित कुण्डल झलक रहे हैं और मुखारविन्द अत्यन्त प्रफुल्लित है ॥ १ ॥ पवित्र मुसकानवाली गोपियों ने आपस में कहा—‘यह पुरुष देखने में तो बहुत सुन्दर है। परंतु यह है कौन ? कहाँ से आया है ? किस का दूत है ? इस ने श्रीकृष्ण-जैसी वेषभूषा क्यों धारण कर रखी है ?’ सब-की-सब गोपियाँ उनका परिचय प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो गयीं और उनमें से बहुत-सी पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के आश्रित तथा उनके सेवक-सखा उद्धवजी को चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं ॥ २ ॥ जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो रमारमण भगवान श्रीकृष्ण का सन्देश लेकर आये हैं, तब उन्होंने विनय से झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी आदि से उद्धवजी का अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्त में आसन पर बैठाकर वे उनसे इस प्रकार कह ने लगीं— ॥ ३ ॥ ‘उद्धवजी ! हम जानती हैं कि आप यदुनाथ के पार्षद हैं। उन्हीं का संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं। आपके स्वामी ने अपने माता-पिता को सुख दे ने के लिये आपको यहाँ भेजा है ॥ ४ ॥ अन्यथा हमें तो अब इस नन्दगाँवमें—गौओं के रहने की जगहमें उनके स्मरण करनेयोग्य कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पड़ती; माता-पिता आदि सगे-सम्बन्धियों का स्नेह-बन्धन तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी बड़ी कठिनाई से छोड़ पाते हैं ॥ ५ ॥ दूसरों के साथ जो प्रेम-सम्बन्ध का स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थ के लिये ही होता है। भौरों का पुष्पों से और पुरुषों का स्त्रियों से ऐसा ही स्वार्थ का प्रेम-सम्बन्ध होता है ॥ ६ ॥ जब वेश्या समझती है कि अब मेरे यहाँ आनेवाले के पास धन नहीं है, तब उसे वह धता बता देती है। जब प्रजा देखती है कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ देती है। अध्ययन समाप्त हो जाने पर कित ने शिष्य अपने आचार्यों की सेवा करते हैं ? यज्ञ की दक्षिणा मिली कि ऋत्विज्लोग चलते बने ॥ ७ ॥ जब वृक्ष पर फल नहीं रहते, तब पक्षीगण वहाँ से बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं। भोजन कर लेने के बाद अतिथिलोग ही गृहस्थ की ओर कब देखते हैं ? वन में आग लगी कि पशु भाग खड़े हुए। चाहे स्त्री के हृदय में कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष अपना काम बना लेने के बाद उलटकर भी तो नहीं देखता’ ॥ ८ ॥ परीक्षित ! गोपियों के मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्ण में ही तल्लीन थे। जब भगवान श्रीकृष्ण के दूत बनकर उद्धवजी व्रज में आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते यह भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने बचपन से लेकर किशोर अवस्था तक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सब की याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जा को भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ ९-१० ॥ एक गोपी को उस समय स्मरण हो रहा था भगवान श्रीकृष्ण के मिलन की लीलाका। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मना ने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरे से इस प्रकार कह ने लगी— ॥ ११ ॥

गोपी ने कहा—रे मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरों को मत छू। झूठे प्रणाम करके हम से अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्ष:स्थल के स्पर्श से मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुङ्कुम तेरी मूछों पर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह कुङ्कुमरूप कृपा-प्रसाद, जो युदवंशियों की सभा में उपहास करनेयोग्य है, अपने ही पास रखें। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेज ने की क्या आवश्यकता है ? ॥ १२ ॥ जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं। तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले। उन्होंने हमें केवल एक बार—हाँ, ऐसा ही लगता है—केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधरसुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोडक़र वे यहाँ से चले गये। पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा कैसे करती रहती हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गयी होंगी। चितचोर ने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा ॥ १३ ॥ अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं । हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हमलोगों के सामने यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हमलोगों को मना ने के लिये ही तो ? परंतु नहीं- नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिलकुल पुरा ने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्ण की मधुपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके हृदय की पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगी वस्तु देंगी ॥ १४ ॥ भौंरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौहों के इशारे से जो वश में न हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आवें—ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान ! स्वर्ग में, पाताल में और पृथ्वी में ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरों की तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं ! फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस गिनती में हैं ? परंतु तू उनके पास जाकर कहना कि ‘तुम्हारा नाम तो ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं; परंतु इस की सार्थकता तो इसी में है कि तुम दीनों पर दया करो। नहीं तो श्रीकृष्ण ! तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़ जाता है ॥ १५ ॥ अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में, क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है। मालूम होता है तू श्रीकृष्ण से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मना ने के लिये दूत को— सन्देशवाहक को कितनी चाटुकारिता करनी चाहिये। परंतु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की। देख, हम ने श्रीकृष्ण के लिये ही अपने पति, पुत्र और दूसरे लोगों को छोड़ दिया। परंतु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं। वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोडक़र चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम क्या सन्धि करें ? क्या तू अब भी कहता है कि उन पर विश्वास करना चाहिये ? ॥ १६ ॥ ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयता से मारा था। बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परंतु उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया। ब्राह्मण के घर वामन के रूप में जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ? बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँहमाँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाश से बाँधकर पाताल में डाल दिया। ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवाले को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है। अच्छा, तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्ण से क्या, किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है। परंतु यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों करती हो ?’ तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चस का लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता। ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकतीं ॥ १७ ॥ श्रीकृष्ण की लीलारूप कर्णामृत के एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके राग-द्वेष, सुख-दु:ख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं। यहाँ तक कि बहुत- से लोग तो अपनी दु:खमय—दु:ख से सनी हुई घर-गृहस्थी छोडक़र अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी संग्रह- परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन-चुनकर—भीख माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन- दुनिया से जाते रहते हैं। फिर भी श्रीकृष्ण की लीला कथा छोड़ नहीं पाते। वास्तव में उसका रस, उसका चस का ऐसा ही है। यही दशा हमारी हो रही है ॥ १८ ॥ जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली- भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का वश्विास कर लेती हैं और उसके जाल में फँसकर मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्ण की कपटभरी मीठी-मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान बैठीं और उनके नखस्पर्श से होनेवाली कामव्याधि का बार-बार अनुभव करती रहीं। इसलिये श्रीकृष्ण के दूत भौंरे ! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह। तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ॥ १९ ॥ हमारे प्रियतम के प्यारे सखा ! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मना ने के लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकार से हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हम से जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परंतु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथ—उनके वक्ष:स्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ॥ २० ॥ अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों की भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समान दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक— लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा ॥ २२ ॥

उद्धवजी ने कहा—अहो गोपियो ! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियो ! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुमलोगों ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है ॥ २३ ॥ दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है ॥ २४ ॥ यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमलोगों ने पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसी का आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि- मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २५ ॥ सचमुच यह कित ने सौभाग्य की बात है कि तुम ने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरों को छोडक़र पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को, जो सब के परम पति हैं, पति के रूप में वरण किया है ॥ २६ ॥ महाभाग्यवती गोपियो ! भगवान श्रीकृष्ण के वियोग से तुम ने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है। तुमलोगों का वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊ पर तुम देवियों की बड़ी ही दया है ॥ २७ ॥ मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करनेवाला दूत हूँ। तुम्हारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण ने तुमलोगों को परम सुख दे ने के लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियो! वही लेकर मैं तुमलोगों के पास आया हूँ, अब उसे सुनो ॥ २८ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—मैं सब का उपादान कारण होने से सब का आत्मा हूँ, सब में अनुगत हूँ; इसलिये मुझ से कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसार के सभी भौतिक पदार्थों में आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी—ये पाँचों भूत व्याप्त हैं, इन्हीं से सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओं के रूप में हैं ? वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्चभूत, इन्द्रिय और उनके विषयों का आश्रय हूँ। वे मुझ में हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूप में प्रकट हो रहा हूँ ॥ २९ ॥ मैं ही अपनी माया के द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेट लेता हूँ ॥ ३० ॥ आत्मा माया और माया के कार्यों से पृथक् है। वह विशुद्ध ज्ञान स्वरूप, जड प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवान्तर भेदों से रहित सर्वथा शुद्ध है। कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। माया की तीन वृत्तियाँ हैं—सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत्। इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोध स्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूप से प्रतीत होता है ॥ ३१ ॥ मनुष्य को चाहिये कि वह समझे कि स्वप्न में दीखनेवाले पदार्थों के समान ही जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियों के विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इसीलिये उन विषयों का चिन्तन करनेवाले मन और इन्द्रियों को रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत के स्वाप्निक विषयों को त्यागकर मेरा साक्षातकार करे ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्र में ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषों का वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्ति में ही समाप्त होते हैं। सब का सच्चा फल है मेरा साक्षातकार; क्योंकि वे सब मन को निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं ॥ ३३ ॥

गोपियो ! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनों का ध्रुवतारा हूँ। तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ। किन्तु मैं जो तुम से इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर स को, शरीर से दूर रहने पर भी मन से तुम मेरी सन्निधि का अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो ॥ ३४ ॥ क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियों का चित्त अपने परदेशी प्रियतम में जितना निश्चल भाव से लगा रहता है, उतना आँखों के सामने, पास रहनेवाले प्रियतम में नहीं लगता ॥ ३५ ॥ अशेष वृत्तियों से रहित सम्पूर्ण मन मुझ में लगाकर जब तुमलोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदा के लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी ॥ ३६ ॥ कल्याणियो ! जिस समय मैंने वृन्दावन में शारदीय पूर्णिमा की रात्रि में रास-क्रीडा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनों के रोक लेने से व्रज में ही रह गयीं—मेरे साथ रास-विहार में सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओं का स्मरण करने से ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य, निराश होने की कोई बात नहीं है ) ॥ ३७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का यह संदेशा सुनकर गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ उनके संदेश से उन्हें श्रीकृष्ण के स्वरूप और एक-एक लीला की याद आ ने लगी। प्रेम से भरकर उन्होंने उद्धवजी से कहा ॥ ३८ ॥

गोपियों ने कहा—उद्धवजी ! यह बड़े सौभाग्य की और आनन्द की बात है कि यदुवंशियों को सतानेवाला पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि श्रीकृष्ण के बन्धु-बान्धव और गुरुजनों के सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं ॥ ३९ ॥ किन्तु उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइये। ‘जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुसकान और उन्मुक्त चितवन से उनकी पूजा करती थीं और वे भी हम से प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुरा की स्त्रियों से भी वे प्रेम करते हैं या नहीं?’ ॥ ४० ॥ तब तक दूसरी गोपी बोल उठी—‘अरी सखी ! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेम की मोहिनी कला के विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगर की स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भाव से उनकी ओर देखेंगी तब वे उन पर क्यों न रीझेंगे ?’ ॥ ४१ ॥ दूसरी गोपियाँ बोलीं—‘साधो ! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियों की मण्डली में कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वच्छन्दरूपसे, बिना किसी सं कोच के जब प्रेम की बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनों की भी याद करते हैं ?’ ॥ ४२ ॥ कुछ गोपियों ने कहा—‘उद्धवजी ! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियों का स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्द के पुष्प खिले हुए थे, चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था ! उन रात्रियों में ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हमलोगों के साथ नृत्य किया था। कितनी सुन्दर थी वह रास-लीला ! उस समय हमलोगों के पैरों के नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे। हम सब सखियाँ उन्हीं की सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का गान कर रही थीं और वे हमारे साथ नाना प्रकार के विहार कर रहे थे’ ॥ ४३ ॥ कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठीं—‘उद्धवजी ! हम सब तो उन्हींके विरह की आग से जल रही हैं। देवराज इन्द्र जैसे-जल बरसाकर वन को हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदि से हमें जीवनदान दे ने के लिये यहाँ आवेंगे ?’ ॥ ४४ ॥ तब तक एक गोपी ने कहा—‘अरी सखी ! अब तो उन्होंने शत्रुओं को मारकर राज्य पा लिया है; जिसे देखो, वही उनका सुहृद् बना फिरता है। अब वे बड़े-बड़े नरपतियों की कुमारियों से विवाह करेंगे, उनके साथ आनन्दपूर्वक रहेंगे; यहाँ हम गँवारिनों के पास क्यों आयेंगे ?’ ॥ ४५ ॥ दूसरी गोपी ने कहा—‘नहीं सखी ! महात्मा श्रीकृष्ण तो स्वयं लक्ष्मीपति हैं। उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य हैं। हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियों से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। हमलोगों के बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ॥ ४६ ॥ देखो वेश्या होने पर भी पिङ्गला ने क्या ही ठीक कहा है—संसार में किसी की आशा न रखना ही सब से बड़ा सुख है।’ यह बात हम जानती हैं, फिर भी हम भगवान श्रीकृष्ण के लौट ने की आशा छोडऩे में असमर्थ हैं। उनके शुभागमन की आशा ही तो हमारा जीवन है ॥ ४७ ॥ हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने, जिनकी कीर्ति का गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हम से एकान्त में जो मीठी-मीठी प्रेम की बातें की हैं उन्हें छोडऩेका, भुला ने का उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं ? देखो तो, उनकी इच्छा न होने पर भी स्वयं लक्ष्मीजी उनके चरणों से लिपटी रहती हैं, एक क्षण के लिये भी उनका अङ्ग- सङ्ग छोडक़र कहीं नहीं जातीं ॥ ४८ ॥ उद्धवजी ! यह वही नदी है, जिसमें वे विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखर पर चढक़र वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिन में वे रात्रि के समय रासलीला करते थे और ये वे ही गौएँ हैं, जिन को चरा ने के लिये वे सुबह-शाम हमलोगों को देखते हुए जाते-आते थे। और यह ठीक वैसी ही वंशी की तान हमारे कानों में गूँजती रहती है, जैसी वे अपने अधरों के संयोग से छेड़ा करते थे। बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने इन सभी का सेवन किया है ॥ ४९ ॥ यहाँ का एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण उनके परम सुन्दर चरणकमलों से चिह्नित है। इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैं—दिनभर यही तो करती रहती हैं—तब-तब वे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर नन्दनन्दन को हमारे नेत्रों के सामने लाकर रख देते हैं। उद्धवजी ! हम किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं ॥ ५० ॥ उनकी वह हंसकी-सी सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी वाणी ! आह ! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वश में नहीं है; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह ? ॥ ५१ ॥ हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम्हीं हमारे जीवन के स्वामी हो। सर्वस्व हो, प्यारे, तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो। हम व्रजगोपियों के एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो। श्यामसुन्दर ! तुम ने बार-बार हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे संकट काटे हैं। गोविन्द ! तुम गौओं से बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौएँ नहीं हैं ? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैं—दु:ख के अपार सागर में डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो ॥ ५२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय सन्देश सुनकर गोपियों के विरह की व्यथा शान्त हो गयी थी। वे इन्द्रियातीत भगवान श्रीकृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। अब वे बड़े प्रेम और आदर से उद्धवजी का सत्कार करने लगीं ॥ ५३ ॥ उद्धवजी गोपियों की विरह-व्यथा मिटा ने के लिये कई महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर व्रजवासियों को आनन्दित करते रहते ॥ ५४ ॥ नन्दबाबा के व्रज में जित ने दिनों तक उद्धवजी रहे, उतने दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण की लीला की चर्चा होते रहने के कारण व्रजवासियों को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ॥ ५५ ॥ भगवान के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदीतट पर जाते, कभी वनों में विहरते और कभी गिरिराज की घाटियों में विचरते। कभी रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए वृक्षों में ही रम जाते और यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियों को भगवान श्रीकृष्ण और उनकी लीला के स्मरण में तन्मय कर देते ॥ ५६ ॥

उद्धवजी ने व्रज में रहकर गोपियों की इस प्रकार की प्रेम-विकलता तथा और भी बहुत-सी प्रेम- चेष्टाएँ देखीं। उनकी इस प्रकार श्रीकृष्ण में तन्मयता देखकर वे प्रेम और आनन्द से भर गये। अब वे गोपियों को नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे— ॥ ५७ ॥ ‘इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेममय दिव्य महाभाव में स्थित हो गयी हैं। प्रेम की यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसार के भय से भीत मुमुक्षुजनों के लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों—मुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनों के लिये भी अभी वाञ्छनीय ही है। हमें इस की प्राप्ति नहीं हो स की। सत्य है, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण की लीला- कथा के रस का चस का लग गया है, उन्हें कुलीनताकी, द्विजातिसमुचित संस्कार की और बड़े-बड़े यज्ञ-यागों में दीक्षित होने की क्या आवश्यकता है ? अथवा यदि भगवान की कथा का रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पों तक बार-बार ब्रह्मा होने से ही क्या लाभ? ॥ ५८ ॥ कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान श्रीकृष्ण में यह अनन्य परम प्रेम ! अहो, धन्य है ! धन्य है ! इससे सिद्ध होता है कि यदि कोई भगवान के स्वरूप और रहस्य को न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्ति से अपनी कृपा से उसका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजान में भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्ति से ही पीनेवाले को अमर बना देता है ॥ ५९ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने रासोत्सव के समय इन व्रजाङ्गनाओं के गले में बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये। इन्हें भगवान ने जिस कृपा-प्रसाद का वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान की परमप्रेमवती नित्यसङ्गिनी वक्ष:स्थल पर विराजमान लक्ष्मीजी को भी नहीं प्राप्त हुआ। कमलकी-सी सुगन्ध और कान्ति से युक्त देवाङ्गनाओं को भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या करें ? ॥ ६० ॥ मेरे लिये तो सब से अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाम में कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि—जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ ! अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजाङ्गनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिये मिलती रहेगी। इन की चरण- रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ। देखो तो सही, जिन को छोडऩा अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्हों ने भगवान की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है—औरों की तो बात ही क्या—भगवद्वाणी, उनकी नि:श्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अब तक भगवान के परम प्रेममय स्वरूप को ढूँढ़ती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ॥ ६१ ॥ स्वयं भगवती लक्ष्मीजी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शङ्कर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम, आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदय में जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के उन्हीं चरणारविन्दों को रास-लीला के समय गोपियों ने अपने वक्ष:स्थल पर रखा और उनका आलिङ्गन करके अपने हृदय की जलन, विरह-व्यथा शान्त की ॥ ६२ ॥ नन्दबाबा के व्रज में रहनेवाली गोपाङ्गनाओं की चरणधूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ—उसे सिर पर चढ़ाता हूँ। अहा ! इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीला कथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा’ ॥ ६३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार कई महीनों तक व्रज में रहकर उद्धवजी ने अब मथुरा जाने के लिये गोपियोंसे, नन्दबाबा और यशोदा मैया से आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालों से विदा लेकर वहाँ से यात्रा करने के लिये वे रथ पर सवार हुए ॥ ६४ ॥ जब उनका रथ व्रज से बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत-सी भेंट की सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखों में आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेम से कहा— ॥ ६५ ॥ ‘उद्धवजी ! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मन की एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ही आश्रित रहे। उन्हीं की सेवा के लिये उठे और उन्हीं में लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हींके नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं की आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे ॥ ६६ ॥ उद्धवजी ! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिलकुल नहीं है। हम भगवान की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें—वहाँ शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती रहे’ ॥ ६७ ॥ प्रिय परीक्षित ! नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया। अब वे भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरापुरी में लौट आये ॥ ६८ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। इसके बाद नन्दबाबा ने भेंट की जो-जो सामग्री दी थी वह उन को, वसुदेवजी, बलरामजी और राजा उग्रसेन को दे दी ॥ ६९ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-48]

॥ अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः - ४८ ॥
श्रीशुक उवाच
अथ विज्ञाय भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।
सैरन्ध्र्याः कामतप्तायाः प्रियमिच्छन् गृहं ययौ ॥ १॥

महार्होपस्करैराढ्यं कामोपायोपबृंहितम् ।
मुक्तादामपताकाभिर्वितानशयनासनैः ।
धूपैः सुरभिभिर्दीपैः स्रग्गन्धैरपि मण्डितम् ॥ २॥

गृहं तमायान्तमवेक्ष्य साऽऽसनात्सद्यः
समुत्थाय हि जातसम्भ्रमा ।
यथोपसङ्गम्य सखीभिरच्युतं
सभाजयामास सदासनादिभिः ॥ ३॥

तथोद्धवः साधुतयाभिपूजितो
न्यषीददुर्व्यामभिमृश्य चासनम् ।
कृष्णोऽपि तूर्णं शयनं महाधनं
विवेश लोकाचरितान्यनुव्रतः ॥ ४॥

सा मज्जनालेपदुकूलभूषणस्र-
ग्गन्धताम्बूलसुधासवादिभिः ।
प्रसाधितात्मोपससार माधवं
सव्रीडलीलोत्स्मितविभ्रमेक्षितैः ॥ ५॥

आहूय कान्तां नवसङ्गमह्रिया
विशङ्कितां कङ्कणभूषिते करे ।
प्रगृह्य शय्यामधिवेश्य रामया
रेमेऽनुलेपार्पणपुण्यलेशया ॥ ६॥

सानङ्गतप्तकुचयोरुरसस्तथाक्ष्णो-
र्जिघ्रन्त्यनन्तचरणेन रुजो मृजन्ती ।
दोर्भ्यां स्तनान्तरगतं परिरभ्य कान्त-
मानन्दमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम् ॥ ७॥

सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्रापमीश्वरम् ।
अङ्गरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत ॥ ८॥

आहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया ।
रमस्व नोत्सहे त्यक्तुं सङ्गं तेऽम्बुरुहेक्षण ॥ ९॥

तस्यै कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः ।
सहोद्धवेन सर्वेशः स्वधामागमदर्चितम् ॥ १०॥

दुरारार्ध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम् ।
यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात्कुमनीष्यसौ ॥ ११॥

अक्रूरभवनं कृष्णः सहरामोद्धवः प्रभुः ।
किञ्चिच्चिकीर्षयन् प्रागादक्रूरप्रियकाम्यया ॥ १२॥

स तान् नरवरश्रेष्ठानाराद्वीक्ष्य स्वबान्धवान् ।
प्रत्युत्थाय प्रमुदितः परिष्वज्याभ्यनन्दत ॥ १३॥

ननाम कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः ।
पूजयामास विधिवत्कृतासनपरिग्रहान् ॥ १४॥

पादावनेजनीरापो धारयन् शिरसा नृप ।
अर्हणेनाम्बरैर्दिव्यैर्गन्धस्रग्भूषणोत्तमैः ॥ १५॥

अर्चित्वा शिरसाऽऽनम्य पादावङ्कगतौ मृजन् ।
प्रश्रयावनतोऽक्रूरः कृष्णरामावभाषत ॥ १६॥

दिष्ट्या पापो हतः कंसः सानुगो वामिदं कुलम् ।
भवद्भ्यामुद्धृतं कृच्छ्राद्दुरन्ताच्च समेधितम् ॥ १७॥

युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ ।
भवद्भ्यां न विना किञ्चित्परमस्ति न चापरम् ॥ १८॥

आत्मसृष्टमिदं विश्वमन्वाविश्य स्वशक्तिभिः ।
ईयते बहुधा ब्रह्मन् श्रुतप्रत्यक्षगोचरम् ॥ १९॥

यथा हि भूतेषु चराचरेषु
मह्यादयो योनिषु भान्ति नाना ।
एवं भवान् केवल आत्मयोनि-
ष्वात्माऽऽत्मतन्त्रो बहुधा विभाति ॥ २०॥

सृजस्यथो लुम्पसि पासि विश्वं
रजस्तमःसत्त्वगुणैः स्वशक्तिभिः ।
न बध्यसे तद्गुणकर्मभिर्वा
ज्ञानात्मनस्ते क्व च बन्धहेतुः ॥ २१॥

देहाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्भवो
न साक्षान्न भिदाऽऽत्मनः स्यात् ।
अतो न बन्धस्तव नैव मोक्षः
स्यातां निकामस्त्वयि नोऽविवेकः ॥ २२॥

त्वयोदितोऽयं जगतो हिताय
यदा यदा वेदपथः पुराणः ।
बाध्येत पाखण्डपथैरसद्भिस्तदा
भवान् सत्त्वगुणं बिभर्ति ॥ २३॥

स त्वं प्रभोऽद्य वसुदेवगृहेऽवतीर्णः
स्वांशेन भारमपनेतुमिहासि भूमेः ।
अक्षौहिणीशतवधेन सुरेतरांशराज्ञाममुष्य
च कुलस्य यशो वितन्वन् ॥ २४॥

अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागा
यः सर्वदेवपितृभूतनृदेवमूर्तिः ।
यत्पादशौचसलिलं त्रिजगत्पुनाति
स त्वं जगद्गुरुरधोक्षज याः प्रविष्टः ॥ २५॥

कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयात्
भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात् ।
सर्वान् ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामा-
नात्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य ॥ २६॥

दिष्ट्या जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो
योगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशैः ।
छिन्ध्याशु नः सुतकलत्रधनाप्तगेह-
देहादिमोहरशनां भवदीयमायाम् ॥ २७॥

श्रीशुक उवाच
इत्यर्चितः संस्तुतश्च भक्तेन भगवान् हरिः ।
अक्रूरं सस्मितं प्राह गीर्भिः सम्मोहयन्निव ॥ २८॥

श्रीभगवानुवाच
त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बन्धुश्च नित्यदा ।
वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकम्प्याः प्रजा हि वः ॥ २९॥

भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः ।
श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः ॥ ३०॥

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ३१॥

स भवान् सुहृदां वै नः श्रेयान् श्रेयश्चिकीर्षया ।
जिज्ञासार्थं पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम् ॥ ३२॥

पितर्युपरते बालाः सह मात्रा सुदुःखिताः ।
आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसन्त इति शुश्रुम ॥ ३३॥

तेषु राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः ।
समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोऽन्धदृक् ॥ ३४॥

गच्छ जानीहि तद्वृत्तमधुना साध्वसाधु वा ।
विज्ञाय तद्विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत् ॥ ३५॥

इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः ।
सङ्कर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ ॥ ३६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८॥


दशम स्कन्ध-अड़तालीसवाँ अध्याय 36
भगवान का कुब्जा और अक्रूरजी के घर जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! तदनन्तर सब के आत्मा तथा सब कुछ देखनेवाले भगवान श्रीकृष्ण अपने से मिलन की आकाङ्क्षा रखकर व्याकुल हुई कुब्जा का प्रिय करने—उसे सुख दे ने की इच्छा से उसके घर गये ।। १ ।। कुब्जा का घर बहुमूल्य सामग्रियों से सम्पन्न था। उसमें श्ृंगार-रस का उद्दीपन करनेवाली बहुत-सी साधन-सामग्री भी भरी हुई थी। मोती की झालरें और स्थान-स्थान पर झंडियाँ भी लगी हुई थीं। चँदोवे त ने हुए थे। सेजें बिछायी हुई थीं और बैठ ने के लिये बहुत सुन्दर-सुन्दर आसन लगाये हुए थे। धूप की सुगन्ध फैल रही थी। दीपक की शिखाएँ जगमगा रही थीं। स्थान-स्थान पर फूलों के हार और चन्दन रखे हुए थे ।। २ ।। भगवान को अपने घर आते देख कुब्जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसन से उठ खड़ी हुई और सखियों के साथ आगे बढक़र उसने विधिपूर्वक भगवान का स्वागत-सत्कार किया। फिर श्रेष्ठ आसन आदि देकर विविध उपचारों से उनकी विधिपूर्वक पूजा की ।। ३ ।। कुब्जाने भगवान के परमभक्त उद्धवजी की भी समुचित रीति से पूजा की; परंतु वे उसके सम्मान के लिये उसका दिया हुआ आसन छूकर धरती पर ही बैठ गये। (अपने स्वामी के सामने उन्होंने आसन पर बैठना उचित न समझा।) भगवान श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द- स्वरूप होने पर भी लोकाचार का अनुकरण करते हुए तुरंत उसकी बहुमूल्य सेज पर जा बैठे ।। ४ ।। तब कुब्जा स्नान, अङ्गराग, वस्त्र, आभूषण, हार, गन्ध (इत्र आदि), ताम्बूल और सुधासव आदि से अपने को खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव-भाव के साथ भगवान की ओर देखती हुई उनके पास आयी ।। ५ ।। कुब्जा नवीन मिलन के सं कोच से कुछ झिझक रही थी। तब श्यासुन्दर श्रीकृष्ण ने उसे अपने पास बुला लिया और उसकी कङ्कण से सुशोभित कलाई पकडक़र अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीडा करने लगे। परीक्षित ! कुब्जाने इस जन्म में केवल भगवान को अङ्गराग अॢपत किया था, उसी एक शुभकर्म के फल स्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला ।। ६ ।। कुब्जा भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को अपने काम-संतप्त हृदय, वक्ष:स्थल और नेत्रों पर रखकर उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने हृदय की सारी आधि-व्याधि शान्त कर ली। वक्ष:स्थल से सटे हुए आनन्दमूॢत प्रियतम श्यामसुन्दर का अपनी दोनों भुजाओं से गाढ़ आलिङ्गन करके कुब्जाने दीर्घकाल से बढ़े हुए वरिहताप को शान्त किया ।। ७ ।। परीक्षित ! कुब्जाने केवल अङ्गराग समॢपत किया था। उतने से ही उसे उन सर्वशक्तिमान् भगवान की प्राप्ति हुई, जो कैवल्यमोक्ष के अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परंतु उस दुर्भगा ने उन्हें प्राप्त करके भी व्रजगोपियों की भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा— ।। ८ ।। ‘प्रियतम ! आप कुछ दिन यहीं रहकर मेरे साथ क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन ! मुझ से आपका साथ नहीं छोड़ा जाता’ ।। ९ ।। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण सब का मान रखनेवाले और सर्वेश्वर हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त उद्धवजी के साथ अपने सर्वसम्मानित घर पर लौट आये ।। १० ।। परीक्षित ! भगवान ब्रह्मा आदि समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। उन को प्रसन्न कर लेना भी जीव के लिये बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि है; क्योंकि वास्तव में विषय-सुख अत्यन्त तुच्छ—नहीं के बराबर है ।। ११ ।।

तदनन्तर एक दिन सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी और उद्धवजी के साथ अक्रूरजी की अभिलाषा पूर्ण करने और उनसे कुछ काम लेने के लिये उनके घर गये ।। १२ ।। अक्रूरजी ने दूर से ही देख लिया कि हमारे परम बन्धु मनुष्यलोकशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि पधार रहे हैं। वे तुरंत उठकर आगे गये तथा आनन्द से भरकर उनका अभिनन्दन और आलिङ्गन किया ।। १३ ।। अक्रूरजी ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी को नमस्कार किया तथा उद्धवजी के साथ उन दोनों भाइयों ने भी उन्हें नमस्कार किया। जब सब लोग आराम से आसनों पर बैठ गये, तब अक्रूरजी उन लोगों की विधिवत् पूजा करने लगे ।। १४ ।। परीक्षित ! उन्होंने पहले भगवान के चरण धोकर चरणोदक सिर पर धारण किया और फिर अनेकों प्रकार की पूजा-सामग्री, दिव्य वस्त्र, गन्ध माला और श्रेष्ठ आभूषणों से उनका पूजन किया, सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनके चरणों- को अपनी गोद में लेकर दबा ने लगे। उसी समय उन्होंने विनयावनत होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी से कहा—।। १५-१६ ।। ‘भगवन् ! यह बड़े ही आनन्द और सौभाग्य की बात है कि पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। उसे मारकर आप दोनों ने युदवंश को बहुत बड़े संकट से बचा लिया है तथा उन्नत और समृद्ध किया है ।। १७ ।। आप दोनों जगत के कारण और जगतरूप, आदिपुरुष हैं। आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है, न कारण और न तो कार्य ।। १८ ।। परमात्मन् ! आपने ही अपनी शक्ति से इस की रचना की है और आप ही अपनी काल, माया आदि शक्तियों से इसमें प्रविष्ट होकर जितनी भी वस्तुएँ देखी और सुनी जाती हैं, उनके रूप में प्रतीत हो रहे हैं ।। १९ ।। जैसे पृथ्वी आदि कारणतत्त्वों से ही उनके कार्य स्थावर-जङ्गम शरीर बनते हैं; वे उनमें अनुप्रविष्ट- से होकर अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तव में वे कारणरूप ही हैं। इसी प्रकार हैं तो केवल आप ही, परंतु अपने कार्यरूप जगत में स्वेच्छा से अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं। यह भी आपकी एक लीला ही है ।। २० ।। प्रभो ! आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणरूप अपनी शक्तियों से क्रमश: जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं; किन्तु आप उन गुणों से अथवा उनके द्वारा होनेवाले कर्मों से बन्धन में नहीं पड़ते, क्योंकि आप शुद्ध ज्ञान स्वरूप हैं। ऐसी स्थिति में आपके लिये बन्धन का कारण ही क्या हो सकता है ? ।। २१ ।। प्रभो ! स्वयं आत्मवस्तु में स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह आदि उपाधियाँ न होने के कारण न तो उसमें जन्म-मृत्यु है और न किसी प्रकार का भेदभाव। यही कारण है कि न आप में बन्धन है और न मोक्ष ! आप में अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार बन्धन या मोक्ष की जो कुछ कल्पना होती है, उसका कारण केवल हमारा अविवेक ही है।। २२ ।। आपने जगत के कल्याण के लिये यह सनातन वेदमार्ग प्रकट किया है। जब-जब इसे पाखण्ड-पथ से चलने- वाले दुष्टों के द्वारा क्षति पहुँचती है, तब-तब आप शुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण करते हैं ।। २३ ।। प्रभो ! वही आप इस समय अपने अंश श्रीबलरामजी के साथ पृथ्वी का भार दूर करने के लिये यहाँ वसुदेवजी के घर अवतीर्ण हुए हैं। आप असुरों के अंश से उत्पन्न नाममात्र के शासकों की सौ-सौ अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे और यदुवंश के यश का विस्तार करेंगे ।। २४ ।। इन्द्रियातीत परमात्मन् ! सारे देवता, पितर, भूतगण और राजा आपकी मूॢत हैं। आपके चरणों की धोवन गङ्गाजी तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। आप सारे जगत के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्य की सीमा न रही ।। २५ ।। प्रभो ! आप प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हतिू और कृतज्ञ हैं— जरा-सी सेवा को भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो आपको छोडक़र किसी दूसरे की शरण में जायगा ? आप अपना भजन करनेवाले प्रेमी भक्त की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँ तक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती—जो एकरस है, अपने उस आत्मा का भी आप दान कर देते हैं ।। २६ ।। भक्तों के कष्ट मिटानेवाले और जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुड़ानेवाले प्रभो ! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरूप को नहीं जान सकते। परंतु हमें आपका साक्षात दर्शन हो गया, यह कित ने सौभाग्य की बात है। प्रभो ! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदि के मोह की रस्सी से बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी माया का खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धन को शीघ्र काट दीजिये’ ।। २७ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार भक्त अक्रूरजी ने भगवान श्रीकृष्ण की पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने मुसकराकर अपनी मधुर वाणी से उन्हें मानो मोहित करते हुए कहा ।। २८ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘तात ! आप हमारे गुरु—हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंश में अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदा के हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपा के पात्र हैं ।। २९ ।। अपना परम कल्याण चाहनेवाले मनुष्यों को आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतों की सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़- कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, परंतु संतों में नहीं ।। ३० ।। केवल जल के तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्ति का और शिला आदि की बनी हुई मूॢतयाँ ही देवता नहीं हैं। चाचाजी ! उनकी तो बहुत दिनों तक श्रद्धा से सेवा की जाय, तब वे पवित्र करते हैं। परंतु संतपुरुष तो अपने दर्शनमात्र से पवित्र कर देते हैं ।। ३१ ।। चाचाजी ! आप हमारे हितैषी सुहृदों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवों का हित करने के लिये तथा उनका कुशल-मङ्गल जान ने के लिये हस्तिनापुर जाइये ।। ३२ ।। हम ने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दु:ख में पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं ।। ३३ ।। आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने के कारण वे पाण्डवों- के साथ अपने पुत्रों-जैसा—समान व्यवहार नहीं कर पाते ।। ३४ ।। इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले’ ।। ३५ ।। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण अक्रूरजी- को इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी और उद्धवजी के साथ वहाँ से अपने घर लौट आये ।। ३६ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-49]

॥ एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ४९ ॥
श्रीशुक उवाच
स गत्वा हास्तिनपुरं पौरवेन्द्रयशोऽङ्कितम् ।
ददर्श तत्राम्बिकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम् ॥ १॥

सहपुत्रं च बाह्लीकं भारद्वाजं सगौतमम् ।
कर्णं सुयोधनं द्रौणिं पाण्डवान् सुहृदोऽपरान् ॥ २॥

यथावदुपसङ्गम्य बन्धुभिर्गान्दिनीसुतः ।
सम्पृष्टस्तैः सुहृद्वार्तां स्वयं चापृच्छदव्ययम् ॥ ३॥

उवास कतिचिन्मासान् राज्ञो वृत्तविवित्सया ।
दुष्प्रजस्याल्पसारस्य खलच्छन्दानुवर्तिनः ॥ ४॥

तेज ओजो बलं वीर्यं प्रश्रयादींश्च सद्गुणान् ।
प्रजानुरागं पार्थेषु न सहद्भिश्चिकीर्षितम् ॥ ५॥

कृतं च धार्तराष्ट्रैर्यद्गरदानाद्यपेशलम् ।
आचख्यौ सर्वमेवास्मै पृथा विदुर एव च ॥ ६॥

पृथा तु भ्रातरं प्राप्तमक्रूरमुपसृत्य तम् ।
उवाच जन्मनिलयं स्मरन्त्यश्रुकलेक्षणा ॥ ७॥

अपि स्मरन्ति नः सौम्य पितरौ भ्रातरश्च मे ।
भगिन्यौ भ्रातृपुत्राश्च जामयः सख्य एव च ॥ ८॥

भ्रात्रेयो भगवान् कृष्णः शरण्यो भक्तवत्सलः ।
पैतृष्वसेयान् स्मरति रामश्चाम्बुरुहेक्षणः ॥ ९॥

सापत्नमध्ये शोचन्तीं वृकानां हरिणीमिव ।
सान्त्वयिष्यति मां वाक्यैः पितृहीनांश्च बालकान् ॥ १०॥

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन ।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द शिशुभिश्चावसीदतीम् ॥ ११॥

नान्यत्तव पदाम्भोजात्पश्यामि शरणं नृणाम् ।
बिभ्यतां मृत्युसंसारादीश्वरस्यापवर्गिकात् ॥ १२॥

नमः कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने ।
योगेश्वराय योगाय त्वामहं शरणं गता ॥ १३॥

श्रीशुक उवाच
इत्यनुस्मृत्य स्वजनं कृष्णं च जगदीश्वरम् ।
प्रारुदद्दुःखिता राजन् भवतां प्रपितामही ॥ १४॥

समदुःखसुखोऽक्रूरो विदुरश्च महायशाः ।
सान्त्वयामासतुः कुन्तीं तत्पुत्रोत्पत्तिहेतुभिः ॥ १५॥

यास्यन् राजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम् ।
अवदत्सुहृदां मध्ये बन्धुभिः सौहृदोदितम् ॥ १६॥

अक्रूर उवाच
भो भो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन ।
भ्रातर्युपरते पाण्डावधुनाऽऽसनमास्थितः ॥ १७॥

धर्मेण पालयन्नुर्वीं प्रजाः शीलेन रञ्जयन् ।
वर्तमानः समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि ॥ १८॥

अन्यथा त्वाचरंल्लोके गर्हितो यास्यसे तमः ।
तस्मात्समत्वे वर्तस्व पाण्डवेष्वात्मजेषु च ॥ १९॥

नेह चात्यन्तसंवासः कस्यचित्केनचित्सह ।
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभिः ॥ २०॥

एकः प्रसूयते जन्तुरेक एव प्रलीयते ।
एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ॥ २१॥

अधर्मोपचितं वित्तं हरन्त्यन्येऽल्पमेधसः ।
सम्भोजनीयापदेशैर्जलानीव जलौकसः ॥ २२॥

पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्ध्या तमपण्डितम् ।
तेऽकृतार्थं प्रहिण्वन्ति प्राणा रायः सुतादयः ॥ २३॥

स्वयं किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः ।
असिद्धार्थो विशत्यन्धं स्वधर्मविमुखस्तमः ॥ २४॥

तस्माल्लोकमिमं राजन् स्वप्नमायामनोरथम् ।
वीक्ष्यायम्यात्मनाऽऽत्मानं समः शान्तो भव प्रभो ॥ २५॥

धृतराष्ट्र उवाच
यथा वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान् ।
तथानया न तृप्यामि मर्त्यः प्राप्य यथामृतम् ॥ २६॥

तथापि सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले ।
पुत्रानुरागविषमे विद्युत्सौदामनी यथा ॥ २७॥

ईश्वरस्य विधिं को नु विधुनोत्यन्यथा पुमान् ।
भूमेर्भारावताराय योऽवतीर्णो यदोःकुले ॥ २८॥

यो दुर्विमर्शपथया निजमाययेदं
सृष्ट्वा गुणान् विभजते तदनुप्रविष्टः ।
तस्मै नमो दुरवबोधविहारतन्त्र-
संसारचक्रगतये परमेश्वराय ॥ २९॥

श्रीशुक उवाच
इत्यभिप्रेत्य नृपतेरभिप्रायं स यादवः ।
सुहृद्भिः समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात् ॥ ३०॥

शशंस रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम् ।
पाण्डवान् प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम् ॥ ३१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयसक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९॥

॥ समाप्तमिदं दशमस्कन्धस्य पूर्वार्धम् ॥
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ 

दशम स्कन्ध-उनचासवाँ अध्याय 31
अक्रूरजी का हस्तिनापुर जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गये। वहाँ की एक-एक वस्तु पर पुरुवंशी नरपतियों की अमरकीॢत की छाप लग रही है। वे वहाँ पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाह्लीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट-मित्रों से मिले ।। १-२ ।। जब गान्दिनी- नन्दन अक्रूरजी सब इष्ट-मित्रों और सम्बन्धियों से भलीभाँति मिल चुके, तब उनसे उन लोगों ने अपने मथुरावासी स्वजन-सम्बन्धियों की कुशल-क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजी ने भी हस्तिनापुर- वासियों के कुशलमङ्गल के सम्बन्ध में पूछताछ की ।। ३ ।। परीक्षित ! अक्रूरजी यह जान ने के लिये कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनों तक वहीं रहे। सच पूछो तो, धृतराष्ट्र में अपने दुष्ट पुत्रों की इच्छा के विपरीत कुछ भी करने का साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टों की सलाह के अनुसार ही काम करते थे ।। ४ ।। अक्रूरजी को कुन्ती और विदुर ने यह बतलाया कि धृतराष्ट्र के लडक़े दुर्योधन आदि पाण्डवों के प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवों से ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवों का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। अब तक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों पर कई बार विषदान आदि बहुत- से अत्याचार किये हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं ।। ५-६ ।।

जब अक्रूरजी कुन्ती के घर आये, तब वह अपने भाई के पास जा बैठीं। अक्रूरजी को देखकर कुन्ती के मन में अपने मायके की स्मृति जग गयी और नेत्रों में आँसू भर आये। उन्होंने कहा—।। ७ ।। ‘प्यारे भाई ! क्या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुल की स्त्रियाँ और सखी-सहेलियाँ मेरी याद करती हैं ? ।। ८ ।। मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयों को भी याद करते हैं ? ।। ९ ।। मैं शत्रुओं के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूँ। मेरी वही दशा है, जैसे कोई हरिनी भेडिय़ों के बीच में पड़ गयी हो। मेरे बच्चे बिना बाप के हो गये हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालकों को सान्त्वना देंगे ? ।। १० ।। (श्रीकृष्ण को अपने सामने समझकर कुन्ती कह ने लगीं—) ‘सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! तुम महायोगी हो, विश्वात्मा हो और तुम सारे विश्व के जीवनदाता हो। गोविन्द ! मैं अपने बच्चों के साथ दु:ख-पर-दु:ख भोग रही हूँ। तुम्हारी शरण में आयी हूँ। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चों को बचाओ ।। ११ ।। मेरे श्रीकृष्ण ! यह संसार मृत्युमय है और तुम्हारे चरण मोक्ष देनेवाले हैं। मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसार से डरे हुए हैं, उनके लिये तुम्हारे चरणकमलों के अतिरिक्त और कोई शरण और कोई सहारा नहीं है ।। १२ ।। श्रीकृष्ण ! तुम माया के लेश से रहित परम शुद्ध हो। तुम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हो। समस्त साधनों, योगों और उपायों के स्वामी हो तथा स्वयं योग भी हो। श्रीकृष्ण ! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ। तुम मेरी रक्षा करो’ ।। १३ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! तुम्हारी परदादी कुन्ती इस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों और अन्त में जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण को स्मरण करके अत्यन्त दु:खित हो गयीं और फफक-फफककर रोने लगीं ।। १४ ।। अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दु:ख को समान दृष्टि से देखते थे। दोनों यशस्वी महात्माओं ने कुन्ती को उसके पुत्रों के जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओं की याद दिलायी और यह कहकर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्म का नाश करने के लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी ।। १५ ।। अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्र के पास आये। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रों का पक्षपात करते हैं और भतीजों के साथ अपने पुत्रोंका-सा बर्ताव नहीं करते। अब अक्रूरजी ने कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि का हितैषिता से भरा सन्देश कह सुनाया ।। १६ ।।

अक्रूरजी ने कहा—महाराज धृतराष्ट्रजी ! आप कुरुवंशियों की उज्ज्वल कीॢत को और भी बढ़ाइये। आपको यह काम विशेषरूप से इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डु के परलोक सिधार जाने पर अब आप राज्यङ्क्षसहासन के अधिकारी हुए हैं ।। १७ ।। आप धर्म से पृथ्वी का पालन कीजिये। अपने सद्व्यवहार से प्रजा को प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनों के साथ समान बर्ताव कीजिये। ऐसा करने से ही आपको लोक में यश और परलोक में सद्गति प्राप्त होगी ।। १८ ।। यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी और मर ने के बाद आपको नरक में जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिये ।। १९ ।। आप जानते ही हैं कि इस संसार में कभी कहीं कोई किसी के साथ सदा नहीं रह सकता। जिन से जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुडऩा पड़ेगा ही। राजन् ! यह बात अपने शरीर के लिये भी सोलहों आ ने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदि को छोडक़र जाना पड़ेगा, इसके विषय में तो कहना ही क्या है ।। २० ।। जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनीका, पाप-पुण्य का फल भी अकेला ही भुगतता है ।। २१ ।। जिन स्त्री-पुत्रों को हम अपना समझते हैं, वे तो ‘हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है’—इस प्रकार की बातें बनाकर मूर्ख प्राणी के अधर्म से इक_े किये हुए धन को लूट लेते हैं, जैसे जल में रहनेवाले जन्तुओं के सर्वस्व जल को उन्हींके सम्बन्धी चाट जाते हैं ।। २२ ।। यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीव को असन्तुष्ट छोडक़र ही चले जाते हैं ।। २३ ।। जो अपने धर्म से विमुख है—सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता। जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोष का अनुभव न होगा और वह अपने पापों की गठरी सिर पर लादकर स्वयं घोर नरक में जायगा ।। २४ ।। इसलिये महाराज ! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिन की चाँदनी है, सप ने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और है मनोराज्यमात्र ! आप अपने प्रयत्नसे, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम—शान्त हो जाइये ।। २५ ।।

राजा धृतराष्ट्र ने कहा—दानपते अक्रूरजी ! आप मेरे कल्याणकी, भले की बात कह रहे हैं, जैसे मरनेवाले को अमृत मिल जाय तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूँ ।। २६ ।। फिर भी हमारे हितैषी अक्रूरजी ! मेरे चञ्चल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही दशा आपके उपदेशों की है ।। २७ ।। अक्रूरजी ! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान पृथ्वी का भार उतार ने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं । ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधान में उलट-फेर कर सके । उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा ।। २८ ।। भगवान की माया का मार्ग अचिन्त्य है । उसी माया के द्वारा इस संसार की सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलों का विभाजन कर देते हैं । इस संसार-चक्र की बेरोक-टोक चाल में उनकी अचिन्त्य लीलाशक्ति के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है । मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभु को नमस्कार करता हूँ ।। २९ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये ।। ३० ।। परीक्षित ! उन्होंने वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के सामने धृतराष्ट्र का वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवों के साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उन को हस्तिनापुर भेज ने का वास्तव में उद्देश्य भी यही था ।। ३१ ।।

इति दशम स्कन्ध पूर्वार्ध समाप्त

हरि: ॐ तत्सत्

स्कन्ध-10 [अध्याय-50]

श्रीमद्भागवतम् - दशमस्कन्धः उत्तरार्धम् 
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ दशमस्कन्धः उत्तरार्धम् ॥ 

॥ पञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५० ॥
श्रीशुक उवाच
अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ ।
मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान् ॥ १॥

पित्रे मगधराजाय जरासन्धाय दुःखिते ।
वेदयांचक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम् ॥ २॥

स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप ।
अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम् ॥ ३॥

अक्षौहिणीभिर्विंशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः ।
यदुराजधानीं मथुरां न्यरुणत्सर्वतोदिशम् ॥ ४॥

निरीक्ष्य तद्बलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम् ।
स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम् ॥ ५॥

चिन्तयामास भगवान् हरिः कारणमानुषः ।
तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम् ॥ ६॥

हनिष्यामि बलं ह्येतद्भुवि भारं समाहितम् ।
मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम् ॥ ७॥

अक्षौहिणीभिः सङ्ख्यातं भटाश्वरथकुञ्जरैः ।
मागधस्तु न हन्तव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम् ॥ ८॥

एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे ।
संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां वधाय च ॥ ९॥

अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संभ्रियते मया ।
विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित् ॥ १०॥

एवं ध्यायति गोविन्द आकाशात्सूर्यवर्चसौ ।
रथावुपस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ ॥ ११॥

आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया ।
दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः सङ्कर्षणमथाब्रवीत् ॥ १२॥

पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो ।
एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च ॥ १३॥

यानमास्थाय जह्येतद्व्यसनात्स्वान् समुद्धर ।
एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत् ॥ १४॥

त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु ।
एवं सम्मन्त्र्य दाशार्हौ दंशितौ रथिनौ पुरात् ॥ १५॥

निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्यौ बलेनाल्पीयसाऽऽवृतौ ।
शङ्खं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः ॥ १६॥

ततोऽभूत्परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः ।
तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम ॥ १७॥

न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लज्जया ।
गुप्तेन हि त्वया मन्द न योत्स्ये याहि बन्धुहन् ॥ १८॥

तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्वह ।
हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि ॥ १९॥

श्रीभगवानुवाच
न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयन्त्येव पौरुषम् ।
न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः ॥ २०॥

श्रीशुक उवाच
जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ
महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत् ।
ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी
सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभिः ॥ २१॥

सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथा-
वलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मृधे ।
स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं
समाश्रिताः सम्मुमुहुः शुचार्दिताः ॥ २२॥

हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः
शिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम् ।
स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं
व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम् ॥ २३॥

गृह्णन् निषङ्गादथ सन्दधच्छरान्
विकृष्य मुञ्चन् शितबाणपूगान् ।
निघ्नन् रथान् कुञ्जरवाजिपत्तीन्
निरन्तरं यद्वदलातचक्रम् ॥ २४॥

निर्भिन्नकुम्भाः करिणो निपेतु-
रनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकन्धराः ।
रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः
पदातयश्छिन्नभुजोरुकन्धराः ॥ २५॥

सञ्छिद्यमानद्विपदेभवाजिनामङ्ग
प्रसूताः शतशोऽसृगापगाः ।
भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपा
हतद्विपद्वीपहयग्रहाकुलाः ॥ २६॥

करोरुमीना नरकेशशैवला
धनुस्तरङ्गायुधगुल्मसङ्कुलाः ।
अच्छूरिकावर्तभयानका
महामणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः ॥ २७॥

प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे
मनस्विनां हर्षकरीः परस्परम् ।
विनिघ्नतारीन् मुसलेन दुर्मदान्
सङ्कर्षणेनापरीमेयतेजसा ॥ २८॥

बलं तदङ्गार्णवदुर्गभैरवं
दुरन्तपारं मगधेन्द्रपालितम् ।
क्षयं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयोर्विक्रीडितं
तज्जगदीशयोः परम् ॥ २९॥

स्थित्युद्भवान्तं भुवनत्रयस्य यः
समीहतेऽनन्तगुणः स्वलीलया ।
न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रहस्तथापि
मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते ॥ ३०॥

जग्राह विरथं रामो जरासन्धं महाबलम् ।
हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा ॥ ३१॥

बध्यमानं हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः ।
वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया ॥ ३२॥

स मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसम्मतः ।
तपसे कृतसङ्कल्पो वारितः पथि राजभिः ॥ ३३॥

वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि ।
स्वकर्मबन्धप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः ॥ ३४॥

हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा ।
उपेक्षितो भगवता मगधान् दुर्मना ययौ ॥ ३५॥

मुकुन्दोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः ।
विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रिदशैरनुमोदितः ॥ ३६॥

माथुरैरुपसङ्गम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः ।
उपगीयमानविजयः सूतमागधवन्दिभिः ॥ ३७॥

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः ।
वीणावेणुमृदङ्गानि पुरं प्रविशति प्रभौ ॥ ३८॥

सिक्तमार्गां हृष्टजनां पताकाभिरलङ्कृताम् ।
निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम् ॥ ३९॥

निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताङ्कुरैः ।
निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः ॥ ४०॥

आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम् ।
यदुराजाय तत्सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः ॥ ४१॥

एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः ।
युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः ॥ ४२॥

अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा ।
हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽयादरिभिर्नृपः ॥ ४३॥

अष्टादशमसङ्ग्रामे आगामिनि तदन्तरा ।
नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत ॥ ४४॥

रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः ।
नृलोके चाप्रतिद्वन्द्वो वृष्णीन् श्रुत्वाऽऽत्मसम्मितान् ॥ ४५॥

तं दृष्ट्वाचिन्तयत्कृष्णः सङ्कर्षणसहायवान् ।
अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत् ॥ ४६॥

यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः ।
मागधोऽप्यद्य वा श्वो वा परश्वो वाऽऽगमिष्यति ॥ ४७॥

आवयोर्युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुतः ।
बन्धून् वधिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली ॥ ४८॥

तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गं द्विपददुर्गमम् ।
तत्र ज्ञातीन् समाधाय यवनं घातयामहे ॥ ४९॥

इति सम्मन्त्र्य भगवान् दुर्गं द्वादशयोजनम् ।
अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत् ॥ ५०॥

दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम् ।
रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम् ॥ ५१॥

सुरद्रुमलतोद्यानविचित्रोपवनान्वितम् ।
हेमश‍ृङ्गैर्दिविस्पृग्भिः स्फटिकाट्टालगोपुरैः ॥ ५२॥

राजतारकुटैः कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतैः ।
रत्नकूटैर्गृहैर्हैमैर्महामारकतस्थलैः ॥ ५३॥

वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वलभीभिश्च निर्मितम् ।
चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्लसत् ॥ ५४॥

सुधर्मां पारिजातं च महेन्द्रः प्राहिणोद्धरेः ।
यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते ॥ ५५॥

श्यामैककर्णान् वरुणो हयान् शुक्लान् मनोजवान् ।
अष्टौ निधिपतिः कोशान् लोकपालो निजोदयान् ॥ ५६॥

यद्यद्भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये ।
सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप ॥ ५७॥

तत्र योगप्रभावेण नीत्वा सर्वजनं हरिः ।
प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः ।
निर्जगाम पुरद्वारात्पद्ममाली निरायुधः ॥ ५८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५०॥


दशम स्कन्ध-पचासवाँ अध्याय 58
जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भरतवंशशिरोमणि परीक्षित ! कंस की दो रानियाँ थीं—अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु से उन्हें बड़ा दु:ख हुआ और वे अपने पिता की राजधानी में चली गयीं ।। १ ।। उन दोनों का पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दु:ख के साथ अपने विधवा होने के कारणों का वर्णन किया ।। २ ।। परीक्षित ! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्ध को बड़ा शोक हुआ, परंतु पीछे वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की ।। ३ ।। और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया ।। ४ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा—जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं ।। ५ ।। भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतार ने के लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतार का क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थान पर मुझे क्या करना चाहिये ।। ६ ।। उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्ध ने अपने अधीनस्थ नरपतियों की पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों से युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वी का भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परंतु अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा ।। ७-८ ।। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हल का कर दूँ, साधु-सज्जनों की रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनों का संहार ।। ९ ।। समयसमय पर धर्म-रक्षा के लिये और बढ़ते हुए अधर्म को रोक ने के लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ ।। १० ।।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाश से सूर्य के समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्ध की सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे ।। ११ ।। इसी समय भगवान के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा— ।। १२ ।। ‘भाईजी ! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आप से ही सनाथ हैं, उन पर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं ।। १३ ।। अब आप इस रथ पर सवार होकर शत्रु-सेना का संहार कीजिये और अपने स्वजनों को इस विपत्ति से बचाइये। भगवन् ! साधुओं का कल्याण करने के लिये ही हम दोनों ने अवतार ग्रहण किया है ।। १४ ।। अत: अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वी का यह विपुल भार नष्ट कीजिये।’ भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथ पर सवार होकर वे मथुरा से निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हाँक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया ।। १५-१६ ।। उनके शङ्ख की भयङ्कर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों का हृदय डर के मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्ध ने कहा—‘पुरुषाधम कृष्ण ! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लडऩे में मुझे लाज लग रही है। इत ने दिनों तक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द ! तू तो अपने मामा का हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामने से भाग जा ।। १७-१८ ।। बलराम यदि तेरे चित्त में यह श्रद्धा हो कि युद्ध में मरने पर स्वर्ग मिलता है तो तू आ हिम्मत बाँधकर मुझ से लड़। मेरे बाणों से छिन्न-भिन्न हुए शरीर को यहाँ छोडक़र स्वर्ग में जा, अथवा यदि तुझ में शक्ति हो तो मुझे ही मार डाल’ ।। १९ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—मगधराज ! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींग नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिर पर नाच रही है। तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मर ने के समय कोई सन्निपात का रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बात पर ध्यान नहीं देता ।। २० ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जैसे वायु बादलों से सूर्य को और धूएँ से आग को ढक लेती है, किन्तु वास्तव में वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेना के द्वारा उन्हें चारों ओर से घेर लिया—यहाँ तक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियों का दीखना भी बंद हो गया ।। २१ ।। मथुरापुरी की स्त्रियाँ अपने महलों की अटारियों, छज्जों और फाटकों पर चढक़र युद्ध का कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्ध भूमि में भगवान श्रीकृष्ण की गरुड़चिह्न से चिह्नित और बलरामजी की तालचिह्न से चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोक के आवेग से मूॢच्छत हो गयीं ।। २२ ।। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि शत्रु-सेना के वीर हमारी सेना पर इस प्रकार बाणों की वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानी की अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीडि़त, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर-दोनों से सम्मानित शार्ङ्गधनुष का टङ्कार किया ।। २३ ।। इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने, उन्हें धनुष पर चढ़ा ने और धनुष की डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोडऩे लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्ती से घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेग से अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण जरासन्ध की चतुरङ्गिणी—हाथी, घोड़े, रथ और पैदलसेना का संहार करने लगे ।। २४ ।। इससे बहुत- से हाथियों के सिर फट गये और वे मर-मरकर गिर ने लगे। बाणों की बौछार से अनेकों घोड़ों के सिर धड़ से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियों के नष्ट हो जाने से बहुत- से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेना की बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यङ्ग कट-कटकर गिर पड़े ।। २५ ।। उस युद्ध में अपार तेजस्वी भगवान बलरामजी ने अपने मूसल की चोट से बहुत- से मतवाले शत्रुओं को मार-मारकर उनके अङ्ग-प्रत्यङ्ग से निकले हुए खून की सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उन नदियों में मनुष्यों की भुजाएँ साँप के समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओं की भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघें मछलियों की तरह, मनुष्यों के केश सेवार के समान, धनुष तरङ्गों की भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकों के समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थर के रोड़ों तथा कंकड़ों के समान बहे जा रहे थे। उन नदियों को देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरों का आपस में खूब उत्साह बढ़ रहा था ।। २६—२८ ।। परीक्षित ! जरासन्ध की वह सेना समुद्र के समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाई से जीतनेयोग्य थी। परंतु भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने थोड़े ही समय में उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेना का नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है ।। २९ ।। परीक्षित ! भगवान के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेल में ही तीनों लोकों की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओं की सेना का इस प्रकार बात-की-बात में सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है ।। ३० ।।

इस प्रकार जरासन्ध की सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीर में केवल प्राण बा की रहे। तब भगवान श्रीबलरामजी ने जैसे एक ङ्क्षसह दूसरे ङ्क्षसह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्ध को पकड़ लिया ।। ३१ ।। जरासन्ध ने पहले बहुत- से विपक्षी नरपतियों का वध किया था, परंतु आज उसे बलरामजी वरुण की फाँसी और मनुष्यों के फंदे से बाँध रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वी का भार उतार सकेंगे, बलरामजी को रोक दिया ।। ३२ ।। बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्ध का सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बात पर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलराम ने दया करके दीन की भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करने का निश्चय किया। परंतु रास्ते में उसके साथी नरपतियों ने बहुत समझाया कि ‘राजन् ! यदुवंशियों में क्या रखा है ? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।’ उन लोगों ने भगवान की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करने की आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये।। ३३-३४ ।। परीक्षित ! उस समय मगधराज जरासन्ध की सारी सेना मर चुकी थी। भगवान बलरामजी ने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगध को चला गया ।। ३५ ।।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण की सेना में किसी का बाल भी बाँ का न हुआ और उन्होंने जरासन्ध की तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्र के समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उन पर नन्दनवन के पुष्पों की वर्षा और उनके इस महान कार्य का अनुमोदन— प्रशंसा कर रहे थे ।। ३६ ।। जरासन्ध की सेना के पराजय से मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान श्रीकृष्ण की विजय से उनका हृदय आनन्द से भर रहा था। भगवान श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजय के गीत गा रहे थे ।। ३७ ।। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया, उस समय वहाँ शङ्ख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदङ्ग आदि बाजे बज ने लगे थे ।। ३८ ।। मथुरा की एक-एक सडक़ और गली में छिडक़ाव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकों की चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओं से सजा दिया गया था। ब्राह्मणों की वेदध्वनि गूँज रही थी और सब ओर आनन्दोत्सव के सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे ।। ३९ ।। जिस समय श्रीकृष्ण नगर में प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगर की नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठा से भरे हुए नेत्रों से उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलों के हार, दही, अक्षत और जौ आदि के अङ्कुरों की उनके ऊ पर वर्षा कर रही थीं ।। ४० ।। भगवान श्रीकृष्ण रणभूमि से अपार धन और वीरों के आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियों के राजा उग्रसेन के पास भेज दिया ।। ४१ ।।

परीक्षित ! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों से युद्ध किया ।। ४२ ।। किन्तु यादवों ने भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति से हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियों के उपेक्षापूर्वक छोड़ देने पर जरासन्ध अपनी राजधानी में लौट जाता ।। ४३ ।। जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिडऩेहीवाला था, उसी समय नारदजी का भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा ।। ४४ ।। युद्ध में कालयवन के सामने खड़ा होनेवाला वीर संसार में दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छों की सेना लेकर उसने मथुरा को घेर लिया ।। ४५ ।।

कालयवन की यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी के साथ मिलकर विचार किया—‘अहो ! इस समय तो यदुवंशियों पर जरासन्ध और कालयवन—ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं ।। ४६ ।। आज इस परम बलशाली यवन ने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसों में आ ही जायगा ।। ४७ ।। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लडऩे में लग गये और उसी समय जरासन्ध आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओं को मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगर में ले जायगा। क्योंकि वह बहुत बलवान् है ।। ४८ ।। इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्ग—ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्य का प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियों को उसी किले में पहुँचाकर फिर इस यवन का वध करायेंगे’ ।। ४९ ।। बलरामजी से इस प्रकार सलाह करके भगवान श्रीकृष्ण ने समुद्र के भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगर की लंबाई-चौड़ाई अड़तालीस कोस की थी ।। ५० ।। उस नगर की एक-एक वस्तु में विश्वकर्मा का विज्ञान (वास्तु- विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्र के अनुसार बड़ी-बड़ी सडक़ों, चौराहों और गलियों का यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था ।। ५१ ।। वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनों से युक्त था, जिन में देवताओं के वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सो ने के इत ने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाश से बातें करते थे। स्फटिकमणि की अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे ।। ५२ ।। अन्न रखने के लिये चाँदी और पीतल के बहुत- से कोठे बने हुए थे। वहाँ के महल सो ने के बने हुए थे और उन पर कामदार सो ने के कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नों के थे तथा गच पन् ने की बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी ।। ५३ ।। इसके अतिरिक्त उस नगर में वास्तुदेवता के मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्ण के लोग निवास करते थे और सब के बीच में यदुवंशियों के प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान श्रीकृष्ण के महल जगमगा रहे थे ।। ५४ ।। परीक्षित ! उस समय देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण के लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभा को भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्य को भूख-प्यास आदि मत्र्यलोक के धर्म नहीं छू पाते थे ।। ५५ ।। वरुणजी ने ऐसे बहुत- से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्याम- वर्ण का था, और जिनकी चाल मन के समान तेज थी। धनपति कुबेरजी ने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालों ने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान के पास भेज दीं ।। ५६ ।। परीक्षित ! सभी लोकपालों को भगवान श्रीकृष्ण ने ही उनके अधिकार के निर्वाह के लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान के चरणों में समॢपत कर दीं ।। ५७ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियों को अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के द्वारा द्वारका में पहुँचा दिया। शेष प्रजा की रक्षा के लिये बलरामजी को मथुरापुरी में रख दिया और उनसे सलाह लेकर गले में कमलों की माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगर के बड़े दरवाजे से बाहर निकल आये ।। ५८ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-51]

॥ एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५१ ॥
श्रीशुकउवाच
तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम् ।
दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम् ॥ १॥

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ।
पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम् ॥ २॥

नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम् ।
मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ ३॥

वासुदेवो ह्ययमिति पुमान् श्रीवत्सलाञ्छनः ।
चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ ४॥

लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति ।
निरायुधश्चलन् पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः ॥ ५॥

इति निश्चित्य यवनःप्राद्रवन्तं पराङ्मुखम् ।
अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम् ॥ ६॥

हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे ।
नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम् ॥ ७॥

पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम् ।
इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः ॥ ८॥

एवं क्षिप्तोऽपि भगवान् प्राविशद्गिरिकन्दरम् ।
सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम् ॥ ९॥

नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत् ।
इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत् ॥ १०॥

स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने ।
दिशो विलोकयन् पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम् ॥ ११॥

स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत ।
देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात् ॥ १२॥

राजोवाच
को नाम स पुमान् ब्रह्मन् कस्य किंवीर्य एव च ।
कस्माद्गुहां गतः शिश्ये किंतेजो यवनार्दनः ॥ १३॥

श्रीशुकउवाच
स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान् ।
मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः ॥ १४॥

स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे ।
असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम् ॥ १५॥

लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन् ।
राजन् विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात् ॥ १६॥

नरलोके परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम् ।
अस्मान् पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः ॥ १७॥

सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः ।
प्रजाश्च तुल्यकालीया नाधुना सन्ति कालिताः ॥ १८॥

कालो बलीयान् बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः ।
प्रजाः कालयते क्रीडन् पशुपालो यथा पशून् ॥ १९॥

वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः ।
एक एवेश्वरस्तस्य भगवान् विष्णुरव्ययः ॥ २०॥

एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः ।
अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया ॥ २१॥

स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वात्मचेतनः ।
स त्वया दृष्टमात्रस्तु भस्मीभवतु तत्क्ष्णात् ॥ २२॥
यवने भस्मसान्नीते भगवान् सात्वतर्षभः ।
आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते ॥ २३॥

तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् ॥ २४॥

चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया ।
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ २५॥

प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम् ।
अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम् ॥ २६॥

पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः ।
शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा ॥ २७॥

मुचुकुन्दउवाच
को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे ।
पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके ॥ २८॥

किंस्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान् वा विभावसुः ।
सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालोऽपरोऽपि वा ॥ २९॥

मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम् ।
यद्बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा ॥ ३०॥

शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुङ्गव ।
स्वजन्म कर्म गोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते ॥ ३१॥

वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबन्धवः ।
मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो ॥ ३२॥

चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयोपहतेन्द्रियः ।
शयेऽस्मिन् विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना ॥ ३३॥

सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना ।
अनन्तरं भवान् श्रीमांल्लक्षितोऽमित्रशातनः ॥ ३४॥

तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः ।
हतौजसो महाभाग माननीयोऽसि देहिनाम् ॥ ३५॥

एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान् भूतभावनः ।
प्रत्याह प्रहसन् वाण्या मेघनादगभीरया ॥ ३६॥

श्रीभगवानुवाच
जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽङ्ग सहस्रशः ।
न शक्यन्तेऽनुसङ्ख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि ॥ ३७॥

क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः ।
गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित् ॥ ३८॥

कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप ।
अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षयः ॥ ३९॥

तथाप्यद्यतनान्यङ्ग श‍ृणुष्व गदतो मम ।
विज्ञापितो विरिञ्चेन पुराहं धर्मगुप्तये ।
भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयायच ॥ ४०॥

अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभेः ।
वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम् ॥ ४१॥

कालनेमिर्हतः कंसः प्रलम्बाद्याश्च सद्द्विषः ।
अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा ॥ ४२॥

सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः ।
प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाहं भक्तवत्सलः ॥ ४३॥

वरान् वृणीष्व राजर्षे सर्वान् कामान् ददामि ते ।
मां प्रसन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम् ॥ ४४॥

श्रीशुकउवाच
इत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वितः ।
ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन् ॥ ४५॥

मुचुकुन्द उवाच
विमोहितोऽयं जन ईशमायया
त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक् ।
सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते
गृहेषु योषित्पुरुषश्च वञ्चितः ॥ ४६॥

लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं
कथञ्चिदव्यङ्गमयत्नतोऽनघ ।
पादारविन्दं न भजत्यसन्मतिर्गृहान्धकूपे
पतितो यथा पशुः ॥ ४७॥

ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो
राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः ।
मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोश-
भूष्वासज्जमानस्य दुरन्तचिन्तया ॥ ४८॥

कलेवरेऽस्मिन् घटकुड्यसन्निभे
निरूढमानो नरदेव इत्यहम् ।
वृतो रथेभाश्वपदात्यनीकपैर्गां
पर्यटंस्त्वागणयन् सुदुर्मदः ॥ ४९॥

प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया
प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम् ।
त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे
क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः ॥ ५०॥

पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्
मतङ्गजैर्वा नरदेवसंज्ञितः ।
स एव कालेन दुरत्ययेन ते
कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः ॥ ५१॥

निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो
वरासनस्थः समराजवन्दितः ।
गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां
क्रीडामृगः पूरुष ईश नीयते ॥ ५२॥

करोति कर्माणि तपःसुनिष्ठितो
निवृत्तभोगस्तदपेक्षया ददत् ।
पुनश्च भूयेयमहं स्वराडिति
प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते ॥ ५३॥

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेज्जनस्य
तर्ह्यच्युत सत्समागमः ।
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायतेमतिः ॥ ५४॥

मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो
राज्यानुबन्धापगमो यदृच्छया ।
यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्यया
वनं विविक्षद्भिरखण्डभूमिपैः ॥ ५५॥

न कामयेऽन्यं तव पादसेवना-
दकिञ्चनप्रार्थ्यतमाद्वरं विभो ।
आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे
वृणीत आर्यो वरमात्मबन्धनम् ॥ ५६॥

तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतो
रजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धनाः ।
निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं
त्वां ज्ञप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम् ॥ ५७॥

चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै-
रवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित् ।
शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्मन्
अभयमृतमशोकं पाहि माऽऽपन्नमीश ॥ ५८॥

श्रीभगवानुवाच
सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता ।
वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः ॥ ५९॥

प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्धि तत् ।
न धीरेकान्तभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित् ॥ ६०॥

युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः ।
अक्षीणवासनं राजन् दृश्यते पुनरुत्थितम् ॥ ६१॥

विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः ।
अस्त्वेव नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी ॥ ६२॥

क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून् न्यवधीर्मृगयादिभिः ।
समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः ॥ ६३॥

जन्मन्यनन्तरे राजन् सर्वभूतसुहृत्तमः ।
भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम् ॥ ६४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंसयां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१॥


दशम स्कन्ध-इक्यावनवाँ अध्याय 58
कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भरतवंशशिरोमणि परीक्षित ! कंस की दो रानियाँ थीं—अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु से उन्हें बड़ा दु:ख हुआ और वे अपने पिता की राजधानी में चली गयीं ।। १ ।। उन दोनों का पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दु:ख के साथ अपने विधवा होने के कारणों का वर्णन किया ।। २ ।। परीक्षित ! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्ध को बड़ा शोक हुआ, परंतु पीछे वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की ।। ३ ।। और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया ।। ४ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा—जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं ।। ५ ।। भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतार ने के लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतार का क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थान पर मुझे क्या करना चाहिये ।। ६ ।। उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्ध ने अपने अधीनस्थ नरपतियों की पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों से युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वी का भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परंतु अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा ।। ७-८ ।। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हल का कर दूँ, साधु-सज्जनों की रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनों का संहार ।। ९ ।। समयसमय पर धर्म-रक्षा के लिये और बढ़ते हुए अधर्म को रोक ने के लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ ।। १० ।।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाश से सूर्य के समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्ध की सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे ।। ११ ।। इसी समय भगवान के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा— ।। १२ ।। ‘भाईजी ! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आप से ही सनाथ हैं, उन पर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं ।। १३ ।। अब आप इस रथ पर सवार होकर शत्रु-सेना का संहार कीजिये और अपने स्वजनों को इस विपत्ति से बचाइये। भगवन् ! साधुओं का कल्याण करने के लिये ही हम दोनों ने अवतार ग्रहण किया है ।। १४ ।। अत: अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वी का यह विपुल भार नष्ट कीजिये।’ भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथ पर सवार होकर वे मथुरा से निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हाँक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया ।। १५-१६ ।। उनके शङ्ख की भयङ्कर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों का हृदय डर के मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्ध ने कहा—‘पुरुषाधम कृष्ण ! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लडऩे में मुझे लाज लग रही है। इत ने दिनों तक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द ! तू तो अपने मामा का हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामने से भाग जा ।। १७-१८ ।। बलराम यदि तेरे चित्त में यह श्रद्धा हो कि युद्ध में मरने पर स्वर्ग मिलता है तो तू आ हिम्मत बाँधकर मुझ से लड़। मेरे बाणों से छिन्न-भिन्न हुए शरीर को यहाँ छोडक़र स्वर्ग में जा, अथवा यदि तुझ में शक्ति हो तो मुझे ही मार डाल’ ।। १९ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—मगधराज ! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींग नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिर पर नाच रही है। तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मर ने के समय कोई सन्निपात का रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बात पर ध्यान नहीं देता ।। २० ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जैसे वायु बादलों से सूर्य को और धूएँ से आग को ढक लेती है, किन्तु वास्तव में वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेना के द्वारा उन्हें चारों ओर से घेर लिया—यहाँ तक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियों का दीखना भी बंद हो गया ।। २१ ।। मथुरापुरी की स्त्रियाँ अपने महलों की अटारियों, छज्जों और फाटकों पर चढक़र युद्ध का कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्ध भूमि में भगवान श्रीकृष्ण की गरुड़चिह्न से चिह्नित और बलरामजी की तालचिह्न से चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोक के आवेग से मूॢच्छत हो गयीं ।। २२ ।। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि शत्रु-सेना के वीर हमारी सेना पर इस प्रकार बाणों की वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानी की अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीडि़त, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर-दोनों से सम्मानित शार्ङ्गधनुष का टङ्कार किया ।। २३ ।। इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने, उन्हें धनुष पर चढ़ा ने और धनुष की डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोडऩे लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्ती से घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेग से अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण जरासन्ध की चतुरङ्गिणी—हाथी, घोड़े, रथ और पैदलसेना का संहार करने लगे ।। २४ ।। इससे बहुत- से हाथियों के सिर फट गये और वे मर-मरकर गिर ने लगे। बाणों की बौछार से अनेकों घोड़ों के सिर धड़ से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियों के नष्ट हो जाने से बहुत- से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेना की बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यङ्ग कट-कटकर गिर पड़े ।। २५ ।। उस युद्ध में अपार तेजस्वी भगवान बलरामजी ने अपने मूसल की चोट से बहुत- से मतवाले शत्रुओं को मार-मारकर उनके अङ्ग-प्रत्यङ्ग से निकले हुए खून की सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उन नदियों में मनुष्यों की भुजाएँ साँप के समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओं की भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघें मछलियों की तरह, मनुष्यों के केश सेवार के समान, धनुष तरङ्गों की भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकों के समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थर के रोड़ों तथा कंकड़ों के समान बहे जा रहे थे। उन नदियों को देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरों का आपस में खूब उत्साह बढ़ रहा था ।। २६—२८ ।। परीक्षित ! जरासन्ध की वह सेना समुद्र के समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाई से जीतनेयोग्य थी। परंतु भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने थोड़े ही समय में उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेना का नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है ।। २९ ।। परीक्षित ! भगवान के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेल में ही तीनों लोकों की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओं की सेना का इस प्रकार बात-की-बात में सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है ।। ३० ।।

इस प्रकार जरासन्ध की सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीर में केवल प्राण बा की रहे। तब भगवान श्रीबलरामजी ने जैसे एक ङ्क्षसह दूसरे ङ्क्षसह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्ध को पकड़ लिया ।। ३१ ।। जरासन्ध ने पहले बहुत- से विपक्षी नरपतियों का वध किया था, परंतु आज उसे बलरामजी वरुण की फाँसी और मनुष्यों के फंदे से बाँध रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वी का भार उतार सकेंगे, बलरामजी को रोक दिया ।। ३२ ।। बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्ध का सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बात पर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलराम ने दया करके दीन की भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करने का निश्चय किया। परंतु रास्ते में उसके साथी नरपतियों ने बहुत समझाया कि ‘राजन् ! यदुवंशियों में क्या रखा है ? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।’ उन लोगों ने भगवान की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करने की आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये।। ३३-३४ ।। परीक्षित ! उस समय मगधराज जरासन्ध की सारी सेना मर चुकी थी। भगवान बलरामजी ने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगध को चला गया ।। ३५ ।।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण की सेना में किसी का बाल भी बाँ का न हुआ और उन्होंने जरासन्ध की तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्र के समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उन पर नन्दनवन के पुष्पों की वर्षा और उनके इस महान कार्य का अनुमोदन— प्रशंसा कर रहे थे ।। ३६ ।। जरासन्ध की सेना के पराजय से मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान श्रीकृष्ण की विजय से उनका हृदय आनन्द से भर रहा था। भगवान श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजय के गीत गा रहे थे ।। ३७ ।। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया, उस समय वहाँ शङ्ख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदङ्ग आदि बाजे बज ने लगे थे ।। ३८ ।। मथुरा की एक-एक सडक़ और गली में छिडक़ाव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकों की चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओं से सजा दिया गया था। ब्राह्मणों की वेदध्वनि गूँज रही थी और सब ओर आनन्दोत्सव के सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे ।। ३९ ।। जिस समय श्रीकृष्ण नगर में प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगर की नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठा से भरे हुए नेत्रों से उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलों के हार, दही, अक्षत और जौ आदि के अङ्कुरों की उनके ऊ पर वर्षा कर रही थीं ।। ४० ।। भगवान श्रीकृष्ण रणभूमि से अपार धन और वीरों के आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियों के राजा उग्रसेन के पास भेज दिया ।। ४१ ।।

परीक्षित ! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों से युद्ध किया ।। ४२ ।। किन्तु यादवों ने भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति से हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियों के उपेक्षापूर्वक छोड़ देने पर जरासन्ध अपनी राजधानी में लौट जाता ।। ४३ ।। जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिडऩेहीवाला था, उसी समय नारदजी का भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा ।। ४४ ।। युद्ध में कालयवन के सामने खड़ा होनेवाला वीर संसार में दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छों की सेना लेकर उसने मथुरा को घेर लिया ।। ४५ ।।

कालयवन की यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी के साथ मिलकर विचार किया—‘अहो ! इस समय तो यदुवंशियों पर जरासन्ध और कालयवन—ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं ।। ४६ ।। आज इस परम बलशाली यवन ने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसों में आ ही जायगा ।। ४७ ।। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लडऩे में लग गये और उसी समय जरासन्ध आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओं को मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगर में ले जायगा। क्योंकि वह बहुत बलवान् है ।। ४८ ।। इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्ग—ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्य का प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियों को उसी किले में पहुँचाकर फिर इस यवन का वध करायेंगे’ ।। ४९ ।। बलरामजी से इस प्रकार सलाह करके भगवान श्रीकृष्ण ने समुद्र के भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगर की लंबाई-चौड़ाई अड़तालीस कोस की थी ।। ५० ।। उस नगर की एक-एक वस्तु में विश्वकर्मा का विज्ञान (वास्तु- विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्र के अनुसार बड़ी-बड़ी सडक़ों, चौराहों और गलियों का यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था ।। ५१ ।। वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनों से युक्त था, जिन में देवताओं के वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सो ने के इत ने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाश से बातें करते थे। स्फटिकमणि की अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे ।। ५२ ।। अन्न रखने के लिये चाँदी और पीतल के बहुत- से कोठे बने हुए थे। वहाँ के महल सो ने के बने हुए थे और उन पर कामदार सो ने के कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नों के थे तथा गच पन् ने की बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी ।। ५३ ।। इसके अतिरिक्त उस नगर में वास्तुदेवता के मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्ण के लोग निवास करते थे और सब के बीच में यदुवंशियों के प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान श्रीकृष्ण के महल जगमगा रहे थे ।। ५४ ।। परीक्षित ! उस समय देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण के लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभा को भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्य को भूख-प्यास आदि मत्र्यलोक के धर्म नहीं छू पाते थे ।। ५५ ।। वरुणजी ने ऐसे बहुत- से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्याम- वर्ण का था, और जिनकी चाल मन के समान तेज थी। धनपति कुबेरजी ने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालों ने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान के पास भेज दीं ।। ५६ ।। परीक्षित ! सभी लोकपालों को भगवान श्रीकृष्ण ने ही उनके अधिकार के निर्वाह के लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान के चरणों में समॢपत कर दीं ।। ५७ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियों को अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के द्वारा द्वारका में पहुँचा दिया। शेष प्रजा की रक्षा के लिये बलरामजी को मथुरापुरी में रख दिया और उनसे सलाह लेकर गले में कमलों की माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगर के बड़े दरवाजे से बाहर निकल आये ।। ५८ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-52]

॥ द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५२ ॥
श्रीशुकउवाच
इत्थं सोऽनुगृहीतोऽङ्ग कृष्णेनेक्ष्वाकुनन्दनः ।
तं परिक्रम्य सन्नम्य निश्चक्राम गुहामुखात् ॥ १॥

स वीक्ष्य क्षुल्लकान्मर्त्यान् पशून् वीरुद्वनस्पतीन् ।
मत्वा कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम् ॥ २॥

तपःश्रद्धायुतो धीरो निःसङ्गो मुक्तसंशयः ।
समाधाय मनःकृष्णे प्राविशद्गन्धमादनम् ॥ ३॥

बदर्याश्रममासाद्य नरनारायणालयम् ।
सर्वद्वन्द्वसहः शान्तस्तपसाऽऽराधयद्धरिम् ॥ ४॥

भगवान् पुनराव्रज्य पुरीं यवनवेष्टिताम् ।
हत्वा म्लेच्छबलं निन्ये तदीयं द्वारकां धनम् ॥ ५॥

नीयमाने धने गोभिर्नृभिश्चाच्युतचोदितैः ।
आजगाम जरासन्धस्त्रयोविंशत्यनीकपः ॥ ६॥

विलोक्य वेगरभसं रिपुसैन्यस्य माधवौ ।
मनुष्यचेष्टामापन्नौ राजन् दुद्रुवतुर्द्रुतम् ॥ ७॥

विहाय वित्तं प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत् ।
पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां चेरतुर्बहुयोजनम् ॥ ८॥

पलायमानौ तौ दृष्ट्वा मागधः प्रहसन् बली ।
अन्वधावद्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित् ॥ ९॥

प्रद्रुत्य दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम् ।
प्रवर्षणाख्यं भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति ॥ १०॥

गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पदं नृप ।
ददाह गिरिमेधोभिः समन्तादग्निमुत्सृजन् ॥ ११॥

तत उत्पत्य तरसा दह्यमानतटादुभौ ।
दशैकयोजनोत्तुङ्गान्निपेततुरधो भुवि ॥ १२॥

अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ ।
स्वपुरं पुनरायातौ समुद्रपरिखां नृप ॥ १३॥

सोऽपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ ।
बलमाकृष्य सुमहन्मगधान् मागधो ययौ ॥ १४॥

आनर्ताधिपतिः श्रीमान् रैवतो रेवतीं सुताम् ।
ब्रह्मणा चोदितः प्रादाद्बलायेति पुरोदितम् ॥ १५॥

भगवानपि गोविन्द उपयेमे कुरूद्वह ।
वैदर्भीं भीष्मकसुतां श्रियो मात्रां स्वयंवरे ॥ १६॥

प्रमथ्य तरसा राज्ञः शाल्वादींश्चैद्यपक्षगान् ।
पश्यतां सर्वलोकानां तार्क्ष्यपुत्रः सुधामिव ॥ १७॥

राजोवाच
भगवान् भीष्मकसुतां रुक्मिणीं रुचिराननाम् ।
राक्षसेन विधानेन उपयेम इति श्रुतम् ॥ १८॥

भगवन् श्रोतुमिच्छामि कृष्णस्यामिततेजसः ।
यथा मागधशाल्वादीन् जित्वा कन्यामुपाहरत् ॥ १९॥

ब्रह्मन् कृष्णकथाःपुण्या माध्वीर्लोकमलापहाः ।
को नु तृप्येत श‍ृण्वानः श्रुतज्ञो नित्यनूतनाः ॥ २०॥

श्रीशुक उवाच
राजासीद्भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान् ।
तस्य पञ्चाभवन् पुत्राः कन्यैका च वरानना ॥ २१॥

रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः ।
रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मिण्येषां स्वसा सती ॥ २२॥

सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः ।
गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम् ॥ २३॥

तां बुद्धिलक्षणौदार्यरूपशीलगुणाश्रयाम् ।
कृष्णश्च सदृशीं भार्यां समुद्वोढुं मनो दधे ॥ २४॥

बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप ।
ततो निवार्य कृष्णद्विड् रुक्मी चैद्यममन्यत ॥ २५॥

तदवेत्यासितापाङ्गी वैदर्भी दुर्मना भृशम् ।
विचिन्त्याप्तं द्विजं कञ्चित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् ॥ २६॥

द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः ।
अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं काञ्चनासने ॥ २७॥

दृष्ट्वा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात् ।
उपवेश्यार्हयांचक्रे यथाऽऽत्मानं दिवौकसः ॥ २८॥

तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमुपगम्य सतां गतिः ।
पाणिनाभिमृशन् पादावव्यग्रस्तमपृच्छत ॥ २९॥

कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसम्मतः ।
वर्तते नातिकृच्छ्रेण सन्तुष्टमनसः सदा ॥ ३०॥

सन्तुष्टो यर्हि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित् ।
अहीयमानः स्वाद्धर्मात्स ह्यस्याखिलकामधुक् ॥ ३१॥

असन्तुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वरः ।
अकिञ्चनोऽपि सन्तुष्टः शेते सर्वाङ्गविज्वरः ॥ ३२॥

विप्रान् स्वलाभसन्तुष्टान् साधून् भूतसुहृत्तमान् ।
निरहङ्कारिणः शान्तान्नमस्ये शिरसासकृत् ॥ ३३॥

कच्चिद्वः कुशलं ब्रह्मन् राजतो यस्य हि प्रजाः ।
सुखं वसन्ति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः ॥ ३४॥

यतस्त्वमागतो दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया ।
सर्वं नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते ॥ ३५॥

एवं सम्पृष्टसम्प्रश्नो ब्राह्मणः परमेष्ठिना ।
लीलागृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत् ॥ ३६॥

रुक्मिण्युवाच
श्रुत्वा गुणान् भुवनसुन्दर श‍ृण्वतां ते
निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापम् ।
रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं
त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे ॥ ३७॥

का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप-
विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम् ।
धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या
काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामम् ॥ ३८॥

तन्मे भवान् खलु वृतः पतिरङ्ग जाया-
मात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि ।
मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्-
गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष ॥ ३९॥

पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र-
गुर्वर्चनादिभिरलं भगवान् परेशः ।
आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं
गृह्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्ये ॥ ४०॥

श्वोभाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः ।
निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलं प्रसह्य
मां राक्षसेनविधिनोद्वह वीर्यशुल्काम् ॥ ४१॥

अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धून्
त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम् ।
पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा
यस्यां बहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात् ॥ ४२॥

यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजःस्नपनं महान्तो
वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै ।
यर्ह्यम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं
जह्यामसून् व्रतकृशान् शतजन्मभिः स्यात् ॥ ४३॥

ब्राह्मण उवाच
इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मयाहृताः ।
विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ॥ ४४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहप्रस्तावे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२॥


दशम स्कन्ध-बावनवाँ अध्याय 44
द्वारकागमन, श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास रुक्मिणीजी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्यारे परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्द पर अनुग्रह किया। अब उन्होंने भगवान की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और गुफा से बाहर निकले ।। १ ।। उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष- वनस्पति पहले की अपेक्षा बहुत छोटे-छोटे आकार के हो गये हैं। इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशा की ओर चल दिये ।। २ ।। महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्ति से युक्त एवं संशय-सन्देह से मुक्त थे। वे अपना चित्त भगवान श्रीकृष्ण में लगाकर गन्धमादन पर्वत पर जा पहुँचे ।। ३ ।। भगवान नर-नारायण के नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रम में जाकर बड़े शान्तभाव से गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द्व सहते हुए वे तपस्या के द्वारा भगवान की आराधना करने लगे ।। ४ ।।

इधर भगवान श्रीकृष्ण मथुरापुरी में लौट आये। अब तक कालयवन की सेना ने उसे घेर रखा था। अब उन्होंने म्लेच्छों की सेना का संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वार का को ले चले ।। ५ ।। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण के आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलों पर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धम का ।। ६ ।। परीक्षित ! शत्रु-सेना का प्रबल वेग देखकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए उसके सामने से बड़ी फुर्ती के साथ भाग निकले ।। ७ ।। उनके मन में तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये हों—इस प्रकार का नाट्य करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीं छोडक़र अनेक योजनों तक वे अपने कमलदल के समान सु कोमल चरणों से ही—पैदल भागते चले गये ।। ८ ।। जब महाबली मगधराज जरासन्ध ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँस ने लगा और अपनी रथ-सेना के साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का ज्ञान न था ।। ९ ।। बहुत दूर तक दौडऩे के कारण दोनों भाई कुछ थक- से गये। अब वे बहुत ऊँचे प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गये। उस पर्वत का ‘प्रवर्षण’ नाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा ही—मेघ वर्षा किया करते थे ।। १० ।। परीक्षित ! जब जरासन्ध ने देखा कि वे दोनों पहाड़ में छिप गये और बहुत ढूँढने पर भी पता न चला, तब उसने र्ईंधन से भरे हुए प्रवर्षण पर्वत के चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया ।। ११ ।। जब भगवान ने देखा कि पर्वत के छोर जल ने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्ध की सेना के घेरे को लाँघते हुए बड़े वेग से उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वत से एकदम नीचे धरती पर कूद आये ।। १२ ।। राजन् ! उन्हें जरासन्ध ने अथवा उसके किसी सैनिक ने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँ से चलकर फिर अपनी समुद्र से घिरी हुई द्वारकापुरी में चले आये ।। १३ ।। जरासन्ध ने झूठमूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये, और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेश को चला गया ।। १४ ।।

यह बात मैं तुम से पहले ही (नवम स्कन्धमें) कह चु का हूँ कि आनर्तदेश के राजा श्रीमान् रैवतजी ने अपनी रेवती नाम की कन्या ब्रह्माजी की प्रेरणा से बलरामजी के साथ ब्याह दी ।। १५ ।। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण भी स्वयंवर में आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियों को बलपूर्वक हराकर सब के देखते-देखते, जैसे गरुडऩे सुधा का हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेश की राजकुमारी रुक्मिणी को हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मिणीजी राजा भीष्मक की कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजी का अवतार थीं ।। १६-१७ ।।

राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! हम ने सुना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्मकनन्दिनी परम- सुन्दरी रुक्मिणीदेवी को बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधि से उनके साथ विवाह किया था ।। १८ ।। महाराज ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियों को जीतकर किस प्रकार रुक्मिणी का हरण किया ? ।। १९ ।। ब्रह्मर्षे ! भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में क्या कहना है ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत का मल धो- बहाकर उसे भी पवित्र कर देनेवाली हैं। उनमें ऐसी लो कोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहने पर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय ।। २० ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! महाराज भीष्मक विदर्भदेश के अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ।। २१ ।। सब से बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी और चार छोटे थे—जिनके नाम थे क्रमश: रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इन की बहिन थी सती रुक्मिणी ।। २२ ।। जब उसने भगवान श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी—जो उसके महल में आनेवाले अतिथि प्राय: गाया ही करते थे—तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं ।। २३ ।। भगवान श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणी में बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य शीलस्वभाव और गुणों में भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अत: भगवान ने रुक्मिणीजी से विवाह करने का निश्चय किया ।। २४ ।। रुक्मिणीजी के भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिन का विवाह श्रीकृष्ण से ही हो। परंतु रुक्मी श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करने से रोक दयिा और शिशुपाल को ही अपनी बहिन के योग्य वर समझा ।। २५ ।।

जब परमसुन्दरी रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा ।। २६ ।। जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरी में पहुँचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मणदेवता ने देखा कि आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण सो ने के ङ्क्षसहासन पर विराजमान हैं ।। २७ ।। ब्राह्मणों के परमभक्त भगवान श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवता को देखते ही अपने आसन से नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसन पर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवतालोग उनकी (भगवानकी) किया करते हैं ।। २८ ।। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्र के अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चु के तब संतों के परम आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भाव से पूछ ने लगे— ।। २९ ।। ‘ब्राह्मणशिरोमणे ! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती ।। ३० ।। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय, उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ।। ३१ ।। यदि इन्द्र का पद पाकर भी किसीको सन्तोष न हो तो उसे सुख के लिये एक लोक से दूसरे लोक में बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्ति से बैठ नहीं सकेगा। परंतु जिसके पास तनिक भी संग्रह- परिग्रह नहीं है, और जो उसी अवस्था में सन्तुष्ट है, वह सब प्रकार से सन्तापरहित होकर सुख की नींद सोता है ।। ३२ ।। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तु से सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैषी, अहंकाररहित और शान्त हैं—उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। ३३ ।। ब्राह्मणदेवता ! राजा की ओर से तो आपलोगों को सब प्रकार की सुविधा है न ? जिसके राज्य में प्रजा का अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्द से रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है ।। ३४ ।। ब्राह्मणदेवता ! आप कहाँसे, किस हेतु से और किस अभिलाषा से इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हम से कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?’ ।। ३५ ।। परीक्षित ! लीला से ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान से रुक्मिणीजी का सन्देश कह ने लगे ।। ३६ ।।

रुक्मिणीजी ने कहा है—त्रिभुवनसुन्दर ! आपके गुणों को, जो सुननेवालों के कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करके एक-एक अङ्ग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्य को जो नेत्रवाले जीवों के नेत्रों के लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत ! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोडक़र आप में ही प्रवेश कर रहा है ।। ३७ ।। प्रेम स्वरूप श्यामसुन्दर ! चाहे जिस दृष्टि से देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम—सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्य-लोक में जित ने भी प्राणी हैं, सब का मन आपको देखकर शान्ति का अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण ! आप ही बतलाइये—ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी ? ।। ३८ ।। इसीलिये प्रियतम ! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदय की बात आप से छिपी नहीं है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। कमलनयन ! प्राणवल्लभ ! मैं आप-सरीखे वीर को समॢपत हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब, जैसे ङ्क्षसह का भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ।। ३९ ।। मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना) दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ।। ४० ।। प्रभो ! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्तरूप से आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासन्ध की सेनाओं को मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।। ४१ ।। यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्त:पुरमें—भीतर के जना ने महलों में पहरे के अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बन्धुओं को मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है—जिसमें विवाही जानेवाली कन्या को, दुलहिन को नगर के बाहर गिरिजादेवी के मन्दिर में जाना पड़ता है ।। ४२ ।। कमलनयन ! उमापति भगवान शङ्करके समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धि के लिये आपके चरणकमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर स की तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ।। ४३ ।।

ब्राह्मणदेवता ने कहा—यदुवंशशिरोमणे ! यही रुक्मिणी के अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्ध में जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ।। ४४ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-53]

॥ त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५३ ॥
श्रीशुक उवाच
वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः ।
प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत् ॥ १॥

श्रीभगवानुवाच
तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि ।
वेदाहं रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः ॥ २॥

तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान् मृधे ।
मत्परामनवद्याङ्गीमेधसोऽग्निशिखामिव ॥ ३॥

श्रीशुक उवाच
उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः ।
रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम् ॥ ४॥

स चाश्वैः शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकैः ।
युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः ॥ ५॥

आरुह्य स्यन्दनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः ।
आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः ॥ ६॥

राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशं गतः ।
शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन् कर्माण्यकारयत् ॥ ७॥

पुरं सम्मृष्टसंसिक्तमार्गरथ्याचतुष्पथम् ।
चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलङ्कृतम् ॥ ८॥

स्रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोऽम्बरभूषितैः ।
जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद्गृहैरगुरुधूपितैः ॥ ९॥

पितॄन् देवान् समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप ।
भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मङ्गलम् ॥ १०॥

सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमङ्गलाम् ।
अहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः ॥ ११॥

चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां द्विजोत्तमाः ।
पुरोहितोऽथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशान्तये ॥ १२॥

हिरण्यरूप्यवासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान् ।
प्रादाद्धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः ॥ १३॥

एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै ।
कारयामास मन्त्रज्ञैः सर्वमभ्युदयोचितम् ॥ १४॥

मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यन्दनैर्हेममालिभिः ।
पत्त्यश्वसङ्कुलैः सैन्यैः परीतः कुण्डिनं ययौ ॥ १५॥

तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च ।
निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने ॥ १६॥

तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्त्रो विदूरथः ।
आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौण्ड्रकाद्याः सहस्रशः ॥ १७॥

कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम् ।
यद्यागत्य हरेत्कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः ॥ १८॥

योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः ।
आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः ॥ १९॥

श्रुत्वैतद्भगवान् रामो विपक्षीयनृपोद्यमम् ।
कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशङ्कितः ॥ २०॥

बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः ।
त्वरितः कुण्डिनं प्रागाद्गजाश्वरथपत्तिभिः ॥ २१॥

भीष्मकन्या वरारोहा काङ्क्षन्त्यागमनं हरेः ।
प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्याचिन्तयत्तदा ॥ २२॥

अहो त्रियामान्तरित उद्वाहो मेऽल्पराधसः ।
नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम् ।
सोऽपि नावर्ततेऽद्यापि मत्सन्देशहरो द्विजः ॥ २३॥

अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किञ्चिज्जुगुप्सितम् ।
मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः ॥ २४॥

दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः ।
देवी वा विमुखा गौरी रुद्राणी गिरिजा सती ॥ २५॥

एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा ।
न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले ॥ २६॥

एवं वध्वाः प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप ।
वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन् प्रियभाषिणः ॥ २७॥

अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः ।
अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह ॥ २८॥

सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती ।
आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता ॥ २९॥

तस्या आवेदयत्प्राप्तं शशंस यदुनन्दनम् ।
उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति ॥ ३०॥

तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा ।
न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा ॥ ३१॥

प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ ।
अभ्ययात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः ॥ ३२॥

मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः ।
उपायनान्यभीष्टानि विधिवत्समपूजयत् ॥ ३३॥

तयोर्निवेशनं श्रीमदुपाकल्प्य महामतिः ।
ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा ॥ ३४॥

एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः ।
यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत् ॥ ३५॥

कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः ।
आगत्य नेत्राञ्जलिभिः पपुस्तन्मुखपङ्कजम् ॥ ३६॥

अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा ।
असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः ॥ ३७॥

किञ्चित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत् ।
अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः ॥ ३८॥

एवं प्रेमकलाबद्धा वदन्ति स्म पुरौकसः ।
कन्या चान्तःपुरात्प्रागाद्भटैर्गुप्ताम्बिकालयम् ॥ ३९॥

पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम् ।
सा चानुध्यायती सम्यङ्मुकुन्दचरणाम्बुजम् ॥ ४०॥

यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता ।
गुप्ता राजभटैः शूरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः ।
मृदङ्गशङ्खपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ॥ ४१॥

नानोपहारबलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः ।
स्रग्गन्धवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः स्वलङ्कृताः ॥ ४२॥

गायन्तश्च स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादकाः ।
परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवन्दिनः ॥ ४३॥

आसाद्य देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा ।
उपस्पृश्य शुचिः शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम् ॥ ४४॥

तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः ।
भवानीं वन्दयांचक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम् ॥ ४५॥

नमस्ये त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम् ।
भूयात्पतिर्मे भगवान् कृष्णस्तदनुमोदताम् ॥ ४६॥

अद्भिर्गन्धाक्षतैर्धूपैर्वासःस्रङ्माल्यभूषणैः ।
नानोपहारबलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक् ॥ ४७॥

विप्रस्त्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत् ।
लवणापूपताम्बूलकण्ठसूत्रफलेक्षुभिः ॥ ४८॥

तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः ।
ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः ॥ ४९॥

मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात् ।
प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना ॥ ५०॥

तां देवमायामिव वीरमोहिनीं
सुमध्यमां कुण्डलमण्डिताननाम् ।
श्यामां नितम्बार्पितरत्नमेखलां
व्यञ्जत्स्तनीं कुन्तलशङ्कितेक्षणाम् ॥ ५१॥

शुचिस्मितां बिम्बफलाधरद्युति
शोणायमानद्विजकुन्दकुड्मलाम् ।
पदा चलन्तीं कलहंसगामिनीं
शिञ्जत्कलानूपुरधामशोभिना ।
विलोक्य वीरा मुमुहुः समागता
यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः ॥ ५२॥

यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहास-
व्रीडावलोकहृतचेतस उज्झितास्त्राः ।
पेतुः क्षितौ गजरथाश्वगता विमूढा
यात्राच्छलेन हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम् ॥ ५३॥

सैवं शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ
प्राप्तिं तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा ।
उत्सार्य वामकरजैरलकानपाङ्गैः
प्राप्तान् ह्रियैक्षत नृपान् ददृशेऽच्युतं सा ॥ ५४।
तां राजकन्यां रथमारुरुक्षतीं
जहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम् ।
रथं समारोप्य सुपर्णलक्षणं
राजन्यचक्रं परिभूय माधवः ॥ ५५॥

ततो ययौ रामपुरोगमैः शनैः
श‍ृगालमध्यादिव भागहृद्धरिः ॥ ५६॥

तं मानिनः स्वाभिभवं यशःक्षयं
परे जरासन्धमुखा न सेहिरे ।
अहो धिगस्मान्यश आत्तधन्वनां
गोपैर्हृतं केसरिणां मृगैरिव ॥ ५७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३॥


दशम स्कन्ध- तिरपनवाँ अध्याय 57
रुक्मिणीहरण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजी का यह सन्देश सुनकर अपने हाथ से ब्राह्मणदेवता का हाथ पकड लिया और हँसते हुए यों बोले ।। १ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—ब्राह्मणदेवता ! जैसे विदर्भराजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हीं में लगा रहता है। कहाँ तक कहूँ, मुझे रात के समय नींद तक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मी ने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है ।। २ ।। परंतु ब्राह्मणदेवता ! आप देखियेगा, जैसे लकडिय़ों को मथकर—एक-दूसरे से रगडक़र मनुष्य उनमें से आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्ध में उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलङ्कों को तहस-नहस करके अपने से प्रेम करनेवाली परमसुन्दरी राजकुमारी को मैं निकाल लाऊँगा ।। ३ ।।



श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्र परसों रात्रि में ही है, सारथि को आज्ञा दी कि ‘दारुक ! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ’ ।। ४ ।। दारुक भगवान के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोडक़र भगवान के सामने खड़ा हो गया ।। ५ ।। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्तदेश से विदर्भदेश में जा पहुँचे ।। ६ ।। कुण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लडक़े रुक्मी के स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपाल को दे ने के लिये विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे ।। ७ ।। नगर के राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उन पर छिडक़ाव किया जा चु का था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरन बाँध दिये गये थे ।। ८ ।। वहाँ के स्त्री-पुरुष पुष्प, माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गह ने और निर्मल वस्त्रों से सजे हुए थे। वहाँ के सुन्दर-सुन्दर घरों में से अगर के धूप की सुगन्ध फैल रही थी ।। ९ ।। परीक्षित ! राजा भीष्मक ने पितर और देवताओं का विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी ।। १० ।। सुशोभित दाँतोंवाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणीजी को स्नान कराया गया, उनके हाथों में मङ्गलसूत्र कङ्कण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणों से विभूषित की गयीं ।। ११ ।। श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने साम, ऋक् और यजुर्वेद के मन्त्रों से उनकी रक्षा की और अथर्ववेद के विद्वान् पुरोहित ने ग्रहशान्ति के लिये हवन किया ।। १२ ।। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियों के बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्रह्मणों को दीं ।। १३ ।।

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणों से अपने पुत्र के विवाह-सम्बन्धी मङ्गलकृत्य कराये ।। १४ ।। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सो ने की मालाओं से सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारों की चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे ।। १५ ।। विदर्भराज भीष्मक ने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथा के अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगों को पहले से ही निश्चित किये हुए जनवासों में आनन्दपूर्वक ठहरा दिया ।। १६ ।। उस बारात में शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ंड्रक आदि शिशुपाल के सहस्रों मित्र नरपति आये थे ।। १७ ।। वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आये थे। उन्होंने अपनेअपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हर ने की चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।। १८-१९ ।।

विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान बलरामजी को लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशङ् का हुई ।। २० ।। यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भ्रातृस्नेह से उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिये चल पड़े ।। २१ ।।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्ण की तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे ! तो वे बड़ी चिन्ता में पड़ गयीं; सोच ने लगीं ।। २२ ।। ‘अहो ! अब मुझ अभागिनी के विवाहमें केवल एक रात की देरी है। परंतु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान अब भी नहीं पधारे ! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जानेवाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभी तक नहीं लौटे ।। २३ ।। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझ में कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरा हाथ पकडऩे के लिये—मुझे स्वीकार करने के लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं ? ।। २४ ।। ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं ! विधाता और भगवान शङ्कर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझ से अप्रसन्न हों’ ।। २५ ।। परीक्षित ! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुन में पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हीं को सोचते-सोचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसूभरे नेत्र बन्द कर लिये ।। २६ ।। परीक्षित ! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फडक़ ने लगे, जो प्रियतम के आगमन का प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे ।। २७ ।। इत ने में ही भगवान श्रीकृष्ण के भेजे हुए वे ब्राह्मणदेवता आ गये और उन्होंने अन्त:पुर में राजकुमारी रुक्मिणी को इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्र देवी हो ।। २८ ।। सती रुक्मिणीजी ने देखा ब्राह्मणदेवता का मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरे पर किसी प्रकार की घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणों से ही समझ गयीं कि भगवान श्रीकृष्ण आ गये ! फिर प्रसन्नता से खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवता से पूछा ।। २९ ।। तब ब्राह्मणदेवता ने निवेदन किया कि ‘भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।’ और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि ‘राजकुमारीजी ! आपको ले जाने की उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है’ ।। ३० ।। भगवान के शुभागमन का समाचार सुनकर रुक्मिणीजी का हृदय आनन्दातिरेक से भर गया। उन्होंने इसके बदले में ब्राह्मण के लिये भगवान के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत की समग्र लक्ष्मी ब्राह्मणदेवता को सौंप दी ।। ३१ ।।

राजा भीष्मक ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्या का विवाह देखने के लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजा की सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की ।। ३२ ।। और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ।। ३३ ।। भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान थे । भगवान के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान को सेना और साथियों के सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया ।। ३४ ।। विदर्भराज भीष्मकजी के यहाँ निमन्त्रण में जित ने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धन के अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सब का खूब सत्कार किया ।। ३५ ।। विदर्भ देश के नागरिकों ने जब सुना कि भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान के निवासस्थान पर आये और अपने नयनों की अज्जलि में भर-भरकर उनके वदनारविन्द का मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे ।। ३६ ।। वे आपस में इस प्रकार बातचीत करते थे—रुक्मिणी इन्हीं की अद्र्धाङ्गिनी होने के योग्य है, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणी के ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इन की पत्नी होने के योग्य नहीं है ।। ३७ ।। यदि हम ने अपने पूर्वजन्म या इस जन्म में कुछ भी सत्कर्म किया हो, तो त्रिलोक-विधाता भगवान हम पर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्याम-सुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजी का पाणिग्रहण करें’ ।। ३८ ।।

परीक्षित ! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्त:पुर से निकलकर देवीजी के मन्दिर के लिये चलीं। बहुत से सैनिक उनकी रक्षा में नियुक्त थे ।। ३९ ।। वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का चिन्तन करती हुई भगवती भवानी के पादपल्लवों का दर्शन करने के लिये पैदल ही चलीं ।। ४० ।। वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओर से उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथों में अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पह ने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे ।। ४१ ।। बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने- कपड़ों से सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकार के उपहार तथा पूजन आदि की सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ भी साथ थीं ।। ४२ ।। गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिन के चारों ओर जय-जयकार करते—विरद बखानते जा रहे थे ।। ४३ ।। देवीजी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणीजी ने अपने कमल के सदृश सु कोमल हाथ-पैर धोये, आचमन कयिा; इसके बाद बाहर-भीतर से पवित्र एवं शान्तभाव से युक्त होकर अम्बिकादेवी के मन्दिर में प्रवेश किया ।। ४४ ।। बहुत-सी विधि-विधान जाननेवाली बड़ी- बूढ़ी ब्राह्मणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान शङ्कर की अद्र्धाङ्गिनी भवानी को और भगवान शङ्करजी को भी रुक्मिणीजी से प्रणाम करवाया ।। ४५ ।। रुक्मिणीजी ने भगवती से प्रार्थना की— ‘अम्बि का माता ! आपकी गोद में बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजी को तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों’ ।। ४६ ।। इसके बाद रुक्मिणीजी ने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेंकों प्रकार के नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियों से अम्बिकादेवी की पूजा की ।। ४७ ।। तदनन्तर उक्त सामग्रियों से तथा नमक, पूआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईख से सुहागिन ब्राह्मणियों की भी पूजा की ।। ४८ ।। तब ब्राह्मणियों ने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिन ने ब्राह्मणियों और माता अम्बि का को नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया ।। ४९ ।। पूजा-अर्चा की विधि समाप्त हो जाने पर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठी से जगमगाते हुए करकमल के द्वारा एक सहेली का हाथ पकडक़र वे गिरिजामन्दिर से बाहर निकलीं ।। ५० ।।

परीक्षित ! रुक्मिणीजी भगवान की माया के समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरों को भी मोहित कर लेनेवाली थीं। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर और पतला था। मुखमण्डल पर कुण्डलों की शोभा जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण अवस्था की सन्धि में स्थित थीं। नितम्ब पर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्ष:स्थल कुछ उभरे हुए थे और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकों के कारण कुछ चञ्चल हो रही थी ।। ५१ ।। उनके होठों पर मनोहर मुसकान थी। उनके दाँतों की पाँत थी तो कुन्दकली के समान परम उज्ज्वल, परंतु प के हुए कुँदरू के समान लाल-लाल होठों की चमक से उसपर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवों के पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरू रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलों से पैदल ही राजहंस की गति से चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छबि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेव ने ही भगवान का कार्य सिद्ध करने के लिये अपने बाणों से उनका हृदय जर्जर कर दिया ।। ५२ ।। रुक्मिणीजी इस प्रकार इस उत्सव-यात्रा के बहा ने मन्द-मन्द गति से चलकर भगवान श्रीकृष्ण पर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुसकान तथा लजीली चितवन पर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इत ने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ों से धरती पर आ गिरे ।। ५३ ।। इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा करती हुई अपने कमल की कली के समान सुकुमार चरणों को बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही थीं। उन्होंने अपने बायें हाथ की अँगुलियों से मुख की ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियों की ओर लजीली चितवन से देखा। उसी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए ।। ५४ ।। राजकुमारी रुक्मिणीजी रथ पर चढऩा ही चाहती थीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते उनकी भीड़ में से रुक्मिणीजी को उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओं के सिर पर पाँव रखकर उन्हें अपने उस रथ पर बैठा लिया, जिसकी ध्वजा पर गरुडक़ा चिह्न लगा हुआ था ।। ५५ ।। इसके बाद जैसे ङ्क्षसह सियारों के बीच में से अपना भाग ले जाय, वैसे ही रुक्मिणीजी को लेकर भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी आदि यदुवंशियों के साथ वहाँ से चल पड़े ।। ५६ ।। उस समय जरासन्ध के वशवर्ती अभिमानी राजाओं को अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्ति का नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढक़र कह ने लगे—‘अहो, हमें धिक्कार है। आज हमलोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले, जैसे ङ्क्षसह के भाग को हरिन ले जायँ उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये’ ।। ५७ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-54]

॥ चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५४ ॥
श्रीशुक उवाच
इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः ।
स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः ॥ १॥

तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः ।
तस्थुस्तत्सम्मुखा राजन् विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते ॥ २॥

अश्वपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थे च कोविदाः ।
मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा ॥ ३॥

पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा ।
सव्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना ॥ ४॥

प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने ।
विनङ्क्ष्यत्यधुनैवैतत्तावकैः शात्रवं बलम् ॥ ५॥

तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसङ्कर्षणादयः ।
अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान् रथान् ॥ ६॥

पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि ।
सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः ॥ ७॥

हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोऽङ्घ्रयः ।
अश्वाश्वतरनागोष्ट्रखरमर्त्यशिरांसि च ॥ ८॥

हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाङ्क्षिभिः ।
राजानो विमुखा जग्मुर्जरासन्धपुरःसराः ॥ ९॥

शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम् ।
नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन् ॥ १०॥

भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज ।
न प्रियाप्रिययो राजन् निष्ठा देहिषु दृश्यते ॥ ११॥

यथा दारुमयी योषिन्नृत्यते कुहकेच्छया ।
एवमीश्वरतन्त्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः ॥ १२॥

शौरेः सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजितः ।
त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्ये एकमहं परम् ॥ १३॥

तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित् ।
कालेन दैवयुक्तेन जानन् विद्रावितं जगत् ॥ १४॥

अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः ।
पराजिताः फल्गुतन्त्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः ॥ १५॥

रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि ।
तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः ॥ १६॥

एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात्सानुगः पुरम् ।
हतशेषाः पुनस्तेऽपि ययुः स्वं स्वं पुरं नृपाः ॥ १७॥

रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन् स्वसुः ।
पृष्ठतोऽन्वगमत्कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली ॥ १८॥

रुक्म्यमर्षी सुसंरब्धः श‍ृण्वतां सर्वभूभुजाम् ।
प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः ॥ १९॥

अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम् ।
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि वः ॥ २०॥

इत्युक्त्वा रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः ।
चोदयाश्वान् यतः कृष्णस्तस्य मे संयुगं भवेत् ॥ २१॥

अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सुदुर्मतेः ।
नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता ॥ २२॥

विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित् ।
रथेनैकेन गोविन्दं तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्वयत् ॥ २३॥

धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः ।
आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन ॥ २४॥

कुत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाङ्क्षवद्धविः ।
हरिष्येऽद्य मदं मन्द मायिनः कूटयोधिनः ॥ २५॥

यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुञ्च दारीकाम् ।
स्मयन् कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम् ॥ २६॥

अष्टभिश्चतुरो वाहान् द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः ।
स चान्यद्धनुराधाय कृष्णं विव्याध पञ्चभिः ॥ २७॥

तैस्ताडितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः ।
पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः ॥ २८॥

परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ ।
यद्यदायुधमादत्त तत्सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः ॥ २९॥

ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया ।
कृष्णमभ्यद्रवत्क्रुद्धः पतङ्ग इव पावकम् ॥ ३०॥

तस्य चापततः खड्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः ।
छित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः ॥ ३१॥

दृष्ट्वा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला ।
पतित्वा पादयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती ॥ ३२॥

योगेश्वराप्रमेयात्मन् देव देव जगत्पते ।
हन्तुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज ॥ ३३॥

श्रीशुक उवाच
तया परित्रासविकम्पिताङ्गया
शुचावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया ।
कातर्यविस्रंसितहेममालया
गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत ॥ ३४॥

चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारिणं
सश्मश्रुकेशं प्रवपन् व्यरूपयत् ।
तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं
यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः ॥ ३५॥

कृष्णान्तिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम् ।
तथा भूतं हतप्रायं दृष्ट्वा सङ्कर्षणो विभुः ।
विमुच्य बद्धं करुणो भगवान् कृष्णमब्रवीत् ॥ ३६॥

असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम् ।
वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः ॥ ३७॥

मैवास्मान् साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया ।
सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक् पुमान् ॥ ३८॥

बन्धुर्वधार्हदोषोऽपि न बन्धोर्वधमर्हति ।
त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः ॥ ३९॥

क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः ।
भ्रातापि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतरस्ततः ॥ ४०॥

राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः ।
मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदान्धाः क्षिपन्ति हि ॥ ४१॥

तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम् ।
यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत् ॥ ४२॥

आत्ममोहो नृणामेष कल्पते देवमायया ।
सुहृद्दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम् ॥ ४३॥

एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम् ।
नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः ॥ ४४॥

देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः ।
आत्मन्यविद्यया कॢप्तः संसारयति देहिनम् ॥ ४५॥

नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्चासतः सति ।
तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः ॥ ४६॥

जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित् ।
कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव ॥ ४७॥

यथा शयान आत्मानं विषयान् फलमेव च ।
अनुभुङ्क्तेऽप्यसत्यर्थे तथाऽऽप्नोत्यबुधो भवम् ॥ ४८॥

तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम् ।
तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते ॥ ४९॥

श्रीशुक उवाच
एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता ।
वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे ॥ ५०॥

प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः ।
स्मरन् विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः ॥ ५१॥

चक्रे भोजकटं नाम निवासाय महत्पुरम् ।
अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम् ।
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा ॥ ५२॥

भगवान् भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान् ।
पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह ॥ ५३॥ सगोनसंगोगो
तदा महोत्सवो नॄणां यदुपुर्यां गृहे गृहे ।
अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप ॥ ५४॥

नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः ।
पारिबर्हमुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः ॥ ५५॥

सा वृष्णिपुर्युत्तभितेन्द्रकेतुभि-
र्विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणैः ।
बभौ प्रतिद्वार्युपकॢप्तमङ्गलै-
रापूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकैः ॥ ५६॥

सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम् ।
गजैर्द्वाःसु परामृष्टरम्भापूगोपशोभिता ॥ ५७॥

कुरुसृञ्जयकैकेयविदर्भयदुकुन्तयः ।
मिथो मुमुदिरे तस्मिन् सम्भ्रमात्परिधावताम् ॥ ५८॥

रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः ।
राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः ॥ ५९॥

द्वारकायामभूद्राजन् महामोदः पुरौकसाम् ।
रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियःपतिम् ॥ ६०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहे चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४॥


दशम स्कन्ध-चौवनवाँ अध्याय 60
शिशुपाल के साथी राजाओं की और रुक्मी की हार तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोध से आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनों पर सवार हो गये। अपनी-अपनी सेना के साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान श्रीकृष्ण के पीछे दौड़े ।। १ ।। राजन् ! जब यदुवंशियों के सेनापतियों ने देखा कि शत्रुदल हम पर चढ़ा आ रहा है, तब उन्होंने भी अपने-अपने धनुष का टङ्कार किया और घूमकर उनके सामने डट गये ।। २ ।। जरासन्ध की सेना के लोग कोई घोड़ेपर, कोई हाथीपर, तो कोई रथ पर चढ़े हुए थे। वे सभी धनुर्वेद के बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियों पर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ों पर मूसलधार पानी बरसा रहे हों ।। ३ ।।

परमसुन्दरी रुक्मिणीजी ने देखा कि उनके पति श्रीकृष्ण की सेना बाण-वर्षा से ढक गयी है। तब उन्होंने लज्जा के साथ भयभीत नेत्रों से भगवान श्रीकृष्ण के मुख की ओर देखा ।। ४ ।। भगवान ने हँसकर कहा—‘सुन्दरी ! डरो मत। तुम्हारी सेना अभी तुम्हारे शत्रुओं की सेना को नष्ट किये डालती है’ ।। ५ ।। इधर गद और सङ्कर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओं का पराक्रम और अधिक न सह सके। वे अपने बाणों से शत्रुओं के हाथी, घोड़े तथा रथों को छिन्न-भिन्न करने लगे ।। ६ ।। उनके बाणों से रथ, घोड़े और हाथियों पर बैठे विपक्षी वीरों के कुण्डल, किरीट और पगडिय़ों से सुशोभित करोड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त हाथ, पहुँचे, जाँघें और पैर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर ने लगे। इसी प्रकार घोड़े, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्यों के सिर भी कट-कटकर रणभूमि में लोट ने लगे ।। ७-८ ।। अन्त में विजय की सच्ची आकाङ्क्षावाले यदुवंशियों ने शत्रुओं की सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्ध से पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए ।। ९ ।।

उधर शिशुपाल अपनी भावी पत्नी के छिन जाने के कारण मरणासन्न-सा हो रहा था। न तो उसके हृदय में उत्साह रह गया था और न तो शरीर पर कान्ति। उसका मुँह सूख रहा था। उसके पास जाकर जरासन्ध कह ने लगा— ।। १० ।। ‘शिशुपालजी ! आप तो एक श्रेष्ठ पुरुष हैं। यह उदासी छोड़ दीजिये। क्योंकि राजन् ! कोई भी बात सर्वदा अपने मन के अनुकूल ही हो या प्रतिकूल ही हो, इस सम्बन्ध में कुछ स्थिरता किसी भी प्राणी के जीवन में नहीं देखी जाती ।। ११ ।। जैसे कठपुतली बाजीगर की इच्छा के अनुसार नाचती है, वैसे ही यह जीव भी भगवदिच्छा के अधीन रहकर सुख और दु:ख के सम्बन्ध में यथाशक्ति चेष्टा करता रहता है ।। १२ ।। देखिये, श्रीकृष्ण ने मुझे तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेनाओं के साथ सत्रह बार हरा दिया, मैंने केवल एक बार—अठारहवीं बार उन पर विजय प्राप्त की ।। १३ ।। फिर भी इस बात को लेकर मैं न तो कभी शोक करता हूँ और न तो कभी हर्ष; क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रारब्ध के अनुसार कालभगवान ही इस चराचर जगत को झकझोरते रहते हैं ।। १४ ।। इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बड़े-बड़े वीर सेनापतियों के भी नायक हैं। फिर भी, इस समय श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों की थोड़ी-सी सेना ने हमें हरा दिया है ।। १५ ।। इस बार हमारे शत्रुओं की ही जीत हुई, क्योंकि काल उन्हींके अनुकूल था। जब काल हमारे दाहि ने होगा, तब हम भी उन्हें जीत लेंगे’ ।। १६ ।। परीक्षित ! जब मित्रों ने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने अनुयायियों के साथ अपनी राजधानी को लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मर ने से बचे थे, अपने-अपने नगरों को चले गये ।। १७ ।।

रुक्मिणीजी का बड़ा भाई रुक्मी भगवान श्रीकृष्ण से बहुत द्वेष रखता था। उस को यह बात बिलकुल सहन न हुई कि मेरी बहिन को श्रीकृष्ण हर ले जायँ और राक्षसरीति से बलपूर्वक उसके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ले ली और श्रीकृष्ण का पीछा किया ।। १८ ।। महाबाहु रुक्मी क्रोध के मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियों के सामने यह प्रतिज्ञा की— ।। १९ ।। ‘मैं आपलोगों के बीच में यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्ध में श्रीकृष्ण को न मार स का और अपनी बहिन रुक्मिणी को न लौटा स का तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुर में प्रवेश नहीं करूँगा’ ।। २० ।। परीक्षित ! यह कहकर वह रथ पर सवार हो गया और सारथि से बोला—‘जहाँ कृष्ण हो वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसी के साथ युद्ध होगा ।। २१ ।। आज मैं अपने तीखे बाणों से उस खोटी बुद्धिवाले ग्वाले के बलवीर्य का घमंड चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो उसका साहस, वह हमारी बहिन को बलपूर्वक हर ले गया है’ ।। २२ ।। परीक्षित ! रुक्मी की बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान के तेजष प्रभाव को बिलकुल नहीं जानता था। इसीसे इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथ से श्रीकृष्ण के पास पहुँचकर ललकार ने लगा—‘खड़ा रह ! खड़ा रह !’ ।। २३ ।। उसने अपने धनुष को बलपूर्वक खींचकर भगवान श्रीकृष्ण को तीन बाण मारे और कहा—‘एक क्षण मेरे सामने ठहर ! यदुवंशियों के कुलकलङ्क ! जैसे कौआ होम की सामग्री चुराकर उड़ जाय, वैसे ही तू मेरी बहिन को चुराकर कहाँ भागा जा रहा है ? अरे मन्द ! तू बड़ा मायावी और कपट-युद्ध में कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ ।। २४-२५ ।। देख ! जब तक मेरे बाण तुझे धरती पर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्ची को छोडक़र भाग जा।’ रुक्मी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उसपर छ: बाण छोड़े ।। २६ ।। साथ ही भगवान श्रीकृष्ण ने आठ बाण उसके चार घोड़ों पर और दो सारथि पर छोड़े और तीन बाणों से उसके रथ की ध्वजा को काट डाला। तब रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया और भगवान श्रीकृष्ण को पाँच बाण मारे ।। २७ ।। उन बाणों के लगने पर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मी ने इसके बाद एक और धनुष लिया, परंतु हाथ में लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युत ने उसे भी काट डाला ।। २८ ।। इस प्रकार रुक्मी ने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमर— जित ने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभी को भगवान ने प्रहार करने के पहले ही काट डाला ।। २९ ।। अब रुक्मी क्रोधवश हाथ में तलवार लेकर भगवान श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से रथ से कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतिंगा आग की ओर लपकता है ।। ३० ।। जब भगवान ने देखा कि रुक्मी मुझ पर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणों से उसकी ढाल-तलवार को तिल-तिल करके काट दिया और उस को मार डालने के लिये हाथ में तीखी तलवार निकाल ली ।। ३१ ।। जब रुक्मिणीजी ने देखा कि ये तो हमारे भाई को अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भय से विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर गिरकर करुण- स्वर में बोलीं— ।। ३२ ।। ‘देवताओं के भी आराध्यदेव ! जगतपते ! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओं को कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान् हैं। परंतु कल्याण- स्वरूप भी तो हैं। प्रभो ! मेरे भैया को मारना आपके योग्य काम नहीं है’ ।। ३३ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रुक्मिणीजी का एक-एक अङ्ग भय के मारे थर-थर काँप रहा था। शोक की प्रबलता से मुँह सूख गया था, गला रुँध गया था। आतुरतावश सो ने का हार गले से गिर पड़ा था और इसी अवस्था में वे भगवान के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परमदयालु भगवान उन्हें भयभीत देखकर करुणा से द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मी को मार डालने का विचार छोड़ दिया ।। ३४ ।। फिर भी रुक्मी उनके अनिष्ट की चेष्टा से विमुख न हुआ। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उस को उसी के दुपट्टे से बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगह से मूँडक़र उसे कुरूप बना दिया। तब तक यदुवंशी वीरों ने शत्रु की अद्भुत सेना को तहस-नहस कर डाला—ठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवन को रौंद डालता है ।। ३५ ।। फिर वे लोग उधर से लौटकर श्रीकृष्ण के पास आये, तो देखा कि रुक्मी दुपट्टे से बँधा हुआ अधमरी अवस्था में पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान बलरामजी को बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्ण से कहा—।। ३६ ।। ‘कृष्ण ! तुम ने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हमलोगों के योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धी की दाढ़ी-मूँछ मूँडक़र उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकार का वध ही है’ ।। ३७ ।। इसके बाद बलरामजी ने रुक्मिणी को सम्बोधन करके कहा— ‘साध्वी ! तुम्हारे भाई का रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हमलोगों से बुरा न मानना; क्योंकि जीव को सुख-दु:ख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्म का फल भोगना पड़ता है’ ।। ३८ ।। अब श्रीकृष्ण से बोले—‘कृष्ण ! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करनेयोग्य अपराध करे, तो भी अपने ही सम्बन्धियों के द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराध से ही मर चु का है, मरे हुए को फिर क्या मारना ?’ ।। ३९ ।। फिर रुक्मिणीजी से बोले—‘साध्वी ! ब्रह्माजी ने क्षत्रियों का धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाई को मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है’ ।। ४० ।। इसके बाद श्रीकृष्ण से बोले—‘भाई कृष्ण ! यह ठीक है कि जो लोग धन के नशे में अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारण से अपने बन्धुओं का भी तिरस्कार कर दिया करते हैं’ ।। ४१ ।। अब वे रुक्मिणीजी से बोले—‘साध्वी ! तुम्हारे भाई- बन्धु समस्त प्राणियों के प्रति दुर्भाव रखते हैं। हम ने उनके मङ्गल के लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियों की भाँति अमङ्गल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धि की विषमता है ।। ४२ ।। देवि ! जो लोग भगवान की माया से मोहित होकर देह को ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हीं को ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है ।। ४३ ।। समस्त देहधारियों की आत्मा एक ही है और कार्य-कारणसे, माया से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियों के भेद से जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परंतु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीर के भेद से आत्मा का भेद मानते हैं ।। ४४ ।। यह शरीर आदि और अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मा में उसके अज्ञान से ही इस की कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे ‘मैं समझता है, उस को जन्म-मृत्यु के चक्कर में ले जाता है ।। ४५ ।। साध्वी ! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्य के द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण है। इसलिये सूर्य के साथ नेत्र और रूप का न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसार की सत्ता आत्मसत्ता के कारण जान पड़ती है, समस्त संसार का प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्मा के साथ दूसरे असत् पदार्थों का संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है ? ।। ४६ ।। जन्म लेना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और मरना—ये सारे विकार शरीर के ही होते हैं, आत्मा के नहीं। जैसे कृष्णपक्ष में कलाओं का ही क्षय होता है, चन्द्रमा का नहीं, परंतु अमावस्या के दिन व्यवहार में लोग चन्द्रमा का ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीर के ही होते हैं, परंतु लोग उसे भ्रमवश अपना—अपने आत्मा का मान लेते हैं ।। ४७ ।। जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थ के न होने पर भी स्वप्न में भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलों का अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठमूठ संसारचक्र का अनुभव करते हैं ।। ४८ ।। इसलिये साध्वी ! अज्ञान के कारण होनेवाले इस शोक को त्याग दो। यह शोक अन्त:करण को मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोडक़र तुम अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ ’।। ४९ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब बलरामजी ने इस प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणीजी ने अपने मन का मैल मिटाकर विवेक-बुद्धि से उसका समाधान किया ।। ५० ।। रुक्मी की सेना और उसके तेज का नाश हो चु का था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्त की सारी आशा- अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओं ने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जाने की कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी ।। ५१ ।। अत: उसने अपने रहने के लिये भोजकट नाम की एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘दुर्बुद्धि कृष्ण को मारे बिना और अपनी छोटी बहिन को लौटाये बिना मैं कुण्डिनपुर में प्रवेश नहीं करूँगा।’ इसलिये क्रोध करके वह वहीं रहने लगा ।। ५२ ।।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सब राजाओं को जीत लिया और विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजी को द्वारका में लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ५३ ।। हे राजन् ! उस समय द्वारकापुरी में घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँ के सभी लोगों का यदुपति श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम जो था ।। ५४ ।। वहाँ के सभी नर-नारी मणियों के चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्द से भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पह ने दूल्हा और दुलहिन को अनेकों भेंट की सामग्रियाँ उपहार में दीं ।। ५५ ।। उस समय द्वारका की अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी- बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचे तक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ, वस्त्र और रत्नों के तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वार पर दूब, खील आदि मङ्गल की वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जलभरे कलश, अरगजा और धूप की सुगन्ध तथा दीपावली से बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी ।। ५६ ।। मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियों के मद से द्वारका की सडक़ और गलियों का छिडक़ाव हो गया था। प्रत्येक दरवाजे पर केलों के खंभे और सुपारी के पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे ।। ५७ ।। उस उत्सव में कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धुवर्गों में कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशों के लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे ।। ५८ ।। जहाँ-तहाँ रुक्मिणी-हरण की ही गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं ।। ५९ ।। महाराज ! भगवती लक्ष्मीजी को रुक्मिणी के रूप में साक्षात लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियों को परम आनन्द हुआ ।। ६० ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-55]

॥ पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५५ ॥
श्रीशुक उवाच
कामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग्रुद्रमन्युना ।
देहोपपत्तये भूयस्तमेव प्रत्यपद्यत ॥ १॥

स एव जातो वैदर्भ्यां कृष्णवीर्यसमुद्भवः ।
प्रद्युम्न इति विख्यातः सर्वतोऽनवमः पितुः ॥ २॥

तं शम्बरः कामरूपी हृत्वा तोकमनिर्दशम् ।
स विदित्वाऽऽत्मनः शत्रुं प्रास्योदन्वत्यगाद्गृहम् ॥ ३॥

तं निर्जगार बलवान् मीनः सोऽप्यपरैः सह ।
वृतो जालेन महता गृहीतो मत्स्यजीविभिः ॥ ४॥

तं शम्बराय कैवर्ता उपाजह्रुरुपायनम् ।
सूदा महानसं नीत्वावद्यन् सुधितिनाद्भुतम् ॥ ५॥

दृष्ट्वा तदुदरे बालं मायावत्यै न्यवेदयन् ।
नारदोऽकथयत्सर्वं तस्याः शङ्कितचेतसः ।
बालस्य तत्त्वमुत्पत्तिं मत्स्योदरनिवेशनम् ॥ ६॥

सा च कामस्य वै पत्नी रतिर्नाम यशस्विनी ।
पत्युर्निर्दग्धदेहस्य देहोत्पत्तिं प्रतीक्षती ॥ ७॥

निरूपिता शम्बरेण सा सूदौदनसाधने ।
कामदेवं शिशुं बुद्ध्वा चक्रे स्नेहं तदार्भके ॥ ८॥

नातिदीर्घेण कालेन स कार्ष्णी रूढयौवनः ।
जनयामास नारीणां वीक्षन्तीनां च विभ्रमम् ॥ ९॥

सा तं पतिं पद्मदलायतेक्षणं
प्रलम्बबाहुं नरलोकसुन्दरम् ।
सव्रीडहासोत्तभितभ्रुवेक्षती
प्रीत्योपतस्थे रतिरङ्ग सौरतैः ॥ १०॥

तामाह भगवान् कार्ष्णिर्मातस्ते मतिरन्यथा ।
मातृभावमतिक्रम्य वर्तसे कामिनी यथा ॥ ११॥

रतिरुवाच
भवान् नारायणसुतः शम्बरेण हृतो गृहात् ।
अहं तेऽधिकृता पत्नी रतिः कामो भवान् प्रभो ॥ १२॥

एष त्वानिर्दशं सिन्धावक्षिपच्छम्बरोऽसुरः ।
मत्स्योऽग्रसीत्तदुदरादिह प्राप्तो भवान् प्रभो ॥ १३॥

तमिमं जहि दुर्धर्षं दुर्जयं शत्रुमात्मनः ।
मायाशतविदं त्वं च मायाभिर्मोहनादिभिः ॥ १४॥

परिशोचति ते माता कुररीव गतप्रजा ।
पुत्रस्नेहाकुला दीना विवत्सा गौरिवातुरा ॥ १५॥

प्रभाष्यैवं ददौ विद्यां प्रद्युम्नाय महात्मने ।
मायावती महामायां सर्वमायाविनाशिनीम् ॥ १६॥

स च शम्बरमभ्येत्य संयुगाय समाह्वयत् ।
अविषह्यैस्तमाक्षेपैः क्षिपन् सञ्जनयन् कलिम् ॥ १७॥

सोऽधिक्षिप्तो दुर्वचोभिः पादाहत इवोरगः ।
निश्चक्राम गदापाणिरमर्षात्ताम्रलोचनः ॥ १८॥

गदामाविध्य तरसा प्रद्युम्नाय महात्मने ।
प्रक्षिप्य व्यनदन्नादं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम् ॥ १९॥

तामापतन्तीं भगवान् प्रद्युम्नो गदया गदाम् ।
अपास्य शत्रवे क्रुद्धः प्राहिणोत्स्वगदां नृप ॥ २०॥

स च मायां समाश्रित्य दैतेयीं मयदर्शिताम् ।
मुमुचेऽस्त्रमयं वर्षं कार्ष्णौ वैहायसोऽसुरः ॥ २१॥

बाध्यमानोऽस्त्रवर्षेण रौक्मिणेयो महारथः ।
सत्त्वात्मिकां महाविद्यां सर्वमायोपमर्दिनीम् ॥ २२॥

ततो गौह्यकगान्धर्वपैशाचोरगराक्षसीः ।
प्रायुङ्क्त शतशो दैत्यः कार्ष्णिर्व्यधमयत्स ताः ॥ २३॥

निशातमसिमुद्यम्य सकिरीटं सकुण्डलम् ।
शम्बरस्य शिरः कायात्ताम्रश्मश्र्वोजसाहरत् ॥ २४॥

आकीर्यमाणो दिविजैः स्तुवद्भिः कुसुमोत्करैः ।
भार्ययाम्बरचारिण्या पुरं नीतो विहायसा ॥ २५॥

अन्तःपुरवरं राजन् ललनाशतसङ्कुलम् ।
विवेश पत्न्या गगनाद्विद्युतेव बलाहकः ॥ २६॥

तं दृष्ट्वा जलदश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।
प्रलम्बबाहुं ताम्राक्षं सुस्मितं रुचिराननम् ॥ २७॥

स्वलङ्कृतमुखाम्भोजं नीलवक्रालकालिभिः ।
कृष्णं मत्वा स्त्रियो ह्रीता निलिल्युस्तत्र तत्र ह ॥ २८॥

अवधार्य शनैरीषद्वैलक्षण्येन योषितः ।
उपजग्मुः प्रमुदिताः सस्त्रीरत्नं सुविस्मिताः ॥ २९॥

अथ तत्रासितापाङ्गी वैदर्भी वल्गुभाषिणी ।
अस्मरत्स्वसुतं नष्टं स्नेहस्नुतपयोधरा ॥ ३०॥

को न्वयं नरवैदूर्यः कस्य वा कमलेक्षणः ।
धृतः कया वा जठरे केयं लब्धा त्वनेन वा ॥ ३१॥

मम चाप्यात्मजो नष्टो नीतो यः सूतिकागृहात् ।
एतत्तुल्यवयोरूपो यदि जीवति कुत्रचित् ॥ ३२॥

कथं त्वनेन सम्प्राप्तं सारूप्यं शार्ङ्गधन्वनः ।
आकृत्यावयवैर्गत्या स्वरहासावलोकनैः ॥ ३३॥

स एव वा भवेन्नूनं यो मे गर्भे धृतोऽर्भकः ।
अमुष्मिन् प्रीतिरधिका वामः स्फुरति मे भुजः ॥ ३४॥

एवं मीमांसमानायां वैदर्भ्यां देवकीसुतः ।
देवक्यानकदुन्दुभ्यामुत्तमश्लोक आगमत् ॥ ३५॥

विज्ञातार्थोऽपि भगवांस्तूष्णीमास जनार्दनः ।
नारदोऽकथयत्सर्वं शम्बराहरणादिकम् ॥ ३६॥

तच्छ्रुत्वा महदाश्चर्यं कृष्णान्तःपुरयोषितः ।
अभ्यनन्दन् बहूनब्दान् नष्टं मृतमिवागतम् ॥ ३७॥

देवकी वसुदेवश्च कृष्णरामौ तथा स्त्रियः ।
दम्पती तौ परिष्वज्य रुक्मिणी च ययुर्मुदम् ॥ ३८॥

नष्टं प्रद्युम्नमायातमाकर्ण्य द्वारकौकसः ।
अहो मृत इवायातो बालो दिष्ट्येति हाब्रुवन् ॥ ३९॥

यं वै मुहुः पितृसरूपनिजेशभावा-
स्तन्मातरो यदभजन् रहरूढभावाः ।
चित्रं न तत्खलु रमास्पदबिम्बबिम्बे
कामे स्मरेऽक्षविषये किमुतान्यनार्यः ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे
उत्तरार्धे प्रद्युम्नोत्पत्तिनिरूपणं नाम पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५॥


दशम स्कन्ध-पचपनवाँ अध्याय 40
प्रद्युम्र का जन्म और शम्बरासुर का वध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! कामदेव भगवान वासुदेव के ही अंश हैं। वे पहले रुद्र- भगवान की क्रोधाग्नि से भस्म हो गये थे। अब फिर शरीर-प्राप्ति के लिये उन्होंने अपने अंशी भगवान वासुदेव का ही आश्रय लिया ।। १ ।। वे ही काम अब की बार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा रुक्मिणीजी- के गर्भ से उत्पन्न हुए और प्रद्युम्र नाम से जगत में प्रसिद्ध हुए। सौन्दर्य, वीर्य, सौशील्य आदि सद्गुणों में भगवान श्रीकृष्ण से वे किसी प्रकार कम न थे ।। २ ।। बालक प्रद्युम्र अभी दस दिन के भी न हुए थे कि कामरूपी शम्बरासुर वेष बदलकर सूतिकागृह से उन्हें हर ले गया और समुद्र में फेंककर अपने घर लौट गया। उसे मालूम हो गया था कि यह मेरा भावी शत्रु है ।। ३ ।। समुद्र में बालक प्रद्युम्र को एक बड़ा भारी मच्छ निगल गया। तदनन्तर मछुओं ने अपने बहुत बड़े जाल में फँसाकर दूसरी मछलियों के साथ उस मच्छ को भी पकड़ लिया ।। ४ ।। और उन्होंने उसे ले जाकर शम्बरासुर को भेंट के रूप में दे दिया। शम्बरासुर के रसोइये उस अद्भुत मच्छ को उठाकर रसोईघर में ले आये और कुल्हाडिय़ों से उसे काट ने लगे ।। ५ ।। रसोइयों ने मत्स्य के पेट में बालक देखकर उसे शम्बरासुर की दासी मायावती को समॢपत किया। उसके मन में बड़ी शं का हुई। तब नारदजी ने आकर बालक का कामदेव होना, श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के गर्भ से जन्म लेना, मच्छ के पेट में जाना सब कुछ कह सुनाया ।। ६ ।। परीक्षित ! वह मायावती कामदेव की यशस्विनी पत्नी रति ही थी। जिस दिन शङ्करजी के क्रोध से कामदेव का शरीर भस्म हो गया था, उसी दिन से वह उसकी देह के पुन: उत्पन्न होने की प्रतीक्षा कर रही थी ।। ७ ।। उसी रति को शम्बरासुर ने अपने यहाँ दाल-भात बनाने के काम में नियुक्त कर रखा था। जब उसे मालूम हुआ कि इस शिशु के रूप में मेरे पति कामदेव ही हैं, तब वह उसके प्रति बहुत प्रेम करने लगी ।। ८ ।। श्रीकृष्णकुमार भगवान प्रद्युम्र बहुत थोड़े दिनों में जवान हो गये। उनका रूप-लावण्य इतना अद्भुत था कि जो स्त्रियाँ उनकी ओर देखतीं, उनके मन में श्ृङ्गार-रस का उद्दीपन हो जाता ।। ९ ।। कमलदल के समान कोमल एवं विशाल नेत्र, घुटनों तक लंबी-लंबी बाँहें और मनुष्यलोक में सब से सुन्दर शरीर ! रति सलज्ज हास्य के साथ भौंह मटकाकर उनकी ओर देखती और प्रेम से भरकर स्त्री-पुरुषसम्बन्धी भाव व्यक्त करती हुई उनकी सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती ।। १० ।। श्रीकृष्णनन्दन भगवान प्रद्युम्र ने उसके भावों में परिवर्तन देखकर कहा—‘देवि ! तुम तो मेरी माँ के समान हो। तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी ? मैं देखता हूँ कि तुम माता का भाव छोडक़र कामिनी के समान हाव-भाव दिखा रही हो’ ।। ११ ।।

रति ने कहा—‘प्रभो ! आप स्वयं भगवान नारायण के पुत्र हैं। शम्बरासुर आपको सूतिकागृह से चुरा लाया था। आप मेरे पति स्वयं कामदेव हैं और मैं आपकी सदा की धर्मपत्नी रति हूँ ।। १२ ।। मेरे स्वामी ! जब आप दस दिन के भी न थे, तब इस शम्बरासुर ने आपको हरकर समुद्र में डाल दिया था। वहाँ एक मच्छ आपको निगल गया और उसी के पेट से आप यहाँ मुझे प्राप्त हुए हैं ।। १३ ।। यह शम्बरासुर सैकड़ों प्रकार की माया जानता है। इस को अपने वश में कर लेना या जीत लेना बहुत ही कठिन है। आप अपने इस शत्रु को मोहन आदि मायाओं के द्वारा नष्ट कर डालिये ।। १४ ।। स्वामिन् ! अपनी सन्तान आपके खो जाने से आपकी माता पुत्रस्नेह से व्याकुल हो रही हैं, वे आतुर होकर अत्यन्त दीनता से रात-दिन चिन्ता करती रहती हैं। उनकी ठीक वैसी ही दशा हो रही है, जैसी बच्चा खो जाने पर कुररी पक्षी की अथवा बछड़ा खो जाने पर बेचारी गाय की होती है ।। १५ ।। मायावती रति ने इस प्रकार कहकर परमशक्तिशाली प्रद्युम्र को महामाया नाम की विद्या सिखायी । यह विद्या ऐसी है, जो सब प्रकार की मायाओं का नाश कर देती है ।। १६ ।। अब प्रद्युम्रजी शम्बरासुर के पास जाकर उसपर बड़े कटु-कटु आक्षेप करने लगे । वे चाहते थे कि यह किसी प्रकार झगड़ा कर बैठे । इतना ही नहीं, उन्होंने युद्ध के लिये उसे स्पष्टरूप से ललकारा ।। १७ ।।

प्रद्युम्रजी के कटुवचनों की चोट से शम्बरासुर तिलमिला उठा । मानो किसी ने विषैले साँप को पैर से ठोकर मार दी हो । उसकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं । वह हाथ में गदा लेकर बाहर निकल आया ।। १८ ।। उसने अपनी गदा बड़े जोर से आकाश में घुमायी और इसके बाद प्रद्युम्रजी पर चला दी । गदा चलाते समय उसने इतना कर्कश ङ्क्षसहनाद किया, मानो बिजली कडक़ रही हो ।। १९ ।। परीक्षित ! भगवान प्रद्युम्र ने देखा कि उसकी गदा बड़े वेग से मेरी ओर आ रही है । तब उन्होंने अपनी गदा के प्रहार से उसकी गदा गिरा दी और क्रोध में भरकर अपनी गदा उसपर चलायी ।। २० ।। तब वह दैत्य मयासुर की बतलायी हुई आसुरी माया का आश्रय लेकर आकाश में चला गया और वहीं से प्रद्युम्रजी पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगा ।। २१ ।। महारथी प्रद्युम्रजी पर बहुत-सी अस्त्र- वर्षा करके जब वह उन्हें पीडि़त करने लगा, तब उन्होंने समस्त मायाओं को शान्त करनेवाली सत्त्वमयी महाविद्या का प्रयोग किया ।। २२ ।। तदनन्तर शम्बरासुर ने यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षसों की सैकड़ों मायाओं का प्रयोग किया; परंतु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्रजी ने अपनी महाविद्या से उन सब का नाश कर दिया ।। २३ ।। इसके बाद उन्होंने एक तीक्ष्ण तलवार उठायी और शम्बरासुर का किरीट एवं कुण्डल से सुशोभित सिर, जो लाल-लाल दाढ़ी, मूछों से बड़ा भयङ्कर लग रहा था, काटकर धड़ से अलग कर दिया ।। २४ ।। देवतालोग पुष्पों की वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे और इसके बाद मायावती रति, जो आकाश में चलना जानती थी, अपने पति प्रद्युम्रजी को आकाशमार्ग से द्वारकापुरी में ले गयी ।। २५ ।।

परीक्षित ! आकाश में अपनी गोरी पत्नी के साथ साँवले प्रद्युम्रजी की ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली और मेघ का जोड़ा हो । इस प्रकार उन्होंने भगवान के उस उत्तम अन्त:पुर में प्रवेश किया, जिसमें सैकड़ों श्रेष्ठ रमणियाँ निवास करती थीं ।। २६ ।। अन्त:पुर की नारियों ने देखा कि प्रद्युम्रजी का शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामवर्ण है । रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए हैं । घुटनों तक लंबी भुजाएँ हैं, रतनारे नेत्र हैं और सुन्दर मुख पर मन्द-मन्द मुसकान की अनूठी ही छटा है । उनके मुखारविन्द पर घुँघराली और नीली अलकें इस प्रकार शोभायमान हो रही हैं, मानो भौंरें खेल रहे हों । वे सब उन्हें श्रीकृष्ण समझकर सकुचा गयीं और घरों में इधर-उधर लुक-छिप गयीं ।। २७-२८ ।। फिर धीरे-धीरे स्त्रियों को यह मालूम हो गया कि ये श्रीकृष्ण नहीं हैं । क्योंकि उनकी अपेक्षा इनमें कुछ विलक्षणता अवश्य है । अब वे अत्यन्त आनन्द और विस्मय से भरकर इस श्रेष्ठ दम्पति के पास आ गयीं ।। २९ ।। इसी समय वहाँ रुक्मिणीजी आ पहुँचीं । परीक्षित ! उनके नेत्र कजरारे और वाणी अत्यन्त मधुर थी । इस नवीन दम्पति को देखते ही उन्हें अपने खोये हुए पुत्र की याद हो आयी । वात्सल्यस्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध झर ने लगा ।। ३० ।। रुक्मिणीजी सोच ने लगीं—‘यह नररत्न कौन है ? यह कमलनयन किस का पुत्र है ? किस बड़भागिनी ने इसे अपने गर्भ में धारण किया होगा ? इसे यह कौन सौभाग्यवती पत्नीरूप में प्राप्त हुई है ? ।। ३१ ।। मेरा भी एक नन्हा-सा शिशु खो गया था ! न जाने कौन उसे सूतिकागृह से उठा ले गया ! यदि वह कहीं जीता-जागता होगा तो उसकी अवस्था तथा रूप भी इसी के समान हुआ होगा ।। ३२ ।। मैं तो इस बात से हैरान हूँ कि इसे भगवान श्यामसुन्दरकी-सी रूप-रेखा, अङ्गों की गठन, चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और बोल-चाल कहाँ से प्राप्त हुई ? ।। ३३ ।। हो-न-हो यह वही बालक है, जिसे मैंने अपने गर्भ में धारण किया था । क्योंकि स्वभाव से ही मेरा स्नेह इसके प्रति उमड़ रहा है और मेरी बायीं बाँह भी फडक़ रही है’ ।। ३४ ।।

जिस समय रुक्मिणीजी इस प्रकार सोच-विचार कर रही थीं—निश्चय और सन्देह के झूले में झूल रही थीं, उसी समय पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवजी के साथ वहाँ पधारे ।। ३५ ।। भगवान श्रीकृष्ण सब कुछ जानते थे। परंतु वे कुछ न बोले, चुपचाप खड़े रहे। इत ने में ही नारदजी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने प्रद्युम्रजी को शम्बरासुर का हर ले जाना, समुद्र में फेंक देना आदि जितनी भी घटनाएँ घटित हुई थीं, वे सब कह सुनायीं ।। ३६ ।। नारदजी के द्वारा यह महान आश्चर्यमयी घटना सुनकर भगवान श्रीकृष्ण के अन्त:पुर की स्त्रियाँ चकित हो गयीं और बहुत वर्षों तक खोये रहने के बाद लौटे हुए प्रद्युम्रजी का इस प्रकार अभिनन्दन करने लगीं, मानो कोई मरकर जी उठा हो ।। ३७ ।। देवकीजी, वसुदेवजी, भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी और स्त्रियाँ—सब उस नवदम्पति को हृदय से लगाकर बहुत ही आनन्दित हुए ।। ३८ ।। जब द्वारकावासी नर-नारियों को यह मालूम हुआ कि खोये हुए प्रद्युम्रजी लौट आये हैं, तब वे परस्पर कह ने लगे— ‘अहो, कैसे सौभाग्य की बात है कि यह बालक मानो मरकर फिर लौट आया’ ।। ३९ ।। परीक्षित ! प्रद्युम्रजी का रूप-रंग भगवान श्रीकृष्ण से इतना मिलता-जुलता था कि उन्हें देखकर उनकी माताएँ भी उन्हें अपना पतिदेव श्रीकृष्ण समझकर मधुरभाव में मग्र हो जाती थीं और उनके सामने से हटकर एकान्त में चली जाती थीं ! श्रीनिकेतन भगवान के प्रतिबिम्ब स्वरूप कामावतार भगवान प्रद्युम्र के दीख जाने पर ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर उन्हें देखकर दूसरी स्त्रियों की विचित्र दशा हो जाती थी, इसमें तो कहना ही क्या है ।। ४० ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-56]

॥ षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५६ ॥
श्रीशुक उवाच
सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिषः ।
स्यमन्तकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान् ॥ १॥

राजोवाच
सत्राजितः किमकरोद्ब्रह्मन् कृष्णस्य किल्बिषम् ।
स्यमन्तकः कुतस्तस्य कस्माद्दत्ता सुता हरेः ॥ २॥

श्रीशुक उवाच
आसीत्सत्राजितः सूर्यो भक्तस्य परमः सखा ।
प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात्सूर्यस्तुष्टः स्यमन्तकम् ॥ ३॥

स तं बिभ्रन् मणिं कण्ठे भ्राजमानो यथा रविः ।
प्रविष्टो द्वारकां राजंस्तेजसा नोपलक्षितः ॥ ४॥

तं विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः ।
दीव्यतेऽक्षैर्भगवते शशंसुः सूर्यशङ्किताः ॥ ५॥

नारायण नमस्तेस्तु शङ्खचक्रगदाधर ।
दामोदरारविन्दाक्ष गोविन्द यदुनन्दन ॥ ६॥

एष आयाति सविता त्वां दिदृक्षुर्जगत्पते ।
मुष्णन् गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगुः ॥ ७॥

नन्वन्विच्छन्ति ते मार्गं त्रिलोक्यां विबुधर्षभाः ।
ज्ञात्वाद्य गूढं यदुषु द्रष्टुं त्वां यात्यजः प्रभो ॥ ८॥

श्रीशुक उवाच
निशम्य बालवचनं प्रहस्याम्बुजलोचनः ।
प्राह नासौ रविर्देवः सत्राजिन्मणिना ज्वलन् ॥ ९॥

सत्राजित्स्वगृहं श्रीमत्कृतकौतुकमङ्गलम् ।
प्रविश्य देवसदने मणिं विप्रैर्न्यवेशयत् ॥ १०॥

दिने दिने स्वर्णभारानष्टौ स सृजति प्रभो ।
दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोऽशुभाः ।
न सन्ति मायिनस्तत्र यत्रास्तेऽभ्यर्चितो मणिः ॥ ११॥

स याचितो मणिं क्वापि यदुराजाय शौरिणा ।
नैवार्थकामुकः प्रादाद्याच्ञाभङ्गमतर्कयन् ॥ १२॥

तमेकदा मणिं कण्ठे प्रतिमुच्य महाप्रभम् ।
प्रसेनो हयमारुह्य मृगयां व्यचरद्वने ॥ १३॥

प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केसरी ।
गिरिं विशन् जाम्बवता निहतो मणिमिच्छता ॥ १४॥

सोऽपि चक्रे कुमारस्य मणिं क्रीडनकं बिले ।
अपश्यन् भ्रातरं भ्राता सत्राजित्पर्यतप्यत ॥ १५॥

प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो वनं गतः ।
भ्राता ममेति तच्छ्रुत्वा कर्णे कर्णेऽजपन् जनाः ॥ १६॥

भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि ।
मार्ष्टुं प्रसेनपदवीमन्वपद्यत नागरैः ॥ १७॥

हतं प्रसेनमश्वं च वीक्ष्य केसरिणा वने ।
तं चाद्रिपृष्ठे निहतं ऋक्षेण ददृशुर्जनाः ॥ १८॥

ऋक्षराजबिलं भीममन्धेन तमसाऽऽवृतम् ।
एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजाः ॥ १९॥

तत्र दृष्ट्वा मणिप्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम् ।
हर्तुं कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थेऽर्भकान्तिके ॥ २०॥

तमपूर्वं नरं दृष्ट्वा धात्री चुक्रोश भीतवत् ।
तच्छ्रुत्वाभ्यद्रवत्क्रुद्धो जाम्बवान् बलिनां वरः ॥ २१॥

स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनाऽऽत्मनः ।
पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित् ॥ २२॥

द्वन्द्वयुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतोः ।
आयुधाश्मद्रुमैर्दोर्भिः क्रव्यार्थे श्येनयोरिव ॥ २३॥

आसीत्तदष्टाविंशाहमितरेतरमुष्टिभिः ।
वज्रनिष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम् ॥ २४॥

कृष्णमुष्टिविनिष्पातनिष्पिष्टाङ्गोरुबन्धनः ।
क्षीणसत्त्वः स्विन्नगात्रस्तमाहातीव विस्मितः ॥ २५॥

जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम् ।
विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधीश्वरम् ॥ २६॥

त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा सृज्यानामपि यच्च सत् ।
कालः कलयतामीशः पर आत्मा तथाऽऽत्मनाम् ॥ २७॥

यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षै-
र्वर्त्मादिशत्क्षुभितनक्रतिमिङ्गिलोऽब्धिः ।
सेतुः कृतः स्वयश उज्ज्वलिता च लङ्का
रक्षः शिरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि ॥ २८॥

इति विज्ञातवीज्ञानं ऋक्षराजानमच्युतः ।
व्याजहार महाराज भगवान् देवकीसुतः ॥ २९॥

अभिमृश्यारविन्दाक्षः पाणिना शंकरेण तम् ।
कृपया परया भक्तं प्रेमगम्भीरया गिरा ॥ ३०॥

मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम् ।
मिथ्याभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनामुना ॥ ३१॥

इत्युक्तः स्वां दुहितरं कन्यां जाम्बवतीं मुदा ।
अर्हणार्थं स मणिना कृष्णायोपजहार ह ॥ ३२॥

अदृष्ट्वा निर्गमं शौरेः प्रविष्टस्य बिलं जनाः ।
प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दुःखिताः स्वपुरं ययुः ॥ ३३॥

निशम्य देवकी देवी रुक्मिण्यानकदुन्दुभिः ।
सुहृदो ज्ञातयोऽशोचन् बिलात्कृष्णमनिर्गतम् ॥ ३४॥

सत्राजितं शपन्तस्ते दुःखिता द्वारकौकसः ।
उपतस्थुर्महामायां दुर्गां कृष्णोपलब्धये ॥ ३५॥

तेषां तु देव्युपस्थानात्प्रत्यादिष्टाशिषा स च ।
प्रादुर्बभूव सिद्धार्थः सदारो हर्षयन् हरिः ॥ ३६॥

उपलभ्य हृषीकेशं मृतं पुनरिवागतम् ।
सह पत्न्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवाः ॥ ३७॥

सत्राजितं समाहूय सभायां राजसन्निधौ ।
प्राप्तिं चाख्याय भगवान् मणिं तस्मै न्यवेदयत् ॥ ३८॥

स चातिव्रीडितो रत्नं गृहीत्वावाङ्मुखस्ततः ।
अनुतप्यमानो भवनमगमत्स्वेन पाप्मना ॥ ३९॥

सोऽनुध्यायंस्तदेवाघं बलवद्विग्रहाकुलः ।
कथं मृजाम्यात्मरजः प्रसीदेद्वाच्युतः कथम् ॥ ४०॥

किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्न शपेद्वा जनो यथा ।
अदीर्घदर्शनं क्षुद्रं मूढं द्रविणलोलुपम् ॥ ४१॥

दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीरत्नं रत्नमेव च ।
उपायोऽयं समीचीनस्तस्य शान्तिर्न चान्यथा ॥ ४२॥

एवं व्यवसितो बुद्ध्या सत्राजित्स्वसुतां शुभाम् ।
मणिं च स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार ह ॥ ४३॥

तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि ।
बहुभिर्याचितां शीलरूपौदार्यगुणान्विताम् ॥ ४४॥

भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप ।
तवास्तां देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः ॥ ४५॥

इति श्रीमद्भागवाते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६

दशम स्कन्ध-छप्पनवाँ अध्याय 45
स्यमन्तकमणि की कथा, जाम्बवती और सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण का विवाह
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! सत्राजित् ने श्रीकृष्ण को झूठा कलङ्क लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिये उसने स्वयं स्यमन्तकमणिसहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी ।। १ ।।

राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! सत्राजित् ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमन्तकमणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ? ।। २ ।।

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! सत्राजित् भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्यभगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमन्तकमणि दी थी ।। ३ ।। सत्राजित् उस मणि को गले में धारणकर ऐसा चमक ने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित ! जब सत्राजित् द्वारका में आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके ।। ४ ।। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गयीं। लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे ।। ५ ।। लोगों ने कहा— ‘शङ्ख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है ।। ६ ।। जगदीश्वर ! देखिये ! अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं ।। ७ ।। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं’ ।। ८ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अनजान पुरुषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँस ने लगे। उन्होंने कहा—‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित् है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है’ ।। ९ ।। इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मङ्गल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तकमणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया ।। १० ।। परीक्षित ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार[1] सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुॢभक्ष, महामारी, ग्रहपीडा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था ।। ११ ।। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसङ्गवश कहा—‘सत्राजित् ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।’ परंतु वह इतना अर्थलोलुप—लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लङ्घन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।। १२ ।।

एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेन ने उसपर म प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेल ने वन में चला गया ।। १३ ।। वहाँ एक ङ्क्षसह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिये ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला ।। १४ ।। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेल ने के लिये दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौट ने से उसके भाई सत्राजित्- को बड़ा दु:ख हुआ ।। १५ ।। वह कह ने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो। क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था। सत्राजित् की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे ।। १६ ।। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलङ्क का टी का मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहा ने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरुषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढऩे के लिये वन में गये ।। १७ ।। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में ङ्क्षसह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग ङ्क्षसह के पैरों का चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर एक रीछ ने ङ्क्षसह को भी मार डाला है ।। १८ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयङ्कर गुफा में प्रवेश किया ।। १९ ।। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन् तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए ।। २० ।। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये ।। २१ ।। परीक्षित ! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे ।। २२ ।। जिस प्रकार मांसके लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्र प्रहार किया, फिर शिलाओंका। तत्पश्चात वे वृक्ष उखाडक़र एक-दूसरे पर फेंक ने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा ।। २३ ।। परीक्षित ! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूसों से आपस में वे अ_ाईस दिन तक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे ।। २४ ।। अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के घूसों की चोट से जाम्बवान् के शरीर की एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसी ने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित—चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा— ।। २५ ।। ‘प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान विष्णु हैं। आप ही सब के प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं ।। २६ ।। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनानेवाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के जित ने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं ।। २७ ।। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घडिय़ाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उसपर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लङ्का का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं)’ ।। २८ ।। परीक्षित ! जब ऋक्षराज जाम्बवान् ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतु की कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान्जी से कहा— ।। २९-३० ।। ‘ऋक्षराज ! हम मणि के लिये ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलङ्क को मिटाना चाहता हूँ’ ।। ३१ ।। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान् ने बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समॢपत कर दिया ।। ३२ ।।

भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परंतु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा में से नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुखी होकर द्वार का को लौट गये ।। ३३ ।। वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा में से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ ।। ३४ ।। सभी द्वारकावासी अत्यन्त दु:खित होकर सत्राजित् को भला-बुरा कह ने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिये महामाया दुर्गादेवी की शरण में गये, उनकी उपासना करने लगे ।। ३५ ।। उनकी उपासना से दुर्गादेवी प्रसन्न हुर्ईं और उन्होंने आर्शीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सब को प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये ।। ३६ ।। सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्र हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो ।। ३७ ।।

तदनन्तर भगवान ने सत्राजित् को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित् को सौंप दी ।। ३८ ।। सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परंतु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चातताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ।। ३९ ।। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान् के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ।। ४० ।। मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा ।। ४१ ।। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसीसे मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है’ ।। ४२ ।। सत्राजित् ने अपनी विवेक-बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं ।। ४३ ।। सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुणों से सम्पन्न थीं। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परंतु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया ।। ४४ ।। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित् से कहा—‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान के भक्त हैं, इसलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फलके, अर्थात् उससे निकले हुए सो ने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें’ ।। ४५ ।।


[1] भार का परिमाण इस प्रकार है—

चतुॢभर्व्री हिभिर्गुञ्जं गुञ्जान्पञ्च पणं पणान् ।।

अष्टौ धरणमष्टौ च कर्षं तांश्चतुर: पलम् ।।

तुलां पलशतं प्राहुर्भारं स्याङ्क्षद्वशतिस्तुला: ।।

अर्थात् ‘चार व्रीहि (धान) की एक गुञ्जा, पाँच गुञ्जा का एक पण, आठ पण का एक धरण, आठ धरण का एक कर्ष, चार कर्ष का एक पल, सौ पल की एक तुला और बीस तुला का एक भार कहलाता है।’



स्कन्ध-10 [अध्याय-57]

॥ सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५७ ॥
श्रीशुक उवाच
विज्ञातार्थोऽपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान् ।
कुन्तीं च कुल्यकरणे सह रामो ययौ कुरून् ॥ १॥

भीष्मं कृपं सविदुरं गान्धारीं द्रोणमेव च ।
तुल्यदुःखौ च सङ्गम्य हा कष्टमिति होचतुः ॥ २॥

लब्ध्वैतदन्तरं राजन् शतधन्वानमूचतुः ।
अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते ॥ ३॥

योऽस्मभ्यं सम्प्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः ।
कृष्णायादान्न सत्राजित्कस्माद्भ्रातरमन्वियात् ॥ ४॥

एवं भिन्नमतिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः ।
शयानमवधील्लोभात्स पापः क्षीणजीवितः ॥ ५॥

स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत् ।
हत्वा पशून् सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान् ॥ ६॥

सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचार्पिता ।
व्यलपत्तात तातेति हा हतास्मीति मुह्यती ॥ ७॥

तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम् ।
कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम् ॥ ८॥

तदाकर्ण्येश्वरौ राजन्ननुसृत्य नृलोकताम् ।
अहो नः परमं कष्टमित्यस्राक्षौ विलेपतुः ॥ ९॥

आगत्य भगवांस्तस्मात्सभार्यः साग्रजः पुरम् ।
शतधन्वानमारेभे हन्तुं हर्तुं मणिं ततः ॥ १०॥

सोऽपि कृष्णोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया ।
साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत् ॥ ११॥

नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः ।
को नु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन् ॥ १२॥

कंसः सहानुगोऽपीतो यद्द्वेषात्त्याजितः श्रिया ।
जरासन्धः सप्तदश संयुगान् विरथो गतः ॥ १३॥

प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमयाचत ।
सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम् ॥ १४॥

य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हन्ति च ।
चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताजया ॥ १५॥

यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना ।
दधार लीलया बाल उच्छिलीन्ध्रमिवार्भकः ॥ १६॥

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद्भुतकर्मणे ।
अनन्तायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः ॥ १७॥

प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम् ।
तस्मिन् न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ ॥ १८॥

गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ ।
अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन् गुरुद्रुहम् ॥ १९॥

मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम् ।
पद्भ्यामधावत्सन्त्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद्रुषा ॥ २०॥

पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना ।
चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम् ॥ २१॥

अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम् ।
वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते ॥ २२॥

तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना ।
कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज ॥ २३॥

अहं विदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम ।
इत्युक्त्वा मिथिलां राजन् विवेश यदुनन्दनः ॥ २४॥

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः ।
अर्हयामास विधिवदर्हणीयं समर्हणैः ॥ २५॥

उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः ।
मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना ।
ततोऽशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः ॥ २६॥

केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः ।
अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद्विभुः ॥ २७॥

ततः स कारयामास क्रिया बन्धोर्हतस्य वै ।
साकं सुहृद्भिर्भगवान् या याः स्युः साम्परायिकाः ॥ २८॥

अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम् ।
व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ ॥ २९॥

अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन् वै द्वारकौकसाम् ।
शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः ॥ ३०॥

इत्यङ्गोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम् ।
मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम् ॥ ३१॥

देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै ।
स्वसुतां गान्दिनीं प्रादात्ततोऽवर्षत्स्म काशिषु ॥ ३२॥

तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्र यत्र ह ।
देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारीकाः ॥ ३३॥

इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम् ।
इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः ॥ ३४॥

पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः ।
विज्ञाताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह ॥ ३५॥

ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना ।
स्यमन्तको मणिः श्रीमान् विदितः पूर्वमेव नः ॥ ३६॥

सत्राजितोऽनपत्यत्वाद्गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः ।
दायं निनीयापः पिण्डान् विमुच्यर्णं च शेषितम् ॥ ३७॥

तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः ।
किन्तु मामग्रजः सम्यङ्न प्रत्येति मणिं प्रति ॥ ३८॥

दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह ।
अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः ॥ ३९॥

एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम् ।
आदाय वाससाच्छन्नं ददौ सूर्यसमप्रभम् ॥ ४०॥

स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः ।
विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभुः ॥ ४१॥

यस्त्वेतद्भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्वीर्याढ्यं
वृजिनहरं सुमङ्गलं च ।
आख्यानं पठति श‍ृणोत्यनुस्मरेद्वा
दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम् ॥ ४२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७॥


दशम स्कन्ध-सत्तावनवाँ अध्याय 42
स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूरजी को फिर से द्वार का बुलाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँ का नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल-परम्परोचित व्यवहार करने के लिये वे बलरामजी के साथ हस्तिनापुर गये ।। १ ।। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समवेदना—सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कह ने लगे—‘हाय-हाय ! यह तो बड़े ही दु:ख की बात हुई’ ।। २ ।।

भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा—‘तुम सत्राजित् से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? ।। ३ ।। सत्राजित् ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हम से करने का वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय ?’ ।। ४ ।। शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा के इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित् को मार डाला ।। ५ ।। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने चिल्ला ने लगीं; परंतु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित् को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया ।। ६ ।।

सत्यभामाजी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी ! हाय पिताजी ! मैं मारी गयी’—इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच- बीच में वे बेहोश हो जातीं और होश में आने पर फिर विलाप करने लगतीं ।। ७ ।। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर को गयीं। उन्होंने बड़े दु:ख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तान्त सुनाया—यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे ।। ८ ।। परीक्षित ! सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो ! हम लोगों पर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी !’ ।। ९ ।। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वार का लौट आये और शतधन्वा को मार ने तथा उससे मणि छीन ने का उद्योग करने लगे ।। १० ।।

जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मार ने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचा ने के लिये उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्माने कहा— ।। ११ ।। ‘भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? ।। १२ ।। तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध-जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी में लौट जाना पड़ा था’ ।। १३ ।। जब कृतवर्माने उसे इस प्रकार टकत्ता-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिये अक्रूरजी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा—‘भाई ! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं—इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्व-विधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्हों ने सात वर्ष की अवस्थामें—जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवद्र्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्ते को उखाडक़र हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्म स्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ’ ।। १४—१७ ।। जब इस प्रकार अक्रूरजी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि उन्हींके पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा ।। १८ ।।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरुड़चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित् को मारनेवाले शतधन्वा का पीछा किया ।। १९ ।। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोडक़र पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े ।। २० ।। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान ने भी पैदल ही दौडक़र अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमन्तकमणि को ढूँढ़ा ।। २१ ।। परंतु जब मणि मिली नहीं तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलरामजी के पास आकर कहा—‘हम ने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं’ ।। २२ ।। बलरामजी ने कहा—‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि को किसी-न-किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वार का जाओ और उसका पता लगाओ ।। २३ ।। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित ! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरी में चले गये ।। २४ ।। जब मिथिलानरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की ।। २५ ।। इसके बाद भगवान बलरामजी कई वर्षों तक मिथिलापुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने बलरामजी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की ।। २६ ।। अपनी प्रिया सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवान श्रीकृष्ण द्वार का लौट आये और उन को यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परंतु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली ।। २७ ।। इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओं के साथ अपने श्वशुर सत्राजित् की वे सब औध्र्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिन से मृ तक प्राणी का परलोक सुधरता है ।। २८ ।।

अक्रूर और कृतवर्माने शतधन्वा को सत्राजित् के वध के लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए ।। २९ ।। परीक्षित ! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारका-वासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। दैविक और भौतिक निमित्तों से बार-बार वहाँ के नागरिकों को शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा। परंतु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय ।। ३०-३१ ।। उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा—‘एक बार काशी-नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित ! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि ‘इस उपद्रव का यही कारण नहीं है, यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूरजी को ढुँढ़वाया और आने पर उनसे बातचीत की ।। ३२—३४ ।। भगवान ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित ! भगवान सब के चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा— ।। ३५ ।। ‘चाचाजी ! आप दान-धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है ।। ३६ ।। आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लडक़ी के लडक़े—उनके नाती ही उन्हें तिलाञ्जलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे ।। ३७ ।। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिये उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परंतु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते ।। ३८ ।। इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र—बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदय में शान्ति का सञ्चार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिन में सो ने की वेदियाँ बनती हैं’ ।। ३९ ।। परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी ।। ४० ।। भगवान श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयों को दिखाकर अपना कलङ्क दूर किया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुन: अक्रूरजी को लौटा दिया ।। ४१ ।।

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलङ्कों का मार्जन करनेवाला तथा परम मङ्गलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है ।। ४२ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-58]

॥ अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः - ५८ ॥
श्रीशुक उवाच
एकदा पाण्डवान् द्रष्टुं प्रतीतान् पुरुषोत्तमः ।
इन्द्रप्रस्थं गतः श्रीमान् युयुधानादिभिर्वृतः ॥ १॥

दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुन्दमखिलेश्वरम् ।
उत्तस्थुर्युगपद्वीराः प्राणा मुख्यमिवागतम् ॥ २॥

परिष्वज्याच्युतं वीरा अङ्गसङ्गहतैनसः ।
सानुरागस्मितं वक्त्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः ॥ ३॥

युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवन्दनम् ।
फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवन्दितः ॥ ४॥

परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिन्दिता ।
नवोढा व्रीडिता किञ्चिच्छनैरेत्याभ्यवन्दत ॥ ५॥

तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवन्दितः ।
निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासत ॥ ६॥

पृथां समागत्य कृताभिवादन-
स्तयातिहार्दार्द्रदृशाभिरम्भितः ।
आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां
पितृष्वसारं परिपृष्टबान्धवः ॥ ७॥

तमाह प्रेमवैक्लव्यरुद्धकण्ठाश्रुलोचना ।
स्मरन्ती तान् बहून् क्लेशान् क्लेशापायात्मदर्शनम् ॥ ८॥

तदैव कुशलं नोऽभूत्सनाथास्ते कृता वयम् ।
ज्ञातीन् नः स्मरता कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया ॥ ९॥

न तेऽस्ति स्वपरभ्रान्तिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः ।
तथापि स्मरतां शश्वत्क्लेशान् हंसि हृदि स्थितः ॥ १०॥

युधिष्ठिर उवाच
किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वर ।
योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम् ॥ ११॥

इति वै वार्षिकान् मासान् राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम् ।
जनयन् नयनानन्दमिन्द्रप्रस्थौकसां विभुः ॥ १२॥

एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम् ।
गाण्डीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ ॥ १३॥

साकं कृष्णेन सन्नद्धो विहर्तुं विपिनं वनम् ।
बहुव्यालमृगाकीर्णं प्राविशत्परवीरहा ॥ १४॥

तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान् सूकरान् महिषान् रुरून् ।
शरभान् गवयान् खड्गान् हरिणान् शशशल्लकान् ॥ १५॥

तान् निन्युः किङ्करा राज्ञे मेध्यान् पर्वण्युपागते ।
तृट् परीतः परिश्रान्तो बीभत्सुर्यमुनामगात् ॥ १६॥

तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ ।
कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरन्तीं चारुदर्शनाम् ॥ १७॥

तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम् ।
पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम् ॥ १८॥

का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतोऽसि किं चिकीर्षसि ।
मन्ये त्वां पतिमिच्छन्तीं सर्वं कथय शोभने ॥ १९॥

कालिन्द्युवाच
अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती ।
विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थिता ॥ २०॥

नान्यं पतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम् ।
तुष्यतां मे स भगवान् मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः ॥ २१॥

कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुनाजले ।
निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम् ॥ २२॥

तथावदद्गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम् ।
रथमारोप्य तद्विद्वान् धर्मराजमुपागमत् ॥ २३॥

यदैव कृष्णः सन्दिष्टः पार्थानां परमाद्भुतम् ।
कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा ॥ २४॥

भगवांस्तत्र निवसन् स्वानां प्रियचिकीर्षया ।
अग्नये खाण्डवं दातुमर्जुनस्यास सारथिः ॥ २५॥

सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्धयान् श्वेतान् रथं नृप ।
अर्जुनायाक्षयौ तूणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः ॥ २६॥

मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत् ।
यस्मिन् दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशिभ्रमः ॥ २७॥

स तेन समनुज्ञातः सुहृद्भिश्चानुमोदितः ।
आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः ॥ २८॥

अथोपयेमे कालिन्दीं सुपुण्यर्त्वर्क्ष ऊर्जिते ।
वितन्वन् परमानन्दं स्वानां परममङ्गलम् ॥ २९॥

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ दुर्योधनवशानुगौ ।
स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम् ॥ ३०॥

राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविन्दां पितृष्वसुः ।
प्रसह्य हृतवान् कृष्णो राजन् राज्ञां प्रपश्यताम् ॥ ३१॥

नग्नजिन्नाम कौसल्य आसीद्राजातिधार्मिकः ।
तस्य सत्याभवत्कन्या देवी नाग्नजिती नृप ॥ ३२॥

न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्त गोवृषान् ।
तीक्ष्णश‍ृङ्गान् सुदुर्धर्षान् वीरगन्धासहान् खलान् ॥ ३३॥

तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान् सात्वतां पतिः ।
जगाम कौसल्यपुरं सैन्येन महता वृतः ॥ ३४॥

स कोसलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभिः ।
अर्हणेनापि गुरुणा पूजयन् प्रतिनन्दितः ॥ ३५॥

वरं विलोक्याभिमतं समागतं
नरेन्द्रकन्या चकमे रमापतिम् ।
भूयादयं मे पतिराशिषोऽमलाः
करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः ॥ ३६॥

यत्पादपङ्कजरजः शिरसा बिभर्ति
श्रीरब्जजः सगिरिशः सह लोकपालैः ।
लीलातनूः स्वकृतसेतुपरीप्सयेशः
काले दधत्स भगवान् मम केन तुष्येत् ॥ ३७॥

अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते ।
आत्मानन्देन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः ॥ ३८॥

श्रीशुक उवाच
तमाह भगवान् हृष्टः कृतासनपरिग्रहः ।
मेघगम्भीरया वाचा सस्मितं कुरुनन्दन ॥ ३९॥

श्रीभगवानुवाच
नरेन्द्र याच्ञा कविभिर्विगर्हिता
राजन्यबन्धोर्निजधर्मवर्तिनः ।
तथापि याचे तव सौहृदेच्छया
कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम् ॥ ४०॥

राजोवाच
कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः ।
गुणैकधाम्नो यस्याङ्गे श्रीर्वसत्यनपायिनी ॥ ४१॥

किन्त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्वतर्षभ ।
पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया ॥ ४२॥

सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहाः ।
एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः ॥ ४३॥

यदिमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनन्दन ।
वरो भवानभिमतो दुहितुर्मे श्रियःपते ॥ ४४॥

एवं समयमाकर्ण्य बद्ध्वा परिकरं प्रभुः ।
आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान् ॥ ४५॥

बद्ध्वा तान् दामभिः शौरिर्भग्नदर्पान् हतौजसः ।
व्यकर्षल्लीलया बद्धान् बालो दारुमयान् यथा ॥ ४६॥

ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः ।
तां प्रत्यगृह्णाद्भगवान् विधिवत्सदृशीं प्रभुः ॥ ४७॥

राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम् ।
लेभिरे परमानन्दं जातश्च परमोत्सवः ॥ ४८॥

शङ्खभेर्यानका नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः ।
नरा नार्यः प्रमुदिताः सुवासःस्रगलङ्कृताः ॥ ४९॥

दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद्विभुः ।
युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्रीवसुवासाम् ॥ ५०॥

नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान् रथान् ।
रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान् नरान् ॥ ५१॥

दम्पती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ ।
स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोसलः ॥ ५२॥

श्रुत्वैतद्रुरुधुर्भूपा नयन्तं पथि कन्यकाम् ।
भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा ॥ ५३॥

तानस्यतः शरव्रातान् बन्धुप्रियकृदर्जुनः ।
गाण्डीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव ॥ ५४॥

पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया ।
रेमे यदूनामृषभो भगवान् देवकीसुतः ॥ ५५॥

श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसुः ।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्णः सन्तर्दनादिभिः ॥ ५६॥

सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम् ।
स्वयंवरे जहारैकः स सुपर्णः सुधामिव ॥ ५७॥

अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन् सहस्रशः ।
भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः ॥ ५८॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अष्टमहिष्युद्वाहो नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८॥


दशम स्कन्ध-अट्ठावनवाँ अध्याय 58
भगवान श्रीकृष्ण के अन्यान्य विवाहों की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अब पाण्डवों का पता चल गया था कि वे लाक्षाभवन में जले नहीं हैं। एक बार भगवान श्रीकृष्ण उनसे मिल ने के लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत- से यदुवंशी भी थे ।। १ ।। जब वीर पाण्डवों ने देखा कि सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राण का सञ्चार होने पर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए ।। २ ।। वीर पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण का आलिङ्गन किया, उनके अङ्ग-सङ्ग से इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान की प्रेमभरी मुसकराहट से सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्द में मग्र हो गये ।। ३ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और भीमसेन के चरणों में प्रणाम किया और अर्जुन को हृदय से लगाया। नकुल और सहदेव ने भगवान के चरणों की वन्दना की ।। ४ ।। जब भगवान श्रीकृष्ण श्रेष्ठ ङ्क्षसहासन पर विराजमान हो गये; तब परमसुन्दरी श्यामवर्णा द्रौपदी, जो नवविवाहिता होने के कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान श्रीकृष्ण के पास आयी और उन्हें प्रणाम किया ।। ५ ।। पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण के समान ही वीर सात्यकि का भी स्वागत- सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसन पर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियों का भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्ण के चारों ओर आसनों पर बैठ गये ।। ६ ।। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्ती के पास गये और उनके चरणों में प्रणाम किया। कुन्तीजी ने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। उस समय उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। कुन्तीजी ने श्रीकृष्ण से अपने भाई-बन्धुओं की कुशल-क्षेम पूछी और भगवान ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मङ्गल पूछा ।। ७ ।। उस समय प्रेम की विह्वलता से कुन्तीजी का गला रुँध गया था, नेत्रों से आँसू बह रहे थे। भगवान के पूछने पर उन्हें अपने पहले के कलेश-पर-कलेश याद आ ने लगे और वे अपने को बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त कलेशों का अन्त करने के लिये ही हुआ करता है, उन भगवान श्रीकृष्ण से कह ने लगीं— ।। ८ ।। ‘श्रीकृष्ण ! जिस समय तुम ने हमलोगों को अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मङ्गल जान ने के लिये भाई अक्रूर को भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथों को तुम ने सनाथ कर दिया ।। ९ ।। मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत के परम हितैषी सुहृद् और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकार की भ्रान्ति तुम्हारे अंदर नहीं है। ऐसा होने पर भी, श्रीकृष्ण ! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदय में आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी कलेश-परम्परा को सदा के लिये मिटा देते हो’ ।। १० ।।

युधिष्ठिरजी ने कहा—‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ! हमें इस बात का पता नहीं है कि हम ने अपने पूर्वजन्मों में या इस जन्म में कौन-सा कल्याण-साधन किया है ? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियों को घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं’ ।। ११ ।। राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार भगवान का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहने की प्रार्थना की। इस पर भगवान श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ के नर-नारियों को अपनी रूपमाधुरी से नयनानन्द का दान करते हुए बरसात के चार महीनों तक सुखपूर्वक वहीं रहे ।। १२ ।। परीक्षित ! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुन ने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान श्रीकृष्ण के साथ कवच पहनकर अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर वानर-चिह्न से चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरों का नाश करनेवाले अर्जुन उस गहन वन में शिकार खेल ने गये, जो बहुत से ङ्क्षसह, बाघ आदि भयङ्कर जानवरों से भरा हुआ था ।। १३-१४ ।। वहाँ उन्होंने बहुत से बाघ, सूअर, भैंसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन लिये हुए भूरे रंग का एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन, खरगोश और शल्लक (साही) आद पशुओं पर अपने बाणों का निशाना लगाया ।। १५ ।। उनमें से जो यज्ञ के योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्व का समय जानकर राजा युधिष्ठिर के पास ले गये। अर्जुन शिकार खेलते-खेलते थक गये थे। अब वे प्यास लगने पर यमुनाजी के किनारे गये ।। १६ ।। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियों ने यमुनाजी में हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परमसुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है ।। १७ ।। उस श्रेष्ठ सुन्दरी की जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के भेजने पर अर्जुन ने उसके पास जाकर पूछा— ।। १८ ।। ‘सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किस की पुत्री हो ? कहाँ से आयी हो ? और क्या करना चाहती हो ? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि ! तुम अपनी सारी बात बतलाओ’ ।। १९ ।।

कालिन्दी ने कहा—‘मैं भगवान सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान विष्णु को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ ।। २० ।। वीर अर्जुन ! मैं लक्ष्मी के परम आश्रय भगवान को छोडक़र और किसीको अपना पति नहीं बना सकती। अनाथों के एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों ।। २१ ।। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुनाजल में मेरे पिता सूर्य ने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसी में मैं रहती हूँ। जब तक भगवान का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी’ ।। २२ ।। अर्जुन ने जाकर भगवान श्रीकृष्ण से सारी बातें कहीं। वे तो पहले से ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दी को अपने रथ पर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिर के पास ले आये ।। २३ ।।

इसके बाद पाण्डवों की प्रार्थना से भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के रहने के लिये एक अत्यन्त अद्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्मा के द्वारा बनवा दिया ।। २४ ।। भगवान इस बार पाण्डवों को आनन्द दे ने और उनका हित करने के लिये वहाँ बहुत दिनों तक रहे। इसी बीच अग्रिदेव को खाण्डव- वन दिला ने के लिये वे अर्जुन के सारथि भी बने ।। २५ ।। खाण्डव-वन का भोजन मिल जाने से अग्रिदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुन को गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणोंवाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके ।। २६ ।। खाण्डव-दाह के समय अर्जुन ने मय दानव को जल ने से बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुन से मित्रता करके उनके लिये एक परम अद्भुत सभा बना दी। उसी सभा में दुर्योधन को जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम हो गया था ।। २७ ।।

कुछ दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियों का अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदि के साथ द्वार का लौट आये ।। २८ ।। वहाँ आकर उन्होंने विवाह के योग्य ऋतु और ज्यौतिषशास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्र में कालिन्दीजी का पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियों को परम मङ्गल और परमानन्द की प्राप्ति हुई ।। २९ ।।

अवन्ती (उज्जैन) देश के राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधन के वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दा ने स्वयंवर में भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना पति बनाना चाहा। परंतु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिन को रोक दिया ।। ३० ।। परीक्षित ! मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की फूआ राजाधिदेवी की कन्या थी। भगवान श्रीकृष्ण राजाओं की भरी सभा में उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये ।। ३१ ।।

परीक्षित ! कोसलदेश के राजा थे नग्रजित्। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परमसुन्दरी कन्या का नाम था सत्या; नग्रजित् की पुत्री होने से वह नाग्रजिती भी कहलाती थी। परीक्षित ! राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार सात दुर्दान्त बैलों पर विजय प्राप्त न कर सक ने के कारण कोई राजा उस कन्या से विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुष की गन्ध भी नहीं सह सकते थे ।। ३२-३३ ।। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलों को जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे ।। ३४ ।। कोसलनरेश महाराज नग्रजित् ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्री से उनका सत्कार किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया ।। ३५ ।। राजा नग्रजित् की कन्या सत्या ने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने व्रत-नियम आदि का पालन करके इन्हीं का चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसा को पूर्ण करें’ ।। ३६ ।। नाग्रजिती सत्या मन-ही-मन सोच ने लगी—‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शङ्कर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपङ्कज का पराग अपने सिर पर धारण करते हैं और जिन प्रभु ने अपनी बनायी हुई मर्यादा का पालन करने के लिये ही समय- समय पर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियम से प्रसन्न होंगे ? वे तो केवल अपनी कृपा से ही प्रसन्न हो सकते हैं’ ।। ३७ ।। परीक्षित ! राजा नग्रजित् ने भगवान श्रीकृष्ण की विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की—‘जगत के एकमात्र स्वामी नारायण ! आप अपने स्वरूपभूत आनन्द से ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’ ।। ३८ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! राजा नग्रजित् का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा ।। ३९ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—राजन् ! जो क्षत्रिय अपने धर्म में स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानों ने उसके इस कर्म की निन्दा की है। फिर भी मैं आप से सौहार्दका— प्रेम का सम्बन्ध स्थापित करने के लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदले में कुछ शुल्क दे ने की प्रथा नहीं है ।। ४० ।।

राजा नग्रजित् ने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त गुणों के धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्ष:स्थल पर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आप से बढक़र कन्या के लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है ? ।। ४१ ।। परंतु यदुवंशशिरोमणे ! हम ने पहले ही इस विषय में एक प्रण कर लिया है। कन्या के लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा है—इत्यादि बातें जान ने के लिये ही ऐसा किया गया है ।। ४२ ।। वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ! हमारे ये सातों बैल किसी के वश में न आनेवाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्हों ने बहुत- से राजकुमारों के अङ्गों को खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है ।। ४३ ।। श्रीकृष्ण ! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वश में कर लें, तो लक्ष्मीपते ! आप ही हमारी कन्या के लिये अभीष्ट वर होंगे ।। ४४ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नग्रजित् का ऐसा प्रण सुनकर कमर में फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेल में ही उन बैलों को नाथ लिया ।। ४५ ।। इससे बैलों का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा। अब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें रस्सी से बाँधकर इस प्रकार खींच ने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा- सा बालक काठ के बैलों को घसीटता है ।। ४६ ।। राजा नग्रजित् को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण को अपनी कन्या का दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्या का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ४७ ।। रानियों ने देखा कि हमारी कन्या को उसके अत्यन्त प्यारे भगवान श्रीकृष्ण ही पति के रूप में प्राप्त हो गये हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा ।। ४८ ।। शङ्ख, ढोल, नगारे बज ने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ब्राह्मण आशीर्वाद दे ने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पों के हार और गहनों से सज-धजकर नगर के नर-नारी आनन्द मना ने लगे ।। ४९ ।। राजा नग्रजित् ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गले में स्वर्णहार पह ने हुए थीं, दहेज में दीं। इनके साथ ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेज में दिये ।। ५०-५१ ।। कोसलनरेश राजा नग्रजित् ने कन्या और दामाद को रथ पर चढ़ाकर एक बड़ी सेना के साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह के उद्रेक से द्रवित हो रहा था ।। ५२ ।।

परीक्षित ! यदुवंशियों ने और राजा नग्रजित् के बैलों ने पहले बहुत- से राजाओं का बल-पौरुष धूल में मिला दिया था। जब उन राजाओं ने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय सहन न हुई। उन लोगों ने नाग्रजिती सत्या को लेकर जाते समय मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण को घेर लिया ।। ५३ ।। और वे बड़े वेग से उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डववीर अर्जुन ने अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिये गाण्डीव धनुष धारण करके—जैसे ङ्क्षसह छोटे-मोटे पशुओं को खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियों को मारपीटकर भगा दिया ।। ५४ ।। तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण उस दहेज और सत्या के साथ द्वारका में आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे ।। ५५ ।।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण की फूआ श्रुतकीर्ति केकय-देश में ब्याही गयी थीं। उनकी कन्या का नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही भगवान श्रीकृष्ण को दे दिया और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया ।। ५६ ।। मद्रप्रदेश के राजा की एक कन्या थी लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुडऩे स्वर्ग से अमृत का हरण किया था, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में अकेले ही उसे हर लिया ।। ५७ ।।

परीक्षित ! इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं। उन परम सुन्दरियों को वे भौमासुर को मारकर उसके बंदीगृह से छुड़ा लाये थे ।। ५८ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-59]

॥ एकोनषष्टितमोऽध्यायः - ५९ ॥
राजोवाच
यथा हतो भगवता भौमो येने च ताः स्त्रियः ।
निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १॥

श्रीशुक उवाच
इन्द्रेण हृतछत्रेण हृतकुण्डलबन्धुना ।
हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम् ।
सभार्यो गरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ ॥ २॥

गिरिदुर्गैः शस्त्रदुर्गैर्जलाग्न्यनिलदुर्गमम् ।
मुरपाशायुतैर्घोरैर्दृढैः सर्वत आवृतम् ॥ ३॥

गदया निर्बिभेदाद्रीन् शस्त्रदुर्गाणि सायकैः ।
चक्रेणाग्निं जलं वायुं मुरपाशांस्तथासिना ॥ ४॥

शङ्खनादेन यन्त्राणि हृदयानि मनस्विनाम् ।
प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः ॥ ५॥

पाञ्चजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगान्ताशनिभीषणम् ।
मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पञ्चशिरा जलात् ॥ ६॥

त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरीक्षणो
युगान्तसूर्यानलरोचिरुल्बणः ।
ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पञ्चभिर्मुखै-
रभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः ॥ ७॥

आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते
निरस्य वक्त्रैर्व्यनदत्स पञ्चभिः ।
स रोदसी सर्वदिशोऽम्बरं महा-
नापूरयन्नण्डकटाहमावृणोत् ॥ ८॥

तदापतद्वै त्रिशिखं गरुत्मते
हरिः शराभ्यामभिनत्त्रिधौजसा ।
मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्तस्मै
गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत ॥ ९॥

तामापतन्तीं गदया गदां मृधे
गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा ।
उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः
शिरांसि चक्रेण जहार लीलया ॥ १०॥

व्यसुः पपाताम्भसि कृत्तशीर्षो
निकृत्तश‍ृङ्गोऽद्रिरिवेन्द्रतेजसा ।
तस्यात्मजाः सप्त पितुर्वधातुराः
प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः ॥ ११॥

ताम्रोऽन्तरिक्षः श्रवणो विभावसु-
र्वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः ।
पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे
भौमप्रयुक्ता निरगन् धृतायुधाः ॥ १२॥

प्रायुञ्जतासाद्य शरानसीन् गदाः
शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्बणाः ।
तच्छस्त्रकूटं भगवान् स्वमार्गणै-
रमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह ॥ १३॥

तान् पीठमुख्याननयद्यमक्षयं
निकृत्तशीर्षोरुभुजाङ्घ्रिवर्मणः ।
स्वानीकपानच्युतचक्रसायकैस्तथा
निरस्तान् नरको धरासुतः ॥ १४॥
निरीक्ष्य दुर्मर्षण आस्रवन्मदैर्गजैः
पयोधिप्रभवैर्निराक्रमत् ।
दृष्ट्वा सभार्यं गरुडोपरि स्थितं
सूर्योपरिष्टात्सतडिद्घनं यथा ।
कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं
योधाश्च सर्वे युगपत्स्म विव्यधुः ॥ १५॥

तद्भौमसैन्यं भगवान् गदाग्रजो
विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः ।
निकृत्तबाहूरुशिरोध्रविग्रहं
चकार तर्ह्येव हताश्वकुञ्जरम् ॥ १६॥

यानि योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह ।
हरिस्तान्यच्छिनत्तीक्ष्णैः शरैरेकैकशस्त्रिभिः ॥ १७॥

उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान् ।
गरुत्मता हन्यमानास्तुण्डपक्षनखैर्गजाः ॥ १८॥

पुरमेवाविशन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत ।
दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकं ॥ १९॥

तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः ।
नाकम्पत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः ॥ २०॥

शूलं भौमोऽच्युतं हन्तुमाददे वितथोद्यमः ।
तद्विसर्गात्पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः ।
अपाहरद्गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना ॥ २१॥

सकुण्डलं चारुकिरीटभूषणं
बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलत् ।
हा हेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा
माल्यैर्मुकुन्दं विकिरन्त ईडिरे ॥ २२॥

ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुण्डले
प्रतप्तजाम्बूनदरत्नभास्वरे ।
सवैजयन्त्या वनमालयार्पय-
त्प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम् ॥ २३॥

अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववरार्चितम् ।
प्राञ्जलिः प्रणता राजन् भक्तिप्रवणया धिया ॥ २४॥

भूमिरुवाच
नमस्ते देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर ।
भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन् नमोऽस्तु ते ॥ २५॥

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २६॥

नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे ।
पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः ॥ २७॥

अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।
परावरात्मन् भूतात्मन् परमात्मन् नमोस्तु ते ॥ २८॥

त्वं वै सिसृक्षू रज उत्कटं प्रभो
तमो निरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः ।
स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते
कालः प्रधानं पुरुषो भवान् परः ॥ २९॥

अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो
मात्राणि देवा मन इन्द्रियाणि ।
कर्ता महानित्यखिलं चराचरं
त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः ॥ ३०॥

तस्यात्मजोऽयं तव पादपङ्कजं
भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः ।
तत्पालयैनं कुरु हस्तपङ्कजं
शिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम् ॥ ३१॥

श्रीशुक उवाच
इति भूम्यार्थितो वाग्भिर्भगवान् भक्तिनम्रया ।
दत्त्वाभयं भौमगृहं प्राविशत्सकलर्द्धिमत् ॥ ३२॥

तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम् ।
भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः ॥ ३३॥

तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवीरं विमोहिताः ।
मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं दैवोपसादितम् ॥ ३४॥

भूयात्पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम् ।
इति सर्वाः पृथक्कृष्णे भावेन हृदयं दधुः ॥ ३५॥

ताः प्राहिणोद्द्वारवतीं सुमृष्टविरजोऽम्बराः ।
नरयानैर्महाकोशान् रथाश्वान् द्रविणं महत् ॥ ३६॥

ऐरावतकुलेभांश्च चतुर्दन्तांस्तरस्विनः ।
पाण्डुरांश्च चतुःषष्टिं प्रेषयामास केशवः ॥ ३७॥

गत्वा सुरेन्द्रभवनं दत्त्वादित्यै च कुण्डले ।
पूजितस्त्रिदशेन्द्रेण सहेन्द्राण्या च सप्रियः ॥ ३८॥

चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारीजातं गरुत्मति ।
आरोप्य सेन्द्रान् विबुधान् निर्जित्योपानयत्पुरम् ॥ ३९॥

स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः ।
अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात्तद्गन्धासवलम्पटाः ॥ ४०॥

ययाच आनम्य किरीटकोटिभिः
पादौ स्पृशन्नच्युतमर्थसाधनम् ।
सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महानहो
सुराणां च तमो धिगाढ्यताम् ॥ ४१॥

अथो मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु ताः स्त्रियः ।
यथोपयेमे भगवान् तावद्रूपधरोऽव्ययः ॥ ४२॥

गृहेषु तासामनपाय्यतर्क्यकृ-
न्निरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः ।
रेमे रमाभिर्निजकामसम्प्लुतो
यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन् ॥ ४३॥

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम् ।
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-
हासावलोकनवसङ्गमजल्पलज्जाः ॥ ४४॥

प्रत्युद्गमासनवरार्हणपदशौच-
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः
दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ॥ ४५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पारिजातहरणनरकवधो
नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९॥


दशम स्कन्ध-उनसठवाँ अध्याय 45
भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ भगवान का विवाह
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर को, जिस ने उन स्त्रियों को बंदीगृहमें डाल रखा था, क्यों और कैसे मारा ? आप कृपा करके शार्ङ्ग-धनुषधारी भगवान श्रीकृष्ण का वह विचित्र चरित्र सुनाइये ।। १ ।।

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! भौमासुर ने वरुण का छत्र, माता अदिति के कुण्डल और मेरु पर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इस पर सब के राजा इन्द्र द्वारका में आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को सुनायी। अब भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर सवार हुए और भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गये ।। २ ।। प्राग्ज्योतिषपुर में प्रवेश करना बहुत कठिन था। पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रों का घेरा लगाया हुआ था। फिर जल से भरी खार्ईं थी, उसके बाद आग या बिजली की चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दैत्य ने नगर के चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल) बिछा रखे थे ।। ३ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी गदा की चोट से पहाड़ों को तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रों की मोरचेबंदी को बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्र के द्वारा अग्रि, जल और वायु की चहारदीवारियों को तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्य के फंदों को तलवार से काट-कूटकर अलग रख दिया ।। ४ ।। जो बड़े-बड़े यन्त्र—मशीनें वहाँ लगी हुई थीं, उन को तथा वीर-पुरुषों के हृदय को शङ्खनाद से विदीर्ण कर दिया और नगर के पर कोटे को गदाधरभगवान ने अपनी भारी गदा से ध्वंस कर डाला ।। ५ ।।

भगवान के पाञ्चजन्य शङ्ख की ध्वनि प्रलयकालीन बिजली की कडक़ के समान महाभयङ्कर थी। उसे सुनकर मुर दैत्य की नींद टूटी और वह बाहर निकल आया। उसके पाँच सिर थे और अब तक वह जल के भीतर सो रहा था ।। ६ ।। वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्रि के समान प्रचण्ड तेजस्वी था। वह इतना भयङ्कर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था। उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुडज़ी पर टूट पड़े। उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँचों मुखों से त्रिलो की को निगल जायगा ।। ७ ।। उसने अपने त्रिशूल को बड़े वेग से घुमाकर गरुडज़ी पर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखों से घोर ङ्क्षसहनाद करने लगा। उसके ङ्क्षसहनाद का महान शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओं में फैलकर सारे ब्रह्माण्ड में भर गया ।। ८ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मुर दैत्य का त्रिशूल गरुडक़ी ओर बड़े वेग से आ रहा है। तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्ती से उन्होंने दो बाण मारे, जिन से वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्य के मुखों में भी भगवान ने बहुत- से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान पर अपनी गदा चलायी ।। ९ ।। परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी गदा के प्रहार से मुर दैत्य की गदा को अपने पास पहुँच ने के पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जाने के कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेल में ही चक्र से उसके पाँचों सिर उतार लिये ।। १० ।। सिर कटते ही मुर दैत्य के प्राण-पखेरू उड़ गये और वह ठीक वैसे ही जल में गिर पड़ा, जैसे इन्द्र के वज्र से शिखर कट जाने पर कोई पर्वत समुद्र में गिर पड़ा हो। मुर दैत्य के सात पुत्र थे—ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान् और अरुण। ये अपने पिता की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेने के लिये क्रोध से भरकर शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्य को अपना सेनापति बनाकर भौमासुर के आदेश से श्रीकृष्ण पर चढ़ आये ।। ११-१२ ।। वे वहाँ आकर बड़े क्रोध से भगवान श्रीकृष्ण पर बाण, खड्ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल आदि प्रचण्ड शस्त्रों की वर्षा करने लगे। परीक्षित ! भगवान की शक्ति अमोघ और अनन्त है। उन्होंने अपने बाणों से उनके कोटि- कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट गिराये ।। १३ ।। भगवान के शस्त्रप्रहार से सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्यों के सिर, जाँघें, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभी को भगवान ने यमराज के घर पहुँचा दिया। जब पृथ्वी के पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण के चक्र और बाणों से हमारी सेना और सेनापतियों का संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ। वह समुद्रतट पर पैदा हुए बहुत- से मदवाले हाथियों की सेना लेकर नगर से बाहर निकला। उसने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी के साथ आकाश में गरुड़ पर स्थित हैं, जैसे सूर्य के ऊ पर बिजली के साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हो। भौमासुर ने स्वयं भगवान के ऊ पर शतघ्री नामकी

शक्ति चलायी और उसके सब सैनिकों ने भी एक ही साथ उन पर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े ।। १४-१५ ।। अब भगवान श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चला ने लगे। इससे उसी समय भौमासुर के सैनिकों की भुजाएँ, जाँघें, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिर ने लगे; हाथी और घोड़े भी मर ने लगे ।। १६ ।।

परीक्षित ! भौमासुर के सैनिकों ने भगवान पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमें से प्रत्येक को भगवान ने तीन-तीन तीखे बाणों से काट गिराया ।। १७ ।। उस समय भगवान श्रीकृष्ण गरुडज़ी पर सवार थे और गरुडज़ी अपने पंखों से हाथियों को मार रहे थे। उनकी चोंच, पंख और पंजों की मार से हाथियों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमि से भागकर नगर में घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि गरुडज़ी की मार से पीडि़त होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उन पर वह शक्ति चलायी, जिस ने वज्र को भी विफल कर दिया था। परंतु उसकी चोट से पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसी ने मतवाले गजराज पर फूलों की माला से प्रहार किया हो ।। १८—२० ।। अब भौमासुर ने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्ण को मार डालने के लिये एक त्रिशूल उठाया। परंतु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान श्रीकृष्ण ने छुरे के समान तीखी धारवाले चक्र से हाथी पर बैठे हुए भौमासुर का सिर काट डाला ।। २१ ।। उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीट के सहित पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे देखकर भौमासुर के सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग ‘साधु साधु’ कह ने लगे और देवतालोग भगवान पर पुष्पों की वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे ।। २२ ।।

अब पृथ्वी भगवान के पास आयी। उसने भगवान श्रीकृष्ण के गले में वैजयन्ती के साथ वनमाला पहना दी और अदिति माता के जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सो ने के एवं रत्नजटित थे, भगवान को दे दिये तथा वरुण का छत्र और साथ ही एक महामणि भी उन को दी ।। २३ ।। राजन् ! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओं के द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम करके हाथ जोडक़र भक्तिभावभरे हृदय से उनकी स्तुति करने लगीं ।। २४ ।।

पृथ्वीदेवी ने कहा—शङ्खचक्रगदाधारी देवदेवेश्वर ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन् ! आप अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी के अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको मैं नमस्कार करती हूँ ।। २५ ।। प्रभो ! आपकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है। आप कमल की माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमल- से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमल के समान सुकुमार और भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ।। २६ ।। आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होने पर भी स्वयं वसुदेवनन्दन के रूप में प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणों के भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञान स्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।। २७ ।। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परंतु इस जगत के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियों के आश्रय ब्रह्म हैं। जगत का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जित ने भी प्राणी या अप्राणी हैं—सब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन् ! आपके चरणों में मेरे बार-बार नमस्कार ।। २८ ।। प्रभो ! जब आप जगत की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुण को, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुण को, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं तब सत्त्वगुण को स्वीकार करते हैं। परंतु यह सब करने पर भी आप इन गुणों से ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगतपते ! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनों के संयोग-वियोग के हेतु काल हैं, तथा उन तीनों से परे भी हैं ।। २९ ।। भगवन् ! मैं (पृथ्वी), जल, अग्रि, वायु, आकाश, पञ्चतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महत्तत्त्व— कहाँ तक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत आपके अद्वितीय स्वरूप में भ्रम के कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है ।। ३० ।। शरणागत-भय-भञ्जन प्रभो ! मेरे पुत्र भौमासुर का यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलों की शरण में ले आयी हूँ। प्रभो ! आप इस की रक्षा कीजिये और इसके सिर पर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत के समस्त पाप-तापों को नष्ट करनेवाला है ।। ३१ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब पृथ्वी ने भक्तिभाव से विनम्र होकर इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्त को अभयदान दिया और भौमासुर के समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न महल में प्रवेश किया ।। ३२ ।। वहाँ जाकर भगवान ने देखा कि भौमासुर ने बलपूर्वक राजाओं से सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं ।। ३३ ।। जब उन राजकुमारियों ने अन्त:पुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण को देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतु की कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान को अपने परम प्रियतम पति के रूप में वरण कर लिया ।। ३४ ।। उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मन में यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भाव से अपना हृदय भगवान के प्रति निछावर कर दिया ।। ३५ ।। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियों को सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों- से द्वार का भेज दिया और उनके साथ ही बहुत- से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी ।। ३६ ।। ऐरावत के वंश में उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतोंवाले सफेद रंग के चौंसठ हाथी भी भगवान ने वहाँ से द्वार का भेजे ।। ३७ ।।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्र के महलों में गये। वहाँ देवराज इन्द्र ने अपनी पत्नी इन्द्राणी के साथ सत्यभामाजी और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की, तब भगवान ने अदिति के कुण्डल उन्हें दे दिये ।। ३८ ।। वहाँ से लौटते समय सत्यभामाजी की प्रेरणा से भगवान श्रीकृष्ण ने कल्पवृक्ष उखाडक़र गरुड़ पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओं को जीतकर उसे द्वारका में ले आये ।। ३९ ।। भगवान ने उसे सत्यभामा के महलके बगीचे में लगा दिया। इससे उस बगीचे की शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्ष के साथ उसके गन्ध और मकरन्द के लोभी भौंरे स्वर्ग से द्वारका में चले आये थे ।। ४० ।। परीक्षित ! देखो तो सही, जब इन्द्र को अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुट की नोक से भगवान श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके उनसे सहायता की भिक्षा माँगी थी, परंतु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण से लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सब से बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यता का है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यता को ।। ४१ ।।

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही मुहूर्त में अलग-अलग भवनों में अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियों का शास्त्रोक्त विधि से पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान के लिये इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ।। ४२ ।। परीक्षित ! भगवान की पत्नियों के अलग-अलग महलों में ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिक की तो बात ही क्या है। उन महलों में रहकर मति- गति के परे की लीला करनेवाले अविनाशी भगवान श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्द में मग्र रहते हुए लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा उन पत्नियों के साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थी में रहकर गृहस्थ-धर्म के अनुसार आचरण करता हो ।। ४३ ।। परीक्षित ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को और उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने-वाली लज्जा से युक्त होकर सब प्रकार से भगवान की सेवा करती रहती थीं ।। ४४ ।। उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान की सेवा करतीं ।। ४५ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-60]

॥ षष्टितमोऽध्यायः - ६० ॥
श्रीशुक उवाच
कर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम् ।
पतिं पर्यचरद्भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः ॥ १॥

यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः ।
स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः ॥ २॥

तस्मिन्नन्तर्गृहे भ्राजन्मुक्तादामविलम्बिना ।
विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि ॥ ३॥

मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादितैः ।
जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलैः ॥ ४॥

पारिजातवनामोदवायुनोद्यानशालिना ।
धूपैरगुरुजै राजन् जालरन्ध्रविनिर्गतैः ॥ ५॥

पयःफेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे ।
उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम् ॥ ६॥

वालव्यजनमादाय रत्नदण्डं सखीकरात् ।
तेन वीजयती देवी उपासांचक्र ईश्वरम् ॥ ७॥

सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां
रेजेऽङ्गुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता ।
वस्त्रान्तगूढकुचकुङ्कुमशोणहार-
भासानितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्च्या ॥ ८॥

तां रूपिणीं श्रियमनन्यगतिं निरीक्ष्य
या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा ।
प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ-
वक्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे ॥ ९॥

श्रीभगवानुवाच
राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः ।
महानुभावैः श्रीमद्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः ॥ १०॥

तान् प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन् स्मरदुर्मदान् ।
दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान् ॥ ११॥

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रूः समुद्रं शरणं गतान् ।
बलवद्भिः कृतद्वेषान् प्रायस्त्यक्तनृपासनान् ॥ १२॥

अस्पष्टवर्त्मनां पुंसामलोकपथमीयुषाम् ।
आस्थिताः पदवीं सुभ्रूः प्रायः सीदन्ति योषितः ॥ १३॥

निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः ।
तस्मात्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे ॥ १४॥

ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः ।
तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित् ॥ १५॥

वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वयादीर्घसमीक्षया ।
वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा ॥ १६॥

अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम् ।
येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे ॥ १७॥

चैद्यशाल्वजरासन्धदन्तवक्त्रादयो नृपाः ।
मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः ॥ १८॥

तेषां वीर्यमदान्धानां दृप्तानां स्मयनुत्तये ।
आनीतासि मया भद्रे तेजोऽपहरतासताम् ॥ १९॥

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः ।
आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः ॥ २०॥

श्रीशुक उवाच
एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव ।
मन्यमानामविश्लेषात्तद्दर्पघ्न उपारमत् ॥ २१॥

इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनः
प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम् ।
आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथुश्चिन्तां
दुरन्तां रुदती जगाम ह ॥ २२॥

पदा सुजातेन नखारुणश्रीया
भुवं लिखन्त्यश्रुभिरञ्जनासितैः ।
आसिञ्चती कुङ्कुमरूषितौ स्तनौ
तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक् ॥ २३॥

तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धेः
हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात ।
देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्
रम्भेव वायुविहता प्रविकीर्य केशान् ॥ २४॥

तद्दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः प्रियायाः प्रेमबन्धनम् ।
हास्यप्रौढिमजानन्त्याः करुणः सोऽन्वकम्पत ॥ २५॥

पर्यङ्कादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः ।
केशान् समुह्य तद्वक्त्रं प्रामृजत्पद्मपाणिना ॥ २६॥

प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा ।
आश्लिष्य बाहुना राजन्ननन्यविषयां सतीम् ॥ २७॥

सान्त्वयामास सान्त्वज्ञः कृपया कृपणां प्रभुः ।
हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हां सतां गतिः ॥ २८॥

श्रीभगवानुवाच
मा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम् ।
त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमङ्गने ॥ २९॥

मुखं च प्रेमसंरम्भस्फुरिताधरमीक्षितुम् ।
कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम् ॥ ३०॥

अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
यन्नर्मैरीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि ॥ ३१॥

श्रीशुक उवाच
सैवं भगवता राजन् वैदर्भी परिसान्त्विता ।
ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ ॥ ३२॥

बभाष ऋषभं पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम् ।
सव्रीडहासरुचिरस्निग्धापाङ्गेन भारत ॥ ३३॥

रुक्मिण्युवाच
नन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह
यद्वै भवान् भगवतोऽसदृशी विभूम्नः ।
क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः
क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा ॥ ३४॥

सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तः
शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा ।
नित्यं कदिन्द्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं
त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोऽन्धम् ॥ ३५॥

त्वत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां
वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम् ।
यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य
भूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम् ॥ ३६॥

निष्किञ्चनो ननु भवान् न यतोऽस्ति किञ्चि-
द्यस्मै बलिं बलिभुजोऽपि हरन्त्यजाद्याः ।
न त्वा विदन्त्यसुतृपोऽन्तकमाढ्यतान्धाः
प्रेष्ठो भवान् बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम् ॥ ३७॥

त्वं वै समस्तपुरुषार्थमयः फलात्मा
यद्वाञ्छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम् ।
तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः
पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्न ॥ ३८॥

त्वं न्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभाव
आत्माऽऽत्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि ।
हित्वा भवद्भ्रुव उदीरितकालवेग-
ध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन् कुतोऽन्ये ॥ ३९॥

जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्
विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम् ।
सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून् स्वभागं
तेभ्यो भयाद्यदुदधिं शरणं प्रपन्नः ॥ ४०॥

यद्वाञ्छया नृपशिखामणयोऽङ्ग
वैन्यजायन्तनाहुषगयादय ऐकपत्यम् ।
राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष
सीदन्ति तेऽनुपदवीं त इहास्थिताः किम् ॥ ४१॥

कान्यं श्रयेत तव पादसरोजगन्ध-
माघ्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम् ।
लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य
मर्त्या सदोरुभयमर्थविविक्तदृष्टिः ॥ ४२॥

तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीश-
मात्मानमत्र च परत्र च कामपूरम् ।
स्यान्मे तवाङ्घ्रिररणं सृतिभिर्भ्रमन्त्या
यो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्गः ॥ ४३॥

तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः
स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वबिडालभृत्याः ।
यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयाया-
द्युष्मत्कथा मृडविरिञ्चसभासु गीता ॥ ४४॥

त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्त-
र्मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम् ।
जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढा
या ते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रती स्त्री ॥ ४५॥

अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुराग
आत्मन् रतस्य मयि चानतिरिक्तदृष्टेः ।
यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो
मामीक्षसे तदु ह नः परमानुकम्पा ॥ ४६॥

नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन ।
अम्बाया इव हि प्रायः कन्यायाः स्याद्रतिः क्वचित् ॥ ४७॥

व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवं नवम् ।
बुधोऽसतीं न बिभृयात्तां बिभ्रदुभयच्युतः ॥ ४८॥

श्रीभगवानुवाच
साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्रि प्रलम्भिता ।
मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत्सत्यमेव हि ॥ ४९॥

यान् यान् कामयसे कामान् मय्यकामाय भामिनि ।
सन्ति ह्येकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यदा ॥ ५०॥

उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे ।
यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता ॥ ५१॥

ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा व्रतचर्यया ।
कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया ॥ ५२॥

मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदं
वाञ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम् ।
ते मन्दभाग्या निरयेऽपि ये नृणां
मात्रात्मकत्वान्निरयः सुसङ्गमः ॥ ५३॥

दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया
कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः ।
सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो
ह्यसुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रियाः ॥ ५४॥

न त्वादृशीं प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु
पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले ।
प्राप्तान् नृपानवगणय्य रहो हरो मे
प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य ॥ ५५॥

भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य
प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम् ।
दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या
नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते ॥ ५६॥

दूतस्त्वयाऽऽत्मलभने सुविविक्तमन्त्रः
प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत् ।
मत्वाजिहास इदमङ्गमनन्ययोग्यं
तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयामः ॥ ५७॥

श्रीशुक उवाच
एवं सौरतसंलापैर्भगवान् जगदीश्वरः ।
स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडम्बयन् ॥ ५८॥

तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव ।
आस्थितो गृहमेधीयान् धर्मान् लोकगुरुर्हरिः ॥ ५९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम
षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६०॥


दशम स्कन्ध-साठवाँ अध्याय 59
श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! एक दिन समस्त जगत के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियों के साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं ।। १ ।। परीक्षित ! जो सर्वशक्तिमान् भगवान खेल-खेल में ही इस जगत की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैं—वही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओं की रक्षा करने के लिये यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं ।। २ ।। रुक्मिणीजी का महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे त ने हुए थे, जिन में मोतियों की लडिय़ों की झालरें लटक रही थीं। मणियों के दीपक जगमगा रहे थे ।। ३ ।। बेला-चमेली के फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे। फूलों पर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखों की जालियों में से चन्द्रमा की शुभ्र किरणें महलके भीतर छिटक रही थीं ।। ४ ।। उद्यान में पारिजात के उपवन की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखों की जालियों में से अगरु के धूप का धूआँ बाहर निकल रहा था ।। ५ ।। ऐसे महल में दूध के फेन के समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनों से युक्त सुन्दर पलँग पर भगवान श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलो की के स्वामी को पतिरूप में प्राप्त करके उनकी सेवा कर रही थीं ।। ६ ।। रुक्मिणीजी ने अपनी सखी के हाथ से वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नों की डाँडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान की सेवा करने लगीं ।। ७ ।। उनके करकमलों में जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणों में मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अञ्चल के नीचे छिपे हुए स्तनों की केशर की लालिमा से हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्बभाग में बहुमूल्य करधनी की लडिय़ाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान के पास ही रहकर उनकी सेवा में संलग्र थीं ।। ८ ।। रुक्मिणीजी की घुँघराली अलकें, कानों के कुण्डल और गले के स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्र से मुसकराहट की अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलाव- ण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान ने लीला के लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेम से मुसकराते हुए उनसे कहा ।। ९ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—राजकुमारी ! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालों के समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं, तथा सुन्दरता, उदारता और बल में भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुम से विवाह करना चाहते थे ।। १० ।। तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हींके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँ तक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरों को, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुम ने छोड़ दिया और मेरे- जैसे व्यक्ति को, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुम ने क्यों किया ? ।। ११ ।। सुन्दरी ! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओं से डरकर समुद्र की शरण में आ ब से हैं। बड़े-बड़े बलवानों से हम ने वैर बाँध रखा है और प्राय: राजङ्क्षसहासन के अधिकार से भी हम वञ्चित ही हैं ।। १२ ।। सुन्दरी ! हम किस मार्ग के अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगों को अच्छी तरह मालूम नहीं है। हमलोग लौकिक व्यवहार का भी ठीक-ठीक पालन नहीं करते, अनुनय-विनय के द्वारा स्त्रियों को रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषों का अनुसरण करती हैं, उन्हें प्राय: कलेश-ही-कलेश भोगना पड़ता है ।। १३ ।। सुन्दरी ! हम तो सदा के अकिञ्चन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिञ्चन लोगों से हम प्रेम भी करते हैं, और वे लोग भी हम से प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपने को धनी समझनेवाले लोग प्राय: हम से प्रेम नहीं करते हमारी सेवा नहीं करते ।। १४ ।। जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती है—उन्हीं से विवाह और मित्रता का सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपने से श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये ।। १५ ।। विदर्भराजकुमारी ! तुम ने अपनी अदूरदॢशता के कारण इन बातों का विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकों से मेरी झूठी प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीन को वरण कर लिया ।। १६ ।। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रिय को वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोक की सारी आशा- अभिलाषाएँ पूरी हो सकें ।। १७ ।। सुन्दरी ! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी सभी मुझ से द्वेष करते थे ।। १८ ।। कल्याणी ! वे सब बल-पौरुष के मद से अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसीको कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टों का मान मर्दन करने के लिये ही मैंने तुम्हारा हरण किया था। और कोई कारण नहीं था ।। १९ ।। निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धन के लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेह से सम्बन्धरहित दीपशिखा के समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्मा के साक्षातकार से ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं ।। २० ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के क्षणभर के लिये भी अलग न होने के कारण रुक्मिणीजी को यह अभिमान हो गया था कि मैं इन की सब से अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्व की शान्ति के लिये इतना कहकर भगवान चुप हो गये ।। २१ ।। परीक्षित ! जब रुक्मिणीजी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान की यह अप्रिय वाणी सुनी—जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भगभीत हो गयीं; उनका हृदय धडक़ ने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतरा ने लगीं ।। २२ ।। वे अपने कमल के समान कोमल और नखों की लालिमा से कुछ-कुछ लाल प्रतीत होनेवाले चरणों से धरती कुरेद ने लगीं। अञ्जन से मिले हुए काले-काले आँसू केशर से रँगे हुए वक्ष:स्थल को धो ने लगे। मुँह नीचे को लटक गया। अत्यन्त दु:ख के कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं ।। २३ ।। अत्यन्त व्यथा, भय और शोक के कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोग की सम्भावना से वे तत्क्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाई का कंगन तक खिसक गया। हाथ का चँवर गिर पड़ा, बुद्धि की विकलता के कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेग से उखड़े हुए केले के खंभे की तरह धरती पर गिर पडीं ।। २४ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोद की गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही परम कारुणिक भगवान श्रीकृष्ण का हृदय उनके प्रति करुणा से भर गया ।। २५ ।। चार भुजाओंवाले वे भगवान उसी समय पलँग से उतर पड़े और रुक्मिणीजी को उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशों को बाँधकर अपने शीतल करकमलों से उनका मुँह पोंछ दिया ।। २६ ।। भगवान ने उनके नेत्रों के आँसू और शोक के आँसुओं से भींगे हुए स्तनों को पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखनेवाली उन सती रुक्मिणीजी को बाँहों में भरकर छाती से लगा लिया ।। २७ ।। भगवान श्रीकृष्ण समझाने-बुझा ने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गम्भीरता के कारण रुक्मिणीजी की बुद्धि चक्कर में पड़ गयी है और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजी को समझाया ।। २८ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—विदर्भनन्दिनी ! तुम मुझ से बुरा मत मानना। मुझ से रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी ! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुनने के लिये ही मैंने हँसी-हँसी में यह छलना की थी ।। २९ ।। मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहने पर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय- कोप से किस प्रकार फडक़ ने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखने से नेत्रों में कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जाने के कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है ।। ३० ।। मेरी परमप्रिये ! सुन्दरी ! घर के काम-धंधों में रात-दिन लगे रहनेवाले गृहस्थों के लिये घर-गृहस्थी में इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धाङ्गिनी के साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ाँ सुख से बिता ली जाती हैं ।। ३१ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्राणप्रिया को इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतम ने केवल परिहास में ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदय से यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे ।। ३२ ।। परीक्षित ! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवन से पुरुषभूषण भगवान श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कह ने लगीं— ।। ३३ ।।

रुक्मिणीजी ने कहा—कमलनयन ! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणों से युक्त, अनन्त भगवान के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमा में स्थित, तीनों गुणों के स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित आप भगवान; और कहाँ तीनों गुणों के अनुसार स्वभाव रखनेवाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओं के पीछे भटकनेवाले अज्ञानी लोग ही करते हैं ।। ३४ ।। भला, मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन् ! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओं के भय से समुद्र में आ छिपे हैं। परंतु राजा शब्द का अर्थ पृथ्वी के राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हींके भय से अन्त:करणरूप समुद्र में चैतन्यघन अनुभूति स्वरूप आत्मा के रूप में विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओं से वैर रखते हैं, परंतु वे राजा कौन हैं ? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इन से तो आपका वैर है ही। और प्रभो ! आप राजङ्क्षसहासन से रहित हैं, यह भी ठीक ही है। क्योंकि आपके चरणों की सेवा करनेवालों ने भी राजा के पद को घोर अज्ञानान्धकार समझकर दूर से ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ।। ३५ ।। आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मों का मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयों में उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त ! आपके मार्ग पर चलनेवाले आपके भक्तों की भी चेष्टाएँ जब प्राय: अलौकिक ही होती हैं, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्यों के आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है ?।। ३६ ।। आपने अपने को अकिञ्चन बतलाया है। परंतु आपकी अकिञ्चनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखने के लिये कुछ नहीं है। परंतु जिन ब्रह्मा आदि देवताओं की पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं, और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्य लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यता के अभिमान से अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्यु के रूप में उनके सिर पर सवार हैं ।। ३७ ।। जगत में जीव के लिये जित ने भी वाञ्छनीय पदार्थ हैं—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—उन सब के रूप में आप ही प्रकट हैं। आप समस्त वृत्तियों—प्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्यों के फल स्वरूप हैं। विचारशील पुरुष आपको प्राप्त करने के लिये सब कुछ छोड़ देते हैं। भगवन् ! उन्हीं विवे की पुरुषों का आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुष के सहवास से प्राप्त होनेवाले सुख या दु:ख के वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करने के योग्य नहीं हैं ।। ३८ ।। यह ठीक है कि भिक्षुकों ने आपकी प्रशंसा की है। परंतु किन भिक्षुकों ने ? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओं ने आपकी महिमा और प्रभाव का वर्णन किया है, जिन्हों ने अपराधी-से-अपराधी व्यक्ति को भी दण्ड न दे ने का निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदॢशता से नहीं, इस बात को समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत के आत्मा हैं और अपने प्रेमियों को आत्मदान करते हैं। मैंने जानबूझकर उन ब्रह्मा और देवराज इन्द्र आदि का भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहों के इशारे से पैदा होनेवाला काल अपने वेग से उनकी आशा-अभिलाषाओं पर पानी फेर देता है। फिर दूसरोंकी—शिशुपाल, दन्तवक्र या जरासन्ध की तो बात ही क्या है ?।। ३९ ।।

सर्वेश्वर आर्यपुत्र ! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं मालूम होती कि आप राजाओं से भयभीत होकर समुद्र में आ ब से हैं। क्योंकि आपने केवल अपने शार्ङ्गधनुष के टङ्कार से मेरे विवाह के समय आये हुए समस्त राजाओं को भगाकर अपने चरणों में समॢपत मुझ दासी को उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे ङ्क्षसह अपनी कर्कश ध्वनि से वन-पशुओं को भगाकर अपना भाग ले आवे ।। ४० ।। कमलनयन ! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्राय: कष्ट ही उठाना पड़ता है। प्राचीन काल के अङ्ग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राज- राजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोडक़र आपको पाने की अभिलाषा से तपस्या करने वन में चले गये थे, वे आपके मार्ग का अनुसरण करने के कारण क्या किसी प्रकार का कष्ट उठा रहे हैं ।। ४१ ।। आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमार का वरण कर लो। भगवन् ! आप समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलों की सुगन्ध का बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेनेमात्र से लोग संसार के पाप-ताप से मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हीं में निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थ को भली-भाँति समझनेवाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलों की सुगन्ध सूँघ ने को मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगों को वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयों से युक्त हैं ! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती ।। ४२ ।। प्रभो ! आप सारे जगत के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोक में समस्त आशाओं को पूर्ण करनेवाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकना पड़े, इस की मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करनेवालों का मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करनेवाले तथा उन्हें अपना स्वरूप तक दे डालनेवाले आप परमेश्वर के चरणों की शरण में रहूँ ।। ४३ ।। अच्युत ! शत्रुसूदन ! गधों के समान घर का बोझा ढोनेवाले, बैलों के समान गृहस्थी के व्यापारों में जुते रहकर कष्ट उठानेवाले, कुत्तों के समान तिरस्कार सहनेवाले, बिलाव के समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासों के समान स्त्री की सेवा करनेवाले शिशुपाल आदि राजालोग, जिन्हें वरण करने के लिये आपने मुझे संकेत किया है—उसी अभागिनी स्त्री के पति हों, जिनके कानों में भगवान शङ्कर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरों की सभा में गायी जानेवाली आपकी लीला कथा ने प्रवेश नहीं किया है ।। ४४ ।। यह मनुष्य का शरीर जीवित होने पर भी मुर्दा ही है। ऊ पर से चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशों से ढका हुआ है; परंतु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्द के मकरन्द की सुगन्ध सूँघ ने को नहीं मिली है ।। ४५ ।। कमलनयन ! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातों पर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अत: आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलों में मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसार की अभिवृद्धि के लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है ।। ४६ ।। मधुसूदन ! आपने कहा कि किसी अनुरूप वर को वरण कर लो। मैं आपकी इस बात को भी झूठ नहीं मानती। क्योंकि कभी-कभी एक पुरुष के द्वारा जीती जाने पर भी काशी-नरेश की कन्या अम्बा के समान किसी-किसी की दूसरे पुरुष में भी प्रीति रहती है ।। ४७ ।। कुलटा स्त्री का मन तो विवाह हो जाने पर भी नये-नये पुरुषों की ओर खिंचता रहता है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्री को अपने पास न रखे। उसे अपनानेवाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट हो जाता है ।। ४८ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—साध्वी! राजकुमारी ! यही बातें सुनने के लिये तो मैंने तुम से हँसी- हँसी में तुम्हारी वञ्चना की थी, तुम्हें छकाया था। तुम ने मेरे वचनों की जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरश: सत्य है ।। ४९ ।। सुन्दरी ! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझ से जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझ से की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओं के समान बन्धन में डालनेवाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओं से मुक्त कर देती हैं ।। ५० ।। पुण्यमयी प्रिये ! मैंने तुम्हारा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परंतु तुम्हारी बुद्धि मुझ से तनिक भी इधर-उधर न हुई ।। ५१ ।। प्रिये ! मैं मोक्ष का स्वामी हूँ। लोगों को संसार-सागर से पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकार के व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवन के विषय-सुख की अभिलाषा से मेरा भजन करते हैं, वे मेरी माया से मोहित हैं।। ५२ ।। मानिनी प्रिये ! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं का आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्मा को प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुख के साधन सम्पत्ति की ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरक में और नरक के ही समान सूकर-कूकर आदि योनियों में भी प्राप्त हो सकते हैं। परंतु उन लोगों का मन तो विषयों में ही लगा रहता है,

इसलिये उन्हें नरक में जाना भी अच्छा जान पड़ता है ।। ५३ ।। गृहेश्वरी प्राणप्रिये ! यह बड़े आनन्द की बात है कि तुम ने अब तक निरन्तर संसार-बन्धन से मुक्त करनेवाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियों का चित्त दूषित कामनाओं से भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में ही लगी रहने के कारण अनेकों प्रकार के छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है ।। ५४ ।। मानिनि ! मुझे अपने घरभर में तुम्हारे समान प्रेम करनेवाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुम ने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाहमें आये हुए राजाओं की उपेक्षा करके ब्राह्मण के द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था ।। ५५ ।। तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाई को युद्ध में जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में चौसर खेलते समय बलरामजी ने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हम से वियोग हो जाने की आशङ्का से तुम ने चुपचाप वह सारा दु:ख सह लिया। मुझ से एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुण से मैं तुम्हारे वश हो गया हूँ ।। ५६ ।। तुम ने मेरी प्राप्ति के लिये दूत के द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परंतु जब तुम ने मेरे पहुँच ने में कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीख ने लगा। उस समय तुम ने अपना यह सर्वाङ्गसुन्दर शरीर किसी दूसरे के योग्य न समझकर इसे छोडऩे का संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं चु का सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भाव का केवल अभिनन्दन करते हैं ।। ५७ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे जब मनुष्योंकी-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेम को बढ़ानेवाले विनोदभरे वार्तालाप भी करते हैं और इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजी के साथ विहार करते हैं ।। ५८ ।। भगवान श्रीकृष्ण समस्त जगत को शिक्षा देनेवाले और सर्वव्यापक हैं। वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियों के महलों में भी गृहस्थों के समान रहते और गृहस्थोचित धर्म का पालन करते थे ।। ५९ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-61]

॥ एकषष्टितमोऽध्यायः - ६१ ॥
श्रीशुक उवाच
एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान् दश दशाबलाः ।
अजीजनन्ननवमान् पितुः सर्वात्मसम्पदा ॥ १॥

गृहादनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम् ।
प्रेष्ठं न्यमंसत स्वं स्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः ॥ २॥

चार्वब्जकोशवदनायतबाहुनेत्र-
सप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्पैः ।
सम्मोहिता भगवतो न मनो विजेतुं
स्वैर्विभ्रमैः समशकन् वनिता विभूम्नः ॥ ३॥

स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि-
भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः ।
पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणैः
यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः ॥ ४॥

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम् ।
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-
हासावलोकनवसङ्गमलालसाद्यम् ॥ ५॥

प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौच-
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः
दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ॥ ६॥

तासां या दश पुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः ।
अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान् प्रद्युम्नादीन् गृणामि ते ॥ ७॥

चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान् ।
सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः ॥ ८॥

चारुचन्द्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः ।
प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः ॥ ९॥

भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा ।
चन्द्रभानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः ॥ १०॥

श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्यभामात्मजा दश ।
साम्बः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित् ॥ ११॥

विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान् द्रविडः क्रतुः ।
जाम्बवत्याः सुता ह्येते साम्बाद्याः पितृसम्मताः ॥ १२॥

वीरश्चन्द्रोऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान् वृषः ।
आमः शङ्कुर्वसुः श्रीमान् कुन्तिर्नाग्नजितेः सुताः ॥ १३॥

श्रुतः कविर्वृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः ।
शान्तिर्दर्शः पूर्णमासः कालिन्द्याः सोमकोऽवरः ॥ १४॥

प्रघोषो गात्रवान् सिंहो बलः प्रबल ऊर्ध्वगः ।
माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः ॥ १५॥

वृको हर्षोऽनिलो गृध्रो वर्धनोऽन्नाद एव च ।
महाशः पावनो वह्निर्मित्रविन्दात्मजाः क्षुधिः ॥ १६॥

सङ्ग्रामजिद्बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित् ।
जयः सुभद्रो भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः ॥ १७॥

दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरेः ।
प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः ॥ १८॥

पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन् नाम्ना भोजकटे पुरे ।
एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप ।
मातरः कृष्णजातानां सहस्राणि च षोडश ॥ १९॥

राजोवाच
कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादाद्दुहितरं युधि ।
कृष्णेन परिभूतस्तं हन्तुं रन्ध्रं प्रतीक्षते ।
एतदाख्याहि मे विद्वन् द्विषोर्वैवाहिकं मिथः ॥ २०॥

अनागतमतीतं च वर्तमानमतीन्द्रियम् ।
विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक् पश्यन्ति योगिनः ॥ २१॥

श्रीशुक उवाच
वृतः स्वयंवरे साक्षादनङ्गोऽङ्गयुतस्तया ।
राज्ञः समेतान् निर्जित्य जहारैकरथो युधि ॥ २२॥

यद्यप्यनुस्मरन् वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः ।
व्यतरद्भागिनेयाय सुतां कुर्वन् स्वसुः प्रियम् ॥ २३॥

रुक्मिण्यास्तनयां राजन् कृतवर्मसुतो बली ।
उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल ॥ २४॥

दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्यददाद्धरेः ।
रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया ।
जानन्नधर्मं तद्यौनं स्नेहपाशानुबन्धनः ॥ २५॥

तस्मिन्नभ्युदये राजन् रुक्मिणी रामकेशवौ ।
पुरं भोजकटं जग्मुः साम्बप्रद्युम्नकादयः ॥ २६॥

तस्मिन् निवृत्त उद्वाहे कालिङ्गप्रमुखा नृपाः ।
दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय ॥ २७॥

अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत् ।
इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षैर्रुक्म्यदीव्यत ॥ २८॥

शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम् ।
तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिङ्गः प्राहसद्बलम् ।
दन्तान् सन्दर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः ॥ २९॥

ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद् ग्लहं तत्राजयद्बलः ।
जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः ॥ ३०॥

मन्युना क्षुभितः श्रीमान् समुद्र इव पर्वणि ।
जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे ॥ ३१॥

तं चापि जितवान् रामो धर्मेणच्छलमाश्रितः ।
रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति ॥ ३२॥

तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः ।
धर्मतो वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा ॥ ३३॥

तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः ।
सङ्कर्षणं परिहसन् बभाषे कालचोदितः ॥ ३४॥

नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः ।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः ॥ ३५॥

रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः ।
क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि ॥ ३६॥

कलिङ्गराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे ।
दन्तानपातयत्क्रुद्धो योऽहसद्विवृतैर्द्विजैः ॥ ३७॥

अन्ये निर्भिन्नबाहूरुशिरसो रुधिरोक्षिताः ।
राजानो दुद्रवर्भीता बलेन परिघार्दिताः ॥ ३८॥

निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा ।
रुक्मिणीबलयो राजन् स्नेहभङ्गभयाद्धरिः ॥ ३९॥

ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं
रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम् ।
रामादयो भोजकटाद्दशार्हाः
सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो
नामैकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१॥


दशम स्कन्ध-इकसठवाँ अध्याय 40
भगवान की सन्तति का वर्णन तथा अनिरुद्ध के विवाहमें रुक्मी का मारा जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी के गर्भ से दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणों में अपने पिता भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम न थे ।। १ ।। राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान श्रीकृष्ण हमारे महल से कभी बाहर नहीं जाते। सदा हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्ण को मैं ही सब से प्यारी हूँ। परीक्षित ! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान श्रीकृष्ण का तत्त्व—उनकी महिमा नहीं समझती थीं ।। २ ।। वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्द में एकरस स्थित भगवान श्रीकृष्ण के कमल-कली के समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणी से स्वयं ही मोहित रहती थीं। वे अपने श्ृङ्गारसम्बन्धी हावभावों से उनके मन को अपनी ओर खींच ने में समर्थ न हो सकीं ।। ३ ।। वे सोलह हजार से अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवन से युक्त मनोहर भौंहों के इशारे से ऐसे प्रेम के बाण चलाती थीं, जो काम-कला के भावों से परिपूर्ण होते थे, परंतु किसी भी प्रकारसे, किन्हीं साधनों के द्वारा वे भगवान के मन एवं इन्द्रियों में चञ्चलता नहीं उत्पन्न कर सकीं ।। ४ ।। परीक्षित ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को या उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम की लालसा आदि से भगवान की सेवा करती रहती थीं ।। ५ ।। उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं। फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से उनकी पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने हाथों भगवान की सेवा करतीं ।। ६ ।।

परीक्षित ! मैं कह चु का हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी के दस-दस पुत्र थे। उन रानियों में आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाह का वर्णन मैं पहले कर चु का हूँ। अब उनके प्रद्युम्र आदि पुत्रों का वर्णन करता हूँ ।। ७ ।। रुक्मिणी के गर्भ से दस पुत्र हुए—प्रद्युम्र, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम न थे ।। ८-९ ।। सत्यभामा के भी दस पुत्र थे—भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु। जाम्बवती के भी साम्ब आदि दस पुत्र थे—साम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्रजित्, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्, द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्ण को बहुत प्यारे थे ।। १०—१२ ।। नाग्रजिती सत्या के भी दस पुत्र हुए—वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान्, वृष, आम, शङ्कु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति ।। १३ ।। कालिन्दी के दस पुत्र ये थे—श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सब से छोटा सोमक ।। १४ ।। मद्रदेश की राजकुमारी लक्ष्मणा के गर्भ से प्रघोष, गात्रवान्, ङ्क्षसह, बल, प्रबल, ऊध्र्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित का जन्म हुआ ।। १५ ।। मित्रविन्दा के पुत्र थे—वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वह्नि और क्षुधि ।। १६ ।। भद्रा के पुत्र थे—संग्रामजित्, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित्, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक ।। १७ ।। इन पटरानियों के अतिरिक्त भगवान की रोहिणी आदि सोलह हजार एक सौ और भी पत्नियाँ थीं। उनके दीप्तिमान् और ताम्रतप्त आदि दस-दस पुत्र हुए। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्र का मायावती रति के अतिरिक्त भोजकट-नगरनिवासी रुक्मी की पुत्री रुक्मवती से भी विवाह हुआ था। उसी के गर्भ से परम बलशाली अनिरुद्ध का जन्म हुआ। परीक्षित ! श्रीकृष्ण के पुत्रों की माताएँ ही सोलह हजार से अधिक थीं। इसलिये उनके पुत्र-पौत्रों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी ।। १८-१९ ।।

राजा परीक्षित ने पूछा—परम ज्ञानी मुनीश्वर ! भगवान श्रीकृष्ण ने रणभूमि में रुक्मी का बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बात की घात में रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्ण से उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालूँ। ऐसी स्थिति में उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रु के पुत्र प्रद्युम्रजी को कैसे ब्याह दी ? कृपा करके बतलाइये ! दो शत्रुओंमें— श्रीकृष्ण और रुक्मी में फिर से परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ ? ।। २० ।। आप से कोई बात छिपी नहीं है। क्योंकि योगीजन भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातें भलीभाँति जानते हैं। उनसे ऐसी बातें भी छिपी नहीं रहतीं; जो इन्द्रियों से परे हैं, बहुत दूर हैं अथवा बीच में किसी वस्तु की आड़ होने के कारण नहीं दीखतीं ।। २१ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! प्रद्युम्रजी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणों पर रीझकर रुक्मवती ने स्वयंवर में उन्हीं को वरमाला पहना दी। प्रद्युम्रजी ने युद्ध में अकेले ही वहाँ इक_े हुए नरपतियों को जीत लिया और रुक्मवती को हर लाये ।। २२ ।। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण से अपमानित होने के कारण रुक्मी के हृदय की क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणी को प्रसन्न करने के लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्र को अपनी बेटी ब्याह दी ।। २३ ।। परीक्षित ! दस पुत्रों के अतिरिक्त रुक्मिणीजी के एक परम सुन्दरी बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्मा के पुत्र बली ने उसके साथ विवाह किया ।। २४ ।।

परीक्षित ! रुक्मी का भगवान श्रीकृष्ण के साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणी को प्रसन्न करने के लिये उसने अपनी पौत्री रोचना का विवाह रुक्मिणी के पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्ध के साथ कर दिया। यद्यपि रुक्मी को इस बात का पता था कि इस प्रकार का विवाह-सम्बन्ध धर्म के अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह-बन्धन में बँधकर उसने ऐसा कर दिया।। २५ ।। परीक्षित ! अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिये भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्र, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे ।। २६ ।। जब विवाहोत्सव निर्विघ्र समाप्त हो गया, तब कलिङ्गनरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि ‘तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो ।। २७ ।। राजन् ! बलरामजी को पा से डालने तो आते नहीं, परंतु उन्हें खेल ने का बहुत बड़ा व्यसन है।’ उन लोगों के बहका ने से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेल ने लगा ।। २८ ।। बलरामजी ने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरों का दाँव लगाया। उन्हें रुक्मी ने जीत लिया। रुक्मी की जीत होने पर कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहा का मारकर बलरामजी की हँसी उड़ा ने लगा। बलरामजी से वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये ।। २९ ।। इसके बाद रुक्मी ने एक लाख मुहरों का दाँव लगाया। उसे बलरामजी ने जीत लिया। परंतु रुक्मी धूर्तता से यह कह ने लगा कि ‘मैंने जीता है’ ।। ३० ।। इस पर श्रीमान् बलरामजी क्रोध से तिलमिला उठे। उनके हृदय में इतना क्षोभ हुआ, मानो पूॢणमा के दिन समुद्र में ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभाव से ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोध के मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरों का दाँव रखा ।। ३१ ।। इस बार भी द्यूतनियम के अनुसार बलरामजी की ही जीत हुई। परंतु रुक्मी ने छल करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषय के विशेषज्ञ कलिङ्गनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें’ ।। ३२ ।। उस समय आकाशवाणी ने कहा—‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजी ने ही यह दाँव जीता है। रुक्मी का यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है’ ।। ३३ ।। एक तो रुक्मी के सिर पर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओं ने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणी पर कोई ध्यान न दिया और बलरामजी की हँसी उड़ाते हुए कहा— ।। ३४ ।। ‘बलरामजी ! आखिर आपलोग वन- वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे ! आप पासा खेलना क्या जानें ? पासों और बाणों से तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं’ ।। ३५ ।। रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस माङ्गलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला ।। ३६ ।। पहले कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंग में भंग देखकर वहाँ से भागा; परंतु बलरामजी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोध से उसके दाँत तोड़ डाले ।। ३७ ।। बलरामजी ने अपने मुद्गर की चोट से दूसरे राजाओं की भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खून से लथपथ और भयभीत होकर वहाँ से भागते बने ।। ३८ ।। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करने से रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतला ने से बलरामजी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा ।। ३९ ।। इसके बाद अनिरुद्धजी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचना के साथ अनिरुद्धजी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारकापुरी को चले आये ।। ४० ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-62]

॥ द्विषष्टितमोऽध्यायः - ६२ ॥
राजोवाच
बाणस्य तनयामूषामुपयेमे यदूत्तमः ।
तत्र युद्धमभूद्घोरं हरिशङ्करयोर्महत् ।
एतत्सर्वं महायोगिन् समाख्यातुं त्वमर्हसि ॥ १॥

श्रीशुक उवाच
बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मनः ।
येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी ॥ २॥

तस्यौरसः सुतो बाणः शिवभक्तिरतः सदा ।
मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसन्धो दृढव्रतः ॥ ३॥

शोणिताख्ये पुरे रम्ये स राज्यमकरोत्पुरा ।
तस्य शम्भोः प्रसादेन किङ्करा इव तेऽमराः ।
सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मृडम् ॥ ४॥

भगवान् सर्वभूतेशः शरण्यो भक्तवत्सलः ।
वरेण छन्दयामास स तं वव्रे पुराधिपम् ॥ ५॥

स एकदाऽऽह गिरिशं पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः ।
किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशंस्तत्पदाम्बुजम् ॥ ६॥

नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम् ।
पुंसामपूर्णकामानां कामपूरामराङ्घ्रिपम् ॥ ७॥

दोःसहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवत् ।
त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम् ॥ ८॥

कण्डूत्या निभृतैर्दोर्भिर्युयुत्सुर्दिग्गजानहम् ।
आद्यायां चूर्णयन्नद्रीन् भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः ॥ ९॥

तच्छ्रुत्वा भगवान् क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा ।
त्वद्दर्पघ्नं भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते ॥ १०॥

इत्युक्तः कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप ।
प्रतीक्षन् गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः ॥ ११॥

तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम् ।
कन्यालभत कान्तेन प्रागदृष्टश्रुतेन सा ॥ १२॥

सा तत्र तमपश्यन्ती क्वासि कान्तेति वादिनी ।
सखीनां मध्य उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम् ॥ १३॥

बाणस्य मन्त्री कुम्भाण्डश्चित्रलेखा च तत्सुता ।
सख्यपृच्छत्सखीमूषां कौतूहलसमन्विता ॥ १४॥

कं त्वं मृगयसे सुभ्रूः कीदृशस्ते मनोरथः ।
हस्तग्राहं न तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये ॥ १५॥

ऊषोवाच
दृष्टः कश्चिन्नरः स्वप्ने श्यामः कमललोचनः ।
पीतवासा बृहद्बाहुर्योषितां हृदयङ्गमः ॥ १६॥

तमहं मृगये कान्तं पाययित्वाधरं मधु ।
क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे ॥ १७॥

चित्रलेखोवाच
व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते ।
तमानेष्ये नरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश ॥ १८॥

इत्युक्त्वा देवगन्धर्वसिद्धचारणपन्नगान् ।
दैत्यविद्याधरान् यक्षान् मनुजांश्च यथालिखत् ॥ १९॥

मनुजेषु च सा वृष्णीन् शूरमानकदुन्दुभिम् ।
व्यलिखद्रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता ॥ २०॥

अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषावाङ्मुखी ह्रिया ।
सोऽसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते ॥ २१॥

चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी ।
ययौ विहायसा राजन् द्वारकां कृष्णपालिताम् ॥ २२॥

तत्र सुप्तं सुपर्यङ्के प्राद्युम्निं योगमास्थिता ।
गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत् ॥ २३॥

सा च तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना ।
दुष्प्रेक्ष्ये स्वगृहे पुम्भी रेमे प्राद्युम्निना समम् ॥ २४॥

परार्ध्यवासः स्रग्गन्धधूपदीपासनादिभिः ।
पानभोजनभक्ष्यैश्च वाक्यैः शुश्रूषयार्चितः ॥ २५॥

गूढः कन्यापुरे शश्वत्प्रवृद्धस्नेहया तया ।
नाहर्गणान् स बुबुधे ऊषयापहृतेन्द्रियः ॥ २६॥

तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम् ।
हेतुभिर्लक्षयांचक्रुराप्रीतां दुरवच्छदैः ॥ २७॥

भटा आवेदयांचक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम् ।
विचेष्टितं लक्षयामः कन्यायाः कुलदूषणम् ॥ २८॥

अनपायिभिरस्माभिर्गुप्तायाश्च गृहे प्रभो ।
कन्याया दूषणं पुम्भिर्दुष्प्रेक्षाया न विद्महे ॥ २९॥

ततः प्रव्यथितो बाणो दुहितुः श्रुतदूषणः ।
त्वरितः कन्यकागारं प्राप्तोऽद्राक्षीद्यदूद्वहम् ॥ ३०॥

कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरं
श्यामं पिशङ्गाम्बरमम्बुजेक्षणम् ।
बृहद्भुजं कुण्डलकुन्तलत्विषा
स्मितावलोकेन च मण्डिताननम् ॥ ३१॥

दीव्यन्तमक्षैः प्रिययाभिनृम्णया
तदङ्गसङ्गस्तनकुङ्कुमस्रजम् ।
बाह्वोर्दधानं मधुमल्लिकाश्रितां
तस्याग्र आसीनमवेक्ष्य विस्मितः ॥ ३२॥

स तं प्रविष्टं वृतमाततायिभि-
र्भटैरनीकैरवलोक्य माधवः ।
उद्यम्य मौर्वं परिघं व्यवस्थितो
यथान्तको दण्डधरो जिघांसया ॥ ३३॥

जिघृक्षया तान् परितः प्रसर्पतः
शुनो यथा सूकरयूथपोहऽनत् ।
ते हन्यमाना भवनाद्विनिर्गता
निर्भिन्नमूर्धोरुभुजाः प्रदुद्रुवुः ॥ ३४॥

तं नागपाशैर्बलिनन्दनो बली
घ्नन्तं स्वसैन्यं कुपितो बबन्ध ह ।
ऊषा भृशं शोकविषादविह्वला
बद्धं निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत् ॥ ३५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धबन्धो नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२॥


दशम स्कन्ध-बासठवाँ अध्याय 35
ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन
राजा परीक्षित ने पूछा—महायोगसम्पन्न मुनीश्वर ! मैंने सुना है कि यदुवंशशिरोमणि अनिरुद्धजी ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से विवाह किया था और इस प्रसङ्ग में भगवान श्रीकृष्ण और शङ्करजी का बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृत्तान्त विस्तार से सुनाइये ।। १ ।।

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! महात्मा बलि की कथा तो तुम सुन ही चु के हो। उन्होंने वामन- रूपधारी भगवान को सारी पृथ्वी का दान कर दिया था। उनके सौ लडक़े थे। उनमें सब से बड़ा था बाणासुर ।। २ ।। दैत्यराज बलि का औरस पुत्र बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा रत रहता था। समाज में उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बात का धनी था ।। ३ ।। उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुर में राज्य करता था। भगवान शङ्कर की कृपा से इन्द्रादि देवता नौकर-चाकर की तरह उसकी सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थीं। एक दिन जब भगवान शङ्कर ताण्डवनृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथों से अनेकों प्रकार के बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर लिया ।। ४ ।। सचमुच भगवान शङ्कर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त भूतों के एकमात्र स्वामी प्रभु ने बाणासुर से कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझ से माँग लो।’ बाणासुर ने कहा—‘भगवन् ! आप मेरे नगर की रक्षा करते हुए यहीं रहा करें’ ।। ५ ।।

एक दिन बल-पौरुष के घमंड में चूर बाणासुर ने अपने समीप ही स्थित भगवान शङ्करके चरण- कमलों को सूर्य के समान चमकीले मुकुट से छूकर प्रणाम किया और कहा— ।। ६ ।। ‘देवाधिदेव ! आप समस्त चराचर जगत के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन लोगों के मनोरथ अब तक पूरे नहीं हुए हैं, उन को पूर्ण करने के लिये आप कल्पवृक्ष हैं ।। ७ ।। भगवन् ! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परंतु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकी में आपको छोडक़र मुझे अपनी बराबरी का कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो मुझ से लड़ सके ।। ८ ।। आदिदेव ! एक बार मेरी बाहों में लडऩे के लिये इतनी खुजलाहट हुई कि मैं दिग्गजों की ओर चला। परंतु वे भी डर के मारे भाग खड़े हुए। उस समय मार्ग में अपनी बाहों की चोट से मैंने बहुत से पहाड़ों को तोड़-फोड़ डाला था’ ।। ९ ।। बाणासुर की यह प्रार्थना सुनकर भगवान शङ्करने तनिक क्रोध से कहा—‘रे मूढ़ ! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायगी, उस समय मेरे ही समान योद्धा से तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा’ ।। १० ।। परीक्षित ! बाणासुर की बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि भगवान शङ्कर की बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख भगवान शङ्करके आदेशानुसार उस युद्ध की प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें उसके बल-वीर्य का नाश होनेवाला था ।। ११ ।।

परीक्षित ! बाणासुर की एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि ‘परम सुन्दर अनिरुद्धजी के साथ मेरा समागम हो रहा है।’ आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्धजी को न तो कभी देखा था और न सुना ही था ।। १२ ।। स्वप्न में ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी—‘प्राणप्यारे ! तुम कहाँ हो ?’ और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलता के साथ उठ बैठी और यह देखकर कि मैं सखियों के बीच में हूँ, बहुत ही लज्जित हुई ।। १३ ।। परीक्षित ! बाणासुर के मन्त्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियाँ थीं। चित्रलेखा ने ऊषा से कौतूहलवश पूछा—।। १४ ।। ‘सुन्दरी ! राजकुमारी ! मैं देखती हूँ कि अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है। फिर तुम कि से ढूँढ़ रही हो और तुम्हारे मनोरथ का क्या स्वरूप है ?।। १५ ।।

ऊषा ने कहा—सखी ! मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदल के समान हैं। शरीर पर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लंबी-लंबी हैं और वह स्त्रियों का चित्त चुरानेवाला है ।। १६ ।। उसने पहले तो अपने अधरों का मधुर मधु मुझे पिलाया, परंतु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दु:ख के सागर में डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी ! मैं अपने उसी प्राणवल्लभ को ढूँढ़ रही हूँ ।। १७ ।।

चित्रलेखा ने कहा—‘सखी ! यदि तुम्हारा चित्तचोर त्रिलोकी में कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान स कोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा अवश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ, तुम अपने चित्तचोर प्राणवल्लभ को पहचानकर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी’ ।। १८ ।। यों कहकर चित्रलेखा ने बात-की-बात में बहुत- से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिये ।। १९ ।। मनुष्यों में उसने वृष्णिवंशी वसुदेवजी के पिता शूर, स्वयं वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाये। प्रद्युम्र का चित्र देखते ही ऊषा लज्जित हो गयी ।। २० ।। परीक्षित ! जब उसने अनिरुद्ध का चित्र देखा, तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसने कहा—‘मेरा वह प्राणवल्लभ यही है, यही है’ ।। २१ ।।

परीक्षित ! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्ग से रात्रि में ही भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरी में पहुँची ।। २२ ।। वहाँ अनिरुद्धजी बहुत ही सुन्दर पलँग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया ।। २३ ।। अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभ को पाकर आनन्द की अधिकता से उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्धजी के साथ अपने महल में विहार करने लगी। परीक्षित ! उसका अन्त:पुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष झाँक तक नहीं सकता था ।। २४ ।। ऊषा का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि सामग्रियोंसे, सुमधुर पेय (पीनेयोग्य पदार्थ—दूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर खानेयोग्य) और भक्ष्य (निगल जानेयोग्य) पदार्थों से तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शुश्रूषा से अनिरुद्धजी का बड़ा सत्कार करती। ऊषा ने अपने प्रेम से उनके मन को अपने वश में कर लिया। अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कित ने दिन बीत गये ।। २५-२६ ।।

परीक्षित ! यदुकुमार अनिरुद्धजी के सहवास से ऊषा का कुआँरपन नष्ट हो चु का था। उसके शरीर पर ऐसे चिह्न प्रकट हो गये, जो स्पष्ट इस बात की सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारों ने समझ लिया कि इसका किसी-न-किसी पुरुष से सम्बन्ध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुर से निवेदन किया— ‘राजन् ! हमलोग आपकी अविवाहिता राजकुमारी का जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुल पर बट्टा लगानेवाला है ।। २७-२८ ।। प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महल का पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्या को बाहर के मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलङ्कित कैसे हो गयी ? इसका कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा है’ ।। २९ ।।

परीक्षित ! पहरेदारों से यह समाचार जानकर कि कन्या का चरित्र दूषित हो गया है, बाणासुर के हृदय में बड़ी पीड़ा हुई। वह झटपट ऊषा के महल में जा धम का और देखा कि अनिरुद्धजी वहाँ बैठे हुए हैं ।। ३० ।। प्रिय परीक्षित ! अनिरुद्धजी स्वयं कामावतार प्रद्युम्रजी के पुत्र थे। त्रिभुवन में उनके-जैसा सुन्दर और कोई न था। साँवरा-सलोना शरीर और उसपर पीताम्बर फहराता हुआ, कमलदल के समान बड़ी-बड़ी कोमल आँखें, लंबी-लंबी भुजाएँ, कपोलों पर घुँघराली अलकें और कुण्डलों की झिलमिलाती हुई ज्योति, होठों पर मन्द-मन्द मुसकान और प्रेमभरी चितवन से मुख की शोभा अनूठी हो रही थी ।। ३१ ।। अनिरुद्धजी उस समय अपनी सब ओर से सज-धजकर बैठी हुई प्रियतमा ऊषा के साथ पा से खेल रहे थे। उनके गले में बसंती बेला के बहुत सुन्दर पुष्पों का हार सुशोभित हो रहा था और उस हार में ऊषा के अङ्ग का सम्पर्क होने से उसके वक्ष:स्थल की केसर लगी हुई थी। उन्हें ऊषा के सामने ही बैठा देखकर बाणासुर विस्मित-चकित हो गया ।। ३२ ।। जब अनिरुद्धजी ने देखा कि बाणासुर बहुत- से आक्रमणकारी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित वीर सैनिकों के साथ महलों में घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर दे ने के लिये लोहे का एक भयङ्कर परिघ लेकर डट गये, मानो स्वयं कालदण्ड लेकर मृत्यु (यम) खड़ा हो ।। ३३ ।। बाणासुर के साथ आये हुए सैनिक उन को पकडऩे के लिये ज्यों-ज्यों उनकी ओर झपटते, त्यों-त्यों वे उन्हें मार-मारकर गिराते जाते— ठीक वैसे ही, जैसे सूअरों के दल का नायक कुत्तों को मार डाले ! अनिरुद्धजी की चोट से उन सैनिकों के सिर, भुजा, जंघा आदि अङ्ग टूट-फूट गये और वे महलों से निकल भागे ।। ३४ ।। जब बली बाणासुर ने देखा कि यह तो मेरी सारी सेना का संहार कर रहा है, तब वह क्रोध से तिलमिला उठा और उसने नागपाश से उन्हें बाँध लिया। ऊषा ने जब सुना कि उसके प्रियतम को बाँध लिया गया है, तब वह अत्यन्त शोक और विषाद से विह्वल हो गयी; उसके नेत्रों से आँसू की धारा बह ने लगी, वह रोने लगी ।। ३५ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-63]

॥ त्रिषष्टितमोऽध्यायः - ६३ ॥
श्रीशुक उवाच
अपश्यतां चानिरुद्धं तद्बन्धूनां च भारत ।
चत्वारो वार्षिका मासा व्यतीयुरनुशोचताम् ॥ १॥

नारदात्तदुपाकर्ण्य वार्तां बद्धस्य कर्म च ।
प्रययुः शोणितपुरं वृष्णयः कृष्णदेवताः ॥ २॥

प्रद्युम्नो युयुधानश्च गदः साम्बोऽथ सारणः ।
नन्दोपनन्दभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिनः ॥ ३॥

अक्षौहिणीभिर्द्वादशभिः समेताः सर्वतोदिशम् ।
रुरुधुर्बाणनगरं समन्तात्सात्वतर्षभाः ॥ ४॥

भज्यमानपुरोद्यानप्राकाराट्टालगोपुरम् ।
प्रेक्षमाणो रुषाविष्टस्तुल्यसैन्योऽभिनिर्ययौ ॥ ५॥

बाणार्थे भगवान् रुद्रः ससुतैः प्रमथैर्वृतः ।
आरुह्य नन्दिवृषभं युयुधे रामकृष्णयोः ॥ ६॥

आसीत्सुतुमुलं युद्धमद्भुतं रोमहर्षणम् ।
कृष्णशङ्करयो राजन् प्रद्युम्नगुहयोरपि ॥ ७॥

कुम्भाण्डकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुगः ।
साम्बस्य बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यकेः ॥ ८॥

ब्रह्मादयः सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणाः ।
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा विमानैर्द्रष्टुमागमन् ॥ ९॥

शङ्करानुचरान् शौरिर्भूतप्रमथगुह्यकान् ।
डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान् सविनायकान् ॥ १०॥

प्रेतमातृपिशाचांश्च कुष्माण्डान् ब्रह्मराक्षसान् ।
द्रावयामास तीक्ष्णाग्रैः शरैः शार्ङ्गधनुश्च्युतैः ॥ ११॥

पृथग्विधानि प्रायुङ्क्त पिनाक्यस्त्राणि शार्ङ्गिणे ।
प्रत्यस्त्रैः शमयामास शार्ङ्गपाणिरविस्मितः ॥ १२॥

ब्रह्मास्त्रस्य च ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम् ।
आग्नेयस्य च पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च ॥ १३॥

मोहयित्वा तु गिरिशं जृम्भणास्त्रेण जृम्भितम् ।
बाणस्य पृतनां शौरिर्जघानासिगदेषुभिः ॥ १४॥

स्कन्दः प्रद्युम्नबाणौघैरर्द्यमानः समन्ततः ।
असृग्विमुञ्चन् गात्रेभ्यः शिखिनापाक्रमद्रणात् ॥ १५॥

कुम्भाण्डः कूपकर्णश्च पेततुर्मुसलार्दितौ ।
दुद्रुवुस्तदनीकानि हतनाथानि सर्वतः ॥ १६॥

विशीर्यमाणं स्वबलं दृष्ट्वा बाणोऽत्यमर्षणः ।
कृष्णमभ्यद्रवत्सङ्ख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम् ॥ १७॥

धनूंष्याकृष्य युगपद्बाणः पञ्चशतानि वै ।
एकैकस्मिन् शरौ द्वौ द्वौ सन्दधे रणदुर्मदः ॥ १८॥

तानि चिच्छेद भगवान् धनूंषि युगपद्धरिः ।
सारथिं रथमश्वांश्च हत्वा शङ्खमपूरयत् ॥ १९॥

तन्माता कोटरा नाम नग्ना मुक्तशिरोरुहा ।
पुरोऽवतस्थे कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया ॥ २०॥

ततस्तिर्यङ्मुखो नग्नामनिरीक्षन् गदाग्रजः ।
बाणश्च तावद्विरथश्छिन्नधन्वाविशत्पुरम् ॥ २१॥

विद्राविते भूतगणे ज्वरस्तु त्रिशिरास्त्रिपात् ।
अभ्यधावत दाशार्हं दहन्निव दिशो दश ॥ २२॥

अथ नारायणो देवस्तं दृष्ट्वा व्यसृजज्ज्वरम् ।
माहेश्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ ॥ २३॥

माहेश्वरः समाक्रन्दन् वैष्णवेन बलार्दितः ।
अलब्ध्वाभयमन्यत्र भीतो माहेश्वरो ज्वरः ।
शरणार्थी हृषीकेशं तुष्टाव प्रयताञ्जलिः ॥ २४॥

ज्वर उवाच
नमामि त्वानन्तशक्तिं परेशं
सर्वात्मानं केवलं ज्ञप्तिमात्रम् ।
विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं
यत्तद्ब्रह्म ब्रह्मलिङ्गं प्रशान्तम् ॥ २५॥

कालो दैवं कर्म जीवः स्वभावो
द्रव्यं क्षेत्रं प्राण आत्मा विकारः ।
तत्सङ्घातो बीजरोहप्रवाह-
स्त्वन्मायैषा तन्निषेधं प्रपद्ये ॥ २६॥

नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नैर्देवान्
साधून् लोकसेतून् बिभर्षि ।
हंस्युन्मार्गान् हिंसया वर्तमानान्
जन्मैतत्ते भारहाराय भूमेः ॥ २७॥

तप्तोऽहं ते तेजसा दुःसहेन
शान्तोग्रेणात्युल्बणेन ज्वरेण ।
तावत्तापो देहिनां तेऽङ्घ्रिमूलं
नो सेवेरन् यावदाशानुबद्धाः ॥ २८॥

श्रीभगवानुवाच
त्रिशिरस्ते प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्ज्वराद्भयम् ।
यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद्भयम् ॥ २९॥

इत्युक्तोऽच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः ।
बाणस्तु रथमारूढः प्रागाद्योत्स्यन् जनार्दनम् ॥ ३०॥

ततो बाहुसहस्रेण नानायुधधरोऽसुरः ।
मुमोच परमक्रुद्धो बाणांश्चक्रायुधे नृप ॥ ३१॥

तस्यास्यतोऽस्त्राण्यसकृच्चक्रेण क्षुरनेमिना ।
चिच्छेद भगवान् बाहून् शाखा इव वनस्पतेः ॥ ३२॥

बाहुषु छिद्यमानेषु बाणस्य भगवान् भवः ।
भक्तानुकम्प्युपव्रज्य चक्रायुधमभाषत ॥ ३३॥

श्रीरुद्र उवाच
त्वं हि ब्रह्म परं ज्योतिर्गूढं ब्रह्मणि वाङ्मये ।
यं पश्यन्त्यमलात्मान आकाशमिव केवलम् ॥ ३४॥

नाभिर्नभोऽग्निर्मुखमम्बु रेतो
द्यौः शीर्षमाशाः श्रुतिरङ्घ्रिरुर्वी ।
चन्द्रो मनो यस्य दृगर्क आत्मा
अहं समुद्रो जठरं भुजेन्द्रः ॥ ३५॥

रोमाणि यस्यौषधयोऽम्बुवाहाः
केशा विरिञ्चो धिषणा विसर्गः ।
प्रजापतिर्हृदयं यस्य धर्मः
स वै भवान् पुरुषो लोककल्पः ॥ ३६॥

तवावतारोऽयमकुण्ठधामन्
धर्मस्य गुप्त्यै जगतो भवाय ।
वयं च सर्वे भवतानुभाविता
विभावयामो भुवनानि सप्त ॥ ३७॥

त्वमेक आद्यः पुरुषोऽद्वितीयस्तुर्यः
स्वदृघेतुरहेतुरीशः ।
प्रतीयसेऽथापि यथाविकारं
स्वमायया सर्वगुणप्रसिद्ध्यै ॥ ३८॥

यथैव सूर्यः पिहितश्छायया स्वया
छायां च रूपाणि च सञ्चकास्ति ।
एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्व-
मात्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन् ॥ ३९॥

यन्मायामोहितधियः पुत्रदारगृहादिषु ।
उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति प्रसक्ता वृजिनार्णवे ॥ ४०॥

देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः ।
यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः ॥ ४१॥

यस्त्वां विसृजते मर्त्य आत्मानं प्रियमीश्वरम् ।
विपर्ययेन्द्रियार्थार्थं विषमत्त्यमृतं त्यजन् ॥ ४२॥

अहं ब्रह्माथ विबुधा मुनयश्चामलाशयाः ।
सर्वात्मना प्रपन्नास्त्वामात्मानं प्रेष्ठमीश्वरम् ॥ ४३॥

तं त्वा जगत्स्थित्युदयान्तहेतुं
समं प्रशान्तं सुहृदात्मदैवम् ।
अनन्यमेकं जगदात्मकेतं
भवापवर्गाय भजाम देवम् ॥ ४४॥

अयं ममेष्टो दयितोऽनुवर्ती
मयाभयं दत्तममुष्य देव ।
सम्पाद्यतां तद्भवतः प्रसादो
यथा हि ते दैत्यपतौ प्रसादः ॥ ४५॥

श्रीभगवानुवाच
यदात्थ भगवंस्त्वं नः करवाम प्रियं तव ।
भवतो यद्व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम् ॥ ४६॥

अवध्योऽयं ममाप्येष वैरोचनिसुतोऽसुरः ।
प्रह्लादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः ॥ ४७॥

दर्पोपशमनायास्य प्रवृक्णा बाहवो मया ।
सूदितं च बलं भूरि यच्च भारायितं भुवः ॥ ४८॥

चत्वारोऽस्य भुजाः शिष्टा भविष्यन्त्यजरामरः ।
पार्षदमुख्यो भवतो नकुतश्चिद्भयोऽसुरः ॥ ४९॥

इति लब्ध्वाभयं कृष्णं प्रणम्य शिरसासुरः ।
प्राद्युम्निं रथमारोप्य सवध्वा समुपानयत् ॥ ५०॥

अक्षौहिण्या परिवृतं सुवासःसमलङ्कृतम् ।
सपत्नीकं पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः ॥ ५१॥

स्वराजधानीं समलङ्कृतां ध्वजैः
सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम् ।
विवेश शङ्खानकदुन्दुभिस्वनै-
रभ्युद्यतः पौरसुहृद्द्विजातिभिः ॥ ५२॥

य एवं कृष्णविजयं शङ्करेण च संयुगम् ।
संस्मरेत्प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात्पराजयः ॥ ५३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धानयनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३॥


दशम स्कन्ध-तिरसठवाँ अध्याय 53
भगवान श्रीकृष्ण के साथ बाणासुर का युद्ध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! बरसात के चार महीने बीत गये। परंतु अनिरुद्धजी का कहीं पता न चला। उनके घर के लोग, इस घटना से बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे ।। १ ।। एक दिन नारदजी ने आकर अनिरुद्ध का शोणितपुर जाना, वहाँ बाणासुर के सैनिकों को हराना और फिर नागपाश में बाँधा जाना—यह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्यदेव माननेवाले यदुवंशियों ने शोणितपुर पर चढ़ाई कर दी ।। २ ।। अब श्रीकृष्ण और बलरामजी के साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशी—प्रद्युम्र, सात्यकि, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द और भद्र आदि ने बारह अक्षौहिणी सेना के साथ व्यूह बनाकर चारों ओर से बाणासुर की राजधानी को घेर लिया ।। ३-४ ।। जब बाणासुर ने देखा कि यदुवंशियों की सेना नगर के उद्यान, पर कोटों, बुर्जों और ङ्क्षसहद्वारों को तोड़-फोड़ रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह भी बारह अक्षौहिणी सेना लेकर नगर से निकल पड़ा ।। ५ ।। बाणासुर की ओर से साक्षात भगवान शङ्कर वृषभराज नन्दी पर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणों के साथ रणभूमि में पधारे और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी से युद्ध किया ।। ६ ।। परीक्षित ! वह युद्ध इतना अद्भुत और घमासान हुआ कि उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। भगवान श्रीकृष्ण से शङ्करजी का और प्रद्युम्र से स्वामिकार्तिक का युद्ध हुआ ।। ७ ।। बलरामजी से कुम्भाण्ड और कूपकर्ण का युद्ध हुआ। बाणासुर के पुत्र के साथ साम्ब और स्वयं बाणासुर के साथ सात्यकि भिड़ गये ।। ८ ।। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, सिद्ध-चारण, गन्धर्व-अप्सराएँ और यक्ष विमानों पर चढ़-चढक़र युद्ध देखने के लिये आ पहुँचे ।। ९ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शार्ङ्गधनुष के तीखी नोकवाले बाणों से शङ्करजी के अनुचरों—भूत, प्रेत, प्रमथ, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक, प्रेतगण, मातृगण, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रह्म-राक्षसों को मार-मारकर खदेड़ दिया ।। १०-११ ।। पिनाकपाणि शङ्करजी ने भगवान श्रीकृष्ण पर भाँति-भाँति के अगणित अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया, परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने बिना किसी प्रकार के विस्मय के उन्हें विरोधी शास्त्रास्त्रों से शान्त कर दिया ।। १२ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मास्त्र की शान्ति के लिये ब्रह्मास्त्रका, वायव्यास्त्र के लिये पार्वतास्त्रका, आग्रेयास्त्र के लिये पर्जन्यास्त्र का और पाशुपतास्त्र के लिये नारायणास्त्र का प्रयोग किया ।। १३ ।। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र से (जिससे मनुष्य को जँभाई-पर-जँभाई आ ने लगती है) महादेवजी को मोहित कर दिया। वे युद्ध से विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण शङ्करजी से छुट्टी पाकर तलवार, गदा और बाणों से बाणासुर की सेना का संहार करने लगे ।। १४ ।। इधर प्रद्युम्र ने बाणों की बौछार से स्वामिकार्तिक को घायल कर दिया, उनके अङ्ग-अङ्ग से रक्त की धारा बह चली, वे रणभूमि छोडक़र अपने वाहन मयूर द्वारा भाग निकले ।। १५ ।। बलरामजी ने अपने मूसल की चोट से कुम्भाण्ड और कूपकर्ण को घायल कर दिया, वे रणभूमि में गिर पड़े। इस प्रकार अपने सेनापतियों को हताहत देखकर बाणासुर की सारी सेना तितर-बितर हो गयी ।। १६ ।। जब रथ पर सवार बाणासुर ने देखा कि श्रीकृष्ण आदि के प्रहार से हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढक़र सात्यकि को छोड़ दिया और वह भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने के लिये दौड़ पड़ा ।। १७ ।। परीक्षित ! रणोन्मत्त बाणासुर ने अपने एक हजार हाथों से एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर एक-एक पर दो-दो बाण चढ़ाये ।। १८ ।। परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने एक साथ ही उसके सारे धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ों को भी धराशायी कर दिया एवं शङ्खध्वनि की ।। १९ ।। कोटरा नाम की एक देवी बाणासुर की धर्ममाता थी। वह अपने उपासक पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिये बाल-बिखेरकर नंग- धड़ंग भगवान श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गयी ।। २० ।। भगवान श्रीकृष्ण ने इसलिये कि कहीं उसपर दृष्टि न पड़ जाय, अपना मुँह फेर लिया और वे दूसरी ओर देखने लगे। तब तक बाणासुर धनुष कट जाने और रथहीन हो जाने के कारण अपने नगर में चला गया ।। २१ ।।

इधर जब भगवान शङ्करके भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैरवाला ज्वर दसों दिशाओं को जलाता हुआ-सा भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा ।। २२ ।। भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अपनी ओर आते देखकर उसका मुकाबला करने के लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों ज्वर आपस में लडऩे लगे ।। २३ ।। अन्त में वैष्णव ज्वर के तेज से माहेश्वर ज्वर पीडि़त होकर चिल्ला ने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला, तब वह अत्यन्त नम्रता से हाथ जोडक़र शरण में लेने के लिये भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगा ।। २४ ।।

ज्वर ने कहा—प्रभो ! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रह्मादि ईश्वरों के भी परम महेश्वर हैं। आप सब के आत्मा और सर्व स्वरूप हैं। आप अद्वितीय और केवल ज्ञान स्वरूप हैं। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण आप ही हैं। श्रुतियों के द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप समस्त विकारों से रहित स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।। २५ ।। काल, दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव, स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर, सूत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पञ्चभूत—इन सब का संघात लिङ्गशरीर और बीजाङ्कुरन्याय के अनुसार उससे कर्म और कर्म से फिर लिङ्गशरीर की उत्पत्ति—यह सब आपकी माया है। आप माया के निषेध की परम अवधि हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ।। २६ ।। प्रभो ! आप अपनी लीला से ही अनेकों रूप धारण कर लेते हैं और देवता, साधु तथा लोकमर्यादाओं का पालन-पोषण करते हैं। साथ ही उन्मार्गगामी और हिंसक असुरों का संहार भी करते हैं। आपका यह अवतार पृथ्वी का भार उतार ने के लिये ही हुआ है ।। २७ ।। प्रभो ! आपके शान्त, उग्र और अत्यन्त भयानक दुस्सह तेज ज्वर से मैं अत्यन्त सन्तप्त हो रहा हूँ। भगवन् ! देहधारी जीवों को तभी तक ताप-सन्ताप रहता है, जब तक वे आशा के फंदों में फँ से रहने के कारण आपके चरणकमलों की शरण नहीं ग्रहण करते ।। २८ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘त्रिशिरा ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वर से निर्भय हो जाओ। संसार में जो कोई हम दोनों के संवाद का स्मरण करेगा, उसे तुम से कोई भय न रहेगा’ ।। २९ ।। भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर माहेश्वर ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया। तब तक बाणासुर रथ पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिये फिर आ पहुँचा ।। ३० ।। परीक्षित ! बाणासुर ने अपने हजार हाथों में तरह-तरह के हथियार ले रखे थे। अब वह अत्यन्त क्रोध में भरकर चक्रपाणि भगवान पर बाणों की वर्षा करने लगा ।। ३१ ।। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि बाणासुर ने तो बाणों की झड़ी लगा दी है, तब वे छुरे के समान तीखी धारवाले चक्र से उसकी भुजाएँ काट ने लगे, मानो कोई किसी वृक्ष की छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो ।। ३२ ।। जब भक्तवत्सल भगवान शङ्करने देखा कि बाणासुर की भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण के पास आये और स्तुति करने लगे ।। ३३ ।।

भगवान शङ्करने कहा—प्रभो ! आप वेदमन्त्रों में तात्पर्यरूप से छिपे हुए परमज्योति: स्वरूप परब्रह्म हैं। शुद्धहृदय महात्मागण आपके आकाश के समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरूप का साक्षातकार करते हैं ।। ३४ ।। आकाश आपकी नाभि है, अग्रि मुख है और जल वीर्य। स्वर्ग सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण है। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र भुजा ।। ३५ ।। धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और ब्रह्मा बुद्धि। प्रजापति लिङ्ग हैं और धर्म हृदय। इस प्रकार समस्त लोक और लोकान्तरों के साथ जिसके शरीर की तुलना की जाती है, वे परमपुरुष आप ही हैं ।। ३६ ।। अखण्ड ज्योति: स्वरूप परमात्मन् ! आपका यह अवतार धर्म की रक्षा और संसार के अभ्युदय—अभिवृद्धि के लिये हुआ है। हम सब भी आपके प्रभाव से ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनों का पालन करते हैं ।। ३७ ।। आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित हैं—एक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—इन तीन अवस्थाओं में अनुगत और उनसे अतीत तुरीयतत्त्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तु के द्वारा प्रकाशित नहीं होते, स्वयंप्रकाश हैं। आप सब के कारण हैं, परंतु आपका न तो कोई कारण है और न तो आप में कारणपना ही है। भगवन् ! ऐसा होने पर भी आप तीनों गुणों की विभिन्न विषमताओं को प्रकाशित करने के लिये अपनी माया से देवता, पशु- पक्षी, मनुष्य आदि शरीरों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होते हैं ।। ३८ ।। प्रभो ! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलों से ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपों को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आप तो स्वयंप्रकाश हैं, परंतु गुणों के द्वारा मानो ढक- से जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवों को प्रकाशित करते हैं। वास्तव में आप अनन्त हैं ।। ३९ ।।

भगवन् ! आपकी माया से मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र, देह-गेह आदि में आसक्त हो जाते हैं और फिर दु:ख के अपार सागर में डूबने-उतरा ने लगते हैं ।। ४० ।। संसार के मानवों को यह मनुष्य- शरीर आपने अत्यन्त कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं करता और आपके चरणकमलों का आश्रय नहीं लेता—उनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है ।। ४१ ।। प्रभो ! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं। जो मृत्यु का ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दु:खरूप एवं तुच्छ विषयों में सुखबुद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख है कि अमृत को छोडक़र विष पी रहा है ।। ४२ ।। मैं, ब्रह्मा, सारे देवता और विशुद्ध हृदयवाले ऋषि-मुनि सब प्रकार से और सर्वात्मभाव से आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप ही हमलोगों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं ।। ४३ ।। आप जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण हैं। आप सब में सम, परम शान्त, सब के सुहृद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक, अद्वितीय और जगत के आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो ! हम सब संसार से मुक्त होने के लिये आपका भजन करते हैं ।। ४४ ।। देव ! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो ! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रह्लाद पर आपका कृपाप्रसाद है, वैसा ही कृपाप्रसाद आप इस पर भी करें ।। ४५ ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—भगवन् ! आपकी बात मानकर—जैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ। आपने पहले इसके सम्बन्ध में जैसा निश्चय किया था—मैंने इस की भुजाएँ काटकर उसी का अनुमोदन किया है ।। ४६ ।। मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि मैंने प्रह्लाद को वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वशं में पैदा होनेवाले किसी भी दैत्य का वध नहीं करूँगा ।। ४७ ।। इसका घमंड चूर करने के लिये ही मैंने इस की भुजाएँ काट दी हैं। इस की बहुत बड़ी सेना पृथ्वी के लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है ।। ४८ ।। अब इस की चार भुजाएँ बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदों में मुख्य होगा। अब इस को किसी से किसी प्रकार का भय नहीं है ।। ४९ ।।

श्रीकृष्ण से इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके बाणासुर ने उनके पास आकर धरती में माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्धजी को अपनी पुत्री ऊषा के साथ रथ पर बैठाकर भगवान के पास ले आया ।। ५० ।। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने महादेवजी की सम्मति से वस्त्रालंकारविभूषित ऊषा और अनिरुद्धजी को एक अक्षौहिणी सेना के साथ आगे करके द्वार का के लिये प्रस्थान किया ।। ५१ ।। इधर द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण आदि के शुभागमन का समाचार सुनकर झंडियों और तोरणों से नगर का कोना- कोना सजा दिया गया। बड़ी-बड़ी सडक़ों और चौराहों को चन्दन- मिश्रित जल से सींच दिया गया। नगर के नागरिकों, बन्धु-बान्धवों और ब्राह्मणों ने आगे आकर खूब धूमधाम से भगवान का स्वागत किया। उस समय शङ्ख, नगारों और ढोलों की तुमुल ध्वनि हो रही थी। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी राजधानी में प्रवेश किया ।। ५२ ।।

परीक्षित ! जो पुरुष श्रीशङ्करजी के साथ भगवान श्रीकृष्ण का युद्ध और उनकी विजय की कथा का प्रात:काल उठकर स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होती ।। ५३ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-64]

॥ चतुःषष्टितमोऽध्यायः - ६४ ॥
श्रीशुक उवाच
एकदोपवनं राजन् जग्मुर्यदुकुमारकाः ।
विहर्तुं साम्बप्रद्युम्नचारुभानुगदादयः ॥ १॥

क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वन्तः पिपासिताः ।
जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्त्वमद्भुतम् ॥ २॥

कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः ।
तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृपयान्विताः ॥ ३॥

चर्मजैस्तान्तवैः पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भकाः ।
नाशक्नुवन् समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः ॥ ४॥

तत्रागत्यारविन्दाक्षो भगवान् विश्वभावनः ।
वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण स लीलया ॥ ५॥

स उत्तमश्लोककराभिमृष्टो
विहाय सद्यः कृकलासरूपम् ।
सन्तप्तचामीकरचारुवर्णः
स्वर्ग्यद्भुतालङ्करणाम्बरस्रक् ॥ ६॥

पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं
जनेषु विख्यापयितुं मुकुन्दः ।
कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो
देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम् ॥ ७॥

दशामिमां वा कतमेन कर्मणा
सम्प्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र ।
आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो
यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम् ॥ ८॥

श्रीशुक उवाच
इति स्म राजा सम्पृष्टः कृष्णेनानन्तमूर्तिना ।
माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्क वर्चसा ॥ ९॥

नृग उवाच
नृगो नाम नरेन्द्रोऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो ।
दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम् ॥ १०॥

किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः ।
कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया ॥ ११॥

यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः ।
यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददं स्म गाः ॥ १२॥

पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूप-
गुणोपपन्नाः कपिला हेमश‍ृङ्गीः ।
न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा
दुकूलमालाभरणा ददावहम् ॥ १३॥

स्वलङ्कृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्यः
सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्यः ।
तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यः
प्रादां युवभ्यो द्विजपुङ्गवेभ्यः ॥ १४॥

गोभूहिरण्यायतनाश्व हस्तिनः
कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः ।
वासांसि रत्नानि परिच्छदान् रथानिष्टं
च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम् ॥ १५॥

कस्यचिद्द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने ।
सम्पृक्ताविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये ॥ १६॥

तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्रोवाच ममेति तम् ।
ममेति परिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति ॥ १७॥

विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ ।
भवान् दातापहर्तेति तच्छ्रुत्वा मेऽभवद्भ्रमः ॥ १८॥

अनुनीतावुभौ विप्रौ धर्मकृच्छ्रगतेन वै ।
गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम् ॥ १९॥

भवन्तावनुगृह्णीतां किङ्करस्याविजानतः ।
समुद्धरत मां कृच्छ्रात्पतन्तं निरयेऽशुचौ ॥ २०॥

नाहं प्रतीच्छे वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत् ।
नान्यद्गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ ॥ २१॥

एतस्मिन्नन्तरे याम्यैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम् ।
यमेन पृष्टस्तत्राहं देवदेव जगत्पते ॥ २२॥

पूर्वं त्वमशुभं भुङ्क्षे उताहो नृपते शुभम् ।
नान्तं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः ॥ २३॥

पूर्वं देवाशुभं भुञ्ज इति प्राह पतेति सः ।
तावदद्राक्षमात्मानं कृकलासं पतन् प्रभो ॥ २४॥

ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव ।
स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः ॥ २५॥

स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथः परात्मा
योगेश्वरैः श्रुतिदृशामलहृद्विभाव्यः ।
साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः
स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः ॥ २६॥

देवदेव जगन्नाथ गोविन्द पुरुषोत्तम ।
नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय ॥ २७॥

अनुजानीहि मां कृष्ण यान्तं देवगतिं प्रभो ।
यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम् ॥ २८॥

नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।
कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः ॥ २९॥

इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना ।
अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत्पश्यतां नृणाम् ॥ ३०॥

कृष्णः परिजनं प्राह भगवान् देवकीसुतः ।
ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन् ॥ ३१॥

दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि ।
तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञामीश्वरमानिनाम् ॥ ३२॥

नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया ।
ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि ॥ ३३॥

हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति ।
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः ॥ ३४॥

ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम् ।
प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान् दशापरान् ॥ ३५॥

राजानो राजलक्ष्म्यान्धा नात्मपातं विचक्षते ।
निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः ॥ ३६॥

गृह्णन्ति यावतः पांसून् क्रन्दतामश्रुबिन्दवः ।
विप्राणां हृतवृत्तीनां वदान्यानां कुटुम्बिनाम् ॥ ३७॥

राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः ।
कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः ॥ ३८॥

स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ ३९॥

न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृध्वाल्पायुषो नराः ।
पराजिताश्च्युता राज्याद्भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः ॥ ४०॥

विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः ।
घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ॥ ४१॥

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः ।
तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक् ॥ ४२॥

ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः ।
अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव ॥ ४३॥

एवं विश्राव्य भगवान् मुकुन्दो द्वारकौकसः ।
पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम् ॥ ४४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४॥


दशम स्कन्ध-चौंसठवाँ अध्याय 44
नृग राजा की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित ! एक दिन साम्ब, प्रद्युम्र, चारुभानु और गद आदि यदुवंशी राजकुमार घूम ने के लिये उपवन में गये ।। १ ।। वहाँ बहुत देर तक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जल की खोज करने लगे। वे एक कूएँ के पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा ।। २ ।। वह जीव पर्वत के समान आकार का एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही। उनका हृदय करुणा से भर आया और वे उसे बाहर निकाल ने का प्रयत्न करने लगे ।। ३ ।। परंतु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिट को चमड़े और सूत की रस्सियों से बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान श्रीकृष्ण के पास जाकर निवेदन किया ।। ४ ।। जगत के जीवनदाता कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण उस कूएँ पर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथ से खेल-खेलमें—अनायास ही उस को बाहर निकाल लिया ।। ५ ।। भगवान श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवता के रूप में परणित हो गया। अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सो ने के समान चमक रहा था। और उसके शरीर पर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पों के हार शोभा पा रहे थे ।। ६ ।। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुष को गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारण को मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुष से पूछा—‘महाभाग ! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन ? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो ।। ७ ।। कल्याणमूर्ते ! किस कर्म के फल से तुम्हें इस योनि में आना पड़ा था ? वास्तव में तुम इसके योग्य नहीं हो। हमलोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हमलोगों को वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो’ ।। ८ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब अनन्तमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नृग से [क्योंकि वे ही इस रूप में प्रकट हुए थे] इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्य के समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कह ने लगे ।। ९ ।।

राजा नृग ने कहा—प्रभो ! मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा ।। १० ।। प्रभो ! आप समस्त प्राणियों की एक-एक वृत्ति के साक्षी हैं। भूत और भविष्य का व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकता। अत: आप से छिपा ही क्या है ? फिर भी मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये कहता हूँ ।। ११ ।। भगवन् ! पृथ्वी में जित ने धूलिकण हैं, आकाश में जित ने तारे हैं और वर्षा में जितनी जल की धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं ।। १२ ।। वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्याय के धन से प्राप्त किया था। सब के साथ बछड़े थे। उनके सींगों में सोना मढ़ दिया गया था और खुरों में चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनों से सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैंने दी थीं ।। १३ ।। भगवन् ! मैं युवावस्था से सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारों को—जो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्ट में पड़े हुए कुटुम्बवाले, दम्भरहित तपस्वी, वेदपाठी, शिष्यों को विद्यादान करनेवाले तथा सच्चरित्र होते—वस्त्राभूषण से अलंकृत करता और उन गौओं का दान करता ।। १४ ।। इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दासियों के सहित कन्याएँ, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत- से कूएँ, बावली आदि बनवाये ।। १५ ।।

एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेनेवाले), तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुडक़र मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया ।। १६ ।। जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा—‘यह गौ मेरी है।’ दान ले जानेवाले ब्राह्मण ने कहा—‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है’ ।। १७ ।। वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिये मेरे पास आये। एक ने कहा—‘यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है’ और दूसरे ने कहा कि ‘यदि ऐसी बात है तो तुम ने मेरी गाय चुरा ली है।’ भगवन् ! उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया ।। १८ ।। मैंने धर्मसंकट में पडक़र उन दोनों से बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि ‘मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आपलोग मुझे यह गाय दे दीजिये ।। १९ ।। मैं आपलोगों का सेवक हूँ। मुझ से अनजान में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आपलोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिर ने से बचा लीजिये’ ।। २० ।। ‘राजन् ! मैं इसके बदले में कुछ नहीं लूँगा।’ यह कहकर गाय का स्वामी चला गया। ‘तुम इसके बदले में एक लाख ही नहीं, दस हजार गौएँ और दो तो भी मैं लेने का नहीं।’ इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया ।। २१ ।। देवाधिदेव जगदीश्वर ! इसके बाद आयु समाप्त होने पर यमराज के दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराज ने मुझ से पूछा— ।। २२ ।। ‘राजन् ! तुम पहले अपने पाप का फल भोगना चाहते हो या पुण्य का ? तुम्हारे दान और धर्म के फल स्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होनेवाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है’ ।। २३ ।। भगवन् ! तब मैंने यमराज से कहा—‘देव ! पहले मैं अपने पाप का फल भोगना चाहता हूँ।’ और उसी क्षण यमराज ने कहा—‘तुम गिर जाओ।’ उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँ से गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ ।। २४ ।। प्रभो ! मैं ब्राह्मणों का सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बात की उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपा से मेरे पूर्वजन्मों की स्मृति नष्ट न हुई ।। २५ ।। भगवन् ! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदों की दृष्टि से (अभेददृष्टिसे) अपने हृदय में आपका ध्यान करते रहते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन् ! साक्षात आप मेरे नेत्रों के सामने कैसे आ गये ! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकार के व्यसनों, दु:खद कर्मों में फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसार के चक्कर से छुटकारा मिल ने का समय आता है ।। २६ ।। देवताओं के भी आराध्यदेव ! पुरुषोत्तम गोविन्द ! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत तथा जीवों के स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत ! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण ! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियों के स्वामी हैं ।। २७ ।। प्रभो ! श्रीकृष्ण ! मैं अब देवताओं के लोक में जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलों में ही लगा रहे ।। २८ ।। आप समस्त कार्यों और कारणों के रूप में विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त है और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण ! आप समस्त योगों के स्वामी, योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।। २९ ।।

राजा नृग ने इस प्रकार कहकर भगवान की परिक्रमा की और अपने मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सब के देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमान पर सवार हो गये ।। ३० ।।

राजा नृग के चले जाने पर ब्राह्मणों के परम प्रेमी, धर्म के आधार देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने क्षत्रियों को शिक्षा दे ने के लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा— ।। ३१ ।। ‘जो लोग अग्रि के समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणों का थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपने को लोगों का स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं ?।। ३२ ।। मैं हलाहल विष को विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणों का धन ही परम विष है; उस को पचा लेने के लिये पृथ्वी में कोई औषध, कोई उपाय नहीं है ।। ३३ ।। हलाहल विष केवल खानेवाले का ही प्राण लेता है, और आग भी जल के द्वारा बुझायी जा सकती है; परंतु ब्राह्मण के धनरूप अरणि से जो आग पैदा होती है, वह सारे कुल को समूल जला डालती है ।। ३४ ।। ब्राह्मण का धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लडक़े और पौत्र—इन तीन पीढिय़ों को ही चौपट करता है। परंतु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषों की दस पीढिय़ाँ और आगे की भी दस पीढिय़ाँ नष्ट हो जाती हैं ।। ३५ ।। जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मी के घमंड से अंधे होकर ब्राह्मणों का धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरक में जाने का रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अध:पतन के कैसे गहरे गड्ढे में गिरना पड़ेगा ।। ३६ ।। जिन उदारहृदय और बहुकुटुम्बी ब्राह्मणों की वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोने पर उनके आँसू की बूँदों से धरती के जित ने धूलिकण भीगते हैं, उतने वर्षों तक ब्राह्मण के स्वत्व को छीननेवाले उस उच्छृङ्खल राजा और उसके वंशजों को कुम्भीपाक नरक में दु:ख भोगना पड़ता है ।। ३७-३८ ।। जो मनुष्य अपनी या दूसरों की दी हुई ब्राह्मणों की वृत्ति, उनकी जीवि का के साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्ष तक विष्ठा के कीड़े होते हैं ।। ३९ ।। इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणों का धन कभी भूल से भी मेरे कोष में न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणों के धन की इच्छा भी करते हैं—उसे छीन ने की बात तो अलग रही—वे इस जन्म में अल्पायु, शत्रुओं से पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के बाद भी वे दूसरों को कष्ट देनेवाले साँप ही होते हैं ।। ४० ।। इसलिये मेरे आत्मीयो ! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो । वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुमलोग सदा नमस्कार ही करो ।। ४१ ।। जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानी से तीनों समय ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञा का उल्लङ्घन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा ।। ४२ ।। यदि ब्राह्मण के धन का अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करनेवाले को—अनजान में उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी— अध:पतन के गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मण की गाय ने अनजान में उसे लेनेवाले राजा नृग को नरक में डाल दिया था ।। ४३ ।। परीक्षित ! समस्त लोकों को पवित्र करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण द्वारका- वासियों को इस प्रकार उपदेश देकर अपने महल में चले गये ।। ४४ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-65]

॥ पञ्चषष्टितमोऽध्यायः - ६५ ॥
श्रीशुक उवाच
बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः ।
सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ १॥

परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च ।
रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनन्दितः ॥ २॥

चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः ।
इत्यारोप्याङ्कमालिङ्ग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः ॥ ३॥

गोपवृद्धांश्च विधिवद्यविष्ठैरभिवन्दितः ।
यथावयो यथासख्यं यथासम्बन्धमात्मनः ॥ ४॥

समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभिः ।
विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः ॥ ५॥

पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा ।
कृष्णे कमलपत्राक्षे सन्न्यस्ताखिलराधसः ॥ ६॥

कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते ।
कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः ॥ ७॥

दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः ।
निहत्य निर्जित्य रिपून् दिष्ट्या दुर्गं समाश्रीताः ॥ ८॥

गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनादृताः ।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः ॥ ९॥

कच्चित्स्मरति वा बन्धून् पितरं मातरं च सः ।
अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति ।
अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः ॥ १०॥

मातरं पितरं भ्रातॄन् पतीन् पुत्रान् स्वसॄरपि ।
यदर्थे जहिम दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो ॥ ११॥

ता नः सद्यः परित्यज्य गतः सञ्छिन्नसौहृदः ।
कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम् ॥ १२॥

कथं नु गृह्णन्त्यनवस्थितात्मनो
वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः ।
गृह्णन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-
स्मितावलोकोच्छ्वसितस्मरातुराः ॥ १३॥

किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः ।
यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः ॥ १४॥

इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारु वीक्षितम् ।
गतिं प्रेमपरिष्वङ्गं स्मरन्त्यो रुरुदुः स्त्रियः ॥ १५॥

सङ्कर्षणस्ताः कृष्णस्य सन्देशैर्हृदयङ्गमैः ।
सान्त्वयामास भगवान् नानानुनयकोविदः ॥ १६॥

द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवमेव च ।
रामः क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन् ॥ १७॥

पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना ।
यमुनोपवने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः ॥ १८॥

वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात् ।
पतन्ती तद्वनं सर्वं स्वगन्धेनाध्यवासयत् ॥ १९॥

तं गन्धं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः ।
आघ्रायोपगतस्तत्र ललनाभिः समं पपौ ॥ २०॥

(उपगीयमानो गन्धर्वैर्वनिताशोभिमण्डले ।
रेमे करेणुयूथेशो माहेन्द्र इव वारणः ॥

नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ववृषुः कुसुमैर्मुदा ।
गन्धर्वा मुनयो रामं तद्वीर्यैरीडिरे तदा ॥)
उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुधः ।
वनेषु व्यचरत्क्षीबो मदविह्वललोचनः ॥ २१॥

स्रग्व्येककुण्डलो मत्तो वैजयन्त्या च मालया ।
बिभ्रत्स्मितमुखाम्भोजं स्वेदप्रालेयभूषितम् ॥ २२॥

स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः ।
निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः ।
अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह ॥ २३॥

पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाऽऽहुता ।
नेष्ये त्वां लाङ्गलाग्रेण शतधा कामचारिणीम् ॥ २४॥

एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनन्दनम् ।
उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप ॥ २५॥

राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम् ।
यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते ॥ २६॥

परं भावं भगवतो भगवन् मामजानतीम् ।
मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन् प्रपन्नां भक्तवत्सल ॥ २७॥

ततो व्यमुञ्चद्यमुनां याचितो भगवान् बलः ।
विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट् ॥ २८॥

कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासिताम्बरे ।
भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्तिः शुभां स्रजम् ॥ २९॥

वसित्वा वाससी नीले मालामामुच्य काञ्चनीम् ।
रेजे स्वलङ्कृतो लिप्तो माहेन्द्र इव वारणः ॥ ३०॥

अद्यापि दृश्यते राजन् यमुनाऽऽकृष्ट वर्त्मना ।
बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि ॥ ३१॥

एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे ।
रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम् ॥ ३२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवविजये यमुनाकर्षणं नाम
पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५॥


दशम स्कन्ध-पैंसठवाँ अध्याय 32
श्रीबलरामजी का व्रजगमन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान बलरामजी के मन में व्रज के नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियों से मिल ने की बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथ पर सवार होकर द्वारका से नन्दबाबा के व्रज में आये ।। १ ।। इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनों से उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीच में पाकर सबने बड़े प्रेम से गले लगाया। बलरामजी ने माता यशोदा और नन्दबाबा को प्रणाम किया। उन लोगों ने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया ।। २ ।। यह कहकर कि ‘बलरामजी ! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण के साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उन को गोद में ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओं से उन्हें भिगो दिया ।। ३ ।। इसके बाद बड़े-बड़े गोपों को बलरामजी ने और छोटे-छोटे गोपों ने बलरामजी को नमस्कार किया। वे अपनी आयु, मेल-जोल और सम्बन्ध के अनुसार सब से मिले-जुले ।। ४ ।। ग्वालबालों के पास जाकर किसी से हाथ मिलाया, किसी से मीठी-मीठी बातें कीं, किसीको खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलरामजी की थकावट दूर हो गयी, वे आराम से बैठ गये, तब सब ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालों ने कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण के लिये समस्त भोग, स्वर्ग और मोक्ष तक त्याग रखा था। बलरामजी ने जब उनके और उनके घरवालों के सम्बन्ध में कुशलप्रश्र किया, तब उन्होंने प्रेम-गद्गद वाणी से उनसे प्रश्र किया ।। ५-६ ।। ‘बलरामजी ! वसुदेवजी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न ? अब आपलोग स्त्री-पुत्र आदि के साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं; क्या कभी आपलोगों को हमारी याद भी आती है ?।। ७ ।। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि पापी कंस को आपलोगों ने मार डाला और अपने सुहृद्-सम्बन्धियों को बड़े कष्ट से बचा लिया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि आपलोगों ने और भी बहुत- से शत्रुओं को मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग (किले) में आपलोग निवास करते हैं’ ।। ८ ।।

परीक्षित ! भगवान बलरामजी के दर्शनसे, उनकी प्रेमभरी चितवन से गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा—‘क्यों बलरामजी ! नगर-नारियों के प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल तो हैं न ?।। ९ ।। क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माता की भी याद आती है ! क्या वे अपनी माता के दर्शन के लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे ! क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हमलोगों की सेवा का भी कुछ स्मरण करते हैं ।। १० ।। आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियों को छोडऩा बहुत ही कठिन है। फिर भी हम ने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियों को भी छोड़ दिया। परंतु प्रभो ! वे बात-की-बात में हमारे सौहार्द और प्रेम का बन्धन काटकर, हम से नाता तोडक़र परदेश चले गये; हमलोगों को बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परंतु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैं—तुम्हारे उपकार का बदला कभी नहीं चु का सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातों पर विश्वास न कर लेती’ ।। ११-१२ ।। एक गोपी ने कहा—‘बलरामजी ! हम तो गाँव की गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातों में आ गयीं। परंतु नगर की स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चञ्चल और कृतघ्र श्रीकृष्ण की बातों में क्यों फँस ने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छ का पाते होंगे !’ दूसरी गोपी ने कहा—‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनाने में तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना ! उनकी सुन्दर मुसकराहट और प्रेमभरी चितवन से नगर-नारियाँ भी प्रेमावेश से व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातों में आकर अपने को निछावर कर देती होंगी’ ।। १३ ।। तीसरी गोपी ने कहा—‘अरी गोपियो ! हमलोगों को उसकी बात से क्या मतलब है ? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुर का समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसी की तरह, भले ही दु:ख से क्यों न हो, कट ही जायगा’ ।। १४ ।। अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान श्रीकृष्ण की हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिङ्गन आदि मूर्तिमान् होकर नाच ने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं ।। १५ ।।

परीक्षित ! भगवान बलरामजी नाना प्रकार से अनुनय-विनय करने में बड़े निपुण थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के हृदयस्पर्शी और लुभाव ने सन्देश सुना-सुनाकर गोपियों को सान्त्वना दी ।। १६ ।। और वसन्त के दो महीने—चैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रि के समय गोपियों में रहकर उनके प्रेम की अभिवृद्धि करते। क्यों न हो, भगवान राम ही जो ठहरे ! ।। १७ ।। उस समय कुमुदिनी की सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी छिटककर यमुनाजी के तटवर्ती उपवन को उज्ज्वल कर देती और भगवान बलराम गोपियों के साथ वहीं विहार करते ।। १८ ।। वरुणदेव ने अपनी पुत्री वारुणीदेवी को वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्ष के खोडऱ से बह निकली। उसने अपनी सुगन्ध से सारे वन को सुगन्धित कर दिया ।। १९ ।। मधुधारा की वह सुगन्ध वायु ने बलरामजी के पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो ! उसकी महँक से आकृष्ट होकर बलरामजी गोपियों को लेकर वहाँ पहुँच गये और उनके साथ उसका पान किया ।। २० ।। उस समय गोपियाँ बलरामजी के चारों ओर उनके चरित्र का गान कर रही थीं, और वे मतवाले- से होकर वन में विचर रहे थे। उनके नेत्र आनन्दमद से विह्वल हो रहे थे ।। २१ ।। गले में पुष्पों का हार शोभा पा रहा था। वैजयन्ती की माला पह ने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक कान में कुण्डल झलक रहा था। मुखारविन्द पर मुसकराहट की शोभा निराली ही थी। उसपर पसी ने की बूँदें हिमकण के समान जान पड़ती थीं ।। २२ ।। सर्वशक्तिमान् बलरामजी ने जलक्रीडा करने के लिये यमुनाजी को पुकारा। परंतु यमुनाजी ने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन कर दिया; वे नहीं आयीं। तब बलरामजी ने क्रोधपूर्वक अपने हल की नोक से उन्हें खींचा ।। २३ ।। और कहा ‘पापिनी यमुने ! मेरे बुलाने पर भी तू मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन करके यहाँ नहीं आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है ! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचार का फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हल की नोक से सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ’ ।। २४ ।।जब बलरामजी ने यमुनाजी को इस प्रकार डाँटा- फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर बलरामजी के चरणों पर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं— ।। २५ ।। ‘लोकाभिराम बलरामजी ! महाबाहो ! मैं आपका पराक्रम भूल गयी थी। जगतपते ! अब मैं जान गयी कि आपके अंशमात्र शेषजी इस सारे जगत को धारण करते हैं ।। २६ ।। भगवन् ! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरूप को न जान ने के कारण ही मुझ से यह अपराध बन गया है। सर्व स्वरूप भक्तवत्सल ! मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरी भूल- चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़ दीजिये’ ।। २७ ।।

अब यमुनाजी की प्रार्थना स्वीकार करके भगवान बलरामजी ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे गजराज हथिनियों के साथ क्रीडा करता है, वैसे ही वे गोपियों के साथ जलक्रीडा करने लगे ।। २८ ।। जब वे यथेष्ट जल-विहार करके यमुनाजी से बाहर निकले, तब लक्ष्मीजी ने उन्हें नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सो ने का सुन्दर हार दिया ।। २९ ।। बलरामजी ने नीले वस्त्र पहन लिये और सो ने की माला गले में डाल ली। वे अङ्गराग लगाकर, सुन्दर भूषणों से विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए मानो इन्द्र का श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो ।। ३० ।। परीक्षित ! यमुनाजी अब भी बलरामजी के खींचे हुए मार्ग से बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान बलरामजी का यश-गान कर रही हों ।। ३१ ।। बलरामजी का चित्त व्रजवासिनी गोपियों के माधुर्य से इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समय का कुछ ध्यान ही न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रात के समान व्यतीत हो गयीं। इस प्रकार बलरामजी व्रज में विहार करते रहे ।। ३२ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-66]

॥ षट्षष्टितमोऽध्यायः - ६६ ॥
श्रीशुक उवाच
नन्दव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप ।
वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत् ॥ १॥

त्वं वासुदेवो भगवानवतीर्णो जगत्पतिः ।
इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम् ॥ २॥

दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने ।
द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः ॥ ३॥

दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम् ।
कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत् ॥ ४॥

वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः ।
भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज ॥ ५॥

यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद्बिभर्षि सात्वत ।
त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम् ॥ ६॥

श्रीशुक उवाच
कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः ।
उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा ॥ ७॥

उवाच दूतं भगवान् परिहासकथामनु ।
उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे ॥ ८॥

मुखं तदपिधायाज्ञ कङ्कगृध्रवटैर्वृतः ।
शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम् ॥ ९॥

इति दूतस्तदाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत् ।
कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह ॥ १०॥

पौण्ड्रकोऽपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः ।
अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद्द्रुतम् ॥ ११॥

तस्य काशिपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप ।
अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौण्ड्रकं हरिः ॥ १२॥

शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्गश्रीवत्साद्युपलक्षितम् ।
बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम् ॥ १३॥

कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम् ।
अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ १४॥

दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यवेषं कृत्रिममास्थितम् ।
यथा नटं रङ्गगतं विजहास भृशं हरिः ॥ १५॥

शूलैर्गदाभिः परिघैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः ।
असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम् ॥ १६॥

कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रककाशिराजयोर्बलं
गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत् ।
गदासिचक्रेषुभिरार्दयद्भृशं
यथा युगान्ते हुतभुक्पृथक् प्रजाः ॥ १७॥

आयोधनं तद्रथवाजिकुञ्जर-
द्विपत्खरोष्ट्रैररिणावखण्डितैः ।
बभौ चितं मोदवहं मनस्विना-
माक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम् ॥ १८॥

अथाह पौण्ड्रकं शौरिर्भो भो पौण्ड्रक यद्भवान् ।
दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्राण्युत्सृजामि ते ॥ १९॥

त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम् ।
व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम् ॥ २०॥

इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम् ।
शिरोऽवृश्चद्रथाङ्गेन वज्रेणेन्द्रो यथा गिरेः ॥ २१॥

तथा काशीपतेः कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभिः ।
न्यपातयत्काशीपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः ॥ २२॥

एवं मत्सरिणं हत्वा पौण्ड्रकं ससखं हरिः ।
द्वारकामाविशत्सिद्धैर्गीयमाकथामृतः ॥ २३॥

स नित्यं भगवद्ध्यानप्रध्वस्ताखिलबन्धनः ।
बिभ्राणश्च हरे राजन् स्वरूपं तन्मयोऽभवत् ॥ २४॥

शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम् ।
किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिश्यिरे जनाः ॥ २५॥

राज्ञः काशीपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबान्धवाः ।
पौराश्च हा हता राजन् नाथ नाथेति प्रारुदन् ॥ २६॥

सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पितुः ।
निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितुः ॥ २७॥

इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम् ।
सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना ॥ २८॥

प्रीतोऽविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद्भवः ।
पितृहन्तृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम् ॥ २९॥

दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम् ।
अभिचारविधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः ॥ ३०॥

साधयिष्यति सङ्कल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः ।
इत्यादिष्टस्तथा चक्रे कृष्णायाभिचरन् व्रती ॥ ३१॥

ततोऽग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषणः ।
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरङ्गारोद्गारिलोचनः ॥ ३२॥

दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीदण्डकठोरास्यः स्वजिह्वया ।
आलिहन् सृक्किणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलत् ॥ ३३॥

पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम् ।
सोऽभ्यधावद्वृतो भूतैर्द्वारकां प्रदहन् दिशः ॥ ३४॥

तमाभिचारदहनमायान्तं द्वारकौकसः ।
विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा ॥ ३५॥

अक्षैः सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुराः ।
त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम् ॥ ३६॥

श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम् ।
शरण्यः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम् ॥ ३७॥

सर्वस्यान्तर्बहिः साक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः ।
विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत् ॥ ३८॥

तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं
जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम् ।
स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी
चक्रं मुकुन्दास्त्रमथाग्निमार्दयत् ॥ ३९॥

कृत्यानलः प्रतिहतः स रथाङ्गपाणेरस्त्रौजसा
स नृप भग्नमुखो निवृत्तः ।
वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं
सर्त्विग्जनं समदहत्स्वकृतोऽभिचारः ॥ ४०॥
चक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टं
वाराणसीं साट्टसभालयापणाम् ।
सगोपुराट्टालककोष्ठसङ्कुलां
सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालाम् ॥ ४१॥

दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम् ।
भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ ४२॥

य एतच्छ्रावयेन्मर्त्यः उत्तमश्लोकविक्रमम् ।
समाहितो वा श‍ृणुयात्सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे
उत्तरार्धे पौण्ड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६॥


दशम स्कन्ध-छाछठवाँ अध्याय 43
पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गये हुए थे, तब पीछे से करूष देश के अज्ञानी राजा पौण्ंड्रक ने भगवान श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान वासुदेव मैं हूँ’ ।। १ ।। मूर्खलोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत की रक्षा के लिये पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा ।। २ ।। जैसे बच्चे आपस में खेलते समय किसी बालक को ही राजा मान लेते हैं और वह राजा की तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ंड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान श्रीकृष्ण की लीला और रहस्य न जानकर द्वारका में उनके पास दूत भेज दिया ।। ३ ।। पौण्ंड्रक का दूत द्वार का आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया— ।। ४ ।। ‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियों पर कृपा करने के लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुम ने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो ।। ५ ।। यदुवंशी ! तुम ने मूर्खतावश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोडक़र मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझ से युद्ध करो’ ।। ६ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मन्दमति पौण्ंड्रक की यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोर से हँस ने लगे ।। ७ ।। उन लोगों की हँसी समाप्त होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने दूत से कहा—‘तुम जाकर अपने राजा से कह देना कि ‘रे मूढ़ ! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोड़्ूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोड़्ूँगा और केवल तुझ पर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहका ने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख ! तू अपना मुँह छिपाकर—औंधे मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायगा, और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथकर खा जायँगे ।। ८-९ ।। परीक्षित ! भगवान का यह तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ंड्रक का दूत अपने स्वामी के पास गया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने भी रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करूष का राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराज के पास रहता था) ।। १० ।।

भगवान श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर महारथी पौण्ंड्रक भी दो अक्षौहिणी सेना के साथ शीघ्र ही नगर से बाहर निकल आया ।। ११ ।। काशी का राजा पौण्ंड्रक का मित्र था। अत: वह भी उसकी सहायता करने के लिये तीन अक्षौहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित ! अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ंड्रक को देखा ।। १२ ।। पौण्ंड्रक ने भी शङ्ख, चक्र, तलवार, गदा, शार्ङ्गधनुष और श्रीवत्सचिह्न आदि धारणकर रखे थे। उसके वक्ष:स्थल पर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला भी लटक रही थी ।। १३ ।। उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथ की ध्वजा पर गरुडक़ा चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिर पर अमूल्य मुकुट था और कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे ।। १४ ।। उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करने के लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँस ने लगे ।। १५ ।। अब शत्रुओं ने भगवान श्रीकृष्ण पर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार किया ।। १६ ।। प्रलय के समय जिस प्रकार आग सभी प्रकार के प्राणियों को जला देती है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ंड्रक तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और पैदल की चतुरङ्गिणी सेना को तहस-नहस कर दिया ।। १७ ।। वह रणभूमि भगवान के चक्र से खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटों से पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शङ्कर की भयङ्कर क्रीडास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था ।। १८ ।।

अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ंड्रक से कहा—‘रे पौण्ंड्रक ! तू ने दूत के द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शस्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझ पर छोड़ रहा हूँ ।। १९ ।। तू ने झूठमूठ मेरा नाम रख लिया है। अत: मूर्ख ! अब मैं तुझ से उन नामों को भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरण में आ ने की बात; सो यदि मैं तुझ से युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा’ ।। २० ।। भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार पौण्ंड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणों से उसके रथ को तोड़-फोड़ डाला और चक्र से उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पहाडक़ी चोटियों को उड़ा दिया था ।। २१ ।। इसी प्रकार भगवान ने अपने बाणों से काशिनरेश का सिर भी धड़ से ऊ पर उड़ाकर काशीपुरी में गिरा दिया, जैसे वायु कमल का पुष्प गिरा देती है ।। २२ ।। इस प्रकार अपने साथ डाह करनेवाले पौण्ंड्रक को और उसके सखा काशिनरेश को मारकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारका में लौट आये। उस समय सिद्धगण भगवान की अमृतमयी कथा का गान कर रहे थे ।। २३ ।। परीक्षित ! पौण्ंड्रक भगवान के रूपका, चाहे वह किसी भाव से हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसी का स्मरण होने के कारण वह भगवान के सारूप्य को ही प्राप्त हुआ ।। २४ ।।

इधर काशी में राजमहलके दरवाजे पर एक कुण्डलमण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह- तरह का सन्देह करने लगे और सोच ने लगे कि ‘यह क्या है, यह किस का सिर है ?’ ।। २५ ।। जब यह मालूम हुआ कि वह तो काशिनरेश का ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवार के लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप करने लगे—‘हा नाथ ! हा राजन् ! हाय-हय ! हमारा तो सर्वनाश हो गया’ ।। २६ ।। काशिनरेश का पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने पिता का अन्त्येष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितृघाती को मारकर ही मैं पिता के ऋण से ऊऋण हो सकूँगा। निदान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्यों के साथ अत्यन्त एकाग्रता से भगवान शङ्कर की आराधना करने लगा ।। २७-२८ ।। काशी नगरी में उसकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शङ्करने वर दे ने को कहा। सुदक्षिण ने यह अभीष्ट वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघाती के वध का उपाय बतलाइये ।। २९ ।। भगवान शङ्करने कहा—‘तुम ब्राह्मणों के साथ मिलकर यज्ञ के देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्रि की अभिचारविधि से आराधना करो। इससे वह अग्रि प्रमथगणों के साथ प्रकट होकर यदिब्राह्मणों के अभक्त पर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।’ भगवान शङ्कर की ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिण ने अनुष्ठान के उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान श्रीकृष्ण के लिये अभिचार (मारण का पुरश्चरण) करने लगा ।। ३०-३१ ।। अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्ड से अति भीषण अग्रि मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थे। आँखों से अंगारे बरस रहे थे ।। ३२ ।। उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियों के कारण उसके मुख से क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभ से मुँह के दोनों को ने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था। हाथ में त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमें से अग्रि की लपटें निकल रही थीं ।। ३३ ।। ताडक़े पेडक़े समान बड़ी-बड़ी टाँगें थीं। वह अपने वेग से धरती को कँपाता हुआ और ज्वालाओं से दसों दिशाओं को दग्ध करता हुआ द्वारका की ओर दौड़ा और बात-की-बात में द्वार का के पास जा पहुँचा। उसके साथ बहुत- से भूत भी थे ।। ३४ ।। उस अभिचार की आग को बिलकुल पास आयी हुई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगल में आग लगने पर हरिन डर जाते हैं ।। ३५ ।। वे लोग भयभीत होकर भगवान के पास दौड़े हुए आये; भगवान उस समय सभा में चौसर खेल रहे थे, उन लोगों ने भगवान से प्रार्थना की—‘तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी ! द्वार का नगरी इस आग से भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इस की रक्षा और कोई नहीं कर सकता’ ।। ३६ ।। शरणागतवत्सल भगवान ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और पुकार-पुकारकर विकलताभरे स्वर से हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा— ‘डरो मत, मैं तुमलोगों की रक्षा करूँगा’ ।। ३७ ।।

परीक्षित ! भगवान सब के बाहर-भीतर की जाननेवाले हैं। वे जान गये कि यह काशी से चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकार के लिये अपने पास ही विराजमान चक्रसुदर्शन को आज्ञा दी ।। ३८ ।। भगवान मुकुन्द का प्यारा अस्त्र सुदर्शनचक्र कोटि- कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्रि के समान जाज्वल्यमान है। उसके तेज से आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्रि को कुचल डाला ।। ३९ ।। भगवान श्रीकृष्ण के अस्त्र सुदर्शनचक्र की शक्ति से कृत्यारूप आग का मुँह टूट-फूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँ से लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्यों के साथ सुदक्षिण को जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसी के विनाश का कारण हुआ ।। ४० ।। कृत्या के पीछे-पीछे सुदर्शनचक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभाभवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारों के शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नों के गोदाम से सुसज्जित थी। भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शनचक्र ने सारी काशी को जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण के पास लौट आया ।। ४१-४२ ।।

जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के इस चरित्र को एकाग्रता के साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापों से छूट जाता है ।। ४३ ।।

स्कन्ध-10 [अध्याय-67]

॥ सप्तषष्टितमोऽध्यायः - ६७ ॥
राजोवाच
भुयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्भुतकर्मणः ।
अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत्कृतवान् प्रभुः ॥ १॥

श्रीशुक उवाच
नरकस्य सखा कश्चिद्द्विविदो नाम वानरः ।
सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान् ॥ २॥

सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन् वानरो राष्ट्रविप्लवम् ।
पुरग्रामाकरान् घोषानदहद्वह्निमुत्सृजन् ॥ ३॥

क्वचित्स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान् समचूर्णयत् ।
आनर्तान् सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः ॥ ४॥

क्वचित्समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यामुत्क्षिप्य तज्जलम् ।
देशान् नागायुतप्राणो वेलाकूलानमज्जयत् ॥ ५॥

आश्रमान् ऋषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन् ।
अदूषयच्छकृन्मूत्रैरग्नीन् वैतानिकान् खलः ॥ ६॥

पुरुषान् योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्द्रोणीगुहासु सः ।
निक्षिप्य चाप्यधाच्छैलैः पेशस्कारीव कीटकम् ॥ ७॥

एवं देशान् विप्रकुर्वन् दूषयंश्च कुलस्त्रियः ।
श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ ॥ ८॥

तत्रापश्यद्यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम् ।
सुदर्शनीयसर्वाङ्गं ललनायूथमध्यगम् ॥ ९॥

गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम् ।
विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम् ॥ १०॥

दुष्टः शाखामृगः शाखामारूढः कम्पयन् द्रुमान् ।
चक्रे किलकिलाशब्दमात्मानं सम्प्रदर्शयन् ॥ ११॥

तस्य धार्ष्ट्यं कपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः ।
हास्यप्रिया विजहसुर्बलदेवपरिग्रहाः ॥ १२॥

ता हेलयामास कपिर्भ्रूक्षेपैः सम्मुखादिभिः ।
दर्शयन् स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षतः ॥ १३॥

तं ग्राव्णा प्राहरत्क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः ।
स वञ्चयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः ॥ १४॥

गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपयन् हसन् ।
निर्भिद्य कलशं दुष्टो वासांस्यास्फालयद्बलम् ॥ १५॥

कदर्थीकृत्य बलवान् विप्रचक्रे मदोद्धतः ।
तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान् ॥ १६॥

क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया ।
द्विविदोऽपि महावीर्यः सालमुद्यम्य पाणिना ॥ १७॥

अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत् ।
तं तु सङ्कर्षणो मूर्ध्नि पतन्तमचलो यथा ॥ १८॥

प्रतिजग्राह बलवान् सुनन्देनाहनच्च तम् ।
मुसलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया ॥ १९॥

गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन् ।
पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा ॥ २०॥

तेनाहनत्सुसङ्क्रुद्धस्तं बलः शतधाच्छिनत् ।
ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत् ॥ २१॥

एवं युध्यन् भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः ।
आकृष्य सर्वतो वृक्षान् निर्वृक्षमकरोद्वनम् ॥ २२॥

ततोऽमुञ्चच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः ।
तत्सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः ॥ २३॥

स बाहू तालसङ्काशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः ।
आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत् ॥ २४॥

यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललाङ्गले ।
जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद्रुधिरं वमन् ॥ २५॥

चकम्पे तेन पतता सटङ्कः सवनस्पतिः ।
पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि ॥ २६॥

जयशब्दो नमः शब्दः साधु साध्विति चाम्बरे ।
सुरसिद्धमुनीन्द्राणामासीत्कुसुमवर्षिणाम् ॥ २७॥

एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम् ।
संस्तूयमानो भगवान् जनैः स्वपुरमाविशत् ॥ २८॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विविधवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७॥


दशम स्कन्ध-सड़सठवाँ अध्याय 28
द्विविद का उद्धार
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवान बलरामजी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलय की सीमा से परे, अनन्त हैं। उनका स्वरूप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणी के विषय नहीं हैं। उनकी एक-एक लीला लोकमर्यादा से विलक्षण है, अलौकिक है। उन्होंने और जो कुछ अद्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! द्विविद नाम का एक वानर था। वह भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मन्त्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था ॥ २ ॥ जब उसने सुना कि श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्र की मित्रता के ऋण से उऋण होन के लिये राष्ट्र-विप्लव करने पर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गाँवों, खानों और अहीरों की बस्तियों में आग लगाकर उन्हें जला ने लगा ॥ ३ ॥ कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ों को उखाडक़र उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (काठियावाड़) देश में ही करता था। क्योंकि उसके मित्र को मारनेवाले भगवान श्रीकृष्ण उसी देश में निवास करते थे ॥ ४ ॥ द्विविद वानर में दस हजार हाथियों का बल था। कभी-कभी वह दुष्ट समुद्र में खड़ा हो जाता और हाथों से इतना जल उछालता कि समुद्रतट के देश डूब जाते ॥ ५ ॥ वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के आश्रमों की सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियों को तोड़-मरोडक़र चौपट कर देता और उनके यज्ञसम्बन्धी अग्रि-कुण्डों में मलमूत्र डालकर अग्रियों को दूषित कर देता ॥ ६ ॥ जैसे भृङ्गी नाम का कीड़ा दूसरे कीड़ों को ले जाकर अपने बिल में बंद कर देता है, वैसे ही वह मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषों को ले जाकर पहाड़ों की घाटियों तथा गुफाओं में डाल देता। फिर बाहर से बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता ॥ ७ ॥ इस प्रकार वह देशवासियों का तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियों को भी दूषित कर देता था। एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैव तक पर्वत पर गया ॥ ८ ॥

वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियों के झुंड में विराजमान हैं। उनका एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्ष:स्थल पर कमलों की माला लटक रही है ॥ ९ ॥ वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्माद से विह्वल हो रहे थे। उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत्त गजराज हो ॥ १० ॥ वह दुष्ट वानर वृक्षों की शाखाओं पर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता । कभी स्त्रियों के सामने आकर किलकारी भी मार ने लगता ॥ ११ ॥ युवती स्त्रियाँ स्वभाव से ही चञ्चल और हास-परिहास में रुचि रखनेवाली होती हैं। बलरामजी की स्त्रियाँ उस वानर की ढिठाई देखकर हँस ने लगीं ॥ १२ ॥ अब वह वानर भगवान बलरामजी के सामने ही उन स्त्रियों की अवहेलना करने लगा। वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौंहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरजकर मुँह बनाता, घुडक़ता ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणि बलरामजी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने उसपर पत्थर का एक टुकड़ा फेंका। परंतु द्विविद ने उससे अपने को बचा लिया और झपटकर मधुकलश उठा लिया तथा बलरामजी की अवहेलना करने लगा। उस धूर्त ने मधुकलश को तो फोड़ ही डाला, स्त्रियों के वस्त्र भी फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलरामजी को क्रोधित करने लगा ॥ १४-१५ ॥ परीक्षित ! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजी को नीचा दिखा ने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशों की दुर्दशा पर विचार करके उस शत्रु को मार डालने की इच्छा से क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथ से शाल का पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेग से दौडक़र बलरामजी के सिर पर उसे दे मारा। भगवान बलराम पर्वत की तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथ से उस वृक्ष को सिर पर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उसपर प्रहार किया। मूसल लग ने से द्विविद का मस् तक फट गया और उससे खून की धारा बह ने लगी। उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वत से गेरू का सोता बह रहा हो। परंतु द्विविद ने अपने सिर फट ने की कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूडक़र बिना पत्ते का कर दिया और फिर उससे बलरामजी पर बड़े जोर का प्रहार किया। बलरामजी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोध से दूसरा वृक्ष चलाया, परंतु भगवान बलरामजी ने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ १६—२१ ॥ इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा। एक वृक्ष के टूट जाने पर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करने की चेष्टा करता। इस तरह सब ओर से वृक्ष उखाड़-उखाड़ कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वन को ही वृक्षहीन कर दिया ॥ २२ ॥ वृक्ष न रहे, तब द्विविद का क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढक़र बलरामजी के उ पर बड़ी-बड़ी चट्टानों की वर्षा करने लगा। परंतु भगवान बलरामजी ने अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेल में ही चकनाचूर कर दिया ॥ २३ ॥ अन्त में कपिराज द्विविद अपनी ताडक़े समान लंबी बाँहों से घूँसा बाँधकर बलरामजी की ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छाती पर प्रहार किया ॥ २४ ॥ अब यदुवंशशिरोमणि बलरामजी ने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथों से उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरती पर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ परीक्षित ! आँधी आने पर जैसे जल में डोंगी डगमगा ने लगती है, वैसे ही उसके गिर ने से बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियों के साथ सारा पर्वत हिल गया ॥ २६ ॥ आकाश में देवतालोग ‘जय-जय’, सिद्ध लोग ‘नमो नम:’ और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ‘साधु-साधु’ के नारे लगा ने और बलरामजी पर फूलों की वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ परीक्षित ! द्विविद ने जगत में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अत: भगवान बलरामजी ने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरी में लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान बलराम की प्रशंसा कर रहे थे ॥ २८ ॥


स्कन्ध-10 [अध्याय-68]

॥ अष्टषष्टितमोऽध्यायः - ६८ ॥
श्रीशुक उवाच
दुर्योधनसुतां राजन् लक्ष्मणां समितिञ्जजयः ।
स्वयंवरस्थामहरत्साम्बो जाम्बवतीसुतः ॥ १॥

कौरवाः कुपिता ऊचुर्दुर्विनीतोऽयमर्भकः ।
कदर्थीकृत्य नः कन्यामकामामहरद्बलात् ॥ २॥

बध्नीतेमं दुर्विनीतं किं करिष्यन्ति वृष्णयः ।
येऽस्मत्प्रसादोपचितां दत्तां नो भुञ्जते महीम् ॥ ३॥

निगृहीतं सुतं श्रुत्वा यद्येष्यन्तीह वृष्णयः ।
भग्नदर्पाः शमं यान्ति प्राणा इव सुसंयताः ॥ ४॥

इति कर्णः शलो भूरिर्यज्ञकेतुः सुयोधनः ।
साम्बमारेभिरे बद्धुं कुरुवृद्धानुमोदिताः ॥ ५॥

दृष्ट्वानुधावतः साम्बो धार्तराष्ट्रान् महारथः ।
प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इवैकलः ॥ ६॥

तं ते जिघृक्षवः क्रुद्धास्तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणः ।
आसाद्य धन्विनो बाणैः कर्णाग्रण्यः समाकिरन् ॥ ७॥

सोऽपविद्धः कुरुश्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनन्दनः ।
नामृष्यत्तदचिन्त्यार्भः सिंहः क्षुद्रमृगैरिव ॥ ८॥

विस्फूर्ज्य रुचिरं चापं सर्वान् विव्याध सायकैः ।
कर्णादीन् षड्रथान् वीरांस्तावद्भिर्युगपत्पृथक् ॥ ९॥

चतुर्भिश्चतुरो वाहानेकैकेन च सारथीन् ।
रथिनश्च महेष्वासांस्तस्य तत्तेऽभ्यपूजयन् ॥ १०॥

तं तु ते विरथं चक्रुश्चत्वारश्चतुरो हयान् ।
एकस्तु सारथिं जघ्ने चिच्छेदान्यः शरासनम् ॥ ११॥

तं बद्ध्वा विरथीकृत्य कृच्छ्रेण कुरवो युधि ।
कुमारं स्वस्य कन्यां च स्वपुरं जयिनोऽविशन् ॥ १२॥

तच्छ्रुत्वा नारदोक्तेन राजन् सञ्जातमन्यवः ।
कुरून् प्रत्युद्यमं चक्रुरुग्रसेनप्रचोदिताः ॥ १३॥

सान्त्वयित्वा तु तान् रामः सन्नद्धान् वृष्णिपुङ्गवान् ।
नैच्छत्कुरूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापहः ॥ १४॥

जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा ।
ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च वृतश्चन्द्र इव ग्रहैः ॥ १५॥

गत्वा गजाह्वयं रामो बाह्योपवनमास्थितः ।
उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्ट्रं बुभुत्सया ॥ १६॥

सोऽभिवन्द्याम्बिकापुत्रं भीष्मं द्रोणं च बाह्लिकम् ।
दुर्योधनं च विधिवद्राममागतमब्रवीत् ॥ १७॥

तेऽतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं रामं सुहृत्तमम् ।
तमर्चयित्वाभिययुः सर्वे मङ्गलपाणयः ॥ १८॥

तं सङ्गम्य यथान्यायं गामर्घ्यं च न्यवेदयन् ।
तेषां ये तत्प्रभावज्ञाः प्रणेमुः शिरसा बलम् ॥ १९॥

बन्धून् कुशलिनः श्रुत्वा पृष्ट्वा शिवमनामयम् ।
परस्परमथो रामो बभाषेऽविक्लवं वचः ॥ २०॥

उग्रसेनः क्षितीशेशो यद्व आज्ञापयत्प्रभुः ।
तदव्यग्रधियः श्रुत्वा कुरुध्वं माविलम्बितम् ॥ २१॥

यद्यूयं बहवस्त्वेकं जित्वाऽधर्मेण धार्मिकम् ।
अबध्नीताथ तन्मृष्ये बन्धूनामैक्यकाम्यया ॥ २२॥

वीर्यशौर्यबलोन्नद्धमात्मशक्तिसमं वचः ।
कुरवो बलदेवस्य निशम्योचुः प्रकोपिताः ॥ २३॥

अहो महच्चित्रमिदं कालगत्या दुरत्यया ।
आरुरुक्षत्युपानद्वै शिरो मुकुटसेवितम् ॥ २४॥

एते यौनेन सम्बद्धाः सहशय्यासनाशनाः ।
वृष्णयस्तुल्यतां नीता अस्मद्दत्तनृपासनाः ॥ २५॥

चामरव्यजने शङ्खमातपत्रं च पाण्डुरम् ।
किरीटमासनं शय्यां भुञ्जतेऽस्मदुपेक्षया ॥ २६॥

अलं यदूनां नरदेवलाञ्छनैर्दातुः
प्रतीपैः फणिनामिवामृतम् ।
येऽस्मत्प्रसादोपचिता हि यादवा
आज्ञापयन्त्यद्य गतत्रपा बत ॥ २७॥

कथमिन्द्रोऽपि कुरुभिर्भीष्मद्रोणार्जुनादिभिः ।
अदत्तमवरुन्धीत सिंहग्रस्तमिवोरणः ॥ २८॥

श्रीशुक उवाच
जन्मबन्धुश्रियोन्नद्धमदास्ते भरतर्षभ ।
आश्राव्य रामं दुर्वाच्यमसभ्याः पुरमाविशन् ॥ २९॥

दृष्ट्वा कुरूणां दौःशील्यं श्रुत्वावाच्यानि चाच्युतः ।
अवोचत्कोपसंरब्धो दुष्प्रेक्ष्यः प्रहसन् मुहुः ॥ ३०॥

नूनं नानामदोन्नद्धाः शान्तिं नेच्छन्त्यसाधवः ।
तेषां हि प्रशमो दण्डः पशूनां लगुडो यथा ॥ ३१॥

अहो यदून् सुसंरब्धान् कृष्णं च कुपितं शनैः ।
सान्त्वयित्वाहमेतेषां शममिच्छन्निहागतः ॥ ३२॥

त इमे मन्दमतयः कलहाभिरताः खलाः ।
तं मामवज्ञाय मुहुर्दुर्भाषान् मानिनोऽब्रुवन् ॥ ३३॥

नोग्रसेनः किल विभुर्भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।
शक्रादयो लोकपाला यस्यादेशानुवर्तिनः ॥ ३४॥

सुधर्माऽऽक्रम्यते येन पारिजातोऽमराङ्घ्रिपः ।
आनीय भुज्यते सोऽसौ न किलाध्यासनार्हणः ॥ ३५॥

यस्य पादयुगं साक्षाच्छ्रीरुपास्तेऽखिलेश्वरी ।
स नार्हति किल श्रीशो नरदेवपरिच्छदान् ॥ ३६॥

यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजोऽखिललोकपालैः
मौल्युत्तमैर्धृतमुपासिततीर्थतीर्थम् ।
ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः
श्रीश्चोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व ॥ ३७॥

भुञ्जते कुरुभिर्दत्तं भूखण्डं वृष्णयः किल ।
उपानहः किल वयं स्वयं तु कुरवः शिरः ॥ ३८॥

अहो ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम् ।
असम्बद्धा गिरो रूक्षाः कः सहेतानुशासीता ॥ ३९॥

अद्य निष्कौरवीं पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षितः ।
गृहीत्वा हलमुत्तस्थौ दहन्निव जगत्त्रयम् ॥ ४०॥

लाङ्गलाग्रेण नगरमुद्विदार्य गजाह्वयम् ।
विचकर्ष स गङ्गायां प्रहरिष्यन्नमर्षितः ॥ ४१॥

जलयानमिवाघूर्णं गङ्गायां नगरं पतत् ।
आकृष्यमाणमालोक्य कौरवाः जातसम्भ्रमाः ॥ ४२॥

तमेव शरणं जग्मुः सकुटुम्बा जिजीविषवः ।
सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य साम्बं प्राञ्जलयः प्रभुम् ॥ ४३॥

राम रामाखिलाधार प्रभावं न विदाम ते ।
मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षन्तुमर्हस्यतिक्रमम् ॥ ४४॥

स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको हेतुर्निराश्रयः ।
लोकान् क्रीडनकानीश क्रीडतस्ते वदन्ति हि ॥ ४५॥

त्वमेव मूर्ध्नीदमनन्त लीलया
भूमण्डलं बिभर्षि सहस्रमूर्धन् ।
अन्ते च यः स्वात्मनि रुद्धविश्वः
शेषेऽद्वितीयः परिशिष्यमाणः ॥ ४६॥

कोपस्तेऽखिलशिक्षार्थं न द्वेषान्न च मत्सरात् ।
बिभ्रतो भगवन् सत्त्वं स्थितिपालनतत्परः ॥ ४७॥

नमस्ते सर्वभूतात्मन् सर्वशक्तिधराव्यय ।
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः ॥ ४८॥

श्रीशुक उवाच
एवं प्रपन्नैः संविग्नैर्वेपमानायनैर्बलः ।
प्रसादितः सुप्रसन्नो मा भैष्टेत्यभयं ददौ ॥ ४९॥

दुर्योधनः पारिबर्हं कुञ्जरान् षष्टिहायनान् ।
ददौ च द्वादशशतान्ययुतानि तुरङ्गमान् ॥ ५०॥

रथानां षट्सहस्राणि रौक्माणां सूर्यवर्चसाम् ।
दासीनां निष्ककण्ठीनां सहस्रं दुहितृवत्सलः ॥ ५१॥

प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं भगवान् सात्वतर्षभः ।
ससुतः सस्नुषः प्रागात्सुहृद्भिरभिनन्दितः ॥ ५२॥

ततः प्रविष्टः स्वपुरं हलायुधः
समेत्य बन्धूननुरक्तचेतसः ।
शशंस सर्वं यदुपुङ्गवानां
मध्ये सभायां कुरुषु स्वचेष्टितम् ॥ ५३॥

अद्यापि च पुरं ह्येतत्सूचयद्रामविक्रमम् ।
समुन्नतं दक्षिणतो गङ्गायामनुदृश्यते ॥ ५४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे हास्तिनपुरकर्षणरूपसंकर्षणविजयो
नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८॥


दशम स्कन्ध-अड़सठवाँ अध्याय 54
कौरवों पर बलरामजी का कोप और साम्ब का विवाह
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जाम्बवतीनन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरों पर विजय प्राप्त करनेवाले थे। वे स्वयंवर में स्थित दुर्योधन की कन्या लक्ष्मणा को हर लाये ॥ १ ॥ इससे कौरवों को बड़ा क्रोध हुआ, वे बोले—‘यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही, इस ने हमलोगों को नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्या का अपहरण कर लिया। वह तो इसे चाहती भी न थी ॥ २ ॥ अत: इस ढीठ को पकडक़र बाँध लो। यदि यदुवंशीलोग रुष्ट भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? वे लोग हमारी ही कृपा से हमारी ही दी हुई धन-धान्य से परिपूर्ण पृथ्वी का उपभोग कर रहे हैं ॥ ३ ॥ यदि वे लोग अपने इस लडक़े के बंदी होने का समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हमलोग उनका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगों के मिजाज वैसे ही ठंडे हो जायँगे, जैसे संयमी पुरुष के द्वारा प्राणायाम आदि उपायों से वश में की हुई इन्द्रियाँ’ ॥ ४ ॥ ऐसा विचार करके कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरों ने कुरुवंश के बड़े-बूढ़ों की अनुमति ली तथा साम्ब को पकड़ लेने की तैयारी की ॥ ५ ॥

जब महारथी साम्बने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंह के समान अकेले ही रणभूमि में डट गये ॥ ६ ॥ इधर कर्ण को मुखिया बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये हुए साम्ब के पास आ पहुँचे और क्रोध में भरकर उन को पकड़ लेने की इच्छा से ‘खड़ा रह ! खड़ा रह !’ इस प्रकार ललकारते हुए बाणों की वर्षा करने लगे ॥ ७ ॥ परीक्षित! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र थे। कौरवों के प्रहार से वे उन पर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनों का पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है ॥ ८ ॥ साम्बने अपने सुन्दर धनुष का टंकार करके कर्ण आदि छ: वीरोंपर, जो अलग-अलग छ: रथों पर सवार थे, छ:-छ: बाणों से एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ॥ ९ ॥ उनमें से चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ोंपर, एक-एक उनके सारथियों पर और एक-एक उन महान धनुषधारी रथी वीरों पर छोड़ा। साम्ब के इस अद्भुत हस्तलाघव को देखकर विपक्षी वीर भी मुक्तकण्ठ से उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १० ॥ इसके बाद उन छ:हों वीरों ने एक साथ मिलकर साम्ब को रथहीन कर दिया। चार वीरों ने एक-एक बाण से उनके चार घोड़ों को मारा, एक ने सारथि को और एक ने साम्ब का धनुष काट डाला ॥ ११ ॥ इस प्रकार कौरवों ने युद्ध में बड़ी कठिनाई और कष्ट से साम्ब को रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणा को लेकर जय मनाते हुए हस्तिनापुर लौट आये ॥ १२ ॥

परीक्षित ! नारदजी से यह समाचार सुनकर यदुवंशियों को बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेन की आज्ञा से कौरवों पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे ॥ १३ ॥ बलरामजी कलहप्रधान कलियुग के सारे पाप-ताप को मिटानेवाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियों के लड़ाई-झगड़े को ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चु के थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राह्मण और यदुवंश के बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीच में बलरामजी की ऐसी शोभा हो रही थी, मानो चन्द्रमा ग्रहों से घिरे हुए हों ॥ १४-१५ ॥ हस्तिनापुर पहुँचकर बलरामजी नगर के बाहर एक उपवन में ठहर गये और कौरवलोग क्या करना चाहते हैं, इस बात का पता लगा ने के लिये उन्होंने उद्धवजी को धृतराष्ट्र के पास भेजा ॥ १६ ॥

उद्धवजी ने कौरवों की सभा में जाकर धृतराष्ट्र, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्लीक और दुर्योधन की विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि ‘बलरामजी पधारे हैं’ ॥ १७ ॥ अपने परम हितैषी और प्रियतम बलरामजी का आगमन सुनकर कौरवों की प्रसन्नता की सीमा न रही। वे उद्धवजी का विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथों में माङ्गलिक सामग्री लेकर बलरामजी की अगवानी करने चले ॥ १८ ॥ फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्ध के अनुसार सब लोग बलरामजी से मिले तथा उनके सत्कार के लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अघ्र्य प्रदान किया। उनमें जो लोग भगवान बलरामजी का प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ १९ ॥ तदनन्तर उन लोगों ने परस्पर एक-दूसरे का कुशल-मङ्गल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजी ने बड़ी धीरता और गम्भीरता के साथ यह बात कही— ॥ २० ॥ ‘सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेन ने तुमलोगों को एक आज्ञा दी है। उसे तुमलोग एकाग्रता और सावधानी के साथ सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो ॥ २१ ॥ उग्रसेनजी ने कहा है—हम जानते हैं कि तुमलोगों ने कइयों ने मिलकर अधर्म से अकेले धर्मात्मा साम्ब को हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियों में परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अत: अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्ब को उसकी नववधू के साथ हमारे पास भेज दो) ॥ २२ ॥

परीक्षित ! बलरामजी की वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुष के उत्कर्ष से परिपूर्ण और उनकी शक्ति के अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोध से तिलमिला उठे। वे कह ने लगे— ॥ २३ ॥ ‘अहो, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है ! सचमुच काल की चाल को कोई टाल नहीं सकता। तभी तो आज पैरों की जूती उस सिर पर चढऩा चाहती है, जो श्रेष्ठ मुकुट से सुशोभित है ॥ २४ ॥ इन यदुवंशियों के साथ किसी प्रकार हमलोगोंने विवाह-सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठ ने और एक पंक्ति में खा ने लगे। हमलोगोंने ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना लिया ॥ २५ ॥ ये यदुवंशी चँवर, पंखा, शङ्ख, श्वेतछत्र, मुकुट, राजसिंहासन और राजोचित शय्या का उपयोग-उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हम ने जान-बूझकर इस विषय में उपेक्षा कर रखी है ॥ २६ ॥ बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियों के पास अब राजचिह्न रहने की आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना चाहिये। जैसे साँप को दूध पिलाना पिलानेवाले के लिये ही घा तक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिह्नों को लेकर ये यदुवंशी हम से ही विपरीत हो रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा-प्रसाद से तो इन की बढ़ती हुई और अब ये निर्लज्ज होकर हमीं पर हुकुम चला ने चले हैं। शोक है ! शोक है ! ॥ २७ ॥ जैसे सिंह का ग्रास कभी भेड़ा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरववीर जान-बूझकर न छोड़ दें, न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तु का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और धनसम्पत्ति के घमंड में चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचार की भी परवा नहीं की और वे भगवान बलरामजी को इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये ॥ २९ ॥ बलरामजी ने कौरवों की दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोध- से तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखा तक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोर से हँसकर कह ने लगे— ॥ ३० ॥ ‘सच है, जिन दुष्टों को अपनी कुलीनता, बलपौरुष और धन का घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उन को दमन करनेका, रास्ते पर ला ने का उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना है—ठीक वैसे ही, जैसे पशुओं को ठीक करने के लिये डंडे का प्रयोग आवश्यक होता है ॥ ३१ ॥ भला, देखो तो सही—सारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोध से भरकर लड़ाई के लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनै:-शनै: समझा-बुझाकर इन लोगों को शान्त करने के लिये, सुलह करने के लिये यहाँ आया ॥ ३२ ॥ फिर भी ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं ! इन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है। ये इत ने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गालियाँ बक गये हैं ॥ ३३ ॥ ठीक है, भाई ! ठीक है। पृथ्वी के राजाओं की तो बात ही क्या, त्रिलो की के स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के ही स्वामी हैं ! ॥ ३४ ॥ क्यों ? जो सुधर्मासभा को अधिकार में करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओं के वृक्ष पारिजात को उखाडक़र ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान श्रीकृष्ण भी राज- सिंहासन के अधिकारी नहीं हैं ! अच्छी बात है ! ॥ ३५ ॥ सारे जगत की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरणकमलों की उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियों को नहीं रख सकते ॥ ३६ ॥ ठीक है भाई! जिनके चरणकमलों की धूल संत पुरुषों के द्वारा सेवित गङ्गा आदि तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुट पर जिनके चरणकमलों की धूल धारण करते हैं; ब्रह्मा, शङ्कर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कला की भी कला हैं और जिनके चरणों की धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान श्रीकृष्ण के लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है ! ॥ ३७ ॥ बेचारे यदुवंशी तो कौरवों का दिया हुआ पृथ्वी का एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब ! हमलोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं ॥ ३८ ॥ ये लोग ऐश्वर्य से उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहे हैं। इन की एक-एक बात कटुता से भरी और बेसिर-पैर की है। मेरे-जैसा पुरुष—जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिका ने ला सकता है—भला इन की बातों को कैसे सहन कर सकता है? ॥ ३९ ॥ आज मैं सारी पृथ्वी को कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलरामजी क्रोध से ऐसे भर गये, मानो त्रिलो की को भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये ॥ ४० ॥ उन्होंने उसकी नोक से बार-बार चोट करके हस्तिनापुर को उखाड़ लिया और उसे डुबा ने के लिये बड़े क्रोध से गङ्गाजी की ओर खींच ने लगे ॥ ४१ ॥

हल से खींचने पर हस्तिनापुर इस प्रकार काँप ने लगा मानो जल में कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवों ने देखा कि हमारा नगर तो गङ्गाजी में गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे ॥ ४२ ॥ फिर उन लोगों ने लक्ष्मणा के साथ साम्ब को आगे किया और अपने प्राणों की रक्षा के लिये कुटुम्ब के साथ हाथ जोडक़र सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान बलरामजी की शरण में गये ॥ ४३ ॥ और कह ने लगे— ‘लोकाभिराम बलरामजी ! आप सारे जगत के आधार शेषजी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो ! हमलोग मूढ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हमलोगों का अपराध क्षमा कर दीजिये ॥ ४४ ॥ आप जगत की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान् प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौ ने हैं ॥ ४५ ॥ अनन्त ! आपके सहस्र-सहस्र सिर हैं और आप खेल-खेल में ही इस भूमण्डल को अपने सिर पर रखे रहते हैं। जब प्रलय का समय आता है, तब आप सारे जगत को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूप से शयन करते हैं ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आप जगत की स्थिति और पालन के लिये विशुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सर के कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियों को शिक्षा दे ने के लिये है ॥ ४७ ॥ समस्त शक्तियों को धारण करनेवाले सर्वप्राणि स्वरूप अविनाशी भगवन् ! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्व के रचयिता देव ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरण में हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये’ ॥ ४८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! कौरवों का नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहट में पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान बलरामजी की शरण में आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और ‘डरो मत’ ऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया ॥ ४९ ॥ परीक्षित ! दुर्योधन अपनी पुत्री लक्ष्मणा से बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेज में साठ-साठ वर्ष के बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्य के समान चमकते हुए सो ने के छ: हजार रथ और सो ने के हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं ॥ ५०-५१ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान बलरामजी ने यह सब दहेज स्वीकार किया और नवदम्पति लक्ष्मणा तथा साम्ब के साथ कौरवों का अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारका की यात्रा की ॥ ५२ ॥ अब बलरामजी द्वारकापुरी में पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जान ने के लिये उत्सुक बन्धु-बान्धवों से मिले। उन्होंने यदुवंशियों की भरी सभा में अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुर में उन्होंने कौरवों के साथ किया था ॥ ५३ ॥ परीक्षित ! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिण की ओर ऊँचा और गङ्गाजी की ओर कुछ झु का हुआ है और इस प्रकार यह भगवान बलरामजी के पराक्रम की सूचना दे रहा है ॥ ५४ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-69]

॥ एकोनसप्ततितमोऽध्यायः - ६९ ॥
श्रीशुक उवाच
नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम् ।
कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद्दिदृक्षुः स्म नारदः ॥ १॥

चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत्पृथक् ।
गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥ २॥

इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत् ।
पुष्पितोपवनारामद्विजालिकुलनादिताम् ॥ ३॥

उत्फुल्लेन्दीवराम्भोजकह्लारकुमुदोत्पलैः ।
छुरितेषु सरःसूच्चैः कूजितां हंससारसैः ॥ ४॥

प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतैः ।
महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः ॥ ५॥

विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः
शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः ।
संसिक्तमार्गाङ्गणवीथिदेहलीं
पतत्पताकाध्वजवारितातपाम् ॥ ६॥

तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः ।
हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्ट्रा कार्त्स्न्येन दर्शितम् ॥ ७॥

तत्र षोडशभिः सद्मसहस्रैः समलङ्कृतम् ।
विवेशैकतमं शौरेः पत्नीनां भवनं महत् ॥ ८॥

विष्टब्धं विद्रुमस्तम्भैर्वैदूर्यफलकोत्तमैः ।
इन्द्रनीलमयैः कुड्यैर्जगत्या चाहतत्विषा ॥ ९॥

वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलम्बिभिः ।
दान्तैरासनपर्यङ्कैर्मण्युत्तमपरिष्कृतैः ॥ १०॥

दासीभिर्निष्ककण्ठीभिः सुवासोभिरलङ्कृतम् ।
पुम्भिः सकञ्चुकोष्णीषसुवस्त्रमणिकुण्डलैः ॥ ११॥

रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्तध्वान्तं
विचित्रवलभीषु शिखण्डिनोऽङ्ग ।
नृत्यन्ति यत्र विहितागुरुधूपमक्षै-
र्निर्यान्तमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः ॥ १२॥

तस्मिन् समानगुणरूपवयःसुवेष-
दासीसहस्रयुतयानुसवं गृहिण्या ।
विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्मदण्डेन
सात्वतपतिं परिवीजयन्त्या ॥ १३॥

तं सन्निरीक्ष्य भगवान् सहसोत्थितश्रीपर्यङ्कतः
सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।
आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीटजुष्टेन
साञ्जलिरवीविशदासने स्वे ॥ १४॥

तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना-
बिभ्रज्जगद्गुरुतरोऽपि सतां पतिर्हि ।
ब्रह्मण्यदेव इति यद्गुणनामयुक्तं
तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम् ॥ १५॥

सम्पूज्य देवऋषिवर्यमृषिः पुराणो
नारायणो नरसखो विधिनोदितेन ।
वाण्याभिभाष्य मितयामृतमिष्टया तं
प्राह प्रभो भगवते करवाम हे किम् ॥ १६॥

नारद उवाच
नैवाद्भुतं त्वयि विभोऽखिललोकनाथे
मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम् ।
निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां
स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु ॥ १७॥

दृष्टं तवाङ्घ्रियुगलं जनतापवर्गं
ब्रह्मादिभिर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
ध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात् ॥ १८॥

ततोऽन्यदाविशद्गेहं कृष्णपत्न्याः स नारदः ।
योगेश्वरेश्वरस्याङ्ग योगमायाविवित्सया ॥ १९॥

दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च ।
पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः ॥ २०॥

पृष्टश्चाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति ।
क्रियते किं नु पूर्णानामपूर्णैरस्मदादिभिः ॥ २१॥

अथापि ब्रूहि नो ब्रह्मन् जन्मैतच्छोभनं कुरु ।
स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद्गृहम् ॥ २२॥

तत्राप्यचष्ट गोविन्दं लालयन्तं सुतान् शिशून् ।
ततोऽन्यस्मिन् गृहेऽपश्यन्मज्जनाय कृतोद्यमम् ॥ २३॥

जुह्वन्तं च वितानाग्नीन् यजन्तं पञ्चभिर्मखैः ।
भोजयन्तं द्विजान् क्वापि भुञ्जानमवशेषितम् ॥ २४॥

क्वापि सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम् ।
एकत्र चासिचर्माभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु ॥ २५॥

अश्वैर्गजै रथैः क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम् ।
क्वचिच्छयानं पर्यङ्के स्तूयमानं च वन्दिभिः ॥ २६॥

मन्त्रयन्तं च कस्मिंश्चिन्मन्त्रिभिश्चोद्धवादिभिः ।
जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याबलावृतम् ॥ २७॥

कुत्रचिद्द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलङ्कृताः ।
इतिहासपुराणानि श‍ृण्वन्तं मङ्गलानि च ॥ २८॥

हसन्तं हास्यकथया कदाचित्प्रियया गृहे ।
क्वापि धर्मं सेवमानमर्थकामौ च कुत्रचित् ॥ २९॥

ध्यायन्तमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम् ।
शुश्रूषन्तं गुरून् क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया ॥ ३०॥

कुर्वन्तं विग्रहं कैश्चित्सन्धिं चान्यत्र केशवम् ।
कुत्रापि सह रामेण चिन्तयन्तं सतां शिवम् ॥ ३१॥

पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम् ।
दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयन्तं विभूतिभिः ॥ ३२॥

प्रस्थापनोपानयनैरपत्यानां महोत्सवान् ।
वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिस्मिरे ॥ ३३॥

यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।
पूर्तयन्तं क्वचिद्धर्मं कूर्पाराममठादिभिः ॥ ३४॥

चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।
घ्नन्तं ततः पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः ॥ ३५॥

अव्यक्तलिङं प्रकृतिष्वन्तःपुरगृहादिषु ।
क्वचिच्चरन्तं योगेशं तत्तद्भावबुभुत्सया ॥ ३६॥

अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव ।
योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीमीयुषो गतिम् ॥ ३७॥

विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम् ।
योगेश्वरात्मन् निर्भाता भवत्पादनिषेवया ॥ ३८॥

अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसाऽऽप्लुतान् ।
पर्यटामि तवोद्गायन् लीलां भुवनपावनीम् ॥ ३९॥

श्रीभगवानुवाच
ब्रह्मन् धर्मस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता ।
तच्छिक्षयन् लोकमिममास्थितः पुत्र मा खिदः ॥ ४०॥

श्रीशुक उवाच
इत्याचरन्तं सद्धर्मान् पावनान् गृहमेधिनाम् ।
तमेव सर्वगेहेषु सन्तमेकं ददर्श ह ॥ ४१॥

कृष्णस्यानन्तवीर्यस्य योगमायामहोदयम् ।
मुहुर्दृष्ट्वा ऋषिरभूद्विस्मितो जातकौतुकः ॥ ४२॥

इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना ।
सम्यक् सभाजितः प्रीतस्तमेवानुस्मरन् ययौ ॥ ४३॥

एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो
नारायणोऽखिलभवाय गृहीतशक्तिः ।
रेमेऽङ्ग षोडशसहस्रवराङ्गनानां
सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः ॥ ४४॥

यानीह विश्वविलयोद्भववृत्तिहेतुः
कर्माण्यनन्यविषयाणि हरिश्चकार ।
यस्त्वङ्ग गायति श‍ृणोत्यनुमोदते वा
भक्तिर्भवेद्भगवति ह्यपवर्गमार्गे ॥ ४५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णगार्हस्त्यदर्शनं
नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९॥


दशम स्कन्ध-उनहत्तरवाँ अध्याय 45
देवर्षि नारदजी का भगवान की गृहचर्या देखना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब देवर्षि नारद ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मन में भगवान की रहन-सहन देखने की बड़ी अभिलाषा हुई ॥ १ ॥ वे सोच ने लगे—अहो, यह कित ने आश्चर्य की बात है कि भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही शरीर से एक ही समय सोलह हजार महलों में अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया ॥ २ ॥ देवर्षि नारद इस उत्सुकता से प्रेरित होकर भगवान की लीला देखने के लिये द्वार का आ पहुँचे। वहाँ के उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों से परिपूर्ण थे, उन पर तरह-तरह के पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुञ्जार कर रहे थे ॥ ३ ॥ निर्मल जल से भरे सरोवरों में नीले, लाल और सफेद रंग के भाँति-भाँति के कमल खिले हुए थे। कुमुद ( कोर्ईं) और नवजात कमलों की मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उनमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे ॥ ४ ॥ द्वारकापुरी में स्फटिकमणि और चाँदी के नौ लाख महल थे। वे फर्श आदि में जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने) की प्रभा से जगमगा रहे थे और उनमें सो ने तथा हीरों की बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान थीं ॥ ५ ॥ उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सडक़ें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओं के रहने के स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरों के कारण उसका सौन्दर्य और भी चमक उठा था। उसकी सडक़ों, चौक, गली और दरवाजों पर छिडक़ाव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तों पर धूप नहीं आ पाती थी ॥ ६ ॥

उसी द्वारकानगरी में भगवान श्रीकृष्ण का बहुत ही सुन्दर अन्त:पुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करने में विश्वकर्माने अपना सारा कला- कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी ॥ ७ ॥ उस अन्त:पुर (रनिवास) में भगवान की रानियों के सोलह हजार से अधिक महल शोभायमान थे, उनमें से एक बड़े भवन में देवर्षि नारदजी ने प्रवेश किया ॥ ८ ॥ उस महल में मूँगों के खंभे, वैदूर्य के उत्तम-उत्तम छज्जे तथा इन्द्रनीलमणि की दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँ की गचें भी ऐसी इन्द्रनीलमणियों से बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती ॥ ९ ॥ विश्वकर्माने बहुत- से ऐसे चँदोवे बना रखे थे, जिन में मोती की लडिय़ों की झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँत के बने हुए आसन और पलँग थे, जिन में श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी ॥ १० ॥ बहुत-सी दासियाँ गले में सो ने का हार पह ने और सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा बहुत- से सेवक भी जामा-पगड़ी और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पह ने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये अपने-अपने काम में व्यस्त थे और महल की शोभा बढ़ा रहे थे ॥ ११ ॥ अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहट से उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगर की धूप दे ने के कारण झरोखों से धूआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जों पर बैठे हुए मोर बादलों के भ्रम से कूक-कूककर नाच ने लगते ॥ १२ ॥ देवर्षि नारदजी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण उस महल की स्वामिनी रुक्मिणीजी के साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान को सो ने की डाँड़ीवाले चँवर से हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महल में रुक्मिणीजी के समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषावाली सहस्रों दासियाँ भी हर समय विद्यमान रहती थीं ॥ १३ ॥

नारदजी को देखते ही समस्त धार्मिकों के मुकुटमणि भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँग से सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारद के युगलचरणों में मुकुटयुक्त सिर से प्रणाम किया और हाथ जोडक़र उन्हें अपने आसन पर बैठाया ॥ १४ ॥ परीक्षित ! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण चराचर जगत के परम गुरु हैं और उनके चरणों का धोवन गङ्गाजल सारे जगत को पवित्र करनेवाला है। फिर भी वे परमभक्तवत्सल और संतों के परम आदर्श, उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रह्मण्यदेव भी है। वे ब्राह्मणों को ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुण के अनुरूप एवं उचित ही है। तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं ही नारदजी के पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सिर पर धारण किया ॥ १५ ॥ नरशिरोमणि नर के सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष भगवान नारायण ने शास्त्रोक्त विधि से देवर्षिशिरोमणि भगवान नारद की पूजा की। इसके बाद अमृत से भी मीठे किन्तु थोड़े शब्दों में उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा—‘प्रभो ! आप तो स्वयं समग्र ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्य से पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें’ ? ॥ १६ ॥

देवर्षि नारद ने कहा—भगवन् ! आप समस्त लोकों के एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनों से प्रेम करते हैं और दुष्टों को दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो ! आपने जगत की स्थिति और रक्षा के द्वारा समस्त जीवों का कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से अवतार ग्रहण किया है। भगवन् ! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं ॥ १७ ॥ यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलों के दर्शन हुए हैं। आपके ये चरणकमल सम्पूर्ण जनता को परम साम्य, मोक्ष दे ने में समर्थ हैं। जिनके ज्ञान की कोई सीमा ही नहीं है, वे ब्रह्मा, शङ्कर आदि सदा-सर्वदा अपने हृदय में उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तव में वे श्रीचरण ही संसाररूप कूएँ में गिरे हुए लोगों को बाहर निकल ने के लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके उन चरणकमलों की स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ जैसे रहूँ, उनके ध्यान में तन्मय रहूँ ॥ १८ ॥

परीक्षित ! इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण की योगमाया का रहस्य जान ने के लिये उनकी दूसरी पत्नी के महल में गये ॥ १९ ॥ वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसन पर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्ति से उनकी अर्चा-पूजा की ॥ २० ॥ इसके बाद भगवान ने नारदजी से अनजान की तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे ! आप तो परिपूर्ण आत्माराम—आप्तकाम हैं और हमलोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्था में भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ॥ २१ ॥ फिर भी ब्रह्म स्वरूप नारदजी ! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवा का अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।’ नारदजी यह सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँ से उठकर चुपचाप दूसरे महल में चले गये ॥ २२ ॥ उस महल में भी देवर्षि नारद ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को दुलार रहे हैं। वहाँ से फिर दूसरे महल में गये तो क्या देखते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण स्नान की तैयारी कर रहे हैं ॥ २३ ॥ (इस प्रकार देवर्षि नारद ने विभिन्न महलों में भगवान को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।) कहीं वे यज्ञ-कुण्डों में हवन कर रहे हैं तो कहीं पञ्चमहायज्ञों से देवता आदि की आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राह्मणों को भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञ का अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं ॥ २४ ॥ कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर गायत्री का जप कर रहे हैं। कहीं हाथों में ढाल-तलवार लेकर उन को चला ने के पैंतरे बदल रहे हैं ॥ २५ ॥ कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथ पर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंग पर सो रहे हैं, तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ २६ ॥ किसी महल में उद्धव आदि मन्त्रियों के साथ किसी गम्भीर विषय पर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं उत्तमोत्तम वाराङ्गनाओं से घिरकर जलक्रीडा कर रहे हैं ॥ २७ ॥ कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणों को वस्त्राभूषण से सुसज्जित गौओं का दान कर रहे हैं, तो कहीं मङ्गलमय इतिहास- पुराणों का श्रवण कर रहे हैं ॥ २८ ॥ कहीं किसी पत्नी के महल में अपनी प्राणप्रिया के साथ हास्य-विनोद की बातें करके हँस रहे हैं। तो कहीं धर्म का सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थ का सेवन कर रहे हैं—धन-संग्रह और धनवृद्धि के कार्य में लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयों का उपभोग कर रहे हैं ॥ २९ ॥ कहीं एकान्त में बैठकर प्रकृति से अतीत पुराण-पुरुष का ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनों को इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ॥ ३० ॥ देवर्षि नारद ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण किसी के साथ युद्ध की बात कर रहे हैं, तो किसी के साथ सन्धि की। कहीं भगवान बलरामजी के साथ बैठकर सत्पुरुषों के कल्याण के बारे में विचार कर रहे हैं ॥ ३१ ॥ कहीं उचित समय पर पुत्र और कन्याओं का उनके सदृश पत्नी और वरों के साथ बड़ी धूमधाम से विधिवत् विवाह कर रहे हैं ॥ ३२ ॥ कहीं घर से कन्याओं को विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुला ने की तैयारी में लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के इन विराट् उत्सवों को देखकर सभी लोग विस्मित-चकित हो जाते थे ॥ ३३ ॥ कहीं बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा अपनी कलारूप देवताओं का यजन-पूजन और कहीं कूएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्म का आचरण कर रहे हैं ॥ ३४ ॥ कहीं श्रेष्ठ यादवों से घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़े पर चढक़र मृगया कर रहे हैं, और उसमें यज्ञ के लिये मेध्य पशुओं का ही वध कर रहे हैं ॥ ३५ ॥ और कहीं प्रजा में तथा अन्त:पुर के महलों में वेष बदलकर छिपे रूप से सब का अभिप्राय जान ने के लिये विचरण कर रहे हैं। क्यों न हो, भगवान योगेश्वर जो हैं ॥ ३६ ॥

परीक्षित ! इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान श्रीकृष्ण की योगमाया का वैभव देखकर देवर्षि नारदजी ने मुसकराते हुए उनसे कहा— ॥ ३७ ॥ ‘योगेश्वर ! आत्मदेव ! आपकी योगमाया ब्रह्माजी आदि बड़े-बड़े मायावियों के लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमाया का रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलों की सेवा करने से वह स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है ॥ ३८ ॥ देवताओं के भी आराध्यदेव भगवन् ! चौदहों भुवन आपके सुयश से परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवनपावनी लीला का गान करता हुआ उन लोकों में विचरण करूँ’ ॥ ३९ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—देवर्षि नारदजी ! मैं ही धर्म का उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान करनेवालों का अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसार को धर्म की शिक्षा दे ने के उद्देश्य से ही मैं इस प्रकार धर्म का आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र ! तुम मेरी यह योगमाया देखकर मोहित मत होना ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण गृहस्थों को पवित्र करनेवाले श्रेष्ठ धर्मों का आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं, फिर भी देवर्षि नारदजी ने उन को उनकी प्रत्येक पत्नी के महल में अलग-अलग देखा ॥ ४१ ॥ भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। उनकी योगमाया का परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारद के विस्मय और कौतूहल की सीमा न रही ॥ ४२ ॥ द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण गृहस्थ की भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थों में उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारद का बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान का स्मरण करते हुए वहाँ से चले गये ॥ ४३ ॥ राजन् ! भगवान नारायण सारे जगत के कल्याण के लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया को स्वीकार करते हैं और इस प्रकार मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरी में सोलह हजार से भी अधिक पत्नियाँ अपनी सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकान से उनकी सेवा करती थीं और वे उनके साथ विहार करते थे ॥ ४४ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित ! वे विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओं का गान, श्रवण और गान-श्रवण करनेवालों का अनुमोदन करता है, उसे मोक्ष के मार्ग स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में परम प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ ४५ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-70]

॥ सप्ततितमोऽध्यायः - ७० ॥
श्रीशुक उवाच
अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान् कूजतोऽशपन् ।
गृहीतकण्ठ्यः पतिभिर्माधव्यो विरहातुराः ॥ १॥

वयांस्यरोरुवन् कृष्णं बोधयन्तीव वन्दिनः ।
गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मन्दारवनवायुभिः ॥ २॥

मुहूर्तं तं तु वैदर्भी नामृष्यदतिशोभनम् ।
परिरम्भणविश्लेषात्प्रियबाह्वन्तरं गता ॥ ३॥

ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ॥ ४॥

एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं
स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम् ।
ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाशहेतुभिः
स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतिम् ॥ ५॥

अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथाविधि
क्रियाकलापं परिधाय वाससी ।
चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो
हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः ॥ ६॥

उपस्थायार्कमुद्यन्तं तर्पयित्वात्मनः कलाः ।
देवान् ऋषीन् पितॄन् वृद्धान् विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान् ॥ ७॥

धेनूनां रुक्मश‍ृङ्गीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम् ।
पयस्विनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम् ॥ ८॥

ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह ।
अलङ्कृतेभ्यो विप्रेभ्यो बद्वं बद्वं दिने दिने ॥ ९॥

गोविप्रदेवतावृद्धगुरून् भूतानि सर्वशः ।
नमस्कृत्यात्मसम्भूतीर्मङ्गलानि समस्पृशत् ॥ १०॥

आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम् ।
वासोभिर्भूषणैः स्वीयैर्दिव्यस्रगनुलेपनैः ॥ ११॥

अवेक्ष्याज्यं तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः ।
कामांश्च सर्ववर्णानां पौरान्तःपुरचारिणाम् ।
प्रदाप्य प्रकृतीः कामैः प्रतोष्य प्रत्यनन्दत ॥ १२॥

संविभज्याग्रतो विप्रान् स्रक्ताम्बूलानुलेपनैः ।
सुहृदः प्रकृतीर्दारानुपायुङ्क्त ततः स्वयम् ॥ १३॥

तावत्सूत उपानीय स्यन्दनं परमाद्भुतम् ।
सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः ॥ १४॥

गृहीत्वा पाणिना पाणी सारथेस्तमथारुहत् ।
सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः ॥ १५॥

ईक्षितोऽन्तःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः ।
कृच्छ्राद्विसृष्टो निरगाज्जातहासो हरन् मनः ॥ १६॥

सुधर्माख्यां सभां सर्वैर्वृष्णिभिः परिवारितः ।
प्राविशद्यन्निविष्टानां न सन्त्यङ्ग षडूर्मयः ॥ १७॥

तत्रोपविष्टः परमासने विभुर्बभौ
स्वभासा ककुभोऽवभासयन् ।
वृतो नृसिंहैर्यदुभिर्यदूत्तमो
यथोडुराजो दिवि तारकागणैः ॥ १८॥

तत्रोपमन्त्रिणो राजन् नानाहास्यरसैर्विभुम् ।
उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्ताण्डवैः पृथक् ॥ १९॥

मृदङ्गवीणामुरजवेणुतालदरस्वनैः ।
ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधवन्दिनः ॥ २०॥

तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचिदासीना ब्रह्मवादिनः ।
पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन् कथाः ॥ २१॥

तत्रैकः पुरुषो राजन्नागतोऽपूर्वदर्शनः ।
विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः ॥ २२॥

स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः ।
राज्ञामावेदयद्दुःखं जरासन्धनिरोधजम् ॥ २३॥

ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नृपाः ।
प्रसह्य रुद्धास्तेनासन्नयुते द्वे गिरिव्रजे ॥ २४॥

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभञ्जन ।
वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः ॥ २५॥

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः
कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।
यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां
सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ २६॥

लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः
सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः ।
कश्चित्त्वदीयमतियाति निदेशमीश
किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः ॥ २७॥

स्वप्नायितं नृपसुखं परतन्त्रमीश
शश्वद्भयेन मृतकेन धुरं वहामः ।
हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं
क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह ॥ २८॥

तन्नो भवान् प्रणतशोकहराङ्घ्रियुग्मो
बद्धान् वियुङ्क्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात् ।
यो भूभुजोऽयुतमतङ्गजवीर्यमेको
बिभ्रद्रुरोध भवने मृगराडिवावीः ॥ २९॥

यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्रभग्नो
मृधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम् ।
जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पो
युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद्विधेहि ॥ ३०॥

दूत उवाच
इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकङ्क्षिणः ।
प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम् ॥ ३१॥

श्रीशुक उवाच
राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः ।
बिभ्रत्पिङ्गजटाभारं प्रादुरासीद्यथा रविः ॥ ३२॥

तं दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः ।
ववन्द उत्थितः शीर्ष्णा ससभ्यः सानुगो मुदा ॥ ३३॥

सभाजयित्वा विधिवत्कृतासनपरिग्रहम् ।
बभाषे सूनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन् मुनिम् ॥ ३४॥

अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणामकुतोभयम् ।
ननु भूयान् भगवतो लोकान् पर्यटतो गुणः ॥ ३५॥

न हि तेऽविदितं किञ्चिल्लोकेष्वीश्वरकर्तृषु ।
अथ पृच्छामहे युष्मान् पाण्डवानां चिकीर्षितम् ॥ ३६॥

श्रीनारद उवाच
दृष्टा माया ते बहुशो दुरत्यया
माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः ।
भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभि-
र्वह्नेरिवच्छन्नरुचो न मेऽद्भुतम् ॥ ३७॥

तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं
स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः ।
यद्विद्यमानात्मतयावभासते
तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने ॥ ३८॥

जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणं
न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः ।
लीलावतारैः स्वयशःप्रदीपकं
प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ३९॥

अथाप्याश्रावये ब्रह्म नरलोकविडम्बनम् ।
राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम् ॥ ४०॥

यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डवः ।
पारमेष्ठ्यकामो नृपतिस्तद्भवाननुमोदताम् ॥ ४१॥

तस्मिन् देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादयः ।
दिदृक्षवः समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विनः ॥ ४२॥

श्रवणात्कीर्तनाद्ध्यानात्पूयन्तेऽन्तेवसायिनः ।
तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः ॥ ४३॥

यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां
भूमौ च ते भुवनमङ्गल दिग्वितानम् ।
मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो
गङ्गेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम् ॥ ४४॥

श्रीशुक उवाच
तत्र तेष्वात्मपक्षेष्वगृह्णत्सु विजिगीषया ।
वाचः पेशैः स्मयन् भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः ॥ ४५॥

श्रीभगवानुवाच
त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन्मन्त्रार्थतत्त्ववित् ।
तथात्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत् ॥ ४६॥

इत्युपामन्त्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत् ।
निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत ॥ ४७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भगवद्यानविचारो नाम
सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७०॥


दशम स्कन्ध-सत्तरवाँ अध्याय 47
भगवान श्रीकृष्ण की नित्यचर्या और उनके पास जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब सबेरा होने लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोल ने लगते, तब वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठ में श्रीकृष्ण ने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके विछोह की आशङ्का से व्याकुल हो जातीं और उन मुरगों को कोस ने लगतीं ॥ १ ॥ उस समय पारिजात की सुगन्ध से सुवासित भीनी-भीनी वायु बह ने लगती। भौंरे तालस्वर से अपनी सङ्गीत की तान छेड़ देते। पक्षियों की नींद उचट जाती और वे वंदीजनों की भाँति भगवान श्रीकृष्ण को जगा ने के लिये मधुर स्वर से कलरव करने लगते ॥ २ ॥ रुक्मिणीजी अपने प्रियतम के भुजपाश से बँधी रहने पर भी आलिङ्गन छूट जाने की आशङ्का से अत्यन्त सुहाव ने और पवित्र ब्राह्ममुहूर्त को भी असह्य समझ ने लगती थीं ॥ ३ ॥ भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्म स्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था ॥ ४ ॥ परीक्षित ! भगवान का वह आत्म स्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकार की उपाधि या उपाधि के कारण होनेवाला अन्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है। और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रिय के द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चन्द्रमा-सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित होती है, वैसे वह आत्म- स्वरूप दूसरे के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूप में ही सदा-सर्वदा और काल की सीमा के परे भी एकरस स्थित रहने के कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसीसे प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और नाश की कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति और रुद्रशक्तियों के द्वारा केवल इस बात का अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस सत्तारूप और आनन्द- स्वरूप है। उसी को समझा ने के लिये ‘ब्रह्म’ नाम से कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण अपने उसी आत्म स्वरूप का प्रतिदिन ध्यान करते ॥ ५ ॥ इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढक़र यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्श जो हैं ॥ ६ ॥ इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कला स्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिर कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राह्मणों की विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ोंवाली सीधी-शान्त गौओं का दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियों की माला पहना दी जाती । सींग में सोना और खुरों में चाँदी मढ़ दी जाती । वे ब्राह्मणों को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिल के साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते ॥ ७—९ ॥ तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता, कुल के बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियों को प्रणाम करके माङ्गलिक वस्तुओं का स्पर्श करते ॥ १० ॥ परीक्षित ! यद्यपि भगवान के शरीर का सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोक का अलङ्कार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पों के हार और चन्दनादि दिव्य अङ्गराग से अपने को आभूषित करते ॥ ११ ॥ इसके बाद वे घी और दर्पण में अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और देव-प्रतिमाओं का दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्त:पुर में रहनेवाले चारों वर्णों के लोगों की अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजा की कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सब को प्रसन्न देखकर स्वयं बहुत ही आनन्दित होते ॥ १२ ॥ वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन और अङ्गराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजन- सम्बन्धी, मन्त्री और रानियों को बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काम में लाते ॥ १३ ॥ भगवान यह सब करते होते, तब तक दारुक नाम का सारथि सुग्रीव आदि घोड़ों से जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान के सामने खड़ा हो जाता ॥ १४ ॥ इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजी के साथ अपने हाथ से सारथि का हाथ पकडक़र रथ पर सवार होते—ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होते हैं ॥ १५ ॥ उस समय रनिवास की स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेम से भरी चितवन से उन्हें निहार ने लगतीं और बड़े कष्ट से उन्हें विदा करतीं। भगवान मुसकराकर उनके चित्त को चुराते हुए महल से निकलते ॥ १६ ॥

परीक्षित ! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियों के साथ सुधर्मा नाम की सभा में प्रवेश करते। उस सभा की ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभा में जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक- मोह और जरा मृत्यु—ये छ: ऊॢमयाँ नहीं सतातीं ॥ १७ ॥ इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण सब रानियों से अलग-अलग विदा होकर एक ही रूप में सुधर्मा-सभा में प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर विराज जाते। उनकी अङ्गकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरों के बीच में यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा होती, जैसे आकाश में तारों से घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं ॥ १८ ॥ परीक्षित ! सभा में विदूषकलोग विभिन्न प्रकार के हास्य- विनोदसे, नटाचार्य अभिनय से और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्यों से अलग-अलग अपनी टोलियों के साथ भगवान की सेवा करतीं ॥ १९ ॥ उस समय मृदङ्ग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शङ्ख बज ने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान की स्तुति करते ॥ २० ॥ कोई- कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियों के चरित्र कह-कहकर सुनाते ॥ २१ ॥

एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान को उसके आ ने की सूचना देकर उसे सभाभवन में उपस्थित किया ॥ २२ ॥ उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोडक़र नमस्कार किया और उन राजाओंका, जिन्हों ने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बन ने का दु:ख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया— ॥ २३-२४ ॥ ‘सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो ! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं ॥ २५ ॥ भगवन् ! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मों में फँ से हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो ! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूपमें—उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दु:ख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हमलोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल दे ने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेश से मुक्त कीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो! हम जानते हैं कि राजाप ने का सुख प्रारब्ध के अधीन एवं विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुख के समान अत्यन्त तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुख को भोगनेवाला यह शरीर भी एक प्रकार से मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकार के भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसी के द्वारा जगत के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हम ने अन्त:करण के निष्कामभाव और निस्सङ्कल्प स्थिति से प्राप्त होनेवाले आत्मसुख का परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी माया के फंदे में फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं ॥ २८ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमल शरणागत पुरुषों के समस्त शोक और मोहों को नष्ट कर देनेवाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मों के बन्धन से हमें छुड़ाइये। प्रभो ! यह अकेला ही दस हजार हाथियों की शक्ति रखता है और हमलोगों को उसी प्रकार बंदी बनाये हुए है, जैसे सिंह भेड़ों को घेर रखे ॥ २९ ॥ चक्रपाणे ! आपने अठारह बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्योंका-सा आचरण करते आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करनेमात्र से अन्त्यज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ त्रिभुवनमङ्गल ! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओं में छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्ग में मन्दाकिनी, पाताल में भोगवती और मत्र्यलोक में गङ्गा के नाम से प्रवाहित होकर सारे विश्व को पवित्र कर रही है ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! सभा में जित ने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बात के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्ध पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाय। अत: उन्हें नारदजी की बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदि के शासक भगवान श्रीकृष्ण ने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणी में उद्धवजी से कहा— ॥ ४५ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘उद्धव ! तुम मेरे हितैषी सुहृद् हो। शुभ सम्मति देनेवाले और कार्य के तत्त्व को भलीभाँति समझनेवाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषय में हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बात पर हमारी श्रद्धा है। इसलिये हम तुम्हारी सलाह के अनुसार ही काम करेंगे’ ॥ ४६ ॥ जब उद्धवजी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होने पर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले ॥ ४७ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-71]

॥ एकसप्ततितमोऽध्यायः - ७१ ॥
श्रीशुक उवाच
इत्युदीरितमाकर्ण्य देवऋषेरुद्धवोऽब्रवीत् ।
सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः ॥ १॥

उद्धव उवाच
यदुक्तमृषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया ।
कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम् ॥ २॥

यष्टव्यम् राजसूयेन दिक्चक्रजयिना विभो ।
अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम ॥ ३॥

अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति ।
यशश्च तव गोविन्द राज्ञो बद्धान् विमुञ्चतः ॥ ४॥

स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले ।
बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना ॥ ५॥

द्वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः ।
ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैर्न प्रत्याख्याति कर्हिचित् ॥ ६॥

ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः ।
हनिष्यति न सन्देहो द्वैरथे तव सन्निधौ ॥ ७॥

निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः ।
हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव ॥ ८॥

गायन्ति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो
राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च ।
गोप्यश्च कुञ्जरपतेर्जनकात्मजायाः
पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च ॥ ९॥

जरासन्धवधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते ।
प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः क्रतुः ॥ १०॥

श्रीशुक उवाच
इत्युद्धववचो राजन् सर्वतोभद्रमच्युतम् ।
देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन् ॥ ११॥

अथादिशत्प्रयाणाय भगवान् देवकीसुतः ।
भृत्यान् दारुकजैत्रादीननुज्ञाप्य गुरून् विभुः ॥ १२॥

निर्गमय्यावरोधान् स्वान् ससुतान् सपरिच्छदान् ।
सङ्कर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन् ।
सूतोपनीतं स्वरथमारुहद्गरुडध्वजम् ॥ १३॥

ततो रथद्विपभटसादिनायकैः
करालया परिवृत आत्मसेनया ।
मृदङ्गभेर्यानकशङ्खगोमुखैः
प्रघोषघोषित्ककुभो निराक्रमत् ॥ १४॥

नृवाजिकाञ्चनशिबिकाभिरच्युतं
सहात्मजाः पतिमनु सुव्रता ययुः ।
वराम्बराभरणविलेपनस्रजः
सुसंवृता नृभिरसिचर्मपाणिभिः ॥ १५॥

नरोष्ट्रगोमहिषखराश्वतर्यनः
करेणुभिः परिजनवारयोषितः ।
स्वलङ्कृताः कटकुटिकम्बलाम्बरा-
द्युपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः ॥ १६॥

बलं बृहद्ध्वजपटछत्रचामरै-
र्वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः ।
दिवांशुभिस्तुमुलरवं बभौ रवेर्यथार्णवः
क्षुभिततिमिङ्गिलोर्मिभिः ॥ १७॥

अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः
प्रणम्य तं हृदि विदधद्विहायसा ।
निशम्य तद्व्यवसितमाहृतार्हणो
मुकुन्दसन्दर्शननिर्वृतेन्द्रियः ॥ १८॥

राजदूतमुवाचेदं भगवान् प्रीणयन् गिरा ।
मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम् ॥ १९॥

इत्युक्तः प्रस्थितो दूतो यथावदवदन्नृपान् ।
तेऽपि सन्दर्शनं शौरेः प्रत्यैक्षन् यन्मुमुक्षवः ॥ २०॥

आनर्तसौवीरमरूंस्तीर्त्वा विनशनं हरिः ।
गिरीन् नदीरतीयाय पुरग्रामव्रजाकरान् ॥ २१॥

ततो दृषद्वतीं तीर्त्वा मुकुन्दोऽथ सरस्वतीम् ।
पञ्चालानथ मत्स्यांश्च शक्रप्रस्थमथागमत् ॥ २२॥

तमुपागतमाकर्ण्य प्रीतो दुर्दर्शनं नृणाम् ।
अजातशत्रुर्निरगात्सोपाध्यायः सुहृद्वृतः ॥ २३॥

गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ।
अभ्ययात्स हृषीकेशं प्राणाः प्राणमिवादृतः ॥ २४॥

दृष्ट्वा विक्लिन्नहृदयः कृष्णं स्नेहेन पाण्डवः ।
चिराद्दृष्टं प्रियतमं सस्वजेऽथ पुनः पुनः ॥ २५॥

दोर्भ्यां परिष्वज्य रमामलालयं
मुकुन्दगात्रं नृपतिर्हताशुभः ।
लेभे परां निर्वृतिमश्रुलोचनो
हृष्यत्तनुर्विस्मृतलोकविभ्रमः ॥ २६॥

तं मातुलेयं परिरभ्य निर्वृतो
भीमः स्मयन् प्रेमजलाकुलेन्द्रियः ।
यमौ किरीटी च सुहृत्तमं मुदा
प्रवृद्धबाष्पाः परिरेभिरेऽच्युतम् ॥ २७॥

अर्जुनेन परिष्वक्तो यमाभ्यामभिवादितः ।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्च यथार्हतः ॥ २८॥

मानितो मानयामास कुरुसृञ्जयकैकयान् ।
सूतमागधगन्धर्वा वन्दिनश्चोपमन्त्रिणः ॥ २९॥

मृदङ्गशङ्खपटहवीणापणवगोमुखैः ।
ब्राह्मणाश्चारविन्दाक्षं तुष्टुवुर्ननृतुर्जगुः ॥ ३०॥

एवं सुहृद्भिः पर्यस्तः पुण्यश्लोकशिखामणिः ।
संस्तूयमानो भगवान् विवेशालङ्कृतं पुरम् ॥ ३१॥

संसिक्तवर्त्म करिणां मदगन्धतोयै-
श्चित्रध्वजैः कनकतोरणपूर्णकुम्भैः ।
मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्रग्-
गन्धैर्नृभिर्युवतिभिश्च विराजमानम् ॥ ३२॥

उद्दीप्तदीपबलिभिः प्रतिसद्मजाल-
निर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम् ।
मूर्धन्यहेमकलशै रजतोरुश‍ृङ्गैर्जुष्टं
ददर्श भवनैः कुरुराजधाम ॥ ३३॥

प्राप्तं निशम्य नरलोचनपानपात्र-
मौत्सुक्यविश्लथितकेशदुकूलबन्धाः ।
सद्यो विसृज्य गृहकर्म पतींश्च तल्पे
द्रष्टुं ययुर्युवतयः स्म नरेन्द्रमार्गे ॥ ३४॥

तस्मिन् सुसङ्कुल इभाश्वरथद्विपद्भिः
कृष्णं सभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढाः ।
नार्यो विकीर्य कुसुमैर्मनसोपगुह्य
सुस्वागतं विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन ॥ ३५॥

ऊचुः स्त्रियः पथि निरीक्ष्य मुकुन्दपत्नीः
तारा यथोडुपसहाः किमकार्यमूभिः ।
यच्चक्षुषां पुरुषमौलिरुदारहास-
लीलावलोककलयोत्सवमातनोति ॥ ३६॥

तत्र तत्रोपसङ्गम्य पौरा मङ्गलपाणयः ।
चक्रुः सपर्यां कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनसः ॥ ३७॥

अन्तःपुरजनैः प्रीत्या मुकुन्दः फुल्ललोचनैः ।
ससम्भ्रमैरभ्युपेतः प्राविशद्राजमन्दिरम् ॥ ३८॥

पृथा विलोक्य भ्रात्रेयं कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम् ।
प्रीतात्मोत्थाय पर्यङ्कात्सस्नुषा परिषस्वजे ॥ ३९॥

गोविन्दं गृहमानीय देवदेवेशमादृतः ।
पूजायां नाविदत्कृत्यं प्रमोदोपहतो नृपः ॥ ४०॥

पितृष्वसुर्गुरुस्त्रीणां कृष्णश्चक्रेऽभिवादनम् ।
स्वयं च कृष्णया राजन् भगिन्या चाभिवन्दितः ॥ ४१॥

श्वश्र्वा सञ्चोदिता कृष्णा कृष्णपत्नीश्च सर्वशः ।
आनर्च रुक्मिणीं सत्यां भद्रां जाम्बवतीं तथा ॥ ४२॥

कालिन्दीं मित्रविन्दां च शैब्यां नाग्नजितीं सतीम् ।
अन्याश्चाभ्यागता यास्तु वासःस्रङ्मण्डनादिभिः ॥ ४३॥

सुखं निवासयामास धर्मराजो जनार्दनम् ।
ससैन्यं सानुगामात्यं सभार्यं च नवं नवम् ॥ ४४॥

तर्पयित्वा खाण्डवेन वह्निं फाल्गुनसंयुतः ।
मोचयित्वा मयं येन राज्ञे दिव्या सभा कृता ॥ ४५॥

उवास कतिचिन्मासान् राज्ञः प्रियचिकीर्षया ।
विहरन् रथमारुह्य फाल्गुनेन भटैर्वृतः ॥ ४६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णस्येन्द्रप्रस्थगमनं
नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१॥


दशम स्कन्ध-इकहत्तरवाँ अध्याय 46
श्रीकृष्णभगवान का इन्द्रप्रस्थ पधारना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर महामति उद्धवजी ने देवर्षि नारद, सभासद् और भगवान श्रीकृष्ण के मत पर विचार किया और फिर वे कह ने लगे ॥ १ ॥

उद्धवजी ने कहा—भगवन् ! देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है ॥ २ ॥ प्रभो ! जब हम इस दृष्टि से विचार करते हैं कि राजसूय यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णय पर बिना किसी दुविधा के पहुँच जाते हैं कि पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिये जरासन्ध को जीतना आवश्यक है ॥ ३ ॥ प्रभो ! केवल जरासन्ध को जीत लेने से ही हमारा महान उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओं की मुक्ति और उसके कारण आपको सुयश की भी प्राप्ति हो जायगी ॥ ४ ॥ राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगों के भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियों का बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ॥ ५ ॥ उसे आमने-सामने के युद्ध में एक वीर जीत ले, यही सब से अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्ध के लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बात की याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ॥ ६ ॥ इसलिये भीमसेन ब्राह्मण के वेष में जायँ और उससे युद्ध की भिक्षा माँगें। भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थिति में भीमसेन और जरासन्ध का द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ॥ ७ ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित काल स्वरूप हैं। विश्व की सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्ति से होता है। ब्रह्मा और शङ्कर तो उसमें निमित्तमात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्ध का वध तो होगा आपकी शक्तिसे, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ॥ ८ ॥ जब इस प्रकार आप जरासन्ध का वध कर डालेंगे, तब कैद में पड़े हुए राजाओं की रानियाँ अपने महलों में आपकी इस विशुद्ध लीला का गान करेंगी कि आपने उनके शत्रु का नाश कर दिया और उनके प्राणपतियों को छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शङ्खचूड़ से छुड़ा ने की लीलाका, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजी के उद्धार की लीला का तथा हमलोग आपके माता-पिता को कंसके कारागार से छुड़ा ने की लीला का गान करते हैं ॥ ९ ॥ इसलिये प्रभो ! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत- से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य-परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये) ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया ॥ ११ ॥ अब अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिये आज्ञा दी ॥ १२ ॥ इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने यदुराज उग्रसेन और बलरामजी से आज्ञा लेकर बाल-बच्चों के साथ रानियों और उनके सब सामानों को आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथ पर स्वयं सवार हुए ॥ १३ ॥ इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलों की बड़ी भारी सेना के साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदङ्ग, नगारे, ढोल, शङ्ख और नरसिंगों की ऊँची ध्वनि से दसों दिशाएँ गूँज उठीं ॥ १४ ॥ सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण-पत्नियाँ अपनी सन्तानों के साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन,अङ्गराग और पुष्पों के हार आदि से सज-धजकर डोलियों, रथों और सो ने की बनी हुई पालकियों में चढक़र अपने पतिदेव भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ॥ १५ ॥ इसी प्रकार अनुचरों की स्त्रियाँ और वाराङ्गनाएँ भलीभाँति शृङ्गार करके खस आदि की झोपडिय़ों, भाँति-भाँति के तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढऩे-बिछा ने आदि की सामग्रियों को बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरों पर लादकर तथा स्वयं पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियों पर सवार होकर चलीं ॥ १६ ॥ जैसे मगरमच्छों और लहरों की उछल-कूद से क्षुब्ध समुद्र की शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहल से परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूषणों, मुकुटों, कवचों और दिन के समय उन पर पड़ती हुई सूर्य की किरणों से भगवान श्रीकृष्ण की सेना अत्यन्त शोभायमान हुई ॥ १७ ॥ देवर्षि नारदजी भगवान श्रीकृष्ण से सम्मानित होकर और उनके निश्चय को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। भगवान के दर्शन से उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्द में मग्र हो गयीं। विदा होने के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उनका नाना प्रकार की सामग्रियों से पूजन किया । अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्ति को हृदय में धारण करके आकाशमार्ग से प्रस्थान किया ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियों के दूत को अपनी मधुर वाणी से आश्वासन देते हुए कहा—‘दूत ! तुम अपने राजाओं से जाकर कहना—डरो मत ! तुम लोगों का कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा’ ॥ १९ ॥ भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियों को भगवान श्रीकृष्ण का सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूट ने के लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान के शुभ दर्शन की बाट जोह ने लगे ॥ २० ॥

परीक्षित ! अब भगवान श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरु, कुरुक्षेत्र और उनके बीच में पडऩेवाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरों की बस्तियाँ तथा खानों को पार करते हुए आगे बढऩे लगे ॥ २१ ॥ भगवान मुकुन्द मार्ग में दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पाञ्चाल और मत्स्य देशों में होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे ॥ २२ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को यह समाचार मिला कि भगवान श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियों के साथ भगवान की अगवानी करने के लिये नगर से बाहर आये ॥ २३ ॥ मङ्गल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बज ने लगे, बहुत- से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वर से वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वे बड़े आदर से हृषीकेश भगवान का स्वागत करने के लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राण से मिल ने जा रही हों ॥ २४ ॥ भगवान श्रीकृष्ण को देखकर राजा युधिष्ठिर का हृदय स्नेहातिरेक से गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनों पर अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अत: वे उन्हें बार-बार अपने हृदय से लगा ने लगे ॥ २५ ॥ भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीजी का पवित्र और एकमात्र निवासस्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओं से उसका आलिङ्गन करके समस्त पाप-तापों से छुटकारा पा गये । वे सर्वतोभावेन परमानन्द के समुद्र में मग्र हो गये। नेत्रों में आँसू छलक आये, अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपञ्च के भ्रम का तनिक भी स्मरण न रहा ॥ २६ ॥ तदनन्तर भीमसेन ने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण का आलिङ्गन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदय में इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुन ने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान श्रीकृष्ण का बड़े आनन्द से आलिङ्गन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रों में आँसुओं की बाढ़-सी आ गयी थी ॥ २७ ॥ अर्जुन ने पुन: भगवान श्रीकृष्ण का आलिङ्गन किया, नकुल और सहदेव ने अभिवादन किया और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धों को यथायोग्य नमस्कार किया ॥ २८ ॥ कुरु, सृञ्जय और केकय देश के नरपतियों ने भगवान श्रीकृष्ण का सम्मान किया और भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, वंदीजन और ब्राह्मण भगवान की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मृदङ्ग, शङ्ख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये नाचने-गा ने लगे ॥ २९-३० ॥ इस प्रकार परमयशस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुहृद्-स्वजनों के साथ सब प्रकार से सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया। उस समय लोग आपस में भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते चल रहे थे ॥ ३१ ॥

इन्द्रप्रस्थ नगर की सडक़ें और गलियाँ मतवाले हाथियों के मद से तथा सुगन्धित जल से सींच दी गयी थीं। जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सो ने के जलभरे कलश स्थान-स्थान पर शोभा पा रहे थे। नगर के नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल आदि से सज-धजकर घूम रहे थे ॥ ३२ ॥ घर-घर में ठौर-ठौर पर दीपक जलाये गये थे, जिन से दीपावलीकी-सी छटा हो रही थी। प्रत्येक घर के झरोखों से धूप का धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी घरों के ऊ पर पताकाएँ फहरा रही थीं तथा सो ने के कलश और चाँदी के शिखर जगमगा रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार के महलों से परिपूर्ण पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगर को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे ॥ ३३ ॥ जब युवतियों ने सुना कि मानव-नेत्रों के पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण राजपथ पर आ रहे हैं, तब उनके दर्शन की उत्सुकता के आवेग से उनकी चोटियों और साडिय़ों की गाँठें ढीली पड़ गयीं। उन्होंने घर का काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेज पर सोये हुए अपने पतियों को भी छोड़ दिया और भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये राजपथ पर दौड़ आयीं ॥ ३४ ॥ सडक़ पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना की भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियों ने अटारियों पर चढक़र रानियों के सहित भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किया, उनके ऊ पर पुष्पों की वर्षा की और मन-ही-मन आलिङ्गन किया तथा प्रेम- भरी मुसकान एवं चितवन से उनका सुस्वागत किया ॥ ३५ ॥ नगर की स्त्रियाँ राजपथ पर चन्द्रमा के साथ विराजमान ताराओं के समान श्रीकृष्ण की पत्नियों को देखकर आपस में कह ने लगीं—‘सखी ! इन बड़भागिनी रानियों ने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्ष से उनकी ओर देखकर उनके नेत्रों को परम आनन्द प्रदान करते हैं ॥ ३६ ॥ इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण राजपथ से चल रहे थे। स्थान-स्थान पर बहुत- से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकों ने अनेकों माङ्गलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत-सत्कार किया ॥ ३७ ॥

अन्त:पुर की स्त्रियाँ भगवान श्रीकृष्ण को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं। उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्द से खिलेनेत्रों के द्वारा भगवान का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत- सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहल में पधारे ॥ ३८ ॥ जब कुन्ती ने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्ण को देखा, तब उनका हृदय प्रेम से भर आया। वे पलंग से उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गयीं और भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया ॥ ३९ ॥ देवदेवेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को राजमहलके अंदर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्द के उद्रेक से आत्मविस्मृत हो गये; उन्हें इस बात की भी सुधि न रही कि किस क्रम से भगवान की पूजा करनी चाहिये ॥ ४० ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी फूआ कुन्ती और गुरुजनों की पत्नियों का अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदी ने भगवान को नमस्कार किया ॥ ४१ ॥ अपनी सास कुन्ती की प्रेरणा से द्रौपदी ने वस्त्र, आभूषण, माला आदि के द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा और परम साध्वी सत्या—भगवान श्रीकृष्ण की इन पटरानियों का तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्ण की अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया ॥ ४२-४३ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण को उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियों के साथ ऐसे स्थान में ठहराया जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुख की सामग्रियाँ प्राप्त हों ॥ ४४ ॥ अर्जुन के साथ रहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खाण्डव वन का दाह करवाकर अग्रि को तृप्त किया था और मयासुर को उससे बचाया था। परीक्षित ! उस मयासुर ने ही धर्मराज युधिष्ठिर के लिये भगवान की आज्ञा से एक दिव्य सभा तैयार कर दी ॥ ४५ ॥ भगवान श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिर को आनन्दित करने के लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थ में ही रहे। वे समय-समय पर अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर विहार करने के लिये इधर- उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवा के लिये साथ-साथ जाते ॥ ४६ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-72]

॥ द्विसप्ततितमोऽध्यायः - ७२ ॥
श्रीशुक उवाच
एकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः ।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैर्भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः ॥ १॥

आचार्यैः कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः ।
श‍ृण्वतामेव चैतेषामाभाष्येदमुवाच ह ॥ २॥

युधिष्ठिर उवाच
क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः ।
यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत्सम्पादय नः प्रभो ॥ ३॥

त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्ति
ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति ।
विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्गमाशासते
यदि त आशिष ईश नान्ये ॥ ४॥

तद्देवदेव भवतश्चरणारविन्द-
सेवानुभावमिह पश्यतु लोक एषः ।
ये त्वां भजन्ति न भजन्त्युत वोभयेषां
निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसृञ्जयानाम् ॥ ५॥

न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव
स्यात्सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः ।
संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः
सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र ॥ ६॥

श्रीभगवानुवाच
सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता शत्रुकर्शन ।
कल्याणी येन ते कीर्तिर्लोकाननुभविष्यति ॥ ७॥

ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो ।
सर्वेषामपि भूतानामीप्सितः क्रतुराडयम् ॥ ८॥

विजित्य नृपतीन् सर्वान् कृत्वा च जगतीं वशे ।
सम्भृत्य सर्वसम्भारानाहरस्व महाक्रतुम् ॥ ९॥

एते ते भ्रातरो राजंल्लोकपालांशसम्भवाः ।
जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः ॥ १०॥

न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया ।
विभूतिभिर्वाभिभवेद्देवोऽपि किमु पार्थिवः ॥ ११॥

श्रीशुक उवाच
निशम्य भगवद्गीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुजः ।
भ्रातॄन् दिग्विजयेऽयुङ्क्त विष्णुतेजोपबृंहितान् ॥ १२॥

सहदेवं दक्षिणस्यामादिशत्सह सृञ्जयैः ।
दिशि प्रतीच्यां नकुलमुदीच्यां सव्यसाचिनम् ।
प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः ॥ १३॥

ते विजित्य नृपान् वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा ।
अजातशत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते ॥ १४॥

श्रुत्वाजितं जरासन्धं नृपतेर्ध्यायतो हरिः ।
आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह ॥ १५॥

भीमसेनोऽर्जुनः कृष्णो ब्रह्मलिङ्गधरास्त्रयः ।
जग्मुर्गिरिव्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः ॥ १६॥

ते गत्वाऽऽतिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम् ।
ब्रह्मण्यं समयाचेरन् राजन्या ब्रह्मलिङ्गिनः ॥ १७॥

राजन् विद्ध्यतिथीन् प्राप्तानर्थिनो दूरमागतान् ।
तन्नः प्रयच्छ भद्रं ते यद्वयं कामयामहे ॥ १८॥

किं दुर्मर्षं तितिक्षूणां किमकार्यमसाधुभिः ।
किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम् ॥ १९॥

योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम् ।
नाचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः ॥ २०॥

हरिश्चन्द्रो रन्तिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः ।
व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः ॥ २१॥

श्रीशुक उवाच
स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर्ज्याहतैरपि ।
राजन्यबन्धून् विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत् ॥ २२॥

राजन्यबन्धवो ह्येते ब्रह्मलिङ्गानि बिभ्रति ।
ददामि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम् ॥ २३॥

बलेर्नु श्रूयते कीर्तिर्वितता दिक्ष्वकल्मषा ।
ऐश्वर्याद्भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना ॥ २४॥

श्रियं जिहीर्षतेन्द्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे ।
जानन्नपि महीं प्रादाद्वार्यमाणोऽपि दैत्यराट् ॥ २५॥

जीवता ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबन्धुना ।
देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः ॥ २६॥

इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान् ।
हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोऽपि वः ॥ २७॥

श्रीभगवानुवाच
युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्वशो यदि मन्यसे ।
युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्नकाङ्क्षिणः ॥ २८॥

असौ वृकोदरः पार्थस्तस्य भ्रातार्जुनो ह्ययम् ।
अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम् ॥ २९॥

एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः ।
आह चामर्षितो मन्दा युद्धं तर्हि ददामि वः ॥ ३०॥

न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवतेजसा ।
मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः ॥ ३१॥

अयं तु वयसातुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः ।
अर्जुनो न भवेद्योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम ॥ ३२॥

इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम् ।
द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद्बहिः ॥ ३३॥

ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ ।
जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ ॥ ३४॥

मण्डलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च ।
चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रङ्गिणोः ॥ ३५॥

ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः ।
गदयोः क्षिप्तयो राजन् दन्तयोरिव दन्तिनोः ॥ ३६॥

ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने
अन्योन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून् ।
चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे
संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्व्योः ॥ ३७॥

इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ
क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्परशैरपिंष्टाम् ।
शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासी-
न्निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः ॥ ३८॥

तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः ।
निर्विशेषमभूद्युद्धमक्षीणजवयोर्नृप ॥ ३९॥

एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः ।
दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्वन्निशि तिष्ठतोः ॥ ४०॥

एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन् वृकोदरः ।
न शक्तोऽहं जरासन्धं निर्जेतुं युधि माधव ॥ ४१॥

शत्रोर्जन्ममृती विद्वाञ्जीवितं च जराकृतम् ।
पार्थमाप्याययन् स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरिः ॥ ४२॥

सञ्चिन्त्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः ।
दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया ॥ ४३॥

तद्विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतां वरः ।
गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले ॥ ४४॥

एकं पादं पदाऽऽक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः ।
गुदतः पाटयामास शाखमिव महागजः ॥ ४५॥

एकपादोरुवृषणकटिपृष्ठस्तनांसके ।
एकबाह्वक्षिभ्रूकर्णे शकले ददृशुः प्रजाः ॥ ४६॥

हाहाकारो महानासीन्निहते मगधेश्वरे ।
पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्युतौ ॥ ४७॥

सहदेवं तत्तनयं भगवान् भूतभावनः ।
अभ्यषिञ्चदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः ।
मोचयामास राजन्यान् संरुद्धा मागधेन ये ॥ ४८॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे जरासन्धवधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२॥


दशम स्कन्ध-बहत्तरवाँ अध्याय 48
पाण्डवों के राजसूययज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत- से मुनियों, ब्राह्मणों,क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुल के बड़े-बूढ़ों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियों के साथ राजसभा में बैठे हुए थे। उन्होंने सब के सामने ही भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित करके यह बात कही ॥ १-२ ॥

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा—गोविन्द ! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूययज्ञ के द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूति स्वरूप देवताओं का यजन करना चाहता हूँ। प्रभो ! आप कृपा करके मेरा यह सङ्कल्प पूरा कीजिये ॥ ३ ॥ कमलनाभ ! आपके चरणकमलों की पादुकाएँ समस्त अमङ्गलों को नष्ट करनेवाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तव में वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयों की अभिलाषा करें, तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते ॥ ४ ॥ देवताओं के भी आराध्यदेव ! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलों की सेवा का प्रभाव देखें। प्रभो ! कुरुवंशी और सृञ्जयवंशी नरपतियों में जो लोग आपका भजन करते हैं, और जो नहीं करते, उनका अन्तर आप जनता को दिखला दीजिये ॥ ५ ॥ प्रभो ! आप सब के आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्द के साक्षातकार हैं, स्वयं ब्रह्म हैं। आप में ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकार का भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावना के अनुसार फल मिलता ही है—ठीक वैसे ही, जैसे कल्पवृक्ष की सेवा करनेवाले को। उस फल में जो न्यूनाधिकता होती है, वह तो न्यूनाधिक सेवा के अनुरूप ही होती है। इससे आप में विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते ॥ ६ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—शत्रु-विजयी धर्मराज ! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय यज्ञ करने से समस्त लोकों में आपकी मङ्गलमयी कीर्ति का विस्तार होगा ॥ ७ ॥ राजन् ! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमें—और कहाँ तक कहें, समस्त प्राणियों को अभीष्ट है ॥ ८ ॥ महाराज ! पृथ्वी के समस्त नरपतियों को जीतकर, सारी पृथ्वी को अपने वश में करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञ का अनुष्ठान कीजिये ॥ ९ ॥ महाराज ! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालों के अंश से पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आपलोगों ने अपने सद्गुणों से मुझे अपने वश में कर लिया है। जिन लोगों ने अपनी इन्द्रियों और मन को वश में नहीं किया है, वे मुझे अपने वश में नहीं कर सकते ॥ १० ॥ संसार में कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदि के द्वारा मेरे भक्त का तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इस की तो सम्भावना ही क्या है ? ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर का हृदय आनन्द से भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयों को दिग्विजय करने का आदेश दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों में अपनी शक्ति का सञ्चार करके उन को अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था ॥ १२ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर ने सृञ्जयवंशीवीरों के साथ सहदेव को दक्षिण दिशा में दिग्विजय करने के लिये भेजा। नकुल को मत्स्यदेशीय वीरों के साथ पश्चिम में, अर्जुन को केकयदेशीय वीरों के साथ उत्तर में और भीमसेन को मद्रदेशीय वीरों के साथ पूर्व दिशा में दिग्विजय करने का आदेश दिया ॥ १३ ॥ परीक्षित ! उन भीमसेन आदि वीरों ने अपने बल-पौरुष से सब ओर के नरपतियों को जीत लिया और यज्ञ करने के लिये उद्यत महाराज युधिष्ठिर को बहुत-सा धन लाकर दिया ॥ १४ ॥ जब महाराज युधिष्ठिर ने यह सुना कि अब तक जरासन्ध पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्ता में पड़ गये। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धवजी ने बतलाया था ॥ १५ ॥ परीक्षित ! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण—ये तीनों ही ब्राह्मण का वेष धारण करके गिरिव्रज गये। वही जरासन्ध की राजधानी थी ॥ १६ ॥ राजा जरासन्ध ब्राह्मणों का भक्त और गृहस्थोचित धर्मों का पालन करनेवाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राह्मण का वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतों के सत्कार के समय जरासन्ध के पास गये और उससे इस प्रकार याचना की— ॥ १७ ॥ ‘राजन् ! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूर से आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजन से ही आये हैं। इसलिये हम आप से जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये ॥ १८ ॥ तितिक्षु पुरुष क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते और समदर्शी के लिये पराया कौन है ? ॥ १९ ॥ जो पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाशवान् शरीर से ऐसे अविनाशी यश का संग्रह नहीं करता, जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाय, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करने-योग्य है ॥ २० ॥ राजन् ! आप तो जानते ही होंगे—राजा हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, केवल अन्न के दा ने बीन-चुनकर निर्वाह करनेवाले महात्मा मुद्गल, शिबि, बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत- से व्यक्ति अतिथि को अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीर के द्वारा अविनाशी पद को प्राप्त हो चु के हैं। इसलिये आप भी हमलोगों को निराश मत कीजिये ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जरासन्ध ने उन लोगों की आवाज, सूरत-शकल और कलाइयों पर पड़े हुए धनुष की प्रत्यञ्चा की रगडक़े चिह्नों को देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोच ने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है ॥ २२ ॥ फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ‘ये क्षत्रिय होने पर भी मेरे भय से ब्राह्मण का वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगने पर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूँगा। याचना करने पर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर दे ने में भी मुझे हिचकिचाहट न होगी ॥ २३ ॥ विष्णुभगवान ने ब्राह्मण का वेष धारण करके बलि का धन, ऐश्वर्य—सब कुछ छीन लिया; फिर भी बलि की पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदर से उसका गान करते हैं ॥ २४ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुभगवान ने देवराज इन्द्र की राज्यलक्ष्मी बलि से छीनकर उन्हें लौटा ने के लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलि को यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्य ने उन्हें रो का भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वी का दान कर ही दिया ॥ २५ ॥ मेरा तो यह पक् का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीर से जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राह्मण के लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है’ ॥ २६ ॥ परीक्षित ! सचमुच जरासन्ध की बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन से कहा—‘ब्राह्मणो ! आपलोग मन-चाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आपलोगों को अपना सिर भी दे सकता हूँ’ ॥ २७ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘राजेन्द्र ! हमलोग अन्न के इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्ध के लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्द्वयुद्ध की भिक्षा दीजिये ॥ २८ ॥ देखो, ये पाण्डुपुत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन है और मैं इन दोनों का ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ’ ॥ २९ ॥ जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँस ने लगा। और चिढक़र बोला—‘अरे मूर्खो ! यदि तुम्हें युद्ध की ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ ॥ ३० ॥ परन्तु कृष्ण ! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्ध में तुम घबरा जाते हो। यहाँ तक कि मेरे डर से तुम ने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्र की शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़्ूँगा ॥ ३१ ॥ यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्था में मुझ से छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोडक़ा वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लडँ़ूगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोडक़े हैं ॥ ३२ ॥ जरासन्ध ने यह कहकर भीमसेन को एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगर से बाहर निकल आया ॥ ३३ ॥ अब दोनों रणोन्मत्त वीर अखाड़े में आकर एक-दूसरे से भिड़ गये और अपनी वज्र के समान कठोर गदाओं से एक-दूसरे पर चोट करने लगे ॥ ३४ ॥ वे दायें-बायें तरह-तरह के पैंतरे बदलते हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे—मानो दो श्रेष्ठ नट रंगमञ्च पर युद्ध का अभिनय कर रहे हों ॥ ३५ ॥ परीक्षित ! जब एक की गदा दूसरे की गदा से टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करनेवाले दो हाथियों के दाँत आपस में भिडक़र चटचटा रहे हों, या बड़े जोर से बिजली तडक़ रही हो ॥ ३६ ॥ जब दो हाथी क्रोध में भरकर लडऩे लगते हैं और आक की डालियाँ तोड़-तोडक़र एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं, उस समय एक- दूसरे की चोट से वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेग से गदा चला-चलाकर एक-दूसरे के कंधों, कमरों, पैरों, हाथों, जाँघों और हँसलियों पर चोट करने लगे; तब उनकी गदाएँ उनके अङ्गों से टकरा-टकराकर चकनाचूर होने लगीं ॥ ३७ ॥ इस प्रकार जब गदाएँ चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोध में भरकर अपने घूँसों से एक-दूसरे को कुचल डालने की चेष्टा करने लगे। उनके घूँ से ऐसी चोट करते, मानो लोहे का घन गिर रहा हो। एक-दूसरे पर खुलकर चोट करते हुए दो हाथियों की तरह उनके थप्पड़ों और घूँसों का कठोर शब्द बिजली की कडक़ड़ाहट के समान जान पड़ता था ॥ ३८ ॥ परीक्षित ! जरासन्ध और भीमसेन दोनों की गदा-युद्ध में कुशलता, बल और उत्साह समान थे। दोनों की शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस प्रकार लगातार प्रहार करते रहने पर भी दोनों में से किसी की जीत या हार न हुई ॥ ३९ ॥ दोनों वीर रात के समय मित्र के समान रहते और दिन में छूटकर एक-दूसरे पर प्रहार करते और लड़ते। महाराज ! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये ॥ ४० ॥

प्रिय परीक्षित ! अट्ठाईसवें दिन भीमसेन ने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण से कहा—‘श्रीकृष्ण ! मैं युद्ध में जरासन्ध को जीत नहीं सकता ॥ ४१ ॥ भगवान श्रीकृष्ण जरासन्ध के जन्म और मृत्यु का रहस्य जानते थे और यह भी जानते थे कि जरा राक्षसी ने जरासन्ध के शरीर के दो टुकड़ों को जोडक़र इसे जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेन के शरीर में अपनी शक्ति का सञ्चार किया और जरासन्ध के वध का उपाय सोचा ॥ ४२ ॥ परीक्षित ! भगवान का ज्ञान अबाध है। अब उन्होंने उसकी मृत्यु का उपाय जानकर एक वृक्ष की डाली को बीचोबीच से चीर दिया और इशारे से भीमसेन को दिखाया ॥ ४३ ॥ वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेन ने भगवान श्रीकृष्ण का अभिप्राय समझ लिया और जरासन्ध के पैर पकडक़र उसे धरती पर दे मारा ॥ ४४ ॥ फिर उसके एक पैर को अपने पैर के नीचे दबाया और दूसरे को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया। इसके बाद भीमसेन ने उसे गुदा की ओर से इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्ष की डाली चीर डाले ॥ ४५ ॥ लोगों ने देखा कि जरासन्ध के शरीर के दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अण्ड कोश, कमर, पीठ, स्तन, कंधा, भुजा, नेत्र, भौंह और कान अलग-अलग हो गये हैं ॥ ४६ ॥ मगधराज जरासन्ध की मृत्यु हो जाने पर वहाँ की प्रजा बड़े जोर से ‘हाय-हाय !’ पुकार ने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भीमसेन का आलिङ्गन करके उनका सत्कार किया ॥ ४७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप और विचारों को कोई समझ नहीं सकता। वास्तव में वे ही समस्त प्राणियों के जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्ध के राजसिंहासन पर उसके पुत्र सहदेव का अभिषेक कर दिया और जरासन्ध ने जिन राजाओं को कैदी बना रखा था, उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया ॥ ४८ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-73]

॥ त्रिसप्ततितमोऽध्यायः - ७३ ॥
श्रीशुक उवाच
अयुते द्वे शतान्यष्टौ लीलया युधि निर्जिताः ।
ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवाससः ॥ १॥

क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः ।
ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ॥ २॥

श्रीवत्साङ्कं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ ३॥

पद्महस्तं गदाशङ्खरथाङ्गैरुपलक्षितम् ।
किरीटहारकटककटिसूत्राङ्गदाञ्चितम् ॥ ४॥

भ्राजद्वरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया ।
पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ॥ ५॥

जिघ्रन्त इव नासाभ्यां रम्भन्त इव बाहुभिः ।
प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोर्हरेः ॥ ६॥

कृष्णसन्दर्शनाह्लादध्वस्तसंरोधनक्लमाः ।
प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्राञ्जलयो नृपाः ॥ ७॥

राजान ऊचुः
नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय ।
प्रपन्नान् पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान् घोरसंसृतेः ॥ ८॥

नैनं नाथान्वसूयामो मागधं मधुसूदन ।
अनुग्रहो यद्भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो ॥ ९॥

राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विन्दते नृपः ।
त्वन्मायामोहितोऽनित्या मन्यते सम्पदोऽचलाः ॥ १०॥

मृगतृष्णां यथा बाला मन्यन्त उदकाशयम् ।
एवं वैकारिकीं मायामयुक्ता वस्तु चक्षते ॥ ११॥

वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो
जिगीषयास्या इतरेतरस्पृधः ।
घ्नन्तः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो
मृत्युं पुरस्त्वाविगणय्य दुर्मदाः ॥ १२॥

त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा
दुरन्तवीर्येण विचालिताः श्रियः ।
कालेन तन्वा भवतोऽनुकम्पया
विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम ते ॥ १३॥

अथो न राज्यं मृगतृष्णिरूपितं
देहेन शश्वत्पतता रुजां भुवा ।
उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो
क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम् ॥ १४॥

तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः ।
स्मृतिर्यथा न विरमेदपि संसरतामिह ॥ १५॥

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।
प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ १६॥(२)
श्रीशुक उवाच
संस्तूयमानो भगवान् राजभिर्मुक्तबन्धनैः ।
तानाह करुणस्तात शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा ॥ १७॥

श्रीभगवानुवाच
अद्य प्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे ।
सुदृढा जायते भक्तिर्बाढमाशंसितं तथा ॥ १८॥

दिष्ट्या व्यवसितं भूपा भवन्त ऋतभाषिणः ।
श्रियैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम् ॥ १९॥

हैहयो नहुषो वेनो रावणो नरकोऽपरे ।
श्रीमदाद्भ्रंशिताः स्थानाद्देवदैत्यनरेश्वराः ॥ २०॥

भवन्त एतद्विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमन्तवत् ।
मां यजन्तोऽध्वरैर्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ ॥ २१॥

सन्तन्वन्तः प्रजातन्तून् सुखं दुःखं भवाभवौ ।
प्राप्तं प्राप्तं च सेवन्तो मच्चित्ता विचरिष्यथ ॥ २२॥

उदासीनाश्च देहादावात्मारामा धृतव्रताः ।
मय्यावेश्य मनः सम्यङ् मामन्ते ब्रह्म यास्यथ ॥ २३॥

श्रीशुक उवाच
इत्यादिश्य नृपान् कृष्णो भगवान् भुवनेश्वरः ।
तेषां न्ययुङ्क्त पुरुषान् स्त्रियो मज्जनकर्मणि ॥ २४॥

सपर्यां कारयामास सहदेवेन भारत ।
नरदेवोचितैर्वस्त्रैर्भूषणैः स्रग्विलेपनैः ॥ २५॥

भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान् समलङ्कृतान् ।
भोगैश्च विविधैर्युक्तांस्ताम्बूलाद्यैर्नृपोचितैः ॥ २६॥

ते पूजिता मुकुन्देन राजानो मृष्टकुण्डलाः ।
विरेजुर्मोचिताः क्लेशात्प्रावृडन्ते यथा ग्रहाः ॥ २७॥

रथान् सदश्वानारोप्य मणिकाञ्चनभूषितान् ।
प्रीणय्य सूनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान् प्रत्ययापयत् ॥ २८॥

त एवं मोचिताः कृच्छ्रात्कृष्णेन सुमहात्मना ।
ययुस्तमेव ध्यायन्तः कृतानि च जगत्पतेः ॥ २९॥

जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम् ।
यथान्वशासद्भगवांस्तथा चक्रुरतन्द्रिताः ॥ ३०॥

जरासन्धं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः ।
पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात्सहदेवेन पूजितः ॥ ३१॥

गत्वा ते खाण्डवप्रस्थं शङ्खान् दध्मुर्जितारयः ।
हर्षयन्तः स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः ॥ ३२॥

तच्छ्रुत्वा प्रीतमनस इन्द्रप्रस्थनिवासिनः ।
मेनिरे मागधं शान्तं राजा चाप्तमनोरथः ॥ ३३॥

अभिवन्द्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दनाः ।
सर्वमाश्रावयांचक्रुरात्मना यदनुष्ठितम् ॥ ३४॥

निशम्य धर्मराजस्तत्केशवेनानुकम्पितम् ।
आनन्दाश्रुकलां मुञ्चन् प्रेम्णा नोवाच किञ्चन ॥ ३५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णाद्यागमने त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३॥


दशम स्कन्ध-तिहत्तरवाँ अध्याय 35
जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई और भगवान का इन्द्रप्रस्थ लौट आना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जरासन्ध ने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओं को जीतकर पहाड़ों की घाटी में एक किले के भीतर कैद कर रखा था। भगवान श्रीकृष्ण के छोड़ देने पर जब वे वहाँ से निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे ॥ १ ॥ वे भूख से दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेल में बंद रहने के कारण उनके शरीर का एक-एक अङ्ग ढीला पड़ गया था। वहाँ से निकलते ही उन नरपतियों ने देखा कि सामने भगवान श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उसपर पीले रंग का रेशमी वस्त्र फहरा रहा है ॥ २ ॥ चार भुजाएँ हैं— जिन में गदा, शङ्ख, चक्र और कमल सुशोभित हैं। वक्ष:स्थल पर सुनहली रेखा—श्रीवत्स का चिह्न है और कमल के भीतरी भाग के समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नता का सदन है। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियों का हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर शोभा पा रहे हैं ॥ ३-४ ॥ गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है। भगवान श्रीकृष्ण को देखकर उन राजाओं की ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रों से उन्हें पी रहे हैं। जीभ से चाट रहे हैं, नासिका से सूँघ रहे हैं और बाहुओं से आलिङ्गन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान के दर्शन से ही धुल चु के थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर अपना सिर रखकर प्रणाम किया ॥ ५-६ ॥ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से उन राजाओं को इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैद में रहने का क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोडक़र विनम्र वाणी से भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

राजाओं ने कहा—शरणागतों के सारे दु:ख और भय हर लेनेवाले देवदेवेश्वर ! सच्चिदानन्द स्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्ध के कारागार से तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्र से भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसार में दु:ख का कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरण में आये हैं। प्रभो ! अब आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥ मधुसूदन ! हमारे स्वामी ! हम मगधराज जरासन्ध का कोई दोष नहीं देखते। भगवन् ! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलानेवाले लोग राज्यलक्ष्मी से च्युत कर दिये गये ॥ ९ ॥ क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हो जाता है, उस को सच्चे सुखकी—कल्याण की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। वह आपकी माया से मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियों को ही अचल मान बैठता है ॥ १० ॥ जैसे मूर्खलोग मृगतृष्णा के जल को ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील माया को सत्य वस्तु मान लेते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! पहले हमलोग धन-सम्पत्ति के नशे में चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वी को जीत लेने के लिये एक-दूसरे की होड़ करते थे और अपनी ही प्रजा का नाश करते रहते थे ! सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरता से भरा हुआ था, और हमलोग इत ने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूप से हमारे सामने खड़े हैं, इस बात की भी हम तनिक परवा नहीं करते थे ॥ १२ ॥ सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! काल की गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसी के टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हमलोगों को श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पा से हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं ॥ १३ ॥ विभो ! यह शरीर दिन-दिन क्षीण होता जा रहा है। रोगों की तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीर से भोगे जानेवाले राज्य की अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णा के जल के समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्म के फल स्वर्गादि लोकों की भी, जो मर ने के बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुनने में ही आकर्षक जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े ॥ १५ ॥ प्रणाम करनेवालों के क्लेश का नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ॥ १६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! कारागार से मुक्त राजाओं ने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की, तब शरणागतरक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणी से उनसे कहा ॥ १७ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—नरपतियो ! तुमलोगों ने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आज से मुझ में तुम लोगों की निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सब का आत्मा और सब का स्वामी हूँ ॥ १८ ॥ नरपतियो ! तुमलोगों ने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है। तुमलोगों ने मुझ से जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से चूर होकर बहुत- से लोग उच्छृङ्खल और मतवाले हो जाते हैं ॥ १९ ॥ हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थानसे, पद से च्युत हो गये ॥ २० ॥ तुमलोग यह समझ लो कि शरीर और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अत: उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानी से मन और इन्द्रियों को वश में रखकर यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करो ॥ २१ ॥ तुमलोग अपनी वंश-परम्परा की रक्षा के लिये, भोग के लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दु:ख, लाभ-हानि—जो कुछ भी प्राप्त हों, उन्हें समानभाव से मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझ में लगाकर जीवन बिताओ ॥ २२ ॥ देह और देह के सम्बन्धियों से किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर उदासीन रहो; अपने-आप में, आत्मा में ही रमण करो और भजन तथा आश्रम के योग्य व्रतों का पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझ में लगाकर अन्त में तुमलोग मुझ ब्रह्म स्वरूप को ही प्राप्त हो जाओगे ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भुवनेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने राजाओं को यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि कराने के लिये बहुत- से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ॥ २४ ॥ परीक्षित ! जरासन्ध के पुत्र सहदेव से उन को राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया ॥ २५ ॥ जब वे स्नान करके वस्त्राभूषण से सुसज्जित हो चुके, तब भगवान ने उन्हें उत्तम उत्तम पदार्थों का भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकार के राजोचित भोग दिलवाये ॥ २६ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उन बंदी राजाओं को सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशों से छुटकारा पाकर तथा कानों में झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतु का अन्त हो जाने पर तारे ॥ २७ ॥ फिर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें सुवर्ण और मणियों से भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ों से युक्त रथों पर चढ़ाया, मधुर वाणी से तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशों को भेज दिया ॥ २८ ॥ इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने उन राजाओं को महान कष्ट से मुक्त किया। अब वे जगतपति भगवान श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीलाओं का चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानी को चले गये ॥ २९ ॥ वहाँ जाकर उन लोगों ने अपनी-अपनी प्रजा से परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानी से भगवान के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ॥ ३० ॥

परीक्षित ! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासन्धनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले। उन विजयी वीरों ने इन्द्रप्रस्थ के पास पहुँचकर अपने-अपने शङ्ख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रों को सुख और शत्रुओं को बड़ा दु:ख हुआ ॥ ३१-३२ ॥ इन्द्रप्रस्थनिवासियों का मन उस शङ्खध्वनि को सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ करने का सङ्कल्प एक प्रकार से पूरा हो गया ॥ ३३ ॥ भीमसेन, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्ध के वध के लिये करना पड़ा था ॥ ३४ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के इस परम अनुग्रह की बात सुनकर प्रेम से भर गये, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें टपक ने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ॥ ३५ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-74]

॥ चतुःसप्ततितमोऽध्यायः - ७४ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं युधिष्ठिरो राजा जरासन्धवधं विभोः ।
कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत् ॥ १॥

युधिष्ठिर उवाच
ये स्युस्त्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः ।
वहन्ति दुर्लभं लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम् ॥ २॥

स भवानरविन्दाक्षो दीनानामीशमानिनाम् ।
धत्तेऽनुशासनं भूमंस्तदत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३॥

न ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।
कर्मभिर्वर्धते तेजो ह्रसते च यथा रवेः ॥ ४॥

न वै तेऽजित भक्तानां ममाहमिति माधव ।
त्वं तवेति च नानाधीः पशूनामिव वैकृता ॥ ५॥

श्रीशुक उवाच
इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः ।
कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ॥ ६॥

द्वैपायनो भरद्वाजः सुमन्तुर्गौतमोऽसितः ।
वसिष्ठश्च्यवनः कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः ॥ ७॥

विश्वामित्रो वामदेवः सुमतिर्जैमिनिः क्रतुः ।
पैलः पराशरो गर्गो वैशम्पायन एव च ॥ ८॥

अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः ।
वीतिहोत्रो मधुच्छन्दा वीरसेनोऽकृतव्रणः ॥ ९॥

उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादयः ।
धृतराष्ट्रः सहसुतो विदुरश्च महामतिः ॥ १०॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः ।
तत्रेयुः सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप ॥ ११॥

ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्गलैः ।
कृष्ट्वा तत्र यथाम्नायं दीक्षयांचक्रिरे नृपम् ॥ १२॥

हैमाः किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा ।
इन्द्रादयो लोकपाला विरिञ्चभवसंयुताः ॥ १३॥

सगणाः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः ।
मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणाः ॥ १४॥

राजानश्च समाहूता राजपत्न्यश्च सर्वशः ।
राजसूयं समीयुः स्म राज्ञः पाण्डुसुतस्य वै ॥ १५॥

मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः ।
अयाजयन् महाराजं याजका देववर्चसः ॥ १६॥

राजसूयेन विधिवत्प्रचेतसमिवामराः ।
सौत्येऽहन्यवनीपालो याजकान् सदसस्पतीन् ।
अपूजयन्महाभागान् यथावत्सुसमाहितः ॥ १७॥

सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशन्तः सभासदः ।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात्सहदेवस्तदाब्रवीत् ॥ १८॥

अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतांपतिः ।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः ॥ १९॥

यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः ।
अग्निराहुतयो मन्त्राः साङ्ख्यं योगश्च यत्परः ॥ २०॥

एक एवाद्वितीयोऽसावैतदात्म्यमिदं जगत् ।
आत्मनाऽऽत्माश्रयः सभ्याः सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ २१॥

विविधानीह कर्माणि जनयन् यदवेक्षया ।
ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥ २२॥

तस्मात्कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम् ।
एवं चेत्सर्वभूतानामात्मनश्चार्हणं भवेत् ॥ २३॥

सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने ।
देयं शान्ताय पूर्णाय दत्तस्यानन्त्यमिच्छता ॥ २४॥

इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत्तूष्णीं कृष्णानुभाववित् ।
तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधु साध्विति सत्तमाः ॥ २५॥

श्रुत्वा द्विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं सभासदाम् ।
समर्हयद्धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः ॥ २६॥

तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः ।
सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुम्बोऽवहन्मुदा ॥ २७॥ सगोनासंगोगो
वासोभिः पीतकौशेयैर्भूषणैश्च महाधनैः ।
अर्हयित्वाश्रुपूर्णाक्षो नाशकत्समवेक्षितुम् ॥ २८॥

इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्राञ्जलयो जनाः ।
नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ २९॥

इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठादुत्थाय
कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः ।
उत्क्षिप्य बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी
संश्रावयन् भगवते परुषाण्यभीतः ॥ ३०॥

ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती श्रुतिः ।
वृद्धानामपि यद्बुद्धिर्बालवाक्यैर्विभिद्यते ॥ ३१॥

यूयं पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषीतम् ।
सदसस्पतयः सर्वे कृष्णो यत्सम्मतोऽर्हणे ॥ ३२॥

तपोविद्याव्रतधरान् ज्ञानविध्वस्तकल्मषान् ।
परमऋषीन् ब्रह्मनिष्ठांल्लोकपालैश्च पूजितान् ॥ ३३॥

सदस्पतीनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः ।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति ॥ ३४॥

वर्णाश्रमकुलापेतः सर्वधर्मबहिष्कृतः ।
स्वैरवर्ती गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति ॥ ३५॥

ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्भिर्बहिष्कृतम् ।
वृथापानरतं शश्वत्सपर्यां कथमर्हति ॥ ३६॥

ब्रह्मर्षिसेवितान् देशान् हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम् ।
समुद्रं दुर्गमाश्रित्य बाधन्ते दस्यवः प्रजाः ॥ ३७॥

एवमादीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमङ्गलः ।
नोवाच किञ्चिद्भगवान् यथा सिंहः शिवारुतम् ॥ ३८॥

भगवन्निन्दनं श्रुत्वा दुःसहं तत्सभासदः ।
कर्णौ पिधाय निर्जग्मुः शपन्तश्चेदिपं रुषा ॥ ३९॥

निन्दां भगवतः श‍ृण्वंस्तत्परस्य जनस्य वा ।
ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः ॥ ४०॥

ततः पाण्डुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः ।
उदायुधाः समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः ॥ ४१॥

ततश्चैद्यस्त्वसम्भ्रान्तो जगृहे खड्गचर्मणी ।
भर्त्सयन् कृष्णपक्षीयान् राज्ञः सदसि भारत ॥ ४२॥

तावदुत्थाय भगवान् स्वान् निवार्य स्वयं रुषा ।
शिरः क्षुरान्तचक्रेण जहारापततो रिपोः ॥ ४३॥

शब्दः कोलाहलोऽप्यासीच्छिशुपाले हते महान् ।
तस्यानुयायिनो भूपा दुद्रुवुर्जीवितैषिणः ॥ ४४॥

चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिर्वासुदेवमुपाविशत् ।
पश्यतां सर्वभूतानामुल्केव भुवि खाच्च्युता ॥ ४५॥

जन्मत्रयानुगुणितवैरसंरब्धया धिया ।
ध्यायंस्तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम् ॥ ४६॥

ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो दक्षिणां विपुलामदात् ।
सर्वान् सम्पूज्य विधिवच्चक्रेऽवभृथमेकराट् ॥ ४७॥

साधयित्वा क्रतुं राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।
उवास कतिचिन्मासान् सुहृद्भिरभियाचितः ॥ ४८॥

ततोऽनुज्ञाप्य राजानमनिच्छन्तमपीश्वरः ।
ययौ सभार्यः सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः ॥ ४९॥

वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम् ।
वैकुण्ठवासिनोर्जन्म विप्रशापात्पुनः पुनः ॥ ५०॥

राजसूयावभृथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिरः ।
ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव ॥ ५१॥

राज्ञा सभाजिताः सर्वे सुरमानवखेचराः ।
कृष्णं क्रतुं च शंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥ ५२॥

दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम् ।
यो न सेहे श्रीयं स्फीतां दृष्ट्वा पाण्डुसुतस्य ताम् ॥ ५३॥

य इदं कीर्तयेद्विष्णोः कर्म चैद्यवधादिकम् ।
राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४॥


दशम स्कन्ध-चौहत्तरवाँ अध्याय 54
भगवान की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्ध का वध और सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले ॥ १ ॥

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा—सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! त्रिलो की के स्वामी ब्रह्मा, शङ्कर आदि और इन्द्रादि लोकपाल—सब आपकी आज्ञा पाने के लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धा से उस को शिरोधार्य करते हैं ॥ २ ॥ अनन्त ! हमलोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपने को भूपति और नरपति। ऐसी स्थिति में हैं तो हम दण्ड के पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान के लिये यह मनुष्य-लीला का अभिनयमात्र है ॥ ३ ॥ जैसे उदय अथवा अस्त के कारण सूर्य के तेज में घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकार के कर्मों से न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ॥ ४ ॥ किसी से पराजित न होनेवाले माधव ! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’—इस प्रकार की विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओं की होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्त में ऐसे पागलपन के विचार कभी नहीं आते। फिर आप में तो होंगे ही कहाँ से ? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है) ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों में निपुण वेदवादी ब्राह्मणों को ऋत्विज्, आचार्य आदि के रूप में वरण किया ॥ ६ ॥ उनके नाम ये हैं—श्रीकृष्णद्वैपायनव्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण ॥ ७-९ ॥ इनके अतिरिक्त धर्मराज ने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदि को भी बुलवाया ॥ १० ॥ राजन् ! राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिये देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र—सब-के-सब वहाँ आये ॥ ११ ॥

इसके बाद ऋत्विज् ब्राह्मणों ने सो ने के हलों से यज्ञभूमि को जुतवाकर राजा युधिष्ठिर को शास्त्रानुसार यज्ञ की दीक्षा दी ॥ १२ ॥ प्राचीन काल में जैसे वरुणदेव के यज्ञ में सब-के-सब यज्ञपात्र सो ने के बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिर के यज्ञ में भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शङ्करजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणों के साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँ—ये सभी उपस्थित हुए ॥ १३—१५ ॥ सबने बिना किसी प्रकार के कौतूहलके यह बात मान ली कि राजसूय यज्ञ करना युधिष्ठिर के योग्य ही है; क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के भक्त के लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओं के समान तेजस्वी याजकों ने धर्मराज युधिष्ठिर से विधिपूर्वक राजसूय यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण से करवाया था ॥ १६ ॥ सोमलता से रस निकाल ने के दिन महाराज युधिष्ठिर ने अपने परम भाग्यवान् याजकों और यज्ञकर्म की भूल-चूक का निरीक्षण करनेवाले सदसस्पतियों का बड़ी सावधानी से विधिपूर्वक पूजन किया ॥ १७ ॥

अब सभासद् लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सब से पहले किस की पूजा— अग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा— ॥ १८ ॥ ‘यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं ॥ १९ ॥ यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्ण स्वरूप ही हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही अग्रि, आहुति और मन्त्रों के रूप में हैं। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग—ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के ही हेतु हैं ॥ २० ॥ सभासदो ! मैं कहाँ तक वर्णन करूँ, भगवान श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्र का भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत उन्हीं का स्वरूप है। वे अपने-आप में ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छ: भावविकारों से रहित हैं। वे अपने आत्म स्वरूप सङ्कल्प से ही जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं ॥ २१ ॥ सारा जगत श्रीकृष्ण के ही अनुग्रह से अनेकों प्रकार के कर्म का अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थों का सम्पादन करता है ॥ २२ ॥ इसलिये सब से महान भगवान श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इन की पूजा करने से समस्त प्राणियों की तथा अपनी भी पूजा हो जाती है ॥ २३ ॥ जो अपने दान-धर्म को अनन्त भाव से युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थों के अन्तरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण को ही दान करे ॥ २४ ॥ परीक्षित ! सहदेव भगवान की महिमा और उनके प्रभाव को जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस सयम धर्मराज युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जित ने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वर से ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया ॥ २५ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदों का अभिप्राय जानकर बड़े आनन्द से प्रमोद्रेक से विह्वल होकर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की ॥ २६ ॥ अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम और आनन्द से भगवान के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलों का लोकपावन जल अपने सिर पर धारण किया ॥ २७ ॥ उन्होंने भगवान को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्द के आँसुओं से इस प्रकार भर गये कि वे भगवान को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे ॥ २८ ॥ यज्ञसभा में उपस्थित सभी लोग भगवान श्रीकृष्ण को इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नम: ! जय-जय !’ इस प्रकार के नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाश से स्वयं ही पुष्पों की वर्षा होने लगी ॥ २९ ॥

परीक्षित ! अपने आसन पर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान श्रीकृष्ण के गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभा में हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता किन्तु निर्भयता के साथ भगवान को सुना-सुनाकर अत्यन्त कठोर बातें कह ने लगा— ॥ ३० ॥ ‘सभासदो ! श्रुतियों का यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख चेष्टा करने पर भी वह अपना काम करा ही लेता है—इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम ने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खों की बात से बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धों की बुद्धि भी चकरा गयी है ॥ ३१ ॥ पर मैं मानता हूँ कि आपलोग अग्रपूजा के योग्य पात्र का निर्णय करने में सर्वथा समर्थ हैं। इसलिये सदसस्पतियो ! आपलोग बालक सहदेव की यह बात ठीक न मानें कि ‘कृष्ण ही अग्रपूजा के योग्य हैं’ ॥ ३२ ॥ यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, विद्वान्, व्रतधारी, ज्ञान के द्वारा अपने समस्त पाप-तापों को शान्त करनेवाले, परम ज्ञानी परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ आदि उपस्थित हैं—जिनकी पूजा बड़े- बड़े लोकपाल भी करते हैं ॥ ३३ ॥ यज्ञ की भूल-चूक बतलानेवाले उन सदसस्पतियों को छोडक़र यह कुलकलङ्क ग्वाला भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौआ कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ॥ ३४ ॥ न इसका कोई वर्ण है और न तो आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मों से यह बाहर है। वेद और लोकमर्यादाओं का उल्लङ्घन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी स्थिति में यह अग्रपूजा का पात्र कैसे हो सकता है ? ॥ ३५ ॥ आपलोग जानते हैं कि राजा ययाति ने इसके वंश को शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषों ने इस वंश का ही बहिष्कार कर दिया है। ये सब सर्वदा व्यर्थ मधुपान में आसक्त रहते हैं। फिर ये अग्रपूजा के योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥ ३६ ॥ इन सबने ब्रहमर्षियों के द्वारा सेवित मथुरा आदि देशों का परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस् के विरोधी (वेदचर्चारहित) समुद्र में किला बनाकर रहने लगे। वहाँ से जब ये बाहर निकलते हैं, तो डाकुओं की तरह सारी प्रजा को सताते हैं’ ॥ ३७ ॥ परीक्षित ! सच पूछो तो शिशुपाल का सारा शुभ नष्ट हो चु का था। इसीसे उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान श्रीकृष्ण को सुनायीं। परन्तु जैसे सिंह कभी सियार की ‘हुआँ- हुआँ’ पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातों का कुछ भी उत्तर न दिया ॥ ३८ ॥ परन्तु सभासदों के लिये भगवान की निन्दा सुनना असह्य था। उनमें से कई अपने- अपने कान बंद करके क्रोध से शिशुपाल को गाली देते हुए बाहर चले गये ॥ ३९ ॥ परीक्षित ! जो भगवान की या भगवत्परायण भक्तों की निन्दा सुनकर वहाँ से हट नहीं जाता, वह अपने शुभकर्मों से च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है ॥ ४० ॥

परीक्षित ! अब शिशुपाल को मार डालने के लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृञ्जयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए ॥ ४१ ॥ परन्तु शिशुपाल को इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकार का आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभा में श्रीकृष्ण के पक्षपाती राजाओं को ललकार ने लगा ॥ ४२ ॥ उन लोगों को लड़ते- झगड़ते देख भगवान श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओं को शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊ पर झपटते हुए शिशुपाल का सिर छुरे के समान तीखी धारवाले चक्र से काट लिया ॥ ४३ ॥ शिशुपाल के मारे जाने पर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया। उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचा ने के लिये वहाँ से भाग खड़े हुए ॥ ४४ ॥ जैसे आकाश से गिरा हुआ लूक धरती में समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियों के देखते-देखते शिशुपाल के शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण में समा गयी ॥ ४५ ॥ परीक्षित ! शिशुपाल के अन्त:करण में लगातार तीन जन्म से वैरभाव की अभिवृद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभाव से ही सही, ध्यान करते- करते वह तन्मय हो गया—पार्षद हो गया। सच है—मृत्यु के बाद होनेवाली गति में भाव ही कारण है ॥ ४६ ॥ शिशुपाल की सद्गति होने के बाद चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिर ने सदस्यों और ऋत्विजों को पुष्कल दक्षिणा दी तथा सब का सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नान—अवभृथ-स्नान किया ॥ ४७ ॥

परीक्षित ! इस प्रकार योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृदों की प्रार्थना से कुछ महीनों तक वहीं रहे ॥ ४८ ॥ इसके बाद राजा युधिष्ठिर की इच्छा न होने पर भी सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियों के साथ इन्द्रप्रस्थ से द्वारकापुरी की यात्रा की ॥ ४९ ॥ परीक्षित ! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तार से (सातवें स्कन्धमें) सुना चु का हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और विजय को सनकादि ऋषियों के शाप से बार-बार जन्म लेना पड़ा था ॥ ५० ॥ महाराज युधिष्ठिर राजसूय का यज्ञान्त-स्नान करके ब्राह्मण और क्षत्रियों की सभा में देवराज इन्द्र के समान शोभायमान होने लगे ॥ ५१ ॥ राजा युधिष्ठिर ने देवता, मनुष्य और आकाशचारियों का यथायोग्य सत्कार किया तथा वे भगवान श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञ की प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्द से अपने-अपने लोक को चले गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित ! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधन से पाण्डवों की यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मी का उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभाव से ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुल का नाश करने के लिये एक महान रोग था ॥ ५३ ॥

परीक्षित ! जो पुरुष भगवान श्रीकृष्ण की इस लीलाका—शिशुपालवध, जरासन्धवध, बंदी राजाओं की मुक्ति और यज्ञानुष्ठान का कीर्तन करेगा, वह समस्त पापों से छूट जायगा ॥ ५४ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-75]

॥ पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः - ७५ ॥
राजोवाच
अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम् ।
सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन् नृदेवा ये समागताः ॥ १॥

दुर्योधनं वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः ।
इति श्रुतं नो भगवंस्तत्र कारणमुच्यताम् ॥ २॥

ऋषिरुवाच
पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः ।
बान्धवाः परिचर्यायां तस्यासन् प्रेमबन्धनाः ॥ ३॥

भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः ।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने ॥ ४॥

गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने ।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः ॥ ५॥

युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः ।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादयः ॥ ६॥

निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा ।
प्रवर्तन्ते स्म राजेन्द्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः ॥ ७॥

ऋत्विक्सदस्यबहुवित्सु सुहृत्तमेषु
स्विष्टेषु सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः ।
चैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे
चक्रुस्ततस्त्ववभृथस्नपनं द्युनद्याम् ॥ ८॥

मृदङ्गशङ्खपणवधुन्धुर्यानकगोमुखाः ।
वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे ॥ ९॥

नर्तक्यो ननृतुर्हृष्टा गायका यूथशो जगुः ।
वीणावेणुतलोन्नादस्तेषां स दिवमस्पृशत् ॥ १०॥

चित्रध्वजपताकाग्रैरिभेन्द्रस्यन्दनार्वभिः ।
स्वलङ्कृतैर्भटैर्भूपा निर्ययू रुक्ममालिनः ॥ ११॥

यदुसृञ्जयकाम्बोजकुरुकेकयकोसलाः ।
कम्पयन्तो भुवं सैन्यैर्यजमानपुरःसराः ॥ १२॥

सदस्यर्त्विग्द्विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा ।
देवर्षिपितृगन्धर्वास्तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः ॥ १३॥

स्वलङ्कृता नरा नार्यो गन्धस्रग्भूषणाम्बरैः ।
विलिम्पन्त्योऽभिषिञ्चन्त्यो विजह्रुर्विविधै रसैः ॥ १४॥

तैलगोरसगन्धोदहरिद्रासान्द्रकुङ्कुमैः ।
पुम्भिर्लिप्ताः प्रलिम्पन्त्यो विजह्रुर्वारयोषितः ॥ १५॥

गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्देव्यो
यथा दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः ।
ता मातुलेयसखिभिः परिषिच्यमानाः
सव्रीडहासविकसद्वदना विरेजुः ॥ १६॥

ता देवरानुत सखीन् सिषिचुर्दृतीभिः
क्लिन्नाम्बरा विवृतगात्रकुचोरुमध्याः ।
औत्सुक्यमुक्तकबराच्च्यवमानमाल्याः
क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः ॥ १७॥

स सम्राड् रथमारुढः सदश्वं रुक्ममालिनम् ।
व्यरोचत स्वपत्नीभिः क्रियाभिः क्रतुराडिव ॥ १८॥

पत्नीसम्याजावभृथ्यैश्चरित्वा ते तमृत्विजः ।
आचान्तं स्नापयांचक्रुर्गङ्गायां सह कृष्णया ॥ १९॥

देवदुन्दुभयो नेदुर्नरदुन्दुभिभिः समम् ।
मुमुचुः पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः ॥ २०॥

सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः ।
महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्बिषात् ॥ २१॥

अथ राजाहते क्षौमे परिधाय स्वलङ्कृतः ।
ऋत्विक्सदस्यविप्रादीनानर्चाभरणाम्बरैः ॥ २२॥

बन्धूञ्ज्ञातिनृपान् मित्रसुहृदोऽन्यांश्च सर्वशः ।
अभीक्ष्णं पूजयामास नारायणपरो नृपः ॥ २३॥

सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुण्डलस्र-
गुष्णीषकञ्चुकदुकूलमहार्घ्यहाराः ।
नार्यश्च कुण्डलयुगालकवृन्दजुष्टवक्त्रश्रियः
कनकमेखलया विरेजुः ॥ २४॥

अथर्त्विजो महाशीलाः सदस्या ब्रह्मवादिनः ।
ब्रह्मक्षत्रियविट् शूद्रा राजानो ये समागताः ॥ २५॥

देवर्षिपितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः ।
पूजितास्तमनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप ॥ २६॥

हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम् ।
नैवातृप्यन् प्रशंसन्तः पिबन् मर्त्योऽमृतं यथा ॥ २७॥

ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान् ।
प्रेम्णा निवारयामास कृष्णं च त्यागकातरः ॥ २८॥

भगवानपि तत्राङ्ग न्यवात्सीत्तत्प्रियङ्करः ।
प्रस्थाप्य यदुवीरांश्च साम्बादींश्च कुशस्थलीम् ॥ २९॥

इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम् ।
सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद्गतज्वरः ॥ ३०॥

एकदान्तःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम् ।
अतप्यद्राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मनः ॥ ३१॥

यस्मिन् नरेन्द्रदितिजेन्द्रसुरेन्द्रलक्ष्मीः
नाना विभान्ति किल विश्वसृजोपकॢप्ताः ।
ताभिः पतीन् द्रुपदराजसुतोपतस्थे
यस्यां विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत् ॥ ३२॥

यस्मिंस्तदा मधुपतेर्महिषीसहस्रं
श्रोणीभरेण शनकैः क्वणदङ्घ्रिशोभम् ।
मध्ये सुचारु कुचकुङ्कुमशोणहारं
श्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुन्तलाढ्यम् ॥ ३३॥

सभायां मयकॢप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट् ।
वृतोऽनुजैर्बन्धुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा ॥ ३४॥

आसीनः काञ्चने साक्षादासने मघवानिव ।
पारमेष्ठ्यश्रीया जुष्टः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ॥ ३५॥

तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप ।
किरीटमाली न्यविशदसिहस्तः क्षिपन् रुषा ॥ ३६॥

स्थलेऽभ्यगृह्णाद्वस्त्रान्तं जलं मत्वा स्थलेऽपतत् ।
जले च स्थलवद्भ्रान्त्या मयमायाविमोहितः ॥ ३७॥

जहास भीमस्तं दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे ।
निवार्यमाणा अप्यङ्ग राज्ञा कृष्णानुमोदिताः ॥ ३८॥

स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्निष्क्रम्य
तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम् ।
हा हेति शब्दः सुमहानभूत्सता-
मजातशत्रुर्विमना इवाभवत् ।
बभूव तूष्णीं भगवान् भुवो भरं
समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति स्म यद्दृशा ॥ ३९॥

एतत्तेऽभिहितं राजन् यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।
सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्योधनमानभङ्गो नाम
पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५॥


दशम स्कन्ध-पचहत्तरवाँ अध्याय 40
राजसूय यज्ञ की पूर्ति और दुर्योधन का अपमान
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञमहोत्सव को देखकर, जित ने मनुष्य, नरपति, ऋषि, मुनि और देवता आदि आये थे, वे सब आनन्दित हुए। परन्तु दुर्योधन को बड़ा दु:ख, बड़ी पीड़ा हुई; यह बात मैंने आपके मुख से सुनी है। भगवन् ! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये ॥ १-२ ॥

श्रीशुकदेवजी महाराज ने कहा—परीक्षित ! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धन से बँधकर सभी बन्धु-बान्धवों ने राजसूय यज्ञ में विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किया था ॥ ३ ॥ भीमसेन भोजनालय की देख-रेख करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे ॥ ४ ॥ अर्जुन गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियों के पाँव पखार ने का काम करते थे। देवी द्रौपदी भोजन परस ने का काम करतीं और उदारशिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित ! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा आदि बाह्लीक के पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञ में विभिन्न कर्मों में नियुक्त थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिर का प्रिय और हित हो ॥ ६-७ ॥

परीक्षित ! जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषों का तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवों का सुमधुर वाणी, विविध प्रकार की पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदि से भलीभाँति सत्कार हो चु का तथा शिशुपाल भक्तवत्सल भगवान के चरणों में समा गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर गङ्गाजी में यज्ञान्त- स्नान करने गये ॥ ८ ॥ उस समय जब वे अवभृथ-स्नान करने लगे, तब मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, नौबत, नगारे और नरसिंगे आदि तरह-तरह के बाजे बज ने लगे ॥ ९ ॥ नर्तकियाँ आनन्द से झूम-झूमकर नाच ने लगीं। झुंड-के-झुंड गवैये गा ने लगे और वीणा, बाँसुरी तथा झाँझ-मँजीरे बज ने लगे। इन की तुमुल ध्वनि सारे आकाश में गूँज गयी ॥ १० ॥ सो ने के हार पह ने हुए यदु, सृञ्जय, कम्बोज, कुरु, केकय और कोसल देश के नरपति रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओं से युक्त और खूब सजे-धजे गजराजों, रथों, घोड़ों तथा सुसज्जित वीर सैनिकों के साथ महाराज युधिष्ठिर को आगे करके पृथ्वी को कँपाते हुए चल रहे थे ॥ ११-१२ ॥ यज्ञ के सदस्य ऋत्विज् और बहुत- से श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदमन्त्रों का ऊँचे स्वर से उच्चारण करते हुए चले। देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व आकाश से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ इन्द्रप्रस्थ के नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पों के हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणों से सज-धजकर एक-दूसरे पर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगो देते, एक-दूसरे के शरीर में लगा देते और इस प्रकार क्रीडा करते हुए चल ने लगे ॥ १४ ॥ वाराङ्गनाएँ पुरुषों को तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और गाढ़ी केसर मल देतीं और पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओं से सराबोर कर देते ॥ १५ ॥

उस समय इस उत्सव को देखने के लिये जैसे उत्तम-उत्तम विमानों पर चढक़र आकाश में बहुत- सी देवियाँ आयी थीं, वैसे ही सैनिकों के द्वारा सुरक्षित इन्द्रप्रस्थ की बहुत-सी राजमहिलाएँ भी सुन्दर- सुन्दर पालकियों पर सवार होकर आयी थीं। पाण्डवों के ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियों के ऊ पर तरह-तरह के रंग आदि डाल रहे थे। इससे रानियों के मुख लजीली मुसकराहट से खिल उठते थे और उनकी बड़ी शोभा होती थी ॥ १६ ॥ उन लोगों के रंग आदि डालने से रानियों के वस्त्र भीग गये थे। इससे उनके शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग—वक्ष:स्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख- से रहे थे। वे भी पिचकारी और पात्रों में रंग भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखाओं पर उड़ेल रही थीं। प्रेमभरी उत्सुकता के कारण उनकी चोटियों और जूड़ों के बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। परीक्षित ! उनका यह रुचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अन्त:करणवाले पुरुषों का चित्त चञ्चल हो उठता था, काम-मोहित हो जाता था ॥ १७ ॥ चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियों के साथ सुन्दर घोड़ों से युक्त एवं सो ने के हारों से सुसज्जित रथ पर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज आदि क्रियाओं के साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो ॥ १८ ॥ ऋत्विजों ने पत्नी-संयाज (एक प्रकार का यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदी के साथ सम्राट् युधिष्ठिर को आचमन करवाया और इसके बाद गङ्गास्नान ॥ १९ ॥ उस समय मनुष्यों की दुन्दुभियों के साथ ही देवताओं की दुन्दुभियाँ भी बज ने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ २० ॥ महाराज युधिष्ठिर के स्नान कर लेने के बाद सभी वर्णों एवं आश्रमों के लोगों ने गङ्गाजी में स्नान किया; क्योंकि इस स्नान से बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशि से तत्काल मुक्त हो जाता है ॥ २१ ॥ तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर ने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकार के आभूषणों से अपने को सजा लिया। फिर ऋत्विज्, सदस्य, ब्राह्मण आदि को वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी पूजा की ॥ २२ ॥ महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सब में भगवान के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगों की बार-बार पूजा करते ॥ २३ ॥ उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पों के हार, पगड़ी, लंबी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियों के बहुमूल्य हार पहनकर देवताओं के समान शोभायमान हो रहे थे। स्त्रियों के मुखों की भी दोनों कानों के कर्णफूल और घुँघराली अलकों से बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके कटिभाग में सो ने की करधनियाँ तो बहुत ही भली मालूम हो रही थीं ॥ २४ ॥

परीक्षित ! राजसूय यज्ञ में जित ने लोग आये थे—परम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि, पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियों के साथ लोकपाल—इन सब की पूजा महाराज युधिष्ठिर ने की। इसके बाद वे लोग धर्मराज से अनुमति लेकर अपने-अपने निवासस्थान को चले गये ॥ २५-२६ ॥ परीक्षित ! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ की प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे ॥ २७ ॥ इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से अपने हितैषी सुहृद्-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान श्रीकृष्ण को भी रोक लिया, क्योंकि उन्हें उनके विछोह की कल्पना से ही बड़ा दु:ख होता था ॥ २८ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंशी वीर साम्ब आदि को द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिर की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द दे ने के लिये वहीं रह गये ॥ २९ ॥ इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के महान समुद्र को, जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी ॥ ३० ॥

एक दिन की बात है, भगवान के परमप्रेमी महाराज युधिष्ठिर के अन्त:पुर की सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञ द्वारा प्राप्त महत्त्व को देखकर दुर्योधन का मन डाह से जल ने लगा ॥ ३१ ॥ परीक्षित ! पाण्डवों के लिये मयदानव ने जो महल बना दिये थे, उनमें नरपति, दैत्यपति और सुर- पतियों की विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थान पर शोभायमान था। उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियों की सेवा करती थीं। उस राजभवन में उन दिनों भगवान श्रीकृष्ण की सहस्रों रानियाँ निवास करती थीं। नितम्ब के भारी भार के कारण जब वे उस राजभवन में धीरे-धीरे चल ने लगती थीं, तब उनके पायजेबों की झनकार चारों ओर फैल जाती थी। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके वक्ष:स्थल पर लगी हुई केसर की लालिमा से मोतियों के सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे। कुण्डलों की और घुँघराली अलकों की चञ्चलता से उनके मुख की शोभा और भी बढ़ जाती थी। यह सब देखकर दुर्योधन के हृदय में बड़ी जलन होती। परीक्षित ! सच पूछो तो दुर्योधन का चित्त द्रौपदी में आसक्त था और यही उसकी जलन का मुख्य कारण भी था ॥ ३२-३३ ॥

एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनों के तारे परम हितैषी भगवान श्रीकृष्ण के साथ मयदानव की बनायी सभा में स्वर्णसिंहासन पर देवराज इन्द्र के समान विराजमान थे। उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्माजी के ऐश्वर्य के समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने दु:शासन आदि भाइयों के साथ वहाँ आया। उसके सिर पर मुकुट, गले में माला और हाथ में तलवार थी। परीक्षित ! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकों को झिडक़ रहा था ॥ ३६ ॥ उस सभा में मयदानव ने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधन ने उससे मोहित हो स्थल को जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जल को स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा ॥ ३७ ॥ उस को गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँस ने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करने से रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित ! उन्हें इशारे से श्रीकृष्ण का अनुमोदन प्राप्त हो चु का था ॥ ३८ ॥ इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोध से जल ने लगा। अब वह अपना मुँह लटकाकर चुपचाप सभाभवन से निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस घटना को देखकर सत्पुरुषों में हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिर का मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया। परीक्षित ! यह सब होने पर भी भगवान श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वी का भार उतर जाय; और सच पूछो, तो उन्हीं की दृष्टि से दुर्योधन को वह भ्रम हुआ था ॥ ३९ ॥ परीक्षित ! तुम ने मुझ से यह पूछा था कि उस महान राजसूय यज्ञ में दुर्योधन को डाह क्यों हुआ ? जलन क्यों हुई ? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया ॥ ४० ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-76]

॥ षट्सप्ततितमोऽध्यायः - ७६ ॥
श्रीशुक उवाच
अथान्यदपि कृष्णस्य श‍ृणु कर्माद्भुतं नृप ।
क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः ॥ १॥

शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्वाह आगतः ।
यदुभिर्निर्जितः सङ्ख्ये जरासन्धादयस्तथा ॥ २॥

शाल्वः प्रतिज्ञामकरोच्छृण्वतां सर्वभूभुजाम् ।
अयादवीं क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत ॥ ३॥

इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम् ।
आराधयामास नृपः पांसुमुष्टिं सकृद्ग्रसन् ॥ ४॥

संवत्सरान्ते भगवानाशुतोष उमापतिः ।
वरेण च्छन्दयामास शाल्वं शरणमागतम् ॥ ५॥

देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।
अभेद्यं कामगं वव्रे स यानं वृष्णिभीषणम् ॥ ६॥

तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरंजयः ।
पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्सौभमयस्मयम् ॥ ७॥

स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम् ।
ययौ द्वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन् ॥ ८॥

निरुध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ ।
पुरीं बभञ्जोपवनान्युद्यानानि च सर्वशः ॥ ९॥

स गोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः ।
विहारान् स विमानाग्र्यान्निपेतुः शस्त्रवृष्टयः ॥ १०॥

शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः ।
प्रचण्डश्चक्रवातोऽभूद्रजसाऽऽच्छादिता दिशः ॥ ११॥

इत्यर्द्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम् ।
नाभ्यपद्यत शं राजंस्त्रिपुरेण यथा मही ॥ १२॥

प्रद्युम्नो भगवान् वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः ।
मा भैष्टेत्यभ्यधाद्वीरो रथारूढो महायशाः ॥ १३॥

सात्यकिश्चारुदेष्णश्च साम्बोऽक्रूरः सहानुजः ।
हार्दिक्यो भानुविन्दश्च गदश्च शुकसारणौ ॥ १४॥

अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः ।
निर्ययुर्दंशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः ॥ १५॥

ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह ।
यथासुराणां विबुधैस्तुमुलं लोमहर्षणम् ॥ १६॥

ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रै रुक्मिणीसुतः ।
क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः ॥ १७॥

विव्याध पञ्चविंशत्या स्वर्णपुङ्खैरयोमुखैः ।
शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः ॥ १८॥

शतेनाताडयच्छाल्वमेकैकेनास्य सैनिकान् ।
दशभिर्दशभिर्नेतॄन् वाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १९॥

तदद्भुतं महत्कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः ।
दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः ॥ २०॥

बहुरूपैकरूपं तद्दृश्यते न च दृश्यते ।
मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं परैरभूत् ॥ २१॥

क्वचिद्भूमौ क्वचिद्व्योम्नि गिरिमूर्ध्नि जले क्वचित् ।
अलातचक्रवद्भ्राम्यत्सौभं तद्दुरवस्थितम् ॥ २२॥

यत्र यत्रोपलक्ष्येत ससौभः सह सैनिकः ।
शाल्वस्ततस्ततोऽमुञ्चञ्छरान् सात्वतयूथपाः ॥ २३॥

शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैराशीविषदुरासदैः ।
पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोऽमुह्यत्परेरितैः ॥ २४॥

शाल्वानीकपशस्त्रौघैर्वृष्णिवीरा भृशार्दिताः ।
न तत्यजू रणं स्वं स्वं लोकद्वयजिगीषवः ॥ २५॥

शाल्वामात्यो द्युमान् नाम प्रद्युम्नं प्राक्प्रपीडितः ।
आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद्बली ॥ २६॥

प्रद्युम्नं गदया शीर्णवक्षःस्थलमरिन्दमम् ।
अपोवाह रणात्सूतो धर्मविद्दारुकात्मजः ॥ २७॥

लब्धसम्ज्ञो मुहूर्तेन कार्ष्णिः सारथिमब्रवीत् ।
अहो असाध्विदं सूत यद्रणान्मेऽपसर्पणम् ॥ २८॥

न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः ।
विना मत्क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्बिषात् ॥ २९॥

किं नु वक्ष्येऽभिसङ्गम्य पितरौ रामकेशवौ ।
युद्धात्सम्यगपक्रान्तः पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम् ॥ ३०॥

व्यक्तं मे कथयिष्यन्ति हसन्त्यो भ्रातृजामयः ।
क्लैब्यं कथं कथं वीर तवान्यैः कथ्यतां मृधे ॥ ३१॥

सारथिरुवाच
धर्मं विजानताऽऽयुष्मन् कृतमेतन्मया विभो ।
सूतः कृच्छ्रगतं रक्षेद्रथिनं सारथिं रथी ॥ ३२॥

एतद्विदित्वा तु भवान् मयापोवाहितो रणात् ।
उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः ॥ ३३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शाल्वयुद्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६॥


दशम स्कन्ध-छिहत्तरवाँ अध्याय 33
शाल्व के साथ यादवों का युद्ध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अब मनुष्यकी-सी लीला करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण का एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बताया जायगा कि सौभनामक विमान का अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान के हाथ से मारा गया ॥ १ ॥ शाल्व शिशुपाल का सखा था और रुक्मिणी के विवाह के अवसर पर बारात में शिशुपाल की ओर से आया हुआ था। उस समय यदुवंशियों ने युद्ध में जरासन्ध आदि के साथ-साथ शाल्व को भी जीत लिया था ॥ २ ॥ उस दिन सब राजाओं के सामने शाल्व ने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं पृथ्वी से यदुवंशियों को मिटाकर छोड़्ूँगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना’ ॥ ३ ॥ परीक्षित ! मूढ़ शाल्व ने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान पशुपति की आराधना प्रारम्भ की। वह उन दिनों दिन में केवल एक बार मुट्ठीभर राख फाँक लिया करता था ॥ ४ ॥ यों तो पार्वतीपति भगवान शङ्कर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्व का घोर सङ्कल्प जानकर एक वर्ष के बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्व से वर माँग ने के लिये कहा ॥ ५ ॥ उस समय शाल्व ने यह वर माँगा, कि ‘मुझे आप एक ऐसा विमान दीजिये, जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसों से तोड़ा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाय और यदुवंशियों के लिये अत्यन्त भयङ्कर हो’ ॥ ६ ॥ भगवान शङ्करने कह दिया ‘तथास्तु !’ इसके बाद उनकी आज्ञा से विपक्षियों के नगर जीतनेवाले मयदानव ने लोहे का सौभनामक विमान बनाया और शाल्व को दे दिया ॥ ७ ॥ वह विमान क्या था एक नगर ही था। वह इतना अन्धकारमय था कि उसे देखना या पकडऩा अत्यन्त कठिन था। चलानेवाला उसे जहाँ ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता था। शाल्व ने वह विमान प्राप्त करके द्वारका पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह वृष्णिवंशी यादवों द्वारा किये हुए वैर को सदा स्मरण रखता था ॥ ८ ॥

परीक्षित ! शाल्व ने अपनी बहुत बड़ी सेना से द्वार का को चारों ओर से घेर लिया और फिर उसके फल-फूल से लदे हुए उपवन और उद्यानों को उजाडऩे और नगरद्वारों, फाटकों, राजमहलों, अटारियों, दीवारों और नागरिकों के मनोविनोद के स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उस श्रेष्ठ विमान से शस्त्रों की झड़ी लग गयी ॥ ९-१० ॥ बड़ी-बड़ी चट्टानें, वृक्ष, वज्र, सर्प और ओले बरस ने लगे। बड़े जोर का बवंडर उठ खड़ा हुआ। चारों ओर धूल-ही-धूल छा गयी ॥ ११ ॥ परीक्षित ! प्राचीनकाल में जैसे त्रिपुरासुर ने सारी पृथ्वी को पीडि़त कर रखा था, वैसे ही शाल्व के विमान ने द्वारकापुरी को अत्यन्त पीडि़त कर दिया। वहाँ के नर-नारियों को कहीं एक क्षण के लिये भी शान्ति न मिलती थी ॥ १२ ॥ परमयशस्वी वीर भगवान प्रद्युम्र ने देखा—हमारी प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथ पर सवार होकर सब को ढाढ़स बँधाया और कहा कि ‘डरो मत’ ॥ १३ ॥ उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयों के साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत- से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब-के-सब महारथी थे। सबने कवच पहन रखे थे और सब की रक्षा के लिये बहुत- से रथ, हाथी घोड़े तथा पैदल सेना साथ-साथ चल रही थी ॥ १४-१५ ॥ इसके बाद प्राचीन काल में जैसे देवताओं के साथ असुरों का घमासान युद्ध हुआ था, वैसे ही शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे ॥ १६ ॥ प्रद्युम्रजी ने अपने दिव्य अस्त्रों से क्षणभर में ही सौभपति शाल्व की सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणों से रात्रि का अन्धकार मिटा देते हैं ॥ १७ ॥ प्रद्युम्रजी के बाणों में सो ने के पंख एवं लोहे के फल लगे हुए थे। उनकी गाँठें जान नहीं पड़ती थीं। उन्होंने ऐसे ही पचीस बाणों से शाल्व के सेनापति को घायल कर दिया ॥ १८ ॥ परममनस्वी प्रद्युम्रजी ने सेनापति के साथ ही शाल्व को भी सौ बाण मारे, फिर प्रत्येक सैनिक को एक-एक और सारथियों को दस-दस तथा वाहनों को तीन-तीन बाणों से घायल किया ॥ १९ ॥ महामना प्रद्युम्रजी के इस अद्भुत और महान कर्म को देखकर अपने एवं पराये—सभी सैनिक उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ २० ॥ परीक्षित ! मय- दानव का बनाया हुआ शाल्व का वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि कभी अनेक रूपों में दीखता तो कभी एकरूप में, कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियों को इस बात का पता ही न चलता कि वह इस समय कहाँ है ॥ २१ ॥ वह कभी पृथ्वी पर आ जाता तो कभी आकाश में उडऩे लगता। कभी पहाडक़ी चोटी पर चढ़ जाता, तो कभी जल में तैर ने लगता। वह अलात-चक्र के समान—मानो कोई दुमुँही लुकारियों की बनेठी भाँज रहा हो—घूमता रहता था, एक क्षण के लिये भी कहीं ठहरता न था ॥ २२ ॥ शाल्व अपने विमान और सैनिकों के साथ जहाँ-जहाँ दिखायी पड़ता, वहीं-वहीं यदुवंशी सेनापति बाणों की झड़ी लगा देते थे ॥ २३ ॥ उनके बाण सूर्य और अग्रि के समान जलते हुए तथा विषैले साँप की तरह असह्य होते थे। उनसे शाल्व का नगराकार विमान और सेना अत्यन्त पीडि़त हो गयी, यहाँ तक कि यदुवंशियों के बाणों से शाल्व स्वयं मूर्च्छित हो गया ॥ २४ ॥

परीक्षित ! शाल्व के सेनापतियों ने भी यदुवंशियों पर खूब शस्त्रों की वर्षा कर रखी थी, इससे वे अत्यन्त पीडि़त थे; परन्तु उन्होंने अपना-अपना मोर्चा छोड़ा नहीं। वे सोचते थे कि मरेंगे तो परलोक बनेगा और जीतेंगे तो विजय की प्राप्ति होगी ॥ २५ ॥ परीक्षित ! शाल्व के मन्त्री का नाम था द्युमान्, जिसे पहले प्रद्युम्रजी ने पचीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्रजी पर अपनी फौलादी गदा से बड़े जोर से प्रहार किया और ‘मार लिया, मार लिया’ कहकर गरज ने लगा ॥ २६ ॥ परीक्षित ! गदा की चोट से शत्रुदमन प्रद्युम्रजी का वक्ष:स्थल फट-सा गया। दारुक का पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह सारथिधर्म के अनुसार उन्हें रणभूमि से हटा ले गया ॥ २७ ॥ दो घड़ी में प्रद्युम्रजी की मूच्र्छा टूटी। तब उन्होंने सारथि से कहा—‘सारथे ! तू ने यह बहुत बुरा किया। हाय, हाय ! तू मुझे रणभूमि से हटा लाया ? ॥ २८ ॥ सूत ! हम ने ऐसा कभी नहीं सुना कि हमारे वंश का कोई भी वीर कभी रणभूमि छोडक़र अलग हट गया हो ! यह कलङ्क का टी का तो केवल मेरे ही सिर लगा। सचमुच सूत ! तू कायर है, नपुंसक है ॥ २९ ॥ बतला तो सही, अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्ण के सामने जाकर क्या कहूँगा ? अब तो सब लोग यही कहेंगे न, कि मैं युद्ध से भग गया ? उनके पूछने पर मैं अपने अनुरूप क्या उत्तर दे सकूँगा ॥ ३० ॥ मेरी भाभियाँ हँसती हुई मुझ से साफ-साफ पूछेंगी कि कहो वीर ! तुम नपुंसक कैसे हो गये ? दूसरों ने युद्ध में तुम्हें नीचा कैसे दिखा दिया ? सूत ! अवश्य ही तुम ने मुझे रणभूमि से भगाकर अक्षम्य अपराध किया है !’ ॥ ३१ ॥

सारथि ने कहा—आयुष्मन् ! मैंने जो कुछ किया है, सारथि का धर्म समझकर ही किया है। मेरे समर्थ स्वामी ! युद्ध का ऐसा धर्म है कि सङ्कट पडऩे पर सारथि रथी की रक्षा कर ले और रथी सारथि की ॥ ३२ ॥ इस धर्म को समझते हुए ही मैंने आपको रणभूमि से हटाया है। शत्रु ने आप पर गदा का प्रहार किया था, जिससे आप मूर्च्छित हो गये थे, बड़े सङ्कट में थे; इसीसे मुझे ऐसा करना पड़ा ॥ ३३ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-77]

॥ सप्तसप्ततितमोऽध्यायः - ७७ ॥
श्रीशुक उवाच
स तूपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः ।
नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम् ॥ १॥

विधमन्तं स्वसैन्यानि द्युमन्तं रुक्मिणीसुतः ।
प्रतिहत्य प्रत्यविध्यन्नाराचैरष्टभिः स्मयन् ॥ २॥

चतुर्भिश्चतुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत् ।
द्वाभ्यां धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः ॥ ३॥

गदसात्यकिसाम्बाद्या जघ्नुः सौभपतेर्बलम् ।
पेतुः समुद्रे सौभेयाः सर्वे सञ्छिन्नकन्धराः ॥ ४॥

एवं यदूनां शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम् ।
युद्धं त्रिणवरात्रं तदभूत्तुमुलमुल्बणम् ॥ ५॥

इन्द्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना ।
राजसूयेऽथ निर्वृत्ते शिशुपाले च संस्थिते ॥ ६॥

कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम् ।
निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन् द्वारवतीं ययौ ॥ ७॥

आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसङ्गतः ।
राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम ॥ ८॥

वीक्ष्य तत्कदनं स्वानां निरूप्य पुररक्षणम् ।
सौभं च शाल्वराजं च दारुकं प्राह केशवः ॥ ९॥

रथं प्रापय मे सूत शाल्वस्यान्तिकमाशु वै ।
सम्भ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम् ॥ १०॥

इत्युक्तश्चोदयामास रथमास्थाय दारुकः ।
विशन्तं ददृशुः सर्वे स्वे परे चारुणानुजम् ॥ ११॥

शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः ।
प्राहरत्कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे ॥ १२॥

तामापतन्तीं नभसि महोल्कामिव रंहसा ।
भासयन्तीं दिशः शौरिः सायकैः शतधाच्छिनत् ॥ १३॥

तं च षोडशभिर्विद्ध्वा बाणैः सौभं च खे भ्रमत् ।
अविध्यच्छरसन्दोहैः खं सूर्य इव रश्मिभिः ॥ १४॥

शाल्वः शौरेस्तु दोः सव्यं सशार्ङ्गं शार्ङ्गधन्वनः ।
बिभेद न्यपतद्धस्ताच्छार्ङ्गमासीत्तदद्भुतम् ॥ १५॥

हाहाकारो महानासीद्भूतानां तत्र पश्यताम् ।
विनद्य सौभराडुच्चैरिदमाह जनार्दनम् ॥ १६॥

यत्त्वया मूढ नः सख्युर्भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम् ।
प्रमत्तः स सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा ॥ १७॥

तं त्वाद्य निशितैर्बाणैरपराजितमानिनम् ।
नयाम्यपुनरावृत्तिं यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः ॥ १८॥

श्रीभगवानुवाच
वृथा त्वं कत्थसे मन्द न पश्यस्यन्तिकेऽन्तकम् ।
पौरुषं दर्शयन्ति स्म शूरा न बहुभाषिणः ॥ १९॥

इत्युक्त्वा भगवाञ्छाल्वं गदया भीमवेगया ।
तताड जत्रौ संरब्धः स चकम्पे वमन्नसृक् ॥ २०॥

गदायां सन्निवृत्तायां शाल्वस्त्वन्तरधीयत ।
ततो मुहूर्त आगत्य पुरुषः शिरसाच्युतम् ।
देवक्या प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन् ॥ २१॥

कृष्ण कृष्ण महाबाहो पिता ते पितृवत्सल ।
बद्ध्वापनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः ॥ २२॥

निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुषीं प्रकृतिं गतः ।
विमनस्को घृणी स्नेहाद्बभाषे प्राकृतो यथा ॥ २३॥

कथं राममसम्भ्रान्तं जित्वाजेयं सुरासुरैः ।
शाल्वेनाल्पीयसा नीतः पिता मे बलवान् विधिः ॥ २४॥

इति ब्रुवाणे गोविन्दे सौभराट् प्रत्युपस्थितः ।
वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः ॥ २५॥

एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि ।
वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुमीशश्चेत्पाहि बालिश ॥ २६॥

एवं निर्भर्त्स्य मायावी खड्गेनानकदुन्दुभेः ।
उत्कृत्य शिर आदाय खस्थं सौभं समाविशत् ॥ २७॥

ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपप्लुतः
स्वबोध आस्ते स्वजनानुषङ्गतः ।
महानुभावस्तदबुध्यदासुरीं
मायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम् ॥ २८॥

न तत्र दूतं न पितुः कलेवरं
प्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युतः ।
स्वाप्नं यथा चाम्बरचारिणं रिपुं
सौभस्थमालोक्य निहन्तुमुद्यतः ॥ २९॥

एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः के च नान्विताः ।
यत्स्ववाचो विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत ॥ ३०॥

क्व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येऽज्ञसम्भवाः ।
क्व चाखण्डितविज्ञानज्ञानैश्वर्यस्त्वखण्डितः ॥ ३१॥

यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया
हिन्वन्त्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम् ।
लभन्त आत्मीयमनन्तमैश्वरं
कुतो नु मोहः परमस्य सद्गतेः ॥ ३२॥

तं शस्त्रपूगैः प्रहरन्तमोजसा
शाल्वं शरैः शौरिरमोघविक्रमः ।
विद्ध्वाच्छिनद्वर्म धनुः शिरोमणिं
सौभं च शत्रोर्गदया रुरोज ह ॥ ३३॥

तत्कृष्णहस्तेरितया विचूर्णितं
पपात तोये गदया सहस्रधा ।
विसृज्य तद्भूतलमास्थितो गदामुद्यम्य
शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद्द्रुतम् ॥ ३४॥

आधावतः सगदं तस्य बाहुं
भल्लेन छित्त्वाथ रथाङ्गमद्भुतम् ।
वधाय शाल्वस्य लयार्कसन्निभं
बिभ्रद्बभौ सार्क इवोदयाचलः ॥ ३५॥

जहार तेनैव शिरः सकुण्डलं
किरीटयुक्तं पुरुमायिनो हरिः ।
वज्रेण वृत्रस्य यथा पुरन्दरो
बभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम् ॥ ३६॥

तस्मिन् निपतिते पापे सौभे च गदया हते ।
नेदुर्दुन्दुभयो राजन् दिवि देवगणेरिताः ।
सखीनामपचितिं कुर्वन् दन्तवक्त्रो रुषाभ्यगात् ॥ ३७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सौभवधो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७॥


दशम स्कन्ध-सतहत्तरवाँ अध्याय 37
शाल्व-उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अब प्रद्युम्रजी ने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथि से कहा कि ‘मुझे वीर द्युमान् के पास फिर से ले चलो’ ॥ १ ॥ उस समय द्युमान् यादवसेना को तहस-नहस कर रहा था। प्रद्युम्रजी ने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करने से रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे ॥ २ ॥ चार बाणों से उसके चार घोड़े और एक-एक बाण से सारथि, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला ॥ ३ ॥ इधर गद, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्व की सेना का संहार करने लगे। सौभ-विमान पर चढ़े हुए सैनिकों की गरदनें कट जातीं और वे समुद्र में गिर पड़ते ॥ ४ ॥ इस प्रकार यदुवंशी और शाल्व के सैनिक एक-दूसरे पर प्रहार करते रहे। बड़ा ही घमासान और भयङ्कर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनों तक चलता रहा ॥ ५ ॥

उन दिनों भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर के बुला ने से इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय यज्ञ हो चु का था और शिशुपाल की भी मृत्यु हो गयी थी ॥ ६ ॥ वहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि बड़े भयङ्कर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरुवंश के बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवों से अनुमति लेकर द्वार का के लिये प्रस्थान किया ॥ ७ ॥ वे मन-ही-मन कह ने लगे कि ‘मैं पूज्य भाई बलरामजी के साथ यहाँ चला आया। अब शिशुपाल के पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारका पर आक्रमण कर रहे होंगे’ ॥ ८ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका में पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवों पर बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलरामजी को नगर की रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्व को देखकर अपने सारथि दारुक से कहा— ॥ ९ ॥ ‘दारुक ! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्व के पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न करना’ ॥ १० ॥ भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथ पर चढ़ गया और उसे शाल्व की ओर ले चला । भगवान के रथ की ध्वजा गरुड़चिह्न से चिह्नित थी। उसे देखकर यदुवंशियों तथा शाल्व की सेना के लोगों ने युद्धभूमि में प्रवेश करते ही भगवान को पहचान लिया ॥ ११ ॥ परीक्षित ! अब तक शाल्व की सारी सेना प्राय: नष्ट हो चुकी थी। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही उसने उनके सारथि पर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह शक्ति बड़ा भयङ्कर शब्द करती हुई आकाश में बड़े वेग से चल रही थी और बहुत बड़े लूक के समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाश से दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथि की ओर आते देख भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बाणों से उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये ॥ १२-१३ ॥ इसके बाद उन्होंने शाल्व को सोलह बाण मारे और उसके विमान को भी, जो आकाश में घूम रहा था, असंख्य बाणों से चलनी कर दिया—ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी किरणों से आकाश को भर देता है ॥ १४ ॥ शाल्व ने भगवान श्रीकृष्ण की बायीं भुजा में, जिसमें शार्ङ्गधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शार्ङ्गधनुष भगवान के हाथ से छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी ॥ १५ ॥ जो लोग आकाश या पृथ्वी से यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ पुकार उठे। तब शाल्व ने गरजकर भगवान श्रीकृष्ण से यों कहा— ॥ १६ ॥ ‘मूढ़ ! तू ने हमलोगों के देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपाल की पत्नी को हर लिया तथा भरी सभा में, जब कि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था तू ने उसे मार डाला ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तू अपने को अजेय मानता है। यदि मेरे सामने ठहर गया तो मैं आज तुझे अपने तीखे बाणों से वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आता’ ॥ १८ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘रे मन्द ! तू वृथा ही बहक रहा है। तुझे पता नहीं कि तेरे सिर पर मौत सवार है। शूरवीर व्यर्थ की बकवाद नहीं करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं’ ॥ १९ ॥ इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयङ्कर गदा से शाल्व के जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून उगलता हुआ काँप ने लगा ॥ २० ॥ इधर जब गदा भगवान के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया। इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्य ने भगवान के पास पहुँचकर उन को सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला—‘मुझे आपकी माता देवकीजी ने भेजा है ॥ २१ ॥ उन्होंने कहा है कि अपने पिता के प्रति अत्यन्त प्रेम रखनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण ! शाल्व तुम्हारे पिता को उसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशु को बाँधकर ले जाय !’ ॥ २२ ॥ यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य- से बन गये। उनके मुँह पर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुष के समान अत्यन्त करुणा और स्नेह से कह ने लगे— ॥ २३ ॥ ‘अहो ! मेरे भाई बलरामजी को तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्व का बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इस ने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजी को बाँधकर ले गया ? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् है’ ॥ २४ ॥ भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजी के समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्ण से कह ने लगा— ॥ २५ ॥ ‘मूर्ख ! देख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप है, जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा’ ॥ २६ ॥ मायावी शाल्व ने इस प्रकार भगवान को फटकारकर मायारचित वसुदेव का सिर तलवार से काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमान पर जा बैठा ॥ २७ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञान स्वरूप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ी के लिये अपने स्वजन वसुदेवजी के प्रति अत्यन्त प्रेम होने के कारण साधारण पुरुषों के समान शोक में डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्व की फैलायी हुई आसुरी माया ही है, जो उसे मयदानव ने बतलायी थी ॥ २८ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में सचेत होकर देखा—न वहाँ दूत है और न पिता का वह शरीर; जैसे स्वप्न में एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो ! उधर देखा तो शाल्व विमान पर चढक़र आकाश में विचर रहा है। तब वे उसका वध करने के लिये उद्यत हो गये ॥ २९ ॥

प्रिय परीक्षित ! इस प्रकार की बात पूर्वा पर का विचार न करनेवाले कोई- कोई ऋषि कहते हैं। अवश्य ही वे इस बात को भूल जाते हैं कि श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा कहना उन्हींके वचनों के विपरीत है ॥ ३० ॥ कहाँ अज्ञानियों में रहनेवाले शोक, मोह, स्नेह और भय; तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण—जिनका ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है। (भला, उनमें वैसे भावों की सम्भावना ही कहाँ है ?) ॥ ३१ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा करके आत्मविद्या का भलीभाँति सम्पादन करते हैं और उसके द्वारा शरीर आदि में आत्मबुद्धिरूप अनादि अज्ञान को मिटा डालते हैं तथा आत्मसम्बन्धी अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। उन संतों के परम गति स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण में भला, मोह कैसे हो सकता है ? ॥ ३२ ॥

अब शाल्व भगवान श्रीकृष्ण पर बड़े उत्साह और वेग से शस्त्रों की वर्षा करने लगा था। अमोघशक्ति भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपने बाणों से शाल्व को घायल कर दिया और उसके कवच, धनुष तथा सिर की मणि को छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही गदा की चोट से उसके विमान को भी जर्जर कर दिया ॥ ३३ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के हाथों से चलायी हुई गदा से वह विमान चूर-चूर होकर समुद्र में गिर पड़ा। गिर ने के पहले ही शाल्व हाथ में गदा लेकर धरती पर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेग से भगवान श्रीकृष्ण की ओर झपटा ॥ ३४ ॥ शाल्व को आक्रमण करते देख उन्होंने भाले से गदा के साथ उसका हाथ काट गिराया। फिर उसे मार डालने के लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी और अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूर्य के साथ उदयाचल शोभायमान हो ॥ ३५ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने उस चक्र से परम मायावी शाल्व का कुण्डल-किरीटसहित सिर धड़ से अलग कर दिया; ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र ने वज्र से वृत्रासुर का सिर काट डाला था। उस समय शाल्व के सैनिक अत्यन्त दु:ख से ‘हाय-हाय’ चिल्ला उठे ॥ ३६ ॥ परीक्षित ! जब पापी शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदा के प्रहार से चूर-चूर हो गया, तब देवतालोग आकाश में दुन्दुभियाँ बजाने लगे। ठीक इसी समय दन्तवक्र अपने मित्र शिशुपाल आदि का बदला लेने के लिये अत्यन्त क्रोधित होकर आ पहुँचा ॥ ३७ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-78]

॥ अष्टसप्ततितमोऽध्यायः - ७८ ॥
श्रीशुक उवाच
शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः ।
परलोकगतानां च कुर्वन् पारोक्ष्यसौहृदम् ॥ १॥

एकः पदातिः सङ्क्रुद्धो गदापाणिः प्रकम्पयन् ।
पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत ॥ २॥

तं तथायान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः ।
अवप्लुत्य रथात्कृष्णः सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात् ॥ ३॥

गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः ।
दिष्ट्या दिष्ट्या भवानद्य मम दृष्टिपथं गतः ॥ ४॥

त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ्मां जिघांससि ।
अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया ॥ ५॥

तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः ।
बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा ॥ ६॥

एवं रूक्षैस्तुदन् वाक्यैः कृष्णं तोत्रैरिव द्विपम् ।
गदयाताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद्व्यनदच्चसः ॥ ७॥

गदयाभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः ।
कृष्णोऽपि तमहन् गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे ॥ ८॥

गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन् रुधिरं मुखात् ।
प्रसार्य केशबाह्वङ्घ्रीन् धरण्यां न्यपतद्व्यसुः ॥ ९॥

ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम् ।
पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप ॥ १०॥

विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः ।
आगच्छदसिचर्माभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया ॥ ११॥

तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना ।
शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम् ॥ १२॥

एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्त्रं सहानुजम् ।
हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः ॥ १३॥

मुनिभिः सिद्धगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः ।
अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः ॥ १४॥

उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः ।
वृतश्चवृष्णिप्रवरैर्विवेशालङ्कृतां पुरीम् ॥ १५॥

एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवान् जगदीश्वरः ।
ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः ॥ १६॥

श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पाण्डवैः ।
तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल ॥ १७॥

स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान् ।
सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः ॥ १८॥

पृथूदकं बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम् ।
विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम् ॥ १९॥

यमुनामनु यान्येव गङ्गामनु च भारत ।
जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते ॥ २०॥

तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः ।
अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन् ॥ २१॥

सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः ।
रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत ॥ २२॥

अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम् ।
अध्यासीनं च तान् विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः ॥ २३॥

कस्मादसाविमान् विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः ।
धर्मपालांस्तथैवास्मान् वधमर्हति दुर्मतिः ॥ २४॥

ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च ।
सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः ॥ २५॥

अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः ।
न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः ॥ २६॥

एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः ।
वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः ॥ २७॥

एतावदुक्त्वा भगवान् निवृत्तोऽसद्वधादपि ।
भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभुः ॥ २८॥

हाहेति वादिनः सर्वे मुनयः खिन्नमानसाः ।
ऊचुः सङ्कर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो ॥ २९॥

अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन ।
आयुश्चात्माक्लमं तावद्यावत्सत्रं समाप्यते ॥ ३०॥

अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा ।
योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः ॥ ३१॥

यद्येतद्ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन ।
चरिष्यति भवांल्लोकसङ्ग्रहोऽनन्यचोदितः ॥ ३२॥

श्रीभगवानुवाच
करिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया ।
नियमः प्रथमे कल्पे यावान् स तु विधीयताम् ॥ ३३॥

दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिन्द्रियमेव च ।
आशासितं यत्तद्ब्रूत साधये योगमायया ॥ ३४॥

ऋषय ऊचुः
अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च ।
यथा भवेद्वचः सत्यं तथा राम विधीयताम् ॥ ३५॥

श्रीभगवानुवाच
आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम् ।
तस्मादस्य भवेद्वक्ता आयुरिन्द्रियसत्त्ववान् ॥ ३६॥

किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ ।
अजानतस्त्वपचितिं यथा मे चिन्त्यतां बुधाः ॥ ३७॥

ऋषय ऊचुः
इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः ।
स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि ॥ ३८॥

तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम् ।
पूयशोणितविण्मूत्रसुरामांसाभिवर्षिणम् ॥ ३९॥

ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः ।
चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसे ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवचरिते बल्वलवधोपक्रमो
नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८॥

दशम स्कन्ध- अठहत्तरवाँ अध्याय 40
दन्तवक्र और विदूरथ का उद्धार तथा तीर्थयात्रा में बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ंड्रक के मारे जाने पर उनकी मित्रता का ऋण चुका ने के लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमि में आ धमका। वह क्रोध के मारे आग-बबूला हो रहा था। शस्त्र के नाम पर उसके हाथ में एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित ! लोगों ने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरों की धमक से पृथ्वी हिल रही है ॥ १-२ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथ में गदा लेकर वे रथ से कूद पड़े। फिर जैसे समुद्र के तट की भूमि उसके ज्वार-भाटे को आगे बढऩे से रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया ॥ ३ ॥ घमंड के नशे में चूर करूषनरेश दन्तवक्त्र ने गदा तानकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा—‘बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है कि आज तुम मेरी आँखों के सामने पड़ गये ॥ ४ ॥ कृष्ण ! तुम मेरे मामा के लडक़े हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुम ने मेरे मित्रों को मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द ! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदा से चूर-चूर कर डालूँगा ॥ ५ ॥ मूर्ख ! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीर में रहनेवाला कोई रोग हो ! मैं अपने मित्रों से बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझ पर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋण से उऋण हो सकता हूँ ॥ ६ ॥ जैसे महावत अङ्कुश से हाथी को घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्र ने अपनी कड़वी बातों से श्रीकृष्ण को चोट पहुँचा ने की चेष्टा की और फिर वह उनके सिर पर बड़े वेग से गदा मारकर सिंह के समान गरज उठा ॥ ७ ॥ रणभूमि में गदा की चोट खाकर भी भगवान श्रीकृष्ण टस-से-मस न हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोद की गदा सम्हालकर उससे दन्तवक्त्र के वक्ष:स्थल पर प्रहार किया ॥ ८ ॥ गदा की चोट से दन्तवक्त्र का कलेजा फट गया। वह मुँह से खून उगल ने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरती पर गिर पड़ा ॥ ९ ॥ परीक्षित ! जैसा कि शिशुपाल की मृत्यु के समय हुआ था, सब प्राणियों के सामने ही दन्तवक्त्र के मृत शरीर से एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीति से भगवान श्रीकृष्ण में समा गयी ॥ १० ॥

दन्तवक्त्र के भाई का नाम था विदूरथ। वह अपने भाई की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोध के मारे लंबी-लंबी साँस लेता हुआ हाथ में ढाल-तलवार लेकर भगवान श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से आया ॥ ११ ॥ राजेन्द्र ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरे के समान तीखी धारवाले चक्र से किरीट और कुण्डल के साथ उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ॥ १२ ॥ इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरी में प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि- मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊ पर पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी विजय के गीत गा रहे थे। भगवान के प्रवेश के अवसर पर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥ १३—१५ ॥ योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल-खेलते रहते हैं। जो पशुओं के समान अविवे की हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तव में तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ॥ १६ ॥

एक बार बलरामजी ने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लडऩा पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थों में स्नान करने के बहा ने द्वारका से चले गये ॥ १७ ॥ वहाँ से चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्र में स्नान किया और तर्पण तथा ब्राह्मणभोजन के द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्यों को तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणों के साथ जिधर से सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े ॥ १८ ॥ वे क्रमश: पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थों में गये ॥ १९ ॥ परीक्षित ! तदनन्तर यमुनातट और गङ्गातट के प्रधान-प्रधान तीर्थों में होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्र में गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्र में बड़े-बड़े ऋषि सत्सङ्गरूप महान सत्र कर रहे थे ॥ २० ॥ दीर्घकाल तक सत्सङ्गसत्र का नियम लेकर बैठे हुए ऋषियों ने बलरामजी को आया देख अपने-अपने आसनों से उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की ॥ २१ ॥ वे अपने साथियों के साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान व्यासके शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दी पर बैठे हुए हैं ॥ २२ ॥ बलरामजी ने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जाति में उत्पन्न होने पर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों से ऊँचे आसन पर बैठे हुए हैं और उनके आने पर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोडक़र प्रणाम ही। इस पर बलरामजी को क्रोध आ गया ॥ २३ ॥ वे कह ने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जाति का होने पर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणों से तथा धर्म के रक्षक हमलोगों से ऊ पर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्ड का पात्र है ॥ २४ ॥ भगवान व्यासदेव का शिष्य होकर इस ने इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत- से शास्त्रों का अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मन पर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजितात्माने झूठमूठ अपने को बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नट की सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँग के लिये है। उससे न इसका लाभ है और न किसी दूसरे का ॥ २५-२६ ॥ जो लोग धर्म का चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्म का पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’ ॥ २७ ॥ भगवान बलराम यद्यपि तीर्थयात्रा के कारण दुष्टों के वध से भी अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथ में स्थित कुश की नोक से उन पर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी ॥ २८ ॥ सूतजी के मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सब के चित्त खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान बलरामजी से कहा—‘प्रभो ! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया ॥ २९ ॥ यदुवंशशिरोमणे ! सूतजी को हम लोगों ने ही ब्राह्मणोचित आसन पर बैठाया था और जब तक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तब तक के लिये उन्हें शारीरिक कष्ट से रहित आयु भी दे दी थी ॥ ३० ॥ आपने अनजान में यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्या के समान है। हमलोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आप पर शासन नहीं कर सकता। फिर भी आप से यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगों को पवित्र करने के लिये हुआ है; यदि आप किसी की प्रेरणा के बिना स्वयं अपनी इच्छा से ही इस ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त कर लेंगे तो इससे लोगों को बहुत शिक्षा मिलेगी’ ॥ ३१-३२ ॥

भगवान बलराम ने कहा—मैं लोगों को शिक्षा दे ने के लिये, लोगों पर अनुग्रह करने के लिये इस ब्रह्म- हत्या का प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा, अत: इसके लिये प्रथम श्रेणी का जो प्रायश्चित्त हो, आपलोग उसी का विधान कीजिये ॥ ३३ ॥ आपलोग इस सूत को लंबी आयु, बल, इन्द्रिय-शक्ति आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबल से सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ ॥ ३४ ॥

रिशियों ने कहा- बलरामजी ! आप ऐसा कोई उपाय कीजेये जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इन की मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हुम्लोगों ने इन्हें जो वरदान दिए था वह भी सत्य हो जाय ॥ ३५ ॥

भगवन बलराम ने कहा- ऋषियों ! वेदों का ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्र के रूप मे उत्पन्न होता है | इसलिए रोमहर्षण के स्थान पर उनका पुत्र आपलोगों को पुरानो की कथा सुनाएगा | उसे मै अपनी सक्ति से दीर्धायु, इन्द्रियशाक्ति औए बल दिए देता हूँ ॥ ३६ ॥ ऋषियों! इसके अतिरिक्त आपलोग जो कुछ भी चाहते हो , मुझ से कहिये | मे आप लोगों कि इच्छा पूर्ण करूँगा | अनजानेमे मुझ से जो अपराध हो गया है उसका प्रायश्चित भी आपलोग सोच विचारकर बतलाइये | क्यूंकि आपलोग इस विषय के विद्वान है ॥३७॥

रिशियों ने कहा- बलरामजी ! इल्वल का पुत्र बल्वल नामक एक भयंकर दानव है| वह प्रत्येक पर्व पर यहाँ वहां पहुँचता है और हमारे इस सत्र को दूषित कर देता है ॥ ३८ ॥ यदुनंदन ! वह यहाँ आकर पीच, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मस की वर्षा करने लगता है| आप उस पापी को मर डालिये | हम लोगों कि यह बहुत बड़ी सेवा होगी ॥ ३९ ॥ इसके बाद आप एकाग्रचित से तीर्थोंमे स्नान करते हुए बारह महीनो तक भारतवर्ष की परिक्रमा करते हुए विचरण कीजिए | इससे आपकी सुध्दी हो जयगी ॥ ४० ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-79]

॥ एकोनाशीतितमोऽध्यायः - ७९ ॥
श्रीशुक उवाच
ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांसुवर्षणः ।
भीमो वायुरभूद्राजन् पूयगन्धस्तु सर्वशः ॥ १॥

ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम् ।
अभवद्यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक् ॥ २॥

तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाञ्जनचयोपमम् ।
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम् ॥ ३॥

सस्मार मुसलं रामः परसैन्यविदारणम् ।
हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः ॥ ४॥

तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम् ।
मुसलेनाहनत्क्रुद्धो मूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः ॥ ५॥

सोऽपतद्भुवि निर्भिन्नललाटोऽसृक्समुत्सृजन् ।
मुञ्चन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः ॥ ६॥

संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः ।
अभ्यषिञ्चन्महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा ॥ ७॥

वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपङ्कजां ।
रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च ॥ ८॥

अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः ।
स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयुरास्रवत् ॥ ९॥

अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः ।
स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन् जगाम पुलहाश्रमम् ॥ १०॥

गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः ।
गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गङ्गासागरसङ्गमे ॥ ११॥

उपस्पृश्य महेन्द्राद्रौ रामं दृष्ट्वाभिवाद्य च ।
सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः ॥ १२॥

स्कन्दं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम् ।
द्रविडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः ॥ १३॥

कामकोष्णीं पुरीं काञ्चीं कावेरीं च सरिद्वराम् ।
श्रीरङ्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः ॥ १४॥

ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा ।
सामुद्रं सेतुमगमन्महापातकनाशनम् ॥ १५॥

तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः ।
कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम् ॥ १६॥

तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च ।
योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम् ।
दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः ॥ १७॥

ततः फाल्गुनमासाद्य पञ्चाप्सरसमुत्तमम् ।
विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद्गवायुतम् ॥ १८॥

ततोऽभिव्रज्य भगवान् केरलांस्तु त्रिगर्तकान् ।
गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः ॥ १९॥

आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद्बलः ।
तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम् ॥ २०॥

प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी ।
मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत् ॥ २१॥

श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे ।
सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः ॥ २२॥

स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे ।
वारयिष्यन् विनशनं जगाम यदुनन्दनः ॥ २३॥

युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि ।
अभिवाद्याभवंस्तूष्णीं किं विवक्षुरिहागतः ॥ २४॥

गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ ।
मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत् ॥ २५॥

युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन् हे वृकोदर ।
एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम् ॥ २६॥

तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः ।
न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः ॥ २७॥

न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत् ।
अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च ॥ २८॥

दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ ।
उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः ॥ २९॥

तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयाजयन् मुदा ।
क्रत्वङ्गं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम् ॥ ३०॥

तेभ्यो विशुद्धं विज्ञानं भगवान् व्यतरद्विभुः ।
येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः ॥ ३१॥

स्वपत्न्यावभृथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्वृतः ।
रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दुः सुवासाः सुष्ठ्वलङ्कृतः ॥ ३२॥

ईदृग्विधान्यसङ्ख्यानि बलस्य बलशालिनः ।
अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि ॥ ३३॥

योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः ।
सायंप्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत् ॥ ३४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं
नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९॥


दशम स्कन्ध-उन्नासीवाँ अध्याय 34
बल्वल का उद्धार और बलरामजी कि तीर्थयात्रा
श्रीसुखदेवजी कहते हैं – परीक्षित पर्व का दिन आने पर बड़ा भयंकर है ॥ ९ ॥ वहाँ से सरयू के किनारे-किनारे चल ने लगे, फिर उसे छोडक़र प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरों का तर्पण करके वहाँ से पुलहाश्रम गये ॥ १० ॥ वहाँ से गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियों में स्नान करके वे सोननद के तट पर गये और वहाँ स्नान किया। इसके बाद गया में जाकर पितरों का वसुदेवजी के आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गङ्गा-सागर- संगम पर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्यों से निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वत पर गये। वहाँ परशुरामजी का दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदि में स्नान करते हुए स्वामिकार्तिक का दर्शन करने गये तथा वहाँ से महादेवजी के निवासस्थान श्रीशैल पर पहुँचे। इसके बाद भगवान बलराम ने द्रविड़ देश के परम पुण्यमय स्थान वेङ्कटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँ से वे कामाक्षी—शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरी में स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्र में पहुँचे। श्रीरंगक्षेत्र में भगवान विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ॥ ११-१४ ॥ वहाँ से उन्होंने विष्णुभगवान के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापों को नष्ट करनेवाले सेतुबन्ध की यात्रा की ॥ १५ ॥ वहाँ बलरामजी ने ब्राह्मणों को दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँ से कृतमाला और ताम्रपर्णी नदियों में स्नान करते हुए वे मलयपर्वत पर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतों में से एक है ॥ १६ ॥ वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनि को उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजी से आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजी ने दक्षिण समुद्र की यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवी का कन्याकुमारी के रूप में दर्शन किया ॥ १७ ॥ इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ—अनन्तशयन क्षेत्र में गये और वहाँ के सर्वश्रेष्ठ पञ्चाप्सरस तीर्थ में स्नान किया। उस तीर्थ में सर्वदा विष्णुभगवान का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजी ने दस हजार गौएँ दान कीं ॥ १८ ॥

अब भगवान बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगर्त देशों में होकर भगवान शङ्करके क्षेत्र गोकर्णतीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान शङ्कर विराजमान रहते हैं ॥ १९ ॥ वहाँ से जल से घिरे द्वीप में निवास करनेवाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीप से चलकर शूर्पारक- क्षेत्र की यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियों में स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये ॥ २० ॥ वहाँ होकर वे नर्मदाजी के तट पर गये। परीक्षित ! इस पवित्र नदी के तट पर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्र में चले आये ॥ २१ ॥ वहीं उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत-सा भार उतर गया ॥ २२ ॥ जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोक ने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ॥ २३ ॥

महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोच ने लगे कि ये न जाने क्या कह ने के लिये यहाँ पधारे हैं ? ॥ २४ ॥ उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक- दूसरे को जीत ने के लिये क्रोध से भरकर भाँति-भाँति के पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजी ने कहा— ॥ २५ ॥ ‘राजा दुर्योधन और भीमसेन ! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदायुद्ध में शिक्षा अधिक पायी है ॥ २६ ॥ इसलिये तुमलोगों-जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती। अत: तुमलोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’ ॥ २७ ॥ परीक्षित ! बलरामजी की बात दोनों के लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी। वे एक-दूसरे की कटुवाणी और दुव्र्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त- से हो रहे थे ॥ २८ ॥ भगवान बलरामजी ने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्ध में विशेष आग्रह न करके वे द्वार का लौट गये। द्वारका में उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियों ने बड़े प्रेम से आगे आकर उनका स्वागत किया ॥ २९ ॥ वहाँ से बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्र में गये। वहाँ ऋषियों ने विरोधभावसे—युद्धादि से निवृत्त बलरामजी के द्वारा बड़े प्रेम से सब प्रकार के यज्ञ कराये। परीक्षित ! सच पूछो तो जित ने भी यज्ञ हैं, वे बलरामजी के अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रह के लिये ही था ॥ ३० ॥ सर्वसमर्थ भगवान बलराम ने उन ऋषियों को विशुद्ध तत्त्वज्ञान का उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्व को अपने-आप में और अपने-आपको सारे विश्व में अनुभव करने लगे ॥ ३१ ॥ इसके बाद बलरामजी ने अपनी पत्नी रेवती के साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियों के साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रि का एवं नक्षत्रों के साथ चन्द्रदेव होते हैं ॥ ३२ ॥ परीक्षित ! भगवान बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणी के परे है। उन्होंने लीला के लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली बलरामजी के ऐसे-ऐसे चरित्रों की गिनती भी नहीं की जा सकती ॥ ३३ ॥ जो पुरुष अनन्त, सर्वव्यापक, अद्भुतकर्मा भगवान बलरामजी के चरित्रों का सायं- प्रात: स्मरण करता है, वह भगवान का अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ ३४ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-80]

॥ अशीतितमोऽध्यायः - ८० ॥
राजोवाच
भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः ।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामहे प्रभो ॥ १॥

को नु श्रुत्वासकृद्ब्रह्मन्नुत्तमश्लोकसत्कथाः ।
विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः ॥ २॥

सा वाग्यया तस्य गुणान् गृणीते
करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।
स्मरेद्वसन्तं स्थिरजङ्गमेषु
श‍ृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः ॥ ३॥

शिरस्तु तस्योभयलिङ्गमानमे-
त्तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः ।
अङ्गानि विष्णोरथ तज्जनानां
पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम् ॥ ४॥

सूत उवाच
विष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान् बादरायणिः ।
वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत् ॥ ५॥

श्रीशुक उवाच
कृष्णस्यासीत्सखा कश्चिद्ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः ।
विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ॥ ६॥

यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी ।
तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा ॥ ७॥

पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा ।
दरिद्रा सीदमाना सा वेपमानाभिगम्य च ॥ ८॥

ननु ब्रह्मन् भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः ।
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान् सात्वतर्षभः ॥ ९॥

तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम् ।
दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने ॥ १०॥

आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।
स्मरतः पादकमलमात्मानमपि यच्छति ।
किं न्वर्थकामान् भजतो नात्यभीष्टान् जगद्गुरुः ॥ ११॥

स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदु ।
अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोकदर्शनम् ॥ १२॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे ।
अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद्गृहे कल्याणि दीयताम् ॥ १३॥

याचित्वा चतुरो मुष्टीन् विप्रान् पृथुकतण्डुलान् ।
चैलखण्डेन तान् बद्ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम् ॥ १४॥

स तानादाय विप्राग्र्यः प्रययौ द्वारकां किल ।
कृष्णसन्दर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिन्तयन् ॥ १५॥

त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्चस द्विजः ।
विप्रोऽगम्यान्धकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम् ॥ १६॥

गृहं द्व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः ।
विवेशैकतमं श्रीमद्ब्रह्मानन्दं गतो यथा ॥ १७॥

तं विलोक्याच्युतो दूरात्प्रियापर्यङ्कमास्थितः ।
सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा ॥ १८॥

सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेरङ्गसङ्गातिनिर्वृतः ।
प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः ॥ १९॥

अथोपवेश्य पर्यङ्के स्वयंसख्युः समर्हणम् ।
उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः ॥ २०॥

अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवांल्लोकपावनः ।
व्यलिम्पद्दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुङ्कमैः ॥ २१॥

धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा ।
अर्चित्वावेद्य ताम्बूलं गां च स्वागतमब्रवीत् ॥ २२॥

कुचैलं मलिनं क्षामं द्विजं धमनिसन्ततम् ।
देवी पर्यचरत्साक्षाच्चामरव्यजनेन वै ॥ २३॥

अन्तःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना ।
विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम् ॥ २४॥

किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा ।
श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन् गर्हितेनाधमेन च ॥ २५॥

योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन सम्भृतः ।
पर्यङ्कस्थां श्रियं हित्वा परिष्वक्तोऽग्रजो यथा ॥ २६॥

कथयांचक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः ।
आत्मनो ललिता राजन् करौ गृह्य परस्परम् ॥ २७॥

श्रीभगवानुवाच
अपि ब्रह्मन् गुरुकुलाद्भवता लब्धदक्षिणात् ।
समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा ॥ २८॥

प्रायो गृहेषु ते चित्तमकामविहितं तथा ।
नैवातिप्रीयसे विद्वन् धनेषु विदितं हि मे ॥ २९॥

केचित्कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः ।
त्यजन्तः प्रकृतीर्दैवीर्यथाहं लोकसङ्ग्रहम् ॥ ३०॥

कच्चिद्गुरुकुले वासं ब्रह्मन् स्मरसि नौ यतः ।
द्विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमसः पारमश्नुते ॥ ३१॥

स वै सत्कर्मणां साक्षाद्द्विजातेरिह सम्भवः ।
आद्योऽङ्ग यत्राश्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरुः ॥ ३२॥

नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह ।
ये मया गुरुणा वाचा तरन्त्यञ्जो भवार्णवम् ॥ ३३॥

नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा ।
तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा ॥ ३४॥

अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन् वृत्तं निवसतां गुरौ ।
गुरुदारैश्चोदितानामिन्धनानयने क्वचित् ॥ ३५॥

प्रविष्टानां महारण्यमपर्तौ सुमहद्द्विज ।
वातवर्षमभूत्तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्नवः ॥ ३६॥

सूर्यश्चास्तंगतस्तावत्तमसा चावृता दिशः ।
निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ ३७॥

वयं भृशं तत्र महानिलाम्बुभि-
र्निहन्यमाना महुरम्बुसम्प्लवे ।
दिशोऽविदन्तोऽथ परस्परं वने
गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः ॥ ३८॥

एतद्विदित्वा उदिते रवौ सान्दीपनिर्गुरुः ।
अन्वेषमाणो नः शिष्यानाचार्योऽपश्यदातुरान् ॥ ३९॥

अहो हे पुत्रका यूयमस्मदर्थेऽतिदुःखिताः ।
आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठस्तमनादृत्य मत्पराः ॥ ४०॥

एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम् ।
यद्वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ ॥ ४१॥

तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्याः सन्तु मनोरथाः ।
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ॥ ४२॥

इत्थं विधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु ।
गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशान्तये ॥ ४३॥

ब्राह्मण उवाच
किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद्गुरो ।
भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत् ॥ ४४॥

यस्यच्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो ।
श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम् ॥ ४५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीदामचरिते अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८०॥


दशम स्कन्ध-अस्सीवाँ अध्याय 45
श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामाजी का स्वागत
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! प्रेम और मुक्ति के दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्य से भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अब तक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! यह जीव विषय-सुख को खोजते-खोजते अत्यन्त दुखी हो गया है। वे बाण की तरह इसके चित्त में चुभते रहते हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा कौन-सा रसिक—रस का विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्र- कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण की मङ्गलमयी लीलाओं का श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा ॥ २ ॥ जो वाणी भगवान के गुणों का गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान की सेवा के लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियों में निवास करनेवाले भगवान का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तव में कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान की पुण्यमयी कथाओं का श्रवण करते हैं ॥ ३ ॥ वही सिर सिर है, जो चराचर जगत को भगवान की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तव में नेत्र हैं। शरीर के जो अङ्ग भगवान और उनके भक्तों के चरणोदक का सेवन करते हैं, वे ही अङ्ग वास्तव में अङ्ग हैं; सच पूछिये तो उन्हीं का होना सफल है ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित ने इस प्रकार प्रश्र किया, तब भगवान श्रीशुकदेवजी का हृदय भगवान श्रीकृष्ण में ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित से इस प्रकार कहा ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! एक ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयों से विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे ॥ ६ ॥ वे गृहस्थ होने पर भी किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसी में सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुरा ने थे ही, उनकी पत्नी के भी वैसे ही थे। वह भी अपने पति के समान ही भूख से दुबली हो रही थी ॥ ७ ॥ एक दिन दरिद्रता की प्रतिमूर्ति दु:खिनी पतिव्रता भूख के मारे काँपती हुई अपने पतिदेव के पास गयी और मुरझाये हुए मुँह से बोली— ॥ ८ ॥ ‘भगवन् ! साक्षात लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणों के परम भक्त हैं ॥ ९ ॥ परम भाग्यवान् आर्यपुत्र ! वे साधु-संतोंके, सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्न के बिना दुखी हो रहे हैं, तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे ॥ १० ॥ आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के स्वामी के रूप में द्वारका में ही निवास कर रहे हैं। और इत ने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलों का स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तों को वे अपने-आप तक का दान कर डालते हैं। ऐसी स्थिति में जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें, तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ?’ ॥ ११ ॥ इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवता की पत्नी ने अपने पतिदेव से कई बार बड़ी नम्रता से प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धन की तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हो जायगा, यह तो जीवन का बहुत बड़ा लाभ है’ ॥ १२ ॥ यही विचार करके उन्होंने जाने का निश्चय किया और अपनी पत्नी से बोले— ‘कल्याणी ! घर में कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या ? यदि हो तो दे दो’ ॥ १३ ॥ तब उस ब्राह्मणी ने पास-पड़ोसके ब्राह्मणों के घर से चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़े में बाँध दिये और भगवान को भेंट दे ने के लिये अपने पतिदेव को दे दिये ॥ १४ ॥ इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ों को लेकर द्वार का के लिये चल पड़े। वे मार्ग में यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन कैसे प्राप्त होंगे ?’ ॥ १५ ॥

परीक्षित ! द्वारका में पहुँचने पर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणों के साथ सैनिकों की तीन छावनियाँ और तीन ड्योढिय़ाँ पार करके भगवद्धर्म का पालन करनेवाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों के महलों में, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे ॥ १६ ॥ उनके बीच भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियों के महल थे। उनमें से एक में उन ब्राह्मणदेवता ने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा- सजाया—अत्यन्त शोभायुक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्द के समुद्र में डूब-उतरा रहे हों ! ॥ १७ ॥ उस समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी के पलंग पर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवता को दूर से ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्द से उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लिया ॥ १८ ॥ परीक्षित ! परमानन्द- स्वरूप भगवान अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवता के अङ्ग-स्पर्श से अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमल के समान कोमल नेत्रों से प्रेम के आँसू बरस ने लगे ॥ १९ ॥ परीक्षित ! कुछ समय के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ले जाकर अपने पलंग पर बैठा दिया और स्वयं पूजन की सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण सभी को पवित्र करनेवाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवता के पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सिर पर धारण किया और उनके शरीर में चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धों का लेपन किया ॥ २०-२१ ॥ फिर उन्होंने बड़े आनन्द से सुगन्धित धूप और दीपावली से अपने मित्र की आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनों से ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण- देवता फटे-पुरा ने वस्त्र पह ने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देह की सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं ॥ २३ ॥ अन्त:पुर की स्त्रियाँ यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण अतिशय प्रेम से इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मण की पूजा कर रहे हैं ॥ २४ ॥ वे आपस में कह ने लगीं—‘इस नंग-धड़ंग, निर्धन, निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगे ने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकी में सब से बड़े श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्हों ने अपने पलंग पर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजी को छोडक़र इस ब्राह्मण को अपने बड़े भाई बलरामजी के समान हृदय से लगाया है’ ॥ २५-२६ ॥ प्रिय परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरे का हाथ पकडक़र अपने पूर्वजीवन की उन आनन्ददायक घटनाओं का स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुल में रहते समय घटित हुई थीं ॥ २७ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—धर्म के मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव ! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं ? ॥ २८ ॥ मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय-भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वन् ! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है ॥ २९ ॥ जगत में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान की माया से निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिये कर्म करते रहते हैं ॥ ३० ॥ ब्राह्मणशिरोमणे ! क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे। सचमुच गुरुकुल में ही द्विजातियों को अपने ज्ञातव्य वस्तु का ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकार से पार हो जाते हैं ॥ ३१ ॥ मित्र ! इस संसार में शरीर का कारण—जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मों की शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्मा को प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियों के ये तीन गुरु होते हैं ॥ ३२ ॥ मेरे प्यारे मित्र ! गुरु के स्वरूप में स्वयं मैं हूँ। इस जगत में वर्णाश्रमियों में जो लोग अपने गुरुदेव के उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थ के सच्चे जानकार हैं ॥ ३३ ॥ प्रिय मित्र ! मैं सब का आत्मा हूँ, सब के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान हूँ। मैं गृहस्थ के धर्म पञ्चमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारी के धर्म उपनयन- वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थी के धर्म तपस्या से और सब ओर से उपरत हो जाना—इस संन्यासी के धर्म से भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेव की सेवा-शुश्रूषा से सन्तुष्ट होता हूँ ॥ ३४ ॥

ब्रह्मन् ! जिस समय हमलोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे; उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनों को एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने र्ईंधन ला ने के लिये जंगल में भेजा था ॥ ३५ ॥ उस समय हमलोग एक घोर जंगल में गये हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयङ्कर आँधी-पानी आ गया था। आकाश में बिजली कडक़ ने लगी थी ॥ ३६ ॥ तब तक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा- ही-अँधेरा फैल गया। धरती पर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था ॥ ३७ ॥ वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधी के झटकों और वर्षा की बौछारों से हमलोगों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरे का हाथ पकडक़र जंगल में इधर-उधर भटकते रहे ॥ ३८ ॥ जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर अपने शिष्य हमलोगों कोढूँढ़ते हुए जंगल में पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं ॥ ३९ ॥ वे कह ने लगे—‘आश्चर्य है, आश्चर्य है ! पुत्रो ! तुमलोगों ने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सब से अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवा में ही संलग्र रहे ॥ ४० ॥ गुरु के ऋण से मुक्त होने के लिये सत्-शिष्यों का इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भाव से अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर दें ॥ ४१ ॥ द्विजशिरोमणियो ! मैं तुमलोगों से अत्यन्त प्रसन्न हूँ तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुमलोगों ने हम से जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोक में कहीं भी निष्फल न हो’ ॥ ४२ ॥ प्रिय मित्र ! जिस समय हमलोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, हमारे जीवन में ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेव की कृपा से ही मनुष्य शान्ति का अधिकारी होता और पूर्णता को प्राप्त करता है ॥ ४३ ॥

ब्राह्मणदेवता ने कहा—देवताओं के आराध्यदेव जगद्गुरु श्रीकृष्ण ! भला अब हमें क्या करना बा की है ? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसङ्कल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुल में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था ॥ ४४ ॥ प्रभो ! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थ के मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययन के लिये गुरुकुल में निवास करें, यह मनुष्य- लीला का अभिनय नहीं तो और क्या है ? ॥ ४५ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-81]

॥ एकाशीतितमोऽध्यायः - ८१ ॥
श्रीशुक उवाच
स इत्थं द्विजमुख्येन सह सङ्कथयन् हरिः ।
सर्वभूतमनोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच तम् ॥ १॥

ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान् प्रहसन् प्रियम् ।
प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षन् खलु सतां गतिः ॥ २॥

श्रीभगवानुवाच
किमुपायनमानीतं ब्रह्मन् मे भवता गृहात् ।
अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत् ।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ॥ ३॥

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ ४॥

इत्युक्तोऽपि द्विजस्तस्मै व्रीडितः पतये श्रियः ।
पृथुकप्रसृतिं राजन् न प्रायच्छदवाङ्मुखः ॥ ५॥

सर्वभूतात्मदृक्साक्षात्तस्यागमनकारणम् ।
विज्ञायाचिन्तयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा ॥ ६॥

पत्न्याः पतिव्रतायास्तु सखा प्रियचिकीर्षया ।
प्राप्तो मामस्य दास्यामि सम्पदोऽमर्त्यदुर्लभाः ॥ ७॥

इत्थं विचिन्त्य वसनाच्चीरबद्धान् द्विजन्मनः ।
स्वयं जहार किमिदमिति पृथुकतण्डुलान् ॥ ८॥ सगोनासंगोगो
नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे ।
तर्पयन्त्यङ्ग मां विश्वमेते पृथुकतण्डुलाः ॥ ९॥

इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे ।
तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः ॥ १०॥

एतावतालं विश्वात्मन् सर्वसम्पत्समृद्धये ।
अस्मिन् लोकेऽथ वामुष्मिन् पुंसस्त्वत्तोषकारणम् ॥ ११॥

ब्राह्मणस्तां तु रजनीमुषित्वाच्युतमन्दिरे ।
भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेने आत्मानं स्वर्गतं यथा ॥ १२॥

श्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः ।
जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नन्दितः ॥ १३॥

स चालब्ध्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान् स्वयम् ।
स्वगृहान् व्रीडितोऽगच्छन्महद्दर्शननिर्वृतः ॥ १४॥

अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया ।
यद्दरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो बिभ्रतोरसि ॥ १५॥

क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः ।
ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥ १६॥

निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यङ्के भ्रातरो यथा ।
महिष्या वीजितः श्रान्तो वालव्यजनहस्तया ॥ १७॥

शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः ।
पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत् ॥ १८॥

स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम् ।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम् ॥ १९॥

अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यन्नुच्चैर्न मां स्मरेत् ।
इति कारुणिको नूनं धनं मेऽभूरि नाददात् ॥ २०॥

इति तच्चिन्तयन्नन्तः प्राप्तो निजगृहान्तिकम् ।
सूर्यानलेन्दुसङ्काशैर्विमानैः सर्वतो वृतम् ॥ २१॥

विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्द्विजकुलाकुलैः ।
प्रोत्फुल्लकुमुदाम्भोजकह्लारोत्पलवारिभिः ॥ २२॥

जुष्टं स्वलङ्कृतैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः ।
किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् ॥ २३॥

एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः ।
प्रत्यगृह्णन् महाभागं गीतवाद्येन भूयसा ॥ २४॥

पतिमागतमाकर्ण्य पत्न्युद्धर्षातिसम्भ्रमा ।
निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात् ॥ २५॥

पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कण्ठाश्रुलोचना ।
मीलिताक्ष्यनमद्बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे ॥ २६॥

पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं देवीं वैमानिकीमिव ।
दासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये भान्तीं स विस्मितः ॥ २७॥

प्रीतः स्वयं तया युक्तः प्रविष्टो निजमन्दिरम् ।
मणिस्तम्भशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा ॥ २८॥

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।
पर्यङ्का हेमदण्डानि चामरव्यजनानि च ॥ २९॥

आसनानि च हैमानि मृदूपस्तरणानि च ।
मुक्तादामविलम्बीनि वितानानि द्युमन्ति च ॥ ३०॥

स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
रत्नदीपा भ्राजमाना ललनारत्नसंयुताः ॥ ३१॥

विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसम्पदाम् ।
तर्कयामास निर्व्यग्रः स्वसमृद्धिमहैतुकीम् ॥ ३२॥

नूनं बतैतन्मम दुर्भगस्य
शश्वद्दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः ।
महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो
नैवोपपद्येत यदूत्तमस्य ॥ ३३॥

नन्वब्रुवाणो दिशते समक्षं
याचिष्णवे भूर्यपि भूरिभोजः ।
पर्जन्यवत्तत्स्वयमीक्षमाणो
दाशार्हकाणामृषभः सखा मे ॥ ३४॥

किञ्चित्करोत्युर्वपि यत्स्वदत्तं
सुहृत्कृतं फल्ग्वपि भूरिकारी ।
मयोपनीतां पृथुकैकमुष्टिं
प्रत्यग्रहीत्प्रीतियुतो महात्मा ॥ ३५॥

तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्रीदास्यं
पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात् ।
महानुभावेन गुणालयेन
विषज्जतस्तत्पुरुषप्रसङ्गः ॥ ३६॥

भक्ताय चित्रा भगवान् हि सम्पदो
राज्यं विभूतीर्न समर्थयत्यजः ।
अदीर्घबोधाय विचक्षणः स्वयं
पश्यन्निपातं धनिनां मदोद्भवम् ॥ ३७॥

इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या भक्तोऽतीव जनार्दने ।
विषयान् जायया त्यक्ष्यन् बुभुजे नातिलम्पटः ॥ ३८॥

तस्य वै देवदेवस्य हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः ।
ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न तेभ्यो विद्यते परम् ॥ ३९॥

एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा
दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम् ।
तद्ध्यानवेगोद्ग्रथितात्मबन्धन-
स्तद्धाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम् ॥ ४०॥

एतद्ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः ।
लब्धभावो भगवति कर्मबन्धाद्विमुच्यते ॥ ४१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पृथुकोपाख्यानं नामैकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१॥


दशम स्कन्ध-इक्यासीवाँ अध्याय 41
सुदामाजी को ऐश्वर्य की प्राप्ति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण सब के मन की बात जानते हैं। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, उनके क्लेशों के नाशक तथा संतों के एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त प्रकार से उन ब्राह्मणदेवता के साथ बहुत देर तक बातचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मण से तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवता की ओर प्रेमभरी दृष्टि से देख रहे थे ॥ १-२ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘ब्रह्मन् ! आप अपने घर से मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं ? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेम से थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं, तो वह मेरे लिये बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं, तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता ॥ ३ ॥ जो पुरुष प्रेम-भक्ति से फल-फूल अथवा पत्ता-पानी में से कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्त का वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ’ ॥ ४ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर भी उन ब्राह्मण देवता ने लज्जावश उन लक्ष्मीपति को वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने सं कोच से अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय का एक-एक सङ्कल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मण के आ ने का कारण, उनके हृदय की बात जान ली। अब वे विचार करने लगे कि ‘एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इस ने पहले कभी लक्ष्मी की कामना से मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नी को प्रसन्न करने के लिये उसी के आग्रह से यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है’ ॥ ५-७ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा विचार करके उनके वस्त्र में से चिथड़े की एक पोटली में बँधा हुआ चिउड़ा ‘यह क्या है’—ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया ॥ ८ ॥ और बड़े आदर से कह ने लगे—‘प्यारे मित्र ! यह तो तुम मेरे लिये अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्त करने के लिये पर्याप्त हैं’ ॥ ९ ॥ ऐसा कहकर वे उसमें से एक मुट्ठी चिउड़ा खा गये और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणी के रूप में स्वयं भगवती लक्ष्मीजी ने भगवान श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया ! क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान के परायण हैं, उन्हें छोडक़र और कहीं जा नहीं सकतीं ॥ १० ॥ रुक्मिणीजी ने कहा—‘विश्वात्मन् ! बस, बस। मनुष्य को इस लोक में तथा मर ने के बाद परलोक में भी समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि प्राप्त करने के लिये यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नता का हेतु बन जाता है’ ॥ ११ ॥

परीक्षित ! ब्राह्मणदेवता उस रात को भगवान श्रीकृष्ण के महल में ही रहे। उन्होंने बड़े आराम से वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठ में ही पहुँच गया हूँ ॥ १२ ॥ परीक्षित ! श्रीकृष्ण से ब्राह्मण को प्रत्यक्षरूप में कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं ! वे अपने चित्त की करतूत पर कुछ लज्जित- से होकर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनजनित आनन्द में डूबते- उतराते अपने घर की ओर चल पड़े ॥ १३-१४ ॥ वे मन-ही-मन सोच ने लगे—‘अहो, कित ने आनन्द और आश्चर्य की बात है ! ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान श्रीकृष्ण की ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है ! जिनके वक्ष:स्थल पर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्र को अपने हृदय से लगा लिया ॥ १५ ॥ कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मी के एकमात्र आश्रय भगवान श्रीकृष्ण ! परन्तु उन्होंने ‘यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया ॥ १६ ॥ इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंग पर सुलाया, जिस पर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ ! कहाँ तक कहूँ ? मैं थ का हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजी ने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की ॥ १७ ॥ ओह, देवताओं के आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभु ने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवता के समान मेरी पूजा की ॥ १८ ॥ स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियों की प्राप्ति का मूल उनके चरणों की पूजा ही है ॥ १९ ॥ फिर भी परमदयालु श्रीकृष्ण ने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे’ ॥ २० ॥

इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घर के पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्रि और चन्द्रमा के समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलों से घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरों में कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक—भाँति- भाँति के कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थान को देखकर ब्राह्मणदेवता सोच ने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ ? यह किस का स्थान है ? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया’ ॥ २१—२३ ॥ इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओं के समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजे के साथ मङ्गलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मण की अगवानी करने के लिये आये ॥ २४ ॥ पतिदेव का शुभागमन सुनकर ब्राह्मणी को अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी घर से निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवन से पधारी हों ॥ २५ ॥ पतिदेव को देखते ही पतिव्रता पत्नी के नेत्रों में प्रेम और उत्कण्ठा के आवेग से आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्राह्मणी ने बड़े प्रेमभाव से उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिङ्गन भी ॥ २६ ॥

प्रिय परीक्षित ! ब्राह्मणपत्नी सो ने का हार पहनी हुई दासियों के बीच में विमानस्थित देवाङ्गना के समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूप में देखकर वे विस्मित हो गये ॥ २७ ॥ उन्होंने अपनी पत्नी के साथ बड़े प्रेम से अपने महल में प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान। इसमें मणियों के सैकड़ों खंभे खड़े थे ॥ २८ ॥ हाथी के दाँत के बने हुए और सो ने के पात से मँढ़े हुए पलंगों पर दूध के फेन की तरह श्वेत और कोमल बिछौ ने बिछ रहे थे। बहुत- से चँवर वहाँ रखे हुए थे, जिन में सो ने की डंडियाँ लगी हुई थीं ॥ २९ ॥ सो ने के सिंहासन शोभायमान हो रहे थे, जिन पर बड़ी कोमल- कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं ! ऐसे चँदोवे भी झिलमिला रहे थे जिन में मोतियों की लडिय़ाँ लटक रही थीं ॥ ३० ॥ स्फटिकमणि की स्वच्छ भीतों पर पन् ने की पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियों के हाथों में रत्नों के दीपक जगमगा रहे थे ॥ ३१ ॥ इस प्रकार समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरता से ब्राह्मणदेवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँ से आ गयी ॥ ३२ ॥ वे मन-ही-मन कह ने लगे—‘मैं जन्म से ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धि का कारण क्या है ? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के कृपाकटाक्ष के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता ॥ ३३ ॥ यह सब कुछ उनकी करुणा की ही देन है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होने के कारण अनन्त भोगसामग्रियों से युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्त को उसके मन का भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघ से भी बढक़र उदार हैं, जो समुद्र को भर दे ने की शक्ति रखने पर भी किसान के सामने न बरसकर उसके सो जाने पर रात में बरसता है और बहुत बरसने पर भी थोड़ा ही समझता है ॥ ३४ ॥ मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा ! और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उस को बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही ! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेंट किया था, पर उदार-शिरोमणि श्रीकृष्ण ने उसे कित ने प्रेम से स्वीकार किया ॥ ३५ ॥ मुझे जन्म- जन्म उन्हीं का प्रेम, उन्हीं की हितैषिता, उन्हीं की मित्रता और उन्हीं की सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणों के एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन्हींके प्रेमी भक्तों का सत्सङ्ग प्राप्त हो ॥ ३६ ॥ अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदि के दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियों का धन और ऐश्वर्य के मद से पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्त को उसके माँगते रहने पर भी तरह-तरह की सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है’ ॥ ३७ ॥ परीक्षित ! अपनी बुद्धि से इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मणदेवता त्यागपूर्वक अनासक्तभाव से अपनी पत्नी के साथ भगवत्प्रसाद स्वरूप विषयों को ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेम-भक्ति बढऩे लगी ॥ ३८ ॥

प्रिय परीक्षित ! देवताओं के भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान स्वयं ब्राह्मणों को अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणों से बढक़र और कोई भी प्राणी जगत में नहीं है ॥ ३९ ॥ इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा उस ब्राह्मण ने देखा कि ‘यद्यपि भगवान अजित हैं, किसी के अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकों के अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं;’ अब वे उन्हींके ध्यान में तन्मय हो गये। ध्यान के आवेग से उनकी अविद्या की गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समय में भगवान का धाम, जो कि संतों का एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया ॥ ४० ॥ परीक्षित ! ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान श्रीकृष्ण की इस ब्राह्मणभक्ति को जो सुनता है, उसे भगवान के चरणों में प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-82]

॥ द्व्यशीतितमोऽध्यायः - ८२ ॥
श्रीशुक उवाच
अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः ।
सूर्योपरागः सुमहानासीत्कल्पक्षये यथा ॥ १॥

तं ज्ञात्वा मनुजा राजन् पुरस्तादेव सर्वतः ।
समन्तपञ्चकं क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया ॥ २॥

निःक्षत्रियां महीं कुर्वन् रामः शस्त्रभृतां वरः ।
नृपाणां रुधिरौघेण यत्र चक्रे महाह्रदान् ॥ ३॥

ईजे च भगवान् रामो यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा ।
लोकस्य ग्राहयन्नीशो यथान्योऽघापनुत्तये ॥ ४॥

महत्यां तीर्थयात्रायां तत्रागन् भारतीः प्रजाः ।
वृष्णयश्च तथाक्रूरवसुदेवाहुकादयः ॥ ५॥

ययुर्भारत तत्क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः ।
गदप्रद्युम्नसाम्बाद्याः सुचन्द्रशुकसारणैः ॥ ६॥

आस्तेऽनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः ।
ते रथैर्देवधिष्ण्याभैर्हयैश्च तरलप्लवैः ॥ ७॥

गजैर्नदद्भिरभ्राभैर्नृभिर्विद्याधरद्युभिः ।
व्यरोचन्त महातेजाः पथि काञ्चनमालिनः ॥ ८॥

दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः कलत्रैः खेचरा इव ।
तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः ॥ ९॥

ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धेनूर्वासःस्रग्रुक्ममालिनीः ।
रामह्रदेषु विधिवत्पुनराप्लुत्य वृष्णयः ॥ १०॥

ददुः स्वन्नं द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति ।
स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णयः कृष्णदेवताः ॥ ११॥

भुक्त्वोपविविशुः कामं स्निग्धच्छायाङ्घ्रिपाङ्घ्रिषु ।
तत्रागतांस्ते ददृशुः सुहृत्सम्बन्धिनो नृपान् ॥ १२॥

मत्स्योशीनरकौसल्यविदर्भकुरुसृञ्जयान् ।
काम्बोजकैकयान्मद्रान् कुन्तीनानर्तकेरलान् ॥ १३॥

अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप ।
नन्दादीन् सुहृदो गोपान् गोपीश्चोत्कण्ठिताश्चिरम् ॥ १४॥

अन्योन्यसन्दर्शनहर्षरंहसा
प्रोत्फुल्लहृद्वक्त्रसरोरुहश्रियः ।
आश्लिष्य गाढं नयनैः स्रवज्जला
हृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम् ॥ १५॥

स्त्रियश्च संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृद-
स्मितामलापाङ्गदृशोऽभिरेभिरे ।
स्तनैः स्तनान् कुङ्कुमपङ्करूषितान्निहत्य
दोर्भिः प्रणयाश्रुलोचनाः ॥ १६॥

ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान् यविष्ठैरभिवादिताः ।
स्वागतं कुशलं पृष्ट्वा चक्रुः कृष्णकथा मिथः ॥ १७॥

पृथा भ्रातॄन् स्वसॄर्वीक्ष्य तत्पुत्रान् पितरावपि ।
भ्रातृपत्नीर्मुकुन्दं च जहौ सङ्कथया शुचः ॥ १८॥

कुन्त्युवाच
आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम् ।
यद्वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः ॥ १९॥

सुहृदो ज्ञातयः पुत्रा भ्रातरः पितरावपि ।
नानुस्मरन्ति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम् ॥ २०॥

वसुदेव उवाच
अम्ब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान् नरान् ।
ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेऽथ वा ॥ २१॥

कंसप्रतापिताः सर्वे वयं याता दिशं दिशम् ।
एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः ॥ २२॥

श्रीशुक उवाच
वसुदेवोग्रसेनाद्यैर्यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः ।
आसन्नच्युतसन्दर्शपरमानन्दनिर्वृताः ॥ २३॥

भीष्मो द्रोणोऽम्बिकापुत्रो गान्धारी ससुता तथा ।
सदाराः पाण्डवाः कुन्ती सञ्जयो विदुरः कृपः ॥ २४॥

कुन्तिभोजो विराटश्च भीष्मको नग्नजिन्महान् ।
पुरुजिद्द्रुपदः शल्यो धृष्टकेतुः सकाशिराट् ॥ २५॥

दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ ।
युधामन्युः सुशर्मा च ससुता बाह्लिकादयः ॥ २६॥

राजानो ये च राजेन्द्र युधिष्ठिरमनुव्रताः ।
श्रीनिकेतं वपुः शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः ॥ २७॥

अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक् प्राप्तसमर्हणाः ।
प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन् कृष्णपरिग्रहान् ॥ २८॥

अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह ।
यत्पश्यथासकृत्कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम् ॥ २९॥

यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति
पादावनेजनपयश्चवचश्चशास्त्रम् ।
भूः कालभर्जितभगापि यदङ्घ्रिपद्म-
स्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान् ॥ ३०॥

तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्प-
शय्यासनाशनसयौनसपिण्डबन्धः ।
येषां गृहे निरयवर्त्मनि वर्ततां वः
स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः ॥ ३१॥

श्रीशुक उवाच
नन्दस्तत्र यदून् प्राप्तान् ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान् ।
तत्रागमद्वृतो गोपैरनःस्थार्थैर्दिदृक्षया ॥ ३२॥

तं दृष्ट्वा वृष्णयो हृष्टास्तन्वः प्राणमिवोत्थिताः ।
परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातराः ॥ ३३॥

वसुदेवः परिष्वज्य सम्प्रीतः प्रेमविह्वलः ।
स्मरन् कंसकृतान् क्लेशान् पुत्रन्यासं च गोकुले ॥ ३४॥

कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च ।
न किञ्चनोचतुः प्रेम्णा साश्रुकण्ठौ कुरूद्वह ॥ ३५॥

तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च ।
यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतुः शुचः ॥ ३६॥

रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य व्रजेश्वरीम् ।
स्मरन्त्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकण्ठ्यौ समूचतुः ॥ ३७॥

का विस्मरेत वां मैत्रीमनिवृत्तां व्रजेश्वरि ।
अवाप्याप्यैन्द्रमैश्वर्यं यस्या नेह प्रतिक्रिया ॥ ३८॥

एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः
सम्प्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि ।
प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णोः
न्यस्तावकुत्र च भयौ न सतां परः स्वः ॥ ३९॥

श्रीशुक उवाच
गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं
यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति ।
दृग्भिर्हृदीकृतमलं परिरभ्य सर्वा-
स्तद्भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम् ॥ ४०॥

भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसङ्गतः ।
आश्लिष्यानामयं पृष्ट्वा प्रहसन्निदमब्रवीत् ॥ ४१॥

अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया ।
गतांश्चिरायिताञ्छत्रुपक्षक्षपणचेतसः ॥ ४२॥

अप्यवध्यायथास्मान् स्विदकृतज्ञाविशङ्कया ।
नूनं भूतानि भगवान् युनक्ति वियुनक्ति च ॥ ४३॥

वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च ।
संयोज्याक्षिपते भूयस्तथा भूतानि भूतकृत् ॥ ४४॥

मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते ।
दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥ ४५॥

अहं हि सर्वभूतानामादिरन्तोऽन्तरं बहिः ।
भौतिकानां यथा खं वार्भूर्वायुर्ज्योतिरङ्गनाः ॥ ४६॥

एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माऽऽत्मना ततः ।
उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे ॥ ४७॥

श्रीशुक उवाच
अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः ।
तदनुस्मरणध्वस्तजीवकोशास्तमध्यगन् ॥ ४८॥

आहुश्चते नलिननाभ पदारविन्दं
योगेश्वरैर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
गेहंजुषामपि मनस्युदियात्सदा नः ॥ ४९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे वृष्णिगोपसङ्गमो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२॥


दशम स्कन्ध-बयासीवाँ अध्याय 49
भगवान श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारका में निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलय के समय लगा करता है ॥ १ ॥ परीक्षित ! मनुष्यों को ज्योतिषियों के द्वारा उस ग्रहण का पता पहले से ही चल गया था, इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याण के उद्देश्य से पुण्य आदि उपार्जन करने के लिये समन्तपञ्चक-तीर्थ कुरुक्षेत्र में आये ॥ २ ॥ समन्तपञ्चक क्षेत्र वह है, जहाँ शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुरामजी ने सारी पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके राजाओं की रुधिरधारा से पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे ॥ ३ ॥ जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पाप की निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्त करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान परशुराम ने अपने साथ कर्म का कुछ सम्बन्ध न होने पर भी लोकमर्यादा की रक्षा के लिये वहीं पर यज्ञ किया था ॥ ४ ॥

परीक्षित ! इस महान तीर्थयात्रा के अवसर पर भारतवर्ष के सभी प्रान्तों की जनता कुरुक्षेत्र आयी थी। उनमें अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्र, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी भी अपने-अपने पापों का नाश करने के लिये कुरुक्षेत्र आये थे। प्रद्युम्रनन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्मा—ये दोनों सुचन्द्र, शुक, सारण आदि के साथ नगर की रक्षा के लिये द्वारका में रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभाव से ही परम तेजस्वी थे; दूसरे गले में सो ने की माला, दिव्य पुष्पों के हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचों से सुसज्जित होने के कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वे तीर्थयात्रा के पथ में देवताओं के विमान के समान रथों, समुद्र की तरङ्ग के समान चलनेवाले घोड़ों, बादलों के समान विशालकाय एवं गर्जना करते हुए हाथियों तथा विद्याधरों के समान मनुष्यों के द्वारा ढोयी जानेवाली पालकियों पर अपनी पत्नियों के साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वर्ग के देवता ही यात्रा कर रहे हों। महाभाग्यवान् यदुवंशियों ने कुरुक्षेत्र में पहुँचकर एकाग्रचित्त से संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहण के उपलक्ष्य में निश्चित काल तक उपवास किया ॥ ५—९ ॥ उन्होंने ब्राह्मणों को गोदान किया। ऐसी गौओं का दान किया जिन्हें वस्त्रों की सुन्दर-सुन्दर झूलें, पुष्पमालाएँ एवं सो ने की जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहण का मोक्ष हो जाने पर परशुरामजी के बनाये हुए कुण्डों में यदुवंशियों ने विधिपूर्वक स्नान किया और सत्पात्र ब्राह्मणों को सुन्दर-सुन्दर पकवानों का भोजन कराया। उन्होंने अपने मन में यह सङ्कल्प किया था कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे। भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना आदर्श और इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियों ने ब्राह्मणों से अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छायावाले वृक्षों के नीचे अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार डेरा डालकर ठहर गये। परीक्षित ! विश्राम कर लेने के बाद यदुवंशियों ने अपने सुहृद् और सम्बन्धी राजाओं से मिलना-भेंटना शुरू किया ॥ १०—१२ ॥ वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृञ्जय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशोंके—अपने पक्ष के तथा शत्रुपक्षके—सैकड़ों नरपति आये हुए थे। परीक्षित ! इनके अतिरिक्त यदुवंशियों के परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान के दर्शन के लिये चिरकाल से उत्कण्ठित गोपियाँ भी वहाँ आयी हुई थीं। यादवों ने इन सब को देखा ॥ १३-१४ ॥ परीक्षित ! एक-दूसरे के दर्शन, मिलन और वार्तालाप से सभी को बड़ा आनन्द हुआ। सभी के हृदय- कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब एक-दूसरे को भुजाओं में भरकर हृदय से लगाते, उनके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेम के आवेग से बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्र में डूबने-उतरा ने लगते ॥ १५ ॥ पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरे को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान, परम पवित्र तिरछी चितवन से देख-देखकर परस्पर भेंट-अँकवार भर ने लगीं। वे अपनी भुजाओं में भरकर केसर लगे हुए वक्ष:स्थलों को दूसरी स्त्रियों के वक्ष:स्थलों से दबातीं और अत्यन्त आनन्द का अनुभव करतीं। उस समय उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू छलक ने लगते ॥ १६ ॥ अवस्था आदि में छोटों ने बड़े-बूढ़ों को प्रणाम किया और उन्होंने अपने से छोटों का प्रणाम स्वीकार किया। वे एक-दूसरे का स्वागत करके तथा कुशल-मङ्गल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ आपस में कहने-सुनने लगे ॥ १७ ॥

परीक्षित ! कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान श्रीकृष्ण को देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दु:ख भूल गयीं ॥ १८ ॥

कुन्ती ने वसुदेवजी से कहा—भैया ! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्ति के समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढक़र दु:ख की बात क्या होगी ? ॥ १९ ॥ भैया ! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है उसे स्वजन-सम्बन्धी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आपलोगों का कोई दोष नहीं ॥ २० ॥

वसुदेवजी ने कहा—बहिन ! उलाहना मत दो। हम से बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैव के खिलौ ने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वर के वश में रहकर कर्म करता है, और उसका फल भोगता है ॥ २१ ॥ बहिन ! कंस से सताये जाकर हमलोग इधर-उधर अनेक दिशाओं में भगे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वरकृपा से हम सब पुन: अपना स्थान प्राप्त कर सके हैं ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! वहाँ जित ने भी नरपति आये थे—वसुदेव, उग्रसेन आदि यदुवंशियों ने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर परमानन्द और शान्ति का अनुभव करने लगे ॥ २३ ॥ परीक्षित ! भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रों के साथ गान्धारी, पत्नियों के सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती, सृञ्जय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराज नग्रजित्, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशी- नरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामन्यु, सुशर्मा, अपने पुत्रों के साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिर के अनुयायी नृपति भगवान श्रीकृष्ण का परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियों को देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ २४—२७ ॥ अब वे बलरामजी

तथा भगवान श्रीकृष्ण से भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके बड़े आनन्द से श्रीकृष्ण के स्वजनों— यदुवंशियों की प्रशंसा करने लगे ॥ २८ ॥ उन लोगों ने मुख्यतया उग्रसेनजी को सम्बोधित कर कहा— ‘भोजराज उग्रसेनजी ! सच पूछिये तो इस जगत के मनुष्यों में आपलोगों का जीवन ही सफल है, धन्य है ! धन्य है ! क्योंकि जिन श्रीकृष्ण का दर्शन बड़े-बड़े योगियों के लिये भी दुर्लभ है, उन्हीं को आपलोग नित्य-निरन्तर देखते रहते हैं ॥ २९ ॥ वेदों ने बड़े आदर के साथ भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति का गान किया है। उनके चरणधोवन का जल गङ्गाजल, उनकी वाणी—शास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत को अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हमलोगों के जीवन की ही बात है, समय के फेर से पृथ्वी का सारा सौभाग्य नष्ट हो चु का था; परन्तु उनके चरणकमलों के स्पर्श से पृथ्वी में फिर समस्त शक्तियों का सञ्चार हो गया और अब वह फिर हमारी समस्त अभिलाषाओं—मनोरथों को पूर्ण करने लगी ॥ ३० ॥ उग्रसेनजी ! आपलोगों का श्रीकृष्ण के साथ वैवाहिक एवं गोत्रसम्बन्ध है। यही नहीं, आप हर समय उनका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते रहते हैं। उनके साथ चलते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, बैठते हैं और खाते-पीते हैं। यों तो आपलोग गृहस्थी की झंझटों में फँ से रहते हैं—जो नरक का मार्ग है, परन्तु आपलोगों के घर वे सर्वव्यापक विष्णुभगवान मूर्तिमान् रूप से निवास करते हैं, जिनके दर्शनमात्र से स्वर्ग और मोक्ष तक की अभिलाषा मिट जाती है’ ॥ ३१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब नन्दबाबा को यह बात मालूम हुई कि श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्र में आये हुए हैं’ तब वे गोपों के साथ अपनी सारी सामग्री गाडिय़ों पर लादकर अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण-बलराम आदि को देखने के लिये वहाँ आये ॥ ३२ ॥ नन्द आदि गोपों को देखकर सब-के-सब यदुवंशी आनन्द से भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीर में प्राणों का सञ्चार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरे से मिल ने के लिये बहुत दिनों से आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरे को बहुत देर तक अत्यन्त गाढ़भाव से आलिङ्गन करते रहे ॥ ३३ ॥ वसुदेवजी ने अत्यन्त प्रेम और आनन्द से विह्वल होकर नन्दजी को हृदय से लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयीं—कंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्र को गोकुल में ले जाकर नन्दजी के घर रख दिया था ॥ ३४ ॥ भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने माता यशोदा और पिता नन्दजी के हृदय से लगकर उनके चरणों में प्रणाम किया। परीक्षित ! उस समय प्रेम के उद्रेक से दोनों भाइयों का गला रुँध गया, वे कुछ भी बोल न सके ॥ ३५ ॥ महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबा ने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में बैठा लिया और भुजाओं से उनका गाढ़ आलिङ्गन किया। उनके हृदय में चिरकाल तक न मिल ने का जो दु:ख था, वह सब मिट गया ॥ ३६ ॥ रोहिणी और देवकीजी ने व्रजेश्वरी यशोदा को अपनी अँकवार में भर लिया। यशोदाजी ने उन लोगों के साथ मित्रता का जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनों का गला भर आया। वे यशोदाजी से कह ने लगीं— ॥ ३७ ॥ ‘यशोदारानी ! आपने और व्रजेश्वर नन्दजी ने हमलोगों के साथ जो मित्रता का व्यवहार किया है, वह कभी मिटनेवाला नहीं है, उसका बदला इन्द्र का ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चु का सकतीं। नन्दरानीजी ! भला ऐसा कौन कृतघ्र है, जो आपके उस उपकार को भूल सके ? ॥ ३८ ॥ देवि ! जिस समय बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने मा-बाप को देखा तक न था और इनके पिता ने धरोहर के रूप में इन्हें आप दोनों के पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनों की इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियों की रक्षा करती हैं। तथा आपलोगों ने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया; इनके मङ्गल के लिये अनेकों प्रकार के उत्सव मनाये। सच पूछिये, तो इनके मा-बाप आप ही लोग हैं। आपलोगों की देख-रेख में इन्हें किसी की आँच तक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आपलोगों के अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषों की दृष्टि में अपने-पराये का भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानीजी ! सचमुच आपलोग परम संत हैं ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मैं कह चु का हूँ कि गोपियों के परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब उनके दर्शन के समय नेत्रों की पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकों को बनाने- वाले को ही कोस ने लगतीं। उन्हीं प्रेम की मूर्ति गोपियों को आज बहुत दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हुआ। उनके मन में इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रों के रास्ते अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को हृदय में ले जाकर गाढ़ आलिङ्गन किया और मन-ही-मन आलिङ्गन करते-करते तन्मय हो गयीं। परीक्षित ! कहाँ तक कहूँ, वे उस भाव को प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करनेवाले योगियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ४० ॥ जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि गोपियाँ मुझ से तादात्म्य को प्राप्त—एक हो रही हैं, तब वे एकान्त में उनके पास गये, उन को हृदय से लगाया, कुशल-मङ्गल पूछा और हँसते हुए यों बोले— ॥ ४१ ॥ ‘सखियो ! हमलोग अपने स्वजन-सम्बन्धियों का काम करने के लिये व्रज से बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियों को छोडक़र हम शत्रुओं का विनाश करने में उलझ गये। बहुत दिन बीत गये, क्या कभी तुमलोग हमारा स्मरण भी करती हो ? ॥ ४२ ॥ मेरी प्यारी गोपियो ! कहीं तुमलोगों के मन में यह आशङ् का तो नहीं हो गयी है कि मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर तुमलोग हम से बुरा तो नहीं मान ने लगी हो ? निस्सन्देह भगवान ही प्राणियों के संयोग और वियोग के कारण हैं ॥ ४३ ॥ जैसे वायु बादलों, तिनकों, रूई और धूल के कणों को एक-दूसरे से मिला देती है, और फिर स्वच्छन्दरूप से उन्हें अलग-अलग कर देती है, वैसे ही समस्त पदार्थों के निर्माता भगवान भी सब का संयोग-वियोग अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं ॥ ४४ ॥ सखियो ! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम सब लोगों को मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चु का है, जो मेरी ही प्राप्ति करानेवाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियों को अमृतत्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करने में समर्थ है ॥ ४५ ॥ प्यारी गोपियो ! जैसे घट, पट आदि जित ने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि, अन्त और मध्य में, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु, अग्रि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे ही जित ने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीच में, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ ॥ ४६ ॥ इसी प्रकार सभी प्राणियों के शरीर में यही पाँचों भूत कारणरूप से स्थित हैं और आत्मा भोक्ता के रूप से अथवा जीव के रूप से स्थित है। परन्तु मैं इन दोनों से परे अविनाशी सत्य हूँ। ये दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं, तुमलोग ऐसा अनुभव करो ॥ ४७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार गोपियों को अध्यात्मज्ञान की शिक्षा से शिक्षित किया। उसी उपदेश के बार-बार स्मरण से गोपियों का जीव कोश—लिङ्गशरीर नष्ट हो गया और वे भगवान से एक हो गयीं, भगवान को ही सदा-सर्वदा के लिये प्राप्त हो गयीं ॥ ४८ ॥ उन्होंने कहा—‘हे कमलनाभ ! अगाधबोधसम्पन्न बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयकमल में आपके चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं। जो लोग संसार के कूएँ में गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकल ने के लिये आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलम्बन हैं। प्रभो ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपका वह चरणकमल, घर-गृहस्थ के काम करते रहने पर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदय में विराजमान रहे, हम एक क्षण के लिये भी उसे न भूलें ॥ ४९ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-83]

॥ त्र्यशीतितमोऽध्यायः - ८३ ॥
श्रीशुक उवाच
तथानुगृह्य भगवान् गोपीनां स गुरुर्गतिः ।
युधिष्ठिरमथापृच्छत्सर्वांश्च सुहृदोऽव्ययम् ॥ १॥

त एवं लोकनाथेन परिपृष्टाः सुसत्कृताः ।
प्रत्यूचुर्हृष्टमनसस्तत्पादेक्षाहतांहसः ॥ २॥

कुतोऽशिवं त्वच्चरणाम्बुजासवं
महन्मनस्तो मुखनिःसृतं क्वचित् ।
पिबन्ति ये कर्णपुटैरलं प्रभो
देहंभृतां देहकृदस्मृतिच्छिदम् ॥ ३॥

हित्वाऽऽत्मधाम विधुतात्मकृतत्र्यवस्थ-
मानन्दसम्प्लवमखण्डमकुण्ठबोधम् ।
कालोपसृष्टनिगमावन आत्तयोग-
मायाकृतिं परमहंसगतिं नताः स्मः ॥ ४॥

ऋषिरुवाच
इत्युत्तमश्लोकशिखामणिं
जनेष्वभिष्टुवत्स्वन्धककौरवस्त्रियः ।
समेत्य गोविन्दकथा मिथोऽगृणं-
स्त्रिलोकगीताः श‍ृणु वर्णयामि ते ॥ ५॥

द्रौपद्युवाच
हे वैदर्भ्यच्युतो भद्रे हे जाम्बवति कौसले ।
हे सत्यभामे कालिन्दि शैब्ये रोहिणि लक्ष्मणे ॥ ६॥

हे कृष्णपत्न्य एतन्नो ब्रूत वो भगवान् स्वयम् ।
उपयेमे यथा लोकमनुकुर्वन् स्वमायया ॥ ७॥

रुक्मिण्युवाच
चैद्याय मार्पयितुमुद्यतकार्मुकेषु
राजस्वजेयभटशेखरिताङ्घ्रिरेणुः ।
निन्ये मृगेन्द्र इव भागमजावियूथा-
त्तच्छ्रीनिकेतचरणोऽस्तु ममार्चनाय ॥ ८॥

सत्यभामोवाच
यो मे सनाभिवधतप्तहृदा ततेन
लिप्ताभिशापमपमार्ष्टुमुपाजहार ।
जित्वर्क्षराजमथ रत्नमदात्स तेन
भीतः पितादिशत मां प्रभवेऽपि दत्ताम् ॥ ९॥

जाम्बवत्युवाच
प्राज्ञाय देहकृदमुं निजनाथदैवं
सीतापतिं त्रिणवहान्यमुनाभ्ययुध्यत् ।
ज्ञात्वा परीक्षित उपाहरदर्हणं मां
पादौ प्रगृह्य मणिनाहममुष्य दासी ॥ १०॥

कालिन्द्युवाच
तपश्चरन्तीमाज्ञाय स्वपादस्पर्शनाशया ।
सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं योऽहं तद्गृहमार्जनी ॥ ११॥

मित्रविन्दोवाच
यो मां स्वयंवर उपेत्य विजित्य भूपान्
निन्ये श्वयूथगमिवात्मबलिं द्विपारिः ।
भ्रातॄंश्चमेऽपकुरुतः स्वपुरं श्रियौकः
तस्यास्तु मेऽनुभवमङ्घ्र्यवनेजनत्वम् ॥ १२॥

सत्योवाच
सप्तोक्षणोऽतिबलवीर्यसुतीक्ष्णश‍ृङ्गान्
पित्रा कृतान् क्षितिपवीर्यपरीक्षणाय ।
तान् वीरदुर्मदहनस्तरसा निगृह्य
क्रीडन् बबन्ध ह यथा शिशवोऽजतोकान् ॥ १३॥

य इत्थं वीर्यशुल्कां मां दासीभिश्चतुरङ्गिणीम् ।
पथि निर्जित्य राजन्यान् निन्ये तद्दास्यमस्तु मे ॥ १४॥

भद्रोवाच
पिता मे मातुलेयाय स्वयमाहूय दत्तवान् ।
कृष्णे कृष्णाय तच्चित्तामक्षौहिण्या सखीजनैः ॥ १५॥

अस्य मे पादसंस्पर्शो भवेज्जन्मनि जन्मनि ।
कर्मभिर्भ्राम्यमाणाया येन तच्छ्रेय आत्मनः ॥ १६॥

लक्ष्मणोवाच
ममापि राज्ञ्यच्युतजन्मकर्म
श्रुत्वा मुहुर्नारदगीतमास ह ।
चित्तं मुकुन्दे किल पद्महस्तया
वृतः सुसम्मृश्य विहाय लोकपान् ॥ १७॥

ज्ञात्वा मम मतं साध्वि पिता दुहितृवत्सलः ।
बृहत्सेन इति ख्यातस्तत्रोपायमचीकरत् ॥ १८॥

यथा स्वयंवरे राज्ञि मत्स्यः पार्थेप्सया कृतः ।
अयं तु बहिराच्छन्नो दृश्यते स जले परम् ॥ १९॥

श्रुत्वैतत्सर्वतो भूपा आययुर्मत्पितुः पुरम् ।
सर्वास्त्रशस्त्रतत्त्वज्ञाः सोपाध्यायाः सहस्रशः ॥ २०॥

पित्रा सम्पूजिताः सर्वे यथावीर्यं यथावयः ।
आददुः सशरं चापं वेद्धुं पर्षदि मद्धियः ॥ २१॥

आदाय व्यसृजन् केचित्सज्यं कर्तुमनीश्वराः ।
आकोटि ज्यां समुत्कृष्य पेतुरेकेऽमुना हताः ॥ २२॥

सज्यं कृत्वा परे वीरा मागधाम्बष्ठचेदिपाः ।
भीमो दुर्योधनः कर्णो नाविदंस्तदवस्थितिम् ॥ २३॥

मत्स्याभासं जले वीक्ष्य ज्ञात्वा च तदवस्थितिम् ।
पार्थो यत्तोऽसृजद्बाणं नाच्छिनत्पस्पृशे परम् ॥ २४॥

राजन्येषु निवृत्तेषु भग्नमानेषु मानिषु ।
भगवान् धनुरादाय सज्यं कृत्वाथ लीलया ॥ २५॥

तस्मिन् सन्धाय विशिखं मत्स्यं वीक्ष्य सकृज्जले ।
छित्त्वेषुणापातयत्तं सूर्ये चाभिजिति स्थिते ॥ २६॥

दिवि दुन्दुभयो नेदुर्जयशब्दयुता भुवि ।
देवाश्च कुसुमासारान् मुमुचुर्हर्षविह्वलाः ॥ २७॥

तद्रङ्गमाविशमहं कलनूपुराभ्यां
पद्भ्यां प्रगृह्य कनकोज्वलरत्नमालाम् ।
नूत्ने निवीय परिधाय च कौशिकाग्र्ये
सव्रीडहासवदना कबरीधृतस्रक् ॥ २८॥

उन्नीय वक्त्रमुरुकुन्तलकुण्डलत्वि-
ड्गण्डस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः ।
राज्ञो निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारे-
रंसेऽनुरक्तहृदया निदधे स्वमालाम् ॥ २९॥

तावन्मृदङ्गपटहाः शङ्खभेर्यानकादयः ।
निनेदुर्नटनर्तक्यो ननृतुर्गायका जगुः ॥ ३०॥

एवं वृते भगवति मयेशे नृपयूथपाः ।
न सेहिरे याज्ञसेनि स्पर्धन्तो हृच्छयातुराः ॥ ३१॥

मां तावद्रथमारोप्य हयरत्नचतुष्टयम् ।
शार्ङ्गमुद्यम्य सन्नद्धस्तस्थावाजौ चतुर्भुजः ॥ ३२॥

दारुकश्चोदयामास काञ्चनोपस्करं रथम् ।
मिषतां भूभुजां राज्ञि मृगाणां मृगराडिव ॥ ३३॥

तेऽन्वसज्जन्त राजन्या निषेद्धुं पथि केचन ।
संयत्ता उद्धृतेष्वासा ग्रामसिंहा यथा हरिम् ॥ ३४॥

ते शार्ङ्गच्युतबाणौघैः कृत्तबाह्वङ्घ्रिकन्धराः ।
निपेतुः प्रधने केचिदेके सन्त्यज्य दुद्रुवुः ॥ ३५॥

ततः पुरीं यदुपतिरत्यलङ्कृतां
रविच्छदध्वजपटचित्रतोरणाम् ।
कुशस्थलीं दिवि भुवि चाभिसंस्तुतां
समाविशत्तरणिरिव स्वकेतनम् ॥ ३६॥

पिता मे पूजयामास सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान् ।
महार्हवासोऽलङ्कारैः शय्यासनपरिच्छदैः ॥ ३७॥

दासीभिः सर्वसम्पद्भिर्भटेभरथवाजिभिः ।
आयुधानि महार्हाणि ददौ पूर्णस्य भक्तितः ॥ ३८॥

आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिकाः ।
सर्वसङ्गनिवृत्त्याद्धा तपसा च बभूविम ॥ ३९॥

महिष्य ऊचुः
भौमं निहत्य सगणं युधि तेन रुद्धा
ज्ञात्वाथ नः क्षितिजये जितराजकन्याः ।
निर्मुच्य संसृतिविमोक्षमनुस्मरन्तीः
पादाम्बुजं परिणिनाय य आप्तकामः ॥ ४०॥

न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भौज्यमप्युत ।
वैराज्यं पारमेष्ठ्यं च आनन्त्यं वा हरेः पदम् ॥ ४१॥

कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजः श्रियः ।
कुचकुङ्कुमगन्धाढ्यं मूर्ध्ना वोढुं गदाभृतः ॥ ४२॥

व्रजस्त्रियो यद्वाञ्छन्ति पुलिन्द्यस्तृणवीरुधः ।
गावश्चारयतो गोपाः पादस्पर्शं महात्मनः ॥ ४३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे त्र्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८३॥


दशम स्कन्ध- तिरासीवाँ अध्याय 43
भगवान की पटरानियों के साथ द्रौपदी की बातचीत
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ही गोपियों को शिक्षा देनेवाले हैं और वही उस शिक्षा के द्वारा प्राप्त होनेवाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है, भगवान श्रीकृष्ण ने उन पर महान अनुग्रह किया। अब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धियों से कुशल-मङ्गल पूछा ॥ १ ॥ भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का दर्शन करने से ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चु के थे। अब जब भगवान श्रीकृष्ण ने उनका सत्कार किया, कुशल-मङ्गल पूछा, तब वे अत्यन्त आनन्दित होकर उनसे कह ने लगे— ॥ २ ॥ ‘भगवन् ! बड़े-बड़े महापुरुष मन-ही-मन आपके चरणारविन्द का मकरन्दरस पान करते रहते हैं। कभी-कभी उनके मुखकमल से लीला- कथा के रूप में वह रस छलक पड़ता है। प्रभो ! वह इतना अद्भुत दिव्य रस है कि कोई भी प्राणी उस को पी ले तो वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालनेवाली विस्मृति अथवा अविद्या को नष्ट कर देता है। उसी रस को जो लोग अपने कानों के दोनों में भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके अमङ्गल की आशङ् का ही क्या है ? ॥ ३ ॥ भगवन् ! आप एकरस ज्ञान स्वरूप और अखण्ड आनन्द के समुद्र हैं। बुद्धि- वृत्तियों के कारण होनेवाली जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ आपके स्वयंप्रकाश स्वरूप- तक पहुँच ही नहीं पातीं, दूर से ही नष्ट हो जाती हैं। आप परमहंसों की एकमात्र गति हैं। समय के फेर से वेदों का ह्रास होते देखकर उनकी रक्षा के लिये आपने अपनी अचिन्त्य योगमाया के द्वारा मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है। हम आपके चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं’ ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुल की स्त्रियाँ एकत्र होकर आपस में भगवान की त्रिभुवन-विख्यात लीलाओं का वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हीं की बातें सुनाता हूँ ॥ ५ ॥

द्रौपदी ने कहा—हे रुक्मिणी, भद्रे, हे जाम्बवती, सत्ये, हे सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्ष्मणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियो ! तुमलोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माया से लोगों का अनुकरण करते हुए तुमलोगों का किस प्रकार पाणिग्रहण किया ? ॥ ६-७ ॥

रुक्मिणीजी ने कहा—द्रौपदीजी ! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपाल के साथ हो; इसके लिये सभी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध के लिये तैयार थे। परन्तु भगवान मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ों के झुंड में से अपना भाग छीन ले जाय। क्यों न हो—जगत में जित ने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटों पर इन्हीं की चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदीजी ! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान के वे ही समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यों के आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करने के लिये प्राप्त होते रहें, मैं उन्हीं की सेवा में लगी रहूँ ॥ ८ ॥

सत्यभामाने कहा—द्रौपदीजी ! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेन की मृत्यु से बहुत दुखी हो रहे थे, अत: उन्होंने उनके वध का कलङ्क भगवान पर ही लगाया। उस कलङ्क को दूर करने के लिये भगवान ने ऋक्षराज जाम्बवान् पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिता को दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलङ्क लगा ने के कारण डर गये। अत: यद्यपि वे दूसरे को मेरा वाग्दान कर चु के थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तकमणि के साथ भगवान के चरणों में ही समर्पित कर दिया ॥ ९ ॥

जाम्बवती ने कहा—द्रौपदीजी ! मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान् को इस बात का पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान सीतापति हैं। इसलिये वे इन से सत्ताईस दिन तक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकडक़र स्यमन्तक- मणि के साथ उपहार के रूप में मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हीं की दासी बनी रहूँ ॥ १० ॥

कालिन्दी ने कहा—द्रौपदीजी ! जब भगवान को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणों का स्पर्श करने की आशा-अभिलाषा से तपस्या कर रही हूँ, तब वे अपने सखा अर्जुन के साथ यमुना-तट पर आये और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारनेवाली उनकी दासी हूँ ॥ ११ ॥

मित्रविन्दा ने कहा—द्रौपदीजी ! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान ने सब राजाओं को जीत लिया और जैसे सिंह झुंड-के-झुंड कुत्तों में से अपना भाग ले जाय, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारकापुरी में ले आये। मेरे भाइयों ने भी मुझे भगवान से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखार ने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे ॥ १२ ॥

सत्या ने कहा—द्रौपदीजी ! मेरे पिताजी ने मेरे स्वयंवर में आये हुए राजाओं के बल-पौरुष की परीक्षा के लिये बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलों ने बड़े- बड़े वीरों का घमंड चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवान ने खेल-खेल में ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरी के बच्चों को पकड़ लेते हैं ॥ १३ ॥ इस प्रकार भगवान बल-पौरुष के द्वारा मुझे प्राप्तकर चतुरङ्गिणी सेना और दासियों के साथ द्वार का ले आये। मार्ग में जिन क्षत्रियों ने विघ्र डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इन की सेवा का अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे ॥ १४ ॥

भद्रा ने कहा—द्रौपदीजी ! भगवान मेरे मामा के पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हीं के चरणों में अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजी को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत-सी दासियों के साथ मुझे इन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया ॥ १५ ॥ मैं अपना परम कल्याण इसी में समझती हूँ कि कर्म के अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हीं के चरणकमलों का संस्पर्श प्राप्त होता रहे ॥ १६ ॥

लक्ष्मणा ने कहा—रानीजी ! देवर्षि नारद बार-बार भगवान के अवतार और लीलाओं का गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि लक्ष्मीजी ने समस्त लोकपालों का त्याग करके भगवान का ही वरण किया, मेरा चित्त भगवान के चरणों में आसक्त हो गया ॥ १७ ॥ साध्वी ! मेरे पिता बृहत्सेन मुझ पर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हुआ, तब उन्होंने मेरी इच्छा की पूर्ति के लिये यह उपाय किया ॥ १८ ॥ महारानी ! जिस प्रकार पाण्डववीर अर्जुन की प्राप्ति के लिये आपके पिता ने स्वयंवर में मत्स्यवेध का आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिता ने भी किया। आपके स्वयंवर की अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहर से ढका हुआ था, केवल जल में ही उसकी परछार्ईं दीख पड़ती थी ॥ १९ ॥ जब यह समाचार राजाओं को मिला, तब सब ओर से समस्त अस्त्र-शस्त्रों के तत्त्वज्ञ हजारों राजा अपने-अपने गुरुओं के साथ मेरे पिताजी की राजधानी में आ ने लगे ॥ २० ॥ मेरे पिताजी ने आये हुए सभी राजाओं का बल-पौरुष और अवस्था के अनुसार भलीभाँति स्वागत सत्कार किया। उन लोगों ने मुझे प्राप्त करने की इच्छा से स्वयंवर-सभा में रखे हुए धनुष और बाण उठाये ॥ २१ ॥ उनमें से कित ने ही राजा तो धनुष पर ताँत भी न चढ़ा सके। उन्होंने धनुष को ज्यों-का-त्यों रख दिया। कइयों ने धनुष की डोरी को एक सिरे से बाँधकर दूसरे सिरे तक खींच तो लिया, परन्तु वे उसे दूसरे सिरे से बाँध न सके, उसका झट का लग ने से गिर पड़े ॥ २२ ॥ रानीजी ! बड़े-बड़े प्रसिद्ध वीर—जैसे जरासन्ध, अम्बष्ठनरेश, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और कर्ण—इन लोगों ने धनुष पर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछली की स्थिति का पता न चला ॥ २३ ॥ पाण्डववीर अर्जुन ने जल में उस मछली की परछार्ईं देख ली और यह भी जान लिया कि वह कहाँ है। बड़ी सावधानी से उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ, उनके बाण ने केवल उसका स्पर्शमात्र किया ॥ २४ ॥

रानीजी ! इस प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियों का मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियों ने मुझे पाने की लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेध की चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान ने धनुष उठाकर खेल-खेलमें—अनायास ही उसपर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जल में केवल एक बार मछली की परछार्ईं देखकर बाण मारा तथा उसे नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक ‘अभिजित्’ नामक मुहूर्त बीत रहा था ॥ २५-२६ ॥ देवीजी ! उस समय पृथ्वी में जय-जयकार होने लगा और आकाश में दुन्दुभियाँ बज ने लगीं। बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ रानीजी ! उसी समय मैंने रंगशाला में प्रवेश किया। मेरे पैरों के पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोल रहे थे। मैंने नये-नये उत्तम रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। मेरी चोटियों में मालाएँ गुँथी हुई थीं और मुँह पर लज्जामिश्रित मुसकराहट थी। मैं अपने हाथों में रत्नों का हार लिये हुए थी, जो बीच-बीच में लगे हुए सो ने के कारण और भी दमक रहा था। रानीजी ! उस समय मेरा मुखमण्डल घनी घुँघराली अलकों से सुशोभित हो रहा था तथा कपोलों पर कुण्डलों की आभा पडऩे से वह और भी दमक उठा था। मैंने एक बार अपना मुख उठाकर चन्द्रमा- की किरणों के समान सुशीतल हास्यरेखा और तिरछी चितवन से चारों ओर बैठे हुए राजाओं की ओर देखा, फिर धीरे से अपनी वरमाला भगवान के गले में डाल दी। यह तो कह ही चुकी हूँ कि मेरा हृदय पहले से ही भगवान के प्रति अनुरक्त था ॥ २८-२९ ॥ मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदङ्ग, पखावज, शङ्ख, ढोल, नगारे आदि बाजे बज ने लगे। नट और नर्तकियाँ नाच ने लगीं। गवैये गा ने लगे ॥ ३० ॥

द्रौपदीजी ! जब मैंने इस प्रकार अपने स्वामी प्रियतम भगवान को वरमाला पहना दी, उन्हें वरण कर लिया, तब कामातुर राजाओं को बड़ा डाह हुआ। वे बहुत ही चिढ़ गये ॥ ३१ ॥ चतुर्भुज- भगवान ने अपने श्रेष्ठ चार घोड़ोंवाले रथ पर मुझे चढ़ा लिया और हाथ में शार्ङ्गधनुष लेकर तथा कवच पहनकर युद्ध करने के लिये वे रथ पर खड़े हो गये ॥ ३२ ॥ पर रानीजी ! दारुक ने सो ने के साज-सामान से लदे हुए रथ को सब राजाओं के सामने ही द्वार का के लिये हाँक दिया, जैसे कोई सिंह हरिनों के बीच से अपना भाग ले जाय ॥ ३३ ॥ उनमें से कुछ राजाओं ने धनुष लेकर युद्ध के लिये सज-धजकर इस उद्देश्य से रास्ते में पीछा किया कि हम भगवान को रोक लें; परन्तु रानीजी ! उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही थी, जैसे कुत्ते सिंह को रोकना चाहें ॥ ३४ ॥ शार्ङ्गधनुष के छूटे हुए तीरों से किसी की बाँह कट गयी तो किसी के पैर कटे और किसी की गर्दन ही उतर गयी। बहुत- से लोग तो उस रणभूमि में ही सदा के लिये सो गये और बहुत- से युद्धभूमि छोडक़र भाग खड़े हुए ॥ ३५ ॥

तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि भगवान ने सूर्य की भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वी में सर्वत्र प्रशंसित द्वारका-नगरी में प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूप से सजायी गयी थी। इतनी झंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे कि उनके कारण सूर्य का प्रकाश धरती तक नहीं आ पाता था ॥ ३६ ॥ मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से पिताजी को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी- सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओं को बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, शय्या, आसन और विविध प्रकार की सामग्रियाँ देकर सम्मानित किया ॥ ३७ ॥ भगवान परिपूर्ण हैं—तथापि मेरे पिताजी ने प्रेमवश उन्हें बहुत-सी दासियाँ, सब प्रकार की सम्पत्तियाँ, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े एवं बहुत- से बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्र समर्पित किये ॥ ३८ ॥ रानीजी ! हम ने पूर्वजन्म में सब की आसक्ति छोडक़र कोई बहुत बड़ी तपस्या की होगी। तभी तो हम इस जन्म में आत्माराम भगवान की गृह-दासियाँ हुई हैं ॥ ३९ ॥

सोलह हजार पत्नियों की ओर से रोहिणीजी ने कहा—भौमासुर ने दिग्विजय के समय बहुत- से राजाओं को जीतकर उनकी कन्या हमलोगों को अपने महल में बंदी बना रखा था। भगवान ने यह जानकर युद्ध में भौमासुर और उसकी सेना का संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होने पर भी उन्होंने हमलोगों को वहाँ से छुड़ाया तथा पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानीजी ! हम सदा- सर्वदा उनके उन्हीं चरणकमलों का चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म-मृत्युरूप संसार से मुक्त करनेवाले हैं ॥ ४० ॥ साध्वी द्रौपदीजी ! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनों के भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्मा का पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ—कुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभु के सु कोमल चरणकमलों की वह श्रीरज सर्वदा अपने सिर पर वहन किया करें, जो लक्ष्मीजी के वक्ष:स्थल पर लगी हुई केशर की सुगन्ध से युक्त है ॥ ४१-४२ ॥ उदारशिरोमणि भगवान के जिन चरणकमलों का स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिनें, तिन के और घास लताएँ तक करना चाहती थीं, उन्हीं की हमें भी चाह है ॥ ४३ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-84]

॥ चतुरशीतितमोऽध्यायः - ८४ ॥
श्रीशुक उवाच
श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्र्यथ याज्ञसेनी
माधव्यथ क्षितिपपत्न्य उत स्वगोप्यः ।
कृष्णेऽखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबन्धं
सर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः ॥ १॥

इति सम्भाषमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नृषु ।
आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णरामदिदृक्षया ॥ २॥

द्वैपायनो नारदश्च च्यवनो देवलोऽसितः ।
विश्वामित्रः शतानन्दो भरद्वाजोऽथ गौतमः ॥ ३॥

रामः सशिष्यो भगवान् वसिष्ठो गालवो भृगुः ।
पुलस्त्यः कश्यपोऽत्रिश्चमार्कण्डेयो बृहस्पतिः ॥ ४॥

द्वितस्त्रितश्चैकतश्च ब्रह्मपुत्रास्तथाङ्गिराः ।
अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे ॥ ५॥

तान् दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादयः ।
पाण्डवाः कृष्णरामौ च प्रणेमुर्विश्ववन्दितान् ॥ ६॥

तानानर्चुर्यथा सर्वे सहरामोऽच्युतोऽर्चयत् ।
स्वागतासनपाद्यार्घ्यमाल्यधूपानुलेपनैः ॥ ७॥

उवाच सुखमासीनान् भगवान् धर्मगुप्तनुः ।
सदसस्तस्य महतो यतवाचोऽनुश‍ृण्वतः ॥ ८॥

श्रीभगवानुवाच
अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम् ।
देवानामपि दुष्प्रापं यद्योगेश्वरदर्शनम् ॥ ९॥

किं स्वल्पतपसां नॄणामर्चायां देवचक्षुषाम् ।
दर्शनस्पर्शनप्रश्नप्रह्वपादार्चनादिकम् ॥ १०॥

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ११॥

नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका
न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्मनः ।
उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं
विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया ॥ १२॥

यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके
स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि-
ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥ १३॥

श्रीशुक उवाच
निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्ठमेधसः ।
वचो दुरन्वयं विप्रास्तूष्णीमासन् भ्रमद्धियः ॥ १४॥

चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम् ।
जनसङ्ग्रह इत्यूचुः स्मयन्तस्तं जगद्गुरुम् ॥ १५॥

मुनय ऊचुः
यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं
विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः ।
यदीशितव्यायति गूढ ईहया
अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितम् ॥ १६॥

अनीह एतद्बहुधैक आत्मना
सृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा ।
भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी
अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ १७॥

अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये
बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च ।
स्वलीलया वेदपथं सनातनं
वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान् ॥ १८॥

ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।
यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तमव्यक्तं च ततः परम् ॥ १९॥

तस्माद्ब्रह्मकुलं ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः ।
सभाजयसि सद्धाम तद्ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान् ॥ २०॥

अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः ।
त्वया सङ्गम्य सद्गत्या यदन्तः श्रेयसां परः ॥ २१॥

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
स्वयोगमाययाच्छन्नमहिम्ने परमात्मने ॥ २२॥

न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः ।
मायाजवनिकाच्छन्नमात्मानं कालमीश्वरम् ॥ २३॥

यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक् ।
नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद रहितं परम् ॥ २४॥

एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियेहया ।
मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात् ॥ २५॥

तस्याद्य ते ददृशिमाङ्घ्रिमघौघमर्ष-
तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः ।
उत्सिक्तभक्त्युपहताशयजीवकोशा
आपुर्भवद्गतिमथोऽनुगृहाण भक्तान् ॥ २६॥

श्रीशुक उवाच
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम् ।
राजर्षे स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः ॥ २७॥

तद्वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः ।
प्रणम्य चोपसङ्गृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः ॥ २८॥

वसुदेव उवाच
नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ ।
कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम् ॥ २९॥

नारद उवाच
नाति चित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया ।
कृष्णं मत्वार्भकं यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः ॥ ३०॥

सन्निकर्षो हि मर्त्यानामनादरणकारणम् ।
गाङ्गं हित्वा यथान्याम्भस्तत्रत्यो याति शुद्धये ॥ ३१॥

यस्यानुभूतिः कालेन लयोत्पत्त्यादिनास्य वै ।
स्वतोऽन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति ॥ ३२॥

तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहै-
रव्याहतानुभवमीश्वरमद्वितीयम् ।
प्राणादिभिः स्वविभवैरुपगूढमन्यो
मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः ॥ ३३॥

अथोचुर्मुनयो राजन्नाभाष्यानकदुन्दभिम् ।
सर्वेषां श‍ृण्वतां राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः ॥ ३४॥

कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधु निरूपितः ।
यच्छ्रद्धया यजेद्विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः ॥ ३५॥

चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षषा ।
दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः ॥ ३६॥

अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेर्गृहमेधिनः ।
यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः ॥ ३७॥

वित्तैषणां यज्ञदानैर्गृहैर्दारसुतैषणाम् ।
आत्मलोकैषणां देव कालेन विसृजेद्बुधः ।
ग्रामे त्यक्तैषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम् ॥ ३८॥

ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितॄणां प्रभो ।
यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य त्यजन् पतेत् ॥ ३९॥

त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते ।
यज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निरृणोऽशरणो भव ॥ ४०॥

वसुदेव भवान्नूनं भक्त्या परमया हरिम् ।
जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद्वां पुत्रतां गतः ॥ ४१॥

श्रीशुक उवाच
इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महामनाः ।
तान् ऋषीन् ऋत्विजो वव्रे मूर्ध्नानम्य प्रसाद्य च ॥ ४२॥

त एनमृषयो राजन् वृता धर्मेण धार्मिकम् ।
तस्मिन्नयाजयन् क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः ॥ ४३॥

तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः ।
स्नाताः सुवाससो राजन् राजानः सुष्ठ्वलङ्कृताः ॥ ४४॥

तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ।
दीक्षाशालामुपाजग्मुरालिप्ता वस्तुपाणयः ॥ ४५॥

नेदुर्मृदङ्गपटहशङ्खभेर्यानकादयः ।
ननृतुर्नटनर्तक्यस्तुष्टुवुः सूतमागधाः ।
जगुः सुकण्ठ्यो गन्धर्व्यः सङ्गीतं सहभर्तृकाः ॥ ४६॥

तमभ्यषिञ्चन् विधिवदक्तमभ्यक्तमृत्विजः ।
पत्नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः ॥ ४७॥

ताभिर्दुकूलवलयैर्हारनूपुरकुण्डलैः ।
स्वलङ्कृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः ॥ ४८॥

तस्यर्त्विजो महाराज रत्नकौशेयवाससः ।
ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे ॥ ४९॥

तदा रामश्चकृष्णश्च स्वैः स्वैर्बन्धुभिरन्वितौ ।
रेजतुः स्वसुतैर्दारैर्जीवेशौ स्वविभूतिभिः ॥ ५०॥

ईजेऽनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणैः ।
प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैर्द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम् ॥ ५१॥

अथर्त्विग्भ्योऽददात्काले यथाम्नातं स दक्षिणाः ।
स्वलङ्कृतेभ्योऽलङ्कृत्य गोभूकन्या महाधनाः ॥ ५२॥

पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते महर्षयः ।
सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः ॥ ५३॥

स्नातोऽलङ्कारवासांसि वन्दिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः ।
ततः स्वलङ्कृतो वर्णानाश्वभ्योऽन्नेन पूजयत् ॥ ५४॥

बन्धून् सदारान् ससुतान् पारिबर्हेण भूयसा ।
विदर्भकोसलकुरून् काशिकेकयसृञ्जयान् ॥ ५५॥

सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान् ।
श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः प्रययुः क्रतुम् ॥ ५६॥

धृतराष्ट्रोऽनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ ।
नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्सम्बन्धिबान्धवाः ॥ ५७॥

बन्धून् परिष्वज्य यदून् सौहृदात्क्लिन्नचेतसः ।
ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः ॥ ५८॥

नन्दस्तु सह गोपालैर्बृहत्या पूजयार्चितः ।
कृष्णरामोग्रसेनाद्यैर्न्यवात्सीद्बन्धुवत्सलः ॥ ५९॥

वसुदेवोऽञ्जसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम् ।
सुहृद्वृतः प्रीतमना नन्दमाह करे स्पृशन् ॥ ६०॥

वसुदेव उवाच
भ्रातरीशकृतः पाशो नृणांयः स्नेहसंज्ञितः ।
तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम् ॥ ६१॥

अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत्कृताज्ञेषु सत्तमैः ।
मैत्र्यर्पिताफला वापि न निवर्तेत कर्हिचित् ॥ ६२॥

प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि ।
अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्यामः पुरः सतः ॥ ६३॥

मा राज्यश्रीरभूत्पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद ।
स्वजनानुत बन्धून् वा न पश्यति ययान्धदृक् ॥ ६४॥

श्रीशुक उवाच
एवं सौहृदशैथिल्यचित्त आनकदुन्दुभिः ।
रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन्नश्रुविलोचनः ॥ ६५॥

नन्दस्तु सख्युः प्रियकृत्प्रेम्णा गोविन्दरामयोः ।
अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत् ॥ ६६॥

ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबान्धवः ।
परार्ध्याभरणक्षौमनानानर्घ्यपरिच्छदैः ॥ ६७॥

वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभिः ।
दत्तमादाय पारिबर्हं यापितो यदुभिर्ययौ ॥ ६८॥

नन्दो गोपाश्च गोप्यश्च गोविन्दचरणाम्बुजे ।
मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुमनीशा मथुरां ययुः ॥ ६९॥

बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः ।
वीक्ष्य प्रावृषमासन्नां ययुर्द्वारवतीं पुनः ॥ ७०॥

जनेभ्यः कथयांचक्रुर्यदुदेवमहोत्सवम् ।
यदासीत्तीर्थयात्रायां सुहृत्सन्दर्शनादिकम् ॥ ७१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम
चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४॥


दशम स्कन्ध-चौरासीवाँ अध्याय 71
वसुदेवजी का यज्ञोत्सव
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! सर्वात्मा भक्तभयहारी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी पत्नियों का कितना प्रेम है—यह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान की प्रियतमा गोपियों ने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध, अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सब के नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये ॥ १ ॥ इस प्रकार जिस समय स्त्रियों से स्त्रियाँ और पुरुषों से पुरुष बातचीत कर रहे थे, उसी समय बहुत- से ऋषि-मुनि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी का दर्शन करने के लिये वहाँ आये ॥ २ ॥ उनमें प्रधान ये थे—श्रीकृष्ण- द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, अपने शिष्यों के सहित भगवान परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, अङ्गिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि ॥ ३—५ ॥ ऋषियों को देखकर पहले से बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर आदि पाण्डव, भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी सहसा उठकर खड़े हो गये और सबने उन विश्ववन्दित ऋषियों को प्रणाम किया ॥ ६ ॥ इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अघ्र्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदि से सब राजाओं ने तथा बलरामजी के साथ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन सब ऋषियों की विधिपूर्वक पूजा की ॥ ७ ॥ जब सब ऋषि-मुनि आराम से बैठ गये, तब धर्मरक्षा के लिये अवतीर्ण भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान का भाषण सुन रही थी ॥ ८ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—धन्य है ! हमलोगों का जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेने का हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरों का दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, उन्हीं का दर्शन हमें प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥ जिन्हों ने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेव को समस्त प्राणियों के हृदय में न देखकर केवल मूर्तिविशेष में ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आपलोगों के दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्र, प्रणाम और पादपूजन आदि का सुअवसर भला कब मिल सकता है ? ॥ १० ॥ केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समय तक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं; परंतु संत पुरुष तो दर्शनमात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं ॥ ११ ॥ अग्रि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मन के अधिष्ठातृ-देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासना से भेद-बुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धि के विनाशक हैं ॥ १२ ॥ महात्माओ और सभासदो ! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ—इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा—अपना ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है— ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ़ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्कर में पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान यह क्या कह रहे हैं ॥ १४ ॥ उन्होंने बहुत देर तक विचार करने के बाद यह निश्चय किया कि भगवान सर्वेश्वर होने पर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीव की भाँति व्यवहार कर रहे हैं—यह केवल लोकसंग्रह के लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कह ने लगे ॥ १५ ॥

मुनियों ने कहा—भगवन् ! आपकी माया से प्रजापतियों के अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हमलोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्यकी-सी चेष्टाओं से अपने को छिपाये रखकर जीव की भाँति आचरण करते हैं। भगवन् ! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है ॥ १६ ॥ जैसे पृथ्वी अपने विकारों—वृक्ष, पत्थर, घट आदि के द्वारा बहुत- से नाम और रूप ग्रहण कर लेती है, वास्तव में वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होने पर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आप से ही इस जगत की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मों से लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत- भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है ? धन्य है आपकी यह लीला ! ॥ १७ ॥ भगवन् ! यद्यपि आप प्रकृति से परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं; तथापि समय-समय पर भक्तजनों की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीला के द्वारा सनातन वैदिक मार्ग की रक्षा करते हैं; क्योंक सभी वर्णों और आश्रमों के रूप में आप स्वयं ही प्रकट हैं ॥ १८ ॥ भगवन् ! वेद आपका विशुद्ध हृदय है; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा उसी में आपके साकार-निराकार रूप और दोनों के अधिष्ठान- स्वरूप परब्रह्म परमात्मा का साक्षातकार होता है ॥ १९ ॥ परमात्मन् ! ब्राह्मण ही वेदों के आधारभूत आपके स्वरूप की उपलब्धि के स्थान हैं; इसीसे आप ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं और इसीसे आप ब्राह्मणभक्तों में अग्रगण्य भी हैं ॥ २० ॥ आप सर्वविध कल्याण-साधनों की चरमसीमा हैं और संत पुरुषों की एकमात्र गति हैं। आप से मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तव में सब के परम फल आप ही हैं ॥ २१ ॥ प्रभो ! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमाया के द्वारा अपनी महिमा छिपा रक्खी है, हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २२ ॥ ये सभा में बैठे हुए राजालोग और दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करनेवाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तव में नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूप को—जो सब का आत्मा, जगत का आदिकारण और नियन्ता है—माया के परदे से ढक रखा है ॥ २३ ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्न के मिथ्या पदार्थों को ही सत्य समझ लेता है और नाममात्र की इन्द्रियों से प्रतीत होनेवाले अपने स्वप्नशरीर को ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देर के लिये इस बात का बिल्कुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्नशरीर के अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्था का शरीर भी है ॥ २४ ॥ ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्था में भी इन्द्रियों की प्रवृत्तिरूप माया से चित्त मोहित होकर नाममात्र के विषयों में भटक ने लगता है। उस समय भी चित्त के चक्कर से विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान पाता कि आप इस जाग्रत् संसार से परे हैं ॥ २५ ॥ प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधना के द्वारा आपके उन चरणकमलों को हृदय में धारण करते हैं, जो समस्त पाप-राशि को नष्ट करनेवाले गङ्गाजल के भी आश्रयस्थान हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज हमें उन्हीं का दर्शन हुआ है। प्रभो ! हम आपके भक्त हैं, आप हम पर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम पद की प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती है, जिनका लिङ्गशरीररूप जीव- कोश आपकी उत्कृष्ट भक्ति के द्वारा नष्ट हो जाता है ॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजर्षे ! भगवान की इस प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्र से तथा धर्मराज युधिष्ठिरजी से अनुमति लेकर उन लोगों ने अपने-अपने आश्रम पर जाने का विचार किया ॥ २७ ॥ परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जाने का विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकडक़र बड़ी नम्रता से निवेदन करने लगे ॥ २८ ॥

वसुदेवजी ने कहा—ऋषियो ! आपलोग सर्वदेव स्वरूप हैं। मैं आपलोगों को नमस्कार करता हूँ। आपलोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये। वह यह कि जिन कर्मों के अनुष्ठान से कर्मों और कर्मवासनाओं का आत्यन्तिक नाश—मोक्ष हो जाय, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये ॥ २९ ॥

नारदजी ने कहा—ऋषियो ! यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वसुदेवजी श्रीकृष्ण को अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासा के भाव से अपने कल्याण का साधन हमलोगों से पूछ रहे हैं ॥ ३० ॥ संसार में बहुत पास रहना मनुष्यों के अनादर का कारण हुआ करता है। देखते हैं, गङ्गातट पर रहनेवाला पुरुष गङ्गाजल छोडक़र अपनी शुद्धि के लिये दूसरे तीर्थ में जाता है ॥ ३१ ॥ श्रीकृष्ण की अनुभूति समय के फेर से होनेवाली जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय से मिटनेवाली नहीं है। वह स्वत: किसी दूसरे निमित्तसे, गुणों से और किसी से भी क्षीण नहीं होती ॥ ३२ ॥ उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दु:खादि कर्मफल तथा सत्त्व आदि गुणों के प्रवाह से खण्डित नहीं है । वे स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपने को अपनी ही शक्तियों—प्राण आदि से ढक लेते हैं, तब मूर्खलोग ऐसा समझते हैं कि वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या ग्रहण के द्वारा अपने नेत्रों के ढक जाने पर सूर्य को ढका हुआ मान लेते हैं ॥ ३३ ॥

परीक्षित ! इसके बाद ऋषियों ने भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी और अन्यान्य राजाओं के सामने ही वसुदेवजी को सम्बोधित करके कहा— ॥ ३४ ॥ ‘कर्मों के द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलों का आत्यन्तिक नाश करने का सब से अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ आदि के द्वारा समस्त यज्ञों के अधिपति भगवान विष्णु की श्रद्धापूर्वक आराधना करे ॥ ३५ ॥ त्रिकालदर्शी ज्ञानियों ने शास्त्रदृष्टि से यही चित्त की शान्ति का उपाय, सुगम मोक्षसाधन और चित्त में आनन्द का उल्लास करनेवाला धर्म बतलाया है ॥ ३६ ॥ अपने न्यायाॢजत धन से श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान की आराधना करना ही द्विजाति—ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहस्थ के लिये परम कल्याण का मार्ग है ॥ ३७ ॥ वसुदेवजी ! विचारवान् पुरुष को चाहिये कि यज्ञ, दान आदि के द्वारा धन की इच्छा को, गृहस्थोचित भोगों द्वारा स्त्री-पुत्र की इच्छा को और कालक्रम से स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैं—इस विचार से लोकैषणा को त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घर में रहते हुए ही तीनों प्रकार की एषणाओं—इच्छाओं का परित्याग करके तपोवन का रास्ता लिया करते थे ॥ ३८ ॥ समर्थ वसुदेवजी ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—ये तीनों देवता, ऋषि और पितरों का ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणों से छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और सन्तानोत्पत्तिसे। इन से उऋण हुए बिना ही जो संसार का त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है ॥ ३९ ॥ परम बुद्धिमान वसुदेवजी ! आप अब तक ऋषि और पितरों के ऋण से तो मुक्त हो चु के हैं। अब यज्ञों के द्वारा देवताओं का ऋण चु का दीजिये; और इस प्रकार सब से उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान की शरण हो जाइये ॥ ४० ॥ वसुदेवजी ! आपने अवश्य ही परम भक्ति से जगदीश्वर भगवान की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनों के पुत्र हुए हैं ॥ ४१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! परम मनस्वी वसुदेवजी ने ऋषियों की यह बात सुनकर, उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञ के लिये ऋत्विजों के रूप में उनका वरण कर लिया ॥ ४२ ॥ राजन् ! जब इस प्रकार वसुदेवजी ने धर्मपूर्वक ऋषियों को वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्र में परम धार्मिक वसुदेवजी के द्वारा उत्तमोत्तम सामग्री से युक्त यज्ञ करवाये ॥ ४३ ॥ परीक्षित ! जब वसुदेवजी ने यज्ञ की दीक्षा ले ली, तब यदुवंशियों ने स्नान करके सुन्दर वस्त्र और कमलों की मालाएँ धारण कर लीं, राजालोग वस्त्राभूषणों से खूब सुसज्जित हो गये ॥ ४४ ॥ वसुदेवजी की पत्नियों ने सुन्दर वस्त्र, अङ्गराग और सो ने के हारों से अपने को सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्द से अपने-अपने हाथों में माङ्गलिक सामग्री लेकर यज्ञशाला में आयीं ॥ ४५ ॥ उस समय मृदङ्ग, पखावज, शङ्ख, ढोल और नगारे आदि बाजे बज ने लगे। नट और नर्तकियाँ नाच ने लगीं। सूत और मागध स्तुतिगान करने लगे। गन्धर्वों के साथ सुरीले गलेवाली गन्धर्वपत्नियाँ गान करने लगीं ॥ ४६ ॥ वसुदेवजी ने पहलेनेत्रों में अंजन और शरीर में मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देव की आदि अठारह पत्नियों के साथ उन्हें ऋत्विजों ने महाभिषेक की विधि से वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन काल में नक्षत्रों के साथ चन्द्रमा का अभिषेक हुआ था ॥ ४७ ॥ उस समय यज्ञ में दीक्षित होने के कारण वसुदेवजी तो मृगचर्म धारण किये हुए थे; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणों से खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियों के साथ भलीभाँति शोभायमान हुए ॥ ४८ ॥ महाराज ! वसुदेवजी के ऋत्विज और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्र के यज्ञ में हुए थे ॥ ४९ ॥ उस समय भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रों के साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियों के साथ समस्त जीवों के ईश्वर स्वयं भगवान समष्टि जीवों के अभिमानी श्रीसङ्कर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायण- स्वरूप में शोभायमान होते हैं ॥ ५० ॥

वसुदेवजी ने प्रत्येक यज्ञ में ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्रिहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञों के द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञानके—मन्त्रों के स्वामी विष्णु- भगवान की आराधना की ॥ ५१ ॥ इसके बाद उन्होंने उचित समय पर ऋत्विजों को वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित किया और शास्त्र के अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धन के साथ अलङ्कृत गौएँ, पृथ्वी और सुन्दरी कन्याएँ दीं ॥ ५२ ॥ इसके बाद महर्षियों ने पत्नीसंयाज नामक यज्ञाङ्ग और अवभृथस्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजी को आगे करके परशुरामजी के बनाये ह्रदमें—रामह्रद में स्नान किया ॥ ५३ ॥ स्नान करने के बाद वसुदेवजी और उनकी पत्नियों ने वंदीजनों को अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं नये वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणों से लेकर कुत्तों तक को भोजन कराया ॥ ५४ ॥ तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री- पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृञ्जय आदि देशों के राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणों को विदाई के रूप में बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति लेकर यज्ञ की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये ॥ ५५-५६ ॥ परीक्षित ! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान व्यासदेव तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवों को छोडक़र जाने में अत्यन्त विरह-व्यथा का अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहाद्र्र चित्त से यदुवंशियों का आलिङ्गन किया और बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार अपने-अपने देश को गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँ से रवाना हो गये ॥ ५७-५८ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उग्रसेन आदि ने नन्दबाबा एवं अन्य सब गोपों की बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियों से अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम- परवश होकर बहुत दिनों तक वहीं रहे ॥ ५९ ॥ वसुदेवजी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथ का महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्द की सीमा न थी। सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबा का हाथ पकडक़र कहा ॥ ६० ॥

वसुदेवजी ने कहा—भाईजी ! भगवान ने मनुष्यों के लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धन का नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोडऩे में असमर्थ हैं ॥ ६१ ॥ आपने हम अकृतज्ञों के प्रति अनुपम मित्रता का व्यवहार किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणियों का तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चु का सकते, आपको इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटनेवाला नहीं है। आप इस को सदा निभाते रहेंगे ॥ ६२ ॥ भाईजी ! पहले तो बंदीगृहमें बंद होने के कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम धन-सम्पत्ति के नशेसे—श्रीमद से अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी ओर नहीं देख पाते ॥ ६३ ॥ दूसरों को सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहनेवाले भाईजी ! जो कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी न मिले—इसी में उसका भला है; क्योंकि मनुष्य राज्यलक्ष्मी से अंधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनों तक को नहीं देख पाता ॥ ६४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेवजी का हृदय प्रेम से गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबा की मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे ॥ ६५ ॥ नन्दजी अपने सखा वसुदेवजी को प्रसन्न करने के लिये एवं भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के प्रेमपाश में बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीने तक वहीं रह गये। यदुवंशियों ने जीभर उनका सम्मान किया ॥ ६६ ॥ इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकार की उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगों से नन्दबाबा को, उनके व्रजवासी साथियों को और बन्धु-बान्धवों को खूब तृप्त किया ॥ ६७ ॥ वसुदेवजी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियों ने अलग- अलग उन्हें अनेकों प्रकार की भेंटें दीं। उनके विदा करने पर उन सब सामग्रियों को लेकर नन्दबाबा, अपने व्रज के लिये रवाना हुए ॥ ६८ ॥ नन्दबाबा, गोपों और गोपियों का चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करने पर भी उसे वहाँ से लौटा न सके। सुतरां बिना ही मन के उन्होंने मथुरा की यात्रा की ॥ ६९ ॥

जब सब बन्धु-बान्धव वहाँ से विदा हो चुके, तब भगवान श्रीकृष्ण को ही एकमात्र इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियों ने यह देखकर कि अब वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वार का के लिये प्रस्थान किया ॥ ७० ॥ वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगों से वसुदेवजी के यज्ञमहोत्सव, स्वजन-सम्बन्धियों के दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्रा के प्रसङ्गों को कह सुनाया ॥ ७१ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-85]

॥ पञ्चाशीतितमोऽध्यायः - ८५ ॥
श्रीबादरायणिरुवाच
अथैकदाऽऽत्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवन्दनौ ।
वसुदेवोऽभिनन्द्याह प्रीत्या सङ्कर्षणाच्युतौ ॥ १॥

मुनीनां स वचः श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम् ।
तद्वीर्यैर्जातविश्रम्भः परिभाष्याभ्यभाषत ॥ २॥

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् सङ्कर्षण सनातन ।
जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषौ परौ ॥ ३॥

यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा ।
स्यादिदं भगवान् साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ ४॥

एतन्नानाविधं विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज ।
आत्मनानुप्रविश्यात्मन् प्राणो जीवो बिभर्ष्यज ॥ ५॥

प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो याः परस्य ताः ।
पारतन्त्र्याद्वैसादृश्याद्द्वयोश्चेष्टैव चेष्टताम् ॥ ६॥

कान्तिस्तेजः प्रभा सत्ता चन्द्राग्न्यर्कर्क्षविद्युताम् ।
यत्स्थैर्यं भूभृतां भूमेर्वृत्तिर्गन्धोऽर्थतो भवान् ॥ ७॥

तर्पणं प्राणनमपां देवत्वं ताश्चतद्रसः ।
ओजः सहो बलं चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर ॥ ८॥

दिशां त्वमवकाशोऽसि दिशः खं स्फोट आश्रयः ।
नादो वर्णस्त्वमोंकार आकृतीनां पृथक्कृतिः ॥ ९॥

इन्द्रियं त्विन्द्रियाणां त्वं देवाश्चतदनुग्रहः ।
अवबोधोभवान्बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृतिःसती ॥ १०॥

भूतानामसिभूतादिरिन्द्रियाणांचतैजसः ।
वैकारिकोविकल्पानांप्रधानमनुशायिनम् ॥ ११॥

नश्वरेष्विहभावेषुतदसित्वमनश्वरम् ।
यथाद्रव्यविकारेषुद्रव्यमात्रंनिरूपितम् ॥ १२॥

सत्त्वंरजस्तम इति गुणास्तद्वृत्तयश्चयाः ।
त्वय्यद्धा ब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया ॥ १३॥

तस्मान्न सन्त्यमी भावा यर्हि त्वयि विकल्पिताः ।
त्वं चामीषु विकारेषु ह्यन्यदाव्यावहारिकः ॥ १४॥

गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मनः ।
गतिं सूक्ष्मामबोधेन संसरन्तीह कर्मभिः ॥ १५॥

यदृच्छया नृतां प्राप्य सुकल्पामिह दुर्लभाम् ।
स्वार्थे प्रमत्तस्य वयो गतं त्वन्माययेश्वर ॥ १६॥

असावहंममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु ।
स्नेहपाशैर्निबध्नाति भवान् सर्वमिदं जगत् ॥ १७॥

युवां न नः सुतौ साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरौ ।
भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णौ तथात्थ ह ॥ १८॥

तत्ते गतोऽस्म्यरणमद्य पदारविन्द-
मापन्नसंसृतिभयापहमार्तबन्धो ।
एतावतालमलमिन्द्रियलालसेन
मर्त्यात्मदृक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धिः ॥ १९॥

सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ
सञ्जज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्यै ।
नानातनूर्गगनवद्विदधज्जहासि
को वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम् ॥ २०॥

श्रीशुक उवाच
आकर्ण्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान् सात्वतर्षभः ।
प्रत्याह प्रश्रयानम्रः प्रहसन् श्लक्ष्णया गिरा ॥ २१॥

श्रीभगवानुवाच
वचो वः समवेतार्थं तातैतदुपमन्महे ।
यन्नः पुत्रान् समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृतः ॥ २२॥

अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकौकसः ।
सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृश्याः सचराचरम् ॥ २३॥

आत्मा ह्येकः स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणैः ।
आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भूतेषु बहुधेयते ॥ २४॥

खं वायुर्ज्योतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम् ।
आविस्तिरोऽल्पभूर्येको नानात्वं यात्यसावपि ॥ २५॥

श्रीशुक उवाच
एवं भगवता राजन् वसुदेव उदाहृतम् ।
श्रुत्वा विनष्टनानाधीस्तूष्णीं प्रीतमना अभूत् ॥ २६॥

अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता ।
श्रुत्वाऽऽनीतं गुरोः पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता ॥ २७॥

कृष्णरामौ समाश्राव्य पुत्रान् कंसविहिंसितान् ।
स्मरन्ती कृपणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना ॥ २८॥

देवक्युवाच
राम रामाप्रमेयात्मन् कृष्ण योगेश्वरेश्वर ।
वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपूरुषौ ॥ २९॥

कलविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञामुच्छास्त्रवर्तिनाम् ।
भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णौ किलाद्य मे ॥ ३०॥

यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः ।
भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गतिं गता ॥ ३१॥

चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ ।
आनिन्यथुः पितृस्थानाद्गुरवे गुरुदक्षिणाम् ॥ ३२॥

तथा मे कुरुतं कामं युवां योगेश्वरेश्वरौ ।
भोजराजहतान् पुत्रान् कामये द्रष्टुमाहृतान् ॥ ३३॥

ऋषिरुवाच
एवं सञ्चोदितौ मात्रा रामः कृष्णश्चभारत ।
सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाश्रितौ ॥ ३४॥
तस्मिन् प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराड्
विश्वात्मदैवं सुतरां तथात्मनः ।
तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशयः
सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वयः ॥ ३५॥

तयोः समानीय वरासनं मुदा
निविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयोः ।
दधार पादाववनिज्य तज्जलं
सवृन्द आब्रह्म पुनद्यदम्बु ह ॥ ३६॥

समर्हयामास स तौ विभूतिभिः
महार्हवस्त्राभरणानुलेपनैः ।
ताम्बूलदीपामृतभक्षणादिभिः
स्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च ॥ ३७॥

स इन्द्रसेनो भगवत्पदाम्बुजं
बिभ्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया ।
उवाच हानन्दजलाकुलेक्षणः
प्रहृष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम् ॥ ३८॥

बलिरुवाच
नमोऽनन्ताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे ।
साङ्ख्ययोगवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने ॥ ३९॥

दर्शनं वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम् ।
रजस्तमःस्वभावानां यन्नः प्राप्तौ यदृच्छया ॥ ४०॥

दैत्यदानवगन्धर्वाः सिद्धविद्याध्रचारणाः ।
यक्षरक्षःपिशाचाश्चभूतप्रमथनायकाः ॥ ४१॥

विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि ।
नित्यं निबद्धवैरास्ते वयं चान्ये च तादृशाः ॥ ४२॥

केचनोद्बद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः ।
न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टाः सुरादयः ॥ ४३॥

इदमित्थमिति प्रायस्तव योगेश्वरेश्वर ।
न विदन्त्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम् ॥ ४४॥

तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्
पादारविन्दधिषणान्यगृहान्धकूपात् ।
निष्क्रम्य विश्वशरणाङ्घ्र्युपलब्धवृत्तिः
शान्तो यथैक उत सर्वसखैश्चरामि ॥ ४५॥

शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान् कुरु नः प्रभो ।
पुमान् यच्छ्रद्धयाऽऽतिष्ठंश्चोदनाया विमुच्यते ॥ ४६॥

श्रीभगवानुवाच
आसन् मरीचेः षट् पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेऽन्तरे ।
देवाः कं जहसुर्वीक्ष्य सुतां यभितुमुद्यतम् ॥ ४७॥

तेनासुरीमगन् योनिमधुनावद्यकर्मणा ।
हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया ॥ ४८॥

देवक्या उदरे जाता राजन् कंसविहिंसिताः ।
सा तान् शोचत्यात्मजान् स्वांस्त इमेऽध्यासतेऽन्तिके ॥ ४९॥

इत एतान् प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये ।
ततः शापाद्विनिर्मुक्ता लोकं यास्यन्ति विज्वराः ॥ ५०॥

स्मरोद्गीथः परिष्वङ्गः पतङ्गः क्षुद्रभृद्घृणी ।
षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यन्ति सद्गतिम् ॥ ५१॥

इत्युक्त्वा तान् समादाय इन्द्रसेनेन पूजितौ ।
पुनर्द्वारवतीमेत्य मातुः पुत्रानयच्छताम् ॥ ५२॥

तान् दृष्ट्वा बालकान् देवी पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ।
परिष्वज्याङ्कमारोप्य मूर्ध्न्यजिघ्रदभीक्ष्णशः ॥ ५३॥

अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिप्लुता ।
मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टिः प्रवर्तते ॥ ५४॥

पीत्वामृतं पयस्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः ।
नारायणाङ्गसंस्पर्शप्रतिलब्धात्मदर्शनाः ॥ ५५॥

ते नमस्कृत्य गोविन्दं देवकीं पितरं बलम् ।
मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम् ॥ ५६॥

तं दृष्ट्वा देवकी देवी मृतागमननिर्गमम् ।
मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नृप ॥ ५७॥

एवं विधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मनः ।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य सन्त्यनन्तानि भारत ॥ ५८॥

सूत उवाच
य इदमनुश‍ृणोति श्रावयेद्वा मुरारे-
श्चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः ।
जगदघभिदलं तद्भक्तसत्कर्णपूरं
भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम ॥ ५९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मृताग्रजानयनं नाम
पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८५॥

दशम स्कन्ध-पचासीवाँ अध्याय 59
श्रीभगवान के द्वारा वसुदेवजी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश तथा देवकीजी के छ: पुत्रों को लौटा लाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इसके बाद एक दिन भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रात:कालीन प्रणाम करने के लिये माता-पिता के पास गये। प्रणाम कर लेने पर वसुदेवजी बड़े प्रेम से दोनों भाइयों का अभिनन्दन करके कह ने लगे ॥ १ ॥ वसुदेवजी ने बड़े-बड़े ऋषियों के मुँह से भगवान की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बात का दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रों को प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा— ॥ २ ॥ ‘सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगीश्वर सङ्कर्षण ! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत के साक्षात कारण स्वरूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हो ॥ ३ ॥ इस जगत के आधार, निर्माता और निर्माण- सामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडा के लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है, होता है—वह सब तुम्हीं हो। इस जगत में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुषरूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात भगवान भी तुम्हीं हो ॥ ४ ॥ इन्द्रियातीत ! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारों से रहित परमात्मन् ! इस चित्र-विचित्र जगत का तुम्हीं ने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुम ने ही आत्मारूप से प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूप में इसका पालन-पोषण कर रहे हो ॥ ५ ॥ क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदि में जो जगत की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामथ्र्य है, वह उनकी अपनी सामथ्र्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अत: उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी ही है ॥ ६ ॥ प्रभो ! चन्द्रमा की कान्ति, अग्रि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत्

आदि की स्फुरणरूप से सत्ता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारणशक्तिरूप वृत्ति और गन्धरूप गुण—ये सब वास्तव में तुम्हीं हो ॥ ७ ॥ परमेश्वर ! जल में तृप्त करने, जीवन दे ने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो ! इन्द्रियशक्ति, अन्त:करण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरना—ये सब वायु की शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं ॥ ८ ॥ दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उसका आश्रयभूत स्फोट—शब्दतन्मात्रा या परा वाणी, नाद—पश्यन्ती, ओंकार—मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करनेवाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्हीं हो ॥ ९ ॥ इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो ! बुद्धि की निश्चयात्मि का शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो ॥ १० ॥ भूतों में उनका कारण तामस अहङ्कार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहङ्कार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ- देवताओं में उनका कारण सात्त्विक अहङ्कार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी तुम्हीं हो ॥ ११ ॥ भगवन् ! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण (मृत्तिका) रूप ही हैं—उसी प्रकार जित ने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूप से अविनाशी तत्त्व हो ! वास्तव में वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं ॥ १२ ॥ प्रभो ! सत्त्व, रज, तम—ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)—महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में, तुम में योगमाया के द्वारा कल्पित हैं ॥ १३ ॥ इसलिये ये जित ने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुम में सर्वथा नहीं हैं। जब तुम में इन की कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारों में अनुगत जान पड़ते हो। कल्पना की निवृत्ति हो जाने पर तो निर्विकल्प परमार्थ स्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ॥ १४ ॥ यह जगत सत्त्व, रज, तम—इन तीनों गुणों का प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्त:करण, सुख, दु:ख और राग-लोभादि उन्हींके कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्मा का सूक्ष्म स्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फँसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते रहते हैं ॥ १५ ॥ परमेश्वर ! मुझे शुभ प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि की सामथ्र्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी माया के वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ- परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ॥ १६ ॥ प्रभो ! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीर के सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेह की फाँसी से तुम ने इस सारे जगत को बाँध रखा है ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवों के स्वामी हो ! पृथ्वी के भारभूत राजाओं के नाश के लिये ही तुम ने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुम ने मुझ से कही भी थी ॥ १८ ॥ इसलिये दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल ! मैं अब तुम्हारे चरणकमलों की शरण में हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतों के संसारभय को मिटानेवाले हैं। अब इन्द्रियों की लोलुपता से भर पाया। इसी के कारण मैंने मृत्यु के ग्रास इस शरीर में आत्मबुद्धि कर ली और तुम में, जो कि परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि ॥ १९ ॥ प्रभो ! तुम ने प्रसव-गृहमें ही हम से कहा था कि ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादा की रक्षा करने के लिये प्रत्येक युग में तुम दोनों के द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।’ भगवन् ! तुम आकाश के समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तव में तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमाया का रहस्य भला कौन जान सकता है ? सब लोग तुम्हारी कीर्ति का ही गान करते रहते हैं ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! वसुदेवजी के ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवानश्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनय से झुककर मधुर वाणी से कहा ॥ २१ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—पिताजी ! हम तो आपके पुत्र ही हैं हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं ॥ २२ ॥ पिताजी ! आपलोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत—सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सब को ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये ॥ २३ ॥ पिताजी ! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपने में ही गुणों की सृष्टि कर लेता है और गुणों के द्वारा बनाये हुए पञ्चभूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरूप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता है ॥ २४ ॥ जैसे आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी—ये पञ्चमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदि में प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक-थोड़े, एक और अनेक- से प्रतीत होते हैं—परन्तु वास्तव में सत्तारूप से वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मा में भी उपाधियों के भेद से ही नानात्व की प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैं—इस दृष्टि से आपका कहना ठीक ही है ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर वसुदेवजी ने नानात्वबुद्धि छोड़ दी; वे आनन्द में मग्र होकर वाणी से मौन और मन से निस्सङ्कल्प हो गये ॥ २६ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहले से ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अपने मरे हुए गुरुपुत्र को यमलोक से वापस ला दिया ॥ २७ ॥ अब उन्हें अपने उन पुत्रों की याद आ गयी, जिन्हें कंस ने मार डाला था। उनके स्मरण से देवकीजी का हृदय आतुर हो गया, नेत्रों से आँसू बह ने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वर से श्रीकृष्ण और बलरामजी को सम्बोधित करके कहा ॥ २८ ॥

देवकीजी ने कहा—लोकाभिराम राम ! तुम्हारी शक्ति मन और वाणी के परे है। श्रीकृष्ण ! तुम योगेश्वरों के भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियों के भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो ॥ २९ ॥ यह भी मुझे निश्चत रूप से मालूम है कि जिन लोगों ने कालक्रम से अपना धैर्य, संयम और सत्त्वगुण खो दिया है तथा शास्त्र की आज्ञाओं का उल्लङ्घन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमि के भारभूत उन राजाओं का नाश करने के लिये ही तुम दोनों मेरे गर्भ से अवतीर्ण हुए हो ॥ ३० ॥ विश्वात्मन् ! तुम्हारे पुरुषरूप अंश से उत्पन्न हुई माया से गुणों की उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्र से जगत की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्त:करण से तुम्हारी शरण हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गये थे। उन को गुरुदक्षिणा दे ने के लिये उनकी आज्ञा तथा काल की प्रेरणा से तुम दोनों ने उनके पुत्र को यमपुरी से वापस ला दिया ॥ ३२ ॥ तुम दोनों योगीश्वरों के भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रों को, जिन्हें कंस ने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ ॥ ३३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित ! माता देवकीजी की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ने योगमाया का आश्रय लेकर सुतल लोक में प्रवेश किया ॥ ३४ ॥ जब दैत्यराज बलि ने देखा कि जगत के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोक में पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शन के आनन्द में निमग्र हो गया। उन्होंने झटपट अपने कुटुम्ब के साथ आसन से उठकर भगवान के चरणों में प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ अत्यन्त आनन्द से भरकर दैत्यराज बलि ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी को श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उसपर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोदक परिवारसहित अपने सिर पर धारण किया। परीक्षित ! भगवान के चरणों का जल ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत को पवित्र कर देता है ॥ ३६ ॥ इसके बाद दैत्यराज बलि ने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृत के समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियों से उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदि को उनके चरणों में समर्पित कर दिया ॥ ३७ ॥ परीक्षित ! दैत्यराज बलि बार- बार भगवान के चरणकमलों को अपने वक्ष:स्थल और सिर पर रखने लगे, उनका हृदय प्रेम से विह्वल हो गया। नेत्रों से आनन्द के आँसू बह ने लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वर से भगवान की स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥

दैत्यराज बलि ने कहा—बलरामजी ! आप अनन्त हैं। आप इत ने महान हैं कि शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! आप सकल जगत के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों के प्रवर् तक आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। हम आप दोनों को बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवन् ! आप दोनों का दर्शन प्राणियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी आपकी कृपा से वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाववाले दैत्यों को भी दर्शन दिया है ॥ ४० ॥ प्रभो ! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेम से भजन करना तो दूर रहा, आप से सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात वेदमय और विशुद्ध सत्त्व स्वरूप है। इसलिये हमलोगों में से बहुतों ने दृढ़ वैरभावसे, कुछ ने भक्ति से और कुछ ने कामना से आपका स्मरण करके उस पद को प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहनेवाले सत्त्वप्रधान देवता आदि भी नहीं प्राप्त कर सकते ॥ ४१-४३ ॥ योगेश्वरों के अधीश्वर ! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्राय: यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है ? ॥ ४४ ॥ इसलिये स्वामी ! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलों में लग जाय, जिसे किसी की अपेक्षा न रखनेवाले परमहंस लोग ढूँढ़ा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ से निकल जाऊँ। प्रभो ! इस प्रकार आपके उन चरणकमलोंकी, जो सारे जगत के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसी का सङ्ग करना ही पड़े तो सब के परम हितैषी संतों का ही ॥ ४५ ॥ प्रभो ! आप समस्त चराचर जगत के नियन्ता और स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइए हमारे पापों का नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञा का पालन करता है, वह विधि-निषेध के बन्धन से मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘दैत्यराज ! स्वायम्भुव मन्वन्तर में प्रजापति मरीचि की पत्नी ऊर्णा के गर्भ से छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रह्माजी अपनी पुत्री से समागम करने के लिये उद्यत हैं, हँस ने लगे ॥ ४७ ॥ इस परिहासरूप अपराध के कारण उन्हें ब्रह्माजी ने शाप दे दिया और वे असुर-योनि में हिरण्यकशिपु के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए। अब योगमाया ने उन्हें वहाँ से लाकर देव की के गर्भ में रख दिया और उन को उत्पन्न होते ही कंस ने मार डाला। दैत्यराज ! माता देवकीजी अपने उन पुत्रों के लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं ॥ ४८-४९ ॥ अत: हम अपनी माता का शोक दूर करने के लिये इन्हें यहाँ से ले जायँगे। इसके बाद ये शाप से मुक्त हो जायँगे और आनन्दपूर्वक अपने लोक में चले जायँगे ॥ ५० ॥ इनके छ: नाम हैं—स्मर, उद्गीथ, परिष्वङ्ग, पतङ्ग, क्षुद्रभृत् और घृणि। इन्हें मेरी कृपा से पुन: सद्गति प्राप्त होगी’ ॥ ५१ ॥ परीक्षित ! इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण चुप हो गये। दैत्यराज बलि ने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकों को लेकर फिर द्वार का लौट आये तथा माता देव की को उनके पुत्र सौंप दिये ॥ ५२ ॥ उन बालकों को देखकर देवी देव की के हृदय में वात्सल्य-स्नेह की बाढ़ आ गयी। उनके स्तनों से दूध बह ने लगा। वे बार-बार उन्हें गोद में लेकर छाती से लगातीं और उनका सिर सूँघतीं ॥ ५३ ॥ पुत्रों के स्पर्श के आनन्द से सराबोर एवं आनन्दित देवकी ने उन को स्तन-पान कराया। वे विष्णुभगवान की उस माया से मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है ॥ ५४ ॥ परीक्षित ! देवकीजी के स्तनों का दूध साक्षात अमृत था; क्यों न हो, भगवान श्रीकृष्ण जो उसे पी चु के थे ! उन बालकों ने वही अमृतमय दूध पिया। उस दूध के पी ने से और भगवान श्रीकृष्ण के अङ्गों का संस्पर्श होने से उन्हें आत्मसाक्षातकार हो गया ॥ ५५ ॥ इसके बाद उन लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजी को नमस्कार किया। तदनन्तर सब के सामने ही वे देवलोक में चले गये ॥ ५६ ॥ परीक्षित ! देवी देव की यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्ण का ही कोई लीला-कौशल है ॥ ५७ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त है। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत चरित्र इत ने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता ॥ ५८ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति अमर है, अमृतमयी है। उनका चरित्र जगत के समस्त पाप-तापों को मिटानेवाला तथा भक्तजनों के कर्णकुहरों में आनन्दसुधा प्रवाहित करनेवाला है। इसका वर्णन स्वयं व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी ने किया है। जो इसका श्रवण करता है अथवा दूसरों को सुनाता है, उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति भगवान में लग जाती है और वह उन्हींके परम कल्याण स्वरूप धाम को प्राप्त होता है ॥ ५९ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-86]

॥ षडशीतितमोऽध्यायः - ८६ ॥
राजोवाच
ब्रह्मन् वेदितुमिच्छामः स्वसारां रामकृष्णयोः ।
यथोपयेमे विजयो या ममासीत्पितामही ॥ १॥

श्रीशुक उवाच
अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन्नवनीं प्रभुः ।
गतः प्रभासमश‍ृणोन्मातुलेयीं स आत्मनः ॥ २॥

दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे ।
तल्लिप्सुः स यतिर्भूत्वा त्रिदण्डी द्वारकामगात् ॥ ३॥

तत्र वै वार्षिकान् मासानवात्सीत्स्वार्थसाधकः ।
पौरैः सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः ॥ ४॥

एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमन्त्र्य तम् ।
श्रद्धयोपहृतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल ॥ ५॥

सोऽपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम् ।
प्रीत्युत्फुल्लेक्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो दधे ॥ ६॥

सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयङ्गमम् ।
हसन्ती व्रीडितापाङ्गी तन्न्यस्तहृदयेक्षणा ॥ ७॥

तां परं समनुध्यायन्नन्तरं प्रेप्सुरर्जुनः ।
न लेभे शं भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा ॥ ८॥

महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गतां ।
जहारानुमतः पित्रोः कृष्णस्य च महारथः ॥ ९॥

रथस्थो धनुरादाय शूरांश्चारुन्धतो भटान् ।
विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगराडिव ॥ १०॥

तच्छ्रुत्वा क्षुभितो रामः पर्वणीव महार्णवः ।
गृहीतपादः कृष्णेन सुहृद्भिश्चान्वशाम्यत ॥ ११॥

प्राहिणोत्पारिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः ।
महाधनोपस्करेभरथाश्वनरयोषितः ॥ १२॥

श्रीशुक उवाच
कृष्णस्यासीद्द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः ।
कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थः शान्तः कविरलम्पटः ॥ १३॥

स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी ।
अनीहयाऽऽगताहार्यनिर्वर्तितनिजक्रियः ॥ १४॥

यात्रामात्रं त्वहरहर्दैवादुपनमत्युत ।
नाधिकं तावता तुष्टः क्रियाश्चक्रे यथोचिताः ॥ १५॥

तथा तद्राष्ट्रपालोऽङ्ग बहुलाश्व इति श्रुतः ।
मैथिलो निरहम्मान उभावप्यच्युतप्रियौ ॥ १६॥

तयोः प्रसन्नो भगवान् दारुकेणाहृतं रथम् ।
आरुह्य साकं मुनिभिर्विदेहान् प्रययौ प्रभुः ॥ १७॥

नारदो वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः ।
अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः ॥ १८॥

तत्र तत्र तमायान्तं पौरा जानपदा नृप ।
उपतस्थुः सार्घ्यहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम् ॥ १९॥

आनर्तधन्वकुरुजाङ्गलकङ्कमत्स्य-
पाञ्चालकुन्तिमधुकेकयकोसलार्णाः ।
अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहास-
स्निग्धेक्षणं नृप पपुर्दृशिभिर्नृनार्यः ॥ २०॥

तेभ्यः स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः
क्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन् ।
श‍ृण्वन् दिगन्तधवलं स्वयशोऽशुभघ्नं
गीतं सुरैर्नृभिरगाच्छनकैर्विदेहान् ॥ २१॥

तेऽच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप ।
अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः ॥ २२॥

दृष्ट्वा त उत्तमश्लोकं प्रीत्युत्फुल्लाननाशयाः ।
कैर्धृताञ्जलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वांस्तथा मुनीन् ॥ २३॥

स्वानुग्रहाय सम्प्राप्तं मन्वानौ तं जगद्गुरुम् ।
मैथिलः श्रुतदेवश्च पादयोः पेततुः प्रभोः ॥ २४॥

न्यमन्त्रयेतां दाशार्हमातिथ्येन सह द्विजैः ।
मैथिलः श्रुतदेवश्चयुगपत्संहताञ्जली ॥ २५॥

भगवांस्तदभिप्रेत्य द्वयोः प्रियचिकीर्षया ।
उभयोराविशद्गेहमुभाभ्यां तदलक्षितः ॥ २६॥

श्रोतुमप्यसतां दूरान् जनकः स्वगृहागतान् ।
आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान् महामनाः ॥ २७॥

प्रवृद्धभक्त्या उद्धर्षहृदयास्राविलेक्षणः ।
नत्वा तदङ्घ्रीन् प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः ॥ २८॥

सकुटुम्बो वहन् मूर्ध्ना पूजयांचक्र ईश्वरान् ।
गन्धमाल्याम्बराकल्पधूपदीपार्घ्यगोवृषैः ॥ २९॥

वाचा मधुरया प्रीणन्निदमाहान्नतर्पितान् ।
पादावङ्कगतौ विष्णोः संस्पृशञ्छनकैर्मुदा ॥ ३०॥

राजोवाच
भवान् हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वदृग्विभो ।
अथ नस्त्वत्पदाम्भोजं स्मरतां दर्शनं गतः ॥ ३१॥

स्ववचस्तदृतं कर्तुमस्मद्दृग्गोचरो भवान् ।
यदात्थैकान्तभक्तान्मे नानन्तः श्रीरजः प्रियः ॥ ३२॥

को नु त्वच्चरणाम्भोजमेवंविद्विसृजेत्पुमान् ।
निष्किञ्चनानां शान्तानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः ॥ ३३॥

योऽवतीर्य यदोर्वंशे नृणां संसरतामिह ।
यशो वितेने तच्छान्त्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम् ॥ ३४॥

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
नारायणाय ऋषये सुशान्तं तप ईयुषे ॥ ३५॥

दिनानि कतिचिद्भूमन् गृहान् नो निवस द्विजैः ।
समेतः पादरजसा पुनीहीदं निमेः कुलम् ॥ ३६॥

इत्युपामन्त्रितो राज्ञा भगवांल्लोकभावनः ।
उवास कुर्वन् कल्याणं मिथिलानरयोषिताम् ॥ ३७॥

श्रुतदेवोऽच्युतं प्राप्तं स्वगृहाञ्जनको यथा ।
नत्वा मुनीन् सुसंहृष्टो धुन्वन् वासो ननर्त ह ॥ ३८॥

तृणपीठबृषीष्वेतानानीतेषूपवेश्य सः ।
स्वागतेनाभिनन्द्याङ्घ्रीन् सभार्योऽवनिजे मुदा ॥ ३९॥

तदम्भसा महाभाग आत्मानं स गृहान्वयम् ।
स्नापयांचक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः ॥ ४०॥

फलार्हणोशीरशिवामृताम्बुभि-
र्मृदा सुरभ्या तुलसीकुशाम्बुजैः ।
आराधयामास यथोपपन्नया
सपर्यया सत्त्वविवर्धनान्धसा ॥ ४१॥

स तर्कयामास कुतो ममान्वभू-
द्गृहान्धकुपे पतितस्य सङ्गमः ।
यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः
कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरैः ॥ ४२॥

सूपविष्टान् कृतातिथ्यान् श्रुतदेव उपस्थितः ।
सभार्यस्वजनापत्य उवाचाङ्घ्र्यभिमर्शनः ॥ ४३॥

श्रुतदेव उवाच
नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपूरुषः ।
यर्हीदं शक्तिभिः सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया ॥ ४४॥

यथा शयानः पुरुषो मनसैवात्ममायया ।
सृष्ट्वा लोकं परं स्वाप्नमनुविश्यावभासते ॥ ४५॥

श‍ृण्वतां गदतां शश्वदर्चतां त्वाभिवन्दताम् ।
नृणां संवदतामन्तर्हृदि भास्यमलात्मनाम् ॥ ४६॥

हृदिस्थोऽप्यतिदूरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम् ।
आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽप्यन्त्युपेतगुणात्मनाम् ॥ ४७॥

नमोऽस्तु तेऽध्यात्मविदां परात्मने
अनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे ।
सकारणाकारणलिङ्गमीयुषे
स्वमाययासंवृतरुद्धदृष्टये ॥ ४८॥

स त्वं शाधि स्वभृत्यान्नः किं देव करवाम हे ।
एतदन्तो नृणां क्लेशो यद्भवानक्षिगोचरः ॥ ४९॥

श्रीशुक उवाच
तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान् प्रणतार्तिहा ।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रहसंस्तमुवाच ह ॥ ५०॥

श्रीभगवानुवाच
ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय सम्प्राप्तान् विद्ध्यमून् मुनीन् ।
सञ्चरन्ति मया लोकान् पुनन्तः पादरेणुभिः ॥ ५१॥

देवाः क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः ।
शनैः पुनन्ति कालेन तदप्यर्हत्तमेक्षया ॥ ५२॥

ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह ।
तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः ॥ ५३॥

न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम् ।
सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो ह्यहम् ॥ ५४॥

दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवमवजानन्त्यसूयवः ।
गुरुं मां विप्रमात्मानमर्चादाविज्यदृष्टयः ॥ ५५॥

चराचरमिदं विश्वं भावा ये चास्य हेतवः ।
मद्रूपाणीति चेतस्याधत्ते विप्रो मदीक्षया ॥ ५६॥

तस्माद्ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् मच्छ्रद्धयार्चय ।
एवं चेदर्चितोऽस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभूतिभिः ॥ ५७॥

श्रीशुक उवाच
स इत्थं प्रभुणाऽऽदिष्टः सह कृष्णान् द्विजोत्तमान् ।
आराध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सद्गतिम् ॥ ५८॥

एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान् ।
उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात् ॥ ५९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रुतदेवानुग्रहो नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६॥


दशम स्कन्ध-छियासीवाँ अध्याय 59
सुभद्राहरण और भगवान का मिथिलापुरी में राजा जनक और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! मेरे दादा अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी की बहिन सुभद्राजीसे, जो मेरी दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया ? मैं यह जान ने के लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्रा के लिये पृथ्वी पर विचरण करते हुए प्रभासक्षेत्र पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलरामजी मेरे मामा की पुत्री सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषय में सहमत नहीं हैं। अब अर्जुन के मन में सुभद्रा को पाने की लालसा जग आयी। वे त्रिदण्डी वैष्णव का वेष धारण करके द्वार का पहुँचे ॥ २-३ ॥ अर्जुन सुभद्रा को प्राप्त करने के लिये वहाँ वर्षाकाल में चार महीने तक रहे। वहाँ पुरवासियों और बलरामजी ने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं ॥ ४ ॥

एक दिन बलरामजी ने आतिथ्य के लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उन को वे अपने घर ले आये। त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुन को बलरामजी ने अत्यन्त श्रद्धा के साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने बड़े प्रेम से भोजन किया ॥ ५ ॥ अर्जुन ने भोजन के समय वहाँ विवाहयोग्य परम सुन्दरी सुभद्रा को देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरों का मन हरनेवाला था। अर्जुन के नेत्र प्रेम से प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पाने की आकाङ्क्षा से क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥ परीक्षित ! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीर की गठन, भाव-भङ्गी स्त्रियों का हृदय स्पर्श कर लेती थी। उन्हें देखकर सुभद्रा ने भी मन में उन्हीं को पति बनाने का निश्चय किया। वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवन से उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया ॥ ७ ॥ अब अर्जुन केवल उसी का चिन्तन करने लगे और इस बात का अवसर ढूँढऩे लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ ! सुभद्रा को प्राप्त करने की उत्कट कामना से उनका चित्त चक्कर काट ने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी ॥ ८ ॥

एक बार सुभद्राजी देव-दर्शन के लिये रथ पर सवार होकर द्वारका-दुर्ग से बाहर निकलीं। उसी समय महारथी अर्जुन ने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्ण की अनुमति से सुभद्रा का हरण कर लिया ॥ ९ ॥ रथ पर सवार होकर वीर अर्जुन ने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोक ने के लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्रा के निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्रा को लेकर चल पड़े ॥ १० ॥ यह समाचार सुनकर बलरामजी बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद्-सम्बन्धियों ने उनके पैर पकडक़र उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए ॥ ११ ॥ इसके बाद बलरामजी ने प्रसन्न होकर वर-वधू के लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेज में भेजे ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! विदेह की राजधानी मिथिला में एक गृहस्थ ब्राह्मण थे। उनका नाम था श्रुतदेव। वे भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे एकमात्र भगवद्भक्ति से ही पूर्णमनोरथ, परम शान्त, ज्ञानी और विरक्त थे ॥ १३ ॥ वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी किसी प्रकार का उद्योग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता, उसी से अपना निर्वाह कर लेते थे ॥ १४ ॥ प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें जीवन-निर्वाहभर के लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं। वे उतने से ही सन्तुष्ट भी थे, और अपने वर्णाश्रम के अनुसार धर्मपालन में तत्पर रहते थे ॥ १५ ॥ प्रिय परीक्षित ! उस देश के राजा भी, ब्राह्मण के समान ही भक्तिमान् थे। मैथिलवंश के उन प्रतिष्ठित नरपति का नाम था बहुलाश्व। उनमें अहङ्कार का लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे भक्त थे ॥ १६ ॥

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने उन दोनों पर प्रसन्न होकर दारुक से रथ मँगवाया और उसपर सवार होकर द्वारका से विदेह देश की ओर प्रस्थान किया ॥ १७ ॥ भगवान के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे ॥ १८ ॥ परीक्षित ! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँ की नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजा की सामग्री लेकर उपस्थित होती। पूजा करनेवालों को भगवान ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहों के साथ साक्षात सूर्यनारायण उदय हो रहे हों ॥ १९ ॥ परीक्षित ! उस यात्रा में आनर्त, धन्व, कुरु- जांगल, कङ्क, मत्स्य, पाञ्चाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेक देशों के नर- नारियों ने अपने नेत्ररूपी दोनों से भगवान श्रीकृष्ण के उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवन से युक्त मुखारविन्द के मकरन्द-रस का पान किया ॥ २० ॥ त्रिलोकगुरु भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से उन लोगों की अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करनेवाले नर-नारियों को अपनी दृष्टि से परम कल्याण और तत्त्वज्ञान का दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थान पर मनुष्य और देवता भगवान की उस कीर्ति का गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओं को उज्ज्वल बनानेवाली एवं समस्त अशुभों का विनाश करनेवाली है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देश में पहुँचे ॥ २१ ॥

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन का समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियों के आनन्द की सीमा न रही। वे अपने हाथों में पूजा की विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये ॥ २२ ॥ भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्द से खिल उठे। उन्होंने भगवान को तथा उन मुनियों को, जिनका नाम केवल सुन रखा था, देखा न था—हाथ जोड़ मस् तक झुकाकर प्रणाम किया ॥ २३ ॥ मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेवने, यह समझकर कि जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण हमलोगों पर अनुग्रह करने के लिये ही पधारे हैं, उनके चरणों पर गिरकर प्रणाम किया ॥ २४ ॥ बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनों ने ही एक साथ हाथ जोडक़र मुनि-मण्डली के सहित भगवान श्रीकृष्ण को आतिथ्य ग्रहण करने के लिये निमन्त्रित किया ॥ २५ ॥ भगवान श्रीकृष्ण दोनों की प्रार्थना स्वीकार करके दोनों को ही प्रसन्न करने के लिये एक ही समय पृथक्-पृथक्-रूप से दोनों के घर पधारे और यह बात एक-दूसरे को मालूम न हुई कि भगवान श्रीकृष्ण मेरे घर के अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं ॥ २६ ॥ विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे; उन्होंने यह देखकर कि दुष्ट-दुराचारी पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही भगवान श्रीकृष्ण और ऋषि- मुनि मेरे घर पधारे हैं, सुन्दर-सुन्दर आसन मँगाये और भगवान श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आराम से उन पर बैठ गये। उस समय बहुलाश्व की विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्ति के उद्रेक से उनका हृदय भर आया था। नेत्रों में आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियों के चरणों में नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्ब के साथ उनके चरणों का लोकपावन जल सिर पर धारण किया और फिर भगवान एवं भगवत् स्वरूप ऋषियों को गन्ध, माला, वस्त्र, अलङ्कार, धूप, दीप, अघ्र्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की ॥ २७—२९ ॥ जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को अपनी गोद में लेकर बैठ गये। और बड़े आनन्द से धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणी से भगवान की स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥

राजा बहुलाश्व ने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश हैं। हम सदा-सर्वदा आपके चरणकमलों का स्मरण करते रहते हैं। इसीसे आपने हमलोगों को दर्शन देकर कृतार्थ किया है ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने स्वरूप बलरामजी, अद्र्धाङ्गिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रह्मा से भी बढक़र प्रिय है। अपने उन वचनों को सत्य करने के लिये ही आपने हमलोगों को दर्शन दिया है ॥ ३२ ॥ भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी इस परम दयालुता और प्रेम-परवशता को जानकर भी आपके चरणकमलों का परित्याग कर सके ? प्रभो ! जिन्हों ने जगत की समस्त वस्तुओं का एवं शरीर आदि का भी मन से परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियों को आप अपने तक को भी दे डालते हैं ॥ ३३ ॥ आपने यदुवंश में अवतार लेकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े हुए मनुष्यों को उससे मुक्त करने के लिये जगत में ऐसे विशुद्ध यश का विस्तार किया है, जो त्रिलो की के पाप-ताप को शान्त करनेवाला है ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्य की निधि हैं; सब के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये आप सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म हैं। आपका ज्ञान अनन्त है। परम शान्ति का विस्तार करने के लिये आप ही नारायण ऋषि के रूप में तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३५ ॥ एकरस अनन्त ! आप कुछ दिनों तक मुनिमण्डली के साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणों की धूल से इस निमिवंश को पवित्र कीजिये’ ॥ ३६ ॥ परीक्षित ! सब के जीवनदाता भगवान श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्व की यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी नर-नारियों का कल्याण करते हुए कुछ दिनों तक वहीं रहे ॥ ३७ ॥

प्रिय परीक्षित ! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डली के पधारने पर आनन्दमग्र हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण भी भगवान श्रीकृष्ण और मुनियों को अपने घर आया देखकर आनन्दविह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाच ने लगे ॥ ३८ ॥ श्रुतदेव ने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उन पर भगवान श्रीकृष्ण और मुनियों को बैठाया, स्वागत-भाषण आदि के द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नी के साथ बड़े आनन्द से सब के पाँव पखारे ॥ ३९ ॥ परीक्षित ! महान सौभाग्यशाली श्रुतदेव ने भगवान और ऋषियों के चरणोदक से अपने घर और कुटुम्बियों को सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेक से मतवाले हो रहे थे ॥ ४० ॥ तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खस से सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ानेवाले अन्न से सब की आराधना की ॥ ४१ ॥ उस समय श्रुतदेवजी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि ‘मैं तो घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ में गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ; मुझे भगवान श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियोंका, जिनके चरणों की धूल ही समस्त तीर्थों को तीर्थ बनानेवाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया ? ॥ ४२ ॥ जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आराम से बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ उनकी सेवा में उपस्थित हुए। वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श करते हुए कह ने लगे ॥ ४३ ॥

श्रुतदेव ने कहा—प्रभो ! आप व्यक्त-अव्यक्तरूप प्रकृति और जीवों से परे पुरुषोत्तम हैं। मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है। आप तो तभी से सब लोगों से मिले हुए हैं, जबसे आपने अपनी शक्तियों के द्वारा इस जगत की रचना करके आत्मसत्ता के रूप में इसमें प्रवेश किया है ॥ ४४ ॥ जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्था में अविद्यावश मन-ही-मन स्वप्न-जगत की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपों में अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपने में ही अपनी माया से जगत की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपों से प्रकाशित हो रहे हैं ॥ ४५ ॥ जो लोग सर्वदा आपकी लीला कथा का श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओं का अर्चन-वन्दन करते हैं और आपस में आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ४६ ॥ जिन लोगों का चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मों की वासना से बहिर्मुख हो रहा है, उनके हृदय में रहने पर भी आप उनसे बहुत दूर हैं। किन्तु जिन लोगों ने आपके गुणगान से अपने अन्त:करण को सद्गुणसम्पन्न बना लिया है, उनके लिये चित्तवृत्तियों से अग्राह्य होने पर भी आप अत्यन्त निकट हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! जो लोग आत्मतत्त्व को जाननेवाले हैं, उनके आत्मा के रूप में ही आप स्थित हैं और जो शरीर आदि को ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके लिये आप अनात्मा को प्राप्त होनेवाली मृत्यु के रूप में हैं। आप महत्तत्त्व आदि कार्यद्रव्य और प्रकृतिरूप कारण के नियामक हैं—शासक हैं। आपकी माया आपकी अपनी दृष्टि पर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने दूसरों की दृष्टि को ढक रखा है। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४८ ॥ स्वयंप्रकाश प्रभो ! हम आपके सेवक हैं। हमें आज्ञा दीजिये कि हम आपकी क्या सेवा करें ? नेत्रों के द्वारा आपका दर्शन होने तक ही जीवों के क्लेश रहते हैं। आपके दर्शन में ही समस्त क्लेशों की परिसमाप्ति है ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! शरणागत-भयहारी भगवान श्रीकृष्ण ने श्रुतदेव की प्रार्थना सुनकर अपने हाथ से उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा ॥ ५० ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय श्रुतदेव ! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुम पर अनुग्रह करने के लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने चरणकमलों की धूल से लोगों और लोकों को पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदि के द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनों में पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टि से ही सब को पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदि में जो पवित्र करने की शक्ति है, वह भी उन्हें संतों की दृष्टि से ही प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ श्रुतदेव ! जगत में ब्राह्मण जन्म से ही सब प्राणियों से श्रेष्ठ हैं। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासना—मेरी भक्ति से युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ॥ ५३ ॥ मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ॥ ५४ ॥ दुर्बुद्धि मनुष्य इस बात को न जानकर केवल मूर्ति आदि में ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणों में दोष निकालकर मेरे स्वरूप जगद्गुरु ब्राह्मणका, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं ॥ ५५ ॥ ब्राह्मण मेरा साक्षातकार करके अपने चित्त में यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत, इसके सम्बन्ध की सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महत्तत्त्वादि सब-के- सब आत्म स्वरूप भगवान के ही रूप हैं ॥ ५६ ॥ इसलिये श्रुतदेव ! तुम इन ब्रहमर्षियों को मेरा ही स्वरूप समझकर पूरी श्रद्धा से इन की पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुम ने साक्षात अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियों से भी मेरी पूजा नहीं हो सकती ॥ ५७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण का यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेव ने भगवान श्रीकृष्ण और उन ब्रहमर्षियों की एकात्मभाव से आराधना की तथा उनकी कृपा से वे भगवत् स्वरूप को प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्व ने भी वही गति प्राप्त की ॥ ५८ ॥ प्रिय परीक्षित ! जैसे भक्त भगवान की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान भी भक्तों की भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तों को प्रसन्न करने के लिये कुछ दिनों तक मिथिलापुरी में रहे और उन्हें साधु पुरुषों के मार्ग का उपदेश करके वे द्वार का लौट आये ॥ ५९ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-87]

॥ सप्ताशीतितमोऽध्यायः - ८७ ॥
परीक्षिदुवाच
ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः ।
कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात्सदसतः परे ॥ १॥

श्रीशुक उवाच
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानामसृजत्प्रभुः ।
मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च ॥ २॥

सैषा ह्युपनिषद्ब्राह्मी पूर्वेषां पूर्वजैर्धृता ।
श्रद्धया धारयेद्यस्तां क्षेमं गच्छेदकिञ्चनः ॥ ३॥

अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम् ।
नारदस्य च संवादमृषेर्नारायणस्य च ॥ ४॥

एकदा नारदो लोकान् पर्यटन् भगवत्प्रियः ।
सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम् ॥ ५॥

यो वै भारतवर्षेऽस्मिन् क्षेमाय स्वस्तये नृणाम् ।
धर्मज्ञानशमोपेतमाकल्पादास्थितस्तपः ॥ ६॥

तत्रोपविष्टमृषिभिः कलापग्रामवासिभिः ।
परीतं प्रणतोऽपृच्छदिदमेव कुरूद्वह ॥ ७॥

तस्मै ह्यवोचद्भगवान् ऋषीणां श‍ृण्वतामिदम् ।
यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम् ॥ ८॥

श्रीभगवानुवाच
स्वायम्भुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेऽभवत्पुरा ।
तत्रस्थानां मानसानां मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ॥ ९॥

श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम् ।
ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते ।
तत्र हायमभूत्प्रश्नस्त्वं मां यमनुपृच्छसि ॥ १०॥

तुल्यश्रुततपःशीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमाः ।
अपि चक्रुः प्रवचनमेकं शुश्रूषवोऽपरे ॥ ११॥

सनन्दन उवाच
स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः ।
तदन्ते बोधयांचक्रुस्तल्लिङ्गैः श्रुतयः परम् ॥ १२॥

यथा शयानं सम्राजं वन्दिनस्तत्पराक्रमैः ।
प्रत्यूषेऽभ्येत्य सुश्लोकैर्बोधयन्त्यनुजीविनः ॥ १३॥

श्रुतय ऊचुः
जय जय जह्यजामजित दोषगृभीतगुणां
त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः ।
अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते
क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः ॥ १४॥

बृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतया
यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदि वाविकृतात् ।
अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं
कथमयथा भवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम् ॥ १५॥

इति तव सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिललोकमल-
क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः ।
किमुत पुनः स्वधामविधुताशयकालगुणाः
परम भजन्ति ये पदमजस्रसुखानुभवम् ॥ १६॥

दृतय इव श्वसन्त्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा
महदहमादयोऽण्डमसृजन् यदनुग्रहतः ।
पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु यः
सदसतः परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम् ॥ १७॥

उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः
परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम् ।
तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परमं
पुनरिह यत्समेत्य न पतन्ति कृतान्तमुखे ॥ १८॥

स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया
तरतमतश्चकास्स्यनलवत्स्वकृतानुकृतिः ।
अथ वितथास्वमूष्ववितथं तव धाम समं
विरजधियोऽन्वयन्त्यभिविपण्यव एकरसम् ॥ १९॥

स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरन्तरसंवरणं
तव पुरुषं वदन्त्यखिलशक्तिधृतोंऽशकृतम् ।
इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमावपनं
भवत उपासतेऽङ्घ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः ॥ २०॥

दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोः
चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः ।
न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते
चरणसरोजहंसकुलसङ्गविसृष्टगृहाः ॥ २१॥

त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहृत्प्रियवत्
चरति तथोन्मुखे त्वयि हिते प्रिय आत्मनि च ।
न बत रमन्त्यहो असदुपासनयाऽऽत्महनो
यदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभृतः ॥ २२॥

निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि
यन्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात् ।
स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो
वयमपि ते समाः समदृशोऽङ्घ्रिसरोजसुधाः ॥ २३॥

क इह नु वेद बतावरजन्मलयोऽग्रसरं
यत उदगादृषिर्यमनु देवगणा उभये ।
तर्हि न सन्न चासदुभयं न च कालजवः
किमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा ॥ २४॥

जनिमसतः सतो मृतिमुतात्मनि ये च भिदां
विपणमृतं स्मरन्त्युपदिशन्ति त आरुपितैः ।
त्रिगुणमयः पुमानिति भिदा यदबोधकृता
त्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे ॥ २५॥

सदिव मनस्त्रिवृत्त्वयि विभात्यसदामनुजा-त्सदभिमृशन्त्यशेषमिदमात्मतयाऽऽत्मविदः ।
न हि विकृतिं त्यजन्ति कनकस्य तदात्मतया
स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयावसितम् ॥ २६॥

तव परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततया
त उत पदाऽऽक्रमन्त्यविगणय्य शिरो निरृतेः ।
परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तांस्त्वयि
कृतसौहृदाः खलु पुनन्ति न ये विमुखाः ॥ २७॥

त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधरः
तव बलिमुद्वहन्ति समदन्त्यजयानिमिषाः ।
वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो
विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः ॥ २८॥

स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो
विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः ।
न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेत्
वियत इवापदस्य तव शून्यतुलां दधतः ॥ २९॥

अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगताः
तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव नेतरथा ।
अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियन्तृ भवेत्
सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया ॥ ३०॥

न घटत उद्भवः प्रकृतिपूरुषयोरजयोः
उभययुजा भवन्त्यसुभृतो जलबुद्बुदवत् ।
त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणैः परमे
सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः ॥ ३१॥

नृषु तव मायया भ्रमममीष्ववगत्य भृशं
त्वयि सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम् ।
कथमनुवर्ततां भवभयं तव यद्भ्रुकुटिः
सृजति मुहुस्त्रिणेमिरभवच्छरणेषु भयम् ॥ ३२॥

विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगं
य इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिदः ।
व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं
वणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ ॥ ३३॥

स्वजनसुतात्मदारधनधामधरासुरथैः
त्वयि सति किं नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे ।
इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां
सुखयति को न्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे ॥ ३४॥

भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदाः
त उत भवत्पदाम्बुजहृदोऽघभिदङ्घ्रिजलाः ।
दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे
न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान् ॥ ३५॥

सत इदमुत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं
व्यभिचरति क्व च क्व च मृषा न तथोभययुक् ।
व्यवहृतये विकल्प इषितोऽन्धपरम्परया
भ्रमयति भारती त उरुवृत्तिभिरुक्थजडान् ॥ ३६॥

न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधनात्
अनुमितमन्तरा त्वयि विभाति मृषैकरसे ।
अत उपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथैः
वितथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधाः ॥ ३७॥

स यदजया त्वजामनुशयीत गुणांश्च जुषन्
भजति सरूपतां तदनु मृत्युमपेतभगः ।
त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगो
महसि महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभगः ॥ ३८॥

यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा
दुरधिगमोऽसतां हृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणिः ।
असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगवन्
अनपगतान्तकादनधिरूढपदाद्भवतः ॥ ३९॥

त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशुभाशुभयोः
गुणविगुणान्वयांस्तर्हि देहभृतां च गिरः ।
अनुयुगमन्वहं सगुण गीतपरम्परया
श्रवणभृतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजैः ॥ ४०॥

द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया
त्वमपि यदन्तराण्डनिचया ननु सावरणाः ।
ख इव रजांसि वान्ति वयसा सह यच्छ्रुतयः
त्वयि हि फलन्त्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः ॥ ४१॥

श्रीभगवानुवाच
इत्येतद्ब्रह्मणः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम् ।
सनन्दनमथानर्चुः सिद्धा ज्ञात्वाऽऽत्मनो गतिम् ॥ ४२॥

इत्यशेषसमाम्नायपुराणोपनिषद्रसः ।
समुद्धृतः पूर्वजातैर्व्योमयानैर्महात्मभिः ॥ ४३॥

त्वं चैतद्ब्रह्मदायाद श्रद्धयाऽऽत्मानुशासनम् ।
धारयंश्चर गां कामं कामानां भर्जनं नृणाम् ॥ ४४॥

श्रीशुक उवाच
एवं स ऋषिणाऽऽदिष्टं गृहीत्वा श्रद्धयाऽऽत्मवान् ।
पूर्णः श्रुतधरो राजन्नाह वीरव्रतो मुनिः ॥ ४५॥

नारद उवाच
नमस्तस्मै भगवते कृष्णायामलकीर्तये ।
यो धत्ते सर्वभूतानामभवायोशतीः कलाः ॥ ४६॥

इत्याद्यमृषिमानम्य तच्छिष्यांश्च महात्मनः ।
ततोऽगादाश्रमं साक्षात्पितुर्द्वैपायनस्य मे ॥ ४७॥

सभाजितो भगवता कृतासनपरिग्रहः ।
तस्मै तद्वर्णयामास नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥ ४८॥

इत्येतद्वर्णितं राजन् यन्नः प्रश्नः कृतस्त्वया ।
यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणेऽपि मनश्चरेत् ॥ ४९॥

योऽस्योत्प्रेक्षक आदिमध्यनिधने योऽव्यक्तजीवेश्वरो
यः सृष्ट्वेदमनुप्रविश्य ऋषिणा चक्रे पुरः शास्ति ताः ।
यं सम्पद्य जहात्यजामनुशयी सुप्तः कुलायं यथा
तं कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं ध्यायेदजस्रं हरिम् ॥ ५०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नारदनारायणसंवादे वेदस्तुतिर्नाम
सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८७॥


दशम स्कन्ध-सत्तासीवाँ अध्याय 28
वेदस्तुति
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! ब्रह्म कार्य और कारण से सर्वथा परे है। सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण उसमें हैं ही नहीं। मन और वाणी से सङ्केतरूप में भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर समस्त श्रुतियों का विषय गुण ही है। (वे जिस विषय का वर्णन करती हैं उसके गुण, जाति, क्रिया अथवा रूढि का ही निर्देश करती हैं) ऐसी स्थिति में श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं ! क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप तो उनकी पहुँच के परे है ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! (भगवान सर्वशक्तिमान् और गुणों के निधान हैं। श्रुतियाँ स्पष्टत: सगुण का ही निरूपण करती हैं, परन्तु विचार करने पर उनका तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है। विचार करने के लिये ही) भगवान ने जीवों के लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों की सृष्टि की है। इनके द्वारा वे स्वेच्छा से अर्थ, काम धर्म अथवा मोक्ष का अर्जन कर सकते हैं। (प्राणों के द्वारा जीवन-धारण, श्रवणादि इन्द्रियों के द्वारा महावाक्य आदि का श्रवण, मन के द्वारा मनन और बुद्धि के द्वारा निश्चय करने पर श्रुतियों के तात्पर्य निर्गुण स्वरूप का साक्षातकार हो सकता है। इसलिये श्रुतियाँ सगुण का प्रतिपादन करने पर भी वस्तुत: निर्गुणपरक हैं) ॥ २ ॥ ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद् का यही स्वरूप है। इसे पूर्वजों के भी पूर्वज सनकादि ऋषियों ने आत्मनिश्चय के द्वारा धारण किया है। जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है, वह बन्धन के कारण समस्त उपाधियों— अनात्मभावों से मुक्त होकर अपने परम- कल्याण स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ॥ ३ ॥ इस विषय में मैं तुम्हें एक गाथा सुनाता हूँ। उस गाथा के साथ स्वयं भगवान नारायण का सम्बन्ध है। वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायण का संवाद है ॥ ४ ॥

एक समय की बात है, भगवान के प्यारे भक्त देवर्षि नारदजी विभिन्न लोकों में विचरण करते हुए सनातनऋषि भगवान नारायण का दर्शन करने के लिये बदरिकाश्रम गये ॥ ५ ॥ भगवान नारायण मनुष्यों के अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और परम नि:श्रेयस (भगवत् स्वरूप अथवा मोक्ष की प्राप्ति) के लिये इस भारतवर्ष में कल्प के प्रारम्भ से ही धर्म, ज्ञान और संयम के साथ महान तपस्या कर रहे हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित! एक दिन वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे। उस समय नारदजी ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यही प्रश्र पूछा, जो तुम मुझ से पूछ रहे हो ॥ ७ ॥ भगवान नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारदजी को उनके प्रश्र का उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रह्म के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गयी थी ॥ ८ ॥

भगवान नारायण ने कहा—नारदजी ! प्राचीन काल की बात है। एक बार जनलोक में वहाँ रहनेवाले ब्रह्मा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियों का ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था ॥ ९ ॥ उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध- मूर्ति का दर्शन करने के लिये श्वेतद्वीप चले गये थे। उस समय वहाँ उस ब्रह्म के सम्बन्ध में बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विषय में श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेती हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूप से लक्षित कराती हुई उसी में सो जाती हैं। उस ब्रह्मसत्र में यही प्रश्र उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझ से पूछ रहे हो ॥ १० ॥ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार—ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभाव में समान हैं। उन लोगों की दृष्टि में शत्रु, मित्र और उदासीन एक- से हैं। फिर भी उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुनने के इच्छुक बनकर बैठ गये ॥ ११ ॥

सनन्दनजी ने कहा—जिस प्रकार प्रात:काल होने पर सोते हुए सम्राट् को जगा ने के लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट् के पराक्रम तथा सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों के सहित सोये रहते हैं; तब प्रलय के अन्त में श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करनेवाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं ॥ १२-१३ ॥

श्रुतियाँ कहती हैं—अजित ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो ! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिये चराचर प्राणियों को फँसानेवाली माया का नाश कर दीजिये। प्रभो ! इस गुणमयी माया ने दोष के लिये— जीवों के आनन्दादिमय सहज स्वरूप का आच्छादन करके उन्हें बन्धन में डालने के लिये ही सत्त्वादि गुणों को ग्रहण किया है। जगत में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सब को जगानेवाले आप ही हैं। इसलिये आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती। (इस विषय में यदि प्रमाण पूछा जाय, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही—हम ही प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपत: वर्णन करने में असमर्थ हैं, परन्तु जब कभी आप माया के द्वारा जगत की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उस को निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किञ्चित् आपका वर्णन करने में समर्थ होती हैं[1] ॥ १४ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियोंके) सारे मन्त्र अथवा सभी मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रतीत होनेवाले इस सम्पूर्ण जगत को ब्रह्म स्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह सारा जगत नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट, शराव (मिट्टी का प्याला—कसोरा) आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय आप में ही होती है। तब क्या आप पृथ्वी के समान विकारी हैं ? नहीं-नहीं, आप तो एकरस—निर्विकार हैं। इसीसे तो यह जगत आप में उत्पन्न नहीं, प्रतीत है। इसलिये जैसे घट, शराव आदि का वर्णन भी मिट्टी का ही वर्णन है, वैसे ही इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का वर्णन भी आपका ही वर्णन है। यही कारण है कि विचारशील ऋषि, मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है, उसे आप में ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते हैं। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे—र्ईंट, पत्थर या काठपर—होगा वह पृथ्वी पर ही; क्योंकि वे सब पृथ्वी स्वरूप ही हैं। इसलिये हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है [2] ॥ १५ ॥

भगवन् ! लोग सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी- बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटी के स्वामी, उस को नचानेवाले हैं। इसीलिये विचारशील पुरुष आपकी लीला कथा के अमृतसागर में गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-ताप को धो-बहा देते हैं। क्यों न हो, आपकी लीला- कथा सभी जीवों के मायामल को नष्ट करनेवाली जो है। पुरुषोत्तम ! जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान के द्वारा अन्त:करण के राग-द्वेष आदि और शरीर के कालकृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूप की अनुभूति में मग्र रहते हैं, जो अखण्ड आनन्द स्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापों को सदा के लिये शान्त, भस्म कर दिया है—इसके विषय में तो कहना ही क्या है [3] ॥ १६ ॥ भगवन् ! प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञा का पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना-जाना। महत्तत्त्व, अहङ्कार आदि ने आपके अनुग्रहसे—आपके उनमें प्रवेश करने पर ही इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन पाँचों कोशों में पुरुषरूप से रहनेवाले, उनमें ‘मैं-मैं’ की स्फूर्ति करनेवाले भी आप ही हैं ! आपके ही अस्तित्व से उन कोशों के अस्तित्व का अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अन्तिम अवधिरूप से आप विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सब में अन्वित और सब की अवधि होने पर भी आप असंग ही हैं। क्योंकि वास्तव में जो कुछ वृत्तियों के द्वारा अस्ति अथवा नास्ति के रूप में अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणों से आप परे हैं। ‘नेति-नेति’ के द्वारा इन सब का निषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेध के भी साक्षी हैं और वास्तव में आप ही एकमात्र सत्य हैं। (इसलिये आपके भजन के बिना जीव का जीवन व्यर्थ ही है, क्योंकि वह इस महान सत्य से वञ्चित है)[4] ॥ १७ ॥

ऋषियों ने आपकी प्राप्ति के लिये अनेकों मार्ग माने हैं। उनमें जो स्थूल दृष्टिवाले हैं, वे मणिपूरक चक्र में अग्रिरूप से आपकी उपासना करते हैं। अरुणवंश के ऋषि समस्त नाडिय़ों के निकल ने के स्थान हृदय में आपके परम सूक्ष्म स्वरूप दहर ब्रह्म की उपासना करते हैं। प्रभो ! हृदय से ही आपको प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्रा नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र तक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त कर लेता है और उससे ऊ पर की ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता [5] ॥ १८ ॥ भगवन् ! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं। सदा-सर्वत्र सब रूपों में आप हैं ही, इसलिये कारणरूप से प्रवेश न करने पर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं, मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियों का अनुकरण करके कहीं उत्तम, तो कहीं अधमरूप से प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी-बड़ी लकडिय़ों और कर्मों के अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाण में या उत्तम-अधमरूप में प्रतीत होती है। इसलिये संत पुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मों की दूकानदारीसे, उनके फलों से विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धि से सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मा को पहचानकर जगत के झूठे रूपों में नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभाव से स्थित सत्य स्वरूप का साक्षातकार करते हैं [6] ॥ १९ ॥

प्रभो ! जीव जिन शरीरों में रहता है, वे उसके कर्म के द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तव में उन शरीरों के कार्य-कारणरूप आवरणों से वह रहित है, क्योंकि वस्तुत: उन आवरणों की सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियों को धारण करनेवाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होने के कारण अंश न होने पर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होने पर भी निर्मित कहते हैं। इसीसे बुद्धिमान पुरुष जीव के वास्तविक स्वरूप पर विचार करके परम विश्वासके साथ आपके चरणकमलों की उपासना करते हैं। क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मों के समर्पणस्थान और मोक्ष स्वरूप हैं[7] ॥ २० ॥ भगवन् ! परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसी का ज्ञान कराने के लिये आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द में मग्र हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला- कथाओं को छोडक़र मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते—स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है। वे आपके चरण-कमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवन में प्राप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी परित्याग कर देते हैं[8] ॥ २१ ॥

प्रभो ! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद् और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है। आप जीव के सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीव को अपना ने के लिये तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल मानव शरीर को पाकर भी लोग सख्यभाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आप में नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी और असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं, उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुँचाते हैं। भला, यह कित ने कष्ट की बात है ! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदि में ही लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उन को पशु-पक्षी आदि के न जाने कित ने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है[9] ॥ २२ ॥ प्रभो ! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियों को वश में करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा हृदय में आपकी उपासना करते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है, उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो आप से वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँ तक कहें, भगवन् ! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति कामभाव से आसक्त रहती हैं, जिस परम पद को प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है—यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरन्दरस पान करती रहती हैं। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अन्तर नहीं है[10] ॥ २३ ॥

भगवन् ! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं ब्रह्माजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आप से ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सब को समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत रहता है और न तो महत्तत्त्वादि सूक्ष्म जगत। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक कि शास्त्र भी आप में ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्था में आपको जान ने की चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।)[11] ॥ २४ ॥ प्रभो ! कुछ लोग मानते हैं कि असत् जगत की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं कि सत्-रूप दु:खों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होनेवाले लोक और परलोकरूप व्यवहार को सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है—इस प्रकार का भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञान स्वरूप आप में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है[12] ॥ २५ ॥

यह त्रिगुणात्मक जगत मन की कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत से पृथक् प्रतीत होनेवाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तव में असत् होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ता के कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिये भोक्ता, भोग्य और दोनों के सम्बन्ध को सिद्ध करनेवाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत है, सब को आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हैं। सो ने से बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिये उन को इस रूप में जाननेवाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत आत्मा में ही कल्पित, आत्मा से ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं [13] ॥ २६ ॥ भगवन् ! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सब के आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आप से विमुख हैं, वे चाहे जित ने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियों से पशुओं के समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्हों ने आपके साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़ रक्खा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं—जगत के बन्धन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आप से विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है[14] ॥ २७ ॥

प्रभो ! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणोंसे—चिन्तन, कर्म आदि के साधनों से सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अन्त:करण और बाह्य करणों की शक्तियों से सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वत:सिद्ध ज्ञानवान्, स्वयंप्रकाश हैं; अत: कोई काम करने के लिये आपको इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजा से कर लेकर स्वयं अपने सम्राट् को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्यों के पूज्य देवता और देवताओं के पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियों से पूजा स्वीकार करते हैं और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करने के लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आप से भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं[15] ॥ २८ ॥ नित्यमुक्त ! आप मायातीत हैं, फिर भी जब अपने ईक्षणमात्रसे—सङ्कल्पमात्र से माया के साथ क्रीडा करते हैं, तब आपका सङ्केत पाते ही जीवों के सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म-संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। प्रभो ! आप परम दयालु हैं। आकाश के समान सब में सम होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तव में तो आपके स्वरूप में मन और वाणी की गति ही नहीं है। आप में कार्य-कारणरूप प्रपञ्च का अभाव होने से बाह्य दृष्टि से आप शून्य के समान ही जान पड़ते हैं; परन्तु उस दृष्टि के भी अधिष्ठान होने के कारण आप परम सत्य हैं [16] ॥ २९ ॥

भगवन् ! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक—यह बात बन ही नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आप से उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं कि ये सब-के-सब जीव तथा इन की एकता या विभिन्नता आप से ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरूप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तव में आप उनमें समरूप से स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हम ने जान लिया, उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है, जिससे आप परे हैं। और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न होती हैं; इसलिये उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे है[17] ॥ ३० ॥ स्वामिन् ! जीव आप से उत्पन्न होता है, यह कह ने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप—जो आप हैं— कभी वृत्तियों के अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है ? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेनेसे, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे ‘बुलबुला’ नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती है। प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्यास (एक में दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्त में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आप में समा जाते हैं। (इसलिये जीवों की भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्वव्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जान ने के कारण ही मानी जाती है) [18] ॥ ३१ ॥

भगवन् ! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आप से पृथक् मानकर जन्म- मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं। परन्तु बुद्धिमान पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ानेवाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षा—इन तीन भागोंवाला कालचक्र आपका भ्रूविलासमात्र है, वह सभी को भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्युरूप संसार का भय कैसे हो सकता है ?[19] ॥ ३२ ॥ अजन्मा प्रभो! जिन योगियों ने अपनी इन्द्रियों और प्राणों को वश में कर लिया है, वे भी, जब गुरुदेव के चरणों की शरण न लेकर उच्छृङ्खल एवं अत्यन्त चञ्चल मन-तुरंग को अपने वश में करने का प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनों में सफल नहीं होते। उन्हें बार-बार खेद और सैकड़ों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, केवल श्रम और दु:ख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुद्र में बिना कर्णधार की नाव पर यात्रा करनेवाले व्यापारियों की होती है। (तात्पर्य यह कि जो मन को वश में करना चाहते हैं, उनके लिये कर्णधार—गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है)[20] ॥ ३३ ॥

भगवन् ! आप अखण्ड आनन्द स्वरूप और शरणागतों के आत्मा हैं। आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदि से क्या प्रयोजन है ? जो लोग इस सत्य सिद्धान्त को न जानकर स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से होनेवाले सुखों में ही रम रहे हैं, उन्हें संसार में भला, ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ स्वभाव से ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन मटियामेट हो जानेवाली हैं। और तो क्या, वे स्वरूप से ही सारहीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या सुख दे सकती हैं [21] ॥ ३४ ॥ भगवन् ! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदि के घमंड से रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतल पर परम पवित्र और सब को पवित्र करनेवाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं। क्योंकि उनके हृदय में आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि उन संत पुरुषों का चरणामृत समस्त पापों और तापों को सदा के लिये नष्ट कर देनेवाला है। भगवन् ! आप नित्य-आनन्द स्वरूप आत्मा ही हैं। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं—आप में मन लगा देते हैं—वे उन देह-गेहों में कभी नहीं फँसते जो जीव के विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणों का नाश करनेवाले हैं। वे तो बस, आप में ही रम जाते हैं [22] ॥ ३५ ॥

भगवन् ! जैसे मिट्टी से बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हुआ जगत भी सत् ही है—यह बात युक्तिसङ्गत नहीं है। क्योंकि कारण और कार्य का निर्देश ही उनके भेद का द्यो तक है। यदि केवल भेद का निषेध करने के लिये ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्र में, दण्ड और घटनाश में कार्य-कारण-भाव होने पर भी एक वे दूसरे से भिन्न हैं। इस प्रकार कार्य- कारण की एकता सर्वत्र एक-सी नहीं देखी जाती। यदि कारण-शब्द से निमित्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जाय—जैसे कुण्डल का सोना—तो भी कहीं-कहीं कार्य की असत्यता प्रमाणित होती है; जैसे रस्सी में साँप। यहाँ उपादान-कारण के सत्य होने पर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है। यदि यह कहा जाय कि प्रतीत होनेवाले सर्प का उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्याका—भ्रम का मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तु के संयोग से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है। इसलिये जैसे रस्सी में प्रतीत होनेवाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तु में अविद्या के संयोग से प्रतीत होनेवाला नाम-रूपात्मक जगत भी मिथ्या है। यदि केवल व्यवहार की सिद्धि के लिये ही जगत की सत्ता अभीष्ट हो, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है। यह भ्रम व्यावहारिक जगत में माने हुए काल की दृष्टि से अनादि है; और अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व-पूर्व के भ्रम से प्रेरित होकर अन्धपरम्परा से इसे मानते चले आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में कर्मफल को सत्य बतलानेवाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगों को भ्रम में डालती हैं, जो कर्म में जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य कर्मफल की नित्यता बतला ने में नहीं, बल्कि उनकी प्रशंसा करके उन कर्मों में लगा ने में है[23] ॥ ३६ ॥ भगवन् ! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसीसे हम श्रुतियाँ इस जगत का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टी में घड़ा, लोहे में शस्त्र और सो ने में कुण्डल आदि नाममात्र हैं, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही हैं। वैसे ही परमात्मा में वर्णित जगत नाममात्र है, सर्वथा मिथ्या और मन की कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं[24] ॥ ३७ ॥

भगवन् ! जब जीव माया से मोहित होकर अविद्या को अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहों में फँस जाता है तथा उन्हीं को अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी जन्म-मृत्यु में अपनी जन्म- मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है। परन्तु प्रभो ! जैसे साँप अपने केंचुल से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है—वैसे ही आप माया—अविद्या से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं। इसीसे आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा आदि अष्टसिद्धियों से युक्त परमैश्वर्य में आपकी स्थिति है। इसीसे आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनन्त है; वह देश, काल और वस्तुओं की सीमा से आबद्ध नहीं है [25] ॥ ३८ ॥ भगवन् ! यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी हृदय की विषय-वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधकों के लिये आप हृदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ हैं, जैसे कोई अपने गले में मणि पह ने हुए हो, परन्तु उसकी याद न रहने पर उसे ढूँढ़ता फिरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं, विषयों से विरक्त नहीं होते, उन्हें जीवनभर और जीवन के बाद भी दु:ख-ही- दु:ख भोगना पड़ता है। क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं। एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि के क्लेश उठा ने पड़ रहे हैं, और दूसरे आपका स्वरूप न जान ने के कारण अपने धर्म-कर्म का उल्लङ्घन करने से परलोक में नरक आदि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है[26] ॥ ३९ ॥

भगवन् ! आपके वास्तविक स्वरूप को जाननेवाला पुरुष आपके दिये हुए पुण्य और पाप- कर्मों के फल सुख एवं दु:खों को नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्तापन के भाव से ऊ पर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेध के प्रतिपादक शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं; क्योंकि वे देहाभिमानियों के लिये हैं। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आपके स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणों का गान सुन- सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदय में बैठा लेता है तो अनन्त, अचिन्त्य, दिव्यगुणगणों के निवासस्थान प्रभो ! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्यों के फल सुख-दु:खों और विधि-निषेधों से अतीत हो जाता है। क्योंकि आप ही उनकी मोक्ष स्वरूप गति हैं। (परन्तु इन ज्ञानी और प्रेमियों को छोडक़र और सभी शास्त्र बन्धन में हैं तथा वे उसका उल्लङ्घन करने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं)[27] ॥ ४० ॥

भगवन् ! स्र्वगादि लोकों के अधिपति इन्द्र, ब्रह्मा प्रभृति भी आपकी थाह—आपका पार न पा सके; और आश्चर्य की बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते। क्योंकि जब अन्त है ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे ? प्रभो ! जैसे आकाश में हवा से धूल के नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं, वैसे ही आप में काल के वेग से अपने से उत्तरोत्तर दसगु ने सात आवरणों के सहित असंख्य ब्रह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी सीमा कैसे मिले। हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूप का साक्षात वर्णन नहीं कर सकतीं, आपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अन्त में अपना भी निषेध कर देती हैं और आप में ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं[28] ॥ ४१ ॥

भगवान नारायण ने कहा—देवर्षे! इस प्रकार सनकादि ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म की एकता बतलानेवाला उपदेश सुनकर आत्म स्वरूप को जाना और नित्य सिद्ध होने पर भी इस उपदेश से कृतकृत्य- से होकर उन लोगों ने सनन्दन की पूजा की ॥ ४२ ॥ नारद ! सनकादि ऋषि सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए थे, अतएव वे सब के पूर्वज हैं। उन आकाशगामी महात्माओं ने इस प्रकार समस्त वेद, पुराण और उपनिषदों का रस निचोड़ लिया है, यह सब का सार-सर्वस्व है ॥ ४३ ॥ देवर्षे ! तुम भी उन्हींके समान ब्रह्मा के मानस-पुत्र हो—उनकी ज्ञान-सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो। तुम भी श्रद्धा के साथ इस ब्रह्मात्मविद्या को धारण करो और स्वच्छन्दभाव से पृथ्वी में विचरण करो। यह विद्या मनुष्यों की समस्त वासनाओं को भस्म कर देनेवाली है ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! देवर्षि नारद बड़े संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम और नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। वे जो कुछ सुनते हैं, उन्हें उसकी धारणा हो जाती है। भगवान नारायण ने उन्हें जब इस प्रकार उपदेश किया, तब उन्होंने बड़ी श्रद्धा से उसे ग्रहण किया और उनसे यह कहा ॥ ४५ ॥

देवर्षि नारद ने कहा—भगवन् ! आप सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप समस्त प्राणियों के परम कल्याण—मोक्ष के लिये कमनीय कलावतार धारण किया करते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४६ ॥

परीक्षित ! इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान नारायण को और उनके शिष्यों को नमस्कार करके स्वयं मेरे पिता श्रीकृष्णद्वैपायन के आश्रम पर गये ॥ ४७ ॥ भगवान वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया। वे आसन स्वीकार करके बैठ गये, इसके बाद देवर्षि नारद ने जो कुछ भगवान नारायण के मुँह से सुना था, वह सब कुछ मेरे पिताजी को सुना दिया ॥ ४८ ॥ राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन-वाणी से अगोचर और समस्त प्राकृत गुणों से रहित परब्रह्म परमात्मा का वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और उसमें मन का कैसे प्रवेश होता है ? यही तो तुम्हारा प्रश्र था ॥ ४९ ॥ परीक्षित ! भगवान ही इस विश्व का सङ्कल्प करते हैं तथा उसके आदि, मध्य और अन्त में स्थित रहते हैं। वे प्रकृति और जीव दोनों के स्वामी हैं। उन्होंने ही इस की सृष्टि करके जीव के साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरों का निर्माण करके वे ही उनका नियन्त्रण करते हैं। जैसे गाढ़ निद्रा—सुषुप्ति में मग्र पुरुष अपने शरीर का अनुसन्धान छोड़ देता है, वैसे ही भगवान को पाकर यह जीव माया से मुक्त हो जाता है। भगवान ऐसे विशुद्ध, केवल चिन्मात्र तत्त्व हैं कि उनमें जगत के कारण माया अथवा प्रकृति का रत्तीभर भी अस्तित्व नहीं है। वे ही वास्तव में अभय-स्थान हैं। उनका चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये ॥ ५० ॥


[1] इन श्लोकों पर श्रीश्रीधरस्वामी ने बहुत सुन्दर श्लोक लिखे हैं, वे अर्थसहित यहाँ दिये जाते है—

जय जयाजित जह्यगजङ्गमावृतिमजामुपनीतमृषागुणाम्॥१॥

न हि भवन्तमृते प्रभवन्त्यमी निगमगीतगुणार्णवता तव॥१॥

अजित ! आपकी जय हो; जय हो ! झूठे गुण धारण करके चराचर जीव को आच्छादित करनेवाली इस माया को नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव इस को नहीं मार सकेंगे—नहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बात का गान करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणों के समुद्र हैं।



[2] द्रुहिणवह्निरवीन्द्रमुखामरा जगदिदं न भवेत्पृथगुत्थितम्॥२॥

बहुमुखैरपि मन्त्रगणैरजस्त्वमुरुमूर्तिरतो विनिगद्यसे॥२॥

ब्रह्मा, अग्रि, सूर्य, इन्द्र आदि देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत प्रतीत होने पर भी आप से पृथक् नहीं है। इसलिये अनेक देवताओं का प्रतिपादन करनेवाले वेद- मन्त्र उन देवताओं के नाम से पृथक्-पृथक् आपकी ही विभिन्न मूर्तियों का वर्णन करते हैं। वस्तुत: आप अजन्मा हैं; उन मूर्तियों के रूप में भी आपका जन्म नहीं होता।



[3] सकलवेदगणेरितसद्गुणस्त्वमिति सर्वमनीषिजना रता:॥३॥

त्वयि सुभद्रगुणश्रवणादिभिस्तव पदस्मरणेन गतक्लमा:॥३॥

सारे वेद आपके सद्गुणों का वर्णन करते हैं। इसलिये संसार के सभी विद्वान् आपके मङ्गलमय कल्याणकारी गुणों के श्रवण, स्मरण आदि के द्वारा आप से ही प्रेम करते हैं, और आपके चरणों का स्मरण करके सम्पूर्ण क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं।



[4]नरवपु: प्रतिपद्य यदि त्वयि श्रवणवर्णनसंस्मरणादिभि:॥४॥

नरहरे ! न भजन्ति नृणामिदं दृतिवदुच्छ्वसितं विफलं तत:॥४॥

नरहरे ! मनुष्य शरीर प्राप्त करके यदि जीव आपके श्रवण, वर्णन और संस्मरण आदि के द्वारा आपका भजन नहीं करते तो जीवों का श्वास लेना धौंकनीं के समान ही सर्वथा व्यर्थ है।



[5] उदरादिषु य: पुंसां चिन्तितो मुनिवत्र्मभि:॥५॥

हन्ति मृत्युभयं देवो हृद्गतं तमुपास्महे॥५॥

मनुष्य ऋषि-मुनियों के द्वारा बतलायी हुई पद्धतियों से उदर आदि स्थानों में जिनका चिन्तन करते हैं और जो प्रभु उनके चिन्तन करने पर मृत्यु-भय का नाश कर देते हैं, उन हृदयदेश में विराजमान प्रभु की हम उपासना करते हैं।



[6] स्वनिर्मितेषु कार्येषु तारतम्यविवॢजतम्॥६॥

सर्वानुस्यूतसन्मात्रं भगवन्तं भजामहे॥६॥

अपने द्वारा निर्मित सम्पूर्ण कार्यों में जो न्यूनाधिक श्रेष्ठ-कनिष्ठ के भाव से रहित एवं सब में भरपूर हैं, इस रूप में अनुभव में आनेवाली निर्विशेष सत्ता के रूप में स्थित हैं, उन भगवान का हम भजन करते हैं।



[7] त्वदंशस्य ममेशान त्वन्मायाकृतबन्धनम्॥७॥

त्वदङ्िघ्रसेवामादिश्य परानन्द निवर्तय॥७॥

मेरे परमानन्द स्वरूप स्वामी ! मैं आपका अंश हूँ। अपने चरणों की सेवा का आदेश देकर अपनी माया के द्वारा निर्मित मेरे बन्धन को निवृत्त कर दो।



[8] त्वत् कथामृतपाथोधौ विहरन्तो महामुद:॥८॥

कुर्वन्ति कृतिन: केचिच्चतुर्वर्गं तृणोपमम्॥८॥

कोई- कोई विरले शुद्धान्त:करण महापुरुष आपके अमृतमय कथा-समुद्र में विहार करते हुए परमानन्द में मग्र रहते हैं और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को तृण के समान तुच्छ बना देते हैं।



[9] त्वय्यात्मनि जगन्नाथे मन्मनो रमतामिह॥९॥

कदा ममेदृशं जन्म मानुषं सम्भविष्यति॥९॥

आप जगत के स्वामी हैं और अपनी आत्मा ही हैं। इस जीवन में ही मेरा मन आप में रम जाय। मेरे स्वामी ! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा, जब मुझे इस प्रकार का मनुष्यजन्म प्राप्त होगा ?



[10] चरणस्मरणं प्रेम्णा तव देव सुदुर्लभम्॥१०॥

यथाकथञ्चिन्नृहरे मम भूयादहॢनशम्॥१०॥

देव ! आपके चरणों का प्रेमपूर्वक स्मरण अत्यन्त दुर्लभ है। चाहे जैसे-कैसे भी हो, नृसिंह ! मुझे तो आपके चरणों का स्मरण दिन-रात बना रहे।



[11] क्वाहं बुद्ध्यादिसंरुद्ध: क्व च भूमन्महस्तव॥११॥

दीनबन्धो दयासिन्धो भङ्क्षक्त मे नृहरे दिश॥११॥

अनन्त ! कहाँ बुद्धि आदि परिच्छिन्न उपाधियों से घिरा हुआ मैं और कहाँ आपका मन, वाणी आदि के अगोचर स्वरूप ! (आपका ज्ञान तो बहुत ही कठिन है) इसलिये दीनबन्धु, दयासिन्धु ! नरहरि देव ! मुझे तो अपनी भक्ति ही दीजिये।



[12] मिथ्यातर्कसुकर्कशेरितमहावादान्धकारान्तरभ्राम्यन्मन्दमतेरमन्दमहिमंस्त्वज्ज्ञानवत्र्मास्फुटम् ।

श्रीमन्माधव वामन त्रिनयन श्रीशङ्कर श्रीपते गोविन्देति मुदा वदन् मधुपते मुक्त: कदा स्यामहम्॥१२॥

अनन्त महिमाशाली प्रभो ! जो मन्दमति पुरुष झूठे तर्कों के द्वारा प्रेरित अत्यन्त कर्कश वाद-विवाद के घोर अन्धकार में भटक रहे हैं, उनके लिये आपके ज्ञान का मार्ग स्पष्ट सूझना सम्भव नहीं है। इसलिये मेरे जीवन में ऐसी सौभाग्य की घड़ी कब आवेगी कि मैं श्रीमन्माधव, वामन, त्रिलोचन, श्रीशङ्कर, श्रीपते, गोविन्द, मधुपते—इस प्रकार आपको आनन्द में भरकर पुकारता हुआ मुक्त हो जाऊँगा।



[13] यत्सत्त्वत: सदाभाति जगदेतदसत् स्वत:॥१३॥

सदाभासमसत्यस्मिन् भगवन्तं भजाम तम्॥१३॥

यह जगत अपने स्वरूप, नाम और आकृति के रूप में असत् है, फिर भी जिस अधिष्ठान-सत्ता की सत्यता से यह सत्य जान पड़ता है तथा जो इस असत्य प्रपञ्च में सत्य के रूप से सदा प्रकाशमान रहता है, उस भगवान का हम भजन करते हैं।



[14] तपन्तु तापै: प्रपतन्तु पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु चागमान्॥१४॥

यजन्तु यागैर्विवदन्तु वादैहर्ङ्क्षर विना नैव मृतिं तरन्ति॥१४॥

लोग पञ्चाग्रि आदि तापों से तप्त हों, पर्वत से गिरकर आत्मघात कर लें, तीर्थों का पर्यटन करें, वेदों का पाठ करें, यज्ञों के द्वारा यजन करें अथवा भिन्न-भिन्न मतवादों के द्वारा आपस में विवाद करें, परन्तु भगवान के बिना इस मृत्युमय संसार-सागर से पार नहीं जाते।



[15] अनिन्द्रियोऽपि यो देव: सर्वकारकशक्तिधृक्॥१५॥

सर्वज्ञ: सर्वकर्ता च सर्वसेव्यं नमामि तम्॥१५॥

जो प्रभु इन्द्रियरहित होने पर भी समस्त बाह्य और आन्तरिक इन्द्रिय की शक्ति को धारण करता है और सर्वज्ञ एवं सर्वकर्ता है, उस सब के सेवनीय प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।



[16] त्वदीक्षणवशक्षोभमायाबोधितकर्मभि:॥१६॥

जातान् संसरत: खिन्नान्नृहरे पाहि न: पित:॥१६॥

नृसिंह ! आपके सृष्टि-सङ्कल्प से क्षुब्ध होकर माया ने कर्मों को जाग्रत् कर दिया है। उन्हींके कारण हम लोगों का जन्म हुआ और अब आवागमन के चक्कर में भटककर हम दु:खी हो रहे हैं। पिताजी ! आप हमारी रक्षा कीजिये।



[17] अन्तर्यन्ता सर्वलोकस्य गीत: श्रुत्या युक्त्या चैवमेवावसेय:॥१७॥

य: सर्वज्ञ: सर्वशक्तिर्नृसिंह: श्रीमन्तं तं चेतसैवावलम्बे॥१७॥

श्रुति ने समस्त दृश्यप्रपञ्च के अन्तर्यामी के रूप में जिनका गान किया है, और युक्ति से भी वैसा ही निश्चय होता है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंह—पुरुषोत्तम हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्रभु का मैं मन-ही-मन आश्रय ग्रहण करता हूँ।



[18] यस्मिन्नुद्यद् विलयमपि यद् भाति विश्वं लयादौ॥१८॥

जीवोपेतं गुरुकरुणया केवलात्मावबोधे॥१८॥

अत्यन्तान्तं व्रजति सहसा सिन्धुवत्सिन्धुमध्ये॥१८॥

मध्येचित्तं त्रिभुवनगुरुं भावये तं नृसिंहम्॥१८॥

जीवों के सहित यह सम्पूर्ण विश्व जिन में उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में विलय को प्राप्त होता है तथा भान होता है, गुरुदेव की करुणा प्राप्त होने पर जब शुद्ध आत्मा का ज्ञान होता है, तब समुद्र में नदी के समान सहसा यह जिन में आत्यन्तिक प्रलय को प्राप्त हो जाता है, उन्हीं त्रिभुवनगुरु नृसिंह भगवान की मैं अपने हृदय में भावना करता हूँ।



[19] संसारचक्रक्रकचैर्विदीर्णमुदीर्णनानाभवतापतप्तम्॥१९॥

कथञ्चिदापन्नमिह प्रपन्नं त्वमुद्धर श्रीनृहरे नृलोकम्॥१९॥

नृसिंह ! यह जीव संसार-चक्र के आरे से टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकार के सांसारिक पापों की धधकती हुई लपटों से झुलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी कृपा से आपकी शरण में आया है। आप इसका उद्धार कीजिये।



[20]यदा परानन्दगुरो भवत्पदे पदं मनो मे भगवँल्लभेत॥१९॥

तदा निरस्ताखिलसाधनश्रम: श्रयेय सौख्यं भवत: कृपात:॥२०॥

परमानन्दमय गुरुदेव ! भगवन् ! जब मेरा मन आपके चरणों में स्थान प्राप्त कर लेगा, तब मैं आपकी कृपा से समस्त साधनों के परिश्रम से छुटकारा पाकर परमानन्द प्राप्त करूँगा।



[21] भजतां हि भवान् साक्षातपरमानन्दचिद्घन:॥२१॥

आत्मैव किमत: कृत्यं तुच्छदारसुतादिभि:॥२१॥

जो आपका भजन करते हैं, उनके लिये आप स्वयं साक्षात परमानन्दचिद्घन आत्मा ही हैं। इसलिये उन्हें तुच्छ स्त्री, पुत्र, धन आदि से क्या प्रयोजन है ?



[22] मुञ्चन्नङ्गतदङ्गसङ्गमनिशं त्वामेव सञ्चिन्तयन्॥१९॥

सन्त: सन्ति यतो यतो गतमदास्तानाश्रमानावसन्॥१९॥

नित्यं तन्मुखपङ्कजाद्विगलितत्वत्पुण्यगाथामृत-॥१९॥

स्रोत:सम्प£वसंप्लुतो नरहरे न स्यामहं देहभृत्॥२२॥

मैं शरीर और उसके सम्बन्धियों की आसक्ति छोडक़र रात-दिन आपका ही चिन्तन करूँगा और जहाँ-जहाँ निरभिमान सन्त निवास करते हैं, उन्हीं-उन्हीं आश्रमों में रहूँगा। उन सत्पुरुषों के मुख-कमल से नि:सृत आपकी पुण्यमयी कथा-सुधा की नदियों की धारा में प्रतिदिन स्नान करूँगा और नृसिंह ! फिर मैं कभी देह के बन्धन में नहीं पडँूगा।



[23] उद्भूतं भवत: सतोऽपि भुवनं सन्नैव सर्प: स्रज:॥१९॥

कुर्वत् कार्यमपीह कूटकनकं वेदोऽपि नैवंपर:॥१९॥

अद्वैतं तव सत्परं तु परमानन्दं पदं तन्मुदा॥१९॥

वन्दे सुन्दरमिन्दिरानुत हरे मा मुञ्च मामानतम्॥२३॥

माला में प्रतीयमान सर्प के समान सत्य स्वरूप आप से उदय होने पर भी यह त्रिभुवन सत्य नहीं है। झूठा सोना बाजार में चल जाने पर भी सत्य नहीं हो जाता। वेदों का तात्पर्य भी जगत की सत्यता में नहीं है। इसलिये आपका जो परम सत्य परमानन्द स्वरूप अद्वैत सुन्दर पद है, हे इन्दिरावन्दित श्रीहरे ! मैं उसी की वन्दना करता हूँ। मुझ शरणागत को मत छोडिय़े।



[24] मुकुटकुण्डलकङ्कणकिङ्किणीपरिणतं कनकं परमार्थत:॥१९॥

महदहङ्कृतिखप्रमुखं तथा नरहरे न परं परमार्थत:॥२४॥

सोना मुकुट, कुण्डल, कङ्कण और किङ्किणी के रूप में परिणत होने पर भी वस्तुत: सोना ही है। इसी प्रकार नृसिंह ! महत्तत्त्व, अहङ्कार और आकाश, वायु आदि के रूप में उपलब्ध होनेवाला यह सम्पूर्ण जगत वस्तुत: आप से भिन्न नहीं है।



[25] नृत्यन्ती तव वीक्षणाङ्गणगता कालस्वभावादिभि-॥१९॥

र्भावान् सत्त्वरजस्तमोगुणमयानुन्मीलयन्ती बहून्॥२५॥

मामाक्रम्य पदा शिरस्यतिभरं सम्मर्दयन्त्यातुरं॥१९॥

माया ते शरणं गतोऽस्मि नृहरे त्वामेव तां वारय॥२५॥

प्रभो ! आपकी यह माया आपकी दृष्टि के आँगन में आकर नाच रही है और काल, स्वभाव आदि के द्वारा सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक भावों का प्रदर्शन कर रही है। साथ ही यह मेरे सिर पर सवार होकर मुझ आतुर को बलपूर्वक रौंद रही है। नृसिंह ! मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप ही इसे रोक दीजिये।



[26] दम्भन्यासमिषेण वञ्चितजनं भोगैकचिन्तातुरं॥१९॥

सम्मुह्यन्तमहॢनशं विरचितोद्योगक्लमैराकुलम्॥१९॥

आज्ञालङ्घिनमज्ञमज्ञजनतासम्माननासन्मदं ॥१९॥

दीनानाथ दयानिधान परमानन्द प्रभो पाहि माम्॥२६॥

प्रभो ! मैं दम्भपूर्ण संन्यासके बहा ने लोगों को ठग रहा हूँ। एकमात्र भोग की चिन्ता से ही आतुर हूँ तथा रात-दिन नाना प्रकार के उद्योगों की रचना की थकावट से व्याकुल तथा बे-सुध हो रहा हूँ। मैं आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन करता हूँ, अज्ञानी हूँ और अज्ञानी लोगों के द्वारा प्राप्त सम्मान से ‘मैं सन्त हूँ’ ऐसा घमण्ड कर बैठा हूँ। दीनानाथ, दयानिधान, परमानन्द ! मेरी रक्षा कीजिये।



[27] अवगमं तव मे दिशि माधव स्फुरति यन्न सुखासुखसङ्गम:॥१९॥

श्रवणवर्णनभावमथापि वा न हि भवामि यथा विधिकिङ्कर:॥२७॥

माधव ! आप मुझे अपने स्वरूप का अनुभव कराइये, जिससे फिर सुख-दु:ख के संयोग की स्फूर्ति नहीं होती। अथवा मुझे अपने गुणों के श्रवण और वर्णन का प्रेम ही दीजिये, जिससे कि मैं विधि-निषेध का किङ्कर न होऊँ।



[28]द्युपतयो विदुरन्तमनन्त ते न च भवान्न गिर: श्रुतिमौलय:॥१९॥

त्वयि फलन्ति यतो नम इत्यतो जय जयेति भजे तव तत्पदम्॥२८॥

हे अनन्त ! ब्रह्मा आदि देवता आपका अन्त नहीं जानते, न आप ही जानते और न तो वेदों की मुकुटमणि उपनिषदें ही जानती हैं; क्योंकि आप अनन्त हैं। उपनिषदें ‘नमो नम:’, ‘जय हो, जय हो’ यह कहकर आप में चरितार्थ होती हैं। इसलिये मैं भी ‘नमो नम:’, ‘जय हो’ ‘जय हो’ यही कहकर आपके चरण-कमल की उपासना करता हूँ

स्कन्ध-10 [अध्याय-88]

॥ अष्टाशीतितमोऽध्यायः - ८८ ॥
राजोवाच
देवासुरमनुष्येषु ये भजन्त्यशिवं शिवम् ।
प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम् ॥ १॥
एतद्वेदितुमिच्छामः सन्देहोऽत्र महान् हि नः ।
विरुद्धशीलयोः प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गतिः ॥ २॥

श्रीशुक उवाच
शिवः शक्तियुतः शश्वत्त्रिलिङ्गो गुणसंवृतः ।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ॥ ३॥

ततो विकारा अभवन् षोडशामीषु कञ्चन ।
उपधावन् विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम् ॥ ४॥

हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः ।
स सर्वदृगुपद्रष्टा तं भजन् निर्गुणो भवेत् ॥ ५॥

निवृत्तेष्वश्वमेधेषु राजा युष्मत्पितामहः ।
श‍ृण्वन् भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम् ॥ ६॥

स आह भगवांस्तस्मै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभुः ।
नृणां निःश्रेयसार्थाय योऽवतीर्णो यदोः कुले ॥ ७॥

श्रीभगवानुवाच
यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः ।
ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दुःखदुःखितम् ॥ ८॥

स यदा वितथोद्योगो निर्विण्णः स्याद्धनेहया ।
मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम् ॥ ९॥

तद्ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम् ।
(विज्ञायात्मतया धीरः संसारात्परिमुच्यते ।)
अतो मां सुदुराराध्यं हित्वान्यान् भजते जनः ॥ १०॥

ततस्त आशुतोषेभ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धताः ।
मत्ताः प्रमत्ता वरदान् विस्मरन्त्यवजानते ॥ ११॥

श्रीशुक उवाच
शापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
सद्यः शापप्रसादोऽङ्ग शिवो ब्रह्मा न चाच्युतः ॥ १२॥

अत्र चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
वृकासुराय गिरिशो वरं दत्त्वाऽऽप सङ्कटम् ॥ १३॥

वृको नामासुरः पुत्रः शकुनेः पथि नारदम् ।
दृष्ट्वाऽऽशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मतिः ॥ १४॥

स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिद्ध्यसि ।
योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति ॥ १५॥

दशास्यबाणयोस्तुष्टः स्तुवतोर्वन्दिनोरिव ।
ऐश्वर्यमतुलं दत्त्वा तत आप सुसङ्कटम् ॥ १६॥

इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत्स्वगात्रतः ।
केदार आत्मक्रव्येण जुह्वानोऽग्निमुखं हरम् ॥ १७॥

देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात्सप्तमेऽहनि ।
शिरोऽवृश्चत्स्वधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम् ॥ १८॥

तदा महाकारुणिकः स धूर्जटिर्यथा
वयं चाग्निरिवोत्थितोऽनलात् ।
निगृह्य दोर्भ्यां भुजयोर्न्यवारय-
त्तत्स्पर्शनाद्भूय उपस्कृताकृतिः ॥ १९॥

तमाह चाङ्गालमलं वृणीष्व मे
यथाभिकामं वितरामि ते वरम् ।
प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यतामहो
त्वयाऽऽत्मा भृशमर्द्यते वृथा ॥ २०॥

देवं स वव्रे पापीयान् वरं भूतभयावहम् ।
यस्य यस्य करं शीर्ष्णि धास्ये स म्रियतामिति ॥ २१॥

तच्छ्रुत्वा भगवान् रुद्रो दुर्मना इव भारत ।
ॐ इति प्रहसंस्तस्मै ददेऽहेरमृतं यथा ॥ २२॥

इत्युक्तः सोऽसुरो नूनं गौरीहरणलालसः ।
स तद्वरपरीक्षार्थं शम्भोर्मूर्ध्नि किलासुरः ।
स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत्स्वकृताच्छिवः ॥ २३॥

तेनोपसृष्टः सन्त्रस्तः पराधावन् सवेपथुः ।
यावदन्तं दिवो भूमेः काष्ठानामुदगादुदक् ॥ २४॥

अजानन्तः प्रतिविधिं तूष्णीमासन् सुरेश्वराः ।
ततो वैकुण्ठमगमद्भास्वरं तमसः परम् ॥ २५॥

यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमा गतिः ।
शान्तानां न्यस्तदण्डानां यतो नावर्तते गतः ॥ २६॥

तं तथाव्यसनं दृष्ट्वा भगवान् वृजिनार्दनः ।
दूरात्प्रत्युदियाद्भूत्वा वटुको योगमायया ॥ २७॥

मेखलाजिनदण्डाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन् ।
अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत् ॥ २८॥

श्रीभगवानुवाच
शाकुनेय भवान् व्यक्तं श्रान्तः किं दूरमागतः ।
क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्मायं सर्वकामधुक् ॥ २९॥

यदि नः श्रवणायालं युष्मद्व्यवसितं विभो ।
भण्यतां प्रायशः पुम्भिर्धृतैः स्वार्थान् समीहते ॥ ३०॥

श्रीशुक उवाच
एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा ।
गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम् ॥ ३१॥

श्रीभगवानुवाच
एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि ।
यो दक्षशापात्पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट् ॥ ३२॥

यदि वस्तत्र विश्रम्भो दानवेन्द्र जगद्गुरौ ।
तर्ह्यङ्गाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम् ॥ ३३॥

यद्यसत्यं वचः शम्भोः कथञ्चिद्दानवर्षभ ।
तदैनं जह्यसद्वाचं न यद्वक्तानृतं पुनः ॥ ३४॥

इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः ।
भिन्नधीर्विस्मृतः शीर्ष्णि स्वहस्तं कुमतिर्व्यधात् ॥ ३५॥

अथापतद्भिन्नशिराः वज्राहत इव क्षणात् ।
जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद्दिवि ॥ ३६॥

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे ।
देवर्षिपितृगन्धर्वा मोचितः सङ्कटाच्छिवः ॥ ३७॥

मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान् पुरुषोत्तमः ।
अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना ॥ ३८॥

हतः को नु महत्स्वीश जन्तुर्वै कृतकिल्बिषः ।
क्षेमी स्यात्किमु विश्वेशे कृतागस्को जगद्गुरौ ॥ ३९॥

य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः
परस्य साक्षात्परमात्मनो हरेः ।
गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा
विमुच्यते संसृतिभिस्तथारिभिः ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुद्रमोक्षणं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८॥


दशम स्कन्ध-अट्ठासीवाँ अध्याय 40
शिवजी का सङ्कटमोचन
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! भगवान शङ्करने समस्त भोगों का परित्याग कर रखा है; परन्तु देखा यह जाता है कि जो देवता, असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्राय: धनी और भोगसम्पन्न हो जाते हैं। और भगवान विष्णु लक्ष्मीपति हैं, परन्तु उनकी उपासना करनेवाले प्राय: धनी और भोग-सम्पन्न नहीं होते ॥ १ ॥ दोनों प्रभु त्याग और भोग की दृष्टि से एक-दूसरे से विरुद्ध स्वभाववाले हैं, परंतु उनके उपासकों को उनके स्वरूप के विपरीत फल मिलता है। मुझे इस विषय में बड़ा सन्देह है कि त्यागी की उपासना से भोग और लक्ष्मीपति की उपासना से त्याग कैसे मिलता है ? मैं आप से यह जानना चाहता हूँ ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! शिवजी सदा अपनी शक्ति से युक्त रहते हैं। वे सत्त्व आदि गुणों से युक्त तथा अहङ्कार के अधिष्ठाता हैं। अहङ्कार के तीन भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस ॥ ३ ॥ त्रिविध अहङ्कार से सोलह विकार हुए—दस इन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और एक मन। अत: इन सब के अधिष्ठातृ-देवताओं में से किसी एक की उपासना करने पर समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो जाती है ॥ ४ ॥ परन्तु परीक्षित ! भगवान श्रीहरि तो प्रकृति से परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुणरहित हैं। वे सर्वज्ञ तथा सब के अन्त:करणों के साक्षी हैं। जो उनका भजन करता है, वह स्वयं भी गुणातीत हो जाता है ॥ ५ ॥ परीक्षित ! जब तुम्हारे दादा धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर चुके, तब भगवान से विविध प्रकार के धर्मों का वर्णन सुनते समय उन्होंने भी यही प्रश्र किया था ॥ ६ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। मनुष्यों के कल्याण के लिये ही उन्होंने यदुवंश में अवतार धारण किया था। राजा युधिष्ठिर का प्रश्र सुनकर और उनकी सुनने की इच्छा देखकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार उत्तर दिया था ॥ ७ ॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—राजन् ! जिस पर मैं कृपा करता हूँ उसका सब धन धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-सम्बन्धी उसके दु:खाकुल चित्त की परवा न करके उसे छोड़ देते हैं ॥ ८ ॥ फिर वह धन के लिये उद्योग करने लगता है, तब मैं उसका वह प्रयत्न भी निष्फल कर देता हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होने के कारण जब धन कमाने से उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दु:ख समझकर वह उधर से अपना मुँह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तों का आश्रय लेकर उनसे मेल-जोल करता है, तब मैं उसपर अपनी अहैतुक कृपा की वर्षा करता हूँ ॥ ९ ॥ मेरी कृपा से उसे परम सूक्ष्म अनन्त सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी आराधना बहुत कठिन है। इसीसे साधारण लोग मुझे छोडक़र मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य देवताओं की आराधना करते हैं ॥ १० ॥ दूसरे देवता आशुतोष हैं। वे झटपट पिघल पड़ते हैं और अपने भक्तों को साम्राज्य-लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्छृङ्खल, प्रमादी और उन्मत्त हो उठते हैं और अपने वरदाता देवताओं को भी भूल जाते हैं तथा उनका तिरस्कार कर बैठते हैं ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! ब्रह्मा, विष्णु और महादेव—ये तीनों शाप और वरदान दे ने में समर्थ हैं; परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं। परन्तु विष्णु भगवान वैसे नहीं हैं ॥ १२ ॥ इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। भगवान शङ्कर एक बार वृकासुर को वर देकर सङ्कट में पड़ गये थे ॥ १३ ॥ परीक्षित ! वृकासुर शकुनि का पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारद को देख लिया और उनसे पूछा कि ‘तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होनेवाला कौन है ?’ ॥ १४ ॥ परीक्षित ! देवर्षि नारद ने कहा—‘तुम भगवान शङ्कर की आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायगा। वे थोड़े ही गुणों से शीघ्र-से-शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराध से तुरन्त क्रोध कर बैठते हैं ॥ १५ ॥ रावण और बाणासुर ने केवल वंदीजनों के समान शङ्करजी की कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसीसे वे उन पर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। बाद में रावण के कैलास उठा ने और बाणासुर के नगर की रक्षा का भार लेने से वे उनके लिये सङ्कट में भी पड़ गये थे’ ॥ १६ ॥

नारदजी का उपदेश पाकर वृकासुर केदारक्षेत्र में गया और अग्रि को भगवान शङ्कर का मुख मानकर अपने शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा ॥ १७ ॥ इस प्रकार छ: दिन तक उपासना करने पर भी जब उसे भगवान शङ्करके दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दु:ख हुआ। सातवें दिन केदारतीर्थ में स्नान करके उसने अपने भीगे बालवाले मस् तक को कुल्हाड़े से काटकर हवन करना चाहा ॥ १८ ॥ परीक्षित ! जैसे जगत में कोई दु:खवश आत्महत्या करने जाता है तो हमलोग करुणावश उसे बचा लेते हैं, वैसे ही परम दयालु भगवान शङ्करने वृकासुर के आत्मघात के पहले ही अग्रिकुण्ड से अग्रिदेव के समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथों से उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काट ने से रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुर के अङ्ग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये ॥ १९ ॥ भगवान शङ्करने वृकासुर से कहा—‘प्यारे वृकासुर ! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँहमाँगा वर माँग लो। अरे भाई ! मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ा ने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठमूठ अपने शरीर को क्यों पीड़ा दे रहे हो ?’ ॥ २० ॥ परीक्षित ! अत्यन्त पापी वृकासुर ने समस्त प्राणियों को भयभीत करनेवाला यह वर माँगा कि ‘मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ, वही मर जाय’ ॥ २१ ॥ परीक्षित ! उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनम ने से हो गये, फिर हँसकर कह दिया— ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ ऐसा वर देकर उन्होंने मानो साँप को अमृत पिला दिया ॥ २२ ॥

भगवान शङ्करके इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वतीजी को ही हर लूँ।’ वह असुर शङ्करजी के वर की परीक्षा के लिये उन्हींके सिर पर हाथ रखने का उद्योग करने लगा। अब तो शङ्करजी अपने दिये हुए वरदान से ही भयभीत हो गये ॥ २३ ॥ वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते हुए भाग ने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अन्त तक दौड़ते गये; परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े ॥ २४ ॥ बड़े-बड़े देवता इस सङ्कट को टाल ने का कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्त में वे प्राकृतिक अंधकार से परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोक में गये ॥ २५ ॥ वैकुण्ठ में स्वयं भगवान नारायण निवास करते हैं। एकमात्र वे ही उन संन्यासियों की परम गति हैं, जो सारे जगत को अभयदान करके शान्तभाव में स्थित हो गये हैं। वैकुण्ठ में जाकर जीव को फिर लौटना नहीं पड़ता ॥ २६ ॥ भक्तभयहारी भगवान ने देखा कि शङ्करजी तो बड़े सङ्कट में पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमाया से ब्रह्मचारी बनकर दूर से ही धीरे-धीरे वृकासुर की ओर आ ने लगे ॥ २७ ॥ भगवान ने मूँज की मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्ष की माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंग से ऐसी ज्योति निकल रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथ में कुश लिये हुए थे। वृकासुर को देखकर उन्होने बड़ी नम्रता से झुककर प्रणाम किया ॥ २८ ॥

ब्रह्मचारी वेषधारी भगवान ने कहा—शकुनिनन्दन वृकासुरजी ! आप स्पष्ट ही बहुत थके- से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूर से आ रहे हैं क्या ? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखों की जड़ है। इसीसे सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये ॥ २९ ॥ आप तो सब प्रकार से समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं ? यदि मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये। क्योंकि संसार में देखा जाता है कि लोग सहायकों के द्वारा बहुत- से काम बना लिया करते हैं ॥ ३० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान के एक-एक शब्द से अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछने पर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमश: अपनी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा भगवान शङ्करके पीछे दौडऩे की बात शुरू से कह सुनायी ॥ ३१ ॥

श्रीभगवान ने कहा—‘अच्छा, ऐसी बात है ? तब तो भाई ! हम उसकी बात पर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या ? वह तो दक्ष प्रजापति के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचों का सम्राट् है ॥ ३२ ॥ दानवराज ! आप इत ने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातों पर विश्वास कर लेते हैं ? आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बात पर विश्वास करते हों, तो झटपट अपने सिर पर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये ॥ ३३ ॥ दानव-शिरोमणे ! यदि किसी प्रकार शङ्कर की बात असत्य निकले तो उस असत्यवादी को मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके ॥ ३४ ॥ परीक्षित ! भगवान ने ऐसी मोहित करनेवाली अद्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धि ने भूलकर अपने ही सिर पर हाथ रख लिया ॥ ३५ ॥ बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरती पर गिर पड़ा, मानो उसपर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाश में देवतालोग ‘जय-जय, नमो नम:, साधु-साधु !’ के नारे लगा ने लगे ॥ ३६ ॥ पापी वृकासुर की मृत्यु से देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे और भगवान शङ्कर उस विकट सङ्कट से मुक्त हो गये ॥ ३७ ॥ अब भगवान पुरुषोत्तम ने भयमुक्त शङ्करजी से कहा कि ‘देवाधिदेव ! बड़े हर्ष की बात है कि इस दुष्ट को इसके पापों ने ही नष्ट कर दिया। परमेश्वर ! भला, ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषों का अपराध करके कुशल से रह सके ? फिर स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर ! आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है ?’ ॥ ३८-३९ ॥

भगवान अनन्त शक्तियों के समुद्र हैं। उनकी एक-एक शक्ति मन और वाणी की सीमा के परे है। वे प्रकृति से अतीत स्वयं परमात्मा हैं। उनकी शङ्करजी को सङ्कट से छुड़ा ने की यह लीला जो कोई कहता या सुनता है, वह संसार के बन्धनों और शत्रुओं के भय से मुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-89]

॥ एकोननवतितमोऽध्यायः - ८९ ॥
श्रीशुक उवाच
सरस्वत्यास्तटे राजन् ऋषयः सत्रमासत ।
वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान् ॥ १॥

तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्मसुतं नृप ।
तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद् ब्रह्मणः सभाम् ॥ २॥

न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया ।
तस्मै चुक्रोध भगवान् प्रज्वलन् स्वेन तेजसा ॥ ३॥

स आत्मन्युत्थितं मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः ।
अशीशमद्यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणाऽऽत्मभूः ॥ ४॥

ततः कैलासमगमत्स तं देवो महेश्वरः ।
परिरब्धुं समारेभ उत्थाय भ्रातरं मुदा ॥ ५॥

नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह ।
शूलमुद्यम्य तं हन्तुमारेभे तिग्मलोचनः ॥ ६॥

पतित्वा पादयोर्देवी सान्त्वयामास तं गिरा ।
अथो जगाम वैकुण्ठं यत्र देवो जनार्दनः ॥ ७॥

शयानं श्रिय उत्सङ्गे पदा वक्षस्यताडयत् ।
तत उत्थाय भगवान् सह लक्ष्म्या सतां गतिः ॥ ८॥

स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम् ।
आह ते स्वागतं ब्रह्मन् निषीदात्रासने क्षणम् ।
अजानतामागतान् वः क्षन्तुमर्हथ नः प्रभो ॥ ९॥

अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने ।
इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना ॥ १०॥

पुनीहि सह लोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान् ।
पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा ॥ ११॥

अद्याहं भगवंल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम् ।
वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः ॥ १२॥

श्रीशुक उवाच
एवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा ।
निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कण्ठोऽश्रुलोचनः ॥ १३॥

पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम् ।
स्वानुभूतमशेषेण राजन् भृगुरवर्णयत् ॥ १४॥

तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः ।
भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शान्तिर्यतोऽभयम् ॥ १५॥

धर्मः साक्षाद्यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम् ।
ऐश्वर्यं चाष्टधा यस्माद्यशश्चात्ममलापहम् ॥ १६॥

मुनीनां न्यस्तदण्डानां शान्तानां समचेतसाम् ।
अकिञ्चनानां साधूनां यमाहुः परमां गतिम् ॥ १७॥

सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः ।
भजन्त्यनाशिषः शान्ता यं वा निपुणबुद्धयः ॥ १८॥

त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः ।
गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम् ॥ १९॥

श्रीशुक उवाच
एवं सारस्वता विप्रा नृणां संशयनुत्तये ।
पुरुषस्य पदाम्भोजसेवया तद्गतिं गताः ॥ २०॥

सूत उवाच
इत्येतन्मुनितनयास्यपद्मगन्धपीयूषं
भवभयभित्परस्य पुंसः ।
सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णं
पान्थोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति ॥ २१॥

श्रीशुक उवाच
एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः ।
जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत ॥ २२॥

विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः ।
इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः ॥ २३॥

ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः ।
क्षत्रबन्धोः कर्मदोषात्पञ्चत्वं मे गतोऽर्भकः ॥ २४॥

हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेन्द्रियम् ।
प्रजा भजन्त्यः सीदन्ति दरिद्रा नित्यदुःखिताः ॥ २५॥

एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च ।
विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत ॥ २६॥

तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित्केशवान्तिके ।
परेते नवमे बाले ब्राह्मणं समभाषत ॥ २७॥

किं स्विद्ब्रह्मंस्त्वन्निवासे इह नास्ति धनुर्धरः ।
राजन्यबन्धुरेते वै ब्राह्मणाः सत्र आसते ॥ २८॥

धनदारात्मजापृक्ता यत्र शोचन्ति ब्राह्मणाः ।
ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवन्त्यसुम्भराः ॥ २९॥

अहं प्रजा वां भगवन् रक्षिष्ये दीनयोरिह ।
अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निं प्रवेक्ष्ये हतकल्मषः ॥ ३०॥

ब्राह्मण उवाच
सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवन्ति यत् ॥ ३१॥

तत्कथं नु भवान् कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः ।
चिकीर्षसि त्वं बालिश्यात्तन्न श्रद्दध्महे वयम् ॥ ३२॥

अर्जुन उवाच
नाहं सङ्कर्षणो ब्रह्मन् न कृष्णः कार्ष्णिरेव च ।
अहं वा अर्जुनो नाम गाण्डीवं यस्य वै धनुः ॥ ३३॥

मावमंस्था मम ब्रह्मन् वीर्यं त्र्यम्बकतोषणम् ।
मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजां प्रभो ॥ ३४॥

एवं विश्रम्भितो विप्रः फाल्गुनेन परन्तप ।
जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यं निशामयन् ॥ ३५॥

प्रसूतिकाल आसन्ने भार्याया द्विजसत्तमः ।
पाहि पाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः ॥ ३६॥

स उपस्पृश्य शुच्यम्भो नमस्कृत्य महेश्वरम् ।
दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गाण्डीवमाददे ॥ ३७॥

न्यरुणत्सूतिकागारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः ।
तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपञ्जरम् ॥ ३८॥

ततः कुमारः सञ्जातो विप्रपत्न्या रुदन् मुहुः ।
सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा ॥ ३९॥

तदाऽऽह विप्रो विजयं विनिन्दन् कृष्णसन्निधौ ।
मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीबकत्थनम् ॥ ४०॥

न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः ।
यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः ॥ ४१॥

धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः ।
दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः ॥ ४२॥

एवं शपति विप्रर्षौ विद्यामास्थाय फाल्गुनः ।
ययौ संयमनीमाशु यत्रास्ते भगवान् यमः ॥ ४३॥

विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐन्द्रीमगात्पुरीम् ।
आग्नेयीं नैरृतीं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ ।
रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः ॥ ४४॥

ततोऽलब्धद्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः ।
अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता ॥ ४५॥

दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना ।
ये ते नः कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयिष्यन्ति ॥ ४६॥

इति सम्भाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः ।
दिव्यं स्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत् ॥ ४७॥

सप्तद्वीपान् सप्त सिन्धून्सप्तसप्त गिरीनथ ।
लोकालोकं तथातीत्य विवेश सुमहत्तमः ॥ ४८॥

तत्राश्वाः शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः ।
तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ ॥ ४९॥

तान् दृष्ट्वा भगवान् कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः ।
सहस्रादित्यसङ्काशं स्वचक्रं प्राहिणोत्पुरः ॥ ५०॥

तमः सुघोरं गहनं कृतं मह-
द्विदारयद्भूरितरेण रोचिषा ।
मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं
गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः ॥ ५१॥

द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमः
परं परं ज्योतिरनन्तपारम् ।
समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः
प्रताडिताक्षो पिदधेऽक्षिणी उभे ॥ ५२॥

ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता
बलीयसैजद्बृहदूर्मिभूषणम् ।
तत्राद्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं
भ्राजन्मणिस्तम्भसहस्रशोभितम् ॥ ५३॥

तस्मिन् महाभीममनन्तमद्भुतं
सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः ।
विभ्राजमानं द्विगुणोल्बणेक्षणं
सिताचलाभं शितिकण्ठजिह्वम् ॥ ५४॥

ददर्श तद्भोगसुखासनं विभुं
महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम् ।
सान्द्राम्बुदाभं सुपिशङ्गवाससं
प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम् ॥ ५५॥ सगोनासंगोगो
महामणिव्रातकिरीटकुण्डल-
प्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुन्तलम् ।
प्रलम्बचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं
श्रीवत्सलक्ष्मं वनमालया वृतम् ॥ ५६॥

सुनन्दनन्दप्रमुखैः स्वपार्षदै-
श्चक्रादिभिर्मूर्तिधरैर्निजायुधैः ।
पुष्ट्या श्रिया कीर्त्यजयाखिलर्धिभि-
र्निषेव्यमाणं परमेष्ठिनां पतिम् ॥ ५७॥

ववन्द आत्मानमनन्तमच्युतो
जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः ।
तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभु-
र्बद्धाञ्जली सस्मितमूर्जया गिरा ॥ ५८॥

द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा
मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये ।
कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान्
हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे ॥ ५९॥

पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी ।
धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसङ्ग्रहम् ॥ ६०॥

इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना ।
ओमित्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान् ॥ ६१॥

न्यवर्ततां स्वकं धाम सम्प्रहृष्टौ यथागतम् ।
विप्राय ददतुः पुत्रान् यथारूपं यथावयः ॥ ६२॥

निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः ।
यत्किञ्चित्पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकम्पितम् ॥ ६३॥

इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन् ।
बुभुजे विषयान् ग्राम्यानीजे चात्यूर्जितैर्मखैः ॥ ६४॥

प्रववर्षाखिलान् कामान् प्रजासु ब्राह्मणादिषु ।
यथाकालं यथैवेन्द्रो भगवान् श्रैष्ठ्यमास्थितः ॥ ६५॥

हत्वा नृपानधर्मिष्ठान् घातयित्वार्जुनादिभिः ।
अञ्जसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः ॥ ६६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विजकुमारानयनं
नामैकोननवतितमोऽध्यायः ॥ ८९॥


दशम स्कन्ध-नवासीवाँ अध्याय 66
भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा भगवान का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! एक बार सरस्वती नदी के पावन तट पर यज्ञ प्रारम्भ करने के लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगों में इस विषय पर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णु में सब से बड़ा कौन है ? ॥ १ ॥ परीक्षित ! उन लोगों ने यह बात जान ने के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव की परीक्षा लेने के उद्देश्य से ब्रह्मा के पुत्र भृगुजी को उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सब से पहले ब्रह्माजी की सभा में गये ॥ २ ॥ उन्होंने ब्रह्माजी के धैर्य आदि की परीक्षा करने के लिये न उन्हें नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की। इस पर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने तेज से दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया ॥ ३ ॥ परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजी ने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मन में उठे हुए क्रोध को भीतर-ही-भीतर विवेकबुद्धि से दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अरणिमन्थन से उत्पन्न अग्रि को जल से बुझा दे ॥ ४ ॥

वहाँ से महर्षि भृगु कैलास में गये। देवाधिदेव भगवान शङ्करने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से खड़े होकर उनका आलिङ्गन करने के लिये भुजाएँ फैला दीं ॥ ५ ॥ परन्तु महर्षि भृगु ने उनसे आलिङ्गन करना स्वीकार न किया और कहा—‘तुम लोक और वेद की मर्यादा का उल्लङ्घन करते हो, इसलिये मैं तुम से नहीं मिलता।’ भृगुजी की यह बात सुनकर भगवान शङ्कर क्रोध के मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगु को मारना चाहा ॥ ६ ॥ परन्तु उसी समय भगवती सती ने उनके चरणों पर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षि भृगुजी भगवान विष्णु के निवासस्थान वैकुण्ठ में गये ॥ ७ ॥ उस समय भगवान विष्णु लक्ष्मीजी की गोद में अपना सिर रखकर लेटे हुए थे। भृगुजी ने जाकर उनके वक्ष:स्थल पर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान विष्णु लक्ष्मीजी के साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्या से नीचे उतरकर मुनि को सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान ने कहा—‘ब्रह्मन् ! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसन पर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो ! मुझे आपके शुभागमन का पता न था। इसीसे मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ ८-९ ॥ महामुने ! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।’ यों कहकर भृगुजी के चरणों को भगवान अपने हाथों से सहला ने लगे ॥ १० ॥ और बोले—‘महर्षे ! आपके चरणों का जल तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालों को पवित्र कीजिये ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलों के स्पर्श से मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणों से चिह्नित मेरे वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी’ ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान ने अत्यन्त गम्भीर वाणी से इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्ति के उद्रेक से उनका गला भर आया, आँखों में आँसू छलक आये और वे चुप हो गये ॥ १३ ॥ परीक्षित ! भृगुजी वहाँ से लौटकर ब्रह्मवादी मुनियों के सत्सङ्ग में आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णुभगवान के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया ॥ १४ ॥ भृगुजी का अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तबसे वे भगवान विष्णु को ही सर्वश्रेष्ठ मान ने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभय के उद्गमस्थान हैं ॥ १५ ॥ भगवान विष्णु से ही साक्षात धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकार के ऐश्वर्य और चित्त को शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है ॥ १६ ॥ शान्त, समचित्त, अकिञ्चन और सब को अभय देनेवाले साधु-मुनियों की वे ही एकमात्र परम गति हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं ॥ १७ ॥ उनकी प्रिय मूर्ति है सत्त्व और इष्टदेव हैं ब्राह्मण। निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न) पुरुष उनका भजन करते हैं ॥ १८ ॥ भगवान की गुणमयी माया ने राक्षस, असुर और देवता—उनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें सत्त्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्ति का साधन है। वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थ- स्वरूप हैं ॥ १९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! सरस्वतीतट के ऋषियों ने अपने लिये नहीं, मनुष्यों का संशय मिटा ने के लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों की सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया ॥ २० ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! भगवान पुरुषोत्तम की यह कमनीय कीर्ति- कथा जन्म- मृत्युरूप संसार के भय को मिटानेवाली है। यह व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी के मुखारविन्द से निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसार के लंबे पथ का जो बटोही अपने कानों के दोनों से इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत में इधर-उधर भटक ने से होती है, दूर हो जाती है ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में किसी ब्राह्मणी के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वी का स्पर्श होते ही मर गया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण अपने बालक का मृत शरीर लेकर राजमहलके द्वार पर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दु:खी मन से विलाप करता हुआ यह कह ने लगा— ॥ २३ ॥ ‘इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजा के कर्मदोष से ही मेरे बालक की मृत्यु हुई है ॥ २४ ॥ जो राजा हिंसा- परायण, दु:शील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करनेवाली प्रजा दरिद्र होकर दु:ख-पर-दु:ख भोगती रहती है और उसके सामने सङ्कट-पर-सङ्कट आते रहते हैं ॥ २५ ॥ परीक्षित ! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालक के भी पैदा होते ही मर जाने पर वह ब्राह्मण लडक़े की लाश राजमहलके दरवाजे पर डाल गया और वही बात कह गया ॥ २६ ॥ नवें बालक के मरने पर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान श्रीकृष्ण के पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मण की बात सुनकर उससे कहा— ॥ २७ ॥ ‘ब्रह्मन् ! आपके निवासस्थान द्वारका में कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या ? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालन का परित्याग करके किसी यज्ञ में बैठे हुए हैं ! ॥ २८ ॥ जिनके राज्य में धन, स्त्री अथवा पुत्रों से वियुक्त होकर ब्राह्मण दु:खी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रिय के वेष में पेट पालनेवाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है ॥ २९ ॥ भगवन् ! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रों की मृत्यु से दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तान की रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका, तो आग में कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो जायगा’ ॥ ३० ॥

ब्राह्मण ने कहा—अर्जुन ! यहाँ बलरामजी, भगवान श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्र, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकों की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरों के लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो ? सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है। हम तुम्हारी इस बात पर बिलकुल विश्वास नहीं करते ॥ ३१-३२ ॥

अर्जुन ने कहा—ब्रह्मन् ! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्र नहीं हूँ। मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणदेवता ! आप मेरे बल-पौरुष का तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रम से भगवान शङ्कर को सन्तुष्ट कर चु का हूँ। भगवन् ! मैं आप से अधिक क्या कहूँ, मैं युद्ध में साक्षात मृत्यु को भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा ॥ ३४ ॥

परीक्षित ! जब अर्जुन ने उस ब्राह्मण को इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगों से उनके बल-पौरुष का बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नता से अपने घर लौट गया ॥ ३५ ॥ प्रसव का समय निकट आने पर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुन के पास आया और कह ने लगा—‘इस बार तुम मेरे बच्चे को मृत्यु से बचा लो’ ॥ ३६ ॥ यह सुनकर अर्जुन ने शुद्ध जल से आचमन किया, तथा भगवान शङ्कर को नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रों का स्मरण किया और गाण्डीव धनुष पर डोरी चढ़ाकर उसे हाथ में ले लिया ॥ ३७ ॥ अर्जुन ने बाणों को अनेक प्रकार के अस्त्र-मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके प्रसवगृह को चारों ओर से घेर दिया। इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृह के ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणों का एक पिंजड़ा-सा बना दिया ॥ ३८ ॥ इसके बाद ब्राह्मणी के गर्भ से एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाश में अन्तर्धान हो गया ॥ ३९ ॥ अब वह ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही अर्जुन की निन्दा करने लगा। वह बोला—‘मेरी मूर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसक की डींगभरी बातों पर विश्वास कर लिया ॥ ४० ॥ भला जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँ तक कि बलराम और भगवान श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करने में और कौन समर्थ है ? ॥ ४१ ॥ मिथ्यावादी अर्जुन को धिक्कार है ! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले अर्जुन के धनुष को धिक्कार है !! इस की दुर्बुद्धि तो देखो ! यह मूढ़तावश उस बालक को लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्ध ने हम से अलग कर दिया है’ ॥ ४२ ॥

जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कह ने लगा, तब अर्जुन योगबल से तत्काल संयमनीपुरी में गये, जहाँ भगवान यमराज निवास करते हैं ॥ ४३ ॥ वहाँ उन्हें ब्राह्मण का बालक नहीं मिला। फिर वे शस्त्र लेकर क्रमश: इन्द्र, अग्रि, निर्ऋति, सोम, वायु और वरुण आदि की पुरियों में, अतलादि नीचे के लोकों में, स्वर्ग से ऊ पर के महर्लोकादि में एवं अन्यान्य स्थानों में गये ॥ ४४ ॥ परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मण का बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो स की। अब उन्होंने अग्रि में प्रवेश करने का विचार किया। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए कहा— ॥ ४५ ॥ ‘भाई अर्जुन ! तुम अपने आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मण के सब बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगों की निर्मल कीर्ति की स्थापना करेंगे’ ॥ ४६ ॥

सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुन के साथ अपने दिव्य रथ पर सवार हुए और पश्चिम दिशा को प्रस्थान किया ॥ ४७ ॥ उन्होंने सात-सात पर्वतोंवाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोकपर्वत को लाँघकर घोर अन्धकार में प्रवेश किया ॥ ४८ ॥ परीक्षित ! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम के चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटक ने लगे। उन्हें कुछ सूझता ही न था ॥ ४९ ॥ योगेश्वरों के भी परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने घोड़ों की यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्यों के समान तेजस्वी चक्र को आगे चल ने की आज्ञा दी ॥ ५० ॥ सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेज से स्वयं भगवान के द्वारा उत्पन्न उस घ ने एवं महान अन्धकार को चीरता हुआ मन के समान तीव्र गति से आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान राम का बाण धनुष से छूटकर राक्षसों की सेना में प्रवेश कर रहा हो ॥ ५१ ॥ इस प्रकार सुदर्शन चक्र के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से चलकर रथ अन्धकार की अन्तिम सीमा पर पहुँचा। उस अन्धकार के पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुन की आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये ॥ ५२ ॥ इसके बाद भगवान के रथ ने दिव्य जलराशि में प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चल ने के कारण उस जल में बड़ी-बड़ी तरङ्गें उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था। उसमें मणियों के सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी ॥ ५३ ॥ उसी महल में भगवान शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फण पर सुन्दर-सुन्दर मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिर में दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयङ्कर थे। उनका सम्पूर्ण शरीर कैलासके समान श्वेतवर्ण का था और गला तथा जीभ नीले रंग की थी ॥ ५४ ॥ परीक्षित ! अर्जुन ने देखा कि शेषभगवान की सुखमयी शय्या पर सर्वव्यापक महान प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान विराजमान हैं। उनके शरीर की कान्ति वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। मुख पर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहाव ने लगते हैं ॥ ५५ ॥ बहुमूल्य मणियों से जटित मुकुट और कुण्डलों की कान्ति से सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गले में कौस्तुभ मणि है; वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न है और घुटनों तक वनमाला लटक रही है ॥ ५६ ॥ अर्जुन ने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजा—ये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालों के अधीश्वर भगवान की सेवा कर रही हैं ॥ ५७ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शन से कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्ण के बाद उन्होंने भी उन को प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोडक़र खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालों के स्वामी भूमा पुरुष ने मुसकराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणी से कहा— ॥ ५८ ॥ ‘श्रीकृष्ण ! और अर्जुन ! मैंने तुम दोनों को देखने के लिये ही ब्राह्मण के बालक अपने पास मँगा लिये थे। तुम दोनों ने धर्म की रक्षा के लिये मेरी कलाओं के साथ पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वी के भाररूप दैत्यों का संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ ॥ ५९ ॥ तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत की स्थिति और लोकसंग्रह के लिये धर्म का आचरण करो’ ॥ ६० ॥

जब भगवान भूमा पुरुष ने श्रीकृष्ण और अर्जुन को इस प्रकार आदेश दिया, तब उन लोगों ने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्द के साथ ब्राह्मण-बालकों को लेकर जिस रास्तेसे, जिस प्रकार आये थे, उसी से वैसे ही द्वारका में लौट आये। ब्राह्मण के बालक अपनी आयु के अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्म के समय थी। उन्हें भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उनके पिता को सौंप दिया ॥ ६१-६२ ॥ भगवान विष्णु के उसपर मधाम को देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा न रही। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवों में जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान श्रीकृष्ण की ही कृपा का फल है ॥ ६३ ॥ परीक्षित ! भगवान ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरता से परिपूर्ण लीलाएँ कीं। लोकदृष्टि में साधारण लोगों के समान सांसारिक विषयों का भोग किया और बड़े-बड़े महाराजाओं के समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये ॥ ६४ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने आदर्श महापुरुषोंका-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गों के सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजा के लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ॥ ६५ ॥ उन्होंने बहुत- से अधर्मी राजाओं को स्वयं मार डाला और बहुतों को अर्जुन आदि के द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओं से उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वी में धर्ममर्यादा की स्थापना करा दी ॥ ६६ ॥

स्कन्ध-10 [अध्याय-90]

॥ नवतितमोऽध्यायः - ९० ॥
श्रीशुक उवाच
सुखं स्वपुर्यां निवसन् द्वारकायां श्रियः पतिः ।
सर्वसम्पत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः ॥ १॥

स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिर्नवयौवनकान्तिभिः ।
कन्दुकादिभिर्हर्म्येषु क्रीडन्तीभिस्तडिद्द्युभिः ॥ २॥

नित्यं सङ्कुलमार्गायां मदच्युद्भिर्मतङ्गजैः ।
स्वलङ्कृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः ॥ ३॥

उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु ।
निर्विशद्भृङ्गविहगैर्नादितायां समन्ततः ॥ ४॥

रेमे षोडशसाहस्रपत्नीनामेकवल्लभः ।
तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्गेहेषु महर्द्धिषु ॥ ५॥

प्रोत्फुल्लोत्पलकह्लारकुमुदाम्भोजरेणुभिः ।
वासितामलतोयेषु कूजद्द्विजकुलेषु च ॥ ६॥

विजहार विगाह्याम्भो ह्रदिनीषु महोदयः ।
कुचकुङ्कुमलिप्ताङ्गः परिरब्धश्च योषिताम् ॥ ७॥

उपगीयमानो गन्धर्वैर्मृदङ्गपणवानकान् ।
वादयद्भिर्मुदा वीणां सूतमागधवन्दिभिः ॥ ८॥

सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिर्हसन्तीभिः स्म रेचकैः ।
प्रतिषिञ्चन् विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव ॥ ९॥

ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः
सिञ्चन्त्य उद्धृतबृहत्कबरप्रसूनाः ।
कान्तं स्म रेचकजिहीरिषयोपगुह्य
जातस्मरोत्सवलसद्वदना विरेजुः ॥ १०॥

कृष्णस्तु तत्स्तनविषज्जितकुङ्कुमस्रक्-
क्रीडाभिषङ्गधुतकुन्तलवृन्दबन्धः ।
सिञ्चन्मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो
रेमे करेणुभिरिवेभपतिः परीतः ॥ ११॥

नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम् ।
क्रीडालङ्कारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः ॥ १२॥

कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितैः ।
नर्मक्ष्वेलिपरिष्वङ्गैः स्त्रीणां किल हृता धियः ॥ १३॥

ऊचुर्मुकुन्दैकधियोऽगिर उन्मत्तवज्जडम् ।
चिन्तयन्त्योऽरविन्दाक्षं तानि मे गदतः श‍ृणु ॥ १४॥

महिष्य ऊचुः
कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे
स्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः ।
वयमिव सखि कच्चिद्गाढनिर्भिन्नचेता
नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन ॥ १५॥

नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबन्धुस्त्वं
रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि ।
दास्यं गता वयमिवाच्युतपादजुष्टां
किं वा स्रजं स्पृहयसे कबरेण वोढुम् ॥ १६॥

भो भोः सदा निष्टनसे उदन्व-
न्नलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः ।
किंवा मुकुन्दापहृतात्मलाञ्छनः
प्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम् ॥ १७॥

त्वं यक्ष्मणा बलवतासि गृहीत इन्दो
क्षीणस्तमो न निजदीधितिभिः क्षिणोषि ।
कच्चिन्मुकुन्दगदितानि यथा वयं त्वं
विस्मृत्य भोः स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः ॥ १८॥

किन्त्वाचरितमस्माभिर्मलयानिल तेऽप्रियम् ।
गोविन्दापाङ्गनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम् ॥ १९॥

मेघ श्रीमंस्त्वमसि दयितो यादवेन्द्रस्य नूनं
श्रीवत्साङ्कं वयमिव भवान् ध्यायति प्रेमबद्धः ।
अत्युत्कण्ठः शबलहृदयोऽस्मद्विधो बाष्पधाराः
स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्दुःखदस्तत्प्रसङ्गः ॥ २०॥

प्रियरावपदानि भाषसे मृतसञ्जीविकयानया गिरा ।
करवाणि किमद्य ते प्रियं वद मे वल्गितकण्ठ कोकिल ॥ २१॥

न चलसि न वदस्युदारबुद्धे
क्षितिधर चिन्तयसे महान्तमर्थम् ।
अपि बत वसुदेवनन्दनाङ्घ्रिं
वयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम् ॥ २२॥

शुष्यद्ध्रदाः करशिता बत सिन्धुपत्न्यः
सम्प्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः ।
यद्वद्वयं मधुपतेः प्रणयावलोकमप्राप्य
मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म ॥ २३॥

हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो ब्रूह्यङ्ग शौरेः कथां
दूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजितः स्वस्त्यास्त उक्तं पुरा ।
किं वा नश्चलसौहृदः स्मरति तं कस्माद्भजामो वयं
क्षौद्रालापय कामदं श्रियमृते सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम् ॥ २४॥

इतीदृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।
क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम् ॥ २५॥

श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः ।
उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां कुतः पुनः ॥ २६॥

याः सम्पर्यचरन् प्रेम्णा पादसंवाहनादिभिः ।
जगद्गुरुं भर्तृबुद्ध्या तासां किं वर्ण्यते तपः ॥ २७॥

एवं वेदोदितं धर्ममनुतिष्ठन् सतां गतिः ।
गृहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत्पदम् ॥ २८॥

आस्थितस्य परं धर्मं कृष्णस्य गृहमेधिनाम् ।
आसन् षोडशसाहस्रं महिष्यश्च शताधिकम् ॥ २९॥

तासां स्त्रीरत्नभूतानामष्टौ याः प्रागुदाहृताः ।
रुक्मिणीप्रमुखा राजंस्तत्पुत्राश्चानुपूर्वशः ॥ ३०॥

एकैकस्यां दश दश कृष्णोऽजीजनदात्मजान् ।
यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरीश्वरः ॥ ३१॥

तेषामुद्दामवीर्याणामष्टादश महारथाः ।
आसन्नुदारयशसस्तेषां नामानि मे श‍ृणु ॥ ३२॥

प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च दीप्तिमान् भानुरेव च ।
साम्बो मधुर्बृहद्भानुश्चित्रभानुर्वृकोऽरुणः ॥ ३३॥

पुष्करो वेदबाहुश्च श्रुतदेवः सुनन्दनः ।
चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च ॥ ३४॥

एतेषामपि राजेन्द्र तनुजानां मधुद्विषः ।
प्रद्युम्न आसीत्प्रथमः पितृवद्रुक्मिणीसुतः ॥ ३५॥

स रुक्मिणो दुहितरमुपयेमे महारथः ।
तस्मात्सुतोऽनिरुद्धोऽभून्नागायुतबलान्वितः ॥ ३६॥

स चापि रुक्मिणः पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः ।
वज्रस्तस्याभवद्यस्तु मौसलादवशेषितः ॥ ३७॥

प्रतिबाहुरभूत्तस्मात्सुबाहुस्तस्य चात्मजः ।
सुबाहोः शान्तसेनोऽभूच्छतसेनस्तु तत्सुतः ॥ ३८॥

न ह्येतस्मिन् कुले जाता अधना अबहुप्रजाः ।
अल्पायुषोऽल्पवीर्याश्च अब्रह्मण्याश्च जज्ञिरे ॥ ३९॥

यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम् ।
सङ्ख्या न शक्यते कर्तुमपि वर्षायुतैर्नृप ॥ ४०॥

तिस्रः कोट्यः सहस्राणामष्टाशीतिशतानि च ।
आसन् यदुकुलाचार्याः कुमाराणामिति श्रुतम् ॥ ४१॥

सङ्ख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम् ।
यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते स आहुकः ॥ ४२॥

देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणाः ।
ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा दृप्ता बबाधिरे ॥ ४३॥

तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले ।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषामेकाधिकं नृप ॥ ४४॥

तेषां प्रमाणं भगवान् प्रभुत्वेनाभवद्धरिः ।
ये चानुवर्तिनस्तस्य ववृधुः सर्वयादवाः ॥ ४५॥

शय्यासनाटनालापक्रीडास्नानादिकर्मसु ।
न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः ॥ ४६॥

तीर्थं चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु स्वः सरित्पादशौचं
विद्विट् स्निग्धाः स्वरूपं ययुरजितपरा श्रीर्यदर्थेऽन्ययत्नः ।
यन्नामामङ्गलघ्नं श्रुतमथ गदितं यत्कृतो गोत्रधर्मः
कृष्णस्यैतन्न चित्रं क्षितिभरहरणं कालचक्रायुधस्य ॥ ४७॥

जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो
यदुवरपरिषत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम् ।
स्थिरचरवृजिनघ्नः सुस्मितश्रीमुखेन
व्रजपुरवनितानां वर्धयन् कामदेवम् ॥ ४८॥

इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयाऽऽत्त-
लीलातनोस्तदनुरूपविडम्बनानि ।
कर्माणि कर्मकषणानि यदूत्तमस्य
श्रूयादमुष्य पदयोरनुवृत्तिमिच्छन् ॥ ४९॥

मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द-
श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति ।
तद्धाम दुस्तरकृतान्तजवापवर्गं
ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः ॥ ५०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीकृष्णचरितानुवर्णनं
नाम नवतितमोऽध्यायः ॥ ९०॥

॥ इति दशमस्कन्धोत्तरार्धः समाप्तः ॥
ॐ तत्सत् ॥ 

दशम स्कन्ध-नब्बेवाँ अध्याय 
भगवान कृष्ण के लीला-विहार का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! द्वारका-नगरी की छटा अलौकिक थी। उसकी सडक़ें मद चूते हुए मतवाले हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं, घोड़ों और स्वर्णमय रथों की भीड़ से सदा-सर्वदा भरी रहती थीं। जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं। पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलों से लदे हुए हैं। उन पर बैठकर भौंरे गुनगुना रहे हैं और तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे हैं। वह नगरी सब प्रकार की सम्पत्तियों से भरपूर थी। जगत के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करने में अपना सौभाग्य मानते थे। वहाँ की स्त्रियाँ सुन्दर वेष-भूषा से विभूषित थीं और उनके अङ्ग-अङ्ग से जवानी की छटा छिटकती रहती थी। वे जब अपने महलों में गेंद आदि के खेल खेलतीं और उनका कोई अङ्ग कभी दीख जाता तो ऐसा जान पड़ता, मानो बिजली चमक रही है। लक्ष्मीपति भगवान की यही अपनी नगरी द्वार का थी। इसी में वे निवास करते थे। भगवान श्रीकृष्ण सोलह हजार से अधिक पत्नियों के एकमात्र प्राणवल्लभ थे। उन पत्नियों के अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्य से सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे ॥ १-५ ॥ सभी पत्नियों के महलों में सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँति के कमलों के पराग से मँहकता रहता था। उनमें झुंड-के-झुंड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान श्रीकृष्ण उन जलाशयों में तथा कभी- कभी नदियों के जल में भी प्रवेश कर अपनी पत्नियों के साथ जल-विहार करते थे। भगवान के साथ विहार करनेवाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लेतीं, आलिङ्गन करतीं, तब भगवान के श्रीअङ्गों में उनके वक्ष:स्थल की केसर लग जाती थी ॥ ६-७ ॥ उस समय गन्धर्व उनके यश का गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्द से मृदङ्ग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते ॥ ८ ॥

भगवान की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियों से उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उन को तर कर देते। इस प्रकार भगवान अपनी पत्नियों के साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियों के साथ विहार कर रहे हों ॥ ९ ॥ उस समय भगवान की पत्नियों के वक्ष:स्थल और जंघा आदि अङ्ग वस्त्रों के भीग जाने के कारण उनमें से झलक ने लगते। उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जूड़ों में से गुँथे हुए फूल गिर ने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेने के लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसी बहा ने अपने प्रियतम का आलिङ्गन कर लेतीं। उनके स्पर्श से पत्नियों के हृदय में प्रेम-भाव की अभिवृद्धि हो जाती, जिससे उनका मुखकमल खिल उठता। ऐसे अवसरों पर उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती ॥ १० ॥ उस समय भगवान श्रीकृष्ण की वनमाला उन रानियों के वक्ष:स्थल पर लगी हुई केसर के रंग से रँग जाती। विहार में अत्यन्त मग्र हो जाने के कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भाव से लहरा ने लगतीं। वे अपनी रानियों को बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान श्रीकृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीड़ा कर रहा हो ॥ ११ ॥ भगवान श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीडा करने के बाद अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियों को दे देते, जिनकी जीवि का केवल गाना-बजाना ही है ॥ १२ ॥ परीक्षित ! भगवान इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिङ्गन आदि से रानियों की चित्तवृत्ति उन्हीं की ओर खिंची रहती। उन्हें और किसी बात का स्मरण ही न होता ॥ १३ ॥ परीक्षित ! रानियों के जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दर के चिन्तन में ही इतनी मग्र हो जातीं कि कई देर तक तो चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्त के समान असम्बद्ध बातें कह ने लगतीं। कभी-कभी तो भगवान श्रीकृष्ण की उपस्थिति में ही प्रेमोन्माद के कारण उनके विरह का अनुभव करने लगतीं। और न जाने क्या-क्या कह ने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ ॥ १४ ॥

रानियाँ कहतीं—अरी कुररी ! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसार में सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद ही नहीं आती ? तू इस तरह रात-रातभर जगकर विलाप क्यों कर रही है ? सखी ! कहीं कमलनयन भगवान के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवन से तेरा हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है ? ॥ १५ ॥

अरी चकवी ! तू ने रात के समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं ? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वर से पुकार रही है ? हाय-हाय ! तब तो तू बड़ी दु:खिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे हृदय में भी हमारे ही समान भगवान की दासी होने का भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणों पर चढ़ायी हुई पुष्पों की माला अपनी चोटियों में धारण करना चाहती है ? ॥ १६ ॥

अहो समुद्र ! तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या ? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागते रहने का रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसीसे तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधि के शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है ? ॥ १७ ॥

चन्द्रदेव ! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसीसे तुम इत ने क्षीण हो रहे हो। अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणों से अँधेरा भी नहीं हटा सकते ! क्या हमारी ही भाँति हमारे प्यारे श्याम-सुन्दर की मीठी-मीठी रहस्य की बातें भूल जाने के कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है ? क्या उसी की चिन्ता से तुम मौन हो रहे हो ? ॥ १८ ॥

मलयानिल ! हम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदय में काम का सञ्चार कर रहा है ? अरे तू नहीं जानता क्या ? भगवान की तिरछी चितवन से हमारा हृदय तो पहले से ही घायल हो गया है ॥ १९ ॥

श्रीमन् मेघ ! तुम्हारे शरीर का सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंश- शिरोमणि भगवान के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाश में बँधकर उनका ध्यान कर रहे हो ! देखो-देखो ! तुम्हारा हृदय चिन्ता से भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो ! तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसू की धारा बहा रहे हो। श्यामघन ! सचमुच घनश्याम से नाता जोडऩा घर बैठे पीड़ा मोल लेना है ॥ २० ॥

री कोयल ! तेरा गला बड़ा ही सुरीला है, मीठी बोली बोलनेवाले हमारे प्राणप्यारे के समान ही मधुर स्वर से तू बोलती है। सचमुच तेरी बोली में सुधा घोली हुई है, जो प्यारे के विरह से मरे हुए प्रेमियों को जिलानेवाली है। तू ही बता, इस समय हम तेरा क्या प्रिय करें ? ॥ २१ ॥

प्रिय पर्वत ! तुम तो बड़े उदार विचार के हो। तुम ने ही पृथ्वी को भी धारण कर रखा है। न तुम हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है कि किसी बड़ी बात की चिन्ता में मग्र हो रहे हो। ठीक है, ठीक है; हम समझ गयीं। तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनों के समान बहुत- से शिखरों पर मैं भी भगवान श्यामसुन्दर के चरणकमल धारण करूँ ॥ २२ ॥

समुद्रपत्नी नदियो ! यह ग्रीष्म ऋतु है। तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। अब तुम्हारे अंदर खिले हुए कमलों का सौन्दर्य नहीं दीखता। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दर की प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी हैं और अत्यन्त दुबली- पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघों के द्वारा अपने प्रियतम समुद्र का जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो ॥ २३ ॥

हंस ! आओ, आओ ! भले आये, स्वागत है। आसन पर बैठो; लो, दूध पियो। प्रिय हंस ! श्यामसुन्दर की कोई बात तो सुनाओ। हम समझती हैं कि तुम उनके दूत हो। किसी के वश में न होनेवाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न ? अरे भाई ! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर है, क्षणभङ्गुर है। एक बात तो बतलाओ, उन्होंने हम से कहा था कि तुम्हीं हमारी परम प्रियतमा हो। क्या अब उन्हें यह बात याद है ? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं। जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें ? क्षुद्र के दूत ! हम उनके पास नहीं जातीं। क्या कहा ? वे हमारी इच्छा पूर्ण करने के लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा ! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना, हम से बातें कराना, परन्तु कहीं लक्ष्मी को साथ न ले आना। तब क्या वे लक्ष्मी को छोडक़र यहाँ नहीं आना चाहते ? यह कैसी बात है ? क्या स्त्रियों में लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवान से अनन्य प्रेम है ? क्या हम में से कोई एक भी वैसी नहीं है ? ॥ २४ ॥

परीक्षित ! श्रीकृष्ण-पत्नियाँ योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण में ऐसा ही अनन्य प्रेम-भाव रखती थीं। इसीसे उन्होंने परमपद प्राप्त किया ॥ २५ ॥ भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ अनेकों प्रकार से अनेकों गीतों द्वारा गान की गयी हैं। वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर हैं कि उनके सुननेमात्र से स्त्रियों का मन बलात् उनकी ओर खिंच जाता है। फिर जो स्त्रियाँ उन्हें अपने नेत्रों से देखती थीं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ २६ ॥ जिन बड़भागिनी स्त्रियों ने जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर परम प्रेम से उनके चरणकमलों को सहलाया, उन्हें नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया, तरह-तरह से उनकी सेवा की, उनकी तपस्या का वर्णन तो भला, किया ही कैसे जा सकता है ॥ २७ ॥

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने वेदोक्त धर्म का बार-बार आचरण करके लोगों को यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और काम—साधन का स्थान है ॥ २८ ॥ इसीलिये वे गृहस्थोचित श्रेष्ठ धर्म का आश्रय लेकर व्यवहार कर रहे थे। परीक्षित ! मैं तुम से कह ही चु का हूँ कि उनकी रानियों की संख्या थी सोलह हजार एक सौ आठ ॥ २९ ॥ उन श्रेष्ठ स्त्रियों में से रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों और उनके पुत्रों का तो मैं पहले ही क्रम से वर्णन कर चु का हूँ ॥ ३० ॥ उनके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण की और जितनी पत्नियाँ थीं, उनसे भी प्रत्येक के दस- दस पुत्र उत्पन्न किये। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि भगवान सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं ॥ ३१ ॥ भगवान के परम पराक्रमी पुत्रों में अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत में फैला हुआ था। उनके नाम मुझ से सुनो ॥ ३२ ॥ प्रद्युम्र, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध ॥ ३३-३४ ॥ राजेन्द्र ! भगवान श्रीकृष्ण के इन पुत्रों में भी सब से श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्रजी थे। वे सभी गुणों में अपने पिता के समान ही थे ॥ ३५ ॥ महारथी प्रद्युम्र ने रुक्मी की कन्या से अपना विवाह किया था। उसी के गर्भ से अनिरुद्धजी का जन्म हुआ। उनमें दस हजार हाथियों का बल था ॥ ३६ ॥ रुक्मी के दौहित्र अनिरुद्धजी ने अपने नाना की पोती से विवाह किया। उसके गर्भ से वज्र का जन्म हुआ। ब्राह्मणों के शाप से पैदा हुए मूसल के द्वारा यदुवंश का नाश हो जाने पर एकमात्र वे ही बच रहे थे ॥ ३७ ॥ वज्र के पुत्र हैं प्रतिबाहु, प्रतिबाहु के सुबाहु, सुबाहु के शान्तसेन और शान्तसेन के शतसेन ॥ ३८ ॥ परीक्षित ! इस वंश में कोई भी पुरुष ऐसा न हुआ जो बहुत-सी सन्तानवाला न हो तथा जो निर्धन, अल्पायु और अल्पशक्ति हो। वे सभी ब्राह्मणों के भक्त थे ॥ ३९ ॥ परीक्षित ! यदुवंश में ऐसे-ऐसे यशस्वी और पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिनकी गिनती भी हजारों वर्षों में पूरी नहीं हो सकती ॥ ४० ॥ मैंने ऐसा सुना है कि यदुवंश के बालकों को शिक्षा दे ने के लिये तीन करोड़ अट्ठासी लाख आचार्य थे ॥ ४१ ॥ ऐसी स्थिति में महात्मा यदुवंशियों की संख्या तो बतायी ही कैसे जा सकती है ! स्वयं महाराज उग्रसेन के साथ एक नील (१०००००००००००००) के लगभग सैनिक रहते थे ॥ ४२ ॥

परीक्षित ! प्राचीन काल में देवासुरसंग्राम के समय बहुत- से भयङ्कर असुर मारे गये थे। वे ही मनुष्यों में उत्पन्न हुए और बड़े घमंड से जनता को सता ने लगे ॥ ४३ ॥ उनका दमन करने के लिये भगवान की आज्ञा से देवताओं ने ही यदुवंश में अवतार लिया था। परीक्षित ! उनके कुलों की संख्या एक सौ एक थी ॥ ४४ ॥ वे सब भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना स्वामी एवं आदर्श मानते थे। जो यदुवंशी उनके अनुयायी थे, उनकी सब प्रकार से उन्नति हुई ॥ ४५ ॥ यदुवंशियों का चित्त इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण में लगा रहता था कि उन्हें सोने-बैठने, घूमने-फिरने, बोलने-खेल ने और नहाने- धो ने आदि कामों में अपने शरीर की भी सुधि न रहती थी। वे जानते ही न थे कि हमारा शरीर क्या कर रहा है। उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ यन्त्र की भाँति अपने-आप होती रहती थीं ॥ ४६ ॥

परीक्षित ! भगवान का चरणधोवन गङ्गाजी अवश्य ही समस्त तीर्थों में महान एवं पवित्र हैं। परन्तु जब स्वयं परमतीर्थ स्वरूप भगवान ने ही यदुवंश में अवतार ग्रहण किया, तब तो गङ्गाजल की महिमा अपने-आप ही उनके सुयशतीर्थ की अपेक्षा कम हो गयी। भगवान के स्वरूप की यह कितनी बड़ी महिमा है कि उनसे प्रेम करनेवाले भक्त और द्वेष करनेवाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरूप को प्राप्त हुए। जिस लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता यत्न करते रहते हैं, वे ही भगवान की सेवा में नित्य-निरन्तर लगी रहती हैं। भगवान का नाम एक बार सुनने अथवा उच्चारण करने से ही सारे अमङ्गलों को नष्ट कर देता है। ऋषियों के वंशजों में जित ने भी धर्म प्रचलित हैं, सब के संस्थापक भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। वे अपने हाथ में काल स्वरूप चक्र लिये रहते हैं। परीक्षित ! ऐसी स्थिति में वे पृथ्वी का भार उतार देते हैं, यह कौन बड़ी बात है ॥ ४७ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त जीवों के आश्रयस्थान हैं। यद्यपि वे सदा-सर्वदा सर्वत्र उपस्थित ही रहते हैं, फिर भी कह ने के लिये उन्होंने देवकीजी के गर्भ से जन्म लिया है। यदुवंशी वीर पार्षदों के रूप में उनकी सेवा करते रहते हैं। उन्होंने अपने भुजबल से अधर्म का अन्त कर दिया है। परीक्षित ! भगवान स्वभाव से ही चराचर जगत का दु:ख मिटाते रहते हैं। उनका मन्द-मन्द मुसकान से युक्त सुन्दर मुखारविन्द व्रजवासियों और पुरस्त्रियों के हृदय में प्रेम-भाव का सञ्चार करता रहता है। वास्तव में सारे जगत पर वही विजयी हैं। उन्हीं की जय हो ! जय हो !! ॥ ४८ ॥

परीक्षित ! प्रकृति से अतीत परमात्माने अपने द्वारा स्थापित धर्म-मर्यादा की रक्षा के लिये दिव्य लीला-शरीर ग्रहण किया और उसके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रों का अभिनय किया। उनका एक-एक कर्मस्मरण करनेवालों के कर्मबन्धनों को काट डालनेवाला है। जो यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा का अधिकार प्राप्त करना चाहे, उसे उनकी लीलाओं का ही श्रवण करना चाहिये ॥ ४९ ॥ परीक्षित ! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान श्रीकृष्ण की मनोहारिणी लीला कथाओं का अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यही भक्ति उसे भगवान के परमधाम में पहुँचा देती है। यद्यपि काल की गति के परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान के धाम में काल की दाल नहीं गलती। वह वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाता। उसी धाम की प्राप्ति के लिये अनेक सम्राटों ने अपना राजपाट छोडक़र तपस्या करने के उद्देश्य से जंगल की यात्रा की है। इसलिये मनुष्य को उनकी लीला- कथा का ही श्रवण करना चाहिये ॥ ५० ॥

इति दशम स्कन्ध उत्तरार्ध समाप्त

हरि: ॐ तत्सत्

श्री सद्गुरु महाराज की जय!