॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ नवमस्कन्धः ॥
॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
राजोवाच
मन्वन्तराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे ।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानि च ॥ १॥
योऽसौ सत्यव्रतो नाम राजर्षिर्द्रविडेश्वरः ।
ज्ञानं योऽतीतकल्पान्ते लेभे पुरुषसेवया ॥ २॥
स वै विवस्वतः पुत्रो मनुरासीदिति श्रुतम् ।
त्वत्तस्तस्य सुताश्चोक्ता इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपाः ॥ ३॥
तेषां वंशं पृथग्ब्रह्मन् वंश्यानुचरितानि च ।
कीर्तयस्व महाभाग नित्यं शुश्रूषतां हि नः ॥ ४॥
ये भूता ये भविष्याश्च भवन्त्यद्यतनाश्च ये ।
तेषां नः पुण्यकीर्तीनां सर्वेषां वद विक्रमान् ॥ ५॥
सूत उवाच
एवं परीक्षिता राज्ञा सदसि ब्रह्मवादिनाम् ।
पृष्टः प्रोवाच भगवाञ्छुकः परमधर्मवित् ॥ ६॥
श्रीशुक उवाच
श्रूयतां मानवो वंशः प्राचुर्येण परन्तप ।
न शक्यते विस्तरतो वक्तुं वर्षशतैरपि ॥ ७॥
परावरेषां भूतानामात्मा यः पुरुषः परः ।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन ॥ ८॥
तस्य नाभेः समभवत्पद्मकोशो हिरण्मयः ।
तस्मिन् जज्ञे महाराज स्वयम्भूश्चतुराननः ॥ ९॥
मरीचिर्मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः ।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वानभवत्सुतः ॥ १०॥
ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत ।
श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान् ॥ ११॥
इक्ष्वाकुनृगशर्यातिदिष्टधृष्टकरूषकान् ।
नरिष्यन्तं पृषध्रं च नभगं च कविं विभुः ॥ १२॥
अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल ।
मित्रावरुणयोरिष्टिं प्रजार्थमकरोत्प्रभुः ॥ १३॥
तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत ।
दुहित्रर्थमुपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता ॥ १४॥
प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायंस्तत्सुसमाहितः ।
हविषि व्यचरत्तेन वषट्कारं गृणन् द्विजः ॥ १५॥
होतुस्तद्व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत् ।
तां विलोक्य मनुः प्राह नातिहृष्टमना गुरुम् ॥ १६॥
भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम् ।
विपर्ययमहो कष्टं मैवं स्याद्ब्रह्मविक्रिया ॥ १७॥
यूयं मन्त्रविदो युक्तास्तपसा दग्धकिल्बिषाः ।
कुतः सङ्कल्पवैषम्यमनृतं विबुधेष्विव ॥ १८॥
तन्निशम्य वचस्तस्य भगवान् प्रपितामहः ।
होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनन्दनम् ॥ १९॥
एतत्सङ्कल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः ।
तथापि साधयिष्ये ते सुप्रजास्त्वं स्वतेजसा ॥ २०॥
एवं व्यवसितो राजन् भगवान् स महायशाः ।
अस्तौषीदादिपुरुषमिलायाः पुंस्त्वकाम्यया ॥ २१॥
तस्मै कामवरं तुष्टो भगवान् हरिरीश्वरः ।
ददाविलाभवत्तेन सुद्युम्नः पुरुषर्षभः ॥ २२॥
स एकदा महाराज विचरन् मृगयां वने ।
वृतः कतिपयामात्यैरश्वमारुह्य सैन्धवम् ॥ २३॥
प्रगृह्य रुचिरं चापं शरांश्च परमाद्भुतान् ।
दंशितोऽनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम् ॥ २४॥
स कुमारो वनं मेरोरधस्तात्प्रविवेश ह ।
यत्रास्ते भगवान् शर्वो रममाणः सहोमया ॥ २५॥
तस्मिन् प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नः परवीरहा ।
अपश्यत्स्त्रियमात्मानमश्वं च वडवां नृप ॥ २६॥
तथा तदनुगाः सर्वे आत्मलिङ्गविपर्ययम् ।
दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन् वीक्षमाणाः परस्परम् ॥ २७॥
राजोवाच
कथमेवंगुणो देशः केन वा भगवन् कृतः ।
प्रश्नमेनं समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः ॥ २८॥
श्रीशुक उवाच
एकदा गिरिशं द्रष्टुमृषयस्तत्र सुव्रताः ।
दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन् ॥ २९॥
तान् विलोक्याम्बिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम् ।
भर्तुरङ्कात्समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात् ॥ ३०॥
ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्गं रममाणयोः ।
निवृत्ताः प्रययुस्तस्मान्नरनारायणाश्रमम् ॥ ३१॥
तदिदं भगवानाह प्रियायाः प्रियकाम्यया ।
स्थानं यः प्रविशेदेतत्स वै योषिद्भवेदिति ॥ ३२॥
तत ऊर्ध्वं वनं तद्वै पुरुषा वर्जयन्ति हि ।
सा चानुचरसंयुक्ता विचचार वनाद्वनम् ॥ ३३॥
अथ तामाश्रमाभ्याशे चरन्तीं प्रमदोत्तमाम् ।
स्त्रीभिः परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान् बुधः ॥ ३४॥
सापि तं चकमे सुभ्रूः सोमराजसुतं पतिम् ।
स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम् ॥ ३५॥
एवं स्त्रीत्वमनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः ।
सस्मार स्वकुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम ॥ ३६॥
स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः ।
सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वमुपाधावत शङ्करम् ॥ ३७॥
तुष्टस्तस्मै स भगवान् ऋषये प्रियमावहन् ।
स्वां च वाचमृतां कुर्वन्निदमाह विशाम्पते ॥ ३८॥
मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः ।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९॥
आचार्यानुग्रहात्कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया ।
पालयामास जगतीं नाभ्यनन्दन् स्म तं प्रजाः ॥ ४०॥
तस्योत्कलो गयो राजन् विमलश्च सुतास्त्रयः ।
दक्षिणापथराजानो बभूवुर्धर्मवत्सलाः ॥ ४१॥
ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम् ॥ ४२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे इलोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
नवम स्कन्ध-पहला अध्याय
वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्र की कथा
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्रों का वर्णन किया और मैंने उनका श्रवण भी किया ॥ १ ॥ आपने कहा कि पिछले कल्प के अन्त में द्रविड़ देश के स्वामी राजर्षि सत्यव्रत ने भगवान की सेवा से ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए। आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रों का भी वर्णन किया ॥ २-३ ॥ ब्रह्मन् ! अब आप कृपा करके उनके वंश और वंश में होनेवालों का अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये। महाभाग ! हमारे हृदय में सर्वदा ही कथा सुनने की उत्सुकता बनी रहती है ॥ ४ ॥ वैवस्वत मनु के वंश में जो हो चु के हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होनेवाले हों—उन सब पवित्रकीर्ति पुरुषों के पराक्रम का वर्णन कीजिये ॥ ५ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! ब्रह्मवादी ऋषियों की सभा में राजा परीक्षित ने जब यह प्रश्र किया, तब धर्म के परम मर्मज्ञ भगवान श्रीशुकदेवजी ने कहा ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! तुम मनुवंश का वर्णन संक्षेप से सुनो। विस्तार से तो सैकड़ों वर्ष में भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ७ ॥ जो परम पुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियों के आत्मा हैं, प्रलय के समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था ॥ ८ ॥ महाराज ! उनकी नाभि से एक सुवर्णमय कमल कोष प्रकट हुआ। उसी में चतुर्मुख ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी के मन से मरीचि और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदिति से विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ ॥ १० ॥ विवस्वान् की संज्ञा नामक पत्नी से श्राद्धदेव मनु का जन्म हुआ। परीक्षित ! परम मनस्वी राजा श्राद्धदेव ने अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे—इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग और कवि ॥ ११-१२ ॥
वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। उस समय सर्वसमर्थ भगवान वसिष्ठ ने उन्हें सन्तान-प्राप्ति कराने के लिये मित्रावरुण का यज्ञ कराया था ॥ १३ ॥ यज्ञ के आरम्भ में केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनु की धर्मपत्नी श्रद्धा ने अपने होता के पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो ॥ १४ ॥ तब अध्वर्यु की प्रेरणा से होता बने हुए ब्राह्मण ने श्रद्धा के कथन का स्मरण करके एकाग्र चित्त से वषट्कार का उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्ड में आहुति दी ॥ १५ ॥ जब होता ने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञ के फल स्वरूप पुत्र के स्थान पर इला नाम की कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनु का मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजी से कहा— ॥ १६ ॥ ‘भगवन् ! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया ? अरे, यह तो बड़े दु:ख की बात है। वैदिक कर्म का ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये ॥ १७ ॥ आप लोगों का मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही; इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्या के कारण निष्पाप हो चु के हैं। देवताओं में असत्य की प्राप्ति के समान आपके संकल्प का यह उलटा फल कैसे हुआ ?’ ॥ १८ ॥ परीक्षित ! हमारे वृद्धप्रपितामह भगवान वसिष्ठ ने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होता ने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने वैवस्वत मनु से कहा— ॥ १९ ॥ ‘राजन् ! तुम्हारे होता के विपरीत संकल्प से ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तप के प्रभाव से मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा’ ॥ २० ॥ परीक्षित ! परम यशस्वी भगवान वसिष्ठ ने ऐसा निश्चय करके उस इला नाम की कन्या को ही पुरुष बना दे ने के लिये पुरुषोत्तम भगवान नारायण की स्तुति की ॥ २१ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि ने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभाव से वह कन्या ही सुद्युम्र नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी ॥ २२ ॥
महाराज ! एक बार राजा सुद्युम्र शिकार खेल ने के लिये सिन्धुदेश के घोड़े पर सवार होकर कुछ मन्ङ्क्षत्रयों के साथ वन में गये ॥ २३ ॥ वीर सुद्युम्र कवच पहनकर और हाथ में सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनों का पीछा करते हुए उत्तर दिशा में बहुत आगे बढ़ गये ॥ २४ ॥ अन्त में सुद्युम्र मेरुपर्वत की तलहटी के एक वन में चले गये। उस वन में भगवान शङ्कर पार्वती के साथ विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्र ने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ॥ २६ ॥ परीक्षित ! साथ ही उनके सब अनुचरों ने भी अपने को स्त्रीरूप में देखा। वे सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया ॥ २७ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! उस भूखण्ड में ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया ? किस ने उसे ऐसा बना दिया था ? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्र का उत्तर दीजिये; क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! एक दिन भगवान शङ्कर का दर्शन करने के लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेज से दिशाओं का अन्धकार मिटाते हुए उस वन में गये ॥ २९ ॥ उस समय अम्बि का देवी वस्त्रहीन थीं। ऋषियों को सहसा आया देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं। झटपट उन्होंने भगवान शङ्कर की गोद से उठकर वस्त्र धारण कर लिया ॥ ३० ॥ ऋषियों ने भी देखा कि भगवान गौरी-शङ्कर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँ से लौटकर वे भगवान नर-नारायण के आश्रम पर चले गये ॥ ३१ ॥ उसी समय भगवान शङ्करने अपनी प्रिया भगवती अम्बि का को प्रसन्न करने के लिये कहा कि ‘मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थान में प्रवेश करेगा, वही स्त्री हो जायेगा’ ॥ ३२ ॥ परीक्षित ! तभी से पुरुष उस स्थान में प्रवेश नहीं करते। अब सुद्युम्र स्त्री हो गये थे। इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरों के साथ एक वन से दूसरे वन में विचर ने लगे ॥ ३३ ॥ उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रम के पास ही बहुत-सी स्त्रियों से घिरी हुई एक सुन्दरी स्त्री विचर रही है। उन्होंने इच्छा की कि यह मुझे प्राप्त हो जाय ॥ ३४ ॥ उस सुन्दरी स्त्री ने भी चन्द्रकुमार बुध को पति बनाना चाहा। इस पर बुध ने उसके गर्भ से पुरूरवा नाम का पुत्र उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मनुपुत्र राजा सुद्युम्र स्त्री हो गये। ऐसा सुनते हैं कि उन्होंने उस अवस्था में अपने कुलपुरोहित वसिष्ठजी का स्मरण किया ॥ ३६ ॥ सुद्युम्र की यह दशा देखकर वसिष्ठजी के हृदय में कृपावश अत्यन्त पीड़ा हुई। उन्होंने सुद्युम्र को पुन: पुरुष बना दे ने के लिये भगवान शङ्कर की आराधना की ॥ ३७ ॥ भगवान शङ्कर वसिष्ठजी पर प्रसन्न हुए। परीक्षित ! उन्होंने उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये अपनी वाणी को सत्य रखते हुए ही यह बात कही— ॥ ३८ ॥ ‘वसिष्ठ ! तुम्हारा यह यजमान एक महीने तक पुरुष रहेगा और एक महीने तक स्त्री। इस व्यवस्था से सुद्युम्र इच्छानुसार पृथ्वी का पालन करे’ ॥ ३९ ॥ इस प्रकार वसिष्ठजी के अनुग्रह से व्यवस्थापूर्वक अभीष्ट पुरुषत्व लाभ करके सुद्युम्र पृथ्वी का पालन करने लगे। परंतु प्रजा उनका अभिनन्दन नहीं करती थी ॥ ४० ॥ उनके तीन पुत्र हुए—उत्कल, गय और विमल। परीक्षित ! वे सब दक्षिणापथ के राजा हुए ॥ ४१ ॥ बहुत दिनों के बाद वृद्धावस्था आने पर प्रतिष्ठान नगरी के अधिपति सुद्युम्र ने अपने पुत्र पुरूरवा को राज्य दे दिया और स्वयं तपस्या करने के लिये वन की यात्रा की ॥ ४२ ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
एवं गतेऽथ सुद्युम्ने मनुर्वैवस्वतः सुते ।
पुत्रकामस्तपस्तेपे यमुनायां शतं समाः ॥ १॥
ततोऽयजन्मनुर्देवमपत्यार्थं हरिं प्रभुम् ।
इक्ष्वाकुपूर्वजान् पुत्रान् लेभे स्वसदृशान् दश ॥ २॥
पृषध्रस्तु मनोः पुत्रो गोपालो गुरुणा कृतः ।
पालयामास गा यत्तो रात्र्यां वीरासनव्रतः ॥ ३॥
एकदा प्राविशद्गोष्ठं शार्दूलो निशि वर्षति ।
शयाना गाव उत्थाय भीतास्ता बभ्रमुर्व्रजे ॥ ४॥
एकां जग्राह बलवान् सा चुक्रोश भयातुरा ।
तस्यास्तत्क्रन्दितं श्रुत्वा पृषध्रोऽभिससार ह ॥ ५॥
खड्गमादाय तरसा प्रलीनोडुगणे निशि ।
अजानन्नहनद्बभ्रोः शिरः शार्दूलशङ्कया ॥ ६॥
व्याघ्रोऽपि वृक्णश्रवणो निस्त्रिंशाग्राहतस्ततः ।
निश्चक्राम भृशं भीतो रक्तं पथि समुत्सृजन् ॥ ७॥
मन्यमानो हतं व्याघ्रं पृषध्रः परवीरहा ।
अद्राक्षीत्स्वहतां बभ्रुं व्युष्टायां निशि दुःखितः ॥ ८॥
तं शशाप कुलाचार्यः कृतागसमकामतः ।
न क्षत्रबन्धुः शूद्रस्त्वं कर्मणा भवितामुना ॥ ९॥
एवं शप्तस्तु गुरुणा प्रत्यगृह्णात्कृताञ्जलिः ।
अधारयद्व्रतं वीर ऊर्ध्वरेता मुनिप्रियम् ॥ १०॥
वासुदेवे भगवति सर्वात्मनि परेऽमले ।
एकान्तित्वं गतो भक्त्या सर्वभूतसुहृत्समः ॥ ११॥
विमुक्तसङ्गः शान्तात्मा संयताक्षोऽपरिग्रहः ।
यदृच्छयोपपन्नेन कल्पयन् वृत्तिमात्मनः ॥ १२॥
आत्मन्यात्मानमाधाय ज्ञानतृप्तः समाहितः ।
विचचार महीमेतां जडान्धबधिराकृतिः ॥ १३॥
एवंवृत्तो वनं गत्वा दृष्ट्वा दावाग्निमुत्थितम् ।
तेनोपयुक्तकरणो ब्रह्म प्राप परं मुनिः ॥ १४॥
कविः कनीयान् विषयेषु निःस्पृहो
विसृज्य राज्यं सह बन्धुभिर्वनम् ।
निवेश्य चित्ते पुरुषं स्वरोचिषं
विवेश कैशोरवयाः परं गतः ॥ १५॥
करूषान्मानवादासन् कारूषाः क्षत्रजातयः ।
उत्तरापथगोप्तारो ब्रह्मण्या धर्मवत्सलाः ॥ १६॥
धृष्टाद्धार्ष्टमभूत्क्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।
नृगस्य वंशः सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो वसुः ॥ १७॥
वसोः प्रतीकस्तत्पुत्र ओघवानोघवत्पिता ।
कन्या चौघवती नाम सुदर्शन उवाह ताम् ॥ १८॥
चित्रसेनो नरिष्यन्ताद्दक्षस्तस्य सुतोऽभवत् ।
तस्य मीढ्वांस्ततः कूर्च इन्द्रसेनस्तु तत्सुतः ॥ १९॥
वीतिहोत्रस्त्विन्द्रसेनात्तस्य सत्यश्रवा अभूत् ।
उरुश्रवाः सुतस्तस्य देवदत्तस्ततोऽभवत् ॥ २०॥
ततोऽग्निवेश्यो भगवानग्निः स्वयमभूत्सुतः ।
कानीन इति विख्यातो जातूकर्ण्यो महान् ऋषिः ॥ २१॥
ततो ब्रह्मकुलं जातमाग्निवेश्यायनं नृप ।
नरिष्यन्तान्वयः प्रोक्तो दिष्टवंशमतः शृणु ॥ २२॥
नाभागो दिष्टपुत्रोऽन्यः कर्मणा वैश्यतां गतः ।
भलन्दनः सुतस्तस्य वत्सप्रीतिर्भलन्दनात् ॥ २३॥
वत्सप्रीतेः सुतः प्रांशुस्तत्सुतं प्रमतिं विदुः ।
खनित्रः प्रमतेस्तस्माच्चाक्षुषोऽथ विविंशतिः ॥ २४॥
विविंशतिसुतो रम्भः खनिनेत्रोऽस्य धार्मिकः ।
करन्धमो महाराज तस्यासीदात्मजो नृप ॥ २५॥
तस्यावीक्षित्सुतो यस्य मरुत्तश्चक्रवर्त्यभूत् ।
संवर्तोऽयाजयद्यं वै महायोग्यङ्गिरःसुतः ॥ २६॥
मरुत्तस्य यथा यज्ञो न तथान्न्यस्य कश्चन ।
सर्वं हिरण्मयं त्वासीद्यत्किञ्चिच्चास्य शोभनम् ॥ २७॥
अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।
मरुतः परिवेष्टारो विश्वेदेवाः सभासदः ॥ २८॥
मरुत्तस्य दमः पुत्रस्तस्यासीद्राज्यवर्धनः ।
सुधृतिस्तत्सुतो जज्ञे सौधृतेयो नरः सुतः ॥ २९॥
तत्सुतः केवलस्तस्माद्बन्धुमान् वेगवांस्ततः ।
बन्धुस्तस्याभवद्यस्य तृणबिन्दुर्महीपतिः ॥ ३०॥
तं भेजेऽलम्बुषा देवी भजनीयगुणालयम् ।
वराप्सरा यतः पुत्राः कन्या चेडविडाभवत् ॥ ३१॥
तस्यामुत्पादयामास विश्रवा धनदं सुतम् ।
प्रादाय विद्यां परमामृषिर्योगेश्वरात्पितुः ॥ ३२॥
विशालः शून्यबन्धुश्च धूम्रकेतुश्च तत्सुताः ।
विशालो वंशकृद्राजा वैशालीं निर्ममे पुरीम् ॥ ३३॥
हेमचन्द्रः सुतस्तस्य धूम्राक्षस्तस्य चात्मजः ।
तत्पुत्रात्संयमादासीत्कृशाश्वः सहदेवजः ॥ ३४॥
कृशाश्वात्सोमदत्तोऽभूद्योऽश्वमेधैरिडस्पतिम् ।
इष्ट्वा पुरुषमापाग्र्यां गतिं योगेश्वराश्रितः ॥ ३५॥
सौमदत्तिस्तु सुमतिस्तत्सुतो जनमेजयः ।
एते वैशालभूपालास्तृणबिन्दोर्यशोधराः ॥ ३६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
नवम स्कन्ध-दूसरा अध्याय
पृषध्र आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार जब सुद्युम्र तपस्या करने के लिये वन में चले गये, तब वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से यमुना के तट पर सौ वर्ष तक तपस्या की ॥ १ ॥ इसके बाद उन्होंने सन्तान के लिये सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि की आराधना की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिन में सब से बड़े इक्ष्वाकु थे ॥ २ ॥ उन मनुपुत्रों में से एक का नाम था पृषध्र। गुरु वसिष्ठजी ने उसे गायों की रक्षा में नियुक्त कर रखा था, अत: वह रात्रि के समय बड़ी सावधानी से वीरासन से बैठा रहता और गायों की रक्षा करता ॥ ३ ॥ एक दिन रात में वर्षा हो रही थी। उस समय गायों के झुंड में एक बाघ घुस आया। उससे डरकर सोयी हुई गौएँ उठ खड़ी हुर्ईं। वे गोशाला में ही इधर-उधर भाग ने लगीं ॥ ४ ॥ बलवान् बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया। वह अत्यन्त भयभीत होकर चिल्ला ने लगी। उसका वह क्रन्दन सुनकर पृषध्र गाय के पास दौड़ आया ॥ ५ ॥ एक तो रात का समय और दूसरे घनघोर घटाओं से आच्छादित होने के कारण तारे भी नहीं दीखते थे। उसने हाथ में तलवार उठाकर अनजान में ही बड़े वेग से गाय का सिर काट दिया। वह समझ रहा था कि यही बाघ है ॥ ६ ॥ तलवार की नोक से बाघ का भी कान कट गया, वह अत्यन्त भयभीत होकर रास्ते में खून गिराता हुआ वहाँ से निकल भागा ॥ ७ ॥ शत्रुदमन पृषध्र ने यह समझा कि बाघ मर गया। परंतु रात बीतने पर उसने देखा कि मैंने तो गाय को ही मार डाला है, इससे उसे बड़ा दु:ख हुआ ॥ ८ ॥ यद्यपि पृषध्र ने जान-बूझकर अपराध नहीं किया था, फिर भी कुलपुरोहित वसिष्ठजी ने उसे शाप दिया कि ‘तुम इस कर्म से क्षत्रिय नहीं रहोगे; जाओ, शूद्र हो जाओ ’ ॥ ९ ॥ पृषध्र ने अपने गुरुदेव का यह शाप अञ्जलि बाँधकर स्वीकार किया और इसके बाद सदा के लिये मुनियों को प्रिय लगनेवाले नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत को धारण किया ॥ १० ॥ वह समस्त प्राणियों का अहैतुक हितैषी एवं सब के प्रति समान भाव से युक्त होकर भक्ति के द्वारा परम विशुद्ध सर्वात्मा भगवान वासुदेव का अनन्य प्रेमी हो गया ॥ ११ ॥ उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं। वृत्तियाँ शान्त हो गयीं। इन्द्रियाँ वश में हो गयीं। वह कभी किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह नहीं रखता था। जो कुछ दैववश प्राप्त हो जाता, उसी से अपना जीवन-निर्वाह कर लेता ॥ १२ ॥ वह आत्मज्ञान से सन्तुष्ट एवं अपने चित्त को परमात्मा में स्थित करके प्राय: समाधिस्थ रहता। कभी-कभी जड, अंधे और बहरे के समान पृथ्वी पर विचरण करता ॥ १३ ॥ इस प्रकार का जीवन व्यतीत करता हुआ वह एक दिन वन में गया। वहाँ उसने देखा कि दावानल धधक रहा है। मननशील पृषध्र अपनी इन्द्रियों को उसी अग्रि में भस्म करके परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गया ॥ १४ ॥
मनु का सब से छोटा पुत्र था कवि। विषयों से वह अत्यन्त नि:स्पृह था। वह राज्य छोडक़र अपने बन्धुओं के साथ वन में चला गया और अपने हृदय में स्वयंप्रकाश परमात्मा को विराजमान कर किशोर अवस्था में ही परम पद को प्राप्त हो गया ॥ १५ ॥
मनुपुत्र करूष से कारूष नामक क्षत्रिय उत्पन्न हुए। वे बड़े ही ब्राह्मणभक्त, धर्मप्रेमी एवं उत्तरापथ के रक्षक थे ॥ १६ ॥ धृष्ट के धाष्टर् नामक क्षत्रिय हुए। अन्त में वे इस शरीर से ही ब्राह्मण बन गये। नृग का पुत्र हुआ सुमति, उसका पुत्र भूतज्योति और भूतज्योति का पुत्र वसु था ॥ १७ ॥ वसु का पुत्र प्रतीक और प्रतीक का पुत्र ओघवान्। ओघवान् के पुत्र का नाम भी ओघवान् ही था। उनके एक ओघवती नाम की कन्या भी थी, जिसका विवाह सुदर्शन से हुआ ॥ १८ ॥ मनुपुत्र नरिष्यन्त से चित्रसेन, उससे ऋक्ष, ऋक्ष से मीढ्वान्, मीढ्वान् से कूर्च और उससे इन्द्रसेन की उत्पत्ति हुई ॥ १९ ॥ इन्द्रसेन से वीतिहोत्र, उससे सत्यश्रवा, सत्यश्रवा से उरुश्रवा और उससे देवदत्त की उत्पत्ति हुई ॥ २० ॥ देवदत्त के अग्रिवेश्य नामक पुत्र हुए, जो स्वयं अग्रिदेव ही थे। आगे चलकर वे ही कानीन एवं महर्षि जातूकण्र्य के नाम से विख्यात हुए ॥ २१ ॥ परीक्षित ! ब्राह्मणों का ‘आग्रिवेश्यायन’ गोत्र उन्हीं से चला है। इस प्रकार नरिष्यन्त के वंश का मैंने वर्णन किया, अब दिष्ट का वंश सुनो ॥ २२ ॥
दिष्ट के पुत्र का नाम था नाभाग। यह उस नाभाग से अलग है, जिसका मैं आगे वर्णन करूँगा। वह अपने कर्म के कारण वैश्य हो गया। उसका पुत्र हुआ भलन्दन और उसका वत्सप्रीति ॥ २३ ॥ वत्सप्रीति का प्रांशु और प्रांशु का पुत्र हुआ प्रमति। प्रमति के खनित्र, खनित्र के चाक्षुष और उनके विविंशति हुए ॥ २४ ॥ विविंशति के पुत्र रम्भ और रम्भ के पुत्र खनित्र—दोनों ही परम धार्मिक हुए। उनके पुत्र करन्धम और करन्धम के अवीक्षित्। महाराज परीक्षित ! अवीक्षित् के पुत्र मरुत्त चक्रवर्ती राजा हुए। उनसे अङ्गिरा के पुत्र महायोगी संवत्र्त ऋषि ने यज्ञ कराया था ॥ २५-२६ ॥ मरुत्त का यज्ञ जैसा हुआ, वैसा और किसी का नहीं हुआ। उस यज्ञ के समस्त छोटे-बड़े पात्र अत्यन्त सुन्दर एवं सो ने के बने हुए थे ॥ २७ ॥ उस यज्ञ में इन्द्र सोमपान करके मतवाले हो गये थे और दक्षिणाओं से ब्राह्मण तृप्त हो गये थे। उसमें परसनेवाले थे मरुद्गण और विश्वेदेव सभासद् थे ॥ २८ ॥
मरुत्त के पुत्र का नाम था दम। दम से राज्यवर्धन, उससे सुधृति और सुधृति से नर नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई ॥ २९ ॥ नर से केवल, केवल से बन्धुमान्, बन्धुमान् से वेगवान्, वेगवान् से बन्धु और बन्धु से राजा तृणबिन्दु का जन्म हुआ ॥ ३० ॥ तृणबिन्दु आदर्श गुणों के भण्डार थे। अप्सराओं में श्रेष्ठ अलम्बुषा देवी ने उन को वरण किया, जिससे उनके कई पुत्र और इडविडा नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई ॥ ३१ ॥ मुनिवर विश्रवा ने अपने योगेश्वर पिता पुलस्त्यजी से उत्तम विद्या प्राप्त करके इडविडा के गर्भ से लोकपाल कुबेर को पुत्ररूप में उत्पन्न किया ॥ ३२ ॥ महाराज तृणबिन्दु के अपनी धर्मपत्नी से तीन पुत्र हुए—विशाल, शून्यबन्धु और धूम्रकेतु। उनमें से राजा विशाल वंशधर हुए और उन्होंने वैशाली नाम की नगरी बसायी ॥ ३३ ॥ विशाल से हेमचन्द्र, हेमचन्द्र से धूम्राक्ष, धूम्राक्ष से संयम और संयम से दो पुत्र हुए—कृशाश्व और देवज ॥ ३४ ॥ कृशाश्व के पुत्र का नाम था सोमदत्त। उसने अश्वमेध यज्ञों के द्वारा यज्ञपति भगवान की आराधना की और योगेश्वर संतों का आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की ॥ ३५ ॥ सोमदत्त का पुत्र हुआ सुमति और सुमति से जनमेजय। ये सब तृणबिन्दु की कीर्ति को बढ़ानेवाले विशालवंशी राजा हुए ॥ ३६ ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः स बभूव ह ।
यो वा अङ्गिरसां सत्रे द्वितीयमह ऊचिवान् ॥ १॥
सुकन्या नाम तस्यासीत्कन्या कमललोचना ।
तया सार्धं वनगतो ह्यगमच्च्यवनाश्रमम् ॥ २॥
सा सखीभिः परिवृता विचिन्वन्त्यङ्घ्रिपान् वने ।
वल्मीकरन्ध्रे ददृशे खद्योते इव ज्योतिषी ॥ ३॥
ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै ।
अविध्यन्मुग्धभावेन सुस्रावासृक् ततो बहु ॥ ४॥
शकृन्मूत्रनिरोधोऽभूत्सैनिकानां च तत्क्षणात् ।
राजर्षिस्तमुपालक्ष्य पुरुषान् विस्मितोऽब्रवीत् ॥ ५॥
अप्यभद्रं न युष्माभिर्भार्गवस्य विचेष्टितम् ।
व्यक्तं केनापि नस्तस्य कृतमाश्रमदूषणम् ॥ ६॥
सुकन्या प्राह पितरं भीता किञ्चित्कृतं मया ।
द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या निर्भिन्ने कण्टकेन वै ॥ ७॥
दुहितुस्तद्वचः श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वसः ।
मुनिं प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं शनैः ॥ ८॥
तदभिप्रायमाज्ञाय प्रादाद्दुहितरं मुनेः ।
कृच्छ्रान्मुक्तस्तमामन्त्र्य पुरं प्रायात्समाहितः ॥ ९॥
सुकन्या च्यवनं प्राप्य पतिं परमकोपनम् ।
प्रीणयामास चित्तज्ञा अप्रमत्तानुवृत्तिभिः ॥ १०॥
कस्यचित्त्वथ कालस्य नासत्यावाश्रमागतौ ।
तौ पूजयित्वा प्रोवाच वयो मे दत्तमीश्वरौ ॥ ११॥
ग्रहं ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे वामप्यसोमपोः ।
क्रियतां मे वयोरूपं प्रमदानां यदीप्सितम् ॥ १२॥
बाढमित्यूचतुर्विप्रमभिनन्द्य भिषक्तमौ ।
निमज्जतां भवानस्मिन् ह्रदे सिद्धविनिर्मिते ॥ १३॥
इत्युक्त्वा जरया ग्रस्तदेहो धमनिसन्ततः ।
ह्रदं प्रवेशितोऽश्विभ्यां वलीपलितविप्रियः ॥ १४॥
पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरपीच्या वनिताप्रियाः ।
पद्मस्रजः कुण्डलिनस्तुल्यरूपाः सुवाससः ॥ १५॥
तान्निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान् सूर्यवर्चसः ।
अजानती पतिं साध्वी अश्विनौ शरणं ययौ ॥ १६॥
दर्शयित्वा पतिं तस्यै पातिव्रत्येन तोषितौ ।
ऋषिमामन्त्र्य ययतुर्विमानेन त्रिविष्टपम् ॥ १७॥
यक्ष्यमाणोऽथ शर्यातिश्च्यवनस्याश्रमं गतः ।
ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं सूर्यवर्चसम् ॥ १८॥
राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवन्दनाम् ।
आशिषश्चाप्रयुञ्जानो नातिप्रीतमना इव ॥ १९॥
चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वया
प्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनिः ।
यत्त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतं
विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम् ॥ २०॥
कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां
कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम् ।
बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलं
पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः ॥ २१॥
एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता ।
उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दनः ॥ २२॥
शशंस पित्रे तत्सर्वं वयोरूपाभिलम्भनम् ।
विस्मितः परमप्रीतस्तनयां परिषस्वजे ॥ २३॥
सोमेन याजयन् वीरं ग्रहं सोमस्य चाग्रहीत् ।
असोमपोरप्यश्विनोश्च्यवनः स्वेन तेजसा ॥ २४॥
हन्तुं तमाददे वज्रं सद्योमन्युरमर्षितः ।
सवज्रं स्तम्भयामास भुजमिन्द्रस्य भार्गवः ॥ २५॥
अन्वजानंस्ततः सर्वे ग्रहं सोमस्य चाश्विनोः ।
भिषजाविति यत्पूर्वं सोमाहुत्या बहिष्कृतौ ॥ २६॥
उत्तानबर्हिरानर्तो भूरिषेण इति त्रयः ।
शर्यातेरभवन् पुत्रा आनर्ताद्रेवतोभवत् ॥ २७॥
सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम् ।
आस्थितोऽभुङ्क्त विषयानानर्तादीनरिन्दम ॥ २८॥
तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मिज्येष्ठमुत्तमम् ।
ककुद्मी रेवतीं कन्यां स्वामादाय विभुं गतः ॥ २९॥
कन्यावरं परिप्रष्टुं ब्रह्मलोकमपावृतम् ।
आवर्तमाने गान्धर्वे स्थितोऽलब्धक्षणः क्षणम् ॥ ३०॥
तदन्त आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् ।
तच्छ्रुत्वा भगवान् ब्रह्मा प्रहस्य तमुवाच ह ॥ ३१॥
अहो राजन् निरुद्धास्ते कालेन हृदि ये कृताः ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां गोत्राणि च न शृण्महे ॥ ३२॥
कालोऽभियातस्त्रिणवचतुर्युगविकल्पितः ।
तद्गच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबलः ॥ ३३॥
कन्यारत्नमिदं राजन् नररत्नाय देहि भोः ।
भुवो भारावताराय भगवान् भूतभावनः ॥ ३४॥
अवतीर्णो निजांशेन पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
इत्यादिष्टोऽभिवन्द्याजं नृपः स्वपुरमागतः ।
त्यक्तं पुण्यजनत्रासाद्भ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितैः ॥ ३५॥
सुतां दत्त्वानवद्याङ्गीं बलाय बलशालिने ।
बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणाश्रमम् ॥ ३६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
नवम स्कन्ध- तीसरा अध्याय
महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदों का निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अङ्गिरा-गोत्र के ऋषियों के यज्ञ में दूसरे दिन का कर्म बतलाया था ॥ १ ॥ उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या। एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्या के साथ वन में घूमते- घूमते च्यवन ऋषि के आश्रम पर जा पहुँचे ॥ २ ॥ सुकन्या अपनी सखियों के साथ वन में घूम-घूमकर वृक्षों का सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थान पर देखा कि बाँबी (दीमकों की एकत्रित की हुई मिट्टी) के छेद में से जुगनू की तरह दो ज्योतियाँ दीख रही हैं ॥ ३ ॥ दैव की कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्या ने बालसुलभ चपलता से एक काँटे के द्वारा उन ज्योतियों को वेध दिया। इससे उनमें से बहुत- सा-खून बह चला ॥ ४ ॥ उसी समय राजा शर्याति के सैनिकों का मल-मूत्र रुक गया। राजर्षि शर्याति को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकों से कहा ॥ ५ ॥ ‘अरे, तुमलोगों ने कहीं महर्षि च्यवनजी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया ? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हमलोगों में से किसी-न-किसी ने उनके आश्रम में कोई अनर्थ किया है’ ॥ ६ ॥ तब सुकन्या ने अपने पिता से डरते-डरते कहा कि ‘पिताजी ! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजान में दो ज्योतियों को काँटे से छेद दिया है ’ ॥ ७ ॥ अपनी कन्या की यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बाँबी में छिपे हुए च्यवन मुनि को प्रसन्न किया ॥ ८ ॥ तदनन्तर च्यवन मुनि का अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकट से छूटकर बड़ी सावधानी से उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानी में चले आये ॥ ९ ॥
इधर सुकन्या परम क्रोधी च्यवन मुनि को अपने पति के रूप में प्राप्त करके बड़ी सावधानी से उनकी सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्ति को जानकर उसके अनुसार ही बर्ताव करती थी ॥ १० ॥ कुछ समय बीत जाने पर उनके आश्रम पर दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनि ने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि—‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा अवस्था प्रदान कीजिये। मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आपलोग सोमपान के अधिकारी नहीं हैं, फिर भी मैं आपको यज्ञ में सोमरस का भाग दूँगा ’ ॥ ११-१२ ॥ वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारों ने महर्षि च्यवन का अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धों के द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये’ ॥ १३ ॥ च्यवन मुनि के शरीर को बुढ़ापे ने घेर रखा था। सब ओर नसें दीख रही थीं, झुरिर्याँ पड़ जाने एवं बाल पक जाने के कारण वे देखने में बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारों ने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्ड में प्रवेश किया ॥ १४ ॥ उसी समय कुण्ड से तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलों की माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पह ने एक- से मालूम होते थे। वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियों को प्रिय लगनेवाले थे ॥ १५ ॥ परम साध्वी सुन्दरी सुकन्या ने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृति के तथा सूर्य के समान तेजस्वी हैं, तब अपने पति को न पहचानकर उसने अश्विनी- कुमारों की शरण ली ॥ १६ ॥ उसके पातिव्रत्य से अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पति को बतला दिया और फिर च्यवन मुनि से आज्ञा लेकर विमान के द्वारा वे स्वर्ग को चले गये ॥ १७ ॥ कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम पर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्या के पास एक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है ॥ १८ ॥ सुकन्या ने उनके चरणों की वन्दना की। शर्याति ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न- से होकर बोले ॥ १९ ॥ ‘दुष्टे ! यह तू ने क्या किया ? क्या तू ने सब के वन्दनीय च्यवन मुनि को धोखा दे दिया ! अवश्य ही तू ने उन को बूढ़ा और अपने काम का न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुष की सेवा कर रही है ॥ २० ॥ तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुल में हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? तेरा यह व्यवहार तो कुल में कलङ्क लगानेवाला है। अरे राम-राम ! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुष की सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनों के वंश को घोर नरक में ले जा रही है’ ॥ २१ ॥ राजा शर्याति के इस प्रकार कहने पर पवित्र मुसकानवाली सुकन्या ने मुसकराकर कहा—‘पिताजी ! ये आपके जामाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’ ॥ २२ ॥ इसके बाद उसने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौन्दर्य की प्राप्ति का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले से लगा लिया ॥ २३ ॥
महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया ॥ २४ ॥ इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढक़र शर्याति को मार ने के लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया ॥ २५ ॥ तब सब देवताओं ने अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगों ने वैद्य होने के कारण पहले अश्विनीकुमारों का सोमपान से बहिष्कार कर रखा था ॥ २६ ॥
परीक्षित ! शर्याति के तीन पुत्र थे—उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त से रेवत हुए ॥ २७ ॥ महाराज ! रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नाम की एक नगरी बसायी थी। उसी में रहकर वे आनर्त आदि देशों का राज्य करते थे ॥ २८ ॥ उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिन में सब से बड़े थे ककुद्मी। ककुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके लिये वर पूछ ने के उद्देश्य से ब्रह्माजी के पास गये। उस समय ब्रह्मलोक का रास्ता ऐसे लोगों के लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोक में गाने-बजाने की धूम मची हुई थी। बातचीत के लिये अवसर न मिलन के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये ॥ २९-३० ॥ उत्सव के अन्त में ब्रह्माजी को नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान ब्रह्माजी ने हँसकर उनसे कहा — ॥ ३१ ॥ ‘महाराज ! तुम ने अपने मन में जिन लोगों के विषय में सोच रखा था, वे सब तो काल के गाल में चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियों की तो बात ही क्या है, गोत्रों के नाम भी नहीं सुनायी पड़ते ॥ ३२ ॥ इस बीच में सत्ताईस चतुर्युगी का समय बीत चु का है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान नारायण के अंशावतार महाबली बलदेवजी पृथ्वी पर विद्यमान हैं ॥ ३३ ॥ राजन् ! उन्हीं नररत्न को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदि का श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है—वे ही प्राणियों के जीवनसर्वस्व भगवान पृथ्वी का भार उतार ने के लिये अपने अंश से अवतीर्ण हुए हैं।’ राजा ककुद्मी ने ब्रह्माजी का यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणों की वन्दना की और अपने नगर में चले आये। उनके वंशजों ने यक्षों के भय से वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ राजा ककुद्मी ने अपनी सर्वाङ्गसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलरामजी को सौंप दी और स्वयं तपस्या करने के लिये भगवान नर-नारायण के आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये ॥ ३६ ॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातरः कविम् ।
यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम् ॥ १॥
भ्रातरोऽभाङ्क्त किं मह्यं भजाम पितरं तव ।
त्वां ममार्यास्तताभाङ् क्षुर्मा पुत्रक तदादृथाः ॥ २॥
इमे अङ्गिरसः सत्रमासतेऽद्य सुमेधसः ।
षष्ठं षष्ठमुपेत्याहः कवे मुह्यन्ति कर्मणि ॥ ३॥
तांस्त्वं शंसय सूक्ते द्वे वैश्वदेवे महात्मनः ।
ते स्वर्यन्तो धनं सत्रपरिशेषितमात्मनः ॥ ४॥
दास्यन्ति तेऽथ तान् गच्छ तथा स कृतवान् यथा ।
तस्मै दत्त्वा ययुः स्वर्गं ते सत्रपरिशेषितम् ॥ ५॥
तं कश्चित्स्वीकरिष्यन्तं पुरुषः कृष्णदर्शनः ।
उवाचोत्तरतोऽभ्येत्य ममेदं वास्तुकं वसु ॥ ६॥
ममेदमृषिभिर्दत्तमिति तर्हि स्म मानवः ।
स्यान्नौ ते पितरि प्रश्नः पृष्टवान् पितरं तथा ॥ ७॥
यज्ञवास्तुगतं सर्वमुच्छिष्टमृषयः क्वचित् ।
चक्रुर्विभागं रुद्राय स देवः सर्वमर्हति ॥ ८॥
नाभागस्तं प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम् ।
इत्याह मे पिता ब्रह्मञ्छिरसा त्वां प्रसादये ॥ ९॥
यत्ते पितावदद्धर्मं त्वं च सत्यं प्रभाषसे ।
ददामि ते मन्त्रदृशे ज्ञानं ब्रह्म सनातनम् ॥ १०॥
गृहाण द्रविणं दत्तं मत्सत्रे परिशेषितम् ।
इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान् सत्यवत्सलः ॥ ११॥
य एतत्संस्मरेत्प्रातः सायं च सुसमाहितः ।
कविर्भवति मन्त्रज्ञो गतिं चैव तथाऽऽत्मनः ॥ १२॥
नाभागादम्बरीषोऽभून्महाभागवतः कृती ।
नास्पृशद्ब्रह्मशापोऽपि यं न प्रतिहतः क्वचित् ॥ १३॥
राजोवाच
भगवन्छ्रोतुमिच्छामि राजर्षेस्तस्य धीमतः ।
न प्राभूद्यत्र निर्मुक्तो ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः ॥ १४॥
श्रीशुक उवाच
अम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम् ।
अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि ॥ १५॥
मेनेऽतिदुर्लभं पुंसां सर्वं तत्स्वप्नसंस्तुतम् ।
विद्वान् विभवनिर्वाणं तमो विशति यत्पुमान् ॥ १६॥
वासुदेवे भगवति तद्भक्तेषु च साधुषु ।
प्राप्तो भावं परं विश्वं येनेदं लोष्टवत्स्मृतम् ॥ १७॥
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो-
र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।
करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु
श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥ १८॥
मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ
तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् ।
घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे
श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥ १९॥
पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे
शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने ।
कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया
यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥ २०॥
एवं सदा कर्मकलापमात्मनः
परेऽधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे ।
सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां
तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह ॥ २१॥
ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरं
महाविभूत्योपचिताङ्गदक्षिणैः ।
ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभि-
र्धन्वन्यभिस्रोतमसौ सरस्वतीम् ॥ २२॥
यस्य क्रतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः ।
तुल्यरूपाश्चानिमिषा व्यदृश्यन्त सुवाससः ॥ २३॥
स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैरमरप्रियः ।
शृण्वद्भिरुपगायद्भिरुत्तमश्लोकचेष्टितम् ॥ २४॥
समर्द्धयन्ति तान् कामाः स्वाराज्यपरिभाविताः ।
दुर्लभा नापि सिद्धानां मुकुन्दं हृदि पश्यतः ॥ २५॥
स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिवः ।
स्वधर्मेण हरिं प्रीणन् सङ्गान् सर्वान् शनैर्जहौ ॥ २६॥
गृहेषु दारेषु सुतेषु बन्धुषु
द्विपोत्तमस्यन्दनवाजिवस्तुषु ।
अक्षय्यरत्नाभरणायुधादि-
ष्वनन्तकोशेष्वकरोदसन्मतिम् ॥ २७॥
तस्मा अदाद्धरिश्चक्रं प्रत्यनीकभयावहम् ।
एकान्तभक्तिभावेन प्रीतो भृत्याभिरक्षणम् ॥ २८॥
आरिराधयिषुः कृष्णं महिष्या तुल्यशीलया ।
युक्तः सांवत्सरं वीरो दधार द्वादशीव्रतम् ॥ २९॥
व्रतान्ते कार्तिके मासि त्रिरात्रं समुपोषितः ।
स्नातः कदाचित्कालिन्द्यां हरिं मधुवनेऽर्चयत् ॥ ३०॥
महाभिषेकविधिना सर्वोपस्करसम्पदा ।
अभिषिच्याम्बराकल्पैर्गन्धमाल्यार्हणादिभिः ॥ ३१॥
तद्गतान्तरभावेन पूजयामास केशवम् ।
ब्राह्मणांश्च महाभागान् सिद्धार्थानपि भक्तितः ॥ ३२॥
गवां रुक्मविषाणीनां रूप्याङ्घ्रीणां सुवाससाम् ।
पयःशीलवयोरूपवत्सोपस्करसम्पदाम् ॥ ३३॥
प्राहिणोत्साधुविप्रेभ्यो गृहेषु न्यर्बुदानि षट् ।
भोजयित्वा द्विजानग्रे स्वाद्वन्नं गुणवत्तमम् ॥ ३४॥
लब्धकामैरनुज्ञातः पारणायोपचक्रमे ।
तस्य तर्ह्यतिथिः साक्षाद्दुर्वासा भगवानभूत् ॥ ३५॥
तमानर्चातिथिं भूपः प्रत्युत्थानासनार्हणैः ।
ययाचेऽभ्यवहाराय पादमूलमुपागतः ॥ ३६॥
प्रतिनन्द्य स तद्याच्ञां कर्तुमावश्यकं गतः ।
निममज्ज बृहद्ध्यायन् कालिन्दीसलिले शुभे ॥ ३७॥
मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति ।
चिन्तयामास धर्मज्ञो द्विजैस्तद्धर्मसङ्कटे ॥ ३८॥
ब्राह्मणातिक्रमे दोषो द्वादश्यां यदपारणे ।
यत्कृत्वा साधु मे भूयादधर्मो वा न मां स्पृशेत् ॥ ३९॥
अम्भसा केवलेनाथ करिष्ये व्रतपारणम् ।
प्राहुरब्भक्षणं विप्रा ह्यशितं नाशितं च तत् ॥ ४०॥
इत्यपः प्राश्य राजर्षिश्चिन्तयन् मनसाच्युतम् ।
प्रत्यचष्ट कुरुश्रेष्ठ द्विजागमनमेव सः ॥ ४१॥
दुर्वासा यमुनाकूलात्कृतावश्यक आगतः ।
राज्ञाभिनन्दितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया ॥ ४२॥
मन्युना प्रचलद्गात्रो भ्रुकुटीकुटिलाननः ।
बुभुक्षितश्च सुतरां कृताञ्जलिमभाषत ॥ ४३॥
अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत ।
धर्मव्यतिक्रमं विष्णोरभक्तस्येशमानिनः ॥ ४४॥
यो मामतिथिमायातमातिथ्येन निमन्त्र्य च ।
अदत्त्वा भुक्तवांस्तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम् ॥ ४५॥
एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषविदीपितः ।
तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम् ॥ ४६॥
तामापतन्तीं ज्वलतीमसिहस्तां पदा भुवम् ।
वेपयन्तीं समुद्वीक्ष्य न चचाल पदान्नृपः ॥ ४७॥
प्राग्दिष्टं भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना ।
ददाह कृत्यां तां चक्रं क्रुद्धाहिमिव पावकः ॥ ४८॥
तदभिद्रवदुद्वीक्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम् ।
दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिक्षु प्राणपरीप्सया ॥ ४९॥
तमन्वधावद्भगवद्रथाङ्गं
दावाग्निरुद्धूतशिखो यथाहिम् ।
तथानुषक्तं मुनिरीक्षमाणो
गुहां विविक्षुः प्रससार मेरोः ॥ ५०॥
दिशो नभः क्ष्मां विवरान् समुद्रान्
लोकान् सपालांस्त्रिदिवं गतः सः ।
यतो यतो धावति तत्र तत्र
सुदर्शनं दुष्प्रसहं ददर्श ॥ ५१॥
अलब्धनाथः स यदा कुतश्चि-
त्सन्त्रस्तचित्तोऽरणमेषमाणः ।
देवं विरिञ्चं समगाद्विधात-
स्त्राह्यात्मयोनेऽजिततेजसो माम् ॥ ५२॥
ब्रह्मोवाच
स्थानं मदीयं सहविश्वमेत-
त्क्रीडावसाने द्विपरार्धसंज्ञे ।
भ्रूभङ्गमात्रेण हि सन्दिधक्षोः
कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति ॥ ५३॥
अहं भवो दक्षभृगुप्रधानाः
प्रजेशभूतेशसुरेशमुख्याः ।
सर्वे वयं यन्नियमं प्रपन्नाः
मूर्ध्न्यर्पितं लोकहितं वहामः ॥ ५४॥
प्रत्याख्यातो विरिञ्चेन विष्णुचक्रोपतापितः ।
दुर्वासाः शरणं यातः शर्वं कैलासवासिनम् ॥ ५५॥
श्रीरुद्र उवाच
वयं न तात प्रभवाम भूम्नि
यस्मिन् परेऽन्येऽप्यजजीवकोशाः ।
भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः
सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः ॥ ५६॥
अहं सनत्कुमारश्च नारदो भगवानजः ।
कपिलोऽपान्तरतमो देवलो धर्म आसुरिः ॥ ५७॥
मरीचिप्रमुखाश्चान्ये सिद्धेशाः पारदर्शनाः ।
विदाम न वयं सर्वे यन्मायां माययावृताः ॥ ५८॥
तस्य विश्वेश्वरस्येदं शस्त्रं दुर्विषहं हि नः ।
तमेवं शरणं याहि हरिस्ते शं विधास्यति ॥ ५९॥
ततो निराशो दुर्वासाः पदं भगवतो ययौ ।
वैकुण्ठाख्यं यदध्यास्ते श्रीनिवासः श्रिया सह ॥ ६०॥
सन्दह्यमानोऽजितशस्त्रवह्निना
तत्पादमूले पतितः सवेपथुः ।
आहाच्युतानन्त सदीप्सित प्रभो
कृतागसं माव हि विश्वभावन ॥ ६१॥
अजानता ते परमानुभावं
कृतं मयाघं भवतः प्रियाणाम् ।
विधेहि तस्यापचितिं विधातर्मुच्येत
यन्नाम्न्युदिते नारकोऽपि ॥ ६२॥
श्रीभगवानुवाच
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥ ६३॥
नाहमात्मानमाशासे मद्भक्तैः साधुभिर्विना ।
श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिरहं परा ॥ ६४॥
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।
हित्वा मां शरणं याताः कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे ॥ ६५॥
मयि निर्बद्धहृदयाः साधवः समदर्शनाः ।
वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा ॥ ६६॥
मत्सेवया प्रतीतं च सालोक्यादिचतुष्टयम् ।
नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत्कालविद्रुतम् ॥ ६७॥
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।
मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥ ६८॥
उपायं कथयिष्यामि तव विप्र शृणुष्व तत् ।
अयं ह्यात्माभिचारस्ते यतस्तं यातु वै भवान् ।
साधुषु प्रहितं तेजः प्रहर्तुः कुरुतेऽशिवम् ॥ ६९॥
तपो विद्या च विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे ।
ते एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा ॥ ७०॥
ब्रह्मंस्तद्गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम् ।
क्षमापय महाभागं ततः शान्तिर्भविष्यति ॥ ७१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे अम्बरीषचरिते चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
नवम स्कन्ध- चौथा अध्याय
नाभाग और अम्बरीष की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग। जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयों ने अपने से छोटे किन्तु विद्वान् भाई को हिस्से में केवल पिता को ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपस में बाँट ली थी) ॥ १ ॥ उसने अपने भाइयों से पूछा—‘भाइयो ! आपलोगों ने मुझे हिस्से में क्या दिया है ?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘हम तुम्हारे हिस्से में पिताजी को ही तुम्हें देते हैं।’ उसने अपने पिता से जाकर कहा—‘पिताजी ! मेरे बड़े भाइयों ने हिस्से में मेरे लिये आपको ही दिया है।’ पिता ने कहा—‘बेटा ! तुम उनकी बात न मानो ॥ २ ॥ देखो, ये बड़े बुद्धिमान आङ्गिरस-गोत्र के ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परंतु मेरे विद्वान् पुत्र ! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्म में भूल कर बैठते हैं ॥ ३ ॥ तुम उन महात्माओं के पास जाकर उन्हें वैश्वदेवसम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञ से बचा हुआ अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्हींके पास चले जाओ।’ उसने अपने पिता के आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आङ्गिरसगोत्री ब्राह्मणों ने भी यज्ञ का बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये ॥ ४-५ ॥
जब नाभाग उस धन को लेने लगा, तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरुष आया। उसने कहा—‘इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है’ ॥ ६ ॥
नाभाग ने कहा—‘ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है।’ इस पर उस पुरुष ने कहा—‘हमारे विवाद के विषय में तुम्हारे पिता से ही प्रश्र किया जाय।’ तब नाभाग ने जाकर पिता से पूछा ॥ ७ ॥ पिता ने कहा—‘एक बार दक्षप्रजापति के यज्ञ में ऋषिलोग यह निश्चय कर चु के हैं कि यज्ञभूमि में जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्रदेव का हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेवजी को ही मिलना चाहिये’ ॥ ८ ॥ नाभाग ने जाकर उन काले रंग के पुरुष रुद्रभगवान को प्रणाम किया और कहा कि ‘प्रभो ! यज्ञभूमि की सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है। भगवन् ! मुझ से अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आप से क्षमा माँगता हूँ’ ॥ ९ ॥ तब भगवान रुद्र ने कहा—‘तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुम ने भी मुझ से सत्य ही कहा है। तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान देता हूँ ॥ १० ॥ यहाँ यज्ञ में बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।’ इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान रुद्र अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥ जो मनुष्य प्रात: और सायंकाल एकाग्रचित्त से इस आख्यान का स्मरण करता है, वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूप को भी जान लेता है ॥ १२ ॥ नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्मशाप कभी कहीं रो का नहीं जा सका, वह भी अम्बरीष का स्पर्श न कर स का ॥ १३ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीष का चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मण ने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया, जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परंतु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ स का ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वी के सातों द्वीप, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उन को प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पडक़र मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है। उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है ॥ १५-१६ ॥ भगवान श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में उनका परम प्रेम था। उस प्रेम के प्राप्त हो जाने पर तो यह सारा विश्व और इस की समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं ॥ १७ ॥ उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द युगल में, वाणी को भगवद्गुणानुवर्णन में, हाथों को श्रीहरिमन्दिर के मार्जन-सेवन में और अपने कानों को भगवान अच्युत की मङ्गलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था ॥ १८ ॥ उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनों में, अङ्ग-सङ्ग भगवद्भक्तों के शरीर-स्पर्श में, नासि का उनके चरणकमलों पर चढ़ी श्रीमती तुलसी के दिव्य गन्ध में और रसना (जिह्वा) को भगवान के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसाद में संलग्र कर दिया था ॥ १९ ॥ अम्बरीष के पैर भगवान के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते। राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्री को भगवान की सेवा में समर्पित कर दयिा था। भोग ने की इच्छा से नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्रकीर्ति भगवान के निज-जनों में ही निवास करता है ॥ २० ॥ इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्व स्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे ॥ २१ ॥ उन्होंने ‘धन्व’ नाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाह के सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान ऐश्वर्य के कारण सर्वाङ्गपरिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान की आराधना की थी ॥ २२ ॥ उनके यज्ञों में देवताओं के साथ जब सदस्य और ऋत्विज् बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूप के कारण देवताओं के समान दिखायी पड़ते थे ॥ २३ ॥ उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान के उत्तम चरित्रों का किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती। इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्यारे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते ॥ २४ ॥ वे अपने हृदय में अनन्त प्रेम का दान करनेवाले श्रीहरि का नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगों को वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धों को भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्द के सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं ॥ २५ ॥ राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्या से युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्म के द्वारा भगवान को प्रसन्न करने लगे और धीरे- धीरे उन्होंने सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग कर दिया ॥ २६ ॥ घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलों की चतुरङ्गिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होनेवाले कोशों के सम्बन्ध में उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं ॥ २७ ॥ उनकी अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तों की रक्षा करनेवाला है ॥ २८ ॥
राजा अम्बरीष की पत्नी भी उन्हींके समान धर्मशील, संसार से विरक्त एवं भक्तिपरायण थीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये एक वर्ष तक द्वादशीप्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया ॥ २९ ॥ व्रत की समाप्ति होने पर कार्तिक महीने में उन्होंने तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुनाजी में स्नान करके मधुवन में भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की ॥ ३० ॥ उन्होंने महाभिषेक की विधि से सब प्रकार की सामग्री और सम्पत्ति द्वारा भगवान का अभिषेक किया और हृदय से तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अघ्र्य आदि के द्वारा उनकी पूजा की। यद्यपि महाभाग्यवान् ब्राह्मणों को इस पूजा की कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं—वे सिद्ध थे—तथापि राजा अम्बरीष ने भक्तिभाव से उनका पूजन किया। तत्पश्चात पहले ब्राह्मणों को स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगों के घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेज दीं। उन गौओं के सींग सुवर्ण से और खुर चाँदी से मढ़े हुए थे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्थाकी, देखने में सुन्दर, बछड़ेवाली और खूब दूध देनेवाली थीं। उनके साथ दुह ने की उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भेजवा दी थी ॥ ३१—३४ ॥ जब ब्राह्मणों को सब कुछ मिल चुका, तब राजाने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान दे ने में समर्थ स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे ॥ ३५ ॥
राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से अतिथि के रूप में आये हुए दुर्वासाजी की पूजा की। उनके चरणों में प्रणाम करके अम्बरीष ने भोजन के लिये प्रार्थना की ॥ ३६ ॥ दुर्वासाजी ने अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे नदीतट पर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे ॥ ३७ ॥ इधर द्वादशी केवल घड़ीभर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पडक़र ब्राह्मणों के साथ परामर्श किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने कहा— ‘ब्राह्मणदेवताओ ! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना—दोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये ॥ ३९ ॥ तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा—‘ब्राह्मणो ! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिये इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ ॥ ४० ॥ ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और परीक्षित ! वे केवल दुर्वासाजी के आ ने की बाट देखने लगे ॥ ४१ ॥ दुर्वासाजी आवश्यक कर्मों से निवृत्त होकर यमुनातट से लौट आये। जब राजाने आगे बढक़र उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजाने पारण कर लिया है ॥ ४२ ॥ उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजाने पारण कर लिया है, वे क्रोध से थर-थर काँप ने लगे। भौंहों के चढ़ जाने से उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोडक़र खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा ॥ ४३ ॥ ‘अहो ! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है ! यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भगवान की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी और यह अपने को बड़ा समर्थ मानता है। आज इस ने धर्म का उल्लङ्घन करके बड़ा अन्याय किया है ॥ ४४ ॥ देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इस ने अतिथि-सत्कार करने के लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ’ ॥ ४५ ॥ यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलय-काल की आग के समान दहक रही थी ॥ ४६ ॥ वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरों की धमक से पृथ्वी काँप रही थी। परंतु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे ॥ ४७ ॥ परमपुरुष परमात्माने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले से ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दुर्वासाजी की कृत्या को जलाकर राख का ढेर कर दिया ॥ ४८ ॥ जब दुर्वासाजी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचा ने के लिये जी छोडक़र एकाएक भाग निकले ॥ ४९ ॥ जैसे ऊँची-ऊँची लपटोंवाला दावानल साँप के पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान का चक्र उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा। जब दुर्वासाजी ने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वत की गुफा में प्रवेश करने के लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े ॥ ५० ॥ दुर्वासाजी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्ग तक में गये; परंतु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेजवाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा ॥ ५१ ॥ जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला, तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्माजी के पास गये और बोले— ‘ब्रह्माजी ! आप स्वयम्भू हैं। भगवान के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये’ ॥ ५२ ॥
ब्रह्माजी ने कहा—‘जब मेरी दो परार्ध की आयु समाप्त होगी और काल स्वरूप भगवान अपनी यह सृष्टि-लीला समेट ने लगेंगे और इस जगत को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभङ्गमात्र से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा ॥ ५३ ॥ मैं, शङ्करजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसार का हित करते हैं, (उनके भक्त के द्रोही को बचा ने के लिये हम समर्थ नहीं हैं)’ ॥ ५४ ॥ जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान के चक्र से संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान शङ्कर की शरण में गये ॥ ५५ ॥
श्रीमहादेवजी ने कहा—‘दुर्वासाजी ! जिन अनन्त परमेश्वर में ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्ड के समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समय पर पैदा होते हैं और समय आने पर फिर उनका पता भी नहीं चलता, जिन में हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं—उन प्रभु के सम्बन्ध में हम कुछ भी करने की सामथ्र्य नहीं रखते ॥ ५६ ॥ मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान ब्रह्मा, कपिलदेव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर—ये हम सभी भगवान की माया को नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी माया के घेरे में हैं ॥ ५७-५८ ॥ यह चक्र उन विश्वेश्वर का शस्त्र है। यह हमलोगों के लिये असह्य है। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे भगवान ही तुम्हारा मङ्गल करेंगे’ ॥ ५९ ॥ वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा भगवान के परमधाम वैकुण्ठ में गये। लक्ष्मीपति भगवान लक्ष्मी के साथ वहीं निवास करते हैं ॥ ६० ॥ दुर्वासाजी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे। वे काँपते हुए भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा—‘हे अच्युत ! हे अनन्त ! आप संतों के एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो ! विश्व के जीवनदाता ! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ६१ ॥ आपका परम प्रभाव न जान ने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है। प्रभो ! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नाम का ही उच्चारण करने से नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है’ ॥ ६२ ॥
श्रीभगवान ने कहा—दुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्तजन मुझ से प्यार करते हैं और मैं उनसे ॥ ६३ ॥ ब्रह्मन् ! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तों को छोडक़र मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अद्र्धाङ्गिनी विनाश- रहित लक्ष्मी को ॥ ६४ ॥ जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक—सब को छोडक़र केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोडऩे का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ? ॥ ६५ ॥ जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्य से सदाचारी पति को वश में कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदय को प्रेम-बन्धन से बाँध रखनेवाले समदर्शी साधु भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं ॥ ६६ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी भक्त सेवा से ही अपने को परिपूर्ण—कृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवा के फल स्वरूप जब उन्हें सालोक्य-सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समय के फेर से नष्ट हो जानेवाली वस्तुओं की तो बात ही क्या है ॥ ६७ ॥ दुर्वासाजी ! मैं आप से और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ॥ ६८ ॥ दुर्वासाजी ! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में पडऩा पड़ा है, आप उसी के पास जाइये। निरपराध साधुओं के अनिष्ट की चेष्टा से अनिष्ट करनेवाले का ही अमङ्गल होता है ॥ ६९ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परम कल्याण के साधन हैं। परंतु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाय, तो वे ही दोनों उलटा फल दे ने लगते हैं ॥ ७० ॥ दुर्वासाजी ! आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीष के पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी ॥ ७१ ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
एवं भगवताऽऽदिष्टो दुर्वासाश्चक्रतापितः ।
अम्बरीषमुपावृत्य तत्पादौ दुःखितोऽग्रहीत् ॥ १॥
तस्य सोद्यमनं वीक्ष्य पादस्पर्शविलज्जितः ।
अस्तावीत्तद्धरेरस्त्रं कृपया पीडितो भृशम् ॥ २॥
अम्बरीष उवाच
त्वमग्निर्भगवान् सूर्यस्त्वं सोमो ज्योतिषां पतिः ।
त्वमापस्त्वं क्षितिर्व्योम वायुर्मात्रेन्द्रियाणि च ॥ ३॥
सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युतप्रिय ।
सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते ॥ ४॥
त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोऽखिलयज्ञभुक् ।
त्वं लोकपालः सर्वात्मा त्वं तेजः पौरुषं परम् ॥ ५॥
नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवे
ह्यधर्मशीलासुरधूमकेतवे ।
त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसे
मनोजवायाद्भुतकर्मणे गृणे ॥ ६॥
त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहृतं
तमः प्रकाशश्च धृतो महात्मनाम् ।
दुरत्ययस्ते महिमा गिरां पते
त्वद्रूपमेतत्सदसत्परावरम् ॥ ७॥
यदा विसृष्टस्त्वमनञ्जनेन वै
बलं प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम् ।
बाहूदरोर्वङ्घ्रिशिरोधराणि
वृक्णन्नजस्रं प्रधने विराजसे ॥ ८॥
स त्वं जगत्त्राणखलप्रहाणये
निरूपितः सर्वसहो गदाभृता ।
विप्रस्य चास्मत्कुलदैवहेतवे
विधेहि भद्रं तदनुग्रहो हि नः ॥ ९॥
यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः ।
कुलं नो विप्रदैवं चेद्द्विजो भवतु विज्वरः ॥ १०॥
यदि नो भगवान् प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः ।
सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः ॥ ११॥
श्रीशुक उवाच
इति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम् ।
अशाम्यत्सर्वतो विप्रं प्रदहद्राजयाच्ञया ॥ १२॥
स मुक्तोऽस्त्राग्नितापेन दुर्वासाः स्वस्तिमांस्ततः ।
प्रशशंस तमुर्वीशं युञ्जानः परमाशिषः ॥ १३॥
दुर्वासा उवाच
अहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे ।
कृतागसोऽपि यद्राजन् मङ्गलानि समीहसे ॥ १४॥
दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् ।
यैः सङ्गृहीतो भगवान् सात्वतामृषभो हरिः ॥ १५॥
यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मलः ।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानामवशिष्यते ॥ १६॥
राजन्ननुगृहीतोऽहं त्वयातिकरुणात्मना ।
मदघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेऽभिरक्षिताः ॥ १७॥
राजा तमकृताहारः प्रत्यागमनकाङ्क्षया ।
चरणावुपसङ्गृह्य प्रसाद्य समभोजयत् ॥ १८॥
सोऽशित्वाऽऽदृतमानीतमातिथ्यं सार्वकामिकम् ।
तृप्तात्मा नृपतिं प्राह भुज्यतामिति सादरम् ॥ १९॥
प्रीतोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि तव भागवतस्य वै ।
दर्शनस्पर्शनालापैरातिथ्येनात्ममेधसा ॥ २०॥
कर्मावदातमेतत्ते गायन्ति स्वःस्त्रियो मुहुः ।
कीर्तिं परमपुण्यां च कीर्तयिष्यति भूरियम् ॥ २१॥
श्रीशुक उवाच
एवं सङ्कीर्त्य राजानं दुर्वासाः परितोषितः ।
ययौ विहायसामन्त्र्य ब्रह्मलोकमहैतुकम् ॥ २२॥
संवत्सरोऽत्यगात्तावद्यावता नागतो गतः ।
मुनिस्तद्दर्शनाकाङ्क्षो राजाब्भक्षो बभूव ह ॥ २३॥
गतेऽथ दुर्वाससि सोऽम्बरीषो
द्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत् ।
ऋषेर्विमोक्षं व्यसनं च बुद्ध्वा
मेने स्ववीर्यं च परानुभावम् ॥ २४॥
एवं विधानेकगुणः स राजा
परात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे ।
क्रियाकलापैः समुवाह भक्तिं
ययाऽऽविरिञ्च्यान्निरयांश्चकार ॥ २५॥
अथाम्बरीषस्तनयेषु राज्यं
समानशीलेषु विसृज्य धीरः ।
वनं विवेशात्मनि वासुदेवे
मनो दधद्ध्वस्तगुणप्रवाहः ॥ २६॥
इत्येतत्पुण्यमाख्यानमम्बरीषस्य भूपतेः ।
सङ्कीर्तयन्ननुध्यायन् भक्तो भगवतो भवेत् ॥ २७॥
(अम्बरीषस्य चरितं ये शृण्वन्ति महात्मनः ।
मुक्तिं प्रयान्ति ते सर्वे भक्त्या विष्णोः प्रसादतः ॥)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
वमस्कन्धे अम्बरीषचरितं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
नवम स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय
दुर्वासाजी की दु:खनिवृत्ति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब भगवान ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दु:खी होकर राजा के पैर पकड़ लिये ॥ १ ॥ दुर्वासाजी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकडऩे से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान के चक्र की स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीडि़त हो रहा था ॥ २ ॥
अम्बरीष ने कहा—प्रभो ! सुदर्शन ! आप अग्रि स्वरूप हैं। आप ही परम समर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डल के अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पञ्चतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियों के रूप में भी आप ही हैं ॥ ३ ॥ भगवान के प्यारे, हजार दाँतवाले चक्रदेव ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देनेवाले एवं पृथ्वी के रक्षक ! आप इन ब्राह्मण की रक्षा कीजिये ॥ ४ ॥ आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञों के अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकों के रक्षक एवं सर्वलोक स्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परामात्मा के श्रेष्ठ तेज हैं ॥ ५ ॥ सुनाभ ! आप समस्त धर्मों की मर्यादा के रक्षक हैं। अधर्म का आचरण करनेवाले असुरों को भस्म करने के लिये आप साक्षात अग्रि हैं। आप ही तीनों लोकों के रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मन के वेग के समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ ॥ ६ ॥ वेदवाणी के अधीश्वर ! आपके धर्ममय तेज से अन्धकार का नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषों के प्रकाश की रक्षा होती है। आपकी महिमा का पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़े के भेद-भाव से युक्त यह समस्त कार्यकारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है ॥ ७ ॥ सुदर्शन चक्र ! आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजन भगवान आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवों की सेना में प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमि में उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं ॥ ८ ॥ विश्व के रक्षक ! आप रणभूमि में सब का प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान ने दुष्टों के नाश के लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुल के भाग्योदय के लिये दुर्वासाजी का कल्याण कीजिये। हमारे ऊ पर यह आपका महान अनुग्रह होगा ॥ ९ ॥ यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्म का पालन किया हो, यदि हमारे वंश के लोग ब्राह्मणों को ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजी की जलन मिट जाय ॥ १० ॥ भगवान समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो दुर्वासाजी के हृदय की सारी जलन मिट जाय ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासाजी को सब ओर से जलानेवाले भगवान के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया ॥ १२ ॥ जब दुर्वासा चक्र की आग से मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीष को अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १३ ॥
दुर्वासाजी ने कहा—धन्य है ! आज मैंने भगवान के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा। राजन् ! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मङ्गलकामना ही कर रहे हैं ॥ १४ ॥ जिन्हों ने भक्तवत्सल भगवान श्रीहरि के चरणकमलों को दृढ़ प्रेमभाव से पकड़ लिया है—उन साधुपुरुषों के लिये कौन-सा कार्य कठिन है ? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तु का परित्याग नहीं कर सकते ? ॥ १५ ॥ जिनके मङ्गलमय नामों के श्रवणमात्र से जीव निर्मल हो जाता है—उन्हीं तीर्थपाद भगवान के चरणकमलों के जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है ? ॥ १६ ॥ महाराज अम्बरीष ! आपका हृदय करुणाभाव से परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊ पर महान अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराध को भुलाकर मेरे प्राणों की रक्षा की है ! ॥ १७ ॥
परीक्षित ! जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अब तक राजा अम्बरीष ने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौट ने की बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजी के चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया ॥ १८ ॥ राजा अम्बरीष बड़े आदर से अतिथि के योग्य सब प्रकार की भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदर से कहा—‘राजन् ! अब आप भी भोजन कीजिये ॥ १९ ॥ अम्बरीष ! आप भगवान के परम प्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मन को भगवान की ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्य से मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ ॥ २० ॥ स्वर्ग की देवाङ्गनाएँ बार-बार आपके इस उज्ज्वल चरित्र का गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परम पुण्यमयी कीर्ति का संकीर्तन करती रहेगी’ ॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—दुर्वासाजी ने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्ग से उस ब्रह्मलोक की यात्रा की, जो केवल निष्काम कर्म से ही प्राप्त होता है ॥ २२ ॥ परीक्षित ! जब सुदर्शन चक्र से भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटने तक एक वर्ष का समय बीत गया। इत ने दिनों तक राजा अम्बरीष उनके दर्शन की आकाङ्क्षा से केवल जल पीकर ही रहे ॥ २३ ॥ जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजन से बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्न का उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजी का दु:ख में पडऩा और फिर अपनी ही प्रार्थना से उनका छूटना—इन दोनों बातों को उन्होंने अपने द्वारा होने पर भी भगवान की ही महिमा समझा ॥ २४ ॥ राजा अम्बरीष में ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मों के द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान में भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्ति के प्रभाव से उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नरक के समान समझा ॥ २५ ॥ तदनन्तर राजा अम्बरीष ने अपने ही समान भक्त पुत्रों पर राज्य का भार छोड़ दिया और स्वयं वे वन में चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरता के साथ आत्म स्वरूप भगवान में अपना मन लगाकर गुणों के प्रवाहरूप संसार से मुक्त हो गये ॥ २६ ॥ परीक्षित ! महाराज अम्बरीष का यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका सङ्कीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान का भक्त हो जाता है ॥ २७ ॥
॥ षष्ठोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
विरूपः केतुमान् शम्भुरम्बरीषसुतास्त्रयः ।
विरूपात्पृषदश्वोऽभूत्तत्पुत्रस्तु रथीतरः ॥ १॥
रथीतरस्याप्रजस्य भार्यायां तन्तवेऽर्थितः ।
अङ्गिरा जनयामास ब्रह्मवर्चस्विनः सुतान् ॥ २॥
एते क्षेत्रे प्रसूता वै पुनस्त्वाङ्गिरसाः स्मृताः ।
रथीतराणां प्रवराः क्षत्रोपेता द्विजातयः ॥ ३॥
क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्घ्राणतः सुतः ।
तस्य पुत्रशतज्येष्ठा विकुक्षिनिमिदण्डकाः ॥ ४॥
तेषां पुरस्तादभवन्नार्यावर्ते नृपा नृप ।
पञ्चविंशतिः पश्चाच्च त्रयो मध्येऽपरेऽन्यतः ॥ ५॥
स एकदाष्टकाश्राद्धे इक्ष्वाकुः सुतमादिशत् ।
मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ मा चिरम् ॥ ६॥
तथेति स वनं गत्वा मृगान् हत्वा क्रियार्हणान् ।
श्रान्तो बुभुक्षितो वीरः शशं चाददपस्मृतिः ॥ ७॥
शेषं निवेदयामास पित्रे तेन च तद्गुरुः ।
चोदितः प्रोक्षणायाह दुष्टमेतदकर्मकम् ॥ ८॥
ज्ञात्वा पुत्रस्य तत्कर्म गुरुणाभिहितं नृपः ।
देशान्निःसारयामास सुतं त्यक्तविधिं रुषा ॥ ९॥
स तु विप्रेण संवादं जापकेन समाचरन् ।
त्यक्त्वा कलेवरं योगी स तेनावाप यत्परम् ॥ १०॥
पितर्युपरतेऽभ्येत्य विकुक्षिः पृथिवीमिमाम् ।
शासदीजे हरिं यज्ञैः शशाद इति विश्रुतः ॥ ११॥
पुरञ्जयस्तस्य सुत इन्द्रवाह इतीरितः ।
ककुत्स्थ इति चाप्युक्तः शृणु नामानि कर्मभिः ॥ १२॥
कृतान्त आसीत्समरो देवानां सह दानवैः ।
पार्ष्णिग्राहो वृतो वीरो देवैर्दैत्यपराजितैः ॥ १३॥
वचनाद्देवदेवस्य विष्णोर्विश्वात्मनः प्रभोः ।
वाहनत्वे वृतस्तस्य बभूवेन्द्रो महावृषः ॥ १४॥
स सन्नद्धो धनुर्दिव्यमादाय विशिखान्छितान् ।
स्तूयमानः समारुह्य युयुत्सुः ककुदि स्थितः ॥ १५॥
तेजसाऽऽप्यायितो विष्णोः पुरुषस्य परात्मनः ।
प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्यरुणत्त्रिदशैः पुरम् ॥ १६॥
तैस्तस्य चाभूत्प्रधनं तुमुलं लोमहर्षणम् ।
यमाय भल्लैरनयद्दैत्यान् येऽभिययुर्मृधे ॥ १७॥
तस्येषुपाताभिमुखं युगान्ताग्निमिवोल्बणम् ।
विसृज्य दुद्रुवुर्दैत्या हन्यमानाः स्वमालयम् ॥ १८॥
जित्वा पुरं धनं सर्वं सश्रीकं वज्रपाणये ।
प्रत्ययच्छत्स राजर्षिरिति नामभिराहृतः ॥ १९॥
पुरञ्जयस्य पुत्रोऽभूदनेनास्तत्सुतः पृथुः ।
विश्वगन्धिस्ततश्चन्द्रो युवनाश्वस्तु तत्सुतः ॥ २०॥
श्रावस्तस्तत्सुतो येन श्रावस्ती निर्ममे पुरी ।
बृहदश्वस्तु श्रावस्तिस्ततः कुवलयाश्वकः ॥ २१॥
यः प्रियार्थमुतङ्कस्य धुन्धुनामासुरं बली ।
सुतानामेकविंशत्या सहस्रैरहनद्वृतः ॥ २२॥
धुन्धुमार इति ख्यातस्तत्सुतास्ते च जज्वलुः ।
धुन्धोर्मुखाग्निना सर्वे त्रय एवावशेषिताः ॥ २३॥
दृढाश्वः कपिलाश्वश्च भद्राश्व इति भारत ।
दृढाश्वपुत्रो हर्यश्वो निकुम्भस्तत्सुतः स्मृतः ॥ २४॥
बर्हणाश्वो निकुम्भस्य कृशाश्वोऽथास्य सेनजित् ।
युवनाश्वोऽभवत्तस्य सोऽनपत्यो वनं गतः ॥ २५॥
भार्याशतेन निर्विण्ण ऋषयोऽस्य कृपालवः ।
इष्टिं स्म वर्तयांचक्रुरैन्द्रीं ते सुसमाहिताः ॥ २६॥
राजा तद्यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः ।
दृष्ट्वा शयानान् विप्रांस्तान् पपौ मन्त्रजलं स्वयम् ॥ २७॥
उत्थितास्ते निशाम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो ।
पप्रच्छुः कस्य कर्मेदं पीतं पुंसवनं जलम् ॥ २८॥
राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वरप्रहितेन ते ।
ईश्वराय नमश्चक्रुरहो दैवबलं बलम् ॥ २९॥
ततः काल उपावृत्ते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम् ।
युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवर्ती जजान ह ॥ ३०॥
कं धास्यति कुमारोऽयं स्तन्यं रोरूयते भृशम् ।
मां धाता वत्स मा रोदीरितीन्द्रो देशिनीमदात् ॥ ३१॥
न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादतः ।
युवनाश्वोऽथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात् ॥ ३२॥
त्रसद्दस्युरितीन्द्रोऽङ्ग विदधे नाम यस्य वै ।
यस्मात्त्रसन्ति ह्युद्विग्ना दस्यवो रावणादयः ॥ ३३॥
यौवनाश्वोऽथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभुः ।
सप्तद्वीपवतीमेकः शशासाच्युततेजसा ॥ ३४॥
ईजे च यज्ञं क्रतुभिरात्मविद्भूरिदक्षिणैः ।
सर्वदेवमयं देवं सर्वात्मकमतीन्द्रियम् ॥ ३५॥
द्रव्यं मन्त्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विजः ।
धर्मो देशश्च कालश्च सर्वमेतद्यदात्मकम् ॥ ३६॥
यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति ।
सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥ ३७॥
शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान्नृपः ।
पुरुकुत्समम्बरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम् ।
तेषां स्वसारः पञ्चाशत्सौभरिं वव्रिरे पतिम् ॥ ३८॥
यमुनान्तर्जले मग्नस्तप्यमानः परं तपः ।
निर्वृतिं मीनराजस्य वीक्ष्य मैथुनधर्मिणः ॥ ३९॥
जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यामेकामयाचत ।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे ॥ ४०॥
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयमसन्मतः ।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः ॥ ४१॥
साधयिष्ये तथाऽऽत्मानं सुरस्त्रीणामपीप्सितम् ।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणामिति व्यवसितः प्रभुः ॥ ४२॥
मुनिः प्रवेशितः क्षत्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत् ।
वृतः स राजकन्याभिरेकः पञ्चाशता वरः ॥ ४३॥
तासां कलिरभूद्भूयांस्तदर्थेऽपोह्य सौहृदम् ।
ममानुरूपो नायं व इति तद्गतचेतसाम् ॥ ४४॥
स बह्वृचस्ताभिरपारणीय-
तपःश्रियानर्घ्यपरिच्छदेषु ।
गृहेषु नानोपवनामलाम्भः-
सरःसु सौगन्धिककाननेषु ॥ ४५॥
महार्हशय्यासनवस्त्रभूषण-
स्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः ।
स्वलङ्कृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा
रेमेऽनुगायद्द्विजभृङ्गवन्दिषु ॥ ४६॥
यद्गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः ।
विस्मितः स्तम्भमजहात्सार्वभौमश्रियान्वितम् ॥ ४७॥
एवं गृहेष्वभिरतो विषयान् विविधैः सुखैः ।
सेवमानो न चातुष्यदाज्यस्तोकैरिवानलः ॥ ४८॥
स कदाचिदुपासीन आत्मापह्नवमात्मनः ।
ददर्श बह्वृचाचार्यो मीनसङ्गसमुत्थितम् ॥ ४९॥
अहो इमं पश्यत मे विनाशं
तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य ।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गा-
त्प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत् ॥ ५०॥
सङ्गं त्यजेत मिथुनव्रतिनां मुमुक्षुः
सर्वात्मना न विसृजेद्बहिरिन्द्रियाणि ।
एकश्चरन् रहसि चित्तमनन्त ईशे
युञ्जीत तद्व्रतिषु साधुषु चेत्प्रसङ्गः ॥ ५१॥
एकस्तपस्व्यहमथाम्भसि मत्स्य-
सङ्गात्पञ्चाशदासमुत पञ्चसहस्रसर्गः ।
नान्तं व्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानां
मायागुणैर्हृतमतिर्विषयेऽर्थभावः ॥ ५२॥
एवं वसन् गृहे कालं विरक्तो न्यासमास्थितः ।
वनं जगामानुययुस्तत्पत्न्यः पतिदेवताः ॥ ५३॥
तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णमात्मदर्शनमात्मवान् ।
सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि ॥ ५४॥
ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिकीं गतिम् ।
अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शान्तमिवार्चिषः ॥ ५५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे सौभर्याख्याने षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
नवम स्कन्ध-छठा अध्याय
इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अम्बरीष के तीन पुत्र थे—विरूप, केतुमान् और शम्भु। विरूप से पृषदश्व और उसका पुत्र रथीतर हुआ ॥ १ ॥ रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्परा की रक्षा के लिये उसने अङ्गिरा ऋषि से प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नी से ब्रह्मतेज से सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ यद्यपि ये सब रथीतर की भार्या से उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था जो रथीतर का था, फिर भी वे आङ्गिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियों के प्रवर (कुल में सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे—क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रों से इनका सम्बन्ध था ॥ ३ ॥
परीक्षित ! एक बार मनुजी के छींकने पर उनकी नासिका से इक्ष्वाकु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे। उनमें सब से बड़े तीन थे—विकुक्षि, निमि और दण्डक ॥ ४ ॥ परीक्षित ! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्त के पूर्वभाग के और पचीस पश्चिमभाग के तथा उपर्युक्त तीन मध्यभाग के अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तों के अधिपति हुए ॥ ५ ॥ एक बार राजा इक्ष्वाकु ने अष्टका-श्राद्ध के समय अपने बड़े पुत्र को आज्ञा दी—‘विकुक्षे ! शीघ्र ही जाकर श्राद्ध के योग्य पवित्र पशुओं का मांस लाओ’ ॥ ६ ॥ वीर विकुक्षि ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वन की यात्रा की। वहाँ उसने श्राद्ध के योग्य बहुत- से पशुओं का शिकार किया। वह थक तो गया ही था, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्ध के लिये मारे हुए पशु को स्वयं न खाना चाहिये। उसने एक खरगोश खा लिया ॥ ७ ॥ विकुक्षि ने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिता को दिया। इक्ष्वाकु ने अब अपने गुरु से उसे प्रोक्षण करने के लिये कहा, तब गुरुजी ने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्ध के अयोग्य है ॥ ८ ॥ परीक्षित ! गुरुजी के कहने पर राजा इक्ष्वाकु को अपने पुत्र की करतूत का पता चल गया। उन्होंने शास्त्रीय विधि का उल्लङ्घन करनेवाले पुत्र को क्रोधवश अपने देश से निकाल दिया ॥ ९ ॥ तदनन्तर राजा इक्ष्वाकु ने अपने गुरुदेव वसिष्ठ से ज्ञानविषयक चर्चा की। फिर योग के द्वारा शरीर का परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया ॥ १० ॥ पिता का देहान्त हो जाने पर विकुक्षि अपनी राजधानी में लौट आया और इस पृथ्वी का शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञों से भगवान की आराधना की और संसार में शशाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ११ ॥ विकुक्षि के पुत्र का नाम था पुरञ्जय। उसी को कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘ककुत्स्थ’ कहते हैं। जिन कर्मों के कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो ॥ १२ ॥
सत्ययुग के अन्त में देवताओं का दानवों के साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्यों से हार गये। तब उन्होंने वीर पुरञ्जय को सहायता के लिये अपना मित्र बनाया ॥ १३ ॥ पुरञ्जय ने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें, तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्र ने अस्वीकार कर दिया, परंतु देवताओं के आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये ॥ १४ ॥ सर्वान्तर्यामी भगवान विष्णु ने अपनी शक्ति से पुरञ्जय को भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैल पर चढक़र वे उसके ककुद् (डील) के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्ध के लिये तत्पर हुए, तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओं को साथ लेकर उन्होंने पश्चिम की ओर से दैत्यों का नगर घेर लिया ॥ १५-१६ ॥ वीर पुरञ्जय का दैत्यों के साथ अत्यन्त रोमाञ्चकारी घोर संग्राम हुआ। युद्ध में जो-जो दैत्य उनके सामने आये, पुरञ्जय ने बाणों के द्वारा उन्हें यमराज के हवाले कर दिया ॥ १७ ॥ उनके बाणों की वर्षा क्या थी, प्रलयकाल की धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता। दैत्यों का साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोडक़र अपने-अपने घरों में घुस गये ॥ १८ ॥ पुरञ्जय ने उनका नगर, धन और ऐश्वर्य—सब कुछ जीतकर इन्द्र को दे दिया। इसीसे उन राजर्षि को पुर जीत ने के कारण ‘पुरञ्जय’, इन्द्र को वाहन बनाने के कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैल के ककुद् पर बैठ ने के कारण ‘ककुत्स्थ’ कहा जाता है ॥ १९ ॥
पुरञ्जय का पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथु के विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्र के युवनाश्व ॥ २० ॥ युवनाश्व के पुत्र हुए शाबस्त, जिन्हों ने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्त के बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए ॥ २१ ॥ ये बड़े बली थे। इन्हों ने उतङ्क ऋषि को प्रसन्न करने के लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रों को साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्य का वध किया ॥ २२ ॥ इसीसे उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्य के मुख की आग से उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे ॥ २३ ॥ परीक्षित ! बचे हुए पुत्रों के नाम थे—दृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व। दृढाश्व से हर्यश्व और उससे निकुम्भ का जन्म हुआ ॥ २४ ॥ निकुम्भ के बहर्णाश्व, उनके कृशाश्व, कृशाश्व के सेनजित् और सेनजित् के युवनाश्व नामक पुत्र हुआ। युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दु:खी होकर अपनी सौ स्त्रियों के साथ वन में चला गया। वहाँ ऋषियों ने बड़ी कृपा करके युवनाश्व से पुत्रप्राप्ति के लिये बड़ी एकाग्रता के साथ इन्द्रदेवता का यज्ञ कराया ॥ २५-२६ ॥ एक दिन राजा युवनाश्व को रात्रि- के समय बड़ी प्यास लगी। वह यज्ञशाला में गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषिलोग तो सो रहे हैं। तब जल मिल ने का और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्र से अभिमन्त्रित जल ही पी लिया ॥ २७ ॥ परीक्षित ! जब प्रात:काल ऋषिलोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलश में तो जल ही नहीं है, तब उन लोगों ने पूछा कि ‘यह किस का काम है ? पुत्र उत्पन्न करनेवाला जल किस ने पी लिया ?’ ॥ २८ ॥ अन्त में जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान की प्रेरणा से राजा युवनाश्व ने ही उस जल को पी लिया है, तो उन लोगों ने भगवान के चरणों में नमस्कार किया और कहा—‘धन्य है ! भगवान का बल ही वास्तव में बल है’ ॥ २९ ॥ इसके बाद प्रसव का समय आने पर युवनाश्व की दाहिनी कोख फाडक़र उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ३० ॥ उसे रोते देख ऋषियों ने कहा—‘यह बालक दूध के लिये बहुत रो रहा है; अत: किस का दूध पियेगा ?’ तब इन्द्र ने कहा, ‘मेरा पियेगा’ ‘(मां धाता)’ ‘बेटा ! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्र ने अपनी तर्जनी अँगुली उसके मुँहमें डाल दी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मण और देवताओं के प्रसाद से उस बालक के पिता युवनाश्व की भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया ॥ ३२ ॥ परीक्षित ! इन्द्र ने उस बालक का नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्र एवं भयभीत रहते थे ॥ ३३ ॥ युवनाश्व के पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान के तेज से तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीपवाली पृथ्वी का शासन किया ॥ ३४ ॥ वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्म-काण्ड की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी—फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से उन यज्ञ स्वरूप प्रभु की आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेव स्वरूप, सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं ॥ ३५ ॥ भगवान के अतिरिक्त और है ही क्या ? यज्ञ की सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज्, धर्म, देश और काल—यह सब-का-सब भगवान का ही स्वरूप तो है ॥ ३६ ॥ परीक्षित ! जहाँ से सूर्य का उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते हैं, वह सारा-का-सारा भूभाग युवनाश्व के पुत्र मान्धाता के ही अधिकार में था ॥ ३७ ॥
राजा मान्धाता की पत्नी शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भ से उनके तीन पुत्र हुए—पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द। इन की पचास बहनें थीं। उन पचासों ने अकेले सौभरि ऋषि को पति के रूप में वरण किया ॥ ३८ ॥ परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजल में डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियों के साथ बहुत सुखी हो रहा है ॥ ३९ ॥ उसके इस सुख को देखकर ब्राह्मण सौभरि के मन में भी विवाह करने की इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाता के पास आकर उनकी पचास कन्याओं में से एक कन्या माँगी। राजाने कहा—‘ब्रह्मन् ! कन्या स्वयंवर में आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये’ ॥ ४० ॥ सौभरि ऋषि राजा मान्धाता का अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि ‘राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँप ने लगा है। अब कोई स्त्री मुझ से प्रेम नहीं कर सकती ॥ ४१ ॥ अच्छी बात है । मैं अपने को ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवाङ्गनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायँगी।’ ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजी ने वैसा ही किया ॥ ४२ ॥
फिर क्या था, अन्त:पुर के रक्षक ने सौभरि मुनि को कन्याओं के सजे-सजाये महल में पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओं ने एक सौभरि को ही अपना पति चुन लिया ॥ ४३ ॥ उन कन्याओं का मन सौभरिजी में इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपसके प्रेमभाव को तिलाञ्जलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरी से कह ने लगीं कि ‘ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं’ ॥ ४४ ॥ ऋग्वेदी सौभरि ने उन सभी का पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्या के प्रभाव से बहुमूल्य सामग्रियों से सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जल से परिपूर्ण सरोवरों से युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पों के बगीचों से घिरे महलों में बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्पमालाओं के द्वारा अपनी पत्नियों के साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवा में लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते, तो कहीं भौंरे गुंजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावली का बखान करते रहते ॥ ४५-४६ ॥ सप्तद्वीपवती पृथ्वी के स्वामी मान्धाता सौभरिजी की इस गृहस्थी का सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि, मैं सार्वभौम सम्पत्ति का स्वामी हूँ, जाता रहा ॥ ४७ ॥ इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थी के सुख में रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियों से अनेकों विषयों का सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घी की बूँदों से आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ ॥ ४८ ॥
ऋग्वेदाचार्य सौभरिजी एक दिन स्वस्थ चित्त से बैठे हुए थे। उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराज के क्षणभर के सङ्ग से मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपा तक खो बैठा ॥ ४९ ॥ वे सोच ने लगे— ‘अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मैंने भलीभाँति अपने व्रतों का अनुष्ठान भी किया था। मेरा यह अध:पतन तो देखो ! मैंने दीर्घकाल से अपने ब्रह्मतेज को अक्षुण्ण रखा था, परंतु जल के भीतर विहार करती हुई एक मछली के संसर्ग से मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया ॥ ५० ॥ अत: जिसे मोक्ष की इच्छा है, उस पुरुष को चाहिये कि वह भोगी प्राणियों का सङ्ग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षण के लिये भी अपनी इन्द्रियों को बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्त में अपने चित्त को सर्वशक्तिमान् भगवान में ही लगा दे। यदि सङ्ग करने की आवश्यकता ही हो तो भगवान के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओं का ही सङ्ग करे ॥ ५१ ॥ मैं पहले एकान्त में अकेला ही तपस्या में संलग्र था। फिर जल में मछली का सङ्ग होने से विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानों के रूप में पाँच हजार। विषयों में सत्यबुद्धि होने से माया के गुणों ने मेरी बुद्धि हर ली। अब तो लोक और परलोक के सम्बन्ध में मेरा मन इतनी लालसाओं से भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता ॥ ५२ ॥ इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनों तक तो घर में ही रहे। फिर विरक्त होकर उन्होंने संन्यास ले लिया और वे वन में चले गये। अपने पति को ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पत्नियों ने भी उनके साथ ही वन की यात्रा की ॥ ५३ ॥ वहाँ जाकर परम संयमी सौभरिजी ने बड़ी घोर तपस्या की, शरीर को सुखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्रियों के साथ ही अपने-आपको परमात्मा में लीन कर दिया ॥ ५४ ॥ परीक्षित ! उनकी पत्नियों ने जब अपने पति सौभरि मुनि की आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्रि में लीन हो जाती हैं—वैसे ही वे उनके प्रभाव से सती होकर उन्हीं में लीन हो गयीं, उन्हीं की गति को प्राप्त हुर्ईं ॥ ५५ ॥
॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
मान्धातुः पुत्रप्रवरो योऽम्बरीषः प्रकीर्तितः ।
पितामहेन प्रवृतो यौवनाश्वश्च तत्सुतः ।
हारीतस्तस्य पुत्रोऽभून्मान्धातृप्रवरा इमे ॥ १॥
नर्मदा भ्रातृभिर्दत्ता पुरुकुत्साय योरगैः ।
तया रसातलं नीतो भुजगेन्द्रप्रयुक्तया ॥ २॥
गन्धर्वानवधीत्तत्र वध्यान् वै विष्णुशक्तिधृक् ।
नागाल्लब्धवरः सर्पादभयं स्मरतामिदम् ॥ ३॥
त्रसद्दस्युः पौरुकुत्सो योऽनरण्यस्य देहकृत् ।
हर्यश्वस्तत्सुतस्तस्मादरुणोऽथ त्रिबन्धनः ॥ ४॥
तस्य सत्यव्रतः पुत्रस्त्रिशङ्कुरिति विश्रुतः ।
प्राप्तश्चाण्डालतां शापाद्गुरोः कौशिकतेजसा ॥ ५॥
सशरीरो गतः स्वर्गमद्यापि दिवि दृश्यते ।
पातितोऽवाक्शिरा देवैस्तेनैव स्तम्भितो बलात् ॥ ६॥
त्रैशङ्कवो हरिश्चन्द्रो विश्वामित्रवसिष्ठयोः ।
यन्निमित्तमभूद्युद्धं पक्षिणोर्बहुवार्षिकम् ॥ ७॥
सोऽनपत्यो विषण्णात्मा नारदस्योपदेशतः ।
वरुणं शरणं यातः पुत्रो मे जायतां प्रभो ॥ ८॥
यदि वीरो महाराज तेनैव त्वां यजे इति ।
तथेति वरुणेनास्य पुत्रो जातस्तु रोहितः ॥ ९॥
जातःसुतो ह्यनेनाङ्ग मां यजस्वेति सोऽब्रवीत् ।
यदा पशुर्निर्दशः स्यादथ मेध्यो भवेदिति ॥ १०॥
निर्दशे च स आगत्य यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत् ।
दन्ताः पशोर्यज्जायेरन्नथ मेध्यो भवेदिति ॥ ११॥
जाता दन्ता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत् ।
यदा पतन्त्यस्य दन्ता अथ मेध्यो भवेदिति ॥ १२॥
पशोर्निपतिता दन्ता यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत् ।
यदा पशोः पुनर्दन्ता जायन्तेऽथ पशुः शुचिः ॥ १३॥
पुनर्जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत् ।
सान्नाहिको यदा राजन् राजन्योऽथ पशुः शुचिः ॥ १४॥
इति पुत्रानुरागेण स्नेहयन्त्रितचेतसा ।
कालं वञ्चयता तं तमुक्तो देवस्तमैक्षत ॥ १५॥
रोहितस्तदभिज्ञाय पितुः कर्म चिकीर्षितम् ।
प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिररण्यं प्रत्यपद्यत ॥ १६॥
पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्वा जातमहोदरम् ।
रोहितो ग्राममेयाय तमिन्द्रः प्रत्यषेधत ॥ १७॥
भूमेः पर्यटनं पुण्यं तीर्थक्षेत्रनिषेवणैः ।
रोहितायादिशच्छक्रः सोऽप्यरण्येऽवसत्समाम् ॥ १८॥
एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमे तथा ।
अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाऽऽह वृत्रहा ॥ १९॥
षष्ठं संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहितः पुरीम् ।
उपव्रजन्नजीगर्तादक्रीणान्मध्यमं सुतम् ॥ २०॥
शुनःशेफं पशुं पित्रे प्रदाय समवन्दत ।
ततः पुरुषमेधेन हरिश्चन्द्रो महायशाः ॥ २१॥
मुक्तोदरोऽयजद्देवान् वरुणादीन् महत्कथः ।
विश्वामित्रोऽभवत्तस्मिन् होता चाध्वर्युरात्मवान् ॥ २२॥
जमदग्निरभूद्ब्रह्मा वसिष्ठोऽयास्यसामगः ।
तस्मै तुष्टो ददाविन्द्रः शातकौम्भमयं रथम् ॥ २३॥
शुनःशेफस्य माहात्म्यमुपरिष्टात्प्रचक्ष्यते ।
सत्यसारां धृतिं दृष्ट्वा सभार्यस्य च भूपतेः ॥ २४॥
विश्वामित्रो भृशं प्रीतो ददावविहतां गतिम् ।
मनः पृथिव्यां तामद्भिस्तेजसापोऽनिलेन तत् ॥ २५॥
खे वायुं धारयंस्तच्च भूतादौ तं महात्मनि ।
तस्मिन् ज्ञानकलां ध्यात्वा तयाज्ञानं विनिर्दहन् ॥ २६॥
हित्वा तां स्वेन भावेन निर्वाणसुखसंविदा ।
अनिर्देश्याप्रतर्क्येण तस्थौ विध्वस्तबन्धनः ॥ २७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे हरिश्चन्द्रोपाख्यानं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥
नवम स्कन्ध-सातवाँ अध्याय
राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्र की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मैं वर्णन कर चु का हूँ कि मान्धाता के पुत्रों में सब से श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्व ने उन्हें पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्व का हारीत। मान्धाता के वंश में ये तीन अवान्तर गोत्रों के प्रवर् तक हुए ॥ १ ॥ नागों ने अपनी बहिन नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स से कर दिया था। नागराज वासुकि की आज्ञा से नर्मदा अपने पति को रसातल में ले गयी ॥ २ ॥ वहाँ भगवान की शक्ति से सम्पन्न होकर पुरुकुत्स ने वध करनेयोग्य गन्धर्वों को मार डाला। इस पर नागराज ने प्रसन्न होकर पुरुकुत्स को वर दिया कि जो इस प्रसङ्ग का स्मरण करेगा, वह सर्पों से निर्भय हो जायगा ॥ ३ ॥ राजा पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य। अनरण्य के हर्यश्व, उसके अरुण और अरुण के त्रिबन्धन हुए ॥ ४ ॥ त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत त्रिशङ्कु के नाम से विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशङ्कु अपने पिता और गुरु के शाप से चाण्डाल हो गये थे, परंतु विश्वामित्रजी के प्रभाव से वे सशरीर स्वर्ग में चले गये। देवताओं ने उन्हें वहाँ से ढकेल दिया और वे नीचे को सिर किये हुए गिर पड़े; परंतु विश्वामित्रजी ने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाश में लट के हुए दीखते हैं ॥ ५-६ ॥
त्रिशङ्कु के पुत्र थे हरिश्चन्द्र। उनके लिए विश्वामित्र और वसिष्ठ एक-दूसरे को शाप देकर पक्षी हो गये और बहुत वर्षों तक लड़ते रहे ॥ ७ ॥ हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारद के उपदेश से वे वरुणदेवता की शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो ! मुझे पुत्र प्राप्त हो ॥ ८ ॥ महाराज ! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसी से आपका यजन करूँगा।’ वरुण ने कहा—‘ठीक है।’ तब वरुण की कृपा से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ ॥ ९ ॥ पुत्र होते ही वरुण ने आकर कहा—‘हरिश्चन्द्र ! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा—‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिन से अधिक का हो जायगा, तब यज्ञ के योग्य होगा’ ॥ १० ॥ दस दिन बीतने पर वरुण ने आकर फिर कहा—‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा—‘जब आपके यज्ञपशु के मुँहमें दाँत निकल आयँगे, तब वह यज्ञ के योग्य होगा’ ॥ ११ ॥ दाँत उग आने पर वरुण ने कहा—‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा—‘जब इसके दूध के दाँत गिर जायँगे, तब यह यज्ञ के योग्य होगा’ ॥ १२ ॥ दूध के दाँत गिर जाने पर वरुण ने कहा—‘अब इस यज्ञपशु के दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा—‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायँगे, तब यह पशु यज्ञ के योग्य हो जायगा’ ॥ १३ ॥ दाँतों के फिर उग आने पर वरुण ने कहा—‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा—‘वरुणजी महाराज ! क्षत्रिय पशु तब यज्ञ के योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे’ ॥ १४ ॥ परीक्षित ! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्र के प्रेम से हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके हृदय को जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुणदेवता उसी की बाट देखते ॥ १५ ॥ जब रोहित को इस बात का पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये हाथ में धनुष लेकर वन में चला गया ॥ १६ ॥ कुछ दिन के बाद उसे मालूम हुआ कि वरुणदेवता ने रुष्ट होकर मेरे पिताजी पर आक्रमण किया है—जिसके कारण वे महोदर रोग से पीडि़त हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगर की ओर चल पड़ा। परंतु इन्द्र ने आकर उसे रोक दिया ॥ १७ ॥ उन्होंने कहा—‘बेटा रोहित ! यज्ञपशु बनकर मर ने की अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रों का सेवन करते हुए पृथ्वी में विचरना ही अच्छा है।’ इन्द्र की बात मानकर वह एक वर्ष तक और वन में ही रहा ॥ १८ ॥ इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहित ने अपने पिता के पास जाने का विचार किया; परंतु बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते ॥ १९ ॥ इस प्रकार छ: वर्ष तक रोहित वन में ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगर को लौट ने लगा, तब उसने अजीगर्त से उनके मझले पुत्र शुन: शेप को मोल ले लिया और उसे यज्ञपशु बनाने के लिये अपने पिता को सौंपकर उनके चरणों में नमस्कार किया। तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्रवाले राजा हरिश्चन्द्र ने महोदर रोग से छूटकर पुरुषमेध यज्ञ द्वारा वरुण आदि देवताओं का यजन किया। उस यज्ञ में विश्वामित्रजी होता हुए। परम संयमी जमदग्रि ने अध्वर्यु का काम किया। वसिष्ठजी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि सामगान करनेवाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्र ने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्र को एक सो ने का रथ दिया था ॥ २०—२३ ॥
परीक्षित ! आगे चलकर मैं शुन:शेप का माहात्म्य वर्णन करूँगा। हरिश्चन्द्र को अपनी पत्नी के साथ सत्य में दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञान का उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मन को पृथ्वी में, पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में स्थिर करके, आकाश को अहंकार में लीन कर दिया। फिर अहंकार को महत्तत्त्व में लीन करके उसमें ज्ञान-कला का ध्यान किया और उससे अज्ञान को भस्म कर दिया ॥ २४—२६ ॥ इसके बाद निर्वाण-सुख की अनुभूति से उस ज्ञान-कला का भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनों से मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूप में स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का अनुमान ही किया जा सकता है ॥ २७ ॥
॥ अष्टमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
हरितो रोहितसुतश्चम्पस्तस्माद्विनिर्मिता ।
चम्पापुरी सुदेवोऽतो विजयो यस्य चात्मजः ॥ १॥
भरुकस्तत्सुतस्तस्माद्वृकस्तस्यापि बाहुकः ।
सोऽरिभिर्हृतभू राजा सभार्यो वनमाविशत् ॥ २॥
वृद्धं तं पञ्चतां प्राप्तं महिष्यनुमरिष्यती ।
और्वेण जानताऽऽत्मानं प्रजावन्तं निवारिता ॥ ३॥
आज्ञायास्यै सपत्नीभिर्गरो दत्तोऽन्धसा सह ।
सह तेनैव सञ्जातः सगराख्यो महायशाः ॥ ४॥
सगरश्चक्रवर्त्यासीत्सागरो यत्सुतैः कृतः ।
यस्तालजङ्घान् यवनाञ्छकान् हैहयबर्बरान् ॥ ५॥
नावधीद्गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः ।
मुण्डान् श्मश्रुधरान् कांश्चिन्मुक्तकेशार्धमुण्डितान् ॥ ६॥
अनन्तर्वाससः कांश्चिदबहिर्वाससोऽपरान् ।
सोऽश्वमेधैरयजत सर्ववेदसुरात्मकम् ॥ ७॥
और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमीश्वरम् ।
तस्योत्सृष्टं पशुं यज्ञे जहाराश्वं पुरन्दरः ॥ ८॥
सुमत्यास्तनया दृप्ताः पितुरादेशकारिणः ।
हयमन्वेषमाणास्ते समन्तान्न्यखनन् महीम् ॥ ९॥
प्रागुदीच्यां दिशि हयं ददृशुः कपिलान्तिके ।
एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचनः ॥ १०॥
हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिणः ।
उदायुधा अभिययुरुन्मिमेष तदा मुनिः ॥ ११॥
स्वशरीराग्निना तावन्महेन्द्रहृतचेतसः ।
महद्व्यतिक्रमहता भस्मसादभवन् क्षणात् ॥ १२॥
न साधुवादो मुनिकोपभर्जिता
नृपेन्द्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि ।
कथं तमो रोषमयं विभाव्यते
जगत्पवित्रात्मनि खे रजो भुवः ॥ १३॥
यस्येरिता साङ्ख्यमयी दृढेह नौर्यया
मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम् ।
भवार्णवं मृत्युपथं विपश्चितः
परात्मभूतस्य कथं पृथङ्मतिः ॥ १४॥
योऽसमञ्जस इत्युक्तः स केशिन्या नृपात्मजः ।
तस्य पुत्रोंऽशुमान् नाम पितामहहिते रतः ॥ १५॥
असमञ्जस आत्मानं दर्शयन्नसमञ्जसम् ।
जातिस्मरः पुरा सङ्गाद्योगी योगाद्विचालितः ॥ १६॥
आचरन् गर्हितं लोके ज्ञातीनां कर्म विप्रियम् ।
सरय्वां क्रीडतो बालान् प्रास्यदुद्वेजयन् जनम् ॥ १७॥
एवंवृत्तः परित्यक्तः पित्रा स्नेहमपोह्य वै ।
योगैश्वर्येण बालांस्तान् दर्शयित्वा ततो ययौ ॥ १८॥
अयोध्यावासिनः सर्वे बालकान् पुनरागतान् ।
दृष्ट्वा विसिस्मिरे राजन् राजा चाप्यन्वतप्यत ॥ १९॥
अंशुमांश्चोदितो राज्ञा तुरङ्गान्वेषणे ययौ ।
पितृव्यखातानुपथं भस्मान्ति ददृशे हयम् ॥ २०॥
तत्रासीनं मुनिं वीक्ष्य कपिलाख्यमधोक्षजम् ।
अस्तौत्समाहितमनाः प्राञ्जलिः प्रणतो महान् ॥ २१॥
अंशुमानुवाच
न पश्यति त्वां परमात्मनोऽजनो
न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः ।
कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधी-
विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः ॥ २२॥
ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना
गुणान् विपश्यन्त्युत वा तमश्च ।
यन्मायया मोहितचेतसस्ते
विदुः स्वसंस्थं न बहिःप्रकाशाः ॥ २३॥
तं त्वामहं ज्ञानघनं स्वभाव-
प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः ।
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं
कथं हि मूढः परिभावयामि ॥ २४॥
प्रशान्तमायागुणकर्मलिङ्ग-
मनामरूपं सदसद्विमुक्तम् ।
ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं
नमामहे त्वां पुरुषं पुराणम् ॥ २५॥
त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु ।
भ्रमन्ति कामलोभेर्ष्यामोहविभ्रान्तचेतसः ॥ २६॥
अद्य नः सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः ।
मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात् ॥ २७॥
श्रीशुक उवाच
इत्थं गीतानुभावस्तं भगवान् कपिलो मुनिः ।
अंशुमन्तमुवाचेदमनुगृह्य धिया नृप ॥ २८॥
श्रीभगवानुवाच
अश्वोऽयं नीयतां वत्स पितामहपशुस्तव ।
इमे च पितरो दग्धा गङ्गाम्भोऽर्हन्ति नेतरत् ॥ २९॥
तं परिक्रम्य शिरसा प्रसाद्य हयमानयत् ।
सगरस्तेन पशुना क्रतुशेषं समापयत् ॥ ३०॥
राज्यमंशुमते न्यस्य निःस्पृहो मुक्तबन्धनः ।
और्वोपदिष्टमार्गेण लेभे गतिमनुत्तमाम् ॥ ३१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे सगरोपाख्याने अष्ठमोऽध्यायः ॥ ८॥
नवम स्कन्ध-आठवाँ अध्याय
सगर-चरित्र
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रोहित का पुत्र था हरित। हरित से चम्प हुआ। उसी ने चम्पापुरी बसायी थी। चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ ॥ १ ॥ विजय का भरुक, भरुक का वृक और वृक का पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओं ने बाहुक से राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया ॥ २ ॥ वन में जाने पर बुढ़ापे के कारण जब बाहुक की मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होने को उद्यत हुई। परंतु महर्षि और्व को यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होने से रोक दिया ॥ ३ ॥ जब उसकी सौतों को यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने उसे भोजन के साथ गर (विष) दे दिया। परंतु गर्भ पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विष को लिये हुए ही एक बालक का जन्म हुआ, जो गर के साथ पैदा होने के कारण ‘सगर’ कहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए ॥ ४ ॥
सगर चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्हींके पुत्रों ने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगर ने अपने गुरुदेव और्व की आज्ञा मानकर तालजङ्घ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जाति के लोगों का वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया। उनमें से कुछ के सिर मुड़वा दिये, कुछ के मूँछ-दाढ़ी रखवा दी, कुछ को खुले बालोंवाला बना दिया तो कुछ को आधा मुँड़वा दिया ॥ ५-६ ॥ कुछ लोगों को सगर ने केवल वस्त्र ओढऩे की ही आज्ञा दी, पहन ने की नहीं। और कुछ को केवल लँगोटी पहन ने को ही कहा, ओढऩे को नहीं। इसके बाद राजा सगर ने और्व ऋषि के उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ के द्वारा सम्पूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्म स्वरूप, सर्वशक्तिमान् भगवान की आराधना की। उसके यज्ञ में जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्र ने चुरा लिया ॥ ७-८ ॥ उस समय महारानी सुमति के गर्भ से उत्पन्न सगर के पुत्रों ने अपने पिता के आज्ञानुसार घोड़े के लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने बड़े घमंड से सब ओर से पृथ्वी को खोद डाला ॥ ९ ॥ खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तर के कोने पर कपिल मुनि के पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़े को देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि ‘यही हमारे घोड़े को चुरानेवाला चोर है। देखो तो सही, इस ने इस समय कैसे आँखें मूँद रखी हैं ! यह पापी है। इस को मार डालो, मार डालो !’ उसी समय कपिल मुनि ने अपनी पलकें खोलीं ॥ १०-११ ॥ इन्द्र ने राजकुमारों की बुद्धि हर ली थी, इसीसे उन्होंने कपिलमुनि-जैसे महापुरुष का तिरस्कार किया। इस तिरस्कार के फल स्वरूप उनके शरीर में ही आग जल उठी, जिससे क्षणभर में ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये ॥ १२ ॥ परीक्षित ! सगर के लडक़े कपिलमुनि के क्रोध से जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुण के परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत को पवित्र करता रहता है। उनमें भला, क्रोधरूप तमोगुण की सम्भावना कैसे की जा सकती है। भला, कहीं पृथ्वी की धूल का भी आकाश से सम्बन्ध होता है ? ॥ १३ ॥ यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परंतु कपिलमुनि ने इस जगत में सांख्यशास्त्र की एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है, जिससे मुक्ति की इच्छा रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्र के पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला यह शत्रु है और यह मित्र—इस प्रकार की भेदबुद्धि कैसे हो सकती है ? ॥ १४ ॥
सगर की दूसरी पत्नी का नाम था केशिनी। उसके गर्भ से उन्हें असमञ्जस नाम का पुत्र हुआ था। असमञ्जसके पुत्र का नाम था अंशुमान्। वह अपने दादा सगर की आज्ञाओं के पालन तथा उन्हीं की सेवा में लगा रहता ॥ १५ ॥ असमञ्जस पहले जन्म में योगी थे। सङ्ग के कारण वे योग से विचलित हो गये थे, परंतु अब भी उन्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण बना हुआ था। इसलिये वे ऐसे काम किया करते थे, जिन से भाई-बन्धु उन्हें प्रिय न समझें। वे कभी-कभी तो अत्यन्त निन्दित कर्म कर बैठते और अपने को पागल-सा दिखलाते—यहाँ तक कि खेलते हुए बच्चों को सरयू में डाल देते ! इस प्रकार उन्होंने लोगों को उद्विग्र कर दिया था ॥ १६-१७ ॥ अन्त में उनकी ऐसी करतूत देखकर पिता ने पुत्र-स्नेह को तिलाञ्जलि दे दी और उन्हें त्याग दिया। तदनन्तर असमञ्जस ने अपने योगबल से उन सब बालकों को जीवित कर दिया और अपने पिता को दिखाकर वे वन में चले गये ॥ १८ ॥ अयोध्या के नागरिकों ने जब देखा कि हमारे बालक तो फिर लौट आये, तब उन्हें असीम आश्चर्य हुआ और राजा सगर को भी बड़ा पश्चातताप हुआ ॥ १९ ॥ इसके बाद राजा सगर की आज्ञा से अंशुमान् घोड़े को ढूँढऩे के लिये निकले। उन्होंने अपने चाचाओं के द्वारा खोदे हुए समुद्र के किनारे-किनारे चलकर उनके शरीर के भस्म के पास ही घोड़े को देखा ॥ २० ॥ वहीं भगवान के अवतार कपिल मुनि बैठे हुए थे। उन को देखकर उदारहृदय अंशुमान् ने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोडक़र एकाग्र मन से उनकी स्तुति की ॥ २१ ॥
अंशुमान् ने कहा—भगवन् ! आप अजन्मा ब्रह्माजी से भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखने की बात तो अलग रही—वे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आज तक आपको समझ भी नहीं पाये। हमलोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धि से होनेवाली सृष्टि के द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं ॥ २२ ॥ संसार के शरीरधारी, सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण-प्रधान हैं, वे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओं में केवल गुणमय पदार्थों, विषयों को और सुषुप्ति-अवस्था में केवल अज्ञान-ही-अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होने के कारण बाहर की वस्तुओं को तो देखते हैं, पर अपने ही हृदय में स्थित आपको नहीं देख पाते ॥ २३ ॥ आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्म- स्वरूप के अनुभव से माया के गुणों के द्वारा होनेवाले भेदभाव को और उसके कारण अज्ञान को नष्ट कर चु के हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। माया के गुणों में ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ ॥ २४ ॥ माया, उसके गुण और गुणों के कारण होनेवाले कर्म एवं कर्मों के संस्कार से बना हुआ लिङ्ग शरीर आप में है ही नहीं। न तो आपका नाम है और न तो रूप। आप में न कार्य है और न तो कारण। आप सनातन आत्मा हैं। ज्ञान का उपदेश करने के लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २५ ॥ प्रभो ! यह संसार आपकी माया की करामात है। इस को सत्य समझकर काम, लोभ, ईष्र्या और मोह से लोगों का चित्त, शरीर तथा घर आदि में भटक ने लगता है। लोग इसी के चक्कर में फँस जाते हैं ॥ २६ ॥ समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभो ! आज आपके दर्शन से मेरे मोह की वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को जीवन-दान देती है ॥ २७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब अंशुमान् ने भगवान कपिलमुनि के प्रभाव का इस प्रकार गान किया, तब उन्होंने मन-ही-मन अंशुमान् पर बड़ा अनुग्रह किया और कहा— ॥ २८ ॥
श्रीभगवान ने कहा—‘बेटा ! यह घोड़ा तुम्हारे पितामह का यज्ञपशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओं का उद्धार केवल गङ्गाजल से होगा, और कोई उपाय नहीं है’ ॥ २९ ॥ अंशुमान् ने बड़ी नम्रता से उन्हें प्रसन्न करके उनकी परिक्रमा की और वे घोड़े को ले आये। सगर ने उस यज्ञपशु के द्वारा यज्ञ की शेष क्रिया समाप्त की ॥ ३० ॥ तब राजा सगर ने अंशुमान् को राज्य का भार सौंप दिया और वे स्वयं विषयों से नि:स्पृह एवं बन्धनमुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्व के बतलाये हुए मार्ग से परमपद की प्राप्ति की ॥ ३१ ॥
॥ नवमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अंशुमांश्च तपस्तेपे गङ्गानयनकाम्यया ।
कालं महान्तं नाशक्नोत्ततः कालेन संस्थितः ॥ १॥
दिलीपस्तत्सुतस्तद्वदशक्तः कालमेयिवान् ।
भगीरथस्तस्य पुत्रस्तेपे स सुमहत्तपः ॥ २॥
दर्शयामास तं देवी प्रसन्ना वरदास्मि ते ।
इत्युक्तः स्वमभिप्रायं शशंसावनतो नृपः ॥ ३॥
कोऽपि धारयिता वेगं पतन्त्या मे महीतले ।
अन्यथा भूतलं भित्त्वा नृप यास्ये रसातलम् ॥ ४॥
किं चाहं न भुवं यास्ये नरा मय्यामृजन्त्यघम् ।
मृजामि तदघं कुत्र राजंस्तत्र विचिन्त्यताम् ॥ ५॥
भगीरथ उवाच
साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः ।
हरन्त्यघं तेऽङ्गसङ्गात्तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरिः ॥ ६॥
धारयिष्यति ते वेगं रुद्रस्त्वात्मा शरीरिणाम् ।
यस्मिन्नोतमिदं प्रोतं विश्वं शाटीव तन्तुषु ॥ ७॥
इत्युक्त्वा स नृपो देवं तपसातोषयच्छिवम् ।
कालेनाल्पीयसा राजंस्तस्येशः समतुष्यत ॥ ८॥
तथेति राज्ञाभिहितं सर्वलोकहितः शिवः ।
दधारावहितो गङ्गां पादपूतजलां हरेः ॥ ९॥
भगीरथः स राजर्षिर्निन्ये भुवनपावनीम् ।
यत्र स्वपितॄणां देहा भस्मीभूताः स्म शेरते ॥ १०॥
रथेन वायुवेगेन प्रयान्तमनुधावती ।
देशान् पुनन्ती निर्दग्धानासिञ्चत्सगरात्मजान् ॥ ११॥
यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्मदण्डहता अपि ।
सगरात्मजा दिवं जग्मुः केवलं देहभस्मभिः ॥ १२॥
भस्मीभूताङ्गसङ्गेन स्वर्याताः सगरात्मजाः ।
किं पुनः श्रद्धया देवीं ये सेवन्ते धृतव्रताः ॥ १३॥
न ह्येतत्परमाश्चर्यं स्वर्धुन्या यदिहोदितम् ।
अनन्तचरणाम्भोजप्रसूताया भवच्छिदः ॥ १४॥
सन्निवेश्य मनो यस्मिञ्छ्रद्धया मुनयोऽमलाः ।
त्रैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम् ॥ १५॥
श्रुतो भगीरथाज्जज्ञे तस्य नाभोऽपरोऽभवत् ।
सिन्धुद्वीपस्ततस्तस्मादयुतायुस्ततोऽभवत् ॥ १६॥
ऋतुपर्णो नलसखो योऽश्वविद्यामयान्नलात् ।
दत्त्वाक्षहृदयं चास्मै सर्वकामस्तु तत्सुतः ॥ १७॥
ततः सुदासस्तत्पुत्रो मदयन्तीपतिर्नृपः ।
आहुर्मित्रसहं यं वै कल्माषाङ्घ्रिमुत क्वचित् ।
वसिष्ठशापाद्रक्षोऽभूदनपत्यः स्वकर्मणा ॥ १८॥
राजोवाच
किं निमित्तो गुरोः शापः सौदासस्य महात्मनः ।
एतद्वेदितुमिच्छामः कथ्यतां न रहो यदि ॥ १९॥
श्रीशुक उवाच
सौदासो मृगयां किञ्चिच्चरन् रक्षो जघान ह ।
मुमोच भ्रातरं सोऽथ गतः प्रतिचिकीर्षया ॥ २०॥
स चिन्तयन्नघं राज्ञः सूदरूपधरो गृहे ।
गुरवे भोक्तुकामाय पक्त्वा निन्ये नरामिषम् ॥ २१॥
परिवेक्ष्यमाणं भगवान् विलोक्याभक्ष्यमञ्जसा ।
राजानमशपत्क्रुद्धो रक्षो ह्येवं भविष्यसि ॥ २२॥
रक्षःकृतं तद्विदित्वा चक्रे द्वादशवार्षिकम् ।
सोऽप्यपोऽञ्जलिमादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः ॥ २३॥
वारितो मदयन्त्यापो रुशतीः पादयोर्जहौ ।
दिशः खमवनीं सर्वं पश्यन् जीवमयं नृपः ॥ २४॥
राक्षसं भावमापन्नः पादे कल्माषतां गतः ।
व्यवायकाले ददृशे वनौकोदम्पती द्विजौ ॥ २५॥
क्षुधार्तो जगृहे विप्रं तत्पत्न्याहाकृतार्थवत् ।
न भवान् राक्षसः साक्षादिक्ष्वाकूणां महारथः ॥ २६॥
मदयन्त्याः पतिर्वीर नाधर्मं कर्तुमर्हसि ।
देहि मेऽपत्यकामाया अकृतार्थं पतिं द्विजम् ॥ २७॥
देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।
तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८॥
एष हि ब्राह्मणो विद्वांस्तपःशीलगुणान्वितः ।
आरिराधयिषुर्ब्रह्म महापुरुषसंज्ञितम् ।
सर्वभूतात्मभावेन भूतेष्वन्तर्हितं गुणैः ॥ २९॥
सोऽयं ब्रह्मर्षिवर्यस्ते राजर्षिप्रवराद्विभो ।
कथमर्हति धर्मज्ञ वधं पितुरिवात्मजः ॥ ३०॥
तस्य साधोरपापस्य भ्रूणस्य ब्रह्मवादिनः ।
कथं वधं यथा बभ्रोर्मन्यते सन्मतो भवान् ॥ ३१॥
यद्ययं क्रियते भक्षस्तर्हि मां खाद पूर्वतः ।
न जीविष्ये विना येन क्षणं च मृतकं यथा ॥ ३२॥
एवं करुणभाषिण्या विलपन्त्या अनाथवत् ।
व्याघ्रः पशुमिवाखादत्सौदासः शापमोहितः ॥ ३३॥
ब्राह्मणी वीक्ष्य दिधिषुं पुरुषादेन भक्षितम् ।
शोचन्त्यात्मानमुर्वीशमशपत्कुपिता सती ॥ ३४॥
यस्मान्मे भक्षितः पाप कामार्तायाः पतिस्त्वया ।
तवापि मृत्युराधानादकृतप्रज्ञ दर्शितः ॥ ३५॥
एवं मित्रसहं शप्त्वा पतिलोकपरायणा ।
तदस्थीनि समिद्धेऽग्नौ प्रास्य भर्तुर्गतिं गता ॥ ३६॥
विशापो द्वादशाब्दान्ते मैथुनाय समुद्यतः ।
विज्ञाय ब्राह्मणीशापं महिष्या स निवारितः ॥ ३७॥
तत ऊर्ध्वं स तत्याज स्त्रीसुखं कर्मणाप्रजाः ।
वसिष्ठस्तदनुज्ञातो मदयन्त्यां प्रजामधात् ॥ ३८॥
सा वै सप्त समा गर्भमबिभ्रन्न व्यजायत ।
जघ्नेऽश्मनोदरं तस्याः सोऽश्मकस्तेन कथ्यते ॥ ३९॥
अश्मकान्मूलको जज्ञे यः स्त्रीभिः परिरक्षितः ।
नारीकवच इत्युक्तो निःक्षत्रे मूलकोऽभवत् ॥ ४०॥
ततो दशरथस्तस्मात्पुत्र ऐडविडिस्ततः ।
राजा विश्वसहो यस्य खट्वाङ्गश्चक्रवर्त्यभूत् ॥ ४१॥
यो देवैरर्थितो दैत्यानवधीद्युधि दुर्जयः ।
मुहूर्तमायुर्ज्ञात्वैत्य स्वपुरं सन्दधे मनः ॥ ४२॥
न मे ब्रह्मकुलात्प्राणाः कुलदैवान्न चात्मजाः ।
न श्रियो न मही राज्यं न दाराश्चातिवल्लभाः ॥ ४३॥
न बाल्येऽपि मतिर्मह्यमधर्मे रमते क्वचित् ।
नापश्यमुत्तमश्लोकादन्यत्किञ्चन वस्त्वहम् ॥ ४४॥
देवैः कामवरो दत्तो मह्यं त्रिभुवनेश्वरैः ।
न वृणे तमहं कामं भूतभावनभावनः ॥ ४५॥
ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते स्वहृदि स्थितम् ।
न विन्दन्ति प्रियं शश्वदात्मानं किमुतापरे ॥ ४६॥
अथेशमायारचितेषु सङ्गं
गुणेषु गन्धर्वपुरोपमेषु ।
रूढं प्रकृत्याऽऽत्मनि विश्वकर्तुर्भावेन
हित्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ४७॥
इति व्यवसितो बुद्ध्या नारायणगृहीतया ।
हित्वान्यभावमज्ञानं ततः स्वं भावमाश्रितः ॥ ४८॥
यत्तद्ब्रह्म परं सूक्ष्ममशून्यं शून्यकल्पितम् ।
भगवान् वासुदेवेति यं गृणन्ति हि सात्वताः ॥ ४९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे सूर्यवंशानुवर्णने नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
नवम स्कन्ध-नवाँ अध्याय
भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अंशुमान् ने गङ्गाजी को ला ने की कामना से बहुत वर्षों तक घोर तपस्या की। परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आने पर उनकी मृत्यु हो गयी ॥ १ ॥ अंशुमान् के पुत्र दिलीप ने भी वैसी ही तपस्या की। परंतु वे भी असफल ही रहे, समय पर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीप के पुत्र थे भगीरथ। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की ॥ २ ॥ उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गङ्गा ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि—‘मैं तुम्हें वर दे ने के लिये आयी हूँ।’ उनके ऐसा कहने पर राजा भगीरथ ने बड़ी नम्रता से अपना अभिप्राय प्रकट किया कि ‘आप मत्र्यलोक में चलिये’ ॥ ३ ॥
[गङ्गाजी ने कहा—]‘जिस समय मैं स्वर्ग से पृथ्वीतल पर गिरूँ, उस समय मेरे वेग को कोई धारण करनेवाला होना चाहिये। भगीरथ ! ऐसा न होने पर मैं पृथ्वी को फोडक़र रसातल में चली जाऊँगी ॥ ४ ॥ इसके अतिरिक्त इस कारण से भी मैं पृथ्वी पर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझ में अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पाप को कहाँ धोऊँगी। भगीरथ ! इस विषय में तुम स्वयं विचार कर लो’ ॥ ५ ॥
भगीरथ ने कहा—‘माता ! जिन्हों ने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्र की कामना का संन्यास कर दिया है, जो संसार से उपरत होकर अपने-आप में शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करनेवाले परोपकारी सज्जन हैं—वे अपने अङ्गस्पर्श से तुम्हारे पापों को नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदय में अघरूप अघासुर को मारनेवाले भगवान सर्वदा निवास करते हैं ॥ ६ ॥ समस्त प्राणियों के आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतों में ओतप्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान रुद्र में ही ओतप्रोत है’ ॥ ७ ॥ परीक्षित ! गङ्गाजी से इस प्रकार कहकर राजा भगीरथ ने तपस्या के द्वारा भगवान शङ्कर को प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनों में महादेवजी उन पर प्रसन्न हो गये ॥ ८ ॥ भगवान शङ्कर तो सम्पूर्ण विश्व के हितैषी हैं, राजा की बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिवजी ने सावधान होकर गङ्गाजी को अपने सिर पर धारण किया। क्यों न हो, भगवान के चरणों का सम्पर्क होने के कारण गङ्गाजी का जल परम पवित्र जो है ॥ ९ ॥ इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गङ्गाजी को वहाँ ले गये, जहाँ उनके पितरों के शरीर राख के ढेर बने पड़े थे ॥ १० ॥ वे वायु के समान वेग से चलनेवाले रथ पर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्ग में पडऩेवाले देशों को पवित्र करती हुई गङ्गाजी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गङ्गासागर-सङ्गम पर पहुँचकर उन्होंने सगर के जले हुए पुत्रों को अपने जल में डुबा दिया ॥ ११ ॥ यद्यपि सगर के पुत्र ब्राह्मण के तिरस्कार के कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धार का कोई उपाय न था—फिर भी केवल शरीर की राख के साथ गङ्गाजल का स्पर्श हो जाने से ही वे स्वर्ग में चले गये ॥ १२ ॥ परीक्षित ! जब गङ्गाजल से शरीर की राख का स्पर्श हो जाने से सगर के पुत्रों को स्वर्ग की प्राप्ति हो गयी, तब जो लोग श्रद्धा के साथ नियम लेकर श्रीगङ्गाजी का सेवन करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ १३ ॥ मैंने गङ्गाजी की महिमा के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। क्योंकि गङ्गाजी भगवान के उन चरणकमलों से निकली हैं, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणों के कठिन बन्धन को काटकर तुरंत भगवत् स्वरूप बन जाते हैं। फिर गङ्गाजी संसार का बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है ॥ १४-१५ ॥
भगीरथ का पुत्र था श्रुत, श्रुत का नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नाभ से भिन्न है। नाभ का पुत्र था सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीप का अयुतायु। अयुतायु के पुत्र का नाम था ऋतुपर्ण। वह नल का मित्र था। उसने नल को पासा फेंक ने की विद्या का रहस्य बतलाया था और बदले में उससे अश्वविद्या सीखी थी। ऋतुपर्ण का पुत्र सर्वकाम हुआ ॥ १६-१७ ॥ परीक्षित ! सर्वकाम के पुत्र का नाम था सुदास। सुदासके पुत्र का नाम था सौदास और सौदास की पत्नी का नाम था मदयन्ती। सौदास को ही कोई- कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है। वह वसिष्ठ के शाप से राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मों के कारण सन्तानहीन हुआ ॥ १८ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदास को गुरु वसिष्ठजी ने शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये ॥ १९ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! एक बार राजा सौदास शिकार खेल ने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षस को मार डाला और उसके भाई को छोड़ दिया। उसने राजा के इस काम को अन्याय समझा और उनसे भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये वह रसोइये का रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करने के लिये गुरु वसिष्ठजी राजा के यहाँ आये, तब उसने मनुष्य का मांस राँधकर उन्हें परस दिया ॥ २०-२१ ॥ जब सर्वसमर्थ वसिष्ठजी ने देखा कि परोसी जानेवाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजा को शाप दिया कि ‘जा, इस काम से तू राक्षस हो जायगा’ ॥ २२ ॥ जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षस का है—राजा का नहीं, तब उन्होंने उस शाप को केवल बारह वर्ष के लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अञ्जलि में जल लेकर गुरु वसिष्ठ को शाप दे ने के लिये उद्यत हुए ॥ २३ ॥ परंतु उनकी पत्नी मदयन्ती ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इस पर सौदास ने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी—सब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोड़्ूँ ?’ अन्त में उन्होंने उस जल को अपने पैरों पर डाल लिया। [इसीसे उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ] ॥ २४ ॥ उस जल से उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हुआ। अब वे राक्षस हो चु के थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपाद ने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पति को सहवासके समय देख लिया ॥ २५ ॥ कल्माषपाद को भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मण को पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नी की कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा—‘राजन् ! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्ती के पति और इक्ष्वाकुवंश के वीर महारथी हैं। आपको ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तान की कामना है और इस ब्राह्मण की भी कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये ॥ २६-२७ ॥ राजन् ! यह मनुष्यशरीर जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष— चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये वीर ! इस शरीर को नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है ॥ २८ ॥ फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणों से सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्म की समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थों में विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणों से छिपे हुए हैं ॥ २९ ॥ राजन् ! आप शक्तिशाली हैं। आप धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हैं। जैसे पिता के हाथों पुत्र की मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप-जैसे श्रेष्ठ राजर्षि के हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्रहमर्षि पति का वध किसी प्रकार उचित नहीं है ॥ ३० ॥ आपका साधु-समाज में बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी पति का वध कैसे ठीक समझ रहे हैं। ये तो गौ के समान निरीह हैं ॥ ३१ ॥ फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पति के बिना मैं मुर्दे के समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह सकूँगी’ ॥ ३२ ॥ ब्राह्मणपत्नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणी में इस प्रकार कहकर अनाथ की भाँति रोने लगी। परंतु सौदास ने शाप से मोहित होने के कारण उसकी प्रार्थना पर कुछ भी ध्यान न दिया और वह उस ब्राह्मण को वैसे ही खा गया, जैसे बाघ किसी पशु को खा जाय ॥ ३३ ॥ जब ब्राह्मणी ने देखा कि राक्षस ने मेरे गर्भाधान के लिये उद्यत पति को खा लयिा, तब उसे बड़ा शोक हुआ। सती ब्राह्मणी ने क्रोध करके राजा को शाप दे दिया ॥ ३४ ॥ ‘रे पापी ! मैं अभी काम से पीडि़त हो रही थी। ऐसी अवस्था में तू ने मेरे पति को खा डाला है। इसलिये मूर्ख ! जब तू स्त्री से सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हूँ’ ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मित्रसह को शाप देकर ब्राह्मणी अपने पति की अस्थियों को धधकती हुई चिता में डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेव को मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पति को छोडक़र और किसी लोक में जाना भी तो नहीं चाहती थी ॥ ३६ ॥
बारह वर्ष बीतने पर राजा सौदास शाप से मुक्त हो गये। जब वे सहवासके लिये अपनी पत्नी के पास गये, तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस ब्राह्मणी के शाप का पता था ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने स्त्री सुख का बिलकुल परित्याग ही कर दिया। इस प्रकार अपने कर्म के फल स्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठजी ने उनके कह ने से मदयन्ती को गर्भाधान कराया ॥ ३८ ॥ मदयन्ती सात वर्ष तक गर्भ धारण किये रही, परंतु बच्चा पैदा नहीं हुआ। तब वसिष्ठजी ने पत्थर से उसके पेट पर आघात किया। इससे जो बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की चोट से पैदा होने के कारण ‘अश्मक’ कहलाया ॥ ३९ ॥ अश्मक से मूलक का जन्म हुआ। जब परशुरामजी पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर रहे थे, तब स्त्रियों ने उसे छिपाकर रख लिया था। इसीसे उसका एक नाम ‘नारीकवच’ भी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह पृथ्वी के क्षत्रियहीन हो जाने पर उस वंश का मूल (प्रवर्तक) बना ॥ ४० ॥ मूलक के पुत्र हुए दशरथ, दशरथ के ऐडविड और ऐडविड के राजा विश्वसह। विश्वसह के पुत्र ही चक्रवर्ती सम्राट् खट्वाङ्ग हुए ॥ ४१ ॥ युद्ध में उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से दैत्यों का वध किया था। जब उन्हें देवताओं से यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बा की है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मन को उन्होंने भगवान में लगा दिया ॥ ४२ ॥ वे मन-ही-मन सोच ने लगे कि ‘मेरे कुल के इष्ट देवता हैं ब्राह्मण ! उनसे बढक़र मेरा प्रेम अपने प्राणों पर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते ॥ ४३ ॥ मेरा मन बचपन में भी कभी अधर्म की ओर नहीं गया। मैंने पवित्रकीर्ति भगवान के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी ॥ ४४ ॥ तीनों लोकों के स्वामी देवताओं ने मुझे मुँहमाँगा वर दे ने को कहा। परंतु मैंने उन भोगों की लालसा बिलकुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियों के जीवनदाता श्रीहरि की भावना में ही मैं मग्र हो रहा था ॥ ४५ ॥ जिन देवताओं की इन्द्रियाँ और मन विषयों में भटक रहे हैं,वे सत्त्वगुणप्रधान होने पर भी अपने हृदय में विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतम के रूप में रहनेवाले अपने आत्म स्वरूप भगवान को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं ॥ ४६ ॥ इसलिये अब इन विषयों में मैं नहीं रमता। ये तो माया के खेल हैं। आकाश में झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले गन्धर्वनगरों से बढक़र इन की सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्त पर चढ़ गये थे। संसार के सच्चे रचयिता भगवान की भावना में लीन होकर मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हीं की शरण ले रहा हूँ ॥ ४७ ॥ परीक्षित ! भगवान ने राजा खट्वाङ्ग की बुद्धि को पहले से ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसीसे वे अन्तसमय में ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थों में जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्म स्वरूप में स्थित हो गये ॥ ४८ ॥ वह स्वरूप साक्षात परब्रह्म है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, शून्य के समान ही है। परंतु वह शून्य नहीं, परम सत्य है। भक्तजन उसी वस्तु को ‘भगवान वासुदेव’ इस नाम से वर्णन करते हैं ॥ ४९ ॥
॥ दशमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
खट्वाङ्गाद्दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात्पृथुश्रवाः ।
अजस्ततो महाराजस्तस्माद्दशरथोऽभवत् ॥ १॥
तस्यापि भगवानेष साक्षाद्ब्रह्ममयो हरिः ।
अंशांशेन चतुर्धागात्पुत्रत्वं प्रार्थितः सुरैः ।
रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्ना इति संज्ञया ॥ २॥
जानकीजीवनस्मरणं जय जय राम राम
तस्यानुचरितं राजन्नृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
श्रुतं हि वर्णितं भूरि त्वया सीतापतेर्मुहुः ॥ ३॥
गुर्वर्थे त्यक्तराज्यो व्यचरदनुवनं पद्मपद्भ्यां प्रियायाः
पाणिस्पर्शाक्षमाभ्यां मृजितपथरुजो यो हरीन्द्रानुजाभ्याम् ।
वैरूप्याच्छूर्पणख्याः प्रियविरहरुषारोपितभ्रूविजृम्भ-
त्रस्ताब्धिर्बद्धसेतुः खलदवदहनः कोसलेन्द्रोऽवतान्नः ॥ ४॥
विश्वामित्राध्वरे येन मारीचाद्या निशाचराः ।
पश्यतो लक्ष्मणस्यैव हता नैरृतपुङ्गवाः ॥ ५॥
यो लोकवीरसमितौ धनुरैशमुग्रं
सीतास्वयंवरगृहे त्रिशतोपनीतम् ।
आदाय बालगजलील इवेक्षुयष्टिं
सज्जीकृतं नृप विकृष्य बभञ्ज मध्ये ॥ ६॥
जित्वानुरूपगुणशीलवयोऽङ्गरूपां
सीताभिधां श्रियमुरस्यभिलब्धमानाम् ।
मार्गे व्रजन् भृगुपतेर्व्यनयत्प्ररूढं
दर्पं महीमकृत यस्त्रिरराजबीजाम् ॥ ७॥
यः सत्यपाशपरिवीतपितुर्निदेशं
स्त्रैणस्य चापि शिरसा जगृहे सभार्यः ।
राज्यं श्रियं प्रणयिनः सुहृदो निवासं
त्यक्त्वा ययौ वनमसूनिव मुक्तसङ्गः ॥ ८॥
रक्षःस्वसुर्व्यकृत रूपमशुद्धबुद्धेस्तस्याः
खरत्रिशिरदूषणमुख्यबन्धून् ।
जघ्ने चतुर्दशसहस्रमपारणीय-
कोदण्डपाणिरटमान उवास कृच्छ्रम् ॥ ९॥
सीताकथाश्रवणदीपितहृच्छयेन
सृष्टं विलोक्य नृपते दशकन्धरेण ।
जघ्नेऽद्भुतैणवपुषाऽऽश्रमतोऽपकृष्टो
मारीचमाशु विशिखेन यथा कमुग्रः ॥ १०॥
रक्षोऽधमेन वृकवद्विपिनेऽसमक्षं
वैदेहराजदुहितर्यपयापितायाम् ।
भ्रात्रा वने कृपणवत्प्रियया वियुक्तः
स्त्रीसङ्गिनां गतिमिति प्रथयंश्चचार ॥ ११॥
दग्ध्वाऽऽत्मकृत्यहतकृत्यमहन् कबन्धं
सख्यं विधाय कपिभिर्दयितागतिं तैः ।
बुद्ध्वाथ वालिनि हते प्लवगेन्द्रसैन्यै-
र्वेलामगात्स मनुजोऽजभवार्चिताङ्घ्रिः ॥ १२॥
यद्रोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपात-
सम्भ्रान्तनक्रमकरो भयगीर्णघोषः ।
सिन्धुः शिरस्यर्हणं परिगृह्य रूपी
पादारविन्दमुपगम्य बभाष एतत् ॥ १३॥
न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भूमन्
कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम् ।
यत्सत्त्वतः सुरगणा रजसः प्रजेशा
मन्योश्च भूतपतयः स भवान् गुणेशः ॥ १४॥
कामं प्रयाहि जहि विश्रवसोऽवमेहं
त्रैलोक्यरावणमवाप्नुहि वीर पत्नीम् ।
बध्नीहि सेतुमिह ते यशसो वितत्यै
गायन्ति दिग्विजयिनो यमुपेत्य भूपाः ॥ १५॥
बद्ध्वोदधौ रघुपतिर्विविधाद्रिकूटैः
सेतुं कपीन्द्रकरकम्पितभूरुहाङ्गैः ।
सुग्रीवनीलहनुमत्प्रमुखैरनीकैर्लङ्कां
विभीषणदृशाऽऽविशदग्रदग्धाम् ॥ १६॥
सा वानरेन्द्रबलरुद्धविहारकोष्ठ-
श्रीद्वारगोपुरसदोवलभीविटङ्का ।
निर्भज्यमानधिषणध्वजहेमकुम्भ-
शृङ्गाटका गजकुलैर्ह्रदिनीव घूर्णा ॥ १७॥
रक्षःपतिस्तदवलोक्य निकुम्भकुम्भ-
धूम्राक्षदुर्मुखसुरान्तकनरान्तकादीन् ।
पुत्रं प्रहस्तमतिकायविकम्पनादीन्
सर्वानुगान् समहिनोदथ कुम्भकर्णम् ॥ १८॥
तां यातुधानपृतनामसिशूलचाप-
प्रासर्ष्टिशक्तिशरतोमरखड्गदुर्गाम् ।
सुग्रीवलक्ष्मणमरुत्सुतगन्धमाद-
नीलाङ्गदर्क्षपनसादिभिरन्वितोऽगात् ॥ १९॥
तेऽनीकपा रघुपतेरभिपत्य सर्वे
द्वन्द्वं वरूथमिभपत्तिरथाश्वयोधैः ।
जघ्नुर्द्रुमैर्गिरिगदेषुभिरङ्गदाद्याः
सीताभिमर्शहतमङ्गलरावणेशान् ॥ २०॥
रक्षःपतिः स्वबलनष्टिमवेक्ष्य रुष्ट
आरुह्य यानकमथाभिससार रामम् ।
स्वःस्यन्दने द्युमति मातलिनोपनीते
विभ्राजमानमहनन्निशितैः क्षुरप्रैः ॥ २१॥
रामस्तमाह पुरुषादपुरीष यन्नः
कान्तासमक्षमसतापहृता श्ववत्ते ।
त्यक्तत्रपस्य फलमद्य जुगुप्सितस्य
यच्छामि काल इव कर्तुरलङ्घ्यवीर्यः ॥ २२॥
एवं क्षिपन् धनुषि सन्धितमुत्ससर्ज
बाणं स वज्रमिव तद्धृदयं बिभेद ।
सोऽसृग्वमन् दशमुखैर्न्यपतद्विमानाद्धाहेति
जल्पति जने सुकृतीव रिक्तः ॥ २३॥
ततो निष्क्रम्य लङ्काया यातुधान्यः सहस्रशः ।
मन्दोदर्या समं तस्मिन् प्ररुदत्य उपाद्रवन् ॥ २४॥
स्वान् स्वान् बन्धून् परिष्वज्य लक्ष्मणेषुभिरर्दितान् ।
रुरुदुः सुस्वरं दीना घ्नन्त्य आत्मानमात्मना ॥ २५॥
हा हताः स्म वयं नाथ लोकरावण रावण ।
कं यायाच्छरणं लङ्का त्वद्विहीना परार्दिता ॥ २६॥
नैवं वेद महाभाग भवान् कामवशं गतः ।
तेजोऽनुभावं सीताया येन नीतो दशामिमाम् ॥ २७॥
कृतैषा विधवा लङ्का वयं च कुलनन्दन ।
देहः कृतोऽन्नं गृध्राणामात्मा नरकहेतवे ॥ २८॥
श्रीशुक उवाच
स्वानां विभीषणश्चक्रे कोसलेन्द्रानुमोदितः ।
पितृमेधविधानेन यदुक्तं साम्परायिकम् ॥ २९॥
ततो ददर्श भगवानशोकवनिकाश्रमे ।
क्षामां स्वविरहव्याधिं शिंशपामूलमास्थिताम् ॥ ३०॥
रामः प्रियतमां भार्यां दीनां वीक्ष्यान्वकम्पत ।
आत्मसन्दर्शनाह्लादविकसन्मुखपङ्कजाम् ॥ ३१॥
आरोप्यारुरुहे यानं भ्रातृभ्यां हनुमद्युतः ।
विभीषणाय भगवान् दत्त्वा रक्षोगणेशताम् ॥ ३२॥
लङ्कामायुश्च कल्पान्तं ययौ चीर्णव्रतः पुरीम् ।
अवकीर्यमाणः सुकुसुमैर्लोकपालार्पितैः पथि ॥ ३३॥
उपगीयमानचरितः शतधृत्यादिभिर्मुदा ।
गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम् ॥ ३४॥
महाकारुणिकोऽतप्यज्जटिलं स्थण्डिलेशयम् ।
भरतः प्राप्तमाकर्ण्य पौरामात्यपुरोहितैः ॥ ३५॥
पादुके शिरसि न्यस्य रामं प्रत्युद्यतोऽग्रजम् ।
नन्दिग्रामात्स्वशिबिराद्गीतवादित्रनिःस्वनैः ॥ ३६॥
ब्रह्मघोषेण च मुहुः पठद्भिर्ब्रह्मवादिभिः ।
स्वर्णकक्षपताकाभिर्हैमैश्चित्रध्वजै रथैः ॥ ३७॥
सदश्वै रुक्मसन्नाहैर्भटैः पुरटवर्मभिः ।
श्रेणीभिर्वारमुख्याभिर्भृत्यैश्चैव पदानुगैः ॥ ३८॥
पारमेष्ठ्यान्युपादाय पण्यान्युच्चावचानि च ।
पादयोर्न्यपतत्प्रेम्णा प्रक्लिन्नहृदयेक्षणः ॥ ३९॥
पादुके न्यस्य पुरतः प्राञ्जलिर्बाष्पलोचनः ।
तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्यां स्नापयन् नेत्रजैर्जलैः ॥ ४०॥
रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येऽर्हसत्तमाः ।
तेभ्यः स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृतः ॥ ४१॥
धुन्वन्त उत्तरासङ्गान् पतिं वीक्ष्य चिरागतम् ।
उत्तराः कोसला माल्यैः किरन्तो ननृतुर्मुदा ॥ ४२॥
पादुके भरतोऽगृह्णाच्चामरव्यजनोत्तमे ।
विभीषणः ससुग्रीवः श्वेतच्छत्रं मरुत्सुतः ॥ ४३॥
धनुर्निषङ्गान् शत्रुघ्नः सीता तीर्थकमण्डलुम् ।
अबिभ्रदङ्गदः खड्गं हैमं चर्मर्क्षराण्नृप ॥ ४४॥
पुष्पकस्थोऽन्वितः स्त्रीभिः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ।
विरेजे भगवान् राजन् ग्रहैश्चन्द्र इवोदितः ॥ ४५॥
भ्रातृभिर्नन्दितः सोऽपि सोत्सवां प्राविशत्पुरीम् ।
प्रविश्य राजभवनं गुरुपत्नीः स्वमातरम् ॥ ४६॥
गुरून् वयस्यावरजान् पूजितः प्रत्यपूजयत् ।
वैदेही लक्ष्मणश्चैव यथावत्समुपेयतुः ॥ ४७॥
पुत्रान् स्वमातरस्तास्तु प्राणांस्तन्व इवोत्थिताः ।
आरोप्याङ्केऽभिषिञ्चन्त्यो बाष्पौघैर्विजहुः शुचः ॥ ४८॥
जटा निर्मुच्य विधिवत्कुलवृद्धैः समं गुरुः ।
अभ्यषिञ्चद्यथैवेन्द्रं चतुःसिन्धुजलादिभिः ॥ ४९॥
एवं कृतशिरःस्नानः सुवासाः स्रग्व्यलङ्कृतः ।
स्वलङ्कृतैः सुवासोभिर्भ्रातृभिर्भार्यया बभौ ॥ ५०॥
अग्रहीदासनं भ्रात्रा प्रणिपत्य प्रसादितः ।
प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः ।
जुगोप पितृवद्रामो मेनिरे पितरं च तम् ॥ ५१॥
त्रेतायां वर्तमानायां कालः कृतसमोऽभवत् ।
रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूतसुखावहे ॥ ५२॥
वनानि नद्यो गिरयो वर्षाणि द्वीपसिन्धवः ।
सर्वे कामदुघा आसन् प्रजानां भरतर्षभ ॥ ५३॥
नाधिव्याधिजराग्लानिदुःखशोकभयक्लमाः ।
मृत्युश्चानिच्छतां नासीद्रामे राजन्यधोक्षजे ॥ ५४॥
एकपत्नीव्रतधरो राजर्षिचरितः शुचिः ।
स्वधर्मं गृहमेधीयं शिक्षयन् स्वयमाचरत् ॥ ५५॥
प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती ।
भिया ह्रिया च भावज्ञा भर्तुः सीताहरन्मनः ॥ ५६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे रामचरिते दशमोऽध्यायः ॥ १०॥
नवम स्कन्ध-दसवाँ अध्याय
भगवान श्रीराम की लीलाओं का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! खट्वाङ्ग के पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहु के परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघु के अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए ॥ १ ॥ देवताओं की प्रार्थना से साक्षात परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीहरि ही अपने अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र हुए। उनके नाम थे—राम, लक्ष्मण, भरत, और शत्रुघ्र ॥ २ ॥ परीक्षित ! सीतापति भगवान श्रीराम का चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुम ने अनेक बार उसे सुना भी है ॥ ३ ॥
भगवान श्रीराम ने अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा के लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वन में फिरते रहे। उनके चरणकमल इत ने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकीजी के करकमलों का स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वन में चलते-चलते थक जाते, तब हनूमान् और लक्ष्मण उन्हें दबा-दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखा को नाक-कान काटकर विरूप कर दे ने के कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकीजी का वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोग के कारण क्रोधवश उनकी भौंहें तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्र तक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्र पर पुल बाँधा और लङ्का में जाकर दुष्ट राक्षसों के जंगल को दावाग्रि के समान दग्ध कर दिया। वे कोसलनरेश हमारी रक्षा करें ॥ ४ ॥
भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र के यज्ञ में लक्ष्मण के सामने ही मारीच आदि राक्षसों को मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसों की गिनती में थे ॥ ५ ॥ परीक्षित ! जनकपुर में सीताजी का स्वयंवर हो रहा था। संसार के चु ने हुए वीरों की सभा में भगवान शङ्कर का वह भयङ्कर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाई से उसे स्वयंवरसभा में ला सके थे। भगवान श्रीराम ने उस धनुष को बात-की-बात में उठाकर उसपर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोबीच से उसके दो टुकड़े कर दिये—ठीक वैसे ही, जैसे हाथी का बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले ॥ ६ ॥ भगवान ने जिन्हें अपने वक्ष:स्थल पर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मीजी ही सीता के नाम से जनकपुर में अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीर की गठन और सौन्दर्य में सर्वथा भगवान श्रीराम के अनुरूप थीं। भगवान ने धनुष तोडक़र उन्हें प्राप्त कर लिया। अयोध्या को लौटते समय मार्ग में उन परशुरामजी से भेंट हुई, जिन्हों ने इक्कीस बार पृथ्वी को राजवंश के बीज से भी रहित कर दिया था। भगवान ने उनके बढ़े हुए गर्व को नष्ट कर दिया ॥ ७ ॥ इसके बाद पिता के वचन को सत्य करने के लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी के अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था फिर भी वे सत्य के बन्धन में बँध गये थे। इसलिये भगवान ने अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी, मित्र और महलों को वैसे ही छोडक़र अपनी पत्नी के साथ यात्रा की, जैसे मुक्तसंग योगी प्राणों को छोड़ देता है। ॥ ८ ॥ वन में पहुँचकर भगवान ने राक्षसराज रावण की बहिन शूर्पणखा को विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत ही कलुषित, कामवासना के कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयों को—जो संख्या में चौदह हजार थे—हाथ में महान धनुष लेकर भगवान श्रीराम ने नष्ट कर डाला, और अनेक प्रकार की कठिनाइयों से परिपूर्ण वन में वे इधर-उधर विचरते हुए निवास करते रहे ॥ ९ ॥ परीक्षित ! जब रावण ने सीताजी के रूप, गुण, सौन्दर्य आदि की बात सुनी तो उसका हृदय कामवासना से आतुर हो गया। उसने अद्भुत हरिन के वेष में मारीच को उनकी पर्णकुटी के पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान को वहाँ से दूर ले गया। अन्त में भगवान ने अपने बाण से उसे बात-की-बात में वैसे ही मार डाला, जैसे दक्षप्रजापति को वीरभद्र ने मारा था ॥ १० ॥ जब भगवान श्रीराम जंगल में दूर निकल गये, तब (लक्ष्मण की अनुपस्थितिमें) नीच राक्षस रावण ने भेडिय़े के समान विदेहनन्दिनी सुकुमारी श्रीसीताजी को हर लिया। तदनन्तर वे अपनी प्राणप्रिया सीताजी से बिछुडक़र अपने भाई लक्ष्मण के साथ वन-वन में दीन की भाँति घूम ने लगे। और इस प्रकार उन्होंने यह शिक्षा दी कि ‘जो स्त्रियों में आसक्ति रखते हैं, उनकी यही गति होती है’ ॥ ११ ॥ इसके बाद भगवान ने उस जटायु का दाह-संस्कार किया, जिसके सारे कर्मबन्धन भगवत्सेवारूप कर्म से पहले ही भस्म हो चु के थे। फिर भगवान ने कबन्ध का संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरों से मित्रता करके वालि का वध किया, तदनन्तर वानरों के द्वारा अपनी प्राणप्रिया का पता लगवाया। ब्रह्मा और शङ्कर जिनके चरणों की वन्दना करते हैं, वे भगवान श्रीराम मनुष्यकी-सी लीला करते हुए बंदरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे ॥ १२ ॥ (वहाँ उपवास और प्रार्थना से जब समुद्र पर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान ने क्रोध की लीला करते हुए अपनी उग्र एवं टेढ़ी नजर समुद्र पर डाली। उसी समय समुद्र के बड़े-बड़े मगर और कच्छ खलबला उठे। डर जाने के कारण समुद्र की सारी गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिर पर बहुत-सी भेंटें लेकर भगवान के चरणकमलों की शरण में आया और इस प्रकार कह ने लगा ॥ १३ ॥ ‘अनन्त ! हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते। जानें भी कैसे ? आप समस्त जगत के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत के समस्त परिवर्तनों में एकरस रहनेवाले हैं। आप समस्त गुणों के स्वामी हैं। इसलिये जब आप सत्त्वगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब देवताओंकी, रजोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियों की और तमोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब आपके क्रोध से रुद्रगण की उत्पत्ति होती है ॥ १४ ॥ वीरशिरोमणे ! आप अपनी इच्छा के अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलो की को रुलानेवाले विश्रवा के कुपूत रावण को मारकर अपनी पत्नी को फिर से प्राप्त कीजिये। परंतु आप से मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझ पर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आपके यश का विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यश का गान करेंगे ’ ॥ १५ ॥ भगवान श्रीरामजी ने अनेकानेक पर्वतों के शिखरों से समुद्र पर पुल बाँधा। जब बड़े-बड़े बन्दर अपने हाथों से पर्वत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृक्ष और बड़ी-बड़ी चट्टानें थर-थर काँप ने लगती थीं। इसके बाद विभीषण की सलाह से भगवान ने सुग्रीव, नील, हनूमान् आदि प्रमुख वीरों और वानरीसेना के साथ लङ्का में प्रवेश किया। वह तो श्रीहनूमान्जी के द्वारा पहले ही जलायी जा चुकी थी ॥ १६ ॥ उस समय वानरराज की सेना ने लङ् का के सैर करने और खेल ने के स्थान, अन्न के गोदाम, खजाने, दरवाजे, फाटक, सभाभवन, छज्जे और पक्षियों के रहने के स्थान तक को घेर लिया। उन्होंने वहाँ की वेदी, ध्वजाएँ, सो ने के कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लङ् का ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे झुंड-के-झुंड हाथियों ने किसी नदी को मथ डाला हो ॥ १७ ॥ यह देखकर राक्षसराज रावण ने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्त में भाई कुम्भकर्ण को भी युद्ध करने के लिये भेजा ॥ १८ ॥ राक्षसों की वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्र से सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान श्रीराम ने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनूमान्, गन्ध-मादन, नील, अंगद, जाम्बवान् और पनस आदि वीरों को अपने साथ लेकर राक्षसों की सेना का सामना किया ॥ १९ ॥ रघुवंशशिरोमणि भगवान श्रीराम के अंगद आदि सब सेनापति राक्षसों की चतुरङ्गिणी सेना—हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलों के साथ द्वन्द्वयुद्ध की रीति से भिड़ गये और राक्षसों को वृक्ष, पर्वतशिखर, गदा और बाणों से मार ने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावण के अनुचर थे, जिसका मङ्गल श्रीसीताजी को स्पर्श करने के कारण पहले ही नष्ट हो चु का था ॥ २० ॥
जब राक्षसराज रावण ने देखा कि मेरी सेना का तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोध में भरकर पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो भगवान श्रीराम के सामने आया। उस समय इन्द्र का सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उसपर भगवान श्रीरामजी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणों से उन पर प्रहार करने लगा ॥ २१ ॥ भगवान श्रीरामजी ने रावण से कहा—‘नीच राक्षस ! तुम कुत्ते की तरह हमारी अनुपस्थिति में हमारी प्राणप्रिया पत्नी को हर लाये। तुम ने दुष्टता की हद कर दी ! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे काल को कोई टाल नहीं सकता—कर्तापन के अभिमानी को वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनी का फल चखाता हूँ’ ॥ २२ ॥ इस प्रकार रावण को फटकारते हुए भगवान श्रीराम ने अपने धनुष पर चढ़ाया हुआ बाण उसपर छोड़ा। उस बाण ने वज्र के समान उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखों से खून उगलता हुआ विमान से गिर पड़ा—ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मालोग भोग समाप्त होने पर स्वर्ग से गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन ‘हाय-हाय’ करके चिल्ला ने लगे ॥ २३ ॥
तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरी के साथ रोती हुर्ई लङ्का से निकल पड़ीं और रणभूमि में आयीं ॥ २४ ॥ उन्होंने देखा कि उनके स्वजन-सम्बन्धी लक्ष्मणजी के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियों को हृदय से लगा- लगाकर ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं ॥ २५ ॥ हाय-हाय ! स्वामी ! आज हम सब बेमौत मारी गयीं। एक दिन वह था, जब आपके भय से समस्त लोकों में त्राहि-त्राहि मच जाती थी। आज वह दिन आ पहुँचा कि आपके न रहने से हमारे शत्रु लङ्का की दुर्दशा कर रहे हैं और यह प्रश्र उठ रहा है कि अब लङ् का किसके अधीन रहेगी ॥ २६ ॥ आप सब प्रकार से सम्पन्न थे, किसी भी बात की कमी न थी। परंतु आप काम के वश हो गये और यह नहीं सोचा कि सीताजी कितनी तेजस्विनी हैं और उनका कितना प्रभाव है। आपकी यही भूल आपकी इस दुर्दशा का कारण बन गयी ॥ २७ ॥ कभी आपके कामों से हम सब और समस्त राक्षसवंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लङ् का नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गीधों का आहार बन रहा है और अपने आत्मा को आपने नरक का अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकता का फल है ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! कोसलाधीश भगवान श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा से विभीषण ने अपने स्वजन-सम्बन्धियों का पितृयज्ञ की विधि से शास्त्र के अनुसार अन्त्येष्टिकर्म किया ॥ २९ ॥ इसके बाद भगवान श्रीराम ने अशोकवाटि का के आश्रम में अशोकवृक्ष के नीचे बैठी हुई श्रीसीताजी को देखा। वे उन्हींके विरह की व्याधि से पीडि़त एवं अत्यन्त दुर्बल हो रही थीं ॥ ३० ॥ अपनी प्राणप्रिया अर्धाङ्गिनी श्रीसीताजी को अत्यन्त दीन-अवस्था में देखकर श्रीराम का हृदय प्रेम और कृपा से भर आया। इधर भगवान का दर्शन पाकर सीताजी का हृदय प्रेम और आनन्द से परिपूर्ण हो गया, उनका मुखकमल खिल उठा ॥ ३१ ॥ भगवान ने विभीषण को राक्षसों का स्वामित्व, लङ्कापुरी का राज्य और एक कल्प की आयु दी और इसके बाद पहले सीताजी को विमान पर बैठाकर अपने दोनों भाई लक्ष्मण तथा सुग्रीव एवं सेवक हनूमान्जी के साथ स्वयं भी विमान पर सवार हुए। इस प्रकार चौदह वर्ष का व्रत पूरा हो जाने पर उन्होंने अपने नगर की यात्रा की। उस समय मार्ग में ब्रह्मा आदि लोकपालगण उन पर बड़े प्रेम से पुष्पों की वर्षा कर रहे थे ॥ ३२-३३ ॥
इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्द से भगवान की लीलाओं का गान कर रहे थे और उधर जब भगवान को यह मालूम हुआ कि भरतजी केवल गोमूत्र में पकाया हुआ जौ का दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वी पर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुखी हुए। उनकी दशा का स्मरण कर परम करुणाशील भगवान का हृदय भर आया। जब भरत को मालूम हुआ कि मेरे बड़े भाई भगवान श्रीरामजी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितों को साथ लेकर एवं भगवान की पादुकाएँ सिर पर रखकर उनकी अगवानी के लिये चले। जब भरतजी अपने रहने के स्थान नन्दिग्राम से चले, तब लोग उनके साथ-साथ मङ्गलगान करते, बाजे बजाते चल ने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूँज ने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहरा ने लगीं। सो ने से मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओं से सजे हुए रथ, सुनहले साज से सजाये हुए सुन्दर घोड़े तथा सो ने के कवच पह ने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चल ने लगे। सेठ-साहूकार, श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ, पैदल चलनेवाले सेवक और महाराजाओं के योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं। भगवान को देखते ही प्रेम के उद्रेक से भरतजी का हृदय गद्गद हो गया, नेत्रों में आँसू छलक आये, वे भगवान के चरणों पर गिर पड़े ॥ ३४—३९ ॥ उन्होंने प्रभु के सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोडक़र खड़े हो गये। नेत्रों से आँसू की धारा बहती जा रही थी। भगवान ने अपने दोनों हाथों से पकडक़र बहुत देर तक भरतजी को हृदय से लगाये रखा। भगवान के नेत्रजल से भरतजी का स्नान हो गया ॥ ४० ॥ इसके बाद सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ भगवान श्रीरामजी ने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनों को नमस्कार किया तथा सारी प्रजाने बड़े प्रेम से सिर झुकाकर भगवान के चरणों में प्रणाम किया ॥ ४१ ॥ उस समय उत्तर कोसल देश की रहनेवाली समस्त प्रजा अपने स्वामी भगवान को बहुत दिनों के बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पों की वर्षा करती हुई आनन्द से नाच ने लगी ॥ ४२ ॥ भरतजी ने भगवान की पादुकाएँ लीं, विभीषण ने श्रेष्ठ चँवर, सुग्रीव ने पंखा और श्रीहनूमान्जी ने श्वेत छत्र ग्रहण किया ॥ ४३ ॥ परीक्षित ! शत्रुघ्रजी ने धनुष और तरकस, सीताजी ने तीर्थों के जल से भरा कमण्डलु, अंगद ने सो ने का खड्ग और जाम्बवान् ने ढाल ले ली ॥ ४४ ॥ इन लोगों के साथ भगवान पुष्पक विमान पर विराजमान हो गये, चारों तरफ यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमान पर भगवान श्रीराम की ऐसी शोभा हुई, मानो ग्रहों के साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों ॥ ४५ ॥
इस प्रकार भगवान ने भाइयों का अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरी में प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सव से परिपूर्ण हो रही थी। राजमहल में प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबर के मित्रों और छोटों का यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीताजी और लक्ष्मणजी ने भी भगवान के साथ-साथ सब के प्रति यथायोग्य व्यवहार किया ॥ ४६-४७ ॥ उस समय जैसे मृ तक शरीर में प्राणों का सञ्चार हो जाय, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रों के आगमन से हर्षित हो उठीं। उन्होंने उन को अपनी गोद में बैठा लिया और अपने आँसुओं से उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया ॥ ४८ ॥ इसके बाद वसिष्ठजी ने दूसरे गुरुजनों के साथ विधिपूर्वक भगवान की जटा उतरवायी और बृहस्पति ने जैसे इन्द्र का अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रों के जल आदि से उनका अभिषेक किया ॥ ४९ ॥ इस प्रकार सिर से स्नान करके भगवान श्रीराम ने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलंकार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकीजी ने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और अलंकार धारण किये। उनके साथ भगवान श्रीरामजी अत्यन्त शोभायमान हुए ॥ ५० ॥ भरतजी ने उनके चरणों में गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करने पर भगवान श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्म में तत्पर तथा वर्णाश्रम के आचार को निभानेवाली प्रजा का पिता के समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी ॥ ५१ ॥ परीक्षित ! जब समस्त प्राणियों को सुख देनेवाले परम धर्मज्ञ भगवान श्रीराम राजा हुए तब था तो त्रेतायुग, परंतु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है ॥ ५२ ॥ परीक्षित ! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्र—सब-के-सब प्रजा के लिये कामधेनु के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले बन रहे थे ॥ ५३ ॥ इन्द्रियातीत भगवान श्रीराम के राज्य करते समय किसीको मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दु:ख, शोक, भय और थकावट नाममात्र के लिये भी नहीं थे। यहाँ तक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी ॥ ५४ ॥ भगवान श्रीराम ने एकपत्नी का व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अत्यन्त पवित्र एवं राजर्षियोंके- से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्म की शिक्षा दे ने के लिये स्वयं उस धर्म का आचरण करते थे ॥ ५५ ॥ सतीशिरोमणि सीताजी अपने पति के हृदय का भाव जानती रहतीं। वे प्रेमसे, सेवासे, शीलसे, अत्यन्त विनय से तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गुणों से अपने पति भगवान श्रीरामजी का चित्त चुराती रहती थीं ॥ ५६ ॥
॥ एकादशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
भगवानात्मनाऽऽत्मानं राम उत्तमकल्पकैः ।
सर्वदेवमयं देवमीज आचार्यवान् मखैः ॥ १॥
होत्रेऽददाद्दिशं प्राचीं ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभुः ।
अध्वर्यवे प्रतीचीं च उदीचीं सामगाय सः ॥ २॥
आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदन्तरा ।
मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोऽर्हति निःस्पृहः ॥ ३॥
इत्ययं तदलङ्कारवासोभ्यामवशेषितः ।
तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमङ्गल्यावशेषिता ॥ ४॥
ते तु ब्रह्मण्यदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम् ।
प्रीताः क्लिन्नधियस्तस्मै प्रत्यर्प्येदं बभाषिरे ॥ ५॥
अप्रत्तं नस्त्वया किं नु भगवन् भुवनेश्वर ।
यन्नोऽन्तर्हृदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा ॥ ६॥
नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुण्ठमेधसे ।
उत्तमश्लोकधुर्याय न्यस्तदण्डार्पिताङ्घ्रये ॥ ७॥
कदाचिल्लोकजिज्ञासुर्गूढो रात्र्यामलक्षितः ।
चरन् वाचोऽशृणोद्रामो भार्यामुद्दिश्य कस्यचित् ॥ ८॥
नाहं बिभर्मि त्वां दुष्टामसतीं परवेश्मगाम् ।
स्त्रीलोभी बिभृयात्सीतां रामो नाहं भजे पुनः ॥ ९॥
इति लोकाद्बहुमुखाद्दुराराध्यादसंविदः ।
पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम् ॥ १०॥
अन्तर्वत्न्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ ।
कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनिः ॥ ११॥
अङ्गदश्चित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ ।
तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते ॥ १२॥
सुबाहुः श्रुतसेनश्च शत्रुघ्नस्य बभूवतुः ।
गन्धर्वान् कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम् ॥ १३॥
तदीयं धनमानीय सर्वं राज्ञे न्यवेदयत् ।
शत्रुघ्नश्च मधोः पुत्रं लवणं नाम राक्षसम् ।
हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम् ॥ १४॥
मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता ।
ध्यायन्ती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह ॥ १५॥
तच्छ्रुत्वा भगवान् रामो रुन्धन्नपि धिया शुचः ।
स्मरंस्तस्या गुणांस्तांस्तान्नाशक्नोद्रोद्धुमीश्वरः ॥ १६॥
स्त्रीपुंप्रसङ्ग एतादृक् सर्वत्र त्रासमावहः ।
अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः ॥ १७॥
तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन्नजुहोत्प्रभुः ।
त्रयोदशाब्दसाहस्रमग्निहोत्रमखण्डितम् ॥ १८॥
स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः ।
स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात्ततः ॥ १९॥
नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयात्त-
लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः ।
रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्रपूगैः
किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः ॥ २०॥
यस्यामलं नृपसदःसु यशोऽधुनापि
गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम् ।
तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्टपादाम्बुजं
रघुपतिं शरणं प्रपद्ये ॥ २१॥
स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा ।
कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः ॥ २२॥
पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन् ।
आनृशंस्यपरो राजन् कर्मबन्धैर्विमुच्यते ॥ २३॥
राजोवाच
कथं स भगवान् रामो भ्रातॄन् वा स्वयमात्मनः ।
तस्मिन् वा तेऽन्ववर्तन्त प्रजाः पौराश्च ईश्वरे ॥ २४॥
श्रीशुक उवाच
अथादिशद्दिग्विजये भ्रातॄंस्त्रिभुवनेश्वरः ।
आत्मानं दर्शयन् स्वानां पुरीमैक्षत सानुगः ॥ २५॥
आसिक्तमार्गां गन्धोदैः करिणां मदशीकरैः ।
स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव ॥ २६॥
प्रासादगोपुरसभाचैत्यदेवगृहादिषु ।
विन्यस्तहेमकलशैः पताकाभिश्च मण्डिताम् ॥ २७॥
पूगैः सवृन्तै रम्भाभिः पट्टिकाभिः सुवाससाम् ।
आदर्शैरंशुकैः स्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम् ॥ २८॥
तमुपेयुस्तत्र तत्र पौरा अर्हणपाणयः ।
आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक् त्वयोद्धृताम् ॥ २९॥
ततः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतं
दिदृक्षयोत्सृष्टगृहाः स्त्रियो नराः ।
आरुह्य हर्म्याण्यरविन्दलोचनमतृप्तनेत्राः
कुसुमैरवाकिरन् ॥ ३०॥
अथ प्रविष्टः स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वराजभिः ।
अनन्ताखिलकोषाढ्यमनर्घ्योरुपरिच्छदम् ॥ ३१॥
विद्रुमोदुम्बरद्वारैर्वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तिभिः ।
स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैर्भातस्फटिकभित्तिभिः ॥ ३२॥
चित्रस्रग्भिः पट्टिकाभिर्वासोमणिगणांशुकैः ।
मुक्ताफलैश्चिदुल्लासैः कान्तकामोपपत्तिभिः ॥ ३३॥
धूपदीपैः सुरभिभिर्मण्डितं पुष्पमण्डनैः ।
स्त्रीपुम्भिः सुरसङ्काशैर्जुष्टं भूषणभूषणैः ॥ ३४॥
तस्मिन् स भगवान् रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया ।
रेमे स्वारामधीराणामृषभः सीतया किल ॥ ३५॥
बुभुजे च यथाकालं कामान् धर्ममपीडयन् ।
वर्षपूगान् बहून् नॄणामभिध्याताङ्घ्रिपल्लवः ॥ ३६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे श्रीरामोपाख्याने एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥
नवम स्कन्ध-ग्यारहवाँ अध्याय
भगवान श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठजी को अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियों से युक्त यज्ञों के द्वारा अपने-आप ही अपने सर्वदेव स्वरूप स्वयंप्रकाश आत्मा का यजन किया ॥ १ ॥ उन्होंने होता को पूर्व दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण, अध्वर्यु को पश्चिम और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी ॥ २ ॥ उनके बीच में जितनी भूमि बच रही थी, वह उन्होंने आचार्य को दे दी। उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डल का एकमात्र अधिकारी नि:स्पृह ब्राह्मण ही है ॥ ३ ॥ इस प्रकार सारे भूमण्डल का दान करके उन्होंने अपने शरीर के वस्त्र और अलंकार ही अपने पास रखे। इसी प्रकार महारानी सीताजी के पास भी केवल माङ्गलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे ॥ ४ ॥ जब आचार्य आदि ब्राह्मणों ने देखा कि भगवान श्रीराम तो ब्राह्मणों को ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदय में ब्राह्मणों के प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेम से द्रवित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान को लौटा दी और कहा ॥ ५ ॥ ‘प्रभो ! आप सब लोकों के एकमात्र स्वामी हैं। आप तो हमारे हृदय के भीतर रहकर अपनी ज्योति से अज्ञानान्धकार का नाश कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में भला, आपने हमें क्या नहीं दे रखा है ॥ ६ ॥ आपका ज्ञान अनन्त है। पवित्र कीर्तिवाले पुरुषों में आप सर्वश्रेष्ठ हैं। उन महात्माओं को, जो किसीको किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे हैं। ऐसा होने पर भी आप ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानते हैं। भगवन् ! आपके इस रामरूप को हम नमस्कार करते हैं’ ॥ ७ ॥
परीक्षित ! एक बार अपनी प्रजा की स्थिति जान ने के लिये भगवान श्रीरामजी रात के समय छिपकर बिना किसीको बतलाये घूम रहे थे। उस समय उन्होंने किसी की यह बात सुनी। वह अपनी पत्नी से कह रहा था ॥ ८ ॥ ‘अरी ! तू दुष्ट और कुलटा है। तू पराये घर में रह आयी है। स्त्री-लोभी राम भले ही सीता को रख लें, परंतु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता’ ॥ ९ ॥ सचमुच सब लोगों को प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खों की तो कमी नहीं है। जब भगवान श्रीराम ने बहुतों के मुँह से ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवाद से कुछ भयभीत- से हो गये। उन्होंने श्रीसीताजी का परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकिमुनि के आश्रम में रहने लगीं ॥ १० ॥ सीताजी उस समय गर्भवती थीं। समय आने पर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुए—कुश और लव। वाल्मीकि मुनि ने उनके जातकर्मादि संस्कार किये ॥ ११ ॥ लक्ष्मणजी के दो पुत्र हुए—अंगद और चित्रकेतु। परीक्षित ! इसी प्रकार भरतजी के भी दो ही पुत्र थे—तक्ष और पुष्कल ॥ १२ ॥ तथा शत्रुघ्र के भी दो पुत्र हुए—सुबाहु और श्रुतसेन। भरतजी ने दिग्विजय में करोड़ों गन्धर्वों का संहार किया ॥ १३ ॥ उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान श्रीराम की सेवा में निवेदन किया। शत्रुघ्रजी ने मधुवन में मधु के पुत्र लवण नामक राक्षस को मारकर वहाँ मथुरा नाम की पुरी बसायी ॥ १४ ॥ भगवान श्रीराम के द्वारा निर्वासित सीताजी ने अपने पुत्रों को वाल्मीकिजी के हाथों में सौंप दिया और भगवान श्रीराम के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवी के लोक में चली गयीं ॥ १५ ॥
यह समाचार सुनकर भगवान श्रीराम ने अपने शोकावेश को बुद्धि के द्वारा रोकना चाहा, परंतु परम समर्थ होने पर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकीजी के पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे ॥ १६ ॥ परीक्षित ! यह स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दु:ख का कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगों के विषय में भी ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुष के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ १७ ॥
इसके बाद भगवान श्रीराम ने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्ष तक अखण्डरूप से अग्रिहोत्र किया ॥ १८ ॥ तदनन्तर अपना स्मरण करनेवाले भक्तों के हृदय में अपने उन चरणकमलों को स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वयंप्रकाश परम ज्योतिर्मय धाम में चले गये ॥ १९ ॥
परीक्षित ! भगवान के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढक़र तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थिति में रघुवंशशिरोमणि भगवान श्रीराम के लिये यह कोई बड़े गौरव की बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र- शस्त्रों से राक्षसों को मार डाला या समुद्र पर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओं को मार ने के लिये बंदरों की सहायता की भी आवश्यकता थी क्या ? यह सब उनकी लीला ही है ॥ २० ॥
भगवान श्रीराम का निर्मल यश समस्त पापों को नष्ट कर देनेवाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजों का श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलता से चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि- महर्षि राजाओं की सभा में उसका गान करते रहते हैं। स्वर्ग के देवता और पृथ्वी के नरपति अपने कमनीय किरीटों से उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान श्रीरामचन्द्र की शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २१ ॥ जिन्हों ने भगवान श्रीराम का दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया—वे सब-के-सब तथा कोसलदेश के निवासी भी उसी लोक में गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योगसाधना के द्वारा जाते हैं ॥ २२ ॥ जो पुरुष अपने कानों से भगवान श्रीराम का चरित्र सुनता है—उसे सरलता, कोमलता आदि गुणों की प्राप्ति होती है। परीक्षित ! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है ॥ २३ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवान श्रीराम स्वयं अपने भाइयों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते थे ? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासी भगवान श्रीराम के प्रति कैसा बर्ताव करते थे ? ॥ २४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—त्रिभुवनपति महाराज श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद अपने भाइयों को दिग्विजय की आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनों को दर्शन देते हुए अपने अनुचरों के साथ वे पुरी की देख-रेख करने लगे ॥ २५ ॥ उस समय अयोध्यापुरी के मार्ग सुगन्धित जल और हाथियों के मदकणों से सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान श्रीराम को देखकर अत्यन्त मतवाली हो रही है ॥ २६ ॥ उसके महल, फाटक, सभाभवन, विहार और देवालय आदि में सुवर्ण के कलश रखे हुऐ थे और स्थान-स्थान पर पताकाएँ फहरा रही थीं ॥ २७ ॥ वह डंठलसमेत सुपारी, केले के खंभे और सुन्दर वस्त्रों के पट्टों से सजायी हुई थी। दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओं से तथा माङ्गलिक चित्रकारियों और बंदनवारों से सारी नगरी जगमगा रही थी ॥ २८ ॥ नगरवासी अपने हाथों में तरह-तरह की भेंटें लेकर भगवान के पास आते और उनसे प्रार्थना करते कि ‘देव ! पहले आपने ही वराहरूप से पृथ्वी का उद्धार किया था; अब आप ही इसका पालन कीजिये ॥ २९ ॥ परीक्षित ! उस समय जब प्रजा को मालूम होता कि बहुत दिनों के बाद भगवान श्रीरामजी इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शन की लालसा से घर-द्वार छोडक़र दौड़ पड़ते। वे ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रों से कमलनयन भगवान को देखते हुए उन पर पुष्पों की वर्षा करते ॥ ३० ॥
इस प्रकार प्रजा का निरीक्षण करके भगवान फिर अपने महलों में आ जाते । उनके वे महल पूर्ववर्ती राजाओं के द्वारा सेवित थे। उनमें इत ने बड़े-बड़े सब प्रकार के खजाने थे, जो कभी समाप्त नहीं होते थे। वे बड़ी-बड़ी बहुमूल्य बहुत-सी सामग्रियों से सुसज्जित थे ॥ ३१ ॥ महलों के द्वार तथा देहलियाँ मूँगे की बनी हुई थीं। उनमें जो खंभे थे, वे वैदूर्यमणि के थे। मरकतमणि के बड़े सुन्दर-सुन्दर फर्श थे, तथा स्फटिकमणि की दीवारें चमकती रहती थीं ॥ ३२ ॥ रगं-बिरंगी मालाओं, पताकाओं, मणियों की चमक, शुद्ध चेतन के समान उज्ज्वल मोती, सुन्दर-सुन्दर भोग- सामग्री, सुगन्धित धूप-दीप तथा फूलों के गहनों से वे महल खूब सजाये हुए थे। आभूषणों को भी भूषित करनेवाले देवताओं के समान स्त्री-पुरुष उसकी सेवा में लगे रहते थे ॥ ३३-३४ ॥ परीक्षित ! भगवान श्रीरामजी आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषों के शिरोमणि थे। उसी महल में वे अपनी प्राणप्रिया प्रेममयी पत्नी श्रीसीताजी के साथ विहार करते थे ॥ ३५ ॥ सभी स्त्री-पुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते रहते हैं, वे ही भगवान श्रीराम बहुत वर्षों तक धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए समयानुसार भोगों का उपभोग करते रहे ॥ ३६ ॥
॥ द्वादशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
कुशस्य चातिथिस्तस्मान्निषधस्तत्सुतो नभः ।
पुण्डरीकोऽथ तत्पुत्रः क्षेमधन्वाभवत्ततः ॥ १॥
देवानीकस्ततोऽनीहः पारियात्रोऽथ तत्सुतः ।
ततो बलस्थलस्तस्माद्वज्रनाभोऽर्कसम्भवः ॥ २॥
खगणस्तत्सुतस्तस्माद्विधृतिश्चाभवत्सुतः ।
ततो हिरण्यनाभोऽभूद्योगाचार्यस्तु जैमिनेः ॥ ३॥
शिष्यः कौसल्य आध्यात्मं याज्ञवल्क्योऽध्यगाद्यतः ।
योगं महोदयमृषिर्हृदयग्रन्थिभेदकम् ॥ ४॥
पुष्यो हिरण्यनाभस्य ध्रुवसन्धिस्ततोऽभवत् ।
सुदर्शनोऽथाग्निवर्णः शीघ्रस्तस्य मरुः सुतः ॥ ५॥
योऽसावास्ते योगसिद्धः कलापग्राममाश्रितः ।
कलेरन्ते सूर्यवंशं नष्टं भावयिता पुनः ॥ ६॥
तस्मात्प्रसुश्रुतस्तस्य सन्धिस्तस्याप्यमर्षणः ।
महस्वांस्तत्सुतस्तस्माद्विश्वसाह्वोऽन्वजायत ॥ ७॥
ततः प्रसेनजित्तस्मात्तक्षको भविता पुनः ।
ततो बृहद्बलो यस्तु पित्रा ते समरे हतः ॥ ८॥
एते हीक्ष्वाकुभूपाला अतीताः शृण्वनागतान् ।
बृहद्बलस्य भविता पुत्रो नाम बृहद्रणः ॥ ९॥
ऊरुक्रियः सुतस्तस्य वत्सवृद्धो भविष्यति ।
प्रतिव्योमस्ततो भानुर्दिवाको वाहिनीपतिः ॥ १०॥
सहदेवस्ततो वीरो बृहदश्वोऽथ भानुमान् ।
प्रतीकाश्वो भानुमतः सुप्रतीकोऽथ तत्सुतः ॥ ११॥
भविता मरुदेवोऽथ सुनक्षत्रोऽथ पुष्करः ।
तस्यान्तरिक्षस्तत्पुत्रः सुतपास्तदमित्रजित् ॥ १२॥
बृहद्राजस्तु तस्यापि बर्हिस्तस्मात्कृतञ्जयः ।
रणञ्जयस्तस्य सुतः सञ्जयो भविता ततः ॥ १३॥
तस्माच्छाक्योऽथ शुद्धोदो लाङ्गलस्तत्सुतः स्मृतः ।
ततः प्रसेनजित्तस्मात्क्षुद्रको भविता ततः ॥ १४॥
रणको भविता तस्मात्सुरथस्तनयस्ततः ।
सुमित्रो नाम निष्ठान्त एते बार्हद्बलान्वयाः ॥ १५॥
इक्ष्वाकूणामयं वंशः सुमित्रान्तो भविष्यति ।
यतस्तं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ ॥ १६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे इक्ष्वाकुवंशवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
नवम स्कन्ध-बारहवाँ अध्याय
इक्ष्वाकुवंश के शेष राजाओं का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! कुश का पुत्र हुआ अतिथि, उसका निषध, निषध का नभ, नभ का पुण्डरीक और पुण्डरीक का क्षेमधन्वा ॥ १ ॥ क्षेमधन्वा का देवानीक, देवानीक का अनीह, अनीह का पारियात्र, पारियात्र का बलस्थल और बलस्थल का पुत्र हुआ वज्रनाभ। यह सूर्य का अंश था ॥ २ ॥ वज्रनाभ से खगण, खगण से विधृति और विधृति से हिरण्यनाभ की उत्पत्ति हुई। वह जैमिनि का शिष्य और योगाचार्य था ॥ ३ ॥ कोसलदेशवासी याज्ञवल्क्य ऋषि ने उसकी शिष्यता स्वीकार करके उससे अध्यात्मयोग की शिक्षा ग्रहण की थी। वह योग हृदय की गाँठ काट देनेवाला तथा परम सिद्धि देनेवाला है ॥ ४ ॥ हिरण्यनाभ का पुष्य, पुष्य का ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धि का सुदर्शन, सुदर्शन का अग्रिवर्ण, अग्रिवर्ण का शीघ्र और शीघ्र का पुत्र हुआ मरु ॥ ५ ॥ मरु ने योगसाधना से सिद्धि प्राप्त कर ली और वह इस समय भी कलाप नामक ग्राम में रहता है। कलियुग के अन्त में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर वह उसे फिर से चलायेगा ॥ ६ ॥ मरु से प्रसुश्रुत, उससे सन्धि और सन्धि से अमर्षण का जन्म हुआ। अमर्षण का महस्वान् और महस्वान् का विश्वसाह्व ॥ ७ ॥ विश्वसाह्व का प्रसेनजित्, प्रसेनजित् का तक्षक और तक्षक का पुत्र बृहद्वल हुआ। परीक्षित ! इसी बृहद्वल को तुम्हारे पिता अभिमन्यु ने युद्ध में मार डाला था ॥ ८ ॥
परीक्षित ! इक्ष्वाकुवंश के इत ने नरपति हो चु के हैं। अब आनेवालों के विषय में सुनो। बृहद्वल का पुत्र होगा बृहद्रण ॥ ९ ॥ बृहद्रण का उरुक्रिय, उसका वत्सवृद्ध, वत्सवृद्ध का प्रतिव्योम, प्रतिव्योम का भानु और भानु का पुत्र होगा सेनापति दिवाक ॥ १० ॥ दिवाक का वीर सहदेव, सहदेव का बृहदश्व, बृहदश्व का भानुमान्, भानुमान् का प्रतीकाश्व और प्रतीकाश्व का पुत्र होगा सुप्रतीक ॥ ११ ॥ सुप्रतीक का मरुदेव, मरुदेव का सुनक्षत्र, सुनक्षत्र का पुष्कर, पुष्कर का अन्तरिक्ष, अन्तरिक्ष का सुतपा और उसका पुत्र होगा अमित्रजित् ॥ १२ ॥ अमित्रजित् से बृहद्राज, बृहद्राज से बर्हि, बर्हि से कृतञ्जय, कृतञ्जय से रणञ्जय और उससे सञ्जय होगा ॥ १३ ॥ सञ्जय का शाक्य, उसका शुद्धोद और शुद्धोद का लाङ्गल, लाङ्गल का प्रसेनजित् और प्रसेनजित् का पुत्र क्षुद्रक होगा ॥ १४ ॥ क्षुद्रक से रणक, रणक से सुरथ और सुरथ से इस वंश के अन्तिम राजा सुमित्र का जन्म होगा। ये सब बृहद्वल के वंशधर होंगे ॥ १५ ॥ इक्ष्वाकु का यह वंश सुमित्र तक ही रहेगा। क्योंकि सुमित्र के राजा होने पर कलियुग में यह वंश समाप्त हो जायगा ॥ १६ ॥
॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम् ।
आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः ॥ १॥
तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय ।
तूष्णीमासीद्गृहपतिः सोऽपीन्द्रस्याकरोन्मखम् ॥ २॥
निमिश्चलमिदं विद्वान् सत्रमारभतात्मवान् ।
ऋत्विग्भिरपरैस्तावन्नागमद्यावता गुरुः ॥ ३॥
शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य निर्वर्त्य गुरुरागतः ।
अशपत्पतताद्देहो निमेः पण्डितमानिनः ॥ ४॥
निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने ।
तवापि पतताद्देहो लोभाद्धर्ममजानतः ॥ ५॥
इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः ।
मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः ॥ ६॥
गन्धवस्तुषु तद्देहं निधाय मुनिसत्तमाः ।
समाप्ते सत्रयागेऽथ देवानूचुः समागतान् ॥ ७॥
राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि ।
तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबन्धनम् ॥ ८॥
यस्य योगं न वाञ्छन्ति वियोगभयकातराः ।
भजन्ति चरणाम्भोजं मुनयो हरिमेधसः ॥ ९॥
देहं नावरुरुत्सेऽहं दुःखशोकभयावहम् ।
सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्मत्स्यानामुदके यथा ॥ १०॥
देवा ऊचुः
विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम् ।
उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः ॥ ११॥
अराजकभयं नॄणां मन्यमाना महर्षयः ।
देहं ममन्थुः स्म निमेः कुमारः समजायत ॥ १२॥
जन्मना जनकः सोऽभूद्वैदेहस्तु विदेहजः ।
मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता ॥ १३॥
तस्मादुदावसुस्तस्य पुत्रोऽभून्नन्दिवर्धनः ।
ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते ॥ १४॥
तस्माद्बृहद्रथस्तस्य महावीर्यः सुधृत्पिता ।
सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वै हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः ॥ १५॥
मरोः प्रतीपकस्तस्माज्जातः कृतरथो यतः ।
देवमीढस्तस्य पुत्रो विश्रुतोऽथ महाधृतिः ॥ १६॥
कृतिरातस्ततस्तस्मान्महारोमाथ तत्सुतः ।
स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत ॥ १७॥
ततः सीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम् ।
सीता सीराग्रतो जाता तस्मात्सीरध्वजः स्मृतः ॥ १८॥
कुशध्वजस्तस्य पुत्रस्ततो धर्मध्वजो नृपः ।
धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमितध्वजौ ॥ १९॥
कृतध्वजात्केशिध्वजः खाण्डिक्यस्तु मितध्वजात् ।
कृतध्वजसुतो राजन्नात्मविद्याविशारदः ॥ २०॥
खाण्डिक्यः कर्मतत्त्वज्ञो भीतः केशिध्वजाद्द्रुतः ।
भानुमांस्तस्य पुत्रोऽभूच्छतद्युम्नस्तु तत्सुतः ॥ २१॥
शुचिस्तत्तनयस्तस्मात्सनद्वाजस्ततोऽभवत् ।
ऊर्ध्वकेतुः सनद्वाजादजोऽथ पुरुजित्सुतः ॥ २२॥
अरिष्टनेमिस्तस्यापि श्रुतायुस्तत्सुपार्श्वकः ।
ततश्चित्ररथो यस्य क्षेमधिर्मिथिलाधिपः ॥ २३॥
तस्मात्समरथस्तस्य सुतः सत्यरथस्ततः ।
आसीदुपगुरुस्तस्मादुपगुप्तोऽग्निसम्भवः ॥ २४॥
वस्वनन्तोऽथ तत्पुत्रो युयुधो यत्सुभाषणः ।
श्रुतस्ततो जयस्तस्माद्विजयोऽस्मादृतः सुतः ॥ २५॥
शुनकस्तत्सुतो जज्ञे वीतहव्यो धृतिस्ततः ।
बहुलाश्वो धृतेस्तस्य कृतिरस्य महावशी ॥ २६॥
एते वै मैथिला राजन्नात्मविद्याविशारदाः ।
योगेश्वरप्रसादेन द्वन्द्वैर्मुक्ता गृहेष्वपि ॥ २७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे निमिवंशानुवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥
नवम स्कन्ध-तेरहवाँ अध्याय
राजा निमि के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठ को ऋत्विज् के रूप में वरण किया। वसिष्ठजी ने कहा कि ‘राजन् ! इन्द्र अपने यज्ञ के लिये मुझे पहले ही वरण कर चु के हैं ॥ १ ॥ उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तब तक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप हो रहे और वसिष्ठजी इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये ॥ २ ॥ विचारवान् निमि ने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभङ्गुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जब तक गुरु वसिष्ठजी न लौटें, तब तक के लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजों को वरण कर लिया ॥ ३ ॥ गुरु वसिष्ठजी जब इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करके लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमि ने तो उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमि को अपनी विचारशीलता और पाण्डित्य का बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाय’ ॥ ४ ॥ निमि की दृष्टि में गुरु वसिष्ठ का यह शाप धर्म के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्म का आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाय’ ॥ ५ ॥ यह कहकर आत्मविद्या में निपुण निमि ने अपने शरीर का त्याग कर दिया। परीक्षित ! इधर हमारे वृद्ध प्रपितामह वसिष्ठजी ने भी अपना शरीर त्याग कर मित्रावरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया ॥ ६ ॥ राजा निमि के यज्ञ में आये हुए श्रेष्ठ मुनियों ने राजा के शरीर को सुगन्धित वस्तुओं में रख दिया। जब सत्रयाग की समाप्ति हुई और देवतालोग आये, तब उन लोगों ने उनसे प्रार्थना की ॥ ७ ॥ ‘महानुभावो ! आपलोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमि का यह शरीर पुन: जीवित हो उठे।’ देवताओं ने कहा—‘ऐसा ही हो।’ उस समय निमि ने कहा—‘मुझे देह का बन्धन नहीं चाहिये ॥ ८ ॥ विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धि को पूर्णरूप से श्रीभगवान में ही लगा देते हैं और उन्हींके चरणकमलों का भजन करते हैं। एक- न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा—इस भय से भीत होने के कारण वे इस शरीर का कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं ॥ ९ ॥ अत: मैं अब दु:ख, शोक और भय के मूल कारण इस शरीर को धारण करना नहीं चाहता। जैसे जल में मछली के लिये सर्वत्र ही मृत्यु के अवसर हैं, वैसे ही इस शरीर के लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है’ ॥ १० ॥
देवताओं ने कहा—‘मुनियो ! राजा निमि बिना शरीर के ही प्राणियों के नेत्रों में अपनी इच्छा के अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्मशरीर से भगवान का चिन्तन करते रहें। पलक उठ ने और गिर ने से उनके अस्तित्व का पता चलता रहेगा ॥ ११ ॥ इसके बाद महर्षियों ने यह सोचकर कि ‘राजा के न रहने पर लोगों में अराजकता फैल जायगी’ निमि के शरीर का मन्थन किया। उस मन्थन से एक कुमार उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ जन्म लेने के कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेह से उत्पन्न होने के कारण ‘वैदेह’ और मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उसी बालक का नाम ‘मिथिल’ हुआ। उसी ने मिथिलापुरी बसायी ॥ १३ ॥
परीक्षित ! जनक का उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धन का सुकेतु, उसका देवरात, देवरात का बृहद्रथ, बृहद्रथ का महावीर्य, महावीर्य का सुधृति, सुधृति का धृष्टकेतु, धृष्टकेतु का हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ ॥ १४-१५ ॥ मरु से प्रतीपक, प्रतीपक से कृतिरथ, कृतिरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत और विश्रुत से महाधृति का जन्म हुआ ॥ १६ ॥ महाधृति का कृतिरात, कृतिरात का महारोमा, महारोमा का स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा का पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा ॥ १७ ॥ इसी ह्रस्वरोमा के पुत्र महाराज सीरध्वज थे। वे जब यज्ञ के लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाग (फाल) से सीताजी की उत्पत्ति हुई। इसीसे उनका नाम ‘सीरध्वज’ पड़ा ॥ १८ ॥ सीरध्वज के कुशध्वज, कुशध्वज के धर्मध्वज और धर्मध्वज के दो पुत्र हुए—कृतध्वज और मितध्वज ॥ १९ ॥ कृतध्वज के केशिध्वज और मितध्वज के खाण्डिक्य हुए। परीक्षित ! केशिध्वज आत्मविद्या में बड़ा प्रवीण था ॥ २० ॥ खाण्डिक्य था कर्मकाण्ड का मर्मज्ञ। वह केशिध्वज से भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वज का पुत्र भानुमान् और भानुमान् का शतद्युम्र था ॥ २१ ॥ शतद्युम्र से शुचि, शुचि से सनद्वाज, सनद्वाज से ऊध्र्वकेतु, ऊध्र्वकेतु से अज, अज से पुरुजित्, पुरुजित् से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमि से श्रुतायु, श्रुतायु से सुपाश्र्वक, सुपाश्र्वक से चित्ररथ और चित्ररथ से मिथिलापति क्षेमधि का जन्म हुआ ॥ २२-२३ ॥ क्षेमधि से समरथ, समरथ से सत्यरथ, सत्यरथ से उपगुरु और उपगुरु से उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्रि का अंश था ॥ २४ ॥ उपगुप्त का वस्वनन्त, वस्वनन्त का युयुध, युयुध का सुभाषण, सुभाषण का श्रुत, श्रुत का जय, जय का विजय और विजय का ऋत नामक पुत्र हुआ ॥ २५ ॥ ऋत का शुनक, शुनक का वीतहव्य, वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति और कृति का पुत्र हुआ महावशी ॥ २६ ॥ परीक्षित ! ये मिथिल के वंश में उत्पन्न सभी नरपति ‘मैथिल’ कहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञान से सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों से मुक्त थे। क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरों की इन पर महान कृपा जो थी ॥ २७ ॥
॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः ।
यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः ॥ १॥
सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रदसरोरुहात् ।
जातस्यासीत्सुतो धातुरत्रिः पितृसमो गुणैः ॥ २॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत्पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥ ३॥
सोऽयजद्राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम् ।
पत्नीं बृहस्पतेर्दर्पात्तारां नामाहरद्बलात् ॥ ४॥
यदा स देवगुरुणा याचितोऽभीक्ष्णशो मदात् ।
नात्यजत्तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रहः ॥ ५॥
शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषादग्रहीत्सासुरोडुपम् ।
हरो गुरुसुतं स्नेहात्सर्वभूतगणावृतः ॥ ६॥
सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्वयात् ।
सुरासुरविनाशोऽभूत्समरस्तारकामयः ॥ ७॥
निवेदितोऽथाङ्गिरसा सोमं निर्भर्त्स्य विश्वकृत् ।
तारां स्वभर्त्रे प्रायच्छदन्तर्वत्नीमवैत्पतिः ॥ ८॥
त्यज त्यजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रादाहितं परैः ।
नाहं त्वां भस्मसात्कुर्यां स्त्रियं सान्तानिकः सति ॥ ९॥
तत्याज व्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् ।
स्पृहामाङ्गिरसश्चक्रे कुमारे सोम एव च ॥ १०॥
ममायं न तवेत्युच्चैस्तस्मिन् विवदमानयोः ।
पप्रच्छुरृषयो देवा नैवोचे व्रीडिता तु सा ॥ ११॥
कुमारो मातरं प्राह कुपितोऽलीकलज्जया ।
किं न वोचस्यसद्वृत्ते आत्मावद्यं वदाशु मे ॥ १२॥
ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन् ।
सोमस्येत्याह शनकैः सोमस्तं तावदग्रहीत् ॥ १३॥
तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।
बुद्ध्या गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम् ॥ १४॥
ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहृतः ।
तस्य रूपगुणौदार्यशीलद्रविणविक्रमान् ॥ १५॥
श्रुत्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान् सुरर्षिणा ।
तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥ १६॥
मित्रावरुणयोः शापादापन्ना नरलोकताम् ।
निशम्य पुरुषश्रेष्ठं कन्दर्पमिव रूपिणम् ।
धृतिं विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदन्तिके ॥ १७॥
स तां विलोक्य नृपतिर्हर्षेणोत्फुल्ललोचनः ।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा देवीं हृष्टतनूरुहः ॥ १८॥
राजोवाच
स्वागतं ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम् ।
संरमस्व मया साकं रतिर्नौ शाश्वतीः समाः ॥ १९॥
उर्वश्युवाच
कस्यास्त्वयि न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुन्दर ।
यदङ्गान्तरमासाद्य च्यवते ह रिरंसया ॥ २०॥
एतावुरणकौ राजन् न्यासौ रक्षस्व मानद ।
संरंस्ये भवता साकं श्लाघ्यः स्त्रीणां वरः स्मृतः ॥ २१॥
घृतं मे वीर भक्ष्यं स्यान्नेक्षे त्वान्यत्र मैथुनात् ।
विवाससं तत्तथेति प्रतिपेदे महामनाः ॥ २२॥
अहो रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम् ।
को न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्वयमागताम् ॥ २३॥
तया स पुरुषश्रेष्ठो रमयन्त्या यथार्हतः ।
रेमे सुरविहारेषु कामं चैत्ररथादिषु ॥ २४॥
रममाणस्तया देव्या पद्मकिञ्जल्कगन्धया ।
तन्मुखामोदमुषितो मुमुदेऽहर्गणान् बहून् ॥ २५॥
अपश्यन्नुर्वशीमिन्द्रो गन्धर्वान् समचोदयत् ।
उर्वशीरहितं मह्यमास्थानं नातिशोभते ॥ २६॥
ते उपेत्य महारात्रे तमसि प्रत्युपस्थिते ।
उर्वश्या उरणौ जह्रुर्न्यस्तौ राजनि जायया ॥ २७॥
निशम्याक्रन्दितं देवी पुत्रयोर्नीयमानयोः ।
हतास्म्यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमानिना ॥ २८॥
यद्विश्रम्भादहं नष्टा हृतापत्या च दस्युभिः ।
यः शेते निशि सन्त्रस्तो यथा नारी दिवा पुमान् ॥ २९॥
इति वाक्सायकैर्विद्धः प्रतोत्त्रैरिव कुञ्जरः ।
निशि निस्त्रिंशमादाय विवस्त्रोऽभ्यद्रवद्रुषा ॥ ३०॥
ते विसृज्योरणौ तत्र व्यद्योतन्त स्म विद्युतः ।
आदाय मेषावायान्तं नग्नमैक्षत सा पतिम् ॥ ३१॥
ऐलोऽपि शयने जायामपश्यन् विमना इव ।
तच्चित्तो विह्वलः शोचन् बभ्रामोन्मत्तवन्महीम् ॥ ३२॥
स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखीः ।
पञ्च प्रहृष्टवदनाः प्राह सूक्तं पुरूरवाः ॥ ३३॥
अहो जाये तिष्ठ तिष्ठ घोरे न त्यक्तुमर्हसि ।
मां त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै ॥ ३४॥
सुदेहोऽयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया ।
खादन्त्येनं वृका गृध्रास्त्वत्प्रसादस्य नास्पदम् ॥ ३५॥
उर्वश्युवाच
मा मृथाः पुरुषोऽसि त्वं मा स्म त्वाद्युर्वृका इमे ।
क्वापि सख्यं न वै स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा ॥ ३६॥
स्त्रियो ह्यकरुणाः क्रूरा दुर्मर्षाः प्रियसाहसाः ।
घ्नन्त्यल्पार्थेऽपि विश्रब्धं पतिं भ्रातरमप्युत ॥ ३७॥
विधायालीकविश्रम्भमज्ञेषु त्यक्तसौहृदाः ।
नवं नवमभीप्सन्त्यः पुंश्चल्यः स्वैरवृत्तयः ॥ ३८॥
संवत्सरान्ते हि भवानेकरात्रं मयेश्वर ।
वत्स्यत्यपत्यानि च ते भविष्यन्त्यपराणि भोः ॥ ३९॥
अन्तर्वत्नीमुपालक्ष्य देवीं स प्रययौ पुरम् ।
पुनस्तत्र गतोऽब्दान्ते उर्वशीं वीरमातरम् ॥ ४०॥
उपलभ्य मुदा युक्तः समुवास तया निशाम् ।
अथैनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम् ॥ ४१॥
गन्धर्वानुपधावेमांस्तुभ्यं दास्यन्ति मामिति ।
तस्य संस्तुवतस्तुष्टा अग्निस्थालीं ददुर्नृप ।
उर्वशीं मन्यमानस्तां सोऽबुध्यत चरन् वने ॥ ४२॥
स्थालीं न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि ।
त्रेतायां सम्प्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत ॥ ४३॥
स्थालीस्थानं गतोऽश्वत्थं शमीगर्भं विलक्ष्य सः ।
तेन द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥ ४४॥
उर्वशीं मन्त्रतो ध्यायन्नधरारणिमुत्तराम् ।
आत्मानमुभयोर्मध्ये यत्तत्प्रव्रजनं प्रभुः ॥ ४५॥
तस्य निर्मन्थनाज्जातो जातवेदा विभावसुः ।
त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत् ॥ ४६॥
तेनायजत यज्ञेशं भगवन्तमधोक्षजम् ।
उर्वशीलोकमन्विच्छन् सर्वदेवमयं हरिम् ॥ ४७॥
एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्मयः ।
देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८॥
पुरूरवस एवासीत्त्रयी त्रेतामुखे नृप ।
अग्निना प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान् ॥ ४९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे ऐलोपाख्याने चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥
नवम स्कन्ध-चौदहवाँ अध्याय
चन्द्रवंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अब मैं तुम्हें चन्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंशमे पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है ॥ १ ॥ सहस्रों सिरवाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्माजी के समान ही थे ॥ २ ॥ उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया ॥ ३ ॥ उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया ॥ ४ ॥ देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा दे ने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परंतु वे इत ने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानव में घोर संग्राम छिड़ गया ॥ ५ ॥ शुक्राचार्यजी ने बृहस्पतिजी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेवजी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अङ्गिराजी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया ॥ ६ ॥ देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पतिजी का ही पक्ष लिया।
इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करनेवाला घोर संग्राम हुआ ॥ ७ ॥ तदनन्तर अङ्गिरा ऋषि ने ब्रह्माजी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पतिजी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पतिजी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा— ॥ ८ ॥ ‘दुष्टे ! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरंत त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’ ॥ ९ ॥ अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्ङ्क्षजत हुई। उसने सो ने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाह ने लगे कि यह हमें मिल जाय ॥ १० ॥ अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किस का लडक़ा है।’ परंतु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया ॥ ११ ॥ बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा—‘दुष्टे ! तू बतलाती क्यों नहीं ? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’ ॥ १२ ॥ उसी समय ब्रह्माजी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमाका।’ इसलिये चन्द्रमाने उस बालक को ले लिया ॥ १३ ॥ परीक्षित ! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ ॥ १४ ॥
परीक्षित ! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चु का हूँ। एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारदजी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीडि़त होकर वह देवाङ्गना पुरूरवा के पास चली आयी ॥ १५-१६ ॥ यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्युलोक में आना पड़ा था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेव के समान सुन्दर हैं—यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी ॥ १७ ॥ देवाङ्गना उर्वशी को देखकर राजा पुरूरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणी से कहा— ॥ १८ ॥
राजा पुरूरवा ने कहा—सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार अनन्त काल तक चलता रहे ॥ १९ ॥
उर्वशी ने कहा—‘राजन् ! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान् स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाय ? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है ॥ २० ॥ राजन् ! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परंतु मेरे प्रेमी महाराज ! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेडक़े दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इन की रक्षा करना ॥ २१ ॥ वीरशिरोमणे ! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।’ परम मनस्वी पुरूवा ने ठीक है—ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली ॥ २२ ॥ और फिर उर्वशी से कहा—‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टि को मोहित करनेवाला है। और देवि ! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा ? ॥ २३ ॥
परीक्षित ! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुष-श्रेष्ठ पुरूरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे ॥ २४ ॥ देवी उर्वशी के शरीर से कमलकेसरकी-सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे ॥ २५ ॥ इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे ला ने के लिये भेजा और कहा—‘उर्वशी के बिना मुझे यह स्वर्ग फी का जान पड़ता है’ ॥ २६ ॥ वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने ॥ २७ ॥ उर्वशी ने जब गन्धर्वों के द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र के समान प्यारे भेड़ों की ‘बें-बें’ सुनी, तब वह कह उठी कि ‘अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नपुंसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा स का ॥ २८ ॥ इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है’ ॥ २९ ॥ परीक्षित ! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरूरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े ॥ ३० ॥ गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमक ने लगे। जब राजा पुरूरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस,वह उसी समय उन्हें छोडक़र चली गयी) ॥ ३१ ॥
परीक्षित ! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनम ने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटक ने लगे ॥ ३२ ॥ एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा— ॥ ३३ ॥ ‘प्रिये ! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे ! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें ॥ ३४ ॥ देवि ! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुम ने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेडिय़े और गीध खा जायँगे’ ॥ ३५ ॥
उर्वशी ने कहा—राजन् ! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेडिय़े तुम्हें खा न जायँ ! स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेडिय़ों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है ॥ ३६ ॥ स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहसके काम कर बैठती हैं, थोड़े- से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं ॥ ३७ ॥ इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाह से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं ॥ ३८ ॥ तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी ॥ ३९ ॥
राजा पुरूरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी में लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी ॥ ४० ॥ उर्वशी के मिल ने से पुरूरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दु:ख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा— ॥ ४१ ॥ ‘तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की। परीक्षित ! राजा पुरूरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्रिस्थाली (अग्रिस्थापन करने का पात्र) दी। राजाने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उस को हृदय से लगाकर वे एक वन से दूसरे वन में घूमते रहे ॥ ४२ ॥ जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थाली को वन में छोडक़र अपने महल में लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करने रहे। इस प्रकार जब त्रेतायुग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए ॥ ४३ ॥ फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्रिस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोक की कामना से नीचे की अरणि को उर्वशी, ऊ पर की अरणि को पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्रि प्रज्वलित करनेवाले मन्त्रों से मन्थन किया ॥ ४४-४५ ॥ उनके मन्थन से ‘जातवेदा’ नाम का अग्रि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्रिदेवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गाहर्पत्य और दक्षिणाग्रि—इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया ॥ ४६ ॥ फिर उर्वशीलोक की इच्छा से पुरूरवा ने उन तीनों अग्रियों द्वारा सर्वदेव स्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया ॥ ४७ ॥
परीक्षित ! त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐ कार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्रि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था ॥ ४८ ॥ परीक्षित ! त्रेता के प्रारम्भ में पुरूरवा से ही वेदत्रयी और अग्रित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्रि को सन्तानरूप से स्वीकार करके गन्धर्वलोक की प्राप्ति की ॥ ४९ ॥
॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
ऐलस्य चोर्वशीगर्भात्षडासन्नात्मजा नृप ।
आयुः श्रुतायुः सत्यायू रयोऽथ विजयो जयः ॥ १॥
श्रुतायोर्वसुमान् पुत्रः सत्यायोश्च श्रुतञ्जयः ।
रयस्य सुत एकश्च जयस्य तनयोऽमितः ॥ २॥
भीमस्तु विजयस्याथ काञ्चनो होत्रकस्ततः ।
तस्य जह्नुः सुतो गङ्गां गण्डूषीकृत्य योऽपिबत् ।
जह्नोस्तु पूरुस्तत्पुत्रो बलाकश्चात्मजोऽजकः ॥ ३॥
ततः कुशः कुशस्यापि कुशाम्बुस्तनयो वसुः ।
कुशनाभश्च चत्वारो गाधिरासीत्कुशाम्बुजः ॥ ४॥
तस्य सत्यवतीं कन्यामृचीकोऽयाचत द्विजः ।
वरं विसदृशं मत्वा गाधिर्भार्गवमब्रवीत् ॥ ५॥
एकतः श्यामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम् ।
सहस्रं दीयतां शुल्कं कन्यायाः कुशिका वयम् ॥ ६॥
इत्युक्तस्तन्मतं ज्ञात्वा गतः स वरुणान्तिकम् ।
आनीय दत्त्वा तानश्वानुपयेमे वराननाम् ॥ ७॥
स ऋषिः प्रार्थितः पत्न्या श्वश्र्वा चापत्यकाम्यया ।
श्रपयित्वोभयैर्मन्त्रैश्चरुं स्नातुं गतो मुनिः ॥ ८॥
तावत्सत्यवती मात्रा स्वचरुं याचिता सती ।
श्रेष्ठं मत्वा तयायच्छन्मात्रे मातुरदत्स्वयम् ॥ ९॥
तद्विज्ञाय मुनिः प्राह पत्नीं कष्टमकारषीः ।
घोरो दण्डधरः पुत्रो भ्राता ते ब्रह्मवित्तमः ॥ १०॥
प्रसादितः सत्यवत्या मैवं भूदिति भार्गवः ।
अथ तर्हि भवेत्पौत्रो जमदग्निस्ततोऽभवत् ॥ ११॥
सा चाभूत्सुमहत्पुण्या कौशिकी लोकपावनी ।
रेणोः सुतां रेणुकां वै जमदग्निरुवाह याम् ॥ १२॥
तस्यां वै भार्गवऋषेः सुता वसुमदादयः ।
यवीयान् जज्ञ एतेषां राम इत्यभिविश्रुतः ॥ १३॥ स गो ना सं गो गो
यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम् ।
त्रिःसप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम् ॥ १४॥
दुष्टं क्षत्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत् ।
रजस्तमोवृतमहन् फल्गुन्यपि कृतेंऽहसि ॥ १५॥
राजोवाच
किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः ।
कृतं येन कुलं नष्टं क्षत्रियाणामभीक्ष्णशः ॥ १६॥
श्रीशुक उवाच
हैहयानामधिपतिरर्जुनः क्षत्रियर्षभः ।
दत्तं नारायणस्यांशमाराध्य परिकर्मभिः ॥ १७॥
बाहून् दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु ।
अव्याहतेन्द्रियौजः श्रीतेजोवीर्ययशोबलम् ॥ १८॥
योगेश्वरत्वमैश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः ।
चचाराव्याहतगतिर्लोकेषु पवनो यथा ॥ १९॥
स्त्रीरत्नैरावृतः क्रीडन् रेवाम्भसि मदोत्कटः ।
वैजयन्तीं स्रजं बिभ्रद्रुरोध सरितं भुजैः ॥ २०॥
विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतःसरिज्जलैः ।
नामृष्यत्तस्य तद्वीर्यं वीरमानी दशाननः ॥ २१॥
गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः ।
माहिष्मत्यां सन्निरुद्धो मुक्तो येन कपिर्यथा ॥ २२॥
स एकदा तु मृगयां विचरन् विपिने वने ।
यदृच्छयाऽऽश्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत् ॥ २३॥
तस्मै स नरदेवाय मुनिरर्हणमाहरत् ।
ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधनः ॥ २४॥
स वीरस्तत्र तद्दृष्ट्वा आत्मैश्वर्यातिशायनम् ।
तन्नाद्रियताग्निहोत्र्यां साभिलाषः स हैहयः ॥ २५॥
हविर्धानीमृषेर्दर्पान्नरान् हर्तुमचोदयत् ।
ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रन्दतीं बलात् ॥ २६॥
अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगतः ।
श्रुत्वा तत्तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाहतः ॥ २७॥
घोरमादाय परशुं सतूणम् वर्म कार्मुकम् ।
अन्वधावत दुर्मर्षो मृगेन्द्र इव यूथपम् ॥ २८॥
तमापतन्तं भृगुवर्यमोजसा
धनुर्धरं बाणपरश्वधायुधम् ।
ऐणेयचर्माम्बरमर्कधामभिर्युतं
जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन् ॥ २९॥
अचोदयद्धस्तिरथाश्वपत्तिभि-
र्गदासिबाणर्ष्टिशतघ्निशक्तिभिः ।
अक्षौहिणीः सप्तदशातिभीषणास्ता
राम एको भगवानसूदयत् ॥ ३०॥
यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो
मनोऽनिलौजाः परचक्रसूदनः ।
ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकन्धरा
निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः ॥ ३१॥
दृष्ट्वा स्वसैन्यं रुधिरौघकर्दमे
रणाजिरे रामकुठारसायकैः ।
विवृक्णचर्मध्वजचापविग्रहं
निपातितं हैहय आपतद्रुषा ॥ ३२॥
अथार्जुनः पञ्चशतेषु बाहुभिर्धनुःषु
बाणान् युगपत्स सन्दधे ।
रामाय रामोऽस्त्रभृतां समग्रणी-
स्तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत्समम् ॥ ३३॥
पुनः स्वहस्तैरचलान् मृधेऽङ्घ्रिपा-
नुत्क्षिप्य वेगादभिधावतो युधि ।
भुजान् कुठारेण कठोरनेमिना
चिच्छेद रामः प्रसभं त्वहेरिव ॥ ३४॥
कृत्तबाहोः शिरस्तस्य गिरेः शृङ्गमिवाहरत् ।
हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्रुवुर्भयात् ॥ ३५॥
अग्निहोत्रीमुपावर्त्य सवत्सां परवीरहा ।
समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत् ॥ ३६॥
स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च ।
वर्णयामास तच्छ्रुत्वा जमदग्निरभाषत ॥ ३७॥
राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत् ।
अवधीन्नरदेवं यत्सर्वदेवमयं वृथा ॥ ३८॥
वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः ।
यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात्पदम् ॥ ३९॥
क्षमया रोचते लक्ष्मीर्ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा ।
क्षमिणामाशु भगवांस्तुष्यते हरिरीश्वरः ॥ ४०॥
राज्ञो मूर्धाभिषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद्गुरुः ।
तीर्थसंसेवया चांहो जह्यङ्गाच्युतचेतनः ॥ ४१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥
नवम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय
ऋचीक, जमदग्रि और परशुरामजी का चरित्र
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! उर्वशी के गर्भ से पुरूरवा के छ: पुत्र हुए—आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय ॥ १ ॥ श्रुतायु का पुत्र था वसुमान्, सत्यायु का श्रुतञ्जय, रय का एक और जय का अमित ॥ २ ॥ विजय का भीम, भीम का काञ्चन, काञ्चन का होत्र और होत्र का पुत्र था जह्नु। ये जह्नु वही थे, जो गङ्गाजी को अपनी अञ्जलि में लेकर पी गये थे। जह्नु का पुत्र था पूरु, पूरु का बलाक और बलाक का अजक ॥ ३ ॥ अजक का कुश था। कुश के चार पुत्र थे—कुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ। इनमें से कुशाम्बु के पुत्र गाधि हुए ॥ ४ ॥
परीक्षित ! गाधि की कन्या का नाम था सत्यवती। ऋचीक ऋृषि ने गाधि से उनकी कन्या माँगी। गाधि ने यह समझकर कि ये कन्या के योग्य वर नहीं है, ऋचीक से कहा— ॥ ५ ॥ ‘मुनिवर ! हमलोग कुशिक-वंश के हैं। हमारी कन्या मिलनी कठिन है। इसलिये आप एक हजार ऐसे घोड़े लाकर मुझे शुल्करूप में दीजिये, जिनका सारा शरीर तो श्वेत हो, परंतु एक-एक कान श्याम वर्ण का हो’ ॥ ६ ॥ जब गाधि ने यह बात कही, तब ऋचीक मुनि उनका आशय समझ गये और वरुण के पास जाकर वैसे ही घोड़े ले आये तथा उन्हें देकर सुन्दरी सत्यवती से विवाह कर लिया ॥ ७ ॥ एक बार महर्षि ऋचीक से उनकी पत्नी और सास दोनों ने ही पुत्रप्राप्ति के लिये प्रार्थना की। महर्षि ऋचीक ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनों के लिये अलग-अलग मन्त्रों से चरु पकाया और स्नान करने के लिये चले गये ॥ ८ ॥ सत्यवती की माने यह समझकर कि ऋषि ने अपनी पत्नी के लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा, उससे वह चरु माँग लिया। इस पर सत्यवती ने अपना चरु तो मा को दे दिया और मा का चरु वह स्वयं खा गयी ॥ ९ ॥ जब ऋचीक मुनि को इस बात का पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती से कहा कि ‘तुम ने बड़ा अनर्थ कर डाला। अब तुम्हारा पुत्र तो लोगों को दण्ड देनेवाला घोर प्रकृति का होगा और तुम्हारा भाई होगा एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता’ ॥ १० ॥ सत्यवती ने ऋचीक मुनि को प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि ‘स्वामी ! ऐसा नहीं होना चाहिये।’ तब उन्होंने कहा—‘अच्छी बात है। पुत्र के बदले तुम्हारा पौत्र वैसा (घोर प्रकृतिका) होगा।’ समय पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्रि का जन्म हुआ ॥ ११ ॥ सत्यवती समस्त लोकों को पवित्र करनेवाली परम पुण्यमयी कौशि की नदी बन गयी। रेणु ऋषि की कन्या थी रेणुका। जमदग्रि ने उसका पाणि- ग्रहण किया ॥ १२ ॥ रेणु का के गर्भ से जमदग्रि ऋषि के वसुमान् आदि कई पुत्र हुए। उनमें सब से छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे संसार में प्रसिद्ध है ॥ १३ ॥ कहते हैं कि हैहयवंश का अन्त करने के लिये स्वयं भगवान ने ही परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया ॥ १४ ॥ यद्यपि क्षत्रियों ने उनका थोड़ा-सा ही अपराध किया था—फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणों के अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वी के भार हो गये थे और इसी के फल स्वरूप भगवान परशुराम ने उनका नाश करके पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ १५ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परंतु उन्होंने परशुरामजी का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियों के वंश का संहार किया ? ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कह ने लगे—परीक्षित ! उन दिनों हैहयवंश का अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकार की सेवा-शुश्रूषा करके भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेयजी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्ध में पराजित न कर सके—यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिये थे ॥ १७-१८ ॥ वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से- स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसार में वायु की तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता ॥ १९ ॥ एक बार गले में वैजयन्ती माला पह ने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहु ने अपनी बाँहों से नदी का प्रवाह रोक दिया ॥ २० ॥ दशमुख रावण का शिविर भी वहीं कहीं पास में ही था। नदी की धारा उलटी बह ने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ ॥ २१ ॥ जब रावण सहस्रबाहु अर्जुन के पास जाकर बुरा-भला कह ने लगा, तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजी के कह ने से सहस्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया ॥ २२ ॥
एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेल ने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था। दैववश वह जमदग्रि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा ॥ २३ ॥ परम तपस्वी जमदग्रि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत- सत्कार किया ॥ २४ ॥ वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्रि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझ से भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा ॥ २५ ॥ उसने अभिमानवश जमदग्रि मुनि से माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञा से उसके सेवक बछड़े के साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये ॥ २६ ॥ जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी आश्रम पर आये और उसकी दुष्टता का वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोध से तिलमिला उठे ॥ २७ ॥ वे अपना भयङ्कर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े—जैसे कोई किसी से न दबनेवाला सिंह हाथी पर टूट पड़े ॥ २८ ॥
सहस्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेग से उसी की ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँ की थी। वे हाथ में धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीर पर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्य की किरणों के समान चमक रही थीं ॥ २९ ॥ उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग, बाण, ऋष्टि, शतघ्री और शक्ति आदि आयुधों से सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयङ्कर सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी। भगवान परशुराम ने बात-की-बात में अकेले ही उस सारी सेना को नष्ट कर दिया ॥ ३० ॥ भगवान परशुरामजी की गति मन और वायु के समान थी। बस, वे शत्रु की सेना काटते ही जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फर से का प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनों के साथ बड़े-बड़े वीरों की बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वी पर गिरते जाते थे ॥ ३१ ॥ हैहयाधिपति अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना के सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान परशुराम के फर से और बाणों से कट-कटकर खून से लथपथ रणभूमि में गिर गये हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिडऩे के लिये आ धम का ॥ ३२ ॥ उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओं से पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ाये और परशुरामजी पर छोड़े। परंतु परशुरामजी तो समस्त शस्त्रधारियों के शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुष पर छोड़े हुए बाणों से ही एक साथ सब को काट डाला ॥ ३३ ॥ अब हैहयाधिपति अपने हाथों से पहाड़ और पेड़ उखाडक़र बड़े वेग से युद्धभूमि में परशुरामजी की ओर झपटा। परंतु परशुरामजी ने अपनी तीखी धारवाले फरसे से बड़ी फुर्ती के साथ उसकी साँपों के समान भुजाओं को काट डाला ॥ ३४ ॥ जब उसकी बाँहें कट गयीं, तब उन्होंने पहाडक़ी चोटी की तरह उसका ऊँचा सिर धड़ से अलग कर दिया। पिता के मर जाने पर उसके दस हजार लडक़े डरकर भग गये ॥ ३५ ॥
परीक्षित ! विपक्षी वीरों के नाशक परशुरामजी ने बछड़े के साथ कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दुखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रम पर लाकर पिताजी को सौंप दिया ॥ ३६ ॥ और माहिष्मती में सहस्रबाहु ने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयों को कह सुनाया। सब कुछ सुनकर जमदग्रि मुनि ने कहा— ॥ ३७ ॥ ‘हाय, हाय, परशुराम ! तुम ने बड़ा पाप किया। राम , राम ! तुम बड़े वीर हो; परंतु सर्वदेवमय नरदेव का तुम ने व्यर्थ ही वध किया ॥ ३८ ॥ बेटा ! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमा के प्रभाव से ही हम संसार में पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सब के दादा ब्रह्माजी भी क्षमा के बल से ही ब्रह्मपद को प्राप्त हुए हैं ॥ ३९ ॥ ब्राह्मणों की शोभा क्षमा के द्वारा ही सूर्य की प्रभा के समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं ॥ ४० ॥ बेटा ! सार्वभौम राजा का वध ब्राह्मण की हत्या से भी बढक़र है। जाओ, भगवान का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो’ ॥ ४१ ॥
॥ षोडशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
पित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति कुरुनन्दन ।
संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत् ॥ १॥
कदाचिद्रेणुका याता गङ्गायां पद्ममालिनम् ।
गन्धर्वराजं क्रीडन्तमप्सरोभिरपश्यत ॥ २॥
विलोकयन्ती क्रीडन्तमुदकार्थं नदीं गता ।
होमवेलां न सस्मार किञ्चिच्चित्ररथस्पृहा ॥ ३॥
कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशङ्किता ।
आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृताञ्जलिः ॥ ४॥
व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत् ।
घ्नतैनां पुत्रकाः पापामित्युक्तास्ते न चक्रिरे ॥ ५॥
रामः सञ्चोदितः पित्रा भ्रातॄन् मात्रा सहावधीत् ।
प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक् समाधेस्तपसश्च सः ॥ ६॥
वरेण छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः ।
वव्रे हतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे ॥ ७॥
उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवाञ्जसा ।
पितुर्विद्वांस्तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम् ॥ ८॥
येऽर्जुनस्य सुता राजन् स्मरन्तः स्वपितुर्वधम् ।
रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न क्वचित् ॥ ९॥
एकदाऽऽश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते ।
वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन् ॥ १०॥
दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनमावेशितधियं मुनिम् ।
भगवत्युत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः ॥ ११॥
याच्यमानाः कृपणया राममात्रातिदारुणाः ।
प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्रबन्धवः ॥ १२॥
रेणुका दुःखशोकार्ता निघ्नन्त्यात्मानमात्मना ।
राम रामेति तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती ॥ १३॥
तदुपश्रुत्य दूरस्थो हा रामेत्यार्तवत्स्वनम् ।
त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशे पितरं हतम् ॥ १४॥
तद्दुःखरोषामर्षार्तिशोकवेगविमोहितः ।
हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वास्मान् स्वर्गतो भवान् ॥ १५॥
विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम् ।
प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्रान्ताय मनो दधे ॥ १६॥
गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मघ्नविहतश्रियम् ।
तेषां स शीर्षभी राजन् मध्ये चक्रे महागिरिम् ॥ १७॥
तद्रक्तेन नदीं घोरामब्रह्मण्यभयावहाम् ।
हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्रेऽमङ्गलकारिणि ॥ १८॥
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः ।
समन्तपञ्चके चक्रे शोणितोदान् ह्रदान् नृप ॥ १९॥
पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय बर्हिषि ।
सर्वदेवमयं देवमात्मानमयजन्मखैः ॥ २०॥
ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम् ।
अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्गात्रे उत्तरां दिशम् ॥ २१॥
अन्येभ्योऽवान्तरदिशः कश्यपाय च मध्यतः ।
आर्यावर्तमुपद्रष्ट्रे सदस्येभ्यस्ततः परम् ॥ २२॥
ततश्चावभृथस्नानविधूताशेषकिल्बिषः ।
सरस्वत्यां ब्रह्मनद्यां रेजे व्यब्भ्र इवांशुमान् ॥ २३॥
स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम् ।
ऋषीणां मण्डले सोऽभूत्सप्तमो रामपूजितः ॥ २४॥
जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः ।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्तयिष्यति वै बृहत् ॥ २५॥
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः ।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः ॥ २६॥
एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः ।
अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन् बहुशो नृपान् ॥ २७॥
गाधेरभून्महातेजाः समिद्ध इव पावकः ।
तपसा क्षात्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम् ॥ २८॥
विश्वामित्रस्य चैवासन् पुत्रा एकशतं नृप ।
मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एव ते ॥ २९॥
पुत्रं कृत्वा शुनःशेपं देवरातं च भार्गवम् ।
आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम् ॥ ३०॥
यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः ।
स्तुत्वा देवान् प्रजेशादीन् मुमुचे पाशबन्धनात् ॥ ३१॥
यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः ।
देवरात इति ख्यातः शुनःशेपः स भार्गवः ॥ ३२॥
ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत् ।
अशपत्तान् मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः ॥ ३३॥
स होवाच मधुच्छन्दाः सार्धं पञ्चाशता ततः ।
यन्नो भवान् सञ्जानीते तस्मिंस्तिष्ठामहे वयम् ॥ ३४॥
ज्येष्ठं मन्त्रदृशं चक्रुस्त्वामन्वञ्चो वयं स्म हि ।
विश्वामित्रः सुतानाह वीरवन्तो भविष्यथ ।
ये मानं मेऽनुगृह्णन्तो वीरवन्तमकर्त माम् ॥ ३५॥
एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित ।
अन्ये चाष्टकहारीतजयक्रतुमदादयः ॥ ३६॥
एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रैः पृथग्विधम् ।
प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं प्रकल्पितम् ॥ ३७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥
नवम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय
परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार और विश्वामित्रजी के वंश की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अपने पिता की यह शिक्षा भगवान परशुराम ने ‘जो आज्ञा’ कहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्ष तक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रम पर लौट आये ॥ १ ॥ एक दिन की बात है परशुरामजी की माता रेणु का गङ्गातट पर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पह ने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है ॥ २ ॥ वे जल ला ने के लिये नदीतट पर गयी थीं, परंतु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्व को देखने लगीं और पतिदेव के हवन का समय हो गया है—इस बात को भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथ की ओर खिंच भी गया था ॥ ३ ॥ हवन का समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्रि के शाप से भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँ से आश्रम पर चली आयीं। वहाँ जल का कलश महर्षि के सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं ॥ ४ ॥ जमदग्रि मुनि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा—‘मेरे पुत्रो ! इस पापिनी को मार डालो।’ परंतु उनके किसी भी पुत्र ने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की ॥ ५ ॥ इसके बाद पिता की आज्ञा से परशुरामजी ने माता के साथ सब भाइयों को भी मार डाला। इसका कारण था—वे अपने पिताजी के योग और तपस्या का प्रभाव भलीभाँति जानते थे ॥ ६ ॥ परशुरामजी के इस काम से सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्रि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा—‘बेटा ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’ परशुरामजी ने कहा—‘पिताजी ! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायँ तथा उन्हें इस बात की याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था’ ॥ ७ ॥ परशुरामजी के इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे। परशुरामजी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदों का वध किया था ॥ ८ ॥
परीक्षित ! सहस्रबाहु अर्जुन के जो लडक़े परशुरामजी से हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिता के वध की याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षण के लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था ॥ ९ ॥ एक दिन की बात है, परशुरामजी अपने भाइयों के साथ आश्रम से बाहर वन की ओर गये हुए थे। यह अवसर पाकर वैर साध ने के लिये सहस्रबाहु के लडक़े वहाँ आ पहुँचे ॥ १० ॥ उस समय महर्षि जमदग्रि अग्रिशाला में बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियों से पवित्रकीर्ति भगवान के ही चिन्तन में मग्र हो रहे थे। उन्हें बाहर की कोई सुध न थी। उसी समय उन पापियों ने जमदग्रि ऋषि को मार डाला। उन्होंने पहले से ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था ॥ ११ ॥ परशुराम की माता रेणु का बड़ी दीनता से उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परंतु उन सबों ने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्रि का सिर काटकर ले गये। परीक्षित ! वास्तव में वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे ॥ १२ ॥ सती रेणु का दु:ख और शोक से आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोर से रोने लगीं— ‘परशुराम ! बेटा परशुराम ! शीघ्र आओ ॥ १३ ॥ परशुरामजी ने बहुत दूर से माता का ‘हा राम !’ यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रता से आश्रम पर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ॥ १४ ॥ परीक्षित ! उस समय परशुरामजी को बड़ा दु:ख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोक के वेग से वे अत्यन्त मोहित हो गये। ‘हाय पिताजी ! आप तो बड़े महात्मा थे। पिताजी ! आप तो धर्म के सच्चे पुजारी थे। आप हमलोगों को छोडक़र स्वर्ग चले गये’ ॥ १५ ॥ इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिता का शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथ में फरसा उठाकर क्षत्रियों का संहार कर डालने का निश्चय किया ॥ १६ ॥
परीक्षित ! परशुरामजी ने माहिष्मती नगरी में जाकर सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्रों के सिरों से नगर के बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगर की शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियों के कारण ही नष्ट हो चुकी थी ॥ १७ ॥ उनके रक्त से एक बड़ी भयङ्कर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियों का हृदय भय से काँप उठता था। भगवान ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन् ! उन्होंने अपने पिता के वध को निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्र के समन्तपञ्चक में ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्त के जल से भरे हुए थे ॥ १८-१९ ॥ परशुरामजी ने अपने पिताजी का सिर लाकर उनके धड़ से जोड़ दिया और यज्ञों द्वारा सर्वदेवमय आत्म स्वरूप भगवान का यजन किया ॥ २० ॥ यज्ञों में उन्होंने पूर्व दिशा होता को, दक्षिण दिशा ब्रह्मा को, पश्चिम दिशा अध्वर्यु को और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद्गाता को दे दी ॥ २१ ॥ इसी प्रकार अग्रि कोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजों को दीं, कश्यपजी को मध्यभूमि दी, उपद्रष्टा को आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्यों को अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं ॥ २२ ॥ इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापों से मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वती के तट पर मेघरहित सूर्य के समान शोभायमान हुए ॥ २३ ॥ महर्षि जमदग्रि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर की प्राप्ति हो गयी। परशुरामजी से सम्मानित होकर वे सप्तर्षियों के मण्डल में सातवें ऋषि हो गये ॥ २४ ॥ परीक्षित ! कमललोचन जमदग्रि-नन्दन भगवान परशुराम आगामी मन्वन्तर में सप्तर्षियों के मण्डल में रहकर वेदों का विस्तार करेंगे ॥ २५ ॥ वे आज भी किसीको किसी प्रकार का दण्ड न देते हुए शान्त चित्त से महेन्द्र पर्वत पर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्र का मधुर स्वर से गान करते रहते हैं ॥ २६ ॥ सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भारभूत राजाओं का बहुत बार वध किया ॥ २७ ॥
महाराज गाधि के पुत्र हुए प्रज्वलित अग्रि के समान परम तेजस्वी विश्वामित्रजी। इन्हों ने अपने तपोबल से क्षत्रियत्व का त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया ॥ २८ ॥ परीक्षित ! विश्वामित्रजी के सौ पुत्र थे। उनमें बिचले पुत्र का नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र ‘मधुच्छन्दा’ के ही नाम से विख्यात हुए ॥ २९ ॥ विश्वामित्रजी ने भृगुवंशी अजीगर्त के पुत्र अपने भानजे शुन:शेप को, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रों से कहा कि ‘तुमलोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’ ॥ ३० ॥ यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुन:शेप था, जो हरिश्चन्द्र के यज्ञ में यज्ञपशु के रूप में मोल लेकर लाया गया था। विश्वामित्रजी ने प्रजापति वरुण आदि देवताओं की स्तुति करके उसे पाशबन्धन से छुड़ा लिया था। देवताओं के यज्ञ में यह शुन:शेप देवताओं द्वारा विश्वामित्रजी को दिया गया था; अत: ‘देवै: रात:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार गाधिवंश में यह तपस्वी देवरात के नाम से विख्यात हुआ ॥ ३१-३२ ॥ विश्वामित्रजी के पुत्रों में जो बड़े थे, उन्हें शुन:शेप को बड़ा भाई मान ने की बात अच्छी न लगी। इस पर विश्वामित्रजी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि ‘दुष्टो ! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ’ ॥ ३३ ॥ इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो गये, तब विश्वामित्रजी के बिचले पुत्र मधुच्छन्दा ने अपने से छोटे पचासों भाइयों के साथ कहा—‘पिताजी ! आप हमलोगों को जो आज्ञा करते हैं, हम उसका पालन करने के लिये तैयार हैं’ ॥ ३४ ॥ यह कहकर मधुच्छन्दा ने मन्त्रद्रष्टा शुन:शेप को बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘हम सब तुम्हारे अनुयायी—छोटे भाई हैं।’ तब विश्वामित्रजी ने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रों से कहा—‘तुम लोगों ने मेरी बात मानकर मेरे सम्मान की रक्षा की है, इसलिये तुमलोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे ॥ ३५ ॥ मेरे प्यारे पुत्रो ! यह देवरात शुन:शेप भी तुम्हारे ही गोत्र का है। तुमलोग इस की आज्ञा में रहना।’ परीक्षित ! विश्वा- मित्रजी के अष्टक, हारीत, जय और क्रतुमान् आदि और भी पुत्र थे ॥ ३६ ॥ इस प्रकार विश्वामित्रजी की सन्तानों से कौशिकगोत्र में कई भेद हो गये और देवरात को बड़ा भाई मान ने के कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया ॥ ३७ ॥
॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
यः पुरूरवसः पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुताः ।
नहुषः क्षत्रवृद्धश्च रजी रंभश्च वीर्यवान् ॥ १॥
अनेना इति राजेन्द्र शृणु क्षत्रवृधोऽन्वयम् ।
क्षत्रवृद्धसुतस्यासन् सुहोत्रस्यात्मजास्त्रयः ॥ २॥
काश्यः कुशो गृत्समद इति गृत्समदादभूत् ।
शुनकः शौनको यस्य बह्वृचप्रवरो मुनिः ॥ ३॥
काश्यस्य काशिस्तत्पुत्रो राष्ट्रो दीर्घतमःपिता ।
धन्वन्तरिर्दैर्घ(तम आयुर्वेदप्रवर्तकः ॥ ४॥
यज्ञभुग्वासुदेवांशः स्मृतमात्रार्तिनाशनः ।
तत्पुत्रः केतुमानस्य जज्ञे भीमरथस्ततः ॥ ५॥
दिवोदासो द्युमांस्तस्मात्प्रतर्दन इति स्मृतः ।
स एव शत्रुजिद्वत्स ऋतध्वज इतीरितः ।
तथा कुवलयाश्वेति प्रोक्तोऽलर्कादयस्ततः ॥ ६॥
षष्टिवर्षसहस्राणि षष्टिवर्षशतानि च ।
नालर्कादपरो राजन् मेदिनीं बुभुजे युवा ॥ ७॥
अलर्कात्सन्ततिस्तस्मात्सुनीथोऽथ सुकेतनः ।
धर्मकेतुः सुतस्तस्मात्सत्यकेतुरजायत ॥ ८॥
धृष्टकेतुः सुतस्तस्मात्सुकुमारः क्षितीश्वरः ।
वीतिहोत्रस्य भर्गोऽतो भार्गभूमिरभून्नृपः ॥ ९॥
इतीमे काशयो भूपाः क्षत्रवृद्धान्वयायिनः ।
राभस्य रभसः पुत्रो गम्भीरश्चाक्रियस्ततः ॥ १०॥
तस्य क्षेत्रे ब्रह्म जज्ञे शृणु वंशमनेनसः ।
शुद्धस्ततः शुचिस्तस्मात्त्रिककुद्धर्मसारथिः ॥ ११॥
ततः शान्तरयो जज्ञे कृतकृत्यः स आत्मवान् ।
रजेः पञ्चशतान्यासन् पुत्राणाममितौजसाम् ॥ १२॥
देवैरभ्यर्थितो दैत्यान् हत्वेन्द्रायाददाद्दिवम् ।
इन्द्रस्तस्मै पुनर्दत्त्वा गृहीत्वा चरणौ रजेः ॥ १३॥
आत्मानमर्पयामास प्रह्लादाद्यरिशङ्कितः ।
पितर्युपरते पुत्रा याचमानाय नो ददुः ॥ १४॥
त्रिविष्टपं महेन्द्राय यज्ञभागान् समाददुः ।
गुरुणा हूयमानेऽग्नौ बलभित्तनयान् रजेः ॥ १५॥
अवधीद्भ्रंशितान् मार्गान्न कश्चिदवशेषितः ।
कुशात्प्रतिः क्षात्रवृद्धात्सञ्जयस्तत्सुतो जयः ॥ १६॥
ततः कृतः कृतस्यापि जज्ञे हर्यवनो नृपः ।
सहदेवस्ततो हीनो जयसेनस्तु तत्सुतः ॥ १७॥
सङ्कृतिस्तस्य च जयः क्षत्रधर्मा महारथः ।
क्षत्रवृद्धान्वया भूपा शृणु वंशं च नाहुषात् ॥ १८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे चन्द्रवंशानुवर्णने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥
नवम स्कन्ध-सत्रहवाँ अध्याय
क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओं के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! राजेन्द्र पुरूरवा का एक पुत्र था आयु। उसके पाँच लडक़े हुए—नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाली रम्भ और अनेना। अब क्षत्रवृद्ध का वंश सुनो। क्षत्रवृद्ध के पुत्र थे सुहोत्र। सुहोत्र के तीन पुत्र हुए—काश्य, कुश और गृत्समद। गृत्समद का पुत्र हुआ शुनक। इसी शुनक के पुत्र ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ मुनिवर शौनकजी हुए ॥ १—३ ॥ काश्य का पुत्र काशि, काशि का राष्ट्र, राष्ट्र का दीर्घतमा और दीर्घतमा के धन्वन्तरि। यही आयुर्वेद के प्रवर् तक हैं ॥ ४ ॥ ये यज्ञभाग के भोक्ता और भगवान वासुदेव के अंश हैं। इनके स्मरणमात्र से ही सब प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। धन्वन्तरि का पुत्र हुआ केतुमान् और केतुमान् का भीमरथ ॥ ५ ॥ भीमरथ का दिवोदास और दिवोदास का द्युमान्—जिसका एक नाम प्रतर्दन भी है। यही द्युमान् शत्रुजित्, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्व के नाम से भी प्रसिद्ध है। द्युमान् के ही पुत्र अलर्क आदि हुए ॥ ६ ॥ परीक्षित ! अलर्क के सिवा और किसी राजाने छाछठ हजार (६६०००) वर्ष तक युवा रहकर पृथ्वी का राज्य नहीं भोगा ॥ ७ ॥ अलर्क का पुत्र हुआ सन्तति, सन्तति का सुनीथ, सुनीथ का सुकेतन, सुकेतन का धर्मकेतु और धर्मकेतु का सत्यकेतु ॥ ८ ॥ सत्यकेतु से धृष्टकेतु, धृष्टकेतु से राजा सुकुमार, सुकुमार से वीतिहोत्र, वीतिहोत्र से भर्ग और भर्ग से राजा भार्गभूमि का जन्म हुआ ॥ ९ ॥
ये सब-के-सब क्षत्रवृद्ध के वंश में काशि से उत्पन्न नरपति हुए। रम्भ के पुत्र का नाम था रभस, उससे गम्भीर और गम्भीर से अक्रिय का जन्म हुआ ॥ १० ॥ अक्रिय की पत्नी से ब्राह्मणवंश चला। अब अनेना का वंश सुनो। अनेना का पुत्र था शुद्ध, शुद्ध का शुचि, शुचि का त्रिककुद् और त्रिककुद् का धर्मसारथि ॥ ११ ॥ धर्मसारथि के पुत्र थे शान्तरय। शान्तरय आत्मज्ञानी होने के कारण कृतकृत्य थे, उन्हें सन्तान की आवश्यकता न थी। परीक्षित ! आयु के पुत्र रजि के अत्यन्त तेजस्वी पाँच सौ पुत्र थे ॥ १२ ॥ देवताओं की प्रार्थना से रजि ने दैत्यों का वध करके इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया। परंतु वे अपने प्रह्लाद आदि शत्रुओं से भयभीत रहते थे, इसलिये उन्होंने वह स्वर्ग फिर रजि को लौटा दिया और उनके चरण पकडक़र उन्हीं को अपनी रक्षा का भार भी सौंप दिया। जब रजि की मृत्यु हो गयी, तब इन्द्र के माँगने पर भी रजि के पुत्रों ने स्वर्ग नहीं लौटाया। वे स्वयं ही यज्ञों का भाग भी ग्रहण करने लगे। तब गुरु बृहस्पतिजी ने इन्द्र की प्रार्थना से अभिचार-विधि से हवन किया। इससे वे धर्म के मार्ग से भ्रष्ट हो गये। तब इन्द्र ने अनायास ही उन सब रजि के पुत्रों को मार डाला। उनमें से कोई भी न बचा। क्षत्रवृद्ध के पौत्र कुश से प्रति, प्रति से सञ्जय और सञ्जय से जय का जन्म हुआ ॥ १३—१६ ॥ जय से कृत, कृत से राजा हर्यवन, हर्यवन से सहदेव, सहदेव से हीन और हीन से जयसेन नामक पुत्र हुआ ॥ १७ ॥ जयसेन का सङ्कृति, सङ्कृति का पुत्र हुआ महारथी वीरशिरोमणि जय। क्षत्रवृद्ध की वंश-परम्परा में इत ने ही नरपति हुए। अब नहुषवंश का वर्णन सुनो ॥ १८ ॥
॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः ।
षडिमे नहुषस्यासन्निन्द्रियाणीव देहिनः ॥ १॥
राज्यं नैच्छद्यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् ।
यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥ २॥
पितरि भ्रंशिते स्थानादिन्द्राण्या धर्षणाद्द्विजैः ।
प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ॥ ३॥
चतसृष्वादिशद्दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः ।
कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः ॥ ४॥
राजोवाच
ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः ।
राजन्यविप्रयोः कस्माद्विवाहः प्रतिलोमकः ॥ ५॥
श्रीशुक उवाच
एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका ।
सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी ॥ ६॥
देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसङ्कुले ।
व्यचरत्कलगीतालिनलिनीपुलिनेऽबला ॥ ७॥
ता जलाशयमासाद्य कन्याः कमललोचनाः ।
तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः ॥ ८॥
वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम् ।
सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः ॥ ९॥
शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत् ।
स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत् ॥ १०॥
अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम् ।
अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे ॥ ११॥
यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये ।
धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाश्च दर्शितः ॥ १२॥
यान् वन्दन्त्युपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः ।
भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः ॥ १३॥
वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः ।
अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती ॥ १४॥
एवं शपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीमभाषत ।
रुषा श्वसन्त्युरङ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा ॥ १५॥
आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि ।
किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा ॥ १६॥
एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाचार्यसुतां सतीम् ।
शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्कूपे वास आदाय मन्युना ॥ १७॥
तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन् ।
प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह ॥ १८॥
दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे ।
गृहीत्वा पाणिना पाणिमुज्जहार दयापरः ॥ १९॥
तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा ।
राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय ॥ २०॥
हस्तग्राहोऽपरो माभूद्गृहीतायास्त्वया हि मे ।
एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः ।
यदिदं कूपलग्नाया भवतो दर्शनं मम ॥ २१॥
न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज ।
कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद्यमशपं पुरा ॥ २२॥
ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः ।
मनस्तु तद्गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः ॥ २३॥
गते राजनि सा वीरे तत्र स्म रुदती पितुः ।
न्यवेदयत्ततः सर्वमुक्तं शर्मिष्ठया कृतम् ॥ २४॥
दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन् ।
स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात् ॥ २५॥
वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम् ।
गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि ॥ २६॥
क्षणार्धमन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः ।
कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥ २७॥
तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम् ।
पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु ॥ २८॥
(पित्रा दत्ता देवयान्यै शर्मिष्ठा सानुगा तदा ।)
स्वानां तत्सङ्कटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम् ।
देवयानीं पर्यचरत्स्त्रीसहस्रेण दासवत् ॥ २९॥
नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना ।
तमाह राजन् शर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कर्हिचित् ॥ ३०॥
विलोक्यौशनसीं राजञ्छर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित् ।
तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती ॥ ३१॥
राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित् ।
स्मरन्छुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत ॥ ३२॥
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ३३॥
गर्भसम्भवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी ।
देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता ॥ ३४॥
प्रियामनुगतः कामी वचोभिरुपमन्त्रयन् ।
न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः ॥ ३५॥
शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष ।
त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम् ॥ ३६॥
ययातिरुवाच
अतृप्तोस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते ।
व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति ॥ ३७॥
इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत ।
यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥ ३८॥
मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम् ।
वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः ॥ ३९॥
यदुरुवाच
नोत्सहे जरसा स्थातुमन्तरा प्राप्तया तव ।
अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः ॥ ४०॥
तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत ।
प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः ॥ ४१॥
अपृच्छत्तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम् ।
न त्वमग्रजवद्वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि ॥ ४२॥
पूरुरुवाच
को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान् ।
प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद्विन्दते परम् ॥ ४३॥
उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात्प्रोक्तकारी तु मध्यमः ।
अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकर्तोच्चरितं पितुः ॥ ४४॥
इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः ।
सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप ॥ ४५॥
सप्तद्वीपपतिः संयक् पितृवत्पालयन् प्रजाः ।
यथोपजोषं विषयाञ्जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः ॥ ४६॥
देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभिः ।
प्रेयसः परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रहः ॥ ४७॥
अयजद्यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ॥ ४८॥
यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः ।
नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः ॥ ४९॥
तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम् ।
नारायणमणीयांसं निराशीरयजत्प्रभुम् ॥ ५०॥
एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम् ।
विदधानोऽपि नातृप्यत्सार्वभौमः कदिन्द्रियैः ॥ ५१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥
नवम स्कन्ध-अठारहवाँ अध्याय
ययाति चरित्र
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जैसे शरीरधारियों के छ: इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छ: पुत्र थे। उनके नाम थे—यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति ॥ १ ॥ नहुष अपने बड़े पुत्र यति को राज्य देना चाहते थे। परंतु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पाने का परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदि में भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्म स्वरूप को नहीं समझ सकता ॥ २ ॥ जब इन्द्रपत्नी शची से सहवास करने की चेष्टा करने के कारण नहुष को ब्राह्मणों ने इन्द्रपद से गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजा के पद पर ययाति बैठे ॥ ३ ॥ ययाति ने अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगा ॥ ४ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! भगवान शुक्राचार्यजी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वर का प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ ? ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—राजन् ! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानी के श्रेष्ठ उद्यान में टहल रही थी। उस उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवर में कमल खिले हुए थे और उन पर बड़े ही मधुर स्वर से भौंरे गुँजार कर रहे थे। उसकी ध्वनि से सरोवर का तट गूँज रहा था ॥ ६-७ ॥ जलाशय के पास पहुँचने पर उन सुन्दरी कन्याओं ने अपने-अपने वस्त्र तो घाट पर रख दिये और उस तालाब में प्रवेश करके वे एक-दूसरे पर जल उलीच-उलीचकर क्रीडा करने लगीं ॥ ८ ॥ उसी समय उधर से पार्वतीजी के साथ बैल पर चढ़े हुए भगवान शङ्कर आ निकले। उन को देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवर से निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये ॥ ९ ॥ शीघ्रता के कारण शर्मिष्ठा ने अनजान में देवयानी के वस्त्र को अपना समझकर पहन लिया। इस पर देवयानी क्रोध के मारे आग- बबूला हो गयी। उसने कहा— ॥ १० ॥ ‘अरे, देखो तो सही, इस दासी ने कितना अनुचित काम कर डाला ! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञ का हविष्य उठा ले जाय, वैसे ही इस ने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं ॥ ११ ॥ जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, जो परम पुरुष परमात्मा के मुखरूप हैं, जो अपने हृदय में निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्मा को धारण किये रहते हैं और जिन्हों ने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिये वैदिक मार्ग का निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र, ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना और सेवा करते हैं—और तो क्या, लक्ष्मीजी के एकमात्र आश्रय परम पावन विश्वात्मा भगवान भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं—उन्हीं ब्राह्मणों में हम सब से श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं। और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इस पर भी इस दुष्टा ने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ों को पहन लिया है’ ॥ १२—१४ ॥ जब देवयानी इस प्रकार गाली दे ने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिन के समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतों से होठ दबाकर कहा— ॥ १५ ॥ ‘भिखारिन ! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बात का भी पता है ? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ों के लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरों की ओर नहीं ताकती रहती’ ॥ १६ ॥ शर्मिष्ठा ने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानी का तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कूएँ में ढकेल दिया ॥ १७ ॥
शर्मिष्ठा के चले जाने के बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जल की आवश्यकता थी, इसलिये कूएँ में पड़ी हुई देवयानी को उन्होंने देख लिया ॥ १८ ॥ उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकडक़र उसे बाहर निकाल लिया ॥ १९ ॥ देवयानी ने प्रेमभरी वाणी से वीर ययाति से कहा—‘वीर- शिरोमणे राजन् ! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ ! कूएँ में गिर जाने पर मुझे तो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हमलोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है ॥ २०-२१ ॥ वीरश्रेष्ठ ! पहले मैंने बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दे दिया था, इस पर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’[1] ॥ २२ ॥ ययाति को शास्त्रप्रतिकूल होने के कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परंतु उन्होंने देखा कि प्रारब्ध ने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है, और मेरा मन भी इस की ओर खिंच रहा है। इसलिये ययाति ने उसकी बात मान ली ॥ २३ ॥
वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्य के पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया ॥ २४ ॥ शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान शुक्राचार्यजी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इस की अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अत: अपनी कन्या देवयानी को साथ लेकर वे नगर से निकल पड़े ॥ २५ ॥ जब वृषपर्वा को यह मालूम हुआ, तो उनके मन में यह शङ् का हुई कि गुरुजी कहीं शत्रुओं की जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उन को प्रसन्न करने के लिये पीछे-पीछे गये और रास्ते में उनके चरणों पर सिर के बल गिर गये ॥ २६ ॥ भगवान शुक्राचार्यजी का क्रोध तो आधे ही क्षण का था। उन्होंने वृषपर्वा से कहा—‘राजन् ! मैं अपनी पुत्री देवयानी को नहीं छोड़ सकता। इसलिये इस की जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चल ने में कोई आपत्ति न होगी’ ॥ २७ ॥ जब वृषपर्वा ने ‘ठीक है’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानी ने अपने मन की बात कही। उसने कहा—‘पिताजी मुझे जिस किसीको दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों के साथ मेरी सेवा के लिये वहीं चले’ ॥ २८ ॥
शर्मिष्ठा ने अपने परिवारवालों का संकट और उनके कार्य का गौरव देखकर देवयानी की बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियों के साथ दासी के समान उसकी सेवा करने लगी ॥ २९ ॥ शुक्राचार्यजी ने देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया और शर्मिष्ठा को दासी के रूप में देकर उनसे कह दिया—‘राजन् ! इस को अपनी सेज पर कभी न आ ने देना’ ॥ ३० ॥ परीक्षित ! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उस को पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठा ने भी अपने ऋतुकाल में देवयानी के पति ययाति से एकान्त में सहवास की याचना की ॥ ३१ ॥ शर्मिष्ठा की पुत्र के लिये प्रार्थना धर्मसंगत है—यह देखकर धर्मज्ञ राजा ययाति ने शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी यही निश्चय किया कि समय पर प्रारब्ध के अनुसार जो होना होगा, हो जायेगा ॥ ३२ ॥ देवयानी के दो पुत्र हुए—यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए—द्रुह्यु, अनु और पूरु ॥ ३३ ॥ जब मानिनी देवयानी को यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठा को भी मेरे पति के द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोध से बेसुध होकर अपने पिता के घर चली गयी ॥ ३४ ॥ कामी ययाति ने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबा ने आदि के द्वारा देवयानी को मना ने की चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँ तक गये भी, परंतु मना न सके ॥ ३५ ॥ शुक्राचार्यजी ने भी क्रोध में भरकर ययाति से कहा—‘तू अत्यन्त स्त्रीलम्पट, मन्दबुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीर में वह बुढ़ापा आ जाय, जो मनुष्यों को कुरूप कर देता है’ ॥ ३६ ॥
ययाति ने कहा—‘ब्रह्मन् ! आपकी पुत्री के साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप से तो आपकी पुत्री का भी अनिष्ट ही है।’ इस पर शुक्राचार्यजी ने कहा—‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नता से तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो’ ॥ ३७ ॥ शुक्राचार्यजी ने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानी में आकर ययाति ने अपने बड़े पुत्र यदु से कहा—‘बेटा ! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नाना का दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र ! मैं अभी विषयों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षों तक और आनन्द भोगूँगा’ ॥ ३८-३९ ॥
यदु ने कहा—‘पिताजी ! बिना समय के ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जब तक विषय-सुख का अनुभव नहीं कर लेता, तब तक उसे उससे वैराग्य नहीं होता’ ॥ ४० ॥ परीक्षित ! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु ने भी पिता की आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रों को धर्म का तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीर को ही नित्य माने बैठे थे ॥ ४१ ॥ अब ययाति ने अवस्था में सब से छोटे किन्तु गुणों में बड़े अपने पुत्र पूरु को बुलाकर पूछा और कहा—‘बेटा ! अपने बड़े भाइयों के समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये ’ ॥ ४२ ॥
पूरु ने कहा—‘पिताजी ! पिता की कृपा से मनुष्य को परमपद की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में पुत्र का शरीर पिता का ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन है, जो इस संसार में पिता के उपकारों का बदला चु का सके ? ॥ ४३ ॥ उत्तम पुत्र तो वह है, जो पिता के मन की बात बिना कहे ही कर दे। कहने पर श्रद्धा के साथ आज्ञापालन करनेवाले पुत्र को मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होने पर भी अश्रद्धा से उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है। और जो किसी प्रकार भी पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उस को तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिता का मल-मूत्र ही है ॥ ४४ ॥ परीक्षित ! इस प्रकार कहकर पूरु ने बड़े आनन्द से अपने पिता का बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयों का सेवन करने लगे ॥ ४५ ॥ वे सातों द्वीपों के एकच्छत्र सम्राट् थे। पिता के समान भलीभाँति प्रजा का पालन करते थे। उनकी इन्द्रियों में पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयों का यथेच्छ उपभोग करते थे ॥ ४६ ॥ देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययाति को अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओं के द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्त में सुख दे ने लगी ॥ ४७ ॥ राजा ययाति ने समस्त वेदों के प्रतिपाद्य सर्वदेव स्वरूप यज्ञपुरुष भगवान श्रीहरि का बहुत से बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से यजन किया ॥ ४८ ॥ जैसे आकाश में दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्मा के स्वरूप में यह जगत स्वप्न, माया और मनोराज्य के समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपों के रूप में प्रतीत होता है और कभी नहीं भी ॥ ४९ ॥ वे परमात्मा सब के हृदय में विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान श्रीनारायण को अपने हृदय में स्थापित करके राजा ययाति ने निष्काम भाव से उनका यजन किया ॥ ५० ॥ इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी उच्छृङ्खल इन्द्रियों के साथ मन को जोडक़र उसके प्रिय विषयों को भोगा। परंतु इतने पर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययाति की भोगों से तृप्ति न हो स की ॥ ५१ ॥
[1] बृहस्पतिजी का पुत्र कच शुक्राचार्यजी से मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़ता था। अध्ययन समाप्त करके जब वह अपने घर जाने लगा तो देवयानी ने उसे वरण करना चाहा। परंतु गुरुपुत्री होने के कारण कच ने उसका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। इस पर देवयानी ने उसे शाप दे दिया कि ‘तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या निष्फल हो जाय।’ कच ने भी उसे शाप दिया कि ‘ कोई भी ब्राह्मण तुम्हें पत्नीरूप में स्वीकार न करेगा।’
॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
स इत्थमाचरन् कामान् स्त्रैणोऽपह्नवमात्मनः ।
बुद्ध्वा प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत ॥ १॥
शृणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि ।
धीरा यस्यानुशोचन्ति वने ग्रामनिवासिनः ॥ २॥
बस्त एको वने कश्चिद्विचिन्वन् प्रियमात्मनः ।
ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम् ॥ ३॥
तस्या उद्धरणोपायं बस्तः कामी विचिन्तयन् ।
व्यधत्त तीर्थमुद्धृत्य विषाणाग्रेण रोधसी ॥ ४॥
सोत्तीर्य कूपात्सुश्रोणी तमेव चकमे किल ।
तया वृतं समुद्वीक्ष्य बह्व्योऽजाः कान्तकामिनीः ॥ ५॥
पीवानं श्मश्रुलं प्रेष्ठं मीढ्वांसं याभकोविदम् ।
स एकोऽजवृषस्तासां बह्वीनां रतिवर्धनः ।
रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत ॥ ६॥
तमेव प्रेष्ठतमया रममाणमजान्यया ।
विलोक्य कूपसंविग्ना नामृष्यद्बस्तकर्म तत् ॥ ७॥
तं दुर्हृदं सुहृद्रूपं कामिनं क्षणसौहृदम् ।
इन्द्रियाराममुत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययौ ॥ ८॥
सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम् ।
कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत्पथि सन्धितुम् ॥ ९॥
तस्यास्तत्र द्विजः कश्चिदजास्वाम्यच्छिनद्रुषा ।
लम्बन्तं वृषणं भूयः सन्दधेऽर्थाय योगवित् ॥ १०॥
सम्बद्धवृषणः सोऽपि ह्यजया कूपलब्धया ।
कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति ॥ ११॥
तथाहं कृपणः सुभ्रु भवत्याः प्रेमयन्त्रितः ।
आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया ॥ १२॥
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥ १३॥
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४॥
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमङ्गलम् ।
समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १५॥
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते ।
तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ॥ १६॥
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ १७॥
पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान् सेवतोऽसकृत् ।
तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते ॥ १८॥
तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम् ।
निर्द्वन्द्वो निरहङ्कारश्चरिष्यामि मृगैः सह ॥ १९॥
दृष्टं श्रुतमसद्बुद्ध्वा नानुध्यायेन्न संविशेत् ।
संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान् स आत्मदृक् ॥ २०॥
इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः ।
दत्त्वा स्वां जरसं तस्मादाददे विगतस्पृहः ॥ २१॥
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम् ।
प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम् ॥ २२॥
भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमर्हत्तमं विशाम् ।
अभिषिच्याग्रजांस्तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ ॥ २३॥
आसेवितं वर्षपूगान् षड्वर्गं विषयेषु सः ।
क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः ॥ २४॥
स तत्र निर्मुक्तसमस्तसङ्ग
आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिङ्गः ।
परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे
लेभे गतिं भागवतीं प्रतीतः ॥ २५॥
श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः ।
स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात्परिहासमिवेरितम् ॥ २६॥
सा सन्निवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम् ।
विज्ञायेश्वरतन्त्राणां मायाविरचितं प्रभोः ॥ २७॥
सर्वत्र सङ्गमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी ।
कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिङ्गमात्मनः ॥ २८॥
नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः ॥ २९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥
नवम स्कन्ध-उन्नीसवाँ अध्याय
ययाति का गृहत्याग
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! राजा ययाति इस प्रकार स्त्री के वश में होकर विषयों का उपभोग करते रहे। एक दिन जब अपने अध:पतन पर दृष्टि गयी तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से इस गाथा का गान किया ॥ १ ॥ ‘भृगुनन्दिनी ! तुम यह गाथा सुनो। पृथ्वी में मेरे ही समान विषयी का यह सत्य इतिहास है। ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषों के सम्बन्ध में वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष दु:ख के साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा ? ॥ २ ॥ एक था बकरा। वह वन में अकेला ही अपने को प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ ढूँढ़ता हुआ घूम रहा था। उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कूएँ में गिर पड़ी है ॥ ३ ॥ वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोच ने लगा कि इस बकरी को किस प्रकार कूएँ से निकाला जाय। उसने अपने सींग से कूएँ के पास की धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया ॥ ४ ॥ जब वह सुन्दरी बकरी कूएँ से निकली, तो उसने उस बकरे से ही प्रेम करना चाहा। वह दाढ़ी-मूँछमण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियों को सुख देनेवाला, विहारकुशल और बहुत प्यारा था। जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कूएँ में गिरी हुई बकरी ने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसी को अपना पति बना लिया। वे तो पहले से ही पति की तलाश में थीं। उस बकरे के सिर पर कामरूप पिशाच सवार था। वह अकेला ही बहुत-सी बकरियों के साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा ॥ ५-६ ॥ जब उसकी कूएँ में से निकाली हुई प्रियतमा बकरी ने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरी से विहार कर रहा है, तो उसे बकरे की यह करतूत सहन न हुई ॥ ७ ॥ उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेम का कोई भरोसा नहीं है और यह मित्र के रूप में शत्रु का काम कर रहा है। अत: वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरे को छोडक़र बड़े दु:ख से अपने पालने वाले के पास चली गयी ॥ ८ ॥ वह दीन कामी बकरा उसे मना ने के लिये ‘में-में’ करता हुआ उसके पीछे-पीछे चला। परंतु उसे मार्ग में मना न स का ॥ ९ ॥ उस बकरी का स्वामी एक ब्राह्मण था। उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अण्ड कोष को काट दिया। परंतु फिर उस बकरी का ही भला करने के लिये फिर से उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकार के बहुत- से उपाय मालूम थे ॥ १० ॥ प्रिये ! इस प्रकार अण्ड कोष जुड़ जाने पर वह बकरा फिर कूएँ से निकली हुई बकरी के साथ बहुत दिनों तक विषयभोग करता रहा, परंतु आज तक उसे सन्तोष न हुआ ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाश में बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी माया से मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ ॥ १२ ॥
‘प्रिये ! पृथ्वी में जित ने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं—वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुष के मन को सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओं के प्रहार से जर्जर हो रहा है ॥ १३ ॥ विषयों के भोग ने से भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घी की आहुति डालने पर आग और भडक़ उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगों से प्रबल हो जाती हैं ॥ १४ ॥ जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तु के साथ राग-द्वेष का भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं ॥ १५ ॥ विषयों की तृष्णा ही दु:खों का उद्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाई से उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अत: जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्रसे-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये ॥ १६ ॥ और तो क्या—अपनी मा, बहिन और कन्या के साथ भी अकेले एक आसन पर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानों को भी विचलित कर देती हैं ॥ १७ ॥ विषयों का बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगों की लालसा बढ़ती ही जा रही है ॥ १८ ॥ इसलिये मैं अब भोगों की वासना-तृष्णा का परित्याग करके अपना अन्त:करण परमात्मा के प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदि के भावों से ऊ पर उठकर अहंकार से मुक्त हो हरिनों के साथ वन में विचरूँगा ॥ १९ ॥ लोक-परलोक दोनों के ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तन से ही जन्म-मृत्युरूप संसार की प्राप्ति होती है और उनके भोग से तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तव में इनके रहस्य को जानकर इन से अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है’ ॥ २० ॥ परीक्षित ! ययाति ने अपनी पत्नी से इस प्रकार कहकर पूरु की जवानी उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्त में विषयों की वासना नहीं रह गयी थी ॥ २१ ॥ इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशा में द्रुह्य, दक्षिण में यदु, पश्चिम में तुर्वसु और उत्तर में अनु को राज्य दे दिया ॥ २२ ॥ सारे भूमण्डल की समस्त सम्पत्तियों के योग्यतम पात्र पूरु को अपने राज्य पर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयों को उसके अधीन बनाकर वे वन में चले गये ॥ २३ ॥ यद्यपि राजा ययाति ने बहुत वर्षों तक इन्द्रियों से विषयों का सुख भोगा था—परंतु जैसे पाँख निकल आने पर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षण में ही सब कुछ छोड़ दिया ॥ २४ ॥ वन में जाकर राजा ययाति ने समस्त आसक्तियों से छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षातकार के द्वारा उनका त्रिगुणमय लिङ्गशरीर नष्ट हो गया। उन्होंने माया-मल से रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेव में मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान के प्रेमी संतों को प्राप्त होती है ॥ २५ ॥
जब देवयानी ने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्ग के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम के कारण विरह होने पर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्हों ने यह बात हँसी-हँसी में कही है ॥ २६ ॥ स्वजन-सम्बन्धियोंका—जो ईश्वर के अधीन है—एक स्थान पर इकट्ठाहो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊ पर पथिकोंका। यह सब भगवान की माया का खेल और स्वप्न के सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानी ने सब पदार्थों की आसक्ति त्याग दी और अपने मन को भगवान श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिङ्गशरीर का परित्याग कर दिया—वह भगवान को प्राप्त हो गयी ॥ २७-२८ ॥ उसने भगवान को नमस्कार करके कहा—‘समस्त जगत के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सब के आश्रय स्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान वासुदेव को नमस्कार है। जो परम शान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’ ॥ २९ ॥
॥ विंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत ।
यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे ॥ १॥
जनमेजयो ह्यभूत्पूरोः प्रचिन्वांस्तत्सुतस्ततः ।
प्रवीरोऽथ नमस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत् ॥ २॥
तस्य सुद्युरभूत्पुत्रस्तस्माद्बहुगवस्ततः ।
संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः ॥ ३॥
ऋतेयुस्तस्य कक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः ।
जलेयुः सन्ततेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः ॥ ४॥
दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः ।
घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः ॥ ५॥
ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत्त्रयस्तस्यात्मजा नृप ।
सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः ॥ ६॥
तस्य मेधातिथिस्तस्मात्प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः ।
पुत्रोऽभूत्सुमते रैभ्यो दुष्यन्तस्तत्सुतो मतः ॥ ७॥
दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः ।
तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव ॥ ८॥
विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम् ।
बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः ॥ ९॥
तद्दर्शनप्रमुदितः सन्निवृत्तपरिश्रमः ।
पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसञ्श्लक्ष्णया गिरा ॥ १०॥
का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयङ्गमे ।
किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने ॥ ११॥
व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्म्यहं त्वां सुमध्यमे ।
न हि चेतः पौरवाणामधर्मे रमते क्वचित् ॥ १२॥
शकुन्तलोवाच
विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने ।
वेदैतद्भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते ॥ १३॥
आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतामर्हणं च नः ।
भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते ॥ १४॥
दुष्यन्त उवाच
उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये ।
स्वयं हि वृणुते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम् ॥ १५॥
ओमित्युक्ते यथाधर्ममुपयेमे शकुन्तलाम् ।
गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित् ॥ १६॥
अमोघवीर्यो राजर्षिर्महिष्यां वीर्यमादधे ।
श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम् ॥ १७॥
कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः ।
बद्ध्वा मृगेन्द्रांस्तरसा क्रीडति स्म स बालकः ॥ १८॥
तं दुरत्ययविक्रान्तमादाय प्रमदोत्तमा ।
हरेरंशांशसम्भूतं भर्तुरन्तिकमागमत् ॥ १९॥
यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ ।
शृण्वतां सर्वभूतानां खे वागाहाशरीरिणी ॥ २०॥
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥ २१॥
रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ॥ २२॥
पितर्युपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः ।
महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि ॥ २३॥
चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः ।
ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराड्विभुः ॥ २४॥
पञ्चपञ्चाशता मेध्यैर्गङ्गायामनु वाजिभिः ।
मामतेयं पुरोधाय यमुनायामनु प्रभुः ॥ २५॥
अष्टसप्ततिमेध्याश्वान् बबन्ध प्रददद्वसु ।
भरतस्य हि दौष्यन्तेरग्निः साचीगुणे चितः ।
सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे ॥ २६॥
त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान् बद्ध्वा विस्मापयन् नृपान् ।
दौष्यन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ ॥ २७॥
मृगान् शुक्लदतः कृष्णान् हिरण्येन परीवृतान् ।
अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश ॥ २८॥
भरतस्य महत्कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः ।
नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा ॥ २९॥
किरातहूणान् यवनानन्ध्रान्
कङ्कान् खशान् छकान् ।
अब्रह्मण्यान् नृपांश्चाहन्
म्लेच्छान् दिग्विजयेऽखिलान् ॥ ३०॥
जित्वा पुरासुरा देवान् ये रसौकांसि भेजिरे ।
देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत् ॥ ३१॥
सर्वान् कामान् दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी ।
समास्त्रिणवसाहस्रीर्दिक्षु चक्रमवर्तयत् ॥ ३२॥
स सम्राड् लोकपालाख्यमैश्वर्यमधिराट् श्रियम् ।
चक्रं चास्खलितं प्राणान् मृषेत्युपरराम ह ॥ ३३॥
तस्यासन् नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसम्मताः ।
जघ्नुस्त्यागभयात्पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते ॥ ३४॥
तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम् ।
मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः ॥ ३५॥
अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः ।
प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमवासृजत् ॥ ३६॥
तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तृत्यागविशङ्किताम् ।
नामनिर्वाचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः ॥ ३७॥
मूढे भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पते ।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् ॥ ३८॥
चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम् ।
व्यसृजन्मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये ॥ ३९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २०॥
नवम स्कन्ध-बीसवाँ अध्याय
पूरु के वंश, राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अब मैं राजा पूरु के वंश का वर्णन करूँगा। इसी वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंश के वंशधर बहुत- से राजर्षि और ब्रहमर्षि भी हुए हैं ॥ १ ॥ पूरु का पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजय का प्रचिन्वान्, प्रचिन्वान् का प्रवीर, प्रवीर का नमस्यु और नमस्यु का पुत्र हुआ चारुपद ॥ २ ॥ चारुपद से सुद्यु, सुद्यु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व हुआ ॥ ३ ॥ परीक्षित ! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राण से दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सरा के गर्भ से रौद्राश्व के दस पुत्र हुए—ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सब से छोटा वनेयु ॥ ४-५ ॥ परीक्षित ! उनमें से ऋतेयु का पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभार के तीन पुत्र हुए—सुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के पुत्र का नाम था कण्व ॥ ६ ॥ कण्व का पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथि से प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमति का पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त था ॥ ७ ॥
एक बार दुष्यन्त वन में अपने कुछ सैनिकों के साथ शिकार खेल ने के लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनि के आश्रम पर जा पहुँचे। उस आश्रम पर देवमाया के समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मी के समान अङ्गकान्ति से वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरी को देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे ॥ ८-९ ॥ उस को देखने से उन को बड़ा आनन्द मिला। उनके मन में कामवासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करने के बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणी से मुसकराते हुए उससे पूछा— ॥ १० ॥ ‘कमलदल के समान सुन्दर नेत्रोंवाली देवि ! तुम कौन हो और किस की पुत्री हो ? मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करनेवाली सुन्दरी ! तुम इस निर्जन वन में रहकर क्या करना चाहती हो ? ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रिय की कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियों का चित्त कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता’ ॥ १२ ॥
शकुन्तला ने कहा—‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्रजी की पुत्री हूँ। मेन का अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। इस बात के साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करनेवाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ १३ ॥ कमलनयन ! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रम में कुछ नीवार (तिन्नी का भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये’ ॥ १४ ॥
दुष्यन्त ने कहा—‘सुन्दरी ! तुम कुशिकवंश में उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकार का आतिथ्य- सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पति को वरण कर लिया करती हैं’ ॥ १५ ॥ शकुन्तला की स्वीकृति मिल जाने पर देश, काल और शास्त्र की आज्ञा को जाननेवाले राजा दुष्यन्त ने गान्धर्वविधि से धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया ॥ १६ ॥ राजर्षि दुष्यन्त का वीर्य अमोघ था। रात्रि में वहाँ रहकर दुष्यन्त ने शकुन्तला का सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानी में चले गये। समय आने पर शकुन्तला को एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १७ ॥ महर्षि कण्व ने वन में ही राजकुमार के जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपन में ही इतना बलवान् था कि बड़े-बड़े सिंहों को बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता ॥ १८ ॥
वह बालक भगवान का अंशांशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पति के पास गयी ॥ १९ ॥ जब राजा दुष्यन्त ने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्र को स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगों ने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई ॥ २० ॥ ‘पुत्र उत्पन्न करने में माता तो केवल धौंकनी के समान है। वास्तव में पुत्र पिता का ही है। क्योंकि पिता ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त ! तुम शकुन्तला का तिरस्कार न करो, अपने पुत्र का भरण-पोषण करो ॥ २१ ॥ राजन् ! वंश की वृद्धि करनेवाला पुत्र अपने पिता को नरक से उबार लेता है। शकुन्तला का कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भ को धारण करानेवाले तुम्हीं हो’ ॥ २२ ॥
परीक्षित ! पिता दुष्यन्त की मृत्यु हो जाने के बाद वह परम यशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। उसका जन्म भगवान के अंश से हुआ था। आज भी पृथ्वी पर उसकी महिमा का गान किया जाता है ॥ २३ ॥ उसके दाहि ने हाथ में चक्र का चिह्न था और पैरों में कमल कोषका। महाभिषेक की विधि से राजाधिराज के पद पर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था ॥ २४ ॥ भरत ने ममता के पुत्र दीर्घतमा मुनि को पुरोहित बनाकर गङ्गातट पर गङ्गासागर से लेकर गङ्गोत्रीपर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये। और इसी प्रकार यमुनातट पर भी प्रयाग से लेकर यमुनोत्री तक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञों में उन्होंने अपार धनराशि का दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरत का यज्ञीय अग्रिस्थापन बड़े ही उत्तम गुणवाले स्थान में किया गया था। उस स्थान में भरत ने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणों में प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक बद्व (१३०८४) गौएँ मिली थीं ॥ २५-२६ ॥ इस प्रकार राजा भरत ने उन यज्ञों में एक सौ तैंतीस (५५+७८) घोड़े बाँधकर (१३३ यज्ञ करके) समस्त नरपतियों को असीम आश्चर्य में डाल दिया। इन यज्ञों के द्वारा इस लोक में तो राजा भरत को परम यश मिला ही, अन्त में उन्होंने माया पर भी विजय प्राप्त की और देवताओं के परमगुरु भगवान श्रीहरि को प्राप्त कर लिया ॥ २७ ॥ यज्ञ में एक कर्म होता है ‘मष्णार’। उसमें भरत ने सुवर्ण से विभूषित, श्वेत दाँतोंवाले तथा काले रंग के चौदह लाख हाथी दान किये ॥ २८ ॥ भरत ने जो महान कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर स का था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथ से स्वर्ग को छू सकता है ? ॥ २९ ॥ भरत ने दिग्विजय के समय किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कङ्क, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओं को मार डाला ॥ ३० ॥ पहले युग में बलवान् असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातल में रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवाङ्गनाओं को रसातल में ले गये थे। राजा भरत ने फिर से उन्हें छुड़ा दिया ॥ ३१ ॥ उनके राज्य में पृथ्वी और आकाश प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरत ने सत्ताईस हजार वर्ष तक समस्त दिशाओं का एकच्छत्र शासन किया ॥ ३२ ॥ अन्त में सार्वभौम सम्राट् भरत ने यही निश्चय किया कि लोकपालों को भी चकित कर देनेवाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है। यह निश्चय करके वे संसार से उदासीन हो गये ॥ ३३ ॥
परीक्षित ! विदर्भराज की तीन कन्याएँ सम्राट् भरत की पत्नियाँ थीं। वे उनका बड़ा आदर भी करते थे। परंतु जब भरत ने उनसे कह दिया कि तुम्हारे पुत्र मेरे अनुरूप नहीं हैं, तब वे डर गयीं कि कहीं सम्राट् हमें त्याग न दें। इसलिये उन्होंने अपने बच्चों को मार डाला ॥ ३४ ॥ इस प्रकार सम्राट् भरत का वंश वितथ अर्थात् विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तान के लिये ‘मरुत्स्तोम’ नाम का यज्ञ किया। इससे मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर भरत को भरद्वाज नाम का पुत्र दिया ॥ ३५ ॥ भरद्वाज की उत्पत्ति का प्रसङ्ग यह है कि एक बार बृहस्पतिजी ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी से मैथुन करना चाहा। उस समय गर्भ में जो बालक (दीर्घतमा) था, उसने मना किया। किन्तु बृहस्पतिजी ने उसकी बात पर ध्यान न दिया और उसे ‘तू अंधा हो जा’ यह शाप देकर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया ॥ ३६ ॥ उतथ्य की पत्नी ममता इस बात से डर गयी कि कहीं मेरे पति मेरा त्याग न कर दें। इसलिये उसने बृहस्पतिजी के द्वारा होनेवाले लडक़े को त्याग देना चाहा। उस समय देवताओं ने गर्भस्थ शिशु के नाम का निर्वचन करते हुए यह कहा ॥ ३७ ॥ बृहस्पतिजी कहते हैं कि ‘अरी मूढे ! यह मेरा औरस और मेरे भाई का क्षेत्रज—इस प्रकार दोनों का पुत्र (द्वाज) है; इसलिये तू डर मत, इसका भरण-पोषण कर (भर)।’ इस पर ममता ने कहा—‘बृहस्पते ! यह मेरे पति का नहीं, हम दोनों का ही पुत्र है; इसलिये तुम्हीं इसका भरण-पोषण करो।’ इस प्रकार आपस में विवाद करते हुए माता-पिता दोनों ही इस को छोडक़र चले गये। इसलिये इस लडक़े का नाम ‘भरद्वाज’ हुआ ॥ ३८ ॥ देवताओं के द्वारा नाम का ऐसा निर्वचन होने पर भी ममता ने यही समझा कि मेरा यह पुत्र वितथ अर्थात् अन्याय से पैदा हुआ है। अत: उसने उस बच्चे को छोड़ दिया। अब मरुद्गणों ने उसका पालन किया और जब राजा भरत का वंश नष्ट होने लगा, तब उसे लाकर उन को दे दिया। यही वितथ (भरद्वाज) भरत का दत् तक पुत्र हुआ ॥ ३९ ॥
॥ एकविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
वितथस्य सुतो मन्युर्बृहत्क्षत्रो जयस्ततः ।
महावीर्यो नरो गर्गः सङ्कृतिस्तु नरात्मजः ॥ १॥
गुरुश्च रन्तिदेवश्च सङ्कृतेः पाण्डुनन्दन ।
रन्तिदेवस्य हि यश इहामुत्र च गीयते ॥ २॥
वियद्वित्तस्य ददतो लब्धं लब्धं बुभुक्षतः ।
निष्किञ्चनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य सीदतः ॥ ३॥
व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपिबतः किल ।
घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम् ॥ ४॥
कृच्छ्रप्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः ।
अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत् ॥ ५॥
तस्मै संव्यभजत्सोऽन्नमादृत्य श्रद्धयान्वितः ।
हरिं सर्वत्र सम्पश्यन् स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः ॥ ६॥
अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपते ।
विभक्तं व्यभजत्तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन् ॥ ७॥
याते शूद्रे तमन्योऽगादतिथिः श्वभिरावृतः ।
राजन् मे दीयतामन्नं सगणाय बुभुक्षते ॥ ८॥
स आदृत्यावशिष्टं यद्बहुमानपुरस्कृतम् ।
तच्च दत्त्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः श्वपतये विभुः ॥ ९॥
पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम् ।
पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागादपो देह्यशुभस्य मे ॥ १०॥
तस्य तां करुणां वाचं निशम्य विपुलश्रमाम् ।
कृपया भृशसन्तप्त इदमाहामृतं वचः ॥ ११॥
न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परा-
मष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा-
मन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥ १२॥
क्षुत्तृट् श्रमो गात्रपरिश्रमश्च
दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः ।
सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तो-
र्जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे ॥ १३॥
इति प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः पिपासया ।
पुल्कसायाददाद्धीरो निसर्गकरुणो नृपः ॥ १४॥
तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः फलमिच्छताम् ।
आत्मानं दर्शयांचक्रुर्माया विष्णुविनिर्मिताः ॥ १५॥
स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निःसङ्गो विगतस्पृहः ।
वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे मनः परम् ॥ १६॥
ईश्वरालम्बनं चित्तं कुर्वतोऽनन्यराधसः ।
माया गुणमयी राजन् स्वप्नवत्प्रत्यलीयत ॥ १७॥
तत्प्रसङ्गानुभावेन रन्तिदेवानुवर्तिनः ।
अभवन् योगिनः सर्वे नारायणपरायणाः ॥ १८॥
गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः क्षत्राद्ब्रह्म ह्यवर्तत ।
दुरितक्षयो महावीर्यात्तस्य त्रय्यारुणिः कविः ॥ १९॥
पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गताः ।
बृहत्क्षत्रस्य पुत्रोऽभूद्धस्ती यद्धस्तिनापुरम् ॥ २०॥
अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढश्च हस्तिनः ।
अजमीढस्य वंश्याः स्युः प्रियमेधादयो द्विजाः ॥ २१॥
अजमीढाद्बृहदिषुस्तस्य पुत्रो बृहद्धनुः ।
बृहत्कायस्ततस्तस्य पुत्र आसीज्जयद्रथः ॥ २२॥
तत्सुतो विशदस्तस्य सेनजित्समजायत ।
रुचिराश्वो दृढहनुः काश्यो वत्सश्च तत्सुताः ॥ २३॥
रुचिराश्वसुतः पारः पृथुसेनस्तदात्मजः ।
पारस्य तनयो नीपस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ॥ २४॥
स कृत्व्यां शुककन्यायां ब्रह्मदत्तमजीजनत् ।
स योगी गवि भार्यायां विष्वक्सेनमधात्सुतम् ॥ २५॥
जैगीषव्योपदेशेन योगतन्त्रं चकार ह ।
उदक्स्वनस्ततस्तस्माद्भल्लादो बार्हदीषवाः ॥ २६॥
यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमांस्तत्सुतः स्मृतः ।
नाम्ना सत्यधृतिर्यस्य दृढनेमिः सुपार्श्वकृत् ॥ २७॥
सुपार्श्वात्सुमतिस्तस्य पुत्रः सन्नतिमांस्ततः ।
कृतिर्हिरण्यनाभाद्यो योगं प्राप्य जगौ स्म षट् ॥ २८॥
संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो ह्युग्रायुधस्ततः ।
तस्य क्षेम्यः सुवीरोऽथ सुवीरस्य रिपुञ्जयः ॥ २९॥
ततो बहुरथो नाम पुरमीढोऽप्रजोऽभवत् ।
नलिन्यामजमीढस्य नीलः शान्तिः सुतस्ततः ॥ ३०॥
शान्तेः सुशान्तिस्तत्पुत्रः पुरुजोऽर्कस्ततोऽभवत् ।
भर्म्याश्वस्तनयस्तस्य पञ्चासन् मुद्गलादयः ॥ ३१॥
यवीनरो बृहदिषुः काम्पिल्यः सञ्जयः सुताः ।
भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे पञ्चानां रक्षणाय हि ॥ ३२॥
विषयाणामलमिमे इति पञ्चालसंज्ञिताः ।
मुद्गलाद्ब्रह्म निर्वृत्तं गोत्रं मौद्गल्यसंज्ञितम् ॥ ३३॥
मिथुनं मुद्गलाद्भार्म्याद्दिवोदासः पुमानभूत् ।
अहल्या कन्यका यस्यां शतानन्दस्तु गौतमात् ॥ ३४॥
तस्य सत्यधृतिः पुत्रो धनुर्वेदविशारदः ।
शरद्वांस्तत्सुतो यस्मादुर्वशीदर्शनात्किल ॥ ३५॥
शरस्तम्बेऽपतद्रेतो मिथुनं तदभूच्छुभम् ।
तद्दृष्ट्वा कृपयागृह्णाच्छन्तनुर्मृगयां चरन् ।
कृपः कुमारः कन्या च द्रोणपत्न्यभवत्कृपी ॥ ३६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥
नवम स्कन्ध-इक्कीसवाँ अध्याय
भरतवंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! वितथ अथवा भरद्वाज का पुत्र था मन्यु। मन्यु के पाँच पुत्र हुए—बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग। नर का पुत्र था संकृति ॥ १ ॥ संकृति के दो पुत्र हुए—गुरु और रन्तिदेव। परीक्षित ! रन्तिदेव का निर्मल यश इस लोक और परलोक में सब जगह गाया जाता है ॥ २ ॥ रन्तिदेव आकाश के समान बिना उद्योग के ही दैववश प्राप्त वस्तु का उपभोग करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता उसे भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह-परिग्रह, ममता से रहित तथा बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्ब के साथ दु:ख भोग रहे थे ॥ ३ ॥ एक बार तो लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानी तक पी ने को न मिला। उनचासवें दिन प्रात:काल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला ॥ ४ ॥ उनका परिवार बड़े संकट में था । भूख और प्यासके मारे वे लोग काँप रहे थे। परंतु ज्यों ही उन लोगों ने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आ गया ॥ ५ ॥ रन्तिदेव सब में श्रीभगवान के ही दर्शन करते थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धा से आदरपूर्वक उसी अन्न में से ब्राह्मण को भोजन कराया। ब्राह्मणदेवता भोजन करके चले गये ॥ ६ ॥
परीक्षित ! अब बचे हुए अन्न को रन्तिदेव ने आपस में बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ गया। रन्तिदेव ने भगवान का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अन्न में से भी कुछ भाग शूद्र के रूप में आये अतिथि को खिला दिया ॥ ७ ॥ जब शूद्र खा-पीकर चला गया, तब कुत्तों को लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा—‘राजन् ! मैं और मेरे ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खा ने को दीजिये’ ॥ ८ ॥ रन्तिदेव ने अत्यन्त आदरभावसे, जो कुछ बच रहा था, सब-का-सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कुत्ते और कुत्तों के स्वामी के रूप में आये हुए भगवान को नमस्कार किया ॥ ९ ॥ अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी केवल एक मनुष्य के पीनेभर का था। वे उसे आपस में बाँटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा—‘मैं अत्यन्त नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये’ ॥ १० ॥ चाण्डाल की वह करुणापूर्ण वाणी, जिसके उच्चारण में भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दया से अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कह ने लगे ॥ ११ ॥ ‘मैं भगवान से आठों सिद्धियों से युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्ष की भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दु:ख मैं ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणी को दु:ख न हो ॥ १२ ॥ यह दीन प्राणी जल पी करके जीना चाहता था। जल दे दे ने से इसके जीवन की रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यास की पीड़ा, शरीर की शिथिलता, दीनता, ग्लानि, शोक, विषाद और मोह—ये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया’ ॥ १३ ॥ इस प्रकार कहकर रन्तिदेव ने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डाल को दे दिया। यद्यपि जल के बिना वे स्वयं मर रहे थे, फिर भी स्वभाव से ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपने को रोक न सके। उनके धैर्य की भी कोई सीमा है ? ॥ १४ ॥ परीक्षित ! ये अतिथि वास्तव में भगवान की रची हुई माया के ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जाने पर अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करनेवाले त्रिभुवनस्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेश—तीनों उनके सामने प्रकट हो गये ॥ १५ ॥ रन्तिदेव ने उनके चरणों में नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान की कृपा से वे आसक्ति और स्पृहा से भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिमात्र से अपने मन को भगवान वासुदेव में तन्मय कर दिया। कुछ भी माँगा नहीं ॥ १६ ॥ परीक्षित ! उन्हें भगवान के सिवा और किसी भी वस्तु की इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मन को पूर्णरूप से भगवान में लगा दिया। इसलिये त्रिगुणमयी माया जागने पर स्वप्न-दृश्य के समान नष्ट हो गयी ॥ १७ ॥ रन्तिदेव के अनुयायी भी उनके सङ्ग के प्रभाव से योगी हो गये और सब भगवान के ही आश्रित परम भक्त बन गये ॥ १८ ॥
मन्युपुत्र गर्ग से शिनि और शिनि से गाग्र्य का जन्म हुआ। यद्यपि गाग्र्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे ब्राह्मणवंश चला। महावीर्य का पुत्र था दुरितक्षय। दुरितक्षय के तीन पुत्र हुए—त्रय्यारुणि, कवि और पुष्करारुणि। ये तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्र का पुत्र हुआ हस्ती, उसी ने हस्तिनापुर बसाया था ॥ १९-२० ॥ हस्ती के तीन पुत्र थे—अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ। अजमीढ के पुत्रों में प्रियमेध आदि ब्राह्मण हुए ॥ २१ ॥ इन्हीं अजमीढ के एक पुत्र का नाम था बृहदिषु। बृहदिषु का पुत्र हुआ बृहद्धनु, बृहद्धनु का बृहत्काय और बृहत्काय का जयद्रथ हुआ ॥ २२ ॥ जयद्रथ का पुत्र हुआ विशद और विशद का सेनजित्। सेनजित् के चार पुत्र हुए— रुचिराश्व, दृढहनु, काश्य और वत्स ॥ २३ ॥ रुचिराश्व का पुत्र पार था और पार का पृथुसेन। पार के दूसरे पुत्र का नाम नीप था। उसके सौ पुत्र थे ॥ २४ ॥ इसी नीप ने (छाया) [1] शुक की कन्या कृत्वी से विवाह किया था। उससे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त बड़ा योगी था। उसने अपनी पत्नी सरस्वती के गर्भ से विष्वक्सेन नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ २५ ॥ इसी विष्वक्सेन ने जैगीषव्य के उपदेश से योगशास्त्र की रचना की। विष्वक्सेन का पुत्र था उदक्स्वन और उदक्स्वन का भल्लाद। ये सब बृहदिषु के वंशज हुए ॥ २६ ॥
द्विमीढका पुत्र था यवीनर, यवीनर का कृतिमान्, कृतिमान् का सत्यधृति, सत्यधृति का दृढनेमि और दृढनेमि का पुत्र सुपाश्र्व हुआ ॥ २७ ॥ सुपाश्र्व से सुमति, सुमति से सन्नतिमान् और सन्नतिमान् से कृति का जन्म हुआ। उसने हिरण्यनाभ से योगविद्या प्राप्त की थी और ‘प्राच्यसाम’ नामक ऋचाओं की छ: संहिताएँ कही थीं। कृति का पुत्र नीप था, नीप का उग्रायुध, उग्रायुध का क्षेम्य, क्षेम्य का सुवीर और सुवीर का पुत्र था रिपुञ्जय ॥ २८-२९ ॥ रिपुञ्जय का पुत्र था बहुरथ। द्विमीढ के भाई पुरुमीढ को कोई सन्तान न हुई। अजमीढ की दूसरी पत्नी का नाम था नलिनी। उसके गर्भ से नील का जन्म हुआ। नील का शान्ति, शान्ति का सुशान्ति, सुशान्ति का पुरुज, पुरुज का अर्क और अर्क का पुत्र हुआ भम्र्याश्व। भम्र्याश्व के पाँच पुत्र थे—मुद्गल, यवीनर, बृहदिषु, काम्पिल्य और सञ्जय। भम्र्याश्व ने कहा—‘ये मेरे पुत्र पाँच देशों का शासन करने में समर्थ (पञ्च अलम्) हैं।’ इसलिये ये ‘पञ्चाल’ नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें मुद्गल से ‘मौद्गल्य’ नामक ब्राह्मणगोत्र की प्रवृत्ति हुई ॥ ३०—३३ ॥
भम्र्याश्व के पुत्र मुद्गल से यमज (जुड़वाँ) सन्तान हुई। उनमें पुत्र का नाम था दिवोदास और कन्या का अहल्या। अहल्या का विवाह महर्षि गौतम से हुआ। गौतम के पुत्र हुए शतानन्द ॥ ३४ ॥ शतानन्द का पुत्र सत्यधृति था, वह धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण था। सत्यधृति के पुत्र का नाम था शरद्वान्। एक दिन उर्वशी को देखने से शरद्वान् का वीर्य मूँज के झाड़ पर गिर पड़ा, उससे एक शुभ लक्षणवाले पुत्र और पुत्री का जन्म हुआ। महाराज शन्तनु की उसपर दृष्टि पड़ गयी, क्योंकि वे उधर शिकार खेल ने के लिये गये हुए थे। उन्होंने दयावश दोनों को उठा लिया। उनमें जो पुत्र था, उसका नाम कृपाचार्य हुआ और जो कन्या थी, उसका नाम हुआ कृपी। यही कृपी द्रोणाचार्य की पत्नी हुर्ई ॥ ३५-३६ ॥
[1] श्री शुकदेवजी असंग थे, पर वे वन जाते समय एक छाया शुक रचकर छोड़ गये थे। उस छाया शुक ने ही गृहस्थोचित व्यवहार किये थे।
॥ द्वाविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
मित्रेयुश्च दिवोदासाच्च्यवनस्तत्सुतो नृप ।
सुदासः सहदेवोऽथ सोमको जन्तुजन्मकृत् ॥ १॥
तस्य पुत्रशतं तेषां यवीयान् पृषतः सुतः ।
(स तस्माद्द्रुपदो जज्ञे सर्वसम्पत्समन्वितः ।)
द्रुपदो द्रौपदी तस्य धृष्टद्युम्नादयः सुताः ॥ २॥
धृष्टद्युम्नाद्धृष्टकेतुर्भार्म्याः पञ्चालका इमे ।
योऽजमीढसुतो ह्यन्य ऋक्षः संवरणस्ततः ॥ ३॥
तपत्यां सूर्यकन्यायां कुरुक्षेत्रपतिः कुरुः ।
परीक्षित्सुधनुर्जह्नुर्निषधाश्वः कुरोः सुताः ॥ ४॥
सुहोत्रोऽभूत्सुधनुषश्च्यवनोऽथ ततः कृती ।
वसुस्तस्योपरिचरो बृहद्रथमुखास्ततः ॥ ५॥
कुशाम्बमत्स्यप्रत्यग्रचेदिपाद्याश्च चेदिपाः ।
बृहद्रथात्कुशाग्रोऽभूदृषभस्तस्य तत्सुतः ॥ ६॥
जज्ञे सत्यहितोऽपत्यं पुष्पवांस्तत्सुतो जहुः ।
अन्यस्यां चापि भार्यायां शकले द्वे बृहद्रथात् ॥ ७॥
ते मात्रा बहिरुत्सृष्टे जरया चाभिसन्धिते ।
जीव जीवेति क्रीडन्त्या जरासन्धोऽभवत्सुतः ॥ ८॥
ततश्च सहदेवोऽभूत्सोमापिर्यच्छ्रुतश्रवाः ।
परीक्षिदनपत्योऽभूत्सुरथो नाम जाह्नवः ॥ ९॥
ततो विदूरथस्तस्मात्सार्वभौमस्ततोऽभवत् ।
जयसेनस्तत्तनयो राधिकोऽतोऽयुतो ह्यभूत् ॥ १०॥
ततश्च क्रोधनस्तस्माद्देवातिथिरमुष्य च ।
ऋष्यस्तस्य दिलीपोऽभूत्प्रतीपस्तस्य चात्मजः ॥ ११॥
देवापिः शन्तनुस्तस्य बाह्लीक इति चात्मजाः ।
पितृराज्यं परित्यज्य देवापिस्तु वनं गतः ॥ १२॥
अभवच्छन्तनू राजा प्राङ्महाभिषसंज्ञितः ।
यं यं कराभ्यां स्पृशति जीर्णं यौवनमेति सः ॥ १३॥
शान्तिमाप्नोति चैवाग्र्यां कर्मणा तेन शन्तनुः ।
समा द्वादश तद्राज्ये न ववर्ष यदा विभुः ॥ १४॥
शन्तनुर्ब्राह्मणैरुक्तः परिवेत्तायमग्रभुक् ।
राज्यं देह्यग्रजायाशु पुरराष्ट्रविवृद्धये ॥ १५॥
एवमुक्तो द्विजैर्ज्येष्ठं छन्दयामास सोऽब्रवीत् ।
तन्मन्त्रिप्रहितैर्विप्रैर्वेदाद्विभ्रंशितो गिरा ॥ १६॥
वेदवादातिवादान् वै तदा देवो ववर्ष ह ।
देवापिर्योगमास्थाय कलापग्राममाश्रितः ॥ १७॥
सोमवंशे कलौ नष्टे कृतादौ स्थापयिष्यति ।
बाह्लीकात्सोमदत्तोऽभूद्भूरिर्भूरिश्रवास्ततः ॥ १८॥
शलश्च शन्तनोरासीद्गङ्गायां भीष्म आत्मवान् ।
सर्वधर्मविदां श्रेष्ठो महाभागवतः कविः ॥ १९॥
वीरयूथाग्रणीर्येन रामोऽपि युधि तोषितः ।
शन्तनोर्दाशकन्यायां जज्ञे चित्राङ्गदः सुतः ॥ २०॥
विचित्रवीर्यश्चावरजो नाम्ना चित्राङ्गदो हतः ।
यस्यां पराशरात्साक्षादवतीर्णो हरेः कला ॥ २१॥
वेदगुप्तो मुनिः कृष्णो यतोऽहमिदमध्यगाम् ।
हित्वा स्वशिष्यान् पैलादीन् भगवान् बादरायणः ॥ २२॥
मह्यं पुत्राय शान्ताय परं गुह्यमिदं जगौ ।
विचित्रवीर्योऽथोवाह काशिराजसुते बलात् ॥ २३॥
स्वयंवरादुपानीते अम्बिकाम्बालिके उभे ।
तयोरासक्तहृदयो गृहीतो यक्ष्मणा मृतः ॥ २४॥
क्षेत्रेऽप्रजस्य वै भ्रातुर्मात्रोक्तो बादरायणः ।
धृतराष्ट्रं च पाण्डुं च विदुरं चाप्यजीजनत् ॥ २५॥
गान्धार्यां धृतराष्ट्रस्य जज्ञे पुत्रशतं नृप ।
तत्र दुर्योधनो ज्येष्ठो दुःशला चापि कन्यका ॥ २६॥
शापान्मैथुनरुद्धस्य पाण्डोः कुन्त्यां महारथाः ।
जाता धर्मानिलेन्द्रेभ्यो युधिष्ठिरमुखास्त्रयः ॥ २७॥
नकुलः सहदेवश्च माद्र्यां नासत्यदस्रयोः ।
द्रौपद्यां पञ्च पञ्चभ्यः पुत्रास्ते पितरोऽभवन् ॥ २८॥
युधिष्ठिरात्प्रतिविन्ध्यः श्रुतसेनो वृकोदरात् ।
अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः ॥ २९॥
सहदेवसुतो राजन् श्रुतकर्मा तथापरे ।
युधिष्ठिरात्तु पौरव्यां देवकोऽथ घटोत्कचः ॥ ३०॥
भीमसेनाद्धिडिम्बायां काल्यां सर्वगतस्ततः ।
सहदेवात्सुहोत्रं तु विजयासूत पार्वती ॥ ३१॥
करेणुमत्यां नकुलो नरमित्रं तथार्जुनः ।
इरावन्तमुलुप्यां वै सुतायां बभ्रुवाहनम् ।
मणिपूरपतेः सोऽपि तत्पुत्रः पुत्रिकासुतः ॥ ३२॥
तव तातः सुभद्रायामभिमन्युरजायत ।
सर्वातिरथजिद्वीर उत्तरायां ततो भवान् ॥ ३३॥
परिक्षीणेषु कुरुषु द्रौणेर्ब्रह्मास्त्रतेजसा ।
त्वं च कृष्णानुभावेन सजीवो मोचितोऽन्तकात् ॥ ३४॥
तवेमे तनयास्तात जनमेजयपूर्वकाः ।
श्रुतसेनो भीमसेन उग्रसेनश्च वीर्यवान् ॥ ३५॥
जनमेजयस्त्वां विदित्वा तक्षकान्निधनं गतम् ।
सर्पान् वै सर्पयागाग्नौ स होष्यति रुषान्वितः ॥ ३६॥
कावषेयं पुरोधाय तुरं तुरगमेधयाट् ।
समन्तात्पृथिवीं सर्वां जित्वा यक्ष्यति चाध्वरैः ॥ ३७॥
तस्य पुत्रः शतानीको याज्ञवल्क्यात्त्रयीं पठन् ।
अस्त्रज्ञानं क्रियाज्ञानं शौनकात्परमेष्यति ॥ ३८॥
सहस्रानीकस्तत्पुत्रस्ततश्चैवाश्वमेधजः ।
असीमकृष्णस्तस्यापि नेमिचक्रस्तु तत्सुतः ॥ ३९॥
गजाह्वये हृते नद्या कौशाम्ब्यां साधु वत्स्यति ।
उक्तस्ततश्चित्ररथस्तस्मात्कविरथः सुतः ॥ ४०॥
तस्माच्च वृष्टिमांस्तस्य सुषेणोऽथ महीपतिः ।
सुनीथस्तस्य भविता नृचक्षुर्यत्सुखीनलः ॥ ४१॥
परिप्लवः सुतस्तस्मान्मेधावी सुनयात्मजः ।
नृपञ्जयस्ततो दूर्वस्तिमिस्तस्माज्जनिष्यति ॥ ४२॥
तिमेर्बृहद्रथस्तस्माच्छतानीकः सुदासजः ।
शतानीकाद्दुर्दमनस्तस्यापत्यं महीनरः ॥ ४३॥
दण्डपाणिर्निमिस्तस्य क्षेमको भविता नृपः ।
ब्रह्मक्षत्रस्य वै प्रोक्तो वंशो देवर्षिसत्कृतः ॥ ४४॥
क्षेमकं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ ।
अथ मागधराजानो भवितारो वदामि ते ॥ ४५॥
भविता सहदेवस्य मार्जारिर्यच्छ्रुतश्रवाः ।
ततोऽयुतायुस्तस्यापि निरमित्रोऽथ तत्सुतः ॥ ४६॥
सुनक्षत्रः सुनक्षत्राद्बृहत्सेनोऽथ कर्मजित् ।
ततः सुतञ्जयाद्विप्रः शुचिस्तस्य भविष्यति ॥ ४७॥
क्षेमोऽथ सुव्रतस्तस्माद्धर्मसूत्रः शमस्ततः ।
द्युमत्सेनोऽथ सुमतिः सुबलो जनिता ततः ॥ ४८॥
सुनीथः सत्यजिदथ विश्वजिद्यद्रिपुञ्जयः ।
बार्हद्रथाश्च भूपाला भाव्याः साहस्रवत्सरम् ॥ ४९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥
नवम स्कन्ध-बाईसवाँ अध्याय
पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओं के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! दिवोदास का पुत्र था मित्रेयु। मित्रेयु के चार पुत्र हुए—च्यवन सुदास, सहदेव और सोमक। सोमक के सौ पुत्र थे, उनमें सब से बड़ा जन्तु और सब से छोटा पृषत था। पृषत के पुत्र द्रुपद थे, द्रुपद के द्रौपदी नाम की पुत्री और धृष्टद्युम्र आदि पुत्र हुए ॥ १-२ ॥ धृष्टद्युम्र का पुत्र था धृष्टकेतु। भम्र्याश्व के वंश में उत्पन्न हुए ये नरपति ‘पाञ्चाल’ कहलाये। अजमीढका दूसरा पुत्र था ऋक्ष। उनके पुत्र हुए संवरण ॥ ३ ॥ संवरण का विवाह सूर्य की कन्या तपती से हुआ। उन्हींके गर्भ से कुरुक्षेत्र के स्वामी कुरु का जन्म हुआ। कुरु के चार पुत्र हुए—परीक्षित, सुधन्वा, जह्नु और निषधाश्व ॥ ४ ॥ सुधन्वा से सुहोत्र, सुहोत्र से च्यवन, च्यवन से कृती, कृती से उपरिचरवसु और उपरिचरवसु से बृहद्रथ आदि कई पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५ ॥ उनमें बृहद्रथ, कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यग्र और चेदिप आदि चेदिदेश के राजा हुए। बृहद्रथ का पुत्र था कुशाग्र, कुशाग्र का ऋषभ, ऋषभ का सत्यहित, सत्यहित का पुष्पवान् और पुष्पवान् के जहु नामक पुत्र हुआ। बृहद्रथ की दूसरी पत्नी के गर्भ से एक शरीर के दो टुकड़े उत्पन्न हुए ॥ ६-७ ॥ उन्हें माता ने बाहर फेंकवा दिया। तब ‘जरा’ नाम की राक्षसी ने ‘जियो, जियो’ इस प्रकार कहकर खेल-खेल में उन दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया। उसी जोड़े हुए बालक का नाम हुआ जरासन्ध ॥ ८ ॥ जरासन्ध का सहदेव, सहदेव का सोमापि और सोमापि का पुत्र हुआ श्रुतश्रवा। कुरु के ज्येष्ठ पुत्र परीक्षित के कोई सन्तान न हुई। जह्नु का पुत्र था सुरथ ॥ ९ ॥ सुरथ का विदूरथ, विदूरथ का सार्वभौम, सार्वभौम का जयसेन, जयसेन का राधिक और राधिक का पुत्र हुआ अयुत ॥ १० ॥ अयुत का क्रोधन, क्रोधन का देवातिथि, देवातिथि का ऋष्य, ऋष्य का दिलीप और दिलीप का पुत्र प्रतीप हुआ ॥ ११ ॥ प्रतीप के तीन पुत्र थे—देवापि, शन्तनु और बाह्लीक। देवापि अपना पैतृक राज्य छोडक़र वन में चला गया ॥ १२ ॥ इसलिये उसके छोटे भाई शन्तनु राजा हुए। पूर्वजन्म में शन्तनु का नाम महाभिष था। इस जन्म में भी वे अपने हाथों से जिसे छू देते थे, वह बूढ़े से जवान हो जाता था ॥ १३ ॥ उसे परम शान्ति मिल जाती थी। इसी करामात के कारण उनका नाम ‘शन्तनु’ हुआ। एक बार शन्तनु के राज्य में बारह वर्ष तक इन्द्र ने वर्षा नहीं की। इस पर ब्राह्मणों ने शन्तनु से कहा कि ‘तुम ने अपने बड़े भाई देवापि से पहले ही विवाह, अग्रिहोत्र और राजपद को स्वीकार कर लिया, अत: तुम परिवेत्ता [1] हो; इसीसे तुम्हारे राज्य में वर्षा नहीं होती। अब यदि तुम अपने नगर और राष्ट्र की उन्नति चाहते हो तो शीघ्र-से-शीघ्र अपने बड़े भाई को राज्य लौटा दो’ ॥ १४-१५ ॥ जब ब्राह्मणों ने शन्तनु से इस प्रकार कहा, तब उन्होंने वन में जाकर अपने बड़े भाई देवापि से राज्य स्वीकार करने का अनुरोध किया। परंतु शन्तनु के मन्त्री अश्मरात ने पहले से ही उनके पास कुछ ऐसे ब्राह्मण भेज दिये थे, जो वेद को दूषित करनेवाले वचनों से देवापि को वेदमार्ग से विचलित कर चु के थे। इसका फल यह हुआ कि देवापि वेदों के अनुसार गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की जगह उनकी निन्दा करने लगे। इसलिये वे राज्य के अधिकार से वञ्चित हो गये और तब शन्तनु के राज्य में वर्षा हुई। देवापि इस समय भी योगसाधना कर रहे हैं और योगियों के प्रसिद्ध निवासस्थान कलापग्राम में रहते हैं ॥ १६-१७ ॥ जब कलियुग में चन्द्रवंश का नाश हो जायगा, तब सत्ययुग के प्रारम्भ में वे फिर उसकी स्थापना करेंगे। शन्तनु के छोटे भाई बाह्लीक का पुत्र हुआ सोमदत्त। सोमदत्त के तीन पुत्र हुए—भूरि, भूरिश्रवा और शल। शन्तनु के द्वारा गङ्गाजी के गर्भ से नैष्ठिक ब्रह्मचारी भीष्म का जन्म हुआ। वे समस्त धर्मज्ञों के सिरमौर, भगवान के परम प्रेमी भक्त और परम ज्ञानी थे ॥ १८-१९ ॥ वे संसार के समस्त वीरों के अग्रगण्य नेता थे। औरों की तो बात ही क्या, उन्होंने अपने गुरु भगवान परशुराम को भी युद्ध में सन्तुष्ट कर दिया था। शन्तनु के द्वारा दाशराज की कन्या [2] के गर्भ से दो पुत्र हुए—चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य। चित्राङ्गद को चित्राङ्गद नामक गन्धर्व ने मार डाला। इसी दाशराज की कन्या सत्यवती से पराशरजी के द्वारा मेरे पिता, भगवान के कलावतार स्वयं भगवान श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने वेदों की रक्षा की। परीक्षित ! मैंने उन्हीं से इस श्रीमद्भागवत-पुराण का अध्ययन किया था। यह पुराण परम गोपनीय—अत्यन्त रहस्यमय है। इसीसे मेरे पिता भगवान व्यासजी ने अपने पैल आदि शिष्यों को इसका अध्ययन नहीं कराया, मुझे ही इसके योग्य अधिकारी समझा। एक तो मैं उनका पुत्र था और दूसरे शान्ति आदि गुण भी मुझ में विशेषरूप से थे। शन्तनु के दूसरे पुत्र विचित्रवीर्य ने काशिराज की कन्या अम्बि का और अम्बालिका से विवाह किया। उन दोनों को भीष्मजी स्वयंवर से बलपूर्वक ले आये थे। विचित्रवीर्य अपनी दोनों पत्नियों में इतना आसक्त हो गया कि उसे राजयक्ष्मा रोग हो गया और उसकी मृत्यु हो गयी ॥ २०—२४ ॥ माता सत्यवती के कह ने से भगवान व्यासजी ने अपने सन्तानहीन भाई की स्त्रियों से धृतराष्ट्र और पाण्डु दो पुत्र उत्पन्न किये। उनकी दासी से तीसरे पुत्र विदुरजी हुए ॥ २५ ॥
परीक्षित ! धृतराष्ट्र की पत्नी थी गान्धारी। उसके गर्भ से सौ पुत्र हुए, उनमें सब से बड़ा था दुर्योधन। कन्या का नाम था दु:शला ॥ २६ ॥ पाण्डु की पत्नी थी कुन्ती। शापवश पाण्डु स्त्री-सहवास नहीं कर सकते थे। इसलिये उनकी पत्नी कुन्ती के गर्भ से धर्म, वायु और इन्द्र के द्वारा क्रमश: युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन नाम के तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ये तीनों-के-तीनों महारथी थे ॥ २७ ॥
पाण्डु की दूसरी पत्नी का नाम था माद्री। दोनों अश्विनीकुमारों के द्वारा उसके गर्भ से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ। परीक्षित ! इन पाँच पाण्डवों के द्वारा द्रौपदी के गर्भ से तुम्हारे पाँच चाचा उत्पन्न हुए ॥ २८ ॥ इनमें से युधिष्ठिर के पुत्र का नाम था प्रतिविन्ध्य, भीमसेन का पुत्र था श्रुतसेन, अर्जुन का श्रुतकीर्ति, नकुल का शतानीक और सहदेव का श्रुतकर्मा। इनके सिवा युधिष्ठिर के पौरवी नाम की पत्नी से देवक और भीमसेन के हिडिम्बा से घटोत्कच और काली से सर्वगत नाम के पुत्र हुए। सहदेव के पर्वतकुमारी विजया से सुहोत्र और नकुल के करेणुमती से नरमित्र हुआ। अर्जुन द्वारा नागकन्या उलूपी के गर्भ से इरावान् और मणिपूर नरेश की कन्या से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ। बभ्रुवाहन अपने नाना का ही पुत्र माना गया। क्योंकि पहले ही यह बात तय हो चुकी थी ॥ २९—३२ ॥ अर्जुन की सुभद्रा नाम की पत्नी से तुम्हारे पिता अभिमन्यु का जन्म हुआ। वीर अभिमन्यु ने सभी अतिरथियों को जीत लिया था। अभिमन्यु के द्वारा उत्तरा के गर्भ से तुम्हारा जन्म हुआ ॥ ३३ ॥ परीक्षित ! उस समय कुरुवंश का नाश हो चु का था। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तुम भी जल ही चु के थे, परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रभाव से तुम्हें उस मृत्यु से जीता-जागता बचा लिया ॥ ३४ ॥
परीक्षित ! तुम्हारे पुत्र तो सामने ही बैठे हुए हैं—इनके नाम हैं—जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन और उग्रसेन। ये सब-के-सब बड़े पराक्रमी हैं ॥ ३५ ॥ जब तक्षक के काट ने से तुम्हारी मृत्यु हो जायगी, तब इस बात को जानकर जनमेजय बहुत क्रोधित होगा और यह सर्प-यज्ञ की आग में सर्पों का हवन करेगा ॥ ३६ ॥ यह कावषेय तुर को पुरोहित बनाकर अश्वमेध यज्ञ करेगा और सब ओर से सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त करके यज्ञों के द्वारा भगवान की आराधना करेगा ॥ ३७ ॥ जनमेजय का पुत्र होगा शतानीक। वह याज्ञवल्क्य ऋषि से तीनों वेद और कर्मकाण्ड की तथा कृपाचार्य से अस्त्रविद्या की शिक्षा प्राप्त करेगा एवं शौनकजी से आत्मज्ञान का सम्पादन करके परमात्मा को प्राप्त होगा ॥ ३८ ॥ शतानीक का सहस्रानीक, सहस्रानीक का अश्वमेधज, अश्वमेधज का असीमकृष्ण और असीमकृष्ण का पुत्र होगा नेमिचक्र ॥ ३९ ॥ जब हस्तिनापुर गङ्गाजी में बह जायगा, तब वह कौशाम्बीपुरी में सुखपूर्वक निवास करेगा। नेमिचक्र का पुत्र होगा चित्ररथ, चित्ररथ का कविरथ, कविरथ का वृष्टिमान्, वृष्टिमान् का राजा सुषेण, सुषेण का सुनीथ, सुनीथ का नृचक्षु, नृचक्षु का सुखीनल, सुखीनल का परिप्लव, परिप्लव का सुनय, सुनय का मेधावी, मेधावी का नृपञ्जय, नृपञ्जय का दूर्व और दूर्व का पुत्र तिमि होगा ॥ ४०—४२ ॥ तिमि से बृहद्रथ, बृहद्रथ से सुदास, सुदास से शतानीक, शतानीक से दुर्दमन, दुर्दमन से वहीनर, वहीनर से दण्डपाणि, दण्डपाणि से निमि और निमि से राजा क्षेमक का जन्म होगा। इस प्रकार मैंने तुम्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों के उत्पत्तिस्थान सोमवंश का वर्णन सुनाया। बड़े-बड़े देवता और ऋषि इस वंश का सत्कार करते हैं ॥ ४३-४४ ॥ यह वंश कलियुग में राजा क्षेमक के साथ ही समाप्त हो जायगा। अब मैं भविष्य में होनेवाले मगध देश के राजाओं का वर्णन सुनाता हूँ ॥ ४५ ॥
जरासन्ध के पुत्र सहदेव से मार्जारि, मार्जारि से श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवा से अयुतायु और अयुतायु से निरमित्र नामक पुत्र होगा ॥ ४६ ॥ निरमित्र के सुनक्षत्र, सुनक्षत्र के बृहत्सेन, बृहत्सेन के कर्मजित्, कर्मजित् के सृतञ्जय, सृतञ्जय के विप्र और विप्र के पुत्र का नाम होगा शुचि ॥ ४७ ॥ शुचि से क्षेम, क्षेम से सुव्रत, सुव्रत से धर्मसूत्र, धर्मसूत्र से शम, शम से द्युमत्सेन, द्युमत्सेन से सुमति और सुमति से सुबल का जन्म होगा ॥ ४८ ॥ सुबल का सुनीथ, सुनीथका, सत्यजित् सत्यजित् का विश्वजित् और विश्वजित् का पुत्र रिपुञ्जय होगा। ये सब बृहद्रथवंश के राजा होंगे। इनका शासनकाल एक हजार वर्ष के भीतर ही होगा ॥ ४९ ॥
[1] दाराग्रिहोत्रसंयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते । परिवेत्ता स विज्ञेय: परिवित्तिस्तु पूर्वज: ।।
अर्थात् जो पुरुष अपने बड़े भाई के रहते हुए उससे पहले ही विवाह और अग्रिहोत्र का संयोग करता है, उसे परिवेत्ता जानना चाहिये और उसका बड़ा भाई ‘परिवित्ति’ कहलाता है।
[2] यह कन्या वास्तव में उपरिचरवसु के वीर्य से मछली के गर्भ से उत्पन्न हुई थी, किन्तु दाशों (केवटों) के द्वारा पालित होने से वह केवटों की कन्या कहलायी।
॥ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अनोः सभानरश्चक्षुः परोक्षश्च त्रयः सुताः ।
सभानरात्कालनरः सृञ्जयस्तत्सुतस्ततः ॥ १॥
जनमेजयस्तस्य पुत्रो महाशीलो महामनाः ।
उशीनरस्तितिक्षुश्च महामनस आत्मजौ ॥ २॥
शिबिर्वनः शमिर्दक्षश्चत्वारोशीनरात्मजाः ।
वृषादर्भः सुवीरश्च मद्रः कैकेय आत्मजाः ॥ ३॥
शिबेश्चत्वार एवासंस्तितिक्षोश्च रुषद्रथः ।
ततो हेमोऽथ सुतपा बलिः सुतपसोऽभवत् ॥ ४॥
अङ्गवङ्गकलिङ्गाद्याः सुह्मपुण्ड्रान्ध्रसंज्ञिताः ।
जज्ञिरे दीर्घतमसो बलेः क्षेत्रे महीक्षितः ॥ ५॥
चक्रुः स्वनाम्ना विषयान् षडिमान् प्राच्यकांश्च ते ।
खनपानोऽङ्गतो जज्ञे तस्माद्दिविरथस्ततः ॥ ६॥
सुतो धर्मरथो यस्य जज्ञे चित्ररथोऽप्रजाः ।
रोमपाद इति ख्यातस्तस्मै दशरथः सखा ॥ ७॥
शान्तां स्वकन्यां प्रायच्छदृष्यशृङ्ग उवाह ताम् ।
देवेऽवर्षति यं रामा आनिन्युर्हरिणीसुतम् ॥ ८॥
नाट्यसङ्गीतवादित्रैर्विभ्रमालिङ्गनार्हणैः ।
स तु राज्ञोऽनपत्यस्य निरूप्येष्टिं मरुत्वतः ॥ ९॥
प्रजामदाद्दशरथो येन लेभेऽप्रजाः प्रजाः ।
चतुरङ्गो रोमपादात्पृथुलाक्षस्तु तत्सुतः ॥ १०॥
बृहद्रथो बृहत्कर्मा बृहद्भानुश्च तत्सुताः ।
आद्याद्बृहन्मनास्तस्माज्जयद्रथ उदाहृतः ॥ ११॥
विजयस्तस्य सम्भूत्यां ततो धृतिरजायत ।
ततो धृतव्रतस्तस्य सत्कर्माधिरथस्ततः ॥ १२॥
योऽसौ गङ्गातटे क्रीडन् मञ्जूषान्तर्गतं शिशुम् ।
कुन्त्यापविद्धं कानीनमनपत्योऽकरोत्सुतम् ॥ १३॥
वृषसेनः सुतस्तस्य कर्णस्य जगतीपतेः ।
द्रुह्योश्च तनयो बभ्रुः सेतुस्तस्यात्मजस्ततः ॥ १४॥
आरब्धस्तस्य गान्धारस्तस्य धर्मस्ततो धृतः ।
धृतस्य दुर्मदस्तस्मात्प्रचेताः प्राचेतसं शतम् ॥ १५॥
म्लेच्छाधिपतयोऽभूवन्नुदीचीं दिशमाश्रिताः ।
तुर्वसोश्च सुतो वह्निर्वह्नेर्भर्गोऽथ भानुमान् ॥ १६॥
त्रिभानुस्तत्सुतोऽस्यापि करन्धम उदारधीः ।
मरुतस्तत्सुतोऽपुत्रः पुत्रं पौरवमन्वभूत् ॥ १७॥
दुष्यन्तः स पुनर्भेजे स्वं वंशं राज्यकामुकः ।
ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८॥
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १९॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥ २०॥
चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित्प्रथमात्मजः ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः ॥ २१॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत्कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनकः ॥ २२॥
दुर्मदो भद्रसेनस्य धनकः कृतवीर्यसूः ।
कृताग्निः कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजाः ॥ २३॥
अर्जुनः कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।
दत्तात्रेयाद्धरेरंशात्प्राप्तयोगमहागुणः ॥ २४॥
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः ।
यज्ञदानतपोयोगश्रुतवीर्यदयादिभिः ॥ २५॥
पञ्चाशीति सहस्राणि ह्यव्याहतबलः समाः ।
अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेऽक्षय्यषड्वसु ॥ २६॥
तस्य पुत्रसहस्रेषु पञ्चैवोर्वरिता मृधे ।
जयध्वजः शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जितः ॥ २७॥
जयध्वजात्तालजङ्घस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ।
क्षत्रं यत्तालजङ्घाख्यमौर्वतेजोपसंहृतम् ॥ २८॥
तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णिः पुत्रो मधोः स्मृतः ।
तस्य पुत्रशतं त्वासीद्वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम् ॥ २९॥
माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः ।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः ॥ ३०॥
श्वाहिस्ततो रुशेकुर्वै तस्य चित्ररथस्ततः ।
शशबिन्दुर्महायोगी महाभोजो महानभूत् ॥ ३१॥
चतुर्दशमहारत्नश्चक्रवर्त्यपराजितः ।
तस्य पत्नीसहस्राणां दशानां सुमहायशाः ॥ ३२॥
दशलक्षसहस्राणि पुत्राणां तास्वजीजनत् ।
तेषां तु षट् प्रधानानां पृथुश्रवस आत्मजः ॥ ३३॥
धर्मो नामोशना तस्य हयमेधशतस्य याट् ।
तत्सुतो रुचकस्तस्य पञ्चासन्नात्मजाः शृणु ॥ ३४॥
पुरुजिद्रुक्मरुक्मेषुपृथुज्यामघसंज्ञिताः ।
ज्यामघस्त्वप्रजोऽप्यन्यां भार्यां शैब्यापतिर्भयात् ॥ ३५॥
नाविन्दच्छत्रुभवनाद्भोज्यां कन्यामहारषीत् ।
रथस्थां तां निरीक्ष्याह शैब्या पतिममर्षिता ॥ ३६॥
केयं कुहक मत्स्थानं रथमारोपितेति वै ।
स्नुषा तवेत्यभिहिते स्मयन्ती पतिमब्रवीत् ॥ ३७॥
अहं वन्ध्यासपत्नी च स्नुषा मे युज्यते कथम् ।
जनयिष्यसि यं राज्ञि तस्येयमुपयुज्यते ॥ ३८॥
अन्वमोदन्त तद्विश्वेदेवाः पितर एव च ।
शैब्या गर्भमधात्काले कुमारं सुषुवे शुभम् ।
स विदर्भ इति प्रोक्त उपयेमे स्नुषां सतीम् ॥ ३९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
नवमस्कन्धे यदुवंशानुवर्णने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥
नवम स्कन्ध-तेईसवाँ अध्याय
अनु, द्रुह्यु, तुर्वसु और यदु के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! ययातिनन्दन अनु के तीन पुत्र हुए—सभानर, चक्षु और परोक्ष। सभानर का कालनर, कालनर का सृञ्जय, सृञ्जय का जनमेजय, जनमेजय का महाशील, महाशील का पुत्र हुआ महामना। महामना के दो पुत्र हुए—उशीनर एवं तितिक्षु ॥ १-२ ॥ उशीनर के चार पुत्र थे—शिबि, वन, शमी और दक्ष। शिबि के चार पुत्र हुए—बृषादर्भ, सुवीर, मद्र और कैकेय। उशीनर के भाई तितिक्षु के रुशद्रथ, रुशद्रथ के हेम, हेम के सुतपा और सुतपा के बलि नामक पुत्र हुआ ॥ ३-४ ॥ राजा बलि की पत्नी के गर्भ से दीर्घतमा मुनि ने छ: पुत्र उत्पन्न किये—अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सुह्म, पुण्ंड्र और अन्ध्र ॥ ५ ॥ इन लोगों ने अपने-अपने नाम से पूर्व दिशा में छ: देश बसाये। अङ्ग का पुत्र हुआ खनपान, खनपान का दिविरथ, दिविरथ का धर्मरथ और धर्मरथ का चित्ररथ। यह चित्ररथ ही रोमपाद के नाम से प्रसिद्ध था। इसके मित्र थे अयोध्याधिपति महाराज दशरथ। रोमपाद को कोई सन्तान न थी। इसलिये दशरथ ने उन्हें अपनी शान्ता नाम की कन्या गोद दे दी। शान्ता का विवाह ऋष्यशृङ्ग मुनि से हुआ ऋष्यशृङ्ग विभाण्डक ऋषि के द्वारा हरिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। एक बार राजा रोमपाद के राज्य में बहुत दिनों तक वर्षा नहीं हुई। तब गणिकाएँ अपने नृत्य, संगीत, वाद्य, हाव-भाव, आलिङ्गन और विविध उपहारों से मोहित करके ऋष्यशृङ्ग को वहाँ ले आयीं। उनके आते ही वर्षा हो गयी। उन्होंने ही इन्द्र देवता का यज्ञ कराया, तब सन्तानहीन राजा रोमपाद को भी पुत्र हुआ और पुत्रहीन दशरथ ने भी उन्हींके प्रयत्न से चार पुत्र प्राप्त किये। रोमपाद का पुत्र हुआ चतुरङ्ग और चतुरङ्ग का पृथुलाक्ष ॥ ६—१० ॥ पृथुलाक्ष के बृहद्रथ, बृहत्कर्मा और बृहद्भानु—तीन पुत्र हुए। बृहद्रथ का पुत्र हुआ बृहन्मना और बृहन्मना का जयद्रथ ॥ ११ ॥ जयद्रथ की पत्नी का नाम था सम्भूति। उसके गर्भ से विजय का जन्म हुआ। विजय का धृति, धृति का धृतव्रत, धृतव्रत का सत्कर्मा और सत्कर्मा का पुत्र था अधिरथ ॥ १२ ॥ अधिरथ को कोई सन्तान न थी। किसी दिन वह गङ्गातट पर क्रीडा कर रहा था कि देखा एक पिटारी में नन्हा-सा शिशु बहा चला जा रहा है। वह बालक कर्ण था, जिसे कुन्ती ने कन्यावस्था में उत्पन्न होने के कारण उस प्रकार बहा दिया था। अधिरथ ने उसी को अपना पुत्र बना लिया ॥ १३ ॥ परीक्षित ! राजा कर्ण के पुत्र का नाम था बृषसेन। ययाति के पुत्र द्रुह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गान्धार, गान्धार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के सौ पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों के राजा हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का भानुमान्, भानुमान् का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि करन्धम और करन्धम का पुत्र हुआ मरुत। मरुत सन्तानहीन था। इसलिये उसने पूरुवंशी दुष्यन्त को अपना पुत्र बनाकर रखा था ॥ १४—१७ ॥ परंतु दुष्यन्त राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गये। परीक्षित ! अब मैं राजा ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ ॥ १८ ॥
परीक्षित ! महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करनेवाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा ॥ १९ ॥ इस वंश में स्वयं भगवान परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्यके- से रूप में अवतार लिया था। यदु के चार पुत्र थे—सहस्रजित्, क्रोष्टा, नल और रिपु। सहस्रजित् से शतजित् का जन्म हुआ। शतजित् के तीन पुत्र थे—महाहय, वेणुहय और हैहय ॥ २०-२१ ॥ हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान् और महिष्मान् का पुत्र भद्रसेन हुआ ॥ २२ ॥ भद्रसेन के दो पुत्र थे—दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए—कृतवीर्य, कृताग्रि, कृतवर्मा और कृतौजा ॥ २३ ॥ कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातों द्वीप का एकच्छत्र सम्राट् था। उसने भगवान के अंशावतार श्रीदत्तात्रेयजी से योगविद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं ॥ २४ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग, शास्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा ॥ २५ ॥ सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था ॥ २६ ॥ उसके हजारों पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुरामजी की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये। बचे हुए पुत्रों के नाम थे—जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊॢजत ॥ २७ ॥
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजङ्घ। तालजङ्घ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजङ्घ’ नामक क्षत्रिय कहलाये। महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उनका संहार कर डाला ॥ २८ ॥ उन सौ पुत्रों में सब से बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सब से बड़ा था वृष्णि ॥ २९ ॥ परीक्षित ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वाष्र्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान् ॥ ३० ॥ वृजिनवान् का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान भोगैश्वर्यसम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था ॥ ३१ ॥ वह चौदह रत्नों[1] का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी शशबिन्दु के दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़—एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुर्ईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो ॥ ३२—३४ ॥ पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई। परंतु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढक़र अपने पति से बोली—‘कपटी ! मेरे बैठ ने की जगह पर आज कि से बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघ ने कहा—‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा ॥ ३५—३७ ॥ ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है ?’ ज्यामघ ने कहा—‘रानी ! तुम को जो पुत्र होगा, उसकी यह पत्नी बनेगी’ ॥ ३८ ॥ राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया ॥ ३९ ॥
[1] चौदह रत्न ये है—हाथी, घोड़ा, रथ, स्त्री, बाण, खजाना, माला, वस्त्र, वृक्ष, शक्ति, पाश, मणि, छत्र और विमान।
॥ चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ ।
तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम् ॥ १॥
रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत ।
उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृप ॥ २॥
क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्धृष्टिस्तस्याथ निर्वृतिः ।
ततो दशार्हो नाम्नाभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः ॥ ३॥
जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः ।
ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः ॥ ४॥
करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः ।
देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः ॥ ५॥
पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः ।
भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः ॥ ६॥
सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष ।
भजमानस्य निम्लोचिः किङ्किणो धृष्टिरेव च ॥ ७॥
एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः ।
शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो ॥ ८॥
बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू ।
यथैव शृणुमो दूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात् ॥ ९॥
बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः ।
पुरुषाः पञ्चषष्टिश्च षट् सहस्राणि चाष्ट च ॥ १०॥
येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि ।
महाभोजोऽपि धर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये ॥ ११॥
वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप ।
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निम्नोऽभूदनमित्रतः ॥ १२॥
सत्राजितः प्रसेनश्च निम्नस्याप्यासतुः सुतौ ।
अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्याथ सत्यकः ॥ १३॥
युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः ।
युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः ॥ १४॥
श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः ।
अक्रूरप्रमुखा आसन् पुत्रा द्वादश विश्रुताः ॥ १५॥
आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः ।
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः ॥ १६॥
शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश ।
तेषां स्वसा सुचीराख्या द्वावक्रूरसुतावपि ॥ १७॥
देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः ।
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः ॥ १८॥
कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः ।
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः ॥ १९॥
कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः ।
अन्धको दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ॥ २०॥
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ ।
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ॥ २१॥
देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः ।
तेषां स्वसारः सप्तासन् धृतदेवादयो नृप ॥ २२॥
शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता ।
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ॥ २३॥
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा ।
राष्ट्रपालोऽथ सृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः ॥ २४॥
कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्ट्रपालिका ।
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ॥ २५॥
शूरो विदूरथादासीद्भजमानः सुतस्ततः ।
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदीकस्तत्सुतो मतः ॥ २६॥
देवबाहुः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः ।
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ॥ २७॥
तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान् ।
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ॥ २८॥
सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम् ।
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि ॥ २९॥
वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम् ।
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ॥ ३०॥
राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः ।
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात् ॥ ३१॥
साऽऽप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात् ।
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिम् ॥ ३२॥
तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा ।
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे ॥ ३३॥
अमोघं दर्शनं देवि आदित्से त्वयि चात्मजम् ।
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे ॥ ३४॥
इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः ।
सद्यः कुमारः सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्करः ॥ ३५॥
तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती ।
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः ॥ ३६॥
श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत् ।
यस्यामभूद्दन्तवक्त्रः ऋषिशप्तो दितेः सुतः ॥ ३७॥
कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत ।
सन्तर्दनादयस्तस्यां पञ्चासन् कैकयाः सुताः ॥ ३८॥
राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह ।
दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत् ॥ ३९॥
शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः ।
देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्बलौ ॥ ४०॥
कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा ।
कङ्कायामानकाज्जातः सत्यजित्पुरुजित्तथा ॥ ४१॥
सृञ्जयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान् ।
हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः ॥ ४२॥
मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन् वत्सकस्तथा ।
तक्षपुष्करशालादीन् दुर्वार्क्ष्यां वृक आदधे ॥ ४३॥
सुमित्रार्जुनपालादीन् शमीकात्तु सुदामिनी ।
कङ्कश्च कर्णिकायां वै ऋतधामजयावपि ॥ ४४॥
पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला ।
देवकीप्रमुखा आसन् पत्न्य आनकदुन्दुभेः ॥ ४५॥
बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम् ।
वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत् ॥ ४६॥
सुभद्रो भद्रवाहश्च दुर्मदो भद्र एव च ।
पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाभवन् ॥ ४७॥
नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजाः ।
कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम् ॥ ४८॥
रोचनायामतो जाता हस्तहेमाङ्गदादयः ।
इलायामुरुवल्कादीन् यदुमुख्यानजीजनत् ॥ ४९॥
विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभेः ।
शान्तिदेवात्मजा राजन् श्रमप्रतिश्रुतादयः ॥ ५०॥
राजानः कल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश ।
वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट् सुताः ॥ ५१॥
देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः ।
वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया ॥ ५२॥
पुरुविश्रुतमुख्यांस्तु साक्षाद्धर्मो वसूनिव ।
वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत् ॥ ५३॥
कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधीः ।
ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं सङ्कर्षणमहीश्वरम् ॥ ५४॥ स गो ना सं गो गो
अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरिः किल ।
सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही ॥ ५५॥
यदा यदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः ।
तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः ॥ ५६॥
न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते ।
आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टुरात्मनः ॥ ५७॥
यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि ।
अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते ॥ ५८॥
अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः ।
भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः ॥ ५९॥
कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरेश्वरैः ।
सहसङ्कर्षणश्चक्रे भगवान् मधुसूदनः ॥ ६०॥
कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम् ।
अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद्यशः ॥ ६१॥
यस्मिन् सत्कर्णपीयुषे यशस्तीर्थवरे सकृत् ।
श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम् ॥ ६२॥
भोजवृष्ण्यन्धकमधुशूरसेनदशार्हकैः ।
श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः ॥ ६३॥
स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया ।
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया ॥ ६४॥
यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण
भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम् ।
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो
नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ॥ ६५॥
जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थो
हत्वा रिपून् सुतशतानि कृतोरुदारः ।
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे
आत्मानमात्मनिगमं प्रथयन् जनेषु ॥ ६६॥
पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन् कुरूणामन्तः-
समुत्थकलिना युधि भूपचम्वः ।
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य
प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ॥ ६७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमानुवंशकीर्तने
यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥
॥ इति नवमस्कन्धः समाप्तः ॥
ॐ तत्सत् ॥
नवम स्कन्ध-चौबीसवाँ अध्याय
विदर्भ के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए—कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भवंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए ॥ १ ॥ रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि। राजन् ! इस चेदि के वंश में ही दमघोष एवं शिशुपाल आदि हुए ॥ २ ॥ क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशाहर् और दशाहर् का व्योम ॥ ३ ॥ व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ हुआ ॥ ४ ॥ दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए ॥ ५ ॥ अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ। परीक्षित ! सात्वत के सात पुत्र हुए—भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं एक से तीन पुत्र हुए—निम्लोचि, किङ्किण और धृष्ट।ि दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए—शताजित्, सहस्राजित् और अयुताजित् ॥ ६—८ ॥ देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है—‘हम ने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं ॥ ९ ॥ बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चु के हैं।’ सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए ॥ १०-११ ॥
परीक्षित ! वृष्णि के दो पुत्र हुए—सुमित्र और युधाजित्। युधाजित के शिनि और अनमित्र— ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्र का जन्म हुआ ॥ १२ ॥ सत्राजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्र के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ ॥ १३ ॥ इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था। वृष्णि के दो पुत्र हुए—श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सब से श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए—आसङ्ग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्र, गन्धमादन और प्रतिबाहु। इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे—देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु, विदूरथ आदि बहुत- से पुत्र हुए—जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं ॥ १४—१८ ॥ सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए—कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहु की नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए—देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए ॥ १९—२१ ॥ देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इन की सात बहिनें भी थीं—धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देव की। वसुदेवजी ने इन सब के साथ विवाह किया था ॥ २२-२३ ॥ उग्रसेन के नौ लडक़े थे—कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कङ्क, शङ्कु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान् ॥ २४ ॥ उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं—कंसा, कंसवती, कङ्का, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेवजी के छोटे भाइयों से हुआ था ॥ २५ ॥
चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान्, भजमान् से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए ॥ २६ ॥ हृदीक से तीन पुत्र हुए—देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा ॥ २७ ॥ उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये—वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कङ्क, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बज ने लगे थे। अत: वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं—पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे—कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सब से बड़ी कन्या गोद दे दी ॥ २८—३१ ॥ पृथा ने दुर्वासा ऋषि को प्रसन्न करके उनसे देवताओं को बुला ने की विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्या के प्रभाव की परीक्षा लेने के लिये पृथा ने परम पवित्र भगवान सूर्य का आवाहन किया ॥ ३२ ॥ उसी समय भगवान सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्ती का हृदय विस्मय से भर गया। उसने कहा—‘भगवन् ! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करने के लिये ही इस विद्या का प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’ ॥ ३३ ॥ सूर्यदेव ने कहा—‘देवि ! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये हे सुन्दरी ! अब मैं तुझ से एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा’ ॥ ३४ ॥ यह कहकर भगवान सूर्य ने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखने में दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था ॥ ३५ ॥ पृथा लोकनिन्दा से डर गयी। इसलिये उसने बड़े दु:ख से उस बालक को नदी के जल में छोड़ दिया। परीक्षित ! उसी पृथा का विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डु से हुआ था, जो वास्तव में बड़े सच्चे वीर थे ॥ ३६ ॥
परीक्षित ! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करूष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्र का जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्वजन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था ॥ ३७ ॥ केकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए ॥ ३८ ॥ राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए—विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया ॥ ३९ ॥ उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्धमें) कर चु का हूँ। वसुदेवजी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए—चित्रकेतु और बृहद्वल ॥ ४० ॥ देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान् नाम के दो पुत्र हुए। आनक की पत्नी कङ् का के गर्भ से भी दो पुत्र हुए—सत्यजित् और पुरुजित् ॥ ४१ ॥ सृञ्जय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालि का के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥ ४२ ॥ मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ ४३ ॥ शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कङ्क की पत्नी कॢण का के गर्भ से दो पुत्र हुए—ऋतधाम और जय ॥ ४४ ॥
आनकदुन्दुभि वसुदेवजी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देव की आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं ॥ ४५ ॥ रोहिणी के गर्भ से वसुदेवजी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे ॥ ४६ ॥ पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए—भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि ॥ ४७ ॥ नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी ॥ ४८ ॥ उसने रोचना से हस्त और हेमाङ्गद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया ॥ ४९ ॥ परीक्षित ! वसुदेवजी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए ॥ ५० ॥ उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छ: पुत्र हुए ॥ ५१ ॥ देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा जैसे स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेवजी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेवजी ने देव की के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिन में सात के नाम हैं—कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलरामजी ॥ ५२—५४ ॥ उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान ही थे। परीक्षित ! तुम्हारी परम सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकीजी की ही कन्या थीं ॥ ५५ ॥
जब-जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं ॥ ५६ ॥ परीक्षित ! भगवान सब के द्रष्टा और वास्तव में असङ्ग आत्मा ही हैं। इसलिए उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है ॥ ५७ ॥ उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है। और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके आत्म स्वरूप को प्राप्त करानेवाला है ॥ ५८ ॥ जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इक_ी करके वे सारी पृथ्वी को रौंद ने लगे, तब पृथ्वी का भार उतार ने के लिये भगवान मधुसूदन बलरामजी के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते—शरीर से करने की बात तो अलग रही ॥ ५९-६० ॥ पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होनेवाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दु:ख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायँगे ॥ ६१ ॥ उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वह साक्षात अमृत ही है । एक बार भी यदि कान की अञ्जलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं ॥ ६२ ॥ परीक्षित ! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशाहर्, कुरु, सृञ्जय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ॥ ६३ ॥ उनका श्यामल शरीर सर्वाङ्ग सुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्यलोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था ॥ ६४ ॥ भगवान के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुख पर नरिन्तर रहनेवाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परंतु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परंतु पलकें गिर ने से उनके गिरानेवाले निमि पर खीझते भी ॥ ६५ ॥ लीलापुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेवजी के घर, परंतु वहाँ रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन—जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था—पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षातकार करानेवाली अपनी वाणी- स्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया ॥ ६६ ॥ कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपसके कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हल का कर दिया तथा युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डं का पिटवा दिया। फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परम धाम को सिधार गये ॥ ६७ ॥
॥ इति नवम स्कन्ध समाप्त ॥
॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥