स्कन्ध-08 [अध्याय-01]

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ अष्टमस्कन्धः ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
राजोवाच
स्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोऽयं विस्तराच्छ्रुतः ।
यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान् वदस्व नः ॥ १॥

यत्र यत्र हरेर्जन्म कर्माणि च महीयसः ।
गृणन्ति कवयो ब्रह्मंस्तानि नो वद श‍ृण्वताम् ॥ २॥

यद्यस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन् भगवान् विश्वभावनः ।
कृतवान् कुरुते कर्ता ह्यतीतेऽनागतेऽद्य वा ॥ ३॥

ऋषिरुवाच
मनवोऽस्मिन् व्यतीताः षट् कल्पे स्वायम्भुवादयः ।
आद्यस्ते कथितो यत्र देवादीनां च सम्भवः ॥ ४॥

आकूत्यां देवहूत्यां च दुहित्रोस्तस्य वै मनोः ।
धर्मज्ञानोपदेशार्थं भगवान् पुत्रतां गतः ॥ ५॥

कृतं पुरा भगवतः कपिलस्यानुवर्णितम् ।
आख्यास्ये भगवान् यज्ञो यच्चकार कुरूद्वह ॥ ६॥

विरक्तः कामभोगेषु शतरूपापतिः प्रभुः ।
विसृज्य राज्यं तपसे सभार्यो वनमाविशत् ॥ ७॥

सुनन्दायां वर्षशतं पदैकेन भुवं स्पृशन् ।
तप्यमानस्तपो घोरमिदमन्वाह भारत ॥ ८॥

मनुरुवाच
येन चेतयते विश्वं विश्वं चेतयते न यम् ।
यो जागर्ति शयानेऽस्मिन्नायं तं वेद वेद सः ॥ ९॥

आत्मावास्यमिदं विश्वं यत्किञ्चिज्जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥ १०॥

यं न पश्यति पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति ।
तं भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत ॥ ११॥

न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्वः परो नान्तरं बहिः ।
विश्वस्यामूनि यद्यस्माद्विश्वं च तदृतं महत् ॥ १२॥

स विश्वकायः पुरुहूत ईशः
सत्यः स्वयंज्योतिरजः पुराणः ।
धत्तेऽस्य जन्माद्यजयाऽऽत्मशक्त्या
तां विद्ययोदस्य निरीह आस्ते ॥ १३॥

अथाग्रे ऋषयः कर्माणीहन्तेऽकर्महेतवे ।
ईहमानो हि पुरुषः प्रायोऽनीहां प्रपद्यते ॥ १४॥

ईहते भगवानीशो न हि तत्र विषज्जते ।
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येऽनु तम् ॥ १५॥

तमीहमानं निरहङ्कृतं बुधं
निराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम् ।
नॄन् शिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितं
प्रभुं प्रपद्येऽखिलधर्मभावनम् ॥ १६॥

श्रीशुक उवाच
इति मन्त्रोपनिषदं व्याहरन्तं समाहितम् ।
दृष्ट्वासुरा यातुधाना जग्धुमभ्यद्रवन् क्षुधा ॥ १७॥

तांस्तथावसितान् वीक्ष्य यज्ञः सर्वगतो हरिः ।
यामैः परिवृतो देवैर्हत्वाशासत्त्रिविष्टपम् ॥ १८॥

स्वारोचिषो द्वितीयस्तु मनुरग्नेः सुतोऽभवत् ।
द्युमत्सुषेणरोचिष्मत्प्रमुखास्तस्य चात्मजाः ॥ १९॥

तत्रेन्द्रो रोचनस्त्वासीद्देवाश्च तुषितादयः ।
ऊर्जस्तम्भादयः सप्त ऋषयो ब्रह्मवादिनः ॥ २०॥

ऋषेस्तु वेदशिरसस्तुषिता नाम पत्न्यभूत् ।
तस्यां जज्ञे ततो देवो विभुरित्यभिविश्रुतः ॥ २१॥

अष्टाशीतिसहस्राणि मुनयो ये धृतव्रताः ।
अन्वशिक्षन् व्रतं तस्य कौमारब्रह्मचारिणः ॥ २२॥

तृतीय उत्तमो नाम प्रियव्रतसुतो मनुः ।
पवनः सृञ्जयो यज्ञहोत्राद्यास्तत्सुता नृप ॥ २३॥

वसिष्ठतनयाः सप्त ऋषयः प्रमदादयः ।
सत्या वेदश्रुता भद्रा देवा इन्द्रस्तु सत्यजित् ॥ २४॥

धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान् पुरुषोत्तमः ।
सत्यसेन इति ख्यातो जातः सत्यव्रतैः सह ॥ २५॥

सोऽनृतव्रतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान् ।
भूतद्रुहो भूतगणांस्त्ववधीत्सत्यजित्सखः ॥ २६॥

चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामसः ।
पृथुः ख्यातिर्नरः केतुरित्याद्या दश तत्सुताः ॥ २७॥

सत्यका हरयो वीरा देवास्त्रिशिख ईश्वरः ।
ज्योतिर्धामादयः सप्त ऋषयस्तामसेऽन्तरे ॥ २८॥

देवा वैधृतयो नाम विधृतेस्तनया नृप ।
नष्टाः कालेन यैर्वेदा विधृताः स्वेन तेजसा ॥ २९॥

तत्रापि जज्ञे भगवान् हरिण्यां हरिमेधसः ।
हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात् ॥ ३०॥

राजोवाच
बादरायण एतत्ते श्रोतुमिच्छामहे वयम् ।
हरिर्यथा गजपतिं ग्राहग्रस्तममूमुचत् ॥ ३१॥

तत्कथा सुमहत्पुण्यं धन्यं स्वस्त्ययनं शुभम् ।
यत्र यत्रोत्तमश्लोको भगवान् गीयते हरिः ॥ ३२॥

सूत उवाच
परीक्षितैवं स तु बादरायणिः
प्रायोपविष्टेन कथासु चोदितः ।
उवाच विप्राः प्रतिनन्द्य पार्थिवं
मुदा मुनीनां सदसि स्म श‍ृण्वताम् ॥ ३३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुचरिते प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥


अष्टम स्कन्ध-पहला अध्याय

मन्वन्तरों का वर्णन
राजा परीक्षित ने पूछा—गुरुदेव ! स्वायम्भुव मनु का वंश-विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंश में उनकी कन्याओं के द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियों ने अपनी वंश-परम्परा चलायी थी। अब आप हम से दूसरे मनुओं का वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तर में महामहिम भगवान के जिन-जिन अवतारों और लीलाओं का वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धा से उनका श्रवण करना चाहते हैं ॥ २ ॥ भगवन् ! विश्वभावन भगवान बीते हुए मन्वन्तरों में जो-जो लीलाएँ कर चु के हैं, वर्तमान मन्वन्तर में जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरों में जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—इस कल्प में स्वायम्भुव आदि छ: मन्वन्तर बीत चु के हैं। उनमें से पहले मन्वन्तर का मैंने वर्णन कर दिया, उसी में देवता आदि की उत्पत्ति हुई थी ॥ ४ ॥ स्वायम्भुव मनु की पुत्री आकूति से यज्ञपुरुष के रूप में धर्म का उपदेश करने के लिये तथा देवहूति से कपिल के रूप में ज्ञान का उपदेश करने के लिये भगवान ने उनके पुत्ररूप से अवतार ग्रहण किया था ॥ ५ ॥ परीक्षित ! भगवान कपिल का वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चु का हूँ। अब भगवान यज्ञपुरुष ने आकूति के गर्भ से अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥

परीक्षित ! भगवान स्वायम्भुव मनु ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वन में चले गये ॥ ७ ॥ परीक्षित ! उन्होंने सुनन्दा नदी के किनारे पृथ्वी पर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान की स्तुति करते थे ॥ ८ ॥

मनुजी कहा करते थे—जिनकी चेतना के स्पर्शमात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जाने पर प्रलय में भी जागते रहते हैं, जिन को यह नहीं जान सकता, परंतु जो इसे जानते हैं—वही परमात्मा हैं ॥ ९ ॥ यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणी—सब उन परमात्मा से ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसार के किसी भी पदार्थ में मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाहमात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसार की सम्पत्तियाँ किस की हैं ? ॥ १० ॥ भगवान सब के साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परंतु उनकी ज्ञान-शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदय में रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असङ्ग परमात्मा की शरण ग्रहण करो ॥ ११ ॥ जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँ से ? जिनका न कोई अपना है और न पराया, और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर—सब कुछ हैं। उन्हीं की सत्ता से विश्व की सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं ॥ १२ ॥ वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्ति के द्वारा ही विश्वसृष्टि के जन्म आदि को स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्ति के द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत् स्वरूपमात्र रहते हैं ॥ १३ ॥ इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कम्र्यस्थिति अर्थात् ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करने के लिये पहले कर्मयोग का अनुष्ठान करते हैं। प्राय: कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्त में निष्क्रिय होकर कर्मों से छुट्टी पा लेता है ॥ १४ ॥ यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान भी कर्म करते हैं, परंतु वे आत्मलाभ से पूर्णकाम होने के कारण उन कर्मों में आसक्त नहीं होते। अत: उन्हीं का अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धन से मुक्त ही रहते हैं ॥ १५ ॥ भगवान ज्ञान स्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकार का लेश भी नहीं है। वे सर्वत: परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तु की कामना नहीं है। वे बिना किसी की प्रेरणा के स्वच्छन्दरूप से ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादा में स्थित रहकर अपने कर्मों के द्वारा मनुष्यों को शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मों के प्रवर् तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभु की शरण में हूँ ॥ १६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्त से इस मन्त्रमय उपनिषत् स्वरूप श्रुति का पाठ कर रहे थे। उन्हें नींद में अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस खा डालने के लिये उन पर टूट पड़े ॥ १७ ॥ यह देखकर अन्तर्यामी भगवान यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओं के साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालने के निश्चय से आये हुए असुरों का संहार कर डाला और फिर वे इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित होकर स्वर्ग का शासन करने लगे ॥ १८ ॥

परीक्षित !दूसरे मनु हुए स्वारोचिष। वे अग्रि के पुत्र थे। उनके पुत्रों के नाम थे—द्युमान्, सुषेण और रोचिष्मान् आदि ॥ १९ ॥ उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जस्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे ॥ २० ॥ उस मन्वन्तर में वेदशिरा नाम के ऋषि की पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भ से भगवान ने अवतार ग्रहण किया और विभु नाम से प्रसिद्ध हुए ॥ २१ ॥ वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हींके आचरण से शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियों ने भी ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया ॥ २२ ॥

तीसरे मनु थे उत्तम। वे प्रियव्रत के पुत्र थे। उनके पुत्रों के नाम थे—पवन, सृञ्जय, यज्ञहोत्र आदि ॥ २३ ॥ उस मन्वन्तर में वसिष्ठजी के प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे। सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओं के प्रधान गण थे और इन्द्र का नाम था सत्यजित् ॥ २४ ॥ उस समय धर्म की पत्नी सूनृता के गर्भ से पुरुषोत्तम भगवान ने सत्यसेन के नाम से अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नाम के देवगण भी थे ॥ २५ ॥ उस समय के इन्द्र सत्यजित् के सखा बनकर भगवान ने असत्यपरायण, दु:शील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणों का संहार किया ॥ २६ ॥

चौथे मनु का नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तम के सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे ॥ २७ ॥ सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओं के प्रधान गण थे। इन्द्र का नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तर में ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे ॥ २८ ॥ परीक्षित ! उस तामस नाम के मन्वन्तर में विधृति के पुत्र वैधृति नाम के और भी देवता हुए। उन्होंने समय के फेर से नष्टप्राय वेदों को अपनी शक्ति से बचाया था, इसीलिये ये ‘वैधृति’ कहलाये ॥ २९ ॥ इस मन्वन्तर में हरिमेधा ऋषि की पत्नी हरिणी के गर्भ से हरि के रूप में भगवान ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतार में उन्होंने ग्राह से गजेन्द्र की रक्षा की थी ॥ ३० ॥

राजा परीक्षित ने पूछा—मुनिवर ! हम आप से यह सुनना चाहते हैं कि भगवान ने गजेन्द्र को ग्राह के फंदे से कैसे छुड़ाया था ॥ ३१ ॥ सब कथाओं में वही कथा परम पुण्यमय, प्रशंसनीय, मङ्गलकारी और शुभ है, जिसमें महात्माओं के द्वारा गान किये हुए भगवान श्रीहरि के पवित्र यश का वर्णन

रहता है ॥ ३२ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित आमरण अनशन करके कथा सुनने के लिये ही बैठे हुए थे। उन्होंने जब श्रीशुकदेवजी महाराज को इस प्रकार कथा कह ने के लिये प्रेरित किया, तब वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेम से परीक्षित का अभिनन्दन करके मुनियों की भरी सभा में कह ने लगे ॥ ३३ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-02]

॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
श्रीशुक उवाच
आसीद्गिरिवरो राजंस्त्रिकूट इति विश्रुतः ।
क्षीरोदेनावृतः श्रीमान् योजनायुतमुच्छ्रितः ॥ १॥

तावता विस्तृतः पर्यक् त्रिभिः श‍ृङ्गैः पयोनिधिम् ।
दिशः खं रोचयन्नास्ते रौप्यायसहिरण्मयैः ॥ २॥

अन्यैश्च ककुभः सर्वा रत्नधातुविचित्रितैः ।
नानाद्रुमलतागुल्मैर्निर्घोषैर्निर्झराम्भसाम् ॥ ३॥

स चावनिज्यमानाङ्घ्रिः समन्तात्पयऊर्मिभिः ।
करोति श्यामलां भूमिं हरिण्मरकताश्मभिः ॥ ४॥

सिद्धचारणगन्धर्वविद्याधरमहोरगैः ।
किन्नरैरप्सरोभिश्च क्रीडद्भिर्जुष्टकन्दरः ॥ ५॥

यत्र सङ्गीतसन्नादैर्नदद्गुहममर्षया ।
अभिगर्जन्ति हरयः श्लाघिनः परशङ्कया ॥ ६॥

नानारण्यपशुव्रातसङ्कुलद्रोण्यलङ्कृतः ।
चित्रद्रुमसुरोद्यानकलकण्ठविहङ्गमः ॥ ७॥

सरित्सरोभिरच्छोदैः पुलिनैर्मणिवालुकैः ।
देवस्त्रीमज्जनामोदसौरभाम्ब्वनिलैर्युतः ॥ ८॥

तस्य द्रोण्यां भगवतो वरुणस्य महात्मनः ।
उद्यानमृतुमन्नाम आक्रीडं सुरयोषिताम् ॥ ९॥

सर्वतोऽलङ्कृतं दिव्यैर्नित्यं पुष्पफलद्रुमैः ।
मन्दारैः पारिजातैश्च पाटलाशोकचम्पकैः ॥ १०॥

चूतैः प्रियालैः पनसैराम्रैराम्रातकैरपि ।
क्रमुकैर्नालिकेरैश्च खर्जूरैर्बीजपूरकैः ॥ ११॥

मधूकैः शालतालैश्च तमालैरसनार्जुनैः ।
अरिष्टोदुम्बरप्लक्षैर्वटैः किंशुकचन्दनैः ॥ १२॥

पिचुमन्दैः कोविदारैः सरलैः सुरदारुभिः ।
द्राक्षेक्षुरम्भाजम्बूभिर्बदर्यक्षाभयामलैः ॥ १३॥

बिल्वैः कपित्थैर्जम्बीरैर्वृतो भल्लातकादिभिः ।
तस्मिन् सरः सुविपुलं लसत्काञ्चनपङ्कजम् ॥ १४॥

कुमुदोत्पलकह्लारशतपत्रश्रियोर्जितम् ।
मत्तषट्पदनिर्घुष्टं शकुन्तैश्च कलस्वनैः ॥ १५॥

हंसकारण्डवाकीर्णं चक्राह्वैः सारसैरपि ।
जलकुक्कुटकोयष्टिदात्यूहकुलकूजितम् ॥ १६॥

मत्स्यकच्छपसञ्चारचलत्पद्मरजःपयः ।
कदम्बवेतसनलनीपवञ्जुलकैर्वृतम् ॥ १७॥

कुन्दैः कुरबकाशोकैः शिरीषैः कुटजेङ्गुदैः ।
कुब्जकैः स्वर्णयूथीभिर्नागपुन्नागजातिभिः ॥ १८॥

मल्लिकाशतपत्रैश्च माधवीजालकादिभिः ।
शोभितं तीरजैश्चान्यैर्नित्यर्तुभिरलं द्रुमैः ॥ १९॥

तत्रैकदा तद्गिरिकाननाश्रयः
करेणुभिर्वारणयूथपश्चरन् ।
सकण्टकान् कीचकवेणुवेत्रव-
द्विशालगुल्मं प्ररुजन् वनस्पतीन् ॥ २०॥

यद्गन्धमात्राद्धरयो गजेन्द्रा
व्याघ्रादयो व्यालमृगाः सखड्गाः ।
महोरगाश्चापि भयाद्द्रवन्ति
सगौरकृष्णाः शरभाश्चमर्यः ॥ २१॥

वृका वराहा महिषर्क्षशल्या
गोपुच्छसालावृकमर्कटाश्च ।
अन्यत्र क्षुद्रा हरिणाः शशादय-
श्चरन्त्यभीता यदनुग्रहेण ॥ २२॥

स घर्मतप्तः करिभिः करेणुभिर्वृतो
मदच्युत्करभैरनुद्रुतः ।
गिरिं गरिम्णा परितः प्रकम्पयन्
निषेव्यमाणोऽलिकुलैर्मदाशनैः ॥ २३॥

सरोऽनिलं पङ्कजरेणुरूषितं
जिघ्रन् विदूरान्मदविह्वलेक्षणः ।
वृतः स्वयूथेन तृषार्दितेन
तत्सरोवराभ्याशमथागमद्द्रुतम् ॥ २४॥

विगाह्य तस्मिन्नमृताम्बु निर्मलं
हेमारविन्दोत्पलरेणुवासितम् ।
पपौ निकामं निजपुष्करोद्धृत-
मात्मानमद्भिः स्नपयन् गतक्लमः ॥ २५॥

स्वपुष्करेणोद्धृतशीकराम्बुभि-
र्निपाययन् संस्नपयन् यथा गृही ।
घृणी करेणुः कलभांश्च दुर्मदो
नाचष्ट कृच्छ्रं कृपणोऽजमायया ॥ २६॥

तं तत्र कश्चिन्नृप दैवचोदितो
ग्राहो बलीयांश्चरणे रुषाग्रहीत् ।
यदृच्छयैवं व्यसनं गतो गजो
यथाबलं सोऽतिबलो विचक्रमे ॥ २७॥

तथाऽऽतुरं यूथपतिं करेणवो
विकृष्यमाणं तरसा बलीयसा ।
विचुक्रुशुर्दीनधियोऽपरे गजाः
पार्ष्णिग्रहास्तारयितुं न चाशकन् ॥ २८॥

नियुध्यतोरेवमिभेन्द्रनक्रयो-
र्विकर्षतोरन्तरतो बहिर्मिथः ।
समाः सहस्रं व्यगमन् महीपते
सप्राणयोश्चित्रममंसतामराः ॥ २९॥

ततो गजेन्द्रस्य मनोबलौजसां
कालेन दीर्घेण महानभूद्व्ययः ।
विकृष्यमाणस्य जलेऽवसीदतो
विपर्ययोऽभूत्सकलं जलौकसः ॥ ३०॥

इत्थं गजेन्द्रः स यदाऽऽप सङ्कटं
प्राणस्य देही विवशो यदृच्छया ।
अपारयन्नात्मविमोक्षणे चिरं
दध्याविमां बुद्धिमथाभ्यपद्यत ॥ ३१॥

न मामिमे ज्ञातय आतुरं गजाः
कुतः करिण्यः प्रभवन्ति मोचितुम् ।
ग्राहेण पाशेन विधातुरावृतोऽप्यहं
च तं यामि परं परायणम् ॥ ३२॥

यः कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगा-
त्प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम् ।
भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भयान्मृत्युः
प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥ ३३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुवर्णने गजेन्द्रोपाख्याने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥


अष्टम स्कन्ध-दूसरा अध्याय
ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! क्षीरसागर में त्रिकूट नाम का एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था ॥ १ ॥ उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उसके चाँदी, लोहे और सो ने के तीन शिखरों की छटा से समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे ॥ २ ॥ और भी उसके कित ने ही शिखर ऐसे थे, जो रत्नों और धातुओं की रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें विविध जाति के वृक्ष, लताएँ और झाडिय़ाँ थीं। झरनों की झर-झर से वह गुंजायमान होता रहता था ॥ ३ ॥ सब ओर से समुद्र की लहरें आ-आकर उस पर्वत के निचले भाग से टकरातीं, उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराज के पाँव पखार रही हों। उस पर्वत के हरे पन् ने के पत्थरों से वहाँ की भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उसपर हरी-भरी दूब लग रही हो ॥ ४ ॥ उसकी कन्दराओं में सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करने के लिये प्राय: बने ही रहते थे ॥ ५ ॥ जब उसके संगीत की ध्वनि चट्टानों से टकराकर गुफाओं में प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंह की ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जना से उसे दबा दे ने के लिये और जोर से गरज ने लगते थे ॥ ६ ॥

उस पर्वत की तलहटी तरह-तरह के जंगली जानवरों के झुंडों से सुशोभित रहती थी। अनेकों प्रकार के वृक्षों से भरे हुए देवताओं के उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठ से चहकते रहते थे ॥ ७ ॥ उसपर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। उनका जल बड़ा निर्मल था। उनके पुलिन पर मणियों की बालू चमकती रहती थी। उनमें देवाङ्गनाएँ स्नान करती थीं, जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था। उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी ॥ ८ ॥

पर्वतराज त्रिकूट की तराई में भगवत्प्रेमी महात्मा भगवान वरुण का एक उद्यान था। उसका नाम था ऋतुमान्। उसमें देवाङ्गनाएँ क्रीडा करती रहती थीं ॥ ९ ॥ उसमें सब ओर ऐसे दिव्य वृक्ष शोभायमान थे, जो फलों और फूलों से सर्वदा लदे ही रहते थे। उस उद्यान में मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पा, तरह-तरह के आम, पयाल, कटहल, आमड़ा, सुपारी, नारियल, खजूर, बिजौरा, महुआ, साखू, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, रीठा, गूलर, पाकर, बरगद, पलास, चन्दन, नीम, कचनार, साल, देवदारु, दाख, ईख, केला, जामुन, बेर, रुद्राक्ष, हर्रे, आँवला, बेल, कैथ, नीबू और भिलावे आदि के वृक्ष लहराते रहते थे। उस उद्यान में एक बड़ा भारी सरोवर था। उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे ॥ १०—१४ ॥ और भी विविध जाति के कुमुद, उत्पल, कह्लार, शतदल आदि कमलों की अनूठी छटा छिटक रही थी। मतवाले भौं.रे गूँज रहे थे। मनोहर पक्षी कलरव कर रहे थे। हंस, कारण्डव, चक्रवाक और सारस दल-के-दल भरे हुए थे। पनडुब्बी, बतख और पपीहे कूज रहे थे। मछली और कछुओं के चल ने से कमल के फूल हिल जाते थे, जिससे उनका पराग झडक़र जल को सुन्दर और सुगन्धित बना देता था। कदम्ब, बेंत, नरकुल, कदम्बलता, बेन आदि वृक्षों से वह घिरा था ॥ १५—१७ ॥ कुन्द, कुरबक (कटसरैया), अशोक, सिरस, वनमल्लिका, लिसौडा, हरसिंगार, सोनजूही, नाग, पुन्नाग, जाती, मल्लिका, शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्पवृक्ष एवं तट के दूसरे वृक्षों से भी—जो प्रत्येक ऋतु में हरे-भरे रहते थे—वह सरोवर शोभायमान रहता था ॥ १८-१९ ॥

उस पर्वत के घोर जंगल में बहुत-सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र निवास करता था। वह बड़े- बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। एक दिन वह उसी पर्वत पर अपनी हथिनियों के साथ काँटेवाले कीचक, बाँस, बेंत, बड़ी-बड़ी झाडिय़ों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था ॥ २० ॥ उसकी गन्धमात्र से सिंह, हाथी, बाघ, गैंड़े आदि हिंस्र जन्तु, नाग तथा काले-गोरे शरभ और चमरी गाय आदि डरकर भाग जाया करते थे ॥ २१ ॥ और उसकी कृपा से भेडिय़े, सूअर, भैंसे, रीछ, शल्य, लंगूर तथा कुत्ते, बंदर, हरिन और खरगोश आदि क्षुद्र जीव सब कहीं निर्भय विचरते रहते थे ॥ २२ ॥ उसके पीछे-पीछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे दौड़ रहे थे। बड़े-बड़े हाथी और हथिनियाँ भी उसे घेरे हुए चल रही थीं। उसकी धमक से पहाड़ एकबारगी काँप उठता था। उसके गण्डस्थल से टपकते हुए मद का पान करने के लिये साथ-साथ भौंरे उड़ते जा रहे थे। मद के कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे थे। बड़े जोर की धूप थी, इसलिये वह व्याकुल हो गया और उसे तथा उसके साथियों को प्यास भी सता ने लगी। उस समय दूर से ही कमल के पराग से सुवासित वायु की गन्ध सूँघकर वह उसी सरोवर की ओर चल पड़ा, जिसकी शीतलता और सुगन्ध लेकर वायु आ रही थी। थोड़ी ही देर में वेग से चलकर वह सरोवर के तट पर जा पहुँचा ॥ २३-२४ ॥ उस सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल एवं अमृत के समान मधुर था। सुनहले और अरुण कमलों की केसर से वह महक रहा था। गजेन्द्र ने पहले तो उसमें घुसकर अपनी सूँड़ से उठा-उठा जी भरकर जल पिया, फिर उस जल में स्नान करके अपनी थकान मिटायी ॥ २५ ॥ गजेन्द्र गृहस्थ पुरुषों की भाँति मोहग्रस्त होकर अपनी सूँड़ से जल की फुहारें छोड़-छोडक़र साथ की हथिनियों और बच्चों को नहला ने लगा तथा उनके मुँहमें सूँड़ डालकर जल पिला ने लगा। भगवान की माया से मोहित हुआ गजेन्द्र उन्मत्त हो रहा था। उस बेचारे को इस बात का पता ही न था कि मेरे सिर पर बहुत बड़ी विपत्ति मँडरा रही है ॥ २६ ॥

परीक्षित ! गजेन्द्र जिस समय इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारब्ध की प्रेरणा से एक बलवान् ग्राह ने क्रोध में भरकर उसका पैर पकड़ लिया। इस प्रकार अकस्मात् विपत्ति में पडक़र उस बलवान् गजेन्द्र ने अपनी शक्ति के अनुसार अपने को छुड़ा ने की बड़ी चेष्टा की, परंतु छुड़ा न स का ॥ २७ ॥ दूसरे हाथी, हथिनियों और उनके बच्चों ने देखा कि उनके स्वामी को बलवान् ग्राह बड़े वेग से खींच रहा है और वे बहुत घबरा रहे हैं। उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। वे बड़ी विकलता से चिग्घाडऩे लगे। बहुतों ने उसे सहायता पहुँचाकर जल से बाहर निकाल लेना चाहा, परंतु इसमें भी वे असमर्थ ही रहे ॥ २८ ॥ गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राह को बाहर खींच लाता, तो कभी ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींच ले जाता। परीक्षित ! इस प्रकार उन को लड़ते-लड़ते एक हजार वर्ष बीत गये और दोनों ही जीते रहे। यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये ॥ २९ ॥

अन्त में बहुत दिनों तक बार-बार जल में खींचे जाने से गजेन्द्र का शरीर शिथिल पड़ गया। न तो उसके शरीर में बल रह गया और न मन में उत्साह। शक्ति भी क्षीण हो गयी। इधर ग्राह तो जलचर ही ठहरा। इसलिये उसकी शक्ति क्षीण होने के स्थान पर बढ़ गयी, वह बड़े उत्साह से और भी बल लगाकर गजेन्द्र को खींच ने लगा ॥ ३० ॥ इस प्रकार देहाभिमानी गजेन्द्र अकस्मात् प्राणसङ्कट में पड़ गया और अपने को छुड़ा ने में सर्वथा असमर्थ हो गया। बहुत देर तक उसने अपने छुटकारे के उपाय पर विचार किया, अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँचा ॥ ३१ ॥ ‘यह ग्राह विधाता की फाँसी ही है। इसमें फँसकर मैं आतुर हो रहा हूँ। जब मुझे मेरे बराबर के हाथी भी इस विपत्ति से न उबार सके, तब ये बेचारी हथिनियाँ तो छुड़ा ही कैसे सकती हैं। इसलिये अब मैं सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान की ही शरण लेता हूँ ॥ ३२ ॥ काल बड़ा बली है। यह साँप के समान बड़े प्रचण्ड वेग से सब को निगल जाने के लिये दौड़ता ही रहता है। इससे अत्यन्त भयभीत होकर जो कोई भगवान की शरण में चला जाता है, उसे वे प्रभु अवश्य-अवश्य बचा लेते हैं। उनके भय से भीत होकर मृत्यु भी अपना काम ठीक-ठीक पूरा करता है। वही प्रभु सब के आश्रय हैं। मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ’ ॥ ३३ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-03]

॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥ १॥

गजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥ २॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् ।
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥ ३॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम् ।
अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥ ४॥

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु ।
तमस्तदासीद्गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ॥ ५॥

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः
पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम् ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥ ६॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ॥ ७॥

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा
न नामरूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥ ८॥

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ॥ ९॥

नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥ १०॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥ ११॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥ १२॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥ १३॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥ १४॥

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
निष्कारणायाद्भुतकारणाय ।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय ॥ १५॥

गुणारणिच्छन्नचिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥ १६॥

मादृक् प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे
भगवते बृहते नमस्ते ॥ १७॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥ १८॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥ १९॥

एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं
वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं
गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ॥ २०॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥ २१॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥ २२॥

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिषः ।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥ २३॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्-
न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चास-
न्निषेधशेषो जयतादशेषः ॥ २४॥

जिजीविषे नाहमिहामुया
किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥ २५॥

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम् ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ॥ २६॥

योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥ २७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥ २८॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम् ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ॥ २९॥

श्रीशुक उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वा-
त्तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥ ३०॥

स गो ना सं गो गो
तं तद्वदार्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान-
श्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥ ३१॥

सोऽन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह
कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥ ३२॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद्विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
संपश्यतां हरिरमूमुचदुच्छ्रियाणाम् ॥ ३३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुवर्णने गजेन्द्रोपाख्याने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥


अष्टम स्कन्ध-तीसरा अध्याय 
गजेन्द्र के द्वारा भगवान की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को हृदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्र के जप द्वारा भगवान की स्तुति करने लगा ॥ १ ॥

गजेन्द्र ने कहा—जो जगत के मूल कारण हैं और सब के हृदय में पुरुष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है—उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ ॥ २ ॥ यह संसार उन्हीं में स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण—प्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयं- प्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ३ ॥ यह विश्व-प्रपञ्च उन्हीं की माया से उनमें अध्यस्त है। यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं। परंतु उनकी दृष्टि ज्यों-की- त्यों—एक-सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते हैं। वे सब के मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं है। वे ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ४ ॥ प्रलय के समय लोक, लोकपाल और इन सब के कारण सम्पूर्ण- रूप से नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार-ही-अन्धकार रहता है। परंतु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ५ ॥ उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नट की भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरूप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही; फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहाँ तक जा सके और उसका वर्णन कर सके ? वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ६ ॥ जिनके परम मङ्गलमय स्वरूप का दर्शन करने के लिये महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखण्डभाव से ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सब के हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सब की भलाई करते हैं— वे ही मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं; वे ही मेरी गति हैं ॥ ७ ॥ न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप; फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है ? फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिये समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं ॥ ८ ॥ उन्हीं अनन्त शक्तिमान् सर्वैश्वर्यमय परब्रह्म परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ ॥ ९ ॥ स्वयंप्रकाश, सब के साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मन, वाणी और चित्त से अत्यन्त दूर हैं—उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १० ॥

विवे की पुरुष कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अन्त:करण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञान स्वरूप हैं ही, दूसरों को कैवल्य-मुक्ति दे ने की सामथ्र्य भी केवल उन्हीं में है—उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥ जो सत्त्व, रज, तम— इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमश: शान्त, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १२ ॥ आप सब के स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ॥ १३ ॥ आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयों के द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियों के आधार हैं। अहंकार आदि छायारूप असत् वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप में भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥ आप सब के मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है। तथा कारण होने पर भी आप में विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिये आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ! जैसे समस्त नदी-झर ने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप मोक्ष स्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं; अत: आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १५ ॥ जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्रि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविध प्रकार की सृष्टि- रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करके वेद-शास्त्रों से ऊ पर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥

जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बन्धन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते। आपके चरणों में मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियों के हृदय में अपने अंश के द्वारा अन्तरात्मा के रूप में आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनों में आसक्त हैं—उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदय में आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वैश्वर्यपूर्ण ज्ञान स्वरूप भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १८ ॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्हीं का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उन को सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें ॥ १९ ॥ जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तुकी—यहाँ तक कि मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मङ्गलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में निमग्र रहते हैं ॥ २० ॥ जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं; जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग या भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं— उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ ॥ २१ ॥

जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूप के भेद-भाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर—जो गुणों के प्रवाहरूप हैं—बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सब का निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के लिये प्रकट हों ॥ २२—२४ ॥ मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतर—सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढ की हुई है, इस को रखकर करना ही क्या है ? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकनेवाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है ॥ २५ ॥ इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता और विश्व स्वरूप हैं—साथ ही जो विश्व की अन्तरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा भी करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपद- स्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६ ॥ योगीलोग योग के द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदय में जिन योगेश्वर भगवान का साक्षातकार करते हैं—उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २७ ॥ प्रभो ! आपकी तीन शक्तियों—सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २८ ॥ आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसीसे यह जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान की मैं शरण में हूँ ॥ २९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! गजेन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के निर्विशेषरूप से भगवान की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूप को अपना स्वरूप माननेवाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करने के लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होने के कारण सर्वदेव स्वरूप स्वयं भगवान श्रीहरि प्रकट हो गये ॥ ३० ॥ विश्व के एकमात्र आधार भगवान ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीडि़त हो रहा है। अत: उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़ पर सवार हो चक्रधारी भगवान बड़ी शीघ्रता से वहाँ के लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त संकट में पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये ॥ ३१ ॥ सरोवर के भीतर बलवान् ग्राह ने गजेन्द्र को पकड़ रखा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाश में गरुड़ पर सवार होकर हाथ में चक्र लिये भगवान श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूँड़ में कमल का एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊ पर को उठाया और बड़े कष्ट से बोला—‘नारायण ! जगद्गुरो ! भगवन् ! आपको नमस्कार है’ ॥ ३२ ॥ जब भगवान ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीडि़त हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुडक़ो छोडक़र कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओं के सामने ही भगवान श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्र को छुड़ा लिया ॥ ३३ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-04]

॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
श्रीशुक उवाच
तदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रह्मेशानपुरोगमाः ।
मुमुचुः कुसुमासारं शंसन्तः कर्म तद्धरेः ॥ १॥

नेदुर्दुन्दुभयो दिव्या गन्धर्वा ननृतुर्जगुः ।
ऋषयश्चारणाः सिद्धास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ॥ २॥

योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्चर्यरूपधृक् ।
मुक्तो देवलशापेन हूहूर्गन्धर्वसत्तमः ॥ ३॥

प्रणम्य शिरसाधीशमुत्तमश्लोकमव्ययम् ।
अगायत यशोधाम कीर्तन्यगुणसत्कथम् ॥ ४॥

सोऽनुकम्पित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम् ।
लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्तकिल्बिषः ॥ ५॥

गजेन्द्रो भगवत्स्पर्शाद्विमुक्तोऽज्ञानबन्धनात् ।
प्राप्तो भगवतो रूपं पीतवासाश्चतुर्भुजः ॥ ६॥

स वै पूर्वमभूद्राजा पाण्ड्यो द्रविडसत्तमः ।
इन्द्रद्युम्न इति ख्यातो विष्णुव्रतपरायणः ॥ ७॥

स एकदाऽऽराधनकाल आत्मवान्
गृहीतमौनव्रत ईश्वरं हरिम् ।
जटाधरस्तापस आप्लुतोऽच्युतं
समर्चयामास कुलाचलाश्रमः ॥ ८॥

यदृच्छया तत्र महायशा मुनिः
समागमच्छिष्यगणैः परिश्रितः ।
तं वीक्ष्य तूष्णीमकृतार्हणादिकं
रहस्युपासीनमृषिश्चुकोप ह ॥ ९॥

तस्मा इमं शापमदादसाधुरयं
दुरात्माकृतबुद्धिरद्य ।
विप्रावमन्ता विशतां तमोऽन्धं
यथा गजः स्तब्धमतिः स एव ॥ १०॥

श्रीशुक उवाच
एवं शप्त्वा गतोऽगस्त्यो भगवान् नृप सानुगः ।
इन्द्रद्युम्नोऽपि राजर्षिर्दिष्टं तदुपधारयन् ॥ ११॥

आपन्नः कौञ्जरीं योनिमात्मस्मृतिविनाशिनीम् ।
हर्यर्चनानुभावेन यद्गजत्वेऽप्यनुस्मृतिः ॥ १२॥

एवं विमोक्ष्य गजयूथपमब्जनाभस्तेनापि
पार्षदगतिं गमितेन युक्तः ।
गन्धर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमानकर्माद्भुतं
स्वभवनं गरुडासनोऽगात् ॥ १३॥

एतन्महाराज तवेरितो मया
कृष्णानुभावो गजराजमोक्षणम् ।
स्वर्ग्यं यशस्यं कलिकल्मषापहं
दुःस्वप्ननाशं कुरुवर्य श‍ृण्वताम् ॥ १४॥

यथानुकीर्तयन्त्येतच्छ्रेयस्कामा द्विजातयः ।
शुचयः प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नाद्युपशान्तये ॥ १५॥

इदमाह हरिः प्रीतो गजेन्द्रं कुरुसत्तम ।
श‍ृण्वतां सर्वभूतानां सर्वभूतमयो विभुः ॥ १६॥

श्रीभगवानुवाच
ये मां त्वां च सरश्चेदं गिरिकन्दरकाननम् ।
वेत्रकीचकवेणूनां गुल्मानि सुरपादपान् ॥ १७॥

श‍ृङ्गाणीमानि धिष्ण्यानि ब्रह्मणो मे शिवस्य च ।
क्षीरोदं मे प्रियं धाम श्वेतद्वीपं च भास्वरम् ॥ १८॥

श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां गदां कौमोदकीं मम ।
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं सुपर्णं पतगेश्वरम् ॥ १९॥

शेषं च मत्कलां सूक्ष्मां श्रियं देवीं मदाश्रयाम् ।
ब्रह्माणं नारदमृषिं भवं प्रह्लादमेव च ॥ २०॥

मत्स्यकूर्मवराहाद्यैरवतारैः कृतानि मे ।
कर्माण्यनन्तपुण्यानि सूर्यं सोमं हुताशनम् ॥ २१॥

प्रणवं सत्यमव्यक्तं गोविप्रान् धर्ममव्ययम् ।
दाक्षायणीर्धर्मपत्नीः सोमकश्यपयोरपि ॥ २२॥

गङ्गां सरस्वतीं नन्दां कालिन्दीं सितवारणम् ।
ध्रुवं ब्रह्मऋषीन् सप्त पुण्यश्लोकांश्च मानवान् ॥ २३॥

उत्थायापररात्रान्ते प्रयताः सुसमाहिताः ।
स्मरन्ति मम रूपाणि मुच्यन्ते ह्येनसोऽखिलात् ॥ २४॥

ये मां स्तुवन्त्यनेनाङ्ग प्रतिबुध्य निशात्यये ।
तेषां प्राणात्यये चाहं ददामि विमलां मतिम् ॥ २५॥

श्रीशुक उवाच
इत्यादिश्य हृषीकेशः प्रध्माय जलजोत्तमम् ।
हर्षयन् विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम् ॥ २६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे गजेन्द्रमोक्षणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥


अष्टम स्कन्ध-चौथा अध्याय
गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! उस समय ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान के इस कर्म की प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊ पर फूलों की वर्षा करने लगे ॥ १ ॥ स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बज ने लगीं, गन्धर्व नाचने-गा ने लगे; ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान पुरुषोत्तम की स्तुति करने लगे ॥ २ ॥ इधर वह ग्राह तुरंत ही परम आश्चर्यमय दिव्य शरीर से सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले ‘हूहू’ नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवल के शाप से उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान की कृपा से वह मुक्त हो गया ॥ ३ ॥ उसने सर्वेश्वर भगवान के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान के सुयश का गान करने लगा। वास्तव में अविनाशी भगवान ही सर्वश्रेष्ठ कीर्ति से सम्पन्न हैं। उन्हींके गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने-योग्य हैं ॥ ४ ॥ भगवान के कृपापूर्ण स्पर्श से उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान की परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और सब के देखते-देखते अपने लोक की यात्रा की ॥ ५ ॥

गजेन्द्र भी भगवान का स्पर्श प्राप्त होते ही अज्ञान के बन्धन से मुक्त हो गया। उसे भगवान का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया ॥ ६ ॥ गजेन्द्र पूर्वजन्म में द्रविड देश का पाण्ड्यवंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्र। वह भगवान का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था ॥ ७ ॥ एक बार राजा इन्द्रद्युम्र राजपाट छोडक़र मलयपर्वत पर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वी का वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नान के बाद पूजा के समय मन को एकाग्र करके एवं मौनव्रती होकर वे सर्वशक्तिमान् भगवान की आराधना कर रहे थे ॥ ८ ॥ उसी समय दैवयोग से परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डली के साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथिसेवा आदि धर्म का परित्याग करके तपस्वियों की तरह एकान्त में चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्र पर क्रुद्ध हो गये ॥ ९ ॥ उन्होंने राजा को यह शाप दिया—‘इस राजाने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकार से निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करनेवाला यह हाथी के समान जडबुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो’ ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! शाप एवं वरदान दे ने में समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्यमण्डली के साथ वहाँ से चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्र ने यह समझकर सन्तोष किया कि यह मेरा प्रारब्ध ही था ॥ ११ ॥ इसके बाद आत्मा की विस्मृति करा देनेवाली हाथी की योनि उन्हें प्राप्त हुई। परंतु भगवान की आराधना का ऐसा प्रभाव है कि हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी ॥ १२ ॥ भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीला का गान करने लगे और वे पार्षदरूप गजेन्द्र को साथ ले गरुड़ पर सवार होकर अपने अलौकिक धाम को चले गये ॥ १३ ॥ कुरुवंश-शिरोमणि परीक्षित ! मैंने भगवान श्रीकृष्ण की महिमा तथा गजेन्द्र के उद्धार की कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसङ्ग सुननेवालों के कलिमल और दु:स्वप्न को मिटानेवाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देनेवाला है ॥ १४ ॥ इसीसे कल्याणकामी द्विजगण दु:स्वप्न आदि की शान्ति के लिये प्रात:काल जगते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं ॥ १५ ॥ परीक्षित ! गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूत स्वरूप श्रीहरि भगवान ने सब लोगों के सामने ही उसे यह बात कही थी ॥ १६ ॥

श्रीभगवान ने कहा—जो लोग रात के पिछले पहर में उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्त से मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँसके झुरमुट, यहाँ के दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिखर, मेरे, ब्रह्माजी और शिवजी के निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभमणि, वनमाला, मेरी कौमोद की गदा, सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कला स्वरूप शेषजी, मेरे आश्रय में रहनेवाली लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शङ्करजी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारों में किये हुए मेरे अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्रि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातनधर्म, सोम, कश्यप और धर्म की पत्नी दक्षकन्याएँ, गङ्गा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्तशिरोमणि ध्रुव, सात ब्रहमर्षि और पवित्रकीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषों का स्मरण करते हैं—वे समस्त पापों से छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं ॥ १७—२४ ॥ प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्राह्ममुहूर्त में जगकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, मृत्यु के समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धि का दान करूँगा ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा कहकर देवताओं को आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शङ्ख बजाया और गरुड़ पर सवार हो गये ॥ २६ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-05]

॥ पञ्चमोऽध्यायः - ५ ॥
श्रीशुक उवाच
राजन्नुदितमेतत्ते हरेः कर्माघनाशनम् ।
गजेन्द्रमोक्षणं पुण्यं रैवतं त्वन्तरं श‍ृणु ॥ १॥

पञ्चमो रैवतो नाम मनुस्तामससोदरः ।
बलिविन्ध्यादयस्तस्य सुता अर्जुनपूर्वकाः ॥ २॥

विभुरिन्द्रः सुरगणा राजन् भूतरयादयः ।
हिरण्यरोमा वेदशिरा ऊर्ध्वबाह्वादयो द्विजाः ॥ ३॥

पत्नी विकुण्ठा शुभ्रस्य वैकुण्ठैः सुरसत्तमैः ।
तयोः स्वकलया जज्ञे वैकुण्ठो भगवान् स्वयम् ॥ ४॥

वैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः ।
रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया ॥ ५॥

तस्यानुभावः कथितो गुणाश्च परमोदयाः ।
भौमान् रेणून् स विममे यो विष्णोर्वर्णयेद्गुणान् ॥ ६॥

षष्ठश्च चक्षुषः पुत्रश्चाक्षुषो नाम वै मनुः ।
पूरुपूरुषसुद्युम्नप्रमुखाश्चाक्षुषात्मजाः ॥ ७॥

इन्द्रो मन्त्रद्रुमस्तत्र देवा आप्यादयो गणाः ।
मुनयस्तत्र वै राजन् हविष्मद्वीरकादयः ॥ ८॥

तत्रापि देवः सम्भूत्यां वैराजस्याभवत्सुतः ।
अजितो नाम भगवानंशेन जगतः पतिः ॥ ९॥

पयोधिं येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा ।
भ्रममाणोऽम्भसि धृतः कूर्मरूपेण मन्दरः ॥ १०॥

राजोवाच
यथा भगवता ब्रह्मन् मथितः क्षीरसागरः ।
यदर्थं वा यतश्चाद्रिं दधाराम्बुचरात्मना ॥ ११॥

यथामृतं सुरैः प्राप्तं किं चान्यदभवत्ततः ।
एतद्भगवतः कर्म वदस्व परमाद्भुतम् ॥ १२॥

त्वया सङ्कथ्यमानेन महिम्ना सात्वतां पतेः ।
नातितृप्यति मे चित्तं सुचिरं तापतापितम् ॥ १३॥

सूत उवाच
सम्पृष्टो भगवानेवं द्वैपायनसुतो द्विजाः ।
अभिनन्द्य हरेर्वीर्यमभ्याचष्टुं प्रचक्रमे ॥ १४॥

श्रीशुक उवाच
यदा युद्धेऽसुरैर्देवा बाध्यमानाः शितायुधैः ।
गतासवो निपतिता नोत्तिष्ठेरन् स्म भूयशः ॥ १५॥

यदा दुर्वाससः शापात्सेन्द्रा लोकास्त्रयो नृप ।
निःश्रीकाश्चाभवंस्तत्र नेशुरिज्यादयः क्रियाः ॥ १६॥

निशाम्यैतत्सुरगणा महेन्द्रवरुणादयः ।
नाध्यगच्छन् स्वयं मन्त्रैर्मन्त्रयन्तो विनिश्चयम् ॥ १७॥

ततो ब्रह्मसभां जग्मुर्मेरोर्मूर्धनि सर्वशः ।
सर्वं विज्ञापयांचक्रुः प्रणताः परमेष्ठिने ॥ १८॥

स विलोक्येन्द्रवाय्वादीन् निःसत्त्वान् विगतप्रभान् ।
लोकानमङ्गलप्रायानसुरानयथा विभुः ॥ १९॥

समाहितेन मनसा संस्मरन् पुरुषं परम् ।
उवाचोत्फुल्लवदनो देवान् स भगवान् परः ॥ २०॥

अहं भवो यूयमथोऽसुरादयो
मनुष्यतिर्यग्द्रुमघर्मजातयः ।
यस्यावतारांशकलाविसर्जिता
व्रजाम सर्वे शरणं तमव्ययम् ॥ २१॥

न यस्य वध्यो न च रक्षणीयो
नोपेक्षणीयादरणीयपक्षः ।
अथापि सर्गस्थितिसंयमार्थं
धत्ते रजःसत्त्वतमांसि काले ॥ २२॥

अयं च तस्य स्थितिपालनक्षणः
सत्त्वं जुषाणस्य भवाय देहिनाम् ।
तस्माद्व्रजामः शरणं जगद्गुरुं
स्वानां स नो धास्यति शं सुरप्रियः ॥ २३॥

श्रीशुक उवाच
इत्याभाष्य सुरान् वेधाः सह देवैररिन्दम ।
अजितस्य पदं साक्षाज्जगाम तमसः परम् ॥ २४॥

तत्रादृष्टस्वरूपाय श्रुतपूर्वाय वै विभो ।
स्तुतिमब्रूत दैवीभिर्गीर्भिस्त्ववहितेन्द्रियः ॥ २५॥

ब्रह्मोवाच
अविक्रियं सत्यमनन्तमाद्यं
गुहाशयं निष्कलमप्रतर्क्यम् ।
मनोऽग्रयानं वचसानिरुक्तं
नमामहे देववरं वरेण्यम् ॥ २६॥

विपश्चितं प्राणमनोधियात्मना-
मर्थेन्द्रियाभासमनिद्रमव्रणम् ।
छायातपौ यत्र न गृध्रपक्षौ
तमक्षरं खं त्रियुगं व्रजामहे ॥ २७॥

अजस्य चक्रं त्वजयेर्यमाणं
मनोमयं पञ्चदशारमाशु ।
त्रिनाभि विद्युच्चलमष्टनेमि
यदक्षमाहुस्तमृतं प्रपद्ये ॥ २८॥

य एकवर्णं तमसः परं
तदलोकमव्यक्तमनन्तपारम् ।
आसां चकारोपसुपर्णमेन-
मुपासते योगरथेन धीराः ॥ २९॥

न यस्य कश्चातितितर्ति मायां
यया जनो मुह्यति वेद नार्थम् ।
तं निर्जितात्मात्मगुणं परेशं
नमाम भूतेषु समं चरन्तम् ॥ ३०॥

इमे वयं यत्प्रिययैव तन्वा
सत्त्वेन सृष्टा बहिरन्तराविः ।
गतिं न सूक्ष्मामृषयश्च विद्महे
कुतोऽसुराद्या इतरप्रधानाः ॥ ३१॥

पादौ महीयं स्वकृतैव यस्य
चतुर्विधो यत्र हि भूतसर्गः ।
स वै महापूरुष आत्मतन्त्रः
प्रसीदतां ब्रह्म महाविभूतिः ॥ ३२॥

अम्भस्तु यद्रेत उदारवीर्यं
सिध्यन्ति जीवन्त्युत वर्धमानाः ।
लोकास्त्रयोऽथाखिललोकपालाः
प्रसीदतां ब्रह्म महाविभूतिः ॥ ३३॥

सोमं मनो यस्य समामनन्ति
दिवौकसां वै बलमन्ध आयुः ।
ईशो नगानां प्रजनः प्रजानां
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३४॥

अग्निर्मुखं यस्य तु जातवेदा
जातः क्रियाकाण्डनिमित्तजन्मा ।
अन्तःसमुद्रेऽनुपचन् स्वधातून्
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३५॥

यच्चक्षुरासीत्तरणिर्देवयानं
त्रयीमयो ब्रह्मण एष धिष्ण्यम् ।
द्वारं च मुक्तेरमृतं च मृत्युः
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३६॥

प्राणादभूद्यस्य चराचराणां
प्राणः सहो बलमोजश्च वायुः ।
अन्वास्म सम्राजमिवानुगा वयं
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३७॥

श्रोत्राद्दिशो यस्य हृदश्च खानि
प्रजज्ञिरे खं पुरुषस्य नाभ्याः ।
प्राणेन्द्रियात्मासुशरीरकेतं
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३८॥

बलान्महेन्द्रस्त्रिदशाः प्रसादा-
न्मन्योर्गिरीशो धिषणाद्विरिञ्चः ।
खेभ्यश्च छन्दांस्यृषयो मेढ्रतः कः
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३९॥

श्रीर्वक्षसः पितरश्छाययाऽऽसन्
धर्मः स्तनादितरः पृष्ठतोऽभूत् ।
द्यौर्यस्य शीर्ष्णोऽप्सरसो विहारा-
त्प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४०॥

विप्रो मुखं ब्रह्म च यस्य गुह्यं
राजन्य आसीद्भुजयोर्बलं च ।
ऊर्वोर्विडोऽजोऽङ्घ्रिरवेदशूद्रौ
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४१॥

लोभोऽधरात्प्रीतिरुपर्यभूद्द्युतिर्नस्तः
पशव्यः स्पर्शेन कामः ।
भ्रुवोर्यमः पक्ष्मभवस्तु कालः
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४२॥

द्रव्यं वयः कर्म गुणान् विशेषं
यद्योगमायाविहितान् वदन्ति ।
यद्दुर्विभाव्यं प्रबुधापबाधं
प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४३॥

नमोऽस्तु तस्मा उपशान्तशक्तये
स्वाराज्यलाभप्रतिपूरितात्मने ।
गुणेषु मायारचितेषु वृत्तिभिर्न
सज्जमानाय नभस्वदूतये ॥ ४४॥

स त्वं नो दर्शयात्मानमस्मत्करणगोचरम् ।
प्रपन्नानां दिदृक्षूणां सस्मितं ते मुखाम्बुजम् ॥ ४५॥

तैस्तैः स्वेच्छाधृतै रूपैः काले काले स्वयं विभो ।
कर्म दुर्विषहं यन्नो भगवांस्तत्करोति हि ॥ ४६॥

क्लेशभूर्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा ।
देहिनां विषयार्तानां न तथैवार्पितं त्वयि ॥ ४७॥

नावमः कर्मकल्पोऽपि विफलायेश्वरार्पितः ।
कल्पते पुरुषस्यैष स ह्यात्मा दयितो हितः ॥ ४८॥

यथा हि स्कन्धशाखानां तरोर्मूलावसेचनम् ।
एवमाराधनं विष्णोः सर्वेषामात्मनश्च हि ॥ ४९॥

नमस्तुभ्यमनन्ताय दुर्वितर्क्यात्मकर्मणे ।
निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ॥ ५०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अमृतमथने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥


अष्टम स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय
देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान की स्तुति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान की यह गजेन्द्रमोक्ष की पवित्र लीला समस्त पापों का नाश करनेवाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तर की कथा सुनो ॥ १ ॥ पाँचवें मनु का नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामसके सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे ॥ २ ॥ उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओं के प्रधानगण थे। परीक्षित ! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊध्र्वबाहु आदि सप्तर्षि थे ॥ ३ ॥ उनमें शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा। उन्हींके गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया ॥ ४ ॥ उन्हीं ने लक्ष्मीदेवी की प्रार्थना से उन को प्रसन्न करने के लिये वैकुण्ठधाम की रचना की थी। वह लोक समस्त लोकों में श्रेष्ठ है ॥ ५ ॥ उन वैकुण्ठनाथ के कल्याणमय गुण और प्रभाव का वर्णन मैं संक्षेप से (तीसरे स्कन्धमें) कर चु का हूँ। भगवान विष्णु के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो वह करे, जिस ने पृथ्वी के परमाणुओं की गिनती कर ली हो ॥ ६ ॥

छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पूरुष, सुद्युम्र आदि कई पुत्र थे ॥ ७ ॥ इन्द्र का नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उस मन्वन्तर में हविष्यमान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे ॥ ८ ॥ जगतपति भगवान ने उस समय भी वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम का अंशावतार ग्रहण किया था ॥ ९ ॥ उन्होंने ही समुद्र-मन्थन करके देवताओं को अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छपरूप धारण करके मन्दराचल की मथानी के आधार बने थे ॥ १० ॥

राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! भगवान ने क्षीरसागर का मन्थन कैसे किया ? उन्होंने कच्छपरूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्य से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया ? ॥ ११ ॥ देवताओं को उस समय अमृत कैसे मिला ? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्र से निकलीं ? भगवान की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये ॥ १२ ॥ आप भक्तवत्सल भगवान की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उस को और भी सुनने के लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघा ने का तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनों से यह संसार की ज्वालाओं से जलता जो रहा है ॥ १३ ॥

सूतजी ने कहा—शौनकादि ऋषियो ! भगवान श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित के इस प्रश्र का अभिनन्दन करते हुए भगवान की समुद्र-मन्थन लीला का वर्णन आरम्भ किया ॥ १४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जिस समय की यह बात है, उस समय असुरों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया था। उस युद्ध में बहुतों के तो प्राणों पर ही बन आयी, वे रणभूमि में गिरकर फिर उठ न सके ॥ १५ ॥ दुर्वासा के शापसे[1] तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँ तक कि यज्ञयागादि धर्म-कर्मों का भी लोप हो गया था ॥ १६ ॥ यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओं ने आपस में बहुत कुछ सोचा-विचारा; परंतु अपने विचारों से वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके ॥ १७ ॥ तब वे सब-के-सब सुमेरु के शिखर पर स्थित ब्रह्माजी की सभा में गये और वहाँ उन लोगों ने बड़ी नम्रता से ब्रह्माजी की सेवा में अपनी परिस्थिति का विस्तृत विवरण उपस्थित किया ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी ने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगों की परिस्थिति बड़ी विकट, संकटग्रस्त हो गयी है और असुर इसके विपरीत फल-फूल रहे हैं ॥ १९ ॥ समर्थ ब्रह्माजी ने अपना मन एकाग्र करके परम पुरुष भगवान का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुख से देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा ॥ २० ॥ ‘देवताओ ! मैं, शङ्करजी, तुमलोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूप के एक अत्यन्त स्वल्पातिस्वल्प अंश से रचे गये हैं— हमलोग उन अविनाशी प्रभु की ही शरण ग्रहण करें ॥ २१ ॥ यद्यपि उनकी दृष्टि में न कोई वध का पात्र है और न रक्षाका, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदर का पात्र ही—फिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलय के लिये समय-समय पर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को स्वीकार किया करते हैं ॥ २२ ॥ उन्होंने इस समय प्राणियों के कल्याण के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत की स्थिति और रक्षा का अवसर है। अत: हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओं के प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनों का वे अवश्य ही कल्याण करेंगे ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! देवताओं से यह कहकर ब्रह्माजी देवताओं को साथ लेकर भगवान अजित के निजधाम वैकुण्ठ में गये। वह धाम तमोमयी प्रकृति से परे है ॥ २४ ॥ इन लोगों ने भगवान के स्वरूप और धाम के सम्बन्ध में पहले से ही बहुत कुछ सुन रखा था, परंतु वहाँ जाने पर उन लोगों को कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्माजी एकाग्र मन से वेदवाणी के द्वारा भगवान की स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥

ब्रह्माजी बोले—भगवन् ! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सब के हृदय में अन्तर्यामी- रूप से विराजमान, अखण्ड एवं अतक्र्य हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहले से ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओं के आराधनीय और स्वयंप्रकाश हैं। हम सब आपके चरणों में नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ आप प्राण, मन, बुद्धि और अहंकार के ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृति के विकार मरने-जीनेवाले शरीर से भी आप रहित हैं। जीव के दोनों पक्ष अविद्या और विद्या आप में बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और सुख स्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वा पर में तो आप प्रकटरूप से ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं ॥ २७ ॥ यह शरीर जीव का एक मनोमय चक्र (रथ का पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राण—ये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण इस की नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार—ये आठ इसमें नेमि (पहिये का घेरा) हैं। स्वयं माया इसका सञ्चालन करती है और यह बिजली से भी अधिक शीघ्रगामी है। इस चक्र के धुरे हैं स्वयं परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरण में हैं ॥ २८ ॥ जो एकमात्र ज्ञान स्वरूप, प्रकृति से परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओं के मूल में स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तु से जिनका पार नहीं पाया जा सकता—वही प्रभु इस जीव के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोग के द्वारा उन्हीं की आराधना करते हैं ॥ २९ ॥ जिस माया से मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूप को भूल गया है, वह उन्हीं की है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता। परंतु सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणों को अपने वश में करके समस्त प्राणियों के हृदय में समभाव से विचरण करते रहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थ से नहीं, उनकी कृपा से ही उन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणों में नमस्कार करते हैं ॥ ३० ॥ यों तो हम देवता एवं ऋषिगण भी उनके परम प्रिय सत्त्वमय शरीर से ही उत्पन्न हुए हैं, फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते। तब रजोगुण एवं तमोगुणप्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं ? उन्हीं प्रभु के चरणों में हम नमस्कार करते हैं ॥ ३१ ॥

उन्हीं की बनायी हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वी पर जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकार के प्राणी रहते हैं। वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली पुरुषोत्तम परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों ॥ ३२ ॥ यह परम शक्तिशाली जल उन्हीं का वीर्य है। इसीसे तीनों लोक और समस्त लोकों के लोकपाल उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों ॥ ३३ ॥ श्रुतियाँ कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभु का मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओं का अन्न, बल एवं आयु है। वही वृक्षों का सम्राट् एवं प्रजा की वृद्धि करनेवाला है। ऐसे मन को स्वीकार करनेवाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हम पर प्रसन्न हों ॥ ३४ ॥ अग्रि प्रभु का मुख है। इस की उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेद के यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड पूर्णरूप से सम्पन्न हो सकें। यह अग्रि ही शरीर के भीतर जठराग्रिरूप से और समुद्र के भीतर बड़वानल के रूप से रहकर उनमें रहनेवाले अन्न, जल आदि धातुओं का पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्यों की उत्पत्ति भी उसी से हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ३५ ॥ जिनके द्वारा जीव देवयानमार्ग से ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है, जो वेदों की साक्षात मूर्ति और भगवान के ध्यान करनेयोग्य धाम हैं, जो पुण्यलोक स्वरूप होने के कारण मुक्ति के द्वार एवं अमृतमय हैं और कालरूप होने के कारण मृत्यु भी हैं—ऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ३६ ॥ प्रभु के प्राण से ही चराचर का प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक और इन्द्रिय सम्बन्धी बल देनेवाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है, तो इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ३७ ॥ जिनके कानों से दिशाएँ, हृदय से इन्द्रियगोलक और नाभि से वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय) एवं शरीर का आश्रय है—वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ३८ ॥ जिनके बल से इन्द्र, प्रसन्नता से समस्त देवगण, क्रोध से शङ्कर, बुद्धि से ब्रह्मा, इन्द्रियों से वेद और ऋषि तथा लिङ्ग से प्रजापति उत्पन्न हुए हैं—वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ३९ ॥ जिनके वक्ष:स्थल से लक्ष्मी, छाया से पितृगण, स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, सिर से आकाश और विहार से अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ४० ॥ जिनके मुख से ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओं से क्षत्रिय और बल, जङ्घाओं से वैश्य और उनकी वृत्ति—व्यापारकुशलता तथा चरणों से वेदबाह्य शूद्र और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई है—वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ४१ ॥ जिनके अधर से लोभ और ओष्ठ से प्रीति, नासिका से कान्ति, स्पर्श से पशुओं का प्रिय काम, भौंहों से यम और नेत्र के रोमों से काल की उत्पत्ति हुई है—वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ४२ ॥ पञ्चभूत, काल, कर्म, सत्त्वादि गुण और जो कुछ विवे की पुरुषों के द्वारा बाधित किये जाने योग्य निर्वचनीय या अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ हैं, वे सब-के-सब भगवान की योगमाया से ही बने हैं—ऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ४३ ॥ जो मायानिर्मित गुणों में दर्शनादि वृत्तियों के द्वारा आसक्त नहीं होते, जो वायु के समान सदा-सर्वदा असङ्ग रहते हैं, जिन में समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैं—उन अपने आत्मानन्द के लाभ से परिपूर्ण आत्म स्वरूप भगवान को हमारे नमस्कार हैं ॥ ४४ ॥

प्रभो ! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुसकान से युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रों से देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये ॥ ४५ ॥

प्रभो ! आप समय-समय पर स्वयं ही अपनी इच्छा से अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहज में ही कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है ॥ ४६ ॥ विषयों के लोभ में पडक़र जो देहाभिमानी दु:ख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करने में परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परंतु फल बहुत कम निकलता है। अधिकांश में तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परंतु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करने के समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फलरूप ही हैं ॥ ४७ ॥ भगवान को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं ॥ ४८ ॥ जैसे वृक्ष की जडक़ो पानी से सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियों को भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान की आराधना सम्पूर्ण प्राणियों की और अपनी भी आराधना है ॥ ४९ ॥ जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओं का रहस्य तर्क-वितर्क के परे है, जो स्वयं गुणों से परे रहकर भी सब गुणों के स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुण में स्थित हैं—ऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥


[1] यह प्रसङ्ग विष्णुपुराण में इस प्रकार आया है। एक बार श्रीदुर्वासाजी वैकुण्ठलोक से आ रहे थे। मार्ग में ऐरावत पर चढ़े देवराज इन्द्र मिले। उन्हें त्रिलोकाधिपति जानकर दुर्वासाजी ने भगवान के प्रसाद की माला दी; किन्तु इन्द्र ने ऐश्वर्य के मद से उसका कुछ भी आदर न कर उसे ऐरावत के मस् तक पर डाल दिया। ऐरावत ने उसे सूँड़ में लेकर पैरों से कुचल डाला। इससे दुर्वासाजी ने क्रोधित होकर शाप दिया कि तू तीनों लोकोंसहित शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा।



स्कन्ध-08 [अध्याय-06]

॥ षष्ठोऽध्यायः - ६ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं स्तुतः सुरगणैर्भगवान् हरिरीश्वरः ।
तेषामाविरभूद्राजन् सहस्रार्कोदयद्युतिः ॥ १॥ - सगोनासंगोगो
तेनैव महसा सर्वे देवाः प्रतिहतेक्षणाः ।
नापश्यन् खं दिशः क्षोणीमात्मानं च कुतो विभुम् ॥ २॥

विरिञ्चो भगवान् दृष्ट्वा सह शर्वेण तां तनुम् ।
स्वच्छां मरकतश्यामां कञ्जगर्भारुणेक्षणाम् ॥ ३॥

तप्तहेमावदातेन लसत्कौशेयवाससा ।
प्रसन्नचारुसर्वाङ्गीं सुमुखीं सुन्दरभ्रुवम् ॥ ४॥
महामणिकिरीटेन केयूराभ्यां च भूषिताम् ।
कर्णाभरणनिर्भातकपोलश्रीमुखाम्बुजाम् ॥ ५॥

काञ्चीकलापवलयहारनूपुरशोभिताम् ।
कौस्तुभाभरणां लक्ष्मीं बिभ्रतीं वनमालिनीम् ॥ ६॥

सुदर्शनादिभिः स्वास्त्रैर्मूर्तिमद्भिरुपासिताम् ।
तुष्टाव देवप्रवरः सशर्वः पुरुषं परम् ।
सर्वामरगणैः साकं सर्वाङ्गैरवनिं गतैः ॥ ७॥

ब्रह्मोवाच
अजातजन्मस्थितिसंयमायागुणाय
निर्वाणसुखार्णवाय ।
अणोरणिम्नेऽपरिगण्यधाम्ने
महानुभावाय नमो नमस्ते ॥ ८॥

रूपं तवैतत्पुरुषर्षभेज्यं
श्रेयोऽर्थिभिर्वैदिकतान्त्रिकेण ।
योगेन धातः सह नस्त्रिलोकान्
पश्याम्यमुष्मिन्नु ह विश्वमूर्तौ ॥ ९॥

त्वय्यग्र आसीत्त्वयि मध्य आसीत्त्वय्यन्त
आसीदिदमात्मतन्त्रे ।
त्वमादिरन्तो जगतोऽस्य मध्यं
घटस्य मृत्स्नेव परः परस्मात् ॥ १०॥

त्वं माययाऽऽत्माश्रयया स्वयेदं
निर्माय विश्वं तदनुप्रविष्टः ।
पश्यन्ति युक्ता मनसा मनीषिणो
गुणव्यवायेऽप्यगुणं विपश्चितः ॥ ११॥

यथाग्निमेधस्यमृतं च गोषु
भुव्यन्नमम्बूद्यमने च वृत्तिम् ।
योगैर्मनुष्या अधियन्ति हि त्वां
गुणेषु बुद्ध्या कवयो वदन्ति ॥ १२॥

तं त्वां वयं नाथ समुज्जिहानं
सरोजनाभातिचिरेप्सितार्थम् ।
दृष्ट्वा गता निर्वृतमद्य सर्वे
गजा दवार्ता इव गाङ्गमम्भः ॥ १३॥

स त्वं विधत्स्वाखिललोकपाला
वयं यदर्थास्तव पादमूलम् ।
समागतास्ते बहिरन्तरात्मन्
किं वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिणः ॥ १४॥

अहं गिरित्रश्च सुरादयो ये
दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते ।
किं वा विदामेश पृथग्विभाता
विधत्स्व शं नो द्विजदेवमन्त्रम् ॥ १५॥

श्रीशुक उवाच
एवं विरिञ्चादिभिरीडितस्तद्विज्ञाय
तेषां हृदयं यथैव ।
जगाद जीमूतगभीरया गिरा
बद्धाञ्जलीन् संवृतसर्वकारकान् ॥ १६॥

एक एवेश्वरस्तस्मिन् सुरकार्ये सुरेश्वरः ।
विहर्तुकामस्तानाह समुद्रोन्मथनादिभिः ॥ १७॥

श्रीभगवानुवाच
हन्त ब्रह्मन्नहो शम्भो हे देवा मम भाषितम् ।
श‍ृणुतावहिताः सर्वे श्रेयो वः स्याद्यथा सुराः ॥ १८॥

यात दानवदैतेयैस्तावत्सन्धिर्विधीयताम् ।
कालेनानुगृहीतैस्तैर्यावद्वो भव आत्मनः ॥ १९॥

अरयोऽपि हि सन्धेयाः सति कार्यार्थगौरवे ।
अहिमूषिकवद्देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतैः ॥ २०॥

अमृतोत्पादने यत्नः क्रियतामविलम्बितम् ।
यस्य पीतस्य वै जन्तुर्मृत्युग्रस्तोऽमरो भवेत् ॥ २१॥

क्षिप्त्वा क्षीरोदधौ सर्वा वीरुत्तृणलतौषधीः ।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम् ॥ २२॥

सहायेन मया देवा निर्मन्थध्वमतन्द्रिताः ।
क्लेशभाजो भविष्यन्ति दैत्या यूयं फलग्रहाः ॥ २३॥

यूयं तदनुमोदध्वं यदिच्छन्त्यसुराः सुराः ।
न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वेऽर्थाः सान्त्वया यथा ॥ २४॥

न भेतव्यं कालकूटाद्विषाज्जलधिसम्भवात् ।
लोभः कार्यो न वो जातु रोषः कामस्तु वस्तुषु ॥ २५॥

श्रीशुक उवाच
इति देवान् समादिश्य भगवान् पुरुषोत्तमः ।
तेषामन्तर्दधे राजन् स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ २६॥

अथ तस्मै भगवते नमस्कृत्य पितामहः ।
भवश्च जग्मतुः स्वं स्वं धामोपेयुर्बलिं सुराः ॥ २७॥

दृष्ट्वारीनप्यसंयत्तान् जातक्षोभान् स्वनायकान् ।
न्यषेधद्दैत्यराट् श्लोक्यः सन्धिविग्रहकालवित् ॥ २८॥

ते वैरोचनिमासीनं गुप्तं चासुरयूथपैः ।
श्रिया परमया जुष्टं जिताशेषमुपागमन् ॥ २९॥

महेन्द्रः श्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयित्वा महामतिः ।
अभ्यभाषत तत्सर्वं शिक्षितं पुरुषोत्तमात् ॥ ३०॥

तदरोचत दैत्यस्य तत्रान्ये येऽसुराधिपाः ।
शम्बरोऽरिष्टनेमिश्च ये च त्रिपुरवासिनः ॥ ३१॥

ततो देवासुराः कृत्वा संविदं कृतसौहृदाः ।
उद्यमं परमं चक्रुरमृतार्थे परन्तप ॥ ३२॥

ततस्ते मन्दरगिरिमोजसोत्पाट्य दुर्मदाः ।
नदन्त उदधिं निन्युः शक्ताः परिघबाहवः ॥ ३३॥

दूरभारोद्वहश्रान्ताः शक्रवैरोचनादयः ।
अपारयन्तस्तं वोढुं विवशा विजहुः पथि ॥ ३४॥

निपतन् स गिरिस्तत्र बहूनमरदानवान् ।
चूर्णयामास महता भारेण कनकाचलः ॥ ३५॥

तांस्तथा भग्नमनसो भग्नबाहूरुकन्धरान् ।
विज्ञाय भगवांस्तत्र बभूव गरुडध्वजः ॥ ३६॥

गिरिपातविनिष्पिष्टान् विलोक्यामरदानवान् ।
ईक्षया जीवयामास निर्जरान् निर्व्रणान् यथा ॥ ३७॥

गिरिं चारोप्य गरुडे हस्तेनैकेन लीलया ।
आरुह्य प्रययावब्धिं सुरासुरगणैर्वृतः ॥ ३८॥

अवरोप्य गिरिं स्कन्धात्सुपर्णः पततां वरः ।
ययौ जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जितः ॥ ३९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अमृतमथने मन्दराचलानयनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥

अष्टम स्कन्ध-छठा अध्याय 
देवताओं और दैत्यों का मिलकर समुद्रमन्थन के लिये उद्योग करना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब देवताओं ने सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीच में ही प्रकट हो गये। उनके शरीर की प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों ॥ १ ॥ भगवान की उस प्रभा से सभी देवताओं की आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान को तो क्या—आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीर को भी न देख सके ॥ २ ॥ केवल भगवान शङ्कर और ब्रह्माजी ने उस छबि का दर्शन किया। बड़ी ही सुन्दर झाँ की थी। मरकतमणि (पन्ने) के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमल के भीतरी भाग के समान सुकुमार नेत्रों में लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंग का रेशमी पीताम्बर ! सर्वाङ्गसुन्दर शरीर के रोम- रोम से प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुष के समान टेढ़ी भौंहें और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिर पर महा- मणिमय किरीट और भुजाओं में बाजूबंद। कानों के झलकते हुए कुण्डलों की चमक पडऩे से कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमर में करधनी की लडिय़ाँ, हाथों में कंगन, गले में हार और चरणों में नूपुर शोभायमान थे। वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी और गले में कौस्तुभमणि तथा वनमाला सुशोभित थीं ॥ ३—६ ॥ भगवान के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओं ने पृथ्वी पर गिरकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया फिर सारे देवताओं को साथ ले शङ्करजी तथा ब्रह्माजी परम पुरुष भगवान की स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

ब्रह्माजी ने कहा—जो जन्म, स्थिति और प्रलय से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणों से रहित एवं मोक्ष स्वरूप परमानन्द के महान समुद्र हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त है—उन परम ऐश्वर्यशाली प्रभु को हमलोग बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ पुरुषोत्तम ! अपना कल्याण चाहनेवाले साधक वेदोक्त एवं पाञ्चरात्रोक्त विधि से आपके इसी स्वरूप की उपासना करते हैं। मुझे भी रचनेवाले प्रभो ! आपके इस विश्वमय स्वरूप में मुझे समस्त देवगणों के सहित तीनों लोक दिखायी दे रहे हैं ॥ ९ ॥ आप में ही पहले यह जगत लीन था, मध्य में भी यह आप में ही स्थित है और अन्त में भी यह पुन: आप में ही लीन हो जायगा। आप स्वयं कार्य-कारण से परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत के आदि, अन्त और मध्य हैं—वैसे ही जैसे घड़े का आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है ॥ १० ॥ आप अपने ही आश्रय रहनेवाली अपनी माया से इस संसार की रचना करते हैं और इसमें फिर से प्रवेश करके अन्तर्यामी के रूप में विराजमान होते हैं। इसीलिये विवे की और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानी से अपने मन को एकाग्र करके इन गुणोंकी, विषयों की भीड़ में भी आपके निर्गुण स्वरूप का ही साक्षातकार करते हैं ॥ ११ ॥ जैसे मनुष्य युक्ति के द्वारा लकड़ी से आग, गौ से अमृत के समान दूध, पृथ्वी से अन्न तथा जल और व्यापार से अपनी आजीवि का प्राप्त कर लेते हैं—वैसे ही विवे की पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धि से भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि के द्वारा आपको इन विषयों में ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूति के अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं ॥ १२ ॥ कमलनाभ ! जिस प्रकार दावाग्रि से झुलसता हुआ हाथी गङ्गाजल में डुबकी लगाकर सुख और शान्ति का अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भाव से हमलोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं। स्वामी ! हमलोग बहुत दिनों से आपके दर्शनों के लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे ॥ १३ ॥ आप ही हमारे बाहर और भीतर के आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्य से आपके चरणों की शरण में आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सब के साक्षी हैं, अत: इस विषय में हमलोग आप से और क्या निवेदन करें ॥ १४ ॥ प्रभो ! मैं शङ्करजी, अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापति—सब-के-सब अग्रि से अलग हुई चिनगारी की तरह आपके ही अंश हैं और अपने को आप से अलग मानते हैं। ऐसी स्थिति में प्रभो ! हमलोग समझ ही क्या सकते हैं। ब्राह्मण और देवताओं के कल्याण के लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये ॥ १५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—ब्रह्मा आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लीं और सब बड़ी सावधानी के साथ हाथ जोडक़र खड़े हो गये। उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदय की बात जानकर भगवान मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले ॥ १६ ॥ परीक्षित ! समस्त देवताओं के तथा जगत के एकमात्र स्वामी भगवान अकेले ही उनका सब कार्य करने में समर्थ थे, फिर भी समुद्र-मन्थन आदि लीलाओं के द्वारा विहार करने की इच्छा से वे देवताओं को सम्बोधित करके इस प्रकार कह ने लगे ॥ १७ ॥

श्रीभगवान ने कहा—ब्रह्मा, शङ्कर और देवताओ ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याण का यही उपाय है ॥ १८ ॥ इस समय असुरों पर काल की कृपा है। इसलिये जब तक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नति का समय नहीं आता, तब तक तुम दैत्य और दानवों के पास जाकर उनसे सन्धि कर लो ॥ १९ ॥ देवताओ ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओं से भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जाने पर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं[1] ॥ २० ॥ तुमलोग बिना विलम्ब के अमृत निकाल ने का प्रयत्न करो। उसे पी लेने पर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है ॥ २१ ॥ पहले क्षीरसागर में सब प्रकार के घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचल की मथानी और वासुकि नाग की नेती बनाकर मेरी सहायता से समुद्र का मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमाद का समय नहीं है। देवताओ ! विश्वास रखो—दैत्यों को तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परंतु फल मिलेगा तुम्हीं लोगों को ॥ २२-२३ ॥ देवताओ ! असुरलोग तुम से जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्ति से सब काम बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता ॥ २४ ॥ पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। और किसी भी वस्तु के लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तु की कामना ही नहीं करनी चाहिये, परंतु यदि कामना हो और वह पूरी न हो , तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! देवताओं को यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीला का रहस्य कौन समझे ॥ २६ ॥ उनके चले जाने पर ब्रह्मा और शङ्करने फिर से भगवान को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकों को चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलि के पास गये ॥ २७ ॥ देवताओं को बिना अस्त्र-शस्त्र के सामने आते देख दैत्यसेनापतियों के मन में बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने देवताओं को पकड़ लेना चाहा। परंतु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोध के अवसर को जाननेवाले एवं पवित्र कीर्ति से सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्यों को वैसा करने से रोक दिया ॥ २८ ॥ इसके बाद देवतालोग बलि के पास पहुँचे। बलि ने तीनों लोकों को जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियों से सेवित एवं असुर-सेनापतियों से सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासन पर बैठे हुए थे ॥ २९ ॥ बुद्धिमान इन्द्र ने बड़ी मधुर वाणी से समझाते हुए राजा बलि से वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान ने उन्हें दी थी ॥ ३० ॥ वह बात दैत्यराज बलि को जँच गयी। वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरों को भी यह बात बहुत अच्छी लगी ॥ ३१ ॥ तब देवता और असुरों ने आपस में सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित ! वे सब मिलकर अमृत मन्थन के लिये पूर्ण उद्योग करने लगे ॥ ३२ ॥ इसके बाद उन्होंने अपनी शक्ति से मन्दराचल को उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतट की ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघ के समान थीं, शरीर में शक्ति थी और अपने-अपने बल का घमंड तो था ही ॥ ३३ ॥ परंतु एक तो वह मन्दरपर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचल को आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दिया ॥ ३४ ॥ वह सो ने का पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत- से देवता और दानवों को चकनाचूर कर डाला ॥ ३५ ॥

उन देवता और असुरों के हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़ पर चढ़े हुए भगवान सहसा वहीं प्रकट हो गये ॥ ३६ ॥ उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वत के गिर ने से पिस गये हैं। अत: उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टि से देवताओं को इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीर में बिलकुल चोट ही न लगी हो ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेल में एक हाथ से उस पर्वत को उठाकर गरुड़ पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरों के साथ उन्होंने समुद्रतट की यात्रा की ॥ ३८ ॥ पक्षिराज गरुडऩे समुद्र के तट पर पर्वत को उतार दिया। फिर भगवान के विदा करने पर गरुडज़ी वहाँ से चले गये ॥ ३९ ॥


[1] किसी मदारी की पिटारी में साँप तो पहले से था ही, संयोगवश उसमें एक चूहा भी जा घुसा। चूहे के भयभीत होने पर साँप ने उसे प्रेम से समझाया कि तुम पिटारी में छेद कर दो, फिर हम दोनों भाग निकलेंगे। पहले तो साँप की इस बात पर चूहे को विश्वास न हुआ, परंतु पीछे उसने पिटारी में छेद कर दिया। इस प्रकार काम बन जाने पर साँप चूहे को निगल गया और पिटारी से निकल भागा।



स्कन्ध-08 [अध्याय-07]

॥ सप्तमोऽध्यायः - ७ ॥
श्रीशुक उवाच
ते नागराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम् ।
परिवीय गिरौ तस्मिन् नेत्रमब्धिं मुदान्विताः ॥ १॥

आरेभिरे सुसंयत्ता अमृतार्थे कुरूद्वह ।
हरिः पुरस्ताज्जगृहे पूर्वं देवास्ततोऽभवन् ॥ २॥

तन्नैच्छन् दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम् ।
न गृह्णीमो वयं पुच्छमहेरङ्गममङ्गलम् ॥ ३॥

स्वाध्यायश्रुतसम्पन्नाः प्रख्याता जन्मकर्मभिः ।
इति तूष्णीं स्थितान् दैत्यान् विलोक्य पुरुषोत्तमः ।
स्मयमानो विसृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामरः ॥ ४॥

कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दनाः ।
ममन्थुः परमायत्ता अमृतार्थं पयोनिधिम् ॥ ५॥

मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रिरनाधारो ह्यपोऽविशत् ।
ध्रियमाणोऽपि बलिभिर्गौरवात्पाण्डुनन्दन ॥ ६॥

ते सुनिर्विण्णमनसः परिम्लानमुखश्रियः ।
आसन् स्वपौरुषे नष्टे दैवेनातिबलीयसा ॥ ७॥

विलोक्य विघ्नेशविधिं तदेश्वरो
दुरन्तवीर्योऽवितथाभिसन्धिः ।
कृत्वा वपुः काच्छपमद्भुतं महत्प्रविश्य
तोयं गिरिमुज्जहार ॥ ८॥

सर्वत्र गोविन्दनामसंकीर्तनं गोविन्द गोविन्द ।
तमुत्थितं वीक्ष्य कुलाचलं पुनः
समुद्यता निर्मथितुं सुरासुराः ।
दधार पृष्ठेन स लक्षयोजन-
प्रस्तारिणा द्वीप इवापरो महान् ॥ ९॥

सुरासुरेन्द्रैर्भुजवीर्यवेपितं
परिभ्रमन्तं गिरिमङ्ग पृष्ठतः ।
बिभ्रत्तदावर्तनमादिकच्छपो
मेनेऽङ्गकण्डूयनमप्रमेयः ॥ १०॥

तथासुरानाविशदासुरेण
रूपेण तेषां बलवीर्यमीरयन् ।
उद्दीपयन् देवगणांश्च विष्णुर्दैवेन
नागेन्द्रमबोधरूपः ॥ ११॥

उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्य
आक्रम्य हस्तेन सहस्रबाहुः ।
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्रमुख्यै-
रभिष्टुवद्भिः सुमनोऽभिवृष्टः ॥ १२॥

उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयोः
परेण ते प्राविशता समेधिताः ।
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा
महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम् ॥ १३॥

अहीन्द्रसाहस्रकठोरदृङ्मुख-
श्वासाग्निधूमाहतवर्चसोऽसुराः ।
पौलोमकालेयबलील्वलादयो
दवाग्निदग्धाः सरला इवाभवन् ॥ १४॥

देवांश्च तच्छ्वासशिखाहतप्रभान्
धूम्राम्बरस्रग्वरकञ्चुकाननान् ।
समभ्यवर्षन् भगवद्वशा घना
ववुः समुद्रोर्म्युपगूढवायवः ॥ १५॥

मथ्यमानात्तथा सिन्धोर्देवासुरवरूथपैः ।
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजितः स्वयम् ॥ १६॥

मेघश्यामः कनकपरिधिः कर्णविद्योतविद्युन्मूर्ध्नि
भ्राजद्विलुलितकचः स्रग्धरो रक्तनेत्रः ।
जैत्रैर्दोर्भिर्जगदभयदैर्दन्दशूकं गृहीत्वा
मथ्नन् मथ्ना प्रतिगिरिरिवाशोभताथो धृताद्रिः ॥ १७॥- सगोनसंगोगो
निर्मथ्यमानादुदधेरभूद्विषं
महोल्बणं हालहलाह्वमग्रतः ।
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपा-
त्तिमिद्विपग्राहतिमिङ्गिलाकुलात् ॥ १८॥

तदुग्रवेगं दिशि दिश्युपर्यधो
विसर्पदुत्सर्पदसह्यमप्रति ।
भीताः प्रजा दुद्रुवुरङ्ग सेश्वरा
अरक्ष्यमाणाः शरणं सदाशिवम् ॥ १९॥

विलोक्य तं देववरं त्रिलोक्या
भवाय देव्याभिमतं मुनीनाम् ।
आसीनमद्रावपवर्गहेतोस्तपो
जुषाणं स्तुतिभिः प्रणेमुः ॥ २०॥

प्रजापतय ऊचुः
देवदेव महादेव भूतात्मन् भूतभावन ।
त्राहि नः शरणापन्नांस्त्रैलोक्यदहनाद्विषात् ॥ २१॥

त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो बन्धमोक्षयोः ।
तं त्वामर्चन्ति कुशलाः प्रपन्नार्तिहरं गुरुम् ॥ २२॥

गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान् विभो ।
धत्से यदा स्वदृग्भूमन् ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम् ॥ २३॥

त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं सदसद्भावभावनः ।
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदीश्वरः ॥ २४॥

त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्मा
प्राणेन्द्रियद्रव्यगुणस्वभावः ।
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्म-
स्त्वय्यक्षरं यत्त्रिवृदामनन्ति ॥ २५॥

अग्निर्मुखं तेऽखिलदेवतात्मा
क्षितिं विदुर्लोकभवाङ्घ्रिपङ्कजम् ।
कालं गतिं तेऽखिलदेवतात्मनो
दिशश्च कर्णौ रसनं जलेशम् ॥ २६॥

नाभिर्नभस्ते श्वसनं नभस्वान्
सूर्यश्च चक्षूंषि जलं स्म रेतः ।
परावरात्माश्रयणं तवात्मा
सोमो मनो द्यौर्भगवन् शिरस्ते ॥ २७॥

कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा
रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते ।
छन्दांसि साक्षात्तव सप्तधातव-
स्त्रयीमयात्मन् हृदयं सर्वधर्मः ॥ २८॥

मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश
यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः ।
यत्तच्छिवाख्यं परमार्थतत्त्वं
देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते ॥ २९॥

छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो
नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि ।
साङ्ख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा
छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः ॥ ३०॥

न ते गिरित्राखिललोकपाल-
विरिञ्चवैकुण्ठसुरेन्द्रगम्यम् ।
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्च
सत्त्वं न यद्ब्रह्म निरस्तभेदम् ॥ ३१॥

कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेकभूतद्रुहः
क्षपयतः स्तुतये न तत्ते ।
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र-
वह्निस्फुलिङ्गशिखया भसितं न वेद ॥ ३२॥

ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि चिन्तिताङ्घ्रिद्वन्द्वं
चरन्तमुमया तपसाभितप्तम् ।
कत्थन्त उग्रपुरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जाः ॥ ३३॥

तत्तस्य ते सदसतोः परतः परस्य
नाञ्जः स्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्नः ।
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तु
तत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम् ॥ ३४॥

एतत्परं प्रपश्यामो न परं ते महेश्वर ।
मृडनाय हि लोकस्य व्यक्तिस्तेऽव्यक्तकर्मणः ॥ ३५॥

श्रीशुक उवाच
तद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भृशपीडितः ।
सर्वभूतसुहृद्देव इदमाह सतीं प्रियाम् ॥ ३६॥

शिव उवाच
अहो बत भवान्येतत्प्रजानां पश्य वैशसम् ।
क्षीरोदमथनोद्भूतात्कालकूटादुपस्थितम् ॥ ३७॥

आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे ।
एतावान् हि प्रभोरर्थो यद्दीनपरिपालनम् ॥ ३८॥

प्राणैः स्वैः प्राणिनः पान्ति साधवः क्षणभङ्गुरैः ।
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया ॥ ३९॥

पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरिः ।
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचरः ।
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे ॥ ४०॥

श्रीशुक उवाच
एवमामन्त्र्य भगवान् भवानीं विश्वभावनः ।
तद्विषं जग्धुमारेभे प्रभावज्ञान्वमोदत ॥ ४१॥

ततः करतलीकृत्य व्यापि हालाहलं विषम् ।
अभक्षयन्महादेवः कृपया भूतभावनः ॥ ४२॥

हर हर नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव
तस्यापि दर्शयामास स्ववीर्यं जलकल्मषः ।
यच्चकार गले नीलं तच्च साधोर्विभूषणम् ॥ ४३॥

तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशो जनाः ।
परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः ॥ ४४॥

निशम्य कर्म तच्छम्भोर्देवदेवस्य मीढुषः ।
प्रजा दाक्षायणी ब्रह्मा वैकुण्ठश्च शशंसिरे ॥ ४५॥

प्रस्कन्नं पिबतः पाणेर्यत्किञ्चिज्जगृहुः स्म तत् ।
वृश्चिकाहिविषौषध्यो दन्दशूकाश्च येऽपरे ॥ ४६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हितायां
अष्टमस्कन्धे अमृतमथने सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥


अष्टम स्कन्ध-सातवाँ अध्याय 
समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान शङ्कर का विषपान
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! देवता और असुरों ने नागराज वासुकि को यह वचन देकर कि समुद्रमन्थन से प्राप्त होनेवाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगों ने वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्द से अमृत के लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान वासुकि के मुख की ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे ॥ १-२ ॥ परंतु भगवान की यह चेष्टा दैत्यसेनापतियों को पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँप का अशुभ अङ्ग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे ॥ ३ ॥ हम ने वेद-शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और वीरता के बड़े-बड़े काम हम ने किये हैं। हम देवताओं से किस बात में कम हैं ?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान ने मुसकराकर वासुकि का मुँह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली ॥ ४ ॥ इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृतप्राप्ति के लिये पूरी तैयारी से समुद्रमन्थन करने लगे ॥ ५ ॥

परीक्षित ! जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरों के पकड़े रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होने के कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा ॥ ६ ॥ इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैव के द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टी में मिलते देख उनका मन टूट गया। सब के मुँह पर उदासी छा गयी ॥ ७ ॥ उस समय भगवान ने देखा कि यह तो विघ्रराज की करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारण का उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारण किया और समुद्र के जल में प्रवेश करके मन्दराचल को ऊ पर उठा दिया। भगवान की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसङ्कल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी ॥ ८ ॥ देवता और असुरों ने देखा कि मन्दराचल तो ऊ पर उठ आया है, तब वे फिर से समुद्र- मन्थन के लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान ने जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठ पर मन्दराचल को धारण कर रखा था ॥ ९ ॥ परीक्षित ! जब बड़े-बड़े देवता और असुरों ने अपने बाहुबल से मन्दराचल को प्रेरित किया, तब वह भगवान की पीठ पर घूम ने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदिकच्छप भगवान को उस पर्वत का चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो ॥ १० ॥ साथ ही समुद्र-मन्थन सम्पन्न करने के लिये भगवान ने असुरों में उनकी शक्ति और बल को बढ़ाते हुए असुररूप से प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओं को उत्साहित करते हुए उनमें देवरूप से प्रवेश किया और वासुकिनाग में निद्रा के रूप से ॥ ११ ॥ इधर पर्वत के ऊ पर दूसरे पर्वत के समान बनकर सहस्रबाहु भगवान अपने हाथों से उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाश में ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊ पर पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ १२ ॥ इस प्रकार भगवान ने पर्वत के ऊ पर उस को दबा रखनेवाले के रूप में, नीचे उसके आधार कच्छप के रूप में, देवता और असुरों के शरीर में उनकी शक्ति के रूप में, पर्वत में दृढ़ता के रूप में और नेती बने हुए वासुकिनाग में निद्रा के रूपमें—जिससे उसे कष्ट न हो—प्रवेश करके सब ओर से सब को शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बल के मद से उन्मत्त होकर मन्दराचल के द्वारा बड़े वेग से समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहनेवाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये ॥ १३ ॥ नागराज वासुकि के हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासों से विष की आग निकल ने लगी। उनके धूएँ से पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानल से झुल से हुए साखू के पेड़ खड़े हों ॥ १४ ॥ देवता भी उससे न बच सके। वासुकि के श्वास की लपटों से उनका भी तेज फी का पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान की प्रेरणा से बादल देवताओं के ऊ पर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्र की तरङ्गों का स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धि का सञ्चार करने लगी ॥ १५ ॥

इस प्रकार देवता और असुरों के समुद्र-मन्थन करने पर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजित भगवान समुद्र-मन्थन करने लगे ॥ १६ ॥ मेघ के समान साँवले शरीर पर सुनहला पीताम्बर, कानों में बिजली के समान चमकते हुए कुण्डल, सिर पर लहराते हुए घुँघराले बाल, नेत्रों में लाल-लाल रेखाएँ और गले में वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत को अभयदान करनेवाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डों से वासुकिनाग को पकडक़र तथा कूर्मरूप से पर्वत को धारणकर जब भगवान मन्दराचल की मथानी से समुद्रमन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराज के समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे ॥ १७ ॥ जब अजित भगवान ने इस प्रकार समुद्र-मन्थन किया, तब समुद्र में बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊ पर आ गये और इधर-उधर भाग ने लगे। तिमि-तिमिङ्गिल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हालाहल नाम का अत्यन्त उग्र विष निकला ॥ १८ ॥ वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशा में, ऊपर-नीचे सर्वत्र उडऩे और फैल ने लगा। इस असह्य विष से बच ने का कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसी के द्वारा त्राण न मिलने पर भगवान सदाशिव की शरण में गये ॥ १९ ॥ भगवान शङ्कर सतीजी के साथ कैलास पर्वत पर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकों के अभ्युदय और मोक्ष के लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियों ने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया ॥ २० ॥

प्रजापतियों ने भगवान शङ्कर की स्तुति की—देवताओं के आराध्यदेव महादेव ! आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हमलोग आपकी शरण में आये हैं। त्रिलो की को भस्म करनेवाले इस उग्र विष से आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ २१ ॥ सारे जगत को बाँध ने और मुक्त करने में एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवे की पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागत की पीड़ा नष्ट करनेवाले एवं जगद्गुरु हैं ॥ २२ ॥ प्रभो ! अपनी गुणमयी शक्ति से इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करने के लिये आप अनन्त, एकरस होने पर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं ॥ २३ ॥ आप स्वयंप्रकाश हैं। इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं। जित ने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैं—उन को जीवनदान देनेवाले आप ही हैं। आपके अतिरिक्त सृष्टि भी और कुछ नहीं है। क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियों के द्वारा आप ही जगतरूप में भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं ॥ २४ ॥ समस्त वेद आप से ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानों के मूल स्रोत स्वत:सिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पञ्चमहाभूत तथा शब्दादि विषयों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियों की वृद्धि और ह्रास करनेवाले काल हैं, उनका कल्याण करनेवाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही ‘अ, उ, म्’ इन तीनों अक्षरों से युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मि का प्रकृति हैं—ऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं ॥ २५ ॥ सर्वदेव स्वरूप अग्रि आपका मुख है। तीनों लोकों के अभ्युदय करनेवाले शङ्कर ! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देव स्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है ॥ २६ ॥ आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवों का आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो ! स्वर्ग आपका सिर है ॥ २७ ॥ वेद स्वरूप भगवन् ! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ हैं। सब प्रकार की ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकार के धर्म आपके हृदय हैं ॥ २८ ॥ स्वामिन् ! सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हींके पदच्छेद से अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपञ्च से उपरत होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थिति का नाम होता है ‘शिव’। वास्तव में वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है ॥ २९ ॥ अधर्म की दम्भ-लोभ आदि तरङ्गों में आपकी छाया है जिन से विविध प्रकार की सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तम—आपके तीन नेत्र हैं। प्रभो ! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रों के रूप में स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं ॥ ३० ॥ भगवन् ! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकार का भेदभाव ही। आपके उस स्वरूप को सारे लोकपाल—यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते ॥ ३१ ॥ आपने कामदेव, दक्ष के यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिस को आप अभी-अभी अवश्य पी जायँगे) और अनेक जीवद्रोही असुरों को नष्ट कर दिया है। परंतु यह कह ने से आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलय के समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्र से निकली हुई आग की चिनगारी एवं लपट से जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्र रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता ॥ ३२ ॥ जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदय में आपके युगल चरणों का ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्या में ही लीन रहते हैं। फिर भी सती के साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होने के कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैं—वे मूर्ख आपकी लीलाओं का रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जता से भरा है ॥ ३३ ॥ इस कार्य और कारणरूप जगत से परे माया है और माया से भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो ! आपके अनन्त स्वरूप का साक्षात ज्ञान प्राप्त करने में सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्था में उनके पुत्रों के पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार हम ने आपका कुछ गुणगान किया है ॥ ३४ ॥ हमलोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूप को देख रहे हैं। आपके परम स्वरूप को हम नहीं जानते। महेश्वर ! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसार का कल्याण करने के लिये आप व्यक्तरूप से भी रहते हैं ॥ ३५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! प्रजा का यह संकट देखकर समस्त प्राणियों के अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान शङ्करके हृदय में कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सती से यह बात कही ॥ ३६ ॥

शिवजी ने कहा—देवि ! यह बड़े खेद की बात है। देखो तो सही, समुद्र-मन्थन से निकले हुए कालकूट विष के कारण प्रजा पर कितना बड़ा दु:ख आ पड़ा है ॥ ३७ ॥ ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणों की रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामथ्र्य है, उनके जीवन की सफलता इसी में है कि वे दीन-दु:खियों की रक्षा करें ॥ ३८ ॥ सज्जन पुरुष अपने क्षणभङ्गुर प्राणों की बलि देकर भी दूसरे प्राणियों के प्राण की रक्षा करते हैं। कल्याणि ! अपने ही मोह की माया में फँसकर संसार के प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक- दूसरे से वैर की गाँठ बाँधे बैठे हैं ॥ ३९ ॥ उनके ऊ पर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विष को भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजा का कल्याण हो ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—विश्व के जीवनदाता भगवान शङ्कर इस प्रकार सती देवी से प्रस्ताव करके उस विष को खा ने के लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदय से इस बात का अनुमोदन किया ॥ ४१ ॥ भगवान शङ्कर बड़े कृपालु हैं। उन्हीं की शक्ति से समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हालाहल विष को अपनी हथेली पर उठाया और भक्षण कर गये ॥ ४२ ॥ वह विष जल का पाप—मल था। उसने शङ्करजी पर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परंतु वह तो प्रजा का कल्याण करनेवाले भगवानशङ्करके लिये भूषणरूप हो गया ॥ ४३ ॥ परोपकारी सज्जन प्राय: प्रजा का दु:ख टाल ने के लिये स्वयं दु:ख झेला ही करते हैं। परंतु यह दु:ख नहीं है, यह तो सब के हृदय में विराजमान भगवान की परम आराधना है ॥ ४४ ॥

देवाधिदेव भगवान शङ्कर सब की कामना पूर्ण करनेवाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्माजी और स्वयं विष्णुभगवान भी उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ ४५ ॥ जिस समय भगवान शङ्कर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथ से थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवों ने एवं विषैली ओषधियों ने ग्रहण कर लिया ॥ ४६ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-08]

॥ अष्टमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
पीते गरे वृषाङ्केण प्रीतास्तेऽमरदानवाः ।
ममन्थुस्तरसा सिन्धुं हविर्धानी ततोऽभवत् ॥ १॥

तामग्निहोत्रीमृषयो जगृहुर्ब्रह्मवादिनः ।
यज्ञस्य देवयानस्य मेध्याय हविषे नृप ॥ २॥

तत उच्चैःश्रवा नाम हयोऽभूच्चन्द्रपाण्डुरः ।
तस्मिन् बलिः स्पृहां चक्रे नेन्द्र ईश्वरशिक्षया ॥ ३॥

तत ऐरावतो नाम वारणेन्द्रो विनिर्गतः ।
दन्तैश्चतुर्भिः श्वेताद्रेर्हरन् भगवतो महिम् ॥ ४॥

(ऐरावणादयस्त्वष्टौ दिग्गजा अभवंस्ततः ।
अभ्रप्रभृतयोऽष्टौ च करिण्यस्त्वभवन् नृप ॥)
कौस्तुभाख्यमभूद्रत्नं पद्मरागो महोदधेः ।
तस्मिन् हरिः स्पृहां चक्रे वक्षोऽलङ्करणे मणौ ॥ ५॥

ततोऽभवत्पारिजातः सुरलोकविभूषणम् ।
पूरयत्यर्थिनो योऽर्थैः शश्वद्भुवि यथा भवान् ॥ ६॥

ततश्चाप्सरसो जाता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ।
रमण्यः स्वर्गिणां वल्गुगतिलीलावलोकनैः ॥ ७॥

ततश्चाविरभूत्साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा ।
रञ्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत्सौदामनी यथा ॥ ८॥

तस्यां चक्रुः स्पृहां सर्वे ससुरासुरमानवाः ।
रूपौदार्यवयोवर्णमहिमाक्षिप्तचेतसः ॥ ९॥

तस्या आसनमानिन्ये महेन्द्रो महदद्भुतम् ।
मूर्तिमत्यः सरिच्छ्रेष्ठा हेमकुम्भैर्जलं शुचि ॥ १०॥

आभिषेचनिका भूमिराहरत्सकलौषधीः ।
गावः पञ्च पवित्राणि वसन्तो मधुमाधवौ ॥ ११॥

ऋषयः कल्पयांचक्रुरभिषेकं यथाविधि ।
जगुर्भद्राणि गन्धर्वा नट्यश्च ननृतुर्जगुः ॥ १२॥

मेघा मृदङ्गपणवमुरजानकगोमुखान् ।
व्यनादयन् शङ्खवेणुवीणास्तुमुलनिःस्वनान् ॥ १३॥

ततोऽभिषिषिचुर्देवीं श्रियं पद्मकरां सतीम् ।
दिगिभाः पूर्णकलशैः सूक्तवाक्यैर्द्विजेरितैः ॥ १४॥

समुद्रः पीतकौशेयवाससी समुपाहरत् ।
वरुणः स्रजं वैजयन्तीं मधुना मत्तषट् पदाम् ॥ १५॥

भूषणानि विचित्राणि विश्वकर्मा प्रजापतिः ।
हारं सरस्वती पद्ममजो नागाश्च कुण्डले ॥ १६॥

ततः कृतस्वस्त्ययनोत्पलस्रजं
नदद्द्विरेफां परिगृह्य पाणिना ।
चचाल वक्त्रं सुकपोलकुण्डलं
सव्रीडहासं दधती सुशोभनम् ॥ १७॥

स्तनद्वयं चातिकृशोदरी समं
निरन्तरं चन्दनकुङ्कुमोक्षितम् ।
ततस्ततो नूपुरवल्गुशिञ्जितै-
र्विसर्पती हेमलतेव सा बभौ ॥ १८॥

विलोकयन्ती निरवद्यमात्मनः
पदं ध्रुवं चाव्यभिचारिसद्गुणम् ।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धचारण-
त्रैविष्टपेयादिषु नान्वविन्दत ॥ १९॥

नूनं तपो यस्य न मन्युनिर्जयो
ज्ञानं क्वचित्तच्च न सङ्गवर्जितम् ।
कश्चिन्महांस्तस्य न कामनिर्जयः
स ईश्वरः किं परतो व्यपाश्रयः ॥ २०॥

धर्मः क्वचित्तत्र न भूतसौहृदं
त्यागः क्वचित्तत्र न मुक्तिकारणम् ।
वीर्यं न पुंसोऽस्त्यजवेगनिष्कृतं
न हि द्वितीयो गुणसङ्गवर्जितः ॥ २१॥

क्वचिच्चिरायुर्न हि शीलमङ्गलं
क्वचित्तदप्यस्ति न वेद्यमायुषः ।
यत्रोभयं कुत्र च सोऽप्यमङ्गलः
सुमङ्गलः कश्च न काङ्क्षते हि माम् ॥ २२॥

एवं विमृश्याव्यभिचारिसद्गुणैर्वरं
निजैकाश्रयतागुणाश्रयम् ।
वव्रे वरं सर्वगुणैरपेक्षितं
रमा मुकुन्दं निरपेक्षमीप्सितम् ॥ २३॥
तस्यांसदेश उशतीं नवकञ्जमालां
माद्यन्मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टाम् ।
तस्थौ निधाय निकटे तदुरः स्वधाम
सव्रीडहासविकसन्नयनेन याता ॥ २४॥

तस्याः श्रियस्त्रिजगतो जनको जनन्या
वक्षो निवासमकरोत्परमं विभूतेः ।
श्रीः स्वाः प्रजाः सकरुणेन निरीक्षणेन
यत्र स्थितैधयत साधिपतींस्त्रिलोकान् ॥ २५॥

शङ्खतूर्यमृदङ्गानां वादित्राणां पृथुः स्वनः ।
देवानुगानां सस्त्रीणां नृत्यतां गायतामभूत् ॥ २६॥

ब्रह्मरुद्राङ्गिरोमुख्याः सर्वे विश्वसृजो विभुम् ।
ईडिरेऽवितथैर्मन्त्रैस्तल्लिङ्गैः पुष्पवर्षिणः ॥ २७॥

श्रिया विलोकिता देवाः सप्रजापतयः प्रजाः ।
शीलादिगुणसम्पन्ना लेभिरे निर्वृतिं पराम् ॥ २८॥

निःसत्त्वा लोलुपा राजन् निरुद्योगा गतत्रपाः ।
यदा चोपेक्षिता लक्ष्म्या बभूवुर्दैत्यदानवाः ॥ २९॥

अथासीद्वारुणी देवी कन्या कमललोचना ।
असुरा जगृहुस्तां वै हरेरनुमतेन ते ॥ ३०॥

अथोदधेर्मथ्यमानात्काश्यपैरमृतार्थिभिः ।
उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः ॥ ३१॥ स गो ना सं गो गो
दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः ।
श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः ॥ ३२॥

पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः ।
स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः ॥ ३३॥

अमृतापूर्णकलशं बिभ्रद्वलयभूषितः ।
स वै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः ॥ ३४॥

धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददृगिज्यभाक् ।
तमालोक्यासुराः सर्वे कलशं चामृताभृतम् ॥ ३५॥

लिप्सन्तः सर्ववस्तूनि कलशं तरसाहरन् ।
नीयमानेऽसुरैस्तस्मिन् कलशेऽमृतभाजने ॥ ३६॥

विषण्णमनसो देवा हरिं शरणमाययुः ।
इति तद्दैन्यमालोक्य भगवान् भृत्यकामकृत् ।
मा खिद्यत मिथोऽर्थं वः साधयिष्ये स्वमायया ॥ ३७॥

मिथः कलिरभूत्तेषां तदर्थे तर्षचेतसाम् ।
अहं पूर्वमहं पूर्वं न त्वं न त्वमिति प्रभो ॥ ३८॥

देवाः स्वं भागमर्हन्ति ये तुल्यायासहेतवः ।
सत्रयाग इवैतस्मिन्नेष धर्मः सनातनः ॥ ३९॥

इति स्वान् प्रत्यषेधन् वै दैतेया जातमत्सराः ।
दुर्बलाः प्रबलान् राजन् गृहीतकलशान् मुहुः ॥ ४०॥

एतस्मिन्नन्तरे विष्णुः सर्वोपायविदीश्वरः ।
योषिद्रूपमनिर्देश्यं दधार परमाद्भुतम् ॥ ४१॥- सगोनासंगोगो
प्रेक्षणीयोत्पलश्यामं सर्वावयवसुन्दरम् ।
समानकर्णाभरणं सुकपोलोन्नसाननम् ॥ ४२॥

नवयौवननिर्वृत्तस्तनभारकृशोदरम् ।
मुखामोदानुरक्तालि झङ्कारोद्विग्नलोचनम् ॥ ४३॥

बिभ्रत्स्वकेशभारेण मालामुत्फुल्लमल्लिकाम् ।
सुग्रीवकण्ठाभरणं सुभुजाङ्गदभूषितम् ॥ ४४॥

विरजाम्बरसंवीतनितम्बद्वीपशोभया ।
काञ्च्या प्रविलसद्वल्गुचलच्चरणनूपुरम् ॥ ४५॥

सव्रीडस्मितविक्षिप्तभ्रूविलासावलोकनैः ।
दैत्ययूथपचेतःसु काममुद्दीपयन् मुहुः ॥ ४६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे भगवन्मायोपलम्भनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥


अष्टम स्कन्ध-आठवाँ अध्याय 
समुद्र से अमृत का प्रकट होना और भगवान का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार जब भगवान शङ्करने विष पी लिया, तब देवता और असुरों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साह से समुद्र मथ ने लगे। तब समुद्र से कामधेनु प्रकट हुई ॥ १ ॥ वह अग्रिहोत्र की सामग्री उत्पन्न करनेवाली थी। इसलिये ब्रह्मलोक तक पहुँचानेवाले यज्ञ के लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिये ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण किया ॥ २ ॥ उसके बाद उच्चै:श्रवा नाम का घोड़ा निकला। वह चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण का था। बलि ने उसे लेने की इच्छा प्रकट की। इन्द्र ने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान ने उन्हें पहले से ही सिखा रखा था ॥ ३ ॥ तदनन्तर ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े-बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वलवर्ण कैलास की शोभा को भी मात करते थे ॥ ४ ॥ तत्पश्चात कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्र से निकली। उस मणि को अपने हृदय पर धारण करने के लिये अजित भगवान ने लेना चाहा ॥ ५ ॥ परीक्षित ! इसके बाद स्वर्गलोक की शोभा बढ़ानेवाला कल्पवृक्ष निकला। वह याचकों की इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वी पर तुम सब की इच्छाएँ पूर्ण करते हो ॥ ६ ॥ तत्पश्चात अप्सराएँ प्रकट हुर्ईं। वे सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं गले में स्वर्ण-हार पह ने हुए थीं। वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवन से देवताओं को सुख पहुँचानेवाली हुर्ईं ॥ ७ ॥ इसके बाद शोभा की मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुर्ईं। वे भगवान की नित्यशक्ति हैं। उनकी बिजली के समान चमकीली छटा से दिशाएँ जगमगा उठीं ॥ ८ ॥ उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा से सब का चित्त खिंच गया। देवता, असुर, मनुष्य—सभी ने चाहा कि ये हमें मिल जायँ ॥ ९ ॥ स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठ ने के लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियों ने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेक के लिये सो ने के घड़ों में भर-भरकर पवित्र जल ला दिया ॥ १० ॥ पृथ्वी ने अभिषेक के योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओं ने पञ्चगव्य और वसन्त ऋतु ने चैत्र-वैशाख में होनेवाले सब फूल-फल उपस्थित कर दिये ॥ ११ ॥ इन सामग्रियों से ऋषियों ने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया। गन्धर्वों ने मङ्गलमय संगीत की तान छेड़ दी। नर्तकियाँ नाच-नाचकर गा ने लगीं ॥ १२ ॥ बादल सदेह होकर मृदङ्ग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शङ्ख, वेणु और वीणा बड़े जोर से बजाने लगे ॥ १३ ॥ तब भगवती लक्ष्मीदेवी हाथ में कमल लेकर सिंहासन पर विराजमान हो गयीं। दिग्गजों ने जल से भरे कलशों से उन को स्नान कराया। उस समय ब्राह्मणगण वेदमन्त्रों का पाठ कर रहे थे ॥ १४ ॥ समुद्र ने पीले रेशमी वस्त्र उन को पहन ने के लिये दिये। वरुण ने ऐसी वैजयन्ती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्ध से भौरे मतवाले हो रहे थे ॥ १५ ॥ प्रजापति विश्वकर्माने भाँति-भाँति के गहने, सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्माजी ने कमल और नागों ने दो कुण्डल समर्पित किये ॥ १६ ॥

इसके बाद लक्ष्मीजी ब्राह्मणों के स्वस्त्ययन-पाठ कर चुकने पर अपने हाथों में कमल की माला लेकर उसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुष के गले में डालने चलीं। माला के आसपास उसकी सुगन्ध से मतवाले हुए भौंरे गुंजार कर रहे थे। उस समय लक्ष्मीजी के मुख की शोभा अवर्णनीय हो रही थी। सुन्दर कपोलों पर कुण्डल लटक रहे थे। लक्ष्मीजी कुछ लज्जा के साथ मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं ॥ १७ ॥ उनकी कमर बहुत पतली थी। दोनों स्तन बिलकुल सटे हुए और सुन्दर थे। उन पर चन्दन और केसर का लेप किया हुआ था। जब वे इधर-उधर चलती थीं, तब उनके पायजेब से बड़ी मधुर झनकार निकलती थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई सो ने की लता इधर-उधर घूम-फिर रही है ॥ १८ ॥ वे चाहती थीं कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणों से नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ। परंतु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदि में कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला ॥ १९ ॥ (वे मन-ही-मन सोच ने लगीं कि) कोई तपस्वी तो हैं, परंतु उन्होंने क्रोध पर विजय नहीं प्राप्त की है। किन्हीं में ज्ञान तो है, परंतु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई- कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परंतु वे काम को नहीं जीत सके हैं। किन्हीं में ऐश्वर्य भी बहुत है; परंतु वह ऐश्वर्य ही किस कामका, जब उन्हें दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है ॥ २० ॥ किन्हीं में धर्माचरण तो है; परंतु प्राणियों के प्रति वे प्रेम का पूरा बर्ताव नहीं करते। त्याग तो है, परंतु केवल त्याग ही तो मुक्ति का कारण नहीं है। किन्हीं-किन्हीं में वीरता तो अवश्य है, परंतु वे भी काल के पंजे से बाहर नहीं हैं। अवश्य ही कुछ महात्माओं में विषयासक्ति नहीं है, परंतु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधि में ही तल्लीन रहते हैं ॥ २१ ॥ किसी-किसी ऋषि ने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परंतु उनका शील-मङ्गल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हीं में शील-मङ्गल भी है परंतु उनकी आयु का कुछ ठिकाना नहीं। अवश्य ही किन्हीं में दोनों ही बातें हैं, परंतु वे अमङ्गल-वेष में रहते हैं। रहे एक भगवान विष्णु। उनमें सभी मङ्गलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परंतु वे मुझे चाहते ही नहीं ॥ २२ ॥

इस प्रकार सोच-विचारकर अन्त में श्रीलक्ष्मीजी ने अपने चिर अभीष्ट भगवान को ही वर के रूप में चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उन को चाहा करते हैं; परंतु वे किसी की भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तव में लक्ष्मीजी के एकमात्र आश्रय भगवान ही हैं। इसीसे उन्होंने उन्हीं को वरण किया ॥ २३ ॥ लक्ष्मीजी ने भगवान के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवन से अपने निवासस्थान उनके वक्ष:स्थल को देखती हुर्ईं वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं ॥ २४ ॥ जगतपिता भगवान ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठातृ-देवता श्रीलक्ष्मीजी को अपने वक्ष:स्थल पर ही सर्वदा निवास करने का स्थान दिया। लक्ष्मीजी ने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणाभरी चितवन से तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजा की अभिवृद्धि की ॥ २५ ॥ उस समय शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग आदि बाजे बज ने लगे। गन्धर्व अप्सराओं के साथ नाचने-गा ने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा ॥ २६ ॥ ब्रह्मा, रुद्र, अङ्गिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान के गुण, स्वरूप और लीला आदि के यथार्थ वर्णन करनेवाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २७ ॥ देवता, प्रजापति और प्रजा—सभी लक्ष्मीजी की कृपादृष्टि से शील आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये ॥ २८ ॥ परीक्षित ! इधर जब लक्ष्मीजी ने दैत्य और दानवों की उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये ॥ २९ ॥

इसके बाद समुद्रमन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुर्ईं। भगवान की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया ॥ ३० ॥ तदनन्तर महाराज ! देवता और असुरों ने अमृत की इच्छा से जब और भी समुद्रमन्थन किया, तब उसमें से एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ ॥ ३१ ॥ उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थीं। उसका गला शङ्ख के समान उतार-चढ़ाववाला था और आँखों में लालिमा थी। शरीर का रंग बड़ा सुन्दर साँवला-साँवला था। गले में माला, अङ्ग-अङ्ग सब प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित, शरीर पर पीताम्बर, कानों में चमकीले मणियों के कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंह के समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिक ने और घुँघराले बाल लहराते हुए उस पुरुष की छबि बड़ी अनोखी थी ॥ ३२-३३ ॥ उसके हाथों में कंगन और अमृत से भरा हुआ कलश था। वह साक्षात विष्णुभगवान के अंशांश अवतार थे ॥ ३४ ॥ वे ही आयुर्वेद के प्रवर् तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरि के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। जब दैत्यों की दृष्टि उन पर तथा उनके हाथ में अमृत से भरे हुए कलश- पर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रता से बलात् उस अमृत के कलश को छीन लिया। वे तो पहले से ही इस ताक में थे कि किसी तरह समुद्रमन्थन से निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायँ। जब असुर उस अमृत से भरे कलश को छीन ले गये, तब देवताओं का मन विषाद से भर गया। अब वे भगवान की शरण में आये। उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान ने कहा—‘देवताओ ! तुमलोग खेद मत करो। मैं अपनी माया से उनमें आपस की फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ’ ॥ ३५—३७ ॥

परीक्षित ! अमृतलोलुप दैत्यों में उसके लिये आपस में झगड़ा खड़ा हो गया। सभी कह ने लगे ‘पहले मैं पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं’ ॥ ३८ ॥ उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्यों का विरोध करने लगे, जिन्हों ने कलश छीनकर अपने हाथ में कर लिया था, वे ईष्र्यावश धर्म की दुहाई देकर उन को रोक ने और बार-बार कह ने लगे कि ‘भाई ! देवताओं ने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उन को भी यज्ञभाग के समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही सनातनधर्म है’ ॥ ३९-४० ॥ इस प्रकार इधर दैत्यों में ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो रही थी और उधर सभी उपाय जानने- वालों के स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान ने अत्यन्त अद्भुत और अवर्णनीय स्त्री का रूप धारण किया ॥ ४१ ॥ शरीर का रंग नील कमल के समान श्याम एवं देखने ही योग्य था। अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूल से सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासि का और रमणीय मुख ॥ ४२ ॥ नयी जवानी के कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हींके भार से कमर पतली हो गयी थी। मुख से निकलती हुई सुगन्ध के प्रेम से गुनगुनाते हुए भौंरे उसपर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रों में कुछ घबराहट का भाव आ जाता था ॥ ४३ ॥ अपने लंबे केशपाशों में उन्होंने खिले हुए बेले के पुष्पों की माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गले में कण्ठ के आभूषण और सुन्दर भुजाओं में बाजूबंद सुशोभित थे ॥ ४४ ॥ इनके चरणों के नूपुर मधुर ध्वनि से रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ी से ढ के नितम्बद्वीप पर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिट का रही थी ॥ ४५ ॥ अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलासभरी चितवन से मोहिनी-रूपधारी भगवान दैत्यसेनापतियों के चित्त में बार-बार कामोद्दीपन करने लगे ॥ ४६ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-09]

॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
श्रीशुक उवाच
तेऽन्योन्यतोऽसुराः पात्रं हरन्तस्त्यक्तसौहृदाः ।
क्षिपन्तो दस्युधर्माण आयान्तीं ददृशुः स्त्रियम् ॥ १॥
अहो रूपमहो धाम अहो अस्या नवं वयः ।
इति ते तामभिद्रुत्य पप्रच्छुर्जातहृच्छयाः ॥ २॥

का त्वं कञ्जपलाशाक्षि कुतो वा किं चिकीर्षसि ।
कस्यासि वद वामोरु मथ्नन्तीव मनांसि नः ॥ ३॥

न वयं त्वामरैर्दैत्यैः सिद्धगन्धर्वचारणैः ।
नास्पृष्टपूर्वां जानीमो लोकेशैश्च कुतो नृभिः ॥ ४॥

नूनं त्वं विधिना सुभ्रूः प्रेषितासि शरीरिणाम् ।
सर्वेन्द्रियमनःप्रीतिं विधातुं सघृणेन किम् ॥ ५॥

सा त्वं नः स्पर्धमानानामेकवस्तुनि मानिनि ।
ज्ञातीनां बद्धवैराणां शं विधत्स्व सुमध्यमे ॥ ६॥

वयं कश्यपदायादा भ्रातरः कृतपौरुषाः ।
विभजस्व यथान्यायं नैव भेदो यथा भवेत् ॥ ७॥

इत्युपामन्त्रितो दैत्यैर्मायायोषिद्वपुर्हरिः ।
प्रहस्य रुचिरापाङ्गैर्निरीक्षन्निदमब्रवीत् ॥ ८॥

श्रीभगवानुवाच
कथं कश्यपदायादाः पुंश्चल्यां मयि सङ्गताः ।
विश्वासं पण्डितो जातु कामिनीषु न याति हि ॥ ९॥

सालावृकाणां स्त्रीणां च स्वैरिणीनां सुरद्विषः ।
सख्यान्याहुरनित्यानि नूत्नं नूत्नं विचिन्वताम् ॥ १०॥

श्रीशुक उवाच
इति ते क्ष्वेलितैस्तस्या आश्वस्तमनसोऽसुराः ।
जहसुर्भावगम्भीरं ददुश्चामृतभाजनम् ॥ ११॥

ततो गृहीत्वामृतभाजनं हरिर्बभाष
ईषत्स्मितशोभया गिरा ।
यद्यभ्युपेतं क्व च साध्वसाधु वा
कृतं मया वो विभजे सुधामिमाम् ॥ १२॥

इत्यभिव्याहृतं तस्या आकर्ण्यासुरपुङ्गवाः ।
अप्रमाणविदस्तस्यास्तत्तथेत्यन्वमंसत ॥ १३॥

अथोपोष्य कृतस्नाना हुत्वा च हविषानलम् ।
दत्त्वा गोविप्रभूतेभ्यः कृतस्वस्त्ययना द्विजैः ॥ १४॥

यथोपजोषं वासांसि परिधायाहतानि ते ।
कुशेषु प्राविशन् सर्वे प्रागग्रेष्वभिभूषिताः ॥ १५॥

प्राङ्मुखेषूपविष्टेषु सुरेषु दितिजेषु च ।
धूपामोदितशालायां जुष्टायां माल्यदीपकैः ॥ १६॥

तस्यां नरेन्द्र करभोरुरुशद्दुकूल-
श्रोणीतटालसगतिर्मदविह्वलाक्षी ।
सा कूजती कनकनूपुरशिञ्जितेन
कुम्भस्तनी कलशपाणिरथाविवेश ॥ १७॥

तां श्रीसखीं कनककुण्डलचारुकर्ण-
नासाकपोलवदनां परदेवताख्याम् ।
संवीक्ष्य सम्मुमुहुरुत्स्मितवीक्षणेन
देवासुरा विगलितस्तनपट्टिकान्ताम् ॥ १८॥

असुराणां सुधादानं सर्पाणामिव दुर्नयम् ।
मत्वा जातिनृशंसानां न तां व्यभजदच्युतः ॥ १९॥

कल्पयित्वा पृथक् पङ्क्तीरुभयेषां जगत्पतिः ।
तांश्चोपवेशयामास स्वेषु स्वेषु च पङ्क्तिषु ॥ २०॥

दैत्यान् गृहीतकलशो वञ्चयन्नुपसञ्चरैः ।
दूरस्थान् पाययामास जरामृत्युहरां सुधाम् ॥ २१॥

ते पालयन्तः समयमसुराः स्वकृतं नृप ।
तूष्णीमासन् कृतस्नेहाः स्त्रीविवादजुगुप्सया ॥ २२॥

तस्यां कृतातिप्रणयाः प्रणयापायकातराः ।
बहुमानेन चाबद्धा नोचुः किञ्चन विप्रियम् ॥ २३॥

देवलिङ्गप्रतिच्छन्नः स्वर्भानुर्देवसंसदि ।
प्रविष्टः सोममपिबच्चन्द्रार्काभ्यां च सूचितः ॥ २४॥

चक्रेण क्षुरधारेण जहार पिबतः शिरः ।
हरिस्तस्य कबन्धस्तु सुधयाऽऽप्लावितोऽपतत् ॥ २५॥

शिरस्त्वमरतां नीतमजो ग्रहमचीकॢपत् ।
यस्तु पर्वणि चन्द्रार्कावभिधावति वैरधीः ॥ २६॥

पीतप्रायेऽमृते देवैर्भगवान् लोकभावनः ।
पश्यतामसुरेन्द्राणां स्वं रूपं जगृहे हरिः ॥ २७॥

एवं सुरासुरगणाः समदेशकाल-
हेत्वर्थकर्ममतयोऽपि फले विकल्पाः ।
तत्रामृतं सुरगणाः फलमञ्जसाऽऽपु-
र्यत्पादपङ्कजरजःश्रयणान्न दैत्याः ॥ २८॥

यद्युज्यतेऽसुवसुकर्ममनोवचोभि-
र्देहात्मजादिषु नृभिस्तदसत्पृथक्त्वात् ।
तैरेव सद्भवति यत्क्रियतेऽपृथक्त्वात्सर्वस्य
तद्भवति मूलनिषेचनं यत् ॥ २९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अमृतमथने नवमोऽध्यायः ॥ ९॥


अष्टम स्कन्ध-नवाँ अध्याय 
मोहिनीरूप से भगवान के द्वारा अमृत बाँटा जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! असुर आपसके सद्भाव और प्रेम को छोडक़र एक-दूसरे की निन्दा कर रहे थे और डाकू की तरह एक-दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे। इसी बीच में उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही है ॥ १ ॥ वे सोच ने लगे—‘कैसा अनुपम सौन्दर्य है। शरीर में से कितनी अद्भुत छटा छिटक रही है ! तनिक इस की नयी उम्र तो देखो !’ बस, अब वे आपस की लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये। उन लोगों ने काममोहित होकर उससे पूछा— ॥ २ ॥ ‘कमलनयनी ! तुम कौन हो ? कहाँ से आ रही हो ? क्या करना चाहती हो ? सुन्दरी ! तुम किस की कन्या हो ? तुम्हें देखकर हमारे मन में खलबली मच गयी है ॥ ३ ॥ हम समझते हैं कि अब तक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालों ने भी तुम्हें स्पर्श तक न किया होगा। फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू पाते ? ॥ ४ ॥ सुन्दरी ! अवश्य ही विधाता ने दया करके शरीरधारियों की सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिये तुम्हें यहाँ भेजा है ॥ ५ ॥ मानिनी ! वैसे हमलोग एक ही जाति के हैं। फिर भी हम सब एक ही वस्तु चाह रहे हैं, इसलिये हम में डाह और वैर की गाँठ पड़ गयी है। सुन्दरी ! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो ॥ ६ ॥ हम सभी कश्यपजी के पुत्र होने के नाते सगे भाई हैं। हमलोगोंने अमृत के लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्याय के अनुसार निष्पक्षभाव से इसे बाँट दो, जिससे फिर हमलोगों में किसी प्रकार का झगड़ा न हो’ ॥ ७ ॥ असुरों ने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब लीला से स्त्री-वेष धारण करनेवाले भगवान ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा ॥ ८ ॥

श्रीभगवान ने कहा—आपलोग महर्षि कश्यप के पुत्र हैं और मैं हूँ कुलटा। आपलोग मुझ पर न्याय का भार क्यों डाल रहे हैं ? विवे की पुरुष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करते ॥ ९ ॥ दैत्यो ! कुत्ते और व्यभिचारिणी स्त्रियों की मित्रता स्थायी नहीं होती। वे दोनों ही सदा नये-नये शिकार ढूँढ़ा करते हैं ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मोहिनी की परिहासभरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी विश्वास हो गया। उन लोगों ने रहस्यपूर्ण भाव से हँसकर अमृत का कलश मोहिनी के हाथ में दे दिया ॥ ११ ॥ भगवान ने अमृत का कलश अपने हाथ में लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी वाणी से कहा—‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुमलोगों को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ’ ॥ १२ ॥ बड़े-बड़े दैत्यों ने मोहिनी की यह मीठी बात सुनकर उसकी बारी की नहीं समझी, इसलिये सबने एक स्वर से कह दिया ‘स्वीकार है।’ इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनी के वास्तविक स्वरूप का पता नहीं था ॥ १३ ॥

इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया। हविष्य से अग्रि में हवन किया। गौ, ब्राह्मण और समस्त प्राणियों को घास-चारा, अन्न-धनादि का यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणों से स्वस्त्ययन कराया ॥ १४ ॥ अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके सब-के-सब उन कुशासनों पर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था ॥ १५ ॥ जब देवता और दैत्य दोनों ही धूप से सुगन्धित, मालाओं और दीपकों से सजे-सजाये भव्य भवन में पूर्व की ओर मुँह करके बैठ गये, तब हाथ में अमृत का कलश लेकर मोहिनी सभा मण्डप में आयी। वह एक बड़ी सुन्दर साड़ी पह ने हुए थी। नितम्बों के भार के कारण वह धीरे-धीरे चल रही थी। आँखें मद से विह्वल हो रही थीं। कलश के समान स्तन और गजशावक की सूँडक़े समान जङ्घाएँ थीं। उसके स्वर्णनूपुर अपनी झनकार से सभाभवन को मुखरित कर रहे थे ॥ १६-१७ ॥ सुन्दर कानों में सो ने के कुण्डल थे और उसकी नासिका, कपोल तथा मुख बड़े ही सुन्दर थे। स्वयं परदेवता भगवान मोहिनी के रूप में ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीजी की कोई श्रेष्ठ सखी वहाँ आ गयी हो। मोहिनी ने अपनी मुसकानभरी चितवन से देवता और दैत्यों की ओर देखा, तो वे सब-के-सब मोहित हो गये। उस समय उनके स्तनों पर से अञ्चल कुछ खिसक गया था ॥ १८ ॥ भगवान ने मोहिनीरूप में यह विचार किया कि असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वभाववाले हैं। इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिला ने के समान बड़ा अन्याय होगा। इसलिये उन्होंने असुरों को अमृत में भाग नहीं दिया ॥ १९ ॥ भगवान ने देवता और असुरों की अलग-अलग पंक्तियाँ बना दीं और फिर दोनों को कतार बाँधकर अपने-अपने दल में बैठा दिया ॥ २० ॥ इसके बाद अमृत का कलश हाथ में लेकर भगवान दैत्यों के पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्ष से मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओं के पास आ गये तथा उन्हें अमृत पिला ने लगे, जिसे पी लेने पर बुढ़ापे और मृत्यु का नाश हो जाता है ॥ २१ ॥ परीक्षित ! असुर अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन कर रहे थे। उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्री से झगडऩे में अपनी निन्दा भी समझते थे। इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे ॥ २२ ॥ मोहिनी में उनका अत्यन्त प्रेम हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम-सम्बन्ध टूट न जाय। मोहिनी ने भी पहले उन लोगों का बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बँध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनी को कोई अप्रिय बात नहीं कही ॥ २३ ॥

जिस समय भगवान देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओं का वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परंतु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्य ने उसकी पोल खोल दी ॥ २४ ॥ अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान ने अपने तीखी धारवाले चक्र से उसका सिर काट डाला। अमृत का संसर्ग न होने से उसका धड़ नीचे गिर गया ॥ २५ ॥ परंतु सिर अमर हो गया और ब्रह्माजी ने उसे ‘ग्रह’ बना दिया। वही राहु पर्व के दिन (पूर्णिमा और अमावस्या को) वैर-भाव से बदला लेने के लिये चन्द्रमा तथा सूर्य पर आक्रमण किया करता है ॥ २६ ॥ जब देवताओं ने अमृत पी लिया, तब समस्त लोकों को जीवनदान करनेवाले भगवान ने बड़े-बड़े दैत्यों के सामने ही मोहिनीरूप त्यागकर अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया ॥ २७ ॥ परीक्षित ! देखो—देवता और दैत्य दोनों ने एक ही समय एक स्थान पर एक प्रयोजन तथा एक वस्तु के लिये एक विचार से एक ही कर्म किया था, परंतु फल में बड़ा भेद हो गया। उनमें से देवताओं ने बड़ी सुगमता से अपने परिश्रम का फल—अमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान के चरणकमलों की रज का आश्रय लिया था। परंतु उससे विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुरगण अमृत से वञ्चित ही रहे ॥ २८ ॥ मनुष्य अपने प्राण, धन, कर्म, मन और वाणी आदि से शरीर एवं पुत्र आदि के लिये जो कुछ करता है—वह व्यर्थ ही होता है; क्योंकि उसके मूल में भेदबुद्धि बनी रहती है। परंतु उन्हीं प्राण आदि वस्तुओं के द्वारा भगवान के लिये जो कुछ किया जाता है, वह सब भेदभाव से रहित होने के कारण अपने शरीर, पुत्र और समस्त संसार के लिये सफल हो जाता है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी दे ने से उसका तना, टहनियाँ और पत्ते— सब-के-सब सिंच जाते हैं, वैसे ही भगवान के लिये कर्म करने से वे सब के लिये हो जाते हैं ॥ २९ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-10]

॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥
श्रीशुक उवाच
इति दानवदैतेया नाविन्दन्नमृतं नृप ।
युक्ताः कर्मणि यत्ताश्च वासुदेवपराङ्मुखाः ॥ १॥

साधयित्वामृतं राजन् पाययित्वा स्वकान् सुरान् ।
पश्यतां सर्वभूतानां ययौ गरुडवाहनः ॥ २॥

सपत्नानां परामृद्धिं दृष्ट्वा ते दितिनन्दनाः ।
अमृष्यमाणा उत्पेतुर्देवान् प्रत्युद्यतायुधाः ॥ ३॥

ततः सुरगणाः सर्वे सुधया पीतयैधिताः ।
प्रतिसंयुयुधुः शस्त्रैर्नारायणपदाश्रयाः ॥ ४॥

तत्र दैवासुरो नाम रणः परमदारुणः ।
रोधस्युदन्वतो राजंस्तुमुलो रोमहर्षणः ॥ ५॥

तत्रान्योन्यं सपत्नास्ते संरब्धमनसो रणे ।
समासाद्यासिभिर्बाणैर्निजघ्नुर्विविधायुधैः ॥ ६॥

शङ्खतूर्यमृदङ्गानां भेरीडमरिणां महान् ।
हस्त्यश्वरथपत्तीनां नदतां निःस्वनोऽभवत् ॥ ७॥

रथिनो रथिभिस्तत्र पत्तिभिः सह पत्तयः ।
हया हयैरिभाश्चेभैः समसज्जन्त संयुगे ॥ ८॥

उष्ट्रैः केचिदिभैः केचिदपरे युयुधुः खरैः ।
केचिद्गौरमुखैरृक्षैर्द्वीपिभिर्हरिभिर्भटाः ॥ ९॥

गृध्रैः कङ्कैर्बकैरन्ये श्येनभासैस्तिमिङ्गिलैः ।
शरभैर्महिषैः खड्गैर्गोवृषैर्गवयारुणैः ॥ १०॥

शिवाभिराखुभिः केचित्कृकलासैः शशैर्नरैः ।
बस्तैरेके कृष्णसारैर्हंसैरन्ये च सूकरैः ॥ ११॥

अन्ये जलस्थलखगैः सत्त्वैर्विकृतविग्रहैः ।
सेनयोरुभयो राजन् विविशुस्तेऽग्रतोऽग्रतः ॥ १२॥

चित्रध्वजपटै राजन्नातपत्रैः सितामलैः ।
महाधनैर्वज्रदण्डैर्व्यजनैर्बार्हचामरैः ॥ १३॥

वातोद्धूतोत्तरोष्णीषैरर्चिर्भिर्वर्मभूषणैः ।
स्फुरद्भिर्विशदैः शस्त्रैः सुतरां सूर्यरश्मिभिः ॥ १४॥

देवदानववीराणां ध्वजिन्यौ पाण्डुनन्दन ।
रेजतुर्वीरमालाभिर्यादसामिव सागरौ ॥ १५॥

वैरोचनो बलिः सङ्ख्ये सोऽसुराणां चमूपतिः ।
यानं वैहायसं नाम कामगं मयनिर्मितम् ॥ १६॥

सर्वसाङ्ग्रामिकोपेतं सर्वाश्चर्यमयं प्रभो ।
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यं दृश्यमानमदर्शनम् ॥ १७॥

आस्थितस्तद्विमानाग्र्यं सर्वानीकाधिपैर्वृतः ।
वालव्यजनछत्राग्र्यै रेजे चन्द्र इवोदये ॥ १८॥

तस्यासन् सर्वतो यानैर्यूथानां पतयोऽसुराः ।
नमुचिः शम्बरो बाणो विप्रचित्तिरयोमुखः ॥ १९॥

द्विमूर्धा कालनाभोऽथ प्रहेतिर्हेतिरिल्वलः ।
शकुनिर्भूतसन्तापो वज्रदंष्ट्रो विरोचनः ॥ २०॥

हयग्रीवः शङ्कुशिराः कपिलो मेघदुन्दुभिः ।
तारकश्चक्रदृक् शुम्भो निशुम्भो जम्भ उत्कलः ॥ २१॥

अरिष्टोऽरिष्टनेमिश्च मयश्च त्रिपुराधिपः ।
अन्ये पौलोमकालेया निवातकवचादयः ॥ २२॥

अलब्धभागाः सोमस्य केवलं क्लेशभागिनः ।
सर्व एते रणमुखे बहुशो निर्जितामराः ॥ २३॥

सिंहनादान् विमुञ्चन्तः शङ्खान् दध्मुर्महारवान् ।
दृष्ट्वा सपत्नानुत्सिक्तान् बलभित्कुपितो भृशम् ॥ २४॥

ऐरावतं दिक्करिणमारूढः शुशुभे स्वराट् ।
यथा स्रवत्प्रस्रवणमुदयाद्रिमहर्पतिः ॥ २५॥

तस्यासन् सर्वतो देवा नानावाहध्वजायुधाः ।
लोकपालाः सह गणैर्वाय्वग्निवरुणादयः ॥ २६॥

तेऽन्योन्यमभिसंसृत्य क्षिपन्तो मर्मभिर्मिथः ।
आह्वयन्तो विशन्तोऽग्रे युयुधुर्द्वन्द्वयोधिनः ॥ २७॥

युयोध बलिरिन्द्रेण तारकेण गुहोऽस्यत ।
वरुणो हेतिनायुध्यन्मित्रो राजन् प्रहेतिना ॥ २८॥

यमस्तु कालनाभेन विश्वकर्मा मयेन वै ।
शम्बरो युयुधे त्वष्ट्रा सवित्रा तु विरोचनः ॥ २९॥

अपराजितेन नमुचिरश्विनौ वृषपर्वणा ।
सूर्यो बलिसुतैर्देवो बाणज्येष्ठैः शतेन च ॥ ३०॥

राहुणा च तथा सोमः पुलोम्ना युयुधेऽनिलः ।
निशुम्भशुम्भयोर्देवी भद्रकाली तरस्विनी ॥ ३१॥

वृषाकपिस्तु जम्भेन महिषेण विभावसुः ।
इल्वलः सह वातापिर्ब्रह्मपुत्रैररिन्दम ॥ ३२॥

कामदेवेन दुर्मर्ष उत्कलो मातृभिः सह ।
बृहस्पतिश्चोशनसा नरकेण शनैश्चरः ॥ ३३॥

मरुतो निवातकवचैः कालेयैर्वसवोऽमराः ।
विश्वेदेवास्तु पौलोमै रुद्राः क्रोधवशैः सह ॥ ३४॥

त एवमाजावसुराः सुरेन्द्राः
द्वन्द्वेन संहत्य च युध्यमानाः ।
अन्योन्यमासाद्य निजघ्नुरोजसा
जिगीषवस्तीक्ष्णशरासितोमरैः ॥ ३५॥

भुशुण्डिभिश्चक्रगदर्ष्टिपट्टिशैः
शक्त्युल्मुकैः प्रासपरश्वधैरपि ।
निस्त्रिंशभल्लैः परिघैः समुद्गरैः
सभिन्दिपालैश्च शिरांसि चिच्छिदुः ॥ ३६॥

गजास्तुरङ्गाः सरथाः पदातयः
सारोहवाहा विविधा विखण्डिताः ।
निकृत्तबाहूरुशिरोधराङ्घ्रय-
श्छिन्नध्वजेष्वासतनुत्रभूषणाः ॥ ३७॥

तेषां पदाघातरथाङ्गचूर्णिता-
दायोधनादुल्बण उत्थितस्तदा ।
रेणुर्दिशः खं द्युमणिं च छादयन्
न्यवर्ततासृक्स्रुतिभिः परिप्लुतात् ॥ ३८॥

शिरोभिरुद्धूतकिरीटकुण्डलैः
संरम्भदृग्भिः परिदष्टदच्छदैः ।
महाभुजैः साभरणैः सहायुधैः
सा प्रास्तृता भूः करभोरुभिर्बभौ ॥ ३९॥

कबन्धास्तत्र चोत्पेतुः पतितस्वशिरोऽक्षिभिः ।
उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान् मृधे ॥ ४०॥

बलिर्महेन्द्रं दशभिस्त्रिभिरैरावतं शरैः ।
चतुर्भिश्चतुरो वाहानेकेनारोहमार्च्छयत् ॥ ४१॥

स तानापततः शक्रस्तावद्भिः शीघ्रविक्रमः ।
चिच्छेद निशितैर्भल्लैरसम्प्राप्तान् हसन्निव ॥ ४२॥

तस्य कर्मोत्तमं वीक्ष्य दुर्मर्षः शक्तिमाददे ।
तां ज्वलन्तीं महोल्काभां हस्तस्थामच्छिनद्धरिः ॥ ४३॥

ततः शूलं ततः प्रासं ततस्तोमरमृष्टयः ।
यद्यच्छस्त्रं समादद्यात्सर्वं तदच्छिनद्विभुः ॥ ४४॥

ससर्जाथासुरीं मायामन्तर्धानगतोऽसुरः ।
ततः प्रादुरभूच्छैलः सुरानीकोपरि प्रभो ॥ ४५॥

ततो निपेतुस्तरवो दह्यमाना दवाग्निना ।
शिलाः सटङ्कशिखराश्चूर्णयन्त्यो द्विषद्बलम् ॥ ४६॥

महोरगाः समुत्पेतुर्दन्दशूकाः सवृश्चिकाः ।
सिंहव्याघ्रवराहाश्च मर्दयन्तो महागजान् ॥ ४७॥

यातुधान्यश्च शतशः शूलहस्ता विवाससः ।
छिन्धि भिन्धीति वादिन्यस्तथा रक्षोगणाः प्रभो ॥ ४८॥

ततो महाघना व्योम्नि गम्भीरपरुषस्वनाः ।
अङ्गारान् मुमुचुर्वातैराहताः स्तनयित्नवः ॥ ४९॥

सृष्टो दैत्येन सुमहान् वह्निः श्वसनसारथिः ।
सांवर्तक इवात्युग्रो विबुधध्वजिनीमधाक् ॥ ५०॥

ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्रत्यदृश्यत ।
प्रचण्डवातैरुद्धूततरङ्गावर्तभीषणः ॥ ५१॥

एवं दैत्यैर्महामायैरलक्ष्यगतिभीषणैः ।
सृज्यमानासु मायासु विषेदुः सुरसैनिकाः ॥ ५२॥

न तत्प्रतिविधिं यत्र विदुरिन्द्रादयो नृप ।
ध्यातः प्रादुरभूत्तत्र भगवान् विश्वभावनः ॥ ५३॥ सगोनासंगोगो
ततः सुपर्णांसकृताङ्घ्रिपल्लवः
पिशङ्गवासा नवकञ्जलोचनः ।
अदृश्यताष्टायुधबाहुरुल्लस-
च्छ्रीकौस्तुभानर्घ्यकिरीटकुण्डलः ॥ ५४॥

तस्मिन् प्रविष्टेऽसुरकूटकर्मजा
माया विनेशुर्महिना महीयसः ।
स्वप्नो यथा हि प्रतिबोध आगते
हरिस्मृतिः सर्वविपद्विमोक्षणम् ॥ ५५॥

दृष्ट्वा मृधे गरुडवाहमिभारिवाह
आविध्य शूलमहिनोदथ कालनेमिः ।
तल्लीलया गरुडमूर्ध्नि पतद्गृहीत्वा
तेनाहनन्नृप सवाहमरिं त्र्यधीशः ॥ ५६॥

माली सुमाल्यतिबलौ युधि पेततुर्यच्चक्रेण
कृत्तशिरसावथ माल्यवांस्तम् ।
आहत्य तिग्मगदयाहनदण्डजेन्द्रं
तावच्छिरोऽच्छिनदरेर्नदतोऽरिणाद्यः ॥ ५७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे देवासुरसंग्रामे दशमोऽध्यायः ॥ १०॥


अष्टम स्कन्ध-दसवाँ अध्याय 
देवासुर-संग्राम
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! यद्यपि दानवों और दैत्यों ने बड़ी सावधानी से समुद्रमन्थन की चेष्टा की थी, फिर भी भगवान से विमुख होने के कारण उन्हें अमृत की प्राप्ति नहीं हुई ॥ १ ॥ राजन् ! भगवान ने समुद्र को मथकर अमृत निकाला और अपने निजजन देवताओं को पिला दिया। फिर सब के देखते-देखते वे गरुड़ पर सवार हुए और वहाँ से चले गये ॥ २ ॥ जब दैत्यों ने देखा कि हमारे शत्रुओं को तो बड़ी सफलता मिली, तब वे उनकी बढ़ती सह न सके। उन्होंने तुरंत अपने हथियार उठाये और देवताओं पर धावा बोल दिया ॥ ३ ॥ इधर देवताओं ने एक तो अमृत पीकर विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी और दूसरे उन्हें भगवान के चरणकमलों का आश्रय था ही। बस, वे भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो दैत्यों से भिड़ गये ॥ ४ ॥ परीक्षित ! क्षीरसागर के तट पर बड़ा ही रोमाञ्चकारी और अत्यन्त भयङ्कर संग्राम हुआ। देवता और दैत्यों की वह घमासान लड़ाई ही ‘देवासुर-संग्राम’ के नाम से कही जाती है ॥ ५ ॥ दोनों ही एक-दूसरे के प्रबल शत्रु हो रहे थे, दोनों ही क्रोध से भरे हुए थे। एक-दूसरे को आमने-सामने पाकर तलवार, बाण और अन्य अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रों से परस्पर चोट पहुँचा ने लगे ॥ ६ ॥ उस समय लड़ाई में शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग, नगारे और डमरू बड़े जोर से बज ने लगे; हाथियों की चिग्घाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों की घरघराहट और पैदल सेना की चिल्लाहट से बड़ा कोलाहल मच गया ॥ ७ ॥ रणभूमि में रथियों के साथ रथी, पैदल के साथ पैदल, घुड़सवारों के साथ घुड़सवार एवं हाथीवालों के साथ हाथीवाले भिड़ गये ॥ ८ ॥ उनमें से कोई- कोई वीर ऊँटोंपर, हाथियों पर और गधों पर चढक़र लड़ रहे थे तो कोई- कोई गौरमृग, भालू, बाघ और सिंहों पर ॥ ९ ॥ कोई- कोई सैनिक गिद्ध, कङ्क, बगुले, बाज और भास पक्षियों पर चढ़े हुए थे तो बहुत- से तिमिङ्गिल मच्छ, शरभ, भैंसे, गैंड़े, बैल, नीलगाय और जंगली साँड़ों पर सवार थे ॥ १० ॥ किसी-किसी ने सियारिन, चूहे, गिरगिट और खरहों पर ही सवारी कर ली थी तो बहुत- से मनुष्य, बकरे, कृष्णसार मृग, हंस और सूअरों पर चढ़े थे ॥ ११ ॥ इस प्रकार जल, स्थल एवं आकाश में रहनेवाले तथा देखने में भयङ्कर शरीरवाले बहुत- से प्राणियों पर चढक़र कई दैत्य दोनों सेनाओं में आगे-आगे घुस गये ॥ १२ ॥

परीक्षित ! उस समय रंग-बिरंगी पताकाओं, स्फटिकमणि के समान श्वेत निर्मल छत्रों, रत्नों से जड़े हुए दण्डवाले बहुमूल्य पंखों, मोरपंखों, चँवरों और वायु से उड़ते हुए दुपट्टों, पगड़ी, कलँगी, कवच, आभूषण तथा सूर्य की किरणों से अत्यन्त दमकते हुए उज्ज्वल शस्त्रों एवं वीरों की पंक्तियों के कारण देवता और असुरों की सेनाएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं, मानो जल-जन्तुओं से भरे हुए दो महासागर लहरा रहे हों ॥ १३—१५ ॥ परीक्षित ! रणभूमि में दैत्यों के सेनापति विरोचनपुत्र बलि मय दानव के बनाये हुए वैहायस नामक विमान पर सवार हुए। वह विमान चलानेवाले की जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता था ॥ १६ ॥ युद्ध की समस्त सामग्रियाँ उसमें सुसज्जित थीं। परीक्षित! वह इतना आश्चर्यमय था कि कभी दिखलायी पड़ता तो कभी अदृश्य हो जाता। वह इस समय कहाँ है—जब इस बात का अनुमान भी नहीं किया जा सकता था, तब बतलाया तो कैसे जा सकता था ॥ १७ ॥ उसी श्रेष्ठ विमान पर राजा बलि सवार थे। सभी बड़े-बड़े सेनापति उन को चारों ओर से घेरे हुए थे। उन पर श्रेष्ठ चमर डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था। उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे, जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा ॥ १८ ॥ उनके चारों ओर अपने-अपने विमानों पर सेना की छोटी-छोटी टुकडिय़ों के स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रदंष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्राक्ष, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय, पौलोम, कालेय और निवातकवच आदि स्थित थे ॥ १९—२२ ॥ ये सब-के-सब समुद्रमन्थन में सम्मिलित थे। परंतु इन्हें अमृत का भाग नहीं मिला, केवल क्लेश ही हाथ लगा था। इन सब असुरों ने एक नहीं अनेक बार युद्ध में देवताओं को पराजित किया था ॥ २३ ॥ इसलिये वे बड़े उत्साह से सिंहनाद करते हुए अपने घोर स्वरवाले शङ्ख बजाने लगे। इन्द्र ने देखा कि हमारे शत्रुओं का मन बढ़ रहा है, ये मदोन्मत्त हो रहे हैं; तब उन्हें बड़ा क्रोध आया ॥ २४ ॥ वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गज पर सवार हुए। उसके कपोलों से मद बह रहा था। इसलिये इन्द्र की ऐसी शोभा हुई, मानो भगवान सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झर ने बह रहे हों ॥ २५ ॥ इन्द्र के चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधों से युक्त देवगण एवं अपने-अपने गणों के साथ वायु, अग्रि, वरुण आदि लोकपाल हो लिये ॥ २६ ॥

दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गयीं। दो-दो की जोडिय़ाँ बनाकर वे लोग लडऩे लगे। कोई आगे बढ़ रहा था, तो कोई नाम ले-लेकर ललकार रहा था। कोई- कोई मर्मभेदी वचनों के द्वारा अपने प्रतिद्वन्द्वी को धिक्कार रहा था ॥ २७ ॥ बलि इन्द्रसे, स्वामिकार्तिक तारकासुरसे, वरुण हेति से और मित्र प्रहेति से भिड़ गये ॥ २८ ॥ यमराज कालनाभसे, विश्वकर्मा मयसे, शम्बरासुर त्वष्टा से तथा सविता विरोचन से लडऩे लगे ॥ २९ ॥ नमुचि अपराजितसे, अश्विनीकुमार वृषपर्वा से तथा सूर्यदेव बलि के बाण आदि सौ पुत्रों से युद्ध करने लगे ॥ ३० ॥ राहु के साथ चन्द्रमा और पुलोमा के साथ वायु का युद्ध हुआ। भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भ पर झपट पड़ीं ॥ ३१ ॥ परीक्षित ! जम्भासुर से महोदवजीकी, महिषासुर से अग्रिदेव की और वातापि तथा इल्वल से ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि की ठन गयी ॥ ३२ ॥ दुर्मर्ष की कामदेवसे, उत्कल की मातृगणोंसे, शुक्राचार्य की बृहस्पति से और नरकासुर की शनैश्चर से लड़ाई होने लगी ॥ ३३ ॥ निवातकवचों के साथ मरुदगण, कालेयों के साथ वसुगण, पौलोमों के साथ विश्वेदेवगण तथा क्रोधवशों के साथ रुद्रगण का संग्राम होने लगा ॥ ३४ ॥

इस प्रकार असुर और देवता रणभूमि में द्वन्द्व युद्ध और सामूहिक आक्रमण द्वारा एक-दूसरे से भिडक़र परस्पर विजय की इच्छा से उत्साहपूर्वक तीखे, तलवार और भालों से प्रहार करने लगे। वे तरह-तरह से युद्ध कर रहे थे ॥ ३५ ॥ भुशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, फरसा, तलवार, भाले, मुद्गर, परिघ और भिन्दिपाल से एक-दूसरे का सिर काट ने लगे ॥ ३६ ॥ उस समय अपने सवारों के साथ हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेकों प्रकार के वाहन और पैदल सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। किसी की भुजा, किसी की जङ्घा, किसी की गरदन और किसी के पैर कट गये तो किसी-किसी की ध्वजा, धनुष, कवच और आभूषण ही टुकड़े-टुकड़े हो गये ॥ ३७ ॥ उनके चरणों की धमक और रथ के पहियों की रगड़ से पृथ्वी खुद गयी। उस समय रणभूमि से ऐसी प्रचण्ड धूल उठी कि उसने दिशा, आकाश और सूर्य को भी ढक दिया। परंतु थोड़ी ही देर में खून की धारा से भूमि आप्लावित हो गयी और कहीं धूल का नाम भी न रहा ॥ ३८ ॥ तदनन्तर लड़ाई का मैदान कटे हुए सिरों से भर गया। किसी के मुकुट और कुण्डल गिर गये थे, तो किसी की आँखों से क्रोध की मुद्रा प्रकट हो रही थी। किसी-किसी ने अपने दाँतों से होंठ दबा रखा था। बहुतों की आभूषणों और शस्त्रों से सुसज्जित लंबी-लंबी भुजाएँ कटकर गिरी हुई थीं और बहुतों की मोटी-मोटी जाँघे कटी हुई पड़ी थीं। इस प्रकार वह रणभूमि बड़ी भीषण दीख रही थी ॥ ३९ ॥ तब वहाँ बहुत- से धड़ अपने कटकर गिरे हुए सिरों के नेत्रों से देखकर हाथों में हथियार उठा वीरों की ओर दौडऩे और उछल ने लगे ॥ ४० ॥

राजा बलि ने दस बाण इन्द्रपर, तीन उनके वाहन ऐरावतपर, चार ऐरावत के चार चरण-रक्षकों पर और एक मुख्य महावतपर—इस प्रकार कुल अठारह बाण छोड़े ॥ ४१ ॥ इन्द्र ने देखा कि बलि के बाण तो हमें घायल करना ही चाहते हैं। तब उन्होंने बड़ी फुर्ती से उतने ही तीखे भल्ल नामक बाणों से उन को वहाँ तक पहुँच ने के पहले ही हँसते-हँसते काट डाला ॥ ४२ ॥ इन्द्र की यह प्रशंसनीय फुर्ती देखकर राजा बलि और भी चिढ़ गये। उन्होंने एक बहुत बड़ी शक्ति जो बड़े भारी लूके के समान जल रही थी, उठायी। किन्तु अभी वह उनके हाथ में ही थी—छूट ने नहीं पायी थी कि इन्द्र ने उसे भी काट डाला ॥ ४३ ॥ इसके बाद बलि ने एक के पीछे एक क्रमश: शूल, प्रास, तोमर और शक्ति उठायी। परंतु वे जो-जो शस्त्र हाथ में उठाते, इन्द्र उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर डालते। इस हस्तलाघव से इन्द्र का ऐश्वर्य और भी चमक उठा ॥ ४४ ॥

परीक्षित ! अब इन्द्र की फुर्ती से घबराकर पहले तो बलि अन्तर्धान हो गये, फिर उन्होंने आसुरी माया की सृष्टि की। तुरंत ही देवताओं की सेना के ऊ पर एक पर्वत प्रकट हुआ ॥ ४५ ॥ उस पर्वत से दावाग्रि से जलते हुए वृक्ष और टाँकी-जैसी तीखी धारवाले शिखरों के साथ नुकीली शिलाएँ गिर ने लगीं। इससे देवताओं की सेना चकनाचूर होने लगी ॥ ४६ ॥ तत्पश्चात बड़े-बड़े साँप, दन्दशूक, बिच्छू और अन्य विषैले जीव उछल-उछलकर काट ने और डंक मार ने लगे। सिंह, बाघ और सूअर देव-सेना के बड़े-बड़े हाथियों को फाडऩे लगे ॥ ४७ ॥ परीक्षित ! हाथों में शूल लिये ‘मारो-काटो’ इस प्रकार चिल्लाती हुई सैकड़ों नंग-धड़ंग राक्षसियाँ और राक्षस भी वहाँ प्रकट हो गये ॥ ४८ ॥ कुछ ही क्षण बाद आकाश में बादलों की घनघोर घटाएँ मँडरा ने लगीं, उनके आपस में टकराने से बड़ी गहरी और कठोर गर्जना होने लगी, बिजलियाँ चमक ने लगीं और आँधी के झकझोर ने से बादल अंगारों की वर्षा करने लगे ॥ ४९ ॥ दैत्यराज बलि ने प्रलय की अग्रि के समान बड़ी भयानक आग की सृष्टि की। वह बात-की-बात में वायु की सहायता से देवसेना को जला ने लगी ॥ ५० ॥ थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि प्रबल आँधी के थपेड़ों से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें और भयानक भँवर उठ रहे हैं और वह अपनी मर्यादा छोडक़र चारों ओर से देव-सेना को घेरता हुआ उमड़ा आ रहा है ॥ ५१ ॥ इस प्रकार जब उन भयानक असुरों ने बहुत बड़ी माया की सृष्टि की और स्वयं अपनी माया के प्रभाव से छिप रहे—न दीख ने के कारण उन पर प्रहार भी नहीं किया जा सकता था, तब देवताओं के सैनिक बहुत दुखी हो गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित ! इन्द्र आदि देवताओं ने उनकी माया का प्रतीकार करने के लिये बहुत कुछ सोचा-विचारा, परंतु उन्हें कुछ न सूझा। तब उन्होंने विश्व के जीवनदाता भगवान का ध्यान किया और ध्यान करते ही वे वहीं प्रकट हो गये ॥ ५३ ॥ बड़ी ही सुन्दर झाँ की थी। गरुड के कंधे पर उनके चरणकमल विराजमान थे। नवीन कमल के समान बड़े ही कोमल नेत्र थे। पीताम्बर धारण किये हुए थे। आठ भुजाओं में आठ आयुध, गले में कौस्तुभमणि, मस् तक पर अमूल्य मुकुट एवं कानों में कुण्डल झलमला रहे थे। देवताओं ने अपने नेत्रों से भगवान की इस छबि का दर्शन किया ॥ ५४ ॥ परम पुरुष परमात्मा के प्रकट होते ही उनके प्रभाव से असुरों की वह कपटभरी माया विलीन हो गयी— ठीक वैसे ही, जैसे जग जाने पर स्वप्न की वस्तुओं का पता नहीं चलता। ठीक ही है, भगवान की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है ॥ ५५ ॥ इसके बाद कालनेमि दैत्य ने देखा कि लड़ाई के मैदान में गरुड़वाहन भगवान आ गये हैं, तब उसने अपने सिंह पर बैठे-ही-बैठे बड़े वेग से उनके ऊ पर एक त्रिशूल चलाया। वह गरुडक़े सिर पर लगनेवाला ही था कि खेल-खेल में भगवान ने उसे पकड़ लिया और उसी त्रिशूल से उसके चलानेवाले कालनेमि दैत्य तथा उसके वाहन को मार डाला ॥ ५६ ॥ माली और सुमाली—दो दैत्य बड़े बलवान् थे, भगवान ने युद्ध में अपने चक्र से उनके सिर भी काट डाले और वे निर्जीव होकर गिर पड़े। तदनन्तर माल्यवान् ने अपनी प्रचण्ड गदा से गरुड़ पर बड़े वेग के साथ प्रहार किया। परंतु गर्जना करते हुए माल्यवान् के प्रहार करते-न-करते ही भगवान ने चक्र से उसके सिर को भी धड़ से अलग कर दिया ॥ ५७ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-11]

॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥
श्रीशुक उवाच
अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः
परस्य पुंसः परयानुकम्पया ।
जघ्नुर्भृशं शक्रसमीरणादय-
स्तांस्तान् रणे यैरभिसंहताः पुरा ॥ १॥

वैरोचनाय संरब्धो भगवान् पाकशासनः ।
उदयच्छद्यदा वज्रं प्रजा हा हेति चुक्रुशुः ॥ २॥

वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरःस्थितम् ।
मनस्विनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृधे ॥ ३॥

नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान् नो जिगीषसि ।
जित्वा बालान् निबद्धाक्षान् नटो हरति तद्धनम् ॥ ४॥

आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम् ।
तान् दस्यून् विधुनोम्यज्ञान् पूर्वस्माच्च पदादधः ॥ ५॥

सोऽहं दुर्मायिनस्तेऽद्य वज्रेण शतपर्वणा ।
शिरो हरिष्ये मन्दात्मन्घटस्व ज्ञातिभिः सह ॥ ६॥

बलिरुवाच
सङ्ग्रामे वर्तमानानां कालचोदितकर्मणाम् ।
कीर्तिर्जयोऽजयो मृत्युः सर्वेषां स्युरनुक्रमात् ॥ ७॥

तदिदं कालरशनं जनाः पश्यन्ति सूरयः ।
न हृष्यन्ति न शोचन्ति तत्र यूयमपण्डिताः ॥ ८॥

न वयं मन्यमानानामात्मानं तत्र साधनम् ।
गिरो वः साधुशोच्यानां गृह्णीमो मर्मताडनाः ॥ ९॥

श्रीशुक उवाच
इत्याक्षिप्य विभुं वीरो नाराचैर्वीरमर्दनः ।
आकर्णपूर्णैरहनदाक्षेपैराहतं पुनः ॥ १०॥

एवं निराकृतो देवो वैरिणा तथ्यवादिना ।
नामृष्यत्तदधिक्षेपं तोत्राहत इव द्विपः ॥ ११॥

प्राहरत्कुलिशं तस्मा अमोघं परमर्दनः ।
सयानो न्यपतद्भूमौ छिन्नपक्ष इवाचलः ॥ १२॥

सखायं पतितं दृष्ट्वा जम्भो बलिसखः सुहृत् ।
अभ्ययात्सौहृदं सख्युर्हतस्यापि समाचरन् ॥ १३॥

स सिंहवाह आसाद्य गदामुद्यम्य रंहसा ।
जत्रावताडयच्छक्रं गजं च सुमहाबलः ॥ १४॥

गदाप्रहारव्यथितो भृशं विह्वलितो गजः ।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ ॥ १५॥

ततो रथो मातलिना हरिभिर्दशशतैर्वृतः ।
आनीतो द्विपमुत्सृज्य रथमारुरुहे विभुः ॥ १६॥

तस्य तत्पूजयन् कर्म यन्तुर्दानवसत्तमः ।
शूलेन ज्वलता तं तु स्मयमानोऽहनन्मृधे ॥ १७॥

सेहे रुजं सुदुर्मर्षां सत्त्वमालम्ब्य मातलिः ।
इन्द्रो जम्भस्य सङ्क्रुद्धो वज्रेणापाहरच्छिरः ॥ १८॥

जम्भं श्रुत्वा हतं तस्य ज्ञातयो नारदादृषेः ।
नमुचिश्च बलः पाकस्तत्रापेतुस्त्वरान्विताः ॥ १९॥

वचोभिः परुषैरिन्द्रमर्दयन्तोऽस्य मर्मसु ।
शरैरवाकिरन् मेघा धाराभिरिव पर्वतम् ॥ २०॥

हरीन् दशशतान्याजौ हर्यश्वस्य बलः शरैः ।
तावद्भिरर्दयामास युगपल्लघुहस्तवान् ॥ २१॥

शताभ्यां मातलिं पाको रथं सावयवं पृथक् ।
सकृत्सन्धानमोक्षेण तदद्भुतमभूद्रणे ॥ २२॥

नमुचिः पञ्चदशभिः स्वर्णपुङ्खैर्महेषुभिः ।
आहत्य व्यनदत्सङ्ख्ये सतोय इव तोयदः ॥ २३॥

सर्वतः शरकूटेन शक्रं सरथसारथिम् ।
छादयामासुरसुराः प्रावृट्सूर्यमिवाम्बुदाः ॥ २४॥

अलक्षयन्तस्तमतीव विह्वला
विचुक्रुशुर्देवगणाः सहानुगाः ।
अनायकाः शत्रुबलेन निर्जिता
वणिक्पथा भिन्ननवो यथार्णवे ॥ २५॥

ततस्तुराषाडिषुबद्धपञ्जरा-
द्विनिर्गतः साश्वरथध्वजाग्रणीः ।
बभौ दिशः खं पृथिवीं च रोचयन्
स्वतेजसा सूर्य इव क्षपात्यये ॥ २६॥

निरीक्ष्य पृतनां देवः परैरभ्यर्दितां रणे ।
उदयच्छद्रिपुं हन्तुं वज्रं वज्रधरो रुषा ॥ २७॥

स तेनैवाष्टधारेण शिरसी बलपाकयोः ।
ज्ञातीनां पश्यतां राजन् जहार जनयन् भयम् ॥ २८॥

नमुचिस्तद्वधं दृष्ट्वा शोकामर्षरुषान्वितः ।
जिघांसुरिन्द्रं नृपते चकार परमोद्यमम् ॥ २९॥

अश्मसारमयं शूलं घण्टावद्धेमभूषणम् ।
प्रगृह्याभ्यद्रवत्क्रुद्धो हतोऽसीति वितर्जयन् ।
प्राहिणोद्देवराजाय निनदन् मृगराडिव ॥ ३०॥

तदापतद्गगनतले महाजवं
विचिच्छिदे हरिरिषुभिः सहस्रधा ।
तमाहनन्नृप कुलिशेन कन्धरे
रुषान्वितस्त्रिदशपतिः शिरो हरन् ॥ ३१॥

न तस्य हि त्वचमपि वज्र ऊर्जितो
बिभेद यः सुरपतिनौजसेरितः ।
तदद्भुतं परमतिवीर्यवृत्रभि-
त्तिरस्कृतो नमुचिशिरोधरत्वचा ॥ ३२॥

तस्मादिन्द्रोऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः ।
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम् ॥ ३३॥

येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये ।
कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि ॥ ३४॥

तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः ।
अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः ॥ ३५॥

सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके ।
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम् ॥ ३६॥

इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी ।
नायं शुष्कैरथो नार्द्रैर्वधमर्हति दानवः ॥ ३७॥

मयास्मै यद्वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्रशुष्कयोः ।
अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन् रिपोः ॥ ३८॥

तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान् सुसमाहितः ।
ध्यायन् फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम् ॥ ३९॥

न शुष्केण न चार्द्रेण जहार नमुचेः शिरः ।
तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन् विभुम् ॥ ४०॥

गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू ।
देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा ॥ ४१॥

अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान् वाय्वग्निवरुणादयः ।
सूदयामासुरस्त्रौघैर्मृगान् केसरिणो यथा ॥ ४२॥

ब्रह्मणा प्रेषितो देवान् देवर्षिर्नारदो नृप ।
वारयामास विबुधान् दृष्ट्वा दानवसङ्क्षयम् ॥ ४३॥

नारद उवाच
भवद्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः ।
श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात् ॥ ४४॥

श्रीशुक उवाच
संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः ।
उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम् ॥ ४५॥

येऽवशिष्टा रणे तस्मिन् नारदानुमतेन ते ।
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन् ॥ ४६॥

तत्राविनष्टावयवान् विद्यमानशिरोधरान् ।
उशना जीवयामास संजीविन्या स्वविद्यया ॥ ४७॥

बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः ।
पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः ॥ ४८॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे देवासुरसंग्रामे एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥


अष्टम स्कन्ध-ग्यारहवाँ अध्याय 
देवासुर-संग्राम की समाप्ति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! परम पुरुष भगवान की अहैतु की कृपा से देवताओं की घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साह का सञ्चार हो गया। पहले इन्द्र, वायु आदि देवगण रणभूमि में जिन-जिन दैत्यों से आहत हुए थे, उन्हींके ऊ पर अब वे पूरी शक्ति से प्रहार करने लगे ॥ १ ॥ परम ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने बलि से लड़ते-लड़ते जब उन पर क्रोध करके वज्र उठाया, तब सारी प्रजा में हाहाकार मच गया ॥ २ ॥ बलि अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर बड़े उत्साह से युद्धभूमि में बड़ी निर्भयता से डटकर विचर रहे थे। उन को अपने सामने ही देखकर हाथ में वज्र लिये हुए इन्द्र ने उनका तिरस्कार करके कहा— ॥ ३ ॥ ‘मूर्ख ! जैसे नट बच्चों की आँखें बाँधकर अपने जादू से उनका धन ऐंठ लेता है, वैसे ही तू माया की चालों से हम पर विजय प्राप्त करना चाहता है। तुझे पता नहीं कि हमलोग माया के स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ॥ ४ ॥ जो मूर्ख माया के द्वारा स्वर्गपर-अधिकार करना चाहते हैं और उस को लाँघकर ऊ पर के लोकों में भी धाक जमाना चाहते हैं—उन लुटेरे मूर्खों को मैं उनके पहले स्थान से भी नीचे पटक देता हूँ ॥ ५ ॥ नासमझ ! तू ने माया की बड़ी-बड़ी चालें चली हैं। देख, आज मैं अपने सौ धारवाले वज्र से तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। तू अपने भाई-बन्धुओं के साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले’ ॥ ६ ॥

बलि ने कहा—इन्द्र ! जो लोग कालशक्ति की प्रेरणा से अपने कर्म के अनुसार युद्ध करते हैं—उन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है ॥ ७ ॥ इसीसे ज्ञानीजन इस जगत को काल के अधीन समझकर न तो विजय होने पर हर्ष से फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा मृत्यु से शोक के ही वशीभूत होते हैं। तुमलोग इस तत्त्व से अनभिज्ञ हो ॥ ८ ॥ तुमलोग अपने को जय-पराजय आदि का कारण—कर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओं की दृष्टि से तुम शोचनीय हो। हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचन को स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दु:ख क्यों होने लगा ? ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—वीर बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा। बलि की फटकार से इन्द्र कुछ झेंप गये। तब तक वीरों का मान मर्दन करनेवाले बलि ने अपने धनुष को कान तक खींच-खींचकर बहुत- से बाण मारे ॥ १० ॥ सत्यवादी देवशत्रु बलि ने इस प्रकार इन्द्र का अत्यन्त तिरस्कार किया। अब तो इन्द्र अङ्कुश से मारे हुए हाथी की तरह और भी चिढ़ गये। बलि का आक्षेप वे सहन न कर सके ॥ ११ ॥ शत्रुघाती इन्द्र ने बलि पर अपने अमोघ वज्र का प्रहार किया। उसकी चोट से बलि पंख कटे हुए पर्वत के समान अपने विमान के साथ पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ १२ ॥ बलि का एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था। अपने मित्र के गिर जाने पर भी उन को मार ने का बदला लेने के लिये वह इन्द्र के सामने आ खड़ा हुआ ॥ १३ ॥ सिंह पर चढक़र वह इन्द्र के पास पहुँच गया और बड़े वेग से अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। साथ ही उस महाबली ने ऐरावत पर भी एक गदा जमायी ॥ १४ ॥ गदा की चोट से ऐरावत को बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलता से घुट ने टेक दिये और फिर मूर्च्छित हो गया ॥ १५ ॥ उसी समय इन्द्र का सारथि मातलि हजार घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र ऐरावत को छोडक़र तुरंत रथ पर सवार हो गये ॥ १६ ॥ दानवश्रेष्ठ जम्भ ने रणभूमि में मातलि के इस काम की बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊ पर चलाया ॥ १७ ॥ मातलि ने धैर्य के साथ इस असह्य पीड़ा को सह लिया। तब इन्द्र ने क्रोधित होकर अपने वज्र से जम्भ का सिर काट डाला ॥ १८ ॥

देवर्षि नारद से जम्भासुर की मृत्यु का समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमि में आ पहुँचे ॥ १९ ॥ अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणी से उन्होंने इन्द्र को बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़ पर मूसलधार पानी बरसाते हैं , वैसे ही उनके ऊ पर बाणों की झड़ी लगा दी ॥ २० ॥ बल ने बड़े हस्तलाघव से एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्र के एक हजार घोड़ों को घायल कर दिया ॥ २१ ॥ पाक ने सौ बाणों से मातलि को और सौ बाणों से रथ के एक-एक अङ्ग को छेद डाला। युद्धभूमि में यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इत ने बाण उसने चढ़ाये और चलाये ॥ २२ ॥ नमुचि ने बड़े-बड़े पंद्रह बाणोंसे, जिन में सो ने के पंख लगे हुए थे, इन्द्र को मारा और युद्धभूमि में वह जल से भरे बादल के समान गरज ने लगा ॥ २३ ॥ जैसे वर्षाकाल के बादल सूर्य को ढक लेते हैं, वैसे ही असुरों ने बाणों की वर्षा से इन्द्र और उनके रथ तथा सारथि को भी चारों ओर से ढक दिया ॥ २४ ॥ इन्द्र को न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्ला ने लगे। एक तो शत्रुओं ने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय देवताओं की ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्र में नाव टूट जाने पर व्यापारियों की होती है ॥ २५ ॥ परंतु थोड़ी ही देर में शत्रुओं के बनाये हुए बाणों के पिंजड़े से घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथि के साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रात:काल सूर्य अपनी किरणों से दिशा, आकाश और पृथ्वी को चम का देते हैं, वैसे ही इन्द्र के तेज से सब-के-सब जगमगा उठे ॥ २६ ॥ वज्रधारी इन्द्र ने देखा कि शत्रुओं ने रणभूमि में हमारी सेना को रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोध से शत्रु को मार डालने के लिये वज्र से आक्रमण किया ॥ २७ ॥ परीक्षित! उस आठ धारवाले पै ने वज्र से उन दैत्यों के भाई-बन्धुओं को भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाक के सिर काट लिये ॥ २८ ॥

परीक्षित ! अपने भाइयों को मरा हुआ देख नमुचि को बड़ा शोक हुआ। वह क्रोध के कारण आपे से बाहर होकर इन्द्र को मार डालने के लिये जी-जान से प्रयास करने लगा ॥ २९ ॥ ‘इन्द्र ! अब तुम बच नहीं सकते’—इस प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्र पर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलाद का बना हुआ था, सो ने के आभूषणों से विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचि ने क्रोध के मारे सिंह के समान गरजकर इन्द्र पर वह त्रिशूल चला दिया ॥ ३० ॥ परीक्षित ! इन्द्र ने देखा कि त्रिशूल बड़े वेग से मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणों से आकाश में ही उसके हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्र ने बड़े क्रोध से उसका सिर काट लेने के लिये उसकी गर्दन पर वज्र मारा ॥ ३१ ॥ यद्यपि इन्द्र ने बड़े वेग से वह वज्र चलाया था, परंतु उस यशस्वी वज्र से उसके चमड़े पर खरोंच तक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्र ने महाबली वृत्रासुर का शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचि के गले की त्वचा ने उसका तिरस्कार कर दिया ॥ ३२ ॥ जब वज्र नमुचि का कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोच ने लगे कि ‘दैवयोग से संसारभर को संशय में डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी ! ॥ ३३ ॥ पहले युग में जब ये पर्वत पाँखों से उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते थे, तब प्रजा का विनाश होते देखकर इसी वज्र से मैंने उन पहाड़ों की पाँखें काट डाली थीं ॥ ३४ ॥ त्वष्टा की तपस्या का सार ही वृत्रासुर के रूप में प्रकट हुआ था। उसे भी मैंने इसी वज्र के द्वारा काट डाला था। और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्र से जिनके चमड़े को भी चोट नहीं पहुँचायी जा स की थी, इसी वज्र से मैंने मृत्यु के घाट उतार दिये थे ॥ ३५ ॥ वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करने पर भी इस तुच्छ असुर को न मार सका, अत: अब मैं इसे अङ्गीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेज से बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चु का है’ ॥ ३६ ॥ इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई—‘‘यह दानव न तो सूखी वस्तु से मर सकता है, न गीली से ॥ ३७ ॥ इसे मैं वर दे चु का हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तु से तुम्हारी मृत्यु न होगी।’ इसलिये इन्द्र ! इस शत्रु को मार ने के लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो !’’ ॥ ३८ ॥ उस आकाशवाणी को सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रता से विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्र का फेन तो सूखा भी है, गीला भी; ॥ ३९ ॥ इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अत: इन्द्र ने उस न सूखे और न गीले समुद्र-फेन से नमुचि का सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान इन्द्र पर पुष्पों की वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान करने लगे, देवताओं की दुन्दुभियाँ बज ने लगीं और नर्तकियाँ आनन्द से नाच ने लगीं ॥ ४१ ॥ इसी प्रकार वायु, अग्रि, वरुण आदि दूसरे देवताओं ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से विपक्षियों को वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनों को मार डालते हैं ॥ ४२ ॥ परीक्षित ! इधर ब्रह्माजी ने देखा कि दानवों का तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारद को देवताओं के पास भेजा और नारदजी ने वहाँ जाकर देवताओं को लडऩे से रोक दिया ॥ ४३ ॥

नारदजी ने कहा—देवताओ ! भगवान की भुजाओं की छत्रछाया में रहकर आपलोगों ने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मीजी ने भी अपनी कृपा- कोर से आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवताओं ने देवर्षि नारद की बात मानकर अपने क्रोध के वेग को शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्ग को चले गये। उस समय देवताओं के अनुचर उनके यश का गान कर रहे थे ॥ ४५ ॥ युद्ध में बचे हुए दैत्यों ने देवर्षि नारद की सम्मति से वज्र की चोट से मरे हुए बलि को लेकर अस्ताचल की यात्रा की ॥ ४६ ॥ वहाँ शुक्राचार्य ने अपनी सञ्जीवनी विद्या से उन असुरों को जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अङ्ग कटे नहीं थे, बच रहे थे ॥ ४७ ॥ शुक्राचार्य के स्पर्श करते ही बलि की इन्द्रियों में चेतना और मन में स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसार में जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होने पर भी उन्हें किसी प्रकार का खेद नहीं हुआ ॥ ४८ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-12]

॥ द्वादशोऽध्यायः - १२ ॥
श्रीबादरायणिरुवाच
वृषध्वजो निशम्येदं योषिद्रूपेण दानवान् ।
मोहयित्वा सुरगणान् हरिः सोममपाययत् ॥ १॥

वृषमारुह्य गिरिशः सर्वभूतगणैर्वृतः ।
सह देव्या ययौ द्रष्टुं यत्रास्ते मधुसूदनः ॥ २॥

सभाजितो भगवता सादरं सोमया भवः ।
सूपविष्ट उवाचेदं प्रतिपूज्य स्मयन् हरिम् ॥ ३॥

श्रीमहादेव उवाच
देवदेव जगद्व्यापिन् जगदीश जगन्मय ।
सर्वेषामपि भावानां त्वमात्मा हेतुरीश्वरः ॥ ४॥

आद्यन्तावस्य यन्मध्यमिदमन्यदहं बहिः ।
यतोऽव्ययस्य नैतानि तत्सत्यं ब्रह्म चिद्भवान् ॥ ५॥

तवैव चरणाम्भोजं श्रेयस्कामा निराशिषः ।
विसृज्योभयतः सङ्गं मुनयः समुपासते ॥ ६॥

त्वं ब्रह्म पूर्णममृतं विगुणं विशोक-
मानन्दमात्रमविकारमनन्यदन्यत् ।
विश्वस्य हेतुरुदयस्थितिसंयमाना-
मात्मेश्वरश्च तदपेक्षतयानपेक्षः ॥ ७॥

एकस्त्वमेव सदसद्द्वयमद्वयं च
स्वर्णं कृताकृतमिवेह न वस्तुभेदः ।
अज्ञानतस्त्वयि जनैर्विहितो विकल्पो
यस्माद्गुणव्यतिकरो निरुपाधिकस्य ॥ ८॥

त्वां ब्रह्म केचिदवयन्त्युत धर्ममेके
एके परं सदसतोः पुरुषं परेशम् ।
अन्येऽवयन्ति नवशक्तियुतं परं त्वां
केचिन्महापुरुषमव्ययमात्मतन्त्रम् ॥ ९॥

नाहं परायुरृषयो न मरीचिमुख्या
जानन्ति यद्विरचितं खलु सत्त्वसर्गाः ।
यन्मायया मुषितचेतस ईश दैत्यमर्त्यादयः
किमुत शश्वदभद्रवृत्ताः ॥ १०॥

स त्वं समीहितमदः स्थितिजन्मनाशं
भूतेहितं च जगतो भवबन्धमोक्षौ ।
वायुर्यथा विशति खं च चराचराख्यं
सर्वं तदात्मकतयावगमोऽवरुन्त्से ॥ ११॥

अवतारा मया दृष्टा रममाणस्य ते गुणैः ।
सोऽहं तद्द्रष्टुमिच्छामि यत्ते योषिद्वपुर्धृतम् ॥ १२॥

येन सम्मोहिता दैत्याः पायिताश्चामृतं सुराः ।
तद्दिदृक्षव आयाताः परं कौतूहलं हि नः ॥ १३॥

श्रीशुक उवाच
एवमभ्यर्थितो विष्णुर्भगवान् शूलपाणिना ।
प्रहस्य भावगम्भीरं गिरिशं प्रत्यभाषत ॥ १४॥

श्रीभगवानुवाच
कौतूहलाय दैत्यानां योषिद्वेषो मया कृतः ।
पश्यता सुरकार्याणि गते पीयूषभाजने ॥ १५॥

तत्तेऽहं दर्शयिष्यामि दिदृक्षोः सुरसत्तम ।
कामिनां बहु मन्तव्यं सङ्कल्पप्रभवोदयम् ॥ १६॥

श्रीशुक उवाच
इति ब्रुवाणो भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ।
सर्वतश्चारयंश्चक्षुर्भव आस्ते सहोमया ॥ १७॥

ततो ददर्शोपवने वरस्त्रियं
विचित्रपुष्पारुणपल्लवद्रुमे ।
विक्रीडतीं कन्दुकलीलया
लसद्दुकूलपर्यस्तनितम्बमेखलाम् ॥ १८॥

आवर्तनोद्वर्तनकम्पितस्तन-
प्रकृष्टहारोरुभरैः पदे पदे ।
प्रभज्यमानामिव मध्यतश्चल-
त्पदप्रवालं नयतीं ततस्ततः ॥ १९॥

दिक्षु भ्रमत्कन्दुकचापलैर्भृशं
प्रोद्विग्नतारायतलोललोचनाम् ।
स्वकर्णविभ्राजितकुण्डलोल्लस-
त्कपोलनीलालकमण्डिताननाम् ॥ २०॥

श्लथद्दुकूलं कबरीं च विच्युतां
सन्नह्यतीं वामकरेण वल्गुना ।
विनिघ्नतीमन्यकरेण कन्दुकं
विमोहयन्तीं जगदात्ममायया ॥ २१॥

तां वीक्ष्य देव इति कन्दुकलीलयेष-
द्व्रीडास्फुटस्मितविसृष्टकटाक्षमुष्टः ।
स्त्रीप्रेक्षणप्रतिसमीक्षणविह्वलात्मा
नात्मानमन्तिक उमां स्वगणांश्च वेद ॥ २२॥

तस्याः कराग्रात्स तु कन्दुको यदा
गतो विदूरं तमनुव्रजत्स्त्रियाः ।
वासः ससूत्रं लघु मारुतोऽहर-
द्भवस्य देवस्य किलानुपश्यतः ॥ २३॥

एवं तां रुचिरापाङ्गीं दर्शनीयां मनोरमाम् ।
दृष्ट्वा तस्यां मनश्चक्रे विषज्जन्त्यां भवः किल ॥ २४॥

तयापहृतविज्ञानस्तत्कृतस्मरविह्वलः ।
भवान्या अपि पश्यन्त्या गतह्रीस्तत्पदं ययौ ॥ २५॥

सा तमायान्तमालोक्य विवस्त्रा व्रीडिता भृशम् ।
निलीयमाना वृक्षेषु हसन्ती नान्वतिष्ठत ॥ २६॥

तामन्वगच्छद्भगवान् भवः प्रमुषितेन्द्रियः ।
कामस्य च वशं नीतः करेणुमिव यूथपः ॥ २७॥

सोऽनुव्रज्यातिवेगेन गृहीत्वानिच्छतीं स्त्रियम् ।
केशबन्ध उपानीय बाहुभ्यां परिषस्वजे ॥ २८॥

सोपगूढा भगवता करिणा करिणी यथा ।
इतस्ततः प्रसर्पन्ती विप्रकीर्णशिरोरुहा ॥ २९॥

आत्मानं मोचयित्वाङ्ग सुरर्षभभुजान्तरात् ।
प्राद्रवत्सा पृथुश्रोणी माया देवविनिर्मिता ॥ ३०॥

तस्यासौ पदवीं रुद्रो विष्णोरद्भुतकर्मणः ।
प्रत्यपद्यत कामेन वैरिणेव विनिर्जितः ॥ ३१॥

तस्यानुधावतो रेतश्चस्कन्दामोघरेतसः ।
शुष्मिणो यूथपस्येव वासितामनुधावतः ॥ ३२॥

यत्र यत्रापतन्मह्यां रेतस्तस्य महात्मनः ।
तानि रूप्यस्य हेम्नश्च क्षेत्राण्यासन् महीपते ॥ ३३॥

सरित्सरःसु शैलेषु वनेषूपवनेषु च ।
यत्र क्व चासन्नृषयस्तत्र सन्निहितो हरः ॥ ३४॥

स्कन्ने रेतसि सोऽपश्यदात्मानं देवमायया ।
जडीकृतं नृपश्रेष्ठ सन्न्यवर्तत कश्मलात् ॥ ३५॥

अथावगतमाहात्म्य आत्मनो जगदात्मनः ।
अपरिज्ञेयवीर्यस्य न मेने तदु हाद्भुतम् ॥ ३६॥

तमविक्लवमव्रीडमालक्ष्य मधुसूदनः ।
उवाच परमप्रीतो बिभ्रत्स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३७॥

श्रीभगवानुवाच
दिष्ट्या त्वं विबुधश्रेष्ठ स्वां निष्ठामात्मना स्थितः ।
यन्मे स्त्रीरूपया स्वैरं मोहितोऽप्यङ्ग मायया ॥ ३८॥

को नु मेऽतितरेन्मायां विषक्तस्त्वदृते पुमान् ।
तांस्तान् विसृजतीं भावान् दुस्तरामकृतात्मभिः ॥ ३९॥

सेयं गुणमयी माया न त्वामभिभविष्यति ।
मया समेता कालेन कालरूपेण भागशः ॥ ४०॥

श्रीशुक उवाच
एवं भगवता राजन् श्रीवत्साङ्केन सत्कृतः ।
आमन्त्र्य तं परिक्रम्य सगणः स्वालयं ययौ ॥ ४१॥

आत्मांशभूतां तां मायां भवानीं भगवान् भवः ।
शंसतामृषिमुख्यानां प्रीत्याचष्टाथ भारत ॥ ४२॥

अपि व्यपश्यस्त्वमजस्य मायां
परस्य पुंसः परदेवतायाः ।
अहं कलानामृषभो विमुह्ये
ययावशोऽन्ये किमुतास्वतन्त्राः ॥ ४३॥

यं मामपृच्छस्त्वमुपेत्य
योगात्समासहस्रान्त उपारतं वै ।
स एष साक्षात्पुरुषः पुराणो
न यत्र कालो विशते न वेदः ॥ ४४॥

श्रीशुक उवाच
इति तेऽभिहितस्तात विक्रमः शार्ङ्गधन्वनः ।
सिन्धोर्निर्मथने येन धृतः पृष्ठे महाचलः ॥ ४५॥

एतन्मुहुः कीर्तयतोऽनुश‍ृण्वतो
न रिष्यते जातु समुद्यमः क्वचित् ।
यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनं
समस्तसंसारपरिश्रमापहम् ॥ ४६॥

असदविषयमङ्घ्रिं भावगम्यं प्रपन्ना-
नमृतममरवर्यानाशयत्सिन्धुमथ्यम् ।
कपटयुवतिवेषो मोहयन् यः सुरारीन्
तमहमुपसृतानां कामपूरं नतोऽस्मि ॥ ४७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे शंकरमोहनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥


अष्टम स्कन्ध-बारहवाँ अध्याय 
मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब भगवान शङ्करने यह सुना कि श्रीहरि ने स्त्री का रूप धारण करके असुरों को मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिला दिया, तब वे सती देवी के साथ बैल पर सवार हो समस्त भूतगणों को लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान मधुसूदन निवास करते हैं ॥ १-२ ॥ भगवान श्रीहरि ने बड़े प्रेम से गौरी-शङ्कर भगवान का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुख से बैठकर भगवान का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले ॥ ३ ॥

श्रीमहादेवजी ने कहा—समस्त देवों के आराध्यदेव ! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थों के मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं ॥ ४ ॥ इस जगत के आदि, अन्त और मध्य आप से ही होते हैं; परंतु आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं। आपके अविनाशी स्वरूप में द्रष्टा, दृश्य, भोक्ता और भोग्य का भेदभाव नहीं है। वास्तव में आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं ॥ ५ ॥ कल्याणकामी महात्मालोग इस लोक और परलोक दोनों की आसक्ति एवं समस्त कामनाओं का परित्याग करके आपके चरणकमलों की ही आराधना करते हैं ॥ ६ ॥ आप अमृत स्वरूप, समस्त प्राकृत गुणों से रहित, शोक की छाया से भी दूर, स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं। आपकेवल आनन्द स्वरूप हैं। आप निर्विकार हैं। आप से भिन्न कुछ नहीं है, परंतु आप सब से भिन्न हैं। आप विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। आप समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्म का फल देनेवाले स्वामी हैं। परंतु यह बात भी जीवों की अपेक्षा से ही कही जाती है; वास्तव में आप सब की अपेक्षा से रहित, अनपेक्ष हैं ॥ ७ ॥ स्वामिन् ! कार्य और कारण, द्वैत और अद्वैत—जो कुछ है, वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणों के रूप में स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्ण में कोई अन्तर नहीं है, दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगों ने आपके वास्तविक स्वरूप को न जान ने के कारण आप में नाना प्रकार के भेदभाव और विकल्पों की कल्पना कर रखी है। यही कारण है कि आप में किसी प्रकार की उपाधि न होने पर भी गुणों को लेकर भेद की प्रतीति होती है ॥ ८ ॥ प्रभो ! कोई- कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई आपको प्रकृति और पुरुष से परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कॢषणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—इन नौ शक्तियों से युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदि के बन्धन से रहित, पूर्वजों के भी पूर्वज, अविनाशी पुरुषविशेष के रूप में मानते हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! मैं, ब्रह्मा और मरीचि आदि ऋषि—जो सत्त्वगुण की सृष्टि के अन्तर्गत हैं—जब आपकी बनायी हुई सृष्टि का भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त माया ने अपने वश में कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी कर्मों में लगे रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या ॥ १० ॥ प्रभो ! आप सर्वात्मक एवं ज्ञान स्वरूप हैं। इसीलिये वायु के समान आकाश में अदृश्य रहकर भी आप सम्पूर्ण चराचर जगत में सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा इस की चेष्टा, स्थिति, जन्म, नाश, प्राणियों के कर्म एवं संसार के बन्धन, मोक्ष—सभी को जानते हैं ॥ ११ ॥ प्रभो ! आप जब गुणों को स्वीकार करके लीला करने के लिये बहुत- से अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतार का भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूप में ग्रहण किया था ॥ १२ ॥ जिससे दैत्यों को मोहित करके आपने देवताओं को अमृत पिलाया। स्वामिन् ! उसी को देखने के लिये हम सब आये हैं। हमारे मन में उसके दर्शन का बड़े कौतूहल है ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान शङ्करने विष्णुभगवान से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीर भाव से हँसकर शङ्करजी से बोले ॥ १४ ॥

श्रीविष्णुभगवान ने कहा—शङ्करजी ! उस समय अमृत का कलश दैत्यों के हाथ में चला गया था। अत: देवताओं का काम बनाने के लिये और दैत्यों का मन एक नये कौतूहल की ओर खींच लेने के लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था ॥ १५ ॥ देवशिरोमणे ! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परंतु वह रूप तो कामी पुरुषों का ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभाव को उत्तेजित करनेवाला है ॥ १६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस तरह कहते-कहते विष्णुभगवान वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान शङ्कर सती देवी के साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे ॥ १७ ॥ इत ने में ही उन्होंने देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँति के वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोंपलों से भरे-पूरे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवन में एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही है। वह बड़ी ही सुन्दर साड़ी पह ने हुए है और उसकी कमर में करधनी की लडिय़ाँ लटक रही हैं ॥ १८ ॥ गेंद के उछाल ने और लपककर पकडऩे से उसके स्तन और उन पर पड़े हुए हार हिल रहे हैं। ऐसा जान पड़ता था, मानो इनके भार से उसकी पतली कमर पग-पग पर टूटते- टूटते बच जाती है। वह अपने लाल-लाल पल्लवों के समान सुकुमार चरणों से बड़ी कला के साथ ठुमुक-ठुमुक चल रही थी ॥ १९ ॥ उछलता हुआ गेंद जब इधर-उधर छलक जाता था, तब वह लपककर उसे रोक लेती थी। इससे उसकी बड़ी-बड़ी चञ्चल आँखें कुछ उद्विग्र-सी हो रही थीं। उसके कपोलों पर कानों के कुण्डलों की आभा जगमगा रही थी और घुँघराली काली-काली अलकें उन पर लटक आती थीं, जिससे मुख और भी उल्लसित हो उठता था ॥ २० ॥ जब कभी साड़ी सरक जाती और केशों की वेणी खुल ने लगती, तब अपने अत्यन्त सुकुमार बायें हाथ से वह उन्हें सँभाल-सँवार लिया करती। उस समय भी वह दाहि ने हाथ से गेंद उछाल-उछालकर सारे जगत को अपनी माया से मोहित कर रही थी ॥ २१ ॥ गेंद से खेलते-खेलते उसने तनिक सलज्जभाव से मुसकराकर तिरछी नजर से शङ्करजी की ओर देखा। बस, उनका मन हाथ से निकल गया। वे मोहिनी को निहार ने और उसकी चितवन के रस में डूबकर इत ने विह्वल हो गये कि उन्हें अपने-आपकी भी सुधि न रही। फिर पास बैठी हुई सती और गणों की तो याद ही कैसे रहती ॥ २२ ॥ एक बार मोहिनी के हाथ से उछलकर गेंद थोड़ी दूर चला गया। वह भी उसी के पीछे दौड़ी। उसी समय शङ्करजी के देखते-देखते वायु ने उसकी झीनी-सी साड़ी करधनी के साथ ही उड़ा ली ॥ २३ ॥ मोहिनी का एक-एक अङ्ग बड़ा ही रुचिकर और मनोरम था। जहाँ आँखें लग जातीं, लगी ही रहतीं। यही नहीं, मन भी वहीं रमण करने लगता। उस को इस दशा में देखकर भगवान शङ्कर उसकी ओर अत्यन्त आकृष्ट हो गये। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जान पड़ती थी ॥ २४ ॥ उसने शङ्करजी का विवेक छीन लिया। वे उसके हाव-भावों से कामातुर हो गये और भवानी के सामने ही लज्जा छोडक़र उसकी ओर चल पड़े ॥ २५ ॥

मोहिनी वस्त्रहीन तो पहले ही हो चुकी थी, शङ्करजी को अपनी ओर आते देख बहुत लज्जित हो गयी। वह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की आड़ में जाकर छिप जाती और हँस ने लगती। परंतु कहीं ठहरती न थी ॥ २६ ॥ भगवान शङ्कर की इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रहीं, वे कामवश हो गये थे; अत: हथिनी के पीछे हाथी की तरह उसके पीछे-पीछे दौडऩे लगे ॥ २७ ॥ उन्होंने अत्यन्त वेग से उसका पीछा करके पीछे से उसका जूड़ा पकड़ लिया और उसकी इच्छा न होने पर भी उसे दोनों भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया ॥ २८ ॥ जैसे हाथी हथिनी का आलिङ्गन करता है, वैसे ही भगवान शङ्करने उसका आलिङ्गन किया। वह इधर-उधर खिसककर छुड़ा ने की चेष्टा करने लगी, इसी छीना-झपटी में उसके सिर के बाल बिखर गये ॥ २९ ॥ वास्तव में वह सुन्दरी भगवान की रची हुई माया ही थी, इससे उसने किसी प्रकार शङ्करजी के भुजपाश से अपने को छुड़ा लिया और बड़े वेग से भागी ॥ ३० ॥ भगवान शङ्कर भी उन मोहिनीवेषधारी अद्भुतकर्मा भगवान विष्णु के पीछे-पीछे दौडऩे लगे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके शत्रु कामदेव ने इस समय उन पर विजय प्राप्त कर ली है ॥ ३१ ॥ कामुक हथिनी के पीछे दौडऩेवाले मदोन्मत्त हाथी के समान वे मोहिनी के पीछे-पीछे दौड़ रह थे। यद्यपि भगवान शङ्कर का वीर्य अमोघ है, फिर भी मोहिनी की माया से वह स्खलित हो गया ॥ ३२ ॥ भगवान शङ्कर का वीर्य पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ सोने-चाँदी की खानें बन गयीं ॥ ३३ ॥ परीक्षित ! नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवन में एवं जहाँ-जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते थे, वहाँ-वहाँ मोहिनी के पीछे-पीछे भगवान शङ्कर गये थे ॥ ३४ ॥ परीक्षित ! वीर्यपात हो जाने के बाद उन्हें अपनी स्मृति हुई। उन्होंने देखा कि अरे, भगवान की माया ने तो मुझे खूब छकाया ! वे तुरंत उस दु:खद प्रसङ्ग से अलग हो गये ॥ ३५ ॥ इसके बाद आत्म स्वरूप सर्वात्मा भगवान की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान की शक्तियों का पार कौन पा सकता है ॥ ३६ ॥ भगवान ने देखा कि भगवान शङ्कर को इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुष-शरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नता से उनसे कह ने लगे ॥ ३७ ॥

श्रीभगवान ने कहा—देवशिरोमणे ! मेरी स्त्रीरूपिणी माया से विमोहित होकर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ठा में स्थित हो गये। यह बड़े ही आनन्द की बात है ॥ ३८ ॥ मेरी माया अपार है। वह ऐसे-ऐसे हाव-भाव रचती है कि अजितेन्द्रिय पुरुष तो किसी प्रकार उससे छुटकारा पा ही नहीं सकते। भला, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन पुरुष है, जो एक बार मेरी माया के फंदे में फँसकर फिर स्वयं ही उससे निकल सके ॥ ३९ ॥ यद्यपि मेरी यह गुणमयी माया बड़ों-बड़ों को मोहित कर देती है, फिर भी अब यह आपको कभी मोहित नहीं करेगी। क्योंकि सृष्टि आदि के लिये समय पर उसे क्षोभित करनेवाला काल मैं ही हूँ, इसलिये मेरी इच्छा के विपरीत वह रजोगुण आदि की सृष्टि नहीं कर सकती ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार भगवान विष्णु ने भगवान शङ्कर का सत्कार किया। तब उनसे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणों के साथ कैलास को चले गये ॥ ४१ ॥ भरतवंशशिरोमणे ! भगवान शङ्करने बड़े-बड़े ऋषियों की सभा में अपनी अद्र्धाङ्गिनी सती देवी से अपने विष्णुरूप की अंशभूता मायामयी मोहिनी का इस प्रकार बड़े प्रेम से वर्णन किया ॥ ४२ ॥ ‘देवि ! तुम ने परम पुरुष परमेश्वर भगवान विष्णु की माया देखी ? देखो, यों तो मैं समस्त कलाकौशल, विद्या आदि का स्वामी और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस माया से विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अत: वे मोहित हो जायँ—इसमें कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ जब मैं एक हजार वर्ष की समाधि से उठा था, तब तुम ने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किस की उपासना करते हो। वे यही साक्षात सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमा में बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है’ ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित ! मैंने विष्णुभगवान की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुम को सुनायी, जिसमें समुद्र-मन्थन के समय अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण करनेवाले भगवान का वर्णन है ॥ ४५ ॥ जो पुरुष बार-बार इसका कीर्तन और श्रवण करता है, उसका उद्योग कभी और कहीं निष्फल नहीं होता। क्योंकि पवित्रकीर्ति भगवान के गुण और लीलाओं का गान संसार के समस्त क्लेश और परिश्रम को मिटा देनेवाला है ॥ ४६ ॥ दुष्ट पुरुषों को भगवान के चरणकमलों की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती। वे तो भक्तिभाव से युक्त पुरुष को ही प्राप्त होते हैं। इसीसे उन्होंने स्त्री का मायामय रूप धारण करके दैत्यों को मोहित किया और अपने चरणकमलों के शरणागत देवताओं को समुद्र-मन्थन से निकले हुए अमृत का पान कराया। केवल उन्हीं की बात नहीं—चाहे जो भी उनके चरणों की शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। मैं उन प्रभु के चरणकमलों में नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥





श्रीमद्भागवत - सुधासागर



स्कन्ध-08 [अध्याय-13]

॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥
श्रीशुक उवाच
मनुर्विवस्वतः पुत्रः श्राद्धदेव इति श्रुतः ।
सप्तमो वर्तमानो यस्तदपत्यानि मे श‍ृणु ॥ १॥

इक्ष्वाकुर्नभगश्चैव धृष्टः शर्यातिरेव च ।
नरिष्यन्तोऽथ नाभागः सप्तमो दिष्ट उच्यते ॥ २॥

करूषश्च पृषध्रश्च दशमो वसुमान् स्मृतः ।
मनोर्वैवस्वतस्यैते दशपुत्राः परन्तप ॥ ३॥

आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।
अश्विनावृभवो राजन्निन्द्रस्तेषां पुरन्दरः ॥ ४॥

कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रोऽथ गौतमः ।
जमदग्निर्भरद्वाज इति सप्तर्षयः स्मृताः ॥ ५॥

अत्रापि भगवज्जन्म कश्यपाददितेरभूत् ।
आदित्यानामवरजो विष्णुर्वामनरूपधृक् ॥ ६॥

सङ्क्षेपतो मयोक्तानि सप्तमन्वन्तराणि ते ।
भविष्याण्यथ वक्ष्यामि विष्णोः शक्त्यान्वितानि च ॥ ७॥

विवस्वतश्च द्वे जाये विश्वकर्मसुते उभे ।
संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तव ॥ ८॥

तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञासुतास्त्रयः ।
यमो यमी श्राद्धदेवश्छायायाश्च सुताञ्छृणु ॥ ९॥

सावर्णिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या ।
शनैश्चरस्तृतीयोऽभूदश्विनौ वडवात्मजौ ॥ १०॥

अष्टमेऽन्तर आयाते सावर्णिर्भविता मनुः ।
निर्मोकविरजस्काद्याः सावर्णितनया नृप ॥ ११॥

तत्र देवाः सुतपसो विरजा अमृतप्रभाः ।
तेषां विरोचनसुतो बलिरिन्द्रो भविष्यति ॥ १२॥

दत्त्वेमां याचमानाय विष्णवे यः पदत्रयम् ।
राद्धमिन्द्रपदं हित्वा ततः सिद्धिमवाप्स्यति ॥ १३॥

योऽसौ भगवता बद्धः प्रीतेन सुतले पुनः ।
निवेशितोऽधिके स्वर्गादधुनाऽऽस्ते स्वराडिव ॥ १४॥

गालवो दीप्तिमान् रामो द्रोणपुत्रः कृपस्तथा ।
ऋष्यश‍ृङ्गः पितास्माकं भगवान् बादरायणः ॥ १५॥

इमे सप्तर्षयस्तत्र भविष्यन्ति स्वयोगतः ।
इदानीमासते राजन् स्वे स्व आश्रममण्डले ॥ १६॥

देवगुह्यात्सरस्वत्यां सार्वभौम इति प्रभुः ।
स्थानं पुरन्दराद्धृत्वा बलये दास्यतीश्वरः ॥ १७॥

नवमो दक्षसावर्णिर्मनुर्वरुणसम्भवः ।
भूतकेतुर्दीप्तकेतुरित्याद्यास्तत्सुता नृप ॥ १८॥

पारा मरीचिगर्भाद्या देवा इन्द्रोऽद्भुतः स्मृतः ।
द्युतिमत्प्रमुखास्तत्र भविष्यन्त्यृषयस्ततः ॥ १९॥

आयुष्मतोऽम्बुधारायामृषभो भगवत्कला ।
भविता येन संराद्धां त्रिलोकीं भोक्ष्यतेऽद्भुतः ॥ २०॥

दशमो ब्रह्मसावर्णिरुपश्लोकसुतो महान् ।
तत्सुता भूरिषेणाद्या हविष्मत्प्रमुखा द्विजाः ॥ २१॥

हविष्मान् सुकृतिः सत्यो जयो मूर्तिस्तदा द्विजाः ।
सुवासनविरुद्धाद्या देवाः शम्भुः सुरेश्वरः ॥ २२॥

विष्वक्सेनो विषूच्यां तु शम्भोः सख्यं करिष्यति ।
जातः स्वांशेन भगवान् गृहे विश्वसृजो विभुः ॥ २३॥

मनुर्वै धर्मसावर्णिरेकादशम आत्मवान् ।
अनागतास्तत्सुताश्च सत्यधर्मादयो दश ॥ २४॥

विहङ्गमाः कामगमा निर्वाणरुचयः सुराः ।
इन्द्रश्च वैधृतस्तेषामृषयश्चारुणादयः ॥ २५॥

आर्यकस्य सुतस्तत्र धर्मसेतुरिति स्मृतः ।
वैधृतायां हरेरंशस्त्रिलोकीं धारयिष्यति ॥ २६॥

भविता रुद्रसावर्णी राजन् द्वादशमो मनुः ।
देववानुपदेवश्च देवश्रेष्ठादयः सुताः ॥ २७॥

ऋतधामा च तत्रेन्द्रो देवाश्च हरितादयः ।
ऋषयश्च तपोमूर्तिस्तपस्व्याग्नीध्रकादयः ॥ २८॥

स्वधामाख्यो हरेरंशः साधयिष्यति तन्मनोः ।
अन्तरं सत्यसहसः सूनृतायाः सुतो विभुः ॥ २९॥

मनुस्त्रयोदशो भाव्यो देवसावर्णिरात्मवान् ।
चित्रसेनविचित्राद्या देवसावर्णिदेहजाः ॥ ३०॥

देवाः सुकर्मसुत्रामसंज्ञा इन्द्रो दिवस्पतिः ।
निर्मोकतत्त्वदर्शाद्या भविष्यन्त्यृषयस्तदा ॥ ३१॥

देवहोत्रस्य तनय उपहर्ता दिवस्पतेः ।
योगेश्वरो हरेरंशो बृहत्यां सम्भविष्यति ॥ ३२॥

मनुर्वा इन्द्रसावर्णिश्चतुर्दशम एष्यति ।
उरुगम्भीरबुद्ध्याद्या इन्द्रसावर्णिवीर्यजाः ॥ ३३॥

पवित्राश्चाक्षुषा देवाः शुचिरिन्द्रो भविष्यति ।
अग्निर्बाहुः शुचिः शुद्धो मागधाद्यास्तपस्विनः ॥ ३४॥

सत्रायणस्य तनयो बृहद्भानुस्तदा हरिः ।
वितानायां महाराज क्रियातन्तून् वितायिता ॥ ३५॥

राजंश्चतुर्दशैतानि त्रिकालानुगतानि ते ।
प्रोक्तान्येभिर्मितः कल्पो युगसाहस्रपर्ययः ॥ ३६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥


अष्टम स्कन्ध-तेरहवाँ अध्याय 
आगामी सात मन्वन्तरों का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! विवस्वान् के पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ही सातवें (वैवस्वत) मनु हैं। यह वर्तमान मन्वन्तर ही उनका कार्यकाल है। उनकी सन्तान का वर्णन मैं करता हूँ ॥ १ ॥ वैवस्वत मनु के दस पुत्र हैं—इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करूष, पृषध्र और वसुमान ॥ २-३ ॥ परीक्षित ! इस मन्वन्तर में आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और ऋभु—ये देवताओं के प्रधान गण हैं और पुरन्दर उनका इन्द्र है ॥ ४ ॥ कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि और भरद्वाज—ये सप्तर्षि हैं ॥ ५ ॥ इस मन्वन्तर में भी कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से आदित्यों के छोटे भाई वामन के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार ग्रहण किया था ॥ ६ ॥

परीक्षित ! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें सात मन्वन्तरों का वर्णन सुनाया; अब भगवान की शक्ति से युक्त अगले (आनेवाले) सात मन्वन्तरों का वर्णन करता हूँ ॥ ७ ॥

परीक्षित ! यह तो मैं तुम्हें पहले (छठे स्कन्धमें) बता चु का हूँ कि विवस्वान् (भगवान सूर्य) की दो पत्नियाँ थीं—संज्ञा और छाया। ये दोनों ही विश्वकर्मा की पुत्री थीं ॥ ८ ॥ कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि उनकी एक तीसरी पत्नी बडवा भी थी। (मेरे विचार से तो संज्ञा का ही नाम बडवा हो गया था।) उन सूर्यपत्नियों में संज्ञा से तीन सन्तानें हुर्ईं—यम, यमी और श्राद्धदेव। छाया के भी तीन सन्तानें हुर्ईं—सावर्णि, शनैश्चर और तपती नाम की कन्या, जो संवरण की पत्नी हुई। जब संज्ञा ने बडवा का रूप धारण कर लिया, तब उससे दोनों अश्विनीकुमार हुए ॥ ९-१० ॥ आठवें मन्वन्तर में सावर्णि मनु होंगे। उनके पुत्र होंगे निर्मोक, विरजस्क आदि ॥ ११ ॥ परीक्षित ! उस समय सुतपा, विरजा और अमृतप्रभ नामक देवगण होंगे। इन देवताओं के इन्द्र होंगे विरोचन के पुत्र बलि ॥ १२ ॥ विष्णुभगवान ने वामन अवतार ग्रहण करके इन्हीं से तीन पग पृथ्वी माँगी थी; परंतु इन्हों ने उन को सारी त्रिलो की दे दी। राजा बलि को एक बार तो भगवान ने बाँध दिया था, परंतु फिर प्रसन्न होकर उन्होंने इनको स्वर्ग से भी श्रेष्ठ सुतल लोक का राज्य दे दिया। वे इस समय वहीं इन्द्र के समान विराजमान हैं। आगे चलकर ये ही इन्द्र होंगे और समस्त ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपद का भी परित्याग करके परम सिद्धि प्राप्त करेंगे ॥ १३-१४ ॥ गालव, दीप्तिमान्, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यशृङ्ग और हमारे पिता भगवान व्यास—ये आठवें मन्वन्तर में सप्तर्षि होंगे। इस समय ये लोग योगबल से अपने-अपने आश्रम-मण्डल में स्थित हैं ॥ १५-१६ ॥ देवगुह्य की पत्नी सरस्वती के गर्भ से सार्वभौम नामक भगवान का अवतार होगा। ये ही प्रभु पुरन्दर इन्द्र से स्वर्ग का राज्य छीनकर राजा बलि को दे देंगे ॥ १७ ॥

परीक्षित ! वरुण के पुत्र दक्षसावर्णि नवें मनु होंगे। भूतकेतु, दीप्तकेतु आदि उनके पुत्र होंगे ॥ १८ ॥ पार, मरीचिगर्भ आदि देवताओं के गण होंगे और अद्भुत नाम के इन्द्र होंगे। उस मन्वन्तर में द्युतिमान् आदि सप्तर्षि होंगे ॥ १९ ॥ आयुष्मान् की पत्नी अम्बुधारा के गर्भ से ऋषभ के रूप में भगवान का कलावतार होगा। अद्भुत नामक इन्द्र उन्हीं की दी हुई त्रिलो की का उपभोग करेंगे ॥ २० ॥

दसवें मनु होंगे उपश्लोक के पुत्र ब्रह्मसावर्णि। उनमें समस्त सद्गुण निवास करेंगे। भूरिषेण आदि उनके पुत्र होंगे और हविष्मान्, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि सप्तर्षि। सुवासन, विरुद्ध आदि देवताओं के गण होंगे और इन्द्र होंगे शम्भु ॥ २१-२२ ॥ विश्वसृज् की पत्नी विषूचि के गर्भ से भगवान विष्वक्सेन के रूप में अंशावतार ग्रहण करके शम्भु नामक इन्द्र से मित्रता करेंगे ॥ २३ ॥

ग्यारहवें मनु होंगे अत्यन्त संयमी धर्मसावर्णि। उनके सत्य, धर्म आदि दस पुत्र होंगे ॥ २४ ॥ विहङ्गम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि देवताओं के गण होंगे। अरुणादि सप्तर्षि होंगे और वैधृत नाम के इन्द्र होंगे ॥ २५ ॥ आर्यक की पत्नी वैधृता के गर्भ से धर्मसेतु के रूप में भगवान का अंशावतार होगा और उसी रूप में वे त्रिलोकी की रक्षा करेंगे ॥ २६ ॥

परीक्षित ! बारहवें मनु होंगे रुद्रसावर्णि। उनके देववान्, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि पुत्र होंगे ॥ २७ ॥ उस मन्वन्तर में ऋतधामा नामक इन्द्र होंगे और हरित आदि देवगण। तपोमूर्ति, तपस्वी आग्रीध्रक आदि सप्तर्षि होंगे ॥ २८ ॥ सत्यसहा की पत्नी सूनृता के गर्भ से स्वधाम के रूप में भगवान का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान उस मन्वन्तर का पालन करेंगे ॥ २९ ॥

तेरहवें मनु होंगे परम जितेन्द्रिय देवसावर्णि। चित्रसेन, विचित्र आदि उनके पुत्र होंगे ॥ ३० ॥ सुकर्म और सुत्राम आदि देवगण होंगे तथा इन्द्र का नाम होगा दिवस्पति। उस समय निर्मोक और तत्त्वदर्श आदि सप्तर्षि होंगे ॥ ३१ ॥ देवहोत्र की पत्नी बृहती के गर्भ से योगेश्वर के रूप में भगवान का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान दिवस्पति को इन्द्रपद देंगे ॥ ३२ ॥

महाराज ! चौदहवें मनु होंगे इन्द्रसावर्णि। उरु, गम्भीरबुद्धि आदि उनके पुत्र होंगे ॥ ३३ ॥ उस समय पवित्र, चाक्षुष आदि देवगण होंगे और इन्द्र का नाम होगा शुचि। अग्रि, बाहु, शुचि, शुद्ध और मागध आदि सप्तर्षि होंगे ॥ ३४ ॥ उस समय सत्रायण की पत्नी विताना के गर्भ से बृहद्भानु के रूप में भगवान अवतार ग्रहण करेंगे तथा कर्मकाण्ड का विस्तार करेंगे ॥ ३५ ॥

परीक्षित ! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य—तीनों ही काल में चलते रहते हैं। इन्हीं के द्वारा एक सहस्र चतुर्युगीवाले कल्प के समय की गणना की जाती है ॥ ३६ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-14]

॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥
राजोवाच
मन्वन्तरेषु भगवन् यथा मन्वादयस्त्विमे ।
यस्मिन् कर्मणि ये येन नियुक्तास्तद्वदस्व मे ॥ १॥

ऋषिरुवाच
मनवो मनुपुत्राश्च मुनयश्च महीपते ।
इन्द्राः सुरगणाश्चैव सर्वे पुरुषशासनाः ॥ २॥

यज्ञादयो याः कथिताः पौरुष्यस्तनवो नृप ।
मन्वादयो जगद्यात्रां नयन्त्याभिः प्रचोदिताः ॥ ३॥

चतुर्युगान्ते कालेन ग्रस्तान् श्रुतिगणान् यथा ।
तपसा ऋषयोऽपश्यन् यतो धर्मः सनातनः ॥ ४॥

ततो धर्मं चतुष्पादं मनवो हरिणोदिताः ।
युक्ताः सञ्चारयन्त्यद्धा स्वे स्वे काले महीं नृप ॥ ५॥

पालयन्ति प्रजापाला यावदन्तं विभागशः ।
यज्ञभागभुजो देवा ये च तत्रान्विताश्च तैः ॥ ६॥

इन्द्रो भगवता दत्तां त्रैलोक्यश्रियमूर्जिताम् ।
भुञ्जानः पाति लोकांस्त्रीन् कामं लोके प्रवर्षति ॥ ७॥

ज्ञानं चानुयुगं ब्रूते हरिः सिद्धस्वरूपधृक् ।
ऋषिरूपधरः कर्म योगं योगेशरूपधृक् ॥ ८॥

सर्गं प्रजेशरूपेण दस्यून् हन्यात्स्वराड्वपुः ।
कालरूपेण सर्वेषामभावाय पृथग्गुणः ॥ ९॥

स्तूयमानो जनैरेभिर्मायया नामरूपया ।
विमोहितात्मभिर्नानादर्शनैर्न च दृश्यते ॥ १०॥

एतत्कल्पविकल्पस्य प्रमाणं परिकीर्तितम् ।
यत्र मन्वन्तराण्याहुश्चतुर्दश पुराविदः ॥ ११॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥

अष्टम स्कन्ध-चौदहवाँ अध्याय 
मनु आदि के पृथक्-पृथक् कर्मों का निरूपण
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! आपके द्वारा वर्णित ये मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि आदि अपने-अपने मन्वन्तर में किसके द्वारा नियुक्त होकर कौन-कौन-सा काम किस प्रकार करते हैं—यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि और देवता—सब को नियुक्त करनेवाले स्वयं भगवान ही हैं ॥ २ ॥ राजन् ! भगवान के जिन यज्ञपुरुष आदि अवतार-शरीरों का वर्णन मैंने किया है, उन्हीं की प्रेरणा से मनु आदि विश्व-व्यवस्था का सञ्चालन करते हैं ॥ ३ ॥ चतुर्युगी के अन्त में समय के उलट-फेर से जब श्रुतियाँ नष्टप्राय हो जाती हैं, तब सप्तर्षिगण अपनी तपस्या से पुन: उनका साक्षातकार करते हैं। उन श्रुतियों से ही सनातनधर्म की रक्षा होती है ॥ ४ ॥ राजन्! भगवान की प्रेरणा से अपने-अपने मन्वन्तर में बड़ी सावधानी से सब-के-सब मनु पृथ्वी पर चारों चरण से परिपूर्ण धर्म का अनुष्ठान करवाते हैं ॥ ५ ॥ मनुपुत्र मन्वन्तरभर काल और देश दोनों का विभाग करके प्रजापालन तथा धर्म-पालन का कार्य करते हैं। पञ्चमहायज्ञ आदि कर्मों में जिन ऋषि, पितर, भूत और मनुष्य आदि का सम्बन्ध है—उनके साथ देवता उस मन्वन्तर में यज्ञ का भाग स्वीकार करते हैं ॥ ६ ॥ इन्द्र भगवान की दी हुई त्रिलोकी की अतुल सम्पत्ति का उपभोग और प्रजा का पालन करते हैं। संसार में यथेष्ट वर्षा करने का अधिकार भी उन्हीं को है ॥ ७ ॥ भगवान युग-युग में सनक आदि सिद्धों का रूप धारण करके ज्ञानका, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों का रूप धारण करके कर्म का और दत्तात्रेय आदि योगेश्वरों के रूप में योग का उपदेश करते हैं ॥ ८ ॥ वे मरीचि आदि प्रजापतियों के रूप में सृष्टि का विस्तार करते हैं, सम्राट् के रूप में लुटेरों का वध करते हैं और शीत, उष्ण आदि विभिन्न गुणों को धारण करके कालरूप से सब को संहार की ओर ले जाते हैं ॥ ९ ॥ नाम और रूप की माया से प्राणियों की बुद्धि विमूढ़ हो रही है। इसलिये वे अनेक प्रकार के दर्शनशास्त्रों के द्वारा महिमा तो भगवान की ही गाते हैं, परंतु उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाते ॥ १० ॥

परीक्षित ! इस प्रकार मैंने तुम्हें महाकल्प और अवान्तर कल्प का परिमाण सुना दिया। पुराणतत्त्व के विद्वानों ने प्रत्येक अवान्तर कल्प में चौदह मन्वन्तर बतलाये हैं ॥ ११ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-15]

॥ पञ्चदशोऽद्ध्ययाः - १५ ॥
राजोवाच
बलेः पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरिरयाचत ।
भूत्वेश्वरः कृपणवल्लब्धार्थोऽपि बबन्ध तम् ॥ १॥

एतद्वेदितुमिच्छामो महत्कौतूहलं हि नः ।
यज्ञेश्वरस्य पूर्णस्य बन्धनं चाप्यनागसः ॥ २॥

श्रीशुक उवाच
पराजितश्रीरसुभिश्च हापितो
हीन्द्रेण राजन् भृगुभिः स जीवितः ।
सर्वात्मना तानभजद्भृगून् बलिः
शिष्यो महात्मार्थनिवेदनेन ॥ ३॥

तं ब्राह्मणा भृगवः प्रीयमाणा
अयाजयन् विश्वजिता त्रिणाकम् ।
जिगीषमाणं विधिनाभिषिच्य
महाभिषेकेण महानुभावाः ॥ ४॥

ततो रथः काञ्चनपट्टनद्धो
हयाश्च हर्यश्वतुरङ्गवर्णाः ।
ध्वजश्च सिंहेन विराजमानो
हुताशनादास हविर्भिरिष्टात् ॥ ५॥

धनुश्च दिव्यं पुरटोपनद्धं
तूणावरिक्तौ कवचं च दिव्यम् ।
पितामहस्तस्य ददौ च माला-
मम्लानपुष्पां जलजं च शुक्रः ॥ ६॥

एवं स विप्रार्जितयोधनार्थस्तैः
कल्पितस्वस्त्ययनोऽथ विप्रान् ।
प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्रणामः
प्रह्लादमामन्त्र्य नमश्चकार ॥ ७॥

अथारुह्य रथं दिव्यं भृगुदत्तं महारथः ।
सुस्रग्धरोऽथ सन्नह्य धन्वी खड्गी धृतेषुधिः ॥ ८॥

हेमाङ्गदलसद्बाहुः स्फुरन्मकरकुण्डलः ।
रराज रथमारूढो धिष्ण्यस्थ इव हव्यवाट् ॥ ९॥

तुल्यैश्वर्यबलश्रीभिः स्वयूथैर्दैत्ययूथपैः ।
पिबद्भिरिव खं दृग्भिर्दहद्भिः परिधीनिव ॥ १०॥

वृतो विकर्षन् महतीमासुरीं ध्वजिनीं विभुः ।
ययाविन्द्रपुरीं स्वृद्धां कम्पयन्निव रोदसी ॥ ११॥

रम्यामुपवनोद्यानैः श्रीमद्भिर्नन्दनादिभिः ।
कूजद्विहङ्गमिथुनैर्गायन्मत्तमधुव्रतैः ॥ १२॥

प्रवालफलपुष्पोरुभारशाखामरद्रुमैः ।
हंससारसचक्राह्वकारण्डवकुलाकुलाः ।
नलिन्यो यत्र क्रीडन्ति प्रमदाः सुरसेविताः ॥ १३॥

आकाशगङ्गया देव्या वृतां परिखभूतया ।
प्राकारेणाग्निवर्णेन साट्टालेनोन्नतेन च ॥ १४॥

रुक्मपट्टकपाटैश्च द्वारैः स्फटिकगोपुरैः ।
जुष्टां विभक्तप्रपथां विश्वकर्मविनिर्मिताम् ॥ १५॥

सभाचत्वररथ्याढ्यां विमानैर्न्यर्बुदैर्वृताम् ।
श‍ृङ्गाटकैर्मणिमयैर्वज्रविद्रुमवेदिभिः ॥ १६॥

यत्र नित्यवयोरूपाः श्यामा विरजवाससः ।
भ्राजन्ते रूपवन्नार्यो ह्यर्चिर्भिरिव वह्नयः ॥ १७॥

सुरस्त्रीकेशविभ्रष्टनवसौगन्धिकस्रजाम् ।
यत्रामोदमुपादाय मार्ग आवाति मारुतः ॥ १८॥

हेमजालाक्षनिर्गच्छद्धूमेनागुरुगन्धिना ।
पाण्डुरेण प्रतिच्छन्नमार्गे यान्ति सुरप्रियाः ॥ १९॥

मुक्तावितानैर्मणिहेमकेतुभि-
र्नानापताकावलभीभिरावृताम् ।
शिखण्डिपारावतभृङ्गनादितां
वैमानिकस्त्रीकलगीतमङ्गलाम् ॥ २०॥

मृदङ्गशङ्खानकदुन्दुभिस्वनैः
सतालवीणामुरजर्ष्टिवेणुभिः ।
नृत्यैः सवाद्यैरुपदेवगीतकै-
र्मनोरमां स्वप्रभया जितप्रभाम् ॥ २१॥

यां न व्रजन्त्यधर्मिष्ठाः खला भूतद्रुहः शठाः ।
मानिनः कामिनो लुब्धा एभिर्हीना व्रजन्ति यत् ॥ २२॥

तां देवधानीं स वरूथिनीपतिर्बहिः
समन्ताद्रुरुधे पृतन्यया ।
आचार्यदत्तं जलजं महास्वनं
दध्मौ प्रयुञ्जन् भयमिन्द्रयोषिताम् ॥ २३॥

मघवांस्तमभिप्रेत्य बलेः परममुद्यमम् ।
सर्वदेवगणोपेतो गुरुमेतदुवाच ह ॥ २४॥

भगवन्नुद्यमो भूयान् बलेर्नः पूर्ववैरिणः ।
अविषह्यमिमं मन्ये केनासीत्तेजसोर्जितः ॥ २५॥

नैनं कश्चित्कुतो वापि प्रतिव्योढुमधीश्वरः ।
पिबन्निव मुखेनेदं लिहन्निव दिशो दश ।
दहन्निव दिशो दृग्भिः संवर्ताग्निरिवोत्थितः ॥ २६॥

ब्रूहि कारणमेतस्य दुर्धर्षत्वस्य मद्रिपोः ।
ओजः सहो बलं तेजो यत एतत्समुद्यमः ॥ २७॥

गुरुरुवाच
जानामि मघवन् शत्रोरुन्नतेरस्य कारणम् ।
शिष्यायोपभृतं तेजो भृगुभिर्ब्रह्मवादिभिः ॥ २८॥

(ओजस्विनं बलिं जेतुं न समर्थोऽस्ति कश्चन ।
विजेष्यति न कोऽप्येनं ब्रह्मतेजःसमेधितम् ।)
भवद्विधो भवान् वापि वर्जयित्वेश्वरं हरिम्
नास्य शक्तः पुरः स्थातुं कृतान्तस्य यथा जनाः ॥ २९॥

तस्मान्निलयमुत्सृज्य यूयं सर्वे त्रिविष्टपम् ।
यात कालं प्रतीक्षन्तो यतः शत्रोर्विपर्ययः ॥ ३०॥

एष विप्रबलोदर्कः सम्प्रत्यूर्जितविक्रमः ।
तेषामेवापमानेन सानुबन्धो विनङ्क्ष्यति ॥ ३१॥

एवं सुमन्त्रितार्थास्ते गुरुणार्थानुदर्शिना ।
हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्गीर्वाणाः कामरूपिणः ॥ ३२॥

देवेष्वथ निलीनेषु बलिर्वैरोचनः पुरीम् ।
देवधानीमधिष्ठाय वशं निन्ये जगत्त्रयम् ॥ ३३॥

तं विश्वजयिनं शिष्यं भृगवः शिष्यवत्सलाः ।
शतेन हयमेधानामनुव्रतमयाजयन् ॥ ३४॥

ततस्तदनुभावेन भुवनत्रयविश्रुताम् ।
कीर्तिं दिक्षु वितन्वानः स रेज उडुराडिव ॥ ३५॥

बुभुजे च श्रियं स्वृद्धां द्विजदेवोपलम्भिताम् ।
कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानो महामनाः ॥ ३६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥


अष्टम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय
राजा बलि की स्वर्ग पर विजय
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! श्रीहरि स्वयं ही सब के स्वामी हैं। फिर उन्होंने दीन-हीन की भाँति राजा बलि से तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी ? तथा जो कुछ वे चाहते थे, वह मिल जाने पर भी उन्होंने बलि को बाँधा क्यों ? ॥ १ ॥ मेरे हृदय में इस बात का बड़ा कौतूहल है कि स्वयं परिपूर्ण यज्ञेश्वर भगवान के द्वारा याचना और निरपराध का बन्धन—ये दोंनो ही कैसे सम्भव हुए ? हमलोग यह जानना चाहते हैं ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उनकी सम्पति छीन ली और उनके प्राण भी ले लिये, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्य ने उन्हें अपनी सञ्जीवनी विद्या से जीवित कर दिया। इस पर शुक्राचार्यजी के शिष्य महात्मा बलि ने अपना सर्वस्व उनके चरणों पर चढ़ा दिया और वे तन-मन से गुरुजी के साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगे ॥ ३ ॥ इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने की इच्छावाले बलि का महाभिषेक की विधि से अभिषेक करके उनसे विश्वजित् नाम का यज्ञ कराया ॥ ४ ॥ यज्ञ की विधि से हविष्यों के द्वारा जब अग्रिदेवता की पूजा की गयी, तब यज्ञकुण्ड में से सो ने की चद्दर से मढ़ा हुआ एक बड़ा सुन्दर रथ निकला। फिर इन्द्र के घोड़ों-जैसे हरे रंग के घोड़े और सिंह के चिह्न से युक्त रथ पर लगा ने की ध्वजा निकली ॥ ५ ॥ साथ ही सो ने के पत्र से मढ़ा हुआ दिव्य धनुष, कभी खाली न होनेवाले दो अक्षय तरकस और दिव्य कवच भी प्रकट हुए। दादा प्रह्लादजी ने उन्हें एक ऐसी माला दी, जिसके फूल कभी कुम्हलाते न थे। तथा शुक्राचार्य ने एक शङ्ख दिया ॥ ६ ॥ इस प्रकार ब्राह्मणों की कृपा से युद्ध की सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जाने पर राजा बलि ने उन ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने प्रह्लादजी से सम्भाषण करके उनके चरणों में नमस्कार किया ॥ ७ ॥ फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणों के दिये हुए दिव्य रथ पर सवार हुए। जब महारथी-राजा बलि ने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकस आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादा की दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई ॥ ८ ॥ उनकी भुजाओं में सो ने के बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। उनके कारण रथ पर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्रिकुण्ड में अग्रि प्रज्वलित हो रही हो ॥ ९ ॥ उनके साथ उन्हींके समान ऐश्वर्य, बल और विभूतिवाले दैत्यसेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये। ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाश को पी जायँगे और अपने क्रोधभरे प्रज्वलित नेत्रों से समस्त दिशाओं को, क्षितिज को भस्म कर डालेंगे ॥ १० ॥ राजा बलि ने इस बहुत बड़ी आसुरी सेना को लेकर उसका युद्ध के ढंग से सञ्चालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्ष को कँपाते हुए सकल ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावती पर चढ़ाई की ॥ ११ ॥

देवताओं की राजधानी अमरावती में बड़े सुन्दर-सुन्दर नन्दन वन आदि उद्यान और उपवन हैं। उन उद्यानों और उपवनों में पक्षियों के जोड़े चहकते रहते हैं। मधुलोभी भौंरे मतवाले होकर गुनगुनाते रहते हैं ॥ १२ ॥ लाल-लाल नये-नये पत्तों, फलों और पुष्पों से कल्पवृक्षों की शाखाएँ लदी रहती हैं। वहाँ के सरोवरों में हंस, सारस, चकवे और बतखों की भीड़ लगी रहती है। उन्हीं में देवताओं के द्वारा सम्मानित देवाङ्गनाएँ जलक्रीडा करती रहती हैं ॥ १३ ॥ ज्योतिर्मय आकाशगङ्गा ने खाई की भाँति अमरावती को चारों ओर से घेर रखा है। उसके चारों ओर बहुत ऊँचा सो ने का पर कोटा बना हुआ है, जिसमें स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी अटारियाँ बनी हुई हैं ॥ १४ ॥ सो ने के किवाड़ द्वार-द्वार पर लगे हुए हैं और स्फटिकमणि के गोपुर (नगर के बाहरी फाटक) हैं। उसमें अलग-अलग बड़े-बड़े राजमार्ग हैं। स्वयं विश्वकर्माने ही उस पुरी का निर्माण किया है ॥ १५ ॥ सभा के स्थान, खेल के चबूतरे और रथ चल ने के बड़े-बड़े मार्गों से वह शोभायमान है। दस करोड़ विमान उसमें सर्वदा विद्यमान रहते हैं और मणियों के बड़े-बड़े चौराहे एवं हीरे और मूँगे की वेदियाँ बनी हुई हैं ॥ १६ ॥ वहाँ की स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्षकी-सी रहती हैं, उनका यौवन और सौन्दर्य स्थिर रहता है। वे निर्मल वस्त्र पहनकर अपने रूप की छटा से इस प्रकार देदीप्यमान होती हैं, जैसे अपनी ज्वालाओं से अग्रि ॥ १७ ॥ देवाङ्गनाओं के जूड़े से गिरे हुए नवीन सौगन्धित पुष्पों की सुगन्ध लेकर वहाँ के मार्गों में मन्द-मन्द हवा चलती रहती है ॥ १८ ॥ सुनहली खिड़कियों में से अगर की सुगन्ध से युक्त सफेद धूआँ निकल-निकलकर वहाँ के मार्गों को ढक दिया करता है। उसी मार्ग से देवाङ्गनाएँ जाती-आती हैं ॥ १९ ॥ स्थान-स्थान पर मोतियों की झालरों से सजाये हुए चँदोवे त ने रहते हैं। सो ने की मणिमय पताकाएँ फहराती रहती हैं। छज्जों पर अनेकों झंडियाँ लहराती रहती हैं। मोर, कबूतर और भौंरे कलगान करते रहते हैं। देवाङ्गनाओं के मधुर संगीत से वहाँ सदा ही मङ्गल छाया रहता है ॥ २० ॥ मृदङ्ग, शङ्ख, नगारे, ढोल, वीणा, वंशी, मँजीरे और ऋष्टियाँ बजती रहती हैं। गन्धर्व बाजों के साथ गाया करते हैं और अप्सराएँ नाचा करती हैं। इन से अमरावती इतनी मनोहर जान पड़ती है, मानो उसने अपनी छटा से छटा की अधिष्ठात्री देवी को भी जीत लिया है ॥ २१ ॥ उस पुरी में अधर्मी, दुष्ट, जीवद्रोही, ठग, मानी, कामी और लोभी नहीं जा सकते। जो इन दोषों से रहित हैं, वे ही वहाँ जाते हैं ॥ २२ ॥ असुरों की सेना के स्वामी राजा बलि ने अपनी बहुत बड़ी सेना से बाहर की ओर सब ओर से अमरावती को घेर लिया और इन्द्रपत्नियों के हृदय में भय का सञ्चार करते हुए उन्होंने शुक्राचार्यजी के दिये हुए महान शङ्ख को बजाया। उस शङ्ख की ध्वनि सर्वत्र फैल गयी ॥ २३ ॥

इन्द्र ने देखा कि बलि ने युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है। अत: सब देवताओं के साथ वे अपने गुरु बृहस्पतिजी के पास गये और उनसे बोले— ॥ २४ ॥ ‘भगवन् ! मेरे पुरा ने शत्रु बलि ने इस बार युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमलोग उनका सामना नहीं कर सकेंगे। पता नहीं, किस शक्ति से इन की इतनी बढ़ती हो गयी है ॥ २५ ॥ मैं देखता हूँ कि इस समय बलि को कोई भी किसी प्रकार से रोक नहीं सकता। वे प्रलय की आग के समान बढ़ गये हैं और जान पड़ता है, मुख से इस विश्व को पी जाँयगे, जीभ से दसों दिशाओं को चाट जायँगे और नेत्रों की ज्वाला से दिशाओं को भस्म कर देंगे ॥ २६ ॥ आप कृपा करके मुझे बतलाइये कि मेरे शत्रु की इतनी बढ़तीका, जिसे किसी प्रकार भी दबाया नहीं जा सकता, क्या कारण है ? इसके शरीर, मन और इन्द्रियों में इतना बल और इतना तेज कहाँ से आ गया है कि इस ने इतनी बड़ी तैयारी करके चढ़ाई की है’ ॥ २७ ॥

देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा—‘इन्द्र! मैं तुम्हारे शत्रु बलि की उन्नति का कारण जानता हूँ। ब्रह्मवादी भृगुवंशियों ने अपने शिष्य बलि को महान तेज देकर शक्तियों का खजाना बना दिया है ॥ २८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान को छोडक़र तुम या तुम्हारे-जैसा और कोई भी बलि के सामने उसी प्रकार नहीं ठहर सकता, जैसे काल के सामने प्राणी ॥ २९ ॥ इसलिये तुमलोग स्वर्ग को छोडक़र कहीं छिप जाओ और उस समय की प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रु का भाग्यचक्र पलटे ॥ ३० ॥ इस समय ब्राह्मणों के तेज से बलि की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। जब यह उन्हीं ब्राह्मणों का तिरस्कार करेगा, तब अपने परिवार-परिकरके साथ नष्ट हो जायगा’ ॥ ३१ ॥ बृहस्पतिजी देवताओं के समस्त स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञाता थे। उन्होंने जब इस प्रकार देवताओं को सलाह दी, तब वे स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोडक़र चले गये ॥ ३२ ॥ देवताओं के छिप जाने पर विरोचननन्दन बलि ने अमरावतीपुरी पर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकों- को जीत लिया ॥ ३३ ॥ जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियों ने अपने अनुगत शिष्य से सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये ॥ ३४ ॥ उन यज्ञों के प्रभाव से बलि की कीर्ति-कौमुदी तीनों लोकों से बाहर भी दसों दिशाओं में फैल गयी और वे नक्षत्रों के राजा चन्द्रमा के समान शोभायमान हुए ॥ ३५ ॥ ब्राह्मण-देवताओं की कृपा से प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मी का वे बड़ी उदारता से उपभोग करने लगे और अपने को कृतकृत्य-सा मान ने लगे ॥ ३६ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-16]

॥ षोडशोऽध्यायः - १६ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा ।
हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यदनाथवत् ॥ १॥

एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवानगात् ।
निरुत्सवं निरानन्दं समाधेर्विरतश्चिरात् ॥ २॥

स पत्नीं दीनवदनां कृतासनपरिग्रहः ।
सभाजितो यथान्यायमिदमाह कुरूद्वह ॥ ३॥

अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेऽधुनाऽऽगतम् ।
न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिनः ॥ ४॥

अपि वाकुशलं किञ्चिद्गृहेषु गृहमेधिनि ।
धर्मस्यार्थस्य कामस्य यत्र योगो ह्ययोगिनाम् ॥ ५॥

अपि वातिथयोऽभ्येत्य कुटुम्बासक्तया त्वया ।
गृहादपूजिता याताः प्रत्युत्थानेन वा क्वचित् ॥ ६॥

गृहेषु येष्वतिथयो नार्चिताः सलिलैरपि ।
यदि निर्यान्ति ते नूनं फेरुराजगृहोपमाः ॥ ७॥

अप्यग्नयस्तु वेलायां न हुता हविषा सति ।
त्वयोद्विग्नधिया भद्रे प्रोषिते मयि कर्हिचित् ॥ ८॥

यत्पूजया कामदुघान् याति लोकान् गृहान्वितः ।
ब्राह्मणोऽग्निश्च वै विष्णोः सर्वदेवात्मनो मुखम् ॥ ९॥

अपि सर्वे कुशलिनस्तव पुत्रा मनस्विनि ।
लक्षयेऽस्वस्थमात्मानं भवत्या लक्षणैरहम् ॥ १०॥

अदितिरुवाच
भद्रं द्विजगवां ब्रह्मन् धर्मस्यास्य जनस्य च ।
त्रिवर्गस्य परं क्षेत्रं गृहमेधिन् गृहा इमे ॥ ११॥

अग्नयोऽतिथयो भृत्या भिक्षवो ये च लिप्सवः ।
सर्वं भगवतो ब्रह्मन्ननुध्यानान्न रिष्यति ॥ १२॥

को नु मे भगवन् कामो न सम्पद्येत मानसः ।
यस्या भवान् प्रजाध्यक्ष एवं धर्मान् प्रभाषते ॥ १३॥

तवैव मारीच मनःशरीरजाः
प्रजा इमाः सत्त्वरजस्तमोजुषः ।
समो भवांस्तास्वसुरादिषु प्रभो
तथापि भक्तं भजते महेश्वरः ॥ १४॥

तस्मादीश भजन्त्या मे श्रेयश्चिन्तय सुव्रत ।
हृतश्रियो हृतस्थानान् सपत्नैः पाहि नः प्रभो ॥ १५॥

परैर्विवासिता साहं मग्ना व्यसनसागरे ।
ऐश्वर्यं श्रीर्यशः स्थानं हृतानि प्रबलैर्मम ॥ १६॥

यथा तानि पुनः साधो प्रपद्येरन् ममात्मजाः ।
तथा विधेहि कल्याणं धिया कल्याणकृत्तम ॥ १७॥

श्रीशुक उवाच
एवमभ्यर्थितोऽदित्या कस्तामाह स्मयन्निव ।
अहो मायाबलं विष्णोः स्नेहबद्धमिदं जगत् ॥ १८॥

क्व देहो भौतिकोऽनात्मा क्व चात्मा प्रकृतेः परः ।
कस्य के पतिपुत्राद्या मोह एव हि कारणम् ॥ १९॥

उपतिष्ठस्व पुरुषं भगवन्तं जनार्दनम् ।
सर्वभूतगुहावासं वासुदेवं जगद्गुरुम् ॥ २०॥

स विधास्यति ते कामान् हरिर्दीनानुकम्पनः ।
अमोघा भगवद्भक्तिर्नेतरेति मतिर्मम ॥ २१॥

अदितिरुवाच
केनाहं विधिना ब्रह्मन्नुपस्थास्ये जगत्पतिम् ।
यथा मे सत्यसङ्कल्पो विदध्यात्स मनोरथम् ॥ २२॥

आदिश त्वं द्विजश्रेष्ठ विधिं तदुपधावनम् ।
आशु तुष्यति मे देवः सीदन्त्याः सह पुत्रकैः ॥ २३॥

कश्यप उवाच
एतन्मे भगवान् पृष्टः प्रजाकामस्य पद्मजः ।
यदाह ते प्रवक्ष्यामि व्रतं केशवतोषणम् ॥ २४॥

फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतः ।
अर्चयेदरविन्दाक्षं भक्त्या परमयान्वितः ॥ २५॥

सिनीवाल्यां मृदाऽऽलिप्य स्नायात्क्रोडविदीर्णया ।
यदि लभ्येत वै स्रोतस्येतं मन्त्रमुदीरयेत् ॥ २६॥

त्वं देव्यादिवराहेण रसायाः स्थानमिच्छता ।
उद्धृतासि नमस्तुभ्यं पाप्मानं मे प्रणाशय ॥ २७॥

निर्वर्तितात्मनियमो देवमर्चेत्समाहितः ।
अर्चायां स्थण्डिले सूर्ये जले वह्नौ गुरावपि ॥ २८॥

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महीयसे ।
सर्वभूतनिवासाय वासुदेवाय साक्षिणे ॥ २९॥

नमोऽव्यक्ताय सूक्ष्माय प्रधानपुरुषाय च ।
चतुर्विंशद्गुणज्ञाय गुणसङ्ख्यानहेतवे ॥ ३०॥

नमो द्विशीर्ष्णे त्रिपदे चतुःश‍ृङ्गाय तन्तवे ।
सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नमः ॥ ३१॥

नमः शिवाय रुद्राय नमः शक्तिधराय च ।
सर्वविद्याधिपतये भूतानां पतये नमः ॥ ३२॥

नमो हिरण्यगर्भाय प्राणाय जगदात्मने ।
योगैश्वर्यशरीराय नमस्ते योगहेतवे ॥ ३३॥

नमस्त आदिदेवाय साक्षिभूताय ते नमः ।
नारायणाय ऋषये नराय हरये नमः ॥ ३४॥

नमो मरकतश्यामवपुषेऽधिगतश्रिये ।
केशवाय नमस्तुभ्यं नमस्ते पीतवाससे ॥ ३५॥

त्वं सर्ववरदः पुंसां वरेण्य वरदर्षभ ।
अतस्ते श्रेयसे धीराः पादरेणुमुपासते ॥ ३६॥

अन्ववर्तन्त यं देवाः श्रीश्च तत्पादपद्मयोः ।
स्पृहयन्त इवामोदं भगवान् मे प्रसीदताम् ॥ ३७॥

एतैर्मन्त्रैर्हृषीकेशमावाहनपुरस्कृतम् ।
अर्चयेच्छ्रद्धया युक्तः पाद्योपस्पर्शनादिभिः ॥ ३८॥

अर्चित्वा गन्धमाल्याद्यैः पयसा स्नपयेद्विभुम् ।
वस्त्रोपवीताभरणपाद्योपस्पर्शनैस्ततः ।
गन्धधूपादिभिश्चार्चेद्द्वादशाक्षरविद्यया ॥ ३९॥

श‍ृतं पयसि नैवेद्यं शाल्यन्नं विभवे सति ।
ससर्पिः सगुडं दत्त्वा जुहुयान्मूलविद्यया ॥ ४०॥

निवेदितं तद्भक्ताय दद्याद्भुञ्जीत वा स्वयम् ।
दत्त्वाऽऽचमनमर्चित्वा ताम्बूलं च निवेदयेत् ॥ ४१॥

जपेदष्टोत्तरशतं स्तुवीत स्तुतिभिः प्रभुम् ।
कृत्वा प्रदक्षिणं भूमौ प्रणमेद्दण्डवन्मुदा ॥ ४२॥

कृत्वा शिरसि तच्छेषां देवमुद्वासयेत्ततः ।
द्व्यवरान् भोजयेद्विप्रान् पायसेन यथोचितम् ॥ ४३॥

भुञ्जीत तैरनुज्ञातः शेषं सेष्टः सभाजितैः ।
ब्रह्मचार्यथ तद्रात्र्यां श्वोभूते प्रथमेऽहनि ॥ ४४॥

स्नातः शुचिर्यथोक्तेन विधिना सुसमाहितः ।
पयसा स्नापयित्वार्चेद्यावद्व्रतसमापनम् ॥ ४५॥

पयोभक्षो व्रतमिदं चरेद्विष्ण्वर्चनादृतः ।
पूर्ववज्जुहुयादग्निं ब्राह्मणांश्चापि भोजयेत् ॥ ४६॥

एवं त्वहरहः कुर्याद्द्वादशाहं पयोव्रतः ।
हरेराराधनं होममर्हणं द्विजतर्पणम् ॥ ४७॥

प्रतिपद्दिनमारभ्य यावच्छुक्लत्रयोदशी ।
ब्रह्मचर्यमधःस्वप्नं स्नानं त्रिषवणं चरेत् ॥ ४८॥

वर्जयेदसदालापं भोगानुच्चावचांस्तथा ।
अहिंस्रः सर्वभूतानां वासुदेवपरायणः ॥ ४९॥

त्रयोदश्यामथो विष्णोः स्नपनं पञ्चकैर्विभोः ।
कारयेच्छास्त्रदृष्टेन विधिना विधिकोविदैः ॥ ५०॥

पूजां च महतीं कुर्याद्वित्तशाठ्यविवर्जितः ।
चरुं निरूप्य पयसि शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ५१॥

श‍ृतेन तेन पुरुषं यजेत सुसमाहितः ।
नैवेद्यं चातिगुणवद्दद्यात्पुरुषतुष्टिदम् ॥ ५२॥

आचार्यं ज्ञानसम्पन्नं वस्त्राभरणधेनुभिः ।
तोषयेदृत्विजश्चैव तद्विद्ध्याराधनं हरेः ॥ ५३॥

भोजयेत्तान् गुणवता सदन्नेन शुचिस्मिते ।
अन्यांश्च ब्राह्मणान् शक्त्या ये च तत्र समागताः ॥ ५४॥

दक्षिणां गुरवे दद्यादृत्विग्भ्यश्च यथार्हतः ।
अन्नाद्येनाश्वपाकांश्च प्रीणयेत्समुपागतान् ॥ ५५॥

भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनान्धकृपणेषु च ।
विष्णोस्तत्प्रीणनं विद्वान् भुञ्जीत सह बन्धुभिः ॥ ५६॥

नृत्यवादित्रगीतैश्च स्तुतिभिः स्वस्तिवाचकैः ।
कारयेत्तत्कथाभिश्च पूजां भगवतोऽन्वहम् ॥ ५७॥

एतत्पयोव्रतं नाम पुरुषाराधनं परम् ।
पितामहेनाभिहितं मया ते समुदाहृतम् ॥ ५८॥

त्वं चानेन महाभागे सम्यक् चीर्णेन केशवम् ।
आत्मना शुद्धभावेन नियतात्मा भजाव्ययम् ॥ ५९॥

अयं वै सर्वयज्ञाख्यः सर्वव्रतमिति स्मृतम् ।
तपःसारमिदं भद्रे दानं चेश्वरतर्पणम् ॥ ६०॥

त एव नियमाः साक्षात्त एव च यमोत्तमाः ।
तपो दानं व्रतं यज्ञो येन तुष्यत्यधोक्षजः ॥ ६१॥

तस्मादेतद्व्रतं भद्रे प्रयता श्रद्धया चर ।
भगवान् परितुष्टस्ते वरानाशु विधास्यति ॥ ६२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हिताया-
मष्टमस्कन्धे अदितिपयोव्रतकथनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥


अष्टम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय
कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदिति को बड़ा दु:ख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं ॥ १ ॥ एक बार बहुत दिनों के बाद जब परमप्रभावशाली कश्यप मुनि की समाधि टूटी, तब वे अदिति के आश्रम पर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकार का उत्साह या सजावट ही ॥ २ ॥ परीक्षित ! जब वे वहाँ जाकर आसन पर बैठ गये और अदिति ने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदितिसे—जिसके चेहरे पर बड़ी उदासी छायी हुई थी—बोले ॥ ३ ॥ ‘कल्याणी ! इस समय संसार में ब्राह्मणों पर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है ? धर्म का पालन तो ठीक-ठीक होता है ? काल के कराल गाल में पड़े हुए लोगों का कुछ अमङ्गल तो नहीं हो रहा है ? ॥ ४ ॥ प्रिये ! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योग का फल देनेवाला है। इस गृहस्थाश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम के सेवन में किसी प्रकार का विघ्र तो नहीं हो रहा है ? ॥ ५ ॥ यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्ब के भरण-पोषण में व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुम से बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करने में भी असमर्थ रही हो। इसीसे तो तुम उदास नहीं हो रही हो ? ॥ ६ ॥ जिन घरों में आये हुए अतिथि का जल से भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ों के घर के समान हैं ॥ ७ ॥ प्रिये ! सम्भव है, मेरे बाहर चले जाने पर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्र रहा हो और समय पर तुम ने हविष्य से अग्रियों में हवन न किया हो ॥ ८ ॥ सर्वदेवमय भगवान के मुख हैं—ब्राह्मण और अग्रि। गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनों की पूजा करता है तो उसे उन लोकों की प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं ॥ ९ ॥ प्रिये ? तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परंतु तुम्हारे बहुत- से लक्षणों से मैं देख रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है । तुम्हारे सब लडक़े तो कुशल-मङ्गल से हैं न ?’ ॥ १० ॥

अदिति ने कहा—भगवन्! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासी—सब सकुशल हैं। मेरे स्वामी! यह गृहस्थ-आश्रम ही अर्थ, धर्म और काम की साधना में परम सहायक है ॥ ११ ॥ प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामना से अग्रि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचकों का भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है ॥ १२ ॥ भगवन् ! जब आप-जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्म-पालन का उपदेश करते है; तब भला मेरे मन की ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाय ? ॥ १३ ॥ आर्यपुत्र ! समस्त प्रजा—वह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी हो—आपकी ही सन्तान है। कुछ आपके संकल्प से उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीर से ! भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानों के प्रति—चाहे असुर हों या देवता—एक-सा भाव रखते हैं, सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं ॥ १४ ॥ मेरे स्वामी ! मैं आपकी दासी हूँ। आप मेरी भलाई के सम्बन्ध में विचार कीजिये। मर्यादापालक प्रभो ! शत्रुओं ने हमारी सम्पत्ति और रहने का स्थान तक छीन लिया है। आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ १५ ॥ बलवान् दैत्यों ने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घर से बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार मैं दु:ख के समुद्र में डूब रही हूँ ॥ १६ ॥ आप से बढक़र हमारी भलाई करनेवाला और कोई नहीं है। इसलिये मेरे हितैषी स्वामी ! आप सोच-विचारकर अपने संकल्प से ही मेरे कल्याण का कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे कि मेरे पुत्रों को वे वस्तुएँ फिर से प्राप्त हो जायँ ॥ १७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार अदिति ने जब कश्यपजी से प्रार्थना की, तब वे कुछ विस्मित- से होकर बोले—‘बड़े आश्चर्य की बात है। भगवान की माया भी कैसी प्रबल है ! यह सारा जगत स्नेह की रज्जु से बँधा हुआ है ॥ १८ ॥ कहाँ यह पञ्चभूतों से बना हुआ अनात्मा शरीर और कहाँ प्रकृति से परे आत्मा ? न किसी का कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है। मोह ही मनुष्य को नचा रहा है ॥ १९ ॥ प्रिये ! तुम सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान, अपने भक्तों के दु:ख मिटानेवाले जगद्गुरु भगवान वासुदेव की आराधना करो ॥ २० ॥ वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है ॥ २१ ॥

अदिति ने पूछा—भगवन् ! मैं जगदीश्वर भगवान की आराधना किस प्रकार करूँ, जिससे वे सत्यसङ्कल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें ॥ २२ ॥ पतिदेव ! मैं अपने पुत्रों के साथ बहुत ही दु:ख भोग रही हूँ। जिससे वे शीघ्र ही मुझ पर प्रसन्न हो जायँ, उनकी आराधना की वही विधि मुझे बतलाइये ॥ २३ ॥

कश्यपजी ने कहा—देवि ! जब मुझे सन्तान की कामना हुई थी, तब मैंने भगवान ब्रह्माजी से यही बात पूछी थी। उन्होंने मुझे भगवान को प्रसन्न करनेवाले जिस व्रत का उपदेश किया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥ २४ ॥ फाल्गुन के शुक्लपक्ष में बारह दिन तक केवल दूध पीकर रहे और परम भक्ति से भगवान कमलनयन की पूजा करे ॥ २५ ॥ अमावस्या के दिन यदि मिल सके तो सूअर की खोदी हुई मिट्टी से अपना शरीर मलकर नदी में स्नान करे। उस समय यह मन्त्र[1] पढऩा चाहिये ॥ २६ ॥ हे देवि ! प्राणियों को स्थान दे ने की इच्छा से वराहभगवान ने रसातल से तुम्हारा उद्धार किया था। तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम मेरे पापों को नष्ट कर दो ॥ २७ ॥ इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमों को पूरा करके एकाग्रचित्त से मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्रि और गुरुदेव के रूप में भगवान की पूजा करे ॥ २८ ॥ (और इस प्रकार स्तुति करे—) ‘प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान् हैं। अन्तर्यामी और आराधनीय हैं। समस्त प्राणी आप में और आप समस्त प्राणियों में निवास करते हैं। इसीसे आपको ‘वासुदेव’ कहते हैं। आप समस्त चराचर जगत और उसके कारण के भी साक्षी हैं। भगवन् ! मेरा आपको नमस्कार है ॥ २९ ॥ आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुष के रूप में भी आप ही स्थित हैं। आप चौबीस गुणों के जाननेवाले और गुणों की संख्या करनेवाले सांख्यशास्त्र के प्रवर् तक हैं। आपको मेरा नमस्कार है ॥ ३० ॥ आप वह यज्ञ हैं, जिसके प्रायणीय और उदयनीय—ये दो कर्म सिर हैं। प्रात:, मध्याह्न और सायं—ये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदों के द्वारा प्रतिपादित है और इस की आत्मा हैं स्वयं आप ! आपको मेरे नमस्कार हैं ॥ ३१ ॥ आप ही लोककल्याणकारी शिव और आप ही प्रलयकारी रुद्र हैं। समस्त शक्तियों को धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार है। आप समस्त विद्याओं के अधिपति एवं भूतों के स्वामी हैं। आपको मेरा नमस्कार ॥ ३२ ॥ आप ही सब के प्राण और आप ही इस जगत के स्वरूप भी हैं। आप योग के कारण तो हैं ही स्वयं योग और उससे मिलनेवाला ऐश्वर्य भी आप ही हैं। हे हिरण्यगर्भ ! आपके लिये मेरे नमस्कार ॥ ३३ ॥ आप ही आदिदेव हैं। सब के साक्षी हैं। आप ही नरनारायण ऋषि के रूप में प्रकट स्वयं भगवान हैं। आपको मेरे नमस्कार ॥ ३४ ॥ आपका शरीर मरकतमणि के समान साँवला है। समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्य की देवी लक्ष्मी आपकी सेवि का हैं। पीताम्बरधारी केशव ! आपको मेरे बार-बार नमस्कार ॥ ३५ ॥ आप सब प्रकार के वर देनेवाले हैं। वर देनेवालों में श्रेष्ठ हैं। तथा जीवों के एकमात्र वरणीय हैं। यही कारण है कि धीर विवे की पुरुष अपने कल्याण के लिये आपके चरणों की रज की उपासना करते हैं ॥ ३६ ॥ जिनके चरणकमलों की सुगन्ध प्राप्त करने की लालसा से समस्त देवता और स्वयं लक्ष्मीजी भी सेवा में लगी रहती हैं, वे भगवान मुझ पर प्रसन्न हों ॥ ३७ ॥ प्रिये ! भगवान हृषीकेश का आवाहन पहले ही कर ले। फिर इन मन्त्रों के द्वारा पाद्य, आचमन आदि के साथ श्रद्धापूर्वक मन लगाकर पूजा करे ॥ ३८ ॥ गन्ध, माला आदि से पूजा करके भगवान को दूध से स्नान करावे। उसके बाद वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पाद्य, आचमन, गन्ध, धूप आदि के द्वारा द्वादशाक्षर मन्त्र से भगवान की पूजा करे ॥ ३९ ॥ यदि सामथ्र्य हो तो दूध में पकाये हुए तथा घी और गुड़ मिले हुए शालि के चावल का नैवेद्य लगावे और उसी का द्वादशाक्षर मन्त्र से हवन करे ॥ ४० ॥ उस नैवेद्य को भगवान के भक्तों में बाँट दे या स्वयं पा ले। आचमन और पूजा के बाद ताम्बूल निवेदन करे ॥ ४१ ॥ एक सौ आठ बार द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करे और स्तुतियों के द्वारा भगवान का स्तवन करे। प्रदक्षिणा करके बड़े प्रेम और आनन्द से भूमि पर लोटकर दण्डवत्-प्रणाम करे ॥ ४२ ॥ निर्माल्य को सिर से लगाकर देवता का विसर्जन करे। कम-से-कम दो ब्राह्मणों को यथोचित रीति से खीर का भोजन करावे ॥ ४३ ॥ दक्षिणा आदि से उनका सत्कार करे। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर अपने इष्ट-मित्रों के साथ बचे हुए अन्न को स्वयं ग्रहण करे। उस दिन ब्रह्मचर्य से रहे और दूसरे दिन प्रात:काल ही स्नान आदि करके पवित्रतापूर्वक पूर्वोक्त विधि से एकाग्र होकर भगवान की पूजा करे। इस प्रकार जब तक व्रत समाप्त न हो, तब तक दूध से स्नान कराकर प्रतिदिन भगवान की पूजा करे ॥ ४४-४५ ॥ भगवान की पूजा में आदर-बुद्धि रखते हुए केवल पयोव्रती रहकर यह व्रत करना चाहिये। पूर्ववत् प्रतिदिन हवन और ब्राह्मण-भोजन भी कराना चाहिये ॥ ४६ ॥ इस प्रकार पयोव्रती रहकर बारह दिन तक प्रतिदिन भगवान की आराधना, होम और पूजा करे तथा ब्राह्मण-भोजन कराता रहे ॥ ४७ ॥

फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर त्रयोदशीपर्यन्त ब्रह्मचर्य से रहे, पृथ्वी पर शयन करे और तीनों समय स्नान करे ॥ ४८ ॥ झूठ न बोले। पापियों से बात न करे। पाप की बात न करे। छोटे-बड़े सब प्रकार के भोगों का त्याग कर दे। किसी भी प्राणी को किसी प्रकार से कष्ट न पहुँचावे। भगवान की आराधना में लगा ही रहे ॥ ४९ ॥ त्रयोदशी के दिन विधि जाननेवाले ब्राह्मणों के द्वारा शास्त्रोक्त विधि से भगवान विष्णु को पञ्चामृतस्नान करावे ॥ ५० ॥ उस दिन धन का सं कोच छोडक़र भगवान की बहुत बड़ी पूजा करनी चाहिये और दूध में चरु (खीर) पकाकर विष्णुभगवान को अर्पित करना चाहिये ॥ ५१ ॥ अत्यन्त एकाग्र चित्त से उसी पकाये हुए चरु के द्वारा भगवान का यजन करना चाहिये और उन को प्रसन्न करनेवाला गुणयुक्त तथा स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण करना चाहिये ॥ ५२ ॥ इसके बाद ज्ञानसम्पन्न आचार्य और ऋत्विजों को वस्त्र, आभूषण और गौ आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। प्रिये! इसे भी भगवान की ही आराधना समझो ॥ ५३ ॥ प्रिये! आचार्य और ऋत्विजों को शुद्ध, सात्त्विक और गुणयुक्त भोजन कराना ही चाहिये; दूसरे ब्राह्मण और आये हुए अतिथियों को भी अपनी शक्ति के अनुसार भोजन कराना चाहयिे ॥ ५४ ॥ गुरु और ऋत्विजों को यथायोग्य दक्षिणा देनी चाहिये। जो चाण्डाल आदि अपने-आप वहाँ आ गये हों, उन सभी को तथा दीन, अंधे और असमर्थ पुरुषों को भी अन्न आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। जब सब लोग खा चुकें, तब उन सब के सत्कार को भगवान की प्रसन्नता का साधन समझते हुए अपने भाई-बन्धुओं के साथ स्वयं भोजन करे ॥ ५५-५६ ॥ प्रतिपदा से लेकर त्रयोदशी तक प्रतिदिन नाच-गान, बाजे-गाजे, स्तुति, स्वस्तिवाचन और भगवत् कथाओं से भगवान की पूजा करे-करावे ॥ ५७ ॥

प्रिये ! यह भगवान की श्रेष्ठ आराधना है। इसका नाम है ‘पयोव्रत’। ब्रह्माजी ने मुझे जैसा बताया था, वैसा ही मैंने तुम्हें बता दिया ॥ ५८ ॥ देवि ! तुम भाग्यवती हो। अपनी इन्द्रियों को वश में करके शुद्ध भाव एवं श्रद्धापूर्ण चित्त से इस व्रत का भलीभाँति अनुष्ठान करो और इसके द्वारा अविनाशी भगवान की आराधना करो ॥ ५९ ॥ कल्याणी ! यह व्रत भगवान को सन्तुष्ट करनेवाला है, इसलिये इसका नाम है ‘सर्वयज्ञ’ और ‘सर्वव्रत’। यह समस्त तपस्याओं का सार और मुख्य दान है ॥ ६० ॥ जिन से भगवान प्रसन्न हों—वे ही सच्चे नियम हैं, वे ही उत्तम यम हैं, वे ही वास्तव में तपस्या, दान, व्रत और यज्ञ हैं ॥ ६१ ॥ इसलिये देवि ! संयम और श्रद्धा से तुम इस व्रत का अनुष्ठान करो। भगवान शीघ्र ही तुम पर प्रसन्न होंगे और तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ॥ ६२ ॥


[1] त्वं देव्यादिवराहेण रसाया: स्थानमिच्छता। उद्धृतासि नमस्तुभ्यं पाप्मानं मे प्रणाशय ।।



स्कन्ध-08 [अध्याय-17]

॥ सप्तदशोऽध्यायः - १७ ॥
श्रीशुक उवाच
इत्युक्ता सादिती राजन् स्वभर्त्रा कश्यपेन वै ।
अन्वतिष्ठद्व्रतमिदं द्वादशाहमतन्द्रिता ॥ १॥

चिन्तयन्त्येकया बुद्ध्या महापुरुषमीश्वरम् ।
प्रगृह्येन्द्रियदुष्टाश्वान् मनसा बुद्धिसारथिः ॥ २॥

मनश्चैकाग्रया बुद्ध्या भगवत्यखिलात्मनि ।
वासुदेवे समाधाय चचार ह पयोव्रतम् ॥ ३॥

तस्याः प्रादुरभूत्तात भगवानादिपुरुषः ।
पीतवासाश्चतुर्बाहुः शङ्खचक्रगदाधरः ॥ ४॥

तं नेत्रगोचरं वीक्ष्य सहसोत्थाय सादरम् ।
ननाम भुवि कायेन दण्डवत्प्रीतिविह्वला ॥ ५॥

सोत्थाय बद्धाञ्जलिरीडितुं स्थिता
नोत्सेह आनन्दजलाकुलेक्षणा ।
बभूव तूष्णीं पुलकाकुलाकृति-
स्तद्दर्शनात्युत्सवगात्रवेपथुः ॥ ६॥

प्रीत्या शनैर्गद्गदया गिरा हरिं
तुष्टाव सा देव्यदितिः कुरूद्वह ।
उद्वीक्षती सा पिबतीव चक्षुषा
रमापतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ॥ ७॥

अदितिरुवाच
यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गलनामधेय ।
आपन्नलोकवृजिनोपशमोदयाद्य
शं नः कृधीश भगवन्नसि दीननाथः ॥ ८॥

विश्वाय विश्वभवनस्थितिसंयमाय
स्वैरं गृहीतपुरुशक्तिगुणाय भूम्ने ।
स्वस्थाय शश्वदुपबृंहितपूर्णबोध-
व्यापादितात्मतमसे हरये नमस्ते ॥ ९॥

आयुः परं वपुरभीष्टमतुल्यलक्ष्मी-
र्द्योर्भूरसाः सकलयोगगुणास्त्रिवर्गः ।
ज्ञानं च केवलमनन्त भवन्ति तुष्टात्त्वत्तो
नृणां किमु सपत्नजयादिराशीः ॥ १०॥

श्रीशुक उवाच
अदित्यैवं स्तुतो राजन् भगवान् पुष्करेक्षणः ।
क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानामिति होवाच भारत ॥ ११॥

श्रीभगवानुवाच
देवमातर्भवत्या मे विज्ञातं चिरकाङ्क्षितम् ।
यत्सपत्नैर्हृतश्रीणां च्यावितानां स्वधामतः ॥ १२॥

तान् विनिर्जित्य समरे दुर्मदानसुरर्षभान् ।
प्रतिलब्धजयश्रीभिः पुत्रैरिच्छस्युपासितुम् ॥ १३॥

इन्द्रज्येष्ठैः स्वतनयैर्हतानां युधि विद्विषाम् ।
स्त्रियो रुदन्तीरासाद्य द्रष्टुमिच्छसि दुःखिताः ॥ १४॥

आत्मजान् सुसमृद्धांस्त्वं प्रत्याहृतयशःश्रियः ।
नाकपृष्ठमधिष्ठाय क्रीडतो द्रष्टुमिच्छसि ॥ १५॥

प्रायोऽधुना तेऽसुरयूथनाथा
अपारणीया इति देवि मे मतिः ।
यत्तेऽनुकूलेश्वरविप्रगुप्ता
न विक्रमस्तत्र सुखं ददाति ॥ १६॥

अथाप्युपायो मम देवि चिन्त्यः
सन्तोषितस्य व्रतचर्यया ते ।
ममार्चनं नार्हति गन्तुमन्यथा
श्रद्धानुरूपं फलहेतुकत्वात् ॥ १७॥

त्वयार्चितश्चाहमपत्यगुप्तये
पयोव्रतेनानुगुणं समीडितः ।
स्वांशेन पुत्रत्वमुपेत्य ते सुतान्
गोप्तास्मि मारीचतपस्यधिष्ठितः ॥ १८॥

उपधाव पतिं भद्रे प्रजापतिमकल्मषम् ।
मां च भावयती पत्यावेवं रूपमवस्थितम् ॥ १९॥

नैतत्परस्मा आख्येयं पृष्टयापि कथञ्चन ।
सर्वं सम्पद्यते देवि देवगुह्यं सुसंवृतम् ॥ २०॥

श्रीशुक उवाच
एतावदुक्त्वा भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ।
अदितिर्दुर्लभं लब्ध्वा हरेर्जन्मात्मनि प्रभोः ॥ २१॥

उपाधावत्पतिं भक्त्या परया कृतकृत्यवत् ।
स वै समाधियोगेन कश्यपस्तदबुध्यत ॥ २२॥

प्रविष्टमात्मनि हरेरंशं ह्यवितथेक्षणः ।
सोऽदित्यां वीर्यमाधत्त तपसा चिरसम्भृतम् ।
समाहितमना राजन् दारुण्यग्निं यथानिलः ॥ २३॥

अदितेर्धिष्ठितं गर्भं भगवन्तं सनातनम् ।
हिरण्यगर्भो विज्ञाय समीडे गुह्यनामभिः ॥ २४॥

ब्रह्मोवाच
जयोरुगाय भगवन्नुरुक्रम नमोस्तु ते ।
नमो ब्रह्मण्यदेवाय त्रिगुणाय नमो नमः ॥ २५॥

नमस्ते पृश्निगर्भाय वेदगर्भाय वेधसे ।
त्रिनाभाय त्रिपृष्ठाय शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ २६॥

त्वमादिरन्तो भुवनस्य मध्य-
मनन्तशक्तिं पुरुषं यमाहुः ।
कालो भवानाक्षिपतीश विश्वं
स्रोतो यथान्तः पतितं गभीरम् ॥ २७॥

त्वं वै प्रजानां स्थिरजङ्गमानां
प्रजापतीनामसि सम्भविष्णुः ।
दिवौकसां देव दिवश्च्युतानां
परायणं नौरिव मज्जतोऽप्सु ॥ २८॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हिताया-
मष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥


अष्टम स्कन्ध-सत्रहवाँ अध्याय
भगवान का प्रकट होकर अदिति को वर देना
श्रीशुकेदवजी कहते हैं—परीक्षित ! अपने पतिदेव महर्षि कश्यपजी का उपदेश प्राप्त करके अदिति ने बड़ी सावधानी से बारह दिन तक इस व्रत का अनुष्ठान किया ॥ १ ॥ बुद्धि को सारथि बनाकर मन की लगाम से उसने इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़ों को अपने वश में कर लिया और एकनिष्ठ बुद्धि से वह पुरुषोत्तम भगवान का चिन्तन करती रही ॥ २ ॥ उसने एकाग्र बुद्धि से अपने मन को सर्वात्मा भगवान वासुदेव में पूर्णरूप से लगाकर पयोव्रत का अनुष्ठान किया ॥ ३ ॥ तब पुरुषोत्तम भगवान उसके सामने प्रकट हुए। परीक्षित ! वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, चार भुजाएँ थीं और शङ्ख, चक्र, गदा लिये हुए थे ॥ ४ ॥ अपने नेत्रों के सामने भगवान को सहसा प्रकट हुए देख अदिति सादर उठ खड़ी हुई और फिर प्रेम से विह्वल होकर उसने पृथ्वी पर लोटकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया ॥ ५ ॥ फिर उठकर, हाथ जोड़, भगवान की स्तुति करने की चेष्टा की; परंतु नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ आये, उससे बोला न गया। सारा शरीर पुलकित हो रहा था, दर्शन के आनन्दोल्लास से उसके अङ्गों में कम्प होने लगा था, वह चुपचाप खड़ी रही ॥ ६ ॥ परीक्षित ! देवी अदिति अपने प्रेमपूर्ण नेत्रों से लक्ष्मीपति, विश्वपति, यज्ञेश्वर भगवान को इस प्रकार देख रही थी, मानो वह उन्हें पी जायगी। फिर बड़े प्रेमसे, गद्गद वाणीसे, धीरे-धीरे उसने भगवान की स्तुति की ॥ ७ ॥

अदिति ने कहा—आप यज्ञ के स्वामी हैं और स्वयं यज्ञ भी आप ही हैं। अच्युत ! आपके चरणकमलों का आश्रय लेकर लोग भवसागर से तर जाते हैं। आपके यश-कीर्तन का श्रवण भी संसार से तारनेवाला है। आपके नामों के श्रवणमात्र से ही कल्याण हो जाता है। आदि पुरुष ! जो आपकी शरण में आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियों का आप नाश कर देते हैं। भगवन् ! आप दीनों के स्वामी हैं। आप हमारा कल्याण कीजिये ॥ ८ ॥ आप विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण हैं और विश्वरूप भी आप ही हैं। अनन्त होने पर भी स्वच्छन्दता से आप अनेक शक्ति और गुणों को स्वीकार कर लेते हैं। आप सदा अपने स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। नित्य-निरन्तर बढ़ते हुए पूर्ण बोध के द्वारा आप हृदय के अन्धकार को नष्ट करते रहते हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ ९ ॥ प्रभो! अनन्त! जब आप प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्यों को ब्रह्माजी की दीर्घ आयु, उनके ही समान दिव्य शरीर, प्रत्येक अभीष्ट वस्तु, अतुलित धन, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल, योग की समस्त सिद्धियाँ, अर्थ-धर्म-कामरूप त्रिवर्ग और केवल ज्ञान तक प्राप्त हो जाता है। फिर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना आदि जो छोटी-छोटी कामनाएँ हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब अदिति ने इस प्रकार कमलनयन भगवान की स्तुति की, तब समस्त प्राणियों के हृदय में रहकर उनकी गति-विधि जाननेवाले भगवान ने यह बात कही ॥ ११ ॥

श्रीभगवान ने कहा—देवताओं की जननी अदिति ! तुम्हारी चिरकालीन अभिलाषा को मैं जानता हूँ। शत्रुओं ने तुम्हारे पुत्रों की सम्पत्ति छीन ली है, उन्हें उनके लोक (स्वर्ग) से खदेड़ दिया है ॥ १२ ॥ तुम चाहती हो कि युद्ध में तुम्हारे पुत्र उन मतवाले और बली असुरों को जीतकर विजयलक्ष्मी प्राप्त करें, तब तुम उनके साथ भगवान की उपासना करो ॥ १३ ॥ तुम्हारी इच्छा यह भी है कि तुम्हारे इन्द्रादि पुत्र जब शत्रुओं को मार डालें, तब तुम उनकी रोती हुई दुखी स्त्रियों को अपनी आँखों देख स को ॥ १४ ॥ अदिति ! तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र धन और शक्ति से समृद्ध हो जायँ, उनकी कीर्ति और ऐश्वर्य उन्हें फिर से प्राप्त हो जायँ तथा वे स्वर्ग पर अधिकार जमाकर पूर्ववत् विहार करें ॥ १५ ॥ परंतु देवि ! वे असुर-सेनापति इस समय जीते नहीं जा सकते, ऐसा मेरा निश्चय है। क्योंकि ईश्वर और ब्राह्मण इस समय उनके अनुकूल हैं। इस समय उनके साथ यदि लड़ाई छेड़ी जायगी, तो उससे सुख मिल ने की आशा नहीं है ॥ १६ ॥ फिर भी देवि ! तुम्हारे इस व्रत के अनुष्ठान से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिये मुझे इस सम्बन्ध में कोई-न- कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा। क्योंकि मेरी आराधना व्यर्थ तो होनी नहीं चाहिये। उससे श्रद्धा के अनुसार फल अवश्य मिलता है ॥ १७ ॥ तुम ने अपने पुत्रों की रक्षा के लिये ही विधिपूर्वक पयोव्रत से मेरी पूजा एवं स्तुति की है। अत: मैं अंशरूप से कश्यप के वीर्य में प्रवेश करूँगा और तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारी सन्तान की रक्षा करूँगा ॥ १८ ॥ कल्याणी ! तुम अपने पति कश्यप में मुझे इसी रूप में स्थित देखो और उन निष्पाप प्रजापति की सेवा करो ॥ १९ ॥ देवि ! देखो, किसी के पूछने पर भी यह बात दूसरे को मत बतलाना। देवताओं का रहस्य जितना गुप्त रहता है, उतना ही सफल होता है ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इतना कहकर भगवान वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय अदिति यह जानकर कि स्वयं भगवान मेरे गर्भ से जन्म लेंगे, अपनी कृतकृत्यता का अनुभव करने लगी। भला, यह कितनी दुर्लभ बात है ! वह बड़े प्रेम से अपने पतिदेव कश्यप की सेवा करने लगी। कश्यपजी सत्यदर्शी थे, उनके नेत्रों से कोई बात छिपी नहीं रहती थी। अपने समाधि-योग से उन्होंने जान लिया कि भगवान का अंश मेरे अंदर प्रविष्ट हो गया है। जैसे वायु काठ में अग्रि का आधान करती है, वैसे ही कश्यपजी ने समाहित चित्त से अपनी तपस्या के द्वारा चिर-सञ्चित वीर्य का अदिति में आधान किया ॥ २१—२३ ॥ जब ब्रह्माजी को यह बात मालूम हुई कि अदिति के गर्भ में तो स्वयं अविनाशी भगवान आये हैं, तब वे भगवान के रहस्यमय नामों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २४ ॥

ब्रह्माजी ने कहा—समग्र कीर्ति के आश्रय भगवन् ! आपकी जय हो। अनन्त शक्तियों के अधिष्ठान ! आपके चरणों में नमस्कार है। ब्रह्मण्यदेव ! त्रिगुणों के नियामक ! आपके चरणों में मेरे बार-बार प्रणाम हैं ॥ २५ ॥ पृश्रकिे पुत्ररूप में उत्पन्न होनेवाले ! वेदों के समस्त ज्ञान को अपने अंदर रखनेवाले प्रभो ! वास्तव में आप ही सब के विधाता हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। ये तीनों लोक आपकी नाभि में स्थित हैं। तीनों लोकों से परे वैकुण्ठ में आप निवास करते हैं। जीवों के अन्त:करण में आप सर्वदा विराजमान रहते हैं। ऐसे सर्वव्यापक विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६ ॥ प्रभो ! आप ही संसार के आदि, अन्त और इसलिये मध्य भी हैं। यही कारण है कि वेद अनन्तशक्ति पुरुष के रूप में आपका वर्णन करते हैं। जैसे गहरा स्रोत अपने भीतर पड़े हुए तिन के को बहा ले जाता है, वैसे ही आप कालरूप से संसार का धाराप्रवाह सञ्चालन करते रहते हैं ॥ २७ ॥ आप चराचर प्रजा और प्रजापतियों को भी उत्पन्न करनेवाले मूल कारण हैं। देवाधिदेव! जैसे जल में डूबते हुए के लिये नौ का ही सहारा है, वैसे ही स्वर्ग से भगाये हुए देवताओं के लिये एकमात्र आप ही आश्रय हैं ॥ २८ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-18]

॥ अष्टादशोऽध्यायः - १८ ॥
श्रीशुक उवाच
इत्थं विरिञ्चस्तुतकर्मवीर्यः
प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम् ।
चतुर्भुजः शङ्खगदाब्जचक्रः
पिशङ्गवासा नलिनायतेक्षणः ॥ १॥

सर्वत्र गोविन्दनामसंकीर्तनं गोविन्द गोविन्द ।
श्यामावदातो झषराजकुण्डल-
त्विषोल्लसच्छ्रीवदनाम्बुजः पुमान् ।
श्रीवत्सवक्षा बलयाङ्गदोल्लस-
त्किरीटकाञ्चीगुणचारुनूपुरः ॥ २॥

मधुव्रतव्रातविघुष्टया स्वया
विराजितः श्रीवनमालया हरिः ।
प्रजापतेर्वेश्मतमः स्वरोचिषा
विनाशयन् कण्ठनिविष्टकौस्तुभः ॥ ३॥

दिशः प्रसेदुः सलिलाशयास्तदा
प्रजाः प्रहृष्टा ऋतवो गुणान्विताः ।
द्यौरन्तरिक्षं क्षितिरग्निजिह्वा
गावो द्विजाः सञ्जहृषुर्नगाश्च ॥ ४॥

श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेऽभिजिति प्रभुः ।
सर्वे नक्षत्रताराद्याश्चक्रुस्तज्जन्म दक्षिणम् ॥ ५॥

द्वादश्यां सवितातिष्ठन्मध्यन्दिनगतो नृप ।
विजया नाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुर्हरेः ॥ ६॥

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्मृदङ्गपणवानकाः ।
चित्रवादित्रतूर्याणां निर्घोषस्तुमुलोऽभवत् ॥ ७॥

प्रीताश्चाप्सरसोऽनृत्यन् गन्धर्वप्रवरा जगुः ।
तुष्टुवुर्मुनयो देवा मनवः पितरोऽग्नयः ॥ ८॥

सिद्धविद्याधरगणाः सकिम्पुरुषकिन्नराः ।
चारणा यक्षरक्षांसि सुपर्णा भुजगोत्तमाः ॥ ९॥

गायन्तोऽतिप्रशंसन्तो नृत्यन्तो विबुधानुगाः ।
अदित्या आश्रमपदं कुसुमैः समवाकिरन् ॥ १०॥

दृष्ट्वादितिस्तं निजगर्भसम्भवं
परं पुमांसं मुदमाप विस्मिता ।
गृहीतदेहं निजयोगमायया
प्रजापतिश्चाह जयेति विस्मितः ॥ ११॥

यत्तद्वपुर्भाति विभूषणायुधै-
रव्यक्तचिद्व्यक्तमधारयद्धरिः ।
बभूव तेनैव स वामनो वटुः
सम्पश्यतोर्दिव्यगतिर्यथा नटः ॥ १२॥

तं वटुं वामनं दृष्ट्वा मोदमाना महर्षयः ।
कर्माणि कारयामासुः पुरस्कृत्य प्रजापतिम् ॥ १३॥

तस्योपनीयमानस्य सावित्रीं सविताब्रवीत् ।
बृहस्पतिर्ब्रह्मसूत्रं मेखलां कश्यपोऽददात् ॥ १४॥

ददौ कृष्णाजिनं भूमिर्दण्डं सोमो वनस्पतिः ।
कौपीनाच्छादनं माता द्यौश्छत्रं जगतः पतेः ॥ १५॥

कमण्डलुं वेदगर्भः कुशान् सप्तर्षयो ददुः ।
अक्षमालां महाराज सरस्वत्यव्ययात्मनः ॥ १६॥

तस्मा इत्युपनीताय यक्षराट् पात्रिकामदात् ।
भिक्षां भगवती साक्षादुमादादम्बिका सती ॥ १७॥

स ब्रह्मवर्चसेनैवं सभां सम्भावितो वटुः ।
ब्रह्मर्षिगणसञ्जुष्टामत्यरोचत मारिषः ॥ १८॥

समिद्धमाहितं वह्निं कृत्वा परिसमूहनम् ।
परिस्तीर्य समभ्यर्च्य समिद्भिरजुहोद्द्विजः ॥ १९॥

श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं
बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः ।
जगाम तत्राखिलसारसम्भृतो
भारेण गां सन्नमयन् पदे पदे ॥ २०॥

तं नर्मदायास्तट उत्तरे बलेर्य
ऋत्विजस्ते भृगुकच्छसंज्ञके ।
प्रवर्तयन्तो भृगवः क्रतूत्तमं
व्यचक्षतारादुदितं यथा रविम् ॥ २१॥

त ऋत्विजो यजमानः सदस्या
हतत्विषो वामनतेजसा नृप ।
सूर्यः किलायात्युत वा विभावसुः
सनत्कुमारोऽथ दिदृक्षया क्रतोः ॥ २२॥

इत्थं सशिष्येषु भृगुष्वनेकधा
वितर्क्यमाणो भगवान् स वामनः ।
छत्रं सदण्डं सजलं कमण्डलुं
विवेश बिभ्रद्धयमेधवाटम् ॥ २३॥

मौञ्ज्या मेखलया वीतमुपवीताजिनोत्तरम् ।
जटिलं वामनं विप्रं मायामाणवकं हरिम् ॥ २४॥

प्रविष्टं वीक्ष्य भृगवः सशिष्यास्ते सहाग्निभिः ।
प्रत्यगृह्णन् समुत्थाय सङ्क्षिप्तास्तस्य तेजसा ॥ २५॥

यजमानः प्रमुदितो दर्शनीयं मनोरमम् ।
रूपानुरूपावयवं तस्मा आसनमाहरत् ॥ २६॥

स्वागतेनाभिनन्द्याथ पादौ भगवतो बलिः ।
अवनिज्यार्चयामास मुक्तसङ्गमनोरमम् ॥ २७॥

तत्पादशौचं जनकल्मषापहं
स धर्मविन्मूर्ध्न्यदधात्सुमङ्गलम् ।
यद्देवदेवो गिरिशश्चन्द्रमौलिर्दधार
मूर्ध्ना परया च भक्त्या ॥ २८॥

बलिरुवाच
स्वागतं ते नमस्तुभ्यं ब्रह्मन् किं करवाम ते ।
ब्रह्मर्षीणां तपः साक्षान्मन्ये त्वाऽऽर्य वपुर्धरम् ॥ २९॥

अद्य नः पितरस्तृप्ता अद्य नः पावितं कुलम् ।
अद्य स्विष्टः क्रतुरयं यद्भवानागतो गृहान् ॥ ३०॥

अद्याग्नयो मे सुहुता यथाविधि
द्विजात्मज त्वच्चरणावनेजनैः ।
हतांहसो वार्भिरियं च भूरहो
तथा पुनीता तनुभिः पदैस्तव ॥ ३१॥

यद्यद्वटो वाञ्छसि तत्प्रतीच्छ मे
त्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये ।
गां काञ्चनं गुणवद्धाम मृष्टं
तथान्नपेयमुत वा विप्रकन्याम् ।
ग्रामान् समृद्धांस्तुरगान् गजान् वा
रथांस्तथार्हत्तम सम्प्रतीच्छ ॥ ३२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हिताया-
मष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिवामनसंवादे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥


अष्टम स्कन्ध-अठारहवाँ अध्याय
वामन भगवान का प्रकट होकर राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार जब ब्रह्माजी ने भगवान की शक्ति और लीला की स्तुति की, तब जन्म-मृत्युरहित भगवान अदिति के सामने प्रकट हुए। भगवान के चार भुजाएँ थीं; उनमें वे शङ्ख, गदा, कमल और चक्र धारण किये हुए थे। कमल के समान कोमल और बड़े-बड़े नेत्र थे। पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ॥ १ ॥ विशुद्ध श्यामवर्ण का शरीर था। मकराकृति कुण्डलों की कान्ति से मुख-कमल की शोभा और भी उल्लसित हो रही थी। वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, हाथों में कंगन और भुजाओं में बाजूबंद, सिर पर किरीट, कमर में करधनी की लडिय़ाँ और चरणों में सुन्दर नूपुर जगमगा रहे थे ॥ २ ॥ भगवान गले में अपनी स्वरूपभूत वनमाला धारण किये हुए थे, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। उनके कण्ठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी। भगवान की अङ्गकान्ति से प्रजापति कश्यपजी के घर का अन्धकार नष्ट हो गया ॥ ३ ॥ उस समय दिशाएँ निर्मल हो गयीं। नदी और सरोवरों का जल स्वच्छ हो गया। प्रजा के हृदय में आनन्द की बाढ़ आ गयी। सब ऋतुएँ एक साथ अपना-अपना गुण प्रकट करने लगीं। स्वर्गलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, देवता, गौ, द्विज और पर्वत—इन सब के हृदय में हर्ष का सञ्चार हो गया ॥ ४ ॥

परीक्षित ! जिस समय भगवान ने जन्म ग्रहण किया, उस समय चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र पर थे। भाद्रपद मासके शुक्लपक्ष की श्रवणनक्षत्रवाली द्वादशी थी। अभिजित् मुहूर्त में भगवान का जन्म हुआ था। सभी नक्षत्र और तारे भगवान के जन्म को मङ्गलमय सूचित कर रहे थे ॥ ५ ॥ परीक्षित ! जिस तिथि में भगवान का जन्म हुआ था, उसे ‘विजया द्वादशी’ कहते हैं। जन्म के समय सूर्य आकाश के मध्यभाग में स्थित थे ॥ ६ ॥ भगवान के अवतार के समय शङ्ख, ढोल, मृदङ्ग, डफ और नगाड़े आदि बाजे बज ने लगे। इन तरह-तरह के बाजों और तुरहियों की तुमुल ध्वनि होने लगी ॥ ७ ॥ अप्सराएँ प्रसन्न होकर नाच ने लगीं। श्रेष्ठ गन्धर्व गा ने लगे। मुनि, देवता, मनु, पितर और अग्रि स्तुति करने लगे ॥ ८ ॥ सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, पक्षी, मुख्य-मुख्य नागगण और देवताओं के अनुचर नाचने-गा ने एवं भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे तथा उन लोगों ने अदिति के आश्रम को पुष्पों की वर्षा से ढक दिया ॥ ९-१० ॥

जब अदिति ने अपने गर्भ से प्रकट हुए परम पुरुष परमात्मा को देखा, तो वह अत्यन्त आश्चर्य- चकित और परमानन्दित हो गयी। प्रजापति कश्यपजी भी भगवान को अपनी योगमाया से शरीर धारण किये हुए देख विस्मित हो गये और कह ने लगे ‘जय हो ! जय हो’ ॥ ११ ॥ परीक्षित ! भगवान स्वयं अव्यक्त एवं चित् स्वरूप हैं। उन्होंने जो परम कान्तिमय आभूषण एवं आयुधों से युक्त वह शरीर ग्रहण किया था, उसी शरीरसे, कश्यप और अदिति के देखते-देखते वामन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया—ठीक वैसे ही, जैसे नट अपना वेष बदल ले। क्यों न हो, भगवान की लीला तो अद्भुत है ही ॥ १२ ॥

भगवान को वामन ब्रह्मचारी के रूप में देखकर महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ। उन लोगों ने कश्यप प्रजापति को आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये ॥ १३ ॥ जब उनका उपनयन-संस्कार होने लगा, तब गायत्री के अधिष्ठातृ-देवता स्वयं सविता ने उन्हें गायत्री का उपदेश किया। देवगुरु बृहस्पतिजी ने यज्ञोपवीत और कश्यप ने मेखला दी ॥ १४ ॥ पृथ्वी ने कृष्णमृग का चर्म, वन के स्वामी चन्द्रमाने दण्ड, माता अदिति ने कौपीन और कटिवस्त्र एवं आकाश के अभिमानी देवता ने वामन-वेषधारी भगवान को छत्र दिया ॥ १५ ॥ परीक्षित ! अविनाशी प्रभु को ब्रह्माजी ने कमण्डलु, सप्तर्षियों ने कुश और सरस्वती ने रुद्राक्ष की माला समर्पित की ॥ १६ ॥ इस रीति से जब वामनभगवान का उपनयन-संस्कार हुआ, तब यक्षराज कुबेर ने उन को भिक्षा का पात्र और सतीशिरो- मणि जगज्जननी स्वयं भगवती उमाने भिक्षा दी ॥ १७ ॥ इस प्रकार जब सब लोगों ने वटुवेष-धारी भगवान का सम्मान किया, तब वे ब्रहमर्षियों से भरी हुई सभा में अपने ब्रह्मतेज के कारण अत्यन्त शोभायमान हुए ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान ने स्थापित और प्रज्वलित अग्रि का कुशों से परिसमूहन और परिस्तरण करके पूजा की और समिधाओं से हवन किया ॥ १९ ॥

परीक्षित ! उसी समय भगवान ने सुना कि सब प्रकार की सामग्रियों से सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मणों के आदेशानुसार बहुत- से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँ के लिये यात्रा की। भगवान समस्त शक्तियों से युक्त हैं। उनके चल ने के समय उनके भार से पृथ्वी पग-पग पर झुक ने लगी ॥ २० ॥ नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘भृगुकच्छ’ नाम का एक बड़ा सुन्दर स्थान है। वहीं बलि के भृगुवंशी ऋत्विज् श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करा रहे थे। उन लोगों ने दूर से ही वामनभगवान को देखा, तो उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो साक्षात सूर्यदेव का उदय हो रहा हो ॥ २१ ॥ परीक्षित ! वामनभगवान के तेज से ऋत्विज्, यजमान और सदस्य—सब-के-सब निस्तेज हो गये। वे लोग सोच ने लगे कि कहीं यज्ञ देखने के लिये सूर्य, अग्रि अथवा सनत्कुमार तो नहीं आ रहे हैं ॥ २२ ॥ भृगु के पुत्र शुक्राचार्य आदि अपने शिष्यों के साथ इसी प्रकार अनेकों कल्पनाएँ कर रहे थे। उसी समय हाथ में छत्र, दण्ड और जल से भरा कमण्डलु लिये हुए वामनभगवान ने अश्वमेध यज्ञ के मण्डप में प्रवेश किया ॥ २३ ॥ वे कमर में मूँज की मेखला और गले में यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। बगल में मृगचर्म था और सिर पर जटा थी। इसी प्रकार बौ ने ब्राह्मण के वेष में अपनी माया से ब्रह्मचारी बने हुए भगवान ने जब उनके यज्ञमण्डप में प्रवेश किया, तब भृगुवंशी ब्राह्मण उन्हें देखकर अपने शिष्यों के साथ उनके तेज से प्रभावित एवं निष्प्रभ हो गये। वे सब-के-सब अग्रियों के साथ उठ खड़े हुए और उन्होंने वामनभगवान का स्वागत-सत्कार किया ॥ २४-२५ ॥ भगवान के लघुरूप के अनुरूप सारे अङ्ग छोटे-छोटे बड़े ही मनोरम एवं दर्शनीय थे। उन्हें देखकर बलि को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने वामनभगवान को एक उत्तम आसन दिया ॥ २६ ॥ फिर स्वागत-वाणी से उनका अभिनन्दन करके पाँव पखारे और सङ्गरहित महापुरुषों को भी अत्यन्त मनोहर लगनेवाले वामनभगवान की पूजा की ॥ २७ ॥ भगवान के चरणकमलों का धोवन परम मङ्गलमय है। उससे जीवों के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं। स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान शङ्करने अत्यन्त भक्तिभाव से उसे अपने सिर पर धारण किया था। आज वही चरणामृत धर्म के मर्मज्ञ राजा बलि को प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़े प्रेम से उसे अपने मस् तक पर रखा ॥ २८ ॥

बलि ने कहा—ब्राह्मणकुमार ! आप भले पधारे। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आर्य ! ऐसा जान पड़ता है कि बड़े-बड़े ब्रहमर्षियों की तपस्या ही स्वयं मूर्तिमान् होकर मेरे सामने आयी है ॥ २९ ॥ आज आप मेरे घर पधारे, इससे मेरे पितर तृप्त हो गये। आज मेरा वंश पवित्र हो गया। आज मेरा यह यज्ञ सफल हो गया ॥ ३० ॥ ब्राह्मण- कुमार ! आपके पाँव पखार ने से मेरे सारे पाप धुल गये और विधिपूर्वक यज्ञ करनेसे, अग्रि में आहुति डालने से जो फल मिलता, वह अनायास ही मिल गया। आपके इन नन्हें-नन्हें चरणों और इनके धोवन से पृथ्वी पवित्र हो गयी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मणकुमार ! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं। परम पूज्य ब्रह्मचारीजी ! आप जो चाहते हों—गाय, सोना, सामग्रियों से सुसज्जित घर, पवित्र अन्न, पी ने की वस्तु, विवाह के लिये ब्राह्मण की कन्या, सम्पत्तियों से भरे हुए गाँव, घोड़े, हाथी, रथ—वह सब आप मुझ से माँग लीजिये। अवश्य ही वह सब मुझ से माँग लीजिये ॥ ३२ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-19]

॥ एकोनविंशोऽध्यायः - १९ ॥
श्रीशुक उवाच
इति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्तं स सूनृतम् ।
निशम्य भगवान् प्रीतः प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १॥

श्रीभगवानुवाच
वचस्तवैतज्जनदेव सूनृतं
कुलोचितं धर्मयुतं यशस्करम् ।
यस्य प्रमाणं भृगवः साम्पराये
पितामहः कुलवृद्धः प्रशान्तः ॥ २॥

न ह्येतस्मिन् कुले कश्चिन्निःसत्त्वः कृपणः पुमान् ।
प्रत्याख्याता प्रतिश्रुत्य यो वादाता द्विजातये ॥ ३॥

न सन्ति तीर्थे युधि चार्थिनार्थिताः
पराङ्मुखा ये त्वमनस्विनो नृपाः ।
युष्मत्कुले यद्यशसामलेन
प्रह्लाद उद्भाति यथोडुपः खे ॥ ४॥

यतो जातो हिरण्याक्षश्चरन्नेक इमां महीम् ।
प्रतिवीरं दिग्विजये नाविन्दत गदायुधः ॥ ५॥

यं विनिर्जित्य कृच्छ्रेण विष्णुः क्ष्मोद्धार आगतम् ।
नात्मानं जयिनं मेने तद्वीर्यं भूर्यनुस्मरन् ॥ ६॥

निशम्य तद्वधं भ्राता हिरण्यकशिपुः पुरा ।
हन्तुं भ्रातृहणं क्रुद्धो जगाम निलयं हरेः ॥ ७॥

तमायान्तं समालोक्य शूलपाणिं कृतान्तवत् ।
चिन्तयामास कालज्ञो विष्णुर्मायाविनां वरः ॥ ८॥

यतो यतोऽहं तत्रासौ मृत्युः प्राणभृतामिव ।
अतोऽहमस्य हृदयं प्रवेक्ष्यामि पराग्दृशः ॥ ९॥

एवं स निश्चित्य रिपोः शरीर-
माधावतो निर्विविशेऽसुरेन्द्र ।
श्वासानिलान्तर्हितसूक्ष्मदेह-
स्तत्प्राणरन्ध्रेण विविग्नचेताः ॥ १०॥

स तन्निकेतं परिमृश्य शून्य-
मपश्यमानः कुपितो ननाद ।
क्ष्मां द्यां दिशः खं विवरान् समुद्रान्
विष्णुं विचिन्वन् न ददर्श वीरः ॥ ११॥

अपश्यन्निति होवाच मयान्विष्टमिदं जगत् ।
भ्रातृहा मे गतो नूनं यतो नावर्तते पुमान् ॥ १२॥

वैरानुबन्ध एतावानामृत्योरिह देहिनाम् ।
अज्ञानप्रभवो मन्युरहंमानोपबृंहितः ॥ १३॥

पिता प्रह्लादपुत्रस्ते तद्विद्वान् द्विजवत्सलः ।
स्वमायुर्द्विजलिङ्गेभ्यो देवेभ्योऽदात्स याचितः ॥ १४॥

भवानाचरितान् धर्मानास्थितो गृहमेधिभिः ।
ब्राह्मणैः पूर्वजैः शूरैरन्यैश्चोद्दामकीर्तिभिः ॥ १५॥

तस्मात्त्वत्तो महीमीषद्वृणेऽहं वरदर्षभात् ।
पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पदा मम ॥ १६॥

नान्यत्ते कामये राजन् वदान्याज्जगदीश्वरात् ।
नैनः प्राप्नोति वै विद्वान् यावदर्थप्रतिग्रहः ॥ १७॥

बलिरुवाच
अहो ब्राह्मणदायाद वाचस्ते वृद्धसम्मताः ।
त्वं बालो बालिशमतिः स्वार्थं प्रत्यबुधो यथा ॥ १८॥

मां वचोभिः समाराध्य लोकानामेकमीश्वरम् ।
पदत्रयं वृणीते योऽबुद्धिमान् द्वीपदाशुषम् ॥ १९॥

न पुमान् मामुपव्रज्य भूयो याचितुमर्हति ।
तस्माद्वृत्तिकरीं भूमिं वटो कामं प्रतीच्छ मे ॥ २०॥

श्रीभगवानुवाच
यावन्तो विषयाः प्रेष्ठास्त्रिलोक्यामजितेन्द्रियम् ।
न शक्नुवन्ति ते सर्वे प्रतिपूरयितुं नृप ॥ २१॥

त्रिभिः क्रमैरसन्तुष्टो द्वीपेनापि न पूर्यते ।
नववर्षसमेतेन सप्तद्वीपवरेच्छया ॥ २२॥

सप्तद्वीपाधिपतयो नृपा वैन्यगयादयः ।
अर्थैः कामैर्गता नान्तं तृष्णाया इति नः श्रुतम् ॥ २३॥

यदृच्छयोपपन्नेन सन्तुष्टो वर्तते सुखम् ।
नासन्तुष्टस्त्रिभिर्लोकैरजितात्मोपसादितैः ॥ २४॥

पुंसोऽयं संसृतेर्हेतुरसन्तोषोऽर्थकामयोः ।
यदृच्छयोपपन्नेन सन्तोषो मुक्तये स्मृतः ॥ २५॥

यदृच्छालाभतुष्टस्य तेजो विप्रस्य वर्धते ।
तत्प्रशाम्यत्यसन्तोषादम्भसेवाशुशुक्षणिः ॥ २६॥

तस्मात्त्रीणि पदान्येव वृणे त्वद्वरदर्षभात् ।
एतावतैव सिद्धोऽहं वित्तं यावत्प्रयोजनम् ॥ २७॥

श्रीशुक उवाच
इत्युक्तः स हसन्नाह वाञ्छातः प्रतिगृह्यताम् ।
वामनाय महीं दातुं जग्राह जलभाजनम् ॥ २८॥

विष्णवे क्ष्मां प्रदास्यन्तमुशना असुरेश्वरम् ।
जानंश्चिकीर्षितं विष्णोः शिष्यं प्राह विदां वरः ॥ २९॥

शुक्र उवाच
एष वैरोचने साक्षाद्भगवान् विष्णुरव्ययः ।
कश्यपाददितेर्जातो देवानां कार्यसाधकः ॥ ३०॥

प्रतिश्रुतं त्वयैतस्मै यदनर्थमजानता ।
न साधु मन्ये दैत्यानां महानुपगतोऽनयः ॥ ३१॥

एष ते स्थानमैश्वर्यं श्रियं तेजो यशः श्रुतम् ।
दास्यत्याच्छिद्य शक्राय मायामाणवको हरिः ॥ ३२॥

त्रिभिः क्रमैरिमाँल्लोकान् विश्वकायः क्रमिष्यति ।
सर्वस्वं विष्णवे दत्त्वा मूढ वर्तिष्यसे कथम् ॥ ३३॥

क्रमतो गां पदैकेन द्वितीयेन दिवं विभोः ।
खं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गतिः ॥ ३४॥

निष्ठां ते नरके मन्ये ह्यप्रदातुः प्रतिश्रुतम् ।
प्रतिश्रुतस्य योऽनीशः प्रतिपादयितुं भवान् ॥ ३५॥

न तद्दानं प्रशंसन्ति येन वृत्तिर्विपद्यते ।
दानं यज्ञस्तपः कर्म लोके वृत्तिमतो यतः ॥ ३६॥

धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पञ्चधा विभजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते ॥ ३७॥

अत्रापि बह्वृचैर्गीतं श‍ृणु मेऽसुरसत्तम ।
सत्यमोमिति यत्प्रोक्तं यन्नेत्याहानृतं हि तत् ॥ ३८॥

सत्यं पुष्पफलं विद्यादात्मवृक्षस्य गीयते ।
वृक्षेऽजीवति तन्न स्यादनृतं मूलमात्मनः ॥ ३९॥

तद्यथा वृक्ष उन्मूलः शुष्यत्युद्वर्ततेऽचिरात् ।
एवं नष्टानृतः सद्य आत्मा शुष्येन्न संशयः ॥ ४०॥

पराग्रिक्तमपूर्णं वा अक्षरं यत्तदोमिति ।
यत्किञ्चिदोमिति ब्रूयात्तेन रिच्येत वै पुमान् ।
भिक्षवे सर्वमों कुर्वन् नालं कामेन चात्मने ॥ ४१॥

अथैतत्पूर्णमभ्यात्मं यच्च नेत्यनृतं वचः ।
सर्वं नेत्यनृतं ब्रूयात्स दुष्कीर्तिः श्वसन् मृतः ॥ ४२॥

स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसङ्कटे ।
गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम् ॥ ४३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हिताया-
मष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे एकोनविंशोशोऽध्यायः ॥ १९॥


अष्टम स्कन्ध-उन्नीसवाँ अध्याय 
भगवान वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना, बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजा बलि के ये वचन धर्मभाव से भरे और बड़े मधुर थे। उन्हें सुनकर भगवान वामन ने बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिनन्दन किया और कहा ॥ १ ॥

श्रीभगवान ने कहा—राजन् ! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी कुलपरम्परा के अनुरूप, धर्मभाव से परिपूर्ण, यश को बढ़ानेवाला और अत्यन्त मधुर है। क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्म के सम्बन्ध में आप भृगुपुत्र शुक्राचार्य को परम प्रमाण जो मानते हैं। साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परम शान्त प्रह्लादजी की आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं ॥ २ ॥ आपकी वंशपरम्परा में कोई धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कभी हुआ ही नहीं। ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिस ने ब्राह्मण को कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसीको कुछ दे ने की प्रतिज्ञा करके बाद में मुकर गया हो ॥ ३ ॥ दान के अवसर पर याचकों की याचना सुनकर और युद्ध के अवसर पर शत्रु के ललकारने पर उनकी ओर से मुँह मोड़ लेनेवाला कायर आपके वंश में कोई भी नहीं हुआ। क्यों न हो, आपकी कुलपरम्परा में प्रह्लाद अपने निर्मल यश से वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाश में चन्द्रमा ॥ ४ ॥ आपके कुल में ही हिरण्याक्ष-जैसे वीर का जन्म हुआ था। वह वीर जब हाथ में गदा लेकर अकेला ही दिग्विजय के लिये निकला, तब सारी पृथ्वी में घूमने पर भी उसे अपनी जोडक़ा कोई वीर न मिला ॥ ५ ॥ जब विष्णुभगवान जल में से पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे, तब वह उनके सामने आया और बड़ी कठिनाई से उन्होंने उसपर विजय प्राप्त की। परंतु उसके बहुत बाद भी उन्हें बार-बार हिरण्याक्ष की शक्ति और बल का स्मरण हो आया करता था और उसे जीत लेने पर भी वे अपने को विजयी नहीं समझते थे ॥ ६ ॥ जब हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकशिपु को उसके वध का वृत्तान्त मालूम हुआ, तब वह अपने भाई का वध करनेवाले को मार डालने के लिये क्रोध करके भगवान के निवासस्थान वैकुण्ठधाम में पहुँचा ॥ ७ ॥ विष्णुभगवान माया रचनेवालों में सब से बड़े हैं और समय को खूब पहचानते हैं। जब उन्होंने देखा कि हिरण्यकशिपु तो हाथ में शूल लेकर काल की भाँति मेरे ही ऊ पर धावा कर रहा है, तब उन्होंने विचार किया ॥ ८ ॥ ‘जैसे संसार के प्राणियों के पीछे मृत्यु लगी रहती है—वैसे ही मैं जहाँ-जहाँ जाऊँगा, वहीं-वहीं यह मेरा पीछा करेगा। इसलिये मैं इसके हृदय में प्रवेश कर जाऊँ, जिससे यह मुझे देख न सके; क्योंकि यह तो बहिर्मुख है, बाहर की वस्तुएँ ही देखता है ॥ ९ ॥ असुरशिरोमणे ! जिस समय हिरण्यकशिपु उन पर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके डर से काँपते हुए विष्णुभगवान ने अपने शरीर को सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणों के द्वारा नासिका में से होकर हृदय में जा बैठे ॥ १० ॥ हिरण्यकशिपु ने उनके लोक को भलीभाँति छान डाला, परंतु उनका कहीं पता न चला। इस पर क्रोधित होकर वह सिंहनाद करने लगा। उस वीर ने पृथ्वी, स्वर्ग, दिशा, आकाश, पाताल और समुद्र—सब कहीं विष्णुभगवान को ढूँढ़ा, परंतु वे कहीं भी उसे दिखायी न दिये ॥ ११ ॥ उन को कहीं न देखकर वह कह ने लगा—मैंने सारा जगत छान डाला, परंतु वह मिला नहीं। अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोक में चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता ॥ १२ ॥ बस, अब उससे वैरभाव रखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वैर तो देह के साथ ही समाप्त हो जाता है। क्रोध का कारण अज्ञान है और अहंकार से उसकी वृद्धि होती है ॥ १३ ॥ राजन् ! आपके पिता प्रह्लादनन्दन विरोचन बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे। यहाँ तक कि उनके शत्रु देवताओं ने ब्राह्मणों का वेष बनाकर उनसे उनकी आयु का दान माँगा और उन्होंने ब्राह्मणों के छल को जानते हुए भी अपनी आयु दे डाली ॥ १४ ॥ आप भी उसी धर्म का आचरण करते हैं, जिसका शुक्राचार्य आदि गृहस्थ ब्राह्मण, आपके पूर्वज प्रह्लाद और दूसरे यशस्वी वीरों ने पालन किया है ॥ १५ ॥ दैत्येन्द्र ! आप मुँहमाँगी वस्तु देनेवालों में श्रेष्ठ हैं। इसीसे मैं आप से थोड़ी-सी पृथ्वी—केवल अपने पैरों से तीन डग माँगता हूँ ॥ १६ ॥ माना कि आप सारे जगत के स्वामी और बड़े उदार हैं, फिर भी मैं आप से इससे अधिक नहीं चाहता। विद्वान् पुरुष को केवल अपनी आवश्यकता के अनुसार ही दान स्वीकार करना चाहिये। इससे वह प्रतिग्रहजन्य पाप से बच जाता है ॥ १७ ॥

राजा बलि ने कहा—ब्राह्मणकुमार ! तुम्हारी बातें तो वृद्धों-जैसी हैं, परंतु तुम्हारी बुद्धि अभी बच्चोंकी-सी ही है। अभी तुम हो भी तो बालक ही न, इसीसे अपना हानि-लाभ नहीं समझ रहे हो ॥ १८ ॥ मैं तीनों लोकों का एकमात्र अधिपति हूँ और द्वीप-का-द्वीप दे सकता हूँ। जो मुझे अपनी वाणी से प्रसन्न कर ले और मुझ से केवल तीन डग भूमि माँगे—वह भी क्या बुद्धिमान कहा जा सकता है ? ॥ १९ ॥ ब्रह्मचारीजी ! जो एक बार कुछ माँग ने के लिये मेरे पास आ गया, उसे फिर कभी किसी से कुछ माँग ने की आवश्यकता नहीं पडऩी चाहिये। अत: अपनी जीवि का चला ने के लिये तुम्हें जितनी भूमि की आवश्यकता हो, उतनी मुझ से माँग लो ॥ २० ॥

श्रीभगवान ने कहा—राजन् ! संसार के सब-के-सब प्यारे विषय एक मनुष्य की कामनाओं को भी पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं, यदि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखनेवाला—सन्तोषी न हो ॥ २१ ॥ जो तीन पग भूमि से सन्तोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षों से युक्त एक द्वीप भी दे दिया जाय तो भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसके मन में सातों द्वीप पाने की इच्छा बनी ही रहेगी ॥ २२ ॥ मैंने सुना है कि पृथु, गय आदि नरेश सातों द्वीपों के अधिपति थे; परंतु उतने धन और भोग की सामग्रियों के मिलने पर भी वे तृष्णा का पार न पा सके ॥ २३ ॥ जो कुछ प्रारब्ध से मिल जाय, उसी से सन्तुष्ट हो रहनेवाला पुरुष अपना जीवन सुख से व्यतीत करता है। परंतु अपनी इन्द्रियों को वश में न रखनेवाला तीनों लोकों का राज्य पाने पर भी दुखी ही रहता है। क्योंकि उसके हृदय में असन्तोष की आग धधकती रहती है ॥ २४ ॥ धन और भोगों से सन्तोष न होना ही जीव के जन्म-मृत्यु के चक्कर में गिर ने का कारण है। तथा जो कुछ प्राप्त हो जाय, उसी में सन्तोष कर लेना मुक्ति का कारण है ॥ २५ ॥ जो ब्राह्मण स्वयंप्राप्त वस्तु से ही सन्तुष्ट हो रहता है, उसके तेज की वृद्धि होती है। उसके असन्तोषी हो जाने पर उसका तेज वैसे ही शान्त हो जाता है जैसे जल से अग्रि ॥ २६ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आप मुँहमाँगी वस्तु देनेवालों में शिरोमणि हैं। इसलिये मैं आप से केवल तीन पग भूमि ही माँगता हूँ। इत ने से ही मेरा काम बन जायगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिये, जित ने की आवश्यकता हो ॥ २७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान के इस प्रकार कहने पर राजा बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा— ‘अच्छी बात है; जितनी तुम्हारी इच्छा हो, उतनी ही ले लो।’ यों कहकर वामनभगवान को तीन पग पृथ्वी का संकल्प करने के लिये उन्होंने जलपात्र उठाया ॥ २८ ॥ शुक्राचार्यजी सब कुछ जानते थे। उनसे भगवान की यह लीला भी छिपी नहीं थी। उन्होंने राजा बलि को पृथ्वी दे ने के लिये तैयार देखकर उनसे कहा ॥ २९ ॥

शुक्राचार्यजी ने कहा—विरोचनकुमार ! ये स्वयं अविनाशी भगवान विष्णु हैं। देवताओं का काम बनाने के लिये कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से अवतीर्ण हुए हैं ॥ ३० ॥ तुम ने यह अनर्थ न जानकर कि ये मेरा सब कुछ छीन लेंगे, इन्हें दान दे ने की प्रतिज्ञा कर ली है। यह तो दैत्यों पर बहुत बड़ा अन्याय होने जा रहा है। इसे मैं ठीक नहीं समझता ॥ ३१ ॥ स्वयं भगवान ही अपनी योगमाया से यह ब्रह्मचारी बनकर बैठे हुए हैं। ये तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और विश्वविख्यात कीर्ति—सब कुछ तुम से छीनकर इन्द्र को दे देंगे ॥ ३२ ॥ ये विश्वरूप हैं। तीन पग में तो ये सारे लोकों को नाप लेंगे। मूर्ख ! जब तुम अपना सर्वस्व ही विष्णु को दे डालोगे, तो तुम्हारा जीवन निर्वाह कैसे होगा ॥ ३३ ॥ ये विश्वव्यापक भगवान एक पग में पृथ्वी और दूसरे पग में स्वर्ग को नाप लेंगे। इनके विशाल शरीर से आकाश भर जायगा। तब इनका तीसरा पग कहाँ जायगा ? ॥ ३४ ॥ तुम उसे पूरा न कर स कोगे। ऐसी दशा में मैं समझता हूँ कि प्रतिज्ञा करके पूरा न कर पाने के कारण तुम्हें नरक में ही जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम अपनी की हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में सर्वथा असमर्थ होओगे ॥ ३५ ॥ विद्वान् पुरुष उस दान की प्रशंसा नहीं करते, जिसके बाद जीवन-निर्वाह के लिये कुछ बचे ही नहीं। जिसका जीवन-निर्वाह ठीक-ठीक चलता है—वही संसार में दान, यज्ञ, तप और परोपकार के कर्म कर सकता है ॥ ३६ ॥ जो मनुष्य अपने धन को पाँच भागों में बाँट देता है—कुछ धर्म के लिये, कुछ यश के लिये, कुछ धन की अभिवृद्धि के लिये, कुछ भोगों के लिये और कुछ अपने स्वजनों के लिये—वही इस लोक और परलोक दोनों में ही सुख पाता है ॥ ३७ ॥ असुरशिरोमणे ! यदि तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा टूट जाने की चिन्ता हो, तो मैं इस विषय में तुम्हें कुछ ऋग्वेद की श्रुतियों का आशय सुनाता हूँ, तुम सुनो। श्रुति कहती है—‘किसीको कुछ दे ने की बात स्वीकार कर लेना सत्य है और नकार जाना अर्थात् अस्वीकार कर देना असत्य है ॥ ३८ ॥ यह शरीर एक वृक्ष है और सत्य इसका फल-फूल है। परंतु यदि वृक्ष ही न रहे तो फल-फूल कैसे रह सकते हैं ? क्योंकि नकार जाना, अपनी वस्तु दूसरे को न देना, दूसरे शब्दों में अपना संग्रह बचाये रखना—यही शरीररूप वृक्ष का मूल है ॥ ३९ ॥ जैसे जड़ न रहने पर वृक्ष सूखकर थोड़े ही दिनों में गिर जाता है, उसी प्रकार यदि धन दे ने से अस्वीकार न किया जाय तो यह जीवन सूख जाता है— इसमें सन्देह नहीं ॥ ४० ॥ ‘हाँ मैं दूँगा’—यह वाक्य ही धन को दूर हटा देता है। इसलिये इसका उच्चारण ही अपूर्ण अर्थात् धन से खाली कर देनेवाला है। यही कारण है कि जो पुरुष ‘हाँ मैं दूगाँ’— ऐसा कहता है, वह धन से खाली हो जाता है। जो याचक को सब कुछ देना स्वीकार कर लेता है, वह अपने लिये भोग की कोई सामग्री नहीं रख सकता ॥ ४१ ॥ इसके विपरीत ‘मैं नहीं दूँगा’— यह जो अस्वीकारात्मक असत्य है, वह अपने धन को सुरक्षित रखने तथा पूर्ण करनेवाला है। परंतु ऐसा सब समय नहीं करना चाहिये। जो सबसे, सभी वस्तुओं के लिये नहीं करता रहता है, उसकी अपकीर्ति हो जाती है। वह तो जीवित रहने पर भी मृ तक के समान ही है ॥ ४२ ॥ स्त्रियों को प्रसन्न करने के लिये, हास-परिहास में, विवाह में, कन्या आदि की प्रशंसा करते समय, अपनी जीविका की रक्षा के लिये, प्राणसंकट उपस्थित होनेपर, गौ और ब्राह्मण के हित के लिये तथा किसीको मृत्यु से बचा ने के लिये असत्य-भाषण भी उतना निन्दनीय नहीं है ॥ ४३ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-20]

॥ विंशोऽध्यायः - २० ॥
श्रीशुक उवाच
बलिरेवं गृहपतिः कुलाचार्येण भाषितः ।
तूष्णीं भूत्वा क्षणं राजन्नुवाचावहितो गुरुम् ॥ १॥

बलिरुवाच
सत्यं भगवता प्रोक्तं धर्मोऽयं गृहमेधिनाम् ।
अर्थं कामं यशो वृत्तिं यो न बाधेत कर्हिचित् ॥ २॥

स चाहं वित्तलोभेन प्रत्याचक्षे कथं द्विजम् ।
प्रतिश्रुत्य ददामीति प्राह्लादिः कितवो यथा ॥ ३॥

न ह्यसत्यात्परोऽधर्म इति होवाच भूरियम् ।
सर्वं सोढुमलं मन्ये ऋतेऽलीकपरं नरम् ॥ ४॥

नाहं बिभेमि निरयान्नाधन्यादसुखार्णवात् ।
न स्थानच्यवनान्मृत्योर्यथा विप्रप्रलम्भनात् ॥ ५॥

यद्यद्धास्यति लोकेऽस्मिन् सम्परेतं धनादिकम् ।
तस्य त्यागे निमित्तं किं विप्रस्तुष्येन्न तेन चेत् ॥ ६॥

श्रेयः कुर्वन्ति भूतानां साधवो दुस्त्यजासुभिः ।
दध्यङ् शिबिप्रभृतयः को विकल्पो धरादिषु ॥ ७॥

यैरियं बुभुजे ब्रह्मन् दैत्येन्द्रैरनिवर्तिभिः ।
तेषां कालोऽग्रसील्लोकान् न यशोऽधिगतं भुवि ॥ ८॥

सुलभा युधि विप्रर्षे ह्यनिवृत्तास्तनुत्यजः ।
न तथा तीर्थ आयाते श्रद्धया ये धनत्यजः ॥ ९॥

मनस्विनः कारुणिकस्य शोभनं
यदर्थिकामोपनयेन दुर्गतिः ।
कुतः पुनर्ब्रह्मविदां भवादृशां
ततो वटोरस्य ददामि वाञ्छितम् ॥ १०॥

यजन्ति यज्ञक्रतुभिर्यमादृता
भवन्त आम्नायविधानकोविदाः ।
स एव विष्णुर्वरदोऽस्तु वा परो
दास्याम्यमुष्मै क्षितिमीप्सितां मुने ॥ ११॥

यद्यप्यसावधर्मेण मां बध्नीयादनागसम् ।
तथाप्येनं न हिंसिष्ये भीतं ब्रह्मतनुं रिपुम् ॥ १२॥

एष वा उत्तमश्लोको न जिहासति यद्यशः ।
हत्वा मैनां हरेद्युद्धे शयीत निहतो मया ॥ १३॥

श्रीशुक उवाच
एवमश्रद्धितं शिष्यमनादेशकरं गुरुः ।
शशाप दैवप्रहितः सत्यसन्धं मनस्विनम् ॥ १४॥

दृढं पण्डितमान्यज्ञः स्तब्धोऽस्यस्मदुपेक्षया ।
मच्छासनातिगो यस्त्वमचिराद्भ्रश्यसे श्रियः ॥ १५॥

एवं शप्तः स्वगुरुणा सत्यान्न चलितो महान् ।
वामनाय ददावेनामर्चित्वोदकपूर्वकम् ॥ १६॥

विन्ध्यावलिस्तदाऽऽगत्य पत्नी जालकमालिनी ।
आनिन्ये कलशं हैममवनेजन्यपां भृतम् ॥ १७॥

यजमानः स्वयं तस्य श्रीमत्पादयुगं मुदा ।
अवनिज्यावहन्मूर्ध्नि तदपो विश्वपावनीः ॥ १८॥

तदासुरेन्द्रं दिवि देवतागणाः
गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः ।
तत्कर्म सर्वेऽपि गृणन्त आर्जवं
प्रसूनवर्षैर्ववृषुर्मुदान्विताः ॥ १९॥

नेदुर्मुहुर्दुन्दुभयः सहस्रशो
गन्धर्वकिम्पूरुषकिन्नरा जगुः ।
मनस्विनानेन कृतं सुदुष्करं
विद्वानदाद्यद्रिपवे जगत्त्रयम् ॥ २०॥

तद्वामनं रूपमवर्धताद्भुतं
हरेरनन्तस्य गुणत्रयात्मकम् ।
भूः खं दिशो द्यौर्विवराः पयोधय-
स्तिर्यङ् नृदेवा ऋषयो यदासत ॥ २१॥

काये बलिस्तस्य महाविभूतेः
सहर्त्विगाचार्यसदस्य एतत् ।
ददर्श विश्वं त्रिगुणं गुणात्मके
भूतेन्द्रियार्थाशयजीवयुक्तम् ॥ २२॥

रसामचष्टाङ्घ्रितलेऽथ पादयोर्महीं
महीध्रान् पुरुषस्य जङ्घयोः ।
पतत्त्रिणो जानुनि विश्वमूर्ते-
रूर्वोर्गणं मारुतमिन्द्रसेनः ॥ २३॥

सन्ध्यां विभोर्वाससि गुह्य ऐक्ष-
त्प्रजापतीन् जघने आत्ममुख्यान् ।
नाभ्यां नभः कुक्षिषु सप्तसिन्धू-
नुरुक्रमस्योरसि चर्क्षमालाम् ॥ २४॥

हृद्यङ्ग धर्मं स्तनयोर्मुरारेः
ऋतं च सत्यं च मनस्यथेन्दुम् ।
श्रियं च वक्षस्यरविन्दहस्तां
कण्ठे च सामानि समस्तरेफान् ॥ २५॥

इन्द्रप्रधानानमरान् भुजेषु
तत्कर्णयोः ककुभो द्यौश्च मूर्ध्नि ।
केशेषु मेघान् श्वसनं नासिकाया-
मक्ष्णोश्च सूर्यं वदने च वह्निम् ॥ २६॥

वाण्यां च छन्दांसि रसे जलेशं
भ्रुवोर्निषेधं च विधिं च पक्ष्मसु ।
अहश्च रात्रिं च परस्य पुंसो
मन्युं ललाटेऽधर एव लोभम् ॥ २७॥

स्पर्शे च कामं नृप रेतसोऽम्भः
पृष्ठे त्वधर्मं क्रमणेषु यज्ञम् ।
छायासु मृत्युं हसिते च मायां
तनूरुहेष्वोषधिजातयश्च ॥ २८॥

नदीश्च नाडीषु शिला नखेषु
बुद्धावजं देवगणान् ऋषींश्च ।
प्राणेषु गात्रे स्थिरजङ्गमानि
सर्वाणि भूतानि ददर्श वीरः ॥ २९॥

सर्वात्मनीदं भुवनं निरीक्ष्य
सर्वेऽसुराः कश्मलमापुरङ्ग ।
सुदर्शनं चक्रमसह्यतेजो
धनुश्च शार्ङ्गं स्तनयित्नुघोषम् ॥ ३०॥

पर्जन्यघोषो जलजः पाञ्चजन्यः
कौमोदकी विष्णुगदा तरस्विनी ।
विद्याधरोऽसिः शतचन्द्रयुक्त-
स्तूणोत्तमावक्षयसायकौ च ॥ ३१॥

सुनन्दमुख्या उपतस्थुरीशं
पार्षदमुख्याः सहलोकपालाः ।
स्फुरत्किरीटाङ्गदमीनकुण्डल-
श्रीवत्सरत्नोत्तममेखलाम्बरैः ॥ ३२॥

मधुव्रतस्रग्वनमालया वृतो
रराज राजन् भगवानुरुक्रमः ।
क्षितिं पदैकेन बलेर्विचक्रमे
नभः शरीरेण दिशश्च बाहुभिः ॥ ३३॥

पदं द्वितीयं क्रमतस्त्रिविष्टपं
न वै तृतीयाय तदीयमण्वपि ।
उरुक्रमस्याङ्घ्रिरुपर्युपर्यथो
महर्जनाभ्यां तपसः परं गतः ॥ ३४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हिताया-
मष्टमस्कन्धे विश्वरूपदर्शनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २०॥


अष्टम स्कन्ध-बीसवाँ अध्याय 
भगवान वामनजी का विराट् रूप होकर दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! जब कुलगुरु शुक्राचार्य ने इस प्रकार कहा, तब आदर्श गृहस्थ राजा बलि ने एक क्षण चुप रहकर बड़ी विनय और सावधानी से शुक्राचार्यजी के प्रति यों कहा ॥ १ ॥

राजा बलि ने कहा—भगवन् ! आपका कहना सत्य है। गृहस्थाश्रम में रहनेवालों के लिये वही धर्म है जिससे अर्थ, काम, यश और आजीविका में कभी किसी प्रकार बाधा न पड़े ॥ २ ॥ परंतु गुरुदेव ! मैं प्रह्लादजी का पौत्र हूँ और एक बार दे ने की प्रतिज्ञा कर चु का हूँ। अत: अब मैं धन के लोभ से ठग की भाँति इस ब्राह्मण से कैसे कहूँ कि ‘मैं तुम्हें नहीं दूँगा’ ॥ ३ ॥ इस पृथ्वी ने कहा है कि ‘असत्य से बढक़र कोई अधर्म नहीं है। मैं सब कुछ सह ने में समर्थ हूँ, परंतु झूठे मनुष्य का भार मुझ से नहीं सहा जाता’ ॥ ४ ॥ मैं नरकसे, दरिद्रतासे, दु:ख के समुद्रसे, अपने राज्य के नाश से और मृत्यु से भी उतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मण से प्रतिज्ञा करके उसे धोखा दे ने से डरता हूँ ॥ ५ ॥ इस संसार में मर जाने के बाद धन आदि जो-जो वस्तुएँ साथ छोड़ देती हैं, यदि उनके द्वारा दान आदि से ब्राह्मणों को भी सन्तुष्ट न किया जा सका, तो उनके त्याग का लाभ ही क्या रहा ? ॥ ६ ॥ दधीचि, शिबि आदि महापुरुषोंने

अपने परम प्रिय दुस्त्यज प्राणों का दान करके भी प्राणियों की भलाई की है। फिर पृथ्वी आदि वस्तुओं को दे ने में सोच-विचार करने की क्या आवश्यकता है ? ॥ ७ ॥ ब्रह्मन् ! पहले युग में बड़े-बड़े दैत्य- राजों ने इस पृथ्वी का उपभोग किया है। पृथ्वी में उनका सामना करनेवाला कोई नहीं था। उनके लोक

और परलोक को तो काल खा गया, परंतु उनका यश अभी पृथ्वी पर ज्यों-का-त्यों बना हुआ है ॥ ८ ॥

गुरुदेव ! ऐसे लोग संसार में बहुत हैं, जो युद्ध में पीठ न दिखाकर अपने प्राणों की बलि चढ़ा देते हैं; परंतु ऐसे लोग बहुत दुर्लभ हैं, जो सत्पात्र के प्राप्त होने पर श्रद्धा के साथ धन का दान करें ॥ ९ ॥ गुरुदेव ! यदि उदार और करुणाशील पुरुष अपात्र याचक की कामना पूर्ण करके दुर्गति भोगता है, तो वह दुर्गति भी उसके लिये शोभा की बात होती है। फिर आप-जैसे ब्रह्मवेत्ता पुरुषों को दान करने से दु:ख प्राप्त हो तो उसके लिये क्या कहना है। इसलिये मैं इस ब्रह्मचारी की अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा ॥ १० ॥ महर्षे ! वेदविधि के जाननेवाले आपलोग बड़े आदर से यज्ञ-यागादि के द्वारा जिनकी आराधना करते हैं—वे वरदानी विष्णु ही इस रूप में हों अथवा कोई दूसरा हो, मैं इन की इच्छा के अनुसार इन्हें पृथ्वी का दान करूँगा ॥ ११ ॥ यदि मेरे अपराध न करने पर भी ये अधर्म से मुझे बाँध लेंगे, तब भी मैं इनका अनिष्ट नहीं चाहूँगा। क्योंकि मेरे शत्रु होने पर भी इन्हों ने भयभीत होकर ब्राह्मण का शरीर धारण किया है ॥ १२ ॥ यदि ये पवित्रकीर्ति भगवान विष्णु ही हैं तो अपना यश नहीं खोना चाहेंगे (अपनी माँगी हुई वस्तु लेकर ही रहेंगे)’। मुझे युद्ध में मारकर भी पृथ्वी छीन सकते हैं और यदि कदाचित् ये कोई दूसरे ही हैं, तो मेरे बाणों की चोट से सदा के लिये रणभूमि में सो जायँगे ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब शुक्राचार्यजी ने देखा कि मेरा यह शिष्य गुरु के प्रति अश्रद्धालु है तथा मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन कर रहा है, तब दैव की प्रेरणा से उन्होंने राजा बलि को शाप दे दिया— यद्यपि वे सत्यप्रतिज्ञ और उदार होने के कारण शाप के पात्र नहीं थे ॥ १४ ॥ शुक्राचार्यजी ने कहा—‘मूर्ख ! तू है तो अज्ञानी, परंतु अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानता है। तू मेरी उपेक्षा करके गर्व कर रहा है। तू ने मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। इसलिये शीघ्र ही तू अपनी लक्ष्मी खो बैठेगा’ ॥ १५ ॥ राजा बलि बड़े महात्मा थे। अपने गुरुदेव के शाप देने पर भी वे सत्य से नहीं डिगे। उन्होंने वामनभगवान की विधिपूर्वक पूजा की और हाथ में जल लेकर तीन पग भूमि का संकल्प कर दिया ॥ १६ ॥ उसी समय राजा बलि की पत्नी विन्ध्यावली, जो मोतियों के गहनों से सुसज्जित थी, वहाँ आयी। उसने अपने हाथों वामनभगवान के चरण पखार ने के लिये जल से भरा सो ने का कलश लाकर दिया ॥ १७ ॥ बलि ने स्वयं बड़े आनन्द से उनके सुन्दर-सुन्दर युगल चरणों को धोया और उनके चरणों का वह विश्वपावन जल अपने सिर पर चढ़ाया ॥ १८ ॥ उस समय आकाश में स्थित देवता, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध, चारण— सभी लोग राजा बलि के इस अलौकिक कार्य तथा सरलता की प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्द से उनके ऊ पर दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ १९ ॥ एक साथ ही हजारों दुन्दुभियाँ बार-बार बज ने लगीं। गन्धर्व, किम्पुरुष और किन्नर गान करने लगे—‘अहो धन्य है ! इन उदारशिरोमणि बलि ने ऐसा काम कर दिखाया, जो दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। देखो तो सही, इन्हों ने जान-बूझकर अपने शत्रु को तीनों लोकों का दान कर दिया !’ ॥ २० ॥

इसी समय एक बड़ी अद्भुत घटना घट गयी। अनन्त भगवान का वह त्रिगुणात्मक वामनरूप बढऩे लगा। वह यहाँ तक बढ़ा कि पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ, स्वर्ग, पाताल, समुद्र, पशु-पक्षी, मनुष्य, देवता और ऋषि—सब-के-सब उसी में समा गये ॥ २१ ॥ ऋत्विज्, आचार्य और सदस्यों के साथ बलि ने समस्त ऐश्वर्यों के एकमात्र स्वामी भगवान के उस त्रिगुणात्मक शरीर में पञ्चभूत, इन्द्रिय, उनके विषय, अन्त:करण और जीवों के साथ वह सम्पूर्ण त्रिगुणमय जगत देखा ॥ २२ ॥ राजा बलि ने विश्व- रूप भगवान के चरणतल में रसातल, चरणों में पृथ्वी, पिंडलियों में पर्वत, घुटनों में पक्षी और जाँघों में मरुद्गण को देखा ॥ २३ ॥ इसी प्रकार भगवान के वस्त्रों में सन्ध्या, गुह्यस्थानों में प्रजापतिगण, जघनस्थल में अपने-सहित समस्त असुरगण, नाभि में आकाश, कोख में सातों समुद्र और वक्ष:स्थल में नक्षत्रसमूह देखे ॥ २४ ॥ उन लोगों को भगवान के हृदय में धर्म, स्तनों में ऋत (मधुर) और सत्य वचन, मन में चन्द्रमा, वक्ष:स्थल पर हाथों में कमल लिये लक्ष्मीजी, कण्ठ में सामवेद और संपूर्ण शब्दसमूह उन्हें दीखे ॥ २५ ॥ बाहुओं में इन्द्रादि समस्त देवगण, कानों में दिशाएँ, मस् तक में स्वर्ग, केशों में मेघमाला, नासिका में वायु, नेत्रों में सूर्य और मुख में अग्रि दिखायी पड़े ॥ २६ ॥ वाणी में वेद, रसना में वरुण, भौंहों में विधि और निषेध, पलकों में दिन और रात। विश्वरूप के ललाट में क्रोध और नीचे के ओठ में लोभ के दर्शन हुए ॥ २७ ॥ परीक्षित ! उनके स्पर्श में काम, वीर्य में जल, पीठ में अधर्म, पद-विन्यास में यज्ञ, छाया में मृत्यु, हँसी में माया और शरीर के रोमों में सब प्रकार की ओषधियाँ थीं ॥ २८ ॥ उनकी नाडिय़ों में नदियाँ, नखों में शिलाएँ और बुद्धि में ब्रह्मा, देवता एवं ऋषिगण दीख पड़े। इस प्रकार वीरवर बलि ने भगवान की इन्द्रियों और शरीर में सभी चराचर प्राणियों का दर्शन किया ॥ २९ ॥

परीक्षित ! सर्वात्मा भगवान में यह सम्पूर्ण जगत देखकर सब-के-सब दैत्य अत्यन्त भयभीत हो गये। इसी समय भगवान के पास असह्य तेजवाला सुदर्शन चक्र, गरजते हुए मेघ के समान भयङ्कर टङ्कार करनेवाला शार्ङ्गधनुष, बादल की तरह गम्भीर शब्द करनेवाला पाञ्चजन्य शङ्ख, विष्णुभगवान की अत्यन्त वेगवती कौमोद की गदा, सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल और विद्याधर नाम की तलवार, अक्षय बाणों से भरे दो तरकस तथा लोकपालों के सहित भगवान के सुनन्द आदि पार्षदगण सेवा करने के लिये उपस्थित हो गये। उस समय भगवान की बड़ी शोभा हुई। मस् तक पर मुकुट, बाहुओं में बाजूबंद, कानों में मकराकृति कुण्डल, वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स-चिह्न, गले में कौस्तुभमणि, कमर में मेखला और कंधे पर पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ॥ ३०—३२ ॥ वे पाँच प्रकार के पुष्पों की बनी वनमाला धारण किये हुए थे, जिस पर मधुलोभी भौंरे गुंजार कर रहे थे। उन्होंने अपने एक पग से बलि की सारी पृथ्वी नाप ली, शरीर से आकाश और भुजाओं से दिशाएँ घेर लीं; दूसरे पग से उन्होंने स्वर्ग को भी नाप लिया। तीसरा पैर रखने के लिये बलि की तनिक-सी भी कोई वस्तु न बची। भगवान का वह दूसरा पग ही ऊ पर की ओर जाता हुआ महर्लोक, जनलोक और तपलोक से भी ऊ पर सत्यलोक में पहुँच गया ॥ ३३-३४ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-21]

॥ एकविंशोऽध्यायः - २१ ॥
श्रीशुक उवाच
सत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेन्दुभि-
र्हतस्वधामद्युतिरावृतोऽभ्यगात् ।
मरीचिमिश्रा ऋषयो बृहद्व्रताः
सनन्दनाद्या नरदेव योगिनः ॥ १॥

वेदोपवेदा नियमान्विता
यमास्तर्केतिहासाङ्गपुराणसंहिताः ।
ये चापरे योगसमीरदीपित-
ज्ञानाग्निना रन्धितकर्मकल्मषाः ।
ववन्दिरे यत्स्मरणानुभावतः
स्वायम्भुवं धाम गता अकर्मकम् ॥ २॥

अथाङ्घ्रये प्रोन्नमिताय विष्णो-
रुपाहरत्पद्मभवोऽर्हणोदकम् ।
समर्च्य भक्त्याभ्यगृणाच्छुचिश्रवा
यन्नाभिपङ्केरुहसम्भवः स्वयम् ॥ ३॥

धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य
पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र ।
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि
लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः ॥ ४॥

ब्रह्मादयो लोकनाथाः स्वनाथाय समादृताः ।
सानुगा बलिमाजह्रुः सङ्क्षिप्तात्मविभूतये ॥ ५॥

तोयैः समर्हणैः स्रग्भिर्दिव्यगन्धानुलेपनैः ।
धूपैर्दीपैः सुरभिभिर्लाजाक्षतफलाङ्कुरैः ॥ ६॥

स्तवनैर्जयशब्दैश्च तद्वीर्यमहिमाङ्कितैः ।
नृत्यवादित्रगीतैश्च शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनैः ॥ ७॥

जाम्बवान् ऋक्षराजस्तु भेरीशब्दैर्मनोजवः ।
विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमघोषयत् ॥ ८॥

महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाच्ञया ।
ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिताः ॥ ९॥

न वा अयं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वरः ।
द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति ॥ १०॥

अनेन याचमानेन शत्रुणा वटुरूपिणा ।
सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदण्डस्य बर्हिषि ॥ ११॥

सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः ।
नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः ॥ १२॥

तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः ।
इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुराः ॥ १३॥

ते सर्वे वामनं हन्तुं शूलपट्टिशपाणयः ।
अनिच्छतो बले राजन् प्राद्रवन् जातमन्यवः ॥ १४॥

तानभिद्रवतो दृष्ट्वा दितिजानीकपान् नृप ।
प्रहस्यानुचरा विष्णोः प्रत्यषेधन्नुदायुधाः ॥ १५॥

नन्दः सुनन्दोऽथ जयो विजयः प्रबलो बलः ।
कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेनः पतत्त्रिराट् ॥ १६॥

जयन्तः श्रुतदेवश्च पुष्पदन्तोऽथ सात्वतः ।
सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम् ॥ १७॥

हन्यमानान् स्वकान् दृष्ट्वा पुरुषानुचरैर्बलिः ।
वारयामास संरब्धान् काव्यशापमनुस्मरन् ॥ १८॥

हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः ।
मा युध्यत निवर्तध्वं न नः कालोऽयमर्थकृत् ॥ १९॥

यः प्रभुः सर्वभूतानां सुखदुःखोपपत्तये ।
तं नातिवर्तितुं दैत्याः पौरुषैरीश्वरः पुमान् ॥ २०॥

यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम् ।
स एव भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम् ॥ २१॥

बलेन सचिवैर्बुद्ध्या दुर्गैर्मन्त्रौषधादिभिः ।
सामादिभिरुपायैश्च कालं नात्येति वै जनः ॥ २२॥

भवद्भिर्निर्जिता ह्येते बहुशोऽनुचरा हरेः ।
दैवेनर्द्धैस्त एवाद्य युधि जित्वा नदन्ति नः ॥ २३॥

एतान् वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति ।
तस्मात्कालं प्रतीक्षध्वं यो नोऽर्थत्वाय कल्पते ॥ २४॥

श्रीशुक उवाच
पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः ।
रसां निर्विविशू राजन् विष्णुपार्षदताडिताः ॥ २५॥

अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट् प्रभुचिकीर्षितम् ।
बबन्ध वारुणैः पाशैर्बलिं सौत्येऽहनि क्रतौ ॥ २६॥

हाहाकारो महानासीद्रोदस्योः सर्वतोदिशम् ।
निगृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ २७॥

तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः ।
नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप ॥ २८॥

पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर ।
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय ॥ २९॥

यावत्तपत्यसौ गोभिर्यावदिन्दुः सहोडुभिः ।
यावद्वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव ॥ ३०॥

पदैकेन मयाक्रान्तो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः ।
स्वर्लोकस्तु द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना ॥ ३१॥

प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते ।
विश त्वं निरयं तस्माद्गुरुणा चानुमोदितः ॥ ३२॥

वृथा मनोरथस्तस्य दूरे स्वर्गः पतत्यधः ।
प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलम्भते ॥ ३३॥

विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना ।
तद्व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित्समाः ॥ ३४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिनिग्रहो
नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥


अष्टम स्कन्ध-इक्कीसवाँ अध्याय 
बलि का बाँधा जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान का चरणकमल सत्यलोक में पहुँच गया। उसके नखचन्द्र की छटा से सत्यलोक की आभा फी की पड़ गयी। स्वयं ब्रह्मा भी उसके प्रकाश में डूब- से गये। उन्होंने मरीचि आदि ऋषियों, सनन्दन आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारियों एवं बड़े-बड़े योगियों के साथ भगवान के चरणकमल की अगवानी की ॥ १ ॥ वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, वेदाङ्ग और पुराण-संहिताएँ—जो ब्रह्मलोक में मूर्तिमान् होकर निवास करते हैं—तथा जिन लोगों ने योगरूप वायु से ज्ञानाग्रि को प्रज्वलित करके कर्ममल को भस्म कर डाला है, वे महात्मा, सबने भगवान के चरण की वन्दना की। इसी चरणकमल के स्मरण की महिमा से ये सब कर्म के द्वारा प्राप्त न होनेयोग्य ब्रह्माजी के धाम में पहुँचे हैं ॥ २ ॥ भगवान ब्रह्मा की कीर्ति बड़ी पवित्र है। वे विष्णुभगवान के नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं। अगवानी करने के बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूप भगवान के ऊ पर उठे हुए चरण का अघ्र्य-पाद्य से पूजन किया, प्रक्षालन किया। पूजा करके बड़े प्रेम और भक्ति से उन्होंने भगवान की स्तुति की ॥ ३ ॥ परीक्षित ! ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विश्वरूप भगवान के पाँव पखार ने से पवित्र होने के कारण उन गङ्गाजी के रूप में परिणत हो गया, जो आकाश-मार्ग से पृथ्वी पर गिरकर तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। ये गङ्गाजी क्या हैं, भगवान की मूर्तिमान् उज्जवल कीर्ति ॥ ४ ॥ जब भगवान ने अपने स्वरूप को कुछ छोटा कर लिया, अपनी विभूतियों को कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालों ने अपने अनुचरों के साथ बड़े आदरभाव से अपने स्वामी भगवान को अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं ॥ ५ ॥ उन लोगों ने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धों से भरे अङ्गराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अङ्कुर, भगवान की महिमा और प्रभाव से युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शङ्ख और दुन्दुभि के शब्दों से भगवान की आराधना की ॥ ६-७ ॥ उस समय ऋक्षराज जाम्बवान् मन के समान वेग से दौडक़र सब दिशाओं में भेरी बजा-बजाकर भगवान की मङ्गलमय विजय की घोषणा कर आये ॥ ८ ॥

दैत्यों ने देखा कि वामनजी ने तीन पग पृथ्वी माँग ने के बहा ने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोच ने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञ में दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं। इसलिये बहुत चिढक़र वे आपस में कह ने लगे ॥ ९ ॥ ‘अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सब से बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मण के रूप में छिपकर यह देवताओं का काम बनाना चाहता है ॥ १० ॥ जब हमारे स्वामी यज्ञ में दीक्षित होकर किसीको किसी प्रकार का दण्ड दे ने के लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रु ने ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया ॥ ११ ॥ यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परंतु यज्ञ में दीक्षित होने पर वे इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणों के बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदय में दया भी बहुत है। इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते ॥ १२ ॥ ऐसी अवस्था में हमलोगों का यही धर्म है कि इस शत्रु को मार डालें। इससे

हमारे स्वामी बलि की सेवा भी होती है।’ यों सोचकर राजा बलि के अनुचर असुरों ने अपने-अपने हथियार उठा लिये ॥ १३ ॥ परीक्षित ! राजा बलि की इच्छा न होने पर भी वे सब बड़े क्रोध से शूल, पट्टिश आदि ले-लेकर वामनभगवान को मार ने के लिये टूट पड़े ॥ १४ ॥ परीक्षित ! जब विष्णु- भगवान के पार्षदों ने देखा कि दैत्यों के सेनापति आक्रमण करने के लिये दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने हँसकर अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और उन्हें रोक दिया ॥ १५ ॥ नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वत—ये सभी भगवान के पार्षद दस-दस हजार हाथियों का बल रखते हैं। वे असुरों की सेना का संहार करने लगे ॥ १६-१७ ॥ जब राजा बलि ने देखा कि भगवान के पार्षद मेरे सैनिकों को मार रहे हैं और वे भी क्रोध में भरकर उनसे लडऩे के लिये तैयार हो रहे हैं, तो उन्होंने शुक्राचार्य के शाप का स्मरण करके उन्हें युद्ध करने से रोक दिया ॥ १८ ॥ उन्होंने विप्रचित्ति, राहु, नेमि आदि दैत्यों को सम्बोधित करके कहा—‘भाइयो ! मेरी बात सुनो। लड़ो मत, वापस लौट आओ। यह समय हमारे कार्य के अनुकूल नहीं है ॥ १९ ॥ दैत्यो ! जो काल समस्त प्राणियों को सुख और दु:ख दे ने की सामथ्र्य रखता है—उसे यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपने प्रयत्नों से दबा दूँ, तो यह उसकी शक्ति से बाहर है ॥ २० ॥ जो पहले हमारी उन्नति और देवताओं की अवनति के कारण हुए थे, वही कालभगवान अब उनकी उन्नति और हमारी अवनति के कारण हो रहे हैं ॥ २१ ॥ बल, मन्त्री, बुद्धि, दुर्ग, मन्त्र, ओषधि और सामादि उपाय—इनमें से किसी भी साधन के द्वारा अथवा सब के द्वारा मनुष्य काल पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २२ ॥ जब दैव तुमलोगों के अनुकूल था, तब तुमलोगों ने भगवान के इन पार्षदों को कई बार जीत लिया था। पर देखो, आज वे ही युद्ध में हम पर विजय प्राप्त करके सिंहनाद कर रहे हैं ॥ २३ ॥ यदि दैव हमारे अनुकूल हो जायगा, तो हम भी इन्हें जीत लेंगे। इसलिये उस समय की प्रतीक्षा करो, जो हमारी कार्यसिद्धि के लिये अनुकूल हो’ ॥ २४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! अपने स्वामी बलि की बात सुनकर भगवान के पार्षदों से हारे हुए दानव और दैत्यसेनापति रसातल में चले गये ॥ २५ ॥ उनके जाने के बाद भगवान के हृदय की बात जानकर पक्षिराज गरुडऩे वरुण के पाशों से बलि को बाँध दिया। उस दिन उनके अश्वमेध यज्ञ में सोमपान होनेवाला था ॥ २६ ॥ जब सर्वशक्तिमान् भगवान विष्णु ने बलि को इस प्रकार बँधवा दिया, तब पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओं में लोग ‘हाय-हाय !’ करने लगे ॥ २७ ॥ यद्यपि बलि वरुण के पाशों से बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथों से निकल गयी थी—फिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यश का गान कर रहे थे। परीक्षित ! उस समय भगवान ने बलि से कहा ॥ २८ ॥ ‘असुर ! तुम ने मुझे पृथ्वी के तीन पग दिये थे; दो पग में तो मैंने सारी त्रिलो की नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो ॥ २९ ॥ जहाँ तक सूर्य की गरमी पहुँचती है, जहाँ तक नक्षत्रों और चन्द्रमा की किरणें पहुँचती हैं और जहाँ तक बादल जाकर बरसते हैं—वहाँ- तक की सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकार में थी ॥ ३० ॥ तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक पैर से भूर्लोक, शरीर से आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैर से स्वर्लोक नाप लिया है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चु का है ॥ ३१ ॥ फिर भी तुम ने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सक ने के कारण अब तुम्हें नरक में रहना पड़ेगा। तुम्हारे गुरु की तो इस विषय में सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरक में प्रवेश करो ॥ ३२ ॥ जो याचक को दे ने की प्रतिज्ञा करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं। स्वर्ग की बात तो दूर रही, उसे नरक में गिरना पड़ता है ॥ ३३ ॥ तुम्हें इस बात का बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुम ने मुझ से ‘दूँगा’— ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षों तक इस झूठ का फल नरक भोगो’ ॥ ३४ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-22]

॥ द्वाविंशोऽध्यायः - २२ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं विप्रकृतो राजन् बलिर्भगवतासुरः ।
भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः ॥ १॥

बलिरुवाच
यद्युत्तमश्लोक भवान् ममेरितं
वचो व्यलीकं सुरवर्य मन्यते ।
करोम्यृतं तन्न भवेत्प्रलम्भनं
पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम् ॥ २॥

बिभेमि नाहं निरयात्पदच्युतो
न पाशबन्धाद्व्यसनाद्दुरत्ययात् ।
नैवार्थकृच्छ्राद्भवतो विनिग्रहा-
दसाधुवादाद्भृशमुद्विजे यथा ॥ ३॥

पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम् ।
यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि ॥ ४॥

त्वं नूनमसुराणां नः पारोक्ष्यः परमो गुरुः ।
यो नोऽनेकमदान्धानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत् ॥ ५॥

यस्मिन् वैरानुबन्धेन व्यूढेन विबुधेतराः ।
बहवो लेभिरे सिद्धिं यामु हैकान्तयोगिनः ॥ ६॥

तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा ।
बद्धश्च वारुणैः पाशैर्नातिव्रीडे न च व्यथे ॥ ७॥

पितामहो मे भवदीयसम्मतः
प्रह्लाद आविष्कृतसाधुवादः ।
भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं
सम्प्रापितस्त्वत्परमः स्वपित्रा ॥ ८॥

किमात्मनानेन जहाति योऽन्ततः
किं रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः ।
किं जायया संसृतिहेतुभूतया
मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुषो व्ययः ॥ ९॥

इत्थं स निश्चित्य पितामहो महा-
नगाधबोधो भवतः पादपद्मम् ।
ध्रुवं प्रपेदे ह्यकुतोभयं जनाद्भीतः
स्वपक्षक्षपणस्य सत्तम ॥ १०॥

अथाहमप्यात्मरिपोस्तवान्तिकं
दैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्रीः ।
इदं कृतान्तान्तिकवर्ति जीवितं
ययाध्रुवं स्तब्धमतिर्न बुध्यते ॥ ११॥

श्रीशुक उवाच
तस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्लादो भगवत्प्रियः ।
आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरिवोत्थितः ॥ १२॥

तमिन्द्रसेनः स्वपितामहं श्रिया
विराजमानं नलिनायतेक्षणम् ।
प्रांशुं पिशङ्गाम्बरमञ्जनत्विषं
प्रलम्बबाहुं सुभगं समैक्षत ॥ १३॥

तस्मै बलिर्वारुणपाशयन्त्रितः
समर्हणं नोपजहार पूर्ववत् ।
ननाम मूर्ध्नाश्रुविलोललोचनः
सव्रीडनीचीनमुखो बभूव ह ॥ १४॥

स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं
सुनन्दनन्दाद्यनुगैरुपासितम् ।
उपेत्य भूमौ शिरसा महामना
ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लवः ॥ १५॥

प्रह्लाद उवाच
त्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं
हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम् ।
मन्ये महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो
विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात् ॥ १६॥

यया हि विद्वानपि मुह्यते यतस्तत्को
विचष्टे गतिमात्मनो यथा ।
तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै
नारायणायाखिललोकसाक्षिणे ॥ १७॥

श्रीशुक उवाच
तस्यानुश‍ृण्वतो राजन् प्रह्लादस्य कृताञ्जलेः ।
हिरण्यगर्भो भगवानुवाच मधुसूदनम् ॥ १८॥

बद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्नी भयविह्वला ।
प्राञ्जलिः प्रणतोपेन्द्रं बभाषेऽवाङ्मुखी नृप ॥ १९॥

विन्ध्यावलिरुवाच
क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत्कृतं ते
स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्युः ।
कर्तुः प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति
त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः ॥ २०॥

ब्रह्मोवाच
भूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय ।
मुञ्चैनं हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम् ॥ २१॥

कृत्स्ना तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाः कर्मार्जिताश्च ये ।
निवेदितं च सर्वस्वमात्माविक्लवया धिया ॥ २२॥

यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
दूर्वाङ्कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम् ।
अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं
दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत् ॥ २३॥

श्रीभगवानुवाच
ब्रह्मन् यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम् ।
यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते ॥ २४॥

यदा कदाचिज्जीवात्मा संसरन् निजकर्मभिः ।
नानायोनिष्वनीशोऽयं पौरुषीं गतिमाव्रजेत् ॥ २५॥

जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्यधनादिभिः ।
यद्यस्य न भवेत्स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः ॥ २६॥

मानस्तम्भनिमित्तानां जन्मादीनां समन्ततः ।
सर्वश्रेयःप्रतीपानां हन्त मुह्येन्न मत्परः ॥ २७॥

एष दानवदैत्यानामग्रणीः कीर्तिवर्धनः ।
अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुह्यति ॥ २८॥

क्षीणरिक्थश्च्युतः स्थानात्क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभिः ।
ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापितः ॥ २९॥

गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्यं न सुव्रतः ।
छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक् ॥ ३०॥

एष मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापममरैरपि ।
सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाश्रयः ॥ ३१॥

तावत्सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम् ।
यन्नाधयो व्याधयश्च क्लमस्तन्द्रा पराभवः ।
नोपसर्गा निवसतां सम्भवन्ति ममेक्षया ॥ ३२॥

इन्द्रसेन महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते ।
सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः ॥ ३३॥

न त्वामभिभविष्यन्ति लोकेशाः किमुतापरे ।
त्वच्छासनातिगान् दैत्यांश्चक्रं मे सूदयिष्यति ॥ ३४॥

रक्षिष्ये सर्वतोऽहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम् ।
सदा सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान् ॥ ३५॥

तत्र दानवदैत्यानां सङ्गात्ते भाव आसुरः ।
दृष्ट्वा मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनङ्क्ष्यति ॥ ३६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिवामनसंवादो नाम
द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥


अष्टम स्कन्ध-बाईसवाँ अध्याय 
बलि के द्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का उसपर प्रसन्न होना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस प्रकार भगवान ने असुरराज बलि का बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्य से विचलित करना चाहा। परंतु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्य से बोले ॥ १ ॥

दैत्यराज बलि ने कहा—देवताओं के आराध्यदेव ! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बात को असत्य समझते हैं ? ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखे में नहीं पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिये ॥ २ ॥ मुझे नरक में जाने का अथवा राज्य से च्युत होने का भय नहीं है। मैं पाश में बँध ने अथवा अपार दु:ख में पडऩे से भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड दें—यह भी मेरे भय का कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्ति से ! ॥ ३ ॥ अपने पूजनीय गुरुजनों के द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्र के लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते ॥ ४ ॥ आप छिपे रूप से अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अत: आप हमारे परम गुरु हैं। जब हमलोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद से अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं को हम से छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं ॥ ५ ॥ आप से हमलोगों का जो उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ ? अनन्यभाव से योग करनेवाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वही सिद्धि बहुत- से असुरों को आपके साथ दृढ़ वैरभाव करने से ही प्राप्त हो गयी है ॥ ६ ॥ जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुणपाश से बाँध रहे हैं। इस की न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकार की व्यथा ही ॥ ७ ॥ प्रभो ! मेरे पितामह प्रह्लादजी की कीर्ति सारे जगत में प्रसिद्ध है। वे आपके भक्तों में श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपु ने आप से वैर-विरोध रखने के कारण उन्हें अनेकों प्रकार के दु:ख दिये; परंतु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आप पर ही निछावर कर दिया ॥ ८ ॥ उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीर को लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है। जो धन- सम्पत्ति लेने के लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओं से अपना स्वार्थ ही क्या है ? पत्नी से भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में डालनेवाली ही है। जब मर ही जाना है, तब घर से मोह करने में भी क्या स्वार्थ है ? इन सब वस्तुओं में उलझ जाना तो केवल अपनी आयु खो देना है ॥ ९ ॥ ऐसा निश्चय करके मेरे पितामह प्रह्लादजीने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टि से उनके भाई-बन्धुओं के नाश करनेवाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरण- कमलों की शरण ग्रहण की थी। क्यों न हो—वे संसार से परम विरक्त, अगाध बोधसम्पन्न, उदार- हृदय एवं संतशिरोमणि जो हैं ॥ १० ॥ आप उस दृष्टि से मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाता ने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मी से अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है। अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य- लक्ष्मी के कारण जीव की बुद्धि जड हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि ‘मेरा यह जीवन मृत्यु के पंजे में पड़ा हुआ और अनित्य है’ ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमा के समान भगवान के प्रेम-पात्र प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे ॥ १२ ॥ राजा बलि ने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमल के समान कोमल नेत्र हैं, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं ॥ १३ ॥ बलि इस समय वरुणपाश में बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लादजी के आने पर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओं से चञ्चल हो उठे, लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ॥ १४ ॥ प्रह्लादजी ने देखा कि भक्तवत्सल भगवान वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेम के उद्रेक से प्रह्लादजी का शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखों में आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदय से सिर झुकाये अपने स्वामी के पास गये और पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ १५ ॥

प्रह्लादजी ने कहा—प्रभो ! आपने ही बलि को यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी ! मैं समझता हूँ कि आपने इस पर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्मा को मोहित करनेवाली राज्यलक्ष्मी से इसे अलग कर दिया ॥ १६ ॥ प्रभो। लक्ष्मी के मद से तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूप को ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? अत: उस लक्ष्मी को छीनकर महान उपकार करनेवाले, समस्त जगत के महान ईश्वर, सब के हृदय में विराजमान और सब के परम साक्षी श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! प्रह्लादजी अञ्जलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान ब्रह्माजी ने वामनभगवान से कुछ कहना चाहा ॥ १८ ॥ परंतु इत ने में ही राजा बलि की परम साध्वी पत्नी विन्ध्यावली ने अपने पति को बँधा देखकर भयभीत हो भगवान के चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान से बोली ॥ १९ ॥

विन्ध्यावली ने कहा—प्रभो ! आपने अपनी क्रीडा के लिये ही इस सम्पूर्ण जगत की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपने को इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी माया से मोहित होकर अपने को झूठमूठ कर्ता माननेवाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे ? ॥ २० ॥

ब्रह्माजी ने कहा—समस्त प्राणियों के जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत स्वरूप देवाधिदेव प्रभो ! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अत: अब यह दण्ड का पात्र नहीं है ॥ २१ ॥ इस ने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मों से उपाॢजत स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मा तक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इस की बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्य से च्युत नहीं हुआ है ॥ २२ ॥ प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता छोडक़र आपके चरणों में जल का अघ्र्य देता है और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है। फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलो की का दान कर दिया है। तब यह दु:ख का भागी कैसे हो सकता है ? ॥ २३ ॥

श्रीभगवान ने कहा—ब्रह्माजी ! मैं जिस पर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ। क्योंकि जब मनुष्य धन के मद से मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगों का तिरस्कार करने लगता है ॥ २४ ॥ यह जीव अपने कर्मों के कारण विवश होकर अनेक योनियों में भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपा से मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है ॥ २५ ॥ मनुष्ययोनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदि के कारण घमंड न हो जाय तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है ॥ २६ ॥ कुलीनता आदि बहुत- से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जडता आदि उत्पन्न करके मनुष्य को कल्याण के समस्त साधनों से वञ्चित कर देते हैं; परंतु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इन से मोहित नहीं होते ॥ २७ ॥ यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशों में अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है। इस ने उस माया पर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दु:ख भोगने पर भी यह मोहित नहीं हुआ ॥ २८ ॥ इसका धन छीन लिया, राजपद से अलग कर दिया, तरह-तरह के आक्षेप किये, शत्रुओं ने बाँध लिया, भाई- बन्धु छोडक़र चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ीं—यहाँ तक कि गुरुदेव ने भी इस को डाँटा- फटकारा और शाप तक दे दिया। परंतु इस दृढव्रती ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मन में छल रखकर धर्म का उपदेश किया; परंतु इस सत्यवादी ने अपना धर्म न छोड़ा ॥ २९-३० ॥ अत: मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओं को भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। सावर्णि मन्वन्तर में यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ॥ ३१ ॥ तब तक यह विश्वकर्मा के बनाये हुए सुतल लोक में रहे। वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टि का अनुभव करते हैं। इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओं से पराजय और किसी प्रकार के विघ्रों का सामना नहीं करना पड़ता ॥ ३२ ॥ [ बलि को सम्बोधित कर ] महाराज इन्द्रसेन ! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओं के साथ उस सुतल लोक में जाओ, जिसे स्वर्ग के देवता भी चाहते रहते हैं ॥ ३३ ॥ बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरों की तो बात ही क्या है ! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञा का उल्लङ्घन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ॥ ३४ ॥ मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और भोगसामग्री की भी सब प्रकार के विघ्रों से रक्षा करूँगा। वीर बलि ! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे ॥ ३५ ॥ दानव और दैत्यों के संसर्ग से तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा, वह मेरे प्रभाव से तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा ॥ ३६ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-23]

॥ त्रयोविंशोऽध्यायः - २३ ॥
श्रीशुक उवाच
इत्युक्तवन्तं पुरुषं पुरातनं
महानुभावोऽखिलसाधुसम्मतः ।
बद्धाञ्जलिर्बाष्पकलाकुलेक्षणो
भक्त्युद्गलो गद्गदया गिराब्रवीत् ॥ १॥

बलिरुवाच
अहो प्रणामाय कृतः समुद्यमः
प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहितः ।
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरै-
रलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पितः ॥ २॥

श्रीशुक उवाच
इत्युक्त्वा हरिमानम्य ब्रह्माणं सभवं ततः । विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्तः सहासुरैः ॥ ३॥

एवमिन्द्राय भगवान् प्रत्यानीय त्रिविष्टपम् ।
पूरयित्वादितेः काममशासत्सकलं जगत् ॥ ४॥

लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं वंशधरं बलिम् ।
निशाम्य भक्तिप्रवणः प्रह्लाद इदमब्रवीत् ॥ ५॥

प्रह्लाद उवाच
नेमं विरिञ्चो लभते प्रसादं
न श्रीर्न शर्वः किमुतापरे ते ।
यन्नोऽसुराणामसि दुर्गपालो
विश्वाभिवन्द्यैरभिवन्दिताङ्घ्रिः ॥ ६॥

यत्पादपद्ममकरन्दनिषेवणेन
ब्रह्मादयः शरणदाश्नुवते विभूतीः ।
कस्माद्वयं कुसृतयः खलयोनयस्ते
दाक्षिण्यदृष्टिपदवीं भवतः प्रणीताः ॥ ७॥

चित्रं तवेहितमहोऽमितयोगमाया-
लीलाविसृष्टभुवनस्य विशारदस्य ।
सर्वात्मनः समदृशोऽविषमः स्वभावो
भक्तप्रियो यदसि कल्पतरुस्वभावः ॥ ८॥

श्रीभगवानुवाच
वत्स प्रह्लाद भद्रं ते प्रयाहि सुतलालयम् ।
मोदमानः स्वपौत्रेण ज्ञातीनां सुखमावह ॥ ९॥

नित्यं द्रष्टासि मां तत्र गदापाणिमवस्थितम् ।
मद्दर्शनमहाह्लादध्वस्तकर्मनिबन्धनः ॥ १०॥

श्रीशुक उवाच
आज्ञां भगवतो राजन् प्रह्लादो बलिना सह ।
बाढमित्यमलप्रज्ञो मूर्ध्न्याधाय कृताञ्जलिः ॥ ११॥

परिक्रम्यादिपुरुषं सर्वासुरचमूपतिः ।
प्रणतस्तदनुज्ञातः प्रविवेश महाबिलम् ॥ १२॥

अथाहोशनसं राजन् हरिर्नारायणोऽन्तिके ।
आसीनमृत्विजां मध्ये सदसि ब्रह्मवादिनाम् ॥ १३॥

ब्रह्मन् सन्तनु शिष्यस्य कर्मच्छिद्रं वितन्वतः ।
यत्तत्कर्मसु वैषम्यं ब्रह्मदृष्टं समं भवेत् ॥ १४॥
शुक्र उवाच
कुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य कर्मेश्वरो भवान् ।
यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन पूजितः ॥ १५॥

मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः ।
सर्वं करोति निश्छिद्रं नामसङ्कीर्तनं तव ॥ १६॥

तथापि वदतो भूमन् करिष्याम्यनुशासनम् ।
एतच्छ्रेयः परं पुंसां यत्तवाज्ञानुपालनम् ॥ १७॥

श्रीशुक उवाच
अभिनन्द्य हरेराज्ञामुशना भगवानिति ।
यज्ञच्छिद्रं समाधत्त बलेर्विप्रर्षिभिः सह ॥ १८॥

एवं बलेर्महीं राजन् भिक्षित्वा वामनो हरिः ।
ददौ भ्रात्रे महेन्द्राय त्रिदिवं यत्परैर्हृतम् ॥ १९॥

प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा देवर्षिपितृभूमिपैः ।
दक्षभृग्वङ्गिरोमुख्यैः कुमारेण भवेन च ॥ २०॥

कश्यपस्यादितेः प्रीत्यै सर्वभूतभवाय च ।
लोकानां लोकपालानामकरोद्वामनं पतिम् ॥ २१॥

वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशसः श्रियः ।
मङ्गलानां व्रतानां च कल्पं स्वर्गापवर्गयोः ॥ २२॥

उपेन्द्रं कल्पयांचक्रे पतिं सर्वविभूतये ।
तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरे नृप ॥ २३॥

ततस्त्विन्द्रः पुरस्कृत्य देवयानेन वामनम् ।
लोकपालैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा चानुमोदितः ॥ २४॥

प्राप्य त्रिभुवनं चेन्द्र उपेन्द्रभुजपालितः ।
श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे गतसाध्वसः ॥ २५॥

ब्रह्मा शर्वः कुमारश्च भृग्वाद्या मुनयो नृप ।
पितरः सर्वभूतानि सिद्धा वैमानिकाश्च ये ॥ २६॥

सुमहत्कर्म तद्विष्णोर्गायन्तः परमाद्भुतम् ।
धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुरदितिं च शशंसिरे ॥ २७॥

सर्वमेतन्मयाऽऽख्यातं भवतः कुलनन्दन ।
उरुक्रमस्य चरितं श्रोतॄणामघमोचनम् ॥ २८॥

पारं महिम्न उरुविक्रमतो गृणानो
यः पार्थिवानि विममे स रजांसि मर्त्यः ।
किं जायमान उत जात उपैति मर्त्य
इत्याह मन्त्रदृगृषिः पुरुषस्य यस्य ॥ २९॥

य इदं देवदेवस्य हरेरद्भुतकर्मणः ।
अवतारानुचरितं श‍ृण्वन् याति परां गतिम् ॥ ३०॥

क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येऽथ मानुषे ।
यत्र यत्रानुकीर्त्येत तत्तेषां सुकृतं विदुः ॥ ३१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-
मष्टमस्कन्धे वामनावतारचरिते त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥


अष्टम स्कन्ध-तेईसवाँ अध्याय 
बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब सनातनपुरुष भगवान ने इस प्रकार कहा, तो साधुओं के आदरणीय महानुभाव दैत्यराज के नेत्रों में आँसू छलक आये। प्रेम के उद्रेक से उनका गला भर आया। वे हाथ जोडक़र गद्गद वाणी से भगवान से कह ने लगे ॥ १ ॥

बलि ने कहा—प्रभो ! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करनेमात्र की चेष्टाभर की। इसीसे मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणों के शरणागत भक्तों को प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओं पर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ-जैसे नीच असुर को सहज ही प्राप्त हो गयी ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! यों कहते ही बलि वरुण के पाशों से मुक्त हो गये। तब उन्होंने भगवान, ब्रह्माजी और शङ्करजी को प्रणाम किया और इसके बाद बड़ी प्रसन्नता से असुरों के साथ सुतल लोक की यात्रा की ॥ ३ ॥ इस प्रकार भगवान ने बलि से स्वर्ग का राज्य लेकर इन्द्र को दे दिया, अदिति की कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत का शासन करने लगे ॥ ४ ॥ जब प्रह्लाद ने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धन से छूट गये और उन्हें भगवान का कृपाप्रसाद प्राप्त हो गया, तो वे भक्ति-भाव से भर गये। उस समय उन्होंने भगवान की इस प्रकार स्तुति की ॥ ५ ॥

प्रह्लादजी ने कहा—प्रभो ! यह कृपाप्रसाद तो कभी ब्रह्माजी, लक्ष्मीजी और शङ्करजी को भी नहीं प्राप्त हुआ, तब दूसरों की बात ही क्या है। अहो ! विश्ववन्द्य ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना करते रहते हैं, वही आप हम असुरों के दुर्गपाल—किलेदार हो गये ॥ ६ ॥ शरणागतवत्सल प्रभो! ब्रह्मा आदि लोकपाल आपके चरणकमलों का मकरन्द-रस सेवन करने के कारण सृष्टि-रचना की शक्ति आदि अनेक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। हमलोग तो जन्म से ही खल और कुमार्गगामी हैं, हम पर आपकी ऐसी अनुग्रहपूर्ण दृष्टि कैसे हो गयी, जो आप हमारे द्वारपाल ही बन गये ॥ ७ ॥ आपने अपनी योगमाया से खेल-ही-खेल में त्रिभुवन की रचना कर दी। आप सर्वज्ञ, सर्वात्मा और समदर्शी हैं। फिर भी आपकी लीलाएँ बड़ी विलक्षण जान पड़ती हैं। आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; क्योंकि आप अपने भक्तों से अत्यन्त प्रेम करते है। इसीसे कभी-कभी उपासकों के प्रति पक्षपात और विमुखों के प्रति निर्दयता भी आप में देखी जाती है ॥ ८ ॥

श्रीभगवान ने कहा—बेटा प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम भी सुतल लोक में जाओ। वहाँ अपने पौत्र बलि के साथ आनन्दपूर्वक रहो और जाति-बन्धुओं को सुखी करो ॥ ९ ॥ वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथ में लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शन के परमानन्द में मग्र रहने के कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायँगे ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! समस्त दैत्यसेना के स्वामी विशुद्धबुद्धि प्रह्लादजी ने ‘जो आज्ञा’ कहकर, हाथ जोड़, भगवान का आदेश मस् तक पर चढ़ाया। फिर उन्होंने बलि के साथ आदिपुरुष भगवान की परिक्रमा की, उन्हें प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोक की यात्रा की ॥ ११-१२ ॥ परीक्षित ! उस समय भगवान श्रीहरि ने ब्रह्मवादी ऋत्विजों की सभा में अपने पास ही बैठे हुए शुक्राचार्यजी से कहा ॥ १३ ॥ ‘ब्रह्मन् ! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये। क्योंकि कर्म करने में जो कुछ भूल-चूक हो जाती है, वह ब्राह्मणों की कृपादृष्टि से सुधर जाती है’ ॥ १४ ॥

शुक्राचार्यजी ने कहा—भगवन् ! जिस ने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकार से यज्ञेश्वर यज्ञपुरुष आपकी पूजा की है—उसके कर्म में कोई त्रुटि, कोई विषमता कैसे रह सकती है ? ॥ १५ ॥ क्योंकि मन्त्रोंकी, अनुष्ठान-पद्धतिकी, देश, काल, पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नामसंकीर्तनमात्र से सुधर जाती हैं; आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है ॥ १६ ॥ तथापि अनन्त ! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा का अवश्य पालन करूँगा। मनुष्य के लिये सब से बड़ा कल्याण का साधन यही है कि वह आपकी आज्ञा का पालन करे ॥ १७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान शुक्राचार्य ने भगवान श्रीहरि की यह आज्ञा स्वीकार करके दूसरे ब्रहमर्षियों के साथ, बलि के यज्ञ में जो कमी रह गयी थी, उसे पूर्ण किया ॥ १८ ॥ परीक्षित ! इस प्रकार वामनभगवान ने बलि से पृथ्वी की भिक्षा माँगकर अपने बड़े भाई इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया, जिसे उनके शत्रुओं ने छीन लिया था ॥ १९ ॥ इसके बाद प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने देवर्षि, पितर, मनु, दक्ष, भृगु, अङ्गिरा, सनत्कुमार और शङ्करजी के साथ कश्यप एवं अदिति की प्रसन्नता के लिये तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अभ्युदय के लिये समस्त लोक और लोकपालों के स्वामी के पद पर वामन भगवान का अभिषेक कर दिया ॥ २०-२१ ॥

परीक्षित ! वेद, समस्त देवता, धर्म, यश, लक्ष्मी, मङ्गल, व्रत, स्वर्ग और अपवर्ग—सब के रक्षक के रूप में सब के परम कल्याण के लिये सर्वशक्तिमान् वामनभगवान को उन्होंने उपेन्द्र का पद दिया। उस समय सभी प्राणियों को अत्यन्त आनन्द हुआ ॥ २२-२३ ॥ इसके बाद ब्रह्माजी की अनुमति से लोकपालों के साथ देवराज इन्द्र ने वामनभगवान को सब से आगे विमान पर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले गये ॥ २४ ॥ इन्द्र को एक तो त्रिभुवन का राज्य मिल गया और दूसरे, वामनभगवान के करकमलों की छत्रछाया ! सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और वे निर्भय होकर आनन्दोत्सव मना ने लगे ॥ २५ ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर, सारे भूत, सिद्ध और विमानारोही देवगण भगवान के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान कर्म का गान करते हुए अपने-अपने लोक को चले गये और सबने अदिति की भी बड़ी प्रशंसा की ॥ २६-२७ ॥

परीक्षित ! तुम्हें मैंने भगवान की यह सब लीला सुनायी। इससे सुननेवालों के सारे पाप छूट जाते हैं ॥ २८ ॥ भगवान की लीलाएँ अनन्त हैं, उनकी महिमा अपार है। जो मनुष्य उसका पार पाना चाहता है, वह मानो पृथ्वी के परमाणुओं को गिन डालना चाहता है। भगवान के सम्बन्ध में मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठ ने वेदों में कहा है कि ‘ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान की महिमा का पार पा सके’ ॥ २९ ॥ देवताओं के आराध्यदेव अद्भुतलीलाधारी वामनभगवान के अवतार-चरित्र का जो श्रवण करता है, उसे परम गति की प्राप्ति होती है ॥ ३० ॥ देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ किसी भी कर्म का अनुष्ठान करते समय जहाँ-जहाँ भगवान की इस लीला का कीर्तन होता है, वह कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यह बड़े-बड़े महात्माओं का अनुभव है ॥ ३१ ॥

स्कन्ध-08 [अध्याय-24]

॥ चतुर्विंशोऽध्यायः - २४ ॥
राजोवाच
भगवन् श्रोतुमिच्छामि हरेरद्भुतकर्मणः ।
अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडम्बनम् ॥ १॥

यदर्थमदधाद्रूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम् ।
तमःप्रकृतिदुर्मर्षं कर्मग्रस्त इवेश्वरः ॥ २॥

एतन्नो भगवन् सर्वं यथावद्वक्तुमर्हसि ।
उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम् ॥ ३॥

सूत उवाच
इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान् बादरायणिः ।
उवाच चरितं विष्णोर्मत्स्यरूपेण यत्कृतम् ॥ ४॥

श्रीशुक उवाच
गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः ।
रक्षामिच्छंस्तनूर्धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि ॥ ५॥

उच्चावचेषु भूतेषु चरन् वायुरिवेश्वरः ।
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः ॥ ६॥

आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः ।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप ॥ ७॥

कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली ।
मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत् ॥ ८॥

ज्ञात्वा तद्दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम् ।
दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः ॥ ९॥

तत्र राजऋषिः कश्चिन्नाम्ना सत्यव्रतो महान् ।
नारायणपरोऽतप्यत्तपः स सलिलाशनः ॥ १०॥

योऽसावस्मिन् महाकल्पे तनयः स विवस्वतः ।
श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे हरिणार्पितः ॥ ११॥

एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम् ।
तस्याञ्जल्युदके काचिच्छफर्येकाभ्यपद्यत ॥ १२॥

सत्यव्रतोऽञ्जलिगतां सह तोयेन भारत ।
उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं द्रविडेश्वरः ॥ १३॥

तमाह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम् ।
यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां दीनवत्सल ।
कथं विसृजसे राजन् भीतामस्मिन् सरिज्जले ॥ १४॥

तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम् ।
अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो दधे ॥ १५॥

तस्या दीनतरं वाक्यमाश्रुत्य स महीपतिः ।
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम् ॥ १६॥

सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना कमण्डलौ ।
अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह महीपतिम् ॥ १७॥

नाहं कमण्डलावस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे ।
कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ॥ १८॥

स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके ।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत ॥ १९॥

न म एतदलं राजन् सुखं वस्तुमुदञ्चनम् ।
पृथु देहि पदं मह्यं यत्त्वाहं शरणं गता ॥ २०॥

तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन् सरोवरे ।
तदावृत्यात्मना सोऽयं महामीनोऽन्ववर्धत ॥ २१॥

नैतन्मे स्वस्तये राजन्नुदकं सलिलौकसः ।
निधेहि रक्षायोगेन ह्रदे मामविदासिनि ॥ २२॥

इत्युक्तः सोऽनयन्मत्स्यं तत्र तत्राविदासिनि ।
जलाशयेऽसम्मितं तं समुद्रे प्राक्षिपज्झषम् ॥ २३॥

क्षिप्यमाणस्तमाहेदमिह मां मकरादयः ।
अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि ॥ २४॥

एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम् ।
तमाह को भवानस्मान् मत्स्यरूपेण मोहयन् ॥ २५॥

नैवं वीर्यो जलचरो दृष्टोऽस्माभिः श्रुतोऽपि च ।
यो भवान् योजनशतमह्नाभिव्यानशे सरः ॥ २६॥

नूनं त्वं भगवान् साक्षाद्धरिर्नारायणोऽव्ययः ।
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम् ॥ २७॥

नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्यप्ययेश्वर ।
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो ह्यात्मगतिर्विभो ॥ २८॥

सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां भूतिहेतवः ।
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता धृतम् ॥ २९॥

न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं
मृषा भवेत्सर्वसुहृत्प्रियात्मनः ।
यथेतरेषां पृथगात्मनां सतामदीदृशो
यद्वपुरद्भुतं हि नः ॥ ३०॥

श्रीशुक उवाच
इति ब्रुवाणं नृपतिं जगत्पतिः
सत्यव्रतं मत्स्यवपुर्युगक्षये ।
विहर्तुकामः प्रलयार्णवेऽब्रवी-
च्चिकीर्षुरेकान्तजनप्रियः प्रियम् ॥ ३१॥

श्रीभगवानुवाच
सप्तमेऽद्यतनादूर्ध्वमहन्येतदरिन्दम ।
निमङ्क्ष्यत्यप्ययाम्भोधौ त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम् ॥ ३२॥

त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्ताम्भसि वै तदा ।
उपस्थास्यति नौः काचिद्विशाला त्वां मयेरिता ॥ ३३॥

त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजान्युच्चावचानि च ।
सप्तर्षिभिः परिवृतः सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ३४॥

आरुह्य बृहतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लवः ।
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा ॥ ३५॥

दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा ।
उपस्थितस्य मे श‍ृङ्गे निबध्नीहि महाहिना ॥ ३६॥

अहं त्वामृषिभिः साकं सहनावमुदन्वति ।
विकर्षन् विचरिष्यामि यावद्ब्राह्मी निशा प्रभो ॥ ३७॥

मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम् ।
वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे सम्प्रश्नैर्विवृतं हृदि ॥ ३८॥

इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत ।
सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश आदिशत् ॥ ३९॥

आस्तीर्य दर्भान् प्राक्कूलान् राजर्षिः प्रागुदङ्मुखः ।
निषसाद हरेः पादौ चिन्तयन् मत्स्यरूपिणः ॥ ४०॥

ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन् महीम् ।
वर्धमानो महामेघैर्वर्षद्भिः समदृश्यत ॥ ४१॥

ध्यायन् भगवदादेशं ददृशे नावमागताम् ।
तामारुरोह विप्रेन्द्रैरादायौषधिवीरुधः ॥ ४२॥

तमूचुर्मुनयः प्रीता राजन् ध्यायस्व केशवम् ।
स वै नः सङ्कटादस्मादविता शं विधास्यति ॥ ४३॥

सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन्महार्णवे ।
एकश‍ृङ्गधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजनः ॥ ४४॥ स गो ना सं गो गो
निबध्य नावं तच्छृङ्गे यथोक्तो हरिणा पुरा ।
वरत्रेणाहिना तुष्टस्तुष्टाव मधुसूदनम् ॥ ४५॥

राजोवाच
अनाद्यविद्योपहतात्मसंविद-
स्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः ।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयु-
र्विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान् ॥ ४६॥

जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम् ।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
ग्रन्थिं स भिन्द्याद्धृदयं स नो गुरुः ॥ ४७॥

यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
पुमान् विजह्यान्मलमात्मनस्तमः ।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
भूयात्स ईशः परमो गुरोर्गुरुः ॥ ४८॥

न यत्प्रसादायुतभागलेशमन्ये
च देवा गुरवो जनाः स्वयम् ।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंस-
स्तमीश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ ४९॥

अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृतस्तथा
जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः ।
त्वमर्कदृक्सर्वदृशां समीक्षणो
वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम् ॥ ५०॥

जनो जनस्यादिशतेऽसतीं मतिं
यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः ।
त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा
प्रपद्यते येन जनो निजं पदम् ॥ ५१॥

त्वं सर्वलोकस्य सुहृत्प्रियेश्वरो
ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः ।
तथापि लोको न भवन्तमन्धधी-
र्जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः ॥ ५२॥

तं त्वामहं देववरं वरेण्यं
प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय ।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभि-
र्ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोकः ॥ ५३॥

श्रीशुक उवाच
इत्युक्तवन्तं नृपतिं भगवानादिपूरुषः ।
मत्स्यरूपी महाम्भोधौ विहरंस्तत्त्वमब्रवीत् ॥ ५४॥

पुराणसंहितां दिव्यां साङ्ख्ययोगक्रियावतीम् ।
सत्यव्रतस्य राजर्षेरात्मगुह्यमशेषतः ॥ ५५॥

अश्रौषीदृषिभिः साकमात्मतत्त्वमसंशयम् ।
नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म सनातनम् ॥ ५६॥

अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे ।
हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान् प्रत्याहरद्धरिः ॥ ५७॥

स तु सत्यव्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः ।
विष्णोः प्रसादात्कल्पेऽस्मिन्नासीद्वैवस्वतो मनुः ॥ ५८॥

सत्यव्रतस्य राजर्षेर्मायामत्स्यस्य शार्ङ्गिणः ।
संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात् ॥ ५९॥

अवतारो हरेर्योऽयं कीर्तयेदन्वहं नरः ।
सङ्कल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति परमां गतिम् ॥ ६०॥

प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः
श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा ।
दितिजमकथयद्यो ब्रह्म सत्यव्रतानां
तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि ॥ ६१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे मत्स्यावतारचरितानुवर्णनं
नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥

॥ इत्यष्टमस्कन्धः समाप्तः ॥
ॐ तत्सत् ॥ 

अष्टम स्कन्ध-चौबीसवाँ अध्याय 
भगवान के मत्स्यावतार की कथा
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवान के कर्म बड़े अद्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमाया से मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि-अवतार की कथा सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ भगवन् ! मत्स्ययोनि एक तो यों ही लोकनिन्दित है, दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रता से युक्त भी है। सर्वशक्तिमान् होने पर भी भगवान ने कर्मबन्धन में बँधे हुए जीव की तरह यह मत्स्य का रूप क्यों धारण किया ? ॥ २ ॥ भगवन् ! महात्माओं के कीर्तनीय भगवान का चरित्र समस्त प्राणियों को सुख देनेवाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने पूर्णरूप से वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित ने भगवान श्रीशुकदेवजी से यह प्रश्र किया, तब उन्होंने विष्णुभगवान का वह चरित्र, जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! यों तो भगवान सब के एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थ की रक्षा के लिये शरीर धारण किया करते हैं ॥ ५ ॥ वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायु की तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियों में अन्तर्यामीरूप से लीला करते रहते हैं। परंतु उन-उन प्राणियों के बुद्धिगत गुणों से वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तव में समस्त प्राकृत गुणों से रहित—निर्गुण हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित ! पिछले कल्प के अन्त में ब्रह्माजी के सो जाने के कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्र में डूब गये थे ॥ ७ ॥ प्रलयकाल आ जाने के कारण ब्रह्माजी को नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुख से निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्य ने उन्हें योगबल से चुरा लिया ॥ ८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि ने दानवराज हयग्रीव की यह चेष्टा जान ली । इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ॥ ९ ॥

परीक्षित ! उस समय सत्यव्रत नाम के एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे ॥ १० ॥ वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्प में विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए और उन्हें भगवान ने वैवस्वत मनु बना दिया ॥ ११ ॥ एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अञ्जलि के जल में एक छोटी-सी मछली आ गयी ॥ १२ ॥ परीक्षित ! द्रविड देश के राजा सत्यव्रत ने अपनी अञ्जलि में आयी हुई मछली को जल के साथ ही फिर से नदी में डाल दिया ॥ १३ ॥ उस मछली ने बड़ी करुणा के साथ परम दयालु राजा सत्यव्रत से कहा—‘राजन् ! आप बड़े दीनदयालु हैं। आप जानते ही हैं कि जल में रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालों को भी खा डालते हैं। मैं उनके भय से अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदी के जल में क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥ १४ ॥ राजा सत्यव्रत को इस बात का पता नहीं था कि स्वयं भगवान मुझ पर प्रसन्न होकर कृपा करने के लिये मछली के रूप में पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछली की रक्षा का मन-ही-मन संकल्प किया ॥ १५ ॥ राजा सत्यव्रत ने उस मछली की अत्यन्त दीनता से भरी बात सुनकर बड़ी दया से उसे अपने पात्र के जल में रख लिया और अपने आश्रम पर ले आये ॥ १६ ॥ आश्रम पर ला ने के बाद एक रात में ही वह मछली उस कमण्डलु में इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछली ने राजा से कहा— ॥ १७ ॥ ‘अब तो इस कमण्डलु में मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अत: मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ’ ॥ १८ ॥ राजा सत्यव्रत ने मछली को कमण्डलु से निकालकर एक बहुत बड़े पानी के मटके में रख दिया। परंतु वहाँ डालने पर वह मछली दो ही घड़ी में तीन हाथ बढ़ गयी ॥ १९ ॥ फिर उसने राजा सत्यव्रत से कहा—‘राजन् ! अब यह मट का भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरण में हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो’ ॥ २० ॥ परीक्षित ! सत्यव्रत ने वहाँ से उस मछली को उठाकर एक सरोवर में डाल दिया। परंतु वह थोड़ी ही देर में इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्य का आकार धारण कर उस सरोवर के जल को घेर लिया ॥ २१ ॥ और कहा—‘राजन् ! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवर का जल भी मेरे सुखपूर्वक रहने के लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवर में रख दीजिये ॥ २२ ॥ मत्स्यभगवान के इस प्रकार कहने पर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरों में ले गये; परंतु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते। अन्त में उन्होंने उन लीलामत्स्य को समुद्र में छोड़ दिया ॥ २३ ॥ समुद्र में डालते समय मत्स्यभगवान ने सत्यव्रत से कहा—‘वीर ! समुद्र में बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायँगे, इसलिये आप मुझे समुद्र के जल में मत छोडिय़े’ ॥ २४ ॥

मत्स्यभगवान की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा— ‘मत्स्य का रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन हैं ? ॥ २५ ॥ आपने एक ही दिन में चार सौ कोसके विस्तार का सरोवर घेर लिया। आज तक ऐसी शक्ति रखनेवाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था ॥ २६ ॥ अवश्य ही आप साक्षात सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवों पर अनुग्रह करने के लिये ही आपने जलचर का रूप धारण किया है ॥ २७ ॥ पुरुषोत्तम ! आप जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! हम शरणागत भक्तों के लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं ॥ २८ ॥ यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियों के अभ्युदय के लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्य से ग्रहण किया है ॥ २९ ॥ कमलनयन प्रभो ! जैसे देहादि अनात्मपदार्थों में अपनेपन का अभिमान करनेवाले संसारी पुरुषों का आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणों की शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सब के अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है ॥ ३० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! भगवान अपने अनन्य प्रेमी भक्तों पर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगतपति मत्स्यभगवान ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रत की यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करने के लिये, साथ ही कल्पान्त के प्रलयकालीन समुद्र में विहार करने के लिये उनसे कहा ॥ ३१ ॥

श्रीभगवान ने कहा—सत्यव्रत ! आज से सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलय के समुद्र में डूब जायँगे ॥ ३२ ॥ उस समय जब तीनों लोक प्रलयकाल की जलराशि में डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणा से तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौ का आयेगी ॥ ३३ ॥ उस समय तुम समस्त प्राणियों के सूक्ष्मशरीरों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नौका पर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकार के बीजों को साथ रख लेना ॥ ३४ ॥ उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियों की दिव्य ज्योति के सहारे ही बिना किसी प्रकार की विकलता के तुम उस बड़ी नाव पर चढक़र चारों ओर विचरण करना ॥ ३५ ॥ जब प्रचण्ड आँधी चल ने के कारण नाव डगमगा ने लगेगी, तब मैं इसी रूप में वहाँ आ जाऊँगा और तुमलोग वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बाँध देना ॥ ३६ ॥ सत्यव्रत ! इसके बाद जब तक ब्रह्माजी की रात रहेगी, तब तक मैं ऋषियों के साथ तुम्हें उस नाव में बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्र में विचरण करूँगा ॥ ३७ ॥ उस समय जब तुम प्रश्र करोगे, तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रह से मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदय में प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे ॥ ३८ ॥ भगवान राजा सत्यव्रत को यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये। अत: अब राजा सत्यव्रत उसी समय की प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान ने आज्ञा दी थी ॥ ३९ ॥ कुशों का अग्रभाग पूर्व की ओर करके राजर्षि सत्यव्रत उन पर पूर्वोत्तर मुख से बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान के चरणों का चिन्तन करने लगे ॥ ४० ॥ इत ने में ही भगवान का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजाने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोडक़र बढ़ रहा है। प्रलयकाल के भयङ्कर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी ॥ ४१ ॥ तब राजाने भगवान की आज्ञा का स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उसपर सवार हो गये ॥ ४२ ॥ सप्तर्षियों ने बड़े प्रेम से राजा सत्यव्रत से कहा—‘राजन् ! तुम भगवान का ध्यान करो। वे ही हमें इस संकट से बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे’ ॥ ४३ ॥ उनकी आज्ञा से राजाने भगवान का ध्यान किया। उसी समय उस महान समुद्र में मत्स्य के रूप में भगवान प्रकट हुए। मत्स्यभगवान का शरीर सो ने के समान देदीप्यमान था और शरीर का विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीर में एक बड़ा भारी सींग भी था ॥ ४४ ॥ भगवान ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौ का वासुकि नाग के द्वारा भगवान के सींग में बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रत ने प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति की ॥ ४५ ॥

राजा सत्यव्रत ने कहा—प्रभो ! संसार के जीवों का आत्मज्ञान अनादि-अविद्या से ढक गया है। इसी कारण वे संसार के अनेकानेक क्लेशों के भार से पीडि़त हो रहे हैं। जब अनायास ही आपके अनुग्रह से वे आपकी शरण में पहुँच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धन से छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरु आप ही हैं ॥ ४६ ॥ यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मों से बँधा हुआ है। वह सुख की इच्छा से दु:खप्रद कर्मों का अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवा से उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परम गुरु आप मेरे हृदय की गाँठ काट दें ॥ ४७ ॥ जैसे अग्रि में तपाने से सोने- चाँदी के मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवा से जीव अपने अन्त:करण का अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनों के भी परम गुरु हैं। अत: आप ही हमारे भी गुरु बनें ॥ ४८ ॥ जित ने भी देवता, गुरु और संसार के दूसरे जीव हैं—वे सब यदि स्वतन्त्ररूप से एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपा के दस हजारवें अंश के अंश की भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो ! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ४९ ॥ जैसे कोई अंधा अंधे को ही अपना पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानी को ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्य के समान स्वयंप्रकाश और समस्त इन्द्रियों के प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्व के जिज्ञासु आपको ही गुरु के रूप में वरण करते हैं ॥ ५० ॥ अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियों को जिस ज्ञान का उपदेश करता है, वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकार की अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परंतु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञान का उपदेश करते हैं, जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है ॥ ५१ ॥ आप सारे लोक के सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अभीष्ट की सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है। फिर भी कामनाओं के बन्धन में जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें इस बात का पता ही नहीं है कि आप उनके हृदय में ही विराजमान् हैं ॥ ५२ ॥ आप देवताओं के भी आराध्यदेव, परम पूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आप से ज्ञान प्राप्त करने के लिये आपकी शरण में आया हूँ। भगवन् ! आप परमार्थ को प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणी के द्वारा मेरे हृदय की ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूप को प्रकाशित कीजिये ॥ ५३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! जब राजा सत्यव्रत ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तम भगवान ने प्रलय के समुद्र में विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्व का उपदेश किया ॥ ५४ ॥ भगवान ने राजर्षि सत्यव्रत को अपने स्वरूप के सम्पूर्ण रहस्य का वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्म- योग से परिपूर्ण दिव्य पुराण का उपदेश किया, जिस को ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं ॥ ५५ ॥ सत्यव्रत ने ऋषियों के साथ नाव में बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्म स्वरूप आत्म- तत्त्व का श्रवण किया ॥ ५६ ॥ इसके बाद जब पिछले प्रलय का अन्त हो गया और ब्रह्माजी की नींद टूटी, तब भगवान ने हयग्रीव असुर को मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजी को दे दिये ॥ ५७ ॥ भगवान की कृपा से राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञान से संयुक्त होकर इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए ॥ ५८ ॥ अपनी योगमाया से मत्स्यरूप धारण करनेवाले भगवान विष्णु और राजर्षि सत्यव्रत का यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य भगवान के इस अवतार का प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगति की प्राप्ति होती है ॥ ६० ॥ प्रलयकालीन समुद्र में जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुख से निकली हुई श्रुतियों को चुराकर हयग्रीव दैत्य पाताल में ले गया था। भगवान ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजी को लौटा दीं एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियों को ब्रह्मतत्त्व का उपदेश किया। उन समस्त जगत के परम कारण लीलामत्स्य भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६१ ॥

॥ इति अष्टम स्कन्ध समाप्त ॥

॥ हरि: ॐ तत्सत ॥

श्री सद्गुरु महाराज की जय!