॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ सप्तमस्कन्धः ॥
॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
राजोवाच
समः प्रियः सुहृद्ब्रह्मन् भूतानां भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यानवधीद्विषमो यथा ॥ १॥
न ह्यस्यार्थः सुरगणैः साक्षान्निःश्रेयसात्मनः ।
नैवासुरेभ्यो विद्वेषो नोद्वेगश्चागुणस्य हि ॥ २॥
इति नः सुमहाभाग नारायणगुणान् प्रति ।
संशयः सुमहान् जातस्तद्भवांश्छेत्तुमर्हति ॥ ३॥
श्रीशुक उवाच
साधु पृष्टं महाराज हरेश्चरितमद्भुतम् ।
यद्भागवतमाहात्म्यं भगवद्भक्तिवर्धनम् ॥ ४॥
गीयते परमं पुण्यमृषिभिर्नारदादिभिः ।
नत्वा कृष्णाय मुनये कथयिष्ये हरेः कथाम् ॥ ५॥
निर्गुणोऽपि ह्यजोऽव्यक्तो भगवान् प्रकृतेः परः ।
स्वमायागुणमाविश्य बाध्यबाधकतां गतः ॥ ६॥
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः ।
न तेषां युगपद्राजन् ह्रास उल्लास एव वा ॥ ७॥
जयकाले तु सत्त्वस्य देवर्षीन् रजसोऽसुरान् ।
तमसो यक्षरक्षांसि तत्कालानुगुणोऽभजत् ॥ ८॥
ज्योतिरादिरिवाभाति सङ्घातान्न विविच्यते ।
विदन्त्यात्मानमात्मस्थं मथित्वा कवयोऽन्ततः ॥ ९॥
यदा सिसृक्षुः पुर आत्मनः परो
रजः सृजत्येष पृथक् स्वमायया ।
सत्त्वं विचित्रासु रिरंसुरीश्वरः
शयिष्यमाणस्तम ईरयत्यसौ ॥ १०॥
कालं चरन्तं सृजतीश आश्रयं
प्रधानपुम्भ्यां नरदेव सत्यकृत् ।
य एष राजन्नपि काल ईशिता
सत्त्वं सुरानीकमिवैधयत्यतः ।
तत्प्रत्यनीकानसुरान् सुरप्रियो
रजस्तमस्कान् प्रमिणोत्युरुश्रवाः ॥ ११॥
अत्रैवोदाहृतः पूर्वमितिहासः सुरर्षिणा ।
प्रीत्या महाक्रतौ राजन् पृच्छतेऽजातशत्रवे ॥ १२॥
दृष्ट्वा महाद्भुतं राजा राजसूये महाक्रतौ ।
वासुदेवे भगवति सायुज्यं चेदिभूभुजः ॥ १३॥
तत्रासीनं सुरऋषिं राजा पाण्डुसुतः क्रतौ ।
पप्रच्छ विस्मितमना मुनीनां शृण्वतामिदम् ॥ १४॥
युधिष्ठिर उवाच
अहो अत्यद्भुतं ह्येतद्दुर्लभैकान्तिनामपि ।
वासुदेवे परे तत्त्वे प्राप्तिश्चैद्यस्य विद्विषः ॥ १५॥
एतद्वेदितुमिच्छामः सर्व एव वयं मुने ।
भगवन्निन्दया वेनो द्विजैस्तमसि पातितः ॥ १६॥
दमघोषसुतः पाप आरभ्य कलभाषणात् ।
सम्प्रत्यमर्षी गोविन्दे दन्तवक्त्रश्च दुर्मतिः ॥ १७॥
शपतोरसकृद्विष्णुं यद्ब्रह्म परमव्ययम् ।
श्वित्रो न जातो जिह्वायां नान्धं विविशतुस्तमः ॥ १८॥
कथं तस्मिन् भगवति दुरवग्राहधामनि ।
पश्यतां सर्वलोकानां लयमीयतुरञ्जसा ॥ १९॥
एतद्भ्राम्यति मे बुद्धिर्दीपार्चिरिव वायुना ।
ब्रूह्येतदद्भुततमं भगवांस्तत्र कारणम् ॥ २०॥
श्रीशुक उवाच
राज्ञस्तद्वच आकर्ण्य नारदो भगवानृषिः ।
तुष्टः प्राह तमाभाष्य शृण्वत्यास्तत्सदः ॥ २१॥
नारद उवाच
निन्दनस्तवसत्कारन्यक्कारार्थं कलेवरम् ।
प्रधानपरयो राजन्नविवेकेन कल्पितम् ॥ २२॥
हिंसा तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा ।
वैषम्यमिह भूतानां ममाहमिति पार्थिव ॥ २३॥
यन्निबद्धोऽभिमानोऽयं तद्वधात्प्राणिनां वधः ।
तथा न यस्य कैवल्यादभिमानोऽखिलात्मनः ।
परस्य दमकर्तुर्हि हिंसा केनास्य कल्प्यते ॥ २४॥
तस्माद्वैरानुबन्धेन निर्वैरेण भयेन वा ।
स्नेहात्कामेन वा युञ्ज्यात्कथञ्चिन्नेक्षते पृथक् ॥ २५॥
यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात् ।
न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मतिः ॥ २६॥
कीटः पेशस्कृता रुद्धः कुड्यायां तमनुस्मरन् ।
संरम्भभययोगेन विन्दते तत्सरूपताम् ॥ २७॥
एवं कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे ।
वैरेण पूतपाप्मानस्तमापुरनुचिन्तया ॥ २८॥
कामाद्द्वेषाद्भयात्स्नेहाद्यथा भक्त्येश्वरे मनः ।
आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ॥ २९॥
गोप्यः कामाद्भयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।
सम्बन्धाद्वृष्णयः स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो ॥ ३०॥
कतमोऽपि न वेनः स्यात्पञ्चानां पुरुषं प्रति ।
तस्मात्केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत् ॥ ३१॥
मातृष्वसेयो वश्चैद्यो दन्तवक्त्रश्च पाण्डव ।
पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदाच्च्युतौ ॥ ३२॥
युधिष्ठिर उवाच
कीदृशः कस्य वा शापो हरिदासाभिमर्शनः ।
अश्रद्धेय इवाभाति हरेरेकान्तिनां भवः ॥ ३३॥
देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम् ।
देहसम्बन्धसम्बद्धमेतदाख्यातुमर्हसि ॥ ३४॥
नारद उवाच
एकदा ब्रह्मणः पुत्रा विष्णोर्लोकं यदृच्छया ।
सनन्दनादयो जग्मुश्चरन्तो भुवनत्रयम् ॥ ३५॥
पञ्चषड्ढायनार्भाभाः पूर्वेषामपि पूर्वजाः ।
दिग्वाससः शिशून् मत्वा द्वाःस्थौ तान् प्रत्यषेधताम् ॥ ३६॥
अशपन् कुपिता एवं युवां वासं न चार्हथः ।
रजस्तमोभ्यां रहिते पादमूले मधुद्विषः ।
पापिष्ठामासुरीं योनिं बालिशौ यातमाश्वतः ॥ ३७॥
एवं शप्तौ स्वभवनात्पतन्तौ तैः कृपालुभिः ।
प्रोक्तौ पुनर्जन्मभिर्वां त्रिभिर्लोकाय कल्पताम् ॥ ३८॥
जज्ञाते तौ दितेः पुत्रौ दैत्यदानववन्दितौ ।
हिरण्यकशिपुर्ज्येष्ठो हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः ॥ ३९॥
हतो हिरण्यकशिपुर्हरिणा सिंहरूपिणा ।
हिरण्याक्षो धरोद्धारे बिभ्रता सौकरं वपुः ॥ ४०॥
हिरण्यकशिपुः पुत्रं प्रह्लादं केशवप्रियम् ।
जिघांसुरकरोन्नाना यातना मृत्युहेतवे ॥ ४१॥
सर्वभूतात्मभूतं तं प्रशान्तं समदर्शनम् ।
भगवत्तेजसा स्पृष्टं नाशक्नोद्धन्तुमुद्यमैः ॥ ४२॥
ततस्तौ राक्षसौ जातौ केशिन्यां विश्रवःसुतौ ।
रावणः कुम्भकर्णश्च सर्वलोकोपतापनौ ॥ ४३॥
तत्रापि राघवो भूत्वा न्यहनच्छापमुक्तये ।
रामवीर्यं श्रोष्यसि त्वं मार्कण्डेयमुखात्प्रभो ॥ ४४॥
तावेव क्षत्रियौ जातौ मातृष्वस्रात्मजौ तव ।
अधुना शापनिर्मुक्तौ कृष्णचक्रहतांहसौ ॥ ४५॥
वैरानुबन्धतीव्रेण ध्यानेनाच्युतसात्मताम् ।
नीतौ पुनर्हरेः पार्श्वं जग्मतुर्विष्णुपार्षदौ ॥ ४६॥
युधिष्ठिर उवाच
विद्वेषो दयिते पुत्रे कथमासीन्महात्मनि ।
ब्रूहि मे भगवन् येन प्रह्लादस्याच्युतात्मता ॥ ४७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरितोपक्रमे प्रथमोऽध्यायः (१)
सप्तम स्कन्ध-पहला अध्याय
नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! भगवान तो स्वभाव से ही भेदभाव से रहित हैं—सम हैं, समस्त प्राणियों के प्रिय और सुहृद् हैं; फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभाव से अपने मित्र का पक्ष ले और शत्रुओं का अनिष्ट करे, उसी प्रकार इन्द्र के लिये दैत्यों का वध क्यों किया ? ॥ १ ॥ वे स्वयं परिपूर्ण कल्याण स्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओं से कुछ लेना-देना नहीं है। तथा निर्गुण होने के कारण दैत्यों से कुछ वैर-विरोध और उद्वेग भी नहीं है ॥ २ ॥ भगवत्प्रेम के सौभाग्य से सम्पन्न महात्मन् ! हमारे चित्त में भगवान के समत्व आदि गुणों के सम्बन्ध में बड़ा भारी सन्देह हो रहा है। आप कृपा करके उसे मिटाइये ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—महाराज ! भगवान के अद्भुत चरित्र के सम्बन्ध में तुम ने बड़ा सुन्दर प्रश्र किया; क्योंकि ऐसे प्रसङ्ग प्रह्लाद आदि भक्तों की महिमा से परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवण से भगवान की भक्ति बढ़ती है ॥ ४ ॥ इस परम पुण्यमय प्रसङ्ग को नारदादि महात्मागण बड़े प्रेम से गाते रहते हैं। अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण-द्वैपायन मुनि को नमस्कार करके भगवान की लीला- कथा का वर्णन करता हूँ ॥ ५ ॥ वास्तव में भगवान निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृति से परे हैं। ऐसा होने पर भी अपनी माया के गुणों को स्वीकार करके वे बाध्यबाधकभाव को अर्थात् मर ने और मारनेवाले दोनों के परस्परविरोधी रूपों को ग्रहण करते हैं ॥ ६ ॥ सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण—ये प्रकृति के गुण हैं, परमात्मा के नहीं। परीक्षित ! इन तीनों गुणों की भी एक साथ ही घटती-बढ़ती नहीं होती ॥ ७ ॥ भगवान समय-समय के अनुसार गुणों को स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुण की वृद्धि के समय देवता और ऋषियोंका, रजोगुण की वृद्धि के समय दैत्यों का और तमोगुण की वृद्धि के समय वे यक्ष एवं राक्षसों को अपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं ॥ ८ ॥ जैसे व्यापक अग्रि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयों में रहने पर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परंतु मन्थन करने पर वह प्रकट हो जाती है—वैसे ही परमात्मा सभी शरीरों में रहते हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परंतु विचारशील पुरुष हृदयमन्थन करके—उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओं का बाध करके अन्तत: अपने हृदय में ही अन्तर्यामीरूप से उन्हें प्राप्त कर लेते हैं ॥ ९ ॥ जब परमेश्वर अपने लिये शरीरों का निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी माया से रजोगुण की अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियों में रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुण की सृष्टि करते हैं और जब वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुण को बढ़ा देते हैं ॥ १० ॥ परीक्षित ! भगवान सत्यसङ्कल्प हैं। वे ही जगत की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रकृति और पुरुष के सहकारी एवं आश्रय काल की सृष्टि करते हैं। इसलिये वे काल के अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है। राजन् ! ये काल स्वरूप ईश्वर जब सत्त्वगुण की वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओं का बल बढ़ाते हैं और तभी वे परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी रजोगुणी एवं तमोगुणी दैत्यों का संहार करते हैं। वस्तुत: वे सम ही हैं ॥ ११ ॥
राजन् ! इसी विषय में देवर्षि नारद ने बड़े प्रेम से एक इतिहास कहा था। यह उस समय की बात है, जब राजसूय यज्ञ में तुम्हारे दादा युधिष्ठिर ने उनसे इस सम्बन्ध में एक प्रश्र किया था ॥ १२ ॥ उस महान राजसूय यज्ञ में राजा युधिष्ठर ने अपनी आँखों के सामने बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सब के देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण में समा गया ॥ १३ ॥ वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटना से आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिर ने बड़े-बड़े मुनियों से भरी हुई सभा में उस यज्ञमण्डप में ही देवर्षि नारद से यह प्रश्र किया ॥ १४ ॥
युधिष्ठिर ने पूछा—अहो ! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान श्रीकृष्ण में समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तों के लिये भी दुर्लभ है; फिर भगवान से द्वेष करनेवाले शिशुपाल को यह गति कैसे मिली ? ॥ १५ ॥ नारदजी ! इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं। पूर्वकाल में भगवान की निन्दा करने के कारण ऋषियों ने राजा वेन को नरक में डाल दिया था ॥ १६ ॥ यह दमघोष का लडक़ा पापात्मा शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र—दोनों ही जबसे तुतलाकर बोल ने लगे थे, तबसे अब तक भगवान से द्वेष ही करते रहे हैं ॥ १७ ॥ अविनाशी परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण को ये पानी पी-पीकर गाली देते रहे हैं। परंतु इसके फल स्वरूप न तो इन की जीभ में कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरक की ही प्राप्ति हुई ॥ १८ ॥ प्रत्युत जिन भगवान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, उन्हीं में ये दोनों सब के देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये—इसका क्या कारण है ? ॥ १९ ॥ हवा के झोंके से लडख़ड़ाती हुई दीपक की लौ के समान मेरी बुद्धि इस विषय में बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अत: इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइये ॥ २० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सर्वसमर्थ देवर्षि नारद राजा के ये प्रश्र सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने युधिष्ठिर को सम्बोधित करके भरी सभा में सब के सुनते हुए यह कथा कही ॥ २१ ॥
नारदजी ने कहा—युधिष्ठिर ! निन्दा, स्तुति सत्कार और तिरस्कार—इस शरीर के ही तो होते हैं। इस शरीर की कल्पना प्रकृति और पुरुष का ठीक-ठीक विवेक न होने के कारण ही हुई है ॥ २२ ॥ जब इस शरीर को ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभाव का मूल है। इसी के कारण ताडऩा और दुर्वचनों से पीड़ा होती है ॥ २३ ॥ जिस शरीर में अभिमान हो जाता है कि ‘यह मैं हूँ’, उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं। वे जो दूसरों को दण्ड देते हैं—वह भी उनके कल्याण के लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान के सम्बन्ध में हिंसा की कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है ॥ २४ ॥ इसलिये चाहे सुदृढ़ वैरभाव से या वैरहीन भक्तिभावसे, भयसे, स्नेह से अथवा कामनासे—कैसे भी हो, भगवान में अपना मन पूर्णरूप से लगा देना चाहिये। भगवान की दृष्टि से इन भावों में कोई भेद नहीं है ॥ २५ ॥ युध्ििष्ठर ! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य वैरभाव से भगवान में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता ॥ २६ ॥ भृङ्गी कीड़े को लाकर भीत पर अपने छिद्र में बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग से भृङ्गी का चिन्तन करते-करते उसके-जैसा ही हो जाता है ॥ २७ ॥ यही बात भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी है। लीला के द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान ही तो हैं। इन से वैर करनेवाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हीं को प्राप्त हो गये ॥ २८ ॥ एक नहीं, अनेकों मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भय से और स्नेह से अपने मन को भगवान में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्ति से ॥ २९ ॥ महाराज ! गोपियों ने भगवान से मिलन के तीव्र काम अर्थात् प्रेमसे, कंस ने भयसे, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओं ने द्वेषसे, यदुवंशियों ने परिवार के सम्बन्धसे, तुमलोगों ने स्नेह से और हमलोगोंने भक्ति से अपने मन को भगवान में लगाया है ॥ ३० ॥ भक्तों के अतिरिक्त जो पाँच प्रकार के भगवान का चिन्तन करनेवाले हैं, उनमें से राजा वेन की तो किसी में भी गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकार से भगवान में मन नहीं लगाया था )। सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान श्रीकृष्ण में तन्मय कर देना चाहिये ॥ ३१ ॥ महाराज ! फिर तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णुभगवान के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणों के शाप से इन दोनों को अपने पद से च्युत होना पड़ा था ॥ ३२ ॥
राजा युधिष्ठिर ने पूछा—नारदजी ! भगवान के पार्षदों को भी प्रभावित करनेवाला वह शाप किस ने दिया था तथा वह कैसा था ? भगवान के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसार में आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है ॥ ३३ ॥ वैकुण्ठ के रहनेवाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणों से रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीर से सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये ॥ ३४ ॥
नारदजी ने कहा—एक दिन ब्रह्मा के मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकों में स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठ में जा पहुँचे ॥ ३५ ॥ यों तो वे सब से प्राचीन हैं, परंतु जान पड़ते हैं ऐसे मानों पाँच-छ: बरसके बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालों ने उन को भीतर जाने से रोक दिया ॥ ३६ ॥ इस पर वे क्रोधित- से हो गये और उन्होंने द्वारपालों को यह शाप दिया कि ‘मूर्खो ! भगवान विष्णु के चरण तो रजोगुण और तमोगुण से रहित हैं। तुम दोनों इनके समीप निवास करनेयोग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँ से पापमयी असुरयोनि में जाओ’ ॥ ३७ ॥ उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठ से नीचे गिर ने लगे, तब उन कृपालु महात्माओं ने कहा—‘अच्छा तीन जन्मों में इस शाप को भोगकर तुमलोग फिर इसी वैकुण्ठ में आ जाना’ ॥ ३८ ॥
युधिष्ठिर ! वे ही दोनों दिति के पुत्र हुए। उनमें बड़े का नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटे का हिरण्याक्ष। दैत्य और दानवों के समाज में यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे ॥ ३९ ॥ विष्णुभगवान ने नृसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु को और पृथ्वी का उद्धार करने के समय वराहावतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष को मारा ॥ ४० ॥ हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवत्प्रेमी होने के कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दीं ॥ ४१ ॥ परंतु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान के परम प्रिय हो चु के थे, समदर्शी हो चु के थे। उनके हृदय में अटल शान्ति थी। भगवान के प्रभाव से वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरह से चेष्टा करने पर भी हिरण्यकशिपु उन को मार डालने में समर्थ न हुआ ॥ ४२ ॥
युधिष्ठिर ! वे ही दोनों विश्रवा मुनि के द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भ से राक्षसों के रूप में पैदा हुए। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातों से सब लोकों में आग-सी लग गयी थी ॥ ४३ ॥ उस समय भी भगवान ने उन्हें शाप से छुड़ा ने के लिये रामरूप से उनका वध किया। युधिष्ठिर ! मार्कण्डेय मुनि के मुख से तुम भगवान श्रीराम का चरित्र सुनोगे ॥ ४४ ॥ वे ही दोनों जय-विजय इस जन्म में तुम्हारी मौसी के लडक़े शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में क्षत्रियकुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण के चक्र का स्पर्श प्राप्त हो जाने से उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादि के शाप से मुक्त हो गये ॥ ४५ ॥ वैरभाव के कारण निरन्तर ही वे भगवान श्रीकृष्ण का चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फल स्वरूप वे भगवान को प्राप्त हो गये और पुन: उनके पार्षद होकर उन्हींके समीप चले गये ॥ ४६ ॥
युधिष्ठिरजी ने पूछा—भगवन् ! हिरण्यकशिपु ने अपने स्नेहभाजन पुत्र प्रह्लाद से इतना द्वेष क्यों किया ? फिर प्रह्लाद तो महात्मा थे ! साथ ही यह भी बतलाइये कि किस साधन से प्रह्लाद भगवन्मय हो गये ॥ ४७ ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
नारद उवाच
भ्रातर्येवं विनिहते हरिणा क्रोडमूर्तिना ।
हिरण्यकशिपू राजन् पर्यतप्यद्रुषा शुचा ॥ १॥
आह चेदं रुषा घूर्णः सन्दष्टदशनच्छदः ।
कोपोज्ज्वलद्भ्यां चक्षुर्भ्यां निरीक्षन् धूम्रमम्बरम् ॥ २॥
करालदंष्ट्रोग्रदृष्ट्या दुष्प्रेक्ष्यभ्रुकुटीमुखः ।
शूलमुद्यम्य सदसि दानवानिदमब्रवीत् ॥ ३॥
भो भो दानवदैतेया द्विमूर्धंस्त्र्यक्ष शम्बर ।
शतबाहो हयग्रीव नमुचे पाक इल्वल ॥ ४॥
विप्रचित्ते मम वचः पुलोमन् शकुनादयः ।
शृणुतानन्तरं सर्वे क्रियतामाशु मा चिरम् ॥ ५॥
सपत्नैर्घातितः क्षुद्रैर्भ्राता मे दयितः सुहृत् ।
पार्ष्णिग्राहेण हरिणा समेनाप्युपधावनैः ॥ ६॥
तस्य त्यक्तस्वभावस्य घृणेर्मायावनौकसः ।
भजन्तं भजमानस्य बालस्येवास्थिरात्मनः ॥ ७॥
मच्छूलभिन्नग्रीवस्य भूरिणा रुधिरेण वै ।
रुधिरप्रियं तर्पयिष्ये भ्रातरं मे गतव्यथः ॥ ८॥
तस्मिन् कूटेऽहिते नष्टे कृत्तमूले वनस्पतौ ।
विटपा इव शुष्यन्ति विष्णुप्राणा दिवौकसः ॥ ९॥
तावद्यात भुवं यूयं विप्रक्षत्रसमेधिताम् ।
सूदयध्वं तपोयज्ञस्वाध्यायव्रतदानिनः ॥ १०॥
विष्णुर्द्विजक्रियामूलो यज्ञो धर्ममयः पुमान् ।
देवर्षिपितृभूतानां धर्मस्य च परायणम् ॥ ११॥
यत्र यत्र द्विजा गावो वेदा वर्णाश्रमाः क्रियाः ।
तं तं जनपदं यात सन्दीपयत वृश्चत ॥ १२॥
इति ते भर्तृनिर्देशमादाय शिरसाऽऽदृताः ।
तथा प्रजानां कदनं विदधुः कदनप्रियाः ॥ १३॥
पुरग्रामव्रजोद्यानक्षेत्रारामाश्रमाकरान् ।
खेटखर्वटघोषांश्च ददहुः पत्तनानि च ॥ १४॥
केचित्खनित्रैर्बिभिदुः सेतुप्राकारगोपुरान् ।
आजीव्यांश्चिच्छिदुर्वृक्षान् केचित्परशुपाणयः ।
प्रादहन् शरणान्येके प्रजानां ज्वलितोल्मुकैः ॥ १५॥
एवं विप्रकृते लोके दैत्येन्द्रानुचरैर्मुहुः ।
दिवं देवाः परित्यज्य भुवि चेरुरलक्षिताः ॥ १६॥
हिरण्यकशिपुर्भ्रातुः सम्परेतस्य दुःखितः ।
कृत्वा कटोदकादीनि भ्रातृपुत्रानसान्त्वयत् ॥ १७॥
शकुनिं शम्बरं धृष्टं भूतसन्तापनं वृकम् ।
कालनाभं महानाभं हरिश्मश्रुमथोत्कचम् ॥ १८॥
तन्मातरं रुषाभानुं दितिं च जननीं गिरा ।
श्लक्ष्णया देशकालज्ञ इदमाह जनेश्वर ॥ १९॥
हिरण्यकशिपुरुवाच
अम्बाम्ब हे वधूः पुत्रा वीरं मार्हथ शोचितुम् ।
रिपोरभिमुखे श्लाघ्यः शूराणां वध ईप्सितः ॥ २०॥
भूतानामिह संवासः प्रपायामिव सुव्रते ।
दैवेनैकत्र नीतानामुन्नीतानां स्वकर्मभिः ॥ २१॥
नित्य आत्माव्ययः शुद्धः सर्वगः सर्ववित्परः ।
धत्तेऽसावात्मनो लिङ्गं मायया विसृजन् गुणान् ॥ २२॥
यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव ।
चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते चलतीव भूः ॥ २३॥
एवं गुणैर्भ्राम्यमाणे मनस्यविकलः पुमान् ।
याति तत्साम्यतां भद्रे ह्यलिङ्गो लिङ्गवानिव ॥ २४॥
एष आत्मविपर्यासो ह्यलिङ्गे लिङ्गभावना ।
एष प्रियाप्रियैर्योगो वियोगः कर्मसंसृतिः ॥ २५॥
सम्भवश्च विनाशश्च शोकश्च विविधः स्मृतः ।
अविवेकश्च चिन्ता च विवेकास्मृतिरेव च ॥ २६॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यमस्य प्रेतबन्धूनां संवादं तं निबोधत ॥ २७॥
उशीनरेष्वभूद्राजा सुयज्ञ इति विश्रुतः ।
सपत्नैर्निहतो युद्धे ज्ञातयस्तमुपासत ॥ २८॥
विशीर्णरत्नकवचं विभ्रष्टाभरणस्रजम् ।
शरनिर्भिन्नहृदयं शयानमसृगाविलम् ॥ २९॥
प्रकीर्णकेशं ध्वस्ताक्षं रभसा दष्टदच्छदम् ।
रजःकुण्ठमुखाम्भोजं छिन्नायुधभुजं मृधे ॥ ३०॥
उशीनरेन्द्रं विधिना तथा कृतं
पतिं महिष्यः प्रसमीक्ष्य दुःखिताः ।
हताः स्म नाथेति करैरुरो भृशं
घ्नन्त्यो मुहुस्तत्पदयोरुपापतन् ॥ ३१॥
रुदत्य उच्चैर्दयिताङ्घ्रिपङ्कजं
सिञ्चन्त्य अस्रैः कुचकुङ्कुमारुणैः ।
विस्रस्तकेशाभरणाः शुचं नृणां
सृजन्त्य आक्रन्दनया विलेपिरे ॥ ३२॥
अहो विधात्राकरुणेन नः प्रभो
भवान् प्रणीतो दृगगोचरां दशाम् ।
उशीनराणामसि वृत्तिदः पुरा
कृतोऽधुना येन शुचां विवर्धनः ॥ ३३॥
त्वया कृतज्ञेन वयं महीपते
कथं विना स्याम सुहृत्तमेन ते ।
तत्रानुयानं तव वीर पादयोः
शुश्रूषतीनां दिश यत्र यास्यसि ॥ ३४॥
एवं विलपतीनां वै परिगृह्य मृतं पतिम् ।
अनिच्छतीनां निर्हारमर्कोऽस्तं सन्न्यवर्तत ॥ ३५॥
तत्र ह प्रेतबन्धूनामाश्रुत्य परिदेवितम् ।
आह तान् बालको भूत्वा यमः स्वयमुपागतः ॥ ३६॥
यम उवाच
अहो अमीषां वयसाधिकानां
विपश्यतां लोकविधिं विमोहः ।
यत्रागतस्तत्र गतं मनुष्यं
स्वयं सधर्मा अपि शोचन्त्यपार्थम् ॥ ३७॥
अहो वयं धन्यतमा यदत्र
त्यक्ताः पितृभ्यां न विचिन्तयामः ।
अभक्ष्यमाणा अबला वृकादिभिः
स रक्षिता रक्षति यो हि गर्भे ॥ ३८॥
य इच्छयेशः सृजतीदमव्ययो
य एव रक्षत्यवलुम्पते च यः ।
तस्याबलाः क्रीडनमाहुरीशितु-
श्चराचरं निग्रहसङ्ग्रहे प्रभुः ॥ ३९॥
पथि च्युतं तिष्ठति दिष्टरक्षितं
गृहे स्थितं तद्विहतं विनश्यति ।
जीवत्यनाथोऽपि तदीक्षितो वने
गृहेऽभिगुप्तोऽस्य हतो न जीवति ॥ ४०॥
भूतानि तैस्तैर्निजयोनिकर्मभि-
र्भवन्ति काले न भवन्ति सर्वशः ।
न तत्र हात्मा प्रकृतावपि स्थितस्तस्या
गुणैरन्यतमो निबध्यते ॥ ४१॥
इदं शरीरं पुरुषस्य मोहजं
यथा पृथग्भौतिकमीयते गृहम् ।
यथौदकैः पार्थिवतैजसैर्जनः
कालेन जातो विकृतो विनश्यति ॥ ४२॥
यथानलो दारुषु भिन्न ईयते
यथानिलो देहगतः पृथक् स्थितः ।
यथा नभः सर्वगतं न सज्जते
तथा पुमान् सर्वगुणाश्रयः परः ॥ ४३॥
सुयज्ञो नन्वयं शेते मूढा यमनुशोचथ ।
यः श्रोता योऽनुवक्तेह स न दृश्येत कर्हिचित् ॥ ४४॥
न श्रोता नानुवक्तायं मुख्योऽप्यत्र महानसुः ।
यस्त्विहेन्द्रियवानात्मा स चान्यः प्राणदेहयोः ॥ ४५॥
भूतेन्द्रियमनोलिङ्गान् देहानुच्चावचान् विभुः ।
भजत्युत्सृजति ह्यन्यस्तच्चापि स्वेन तेजसा ॥ ४६॥
यावल्लिङ्गान्वितो ह्यात्मा तावत्कर्म निबन्धनम् ।
ततो विपर्ययः क्लेशो मायायोगोऽनुवर्तते ॥ ४७॥
वितथाभिनिवेशोऽयं यद्गुणेष्वर्थदृग्वचः ।
यथा मनोरथः स्वप्नः सर्वमैन्द्रियकं मृषा ॥ ४८॥
अथ नित्यमनित्यं वा नेह शोचन्ति तद्विदः ।
नान्यथा शक्यते कर्तुं स्वभावः शोचतामिति ॥ ४९॥
लुब्धको विपिने कश्चित्पक्षिणां निर्मितोऽन्तकः ।
वितत्य जालं विदधे तत्र तत्र प्रलोभयन् ॥ ५०॥
कुलिङ्गमिथुनं तत्र विचरत्समदृश्यत ।
तयोः कुलिङ्गी सहसा लुब्धकेन प्रलोभिता ॥ ५१॥
सासज्जत सिचस्तन्त्र्यां महिषी कालयन्त्रिता ।
कुलिङ्गस्तां तथाऽऽपन्नां निरीक्ष्य भृशदुःखितः ।
स्नेहादकल्पः कृपणः कृपणां पर्यदेवयत् ॥ ५२॥
अहो अकरुणो देवः स्त्रियाकरुणया विभुः ।
कृपणं मानुशोचन्त्या दीनया किं करिष्यति ॥ ५३॥
कामं नयतु मां देवः किमर्धेनात्मनो हि मे ।
दीनेन जीवता दुःखमनेन विधुरायुषा ॥ ५४॥
कथं त्वजातपक्षांस्तान् मातृहीनान् बिभर्म्यहम् ।
मन्दभाग्याः प्रतीक्षन्ते नीडे मे मातरं प्रजाः ॥ ५५॥
एवं कुलिङ्गं विलपन्तमारा-
त्प्रियावियोगातुरमश्रुकण्ठम् ।
स एव तं शाकुनिकः शरेण
विव्याध कालप्रहितो विलीनः ॥ ५६॥
एवं यूयमपश्यन्त्य आत्मापायमबुद्धयः ।
नैनं प्राप्स्यथ शोचन्त्यः पतिं वर्षशतैरपि ॥ ५७॥
हिरण्यकशिपुरुवाच
बाल एवं प्रवदति सर्वे विस्मितचेतसः ।
ज्ञातयो मेनिरे सर्वमनित्यमयथोत्थितम् ॥ ५८॥
यम एतदुपाख्याय तत्रैवान्तरधीयत ।
ज्ञातयोऽपि सुयज्ञस्य चक्रुर्यत्साम्परायिकम् ॥ ५९॥
ततः शोचत मा यूयं परं चात्मानमेव च ।
क आत्मा कः परो वात्र स्वीयः पारक्य एव वा ।
स्वपराभिनिवेशेन विनाज्ञानेन देहिनाम् ॥ ६०॥
श्रीनारद उवाच
इति दैत्यपतेर्वाक्यं दितिराकर्ण्य सस्नुषा ।
पुत्रशोकं क्षणात्त्यक्त्वा तत्त्वे चित्तमधारयत् ॥ ६१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे दितिशोकापनयनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
सप्तम स्कन्ध-दूसरा अध्याय
हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
नारदजी ने कहा—युधिष्ठिर ! जब भगवान ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तब भाई के इस प्रकार मारे जाने पर हिरण्यकशिपु रोष से जल-भुन गया और शोक से सन्तप्त हो उठा ॥ १ ॥ वह क्रोध से काँपता हुआ अपने दाँतों से बार-बार होठ चबा ने लगा। क्रोध से दहकती हुई आँखों की आग के धूएँ से धूमिल हुए आकाश की ओर देखता हुआ वह कह ने लगा ॥ २ ॥ उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलनेवाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहों के कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभा में त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा और शकुन आदि को सम्बोधन करके कहा—‘दैत्यो और दानवो ! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो ॥ ३—५ ॥ तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओं ने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाई को विष्णु से मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनों के प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओं ने उसे अपने पक्ष में कर लिया है ॥ ६ ॥ यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था। परंतु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से च्युत हो गया है। बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है ॥ ७ ॥ अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट डालूँगा और उसके खून की धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा। तब कहीं मेरे हृदय की पीड़ा शान्त होगी ॥ ८ ॥ उस मायावी शत्रु के नष्ट होनेपर, पेडक़ी जड़ कट जाने पर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायँगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है ॥ ९ ॥ इसलिये तुमलोग इसी समय पृथ्वी पर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहें हों, उन सब को मार डालो ॥ १० ॥ विष्णु की जड़ है द्विजातियों का धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्म का वही परम आश्रय है ॥ ११ ॥ जहाँ-जहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो, उजाड़ डालो’ ॥ १२ ॥
दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसी के अनुसार जनता का नाश करने लगे ॥ १३ ॥ उन्होंने नगर, गाँव, गौओं के रहने के स्थान, बगीचे, खेत, टहल ने के स्थान, ऋषियों के आश्रम, रत्न आदि की खानें, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले ॥ १४ ॥ कुछ दैत्यों ने खोद ने के शस्त्रों से बड़े-बड़े पुल, पर कोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरों ने कुल्हाडिय़ों से फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्यों ने जलती हुई लकडिय़ों से लोगों के घर जला दिये ॥ १५ ॥ इस प्रकार दैत्यों ने निरीह प्रजा का बड़ा उत्पीडऩ किया। उस समय देवतालोग स्वर्ग छोडक़र छिपे रूप से पृथ्वी में विचरण करते थे ॥ १६ ॥
युधिष्ठिर ! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दु:ख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रिया से छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी ॥ १७-१८ ॥ उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणी से समझाते हुए कहा ॥ १९ ॥
हिरण्यकशिपु ने कहा—मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो ! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है ॥ २० ॥ देवि ! जैसे प्याऊ पर बहुत- से लोग इकट्ठेहो जाते हैं, परंतु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देर के लिये ही होता है—वैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं ॥ २१ ॥ वास्तव में आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है। वह अपनी अविद्या से ही देह आदि की सृष्टि करके भोगों के साधन सूक्ष्मशरीर को स्वीकार करता है ॥ २२ ॥ जैसे हिलते हुए पानी के साथ उसमें प्रतिबिम्बित होनेवाले वृक्ष भी हिलते- से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है, कल्याणी ! वैसे ही विषयों के कारण मन भटक ने लगता है और वास्तव में निर्विकार होने पर भी उसी के समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्मशरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है ॥ २३-२४ ॥ सब प्रकार से शरीररहित आत्मा को शरीर समझ लेना—यही तो अज्ञान है। इसीसे प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुडऩा होता है। इसीसे कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता है ॥ २५ ॥ जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकार के शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेक की विस्मृति—सब का कारण यह अज्ञान ही है ॥ २६ ॥ इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास मरे हुए मनुष्य के सम्बन्धियों के साथ यमराज की बातचीत है। तुमलोग ध्यान से उसे सुनो ॥ २७ ॥
उशीनर देश में एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ। लड़ाई में शत्रुओं ने उसे मार डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये ॥ २८ ॥ उसका जड़ाऊ कवच छिन्नभिन्न हो गया था। गह ने और मालाएँ तहस-नहस हो गयीं थीं। बाणों की मार से कलेजा फट गया था। शरीर खून से लथपथ था। बाल बिखर गये थे। आँखें धँस गयी थीं। क्रोध के मारे दाँतों से उसके होठ दबे हुए थे। कमल के समान मुख धूल से ढक गया था। युद्ध में उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं ॥ २९-३० ॥
रानियों को दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेश की यह दशा देखकर बड़ा दु:ख हुआ। वे ‘हा नाथ ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं।’ यों कहकर बार-बार जोर से छाती पीटती हुई अपने स्वामी के चरणों के पास गिर पड़ीं ॥ ३१ ॥ वे जोर-जोर से इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुङ्कुम से मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओं ने प्रियतम के पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गह ने इधर-उधर बिखर गये। वे करुण-क्रन्दन के साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्यों के हृदय में शोक का संचार हो जाता था ॥ ३२ ॥ ‘हाय ! विधाता बड़ा क्रूर है। स्वामिन् ! उसी ने आज आपको हमारी आँखों से ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त देशवासियों के जीवनदाता थे। आज उसी ने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं ॥ ३३ ॥ पतिदेव आप हम से बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवा को भी बड़ी करके मानते थे। हाय ! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी। हम आपके चरणों की चेरी हैं। वीरवर ! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चल ने की हमें भी आज्ञा दीजिये’ ॥ ३४ ॥ वे अपनी पति की लाश पकडक़र इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्दे को वहाँ से दाह के लिये जाने दे ने की उनकी इच्छा नहीं होती थी। इत ने में ही सूर्यास्त हो गया ॥ ३५ ॥ उस समय उशीनरराजा के सम्बन्धियों ने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालक के वेष में आये और उन्होंने उन लोगों से कहा— ॥ ३६ ॥
यमराज बोले—बड़े आश्चर्य की बात है ! ये लोग तो मुझ से सया ने हैं। बराबर लोगों का मरना- जीना देखते हैं, फिर भी इत ने मूढ़ हो रहे हैं। अरे ! यह मनुष्य जहाँ से आया था, वहीं चला गया। इन लोगों को भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं ? ॥ ३७ ॥ हम तो तुम से लाखगु ने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बाप ने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीर में पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेडिय़े आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँ का नहीं कर पाते। जिस ने गर्भ में रक्षा की थी, वही इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है ॥ ३८ ॥ देवियो ! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौज से इस जगत को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है—उस प्रभु का यह एक खिलौनामात्र है। वह इस चराचर जगत को दण्ड या पुरस्कार दे ने में समर्थ है ॥ ३९ ॥ भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होने पर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परंतु दैव के विपरीत होने पर घर में सुरक्षित रहने पर भी मर जाता है ॥ ४० ॥
रानियो ! सभी प्राणियों की मृत्यु अपने पूर्वजन्मों की कर्मवासना के अनुसार समय पर होती है और उसी के अनुसार उनका जन्म भी होता है। परंतु आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहने पर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मों से अछूता ही रहता है ॥ ४१ ॥ जैसे मनुष्य अपने मकान को अपने से अलग और मिट्टी का समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टी का है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानी के विकार, घड़े आदि मिट्टी के विकार और गह ने आदि स्वर्ण के विकार समय पर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनों के विकार से बना हुआ यह शरीर भी समय पर बन-बिगड़ जाता है ॥ ४२ ॥ जैसे काठ में रहनेवाली व्यापक अग्रि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देहमें रहने पर भी वायु का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहने पर भी किसी के दोष-गुण से लिप्त नहीं होता—वैसे ही समस्त देहेन्द्रियों में रहनेवाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निॢलप्त है ॥ ४३ ॥
मूर्खो ! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नाम का शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुमलोग इसी को देखते थे। इसमें जो सुननेवाला और बोलनेवाला था, वह तो कभी किसीको नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों ? ॥ ४४ ॥ (तुम्हारी यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोल ने या सुननेवाला था, सो निकल गया’ मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीर में सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होने पर भी बोल ने या सुननेवाला नहीं है; क्योंकि वह जड है। देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है ॥ ४५ ॥ यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक है—फिर भी पञ्चभूत, इन्द्रिय और मन से युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने विवेकबल से मुक्त भी हो जाता है। वास्तव में वह इन सब से अलग है ॥ ४६ ॥ जब तक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन—इन सत्रह तत्त्वों से बने हुए लिङ्गशरीर से युक्त रहता है, तभी तक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण ही माया से होनेवाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं ॥ ४७ ॥ प्रकृति के गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओं को सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठ का दुराग्रह है। मनोरथ के समय की कल्पित और स्वप्न के समय की दीख पडऩेवाली वस्तुओं के समान इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है ॥ ४८ ॥ इसलिये शरीर और आत्मा का तत्त्व जाननेवाले पुरुष न तो अनित्य शरीर के लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्मा के लिये ही। परंतु ज्ञान की दृढ़ता न होने के कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ॥ ४९ ॥
किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाता ने मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिडिय़ों को फँसा लेता ॥ ५० ॥ एक दिन उसने कुलिङ्ग पक्षी के एक जोड़े को चारा चुगते देखा। उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फँसा लिया ॥ ५१ ॥ कालवश वह जाल के फंदों में फँस गयी। नर पक्षी को अपनी मादा की विपत्ति को देखकर बड़ा दु:ख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेह से उस बेचारी के लिये विलाप करने लगा ॥ ५२ ॥ उसने कहा—‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है। परंतु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या ॥ ५३ ॥ उसकी मौज हो तो मुझे ले जाय। इसके बिना मैं अपना यह अधूरा विधुर जीवन, जो दीनता और दु:ख से भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा ॥ ५४ ॥ अभी मेरे अभागे बच्चों के पर भी नहीं जमे हैं। स्त्री के मर जाने पर उन मातृहीन बच्चों को मैं कैसे पालूँगा ? ओह ! घोंसले में वे अपनी मा की बाट देख रहे होंगे’ ॥ ५५ ॥ इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। अपनी सहचरी के वियोग से वह आतुर हो रहा था। आँसुओं के मारे उसका गला रुँध गया था। तब तक काल की प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया ॥ ५६ ॥ मूर्ख रानियो ! तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो ! यदि तुमलोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा स कोगी ॥ ५७ ॥
हिरण्यकशिपु ने कहा—उस छोटे से बालक की ऐसी ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दु:ख अनित्य एवं मिथ्या हैं ॥ ५८ ॥ यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्र्तधान हो गये। भाई बन्धुओं ने भी सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की ॥ ५९ ॥ इसलिये तुमलोग भी अपने लिये या किसी दूसरे के लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन आपना है और कौन अपने से भिन्न ? क्या अपना है और क्या पराया ? प्राणियों को अज्ञान के कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि का और कोई कारण नहीं है ॥ ६० ॥
नारदजी ने कहा—युधिष्ठिर ! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्व स्वरूप परमात्मा में लगा दिया ॥ ६१ ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
नारद उवाच
हिरण्यकशिपू राजन्नजेयमजरामरम् ।
आत्मानमप्रतिद्वन्द्वमेकराजं व्यधित्सत ॥ १॥
स तेपे मन्दरद्रोण्यां तपः परमदारुणम् ।
ऊर्ध्वबाहुर्नभोदृष्टिः पादाङ्गुष्ठाश्रितावनिः ॥ २॥
जटादीधितिभी रेजे संवर्तार्क इवांशुभिः ।
तस्मिंस्तपस्तप्यमाने देवाः स्थानानि भेजिरे ॥ ३॥
तस्य मूर्ध्नः समुद्भूतः सधूमोऽग्निस्तपोमयः ।
तीर्यगूर्ध्वमधो लोकानतपद्विष्वगीरितः ॥ ४॥
चुक्षुभुर्नद्युदन्वन्तः सद्वीपाद्रिश्चचाल भूः ।
निपेतुः सग्रहास्तारा जज्वलुश्च दिशो दश ॥ ५॥
तेन तप्ता दिवं त्यक्त्वा ब्रह्मलोकं ययुः सुराः ।
धात्रे विज्ञापयामासुर्देवदेव जगत्पते ॥ ६॥
दैत्येन्द्रतपसा तप्ता दिवि स्थातुं न शक्नुमः ।
तस्य चोपशमं भूमन् विधेहि यदि मन्यसे ।
लोका न यावन्नङ्क्ष्यन्ति बलिहारास्तवाभिभूः ॥ ७॥
तस्यायं किल सङ्कल्पश्चरतो दुश्चरं तपः ।
श्रूयतां किं न विदितस्तवाथापि निवेदितः ॥ ८॥
सृष्ट्वा चराचरमिदं तपोयोगसमाधिना ।
अध्यास्ते सर्वधिष्ण्येभ्यः परमेष्ठी निजासनम् ॥ ९॥
तदहं वर्धमानेन तपोयोगसमाधिना ।
कालात्मनोश्च नित्यत्वात्साधयिष्ये तथात्मनः ॥ १०॥
अन्यथेदं विधास्येऽहमयथापूर्वमोजसा ।
किमन्यैः कालनिर्धूतैः कल्पान्ते वैष्णवादिभिः ॥ ११॥
इति शुश्रुम निर्बन्धं तपः परममास्थितः ।
विधत्स्वानन्तरं युक्तं स्वयं त्रिभुवनेश्वर ॥ १२॥
तवासनं द्विजगवां पारमेष्ठ्यं जगत्पते ।
भवाय श्रेयसे भूत्यै क्षेमाय विजयाय च ॥ १३॥
इति विज्ञापितो देवैर्भगवानात्मभूर्नृप ।
परीतो भृगुदक्षाद्यैर्ययौ दैत्येश्वराश्रमम् ॥ १४॥
न ददर्श प्रतिच्छन्नं वल्मीकतृणकीचकैः ।
पिपीलिकाभिराचीर्णमेदस्त्वङ्मांसशोणितम् ॥ १५॥
तपन्तं तपसा लोकान् यथाभ्रापिहितं रविम् ।
विलक्ष्य विस्मितः प्राह प्रहसन् हंसवाहनः ॥ १६॥
ब्रह्मोवाच
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते तपःसिद्धोसि काश्यप ।
वरदोऽहमनुप्राप्तो व्रियतामीप्सितो वरः ॥ १७॥
अद्राक्षमहमेतत्ते हृत्सारं महदद्भुतम् ।
दंशभक्षितदेहस्य प्राणा ह्यस्थिषु शेरते ॥ १८॥
नैतत्पूर्वर्षयश्चक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे ।
निरम्बुर्धारयेत्प्राणान् को वै दिव्यसमाः शतम् ॥ १९॥
व्यवसायेन तेऽनेन दुष्करेण मनस्विनाम् ।
तपोनिष्ठेन भवता जितोऽहं दितिनन्दन ॥ २०॥
ततस्त आशिषः सर्वा ददाम्यसुरपुङ्गव ।
मर्त्यस्य ते अमर्त्यस्य दर्शनं नाफलं मम ॥ २१॥
नारद उवाच
इत्युक्त्वाऽऽदिभवो देवो भक्षिताङ्गं पिपीलिकैः ।
कमण्डलुजलेनौक्षद्दिव्येनामोघराधसा ॥ २२॥
स तत्कीचकवल्मीकात्सहओजोबलान्वितः ।
सर्वावयवसम्पन्नो वज्रसंहननो युवा ।
उत्थितस्तप्तहेमाभो विभावसुरिवैधसः ॥ २३॥
स निरीक्ष्याम्बरे देवं हंसवाहमवस्थितम् ।
ननाम शिरसा भूमौ तद्दर्शनमहोत्सवः ॥ २४॥
उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व ईक्षमाणो दृशा विभुम् ।
हर्षाश्रुपुलकोद्भेदो गिरा गद्गदयागृणात् ॥ २५॥
हिरण्यकशिपुरुवाच
कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसाऽऽवृतम् ।
अभिव्यनग्जगदिदं स्वयञ्ज्योतिः स्वरोचिषा ॥ २६॥
आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति ।
रजःसत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नमः ॥ २७॥
नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये ।
प्राणेन्द्रियमनोबुद्धिविकारैर्व्यक्तिमीयुषे ॥ २८॥
त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्च
प्राणेन मुख्येन पतिः प्रजानाम् ।
चित्तस्य चित्तेर्मन ऐन्द्रियाणां
पतिर्महान् भूतगुणाशयेशः ॥ २९॥
त्वं सप्ततन्तून् वितनोषि तन्वा
त्रय्या चातुर्होत्रकविद्यया च ।
त्वमेक आत्माऽऽत्मवतामनादि-
रनन्तपारः कविरन्तरात्मा ॥ ३०॥
त्वमेव कालोऽनिमिषो जनाना-
मायुर्लवाद्यावयवैः क्षिणोषि ।
कूटस्थ आत्मा परमेष्ठ्यजो महांस्त्वं
जीवलोकस्य च जीव आत्मा ॥ ३१॥
त्वत्तः परं नापरमप्यनेजदेजच्च
किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति ।
विद्याः कलास्ते तनवश्च सर्वा
हिरण्यगर्भोऽसि बृहत्त्रिपृष्ठः ॥ ३२॥
व्यक्तं विभो स्थूलमिदं शरीरं
येनेन्द्रियप्राणमनोगुणांस्त्वम् ।
भुङ्क्षे स्थितो धामनि पारमेष्ठ्ये
अव्यक्त आत्मा पुरुषः पुराणः ॥ ३३॥
अनन्ताव्यक्तरूपेण येनेदमखिलं ततम् ।
चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः ॥ ३४॥
यदि दास्यस्यभिमतान् वरान् मे वरदोत्तम ।
भूतेभ्यस्त्वद्विसृष्टेभ्यो मृत्युर्मा भून्मम प्रभो ॥ ३५॥
नान्तर्बहिर्दिवा नक्तमन्यस्मादपि चायुधैः ।
न भूमौ नाम्बरे मृत्युर्न नरैर्न मृगैरपि ॥ ३६॥
व्यसुभिर्वासुमद्भिर्वा सुरासुरमहोरगैः ।
अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे ऐकपत्यं च देहिनाम् ॥ ३७॥
सर्वेषां लोकपालानां महिमानं यथाऽऽत्मनः ।
तपोयोगप्रभावाणां यन्न रिष्यति कर्हिचित् ॥ ३८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे हिरण्यकशिपुवरयाचनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
सप्तम स्कन्ध-तीसरा अध्याय
हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति
नारदजी ने कहा—युधिष्ठिर ! अब हिरण्यकशिपु ने यह विचार किया कि ‘मैं अजेय, अजर, अमर और संसार का एकछत्र सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ा तक न हो सके’ ॥ १ ॥ इसके लिये वह मन्दराचल की एक घाटी में जाकर अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊ पर उठाकर आकाश की ओर देखता हुआ वह पैर के अँगूठे के बल पृथ्वी पर खड़ा हो गया ॥ २ ॥ उसकी जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे प्रलयकाल के सूर्य की किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्या में संलग्र हो गया, तब देवतालोग अपने-अपने स्थानों और पदों पर पुन: प्रतिष्ठित हो गये ॥ ३ ॥ बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद उसकी तपस्या की आग धूएँ के साथ सिर से निकल ने लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों को जला ने लगी ॥ ४ ॥ उसकी लपट से नदी और समुद्र खौल ने लगे। द्वीप और पर्वतों के सहित पृथ्वी डगमगा ने लगी। ग्रह और तारे टूट- टूटकर गिर ने लगे तथा दसों दिशाओं में मानो आग लग गयी ॥ ५ ॥
हिरण्यकशिपु की उस तपोमयी आग की लपटों से स्वर्ग के देवता भी जल ने लगे। वे घबराकर स्वर्ग से ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी से प्रार्थना करने लगे—‘हे देवताओं के भी आराध्यदेव जगतपति ब्रह्माजी ! हमलोग हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से जल रहे हैं। अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते। हे अनन्त ! हे सर्वाध्यक्ष ! यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करनेवाली जनता का नाश होने के पहले ही यह ज्वाला शान्त कर दीजिये ॥ ६-७ ॥ भगवन् ! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओर से आप से यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्राय से यह घोर तपस्या कर रहा है। सुनिये, उसका विचार है कि ‘जैसे ब्रह्माजी अपनी तपस्या और योग के प्रभाव से इस चराचर जगत की सृष्टि करके सब लोकों से ऊ पर सत्यलोक में विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उग्र तपस्या और योग के प्रभाव से वही पद और स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और आत्मा नित्य है। एक जन्म में नहीं, अनेक जन्मोंमें; एक युग में न सही, अनेक युगों में ॥ ८—१० ॥ अपनी तपस्या की शक्ति से मैं पाप-पुण्यादि के नियमों को पलटकर इस संसार में ऐसा उलट-फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदों में तो रखा ही क्या है। क्योंकि कल्प के अन्त में उन्हें भी काल के गाल में चला जाना पड़ता है’[1] ॥ ११ ॥ हम ने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह घोर तपस्या में जुटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें, वही करें ॥ १२ ॥ ब्रह्माजी ! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं गौओं की वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजय के लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपु के हाथ में चला गया, तो सज्जनों पर सङ्कटों का पहाड़ टूट पड़ेगा) ॥ १३ ॥
युधिष्ठिर ! जब देवताओं ने भगवान ब्रह्माजी से इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियों के साथ हिरण्यकशिपु के आश्रम पर गये ॥ १४ ॥ वहाँ जाने पर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि दीमक की मिट्टी, घास और बाँसों से उसका शरीर ढक गया था। चींटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं ॥ १५ ॥ बादलों से ढ के हुए सूर्य के समान वह अपनी तपस्या के तेज से लोकों को तपा रहा था। उस को देखकर ब्रह्माजी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए कहा ॥ १६ ॥
ब्रह्माजी ने कहा—बेटा हिरण्यकशिपु ! उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो। कश्यपनन्दन ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर दे ने के लिये आया हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखट के माँग लो ॥ १७ ॥ मैंने तुम्हारे हृदय का अद्भुत बल देखा। अरे, डाँसों ने तुम्हारी देह खा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियों के सहारे टि के हुए हैं ॥ १८ ॥ ऐसी कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषि ने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है जो देवताओं के सौ वर्ष तक बिना पानी के जीता रहे ॥ १९ ॥ बेटा हिरण्यकशिपु ! तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनता से कर सकते हैं। तुम ने इस तपोनिष्ठा से मुझे अपने वश में कर लिया है ॥ २० ॥ दैत्यशिरोमणे ! इसीसे प्रसन्न होकर मैं तुम्हें जो कुछ माँगो, दिये देता हूँ। तुम हो मरनेवाले और मैं हूँ अमर। अत: तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता ॥ २१ ॥
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! इतना कहकर ब्रह्माजी ने उसके चींटियों से खाये हुए शरीर पर अपने कमण्डलु का दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिडक़ दिया ॥ २२ ॥ जैसे लकड़ी के ढेर में से आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिडक़ते ही बाँस और दीमकों की मिट्टी के बीच से उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवों से पूर्ण एवं बलवान् हो गया था, इन्द्रियों में शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया था। सारे अङ्ग वज्र के समान कठोर एवं तपाये हुए सो ने की तरह चमकीले हो गये थे। वह नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ ॥ २३ ॥ उसने देखा कि आकाश में हंस पर चढ़े हुए ब्रह्माजी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वी पर रखकर उसने उन को नमस्कार किया ॥ २४ ॥ फिर अञ्जलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने निॢनमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणी से स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था ॥ २५ ॥
हिरण्यकशिपु ने कहा—कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुणसे, घ ने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाश स्वरूप आपने अपने तेज से पुन: इसे प्रकट किया ॥ २६ ॥ आप ही अपने त्रिगुणमय रूप से इस की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय हैं। आप ही सब से परे और महान हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २७ ॥ आप ही जगत के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है ॥ २८ ॥ आप मुख्यप्राण सूत्रात्मा के रूप से चराचर जगत को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजा के रक्षक भी हैं। भगवन् ! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं। पञ्चभूत; शब्दादि विषय और उनके संस्कारों के रचयिता भी महत्तत्त्व के रूप में आप ही हैं ॥ २९ ॥ जो वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता—इन ऋत्विजों से होनेवाले यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हींके द्वारा अग्रिष्टोम आदि सात यज्ञों का आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं ॥ ३० ॥ आप ही काल हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के द्वारा लोगों की आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं। क्योंकि आप ज्ञान स्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा, महान और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं ॥ ३१ ॥ प्रभो ! कार्य, कारण, चल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आप से भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपने में से ही प्रकट करते हैं ॥ ३२ ॥ प्रभो ! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। वस्तुत: आप पुराणपुरुष, स्थूल-सूक्ष्म से परे ब्रह्म स्वरूप ही हैं ॥ ३३ ॥ आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं। भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३४ ॥
प्रभो ! आप समस्त वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं, तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणीसे—चाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा नागादि—किसी से भी मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिन में, रात्रि में, आपके बनाये प्राणियों के अतिरिक्त और भी किसी जीवसे, अस्त्र-शस्त्रसे, पृथ्वी या आकाशमें—कहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकच्छत्र सम्राट् होऊँ ॥ ३५—३७ ॥ इन्द्रादि समस्त लोकपालों में जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी भी हो। तपस्वियों और योगियों को जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये ॥ ३८ ॥
[1] यद्यपि वैष्णवपद (वैकुण्ठादि नित्यधाम) अविनाशी हैं, परंतु हिरण्यकशिपु अपनी आसुरी बुद्धि के कारण उन को कल्प के अन्त में नष्ट होनेवाला ही मानता था। तामसी बुद्धि में सब बातें विपरीत ही दीखा करती हैं।
॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
नारद उवाच
एवं वृतः शतधृतिर्हिरण्यकशिपोरथ ।
प्रादात्तत्तपसा प्रीतो वरांस्तस्य सुदुर्लभान् ॥ १॥
ब्रह्मोवाच
तातेमे दुर्लभाः पुंसां यान् वृणीषे वरान् मम ।
तथापि वितराम्यङ्ग वरान् यदपि दुर्लभान् ॥ २॥
ततो जगाम भगवानमोघानुग्रहो विभुः ।
पूजितोऽसुरवर्येण स्तूयमानः प्रजेश्वरैः ॥ ३॥
एवं लब्धवरो दैत्यो बिभ्रद्धेममयं वपुः ।
भगवत्यकरोद्द्वेषं भ्रातुर्वधमनुस्मरन् ॥ ४॥
स विजित्य दिशः सर्वा लोकांश्च त्रीन् महासुरः ।
देवासुरमनुष्येन्द्रान् गन्धर्वगरुडोरगान् ॥ ५॥
सिद्धचारणविद्याध्रानृषीन् पितृपतीन् मनून् ।
यक्षरक्षःपिशाचेशान् प्रेतभूतपतीनथ ॥ ६॥
सर्वसत्त्वपतीन् जित्वा वशमानीय विश्वजित् ।
जहार लोकपालानां स्थानानि सह तेजसा ॥ ७॥
देवोद्यानश्रिया जुष्टमध्यास्ते स्म त्रिविष्टपम् ।
महेन्द्रभवनं साक्षान्निर्मितं विश्वकर्मणा ।
त्रैलोक्यलक्ष्म्यायतनमध्युवासाखिलर्द्धिमत् ॥ ८॥
यत्र विद्रुमसोपाना महामारकता भुवः ।
यत्र स्फाटिककुड्यानि वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तयः ॥ ९॥
यत्र चित्रवितानानि पद्मरागासनानि च ।
पयःफेननिभाः शय्या मुक्तादामपरिच्छदाः ॥ १०॥
कूजद्भिर्नूपुरैर्देव्यः शब्दयन्त्य इतस्ततः ।
रत्नस्थलीषु पश्यन्ति सुदतीः सुन्दरं मुखम् ॥ ११॥
तस्मिन् महेन्द्रभवने महाबलो
महामना निर्जितलोक एकराट् ।
रेमेऽभिवन्द्याङ्घ्रियुगः सुरादिभिः
प्रतापितैरूर्जितचण्डशासनः ॥ १२॥
तमङ्ग मत्तं मधुनोरुगन्धिना
विवृत्तताम्राक्षमशेषधिष्ण्यपाः ।
उपासतोपायनपाणिभिर्विना
त्रिभिस्तपोयोगबलौजसां पदम् ॥ १३॥
जगुर्महेन्द्रासनमोजसा स्थितं
विश्वावसुस्तुम्बुरुरस्मदादयः ।
गन्धर्वसिद्धा ऋषयोऽस्तुवन्
मुहुर्विद्याधराश्चाप्सरसश्च पाण्डव ॥ १४॥
स एव वर्णाश्रमिभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
इज्यमानो हविर्भागानग्रहीत्स्वेन तेजसा ॥ १५॥
अकृष्टपच्या तस्यासीत्सप्तद्वीपवती मही ।
तथा कामदुघा द्यौस्तु नानाश्चर्यपदं नभः ॥ १६॥
रत्नाकराश्च रत्नौघांस्तत्पत्न्यश्चोहुरूर्मिभिः ।
क्षारसीधुघृतक्षौद्रदधिक्षीरामृतोदकाः ॥ १७॥
शैला द्रोणीभिराक्रीडं सर्वर्तुषु गुणान् द्रुमाः ।
दधार लोकपालानामेक एव पृथग्गुणान् ॥ १८॥
स इत्थं निर्जितककुबेकराड् विषयान् प्रियान् ।
यथोपजोषं भुञ्जानो नातृप्यदजितेन्द्रियः ॥ १९॥
एवमैश्वर्यमत्तस्य दृप्तस्योच्छास्त्रवर्तिनः ।
कालो महान् व्यतीयाय ब्रह्मशापमुपेयुषः ॥ २०॥
तस्योग्रदण्डसंविग्नाः सर्वे लोकाः सपालकाः ।
अन्यत्रालब्धशरणाः शरणं ययुरच्युतम् ॥ २१॥
तस्यै नमोऽस्तु काष्ठायै यत्रात्मा हरिरीश्वरः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते शान्ताः सन्न्यासिनोऽमलाः ॥ २२॥
इति ते संयतात्मानः समाहितधियोऽमलाः ।
उपतस्थुर्हृषीकेशं विनिद्रा वायुभोजनाः ॥ २३॥
तेषामाविरभूद्वाणी अरूपा मेघनिःस्वना ।
सन्नादयन्ती ककुभः साधूनामभयङ्करी ॥ २४॥
मा भैष्ट विबुधश्रेष्ठाः सर्वेषां भद्रमस्तु वः ।
मद्दर्शनं हि भूतानां सर्वश्रेयोपपत्तये ॥ २५॥
ज्ञातमेतस्य दौरात्म्यं दैतेयापसदस्य च ।
तस्य शान्तिं करिष्यामि कालं तावत्प्रतीक्षत ॥ २६॥
यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु ।
धर्मे मयि च विद्वेषः स वा आशु विनश्यति ॥ २७॥
निर्वैराय प्रशान्ताय स्वसुताय महात्मने ।
प्रह्लादाय यदा द्रुह्येद्धनिष्येऽपि वरोर्जितम् ॥ २८॥
नारद उवाच
इत्युक्ता लोकगुरुणा तं प्रणम्य दिवौकसः ।
न्यवर्तन्त गतोद्वेगा मेनिरे चासुरं हतम् ॥ २९॥
तस्य दैत्यपतेः पुत्राश्चत्वारः परमाद्भुताः ।
प्रह्लादोऽभून्महांस्तेषां गुणैर्महदुपासकः ॥ ३०॥
ब्रह्मण्यः शीलसम्पन्नः सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ।
आत्मवत्सर्वभूतानामेकः प्रियसुहृत्तमः ॥ ३१॥
दासवत्सन्नतार्याङ्घ्रिः पितृवद्दीनवत्सलः ।
भ्रातृवत्सदृशे स्निग्धो गुरुष्वीश्वरभावनः ।
विद्यार्थरूपजन्माढ्यो मानस्तम्भविवर्जितः ॥ ३२॥
नोद्विग्नचित्तो व्यसनेषु निःस्पृहः
श्रुतेषु दृष्टेषु गुणेष्ववस्तुदृक् ।
दान्तेन्द्रियप्राणशरीरधीः सदा
प्रशान्तकामो रहितासुरोऽसुरः ॥ ३३॥
यस्मिन् महद्गुणा राजन् गृह्यन्ते कविभिर्मुहुः ।
न तेऽधुनापिधीयन्ते यथा भगवतीश्वरे ॥ ३४॥
यं साधुगाथासदसि रिपवोऽपि सुरा नृप ।
प्रतिमानं प्रकुर्वन्ति किमुतान्ये भवादृशाः ॥ ३५॥
गुणैरलमसङ्ख्येयैर्माहात्म्यं तस्य सूच्यते ।
वासुदेवे भगवति यस्य नैसर्गिकी रतिः ॥ ३६॥
न्यस्तक्रीडनको बालो जडवत्तन्मनस्तया ।
कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीदृशम् ॥ ३७॥
आसीनः पर्यटन्नश्नन् शयानः प्रपिबन् ब्रुवन् ।
नानुसन्धत्त एतानि गोविन्दपरिरम्भितः ॥ ३८॥
क्वचिद्रुदति वैकुण्ठचिन्ताशबलचेतनः ।
क्वचिद्धसति तच्चिन्ताह्लाद उद्गायति क्वचित् ॥ ३९॥
नदति क्वचिदुत्कण्ठो विलज्जो नृत्यति क्वचित् ।
क्वचित्तद्भावनायुक्तस्तन्मयोऽनुचकार ह ॥ ४०॥
क्वचिदुत्पुलकस्तूष्णीमास्ते संस्पर्शनिर्वृतः ।
अस्पन्दप्रणयानन्दसलिलामीलितेक्षणः ॥ ४१॥
स उत्तमश्लोकपदारविन्दयो-
र्निषेवयाकिञ्चनसङ्गलब्धया ।
तन्वन् परां निर्वृतिमात्मनो मुहु-
र्दुःसङ्गदीनान्यमनःशमं व्यधात् ॥ ४२॥
तस्मिन् महाभागवते महाभागे महात्मनि ।
हिरण्यकशिपू राजन्नकरोदघमात्मजे ॥ ४३॥
युधिष्ठिर उवाच
देवर्ष एतदिच्छामो वेदितुं तव सुव्रत ।
यदात्मजाय शुद्धाय पितादात्साधवे ह्यघम् ॥ ४४॥
पुत्रान् विप्रतिकूलान् स्वान् पितरः पुत्रवत्सलाः ।
उपालभन्ते शिक्षार्थं नैवाघमपरो यथा ॥ ४५॥
किमुतानुवशान् साधूंस्तादृशान् गुरुदेवतान् ।
एतत्कौतूहलं ब्रह्मन्नस्माकं विधम प्रभो ।
पितुः पुत्राय यद्द्वेषो मरणाय प्रयोजितः ॥ ४६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
सप्तम स्कन्ध-चौथा अध्याय
हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्माजी से इस प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्या से प्रसन्न होने के कारण उसे वे वर दे दिये ॥ १ ॥
ब्रह्माजी ने कहा—बेटा ! तुम जो वर मुझ से माँग रहे हो, वे जीवों के लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परंतु दुर्लभ होने पर भी मैं तुम्हें वे सब वर दिये देता हूँ ॥ २ ॥
[नारदजी कहते हैं—]ब्रह्माजी के वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवद्रूप ही हैं। वरदान मिल जाने के बाद हिरण्यकशिपु ने उनकी पूजा की। तत्पश्चात प्रजापतियों से अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोक को चले गये ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी से वर प्राप्त करने पर हिरण्यकशिपु का शरीर सुवर्ण के समान कान्तिमान् एवं हृष्टपुष्ट हो गया। वह अपने भाई की मृत्यु का स्मरण करके भगवान से द्वेष करने लगा ॥ ४ ॥ उस महादैत्य ने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड़, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरों के अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियों के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया। यहाँ तक कि उस विश्व-विजयी दैत्य ने लोकपालों की शक्ति और स्थान भी छीन लिये ॥ ५—७ ॥ अब वह नन्दनवन आदि दिव्य उद्यानों के सौन्दर्य से युक्त स्वर्ग में ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्मा का बनाया हुआ इन्द्र का भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवन में तीनों लोकों का सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकार की सम्पत्तियों से सम्पन्न था ॥ ८ ॥ उस महल में मूँगे की सीढिय़ाँ, पन् ने की गचें, स्फटिकमणि की दीवारें, वैदूर्यमणि के खंभे और माणिक की कुॢसयाँ थीं। रंग-बिरंगे चँदोवे तथा दूध के फेन के समान शय्याएँ, जिन पर मोतियों की झालरें लगी हुई थीं, शोभायमान हो रही थीं ॥ ९-१० ॥ सर्वाङ्गसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरों से रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमि पर इधर-उधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं ॥ ११ ॥ उस महेन्द्र के महल में महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकों को जीतकर, सब का एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रता से विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणों की वन्दना करते रहते थे ॥ १२ ॥ युधिष्ठिर ! वह उत्कट गन्धवाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बल का वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के सिवा और सभी देवता अपने हाथों में भेंट ले-लेकर उसकी सेवा में लगे रहते ॥ १३ ॥ जब वह अपने पुरुषार्थ से इन्द्रासन पर बैठ गया, तब युधिष्ठिर ! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती थीं ॥ १४ ॥
युधिष्ठिर ! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रमधर्म का पालन करनेवाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ करते, उनके यज्ञों की आहुति वह स्वयं छीन लेता ॥ १५ ॥ पृथ्वी के सातों द्वीपों में उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरती से अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्ष से उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँति की आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा- दिखाकर उसका मनोरंजन करता था ॥ १६ ॥ इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानी के समुद्र भी अपनी पत्नी नदियों के साथ तरङ्गों के द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे ॥ १७ ॥ पर्वत अपनी घाटियों के रूप में उसके लिये खेल ने का स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओं में फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालों के विभिन्न गुणों को धारण करता ॥ १८ ॥ इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपने को प्रिय लगनेवाले विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परंतु इत ने विषयों से भी उसकी तृप्ति न हो स की। क्योंकि अन्तत: वह इन्द्रियों का दास ही तो था ॥ १९ ॥
युधिष्ठिर ! इस रूप में भी वह भगवान का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकों ने शाप दिया था। वह ऐश्वर्य के मद से मतवाला हो रहा था तथा घमंड में चूर होकर शास्त्रों की मर्यादा का उल्लङ्घन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवन का बहुत-सा समय बीत गया ॥ २० ॥ उसके कठोर शासन से सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसी का आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान की शरण ली ॥ २१ ॥ (उन्होंने मन-ही-मन कहा—)‘जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवान के उसपर म धाम को हम नमस्कार करते हैं’ ॥ २२ ॥ इस भाव से अपनी इन्द्रियों का संयम और मन को समाहित करके उन लोगों ने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदय से भगवान की आराधना की ॥ २३ ॥ एक दिन उन्हें मेघ के समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। साधुओं को अभय देनेवाली वह वाणी यों थी— ॥ २४ ॥ ‘श्रेष्ठ देवताओ ! डरो मत। तुम सब लोगों का कल्याण हो। मेरे दर्शन से प्राणियों को परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है ॥ २५ ॥ इस नीच दैत्य की दुष्टता का मुझे पहले से ही पता है। मैं इस को मिटा दूँगा। अभी कुछ दिनों तक समय की प्रतीक्षा करो ॥ २६ ॥ कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझ से द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है ॥ २७ ॥ जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लाद से द्रोह करेगा—उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वर के कारण शक्तिसम्पन्न होने पर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा।’ ॥ २८ ॥
नारदजी कहते हैं—सब के हृदय में ज्ञान का सञ्चार करनेवाले भगवान ने जब देवताओं को यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया ॥ २९ ॥
युधिष्ठिर ! दैत्यराज हिरण्यकशिपु के बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सब से छोटे थे, परंतु गुणों में सब से बड़े थे। वे बड़े संतसेवी थे ॥ ३० ॥ ब्राह्मणभक्त, सौम्यस्वभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सब के एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे ॥ ३१ ॥ बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। गरीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरीवालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होने पर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी ॥ ३२ ॥ बड़े-बड़े दु:खों में भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परंतु वे उन्हें नि:सार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मन में किसी भी वस्तु की लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वश में थे। उनके चित्त में कभी किसी प्रकार की कामना नहीं उठती थी। जन्म से असुर होने पर भी उनमें आसुरी सम्पत्ति का लेश भी नहीं था ॥ ३३ ॥ जैसे भगवान के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लाद के श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मालोग सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं ॥ ३४ ॥ युधिष्ठिर ! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परंतु फिर भी भक्तों का चरित्र सुनने के लिये जब उन लोगों की सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है ॥ ३५ ॥ उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल एक ही गुण—भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है ॥ ३६ ॥
युधिष्ठिर ! प्रह्लाद बचपन में ही खेल-कूद छोडक़र भगवान के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रहने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत की कुछ सुध-बुध ही न रहती ॥ ३७ ॥ उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान मुझे अपनी गोद में लेकर आलिङ्गन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता ॥ ३८ ॥ कभी-कभी भगवान मुझे छोडक़र चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँस ने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गा ने लगते ॥ ३९ ॥ वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाच ने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इत ने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते ॥ ४० ॥ कभी भीतर-ही-भीतर भगवान का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्द में मग्र हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुलेनेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते ॥ ४१ ॥ भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की यह भक्ति अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओं के सङ्ग से ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्र रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसङ्ग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे ॥ ४२ ॥ युधिष्ठिर ! प्रह्लाद भगवान के परम प्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधु पुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की चेष्टा करने लगा ॥ ४३ ॥
युधिष्ठिर ने पूछा—नारदजी ! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आप से यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया ॥ ४४ ॥ पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा दे ने के लिये ही डाँटते हैं, शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते ॥ ४५ ॥ फिर प्रह्लादजी-जैसे अनुकूल, शुद्धहृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करनेवाले पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारदजी ! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण पुत्र को मार डालना चाहा। आप कृपा करके मेरा यह कुतूहल शान्त कीजिये ॥ ४६ ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः - ५ ॥
नारद उवाच
पौरोहित्याय भगवान् वृतः काव्यः किलासुरैः ।
षण्डामर्कौ सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ॥ १॥
तौ राज्ञा प्रापितं बालं प्रह्लादं नयकोविदम् ।
पाठयामासतुः पाठ्यानन्यांश्चासुरबालकान् ॥ २॥
यत्तत्र गुरुणा प्रोक्तं शुश्रुवेऽनुपपाठ च ।
न साधु मनसा मेने स्वपरासद्ग्रहाश्रयम् ॥ ३॥
एकदासुरराट् पुत्रमङ्कमारोप्य पाण्डव ।
पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भवान् ॥ ४॥
प्रह्लाद उवाच
तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां
सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात् ।
हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं
वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत ॥ ५॥
नारद उवाच
श्रुत्वा पुत्रगिरो दैत्यः परपक्षसमाहिताः ।
जहास बुद्धिर्बालानां भिद्यते परबुद्धिभिः ॥ ६॥
सम्यग्विधार्यतां बालो गुरुगेहे द्विजातिभिः ।
विष्णुपक्षैः प्रतिच्छन्नैर्न भिद्येतास्य धीर्यथा ॥ ७॥
गृहमानीतमाहूय प्रह्लादं दैत्ययाजकाः ।
प्रशस्य श्लक्ष्णया वाचा समपृच्छन्त सामभिः ॥ ८॥
वत्स प्रह्लाद भद्रं ते सत्यं कथय मा मृषा ।
बालानति कुतस्तुभ्यमेष बुद्धिविपर्ययः ॥ ९॥
बुद्धिभेदः परकृत उताहो ते स्वतोऽभवत् ।
भण्यतां श्रोतुकामानां गुरूणां कुलनन्दन ॥ १०॥
प्रह्लाद उवाच
स्व: परश्चेत्यसद्ग्राहः पुंसां यन्मायया कृतः ।
विमोहितधियां दृष्टस्तस्मै भगवते नमः ॥ ११॥
स यदानुव्रतः पुंसां पशुबुद्धिर्विभिद्यते ।
अन्य एष तथान्योऽहमिति भेदगतासती ॥ १२॥
स एष आत्मा स्वपरेत्यबुद्धिभि-
र्दुरत्ययानुक्रमणो निरूप्यते ।
मुह्यन्ति यद्वर्त्मनि वेदवादिनो
ब्रह्मादयो ह्येष भिनत्ति मे मतिम् ॥ १३॥
यथा भ्राम्यत्ययो ब्रह्मन् स्वयमाकर्षसन्निधौ ।
तथा मे भिद्यते चेतश्चक्रपाणेर्यदृच्छया ॥ १४॥
नारद उवाच
एतावद्ब्राह्मणायोक्त्वा विरराम महामतिः ।
तं निर्भर्त्स्याथ कुपितः सुदीनो राजसेवकः ॥ १५॥
आनीयतामरे वेत्रमस्माकमयशस्करः ।
कुलाङ्गारस्य दुर्बुद्धेश्चतुर्थोऽस्योदितो दमः ॥ १६॥
दैतेयचन्दनवने जातोऽयं कण्टकद्रुमः ।
यन्मूलोन्मूलपरशोर्विष्णोर्नालायितोऽर्भकः ॥ १७॥
इति तं विविधोपायैर्भीषयंस्तर्जनादिभिः ।
प्रह्लादं ग्राहयामास त्रिवर्गस्योपपादनम् ॥ १८॥
तत एनं गुरुर्ज्ञात्वा ज्ञातज्ञेयचतुष्टयम् ।
दैत्येन्द्रं दर्शयामास मातृमृष्टमलङ्कृतम् ॥ १९॥
पादयोः पतितं बालं प्रतिनन्द्याशिषासुरः ।
परिष्वज्य चिरं दोर्भ्यां परमामाप निर्वृतिम् ॥ २०॥
आरोप्याङ्कमवघ्राय मूर्धन्यश्रुकलाम्बुभिः ।
आसिञ्चन् विकसद्वक्त्रमिदमाह युधिष्ठिर ॥ २१॥
हिरण्यकशिपुरुवाच
प्रह्लादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम् ।
कालेनैतावतायुष्मन् यदशिक्षद्गुरोर्भवान् ॥ २२॥
प्रह्लाद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ २३॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ २४॥
निशम्यैतत्सुतवचो हिरण्यकशिपुस्तदा ।
गुरुपुत्रमुवाचेदं रुषा प्रस्फुरिताधरः ॥ २५॥
ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते विपक्षं श्रयतासता ।
असारं ग्राहितो बालो मामनादृत्य दुर्मते ॥ २६॥
सन्ति ह्यसाधवो लोके दुर्मैत्राश्छद्मवेषिणः ।
तेषामुदेत्यघं काले रोगः पातकिनामिव ॥ २७॥
गुरुपुत्र उवाच
न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं
सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो ।
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्
नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ॥ २८॥
नारद उवाच
गुरुणैवं प्रतिप्रोक्तो भूय आहासुरः सुतम् ।
न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोऽभद्रासती मतिः ॥ २९॥
प्रह्लाद उवाच
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥ ३०॥
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः ।
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना
वाचीशतन्त्यामुरुदाम्नि बद्धाः ॥ ३१॥
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः ।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥ ३२॥
इत्युक्त्वोपरतं पुत्रं हिरण्यकशिपू रुषा ।
अन्धीकृतात्मा स्वोत्सङ्गान्निरस्यत महीतले ॥ ३३॥
आहामर्षरुषाविष्टः कषायीभूतलोचनः ।
वध्यतामाश्वयं वध्यो निःसारयत नैरृताः ॥ ३४॥
अयं मे भ्रातृहा सोऽयं हित्वा स्वान् सुहृदोऽधमः ।
पितृव्यहन्तुर्यः पादौ विष्णोर्दासवदर्चति ॥ ३५॥
विष्णोर्वा साध्वसौ किं नु करिष्यत्यसमञ्जसः ।
सौहृदं दुस्त्यजं पित्रोरहाद्यः पञ्चहायनः ॥ ३६॥
परोऽप्यपत्यं हितकृद्यथौषधं
स्वदेहजोऽप्यामयवत्सुतोऽहितः ।
छिन्द्यात्तदङ्गं यदुतात्मनोऽहितं
शेषं सुखं जीवति यद्विवर्जनात् ॥ ३७॥
सर्वैरुपायैर्हन्तव्यः सम्भोजशयनासनैः ।
सुहृल्लिङ्गधरः शत्रुर्मुनेर्दुष्टमिवेन्द्रियम् ॥ ३८॥
नैरृतास्ते समादिष्टा भर्त्रा वै शूलपाणयः ।
तिग्मदंष्ट्रकरालास्यास्ताम्रश्मश्रुशिरोरुहाः ॥ ३९॥
नदन्तो भैरवान्नादान् छिन्धि भिन्धीति वादिनः ।
आसीनं चाहनन् शूलैः प्रह्लादं सर्वमर्मसु ॥ ४०॥
परे ब्रह्मण्यनिर्देश्ये भगवत्यखिलात्मनि ।
युक्तात्मन्यफला आसन्नपुण्यस्येव सत्क्रियाः ॥ ४१॥
प्रयासेऽपहते तस्मिन् दैत्येन्द्रः परिशङ्कितः ।
चकार तद्वधोपायान् निर्बन्धेन युधिष्ठिर ॥ ४२॥
दिग्गजैर्दन्दशूकैश्च अभिचारावपातनैः ।
मायाभिः सन्निरोधैश्च गरदानैरभोजनैः ॥ ४३॥
हिमवाय्वग्निसलिलैः पर्वताक्रमणैरपि ।
न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् ।
चिन्तां दीर्घतमां प्राप्तस्तत्कर्तुं नाभ्यपद्यत ॥ ४४॥
एष मे बह्वसाधूक्तो वधोपायाश्च निर्मिताः ।
तैस्तैर्द्रोहैरसद्धर्मैर्मुक्तः स्वेनैव तेजसा ॥ ४५॥
वर्तमानोऽविदूरे वै बालोऽप्यजडधीरयम् ।
न विस्मरति मेऽनार्यं शुनःशेप इव प्रभुः ॥ ४६॥
अप्रमेयानुभावोऽयमकुतश्चिद्भयोऽमरः ।
नूनमेतद्विरोधेन मृत्युर्मे भविता न वा ॥ ४७॥
इति तच्चिन्तया किञ्चिन्म्लानश्रियमधोमुखम् ।
शण्डामर्कावौशनसौ विविक्त इति होचतुः ॥ ४८॥
जितं त्वयैकेन जगत्त्रयं भ्रुवो-
र्विजृम्भणत्रस्तसमस्तधिष्ण्यपम् ।
न तस्य चिन्त्यं तव नाथ चक्ष्महे
न वै शिशूनां गुणदोषयोः पदम् ॥ ४९॥
इमं तु पाशैर्वरुणस्य बद्ध्वा
निधेहि भीतो न पलायते यथा ।
बुद्धिश्च पुंसो वयसार्यसेवया
यावद्गुरुर्भार्गव आगमिष्यति ॥ ५०॥
तथेति गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत् ।
धर्मा ह्यस्योपदेष्टव्या राज्ञां यो गृहमेधिनाम् ॥ ५१॥
धर्ममर्थं च कामं च नितरां चानुपूर्वशः ।
प्रह्लादायोचतू राजन् प्रश्रितावनताय च ॥ ५२॥
यथा त्रिवर्गं गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम् ।
न साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्वारामोपवर्णिताम् ॥ ५३॥
यदाचार्यः परावृत्तो गृहमेधीयकर्मसु ।
वयस्यैर्बालकैस्तत्र सोपहूतः कृतक्षणैः ॥ ५४॥
अथ तान् श्लक्ष्णया वाचा प्रत्याहूय महाबुधः ।
उवाच विद्वांस्तन्निष्ठां कृपया प्रहसन्निव ॥ ५५॥
ते तु तद्गौरवात्सर्वे त्यक्तक्रीडापरिच्छदाः ।
बाला न दूषितधियो द्वन्द्वारामेरितेहितैः ॥ ५६॥
पर्युपासत राजेन्द्र तन्न्यस्तहृदयेक्षणाः ।
तानाह करुणो मैत्रो महाभागवतोऽसुरः ॥ ५७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
सप्तम स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय
हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! दैत्यों ने भगवान श्रीशुक्राचार्यजी को अपना पुरोहित बनाया था। उनके दो पुत्र थे—शण्ड और अमर्क। वे दोनों राजमहलके पास ही रहकर हिरण्यकशिपु के द्वारा भेजे हुए नीतिनिपुण बालक प्रह्लाद को और दूसरे पढ़ानेयोग्य दैत्य-बालकों को राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे ॥ १-२ ॥ प्रह्लाद गुरुजी का पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का- त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मन से अच्छा नहीं समझते थे। क्योंकि उस पाठ का मूल आधार था अपने और पराये का झूठा आग्रह ॥ ३ ॥ युधिष्ठिर ! एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेम से गोद में लेकर पूछा—‘बेटा ! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है ?’ ॥ ४ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—पिताजी ! संसार के प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रहमें पडक़र सदा ही अत्यन्त उद्विग्र रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अध:पतन के मूल कारण, घास से ढ के हुए अँधेरे कूएँ के समान इस घर को छोडक़र वन में चले जायँ और भगवान श्रीहरि की शरण ग्रहण करें ॥ ५ ॥
नारदजी कहते हैं—प्रह्लादजी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा—‘दूसरों के बहका ने से बच्चों की बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है ॥ ६ ॥ जान पड़ता है गुरुजी के घर पर विष्णु के पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाय, जिससे अब इस की बुद्धि बहक ने न पाये ॥ ७ ॥
जब दैत्यों ने प्रह्लाद को गुरुजी के घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितों ने उन को बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी मधुर वाणी से पूछा ॥ ८ ॥ बेटा प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी ? और किसी बालक की बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई ॥ ९ ॥ कुलनन्दन प्रह्लाद ! बताओ तो बेटा ! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुम को बह का दिया है ? ॥ १० ॥
प्रह्लादजी ने कहा—जिन मनुष्यों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्हीं को भगवान की माया से यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह ‘अपना’ है और यह ‘पराया’। उन मायापति भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥ वे भगवान ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशुबुद्धि के कारण ही तो ‘यह मैं हूँ और यह मुझ से भिन्न है’ इस प्रकार का झूठा भेदभाव पैदा होता है ॥ १२ ॥ वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानीलोग अपने और पराये का भेद करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आपलोगों के शब्दों में मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है ॥ १३ ॥ गुरुजी ! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान की स्वच्छन्द इच्छा शक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है ॥ १४ ॥
नारदजी कहते हैं—परमज्ञानी प्रह्लाद अपने गुरुजी से इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे राजा के सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिडक़ दिया और कहा— ॥ १५ ॥ ‘अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ। यह हमारी कीर्ति में कलङ्क लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलाङ्गार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा ॥ १६ ॥ दैत्यवंश के चन्दनवन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ ? जो विष्णु इस वन की जड़ काट ने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है ॥ १७ ॥ इस प्रकार गुरुजी ने तरह-तरह से डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी शिक्षा दी ॥ १८ ॥ कुछ समय के बाद जब गुरुजी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये। माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने-कपड़ों से सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये ॥ १९ ॥ प्रह्लाद अपने पिता के चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था ॥ २० ॥ युधिष्ठिर ! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगो ने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा ॥ २१ ॥
हिरण्यकशिपु ने कहा—चिरञ्जीव बेटा प्रह्लाद ! इत ने दिनों में तुम ने गुरुजी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ ॥ २२ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—पिताजी ! विष्णुभगवान की भक्ति के नौ भेद हैं—भगवान के गुण-लीला- नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाय, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ ॥ २३-२४ ॥ प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फडक़ ने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा— ॥ २५ ॥ रे नीच ब्राह्मण ! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि ! तू ने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी ? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है ॥ २६ ॥ संसार में ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारणकर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परंतु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करनेवालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है ॥ २७ ॥
गुरुपुत्र ने कहा—इन्द्रशत्रो ! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहका ने से नहीं कह रहा है। राजन् ! यह तो इस की जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये ॥ २८ ॥
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! जब गुरुजी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा—‘क्यों रे ! यदि तुझे ऐसी अहित करनेवाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँ से प्राप्त हुई ?’ ॥ २९ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—पिताजी ! संसार के लोग तो पि से हुए को पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोग ने के लिये संसाररूप घोर नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखा ने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के सङ्ग से भगवान श्रीकृष्ण में नहीं लगती ॥ ३० ॥ जो इन्द्रियों से दीखनेवाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढे में गिर ने के लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सीके—काम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उन को यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान विष्णु ही हैं—उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है ॥ ३१ ॥ जिनकी बुद्धि भगवान के चरणकमलों का स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थ का सर्वथा नाश हो जाता है। परंतु जो लोग अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती ॥ ३२ ॥
प्रह्लादजी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया ॥ ३३ ॥ प्रह्लाद की बात को वह सह न सका। रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कह ने लगा—दैत्यो ! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालनेयोग्य है ॥ ३४ ॥ देखो तो सही—जिस ने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्- स्वजनों को छोडक़र यह नीच दासके समान उसी विष्णु के चरणों की पूजा करता है ! हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारनेवाला विष्णु ही आ गया है ॥ ३५ ॥ अब यह विश्वासके योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिस ने अपने माता-पिता के दुस्त्यज वात्सल्यस्नेह को भुला दिया—वह कृतघ्र भला, विष्णु का ही क्या हित करेगा ॥ ३६ ॥ कोई दूसरा भी यदि औषध के समान भलाई करे तो वह एक प्रकार से पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोग के समान वह शत्रु है। अपने शरीर के ही किसी अङ्ग से सारे शरीर को हानि होती हो तो उस को काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट दे ने से शेष शरीर सुख से जी सकता है ॥ ३७ ॥ यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोगलोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करनेवाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठ ने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो’ ॥ ३८ ॥
जब हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल- लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशोंवाले दैत्य हाथों में त्रिशूल ले-लेकर ‘मारो, काटो’—इस प्रकार बड़े जोर से चिल्ला ने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानों में शूल से घाव कर रहे थे ॥ ३९-४० ॥ उस समय प्रह्लादजी का चित्त उन परमात्मा में लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं ॥ ४१ ॥ युधिष्ठिर ! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शङ् का हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा ॥ ४२ ॥ उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डँसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाडक़ी चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया ॥ ४३ ॥ बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बारी से डलवाया, आँधी में छोड़ दिया तथा पर्वतों के नीचे दबवा दिया; परंतु इनमें से किसी भी उपाय से वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लाद का बाल भी बाँ का न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मार ने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा ॥ ४४ ॥ वह सोच ने लगा—‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा- भला कहा, मार डालने के बहुत- से उपाय किये। परंतु यह मेरे द्रोह और दुव्र्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया ॥ ४५ ॥ यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही नि:शङ्क भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामथ्र्य अवश्य है। जैसे शुन:शेप[1] अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा ॥ ४६ ॥ न तो यह किसी से डरता है और न इस की मृत्यु ही होती है। इस की शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’ ॥ ४७ ॥
इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही— ॥ ४८ ॥ ‘स्वामी ! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करने पर ही सारे लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चों के खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोच ने की कोई बात है ॥ ४९ ॥ जब तक हमारे पिता शुक्राचार्यजी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाय। इसलिये इसे वरुण के पाशों से बाँध रखिये। प्राय: ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है’ ॥ ५० ॥
हिरण्यकशिपु ने ‘अच्छा, ठीक है कहकर गुरु पुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि ‘इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं’ ॥ ५१ ॥ युधिष्ठिर ! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमश: धर्म, अर्थ और काम—इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा दे ने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे ॥ ५२ ॥ परंतु गुरुओं की वह शिक्षा प्रह्लाद को अच्छी न लगी। क्योंकि गुरुजी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और काम की ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगों के लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्व और विषय- भोगों में रस ले रहे हों ॥ ५३ ॥ एक दिन गुरुजी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लादजी को खेल ने के लिये पुकारा ॥ ५४ ॥ प्रह्लादजी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकों को ही बड़ी मधुर वाणी से पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उन पर कृपा करके हँसते हुए- से उन्हें उपदेश करने लगे ॥ ५५ ॥ युधिष्ठिर ! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषयभोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसीसे, और प्रह्लादजी के प्रति आदर-बुद्धि होने से उन सबने अपनी खेल-कूद की सामग्रियों को छोड़ दिया तथा प्रह्लादजी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेश में मन लगाकर बड़े प्रेम से एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान के परम प्रेमी भक्त प्रह्लाद का हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्री के भाव से भर गया तथा वे उनसे कह ने लगे ॥ ५६-५७ ॥
[1] शुन:शेप अजीगर्त का मँझला पुत्र था। उसे पिता ने वरुण के यज्ञ में बलि दे ने के लिये हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के हाथ बेच दिया था। तब उसके मामा विश्वामित्रजी ने उसकी रक्षा की और वह अपने पिता से विरुद्ध होकर उनके विपक्षी विश्वामित्रजी के ही गोत्र में हो गया। यह कथा आगे ‘नवम स्कन्ध’ के सातवें अध्याय में आवेगी।
॥ षष्ठोऽध्यायः - ६ ॥
प्रह्लाद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १॥
यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम् ।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ॥ २॥
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम् ।
सर्वत्र लभ्यते दैवाद्यथा दुःखमयत्नतः ॥ ३॥
तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्ययः परम् ।
न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम् ॥ ४॥
ततो यतेत कुशलः क्षेमाय भयमाश्रितः ।
शरीरं पौरुषं यावन्न विपद्येत पुष्कलम् ॥ ५॥
पुंसो वर्षशतं ह्यायुस्तदर्धं चाजितात्मनः ।
निष्फलं यदसौ रात्र्यां शेतेऽन्धं प्रापितस्तमः ॥ ६॥
मुग्धस्य बाल्ये कौमारे क्रीडतो याति विंशतिः ।
जरया ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशतिः ॥ ७॥
दुरापूरेण कामेन मोहेन च बलीयसा ।
शेषं गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि ॥ ८॥
को गृहेषु पुमान् सक्तमात्मानमजितेन्द्रियः ।
स्नेहपाशैर्दृढैर्बद्धमुत्सहेत विमोचितुम् ॥ ९॥
को न्वर्थतृष्णां विसृजेत्प्राणेभ्योऽपि य ईप्सितः ।
यं क्रीणात्यसुभिः प्रेष्ठैस्तस्करः सेवको वणिक् ॥ १०॥
कथं प्रियाया अनुकम्पितायाः
सङ्गं रहस्यं रुचिरांश्च मन्त्रान् ।
सुहृत्सु तत्स्नेहसितः शिशूनां
कलाक्षराणामनुरक्तचित्तः ॥ ११॥
पुत्रान् स्मरंस्ता दुहितॄर्हृदय्या
भ्रातॄन् स्वसॄर्वा पितरौ च दीनौ ।
गृहान् मनोज्ञोरुपरिच्छदांश्च
वृत्तीश्च कुल्याः पशुभृत्यवर्गान् ॥ १२॥
त्यजेत कोशस्कृदिवेहमानः
कर्माणि लोभादवितृप्तकामः ।
औपस्थ्यजैह्व्यं बहु मन्यमानः
कथं विरज्येत दुरन्तमोहः ॥ १३॥
कुटुम्बपोषाय वियन्निजायुर्न
बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्तः ।
सर्वत्र तापत्रयदुःखितात्मा
निर्विद्यते न स्वकुटुम्बरामः ॥ १४॥
वित्तेषु नित्याभिनिविष्टचेता
विद्वांश्च दोषं परवित्तहर्तुः ।
प्रेत्येह चाथाप्यजितेन्द्रियस्त-
दशान्तकामो हरते कुटुम्बी ॥ १५॥
विद्वानपीत्थं दनुजाः कुटुम्बं
पुष्णन् स्वलोकाय न कल्पते वै ।
यः स्वीयपारक्यविभिन्नभावस्तमः
प्रपद्येत यथा विमूढः ॥ १६॥
यतो न कश्चित्क्व च कुत्रचिद्वा
दीनः स्वमात्मानमलं समर्थः ।
विमोचितुं कामदृशां विहार-
क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्गः ॥ १७॥
ततो विदूरात्परिहृत्य दैत्या
दैत्येषु सङ्गं विषयात्मकेषु ।
उपेत नारायणमादिदेवं
स मुक्तसङ्गैरिषितोऽपवर्गः ॥ १८॥
न ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः ।
आत्मत्वात्सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः ॥ १९॥
परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु ।
भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च ॥ २०॥
गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा ।
एक एव परो ह्यात्मा भगवानीश्वरोऽव्ययः ॥ २१॥
प्रत्यगात्मस्वरूपेण दृश्यरूपेण च स्वयम् ।
व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो ह्यनिर्देश्योऽविकल्पितः ॥ २२॥
केवलानुभवानन्दस्वरूपः परमेश्वरः ।
माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया ॥ २३॥
तस्मात्सर्वेषु भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम् ।
आसुरं भावमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षजः ॥ २४॥
तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः ।
धर्मादयः किमगुणेन च काङ्क्षितेन
सारंजुषां चरणयोरुपगायतां नः ॥ २५॥
धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग
ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता ।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं
स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥ २६॥
ज्ञानं तदेतदमलं दुरवापमाह
नारायणो नरसखः किल नारदाय ।
एकान्तिनां भगवतस्तदकिञ्चनानां
पादारविन्दरजसाऽऽप्लुतदेहिनां स्यात् ॥ २७॥
श्रुतमेतन्मया पूर्वं ज्ञानं विज्ञानसंयुतम् ।
धर्मं भागवतं शुद्धं नारदाद्देवदर्शनात् ॥ २८॥
दैत्यपुत्रा ऊचुः
प्रह्लाद त्वं वयं चापि नर्तेन्यं विद्महे गुरुम् ।
एताभ्यां गुरुपुत्राभ्यां बालानामपि हीश्वरौ ॥ २९॥
बालस्यान्तःपुरस्थस्य महत्सङ्गो दुरन्वयः ।
छिन्धि नः संशयं सौम्य स्याच्चेद्विश्रम्भकारणम् ॥ ३०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
सप्तम स्कन्ध-छठा अध्याय
प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश
प्रह्लादजी ने कहा—मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परंतु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाय; इसलिये बुद्धिमान पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरो से न रहकर बचपन में ही भगवान की प्राप्ति करानेवाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये ॥ १ ॥ इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान समस्त प्राणियों के स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं ॥ २ ॥ भाइयो ! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो—जीव चाहे जिस योनि में रहे—प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करने पर भी दु:ख मिलता है ॥ ३ ॥ इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलनेवाली वस्तु के लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान के परम कल्याण- स्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती ॥ ४ ॥ हमारे सिर पर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर—जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है—जब तक रोग-शोकादिग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान पुरुष को अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये ॥ ५ ॥ मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्हों ने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण—अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं ॥ ६ ॥ बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूद में लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने-धर ने की शक्ति ही नहीं रह जाती ॥ ७ ॥ रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होनेवाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखनेवाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है ॥ ८ ॥
दैत्यबाल को ! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँ से हुए अपने-आपको उससे छुड़ा ने का साहस कर सके ॥ ९ ॥ जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वाञ्छनीय है—उस धन की तृष्णा को भला, कौन त्याग सकता है ॥ १० ॥ जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेमभरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चु का है, भाई-बन्धु और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चु का है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चु का है—भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ ११ ॥ जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीवि का के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ १२ ॥ जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मोह की कोई सीमा नहीं है—वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है ॥ १३ ॥ यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परंतु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है ! कुटुम्ब की ममता के फेर में पडक़र वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धन के चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुरा ने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सक ने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है ॥ १४-१५ ॥ भाइयो ! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता है—कभी भगवद्भजन नहीं करता—वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तम:प्रधान गति प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ जो कामिनियों के मनोरञ्जन का सामान—उनका क्रीडामृग बन रहा है और जिस ने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब—चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो—किसी भी प्रकार से अपना उद्धार नहीं कर सकता ॥ १७ ॥ इसलिये, भाइयो ! तुमलोग विषयासक्त दैत्यों का सङ्ग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान नारायण की शरण ग्रहण करो ! क्योंकि जिन्हों ने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं ॥ १८ ॥
मित्रो ! भगवान को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सब की सत्ता के रूप में स्वयंसिद्ध वस्तु हैं ॥ १९ ॥ ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोटे-बड़े समस्त प्राणियों में, पञ्चभूतों से बनी हुई वस्तुओं में, पञ्चभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं ॥ २०-२१ ॥ वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत के रूप में भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर भी द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुत: उनमें एक भी विकल्प नहीं है ॥ २२ ॥ वे केवल अनुभव स्वरूप, आनन्द स्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करनेवाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं ॥ २३ ॥ इसलिये तुमलोग अपने दैत्यपनेका, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेम से उनकी भलाई करो। इसीसे भगवान प्रसन्न होते हैं ॥ २४ ॥ आदिनारायण अनन्त भगवान के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती ? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती है—वे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयासके स्वयं ही मिलनेवाले हैं। जब हम श्रीभगवान के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है ॥ २५ ॥ यों शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है। आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीवि का के विविध साधन—ये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ॥ २६ ॥ यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगों को बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर- नारायण ने नारदजी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्हों ने भगवान के अनन्यप्रेमी एवं अकिञ्चन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है ॥ २७ ॥ यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है। इसे मैंने भगवान का दर्शन करानेवाले देवर्षि नारदजी के मुँह से ही पहले-पहल सुना था ॥ २८ ॥
प्रह्लादजी के सहपाठियों ने पूछा—प्रह्लादजी ! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोडक़र और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम। ये ही हम सब बालकों के शासक हैं ॥ २९ ॥ तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो। तुम्हारा महात्मा नारदजी से मिलना कुछ असङ्गत-सा जान पड़ता है। प्रियवर ! यदि इस विषय में विश्वास दिलानेवाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शङ् का मिटा दो ॥ ३० ॥
॥ सप्तमोऽध्यायः - ७ ॥
नारद उवाच
एवं दैत्यसुतैः पृष्टो महाभागवतोऽसुरः ।
उवाच स्मयमानस्तान् स्मरन् मदनुभाषितम् ॥ १॥
प्रह्लाद उवाच
पितरि प्रस्थितेऽस्माकं तपसे मन्दराचलम् ।
युद्धोद्यमं परं चक्रुर्विबुधा दानवान् प्रति ॥ २॥
पिपीलिकैरहिरिव दिष्ट्या लोकोपतापनः ।
पापेन पापोऽभक्षीति वादिनो वासवादयः ॥ ३॥
तेषामतिबलोद्योगं निशम्यासुरयूथपाः ।
वध्यमानाः सुरैर्भीता दुद्रुवुः सर्वतो दिशम् ॥ ४॥
कलत्रपुत्रमित्राप्तान् गृहान् पशुपरिच्छदान् ।
नावेक्ष्यमाणास्त्वरिताः सर्वे प्राणपरीप्सवः ॥ ५॥
व्यलुम्पन् राजशिबिरममरा जयकाङ्क्षिणः ।
इन्द्रस्तु राजमहिषीं मातरं मम चाग्रहीत् ॥ ६॥
नीयमानां भयोद्विग्नां रुदतीं कुररीमिव ।
यदृच्छयाऽऽगतस्तत्र देवर्षिर्ददृशे पथि ॥ ७॥
प्राह मैनां सुरपते नेतुमर्हस्यनागसम् ।
मुञ्च मुञ्च महाभाग सतीं परपरिग्रहम् ॥ ८॥
इन्द्र उवाच
आस्तेऽस्या जठरे वीर्यमविषह्यं सुरद्विषः ।
आस्यतां यावत्प्रसवं मोक्ष्येऽर्थपदवीं गतः ॥ ९॥
नारद उवाच
अयं निष्किल्बिषः साक्षान्महाभागवतो महान् ।
त्वया न प्राप्स्यते संस्थामनन्तानुचरो बली ॥ १०॥
इत्युक्तस्तां विहायेन्द्रो देवर्षेर्मानयन् वचः ।
अनन्तप्रियभक्त्यैनां परिक्रम्य दिवं ययौ ॥ ११॥
ततो नो मातरमृषिः समानीय निजाश्रमम् ।
आश्वास्येहोष्यतां वत्से यावत्ते भर्तुरागमः ॥ १२॥
तथेत्यवात्सीद्देवर्षेरन्ति साप्यकुतोभया ।
यावद्दैत्यपतिर्घोरात्तपसो न न्यवर्तत ॥ १३॥
ऋषिं पर्यचरत्तत्र भक्त्या परमया सती ।
अन्तर्वर्त्नी स्वगर्भस्य क्षेमायेच्छाप्रसूतये ॥ १४॥
ऋषिः कारुणिकस्तस्याः प्रादादुभयमीश्वरः ।
धर्मस्य तत्त्वं ज्ञानं च मामप्युद्दिश्य निर्मलम् ॥ १५॥
तत्तु कालस्य दीर्घत्वात्स्त्रीत्वान्मातुस्तिरोदधे ।
ऋषिणानुगृहीतं मां नाधुनाप्यजहात्स्मृतिः ॥ १६॥
भवतामपि भूयान्मे यदि श्रद्दधते वचः ।
वैशारदी धीः श्रद्धातः स्त्रीबालानां च मे यथा ॥ १७॥
जन्माद्याः षडिमे भावा दृष्टा देहस्य नात्मनः ।
फलानामिव वृक्षस्य कालेनेश्वरमूर्तिना ॥ १८॥
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्ध एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः ।
अविक्रियः स्वदृग् हेतुर्व्यापकोऽसङ्ग्यनावृतः ॥ १९॥
एतैर्द्वादशभिर्विद्वानात्मनो लक्षणैः परैः ।
अहं ममेत्यसद्भावं देहादौ मोहजं त्यजेत् ॥ २०॥
स्वर्णं यथा ग्रावसु हेमकारः
क्षेत्रेषु योगैस्तदभिज्ञ आप्नुयात् ।
क्षेत्रेषु देहेषु तथात्मयोगै-
रध्यात्मविद्ब्रह्मगतिं लभेत ॥ २१॥
अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्तास्त्रय एव हि तद्गुणाः ।
विकाराः षोडशाचार्यैः पुमानेकः समन्वयात् ॥ २२॥
देहस्तु सर्वसङ्घातो जगत्तस्थुरिति द्विधा ।
अत्रैव मृग्यः पुरुषो नेति नेतीत्यतत्त्यजन् ॥ २३॥
अन्वयव्यतिरेकेण विवेकेनोशतात्मना ।
सर्गस्थानसमाम्नायैर्विमृशद्भिरसत्वरैः ॥ २४॥
बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति वृत्तयः ।
ता येनैवानुभूयन्ते सोऽध्यक्षः पुरुषः परः ॥ २५॥
एभिस्त्रिवर्णैः पर्यस्तैर्बुद्धिभेदैः क्रियोद्भवैः ।
स्वरूपमात्मनो बुध्येद्गन्धैर्वायुमिवान्वयात् ॥ २६॥
एतद्द्वारो हि संसारो गुणकर्मनिबन्धनः ।
अज्ञानमूलोऽपार्थोऽपि पुंसः स्वप्न इवेष्यते ॥ २७॥
तस्माद्भवद्भिः कर्तव्यं कर्मणां त्रिगुणात्मनाम् ।
बीजनिर्हरणं योगः प्रवाहोपरमो धियः ॥ २८॥
तत्रोपायसहस्राणामयं भगवतोदितः ।
यदीश्वरे भगवति यथा यैरञ्जसा रतिः ॥ २९॥
गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च ।
सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ॥ ३०॥
श्रद्धया तत्कथायां च कीर्तनैर्गुणकर्मणाम् ।
तत्पादाम्बुरुहध्यानात्तल्लिङ्गेक्षार्हणादिभिः ॥ ३१॥
हरिः सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वरः ।
इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मानयेत् ॥ ३२॥
एवं निर्जितषड्वर्गैः क्रियते भक्तिरीश्वरे ।
वासुदेवे भगवति यया संलभते रतिम् ॥ ३३॥
निशम्य कर्माणि गुणानतुल्यान्
वीर्याणि लीलातनुभिः कृतानि ।
यदातिहर्षोत्पुलकाश्रुगद्गदं
प्रोत्कण्ठ उद्गायति रौति नृत्यति ॥ ३४॥
यदा ग्रहग्रस्त इव क्वचिद्धस-
त्याक्रन्दते ध्यायति वन्दते जनम् ।
मुहुः श्वसन् वक्ति हरे जगत्पते
नारायणेत्यात्ममतिर्गतत्रपः ॥ ३५॥
तदा पुमान् मुक्तसमस्तबन्धन-
स्तद्भावभावानुकृताशयाकृतिः ।
निर्दग्धबीजानुशयो महीयसा
भक्तिप्रयोगेण समेत्यधोक्षजम् ॥ ३६॥
अधोक्षजालम्भमिहाशुभात्मनः
शरीरिणः संसृतिचक्रशातनम् ।
तद्ब्रह्मनिर्वाणसुखं विदुर्बुधास्ततो
भजध्वं हृदये हृदीश्वरम् ॥ ३७॥
कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरेरुपासने
स्वे हृदि छिद्रवत्सतः ।
स्वस्यात्मनः सख्युरशेषदेहिनां
सामान्यतः किं विषयोपपादनैः ॥ ३८॥
रायः कलत्रं पशवः सुतादयो
गृहा मही कुञ्जरकोशभूतयः ।
सर्वेऽर्थकामाः क्षणभङ्गुरायुषः
कुर्वन्ति मर्त्यस्य कियत्प्रियं चलाः ॥ ३९॥
एवं हि लोकाः क्रतुभिः कृता अमी
क्षयिष्णवः सातिशया न निर्मलाः ।
तस्माददृष्टश्रुतदूषणं परं
भक्त्यैकयेशं भजतात्मलब्धये ॥ ४०॥
यदध्यर्थ्येह कर्माणि विद्वन्मान्यसकृन्नरः ।
करोत्यतो विपर्यासममोघं विन्दते फलम् ॥ ४१॥
सुखाय दुःखमोक्षाय सङ्कल्प इह कर्मिणः ।
सदाऽऽप्नोतीहया दुःखमनीहायाः सुखावृतः ॥ ४२॥
कामान् कामयते काम्यैर्यदर्थमिह पूरुषः ।
स वै देहस्तु पारक्यो भङ्गुरो यात्युपैति च ॥ ४३॥
किमु व्यवहितापत्यदारागारधनादयः ।
राज्यकोशगजामात्यभृत्याप्ता ममतास्पदाः ॥ ४४॥
किमेतैरात्मनस्तुच्छैः सह देहेन नश्वरैः ।
अनर्थैरर्थसङ्काशैर्नित्यानन्दमहोदधेः ॥ ४५॥
निरूप्यतामिह स्वार्थः कियान् देहभृतोऽसुराः ।
निषेकादिष्ववस्थासु क्लिश्यमानस्य कर्मभिः ॥ ४६॥
कर्माण्यारभते देही देहेनात्मानुवर्तिना ।
कर्मभिस्तनुते देहमुभयं त्वविवेकतः ॥ ४७॥
तस्मादर्थाश्च कामाश्च धर्माश्च यदपाश्रयाः ।
भजतानीहयाऽऽत्मानमनीहं हरिमीश्वरम् ॥ ४८॥
सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मेश्वरः प्रियः ।
भूतैर्महद्भिः स्वकृतैः कृतानां जीवसंज्ञितः ॥ ४९॥
देवोऽसुरो मनुष्यो वा यक्षो गन्धर्व एव च ।
भजन् मुकुन्दचरणं स्वस्तिमान् स्याद्यथा वयम् ॥ ५०॥
नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजाः ।
प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥ ५१॥
न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च ।
प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद्विडम्बनम् ॥ ५२॥
ततो हरौ भगवति भक्तिं कुरुत दानवाः ।
आत्मौपम्येन सर्वत्र सर्वभूतात्मनीश्वरे ॥ ५३॥
दैतेया यक्षरक्षांसि स्त्रियः शूद्रा व्रजौकसः ।
खगा मृगाः पापजीवाः सन्ति ह्यच्युततां गताः ॥ ५४॥
एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः ।
एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम् ॥ ५५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादावुचरिते दैत्यपुत्रानुशासनं नाम
सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥
सप्तम स्कन्ध-सातवाँ अध्याय
प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारदजी के उपदेश का वर्णन
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! जब दैत्यबालकों ने इस प्रकार प्रश्र किया, तब भगवान के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजी को मेरी बात का स्मरण हो आया। कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा ॥ १ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—जब हमारे पिताजी तपस्या करने के लिये मन्दराचल पर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया ॥ २ ॥ वे इस प्रकार कह ने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सतानेवाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया ॥ ३ ॥ जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा। वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामान की कुछ भी चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचा ने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये ॥ ४-५ ॥ अपनी जीत चाहनेवाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँ तक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधू को भी बन्दी बना लिया ॥ ६ ॥ मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे। दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी मा को देख लिया ॥ ७ ॥ उन्होंने कहा—‘देवराज ! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं। महाभाग ! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो !’ ॥ ८ ॥
इन्द्र ने कहा—इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है। प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जाने पर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा ॥ ९ ॥
नारदजी ने कहा—‘इसके गर्भ में भगवान का साक्षात परम प्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुम में उस को मार ने की शक्ति नहीं है’ ॥ १० ॥ देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया। और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये ॥ ११ ॥
इसके बाद देवर्षि नारदजी मेरी माता को अपने आश्रम पर लिवा गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि—‘बेटी ! जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहीं रहो’ ॥ १२ ॥ ‘जो आज्ञा’ कहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रम पर ही रहने लगी और तब तक रही, जब तक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये ॥ १३ ॥ मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मङ्गलकामना से और इच्छित समय पर (अर्थात् मेरे पिता के लौट ने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारदजी की सेवा-शुश्रूषा करती रही ॥ १४ ॥
देवर्षि नारदजी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवतधर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञान—दोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझ पर भी थी ॥ १५ ॥ बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परंतु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई ॥ १६ ॥ यदि तुमलोग मेरी इस बात पर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे ही समान शुद्ध हो सकती है ॥ १७ ॥ जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते, ठहरते, बढ़ते, पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं—वैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश—ये छ: भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं, आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है ॥ १८ ॥ आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं-प्रकाश, सब का कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरणरहित है ॥ १९ ॥ ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जाननेवाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे’ का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे ॥ २० ॥ जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकाल ने की विधि जाननेवाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जाननेवाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्मपद का साक्षातकार कर लेता है ॥ २१ ॥
आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ—इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह—दस इन्द्रियाँ, एक मन और पञ्चमहाभूत। इन सब में एक पुरुषतत्त्व अनुगत है ॥ २२ ॥ इन सब का समुदाय ही देह है। यह दो प्रकार का है—स्थावर और जङ्गम। इसी में अन्त:करण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का ‘यह आत्मा नहीं है’—इस प्रकार बाध करते हुए आत्मा को ढूँढऩा चाहिये ॥ २३ ॥ आत्मा सब में अनुगत है, परंतु है वह सब से पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलय पर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये ॥ २४ ॥ जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। इन वृत्तियों का जिसके द्वारा अनुभव होता है—वही सब से अतीत, सब का साक्षी परमात्मा है ॥ २५ ॥ जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलनेवाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने ॥ २६ ॥ गुणों और कर्मों के कारण होनेवाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है। फिर भी स्वप्न के समान जीव को इस की प्रतीति हो रही है ॥ २७ ॥
इसलिये तुमलोगों को सब से पहले इन गुणों के अनुसार होनेवाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये। इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं ॥ २८ ॥ यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंक ने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर दे ने के लिये सहस्रों साधन हैं; परंतु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाय, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान ने कही है ॥ २९ ॥ गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान- को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्सङ्ग, भगवान की आराधना, उनकी कथा- वार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर- मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ॥ ३०-३१ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं—ऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे ॥ ३२ ॥ काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर—इन छ: शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है ॥ ३३ ॥
जब भगवान के लीलाशरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह सङ् कोच छोडक़र जोर-जोर से गाने-चिल्ला ने और नाच ने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और सङ् कोच छोडक़र ‘हरे ! जगतपते !! नारायण’ !!! कहकर पुकार ने लगता है—तब भक्तियोग के महान प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार—भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान को प्राप्त कर लेता है ॥ ३४—३६ ॥ इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जानेवाले जीव के लिये भगवान की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देनेवाली है। इसी वस्तु को कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूप में पहचानते हैं। इसलिये मित्रो ! तुमलोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान का भजन करो ॥ ३७ ॥ असुरकुमारो ! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समानरूप से समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं। उन को छोडक़र भोगसामग्री इक_ी करने के लिये भटकना—राम ! राम ! कितनी मूर्खता है ॥ ३८ ॥ अरे भाई ! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ—और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोगसामग्रियाँ इस क्षणभङ्गुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभङ्गुर हैं ॥ ३९ ॥ जैसे इस लोक की सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञों से प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक—एक-दूसरे से छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष है केवल परमात्मा। न किसी ने उनमें दोष देखा है और न सुना है। अत: परमात्मा की प्राप्ति के लिये अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिये ॥ ४० ॥
इसके सिवा अपने को बड़ा विद्वान् माननेवाला पुरुष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार बहुत- से कर्म करता है, उस उद्देश्य की प्राप्ति तो दूर रही—उलटा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सन्देह मिलता है ॥ ४१ ॥ कर्म में प्रवृत्त होने के दो ही उद्देश्य होते हैं—सुख पाना और दु:ख से छूटना। परंतु जो पहले कामना न होने के कारण सुख में निमग्र रहता था, उसे ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दु:ख ही भोगना पड़ता है ॥ ४२ ॥ मनुष्य इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया—स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान् है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है ॥ ४३ ॥ जब शरीर की ही यह दशा है—तब इससे अलग रहनेवाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी- घोड़े, मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलानेवालों की तो बात ही क्या है ॥ ४४ ॥ ये तुच्छ विषय शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थ के समान, परंतु हैं वास्तव में अनर्थरूप ही। आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्द का महान समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता है ? ॥ ४५ ॥ भाइयो ! तनिक विचार तो करो—जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगता है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है ॥ ४६ ॥ यह जीव सूक्ष्मशरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण ॥ ४७ ॥ इसलिये निष्काम भाव से निष्ङ्क्षक्रय आत्म स्वरूप भगवान श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम—सब उन्हींके आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते ॥ ४८ ॥ भगवान श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पञ्चभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं ॥ ४९ ॥ देवता, दैत्य, मनुष्य यक्ष अथवा गन्धर्व— कोई भी क्यों न हो—जो भगवान के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है ॥ ५० ॥
दैत्यबाल को ! भगवान को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बनामात्र हैं ॥ ५१-५२ ॥ इसलिये दानव-बन्धुओ ! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान की भक्ति करो ॥ ५३ ॥ भगवान की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गोपालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत- से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं ॥ ५४ ॥ इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सब से बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओं में भगवान का दर्शन ॥ ५५ ॥
॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥
नारद उवाच
अथ दैत्यसुताः सर्वे श्रुत्वा तदनुवर्णितम् ।
जगृहुर्निरवद्यत्वान्नैव गुर्वनुशिक्षितम् ॥ १॥
अथाचार्यसुतस्तेषां बुद्धिमेकान्तसंस्थिताम् ।
आलक्ष्य भीतस्त्वरितो राज्ञ आवेदयद्यथा ॥ २॥
श्रुत्वा तदप्रियं दैत्यो दुःसहं तनयानयम् ।
कोपावेशचलद्गात्रः पुत्रं हन्तुं मनो दधे ॥ ३॥
क्षिप्त्वा परुषया वाचा प्रह्लादमतदर्हणम् ।
आहेक्षमाणः पापेन तिरश्चीनेन चक्षुषा ॥ ४॥
प्रश्रयावनतं दान्तं बद्धाञ्जलिमवस्थितम् ।
सर्पः पदाहत इव श्वसन् प्रकृतिदारुणः ॥ ५॥
हे दुर्विनीत मन्दात्मन् कुलभेदकराधम ।
स्तब्धं मच्छासनोद्धूतं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम् ॥ ६॥
क्रुद्धस्य यस्य कम्पन्ते त्रयो लोकाः सहेश्वराः ।
तस्य मेऽभीतवन्मूढ शासनं किं बलोऽत्यगाः ॥ ७॥
प्रह्लाद उवाच
न केवलं मे भवतश्च राजन्
स वै बलं बलिनां चापरेषाम् ।
परेऽवरेऽमी स्थिरजङ्गमा ये
ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः ॥ ८॥
स ईश्वरः काल उरुक्रमोऽसा-
वोजःसहःसत्त्वबलेन्द्रियात्मा ।
स एव विश्वं परमः स्वशक्तिभिः
सृजत्यवत्यत्ति गुणत्रयेशः ॥ ९॥
जह्यासुरं भावमिमं त्वमात्मनः
समं मनो धत्स्व न सन्ति विद्विषः ।
ऋतेऽजितादात्मन उत्पथस्थिता-
त्तद्धि ह्यनन्तस्य महत्समर्हणम् ॥ १०॥
दस्यून् पुरा षण् न विजित्य लुम्पतो
मन्यन्त एके स्वजिता दिशो दश ।
जितात्मनो ज्ञस्य समस्य देहिनां
साधोः स्वमोहप्रभवाः कुतः परे ॥ ११॥
हिरण्यकशिपुरुवाच
व्यक्तं त्वं मर्तुकामोऽसि योऽतिमात्रं विकत्थसे ।
मुमूर्षूणां हि मन्दात्मन् ननु स्युर्विप्लवा गिरः ॥ १२॥
यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः ।
क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात्स्तम्भे न दृश्यते ॥ १३॥
सोऽहं विकत्थमानस्य शिरः कायाद्धरामि ते ।
गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ॥ १४॥
एवं दुरुक्तैर्मुहुरर्दयन् रुषा
सुतं महाभागवतं महासुरः ।
खड्गं प्रगृह्योत्पतितो वरासना-
त्स्तम्भं तताडातिबलः स्वमुष्टिना ॥ १५॥
तदैव तस्मिन्निनदोऽतिभीषणो
बभूव येनाण्डकटाहमस्फुटत् ।
यं वै स्वधिष्ण्योपगतं त्वजादयः
श्रुत्वा स्वधामात्ययमङ्ग मेनिरे ॥ १६॥
स विक्रमन् पुत्रवधेप्सुरोजसा
निशम्य निर्ह्रादमपूर्वमद्भुतम् ।
अन्तःसभायां न ददर्श तत्पदं
वितत्रसुर्येन सुरारियूथपाः ॥ १७॥
सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः ।
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ॥ १८॥ सगोन
स सत्त्वमेनं परितोऽपि पश्यन्
स्तम्भस्य मध्यादनु निर्जिहानम् ।
नायं मृगो नापि नरो विचित्रमहो
किमेतन्नृमृगेन्द्ररूपम् ॥ १९॥
मीमांसमानस्य समुत्थितोऽग्रतो
नृसिंहरूपस्तदलं भयानकम् ।
प्रतप्तचामीकरचण्डलोचनं
स्फुरत्सटाकेसरजृम्भिताननम् ॥ २०॥
करालदंष्ट्रं करवालचञ्चल-
क्षुरान्तजिह्वं भ्रुकुटीमुखोल्बणम् ।
स्तब्धोर्ध्वकर्णं गिरिकन्दराद्भुत-
व्यात्तास्यनासं हनुभेदभीषणम् ॥ २१॥
दिविस्पृशत्कायमदीर्घपीवर-
ग्रीवोरुवक्षःस्थलमल्पमध्यमम् ।
चन्द्रांशुगौरैश्छुरितं तनूरुहै-
र्विष्वग्भुजानीकशतं नखायुधम् ॥ २२॥
दुरासदं सर्वनिजेतरायुध-
प्रवेकविद्रावितदैत्यदानवम् ।
प्रायेण मेऽयं हरिणोरुमायिना
वधः स्मृतोऽनेन समुद्यतेन किम् ॥ २३॥
एवं ब्रुवंस्त्वभ्यपतद्गदायुधो
नदन् नृसिंहं प्रति दैत्यकुञ्जरः ।
अलक्षितोऽग्नौ पतितः पतङ्गमो
यथा नृसिंहौजसि सोऽसुरस्तदा ॥ २४॥
न तद्विचित्रं खलु सत्त्वधामनि
स्वतेजसा यो नु पुरापिबत्तमः ।
ततोऽभिपद्याभ्यहनन्महासुरो
रुषा नृसिंहं गदयोरुवेगया ॥ २५॥
तं विक्रमन्तं सगदं गदाधरो
महोरगं तार्क्ष्यसुतो यथाग्रहीत् ।
स तस्य हस्तोत्कलितस्तदासुरो
विक्रीडतो यद्वदहिर्गरुत्मतः ॥ २६॥
असाध्वमन्यन्त हृतौकसोऽमरा
घनच्छदा भारत सर्वधिष्ण्यपाः ।
तं मन्यमानो निजवीर्यशङ्कितं
यद्धस्तमुक्तो नृहरिं महासुरः ।
पुनस्तमासज्जत खड्गचर्मणी
प्रगृह्य वेगेन जितश्रमो मृधे ॥ २७॥
तं श्येनवेगं शतचन्द्रवर्त्मभि-
श्चरन्तमच्छिद्रमुपर्यधो हरिः ।
कृत्वाट्टहासं खरमुत्स्वनोल्बणं
निमीलिताक्षं जगृहे महाजवः ॥ २८॥
विष्वक्स्फुरन्तं ग्रहणातुरं हरिर्व्यालो
यथाऽऽखुं कुलिशाक्षतत्वचम् ।
द्वार्यूर आपात्य ददार लीलया
नखैर्यथाहिं गरुडो महाविषम् ॥ २९॥
संरम्भदुष्प्रेक्ष्यकराललोचनो
व्यात्ताननान्तं विलिहन् स्वजिह्वया ।
असृग्लवाक्तारुणकेसराननो
यथान्त्रमाली द्विपहत्यया हरिः ॥ ३०॥
नखाङ्कुरोत्पाटितहृत्सरोरुहं
विसृज्य तस्यानुचरानुदायुधान् ।
अहन् समन्तान्नखशस्त्रपार्ष्णिभि-
र्दोर्दण्डयूथोऽनुपथान् सहस्रशः ॥ ३१॥
सटावधूता जलदाः परापतन्
ग्रहाश्च तद्दृष्टिविमुष्टरोचिषः ।
अम्भोधयः श्वासहता विचुक्षुभु-
र्निर्ह्रादभीता दिगिभा विचुक्रुशुः ॥ ३२॥
द्यौस्तत्सटोत्क्षिप्तविमानसङ्कुला
प्रोत्सर्पत क्ष्मा च पदाभिपीडिता ।
शैलाः समुत्पेतुरमुष्य रंहसा
तत्तेजसा खं ककुभो न रेजिरे ॥ ३३॥
ततः सभायामुपविष्टमुत्तमे
नृपासने सम्भृततेजसं विभुम् ।
अलक्षितद्वैरथमत्यमर्षणं
प्रचण्डवक्त्रं न बभाज कश्चन ॥ ३४॥
निशाम्य लोकत्रयमस्तकज्वरं
तमादिदैत्यं हरिणा हतं मृधे ।
प्रहर्षवेगोत्कलितानना मुहुः
प्रसूनवर्षैर्ववृषुः सुरस्त्रियः ॥ ३५॥
तदा विमानावलिभिर्नभस्तलं
दिदृक्षतां सङ्कुलमास नाकिनाम् ।
सुरानका दुन्दुभयोऽथ जघ्निरे
गन्धर्वमुख्या ननृतुर्जगुः स्त्रियः ॥ ३६॥
तत्रोपव्रज्य विबुधा ब्रह्मेन्द्रगिरिशादयः ।
ऋषयः पितरः सिद्धा विद्याधरमहोरगाः ॥ ३७॥
मनवः प्रजानां पतयो गन्धर्वाप्सरचारणाः ।
यक्षाः किम्पुरुषास्तात वेतालाः सिद्धकिन्नराः ॥ ३८॥
ते विष्णुपार्षदाः सर्वे सुनन्दकुमुदादयः ।
मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिपुटा आसीनं तीव्रतेजसम् ।
ईडिरे नरशार्दुलं नातिदूरचराः पृथक् ॥ ३९॥
ब्रह्मोवाच
नतोऽस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तये
विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे ।
विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान् गुणैः
स्वलीलया सन्दधतेऽव्ययात्मने ॥ ४०॥
श्रीरुद्र उवाच
कोपकालो युगान्तस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः ।
तत्सुतं पाह्युपसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल ॥ ४१॥
इन्द्र उवाच
प्रत्यानीताः परम भवता त्रायता नः स्वभागा
दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं त्वद्गृहं प्रत्यबोधि ।
कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते
मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ॥ ४२॥
ऋषय ऊचुः
त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो
येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्ज ।
तद्विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल
रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ॥ ४३॥
पितर ऊचुः
श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजैर्दत्तानि
तीर्थसमयेऽप्यपिबत्तिलाम्बु ।
तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य आर्च्छत्तस्मै
नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ॥ ४४॥
सिद्धा ऊचुः
यो नो गतिं योगसिद्धामसाधु-
रहार्षीद्योगतपोबलेन ।
नानादर्पं तं नखैर्निर्ददार
तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ॥ ४५॥
विद्याधरा ऊचुः
विद्यां पृथग्धारणयानुराद्धां
न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः ।
स येन सङ्ख्ये पशुवद्धतस्तं
मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ॥ ४६॥
नागा ऊचुः
येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः ।
तद्वक्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोस्तु ते ॥ ४७॥
मनव ऊचुः
मनवो वयं तव निदेशकारिणो
दितिजेन देव परिभूतसेतवः ।
भवता खलः स उपसंहृतः प्रभो
करवाम ते किमनुशाधि किङ्करान् ॥ ४८॥
प्रजापतय ऊचुः
प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा
न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः ।
स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते
जगन्मङ्गलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ॥ ४९॥
गन्धर्वा ऊचुः
वयं विभो ते नटनाट्यगायका
येनात्मसाद्वीर्यबलौजसा कृताः ।
स एष नीतो भवता दशामिमां
किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ॥ ५०॥
चारणा ऊचुः
हरे तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः ।
यदेष साधुहृच्छयस्त्वयासुरः समापितः ॥ ५१॥
यक्षा ऊचुः
वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञैस्त
इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम् ,
स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते
नरहर उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ॥ ५२।
किम्पुरुषा ऊचुः
वयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः ।
अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ॥ ५३॥
वैतालिका ऊचुः
सभासु सत्रेषु तवामलं यशो
गीत्वा सपर्यां महतीं लभामहे ।
यस्तां व्यनैषीद्भृशमेष दुर्जनो
दिष्ट्या हतस्ते भगवन् यथाऽऽमयः ॥ ५४॥
किन्नरा ऊचुः
वयमीश किन्नरगणास्तवानुगा
दितिजेन विष्टिममुनानुकारिताः ।
भवता हरे स वृजिनोऽवसादितो
नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ॥ ५५॥
विष्णुपार्षदा ऊचुः
अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं ते
दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म ।
सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्तस्तस्येदं
निधनमनुग्रहाय विद्मः ॥ ५६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते दैत्यराजवधे न्Qअसिंहस्तवो
नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
सप्तम स्कन्ध-आठवाँ अध्याय
नृसिंहभगवान का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति
नारदजी कहते हैं—प्रह्लादजी का प्रवचन सुनकर दैत्यबालकों ने उसी समय से निर्दोष होने के कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरुजी की दूषित शिक्षा की ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया ॥ १ ॥ जब गुरुजी ने देखा कि उन सभी विद्यार्थियों की बुद्धि एकमात्र भगवान में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के पास जाकर निवेदन किया ॥ २ ॥ अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँप ने लगा। अन्त में उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लाद को अब अपने ही हाथ से मार डालना चाहिये ॥ ३ ॥
मन और इन्द्रियों को वश में रखनेवाले प्रह्लादजी बड़ी नम्रता से हाथ जोडक़र चुपचाप हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कार के सर्वथा अयोग्य थे। परंतु हिरण्यकशिपु स्वभाव से ही क्रूर था। वह पैर की चोट खाये हुए साँप की तरह फुफकार ने लगा। उसने उनकी ओर पापभरी टेढ़ी नजर से देखा और कठोर वाणी से डाँटते हुए कहा— ॥ ४-५ ॥ ‘मूर्ख ! तू बड़ा उद्दण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुल के और बालकों को भी फोडऩा चाहता है ! तू ने बड़ी ढिठाई से मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। आज ही तुझे यमराज के घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ ॥ ६ ॥ मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ, तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तू ने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?’ ॥ ७ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—दैत्यराज ! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोटे-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान ने ही अपने वश में कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं ॥ ८ ॥ वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियों के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं ॥ ९ ॥ आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मन को सब के प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहनेवाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मन में सब के प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की सब से बड़ी पूजा है ॥ १० ॥ जो लोग अपना सर्वस्व लूटनेवाले इन छ: इन्द्रियरूपी डाकुओं पर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मान ने लगते हैं कि हम ने दसों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्माने समस्त प्राणियों के प्रति समता का भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञान से पैदा होनेवाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहर के शत्रु तो रहें ही कैसे ॥ ११ ॥
हिरण्यकशिपु ने कहा—रे मन्दबुद्धि ! तेरे बहक ने की भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैर की बातें ब का करते हैं ॥ १२ ॥ अभागे ! तू ने मेरे सिवा जो और किसीको जगत का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है ? तो इस खंभे में क्यों नहीं दीखता ? ॥ १३ ॥ अच्छा, तुझे इस खंभे में भी दिखायी देता है ! अरे, तू क्यों इतनी डींग हाँक रहा है ? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा वह सर्वस्व हरि, जिस पर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है ॥ १४ ॥ इस प्रकार वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान के परम प्रेमी प्रह्लाद को बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोध के मारे वह अपने को रोक न सका, तब हाथ में खड्ग लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा ॥ १५ ॥ उसी समय उस खंभे में एक बड़ा भयङ्कर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकों का प्रलय हो रहा हो ॥ १६ ॥ हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े जोर से झपटा था; परंतु दैत्यसेनापतियों को भी भय से कँपा देनेवाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करनेवाला कौन है। परंतु उसे सभा के भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा ॥ १७ ॥
इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मा की वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखा ने के लिये सभा के भीतर उसी खंभे में बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का ही था और न मनुष्य का ही ॥ १८ ॥ जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करनेवाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा। वह सोच ने लगा—अहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है ! ॥ १९ ॥ जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंहभगवान खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सो ने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेने से गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे ॥ २० ॥ दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊ पर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासि का और खुला हुआ मुँह पहाडक़ी गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ों से उसकी भयङ्करता बहुत बढ़ गयी थी ॥ २१ ॥ विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमा की किरणों के समान सफेद रोएँ सारे शरीर पर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुध का काम देते थे ॥ २२ ॥ उनके पास फटकने तक का साहस किसीको न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रों के द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवों को भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोच ने लगा— हो-न-हो महामायावी विष्णु ने ही मुझे मार डालने के लिये यह ढंग रचा है; परंतु इस की इन चालों से हो ही क्या सकता है ॥ २३ ॥
इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथ में गदा लेकर नृसिंह- भगवान पर टूट पड़ा। परंतु जैसे पतिंगा आग में गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान के तेज के भीतर जाकर लापता हो गया ॥ २४ ॥ समस्त शक्ति और तेज के आश्रय भगवान के सम्बन्ध में ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में उन्होंने अपने तेज से प्रलय के निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकार को भी पी लिया था। तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोध से लप का और अपनी गदा को बड़े जोर से घुमाकर उसने नृसिंहभगवान पर प्रहार किया ॥ २५ ॥ प्रहार करते समय ही—जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान ने गदासहित उस दैत्य को पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथ से वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीडा करते हुए गरुड के चंगुल से साँप छूट जाय ॥ २६ ॥ युधिष्ठिर ! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलों में छिपकर इस युद्ध को देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपु ने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान के हाथ से छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपु ने भी यही समझा कि नृसिंह ने मेरे बलवीर्य से डरकर ही मुझे अपने हाथ से छोड़ दिया है। इस विचार से उसकी थकान जाती रही और वह युद्ध के लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा ॥ २७ ॥ उस समय वह बाज की तरह बड़े वेग से ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवार के पैंतरे बदल ने लगा कि जिससे उसपर आक्रमण करने का अवसर ही न मिले। तब भगवान ने बड़े ऊँचे स्वर से प्रचण्ड और भयङ्कर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपु की आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेग से झपटकर भगवान ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है। जिस हिरण्यकशिपु के चमड़े पर वज्र की चोट से भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजे से निकल ने के लिये जोर से छटपटा रहा था। भगवान ने सभा के दरवाजे पर ले जाकर उसे अपनी जाँघों पर गिरा लिया और खेल-खेल में अपने नखों से उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँप को चीर डालते हैं ॥ २८-२९ ॥ उस समय उनकी क्रोध से भरी विकराल आँखों की ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभ से फैले हुए मुँह के दोनों को ने चाट रहे थे। खून के छींटों से उनका मुँह और गरदन के बाल लाल हो रहे थे। हाथी को मारकर गले में आँतों की माला पह ने हुए मृगराज के समान उनकी शोभा हो रही थी ॥ ३० ॥ उन्होंने अपने तीखे नखों से हिरण्यकशिपु का कलेजा फाडक़र उसे जमीन पर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथों में शस्त्र लेकर भगवान पर प्रहार करने के लिये आये। पर भगवान ने अपनी भुजारूपी सेनासे, लातों से और नखरूपी शस्त्रों से चारों ओर खदेड़-खदेडक़र उन्हें मार डाला ॥ ३१ ॥
युधिष्ठिर ! उस समय भगवान नृसिंह के गरदन के बालों की फटकार से बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रों की ज्वाला से सूर्य आदि ग्रहों का तेज फी का पड़ गया। उनके श्वासके धक्के से समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनाद से भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाडऩे लगे ॥ ३२ ॥ उनके गरदन के बालों से टकराकर देवताओं के विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरों की धमक से भूकम्प आ गया, वेग से पर्वत उडऩे लगे और उनके तेज की चकाचौंध से आकाश तथा दिशाओं का दीखना बंद हो गया ॥ ३३ ॥ इस समय नृसिंहभगवान का सामना करनेवाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की राज- सभा में ऊँचे सिंहासन पर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोधभरे भयङ्कर चेहरे को देखकर किसी का भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे ॥ ३४ ॥
युधिष्ठिर ! जब स्वर्ग की देवियों को यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकों के सिर की पीड़ा का मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्ध में भगवान के हाथों मार डाला गया, तब आनन्द के उल्लास से उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं ॥ ३५ ॥ आकाश में विमानों से आये हुए भगवान के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गयी। देवताओं के ढोल और नगारे बज ने लगे। गन्धर्वराज गा ने लगे, अप्सराएँ नाच ने लगीं ॥ ३६ ॥ तात ! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शङ्कर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिर पर अञ्जलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंहभगवान की थोड़ी दूर से अलग-अलग स्तुति की ॥ ३७—३९ ॥
ब्रह्माजी ने कहा—प्रभो ! आप अनन्त हैं। आपकी शक्ति का कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणों के द्वारा आप लीला से ही सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंग से करते हैं—फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४० ॥
श्रीरुद्र ने कहा—आपके क्रोध करने का समय तो कल्प के अन्त में होता है। यदि इस तुच्छ दैत्य को मार ने के लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरण में आया है। भक्तवत्सल प्रभो ! आप अपने इस भक्त की रक्षा कीजिये ॥ ४१ ॥
इन्द्र ने कहा—पुरुषोत्तम ! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तव में आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्यों के आतङ्क से सङ्कुचित हमारे हृदयकमल को आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादि का राज्य हमलोगों को पुन: प्राप्त हुआ है, यह सब काल का ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है ही क्या। स्वामिन् ! जिन्हें आपकी सेवा की चाह है, वे मुक्ति का भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगों की तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है ॥ ४२ ॥
ऋषियों ने कहा—पुरुषोत्तम ! आपने तपस्या के द्वारा ही अपने में लीन हुए जगत की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेज: स्वरूप श्रेष्ठ तपस्या का उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्य ने उसी तपस्या का उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल ! उस तपस्या की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करके आपने हमारे लिये फिर से उसी उपदेश का अनुमोदन किया है ॥ ४३ ॥
पितरों ने कहा—प्रभो ! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थ में या संक्रान्ति आदि के अवसर पर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलाञ्जलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखों से उसका पेट फाडक़र वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मों के एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४४ ॥
सिद्धों ने कहा—नृसिंहदेव ! इस दुष्ट ने अपने योग और तपस्या के बल से हमारी योगसिद्ध गति छीन ली थी। अपने नखों से आपने उस घमंडी को फाड़ डाला है। हम आपके चरणों में विनीत भाव से नमस्कार करते हैं ॥ ४५ ॥
विद्याधरों ने कहा—यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरता के घमंड में चूर था। यहाँ तक कि हमलोगोंने विविध धारणाओं से जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इस ने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्ध में यज्ञपशु की तरह इस को नष्ट कर दिया। अपनी लीला से नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ ४६ ॥
नागों ने कहा—इस पापी ने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियों को भी छीन लिया था। आज उसकी छाती फाडक़र आपने हमारी पत्नियों को बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४७ ॥
मनुओं ने कहा—देवाधिदेव ! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्य ने हमलोगों की धर्ममर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्ट को मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो ! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें ? ॥ ४८ ॥
प्रजापतियों ने कहा—परमेश्वर ! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परंतु इसके रोक दे ने से हम प्रजा की सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इस की छाती फाड़ डाली और यह जमीन पर सर्वदा के लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करनेवाले प्रभो ! आपका यह अवतार संसार के कल्याण के लिये है ॥ ४९ ॥
गन्धर्वों ने कहा—प्रभो ! हम आपके नाचनेवाले, अभिनय करनेवाले और संगीत सुनानेवाले सेवक हैं। इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशा को पहुँचा दिया। सच है, कुमार्ग से चलनेवाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है ? ॥ ५० ॥
चारणों ने कहा—प्रभो ! आपने सज्जनों के हृदय को पीड़ा पहुँचानेवाले इस दुष्ट को समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलों की शरण में हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है ॥ ५१ ॥
यक्षों ने कहा—भगवन् ! अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण हमलोग आपके सेवकों में प्रधान गि ने जाते थे। परंतु हिरण्यकशिपु ने हमें अपनी पाल की ढोनेवाला कहार बना लिया। प्रकृति के नियामक परमात्मा ! इसके कारण होनेवाले अपने निजजनों के कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है ॥ ५२ ॥
किम्पुरुषों ने कहा—हमलोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषों ने इसका तिरस्कार किया—इसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुष—असुराधम को नष्ट कर दिया ॥ ५३ ॥
वैतालिकों ने कहा—भगवन् ! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञों में आपके निर्मल यश का गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्ट ने हमारी वह आजीवि का ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्य की बात है कि महारोग के समान इस दुष्ट को आपने जड़मूल से उखाड़ दिया ॥ ५४ ॥
किन्नरों ने कहा—हम किन्नरगण आपके सेवक हैं । यह दैत्य हम से बेगार में ही काम लेता था। भगवन् ! आपने कृपा करके आज इस पापी को नष्ट कर दिया। प्रभो ! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें ॥ ५५ ॥
भगवान के पार्षदों ने कहा—शरणागतवत्सल ! सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदान करनेवाला आपका यह अलौकिक नृसिंहरूप हम ने आज ही देखा है। भगवन् ! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादि ने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धार के लिये ही इसका वध किया है ॥ ५६ ॥
॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
नारद उवाच
एवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्रपुरःसराः ।
नोपैतुमशकन् मन्युसंरम्भं सुदुरासदम् ॥ १॥
साक्षाच्छ्रीः प्रेषिता देवैर्दृष्ट्वा तन्महदद्भुतम् ।
अदृष्टाश्रुतपूर्वत्वात्सा नोपेयाय शङ्किता ॥ २॥
प्रह्लादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके ।
तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम् ॥ ३॥
तथेति शनकै राजन् महाभागवतोऽर्भकः ।
उपेत्य भुवि कायेन ननाम विधृताञ्जलिः ॥ ४॥
स्वपादमूले पतितं तमर्भकं
विलोक्य देवः कृपया परिप्लुतः ।
उत्थाप्य तच्छीर्ष्ण्यदधात्कराम्बुजं
कालाहिवित्रस्तधियां कृताभयम् ॥ ५॥
स तत्करस्पर्शधुताखिलाशुभः
सपद्यभिव्यक्तपरात्मदर्शनः ।
तत्पादपद्मं हृदि निर्वृतो दधौ
हृष्यत्तनुः क्लिन्नहृदश्रुलोचनः ॥ ६॥
अस्तौषीद्धरिमेकाग्रमनसा सुसमाहितः ।
प्रेमगद्गदया वाचा तन्न्यस्तहृदयेक्षणः ॥ ७॥
प्रह्लाद उवाच
ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः
सत्त्वैकतानमतयो वचसां प्रवाहैः ।
नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः
किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ॥ ८॥
मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजः
तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः ।
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो
भक्त्या तुतोष भगवान् गजयूथपाय ॥ ९॥
विप्राद्द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ-
पादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थप्राणं
पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥ १०॥
नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो
मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते ।
यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं
तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ॥ ११॥
तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य
सर्वात्मना महि गृणामि यथा मनीषम् ।
नीचोऽजया गुणविसर्गमनुप्रविष्टः
पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ॥ १२॥
सर्वे ह्यमी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो
ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः ।
क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य
विक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः ॥ १३॥
तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य
मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या ।
लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे
रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति ॥ १४॥
नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य-
जिह्वार्कनेत्रभ्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात् ।
आन्त्रस्रजःक्षतजकेसरशङ्कुकर्णा-
न्निर्ह्रादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ॥ १५॥
त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र-
संसारचक्रकदनाद्ग्रसतां प्रणीतः ।
बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं
प्रीतोपवर्गशरणं ह्वयसे कदा नु ॥ १६॥
यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसयोगजन्म-
शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः ।
दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं
भूमन् भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ॥ १७॥
सोऽहं प्रियस्य सुहृदः परदेवताया
लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीताः ।
अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन् गुणविप्रमुक्तो
दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्गः ॥ १८॥
बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह
नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः ।
तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्टस्तावद्विभो
तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ॥ १९॥
यस्मिन् यतो यर्हि येन च यस्य यस्माद्यस्मै
यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा ।
भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः
सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम् ॥ २०॥
माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः
कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः ।
छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं
संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः ॥ २१॥
स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना
कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः ।
चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे
निष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम् ॥ २२॥
दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपानामायुः
श्रियो विभव इच्छति यान् जनोऽयम् ।
येऽस्मत्पितुः कुपितहासविजृम्भितभ्रू-
विस्फूर्जितेन लुलिताः स तु ते निरस्तः ॥ २३॥
तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषो ज्ञ
आयुः श्रियं विभवमैन्द्रियमाविरिञ्च्यात् ।
नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण
कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ॥ २४॥
कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः
क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः ।
निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान्
कामानलं मधुलवैः शमयन् दुरापैः ॥ २५॥
क्वाहं रजःप्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिन्
जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा ।
न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया
यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः ॥ २६॥
नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्या-
ज्जन्तोर्यथाऽऽत्मसुहृदो जगतस्तथापि ।
संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः
सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम् ॥ २७॥
एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे
कामाभिकाममनु यः प्रपतन् प्रसङ्गात् ।
कृत्वाऽऽत्मसात्सुरर्षिणा भगवन् गृहीतः
सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम् ॥ २८॥
मत्प्राणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्च
मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम् ।
खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सु-
स्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि ॥ २९॥
एकस्त्वमेव जगदेतममुष्य यत्त्वमाद्यन्तयोः
पृथगवस्यसि मध्यतश्च ।
सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं
नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः ॥ ३०॥
त्वं वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो
माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था ।
यद्यस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च
तद्वै तदेव वसुकालवदष्टितर्वोः ॥ ३१॥
न्यस्येदमात्मनि जगद्विलयाम्बुमध्ये
शेषेऽऽत्मना निजसुखानुभवो निरीहः ।
योगेन मीलितदृगात्मनिपीतनिद्रस्तुर्ये
स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युङ्क्षे ॥ ३२॥
तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या
सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम् ।
अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधे-
र्नाभेरभूत्स्वकणिकावटवन्महाब्जम् ॥ ३३॥
तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमानस्त्वां
बीजमात्मनि ततं स्वबहिर्विचिन्त्य ।
नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्जमानो
जातेऽङ्कुरे कथमु होपलभेत बीजम् ॥ ३४॥
स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आश्रितोऽब्जं
कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः ।
त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं
भूतेन्द्रियाशयमये विततं ददर्श ॥ ३५॥
एवं सहस्रवदनाङ्घ्रिशिरःकरोरु-
नासास्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम्
मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशं
दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः ॥ ३६॥
तस्मै भवान् हयशिरस्तनुवं हि बिभ्रद्-
वेदद्रुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ ।
हत्वाऽऽनयच्छ्रुतिगणांस्तु रजस्तमश्च
सत्त्वं तव प्रियतमां तनुमामनन्ति ॥ ३७॥
इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान्
विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् ।
धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं
छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥ ३८॥
नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ
सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् ।
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं
तस्मिन् कथं तव गतिं विमृशामि दीनः ॥ ३९॥
जिह्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता
शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिर्बह्व्यः
सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥ ४०॥
एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्या-
मन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम् ।
पश्यन् जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं
हन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य ॥ ४१॥
को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन् प्रयास
उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः ।
मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो
किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः ॥ ४२॥
नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्या-
स्त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः ।
शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थ-
मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ॥ ४३॥
प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामाः
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।
नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको
नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ ४४॥
यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं
कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम् ।
तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः
कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ॥ ४५॥
मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्म-
व्याख्यारहोजपसमाधय आपवर्ग्याः ।
प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां
वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ॥ ४६॥
रूपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे
बीजाङ्कुराविव न चान्यदरूपकस्य ।
युक्ताः समक्षमुभयत्र विचिन्वते त्वां
योगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात् ॥ ४७॥
त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः
प्राणेन्द्रियाणि हृदयं चिदनुग्रहश्च ।
सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन्
नान्यत्त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ॥ ४८॥
नैते गुणा न गुणिनो महदादयो ये
सर्वे मनः प्रभृतयः सहदेवमर्त्याः ।
आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वामेवं
विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ॥ ४९॥
तत्तेर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः
कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम् ।
संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं
भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत ॥ ५०॥
नारद उवाच
एतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुणः ।
प्रह्लादं प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ॥ ५१॥
श्रीभगवानुवाच
प्रह्लाद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम ।
वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ॥ ५२॥
मामप्रीणत आयुष्मन् दर्शनं दुर्लभं हि मे ।
दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ॥ ५३॥
प्रीणन्ति ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः ।
श्रेयस्कामा महाभाग सर्वासामाशिषां पतिम् ॥ ५४॥
एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः ।
एकान्तित्वाद्भगवति नैच्छत्तानसुरोत्तमः ॥ ५५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते भगवत्स्तवो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
सप्तम स्कन्ध-नवाँ अध्याय
प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान की स्तुति
नारदजी कहते हैं—इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंहभगवान के क्रोधावेश को शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसीको उसका ओर-छोर नहीं दीखता था ॥ १ ॥ देवताओं ने उन्हें शान्त करने के लिये स्वयं लक्ष्मीजी को भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंहभगवान का वह महान अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पास तक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था ॥ २ ॥ तब ब्रह्माजी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद को यह कहकर भेजा कि बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो ॥ ३ ॥ भगवान के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धीरे से भगवान के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टाङ्ग लोट गये ॥ ४ ॥ नृसिंहभगवान ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणों के पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दया से भर गया। उन्होंने प्रह्लाद को उठाकर उनके सिर पर अपना वह कर-कमल रख दिया, जो कालसर्प से भयभीत पुरुषों को अभयदान करनेवाला है ॥ ५ ॥ भगवान के करकमलों का स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्व का साक्षातकार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्द में मग्र होकर भगवान के चरणकमलों को अपने हृदय में धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदय में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनन्दाश्रु झर ने लगे ॥ ६ ॥ प्रह्लादजी भावपूर्ण हृदय और निॢनमेष नयनों से भगवान को देख रहे थे। भावसमाधि से स्वयं एकाग्र हुए मन के द्वारा उन्होंने भगवान के गुणों का चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणी से स्तुति की ॥ ७ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषों की बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुण में ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणों से आपको अब तक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर जाति में उत्पन्न हुआ हूँ ! क्या आप मुझ से सन्तुष्ट हो सकते हैं ? ॥ ८ ॥ मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग—ये सभी गुण परमपुरुष भगवान को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं—परंतु भक्ति से तो भगवान गजेन्द्र पर भी सन्तुष्ट हो गये थे ॥ ९ ॥ मेरी समझ से इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान कमलनाभ के चरण-कमलों से विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिस ने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान के चरणों में समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पवित्र कर देता है और बड़प्पन का अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपने को भी पवित्र नहीं कर सकता ॥ १० ॥ सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूप के साक्षातकार से ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषों से पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तों के हित के लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुख का सौन्दर्य दर्पण में दीखनेवाले प्रतिबिम्ब को भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी मैं बिना किसी शङ् का के अपनी बुद्धि के अनुसार सब प्रकार से भगवान की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसार-चक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ॥ १२ ॥
भगवन् ! आप सत्त्वगुण के आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्यों की तरह आप से द्वेष नहीं करते। प्रभो ! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत के कल्याण एवं अभ्युदय के लिये तथा उसे आत्मानन्द की प्राप्ति कराने के लिये अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं ॥ १३ ॥ जिस असुर को मार ने के लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँप की मृत्यु से सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्य के संहार से सभी लोगों को बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूप के दर्शन की बाट जोह रहे हैं। नृसिंहदेव ! भय से मुक्त होने के लिये भक्तजन आपके इस रूप का स्मरण करेंगे ॥ १४ ॥ परमात्मन् ! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्य के समान हैं। भौंहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़ें हैं। आँतों की माला, खून से लथपथ गरदन के बाल, बर्छे की तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजों को भी भयभीत कर देनेवाला सिंहनाद एवं शत्रुओं को फाड़ डालनेवाले आपके इन नखों को देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ ॥ १५ ॥ दीनबन्धो ! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसार-चक्र में पिसनेसे। मैं अपने कर्मपाशों से बँधकर इन भयङ्कर जन्तुओं के बीच में डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी ! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलायेंगे, जो समस्त जीवों की एकमात्र शरण और मोक्ष स्वरूप हैं ? ॥ १६ ॥ अनन्त ! मैं जिन-जिन योनियों में गया, उन सभी योनियों में प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से होनेवाले शोक की आग में झुलसता रहा। उन दु:खों को मिटा ने की जो दवा है, वह भी दु:खरूप ही है। मैं न जाने कब से अपने से अतिरिक्त वस्तुओं को आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ ॥ १७ ॥ प्रभो ! आप हमारे प्रिय हैं। अहैतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तव में सब के परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्माजी के द्वारा गायी हुई आपकी लीला- कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागादि प्राकृत गुणों से मुक्त होकर इस संसार की कठिनाइयों को पार कर जाऊँगा; क्योंकि आपके चरणयुगलों में रहनेवाले भक्त परमहंस महात्माओं का सङ्ग तो मुझे मिलता ही रहेगा ॥ १८ ॥ भगवान नृसिंह ! इस लोक में दुखी जीवों का दु:ख मिटा ने के लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करने पर एक क्षण के लिये ही होता है। यहाँ तक कि मा-बाप बालक की रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए को नौ का नहीं बचा सकती ॥ १९ ॥ सत्त्वादि गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव के जित ने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उन को प्रेरित करनेवाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणा से जिस आधार में स्थित होकर जिस निमित्त से जिन मिट्टी आदि उपकरणों से जिस समय जिन साधनों के द्वारा जिस अदृष्ट आदि की सहायता से जिस प्रयोजन के उद्देश्य से जिस विधि से जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है ॥ २० ॥
पुरुष की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मन:प्रधान लिङ्गशरीर का निर्माण करती है। यह लिङ्गशरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपों में आसक्त छन्दोमय है। यही अविद्या के द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा—इन सोलह विकाररूप अरों से युक्त संसार-चक्र है। जन्मरहित प्रभो ! आप से भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसार- चक्र को पार कर जाय ? ॥ २१ ॥ सर्वशक्तिमान् प्रभो ! माया इस सोलह अरोंवाले संसार-चक्र में डालकर ईख के समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्यशक्ति से बुद्धि के समस्त गुणों को सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूप से सम्पूर्ण साध्य और साधनों को अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच लीजिये ॥ २२ ॥ भगवन् ! जिनके लिये संसारीलोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्ग में मिलनेवाली समस्त लोकपालों की वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ीं हो जाती थीं, तब उन स्वर्ग की सम्पत्तियों के लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिता को भी मार डाला ॥ २३ ॥ इसलिये मैं ब्रह्मलोक तक की आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रियभोग, जिन्हें संसार के प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली काल का रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासों की सन्निधि में ले चलिये ॥ २४ ॥ विषयभोग की बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तव में वे मृगतृष्णा के जल के समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगों का उद्गम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर ! इन दोनों की क्षणभङ्गुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इन से विरक्त नहीं होता। वह कठिनाई से प्राप्त होनेवाले भोग के नन्हें-नन्हें मधुविन्दुओं से अपनी कामना की आग बुझा ने की चेष्टा करता है ! ॥ २५ ॥ प्रभो ! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंश में रजोगुण से उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा ! धन्य है ! आपने अपना परम प्रसाद स्वरूप और सकलसन्तापहारी वह करकमल मेरे सिर पर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मीजी के सिर पर भी कभी नहीं रखा ॥ २६ ॥ दूसरे संसारी जीवों के समान आप में छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सब के आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्प-वृक्ष के समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजन से ही प्राप्त होता है। सेवा के अनुसार ही जीवों पर आपकी कृपा का उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है ॥ २७ ॥ भगवन् ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प डँस ने के लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगों की इच्छावाले पुरुष उसी में गिरे हुए हैं। मैं भी सङ्गवश उसके पीछे उसी में गिर ने जा रहा था। परंतु भगवन् ! देवर्षि नारद ने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनों की सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ ॥ २८ ॥ अनन्त ! जिस समय मेरे पिता ने अन्याय करने के लिये कमर कसकर हाथ में खड्ग ले लिया और वह कह ने लगा कि ‘यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने मेरे प्राणों की रक्षा की और मेरे पिता का वध किया। मैं तो समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियों का वचन सत्य करने के लिये ही वैसा किया था ॥ २९ ॥
भगवन् ! यह सम्पूर्ण जगत एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदि में आप ही कारणरूप से थे, अन्त में आप ही अवधि के रूप में रहेंगे और बीच में इस की प्रतीति के रूप में भी केवल आप ही हैं। आप अपनी माया से गुणों के परिणाम स्वरूप इस जगत की सृष्टि करके इसमें पहले से विद्यमान रहने पर भी प्रवेश की लीला करते हैं और उन गुणों से युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे हैं ॥ ३० ॥ भगवन् ! यह जो कुछ कार्य-कारण के रूप में प्रतीत हो रहा है, वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने-पराये का भेद-भाव तो अर्थहीन शब्दों की माया है; क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है—जैसे बीज और वृक्ष कारण और कार्य की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध-तन्मात्र की दृष्टि से दोनों एक ही हैं ॥ ३१ ॥
भगवन् ! आप इस सम्पूर्ण विश्व को स्वयं ही अपने में समेटकर आत्मसुख का अनुभव करते हुए निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जल में शयन करते हैं। उस समय अपने स्वयंसिद्ध योग के द्वारा बाह्य दृष्टि को बंद कर आप अपने स्वरूप के प्रकाश में निद्रा को विलीन कर लेते हैं, और तुरीय ब्रह्मपद में स्थित रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुण से ही युक्त होते और न तो विषयों को ही स्वीकार करते हैं ॥ ३२ ॥ आप अपनी कालशक्ति से प्रकृति के गुणों को प्रेरित करते हैं, इसलिये यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आप में ही लीन था। जब प्रलयकालीन जल के भीतर शेषशय्या पर शयन करनेवाले आपने योगनिद्रा की समाधि त्याग दी, तब वट के बीज से विशाल वृक्ष के समान आपकी नाभि से ब्रह्माण्डकमल उत्पन्न हुआ ॥ ३३ ॥ उसपर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्माजी प्रकट हुए। जब उन्हें कमल के सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब अपने में बीजरूप से व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपने से बाहर समझकर जल के भीतर घुसकर सौ वर्ष तक ढूँढ़ते रहे। परंतु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला। यह ठीक ही है, क्योंकि अङ्कुर उग आने पर उसमें व्याप्त बीज को कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है ॥ ३४ ॥ ब्रह्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हारकर कमल पर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर तीव्र तपस्या करने से जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अन्त:करणरूप अपने शरीर में ही ओतप्रोतरूप से स्थित आपके सूक्ष्मरूप का साक्षातकार हुआ—ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वी में व्याप्त उसकी अति सूक्ष्म तन्मात्रा गन्ध का होता है ॥ ३५ ॥
विराट् पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जङ्घा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधों से सम्पन्न था। चौदहों लोक उसके विभिन्न अङ्गों के रूप में शोभायमान थे। वह भगवान की एक लीलामयी मूर्ति थी। उसे देखकर ब्रह्माजी को बड़ा आनन्द हुआ ॥ ३६ ॥ रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नाम के दो बड़े बलवान् दैत्य थे। जब वे वेदों को चुराकर ले गये, तब आपने हयग्रीव-अवतार ग्रहण किया और उन दोनों को मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्माजी को लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यन्त प्रिय शरीर है—महात्मालोग इस प्रकार वर्णन करते हैं ॥ ३७ ॥ पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन तथा विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं। इन अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके धर्मों की रक्षा करते हैं। कलियुग में आप छिपकर गुप्तरूप से ही रहते हैं, इसीलिये आपका एक नाम ‘त्रियुग’ भी है ॥ ३८ ॥
वैकुण्ठनाथ ! मेरे मन की बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओं से तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्राय: ही कामनाओं के कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदि की चिन्ताओं से व्याकुल रहता है। इसे आपकी लीला- कथाओं में तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसे मन से मैं आपके स्वरूप का चिन्तन कैसे करूँ ? ॥ ३९ ॥ अच्युत ! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसों की ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्री की ओर, त्वचा सु कोमल स्पर्श की ओर, पेट भोजन की ओर, कान मधुर सङ्गीत की ओर, नासि का भीनी-भीनी सुगन्ध की ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्य की ओर मुझे खींचते रहते हैं। इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयों की ओर ले जाने को जोर लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुष की बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने- अपने शयनगृहमें ले जाने के लिये चारों ओर से घसीट रही हों ॥ ४० ॥ इस प्रकार यह जीव अपने कर्मों के बन्धन में पडक़र इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरा हुआ है। जन्म से मृत्यु, मृत्यु से जन्म और दोनों के द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया है—इस प्रकार के भेद-भाव से युक्त होकर किसी से मित्रता करता है तो किसी से शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जाति की यह दुर्दशा देखकर करुणा से द्रवित हो जाइये। इस भव-नदी से सर्वदा पार रहनेवाले भगवन् ! इन प्राणियों को भी अब पार लगा दीजिये ॥ ४१ ॥ जगद्गुरो ! आप इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करनेवाले हैं। ऐसी अवस्था में इन जीवों को इस भव-नदी के पार उतार दे ने में आपको क्या प्रयास है ? दीनजनों के परमहितैषी प्रभो ! भूले-भट के मूढ़ ही महान पुरुषों के विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम आपके प्रियजनों की सेवा में लगे रहते हैं, इसलिये पार जाने की हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती ॥ ४२ ॥ परमात्मन् ! इस भव-वैतरणी से पार उतरना दूसरे लोगों के लिये अवश्य ही कठिन है, परंतु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणी में नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान में मग्र रहता है, जो स्वर्गीय अमृत को भी तिरस्कृत करनेवाली—परमामृत स्वरूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियों के लिये शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों का मायामय झूठा सुख प्राप्त करे ने के लिये अपने सिर पर सारे संसार का भार ढोते रहते हैं ॥ ४३ ॥ मेरे स्वामी ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्राय: अपनी मुक्ति के लिये निर्जन वन में जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरों की भलाई के लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परंतु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबों को छोडक़र अकेला मुक्त होना नहीं चाहता। और इन भटकते हुए प्राणियों के लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता ॥ ४४ ॥
घर में फँ से हुए लोगों को जो मैथुन आदि का सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दु:खरूप ही है—जैसे कोई दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परंतु पीछे से दु:ख-ही-दु:ख होता है। किन्तु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दु:ख भोगने पर भी इन विषयों से अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहट को सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगों को भी सह लेते हैं। सह ने से ही उनका नाश होता है ॥ ४५ ॥ पुरुषोत्तम ! मोक्ष के दस साधन प्रसिद्ध हैं—मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि। परंतु जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीवि का के साधन—व्यापारमात्र रह जाते हैं। और दम्भियों के लिये तो जब तक उनकी पोल खुलती नहीं, तभी तक ये जीवननिर्वाह के साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जाने पर वह भी नहीं ॥ ४६ ॥ वेदों ने बीज और अङ्कुर के समान आपके दो रूप बताये हैं—कार्य और कारण। वास्तव में आप प्राकृत रूप से रहित हैं। परंतु इन कार्य और कारणरूपों को छोडक़र आपके ज्ञान का कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठमन्थन के द्वारा जिस प्रकार अग्रि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोग की साधना से आपको कार्य और कारण दोनों में ही ढूँढ़ निकालते हैं। क्योंकि वास्तव में ये दोनों आप से पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं ॥ ४७ ॥ अनन्त प्रभो ! वायु, अग्रि, पृथ्वी, आकाश, जल, पञ्च तन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत एवं सगुण और निर्गुण—सब कुछ केवल आप ही हैं। और तो क्या, मन और वाणी के द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आप से पृथक् नहीं है ॥ ४८ ॥ समग्र कीर्ति के आश्रय भगवन् ! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणों के परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जान ने में समर्थ नहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दों की माया से उपरत हो जाते हैं ॥ ४९ ॥ परम पूज्य ! आपकी सेवा के छ: अङ्ग हैं—नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलों का चिन्तन और लीला- कथा का श्रवण। इस षडङ्ग-सेवा के बिना आपके चरण कमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? और भक्ति के बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी ? प्रभो ! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनोंके, परमहंसों के ही सर्वस्व हैं ॥ ५० ॥
नारदजी कहते हैं—इस प्रकार भक्त प्रह्लाद ने बड़े प्रेम से प्रकृति और प्राकृत गुणों से रहित भगवान के स्वरूपभूत गुणों का वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान के चरणों में सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंहभगवान का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नता से बोले ॥ ५१ ॥
श्रीनृसिंहभगवान ने कहा—परम कल्याण स्वरूप प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझ से माँग लो। मैं जीवों की इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला हूँ ॥ ५२ ॥ आयुष्मन् ! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परंतु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणी के हृदय में किसी प्रकार की जलन नहीं रह जाती ॥ ५३ ॥ मैं समस्त मनोरथों को पूर्ण करनेवाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियों से मुझे प्रसन्न करने का ही यत्न करते हैं ॥ ५४ ॥
असुरकुलभूषण प्रह्लादजी भगवान के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगों को प्रलोभन में डालनेवाले वरों के द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की ॥ ५५ ॥
॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥
नारद उवाच
भक्तियोगस्य तत्सर्वमन्तरायतयार्भकः ।
मन्यमानो हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह ॥ १॥
प्रह्लाद उवाच
मा मां प्रलोभयोत्पत्त्याऽऽसक्तंकामेषु तैर्वरैः ।
तत्सङ्गभीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाश्रितः ॥ २॥
भृत्यलक्षणजिज्ञासुर्भक्तं कामेष्वचोदयत् ।
भवान् संसारबीजेषु हृदयग्रन्थिषु प्रभो ॥ ३॥
नान्यथा तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मनः ।
यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक् ॥ ४॥
आशासानो न वै भृत्यः स्वामिन्याशिष आत्मनः ।
न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन् यो राति चाशिषः ॥ ५॥
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः ।
नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव ॥ ६॥
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ॥ ७॥
इन्द्रियाणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः ।
ह्रीः श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना ॥ ८॥
विमुञ्चति यदा कामान् मानवो मनसि स्थितान् ।
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते ॥ ९॥
ॐ नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने ।
हरयेऽद्भुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने ॥ १०॥
नृसिंह उवाच
नैकान्तिनो मे मयि जात्विहाशिष
आशासतेऽमुत्र च ये भवद्विधाः ।
अथापि मन्वन्तरमेतदत्र
दैत्येश्वराणामनुभुङ्क्ष्व भोगान् ॥ ११॥
कथा मदीया जुषमाणः प्रियास्त्वमावेश्य
मामात्मनि सन्तमेकम् ।
सर्वेषु भूतेष्वधियज्ञमीशं
यजस्व योगेन च कर्म हिन्वन् ॥ १२॥
भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं
कलेवरं कालजवेन हित्वा ।
कीर्तिं विशुद्धां सुरलोकगीतां
विताय मामेष्यसि मुक्तबन्धः ॥ १३॥
य एतत्कीर्तयेन्मह्यं त्वया गीतमिदं नरः ।
त्वां च मां च स्मरन् काले कर्मबन्धात्प्रमुच्यते ॥ १४॥
प्रह्लाद उवाच
वरं वरय एतत्ते वरदेशान्महेश्वर ।
यदनिन्दत्पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम् ॥ १५॥
विद्धामर्षाशयः साक्षात्सर्वलोकगुरुं प्रभुम् ।
भ्रातृहेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयि चाघवान् ॥ १६॥
तस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद्दुस्तरादघात् ।
पूतस्तेऽपाङ्गसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल ॥ १७॥
श्रीभगवानुवाच
त्रिःसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ ।
यत्साधोऽस्य गृहे जातो भवान् वै कुलपावनः ॥ १८॥
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः ।
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्त्यपि कीकटाः ॥ १९॥
सर्वात्मना न हिंसन्ति भूतग्रामेषु किञ्चन ।
उच्चावचेषु दैत्येन्द्र मद्भावेन गतस्पृहाः ॥ २०॥
भवन्ति पुरुषा लोके मद्भक्तास्त्वामनुव्रताः ।
भवान् मे खलु भक्तानां सर्वेषां प्रतिरूपधृक् ॥ २१॥
कुरु त्वं प्रेतकृत्यानि पितुः पूतस्य सर्वशः ।
मदङ्गस्पर्शनेनाङ्ग लोकान् यास्यति सुप्रजाः ॥ २२॥
पित्र्यं च स्थानमातिष्ठ यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः ।
मय्यावेश्य मनस्तात कुरु कर्माणि मत्परः ॥ २३॥
नारद उवाच
प्रह्लादोऽपि तथा चक्रे पितुर्यत्साम्परायिकम् ।
यथाऽऽह भगवान् राजन्नभिषिक्तो द्विजोत्तमैः ॥ २४॥
प्रसादसुमुखं दृष्ट्वा ब्रह्मा नरहरिं हरिम् ।
स्तुत्वा वाग्भिः पवित्राभिः प्राह देवादिभिर्वृतः ॥ २५॥
ब्रह्मोवाच
देवदेवाखिलाध्यक्ष भूतभावन पूर्वज ।
दिष्ट्या ते निहतः पापो लोकसन्तापनोऽसुरः ॥ २६॥
योऽसौ लब्धवरो मत्तो न वध्यो मम सृष्टिभिः ।
तपोयोगबलोन्नद्धः समस्तनिगमानहन् ॥ २७॥
दिष्ट्यास्य तनयः साधुर्महाभागवतोऽर्भकः ।
त्वया विमोचितो मृत्योर्दिष्ट्या त्वां समितोऽधुना ॥ २८॥
एतद्वपुस्ते भगवन् ध्यायतः प्रयतात्मनः ।
सर्वतो गोप्तृ सन्त्रासान्मृत्योरपि जिघांसतः ॥ २९॥
नृसिंह उवाच
मैवं वरोऽसुराणां ते प्रदेयः पद्मसम्भव ।
वरः क्रूरनिसर्गाणामहीनाममृतं यथा ॥ ३०॥
नारद उवाच
इत्युक्त्वा भगवान् राजंस्तत्रैवान्तर्दधे हरिः ।
अदृश्यः सर्वभूतानां पूजितः परमेष्ठिना ॥ ३१॥
ततः सम्पूज्य शिरसा ववन्दे परमेष्ठिनम् ।
भवं प्रजापतीन् देवान् प्रह्लादो भगवत्कलाः ॥ ३२॥
ततः काव्यादिभिः सार्धं मुनिभिः कमलासनः ।
दैत्यानां दानवानां च प्रह्लादमकरोत्पतिम् ॥ ३३॥
प्रतिनन्द्य ततो देवाः प्रयुज्य परमाशिषः ।
स्वधामानि ययू राजन् ब्रह्माद्याः प्रतिपूजिताः ॥ ३४॥
एवं तौ पार्षदौ विष्णोः पुत्रत्वं प्रापितौ दितेः ।
हृदि स्थितेन हरिणा वैरभावेन तौ हतौ ॥ ३५॥
पुनश्च विप्रशापेन राक्षसौ तौ बभूवतुः ।
कुम्भकर्णदशग्रीवौ हतौ तौ रामविक्रमैः ॥ ३६॥
शयानौ युधि निर्भिन्नहृदयौ रामसायकैः ।
तच्चित्तौ जहतुर्देहं यथा प्राक्तनजन्मनि ॥ ३७॥
ताविहाथ पुनर्जातौ शिशुपालकरूषजौ ।
हरौ वैरानुबन्धेन पश्यतस्ते समीयतुः ॥ ३८॥
एनः पूर्वकृतं यत्तद्राजानः कृष्णवैरिणः ।
जहुस्त्वन्ते तदात्मानः कीटः पेशस्कृतो यथा ॥ ३९॥
यथा यथा भगवतो भक्त्या परमयाभिदा ।
नृपाश्चैद्यादयः सात्म्यं हरेस्तच्चिन्तया ययुः ॥ ४०॥
आख्यातं सर्वमेतत्ते यन्मां त्वं परिपृष्टवान् ।
दमघोषसुतादीनां हरेः सात्म्यमपि द्विषाम् ॥ ४१॥
एषा ब्रह्मण्यदेवस्य कृष्णस्य च महात्मनः ।
अवतारकथा पुण्या वधो यत्रादिदैत्ययोः ॥ ४२॥
प्रह्लादस्यानुचरितं महाभागवतस्य च ।
भक्तिर्ज्ञानं विरक्तिश्च याथात्म्यं चास्य वै हरेः ॥ ४३॥
सर्गस्थित्यप्ययेशस्य गुणकर्मानुवर्णनम् ।
परावरेषां स्थानानां कालेन व्यत्ययो महान् ॥ ४४॥
धर्मो भागवतानां च भगवान् येन गम्यते ।
आख्यानेऽस्मिन् समाम्नातमाध्यात्मिकमशेषतः ॥ ४५॥
य एतत्पुण्यमाख्यानं विष्णोर्वीर्योपबृंहितम् ।
कीर्तयेच्छ्रद्धया श्रुत्वा कर्मपाशैर्विमुच्यते ॥ ४६॥
एतद्य आदिपुरुषस्य मृगेन्द्रलीलां
दैत्येन्द्रयूथपवधं प्रयतः पठेत ।
दैत्यात्मजस्य च सतां प्रवरस्य पुण्यं
श्रुत्वानुभावमकुतोभयमेति लोकम् ॥ ४७॥
यूयं नृलोके बत भूरिभागा
लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति ।
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्गूढं
परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ॥ ४८॥
स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य-
कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः ।
प्रियः सुहृद्वः खलु मातुलेय
आत्मार्हणीयो विधिकृद्गुरुश्च ॥ ४९॥
न यस्य साक्षाद्भवपद्मजादिभी
रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम् ।
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः
प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ॥ ५०॥
स एष भगवान् राजन् व्यतनोद्विहतं यशः ।
पुरा रुद्रस्य देवस्य मयेनानन्तमायिना ॥ ५१॥
राजोवाच
कस्मिन् कर्मणि देवस्य मयोऽहन् जगदीशितुः ।
यथा चोपचिता कीर्तिः कृष्णेनानेन कथ्यताम् ॥ ५२॥
नारद उवाच
निर्जिता असुरा देवैर्युध्यनेनोपबृंहितैः ।
मायिनां परमाचार्यं मयं शरणमाययुः ॥ ५३॥
स निर्माय पुरस्तिस्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः ।
दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ॥ ५४॥
ताभिस्तेऽसुरसेनान्यो लोकांस्त्रीन् सेश्वरान्नृप ।
स्मरन्तो नाशयांचक्रुः पूर्ववैरमलक्षिताः ॥ ५५॥
ततस्ते सेश्वरा लोका उपासाद्येश्वरं विभो ।
त्राहि नस्तावकान् देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः ॥ ५६॥
अथानुगृह्य भगवान्मा भैष्टेति सुरान् विभुः ।
शरं धनुषि सन्धाय पुरेष्वस्त्रं व्यमुञ्चत ॥ ५७॥
ततोऽग्निवर्णा इषव उत्पेतुः सूर्यमण्डलात् ।
यथा मयूखसन्दोहा नादृश्यन्त पुरो यतः ॥ ५८॥
तैः स्पृष्टा व्यसवः सर्वे निपेतुः स्म पुरौकसः ।
तानानीय महायोगी मयः कूपरसेऽक्षिपत् ॥ ५९॥
सिद्धामृतरसस्पृष्टा वज्रसारा महौजसः ।
उत्तस्थुर्मेघदलना वैद्युता इव वह्नयः ॥ ६०॥
विलोक्य भग्नसङ्कल्पं विमनस्कं वृषध्वजम् ।
तदायं भगवान् विष्णुस्तत्रोपायमकल्पयत् ॥ ६१॥
वत्स आसीत्तदा ब्रह्मा स्वयं विष्णुरयं हि गौः ।
प्रविश्य त्रिपुरं काले रसकूपामृतं पपौ ॥ ६२॥
तेऽसुरा ह्यपि पश्यन्तो न न्यषेधन् विमोहिताः ।
तद्विज्ञाय महायोगी रसपालानिदं जगौ ॥ ६३॥
स्वयं विशोकः शोकार्तान् स्मरन् दैवगतिं च ताम् ।
देवोऽसुरो नरोऽन्यो वा नेश्वरोऽस्तीह कश्चन ॥ ६४॥
आत्मनोऽन्यस्य वा दिष्टं दैवेनापोहितुं द्वयोः ।
अथासौ शक्तिभिः स्वाभिः शम्भोः प्राधनिकं व्यधात् ॥ ६५॥
धर्मज्ञानविरक्त्यृद्धितपोविद्याक्रियादिभिः ।
रथं सूतं ध्वजं वाहान् धनुर्वर्मशरादि यत् ॥ ६६॥
सन्नद्धो रथमास्थाय शरं धनुरुपाददे ।
शरं धनुषि सन्धाय मुहूर्तेऽभिजितीश्वरः ॥ ६७॥
ददाह तेन दुर्भेद्या हरोऽथ त्रिपुरो नृप ।
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्विमानशतसङ्कुलाः ॥ ६८॥
देवर्षिपितृसिद्धेशा जयेति कुसुमोत्करैः ।
अवाकिरन् जगुर्हृष्टा ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ६९॥
एवं दग्ध्वा पुरस्तिस्रो भगवान् पुरहा नृप ।
ब्रह्मादिभिः स्तूयमानः स्वधाम प्रत्यपद्यत ॥ ७०॥
एवं विधान्यस्य हरेः स्वमायया
विडम्बमानस्य नृलोकमात्मनः ।
वीर्याणि गीतान्यृषिभिर्जगद्गुरोर्लोकान्
पुनानान्यपरं वदामि किम् ॥ ७१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे त्रिपुरविजयो नाम
दशमोऽध्यायः ॥ १०॥
सप्तम स्कन्ध-दसवाँ अध्याय
प्रह्लादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा
नारदजी कहते हैं—प्रह्लादजी ने बालक होने पर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेम-भक्ति का विघ्र है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान से बोले ॥ १ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—प्रभो ! मैं जन्म से ही विषय-भोगों में आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरों के द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगों के सङ्ग से डरकर, उनके द्वारा होनेवाली तीव्र वेदना का अनुभव कर उनसे छूट ने की अभिलाषा से ही आपकी शरण में आया हूँ ॥ २ ॥ भगवन् ! मुझ में भक्त के लक्षण हैं या नहीं—यह जान ने के लिये आपने अपने भक्त को वरदान माँग ने की ओर प्रेरित किया है। ये विषय-भोग हृदय की गाँठ को और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालनेवाले हैं ॥ ३ ॥ जगद्गुरो ! परीक्षा के सिवा ऐसा कह ने का और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्त को भोगों में फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं ?) आप से जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है ॥ ४ ॥ जो स्वामी से अपनी कामनाओं की पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवक से सेवा कराने के लिये, उसका स्वामी बन ने के लिये, उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं ॥ ५ ॥ मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकों का प्रयोजनवश स्वामी-सेवक का सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं ॥ ६ ॥ मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी ! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अङ्कुरित ही न हो ॥ ७ ॥ हृदय में किसी भी कामना के उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य— ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं ॥ ८ ॥ कमलनयन ! जिस समय मनुष्य अपने मन में रहनेवाली कामनाओं का परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत् स्वरूप को प्राप्त कर लेता है ॥ ९ ॥ भगवन् ! आपको नमस्कार है। आप सब के हृदय में विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरि के चरणों में मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ॥ १० ॥
श्रीनृसिंहभगवान ने कहा—प्रह्लाद ! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोक की किसी भी वस्तु के लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तर- तक मेरी प्रसन्नता के लिये तुम इस लोक में दैत्याधिपतियों के समस्त भोग स्वीकार कर लो ॥ ११ ॥ समस्त प्राणियों के हृदय में यज्ञों के भोक्ता ईश्वर के रूप में मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदय में मुझे देखते रहना और मेरी लीला- कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मों के द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्म का क्षय कर देना ॥ १२ ॥ भोग के द्वारा पुण्यकर्मों के फल और निष्काम पुण्यकर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बन्धनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे ॥ १३ ॥ तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुति का जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समय पर कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जायगा ॥ १४ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—महेश्वर ! आप वर देनेवालों के स्वामी हैं। आप से मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिता ने आपके ईश्वरीय तेज को और सर्वशक्तिमान् चराचरगुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। ‘इस विष्णु ने मेरे भाई को मार डाला है’ ऐसी मिथ्या दृष्टि रखने के कारण पिताजी क्रोध के वेग को सहन करने में असमर्थ हो गये थे। इसीसे उन्होंने आपका भक्त होने के कारण मुझ से भी द्रोह किया ॥ १५-१६ ॥ दीनबन्धो ! यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होनेवाले दुस्तर दोष से मेरे पिता शुद्ध हो जायँ ॥ १७ ॥
श्रीनृसिंहभगवान ने कहा—निष्पाप प्रह्लाद ! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इस की तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढिय़ों के पितर होते तो उन सब के साथ भी वे तर जाते। क्योंकि तुम्हारे-जैसा कुल को पवित्र करनेवाला पुत्र उन को प्राप्त हुआ ॥ १८ ॥ मेरे शान्त, समदर्शी और सुख से सदाचार पालन करनेवाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं ॥ १९ ॥ दैत्यराज ! मेरे भक्तिभाव से जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जाने के कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से कष्ट नहीं पहुँचाते ॥ २० ॥ संसार में जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त हो जायँगे। बेटा ! तुम मेरे सभी भक्तों के आदर्श हो ॥ २१ ॥ यद्यपि मेरे अङ्गों का स्पर्श होने से तुम्हारे पिता पूर्णरूप से पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे-जैसी सन्तान के कारण उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति होगी ॥ २२ ॥ वत्स ! तुम अपने पिता के पद पर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियों की आज्ञा के अनुसार मुझ में अपना मन लगाकर और मेरी शरण में रहकर मेरी सेवा के लिये ही अपने सारे कार्य करो ॥ २३ ॥
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! भगवान की आज्ञा के अनुसार प्रह्लादजी ने अपने पिता की अन्त्येष्टि- क्रिया की, इसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक किया ॥ २४ ॥ इसी समय देवता, ऋषि आदि के साथ ब्रह्माजी ने नृसिंहभगवान को प्रसन्नवदन देखकर पवित्र वचनों के द्वारा उनकी स्तुति की और उनसे यह बात कही ॥ २५ ॥
ब्रह्माजी ने कहा—देवताओं के आराध्यदेव ! आप सर्वान्तर्यामी, जीवों के जीवनदाता और मेरे भी पिता हैं। यह पापी दैत्य लोगों को बहुत ही सता रहा था। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपने इसे मार डाला ॥ २६ ॥ मैंने इसे वर दे दिया था कि मेरी सृष्टि का कोई भी प्राणी तुम्हारा वध न कर सकेगा। इससे यह मतवाला हो गया था। तपस्या, योग और बल के कारण उच्छृङ्खल होकर इस ने वेदविधियों का उच्छेद कर दिया था ॥ २७ ॥ यह भी बड़े सौभाग्य की बात है कि इसके पुत्र परमभागवत शुद्धहृदय नन्हें-से-शिशु प्रह्लाद को आपने मृत्यु के मुख से छुड़ा दिया तथा यह भी बड़े आनन्द और मङ्गल की बात है कि वह अब आपकी शरण में है ॥ २८ ॥ भगवन् ! आपके इस नृसिंहरूप का ध्यान जो कोई एकाग्र मन से करेगा, उसे यह सब प्रकार के भयों से बचा लेगा। यहाँ तक कि मार ने की इच्छा से आयी हुई मृत्यु भी उसका कुछ न बिगाड़ सकेगी ॥ २९ ॥
श्रीनृसिंहभगवान बोले—ब्रह्माजी ! आप दैत्यों को ऐसा वर न दिया करें। जो स्वभाव से ही क्रूर हैं, उन को दिया हुआ वर तो वैसा ही है जैसा साँपों को दूध पिलाना ॥ ३० ॥
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! नृसिंहभगवान इतना कहकर और ब्रह्माजी के द्वारा की हुई पूजा को स्वीकार करके वहीं अन्तर्धान—समस्त प्राणियों के लिये अदृश्य हो गये ॥ ३१ ॥ इसके बाद प्रह्लादजी ने भगवत् स्वरूप ब्रह्मा-शङ्कर की तथा प्रजापति और देवताओं की पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया ॥ ३२ ॥ तब शुक्राचार्य आदि मुनियों के साथ ब्रह्माजी ने प्रह्लादजी को समस्त दानव और दैत्यों का अधिपति बना दिया ॥ ३३ ॥ फिर ब्रह्मादि देवताओं ने प्रह्लाद का अभिनन्दन किया और उन्हें शुभाशीर्वाद दिये। प्रह्लादजी ने भी यथायोग्य सब का सत्कार किया और वे लोग अपने-अपने लोकों को चले गये ॥ ३४ ॥
युधिष्ठिर ! इस प्रकार भगवान के वे दोनों पार्षद जय और विजय दिति के पुत्र दैत्य हो गये थे। वे भगवान से वैरभाव रखते थे। उनके हृदय में रहनेवाले भगवान ने उनका उद्धार करे ने के लिये उन्हें मार डाला ॥ ३५ ॥ ऋषियों के शाप के कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिर से कुम्भकर्ण और रावण के रूप में राक्षस हुए। उस समय भगवान श्रीराम के पराक्रम से उनका अन्त हुआ ॥ ३६ ॥ युद्ध में भगवान राम के बाणों से उनका कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्म की भाँति भगवान का स्मरण करते-करते उन्होंने अपने शरीर छोड़े ॥ ३७ ॥ वे ही अब इस युग में शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में पैदा हुए थे। भगवान के प्रति वैरभाव होने के कारण तुम्हारे सामने ही वे उनमें समा गये ॥ ३८ ॥ युधिष्ठिर ! श्रीकृष्ण से शत्रुता रखनेवाले सभी राजा अन्तसमय में श्रीकृष्ण के स्मरण से तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापों से सदा के लिये मुक्त हो गये। जैसे भृंगी के द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भय से ही उसका स्वरूप प्राप्त कर लेता है ॥ ३९ ॥ जिस प्रकार भगवान के प्यारे भक्त अपनी भेदभावरहित अनन्य भक्ति के द्वारा भगवत् स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही शिशुपाल आदि नरपति भी भगवान के वैरभावजनित अनन्य चिन्तन से भगवान के सारूप्य को प्राप्त हो गये ॥ ४० ॥
युधिष्ठिर ! तुम ने मुझ से पूछा था कि भगवान से द्वेष करनेवाले शिशुपाल आदि को उनके सारूप्य की प्राप्ति कैसे हुई। उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया ॥ ४१ ॥ ब्रह्मण्यदेव परमात्मा श्रीकृष्ण का यह परम पवित्र अवतार-चरित्र है। इसमें हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु इन दोनों दैत्यों के वध का वर्णन है ॥ ४२ ॥ इस प्रसङ्ग में भगवान के परम भक्त प्रह्लाद का चरित्र, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य; एवं संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के स्वामी श्रीहरि के यथार्थ स्वरूप तथा उनके दिव्य गुण एवं लीलाओं का वर्णन है। इस आख्यान में देवता और दैत्यों के पदों में कालक्रम से जो महान परिवर्तन होता है, उसका भी निरूपण किया गया है ॥ ४३-४४ ॥ जिसके द्वारा भगवान की प्राप्ति होती है, उस भागवतधर्म का भी वर्णन है। अध्यात्म के सम्बन्ध में भी सभी जाननेयोग्य बातें इसमें हैं ॥ ४५ ॥ भगवान के पराक्रम से पूर्ण इस पवित्र आख्यान को जो कोई पुरुष श्रद्धा से कीर्तन करता और सुनता है, वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥ जो मनुष्य परम पुरुष परमात्मा की यह श्रीनृसिंह- लीला, सेनापतियोंसहित हिरण्यकशिपु का वध और संतशिरोमणि प्रह्लादजी का पावन प्रभाव एकाग्र मन से पढ़ता और सुनता है, वह भगवान के अभयपद वैकुण्ठ को प्राप्त होता है ॥ ४७ ॥
युधिष्ठिर ! इस मनुष्यलोक में तुमलोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घर में साक्षात परब्रह्म परमात्मा मनुष्य का रूप धारण करके गुप्तरूप से निवास करते हैं। इसीसे सारे संसार को पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करने के लिये चारों ओर से तुम्हारे पास आया करते हैं ॥ ४८ ॥ बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिन को ढूँढ़ते रहते हैं, जो माया के लेश से रहित परम शान्त परमानन्दानुभव स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ॥ ४९ ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’—इस रूप में उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम तो मौन, भक्ति और संयम के द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ५० ॥ युधिष्ठिर यही एकमात्र आराध्यदेव हैं। प्राचीन काल में बहुत बड़े मायावी मयासुर ने जब रुद्रदेव की कमनीय कीर्ति में कलङ्क लगाना चाहा था, तब इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण ने फरि से उनके यश की रक्षा और विस्तार किया था ॥ ५१ ॥
राजा युधिष्ठिर ने पूछा—नारदजी ! मय दानव किस कार्य में जगदीश्वर रुद्रदेव का यश नष्ट करना चाहता था ? और भगवान श्रीकृष्ण ने किस प्रकार उनके यश की रक्षा की ? आप कृपा करके बतलाइये ॥ ५२ ॥
नारदजी ने कहा—एक बार इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण से शक्ति प्राप्त करके देवताओं ने युद्ध में असुरों को जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियों के परमगुरु मय दानव की शरण में गये ॥ ५३ ॥ शक्तिशाली मयासुर ने सोने, चाँदी और लोहे के तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इत ने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई थीं ॥ ५४ ॥ युधिष्ठिर ! दैत्यसेनापतियों के मन में तीनों लोक और लोकपतियों के प्रति वैरभाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानों के द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सब का नाश करने लगे ॥ ५५ ॥ तब लोकपालों के साथ सारी प्रजा भगवान शङ्कर की शरण में गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो ! त्रिपुर में रहनेवाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अत: देवाधिदेव ! आप हमारी रक्षा कीजिये’ ॥ ५६ ॥
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान शङ्करने कृपापूर्ण शब्दों में कहा—‘डरो मत।’ फिर उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर तीनों पुरों पर छोड़ दिया ॥ ५७ ॥ उनके उस बाण से सूर्यमण्डल से निकलनेवाली किरणों के समान अन्य बहुत- से बाण निकले। उनमें से मानो आग की लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरों का दीखना बंद हो गया ॥ ५८ ॥ उनके स्पर्श से सभी विमाननिवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत- से उपाय जानता था, वह उन दैत्यों को उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृत के कुएँ में डाल दिया ॥ ५९ ॥ उस सिद्ध अमृत-रस का स्पर्श होते ही असुरों का शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्र के समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलों को विदीर्ण करनेवाली बिजली की आग की तरह उठ खड़े हुए ॥ ६० ॥
इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि महादेवजी तो अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उदास हो गये हैं, तब उन असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिये इन्हों ने एक युक्ति की ॥ ६१ ॥ यही भगवान विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्माजी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्न के समय उन तीनों पुरों में गये और उस सिद्धरसके कुएँ का सारा अमृत पी गये ॥ ६२ ॥ यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनों को देख रहे थे, फिर भी भगवान की माया से वे इत ने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जाननेवालों में श्रेष्ठ मयासुर को यह बात मालूम हुई, तब भगवान की इस लीला का स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करनेवाले अमृत रक्षकों से उसने कहा—‘भाई ! देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनों के लिये जो प्रारब्ध का विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है ?’ इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी शक्तियों के द्वारा भगवान शङ्करके युद्ध की सामग्री तैयार की ॥ ६३—६५ ॥ उन्होंने धर्म से रथ, ज्ञान से सारथि, वैराग्य से ध्वजा, ऐश्वर्य से घोड़े, तपस्या से धनुष, विद्या से कवच, क्रिया से बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियों से अन्यान्य वस्तुओं का निर्माण किया ॥ ६६ ॥ इन सामग्रियों से सज-धजकर भगवान शङ्कर रथ पर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान शङ्करने अभिजित् मुहूर्त में धनुष पर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानों को भस्म कर दिया। युधिष्ठिर ! उसी समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बज ने लगीं। सैंकड़ों विमानों की भीड़ लग गयी ॥ ६७-६८ ॥ देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्द से जय-जयकार करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाच ने और गा ने लगीं ॥ ६९ ॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन तीनों पुरों को जलाकर भगवान शङ्करने ‘पुरारि’ की पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकों की स्तुति सुनते हुए अपने धाम को चले गये ॥ ७० ॥ आत्म स्वरूप जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी माया से जो मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषिलोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओं का गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ ॥ ७१ ॥
॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥
श्रीशुक उवाच
श्रुत्वेहितं साधुसभासभाजितं
महत्तमाग्रण्य उरुक्रमात्मनः ।
युधिष्ठिरो दैत्यपतेर्मुदा युतः
पप्रच्छ भूयस्तनयं स्वयम्भुवः ॥ १॥
युधिष्ठिर उवाच
भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् ।
वर्णाश्रमाचारयुतं यत्पुमान् विन्दते परम् ॥ २॥
भवान् प्रजापतेः साक्षादात्मजः परमेष्ठिनः ।
सुतानां सम्मतो ब्रह्मंस्तपोयोगसमाधिभिः ॥ ३॥
नारायणपरा विप्रा धर्म गुह्यं परं विदुः ।
करुणाः साधवः शान्तास्त्वद्विधा न तथापरे ॥ ४॥
नारद उवाच
नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्महेतवे ।
वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥ ५॥
योऽवतीर्यात्मनोंऽशेन दाक्षायण्यां तु धर्मतः ।
लोकानां स्वस्तयेऽध्यास्ते तपो बदरिकाश्रमे ॥ ६॥
धर्ममूलं हि भगवान् सर्ववेदमयो हरिः ।
स्मृतं च तद्विदां राजन् येन चात्मा प्रसीदति ॥ ७॥
सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः ।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम् ॥ ८॥
सन्तोषः समदृक्सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः ।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम् ॥ ९॥
अन्नाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥ १०॥
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः ।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम् ॥ ११॥
नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः ।
त्रिंशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति ॥ १२॥
संस्कारा यदविच्छिन्नाः स द्विजोऽजो जगाद यम् ।
इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम् ।
जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः ॥ १३॥
विप्रस्याध्ययनादीनि षडन्यस्याप्रतिग्रहः ।
राज्ञो वृत्तिः प्रजागोप्तुरविप्राद्वा करादिभिः ॥ १४॥
वैश्यस्तु वार्तावृत्तिश्च नित्यं ब्रह्मकुलानुगः ।
शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा वृत्तिश्च स्वामिनो भवेत् ॥ १५॥
वार्ता विचित्रा शालीनयायावरशिलोञ्छनम् ।
विप्रवृत्तिश्चतुर्धेयं श्रेयसी चोत्तरोत्तरा ॥ १६॥
जघन्यो नोत्तमां वृत्तिमनापदि भजेन्नरः ।
ऋते राजन्यमापत्सु सर्वेषामपि सर्वशः ॥ १७॥
ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा ।
सत्यानृताभ्यां जीवेत न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ १८॥
ऋतमुञ्छशिलं प्रोक्तममृतं यदयाचितम् ।
मृतं तु नित्ययाच्ञा स्यात्प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ १९॥
सत्यानृतं च वाणिज्यं श्ववृत्तिर्नीचसेवनम् ।
वर्जयेत्तां सदा विप्रो राजन्यश्च जुगुप्सिताम् ।
सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २०॥
शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम् ।
ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रह्मलक्षणम् ॥ २१॥
शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजस्त्याग आत्मजयः क्षमा ।
ब्रह्मण्यता प्रसादश्च रक्षा च क्षत्रलक्षणम् ॥ २२॥
देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रिवर्गपरिपोषणम् ।
आस्तिक्यमुद्यमो नित्यं नैपुण्यं वैश्यलक्षणम् ॥ २३॥
शूद्रस्य सन्नतिः शौचं सेवा स्वामिन्यमायया ।
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्ररक्षणम् ॥ २४॥
स्त्रीणां च पतिदेवानां तच्छुश्रूषानुकूलता ।
तद्बन्धुष्वनुवृत्तिश्च नित्यं तद्व्रतधारणम् ॥ २५॥
सम्मार्जनोपलेपाभ्यां गृहमण्डलवर्तनैः ।
स्वयं च मण्डिता नित्यं परिमृष्टपरिच्छदा ॥ २६॥
कामैरुच्चावचैः साध्वी प्रश्रयेण दमेन च ।
वाक्यैः सत्यैः प्रियैः प्रेम्णा काले काले भजेत्पतिम् ॥ २७॥
सन्तुष्टालोलुपा दक्षा धर्मज्ञा प्रियसत्यवाक् ।
अप्रमत्ता शुचिः स्निग्धा पतिं त्वपतितं भजेत् ॥ २८॥
या पतिं हरिभावेन भजेच्छ्रीरिव तत्परा ।
हर्यात्मना हरेर्लोके पत्या श्रीरिव मोदते ॥ २९॥
वृत्तिः सङ्करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत् ।
अचौराणामपापानामन्त्यजान्तेवसायिनाम् ॥ ३०॥
प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे ।
वेददृग्भिः स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत् ॥ ३१॥
वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमानः स्वकर्मकृत् ।
हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात् ॥ ३२॥
उप्यमानं मुहुः क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात् ।
न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति ॥ ३३॥
एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया ।
विरज्येत यथा राजन्नाग्निवत्कामबिन्दुभिः ॥ ३४॥
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो
नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥
सप्तम स्कन्ध-ग्यारहवाँ अध्याय
मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवन्मय प्रह्लादजी के साधुसमाज में सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिर को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नारदजी से और भी पूछा ॥ १ ॥
युधिष्ठिरजी ने कहा—भगवन् ! अब मैं वर्ण और आश्रमों के सदाचार के साथ मनुष्यों के सनातनधर्म का श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात परम पुरुष भगवान की प्राप्ति होती है ॥ २ ॥ आप स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी के पुत्र हैं और नारदजी ! आपकी तपस्या, योग एवं समाधि के कारण वे अपने दूसरे पुत्रों की अपेक्षा आपका अधिक सम्मान, भी करते हैं ॥ ३ ॥ आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्म के गुप्त-से-गुप्त रहस्य को जैसा यथार्थरूप से जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते ॥ ४ ॥
नारदजी ने कहा—युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगत के कल्याण के लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्ति के द्वारा अपने अंश से अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान को नमस्कार करके उन्हींके मुख से सुने हुए सनातनधर्म का मैं वर्णन करता हूँ ॥ ५-६ ॥ युधिष्ठिर ! सर्ववेद स्वरूप भगवान श्रीहरि, उनका तत्त्व जाननेवाले महर्षियों की स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो, वह कर्म धर्म के मूल हैं ॥ ७ ॥
युधिष्ठिर ! धर्म के ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं—सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल उलटा ही होता है—ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परम आश्रय भगवान श्रीकृष्ण के नाम-गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्म-समर्पण— यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान प्रसन्न होते हैं ॥ ८—१२ ॥
धर्मराज ! जिनके वंश में अखण्डरूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजों के लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है ॥ १३ ॥ अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना—ये छ: कर्म ब्राह्मण के हैं। क्षत्रिय को दान नहीं लेना चाहिये। प्रजा की रक्षा करनेवाले क्षत्रिय का जीवन-निर्वाह ब्राह्मण के सिवा और सब से यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदि के द्वारा होता है ॥ १४ ॥ वैश्य को सर्वदा ब्राह्मण वंश का अनुयायी रहकर गोरक्षा, कृषि एवं व्यापार के द्वारा अपनी जीवि का चलानी चाहिये। शूद्र का धर्म है द्विजातियों की सेवा। उसकी जीविका का निर्वाह उसका स्वामी करता है ॥ १५ ॥ ब्राह्मण के जीवन-निर्वाह के साधन चार प्रकार के हैं—वार्ता१, शालीन२, यायावर३ और शिलोञ्छन४[1] । इनमें से पीछे-पीछे की वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं ॥ १६ ॥ निम्रवर्ण का पुरुष बिना आपत्तिकाल के उत्तम वर्ण की वृत्तियों का अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोडक़र ब्राह्मण की शेष पाँचों वृत्तियों का अवलम्बन ले सकता है। आपत्तिकाल में सभी सब वृत्तियों को स्वीकार कर सकते हैं ॥ १७ ॥ ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत—इनमें से किसी भी वृत्ति का आश्रय ले, परंतु श्वानवृत्ति का अवलम्बन कभी न करे ॥ १८ ॥ बाजार में पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतों में पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर ‘शिलोञ्छ’ वृत्ति से जीविका-निर्वाह करना ‘ऋत’ है। बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित (शालीन) वृत्ति के द्वारा जीवन-निर्वाह करना ‘अमृत’ है। नित्य माँगकर लाना अर्थात् ‘ययावर’ वृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करना ‘मृत’ है। कृषि आदि के द्वारा ‘वार्ता’ वृत्ति से जीवन-निर्वाह करना ‘प्रमृत’ है ॥ १९ ॥ वाणिज्य ‘सत्यानृत’ है और निम्रवर्ण की सेवा करना श्वानवृत्ति है। ब्राह्मण और क्षत्रिय को इस अन्तिम निन्दित वृत्ति का कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है ॥ २० ॥
शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता और सत्य—ये ब्राह्मण के लक्षण हैं ॥ २१ ॥ युद्ध में उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजा की रक्षा करना—ये क्षत्रिय के लक्षण हैं ॥ २२ ॥ देवता, गुरु और भगवान के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम—इन तीनों पुरुषार्थों की रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता—ये वैश्य के लक्षण हैं ॥ २३ ॥ उच्च वर्णों के सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामी की निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रों से रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ-ब्राह्मणों की रक्षा करना—ये शूद्र के लक्षण हैं ॥ २४ ॥
पति की सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पति के सम्बन्धियों को प्रसन्न रखना और सर्वदा पति के नियमों की रक्षा करना—ये पति को ही ईश्वर माननेवाली पतिव्रता स्त्रियों के धर्म हैं ॥ २५ ॥ साध्वी स्त्री को चाहिये कि झाडऩे-बुहारने, लीप ने तथा चौक पूर ने आदि से घर को और मनोहर वस्त्राभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत रखे। सामग्रियों को साफ-सुथरी रखे ॥ २६ ॥ अपने पतिदेव की छोटी-बड़ी इच्छाओं को समय के अनुसार पूर्ण करे। विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनों से प्रेमपूर्वक पतिदेव की सेवा करे ॥ २७ ॥ जो कुछ मिल जाय, उसी में सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तु के लिये ललचावे नहीं। सभी कार्यों में चतुर एवं धर्मज्ञ हो। सत्य और प्रिय बोले। अपने कर्तव्य में सावधान रहे। पवित्रता और प्रेम से परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे ॥ २८ ॥ जो लक्ष्मीजी के समान पतिपरायणा होकर अपने पति की उसे साक्षात भगवान का स्वरूप समझकर सेवा करती है, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोक में भगवत्सारूप्य को प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मीजी के समान उनके साथ आनन्दित होती है ॥ २९ ॥
युधिष्ठिर ! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते—उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसङ्कर जातियों की वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परा से उनके यहाँ चली आयी हैं ॥ ३० ॥ वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्राय: मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है ॥ ३१ ॥ जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊ पर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है ॥ ३२ ॥ महाराज ! जिस प्रकार बार-बार बो ने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अङ्कुर उगना बंद हो जाता है, यहाँ तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है—उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओं का खजाना है, विषयों का अत्यन्त सेवन करने से स्वयं ही ऊब जाता है। परंतु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालने से आग नहीं बुझती, परंतु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह बुझ जाती है ॥ ३३-३४ ॥ जिस पुरुष के वर्ण को बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये ॥ ३५ ॥
[1] १. यज्ञाध्ययनादि कराकर धन लेना। २. बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी में निर्वाह करना। ३. नित्यप्रति धान्यादि माँग लाना। ४. किसान के खेत काटकर अन्न घर को ले जाने पर पृथ्वी पर जो कण पड़े रह जाते हैं, उन्हें ‘शिल’ तथा बाजार में पड़े हुए अन्न के दानों को ‘उञ्छ’ कहते हैं। उन शिल और उञ्छों को बीनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोञ्छन’ वृत्ति है।
॥ द्वादशोऽध्यायः - १२ ॥
नारद उवाच
ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन् दान्तो गुरोर्हितम् ।
आचरन् दासवन्नीचो गुरौ सुदृढसौहृदः ॥ १॥
सायं प्रातरुपासीत गुर्वग्न्यर्कसुरोत्तमान् ।
उभे सन्ध्ये च यतवाग्जपन् ब्रह्म समाहितः ॥ २॥
छन्दांस्यधीयीत गुरोराहूतश्चेत्सुयन्त्रितः ।
उपक्रमेऽवसाने च चरणौ शिरसा नमेत् ॥ ३॥
मेखलाजिनवासांसि जटादण्डकमण्डलून् ।
बिभृयादुपवीतं च दर्भपाणिर्यथोदितम् ॥ ४॥
सायं प्रातश्चरेद्भैक्षं गुरवे तन्निवेदयेत् ।
भुञ्जीत यद्यनुज्ञातो नो चेदुपवसेत्क्वचित् ॥ ५॥
सुशीलो मितभुग्दक्षः श्रद्दधानो जितेन्द्रियः ।
यावदर्थं व्यवहरेत्स्त्रीषु स्त्रीनिर्जितेषु च ॥ ६॥
वर्जयेत्प्रमदागाथामगृहस्थो बृहद्व्रतः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्त्यपि यतेर्मनः ॥ ७॥
केशप्रसाधनोन्मर्दस्नपनाभ्यञ्जनादिकम् ।
गुरुस्त्रीभिर्युवतिभिः कारयेन्नात्मनो युवा ॥ ८॥
नन्वग्निः प्रमदा नाम घृतकुम्भसमः पुमान् ।
सुतामपि रहो जह्यादन्यदा यावदर्थकृत् ॥ ९॥
कल्पयित्वाऽऽत्मना यावदाभासमिदमीश्वरः ।
द्वैतं तावन्न विरमेत्ततो ह्यस्य विपर्ययः ॥ १०॥
एतत्सर्वं गृहस्थस्य समाम्नातं यतेरपि ।
गुरुवृत्तिर्विकल्पेन गृहस्थस्यर्तुगामिनः ॥ ११॥
अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु ।
स्रग्गन्धलेपालङ्कारांस्त्यजेयुर्ये धृतव्रताः ॥ १२॥
उषित्वैवं गुरुकुले द्विजोऽधीत्यावबुध्य च ।
त्रयीं साङ्गोपनिषदं यावदर्थं यथाबलम् ॥ १३॥
दत्त्वा वरमनुज्ञातो गुरोः कामं यदीश्वरः ।
गृहं वनं वा प्रविशेत्प्रव्रजेत्तत्र वा वसेत् ॥ १४॥
अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेष्वधोक्षजम् ।
भूतैः स्वधामभिः पश्येदप्रविष्टं प्रविष्टवत् ॥ १५॥
एवं विधो ब्रह्मचारी वानप्रस्थो यतिर्गृही ।
चरन् विदितविज्ञानः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ १६॥
वानप्रस्थस्य वक्ष्यामि नियमान् मुनिसम्मतान् ।
यानातिष्ठन् मुनिर्गच्छेदृषिलोकमिहाञ्जसा ॥ १७॥
न कृष्टपच्यमश्नीयादकृष्टं चाप्यकालतः ।
अग्निपक्वमथामं वा अर्कपक्वमुताहरेत् ॥ १८॥
वन्यैश्चरुपुरोडाशान् निर्वपेत्कालचोदितान् ।
लब्धे नवे नवेऽन्नाद्ये पुराणं तु परित्यजेत् ॥ १९॥
अग्न्यर्थमेव शरणमुटजं वाद्रिकन्दराम् ।
श्रयेत हिमवाय्वग्निवर्षार्कातपषाट् स्वयम् ॥ २०॥
केशरोमनखश्मश्रुमलानि जटिलो दधत् ।
कमण्डल्वजिने दण्डवल्कलाग्निपरिच्छदान् ॥ २१॥
चरेद्वने द्वादशाब्दानष्टौ वा चतुरो मुनिः ।
द्वावेकं वा यथा बुद्धिर्न विपद्येत कृच्छ्रतः ॥ २२॥
यदाकल्पः स्वक्रियायां व्याधिभिर्जरयाथवा ।
आन्वीक्षिक्यां वा विद्यायां कुर्यादनशनादिकम् ॥ २३॥
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य सन्न्यस्याहंममात्मताम् ।
कारणेषु न्यसेत्सम्यक् सङ्घातं तु यथार्हतः ॥ २४॥
खे खानि वायौ निश्वासांस्तेजस्यूष्माणमात्मवान् ।
अप्स्वसृक्श्लेष्मपूयानि क्षितौ शेषं यथोद्भवम् ॥ २५॥
वाचमग्नौ सवक्तव्यामिन्द्रे शिल्पं करावपि ।
पदानि गत्या वयसि रत्योपस्थं प्रजापतौ ॥ २६॥
मृत्यौ पायुं विसर्गं च यथास्थानं विनिर्दिशेत् ।
दिक्षु श्रोत्रं सनादेन स्पर्शमध्यात्मनि त्वचम् ॥ २७॥
रूपाणि चक्षुषा राजन् ज्योतिष्यभिनिवेशयेत् ।
अप्सु प्रचेतसा जिह्वां घ्रेयैर्घ्राणं क्षितौ न्यसेत् ॥ २८॥
मनो मनोरथैश्चन्द्रे बुद्धिं बोध्यैः कवौ परे ।
कर्माण्यध्यात्मना रुद्रे यदहंममताक्रिया ।
सत्त्वेन चित्तं क्षेत्रज्ञे गुणैर्वैकारिकं परे ॥ २९॥
अप्सु क्षितिमपो ज्योतिष्यदो वायौ नभस्यमुम् ।
कूटस्थे तच्च महति तदव्यक्तेऽक्षरे च तत् ॥ ३०॥
इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं चिन्मात्रमवशेषितम् ।
ज्ञात्वाद्वयोऽथ विरमेद्दग्धयोनिरिवानलः ॥ ३१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम
द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
सप्तम स्कन्ध-बारहवाँ अध्याय
ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमों के नियम
नारदजी कहते हैं—धर्मराज ! गुरुकुल में निवास करनेवाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर दासके समान अपने को छोटा माने, गुरुदेव के चरणों में सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हित के कार्य करता रहे ॥ १ ॥ सायंकाल और प्रात:काल गुरु, अग्रि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओं की उपासना करे और मौन होकर एकाग्रता से गायत्री का जप करता हुआ दोनों समय की सन्ध्या करे ॥ २ ॥ गुरुजी जब बुलावें तभी पूर्णतया अनुशासन में रहकर उनसे वेदों का स्वाध्याय करे। पाठ के प्रारम्भ और अन्त में उनके चरणों में सिर टेककर प्रणाम करे ॥ ३ ॥ शास्त्र की आज्ञा के अनुसार मेखला, मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड, कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथ में कुश धारण करे ॥ ४ ॥ सायंकाल और प्रात:काल भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरुजी को समर्पित कर दे। वे आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा न दें तो उपवास कर ले ॥ ५ ॥ अपने शील की रक्षा करे। थोड़ा खाये। अपने कामों को निपुणता के साथ करे। श्रद्धा रखे और इन्द्रियों को अपने वश में रखे। स्त्री और स्त्रियों के वश में रहनेवालों के साथ जितनी आवश्यकता हो, उतना ही व्यवहार करे ॥ ६ ॥ जो गृहस्थ नहीं हैं और ब्रह्मचर्य का व्रत लिये हुए हैं, उसे स्त्रियों की चर्चा से ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् हैं। ये प्रयत्नपूर्वक साधन करनेवालों के मन को भी क्षुब्ध करके खींच लेती हैं ॥ ७ ॥ युवक ब्रह्मचारी युवती गुरुपत्नियों से बाल सुलझवाना, शरीर मलवाना, स्नान करवाना, उबटन लगवाना इत्यादि कार्य न करावे ॥ ८ ॥ स्त्रियाँ आग के समान हैं और पुरुष घी के घड़े के समान। एकान्त में तो अपनी कन्या के साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्त में न हो, तब भी आवश्यकता के अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये ॥ ९ ॥ जब तक यह जीव आत्मसाक्षातकार के द्वारा इन देह और इन्द्रियों को प्रतीतिमात्र निश्चय करके स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तब तक ‘मैं पुरुष हूँ और यह स्त्री है’—यह द्वैत नहीं मिटता। और तब तक यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्री के संसर्ग में रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्यबुद्धि हो ही जायगी ॥ १० ॥
ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थ के लिये और संन्यासी के लिये भी विहित हैं। गृहस्थ के लिये गुरुकुल में रहकर गुरु की सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमन के कारण उसे वहाँ से अलग भी होना पड़ता है ॥ ११ ॥ जो ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सुरमा या तेल न लगावें। उबटन न मलें। स्त्रियों के चित्र न बनावें। मांस और मद्य से कोई सम्बन्ध न रखें। फूलों के हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणों का त्याग कर दें ॥ १२ ॥ इस प्रकार गुरुकुल में निवास करके द्विजाति को अपनी शक्ति और आवश्यकता के अनुसार वेद, उनके अङ्ग—शिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदों का अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥ १३ ॥ फिर यदि सामथ्र्य हो तो गुरु को मुँहमाँगी दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञा से गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास-आश्रम में प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए उसी आश्रम में रहे ॥ १४ ॥ यद्यपि भगवान स्वरूपत: सर्वत्र एकरस स्थित हैं, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकता—फिर भी अग्रि, गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियों में अपने आश्रित जीवों के साथ वे विशेषरूप से विराजमान हैं। इसलिये उन पर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिये ॥ १५ ॥ इस प्रकार आचरण करनेवाला ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी अथवा गृहस्थ विज्ञानसम्पन्न होकर परब्रह्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त कर लेता है ॥ १६ ॥
अब मैं ऋषियों के मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रम के नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करने से वानप्रस्थ-आश्रमी को अनायास ही ऋषियों के लोक महर्लोक की प्राप्ति हो जाती है ॥ १७ ॥ वानप्रस्थ-आश्रमी को जोती हुई भूमि में उत्पन्न होनेवाले चावल, गेहूँ आदि अन्न नहीं खा ने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमय में प का हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आग से पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाय। केवल सूर्य के ताप से प के हुए कन्द, मूल, फल आदि का ही सेवन करे ॥ १८ ॥ जंगलों में अपने-आप पैदा हुए धान्यों से नित्य-नैमित्तिक चरु और पुरोडाश का हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिल ने लगें, तब पहले के इकट्ठेकिये हुए अन्न का परित्याग कर दे ॥ १९ ॥ अग्रिहोत्र के अग्रि की रक्षा के लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाडक़ी गुफा का आश्रय ले। स्वयं शीत, वायु, अग्रि, वर्षा और घाम का सहन करे ॥ २० ॥ सिर पर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैल को भी शरीर से अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र और अग्रिहोत्र की सामग्रियों को अपने पास रखे ॥ २१ ॥ विचारवान् पुरुष को चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्ष तक वानप्रस्थ-आश्रम के नियमों का पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्या का क्लेश सहन करने से बुद्धि बिगड़ न जाय ॥ २२ ॥
वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापे के कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त- विचार करने की भी सामथ्र्य न रहे, तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये ॥ २३ ॥ अनशन के पूर्व ही वह अपने आहवनीय आदि अग्रियों को अपनी आत्मा में लीन कर ले। ‘मैंपन’ और ‘मेरेपन’ का त्याग करके शरीर को उसके कारण भूत तत्त्वों में यथायोग्य भलीभाँति लीन करे ॥ २४ ॥ जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीर के छिद्राकाशों को आकाश में, प्राणों को वायु में, गरमी को अग्रि में, रक्त, कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वों को जल में और हड्डी आदि ठोस वस्तुओं को पृथ्वी में लीन करे ॥ २५ ॥ इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषण को उसके अधिष्ठातृ-देवता अग्रि में, हाथ और उसके द्वारा होनेवाले कला-कौशल को इन्द्र में, चरण और उसकी गति को काल स्वरूप विष्णु में, रति और उपस्थ को प्रजापति में एवं पायु और मलोत्सर्ग को उनके आश्रय के अनुसार मृत्यु में लीन कर दे। श्रोत्र और उसके द्वारा सुने जानेवाले शब्द को दिशाओं में, स्पर्श और त्वचा को वायु में, नेत्रसहित रूप को ज्योति में, मधुर आदि रसके सहित[1] रसनेन्द्रिय को जल में और युधिष्ठिर ! घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा
सूँघे जानेवाले गन्ध को पृथ्वी में लीन कर दे ॥ २६—२८ ॥ मनोरथों के साथ मन को चन्द्रमा में, समझ में आनेवाले पदार्थों के सहित बुद्धि को ब्रह्मा में तथा अहंता और ममतारूप क्रिया करनेवाले अहंकार को उसके कर्मों के साथ रुद्र में लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना-सहित चित्त को क्षेत्रज्ञ (जीव) में और गुणों के कारण विकारी- से प्रतीत होनेवाले जीव को परब्रह्म में लीन कर दे ॥ २९ ॥ साथ ही पृथ्वी का जल में, जल का अग्रि में, अग्रि का वायु में, वायु का आकाश में, आकाश का अहंकार में, अहंकार का महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व का अव्यक्त में और अव्यक्त का अविनाशी परमात्मा में लय कर दे ॥ ३० ॥ इस प्रकार अविनाशी परमात्मा के रूप में अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँ—यह जानकर
अद्वितीय भाव में स्थित हो जाय। जैसे अपने आश्रय काष्ठादि के भस्म हो जाने पर अग्रि शान्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, वैसे ही वह भी उपरत हो जाय ॥ ३१ ॥
[1] यहाँ मूल में ‘प्रचेतसा’ पद है, जिसका अर्थ ‘वरुण के सहित’ होता है। वरुण रसनेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं। श्रीधरस्वामी ने भी इसी मत को स्वीकार किया है। परंतु इस प्रसङ्ग में सर्वत्र इन्द्रिय और उसके विषय का अधिष्ठातृदेव में लय करना बताया गया है, फिर रसनेन्द्रिय के लिये ही नया क्रम युक्तियुक्त नहीं जँचता। इसलिये यहाँ श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती के मतानुसार ‘प्रचेतसा’ पद का (‘प्रकृष्टं चेतो यत्र स प्रचेतो मधुरादिरसस्तेन’—जिसकी ओर चित्त अधिक आकृष्ट हो, वह मधुरादि रस ‘प्रचेतस्’ है, उसके सहित) इस विग्रह के अनुसार प्रस्तुत अर्थ किया गया है और यही युक्तियुक्त मालूम होता है।
॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥
नारद उवाच
कल्पस्त्वेवं परिव्रज्य देहमात्रावशेषितः ।
ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्चरेन्महीम् ॥ १॥
बिभृयाद्यद्यसौ वासः कौपीनाच्छादनं परम् ।
त्यक्तं न दण्डलिङ्गादेरन्यत्किञ्चिदनापदि ॥ २॥
एक एव चरेद्भिक्षुरात्मारामोऽनपाश्रयः ।
सर्वभूतसुहृच्छान्तो नारायणपरायणः ॥ ३॥
पश्येदात्मन्यदो विश्वं परे सदसतोऽव्यये ।
आत्मानं च परं ब्रह्म सर्वत्र सदसन्मये ॥ ४॥
सुप्तिप्रबोधयोः सन्धावात्मनो गतिमात्मदृक् ।
पश्यन् बन्धं च मोक्षं च मायामात्रं न वस्तुतः ॥ ५॥
नाभिनन्देद्ध्रुवं मृत्युमध्रुवं वास्य जीवितम् ।
कालं परं प्रतीक्षेत भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ६॥
नासच्छास्त्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम् ।
वादवादांस्त्यजेत्तर्कान् पक्षं कं च न संश्रयेत् ॥ ७॥
न शिष्याननुबध्नीत ग्रन्थान् नैवाभ्यसेद्बहून् ।
न व्याख्यामुपयुञ्जीत नारम्भानारभेत्क्वचित् ॥ ८॥
न यतेराश्रमः प्रायो धर्महेतुर्महात्मनः ।
शान्तस्य समचित्तस्य बिभृयादुत वा त्यजेत् ॥ ९॥
अव्यक्तलिङ्गो व्यक्तार्थो मनीष्युन्मत्तबालवत् ।
कविर्मूकवदात्मानं स दृष्ट्या दर्शयेन्नृणाम् ॥ १०॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ ११॥
तं शयानं धरोपस्थे कावेर्यां सह्यसानुनि ।
रजस्वलैस्तनूदेशैर्निगूढामलतेजसम् ॥ १२॥
ददर्श लोकान् विचरन् लोकतत्त्वविवित्सया ।
वृतोऽमात्यैः कतिपयैः प्रह्लादो भगवत्प्रियः ॥ १३॥
कर्मणाऽऽकृतिभिर्वाचा लिङ्गैर्वर्णाश्रमादिभिः ।
न विदन्ति जना यं वै सोऽसाविति न वेति च ॥ १४॥
तं नत्वाभ्यर्च्य विधिवत्पादयोः शिरसा स्पृशन् ।
विवित्सुरिदमप्राक्षीन्महाभागवतोऽसुरः ॥ १५॥
बिभर्षि कायं पीवानं सोद्यमो भोगवान् यथा ।
वित्तं चैवोद्यमवतां भोगो वित्तवतामिह ।
भोगिनां खलु देहोऽयं पीवा भवति नान्यथा ॥ १६॥
न ते शयानस्य निरुद्यमस्य
ब्रह्मन् नु हार्थो यत एव भोगः ।
अभोगिनोऽयं तव विप्र देहः
पीवा यतस्तद्वद नः क्षमं चेत् ॥ १७॥
कविः कल्पो निपुणदृक् चित्रप्रियकथः समः ।
लोकस्य कुर्वतः कर्म शेषे तद्वीक्षितापि वा ॥ १८॥
नारद उवाच
स इत्थं दैत्यपतिना परिपृष्टो महामुनिः ।
स्मयमानस्तमभ्याह तद्वागमृतयन्त्रितः ॥ १९॥
ब्राह्मण उवाच
वेदेदमसुरश्रेष्ठ भवान् नन्वार्यसम्मतः ।
ईहोपरमयोर्नॄणां पदान्यध्यात्मचक्षुषा ॥ २०॥
यस्य नारायणो देवो भगवान् हृद्गतः सदा ।
भक्त्या केवलयाज्ञानं धुनोति ध्वान्तमर्कवत् ॥ २१॥
अथापि ब्रूमहे प्रश्नांस्तव राजन् यथाश्रुतम् ।
सम्भावनीयो हि भवानात्मनः शुद्धिमिच्छताम् ॥ २२॥
तृष्णया भववाहिन्या योग्यैः कामैरपूरया ।
कर्माणि कार्यमाणोऽहं नानायोनिषु योजितः ॥ २३॥
यदृच्छया लोकमिमं प्रापितः कर्मभिर्भ्रमन् ।
स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं तिरश्चां पुनरस्य च ॥ २४॥
अत्रापि दम्पतीनां च सुखायान्यापनुत्तये ।
कर्माणि कुर्वतां दृष्ट्वा निवृत्तोऽस्मि विपर्ययम् ॥ २५॥
सुखमस्यात्मनो रूपं सर्वेहोपरतिस्तनुः ।
मनःसंस्पर्शजान् दृष्ट्वा भोगान् स्वप्स्यामि संविशन् ॥ २६॥
इत्येतदात्मनः स्वार्थं सन्तं विस्मृत्य वै पुमान् ।
विचित्रामसति द्वैते घोरामाप्नोति संसृतिम् ॥ २७॥
जलं तदुद्भवैश्छन्नं हित्वाज्ञो जलकाम्यया ।
मृगतृष्णामुपाधावेद्यथान्यत्रार्थदृक् स्वतः ॥ २८॥
देहादिभिर्दैवतन्त्रैरात्मनः सुखमीहतः ।
दुःखात्ययं चानीशस्य क्रिया मोघाः कृताः कृताः ॥ २९॥
आध्यात्मिकादिभिर्दुःखैरविमुक्तस्य कर्हिचित् ।
मर्त्यस्य कृच्छ्रोपनतैरर्थैः कामैः क्रियेत किम् ॥ ३०॥
पश्यामि धनिनां क्लेशं लुब्धानामजितात्मनाम् ।
भयादलब्धनिद्राणां सर्वतोऽभिविशङ्किनाम् ॥ ३१॥
राजतश्चौरतः शत्रोः स्वजनात्पशुपक्षितः ।
अर्थिभ्यः कालतः स्वस्मान्नित्यं प्राणार्थवद्भयम् ॥ ३२॥
शोकमोहभयक्रोधरागक्लैब्यश्रमादयः ।
यन्मूलाः स्युर्नृणां जह्यात्स्पृहां प्राणार्थयोर्बुधः ॥ ३३॥
मधुकारमहासर्पौ लोकेऽस्मिन् नो गुरूत्तमौ ।
वैराग्यं परितोषं च प्राप्ता यच्छिक्षया वयम् ॥ ३४॥
विरागः सर्वकामेभ्यः शिक्षितो मे मधुव्रतात् ।
कृच्छ्राप्तं मधुवद्वित्तं हत्वाप्यन्यो हरेत्पतिम् ॥ ३५॥
अनीहः परितुष्टात्मा यदृच्छोपनतादहम् ।
नो चेच्छये बह्वहानि महाहिरिव सत्त्ववान् ॥ ३६॥
क्वचिदल्पं क्वचिद्भूरि भुञ्जेऽन्नं स्वाद्वस्वादु वा ।
क्वचिद्भूरि गुणोपेतं गुणहीनमुत क्वचित् ॥ ३७॥
श्रद्धयोपहृतं क्वापि कदाचिन्मानवर्जितम् ।
भुञ्जे भुक्त्वाथ कस्मिंश्चिद्दिवा नक्तं यदृच्छया ॥ ३८॥
क्षौमं दुकूलमजिनं चीरं वल्कलमेव वा ।
वसेऽन्यदपि सम्प्राप्तं दिष्टभुक् तुष्टधीरहम् ॥ ३९॥
क्वचिच्छये धरोपस्थे तृणपर्णाश्मभस्मसु ।
क्वचित्प्रासादपर्यङ्के कशिपौ वा परेच्छया ॥ ४०॥
क्वचित्स्नातोऽनुलिप्ताङ्गः सुवासाः स्रग्व्यलङ्कृतः ।
रथेभाश्वैश्चरे क्वापि दिग्वासा ग्रहवद्विभो ॥ ४१॥
नाहं निन्दे न च स्तौमि स्वभावविषमं जनम् ।
एतेषां श्रेय आशासे उतैकात्म्यं महात्मनि ॥ ४२॥
विकल्पं जुहुयाच्चित्तौ तां मनस्यर्थविभ्रमे ।
मनो वैकारिके हुत्वा तन्मायायां जुहोत्यनु ॥ ४३॥
आत्मानुभूतौ तां मायां जुहुयात्सत्यदृङ्मुनिः ।
ततो निरीहो विरमेत्स्वानुभूत्याऽऽत्मनि स्थितः ॥ ४४॥
स्वात्मवृत्तं मयेत्थं ते सुगुप्तमपि वर्णितम् ।
व्यपेतं लोकशास्त्राभ्यां भवान् हि भगवत्परः ॥ ४५॥
नारद उवाच
धर्मं पारमहंस्यं वै मुनेः श्रुत्वासुरेश्वरः ।
पूजयित्वा ततः प्रीत आमन्त्र्य प्रययौ गृहम् ॥ ४६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे यतिधर्मं नाम
त्रयोदशाध्यायः ॥ १३॥
सप्तम स्कन्ध-तेरहवाँ अध्याय
यतिधर्म का निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद
नारदजी कहते हैं—धर्मराज ! यदि वानप्रस्थी में ब्रह्मविचार का सामथ्र्य हो, तो शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोडक़र वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँव में एक ही रात ठहर ने का नियम लेकर पृथ्वी पर विचरण करे ॥ १ ॥ यदि वह वस्त्र पह ने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अङ्ग ढक जायँ। और जब तक कोई आपत्ति न आवे, तब तक दण्ड तथा अपने आश्रम के चिह्नों के सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करे ॥ २ ॥ संन्यासी को चाहिये कि वह समस्त प्राणियों का हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसी का आश्रय न लेकर अपने-आप में ही रमे एवं अकेला ही विचरे ॥ ३ ॥ इस सम्पूर्ण विश्व को कार्य और कारण से अतीत परमात्मा में अध्यस्त जाने और कार्य-कारण स्वरूप इस जगत में ब्रह्म स्वरूप अपने आत्मा को परिपूर्ण देखे ॥ ४ ॥ आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरण की सन्धि में अपने स्वरूप का अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया हैं, वस्तुत: कुछ नहीं—ऐसा समझे ॥ ५ ॥ न तो शरीर की अवश्य होनेवाली मृत्यु का अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवनका। केवल समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और नाश के कारण काल की प्रतीक्षा करता रहे ॥ ६ ॥ असत्य—अनात्मवस्तु का प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों से प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाह के लिये कोई जीवि का न करे, केवल वाद-विवाद के लिये कोई तर्क न करे और संसार में किसी का पक्ष न ले ॥ ७ ॥ शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत- से ग्रन्थों का अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामों का आरम्भ न करे ॥ ८ ॥ शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासी के लिये किसी आश्रम का बन्धन धर्म का कारण नहीं है। वह अपने आश्रम के चिह्नों को धारण करे, चाहे छोड़ दे ॥ ९ ॥ उसके पास कोई आश्रम का चिह्न न हो, परंतु वह आत्मानुसन्धान में मग्र हो। हो तो अत्यन्त विचारशील, परंतु जान पड़े पागल और बालक की तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होने पर भी साधारण मनुष्यों की दृष्टि से ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है ॥ १० ॥
युधिष्ठिर ! इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद ॥ ११ ॥ एक बार भगवान के परम प्रेमी प्रह्लादजी कुछ मन्ङ्क्षत्रयों के साथ लोगों के हृदय की बात जान ने की इच्छा से लोकों में विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सह्य पर्वत की तलहटी में कावेरी नदी के तट पर पृथ्वी पर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीर की निर्मल ज्योति अङ्गों के धूलि-धूसरित होने के कारण ढ की हुई थी ॥ १२-१३ ॥ उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदि के चिह्नों से लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं ॥ १४ ॥ भगवान के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजी ने अपने सिर से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जान ने की इच्छा से यह प्रश्र किया ॥ १५ ॥ ‘भगवन् ! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषों के समान हृष्ट-पुष्ट है। संसार का यह नियम है कि उद्योग करनेवालों को धन मिलता है, धनवालों को ही भोग प्राप्त होता है और भोगियों का ही शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता ॥ १६ ॥ भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पड़े रहते हैं। इसलिये आपके पास धन है नहीं। फिर आपको भोग कहाँ से प्राप्त होंगे ? ब्राह्मणदेवता ! बिना भोग के ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुननेयोग्य हो, तो अवश्य बतलाइये ॥ १७ ॥ आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं। ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है ?’ ॥ १८ ॥
नारदजी कहते हैं—धर्मराज ! जब प्रह्लादजी ने महामुनि दत्तात्रेयजी से इस प्रकार प्रश्र किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणी के वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले ॥ १९ ॥
दत्तात्रेयजी ने कहा—दैत्यराज ! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं। मनुष्यों को कर्मों की प्रवृत्ति और उनकी निवृत्ति का क्या फल मिलता है, यह बात तुम अपनी ज्ञानदृष्टि से जानते ही हो ॥ २० ॥ तुम्हारी अनन्य भक्ति के कारण देवाधिदेव भगवान नारायण सदा तुम्हारे हृदय में विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञान को नष्ट करते रहते हैं ॥ २१ ॥ तो भी प्रह्लाद ! मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्रों का उत्तर देता हूँ। क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियों को तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये ॥ २२ ॥
प्रह्लादजी ! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझ से न जाने कित ने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला ॥ २३ ॥ कर्मों के कारण अनेकों योनियों में भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्ययोनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानवदेह की भी प्राप्ति का द्वार है—इसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदि की योनि, निवृत्त हो जायँ तो मोक्ष और दोनों प्रकार के कर्म किये जायँ तो फिर मनुष्य-योनि की ही प्राप्ति हो सकती है ॥ २४ ॥ परंतु मैं देखता हूँ कि संसार के स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति और दु:ख की निवृत्ति के लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता ही है—वे और भी दु:ख में पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मों से उपरत हो गया हूँ ॥ २५ ॥
सुख ही आत्मा का स्वरूप है। समस्त चेष्टाओं की निवृत्ति ही उसका शरीर—उसके प्रकाशित होने का स्थान है। इसलिये समस्त भोगों को मनोराज्यमात्र समझकर मैं अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ ॥ २६ ॥ मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ अर्थात् वास्तविक सुख को, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैत को सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयङ्कर और विचित्र जन्मों और मृत्युओं में भटकता रहता है ॥ २७ ॥ जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिन के और सेवार से ढ के हुए जल को जल न समझकर जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समझनेवाला पुरुष आत्मा को छोडक़र विषयों की ओर दौड़ता है ॥ २८ ॥ प्रह्लादजी ! शरीर आदि तो प्रारब्ध के अधीन हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दु:ख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं ॥ २९ ॥ मनुष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक आदि दु:खों से आक्रान्त ही रहता है। मरणशील तो है ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्ट से कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है ? ॥ ३० ॥ लोभी और इन्द्रियों के वश में रहनेवाले धनियों का दु:ख तो मैं देखता ही रहता हूँ। भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती। सब पर उनका सन्देह बना रहता है ॥ ३१ ॥ जो जीवन और धन के लोभी हैं—वे राजा, चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और कालसे, यहाँ तक कि ‘कहीं मैं भूल न कर बैठूँ, अधिक न खर्च कर दूँ’—इस आशङ्का से अपने-आप से भी सदा डरते रहते हैं ॥ ३२ ॥ इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और श्रम आदि का शिकार होना पड़ता है—उस धन और जीवन की स्पृहा का त्याग कर दे ॥ ३३ ॥
इस लोक में मेरे सब से बड़े गुरु हैं—अजगर और मधुमक्खी। उनकी शिक्षा से हमें वैराग्य और सन्तोष की प्राप्ति हुई है ॥ ३४ ॥ मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठाकरती है, वैसे ही लोग बड़े कष्ट से धन-सञ्चय करते हैं; परंतु दूसरा ही कोई उस धन-राशि के स्वामी को मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगों से विरक्त ही रहना चाहिये ॥ ३५ ॥ मैं अजगर के समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश जो कुछ मिल जाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ नहीं मिलता, तो बहुत दिनों तक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता हूँ ॥ ३६ ॥ कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरस—बेस्वाद; और कभी अनेकों गुणों से युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन ॥ ३७ ॥ कभी बड़ी श्रद्धा से प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमान के साथ और किसी-किसी समय अपने-आप ही मिल जाने पर कभी दिन में, कभी रात में और कभी एक बार भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ ॥ ३८ ॥ मैं अपने प्रारब्ध के भोग में ही सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ—जैसा भी वस्त्र मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ ॥ ३९ ॥ कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राख के ढेर पर ही पड़ रहता हूँ, तो कभी दूसरों की इच्छा से महलों में पलँगों और गद्दों पर सो लेता हूँ ॥ ४० ॥ दैत्यराज ! कभी नहा-धोकर, शरीर में चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलों के हार और गह ने पहन रथ, हाथी और घोड़े पर चढक़र चलता हूँ, तो कभी पिशाच के समान बिलकुल नंग-धड़ंग विचरता हूँ ॥ ४१ ॥ मनुष्यों के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अत: न तो मैं किसी की निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मा से एकता चाहता हूँ ॥ ४२ ॥
सत्य का अनुसन्धान करनेवाले मनुष्य को चाहिये कि जो नाना प्रकार के पदार्थ और उनके भेद- विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उन को चित्तवृत्ति में हवन कर दे। चित्तवृत्ति को इन पदार्थों के सम्बन्ध में विविध भ्रम उत्पन्न करनेवाले मन में, मन को सात्त्विक अहंकार में और सात्त्विक अहंकार को महत्तत्त्व के द्वारा माया में हवन कर दे। इस प्रकार ये सब भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे। इस प्रकार आत्मसाक्षातकार के द्वारा आत्म स्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय ॥ ४३-४४ ॥ प्रह्लादजी ! मेरी यह आत्म कथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्र से परे की वस्तु है। तुम भगवान के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है ॥ ४५ ॥
नारदजी कहते हैं—महाराज ! प्रह्लादजी ने दत्तात्रेय मुनि से परमहंसों के इस धर्म का श्रवण करके उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान किया ॥ ४६ ॥
॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥
युधिष्ठिर उवाच
गृहस्थ एतां पदवीं विधिना येन चाञ्जसा ।
याति देवऋषे ब्रूहि मादृशो गृहमूढधीः ॥ १॥
नारद उवाच
गृहेष्ववस्थितो राजन् क्रियाः कुर्वन् गृहोचिताः ।
वासुदेवार्पणं साक्षादुपासीत महामुनीन् ॥ २॥
शृण्वन् भगवतोऽभीक्ष्णमवतारकथामृतम् ।
श्रद्दधानो यथाकालमुपशान्तजनावृतः ॥ ३॥
सत्सङ्गाच्छनकैः सङ्गमात्मजायात्मजादिषु ।
विमुच्येन्मुच्यमानेषु स्वयं स्वप्नवदुत्थितः ॥ ४॥
यावदर्थमुपासीनो देहे गेहे च पण्डितः ।
विरक्तो रक्तवत्तत्र नृलोके नरतां न्यसेत् ॥ ५॥
ज्ञातयः पितरौ पुत्रा भ्रातरः सुहृदोऽपरे ।
यद्वदन्ति यदिच्छन्ति चानुमोदेत निर्ममः ॥ ६॥
दिव्यं भौमं चान्तरीक्षं वित्तमच्युतनिर्मितम् ।
तत्सर्वमुपयुञ्जान एतत्कुर्यात्स्वतो बुधः ॥ ७॥
यावद्भ्रियेत जठरं तावत्स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥ ८॥
मृगोष्ट्रखरमर्काखुसरीसृप्खगमक्षिकाः ।
आत्मनः पुत्रवत्पश्येत्तैरेषामन्तरं कियत् ॥ ९॥
त्रिवर्गं नातिकृच्छ्रेण भजेत गृहमेध्यपि ।
यथादेशं यथाकालं यावद्दैवोपपादितम् ॥ १०॥
आश्वाघान्तेऽवसायिभ्यः कामान् संविभजेद्यथा ।
अप्येकामात्मनो दारां नृणां स्वत्वग्रहो यतः ॥ ११॥
जह्याद्यदर्थे स्वप्राणान् हन्याद्वा पितरं गुरुम् ।
तस्यां स्वत्वं स्त्रियां जह्याद्यस्तेन ह्यजितो जितः ॥ १२॥
कृमिविड्भस्मनिष्ठान्तं क्वेदं तुच्छं कलेवरम् ।
क्व तदीयरतिर्भार्या क्वायमात्मा नभश्छदिः ॥ १३॥
सिद्धैर्यज्ञावशिष्टार्थैः कल्पयेद्वृत्तिमात्मनः ।
शेषे स्वत्वं त्यजन् प्राज्ञः पदवीं महतामियात् ॥ १४॥
देवान् ऋषीन् नृभूतानि पितॄनात्मानमन्वहम् ।
स्ववृत्त्यागतवित्तेन यजेत पुरुषं पृथक् ॥ १५॥
यर्ह्यात्मनोऽधिकाराद्याः सर्वाः स्युर्यज्ञसम्पदः ।
वैतानिकेन विधिना अग्निहोत्रादिना यजेत् ॥ १६॥
न ह्यग्निमुखतोयं वै भगवान् सर्वयज्ञभुक् ।
इज्येत हविषा राजन् यथा विप्रमुखे हुतैः ॥ १७॥
तस्माद्ब्राह्मणदेवेषु मर्त्यादिषु यथार्हतः ।
तैस्तैः कामैर्यजस्वैनं क्षेत्रज्ञं ब्राह्मणाननु ॥ १८॥
कुर्यादापरपक्षीयं मासि प्रौष्ठपदे द्विजः ।
श्राद्धं पित्रोर्यथावित्तं तद्बन्धूनां च वित्तवान् ॥ १९॥
अयने विषुवे कुर्याद्व्यतीपाते दिनक्षये ।
चन्द्रादित्योपरागे च द्वादशीश्रवणेषु च ॥ २०॥
तृतीयायां शुक्लपक्षे नवम्यामथ कार्तिके ।
चतसृष्वप्यष्टकासु हेमन्ते शिशिरे तथा ॥ २१॥
माघे च सितसप्तम्यां मघाराकासमागमे ।
राकया चानुमत्या वा मासर्क्षाणि युतान्यपि ॥ २२॥
द्वादश्यामनुराधा स्याच्छ्रवणस्तिस्र उत्तराः ।
तिसृष्वेकादशी वाऽऽसु जन्मर्क्षश्रोणयोगयुक् ॥ २३॥
त एते श्रेयसः काला नृणां श्रेयोविवर्धनाः ।
कुर्यात्सर्वात्मनैतेषु श्रेयोऽमोघं तदायुषः ॥ २४॥
एषु स्नानं जपो होमो व्रतं देवद्विजार्चनम् ।
पितृदेवनृभूतेभ्यो यद्दत्तं तद्ध्यनश्वरम् ॥ २५॥
संस्कारकालो जायाया अपत्यस्यात्मनस्तथा ।
प्रेतसंस्था मृताहश्च कर्मण्यभ्युदये नृप ॥ २६॥
अथ देशान् प्रवक्ष्यामि धर्मादिश्रेय आवहन् ।
स वै पुण्यतमो देशः सत्पात्रं यत्र लभ्यते ॥ २७॥
बिम्बं भगवतो यत्र सर्वमेतच्चराचरम् ।
यत्र ह ब्राह्मणकुलं तपोविद्यादयान्वितम् ॥ २८॥
यत्र यत्र हरेरर्चा स देशः श्रेयसां पदम् ।
यत्र गङ्गादयो नद्यः पुराणेषु च विश्रुताः ॥ २९॥
सरांसि पुष्करादीनि क्षेत्राण्यर्हाश्रितान्युत ।
कुरुक्षेत्रं गयशिरः प्रयागः पुलहाश्रमः ॥ ३०॥
नैमिषं फाल्गुनं सेतुः प्रभासोऽथ कुशस्थली ।
वाराणसी मधुपुरी पम्पा बिन्दुसरस्तथा ॥ ३१॥
नारायणाश्रमो नन्दा सीतारामाश्रमादयः ।
सर्वे कुलाचला राजन् महेन्द्रमलयादयः ॥ ३२॥
एते पुण्यतमा देशा हरेरर्चाश्रिताश्च ये ।
एतान् देशान् निषेवेत श्रेयस्कामो ह्यभीक्ष्णशः ।
धर्मो ह्यत्रेहितः पुंसां सहस्राधिफलोदयः ॥ ३३॥
पात्रं त्वत्र निरुक्तं वै कविभिः पात्रवित्तमैः ।
हरिरेवैक उर्वीश यन्मयं वै चराचरम् ॥ ३४॥
देवर्ष्यर्हत्सु वै सत्सु तत्र ब्रह्मात्मजादिषु ।
राजन् यदग्रपूजायां मतः पात्रतयाच्युतः ॥ ३५॥
जीवराशिभिराकीर्ण आण्डकोशाङ्घ्रिपो महान् ।
तन्मूलत्वादच्युतेज्या सर्वजीवात्मतर्पणम् ॥ ३६॥
पुराण्यनेन सृष्टानि नृतिर्यगृषिदेवताः ।
शेते जीवेन रूपेण पुरेषु पुरुषो ह्यसौ ॥ ३७॥
तेष्वेषु भगवान् राजंस्तारतम्येन वर्तते ।
तस्मात्पात्रं हि पुरुषो यावानात्मा यथेयते ॥ ३८॥
दृष्ट्वा तेषां मिथो नृणामवज्ञानात्मतां नृप ।
त्रेतादिषु हरेरर्चा क्रियायै कविभिः कृता ॥ ३९॥
ततोऽर्चायां हरिं केचित्संश्रद्धाय सपर्यया ।
उपासत उपास्तापि नार्थदा पुरुषद्विषाम् ॥ ४०॥
पुरुषेष्वपि राजेन्द्र सुपात्रं ब्राह्मणं विदुः ।
तपसा विद्यया तुष्ट्या धत्ते वेदं हरेस्तनुम् ॥ ४१॥
नन्वस्य ब्राह्मणा राजन् कृष्णस्य जगदात्मनः ।
पुनन्तः पादरजसा त्रिलोकीं दैवतं महत् ॥ ४२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे सदाचारनिर्णयो चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥
सप्तम स्कन्ध-चौदहवाँ अध्याय
गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
राजा युधिष्ठिर ने पूछा—देवर्षि नारदजी ! मेरे जैसा गृहासक्त गृहस्थ बिना विशेष परिश्रम के इस पद को किस साधन से प्राप्त कर सकता है, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ १ ॥
नारदजी ने कहा—युधिष्ठिर ! मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहे और गृहस्थ-धर्म के अनुसार सब काम करे, परंतु उन्हें भगवान के प्रति समर्पित कर दे और बड़े-बड़े संत-महात्माओं की सेवा भी करे ॥ २ ॥ अवकाश के अनुसार विरक्त पुरुषों में निवास करे और बार-बार श्रद्धापूर्वक भगवान के अवतारों की लीला-सुधा का पान करता रहे ॥ ३ ॥ जैसे स्वप्न टूट जाने पर मनुष्य स्वप्न के सम्बन्धियों से आसक्त नहीं रहता—वैसे ही ज्यों-ज्यों सत्सङ्ग के द्वारा बुद्धि शुद्ध हो, त्यों-ही-त्यों शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि की आसक्ति स्वयं छोड़ता चले। क्योंकि एक-न-एक दिन ये छूटनेवाले ही हैं ॥ ४ ॥ बुद्धिमान पुरुष को आवश्यकता के अनुसार ही घर और शरीर की सेवा करनी चाहिये, अधिक नहीं। भीतर से विरक्त रहे और बाहर से रागी के समान लोगों में साधारण मनुष्यों-जैसा ही व्यवहार कर ले ॥ ५ ॥ माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-मित्र, जातिवाले और दूसरे जो कुछ कहें अथवा जो कुछ चाहें, भीतर से ममता न रखकर उनका अनुमोदन कर दे ॥ ६ ॥
बुद्धिमान पुरुष वर्षा आदि के द्वारा होनेवाले अन्नादि, पृथ्वी से उत्पन्न होनेवाले सुवर्ण आदि, अकस्मात् प्राप्त होनेवाले द्रव्य आदि तथा और सब प्रकार के धन भगवान के ही दिये हुए हैं—ऐसा समझकर प्रारब्ध के अनुसार उनका उपभोग करता हुआ सञ्चय न करे, उन्हें पूर्वोक्त साधुसेवा आदि कर्मों में लगा दे ॥ ७ ॥ मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जित ने से उनकी भूख मिट जाय। इससे अधिक सम्पत्ति को जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये ॥ ८ ॥ हरिन, ऊँट, गधा, बंदर, चूहा, सरीसृप (रेंगकर चलनेवाले प्राणी), पक्षी और मक्खी आदि को अपने पुत्र के समान ही समझे। उनमें और पुत्रों में अन्तर ही कितना है ॥ ९ ॥ गृहस्थ मनुष्यों को भी धर्म, अर्थ और काम के लिये बहुत कष्ट नहीं उठाना चाहिये; बल्कि देश, काल और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाय, उसी से सन्तोष करना चाहिये ॥ १० ॥ अपनी समस्त भोग-सामग्रियों को कुत्ते, पतित और चाण्डालपर्यन्त सब प्राणियों को यथायोग्य बाँटकर ही अपने काम में लाना चाहिये। और तो क्या, अपनी स्त्री को भी—जिसे मनुष्य समझता है कि यह मेरी है—अतिथि आदि की निर्दोष सेवा में नियुक्त रखे ॥ ११ ॥ लोग स्त्री के लिये अपने प्राण तक दे डालते हैं। यहाँ तक कि अपने मा-बाप और गुरु को भी मार डालते हैं। उस स्त्री पर से जिस ने अपनी ममता हटा ली, उसने स्वयं नित्यविजयी भगवान पर भी विजय प्राप्त कर ली ॥ १२ ॥ यह शरीर अन्त में कीड़े, विष्ठा या राख की ढेरी होकर रहेगा। कहाँ तो यह तुच्छ शरीर और इसके लिये जिसमें आसक्ति होती है वह स्त्री, और कहाँ अपनी महिमा से आकाश को भी ढक रखनेवाला अनन्त आत्मा ! ॥ १३ ॥
गृहस्थ को चाहिये कि प्रारब्ध से प्राप्त और पञ्चयज्ञ आदि से बचे हुए अन्न से ही अपना जीवन- निर्वाह करे। जो बुद्धिमान पुरुष इसके सिवा और किसी वस्तु में स्वत्व नहीं रखते, उन्हें संतों का पद प्राप्त होता है ॥ १४ ॥ अपनी वर्णाश्रमविहित वृत्ति के द्वारा प्राप्त सामग्रियों से प्रतिदिन देवता, ऋषि, मनुष्य, भूत और पितृगण का तथा अपने आत्मा का पूजन करना चाहिये। यह एक ही परमेश्वर की भिन्न-भिन्न रूपों में आराधना है ॥ १५ ॥ यदि अपने को अधिकार आदि यज्ञ के लिये आवश्यक सब वस्तुएँ प्राप्त हों तो बड़े-बड़े यज्ञ या अग्रिहोत्र आदि के द्वारा भगवान की आराधना करनी चाहिये ॥ १६ ॥ युधिष्ठिर ! वैसे तो समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान ही हैं; परंतु ब्राह्मण के मुख में अर्पित किये हुए हविष्यान्न से उनकी जैसी तृप्ति होती है, वैसी अग्रि के मुख में हवन करने से नहीं ॥ १७ ॥ इसलिये ब्राह्मण, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणियों में यथायोग्य, उनके उपयुक्त सामग्रियों के द्वारा सब के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान भगवान की पूजा करनी चाहिये। इनमें प्रधानता ब्राह्मणों की ही है ॥ १८ ॥
धनी द्विज को अपने धन के अनुसार आश्विन मासके कृष्णपक्ष में अपने माता-पिता तथा उनके बन्धुओं (पितामह, मातामह आदि) का भी महालय श्राद्ध करना चाहिये ॥ १९ ॥ इसके सिवा अयन (कर्क एवं मकर की संक्रान्ति), विषुव (तुला और मेष की संक्रान्ति), व्यतीपात, दिनक्षय, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण के समय, द्वादशी के दिन, श्रवण, धनिष्ठा और अनुराधा नक्षत्रों में, वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ला नवमी (अक्षय नवमी), अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन—इन चार महीनों की कृष्णाष्टमी, माघशुक्ला सप्तमी, माघ की मघा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा और प्रत्येक महीने की वह पूर्णिमा, जो अपने मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आदि से युक्त हो—चाहे चन्द्रमा पूर्ण हों या अपूर्ण; द्वादशी तिथि का अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपदा के साथ योग, एकादशी तिथि का तीनों उत्तरा नक्षत्रों से योग अथवा जन्म-नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र से योग—ये सारे समय पितृगणों का श्राद्ध करने योग्य एवं श्रेष्ठ हैं। ये योग केवल श्राद्ध के लिये ही नहीं, सभी पुण्यकर्मों के लिये उपयोगी हैं। ये कल्याण की साधना के उपयुक्त और शुभ की अभिवृद्धि करनेवाले हैं। इन अवसरों पर अपनी पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करने चाहिये। इसी में जीवन की सफलता है ॥ २०—२४ ॥ इन शुभ संयोगों में जो स्नान, जप, होम, व्रत तथा देवता और ब्राह्मणों की पूजा की जाती है अथवा जो कुछ देवता, पितर, मनुष्य एवं प्राणियों को समर्पित किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है ॥ २५ ॥ युधिष्ठिर ! इसी प्रकार स्त्री के पुंसवन आदि, सन्तान के जातकर्मादि तथा अपने यज्ञ-दीक्षा आदि संस्कारों के समय, शव-दाह के दिन या वार्षिक श्राद्ध के उपलक्ष्य में अथवा अन्य माङ्गलिक कर्मों में दान आदि शुभ कर्म करने चाहिये ॥ २६ ॥
युधिष्ठिर ! अब मैं उन स्थानों का वर्णन करता हूँ, जो धर्म आदि श्रेय की प्राप्ति करानेवाले हैं। सब से पवित्र देश वह है, जिसमें सत्पात्र मिलते हों ॥ २७ ॥ जिन में यह सारा चर और अचर जगत स्थित है, उन भगवान की प्रतिमा जिस देश में हो, जहाँ तप, विद्या एवं दया आदि गुणों से युक्त ब्राह्मणों के परिवार निवास करते हों तथा जहाँ-जहाँ भगवान की पूजा होती हो और पुराणों में प्रसिद्ध गङ्गा आदि नदियाँ हों, वे सभी स्थान परम कल्याणकारी हैं ॥ २८-२९ ॥ पुष्कर आदि सरोवर, सिद्ध पुरुषों के द्वारा सेवित क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम (शालग्रामक्षेत्र) नैमिषारण्य, फाल्गुनक्षेत्र, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, बिन्दुसरोवर, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, भगवान सीतारामजी के आश्रम—अयोध्या-चित्रकूटादि, महेन्द्र और मलय आदि समस्त कुलपर्वत और जहाँ-जहाँ भगवान के अर्चावतार हैं—वे सब-के-सब देश अत्यन्त पवित्र हैं। कल्याणकामी पुरुष को बार-बार इन देशों का सेवन करना चाहिये। इन स्थानों पर जो पुण्यकर्म किये जाते हैं, मनुष्यों को उनका हजारगुना फल मिलता है ॥ ३०—३३ ॥
युधिष्ठिर ! पात्र-निर्णय के प्रसङ्ग में पात्र के गुणों को जाननेवाले विवे की पुरुषों ने एकमात्र भगवान को ही सत्पात्र बतलाया है। यह चराचर जगत उन्हीं का स्वरूप है ॥ ३४ ॥ अभी तुम्हारे इसी यज्ञ की बात है; देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकों के रहने पर भी अग्रपूजा के लिये भगवान श्रीकृष्ण को ही पात्र समझा गया ॥ ३५ ॥ असंख्य जीवों से भरपूर इस ब्रह्माण्डरूप महावृक्ष के एकमात्र मूल भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिये उनकी पूजा से समस्त जीवों की आत्मा तृप्त हो जाती है ॥ ३६ ॥ उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदि के शरीररूप पुरों की रचना की है तथा वे ही इन पुरों में जीवरूप से शयन भी करते हैं। इसीसे उनका एक नाम ‘पुरुष’ भी है ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिर ! एकरस रहते हुए भी भगवान इन मनुष्यादि शरीरों में उनकी विभिन्नता के कारण न्यूनाधिकरूप से प्रकाशमान हैं। इसलिये पशु-पक्षी आदि शरीरों की अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्यों में भी, जिसमें भगवान का अंश—तप-योगादि जितना ही अधिक पाया जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ है ॥ ३८ ॥
युधिष्ठिर ! त्रेता आदि युगों में जब विद्वानों ने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरे का अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगों ने उपासना की सिद्धि के लिये भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की ॥ ३९ ॥ तभी से कित ने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्री से प्रतिमा में ही भगवान की पूजा करते हैं। परंतु जो मनुष्य से द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमा की उपासना करने पर भी सिद्धि नहीं मिल सकती ॥ ४० ॥ युधिष्ठिर ! मनुष्यों में भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है। क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणों से भगवान के वेदरूप शरीर को धारण करता है ॥ ४१ ॥ महाराज ! हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्या—ये जो सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण हैं, इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही हैं। क्योंकि उनके चरणों की धूल से तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं ॥ ४२ ॥
॥ पञ्चदशोऽध्यायः - १५ ॥
नारद उवाच
कर्मनिष्ठा द्विजाः केचित्तपोनिष्ठा नृपापरे ।
स्वाध्यायेऽन्ये प्रवचने ये केचिज्ज्ञानयोगयोः ॥ १॥
ज्ञाननिष्ठाय देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता ।
दैवे च तदभावे स्यादितरेभ्यो यथार्हतः ॥ २॥
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा ।
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम् ॥ ३॥
देशकालोचितश्रद्धा द्रव्यपात्रार्हणानि च ।
सम्यग्भवन्ति नैतानि विस्तरात्स्वजनार्पणात् ॥ ४॥
देशे काले च सम्प्राप्ते मुन्यन्नं हरिदैवतम् ।
श्रद्धया विधिवत्पात्रे न्यस्तं कामधुगक्षयम् ॥ ५॥
देवर्षिपितृभूतेभ्य आत्मने स्वजनाय च ।
अन्नं संविभजन् पश्येत्सर्वं तत्पुरुषात्मकम् ॥ ६॥
न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याद्धर्मतत्त्ववित् ।
मुन्यन्नैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ॥ ७॥
नैतादृशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम् ।
न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः ॥ ८॥
एके कर्ममयान् यज्ञान् ज्ञानिनो यज्ञवित्तमाः ।
आत्मसंयमनेऽनीहा जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ ९॥
द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणं दृष्ट्वा भूतानि बिभ्यति ।
एष माकरुणो हन्यादतज्ज्ञो ह्यसुतृप् ध्रुवम् ॥ १०॥
तस्माद्दैवोपपन्नेन मुन्यन्नेनापि धर्मवित् ।
सन्तुष्टोऽहरहः कुर्यान्नित्यनैमित्तिकीः क्रियाः ॥ ११॥
विधर्मः परधर्मश्च आभास उपमा छलः ।
अधर्मशाखाः पञ्चेमा धर्मज्ञोऽधर्मवत्त्यजेत् ॥ १२॥
धर्मबाधो विधर्मः स्यात्परधर्मोऽन्यचोदितः ।
उपधर्मस्तु पाखण्डो दम्भो वा शब्दभिच्छलः ॥ १३॥
यस्त्विच्छया कृतः पुम्भिराभासो ह्याश्रमात्पृथक् ।
स्वभावविहितो धर्मः कस्य नेष्टः प्रशान्तये ॥ १४॥
धर्मार्थमपि नेहेत यात्रार्थं वाधनो धनम् ।
अनीहानीहमानस्य महाहेरिव वृत्तिदा ॥ १५॥
सन्तुष्टस्य निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत्सुखम् ।
कुतस्तत्कामलोभेन धावतोऽर्थेहया दिशः ॥ १६॥
सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः ।
शर्कराकण्टकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम् ॥ १७॥
सन्तुष्टः केन वा राजन्न वर्तेतापि वारिणा ।
औपस्थ्यजैह्व्यकार्पण्याद्गृहपालायते जनः ॥ १८॥
असन्तुष्टस्य विप्रस्य तेजो विद्या तपो यशः ।
स्रवन्तीन्द्रियलौल्येन ज्ञानं चैवावकीर्यते ॥ १९॥
कामस्यान्तं च क्षुत्तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात् ।
जनो याति न लोभस्य जित्वा भुक्त्वा दिशो भुवः ॥ २०॥
पण्डिता बहवो राजन् बहुज्ञाः संशयच्छिदः ।
सदसस्पतयोऽप्येके असन्तोषात्पतन्त्यधः ॥ २१॥
असङ्कल्पाज्जयेत्कामं क्रोधं कामविवर्जनात् ।
अर्थानर्थेक्षया लोभं भयं तत्त्वावमर्शनात् ॥ २२॥
आन्वीक्षिक्या शोकमोहौ दम्भं महदुपासया ।
योगान्तरायान् मौनेन हिंसां कायाद्यनीहया ॥ २३॥
कृपया भूतजं दुःखं दैवं जह्यात्समाधिना ।
आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया ॥ २४॥
रजस्तमश्च सत्त्वेन सत्त्वं चोपशमेन च ।
एतत्सर्वं गुरौ भक्त्या पुरुषो ह्यञ्जसा जयेत् ॥ २५॥
यस्य साक्षाद्भगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ ।
मर्त्यासद्धीः श्रुतं तस्य सर्वं कुञ्जरशौचवत् ॥ २६॥
एष वै भगवान् साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः ।
योगेश्वरैर्विमृग्याङ्घ्रिर्लोको यं मन्यते नरम् ॥ २७॥
षड्वर्गसंयमैकान्ताः सर्वा नियमचोदनाः ।
तदन्ता यदि नो योगानावहेयुः श्रमावहाः ॥ २८॥
यथा वार्तादयो ह्यर्था योगस्यार्थं न बिभ्रति ।
अनर्थाय भवेयुस्ते पूर्तमिष्टं तथासतः ॥ २९॥
यश्चित्तविजये यत्तः स्यान्निःसङ्गोऽपरिग्रहः ।
एको विविक्तशरणो भिक्षुर्भिक्षामिताशनः ॥ ३०॥
देशे शुचौ समे राजन् संस्थाप्यासनमात्मनः ।
स्थिरं समं सुखं तस्मिन्नासीतर्ज्वङ्ग ओमिति ॥ ३१॥
प्राणापानौ सन्निरुध्यात्पूरकुम्भकरेचकैः ।
यावन्मनस्त्यजेत्कामान् स्वनासाग्रनिरीक्षणः ॥ ३२॥
यतो यतो निःसरति मनः कामहतं भ्रमत् ।
ततस्तत उपाहृत्य हृदि रुन्ध्याच्छनैर्बुधः ॥ ३३॥
एवमभ्यस्यतश्चित्तं कालेनाल्पीयसा यतेः ।
अनिशं तस्य निर्वाणं यात्यनिन्धनवह्निवत् ॥ ३४॥
कामादिभिरनाविद्धं प्रशान्ताखिलवृत्ति यत् ।
चित्तं ब्रह्मसुखस्पृष्टं नैवोत्तिष्ठेत कर्हिचित् ॥ ३५॥
यः प्रव्रज्य गृहात्पूर्वं त्रिवर्गावपनात्पुनः ।
यदि सेवेत तान् भिक्षुः स वै वान्ताश्यपत्रपः ॥ ३६॥
यैः स्वदेहः स्मृतो नात्मा मर्त्यो विट्कृमिभस्मसात् ।
त एनमात्मसात्कृत्वा श्लाघयन्ति ह्यसत्तमाः ॥ ३७॥
गृहस्थस्य क्रियात्यागो व्रतत्यागो वटोरपि ।
तपस्विनो ग्रामसेवा भिक्षोरिन्द्रियलोलता ॥ ३८॥
आश्रमापसदा ह्येते खल्वाश्रमविडम्बकाः ।
देवमायाविमूढांस्तानुपेक्षेतानुकम्पया ॥ ३९॥
आत्मानं चेद्विजानीयात्परं ज्ञानधुताशयः ।
किमिच्छन् कस्य वा हेतोर्देहं पुष्णाति लम्पटः ॥ ४०॥
आहुः शरीरं रथमिन्द्रियाणि
हयानभीषून् मन इन्द्रियेशम् ।
वर्त्मानि मात्रा धिषणां च सूतं
सत्त्वं बृहद्बन्धुरमीशसृष्टम् ॥ ४१॥
अक्षं दशप्राणमधर्मधर्मौ
चक्रेऽभिमानं रथिनं च जीवम् ।
धनुर्हि तस्य प्रणवं पठन्ति
शरं तु जीवं परमेव लक्ष्यम् ॥ ४२॥
रागो द्वेषश्च लोभश्च शोकमोहौ भयं मदः ।
मानोऽवमानोऽसूया च माया हिंसा च मत्सरः ॥ ४३॥
रजः प्रमादः क्षुन्निद्रा शत्रवस्त्वेवमादयः ।
रजस्तमःप्रकृतयः सत्त्वप्रकृतयः क्वचित् ॥ ४४॥
यावन्नृ&कायरथमात्मवशोपकल्पं
धत्ते गरिष्ठचरणार्चनया निशातम्,
ज्ञानासिमच्युतबलो दधदस्तशत्रुः
स्वाराज्यतुष्ट उपशान्त इदं विजह्यात् ।४५॥
नोचेत्प्रमत्तमसदिन्द्रियवाजिसूता
नीत्वोत्पथं विषयदस्युषु निक्षिपन्ति,
ते दस्यवः सहयसूतममुं तमोऽन्धे
संसारकूप उरुमृत्युभये क्षिपन्ति ॥ ४६॥
प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम् ।
आवर्तते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम् ॥ ४७॥
हिंस्रं द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्यशान्तिदम् ।
दर्शश्च पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुः सुतः ॥ ४८॥
एतदिष्टं प्रवृत्ताख्यं हुतं प्रहुतमेव च ।
पूर्तं सुरालयारामकूपाजीव्यादिलक्षणम् ॥ ४९॥
द्रव्यसूक्ष्मविपाकश्च धूमो रात्रिरपक्षयः ।
अयनं दक्षिणं सोमो दर्श ओषधिवीरुधः ॥ ५०॥
अन्नं रेत इति क्ष्मेश पितृयानं पुनर्भवः ।
एकैकश्येनानुपूर्वं भूत्वा भूत्वेह जायते ।५१॥
निषेकादिश्मशानान्तैः संस्कारैः संस्कृतो द्विजः ।
इन्द्रियेषु क्रियायज्ञान् ज्ञानदीपेषु जुह्वति ॥ ५२॥
इन्द्रियाणि मनस्यूर्मौ वाचि वैकारिकं मनः ।
वाचं वर्णसमाम्नाये तमोंकारे स्वरे न्यसेत् ।
ओंकारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम् ॥ ५३॥
अग्निः सूर्यो दिवा प्राह्णः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट् ।
विश्वश्च तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात् ॥ ५४॥
देवयानमिदं प्राहुर्भूत्वा भूत्वानुपूर्वशः ।
आत्मयाज्युपशान्तात्मा ह्यात्मस्थो न निवर्तते ॥ ५५॥
य एते पितृदेवानामयने वेदनिर्मिते ।
शास्त्रेण चक्षुषा वेद जनस्थोऽपि न मुह्यति ॥ ५६॥
आदावन्ते जनानां सद्बहिरन्तः परावरम् ।
ज्ञानं ज्ञेयं वचो वाच्यं तमो ज्योतिस्त्वयं स्वयम् ॥ ५७॥
आबाधितोऽपि ह्याभासो यथा वस्तुतया स्मृतः ।
दुर्घटत्वादैन्द्रियकं तद्वदर्थविकल्पितम् ॥ ५८॥
क्षित्यादीनामिहार्थानां छाया न कतमापि हि ।
न सङ्घातो विकारोऽपि न पृथङ् नान्वितो मृषा ॥ ५९॥
धातवोऽवयवित्वाच्च तन्मात्रावयवैर्विना ।
न स्युर्ह्यसत्यवयविन्यसन्नवयवोऽन्ततः ॥ ६०॥
स्यात्सादृश्यभ्रमस्तावद्विकल्पे सति वस्तुनः ।
जाग्रत्स्वापौ यथा स्वप्ने तथा विधिनिषेधता ॥ ६१॥
भावाद्वैतं क्रियाद्वैतं द्रव्याद्वैतं तथाऽऽत्मनः ।
वर्तयन् स्वानुभूत्येह त्रीन् स्वप्नान् धुनुते मुनिः ॥ ६२॥
कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनं पटतन्तुवत् ।
अवस्तुत्वाद्विकल्पस्य भावाद्वैतं तदुच्यते ॥ ६३॥
यद्ब्रह्मणि परे साक्षात्सर्वकर्मसमर्पणम् ।
मनोवाक्तनुभिः पार्थ क्रियाद्वैतं तदुच्यते ॥ ६४॥
आत्मजायासुतादीनामन्येषां सर्वदेहिनाम् ।
यत्स्वार्थकामयोरैक्यं द्रव्याद्वैतं तदुच्यते ॥ ६५॥
यद्यस्य वानिषिद्धं स्याद्येन यत्र यतो नृप ।
स तेनेहेत कार्याणि नरो नान्यैरनापदि ॥ ६६॥
एतैरन्यैश्च वेदोक्तैर्वर्तमानः स्वकर्मभिः ।
गृहेऽप्यस्य गतिं यायाद्राजंस्तद्भक्तिभाङ् नरः ॥ ६७॥
यथा हि यूयं नृपदेव दुस्त्यजा-
दापद्गणादुत्तरतात्मनः प्रभोः ।
यत्पादपङ्केरुहसेवया भवा-
नहारषीन्निर्जितदिग्गजः क्रतून् ॥ ६८॥
अहं पुराभवं कश्चिद्गन्धर्व उपबर्हणः ।
नाम्नातीते महाकल्पे गन्धर्वाणां सुसम्मतः ॥ ६९॥
रूपपेशलमाधुर्यसौगन्ध्यप्रियदर्शनः ।
स्त्रीणां प्रियतमो नित्यं मत्तः स्वपुरुलम्पटः ।७०॥
एकदा देवसत्रे तु गन्धर्वाप्सरसां गणाः ।
उपहूता विश्वसृग्भिर्हरिगाथोपगायने ॥ ७१॥
अहं च गायंस्तद्विद्वान् स्त्रीभिः परिवृतो गतः ।
ज्ञात्वा विश्वसृजस्तन्मे हेलनं शेपुरोजसा ।
याहि त्वं शूद्रतामाशु नष्टश्रीः कृतहेलनः ॥ ७२॥
तावद्दास्यामहं जज्ञे तत्रापि ब्रह्मवादिनाम् ।
शुश्रूषयानुषङ्गेण प्राप्तोऽहं ब्रह्मपुत्रताम् ॥ ७३॥
धर्मस्ते गृहमेधीयो वर्णितः पापनाशनः ।
गृहस्थो येन पदवीमञ्जसा न्यासिनामियात् ॥ ७४॥
यूयं नृलोके बत भूरिभागा
लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति ।
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्गूढं
परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ॥ ७५॥
स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्यं
कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः ।
प्रियः सुहृद्वः खलु मातुलेय
आत्मार्हणीयो विधिकृद्गुरुश्च ॥ ७६॥
न यस्य साक्षाद्भवपद्मजादिभी
रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम् ।
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः
प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ॥ ७७॥
श्रीशुक उवाच
इति देवर्षिणा प्रोक्तं निशम्य भरतर्षभः ।
पूजयामास सुप्रीतः कृष्णं च प्रेमविह्वलः ॥ ७८॥
कृष्णपार्थावुपामन्त्र्य पूजितः प्रययौ मुनिः ।
श्रुत्वा कृष्णं परं ब्रह्म पार्थः परमविस्मितः ॥ ७९॥
इति दाक्षायिणीनां ते पृथग्वंशा प्रकीर्तिताः ।
देवासुरमनुष्याद्या लोका यत्र चराचराः ॥ ८०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे
सदाचारनिर्णयो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥
॥ इति सप्तमस्कन्धः समाप्तः ॥
ॐ तत्सत् ॥
सप्तम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय
गृहस्थों के लिये मोक्षधर्म का वर्णन
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! कुछ ब्राह्मणों की निष्ठा कर्म में, कुछ की तपस्या में, कुछ की वेदों के स्वाध्याय और प्रवचन में, कुछ की आत्मज्ञान के सम्पादन में तथा कुछ की योग में होती है ॥ १ ॥ गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजा के अवसर पर अपने कर्म का अक्षय फल प्राप्त करने के लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुष को ही हव्य-कव्य का दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदि को यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ॥ २ ॥ देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होने पर भी श्राद्धकर्म में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये ॥ ३ ॥ क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनों को दे ने से और विस्तार करने से देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते ॥ ४ ॥ देश और काल के प्राप्त होने पर ऋषि-मुनियों के भोजन करनेयोग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान को भोग लगाकर श्रद्धा से विधिपूर्वक योग्य पात्र को देना चाहिये। वह समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ॥ ५ ॥ देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने-आपको भी अन्न का विभाजन करने के समय परमात्म स्वरूप ही देखे ॥ ६ ॥
धर्म का मर्म जाननेवाला पुरुष श्राद्ध में मांस का अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाय; क्योंकि पितरों को ऋषि-मुनियों के योग्य हविष्यान्न से जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी पशु-हिंसा से नहीं होती ॥ ७ ॥ जो लोग सद्धर्मपालन की अभिलाषा रखते हैं, उनके लिये इससे बढक़र और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणी को मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाय ॥ ८ ॥ इसीसे कोई- कोई यज्ञ-तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी ज्ञान के द्वारा प्रज्वलित आत्मसंयमरूप अग्रि में इन कर्ममय यज्ञों का हवन कर देते हैं और बाह्य कर्म-कलापों से उपरत हो जाते हैं ॥ ९ ॥ जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञों से यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोच ने लगते हैं कि यह अपने प्राणों का पोषण करनेवाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा ॥ १० ॥ इसलिये धर्मज्ञ मनुष्य को यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्ध के द्वारा प्राप्त मुनिजनोचित हविष्यान्न से ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसी से सर्वदा सन्तुष्ट रहे ॥ ११ ॥
अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं—विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्म के समान ही इनका भी त्याग कर दे ॥ १२ ॥ जिस कार्य को धर्मबुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पड़े, वह ‘विधर्म’ है। किसी अन्य के द्वारा अन्य पुरुष के लिये उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’ है। पाखण्ड या दम्भ का नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्र के वचनों का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना ‘छल’ है ॥ १३ ॥ मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है, वह ‘आभास’ है। अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला कि से शान्ति नहीं देते ॥ १४ ॥
धर्मात्मा पुरुष निर्धन होने पर भी धर्म के लिये अथवा शरीर-निर्वाह के लिये धन प्राप्त करने की चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकार की चेष्टा किये अजगर की जीवि का चलती ही है, वैसे ही निवृत्तिपरायण पुरुष की निवृत्ति ही उसकी जीविका का निर्वाह कर देती है ॥ १५ ॥ जो सुख अपनी आत्मा में रमण करनेवाले निष्ङ्क्षक्रय सन्तोषी पुरुष को मिलता है, वह उस मनुष्य को भला कैसे मिल सकता है, जो कामना और लोभ से धन के लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है ॥ १६ ॥ जैसे पैरों में जूता पहनकर चलनेवाले को कंकड़ और काँटों से कोई डर नहीं होता—वैसे ही जिसके मन में सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख-ही-सुख है, दु:ख है ही नहीं ॥ १७ ॥ युधिष्ठिर ! न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्र से ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवन का निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के फेर में पडक़र यह बेचारा घर की चौकसी करनेवाले कुत्ते के समान हो जाता है ॥ १८ ॥ जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियों की लोलुपता के कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है ॥ १९ ॥ भूख और प्यास मिट जाने पर खाने-पी ने की कामना का अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परंतु यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को जीत ले और भोग ले, तब भी लोभ का अन्त नहीं होता ॥ २० ॥ अनेक विषयों के ज्ञाता, शङ्काओं का समाधान करके चित्त में शास्त्रोक्त अर्थ को बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओं के सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोष के कारण गिर जाते हैं ॥ २१ ॥
धर्मराज ! संकल्पों के परित्याग से काम को, कामनाओं के त्याग से क्रोध को, संसारी लोग जिसे ‘अर्थ’ कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभ को और तत्त्व के विचार से भय को जीत लेना चाहिये ॥ २२ ॥ अध्यात्मविद्या से शोक और मोहपर, संतों की उपासना से दम्भपर, मौन के द्वारा योग के विघ्रों पर और शरीर-प्राण आदि को निश्चेष्ट करके हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये ॥ २३ ॥ आधिभौतिक दु:ख को दया के द्वारा, आधिदैविक वेदना को समाधि के द्वारा और आध्यात्मिक दु:ख को योगबल से एवं निद्रा को सात्त्विक भोजन, सथान, सङ्ग आदि के सेवन से जीत लेना चाहिये ॥ २४ ॥ सत्त्वगुण के द्वारा रजोगुण एवं तमोगुण पर और उपरति के द्वारा सत्त्वगुण पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदेव की भक्ति के द्वारा साधक इन सभी दोषों पर सुगमता से विजय प्राप्त कर सकता है ॥ २५ ॥ हृदय में ज्ञान का दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात भगवान ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथी के स्नान के समान व्यर्थ है ॥ २६ ॥ बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलों का अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुष के अधीश्वर वे स्वयं भगवान ही गुरुदेव के रूप में प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रम से मनुष्य मानते हैं ॥ २७ ॥
शास्त्रों में जित ने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर—इन छ: शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा पाँचों इन्द्रिय और मन—ये छ: वश में हो जायँ। ऐसा होने पर भी यदि उन नियमों के द्वारा भगवान के ध्यान-चिन्तन आदि की प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये ॥ २८ ॥ जैसे खेती, व्यापार आदि और उनके फल भी योग-साधना के फल भगवत्प्राप्ति या मुक्ति को नहीं दे सकते—वैसे ही दुष्ट पुरुष के श्रौत-स्मार्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते, प्रत्युत उलटा फल देते हैं ॥ २९ ॥
जो पुरुष अपने मन पर विजय प्राप्त करने के लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रह का त्याग करके संन्यास ग्रहण करे। एकान्त में अकेला ही रहे और भिक्षा-वृत्ति से शरीर-निर्वाहमात्र के लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ॥ ३० ॥ युधिष्ठिर ! पवित्र और समान भूमि पर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर-भाव से समान और सुखकर आसन से उसपर बैठकर ॐकार का जप करे ॥ ३१ ॥ जब तक मन संकल्प-विकल्पों को छोड़ न दे, तब तक नासि का के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचक द्वारा प्राण तथा अपान की गति को रो के ॥ ३२ ॥ काम की चोट से घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह वहाँ- वहाँ से उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदय में रो के ॥ ३३ ॥ जब साधक निरन्तर इस प्रकार का अभ्यास करता है, तब र्ईंधन के बिना जैसे अग्रि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समय में उसका चित्त शान्त हो जाता है ॥ ३४ ॥ इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्द के संस्पर्श में मग्र हो जाता है और फिर उसका कभी उत्थान नहीं होता ॥ ३५ ॥
जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और काम के मूल कारण गृहस्थाश्रम का परित्याग कर देता है और फिर उन्हीं का सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुए को खानेवाला कुत्ता ही है ॥ ३६ ॥ जिन्हों ने अपने शरीर को अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था—वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं ॥ ३७ ॥ कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँव में रहनेवाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी—ये चारों आश्रम के कलङ्क हैं और व्यर्थ ही आश्रमों का ढोंग करते हैं। भगवान की माया से विमोहित उन मूढ़ों पर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये ॥ ३८-३९ ॥ आत्मज्ञान के द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी हैं और जिस ने अपने आत्मा को परब्रह्म स्वरूप जान लिया है, वह किस विषय की इच्छा और किस भोक्ता की तृप्ति के लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीर का पोषण करेगा ? ॥ ४० ॥
उपनिषदों में कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान के द्वारा निर्मित बाँध ने की विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। ॐकार ही उस रथी का धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐकार के द्वारा अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिये) ॥ ४१-४२ ॥ राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद—ये सब, और ऐसे ही जीवों के और भी बहुत- से शत्रु हैं। उनमें रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक हैं, कहीं-कहीं कोई- कोई सत्त्वगुणप्रधान ही होती हैं ॥ ४३-४४ ॥ यह मनुष्य-शरीररूप रथ जब तक अपने वश में है और इसके इन्द्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशा में विद्यमान हैं, तभी तक श्रीगुरुदेव के चरणकमलों की सेवा-पूजा से शान धरायी हुई ज्ञान की तीखी तलवार लेकर भगवान के आश्रय से इन शत्रुओं का नाश करके अपने स्वराज्य-सिंहासन पर विराजमान हो जाय और फिर अत्यन्त शान्तभाव से इस शरीर का भी परित्याग कर दे ॥ ४५ ॥ नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जाने पर ये इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बुद्धिरूप सारथि रथ के स्वामी जीव को उलटे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्यु से अत्यन्त भयाव ने घोर अन्धकारमय संसार के कुएँ में गिरा देंगे ॥ ४६ ॥
वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं—एक तो वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर ले जाते हैं—प्रवृत्तिपरक और दूसरे वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर से लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षातकार के योग्य बना देते हैं—निवृत्तिपरक। प्रवृत्तिपरक कर्ममार्ग से बार-बार जन्म-मृत्यु की प्राप्ति होती है और निवृत्तिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्ग के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती है ॥ ४७ ॥ श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्रिहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म ‘इष्ट’ कहलाते हैं और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना ‘पूत्र्तकर्म’ हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभाव से युक्त होने पर अशान्ति के ही कारण बनते हैं ॥ ४८-४९ ॥ प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरने पर चरु-पुरोडाशादि यज्ञसम्बन्धी द्रव्यों के सूक्ष्मभाग से बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओं के पास जाता है। फिर क्रमश: रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के अभिमानी देवताओं के पास जाकर चन्द्रलोक में पहुँचता है। वहाँ से भोग समाप्त होने पर अमावस्या के चन्द्रमा के समान क्षीण होकर वृष्टि द्वारा क्रमश: ओषधि, लता, अन्न और वीर्य के रूप में परिणत होकर पितृयान मार्ग से पुन: संसार में ही जन्म लेता है ॥ ५०-५१ ॥ युधिष्ठिर ! गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उन को ‘द्विज’ कहते हैं। (उनमें से कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्ग का अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जानेवाले निवृत्तिमार्गका।) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट, पूत्र्त आदि कर्मों से होनेवाले समस्त यज्ञों को विषयों का ज्ञान करानेवाले इन्द्रियों में हवन कर देता है ॥ ५२ ॥ इन्द्रियों को दर्शनादि-संकल्परूप मन में, वैकारिक मन को परा वाणी में और परा वाणी को वर्णसमुदाय में, वर्णसमुदाय को ‘अ उ म्’ इन तीन स्वरों के रूप में रहनेवाले ॐ कार में ॐ कार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में, नाद को सूत्रात्मारूप प्राण में तथा प्राण को ब्रह्म में लीन कर देता है ॥ ५३ ॥ वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमश: अग्रि, सूर्य, दिन, सायंकाल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायण के अभिमानी देवताओं के पास जाकर ब्रह्मलोक में पहुँचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक ‘विश्व’ अपनी स्थूल उपाधि को सूक्ष्म में लीन करके सूक्ष्मोपाधिक ‘तैजस’ हो जाता है। फिर सूक्ष्म उपाधि को कारण में लय करके कारणोपाधिक ‘प्राज्ञ’ रूप से स्थित होता है; फिर सब के साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूप में कारणोपाधि का लय करके ‘तुरीय’ रूप से स्थित होता है। इस प्रकार दृश्यों का लय हो जाने पर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ ५४ ॥ इसे ‘देवयान’ मार्ग कहते हैं। इस मार्ग से जानेवाला आत्मोपासक संसार की ओर से निवृत्त होकर क्रमश: एक से दूसरे देवता के पास होता हुआ ब्रह्मलोक में जाकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्गी के समान फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता ॥ ५५ ॥
ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं। जो शास्त्रीय दृष्टि से इन्हें तत्त्वत: जान लेता है, वह शरीर में स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ ५६ ॥ पैदा होनेवाले शरीरों के पहले भी कारणरूप से और उनका अन्त हो जाने पर भी उनकी अवधिरूप से जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूप से बाहर और भोक्तारूप से भीतर है तथा ऊँच और नीच, जानना और जान ने का विषय, वाणी और वाणी का विषय, अन्धकार और प्रकाश आदि वस्तुओं के रूप में जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसीसे मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ५७ ॥ दर्पण आदि में दीख पडऩेवाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्ति से बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तु के रूप में तो वह दीखता ही है। वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा दीखनेवाला वस्तुओं का भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभव से असम्भव होने के कारण वस्तुत: न होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ॥ ५८ ॥ पृथ्वी आदि पञ्चभूतों से इस शरीर का निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो न तो वह उन पञ्चभूतों का सङ्घात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवों से न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ॥ ५९ ॥ इसी प्रकार शरीर के कारणरूप पञ्चभूत भी अवयवी होने के कारण अपने अवयवों—सूक्ष्मभूतों से भिन्न नहीं है, अवयवरूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करने पर भी अवयवों के अतिरिक्त अवयवी का अस्तित्व नहीं मिलता—वह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असत्य ही हैं ॥ ६० ॥ जब तक अज्ञान के कारण एक ही परमतत्त्व में अनेक वस्तुओं के भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तब तक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्न में भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं के अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेध के शास्त्र रहते हैं—वैसे ही जब तक इन भिन्नताओं के अस्तित्व का मोह बना हुआ है, तब तक यहाँ भी विधि-निषेध के शास्त्र हैं ही ॥ ६१ ॥
जो विचारशील पुरुष स्वानुभूति से आत्मा के त्रिविध अद्वैत का साक्षातकार करते हैं—वे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्य के भेदरूप स्वप्न को मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकार के हैं—भावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत ॥ ६२ ॥ जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तव में है नहीं। इस प्रकार सब की एकता का विचार ‘भावाद्वैत’ है ॥ ६३ ॥ युधिष्ठिर ! मन, वाणी और शरीर से होनेवाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मा में ही हो रहे हैं, उसी में अध्यस्त हैं—इस भाव से समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ‘क्रियाद्वैत’ है ॥ ६४ ॥ स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसार के अन्य समस्त प्राणियों के तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही हैं, उनमें अपने और पराये का भेद नहीं है—इस प्रकार का विचार ‘द्रव्याद्वैत’ है ॥ ६५ ॥
युधिष्ठिर ! जिस पुरुष के लिये जिस द्रव्य को जिस समय जिस उपाय से जिससे ग्रहण करना शास्त्राज्ञा के विरुद्ध न हो, उसे उसी से अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकाल को छोडक़र इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ॥ ६६ ॥ महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेद में कहे हुए इन कर्मों के तथा अन्यान्य स्वकर्मों के अनुष्ठान से घर में रहते हुए भी श्रीकृष्ण की गति को प्राप्त करता है ॥ ६७ ॥ युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण की कृपा और सहायता से बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियों से पार हो गये हो और उन्हींके चरणकमलों की सेवा से समस्त भूमण्डल को जीतकर तुम ने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं ॥ ६८ ॥
पूर्वजन्म में इसके पहले के महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबहर्ण और गन्धर्वों में मेरा बड़ा सम्मान था ॥ ६९ ॥ मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीर में से सुगन्धि निकला करती और देखने में मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझ से बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमाद में ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था ॥ ७० ॥ एक बार देवताओं के यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान की लीला का गान करने के लिये उन लोगों ने गन्धर्व और अप्सराओं को बुलाया ॥ ७१ ॥ मैं जानता था कि वह संतों का समाज है और वहाँ भगवान की लीला का ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियों के साथ लौकिक गीतों का गान करता हुआ उन्मत्त की तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओं ने देखा कि यह तो हमलोगों का अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्ति से मुझे शाप दे दिया कि ‘तुम ने हमलोगों की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य- सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’ ॥ ७२ ॥ उनके शाप से मैं दासी का पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र-जीवन में किये हुए महात्माओं के सत्सङ्ग और सेवा-शुश्रूषा के प्रभाव से मैं दूसरे जन्म में ब्रह्माजी का पुत्र हुआ ॥ ७३ ॥ संतों की अवहेलना और सेवा का यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवा से ही भगवान प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थों का पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्म के आचरण से गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियों को मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ७४ ॥
युधिष्ठिर ! इस मनुष्यलोक में तुमलोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं; क्योंकि तुम्हारे घर में साक्षात परब्रह्म परमात्मा मनुष्य का रूप धारण करके गुप्तरूप से निवास करते हैं। इसीसे सारे संसार को पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करने के लिये चारों ओर से तुम्हारे पास आया करते हैं ॥ ७५ ॥ बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिन को ढूँढ़ते रहते हैं, जो माया के लेश से रहित परम शान्त परमानन्दानुभव स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ॥ ७६ ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’—इस रूप में उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयम के द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान हम पर प्रसन्न हों ॥ ७७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! देवर्षि नारद का यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिर को अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की ॥ ७८ ॥ देवर्षि नारद भगवान श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर से विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं, यह सुनकर युधिष्ठिर के आश्चर्य की सीमा न रही ॥ ७९ ॥ परीक्षित ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्ष-पुत्रियों के वंशों का अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्हींके वंश में देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचर की सृष्टि हुई है ॥ ८० ॥
॥ इति सप्तम स्कन्ध समाप्त ॥
॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥