स्कन्ध-05 [अध्याय-01]

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ पञ्चमस्कन्धः ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
राजोवाच
प्रियव्रतो भागवत आत्मारामः कथं मुने ।
गृहेऽरमत यन्मूलः कर्मबन्धः पराभवः ॥ १॥

न नूनं मुक्तसङ्गानां तादृशानां द्विजर्षभ ।
गृहेष्वभिनिवेशोऽयं पुंसां भवितुमर्हति ॥ २॥

महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयोः ।
छायानिर्वृतचित्तानां न कुटुम्बे स्पृहा मतिः ॥ ३॥

संशयोऽयं महान् ब्रह्मन् दारागारसुतादिषु ।
सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ॥ ४॥

श्रीशुक उवाच
बाढमुक्तं भगवत उत्तमश्लोकस्य
श्रीमच्चरणारविन्दमकरन्दरस आवेशित-
चेतसो भागवत परमहंसदयितकथां
किञ्चिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां
पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ॥ ५॥

यर्हि वाव ह राजन् स राजपुत्रः प्रियव्रतः
परमभागवतो नारदस्य चरणोपसेवया-
ञ्जसावगतपरमार्थसतत्त्वो ब्रह्मसत्रेण
दीक्षिष्यमाणोऽवनितलपरिपालनाया-
म्नातप्रवरगुणगणैकान्तभाजनतया
स्वपित्रोपामन्त्रितो भगवति वासुदेव
एवाव्यवधानसमाधियोगेन समावेशित-
सकलकारकक्रियाकलापो नैवाभ्यनन्दद्यद्यपि
तदप्रत्याम्नातव्यं तदधिकरण आत्मनो-
ऽन्यस्मादसतोऽपि पराभवमन्वीक्षमाणः ॥ ६॥

अथ ह भगवानादिदेव एतस्य गुणविसर्गस्य
परिबृंहणानुध्यानव्यवसितसकलजगदभिप्राय
आत्मयोनिरखिलनिगमनिजगणपरिवेष्टितः
स्वभवनादवततार ॥ ७॥

स तत्र तत्र गगनतल उडुपतिरिव विमाना-
वलिभिरनुपथममरपरिवृढैरभिपूज्यमानः
पथि पथि च वरूथशः सिद्धगन्धर्वसाध्य-
चारणमुनिगणैरुपगीयमानो गन्धमादन-
द्रोणीमवभासयन्नुपससर्प ॥ ८॥

तत्र ह वा एनं देवर्षिर्हंसयानेन पितरं
भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपलभमानः
सहसैवोत्थायार्हणेन सह पितापुत्राभ्या-
मवहिताञ्जलिरुपतस्थे ॥ ९॥

भगवानपि भारत तदुपनीतार्हणः
सूक्तवाकेनातितरामुदितगुणगणावतार-
सुजयः प्रियव्रतमादिपुरुषस्तं सदयहासा-
वलोक इति होवाच ॥ १०॥

श्रीभगवानुवाच
निबोध तातेदमृतं ब्रवीमि
मासूयितुं देवमर्हस्यप्रमेयम् ।
वयं भवस्ते तत एष महर्षि-
र्वहाम सर्वे विवशा यस्य दिष्टम् ॥ ११॥

न तस्य कश्चित्तपसा विद्यया वा
न योगवीर्येण मनीषया वा ।
नैवार्थधर्मैः परतः स्वतो वा
कृतं विहन्तुं तनुभृद्विभूयात् ॥ १२॥

भवाय नाशाय च कर्म कर्तुं
शोकाय मोहाय सदा भयाय ।
सुखाय दुःखाय च देहयोग-
मव्यक्तदिष्टं जनताङ्ग धत्ते ॥ १३॥

यद्वाचि तन्त्यां गुणकर्मदामभिः
सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिताः ।
सर्वे वहामो बलिमीश्वराय
प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पदः ॥ १४॥

ईशाभिसृष्टं ह्यवरुन्ध्महेऽङ्ग
दुःखं सुखं वा गुणकर्मसङ्गात् ।
आस्थाय तत्तद्यदयुङ्क्त नाथ-
श्चक्षुष्मतान्धा इव नीयमानाः ॥ १५॥

मुक्तोऽपि तावद्बिभृयात्स्वदेह-
मारब्धमश्नन्नभिमानशून्यः ।
यथानुभूतं प्रतियातनिद्रः
किं त्वन्यदेहाय गुणान्न वृङ्क्ते ॥ १६॥

भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्याद्यतः
स आस्ते सह षट्सपत्नः ।
जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बुधस्य
गृहाश्रमः किं नु करोत्यवद्यम् ॥ १७॥

यः षट्सपत्नान् विजिगीषमाणो
गृहेषु निर्विश्य यतेत पूर्वम् ।
अत्येति दुर्गाश्रित ऊर्जितारीन्
क्षीणेषु कामं विचरेद्विपश्चित् ॥ १८॥

त्वं त्वब्जनाभाङ्घ्रिसरोजकोश-
दुर्गाश्रितो निर्जितषट्सपत्नः ।
भुङ्क्ष्वेह भोगान् पुरुषातिदिष्टान्
विमुक्तसङ्गः प्रकृतिं भजस्व ॥ १९॥

श्रीशुक उवाच
इति समभिहितो महाभागवतो
भगवतस्त्रिभुवनगुरोरनुशासनमात्मनो
लघुतयावनतशिरोधरो बाढमिति
सबहुमानमुवाह ॥ २०॥

भगवानपि मनुना यथावदुपकल्पिता-
पचितिः प्रियव्रतनारदयोरविषम-
मभिसमीक्षमाणयोरात्मसमवस्थान-
मवाङ्मनसं क्षयमव्यवहृतं प्रवर्तयन्नगमत् ॥ २१॥

मनुरपि परेणैवं प्रतिसन्धितमनोरथः
सुरर्षिवरानुमतेनात्मजमखिलधरामण्डल-
स्थितिगुप्तय आस्थाप्य स्वयमतिविषम-
विषयविषजलाशयाशाया उपरराम ॥ २२॥

इति ह वाव स जगतीपतिरीश्वरेच्छयाधि-
निवेशितकर्माधिकारोऽखिलजगद्बन्धध्वंसन-
परानुभावस्य भगवत आदिपुरुषस्याङ्घ्रि-
युगलानवरतध्यानानुभावेन परिरन्धित-
कषायाशयोऽवदातोऽपि मानवर्धनो
महतां महीतलमनुशशास ॥ २३॥

अथ च दुहितरं प्रजापतेर्विश्वकर्मण
उपयेमे बर्हिष्मतीं नाम तस्यामु ह वाव
आत्मजानात्मसमानशीलगुणकर्मरूप-
वीर्योदारान् दश भावयाम्बभूव कन्यां च
यवीयसीमूर्जस्वतीं नाम ॥ २४॥

आग्नीध्रेध्मजिह्वयज्ञबाहुमहावीरहिरण्यरेतो-घृतपृष्ठसवनमेधातिथिवीतिहोत्रकवय इति
सर्व एवाग्निनामानः ॥ २५॥

एतेषां कविर्महावीरः सवन इति त्रय
आसन्नूर्ध्वरेतसस्त आत्मविद्यायामर्भ-
भावादारभ्य कृतपरिचयाः पारमहंस्य-
मेवाश्रममभजन् ॥ २६॥

तस्मिन्नु ह वा उपशमशीलाः परमर्षयः
सकलजीवनिकायावासस्य भगवतो
वासुदेवस्य भीतानां शरणभूतस्य
श्रीमच्चरणारविन्दाविरतस्मरणा-
विगलितपरमभक्तियोगानुभावेन
परिभावितान्तर्हृदयाधिगते भगवति
सर्वेषां भूतानामात्मभूते प्रत्यगात्मन्येवा-
त्मनस्तादात्म्यमविशेषेण समीयुः ॥ २७॥

अन्यस्यामपि जायायां त्रयः पुत्रा
आसन्नुत्तमस्तामसो रैवत इति
मन्वन्तराधिपतयः ॥ २८॥

एवमुपशमायनेषु स्वतनयेष्वथ
जगतीपतिर्जगतीमर्बुदान्येकादश-
परिवत्सराणामव्याहताखिलपुरुषकार-
सारसम्भृतदोर्दण्डयुगलापीडित-
मौर्वीगुणस्तनितविरमितधर्मप्रतिपक्षो
बर्हिष्मत्याश्चानुदिनमेधमानप्रमोद-
प्रसरणयौषिण्यव्रीडाप्रमुषितहासावलोक-
रुचिरक्ष्वेल्यादिभिः पराभूयमानविवेक
इवानवबुध्यमान इव महामना बुभुजे ॥ २९॥

यावदवभासयति सुरगिरिमनुपरिक्रामन्
भगवानादित्यो वसुधातलमर्धेनैव
प्रतपत्यर्धेनावच्छादयति तदा हि भगवदुपासनोपचितातिपुरुषप्रभावस्त-
दनभिनन्दन् समजवेन रथेन ज्योतिर्मयेन
रजनीमपि दिनं करिष्यामीति सप्तकृत्व-
स्तरणिमनुपर्यक्रामद्द्वितीय इव पतङ्गः ॥ ३०॥

ये वा उ ह तद्रथचरणनेमिकृतपरिखातास्ते
सप्तसिन्धव आसन् यत एव कृताः सप्त
भुवो द्वीपाः ॥ ३१॥

जम्बूप्लक्षशाल्मलिकुशक्रौञ्चशाकपुष्कर-
संज्ञास्तेषां परिमाणं पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर
उत्तरो यथासङ्ख्यं द्विगुणमानेन बहिः
समन्तत उपकॢप्ताः ॥ ३२॥

क्षारोदेक्षुरसोदसुरोदघृतोदक्षीरोददधि-
मण्डोदशुद्धोदाः सप्तजलधयः सप्तद्वीप-
परिखा इवाभ्यन्तरद्वीपसमाना एकैकश्येन
यथानुपूर्वं सप्तस्वपि बहिर्द्वीपेषु पृथक्परित
उपकल्पितास्तेषु जम्ब्वादिषु बर्हिष्मती-
पतिरनुव्रतानात्मजानाग्नीध्रेध्मजिह्व-
यज्ञबाहुहिरण्यरेतोघृतपृष्ठमेधातिथि-
वीतिहोत्रसंज्ञान् यथासंख्येनैकैकस्मि-
न्नेकमेवाधिपतिं विदधे ॥ ३३॥

दुहितरं चोर्जस्वतीं नामोशनसे प्रायच्छ-
द्यस्यामासीद्देवयानी नाम काव्यसुता ॥ ३४॥

नैवंविधः पुरुषकार उरुक्रमस्य
पुंसां तदङ्घ्रिरजसा जितषड्गुणानाम् ।
चित्रं विदूरविगतः सकृदाददीत
यन्नामधेयमधुना स जहाति बन्धम् ॥ ३४॥

स एवमपरिमितबलपराक्रम एकदा तु
देवर्षिचरणानुशयनानुपतितगुणविसर्ग-
संसर्गेणानिर्वृतमिवात्मानं मन्यमान
आत्मनिर्वेद इदमाह ॥ ३५॥

अहो असाध्वनुष्ठितं यदभिनिवेशितो-
ऽहमिन्द्रियैरविद्यारचितविषमविषयान्धकूपे
तदलमलममुष्या वनिताया विनोदमृगं मां
धिग्धिगिति गर्हयांचकार ॥ ३६॥

परदेवताप्रसादाधिगतात्मप्रत्यवमर्शेनानु-
प्रवृत्तेभ्यः पुत्रेभ्य इमां यथादायं विभज्य
भुक्तभोगां च महिषीं मृतकमिव सह महा-
विभूतिमपहाय स्वयं निहितनिर्वेदो हृदि
गृहीतहरिविहारानुभावो भगवतो नारदस्य
पदवीं पुनरेवानुससार ॥ ३७॥

तस्य ह वा एते श्लोकाः
प्रियव्रतकृतं कर्म को नु कुर्याद्विनेश्वरम् ।
यो नेमिनिम्नैरकरोच्छायां घ्नन् सप्तवारिधीन् ॥ ३८॥

भूसंस्थानं कृतं येन सरिद्गिरिवनादिभिः ।
सीमा च भूतनिर्वृत्यै द्वीपे द्वीपे विभागशः ॥ ३९॥

भौमं दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम् ।
यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रियः ॥ ४०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे प्रियव्रतविजये प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥


पंचम स्कन्ध-पहला अध्याय
प्रियव्रत-चरित्र

राजा परीक्षित ने पूछा—मुने ! महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रम में कैसे रुचि हुई, जिसमें फँस ने के कारण मनुष्य को अपने स्वरूप की विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धन में बँध जाता है ? ॥ १ ॥ विप्रवर ! निश्चय ही ऐसे नि:सङ्ग महापुरुषों का इस प्रकार गृहस्थाश्रम में अभिनिवेश होना उचित नहीं है ॥ २ ॥ इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरि के चरणों की शीतल छाया का आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषों की कुटुम्बादि में कभी आसक्ति नहीं हो सकती ॥ ३ ॥ ब्रह्मन् ! मुझे इस बात का बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रत ने स्त्री, घर और पुत्रादि में आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान श्रीकृष्ण में अविचल भक्ति हुई ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—राजन् ! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरि के परम मधुर चरणकमल-मकरन्द के रस में सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्र-बाधा के कारण रुकावट आ जाने पर भी भगवद्भक्त परमहंसों के प्रिय श्रीवासुदेव भगवान के कथाश्रवणरूपी परम कल्याणमय मार्ग को प्राय: छोड़ते नहीं ॥ ५ ॥ राजन् ! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भगवद्भक्त थे, श्रीनारदजी के चरणों की सेवा करने से उन्हें सहज में ही परमार्थतत्त्व का बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्र की दीक्षा—निरन्तर ब्रह्माभ्यास में जीवन बिता ने का नियम लेनेवाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनु ने उन्हें पृथ्वीपालन के लिये शास्त्र में बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणों से पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासन के लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोग के द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओं को भगवान वासुदेव के चरणों में ही समर्पण कर चु के थे। अत: पिता की आज्ञा किसी प्रकार उल्लङ्घन करनेयोग्य न होने पर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्म स्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपञ्च से आच्छादित हो जायगा—राज्य और कुटुम्ब की चिन्ता में फँसकर मैं परमार्थतत्त्व को प्राय: भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया ॥ ६ ॥

आदिदेव स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी को निरन्तर इस गुणमय प्रपञ्च की वृद्धि का ही विचार रहता है। वे सारे संसार के जीवों का अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पार्षदों को साथ लिये अपने लोक से उतरे ॥ ७ ॥ आकाश में जहाँ-तहाँ विमानों पर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान-प्रधान देवताओं ने उनका पूजन किया तथा मार्ग में टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजन ने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात नक्षत्रनाथ चन्द्रमा के समान गन्धमादन की घाटी को प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के पास पहुँचे ॥ ८ ॥ प्रियव्रत को आत्मविद्या का उपदेश दे ने के लिये वहाँ नारदजी भी आये हुए थे। ब्रह्माजी के वहाँ पहुँचने पर उनके वाहन हंस को देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान ब्रह्माजी पधारे हैं; अत: वे स्वायम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उन को हाथ जोडक़र प्रणाम किया ॥ ९ ॥ परीक्षित ! नारदजी ने उनकी अनेक प्रकार से पूजा की और सुमधुर वचनों में उनके गुण और अवतार की उत्कृष्टता का वर्णन किया। तब आदिपुरुष भगवान ब्रह्माजी ने प्रियव्रत की ओर मन्द मुसकानयुक्त दयादृष्टि से देखते हुए इस प्रकार कहा ॥ १० ॥

श्रीब्रह्माजी ने कहा—बेटा ! मैं तुम से सत्य सिद्धान्त की बात कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय श्रीहरि के प्रति किसी प्रकार की दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या—हम, महादेवजी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हैं ॥ ११ ॥ उनके विधान को कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबलसे, न अर्थ या धर्म की शक्ति से और न स्वयं या किसी दूसरे की सहायता से ही टाल सकता है ॥ १२ ॥ प्रियवर ! उसी अव्यक्त ईश्वर के दिये हुए शरीर को सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दु:ख का भोग करने तथा कर्म करने के लिये सदा धारण करते हैं ॥ १३ ॥ वत्स ! जिस प्रकार रस्सी से नथा हुआ पशु मनुष्यों का बोझ ढोता है, उसी प्रकार परमात्मा की वेदवाणीरूप बड़ी रस्सी में सात्त्विक आदि गुण, सात्त्विकआदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्यों की मजबूत डोरी से जकड़े हुए हम सब लोग उन्हींके इच्छानुसार कर्म में लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं ॥ १४ ॥ हमारे गुण और कर्मों के अनुसार प्रभु ने हमें जिस योनि में डाल दिया है उसी को स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं उसी के अनुसार हम सुख या दु:ख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छा का उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधे को आँखवाले पुरुष का ॥ १५ ॥

मुक्त पुरुष भी प्रारब्ध का भोग करता हुआ भगवान की इच्छा के अनुसार अपने शरीर को धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य की निद्रा टूट जाने पर भी स्वप्न में अनुभव किये हुए पदार्थों का स्मरण होता है। इस अवस्था में भी उस को अभिमान नहीं होता और विषय-वासना के जिन संस्कारों के कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता ॥ १६ ॥ जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत है, वह वन-वन में विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरण का भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छ: शत्रु कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते। जो बुद्धिमान पुरुष इन्द्रियों को जीतकर अपनी आत्मा में ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है ? ॥ १७ ॥ जिसे इन छ: शत्रुओं को जीत ने की इच्छा हो, वह पहले घर में रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वश में करने का प्रयत्न करे। किले में सुरक्षित रहकर लडऩेवाला राजा अपने प्रबल शत्रुओं को भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओं का बल अत्यन्त क्षीण हो जाय, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है ॥ १८ ॥ तुम यद्यपि श्रीकमलनाभभगवान के चरणकमल की कलीरूप किले के आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओं को जीत चु के हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुष के दिये हुए भोगों को भोगो; इसके बाद नि:सङ्ग होकर अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाना ॥ १९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब त्रिलो की के गुरु श्रीब्रह्माजी ने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रत ने छोटे होने के कारण नम्रता से सिर झु का लिया और ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया ॥ २० ॥ तब स्वायम्भुव मनु ने प्रसन्न होकर भगवान ब्रह्माजी की विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात वे मन और वाणी के अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्म का चिन्तन करते हुए अपने लोक को चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारदजी सरल भाव से उनकी ओर देख रहे थे ॥ २१ ॥

मनुजी ने इस प्रकार ब्रह्माजी की कृपा से अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने पर देवर्षि नारद की आज्ञा से प्रियव्रत को सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा का भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जल से भरे हुए गृहस्थाश्रमरूपी दुस्तर जलाशय की भोगेच्छा से निवृत्त हो गये ॥ २२ ॥ अब पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान की इच्छा से राज्यशासन के कार्य में नियुक्त हुए। जो सम्पूर्ण जगत को बन्धन से छुड़ा ने में अत्यन्त समर्थ हैं, उन आदिपुरुष श्रीभगवान के चरणयुगल का निरन्तर ध्यान करते रहने से यद्यपि उनके रागादि सभी मल नष्ट हो चु के थे और उनका हृदय भी अत्यन्त शुद्ध था, तथापि बड़ों का मान रखने के लिये वे पृथ्वी का शासन करने लगे ॥ २३ ॥ तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से विवाह किया। उससे उनके दस पुत्र हुए। वे सब उन्हींके समान शीलवान्, गुणी, कर्मनिष्ठ, रूपवान् और पराक्रमी थे। उनसे छोटी ऊर्जस्वती नाम की एक कन्या भी हुई ॥ २४ ॥ पुत्रों के नाम आग्रीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि थे। ये सब नाम अग्रि के भी हैं ॥ २५ ॥ इनमें कवि, महावीर और सवन—ये तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए। इन्हों ने बाल्यावस्था से आत्मविद्या का अभ्यास करते हुए अन्त में संन्यासाश्रम ही स्वीकार किया ॥ २६ ॥ इन निवृत्तिपरायण महर्षियों ने संन्यासाश्रम में ही रहते हुए समस्त जीवों के अधिष्ठान और भवबन्धन से डरे हुए लोगों को आश्रय देनेवाले भगवान वासुदेव के परम सुन्दर चरणारविन्दों का निरन्तर चिन्तन किया। उससे प्राप्त हुए अखण्ड एवं श्रेष्ठ भक्तियोग से उनका अन्त:करण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान का आविर्भाव हुआ। तब देहादि उपाधि की निवृत्ति हो जाने से उनकी आत्मा की सम्पूर्ण जीवों के आत्मभूत प्रत्यगात्मा में एकीभाव से स्थिति हो गयी ॥ २७ ॥ महाराज प्रियव्रत की दूसरी भार्या से उत्तम, तामस और रैवत—ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नामवाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए ॥ २८ ॥

इस प्रकार कवि आदि तीन पुत्रों के निवृत्तिपरायण हो जाने पर राजा प्रियव्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक पृथ्वी का शासन किया। जिस समय वे अपनी अखण्ड पुरुषार्थमयी और वीर्यशालिनी भुजाओं से धनुष की डोरी खींचकर टङ्कार करते थे, उस समय डर के मारे सभी धर्मद्रोही न जाने कहाँ छिप जाते थे। प्राणप्रिया बर्हिष्मती के दिन-दिन बढऩेवाले आमोद-प्रमोद और अभ्युत्थानादि क्रीडाओं के कारण तथा उसके स्त्रीजनोचित हाव-भाव, लज्जा से संकुचित मन्दहास्ययुक्त चितवन और मन को भानेवाले विनोद आदि से महामना प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्ति की भाँति आत्मविस्मृत- से होकर सब भोगों को भोग ने लगे। किन्तु वास्तव में ये उनमें आसक्त नहीं थे ॥ २९ ॥

एक बार इन्हों ने जब यह देखा कि भगवान सूर्य सुमेरु की परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वी के जित ने भाग को आलोकित करते हैं, उसमें से आधा ही प्रकाश में रहता है और आधे में अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि ‘मैं रात को भी दिन बना दूँगा;’ सूर्य के समान ही वेगवान् एक ज्योतिर्मय रथ पर चढक़र द्वितीय सूर्य की ही भाँति उनके पीछे-पीछे पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर डालीं। भगवान की उपासना से इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था ॥ ३० ॥ उस समय इनके रथ के पहियों से जो लीकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए; उनसे पृथ्वी में सात द्वीप हो गये ॥ ३१ ॥ उनके नाम क्रमश: जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शाक और पुष्कर द्वीप हैं। इनमें से पहले-पहले की अपेक्षा आगे-आगे के द्वीप का परिमाण दूना है और ये समुद्र के बाहरी भाग में पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए हैं ॥ ३२ ॥ सात समुद्र क्रमश: खारे जल, ईख के रस, मदिरा, घी, दूध, मट्ठे और मीठे जल से भरे हुए हैं। ये सातों द्वीपों की खाइयों के समान हैं और परिमाण में अपने भीतरवाले द्वीप के बराबर हैं। इनमें से एक-एक क्रमश: अलग-अलग सातों द्वीपों को बाहर से घेरकर स्थित है।[1] बर्हिष्मतीपति महाराज प्रियव्रत ने अपने अनुगत पुत्र आग्रीध्र, इध्मजिö, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र में से क्रमश: एक-एक को उक्त जम्बू आदि द्वीपों में से एक-एक का राजा बनाया ॥ ३३ ॥ उन्होंने अपनी कन्या ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्यजी से किया; उसी से शुक्रकन्या देवयानी का जन्म हुआ ॥ ३४ ॥ राजन् ! जिन्हों ने भगवच्चरणारविन्दों की रज के प्रभाव से शरीर के भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा- मृत्यु—इन छ: गुणों को अथवा मन के सहित छ: इन्द्रियों को जीत लिया है, उन भगवद्भक्तों का ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि वर्णबहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनि का पुरुष भी भगवान के नाम का केवल एक बार उच्चारण करने से तत्काल संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है ॥ ३५ ॥

इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रम से युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपने को देवर्षि नारद के चरणों की शरण में जाकर भी पुन: दैववश प्राप्त हुए प्रपञ्च में फँस जाने से अशान्त-सा देख, मन-ही- मन विरक्त होकर इस प्रकार कह ने लगे ॥ ३६ ॥ ‘ओह ! बड़ा बुरा हुआ ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियों ने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूप में गिरा दिया। बस, ! बस ! बहुत हो लिया। हाय ! मैं तो स्त्री का क्रीडामृग ही बन गया ! उसने मुझे बंदर की भाँति नचाया ! मुझे धिक्कार है ! धिक्कार है !’ इस प्रकार उन्होंने अपने को बहुत कुछ बुरा-भला कहा ॥ ३७ ॥ परमाराध्य श्रीहरि की कृपा से उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत् हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रों को बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरह के भोग भोगे थे, उस अपनी राजरानी को साम्राज्यलक्ष्मी के सहित मृतदेह के समान छोड़ दिया तथा हृदय में वैराग्य धारणकर भगवान की लीलाओं का चिन्तन करते हुए उसके प्रभाव से श्रीनारदजी के बतलाये हुए मार्ग का पुन: अनुसरण करने लगे ॥ ३८ ॥

महाराज प्रियव्रत के विषय में निम्रलिखित लो कोक्ति प्रसिद्ध है— ‘राजा प्रियव्रत ने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वर के सिवा और कौन कर सकता है ? उन्होंने रात्रि के अन्धकार को मिटा ने का प्रयत्न करते हुए अपने रथ के पहियों से बनी हुई लीकों से ही सात समुद्र बना दिये ॥ ३९ ॥ प्राणियों के सुभीते के लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपों के द्वारा पृथ्वी के विभाग किये और प्रत्येक द्वीप में अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदि से उसकी सीमा निश्चित कर दी ॥ ४० ॥ वे भगवद्भक्त नारदादि के प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताललोकके, देवलोकके, मत्र्यलोक के तथा कर्म और योग की शक्ति से प्राप्त हुए ऐश्वर्य को भी नरकतुल्य समझा था’ ॥ ४१ ॥


[1] इनका क्रम इस प्रकार समझना चाहिये—पहले जम्बूद्वीप है, उसके चारों ओर क्षार समुद्र है। वह प£क्षद्वीप से घिरा हुआ है, उसके चारों ओर ईख के रस का समुद्र है। उसे शाल्मलिद्वीप घेरे हुए है, उसके चारों ओर मदिरा का समुद्र है। फिर कुशद्वीप है, वह घी के समुद्र से घिरा हुआ है। उसके बाहर क्रौञ्चद्वीप है, उसके चारों ओर दूध का समुद्र है। फिर शाकद्वीप है, उसे म_े का समुद्र घेरे हुए है। उसके चारों ओर पुष्करद्वीप है, वह मीठे जल के समुद्र से घिरा हुआ है।



स्कन्ध-05 [अध्याय-02]

॥ द्वितीयोऽध्ययः ॥
श्रीशुक उवाच
एवं पितरि सम्प्रवृत्ते तदनुशासने वर्तमान
आग्नीध्रो जम्बूद्वीपौकसः प्रजा औरसवद्धर्मा-
वेक्षमाणः पर्यगोपायत् ॥ १॥

स च कदाचित्पितृलोककामः सुरवरवनिता-
क्रीडाचलद्रोण्यां भगवन्तं विश्वसृजां
पतिमाभृतपरिचर्योपकरण आत्मैकाग्र्येण
तपस्व्याराधयांबभूव ॥ २॥

तदुपलभ्य भगवानादिपुरुषः सदसि गायन्तीं
पूर्वचित्तिं नामाप्सरसमभियापयामास ॥ ३॥

सा च तदाश्रमोपवनमतिरमणीयं विविध-
निबिडविटपिविटपनिकरसंश्लिष्टपुरटलता-
रूढस्थलविहङ्गममिथुनैः प्रोच्यमानश्रुतिभिः
प्रतिबोध्यमानसलिलकुक्कुटकारण्डव-
कलहंसादिभिर्विचित्रमुपकूजितामल-
जलाशयकमलाकरमुपबभ्राम ॥ ४॥

तस्याः सुललितगमनपदविन्यासगति-
विलासायाश्चानुपदं खणखणायमान-
रुचिरचरणाभरणस्वनमुपाकर्ण्य
नरदेवकुमारः समाधियोगेनामीलित-नयननलिनमुकुलयुगलमीषद्विकचय्य
व्यचष्ट ॥ ५॥

तामेवाविदूरे मधुकरीमिव सुमनस
उपजिघ्रन्तीं दिविजमनुजमनोनयनाह्लाद-
दुघैर्गतिविहारव्रीडाविनयावलोकसुस्वरा-
क्षरावयवैर्मनसि नृणां कुसुमायुधस्य
विदधतीं विवरं निजमुखविगलिता-
मृतासवसहासभाषणामोदमदान्ध-
मधुकरनिकरोपरोधेन द्रुतपदविन्यासेन
वल्गुस्पन्दनस्तनकलशकबरभाररशनां देवीं
तदवलोकनेन विवृतावसरस्य भगवतो
मकरध्वजस्य वशमुपनीतो जडवदिति
होवाच ॥ ६॥

का त्वं चिकीर्षसि च किं मुनिवर्य शैले
मायासि कापि भगवत्परदेवतायाः ।
विज्ये बिभर्षि धनुषी सुहृदात्मनोऽर्थे
किं वा मृगान् मृगयसे विपिने प्रमत्तान् ॥ ७॥

बाणाविमौ भगवतः शतपत्रपत्रौ
शान्तावपुङ्खरुचिरावतितिग्मदन्तौ ।
कस्मै युयुङ्क्षसि वने विचरन् न विद्मः
क्षेमाय नो जडधियां तव विक्रमोऽस्तु ॥ ८॥

शिष्या इमे भगवतः परितः पठन्ति
गायन्ति साम सरहस्यमजस्रमीशम् ।
युष्मच्छिखाविलुलिताः सुमनोऽभिवृष्टीः
सर्वे भजन्त्यृषिगणा इव वेदशाखाः ॥ ९॥

वाचं परं चरणपञ्जरतित्तिरीणां
ब्रह्मन्नरूपमुखरां श‍ृणवाम तुभ्यम् ।
लब्धा कदम्बरुचिरङ्कविटङ्कबिम्बे
यस्यामलातपरिधिः क्व च वल्कलं ते ॥ १०॥

किं सम्भृतं रुचिरयोर्द्विज श‍ृङ्गयोस्ते
मध्ये कृशो वहसि यत्र दृशिः श्रिता मे ।
पङ्कोऽरुणः सुरभिरात्मविषाण ईदृग्
येनाश्रमं सुभग मे सुरभीकरोषि ॥ ११॥

लोकं प्रदर्शय सुहृत्तम तावकं मे
यत्रत्य इत्थमुरसावयवावपूर्वौ ।
अस्मद्विधस्य मन उन्नयनौ बिभर्ति
बह्वद्भुतं सरसराससुधादिवक्त्रे ॥ १२॥

का वाऽऽत्मवृत्तिरदनाद्धविरङ्ग वाति
विष्णोः कलास्यनिमिषोन्मकरौ च कर्णौ ।
उद्विग्नमीनयुगलं द्विजपङ्क्तिशोचि-
रासन्नभृङ्गनिकरं सर उन्मुखं ते ॥ १३॥

योऽसौ त्वया करसरोजहतः पतङ्गो
दिक्षु भ्रमन् भ्रमत एजयतेऽक्षिणी मे
मुक्तं न ते स्मरसि वक्रजटावरूथं
कष्टोऽनिलो हरति लम्पट एष नीवीम् ॥ १४॥

रूपं तपोधन तपश्चरतां तपोघ्नं
ह्येतत्तु केन तपसा भवतोपलब्धम् ।
चर्तुं तपोऽर्हसि मया सह मित्र मह्यं
किं वा प्रसीदति स वै भवभावनो मे ॥ १५॥

न त्वां त्यजामि दयितं द्विजदेवदत्तं
यस्मिन् मनो दृगपि नो न वियाति लग्नम् ।
मां चारुश‍ृङ्ग्यर्हसि नेतुमनुव्रतं ते
चित्तं यतः प्रतिसरन्तु शिवाः सचिव्यः ॥ १६॥

श्रीशुक उवाच
इति ललनानुनयातिविशारदो ग्राम्य-
वैदग्ध्यया परिभाषया तां विबुधवधूं
विबुधमतिरधिसभाजयामास ॥ १७॥

सा च ततस्तस्य वीरयूथपतेर्बुद्धिशील-
रूपवयःश्रियौदार्येण पराक्षिप्तमनास्तेन
सहायुतायुतपरिवत्सरोपलक्षणं कालं
जम्बूद्वीपपतिना भौमस्वर्गभोगान् बुभुजे ॥ १८॥

तस्यामु ह वा आत्मजान् स राजवर
आग्नीध्रो नाभिकिम्पुरुषहरिवर्षेलावृत-
रम्यकहिरण्मयकुरुभद्राश्वकेतुमाल-
संज्ञान् नव पुत्रानजनयत् ॥ १९॥

सा सूत्वाथ सुतान् नवानुवत्सरं गृह
एवापहाय पूर्वचित्तिर्भूय एवाजं देवमुपतस्थे ॥ २०॥

आग्नीध्रसुतास्ते मातुरनुग्रहादौत्पत्तिकेनैव
संहननबलोपेताः पित्रा विभक्ता आत्मतुल्य-
नामानि यथाभागं जम्बूद्वीपवर्षाणि बुभुजुः ॥ २१॥

आग्नीध्रो राजातृप्तः कामानामप्सरस-
मेवानुदिनमधिमन्यमानस्तस्याः सलोकतां
श्रुतिभिरवारुन्ध यत्र पितरो मादयन्ते ॥ २२॥

सम्परेते पितरि नव भ्रातरो मेरुदुहितॄ-
र्मेरुदेवीं प्रतिरूपामुग्रदंष्ट्रीं लतां रम्यां
श्यामां नारीं भद्रां देववीतिमिति संज्ञा
नवोदवहन् ॥ २३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे आग्नीध्रवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥


पंचम स्कन्ध-दूसरा अध्याय 
आग्रीध्र-चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—पिता प्रियव्रत के इस प्रकार तपस्या में संलग्र हो जाने पर राजा आग्रीध्र उनकी आज्ञा का अनुसरण करते हुए जम्बूद्वीप की प्रजा का धर्मानुसार पुत्रवत् पालन करने लगे ॥ १ ॥ एक बार वे पितृलोक की कामना से सत्पुत्रप्राप्ति के लिये पूजा की सब सामग्री जुटाकर सुर-सुन्दरियों के क्रीडास्थल मन्दराचल की एक घाटी में गये और तपस्या में तत्पर होकर एकाग्र-चित्त से प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्माजी की आराधना करने लगे ॥ २ ॥ आदिदेव भगवान ब्रह्माजी ने उनकी अभिलाषा जान ली। अत: अपनी सभा की गायि का पूर्वचित्ति नाम की अप्सरा को उनके पास भेज दिया ॥ ३ ॥ आग्रीध्रजी के आश्रम के पास एक अति रमणीय उपवन था। वह अप्सरा उसी में विचर ने लगी। उस उपवन में तरह-तरह के सघन तरुवरों की शाखाओं पर स्वर्णलताएँ फैली हुई थीं। उन पर बैठे हुए मयूरादि कई प्रकार के स्थलचारी पक्षियों के जोड़े सुमधुर बोली बोल रहे थे। उनकी षड्जादि स्वरयुक्त ध्वनि सुनकर सचेत हुए जलकुक्कुट, कारण्डव एवं कलहंस आदि जलपक्षी भाँति- भाँति से कूज ने लगते थे। इससे वहाँ के कमलवन से सुशोभित निर्मल सरोवर गूँज ने लगते थे ॥ ४ ॥

पूर्वचित्ति की विलासपूर्ण सुललित गतिविधि और पाद विन्यास की शैली से पद-पद पर उसके चरणनूपुरों की झनकार हो उठती थी। उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आग्रीध्र ने समाधियोग द्वारा मूँदे हुए अपने कमल-कली के समान सुन्दर नेत्रों को कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी। वह भ्रमरी के समान एक-एक फूल के पास जाकर उसे सूँघती थी तथा देवता और मनुष्यों के मन और नयनों को आह्लादित करनेवाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीडा-चापल्य, लज्जा एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अङ्गावयवों से पुरुषों के हृदय में कामदेव के प्रवेश के लिये द्वार-सा बना देती थी। जब वह हँस-हँसकर बोल ने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुख से अमृतमय मादक मधु झर रहा है। उसके नि:श्वासके गन्ध से मदान्ध होकर भौंरे उसके मुख-कमल को घेर लेते, तब वह उनसे बच ने के लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुचकलश, वेणी और करधनी हिल ने से बड़े ही सुहाव ने लगते। यह सब देखने से भगवान कामदेव को आग्रीध्र के हृदय में प्रवेश करने का अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करने के लिये पागल की भाँति इस प्रकार कह ने लगे— ॥ ५-६ ॥

‘मुनिवर्य ! तुम कौन हो, इस पर्वत पर तुम क्या करना चाहते हो ? तुम परमपुरुष श्रीनारायण की कोई माया तो नहीं हो ? [भौंहों की ओर संकेत करके—] सखे ! तुम ने ये बिना डोरी के दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं ? क्या इन से तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है, अथवा इस ‘संसारारण्य में मुझ-जैसे मतवाले मृगों का शिकार करना चाहते हो ! ॥ ७ ॥ [कटाक्षों को लक्ष्य करके—] तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पै ने हैं। अहो ! इनके कमलदल के पंख हैं, देखने में बड़े शान्त हैं और हैं भी पंखहीन[1]। यहाँ वन में विचरते हुए तुम इन्हें किस पर छोडऩा चाहते हो ? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करनेवाला नहीं दिखायी देता। तुम्हारा यह पराक्रम हम-जैसे जडबुद्धियों के लिये कल्याणकारी हो ॥ ८ ॥ [भौंरों की ओर देखकर—] भगवन् ! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं, वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगान करते हुए मानो भगवान की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेद की शाखाओं का अनुसरण करते हैं उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटी से झड़े हुए पुष्पों का सेवन कर रहे हैं ॥ ९ ॥ [नूपुरों के शब्द की ओर संकेत करके—] ब्रह्मन् ! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ों में जो तीतर बंद हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखने में नहीं आता। [करधनीसहित पीली साड़ी में अङ्ग की कान्ति की उत्प्रेक्षा कर—] तुम्हारे नितम्बों पर यह कदम्ब कुसुमोंकी-सी आभा कहाँ से आ गयी ? इनके ऊ पर तो अंगारों का मण्डल- सा भी दिखायी देता है। किन्तु तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है ? ॥ १० ॥ [कुङ्कुममण्डित कुचों की ओर लक्ष्य करके—] द्विजवर ! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगों में क्या भरा हुआ है ? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इसीसे तो तुम्हारा मध्यभाग इतना कृश होने पर भी तुम इनका बोझ ढो रहे हो। यहाँ जाकर तो मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी है। और सुभग ! इन सींगों पर तुम ने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा है ? इस की गन्ध से तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है ॥ ११ ॥ मित्रवर ! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँ के निवासी अपने वक्ष:स्थल पर ऐसे अद्भुत अवयव धारण करते हैं, जिन्हों ने हमारे-जैसे प्राणियों के चित्तों को क्षुब्ध कर दिया है तथा मुख में विचित्र हाव-भाव, सरसभाषण और अधरामृत-जैसी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं ॥ १२ ॥

‘प्रियवर ! तुम्हारा भोजन क्या है, जिसके खा ने से तुम्हारे मुख से हवन-सामग्रीकी-सी सुगन्ध फैल रही है ? मालूम होता है, तुम कोई विष्णुभगवान की कला ही हो; इसीलिये तुम्हारे कानों में कभी पलक न मारनेवाले मकरके आकार के दो कुण्डल हैं। तुम्हारा मुख एक सुन्दर सरोवर के समान है। उसमें तुम्हारे चञ्चल नेत्र भय से काँपती हुई दो मछलियों के समान, दन्तपंक्ति हंसों के समान और घुँघराली अलकावली भौंरों के समान शोभायमान है ॥ १३ ॥ तुम जब अपने करकमलों से थप की मारकर इस गेंद को उछालते हो, तब यह दिशा-विदिशाओं में जाती हुई मेरे नेत्रों को तो चञ्चल कर ही देती है, साथ-साथ मेरे मन में भी खलबली पैदा कर देती है। तुम्हारा बाँ का जटाजूट खुल गया है, तुम इसे सँभालते नहीं ? अरे, यह धूर्त वायु कैसा दुष्ट है जो बार-बार तुम्हारे नीवी-वस्त्र को उड़ा देता है ॥ १४ ॥ तपोधन ! तपस्वियों के तप को भ्रष्ट करनेवाला यह अनूप रूप तुम ने किस तप के प्रभाव से पाया है ? मित्र ! आओ, कुछ दिन मेरे साथ रहकर तपस्या करो। अथवा, कहीं विश्व- विस्तार की इच्छा से ब्रह्माजी ने ही तो मुझ पर कृपा नहीं की है ॥ १५ ॥ सचमुच, तुम ब्रह्माजी की ही प्यारी देन हो; अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। तुम में तो मेरे मन और नयन ऐसे उलझ गये हैं कि अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते। सुन्दर सींगोंवाली ! तुम्हारा जहाँ मन हो, मुझे भी वहीं ले चलो; मैं तो तुम्हारा अनुचर हूँ और तुम्हारी ये मङ्गलमयी सखियाँ भी हमारे ही साथ रहें’ ॥ १६ ॥



श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! आग्रीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान और स्त्रियों को प्रसन्न करने में बड़े कुशल थे। उन्होंने इसी प्रकार की रतिचातुर्यमयी मीठी-मीठी बातों से उस अप्सरा को प्रसन्न कर लिया ॥ १७ ॥ वीर-समाज में अग्रगण्य आग्रीध्र की बुद्धि, शील, रूप, अवस्था, लक्ष्मी और उदारता से आकर्षित होकर वह उन जम्बूद्वीपाधिपति के साथ कई हजार वर्षों तक पृथ्वी और स्वर्ग के भोग भोगती रही ॥ १८ ॥ तदनन्तर नृपवर आग्रीध्र ने उसके गर्भ से नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल नाम के नौ पुत्र उत्पन्न किये ॥ १९ ॥

इस प्रकार नौ वर्ष में प्रतिवर्ष एक के क्रम से नौ पुत्र उत्पन्न कर पूर्वचित्ति उन्हें राजभवन में ही छोडक़र फिर ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हो गयी ॥ २० ॥ ये आग्रीध्र के पुत्र माता के अनुग्रह से स्वभाव से ही सुडौल और सबल शरीरवाले थे। आग्रीध्र ने जम्बूद्वीप के विभाग करके उन्हींके समान नामवाले नौ वर्ष (भूखण्ड) बनाये और उन्हें एक-एक पुत्र को सौंप दिया। तब वे सब अपने-अपने वर्ष का राज्य भोग ने लगे ॥ २१ ॥ महाराज आग्रीध्र दिन-दिन भोगों को भोगते रहने पर भी उनसे अतृप्त ही रहे। वे उस अप्सरा को ही परम पुरुषार्थ समझते थे। इसलिये उन्होंने वैदिक कर्मों के द्वारा उसी लोक को प्राप्त किया, जहाँ पितृगण अपने सुकृतों के अनुसार तरह-तरह के भोगों में मस्त रहते हैं ॥ २२ ॥ पिता के परलोक सिधारने पर नाभि आदि नौ भाइयों ने मेरु की मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा और देववीति नाम की नौ कन्याओं से विवाह किया ॥ २३ ॥


[1] बाण का पिछला हिस्सा।



स्कन्ध-05 [अध्याय-03]

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
नाभिरपत्यकामोऽप्रजया मेरुदेव्या
भगवन्तं यज्ञपुरुषमवहितात्मायजत ॥ १॥

तस्य ह वाव श्रद्धया विशुद्धभावेन
यजतः प्रवर्ग्येषु प्रचरत्सु द्रव्यदेशकाल-
मन्त्रर्त्विग्दक्षिणाविधानयोगोपपत्त्या
दुरधिगमोऽपि भगवान् भागवत-
वात्सल्यतया सुप्रतीक आत्मान-
मपराजितं निजजनाभिप्रेतार्थ-
विधित्सया गृहीतहृदयो हृदयङ्गमं
मनोनयनानन्दनावयवाभिराम-
माविश्चकार ॥ २॥

अथ ह तमाविष्कृतभुजयुगलद्वयं
हिरण्मयं पुरुषविशेषं कपिशकौशेयाम्बर-
धरमुरसि विलसच्छ्रीवत्सललामं
दरवरवनरुहवनमालाच्छूर्यमृतमणि-
गदादिभिरुपलक्षितं स्फुटकिरण-
प्रवरमुकुटकुण्डलकटककटिसूत्र-
हारकेयूरनूपुराद्यङ्गभूषणविभूषित-
मृत्विक्सदस्यगृहपतयोऽधना
इवोत्तमधनमुपलभ्य सबहुमान-
मर्हणेनावनतशीर्षाण उपतस्थुः ॥ ३॥

ऋत्विज ऊचुः
अर्हसि मुहुरर्हत्तमार्हणमस्माकमनुपथानां
नमो नम इत्येतावत्सदुपशिक्षितं कोऽर्हति
पुमान् प्रकृतिगुणव्यतिकरमतिरनीश
ईश्वरस्य परस्य प्रकृतिपुरुषयोरर्वाक्तनाभि-
र्नामरूपाकृतिभी रूपनिरूपणम् ॥ ४॥

सकलजननिकायवृजिननिरसनशिवतम-
प्रवरगुणगणैकदेशकथनादृते ॥ ५॥

परिजनानुरागविरचितशबलसंशब्द-
सलिलसितकिसलयतुलसिकादूर्वाङ्कुरैरपि
सम्भृतया सपर्यया किल परम परितुष्यसि ॥ ६॥

अथानयापि न भवत इज्ययोरुभारभरया
समुचितमर्थमिहोपलभामहे ॥ ७॥

आत्मन एवानुसवनमञ्जसाव्यतिरेकेण
बोभूयमानाशेषपुरुषार्थस्वरूपस्य किन्तु
नाथाशिष आशासानानामेतदभिसंराधन-
मात्रं भवितुमर्हति ॥ ८॥

तद्यथा बालिशानां स्वयमात्मनः श्रेयः
पर-मविदुषां परम परमपुरुष प्रकर्षकरुणया
स्वमहिमानं चापवर्गाख्यमुपकल्पयिष्यन्
स्वयं नापचित एवेतरवदिहोपलक्षितः ॥ ९॥

अथायमेव वरो ह्यर्हत्तम यर्हि बर्हिषि
राजर्षेर्वरदर्षभो भवान् निजपुरुषेक्षणविषय
आसीत् ॥ १०॥

असङ्गनिशितज्ञानानलविधूताशेषमलानां
भवत्स्वभावानामात्मारामाणां मुनीना-
मनवरतपरिगुणितगुणगणपरममङ्गला-
यनगुणगणकथनोऽसि ॥ ११॥

अथ कथञ्चित्स्खलनक्षुत्पतनजृम्भण-
दुरवस्थानादिषु विवशानां नः स्मरणाय
ज्वरमरणदशायामपि सकलकश्मल-
निरसनानि तव गुणकृतनामधेयानि
वचनगोचराणि भवन्तु ॥ १२॥

किञ्चायं राजर्षिरपत्यकामः प्रजां
भवादृशीमाशासान ईश्वरमाशिषां
स्वर्गापवर्गयोरपि भवन्तमुपधावति
प्रजायामर्थप्रत्ययो धनदमिवाधनः
फलीकरणम् ॥ १३॥

को वा इह तेऽपराजितोऽपराजितया
माययानवसितपदव्यानावृतमतिर्विषय-
विषरयानावृतप्रकृतिरनुपासितमहच्चरणः ॥ १४॥

यदु ह वाव तव पुनरदभ्रकर्तरिह
समाहूतस्तत्रार्थधियां मन्दानां
नस्तद्यद्देवहेलनं देवदेवार्हसि साम्येन
सर्वान् प्रतिवोढुमविदुषाम् ॥ १५॥

श्रीशुक उवाच
इति निगदेनाभिष्टूयमानो भगवा-
ननिमिषर्षभो वर्षधराभिवादिताभिवन्दित-
चरणः सदयमिदमाह ॥ १६॥

श्रीभगवानुवाच
अहो बताहमृषयो भवद्भिरवितथगीर्भि-
र्वरमसुलभमभियाचितो यदमुष्यात्मजो
मया सदृशो भूयादिति ममाहमेवाभिरूपः
कैवल्यादथापि ब्रह्मवादो न मृषा भवितु-
मर्हति ममैव हि मुखं यद्द्विजदेवकुलम् ॥ १७॥

तत आग्नीध्रीयेंऽशकलयावतरिष्या-
म्यात्मतुल्यमनुपलभमानः ॥ १८॥

श्रीशुक उवाच
इति निशामयन्त्या मेरुदेव्याः
पतिमभिधायान्तर्दधे भगवान् ॥ १९॥

बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान्
परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रिय-
चिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां
धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां
श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया
तनुवावततार ॥ ॥ २०॥
स गो ना सं गो गो
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे नाभिचरिते ऋषभावतारो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥


पंचम स्कन्ध-तीसरा अध्याय 
राजा नाभि का चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! आग्रीध्र के पुत्र नाभि के कोई सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवी के सहित पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान यज्ञपुरुष का यजन किया ॥ १ ॥ यद्यपि सुन्दर अङ्गोंवाले श्रीभगवान द्रव्य, देश, काल, मन्त्र, ऋत्विज्, दक्षिणा और विधि—इन यज्ञ के साधनों से सहज में नहीं मिलते, तथापि वे भक्तों पर तो कृपा करते ही हैं। इसलिये जब महाराज नाभि ने श्रद्धापूर्वक विशुद्धभाव से उनकी आराधना की, तब उनका चित्त अपने भक्त का अभीष्ट कार्य करने के लिये उत्सुक हो गया। यद्यपि उनका स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र है, तथापि उन्होंने प्रवग्र्यकर्म का अनुष्ठान होते समय उसे मन और नयनों को आनन्द देनेवाले अवयवों से युक्त अति सुन्दर हृदयाकर्षक मूर्ति में प्रकट किया ॥ २ ॥ उनके श्रीअङ्ग में रेशमी पीताम्बर था, वक्ष:स्थल पर सुमनोहर श्रीवत्स-चिह्न सुशोभित था; भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म तथा गले में वनमाला और कौस्तुभमणि की शोभा थी। सम्पूर्ण शरीर अङ्ग-प्रत्यङ्ग की कान्ति को बढ़ानेवाले किरणजाल-मण्डित मणिमय मुकुट, कुण्डल, कङ्कण, करधनी, हार, बाजूबंद और नूपुर आदि आभूषणों से विभूषित था। ऐसे परम तेजस्वी चतुर्भुजमूर्ति पुरुषविशेष को प्रकट हुआ देख ऋत्विज्, सदस्य और यजमान आदि सभी लोग ऐसे आह्लादित हुए, जैसे निर्धन पुरुष अपार धनराशि पाकर फूला नहीं समाता। फिर सभी ने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभु की अघ्र्य द्वारा पूजा की और ऋत्विजों ने उनकी स्तुति की ॥ ३ ॥

ऋत्विजों ने कहा—पूज्यतम ! हम आपके अनुगत भक्त हैं, आप हमारे पुन:-पुन: पूजनीय हैं। किन्तु हम आपकी पूजा करना क्या जानें ? हम तो बार-बार आपको नमस्कार करते हैं—इतना ही हमें महापुरुषों ने सिखाया है। आप प्रकृति और पुरुष से भी परे हैं। फिर प्राकृत गुणों के कार्यभूत इस प्रपञ्च में बुद्धि फँस जाने से आपके गुण-गान में सर्वथा असमर्थ ऐसा कौन पुरुष है जो प्राकृत नाम, रूप एवं आकृति के द्वारा आपके स्वरूप का निरूपण कर सके ? आप साक्षात परमेश्वर हैं ॥ ४ ॥ आपके परम मङ्गलमय गुण सम्पूर्ण जनता के दु:खों का दमन करनेवाले हैं। यदि कोई उन्हें वर्णन करने का साहस भी करेगा तो केवल उनके एकदेश का ही वर्णन कर सकेगा ॥ ५ ॥ किन्तु प्रभो ! यदि आपके भक्त प्रेम-गद्गद वाणी से स्तुति करते हुए सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी और दूब के अङ्कुर आदि सामग्री से ही आपकी पूजा करते हैं, तो भी आप सब प्रकार सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥ ६ ॥

हमें तो अनुराग के सिवा इस द्रव्य-कालादि अनेकों अङ्गोंवाले यज्ञ से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं दिखलायी देता; ॥ ७ ॥ क्योंकि आप से स्वत: ही क्षण-क्षण में जो सम्पूर्ण पुरुषार्थों का फल स्वरूप परमानन्द स्वभावत: ही निरन्तर प्रादुर्भूत होता रहता है, आप साक्षात उसके स्वरूप ही हैं। इस प्रकार यद्यपि आपको इन यज्ञादि से कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि अनेक प्रकार की कामनाओं की सिद्धि चाहनेवाले हमलोगों के लिये तो मनोरथसिद्धि का पर्याप्त साधन यही होना चाहिये ॥ ८ ॥ आप ब्रह्मादि परम पुरुषों की अपेक्षा भी परम श्रेष्ठ हैं। हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारा परम कल्याण किस में है, और न हम से आपकी यथोचित पूजा ही बनी है; तथापि जिस प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष बिना बुलाये भी केवल करुणावश अज्ञानी पुरुषों के पास चले जाते हैं उसी प्रकार आप भी हमें मोक्षसंज्ञक अपना परमपद और हमारी अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करने के लिये अन्य साधारण यज्ञदर्शकों के समान यहाँ प्रकट हुए हैं ॥ ९ ॥ पूज्यतम ! हमें सब से बड़ा वर तो आपने यही दे दिया कि ब्रह्मादि समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ होकर भी आप राजर्षि नाभि की इस यज्ञशाला में साक्षात हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हो गये ! अब हम और वर क्या माँगें ? ॥ १० ॥

प्रभो ! आपके गुणगणों का गान परम मङ्गलमय है। जिन्हों ने वैराग्य से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्रि के द्वारा अपने अन्त:करण के राग-द्वेषादि सम्पूर्ण मलों को जला डाला है, अतएव जिनका स्वभाव आपके ही समान शान्त है, वे आत्माराम मुनिगण भी निरन्तर आपके गुणों का गान ही किया करते हैं ॥ ११ ॥ अत: हम आप से यही वर माँगते हैं कि गिरने, ठोकर खाने, छींक ने अथवा जँभाई लेने और सङ्कटादि के समय एवं ज्वर और मरणादि की अवस्थाओं में आपका स्मरण न हो सकने पर भी किसी प्रकार आपके सकलकलिमलविनाशक ‘भक्तवत्सल’, ‘दीनबन्धु’ आदि गुणद्यो तक नामों का हम उच्चारण कर सकें ॥ १२ ॥

इसके सिवा, कहनेयोग्य न होने पर भी एक प्रार्थना और है। आप साक्षात परमेश्वर हैं; स्वर्ग- अपवर्ग आदि ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आप न दे सकें। तथापि जैसे कोई कंगाल किसी धन लुटानेवाले परम उदार पुरुष के पास पहुँचकर भी उससे भूसा ही माँगे, उसी प्रकार हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तान को ही परम पुरुषार्थ मानकर आपके ही समान पुत्र पाने के लिये आपकी आराधना कर रहे हैं ॥ १३ ॥ यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपकी माया का पार कोई नहीं पा सकता और न वह किसी के वश में ही आ सकती है। जिन लोगों ने महापुरुषों के चरणों का आश्रय नहीं लिया, उनमें ऐसा कौन है जो उसके वश में नहीं होता, उसकी बुद्धि पर उसका परदा नहीं पड़ जाता और विषयरूप विष का वेग उसके स्वभाव को दूषित नहीं कर देता ? ॥ १४ ॥ देवदेव ! आप भक्तों के बड़े-बड़े काम कर देते हैं। हम मन्दमतियों ने कामनावश इस तुच्छ कार्य के लिये आपका आवाहन किया, यह आपका अनादर ही है। किन्तु आप समदर्शी हैं, अत: हम अज्ञानियों की इस धृष्टता को आप क्षमा करें ॥ १५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! वर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजों ने प्रभु के चरणों की वन्दना करके जब पूर्वोक्त स्तोत्र से स्तुति की, तब देवश्रेष्ठ श्रीहरि ने करुणावश इस प्रकार कहा ॥ १६ ॥

श्रीभगवान ने कहा—ऋषियो ! बड़े असमंजस की बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझ से यह बड़ा दुर्लभ वर माँगा है कि राजर्षि नाभि के मेरे समान पुत्र हो। मुनियो ! मेरे समान तो मैं ही हूँ, क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है ॥ १७ ॥ इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्रीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूँगा, क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता ॥ १८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये ॥ १९ ॥ विष्णुदत्त परीक्षित ! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊध्र्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए ॥ २० ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-04]

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अथ ह तमुत्पत्त्यैवाभिव्यज्यमान-
भगवल्लक्षणं साम्योपशमवैराग्यैश्वर्य-
महाविभूतिभिरनुदिनमेधमानानुभावं
प्रकृतयः प्रजा ब्राह्मणा देवताश्चावनितल-
समवनायातितरां जगृधुः ॥ १॥

तस्य ह वा इत्थं वर्ष्मणा वरीयसा
बृहच्छ्लोकेन चौजसा बलेन श्रिया
यशसा वीर्यशौर्याभ्यां च पिता ऋषभ
इतीदं नाम चकार ॥ २॥

तस्य हीन्द्रः स्पर्धमानो भगवान् वर्षे
न ववर्ष तदवधार्य भगवान् ऋषभदेवो
योगेश्वरः प्रहस्यात्मयोगमायया
स्ववर्षमजनाभं नामाभ्यवर्षत् ॥ ३॥

नाभिस्तु यथाभिलषितं सुप्रजस्त्व-
मवरुध्यातिप्रमोदभरविह्वलो गद्गदाक्षरया
गिरा स्वैरं गृहीतनरलोकसधर्मं भगवन्तं
पुराणपुरुषं मायाविलसितमतिर्वत्स
तातेति सानुरागमुपलालयन् परां
निर्वृतिमुपगतः ॥ ४॥

विदितानुरागमापौरप्रकृतिजनपदो
राजा नाभिरात्मजं समयसेतुरक्षाया-
मभिषिच्य ब्राह्मणेषूपनिधाय सह
मेरुदेव्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन
तपसा समाधियोगेन नरनारायणाख्यं
भगवन्तं वासुदेवमुपासीनः कालेन
तन्महिमानमवाप ॥ ५॥

यस्य ह पाण्डवेय श्लोकावुदाहरन्ति -
को नु तत्कर्म राजर्षेर्नाभेरन्वाचरेत्पुमान् ।
अपत्यतामगाद्यस्य हरिः शुद्धेन कर्मणा ॥ ६॥

ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः ।
यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा ॥ ७॥

अथ ह भगवान् ऋषभदेवः स्ववर्षं
कर्मक्षेत्रमनुमन्यमानः प्रदर्शितगुरुकुलवासो
लब्धवरैर्गुरुभिरनुज्ञातो गृहमेधिनां
धर्माननुशिक्षमाणो जयन्त्यामिन्द्रदत्ताया-
मुभयलक्षणं कर्म समाम्नायाम्नातमभियुञ्ज-
न्नात्मजानामात्मसमानानां शतं जनयामास ॥ ८॥

येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण
आसीद्येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥ ९॥

तमनु कुशावर्त इलावर्तो ब्रह्मावर्तो मलयः
केतुर्भद्रसेन इन्द्रस्पृग्विदर्भः कीकट इति नव
नवतिप्रधानाः ॥ १०॥

कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।
आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ॥ ११॥

इति भागवतधर्मदर्शना नव महाभागवता-
स्तेषां सुचरितं भगवन् महिमोपबृंहितं
वसुदेवनारदसंवादमुपशमायनमुपरिष्टा-
द्वर्णयिष्यामः ॥ १२॥

यवीयांस एकाशीतिर्जायन्तेयाः
पितुरादेशकरा महाशालीना महाश्रोत्रिया
यज्ञशीलाः कर्मविशुद्धा ब्राह्मणा बभूवुः ॥ १३॥

भगवान् ऋषभसंज्ञ आत्मतन्त्रः स्वयं
नित्यनिवृत्तानर्थपरम्परः केवलानन्दानुभव
ईश्वर एव विपरीतवत्कर्माण्यारभमाणः
कालेनानुगतं धर्ममाचरणेनोपशिक्षय-
न्नतद्विदां सम उपशान्तो मैत्रः कारुणिको धर्मार्थयशःप्रजानन्दामृतावरोधेन
गृहेषु लोकं नियमयत् ॥ १४॥

यद्यच्छीर्षण्याचरितं तत्तदनुवर्तते लोकः ॥ १५॥

यद्यपि स्वविदितं सकलधर्मं ब्राह्मं गुह्यं
ब्राह्मणैर्दर्शितमार्गेण सामादिभिरुपायै-
र्जनतामनुशशास ॥ १६॥

द्रव्यदेशकालवयःश्रद्धर्त्विग्विविधोद्देशो-
पचितैः सर्वैरपि क्रतुभिर्यथोपदेशं शतकृत्व
इयाज ॥ १७॥

भगवतर्षभेण परिरक्ष्यमाण एतस्मिन् वर्षे
न कश्चन पुरुषो वाञ्छत्यविद्यमानमिवा-
त्मनोऽन्यस्मात् कथञ्चन किमपि कर्हिचि-
दवेक्षते भर्तर्यनुसवनं विजृम्भितस्नेहातिशय-
मन्तरेण ॥ १८॥

स कदाचिदटमानो भगवान् ऋषभो
ब्रह्मावर्तगतो ब्रह्मर्षिप्रवरसभायां प्रजानां
निशामयन्तीनामात्मजानवहितात्मनः
प्रश्रयप्रणयभरसुयन्त्रितानप्युपशिक्षयन्निति
होवाच ॥ १९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥


पंचम स्कन्ध-चौथा अध्याय 
ऋषभदेवजी का राज्यशासन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान विष्णु के वज्र-अङ्कुश आदि चिह्नों से युक्त थे; समता, शान्ति, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री आदि प्रकृतिवर्ग, प्रजा, ब्राह्मण और देवताओं की यह उत्कट अभिलाषा होने लगी कि ये ही पृथ्वी का शासन करें ॥ १ ॥ उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ‘ऋषभ’ (श्रेष्ठ) रखा ॥ २ ॥

एक बार भगवान इन्द्र ने ईष्र्यावश उनके राज्य में वर्षा नहीं की। तब योगेश्वर भगवान ऋषभ ने इन्द्र की मूर्खता पर हँसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष अजनाभखण्ड में खूब जल बरसाया ॥ ३ ॥ महाराज नाभि अपनी इच्छा के अनुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त आनन्दमग्र हो गये और अपनी ही इच्छा से मनुष्य-शरीर धारण करनेवाले पुराणपुरुष श्रीहरि का सप्रेम लालन करते हुए, उन्हींके लीलाविलास से मुग्ध होकर ‘वत्स ! तात !’ ऐसा गद्गदवाणी से कहते हुए बड़ा सुख मान ने लगे ॥ ४ ॥

जब उन्होंने देखा कि मन्ङ्क्षत्रमण्डल, नागरिक और राष्ट्र की जनता ऋषभदेव से बहुत प्रेम करती है, तो उन्होंने उन्हें धर्ममर्यादा की रक्षा के लिये राज्याभिषिक्त करके ब्राह्मणों की देख-रेख में छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी मेरुदेवी के सहित बदरिकाश्रम को चले गये। वहाँ अहिंसावृत्तिसे, जिससे किसीको उद्वेग न हो ऐसी कौशलपूर्ण, तपस्या और समाधियोग के द्वारा भगवान वासुदेव के नर- नारायणरूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्हींके स्वरूप में लीन हो गये ॥ ५ ॥

पाण्डुनन्दन ! राजा नाभि के विषय में यह लो कोक्ति प्रसिद्ध है— राजर्षि नाभि के उदार कर्मों का आचरण दूसरा कौन पुरुष कर सकता है—जिनके शुद्ध कर्मों से सन्तुष्ट होकर साक्षात श्रीहरि उनके पुत्र हो गये थे ॥ ६ ॥ महाराज नाभि के समान ब्राह्मणभक्त भी कौन हो सकता है—जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट हुए ब्राह्मणों ने अपने मन्त्रबल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात श्रीविष्णुभगवान के दर्शन करा दिये ॥ ७ ॥

भगवान ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभखण्ड को कर्मभूमि मानकर लोकसंग्रह के लिये कुछ काल गुरुकुल में वास किया। गुरुदेव को यथोचित दक्षिणा देकर गृहस्थ में प्रवेश करने के लिये उनकी आज्ञा ली। फिर लोगों को गृहस्थधर्म की शिक्षा दे ने के लिये देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जयन्ती से विवाह किया तथा श्रौत-स्मात्र्त दोनों प्रकार के शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही समान गुणवाले सौ पुत्र उत्पन्न किये ॥ ८ ॥ उनमें महायोगी भरतजी सब से बड़े और सब से अधिक गुणवान् थे। उन्हींके नाम से लोग इस अजनाभखण्ड को ‘भारतवर्ष’ कह ने लगे ॥ ९ ॥ उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक्, विदर्भ और कीकट—ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे ॥ १० ॥ उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आबिर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन—ये नौ राजकुमार भागवतधर्म का प्रचार करनेवाले बड़े भगवद्भक्त थे। भगवान की महिमा से महिमान्वित और परम शान्ति से पूर्ण इनका पवित्र चरित हम नारद-वसुदेवसंवाद के प्रसङ्ग से आगे (एकादश स्कन्धमें) कहेंगे ॥ ११-१२ ॥ इन से छोटे जयन्ती के इक्यासी पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करनेवाले, अति विनीत, महान वेदज्ञ और निरन्तर यज्ञ करनेवाले थे। वे पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये थे ॥ १३ ॥

भगवान ऋषभदेव, यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ- परम्परा से रहित, केवल आनन्दानुभव स्वरूप और साक्षात ईश्वर ही थे, तो भी अज्ञानियों के समान कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्त्व न जाननेवाले लोगों को उसकी शिक्षा दी। साथ ही सम, शान्त, सुहृद् और कारुणिक रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तान भोग-सुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया ॥ १४ ॥ महापुरुष जैसा-जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं ॥ १५ ॥ यद्यपि वे सभी धर्मों के साररूप वेद के गूढ रहस्य को जानते थे, तो भी ब्राह्मणों की बतलायी हुई विधि से साम-दानादि नीति के अनुसार ही जनता का पालन करते थे ॥ १६ ॥ उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज् आदि से सुसम्पन्न सभी प्रकार के सौ-सौ यज्ञ किये ॥ १७ ॥ भगवान ऋषभदेव के शासनकाल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिये किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढऩेवाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था। यही नहीं, आकाश- कुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भाँति कोई किसी की वस्तु की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था ॥ १८ ॥ एक बार भगवान ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त देश में पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े ब्रहमर्षियों की सभा में उन्होंने प्रजा के सामने ही अपने समाहितचित्त तथा विनय और प्रेम के भार से सुसंयत पुत्रों को शिक्षा दे ने के लिये इस प्रकार कहा ॥ १९ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-05]

॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥
ऋषभ उवाच
नायं देहो देहभाजां नृलोके
कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं
शुद्ध्येद्यस्माद्ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ॥ १॥

महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्ते-
स्तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम् ।
महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता
विमन्यवः सुहृदः साधवो ये ॥ २॥

ये वा मयीशे कृतसौहृदार्था
जनेषु देहम्भरवार्तिकेषु ।
गृहेषु जायाऽऽत्मजरातिमत्सु
न प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥ ३॥

नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म
यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति ।
न साधु मन्ये यत आत्मनोऽय-
मसन्नपि क्लेशद आस देहः ॥ ४॥

पराभवस्तावदबोधजातो
यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् ।
यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै
कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ॥ ५॥

एवं मनः कर्मवशं प्रयुङ्क्ते
अविद्ययाऽऽत्मन्युपधीयमाने ।
प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे
न मुच्यते देहयोगेन तावत् ॥ ६॥

यदा न पश्यत्ययथा गुणेहां
स्वार्थे प्रमत्तः सहसा विपश्चित् ।
गतस्मृतिर्विन्दति तत्र तापा-
नासाद्य मैथुन्यमगारमज्ञः ॥ ७॥

पुंसः स्त्रिया मिथुनीभावमेतं
तयोर्मिथो हृदयग्रन्थिमाहुः ।
अतो गृहक्षेत्रसुताप्तवित्तैर्जनस्य
मोहोऽयमहं ममेति ॥ ८॥

यदा मनो हृदयग्रन्थिरस्य
कर्मानुबद्धो दृढ आश्लथेत ।
तदा जनः सम्परिवर्ततेऽस्मान्मुक्तः
परं यात्यतिहाय हेतुम् ॥ ९॥

हंसे गुरौ मयि भक्त्यानुवृत्या
वितृष्णया द्वन्द्वतितिक्षया च ।
सर्वत्र जन्तोर्व्यसनावगत्या
जिज्ञासया तपसेहा निवृत्त्या ॥ १०॥

मत्कर्मभिर्मत्कथया च नित्यं
मद्देवसङ्गाद्गुणकीर्तनान्मे ।
निर्वैरसाम्योपशमेन पुत्रा
जिहासया देहगेहात्मबुद्धेः ॥ ११॥

अध्यात्मयोगेन विविक्तसेवया
प्राणेन्द्रियात्माभिजयेन सध्र्यक् ।
सच्छ्रद्धया ब्रह्मचर्येण शश्व-
दसम्प्रमादेन यमेन वाचाम् ॥ १२॥

सर्वत्र मद्भावविचक्षणेन
ज्ञानेन विज्ञानविराजितेन ।
योगेन धृत्युद्यमसत्त्वयुक्तो
लिङ्गं व्यपोहेत्कुशलोऽहमाख्यम् ॥ १३॥

कर्माशयं हृदयग्रन्थिबन्ध-
मविद्ययासादितमप्रमत्तः ।
अनेन योगेन यथोपदेशं
सम्यग्व्यपोह्योपरमेत योगात् ॥ १४॥
पुत्रांश्च शिष्यांश्च नृपो गुरुर्वा
मल्लोककामो मदनुग्रहार्थः ।
इत्थं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान्
न योजयेत्कर्मसु कर्ममूढान् ।
कं योजयन् मनुजोऽर्थं लभेत
निपातयन् नष्टदृशं हि गर्ते ॥ १५॥

लोकः स्वयं श्रेयसि नष्टदृष्टि-
र्योऽर्थान् समीहेत निकामकामः ।
अन्योन्यवैरः सुखलेशहेतो-
रनन्तदुःखं च न वेद मूढः ॥ १६॥

कस्तं स्वयं तदभिज्ञो विपश्चि-
दविद्यायामन्तरे वर्तमानम् ।
दृष्ट्वा पुनस्तं सघृणः कुबुद्धिं
प्रयोजयेदुत्पथगं यथान्धम् ॥ १७॥

गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्पिता
न स स्याज्जननी न सा स्यात् ।
दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्यान्न
मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम् ॥ १८॥

इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं
सत्त्वं हि मे हृदयं यत्र धर्मः ।
पृष्ठे कृतो मे यदधर्म आरादतो
हि मामृषभं प्राहुरार्याः ॥ १९॥

तस्माद्भवन्तो हृदयेन जाताः
सर्वे महीयांसममुं सनाभम् ।
अक्लिष्टबुद्ध्या भरतं भजध्वं
शुश्रूषणं तद्भरणं प्रजानाम् ॥ २०॥

भूतेषु वीरुद्भ्य उदुत्तमा ये
सरीसृपास्तेषु सबोधनिष्ठाः ।
ततो मनुष्याः प्रमथास्ततोऽपि
गन्धर्वसिद्धा विबुधानुगा ये ॥ २१॥

देवासुरेभ्यो मघवत्प्रधाना
दक्षादयो ब्रह्मसुतास्तु तेषाम् ।
भवः परः सोऽथ विरिञ्चवीर्यः
स मत्परोऽहं द्विजदेवदेवः ॥ २२॥

न ब्राह्मणैस्तुलये भूतमन्य-
त्पश्यामि विप्राः किमतः परं तु ।
यस्मिन् नृभिः प्रहुतं श्रद्धयाह-
मश्नामि कामं न तथाग्निहोत्रे ॥ २३॥

धृता तनूरुशती मे पुराणी
येनेह सत्त्वं परमं पवित्रम् ।
शमो दमः सत्यमनुग्रहश्च
तपस्तितिक्षानुभवश्च यत्र ॥ २४॥

मत्तोऽप्यनन्तात्परतः परस्मा-
त्स्वर्गापवर्गाधिपतेर्न किञ्चित् ।
येषां किमु स्यादितरेण तेषा-
मकिञ्चनानां मयि भक्तिभाजाम् ॥ २५॥

सर्वाणि मद्धिष्ण्यतया भवद्भिश्चराणि
भूतानि सुताध्रुवाणि ।
सम्भावितव्यानि पदे पदे वो
विविक्तदृग्भिस्तदु हार्हणं मे ॥ २६॥

मनो वचो दृक्करणेहितस्य
साक्षात्कृतं मे परिबर्हणं हि ।
विना पुमान् येन महाविमोहा-
त्कृतान्तपाशान्न विमोक्तुमीशेत् ॥ २७॥

श्रीशुक उवाच
एवमनुशास्यात्मजान् स्वयमनुशिष्टानपि
लोकानुशासनार्थं महानुभावःपरमसुहृ-
द्भगवान् ऋषभापदेश उपशमशीलाना-
मुपरतकर्मणां महामुनीनां भक्तिज्ञान-
वैराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्ममुपशिक्षमाणः
स्वतनयशतज्येष्ठं परमभागवतं
भगवज्जनपरायणं भरतं धरणिपालनाया-
भिषिच्य स्वयं भवन एवोर्वरितशरीरमात्र-
परिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः
प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिताहवनीयो
ब्रह्मावर्तात्प्रवव्राज ॥ २८॥

जडान्धमूकबधिरपिशाचोन्मादकव-
दवधूतवेषोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां
गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं बभूव ॥ २९॥

तत्र तत्र पुरग्रामाकरखेटवाटखर्वट-
शिबिरव्रजघोषसार्थगिरिवनाश्रमादि-
ष्वनुपथमवनिचरापसदैः परिभूयमानो
मक्षिकाभिरिव वनगजस्तर्जनताडना-
वमेहनष्ठीवनग्रावशकृद्रजःप्रक्षेपपूतिवात-
दुरुक्तैस्तदविगणयन्नेवासत्संस्थान
एतस्मिन् देहोपलक्षणे सदपदेश
उभयानुभवस्वरूपेण स्वमहिमा-
वस्थानेनासमारोपिताहंममा-
भिमानत्वादविखण्डितमनाः
पृथिवीमेकचरः परिबभ्राम ॥ ३०॥

अतिसुकुमारकरचरणोरःस्थलविपुल-
बाह्वंसगलवदनाद्यवयवविन्यासः प्रकृति-
सुन्दरस्वभावहाससुमुखो नवनलिनदलाय-
मानशिशिरतारारुणायतनयनरुचिरः
सदृशसुभगकपोलकर्णकण्ठनासो
विगूढस्मितवदनमहोत्सवेन पुरवनितानां
मनसि कुसुमशरासनमुपदधानः
परागवलम्बमानकुटिलजटिलकपिश-
केशभूरिभारोऽवधूतमलिननिजशरीरेण
ग्रहगृहीत इवादृश्यत ॥ ३१॥

यर्हि वाव स भगवान् लोकमिमं
योगस्याद्धा प्रतीपमिवाचक्षाण-
स्तत्प्रतिक्रियाकर्म बीभत्सितमिति
व्रतमाजगरमास्थितः शयान एवाश्नाति
पिबति खादत्यवमेहति हदति स्म
चेष्टमान उच्चरित आदिग्धोद्देशः ॥ ३२॥

तस्य ह यः पुरीषसुरभिसौगन्ध्यवायुस्तं देशं
दशयोजनं समन्तात्सुरभिं चकार ॥ ३३॥

एवं गोमृगकाकचर्यया व्रजंस्तिष्ठन्नासीनः शयानः
काकमृगगोचरितः पिबति खादत्यवमेहति स्म ॥ ३४॥

इति नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्य-
पतिरृषभोऽविरतपरममहानन्दानुभव
आत्मनि सर्वेषां भूतानामात्मभूते भगवति
वासुदेव आत्मनोऽव्यवधानानन्तरोदरभावेन
सिद्धसमस्तार्थपरिपूर्णो योगैश्वर्याणि वैहायस-
मनोजवान्तर्धानपरकायप्रवेशदूरग्रहणादीनि
यदृच्छयोपगतानि नाञ्जसा नृपहृदयेनाभ्यनन्दत् ॥ ३५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ऋषभदेवानुचरिते पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥


पंचम स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय 
ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना
श्रीऋषभदेवजी ने कहा—पुत्रो ! इस मत्र्यलोक में यह मनुष्य-शरीर दु:खमय विषयभोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्त:करण शुद्ध हो; क्योंकि इसीसे अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के सङ्ग को नरक का द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सब के हितचिन् तक और सदाचार-सम्पन्न हों ॥ २ ॥ अथवा मुझ परमात्मा के प्रेम के ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करनेवाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्पन्न घरों में जिनकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीरनिर्वाह के लिये ही प्रवृत्त होते हों ॥ ३ ॥ मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसी के कारण आत्मा को यह असत् और दु:खदायक शरीर प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ जब तक जीव को आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक यह लौकिक-वैदिक कर्मों में फँसा रहता है, तब तक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देह-बन्धन की प्राप्ति होती है ॥ ५ ॥ इस प्रकार अविद्या के द्वारा आत्म स्वरूप के ढक जाने से कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य को फिर कर्मों में ही प्रवृत्त करता है। अत: जब तक उस को मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होती, तब तक वह देहबन्धन से छूट नहीं सकता ॥ ६ ॥ स्वार्थ में पागल जीव जब तक विवेकदृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टाओं को मिथ्या नहीं देखता, तब तक आत्म स्वरूप की स्मृति खो बैठ ने के कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह आदि में आसक्त रहता है और तरह-तरह के क्लेश उठाता रहता है ॥ ७ ॥

स्त्री और पुरुष—इन दोनों का जो परस्पर दाम्पत्य-भाव है, इसी को पण्डितजन उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहले से ही है। इसी के कारण जीव को देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदि में भी ‘मैं’ और ‘मेरे’पन का मोह हो जाता है ॥ ८ ॥ जिस समय कर्मवासनाओं के कारण पड़ी हुई इस की यह दृढ़ हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्यभाव से निवृत्त हो जाता है और संसार के हेतुभूत अहंकार को त्यागकर सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ९ ॥ पुत्रो ! संसारसागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्त्वगुणविशिष्ट पुरुष को चाहिये कि सब के आत्मा और गुरु स्वरूप मुझ भगवान में भक्तिभाव रखनेसे, मेरे परायण रहनेसे, तृष्णा के त्यागसे, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों के सह ने से ‘जीव को सभी योनियों में दु:ख ही उठाना पड़ता है’ इस विचारसे, तत्त्वजिज्ञासासे, तपसे, सकाम कर्म के त्यागसे, मेरे ही लिये कर्म करनेसे, मेरी कथाओं का नित्यप्रति श्रवण करनेसे, मेरे भक्तों के सङ्ग और मेरे गुणों के कीर्तनसे, वैरत्यागसे, समतासे, शान्ति से और शरीर तथा घर आदि में मैं-मेरेपन के भाव को त्याग ने की इच्छासे, अध्यात्म- शास्त्र के अनुशीलनसे, एकान्त सेवनसे, प्राण, इन्द्रिय और मन के संयमसे, शास्त्र और सत्पुरुषों के वचन में यथार्थ बुद्धि रखनेसे, पूर्ण ब्रह्मचर्यसे, कर्तव्यकर्मों में निरन्तर सावधान रहनेसे, वाणी के संयमसे, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखनेसे, अनुभवज्ञानसहित तत्त्वविचार से और योगसाधन से अहंकाररूप अपने लिङ्गशरीर को लीन कर दे ॥ १०—१३ ॥ मनुष्य को चाहिये कि वह सावधान रहकर अविद्या से प्राप्त इस हृदयग्रन्थिरूप बन्धन को शास्त्रोक्त रीति से इन साधनों के द्वारा भलीभाँति काट डाले; क्योंकि यही कर्मसंस्कारों के रहने का स्थान है। तदनन्तर साधन का भी परित्याग कर दे ॥ १४ ॥

जिस को मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रह की प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो—वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रों को ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परम पुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उन पर क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्म में प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मों में लगाना तो ऐसा ही है, जैसे किसी अंधे मनुष्य को जान-बूझकर गढ़े में ढकेल देना। इससे भला, किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो सकती है ॥ १५ ॥ अपना सच्चा कल्याण किस बात में है, इस को लोग नहीं जानते; इसीसे वे तरह-तरह की भोग-कामनाओं में फँसकर तुच्छ क्षणिक सुख के लिये आपस में वैर ठान लेते हैं और निरन्तर विषयभोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मूर्ख इस बात पर कुछ भी विचार नहीं करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि अनन्त घोर दु:खों की प्राप्ति होगी ॥ १६ ॥ गढ़े में गिर ने के लिये उलटे रास्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे आँखवाला पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य को अविद्या में फँसकर दु:खों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान-बूझकर भी उसे उसी राह पर जाने दे, या जाने के लिये प्रेरणा करे ॥ १७ ॥ जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है ॥ १८ ॥

मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसीसे सत्पुरुष मुझे ‘ऋषभ’ कहते हैं ॥ १९ ॥ तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्त्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इसलिये मत्सर छोडक़र अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। उसकी सेवा करना मेरी ही सेवा करना है और यही तुम्हारा प्रजापालन भी है ॥ २० ॥ अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ हैं, उनसे चलनेवाले जीव श्रेष्ठ हैं और उनमें भी कीटादि की अपेक्षा ज्ञानयुक्त पशु आदि श्रेष्ठ हैं। पशुओं से मनुष्य, मनुष्यों से प्रमथगण, प्रमथों से गन्धर्व, गन्धर्वों से सिद्ध और सिद्धों से देवताओं के अनुयायी किन्नरादि श्रेष्ठ हैं ॥ २१ ॥ उनसे असुर, असुरों से देवता और देवताओं से भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं। इन्द्र से भी ब्रह्माजी के पुत्र दक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ हैं, ब्रह्माजी के पुत्रों में रुद्र सब से श्रेष्ठ हैं। वे ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए हैं, इसलिये ब्रह्माजी उनसे श्रेष्ठ हैं। वे भी मुझ से उत्पन्न हैं और मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ हूँ। परन्तु ब्राह्मण मुझ से भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मैं उन्हें पूज्य मानता हूँ ॥ २२ ॥

[सभा में उपस्थित ब्राह्मणों को लक्ष्य करके] विप्रगण ! दूसरे किसी भी प्राणी को मैं ब्राह्मणों के समान भी नहीं समझता, फिर उनसे अधिक तो मान ही कैसे सकता हूँ। लोग श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों के मुख में जो अन्नादि आहुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ वैसे अग्रिहोत्र में होम की हुई सामग्री को स्वीकार नहीं करता ॥ २३ ॥ जिन्हों ने इस लोक में अध्ययनादि के द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन मूर्ति को धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण, शम, दम, सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणों से सम्पन्न हैं—उन ब्राह्मणों से बढक़र और कौन हो सकता है ॥ २४ ॥ मैं ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ और अनन्त हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि दे ने की भी सामथ्र्य रखता हूँ; किन्तु मेरे अकिंचन भक्त ऐसे नि:स्पृह होते हैं कि वे मुझ से भी कभी कुछ नहीं चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओं की तो वे इच्छा ही कैसे कर सकते हैं ? ॥ २५ ॥

पुत्रो ! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है ॥ २६ ॥ मन, वचन, दृष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टाओं का साक्षात फल मेरा इस प्रकार का पूजन ही है। इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपाश से छुड़ा नहीं सकता ॥ २७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! ऋषभदेवजी के पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार सुशिक्षित थे, तो भी लोगों को शिक्षा दे ने के उद्देश्य से महाप्रभावशाली परम सुहृद् भगवान ऋषभ ने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। ऋषभदेवजी के सौ पुत्रों में भरत सब से बड़े थे। वे भगवान के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे। ऋषभदेवजी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों के भक्ति, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा दे ने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये। केवल शरीरमात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। अब वे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये। उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे। उन्मत्तका-सा वेष था। इस स्थिति में वे आहवनीय (अग्रिहोत्रकी) अग्रियों को अपने में ही लीन करके संन्यासी हो गये और ब्रह्मावर्त देश से बाहर निकल गये ॥ २८ ॥ वे सर्वथा मौन हो गये थे, कोई बात करना चाहता तो बोलते नहीं थे। जड, अंधे, बहरे, गूँगे, पिशाच और पागलोंकी-सी चेष्टा करते हुए वे अवधूत बने जहाँ-तहाँ विचर ने लगे ॥ २९ ॥ कभी नगरों और गाँवों में चले जाते तो कभी खानों, किसानों की बस्तियों, बगीचों, पहाड़ी गाँवों, सेना की छावनियों, गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों और यात्रियों के टिक ने के स्थानों में रहते। कभी पहाड़ों, जंगलों और आश्रम आदि में विचरते। वे किसी भी रास्ते से निकलते तो जिस प्रकार वन में विचरनेवाले हाथी को मक्खियाँ सताती हैं, उसी प्रकार मूर्ख और दुष्टलोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते। कोई धम की देते, कोई मारते, कोई पेशाब कर देते, कोई थूक देते, कोई ढेला मारते, कोई विष्ठा और धूल फेंकते, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खोटी-खरी सुनाकर उनका तिरस्कार करते। किन्तु वे इन सब बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देते। इसका कारण यह था कि भ्रम से सत्य कहे जानेवाले इस मिथ्या शरीर में उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी। वे कार्य-कारण- रूप सम्पूर्ण प्रपञ्च के साक्षी होकर अपने परमात्म स्वरूप में ही स्थित थे, इसलिये अखण्ड चित्तवृत्ति से अकेले ही पृथ्वी पर विचरते रहते थे ॥ ३० ॥ यद्यपि उनके हाथ, पैर, छाती, लम्बी-लम्बी बाँहे, कंधे, गले और मुख आदि अङ्गों की बनावट बड़ी ही सुकुमार थी; उनका स्वभाव से ही सुन्दर मुख स्वाभाविक मधुर मुसकान से और भी मनोहर जान पड़ता था; नेत्र नवीन कमलदल के समान बड़े ही सुहावने, विशाल एवं कुछ लाली लिये हुए थे; उनकी पुतलियाँ शीतल एवं संतापहारिणी थीं। उन नेत्रों के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कपोल, कान और नासि का छोटे-बड़े न होकर समान एवं सुन्दर थे तथा उनके अस्फुट हास्ययुक्त मनोहर मुखारविन्द की शोभा को देखकर पुरनारियों के चित्त में कामदेव का सञ्चार हो जाता था; तथापि उनके मुख के आगे जो भूरे रंग की लम्बी-लम्बी घुँघराली लटें लट की रहती थीं, उनके महान भार और अवधूतों के समान धूलिधूसरित देह के कारण वे ग्रहग्रस्त मनुष्य के समान जान पड़ते थे ॥ ३१ ॥

जब भगवान ऋषभदेव ने देखा कि यह जनता योगसाधन में विघ्ररूप है और इससे बच ने का उपाय बीभत्सवृत्ति से रहना ही है, तब उन्होंने अजगरवृत्ति धारण कर ली। वे लेटे-ही-लेटे खाने-पीने, चबा ने और मल-मूत्र त्याग करने लगे। वे अपने त्यागे हुए मल में लोट-लोटकर शरीर को उससे सान लेते ॥ ३२ ॥ (किन्तु) उनके मल में दुर्गन्ध नहीं थी, बड़ी सुगन्ध थी। और वायु उस सुगन्ध को लेकर उनके चारों ओर दस योजन तक सारे देश को सुगन्धित कर देती थी ॥ ३३ ॥ इसी प्रकार गौ, मृग और काकादि की वृत्तियों को स्वीकार कर वे उन्हींके समान कभी चलते हुए, कभी खड़े-खड़े, कभी बैठे हुए और कभी लेटे-लेटे ही खाने-पी ने और मल-मूत्र का त्याग करने लगते थे ॥ ३४ ॥ परीक्षित ! परमहंसों को त्याग के आदर्श की शिक्षा दे ने के लिये इस प्रकार मोक्षपति भगवान ऋषभदेव ने कई तरह की योगचर्याओं का आचरण किया। वे निरन्तर सर्वश्रेष्ठ महान आनन्द का अनुभव करते रहते थे। उनकी दृष्टि में निरुपाधिकरूप से सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा अपने आत्म स्वरूप भगवान वासुदेव से किसी प्रकार का भेद नहीं था। इसलिये उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चु के थे। उनके पास आकाशगमन, मनोजवित्व (मन की गति के समान ही शरीर का भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहुँच जाना), अन्तर्धान, परकायप्रवेश (दूसरे के शरीर में प्रवेश करना), दूर की बातें सुन लेना और दूर के दृश्य देख लेना आदि सब प्रकार की सिद्धियाँ अपने-आप ही सेवा करने को आयीं; परन्तु उन्होंने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया ॥ ३५ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-06]

॥ षष्ठोऽध्यायः ॥
राजोवाच
न नूनं भगव आत्मारामाणां योगसमीरित-
ज्ञानावभर्जितकर्मबीजानां ऐश्वर्याणि पुनः
क्लेशदानि भवितुमर्हन्ति यदृच्छयोपगतानि ॥ १॥

ऋषिरुवाच
सत्यमुक्तं किन्त्विह वा एके न मनसोऽद्धा
विश्रम्भमनवस्थानस्य शठकिरात इव सङ्गच्छन्ते ॥ २॥

तथा चोक्तम्
न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते ।
यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ॥ ३॥

नित्यं ददाति कामस्य च्छिद्रं तमनु येऽरयः ।
योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ॥ ४॥

कामो मन्युर्मदो लोभः शोकमोहभयादयः ।
कर्मबन्धश्च यन्मूलः स्वीकुर्यात्को नु तद्बुधः ॥ ५॥

अथैवमखिललोकपालललामोऽपि
विलक्षणैर्जडवदवधूतवेषभाषाचरितै-
रविलक्षितभगवत्प्रभावो योगिनां
साम्परायविधिमनुशिक्षयन् स्वकलेवरं
जिहासुरात्मन्यात्मानमसंव्यवहित-
मनर्थान्तरभावेनान्वीक्षमाण
उपरतानुवृत्तिरुपरराम ॥ ६॥

तस्य ह वा एवं मुक्तलिङ्गस्य भगवत
ऋषभस्य योगमायावासनया देह इमां
जगतीमभिमानाभासेन सङ्क्रममाणः
कोङ्कवेङ्ककुटकान् दक्षिणकर्णाटकान्
देशान् यदृच्छयोपगतः कुटकाचलोपवन
आस्यकृताश्मकवल उन्माद इव
मुक्तमूर्धजोऽसंवीत एव विचचार ॥ ७॥

अथ समीरवेगविधूतवेणुविकर्षणजातोग्र-
दावानलस्तद्वनमालेलिहानः सह तेन ददाह ॥ ८॥

यस्य किलानुचरितमुपाकर्ण्य कोङ्कवेङ्क-
कुटकानां राजार्हन्नामोपशिक्ष्य कलावधर्म
उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहितः
स्वधर्मपथमकुतोभयमपहाय कुपथ-
पाखण्डमसमञ्जसं निजमनीषया मन्दः
सम्प्रवर्तयिष्यते ॥ ९॥

येन ह वाव कलौ मनुजापसदा देवमाया-
मोहिताः स्वविधिनियोगशौचचारित्रविहीना
देवहेलनान्यपव्रतानि निजनिजेच्छया गृह्णाना
अस्नानानाचमनाशौचकेशोल्लुञ्चनादीनि
कलिनाधर्मबहुलेनोपहतधियो ब्रह्मब्राह्मण-
यज्ञपुरुषलोकविदूषकाः प्रायेण भविष्यन्ति ॥ १०॥

ते च ह्यर्वाक्तनया निजलोकयात्रयान्ध-
परम्परयाश्वस्तास्तमस्यन्धे स्वयमेव
प्रपतिष्यन्ति ॥ ११॥

अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः ॥ १२॥

तस्यानुगुणान् श्लोकान् गायन्ति -
अहो भुवः सप्तसमुद्रवत्या
द्वीपेषु वर्षेष्वधिपुण्यमेतत् ।
गायन्ति यत्रत्यजना मुरारेः
कर्माणि भद्राण्यवतारवन्ति ॥ १३॥

अहो नु वंशो यशसावदातः
प्रैयव्रतो यत्र पुमान् पुराणः ।
कृतावतारः पुरुषः स आद्यश्चचार
धर्मं यदकर्महेतुम् ॥ १४॥

को न्वस्य काष्ठामपरोऽनुगच्छे-
न्मनोरथेनाप्यभवस्य योगी ।
यो योगमायाः स्पृहयत्युदस्ता
ह्यसत्तया येन कृतप्रयत्नाः ॥ १५॥

इति ह स्म सकलवेदलोकदेवब्राह्मणगवां
परमगुरोर्भगवत ऋषभाख्यस्य विशुद्धा-
चरितमीरितं पुंसां समस्तदुश्चरिताभिहरणं
परममहामङ्गलायनमिदमनुश्रद्धयोपचितया-
नुश‍ृणोत्याश्रावयति वावहितो भगवति
तस्मिन् वासुदेव एकान्ततो भक्तिरनयोरपि
समनुवर्तते ॥ १६॥

यस्यामेव कवय आत्मानमविरतं विविध-
वृजिनसंसारपरितापोपतप्यमानमनुसवनं
स्नापयन्तस्तयैव परया निर्वृत्या ह्यपवर्ग-
मात्यन्तिकं परमपुरुषार्थमपि स्वयमासादितं
नो एवाद्रियन्ते भगवदीयत्वेनैव
परिसमाप्तसर्वार्थाः ॥ १७॥

राजन् पतिर्गुरुरलं भवतां यदूनां
दैवं प्रियः कुलपतिः क्व च किङ्करो वः ।
अस्त्वेवमङ्ग भगवान् भजतां मुकुन्दो
मुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम् ॥ १८॥

नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः
श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्धेः ।
लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोक-
माख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥ १९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ऋषभदेवानुचरिते षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥

पंचम स्कन्ध-छठा अध्याय 
ऋषभदेवजी का देहत्याग

राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! योगरूप वायु से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्रि से जिनके रागादि कर्मबीज दग्ध हो गये हैं—उन आत्माराम मुनियों को दैववश यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँ, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशों का कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकतीं। फिर भगवान ऋषभ ने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया ? ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु संसार में जैसे चालाक व्याध अपने पकड़े हुए मृग का विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार बुद्धिमान लोग इस चञ्चल चित्त का भरोसा नहीं करते ॥ २ ॥ ऐसा ही कहा भी है—‘इस चञ्चल चित्त से कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये। इसमें विश्वास करने से ही मोहिनीरूप में फँसकर महादेवजी का चिरकाल का सञ्चित तप क्षीण हो गया था ॥ ३ ॥ जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों को अवकाश देकर उनके द्वारा अपने में विश्वास रखनेवाले पति का वध करा देती है—उसी प्रकार जो योगी मन पर विश्वास करते हैं, उनका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देता है ॥ ४ ॥ काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बन्धन का मूल तो यह मन ही है; इस पर कोई भी बुद्धिमान कैसे विश्वास कर सकता है ? ॥ ५ ॥

इसीसे भगवान ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालों के भी भूषण स्वरूप थे, तो भी वे जड पुरुषों की भाँति अवधूतोंके- से विविध वेष, भाषा और आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाये रहते थे। अन्त में उन्होंने योगियों को देहत्याग की विधि सिखा ने के लिये अपना शरीर छोडऩा चाहा। वे अपने अन्त:करण में अभेदरूप से स्थित परमात्मा को अभिन्नरूप से देखते हुए वासनाओं की अनुवृत्ति से छूटकर लिङ्गदेह के अभिमान से भी मुक्त होकर उपराम हो गये ॥ ६ ॥ इस प्रकार लिङ्गदेह के अभिमान से मुक्त भगवान ऋषभदेवजी का शरीर योगमाया की वासना से केवल अभिमानाभासके आश्रय ही इस पृथ्वीतल पर विचरता रहा। वह दैववश कोङ्क, वेङ्क और दक्षिण आदि कुटक कर्णाटक के देशों में गया और मुँहमें पत्थर का टुकड़ा डाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्त के समान दिगम्बररूप से कुटकाचल के वन में घूम ने लगा ॥ ७ ॥ इसी समय झंझावात से झकझोरे हुए बाँसों के घर्षण से प्रबल दावाग्रि धधक उठी और उसने सारे वन को अपनी लाल-लाल लपटों में लेकर ऋषभदेवजी के सहित भस्म कर दिया ॥ ८ ॥

राजन् ! जिस समय कलियुग में अधर्म की वृद्धि होगी, उस समय कोङ्क, वेङ्क और कुटक देश का मन्दमति राजा अहर्त् वहाँ के लोगों से ऋषभदेवजी के आश्रमातीत आचरण का वृत्तान्त सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहणकर लोगों के पूर्वसञ्चित पापफलरूप होनहार के वशीभूत हो भयरहित स्वधर्म- पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखण्डपूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा ॥ ९ ॥ उससे कलियुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्रविहित शौच और आचार को छोड़ बैठेंगे। अधर्मबहुल कलियुग के प्रभाव से बुद्धिहीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करनेवाले पाखण्डधर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्राय: वेद, ब्राह्मण एवं भगवान यज्ञपुरुष की निन्दा करने लगेंगे ॥ १० ॥ वे अपनी इस नवीन अवैदिक स्वेच्छाकृत प्रवृत्ति में अन्धपरम्परा से विश्वास करके मतवाले रहने के कारण स्वयं ही घोर नरक में गिरेंगे ॥ ११ ॥

भगवान का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा दे ने के लिये ही हुआ था ॥ १२ ॥ इसके गुणों का वर्णन करते हुए लोग इन वाक्यों को कहा करते हैं—‘अहो ! सात समुद्रोंवाली पृथ्वी के समस्त द्वीप और वर्षों में यह भारतवर्ष बड़ी ही पूण्यभूमि है, क्योंकि यहाँ के लोग श्रीहरि के मङ्गलमय अवतार-चरित्रों का गान करते हैं ॥ १३ ॥ अहो ! महाराज प्रियव्रत का वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुयशपूर्ण है, जिसमें पुराणपुरुष श्रीआदिनारायण ने ऋषभावतार लेकर मोक्ष की प्राप्ति करानेवाले पारमहंस्य धर्म का आचरण किया ॥ १४ ॥ अहो ! इन जन्मरहित भगवान ऋषभदेव के मार्ग पर कोई दूसरा योगी मन से भी कैसे चल सकता है। क्योंकि योगीलोग जिन योगसिद्धियों के लिये लालायित होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें इन्हों ने अपने-आप प्राप्त होने पर भी असत् समझकर त्याग दिया था ॥ १५ ॥

राजन् ! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौओं के परमगुरु भगवान ऋषभदेव का यह विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया। यह मनुष्यों के समस्त पापों को हरनेवाला है। जो मनुष्य इस परम मङ्गलमय पवित्र चरित्र को एकाग्रचित्त से श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनों की ही भगवान वासुदेव में अनन्य भक्ति हो जाती है ॥ १६ ॥ तरह-तरह के पापों से पूर्ण, सांसारिक तापों से अत्यन्त तपे हुए अपने अन्त:करण को पण्डितजन इस भक्ति-सरिता में ही नित्य- निरन्तर नहलाते रहते हैं। इससे उन्हें जो परम शान्ति मिलती है, वह इतनी आनन्दमयी होती है कि फिर वे लोग उसके सामने, अपने-ही-आप प्राप्त हुए मोक्षरूप परम पुरुषार्थ का भी आदर नहीं करते। भगवान के निजजन हो जाने से ही उनके समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं ॥ १७ ॥

राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण स्वयं पाण्डवलोगों के और यदुवंशियों के रक्षक, गुरु, इष्टदेव, सुहृद् और कुलपति थे; यहाँ तक कि वे कभी-कभी आज्ञाकारी सेवक भी बन जाते थे। इसी प्रकार भगवान दूसरे भक्तों के भी अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मुक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्ति से भी बढक़र जो भक्तियोग है, उसे सहज में नहीं देते ॥ १८ ॥

निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्हों ने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले आत्म स्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान ऋषभदेव को नमस्कार है ॥ १९ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-07]

॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
भरतस्तु महाभागवतो यदा भगवता-
वनितलपरिपालनाय सञ्चिन्तितस्तदनु-
शासनपरः पञ्चजनीं विश्वरूपदुहितर-
मुपयेमे ॥ १॥

तस्यामु ह वा आत्मजान् कार्त्स्न्येना-
नुरूपानात्मनः पञ्च जनयामास भूतादिरिव
भूतसूक्ष्माणि सुमतिं राष्ट्रभृतं सुदर्शन-
मावरणं धूम्रकेतुमिति ॥ २॥

अजनाभं नामैतद्वर्षं भारतमिति यत
आरभ्य व्यपदिशन्ति ॥ ३॥

स बहुविन्महीपतिः पितृपितामहवदुरु-
वत्सलतया स्वे स्वे कर्मणि वर्तमानाः
प्रजाः स्वधर्ममनुवर्तमानः पर्यपालयत् ॥ ४॥

ईजे च भगवन्तं यज्ञक्रतुरूपं क्रतुभि-
रुच्चावचैः श्रद्धयाऽऽहृताग्निहोत्रदर्श-
पूर्णमासचातुर्मास्यपशुसोमानां प्रकृति-
विकृतिभिरनुसवनं चातुर्होत्रविधिना ॥ ५॥

सम्प्रचरत्सु नानायागेषु विरचिताङ्ग-
क्रियेष्वपूर्वं यत्तत्क्रियाफलं धर्माख्यं परे
ब्रह्मणि यज्ञपुरुषे सर्वदेवतालिङ्गानां
मन्त्राणामर्थनियामकतया साक्षात्कर्तरि
परदेवतायां भगवति वासुदेव एव
भावयमान आत्मनैपुण्यमृदितकषायो
हविःष्वध्वर्युभिर्गृह्यमाणेषु स यजमानो
यज्ञभाजो देवांस्तान् पुरुषावयवेष्व-
भ्यध्यायत् ॥ ६॥

एवं कर्मविशुद्ध्या विशुद्धसत्त्वस्या-
न्तर्हृदयाकाशशरीरे ब्रह्मणि भगवति
वासुदेवे महापुरुषरूपोपलक्षणे श्रीवत्स-
कौस्तुभवनमालादरगदादिभिरुपलक्षिते
निजपुरुषहृल्लिखितेनात्मनि पुरुषरूपेण
विरोचमान उच्चैस्तरां भक्तिमनुदिन-
मेधमानरजयाजायत ॥ ७॥

एवं वर्षायुतसहस्रपर्यन्तावसितकर्म-
निर्वाणावसरोऽधिभुज्यमानं स्वतनयेभ्यो
रिक्थं पितृपैतामहं यथादायं विभज्य स्वयं
सकलसम्पन्निकेतात्पुलहाश्रमं प्रवव्राज ॥ ८॥

यत्र ह वाव भगवान् हरिरद्यापि तत्रत्यानां
निजजनानां वात्सल्येन सन्निधाप्यत
इच्छारूपेण ॥ ९॥

यत्राश्रमपदान्युभयतो नाभिभिर्दृषच्चक्रै-
श्चक्रनदी नाम सरित्प्रवरा सर्वतः
पवित्रीकरोति ॥ १०॥

तस्मिन् वाव किल स एकलः पुलहाश्रमो-
पवने विविधकुसुमकिसलयतुलसिकाम्बुभिः
कन्दमूलफलोपहारैश्च समीहमानो भगवत
आराधनं विविक्त उपरतविषयाभिलाष
उपभृतोपशमः परां निर्वृतिमवाप ॥ ११॥

तयेत्थमविरतपुरुषपरिचर्यया भगवति
प्रवर्धमानानुरागभरद्रुतहृदयशैथिल्यः
प्रहर्षवेगेनात्मन्युद्भिद्यमानरोमपुलककुलकौ-
त्कण्ठ्यप्रवृत्तप्रणयबाष्पनिरुद्धावलोकनयन
एवं निजरमणारुणचरणारविन्दानुध्यान-
परिचितभक्तियोगेन परिप्लुतपरमाह्लाद-
गम्भीरहृदयह्रदावगाढधिषणस्तामपि
क्रियमाणां भगवत्सपर्यां न सस्मार ॥ १२॥

इत्थं धृतभगवद्व्रत ऐणेयाजिनवाससा-
नुसवनाभिषेकार्द्रकपिशकुटिलजटा-
कलापेन च विरोचमानः सूर्यर्चा
भगवन्तं हिरण्मयं पुरुषमुज्जिहाने
सूर्यमण्डलेऽभ्युपतिष्ठन्नेतदु होवाच ॥ १३॥

परो रजः सवितुर्जातवेदो
देवस्य भर्गो मनसेदं जजान ।
सुरेतसादः पुनराविश्य चष्टे
हंसं गृध्राणं नृषद्रिङ्गिरामिमः ॥ १४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भरतचरिते भगवत्परिचर्यायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥


पंचम स्कन्ध-सातवाँ अध्याय 
भरत-चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! महाराज भरत बड़े ही भगवद्भक्त थे। भगवान ऋषभदेव ने अपने संकल्पमात्र से उन्हें पृथ्वी की रक्षा करने के लिये नियुक्त कर दिया। उन्होंने उनकी आज्ञा में स्थित रहकर विश्वरूप की कन्या पञ्चजनी से विवाह किया ॥ १ ॥ जिस प्रकार तामस अहंकार से शब्दादि पाँच भूततन्मात्र उत्पन्न होते हैं—उसी प्रकार पञ्चजनी के गर्भ से उनके सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण और धूम्रकेतु नामक पाँच पुत्र हुए—जो सर्वथा उन्हींके समान थे। इस वर्ष को, जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरत के समय से ही ‘भारतवर्ष’ कहते हैं ॥ २-३ ॥
महाराज भरत बहुज्ञ थे। वे अपने-अपने कर्मों में लगी हुई प्रजा का अपने बाप-दादों के समान स्वधर्म में स्थित रहते हुए अत्यन्त वात्सल्यभाव से पालन करने लगे ॥ ४ ॥ उन्होंने होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजों द्वारा कराये जानेवाले प्रकृति और विकृति[1] दोनों प्रकार के अग्रिहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु और सोम आदि छोटे-बड़े क्रतुओं (यज्ञों) से यथासमय श्रद्धापूर्वक यज्ञ और क्रतुरूप श्रीभगवान का यजन किया ॥ ५ ॥ इस प्रकार अङ्ग और क्रियाओं के सहित भिन्न-भिन्न यज्ञों के अनुष्ठान के समय जब अध्वर्युगण आहुति दे ने के लिये हवि हाथ में लेते, तो यजमान भरत उस यज्ञकर्म से होनेवाले पुण्यरूप फल को यज्ञपुरुष भगवान वासुदेव के अर्पण कर देते थे। वस्तुत: वे परब्रह्म ही इन्द्रादि समस्त देवताओं के प्रकाशक, मन्त्रों के वास्तविक प्रतिपाद्य तथा उन देवताओं के भी नियामक होने से मुख्य कर्ता एवं प्रधान देव हैं। इस प्रकार अपनी भगवदर्पण बुद्धिरूप कुशलता से हृदय के राग-द्वेषादि मलों का मार्जन करते हुए वे सूर्यादि सभी यज्ञभोक्ता देवताओं का भगवान के नेत्रादि अवयवों के रूप में चिन्तन करते थे ॥ ६ ॥ इस तरह कर्म की शुद्धि से उनका अन्त:करण शुद्ध हो गया। तब उन्हें अन्तर्यामीरूप से विराजमान, हृदयाकाश में ही अभिव्यक्त होनेवाले, ब्रह्म स्वरूप एवं महापुरुषों के लक्षणों से उपलक्षित भगवान वासुदेवमें—जो श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, चक्र, शङ्ख और गदा आदि से सुशोभित तथा नारदादि निजजनों के हृदयों में चित्र के समान निश्चलभाव से स्थित रहते हैं—दिन-दिन वेग पूर्वक बढऩेवाली उत्कृष्ट भक्ति प्राप्त हुई ॥ ७ ॥

इस प्रकार एक करोड़ वर्ष निकल जाने पर उन्होंने राज्यभोग का प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई वंशपरम्परागत सम्पत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बाँट दिया। फिर अपने सर्वसम्पत्ति- सम्पन्न राजमहल से निकलकर वे पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में चले आये ॥ ८ ॥ इस पुलहाश्रम में रहनेवाले भक्तों पर भगवान का बड़ा ही वात्सल्य है। वे आज भी उनसे उनके इष्टरूप में मिलते रहते हैं ॥ ९ ॥ वहाँ चक्रनदी (गण्डकी) नाम की प्रसिद्ध सरिता चक्राकार शालग्राम-शिलाओंसे, जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर नाभि के समान चिह्न होते हैं, सब ओर से ऋषियों के आश्रमों को पवित्र करती रहती है ॥ १० ॥

उस पुलहाश्रम के उपवन में एकान्त स्थान में अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकार के पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और कन्द-मूल-फलादि उपहारों से भगवान की आराधना करने लगे। इससे उनका अन्त:करण समस्त विषयाभिलाषाओं से निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परम आनन्द प्राप्त हुआ ॥ ११ ॥ इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेम का वेग बढ़ता गया—जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, आनन्द के प्रबल वेग से शरीर में रोमाञ्च होने लगा तथा उत्कण्ठा के कारण नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी। अन्त में जब अपने प्रियतम के अरुण चरणारविन्दों के ध्यान से भक्तियोग का आविर्भाव हुआ, तब परमानन्द से सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवर में बुद्धि के डूब जाने से उन्हें उस नियमपूर्वक की जानेवाली भगवत्पूजा का भी स्मरण न रहा ॥ १२ ॥ इस प्रकार वे भगवत्सेवा के नियम में ही तत्पर रहते थे, शरीर पर कृष्णमृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकालस्नान के कारण भीगते रहने से उनके केश भूरी-भूरी घुँघराली लटों में परिणत हो गये थे, जिन से वे बड़े ही सुहाव ने लगते थे। वे उदित हुए सूर्यमण्डल में सूर्यसम्बन्धिनी ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्मय परमपुरुष भगवान नारायण की आराधना करते और इस प्रकार कहते ॥ १३ ॥ ‘भगवान सूर्य का कर्मफलदायक तेज प्रकृति से परे है। उसी ने संकल्प द्वारा इस जगत की उत्पत्ति की है। फिर वही अन्तर्यामीरूप से इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित्-शक्ति द्वारा विषयलोलुप जीवों की रक्षा करता है। हम उसी बुद्धिप्रवत्र् तक तेज की शरण लेते हैं’ ॥ १४ ॥


[1] प्रकृति और विकृति-भेद से अग्रिहोत्रादि क्रतु दो प्रकार के होते हैं। सम्पूर्ण अङ्गों से युक्त क्रतुओं को ‘प्रकृति’ कहते हैं और जिन में सब अङ्ग पूर्ण नहीं होते, किसी-न-किसी अङ्ग की कमी रहती है, उन्हें ‘विकृति’ कहते हैं।



स्कन्ध-05 [अध्याय-08]

॥ अष्टमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
एकदा तु महानद्यां कृताभिषेकनैयमिका-
वश्यको ब्रह्माक्षरमभिगृणानो मुहूर्तत्रय-
मुदकान्त उपविवेश ॥ १॥

तत्र तदा राजन् हरिणी पिपासया
जलाशयाभ्याशमेकैवोपजगाम ॥ २॥

तया पेपीयमान उदके तावदेवाविदूरेण
नदतो मृगपतेरुन्नादो लोकभयङ्कर उदपतत् ॥ ३॥

तमुपश्रुत्य सा मृगवधूः प्रकृतिविक्लवा
चकितनिरीक्षणा सुतरामपि हरिभया-
भिनिवेशव्यग्रहृदया पारिप्लवदृष्टिरगततृषा
भयात्सहसैवोच्चक्राम ॥ ४॥

तस्या उत्पतन्त्या अन्तर्वत्न्या उरुभयाव-
गलितो योनिनिर्गतो गर्भः स्रोतसि निपपात ॥ ५॥

तत्प्रसवोत्सर्पणभयखेदातुरा स्वगणेन
वियुज्यमाना कस्याञ्चिद्दर्यां कृष्णसारसती
निपपाताथ च ममार ॥ ६॥

तं त्वेणकुणकं कृपणं स्रोतसानूह्यमानमभि-
वीक्ष्यापविद्धं बन्धुरिवानुकम्पया राजर्षि-
र्भरत आदाय मृतमातरमित्याश्रमपदमनयत् ॥ ७॥

तस्य ह वा एणकुणक उच्चैरेतस्मिन्
कृतनिजाभिमानस्याहरहस्तत्पोषणपालन-
लालनप्रीणनानुध्यानेनात्मनियमाः सह
यमाः पुरुषपरिचर्यादय एकैकशः
कतिपयेनाहर्गणेन वियुज्यमानाः किल
सर्व एवोदवसन् ॥ ८॥

अहो बतायं हरिणकुणकः कृपण
ईश्वररथचरणपरिभ्रमणरयेण स्वगण-
सुहृद्बन्धुभ्यः परिवर्जितः शरणं च
मोपसादितो मामेव मातापितरौ
भ्रातृज्ञातीन् यौथिकांश्चैवोपेयाय नान्यं
कञ्चन वेद मय्यतिविस्रब्धश्चात एव मया
मत्परायणस्य पोषणपालनप्रीणनलालन-
मनसूयुनानुष्ठेयं शरण्योपेक्षा दोषविदुषा ॥ ९॥

नूनं ह्यार्याः साधव उपशमशीलाः कृपण-
सुहृद एवंविधार्थे स्वार्थानपि गुरुतरानुपेक्षन्ते ॥ १०॥

ति कृतानुषङ्ग आसनशयनाटनस्नाना-
शनादिषु सह मृगजहुना स्नेहानुबद्धहृदय
आसीत् ॥ ११॥

कुशकुसुमसमित्पलाशफलमूलोदका-
न्याहरिष्यमाणो वृकसालावृकादिभ्यो
भयमाशंसमानो यदा सह हरिणकुणकेन
वनं समाविशति ॥ १२॥

पथिषु च मुग्धभावेन तत्र तत्र विषक्तमति-
प्रणयभरहृदयः कार्पण्यात्स्कन्धेनोद्वहति
एवमुत्सङ्ग उरसि चाधायोपलालयन् मुदं
परमामवाप ॥ १३॥

क्रियायां निर्वर्त्यमानायामन्तराले-
ऽप्युत्थायोत्थाय यदैनमभिचक्षीत तर्हि
वाव स वर्षपतिः प्रकृतिस्थेन मनसा तस्मा
आशिष आशास्ते स्वस्ति स्ताद्वत्स
ते सर्वत इति ॥ १४॥

अन्यदा भृशमुद्विग्नमना नष्टद्रविण इव
कृपणः सकरुणमतितर्षेण हरिणकुणक-
विरहविह्वलहृदयसन्तापस्तमेवानुशोचन्
किल कश्मलं महदभिरम्भित इति होवाच ॥ १५॥

अपि बत स वै कृपण एणबालको
मृतहरिणीसुतोऽहो ममानार्यस्य
शठकिरातमतेरकृतसुकृतस्य कृतविस्रम्भ
आत्मप्रत्ययेन तदविगणयन् सुजन
इवागमिष्यति ॥ १६॥

अपि क्षेमेणास्मिन्नाश्रमोपवने शष्पाणि
चरन्तं देवगुप्तं द्रक्ष्यामि ॥ १७॥

अपि च न वृकः सालावृकोऽन्यतमो वा
नैकचर एकचरो वा भक्षयति ॥ १८॥

निम्लोचति ह भगवान् सकलजगत्क्षेमोदय-
स्त्रय्यात्माद्यापि मम न मृगवधून्यास
आगच्छति ॥ १९॥

अपि स्विदकृतसुकृतमागत्य मां
सुखयिष्यति हरिणराजकुमारो विविध-
रुचिरदर्शनीयनिजमृगदारकविनोदैरसन्तोषं
स्वानामपनुदन् ॥ २०॥

क्ष्वेलिकायां मां मृषा समाधिनाऽऽमीलित-
दृशं प्रेमसंरम्भेण चकित चकित आगत्य
पृषदपरुषविषाणाग्रेण लुठति ॥ २१॥

आसादितहविषि बर्हिषि दूषिते मयोपा-
लब्धो भीतभीतः सपद्युपरतरास ऋषि-
कुमारवदवहितकरणकलाप आस्ते ॥ २२॥

किं वा अरे आचरितं तपस्तपस्विन्यानया
यदियमवनिः सविनयकृष्णसारतनय-
तनुतरसुभगशिवतमाखरखुरपदपङ्क्तिभि-
र्द्रविणविधुरातुरस्य कृपणस्य मम द्रविण-
पदवीं सूचयन्त्यात्मानं च सर्वतः कृतकौतुकं
द्विजानां स्वर्गापवर्गकामानां देवयजनं करोति ॥ २३॥

अपि स्विदसौ भगवानुडुपतिरेनं मृगपति-
भयान्मृतमातरं मृगबालकं स्वाश्रमपरिभ्रष्ट-
मनुकम्पया कृपणजनवत्सलः परिपाति ॥ २४॥

किं वाऽऽत्मजविश्लेषज्वरदवदहन-
शिखाभिरुपतप्यमानहृदयस्थलनलिनीकं
मामुपसृतमृगीतनयं शिशिरशान्तानुराग-
गुणितनिजवदनसलिलामृतमयगभस्तिभिः
स्वधयतीति च ॥ २५॥

एवमघटमानमनोरथाकुलहृदयो
मृगदारकाभासेन स्वारब्धकर्मणा
योगारम्भणतो विभ्रंशितः स योगतापसो
भगवदाराधनलक्षणाच्च कथमितरथा
जात्यन्तर एणकुणक आसङ्गः साक्षान्निः-
श्रेयसप्रतिपक्षतया प्राक्परित्यक्तदुस्त्यज-
हृदयाभिजातस्य तस्यैवमन्तरायविहत-
योगारम्भणस्य राजर्षेर्भरतस्य
तावन्मृगार्भकपोषणपालनप्रीणनलालना-
नुषङ्गेणाविगणयत आत्मानमहिरिवाखुबिलं
दुरतिक्रमः कालः करालरभस आपद्यत ॥ २६॥

तदानीमपि पार्श्ववर्तिनमात्मजमिवानु-
शोचन्तमभिवीक्षमाणो मृग एवाभि-
निवेशितमना विसृज्य लोकमिमं सह मृगेण
कलेवरं मृतमनु न मृतजन्मानुस्मृतिरितर-
वन्मृगशरीरमवाप ॥ २७॥

तत्रापि ह वा आत्मनो मृगत्वकारणं भगव-
दाराधनसमीहानुभावेनानुस्मृत्य भृशमनु-
तप्यमान आह ॥ २८॥

अहो कष्टं भ्रष्टोऽहमात्मवतामनुपथा-
द्यद्विमुक्तसमस्तसङ्गस्य विविक्तपुण्यारण्य-
शरणस्यात्मवत आत्मनि सर्वेषामात्मनां
भगवति वासुदेवे तदनुश्रवणमननसङ्कीर्तना-
राधनानुस्मरणाभियोगेनाशून्यसकलयामेन
कालेन समावेशितं समाहितं कार्त्स्न्येन
मनस्तत्तु पुनर्ममाबुधस्यारान्मृगसुतमनु
परिसुस्राव ॥ २९॥

इत्येवं निगूढनिर्वेदो विसृज्य मृगीं मातरं
पुनर्भगवत्क्षेत्रमुपशमशीलमुनिगणदयितं
शालग्रामं पुलस्त्यपुलहाश्रमं कालञ्जरा-
त्प्रत्याजगाम ॥ ३०॥

तस्मिन्नपि कालं प्रतीक्षमाणः सङ्गाच्च
भृशमुद्विग्न आत्मसहचरः शुष्कपर्णतृण-
वीरुधा वर्तमानो मृगत्वनिमित्तावसानमेव
गणयन् मृगशरीरं तीर्थोदकक्लिन्नमुत्ससर्ज ॥ ३१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भरतचरिते अष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥


पंचम स्कन्ध-आठवाँ अध्याय 
भरतजी का मृग के मोहमें फँसकर मृग-योनि में जन्म लेना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—एक बार भरतजी गण्डकी में स्नान कर नित्य-नैमित्तिक तथा शौचादि अन्य आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो प्रणव का जप करते हुए तीन मुहूत्र्त तक नदी की धारा के पास बैठे रहे ॥ १ ॥ राजन् ! इसी समय एक हरिनी प्यास से व्याकुल हो जल पी ने के लिये अकेली ही उस नदी के तीर पर आयी ॥ २ ॥ अभी वह जल पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंह की लोकभयङ्कर दहाड़ सुनायी पड़ी ॥ ३ ॥ हरिनजाति तो स्वभाव से ही डरपोक होती है। वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी। अब ज्यों ही उसके कान में वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंह के डर के मारे उसका कलेजा धडक़ ने लगा और नेत्र कातर हो गये। प्यास अभी बुझी न थी, किन्तु अब तो प्राणों पर आ बनी थी। इसलिये उसने भयवश एकाए की नदी पार करने के लिये छलाँग मारी ॥ ४ ॥

उसके पेट में गर्भ था, अत: उछलते समय अत्यन्त भय के कारण उसका गर्भ अपने स्थान से हटकर योनिद्वार से निकलकर नदी के प्रवाहमें गिर गया ॥ ५ ॥ वह कृष्णमृगपत्नी अकस्मात् गर्भ के गिर जाने, लम्बी छलाँग मार ने तथा सिंह से डरी होने के कारण बहुत पीडि़त हो गयी थी। अब अपने झुंड से भी उसका बिछोह हो गया, इसलिये वह किसी गुफा में जा पड़ी और वहीं मर गयी ॥ ६ ॥

राजर्षि भरत ने देखा कि बेचारा हरिनी का बच्चा अपने बन्धुओं से बिछुडक़र नदी के प्रवाहमें बह रहा है। इससे उन्हें उसपर बड़ी दया आयी और वे आत्मीय के समान उस मातृहीन बच्चे को अपने आश्रम पर ले आये ॥ ७ ॥ उस मृगछौ ने के प्रति भरतजी की ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। वे नित्य उसके खाने-पी ने का प्रबन्ध करने, व्याघ्रादि से बचाने, लाड़ लड़ा ने और पुचकार ने आदि की चिन्ता में ही डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनके यम, नियम और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक- एक करके छूट ने लगे और अन्त में सभी छूट गये ॥ ८ ॥ उन्हें ऐसा विचार रहने लगा—‘अहो ! कैसे खेद की बात है ! इस बेचारे दीन मृगछौ ने को कालचक्र के वेग ने अपने झुंड, सुहृद् और बन्धुओं से दूर करके मेरी शरण में पहुँचा दिया है। यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथ के साथी-सङ्गी समझता है। इसे मेरे सिवा और किसी का पता नहीं है और मुझ में इसका विश्वास भी बहुत है। मैं भी शरणागत की उपेक्षा करने में जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ। इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रित का सब प्रकार की दोषबुद्धि छोडक़र अच्छी तरह पालन-पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये ॥ ९ ॥ निश्चय ही शान्त-स्वभाव और दीनों की रक्षा करनेवाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागत की रक्षा के लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थ की भी परवा नहीं करते’ ॥ १० ॥

इस प्रकार उस हरिन के बच्चे में आसक्ति बढ़ जाने से बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाश में बँधा रहता था ॥ ११ ॥ जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल-मूलादि ला ने होते तो भेडिय़ों और कुत्तों के भय से उसे वे साथ लेकर ही वन में जाते ॥ १२ ॥ मार्ग में जहाँ-तहाँ कोमल घास आदि को देखकर मुग्धभाव से वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से दयावश उसे अपने कंधे पर चढ़ा लेते। इसी प्रकार कभी गोद में लेकर और कभी छाती से लगाकर उसका दुलार करने में भी उन्हें बड़ा सुख मिलता ॥ १३ ॥ नित्य- नैमित्तिक कर्मों को करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीच में उठ-उठकर उस मृगबालक को देखते और जब उसपर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्त को शान्ति मिलती। उस समय उसके लिये मङ्गलकामना करते हुए वे कह ने लगते—‘बेटा ! तेरा सर्वत्र कल्याण हो’ ॥ १४ ॥

कभी यदि वह दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्य के समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्र हो जाता और फिर वे उस हरिनी के बच्चे के विरह से व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहाविष्ट हो जाते तथा शोकमग्र होकर इस प्रकार कह ने लगते ॥ १५ ॥ ‘अहो ! क्या कहा जाय ? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलियेकी-सी बुद्धिवाले मुझ पुण्यहीन अनार्य का विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधों को सत्पुरुषों के समान भूलकर फिर लौट आयेगा ? ॥ १६ ॥ क्या मैं उसे फिर इस आश्रम के उपवन में भगवान की कृपा से सुरक्षित रहकर निर्विघ्र हरी-हरी दूब चरते देखूँगा ? ॥ १७ ॥ ऐसा न हो कि कोई भेडिय़ा, कुत्ता, गोल बाँधकर विचरनेवाले सूकरादि अथवा अकेले घूमनेवाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायँ ॥ १८ ॥ अरे ! सम्पूर्ण जगत की कुशल के लिये प्रकट होनेवाले वेदत्रयीरूप भगवान सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभी तक वह मृगी की धरोहर लौटकर नहीं आयी ! ॥ १९ ॥ क्या वह हरिणराजकुमार मुझ पुण्यहीन के पास आकर अपनी भाँति-भाँति की मृगशाव कोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीडाओं से अपने स्वजनों का शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा ? ॥ २० ॥ अहो ! जब कभी मैं प्रणय कोप से खेल में झूठ-मूठ समाधि के बहा ने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्त से मेरे पास आकर जलबिन्दु के समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगों की नोक से किस प्रकार मेरे अङ्गों को खुजला ने लगता था ॥ २१ ॥ मैं कभी कुशों पर हवन सामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतों से खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटने पर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमार के समान अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर चुपचाप बैठ जाता था’ ॥ २२ ॥

[फिर पृथ्वी पर उस मृगशावक के खुर के चिह्न देखकर कह ने लगते—] ‘अहो ! इस तपस्विनी धरती ने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्ण-सारकिशोर के छोटे-छोटे सुन्दर, सुखकारी और सु कोमल खुरोंवाले चरणों के चिह्नों से मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट जाने से अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्य की प्राप्ति का मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीर को भी सर्वत्र उन पदचिह्नों से विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्ग के इच्छुक द्विजों के लिये यज्ञस्थल[1] बना रही है’ ॥ २३ ॥ (चन्द्रमा में मृगका-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कह ने लगते—) ‘अहो ! जिसकी माता सिंह के भय से मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रम से बिछुड़ गया है। अत: उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं ? ॥ २४ ॥ [फिर उसकी शीतल किरणों से आह्लादित होकर कह ने लगते—] ‘अथवा अपने पुत्रों के वियोगरूप दावानल की विषम ज्वाला से हृदयकमल दग्ध हो जाने के कारण मैंने एक मृग- बालक का सहारा लिया था। अब उसके चले जाने से फिर मेरा हृदय जल ने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल, शान्त, स्नेहपूर्ण और वदनसलिलरूपा अमृतमयी किरणों से मुझे शान्त कर रहे हैं’ ॥ २५ ॥

राजन् ! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथों से भरत का चित्त व्याकुल रहने लगा। अपने मृगशावक के रूप में प्रतीत होनेवाले प्रारब्धकर्म के कारण तपस्वी भरतजी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठान से च्युत हो गये। नहीं तो, जिन्हों ने मोक्षमार्ग में साक्षात विघ्ररूप समझकर अपने ही हृदय से उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादि को भी त्याग दिया था, उन्हीं की अन्यजातीय हरिणशिशु में ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी। इस प्रकार राजर्षि भरत विघ्रों के वशीभूत होकर योगसाधन से भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौ ने के पालन-पोषण और लाड़-प्यार में ही लगे रहकर आत्म स्वरूप को भूल गये। इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहे के बिल में जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिर पर चढ़ आया ॥ २६ ॥ उस समय भी वह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्र के समान शोकातुर हो रहा था। वे उसे इस स्थिति में देख रहे थे और उनका चित्त उसी में लग रहा था। इस प्रकार की आसक्ति में ही मृग के साथ उनका शरीर भी छूट गया। तदनन्तर उन्हें अन्तकाल की भावना के अनुसार अन्य साधारण पुरुषों के समान मृगशरीर ही मिला। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई ॥ २७ ॥ उस योनि में भी पूर्वजन्म की भगवदाराधना के प्रभाव से अपने मृगरूप होने का कारण जानकर वे अत्यन्त पश्चातताप करते हुए कह ने लगे, ॥ २८ ॥ ‘अहो ! बड़े खेद की बात है, मैं संयमशील महानुभावों के मार्ग से पतित हो गया ! मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकार की आसक्ति छोडक़र एकान्त और पवित्र वन का आश्रय लिया था। वहाँ रहकर जिस चित्त को मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेव में, निरन्तर उन्हींके गुणों का श्रवण, मनन और सङ्कीर्तन करके तथा प्रत्येक पल को उन्हीं की आराधना और स्मरणादि से सफल करके, स्थिरभाव से पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानी का वही मन अकस्मात् एक नन्हें- से हरिण-शिशु के पीछे अपने लक्ष्य से च्युत हो गया !’ ॥ २९ ॥

इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरत के हृदय में जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगी को त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालञ्जर पर्वत से वे फिर शान्तस्वभाव मुनियों के प्रिय उसी शालग्रामतीर्थ में, जो भगवान का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये ॥ ३० ॥ वहाँ रहकर भी वे काल की ही प्रतीक्षा करने लगे। आसक्ति से उन्हें बड़ा भय लग ने लगा था। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाडिय़ों द्वारा निर्वाह करते मृगयोनि की प्राप्ति करानेवाले प्रारब्ध के क्षय की बाट देखते रहे। अन्त में उन्होंने अपने शरीर का आधा भाग गंड की के जल में डुबाये रखकर उस मृगशरीर को छोड़ दिया ॥ ३१ ॥


[1] शास्त्रों में उल्लेख आता है कि जिस भूमि में कृष्णमृग विचरते हैं, वह अत्यन्त पवित्र और यज्ञानुष्ठान के योग्य होती है।



स्कन्ध-05 [अध्याय-09]

॥ नवमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अथ कस्यचिद्द्विजवरस्याङ्गिरःप्रवरस्य
शमदमतपःस्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोष-
तितिक्षाप्रश्रयविद्यानसूयात्मज्ञानानन्द-
युक्तस्यात्मसदृशश्रुतशीलाचाररूपौदार्य-
गुणा नवसोदर्या अङ्गजा बभूवुर्मिथुनं च
यवीयस्यां भार्यायाम् ॥ १॥

यस्तु तत्र पुमांस्तं परमभागवतं राजर्षिप्रवरं
भरतमुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण विप्रत्वं
गतमाहुः ॥ २॥

तत्रापि स्वजनसङ्गाच्च भृशमुद्विजमानो
भगवतः कर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरण-
गुणविवरण चरणारविन्दयुगलं मनसा
विदधदात्मनः प्रतिघातमाशङ्कमानो
भगवदनुग्रहेणानुस्मृतस्वपूर्वजन्मावलि-
रात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिरस्वरूपेण
दर्शयामास लोकस्य ॥ ३॥

तस्यापि ह वा आत्मजस्य विप्रः पुत्रस्नेहा-
नुबद्धमना आ समावर्तनात्संस्कारान्
यथोपदेशं विदधान उपनीतस्य च पुनः
शौचाचमनादीन् कर्मनियमाननभिप्रेतानपि
समशिक्षयदनुशिष्टेन हि भाव्यं पितुः पुत्रेणेति ॥ ४॥

स चापि तदु ह पितृसन्निधावेवासध्रीचीनमिव
स्म करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन् सह
व्याहृतिभिः सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्रीं
ग्रैष्मवासन्तिकान् मासानधीयानमप्य-
समवेतरूपं ग्राहयामास ॥ ५॥

एवं स्वतनुज आत्मन्यनुरागावेशितचित्तः
शौचाध्ययनव्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौप-
कुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि समनुशिष्टेन
भाव्यमित्यसदाग्रहः पुत्रमनुशास्य स्वयं
तावदनधिगतमनोरथः कालेनाप्रमत्तेन
स्वयं गृह एव प्रमत्त उपसंहृतः ॥ ६॥

अथ यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं
मिथुनं सपत्न्या उपन्यस्य स्वयमनुसंस्थया
पतिलोकमगात् ॥ ७॥

पितर्युपरते भ्रातर एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां
विद्यायामेव पर्यवसितमतयो न परविद्यायां
जडमतिरिति भ्रातुरनुशासननिर्बन्धान्न्यवृत्सन्त ॥ ८॥

स च प्राकृतैर्द्विपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरमूके-
त्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि प्रभाषते
कर्माणि च स कार्यमाणः परेच्छया करोति
विष्टितो वेतनतो वा याच्ञया यदृच्छया
वोपसादितमल्पं बहु मृष्टं कदन्नं वाभ्यवहरति
परं नेन्द्रियप्रीतिनिमित्तं । नित्यनिवृत्तनिमित्त -
स्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्दस्वात्मलाभाधिगमः
सुखदुःखयोर्द्वन्द्वनिमित्तयोरसंभावितदेहाभिमानः ॥ ९॥

शीतोष्णवातवर्षेषु वृष इवानावृताङ्गः पीनः
संहननाङ्गः स्थण्डिलसंवेशनानुन्मर्दनामज्जन-
रजसा महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चसः कुपटावृतकटिरुपवीतेनोरुमषिणा द्विजाति-
रिति ब्रह्मबन्धुरिति संज्ञयातज्ज्ञजनावमतो
विचचार ॥ १०॥

यदा तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमानः
स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि निरूपितस्तदपि
करोति किन्तु न समं विषमं न्यूनमधिकमिति
वेद कणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थाली-
पुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति ॥ ११॥

अथ कदाचित्कश्चिद्वृषलपतिर्भद्रकाल्यै पुरुष-
पशुमालभतापत्यकामः ॥ १२॥

तस्य ह दैवमुक्तस्य पशोः पदवीं तदनुचराः
परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसा-
वृतायामनधिगतपशव आकस्मिकेन विधिना
केदारान् वीरासनेन मृगवराहादिभ्यः संरक्षमाणमङ्गिरःप्रवरसुतमपश्यन् ॥ १३॥

अथ त एनमनवद्यलक्षणमवमृश्य भर्तृकर्म-
निष्पत्तिं मन्यमाना बद्ध्वा रशनया चण्डिका-
गृहमुपनिन्युर्मुदा विकसितवदनाः ॥ १४॥

अथ पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन
वाससाऽऽच्छाद्य भूषणालेपस्रक्तिलकादिभि-
रुपस्कृतं भुक्तवन्तं धूपदीपमाल्यलाज-
किसलयाङ्कुरफलोपहारोपेतया वैशस-
संस्थया महता गीतस्तुतिमृदङ्गपणवघोषेण
च पुरुषपशुं भद्रकाल्याः पुरत उपवेशयामासुः ॥ १५॥

अथ वृषलराजपणिः पुरुषपशोरसृगासवेन
देवीं भद्रकालीं यक्ष्यमाणस्तदभिमन्त्रितमसि-
मतिकरालनिशितमुपाददे ॥ १६॥

इति तेषां वृषलानां रजस्तमःप्रकृतीनां
धनमदरज उत्सिक्तमनसां भगवत्कला-
वीरकुलं कदर्थीकृत्योत्पथेन स्वैरं विहरतां
हिंसाविहाराणां कर्मातिदारुणं यद्ब्रह्मभूतस्य
साक्षाद्ब्रह्मर्षिसुतस्य निर्वैरस्य सर्वभूतसुहृदः सूनायामप्यननुमतमालम्भनं तदुपलभ्य
ब्रह्मतेजसातिदुर्विषहेण दन्दह्यमानेन वपुषा
सहसोच्चचाट सैव देवी भद्रकाली ॥ ॥ १७॥

स गो ना सं गो गो
भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितभ्रुकुटि-
विटपकुटिलदंष्ट्रारुणेक्षणाटोपातिभयानक-
वदना हन्तुकामेवेदं महाट्टहासमति-
संरम्भेण विमुञ्चन्ती तत उत्पत्य पापीयसां
दुष्टानां तेनैवासिना विवृक्णशीर्ष्णां
गलात्स्रवन्तमसृगासवमत्युष्णं सह गणेन निपीयातिपानमदविह्वलोच्चैस्तरां स्वपार्षदैः
सह जगौ ननर्त च विजहार च शिरः
कन्दुकलीलया ॥ १८॥

एवमेव खलु महदभिचारातिक्रमः
कार्त्स्न्येनात्मने फलति ॥ १९॥

न वा एतद्विष्णुदत्त महदद्भुतं यदसम्भ्रमः
स्वशिरश्च्छेदन आपतितेऽपि विमुक्तदेहा-
द्यात्मभावसुदृढहृदयग्रन्थीनां सर्वसत्त्व-
सुहृदात्मनां निर्वैराणां साक्षाद्भगवता-
निमिषारिवरायुधेनाप्रमत्तेन तैस्तैर्भावैः
परिरक्ष्यमाणानां तत्पादमूलमकुतश्चि-
द्भयमुपसृतानां भागवतपरमहंसानाम् ॥ २०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे जडभरतचरिते नवमोऽध्यायः ॥ ९॥


पंचम स्कन्ध-नवाँ अध्याय
भरतजी का ब्राह्मणकुल में जन्म
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! आङ्गिरस गोत्र में शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदि को अन्न देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्मविद्या), अनसूया (दूसरों के गुणों में दोष न ढूँढऩा), आत्मज्ञान (आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का ज्ञान) एवं आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणों से सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी स्त्री से उन्हींके समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणोंवाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नी से एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ ॥ १ ॥ इन दोनों में जो पुरुष था वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृगशरीर का परित्याग करके अन्तिम जन्म में ब्राह्मण हुए थे—ऐसा महापुरुषों का कथन है ॥ २ ॥ इस जन्म में भी भगवान की कृपा से अपनी पूर्व-जन्मपरम्परा का स्मरण रहने के कारण, वे इस आशङ्का से कि कहीं फिर कोई विघ्र उपस्थित न हो जाय, अपने स्वजनों के सङ्ग से भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्मबन्धन को काट देता है, श्रीभगवान के उन युगल चरणकमलों को ही हृदय में धारण किये रहते तथा दूसरों की दृष्टि में अपने को पागल, मूर्ख, अंधे और बहरे के समान दिखाते ॥ ३ ॥

पिता का तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलिये ब्राह्मणदेवता ने अपने पागल पुत्र के भी शास्त्रानुसार समावर्तनपर्यन्त विवाह से पूर्व के सभी संस्कार करने के विचार से उनका उपनयनसंस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिता का कर्तव्य है कि पुत्र को शिक्षा दे’ इस शास्त्रविधि के अनुसार उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मों की शिक्षा दी ॥ ४ ॥ किन्तु भरतजी तो पिता के सामने ही उनके उपदेश के विरुद्ध आचरण करने लगते थे। पिता चाहते थे कि वर्षाकाल में इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्मऋतु के चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़—चार महीनों तक पढ़ाते रहने पर भी वे इन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्र प्रणव के सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके ॥ ५ ॥

ऐसा होने पर भी अपने इस पुत्र में उनका आत्मा के समान अनुराग था। इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होने पर भी वे ‘पुत्र को अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये’ इस अनुचित आग्रह से उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्रि की सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रम के आवश्यक नियमों की शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्र को सुशिक्षित देखने का उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्य से असावधान रहकर केवल घर के धंधों में ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहनेवाले कालभगवान ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया ॥ ६ ॥ तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भ से उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौत को सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोक को चली गयी ॥ ७ ॥

भरतजी के भाई कर्मकाण्ड को सब से श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्या से सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरतजी का प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे। अत: पिता के परलोक सिधारने पर उन्होंने उन्हें पढ़ाने-लिखा ने का आग्रह छोड़ दिया ॥ ८ ॥ भरतजी को मानापमान का कोई विचार न था। जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर पुकारते तब वे भी उसी के अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इच्छा के अनुसार कर देते। बेगार के रूप में, मजदूरी के रूप में, माँगने पर अथवा बिना माँगे जो भी थोड़ा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसी को जीभ का जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारण से उत्पन्न न होनेवाला स्वत:सिद्ध केवल ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्द्वों से होनेवाले सुख- दु:खादि में उन्हें देहाभिमान की स्फूर्ति नहीं होती थी ॥ ९ ॥ वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आँधी के समय साँडक़े समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी अङ्ग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वी पर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीर पर मैल जम गयी थी। उनका ब्रह्मतेज धूलि से ढ के हुए मूल्यवान् मणि के समान छिप गया था। वे अपनी कमर में एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज है’, ‘ कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे ॥ १० ॥ दूसरों की मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयों ने खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया तब वे उस कार्य को भी करने लगे। परंतु उन्हें इस बात का कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियों की भूमि समतल है या ऊँची-नीची, अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावल की कनी, खली, भूसी, घु ने हुए उड़द अथवा बरतनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसी को वे अमृत के समान खा लेते थे ॥ ११ ॥

किसी समय डाकुओं के सरदारने, जिसके सामन्त शूद्र जाति के थे, पुत्र की कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि दे ने का संकल्प किया ॥ १२ ॥ उसने जो पुरुष-पशु बलि दे ने के लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदे से निकलकर भाग गया। उसे ढूँढऩे के लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रात में आधी रात के समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोग से अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आङ्गिरसगोत्रीय ब्राह्मणकुमार पर पड़ी, जो वीरासन से बैठे हुए मृग-वराहादि जीवों से खेतों की रखवाली कर रहे थे ॥ १३ ॥ उन्हें ने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणोंवाला है, इससे हमारे स्वामी का कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्द से खिल उठा और वे उन्हें रस्सियों से बाँधकर चण्डि का के मन्दिर में ले आये ॥ १४ ॥

तदनन्तर उन चोरों ने अपनी पद्धति के अनुसार विधिपूर्वक उन को अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकार के आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अङ्कुर और फल आदि उपहार-सामग्री के सहित बलिदान की विधि से गान, स्तुति और मृदङ्ग एवं ढोल आदि का महान शब्द करते उस पुरुष-पशु को भद्रकाली के सामने नीचा सिर करा के बैठा दिया ॥ १५ ॥ इसके पश्चात दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरे ने उस नर-पशु के रुधिर से देवी को तृप्त करने के लिये देवीमन्त्रों से अभिमन्ङ्क्षत्रत एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ॥ १६ ॥

चोर स्वभाव से तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धन के मद से उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसा में भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान के अंश स्वरूप ब्राह्मणकुल का तिरस्कार करके स्वच्छन्दता से कुमार्ग की ओर बढ़ रहे थे। आपत्तिकाल में भी जिस हिंसा का अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्राह्मण-वध का सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियों के सुहृद् एक ब्रहमर्षिकुमार की बलि देना चाहते थे। यह भयङ्कर कुकर्म देखकर देवी भद्रकाली के शरीर में अति दु:सह ब्रह्मतेज से दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्ति को फोडक़र प्रकट हो गयीं ॥ १७ ॥ अत्यन्त असहनशीलता और क्रोध के कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखों के कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेष को देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसार का संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोध से तडक़कर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्ङ्क्षत्रत खड्ग से ही उन सारे पापियों के सिर उड़ा दिये और अपने गणों के सहित उनके गले से बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वर से गाती और नाचती हुई उन सिरों को ही गेंद बनाकर खेल ने लगीं ॥ १८ ॥ सच है, महापुरुषों के प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊ पर पड़ता है ॥ १९ ॥ परीक्षित ! जिनकी देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात भगवान ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकनेवाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्र से जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्हों ने भगवान के निर्भय चरणकमलों का आश्रय ले रखा है—उन भगवद्भक्त परमहंसों के लिये अपना सिर कट ने का अवसर आने पर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना—यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है ॥ २० ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-10]

॥ दशमोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अथ सिन्धुसौवीरपते रहूगणस्य व्रजत
इक्षुमत्यास्तटे तत्कुलपतिना शिबिका-
वाहपुरुषान्वेषणसमये दैवेनोपसादितः
स द्विजवर उपलब्ध एष पीवा युवा
संहननाङ्गो गोखरवद्धुरं वोढुमलमिति
पूर्वविष्टिगृहीतैः सह गृहीतः प्रसभमतदर्ह
उवाह शिबिकां स महानुभावः ॥ १॥

यदा हि द्विजवरस्येषुमात्रावलोकानुगतेर्न
समाहिता पुरुषगतिस्तदा विषमगतां
स्वशिबिकां रहूगण उपधार्य पुरुषानधिवहत
आह हे वोढारः साध्वतिक्रमत किमिति
विषममुह्यते यानमिति ॥ २॥

अथ त ईश्वरवचः सोपालम्भमुपाकर्ण्यो-
पायतुरीयाच्छङ्कितमनसस्तं विज्ञापयां बभूवुः ॥ ३॥

न वयं नरदेव प्रमत्ता भवन्नियमानुपथाः
साध्वेव वहामः अयमधुनैव नियुक्तोऽपि
न द्रुतं व्रजति नानेन सह वोढुमु ह वयं
पारयाम इति ॥ ४॥

सांसर्गिको दोष एव नूनमेकस्यापि सर्वेषां
सांसर्गिकाणां भवितुमर्हतीति निश्चित्य
निशम्य कृपणवचो राजा रहूगण उपासित-
वृद्धोऽपि निसर्गेण बलात्कृत ईषदुत्थित-
मन्युरविस्पष्टब्रह्मतेजसं जातवेदसमिव
रजसाऽऽवृतमतिराह ॥ ५॥

अहो कष्टं भ्रातर्व्यक्तमुरुपरिश्रान्तो दीर्घ-
मध्वानमेक एव ऊहिवान् सुचिरं नातिपीवा
न संहननाङ्गो जरसा चोपद्रुतो भवान् सखे
नो एवापर एते सङ्घट्टिन इति बहु विप्रलब्धो-
ऽप्यविद्यया रचितद्रव्यगुणकर्माशयस्व-
चरमकलेवरेऽवस्तुनि संस्थानविशेषे-
ऽहंममेत्यनध्यारोपितमिथ्याप्रत्ययो
ब्रह्मभूतस्तूष्णीं शिबिकां पूर्ववदुवाह ॥ ६॥

अथ पुनः स्वशिबिकायां विषमगतायां
प्रकुपित उवाच रहूगणः किमिदमरे त्वं
जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्य भर्तृशासन-
मतिचरसि प्रमत्तस्य च ते करोमि
चिकित्सां दण्डपाणिरिव जनताया
यथा प्रकृतिं स्वां भजिष्यस इति ॥ ७॥

एवं बह्वबद्धमपि भाषमाणं नरदेवाभिमानं
रजसा तमसानुविद्धेन मदेन तिरस्कृताशेष-
भगवत्प्रियनिकेतं पण्डितमानिनं स भगवान्
ब्राह्मणो ब्रह्मभूतः सर्वभूतसुहृदात्मा
योगेश्वरचर्यायां नातिव्युत्पन्नमतिं स्मयमान
इव विगतस्मय इदमाह ॥ ८॥

ब्राह्मण उवाच
त्वयोदितं व्यक्तमविप्रलब्धं
भर्तुः स मे स्याद्यदि वीर भारः ।
गन्तुर्यदि स्यादधिगम्यमध्वा
पीवेति राशौ न विदां प्रवादः ॥ ९॥

स्थौल्यं कार्श्यं व्याधय आधयश्च
क्षुत्तृड्भयं कलिरिच्छा जरा च ।
निद्रा रतिर्मन्युरहं मदः शुचो
देहेन जातस्य हि मे न सन्ति ॥ १०॥

जीवन्मृतत्वं नियमेन राजन्
आद्यन्तवद्यद्विकृतस्य दृष्टम् ।
स्वस्वाम्यभावो ध्रुव ईड्य यत्र
तर्ह्युच्यतेऽसौ विधिकृत्ययोगः ॥ ११॥

विशेषबुद्धेर्विवरं मनाक्च
पश्याम यन्न व्यवहारतोऽन्यत् ।
क ईश्वरस्तत्र किमीशितव्यं
तथापि राजन् करवाम किं ते ॥ १२॥

उन्मत्तमत्तजडवत्स्वसंस्थां
गतस्य मे वीर चिकित्सितेन ।
अर्थः कियान् भवता शिक्षितेन
स्तब्धप्रमत्तस्य च पिष्टपेषः ॥ १३॥

श्रीशुक उवाच
एतावदनुवादपरिभाषया प्रत्युदीर्य मुनिवर
उपशमशील उपरतानात्म्यनिमित्त उपभोगेन
कर्मारब्धं व्यपनयन् राजयानमपि तथोवाह ॥ १४॥

स चापि पाण्डवेय सिन्धुसौवीरपतिस्तत्त्व-
जिज्ञासायां सम्यक् श्रद्धयाधिकृताधिकार-
स्तद्धृदयग्रन्थिमोचनं द्विजवच आश्रुत्य बहु
योगग्रन्थसम्मतं त्वरयावरुह्य शिरसा
पादमूलमुपसृतः क्षमापयन् विगत-
नृपदेवस्मय उवाच ॥ १५॥

कस्त्वं निगूढश्चरसि द्विजानां
बिभर्षि सूत्रं कतमोऽवधूतः ।
कस्यासि कुत्रत्य इहापि कस्मात्क्षेमाय
नश्चेदसि नोत शुक्लः ॥ १६॥

नाहं विशङ्के सुरराजवज्रान्न
त्र्यक्षशूलान्न यमस्य दण्डात् ।
नाग्न्यर्कसोमानिलवित्तपास्त्राच्छङ्के
भृशं ब्रह्मकुलावमानात् ॥ १७॥

तद्ब्रूह्यसङ्गो जडवन्निगूढ-
विज्ञानवीर्यो विचरस्यपारः ।
वचांसि योगग्रथितानि साधो
न नः क्षमन्ते मनसापि भेत्तुम् ॥ १८॥
अहं च योगेश्वरमात्मतत्त्वविदां
मुनीनां परमं गुरुं वै ।
प्रष्टुं प्रवृत्तः किमिहारणं तत्साक्षाद्धरिं
ज्ञानकलावतीर्णम् ॥ १९॥

स वै भवाँल्लोकनिरीक्षणार्थ-
मव्यक्तलिङ्गो विचरत्यपि स्वित् ।
योगेश्वराणां गतिमन्धबुद्धिः
कथं विचक्षीत गृहानुबन्धः ॥ २०॥

दृष्टः श्रमः कर्मत आत्मनो वै
भर्तुर्गन्तुर्भवतश्चानुमन्ये ।
यथासतोदानयनाद्यभावात्समूल
इष्टो व्यवहारमार्गः ॥ २१॥

स्थाल्यग्नितापात्पयसोऽभिताप-
स्तत्तापतस्तण्डुलगर्भरन्धिः ।
देहेन्द्रियास्वाशयसन्निकर्षा-
त्तत्संसृतिः पुरुषस्यानुरोधात् ॥ २२॥

शास्ताभिगोप्ता नृपतिः प्रजानां
यः किङ्करो वै न पिनष्टि पिष्टम् ।
स्वधर्ममाराधनमच्युतस्य
यदीहमानो विजहात्यघौघम् ॥ २३॥

तन्मे भवान् नरदेवाभिमानमदेन
तुच्छीकृतसत्तमस्य ।
कृषीष्ट मैत्री दृशमार्तबन्धो
यथा तरे सदवध्यानमंहः ॥ २४॥

न विक्रिया विश्वसुहृत्सखस्य
साम्येन वीताभिमतेस्तवापि ।
महद्विमानात्स्वकृताद्धि मादृ-
ङ्नङ्क्ष्यत्यदूरादपि शूलपाणिः ॥ २५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १०॥


पंचम स्कन्ध-दसवाँ अध्याय 
जडभरत और राजा रहूगण की भेंट
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! एक बार सिन्धुसौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर चढक़र जा रहा था। जब वह इक्षुमती नदी के किनारे पहुँचा तब उसकी पाल की उठानेवाले कहारों के जमादार को एक कहार की आवश्यकता पड़ी। कहार की खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मण- देवता मिल गये। इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हृष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अङ्गोंवाला है। इसलिये यह तो बैल या गधे के समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।’ यह सोचकर उसने बेगार में पकड़े हुए अन्य कहारों के साथ इन्हें भी बलात् पकडक़र पालकी में जोड़ दिया। महात्मा भरतजी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्य के योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पाल की को उठा ले चले ॥ १ ॥

वे द्विजवर, कोई जीव पैरोंतले दब न जाय—इस डर से आगे की एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे। इसलिये दूसरे कहारों के साथ उनकी चाल का मेल नहीं खाता था; अत: जब पाल की टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगण ने पाल की उठानेवालों से कहा—‘अरे कहारो ! अच्छी तरह चलो, पाल की को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो ?’ ॥ २ ॥

तब अपने स्वामी का यह आक्षेपयुक्त वचन सुनकर कहारों को डर लगा कि कहीं राजा उन्हें दण्ड न दें। इसलिये उन्होंने राजा से इस प्रकार निवेदन किया ॥ ३ ॥ ‘महाराज ! यह हमारा प्रमाद नहीं है, हम आपकी नियममर्यादा के अनुसार ठीक-ठीक ही पाल की ले चल रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकी में लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता। हमलोग इसके साथ पाल की नहीं ले जा सकते’ ॥ ४ ॥

कहारों के ये दीन वचन सुनकर राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होनेवाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया गया तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि उसने महापुरुषों का सेवन किया था, तथापि क्षत्रियस्वभाव- वश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुण से व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठसे, जिनका ब्रह्मतेज भस्म से ढ के हुए अग्रि के समान प्रकट नहीं था, इस प्रकार व्यंङ्ग से भरे वचन कह ने लगा— ॥ ५ ॥ ‘अरे भैया ! बड़े दु:ख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियों ने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पाल की ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है, और मित्र ! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।’ इस प्रकार बहुत ताना मारने पर भी वे पहले की ही भाँति चुपचाप पाल की उठाये चलते रहे ! उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टि में तो पञ्चभूत, इन्द्रिय और अन्त:करण का सङ्घात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्या का ही कार्य था। वह विविध अङ्गों से युक्त दिखायी देने पर भी वस्तुत: था ही नहीं, इसलिये उसमें उनका मैं-मेरेपन का मिथ्या अध्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे ॥ ६ ॥

(किन्तु) पाल की अब भी सीधी चाल से नहीं चल रही है—यह देखकर राजा रहूगण क्रोध से आग-बबूला हो गया और कह ने लगा, ‘अरे ! यह क्या ? क्या तू जीता ही मर गया है ? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञा का उल्लङ्घन कर रहा है ! मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी है। अरे ! जैसे दण्डपाणि यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिका ने आ जायँगे’ ॥ ७ ॥

रहूगण को राजा होने का अभिमान था, इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया। वह अपने को बड़ा पण्डित समझता था, अत: रज-तमयुक्त अभिमान के वशीभूत होकर उसने भगवान के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तवर भरतजी का तिरस्कार कर डाला। योगेश्वरों की विचित्र कहनी-करनी का तो उसे कुछ पता ही न था। उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे सम्पूर्ण प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मणदेवता मुसकराये और बिना किसी प्रकार का अभिमान किये इस प्रकार कह ने लगे ॥ ८ ॥

जडभरत ने कहा—राजन् ! तुम ने जो कुछ कहा वह यथार्थ है। उसमें कोई उलाहना नहीं है। यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोनेवाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलनेवाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्मा के लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते ॥ ९ ॥ स्थूलता, कृशता, आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक—ये सब धर्म देहाभिमान को लेकर उत्पन्न होनेवाले जीव में रहते हैं; मुझ में इनका लेश भी नहीं है ॥ १० ॥ राजन् ! तुम ने जो जीने-मर ने की बात कही—सो जित ने भी विकारी पदार्थ हैं, उन सभी में नियमितरूप से ये दोनों बातें देखी जाती हैं; क्योंकि वे सभी आदि-अन्तवाले हैं। यशस्वी नरेश ! जहाँ स्वामी-सेवकभाव स्थिर हो, वहीं आज्ञापालनादि का नियम भी लागू हो सकता है ॥ ११ ॥ ‘तुम राजा हो और मैं प्रजा हूँ’ इस प्रकार की भेदबुद्धि के लिये मुझे व्यवहार के सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखायी देता। परमार्थदृष्टि से देखा जाय तो कि से स्वामी कहें और कि से सेवक ? फिर भी राजन् ! तुम्हें यदि स्वामित्व का अभिमान है तो कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ॥ १२ ॥ वीरवर ! मैं मत्त, उन्मत्त और जड के समान अपनी ही स्थिति में रहता हूँ। मेरा इलाज करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा ? यदि मैं वास्तव में जड और प्रमादी ही हूँ, तो भी मुझे शिक्षा देना पि से हुए को पीस ने के समान व्यर्थ ही होगा ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! मुनिवर जडभरत यथार्थ तत्त्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये। उनका देहात्मबुद्धि का हेतुभूत अज्ञान निवृत्त हो चु का था, इसलिये वे परम शान्त हो गये थे। अत: इतना कहकर भोग द्वारा प्रारब्धक्षय करने के लिये वे फिर पहले के ही समान उस पाल की को कन्धे पर लेकर चल ने लगे ॥ १४ ॥ सिन्धु-सौवीरनरेश रहूगण भी अपनी उत्तम श्रद्धा के कारण तत्त्वजिज्ञासा का पूरा अधिकारी था। जब उसने उन द्विजश्रेष्ठ के अनेकों योग-ग्रन्थों से समॢथत और हृदय की ग्रन्थि का छेदन करनेवाले ये वाक्य सुने, तब वह तत्काल पालकी से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कह ने लगा ॥ १५ ॥ ‘देव ! आपने द्विजों का चिह्न यज्ञोपवीत धारण कर रखा है, बतलाइये इस प्रकार प्रच्छन्नभाव से विचरनेवाले आप कौन हैं ? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं ? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है ? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात सत्त्वमूर्ति भगवान कपिलजी ही तो नहीं हैं ? ॥ १६ ॥ मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेवजी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्डसे। मुझे अग्रि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राह्मणकुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ ॥ १७ ॥ अत: कृपया बतलाइये, इस प्रकार अपने विज्ञान और शक्ति को छिपाकर मूर्खों की भाँति विचरनेवाले आप कौन हैं ? विषयों से तो आप सर्वथा अनासक्त जान पड़ते हैं। मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है। साधो ! आपके योगयुक्त वाक्यों की बुद्धि द्वारा आलोचना करने पर भी मेरा सन्देह दूर नहीं होता ॥ १८ ॥ मैं आत्मज्ञानी मुनियों के परम गुरु और साक्षात श्रीहरि की ज्ञानशक्ति के अवतार योगेश्वर भगवान कपिल से यह पूछ ने के लिये जा रहा था कि इस लोक में एकमात्र शरण लेनेयोग्य कौन है ॥ १९ ॥ क्या आप वे कपिलमुनि ही हैं, जो लोकों की दशा देखने के लिये इस प्रकार अपना रूप छिपाकर विचर रहे हैं ? भला, घर में आसक्त रहनेवाला विवेकहीन पुरुष योगेश्वरों की गति कैसे जान सकता है ? ॥ २० ॥

मैंने युद्धादि कर्मों में अपने को श्रम होते देखा है, इसलिये मेरा अनुमान है कि बोझा ढो ने और मार्ग में चल ने से आपको भी अवश्य ही होता होगा। मुझे तो व्यवहार-मार्ग भी सत्य ही जान पड़ता है; क्योंकि मिथ्या घड़े से जल लाना आदि कार्य नहीं होता ॥ २१ ॥ (देहादि के धर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव ही नहीं होता, ऐसी बात भी नहीं है) चूल्हे पर रखी हुई बटलोई जब अग्रि से तप ने लगती है, तब उसका जल भी खौल ने लगता है और फिर उस जल से चावल का भीतरी भाग भी पक जाता है। इसी प्रकार अपनी उपाधि के धर्मों का अनुवर्तन करने के कारण देह, इन्द्रिय, प्राण और मन की सन्निधि से आत्मा को भी उनके धर्म श्रमादि का अनुभव होता ही है ॥ २२ ॥ आपने जो दण्डादि की व्यर्थता बतायी, सो राजा तो प्रजा का शासन और पालन करने के लिये नियुक्त किया हुआ उसका दास ही है। उसका उन्मत्तादि को दण्ड देना पि से हुए को पीस ने के समान व्यर्थ नहीं हो सकता; क्योंकि अपने धर्म का आचरण करना भगवान की सेवा ही है, उसे करनेवाला व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पापराशि को नष्ट कर देता है ॥ २३ ॥

‘दीनबन्धो ! राजत्व के अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप-जैसे परम साधु की अवज्ञा की है। अब आप ऐसी कृपादृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञारूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ ॥ २४ ॥ आप देहाभिमानशून्य और विश्वबन्धु श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं; इसलिये सब में समान दृष्टि होने से इस मानापमान के कारण आप में कोई विकार नहीं हो सकता तथापि एक महापुरुष का अपमान करने के कारण मेरे-जैसा पुरुष साक्षात त्रिशूलपाणि महादेवजी के समान प्रभावशाली होने पर भी, अपने अपराध से अवश्य थोड़े ही काल में नष्ट हो जायगा’ ॥ २५ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-11]

॥ एकादशोऽध्यायः ॥
ब्राह्मण उवाच
अकोविदः कोविदवादवादान्
वदस्यथो नातिविदां वरिष्ठः ।
न सूरयो हि व्यवहारमेनं
तत्त्वावमर्शेन सहामनन्ति ॥ १॥

तथैव राजन्नुरुगार्हमेध-
वितानविद्योरुविजृम्भितेषु ।
न वेदवादेषु हि तत्त्ववादः
प्रायेण शुद्धो नु चकास्ति साधुः ॥ २॥

न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षा-
द्वरीयसीरपि वाचः समासन् ।
स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं
न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् ॥ ३॥

यावन्मनो रजसा पूरुषस्य
सत्त्वेन वा तमसा वानुरुद्धम् ।
चेतोभिराकूतिभिरातनोति
निरङ्कुशं कुशलं चेतरं वा ॥ ४॥

स वासनात्मा विषयोपरक्तो
गुणप्रवाहो विकृतः षोडशात्मा ।
बिभ्रत्पृथङ्नामभि रूपभेद-
मन्तर्बहिष्ट्वं च पुरैस्तनोति ॥ ५॥

दुःखं सुखं व्यतिरिक्तं च तीव्रं
कालोपपन्नं फलमाव्यनक्ति ।
आलिङ्ग्य मायारचितान्तरात्मा
स्वदेहिनं संसृतिचक्रकूटः ॥ ६॥

तावानयं व्यवहारः सदाविः
क्षेत्रज्ञसाक्ष्यो भवति स्थूलसूक्ष्मः ।
तस्मान्मनो लिङ्गमदो वदन्ति
गुणागुणत्वस्य परावरस्य ॥ ७॥

गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तोः
क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मनः स्यात् ।
यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन्
शिखाः सधूमा भजति ह्यन्यदा स्वम् ।
पदं तथा गुणकर्मानुबद्धं
वृत्तीर्मनः श्रयतेऽन्यत्र तत्त्वम् ॥ ८॥

एकादशासन्मनसो हि वृत्तय
आकूतयः पञ्च धियोऽभिमानः ।
मात्राणि कर्माणि पुरं च तासां
वदन्ति हैकादश वीर भूमीः ॥ ९॥

गन्धाकृतिस्पर्शरसश्रवांसि
विसर्गरत्यर्त्यभिजल्पशिल्पाः ।
एकादशं स्वीकरणं ममेति
शय्यामहं द्वादशमेक आहुः ॥ १०॥

द्रव्यस्वभावाशयकर्मकालै-
रेकादशामी मनसो विकाराः ।
सहस्रशः शतशः कोटिशश्च
क्षेत्रज्ञतो न मिथो न स्वतः स्युः ॥ ११॥

क्षेत्रज्ञ एता मनसो विभूतीर्जीवस्य
मायारचितस्य नित्याः ।
आविर्हिताः क्वापि तिरोहिताश्च
शुद्धो विचष्टे ह्यविशुद्धकर्तुः ॥ १२॥

क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः पुराणः
साक्षात्स्वयंज्योतिरजः परेशः ।
नारायणो भगवान्वासुदेवः
स्वमाययाऽऽत्मन्यवधीयमानः ॥ १३॥

यथानिलः स्थावरजङ्गमाना-
मात्मस्वरूपेण निविष्ट ईशेत् ।
एवं परो भगवान् वासुदेवः
क्षेत्रज्ञ आत्मेदमनुप्रविष्टः ॥ १४॥

न यावदेतां तनुभृन्नरेन्द्र
विधूय मायां वयुनोदयेन ।
विमुक्तसङ्गो जितषट्सपत्नो
वेदात्मतत्त्वं भ्रमतीह तावत् ॥ १५॥

न यावदेतन्मन आत्मलिङ्गं
संसारतापावपनं जनस्य ।
यच्छोकमोहामयरागलोभ-
वैरानुबन्धं ममतां विधत्ते ॥ १६॥

भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्य-
मुपेक्षयाध्येधितमप्रमत्तः ।
गुरोर्हरेश्चरणोपासनास्त्रो
जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम् ॥ १७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ब्राह्मणरहूगणसंवादे एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥


पंचम स्कन्ध-ग्यारहवाँ अध्याय 
राजा रहूगण को भरतजी का उपदेश
जडभरत ने कहा—राजन् ! तुम अज्ञानी होने पर भी पण्डितों के समान ऊपर-ऊ पर की तर्क-वितर्कयुक्त बात कह रहे हो। इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचारसिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहार को तत्त्वविचार के समय सत्यरूप से स्वीकार नहीं करते ॥ १ ॥ लौकिक व्यवहार के समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि वेदवाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञविधि के विस्तार में ही व्यस्त हैं, राग-द्वेषादि दोषों से रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञान की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्राय: उनमें भी नहीं हुई है ॥ २ ॥ जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होनेवाला स्वर्गादि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्त्वज्ञान कराने में साक्षात उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है ॥ ३ ॥ जब तक मनुष्य का मन सत्त्व, रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है, तब तक वह बिना किसी अङ्कुश के उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से शुभाशुभ कर्म कराता रहता है ॥ ४ ॥ यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणों से प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्यादिरूप धारण करके शरीररूप उपाधियों के भेद से जीव की उत्तमता और अधमता का कारण होता है ॥ ५ ॥ यह मायामय मन संसारचक्र में छलनेवाला है, यही अपनी देह के अभिमानी जीव से मिलकर उसे कालक्रम से प्राप्त हुए सुख-दु:ख और इन से व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलों की अभिव्यक्ति करता है ॥ ६ ॥ जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही त्रिगुणमय अधम संसार का और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्षपद का कारण बताते हैं ॥ ७ ॥ विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त करा देता है। जिस प्रकार घी से भीगी हुई बत्ती को खानेवाले दीपक से तो धुएँवाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तब वह अपने कारण अग्रितत्त्व में लीन हो जाता है—उसी प्रकार विषय और कर्मों में आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इन से मुक्त होने पर वह अपने तत्त्व में लीन हो जाता है ॥ ८ ॥

वीरवर ! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार—ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं ॥ ९ ॥ गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार—ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है। कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं ॥ १० ॥ ये मन की ग्यारह वृत्तियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इन की सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वत: या परस्पर मिलकर नहीं है ॥ ११ ॥ ऐसा होने पर भी मन से क्षेत्रज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीव की ही मायानिर्मित उपाधि है। यह प्राय: संसारबन्धन में डालनेवाले अविशुद्ध कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है। इस की उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाहरूप से नित्य ही रहती हैं; जाग्रत् और स्वप्न के समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्ति में छिप जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मन की इन वृत्तियों को साक्षीरूप से देखता रहता है ॥ १२ ॥

यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयंप्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादि का भी नियन्ता और अपने अधीन रहनेवाली माया के द्वारा सब के अन्त:करणों में रहकर जीवों को प्रेरित करनेवाला समस्त भूतों का आश्रयरूप भगवान वासुदेव है ॥ १३ ॥ जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणियों में प्राणरूप से प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है, उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान वासुदेव सर्वसाक्षी आत्म स्वरूप से इस सम्पूर्ण प्रपञ्च में ओतप्रोत है ॥ १४ ॥ राजन् ! जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा इस माया का तिरस्कारकर, सब की आसक्ति छोडक़र तथा काम-क्रोधादि छ: शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्त्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधिरूप मन को संसार-दु:ख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि यह चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है ॥ १५-१६ ॥ यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारे उपेक्षा करने से इस की शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इस ने तुम्हारे आत्म स्वरूप को आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो ॥ १७ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-12]

॥ द्वादशोऽध्यायः ॥
रहूगण उवाच
नमो नमः कारणविग्रहाय
स्वरूपतुच्छीकृतविग्रहाय ।
नमोऽवधूतद्विजबन्धुलिङ्ग-
निगूढनित्यानुभवाय तुभ्यम् ॥ १॥

ज्वरामयार्तस्य यथागदं
सन्निदाघदग्धस्य यथा हिमाम्भः ।
कुदेहमानाहिविदष्टदृष्टे-
र्ब्रह्मन्वचस्तेऽमृतमौषधं मे ॥ २॥

तस्माद्भवन्तं मम संशयार्थं
प्रक्ष्यामि पश्चादधुना सुबोधम् ।
अध्यात्मयोगग्रथितं तवोक्त-
माख्याहि कौतूहलचेतसो मे ॥ ३॥

यदाह योगेश्वर दृश्यमानं
क्रियाफलं सद्व्यवहारमूलम् ।
न ह्यञ्जसा तत्त्वविमर्शनाय
भवानमुष्मिन् भ्रमते मनो मे ॥ ४॥

ब्राह्मण उवाच
अयं जनो नाम चलन् पृथिव्यां
यः पार्थिवः पार्थिव कस्य हेतोः ।
तस्यापि चाङ्घ्र्योरधिगुल्फजङ्घा-
जानूरुमध्योरशिरोधरांसाः ॥ ५॥

अंसेऽधि दार्वी शिबिका च यस्यां
सौवीरराजेत्यपदेश आस्ते ।
यस्मिन् भवान् रूढनिजाभिमानो
राजास्मि सिन्धुष्विति दुर्मदान्धः ॥ ६॥

शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्
विष्ट्या निगृह्णन् निरनुग्रहोऽसि ।
जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानो
न शोभसे वृद्धसभासु धृष्टः ॥ ७॥

यदा क्षितावेव चराचरस्य
विदाम निष्ठां प्रभवं च नित्यम् ।
तन्नामतोऽन्यद्व्यवहारमूलं
निरूप्यतां सत्क्रिययानुमेयम् ॥ ८॥

एवं निरुक्तं क्षितिशब्दवृत्त
मसन्निधानात्परमाणवो ये ।
अविद्यया मनसा कल्पितास्ते
येषां समूहेन कृतो विशेषः ॥ ९॥

एवं कृशं स्थूलमणुर्बृहद्यदसच्च
सज्जीवमजीवमन्यत् ।
द्रव्यस्वभावाशयकालकर्म-
नाम्नाजयावेहि कृतं द्वितीयम् ॥ १०॥

ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक-
मनन्तरं त्वबहिर्ब्रह्म सत्यम् ।
प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञं
यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥ ११॥

रहूगणैतत्तपसा न याति
न चेज्यया निर्वपणाद्गृहाद्वा ।
न छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना
महत्पादरजोऽभिषेकम् ॥ १२॥

यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवादः
प्रस्तूयते ग्राम्यकथाविघातः ।
निषेव्यमाणोऽनुदिनं मुमुक्षोर्मतिं
सतीं यच्छति वासुदेवे ॥ १३॥

अहं पुरा भरतो नाम राजा
विमुक्तदृष्टश्रुतसङ्गबन्धः ।
आराधनं भगवत ईहमानो
मृगोऽभवं मृगसङ्गाद्धतार्थः ॥ १४॥

सा मां स्मृतिर्मृगदेहेऽपि वीर
कृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति ।
अथो अहं जनसङ्गादसङ्गो
विशङ्कमानोऽविवृतश्चरामि ॥ १५॥

तस्मान्नरोऽसङ्गसुसङ्गजात-
ज्ञानासिनेहैव विवृक्णमोहः ।
हरिं तदीहाकथनश्रुताभ्यां
लब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वनः ॥ १६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ब्राह्मणरहूगणसंवादे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥


पंचम स्कन्ध-बारहवाँ अध्याय 
रहूगण का प्रश्र और भरतजी का समाधान
राजा रहूगण ने कहा—भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत का उद्धार करने के लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर ! अपने परमानन्दमय स्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूलशरीर से उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमय स्वरूप को जनसाधारण की दृष्टि से ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार ज्वर से पीडि़त रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृततुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेकबुद्धि को देहाभिमानरूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं ॥ २ ॥ देव ! मैं आप से अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसी को सरल करके समझाइये, उसे समझ ने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है ॥ ३ ॥ योगेश्वर ! आपने जो यह कहा कि भार उठा ने की क्रिया तथा उससे जो श्रमरूप फल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होने पर भी केवल व्यवहारमूलक ही हैं, वास्तव में सत्य नहीं हैं—वे तत्त्वविचार के सामने कुछ भी नहीं ठहरते—सो इस विषय में मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथन का मर्म मेरी समझ में नहीं आ रहा है ॥ ४ ॥

जडभरत ने कहा—पृथ्वीपते ! यह देह पृथ्वी का विकार है, पाषाणादि से इसका क्या भेद है ? जब यह किसी कारण से पृथ्वी पर चल ने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊ पर क्रमश: टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्ष:स्थल, गर्दन और कंधे आदि अङ्ग हैं ॥ ५ ॥ कंधों के ऊ पर लकड़ी की पाल की रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नाम का एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करने से तुम ‘मैं सिन्धु देश का राजा हूँ’ इस प्रबल मद से अंधे हो रहे हो ॥ ६ ॥ किन्तु इसीसे तुम्हारी कोई श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तव में तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुम ने इन बेचारे दीन-दुखिया कहारों को बेगार में पकडक़र पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़-बढक़र बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करनेवाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता ॥ ७ ॥ हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी में ही लीन होते हैं; अत: उनके क्रियाभेद के कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं—बताओ तो, उनके सिवा व्यवहार का और क्या मूल है ? ॥ ८ ॥

इस प्रकार ‘पृथ्वी’ शब्द का व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादानकारण सूक्ष्म परमाणुओं में लीन हो जाती है। और जिनके मिल ने से पृथ्वीरूप कार्य की सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मन से ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तव में उनकी भी सत्ता नहीं है ॥ ९ ॥ इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणों से युक्त द्वैत-प्रपञ्च है—उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामोंवाली भगवान की माया का ही कार्य समझो ॥ १० ॥ विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसी का नाम ‘भगवान’ है और उसी को पण्डितजन ‘वासुदेव’ कहते हैं ॥ ११ ॥ रहूगण ! महापुरुषों के चरणों की धूलि से अपने को नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादि के दान, अतिथिसेवा, दीनसेवा आदि गृहस्थोचित धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्रि या सूर्य की उपासना आदि किसी भी साधन से यह परमात्म-ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ॥ १२ ॥ इसका कारण यह है कि महापुरुषों के समाज में सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणों की चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटक ने पाती। और जब भगवत् कथा का नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकाङ्क्षी पुरुष की शुद्ध बुद्धि को भगवान वासुदेव में लगा देती है ॥ १३ ॥

पूर्वजन्म में मैं भरत नाम का राजा था। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों से विरक्त होकर भगवान की आराधना में ही लगा रहता था; तो भी एक मृग में आसक्ति हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में मृग बनना पड़ा ॥ १४ ॥ किन्तु भगवान श्रीकृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृगयोनि में भी मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसीसे अब मैं जनसंसर्ग से डरकर सर्वदा असङ्गभाव से गुप्तरूप से ही विचरता रहता हूँ ॥ १५ ॥ सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषों के सत्सङ्ग से प्राप्त ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोह- बन्धन को काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत्स्मृति बनी रहने के कारण वह सुगमता से ही संसारमार्ग को पार करके भगवान को प्राप्त कर सकता है ॥ १६ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-13]

॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥
ब्राह्मण उवाच
दुरत्ययेऽध्वन्यजया निवेशितो
रजस्तमःसत्त्वविभक्तकर्मदृक् ।
स एष सार्थोऽर्थपरः परिभ्रमन्
भवाटवीं याति न शर्म विन्दति ॥ १॥

यस्यामिमे षण्नरदेव दस्यवः
सार्थं विलुम्पन्ति कुनायकं बलात् ।
गोमायवो यत्र हरन्ति सार्थिकं
प्रमत्तमाविश्य यथोरणं वृकाः ॥ २॥

प्रभूतवीरुत्तृणगुल्मगह्वरे
कठोरदंशैर्मशकैरुपद्रुतः ।
क्वचित्तु गन्धर्वपुरं प्रपश्यति
क्वचित्क्वचिच्चाशु रयोल्मुकग्रहम् ॥ ३॥

निवासतोयद्रविणात्मबुद्धि-
स्ततस्ततो धावति भो अटव्याम् ।
क्वचिच्च वात्योत्थितपांसुधूम्रा
दिशो न जानाति रजस्वलाक्षः ॥ ४॥

अदृश्यझिल्लीस्वनकर्णशूल
उलूकवाग्भिर्व्यथितान्तरात्मा ।
अपुण्यवृक्षान् श्रयते क्षुधार्दितो
मरीचितोयान्यभिधावति क्वचित् ॥ ५॥

क्वचिद्वितोयाः सरितोऽभियाति
परस्परं चालषते निरन्धः ।
आसाद्य दावं क्वचिदग्नितप्तो
निर्विद्यते क्व च यक्षैर्हृतासुः ॥ ६॥

शूरैर्हृतस्वः क्व च निर्विण्णचेताः
शोचन्विमुह्यन्नुपयाति कश्मलम् ।
क्वचिच्च गन्धर्वपुरं प्रविष्टः
प्रमोदते निर्वृतवन्मुहूर्तम् ॥ ७॥

चलन् क्वचित्कण्टकशर्कराङ्घ्रि-
र्नगारुरुक्षुर्विमना इवास्ते ।
पदे पदेऽभ्यन्तरवह्निनार्दितः
कौटुम्बिकः क्रुध्यति वै जनाय ॥ ८॥

क्वचिन्निगीर्णोऽजगराहिना जनो
नावैति किञ्चिद्विपिनेऽपविद्धः ।
दष्टः स्म शेते क्व च दन्दशूकै-
रन्धोऽन्धकूपे पतितस्तमिस्रे ॥ ९॥

कर्हि स्म चित्क्षुद्ररसान् विचिन्वं-
स्तन्मक्षिकाभिर्व्यथितो विमानः ।
तत्रातिकृच्छ्रात्प्रतिलब्धमानो
बलाद्विलुम्पन्त्यथ तं ततोऽन्ये ॥ १०॥

क्वचिच्च शीतातपवातवर्ष-
प्रतिक्रियां कर्तुमनीश आस्ते ।
क्वचिन्मिथो विपणन् यच्च किञ्चि-
द्विद्वेषमृच्छत्युत वित्तशाठ्यात् ॥ ११॥
क्वचित्क्वचित्क्षीणधनस्तु तस्मिन्
शय्यासनस्थानविहारहीनः ।
याचन् परादप्रतिलब्धकामः
पारक्यदृष्टिर्लभतेऽवमानम् ॥ १२॥

अन्योन्यवित्तव्यतिषङ्गवृद्ध-
वैरानुबन्धो विवहन् मिथश्च ।
अध्वन्यमुष्मिन्नुरुकृच्छ्रवित्त-
बाधोपसर्गैर्विहरन् विपन्नः ॥ १३॥

तांस्तान् विपन्नान् स हि तत्र तत्र
विहाय जातं परिगृह्य सार्थः ।
आवर्ततेऽद्यापि न कश्चिदत्र
वीराध्वनः पारमुपैति योगम् ॥ १४॥

मनस्विनो निर्जितदिग्गजेन्द्रा
ममेति सर्वे भुवि बद्धवैराः ।
मृधे शयीरन् न तु तद्व्रजन्ति
यन्न्यस्तदण्डो गतवैरोऽभियाति ॥ १५॥

प्रसज्जति क्वापि लता भुजाश्रय-
स्तदाश्रयाव्यक्तपदद्विजस्पृहः ।
क्वचित्कदाचिद्धरिचक्रतस्त्रसन्
सख्यं विधत्ते बककङ्कगृध्रैः ॥ १६॥

तैर्वञ्चितो हंसकुलं समाविश-
न्नरोचयन् शीलमुपैति वानरान् ।
तज्जातिरासेन सुनिर्वृतेन्द्रियः
परस्परोद्वीक्षणविस्मृतावधिः ॥ १७॥

द्रुमेषु रंस्यन् सुतदारवत्सलो
व्यवायदीनो विवशः स्वबन्धने ।
क्वचित्प्रमादाद्गिरिकन्दरे पतन्
वल्लीं गृहीत्वा गजभीत आस्थितः ॥ १८॥

अतः कथञ्चित्स विमुक्त आपदः
पुनश्च सार्थं प्रविशत्यरिन्दम ।
अध्वन्यमुष्मिन्नजया निवेशितो
भ्रमञ्जनोऽद्यापि न वेद कश्चन ॥ १९॥

रहूगण त्वमपि ह्यध्वनोऽस्य
सन्न्यस्तदण्डः कृतभूतमैत्रः ।
असज्जितात्मा हरिसेवया शितं
ज्ञानासिमादाय तरातिपारम् ॥ २०॥

राजोवाच
अहो नृजन्माखिलजन्मशोभनं
किं जन्मभिस्त्वपरैरप्यमुष्मिन् ।
न यद्धृषीकेशयशःकृतात्मनां
महात्मनां वः प्रचुरः समागमः ॥ २१॥

न ह्यद्भुतं त्वच्चरणाब्जरेणुभि-
र्हतांहसो भक्तिरधोक्षजेऽमला ।
मौहूर्तिकाद्यस्य समागमाच्च मे
दुस्तर्कमूलोऽपहतोऽविवेकः ॥ २२॥

नमो महद्भ्योऽस्तु नमः शिशुभ्यो
नमो युवभ्यो नम आवटुभ्यः ।
ये ब्राह्मणा गामवधूतलिङ्गा-
श्चरन्ति तेभ्यः शिवमस्तु राज्ञाम् ॥ २३॥

श्रीशुक उवाच
इत्येवमुत्तरामातः स वै ब्रह्मर्षिसुतः
सिन्धुपतय आत्मसतत्त्वं विगणयतः
परानुभावः परमकारुणिकतयोपदिश्य
रहूगणेन सकरुणमभिवन्दितचरण
आपूर्णार्णव इव निभृतकरणोर्म्याशयो
धरणिमिमां विचचार ॥ २४॥

सौवीरपतिरपि सुजनसमवगतपरमात्म-
सतत्त्व आत्मन्यविद्याध्यारोपितां च
देहात्ममतिं विससर्ज एवं हि नृप भगव-
दाश्रिताश्रितानुभावः ॥ २५॥

राजोवाच
यो ह वा इह बहुविदा महाभागवत
त्वयाभिहितः परोक्षेण वचसा जीवलोक-
भवाध्वा स ह्यार्य मनीषया कल्पितविषयो नाञ्जसाव्युत्पन्नलोकसमधिगमः अथ
तदेवैतद्दुरवगमं समवेतानुकल्पेन
निर्दिश्यतामिति ॥ २६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे त्रयोदशोऽऽध्यायः ॥ १३॥


पंचम स्कन्ध-तेरहवाँ अध्याय
भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशयनाश
जडभरत ने कहा—राजन् ! यह जीवसमूह सुखरूप धन में आसक्त देश-देशान्तर में घूम-फिरकर व्यापार करनेवाले व्यापारियों के दल के समान है। इसे माया ने दुस्तर प्रवृत्तिमार्ग में लगा दिया है; इसलिये इस की दृष्टि सात्त्विक, राजस, तामस भेद से नाना प्रकार के कर्मों पर ही जाती है। उन कर्मों में भटकता-भटकता यह संसाररूप जंगल में पहुँच जाता है। वहाँ इसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती ॥ १ ॥ महाराज ! उस जंगल में छ: डाकू हैं। इस वणिक्-समाज का नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्व में जब यह वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात् इसका सब माल-मत्ता लूट लेते हैं। तथा भेडिय़े जिस प्रकार भेड़ों के झुंड में घुसकर उन्हें खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार इसके साथ रहनेवाले गीदड़ ही इसे असावधान देखकर इसके धन को इधर-उधर खींच ने लगते हैं ॥ २ ॥ वह जंगल बहुत-सी लता, घास और झाड़-झंखाडक़े कारण बहुत दुर्गम हो रहा है। उसमें तीव्र डाँस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ इसे कभी तो गन्धर्वनगर दीख ने लगता है और कभी-कभी चमचमाता हुआ अति चञ्चल अगिया-बेताल आँखों के सामने आ जाता है ॥ ३ ॥ यह वणिक्-समुदाय इस वन में निवासस्थान, जल और धनादि में आसक्त होकर इधर-उधर भटकता रहता है। कभी बवंडर से उठी हुई धूल के द्वारा जब सारी दिशाएँ धूमाच्छादित-सी हो जाती हैं और इस की आँखों में भी धूल भर जाती है, तो इसे दिशाओं का ज्ञान भी नहीं रहता ॥ ४ ॥ कभी इसे दिखायी न देनेवाले झींगुरों का कर्णकटु शब्द सुनायी देता है, कभी उल्लुओं की बोली से इसका चित्त व्यथित हो जाता है। कभी इसे भूख सता ने लगती है तो यह निन्दनीय वृक्षों का ही सहारा टटोल ने लगता है और कभी प्यास से व्याकुल होकर मृगतृष्णा की ओर दौड़ लगाता है ॥ ५ ॥ कभी जलहीन नदियों की ओर जाता है, कभी अन्न न मिलने पर आपस में एक-दूसरे से भोजनप्राप्ति की इच्छा करता है, कभी दावानल में घुसकर अग्रि से झुलस जाता है और कभी यक्षलोग इसके प्राण खींच ने लगते हैं तो यह खिन्न होने लगता है ॥ ६ ॥ कभी अपने से अधिक बलवान्लोग इसका धन छीन लेते हैं, तो यह दुखी होकर शोक और मोह से अचेत हो जाता है और कभी गन्धर्वनगर में पहुँचकर घड़ीभर के लिये सब दु:ख भूलकर खुशी मना ने लगता है ॥ ७ ॥ कभी पर्वतों पर चढऩा चाहता है तो काँटे और कंकड़ों द्वारा पैर चलनी हो जाने से उदास हो जाता है। कुटुम्ब बहुत बढ़ जाता है और उदरपूर्ति का साधन नहीं होता तो भूख की ज्वाला से सन्तप्त होकर अपने ही बन्धु-बान्धवों पर खीझ ने लगता है ॥ ८ ॥ कभी अजगर सर्प का ग्रास बनकर वन में फें के हुए मुर्दे के समान पड़ा रहता है। उस समय इसे कोई सुध-बुध नहीं रहती। कभी दूसरे विषैले जन्तु इसे काट ने लगते हैं तो उनके विष के प्रभाव से अंधा होकर किसी अँधे कुएँ में गिर पड़ता है और घोर दु:खमय अन्धकार में बेहोश पड़ा रहता है ॥ ९ ॥ कभी मधु खोज ने लगता है तो मक्खियाँ इसके नाक में दम कर देती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकार अनेकों कठिनाइयों का सामना करके वह मिल भी गया तो बलात् दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं ॥ १० ॥ कभी शीत, घाम, आँधी और वर्षा से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है। कभी आपस में थोड़ा-बहुत व्यापार करता है, तो धन के लोभ से दूसरों को धोखा देकर उनसे वैर ठान लेता है ॥ ११ ॥ कभी-कभी उस संसारवन में इसका धन नष्ट हो जाता है तो इसके पास शय्या, आसन, रहने के लिये स्थान और सैर-सपाटे के लिये सवारी आदि भी नहीं रहते। तब दूसरों से याचना करता है; माँगने पर भी दूसरे से जब उसे अभिलषित वस्तु नहीं मिलती, तब परायी वस्तुओं पर अनुचित दृष्टि रखने के कारण इसे बड़ा तिरस्कार सहना पड़ता है ॥ १२ ॥

इस प्रकार व्यावहारिक सम्बन्ध के कारण एक-दूसरे से द्वेषभाव बढ़ जाने पर भी वह वणिक्समूह आपस में विवाहादि सम्बन्ध स्थापित करता है और फिर इस मार्ग में तरह-तरह के कष्ट और धनक्षय आदि संकटों को भोगते-भोगते मृतकवत् हो जाता है ॥ १३ ॥ साथियों में से जो-जो मरते जाते हैं, उन्हें जहाँ-का-तहाँ छोडक़र नवीन उत्पन्न हुओं को साथ लिये वह बनिजारों का समूह बराबर आगे ही बढ़ता रहता है। वीरवर ! उनमें से कोई भी प्राणी न तो आज तक वापस लौटा है और न किसी ने इस संकटपूर्ण मार्ग को पार करके परमानन्दमय योग की ही शरण ली है ॥ १४ ॥ जिन्हों ने बड़े-बड़े दिक्पालों को जीत लिया है, वे धीर-वीर पुरुष भी पृथ्वी में ‘यह मेरी है’ ऐसा अभिमान करके आपस में वैर ठानकर संग्रामभूमि में जूझ जाते हैं। तो भी उन्हें भगवान विष्णु का वह अविनाशी पद नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसों को प्राप्त होता है ॥ १५ ॥

इस भवाटवी में भटकनेवाला यह बनिजारों का दल कभी किसी लता की डालियों का आश्रय लेता है और उसपर रहनेवाले मधुरभाषी पक्षियों के मोहमें फँस जाता है। कभी सिंहों के समूह से भय मानकर बगुला, कंक और गिद्धों से प्रीति करता है ॥ १६ ॥ जब उनसे धोखा उठाता है, तब हंसों की पंक्ति में प्रवेश करना चाहता है; किन्तु उसे उनका आचार नहीं सुहाता, इसलिये वानरों में मिलकर उनके जातिस्वभाव के अनुसार दाम्पत्य सुख में रत रहकर विषयभोगों से इन्द्रियों को तृप्त करता रहता है और एक-दूसरे का मुख देखते-देखते अपनी आयु की अवधि को भूल जाता है ॥ १७ ॥ वहाँ वृक्षों में क्रीडा करता हुआ पुत्र और स्त्री के स्नेहपाश में बँध जाता है। इसमें मैथुन की वासना इतनी बढ़ जाती है कि तरह-तरह के दुव्र्यवहारों से दीन होने पर भी यह विवश होकर अपने बन्धन को तोडऩे का साहस नहीं कर सकता। कभी असावधानी से पर्वत की गुफा में गिर ने लगता है तो उसमें रहनेवाले हाथी से डरकर किसी लता के सहारे लट का रहता है ॥ १८ ॥ शत्रुदमन ! यदि किसी प्रकार इसे उस आपत्ति से छुटकारा मिल जाता है, तो यह फिर अपने गोल में मिल जाता है। जो मनुष्य माया की प्रेरणा से एक बार इस मार्ग में पहुँच जाता है, उसे भटकते-भटकते अन्त तक अपने परम पुरुषार्थ का पता नहीं लगता ॥ १९ ॥ रहूगण ! तुम भी इसी मार्ग में भटक रहे हो, इसलिये अब प्रजा को दण्ड दे ने का कार्य छोडक़र समस्त प्राणियों के सुहृद् हो जाओ और विषयों में अनासक्त होकर भगवत्-सेवा से तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञानरूप खड्ग लेकर इस मार्ग को पार कर लो ॥ २० ॥

राजा रहूगण ने कहा—अहो ! समस्त योनियों में यह मनुष्य-जन्म ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकों में प्राप्त होनेवाले देवादि उत्कृष्ट जन्मों से भी क्या लाभ है, जहाँ भगवान हृषीकेश के पवित्र यश से शुद्ध अन्त:करणवाले आप-जैसे महात्माओं का अधिकाधिक समागम नहीं मिलता ॥ २१ ॥ आपके चरणकमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावों को भगवान की विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्सङ्ग से ही सारा कुतर्कमूलक अज्ञान नष्ट हो गया है ॥ २२ ॥ ब्रह्मज्ञानियों में जो वयोवृद्ध हों, उन्हें नमस्कार है; जो शिशु हों, उन्हें नमस्कार है; जो युवा हों, उन्हें नमस्कार है। और जो क्रीडारत बालक हों, उन्हें भी नमस्कार है। जो ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण अवधूतवेष से पृथ्वी पर विचरते हैं, उनसे हम-जैसे ऐश्वर्योन्मत्त राजाओं का कल्याण हो ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—उत्तरानन्दन ! इस प्रकार उन परम प्रभावशाली ब्रहमर्षिपुत्र ने अपना अपमान करनेवाले सिन्धुनरेश रहूगण को भी अत्यन्त करुणावश आत्मतत्त्व का उपदेश दिया। तब राजा रहूगण ने दीनभाव से उनके चरणों की वन्दना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्र के समान शान्तचित्त और उपरतेन्द्रिय होकर पृथ्वी पर विचर ने लगे ॥ २४ ॥ उनके सत्सङ्ग से परमात्मतत्त्व का ज्ञान पाकर सौवीरपति रहूगण ने भी अन्त:करण में अविद्यावश आरोपित देहात्मबुद्धि को त्याग दिया। राजन् ! जो लोग भगवदाश्रित अनन्य भक्तों की शरण ले लेते हैं, उनका ऐसा ही प्रभाव होता है—उनके पास अविद्या ठहर नहीं सकती ॥ २५ ॥

राजा परीक्षित ने कहा—महाभागवत मुनिश्रेष्ठ ! आप परम विद्वान् हैं। आपने रूपकादि के द्वारा अप्रत्यक्षरूप से जीवों के जिस संसाररूप मार्ग का वर्णन किया है, उस विषय की कल्पना विवे की पुरुषों की बुद्धि ने की है; वह अल्पबुद्धिवाले पुरुषों की समझ में सुगमता से नहीं आ सकता। अत: मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध विषय को रूपक का स्पष्टीकरण करनेवाले शब्दों से खोलकर समझाइये ॥ २६ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-14]

॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥
स होवाच
य एष देहात्ममानिनां सत्त्वादिगुण-
विशेषविकल्पितकुशलाकुशलसमवहार-
विनिर्मितविविधदेहावलिभिर्वियोग-
संयोगादि अनादिसंसारानुभवस्य
द्वारभूतेन षडिन्द्रियवर्गेण तस्मिन्
दुर्गाध्ववदसुगमेऽध्वन्यापतित ईश्वरस्य
भगवतो विष्णोर्वशवर्तिन्या मायया
जीवलोकोऽयं यथा वणिक्सार्थोऽर्थपरः
स्वदेहनिष्पादितकर्मानुभवः श्मशानव-
दशिवतमायां संसाराटव्यां गतो नाद्यापि
विफलबहुप्रतियोगेहस्तत्तापोपशमनीं
हरिगुरुचरणारविन्दमधुकरानुपदवी-
मवरुन्धे ॥ १॥

यस्यामु ह वा एते षडिन्द्रियनामानः
कर्मणा दस्यव एव ते तद्यथा पुरुषस्य
धनं यत्किञ्चिद्धर्मौपयिकं बहु कृच्छ्राधिगतं साक्षात्परमपुरुषाराधनलक्षणो योऽसौ
धर्मस्तं तु साम्पराय उदाहरन्ति । तद्धर्म्यं
धनं दर्शनस्पर्शनश्रवणास्वादनावघ्राण-
सङ्कल्पव्यवसायगृहग्राम्योपभोगेन
कुनाथस्याजितात्मनो यथा सार्थस्य
विलुम्पन्ति ॥ २॥

अथ च यत्र कौटुम्बिका दारापत्यादयो
नाम्ना कर्मणा वृकसृगाला एवानिच्छतोऽपि
कदर्यस्य कुटुम्बिन उरणकवत्संरक्ष्यमाणं
मिषतोऽपि हरन्ति ॥ ३॥

यथा ह्यनुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीजं
क्षेत्रं पुनरेवावपनकाले गुल्मतृणवीरुद्भि-
र्गह्वरमिव भवत्येवमेव गृहाश्रमः कर्मक्षेत्रं
यस्मिन् न हि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं
कामकरण्ड एष आवसथः ॥ ४॥

तत्र गतो दंशमशकसमापसदैर्मनुजैः
शलभशकुन्ततस्करमूषकादिभिरुपरुध्य-
मानबहिःप्राणः क्वचित्परिवर्तमानो-
ऽस्मिन्नध्वन्यविद्याकामकर्मभिरुपरक्त-
मनसानुपपन्नार्थं नरलोकं गन्धर्वनगर-
मुपपन्नमिति मिथ्यादृष्टिरनुपश्यति ॥ ५॥

तत्र च क्वचिदातपोदकनिभान् विषया-
नुपधावति पानभोजनव्यवायादि
व्यसनलोलुपः ॥ ६॥

क्वचिच्चाशेषदोषनिषदनं पुरीषविशेषं
तद्वर्णगुणनिर्मितमतिः सुवर्णमुपादित्स-
त्यग्निकामकातर इवोल्मुकपिशाचम् ॥ ७॥

अथ कदाचिन्निवासपानीयद्रविणा-
द्यनेकात्मोपजीवनाभिनिवेश एतस्यां
संसाराटव्यामितस्ततः परिधावति ॥ ८॥

क्वचिच्च वात्यौपम्यया प्रमदयाऽऽरोह-
मारोपितस्तत्कालरजसा रजनीभूत
इवासाधुमर्यादो रजस्वलाक्षोऽपि
दिग्देवता अतिरजस्वलमतिर्न विजानाति ॥ ९॥

क्वचित्सकृदवगतविषयवैतथ्यः स्वयं
पराभिध्यानेन विभ्रंशितस्मृतिस्तयैव
मरीचितोयप्रायांस्तानेवाभिधावति ॥ १०॥

क्वचिदुलूकझिल्लीस्वनवदतिपरुषरभसाटोपं
प्रत्यक्षं परोक्षं वा रिपुराजकुलनिर्भर्त्सितेना-
तिव्यथितकर्णमूलहृदयः ॥ ११॥

स यदा दुग्धपूर्वसुकृतस्तदा कारस्कर-
काकतुण्डाद्यपुण्यद्रुमलताविषोदपानव-
दुभयार्थशून्यद्रविणान् जीवन्मृतान् स्वयं
जीवन् म्रियमाण उपधावति ॥ १२॥

एकदासत्प्रसङ्गान्निकृतमतिर्व्युदकस्रोतः
स्खलनवदुभयतोऽपि दुःखदं पाखण्ड-
मभियाति ॥ १३॥

यदा तु परबाधयान्ध आत्मने नोपनमति
तदा हि पितृपुत्रबर्हिष्मतः पितृपुत्रान् वा स खलु
भक्षयति ॥ १४॥

क्वचिदासाद्य गृहं दाववत्प्रियार्थविधुर-
मसुखोदर्कं शोकाग्निना दह्यमानो भृशं
निर्वेदमुपगच्छति ॥ १५॥

क्वचित्कालविषमितराजकुलरक्षसापहृत-
प्रियतमधनासुः प्रमृतक इव विगतजीव-
लक्षण आस्ते ॥ १६॥

कदाचिन्मनोरथोपगतपितृपितामहाद्यस-
त्सदिति स्वप्ननिर्वृतिलक्षणमनुभवति ॥ १७॥

क्वचिद्गृहाश्रमकर्मचोदनातिभरगिरि-
मारुरुक्षमाणो लोकव्यसनकर्षितमनाः
कण्टकशर्कराक्षेत्रं प्रविशन्निव सीदति ॥ १८॥

क्वचिच्च दुःसहेन कायाभ्यन्तरवह्निना
गृहीतसारः स्वकुटुम्बाय क्रुध्यति ॥ १९॥

स एव पुनर्निद्राजगरगृहीतोऽन्धे तमसि
मग्नः शून्यारण्य इव शेते नान्यत्किञ्चन
वेद शव इवापविद्धः ॥ २०॥

कदाचिद्भग्नमानदंष्ट्रो दुर्जनदन्दशूकै-
रलब्धनिद्राक्षणो व्यथितहृदयेनानु-
क्षीयमाणविज्ञानोऽन्धकूपेऽन्धवत्पतति ॥ २१॥

कर्हि स्म चित्काममधुलवान् विचिन्वन्
यदा परदारपरद्रव्याण्यवरुन्धानो राज्ञा
स्वामिभिर्वा निहतः पतत्यपारे निरये ॥ २२॥

अथ च तस्मादुभयथापि हि कर्मास्मि-
न्नात्मनः संसारावपनमुदाहरन्ति ॥ २३॥

मुक्तस्ततो यदि बन्धाद्देवदत्त उपाच्छिनत्ति
तस्मादपि विष्णुमित्र इत्यनवस्थितिः ॥ २४॥

क्वचिच्च शीतवाताद्यनेकाधिदैविक-
भौतिकात्मीयानां दशानां प्रतिनिवारणे-
ऽकल्पो दुरन्तचिन्तया विषण्ण आस्ते ॥ २५॥

क्वचिन्मिथो व्यवहरन् यत्किञ्चिद्धन-
मन्येभ्यो वा काकिणिकामात्रमप्यपहरन्
यत्किञ्चिद्वा विद्वेषमेति वित्तशाठ्यात् ॥ २६॥

अध्वन्यमुष्मिन्निम उपसर्गास्तथा
सुखदुःखरागद्वेषभयाभिमानप्रमादोन्माद-
शोकमोहलोभमात्सर्येर्ष्यावमानक्षुत्पिपासा-धिव्याधिजन्मजरामरणादयः ॥ २७॥

क्वापि देवमायया स्त्रिया भुजलतोपगूढः
प्रस्कन्नविवेकविज्ञानो यद्विहारगृहारम्भा-
कुलहृदयस्तदाश्रयावसक्तसुतदुहितृकलत्र-
भाषितावलोकविचेष्टितापहृतहृदय आत्मान-
मजितात्मापारेऽन्धे तमसि प्रहिणोति ॥ २८॥

कदाचिदीश्वरस्य भगवतो विष्णोश्चक्रा-
त्परमाण्वादि द्विपरार्धापवर्गकालोपलक्षणा-
त्परिवर्तितेन वयसा रंहसा हरत आब्रह्म-
तृणस्तम्बादीनां भूतानामनिमिषतो मिषतां
वित्रस्तहृदयस्तमेवेश्वरं कालचक्रनिजायुधं
साक्षाद्भगवन्तं यज्ञपुरुषमनादृत्य पाखण्ड-
देवताः कङ्कगृध्रबकवटप्राया आर्यसमय-
परिहृताः साङ्केत्येनाभिधत्ते ॥ २९॥

यदा पाखण्डिभिरात्मवञ्चितैस्तैरुरुवञ्चितो
ब्रह्मकुलं समावसंस्तेषां शीलमुपनयनादि
श्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानेन भगवतो यज्ञपुरुषस्या-
राधनमेव तदरोचयन् शूद्रकुलं भजते निगमा-
चारेऽशुद्धितो यस्य मिथुनीभावः कुटुम्बभरणं
यथा वानरजातेः ॥ ३०॥

तत्रापि निरवरोधः स्वैरेण विहरन्नतिकृपण-
बुद्धिरन्योन्यमुखनिरीक्षणादिना ग्राम्यकर्मणैव
विस्मृतकालावधिः ॥ ३१॥

क्वचिद्द्रुमवदैहिकार्थेषु गृहेषु रंस्यन् यथा
वानरः सुतदारवत्सलो व्यवायक्षणः ॥ ३२॥

एवमध्वन्यवरुन्धानो मृत्युगजभयात्तमसि
गिरिकन्दरप्राये ॥ ३३॥

क्वचिच्छीतवाताद्यनेकदैविकभौतिका-
त्मीयानां दुःखानां प्रतिनिवारणेऽकल्पो
दुरन्तविषयविषण्ण आस्ते ॥ ३४॥

क्वचिन्मिथो व्यवहरन् यत्किञ्चिद्धन-
मुपयाति वित्तशाठ्येन ॥ ३५॥

क्वचित्क्षीणधनः शय्यासनाशनाद्युपभोग-
विहीनो यावदप्रतिलब्धमनोरथोपगतादाने-
ऽवसितमतिस्ततस्ततोऽवमानादीनि
जनादभिलभते ॥ ३६॥

एवं वित्तव्यतिषङ्गविवृद्धवैरानुबन्धोऽपि
पूर्ववासनया मिथ उद्वहत्यथापवहति ॥ ३७॥

एतस्मिन् संसाराध्वनि नानाक्लेशोपसर्ग-
बाधित आपन्नविपन्नो यत्र यस्तमु ह
वावेतरस्तत्र विसृज्य जातं जातमुपादाय
शोचन्मुह्यन्बिभ्यद्विवदन् क्रन्दन्संहृष्यन्
गायन्नह्यमानः साधुवर्जितो नैवावर्तते-
ऽद्यापि यत आरब्ध एष नरलोकसार्थो
यमध्वनः पारमुपदिशन्ति ॥ ३८॥

यदिदं योगानुशासनं न वा एतदवरुन्धते
यन्न्यस्तदण्डा मुनय उपशमशीला
उपरतात्मानः समवगच्छन्ति ॥ ३९॥

यदपि दिगिभजयिनो यज्विनो ये वै राजर्षयः
किं तु परं मृधे शयीरन्नस्यामेव ममेयमिति
कृतवैरानुबन्धायां विसृज्य स्वयमुपसंहृताः ॥ ४०॥

कर्मवल्लीमवलम्ब्य तत आपदः कथञ्चि-
न्नरकाद्विमुक्तः पुनरप्येवं संसाराध्वनि वर्तमानो
नरलोकसार्थमुपयाति एवमुपरिगतोऽपि ॥ ४१॥

तस्येदमुपगायन्ति -
आर्षभस्येह राजर्षेर्मनसापि महात्मनः ।
नानुवर्त्मार्हति नृपो मक्षिकेव गरुत्मतः ॥ ४२॥

यो दुस्त्यजान् दारसुतान् सुहृद्राज्यं हृदिस्पृशः ।
जहौ युवैव मलवदुत्तमश्लोकलालसः ॥ ४३॥

यो दुस्त्यजान् क्षितिसुतस्वजनार्थदारान्
प्रार्थ्यां श्रियं सुरवरैः सदयावलोकाम् ।
नैच्छन्नृपस्तदुचितं महतां मधुद्विट्
सेवानुरक्तमनसामभवोऽपि फल्गुः ॥ ४४॥

यज्ञाय धर्मपतये विधिनैपुणाय
योगाय साङ्ख्यशिरसे प्रकृतीश्वराय ।
नारायणाय हरये नम इत्युदारं
हास्यन् मृगत्वमपि यः समुदाजहार ॥ ४५॥

य इदं भागवतसभाजितावदातगुणकर्मणो
राजर्षेर्भरतस्यानुचरितं स्वस्त्ययनमायुष्यं
धन्यं यशस्यं स्वर्ग्यापवर्ग्यं वानुश‍ृणो-
त्याख्यास्यत्यभिनन्दति च सर्वा एवाशिष
आत्मन आशास्ते न काञ्चन परत इति ॥ ४६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भरतोपाख्याने पारोक्ष्यविवरणं नाम
चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥


पंचम स्कन्ध-चौदहवाँ अध्याय 
भवाटवी का स्पष्टीकरण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! देहाभिमानी जीवों के द्वारा सत्त्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र—तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होनेवाला जो संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के छ: द्वार हैं—मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनसे विवश होकर यह जीवसमूह मार्ग भूलकर भयङ्कर वन में भटकते हुए धन के लोभी बनिजारों के समान परमसमर्थ भगवान विष्णु के आश्रित रहनेवाली माया की प्रेरणा से बीहड़ वन के समान दुर्गम मार्ग में पडक़र संसार-वन में जा पहुँचता है। यह वन श्मशान के समान अत्यन्त अशुभ है। इसमें भटकते हुए उसे अपने शरीर से किये हुए कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यहाँ अनेकों विघ्रों के कारण उसे अपने व्यापार में सफलता भी नहीं मिलती; तो भी यह उसके श्रम को शान्त करनेवाले श्रीहरि एवं गुरुदेव के चरणारविन्द-मकरन्द-मधु के रसिक भक्त-भ्रमरों के मार्ग का अनुसरण नहीं करता। इस संसार-वन में मनसहित छ: इन्द्रियाँ ही अपने कर्मों की दृष्टि से डाकुओं के समान हैं ॥ १ ॥ पुरुष बहुत-सा कष्ट उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्म में होना चाहिये; वही धर्म यदि साक्षात भगवान परमपुरुष की आराधना के रूप में होता है तो उसे परलोक में नि:श्रेयस का हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्य का बुद्धिरूप सारथि विवेकहीन होता है और मन वश में नहीं होता, उसके उस धर्मोपयोगी धन को ये मनसहित छ: इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूँघना, संकल्प-विकल्प करना और निश्चय करना—इन वृत्तियों के द्वारा गृहस्थोचित विषयभोगों में फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती हैं, जिस प्रकार बेईमान मुखिया का अनुगमन करनेवाले एवं असावधान बनिजारों के दल का धन चोर-डाकू लूट ले जाते हैं ॥ २ ॥ ये ही नहीं, उस संसार-वन में रहनेवाले उसके कुटुम्बी भी—जो नाम से तो स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात भेडिय़ों और गीदड़ों के समान होते हैं—उस अर्थलोलुप कुटुम्बी के धन को उसकी इच्छा न रहने पर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेडिय़े गड़रियों से सुरक्षित भेड़ों को उठा ले जाते हैं ॥ ३ ॥ जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्रि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़- झंखाड़, लता और तृण आदि से गहन हो जाता है—उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है ॥ ४ ॥

उस गृहस्थाश्रम में आसक्त हुए व्यक्ति के धनरूप बाहरी प्राणों को डाँस और मच्छरों के समान नीच पुरुषों से तथा टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे आदि से क्षति पहुँचती रहती है। कभी इस मार्ग में भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और कर्मों से कलुषित हुए अपने चित्त से दृष्टिदोष के कारण इस मत्र्यलोक को, जो गन्धर्वनगर के समान असत् है, सत्य समझ ने लगता है ॥ ५ ॥ फिर खान-पान और स्त्री-प्रसङ्गादि व्यसनों में फँसकर मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौडऩे लगता है ॥ ६ ॥ कभी बुद्धि के रजोगुण से प्रभावित होने पर सारे अनर्थों की जड़ अग्रि के मलरूप सो ने को ही सुख का साधन समझकर उसे पाने के लिये लालायित हो इस प्रकार दौड़-धूप करने लगता है, जैसे वन में जाड़े से ठिठुरता हुआ पुरुष अग्रि के लिये व्याकुल होकर उल्मुक पिशाच की (अगिया- बेतालकी) ओर उसे आग समझकर दौड़े ॥ ७ ॥ कभी इस शरीर को जीवित रखनेवाले घर, अन्न-जल और धन आदि में अभिनिवेश करके इस संसारारण्य में इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है ॥ ८ ॥ कभी बवंडर के समान आँखों में धूल झोंक देनेवाली स्त्री गोद में बैठा लेती है, तो तत्काल रागान्ध-सा होकर सत्पुरुषों की मर्यादा का भी विचार नहीं करता। उस समय नेत्रों में रजोगुण की धूल भर जाने से बुद्धि ऐसी मलिन हो जाती है कि अपने कर्मों के साक्षी दिशाओं के देवताओं को भी भुला देता है ॥ ९ ॥ कभी अपने-आप ही एकाध बार विषयों का मिथ्यात्व जान लेने पर भी अनादिकाल से देहमें आत्मबुद्धि रहने से विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण उन मरुमरीचिकातुल्य विषयों की ओर ही फिर दौडऩे लगता है ॥ १० ॥ कभी प्रत्यक्ष शब्द करनेवाले उल्लू के समान शत्रुओं की और परोक्षरूप से बोलनेवाले झींगुरों के समान राजा की अति कठोर एवं दिल को दहला देनेवाली डरावनी डाँट-डपट से इसके कान और मन को बड़ी व्यथा होती है ॥ ११ ॥

पूर्वपुण्य क्षीण हो जाने पर यह जीवित ही मुर्दे के समान हो जाता है; और जो कारस्कर एवं काकतुण्ड आदि जहरीले फलोंवाले पापवृक्षों, इसी प्रकार की दूषित लताओं और विषैले कुओं के समान हैं तथा जिनका धन इस लोक और परलोक दोनों के ही काम में नहीं आता और जो जीते हुए भी मुर्दे के समान हैं—उन कृपण पुरुषों का आश्रय लेता है ॥ १२ ॥ कभी असत् पुरुषों के सङ्ग से बुद्धि बिगड़ जाने के कारण सूखी नदी में गिरकर दुखी होने के समान इस लोक और परलोक में दु:ख देनेवाले पाखण्ड में फँस जाता है ॥ १३ ॥ जब दूसरों को सता ने से उसे अन्न भी नहीं मिलता, तब वह अपने सगे पिता-पुत्रों को अथवा पिता या पुत्र आदि का एक तिन का भी जिनके पास देखता है, उन को फाड़ खा ने के लिये तैयार हो जाता है ॥ १४ ॥ कभी दावानल के समान प्रिय विषयों से शून्य एवं परिणाम में दु:खमय घर में पहुँचता है, तो वहाँ इष्टजनों के वियोगादि से उसके शोक की आग भडक़ उठती है; उससे सन्तप्त होकर वह बहुत ही खिन्न होने लगता है ॥ १५ ॥ कभी काल के समान भयङ्कर राजकुलरूप राक्षस इसके परम प्रिय धन-रूप प्राणों को हर लेता है, तो यह मरे हुए के समान निर्जीव हो जाता है ॥ १६ ॥ कभी मनोरथ के पदार्थों के समान अत्यन्त असत् पिता-पितामह आदि सम्बन्धों को सत्य समझकर उनके सहवास से स्वप्न के समान क्षणिक सुख का अनुभव करता है ॥ १७ ॥ गृहस्थाश्रम के लिये जिस कर्मविधि का महान विस्तार किया गया है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वत की कड़ी चढ़ाई के समान ही है। लोगों को उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखादेखी जब यह भी उसे पूरा करने का प्रयत्न करता है, तब तरह-तरह की कठिनाइयों से क्लेशित होकर काँटे और कंकड़ों से भरी भूमि में पहुँचे हुए व्यक्ति के समान दुखी हो जाता है ॥ १८ ॥ कभी पेट की असह्य ज्वाला से अधीर होकर अपने कुटुम्ब पर ही बिगडऩे लगता है ॥ १९ ॥ फिर जब निद्रारूप अजगर के चंगुल में फँस जाता है, तब अज्ञानरूप घोर अन्धकार में डूबकर सू ने वन में फें के हुए मुर्दे के समान सोया पड़ा रहता है। उस समय इसे किसी बात की सुधि नहीं रहती ॥ २० ॥

कभी दुर्जनरूप काटनेवाले जीव इतना काटते—तिरस्कार करते हैं कि इसके गर्वरूप दाँत, जिन से यह दूसरों को काटता था, टूट जाते हैं। तब इसे अशान्ति के कारण नींद भी नहीं आती तथा मर्मवेदना के कारण क्षण-क्षण में विवेक-शक्ति क्षीण होते रहने से अन्त में अंधे की भाँति यह नरकरूप अँधे कुएँ में जा गिरता है ॥ २१ ॥ कभी विषयसुखरूप मधुकणों को ढू़ँढते-ढू़ँढते जब यह लुक- छिपकर परस्त्री या परधन को उड़ाना चाहता है, तब उनके स्वामी या राजा के हाथ से मारा जाकर ऐसे नरक में जा गिरता है जिसका ओर-छोर नहीं है ॥ २२ ॥ इसीसे ऐसा कहते हैं कि प्रवृत्तिमार्ग में रहकर किये हुए लौकिक और वैदिक दोनों ही प्रकार के कर्म जीव को संसार की ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ २३ ॥ यदि किसी प्रकार राजा आदि के बन्धन से छूट भी गया, तो अन्याय से अपहरण किये हुए उन स्त्री और धन को देवदत्त नाम का कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे विष्णुमित्र नाम का कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुष से दूसरे पुरुष के पास जाते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं ठहरते ॥ २४ ॥ कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दु:ख की स्थितियों के निवारण करने में समर्थ न होने से यह अपार चिन्ताओं के कारण उदास हो जाता है ॥ २५ ॥ कभी परस्पर लेन-देन का व्यवहार करते समय किसी दूसरे का थोड़ा-सा—दमड़ीभर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस बेईमानी के कारण उससे वैर ठन जाता है ॥ २६ ॥



राजन् ! इस मार्ग में पूर्वोक्त विघ्रों के अतिरिक्त सुख-दु:ख, राग-द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद, उन्माद, शोक, मोह, लोभ, मात्सर्य, ईष्र्या, अपमान, क्षुधा-पिपासा, आधि-व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्र हैं ॥ २७ ॥ (इस विघ्रबहुल मार्ग में इस प्रकार भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमायारूपिणी स्त्री के बाहुपाश में पडक़र विवेकहीन हो जाता है। तब उसी के लिये विहारभवन आदि बनवा ने की चिन्ता में ग्रस्त रहता है तथा उसी के आश्रित रहनेवाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियों के मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओं में आसक्त होकर, उन्हीं में चित्त फँस जाने से वह इन्द्रियों का दास अपार अन्धकारमय नरकों में गिरता है ॥ २८ ॥

कालचक्र साक्षात भगवान विष्णु का आयुध है। वह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त क्षण-घटी आदि अवयवों से युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलनेवाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थाएँ ही उसका वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मा से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतों का निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गति में बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात भगवान यज्ञपुरुष की आराधना छोडक़र यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियों के चक्कर में पडक़र उनके कंक, गिद्ध, बगुला और बटेर के समान आर्यशास्त्र-बहिष्कृत देवताओं का आश्रय लेता है—जिनका केवल वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमों ने ही उल्लेख किया है ॥ २९ ॥ ये पाखण्डी तो स्वयं ही धोखे में हैं; जब यह भी उनकी ठगाई में आकर दुखी होता है, तब ब्राह्मणों की शरण लेता है। किन्तु उपनयन-संस्कार के अनन्तर श्रौत-स्मार्तकर्मों से भगवान यज्ञपुरुष की आराधना करना आदि जो उनका शास्त्रोक्त आचार है, वह इसे अच्छा नहीं लगता; इसलिये वेदोक्त आचार के अनुकूल अपने में शुद्धि न होने के कारण यह कर्म-शून्य शूद्रकुल में प्रवेश करता है, जिसका स्वभाव वानरों के समान केवल कुटुम्बपोषण और स्त्रीसेवन करना ही है ॥ ३० ॥ वहाँ बिना रोक-टोक स्वच्छन्द विहार करने से इस की बुद्धि अत्यन्त दीन हो जाती है और एक-दूसरे का मुख देखना आदि विषय-भोगों में फँसकर इसे अपने मृत्युकाल का भी स्मरण नहीं होता ॥ ३१ ॥ वृक्षों के समान जिनका लौकिक सुख ही फल है—उन घरों में ही सुख मानकर वानरों की भाँति स्त्री-पुत्रादि में आसक्त होकर यह अपना सारा समय मैथुनादि विषय-भोगों में ही बिता देता है ॥ ३२ ॥

इस प्रकार प्रवृत्तिमार्ग में पडक़र सुख-दु:ख भोगता हुआ यह जीव रोगरूपी गिरि-गुहा में फँसकर उसमें रहनेवाले मृत्युरूप हाथी से डरता रहता है ॥ ३३ ॥ कभी-कभी शीत, वायु आदि अनेक प्रकार के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दु:खों की निवृत्ति करने में जब असफल हो जाता है, तब उस समय अपार विषयों की चिन्ता से यह खिन्न हो उठता है ॥ ३४ ॥ कभी आपस में क्रय-विक्रय आदि व्यापार करने पर बहुत कंजूसी करने से इसे थोड़ा-सा धन हाथ लग जाता है ॥ ३५ ॥ कभी धन नष्ट हो जाने से जब इसके पास सोने, बैठ ने और खा ने आदि की भी कोई सामग्री नहीं रहती, तब अपने अभीष्ट भोग न मिल ने से यह उन्हें चोरी आदि बुरे उपायों से पाने का निश्चय करता है। इससे इसे जहाँ-तहाँ दूसरों के हाथ से बहुत अपमानित होना पड़ता है ॥ ३६ ॥ इस प्रकार धन की आसक्ति से परस्पर वैरभाव बढ़ जाने पर भी यह अपनी पूर्ववासनाओं से विवश होकर आपस में विवाहादि सम्बन्ध करता और छोड़ता रहता है ॥ ३७ ॥ इस संसारमार्ग में चलनेवाला यह जीव अनेक प्रकार के क्लेश और विघ्र-बाधाओं से बाधित होने पर भी मार्ग में जिस पर जहाँ आपत्ति आती है, अथवा जो कोई मर जाता है; उसे जहाँ-का-तहाँ छोड़ देता है; तथा नये जन्मे हुओं को साथ लगाता है, कभी किसी के लिये शोक करता है, किसी का दु:ख देखकर मूर्च्छित हो जाता है, किसी के वियोग होने की आशङ्का से भयभीत हो उठता है, किसी से झगडऩे लगता है, कोई आपत्ति आती है तो रोने-चिल्ला ने लगता है, कहीं कोई मन के अनुकूल बात हो गयी तो प्रसन्नता के मारे फूला नहीं समाता, कभी गा ने लगता है और कभी उन्हींके लिये बँध ने में भी नहीं हिचकता। साधुजन इसके पास कभी नहीं आते, यह साधुसङ्ग से सदा वञ्चित रहता है। इस प्रकार यह निरन्तर आगे ही बढ़ रहा है। जहाँ से इस की यात्रा आरम्भ हुई है और जिसे इस मार्ग की अन्तिम अवधि कहते हैं, उसपर मात्मा के पास यह अभी तक नहीं लौटा है ॥ ३८ ॥ परमात्मा तक तो योगशास्त्र की भी गति नहीं है; जिन्हों ने सब प्रकार के दण्ड (शासन) का त्याग कर दिया है, वे निवृत्तिपरायण संयतात्मा मुनिजन ही उसे प्राप्त कर पाते हैं ॥ ३९ ॥ जो दिग्गजों को जीतनेवाले और बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले राजर्षि हैं उनकी भी वहाँ तक गति नहीं है। वे संग्रामभूमि में शत्रुओं का सामना करके केवल प्राणपरित्याग ही करते हैं तथा जिसमें ‘यह मेरी है’ ऐसा अभिमान करके वैर ठाना था—उस पृथ्वी में ही अपना शरीर छोडक़र स्वयं परलोक को चले जाते हैं। इस संसार से वे भी पार नहीं होते ॥ ४० ॥ अपने पुण्यकर्मरूप लता का आश्रय लेकर यदि किसी प्रकार यह जीव इन आपत्तियों से अथवा नरक से छुटकारा पा भी जाता है, तो फिर इसी प्रकार संसारमार्ग में भटकता हुआ इस जनसमुदाय में मिल जाता है। यही दशा स्वर्गादि ऊध्र्वलोकों में जानेवालों की भी है ॥ ४१ ॥

राजन् ! राजर्षि भरत के विषय में पण्डितजन ऐसा कहते हैं—‘जैसे गरुडजी की होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी प्रकार राजर्षि महात्मा भरत के मार्ग का कोई अन्य राजा मन से भी अनुसरण नहीं कर सकता ॥ ४२ ॥ उन्होंने पुण्यकीर्ति श्रीहरि में अनुरक्त होकर अति मनोरम स्त्री, पुत्र, मित्र और राज्यादि को युवावस्था में ही विष्ठा के समान त्याग दिया था; दूसरों के लिये तो इन्हें त्यागना बहुत ही कठिन है ॥ ४३ ॥ उन्होंने अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन, सम्पत्ति और स्त्री की तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं किन्तु जो स्वयं उनकी दयादृष्टि के लिये उन पर दृष्टिपात करती रहती थी—उस लक्ष्मी की भी, लेशमात्र इच्छा नहीं की। यह सब उनके लिये उचित ही था; क्योंकि जिन महानुभावों का चित्त भगवान मधुसूदन की सेवा में अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टि में मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है ॥ ४४ ॥ उन्होंने मृगशरीर छोडऩे की इच्छा होने पर उच्चस्वर से कहा था कि धर्म की रक्षा करनेवाले, धर्मानुष्ठान में निपुण, योगगम्य, सांख्य के प्रतिपाद्य, प्रकृति के अधीश्वर, यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी श्रीहरि को नमस्कार है।’ ॥ ४५ ॥

राजन् ! राजर्षि भरत के पवित्र गुण और कर्मों की भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह चरित्र बड़ा कल्याणकारी, आयु और धन की वृद्धि करनेवाला, लोक में सुयश बढ़ानेवाला और अन्त में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति करानेवाला है। जो पुरुष इसे सुनता या सुनाता है और इसका अभिनन्दन करता है, उसकी सारी कामनाएँ स्वयं ही पूर्ण हो जाती हैं; दूसरों से उसे कुछ भी नहीं माँगना पड़ता ॥ ४६ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-15]

॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
भरतस्यात्मजः सुमतिर्नामाभिहितो
यमु ह वाव केचित्पाखण्डिन ऋषभ-
पदवीमनुवर्तमानं चानार्या अवेद-
समाम्नातां देवतां स्वमनीषया पापीयस्या
कलौ कल्पयिष्यन्ति ॥ १॥

तस्माद्वृद्धसेनायां देवताजिन्नाम पुत्रोऽभवत् ॥ २॥

अथासुर्यां तत्तनयो देवद्युम्नस्ततो धेनुमत्यां
सुतः परमेष्ठी तस्य सुवर्चलायां प्रतीह
उपजातः ॥ ३॥

य आत्मविद्यामाख्याय स्वयं संशुद्धो
महापुरुषमनुसस्मार ॥ ४॥

प्रतीहात्सुवर्चलायां प्रतिहर्त्रादयस्त्रय
आसन्निज्याकोविदाः सूनवः प्रतिहर्तुः
स्तुत्यामजभूमानावजनिषाताम् ॥ ५॥

भूम्न ऋषिकुल्यायामुद्गीथस्ततः प्रस्तावो
देवकुल्यायां प्रस्तावान्नियुत्सायां हृदयज
आसीद्विभुर्विभो रत्यां च पृथुषेणस्तस्मा-
न्नक्त आकूत्यां जज्ञे नक्ताद्द्रुतिपुत्रो गयो
राजर्षिप्रवर उदारश्रवा अजायत । साक्षा-
द्भगवतो विष्णोर्जगद्रिरक्षिषया गृहीत-
सत्त्वस्य कलात्मवत्त्वादि लक्षणेन
महापुरुषतां प्राप्तः ॥ ६॥

स वै स्वधर्मेण प्रजापालनपोषणप्रीणनो-
पलालनानुशासनलक्षणेनेज्यादिना च
भगवति महापुरुषे परावरे ब्रह्मणि
सर्वात्मनार्पितपरमार्थलक्षणेन ब्रह्मवि-च्चरणानुसेवयापादितभगवद्भक्तियोगेन
चाभीक्ष्णशः परिभावितातिशुद्धमति-
रुपरतानात्म्य आत्मनि स्वयमुपलभ्य-
मानब्रह्मात्मानुभवोऽपि निरभिमान
एवावनिमजूगुपत् ॥ ७॥

तस्येमां गाथां पाण्डवेय पुराविद उपगायन्ति ॥ ८॥

गयं नृपः कः प्रतियाति कर्मभि-
र्यज्वाभिमानी बहुविद्धर्मगोप्ता ।
समागतश्रीः सदसस्पतिः सतां
सत्सेवकोऽन्यो भगवत्कलामृते ॥ ९॥

यमभ्यषिञ्चन् परया मुदा सतीः
सत्याशिषो दक्षकन्याः सरिद्भिः ।
यस्य प्रजानां दुदुहे धराशिषो
निराशिषो गुणवत्सस्नुतोधाः ॥ १०॥

छन्दांस्यकामस्य च यस्य कामान्
दुदूहुराजह्रुरथो बलिं नृपाः ।
प्रत्यञ्चिता युधि धर्मेण विप्रा
यदाशिषां षष्ठमंशं परेत्य ॥ ११॥

यस्याध्वरे भगवानध्वरात्मा
मघोनि माद्यत्युरुसोमपीथे ।
श्रद्धा विशुद्धाचलभक्तियोग-
समर्पितेज्याफलमाजहार ॥ १२॥

यत्प्रीणनाद्बर्हिषि देवतिर्यङ्-
मनुष्यवीरुत्तृणमाविरिञ्चात् ।
प्रीयेत सद्यः स ह विश्वजीवः
प्रीतः स्वयं प्रीतिमगाद्गयस्य ॥ १३॥

गयाद्गयन्त्यां चित्ररथः सुगतिरवरोधन
इति त्रयः पुत्रा बभूवुश्चित्ररथादूर्णायां
सम्राडजनिष्ट ॥ १४॥

तत उत्कलायां मरीचिर्मरीचेर्बिन्दुमत्यां
बिन्दुमानुदपद्यत तस्मात्सरघायां
मधुर्नामाभवन्मधोः सुमनसि वीरव्रत-
स्ततो भोजायां मन्थुप्रमन्थू जज्ञाते मन्थोः
सत्यायां भौवनस्ततो दूषणायां त्वष्टाजनिष्ट
त्वष्टुर्विरोचनायां विरजो विरजस्य शतजि-
त्प्रवरं पुत्रशतं कन्या च विषूच्यां किल
जातम् ॥ १५॥

तत्रायं श्लोकः
प्रैयव्रतं वंशमिमं विरजश्चरमोद्भवः ।
अकरोदत्यलं कीर्त्या विष्णुः सुरगणं यथा ॥ १६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे प्रियव्रतवंशानुकीर्तनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥


पंचम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय 
भरत के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! भरतजी का पुत्र सुमति था, यह पहले कहा जा चु का है। उसने ऋषभदेवजी के मार्ग का अनुसरण किया। इसीलिये कलियुग में बहुत- से पाखण्डी अनार्य पुरुष अपनी दुष्ट बुद्धि से वेदविरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे ॥ १ ॥ उसकी पत्नी वृद्धसेना से देवताजित् नामक पुत्र हुआ ॥ २ ॥ देवताजित् के असुरी के गर्भ से देवद्युम्र, देवद्युम्र के धेनुमती से परमेष्ठी और उसके सुवर्चला के गर्भ से प्रतीह नाम का पुत्र हुआ ॥ ३ ॥ इस ने अन्य पुरुषों को आत्मविद्या का उपदेशकर स्वयं शुद्धचित्त होकर परमपुरुष श्रीनारायण का साक्षात अनुभव किया था ॥ ४ ॥ प्रतीह की भार्या सुवर्चला के गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता और उद्गाता नाम के तीन पुत्र हुए। ये यज्ञादि कर्मों में बहुत निपुण थे। इनमें प्रतिहर्ता की भार्या स्तुति थी। उसके गर्भ से अज और भूमा नाम के दो पुत्र हुए ॥ ५ ॥ भूमा के ऋषिकुल्या से उद्गीथ, उसके देवकुल्या से प्रस्ताव और प्रस्ताव के नियुत्सा के गर्भ से विभु नाम का पुत्र हुआ। विभु के रति के उदर से पृथुषेण, पृथुषेण के आकूति से नक्त और नक्त के द्रुति के गर्भ से उदारकीर्ति राजर्षिप्रवर गय का जन्म हुआ। ये जगत की रक्षा के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार करनेवाले साक्षात भगवान विष्णु के अंश माने जाते थे। संयमादि अनेकों गुणों के कारण इन की महापुरुषों में गणना की जाती है ॥ ६ ॥ महाराज गय ने प्रजा के पालन, पोषण, रञ्जन, लाड़-चाव और शासनादि करके तथा तरह-तरह के यज्ञों का अनुष्ठान करके निष्कामभाव से केवल भगवत्प्रीति के लिये अपने धर्मों का आचरण किया। इससे उनके सभी कर्म सर्वश्रेष्ठ परमपुरुष परमात्मा श्रीहरि के अर्पित होकर परमार्थरूप बन गये थे। इससे तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के चरणों की सेवा से उन्हें भक्तियोग की प्राप्ति हुई। तब निरन्तर भगवच्चिन्तन करके उन्होंने अपना चित्त शुद्ध किया और देहादि अनात्म-वस्तुओं से अहंभाव हटाकर वे अपने आत्मा को ब्रह्मरूप अनुभव करने लगे। यह सब होने पर भी वे निरभिमान होकर पृथ्वी का पालन करते रहे ॥ ७ ॥

परीक्षित ! प्राचीन इतिहास को जाननेवाले महात्माओं ने राजर्षि गय के विषय में यह गाथा कही है ॥ ८ ॥ ‘अहो ! अपने कर्मों से महाराज गय की बराबरी और कौन राजा कर सकता है ? वे साक्षात भगवान की कला ही थे। उन्हें छोडक़र और कौन इस प्रकार यज्ञों का विधिवत् अनुष्ठान करनेवाला, मनस्वी, बहुज्ञ, धर्म की रक्षा करनेवाला, लक्ष्मी का प्रियपात्र, साधुसमाज का शिरोमणि और सत्पुरुषों का सच्चा सेवक हो सकता है ?’ ॥ ९ ॥ सत्यसंकल्पवाली परम साध्वी श्रद्धा, मैत्री और दया आदि दक्षकन्याओं ने गङ्गा आदि नदियों के सहित बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिषेक किया था तथा उनकी इच्छा न होने पर भी वसुन्धराने, गौ जिस प्रकार बछड़े के स्नेह से पिन्हाकर दूध देती है, उसी प्रकार उनके गुणों पर रीझकर प्रजा को धन-रत्नादि सभी अभीष्ट पदार्थ दिये थे ॥ १० ॥ उन्हें कोई कामना न थी, तब भी वेदोक्त कर्मों ने उन को सब प्रकार के भोग दिये, राजाओं ने युद्धस्थल में उनके बाणों से सत्कृत होकर नाना प्रकार की भेंटें दीं तथा ब्राह्मणों ने दक्षिणादि धर्म से सन्तुष्ट होकर उन्हें परलोक में मिलनेवाले अपने धर्मफल का छठा अंश दिया ॥ ११ ॥ उनके यज्ञ में बहुत अधिक सोमपान करने से इन्द्र उन्मत्त हो गये थे, तथा उनके अत्यन्त श्रद्धा तथा विशुद्ध और निश्चल भक्तिभाव से समर्पित किये हुए यज्ञफल को भगवान यज्ञपुरुष ने साक्षात प्रकट होकर ग्रहण किया था ॥ १२ ॥ जिनके तृप्त होने से ब्रह्माजी से लेकर देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष एवं तृणपर्यन्त सभी जीव तत्काल तृप्त हो जाते हैं—वे विश्वात्मा श्रीहरि नित्यतृप्त होकर भी राजर्षि गय के यज्ञ में तृप्त हो गये थे। इसलिये उनकी बराबरी कोई दूसरा व्यक्ति कैसे कर सकता है ? ॥ १३ ॥

महाराज गय के गयन्ती के गर्भ से चित्ररथ, सुगति और अवरोधन नामक तीन पुत्र हुए। उनमें चित्ररथ की पत्नी ऊर्णा से सम्राट् का जन्म हुआ ॥ १४ ॥ सम्राट् के उत्कला से मरीचि और मरीचि के बिन्दुमती से बिन्दुमान् नामक पुत्र हुआ। उसके सरघा से मधु, मधु के सुमना से वीरव्रत और वीरव्रत के भोजा से मन्थु और प्रमन्थु नाम के दो पुत्र हुए। उनमें से मन्थु के सत्या के गर्भ से भौवन, भौवन के दूषणा के उदर से त्वष्टा, त्वष्टा के विरोचना से विरज और विरज के विषूची नाम की भार्या से शतजित् आदि सौ पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ ॥ १५ ॥ विरज के विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध है—‘जिस प्रकार भगवान विष्णु देवताओं की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार इस प्रियव्रत-वंश को इसमें सब से पीछे उत्पन्न हुए राजा विरज ने अपने सुयश से विभूषित किया था ॥ १६ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-16]

॥ षोडशोऽध्यायः ॥
राजोवाच
उक्तस्त्वया भूमण्डलायामविशेषो याव-
दादित्यस्तपति यत्र चासौ ज्योतिषां
गणैश्चन्द्रमा वा सह दृश्यते ॥ १॥

तत्रापि प्रियव्रतरथचरणपरिखातैः सप्तभिः
सप्तसिन्धव उपकॢप्ता यत एतस्याः सप्तद्वीप-
विशेषविकल्पस्त्वया भगवन् खलु सूचित
एतदेवाखिलमहं मानतो लक्षणतश्च सर्वं
विजिज्ञासामि ॥ २॥

भगवतो गुणमये स्थूलरूप आवेशितं मनो
ह्यगुणेऽपि सूक्ष्मतम आत्मज्योतिषि परे
ब्रह्मणि भगवति वासुदेवाख्ये क्षममावेशितुं
तदु हैतद्गुरोऽर्हस्यनुवर्णयितुमिति ॥ ३॥

ऋषिरुवाच
न वै महाराज भगवतो मायागुणविभूतेः
काष्ठां मनसा वचसा वाधिगन्तुमलं
विबुधायुषापि पुरुषस्तस्मात्प्राधान्येनैव
भूगोलकविशेषं नामरूपमानलक्षणतो
व्याख्यास्यामः ॥ ४॥

यो वायं द्वीपः कुवलयकमलकोशाभ्यन्तर-
कोशो नियुतयोजनविशालः समवर्तुलो
यथा पुष्करपत्रम् ॥ ५॥

यस्मिन् नव वर्षाणि नवयोजनसहस्रायामा-
न्यष्टभिर्मर्यादागिरिभिः सुविभक्तानि भवन्ति ॥ ६॥

एषां मध्ये इलावृतं नामाभ्यन्तरवर्षं यस्य
नाभ्यामवस्थितः सर्वतः सौवर्णः कुल-
गिरिराजो मेरुर्द्वीपायामसमुन्नाहः
कर्णिकाभूतः कुवलयकमलस्य मूर्धनि
द्वात्रिंशत्सहस्रयोजनविततो मूले षोडश-
सहस्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्टः ॥ ७॥

उत्तरोत्तरेणेलावृतं नीलः श्वेतः श‍ृङ्गवानिति
त्रयो रम्यकहिरण्मयकुरूणां वर्षाणां मर्यादा-
गिरयः प्रागायता उभयतः क्षारोदावधयो
द्विसहस्रपृथव एकैकशः पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर
उत्तरो दशांशाधिकांशेन दैर्घ्य एव ह्रसन्ति ॥ ८॥

एवं दक्षिणेनेलावृतं निषधो हेमकूटो
हिमालय इति प्रागायता यथा नीलादयो-
ऽयुतयोजनोत्सेधा हरिवर्षकिम्पुरुष-
भारतानां यथासङ्ख्यम् ॥ ९॥

तथैवेलावृतमपरेण पूर्वेण च माल्यव-
द्गन्धमादनावानीलनिषधायतौ द्विसहस्रं
पप्रथतुः केतुमालभद्राश्वयोः सीमानं विदधाते ॥ १०॥

मन्दरो मेरुमन्दरः सुपार्श्वः कुमुद
इत्ययुतयोजनविस्तारोन्नाहा मेरोः
चतुर्दिशमवष्टम्भगिरय उपकॢप्ताः ॥ ११॥

चतुर्ष्वेतेषु चूतजम्बूकदम्बन्यग्रोधा-
श्चत्वारः पादपप्रवराः पर्वतकेतव
इवाधिसहस्रयोजनोन्नाहास्तावद्विटप-
विततयः शतयोजनपरिणाहाः ॥ १२॥

ह्रदाश्चत्वारः पयोमध्विक्षुरसमृष्टजला
यदुपस्पर्शिन उपदेवगणा योगैश्वर्याणि
स्वाभाविकानि भरतर्षभ धारयन्ति ॥ १३॥

देवोद्यानानि च भवन्ति चत्वारि नन्दनं
चैत्ररथं वैभ्राजकं सर्वतोभद्रमिति ॥ १४॥

येष्वमरपरिवृढाः सह सुरललनाललाम-
यूथपतय उपदेवगणैरुपगीयमानमहिमानः
किल विहरन्ति ॥ १५॥

मन्दरोत्सङ्ग एकादशशतयोजनोत्तुङ्गदेव-
चूतशिरसो गिरिशिखरस्थूलानि फला-
न्यमृतकल्पानि पतन्ति ॥ १६॥

तेषां विशीर्यमाणानामतिमधुरसुरभि-
सुगन्धिबहुलारुणरसोदेनारुणोदा नाम नदी
मन्दरगिरिशिखरान्निपतन्ती पूर्वेणेलावृत-
मुपप्लावयति ॥ १७॥

यदुपजोषणाद्भवान्या अनुचरीणां पुण्यजन-
वधूनामवयवस्पर्शसुगन्धवातो दशयोजनं
समन्तादनुवासयति ॥ १८॥

एवं जम्बूफलानामत्युच्चनिपातविशीर्णाना-
मनस्थिप्रायाणामिभकायनिभानां रसेन
जम्बू नाम नदी मेरुमन्दरशिखरादयुत-
योजनादवनितले निपतन्ती दक्षिणेनात्मानं
यावदिलावृतमुपस्यन्दयति ॥ १९॥

तावदुभयोरपि रोधसोर्या मृत्तिका तद्रसेना-
नुविध्यमाना वाय्वर्कसंयोगविपाकेन
सदामरलोकाभरणं जाम्बूनदं नाम सुवर्णं
भवति ॥ २०॥

यदु ह वाव विबुधादयः सह युवतिभि-
र्मुकुटकटककटिसूत्राद्याभरणरूपेण
खलु धारयन्ति ॥ २१॥

यस्तु महाकदम्बः सुपार्श्वनिरूढो यास्तस्य
कोटरेभ्यो विनिःसृताः पञ्चायामपरिणाहाः
पञ्च मधुधाराः सुपार्श्वशिखरात्पतन्त्योऽपरेणा-
त्मानमिलावृतमनुमोदयन्ति ॥ २२॥

या ह्युपयुञ्जानानां मुखनिर्वासितो वायुः
समन्ताच्छतयोजनमनुवासयति ॥ २३॥

एवं कुमुदनिरूढो यः शतवल्शो नाम
वटस्तस्य स्कन्धेभ्यो नीचीनाः पयोदधि-
मधुघृतगुडान्नाद्यम्बरशय्यासनाभरणादयः
सर्व एव कामदुघा नदाः कुमुदाग्रात्पतन्त-स्तमुत्तरेणेलावृतमुपयोजयन्ति ॥ २४॥

यानुपजुषाणानां न कदाचिदपि प्रजानां
वलीपलितक्लमस्वेददौर्गन्ध्यजराऽऽमय-
मृत्युशीतोष्णवैवर्ण्योपसर्गादयस्तापविशेषा
भवन्ति यावज्जीवं सुखं निरतिशयमेव ॥ २५॥

कुरङ्गकुररकुसुम्भवैकङ्कत्रिकूटशिशिर-
पतङ्गरुचकनिषधशिनीवासकपिलशङ्ख-
वैदूर्यजारुधिहंसऋषभनागकालञ्जर-
नारदादयो विंशति गिरयो मेरोः
कर्णिकाया इव केसरभूता मूलदेशे
परित उपकॢप्ताः ॥ २६॥

जठरदेवकूटौ मेरुं पूर्वेणाष्टादशयोजन-
सहस्रमुदगायतौ द्विसहस्रं पृथुतुङ्गौ
भवतः एवमपरेण पवनपारियात्रौ
दक्षिणेन कैलासकरवीरौ प्रागायता-
वेवमुत्तरतस्त्रिश‍ृङ्गमकरावष्टभिरेतैः
परिसृतोऽग्निरिव परितश्चकास्ति
काञ्चनगिरिः ॥ २७॥

मेरोर्मूर्धनि भगवत आत्मयोनेर्मध्यत
उपकॢप्तां पुरीमयुतयोजनसाहस्रीं
समचतुरस्रां शातकौम्भीं वदन्ति ॥ २८॥

तामनुपरितो लोकपालानामष्टानां यथादिशं
यथारूपं तुरीयमानेन पुरोऽष्टावुपकॢप्ताः ॥ २९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भुवनकोशवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥


पंचम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय  
भुवन कोश का वर्णन
राजा परीक्षित ने कहा—मुनिवर ! जहाँ तक सूर्य का प्रकाश है और जहाँ तक तारागण के सहित चन्द्रदेव दीख पड़ते हैं, वहाँ तक आपने भूमण्डल का विस्तार बतलाया है ॥ १ ॥ उसमें भी आपने बतलाया कि महाराज प्रियव्रत के रथ के पहियों की सात लीकों से सात समुद्र बन गये थे, जिनके कारण इस भूमण्डल में सात द्वीपों का विभाग हुआ। अत: भगवन् ! अब मैं इन सब का परिमाण और लक्षणों के सहित पूरा विवरण जानना चाहता हूँ ॥ २ ॥ क्योंकि जो मन भगवान के इस गुणमय स्थूल विग्रहमें लग सकता है, उसी का उनके वासुदेवसंज्ञक स्वयंप्रकाश निर्गुण ब्रह्मरूप सूक्ष्मतम स्वरूप में भी लगना सम्भव है। अत: गुरुवर ! इस विषय का विशदरूप से वर्णन करने की कृपा कीजिये ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी बोले—महाराज ! भगवान की माया के गुणों का इतना विस्तार है कि यदि कोई पुरुष देवताओं के समान आयु पा ले, तो भी मन या वाणी से इसका अन्त नहीं पा सकता। इसलिये हम नाम, रूप, परिमाण और लक्षणों के द्वारा मुख्य-मुख्य बातों को लेकर ही इस भूमण्डल की विशेषताओं का वर्णन करेंगे ॥ ४ ॥ यह जम्बूद्वीप—जिसमें हम रहते हैं, भूमण्डलरूप कमल के कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सब से भीतर का कोश है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्र के समान गोलाकार है ॥ ५ ॥ इसमें नौ-नौ हजार योजन विस्तारवाले नौ वर्ष हैं, जो इन की सीमाओं का विभाग करनेवाले आठ पर्वतों से बँटे हुए हैं ॥ ६ ॥ इनके बीचों-बीच इलावृत नाम का दसवाँ वर्ष है, जिसके मध्य में कुलपर्वतों का राजा मेरुपर्वत है। वह मानो भूमण्डलरूप कमल की कॢण का ही है। वह ऊ पर से नीचे तक सारा-का-सारा सुवर्णमय है और एक लाख योजन ऊँचा है। उसका विस्तार शिखर पर बत्तीस हजार और तलैटी में सोलह हजार योजन है तथा सोलह हजार योजन ही वह भूमि के भीतर घुसा हुआ है अर्थात् भूमि के बाहर उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है ॥ ७ ॥ इलावृतवर्ष के उत्तर में क्रमश: नील, श्वेत और शृङ्गवान् नाम के तीन पर्वत हैं—जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु नाम के वर्षों की सीमा बाँधते हैं। वे पूर्व से पश्चिम तक खारे पानी के समुद्र तक फैले हुए हैं। उनमें से प्रत्येक की चौड़ाई दो हजार योजन है तथा लम्बाई में पहले की अपेक्षा पिछला क्रमश: दशमांश से कुछ अधिक कम है, चौड़ाई और ऊँचाई तो सभी की समान है ॥ ८ ॥

इसी प्रकार इलावृत के दक्षिण की ओर एक के बाद एक निषध, हेमकूट और हिमालय नाम के तीन पर्वत हैं। नीलादि पर्वतों के समान ये भी पूर्व-पश्चिम की ओर फैले हुए हैं और दस-दस हजार योजन ऊँचे हैं। इन से क्रमश: हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्ष की सीमाओं का विभाग होता है ॥ ९ ॥ इलावृत के पूर्व और पश्चिम की ओर उत्तर में नील पर्वत और दक्षिण में निषध पर्वत तक फैले हुए गन्धमादन और माल्यवान् नाम के दो पर्वत हैं। इन की चौड़ाई दो-दो हजार योजन है और ये भद्राश्व एवं केतुमाल नामक दो वर्षों की सीमा निश्चित करते हैं ॥ १० ॥ इनके सिवा मन्दर, मेरुमन्दर, सुपाश्र्व और कुमुद—ये चार दस-दस हजार योजन ऊँचे और उतने ही चौड़े पर्वत मेरु पर्वत की आधारभूता थूनियों के समान बने हुए हैं ॥ ११ ॥ इन चारों के ऊ पर इन की ध्वजाओं के समान क्रमश: आम, जामुन, कदम्ब और बडक़े चार पेड़ हैं। इनमें से प्रत्येक ग्यारह सौ योजन ऊँचा है और इतना ही इन की शाखाओं का विस्तार है। इन की मोटाई सौ-सौ योजन है ॥ १२ ॥ भरतश्रेष्ठ ! इन पर्वतों पर चार सरोवर भी हैं—जो क्रमश: दूध, मधु, ईख के रस और मीठे जल से भरे हुए हैं। इनका सेवन करनेवाले यक्ष-किन्नरादि उपदेवों को स्वभाव से ही योगसिद्धियाँ प्राप्त हैं ॥ १३ ॥ इन पर क्रमश: नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र नाम के चार दिव्य उपवन भी हैं ॥ १४ ॥ इनमें प्रधान-प्रधान देवगण अनेकों सुरसुन्दरियों के नायक बनकर साथ-साथ विहार करते हैं। उस समय गन्धर्वादि उपदेवगण इन की महिमा का बखान किया करते हैं ॥ १५ ॥

मन्दराचल की गोद में जो ग्यारह सौ योजन ऊँचा देवताओं का आम्रवृक्ष है, उससे गिरिशिखर के समान बड़े-बड़े और अमृत के समान स्वादिष्ट फल गिरते हैं ॥ १६ ॥ वे जब फटते हैं, तब उनसे बड़ा सुगन्धित और मीठा लाल-लाल रस बह ने लगता है। वही अरुणोदा नाम की नदी में परिणत हो जाता है। यह नदी मन्दराचल के शिखर से गिरकर अपने जल से इलावृत वर्ष के पूर्वी-भाग को सींचती है ॥ १७ ॥ श्रीपार्वतीजी की अनुचरी यक्षपत्नियाँ इस जल का सेवन करती हैं। इससे उनके अङ्गों से ऐसी सुगन्ध निकलती है कि उन्हें स्पर्श करके बहनेवाली वायु उनके चारों ओर दस-दस योजन तक सारे देश को सुगन्ध से भर देती है ॥ १८ ॥ इसी प्रकार जामुन के वृक्ष से हाथी के समान बड़े-बड़े प्राय: बिना गुठली के फल गिरते हैं। बहुत ऊँचे से गिर ने के कारण वे फट जाते हैं। उनके रस से जम्बू नाम की नदी प्रकट होती है, जो मेरुमन्दर पर्वत के दस हजार योजन ऊँचे शिखर से गिरकर इलावृत के दक्षिण भू-भाग को सींचती है ॥ १९ ॥ उस नदी के दोनों किनारों की मिट्टी उस रस से भीगकर जब वायु और सूर्य के संयोग से सूख जाती है, तब वही देवलोक को विभूषित करनेवाला जाम्बूनद नाम का सोना बन जाती है ॥ २० ॥ इसे देवता और गन्धर्वादि अपनी तरुणी स्त्रियों के सहित मुकुट, कङ्कण और करधनी आदि आभूषणों के रूप में धारण करते हैं ॥ २१ ॥

सुपाश्र्व पर्वत पर जो विशाल कदम्बवृक्ष है, उसके पाँच कोटरों से मधु की पाँच धाराएँ निकलती हैं; उनकी मोटाई पाँच पुर से जितनी है। ये सुपाश्र्व के शिखर से गिरकर इलावृतवर्ष के पश्चिमीभाग को अपनी सुगन्ध से सुवासित करती हैं ॥ २२ ॥ जो लोग इनका मधुपान करते हैं, उनके मुख से निकली हुई वायु अपने चारों ओर सौ-सौ योजन तक इस की महक फैला देती है ॥ २३ ॥

इसी प्रकार कुमुद पर्वत पर जो शतवल्श नाम का वटवृक्ष है, उसकी जटाओं से नीचे की ओर बहनेवाले अनेक नद निकलते हैं, वे सब इच्छानुसार भोग देनेवाले हैं। उनसे दूध, दही, मधु, घृत, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन और आभूषण आदि सभी पदार्थ मिल सकते हैं। ये सब कुमुद के शिखर से गिरकर इलावृत के उत्तरी भाग को सींचते हैं ॥ २४ ॥ इनके दिये हुए पदार्थों का उपभोग करने से वहाँ की प्रजा की त्वचा में झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, थकान होना, शरीर में पसीना आना तथा दुर्गन्ध निकलना, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, सर्दी-गरमी की पीड़ा, शरीर का कान्तिहीन हो जाना तथा अङ्गों का टूटना आदि कष्ट कभी नहीं सताते और उन्हें जीवनपर्यन्त पूरा-पूरा सुख प्राप्त होता है ॥ २५ ॥

राजन् ! कमल की कॢण का के चारों ओर जैसे केसर होता है—उसी प्रकार मेरु के मूलदेश में उसके चारों ओर कुरङ्ग, कुरर, कुसुम्भ, वैकङ्क, त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शङ्ख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद आदि बीस पर्वत और हैं ॥ २६ ॥ इनके सिवा मेरु के पूर्व की ओर जठर और देवकूट नाम के दो पर्वत हैं, जो अठारह-अठारह हजार योजन लंबे तथा दो-दो हजार योजन चौड़े और ऊँचे हैं। इसी प्रकार पश्चिम की ओर पवन और पारियात्र, दक्षिण की ओर कैलास और करवीर तथा उत्तर की ओर त्रिशृङ्ग और मकर नाम के पर्वत हैं। इन आठ पहाड़ों से चारों ओर घिरा हुआ सुवर्णगिरि मेरु अग्रि के समान जगमगाता रहता है ॥ २७ ॥ कहते हैं, मेरु के शिखर पर बीचोबीच भगवान ब्रह्माजी की सुवर्णमयी पुरी है—जो आकार में समचौरस तथा करोड़ योजन विस्तारवाली है ॥ २८ ॥ उसके नीचे पूर्वादि आठ दिशा और उपदिशाओं में उनके अधिपति इन्द्रादि आठ लोकपालों की आठ पुरियाँ हैं। वे अपने-अपने स्वामी के अनुरूप उन्हीं-उन्हीं दिशाओं में हैं तथा परिमाण में ब्रह्माजी की पुरी से चौथाई हैं ॥ २९ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-17]

॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
तत्र भगवतः साक्षाद्यज्ञलिङ्गस्य विष्णो-
र्विक्रमतो वामपादाङ्गुष्ठनखनिर्भिन्नो-
र्ध्वाण्डकटाहविवरेणान्तःप्रविष्टा या
बाह्यजलधारा तच्चरणपङ्कजावनेजना-
रुणकिञ्जल्कोपरञ्जिताखिलजगदघ-
मलापहोपस्पर्शनामला साक्षाद्भगव-
त्पदीत्यनुपलक्षितवचोऽभिधीय-
मानातिमहता कालेन युगसहस्रो-
पलक्षणेन दिवो मूर्धन्यवततार
यत्तद्विष्णुपदमाहुः ॥ १॥

यत्र ह वाव वीरव्रत औत्तानपादिः परम-
भागवतोऽस्मत्कुलदेवताचरणारविन्दो-
दकमिति यामनुसवन मुत्कृष्यमाणभगव-
द्भक्तियोगेन दृढं क्लिद्यमानान्तर्हृदय औत्कण्ठ्यविवशामीलितलोचनयुगल-
कुड्मलविगलितामलबाष्पकलयाभि-
व्यज्यमानरोमपुलककुलकोऽधुनापि
परमादरेण शिरसा बिभर्ति ॥ २॥

ततः सप्तर्षयस्तत्प्रभावाभिज्ञा यां ननु
तपस आत्यन्तिकी सिद्धिरेतावती भगवति
सर्वात्मनि वासुदेवेऽनुपरतभक्तियोग-
लाभेनैवोपेक्षितान्यार्थात्मगतयो मुक्ति-
मिवागतां मुमुक्षव इव सबहुमान-
मद्यापि जटाजूटैरुद्वहन्ति ॥ ३॥

ततोऽनेकसहस्रकोटिविमानानीकसङ्कुलदेव-
यानेनावतरन्तीन्दुमण्डलमावार्य ब्रह्मसदने
निपतति ॥ ४॥

तत्र चतुर्धा भिद्यमाना चतुर्भिर्नामभि-
श्चतुर्दिशमभिस्पन्दन्ती नदनदीपतिमेवा-
भिनिविशति सीतालकनन्दा चक्षुर्भद्रेति ॥ ५॥

सीता तु ब्रह्मसदनात्केसराचलादि
गिरिशिखरेभ्योऽधोऽधःप्रस्रवन्ती
गन्धमादनमूर्धसु पतित्वान्तरेण भद्राश्ववर्षं
प्राच्यां दिशि क्षारसमुद्रमभिप्रविशति ॥ ६॥

एवं माल्यवच्छिखरान्निष्पतन्ती ततो-
ऽनुपरतवेगा केतुमालमभिचक्षुः प्रतीच्यां
दिशि सरित्पतिं प्रविशति ॥ ७॥

भद्रा चोत्तरतो मेरुशिरसो निपतिता
गिरिशिखराद्गिरिशिखरमतिहाय श‍ृङ्गवतः
श‍ृङ्गादवस्यन्दमाना उत्तरांस्तु कुरूनभित
उदीच्यां दिशि जलधिमभिप्रविशति ॥ ८॥

तथैवालकनन्दा दक्षिणेन ब्रह्मसदनाद्बहूनि
गिरिकूटान्यतिक्रम्य हेमकूटाद्धैमकूटा-
न्यतिरभसतररंहसा लुठयन्ती भारत-
मभिवर्षं दक्षिणस्यां दिशि जलधिमभि-
प्रविशति यस्यां स्नानार्थं चागच्छतः
पुंसः पदे पदेऽश्वमेधराजसूयादीनां
फलं न दुर्लभमिति ॥ ९॥

अन्ये च नदा नद्यश्च वर्षे वर्षे सन्ति बहुशो
मेर्वादिगिरिदुहितरः शतशः ॥ १०॥

तत्रापि भारतमेव वर्षं कर्मक्षेत्रमन्यान्यष्ट-
वर्षाणि स्वर्गिणां पुण्यशेषोपभोगस्थानानि
भौमानि स्वर्गपदानि व्यपदिशन्ति ॥ ११॥

एषु पुरुषाणामयुतपुरुषायुर्वर्षाणां
देवकल्पानां नागायुतप्राणानां वज्रसंहनन-
बलवयोमोदप्रमुदितमहासौरतमिथुन-
व्यवायापवर्गवर्षधृतैकगर्भकलत्राणां
तत्र तु त्रेतायुगसमः कालो वर्तते ॥ १२॥

यत्र ह देवपतयः स्वैः स्वैर्गणनायकै-
र्विहितमहार्हणाः सर्वर्तुकुसुमस्तबकफल-
किसलयश्रियानम्यमानविटपलता-
विटपिभिरुपशुम्भमानरुचिरकाननाश्रमा-
यतनवर्षगिरिद्रोणीषु तथा चामल-
जलाशयेषु विकचविविधनववनरुहामोद-
मुदितराजहंसजलकुक्कुटकारण्डवसारस-
चक्रवाकादिभिः मधुकरनिकराकृतिभि-
रुपकूजितेषु जलक्रीडादिभिर्विचित्रविनोदैः
सुललितसुरसुन्दरीणां कामकलिलविलास-
हासलीलावलोकाकृष्टमनोदृष्टयः स्वैरं
विहरन्ति ॥ १३॥

नवस्वपि वर्षेषु भगवान् नारायणो
महापुरुषः पुरुषाणां तदनुग्रहायात्मतत्त्व-
व्यूहेनात्मनाद्यापि सन्निधीयते ॥ १४॥

इलावृते तु भगवान् भव एक एव पुमान्
न ह्यन्यस्तत्रापरो निर्विशति भवान्याः
शापनिमित्तज्ञो यत्प्रवेक्ष्यतः स्त्रीभाव-
स्तत्पश्चाद्वक्ष्यामि ॥ १५॥

भवानीनाथैः स्त्रीगणार्बुदसहस्रैरवरुध्यमानो
भगवतश्चतुर्मूर्तेर्महापुरुषस्य तुरीयां तामसीं
मूर्तिं प्रकृतिमात्मनः सङ्कर्षणसंज्ञामात्म-
समाधिरूपेण सन्निधाप्यैतदभिगृणन् भव
उपधावति ॥ १६॥

श्रीभगवानुवाच
ॐ नमो भगवते महापुरुषाय सर्वगुण-
सङ्ख्यानायानन्तायाव्यक्ताय नम इति ॥ १७॥

भजे भजन्यारणपादपङ्कजं
भगस्य कृत्स्नस्य परं परायणम् ।
भक्तेष्वलं भावितभूतभावनं
भवापहं त्वा भवभावमीश्वरम् ॥ १८॥

न यस्य मायागुणचित्तवृत्तिभि-
र्निरीक्षतो ह्यण्वपि दृष्टिरज्यते ।
ईशे यथा नोऽजितमन्युरंहसां
कस्तं न मन्येत जिगीषुरात्मनः ॥ १९॥

असद्दृशो यः प्रतिभाति मायया
क्षीबेव मध्वासवताम्रलोचनः ।
न नागवध्वोऽर्हण ईशिरे ह्रिया
यत्पादयोः स्पर्शनधर्षितेन्द्रियाः ॥ २०॥

यमाहुरस्य स्थितिजन्मसंयमं
त्रिभिर्विहीनं यमनन्तमृषयः ।
न वेद सिद्धार्थमिव क्वचित्स्थितं
भूमण्डलं मूर्धसहस्रधामसु ॥ २१॥

यस्याद्य आसीद्गुणविग्रहो महान्
विज्ञानधिष्ण्यो भगवानजः किल ।
यत्सम्भवोऽहं त्रिवृता स्वतेजसा
वैकारिकं तामसमैन्द्रियं सृजे ॥ २१॥

एते वयं यस्य वशे महात्मनः
स्थिताः शकुन्ता इव सूत्रयन्त्रिताः ।
महानहं वैकृततामसेन्द्रियाः
सृजाम सर्वे यदनुग्रहादिदम् ॥ २२॥

यन्निर्मितां कर्ह्यपि कर्मपर्वणीं
मायां जनोऽयं गुणसर्गमोहितः ।
न वेद निस्तारणयोगमञ्जसा
तस्मै नमस्ते विलयोदयात्मने ॥ २३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥


पंचम स्कन्ध-सत्रहवाँ अध्याय 
गङ्गाजी का विवरण और भगवान शङ्करकृत संकर्षणदेव की स्तुति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! जब राजा बलि की यज्ञशाला में साक्षात यज्ञमूर्ति भगवान विष्णु ने त्रिलो की को नाप ने के लिये अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें पैर के अँगूठे के नख से ब्रह्माण्डकटाह का ऊ पर का भाग फट गया। उस छिद्र में होकर जो ब्रह्माण्ड से बाहर के जल की धारा आयी, वह उस चरणकमल को धो ने से उसमें लगी हुई केसर के मिल ने से लाल हो गयी। उस निर्मल धारा का स्पर्श होते ही संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नाम से न पुकारकर उसे ‘भगवत्पदी’ ही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतने पर स्वर्ग के शिरोभाग में स्थित ध्रुवलोक में उतरी, जिसे ‘विष्णुपद’ भी कहते हैं ॥ १ ॥ वीरव्रत परीक्षित ! उस ध्रुवलोक में उत्तानपाद के पुत्र परम भागवत ध्रुवजी रहते हैं। वे नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्ति-भाव से ‘यह हमारे कुलदेवता का चरणोदक है’ ऐसा मानकर आज भी उस जल को बड़े आदर से सिर पर चढ़ाते हैं। उस समय प्रेमावेश के कारण उनका हृदय अत्यन्त गद्गद हो जाता है, उत्कण्ठावश बरबस मुँदे हुए दोनों नयन-कमलों से निर्मल आँसुओं की धारा बह ने लगती है और शरीर में रोमाञ्च हो आता है ॥ २ ॥

इसके पश्चात आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण उनका प्रभाव जान ने के कारण ‘यही तपस्या की आत्यन्तिक सिद्धि है’ ऐसा मानकर उसे आज भी इस प्रकार आदरपूर्वक अपने जटाजूट पर वैसे ही धारण करते हैं, जैसे मुमुक्षुजन प्राप्त हुई मुक्ति को। यों ये बड़े ही निष्काम हैं; सर्वात्मा भगवान वासुदेव की निश्चल भक्ति को ही अपना परम धन मानकर इन्हों ने अन्य सभी कामनाओं को त्याग दिया है, यहाँ तक कि आत्मज्ञान को भी ये उसके सामने कोई चीज नहीं समझते ॥ ३ ॥ वहाँ से गङ्गाजी करोड़ों विमानों से घिरे हुए आकाश में होकर उतरती हैं और चन्द्रमण्डल को आप्लावित करती मेरु के शिखर पर ब्रह्मपुरी में गिरती हैं ॥ ४ ॥

वहाँ ये सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नाम से चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं तथा अलग-अलग चारों दिशाओं में बहती हुई अन्त में नद-नदियों के अधीश्वर समुद्र में गिर जाती हैं ॥ ५ ॥ इनमें सीता ब्रह्मपुरी से गिरकर केसराचलों के सर्वोच्च शिखरों में होकर नीचे की ओर बहती गन्धमादन के शिखरों पर गिरती है और भद्राश्ववर्ष को प्लावितकर पूर्व की ओर खारे समुद्र में मिल जाती है ॥ ६ ॥ इसी प्रकार चक्षु माल्यवान् के शिखर पर पहुँचकर वहाँ से बेरोक-टोक केतुमालवर्ष में बहती पश्चिम की ओर क्षारसमुद्र में जा मिलती है ॥ ७ ॥ भद्रा मेरुपर्वत के शिखर से उत्तर की ओर गिरती है तथा एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर जाती अन्त में शृङ्गवान् के शिखर से गिरकर उत्तरकुरु देश में होकर उत्तर की ओर बहती हुई समुद्र में मिल जाती है ॥ ८ ॥ अलकनन्दा ब्रह्मपुरी से दक्षिण की ओर गिरकर अनेकों गिरि-शिखरों को लाँघती हेमकूट पर्वत पर पहुँचती है, वहाँ से अत्यन्त तीव्र वेग से हिमालय के शिखरों को चीरती हुई भारतवर्ष में आती है और फिर दक्षिण की ओर समुद्र में जा मिलती है। इसमें स्नान करने के लिये आनेवाले पुरुषों को पद-पद पर अश्वमेध और राजसूय आदि यज्ञों का फल भी दुर्लभ नहीं है ॥ ९ ॥ प्रत्येक वर्ष में मेरु आदि पर्वतों से निकली हुई और भी सैकड़ों नद- नदियाँ हैं ॥ १० ॥

इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्यों को भोग ने के स्थान हैं। इसलिये इन्हें भूलोक के स्वर्ग भी कहते हैं ॥ ११ ॥ वहाँ के देवतुल्य मनुष्यों की मानवी गणना के अनुसार दस हजार वर्ष की आयु होती है। उनमें दस हजार हाथियों का बल होता है तथा उनके वज्रसदृश सुदृढ़ शरीर में जो शक्ति, यौवन और उल्लास होते हैं—उनके कारण वे बहुत समय तक मैथुन आदि विषय भोगते रहते हैं। अन्त में जब भोग समाप्त होने पर उनकी आयु का केवल एक वर्ष रह जाता है, तब उनकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं। इस प्रकार वहाँ सर्वदा त्रेतायुग के समान समय बना रहता है ॥ १२ ॥ वहाँ ऐसे आश्रम, भवन और वर्ष, पर्वतों की घाटियाँ हैं जिनके सुन्दर वन-उपवन सभी ऋतुओं के फूलों के गुच्छे, फल और नूतन पल्लवों की शोभा के भार से झु की हुई डालियों और लताओंवाले वृक्षों से सुशोभित हैं; वहाँ निर्मल जल से भरे हुए ऐसे जलाशय भी हैं; जिन में तरह-तरह के नूतन कमल खिले रहते हैं और उन कमलों की सुगन्ध से प्रमुदित होकर राजहंस, जलमुर्ग, कारण्डव, सारस और चकवा आदि पक्षी तरह-तरह की बोली बोलते तथा विभिन्न जाति के मतवाले भौंरे मधुर-मधुर गुंजार करते रहते हैं। इन आश्रमों, भवनों, घाटियों तथा जलाशयों में वहाँ के देवेश्वर-गण परम सुन्दरी देवाङ्गनाओं के साथ उनके कामोन्मादसूचक हास-विलास और लीला-कटाक्षों से मन और नेत्रों के आकृष्ट हो जाने के कारण जलक्रीडादि नाना प्रकार के खेल करते हुए स्वच्छन्द विहार करते हैं तथा उनके प्रधान-प्रधान अनुचरगण अनेक प्रकार की सामग्रियों से उनका आदर-सत्कार करते रहते हैं ॥ १३ ॥

इन नवों वर्षों में परमपुरुष भगवान नारायण वहाँ के पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये इस समय भी अपनी विभिन्न मूर्तियों से विराजमान रहते हैं ॥ १४ ॥ इलावृतवर्ष में एकमात्र भगवान शङ्कर ही पुरुष हैं। श्रीपार्वतीजी के शाप को जाननेवाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता; क्योंकि वहाँ जो जाता है, वही स्त्रीरूप हो जाता है। इस प्रसङ्ग का हम आगे (नवम स्कन्धमें) वर्णन करेंगे ॥ १५ ॥ वहाँ पार्वती एवं उनकी अरबों-खरबों दासियों से सेवित भगवान शङ्कर परम पुरुष परमात्मा की वासुदेव, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध और संकर्षणसंज्ञक चतुव्र्यूह-मूर्तियों में से अपनी कारणरूपा संकर्षण नाम की तम:प्रधान [1] चौथी मूर्ति का ध्यानस्थित मनोमय विग्रह के रूप में चिन्तन करते हैं और इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं ॥ १६ ॥

भगवान शङ्कर कहते हैं—‘ॐ जिन से सभी गुणों की अभिव्यक्ति होती है, उन अनन्त और अव्यक्तमूर्ति ओङ्कार स्वरूप परमपुरुष श्रीभगवान को नमस्कार है।’ ‘भजनीय प्रभो ! आपके चरणकमल भक्तों को आश्रय देनेवाले हैं तथा आप स्वयं सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के परम आश्रय हैं। भक्तों के सामने आप अपना भूतभावन स्वरूप पूर्णतया प्रकट कर देते हैं तथा उन्हें संसारबन्धन से भी मुक्त कर देते हैं, किन्तु अभक्तों को उस बन्धन में डालते रहते हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं, मैं आपका भजन करता हूँ ॥ १७-१८ ॥ प्रभो ! हमलोग क्रोध के आवेग को नहीं जीत सके हैं तथा हमारी दृष्टि तत्काल पाप से लिप्त हो जाती है। परन्तु आप तो संसार का नियमन करने के लिये निरन्तर साक्षीरूप से उसके सारे व्यापारों को देखते रहते हैं। तथापि हमारी तरफ आपकी दृष्टि पर उन मायिक विषयों तथा चित्त की वृत्तियों का नाममात्र को भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी स्थिति में अपने मन को वश में करने की इच्छावाला कौन पुरुष आपका आदर न करेगा ? ॥ १९ ॥ आप जिन पुरुषों को मधु-आसवादि पान के कारण अरुणनयन और मतवाले जान पड़ते हैं, वे माया के वशीभूत होकर ही ऐसा मिथ्या दर्शन करते हैं तथा आपके चरणस्पर्श से ही चित्त चञ्चल हो जाने के कारण नाग- पत्नियाँ लज्जावश आपकी पूजा करने में असमर्थ हो जाती हैं ॥ २० ॥ वेदमन्त्र आपको जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण बताते हैं; परन्तु आप स्वयं इन तीनों विकारों से रहित हैं; इसलिये आपको ‘अनन्त’ कहते हैं। आपके सहस्र मस्तकों पर यह भूमण्डल सरसों के दा ने के समान रखा हुआ है, आपको तो यह भी नहीं मालूम होता कि वह कहाँ स्थित है ॥ २१ ॥ जिन से उत्पन्न हुआ मैं अहंकाररूप अपने त्रिगुणमय तेज से देवता, इन्द्रिय और भूतों की रचना करता हूँ—वे विज्ञान के आश्रय भगवान ब्रह्माजी भी आपके ही महत्तत्त्वसंज्ञक प्रथम गुणमय स्वरूप हैं ॥ २२ ॥ महात्मन् ! महत्तत्त्व, अहंकार-इन्द्रियाभिमानी देवता, इन्द्रियाँ और पञ्चभूत आदि हम सभी डोरी में बँधे हुए पक्षी के समान आपकी क्रियाशक्ति के वशीभूत रहकर आपकी ही कृपा से इस जगत की रचना करते हैं ॥ २३ ॥ सत्त्वादि गुणों की सृष्टि से मोहित हुआ यह जीव आपकी ही रची हुई तथा कर्म-बन्धन में बाँधनेवाली माया को तो कदाचित् जान भी लेता है, किन्तु उससे मुक्त होने का उपाय उसे सुगमता से नहीं मालूम होता। इस जगत की उत्पत्ति और प्रलय भी आपके ही रूप हैं। ऐसे आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ’ ॥ २४ ॥


[1] भगवान का विग्रह शुद्ध चिन्मय ही है; परंतु संहार आदि तामसी कार्यों का हेतु होने से इसे तामसी मूर्ति कहते हैं।

ॐ नमो भगवते महापुरुषाय सर्वगुणसंख्यानायानन्तायाव्यक्ताय नम इति।





स्कन्ध-05 [अध्याय-18]

॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
तथा च भद्रश्रवा नाम धर्मसुतस्तत्कुलपतयः
पुरुषा भद्राश्ववर्षे साक्षाद्भगवतो वासुदेवस्य
प्रियां तनुं धर्ममयीं हयशीर्षाभिधानां परमेण
समाधिना सन्निधाप्येदमभिगृणन्त उपधावन्ति ॥ १॥

भद्रश्रवस ऊचुः
ॐ नमो भगवते धर्मायात्मविशोधनाय नम इति ॥ २॥

अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितं
घ्नन्तं जनोऽयं हि मिषन्न पश्यति ।
ध्यायन्नसद्यर्हि विकर्म सेवितुं
निर्हृत्य पुत्रं पितरं जिजीविषति ॥ ३॥

वदन्ति विश्वं कवयः स्म नश्वरं
पश्यन्ति चाध्यात्मविदो विपश्चितः ।
तथापि मुह्यन्ति तवाज मायया
सुविस्मितं कृत्यमजं नतोऽस्मि तम् ॥ ४॥

विश्वोद्भवस्थाननिरोधकर्म ते
ह्यकर्तुरङ्गीकृतमप्यपावृतः ।
युक्तं न चित्रं त्वयि कार्यकारणे
सर्वात्मनि व्यतिरिक्ते च वस्तुतः ॥ ५॥

वेदान् युगान्ते तमसा तिरस्कृतान्
रसातलाद्यो नृतुरङ्गविग्रहः ।
प्रत्याददे वै कवयेऽभियाचते
तस्मै नमस्तेऽवितथेहिताय इति ॥ ६॥

हरिवर्षे चापि भगवान् नरहरिरूपेणास्ते
तद्रूपग्रहणनिमित्तमुत्तरत्राभिधास्ये तद्दयितं
रूपं महापुरुषगुणभाजनो महाभागवतो दैत्यदानवकुलतीर्थीकरणशीलाचरितः
प्रह्लादोऽव्यवधानानन्यभक्तियोगेन सह
तद्वर्षपुरुषैरुपास्ते इदं चोदाहरति ॥ ७॥

ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे
आविराविर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान्
रन्धय रन्धय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा
अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा ॐ क्ष्रौम् ॥ ८॥

स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदतां
ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया ।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे
आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी ॥ ९॥

मागारदारात्मजवित्तबन्धुषु
सङ्गो यदि स्याद्भगवत्प्रियेषु नः ।
यः प्राणवृत्त्या परितुष्ट आत्मवान्
सिद्ध्यत्यदूरान्न तथेन्द्रियप्रियः ॥ १०॥

यत्सङ्गलब्धं निजवीर्यवैभवं
तीर्थं मुहुः संस्पृशतां हि मानसम् ।
हरत्यजोऽन्तःश्रुतिभिर्गतोऽङ्गजं
को वै न सेवेत मुकुन्दविक्रमम् ॥ ११॥

यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना
सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः ।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा
मनोरथेनासति धावतो बहिः ॥ १२॥

हरिर्हि साक्षाद्भगवान् शरीरिणामात्मा
झषाणामिव तोयमीप्सितम् ।
हित्वा महांस्तं यदि सज्जते गृहे
तदा महत्त्वं वयसा दम्पतीनाम् ॥ १३॥

तस्माद्रजोरागविषादमन्यु-
मानस्पृहाभयदैन्याधिमूलम् ।
हित्वा गृहं संसृतिचक्रवालं
नृसिंहपादं भजताकुतोभयमिति ॥ १४॥

केतुमालेऽपि भगवान् कामदेवस्वरूपेण
लक्ष्म्याः प्रियचिकीर्षया प्रजापतेर्दुहितॄणां
पुत्राणां तद्वर्षपतीनां पुरुषायुषाहोरात्र-
परिसङ्ख्यानानां यासां गर्भा महापुरुष-
महास्त्रतेजसोद्वेजितमनसां विध्वस्ता
व्यसवः संवत्सरान्ते विनिपतन्ति ॥ १५॥

अतीव सुललितगतिविलासविलसित-
रुचिरहासलेशावलोकलीलया किञ्चि-
दुत्तम्भितसुन्दरभ्रूमण्डलसुभगवदना-
रविन्दश्रिया रमां रमयन्निन्द्रियाणि रमयते ॥ १६॥

तद्भगवतो मायामयं रूपं परमसमाधि-
योगेन रमादेवी संवत्सरस्य रात्रिषु
प्रजापतेर्दुहितृभिरुपेताहःसु च तद्भर्तृभि-
रुपास्ते इदं चोदाहरति ॥ १७॥

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ॐ नमो भगवते हृषीकेशाय सर्वगुणविशेषैर्विलक्षितात्मने आकूतीनां
चित्तीनां चेतसां विशेषाणां चाधिपतये
षोडशकलाय च्छन्दोमयायान्नमयाया-
मृतमयाय सर्वमयाय सहसे ओजसे
बलाय कान्ताय कामाय नमस्ते
उभयत्र भूयात् ॥ १८॥

स्त्रियो व्रतैस्त्वा हृषीकेश्वरं स्वतो
ह्याराध्य लोके पतिमाशासतेऽन्यम् ।
तासां न ते वै परिपान्त्यपत्यं
प्रियं धनायूंषि यतोऽस्वतन्त्राः ॥ १९॥

स वै पतिः स्यादकुतोभयः स्वयं
समन्ततः पाति भयातुरं जनम् ।
स एक एवेतरथा मिथो भयं
नैवात्मलाभादधि मन्यते परम् ॥ २०॥

या तस्य ते पादसरोरुहार्हणं
निकामयेत्साखिलकामलम्पटा ।
तदेव रासीप्सितमीप्सितोऽर्चितो
यद्भग्नयाच्ञा भगवन् प्रतप्यते ॥ २१॥

मत्प्राप्तयेऽजेशसुरासुरादयस्तप्यन्त
उग्रं तप ऐन्द्रिये धियः ।
ऋते भवत्पादपरायणान्न मां
विन्दन्त्यहं त्वद्धृदया यतोऽजित ॥ २२॥

स त्वं ममाप्यच्युत शीर्ष्णि वन्दितं
कराम्बुजं यत्त्वदधायि सात्वताम् ।
बिभर्षि मां लक्ष्म वरेण्य मायया
क ईश्वरस्येहितमूहितुं विभुरिति ॥ २३॥

रम्यके च भगवतः प्रियतमं मात्स्य-
मवताररूपं तद्वर्षपुरुषस्य मनोः
प्राक्प्रदर्शितं स इदानीमपि
महता भक्तियोगेनाराधयतीदं चोदाहरति ॥ २४॥

ॐ नमो भगवते मुख्यतमाय नमः
सत्त्वाय प्राणायौजसे सहसे बलाय
महामत्स्याय नम इति ॥ २५॥

अन्तर्बहिश्चाखिललोकपालकै-
रदृष्टरूपो विचरस्युरुस्वनः ।
स ईश्वरस्त्वं य इदं वशेऽनयन्नाम्ना
यथा दारुमयीं नरः स्त्रियम् ॥ २६॥

यं लोकपालाः किल मत्सरज्वरा
हित्वा यतन्तोऽपि पृथक्समेत्य च ।
पातुं न शेकुर्द्विपदश्चतुष्पदः
सरीसृपं स्थाणु यदत्र दृश्यते ॥ २७॥

भवान् युगान्तार्णव ऊर्मिमालिनि
क्षोणीमिमामोषधिवीरुधां निधिम् ।
मया सहोरुक्रमतेज ओजसा तस्मै
जगत्प्राणगणात्मने नम इति ॥ २८॥

हिरण्मयेऽपि भगवान् निवसति कूर्मतनुं
बिभ्राणस्तस्य तत्प्रियतमां तनुमर्यमा सह
वर्षपुरुषैः पितृगणाधिपतिरुपधावति
मन्त्रमिमं चानुजपति ॥ २९॥

ॐ नमो भगवते अकूपाराय सर्वसत्त्वगुण-
विशेषणायानुपलक्षितस्थानाय नमो वर्ष्मणे
नमो भूम्ने नमो नमोऽवस्थानाय नमस्ते ॥ ३०॥

यद्रूपमेतन्निजमाययार्पित-
मर्थस्वरूपं बहुरूपरूपितम् ।
सङ्ख्या न यस्यास्त्ययथोपलम्भनात्तस्मै
नमस्तेऽव्यपदेशरूपिणे ॥ ३१॥

जरायुजं स्वेदजमण्डजोद्भिदं
चराचरं देवर्षिपितृभूतमैन्द्रियम् ।
द्यौः खं क्षितिः शैलसरित्समुद्र-
द्वीपग्रहर्क्षेत्यभिधेय एकः ॥ ३२॥

यस्मिन्नसङ्ख्येयविशेषनामरूपाकृतौ
कविभिः कल्पितेयम् ।
सङ्ख्या यया तत्त्वदृशापनीयते
तस्मै नमः साङ्ख्यनिदर्शनाय ते इति ॥ ३३॥

उत्तरेषु च कुरुषु भगवान् यज्ञपुरुषः
कृतवराहरूप आस्ते तं तु देवी हैषा भूः
सह कुरुभिरस्खलितभक्तियोगेनोपधावति
इमां च परमामुपनिषदमावर्तयति ॥ ३४॥

ॐ नमो भगवते मन्त्रतत्त्वलिङ्गाय
यज्ञक्रतवे महाध्वरावयवाय महापुरुषाय
नमः कर्मशुक्लाय त्रियुगाय नमस्ते ॥ ३५॥

यस्य स्वरूपं कवयो विपश्चितो
गुणेषु दारुष्विव जातवेदसम् ।
मथ्नन्ति मथ्ना मनसा दिदृक्षवो
गूढं क्रियार्थैर्नम ईरितात्मने ॥ ३६॥

द्रव्यक्रियाहेत्वयनेशकर्तृभि-
र्मायागुणैर्वस्तुनिरीक्षितात्मने ।
अन्वीक्षयाङ्गातिशयात्मबुद्धिभि-
र्निरस्तमायाकृतये नमो नमः ॥ ३७॥

करोति विश्वस्थितिसंयमोदयं
यस्येप्सितं नेप्सितमीक्षितुर्गुणैः ।
माया यथायो भ्रमते तदाश्रयं
ग्राव्णो नमस्ते गुणकर्मसाक्षिणे ॥ ३८॥

प्रमथ्य दैत्यं प्रतिवारणं मृधे
यो मां रसाया जगदादिसूकरः ।
कृत्वाग्रदंष्ट्रे निरगादुदन्वतः
क्रीडन्निवेभः प्रणतास्मि तं विभुमिति ॥ ३९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भुवनकोशवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥


पंचम स्कन्ध-अठारहवाँ अध्याय
भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! भद्राश्ववर्ष में धर्मपुत्र भद्रश्रवा और उनके मुख्य-मुख्य सेवक भगवान वासुदेव की हयग्रीवसंज्ञक धर्ममयी प्रिय मूर्ति को अत्यन्त समाधिनिष्ठा के द्वारा हृदय में स्थापित कर इस मन्त्र[1] का जप करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं ॥ १ ॥

भद्रश्रवा और उनके सेवक कहते हैं—‘चित्त को विशुद्ध करनेवाले ओङ्कार स्वरूप भगवान धर्म को नमस्कार है’ ॥ २ ॥ ‘अहो ! भगवान की लीला बड़ी विचित्र है, जिसके कारण यह जीव सम्पूर्ण लोकों का संहार करनेवाले काल को देखकर भी नहीं देखता और तुच्छ विषयों का सेवन करने के लिये पापमय विचारों की उधेड़-बुन में लगा हुआ अपने ही हाथों अपने पुत्र और पितादि की लाश को जलाकर भी स्वयं जीते रहने की इच्छा करता है ॥ ३ ॥ विद्वान् लोग जगत को नश्वर बताते हैं और सूक्ष्मदर्शी आत्मज्ञानी ऐसा ही देखते भी हैं; तो भी जन्मरहित प्रभो ! आपकी माया से लोग मोहित हो जाते हैं। आप अनादि हैं तथा आपके कृत्य बड़े विस्मयजनक हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ परमात्मन् ! आप अकर्ता और माया के आवरण से रहित हैं तो भी जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय—ये आपके ही कर्म माने गये हैं। सो ठीक ही है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि सर्वात्मरूप से आप ही सम्पूर्ण कार्यों के कारण हैं और अपने शुद्ध स्वरूप में इस कार्य- कारणभाव से सर्वथा अतीत हैं ॥ ५ ॥ आपका विग्रह मनुष्य और घोड़े का संयुक्त रूप है। प्रलयकाल में जब तम:प्रधान दैत्यगण वेदों को चुरा ले गये थे, तब ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर आपने उन्हें रसातल से लाकर दिया। ऐसे अमोघ लीला करनेवाले सत्यसंकल्प आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥

हरिवर्षखण्ड में भगवान नृसिंहरूप से रहते हैं। उन्होंने यह रूप जिस कारण से धारण किया था, उसका आगे (सप्तम स्कन्धमें) वर्णन किया जायगा। भगवान के उस प्रिय रूप की महाभागवत प्रह्लादजी उस वर्ष के अन्य पुरुषों के सहित निष्काम एवं अनन्य भक्तिभाव से उपासना करते हैं। ये प्रह्लादजी महापुरुषोचित गुणों से सम्पन्न हैं तथा इन्हों ने अपने शील और आचरण से दैत्य और दानवों के कुल को पवित्र कर दिया है। वे इस मन्त्र [2] तथा स्तोत्र का जप-पाठ करते हैं ॥ ७ ॥ — ‘ओङ्कार स्वरूप भगवान श्रीनृसिंहदेव को नमस्कार है। आप अग्रि आदि तेजों के भी तेज हैं, आपको नमस्कार है। हे वज्रनख ! हे वज्रदंष्ट्र ! आप हमारे समीप प्रकट होइये, प्रकट होइये; हमारी कर्म- वासनाओं को जला डालिये, जला डालिये। हमारे अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये। ॐ स्वाहा। हमारे अन्त:करण में अभयदान देते हुए प्रकाशित होइये। ॐ क्षौम्’ ॥ ८ ॥ ‘नाथ ! विश्व का कल्याण हो, दुष्टों की बुद्धि शुद्ध हो, सब प्राणियों में परस्पर सद्भावना हो, सभी एकदूसरे का हितचिन्तन करें, हमारा मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो और हम सब की बुद्धि निष्कामभाव से भगवान श्रीहरि में प्रवेश करे ॥ ९ ॥ प्रभो ! घर, स्त्री, पुत्र, धन और भाई-बन्धुओं में हमारी आसक्ति न हो; यदि हो तो केवल भगवान के प्रेमी भक्तों में ही । जो संयमी पुरुष केवल शरीरनिर्वाह के योग्य अन्नादि से सन्तुष्ट रहता है, उसे जितना शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है, वैसी इन्द्रियलोलुप पुरुष को नहीं होती ॥ १० ॥ उन भगवद्भक्तों के सङ्ग से भगवान के तीर्थतुल्य पवित्र चरित्र सुनने को मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति एवं प्रभाव के सूचक होते हैं। उनका बार-बार सेवन करनेवालों के कानों के रास्ते से भगवान हृदय में प्रवेश कर जाते हैं और उनके सभी प्रकार के दैहिक और मानसिक मलों को नष्ट कर देते हैं। फिर भला, उन भगवद्भक्तों का सङ्ग कौन न करना चाहेगा ? ॥ ११ ॥ जिस पुरुष की भगवान में निष्काम भक्ति है, उसके हृदय में समस्त देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं। किन्तु जो भगवान का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषों के वे गुण आ ही कहाँ से सकते हैं ? वह तो तरह-तरह के संकल्प करके निरन्तर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दौड़ता रहता है ॥ १२ ॥ जैसे मछलियों को जल अत्यन्त प्रिय—उनके जीवन का आधार होता है, उसी प्रकार साक्षात श्रीहरि ही समस्त देहधारियों के प्रियतम आत्मा हैं। उन्हें त्यागकर यदि कोई महत्त्वाभिमानी पुरुष घर में आसक्त रहता है तो उस दशा में स्त्री-पुरुषों का बड़प्पन केवल आयु को लेकर ही माना जाता है; गुण की दृष्टि से नहीं ॥ १३ ॥ अत: असुरगण ! तुम तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, अभिमान, इच्छा, भय, दीनता और मानसिक सन्ताप के मूल तथा जन्म-मरणरूप संसारचक्र का वहन करनेवाले गृह आदि को त्यागकर भगवान नृसिंह के निर्भय चरणकमलों का आश्रय लो’ ॥ १४ ॥

केतुमालवर्ष में लक्ष्मीजी का तथा संवत्सर नामक प्रजापति के पुत्र और पुत्रियों का प्रिय करने के लिये भगवान कामदेवरूप से निवास करते हैं। उन रात्रि की अभिमानी देवतारूप कन्याओं और दिवसाभिमानी देवतारूप पुत्रों की संख्या मनुष्य की सौ वर्ष की आयु के दिन और रात के बराबर अर्थात् छत्तीस-छत्तीस हजार वर्ष है, और वे ही उस वर्ष के अधिपति हैं। वे कन्याएँ परमपुरुष श्रीनारायण के श्रेष्ठ अस्त्र सुदर्शनचक्र के तेज से डर जाती हैं; इसलिये प्रत्येक वर्ष के अन्त में उनके गर्भ नष्ट होकर गिर जाते हैं ॥ १५ ॥ भगवान अपने सुललित गति-विलास से सुशोभित मधुर-मधुर मन्द-मुसकान से मनोहर लीलापूर्ण चारु चितवन से कुछ उझ के हुए सुन्दर भ्रूमण्डल की छबीली छटा के द्वारा वदनारविन्द का राशि-राशि सौन्दर्य उँडेलकर सौन्दर्यदेवी श्रीलक्ष्मी को अत्यन्त आनन्दित करते और स्वयं भी आनन्दित होते रहते हैं ॥ १६ ॥ श्रीलक्ष्मीजी परम समाधियोग के द्वारा भगवान के उस मायामय स्वरूप की रात्रि के समय प्रजापति संवत्सर की कन्याओंसहित और दिन में उनके पतियों के सहित आराधना और वे इस मन्त्र [3] का जप करती हुई भगवान की स्तुति करती हैं ॥ १७ ॥ ‘जो इन्द्रियों के नियन्ता और सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओं के आकर हैं, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति और संकल्प- अध्यवसाय आदि चित्त के धर्मों तथा उनके विषयों के अधीश्वर हैं, ग्यारह इन्द्रिय और पाँच विषय— इन सोलह कलाओं से युक्त हैं, वेदोक्त कर्मों से प्राप्त होते हैं तथा अन्नमय, अमृतमय और सर्वमय हैं—उन मानसिक, ऐन्द्रियक एवं शारीरिक बल स्वरूप परम सुन्दर भगवान कामदेव को ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं’ इन बीजमन्त्रों के सहित सब ओर से नमस्कार है’ ॥ १८ ॥

‘भगवन् ! आप इन्द्रियों के अधीश्वर हैं। स्त्रियाँ तरह-तरह के कठोर व्रतों से आपकी ही आराधना करके अन्य लौकिक पतियों की इच्छा किया करती हैं। किन्तु वे उनके प्रिय पुत्र, धन और आयु की रक्षा नहीं कर सकते; क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र हैं ॥ १९ ॥ सच्चा पति (रक्षा करनेवाला या ईश्वर) वही है, जो स्वयं सर्वथा निर्भय हो और दूसरे भयभीत लोगों की सब प्रकार से रक्षा कर सके। ऐसे पति एकमात्र आप ही हैं; यदि एक से अधिक ईश्वर माने जायँ, तो उन्हें एक- दूसरे से भय होने की सम्भावना है। अतएव आप अपनी प्राप्ति से बढक़र और किसी लाभ को नहीं मानते ॥ २० ॥ भगवन् ! जो स्त्री आपके चरणकमलों का पूजन ही चाहती है, और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करती—उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं; किन्तु जो किसी एक कामना को लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आपकेवल वही वस्तु देते हैं और जब भोग समाप्त होने पर वह नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे सन्तप्त होना पड़ता है ॥ २१ ॥ अजित् ! मुझे पाने के लिये इन्द्रिय-सुख के अभिलाषी ब्रह्मा और रुद्र आदि समस्त सुरासुरगण घोर तपस्या करते रहते हैं; किन्तु आपके चरणकमलों का आश्रय लेनेवाले भक्त के सिवा मुझे कोई पा नहीं सकता; क्योंकि मेरा मन तो आप में ही लगा रहता है ॥ २२ ॥ अच्युत ! आप अपने जिस वन्दनीय करकमल को भक्तों के मस् तक पर रखते हैं, उसे मेरे सिर पर भी रखिये। वरेण्य ! आप मुझे केवल श्रीलाञ्छनरूप से अपने वक्ष:स्थल में ही धारण करते हैं; सो आप सर्वसमर्थ हैं, आप अपनी माया से जो लीलाएँ करते हैं, उनका रहस्य कौन जान सकता है ? ॥ २३ ॥

रम्यकवर्ष में भगवान ने वहाँ के अधिपति मनु को पूर्वकाल में अपना परम प्रिय मत्स्यरूप दिखाया था। मनुजी इस समय भी भगवान के उसी रूप की बड़े भक्तिभाव से उपासना करते हैं और इस मन्त्र[4] का जप करते हुए स्तुति करते हैं—‘सत्त्वप्रधान मुख्य प्राण सूत्रात्मा तथा मनोबल, इन्द्रियबल और शरीरबल ओङ्कारपद के अर्थ सर्वश्रेष्ठ भगवान महामत्स्य को बार-बार नमस्कार है’ ॥ २४-२५ ॥

प्रभो ! नट जिस प्रकार कठपुतलियों को नचाता है, उसी प्रकार आप ब्राह्मणादि नामों की डोरी से सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करके नचा रहे हैं। अत: आप ही सब के प्रेरक हैं। आपको ब्रह्मादि लोकपालगण भी नहीं देख सकते; तथापि आप समस्त प्राणियों के भीतर प्राणरूप से और बाहर वायुरूप से निरन्तर सञ्चार करते रहते हैं। वेद ही आपका महान शब्द है ॥ २६ ॥ एक बार इन्द्रादि इन्द्रियाभिमानी देवताओं को प्राण स्वरूप आप से डाह हुआ। तब आपके अलग हो जाने पर वे अलग-अलग अथवा आपस में मिलकर भी मनुष्य, पशु, स्थावर-जङ्गम आदि जित ने शरीर दिखायी देते हैं—उनमें से किसी की बहुत यत्न करने पर भी रक्षा नहीं कर सके ॥ २७ ॥ अजन्मा प्रभो ! आपने मेरे सहित समस्त औषध और लताओं की आश्रयरूपा इस पृथ्वी को लेकर बड़ी-बड़ी उत्ताल तरङ्गों से युक्त प्रलयकालीन समुद्र में बड़े उत्साह से विहार किया था। आप संसार के समस्त प्राणसमुदाय के नियन्ता हैं; मेरा आपको नमस्कार है’ ॥ २८ ॥

हिरण्मयवर्ष में भगवान कच्छपरूप धारण करके रहते हैं। वहाँ के निवासियों के सहित पितृराज अर्यमा भगवान की उस प्रियतम मूर्ति की उपासना करते हैं और इस मन्त्र[5] को निरन्तर जपते हुए स्तुति करते हैं ॥ २९ ॥ —‘जो सम्पूर्ण सत्त्वगुण से युक्त हैं, जल में विचरते रहने के कारण जिनके स्थान का कोई निश्चय नहीं है तथा जो काल की मर्यादा के बाहर हैं, उन ओङ्कार स्वरूप सर्वव्यापक सर्वाधार भगवान कच्छप को बार-बार नमस्कार है’ ॥ ३० ॥

भगवन् ! अनेक रूपों में प्रतीत होनेवाला यह दृश्यप्रपञ्च यद्यपि मिथ्या ही निश्चय होता है, इसलिये इस की वस्तुत: कोई संख्या नहीं है; तथापि यह माया से प्रकाशित होनेवाला आपका ही रूप है। ऐसे अनिर्वचनीयरूप आपको मेरा नमस्कार है ॥ ३१ ॥ एकमात्र आप ही जरायुज, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जङ्गम, स्थावर, देवता, ऋषि, पितृगण, भूत, इन्द्रिय, स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप, ग्रह और तारा आदि विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हैं ॥ ३२ ॥ आप असंख्य नाम, रूप और आकृतियों से युक्त हैं; कपिलादि विद्वानों ने जो आप में चौबीस तत्त्वों की संख्या निश्चित की है—वह जिस तत्त्वदृष्टि का उदय होने पर निवृत्त हो जाती है, वह भी वस्तुत: आपका ही स्वरूप हैं। ऐसे सांख्यसिद्धान्त स्वरूप आपको मेरा नमस्कार है’ ॥ ३३ ॥

उत्तर कुरुवर्ष में भगवान यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण करके विराजमान हैं। वहाँ के निवासियों के सहित साक्षात पृथ्वीदेवी उनकी अविचल भक्तिभाव से उपासना करती और इस परमोत्कृष्ट मन्त्र[6] का जप करती हुई स्तुति करती हैं ॥ ३४ ॥ —‘जिनका तत्त्व मन्त्रों से जाना जाता है, जो यज्ञ और क्रतुरूप हैं तथा बड़े-बड़े यज्ञ जिनके अङ्ग हैं—उन ओङ्कार स्वरूप शुक्लकर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान वराह को बार-बार नमस्कार है’ ॥ ३५ ॥

‘ऋत्विज्गण जिस प्रकार अरणिरूप काष्ठखण्डों में छिपी हुई अग्रि को मन्थन द्वारा प्रकट करते हैं, उसी प्रकार कर्मासक्ति एवं कर्मफल की कामना से छिपे हुए जिनके रूप को देखने की इच्छा से परमप्रवीण पण्डितजन अपने विवेकयुक्त मनरूप मन्थनकाष्ठ से शरीर एवं इन्द्रियादि को बिलो डालते हैं। इस प्रकार मन्थन करने पर अपने स्वरूप को प्रकट करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३६ ॥ विचार तथा यम-नियमादि योगाङ्गों के साधन से जिनकी बुद्धि निश्चयात्मि का हो गयी है—वे महापुरुष द्रव्य (विषय), क्रिया (इन्द्रियों के व्यापार), हेतु (इन्द्रियाधिष्ठाता देवता), अयन (शरीर), ईश, काल और कर्ता (अहंकार) आदि माया के कार्यों को देखकर जिनके वास्तविक स्वरूप का निश्चय करते हैं ऐसे मायिक आकृतियों से रहित आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ३७ ॥ जिस प्रकार लोहा जड होने पर भी चुम्बक की सन्निधिमात्र से चलने-फिर ने लगता है, उसी प्रकार जिन सर्वसाक्षी की इच्छामात्रसे—जो अपने लिये नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के लिये होती है—प्रकृति अपने गुणों के द्वारा जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करती रहती है; ऐसे सम्पूर्ण गुणों एवं कर्मों के साक्षी आपको नमस्कार है ॥ ३८ ॥ आप जगत के कारणभूत आदिसूकर हैं। जिस प्रकार एक हाथी दूसरे हाथी को पछाड़ देता है, उसी प्रकार गजराज के समान क्रीडा करते हुए आप युद्ध में अपने प्रतिद्वन्द्वी हिरण्याक्ष दैत्य को दलित करके मुझे अपनी दाढ़ों की नोक पर रखकर रसातल से प्रलय-पयोधि के बाहर निकले थे। मैं आप सर्वशक्तिमान् प्रभु को बार-बार नमस्कार करती हूँ’ ॥ ३९ ॥


[1] ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेज से आविराविर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान् रन्धय रन्धय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा। अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा: ॐ क्षौम्।



[2] ॐ नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेज से आविराविर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान् रन्धय रन्धय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा। अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा: ॐ क्षौम्।



[3] ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ॐ नमो भगवते हृषीकेशाय सर्वगुणविशेषैर्विलक्षितात्म ने आकूतीनां चित्तीनां चेतसां विशेषाणां चाधिपतये षोडशकलायच्छन्दोमयायान्नमयायामृतमयाय सर्वमयाय सह से ओज से बलाय कान्ताय कामाय नमस्ते उभयत्र भूयात्।



[4] ॐ नमो भगवते मुख्यतमाय नम: सत्त्वाय प्राणायौज से सह से बलाय महामत्स्याय नम इति।



[5] ॐ नमो भगवते अकूपाराय सर्वसत्त्वगुणविशेषणायानुपलक्षितस्थानाय नमो वष्र्मणे नमो भूम्रे नमो नमोऽवस्थानाय नमस्ते।





[6] ॐ नमो भगवते मन्त्रतत्त्वलिङ्गाय यज्ञक्रततवे महाध्वरावयवाय महापुरुषाय नम: कर्मशुक्लाय त्रियुगाय नमस्ते।



स्कन्ध-05 [अध्याय-19]

॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं
लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं
तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः परमभागवतो
हनुमान् सह किम्पुरुषैरविरत-
भक्तिरुपास्ते ॥ १॥

आर्ष्टिषेणेन सह गन्धर्वैरनुगीयमानां
परमकल्याणीं भर्तृभगवत्कथां समुप-
श‍ृणोति स्वयं चेदं गायति ॥ २॥

ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम
आर्यलक्षणशीलव्रताय नम उपशिक्षितात्मन
उपासितलोकाय नमः साधुवादनिकषणाय
नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय
नम इति ॥ ३॥

यत्तद्विशुद्धानुभवमात्रमेकं
स्वतेजसा ध्वस्तगुणव्यवस्थम् ।
प्रत्यक्प्रशान्तं सुधियोपलम्भनं
ह्यनामरूपं निरहं प्रपद्ये ॥ ४॥

मर्त्यावतारस्त्विह मर्त्यशिक्षणं
रक्षोवधायैव न केवलं विभोः ।
कुतोऽन्यथा स्याद्रमतः स्व आत्मनः
सीताकृतानि व्यसनानीश्वरस्य ॥ ५॥

न वै स आत्माऽऽत्मवतां सुहृत्तमः
सक्तस्त्रिलोक्यां भगवान्वासुदेवः ।
न स्त्रीकृतं कश्मलमश्नुवीत
न लक्ष्मणं चापि विहातुमर्हति ॥ ६॥

न जन्म नूनं महतो न सौभगं
न वाङ् न बुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतुः ।
तैर्यद्विसृष्टानपि नो वनौकसश्चकार
सख्ये बत लक्ष्मणाग्रजः ॥ ७॥

सुरोऽसुरो वाप्यथ वानरो नरः
सर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम् ।
भजेत रामं मनुजाकृतिं हरिं
य उत्तराननयत्कोसलान् दिवमिति ॥ ८॥

भारतेऽपि वर्षे भगवान् नरनारायणाख्य
आकल्पान्तमुपचितधर्म ज्ञानवैराग्यैश्वर्यो-
पशमोपरमात्मोपलम्भनमनुग्रहायात्मवता-
मनुकम्पया तपोऽव्यक्तगतिश्चरति ॥ ९॥

तं भगवान् नारदो वर्णाश्रमवतीभिर्भारतीभिः
प्रजाभिर्भगवत्प्रोक्ताभ्यां साङ्ख्ययोगाभ्यां
भगवदनुभावोपवर्णनं सावर्णेरुपदेक्ष्यमाणः
परमभक्तिभावेनोपसरति इदं चाभिगृणाति ॥ १०॥

ॐ नमो भगवते उपशमशीलायोपरता-
नात्म्याय नमोऽकिञ्चनवित्ताय ऋषि-
ऋषभाय नरनारायणाय परमहंसपरम-
गुरवे आत्मारामाधिपतये नमो नम इति ॥ ११॥

गायति चेदम् ।
कर्तास्य सर्गादिषु यो न बध्यते
न हन्यते देहगतोऽपि दैहिकैः ।
द्रष्टुर्न दृग्यस्य गुणैर्विदूष्यते
तस्मै नमोऽसक्तविविक्तसाक्षिणे ॥ १२॥

इदं हि योगेश्वर योगनैपुणं
हिरण्यगर्भो भगवाञ्जगाद यत् ।
यदन्तकाले त्वयि निर्गुणे मनो
भक्त्या दधीतोज्झितदुष्कलेवरः ॥ १३॥

यथैहिकामुष्मिककामलम्पटः
सुतेषु दारेषु धनेषु चिन्तयन् ।
शङ्केत विद्वान् कुकलेवरात्ययाद्यस्तस्य
यत्नः श्रम एव केवलम् ॥ १४॥

तन्नः प्रभो त्वं कुकलेवरार्पितां
त्वन्माययाहंममतामधोक्षज ।
भिन्द्याम येनाशु वयं सुदुर्भिदां
विधेहि योगं त्वयि नः स्वभावमिति ॥ १५॥

भारतेऽप्यस्मिन् वर्षे सरिच्छैलाः सन्ति
बहवो मलयो मङ्गलप्रस्थो मैनाकस्त्रिकूट-
ऋषभः कूटकः कोल्लकः सह्यो देवगिरि-
रृष्यमूकः श्रीशैलो वेङ्कटो महेन्द्रो
वारिधारो विन्ध्यः शुक्तिमान् ऋक्षगिरिः
पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतकः
ककुभो नीलो गोकामुख इन्द्रकीलः
कामगिरिरिति चान्ये च शतसहस्रशः
शैलास्तेषां नितम्बप्रभवा नदा नद्यश्च
सन्त्यसङ्ख्याताः ॥ १६॥

एतासामपो भारत्यः प्रजा नामभिरेव
पुनन्तीनामात्मना चोपस्पृशन्ति ॥ १७॥

चन्द्रवसा ताम्रपर्णी अवटोदा कृतमाला
वैहायसी कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता
तुङ्गभद्रा कृष्णा वेण्या भीमरथी गोदावरी
निर्विन्ध्या पयोष्णी तापी रेवा सुरसा नर्मदा
चर्मण्वती सिन्धुरन्धः शोणश्च नदौ महानदी
वेदस्मृतिरृषिकुल्या त्रिसामा कौशिकी
मन्दाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्वती
गोमती सरयू रोधस्वती सप्तवती सुषोमा
शतद्रूश्चन्द्रभागा मरुद्वृधा वितस्ता असिक्नी
विश्वेति महानद्यः ॥ १८॥

अस्मिन्नेव वर्षे पुरुषैर्लब्धजन्मभिः शुक्ल-
लोहितकृष्णवर्णेन स्वारब्धेन कर्मणा
दिव्यमानुषनारकगतयो बह्व्य आत्मन
आनुपूर्व्येण सर्वा ह्येव सर्वेषां विधीयन्ते
यथा वर्णविधानमपवर्गश्चापि भवति ॥ १९॥

योऽसौ भगवति सर्वभूतात्मन्यनात्म्ये-
ऽनिरुक्तेऽनिलयने परमात्मनि वासुदेवे-
ऽनन्यनिमित्तभक्तियोगलक्षणो नानागति-
निमित्ताविद्याग्रन्थिरन्धनद्वारेण यदा हि
महापुरुषपुरुषप्रसङ्गः ॥ २०॥

एतदेव हि देवा गायन्ति -
अहो अमीषां किमकारि शोभनं
प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः ।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे
मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः ॥ २१॥

किं दुष्करैर्नः क्रतुभिस्तपोव्रतै-
र्दानादिभिर्वा द्युजयेन फल्गुना ।
न यत्र नारायणपादपङ्कजस्मृतिः
प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात् ॥ २२॥

कल्पायुषां स्थानजयात्पुनर्भवात्क्षणायुषां
भारतभूजयो वरम् ।
क्षणेन मर्त्येन कृतं मनस्विनः
सन्न्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरेः ॥ २३॥

न यत्र वैकुण्ठकथासुधापगा
न साधवो भागवतास्तदाश्रयाः ।
न यत्र यज्ञेशमखा महोत्सवाः
सुरेशलोकोऽपि न वै स सेव्यताम् ॥ २४॥

प्राप्ता नृजातिं त्विह ये च जन्तवो
ज्ञानक्रियाद्रव्यकलापसम्भृताम् ।
न वै यतेरन्नपुनर्भवाय ते
भूयो वनौका इव यान्ति बन्धनम् ॥ २५॥
यैः श्रद्धया बर्हिषि भागशो
हविर्निरुप्तमिष्टं विधिमन्त्रवस्तुतः ।
एकः पृथङ् नामभिराहुतो मुदा
गृह्णाति पूर्णः स्वयमाशिषां प्रभुः ॥ २६॥

सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणां
नैवार्थदो यत्पुनरर्थिता यतः ।
स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छता-
मिच्छापिधानं निजपादपल्लवम् ॥ २७॥

यद्यत्र नः स्वर्गसुखावशेषितं
स्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम् ।
तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म नः
स्याद्वर्षे हरिर्यद्भजतां शं तनोति ॥ २८॥

श्रीशुक उवाच
जम्बूद्वीपस्य च राजन्नुपद्वीपानष्टौ हैक
उपदिशन्ति सगरात्मजैरश्वान्वेषण इमां
महीं परितो निखनद्भिरुपकल्पितान् ॥ २९॥

तद्यथा स्वर्णप्रस्थश्चन्द्रशुक्ल आवर्तनो
रमणको मन्दरहरिणः पाञ्चजन्यः सिंहलो
लङ्केति ॥ ३०॥

एवं तव भारतोत्तम जम्बूद्वीपवर्षविभागो
यथोपदेशमुपवर्णित इति ॥ ३१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे जम्बूद्वीपवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥


पंचम स्कन्ध-उन्नीसवाँ अध्याय 
किम्पुरुष और भारतवर्ष का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! किम्पुरुषवर्ष में श्रीलक्ष्मणजी के बड़े भाई, आदिपुरुष, सीता- हृदयाभिराम भगवान श्रीराम के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत श्रीहनुमान्जी अन्य किन्नरों के सहित अविचल भक्तिभाव से उनकी उपासना करते हैं ॥ १ ॥ वहाँ अन्य गन्धर्वों के सहित आर्ष्टिषेण उनके स्वामी भगवान राम की परम कल्याणमयी गुणगाथा गाते रहते हैं। श्रीहनुमान्जी उसे सुनते हैं और स्वयं भी इस मन्त्र[1] का जप करते हुए इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं ॥ २ ॥ ‘हम ॐकार स्वरूप पवित्रकीर्ति भगवान श्रीराम को नमस्कार करते हैं। आप में सत्पुरुषों के लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयतचित्त, लोकाराधनतत्पर, साधुता की परीक्षा के लिये कसौटी के समान और अत्यन्त ब्राह्मणभक्त हैं। ऐसे महापुरुष महाराज राम को हमारा पुन:-पुन: प्रणाम है’ ॥ ३ ॥

‘भगवन् ! आप विशुद्ध बोध स्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूप के प्रकाश से गुणों के कार्यरूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं का निरास करनेवाले, सर्वान्तरात्मा, परम शान्त, शुद्ध बुद्धि से ग्रहण किये जानेयोग्य, नाम-रूप से रहित और अहंकारशून्य हैं; मैं आपकी शरण में हूँ ॥ ४ ॥ प्रभो ! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसों के वध के लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्यों को शिक्षा देना है। अन्यथा, अपने स्वरूप में ही रमण करनेवाले साक्षात जगदात्मा जगदीश्वर को सीताजी के वियोग में इतना दु:ख कैसे हो सकता था ॥ ५ ॥ आप धीर पुरुषों के आत्मा [2]और प्रियतम भगवान वासुदेव हैं; त्रिलोकी की किसी भी वस्तु में आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीताजी के लिये मोह को ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मणजी का त्याग ही कर सकते हैं [3] ॥ ६ ॥ आपके ये व्यापार केवल लोकशिक्षा के लिये ही हैं। लक्ष्मणाग्रज ! उत्तम कुल में जन्म, सुन्दरता, वाक्चातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि—इनमें से कोई भी गुण आपकी प्रसन्नता का कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखा ने के लिये ही अपने इन सब गुणों से रहित हम वनवासी वानरों से मित्रता की है ॥ ७ ॥ देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य— कोई भी हो, उसे सब प्रकार से श्रीरामरूप आपका ही भजन करना चाहिये; क्योंकि आप नररूप में साक्षात श्रीहरि ही हैं और थोड़े किये को भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधाम को सिधारे थे, तब समस्त उत्तर कोसल-वासियों को भी अपने साथ ही ले गये थे’ ॥ ८ ॥

भारतवर्ष में भी भगवान दयावश नर-नारायणरूप धारण करके संयमशील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये अव्यक्तरूप से कल्प के अन्त तक तप करते रहते हैं। उनकी यह तपस्या ऐसी है कि जिससे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शान्ति और उपरति की उत्तरोत्तर वृद्धि होकर अन्त में आत्म स्वरूप की उपलब्धि हो सकती है ॥ ९ ॥ वहाँ भगवान नारदजी स्वयं श्रीभगवान के ही कहे हुए सांख्य और योगशास्त्र के सहित भगवन्महिमा को प्रकट करनेवाले पाञ्चरात्रदर्शन का सावर्णि मुनि को उपदेश करने के लिये भारतवर्ष की वर्णाश्रमधर्मावलम्बिनी प्रजा के सहित अत्यन्त भक्तिभाव से भगवान श्रीनर-नारायण की उपासना करते और इस मन्त्र[4] का जप तथा स्तोत्र को गाकर उनकी स्तुति करते हैं ॥ १० ॥ —‘ओङ्कार स्वरूप, अहंकार से रहित, निर्धनों के धन, शान्तस्वभाव ऋषिप्रवर भगवान नर-नारायण को नमस्कार है। वे परमहंसों के परम गुरु और आत्मारामों के अधीश्वर हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है, ॥ ११ ॥ यह गाते हैं—‘जो विश्व की उत्पत्ति आदि में उनके कत्र्ता होकर भी कर्तृत्व के अभिमान से नहीं बँधते, शरीर में रहते हुए भी उसके धर्म भूख-प्यास आदि के वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होने पर भी जिनकी दृष्टि दृश्य के गुण-दोषों से दूषित नहीं होती—उन असङ्ग एवं विशुद्ध साक्षि स्वरूप भगवान नर-नारायण को नमस्कार है ॥ १२ ॥ योगेश्वर ! हिरण्यगर्भ भगवान ब्रह्माजी ने योगसाधन की सब से बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकाल में देहाभिमान को छोडक़र भक्तिपूर्वक आपके प्राकृत गुणरहित स्वरूप में अपना मन लगावे ॥ १३ ॥ लौकिक और पारलौकिक भोगों के लालची मूढ पुरुष जैसे पुत्र, स्त्री और धन की चिन्ता करके मौत से डरते हैं—उसी प्रकार यदि विद्वान् को भी इस निन्दनीय शरीर के छूट ने का भय ही बना रहा, तो उसका ज्ञानप्राप्ति के लिये किया हुआ सारा प्रयत्न केवल श्रम ही है ॥ १४ ॥ अत: अधोक्षज ! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे कि प्रभो ! इस निन्दनीय शरीर में आपकी माया के कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता-ममता को हम तुरन्त काट डालें’ ॥ १५ ॥

राजन् ! इस भारतवर्ष में भी बहुत से पर्वत और नदियाँ हैं—जैसे मलय, मङ्गलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेङ्कट, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, शुक्तिमान्, ऋक्षगिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, ककुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील और कामगिरि आदि। इसी प्रकार और भी सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं। उनके तटप्रान्तों से निकलनेवाले नद और नदियाँ भी अगणित हैं ॥ १६ ॥ ये नदियाँ अपने नामों से ही जीव को पवित्र कर देती हैं और भारतीय प्रजा इन्हीं के जल में स्नानादि करती हैं ॥ १७ ॥ उनमें से मुख्य-मुख्य नदियाँ ये हैं—चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुङ्गभद्रा, कृष्णा, वेण्या, भीमरथी, गोदावरी, निर्विन्ध्या, पयोष्णी, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध और शोण नाम के नद, महानदी, वेदस्मृति, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रू, चन्द्रभागा, मरुद्वृधा, वितस्ता, असिक्री और विश्वा ॥ १८ ॥ इस वर्ष में जन्म लेनेवाले पुरुषों को ही अपने किये हुए सात्त्विक, राजस और तामस कर्मों के अनुसार क्रमश: नाना प्रकार की दिव्य, मानुष और नारकी योनियाँ प्राप्त होती हैं; क्योंकि कर्मानुसार सब जीवों को सभी योनियाँ प्राप्त हो सकती हैं। इसी वर्ष में अपने-अपने वर्ण के लिये नियत किये हुए धर्मों का विधिवत् अनुष्ठान करने से मोक्ष तक की प्राप्ति हो सकती है ॥ १९ ॥ परीक्षित ! सम्पूर्ण भूतों के आत्मा, रागादि दोषों से रहित, अनिर्वचनीय, निराधार परमात्मा भगवान वासुदेव में अनन्य एवं अहैतुक भक्तिभाव ही यह मोक्षपद है। यह भक्तिभाव तभी प्राप्त होता है, जब अनेक प्रकार की गतियों को प्रकट करने- वाली अविद्यारूप हृदय की ग्रन्थि कट जाने पर भगवान के प्रेमी भक्तों का सङ्ग मिलता है ॥ २० ॥

देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैं—‘अहा ! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान की सेवा के योग्य मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं ? इस परम सौभाग्य के लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं ॥ २१ ॥ हमें बड़े कठोर यज्ञ , तप, व्रत और दानादि करके जो यह तुच्छ स्वर्ग का अधिकार प्राप्त हुआ है—इससे क्या लाभ है ? यहाँ तो इन्द्रियों के भोगों की अधिकता के कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है, अत: कभी श्रीनारायण के चरणकमलों की स्मृति होती ही नहीं ॥ २२ ॥ यह स्वर्ग तो क्या—जहाँ के निवासियों की एक-एक कल्प की आयु होती है किन्तु जहाँ से फिर संसारचक्र में लौटना पड़ता है, उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारतभूमि में थोड़ी आयुवाले होकर जन्म लेना अच्छा है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मत्र्यशरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है ॥ २३ ॥

‘जहाँ भगवत् कथा की अमृतमयी सरिता नहीं बहती, जहाँ उसके उद्गमस्थान भगवद्भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ नृत्य-गीतादि के साथ बड़े समारोह से भगवान यज्ञपुरुष की पूजा-अर्चा नहीं की जाती—वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये ॥ २४ ॥ जिन जीवों ने इस भारतवर्ष में ज्ञान (विवेकबुद्धि), तदनुकूल कर्म तथा उस कर्म के उपयोगी द्रव्यादि सामग्री से सम्पन्न मनुष्य-जन्म पाया है, वे यदि आवागमन के चक्र से निकल ने का प्रयत्न नहीं करते, तो व्याध की फाँसी से छूटकर भी फलादि के लोभ से उसी वृक्ष पर विहार करनेवाले वनवासी पक्षियों के समान फिर बन्धन में पड़ जाते हैं ॥ २५ ॥

‘अहो ! इन भारतवासियों का कैसा सौभाग्य है ! जब ये यज्ञ में भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से अलग-अलग भाग रखकर विधि, मंत्र और द्रव्यादि के योग से श्रद्धापूर्वक उन्हें हवि प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार इन्द्रादि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने पर सम्पूर्ण कामनाओं के पूर्ण करनेवाले स्वयं पूर्णकाम श्रीहरि ही प्रसन्न होकर उस हवि को ग्रहण करते हैं ॥ २६ ॥ यह ठीक है कि भगवान सकाम पुरुषों के माँगने पर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओं को पा लेने पर भी मनुष्य के मन में पुन: कामनाएँ होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका निष्कामभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात अपने चरणकमल ही दे देते हैं—जो अन्य समस्त इच्छाओं को समाप्त कर देनेवाले हैं ॥ २७ ॥ अत: अब तक स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष में भगवान की स्मृति से युक्त मनुष्य-जन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करनेवाले का सब प्रकार से कल्याण करते हैं’ ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! राजा सगर के पुत्रों ने अपने यज्ञ के घोड़े को ढूँढ़ते हुए इस पृथ्वी को चारों ओर से खोदा था। उससे जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ही आठ उपद्वीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगों का कथन है ॥ २९ ॥ वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल और लं का हैं ॥ ३० ॥ भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, ठीक वैसा ही तुम्हें यह जम्बूद्वीप के वर्षों का विभाग सुना दिया ॥ ३१ ॥


[1] ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकाय नम: साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति।



[2] यहाँ शङ् का होती है कि भगवान तो सभी के आत्मा हैं, फिर यहाँ उन्हें आत्मवान् (धीर) पुरुषों के ही आत्मा क्यों बताया गया ? इसका कारण यही है कि सब के आत्मा होते हुए भी उन्हें केवल आत्मज्ञानी पुरुष ही अपने आत्मारूप से अनुभव करते हैं—अन्य पुरुष नहीं। श्रुति में जहाँ कहीं आत्मसाक्षातकार की बात आयी है, वहीं आत्मवेत्ता के लिये ‘धीर’ शब्द का प्रयोग किया है। जैसे ‘कश्चिद्धीर: प्रत्यगात्मानमैक्षत’ इति ‘न: शुश्रुम धीराणाम्’ इत्यादि। इसीलिये यहाँ भी भगवान को आत्मवान् या धीर पुरुष का आत्मा बताया है।





[3] एक बार भगवान श्रीराम एकान्त में एक देवदूत से बात कर रहे थे। उस समय लक्ष्मणजी पहरे पर थे और भगवान की आज्ञा थी कि यदि इस समय कोई भीतर आवेगा तो वह मेरे हाथ से मारा जायगा। इत ने में ही दुर्वासा मुनि चले आये और उन्होंने लक्ष्मणजी को अपने आ ने की सूचना दे ने के लिये भीतर जाने को विवश किया। इससे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान बड़े असमञ्जस में पड़ गये। तब वसिष्ठजी ने कहा कि लक्ष्मणजी के प्राण न लेकर उन्हें त्याग देना चाहिये, क्योंकि अपने प्रियजन का त्याग मृत्युदण्ड के समान ही है। इसीसे भगवान ने उन्हें त्याग दिया ।

[4] ॐ नमो भगवते उपशमशीलायोपरतानात्म्याय नमोऽकिञ्चनवित्ताय ऋषिऋषभाय नरनारायणाय परमहंसपरमगुरवे आत्मारामाधिपतये नमो नम इति।



स्कन्ध-05 [अध्याय-20]

॥ विंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अतः परं प्लक्षादीनां प्रमाणलक्षणसंस्थानतो
वर्षविभाग उपवर्ण्यते ॥ १॥

जम्बूद्वीपोऽयं यावत्प्रमाणविस्तार-
स्तावता क्षारोदधिना परिवेष्टितो यथा
मेरुर्जम्ब्वाख्येन लवणोदधिरपि ततो
द्विगुणविशालेन प्लक्षाख्येन परिक्षिप्तो
यथा परिखा बाह्योपवनेन प्लक्षो जम्बू-
प्रमाणो द्वीपाख्याकरो हिरण्मय उत्थितो
यत्राग्निरुपास्ते सप्तजिह्वस्तस्याधिपतिः
प्रियव्रतात्मज इध्मजिह्वः स्वं द्वीपं
सप्तवर्षाणि विभज्य सप्तवर्षनामभ्य
आत्मजेभ्य आकलय्य स्वयमात्म-
योगेनोपरराम ॥ २॥

शिवं यवसं सुभद्रं शान्तं क्षेमममृत-
मभयमिति वर्षाणि तेषु गिरयो नद्यश्च
सप्तैवाभिज्ञाताः ॥ ३॥

मणिकूटो वज्रकूट इन्द्रसेनो ज्योतिष्मान्
सुपर्णो हिरण्यष्ठीवो मेघमाल इति
सेतुशैलाः । अरुणा नृम्णाङ्गिरसी सावित्री
सुप्रभाता ऋतम्भरा सत्यम्भरा इति महानद्यः
यासां जलोपस्पर्शनविधूतरजस्तमसो
हंसपतङ्गोर्ध्वायनसत्याङ्गसंज्ञाश्चत्वारो वर्णाः
सहस्रायुषो विबुधोपमसन्दर्शन-
प्रजननाः स्वर्गद्वारं त्रय्या विद्यया भगवन्तं
त्रयीमयं सूर्यमात्मानं यजन्ते ॥ ४॥

प्रत्नस्य विष्णो रूपं यत्सत्यस्यर्तस्य ब्रह्मणः ।
अमृतस्य च मृत्योश्च सूर्यमात्मानमीमहीति ॥ ५॥

प्लक्षादिषु पञ्चसु पुरुषाणामायुरिन्द्रियमोजः
सहो बलं बुद्धिर्विक्रम इति च सर्वेषा-
मौत्पत्तिकी सिद्धिरविशेषेण वर्तते ॥ ६॥

प्लक्षः स्वसमानेनेक्षुरसोदेनावृतो यथा
तथा द्वीपोऽपि शाल्मलो द्विगुणविशालः
समानेन सुरोदेनावृतः परिवृङ्क्ते ॥ ७॥

यत्र ह वै शाल्मली प्लक्षायामा यस्यां
वाव किल निलयमाहुर्भगवतश्छन्दः स्तुतः
पतत्त्रिराजस्य सा द्वीपहूतये उपलक्ष्यते ॥ ८॥

तद्द्वीपाधिपतिः प्रियव्रतात्मजो यज्ञबाहुः
स्वसुतेभ्यः सप्तभ्यस्तन्नामानि सप्तवर्षाणि
व्यभजत्सुरोचनं सौमनस्यं रमणकं देववर्षं
पारिभद्रमाप्यायनमविज्ञातमिति ॥ ९॥

तेषु वर्षाद्रयो नद्यश्च सप्तैवाभिज्ञाताः स्वरसः
शतश‍ृङ्गो वामदेवः कुन्दो मुकुन्दः पुष्पवर्षः
सहस्रश्रुतिरिति अनुमतिः सिनीवाली
सरस्वती कुहू रजनी नन्दा राकेति ॥ १०॥

तद्वर्षपुरुषाः श्रुतधरवीर्यधरवसुन्धरेषन्धर-
संज्ञा भगवन्तं वेदमयं सोममात्मानं वेदेन
यजन्ते ॥ ११॥

स्वगोभिः पितृदेवेभ्यो विभजन् कृष्णशुक्लयोः ।
प्रजानां सर्वासां राजान्धः सोमो न आस्त्विति ॥ १२॥

एवं सुरोदाद्बहिस्तद्द्विगुणः समानेनावृतो
घृतोदेन यथा पूर्वः कुशद्वीपो यस्मिन्
कुशस्तम्बो देवकृतस्तद्द्वीपाख्याकरो ज्वलन
इवापरः स्वशष्परोचिषा दिशो विराजयति ॥ १३॥

तद्द्वीपपतिः प्रैयव्रतो राजन् हिरण्यरेता नाम
स्वं द्वीपं सप्तभ्यः स्वपुत्रेभ्यो यथाभागं विभज्य
स्वयं तप आतिष्ठत वसुवसुदानदृढरुचिना-
भिगुप्तस्तुत्यव्रतविविक्तवामदेवनामभ्यः ॥ १४॥
तेषां वर्षेषु सीमागिरयो नद्यश्चाभिज्ञाताः
सप्त सप्तैव चक्रश्चतुःश‍ृङ्गः कपिलश्चित्रकूटो
देवानीक ऊर्ध्वरोमा द्रविण इति । रसकुल्या
मधुकुल्या मित्रविन्दा श्रुतविन्दा देवगर्भा
घृतच्युता मन्त्रमालेति ॥ १५॥

यासां पयोभिः कुशद्वीपौकसः कुशल-
कोविदाभियुक्तकुलकसंज्ञा भगवन्तं
जातवेदसरूपिणं कर्मकौशलेन यजन्ते ॥ १६॥

परस्य ब्रह्मणः साक्षाज्जातवेदोऽसि हव्यवाट् ।
देवानां पुरुषाङ्गानां यज्ञेन पुरुषं यजेति ॥ १७॥

तथा घृतोदाद्बहिः क्रौञ्चद्वीपो द्विगुणः
स्वमानेन क्षीरोदेन परित उपकॢप्तो वृतो
यथा कुशद्वीपो घृतोदेन यस्मिन् क्रौञ्चो
नाम पर्वतराजो द्वीपनामनिर्वर्तक आस्ते ॥ १८॥

योऽसौ गुहप्रहरणोन्मथितनितम्ब-
कुञ्जोऽपि क्षीरोदेनासिच्यमानो भगवता
वरुणेनाभिगुप्तो विभयो बभूव ॥ १९॥

तस्मिन्नपि प्रैयव्रतो घृतपृष्ठो नामाधिपतिः
स्वे द्वीपे वर्षाणि सप्त विभज्य तेषु पुत्रनामसु
सप्त रिक्थादान् वर्षपान् निवेश्य स्वयं
भगवान् भगवतः परमकल्याणयशस
आत्मभूतस्य हरेश्चरणारविन्दमुपजगाम ॥ २०॥

आमो मधुरुहो मेघपृष्ठः सुधामा भ्राजिष्ठो
लोहितार्णो वनस्पतिरिति घृतपृष्ठसुतास्तेषां
वर्षगिरयः सप्त सप्तैव नद्यश्चाभिख्याताः
शुक्लो वर्धमानो भोजन उपबर्हिणो नन्दो
नन्दनः सर्वतोभद्र इति अभया अमृतौघा
आर्यका तीर्थवती रूपवती पवित्रवती शुक्लेति ॥ २१॥

यासामम्भः पवित्रममलमुपयुञ्जानाः पुरुष-
ऋषभद्रविणदेवकसंज्ञा वर्षपुरुषा आपोमयं
देवमपां पूर्णेनाञ्जलिना यजन्ते ॥ २२॥

आपः पुरुषवीर्याः स्थ पुनन्तीर्भूर्भुवः सुवः ।
ता नः पुनीतामीव घ्नीः स्पृशतामात्मना भुव इति ॥ २३॥

एवं पुरस्तात्क्षीरोदात्परित उपवेशितः
शाकद्वीपो द्वात्रिंशल्लक्षयोजनायामः
समानेन च दधिमण्डोदेन परीतो यस्मिन्
शाको नाम महीरुहः स्वक्षेत्रव्यपदेशको
यस्य ह महासुरभिगन्धस्तं द्वीपमनुवासयति ॥ २४॥

तस्यापि प्रैयव्रत एवाधिपतिर्नाम्ना मेधातिथिः
सोऽपि विभज्य सप्त वर्षाणि पुत्रनामानि तेषु
स्वात्मजान् पुरोजवमनोजवपवमानधूम्रानीक-चित्ररेफबहुरूपविश्वधारसंज्ञान् निधाप्याधि-
पतीन् स्वयं भगवत्यनन्त आवेशितमति-
स्तपोवनं प्रविवेश ॥ २५॥

एतेषां वर्षमर्यादागिरयो नद्यश्च सप्त सप्तैव
ईशान उरुश‍ृङ्गो बलभद्रः शतकेसरः
सहस्रस्रोतो देवपालो महानस इति
अनघाऽऽयुर्दा उभयस्पृष्टिरपराजिता
पञ्चपदी सहस्रस्रुतिर्निजधृतिरिति ॥ २६॥

तद्वर्षपुरुषा ऋतव्रतसत्यव्रतदानव्रतानुव्रत-
नामानो भगवन्तं वाय्वात्मकं प्राणायाम-
विधूतरजस्तमसः परमसमाधिना यजन्ते ॥ २७॥

अन्तः प्रविश्य भूतानि यो बिभर्त्यात्मकेतुभिः ।
अन्तर्यामीश्वरः साक्षात्पातु नो यद्वशे स्फुटम् ॥ २८॥

एवमेव दधिमण्डोदात्परतः पुष्करद्वीप-
स्ततो द्विगुणायामः समन्तत उपकल्पितः
समानेन स्वादूदकेन समुद्रेण बहिरावृतो
यस्मिन् बृहत्पुष्करं ज्वलनशिखामल-
कनकपत्रायुतायुतं भगवतः कमलासनस्या-
ध्यासनं परिकल्पितम् ॥ २९॥

तद्द्वीपमध्ये मानसोत्तरनामैक एवार्वाचीन-
पराचीनवर्षयोर्मर्यादाचलोऽयुतयोजनो-
च्छ्रायायामो यत्र तु चतसृषु दिक्षु चत्वारि
पुराणि लोकपालानामिन्द्रादीनां यदुपरिष्टा-
त्सूर्यरथस्य मेरुं परिभ्रमतः संवत्सरात्मकं
चक्रं देवानामहोरात्राभ्यां परिभ्रमति ॥ ३०॥

तद्द्वीपस्याप्यधिपतिः प्रैयव्रतो वीतिहोत्रो
नामैतस्यात्मजौ रमणकधातकिनामानौ
वर्षपती नियुज्य स स्वयं पूर्वजवद्भगव-
त्कर्मशील एवास्ते ॥ ३१॥

तद्वर्षपुरुषा भगवन्तं ब्रह्मरूपिणं सकर्मकेण
कर्मणाराधयन्तीदं चोदाहरन्ति ॥ ३२॥

यत्तत्कर्ममयं लिङ्गं ब्रह्मलिङ्गं जनोऽर्चयेत् ।
एकान्तमद्वयं शान्तं तस्मै भगवते नम इति ॥ ३३॥

ऋषिरुवाच
ततः परस्ताल्लोकालोकनामाचलो लोका-
लोकयोरन्तराले परित उपक्षिप्तः ॥ ३४॥

यावन्मानसोत्तरमेर्वोरन्तरं तावती भूमिः
काञ्चन्यन्यादर्शतलोपमा यस्यां प्रहितः
पदार्थो न कथञ्चित्पुनः प्रत्युपलभ्यते
तस्मात्सर्वसत्त्वपरिहृताऽऽसीत् ॥ ३५॥

लोकालोक इति समाख्या यदनेनाचलेन
लोकालोकस्यान्तर्वर्तिनावस्थाप्यते ॥ ३६॥

स लोकत्रयान्ते परित ईश्वरेण विहितो
यस्मात्सूर्यादीनां ध्रुवापवर्गाणां ज्योति-
र्गणानां गभस्तयोऽर्वाचीनांस्त्रीन् लोका-
नावितन्वाना न कदाचित्पराचीना
भवितुमुत्सहन्ते तावदुन्नहनायामः ॥ ३७॥

एतावान् लोकविन्यासो मानलक्षण-
संस्थाभिर्विचिन्तितः कविभिः स तु
पञ्चाशत्कोटिगणितस्य भूगोलस्य
तुरीयभागोऽयं लोकालोकाचलः ॥ ३८॥

तदुपरिष्टाच्चतसृष्वाशास्वात्मयोनिनाखिल-
जगद्गुरुणाधिनिवेशिता ये द्विरदपतय ऋषभः
पुष्करचूडो वामनोऽपराजित इति
सकललोकस्थितिहेतवः ॥ ३९॥

तेषां स्वविभूतीनां लोकपालानां च
विविधवीर्योपबृंहणाय भगवान् परम-
महापुरुषो महाविभूतिपतिरन्तर्याम्यात्मनो
विशुद्धसत्त्वं धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याद्यष्टमहा-
सिद्ध्युपलक्षणं विष्वक्सेनादिभिः
स्वपार्षदप्रवरैः परिवारितो निजवरायुधोप-
शोभितैर्निजभुजदण्डैः सन्धारयमाण-
स्तस्मिन् गिरिवरे समन्तात्सकललोक-
स्वस्तय आस्ते ॥ ४०॥

आकल्पमेवं वेषं गत एष भगवानात्म-
योगमायया विरचितविविधलोकयात्रा-
गोपीयायेत्यर्थः ॥ ४१॥

योऽन्तर्विस्तार एतेन ह्यलोकपरिमाणं च
व्याख्यातं यद्बहिर्लोकालोकाचलात्ततः
परस्ताद्योगेश्वरगतिं विशुद्धामुदाहरन्ति ॥ ४२॥

अण्डमध्यगतः सूर्यो द्यावाभूम्योर्यदन्तरम् ।
सूर्याण्डगोलयोर्मध्ये कोट्यः स्युः पञ्चविंशतिः ॥ ४३॥

मृतेऽण्ड एष एतस्मिन् यदभूत्ततो मार्तण्ड
इति व्यपदेशः हिरण्यगर्भ इति यद्धिरण्याण्ड-
समुद्भवः ॥ ४४॥

सूर्येण हि विभज्यन्ते दिशः खं द्यौर्मही भिदा ।
स्वर्गापवर्गौ नरका रसौकांसि च सर्वशः ॥ ४५॥

देवतिर्यङ् मनुष्याणां सरीसृपसवीरुधाम् ।
सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा दृगीश्वरः ॥ ४६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भुवनकोशवर्णने समुद्रवर्षसंनिवेश-
परिमाणलक्षणो नाम विंशोऽध्यायः ॥ २०॥


पंचम स्कन्ध-बीसवाँ अध्याय 
अन्य छ: द्वीपों तथा लोकालोकपर्वत का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! अब परिमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार प्लक्षादि अन्य द्वीपों के वर्षविभाग का वर्णन किया जाता है ॥ १ ॥ जिस प्रकार मेरु पर्वत जम्बूद्वीप से घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी अपने ही समान परिमाण और विस्तारवाले खारे जल के समुद्र से परिवेष्टित है। फिर खाई जिस प्रकार बाहर के उपवन से घिरी रहती है, उसी प्रकार क्षारसमुद्र भी अपने से दू ने विस्तारवाले प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है। जम्बूद्वीप में जितना बड़ा जामुन का पेड़ है, उतने ही विस्तारवाला यहाँ सुवर्णमय प्लक्ष (पाकर) का वृक्ष है। उसी के कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप हुआ है। यहाँ सात जिह्वाओंवाले अग्रिदेव विराजते हैं। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज इध्मजिह्व थे। उन्होंने इस को सात वर्षों में विभक्त किया और उन्हें उन वर्षों के समान ही नामवाले अपने पुत्रों को सौंप दिया तथा स्वयं अध्यात्मयोग का आश्रय लेकर उपरत हो गये ॥ २ ॥ इन वर्षों के नाम शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत और अभय हैं। इनमें भी सात पर्वत और सात नदियाँ ही प्रसिद्ध हैं ॥ ३ ॥ वहाँ मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव और मेघमाल—ये सात मर्यादापर्वत हैं तथा अरुणा, नृम्णा, आङ्गिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा—ये सात महानदियाँ हैं। वहाँ हंस, पतङ्ग, ऊध्र्वायन और सत्याङ्ग नाम के चार वर्ण हैं। उक्त नदियों के जल में स्नान करने से इनके रजोगुण-तमोगुण क्षीण होते रहते हैं। इन की आयु एक हजार वर्ष की होती है। इनके शरीरों में देवताओं की भाँति थकावट, पसीना आदि नहीं होता और सन्तानोत्पत्ति भी उन्हींके समान होती है। ये त्रयीविद्या के द्वारा तीनों वेदों में वर्णन किये हुए स्वर्ग के द्वारभूत आत्म स्वरूप भगवान सूर्य की उपासना करते हैं ॥ ४ ॥ वे कहते हैं कि ‘जो सत्य (अनुष्ठानयोग्य धर्म) और ऋत (प्रतीत होनेवाले धर्म), वेद और शुभाशुभ फल के अधिष्ठाता हैं—उन पुराणपुरुष विष्णु स्वरूप भगवान सूर्य की हम शरण में जाते हैं’ ॥ ५ ॥ प्लक्ष आदि पाँच द्वीपों में सभी मनुष्यों को जन्म से ही आयु, इन्द्रिय, मनोबल, इन्द्रियबल, शारीरिक बल, बुद्धि और पराक्रम समानरूप से सिद्ध रहते हैं ॥ ६ ॥

प्लक्षद्वीप अपने ही समान विस्तारवाले इक्षुरसके समुद्र से घिरा हुआ है। उसके आगे उससे दुगु ने परिमाणवाला शाल्मलीद्वीप है, जो उतने ही विस्तारवाले मदिरा के सागर से घिरा है ॥ ७ ॥ प्लक्षद्वीप के पाकरके पेडक़े बराबर उसमें शाल्मली (सेमर) का वृक्ष है। कहते हैं, यही वृक्ष अपने वेदमय पंखों से भगवान की स्तुति करनेवाले पक्षिराज भगवान गरुड का निवासस्थान है तथा यही इस द्वीप के नामकरण का भी हेतु है ॥ ८ ॥ इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज यज्ञबाहु थे। उन्होंने इसके सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन और अविज्ञात नाम से सात विभाग किये और इन्हें इन्हीं नामवाले अपने पुत्रों को सौंप दिया ॥ ९ ॥ इनमें भी सात वर्षपर्वत और सात ही नदियाँ प्रसिद्ध हैं। पर्वतों के नाम स्वरस, शतशर्ङ्ग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति हैं तथा नदियाँ अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और रा का हैं ॥ १० ॥ इन वर्षों में रहनेवाले श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर और इषन्धर नाम के चार वर्ण वेदमय आत्म स्वरूप भगवान चन्द्रमा की वेदमन्त्रों से उपासना करते हैं ॥ ११ ॥ (और कहते हैं—) ‘जो कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में अपनी किरणों से विभाग करके देवता, पितर और सम्पूर्ण प्राणियों को अन्न देते हैं, वे चन्द्रदेव हमारे राजा (रञ्जन करनेवाले) हों’ ॥ १२ ॥

इसी प्रकार मदिरा के समुद्र से आगे उससे दू ने परिमाणवाला कुशद्वीप है। पूर्वोक्त द्वीपों के समान यह भी अपने ही समान विस्तारवाले घृत के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें भगवान का रचा हुआ एक कुशों का झाड़ है, उसी से इस द्वीप का नाम निश्चित हुआ है। वह दूसरे अग्रिदेव के समान अपनी कोमल शिखाओं की कान्ति से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता रहता है ॥ १३ ॥ राजन् ! इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज हिरण्यरेता थे। उन्होंने इसके सात विभाग करके उनमें से एक-एक अपने सात पुत्र वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त और वामदेव को दे दिया और स्वयं तप करने चले गये ॥ १४ ॥ उनकी सीमाओं को निश्चय करनेवाले सात पर्वत हैं और सात ही नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम चक्र, चतु:शृङ्ग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊध्र्वरोमा और द्रविण हैं। नदियों के नाम हैं—रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रवृन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला ॥ १५ ॥ इनके जल में स्नान करके कुशद्वीपवासी कुशल, कोविद, अभियुक्त और कुलक वर्ण के पुरुष अग्रि स्वरूप भगवान हरि का यज्ञादि कर्म-कौशल के द्वारा पूजन करते हैं ॥ १६ ॥ (तथा इस प्रकार स्तुति करते हैं—) ‘अग्रे ! आप परब्रह्म को साक्षात हवि पहुँचानेवाले हैं; अत: भगवान के अङ्गभूत देवताओं के यजन द्वारा आप उन परमपुरुष का ही यजन करें’ ॥ १७ ॥

राजन् ! फिर घृतसमुद्र से आगे उससे द्विगुण परिमाणवाला क्रौञ्चद्वीप है। जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसमुद्र से घिरा हुआ है, उसी प्रकार यह अपने ही समान विस्तारवाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है। यहाँ क्रौञ्च नाम का एक बहुत बड़ा पर्वत है, उसी के कारण इसका नाम क्रौञ्चद्वीप हुआ है ॥ १८ ॥ पूर्वकाल में श्रीस्वामिकार्तिकेयजी के शस्त्रप्रहार से इसका कटिप्रदेश और लता-निकुञ्जादि क्षत-विक्षत हो गये थे, किन्तु क्षीरसमुद्र से सींचा जाकर और वरुणदेव से सुरक्षित होकर यह फिर निर्भय हो गया ॥ १९ ॥ इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज घृतपृष्ठ थे। वे बड़े ज्ञानी थे। उन्होंने इस को सात वर्षों में विभक्त कर उनमें उन्हींके समान, नामवाले अपने सात उत्तराधिकारी पुत्रों को नियुक्त किया और स्वयं सम्पूर्ण जीवों के अन्तरात्मा, परम मङ्गलमय कीर्तिशाली भगवान श्रीहरि के पावन पादारविन्दों की शरण ली ॥ २० ॥ महाराज घृतपृष्ठ के आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति—ये सात पुत्र थे। उनके वर्षों में भी सात वर्षपर्वत और सात ही नदियाँ कही जाती हैं। पर्वतों के नाम शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र हैं तथा नदियों के नाम हैं—अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपवती, पवित्रवती और शुक्ला ॥ २१ ॥ इनके पवित्र और निर्मल जल का सेवन करनेवाले वहाँ के पुरुष, ऋषभ, द्रविण और देवक नामक चार वर्णवाले निवासी जल से भरी हुई अञ्जलि के द्वारा आपोदेवता (जल के देवता) की उपासना करते हैं ॥ २२ ॥ (और कहते हैं—) ‘हे जल के देवता ! तुम्हें परमात्मा से सामथ्र्य प्राप्त है। तुम भू: भुव: और स्व:—तीनों लोकों को पवित्र करते हो; क्योंकि स्वरूप से ही पापों का नाश करनेवाले हो। हम अपने शरीर से तुम्हारा स्पर्श करते हैं, तुम हमारे अङ्गों को पवित्र करो’ ॥ २३ ॥

इसी प्रकार क्षीरसमुद्र से आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तारवाला शाकद्वीप है, जो अपने ही समान परिमाणवाले मट्ठे के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें शाक नाम का एक बहुत बड़ा वृक्ष है, वही इस क्षेत्र के नाम का कारण है। उसकी अत्यन्त मनोहर सुगन्ध से सारा द्वीप महकता रहता है ॥ २४ ॥ मेधातिथि नामक उसके अधिपति भी राजा प्रियव्रत के ही पुत्र थे। उन्होंने भी अपने द्वीप को सात वर्षों में विभक्त किया और उनमें उन्हींके समान नामवाले अपने पुत्र पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधार को अधिपतिरूप से नियुक्त कर स्वयं भगवान अनन्त में दत्तचित्त हो तपोवन को चले गये ॥ २५ ॥ इन वर्षों में भी सात मर्यादापर्वत और सात नदियाँ ही हैं। पर्वतों के नाम ईशान, उरुशृङ्ग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल और महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पञ्चपदी, सहस्रस्रुति और निजधृति हैं ॥ २६ ॥ उस वर्ष के ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत और अनुव्रत नामक पुरुष प्राणायाम द्वारा अपने रजोगुण-तमोगुण को क्षीण कर महान समाधि के द्वारा वायुरूप श्रीहरि की आराधना करते हैं ॥ २७ ॥ (और इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं—) ‘जो प्राणादि वृत्तिरूप अपनी ध्वजाओं के सहित प्राणियों के भीतर प्रवेश करके उनका पालन करते हैं तथा सम्पूर्ण दृश्य जगत जिनके अधीन है, वे साक्षात अन्तर्यामी वायुभगवान हमारी रक्षा करें’ ॥ २८ ॥

इसी तरह मट्ठे के समुद्र से आगे उसके चारों ओर उससे दुगु ने विस्तारवाला पुष्करद्वीप है। वह चारों ओर से अपने ही समान विस्तारवाले मीठे जल के समुद्र से घिरा है। वहाँ अग्रि की शिखा के समान देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखडिय़ोंवाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है, जो ब्रह्माजी का आसन माना जाता है ॥ २९ ॥ उस द्वीप के बीचोबीच उसके पूर्वीय और पश्चिमीय विभागों की मर्यादा निश्चित करनेवाला मानसोत्तर नाम का एक ही पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँचा और उतना ही लंबा है। इसके ऊ पर चारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की चार पुरियाँ हैं। इन पर मेरुपर्वत के चारों ओर घूमनेवाले सूर्य के रथ का संवत्सररूप पहिया देवताओं के दिन और रात अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन के क्रम से सर्वदा घूमा करता है ॥ ३० ॥ उस द्वीप का अधिपति प्रियव्रतपुत्र वीतिहोत्र भी अपने पुत्र रमणक और धातकि को दोनों वर्षों का अधिपति बनाकर स्वयं अपने बड़े भाइयों के समान भगवत्सेवा में ही तत्पर रहने लगा था ॥ ३१ ॥ वहाँ के निवासी ब्रह्मारूप भगवान हरि की ब्रह्मसालोक्यादि की प्राप्ति करानेवाले कर्मों से आराधना करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं— ॥ ३२ ॥ ‘जो साक्षात कर्मफलरूप हैं और एक परमेश्वर में ही जिनकी पूर्ण स्थिति है तथा जिनकी सब लोग पूजा करते हैं, ब्रह्मज्ञान के साधनरूप उन अद्वितीय और शान्त स्वरूप ब्रह्ममूर्ति भगवान को मेरा नमस्कार है’ ॥ ३३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! इसके आगे लोकालोक नाम का पर्वत है। यह पृथ्वी के सब ओर सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशों के बीच में उनका विभाग करने के लिये स्थित है ॥ ३४ ॥ मेरु से लेकर मानसोत्तर पर्वत तक जितना अन्तर है, उतनी ही भूमि शुद्धोदक समुद्र के उस ओर है। उसके आगे सुवर्णमयी भूमि है, जो दर्पण के समान स्वच्छ है। इसमें गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती, इसलिये वहाँ देवताओं के अतिरिक्त और कोई प्राणी नहीं रहता ॥ ३५ ॥ लोकालोकपर्वत सूर्य आदि से प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागों के बीच में है, इससे इसका यह नाम पड़ा है ॥ ३६ ॥ इसे परमात्माने त्रिलो की के बाहर उसके चारों ओर सीमा के रूप में स्थापित किया है। यह इतना ऊँचा और लंबा है कि इसके एक ओर से तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाली सूर्य से लेकर ध्रुवपर्यन्त समस्त ज्योतिर्मण्डल की किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं ॥ ३७ ॥

विद्वानों ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार सम्पूर्ण लोकों का इतना ही विस्तार बतलाया है। यह समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग (अर्थात् साढ़े बारह करोड़ योजन विस्तारवाला) यह लोकालोकपर्वत है ॥ ३८ ॥ इसके ऊ पर चारों दिशाओं में समस्त संसार के गुरु स्वयम्भू श्रीब्रह्माजी ने सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये ऋषभ, पुष्करचूड, वामन और अपराजित नाम के चार गजराज नियुक्त किये हैं ॥ ३९ ॥ इन दिग्गजों की और अपने अंश स्वरूप इन्द्रादि लोकपालों की विविध शक्तियों की वृद्धि तथा समस्त लोकों के कल्याण के लिये परम ऐश्वर्य के अधिपति सर्वान्तर्यामी परम पुरुष श्रीहरि अपने विष्वक्सेन आदि पार्षदों के सहित इस पर्वत पर सब ओर विराजते हैं। वे अपने विशुद्ध सत्त्व (श्रीविग्रह) को जो धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि आठ महासिद्धियों से सम्पन्न है, धारण किये हुए हैं। उनके करकमलों में शङ्ख-चक्रादि आयुध सुशोभित हैं ॥ ४० ॥ इस प्रकार अपनी योगमाया से रचे हुए विविध लोकों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिये वे इसी लीलामय रूप से कल्प के अन्त तक वहाँ सब ओर रहते हैं ॥ ४१ ॥ लोकालोक के अन्तर्वर्ती भूभाग का जितना विस्तार है, उसी से उसके दूसरी ओर के अलोक प्रदेश के परिमाण की भी व्याख्या समझ लेनी चाहिये। उसके आगे तो केवल योगेश्वरों की ही ठीक-ठीक गति हो सकती है ॥ ४२ ॥

राजन् ! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रह्माण्ड का केन्द्र है, वही सूर्य की स्थिति है। सूर्य और ब्रह्माण्डगोलक के बीच में सब ओर से पचीस करोड़ योजन का अन्तर है ॥ ४३ ॥ सूर्य इस मृत अर्थात् मरे हुए (अचेतन) अण्ड में वैराजरूप से विराजते हैं, इसीसे इनका नाम ‘मात्र्तण्ड’ हुआ है। ये हिरण्मय (ज्योतिर्मय) ब्रह्माण्ड से प्रकट हुए हैं, इसलिये इन्हें ‘हिरण्यगर्भ’ भी कहते हैं ॥ ४४ ॥ सूर्य के द्वारा ही दिशा, आकाश, द्युलोक (अन्तरिक्षलोक), भूर्लोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, नरक और रसातल तथा अन्य समस्त भागों का विभाग होता है ॥ ४५ ॥ सूर्य ही देवता, तिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीवसमूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं ॥ ४६ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-21]

॥ एकविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
एतावानेव भूवलयस्य सन्निवेशः प्रमाण-
लक्षणतो व्याख्यातः ॥ १॥

एतेन हि दिवो मण्डलमानं तद्विद
उपदिशन्ति यथा द्विदलयोर्निष्पावादीनां
ते अन्तरेणान्तरिक्षं तदुभयसन्धितम् ॥ २॥

यन्मध्यगतो भगवांस्तपतां पतिस्तपन
आतपेन त्रिलोकीं प्रतपत्यवभासयत्यात्म-
भासा स एष उदगयनदक्षिणायनवैषुवत-
संज्ञाभिर्मान्द्यशैघ्र्यमानाभिर्गतिभिरा-
रोहणावरोहणसमानस्थानेषु यथा
सवनमभिपद्यमानो मकरादिषु राशिष्व-
होरात्राणि दीर्घह्रस्वसमानानि विधत्ते ॥ ३॥

यदा मेषतुलयोर्वर्तते तदाहोरात्राणि
समानानि भवन्ति यदा वृषभादिषु पञ्चसु
च राशिषु चरति तदाहान्येव वर्धन्ते ह्रसति
च मासि मास्येकैका घटिका रात्रिषु ॥ ४॥

यदा वृश्चिकादिषु पञ्चसु वर्तते तदाहो-
रात्राणि विपर्ययाणि भवन्ति ॥ ५॥

यावद्दक्षिणायनमहानि वर्धन्ते यावदुदगयनं
रात्रयः ॥ ६॥

एवं नवकोटय एकपञ्चाशल्लक्षाणि योजनानां
मानसोत्तरगिरिपरिवर्तनस्योपदिशन्ति
तस्मिन्नैन्द्रीं पुरीं पूर्वस्मान्मेरोर्देवधानीं
नाम दक्षिणतो याम्यां संयमनीं नाम
पश्चाद्वारुणीं निम्लोचनीं नाम उत्तरतः
सौम्यां विभावरीं नाम तासूदय-
मध्याह्नास्तमयनिशीथानीति भूतानां
प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तानि
समयविशेषेण मेरोश्चतुर्दिशम् ॥ ७॥

तत्रत्यानां दिवसमध्यङ्गत एव सदाऽऽदित्य-
स्तपति सव्येनाचलं दक्षिणेन करोति ॥ ८॥

यत्रोदेति तस्य ह समानसूत्रनिपाते
निम्लोचति यत्र क्वचन स्यन्देनाभितपति
तस्य हैष समानसूत्रनिपाते प्रस्वापयति
तत्र गतं न पश्यन्ति ये तं समनुपश्येरन् ॥ ९॥

यदा चैन्द्र्याः पुर्याः प्रचलते पञ्चदश-
घटिकाभिर्याम्यां सपादकोटिद्वयं
योजनानां सार्धद्वादशलक्षाणि
साधिकानि चोपयाति ॥ १०॥

एवं ततो वारुणीं सौम्यामैन्द्रीं च
पुनस्तथान्ये च ग्रहाः सोमादयो नक्षत्रैः
सह ज्योतिश्चक्रे समभ्युद्यन्ति सह वा
निम्लोचन्ति ॥ ११॥

एवं मुहूर्तेन चतुस्त्रिंशल्लक्षयोजना-
न्यष्टशताधिकानि सौरो रथस्त्रयीमयोऽसौ
चतसृषु परिवर्तते पुरीषु ॥ १२॥

यस्यैकं चक्रं द्वादशारं षण्नेमि त्रिणाभि
संवत्सरात्मकं समामनन्ति तस्याक्षो
मेरोर्मूर्धनि कृतो मानसोत्तरे कृतेतरभागो
यत्र प्रोतं रविरथचक्रं तैलयन्त्रचक्रवद्भ्रमन्
मानसोत्तरगिरौ परिभ्रमति ॥ १३॥

तस्मिन्नक्षे कृतमूलो द्वितीयोऽक्ष-
स्तुर्यमानेन सम्मितस्तैलयन्त्राक्षवद्ध्रुवे
कृतोपरिभागः ॥ १४॥

रथनीडस्तु षट्त्रिंशल्लक्षयोजनायत-
स्तत्तुरीयभागविशालस्तावान् रविरथयुगो
यत्र हयाश्छन्दो नामानः सप्तारुणयोजिता
वहन्ति देवमादित्यम् ॥ १५॥

पुरस्तात्सवितुररुणः पश्चाच्च नियुक्तः
सौत्ये कर्मणि किलास्ते ॥ १६॥

तथा वालिखिल्या ऋषयोङ्गुष्ठपर्वमात्राः
षष्टिसहस्राणि पुरतः सूर्यं सूक्तवाकाय
नियुक्ताः संस्तुवन्ति ॥ १७॥

तथान्ये च ऋषयो गन्धर्वाप्सरसो नागा
ग्रामण्यो यातुधाना देवा इत्येकैकशो गणाः
सप्तचतुर्दश मासि मासि भगवन्तं सूर्य-
मात्मानं नानानामानं पृथङ्नानानामानः
पृथक्कर्मभिर्द्वन्द्वश उपासते ॥ १८॥

लक्षोत्तरं सार्धनवकोटियोजनपरिमण्डलं
भूवलयस्य क्षणेन सगव्यूत्युत्तरं द्विसहस्र-
योजनानि स भुङ्क्ते ॥ १९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ज्योतिश्चक्रसूर्यरथमण्डलवर्णनं
नमैकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥


पंचम स्कन्ध-इक्कीसवाँ अध्याय 
सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! परिमाण और लक्षणों के सहित इस भूमण्डल का कुल इतना ही विस्तार है, सो हम ने तुम्हें बता दिया ॥ १ ॥ इसी के अनुसार विद्वान्लोग द्युलोक का भी परिमाण बताते हैं। जिस प्रकार चना-मटर आदि के दो दलों में से एक का स्वरूप जान लेने से दूसरे का भी जाना जा सकता है, उसी प्रकार भूर्लोक के परिमाण से ही द्युलोक का भी परिमाण जान लेना चाहिये। इन दोनों के बीच में अन्तरिक्षलोक है। यह इन दोनों का सन्धिस्थान है ॥ २ ॥ इसके मध्यभाग में स्थित ग्रह और नक्षत्रों के अधिपति भगवान सूर्य अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों को तपाते और प्रकाशित करते रहते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नामवाली क्रमश: मन्द, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा, छोटा या समान करते हैं ॥ ३ ॥ जब सूर्यभगवान मेष या तुला राशि पर आते हैं, तब दिन-रात समान हो जाते हैं; जब वृषादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घड़ी कम होती जाती है और उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं ॥ ४ ॥ जब वृश्चिकादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब दिन और रात्रियों में इसके विपरीत परिवर्तन होता है ॥ ५ ॥ इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण लगने तक रात्रियाँ ॥ ६ ॥

इस प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वत पर सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं। उस पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुण की निम्लोचनी और उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नाम की पुरियाँ हैं। इन पुरियों में मेरु के चारों ओर समय-समय पर सूर्योदय, मध्याह्न, सायंकाल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हीं के कारण सम्पूर्ण जीवों की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है ॥ ७ ॥ राजन् ! जो लोग सुमेरु पर रहते हैं उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्याह्नकालीन रहकर ही तपाते रहते हैं। वे अपनी गति के अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रों की ओर जाते हुए यद्यपि मेरु को बायीं ओर रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डल को घुमानेवाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई प्रवह वायु द्वारा घुमा दिये जाने से वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं ॥ ८ ॥ जिस पुरी में सूर्यभगवान का उदय होता है, उसके ठीक दूसरी ओर की पुरी में वे अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगों को पसीने-पसी ने करके तपा रहे होंगे, उसके ठीक सामने की ओर आधी रात होने के कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे। जिन लोगों को मध्याह्न के समय वे स्पष्ट दीख रहे होंगे, वे ही जब सूर्य सौम्यदिशा में पहुँच जायँ, तब उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे ॥ ९ ॥

सूर्यदेव जब इन्द्र की पुरी से यमराज की पुरी को चलते हैं, तब पंद्रह घड़ी में वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजन से कुछ—पचीस हजार योजन— अधिक चलते हैं ॥ १० ॥ फिर इसी क्रम से वे वरुण और चन्द्रमा की पुरियों को पार करके पुन: इन्द्र की पुरी में पहुँचते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्र में अन्य नक्षत्रों के साथ-साथ उदित और अस्त होते रहते हैं ॥ ११ ॥ इस प्रकार भगवानसूर्य का वेदमय रथ एक मुहूत्र्त में चौंतीस लाख आठ सौ योजन के हिसाब से चलता हुआ इन चारों पुरियों में घूमता रहता है ॥ १२ ॥

इसका संवत्सर नाम का एक चक्र (पहिया) बतलाया जाता है। उसमें मासरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छ: नेमियाँ(हाल) हैं, तीन चौमासेरूप तीन नाभि (आँवन) हैं। इस रथ की धुरी का एक सिरा मेरुपर्वत की चोटी पर है और दूसरा मानसोत्तर पर्वतपर। इसमें लगा हुआ यह पहिया कोल्हू के पहिये के समान घूमता हुआ मानसोत्तर पर्वत के ऊ पर चक्कर लगाता है ॥ १३ ॥ इस धुरीमें—जिसका मूल भाग जुड़ा हुआ है, ऐसी एक धुरी और है। वह लंबाई में इससे चौथाई है। उसका ऊपरी भाग तैलयन्त्र के धुरे के समान ध्रुवलोक से लगा हुआ है ॥ १४ ॥

इस रथ में बैठ ने का स्थान छत्तीस लाख योजन लंबा और नौ लाख योजन चौड़ा है। इसका जूआ भी छत्तीस लाख योजन ही लंबा है। उसमें अरुण नाम के सारथि ने गायत्री आदि छन्दोंके- से नामवाले सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही इस रथ पर बैठे हुए भगवान सूर्य को ले चलते हैं ॥ १५ ॥ सूर्यदेव के आगे उन्हीं की ओर मुँह करके बैठे हुए अरुण उनके सारथि का कार्य करते हैं ॥ १६ ॥ भगवान सूर्य के आगे अँगूठे के पोरुए के बराबर आकारवाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्ति- वाचन के लिये नियुक्त हैं। वे उनकी स्तुति करते रहते हैं ॥ १७ ॥ इनके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता भी—जो कुल मिलाकर चौदह हैं, किन्तु जोड़े से रहने के कारण सात गण कहे जाते हैं—प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नामोंवाले होकर अपने भिन्न-भिन्न कर्मों से प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नाम धारण करनेवाले आत्म स्वरूप भगवान सूर्य की दो-दो मिलकर उपासना करते हैं ॥ १८ ॥ इस प्रकार भगवान सूर्य भूमण्डल के नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन लंबे घेरे में से प्रत्येक क्षण में दो हजार दो योजन की दूरी पार कर लेते हैं ॥ १९ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-22]

॥ द्वाविंशोऽध्यायः ॥
राजोवाच
यदेतद्भगवत आदित्यस्य मेरुं ध्रुवं च
प्रदक्षिणेन परिक्रामतो राशीनामभिमुखं
प्रचलितं चाप्रदक्षिणं भगवतोपवर्णित-
ममुष्य वयं कथमनुमिमीमहीति ॥ १॥

स होवाच
यथा कुलालचक्रेण भ्रमता सह
भ्रमतां तदाश्रयाणां पिपीलिकादीनां
गतिरन्यैव प्रदेशान्तरेष्वप्युपलभ्य-
मानत्वादेवं नक्षत्रराशिभिरुपलक्षितेन
कालचक्रेण ध्रुवं मेरुं च प्रदक्षिणेन
परिधावता सह परिधावमानानां
तदाश्रयाणां सूर्यादीनां ग्रहाणां
गतिरन्यैव नक्षत्रान्तरे राश्यन्तरे
चोपलभ्यमानत्वात् ॥ २॥

स एष भगवानादिपुरुष एव साक्षा-
न्नारायणो लोकानां स्वस्तय आत्मानं
त्रयीमयं कर्मविशुद्धिनिमित्तं कविभिरपि
च वेदेन विजिज्ञास्यमानो द्वादशधा
विभज्य षट्सु वसन्तादिष्वृतुषु
यथोपजोषमृतुगुणान् विदधाति ॥ ३॥

तमेतमिह पुरुषास्त्रय्या विद्यया
वर्णाश्रमाचारानुपथा उच्चावचैः
कर्मभिराम्नातैर्योगवितानैश्च श्रद्धया
यजन्तोऽञ्जसा श्रेयः समधिगच्छन्ति ॥ ४॥

अथ स एष आत्मा लोकानां द्यावापृथिव्यो-
रन्तरेण नभोवलयस्य कालचक्रगतो
द्वादशमासान् भुङ्क्ते राशिसंज्ञान्
संवत्सरावयवान् मासः पक्षद्वयं दिवा
नक्तं चेति सपादर्क्षद्वयमुपदिशन्ति
यावता षष्ठमंशं भुञ्जीत स वै ऋतुरि-
त्युपदिश्यते संवत्सरावयवः ॥ ५॥

अथ च यावतार्धेन नभोवीथ्यां प्रचरति तं
कालमयनमाचक्षते ॥ ६॥

अथ च यावन्नभोमण्डलं सह द्यावापृथिव्यो-
र्मण्डलाभ्यां कार्त्स्न्येन स ह भुञ्जीत तं कालं
संवत्सरं परिवत्सरमिडावत्सरमनुवत्सरं
वत्सरमिति भानोर्मान्द्यशैघ्र्यसमगतिभिः
समामनन्ति ॥ ७॥

एवं चन्द्रमा अर्कगभस्तिभ्य उपरिष्टाल्लक्ष-
योजनत उपलभ्यमानो ऽर्कस्य संवत्सर-
भुक्तिं पक्षाभ्यां मासभुक्तिं सपादर्क्षाभ्यां
दिनेनैव पक्षभुक्तिमग्रचारी द्रुततरगमनो भुङ्क्ते ॥ ८॥

अथ चापूर्यमाणाभिश्च कलाभिरमराणां
क्षीयमाणाभिश्च कलाभिः पितॄणामहोरात्राणि
पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यां वितन्वानः सर्वजीव-
निवहप्राणो जीवश्चैकमेकं नक्षत्रं त्रिंशता
मुहूर्तैर्भुङ्क्ते ॥ ९॥

य एष षोडशकलः पुरुषो भगवान्
मनोमयोऽन्नमयोऽमृतमयो देवपितृमनुष्य-
भूतपशुपक्षिसरीसृपवीरुधां प्राणाप्यायन-
शीलत्वात्सर्वमय इति वर्णयन्ति ॥ १०॥

तत उपरिष्टात्त्रिलक्षयोजनतो नक्षत्राणि
मेरुं दक्षिणेनैव कालायन ईश्वरयोजितानि
सहाभिजिताष्टाविंशतिः ॥ ११॥

तत उपरिष्टादुशना द्विलक्षयोजनत
उपलभ्यते पुरतः पश्चात्सहैव वार्कस्य
शैघ्र्यमान्द्यसाम्याभिर्गतिभिरर्कवच्चरति
लोकानां नित्यदानुकूल एव प्रायेण
वर्षयंश्चारेणानुमीयते स वृष्टिविष्टम्भ-
ग्रहोपशमनः ॥ १२॥

उशनसा बुधो व्याख्यातस्तत उपरिष्टा-
द्द्विलक्षयोजनतो बुधः सोमसुत उपलभ्य-
मानःप्रायेण शुभकृद्यदार्काद्व्यतिरिच्येत
तदातिवाताभ्रप्रायानावृष्ट्यादि भयमाशंसते ॥ १३॥

अत ऊर्ध्वमङ्गारकोऽपि योजनलक्षद्वितय
उपलभ्यमानस्त्रिभिस्त्रिभिः पक्षैरेकैकशो
राशीन् द्वादशानुभुङ्क्ते यदि न वक्रेणाभिवर्तते
प्रायेणाशुभग्रहोऽघशंसः ॥ १४॥

तत उपरिष्टाद्द्विलक्षयोजनान्तरगतो
भगवान् बृहस्पतिरेकैकस्मिन् राशौ
परिवत्सरं परिवत्सरं चरति यदि न वक्रः
स्यात्प्रायेणानुकूलो ब्राह्मणकुलस्य ॥ १५॥

तत उपरिष्टाद्योजनलक्षद्वयात्प्रतीयमानः
शनैश्चर एकैकस्मिन् राशौ त्रिंशन्मासान्
विलम्बमानः सर्वानेवानुपर्येति तावद्भि-
रनुवत्सरैः प्रायेण हि सर्वेषामशान्तिकरः ॥ १६॥

तत उत्तरस्मादृषय एकादशलक्ष-
योजनान्तर उपलभ्यन्ते य एव लोकानां
शमनुभावयन्तो भगवतो विष्णोर्यत्परमं
पदं प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति ॥ १७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ज्योतिश्चक्रवर्णने द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥


पंचम स्कन्ध-बाईसवाँ अध्याय 
भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! आपने जो कहा कि यद्यपि भगवान सूर्य राशियों की ओर जाते समय मेरु और ध्रुव को दायीं ओर रखकर चलते मालूम होते हैं, किन्तु वस्तुत: उनकी गति दक्षिणावर्त नहीं होती—इस विषय को हम किस प्रकार समझें ? ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—राजन् ! जैसे कुम्हार के घूमते हुए चाक पर बैठकर उसके साथ घूमती हुई चींटी आदि की अपनी गति उससे भिन्न ही है क्योंकि वह भिन्न-भिन्न समय में उस चक्र के भिन्न-भिन्न स्थानों में देखी जाती है—उसी प्रकार नक्षत्र और राशियों से उपलक्षित कालचक्र में पडक़र ध्रुव और मेरु को दायें रखकर घूमनेवाले सूर्य आदि ग्रहों की गति वास्तव में उससे भिन्न ही है; क्योंकि वे कालभेद से भिन्न-भिन्न राशि और नक्षत्रों में देख पड़ते हैं ॥ २ ॥ वेद और विद्वान् लोग भी जिनकी गति को जान ने के लिये उत्सुक रहते हैं, वे साक्षात आदिपुरुष भगवान नारायण ही लोकों के कल्याण और कर्मों की शुद्धि के लिये अपने वेदमय विग्रह काल को बारह मासों में विभक्त कर वसन्तादि छ: ऋतुओं में उनके यथायोग्य गुणों का विधान करते हैं ॥ ३ ॥ इस लोक में वर्णाश्रमधर्म का अनुसरण करनेवाले पुरुष वेदत्रयी द्वारा प्रतिपादित छोटे-बड़े कर्मों से इन्द्रादि देवताओं के रूप में और योग के साधनों से अन्तर्यामीरूप में उनकी श्रद्धापूर्वक आराधना करके सुगमता से ही परम पद प्राप्त कर सकते हैं ॥ ४ ॥ भगवान सूर्य सम्पूर्ण लोकों के आत्मा हैं। वे पृथ्वी और द्युलोक के मध्य में स्थित आकाशमण्डल के भीतर कालचक्र में स्थित होकर बारह मासों को भोगते हैं, जो संवत्सर के अवयव हैं और मेष आदि राशियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रत्येक मास चन्द्रमान से शुक्ल और कृष्ण दो पक्षका, पितृमान से एक रात और एक दिन का तथा सौरमान से सवा दो नक्षत्र का बताया जाता है। जित ने काल में सूर्यदेव इस संवत्सर का छठा भाग भोगते हैं, उसका वह अवयव ‘ऋतु’ कहा जाता है ॥ ५ ॥ आकाश में भगवान सूर्य का जितना मार्ग है, उसका आधा वे जित ने समय में पारकर लेते हैं, उसे एक ‘अयन’ कहते हैं ॥ ६ ॥ तथा जित ने समय में वे अपनी मन्द, तीव्र और समान गति से स्वर्ग और पृथ्वीमण्डल के सहित पूरे आकाश का चक्कर लगा जाते हैं, उसे अवान्तर भेद से संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अथवा वत्सर कहते हैं ॥ ७ ॥

इसी प्रकार सूर्य की किरणों से एक लाख योजन ऊ पर चन्द्रमा है। उसकी चाल बहुत तेज है, इसलिये वह सब नक्षत्रों से आगे रहता है। यह सूर्य के एक वर्ष के मार्ग को एक मास में, एक मासके मार्ग को सवा दो दिनों में और एक पक्ष के मार्ग को एक ही दिन में तै कर लेता है ॥ ८ ॥ यह कृष्णपक्ष में क्षीण होती हुई कलाओं से पितृगण के और शुक्लपक्ष में बढ़ती हुई कलाओं से देवताओं के दिन-रात का विभाग करता है तथा तीस-तीस मुहूर्तों में एक-एक नक्षत्र को पार करता है। अन्नमय और अमृतमय होने के कारण यही समस्त जीवों का प्राण और जीवन है ॥ ९ ॥ ये जो सोलह कलाओं से युक्त मनोमय, अन्नमय, अमृतमय पुरुष स्वरूप भगवान चन्द्रमा हैं—ये ही देवता, पितर, मनुष्य, भूत, पशु, पक्षी, सरीसृप और वृक्षादि समस्त प्राणियों के प्राणों का पोषण करते हैं; इसलिये इन्हें ‘सर्वमय’ कहते हैं ॥ १० ॥

चन्द्रमा से तीन लाख योजन ऊ पर अभिजित् के सहित अट्ठाईस नक्षत्र हैं। भगवान ने इन्हें कालचक्र में नियुक्त कर रखा है, अत: ये मेरु को दायीं ओर रखकर घूमते रहते हैं ॥ ११ ॥ इन से दो लाख योजन ऊ पर शुक्र दिखायी देता है। यह सूर्य की शीघ्र, मन्द और समान गतियों के अनुसार उन्हींके समान कभी आगे, कभी पीछे और कभी साथ-साथ रहकर चलता है। यह वर्षा करानेवाला ग्रह है, इसलिये लोकों को प्राय: सर्वदा ही अनुकूल रहता है। इस की गति से ऐसा अनुमान होता है कि यह वर्षा रोकनेवाले ग्रहों को शान्त कर देता है ॥ १२ ॥

शुक्र की गति के साथ-साथ बुध की भी व्याख्या हो गयी—शुक्र के अनुसार ही बुध की गति भी समझ लेनी चाहिये। यह चन्द्रमा का पुत्र शुक्र से दो लाख योजन ऊ पर है। यह प्राय: मङ्गलकारी ही है; किन्तु जब सूर्य की गति का उल्लङ्घन करके चलता है, तब बहुत अधिक आँधी, बादल और सूखे के भय की सूचना देता है ॥ १३ ॥ इससे दो लाख योजन ऊ पर मङ्गल है। वह यदि वक्रगति से न चले तो, एक-एक राशि को तीन-तीन पक्ष में भोगता हुआ बारहों राशियों को पार करता है। यह अशुभ ग्रह है और प्राय: अमङ्गल का सूचक है ॥ १४ ॥ इसके ऊ पर दो लाख योजन की दूरी पर भगवान बृहस्पतिजी हैं। ये यदि वक्रगति से न चलें, तो एक-एक राशि को एक-एक वर्ष में भोगते हैं। ये प्राय: ब्राह्मणकुल के लिये अनुकूल रहते हैं ॥ १५ ॥

बृहस्पति से दो लाख योजन ऊ पर शनैश्चर दिखायी देते हैं। ये तीस-तीस महीने तक एक-एक राशि में रहते हैं। अत: इन्हें सब राशियों को पार करने में तीस वर्ष लग जाते हैं। ये प्राय: सभी के लिये अशान्तिकारक हैं ॥ १६ ॥ इनके ऊ पर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर कश्यपादि सप्तर्षि दिखायी देते हैं। ये सब लोकों की मङ्गल-कामना करते हुए भगवान विष्णु के परम पद ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा किया करते हैं ॥ १७ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-23]

॥ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अथ तस्मात्परतस्त्रयोदशलक्षयोजनान्तरतो
यत्तद्विष्णोः परमं पदमभिवदन्ति यत्र ह महा-
भागवतो ध्रुव औत्तानपादिरग्निनेन्द्रेण प्रजापतिना
कश्यपेन धर्मेण च समकालयुग्भिः सबहुमानं
दक्षिणतः क्रियमाण इदानीमपि कल्पजीविना-
माजीव्य उपास्ते तस्येहानुभाव उपवर्णितः ॥ १॥

स हि सर्वेषां ज्योतिर्गणानां ग्रहनक्षत्रादीना-
मनिमिषेणाव्यक्तरंहसा भगवता कालेन
भ्राम्यमाणानां स्थाणुरिवावष्टम्भ ईश्वरेण विहितः
शश्वदवभासते ॥ २॥

यथा मेढीस्तम्भ आक्रमणपशवः संयोजिता-
स्त्रिभिस्त्रिभिः सवनैर्यथास्थानं मण्डलानि
चरन्त्येवं भगणा ग्रहादय एतस्मिन्नन्तर्बहिर्योगेन
कालचक्र आयोजिता ध्रुवमेवावलम्ब्य
वायुनोदीर्यमाणा आकल्पान्तं परिचङ्क्रमन्ति
नभसि यथा मेघाः श्येनादयो वायुवशाः
कर्मसारथयः परिवर्तन्ते एवं ज्योतिर्गणाः
प्रकृतिपुरुषसंयोगानुगृहीताः कर्मनिर्मित-
गतयो भुवि न पतन्ति ॥ ३॥

केचनैतज्ज्योतिरनीकं शिशुमारसंस्थानेन भगवतो
वासुदेवस्य योगधारणायामनुवर्णयन्ति ॥ ४॥

यस्य पुच्छाग्रेऽवाक्शिरसः कुण्डलीभूतदेहस्य
ध्रुव उपकल्पितस्तस्य लाङ्गूले प्रजापतिरग्निरिन्द्रो
धर्म इति पुच्छमूले धाता विधाता च कट्यां
सप्तर्षयः तस्य दक्षिणावर्तकुण्डलीभूतशरीरस्य
यान्युदगयनानि दक्षिणपार्श्वे तु नक्षत्राण्युप-
कल्पयन्ति दक्षिणायनानि तु सव्ये यथा
शिशुमारस्य कुण्डलाभोगसन्निवेशस्य
पार्श्वयोरुभयोरप्यवयवाः समसङ्ख्या भवन्ति
पृष्ठे त्वजवीथी आकाशगङ्गा चोदरतः ॥ ५॥

पुनर्वसुपुष्यौ दक्षिणवामयोः श्रोण्योरार्द्राश्लेषे
च दक्षिणवामयोः पश्चिमयोः पादयोरभिजि-
दुत्तराषाढे दक्षिणवामयोर्नासिकयोर्यथासङ्ख्यं
श्रवणपूर्वाषाढे दक्षिणवामयोर्लोचनयोर्धनिष्ठा
मूलं च दक्षिणवामयोः कर्णयोर्मघादीन्यष्ट
नक्षत्राणि दक्षिणायनानि वामपार्श्ववङ्क्रिषु
युञ्जीत तथैव मृगशीर्षादीन्युदगयनानि
दक्षिणपार्श्ववङ्क्रिषु प्रातिलोम्येन प्रयुञ्जीत
शतभिषा ज्येष्ठे स्कन्धयोर्दक्षिणवामयोर्न्यसेत् ॥ ६॥

उत्तराहनावगस्तिरधराहनौ यमो मुखेषु चाङ्गारकः
शनैश्चर उपस्थे बृहस्पतिः ककुदि वक्षस्यादित्यो
हृदये नारायणो मनसि चन्द्रो नाभ्यामुशना
स्तनयोरश्विनौ बुधः प्राणापानयो राहुर्गले केतवः
सर्वाङ्गेषु रोमसु सर्वे तारागणाः ॥ ७॥

एतदु हैव भगवतो विष्णोः सर्वदेवतामयं
रूपमहरहः सन्ध्यायां प्रयतो वाग्यतो
निरीक्षमाण उपतिष्ठेत नमो ज्योतिर्लोकाय
कालायनायानिमिषां पतये महापुरुषाया- भिधीमहीति ॥ ८॥

ग्रहर्क्षतारामयमाधिदैविकं
पापापहं मन्त्रकृतां त्रिकालम् ।
नमस्यतः स्मरतो वा त्रिकालं
नश्येत तत्कालजमाशु पापम् ॥ ९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे शिशुमारसंस्थावर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥


पंचम स्कन्ध-तेईसवाँ अध्याय 
शिशुमारचक्र का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! सप्तर्षियों से तेरह लाख योजन ऊ पर ध्रुवलोक है। इसे भगवान विष्णु का परम पद कहते हैं। यहाँ उत्तानपाद के पुत्र परम भगवद्भक्त ध्रुवजी विराजमान हैं। अग्रि, इन्द्र, प्रजापति कश्यप और धर्म—ये सब एक साथ अत्यन्त आदरपूर्वक इन की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। अब भी कल्पपर्यन्त रहनेवाले लोक इन्हीं के आधार स्थित हैं। इनका इस लोक का प्रभाव हम पहले (चौथे स्कन्धमें) वर्णन कर चु के हैं ॥ १ ॥ सदा जागते रहनेवाले अव्यक्तगति भगवान काल के द्वारा जो ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरन्तर घुमाये जाते हैं, भगवान ने ध्रुवलोक को ही उन सब के आधार- स्तम्भरूप से नियुक्त किया है। अत: यह एक ही स्थान में रहकर सदा प्रकाशित होता है ॥ २ ॥

जिस प्रकार दायँ चला ने के समय अनाज को खूँदनेवाले पशु छोटी, बड़ी और मध्यम रस्सी में बँधकर क्रमश: निकट, दूर और मध्य में रहकर खंभे के चारों ओर मण्डल बाँधकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सारे नक्षत्र और ग्रहगण बाहर-भीतर के क्रम से इस कालचक्र में नियुक्त होकर ध्रुवलोक का ही आश्रय लेकर वायु की प्रेरणा से कल्प के अन्त तक घूमते रहते हैं। जिस प्रकार मेघ और बाज आदि पक्षी अपने कर्मों की सहायता से वायु के अधीन रहकर आकाश में उड़ते रहते हैं, उसी प्रकार ये ज्योतिर्गण भी प्रकृति और पुरुष के संयोगवश अपने-अपने कर्मों के अनुसार चक्कर काटते रहते हैं, पृथ्वी पर नहीं गिरते ॥ ३ ॥

कोई- कोई पुरुष भगवान की योगमाया के आधार पर स्थित इस ज्योतिश्चक्र का शिशुमार (सूँस) के रूप में वर्णन करते हैं ॥ ४ ॥ यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इसका मुख नीचे की ओर है। इस की पूँछ के सिरे पर ध्रुव स्थित है। पूँछ के मध्यभाग में प्रजापति, अग्रि, इन्द्र और धर्म हैं। पूँछ की जड़ में धाता और विधाता हैं। इसके कटिप्रदेश में सप्तर्षि हैं। यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुडक़र कुण्डली मारे हुए है। ऐसी स्थिति में अभिजित से लेकर पुनर्वसुपर्यन्त जो उत्तरायण के चौदह नक्षत्र हैं, वे इसके दाहि ने भाग में हैं और पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ापर्यन्त जो दक्षिणायन के चौदह नक्षत्र हैं, वे बायें भाग में हैं। लोक में भी जब शिशुमार कुण्डलाकार होता है, तब उसके दोनों ओर के अङ्गों की संख्या समान रहती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्र-संख्या में भी समानता है। इस की पीठ में अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नाम के तीन नक्षत्रों का समूह) है और उदर में आकाशगङ्गा है ॥ ५ ॥ राजन् ! इसके दाहि ने और बायें कटितटों में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं, पीछे के दाहि ने और बायें चरणों में आद्र्रा और आश्लेषा नक्षत्र हैं तथा दाहि ने और बायें नथुनों में क्रमश: अभिजित और उत्तराषाढ़ा हैं। इसी प्रकार दाहि ने और बायें नेत्रों में श्रवण और पूर्वाषाढ़ा एवं दाहि ने और बायें कानों में धनिष्ठा और मूल नक्षत्र हैं। मघा आदि दक्षिणायन के आठ नक्षत्र बायीं पसलियों में और विपरीत क्रम से मृगशिरा आदि उत्तरायण के आठ नक्षत्र दाहिनी पसलियों में हैं। शतभिषा और ज्येष्ठा—ये दो नक्षत्र क्रमश: दाहि ने और बायें कंधों की जगह हैं ॥ ६ ॥ इस की ऊ पर की थूथनी में अगस्त्य, नीचे की ठोडी में नक्षत्ररूप यम, मुखों में मङ्गल, लिङ्गप्रदेश में शनि, ककुद् में बृहस्पति, छाती में सूर्य, हृदय में नारायण, मन में चन्द्रमा, नाभि में शुक्र, स्तनों में अश्विनीकुमार, प्राण और अपान में बुध, गले में राहु, समस्त अङ्गों में केतु और रोमों में सम्पूर्ण तारागण स्थित हैं ॥ ७ ॥

राजन् ! यह भगवान विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप है। इसका नित्यप्रति सायंकाल के समय पवित्र और मौन होकर दर्शन करते हुए चिन्तन करना चाहिये तथा इस मन्त्र का जप करते हुए भगवान की स्तुति करनी चाहिये—‘सम्पूर्ण ज्योतिर्गणों के आश्रय, कालचक्र- स्वरूप, सर्वदेवाधिपति परमपुरुष परमात्मा का हम नमस्कारपूर्वक ध्यान करते हैं’ ॥ ८ ॥ ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के रूप में भगवान का आधिदैविकरूप प्रकाशित हो रहा है; वह तीनों समय उपर्युक्त मन्त्र का जप करनेवाले पुरुषों के पाप नष्ट कर देता है। जो पुरुष प्रात:, मध्याह्न और सायं—तीनों काल उनके इस आधिदैविक स्वरूप का नित्यप्रति चिन्तन और वन्दन करता है, उसके उस समय किये हुए पाप तुरन्त नष्ट हो जाते हैं ॥ ९ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-24]

॥ चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
अधस्तात्सवितुर्योजनायुते स्वर्भानुर्नक्षत्रव-
च्चरतीत्येके योऽसावमरत्वं ग्रहत्वं चालभत ।
भगवदनुकम्पया स्वयमसुरापसदः सैंहिकेयो
ह्यतदर्हस्तस्य तात जन्मकर्माणि चोपरिष्टा-
द्वक्ष्यामः ॥ १॥

यददस्तरणेर्मण्डलं प्रतपतस्तद्विस्तरतो योजना-
युतमाचक्षते द्वादशसहस्रं सोमस्य त्रयोदशसहस्रं
राहोर्यः पर्वणि तद्व्यवधानकृद्वैरानुबन्धः
सूर्याचन्द्रमसावभिधावति ॥ २॥

तन्निशम्योभयत्रापि भगवता रक्षणाय प्रयुक्तं
सुदर्शनं नाम भागवतं दयितमस्त्रं तत्तेजसा
दुर्विषहं मुहुः परिवर्तमानमभ्यवस्थितो मुहूर्त-
मुद्विजमानश्चकितहृदय आरादेव निवर्तते
तदुपरागमिति वदन्ति लोकाः ॥ ३॥

ततोऽधस्तात्सिद्धचारणविद्याधराणां सदनानि
तावन्मात्र एव ॥ ४॥

ततोऽधस्ताद्यक्षरक्षःपिशाचप्रेतभूतगणानां
विहाराजिरमन्तरिक्षं यावद्वायुः प्रवाति यावन्मेघा
उपलभ्यन्ते ॥ ५॥

ततोऽधस्ताच्छतयोजनान्तर इयं पृथिवी याव-
द्धंसभासश्येनसुपर्णादयः पतत्त्रिप्रवरा उत्पतन्तीति ॥ ६॥

उपवर्णितं भूमेर्यथा सन्निवेशावस्थानमवनेर-
प्यधस्तात्सप्तभूविवरा एकैकशो योजनायुतान्तरेणा-यामविस्तारेणोपकॢप्ता अतलं वितलं सुतलं
तलातलं महातलं रसातलं पातालमिति ॥ ७॥

एतेषु हि बिलस्वर्गेषु स्वर्गादप्यधिककामभोगै-
श्वर्यानन्दभूतिविभूतिभिः सुसमृद्धभवनोद्याना-
क्रीडाविहारेषु दैत्यदानवकाद्रवेया नित्यप्रमुदिता-नुरक्तकलत्रापत्यबन्धुसुहृदनुचरा गृहपतय
ईश्वरादप्यप्रतिहतकामा मायाविनोदा निवसन्ति ॥ ८॥

येषु महाराज मयेन मायाविना विनिर्मिताः
पुरो नानामणिप्रवरप्रवेकविरचितविचित्रभवन- प्राकारगोपुरसभाचैत्यचत्वरायतनादिभि-
र्नागासुरमिथुनपारावतशुकसारिकाकीर्णकृत्रिम-भूमिभिर्विवरेश्वरगृहोत्तमैः समलङ्कृताश्चकासति ॥ ९॥

उद्यानानि चातितरां मन इन्द्रियानन्दिभिः
कुसुमफलस्तबकसुभगकिसलयावनतरुचिर-
विटपविटपिनां लताङ्गालिङ्गितानां श्रीभिः समिथुनविविधविहङ्गमजलाशयानाममल-
जलपूर्णानां झषकुलोल्लङ्घनक्षुभितनीरनीरज- कुमुदकुवलयकह्लारनीलोत्पललोहितशतपत्रादि
वनेषु कृतनिकेतनानामेकविहाराकुलमधुर-विविधस्वनादिभिरिन्द्रियोत्सवैरमरलोकश्रिय-
मतिशयितानि ॥ १०॥

यत्र ह वाव न भयमहोरात्रादिभिः कालविभागै-
रुपलक्ष्यते ॥ ११॥

यत्र हि महाहिप्रवरशिरोमणयः सर्वं तमः
प्रबाधन्ते ॥ १२॥

न वा एतेषु वसतां दिव्यौषधिरसरसायनान्न-
पानस्नानादिभिराधयो व्याधयो वलीपलित-
जरादयश्च देहवैवर्ण्यदौर्गन्ध्यस्वेदक्लम-
ग्लानिरिति वयोऽवस्थाश्च भवन्ति ॥ १३॥

न हि तेषां कल्याणानां प्रभवति कुतश्चन मृत्युर्विना
भगवत्तेजसश्चक्रापदेशात् ॥ १४॥

यस्मिन् प्रविष्टेऽसुरवधूनां प्रायः पुंसवनानि
भयादेव स्रवन्ति पतन्ति च ॥ १५॥

अथातले मयपुत्रोऽसुरो बलो निवसति येन
ह वा इह सृष्टाः षण्णवतिर्मायाः काश्चनाद्यापि
मायाविनो धारयन्ति यस्य च जृम्भमाणस्य
मुखतस्त्रयः स्त्रीगणा उदपद्यन्त स्वैरिण्यः
कामिन्यः पुंश्चल्य इति या वै बिलायनं
प्रविष्टं पुरुषं रसेन हाटकाख्येन साधयित्वा स्वविलासावलोकनानुरागस्मितसंलापोप-
गूहनादिभिः स्वैरं किल रमयन्ति यस्मिन्नुपयुक्ते
पुरुष ईश्वरोऽहं सिद्धोऽहमित्ययुतमहागजबल-
मात्मानमभिमन्यमानः कत्थते मदान्ध इव ॥ १६॥

ततोऽधस्ताद्वितले हरो भगवान् हाटकेश्वरः
स्वपार्षदभूतगणावृतः प्रजापतिसर्गोपबृंहणाय
भवो भवान्या सह मिथुनीभूत आस्ते यतः
प्रवृत्ता सरित्प्रवरा हाटकी नाम भवयोर्वीर्येण
यत्र चित्रभानुर्मातरिश्वना समिध्यमान ओजसा
पिबति तन्निष्ठ्यूतं हाटकाख्यं सुवर्णं भूषणेना-
सुरेन्द्रावरोधेषु पुरुषाः सह पुरुषीभिर्धारयन्ति ॥ १७॥

ततोऽधस्तात्सुतले उदारश्रवाः पुण्यश्लोको
विरोचनात्मजो बलिर्भगवता महेन्द्रस्य प्रियं चिकीर्षमाणेनादितेर्लब्धकायो भूत्वा वटुवामन-
रूपेण पराक्षिप्तलोकत्रयो भगवदनुकम्पयैव
पुनः प्रवेशित इन्द्रादिष्वविद्यमानया सुसमृद्धया
श्रियाभिजुष्टः स्वधर्मेणाराधयंस्तमेव भगवन्त माराधनीयमपगतसाध्वस आस्तेऽधुनापि ॥ १८॥

नो एवैतत्साक्षात्कारो भूमिदानस्य यत्तद्भगव-
त्यशेषजीवनिकायानां जीवभूतात्मभूते
परमात्मनि वासुदेवे तीर्थतमे पात्र उपपन्ने
परया श्रद्धया परमादरसमाहितमनसा
सम्प्रतिपादितस्य साक्षादपवर्गद्वारस्य
यद्बिलनिलयैश्वर्यम् ॥ १९॥

यस्य ह वाव क्षुतपतनप्रस्खलनादिषु विवशः
सकृन्नामाभिगृणन् पुरुषः कर्मबन्धनमञ्जसा
विधुनोति यस्य हैव प्रतिबाधनं मुमुक्षवो-
ऽन्यथैवोपलभन्ते ॥ २०॥

तद्भक्तानामात्मवतां सर्वेषामात्मन्यात्मद
आत्मतयैव ॥ २१॥

न वै भगवान् नूनममुष्यानुजग्राह यदुत
पुनरात्मानुस्मृतिमोषणं मायामयभोगैश्वर्य-
मेवातनुतेति ॥ २२॥

यत्तद्भगवतानधिगतान्योपायेन याच्ञाच्छलेना-पहृतस्वशरीरावशेषितलोकत्रयो वरुणपाशैश्च सम्प्रतिमुक्तो गिरिदर्यां चापविद्ध इति होवाच ॥ २३॥

नूनं बतायं भगवानर्थेषु न निष्णातो
योऽसाविन्द्रो यस्य सचिवो मन्त्राय वृत
एकान्ततो बृहस्पतिस्तमतिहाय यमुपेन्द्रेणा-
त्मानमयाचतात्मनश्चाशिषो नो एव तद्दास्य-
मतिगम्भीरवयसः कालस्य मन्वन्तरपरिवृत्तं
कियल्लोकत्रयमिदम् ॥ २४॥

यस्यानुदास्यमेवास्मत्पितामहः किल वव्रे न तु
स्वपित्र्यं यदुताकुतोभयं पदं दीयमानं भगवतः
परमिति भगवतोपरते खलु स्वपितरि ॥ २५॥

तस्य महानुभावस्यानुपथममृजितकषायः
को वास्मद्विधः परिहीणभगवदनुग्रह
उपजिगमिषतीति ॥ २६॥

तस्यानुचरितमुपरिष्टाद्विस्तरिष्यते यस्य
भगवान् स्वयमखिलजगद्गुरुर्नारायणो द्वारि
गदापाणिरवतिष्ठते निजजनानुकम्पितहृदयो
येनाङ्गुष्ठेन पदा दशकन्धरो योजनायुतायुतं
दिग्विजय उच्चाटितः ॥ २७॥

ततोऽधस्तात्तलातले मयो नाम दानवेन्द्र-
स्त्रिपुराधिपतिर्भगवता पुरारिणा त्रिलोकीशं
चिकीर्षुणा निर्दग्धस्वपुरत्रयः तत्प्रसादा-
ल्लब्धपदो मायाविनामाचार्यो महादेवेन
परिरक्षितो विगतसुदर्शनभयो महीयते ॥ २८॥

ततोऽधस्तान्महातले काद्रवेयाणां सर्पाणां
नैकशिरसां क्रोधवशो नाम गणः कुहक-
तक्षककालियसुषेणादिप्रधाना महाभोगवन्तः
पतत्त्रिराजाधिपतेः पुरुषवाहादनवरतमुद्विज-
मानाः स्वकलत्रापत्यसुहृत्कुटुम्बसङ्गेन
क्वचित्प्रमत्ता विहरन्ति ॥ २९॥

ततोऽधस्ताद्रसातले दैतेया दानवाः पणयो
नाम निवातकवचाः कालेया हिरण्यपुर-
वासिन इति विबुधप्रत्यनीका उत्पत्त्या महौजसो
महासाहसिनो भगवतः सकललोकानु भावस्य
हरेरेव तेजसा प्रतिहतबलावलेपा
बिलेशया इव वसन्ति ये वै सरमयेन्द्रदूत्या
वाग्भिर्मन्त्रवर्णाभिरिन्द्राद्बिभ्यति ॥ ३०॥

ततोऽधस्तात्पाताले नागलोकपतयो
वासुकिप्रमुखाः शङ्खकुलिकमहाशङ्खश्वेत-
धनञ्जय धृतराष्ट्रशङ्खचूडकम्बलाश्वतर-
देवदत्तादयो महाभोगिनो महामर्षा निवसन्ति
येषामु ह वै पञ्चसप्तदशशतसहस्रशीर्षाणां
फणासु विरचिता महामणयो रोचिष्णवः
पातालविवरतिमिरनिकरं स्वरोचिषा
विधमन्ति ॥ ३१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे राह्वादिस्थितिबिलस्वर्गमर्यादानिरूपणं
नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥


पंचम स्कन्ध-चौबीसवाँ अध्याय 
राहु आदि की स्थिति, अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! कुछ लोगों का कथन है कि सूर्य से दस हजार योजन नीचे राहु नक्षत्रों के समान घूमता है। इस ने भगवान की कृपा से ही देवत्व और ग्रहत्व प्राप्त किया है, स्वयं यह सिंहिकापुत्र असुराधम होने के कारण किसी प्रकार इस पद के योग्य नहीं है। इसके जन्म और कर्मों का हम आगे वर्णन करेंगे ॥ १ ॥ सूर्य का जो यह अत्यन्त तपता हुआ मण्डल है, उसका विस्तार दस हजार योजन बतलाया जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमण्डल का विस्तार बारह हजार योजन है और राहु का तेरह हजार योजन। अमृतपान के समय राहु देवता के वेष में सूर्य और चन्द्रमा के बीच में आकर बैठ गया था, उस समय सूर्य और चन्द्रमाने इसका भेद खोल दिया था; उस वैर को याद करके यह अमावास्या और पूर्णिमा के दिन उन पर आक्रमण करता है ॥ २ ॥ यह देखकर भगवान ने सूर्य और चन्द्रमा की रक्षा के लिये उन दोनों के पास अपने प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया है। वह निरन्तर घूमता रहता है, इसलिये राहु उसके असह्य तेज से उद्विग्र और चकितचित्त होकर मुहूत्र्तमात्र उनके सामने टिककर फिर सहसा लौट आता है। उसके उतनी देर उनके सामने ठहर ने को ही लोग ‘ग्रहण’ कहते हैं ॥ ३ ॥

राहु से दस हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण और विद्याधर आदि के स्थान हैं ॥ ४ ॥ उनके नीचे जहाँ तक वायु की गति है और बादल दिखायी देते हैं, अन्तरिक्ष लोक है। यह यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत और भूतों का विहारस्थल है ॥ ५ ॥ उससे नीचे सौ योजन की दूरी पर यह पृथ्वी है। जहाँ तक हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि प्रधान-प्रधान पक्षी उड़ सकते हैं, वहीं तक इस की सीमा है ॥ ६ ॥ पृथ्वी के विस्तार और स्थिति आदि का वर्णन तो हो ही चु का है। इसके भी नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल नाम के सात भू-विवर (भूगर्भस्थित बिल या लोक) हैं। ये एक के नीचे एक दस-दस हजार योजन की दूरी पर स्थित हैं और इनमें से प्रत्येक की लंबाई-चौड़ाई भी दस-दस हजार योजन ही है ॥ ७ ॥ ये भूमि के बिल भी एक प्रकार के स्वर्ग ही हैं। इनमें स्वर्ग से भी अधिक विषयभोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान-सुख और धन-सम्पत्ति है। यहाँ के वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीडास्थलों में दैत्य, दानव और नाग तरह-तरह की मायामयी क्रीडाएँ करते हुए निवास करते हैं। वे सब गाहर्स्थ्यधर्म का पालन करनेवाले हैं। उनके स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव और सेवकलोग उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उनके भोगों में बाधा डालने की इन्द्रादि में भी सामथ्र्य नहीं है ॥ ८ ॥ महाराज ! इन बिलों में मायावी मयदानव की बनायी हुई अनेकों पुरियाँ शोभा से जगमगा रही हैं, जो अनेक जाति की सुन्दर-सुन्दर श्रेष्ठ मणियों से रचे हुए चित्र-विचित्र भवन, पर कोटे, नगरद्वार, सभाभवन, मन्दिर, बड़े-बड़े आँगन और गृहों से सुशोभित हैं; तथा जिनकी कृत्रिम भूमियों(फर्शों) पर नाग और असुरों के जोड़े एवं कबूतर, तोता और मैना आदि पक्षी किलोल करते रहते हैं, ऐसे पातालाधिपतियों के भव्यभवन उन पुरियों की शोभा बढ़ाते हैं ॥ ९ ॥ वहाँ के बगीचे भी अपनी शोभा से देवलोक के उद्यानों की शोभा को मात करते हैं। उनमें अनेकों वृक्ष हैं, जिनकी सुन्दर डालियाँ फल-फूलों के गुच्छों और कोमल कोपलों के भार से झु की रहती हैं तथा जिन्हें तरह-तरह की लताओं ने अपने अङ्गपाश से बाँध रखा है। वहाँ जो निर्मल जल से भरे हुए अनेकों जलाशय हैं, उनमें विविध विहंगों के जोड़े विलास करते रहते हैं।

इन वृक्षों और जलाशयों की सुषमा से वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे हैं। उन जलाशयों में रहनेवाली मछलियाँ जब खिलवाड़ करती हुई उछलती हैं, तब उनका जल हिल उठता है। साथ ही जल के ऊ पर उगे हुए कमल, कुमुद, कुवलय, कह्लार, नीलकमल, लालकमल और शतपत्र कमल आदि के समुदाय भी हिल ने लगते हैं। इन कमलों के वनों में रहनेवाले पक्षी अविराम क्रीडा-कौतुक करते हुए भाँति-भाँति की बड़ी मीठी बोली बोलते रहते हैं, जिसे सुनकर मन और इन्द्रियों को बड़ा ही आह्लाद होता है। उस समय समस्त इन्द्रियों में उत्सव-सा छा जाता है ॥ १० ॥ वहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं जाता, इसलिये दिन-रात आदि कालविभाग का भी कोई खट का नहीं देखा जाता ॥ ११ ॥ वहाँ के सम्पूर्ण अन्धकार को बड़े-बड़े नागों के मस्तकों की मणियाँ ही दूर करती हैं ॥ १२ ॥ इन लोकों के निवासी जिन ओषधि, रस, रसायन, अन्न, पान और स्नानादि का सेवन करते हैं, वे सभी पदार्थ दिव्य होते हैं; इन दिव्य वस्तुओं के सेवन से उन्हें मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते। तथा झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, बुढ़ापा आ जाना, देह का कान्तिहीन हो जाना, शरीर में से दुर्गन्ध आना, पसीना चूना, थकावट अथवा शिथिलता आना तथा आयु के साथ शरीर की अवस्थाओं का बदलना—ये कोई विकार नहीं होते। वे सदा सुन्दर, स्वस्थ, जवान और शक्तिसम्पन्न रहते हैं ॥ १३ ॥ उन पुण्यपुरुषों की भगवान के तेजरूप सुदर्शन चक्र के सिवा और किसी साधन से मृत्यु नहीं हो सकती ॥ १४ ॥ सुदर्शन चक्र के तो आते ही भय के कारण असुररमणियों का गर्भस्राव और गर्भपात [1] हो जाता है ॥ १५ ॥

अतल लोक में मयदानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानबे प्रकार की माया रची है। उनमें से कोई- कोई आज भी मायावी पुरुषों में पायी जाती हैं। उसने एक बार जँभाई ली थी, उस समय उसके मुख से स्वैरिणी (केवल अपने वर्ण के पुरुषों से रमण करनेवाली), कामिनी (अन्य वर्णों के पुरुषों से भी समागम करनेवाली) और पुंश्चली (अत्यन्त चञ्चल स्वभाववाली)—तीन प्रकार की स्त्रियाँ उत्पन्न हुर्ईं। ये उस लोक में रहनेवाले पुरुषों को हाटक नाम का रस पिलाकर सम्भोग करने में समर्थ बना लेती हैं। और फिर उनके साथ अपनी हाव-भावमयी चितवन, प्रेममयी मुसकान, प्रेमालाप और आलिङ्गनादि के द्वारा यथेष्ट रमण करती हैं। उस हाटक-रस को पीकर मनुष्य मदान्ध-सा हो जाता है और अपने को दस हजार हाथियों के समान बलवान् समझकर ‘मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ,’ इस प्रकार बढ़-बढक़र बातें करने लगता है ॥ १६ ॥

उसके नीचे वितल लोक में भगवान हाटकेश्वर नामक महादेवजी अपने पार्षद भूतगणों के सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि की वृद्धि के लिये भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के तेज से वहाँ हाट की नाम की एक श्रेष्ठ नदी निकली है। उसके जल को वायु से प्रज्वलित अग्रि बड़े उत्साह से पीता है। वह जो हाटक नाम का सोना थूकता है, उससे बने हुए आभूषणों को दैत्यराजों के अन्त:पुरों में स्त्री-पुरुष सभी धारण करते हैं ॥ १७ ॥

वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशस्वी पवित्रकीर्ति विरोचनपुत्र बलि रहते हैं। भगवान ने इन्द्र का प्रिय करने के लिये अदिति के गर्भ से वटु-वामनरूप में अवतीर्ण होकर उनसे तीनों लोक छीन लिये थे। फिर भगवान की कृपा से ही उनका इस लोक में प्रवेश हुआ। यहाँ उन्हें जैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति मिली हुई है, वैसी इन्द्रादि के पास भी नहीं है। अत: वे उन्हीं पूज्यतम प्रभु की अपने धर्माचरण द्वारा आराधना करते हुए यहाँ आज भी निर्भयतापूर्वक रहते हैं ॥ १८ ॥ राजन् ! सम्पूर्ण जीवों के नियन्ता एवं आत्म स्वरूप परमात्मा भगवान वासुदेव-जैसे पूज्यतम, पवित्रतम पात्र के आने पर उन्हें परम श्रद्धा और आदर के साथ स्थिर चित्त से दिये हुए भूमिदान का यही कोई मुख्य फल नहीं है कि बलि को सुतल लोक का ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। यह ऐश्वर्य तो अनित्य है। किन्तु वह भूमिदान तो साक्षात मोक्ष का ही द्वार है ॥ १९ ॥ भगवान का तो छींकने, गिर ने और फिसल ने के समय विवश होकर एक बार नाम लेने से भी मनुष्य सहसा कर्म-बन्धन को काट देता है, जब कि मुमुक्षुलोग इस कर्मबन्धन को योगसाधन आदि अन्य अनेकों उपायों का आश्रय लेने पर बड़े कष्ट से कहीं काट पाते हैं ॥ २० ॥ अतएव अपने संयमी भक्त और ज्ञानियों को स्व स्वरूप प्रदान करनेवाले और समस्त प्राणियों के आत्मा श्रीभगवान को आत्मभाव से किये हुए भूमिदान का यह फल नहीं हो सकता ॥ २१ ॥ भगवान ने यदि बलि को उसके सर्वस्वदान के बदले अपनी विस्मृति करानेवाला यह मायामय भोग और ऐश्वर्य ही दिया तो उन्होंने उसपर यह कोई अनुग्रह नहीं किया ॥ २२ ॥ जिस समय कोई और उपाय न देखकर भगवान ने याचना के छल से उसका त्रिलो की का राज्य छीन लिया और उसके पास केवल उसका शरीरमात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुण के पाशों में बाँधकर पर्वत की गुफा में डाल दिये जाने पर उसने कहा था ॥ २३ ॥ ‘खेद है, यह ऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान् होकर भी अपना सच्चा स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल नहीं है। इस ने सम्मति लेने के लिये अनन्यभाव से बृहस्पतिजी को अपना मन्त्री बनाया; फिर भी उनकी अवहेलना करके इस ने श्रीविष्णुभगवान से उनका दास्य न माँगकर उनके द्वारा मुझ से अपने लिये ये भोग ही माँगे। ये तीन लोक तो केवल एक मन्वन्तर तक ही रहते हैं, जो अनन्त काल का एक अवयवमात्र है। भगवान के कैङ्कर्य के आगे भला, इन तुच्छ भोगों का क्या मूल्य है ॥ २४ ॥ हमारे पितामह प्रह्लादजीने—भगवान के हाथों अपने पिता हिरण्यकशिपु के मारे जानेपर—प्रभु की सेवा का ही वर माँगा था। भगवान देना भी चाहते थे, तो भी उनसे दूर करनेवाला समझकर उन्होंने अपने पिता का निष्कण्टक राज्य लेना स्वीकार नहीं किया ॥ २५ ॥ वे बड़े महानुभाव थे। मुझ पर तो न भगवान की कृपा ही है और न मेरी वासनाएँ ही शान्त हुई हैं; फिर मेरे-जैसा कौन पुरुष उनके पास पहुँच ने का साहस कर सकता है ? ॥ २६ ॥ राजन् ! इस बलि का चरित हम आगे (अष्टम स्कन्धमें) विस्तार से कहेंगे। अपने भक्तों के प्रति भगवान का हृदय दया से भरा रहता है। इसीसे अखिल जगत के परम पूजनीय गुरु भगवान नारायण हाथ में गदा लिये सुतल लोक में राजा बलि के द्वार पर सदा उपस्थित रहते हैं। एक बार जब दिग्विजय करता हुआ घमंडी रावण वहाँ पहुँचा, तब उसे भगवान ने अपने पैर के अँगूठे की ठोकर से ही लाखों योजन दूर फेंक दिया था ॥ २७ ॥

सुतललोक से नीचे तलातल है। वहाँ त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। पहले तीनों लोकों को शान्ति प्रदान करने के लिये भगवान शङ्करने उसके तीनों पुर भस्म कर दिये थे। फिर उन्हीं की कृपा से उसे यह स्थान मिला। वह मायावियों का परम गुरु है और महादेवजी के द्वारा सुरक्षित है, इसलिये उसे सुदर्शन चक्र से भी कोई भय नहीं है। वहाँ के निवासी उसका बहुत आदर करते हैं ॥ २८ ॥

उसके नीचे महातल में कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरोंवाले सर्पों का क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कुहक, तक्षक, कालिय और सुषेण आदि प्रधान हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं। वे सदा भगवान के वाहन पक्षिराज गरुडज़ी से डरते रहते हैं; तो भी कभी-कभी अपने स्त्री, पुत्र, मित्र और कुटुम्ब के सङ्ग से प्रमत्त होकर विहार करने लगते हैं ॥ २९ ॥

उसके नीचे रसातल में पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओं से विरोध है। ये जन्म से ही बड़े बलवान् और महान साहसी होते हैं। किन्तु जिनका प्रभाव सम्पूर्ण लोकों में फैला हुआ है, उन श्रीहरि के तेज से बलाभिमान चूर्ण हो जाने के कारण ये सर्पों के समान लुक-छिपकर रहते हैं तथा इन्द्र की दूती सरमा के कहे हुए मन्त्रवर्णरूप [2] वाक्य के कारण सर्वदा इन्द्र से डरते रहते हैं ॥ ३० ॥

रसातल के नीचे पाताल है। वहाँ शङ्ख, कुलिक, महाशङ्ख, श्वेत, धनञ्जय, धृतराष्ट्र, शङ्खचूड़, कम्बल, अश्वतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनोंवाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान हैं। उनमें से किसी के पाँच, किसी के सात, किसी के दस, किसी के सौ और किसी के हजार सिर हैं। उनके फनों की दमकती हुई मणियाँ अपने प्रकाश से पाताललोक का सारा अन्धकार नष्ट कर देती हैं ॥ ३१ ॥


[1] ‘आचतुर्थाद्भवेत्स्राव: पात: पञ्चमषष्ठयो:’ अर्थात् चौथे मास तक जो गर्भ गिरता है, उसे ‘गर्भस्राव’ कहते हैं तथा पाँचवें और छठे मास में गिर ने से वह गर्भपात कहलाता है।



[2] एक कथा आती है कि जब पणि नामक दैत्यों ने पृथ्वी को रसातल में छिपा लिया; तब इन्द्र ने उसे ढूँढऩे के लिये सरमा नाम की एक दूती को भेजा था। सरमा से दैत्यों ने सन्धि करनी चाही, परन्तु सरमाने सन्धि न करके इन्द्र की स्तुति करते हुए कहा था—‘हता इन्द्रेण पणय: शयध्वम्’ (हे पणिगण ! तुम इन्द्र के हाथ से मरकर पृथ्वी पर सो जाओ।) इसी शाप के कारण उन्हें सदा इन्द्र का डर लगा रहता है।



स्कन्ध-05 [अध्याय-25]

॥ पञ्चविंशोऽध्यायः ॥
श्रीशुक उवाच
तस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजनसहस्रान्तर आस्ते
या वै कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त
इति सात्वतीया द्रष्टृदृश्ययोः सङ्कर्षणमहमि-
त्यभिमानलक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्षते ॥ १॥

यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोऽनन्तमूर्तेः
सहस्रशिरस एकस्मिन्नेव शीर्षणि ध्रियमाणं
सिद्धार्थ इव लक्ष्यते ॥ २॥

यस्य ह वा इदं कालेनोपसञ्जिहीर्षतोऽमर्ष-
विरचितरुचिरभ्रमद्भ्रुवोरन्तरेण साङ्कर्षणो
नाम रुद्र एकादशव्यूहस्त्र्यक्षस्त्रिशिखं शूल-
मुत्तम्भयन्नुदतिष्ठत् ॥ ३॥

यस्याङ्घ्रिकमलयुगलारुणविशदनखमणि-
षण्डमण्डलेषु अहिपतयः सह सात्वतर्षभै-रेकान्तभक्तियोगेनावनमन्तः स्ववदनानि परिस्फुरत्कुण्डलप्रभामण्डितगण्डस्थलान्यति-
मनोहराणि प्रमुदितमनसः खलु विलोकयन्ति ॥ ४॥

यस्यैव हि नागराजकुमार्य आशिष आशासाना-
श्चार्वङ्गवलयविलसितविशदविपुलधवलसुभग-
रुचिरभुजरजतस्तम्भेष्वगुरुचन्दनकुङ्कुमपङ्कानु-लेपेनावलिम्पमानास्तदभिमर्शनोन्मथितहृदय-मकरध्वजावेशरुचिरललितस्मितास्तदनुराग-
मदमुदितमदविघूर्णितारुणकरुणावलोक-
नयनवदनारविन्दं सव्रीडं किल विलोकयन्ति ॥ ५॥

स एव भगवाननन्तोऽनन्तगुणार्णव आदिदेव
उपसंहृतामर्षरोषवेगो लोकानां स्वस्तय आस्ते ॥ ६॥

ध्यायमानः सुरासुरोरगसिद्धगन्धर्वविद्याधर-
मुनिगणैरनवरतमदमुदितविकृतविह्वललोचनः सुललितमुखरिकामृतेनाप्यायमानः स्वपार्षद-विबुधयूथपतीनपरिम्लानरागनवतुलसिकामोद-
मध्वासवेन माद्यन् मधुकरव्रातमधुरगीतश्रियं
वैजयन्तीं स्वां वनमालां नीलवासा एककुण्डलो
हलककुदि कृतसुभगसुन्दरभुजो भगवान् माहेन्द्रो
वारणेन्द्र इव काञ्चनीं कक्षामुदारलीलो बिभर्ति ॥ ७॥

य एष एवमनुश्रुतो ध्यायमानो मुमुक्षूणामनादि-
कालकर्मवासनाग्रथितमविद्यामयं हृदयग्रन्थिं
सत्त्वरजस्तमोमयमन्तर्हृदयं गत आशु
निर्भिनत्ति तस्यानुभावान् भगवान् स्वायम्भुवो
नारदः सह तुम्बुरुणा सभायां ब्रह्मणः
संश्लोकयामास ॥ ८॥

उत्पत्तिस्थितिलयहेतवोऽस्य कल्पाः
सत्त्वाद्याः प्रकृतिगुणा यदीक्षयाऽऽसन् ।
यद्रूपं ध्रुवमकृतं यदेकमात्मन्
नानाधात्कथमु ह वेद तस्य वर्त्म ॥ ९॥

मूर्तिं नः पुरुकृपया बभार सत्त्वं
संशुद्धं सदसदिदं विभाति तत्र ।
यल्लीलां मृगपतिराददेऽनवद्यामादातुं
स्वजनमनांस्युदारवीर्यः ॥ १०॥

यन्नामश्रुतमनुकीर्तयेदकस्मादार्तो
वा यदि पतितः प्रलम्भनाद्वा ।
हन्त्यंहः सपदि नृणामशेषमन्यं
कं शेषाद्भगवत आश्रयेन्मुमुक्षुः ॥ ११॥

मूर्धन्यर्पितमणुवत्सहस्रमूर्ध्नो
भूगोलं सगिरिसरित्समुद्रसत्त्वम् ।
आनन्त्यादनिमितविक्रमस्य भूम्नः
को वीर्याण्यधिगणयेत्सहस्रजिह्वः ॥ १२॥

एवम्प्रभावो भगवाननन्तो
दुरन्तवीर्योरुगुणानुभावः ।
मूले रसायाः स्थित आत्मतन्त्रो
यो लीलया क्ष्मां स्थितये बिभर्ति ॥ १३॥

एता ह्येवेह नृभिरुपगन्तव्या गतयो यथा
कर्मविनिर्मिता यथोपदेशमनुवर्णिताः कामान्
कामयमानैः ॥ १४॥

एतावतीर्हि राजन् पुंसः प्रवृत्तिलक्षणस्य धर्मस्य
विपाकगतय उच्चावचा विसदृशा यथाप्रश्नं
व्याचख्ये किमन्यत्कथयाम इति ॥ १५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे भूविवरविध्युपवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५॥


पंचम स्कन्ध-पचीसवाँ अध्याय 
श्रीसङ्कर्षणदेव का विवरण और स्तुति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! पाताललोक के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनन्त नाम से विख्यात भगवान की तामसी नित्य कला है। यह अहंकाररूपा होने से द्रष्टा और दृश्य को खींचकर एक कर देती है, इसलिये पाञ्चरात्र आगम के अनुयायी भक्तजन इसे ‘सङ्कर्षण’ कहते हैं ॥ १ ॥ इन भगवान अनन्त के एक हजार मस् तक हैं। उनमें से एक पर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसों के दा ने के समान दिखायी देता है ॥ २ ॥ प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब इन्हें इस विश्व का उपसंहार करने की इच्छा होती है, तब इन की क्रोधवश घूमती हुई मनोहर भ्रुकुटियों के मध्यभाग से सङ्कर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं। उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रोंवाले होते हैं और हाथ में तीन नोकोंवाले शूल लिये रहते हैं ॥ ३ ॥ भगवान सङ्कर्षण के चरणकमलों के गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियों की पङ्क्ति के समान देदीप्यमान हैं। जब अन्य प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित अनेकों नागराज अनन्य भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नखमणियों में अपने कुण्डल-कान्तिमण्डित कमनीय कपोलोंवाले मनोहर मुखारविन्दों की मनमोहिनी झाँ की होती है और उनका मन आनन्द से भर जाता है ॥ ४ ॥ अनेकों नागराजों की कन्याएँ विविध कामनाओं से उनके अङ्गमण्डल पर चाँदी के खम्भों के समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओं पर अरगजा, चन्दन और कुङ्कुमपङ्क का लेप करती हैं। उस समय अङ्गस्पर्श से मथित हुए उनके हृदय में काम का सञ्चार हो जाता है। तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलों से सुशोभित तथा प्रेममद से मुदित मुखारविन्द की ओर मधुर मनोहर मुसकान के साथ सलज्ज भाव से निहार ने लगती हैं ॥ ५ ॥ वे अनन्त गुणों के सागर आदिदेव भगवान अनन्त अपने अमर्ष (असहन- शीलता) और रोष के वेग को रो के हुए वहाँ समस्त लोकों के कल्याण के लिये विराजमान हैं ॥ ६ ॥

देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान अनन्त का ध्यान किया करते हैं। उनके नेत्र निरन्तर प्रेममद से मुदित, चञ्चल और विह्वल रहते हैं। वे सुललित वचनामृत से अपने पार्षद और देवयूथपों को सन्तुष्ट करते रहते हैं। उनके अङ्ग पर नीलाम्बर और कानों में केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हल की मूठ पर रखा रहता है। वे उदारलीलामय भगवान सङ्कर्षण गले में वैजयन्ती माला धारण किये रहते हैं, जो साक्षात इन्द्र के हाथी ऐरावत के गले में पड़ी हुई सुवर्ण की शृङ्खला के समान जान पड़ती है। जिसकी कान्ति कभी फी की नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसी की गन्ध और मधुर मकरन्द से उन्मत्त हुए भौंरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं ॥ ७ ॥

परीक्षित ! इस प्रकार भगवान अनन्त माहात्म्य श्रवण और ध्यान करने से मुमुक्षुओं के हृदय में आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओं से ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदयग्रन्थि को तत्काल काट डालते हैं। उनके गुणों का एक बार ब्रह्माजी के पुत्र भगवान नारद ने तुम्बुरु गन्धर्व के साथ ब्रह्माजी की सभा में इस प्रकार गान किया था ॥ ८ ॥

जिनकी दृष्टि पडऩे से ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्य में समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपञ्च को अपने में धारण किये हुए हैं—उन भगवान सङ्कर्षण के तत्त्व को कोई कैसे जान सकता है ॥ ९ ॥ जिन में यह कार्य-कारणरूप सारा प्रपञ्च भास रहा है तथा अपने निजजनों का चित्त आकर्षित करने के लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीला को परम पराक्रमी सिंह ने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य सङ्कर्षण भगवान ने हम पर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है ॥ १० ॥ जिनके सुने-सुनाये नाम का कोई पीडि़त अथवा पतित पुरुष अकस्मात् अथवा हँसी में भी उच्चारण कर लेता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्यों के भी सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देता है—ऐसे शेषभगवान को छोडक़र मुमुक्षु पुरुष और किस का आश्रय ले सकता है ? ॥ ११ ॥ यह पर्वत, नदी और समुद्रादि से पूर्ण सम्पूर्ण भूमण्डल उन सहस्रशीर्षा भगवान के एक मस् तक पर एक रज:कण के समान रखा हुआ है। वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रम का कोई परिमाण नहीं है। किसी के हजार जीभें हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान के पराक्रमों की गणना करने का साहस वह कैसे कर सकता है ? ॥ १२ ॥ वास्तव में उनके वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम हैं। ऐसे प्रभावशाली भगवान अनन्त रसातल के मूल में अपनी ही महिमा में स्थित स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये लीला से ही पृथ्वी को धारण किये हुए हैं ॥ १३ ॥

राजन् ! भोगों की कामनावाले पुरुषों की अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त होनेवाली भगवान की रची हुई ये ही गतियाँ हैं। इन्हें जिस प्रकार मैंने गुरुमुख से सुना था, उसी प्रकार तुम्हें सुना दिया ॥ १४ ॥ मनुष्य को प्रवृत्तिरूप धर्म के परिणाम में प्राप्त होनेवाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं; इन्हें तुम्हारे प्रश्र के अनुसार मैंने सुना दिया। अब बताओ, और क्या सुनाऊँ ? ॥ १५ ॥

स्कन्ध-05 [अध्याय-26]

॥ षड्विंशोऽध्यायः ॥
राजोवाच
महर्ष एतद्वैचित्र्यं लोकस्य कथमिति ॥ १॥

ऋषिरुवाच
त्रिगुणत्वात्कर्तुः श्रद्धया कर्मगतयः पृथग्विधाः
सर्वा एव सर्वस्य तारतम्येन भवन्ति ॥ २॥

अथेदानीं प्रतिषिद्धलक्षणस्याधर्मस्य तथैव कर्तुः
श्रद्धाया वैसादृश्यात्कर्मफलं विसदृशं भवति या
ह्यनाद्यविद्यया कृतकामानां तत्परिणामलक्षणाः
सृतयः सहस्रशः प्रवृत्तास्तासां प्राचुर्येणा-
नुवर्णयिष्यामः ॥ ३॥

राजोवाच
नरका नाम भगवन् किं देशविशेषा अथवा
बहिस्त्रिलोक्या आहोस्विदन्तराल इति ॥ ४॥

ऋषिरुवाच
अन्तराल एव त्रिजगत्यास्तु दिशि
दक्षिणस्यामधस्ताद्भूमेरुपरिष्टाच्च
जलाद्यस्यामग्निष्वात्तादयः पितृगणा
दिशि स्वानां गोत्राणां परमेण समाधिना
सत्या एवाशिष आशासाना निवसन्ति ॥ ५॥

यत्र ह वाव भगवान् पितृराजो वैवस्वतः
स्वविषयं प्रापितेषु स्वपुरुषैर्जन्तुषु
सम्परेतेषु यथा कर्मावद्यं दोषमेवानु-
ल्लङ्घितभगवच्छासनः सगणो दमं धारयति ॥ ६॥

तत्र हैके नरकानेकविंशतिं गणयन्ति अथ
तांस्ते राजन् नामरूपलक्षणतोऽनुक्रमिष्याम-
स्तामिस्रोऽन्धतामिस्रो रौरवो महारौरवः
कुम्भीपाकः कालसूत्रमसिपत्रवनं सूकरमुख-
मन्धकूपः कृमिभोजनः सन्दंशस्तप्तसूर्मि-
र्वज्रकण्टकशाल्मली वैतरणी पूयोदः
प्राणरोधो विशसनं लालाभक्षः सारमेयादन-
मवीचिरयःपानमिति किञ्च क्षारकर्दमो
रक्षोगणभोजनः शूलप्रोतो दन्दशूको-
ऽवटनिरोधनः पर्यावर्तनः सूचीमुखमि-
त्यष्टाविंशतिर्नरका विविधयातनाभूमयः ॥ ७॥

तत्र यस्तु परवित्तापत्यकलत्राण्यपहरति स हि
कालपाशबद्धो यमपुरुषैरतिभयानकैस्तामिस्रे
नरके बलान्निपात्यते अनशनानुदपानदण्ड-
ताडनसन्तर्जनादिभिर्यातनाभिर्यात्यमानो
जन्तुर्यत्र कश्मलमासादित एकदैव मूर्च्छा-
मुपयाति तामिस्रप्राये ॥ ८॥

एवमेवान्धतामिस्रे यस्तु वञ्चयित्वा पुरुषं
दारादीनुपयुङ्क्ते यत्र शरीरी निपात्यमानो
यातनास्थो वेदनया नष्टमतिर्नष्टदृष्टिश्च
भवति यथा वनस्पतिर्वृश्च्यमानमूलस्तस्मा-
दन्धतामिस्रं तमुपदिशन्ति ॥ ९॥

यस्त्विह वा एतदहमिति ममेदमिति
भूतद्रोहेण केवलं स्वकुटुम्बमेवानुदिनं
प्रपुष्णाति स तदिह विहाय स्वयमेव
तदशुभेन रौरवे निपतति ॥ १०॥

ये त्विह यथैवामुना विहिंसिता जन्तवः परत्र
यमयातनामुपगतं त एव रुरवो भूत्वा तथा
तमेव विहिंसन्ति तस्माद्रौरवमित्याहू रुरुरिति सर्पादतिक्रूरसत्त्वस्यापदेशः ॥ ११॥

एवमेव महारौरवो यत्र निपतितं पुरुषं क्रव्यादा
नाम रुरवस्तं क्रव्येण घातयन्ति यः केवलं
देहम्भरः ॥ १२॥

यस्त्विह वा उग्रः पशून् पक्षिणो वा प्राणत
उपरन्धयति तमपकरुणं पुरुषादैरपि
विगर्हितममुत्र यमानुचराः कुम्भीपाके तप्ततैले
उपरन्धयन्ति ॥ १३॥

यस्त्विह पितृविप्रब्रह्मध्रुक् स कालसूत्रसंज्ञके
नरके अयुतयोजनपरिमण्डले ताम्रमये तप्तखले उपर्यधस्तादग्न्यर्काभ्यामतितप्यमानेऽभिनिवेशितः
क्षुत्पिपासाभ्यां च दह्यमानान्तर्बहिःशरीर
आस्ते शेते चेष्टतेऽवतिष्ठति परिधावति च
यावन्ति पशुरोमाणि तावद्वर्षसहस्राणि ॥ १४॥

यस्त्विह वै निजवेदपथादनापद्यपगतः पाखण्डं
चोपगतस्तमसिपत्रवनं प्रवेश्य कशया प्रहरन्ति
तत्र हासावितस्ततो धावमान उभयतो धारै-स्तालवनासिपत्रैश्छिद्यमानसर्वाङ्गो हा हतो-
ऽस्मीति परमया वेदनया मूर्च्छितः पदे पदे
निपतति स्वधर्महा पाखण्डानुगतं फलं भुङ्क्ते ॥ १५॥

यस्त्विह वै राजा राजपुरुषो वा अदण्ड्ये दण्डं
प्रणयति ब्राह्मणे वा शरीरदण्डं स पापीयान्
नरकेऽमुत्र सूकरमुखे निपतति तत्रातिबलै-
र्विनिष्पिष्यमाणावयवो यथैवेहेक्षुखण्ड
आर्तस्वरेण स्वनयन् क्वचिन्मूर्च्छितः
कश्मलमुपगतो यथैवेहादृष्टदोषा उपरुद्धाः ॥ १६॥

यस्त्विह वै भूतानामीश्वरोपकल्पितवृत्तीना-
मविविक्तपरव्यथानां स्वयं पुरुषोपकल्पित-
वृत्तिर्विविक्तपरव्यथो व्यथामाचरति स
परत्रान्धकूपे तदभिद्रोहेण निपतति तत्र हासौ
तैर्जन्तुभिः पशुमृगपक्षिसरीसृपैर्मशकयूका-
मत्कुणमक्षिकादिभिर्ये के चाभिद्रुग्धास्तैः
सर्वतोऽभिद्रुह्यमाणस्तमसि विहतनिद्रानिर्वृति-
रलब्धावस्थानः परिक्रामति यथा कुशरीरे जीवः ॥ १७॥

यस्त्विह वा असंविभज्याश्नाति यत्किञ्चनो-
पनतमनिर्मितपञ्चयज्ञो वायससंस्तुतः स
परत्र कृमिभोजने नरकाधमे निपतति तत्र
शतसहस्रयोजने कृमिकुण्डे कृमिभूतः स्वयं
कृमिभिरेव भक्ष्यमाणः कृमिभोजनो यावत्तदप्रत्ताप्रहूतादोऽनिर्वेशमात्मानं
यातयते ॥ १८॥

यस्त्विह वै स्तेयेन बलाद्वा हिरण्यरत्नादीनि
ब्राह्मणस्य वापहरत्यन्यस्य वानापदि पुरुष-
स्तममुत्र राजन् यमपुरुषा अयस्मयैरग्निपिण्डैः
सन्दंशैस्त्वचि निष्कुषन्ति ॥ १९॥

यस्त्विह वा अगम्यां स्त्रियमगम्यं वा पुरुषं
योषिदभिगच्छति तावमुत्र कशया ताडयन्त-
स्तिग्मया सूर्म्या लोहमय्या पुरुषमालिङ्गयन्ति
स्त्रियं च पुरुषरूपया सूर्म्या ॥ २०॥

यस्त्विह वै सर्वाभिगमस्तममुत्र निरये वर्तमानं वज्रकण्टकशाल्मलीमारोप्य निष्कर्षन्ति ॥ २१॥

ये त्विह वै राजन्या राजपुरुषा वा अपाखण्डा
धर्मसेतून् भिन्दन्ति ते सम्परेत्य वैतरण्यां
निपतन्ति भिन्नमर्यादास्तस्यां निरयपरिखा-
भूतायां नद्यां यादोगणैरितस्ततो भक्ष्यमाणा
आत्मना न वियुज्यमानाश्चासुभिरुह्यमानाः
स्वाघेन कर्मपाकमनुस्मरन्तो विण्मूत्रपूयशोणित- केशनखास्थिमेदोमांसवसावाहिन्यामुपतप्यन्ते ॥ २२॥

ये त्विह वै वृषलीपतयो नष्टशौचाचारनियमा-
स्त्यक्तलज्जाः पशुचर्यां चरन्ति ते चापि प्रेत्य पूयविण्मूत्रश्लेष्ममलापूर्णार्णवे निपतन्ति
तदेवातिबीभत्सितमश्नन्ति ॥ २३॥

ये त्विह वै श्वगर्दभपतयो ब्राह्मणादयो मृगया-
विहारा अतीर्थे च मृगान् निघ्नन्ति तानपि
सम्परेतान् लक्ष्यभूतान् यमपुरुषा इषुभिर्विध्यन्ति ॥ २४॥

ये त्विह वै दाम्भिका दम्भयज्ञेषु पशून् विशसन्ति
तानमुष्मिन् लोके वैशसे नरके पतितान् निरयपतयो
यातयित्वा विशसन्ति ॥ २५॥

यस्त्विह वै सवर्णां भार्यां द्विजो रेतः पाययति
काममोहितस्तं पापकृतममुत्र रेतःकुल्यायां
पातयित्वा रेतः सम्पाययन्ति ॥ २६॥

ये त्विह वै दस्यवोऽग्निदा गरदा ग्रामान् सार्थान् वा
विलुम्पन्ति राजानो राजभटा वा तांश्चापि हि
परेत्य यमदूता वज्रदंष्ट्राः श्वानः सप्तशतानि
विंशतिश्च सरभसं खादन्ति ॥ २७॥

यस्त्विह वा अनृतं वदति साक्ष्ये द्रव्यविनिमये
दाने वा कथञ्चित्स वै प्रेत्य नरकेऽवीचिमत्यधः-
शिरा निरवकाशे योजनशतोच्छ्रायाद्गिरिमूर्ध्नः
सम्पात्यते यत्र जलमिव स्थलमश्मपृष्ठमव-
भासते तदवीचिमत्तिलशो विशीर्यमाणशरीरो
न म्रियमाणः पुनरारोपितो निपतति ॥ २८॥

यस्त्विह वै विप्रो राजन्यो वैश्यो वा सोमपीथ-
स्तत्कलत्रं वा सुरां व्रतस्थोऽपि वा पिबति
प्रमादतस्तेषां निरयं नीतानामुरसि पदा-
क्रम्यास्ये वह्निना द्रवमाणं कार्ष्णायसं निषिञ्चन्ति ॥ २९॥

अथ च यस्त्विह वा आत्मसम्भावनेन स्वय-
मधमो जन्मतपोविद्याचारवर्णाश्रमवतो
वरीयसो न बहुमन्येत स मृतक एव मृत्वा क्षारकर्दमे निरयेऽवाक्शिरा निपातितो दुरन्ता यातना ह्यश्नुते ॥ ३०॥

ये त्विह वै पुरुषाः पुरुषमेधेन यजन्ते याश्च
स्त्रियो नृपशून् खादन्ति तांश्च ते पशव इव
निहता यमसदने यातयन्तो रक्षोगणाः सौनिका
इव स्वधितिनावदायासृक् पिबन्ति नृत्यन्ति च
गायन्ति च हृष्यमाणा यथेह पुरुषादाः ॥ ३१॥

ये त्विह वा अनागसोऽरण्ये ग्रामे वा वैश्रम्भकै-
रुपसृतानुपविश्रम्भय्य जिजीविषून् शूलसूत्रादिषू-
पप्रोतान् क्रीडनकतया यातयन्ति तेऽपि च प्रेत्य
यमयातनासु शूलादिषु प्रोतात्मानः क्षुत्तृड्भ्यां
चाभिहताः कङ्कवटादिभिश्चेतस्ततस्तिग्मतुण्डै-
राहन्यमाना आत्मशमलं स्मरन्ति ॥ ३२॥

ये त्विह वै भूतान्युद्वेजयन्ति नरा उल्बणस्वभावा
यथा दन्दशूकास्तेऽपि प्रेत्य नरके दन्दशूकाख्ये
निपतन्ति यत्र नृप दन्दशूकाः पञ्चमुखाः सप्तमुखा
उपसृत्य ग्रसन्ति यथा बिलेशयान् ॥ ३३॥

ये त्विह वा अन्धावटकुसूलगुहादिषु भूतानि
निरुन्धन्ति तथामुत्र तेष्वेवोपवेश्य सगरेण वह्निना
धूमेन निरुन्धन्ति ॥ ३४॥

यस्त्विह वा अतिथीनभ्यागतान् वा गृहपतिरसकृ-
दुपगतमन्युर्दिधक्षुरिव पापेन चक्षुषा निरीक्षते तस्य
चापि निरये पापदृष्टेरक्षिणी वज्रतुण्डा गृध्राः
कङ्ककाकवटादयः प्रसह्योरुबलादुत्पाटयन्ति ॥ ३५॥

यस्त्विह वा आढ्याभिमतिरहङ्कृतिस्तिर्यक्प्रेक्षणः
सर्वतोऽभिविशङ्की अर्थव्ययनाशचिन्तया
परिशुष्यमाणहृदयवदनो निर्वृतिमनवगतो ग्रह
इवार्थमभिरक्षति स चापि प्रेत्य तदुत्पादनोत्कर्षण
संरक्षणशमलग्रहः सूचीमुखे नरके निपतति यत्र
ह वित्तग्रहं पापपुरुषं धर्मराजपुरुषा वायका इव
सर्वतोऽङ्गेषु सूत्रैः परिवयन्ति ॥ ३६॥

एवंविधा नरका यमालये सन्ति शतशः
सहस्रशस्तेषु सर्वेषु च सर्व एवाधर्मवर्तिनो
ये केचिदिहोदिता अनुदिताश्चावनिपते
पर्यायेण विशन्ति तथैव धर्मानुवर्तिन इतरत्र
इह तु पुनर्भवे त उभयशेषाभ्यां निविशन्ति ॥ ३७॥

निवृत्तिलक्षणमार्ग आदावेव व्याख्यातः
एतावानेवाण्डकोशो यश्चतुर्दशधा पुराणेषु
विकल्पित उपगीयते यत्तद्भगवतो
नारायणस्य साक्षान्महापुरुषस्य स्थविष्ठं रूपमात्ममायागुणमयमनुवर्णित-
मादृतः पठति श‍ृणोति श्रावयति स
उपगेयं भगवतः परमात्मनोऽग्राह्यमपि
श्रद्धाभक्तिविशुद्धबुद्धिर्वेद ॥ ३८॥

श्रुत्वा स्थूलं तथा सूक्ष्मं रूपं भगवतो यतिः ।
स्थूले निर्जितमात्मानं शनैः सूक्ष्मं धिया नयेदिति ॥ ३९॥

भूद्वीपवर्षसरिदद्रिनभःसमुद्र-
पातालदिङ्नरकभागणलोकसंस्था ।
गीता मया तव नृपाद्भुतमीश्वरस्य
स्थूलं वपुः सकलजीवनिकायधाम ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे नरकानुवर्णनं नाम
षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६॥


॥ इति पञ्चमस्कन्धः समाप्तः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ 

पंचम स्कन्ध-छब्बीसवाँ अध्याय 
नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन
राजा परीक्षित ने पूछा—महर्षे ! लोगों को जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है ? ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—राजन् ! कर्म करनेवाले पुरुष सात्त्विक, राजस और तामस—तीन प्रकार के होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धा के भेद से उनके कर्मों की गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और न्यूनाधिकरूप में ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओं को प्राप्त होती हैं ॥ २ ॥ इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरूप पाप करनेवालों को भी, उनकी श्रद्धा की असमानता के कारण, समान फल नहीं मिलता। अत: अनादि अविद्या के वशीभूत होकर कामनापूर्वक किये हुए उन निषिद्ध कर्मों के परिणाम में जो हजारों तरह की नारकी गतियाँ होती हैं, उनका विस्तार से वर्णन करेंगे ॥ ३ ॥

राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं, वे नरक इसी पृथ्वी के कोई देशविशेष हैं अथवा त्रिलोकी से बाहर या इसी के भीतर किसी जगह हैं ? ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा—राजन् ! वे त्रिलो की के भीतर ही हैं तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊ पर स्थित हैं। इसी दिशा में अग्रिष्वात्त आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक अपने वंशधरों के लिये मङ्गलकामना किया करते हैं ॥ ५ ॥ उस नरकलोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान यम अपने सेवकों के सहित रहते हैं तथा भगवान की आज्ञा का उल्लङ्घन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दण्ड देते हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित ! कोई- कोई लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते हैं। अब हम नाम, रूप और लक्षणों के अनुसार उनका क्रमश: वर्णन करते हैं। उनके नाम ये हैं—तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अय:पान। इनके सिवा क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख—ये सात और मिलाकर कुल अट्ठाईस नरक तरह-तरह की यातनाओं को भोग ने के स्थान हैं ॥ ७ ॥

जो पुरुष दूसरों के धन, सन्तान अथवा स्त्रियों का हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाश में बाँधकर बलात् तामिस्र नरक में गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरक में उसे अन्न-जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकार के उपायों से पीडि़त किया जाता है। इससे अत्यन्त दुखी होकर वह एकाएक मूर्च्छित हो जाता है ॥ ८ ॥ इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरे को धोखा देकर उसकी स्त्री आदि को भोगता है, वह अन्धतामिस्र नरक में पड़ता है। वहाँ की यातनाओं में पडक़र वह, जड़ से कटे हुए वृक्ष के समान, वेदना के मारे सारी सुध-बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसीसे इस नरक को अन्धतामिस्र कहते हैं ॥ ९ ॥

जो पुरुष इस लोक में ‘यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्री-धनादि मेरे हैं’ ऐसी बुद्धि से दूसरे प्राणियों से द्रोह करके निरन्तर अपने कुटुम्ब के ही पालन-पोषण में लगा रहता है, वह अपना शरीर छोडऩे पर अपने पाप के कारण स्वयं ही रौरव नरक में गिरता है ॥ १० ॥ इस लोक में उसने जिन जीवों को जिस प्रकार कष्ट पहुँचाया होता है परलोक में यमयातना का समय आने पर वे जीव ‘रुरु’ होकर उसे उसी प्रकार कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिये इस नरक का नाम ‘रौरव’ है। ‘रुरु’ सर्प से भी अधिक क्रूर स्वभाववाले एक जीव का नाम है ॥ ११ ॥ ऐसा ही महारौरव नरक है। इसमें वह व्यक्ति जाता है, जो और किसी की परवा न कर केवल अपने ही शरीर का पालन-पोषण करता है। वहाँ कच्चा मांस खानेवाले ‘रुरु’ इसे मांसके लोभ से काटते हैं ॥ १२ ॥

जो क्रूर मनुष्य इस लोक में अपना पेट पालने के लिये जीवित पशु या पक्षियों को राँधता है, उस हृदयहीन, राक्षसों से भी गये-बीते पुरुष को यमदूत कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तैल में राँधते हैं ॥ १३ ॥ जो मनुष्य इस लोक में माता-पिता, ब्राह्मण और वेद से विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र नरक में ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन है। इस की भूमि ताँबे की है। इसमें जो तपा हुआ मैदान है, वह ऊ पर से सूर्य और नीचे से अग्रि के दाह से जलता रहता है। वहाँ पहुँचाया हुआ पापी जीव भूख-प्यास से व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर-भीतर से जल ने लगता है। उसकी बेचैनी यहाँ तक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटा ने लगता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौडऩे लगता है। इस प्रकार उस नर-पशु के शरीर में जित ने रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्ष तक उसकी यह दुर्गति होती रहती है ॥ १४ ॥

जो पुरुष किसी प्रकार की आपत्ति न आने पर भी अपने वैदिक मार्ग को छोडक़र अन्य पाखण्डपूर्ण धर्मों का आश्रय लेता है, उसे यमदूत असिपत्रवन नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं। जब मार से बच ने के लिये वह इधर-उधर दौडऩे लगता है, तब उसके सारे अङ्ग तालवन के तलवार के समान पै ने पत्तोंसे, जिन में दोनों ओर धारें होती हैं, टूक-टूक होने लगते हैं। तब वह अत्यन्त वेदना से ‘हाय, मैं मरा !’ इस प्रकार चिल्लाता हुआ पद-पद पर मूर्च्छित होकर गिर ने लगता है। अपने धर्म को छोडक़र पाखण्डमार्ग में चल ने से उसे इस प्रकार अपने कुकर्म का फल भोगना पड़ता है ॥ १५ ॥

इस लोक में जो पुरुष राजा या राजकर्मचारी होकर किसी निरपराध मनुष्य को दण्ड देता है अथवा ब्राह्मण को शरीरदण्ड देता है, वह महापापी मरकर सूकरमुख नरक में गिरता है। वहाँ जब महाबली यमदूत उसके अङ्गों को कुचलते हैं, तब वह कोल्हू में पेरे जाते हुए गन्नों के समान पीडि़त होकर, जिस प्रकार इस लोक में उसके द्वारा सताये हुए निरपराध प्राणी रोते-चिल्लाते थे, उसी प्रकार कभी आत्र्त स्वर से चिल्लाता और कभी मूर्च्छित हो जाता है ॥ १६ ॥

जो पुरुष इस लोक में खटमल आदि जीवों की हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करने के कारण अन्धकूप नरक में गिरता है। क्योंकि स्वयं भगवान ने ही रक्तपानादि उनकी वृत्ति बना दी है और उन्हें उसके कारण दूसरों को कष्ट पहुँच ने का ज्ञान भी नहीं है; किन्तु मनुष्य की वृत्ति भगवान ने विधि- निषेधपूर्वक बनायी है और उसे दूसरों के कष्ट का ज्ञान भी है। वहाँ वे पशु, मृग, पक्षी, साँप आदि रेंगनेवाले जन्तु, मच्छर, जूँ, खटमल और मक्खी आदि जीव—जिन से उसने द्रोह किया था—उसे सब ओर से काटते हैं। इससे उसकी निद्रा और शान्ति भङ्ग हो जाती है और स्थान न मिलने पर भी वह बेचैनी के कारण उस घोर अन्धकार में इस प्रकार भटकता रहता है जैसे रोगग्रस्त शरीर में जीव छटपटाया करता है ॥ १७ ॥

जो मनुष्य इस लोक में बिना पञ्चमहायज्ञ किये तथा जो कुछ मिले, उसे बिना किसी दूसरे को दिये स्वयं ही खा लेता है, उसे कौए के समान कहा गया है। वह परलोक में कृमिभोजन नामक निकृष्ट नरक में गिरता है। वहाँ एक लाख योजन लंबा-चौड़ा एक कीड़ों का कुण्ड है। उसी में उसे भी कीड़ा बनकर रहना पड़ता है और जब तक अपने पापों का प्रायश्चित्त न करनेवाले उस पापीके—बिना दिये और बिना हवन किये खानेके—दोष का अच्छी तरह शोधन नहीं हो जाता, तब तक वह उसी में पड़ा-पड़ा कष्ट भोगता रहता है। वहाँ कीड़े उसे नोचते हैं और वह कीड़ों को खाता है ॥ १८ ॥ राजन् ! इस लोक में जो व्यक्ति चोरी या बरजोरी से ब्राह्मण के अथवा आपत्ति का समय न होने पर भी किसी दूसरे पुरुष के सुवर्ण और रत्नादि का हरण करता है, उसे मरने पर यमदूत सन्दंश नामक नरक में ले जाकर तपाये हुए लोहे के गोलों से दागते हैं और सँड़सी से उसकी खाल नोचते हैं ॥ १९ ॥ इस लोक में यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुष से व्यभिचार करती है, तो यमदूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं तथा पुरुष को तपाये हुए लोहे की स्त्री-मूर्ति से और स्त्री को तपायी हुई पुरुष-प्रतिमा से आलिङ्गन कराते हैं ॥ २० ॥ जो पुरुष इस लोक में पशु आदि सभी के साथ व्यभिचार करता है, उसे मृत्यु के बाद यमदूत वज्र- कण्टकशाल्मीली नरक में गिराते हैं और वज्र के समान कठोर काँटोंवाले सेमर के वृक्ष पर चढ़ाकर फिर नीचे की ओर खींचते हैं ॥ २१ ॥

जो राजा या राजपुरुष इस लोक में श्रेष्ठ कुल में जन्म पाकर भी धर्म की मर्यादा का उच्छेद करते हैं, वे उस मर्यादातिक्रमण के कारण मरने पर वैतरणी नदी में पट के जाते हैं। यह नदी नरकों की खाई के समान है; उसमें मल, मूत्र, पीब, रक्त, केश, नख, हड्डी, चर्बी, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं। वहाँ गिरने पर उन्हें इधर-उधर से जल के जीव नोचते हैं। किन्तु इससे उनका शरीर नहीं छूटता, पाप के कारण प्राण उसे वहन किये रहते हैं और वे उस दुर्गति को अपनी करनी का फल समझकर मन-ही-मन सन्तप्त होते रहते हैं ॥ २२ ॥ जो लोग शौच और आचार के नियमों का परित्याग कर तथा लज्जा को तिलाञ्जलि देकर इस लोक में शूद्राओं के साथ सम्बन्ध गाँठकर पशुओं के समान आचरण करते हैं, वे भी मर ने के बाद पीब, विष्ठा, मूत्र, कफ और मल से भरे हुए पूयोद नामक समुद्र में गिरकर उन अत्यन्त घृणित वस्तुओं को ही खाते हैं ॥ २३ ॥ इस लोक में जो ब्राह्मणादि उच्च वर्ण के लोग कुत्ते या गधे पालते और शिकार आदि में लगे रहते हैं तथा शास्त्र के विपरीत पशुओं का वध करते हैं, मर ने के पश्चात वे प्राणरोध नरक में डाले जाते हैं और वहाँ यमदूत उन्हें लक्ष्य बनाकर बाणों से बींधते हैं ॥ २४ ॥

जो पाखण्डीलोग पाखण्डपूर्ण यज्ञों में पशुओं का वध करते हैं, उन्हें परलोक में वैशस (विशसन) नरक में डालकर वहाँ के अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं ॥ २५ ॥ जो द्विज कामातुर होकर अपनी सवर्णा भार्या को वीर्यपान कराता है, उस पापी को मर ने के बाद यमदूत वीर्य की नदी (लालाभक्ष नामक नरक) में डालकर वीर्य पिलाते हैं ॥ २६ ॥ जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरुष इस लोक में किसी के घर में आग लगा देते हैं, किसीको विष दे देते हैं अथवा गाँवों या व्यापारियों की टोलियों को लूट लेते हैं, उन्हें मर ने के पश्चात सारमेयादन नामक नरक में वज्रकी-सी दाढ़ोंवाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेग से काट ने लगते हैं ॥ २७ ॥ इस लोक में जो पुरुष किसी की गवाही देने में, व्यापार में अथवा दान के समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरने पर आधारशून्य अवीचिमान् नरक में पड़ता है। वहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाडक़े शिखर से नीचे को सिर करके गिराया जाता है। उस नरक की पत्थर की भूमि जल के समान जान पड़ती है। इसीलिये इसका नाम अवीचिमान् है। वहाँ गिराये जाने से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते, इसलिये इसे बार-बार ऊ पर ले जाकर पट का जाता है ॥ २८ ॥

जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रत में स्थित और कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान [1] करता है, उन्हें यमदूत अय:पान नाम के नरक में ले जाते हैं और उनकी छाती पर पैर रखकर उनके मुँहमें आग से गलाया हुआ लोहा डालते हैं ॥ २९ ॥ जो पुरुष इस लोक में निम्र श्रेणी का होकर भी अपने को बड़ा मान ने के कारण जन्म, तप, विद्या, आचार, वर्ण या आश्रम में अपने से बड़ों का विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरे के ही समान है। उसे मरने पर क्षारकर्दम नाम के नरक में नीचे को सिर करके गिराया जाता है और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती हैं ॥ ३० ॥

जो पुरुष इस लोक में नरमेधादि के द्वारा भैरव, यक्ष, राक्षस आदि का यजन करते हैं और जो स्त्रियाँ पशुओं के समान पुरुषों को खा जाती हैं, उन्हें वे पशुओं की तरह मारे हुए पुरुष यमलोक में राक्षस होकर तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं और रक्षोगणभोजन नामक नरक में कसाइयों के समान कुल्हाड़ी से काट-काटकर उसका लोहू पीते हैं। तथा जिस प्रकार वे मांसभोजी पुरुष इस लोक में उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वे भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं ॥ ३१ ॥ इस लोक में जो लोग वन या गाँव के निरपराध जीवों को—जो सभी अपने प्राणों को रखना चाहते हैं—तरह-तरह के उपायों से फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं और फिर उन्हें काँटे से बेधकर या रस्सी से बाँधकर खिलवाड़ करते हुए तरह-तरह की पीड़ाएँ देते हैं, उन्हें भी मर ने के पश्चात यमयातनाओं के समय शूलप्रोत नामक नरक में शूलों से बेधा जाता है। उस समय जब उन्हें भूख-प्यास सताती है और कङ्क, बटेर आदि तीखी चोंचोंवाले नरक के भयानक पक्षी नोच ने लगते हैं, तब अपने किये हुए सारे पाप याद आ जाते हैं ॥ ३२ ॥

राजन् ! इस लोक में जो सर्पों के समान उग्रस्वभाव पुरुष दूसरे जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मरने पर दन्दशूक नाम के नरक में गिरते हैं। वहाँ पाँच-पाँच, सात-सात मुँहवाले सर्प उनके समीप आकर उन्हें चूहों की तरह निगल जाते हैं ॥ ३३ ॥ जो व्यक्ति यहाँ दूसरे प्राणियों को अँधेरी खत्तियों, कोठों या गुफाओं में डाल देते हैं, उन्हें परलोक में यमदूत वैसे ही स्थानों में डालकर विषैली आग के धूएँ में घोंटते हैं। इसीलिये इस नरक को अवटनिरोधन कहते हैं ॥ ३४ ॥ जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथि-अभ्यागतों की ओर बार-बार क्रोध में भरकर ऐसी कुटिल दृष्टि से देखता है मानो उन्हें भस्म कर देगा, वह जब नरक में जाता है, तब उस पापदृष्टि के नेत्रों को गिद्ध, कङ्क, काक और बटेर आदि वज्रकी-सी कठोर चोंचोंवाले पक्षी बलात् निकाल लेते हैं। इस नरक को पर्यावर्तन कहते हैं ॥ ३५ ॥

इस लोक में जो व्यक्ति अपने को बड़ा धनवान् समझकर अभिमानवश सब को टेढ़ी नजर से देखता है और सभी पर सन्देह रखता है, धन के व्यय और नाश की चिन्ता से जिसके हृदय और मुँह सूखे रहते हैं, अत: तनिक भी चैन न मानकर जो यक्ष के समान धन की रक्षा में ही लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ा ने और बचा ने में जो तरह-तरह के पाप करता रहता है, वह नराधम मरने पर सूचीमुख नरक में गिरता है। वहाँ उस अर्थपिशाच पापात्मा के सारे अङ्गों को यमराज के दूत दॢजयों के समान सूई-धागे से सीते हैं ॥ ३६ ॥

राजन् ! यमलोक में इसी प्रकार के सैंकड़ों-हजारों नरक हैं। उनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषय में कुछ नहीं कहा गया, उन सभी में सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मों के अनुसार बारी-बारी से जाते हैं। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वर्गादि में जाते हैं। इस प्रकार नरक और स्वर्ग के भोग से जब इनके अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बा की बचे हुए पुण्यपापरूप कर्मों को लेकर ये फिर इसी लोक में जन्म लेने के लिये लौट आते हैं ॥ ३७ ॥

इन धर्म और अधर्म दोनों से विलक्षण जो निवृत्ति-मार्ग है, उसका तो पहले (द्वितीय स्कन्धमें) ही वर्णन हो चु का है। पुराणों में जिसका चौदह भुवन के रूप में वर्णन किया गया है, वह ब्रह्माण्ड कोश इतना ही है। यह साक्षात परम पुरुष श्रीनारायण का अपनी माया के गुणों से युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है। इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया। परमात्मा भगवान का उपनिषदों में वर्णित निर्गुण स्वरूप यद्यपि मन-बुद्धि की पहुँच के बाहर है तो भी जो पुरुष इस स्थूल रूप का वर्णन आदरपूर्वक पढ़ता, सुनता या सुनाता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और भक्ति के कारण शुद्ध हो जाती है और वह उस सूक्ष्म रूप का भी अनुभव कर सकता है ॥ ३८ ॥

यति को चाहिये कि भगवान के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के रूपों का श्रवण करके पहले स्थूल रूप में चित्त को स्थिर करे, फिर धीरे-धीरे वहाँ से हटाकर उसे सूक्ष्म में लगा दे ॥ ३९ ॥ परीक्षित ! मैंने तुम से पृथ्वी, उसके अन्तर्गत द्वीप, वर्ष, नदी, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशा, नरक, ज्योतिर्गण और लोकों की स्थिति का वर्णन किया। यही भगवान का अति अद्भुत स्थूल रूप है, जो समस्त जीवसमुदाय का आश्रय है ॥ ४० ॥

पञ्चम स्कन्ध समाप्त

हरि: ॐ तत्सत्


[1] क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिये शास्त्र में सोमपान का निषेध है।



श्री सद्गुरु महाराज की जय!