॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ तृतीयस्कन्धः ॥
॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
श्रीशुक उवाच
एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल ।
क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृहमृद्धिमत् ॥ १॥
यद्वा अयं मन्त्रकृद्वो भगवानखिलेश्वरः ।
पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम् ॥ २॥
राजोवाच
कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सङ्गमः ।
कदा वा सह संवाद एतद्वर्णय नः प्रभो ॥ ३॥
न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्यामलात्मनः ।
तस्मिन् वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपबृंहितः ॥ ४॥
सूत उवाच
स एवमृषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता ।
प्रत्याह तं सुबहुवित्प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥ ५॥
श्रीशुक उवाच
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून्
पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः ।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥ ६॥
यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः
केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम् ।
न वारयामास नृपः स्नुषायाः
स्वास्रैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि ॥ ७॥
द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधोः
सत्यावलंबस्य वनागतस्य ।
न याचतोऽदात्समयेन दायं
तमो जुषाणो यदजातशत्रोः ॥ ८॥
यदा च पार्थप्रहितः सभायां
जगद्गुरुर्यानि जगाद कृष्णः ।
न तानि पुंसाममृतायनानि
राजोरु मेने क्षतपुण्यलेशः ॥ ९॥
यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो
मन्त्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।
अथाह तन्मन्त्रदृशां वरीयान्
यन्मन्त्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ॥ १०॥
अजातशत्रोः प्रतियच्छ दायं
तितिक्षतो दुर्विषहं तवागः ।
सहानुजो यत्र वृकोदराहिः
श्वसन् रुषा यत्त्वमलं बिभेषि ॥ ११॥
पार्थांस्तु देवो भगवान्मुकुन्दो
गृहीतवान् सक्षितिदेवदेवः ।
आस्ते स्वपुर्यां यदुदेवदेवो
विनिर्जिताशेषनृदेवदेवः ॥ १२॥
स एष दोषः पुरुषद्विडास्ते
गृहान् प्रविष्टो यमपत्यमत्या ।
पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीः
त्यजाश्वशैवं कुलकौशलाय ॥ १३॥
इत्यूचिवांस्तत्र सुयोधनेन
प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।
असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलः
क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन ॥ १४॥
क एनमत्रोपजुहाव जिह्मं
दास्याः सुतं यद्बलिनैव पुष्टः ।
तस्मिन् प्रतीपः परकृत्य आस्ते
निर्वास्यतामाशु पुराच्छ्वसानः ॥ १५॥
स इत्थमत्युल्बणकर्णबाणैः
भ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि ।
स्वयं धनुर्द्वारि निधाय मायां
गतव्यथोऽयादुरुमानयानः ॥ १६॥
स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो
गजाह्वयात्तीर्थपदः पदानि ।
अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोर्व्यां
स्वधिष्ठितो यानि सहस्रमूर्तिः ॥ १७॥
पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुञ्जे-
ष्वपङ्कतोयेषु सरित्सरःसु ।
अनन्तलिङ्गैः समलङ्कृतेषु
चचार तीर्थायतनेष्वनन्यः ॥ १८॥
गां पर्यटन्मेध्यविविक्तवृत्तिः
सदाऽऽप्लुतोऽधःशयनोऽवधूतः ।
अलक्षितः स्वैरवधूतवेषो
व्रतानि चेरे हरितोषणानि ॥ १९॥
इत्थं व्रजन्भारतमेव वर्षं
कालेन यावद्गतवान्प्रभासम् ।
तावच्छशास क्षितिमेकचक्रा-
मेकातपत्रामजितेन पार्थः ॥ २०॥
तत्राथ शुश्राव सुहृद्विनष्टिं
वनं यथा वेणुजवह्निसंश्रयम् ।
संस्पर्धया दग्द्धमथानुशोचन्
सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम् ॥ २१॥
तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्च
पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः ।
तीर्थं सुदासस्य गवां गुहस्य
यच्छ्राद्धदेवस्य स आसिषेवे ॥ २२॥
अन्यानि चेह द्विजदेवदेवैः
कृतानि नानाऽऽयतनानि विष्णोः ।
प्रत्यङ्गमुख्याङ्कितमन्दिराणि
यद्दर्शनात्कृष्णमनुस्मरन्ति ॥ २३॥
ततस्त्वतिव्रज्य सुराष्ट्रमृद्धं
सौवीरमत्स्यान् कुरुजाङ्गलांश्च ।
कालेन तावद्यमुनामुपेत्य
तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श ॥ २४॥
स वासुदेवानुचरं प्रशान्तं
बृहस्पतेः प्राक्तनयं प्रतीतम् ।
आलिङ्ग्य गाढं प्रणयेन भद्रं
स्वानामपृच्छद्भगवत्प्रजानाम् ॥ २५॥
कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्य-
पाद्मानुवृत्त्येह किलावतीर्णौ ।
आसात उर्व्याः कुशलं विधाय
कृतक्षणौ कुशलं शूरगेहे ॥ २६॥
कच्चित्कुरूणां परमः सुहृन्नो
भामः स आस्ते सुखमङ्ग शौरिः ।
यो वै स्वसॄणां पितृवद्ददाति
वरान् वदान्यो वरतर्पणेन ॥ २७॥
कच्चिद्वरूथाधिपतिर्यदूनां
प्रद्युम्न आस्ते सुखमङ्ग वीरः ।
यं रुक्मिणी भगवतोऽभिलेभे
आराध्य विप्रान् स्मरमादिसर्गे ॥ २८॥
कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज-
दाशार्हकाणामधिपः स आस्ते ।
यमभ्यषिञ्चच्छतपत्रनेत्रो
नृपासनाशां परिहृत्य दूरात् ॥ २९॥
कच्चिद्धरेः सौम्य सुतः सदृक्ष
आस्तेऽग्रणी रथिनां साधु सांबः ।
असूत यं जांबवती व्रताढ्या
देवं गुहं योंऽबिकया धृतोऽग्रे ॥ ३०॥
क्षेमं स कच्चिद्युयुधान आस्ते
यः फाल्गुनाल्लब्धधनूरहस्यः ।
लेभेऽञ्जसाधोक्षजसेवयैव
गतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम् ॥ ३१॥
कच्चिद्बुधः स्वस्त्यनमीव आस्ते
श्वफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्नः ।
यः कृष्णपादाङ्कितमार्गपांसु-
ष्वचेष्टत प्रेमविभिन्नधैर्यः ॥ ३२॥
कच्चिच्छिवं देवकभोजपुत्र्या
विष्णुप्रजाया इव देवमातुः ।
या वै स्वगर्भेण दधार देवं
त्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम् ॥ ३३॥
अपिस्विदास्ते भगवान्सुखं वो
यः सात्वतां कामदुघोऽनिरुद्धः ।
यमामनन्ति स्म ह शब्दयोनिं
मनोमयं सत्त्वतुरीयतत्त्वम् ॥ ३४॥
अपिस्विदन्ये च निजात्मदैव-
मनन्यवृत्त्या समनुव्रता ये ।
हृदीकसत्यात्मजचारुदेष्णगदादयः
स्वस्ति चरन्ति सौम्य ॥ ३५॥
अपि स्वदोर्भ्यां विजयाच्युताभ्यां
धर्मेण धर्मः परिपाति सेतुम् ।
दुर्योधनोऽतप्यत यत्सभायां
साम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या ॥ ३६॥
किं वा कृताघेष्वघमत्यमर्षी
भीमोऽहिवद्दीर्घतमं व्यमुञ्चत् ।
यस्याङ्घ्रिपातं रणभूर्न सेहे
मार्गं गदायाश्चरतो विचित्रम् ॥ ३७॥
कच्चिद्यशोधा रथयूथपानां
गाण्डीवधन्वोपरतारिरास्ते ।
अलक्षितो यच्छरकूटगूढो
मायाकिरातो गिरिशस्तुतोष ॥ ३८॥
यमावुतस्वित्तनयौ पृथायाः
पार्थैर्वृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव ।
रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थं
परात्सुपर्णाविव वज्रिवक्त्रात् ॥ ३९॥
अहो पृथापि ध्रियतेऽर्भकार्थे
राजर्षिवर्येण विनापि तेन ।
यस्त्वेकवीरोऽधिरथो विजिग्ये
धनुर्द्वितीयः ककुभश्चतस्रः ॥ ४०॥
सौम्यानुशोचे तमधःपतन्तं
भ्रात्रे परेताय विदुद्रुहे यः ।
निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्या
अहं स्वपुत्रान्समनुव्रतेन ॥ ४१॥
सोऽहं हरेर्मर्त्यविडंबनेन
दृशो नृणां चालयतो विधातुः ।
नान्योपलक्ष्यः पदवीं प्रसादाच्चरामि
पश्यन् गतविस्मयोऽत्र ॥ ४२॥
नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानां
महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः ।
वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशो-
ऽप्युपैक्षताघं भगवान्कुरूणाम् ॥ ४३॥
अजस्य जन्मोत्पथनाशनाय
कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम् ।
नन्वन्यथा कोऽर्हति देहयोगं
परो गुणानामुत कर्मतन्त्रम् ॥ ४४॥
तस्य प्रपन्नाखिललोकपाना-
मवस्थितानामनुशासने स्वे ।
अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य
वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ ४५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय
उद्धव और विदुर की भेंट
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! जो बात तुम ने पूछी है, वही पूर्वकाल में अपने सुख-समृद्धि से पूर्ण घर को छोडक़र वन में गये हुए विदुरजी ने भगवान मैत्रेयजी से पूछी थी ॥ १ ॥ जब सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोडक़र, उसी विदुरजी के घर में उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ २ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—प्रभो ! यह तो बतलाइये कि भगवान मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? ॥ ३ ॥ पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेयजी से कोई साधारण प्रश्र नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी-जैसे साधुशिरोमणि ने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ ४ ॥
सूतजी कहते हैं—सर्वज्ञ शुकदेवजी ने राजा परीक्षित के इस प्रकार पूछने पर अति प्रसन्न होकर कहा—सुनो ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कह ने लगे—परीक्षित ! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्याय- पूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डु के अनाथ बालकों को लाक्षाभवन में भेजकर आग लगवा दी ॥ ६ ॥ जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिर की पटरानी द्रौपदी के केश दु:शासन ने भरी सभा में खींचे, उस समय द्रौपदी की आँखों से आँसुओं की धारा बह चली और उस प्रवाह से उसके वक्ष:स्थल पर लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र को उस कुकर्म से नहीं रो का ॥ ७ ॥ दुर्योधन ने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिर का राज्य जूए में अन्याय से जीत लिया और उन्हें वन में निकाल दिया। किन्तु वन से लौटने पर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को उनका हिस्सा नहीं दिया ॥ ८ ॥ महाराज युधिष्ठिर के भेजने पर जब जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों की सभा में हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनों को अमृत- से लगे, पर कुरुराज ने उनके कथन को कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चु के थे ॥ ९ ॥ फिर जब सलाह के लिये विदुरजी को बुलाया गया, तब मन्ङ्क्षत्रयों में श्रेष्ठ विदुरजी ने राज्यभवन में जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्र के पूछने पर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्र के जाननेवाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं ॥ १० ॥
उन्होंने कहा—‘महाराज ! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिर को उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहनेयोग्य अपराध को भी सह रहे हैं। भीमरूप काले नाग से तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयों के सहित बदला लेने के लिये बड़े क्रोध से फुफकारें मार रहा है ॥ ११ ॥ आपको पता नहीं, भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को अपना लिया है। वे यदुवीरों के आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरी में विराजमान हैं। उन्होंने पृथ्वी के सभी बड़े-बड़े राजाओं को अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्हींके पक्ष में हैं ॥ १२ ॥ जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधन के रूप में तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घर में घुसा बैठा है। यह तो साक्षात भगवान श्रीकृष्ण से द्वेष करनेवाला है। इसी के कारण आप भगवान श्रीकृष्ण से विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुल की कुशल चाहते हैं तो इस दुष्ट को तुरंत ही त्याग दीजिये ॥ १३ ॥
विदुरजी का ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करने की इच्छा करते थे। किन्तु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दु:शासन और शकुनि के सहित दुर्योधन के होठ अत्यन्त क्रोध से फडक़ ने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा—‘अरे ! इस कुटिल दासीपुत्र को यहाँ किस ने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हींके प्रतिकूल होकर शत्रु का काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगर से तुरन्त बाहर निकाल दो’ ॥ १४-१५ ॥ भाई के सामने ही कानों में बाण के समान लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनों से मर्माहत होकर भी विदुरजी ने कुछ बुरा न माना और भगवान की माया को प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वार पर रख वे हस्तिनापुर से चल दिये ॥ १६ ॥ कौरवों को विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान के क्षेत्रों में विचर ने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियों के रूप में विराजमान् हैं ॥ १७ ॥ जहाँ-जहाँ भगवान की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुञ्ज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे ॥ १८ ॥ वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीय-जन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थ में स्नान करते, जमीन पर सोते और भगवान को प्रसन्न करनेवाले व्रतों का पालन करते रहते थे ॥ १९ ॥
इस प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जब तक वे प्रभासक्षेत्र में पहुँचे, तब तक भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे ॥ २० ॥ वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिडक़र उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न हुई आग से बाँसों का सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वती के तीर पर आये ॥ २१ ॥ वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्रि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्ध- देव के नामों से प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थों का सेवन किया ॥ २२ ॥ इनके सिवा पृथ्वी में ब्राह्मण और देवताओं के स्थापित किये हुए जो भगवान विष्णु के और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरों पर भगवान के प्रधान आयुध चक्र के चिह्न थे और जिनके दर्शनमात्र से श्रीकृष्ण का स्मरण हो आता था, उनका भी सेवन किया ॥ २३ ॥ वहाँ से चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजाङ्गल आदि देशों में होते हुए जब कुछ दिनों में यमुना-तट पर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजी का दर्शन किया ॥ २४ ॥ वे भगवान श्रीकृष्ण के प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्तस्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजी के शिष्य रह चु के थे। विदुरजी ने उन्हें देखकर प्रेम से गाढ़ आलिङ्गन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनों का कुशल-समाचार पूछा ॥ २५ ॥
विदुरजी कह ने लगे—उद्धवजी ! पुराणपुरुष बलरामजी और श्रीकृष्ण ने अपने ही नाभिकमल से उत्पन्न हुए ब्रह्माजी की प्रार्थना से इस जगत में अवतार लिया है। वे पृथ्वी का भार उतारकर सब को आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजी के घर कुशल से रह रहे हैं न ? ॥ २६ ॥ प्रियवर ! हम कुरुवंशियों के परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिता के समान उदारतापूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनों को उनके स्वामियों का सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्दपूर्वक हैं न ? ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धवजी ! यादवों के सेनापति वीरवर प्रद्युम्रजी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्म में कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणीजी ने ब्राह्मणों की आराधना करके भगवान से प्राप्त किया था ॥ २८ ॥ सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशाहर्वंशी यादवों के अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुख से हैं न, जिन्हों ने राज्य पाने की आशा का सर्वथा परित्याग कर दिया था किन्तु कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने जिन्हें फिर से राज्यसिंहासन पर बैठाया ॥ २९ ॥ सौम्य ! अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्णतनय साम्ब सकुशल तो हैं ? ये पहले पार्वतीजी के द्वारा गर्भ में धारण किये हुए स्वामिकार्तिक हैं। अनेकों व्रत करके जाम्बवती ने इन्हें जन्म दिया था ॥ ३० ॥ जिन्हों ने अर्जुन से रहस्ययुक्त धनुर्विद्या की शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं ? वे भगवान श्रीकृष्ण की सेवा से अनायास ही भगवज्जनों की उस महान स्थिति पर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है ॥ ३१ ॥ भगवान के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों से अङ्कित व्रज के मार्ग की रज में प्रेम से अधीर होकर लोट ने लगे थे ? ॥ ३२ ॥ भोजवंशी देवक की पुत्री देवकीजी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदिति के समान ही साक्षात विष्णुभगवान की माता हैं ? जैसे वेदत्रयी यज्ञविस्ताररूप अर्थ को अपने मन्त्रों में धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपने गर्भ में धारण किया था ॥ ३३ ॥ आप भक्तजनों की कामनाएँ पूर्ण करनेवाले भगवान अनिरुद्धजी सुखपूर्वक हैं न, जिन्हें शास्त्र वेदों के आदिकारण और अन्त:करणचतुष्टय के चौथे अंश मन के अधिष्ठाता बतलाते हैं[1] ॥ ३४ ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! अपने हृदयेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का अनन्यभाव से अनुसरण करनेवाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारुदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न ? ॥ ३५ ॥
महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्णरूप दोनों भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न ? मय दानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्यवैभव और दबदबे को देखकर दुर्योधन को बड़ा डाह हुआ था ॥ ३६ ॥ अपराधियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेन ने सर्प के समान दीर्घकालीन क्रोध को छोड़ दिया है क्या ? जब वे गदायुद्ध में तरह-तरह के पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरों की धमक से धरती डोल ने लगती थी ॥ ३७ ॥ जिनके बाणों के जाल से छिपकर किरातवेषधारी, अतएव किसी की पहचान में न आनेवाले भगवान शङ्कर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियों का सुयश बढ़ानेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चु के होंगे ? ॥ ३८ ॥ पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्ती ने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्री के यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशल से तो हैं न ? उन्होंने युद्ध में शत्रु से अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्र के मुख से अमृत निकाल लायें ॥ ३९ ॥ अहो ! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए है। रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था ॥ ४० ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! मुझे तो अध:पतन की ओर जानेवाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्हों ने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रों की हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन् तक मुझको भी नगर से निकलवा दिया ॥ ४१ ॥ किंतु भाई ! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगद्विधाता भगवान श्रीकृष्ण ही मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं। मैं तो उन्हीं की कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ ॥ ४२ ॥ यद्यपि कौरवों ने उनके बहुत- से अपराध किये, फिर भी भगवान ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दु:ख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जाति के मद से अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओं से पृथ्वी को कँपा रहे थे ॥ ४३ ॥ उद्धवजी ! भगवान श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं; फिर भी दुष्टों का नाश करने के लिये और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान की तो बात ही क्या—दूसरे जो लोग गुणों से पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देह के बन्धन में पडऩा चाहेगा ॥ ४४ ॥ अत: मित्र ! जिन्हों ने अजन्मा होकर भी अपनी शरण में आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तों का प्रिय करने के लिये यदुकुल में जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरि की बातें सुनाओ ॥ ४५ ॥
[1] चित्त, अहंकार, बुद्धि और मन—ये अन्त:करण के चार अंश है। इनके अधिष्ठाता क्रमश: वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध हैं।
॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
श्रीशुक उवाच
इति भागवतः पृष्टः क्षत्त्रा वार्तां प्रियाश्रयाम् ।
प्रतिवक्तुं न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात्स्मारितेश्वरः ॥ १॥
यः पञ्चहायनो मात्रा प्रातराशाय याचितः ।
तन्नैच्छद्रचयन्यस्य सपर्यां बाललीलया ॥ २॥
स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः ।
पृष्टो वार्तां प्रतिब्रूयाद्भर्तुः पादावनुस्मरन् ॥ ३॥
स मुहूर्तमभूत्तूष्णीं कृष्णाङ्घ्रिसुधया भृशम् ।
तीव्रेण भक्तियोगेन निमग्नः साधु निर्वृतः ॥ ४॥
पुलकोद्भिन्नसर्वाङ्गो मुञ्चन्मीलद्दृशा शुचः ।
पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसम्प्लुतः ॥ ५॥
शनकैर्भगवल्लोकान्नृलोकं पुनरागतः ।
विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रत्याहोद्धव उत्स्मयन् ॥ ६॥
उद्धव उवाच
कृष्णद्युमणिनिम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह ।
किं नु नः कुशलं ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम् ॥ ७॥
दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि ।
ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम् ॥ ८॥
इङ्गितज्ञाः पुरुप्रौढा एकारामाश्च सात्वताः ।
सात्वतामृषभं सर्वे भूतावासममंसत ॥ ९॥
देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यदसदाश्रिताः ।
भ्राम्यते धीर्न तद्वाक्यैरात्मन्युप्तात्मनो हरौ ॥ १०॥
प्रदर्श्यातप्ततपसामवितृप्तदृशां नृणाम् ।
आदायान्तरधाद्यस्तु स्वबिंबं लोकलोचनम् ॥ ११॥
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोगमायाबलं
दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः
परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥ १२॥
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये
निरीक्ष्य दृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोकः ।
कार्त्स्न्येन चाद्येह गतं विधातु-
रर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥ १३॥
यस्यानुरागप्लुतहासरास-
लीलावलोकप्रतिलब्धमानाः ।
व्रजस्त्रियो दृग्भिरनुप्रवृत्त-
धियोऽवतस्थुः किल कृत्यशेषाः ॥ १४॥
स्वशान्तरूपेष्वितरैः स्वरूपै-
रभ्यर्द्यमानेष्वनुकम्पितात्मा ।
परावरेशो महदंशयुक्तो
ह्यजोऽपि जातो भगवान् यथाग्निः ॥ १५॥
मां खेदयत्येतदजस्य जन्म
विडंबनं यद्वसुदेवगेहे ।
व्रजे च वासोऽरिभयादिव स्वयं
पुराद्व्यवात्सीद्यदनन्तवीर्यः ॥ १६॥
दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद्यदाह
पादावभिवन्द्य पित्रोः ।
तातांब कंसादुरुशङ्कितानां
प्रसीदतं नोऽकृतनिष्कृतीनाम् ॥ १७॥
को वा अमुष्याङ्घ्रिसरोजरेणुं
विस्मर्तुमीशीत पुमान्विजिघ्रन् ।
यो विस्फुरद्भ्रूविटपेन भूमेर्भारं
कृतान्तेन तिरश्चकार ॥ १८॥
दृष्टा भवद्भिर्ननु राजसूये
चैद्यस्य कृष्णं द्विषतोऽपि सिद्धिः ।
यां योगिनः संस्पृहयन्ति सम्यग्योगेन
कस्तद्विरहं सहेत ॥ १९॥
तथैव चान्ये नरलोकवीरा
य आहवे कृष्णमुखारविन्दम् ।
नेत्रैः पिबन्तो नयनाभिरामं
पार्थास्त्रपूताः पदमापुरस्य ॥ २०॥
स्वयं त्वसाम्यातिशयस्त्र्यधीशः
स्वाराज्यलक्ष्म्याऽऽप्तसमस्तकामः ।
बलिं हरद्भिश्चिरलोकपालैः
किरीटकोट्येडितपादपीठः ॥ २१॥
तत्तस्य कैङ्कर्यमलं भृतान्नो
विग्लापयत्यङ्ग यदुग्रसेनम् ।
तिष्ठन्निषण्णं परमेष्ठिधिष्ण्ये
न्यबोधयद्देव निधारयेति ॥ २२॥
अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥ २३॥
मन्येऽसुरान्भागवतांस्त्र्यधीशे
संरंभमार्गाभिनिविष्टचित्तान् ।
ये संयुगेऽचक्षत तार्क्ष्यपुत्रमंसे
सुनाभायुधमापतन्तम् ॥ २४॥
वसुदेवस्य देवक्यां जातो भोजेन्द्रबन्धने ।
चिकीर्षुर्भगवानस्याः शमजेनाभियाचितः ॥ २५॥
ततो नन्दव्रजमितः पित्रा कंसाद्विबिभ्यता ।
एकादशसमास्तत्र गूढार्चिः सबलोऽवसत् ॥ २६॥
परीतो वत्सपैर्वत्सांश्चारयन्व्यहरद्विभुः ।
यमुनोपवने कूजद्द्विजसङ्कुलिताङ्घ्रिपे ॥ २७॥
कौमारीं दर्शयंश्चेष्टां प्रेक्षणीयां व्रजौकसाम् ।
रुदन्निव हसन्मुग्द्धबालसिंहावलोकनः ॥ २८॥
स एव गोधनं लक्ष्म्या निकेतं सितगोवृषम् ।
चारयन्ननुगान्गोपान् रणद्वेणुररीरमत् ॥ २९॥
प्रयुक्तान् भोजराजेन मायिनः कामरूपिणः ।
लीलया व्यनुदत्तांस्तान् बालः क्रीडनकानिव ॥ ३०॥
विपन्नान्विषपानेन निगृह्य भुजगाधिपम् ।
उत्थाप्यापाययद्गावस्तत्तोयं प्रकृतिस्थितम् ॥ ३१॥
अयाजयद्गोसवेन गोपराजं द्विजोत्तमैः ।
वित्तस्य चोरुभारस्य चिकीर्षन् सद्व्ययं विभुः ॥ ३२॥
वर्षतीन्द्रे व्रजः कोपाद्भग्नमानेऽतिविह्वलः ।
गोत्रलीलातपत्रेण त्रातो भद्रानुगृह्णता ॥ ३३॥
शरच्छशिकरैर्मृष्टं मानयन् रजनीमुखम् ।
गायन् कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डनः ॥ ३४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय
उद्धवजी द्वारा भगवान की बाललीलाओं का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब विदुरजी ने परम भक्त उद्धव से इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखनेवाली बातें पूछीं, तब उन्हें अपने स्वामी का स्मरण हो आया और वे हृदय भर आ ने के कारण कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ १ ॥ जब ये पाँच वर्ष के थे, तब बालकों की तरह खेल में ही श्रीकृष्ण की मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजा में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवे के लिये माता के बुलाने पर भी उसे छोडक़र नहीं जाना चाहते थे ॥ २ ॥ अब तो दीर्घकाल से उन्हीं की सेवा में रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अत: विदुरजी के पूछ ने से उन्हें अपने प्यारे प्रभु के चरणकमलों का स्मरण हो आया—उनका चित्त विरह से व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे ॥ ३ ॥ उद्धवजी श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द-सुधा से सराबोर होकर दो घड़ी तक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोग से उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्र हो गये ॥ ४ ॥ उनके सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रों से प्रेम के आँसुओं की धारा बह ने लगी। उद्धवजी को इस प्रकार प्रेम-प्रवाहमें डूबे हुए देखकर विदुरजी ने उन्हें कृतकृत्य माना ॥ ५ ॥ कुछ समय बाद जब उद्धवजी भगवान के प्रेमधाम से उतरकर पुन: धीरे-धीरे संसार में आये, तब अपने नेत्रों को पोंछकर भगवल्लीलाओं का स्मरण हो आ ने से विस्मित हो विदुरजी से इस प्रकार कह ने लगे ॥ ६ ॥
उद्धवजी बोले—विदुरजी ! श्रीकृष्णरूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को कालरूप अजगर ने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ ॥ ७ ॥ ओह ! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्हों ने निरन्तर श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना—जिस तरह अमृतमय चन्द्रमा के समुद्र में रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान स की थीं ॥ ८ ॥ यादवलोग मन के भाव को ताडऩेवाले, बड़े समझदार और भगवान के साथ एक ही स्थान में रहकर क्रीडा करनेवाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्व के आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्ण को एक श्रेष्ठ यादव ही समझा ॥ ९ ॥ किंतु भगवान की माया से मोहित इन यादवों और इन से व्यर्थ का वैर ठाननेवाले शिशुपाल आदि के अवहेलना और निन्दासूचक वाक्यों से भगवत्प्राण महानुभावों की बुद्धि भ्रम में नहीं पड़ती थी ॥ १० ॥ जिन्हों ने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इत ने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रों को ही छीन लिया है ॥ ११ ॥ भगवान ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखा ने के लिए मानवलीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरता की पराकाष्ठा थी उस रूपमें। उससे आभूषण (अङ्गों के गहने) भी विभूषित हो जाते थे ॥ १२ ॥
धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब भगवान के उस नयनाभिराम रूप पर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानवसृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूप में पूरी हो गयी है ॥ १३ ॥ उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओं की आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घर के काम-धंधों को अधूरा ही छोडक़र जड पुतलियों की तरह खड़ी रह जाती थीं ॥ १४ ॥ चराचर जगत और प्रकृति के स्वामी भगवान ने जब अपने शान्त-रूप महात्माओं को अपने ही घोररूप असुरों से सताये जाते देखा, तब वे करुणाभाव से द्रवित हो गये और अजन्मा होने पर भी अपने अंश बलरामजी के साथ काष्ठ में अग्रि के समान प्रकट हुए ॥ १५ ॥ अजन्मा होकर भी वसुदेवजी के यहाँ जन्म लेने की लीला करना, सब को अभय देनेवाले होने पर भी मानो कंसके भय से व्रज में जाकर छिप रहना और अनन्तपराक्रमी होने पर भी कालयवन के सामने मथुरापुरी को छोडक़र भाग जाना—भगवान की ये लीलाएँ याद आ-आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं ॥ १६ ॥ उन्होंने जो देवकी-वसुदेव की चरण-वन्दना करके कहा था— ‘पिताजी, माताजी ! कंस का बड़ा भय रहने के कारण मुझ से आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराध पर ध्यान न देकर मुझ पर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्ण की ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ॥ १७ ॥ जिन्हों ने कालरूप अपने भुकुटिविलास से ही पृथ्वी का सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्ण के पाद-पद्म-पराग का सेवन करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके ॥ १८ ॥ आपलोगों ने राजसूय यज्ञ में प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्ण से द्वेष करनेवाले शिशुपाल को वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भली-भाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है ॥ १९ ॥ शिशुपाल के ही समान महाभारत- युद्ध में जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुख-कमल का मकरन्द पान करते हुए, अर्जुन के बाणों से बिंधकर प्राणत्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान के परमधाम को प्राप्त हो गये ॥ २० ॥ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण तीनों लोकों के अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढक़र तो कौन होगा। वे अपने स्वत:सिद्ध ऐश्वर्य से ही सर्वदा पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकार की भेंटें ला-लाकर अपने-अपने मुकुटों के अग्रभाग से उनके चरण रखने की चौ की को प्रणाम किया करते हैं ॥ २१ ॥ विदुरजी ! वे ही भगवान श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर बैठे हुए उग्रसेन के सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव ! हमारी प्रार्थना सुनिये।’ उनके इस सेवा-भाव की याद आते ही हम-जैसे सेवकों का चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ॥ २२ ॥ पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नीयत से उन्हें दूध पिलाया था; उस को भी भगवान ने वह परम गति दी, जो धाय को मिलनी चाहिये। उन भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें ॥ २३ ॥ मैं असुरों को भी भगवान का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैरभावजनित क्रोध के कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्ण में लगा रहता था और उन्हें रणभूमि में सुदर्शन-चक्रधारी भगवान को कंधे पर चढ़ाकर झपटते हुए गरुडजी के दर्शन हुआ करते थे ॥ २४ ॥
ब्रह्माजी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारकर उसे सुखी करने के लिये कंसके कारागार में वसुदेव-देव की के यहाँ भगवान ने अवतार लिया था ॥ २५ ॥ उस समय कंसके डर से पिता वसुदेवजी ने उन्हें नन्दबाबा के व्रज में पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजी के साथ ग्यारह वर्ष तक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव व्रज के बाहर किसी पर प्रकट नहीं हुआ ॥ २६ ॥ यमुना के उपवन में, जिसके हरे-भरे वृक्षों पर कलरव करते हुए पक्षियों के झुंड-के-झुंड रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण ने बछड़ों को चराते हुए ग्वाल-बालों की मण्डली के साथ विहार किया था ॥ २७ ॥ वे व्रजवासियों की दृष्टि आकृष्ट करने के लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी रोने- से लगते, कभी हँसते और कभी सिंह-शावक के समान मुग्ध दृष्टि से देखते ॥ २८ ॥ फिर कुछ बड़े होने पर वे सफेद बैल और रंग-बिरंगी शोभा की मूर्ति गौओं को चराते हुए अपने साथी गोपों को बाँसुरी बजा- बजाकर रिझा ने लगे ॥ २९ ॥ इसी समय जब कंस ने उन्हें मार ने के लिये बहुत- से मायावी और मनमाना रूप धारण करनेवाले राक्षस भेजे, तब उन को खेल-ही-खेल में भगवान ने मार डाला—जैसे बालक खिलौनों को तोड़-फोड़ डालता है ॥ ३० ॥ कालियनाग का दमन करके विष मिला हुआ जल पी ने से मरे हुए ग्वालबालों और गौओं को जीवितकर उन्हें कालियदह का निर्दोष जल पी ने की सुविधा कर दी ॥ ३१ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने बढ़े हुए धन का सद्व्यय कराने की इच्छा से श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा नन्दबाबा से गोवर्धन-पूजारूप गोयज्ञ करवाया ॥ ३२ ॥ भद्र ! इससे अपना मानभङ्ग होने के कारण जब इन्द्र ने क्रोधित होकर व्रज का विनाश करने के लिये मूसलधार जल बरसाना आरम्भ किया, तब भगवान ने करुणावश खेल-ही-खेल में छत्ते के समान गोवर्धन पर्वत को उठा लिया और अत्यन्त घबराये हुए व्रजवासियों की तथा उनके पशुओं की रक्षा की ॥ ३३ ॥ सन्ध्या के समय जब सारे वृन्दावन में शरद् के चन्द्रमा की चाँदनी छिटक जाती, तब श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और गोपियों के मण्डल की शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ रासविहार करते ॥ ३४ ॥
॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
उद्धव उवाच
ततः स आगत्य पुरं स्वपित्रो-
श्चिकीर्षया शं बलदेवसंयुतः ।
निपात्य तुङ्गाद्रिपुयूथनाथं
हतं व्यकर्षद्व्यसुमोजसोर्व्याम् ॥ १॥
सान्दीपनेः सकृत्प्रोक्तं ब्रह्माधीत्य सविस्तरम् ।
तस्मै प्रादाद्वरं पुत्रं मृतं पञ्चजनोदरात् ॥ २॥
समाहुता भीष्मककन्यया ये
श्रियः सवर्णेन बुभूषयैषाम् ।
गान्धर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागं
जह्रे पदं मूर्ध्नि दधत्सुपर्णः ॥ ३॥
ककुद्मतोऽविद्धनसो दमित्वा
स्वयंवरे नाग्नजितीमुवाह ।
तद्भग्नमानानपि गृध्यतोऽज्ञान्
जघ्नेऽक्षतः शस्त्रभृतः स्वशस्त्रैः ॥ ४॥
प्रियं प्रभुर्ग्राम्य इव प्रियाया
विधित्सुरार्च्छद् द्युतरुं यदर्थे ।
वज्र्याद्रवत्तं सगणो रुषान्धः
क्रीडामृगो नूनमयं वधूनाम् ॥ ५॥
सुतं मृधे खं वपुषा ग्रसन्तं
दृष्ट्वा सुनाभोन्मथितं धरित्र्या ।
आमन्त्रितस्तत्तनयाय शेषं
दत्त्वा तदन्तःपुरमाविवेश ॥ ६॥
तत्राहृतास्ता नरदेवकन्याः
कुजेन दृष्ट्वा हरिमार्तबन्धुम् ।
उत्थाय सद्यो जगृहुः प्रहर्ष-
व्रीडानुरागप्रहितावलोकैः ॥ ७॥
आसां मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु योषिताम् ।
सविधं जगृहे पाणीननुरूपः स्वमायया ॥ ८॥
तास्वपत्यान्यजनयदात्मतुल्यानि सर्वतः ।
एकैकस्यां दश दश प्रकृतेर्विबुभूषया ॥ ९॥
कालमागधशाल्वादीननीकै रुन्धतः पुरम् ।
अजीघनत्स्वयं दिव्यं स्वपुंसां तेज आदिशत् ॥ १०॥
शंबरं द्विविदं बाणं मुरं बल्वलमेव च ।
अन्यांश्च दन्तवक्त्रादीनवधीत्कांश्च घातयत् ॥ ११॥
अथ ते भ्रातृपुत्राणां पक्षयोः पतितान्नृपान् ।
चचाल भूः कुरुक्षेत्रं येषामापततां बलैः ॥ १२॥
सकर्णदुःशासनसौबलानां
कुमन्त्रपाकेन हतश्रियायुषम् ।
सुयोधनं सानुचरं शयानं
भग्नोरुमुर्व्यां न ननन्द पश्यन् ॥ १३॥
कियान्भुवोऽयं क्षपितोरुभारो
यद्द्रोणभीष्मार्जुनभीममूलैः ।
अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशै-
रास्ते बलं दुर्विषहं यदूनाम् ॥ १४॥
मिथो यदैषां भविता विवादो
मध्वामदाताम्रविलोचनानाम् ।
नैषां वधोपाय इयानतोऽन्यो
मय्युद्यतेऽन्तर्दधते स्वयं स्म ॥ १५॥
एवं सञ्चिन्त्य भगवान्स्वराज्ये स्थाप्य धर्मजम् ।
नन्दयामास सुहृदः साधूनां वर्त्म दर्शयन् ॥ १६॥
उत्तरायां धृतः पूरोर्वंशः साध्वभिमन्युना ।
स वै द्रौण्यस्त्रसंच्छिन्नः पुनर्भगवता धृतः ॥ १७॥
अयाजयद्धर्मसुतमश्वमेधैस्त्रिभिर्विभुः ।
सोऽपि क्ष्मामनुजै रक्षन् रेमे कृष्णमनुव्रतः ॥ १८॥
भगवानपि विश्वात्मा लोकवेदपथानुगः ।
कामान् सिषेवे द्वार्वत्यामसक्तः साङ्ख्यमास्थितः ॥ १९॥
स्निग्द्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।
चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥ २०॥
इमं लोकममुं चैव रमयन् सुतरां यदून् ।
रेमे क्षणदया दत्तक्षणस्त्रीक्षणसौहृदः ॥ २१॥
तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान् बहून् ।
गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥ २२॥
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विश्रंभेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः ॥ २३॥
पुर्यां कदाचित्क्रीडद्भिर्यदुभोजकुमारकैः ।
कोपिता मुनयः शेपुर्भगवन्मतकोविदाः ॥ २४॥
ततः कतिपयैर्मासैर्वृष्णिभोजान्धकादयः ।
ययुः प्रभासं संहृष्टा रथैर्देवविमोहिताः ॥ २५॥
तत्र स्नात्वा पितॄन् देवान् ऋषींश्चैव तदंभसा ।
तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः ॥ २६॥
हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकंबलान् ।
यानं रथानिभान्कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥ २७॥
अन्नं चोरुरसं तेभ्यो दत्त्वा भगवदर्पणम् ।
गोविप्रार्थासवः शूराः प्रणेमुर्भुवि मूर्धभिः ॥ २८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
विदुरोद्धवसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय
भगवान के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन
उद्धवजी कहते हैं—इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को सुख पहुँचा ने की इच्छा से बलदेवजी के साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रुसमुदाय के स्वामी कंस को ऊँचे सिंहासन से नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाश को बड़े जोर से पृथ्वी पर घसीटा ॥ १ ॥ सान्दीपनि मुनि के द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए साङ्गोपाङ्ग वेद का अध्ययन करके दक्षिणा स्वरूप उनके मरे हुए पुत्र को पञ्चजन नामक राक्षसके पेट से (यमपुरीसे) लाकर दे दिया ॥ २ ॥ भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी के सौन्दर्य से अथवा रुक्मी के बुला ने से जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिर पर पैर रखकर गान्धर्व विधि के द्वारा विवाह करने के लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणी को वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड अमृत-कलश को ले आये थे ॥ ३ ॥ स्वयंवर में सात बिना नथे हुए बैलों को नाथकर नाग्रजिती (सत्या) से विवाह किया। इस प्रकार मानभङ्ग हो जाने पर मूर्ख राजाओं ने शस्त्र उठाकर राजकुमारी को छीनना चाहा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रों से उन्हें मार डाला ॥ ४ ॥ भगवान विषयी पुरुषोंकी-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामा को प्रसन्न करने की इच्छा से उनके लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्र ने क्रोध से अंधे होकर अपने सैनिकोंसहित उन पर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियों का क्रीडामृग बना हुआ है ॥ ५ ॥ अपने विशाल डीलडौल से आकाश को भी ढक देनेवाले अपने पुत्र भौमासुर को भगवान के हाथ से मरा हुआ देखकर पृथ्वी ने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्त:पुर में प्रवेश किया ॥ ६ ॥ वहाँ भौमासुर द्वारा हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही खड़ी हो गयीं और सबने महान हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवन से तत्काल ही भगवान को पतिरूप में वरण कर लिया ॥ ७ ॥
तब भगवान ने अपनी निजशक्ति योगमाया से उन ललनाओं के अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सब का अलग-अलग महलों में एक ही मुहूर्त में विधिवत् पाणिग्रहण किया ॥ ८ ॥ अपनी लीला का विस्तार करने के लिये उन्होंने उनमें से प्रत्येक के गर्भ से सभी गुणों में अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये ॥ ९ ॥ जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादि ने अपनी सेनाओं से मथुरा और द्वारकापुरी को घेरा था, तब भगवान ने निजजनों को अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था ॥ १० ॥ शम्बर, द्विविद, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओं में से भी किसीको उन्होंने स्वयं मारा था और किसीको दूसरों से मरवाया ॥ ११ ॥ इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं का भी संहार किया, जिनके सेनासहित कुरुक्षेत्र में पहुँचने पर पृथ्वी डगमगा ने लगी थी ॥ १२ ॥ कर्ण, दु:शासन और शकुनि की खोटी सलाह से जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थीं, तथा भीमसेन की गदा से जिसकी जाँघ टूट चुकी थी, उस दुर्योधन को अपने साथियों के सहित पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई ॥ १३ ॥ वे सोच ने लगे—यदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेन के द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेना का विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वी का कितना भार हल का हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्युम्र आदि के बल से बढ़े हुए यादवों का दु:सह दल बना ही हुआ है ॥ १४ ॥ जब ये मधु-पान से मतवाले हो लाल-लाल आँखें करके आपस में लडऩे लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असल में मेरे संकल्प करने पर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायँगे ॥ १५ ॥
यों सोचकर भगवान ने युधिष्ठिर को अपनी पैतृक राजगद्दी पर बैठाया और अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को सत्पुरुषों का मार्ग दिखाकर आनन्दित किया ॥ १६ ॥ उत्तरा के उदर में जो अभिमन्यु ने पूरुवंश का बीज स्थापित किया था, वह भी अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से नष्ट-सा हो चु का था; किन्तु भगवान ने उसे बचा लिया ॥ १७ ॥ उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से तीन अश्वमेध-यज्ञ करवाये और वे भी श्रीकृष्ण के अनुगामी होकर अपने छोटे भाइयों की सहायता से पृथ्वी की रक्षा करते हुए बड़े आनन्द से रहने लगे ॥ १८ ॥ विश्वात्मा श्रीभगवान ने भी द्वारकापुरी में रहकर लोक और वेद की मर्यादा का पालन करते हुए सब प्रकार के भोग भोगे, किन्तु सांख्ययोग की स्थापना करने के लिये उनमें कभी आसक्त नहीं हुए ॥ १९ ॥ मधुर मुसकान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरता के निवास अपने श्रीविग्रह से लोक-परलोक और विशेषतया यादवों को आनन्दित किया तथा रात्रि में अपनी प्रियाओं के साथ क्षणिक अनुरागयुक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया ॥ २०-२१ ॥ इस तरह बहुत वर्षों तक विहार करते-करते उन्हें गृहस्थ आश्रम-सम्बन्धी भोग-सामग्रियों से वैराग्य हो गया ॥ २२ ॥ ये भोग-सामग्रियाँ ईश्वर के अधीन हैं और जीव भी उन्हींके अधीन है। जब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को ही उनसे वैराग्य हो गया तब भक्तियोग के द्वारा उनका अनुगमन करनेवाला भक्त तो उन पर विश्वास ही कैसे करेगा ? ॥ २३ ॥
एक बार द्वारकापुरी में खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकों ने खेल-खेल में कुछ मुनीश्वरों को चिढ़ा दिया। तब यादवकुल का नाश ही भगवान को अभीष्ट है—यह समझकर उन ऋषियों ने बालकों को शाप दे दिया ॥ २४ ॥ इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्ष से रथों पर चढक़र प्रभासक्षेत्र को गये ॥ २५ ॥ वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थ के जल से पितर, देवता और ऋषियों का तर्पण किया तथा ब्राह्मणों को श्रेष्ठ गौएँ दीं ॥ २६ ॥ उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीवि का चल सके तथा नाना प्रकार के सरस अन्न भी भगवदर्पण करके ब्राह्मणों को दिये। इसके पश्चात गौ और ब्राह्मणों के लिये ही प्राण धारण करनेवाले उन वीरों ने पृथ्वी पर सिर टेककर उन्हें प्रणाम किया ॥ २७-२८ ॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
उद्धव उवाच
अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥ १॥
तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्लोचति रवावासीद्वेणूनामिव मर्दनम् ॥ २॥
भगवान् स्वात्ममायाया गतिं तामवलोक्य सः ।
सरस्वतीमुपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥ ३॥
अहं चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह ।
बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सञ्जिहीर्षुणा ॥ ४॥
अथापि तदभिप्रेतं जानन्नहमरिन्दम ।
पृष्ठतोऽन्वगमं भर्तुः पादविश्लेषणाक्षमः ॥ ५॥
अद्राक्षमेकमासीनं विचिन्वन् दयितं पतिम् ।
श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥ ६॥
श्यामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।
दोर्भिश्चतुर्भिर्विदितं पीतकौशांबरेण च ॥ ७॥
वाम ऊरावधिश्रित्य दक्षिणाङ्घ्रिसरोरुहम् ।
अपाश्रितार्भकाश्वत्थमकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥ ८॥
तस्मिन्महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखा ।
लोकाननुचरन् सिद्ध आससाद यदृच्छया ॥ ९॥
तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुन्दः
प्रमोदभावानतकन्धरस्य ।
आशृण्वतो मामनुरागहास-
समीक्षया विश्रमयन्नुवाच ॥ १०॥
श्रीभगवानुवाच
वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं ते
ददामि यत्तद्दुरवापमन्यैः ।
सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां
मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः ॥ ११॥
स एष साधो चरमो भवाना-
मासादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।
यन्मां नृलोकान् रह उत्सृजन्तं
दिष्ट्या ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥ १२॥
पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये
पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासं
यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ १३॥
इत्यादृतोक्तः परमस्य पुंसः
प्रतिक्षणानुग्रहभाजनोऽहम् ।
स्नेहोत्थरोमा स्खलिताक्षरस्तं
मुञ्चञ्छुचः प्राञ्जलिराबभाषे ॥ १४॥
को न्वीश ते पादसरोजभाजां
सुदुर्लभोऽर्थेषु चतुर्ष्वपीह ।
तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्
भवत्पदांभोजनिषेवणोत्सुकः ॥ १५॥
कर्माण्यनीहस्य भवोऽभवस्य ते
दुर्गाश्रयोऽथारिभयात्पलायनम् ।
कालात्मनो यत्प्रमदायुताश्रमः
स्वात्मन् रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥ १६॥
मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्व-
मकुण्ठिताखण्डसदात्मबोधः ।
पृच्छेः प्रभो मुग्द्ध इवाप्रमत्तः
तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥ १७॥
ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं
प्रोवाच कस्मै भगवान् समग्रम् ।
अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्तः
वदाञ्जसा यद्वृजिनं तरेम ॥ १८॥
इत्यावेदितहार्दाय मह्यं स भगवान् परः ।
आदिदेशारविन्दाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम् ॥ १९॥
स एवमाराधितपादतीर्था-
दधीततत्त्वात्मविबोधमार्गः ।
प्रणम्य पादौ परिवृत्य देव-
मिहागतोऽहं विरहातुरात्मा ॥ २०॥
सोऽहं तद्दर्शनाह्लादवियोगार्तियुतः प्रभो ।
गमिष्ये दयितं तस्य बदर्याश्रममण्डलम् ॥ २१॥
यत्र नारायणो देवो नरश्च भगवान् ऋषिः ।
मृदु तीव्रं तपो दीर्घं तेपाते लोकभावनौ ॥ २२॥
श्रीशुक उवाच
इत्युद्धवादुपाकर्ण्य सुहृदां दुःसहं वधम् ।
ज्ञानेनाशमयत्क्षत्ता शोकमुत्पतितं बुधः ॥ २३॥
स तं महाभागवतं व्रजन्तं कौरवर्षभः ।
विश्रंभादभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥ २४॥
विदुर उवाच
ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं
यदाह योगेश्वर ईश्वरस्ते ।
वक्तुं भवान्नोऽर्हति यद्धि विष्णो-
र्भृत्याः स्वभृत्यार्थकृतश्चरन्ति ॥ २५॥
उद्धव उवाच
ननु ते तत्त्वसंराध्य ऋषिः कौषारवोऽन्ति मे ।
साक्षाद्भगवताऽऽदिष्टो मर्त्यलोकं जिहासता ॥ २६॥
श्रीशुक उवाच
इति सह विदुरेण विश्वमूर्ते-
र्गुणकथया सुधया प्लावितोरुतापः ।
क्षणमिव पुलिने यमस्वसुस्तां
समुषित औपगविर्निशां ततोऽगात् ॥ २७॥
राजोवाच
निधनमुपगतेषु वृष्णिभोजे-
ष्वधिरथयूथपयूथपेषु मुख्यः ।
स तु कथमवशिष्ट उद्धवो यद्धरिरपि
तत्यज आकृतिं त्र्यधीशः ॥ २८॥
श्रीशुक उवाच
ब्रह्मशापापदेशेन कालेनामोघवाञ्छितः ।
संहृत्य स्वकुलं नूनं त्यक्ष्यन् देहमचिन्तयत् ॥ २९॥
अस्माल्लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम् ।
अर्हत्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः ॥ ३०॥
नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनो यद्गुणैर्नार्दितः प्रभुः ।
अतो मद्वयुनं लोकं ग्राहयन्निह तिष्ठतु ॥ ३१॥
एवं त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्टः शब्दयोनिना ।
बदर्याश्रममासाद्य हरिमीजे समाधिना ॥ ३२॥
विदुरोऽप्युद्धवाच्छ्रुत्वा कृष्णस्य परमात्मनः ।
क्रीडयोपात्तदेहस्य कर्माणि श्लाघितानि च ॥ ३३॥
देहन्यासं च तस्यैवं धीराणां धैर्यवर्धनम् ।
अन्येषां दुष्करतरं पशूनां विक्लवात्मनाम् ॥ ३४॥
आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम् ।
ध्यायन् गते भागवते रुरोद प्रेमविह्वलः ॥ ३५॥
कालिन्द्याः कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभ ।
प्रापद्यत स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनिः ॥ ३६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय
उद्धवजी से विदा होकर विदुरजी का मैत्रेय ऋषि के पास जाना
उद्धवजी ने कहा—फिर ब्राह्मणों की आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी। उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनों से एक दूसरे के हृदय को चोट पहुँचा ने लगे ॥ १ ॥ मदिरा के नशे से उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपस की रगड़ से बाँसों में आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी ॥ २ ॥ भगवान अपनी माया की उस विचित्र गति को देखकर सरस्वती के जल से आचमन करके एक वृक्ष के नीचे बैठ गये ॥ ३ ॥ इससे पहले ही शरणागतों का दु:ख दूर करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझ से कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ ॥ ४ ॥ विदुरजी ! इससे यद्यपि मैं उनका आशय समझ गया था, तो भी स्वामी के चरणों का वियोग न सह सक ने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे प्रभासक्षेत्र में पहुँच गया ॥ ५ ॥ वहाँ मैंने देखा कि जो सब के आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभु शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वती के तट पर अकेले ही बैठे हैं ॥ ६ ॥ दिव्य विशुद्ध-सत्त्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्ति से भरी रतनारी आँखें हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उन को दूर से ही पहचान लिया ॥ ७ ॥ वे एक पीपल के छोटे- से वृक्ष का सहारा लिये बायीं जाँघ पर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे। भोजन-पान का त्याग कर देने पर भी वे आनन्द से प्रफुल्लित हो रहे थे ॥ ८ ॥ इसी समय व्यासजी के प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकों में स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे ॥ ९ ॥ मैत्रेय मुनि भगवान के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और भक्तिभाव से उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरि ने प्रेम एवं मुसकानयुक्त चितवन से मुझे आनन्दित करते हुए कहा ॥ १० ॥
श्रीभगवान कह ने लगे—मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। उद्धव ! तुम पूर्व-जन्म में वसु थे। विश्व की रचना करनेवाले प्रजापतियों और वसुओं के यज्ञ में मुझे पाने की इच्छा से ही तुम ने मेरी आराधना की थी ॥ ११ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! संसार में तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुम ने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मत्र्यलोक को छोडक़र अपने धाम में जाना चाहता हूँ। इस समय यहाँ एकान्त में तुम ने अपनी अनन्य भक्ति के कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है ॥ १२ ॥ पूर्वकाल में पाद्मकल्प के आरम्भ में मैंने अपने नाभि-कमल पर बैठे हुए ब्रह्मा को अपनी महिमा के प्रकट करनेवाले जिस श्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश किया था और जिसे विवे की लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वही मैं तुम्हें देता हूँ ॥ १३ ॥
विदुरजी ! मुझ पर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुष की कृपा बरसा करती थी। इस समय उनके इस प्रकार आदरपूर्वक कह ने से स्नेहवश मुझे रोमाञ्च हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रों से आँसुओं की धारा बह ने लगी। उस समय मैंने हाथ जोडक़र उनसे कहा— ॥ १४ ॥ ‘स्वामिन् ! आपके चरण-कमलों की सेवा करनेवाले पुरुषों को इस संसार में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—इन चारों में से कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि मुझे उनमें से किसी की इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलों की सेवा के लिये ही लालायित रहता हूँ ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप नि:स्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, कालरूप होकर भी शत्रु के डर से भागते हैं और द्वार का के किले में जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियों के साथ रमण करते हैं—इन विचित्र चरित्रों को देखकर विद्वानों की बुद्धि भी चक्कर में पड़ जाती है ॥ १६ ॥ । देव ! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेने के लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानी से मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो ! आपकी वह लीला मेरे मन को मोहित-सा कर देती है ॥ १७ ॥ स्वामिन् ! अपने स्वरूप का गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्माजी को बतलाया था, वह यदि मेरे समझ ने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार-दु:ख को सुगमता से पार कर जाऊँ’ ॥ १८ ॥
जब मैंने इस प्रकार अपने हृदय का भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे अपने स्वरूप की परम स्थिति का उपदेश दिया ॥ १९ ॥ इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्ण से आत्मतत्त्व की उपलब्धि का साधन सुनकर तथा उन प्रभु के चरणों की वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस समय उनके विरह से मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है ॥ २० ॥ विदुरजी ! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे हृदय को उनकी विरहव्यथा अत्यन्त पीडि़त कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रम को जा रहा हूँ, जहाँ भगवान श्रीनारायणदेव और नर—ये दोनों ऋषि लोगों पर अनुग्रह करने के लिये दीर्घकालीन सौम्य दूसरों को सुख पहुँचानेवाली एवं कठिन तपस्या कर रहें हैं ॥ २१-२२ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार उद्धवजी के मुख से अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञान द्वारा शान्त कर दिया ॥ २३ ॥ जब भगवान श्रीकृष्ण के परिकरों में प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा ॥ २४ ॥
विदुरजी ने कहा—उद्धवजी ! योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप के गूढ़ रहस्य को प्रकट करनेवाला जो परमज्ञान आप से कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य सिद्ध करने के लिये ही विचरा करते हैं ॥ २५ ॥
उद्धवजी ने कहा—उस तत्त्वज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये। इस मत्र्यलोक को छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा दी थी ॥ २६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार विदुरजी के साथ विश्वमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा होने से उस कथामृत के द्वारा उद्धवजी का वियोगजनित महान ताप शान्त हो गया। यमुनाजी के तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। फिर प्रात:काल होते ही वे वहाँ से चल दिये ॥ २७ ॥
राजा परीक्षित ने पूछा—भगवन् ! वृष्णिकुल और भोजवंश के सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो गये थे। यहाँ तक कि त्रिलो की नाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोडऩा पड़ा था। फिर उन सब के मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ? ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरि ने ब्राह्मणों के शापरूप काल के बहा ने अपने कुल का संहार कर अपने श्रीविग्रह को त्यागते समय विचार किया ॥ २९ ॥ ‘अब इस लोक से मेरे चले जाने पर संयमीशिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं ॥ ३० ॥ उद्धव मुझ से अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अत: लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा देते हुए वे यहीं रहें’ ॥ ३१ ॥ वेदों के मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधि- योग द्वारा श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ३२ ॥ कुरुश्रेष्ठ परीक्षित ! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ानेवाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषों के लिये अत्यन्त दुष्कर था। परम भागवत उद्धवजी के मुख से उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होने का समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजी के चले जाने पर प्रेम से विह्वल होकर रोने लगे ॥ ३३—३५ ॥ इसके पश्चात सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुनातट से चलकर कुछ दिनों में गङ्गाजी के किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी रहते थे ॥ ३६ ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः - ५ ॥
श्रीशुक उवाच
द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणां
मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावशुद्धः
पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥ १॥
विदुर उवाच
सुखाय कर्माणि करोति लोको
न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं
यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥ २॥
जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य दैवा-
दधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।
अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं
भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥ ३॥
तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं नः
संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।
हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते
ज्ञानं स तत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ ४॥
करोति कर्माणि कृतावतारो
यान्यात्मतन्त्रो भगवांस्त्र्यधीशः ।
यथा ससर्जाग्र इदं निरीहः
संस्थाप्य वृत्तिं जगतो विधत्ते ॥ ५॥
यथा पुनः स्वे ख इदं निवेश्य
शेते गुहायां स निवृत्तवृत्तिः ।
योगेश्वराधीश्वर एक एत-
दनुप्रविष्टो बहुधा यथाऽऽसीत् ॥ ६॥
क्रीडन्विधत्ते द्विजगोसुराणां
क्षेमाय कर्माण्यवतारभेदैः ।
मनो न तृप्यत्यपि शृण्वतां नः
सुश्लोकमौलेश्चरितामृतानि ॥ ७॥
यैस्तत्त्वभेदैरधिलोकनाथो
लोकानलोकान् सह लोकपालान् ।
अचीक्लृपद्यत्र हि सर्वसत्त्व-
निकायभेदोऽधिकृतः प्रतीतः ॥ ८॥
येन प्रजानामुत आत्मकर्म-
रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनि-
रेतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९॥
परावरेषां भगवन्व्रतानि
श्रुतानि मे व्यासमुखादभीक्ष्णम् ।
अतृप्नुम क्षुल्लसुखावहानां
तेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥ १०॥
कस्तृप्नुयात्तीर्थपदोऽभिधाना-
त्सत्रेषु वः सूरिभिरीड्यमानात् ।
यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातो
भवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥ ११॥
मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानां
सखापि ते भारतमाह कृष्णः ।
यस्मिन्नृणां ग्राम्यसुखानुवादै-
र्मतिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥ १२॥
सा श्रद्दधानस्य विवर्धमाना
विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।
हरेः पदानुस्मृतिनिर्वृतस्य
समस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥ १३॥
ताञ्छोच्यशोच्यानविदोऽनुशोचे
हरेः कथायां विमुखानघेन ।
क्षिणोति देवोऽनिमिषस्तु येषा-
मायुर्वृथा वादगतिस्मृतीनाम् ॥ १४॥
तदस्य कौषारव शर्म दातुर्हरेः
कथामेव कथासु सारम् ।
उद्धृत्य पुष्पेभ्य इवार्तबन्धो
शिवाय नः कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ १५॥
स विश्वजन्मस्थितिसंयमार्थे
कृतावतारः प्रगृहीतशक्तिः ।
चकार कर्माण्यतिपूरुषाणि
यानीश्वरः कीर्तय तानि मह्यम् ॥ १६॥
श्रीशुक उवाच
स एवं भगवान् पृष्टः क्षत्त्रा कौषारविर्मुनिः ।
पुंसां निःश्रेयसार्थेन तमाह बहुमानयन् ॥ १७॥
मैत्रेय उवाच
साधु पृष्टं त्वया साधो लोकान् साध्वनुगृह्णता ।
कीर्तिं वितन्वता लोके आत्मनोऽधोक्षजात्मनः ॥ १८॥
नैतच्चित्रं त्वयि क्षत्तर्बादरायणवीर्यजे ।
गृहीतोऽनन्यभावेन यत्त्वया हरिरीश्वरः ॥ १९॥
माण्डव्यशापाद्भगवान् प्रजासंयमनो यमः ।
भ्रातुः क्षेत्रे भुजिष्यायां जातः सत्यवतीसुतात् ॥ २०॥
भवान्भगवतो नित्यं सम्मतः सानुगस्य ह ।
यस्य ज्ञानोपदेशाय माऽऽदिशद्भगवान् व्रजन् ॥ २१॥
अथ ते भगवल्लीलायोगमायोरुबृंहिताः ।
विश्वस्थित्युद्भवान्तार्था वर्णयाम्यनुपूर्वशः ॥ २२॥
भगवानेक आसेदमग्र आत्माऽऽत्मनां विभुः ।
आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षणः ॥ २३॥
स वा एष तदा द्रष्टा नापश्यद्दृश्यमेकराट् ।
मेनेऽसन्तमिवात्मानं सुप्तशक्तिरसुप्तदृक् ॥ २४॥
सा वा एतस्य संद्रष्टुः शक्तिः सदसदात्मिका ।
माया नाम महाभाग ययेदं निर्ममे विभुः ॥ २५॥
कालवृत्त्या तु मायायां गुणमय्यामधोक्षजः ।
पुरुषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान् ॥ २६॥
ततोऽभवन्महत्तत्त्वमव्यक्तात्कालचोदितात् ।
विज्ञानात्माऽऽत्मदेहस्थं विश्वं व्यञ्जंस्तमोनुदः ॥ २७॥
सोऽप्यंशगुणकालात्मा भगवद्दृष्टिगोचरः ।
आत्मानं व्यकरोदात्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥ २८॥
महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणादहंतत्त्वं व्यजायत ।
कार्यकारणकर्त्रात्मा भूतेन्द्रियमनोमयः ॥ २९॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ।
अहंतत्त्वाद्विकुर्वाणान्मनो वैकारिकादभूत् ।
वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यतः ॥ ३०॥
तैजसानीन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ।
तामसो भूतसूक्ष्मादिर्यतः खं लिङ्गमात्मनः ॥ ३१॥
कालमायांशयोगेन भगवद्वीक्षितं नभः ।
नभसोऽनुसृतं स्पर्शं विकुर्वन्निर्ममेऽनिलम् ॥ ३२॥
अनिलोऽपि विकुर्वाणो नभसोरुबलान्वितः ।
ससर्ज रूपतन्मात्रं ज्योतिर्लोकस्य लोचनम् ॥ ३३॥
अनिलेनान्वितं ज्योतिर्विकुर्वत्परवीक्षितम् ।
आधत्तांभो रसमयं कालमायांशयोगतः ॥ ३४॥
ज्योतिषांभोऽनुसंसृष्टं विकुर्वद्ब्रह्मवीक्षितम् ।
महीं गन्धगुणामाधात्कालमायांशयोगतः ॥ ३५॥
भूतानां नभ आदीनां यद्यद्भव्यावरावरम् ।
तेषां परानुसंसर्गाद्यथा सङ्ख्यं गुणान् विदुः ॥ ३६॥
एते देवाः कला विष्णोः कालमायांशलिङ्गिनः ।
नानात्वात्स्वक्रियानीशाः प्रोचुः प्राञ्जलयो विभुम् ॥ ३७॥
देवा ऊचुः
नमाम ते देवपदारविन्दं
प्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।
यन्मूलकेता यतयोऽञ्जसोरु-
संसारदुःखं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥ ३८॥
धातर्यदस्मिन् भव ईश जीवा-
स्तापत्रयेणोपहता न शर्म ।
आत्मन् लभन्ते भगवंस्तवाङ्घ्रि-
च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ३९॥
मार्गन्ति यत्ते मुखपद्मनीडै-
श्छन्दःसुपर्णैरृषयो विविक्ते ।
यस्याघमर्षोदसरिद्वरायाः
पदं पदं तीर्थपदः प्रपन्नाः ॥ ४०॥
यच्छ्रद्धया श्रुतवत्या च भक्त्या
सम्मृज्यमाने हृदयेऽवधाय ।
ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीरा
व्रजेम तत्तेऽङ्घ्रिसरोजपीठम् ॥ ४१॥
विश्वस्य जन्मस्थितिसंयमार्थे
कृतावतारस्य पदांबुजं ते ।
व्रजेम सर्वे शरणं यदीश
स्मृतं प्रयच्छत्यभयं स्वपुंसाम् ॥ ४२॥
यत्सानुबन्धेऽसति देहगेहे
ममाहमित्यूढदुराग्रहाणाम् ।
पुंसां सुदूरं वसतोऽपि पुर्यां
भजेम तत्ते भगवन् पदाब्जम् ॥ ४३॥
तान्वै ह्यसद्वृत्तिभिरक्षिभिर्ये
पराहृतान्तर्मनसः परेश ।
अथो न पश्यन्त्युरुगाय नूनं
ये ते पदन्यासविलासलक्ष्याः ॥ ४४॥
पानेन ते देव कथासुधायाः
प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।
वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं
यथाञ्जसान्वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥ ४५॥
तथापरे चात्मसमाधियोगबलेन
जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम् ।
त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति
तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ ४६॥
तत्ते वयं लोकसिसृक्षयाद्य
त्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभिः स्म ।
सर्वे वियुक्ताः स्वविहारतन्त्रं
न शक्नुमस्तत्प्रतिहर्तवे ते ॥ ४७॥
यावद्बलिं तेऽज हराम काले
यथा वयं चान्नमदाम यत्र ।
यथोभयेषां त इमे हि लोका
बलिं हरन्तोऽन्नमदन्त्यनूहाः ॥ ४८॥
त्वं नः सुराणामसि सान्वयानां
कूटस्थ आद्यः पुरुषः पुराणः ।
त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौ
रेतस्त्वजायां कविमादधेऽजः ॥ ४९॥
ततो वयं सत्प्रमुखा यदर्थे
बभूविमात्मन् करवाम किं ते ।
त्वं नः स्वचक्षुः परिदेहि शक्त्या
देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम् ॥ ५०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-पाँचवा अध्याय
विदुरजी का प्रश्र और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रमवर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वारक्षेत्रमें) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए हृदयवाले विदुरजी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा ॥ १ ॥
विदुरजी ने कहा—भगवन् ! संसार में सब लोग सुख के लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दु:ख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दु:ख की वृद्धि ही होती है। अत: इस विषय में क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये ॥ २ ॥
जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान श्रीकृष्ण से विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुखी हैं, उन पर कृपा करने के लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसार में विचरा करते हैं ॥ ३ ॥ साधुशिरोमणे ! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधन का उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करने से भगवान अपने भक्तों के भक्तिपूत हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरूप का अपरोक्ष अनुभव करानेवाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं ॥ ४ ॥ त्रिलो की के नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टि की रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत के जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होने पर भी इस ब्रह्माण्ड में अन्तर्यामीरूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपों में प्रकट होते हैं—वह सब रहस्य आप हमें समझाइये ॥ ५-६ ॥ ब्राह्मण, गौ और देवताओं के कल्याण के लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकार के दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये। यशस्वियों के मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता ॥ ७ ॥
हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियों के स्वामी श्रीहरि ने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वत से बाहर के भागों को, जिन में ये सब प्रकार के प्राणियों के अधिकारानुसार भिन्न- भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्त्वों से रचा है ॥ ८ ॥ द्विजवर ! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजा के स्वभाव, कर्म, रूप और नामों के भेद की किस प्रकार रचना की है ? भगवन् ! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्ण कथामृत के प्रवाह को छोडक़र अन्य स्वल्पसुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है ॥ ९-१० ॥ उन तीर्थपाद श्रीहरि के गुणानुवाद से तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओं के समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्यों के कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसारचक्र में डालनेवाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान के गुणों का वर्णन करने की इच्छा से ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषयसुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान की कथाओं की ओर लगा ने का ही प्रयत्न किया गया है ॥ १२ ॥ यह भगवत् कथा की रुचि श्रद्धालु पुरुष के हृदय में जब बढऩे लगती है, तब अन्य विषयों से उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणों के निरन्तर चिन्तन से आनन्दमग्र हो जाता है और उस पुरुष के सभी दु:खों का तत्काल अन्त हो जाता है ॥ १३ ॥ मुझे तो उन शोचनीयों के भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषों के लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापों के कारण श्रीहरि की कथाओं से विमुख रहते हैं। हाय ! कालभगवान उनके अमूल्य जीवन को काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मन से व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तन में लगे रहते हैं ॥ १४ ॥ मैत्रेयजी ! आप दीनों पर कृपा करनेवाले हैं; अत: भौंरा जैसे फूलों में से रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओं में से इन की सारभूता परम कल्याणकारी पवित्रकीर्ति श्रीहरि की कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याण के लिये सुनाइये ॥ १५ ॥ उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने के लिये अपनी मायाशक्ति को स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारों के द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब विदुरजी ने जीवों के कल्याण के लिये इस प्रकार प्रश्र किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान मैत्रेयजी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा ॥ १७ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले—साधुस्वभाव विदुरजी ! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा ॥ १८ ॥ आप श्रीव्यासजी के औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्यभाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं ॥ १९ ॥ आप प्रजा को दण्ड देनेवाले भगवान यम ही हैं। माण्डव्य ऋषि का शाप होने के कारण ही आपने श्रीव्यासजी के वीर्य से उनके भाई विचित्रवीर्य की भोगपत्नी दासी के गर्भ से जन्म लिया है ॥ २० ॥ आप सर्वदा ही श्रीभगवान और उनके भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा दे गये हैं ॥ २१ ॥ इसलिये अब मैं जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये योगमाया के द्वारा विस्तारित हुई भगवान की विभिन्न लीलाओं का क्रमश: वर्णन करता हूँ ॥ २२ ॥
सृष्टिरचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे—न द्रष्टा था न दृश्य ! सृष्टिकाल में अनेक वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी ॥ २३ ॥ वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के समान समझ ने लगे। वस्तुत: वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्तियाँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था ॥ २४ ॥ यह द्रष्टा और दृश्य का अनुसन्धान करनेवाली शक्ति ही—कार्यकारण- रूपा माया है। महाभाग विदुरजी ! इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही भगवान ने इस विश्व का निर्माण किया है ॥ २५ ॥ कालशक्ति से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्माने अपने अंश पुरुषरूप से उसमें चिदाभासरूप बीज स्थापित किया ॥ २६ ॥ तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महत्तत्त्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञान स्वरूप और अपने में सूक्ष्मरूप से स्थित प्रपञ्च की अभिव्यक्ति करनेवाला था ॥ २७ ॥ फिर चिदाभास, गुण और काल के अधीन उस महत्तत्त्व ने भगवान की दृष्टि पडऩे पर इस विश्व की रचना के लिये अपना रूपान्तर किया ॥ २८ ॥ महत्तत्त्व के विकृत होने पर अहंकार की उत्पत्ति हुई—जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कत्र्ता (अधिदैव) रूप होने के कारण भूत, इन्द्रिय और मन का कारण है ॥ २९ ॥ वह अहंकार वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और तामस भेद से तीन प्रकार का है; अत: अहंतत्त्व में विकार होने पर वैकारिक अहंकार से मन, और जिन से विषयों का ज्ञान होता है वे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए ॥ ३० ॥ तैजस अहंकार से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हुर्ईं तथा तामस अहंकार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्दतन्मात्र हुआ, और उससे दृष्टान्तरूप से आत्मा का बोध करानेवाला आकाश उत्पन्न हुआ ॥ ३१ ॥ भगवान की दृष्टि जब आकाश पर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभासके योग से स्पर्शतन्मत्र हुआ और उसके विकृत होने पर उससे वायु की उत्पत्ति हुई ॥ ३२ ॥ अत्यन्त बलवान् वायु ने आकाश के सहित विकृत होकर रूपतन्मात्र की रचना की और उससे संसार का प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ ॥ ३३ ॥ फिर परमात्मा की दृष्टि पडऩे पर वायुयुक्त तेज ने काल, माया और चिदंश के योग से विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जल को उत्पन्न किया ॥ ३४ ॥ तदनन्तर तेज से युक्त जल ने ब्रह्म का दृष्टिपात होने पर काल, माया और चिदंश के योग से गन्धगुणमयी पृथ्वी को उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ विदुरजी ! इन आकाशादि भूतों में से जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमश: अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समझ ने चाहिये ॥ ३६ ॥ ये महत्तत्त्वादि के अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांशविशिष्ट देवगण श्रीभगवान के ही अंश हैं। किन्तु पृथक्-पृथक् रहने के कारण जब वे विश्वरचनारूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए, तब हाथ जोडक़र भगवान से कह ने लगे ॥ ३७ ॥
देवताओं ने कहा—देव ! हम आपके चरणकमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरण में आये हुए जीवों का ताप दूर करने के लिये छत्र के समान हैं तथा इनका आश्रय लेने से यतिजन अनन्त संसार- दु:ख को सुगमता से ही दूर फेंक देते हैं ॥ ३८ ॥ जगतकर्ता जगदीश्वर ! इस संसार में तापत्रय से व्याकुल रहने के कारण जीवों को जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन् ! हम आपके चरणों की ज्ञान- मयी छाया का आश्रय लेते हैं ॥ ३९ ॥ मुनिजन एकान्त स्थान में रहकर आपके मुखकमल का आश्रय लेनेवाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियों में श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी के उद्गमस्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मों का हम आश्रय लेते हैं ॥ ४० ॥ हम आपके चरणकमलों की उस चौ की का आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवणकीर्तनादिरूप भक्ति से परिमाॢजत अन्त:करण में धारण करके वैराग्यपुष्ट ज्ञान के द्वारा परम धीर हो जाते हैं ॥ ४१ ॥ ईश ! आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ही अवतार लेते हैं; अत: हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करनेवाले भक्तजनों को अभय कर देते हैं ॥ ४२ ॥ जिन पुरुषों का देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममता का दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीर में (आपके अन्तर्यामीरूपसे) रहने पर भी जो अत्यन्त दूर हैं—उन्हीं आपके चरणारविन्दों को हम भजते हैं ॥ ४३ ॥ परम यशस्वी परमेश्वर ! इन्द्रियों के विषयाभिमुख रहने के कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भट का करता है, वे पामरलोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यास की शोभा के विशेषज्ञ भक्तजनों का दर्शन नहीं कर पाते; इसीसे वे आपके चरणों से दूर रहते हैं ॥ ४४ ॥ देव ! आपके कथामृत का पान करने से उमड़ी हुई भक्ति के कारण जिनका अन्त:करण निर्मल हो गया है, वे लोग—वैराग्य ही जिसका सार है—ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधाम को चले जाते हैं ॥ ४५ ॥ दूसरे धीर पुरुष चित्तनिरोधरूप समाधि के बल से आपकी बलवती माया को जीतकर आप में ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवा के मार्ग में कुछ भी कष्ट नहीं है ॥ ४६ ॥
आदिदेव ! आपने सृष्टि-रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाववाले होने के कारण हम आपस में मिल नहीं पाते और इसीसे आपकी क्रीडा के साधनरूप ब्रह्माण्ड की रचना करके उसे आपको समर्पित करने में असमर्थ हो रहे हैं ॥ ४७ ॥ अत: जन्मरहित भगवन् ! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आपको सब प्रकार के भोग समय पर समर्पित कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी अपनी योग्यता के अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्रबाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को भोग समर्पित करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजिये ॥ ४८ ॥ आप निर्विकार पुराणपुरुष ही अन्य कार्यवर्ग के सहित हम देवताओं के आदि कारण हैं। देव ! पहले आप अजन्माही ने सत्त्वादि गुण और जन्मादि कर्मों की कारणरूपा मायाशक्ति में चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था ॥ ४९ ॥ परमात्मदेव ! महत्तत्त्वादिरूप हम देवगण जिस कार्य के लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्ध में हम क्या करें ? देव ! हम पर आप ही अनुग्रह करनेवाले हैं। इसलिये ब्रह्माण्डरचना के लिये आप हमें क्रियाशक्ति के सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये ॥ ५० ॥
॥ षष्ठोऽध्यायः - ६ ॥
ऋषिरुवाच
इति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।
प्रसुप्तलोकतन्त्राणां निशाम्य गतिमीश्वरः ॥ १॥
कालसञ्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रच्छक्तिमुरुक्रमः ।
त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत् ॥ २॥
सोऽनुप्रविष्टो भगवांश्चेष्टारूपेण तं गणम् ।
भिन्नं संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥ ३॥
प्रबुद्धकर्मा दैवेन त्रयोविंशतिको गणः ।
प्रेरितोऽजनयत्स्वाभिर्मात्राभिरधिपूरुषम् ॥ ४॥
परेण विशता स्वस्मिन्मात्रया विश्वसृग्गणः ।
चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन् लोकाश्चराचराः ॥ ५॥
हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सरान् ।
आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ६॥
स वै विश्वसृजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान् ।
विबभाजात्मनाऽऽत्मानमेकधा दशधा त्रिधा ॥ ७॥
एष ह्यशेषसत्त्वानामात्मांशः परमात्मनः ।
आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते ॥ ८॥
साध्यात्मः साधिदैवश्च साधिभूत इति त्रिधा ।
विराट् प्राणो दशविध एकधा हृदयेन च ॥ ९॥
स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितमधोक्षजः ।
विराजमतपत्स्वेन तेजसैषां विवृत्तये ॥ १०॥
अथ तस्याभितप्तस्य कति चायतनानि ह ।
निरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदतः शृणु ॥ ११॥
तस्याग्निरास्यं निर्भिन्नं लोकपालोऽविशत्पदम् ।
वाचा स्वांशेन वक्तव्यं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १२॥
निर्भिन्नं तालु वरुणो लोकपालोऽविशद्धरेः ।
जिह्वयांशेन च रसं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १३॥
निर्भिन्ने अश्विनौ नासे विष्णोराविशतां पदम् ।
घ्राणेनांशेन गन्धस्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १४॥
निर्भिन्ने अक्षिणी त्वष्टा लोकपालोऽविशद्विभोः ।
चक्षुषांशेन रूपाणां प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १५॥
निर्भिन्नान्यस्य चर्माणि लोकपालोऽनिलोऽविशत् ।
प्राणेनांशेन संस्पर्शं येनासौ प्रतिपद्यते ॥ १६॥
कर्णावस्य विनिर्भिन्नौ धिष्ण्यं स्वं विविशुर्दिशः ।
श्रोत्रेणांशेन शब्दस्य सिद्धिं येन प्रपद्यते ॥ १७॥
त्वचमस्य विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यमोषधीः ।
अंशेन रोमभिः कण्डूं यैरसौ प्रतिपद्यते ॥ १८॥
मेढ्रं तस्य विनिर्भिन्नं स्वधिष्ण्यं क उपाविशत् ।
रेतसांशेन येनासावानन्दं प्रतिपद्यते ॥ १९॥
गुदं पुंसो विनिर्भिन्नं मित्रो लोकेश आविशत् ।
पायुनांशेन येनासौ विसर्गं प्रतिपद्यते ॥ २०॥
हस्तावस्य विनिर्भिन्नाविन्द्रः स्वर्पतिराविशत् ।
वार्तयांशेन पुरुषो यया वृत्तिं प्रपद्यते ॥ २१॥
पादावस्य विनिर्भिन्नौ लोकेशो विष्णुराविशत् ।
गत्या स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥ २२॥
बुद्धिं चास्य विनिर्भिन्नां वागीशो धिष्ण्यमाविशत् ।
बोधेनांशेन बोद्धव्यप्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ २३॥
हृदयं चास्य निर्भिन्नं चन्द्रमा धिष्ण्यमाविशत् ।
मनसांशेन येनासौ विक्रियां प्रतिपद्यते ॥ २४॥
आत्मानं चास्य निर्भिन्नमभिमानोऽविशत्पदम् ।
कर्मणांशेन येनासौ कर्तव्यं प्रतिपद्यते ॥ २५॥
सत्त्वं चास्य विनिर्भिन्नं महान् धिष्ण्यमुपाविशत् ।
चित्तेनांशेन येनासौ विज्ञानं प्रतिपद्यते ॥ २६॥
शीर्ष्णोऽस्य द्यौर्धरा पद्भ्यां खं नाभेरुदपद्यत ।
गुणानां वृत्तयो येषु प्रतीयन्ते सुरादयः ॥ २७॥
आत्यन्तिकेन सत्त्वेन दिवं देवाः प्रपेदिरे ।
धरां रजः स्वभावेन पणयो ये च ताननु ॥ २८॥
तार्तीयेन स्वभावेन भगवन्नाभिमाश्रिताः ।
उभयोरन्तरं व्योम ये रुद्रपार्षदां गणाः ॥ २९॥
मुखतोऽवर्तत ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।
यस्तून्मुखत्वाद्वर्णानां मुख्योऽभूद्ब्राह्मणो गुरुः ॥ ३०॥
बाहुभ्योऽवर्तत क्षत्रं क्षत्रियस्तदनुव्रतः ।
यो जातस्त्रायते वर्णान् पौरुषः कण्टकक्षतात् ॥ ३१॥
विशोऽवर्तन्त तस्योर्वोर्लोकवृत्तिकरीर्विभोः ।
वैश्यस्तदुद्भवो वार्तां नृणां यः समवर्तयत् ॥ ३२॥
पद्भ्यां भगवतो जज्ञे शुश्रूषा धर्मसिद्धये ।
तस्यां जातः पुरा शूद्रो यद्वृत्त्या तुष्यते हरिः ॥ ३३॥
एते वर्णाः स्वधर्मेण यजन्ति स्वगुरुं हरिम् ।
श्रद्धयाऽऽत्मविशुद्ध्यर्थं यज्जाताः सह वृत्तिभिः ॥ ३४॥
एतत्क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिणः ।
कः श्रद्दध्यादुपाकर्तुं योगमायाबलोदयम् ॥ ३५॥
अथापि कीर्तयाम्यङ्ग यथामति यथाश्रुतम् ।
कीर्तिं हरेः स्वां सत्कर्तुं गिरमन्याभिधासतीम् ॥ ३६॥
एकान्तलाभं वचसो नु पुंसां
सुश्लोकमौलेर्गुणवादमाहुः ।
श्रुतेश्च विद्वद्भिरुपाकृतायां
कथा सुधायामुपसम्प्रयोगम् ॥ ३७॥
आत्मनोऽवसितो वत्स महिमा कविनाऽऽदिना ।
संवत्सरसहस्रान्ते धिया योगविपक्वया ॥ ३८॥
अतो भगवतो माया मायिनामपि मोहिनी ।
यत्स्वयं चात्मवर्त्मात्मा न वेद किमुतापरे ॥ ३९॥
यतोऽप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।
अहं चान्य इमे देवास्तस्मै भगवते नमः ॥ ४०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय
विराट् शरीर की उत्पत्ति
श्रीमैत्रेय ऋषि ने कहा—सर्वशक्तिमान् भगवान ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व-रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे कालशक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहंकार, पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा और मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ —इन तेईस तत्त्वों के समुदाय में प्रविष्ट हो गये ॥ १-२ ॥ उनमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए उस तत्त्वसमूह को अपनी क्रियाशक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया ॥ ३ ॥ इस प्रकार जब भगवान ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्त्वों के समूह ने भगवान की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष—विराट् को उत्पन्न किया ॥ ४ ॥ अर्थात् जब भगवान ने अंशरूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्वरचना करनेवाला महत्तत्त्वादि का समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणाम को प्राप्त हुआ। यह तत्त्वों का परिणाम ही विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत विद्यमान है ॥ ५ ॥ जल के भीतर जो अण्डरूप आश्रयस्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा ॥ ६ ॥ वह विश्वरचना करनेवाले तत्त्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्म- शक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमश: एक (हृदयरूप), दस (प्राणरूप) और तीन (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) विभाग किये ॥ ७ ॥ यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान का आदि-अवतार है। यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है ॥ ८ ॥ यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवरूप से तीन प्रकारका, प्राणरूप से दस प्रकारका[1] और हृदयरूप से एक प्रकार का है ॥ ९ ॥
फिर विश्व की रचना करनेवाले महत्तत्त्वादि के अधिपति श्रीभगवान ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगा ने के लिये अपने चेतनरूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया ॥ १० ॥ उसके जाग्रत् होते ही देवताओं के लिये कित ने स्थान प्रकट हुए—यह मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ ११ ॥ विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्रि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है ॥ १२ ॥ फिर विराट् पुरुष के तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रिय के सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता है ॥ १३ ॥ इसके पश्चात उस विराट् पुरुष के नथु ने प्रकट हुए; उनमें दोनों अश्विनी- कुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रिय के सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है ॥ १४ ॥ इसी प्रकार जब उस विराट्देहमें आँखें प्रकट हुर्ईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित—लोकपति सूर्य ने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रिय से पुरुष को विविध रूपों का ज्ञान होता है ॥ १५ ॥ फिर उस विराट् विग्रहमें त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय के सहित वायु स्थित हुआ, जिस त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता है ॥ १६ ॥ जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उनमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है ॥ १७ ॥ फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुर्ईं, जिन रोमों से जीव खुजली आदि को अनुभव करता है ॥ १८ ॥ अब उसके लिङ्ग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है ॥ १९ ॥ फिर विराट् पुरुष के गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मलत्याग करता है ॥ २० ॥ इसके पश्चात उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्यागरूपा शक्ति के सहित देवराज इन्द्र ने प्रवेश किया, इस शक्ति से जीव अपनी जीवि का प्राप्त करता है ॥ २१ ॥ जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णु ने प्रवेश किया—इस गति-शक्ति द्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है ॥ २२ ॥ फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थान में अपने अंश बुद्धिशक्ति के साथ वाक्पति ब्रह्माने प्रवेश किया, इस बुद्धिशक्ति से जीव ज्ञातव्य विषयों को जान सकता है ॥ २३ ॥ फिर इसमें हृदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मन के सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मन:शक्ति के द्वारा जीव सङ्कल्प-विकल्पादिरूप विकारों को प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ तत्पश्चात विराट् पुरुष में अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रय में क्रियाशक्तिसहित अभिमान (रुद्र) ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्य को स्वीकार करता है ॥ २५ ॥ अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्तशक्ति के सहित महत्तत्त्व (ब्रह्मा) स्थित हुआ; इस चित्तशक्ति से जीव विज्ञान (चेतना) को उपलब्ध करता है ॥ २६ ॥ इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्गलोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमश: सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणों के परिणामरूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं ॥ २७ ॥ इनमें देवतालोग सत्त्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्गलोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाववाले होने से रुद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेत आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान के नाभिस्थानीय अन्तरिक्षलोक में रहते हैं ॥ २८-२९ ॥
विदुरजी ! वेद और ब्राह्मण भगवान के मुख से प्रकट हुए। मुख से प्रकट होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सब का गुरु है ॥ ३० ॥ उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करनेवाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है ॥ ३१ ॥ भगवान की दोनों जाँघों से सब लोगों का निर्वाह करनेवाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हीं से वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्ति से सब जीवों की जीवि का चलाता है ॥ ३२ ॥ फिर सब धर्मों की सिद्धि के लिये भगवान के चरणों से सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्रवर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं [2] ॥ ३३ ॥ ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियों के सहित जिन से उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरि का अपने-अपने धर्मों से चित्तशुद्धि के लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं ॥ ३४ ॥ विदुरजी ! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभावशक्ति से युक्त भगवान की योगमाया के प्रभाव को प्रकट करनेवाला है। इसके स्वरूप का पूरा-पूरा वर्णन करने का कौन साहस कर सकता है ॥ ३५ ॥ तथापि प्यारे विदुरजी ! अन्य व्यावहारिक चर्चाओं से अपवित्र हुई अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुमुख से सुना है वैसा, श्रीहरि का सुयश वर्णन करता हूँ ॥ ३६ ॥ महापुरुषों का मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरि के गुणों का गान करना ही मनुष्यों की वाणी का तथा विद्वानों के मुख से भगवत् कथामृत का पान करना ही उनके कानों का सब से बड़ा लाभ है ॥ ३७ ॥ वत्स ! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रह्माजी ने एक हजार दिव्य वर्षों तक अपनी योगपरिपक्व बुद्धि से विचार किया; तो भी क्या वे भगवान की अमित महिमा का पार पा सके ? ॥ ३८ ॥ अत: भगवान की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देनेवाली है। उसकी चक्कर में डालनेवाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ॥ ३९ ॥ जहाँ न पहुँचकर मन के सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रुद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान को हम नमस्कार करते हैं ॥ ४० ॥
[1] दस इन्द्रियोंसहित मन अध्यात्म है, इन्द्रियादि के विषय अधिभूत हैं, इन्द्रियाधिष्ठाता देव अधिदैव हैं तथा प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय—ये दस प्राण हैं।
[2] सब धर्मों की सिद्धि का मूल सेवा है, सेवा किये बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अत: सब धर्मों की मूलभूता सेवा ही जिसका धर्म है, वह शूद्र सब वर्णों में महान है। ब्राह्मण का धर्म मोक्ष के लिये है, क्षत्रिय का धर्म भोग के लिये है, वैश्य का धर्म अर्थ के लिये है और शूद्र का धर्म धर्म के लिये है। इस प्रकार प्रथम तीन वर्णों के धर्म अन्य पुरुषार्थों के लिये हैं, किन्तु शूद्र का धर्म स्वपुरुषार्थ के लिये है; अत: इस की वृत्ति से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।
॥ सप्तमोऽध्यायः - ७ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं ब्रुवाणं मैत्रेयं द्वैपायनसुतो बुधः ।
प्रीणयन्निव भारत्या विदुरः प्रत्यभाषत ॥ १॥
विदुर उवाच
ब्रह्मन् कथं भगवतश्चिन्मात्रस्याविकारिणः ।
लीलया चापि युज्येरन्निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥ २॥
क्रीडायामुद्यमोऽर्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यतः ।
स्वतस्तृप्तस्य च कथं निवृत्तस्य सदान्यतः ॥ ३॥
अस्राक्षीद्भगवान्विश्वं गुणमय्याऽऽत्ममायया ।
तया संस्थापयत्येतद्भूयः प्रत्यपिधास्यति ॥ ४॥
देशतः कालतो योऽसाववस्थातः स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम् ॥ ५॥
भगवानेक एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभिः कुतः ॥ ६॥
एतस्मिन् मे मनो विद्वन्खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्नः पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥ ७॥
श्रीशुक उवाच
स इत्थं चोदितः क्षत्त्रा तत्त्वजिज्ञासुना मुनिः ।
प्रत्याह भगवच्चित्तः स्मयन्निव गतस्मयः ॥ ८॥
मैत्रेय उवाच
सेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते ।
ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुत बन्धनम् ॥ ९॥
यदर्थेन विनामुष्य पुंस आत्मविपर्ययः ।
प्रतीयत उपद्रष्टुः स्वशिरश्छेदनादिकः ॥ १०॥
यथा जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो गुणः ।
दृश्यतेऽसन्नपि द्रष्टुरात्मनोऽनात्मनो गुणः ॥ ११॥
स वै निवृत्तिधर्मेण वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्भक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ॥ १२॥
यदेन्द्रियोपरामोऽथ द्रष्ट्रात्मनि परे हरौ ।
विलीयन्ते तदा क्लेशाः संसुप्तस्येव कृत्स्नशः ॥ १३॥
अशेषसङ्क्लेशशमं विधत्ते
गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
कुतः पुनस्तच्चरणारविन्द-
परागसेवा रतिरात्मलब्धा ॥ १४॥
विदुर उवाच
सञ्छिन्नः संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि भगवन् मनो मे सम्प्रधावति ॥ १५॥
साध्वेतद्व्याहृतं विद्वन्नात्ममायायनं हरेः ।
आभात्यपार्थं निर्मूलं विश्वमूलं न यद्बहिः ॥ १६॥
यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ १७॥
अर्थाभावं विनिश्चित्य प्रतीतस्यापि नात्मनः ।
तां चापि युष्मच्चरणसेवयाहं पराणुदे ॥ १८॥
यत्सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः ।
रतिरासो भवेत्तीव्रः पादयोर्व्यसनार्दनः ॥ १९॥
दुरापा ह्यल्पतपसः सेवा वैकुण्ठवर्त्मसु ।
यत्रोपगीयते नित्यं देवदेवो जनार्दनः ॥ २०॥
सृष्ट्वाग्रे महदादीनि सविकाराण्यनुक्रमात् ।
तेभ्यो विराजमुद्धृत्य तमनु प्राविशद्विभुः ॥ २१॥
यमाहुराद्यं पुरुषं सहस्राङ्घ्र्यूरुबाहुकम् ।
यत्र विश्व इमे लोकाः सविकासं समासते ॥ २२॥
यस्मिन् दशविधः प्राणः सेन्द्रियार्थेन्द्रियस्त्रिवृत् ।
त्वयेरितो यतो वर्णास्तद्विभूतीर्वदस्व नः ॥ २३॥
यत्र पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः सह गोत्रजैः ।
प्रजा विचित्राकृतय आसन् याभिरिदं ततम् ॥ २४॥
प्रजापतीनां स पतिश्चक्लृपे कान् प्रजापतीन् ।
सर्गांश्चैवानुसर्गांश्च मनून्मन्वन्तराधिपान् ॥ २५॥
एतेषामपि वंशांश्च वंशानुचरितानि च ।
उपर्यधश्च ये लोका भूमेर्मित्रात्मजासते ॥ २६॥
तेषां संस्थां प्रमाणं च भूर्लोकस्य च वर्णय ।
तिर्यङ्मानुषदेवानां सरीसृपपतत्त्रिणाम् ।
वद नः सर्गसंव्यूहं गार्भस्वेदद्विजोद्भिदाम् ॥ २७॥
गुणावतारैर्विश्वस्य सर्गस्थित्यप्ययाश्रयम् ।
सृजतः श्रीनिवासस्य व्याचक्ष्वोदारविक्रमम् ॥ २८॥
वर्णाश्रमविभागांश्च रूपशीलस्वभावतः ।
ऋषीणां जन्मकर्मादि वेदस्य च विकर्षणम् ॥ २९॥
यज्ञस्य च वितानानि योगस्य च पथः प्रभो ।
नैष्कर्म्यस्य च साङ्ख्यस्य तन्त्रं वा भगवत्स्मृतम् ॥ ३०॥
पाखण्डपथवैषम्यं प्रतिलोमनिवेशनम् ।
जीवस्य गतयो याश्च यावतीर्गुणकर्मजाः ॥ ३१॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां निमित्तान्यविरोधतः ।
वार्ताया दण्डनीतेश्च श्रुतस्य च विधिं पृथक् ॥ ३२॥
श्राद्धस्य च विधिं ब्रह्मन् पितॄणां सर्गमेव च ।
ग्रहनक्षत्रताराणां कालावयवसंस्थितिम् ॥ ३३॥
दानस्य तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयोः फलम् ।
प्रवासस्थस्य यो धर्मो यश्च पुंस उतापदि ॥ ३४॥
येन वा भगवांस्तुष्येद्धर्मयोनिर्जनार्दनः ।
सम्प्रसीदति वा येषामेतदाख्याहि चानघ ॥ ३५॥
अनुव्रतानां शिष्याणां पुत्राणां च द्विजोत्तम ।
अनापृष्टमपि ब्रूयुर्गुरवो दीनवत्सलाः ॥ ३६॥
तत्त्वानां भगवंस्तेषां कतिधा प्रतिसङ्क्रमः ।
तत्रेमं क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते ॥ ३७॥
पुरुषस्य च संस्थानं स्वरूपं वा परस्य च ।
ज्ञानं च नैगमं यत्तद्गुरुशिष्यप्रयोजनम् ॥ ३८॥
निमित्तानि च तस्येह प्रोक्तान्यनघ सूरिभिः ।
स्वतो ज्ञानं कुतः पुंसां भक्तिर्वैराग्यमेव वा ॥ ३९॥
एतान्मे पृच्छतः प्रश्नान् हरेः कर्मविवित्सया ।
ब्रूहि मेऽज्ञस्य मित्रत्वादजया नष्टचक्षुषः ॥ ४०॥
सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ ।
जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि ॥ ४१॥
श्रीशुक उवाच
स इत्थमापृष्टपुराणकल्पः
कुरुप्रधानेन मुनिप्रधानः ।
प्रवृद्धहर्षो भगवत्कथायां
सञ्चोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥ ४२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-सातवाँ अध्याय
विदुरजी के प्रश्र
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—मैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान व्यासनन्दन विदुरजी ने उन्हें अपनी वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा ॥ १ ॥
विदुरजी ने पूछा—ब्रह्मन् ! भगवान तो शुद्ध बोध स्वरूप, निर्विकार और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का सम्बन्ध कैसे हो सकता है? ॥ २ ॥ बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेल ने की इच्छा रहती है, इसीसे वह खेल ने के लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान तो स्वत: नित्यतृप्त—पूर्णकाम और सर्वदा असङ्ग हैं, वे क्रीडा के लिये भी क्यों सङ्कल्प करेंगे ॥ ३ ॥ भगवान ने अपनी गुणमयी माया से जगत की रचना की है, उसी से वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे ॥ ४ ॥ जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्थासे, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका माया के साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ॥ ५ ॥ एकमात्र ये भगवान ही समस्त क्षेत्रों में उनके साक्षीरूप से स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकार के कर्मजनित क्लेश की प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥ ६ ॥ भगवन् ! इस अज्ञानसङ्कट में पडक़र मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मन के इस महान मोह को कृपा करके दूर कीजिये ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—तत्त्वजिज्ञासु विदुरजी की यह प्रेरणा प्राप्तकर अहंकारहीन श्रीमैत्रेयजी ने भगवान का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—जो आत्मा सब का स्वामी और सर्वथा मुक्त स्वरूप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो—यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुत: यही तो भगवान की माया है ॥ ९ ॥ जिस प्रकार स्वप्न देखनेवाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं ॥ १० ॥ यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वर में इन की प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जल में होनेवाली कम्प आदि क्रिया जल में दीखनेवाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब में न होने पर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमा में नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीव में ही देह के मिथ्या धर्मों की प्रतीति होती है, परमात्मा में नहीं ॥ ११ ॥ निष्कामभाव से धर्मों का आचरण करने पर भगवत्कृपा से प्राप्त हुए भक्ति-योग के द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है ॥ १२ ॥ जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चलभाव से स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दु:खराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है ? ॥ १४ ॥
विदुरजी ने कहा—भगवन् ! आपके युक्तियुक्त वचनों की तलवार से मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता—दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है ॥ १५ ॥ विद्वन् ! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीव को जो क्लेशादि की प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्व का मूल कारण ही माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ १६ ॥ इस संसार में दो ही प्रकार के लोग सुखी हैं—या तो जो अत्यन्त मूढ़ (अज्ञानग्रस्त) हैं, या जो बुद्धि आदि से अतीत श्रीभगवान को प्राप्त कर चु के हैं। बीच की श्रेणी के संशयापन्न लोग तो दु:ख ही भोगते रहते हैं ॥ १७ ॥ भगवन् ! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म पदार्थ वस्तुत: हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं। अब मैं आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा दूँगा ॥ १८ ॥ इन श्रीचरणों की सेवा से नित्यसिद्ध भगवान श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में उत्कट प्रेम और आनन्द की वृद्धि होती है, जो आवागमन की यन्त्रणा का नाश कर देती है ॥ १९ ॥ महात्मालोग भगवत्प्राप्ति के साक्षात मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव श्रीहरि के गुणों का गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुष को उनकी सेवा का अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है ॥ २० ॥
भगवन् ! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान ने क्रमश: महदादि तत्त्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट् को उत्पन्न किया और इसके पश्चात वे स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गये ॥ २१ ॥ उन विराट् के हजारों पैर, जाँघें और बाँहें हैं; उन्हीं को वेद आदिपुरुष कहते हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृतरूप से स्थित हैं ॥ २२ ॥ उन्हीं में इन्द्रिय, विषय और इन्ङ्क्षद्रयाभिमानी देवताओं के सहित दस प्रकार के प्राणोंका—जो इन्द्रियबल, मनोबल और शारीरिक बलरूप से तीन प्रकार के हैं— आपने वर्णन किया है और उन्हीं से ब्राह्मणादि वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रह्मादि विभूतियों का वर्णन सुनाइये—जिन से पुत्र, पौत्र, नाती और कुटुम्बियों के सहित तरह-तरह की प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रह्माण्ड भर गया ॥ २३-२४ ॥ वह विराट् ब्रह्मादि प्रजापतियों का भी प्रभु है। उसने किन-किन प्रजापतियों को उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और मन्वन्तरों के अधिपति मनुओं की भी किस क्रम से रचना की ? ॥ २५ ॥ मैत्रेयजी ! उन मनुओं के वंश और वंशधर राजाओं के चरित्रोंका, पृथ्वी के ऊ पर और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु) और पक्षी तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकार के प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए ॥ २६-२७ ॥ श्रीहरि ने सृष्टि करते समय जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये अपने गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूप से जो कल्याणकारी लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये ॥ २८ ॥ वेष, आचरण और स्वभाव के अनुसार वर्णाश्रम का विभाग, ऋषियों के जन्म- कर्मादि, वेदों का विभाग, यज्ञों का विस्तार, योग का मार्ग, ज्ञानमार्ग और उसका साधन सांख्यमार्ग तथा भगवान के कहे हुए नारदपाञ्चरात्र आदि तन्त्रशास्त्र, विभिन्न पाखण्डमार्गों के प्रचार से होनेवाली विषमता, नीचवर्ण के पुरुष से उच्चवर्ण की स्त्री में होनेवाली सन्तानों के प्रकार तथा भिन्न-भिन्न गुण और कर्मों के कारण जीव की जैसी और जितनी गतियाँ, होती हैं, वे सब हमें सुनाइये ॥ २९—३१ ॥
ब्रह्मन् ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के परस्पर अविरोधी साधनोंका, वाणिज्य, दण्डनीति और शास्त्रश्रवण की विधियोंका, श्राद्ध की विधिका, पितृगणों की सृष्टि का तथा कालचक्र में ग्रह, नक्षत्र और तारागण की स्थिति का भी अलग-अलग वर्णन कीजिये ॥ ३२-३३ ॥ दान, तप तथा इष्ट और पूत्र्त कर्मों का क्या फल है ? प्रवास और आपत्ति के समय मनुष्य का क्या धर्म होता है ? ॥ ३४ ॥ निष्पाप मैत्रेयजी ! धर्म के मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान किस आचरण से सन्तुष्ट होते हैं और किन पर अनुग्रह करते हैं, यह वर्णन कीजिये ॥ ३५ ॥ द्विजवर ! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रों को बिना पूछे भी उनके हित की बात बतला दिया करते हैं ॥ ३६ ॥ भगवन् ! उन महदादि तत्त्वों का प्रलय कित ने प्रकार का है ? तथा जब भगवान योगनिद्रा में शयन करते हैं, तब उनमें से कौन-कौन तत्त्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? ॥ ३७ ॥ जीव का तत्त्व, परमेश्वर का स्वरूप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्य का पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? ॥ ३८ ॥ पवित्रात्मन् विद्वानों ने उस ज्ञान की प्राप्ति के क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ? क्योंकि मनुष्यों को ज्ञान, भक्ति अथवा वैराग्य की प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती ॥ ३९ ॥ ब्रह्मन् ! माया-मोह के कारण मेरी विचार-दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे परम सुहृद् हैं; अत: श्रीहरिलीला का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से मैंने जो प्रश्र किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये ॥ ४० ॥ पुण्यमय मैत्रेयजी ! भगवत्तत्त्व के उपदेश द्वारा जीव को जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर उसे अभय कर दे ने में जो पुण्य होता है, समस्त वेदों के अध्ययन, यज्ञ, तपस्या और दानादि से होनेवाला पुण्य उस पुण्य के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकता ॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! जब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार पुराणविषयक प्रश्र किये, तब भगवच्चर्चा के लिये प्रेरित किये जाने के कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कह ने लगे ॥ ४२ ॥
॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥
मैत्रेय उवाच
सत्सेवनीयो बत पूरुवंशो
यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः ।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां
पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम् ॥ १॥
सोऽहं नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं
महद्गतानां विरमाय तस्य ।
प्रवर्तये भागवतं पुराणं
यदाह साक्षाद्भगवान् ऋषिभ्यः ॥ २॥
आसीनमुर्व्यां भगवन्तमाद्यं
सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम् ।
विवित्सवस्तत्त्वमतःपरस्य
कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन् ॥ ३॥
स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तं
यं वासुदेवाभिधमामनन्ति ।
प्रत्यग्धृताक्षांबुजकोशमीष-
दुन्मीलयन्तं विबुधोदयाय ॥ ४॥
स्वर्धुन्युदार्द्रैः स्वजटाकलापै-
रुपस्पृशन्तश्चरणोपधानम् ।
पद्मं यदर्चन्त्यहिराजकन्याः
सप्रेमनानाबलिभिर्वरार्थाः ॥ ५॥
मुहुर्गृणन्तो वचसानुराग-
स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञाः ।
किरीटसाहस्रमणिप्रवेक-
प्रद्योतितोद्दामफणासहस्रम् ॥ ६॥
प्रोक्तं किलैतद्भगवत्तमेन
निवृत्तिधर्माभिरताय तेन ।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्टः
साङ्ख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय ॥ ७॥
साङ्ख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो
विवक्षमाणो भगवद्विभूतीः ।
जगाद सोऽस्मद्गुरवेऽन्विताय
पराशरायाथ बृहस्पतेश्च ॥ ८॥
प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तो
मुनिः पुलस्त्येन पुराणमाद्यम् ।
सोऽहं तवैतत्कथयामि वत्स
श्रद्धालवे नित्यमनुव्रताय ॥ ९॥
उदाप्लुतं विश्वमिदं तदासी-
द्यन्निद्रयाऽऽमीलितदृङ् न्यमीलयत् ।
अहीन्द्रतल्पेऽधिशयान एकः
कृतक्षणः स्वात्मरतौ निरीहः ॥ १०॥
सोऽन्तःशरीरेऽर्पितभूतसूक्ष्मः
कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाणः ।
उवास तस्मिन् सलिले पदे स्वे
यथानलो दारुणि रुद्धवीर्यः ॥ ११॥
चतुर्युगानां च सहस्रमप्सु
स्वपन् स्वयोदीरितया स्वशक्त्या ।
कालाख्ययाऽऽसादितकर्मतन्त्रो
लोकानपीतान् ददृशे स्वदेहे ॥ १२॥
तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्टदृष्टे-
रन्तर्गतोऽर्थो रजसा तनीयान् ।
गुणेन कालानुगतेन विद्धः
सूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात् ॥ १३॥
स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठ-
त्कालेन कर्मप्रतिबोधनेन ।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालं
विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः ॥ १४॥
तल्लोकपद्मं स उ एव विष्णुः
प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम् ।
तस्मिन् स्वयं वेदमयो विधाता
स्वयंभुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत् ॥ १५॥
तस्यां स चांभोरुहकर्णिकाया-
मवस्थितो लोकमपश्यमानः ।
परिक्रमन् व्योम्नि विवृत्तनेत्र-
श्चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि ॥ १६॥
तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण-
जलोर्मिचक्रात्सलिलाद्विरूढम् ।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वं
नात्मानमद्धाविददादिदेवः ॥ १७॥
क एष योऽसावहमब्जपृष्ठ
एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु ।
अस्ति ह्यधस्तादिह किञ्चनैत-
दधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम् ॥ १८॥
स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल-
नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।
नार्वाग्गतस्तत्खरनालनालनाभिं
विचिन्वंस्तदविन्दताजः ॥ १९॥
तमस्यपारे विदुरात्मसर्गं
विचिन्वतोऽभूत्सुमहांस्त्रिणेमिः ।
यो देहभाजां भयमीरयाणः
परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः ॥ २०॥
ततो निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः
स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः ।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो
न्यषीददारूढसमाधियोगः ॥ २१॥
कालेन सोऽजः पुरुषायुषाभि-
प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः ।
स्वयं तदन्तर्हृदयेऽवभात-
मपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम् ॥ २२॥
मृणालगौरायतशेषभोग-
पर्यङ्क एकं पुरुषं शयानम् ।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्न-
द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये ॥ २३॥
प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः
सन्ध्याभ्रनीवेरुरुरुक्ममूर्ध्नः ।
रत्नोदधारौषधिसौमनस्य-
वनस्रजो वेणुभुजाङ्घ्रिपाङ्घ्रेः ॥ २४॥
आयामतो विस्तरतः स्वमानदेहेन
लोकत्रयसङ्ग्रहेण ।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां
कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम् ॥ २५॥
पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गै-
रभ्यर्चतां कामदुघाङ्घ्रिपद्मम् ।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु-
मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम् ॥ २६॥
मुखेन लोकार्तिहरस्मितेन
परिस्फुरत्कुण्डलमण्डितेन ।
शोणायितेनाधरबिंबभासा
प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा ॥ २७॥
कदंबकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा
स्वलङ्कृतं मेखलया नितंबे ।
हारेण चानन्तधनेन वत्स
श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन ॥ २८॥
परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक-
पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम् ।
अव्यक्तमूलं भुवनाङ्घ्रिपेन्द्र-
महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम् ॥ २९॥
चराचरौको भगवन् महीध्र-
महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढं ।
किरीटसाहस्रहिरण्यशृङ्ग-
माविर्भवत्कौस्तुभरत्नगर्भम् ॥ ३०॥
निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया
स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम् ।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिः
परिक्रमत्प्राधनिकैर्दुरासदम् ॥ ३१॥
तर्ह्येव तन्नाभिसरःसरोज-
मात्मानमंभः श्वसनं वियच्च ।
ददर्श देवो जगतो विधाता
नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः ॥ ३२॥
स कर्मबीजं रजसोपरक्तः
प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा ।
अस्तौद्विसर्गाभिमुखस्तमीड्य-
मव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा ॥ ३३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-आठवाँ अध्याय
ब्रह्माजी की उत्पत्ति
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पूरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधुपुरुषों के लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य हैं ! आप निरन्तर पद-पद पर श्रीहरि की कीर्तिमयी माला को नित्य नूतन बना रहे हैं ॥ १ ॥ अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से महान दु:ख को मोल लेनेवाले पुरुषों की दु:खनिवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ—जिसे स्वयं श्रीसङ्कर्षणभगवान ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था ॥ २ ॥
अखण्ड ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान सङ्कर्षण पाताललोक में विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने परम पुरुषोत्तम ब्रह्म का तत्त्व जान ने के लिये उनसे प्रश्र किया ॥ ३ ॥ उस समय शेषजी अपने आश्रय स्वरूप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे। जिनका वेद वासुदेव के नाम से निरूपण करते हैं। उनके कमल कोश-सरीखे नेत्र बन्द थे। प्रश्र करने पर सनत्कुमारादि ज्ञानीजनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुलेनेत्रों से देखा ॥ ४ ॥
सनत्कुमार आदि ऋषियों ने मन्दाकिनी के जल से भीगे अपने जटासमूह से उनके चरणों की चौ की के रूप में स्थित कमल का स्पर्श किया, जिसकी नागराजकुमारियाँ अभिलषित वर की प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियों से पूजा करती हैं ॥ ५ ॥
सनत्कुमारादि उनकी लीला के मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणी से उनकी लीला का गान किया। उस समय शेषभगवान के उठे हुए सहस्रों फण किरीटों की सहस्र-सहस्र श्रेष्ठ मणियों की छिटकती हुई रश्मियों से जगमगा रहे थे ॥ ६ ॥ भगवान सङ्कर्षण ने निवृत्तिपरायण सनत्कुमारजी को यह भागवत सुनाया था—ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमारजी ने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनि को, उनके प्रश्र करने पर सुनाया ॥ ७ ॥ परमहंसों में प्रधान श्रीसांख्यायनजी को जब भगवान की विभूतियों का वर्णन करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजी को और बृहस्पतिजी को सुनाया ॥ ८ ॥ इसके पश्चात परम दयालु पराशरजी ने पुलस्त्य मुनि के कह ने से वह आदिपुराण मुझ से कहा। वत्स ! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ ॥ ९ ॥
सृष्टि के पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जल में डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेष- शय्या पर पौढ़े हुए थे। वे अपनी ज्ञानशक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्रा का आश्रय ले, अपने नेत्र मूँदे हुए थे। सृष्टिकर्म से अवकाश लेकर आत्मानन्द में मग्र थे। उनमें किसी भी क्रिया का उन्मेष नहीं था ॥ १० ॥ जिस प्रकार अग्रि अपनी दाहि का आदि शक्तियों को छिपाये हुए काष्ठ में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान ने सम्पूर्ण प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन करके अपने आधारभूत उस जल में शयन किया, उन्हें सृष्टिकाल आने पर पुन: जगा ने के लिये केवल कालशक्ति को जाग्रत् रखा ॥ ११ ॥ इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छक्ति के साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त जल में शयन करने के अनन्तर जब उन्हींके द्वारा नियुक्त उनकी कालशक्ति ने उन्हें जीवों के कर्मों की प्रवृत्ति के लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीर में लीन हुए अनन्त लोक देखे ॥ १२ ॥ जिस समय भगवान की दृष्टि अपने में निहित लिङ्गशरीरादि सूक्ष्मतत्त्व पर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टिरचना के निमित्त उनके नाभिदेश से बाहर निकला ॥ १३ ॥ कर्मशक्ति को जाग्रत् करनेवाले काल के द्वारा विष्णुभगवान की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्मतत्त्व कमल कोश के रूप में सहसा ऊ पर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया ॥ १४ ॥ सम्पूर्ण गुणों को प्रकाशित करनेवाले उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णुभगवान ही अन्तर्यामीरूप से प्रविष्ट हो गये। तब उसमें से बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदों को जाननेवाले साक्षात वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते हैं ॥ १५ ॥ उस कमल की कॢण का (गद्दी) में बैठे हुए ब्रह्माजी को जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाडक़र आकाश में चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओं में चार मुख हो गये ॥ १६ ॥ उस समय प्रलयकालीन पवन के थपेड़ों से उछलती हुई जल की तरङ्गमालाओं के कारण उस जलराशि से ऊ पर उठे हुए कमल पर विराजमान आदिदेव ब्रह्माजी को अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमल का कुछ भी रहस्य न जान पड़ा ॥ १७ ॥
वे सोच ने लगे, ‘इस कमल की कॢणका पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधार पर यह स्थित है’ ॥ १८ ॥
ऐसा सोचकर वे उस कमल की नाल के सूक्ष्म छिद्रों में होकर उस जल में घुसे। किन्तु उस नाल के आधार को खोजते-खोजते नाभिदेश के समीप पहुँच जाने पर भी वे उसे पा न सके ॥ १९ ॥ विदुरजी ! उस अपार अन्धकार में अपने उत्पत्ति-स्थान को खोजते-खोजते ब्रह्माजी को बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान का चक्र है, जो प्राणियों को भयभीत (करता हुआ उनकी आयु को क्षीण) करता रहता है ॥ २० ॥ अन्त में विफलमनोरथ हो वे वहाँ से लौट आये और पुन: अपने आधारभूत कमल पर बैठकर धीरे-धीरे प्राणवायु को जीतकर चित्त को नि:सङ्कल्प किया और समाधि में स्थित हो गये ॥ २१ ॥ इस प्रकार पुरुष की पूर्ण आयु के बराबर काल तक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह योगाभ्यास करने पर ब्रह्माजी को ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठान को, जिसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्त:करण में प्रकाशित होते देखा ॥ २२ ॥ उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जल में शेषजी के कमलनालसदृश गौर और विशाल विग्रह की शय्या पर पुरुषोत्तम भगवान अकेले ही लेटे हुए हैं। शेषजी के दस हजार फण छत्र के समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकों पर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्ति से चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया है ॥ २३ ॥ वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकतमणि के पर्वत की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमर का पीतपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वत के रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की शोभा को परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का तिरस्कार करते हैं ॥ २४ ॥ उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लंबाई-चौड़ाई में त्रिलो की का संग्रह किये हुए है। वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों की शोभा को सुशोभित करनेवाला होने पर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष-भूषा से सुसज्जित है ॥ २५ ॥ अपनी-अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करनेवाले भक्तजनों को कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलों का दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं ॥ २६ ॥ सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्षी भौंहें, कानों में झिलमिलाते हुए कुण्डलों की शोभा, बिम्बाफल के समान लाल-लाल अधरों की कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकान से युक्त मुखार- विन्द के द्वारा वे अपने उपासकों का सम्मान—अभिनन्दन कर रहे हैं ॥ २७ ॥ वत्स ! उनके नितम्बदेश में कदम्बकुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्ष:स्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्सचिह्न की अपूर्व शोभा हो रही है ॥ २८ ॥ वे अव्यक्तमूल चन्दनवृक्ष के समान हैं। महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियों से सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेषजी के फणों ने लपेट रखा है ॥ २९ ॥ वे नागराज अनन्त के बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जल से घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वत पर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचर के आश्रय हैं; शेषजी के फणों पर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वत के सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्ष:स्थल में विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भ से प्रकट हुआ रत्न है ॥ ३० ॥ प्रभु के गले में वेदरूप भौंरों से गुञ्जायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्रि आदि देवताओं की भी आप तक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवन में बेरोक- टोक विचरण करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभु के आसपास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ३१ ॥
तब विश्वरचना की इच्छावाले लोकविधाता ब्रह्माजी ने भगवान के नाभिसरोवर से प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया ॥ ३२ ॥ रजोगुण से व्याप्त ब्रह्माजी प्रजा की रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टि के कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोकरचना के लिये उत्सुक होने के कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरि में चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभु की स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥
॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
ब्रह्मोवाच
ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां
न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम् ।
नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं
मायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासि ॥ १॥
रूपं यदेतदवबोधरसोदयेन
शश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।
आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजं
यन्नाभिपद्मभवनादहमाविरासं ॥ २॥
नातःपरं परम यद्भवतः स्वरूप-
मानन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्चः ।
पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन्
भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितोऽस्मि ॥ ३॥
तद्वा इदं भुवनमङ्गल मङ्गलाय
ध्याने स्म नो दर्शितं त उपासकानाम् ।
तस्मै नमो भगवतेऽनुविधेम तुभ्यं
योऽनादृतो नरकभाग्भिरसत्प्रसङ्गैः ॥ ४॥
ये तु त्वदीयचरणांबुजकोशगन्धं
जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् ।
भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां
नापैषि नाथ हृदयांबुरुहात्स्वपुंसाम् ॥ ५॥
तावद्भयं द्रविणदेहसुहृन्निमित्तं
शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः ।
तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलं
यावन्न तेऽङ्घ्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ॥ ६॥
दैवेन ते हतधियो भवतः प्रसङ्गात्
सर्वाशुभोपशमनाद्विमुखेन्द्रिया ये ।
कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीनाः
लोभाभिभूतमनसोऽकुशलानि शश्वत् ॥ ७॥
क्षुत्तृट् त्रिधातुभिरिमा मुहुरर्द्यमानाः
शीतोष्णवातवरषैरितरेतराच्च ।
कामाग्निनाच्युत रुषा च सुदुर्भरेण
सम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥ ८॥
यावत्पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ-
मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।
तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसङ्क्रमेत
व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था ॥ ९॥
अह्न्यापृतार्तकरणा निशि निःशयाना
नानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्राः ।
दैवाहतार्थरचना ऋषयोऽपि देव
युष्मत्प्रसङ्गविमुखा इह संसरन्ति ॥ १०॥
त्वं भावयोगपरिभावितहृत्सरोज
आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।
यद्यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति
तत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥ ११॥
नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारै-
राराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।
यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको
नानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥ १२॥
पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यैः
दानेन चोग्रतपसा व्रतचर्यया च ।
आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो
धर्मोऽर्पितः कर्हिचिद्ध्रियते न यत्र ॥ १३॥
शश्वत्स्वरूपमहसैव निपीतभेदमोहाय
बोधधिषणाय नमः परस्मै ।
विश्वोद्भवस्थितिलयेषु निमित्तलीलारासाय
ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥ १४॥
यस्यावतारगुणकर्मविडंबनानि
नामानि येऽसुविगमे विवशा गृणन्ति ।
ते नैकजन्मशमलं सहसैव हित्वा
संयान्त्यपावृतमृतं तमजं प्रपद्ये ॥ १५॥
यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं च
स्थित्युद्भवप्रलयहेतव आत्ममूलम् ।
भित्त्वा त्रिपाद्ववृध एक उरुप्ररोहस्तस्मै
नमो भगवते भुवनद्रुमाय ॥ १६॥
लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः
कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।
यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां
सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १७॥
यस्माद्बिभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्य-
मध्यासितः सकललोकनमस्कृतं यत् ।
तेपे तपो बहुसवोऽवरुरुत्समानस्तस्मै
नमो भगवतेऽधिमखाय तुभ्यम् ॥ १८॥
तिर्यङ् मनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि-
ष्वात्मेच्छयाऽऽत्मकृतसेतुपरीप्सया यः ।
रेमे निरस्तरतिरप्यवरुद्धदेहस्तस्मै
नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥ १९॥
योऽविद्ययानुपहतोऽपि दशार्धवृत्त्या
निद्रामुवाह जठरीकृतलोकयात्रः ।
अन्तर्जलेऽहिकशिपुस्पर्शानुकूलां
भीमोर्मिमालिनि जनस्य सुखं विवृण्वन् ॥ २०॥
यन्नाभिपद्मभवनादहमासमीड्य
लोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण ।
तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय
योगनिद्रावसानविकसन्नलिनेक्षणाय ॥ २१॥
सोऽयं समस्तजगतां सुहृदेक आत्मा
सत्त्वेन यन्मृडयते भगवान् भगेन ।
तेनैव मे दृशमनुस्पृशताद्यथाहं
स्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोऽसौ ॥ २२॥
एष प्रपन्नवरदो रमयाऽऽत्मशक्त्या
यद्यत्करिष्यति गृहीतगुणावतारः ।
तस्मिन् स्वविक्रममिदं सृजतोऽपि चेतो
युञ्जीत कर्मशमलं च यथा विजह्याम् ॥ २३॥
नाभिह्रदादिह सतोंऽभसि यस्य पुंसो
विज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्तेः ।
रूपं विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मे
मा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्गः ॥ २४॥
सोऽसावदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध-
प्रेमस्मितेन नयनांबुरुहं विजृंभन् ।
उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादं
माध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराणः ॥ २५॥
मैत्रेय उवाच
स्वसंभवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभिः ।
यावन्मनो वचः स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥ २६॥
अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदनः ।
विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकरांभसा ॥ २७॥
लोकसंस्थानविज्ञान आत्मनः परिखिद्यतः ।
तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥ २८॥
श्रीभगवानुवाच
मा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।
तन्मयापादितं ह्यग्रे यन्मां प्रार्थयते भवान् ॥ २९॥
भूयस्त्वं तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम् ।
ताभ्यामन्तर्हृदि ब्रह्मन् लोकान् द्रक्ष्यस्यपावृतान् ॥ ३०॥
तत आत्मनि लोके च भक्तियुक्तः समाहितः ।
द्रष्टासि मां ततं ब्रह्मन् मयि लोकांस्त्वमात्मनः ॥ ३१॥
यदा तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम् ।
प्रतिचक्षीत मां लोको जह्यात्तर्ह्येव कश्मलम् ॥ ३२॥
यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियगुणाशयैः ।
स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन् स्वाराज्यमृच्छति ॥ ३३॥
नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्वीः सिसृक्षतः ।
नात्मावसीदत्यस्मिंस्ते वर्षीयान्मदनुग्रहः ॥ ३४॥
ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयांस्त्वां रजो गुणः ।
यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजाः संसृजतोऽपि ते ॥ ३५॥
ज्ञातोऽहं भवता त्वद्य दुर्विज्ञेयोऽपि देहिनाम् ।
यन्मां त्वं मन्यसेऽयुक्तं भूतेन्द्रियगुणात्मभिः ॥ ३६॥
तुभ्यं मद्विचिकित्सायामात्मा मे दर्शितोऽबहिः ।
नालेन सलिले मूलं पुष्करस्य विचिन्वतः ॥ ३७॥
यच्चकर्थाङ्ग मत्स्तोत्रं मत्कथाभ्युदयाङ्कितम् ।
यद्वा तपसि ते निष्ठा स एष मदनुग्रहः ॥ ३८॥
प्रीतोऽहमस्तु भद्रं ते लोकानां विजयेच्छया ।
यदस्तौषीर्गुणमयं निर्गुणं मानुवर्णयन् ॥ ३९॥
य एतेन पुमान्नित्यं स्तुत्वा स्तोत्रेण मां भजेत् ।
तस्याशु सम्प्रसीदेयं सर्वकामवरेश्वरः ॥ ४०॥
पूर्तेन तपसा यज्ञैर्दानैर्योगसमाधिना ।
राद्धं निःश्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिस्तत्त्वविन्मतम् ॥ ४१॥
अहमात्माऽऽत्मनां धातः प्रेष्ठः सन् प्रेयसामपि ।
अतो मयि रतिं कुर्याद्देहादिर्यत्कृते प्रियः ॥ ४२॥
सर्ववेदमयेनेदमात्मनाऽऽत्माऽऽत्मयोनिना ।
प्रजाः सृज यथा पूर्वं याश्च मय्यनुशेरते ॥ ४३॥
मैत्रेय उवाच
तस्मा एवं जगत्स्रष्ट्रे प्रधानपुरुषेश्वरः ।
व्यज्येदं स्वेन रूपेण कञ्जनाभस्तिरोदधे ॥ ४४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-नवाँ अध्याय
ब्रह्माजी द्वारा भगवान की स्तुति
ब्रह्माजी ने कहा—प्रभो ! आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान स का हूँ। अहो ! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूप को नहीं जान पाते। भगवन् ! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरूपत: सत्य नहीं है, क्योंकि माया के गुणों के क्षुभित होने के कारण केवल आप ही अनेकों रूपों में प्रतीत हो रहे हैं ॥ १ ॥ देव ! आपकी चित्- शक्ति के प्रकाशित रहने के कारण अज्ञान आप से सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभि-कमल से मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारों का मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है ॥ २ ॥ परमात्मन् ! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरूप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्व की रचना करनेवाले होने पर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूप की ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियों का भी अधिष्ठान है ॥ ३ ॥ हे विश्वकल्याणमय ! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हित के लिये ही मुझे ध्यान में अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूप में बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ मेरे स्वामी ! जो लोग वेदरूप वायु से लायी हुई आपके चरणरूप कमल कोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनों के हृदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं ॥ ५ ॥ जब तक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्धुजनों के कारण प्राप्त होनेवाले भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभी तक उसे मैं-मेरेपन का दुराग्रह रहता है, जो दु:ख का एकमात्र कारण है ॥ ६ ॥ जो लोग सब प्रकार के अमङ्गलों को नष्ट करनेवाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसङ्गों से इन्द्रियों को हटाकर लेशमात्र विषय-सुख के लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारों की बुद्धि दैव ने हर ली है ॥ ७ ॥ अच्युत ! उरुक्रम ! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गर्मी, हवा और वर्षासे, परस्पर एक-दूसरे से तथा कामाग्रि और दु:सह क्रोध से बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जब तक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी माया के प्रभाव से आप से अपने को भिन्न देखता है, तब तक उसके लिये इस संसारचक्र की निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल-भोग का क्षेत्र होने के कारण उसे नाना प्रकार के दु:खों में डालता रहता है ॥ ९ ॥
देव ! औरों की तो बात ही क्या—जो साक्षात मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथाप्रसङ्ग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार में फँसना पड़ता है। वे दिन में अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रि में निद्रा में अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरह के मनोरथों के कारण क्षण-क्षण में उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैववश उनकी अर्थसिद्धि के सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं ॥ १० ॥ नाथ ! आपका मार्ग केवल गुण-श्रवण से ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्यों के भक्तियोग के द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमल में निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभो ! आपके भक्तजन जिस-जिस भावना से आपका चिन्तन करते हैं, उन साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये आप वही- वही रूप धारण कर लेते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्त:करणों में स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा हैं। इसलिये यदि देवतालोग भी हृदय में तरह-तरह की कामनाएँ रखकर भाँति-भाँति की विपुल सामग्रियों से आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जित ने सब प्राणियों पर दया करने से होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १२ ॥ जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता—वह अक्षय हो जाता है। अत: नाना प्रकार के कर्म—यज्ञ, दान, कठिन तपस्या और व्रतादि के द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्य का सब से बड़ा कर्मफल है; क्योंकि आपकी प्रसन्नता होने पर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ॥ १३ ॥ आप सर्वदा अपने स्वरूप के प्रकाश से ही प्राणियों के भेद-भ्रमरूप अन्धकार का नाश करते रहते हैं तथा ज्ञान के अधिष्ठान साक्षात परमपुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के निमित्त से जो माया की लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अत: आप परमेश्वर को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥ जो लोग प्राणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कर्मों को सूचित करनेवाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामों का विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायादि आवरणों से रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं। आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ १५ ॥ भगवन् ! इस विश्ववृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं। आप ही अपनी मूलप्रकृति को स्वीकार करके जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये मेरे, अपने और महादेवजी के रूप में तीन प्रधान शाखाओं में विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा-प्रशाखाओं के रूप में फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥ भगवन् ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओर से उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मों में लगे रहते हैं। ऐसी प्रमाद की अवस्था में पड़े हुए इन जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रता से काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ यद्यपि मैं सत्यलोक का अधिष्ठाता हूँ, जो दो पराद्र्धपर्यन्त रहनेवाला और समस्त लोकों का वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हूँ। उससे बच ने और आपको प्राप्त करने के लिये ही मैंने बहुत समय तक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञरूप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १८ ॥ आप पूर्णकाम हैं, आपको किसी विषयसुख की इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादा की रक्षा के लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीवयोनियों में अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को मेरा नमस्कार है ॥ १९ ॥ प्रभो ! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश—पाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसार को अपने उदर में लीनकर भयङ्कर तरङ्गमालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनन्तविग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्प की कर्मपरम्परा से श्रमित हुए जीवों को विश्राम दे ने के लिये ही है ॥ २० ॥ आपके नाभिकमलरूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचनारूप उपकार में प्रवृत्त हुआ हूँ । इस समय योगनिद्रा का अन्त हो जाने के कारण आपके नेत्र-कमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ २१ ॥ आप सम्पूर्ण जगत के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतों पर कृपा करनेवाले हैं। अत: अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्व को आनन्दित करते हैं, उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करें—जिससे मैं पूर्वकल्प के समान इस समय भी जगत की रचना कर सकूँ ॥ २२ ॥ आप भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत की रचना करने का उद्यम भी उन्हीं में से एक है। अत: इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करें—शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टिरचनाविषयक अभिमानरूप मल से दूर रह सकूँ ॥ २३ ॥ प्रभो ! इस प्रलयकालीन जल में शयन करते हुए आप अनन्तशक्ति परमपुरुष के नाभि-कमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी ही विज्ञानशक्ति; अत: इस जगत के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो ॥ २४ ॥ आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकान के सहित अपने नेत्रकमल खोलिये और शेष-शय्या से उठकर विश्व के उद्भव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये ॥ २५ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार तप, विद्या और समाधि के द्वारा अपने उत्पत्तिस्थान श्रीभगवान को देखकर तथा अपने मन और वाणी की शक्ति के अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रह्माजी थके- से होकर मौन हो गये ॥ २६ ॥ श्रीमधुसूदन भगवान ने देखा कि ब्रह्माजी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोकरचना के विषय में कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्राय को जानकर वे अपनी गम्भीर वाणी से उनका खेद शान्त करते हुए कह ने लगे ॥ २७-२८ ॥
श्रीभगवान ने कहा—वेदगर्भ ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टिरचना के उद्यम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझ से जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चु का हूँ ॥ २९ ॥ तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञान का अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकों को स्पष्टतया अपने अन्त:करण में देखोगे ॥ ३० ॥ फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझ में सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे ॥ ३१ ॥ जिस समय जीव काष्ठ में व्याप्त अग्रि के समान समस्त भूतों में मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मल से मुक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ जब वह अपने को भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्त:करण से रहित तथा स्वरूपत: मुझ से अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजी नाना प्रकार के कर्मसंस्कारों के अनुसार अनेक प्रकार की जीवसृष्टि को रच ने की इच्छा होने पर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपा का ही फल है ॥ ३४ ॥ तुम सब से पहले मन्त्रद्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझ में ही लगा रहता है, इसीसे पापमय रजोगुण तुम को बाँध नहीं पाता ॥ ३५ ॥ तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्त:करण से रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है कि यद्यपि देहधारी जीवों को मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुम ने मुझे जान लिया है ॥ ३६ ॥ ‘मेरा आश्रय कोई है या नहीं’ इस सन्देह से तुम कमलनाल के द्वारा जल में उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरूप अन्त:करण में ही दिखलाया है ॥ ३७ ॥
प्यारे ब्रह्माजी ! तुम ने जो मेरी कथाओं के वैभव से युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्या में जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपा का फल है ॥ ३८ ॥ लोक-रचना की इच्छा से तुम ने सगुण प्रतीत होने पर भी जो निर्गुणरूप से मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; तुम्हारा कल्याण हो ॥ ३९ ॥ मैं समस्त कामनाओं और मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्यप्रति इस स्तोत्र द्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उसपर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा ॥ ४० ॥ तत्त्ववेत्ताओं का मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनों से प्राप्त होनेवाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है ॥ ४१ ॥ विधाता ! मैं आत्माओं का भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अत: मुझ से ही प्रेम करना चाहिये ॥ ४२ ॥ ब्रह्माजी ! त्रिलो की को तथा जो प्रजा इस समय मुझ में लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझ से उत्पन्न हुए अपने सर्ववेदमय स्वरूप से स्वयं ही रचो ॥ ४३ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—प्रकृति और पुरुष के स्वामी कमलनाभ भगवान सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को इस प्रकार जगत की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूप से अदृश्य हो गये ॥ ४४ ॥
॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥
विदुर उवाच
अन्तर्हिते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः ।
प्रजाः ससर्ज कतिधा दैहिकीर्मानसीर्विभुः ॥ १॥
ये च मे भगवन् पृष्टास्त्वय्यर्था बहुवित्तम ।
तान् वदस्वानुपूर्व्येण छिन्धि नः सर्वसंशयान् ॥ २॥
सूत उवाच
एवं सञ्चोदितस्तेन क्षत्त्रा कौषारवो मुनिः ।
प्रीतः प्रत्याह तान् प्रश्नान् हृदिस्थानथ भार्गव ॥ ३॥
मैत्रेय उवाच
विरिञ्चोऽपि तथा चक्रे दिव्यं वर्षशतं तपः ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य यदाह भगवानजः ॥ ४॥
तद्विलोक्याब्जसंभूतो वायुना यदधिष्ठितः ।
पद्ममंभश्च तत्कालकृतवीर्येण कम्पितम् ॥ ५॥
तपसा ह्येधमानेन विद्यया चात्मसंस्थया ।
विवृद्धविज्ञानबलो न्यपाद्वायुं सहांभसा ॥ ६॥
तद्विलोक्य वियद्व्यापि पुष्करं यदधिष्ठितम् ।
अनेन लोकान् प्राग्लीनान् कल्पितास्मीत्यचिन्तयत् ॥ ७॥
पद्मकोशं तदाऽऽविश्य भगवत्कर्मचोदितः ।
एकं व्यभाङ् क्षीदुरुधा त्रिधा भाव्यं द्विसप्तधा ॥ ८॥
एतावाञ्जीवलोकस्य संस्थाभेदः समाहृतः ।
धर्मस्य ह्यनिमित्तस्य विपाकः परमेष्ठ्यसौ ॥ ९॥
विदुर उवाच
यदात्थ बहुरूपस्य हरेरद्भुतकर्मणः ।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो ॥ १०॥
मैत्रेय उवाच
गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः ।
पुरुषस्तदुपादानमात्मानं लीलयासृजत् ॥ ११॥
विश्वं वै ब्रह्म तन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया ।
ईश्वरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना ॥ १२॥
यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशं ।
सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः ॥ १३॥
कालद्रव्यगुणैरस्य त्रिविधः प्रतिसङ्क्रमः ।
आद्यस्तु महतः सर्गो गुणवैषम्यमात्मनः ॥ १४॥
द्वितीयस्त्वहमो यत्र द्रव्यज्ञानक्रियोदयः ।
भूतसर्गस्तृतीयस्तु तन्मात्रो द्रव्यशक्तिमान् ॥ १५॥
चतुर्थ ऐन्द्रियः सर्गो यस्तु ज्ञानक्रियात्मकः ।
वैकारिको देवसर्गः पञ्चमो यन्मयं मनः ॥ १६॥
षष्ठस्तु तमसः सर्गो यस्त्वबुद्धिकृतः प्रभो ।
षडिमे प्राकृताः सर्गा वैकृतानपि मे शृणु ॥ १७॥
रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः ।
सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड्विधस्तस्थुषां च यः ॥ १८॥
वनस्पत्योषधिलता त्वक्सारा वीरुधो द्रुमाः ।
उत्स्रोतसस्तमःप्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिणः ॥ १९॥
तिरश्चामष्टमः सर्गः सोऽष्टाविंशद्विधो मतः ।
अविदो भूरितमसः घ्राणज्ञा हृद्यवेदिनः ॥ २०॥
गौरजो महिषः कृष्णः सूकरो गवयो रुरुः ।
द्विशफाः पशवश्चेमे अविरुष्ट्रश्च सत्तम ॥ २१॥
खरोऽश्वोऽश्वतरो गौरः शरभश्चमरी तथा ।
एते चैकशफाः क्षत्तः शृणु पञ्चनखान् पशून् ॥ २२॥
श्वा सृगालो वृको व्याघ्रो मार्जारः शशशल्लकौ ।
सिंहः कपिर्गजः कूर्मो गोधा च मकरादयः ॥ २३॥
कङ्कगृध्रबकश्येनभासभल्लूकबर्हिणः ।
हंससारसचक्राह्वकाकोलूकादयः खगाः ॥ २४॥
अर्वाक्स्रोतस्तु नवमः क्षत्तरेकविधो नृणाम् ।
रजोऽधिकाः कर्मपरा दुःखे च सुखमानिनः ॥ २५॥
वैकृतास्त्रय एवैते देवसर्गश्च सत्तम ।
वैकारिकस्तु यः प्रोक्तः कौमारस्तूभयात्मकः ॥ २६॥
देवसर्गश्चाष्टविधो विबुधाः पितरोऽसुराः ।
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणाः ॥ २७॥
भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याध्राः किन्नरादयः ।
दशैते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः ॥ २८॥
अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशान् मन्वन्तराणि च ।
एवं रजःप्लुतः स्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरिः ।
सृजत्यमोघसङ्कल्प आत्मैवात्मानमात्मना ॥ २९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १०
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-दसवाँ अध्याय
दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन
विदुरजी ने कहा—मुनिवर ! भगवान नारायण के अन्तर्धान हो जाने पर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने अपने देह और मन से कित ने प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की ? ॥ १ ॥ भगवन् ! इनके सिवा मैंने आप से और जो-जो बातें पूछी हैं, उन सब का भी क्रमश: वर्णन कीजिये और मेरे सब संशयों को दूर कीजिये; क्योंकि आप सभी बहुज्ञों में श्रेष्ठ हैं ॥ २ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! विदुरजी के इस प्रकार पूछने पर मुनिवर मैत्रेयजी बड़े प्रसन्न हुए और अपने हृदय में स्थित उन प्रश्रों का इस प्रकार उत्तर दे ने लगे ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—अजन्मा भगवान श्रीहरि ने जैसा कहा था, ब्रह्माजी ने भी उसी प्रकार चित्त को अपने आत्मा श्रीनारायण में लगाकर सौ दिव्य वर्षों तक तप किया ॥ ४ ॥ ब्रह्माजी ने देखा कि प्रलय- कालीन प्रबल वायु के झ कोरोंसे, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिस पर वे बैठे हुए हैं वह कमल तथा जल काँप रहे हैं ॥ ५ ॥ प्रबल तपस्या एवं हृदय में स्थित आत्मज्ञान से उनका विज्ञानबल बढ़ गया। और उन्होंने जल के साथ वायु को पी लिया ॥ ६ ॥ फिर जिस पर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाश- व्यापी कमल को देखकर उन्होंने विचार किया कि ‘पूर्वकल्प में लीन हुए लोकों को मैं इसीसे रचूँगा’ ॥ ७ ॥ तब भगवान के द्वारा सृष्टिकार्य में नियुक्त ब्रह्माजी ने उस कमल कोश में प्रवेश किया और उस एक के ही भू:, भुव:, स्व:—ये तीन भाग किये, यद्यपि वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकों के रूप में विभाग किये जा सकते थे ॥ ८ ॥ जीवों के भोगस्थान के रूप में इन्हीं तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है; जो निष्काम कर्म करनेवाले हैं, उन्हें मह:, तप:, जन: और सत्यलोकरूप ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है ॥ ९ ॥
विदुरजी ने कहा—ब्रह्मन् ! आपने अद्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति की बात कही थी, प्रभो ! उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विषयों का रूपान्तर (बदलना) ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बनाकर भगवान खेल-खेल में अपने-आपको ही सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं ॥ ११ ॥ पहले यह सारा विश्व भगवान की माया से लीन होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्तमूर्ति काल के द्वारा भगवान ने पुन: पृथक्रूप से प्रकट किया है ॥ १२ ॥ यह जगत जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। इस की सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत-वैकृत भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है ॥ १३ ॥ और इसका प्रलय काल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार से होता है। (अब पहले मैं दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन करता हूँ।) पहली सृष्टि महत्तत्त्व की है। भगवान की प्रेरणा से सत्त्वादि गुणों में विषमता होना ही इसका स्वरूप है ॥ १४ ॥ दूसरी सृष्टि अहंकार की है, जिससे पृथ्वी आदि पञ्चभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पञ्चमहाभूतों को उत्पन्न करनेवाला तन्मात्रवर्ग रहता है ॥ १५ ॥ चौथी सृष्टि इन्द्रियों की है, यह ज्ञान और क्रियाशक्ति से सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अन्तर्गत है ॥ १६ ॥ छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह—ये पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की बुद्धि का आवरण और विक्षेप करनेवाली है। ये छ: प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत सृष्टियों का भी विवरण सुनो ॥ १७ ॥
जो भगवान अपना चिन्तन करनेवालों के समस्त दु:खों को हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरि की है। वे ही ब्रह्मा के रूप में रजोगुण को स्वीकार करके जगत की रचना करते हैं। छ: प्रकार की प्राकृत सृष्टियों के बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छ: प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है ॥ १८ ॥ वनस्पति, औषधि, लता, त्वक्सार, विरुध् और द्रुम इनका संचार निचे (जड़) से ऊ पर की और होता है, इनमे प्राय ज्ञानसक्ती प्रकट नहीं रहती, ये भीतर ही भीतर केवल स्पर्श का अनुभव करते हैं तथा इनमे से प्रतेक में कोई विशेष गुण रहता है ॥१९॥ आठवीं सृष्टी तिर्यग्योनियों (पशु-पक्षियों) की है। वह अट्ठाईस प्रकार की मानी जाती है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता, तमोगुणी अधिकता के कारण ये ककेवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना अदि ही जानते हैं, इन्हें सूँघ ने मात्र से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके हिर्दय मे विचारसक्ति या दूरदर्शिता नहीं होती ॥२०॥साधुश्रेट्ठ! इन तिर्यकोंमे गौ, बकरा, भैंसा, कृष्ण-मृग, सूअर, नीलगाय, रुरु नामक मृग, भेड़ और ऊँट – ये द्विशफ (दो सुरोंवाले) पशु कहलाते है ॥ २१॥ गधा, घोडा, खच्चर, गौरमृग, शरफ और चमरी- ये एकाएक (एक खुरवाले) है ॥ अब पांच नखवाले पशु पक्षियों के नाम सुनो ॥ २२ ॥ कुत्ता, गीदड़, भेडिया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बन्दर, हाथी, कछुआ,गोह और मगर आदि ( पशु ) हैं ॥ २३ ॥ कंक ( बगुला ), गिद्ध, बटेर, बाज, भास, बल्लुक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौवा, और उल्लू आदि उड़ ने वाले जीव कहलाते हैं ॥ २४ ॥ विदुरजी ! नवीं सृष्टि मनुष्यों की हैं ॥ इसके आहार का प्रवाह ऊ पर (मुंह ) से नीचे कि ओर होता है ॥ मनुष्य रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण और दुखरूप विषयों में ही सुख माननेवाले होते हैं ॥ २५ ॥ स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य—ये तीनों प्रकार की सृष्टियाँ तथा आगे कहा जानेवाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि हैं तथा जो महत्तत्त्वादिरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टि में की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियों का जो कौमारसर्ग है वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकार का है ॥ २६ ॥
देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेद से देवसृष्टि आठ प्रकार की है। विदुरजी ! इस प्रकार जगतकत्र्ता श्रीब्रह्माजी की रची हुई यह दस प्रकार की सृष्टि मैंने तुम से कही ॥ २७-२८ ॥ अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादि का वर्णन करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करनेवाले सत्यसङ्कल्प भगवान हरि ही ब्रह्मा के रूप से प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत के रूप में अपनी ही रचना करते हैं ॥ २९ ॥
॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥
मैत्रेय उवाच
चरमः सद्विशेषाणामनेकोऽसंयुतः सदा ।
परमाणुः स विज्ञेयो नृणामैक्यभ्रमो यतः ॥ १॥
सत एव पदार्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत् ।
कैवल्यं परममहानविशेषो निरन्तरः ॥ २॥
एवं कालोऽप्यनुमितः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम ।
संस्थानभुक्त्या भगवानव्यक्तो व्यक्तभुग्विभुः ॥ ३॥
स कालः परमाणुर्वै यो भुङ्क्ते परमाणुताम् ।
सतोऽविशेषभुग्यस्तु स कालः परमो महान् ॥ ४॥
अणुर्द्वौ परमाणू स्यात्त्रसरेणुस्त्रयः स्मृतः ।
जालार्करश्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात् ॥ ५॥
त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः ।
शतभागस्तु वेधः स्यात्तैस्त्रिभिस्तु लवः स्मृतः ॥ ६॥
निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रयः क्षणः ।
क्षणान् पञ्च विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्च च ॥ ७॥
लघूनि वै समाम्नाता दश पञ्च च नाडिका ।
ते द्वे मुहूर्तः प्रहरः षड्यामः सप्त वा नृणाम् ॥ ८॥
द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः ।
स्वर्णमाषैः कृतच्छिद्रं यावत्प्रस्थजलप्लुतम् ॥ ९॥
यामाश्चत्वारश्चत्वारो मर्त्यानामहनी उभे ।
पक्षः पञ्चदशाहानि शुक्लः कृष्णश्च मानद ॥ १०॥
तयोः समुच्चयो मासः पितॄणां तदहर्निशम् ।
द्वौ तावृतुः षडयनं दक्षिणं चोत्तरं दिवि ॥ ११॥
अयने चाहनी प्राहुर्वत्सरो द्वादश स्मृतः ।
संवत्सरशतं नॄणां परमायुर्निरूपितम् ॥ १२॥
ग्रहर्क्षतारा चक्रस्थः परमाण्वादिना जगत् ।
संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभुः ॥ १३॥
संवत्सरः परिवत्सर इडावत्सर एव च ।
अनुवत्सरो वत्सरश्च विदुरैवं प्रभाष्यते ॥ १४॥
यः सृज्यशक्तिमुरुधोच्छ्वसयन् स्वशक्त्या
पुंसोऽभ्रमाय दिवि धावति भूतभेदः ।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वन्
तस्मै बलिं हरत वत्सरपञ्चकाय ॥ १५॥
विदुर उवाच
पितृदेवमनुष्याणामायुः परमिदं स्मृतम् ।
परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्युः कल्पाद्बहिर्विदः ॥ १६॥
भगवान् वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु ।
विश्वं विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा ॥ १७॥
मैत्रेय उवाच
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः सावधानं निरूपितम् ॥ १८॥
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम् ।
सङ्ख्यातानि सहस्राणि द्विगुणानि शतानि च ॥ १९॥
सन्ध्यांशयोरन्तरेण यः कालः शतसङ्ख्ययोः ।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मो विधीयते ॥ २०॥
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान् कृते समनुवर्तते ।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता ॥ २१॥
त्रिलोक्या युगसाहस्रं बहिराब्रह्मणो दिनम् ।
तावत्येव निशा तात यन्निमीलति विश्वसृक् ॥ २२॥
निशावसान आरब्धो लोककल्पोऽनुवर्तते ।
यावद्दिनं भगवतो मनून् भुञ्जंश्चतुर्दश ॥ २३॥
स्वं स्वं कालं मनुर्भुङ्क्ते साधिकां ह्येकसप्ततिम् ।
मन्वन्तरेषु मनवस्तद्वंश्या ऋषयः सुराः ।
भवन्ति चैव युगपत्सुरेशाश्चानु ये च तान् ॥ २४॥
एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तनः ।
तिर्यङ्नृपितृदेवानां संभवो यत्र कर्मभिः ॥ २५॥
मन्वन्तरेषु भगवान् बिभ्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभिः ।
मन्वादिभिरिदं विश्वमवत्युदितपौरुषः ॥ २६॥
तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रमः ।
कालेनानुगताशेष आस्ते तूष्णीं दिनात्यये ॥ २७॥
तमेवान्वपिधीयन्ते लोका भूरादयस्त्रयः ।
निशायामनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम् ॥ २८॥
त्रिलोक्यां दह्यमानायां शक्त्या सङ्कर्षणाग्निना ।
यान्त्यूष्मणा महर्लोकाज्जनं भृग्वादयोऽर्दिताः ॥ २९॥
तावत्त्रिभुवनं सद्यः कल्पान्तैधितसिन्धवः ।
प्लावयन्त्युत्कटाटोपचण्डवातेरितोर्मयः ॥ ३०॥
अन्तः स तस्मिन् सलिल आस्तेऽनन्तासनो हरिः ।
योगनिद्रानिमीलाक्षः स्तूयमानो जनालयैः ॥ ३१॥
एवं विधैरहोरात्रैः कालगत्योपलक्षितैः ।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयः शतम् ॥ ३२॥
यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते ।
पूर्वः परार्धोपक्रान्तो ह्यपरोऽद्य प्रवर्तते ॥ ३३॥
पूर्वस्यादौ परार्धस्य ब्राह्मो नाम महानभूत् ।
कल्पो यत्राभवद्ब्रह्मा शब्दब्रह्मेति यं विदुः ॥ ३४॥
तस्यैव चान्ते कल्पोऽभूद्यं पाद्ममभिचक्षते ।
यद्धरेर्नाभिसरस आसील्लोकसरोरुहम् ॥ ३५॥
अयं तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत ।
वाराह इति विख्यातो यत्रासीत्सूकरो हरिः ॥ ३६॥
कालोऽयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते ।
अव्याकृतस्यानन्तस्य ह्यनादेर्जगदात्मनः ॥ ३७॥
कालोऽयं परमाण्वादिर्द्विपरार्धान्त ईश्वरः ।
नैवेशितुं प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम् ॥ ३८॥
विकारैः सहितो युक्तैर्विशेषादिभिरावृतः ।
आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटि विस्तृतः ॥ ३९॥
दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत् ।
लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः ॥ ४०॥
तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ।
विष्णोर्धाम परं साक्षात्पुरुषस्य महात्मनः ॥ ४१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
एकादशोऽध्यायः ॥ ११
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-ग्यारहवाँ अध्याय
मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! पृथ्वी आदि कार्यवर्ग का जो सूक्ष्मतम अंश है—जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूप को प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओं के परस्पर मिल ने से ही मनुष्यों को भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवी की प्रतीति होती है ॥ १ ॥ यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरूप में स्थित उस पृथ्वी आदि कार्यों की एकता (समुदाय अथवा समग्ररूप) का नाम परम महान है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्थाभेद की स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेद का भान होता है और न घट-पटादि वस्तुभेद की ही कल्पना होती है ॥ २ ॥ साधुश्रेष्ठ ! इस प्रकार यह वस्तु के सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूप का विचार हुआ। इसी के सादृश्य से परमाणु आदि अवस्थाओं में व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थों को भोगनेवाले सृष्टि आदि में समर्थ, अव्यक्त स्वरूप भगवान काल की भी सूक्ष्मता और स्थूलता का अनुमान किया जा सकता है ॥ ३ ॥ जो काल प्रपञ्च की परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्था में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टि से लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओं का भोग करता है, वह परम महान है ॥ ४ ॥
दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिल ने से एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखे में से होकर आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश में आकाश में उड़ता देखा जाता है ॥ ५ ॥ ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौगुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेध का एक ‘लव’ होता है ॥ ६ ॥ तीन लव को एक ‘निमेष’ और तीन निमेष को एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षण की एक ‘काष्ठा’ होती है और पंद्रह काष्ठा का एक ‘लघु’ ॥ ७ ॥ पंद्रह लघु की एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिका का एक ‘मुहूत्र्त’ होता है और दिन के घटने-बढऩे के अनुसार (दिन एवं रात्रि की दोनों सन्धियों के दो मुहूत्र्तों को छोडक़र) छ: या सात नाडिका का एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है ॥ ८ ॥ छ: पल ताँबे का एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सो ने की चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतन के पेंदे में छेद करके उसे जल में छोड़ दिया जाय। जित ने समय में एक प्रस्थ जल उस बरतन में भर जाय, वह बरतन जल में डूब जाय, उतने समय को एक ‘नाडिका’ कहते हैं ॥ ९ ॥ विदुरजी ! चार-चार पहर के मनुष्य के ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पंद्रह दिन-रात का एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया है ॥ १० ॥ इन दोनों पक्षों को मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरों का एक दिन-रात है। दो मास का एक ‘ऋतु’ और छ: मास का एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरायण’ भेद से दो प्रकार का है ॥ ११ ॥ ये दोनों अयन मिलकर देवताओं के एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं। ऐसे सौ वर्ष की मनुष्य की परम आयु बतायी गयी है ॥ १२ ॥ चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारामण्डल के अधिष्ठाता काल स्वरूप भगवान सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सरपर्यन्त काल में द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवन कोश की निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं ॥ १३ ॥ सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनों के भेद से यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है ॥ १४ ॥ विदुरजी ! इन पाँच प्रकार के वर्षों की प्रवृत्ति करनेवाले भगवान सूर्य की तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पञ्चभूतों में से तेज: स्वरूप हैं और अपनी कालशक्ति से बीजादि पदार्थों की अङ्क्ुर उत्पन्न करने की शक्ति को अनेक प्रकार से कार्योन्मुख करते हैं। ये पुरुषों की मोहनिवृत्ति के लिये उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते रहते हैं तथा ये ही सकाम-पुरुषों को यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि मङ्गलमय फलों का विस्तार करते हैं ॥ १५ ॥
विदुरजी ने कहा—मुनिवर ! आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परमायु का वर्णन तो किया। अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक काल तक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयु का वर्णन कीजिये ॥ १६ ॥ आप भगवान काल की गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानीलोग अपनी योगसिद्ध दिव्य दृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं ॥ १७ ॥
मैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! सत्ययुग, त्रेता, द्वा पर और कलि—ये चार युग अपनी सन्ध्या और सन्ध्यांशों के सहित देवताओं के बारह सहस्र वर्ष तक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है ॥ १८ ॥ इन सत्यादि चारों युगों में क्रमश: चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येक में जित ने सहस्र वर्ष होते हैं उससे दुगु ने सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और सन्ध्यांशों में होते हैं[1] ॥ १९ ॥ युग की आदि में सन्ध्या होती है और अन्त में सन्ध्यांश। इन की वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीच का जो काल होता है, उसी को कालवेत्ताओं ने युग कहा है। प्रत्येक युग में एक-एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है ॥ २० ॥ सत्ययुग के मनुष्यों में धर्म अपने चारों चरणों से रहता है; फिर अन्य युगों में अधर्म की वृद्धि होने से उसका एक-एक चरण क्षीण होता जाता है ॥ २१ ॥ प्यारे विदुरजी ! त्रिलोकी से बाहर महर्लोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगतकर्ता ब्रह्माजी शयन करते हैं ॥ २२ ॥ उस रात्रि का अन्त होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जब तक ब्रह्माजी का दिन रहता है, तब तक चलता रहता है। उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं ॥ २३ ॥ प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (७१ चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं ॥ २४ ॥ यह ब्रह्माजी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है ॥ २५ ॥ इन मन्वन्तरों में भगवान सत्त्वगुण का आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियों के द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्व का पालन करते हैं ॥ २६ ॥ कालक्रम से जब ब्रह्माजी का दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर अपने सृष्टिरचनारूप पौरुष को स्थगित करके निश्चेष्टभाव से स्थित हो जाते हैं ॥ २७ ॥ उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादि से रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भू:, भुव:, स्व:—तीनों लोक उन्हीं ब्रह्माजी के शरीर में छिप जाते हैं ॥ २८ ॥ उस अवसर पर तीनों लोक शेषजी के मुख से निकली हुई अग्रिरूप भगवान की शक्ति से जल ने लगते हैं। इसलिये उसके ताप से व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं ॥ २९ ॥ इत ने में ही सातों समुद्र प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन से उमडक़र अपनी उछलती हुई उत्ताल तरङ्गों से त्रिलो की को डुबो देते हैं ॥ ३० ॥ तब उस जल के भीतर भगवान शेषशायी योगनिद्रा से नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोकनिवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं ॥ ३१ ॥ इस प्रकार काल की गति से एक-एक सहस्र चतुर्युग के रूप में प्रतीत होनेवाले दिन-रात के हेर-फेर से ब्रह्माजी की सौ वर्ष की परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजी की आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अब तक पहला परार्ध तो बीत चु का है, दूसरा चल रहा है ॥ ३३ ॥ पूर्व परार्ध के आरम्भ में ब्राह्म नामक महान कल्प हुआ था। उसी में ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्दब्रह्म कहते हैं ॥ ३४ ॥ उसी परार्ध के अन्त में जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान के नाभिसरोवर से सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था ॥ ३५ ॥ विदुरजी ! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्ध का आरम्भक बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प नाम से विख्यात है, इसमें भगवान ने सूकररूप धारण किया था ॥ ३६ ॥ यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है ॥ ३७ ॥ यह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होने पर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादि में अभिमान रखनेवाले जीवों का ही शासन करने में समर्थ है ॥ ३८ ॥
प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्र—इन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पञ्चभूत—इन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्ड कोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गु ने सात आवरण हैं। उन सब के सहित यह जिसमें परमाणु के समान पड़ा हुआ दीखता है और जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड- राशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णुभगवान का श्रेष्ठ धाम ( स्वरूप) है ॥ ३९—४१ ॥
[1] अर्थात् सत्ययुग में ४००० दिव्य वर्ष युग के और ८०० सन्ध्या एवं सन्ध्यांशके—इस प्रकार ४८०० वर्ष होते हैं। इसी प्रकार त्रेता में ३६००, द्वा पर में २४०० और कलियुग में १२०० दिव्यवर्ष होते हैं। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है, अत: देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के ३६० वर्ष के बराबर हुआ। इस प्रकार मानवीय मान से कलियुग में ४३२००० वर्ष हुए तथा इससे दुगु ने द्वा पर में, तिगु ने त्रेता में और चौगु ने सत्ययुग में होते हैं।
॥ द्वादशोऽध्यायः - १२ ॥
मैत्रेय उवाच
इति ते वर्णितः क्षत्तः कालाख्यः परमात्मनः ।
महिमा वेदगर्भोऽथ यथास्राक्षीन्निबोध मे ॥ १॥
ससर्जाग्रेऽन्धतामिस्रमथ तामिस्रमादिकृत् ।
महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तयः ॥ २॥
दृष्ट्वा पापीयसीं सृष्टिं नात्मानं बह्वमन्यत ।
भगवद्ध्यानपूतेन मनसान्यां ततोऽसृजत् ॥ ३॥
सनकं च सनन्दं च सनातनमथात्मभूः ।
सनत्कुमारं च मुनीन्निष्क्रियानूर्ध्वरेतसः ॥ ४॥
तान् बभाषे स्वभूः पुत्रान् प्रजाः सृजत पुत्रकाः ।
तन्नैच्छन्मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणाः ॥ ५॥
सोऽवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासनैः ।
क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुपचक्रमे ॥ ६॥
धिया निगृह्यमाणोऽपि भ्रुवोर्मध्यात्प्रजापतेः ।
सद्योऽजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः ॥ ७॥
स वै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान् भवः ।
नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगद्गुरो ॥ ८॥
इति तस्य वचः पाद्मो भगवान् परिपालयन् ।
अभ्यधाद्भद्रया वाचा मा रोदीस्तत्करोमि ते ॥ ९॥
यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्वेग इव बालकः ।
ततस्त्वामभिधास्यन्ति नाम्ना रुद्र इति प्रजाः ॥ १०॥
हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही ।
सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चैव स्थानान्यग्रे कृतानि मे ॥ ११॥
मन्युर्मनुर्महिनसो महाञ्छिव ऋतध्वजः ।
उग्ररेता भवः कालो वामदेवो धृतव्रतः ॥ १२॥
धीर्वृत्तिरुशनोमा च नियुत्सर्पिरिलांबिका ।
इरावती सुधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः ॥ १३॥
गृहाणैतानि नामानि स्थानानि च सयोषणः ।
एभिः सृज प्रजा बह्वीः प्रजानामसि यत्पतिः ॥ १४॥
इत्यादिष्टः स्वगुरुणा भगवान्नीललोहितः ।
सत्त्वाकृतिस्वभावेन ससर्जात्मसमाः प्रजाः ॥ १५॥
रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्ताद्ग्रसतां जगत् ।
निशाम्यासङ्ख्यशो यूथान् प्रजापतिरशङ्कत ॥ १६॥
अलं प्रजाभिः सृष्टाभिरीदृशीभिः सुरोत्तम ।
मया सह दहन्तीभिर्दिशश्चक्षुर्भिरुल्बणैः ॥ १७॥
तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम् ।
तपसैव यथा पूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान् ॥ १८॥
तपसैव परं ज्योतिर्भगवन्तमधोक्षजम् ।
सर्वभूतगुहावासमञ्जसा विन्दते पुमान् ॥ १९॥
मैत्रेय उवाच
एवमात्मभुवाऽऽदिष्टः परिक्रम्य गिरां पतिम् ।
बाढमित्यमुमामन्त्र्य विवेश तपसे वनम् ॥ २०॥
अथाभिध्यायतः सर्गं दशपुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवच्छक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥ २१॥
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२॥
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयंभुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः ॥ २३॥
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिर्मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४॥
धर्मः स्तनाद्दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मान्मृत्युर्लोकभयङ्करः ॥ २५॥
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद्वाक्सिन्धवो मेढ्रान्निरृतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६॥
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७॥
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयंभूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ॥ २८॥
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रंभात्प्रत्यबोधयन् ॥ २९॥
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्य न करिष्यन्ति चापरे ।
यत्त्वं दुहितरं गच्छेरनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३०॥
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्गुरो ।
यद्वृत्तमनुतिष्ठन् वै लोकः क्षेमाय कल्पते ॥ ३१॥
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ॥ ३२॥
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३॥
कदाचिद्ध्यायतः स्रष्टुर्वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकान् समवेतान्यथा पुरा ॥ ३४॥
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रमुपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारस्तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५॥
विदुर उवाच
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद्यद्येनासृजद्देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६॥
मैत्रेय उवाच
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७॥
आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं वेदमात्मनः ।
स्थापत्यं चासृजद्वेदं क्रमात्पूर्वादिभिर्मुखैः ॥ ३८॥
इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः ।
सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः ॥ ३९॥
षोडश्युक्थौ पूर्ववक्त्रात्पुरीष्यग्निष्टुतावथ ।
आप्तोर्यामातिरात्रौ च वाजपेयं सगोसवम् ॥ ४०॥
विद्या दानं तपः सत्यं धर्मस्येति पदानि च ।
आश्रमांश्च यथासङ्ख्यमसृजत्सह वृत्तिभिः ॥ ४१॥
सावित्रं प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा ।
वार्तासञ्चयशालीनशिलोञ्छ इति वै गृहे ॥ ४२॥
वैखानसा वालखिल्यौदुंबराः फेनपा वने ।
न्यासे कुटीचकः पूर्वं बह्वोदो हंसनिष्क्रियौ ॥ ४३॥
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च ।
एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दह्रतः ॥ ४४॥
तस्योष्णिगासील्लोमभ्यो गायत्री च त्वचो विभोः ।
त्रिष्टुम्मांसात्स्नुतोऽनुष्टुब्जगत्यस्थ्नः प्रजापतेः ॥ ४५॥
मज्जायाः पंक्तिरुत्पन्ना बृहती प्राणतोऽभवत् ।
स्पर्शस्तस्याभवज्जीवः स्वरो देह उदाहृतः ॥ ४६॥
ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुरन्तःस्था बलमात्मनः ।
स्वराः सप्तविहारेण भवन्ति स्म प्रजापतेः ॥ ४७॥
शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मनः परः ।
ब्रह्मावभाति विततो नानाशक्त्युपबृंहितः ॥ ४८॥
ततोऽपरामुपादाय स सर्गाय मनो दधे ।
ऋषीणां भूरिवीर्याणामपि सर्गमविस्तृतम् ॥ ४९॥
ज्ञात्वा तद्धृदये भूयश्चिन्तयामास कौरव ।
अहो अद्भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा ॥ ५०॥
न ह्येधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघातकम् ।
एवं युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा ॥ ५१॥
कस्य रूपमभूद्द्वेधा यत्कायमभिचक्षते ।
ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥ ५२॥
यस्तु तत्र पुमान् सोऽभून्मनुः स्वायंभुवः स्वराट् ।
स्त्री याऽऽसीच्छतरूपाऽऽख्या महिष्यस्य महात्मनः ॥ ५३॥
तदा मिथुनधर्मेण प्रजा ह्येधांबभूविरे ।
स चापि शतरूपायां पञ्चापत्यान्यजीजनत् ॥ ५४॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्रः कन्याश्च भारत ।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति सत्तम ॥ ५५॥
आकूतिं रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम् ।
दक्षायादात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत् ॥ ५६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-बारहवाँ अध्याय
सृष्टि का विस्तार
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! यहाँ तक मैंने आपको भगवान की कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रह्माजी ने जगत की रचना की, वह सुनिये ॥ १ ॥ सब से पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ—तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) रचीं ॥ २ ॥ किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टि को देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मन को भगवान के ध्यान से पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची ॥ ३ ॥ इस बार ब्रह्माजी ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—ये चार निवृत्तिपरायण ऊध्र्वरेता मुनि उत्पन्न किये ॥ ४ ॥ अपने इन पुत्रों से ब्रह्माजी ने कहा, ‘पुत्रो ! तुमलोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किन्तु वे जन्म से ही मोक्षमार्ग (निवृत्तिमार्ग)- का अनुसरण करनेवाले और भगवान के ध्यान में तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा ॥ ५ ॥ जब ब्रह्माजी ने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोक ने का प्रयत्न किया ॥ ६ ॥ किन्तु बुद्धि द्वारा उनके बहुत रोकने पर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापति की भौंहों के बीच में से एक नील-लोहित (नीले और लाल रंगके) बालक के रूप में प्रकट हो गया ॥ ७ ॥ वे देवताओं के पूर्वज भगवान भव (रुद्र) रो-रोकर कह ने लगे—‘जगतपिता ! विधाता ! मेरे नाम और रहने के स्थान बतलाइये’ ॥ ८ ॥
तब कमलयोनि भगवान ब्रह्माने उस बालक की प्रार्थना पूर्ण करने के लिये मधुर वाणी में कहा, ‘रोओ मत’ मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ ॥ ९ ॥ देवश्रेष्ठ ! तुम जन्म लेते ही बालक के समान फूट-फूटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें ‘रुद्र’ नाम से पुकारेगी ॥ १० ॥ तुम्हारे रहने के लिये मैंने पहले से ही हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्रि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप—ये स्थान रच दिये हैं ॥ ११ ॥ तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे ॥ १२ ॥ तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सॢप, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा—ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी ॥ १३ ॥ तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो ॥ १४ ॥
लोकपिता ब्रह्माजी से ऐसी आज्ञा पाकर भगवान नीललोहित बल, आकार और स्वभाव में अपने-ही-जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे ॥ १५ ॥ भगवान रुद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रह्माजी को बड़ी शङ् का हुई ॥ १६ ॥ तब उन्होंने रुद्र से कहा, ‘सुरश्रेष्ठ ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयङ्कर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अत: ऐसी सृष्टि और न रचो ॥ १७ ॥ तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियों को सुख दे ने के लिये तप करो। फिर उस तप के प्रभाव से ही तुम पूर्ववत् इस संसार की रचना करना ॥ १८ ॥ पुरुष तप के द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योति: स्वरूप श्रीहरि को सुगमता से प्राप्त कर सकता है’ ॥ १९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—जब ब्रह्माजी ने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्र ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करने के लिये वन को चले गये ॥ २० ॥
इसके पश्चात जब भगवान की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्माजी ने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई ॥ २१ ॥ उनके नाम मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे ॥ २२ ॥ इनमें नारदजी प्रजापति ब्रह्माजी की गोदसे, दक्ष अँगूठेसे, वसिष्ठ प्राणसे, भृगु त्वचासे, क्रतु हाथसे, पुलह नाभिसे, पुलस्त्यऋषि कानोंसे, अङ्गिरा मुखसे, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए ॥ २३-२४ ॥ फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिसकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ ॥ २५ ॥ इसी प्रकार ब्रह्माजी के हृदय से काम, भौंहों से क्रोध, नीचे के होठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिङ्ग से समुद्र, गुदा से पाप का निवासस्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति ॥ २६ ॥ छाया से देवहूति के पति भगवान कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत जगतकर्ता ब्रह्माजी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ ॥ २७ ॥
विदुरजी ! भगवान ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहर थी। हम ने सुना है—एक बार उसे देखकर ब्रह्माजी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी ॥ २८ ॥ उन्हें ऐसा अधर्ममय सङ्कल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया— ॥ २९ ॥ ‘पिताजी ! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन-जैसा दुस्तर पाप करने का सङ्कल्प कर रहे हैं ! ऐसा तो आप से पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्माने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा ॥ ३० ॥ जगद्गुरो ! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आपलोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है ॥ ३१ ॥ जिन श्रीभगवान ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उन्हें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’ ॥ ३२ ॥ अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पति ब्रह्माजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया। वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते हैं ॥ ३३ ॥
एक बार ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ ?’ इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए ॥ ३४ ॥ इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ—ये सब भी ब्रह्माजी के मुखों से ही उत्पन्न हुए ॥ ३५ ॥
विदुरजी ने पूछा—तपोधन ! विश्वरचयिताओं के स्वामी श्रीब्रह्माजी ने जब अपने मुखों से इन वेदादि को रचा, तो उन्होंने अपने किस मुख से कौन वस्तु उत्पन्न की—यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ३६ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! ब्रह्माने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के मुख से क्रमश: ऋक्, यजु:, साम और अथर्ववेदों को रचा तथा इसी क्रम से शस्त्र (होता का कर्म), इज्या (अध्वर्यु का कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाता का कर्म) और प्रायश्चित्त (ब्रह्मा का कर्म)—इन चारों की रचना की ॥ ३७ ॥ इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्साशास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्रविद्या), गान्धर्ववेद (सङ्गीतशास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्पविद्या)—इन चार उपवेदों को भी क्रमश: उन पूर्वादि मुखों से ही उत्पन्न किया ॥ ३८ ॥ फिर सर्वदर्शी भगवान ब्रह्माने अपने चारों मुखों से इतिहास-पुराणरूप पाँचवाँ वेद बनाया ॥ ३९ ॥ इसी क्रम से षोडशी और उप्य, चयन और अग्रिष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसव—ये दो-दो याग भी उनके पूर्वादि मुखों से ही उत्पन्न हुए ॥ ४० ॥ विद्या, दान, तप और सत्य—ये धर्म के चार पाद और वृत्तियों के सहित चार आश्रम भी इसी क्रम से प्रकट हुए ॥ ४१ ॥ [1] सावित्र१ प्राजापत्य२, ब्राह्म३ और बृहत्४—ये चार वृत्तियाँ ब्रह्मचारी की हैं तथा वार्ता५, सञ्चय६, शालीन७ और शिलोञ्छ८—ये चार वृत्तियाँ गृहस्थ की हैं ॥ ४२ ॥ इसी प्रकार वृत्तिभेद से वैखानस९, वालखिल्य१०, औदुम्बर११ और फेनप१२—ये चार भेद वानप्रस्थों के तथा कुटीचक१३, बहूदक१४, हंस१५ और निष्क्रिय (परमहंस१६)—ये चार भेद संन्यासियों के हैं ॥ ४३ ॥ इसी क्रम से आन्वीक्षिकी१७, त्रयी१८, वार्ता१९ और दण्डनीति२०—ये चार विद्याएँ तथा चार व्याहृतियाँ २१ भी ब्रह्माजी के चार मुखों से ही उत्पन्न हुर्ईं तथा उनके हृदयाकाश से ॐकार प्रकट हुआ ॥ ४४ ॥ उनके रोमों से उष्णिक्, त्वचा से गायत्री, मांस से त्रिष्टुप्, स्नायु से अनुष्टुप्, अस्थियों से जगती, मज्जा से पंक्ति और प्राणों से बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पञ्चवर्ग) और देह स्वरवर्ण (अकारादि) कहलाया ॥ ४५-४६ ॥ उनकी इन्द्रियों को ऊष्मवर्ण (श ष स ह) और बल को अन्त:स्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीडा से निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पञ्चम—ये सात स्वर हुए ॥ ४७ ॥ हे तात ! ब्रह्माजी शब्दब्रह्म स्वरूप हैं। वे वैखरीरूप से व्यक्त और ओङ्काररूप से अव्यक्त हैं। तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म है, वही अनेकों प्रकार की शक्तियों से विकसित होकर इन्द्रादि रूपों में भास रहा है ॥ ४८ ॥
विदुरजी ! ब्रह्माजी ने पहला कामासक्त शरीर जिससे कुहरा बना था—छोडऩे के बाद दूसरा शरीर धारण करके विश्वविस्तार का विचार किया; वे देख चु के थे कि मरीचि आदि महान शक्तिशाली ऋषियों से भी सृष्टि का विस्तार अधिक नहीं हुआ, अत: वे मन-ही-मन पुन: चिन्ता करने लगे—‘अहो ! बड़ा आश्चर्य है, मेरे निरन्तर प्रयत्न करने पर भी प्रजा की वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्र डाल रहा है।’ ‘जिस समय यथोचित क्रिया करनेवाले श्रीब्रह्माजी इस प्रकार दैव के विषय में विचार कर रहे थे उसी समय अकस्मात् उनके शरीर के दो भाग हो गये। ‘क’ ब्रह्माजी का नाम है, उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को ‘काय’ कहते हैं। उन दोनों विभागों से एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ ॥ ४९—५२ ॥ उनमें जो पुरुष था वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुर्ईं ॥ ५३ ॥ तबसे मिथुनधर्म (स्त्री-पुरुष-सम्भोग) से प्रजा की वृद्धि होने लगी। महाराज स्वायम्भुव मनु ने शतरूपा से पाँच सन्तानें उत्पन्न कीं ॥ ५४ ॥ साधुशिरोमणि विदुरजी ! उनमें प्रियव्रत और उत्तानपाद—दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति—तीन कन्याएँ थीं ॥ ५५ ॥ मनुजी ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से किया, मझली कन्या देवहूति कर्दमजी को दी और प्रसूति दक्ष प्रजापति को। इन तीनों कन्याओं की सन्तति से सारा संसार भर गया ॥ ५६ ॥
[1] १. उपनयन संस्कार के पश्चात गायत्री का अध्ययन करने के लिये धारण किया जानेवाला तीन दिन का ब्रह्मचर्यव्रत। २. एक वर्ष का ब्रह्मचर्यव्रत। ३. वेदाध्ययन की समाप्ति तक रहनेवाला ब्रह्मचर्यव्रत। ४. आयुपर्यन्त रहनेवाला ब्रह्मचर्यव्रत। ५. कृषि आदि शास्त्रविहित वृत्तियाँ। ६. यागादि कराना। ७. अयाचित वृत्ति। ८. खेत कट जाने पर पृथ्वी पर पड़े हुए तथा अनाज की मंडी में गिरे हुए दानों को बीनकर निर्वाह करना। ९. बिना जोती-बोयी भूमि से उत्पन्न हुए पदार्थों से निर्वाह करनेवाले। १०. नवीन अन्न मिलने पर पहला सञ्चय करके रखा हुआ अन्न दान कर देनेवाले। ११. प्रात:काल उठने पर जिस दिशा की ओर मुख हो, उसी ओर से फलादि लाकर निर्वाह करनेवाले। १२. अपने-आप झड़े हुए फलादि खाकर रहनेवाले। १३. कुटी बनाकर एक जगह रहने और आश्रम के धर्म का पूरा पालन करनेवाले। १४. कर्म की ओर गौणदृष्टि रखकर ज्ञान को ही प्रधान माननेवाले। १५. ज्ञानाभ्यासी। १६. ज्ञानी जीवन्मुक्त। १७. मोक्ष प्राप्त करानेवाली आत्मविद्या। १८. स्वर्गादिफल देनेवाली कर्मविद्या। १९. खेती-व्यापारादि-सम्बन्धी विद्या। २०. राजनीति। २१. भू:, भुव:, स्व:—ये तीन और चौथी, मह: को मिलाकर, इस प्रकार चार व्याहृतियाँ आश्वलायन ने अपने गृह्यसूत्रों में बतलायी हैं—‘एवं व्याहृतय: प्रोक्ता व्यस्ता: समस्ता:।’ अथवा भू:, भुव:, स्व: और मह:—ये चार व्याहृतियाँ, जैसा कि श्रुति कहती है—‘भूर्भुव: सुवरिति वा एतास्तिस्रो व्याहृतयस्तासामु ह स्मैतां चतुर्थीमाह। वाचमस्य प्रवेदयते मह:’ इत्यादि।
॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥
श्रीशुक उवाच
निशम्य वाचं वदतो मुनेः पुण्यतमां नृप ।
भूयः पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथादृतः ॥ १॥
विदुर उवाच
स वै स्वायंभुवः सम्राट् प्रियः पुत्रः स्वयंभुवः ।
प्रतिलभ्य प्रियां पत्नीं किं चकार ततो मुने ॥ २॥
चरितं तस्य राजर्षेरादिराजस्य सत्तम ।
ब्रूहि मे श्रद्दधानाय विष्वक्सेनाश्रयो ह्यसौ ॥ ३॥
श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य
नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः ।
यत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्दपादारविन्दं
हृदयेषु येषाम् ॥ ४॥
श्रीशुक उवाच
इति ब्रुवाणं विदुरं विनीतं
सहस्रशीर्ष्णश्चरणोपधानम् ।
प्रहृष्टरोमा भगवत्कथायां
प्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥ ५॥
मैत्रेय उवाच
यदा स्वभार्यया साकं जातः स्वायंभुवो मनुः ।
प्राञ्जलिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भमभाषत ॥ ६॥
त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृद्वृत्तिदः पिता ।
अथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत् ॥ ७॥
तद्विधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु ।
यत्कृत्वेह यशो विष्वगमुत्र च भवेद्गतिः ॥ ८॥
ब्रह्मोवाच
प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर ।
यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि मेऽत्यात्मनार्पितम् ॥ ९॥
एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्यपचितिर्गुरौ ।
शक्त्याप्रमत्तैर्गृह्येत सादरं गतमत्सरैः ॥ १०॥
स त्वमस्यामपत्यानि सदृशान्यात्मनो गुणैः ।
उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञैः पुरुषं यज ॥ ११॥
परं शुश्रूषणं मह्यं स्यात्प्रजारक्षया नृप ।
भगवांस्ते प्रजाभर्तुर्हृषीकेशोऽनुतुष्यति ॥ १२॥
येषां न तुष्टो भगवान् यज्ञलिङ्गो जनार्दनः ।
तेषां श्रमो ह्यपार्थाय यदात्मा नादृतः स्वयम् ॥ १३॥
मनुरुवाच
आदेशेऽहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन ।
स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥ १४॥
यदोकः सर्वसत्त्वानां मही मग्ना महांभसि ।
अस्या उद्धरणे यत्नो देव देव्या विधीयताम् ॥ १५॥
मैत्रेय उवाच
परमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम् ।
कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् ॥ १६॥
सृजतो मे क्षितिर्वार्भिः प्लाव्यमाना रसां गता ।
अथात्र किमनुष्ठेयमस्माभिः सर्गयोजितैः ।
यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥ १७॥
इत्यभिध्यायतो नासाविवरात्सहसानघ ।
वराहतोको निरगादङ्गुष्ठपरिमाणकः ॥ १८॥- सगोनासंगो गो
तस्याभिपश्यतः खस्थः क्षणेन किल भारत ।
गजमात्रः प्रववृधे तदद्भुतमभून्महत् ॥ १९॥
मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः कुमारैर्मनुना सह ।
दृष्ट्वा तत्सौकरं रूपं तर्कयामास चित्रधा ॥ २०॥
किमेतत्सौकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम् ।
अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् ॥ २१॥
दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः क्षणाद्गण्डशिलासमः ।
अपि स्विद्भगवानेष यज्ञो मे खेदयन्मनः ॥ २२॥
इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह सूनुभिः ।
भगवान् यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभः ॥ २३॥
ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्च द्विजोत्तमान् ।
स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभुः ॥ २४॥
निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद-
क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।
जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते
त्रिभिः पवित्रैर्मुनयोऽगृणन् स्म ॥ २५॥
तेषां सतां वेदवितानमूर्तिः
ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् ।
विनद्य भूयो विबुधोदयाय
गजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥ २६॥
उत्क्षिप्तवालः खचरः कठोरः
सटा विधुन्वन् खररोमशत्वक् ।
खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षा-
ज्योतिर्बभासे भगवान् महीध्रः ॥ २७॥
घ्राणेन पृथ्व्याः पदवीं विजिघ्रन्
क्रोडापदेशः स्वयमध्वराङ्गः ।
करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्या-
मुद्वीक्ष्य विप्रान् गृणतोऽविशत्कम् ॥ २८॥
स वज्रकूटाङ्गनिपातवेग-
विशीर्णकुक्षिः स्तनयन्नुदन्वान् ।
उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्त-
श्चुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति ॥ २९॥
खुरैः क्षुरप्रैर्दरयंस्तदाप
उत्पारपारं त्रिपरू रसायाम् ।
ददर्श गां तत्र सुषुप्सुरग्रे
यां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥ ३०॥
(पातालमूलेश्वरभोगसंहतौ
विन्यस्य पादौ पृथिवीं च बिभ्रतः ।
यस्योपमानो न बभूव सोऽच्युतो
ममास्तु माङ्गल्यविवृद्धये हरिः ॥)
स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नां
स उत्थितः संरुरुचे रसायाः ।
तत्रापि दैत्यं गदयाऽऽपतन्तं
सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः ॥ ३१॥
जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं
स लीलयेभं मृगराडिवांभसि ।
तद्रक्तपङ्काङ्कितगण्डतुण्डो
यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥ ३२॥
तमालनीलं सितदन्तकोट्या
क्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग ।
प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैः
विरिञ्चिमुख्या उपतस्थुरीशम् ॥ ३३॥
ऋषय ऊचुः
जितं जितं तेऽजितयज्ञभावन
त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वरास्तस्मै
नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४॥
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोमस्वाज्यं
दृशि त्वङ्घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ ३५॥
स्रक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोरिडोदरे
चमसाः कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते
यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६॥
दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं
त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः
सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ ३७॥
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः
संस्था विभेदास्तव देव धातवः ।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धिस्त्वं
सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥ ३८॥
नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवताद्रव्याय
सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।
वैराग्यभक्त्याऽऽत्मजयानुभावितज्ञानाय
विद्यागुरवे नमो नमः ॥ ३९॥
दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता
विराजते भूधर भूः सभूधरा ।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता
मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ४०॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं
भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा
कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ४१॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां
लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता ।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया
यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ४२॥
कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो
रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये
यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥ ४३॥
विधुन्वता वेदमयं निजं वपुः
जनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।
सटाशिखोद्धूतशिवांबुबिन्दुभिः
विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ ४५॥
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते
यः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं
विश्वं समस्तं भगवन् विधेहि शम् ॥ ४५॥
मैत्रेय उवाच
इत्युपस्थीयमानस्तैः मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥ ४६॥
स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः ।
रसाया लीलयोन्नीतामप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥ ४७॥
य एवमेतां हरिमेधसो हरेः
कथां सुभद्रां कथनीयमायिनः ।
शृण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतीं
जनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति ॥ ४८॥
तस्मिन् प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ
किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः
स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥ ४९॥
को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्पुरा
कथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहामहो
विरज्येत विना नरेतरम् ॥ ५०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताभ्यां
तृतीयस्कन्धे वराहप्रादुर्भावानुवर्णने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-तेरहवाँ अध्याय
वाराह अवतार की कथा
श्रीशुकदेवजी ने कहा—राजन् ! मुनिवर मैत्रेयजी के मुख से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुरजी ने फिर पूछा; क्योंकि भगवान की लीला कथा में इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था ॥ १ ॥
विदुरजी ने कहा—मुने ! स्वयम्भू ब्रह्माजी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भुव मनु ने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया ? ॥ २ ॥ आप साधुशिरोमणि हैं ! आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र सुनाइये। वे श्रीविष्णुभगवान के शरणापन्न थे, इसलिये उनका चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है ॥ ३ ॥ जिनके हृदय में श्रीमुकुन्द के चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यासके श्रम का मुख्य फल है, ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत है ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! विदुरजी सहस्रशीर्षा भगवान श्रीहरि के चरणाश्रित भक्त थे। उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान की कथा के लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेय का रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा ॥ ५ ॥
श्रीमैतेयजी बोले—जब अपनी भार्या शतरूपा के साथ स्वायम्भुव मनु का जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रता से हाथ जोडक़र श्रीब्रह्माजी से कहा— ॥ ६ ॥ ‘भगवन् ! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता और जीवि का प्रदान करनेवाले पिता हैं। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके ? ॥ ७ ॥ पूज्यपाद ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हम से हो सक ने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो सके’ ॥ ८ ॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा—तात ! पृथ्वीपते ! तुम दोनों का कल्याण हो। मैं तुम से बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुम ने निष्कपट भाव से ‘मुझे आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है ॥ ९ ॥ वीर ! पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरों के प्रति ईष्र्या का भाव न रखकर जहाँ तक बने, उनकी आज्ञा का आदरपूर्वक सावधानी से पालन करें ॥ १० ॥ तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो ॥ ११ ॥ राजन् ! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान श्रीहरि भी तुम से प्रसन्न होंगे। जिन पर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं ॥ १२-१३ ॥
मनुजी ने कहा—पाप का नाश करनेवाले पिताजी ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये स्थान बतलाइये ॥ १४ ॥ देव ! सब जीवों का निवासस्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिये ॥ १५ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देर तक मन में यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ ॥ १६ ॥ जिस समय मैं लोकरचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल को चली गयी। हमलोग सृष्टिकार्य में नियुक्त हैं, अत: इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके सङ्कल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें’ ॥ १७ ॥
निष्पाप विदुरजी ! ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वराह-शिशु निकला ॥ १८ ॥ भारत ! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वराह-शिशु ब्रह्माजी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षणभर में हाथी के बराबर हो गया ॥ १९ ॥ उस विशाल वराह-मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्माजी तरह-तरह के विचार करने लगे— ॥ २० ॥ अहो ! सूकरके रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है ! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था ॥ २१ ॥ पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान हमलोगों के मन को मोहित कर रहे हैं ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरज ने लगे ॥ २३ ॥ सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को हर्ष से भर दिया ॥ २४ ॥ अपना खेद दूर करनेवाली मायामय वराहभगवान की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोकनिवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥
भगवान के स्वरूप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया है; अत: उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराजकी-सी लीला करते हुए जल में घुस गये ॥ २६ ॥ पहले वे सूकररूप भगवान पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को छितरा ने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़ें सफेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ २७ ॥ भगवान स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकररूप धारण करने के कारण अपने नाक से सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़ें बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करनेवाले मरीचि आदि मुनियों की ओर बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया ॥ २८ ॥ जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की गडग़ड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरङ्गरूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आत्र्तस्वर से ‘हे यज्ञेश्वर ! मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार पुकार रहा है ॥ २९ ॥ तब भगवान यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पै ने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था ॥ ३० ॥
फिर, वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊ पर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्र डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मारकर आया हो ॥ ३१-३२ ॥ तात ! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराहभगवान को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय हो गया कि ये भगवान ही हैं। तब वे हाथ जोडक़र वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥
ऋषियों ने कहा—भगवान अजित् ! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते ! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूकररूप धारण किया है; आपको नमस्कार है ॥ ३४ ॥ देव ! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इस की त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं ॥ ३५ ॥ ईश ! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्रुक् है, नासिकाछिद्रों में स्रुवा है, उदर में इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्मभागपात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है। भगवन् ! आपका जो चबाना है, वही अग्रिहोत्र है ॥ ३६ ॥ बार-बार अवतार लेना यज्ञ स्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति- की इष्टि) हैं; जिह्वा प्रवग्र्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जानेवाला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्रि) और आवसथ्य (औपासनाग्रि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं ॥ ३७ ॥ देव ! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रात:सवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्रिष्टोम, अत्यग्रिष्टोम, उप्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमसहित याग) रूप हैं। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अङ्गों को मिलाये रखनेवाली मांसपेशियाँ हैं ॥ ३८ ॥ समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सब के विद्यागुरु हैं; आपको पुन:-पुन: प्रणाम है ॥ ३९ ॥ पृथ्वी को धारण करनेवाले भगवन् ! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो ॥ ४० ॥ आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है ॥ ४१ ॥ नाथ ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये। आप जगत के पिता हैं और अरणि में अग्रिस्थापन के समान आपने इसमें धारण- शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रभो ! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकाल ने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किन्तु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चर्यमय विश्व की रचना की है ॥ ४३ ॥ जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊ पर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल जल की बूँदें गिरती हैं। ईश ! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहनेवाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं ॥ ४४ ॥ जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है। आपकी ही योगमाया के सत्त्वादि गुणों से यह सारा जगत मोहित हो रहा है। भगवन् ! आप इसका कल्याण कीजिये ॥ ४५ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! उन ब्रह्मवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सब की रक्षा करनेवाले वराहभगवान ने अपने खुरों से जल को स्तम्भितकर उसपर पृथ्वी को स्थापित कर दिया ॥ ४६ ॥ इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ४७ ॥
विदुरजी ! भगवान के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के पाप-तापों को दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मङ्गलमयी मञ्जुल कथा को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान अन्तस्तल से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४८ ॥ भगवान तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥ ४९ ॥ अरे ! संसार में पशुओं को छोडक़र अपने पुरुषार्थ का सार जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देनेवाली भगवान की प्राचीन कथाओं में से किसी भी अमृतमयी कथा का अपने कर्णपुटों से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा ॥ ५० ॥
॥ चतुर्दशोऽध्यायः - १४ ॥
श्रीशुक उवाच
निशम्य कौषारविणोपवर्णितां
हरेः कथां कारणसूकरात्मनः ।
पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताञ्जलि-
र्नचातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥ १॥
विदुर उवाच
तेनैव तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।
आदिदैत्यो हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥ २॥
तस्य चोद्धरतः क्षोणीं स्वदंष्ट्राग्रेण लीलया ।
दैत्यराजस्य च ब्रह्मन् कस्माद्धेतोरभून्मृधः ॥ ३॥
(श्रद्दधानाय भक्ताय ब्रूहि तज्जन्म विस्तरम् ।
ऋषे न तृप्यति मनः परं कौतूहलं हि मे ॥)
मैत्रेय उवाच
साधु वीर त्वया पृष्टमवतारकथां हरेः ।
यत्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम् ॥ ४॥
ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।
मृत्योः कृत्वैव मूर्ध्न्यङ्घ्रिमारुरोह हरेः पदम् ॥ ५॥
अथात्रापीतिहासोऽयं श्रुतो मे वर्णितः पुरा ।
ब्रह्मणा देवदेवेन देवानामनुपृच्छताम् ॥ ६॥
दितिर्दाक्षायणी क्षत्तर्मारीचं कश्यपं पतिम् ।
अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां हृच्छयार्दिता ॥ ७॥
इष्ट्वाग्निजिह्वं पयसा पुरुषं यजुषां पतिम् ।
निम्लोचत्यर्क आसीनमग्न्यगारे समाहितम् ॥ ८॥
दितिरुवाच
एष मां त्वत्कृते विद्वन् काम आत्तशरासनः ।
दुनोति दीनां विक्रम्य रंभामिव मतङ्गजः ॥ ९॥
तद्भवान् दह्यमानायां सपत्नीनां समृद्धिभिः ।
प्रजावतीनां भद्रं ते मय्यायुङ्क्तामनुग्रहम् ॥ १०॥
भर्तर्याप्तोरुमानानां लोकानाविशते यशः ।
पतिर्भवद्विधो यासां प्रजया ननु जायते ॥ ११॥
पुरा पिता नो भगवान् दक्षो दुहितृवत्सलः ।
कं वृणीत वरं वत्सा इत्यपृच्छत नः पृथक् ॥ १२॥
स विदित्वात्मजानां नो भावं सन्तानभावनः ।
त्रयोदशाददात्तासां यास्ते शीलमनुव्रताः ॥ १३॥
अथ मे कुरु कल्याण कामं कञ्जविलोचन ।
आर्तोपसर्पणं भूमन्नमोघं हि महीयसि ॥ १४॥
इति तां वीर मारीचः कृपणां बहुभाषिणीम् ।
प्रत्याहानुनयन् वाचा प्रवृद्धानङ्गकश्मलाम् ॥ १५॥
एष तेऽहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।
तस्याः कामं न कः कुर्यात्सिद्धिस्त्रैवर्गिकी यतः ॥ १६॥
सर्वाश्रमानुपादाय स्वाश्रमेण कलत्रवान् ।
व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम् ॥ १७॥
यामाहुरात्मनो ह्यर्धं श्रेयस्कामस्य मानिनि ।
यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमांश्चरति विज्वरः ॥ १८॥
यामाश्रित्येन्द्रियारातीन् दुर्जयानितराश्रमैः ।
वयं जयेम हेलाभिर्दस्यून् दुर्गपतिर्यथा ॥ १९॥
न वयं प्रभवस्तां त्वामनुकर्तुं गृहेश्वरि ।
अप्यायुषा वा कार्त्स्न्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥ २०॥
अथापि काममेतं ते प्रजात्यै करवाण्यलम् ।
यथा मां नातिरोचन्ति मुहूर्तं प्रतिपालय ॥ २१॥
एषा घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।
चरन्ति यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥ २२॥
एतस्यां साध्वि सन्ध्यायां भगवान् भूतभावनः ।
परीतो भूतपर्षद्भिर्वृषेणाटति भूतराट् ॥ २३॥
श्मशानचक्रानिलधूलिधूम्र-
विकीर्णविद्योतजटाकलापः ।
भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहो
देवस्त्रिभिः पश्यति देवरस्ते ॥ २४॥
न यस्य लोके स्वजनः परो वा
नात्यादृतो नोत कश्चिद्विगर्ह्यः ।
वयं व्रतैर्यच्चरणापविद्धा-
माशास्महेऽजां बत भुक्तभोगाम् ॥ २५॥
यस्यानवद्याचरितं मनीषिणो
गृणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सवः ।
निरस्तसाम्यातिशयोऽपि यत्स्वयं
पिशाचचर्यामचरद्गतिः सताम् ॥ २६॥
हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाः
स्वात्मन् रतस्याविदुषः समीहितम् ।
यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनैः
श्वभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥ २७॥
ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपाला
यत्कारणं विश्वमिदं च माया ।
आज्ञाकरी तस्य पिशाचचर्या
अहो विभूम्नश्चरितं विडंबनम् ॥ २८॥
मैत्रेय उवाच
सैवं संविदिते भर्त्रा मन्मथोन्मथितेन्द्रिया ।
जग्राह वासो ब्रह्मर्षेर्वृषलीव गतत्रपा ॥ २९॥
स विदित्वाथ भार्यायास्तं निर्बन्धं विकर्मणि ।
नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश ह ॥ ३०॥
अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यतः ।
ध्यायञ्जजाप विरजं ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ॥ ३१॥
दितिस्तु व्रीडिता तेन कर्मावद्येन भारत ।
उपसङ्गम्य विप्रर्षिमधोमुख्यभ्यभाषत ॥ ३२॥
दितिरुवाच
मा मे गर्भमिमं ब्रह्मन् भूतानामृषभोऽवधीत् ।
रुद्रः पतिर्हि भूतानां यस्याकरवमंहसम् ॥ ३३॥
नमो रुद्राय महते देवायोग्राय मीढुषे ।
शिवाय न्यस्तदण्डाय धृतदण्डाय मन्यवे ॥ ३४॥
स नः प्रसीदतां भामो भगवानुर्वनुग्रहः ।
व्याधस्याप्यनुकम्प्यानां स्त्रीणां देवः सतीपतिः ॥ ३५॥
मैत्रेय उवाच
स्वसर्गस्याशिषं लोक्यामाशासानां प्रवेपतीम् ।
निवृत्तसन्ध्यानियमो भार्यामाह प्रजापतिः ॥ ३६॥
कश्यप उवाच
अप्रायत्यादात्मनस्ते दोषान् मौहूर्तिकादुत ।
मन्निदेशातिचारेण देवानां चातिहेलनात् ॥ ३७॥
भविष्यतस्तवाभद्रावभद्रे जाठराधमौ ।
लोकान् सपालांस्त्रींश्चण्डि मुहुराक्रन्दयिष्यतः ॥ ३८॥
प्राणिनां हन्यमानानां दीनानामकृतागसाम् ।
स्त्रीणां निगृह्यमाणानां कोपितेषु महात्मसु ॥ ३९॥
तदा विश्वेश्वरः क्रुद्धो भगवान् लोकभावनः ।
हनिष्यत्यवतीर्यासौ यथाद्रीन् शतपर्वधृक् ॥ ४०॥
दितिरुवाच
वधं भगवता साक्षात्सुनाभोदारबाहुना ।
आशासे पुत्रयोर्मह्यं मा क्रुद्धाद्ब्राह्मणाद्विभो ॥ ४१॥
न ब्रह्मदण्डदग्द्धस्य न भूतभयदस्य च ।
नारकाश्चानुगृह्णन्ति यां यां योनिमसौ गतः ॥ ४२॥
कश्यप उवाच
कृतशोकानुतापेन सद्यः प्रत्यवमर्शनात् ।
भगवत्युरुमानाच्च भवे मय्यपि चादरात् ॥ ४३॥
पुत्रस्यैव तु पुत्राणां भवितैकः सतां मतः ।
गास्यन्ति यद्यशः शुद्धं भगवद्यशसा समम् ॥ ४४॥
योगैर्हेमेव दुर्वर्णं भावयिष्यन्ति साधवः ।
निर्वैरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम् ॥ ४५॥
यत्प्रसादादिदं विश्वं प्रसीदति यदात्मकम् ।
स स्वदृग्भगवान् यस्य तोष्यतेऽनन्यया दृशा ॥ ४६॥
स वै महाभागवतो महात्मा
महानुभावो महतां महिष्ठः ।
प्रवृद्धभक्त्या ह्यनुभाविताशये
निवेश्य वैकुण्ठमिमं विहास्यति ॥ ४७॥
अलम्पटः शीलधरो गुणाकरो
हृष्टः परर्द्ध्या व्यथितो दुःखितेषु ।
अभूतशत्रुर्जगतः शोकहर्ता
नैदाघिकं तापमिवोडुराजः ॥ ४८॥
अन्तर्बहिश्चामलमब्जनेत्रं
स्वपूरुषेच्छानुगृहीतरूपम् ।
पौत्रस्तव श्रीललनाललामं
द्रष्टा स्फुरत्कुण्डलमण्डिताननम् ॥ ४९॥
मैत्रेय उवाच
श्रुत्वा भागवतं पौत्रममोदत दितिर्भृशम् ।
पुत्रयोश्च वधं कृष्णाद्विदित्वाऽऽसीन्महामनाः ॥ ५०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे दितिकश्यपसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-चौदहवाँ अध्याय
दिति का गर्भधारण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुख से सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी को पूर्ण तृप्ति न हुई; अत: उन्होंने हाथ जोडक़र फिर पूछा ॥ १ ॥
विदुरजी ने कहा—मुनिवर ! हम ने यह बात आपके मुख से अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्ष को भगवान यज्ञमूर्ति ने ही मारा था ॥ २ ॥ ब्रह्मन् ! जिस समय भगवान लीला से ही अपनी दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जल में से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मुठभेड़ किस कारण हुई ? ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! तुम्हारा प्रश्र बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतार कथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्यों के मृत्युपाश का छेदन करनेवाली है ॥ ४ ॥ देखो, उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरि कथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिर पर पैर रखकर भगवान के परमपद पर आरूढ़ हो गया था ॥ ५ ॥ पूर्वकाल में एक बार इसी वराह- भगवान और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्र करने पर देवदेव श्रीब्रह्माजी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसी के परम्परा से मैंने सुना है ॥ ६ ॥ विदुरजी ! एक बार दक्ष की पुत्री दिति ने पुत्रप्राप्ति की इच्छा से कामातुर होकर सायंकाल के समय ही अपने पति मरीचिनन्दन कश्यपजी से प्रार्थना की ॥ ७ ॥ उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्रिजिह्व भगवान यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त का समय जान अग्रिशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे ॥ ८ ॥
दिति ने कहा—विद्वन् ! मतवाला हाथी जैसे केले के वृक्ष को मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्धर कामदेव मुझ अबला पर जोर जताकर आपके लिये मुझे बेचैन कर रहा है ॥ ९ ॥ अपनी पुत्रवती सौतों की सुख-समृद्धि को देखकर मैं ईष्र्या की आग से जली जाती हूँ। अत: आप मुझ पर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो ॥ १० ॥ जिनके गर्भ से आप-जैसा पति पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियाँ अपने पतियों से सम्मानिता समझी जाती हैं। उनका सुयश संसार में सर्वत्र फैल जाता है ॥ ११ ॥ हमारे पिता प्रजापति दक्ष का अपनी पुत्रियों पर बड़ा स्नेह था। एक बार उन्होंने हम सब को अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ‘तुम कि से अपना पति बनाना चाहती हो ?’ ॥ १२ ॥ वे अपनी सन्तान की सब प्रकार की चिन्ता रखते थे। अत: हमारा भाव जानकर उन्होंने उनमें से हम तेरह पुत्रियों को, जो आपके गुण-स्वभाव के अनुरूप थीं, आपके साथ ब्याह दिया ॥ १३ ॥ अत: मङ्गलमूर्ते ! कमलनयन ! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये; क्योंकि हे महत्तम ! आप-जैसे महापुरुषों के पास दीनजनों का आना निष्फल नहीं होता ॥ १४ ॥
विदुरजी ! दिति कामदेव के वेग से अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी बातें बनाते हुए दीन होकर कश्यपजी से प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा ॥ १५ ॥ ‘भीरु ! तुम्हारी इच्छा के अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, धर्म और काम—तीनों की सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नी की कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? ॥ १६ ॥ जिस प्रकार जहाज पर चढक़र मनुष्य महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रम द्वारा स्वयं भी दु:खसमुद्र के पार हो जाता है ॥ १७ ॥ मानिनि ! स्त्री को तो त्रिविध पुरुषार्थ की कामनावाले पुरुष का आधा अङ्ग कहा गया है। उसपर अपनी गृहस्थी का भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर विचरता है ॥ १८ ॥ इन्द्रियरूप शत्रु अन्य आश्रमवालों के लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लूटनेवाले शत्रुओं को अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नी का आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओं को सहज में ही जीत लेते हैं ॥ १९ ॥ गृहेश्वरि ! तुम-जैसी भार्या के उपकारों का बदला तो हम अथवा और कोई भी गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र में अथवा जन्मान्तर में भी पूर्णरूप से नहीं चु का सकते ॥ २० ॥ तो भी तुम्हारी इस सन्तान-प्राप्ति की इच्छा को मैं यथाशक्ति अवश्य पूर्ण करूँगा। परन्तु अभी तुम एक मुहूत्र्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें ॥ २१ ॥ यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर जीवों का है और देखने में भी बड़ा भयानक है। इसमें भगवान भूतनाथ के गण भूत-प्रेतादि घूमा करते हैं ॥ २२ ॥ साध्वि ! इस सन्ध्याकाल में भूतभावन भूतपति भगवान शङ्कर अपने गण भूत- प्रेतादि को साथ लिये बैल पर चढक़र विचरा करते हैं ॥ २३ ॥ जिनका जटाजूट श्मशानभूमि से उठे हुए बवंडर की धूलि से धूसरित होकर देदीप्यमान हो रहा है तथा जिनके सुवर्ण-कान्तिमय गौर शरीर में भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (श्वशुर) महादेवजी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्रिरूप तीन नेत्रों से सभी को देखते रहते हैं ॥ २४ ॥ संसार में उनका कोई अपना या पराया नहीं है। न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही है। हमलोग तो अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करके उनकी माया को ही ग्रहण करना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भोगकर लात मार दी है ॥ २५ ॥ विवे की पुरुष अविद्या के आवरण को हटा ने की इच्छा से उनके निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं; उनसे बढक़र तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उन तक केवल सत्पुरुषों की ही पहुँच है। यह सब होने पर भी वे स्वयं पिशाचोंका-सा आचरण करते हैं ॥ २६ ॥ यह नरशरीर कुत्तों का भोजन है; जो अविवे की पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादि से इसी को सजाते-सँवारते रहते हैं—वे अभागे ही आत्माराम भगवान शङ्करके आचरण पर हँसते हैं ॥ २७ ॥ हमलोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हीं की बाँधी हुई धर्म-मर्यादा का पालन करते हैं; वे ही इस विश्व के अधिष्ठान हैं तथा यह माया भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करनेवाली है। ऐसे होकर भी वे प्रेतोंका-सा आचरण करते हैं। अहो ! उन जगद्व्यापक प्रभु की यह अद्भुत लीला कुछ समझ में नहीं आती’ ॥ २८ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—पति के इस प्रकार समझाने पर भी कामातुरा दिति ने वेश्या के समान निर्लज्ज होकर ब्रहमर्षि कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया ॥ २९ ॥ तब कश्यपजी ने उस निन्दित कर्म में अपनी भार्या का बहुत आग्रह देख दैव को नमस्कार किया और एकान्त में उसके साथ समागम किया ॥ ३० ॥ फिर जल में स्नानकर प्राण और वाणी का संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसी का जप करने लगे ॥ ३१ ॥ विदुरजी ! दिति को भी उस निन्दित कर्म के कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रहमर्षि के पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कह ने लगी ॥ ३२ ॥
दिति बोलीं—ब्रह्मन् ! भगवान रुद्र भूतों के स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है; किन्तु वे भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें ॥ ३३ ॥ मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेव को नमस्कार करती हूँ। वे सत्पुरुषों के लिये कल्याणकारी एवं दण्ड दे ने के भाव से रहित हैं, किन्तु दुष्टों के लिये क्रोधमूर्ति दण्डपाणि हैं ॥ ३४ ॥ हम स्त्रियों पर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु हैं; अत: वे मुझ पर प्रसन्न हों ॥ ३५ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! प्रजापति कश्यप ने सायंकालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्म से निवृत्त होने पर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तान की लौकिक और पारलौकिक उन्नति के लिये प्रार्थना कर रही है। तब उन्होंने उससे कहा ॥ ३६ ॥
कश्यपजी ने कहा—तुम्हारा चित्त कामवासना से मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुम ने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओं की भी अवहेलना की ॥ ३७ ॥ अमङ्गलमयी चण्डी ! तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमङ्गलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालों को अपने अत्याचारों से रुलायेंगे ॥ ३८ ॥ जब उनके हाथ से बहुत- से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियों पर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओं को क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करनेवाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वतों का दमन करता है, उसी प्रकार उनका वध करेंगे ॥ ३९-४० ॥
दिति ने कहा—प्रभो ! यही मैं भी चाहती हूँ़ कि यदि मेरे पुत्रों का वध हो तो वह साक्षात भगवान चक्रपाणि के हाथ से ही हो, कुपित ब्राह्मणों के शापादि से न हो ॥ ४१ ॥ जो जीव ब्राह्मणों के शाप से दग्ध अथवा प्राणियों को भय देनेवाला होता है, वह किसी भी योनि में जाय—उसपर नारकी जीव भी दया नहीं करते ॥ ४२ ॥
कश्यपजी ने कहा—देवि ! तुम ने अपने किये पर शोक और पश्चातताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचित का विचार भी हो गया तथा भगवान विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है; इसलिये तुम्हारे एक पुत्र के चार पुत्रों में से एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पवित्र यश को भक्तजन भगवान के गुणों के साथ गायेंगे ॥ ४३-४४ ॥ जिस प्रकार खोटे सो ने को बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभाव का अनुकरण करने के लिये निर्वैरता आदि उपायों से अपने अन्त:करण को शुद्ध करेंगे ॥ ४५ ॥ जिनकी कृपा से उन्हीं का स्वरूपभूत यह जगत आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान भी उसकी अनन्य भक्ति से सन्तुष्ट हो जायँगे ॥ ४६ ॥ दिति ! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान पुरुषों का भी पूज्य होगा। तथा प्रौढ़ भक्तिभाव से विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्त:करण में श्रीभगवान को स्थापित करके देहाभिमान को त्याग देगा ॥ ४७ ॥ वह विषयों में अनासक्त, शीलवान्, गुणों का भंडार तथा दूसरों की समृद्धि में सुख और दु:ख में दु:ख माननेवाला होगा। उसका कोई शत्रु न होगा, तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतु के ताप को हर लेता है, वैसे ही वह संसार के शोक को शान्त करनेवाला होगा ॥ ४८ ॥ जो इस संसार के बाहर-भीतर सब ओर विराजमान हैं, अपने भक्तों के इच्छानुसार समय-समय पर मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललना की भी शोभा बढ़ानेवाले हैं, तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलों से सुशोभित है—उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरि का तुम्हारे पौत्र को प्रत्यक्ष दर्शन होगा ॥ ४९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! दिति ने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात श्रीहरि के हाथ से मारे जायँगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ ॥ ५० ॥
॥ पञ्चदशोऽध्यायः - १५ ॥
मैत्रेय उवाच
प्राजापत्यं तु तत्तेजः परतेजोहनं दितिः ।
दधार वर्षाणि शतं शङ्कमाना सुरार्दनात् ॥ १॥
लोके तेन हतालोके लोकपाला हतौजसः ।
न्यवेदयन् विश्वसृजे ध्वान्तव्यतिकरं दिशाम् ॥ २॥
देवा ऊचुः
तम एतद्विभो वेत्थ संविग्ना यद्वयं भृशम् ।
न ह्यव्यक्तं भगवतः कालेनास्पृष्टवर्त्मनः ॥ ३॥
देवदेव जगद्धातर्लोकनाथशिखामणे ।
परेषामपरेषां त्वं भूतानामसि भाववित् ॥ ४॥
नमो विज्ञानवीर्याय माययेदमुपेयुषे ।
गृहीतगुणभेदाय नमस्तेऽव्यक्तयोनये ॥ ५॥
ये त्वानन्येन भावेन भावयन्त्यात्मभावनम् ।
आत्मनि प्रोतभुवनं परं सदसदात्मकम् ॥ ६॥
तेषां सुपक्वयोगानां जितश्वासेन्द्रियात्मनाम् ।
लब्धयुष्मत्प्रसादानां न कुतश्चित्पराभवः ॥ ७॥
यस्य वाचा प्रजाः सर्वा गावस्तन्त्येव यन्त्रिताः ।
हरन्ति बलिमायत्तास्तस्मै मुख्याय ते नमः ॥ ८॥
स त्वं विधत्स्व शं भूमंस्तमसा लुप्तकर्मणाम् ।
अदभ्रदयया दृष्ट्या आपन्नानर्हसीक्षितुम् ॥ ९॥
एष देव दितेर्गर्भ ओजः काश्यपमर्पितम् ।
दिशस्तिमिरयन् सर्वा वर्धतेऽग्निरिवैधसि ॥ १०॥
मैत्रेय उवाच
स प्रहस्य महाबाहो भगवान् शब्दगोचरः ।
प्रत्याचष्टात्मभूर्देवान् प्रीणन् रुचिरया गिरा ॥ ११॥
ब्रह्मोवाच
मानसा मे सुता युष्मत्पूर्वजाः सनकादयः ।
चेरुर्विहायसा लोकाल्लोकेषु विगतस्पृहाः ॥ १२॥
त एकदा भगवतो वैकुण्ठस्यामलात्मनः ।
ययुर्वैकुण्ठनिलयं सर्वलोकनमस्कृतम् ॥ १३॥
वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठमूर्तयः ।
येऽनिमित्तनिमित्तेन धर्मेणाराधयन् हरिम् ॥ १४॥
यत्र चाद्यः पुमानास्ते भगवान् शब्दगोचरः ।
सत्त्वं विष्टभ्य विरजं स्वानां नो मृडयन् वृषः ॥ १५॥
यत्र नैःश्रेयसं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः ।
सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत्कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥ १६॥
वैमानिकाः सललनाश्चरितानि यत्र
गायन्ति यत्र शमलक्षपणानि भर्तुः ।
अन्तर्जलेऽनुविकसन्मधुमाधवीनां
गन्धेन खण्डितधियोऽप्यनिलं क्षिपन्तः ॥ १७॥
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक-
दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।
कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चैः
भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८॥
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण-
पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाताः ।
गन्धेऽर्चिते तुलसिकाभरणेन तस्या
यस्मिंस्तपः सुमनसो बहु मानयन्ति ॥ १९॥
यत्सङ्कुलं हरिपदानतिमात्रदृष्टै-
र्वैदूर्यमारकतहेममयैर्विमानैः ।
येषां बृहत्कटितटाः स्मितशोभिमुख्यः
कृष्णात्मनां न रज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥ २०॥
श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दं
लीलांबुजेन हरिसद्मनि मुक्तदोषा ।
संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्नि
सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्नः ॥ २१॥
वापीषु विद्रुमतटास्वमलामृताप्सु
प्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम् ।
अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य वक्त्र-
मुच्छेषितं भगवतेत्यमताङ्ग यच्छ्रीः ॥ २२॥
यन्न व्रजन्त्यघभिदो रचनानुवादात्
शृण्वन्ति येऽन्यविषयाः कुकथा मतिघ्नीः ।
यास्तु श्रुता हतभगैर्नृभिरात्तसारा-
स्तांस्तान् क्षिपन्त्यशरणेषु तमःसु हन्त ॥ २३॥
येऽभ्यर्थितामपि च नो नृगतिं प्रपन्ना:
ज्ञानं च तत्त्वविषयं सह धर्म यत्र ।
नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्य
सम्मोहिता विततया बत मायया ते ॥ २४॥
यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या
दूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीलाः ।
भर्तुर्मिथः सुयशसः कथनानुराग-
वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गाः ॥ २५॥
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं
दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचिः ।
आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य
योगमायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६॥
तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमानाः
कक्षाः समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य-
केयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ २७॥
मत्तद्विरेफवनमालिकया निवीतौ
विन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।
वक्त्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यां
रक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥ २८॥
द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्ट्वा
पूर्वा यथा पुरटवज्रकपाटिका याः ।
सर्वत्र तेऽविषमया मुनयः स्वदृष्ट्या
ये सञ्चरन्त्यविहता विगताभिशङ्काः ॥ २९॥
तान् वीक्ष्य वातरशनांश्चतुरः कुमारान्
वृद्धान् दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् ।
वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौ
तेजो विहस्य भगवत्प्रतिकूलशीलौ ॥ ३०॥
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमानाः
स्वर्हत्तमा ह्यपि हरेः प्रतिहारपाभ्याम् ।
ऊचुस्सुहृत्तमदिदृक्षितभङ्ग ईषत्
कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षाः ॥ ३१॥
मुनय ऊचुः
को वामिहैत्य भगवत्परिचर्ययोच्चैः
तद्धर्मिणां निवसतां विषमः स्वभावः ।
तस्मिन् प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वां
को वाऽऽत्मवत्कुहकयोः परिशङ्कनीयः ॥ ३२॥
न ह्यन्तरं भगवतीह समस्तकुक्षा-
वात्मानमात्मनि नभो नभसीव धीराः ।
पश्यन्ति यत्र युवयोः सुरलिङ्गिनोः किं
व्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोऽस्य ॥ ३३॥
तद्वाममुष्य परमस्य विकुण्ठ भर्तुः
कर्तुं प्रकृष्टमिह धीमहि मन्दधीभ्याम् ।
लोकानितो व्रजतमन्तरभावदृष्ट्या
पापीयसस्त्रय इमे रिपवोऽस्य यत्र ॥ ३४॥
तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरं
तं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगैः ।
सद्यो हरेरनुचरावुरुबिभ्यतस्तत्
पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥ ३५॥
भूयादघोनि भगवद्भिरकारि दण्डो
यो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् ।
मा वोऽनुतापकलया भगवत्स्मृतिघ्नो
मोहो भवेदिह तु नौ व्रजतोरधोऽधः ॥ ३६॥
एवं तदैव भगवानरविन्दनाभः
स्वानां विबुध्य सदतिक्रममार्यहृद्यः ।
तस्मिन्ययौ परमहंसमहामुनीनां
अन्वेषणीयचरणौ चलयन् सह श्रीः ॥ ३७॥
तं त्वागतं प्रतिहृतौपयिकं स्वपुंभिः
तेऽचक्षताक्षविषयं स्वसमाधिभाग्यम् ।
हंसश्रियोर्व्यजनयोः शिववायुलोल-
च्छुभ्रातपत्रशशिकेसरशीकरांबुम् ॥ ३८॥
कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम-
स्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् ।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया -
स्वश्चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९॥
पीतांशुके पृथु नितंबिनि विस्फुरन्त्या
काञ्च्यालिभिर्विरुतया वनमालया च ।
वल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसे
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥ ४०॥
विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमण्डनार्ह-
गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् ।
दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्यहारेण
कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥ ४१॥
अत्रोपसृष्टमिति चोत्स्मितमिन्दिरायाः
स्वानां धिया विरचितं बहु सौष्ठवाढ्यम् ।
मह्यं भवस्य भवतां च भजन्तमङ्गं
नेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदृशो मुदा कैः ॥ ४२॥
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-
किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां
संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥ ४३॥
ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोश-
मुद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिषः पुनरवेक्ष्य तदीयमङ्घ्रिद्वन्द्वं
नखारुणमणिश्रयणं निदध्युः ॥ ४४॥
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैः
ध्यानास्पदं बहु मतं नयनाभिरामम् ।
पौंस्नं वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धैरौत्पत्तिकैः
समगृणन् युतमष्टभोगैः ॥ ४५॥
कुमारा ऊचुः
योऽन्तर्हितो हृदि गतोऽपि दुरात्मनां त्वं
सोऽद्यैव नो नयनमूलमनन्त राद्धः ।
यर्ह्येव कर्णविवरेण गुहां गतो नः
पित्रानुवर्णितरहा भवदुद्भवेन ॥ ४६॥
तं त्वां विदाम भगवन् परमात्मतत्त्वं
सत्त्वेन सम्प्रति रतिं रचयन्तमेषां ।
तत्तेऽनुतापविदितैर्दृढभक्तियोगै-
रुद्ग्रन्थयो हृदि विदुर्मुनयो विरागाः ॥ ४७॥
नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं
किन्त्वन्यदर्पितभयं भ्रुव उन्नयैस्ते ।
येऽङ्ग त्वदङ्घ्रिशरणा भवतः कथायाः
कीर्तन्यतीर्थयशसः कुशला रसज्ञाः ॥ ४८॥
कामं भवः स्ववृजिनैर्निरयेषु नः
स्ताच्चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत ।
वाचश्च नस्तुलसिवद्यदि तेऽङ्घ्रिशोभाः
पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्ध्रः ॥ ४९॥
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं
तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः ।
तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम
योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीतः ॥ ५०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे जयविजययोः सनकादिशापो नाम
पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध- पंद्रहवाँ अध्याय
जय-विजय को सनकादि का शाप
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! दिति को अपने पुत्रों से देवताओं को कष्ट पहुँच ने की आशङ् का थी, इसलिये उसने दूसरों के तेज का नाश करनेवाले उस कश्यपजी के तेज (वीर्य) को सौ वर्षों तक अपने उदर में ही रखा ॥ १ ॥ उस गर्भस्थ तेज से ही लोकों में सूर्यादि का प्रकाश क्षीण होने लगा तथा इन्द्रादि लोकपाल भी तेजोहीन हो गये। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर कहा कि सब दिशाओं में अन्धकार के कारण बड़ी अव्यवस्था हो रही है ॥ २ ॥
देवताओं ने कहा—भगवन् ! काल आपकी ज्ञानशक्ति को कुण्ठित नहीं कर सकता, इसलिये आप से कोई बात छिपी नहीं है। आप इस अन्धकार के विषय में भी जानते ही होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं ॥ ३ ॥ देवाधिदेव ! आप जगत के रचयिता और समस्त लोकपालों के मुकुटमणि हैं। आप छोटे-बड़े सभी जीवों का भाव जानते हैं ॥ ४ ॥ देव ! आप विज्ञानबलसम्पन्न हैं; आपने माया से ही यह चतुर्मुख रूप और रजोगुण स्वीकार किया है; आपकी उत्पत्ति के वास्तविक कारण को कोई नहीं जान सकता। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ५ ॥ आप में सम्पूर्ण भुवन स्थित हैं, कार्य-कारणरूप सारा प्रपञ्च आपका शरीर है; किन्तु वास्तव में आप इससे परे हैं। जो समस्त जीवों के उत्पत्तिस्थान आपका अनन्य भाव से ध्यान करते हैं, उन सिद्ध योगियों का किसी प्रकार भी ह्रास नहीं हो सकता; क्योंकि वे आपके कृपाकटाक्ष से कृतकृत्य हो जाते हैं तथा प्राण, इन्ङ्क्षद्रय और मन को जीत लेने के कारण उनका योग भी परिपक्व हो जाता है ॥ ६-७ ॥ रस्सी से बँधे हुए बैलों की भाँति आपकी वेदवाणी से जकड़ी हुई सारी प्रजा आपकी अधीनता में नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान करके आपको बलि समर्पित करती है। आप सब के नियन्ता मुख्य प्राण हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ भूमन् ! इस अन्धकार के कारण दिन-रात का विभाग अस्पष्ट हो जाने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे वे दुखी हो रहे हैं; उनका कल्याण कीजिये और हम शरणागतों की ओर अपनी अपार दयादृष्टि से निहारिये ॥ ९ ॥ देव ! आग जिस प्रकार र्ईंधन में पडक़र बढ़ती रहती है, उसी प्रकार कश्यपजी के वीर्य से स्थापित हुआ यह दिति का गर्भ सारी दिशाओं को अन्धकारमय करता हुआ क्रमश: बढ़ रहा है ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—महाबाहो ! देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान ब्रह्माजी हँ से और उन्हें अपनी मधुर वाणी से आनन्दित करते हुए कह ने लगे ॥ ११ ॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा—देवताओ ! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानसपुत्र सनकादि लोकों की आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाशमार्ग से विचरा करते थे ॥ १२ ॥ एक बार वे भगवान विष्णु के शुद्ध-सत्त्वमय सब लोकों के शिरोभाग में स्थित, वैकुण्ठधाम में जा पहुँचे ॥ १३ ॥ वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और वह प्राप्त भी उन्हीं को होता है, जो अन्य सब प्रकार की कामनाएँ छोडक़र केवल भगवच्चरण-शरण की प्राप्ति के लिये ही अपने धर्म द्वारा उनकी आराधना करते हैं ॥ १४ ॥ वहाँ वेदान्तप्रतिपाद्य धर्ममूर्ति श्रीआदिनारायण हम अपने भक्तों को सुख दे ने के लिये शुद्धसत्त्वमय स्वरूप धारणकर हर समय विराजमान रहते हैं ॥ १५ ॥ उस लोक में नै:श्रेयस नाम का एक वन है, जो मूर्तिमान् कैवल्य-सा ही जान पड़ता है। वह सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले वृक्षों से सुशोभित है, जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न रहते हैं ॥ १६ ॥
वहाँ विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओं के सहित अपने प्रभु की पवित्र लीलाओं का गान करते रहते हैं, जो लोगों की सम्पूर्ण पापराशि को भस्म कर देनेवाली हैं। उस समय सरोवरों में खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लता की सुमधुर गन्ध उनके चित्त को अपनी ओर खींचना चाहती है; परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वरं उस गन्ध को उड़ाकर लानेवाले वायु को ही बुरा-भला कहते हैं ॥ १७ ॥ जिस समय भ्रमरराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरि कथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का कोलाहल बंद हो जाता है—मानो वे भी उस कीर्तनानन्द में बेसुध हो जाते हैं ॥ १८ ॥ श्रीहरि तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्ध का ही अधिक आदर करते हैं—यह देखकर वहाँ के मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलकवृक्ष), उत्पल (रात्रि में खिलनेवाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिन में खिलनेवाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होने पर भी तुलसी का ही तप अधिक मानते हैं ॥ १९ ॥ वह लोक वैदूर्य, मरकत-मणि (पन्ने) और सुवर्ण के विमानों से भरा हुआ है। ये सब किसी कर्मफल से नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरि के पादपद्मों की वन्दना करने से ही प्राप्त होते हैं। उन विमानों पर चढ़े हुए कृष्णप्राण भगवद्भक्तों के चित्तों में बड़े-बड़े नितम्बोंवाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी मन्द मुसकान एवं मनोहर हास-परिहास से कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं ॥ २० ॥
परम सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मीजी, जिनकी कृपा प्राप्त करने के लिये देवगण भी यत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवन में चञ्चलतारूप दोष को त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरण-कमलों के नूपुरों की झनकार करती हुई वे अपना लीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवन की स्फटिकमय दीवारों में उनका प्रतिबिम्ब पडऩे से ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें बुहार रही हों ॥ २१ ॥ प्यारे देवताओ ! जिस समय दासियों को साथ लिये वे अपने क्रीडावन में तुलसीदल द्वारा भगवान का पूजन करती हैं, तब वहाँ के निर्मल जल से भरे हुए सरोवरों में, जिन में मूँगे के घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर अलकावली और उन्नत नासिका से सुशोभित मुखारविन्द देखकर ‘यह भगवान का चुम्बन किया हुआ है’ यों जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती हैं ॥ २२ ॥ जो लोग भगवान की पापापहारिणी लीला कथाओं को छोडक़र बुद्धि को नष्ट करनेवाली अर्थ- कामसम्बन्धिनी अन्य निन्दित कथाएँ सुनते हैं, वे उस वैकुण्ठलोक में नहीं जा सकते। हाय ! जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातों को सुनते हैं, तब ये उनके पुण्यों को नष्टकर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकों में डाल देती हैं ॥ २३ ॥ अहा ! इस मनुष्ययोनि की बड़ी महिमा है, हम देवतालोग भी इस की चाह करते हैं। इसी में तत्त्वज्ञान और धर्म की भी प्राप्ति हो सकती है। इसे पाकर भी जो लोग भगवान की आराधना नहीं करते, वे वास्तव में उनकी सर्वत्र फैली हुई माया से ही मोहित हैं ॥ २४ ॥ देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन करते रहने के कारण जिन से यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभु के सुयश की चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह ने लगती है तथा शरीर में रोमाञ्च हो जाता है और जिनके- से शील-स्वभाव की हमलोग भी इच्छा करते हैं—वे परमभागवत ही हमारे लोकों से ऊ पर उस वैकुण्ठधाम में जाते हैं ॥ २५ ॥ जिस समय सनकादि मुनि विश्वगुरु श्रीहरि के निवासस्थान, सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानों से विभूषित उसपर म दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ ॥ २६ ॥
भगवद्दर्शन की लालसा से अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठधाम की छ: ड्यौढिय़ाँ पार करके जब वे सातवीं पर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयुवाले देवश्रेष्ठ दिखलायी दिये—जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणों से अलङ्कृत थे ॥ २७ ॥ उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच में मतवाले मधुकरों से गुञ्जायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाँ की भौंहें, फडक़ते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनों के कारण उनके चेहरे पर कुछ क्षोभके- से चिह्न दिखायी दे रहे थे ॥ २८ ॥ उनके इस प्रकार देखते रहने पर भी वे मुनिगण उनसे बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ों से युक्त पहली छ: ड्यौढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वार में भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और वे नि:शङ्क होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोक के विचरते थे ॥ २९ ॥ वे चारों कुमार पूर्ण तत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्मा की सृष्टि में आयु में सब से बड़े होने पर भी देखने में पाँच वर्ष के बालकों- से जान पड़ते थे और दिगम्बर-वृत्ति से (नंग-धड़ंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार नि:सङ् कोचरूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालों ने भगवान के शील-स्वभाव के विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुव्र्यवहार के योग्य नहीं थे ॥ ३० ॥ जब उन द्वारपालों ने वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्र पडऩे के कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कह ने लगे ॥ ३१ ॥
मुनियों ने कहा—अरे द्वारपालो ! जो लोग भगवान की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हीं में से हो, किन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है ? भगवान तो परम शान्तस्वभाव हैं, उनका किसी से विरोध भी नहीं है; फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिस पर शङ् का की जा सके ? तुम स्वयं कपटी हो, इसीसे अपने ही समान दूसरों पर शङ् का करते हो ॥ ३२ ॥ भगवान के उदर में यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है; इसलिये यहाँ रहनेवाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरि से अपना कोई भेद नहीं देखते, बल्कि महाकाश में घटाकाश की भाँति उनमें अपना अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देव-रूपधारी हो; फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुम ने भगवान के साथ कुछ भेदभाव के कारण होनेवाले भय की कल्पना कर ली ॥ ३३ ॥ तुम हो तो इन भगवान वैकुण्ठनाथ के पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा कल्याण करने के लिये हम तुम्हारे अपराध के योग्य दण्ड का विचार करते हैं। तुम अपनी भेदबुद्धि के दोष से इस वैकुण्ठलोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ, जहाँ काम, क्रोध, लोभ—प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं ॥ ३४ ॥
सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होनेयोग्य न जानकर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकडक़र पृथ्वी पर लोट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं ॥ ३५ ॥ फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा—‘भगवन् ! हम अवश्य अपराधी हैं; अत: आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हम ने भगवान का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्ड से सर्वथा धुल जायगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जाने पर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट करनेवाला मोह न प्राप्त हो ॥ ३६ ॥
इधर जब साधुजनों के हृदयधन भगवान कमलनाभ को मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालों ने सनकादि साधुओं का अनादर किया है, तब वे लक्ष्मीजी के सहित अपने उन्हीं श्रीचरणों से चलकर ही, वहाँ पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन भी ढूँढ़ते रहते हैं—सहज में पाते नहीं, ॥ ३७ ॥ सनकादि ने देखा कि उनकी समाधि के विषय श्रीवैकुण्ठनाथ स्वयं उनके नेत्रगोचर होकर पधारे हैं, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चामरादि लिये चल रहे हैं तथा प्रभु के दोनों ओर राजहंसके पंखों के समान दो श्वेत चँवर डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायु से उनके श्वेत छत्र में लगी हुई मोतियों की झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही है मानो चन्द्रमा की किरणों से अमृत की बूँदें झर रही हों ॥ ३८ ॥ प्रभु समस्त सद्गुणों के आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे हैं। अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्ष:स्थल पर स्वर्णरेखा के रूप में जो साक्षात लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूडामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे ॥ ३९ ॥ उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन पह ने अपना एक हाथ गरुडज़ी के कंधे पर रख दूसरे से कमल का पुष्प घुमा रहे थे ॥ ४० ॥ उनके अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजानेवाले मकराकृति कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई सुघड़ नासि का थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिर पर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभमणि की अपूर्व शोभा थी ॥ ४१ ॥ भगवान का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तों के मन में ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने लक्ष्मीजी का सौन्दर्याभिमान भी गलित हो गया है। ब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ ! इस प्रकार मेरे, महादेवजी के और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करनेवाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे ॥ ४२ ॥
सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्मन रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान कमलनयन के चरणारविन्दमकरन्द से मिली हुई तुलसीमञ्जरी के गन्ध से सुवासित वायु ने नासिका- रन्ध्रों के द्वारा उनके अन्त:करण में प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीर को सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मन में भी खलबली पैदा कर दी ॥ ४३ ॥ भगवान का मुख नील कमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हास से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँ की करके वे कृतकृत्य हो गये। और फिर पद्मराग के समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे ॥ ४४ ॥ इसके पश्चात वे मुनिगण अन्य साधनों से सिद्ध न होनेवाली, स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न श्रीहरि की स्तुति करने लगे—जो योगमार्ग द्वारा मोक्षपद की खोज करनेवाले पुरुषों के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की वृद्धि करनेवाला पुरुषरूप प्रकट करते हैं ॥ ४५ ॥
सनकादि मुनियों ने कहा—अनन्त ! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूप से दुष्टचित्त पुरुषों के हृदय में भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। किन्तु आज हमारे नेत्रों के सामने तो आप साक्षात विराजमान हैं। प्रभो ! जिस समय आप से उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्माजी ने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणरन्ध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे; किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है ॥ ४६ ॥ भगवन् ! हम आपको साक्षात परमात्मतत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध सत्त्वमय विग्रह से अपने इन भक्तों को आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार मूर्ति को राग और अहंकार से मुक्त मुनिजन आपकी कृपादृष्टि से प्राप्त हुए सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा अपने हृदय में उपलब्ध करते हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तनीय और सांसारिक दु:खों की निवृत्ति करनेवाला है। आपके चरणों की शरण में रहनेवाले जो महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपद को भी कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन इन्द्रपद आदि अन्य भोगों के विषय में तो कहना ही क्या है ॥ ४८ ॥ भगवन् ! यदि हमारा चित्त भौंरे की तरह आपके चरण-कमलों में ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसी के समान आपके चरण-सम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधा से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियों में हो जाय—इस की हमें कोई चिन्ता नहीं है ॥ ४९ ॥ विपुलकीर्ति प्रभो ! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात भगवान हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं ॥ ५० ॥
॥ षोडशोऽध्यायः - १६ ॥
ब्रह्मोवाच
इति तद्गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम् ।
प्रतिनन्द्य जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः ॥ १॥
श्रीभगवानुवाच
एतौ तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च ।
कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम् ॥ २॥
यस्त्वेतयोर्धृतो दण्डो भवद्भिर्मामनुव्रतैः ।
स एवानुमतोऽस्माभिर्मुनयो देवहेलनात् ॥ ३॥
तद्वः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवं परं हि मे ।
तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुंभिरसत्कृताः ॥ ४॥
यन्नामानि च गृह्णाति लोको भृत्ये कृतागसि ।
सोऽसाधुवादस्तत्कीर्तिं हन्ति त्वचमिवामयः ॥ ५॥
यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः
सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः ।
सोऽहं भवद्भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्ति-
श्छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥ ६॥
यत्सेवया चरणपद्मपवित्ररेणुं
सद्यः क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम् ।
न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्याः
प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान् वहन्ति ॥ ७॥
नाहं तथाद्मि यजमानहविर्विताने
श्च्योतद्घृतप्लुतमदन् हुतभुङ्मुखेन ।
यद्ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥ ८॥
येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग-
मायाविभूतिरमलाङ्घ्रिरजःकिरीटैः ।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः
सद्यः पुनाति सह चन्द्रललाम लोकान् ॥ ९॥
ये मे तनूर्द्विजवरान् दुहतीर्मदीया
भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या ।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतदृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतुः ॥ १०॥
ये ब्राह्मणान् मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्तः
तुष्यद्धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः ।
वाण्यानुरागकलयाऽऽत्मजवद्गृणन्तः
संबोधयन्त्यहमिवाहमुपाहृतस्तैः ॥ ११॥
तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौ
युष्मद्व्यतिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्यः ।
भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मे
यत्कल्पतामचिरतो भृतयोर्विवासः ॥ १२॥
ब्रह्मोवाच
अथ तस्योशतीं देवीमृषिकुल्यां सरस्वतीम् ।
नास्वाद्य मन्युदष्टानां तेषामात्माप्यतृप्यत ॥ १३॥
सतीं व्यादाय शृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्वराम् ।
विगाह्यागाधगंभीरां न विदुस्तच्चिकीर्षितम् ॥ १४॥
ते योगमाययाऽऽरब्धपारमेष्ठ्यमहोदयम् ।
प्रोचुः प्राञ्जलयो विप्राः प्रहृष्टाः क्षुभितत्वचः ॥ १५॥
ऋषय ऊचुः
न वयं भगवन् विद्मस्तव देव चिकीर्षितम् ।
कृतो मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्षः प्रभाषसे ॥ १६॥
ब्रह्मण्यस्य परं दैवं ब्राह्मणाः किल ते प्रभो ।
विप्राणां देवदेवानां भगवानात्मदैवतम् ॥ १७॥
त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव ।
धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ॥ १८॥
तरन्ति ह्यञ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात् ।
योगिनः स भवान् किं स्विदनुगृह्येत यत्परैः ॥ १९॥
यं वै विभूतिरुपयात्यनुवेलमन्यै-
रर्थार्थिभिः स्वशिरसा धृतपादरेणुः ।
धन्यार्पिताङ्घ्रितुलसी नवदामधाम्नो
लोकं मधुव्रतपतेरिव कामयाना ॥ २०॥
यस्तां विविक्तचरितैरनुवर्तमानां
नात्याद्रियत्परमभागवतप्रसङ्गः ।
स त्वं द्विजानुपथपुण्यरजःपुनीतः
श्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम् ॥ २१॥
धर्मस्य ते भगवतस्त्रियुग त्रिभिः स्वैः
पद्भिश्चराचरमिदं द्विजदेवतार्थम् ।
नूनं भृतं तदभिघाति रजस्तमश्च
सत्त्वेन नो वरदया तनुवा निरस्य ॥ २२॥
न त्वं द्विजोत्तमकुलं यदि हात्मगोपं
गोप्ता वृषः स्वर्हणेन स सूनृतेन ।
तर्ह्येव नङ्क्ष्यति शिवस्तव देव पन्था
लोकोऽग्रहीष्यदृषभस्य हि तत्प्रमाणम् ॥ २३॥
तत्तेऽनभीष्टमिव सत्त्वनिधेर्विधित्सोः
क्षेमं जनाय निजशक्तिभिरुद्धृतारेः ।
नैतावता त्र्यधिपतेर्बत विश्वभर्तुः
तेजः क्षतं त्ववनतस्य स ते विनोदः ॥ २४॥
यं वानयोर्दममधीश भवान् विधत्ते
वृत्तिं नु वा तदनुमन्महि निर्व्यलीकम् ।
अस्मासु वा य उचितो ध्रियतां स दण्डो
येनागसौ वयमयुङ्क्ष्महि किल्बिषेण ॥ २५॥
श्रीभगवानुवाच
एतौ सुरेतरगतिं प्रतिपद्य सद्यः
संरंभसंभृतसमाध्यनुबद्धयोगौ ।
भूयः सकाशमुपयास्यत आशु यो वः
शापो मयैव निमितस्तदवैत विप्राः ॥ २६॥
ब्रह्मोवाच
अथ ते मुनयो दृष्ट्वा नयनानन्दभाजनम् ।
वैकुण्ठं तदधिष्ठानं विकुण्ठं च स्वयंप्रभम् ॥ २७॥
भगवन्तं परिक्रम्य प्रणिपत्यानुमान्य च ।
प्रतिजग्मुः प्रमुदिताः शंसन्तो वैष्णवीं श्रियम् ॥ २८॥
भगवाननुगावाह यातं मा भैष्टमस्तु शम् ।
ब्रह्मतेजः समर्थोऽपि हन्तुं नेच्छे मतं तु मे ॥ २९॥
एतत्पुरैव निर्दिष्टं रमया क्रुद्धया यदा ।
पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते ॥ ३०॥
मयि संरंभयोगेन निस्तीर्य ब्रह्महेलनम् ।
प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः ॥ ३१॥
द्वाःस्थावादिश्य भगवान् विमानश्रेणिभूषणम् ।
सर्वातिशयया लक्ष्म्या जुष्टं स्वं धिष्ण्यमाविशत् ॥ ३२॥
तौ तु गीर्वाणऋषभौ दुस्तराद्धरिलोकतः ।
हतश्रियौ ब्रह्मशापादभूतां विगतस्मयौ ॥ ३३॥
तदा विकुण्ठधिषणात्तयोर्निपतमानयोः ।
हाहाकारो महानासीद्विमानाग्र्येषु पुत्रकाः ॥ ३४॥
तावेव ह्यधुना प्राप्तौ पार्षदप्रवरौ हरेः ।
दितेर्जठरनिर्विष्टं काश्यपं तेज उल्बणम् ॥ ३५॥
तयोरसुरयोरद्य तेजसा यमयोर्हि वः ।
आक्षिप्तं तेज एतर्हि भगवांस्तद्विधित्सति ॥ ३६॥
विश्वस्य यः स्थितिलयोद्भवहेतुराद्यो
योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमायः ।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीशः
तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थः ॥ ३७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय
जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन
श्रीब्रह्माजी ने कहा—देवगण ! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियों ने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा—मुनिगण ! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्हों ने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया है ॥ २ ॥ आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अत: इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है ॥ ३ ॥ ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरों के द्वारा आपलोगों का जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आपलोगों से प्रसन्नता की भिक्षा माँगता हूँ ॥ ४ ॥ सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचा को चर्मरोग ॥ ५ ॥ मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगा ने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आपलोगों से ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा ही क्यों न हो—मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा ॥ ६ ॥ आपलोगों की सेवा करने से ही मेरी चरण-रज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहने पर भी लक्ष्मीजी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़तीं—यद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं ॥ ७ ॥ जो अपने सम्पूर्ण कर्मफल मुझे अर्पणकर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रास पर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुख से मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञ में अग्रिरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियों को ग्रहण करके नहीं होता ॥ ८ ॥ योगमाया का अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गङ्गाजी चन्द्रमा को मस् तक पर धारण करनेवाले भगवान शङ्करके सहित समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा ॥ ९ ॥ ब्राह्मण, दूध देनेवाली गौएँ और अनाथ प्राणी—ये मेरे ही शरीर हैं। पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझ से भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध्र-जैसे दूत—जो सर्प के समान क्रोधी हैं—अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचों से नोचते हैं ॥ १० ॥ ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना करके प्रसन्नचित्त से तथा अमृतभरी मुसकान से युक्त मुखकमल से उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिता को पुत्र और आपलोगों को मैं मनाता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनों से प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वश में कर लेते हैं ॥ ११ ॥ मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आपलोगों का अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोध से आपकेवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासनकाल शीघ्र ही समाप्त हो जाय, ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें ॥ १२ ॥
श्रीब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ ! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से ड से हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्त:करण को प्रकाशित करनेवाली भगवान की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ ॥ १३ ॥ भगवान की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरोंवाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करने पर भी वे यह न जान सके कि भगवान क्या करना चाहते हैं ॥ १४ ॥ भगवान की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया। फिर योगमाया के प्रभाव से अपने परम ऐश्वर्य का प्रभाव प्रकट करनेवाले प्रभु से वे हाथ जोडक़र कह ने लगे ॥ १५ ॥
मुनियों ने कहा—स्वप्रकाश भगवन् ! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है—यह हम नहीं जान सके हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आप ब्राह्मणों के परम हितकारी हैं; इससे लोक-शिक्षा के लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुत: तो ब्राह्मण तथा देवताओं के भी देवता ब्रह्मादि के भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं ॥ १७ ॥ सनातनधर्म आप से ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारों द्वारा ही समय-समय पर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकार स्वरूप आप ही धर्म के परम गुह्य रहस्य हैं—यह शास्त्रों का मत है ॥ १८ ॥ आपकी कृपा से निवृत्तिपरायण योगिजन सहज में ही मृत्युरूप संसार-सागर से पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आप पर क्या कृपा कर सकता है ॥ १९ ॥ भगवन् ! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरण-रज को सर्वदा अपने मस् तक पर धारण करते हैं, वे लक्ष्मीजी निरन्तर आपकी सेवा में लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणों पर जो नूतन तुलसी की मालाएँ अर्पण करते हैं, उन पर गुंजार करते हुए भौंरों के समान वे भी आपके पादपद्मों को ही अपना निवासस्थान बनाना चाहती हैं ॥ २० ॥ किन्तु अपने पवित्र चरित्रों से निरन्तर सेवा में तत्पर रहनेवाली उन लक्ष्मीजी का भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तों से ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणों के आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणों के चरणों में लग ने से पवित्र हुई मार्ग की धूलि और श्रीवत्स का चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं ? क्या इन से आपकी शोभा बढ़ सकती है ? ॥ २१ ॥
भगवन् ! आप साक्षात धर्म स्वरूप हैं। आप सत्यादि तीनों युगों में प्रत्यक्षरूप से विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओं के लिये तप, शौच और दया—अपने इन तीन चरणों से इस चराचर जगत की रक्षा करते हैं। अब आप अपनी शुद्धसत्त्वमयी वरदायिनी मूर्ति से हमारे धर्मविरोधी रजोगुण-तमोगुण को दूर कर दीजिये ॥ २२ ॥ देव ! यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है। यदि साक्षात धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादि के द्वारा इस उत्तम कुल की रक्षा न करें तो आपका निश्चित किया हुआ कल्याणमार्ग ही नष्ट हो जाय; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण को ही प्रमाणरूप से ग्रहण करता है ॥ २३ ॥ प्रभो ! आप सत्त्वगुण की खान हैं और सभी जीवों का कल्याण करने के लिये उत्सुक हैं। इसीसे आप अपनी शक्तिरूप राजा आदि के द्वारा धर्म के शत्रुओं का संहार करते हैं; क्योंकि वेदमार्ग का उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप त्रिलोकीनाथ और जगतप्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणों के प्रति इत ने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेज की कोई हानि नहीं होती; यह तो आपकी लीलामात्र है ॥ २४ ॥ सर्वेश्वर ! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें, अथवा पुरस्काररूप में इन की वृत्ति बढ़ा दें—हम निष्कपट भाव से सब प्रकार आप से सहमत हैं। अथवा हम ने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिये हमीं को उचित दण्ड दें; हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है ॥ २५ ॥
श्रीभगवान ने कहा—मुनिगण ! आपने इन्हें जो शाप दिया है—सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनि को प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण सुदृढ़ योगसम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे ॥ २६ ॥
श्रीब्रह्माजी कहते हैं—तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने नयनाभिराम भगवान विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठ-धाम के दर्शन करके प्रभु की परिक्रमा की और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँ से लौट गये ॥ २७-२८ ॥ फिर भगवान ने अपने अनुचरों से कहा, ‘जाओ, मन में किसी प्रकार का भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा। मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्मतेज को मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है ॥ २९ ॥ एक बार जब मैं योगनिद्रा में स्थित हो गया था, तब तुम ने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मीजी को रो का था। उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया था ॥ ३० ॥ अब दैत्ययोनि में मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहने से तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र- तिरस्कारजनित पाप से मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समय में मेरे पास लौट आओगे ॥ ३१ ॥ द्वारपालों को इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान ने विमानों की श्रेणियों से सुसज्जित अपने सर्वाधिक श्रीसम्पन्न धाम में प्रवेश किया ॥ ३२ ॥ वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्मशाप के कारण उस अलङ्घनीय भगवद्धाम में ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया ॥ ३३ ॥ पुत्रो ! फिर जब वे वैकुण्ठलोक से गिर ने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानों पर बैठे हुए वैकुण्ठवासियों में महान हाहाकार मच गया ॥ ३४ ॥ इस समय दिति के गर्भ में स्थित जो कश्यपजी का उग्र तेज है, उसमें भगवान के उन पार्षदप्रवरों ने ही प्रवेश किया है ॥ ३५ ॥ उन दोनों असुरों के तेज से ही तुम सब का तेज फी का पड़ गया है। इस समय भगवान ऐसा ही करना चाहते हैं ॥ ३६ ॥ जो आदिपुरुष संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं, जिनकी योगमाया को बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी कठिनता से पार कर पाते हैं—वे सत्त्वादि तीनों गुणों के नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे। अब इस विषय में हमारे विशेष विचार करने से क्या लाभ हो सकता है ॥ ३७ ॥
॥ सप्तदशोऽध्यायः - १७ ॥
मैत्रेय उवाच
निशम्यात्मभुवा गीतं कारणं शङ्कयोज्झिताः ।
ततः सर्वे न्यवर्तन्त त्रिदिवाय दिवौकसः ॥ १॥
दितिस्तु भर्तुरादेशादपत्यपरिशङ्किनी ।
पूर्णे वर्षशते साध्वी पुत्रौ प्रसुषुवे यमौ ॥ २॥
उत्पाता बहवस्तत्र निपेतुर्जायमानयोः ।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च लोकस्योरुभयावहाः ॥ ३॥
सहाचला भुवश्चेलुर्दिशः सर्वाः प्रजज्वलुः ।
सोल्काश्चाशनयः पेतुः केतवश्चार्तिहेतवः ॥ ४॥
ववौ वायुः सुदुःस्पर्शः फूत्कारानीरयन् मुहुः ।
उन्मूलयन्नगपतीन् वात्यानीको रजोध्वजः ॥ ५॥
उद्धसत्तडिदंभोदघटया नष्टभागणे ।
व्योम्नि प्रविष्टतमसा न स्म व्यादृश्यते पदम् ॥ ६॥
चुक्रोश विमना वार्धिरुदूर्मिः क्षुभितोदरः ।
सोदपानाश्च सरितश्चुक्षुभुः शुष्कपङ्कजाः ॥ ७॥
मुहुः परिधयोऽभूवन् सराह्वोः शशिसूर्ययोः ।
निर्घाता रथनिर्ह्रादा विवरेभ्यः प्रजज्ञिरे ॥ ८॥
अन्तर्ग्रामेषु मुखतो वमन्त्यो वह्निमुल्बणम् ।
सृगालोलूकटङ्कारैः प्रणेदुरशिवं शिवाः ॥ ९॥
सङ्गीतवद्रोदनवदुन्नमय्य शिरोधराम् ।
व्यमुञ्चन् विविधा वाचो ग्रामसिंहास्ततस्ततः ॥ १०॥
खराश्च कर्कशैः क्षत्तः खुरैर्घ्नन्तो धरातलम् ।
खार्काररभसा मत्ताः पर्यधावन् वरूथशः ॥ ११॥
रुदन्तो रासभत्रस्ता नीडादुदपतन् खगाः ।
घोषेऽरण्ये च पशवः शकृन्मूत्रमकुर्वत ॥ १२॥
गावोऽत्रसन्नसृग्दोहास्तोयदाः पूयवर्षिणः ।
व्यरुदन् देवलिङ्गानि द्रुमाः पेतुर्विनानिलम् ॥ १३॥
ग्रहान् पुण्यतमानन्ये भगणांश्चापि दीपिताः ।
अतिचेरुर्वक्रगत्या युयुधुश्च परस्परम् ॥ १४॥
दृष्ट्वान्यांश्च महोत्पातानतत्तत्त्वविदः प्रजाः ।
ब्रह्मपुत्रान् ऋते भीता मेनिरे विश्वसम्प्लवम् ॥ १५॥
तावादिदैत्यौ सहसा व्यज्यमानात्मपौरुषौ ।
ववृधातेऽश्मसारेण कायेनाद्रिपती इव ॥ १६॥
दिविस्पृशौ हेमकिरीटकोटिभिः
निरुद्धकाष्ठौ स्फुरदङ्गदा भुजौ ।
गां कम्पयन्तौ चरणैः पदे पदे
कट्या सुकाञ्च्यार्कमतीत्य तस्थतुः ॥ १७॥
प्रजापतिर्नाम तयोरकार्षीद्यः
प्राक् स्वदेहाद्यमयोरजायत ।
तं वै हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजा
यं तं हिरण्याक्षमसूत साग्रतः ॥ १८॥
चक्रे हिरण्यकशिपुर्दोर्भ्यां ब्रह्मवरेण च ।
वशे सपालान् लोकांस्त्रीनकुतोमृत्युरुद्धतः ॥ १९॥
हिरण्याक्षोऽनुजस्तस्य प्रियः प्रीतिकृदन्वहम् ।
गदापाणिर्दिवं यातो युयुत्सुर्मृगयन् रणम् ॥ २०॥
तं वीक्ष्य दुःसहजवं रणत्काञ्चननूपुरम् ।
वैजयन्त्या स्रजा जुष्टमंसन्यस्तमहागदम् ॥ २१॥
मनोवीर्यवरोत्सिक्तमसृण्यमकुतोभयम् ।
भीता निलिल्यिरे देवास्तार्क्ष्यत्रस्ता इवाहयः ॥ २२॥
स वै तिरोहितान् दृष्ट्वा महसा स्वेन दैत्यराट् ।
सेन्द्रान् देवगणान् क्षीबानपश्यन् व्यनदद्भृशम् ॥ २३॥
ततो निवृत्तः क्रीडिष्यन् गंभीरं भीमनिःस्वनम् ।
विजगाहे महासत्त्वो वार्धिं मत्त इव द्विपः ॥ २४॥
तस्मिन् प्रविष्टे वरुणस्य सैनिका
यादोगणाः सन्नधियः ससाध्वसाः ।
अहन्यमाना अपि तस्य वर्चसा
प्रधर्षिता दूरतरं प्रदुद्रुवुः ॥ २५॥
स वर्षपूगानुदधौ महाबलश्चरन्
महोर्मीञ्छ्वसनेरितान् मुहुः ।
मौर्व्याभिजघ्ने गदया विभावरी-
मासेदिवांस्तात पुरीं प्रचेतसः ॥ २६॥
तत्रोपलभ्यासुरलोकपालकं
यादोगणानामृषभं प्रचेतसम् ।
स्मयन् प्रलब्धुं प्रणिपत्य नीचवज्जगाद
मे देह्यधिराज संयुगम् ॥ २७॥
त्वं लोकपालोऽधिपतिर्बृहच्छ्रवा
वीर्यापहो दुर्मदवीरमानिनाम् ।
विजित्य लोकेऽखिल दैत्यदानवान्
यद्राजसूयेन पुरायजत्प्रभो ॥ २८॥
स एवमुत्सिक्तमदेन विद्विषा
दृढं प्रलब्धो भगवानपांपतिः ।
रोषं समुत्थं शमयन् स्वया धिया
व्यवोचदङ्गोपशमं गता वयम् ॥ २९॥
पश्यामि नान्यं पुरुषात्पुरातनाद्यः
संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम् ।
आराधयिष्यत्यसुरर्षभेहि तं
मनस्विनो यं गृणते भवादृशाः ॥ ३०॥
तं वीरमारादभिपद्य विस्मयः
शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः ।
यस्त्वद्विधानामसतां प्रशान्तये
रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥ ३१॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे हिरण्याक्षदिग्विजये सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-सत्रहवाँ अध्याय
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा हिरण्याक्ष की दिग्विजय
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! ब्रह्माजी के कह ने से अन्धकार का कारण जानकर देवताओं की शङ् का निवृत्त हो गयी और फिर वे सब स्वर्गलोक को लौट आये ॥ १ ॥
इधर दिति को अपने पतिदेव के कथनानुसार पुत्रों की ओर से उपद्रवादि की आशङ् का बनी रहती थी। इसलिये जब पूरे सौ वर्ष बीत गये, तब उस साध्वी ने दो यमज (जुड़वे) पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में अनेकों उत्पात होने लगे—जिन से लोग अत्यन्त भयभीत हो गये ॥ ३ ॥ जहाँ-तहाँ पृथ्वी और पर्वत काँप ने लगे, सब दिशाओं में दाह होने लगा। जगह-जगह उल्कापात होने लगा, बिजलियाँ गिर ने लगीं और आकाश में अनिष्टसूचक धूमकेतु (पुच्छल तारे) दिखायी दे ने लगे ॥ ४ ॥ बार-बार सायँ-सायँ करती और बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ती हुई बड़ी विकट और असह्य वायु चल ने लगी। उस समय आँधी उसकी सेना और उड़ती हुई धूल ध्वजा के समान जान पड़ती थी ॥ ५ ॥ बिजली जोर-जोर से चमककर मानो खिलखिला रही थी। घटाओं ने ऐसा सघन रूप धारण किया कि सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के लुप्त हो जाने से आकाश में गहरा अँधेरा छा गया। उस समय कहीं कुछ भी दिखायी न देता था ॥ ६ ॥ समुद्र दुखी मनुष्य की भाँति कोलाहल करने लगा, उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उठ ने लगीं और उसके भीतर रहनेवाले जीवों में बड़ी हलचल मच गयी। नदियों तथा अन्य जलाशयों में भी बड़ी खलबली मच गयी और उनके कमल सूख गये ॥ ७ ॥ सूर्य और चन्द्रमा बार-बार ग्र से जाने लगे तथा उनके चारों ओर अमङ्गलसूचक मण्डल बैठ ने लगे। बिना बादलों के ही गरज ने का शब्द होने लगा तथा गुफाओं में से रथ की घरघराहटका-सा शब्द निकल ने लगा ॥ ८ ॥ गाँवों में गीदड़ और उल्लुओं के भयानक शब्द के साथ ही सियारियाँ मुख से दहकती हुई आग उगलकर बड़ा अमङ्गल शब्द करने लगीं ॥ ९ ॥ जहाँ-तहाँ कुत्ते अपनी गरदन ऊ पर उठाकर कभी गा ने और कभी रोने के समान भाँति-भाँति के शब्द करने लगे ॥ १० ॥ विदुरजी ! झुंड-के-झुंड गधे अपने कठोर खुरों से पृथ्वी खोदते और रेंक ने का शब्द करते मतवाले होकर इधर-उधर दौडऩे लगे ॥ ११ ॥ पक्षी गधों के शब्द से डरकर रोते-चिल्लाते अपने घोंसलों से उडऩे लगे। अपनी खिरकों में बँधे हुए और वन में चरते हुए गाय-बैल आदि पशु डर के मारे मल-मूत्र त्याग ने लगे ॥ १२ ॥ गौएँ ऐसी डर गयीं कि दुहने पर उनके थनों से खून निकल ने लगा, बादल पीब की वर्षा करने लगे, देवमूर्तियों की आँखों से आँसू बह ने लगे और आँधी के बिना ही वृक्ष उखड़-उखडक़र गिर ने लगे ॥ १३ ॥ शनि, राहु आदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र, बृहस्पति आदि सौम्य ग्रहों तथा बहुत- से नक्षत्रों को लाँघकर वक्रगति से चल ने लगे तथा आपस में युद्ध करने लगे ॥ १४ ॥ ऐसे ही और भी अनेकों भयङ्कर उत्पात देखकर सनकादि के सिवा और सब जीव भयभीत हो गये तथा उन उत्पातों का मर्म न जान ने के कारण उन्होंने यही समझा कि अब संसार का प्रलय होनेवाला है ॥ १५ ॥
वे दोनों आदिदैत्य जन्म के अनन्तर शीघ्र ही अपने फौलाद के समान कठोर शरीरों से बढक़र महान पर्वतों के सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया ॥ १६ ॥ वे इत ने ऊँचे थे कि उनके सुवर्णमय मुकुटों का अग्रभाग स्वर्ग को स्पर्श करता था और उनके विशाल शरीरों से सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं। उनकी भुजाओं में सो ने के बाजूबंद चमचमा रहे थे। पृथ्वी पर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी जगमगाती हुई चमकीली करधनी से सुशोभित कमर अपने प्रकाश से सूर्य को भी मात करती थी ॥ १७ ॥ वे दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यपजी ने उनका नामकरण किया। उनमें से जो उनके वीर्य से दिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दिति के उदर से पहले निकला, वह हिरण्याक्ष के नाम से विख्यात हुआ ॥ १८ ॥
हिरण्यकशिपु ब्रह्माजी के वर से मृत्युभय से मुक्त हो जाने के कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी भुजाओं के बल से लोकपालों के सहित तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया ॥ १९ ॥ वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्ष को बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाई का प्रिय कार्य करता रहता था। एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथ में गदा लिये युद्ध का अवसर ढूँढ़ता हुआ स्वर्गलोक में जा पहुँचा ॥ २० ॥ उसका वेग बड़ा असह्य था। उसके पैरों में सो ने के नूपुरों की झनकार हो रही थी, गले में विजयसूचक माला धारण की हुई थी और कंधे पर विशाल गदा रखी हुई थी ॥ २१ ॥ उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्माजी के वर ने उसे मतवाला कर रखा था; इसलिये वह सर्वथा निरङ्कुश और निर्भय हो रहा था। उसे देखकर देवता लोग डर के मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुडक़े डर से साँप छिप जाते हैं ॥ २२ ॥ जब दैत्यराज हिरण्याक्ष ने देखा कि मेरे तेज के सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयङ्कर गर्जना करने लगा ॥ २३ ॥ फिर वह महाबली दैत्य वहाँ से लौटकर जलक्रीडा करने के लिये मतवाले हाथी के समान गहरे समुद्र में घुस गया, जिसमें लहरों की बड़ी भयङ्कर गर्जना हो रही थी ॥ २४ ॥ ज्यों ही उसने समुद्र में पैर रखा कि डर के मारे वरुण के सैनिक जलचर जीव हकब का गये और किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करने पर भी वे उसकी धाक से ही घबराकर बहुत दूर भाग गये ॥ २५ ॥ महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षों तक समुद्र में ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षी को न पाकर बार- बार वायुवेग से उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरङ्गों पर ही अपनी लोहमयी गदा को आजमाता रहा। इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुण की राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा ॥ २६ ॥ वहाँ पाताललोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुणजी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्ग से कहा—‘महाराज ! मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपने को बाँ का वीर समझते थे, उनके वीर्यमद को भी आप चूर्ण कर चु के हैं और पहले एक बार आपने संसार के समस्त दैत्य-दानवों को जीतकर राजसूय-यज्ञ भी किया था’ ॥ २८ ॥
उस मदोन्मत्त शत्रु के इस प्रकार बहुत उपहास करने से भगवान वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किन्तु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कह ने लगे—‘भाई ! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है ॥ २९ ॥ भगवान पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हींके पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हीं का गुणगान किया करते हैं ॥ ३० ॥ वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायगी और तुम कुत्तों से घिरकर वीरशय्या पर शयन करोगे। वे तुम-जैसे दुष्टों को मार ने और सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये अनेक प्रकार के रूप धारण किया करते हैं’ ॥ ३१ ॥
॥ अष्टादशोऽध्यायः - १८ ॥
मैत्रेय उवाच
तदेवमाकर्ण्य जलेशभाषितं
महामनास्तद्विगणय्य दुर्मदः ।
हरेर्विदित्वा गतिमङ्ग नारदा-
द्रसातलं निर्विविशे त्वरान्वितः ॥ १॥
ददर्श तत्राभिजितं धराधरं
प्रोन्नीयमानावनिमग्रदंष्ट्रया ।
मुष्णन्तमक्ष्णा स्वरुचोऽरुणश्रिया
जहास चाहो वनगोचरो मृगः ॥ २॥
आहैनमेह्यज्ञ महीं विमुञ्च नो
रसौकसां विश्वसृजेयमर्पिता ।
न स्वस्ति यास्यस्यनया ममेक्षतः
सुराधमासादितसूकराकृते ॥ ३॥
त्वं नः सपत्नैरभवाय किं भृतो
यो मायया हन्त्यसुरान् परोक्षजित् ।
त्वां योगमायाबलमल्पपौरुषं
संस्थाप्य मूढ प्रमृजे सुहृच्छुचः ॥ ४॥
त्वयि संस्थिते गदया शीर्णशीर्ष-
ण्यस्मद्भुजच्युतया ये च तुभ्यं ।
बलिं हरन्त्यृषयो ये च देवाः
स्वयं सर्वे न भविष्यन्त्यमूलाः ॥ ५॥
स तुद्यमानोऽरिदुरुक्ततोमरै-
र्दंष्ट्राग्रगां गामुपलक्ष्य भीतां ।
तोदं मृषन् निरगादंबुमध्या-
द्ग्राहाहतः स करेणुर्यथेभः ॥ ६॥
तं निःसरन्तं सलिलादनुद्रुतो
हिरण्यकेशो द्विरदं यथा झषः ।
करालदंष्ट्रोऽशनिनिस्वनोऽब्रवी-
द्गतह्रियां किं त्वसतां विगर्हितं ॥ ७॥
स गामुदस्तात्सलिलस्य गोचरे
विन्यस्य तस्यामदधात्स्वसत्त्वं ।
अभिष्टुतो विश्वसृजा प्रसूनै-
रापूर्यमाणो विबुधैः पश्यतोऽरेः ॥ ८॥
परानुषक्तं तपनीयोपकल्पं
महागदं काञ्चनचित्रदंशं ।
मर्माण्यभीक्ष्णं प्रतुदन्तं दुरुक्तैः
प्रचण्डमन्युः प्रहसंस्तं बभाषे ॥ ९॥
श्रीभगवानुवाच
सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा
युष्मद्विधान् मृगये ग्रामसिंहान् ।
न मृत्युपाशैः प्रतिमुक्तस्य वीरा
विकत्थनं तव गृह्णन्त्यभद्र ॥ १०॥
एते वयं न्यासहरा रसौकसां
गतह्रियो गदया द्रावितास्ते ।
तिष्ठामहेऽथापि कथञ्चिदाजौ
स्थेयं क्व यामो बलिनोत्पाद्य वैरं ॥ ११॥
त्वं पद्रथानां किल यूथपाधिपो
घटस्व नोऽस्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य चास्मान् प्रमृजाश्रु स्वकानां
यः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्यसभ्यः ॥ १२॥
मैत्रेय उवाच
सोऽधिक्षिप्तो भगवता प्रलब्धश्च रुषा भृशम् ।
आजहारोल्बणं क्रोधं क्रीड्यमानोऽहिराडिव ॥ १३॥
सृजन्नमर्षितः श्वासान् मन्युप्रचलितेन्द्रियः ।
आसाद्य तरसा दैत्यो गदयाभ्यहनद्धरिम् ॥ १४॥
भगवांस्तु गदावेगं विसृष्टं रिपुणोरसि ।
अवञ्चयत्तिरश्चीनो योगारूढ इवान्तकम् ॥ १५॥
पुनर्गदां स्वामादाय भ्रामयन्तमभीक्ष्णशः ।
अभ्यधावद्धरिः क्रुद्धः संरंभाद्दष्टदच्छदम् ॥ १६॥
ततश्च गदयारातिं दक्षिणस्यां भ्रुवि प्रभुः ।
आजघ्ने स तु तां सौम्य गदया कोविदोऽहनत् ॥ १७॥
एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो हरिरेव च ।
जिगीषया सुसंरब्धावन्योन्यमभिजघ्नतुः ॥ १८॥
तयोः स्पृधोस्तिग्मगदाहताङ्गयोः
क्षतास्रवघ्राणविवृद्धमन्य्वोः ।
विचित्रमार्गांश्चरतोर्जिगीषया
व्यभादिलायामिव शुष्मिणोर्मृधः ॥ १९॥
दैत्यस्य यज्ञावयवस्य माया-
गृहीतवाराहतनोर्महात्मनः ।
कौरव्य मह्यां द्विषतोर्विमर्दनं
दिदृक्षुरागादृषिभिर्वृतः स्वराट् ॥ २०॥
आसन्नशौण्डीरमपेतसाध्वसं
कृतप्रतीकारमहार्यविक्रमम् ।
विलक्ष्य दैत्यं भगवान् सहस्रणी-
र्जगाद नारायणमादिसूकरम् ॥ २१॥
ब्रह्मोवाच
एष ते देव देवानामङ्घ्रिमूलमुपेयुषाम् ।
विप्राणां सौरभेयीणां भूतानामप्यनागसाम् ॥ २२॥
आगस्कृद्भयकृद्दुष्कृदस्मद्राद्धवरोऽसुरः ।
अन्वेषन्नप्रतिरथो लोकानटति कण्टकः ॥ २३॥
मैनं मायाविनं दृप्तं निरङ्कुशमसत्तमम् ।
आक्रीड बालवद्देव यथाशीविषमुत्थितम् ॥ २४॥
न यावदेष वर्धेत स्वां वेलां प्राप्य दारुणः ।
स्वां देव मायामास्थाय तावज्जह्यघमच्युत ॥ २५॥
एषा घोरतमा सन्ध्या लोकच्छंबट्करी प्रभो ।
उपसर्पति सर्वात्मन् सुराणां जयमावह ॥ २६॥
अधुनैषोऽभिजिन्नाम योगो मौहूर्तिको ह्यगात् ।
शिवाय नस्त्वं सुहृदामाशु निस्तर दुस्तरम् ॥ २७॥
दिष्ट्या त्वां विहितं मृत्युमयमासादितः स्वयम् ।
विक्रम्यैनं मृधे हत्वा लोकानाधेहि शर्मणि ॥ २८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे हिरण्याक्षवधे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-अठारहवाँ अध्याय
हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान का युद्ध
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—तात ! वरुणजी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उनके इस कथन पर कि ‘तू उनके हाथ से मारा जायगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुँच गया ॥ १ ॥ वहाँ उसने विश्वविजयी वराहभगवान को अपनी दाढ़ों की नोक पर पृथ्वी को ऊ पर की ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल- लाल चमकीलेनेत्रों से उसके तेज को हरे लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे ! यह जंगली पशु यहाँ जल में कहाँ से आया’ ॥ २ ॥ फिर वराहजी से कहा, ‘अरे नासमझ ! इधर आ, इस पृथ्वी को छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्माजी ने हम रसातलवासियों के हवाले कर दिया है। रे सूकररूपधारी सुराधम ! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता ॥ ३ ॥ तू माया से लुक-छिपकर ही दैत्यों को जीत लेता और मार डालता है। क्या इसीसे हमारे शत्रुओं ने हमारा नाश कराने के लिये तुझे पाला है ? मूढ़ ! तेरा बल तो योगमाया ही है; और कोई पुरुषार्थ तुझ में थोड़े ही हैं। आज तुझे समाप्तकर मैं अपने बन्धुओं का शोक दूर करूँगा ॥ ४ ॥ जब मेरे हाथ से छूटी हुई गदा के प्रहार से सिर फट जाने के कारण तू मर जायगा, तब तेरी आराधना करनेवाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षों की भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’ ॥ ५ ॥
हिरण्याक्ष भगवान को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँत की नोक पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जल से उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनीसहित गजराज ॥ ६ ॥ जब उसकी चुनौती का कोई उत्तर न देकर वे जल से बाहर आ ने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ोंवाले उस दैत्य ने उनका पीछा किया तथा वज्र के समान कडक़कर वह कह ने लगा, ‘तुझे भाग ने में लज्जा नहीं आती ? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है ?’ ॥ ७ ॥
भगवान ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊ पर व्यवहार-योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का सञ्चार किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और देवताओं ने फूल बरसाये ॥ ८ ॥ तब श्रीहरि ने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्षसे, जो सो ने के आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्यों से उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा ॥ ९ ॥
श्रीभगवान ने कहा—अरे ! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्राम-सिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट ! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्यु-पाश में बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघा पर ध्यान नहीं देते ॥ १० ॥ हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोडक़र तेरी गदा के भय से यहाँ भाग आये हैं। हम में ऐसी सामथ्र्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीर के सामने युद्ध में ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तै से तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानों से वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं ? ॥ ११ ॥ तू पैदल वीरों का सरदार है, इसलिये अब नि:शङ्क होकर—उधेड़-बुन छोडक़र हमारा अनिष्ट करने का प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओं के आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असभ्य है—भले आदमियों में बैठनेलायक नहीं है ॥ १२ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जब भगवान ने रोष से उस दैत्य का इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, तब वह पकडक़र खेलाये जाते हुए सर्प के समान क्रोध से तिलमिला उठा ॥ १३ ॥ वह खीझकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग से लपककर भगवान पर गदा का प्रहार किया ॥ १४ ॥ किन्तु भगवान ने अपनी छाती पर चलायी हुई शत्रु की गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया—ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है ॥ १५ ॥ फिर जब वह क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी ओर झपटे ॥ १६ ॥ सौम्यस्वभाव विदुरजी ! तब प्रभु ने शत्रु की दायीं भौंह पर गदा की चोट की, किन्तु गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया ॥ १७ ॥ इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक दूसरे को जीत ने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे ॥ १८ ॥ उस समय उन दोनों में ही जीत ने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अङ्ग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अङ्गों के घावों से बहनेवाले रुधिर की गन्ध से दोनों का ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरह के पैंतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौ के लिये आपस में लडऩेवाले दो साँड़ों के समान उन दोनों में एक-दूसरे को जीत ने की इच्छा से बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ ॥ १९ ॥ विदुरजी ! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और माया से वराहरूप धारण करनेवाले भगवान यज्ञमूर्ति पृथ्वी के लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने के लिये वहाँ ऋषियों के सहित ब्रह्माजी आये ॥ २० ॥ वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भय का नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कह ने लगे ॥ २१ ॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा—देव ! मुझ से वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणों की शरण में रहनेवाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचानेवाला, दु:खदायी और भयप्रद हो रहा है। इस की जोडक़ा और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीर की खोज में समस्त लोकों में घूम रहा है ॥ २२-२३ ॥ यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरङ्कुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँप से खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें ॥ २४ ॥ देव ! अच्युत ! जब तक यह दारुण दैत्य अपनी बलवृद्धि की वेला को पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये ॥ २५ ॥ प्रभो ! देखिये, लोकों का संहार करनेवाली संन्ध्या की भयङ्कर वेला आना ही चाहती है। सर्वात्मन् ! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये ॥ २६ ॥ इस समय अभिजित् नामक मङ्गलमय मुहूत्र्त का भी योग आ गया है। अत: अपने सुहृद् हमलोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! इस की मृत्यु आपके ही हाथ बदी है। हमलोगों के बड़े भाग्य हैं कि यह स्वयं ही अपने कालरूप आपके पास आ पहुँचा है। अब आप युद्ध में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये ॥ २८ ॥
॥ एकोनविंशोऽध्यायः - १९ ॥
मैत्रेय उवाच
अवधार्य विरिञ्चस्य निर्व्यलीकामृतं वचः ।
प्रहस्य प्रेमगर्भेण तदपाङ्गेन सोऽग्रहीत् ॥ १॥
ततः सपत्नं मुखतश्चरन्तमकुतोभयम् ।
जघानोत्पत्य गदया हनावसुरमक्षजः ॥ २॥
सा हता तेन गदया विहता भगवत्करात् ।
विघूर्णितापतद्रेजे तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ३॥
स तदा लब्धतीर्थोऽपि न बबाधे निरायुधम् ।
मानयन् स मृधे धर्मं विष्वक्सेनं प्रकोपयन् ॥ ४॥
गदायामपविद्धायां हाहाकारे विनिर्गते ।
मानयामास तद्धर्मं सुनाभं चास्मरद्विभुः ॥ ५॥
तं व्यग्रचक्रं दितिपुत्राधमेन
स्वपार्षदमुख्येन विषज्जमानम् ।
चित्रा वाचोऽतद्विदां खेचराणां
तत्र स्मासन् स्वस्ति तेऽमुं जहीति ॥ ६॥
स तं निशाम्यात्तरथाङ्गमग्रतो
व्यवस्थितं पद्मपलाशलोचनम् ।
विलोक्य चामर्षपरिप्लुतेन्द्रियो
रुषा स्वदन्तच्छदमादशच्छ्वसन् ॥ ७॥
करालदंष्ट्रश्चक्षुर्भ्यां सञ्चक्षाणो दहन्निव ।
अभिप्लुत्य स्वगदया हतोऽसीत्याहनद्धरिम् ॥ ८॥
पदा सव्येन तां साधो भगवान् यज्ञसूकरः ।
लीलया मिषतः शत्रोः प्राहरद्वातरंहसम् ॥ ९॥
आह चायुधमाधत्स्व घटस्व त्वं जिगीषसि ।
इत्युक्तः स तदा भूयस्ताडयन् व्यनदद्भृशम् ॥ १०॥
तां स आपततीं वीक्ष्य भगवान् समवस्थितः ।
जग्राह लीलया प्राप्तां गरुत्मानिव पन्नगीम् ॥ ११॥
स्वपौरुषे प्रतिहते हतमानो महासुरः ।
नैच्छद्गदां दीयमानां हरिणा विगतप्रभः ॥ १२॥
जग्राह त्रिशिखं शूलं ज्वलज्ज्वलनलोलुपम् ।
यज्ञाय धृतरूपाय विप्रायाभिचरन् यथा ॥ १३॥
तदोजसा दैत्यमहाभटार्पितं
चकासदन्तःख उदीर्णदीधिति ।
चक्रेण चिच्छेद निशातनेमिना
हरिर्यथा तार्क्ष्यपतत्रमुज्झितम् ॥ १४॥
वृक्णे स्वशूले बहुधारिणा हरेः
प्रत्येत्य विस्तीर्णमुरो विभूतिमत् ।
प्रवृद्धरोषः स कठोरमुष्टिना
नदन् प्रहृत्यान्तरधीयतासुरः ॥ १५॥
तेनेत्थमाहतः क्षत्तर्भगवानादिसूकरः ।
नाकम्पत मनाक् क्वापि स्रजा हत इव द्विपः ॥ १६॥
अथोरुधाऽसृजन्मायां योगमायेश्वरे हरौ ।
यां विलोक्य प्रजास्त्रस्ता मेनिरेऽस्योपसंयमम् ॥ १७॥
प्रववुर्वायवश्चण्डास्तमः पांसवमैरयन् ।
दिग्भ्यो निपेतुर्ग्रावाणः क्षेपणैः प्रहिता इव ॥ १८॥
द्यौर्नष्टभगणाभ्रौघैः सविद्युत्स्तनयित्नुभिः ।
वर्षद्भिः पूयकेशासृग्विण्मूत्रास्थीनि चासकृत् ॥ १९॥
गिरयः प्रत्यदृश्यन्त नानायुधमुचोऽनघ ।
दिग्वाससो यातुधान्यः शूलिन्यो मुक्तमूर्धजाः ॥ २०॥
बहुभिर्यक्षरक्षोभिः पत्त्यश्वरथकुञ्जरैः ।
आततायिभिरुत्सृष्टा हिंस्रा वाचोऽतिवैशसाः ॥ २१॥
प्रादुष्कृतानां मायानामासुरीणां विनाशयत् ।
सुदर्शनास्त्रं भगवान् प्रायुङ्क्त दयितं त्रिपात् ॥ २२॥
तदा दितेः समभवत्सहसा हृदि वेपथुः ।
स्मरन्त्या भर्तुरादेशं स्तनाच्चासृक् प्रसुस्रुवे ॥ २३॥
विनष्टासु स्वमायासु भूयश्चाव्रज्य केशवम् ।
रुषोपगूहमानोऽमुं ददृशेऽवस्थितं बहिः ॥ २४॥
तं मुष्टिभिर्विनिघ्नन्तं वज्रसारैरधोक्षजः ।
करेण कर्णमूलेऽहन् यथा त्वाष्ट्रं मरुत्पतिः ॥ २५॥
स आहतो विश्वजिता ह्यवज्ञया
परिभ्रमद्गात्र उदस्तलोचनः ।
विशीर्णबाह्वङ्घ्रिशिरोरुहोऽपत-
द्यथा नगेन्द्रो लुलितो नभस्वता ॥ २६॥
क्षितौ शयानं तमकुण्ठवर्चसं
करालदंष्ट्रं परिदष्टदच्छदम् ।
अजादयो वीक्ष्य शशंसुरागता
अहो इमं को नु लभेत संस्थितिम् ॥ २७॥
यं योगिनो योगसमाधिना रहो
ध्यायन्ति लिङ्गादसतो मुमुक्षया ।
तस्यैष दैत्यऋषभः पदाहतो
मुखं प्रपश्यंस्तनुमुत्ससर्ज ह ॥ २८॥
एतौ तौ पार्षदावस्य शापाद्यातावसद्गतिम् ।
पुनः कतिपयैः स्थानं प्रपत्स्येते ह जन्मभिः ॥ २९॥
देवा ऊचुः
नमो नमस्तेऽखिलयज्ञतन्तवे
स्थितौ गृहीतामलसत्त्वमूर्तये ।
दिष्ट्या हतोऽयं जगतामरुन्तुदः
त्वत्पादभक्त्या वयमीश निर्वृताः ॥ ३०॥
मैत्रेय उवाच
एवं हिरण्याक्षमसह्यविक्रमं
स सादयित्वा हरिरादिसूकरः ।
जगाम लोकं स्वमखण्डितोत्सवं
समीडितः पुष्करविष्टरादिभिः ॥ ३१॥
मया यथानूक्तमवादि ते हरेः
कृतावतारस्य सुमित्रचेष्टितम् ।
यथा हिरण्याक्ष उदारविक्रमो
महामृधे क्रीडनवन्निराकृतः ॥ ३२॥
सूत उवाच
इति कौषारवाख्यातामाश्रुत्य भगवत्कथाम् ।
क्षत्ताऽऽनन्दं परं लेभे महाभागवतो द्विज ॥ ३३॥
अन्येषां पुण्यश्लोकानामुद्दामयशसां सताम् ।
उपश्रुत्य भवेन्मोदः श्रीवत्साङ्कस्य किं पुनः ॥ ३४॥
यो गजेन्द्रं झषग्रस्तं ध्यायन्तं चरणांबुजम् ।
क्रोशन्तीनां करेणूनां कृच्छ्रतोऽमोचयद्द्रुतम् ॥ ३५॥
तं सुखाराध्यमृजुभिरनन्यशरणैर्नृभिः ।
कृतज्ञः को न सेवेत दुराराध्यमसाधुभिः ॥ ३६॥
यो वै हिरण्याक्षवधं महाद्भुतं
विक्रीडितं कारणसूकरात्मनः ।
शृणोति गायत्यनुमोदतेऽञ्जसा
विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजाः ॥ ३७॥
एतन्महापुण्यमलं पवित्रं
धन्यं यशस्यं पदमायुराशिषां ।
प्राणेन्द्रियाणां युधि शौर्यवर्धनं
नारायणोऽन्ते गतिरङ्ग शृण्वतां ॥ ३८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे हिरण्याक्षवधो नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-उन्नीसवाँ अध्याय
हिरण्याक्ष-वध
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! ब्रह्माजी के ये कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान ने उनके भोलेपन पर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्ष के द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ॥ १ ॥ फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रु की ठुड्डी पर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्ष की गदा से टकराकर वह गदा भगवान के हाथ से छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीन पर गिरकर सुशोभित हुई। किन्तु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई ॥ २-३ ॥ उस समय शत्रु पर वार करने का अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्ष ने उन्हें निरस्त्र देखकर युद्धधर्म का पालन करते हुए उन पर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान का क्रोध बढ़ा ने के लिये ही ऐसा किया था ॥ ४ ॥ गदा गिर जाने पर और लोगों का हाहाकार बंद हो जाने पर प्रभु ने उसकी धर्मबुद्धि की प्रशंसा की और अपने सुदर्शनचक्र का स्मरण किया ॥ ५ ॥
चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान के हाथ में घूम ने लगा। किन्तु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्याधम हिरण्याक्ष के साथ विशेषरूप से क्रीडा करने लगे। उस समय उनके प्रभाव को न जाननेवाले देवताओं के ये विचित्र वचन सुनायी दे ने लगे—‘प्रभो ! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’ ॥ ६ ॥ जब हिरण्याक्ष ने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोध से तिलमिला उठीं और वह लंबी साँसें लेता हुआ अपने दाँतों से होठ चबा ने लगा ॥ ७ ॥ उस समय वह तीखी दाढ़ोंवाला दैत्य, अपने नेत्रों से इस प्रकार उनकी ओर घूर ने लगा मानो वह भगवान को भस्म कर देगा। उसने उछलकर ‘ले, अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते हुए श्रीहरि पर गदा से प्रहार किया ॥ ८ ॥ साधुस्वभाव विदुरजी ! यज्ञमूर्ति श्रीवराहभगवान ने शत्रु के देखते-देखते लीला से ही अपने बायें पैर से उसकी वह वायु के समान वेगवाली गदा पृथ्वी पर गिरा दी और उससे कहा, ‘अरे दैत्य ! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर।’ भगवान के इस प्रकार कहने पर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा ॥ ९-१० ॥ गदा को अपनी ओर आते देखकर भगवानने, जहाँ खड़े थे वहींसे, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड साँपिन को पकड़ ले ॥ ११ ॥
अपने उद्यम को इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्य का घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अब की बार भगवान के देने पर उसने उस गदा को लेना न चाहा ॥ १२ ॥ किन्तु जिस प्रकार कोई ब्राह्मण के ऊ पर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे—मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुष पर प्रहार करने के लिये एक प्रज्वलित अग्रि के समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया ॥ १३ ॥ महाबली हिरण्याक्ष का अत्यन्त वेग से छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाश में बड़ी तेजी से चमक ने लगा। तब भगवान ने उसे अपनी तीखी धारवाले चक्र से इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्र ने गरुडजी के छोड़े हुए तेजस्वी पंख को काट डाला था [1] ॥ १४ ॥ भगवान के चक्र से अपने त्रिशूल के बहुत- से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्ष:स्थलपर, जिस पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोर से गरजकर अन्तर्धान हो गया ॥ १५ ॥
विदुरजी ! जैसे हाथी पर पुष्पमाला की चोट का कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसके इस प्रकार घूँसा मार ने से भगवान आदिवराह तनिक भी टस-से-मस नहीं हुए ॥ १६ ॥ तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरि पर अनेक प्रकार की मायाओं का प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझ ने लगी कि अब संसार का प्रलय होनेवाला है ॥ १७ ॥ बड़ी प्रचण्ड आँधी चल ने लगी, जिसके कारण धूल से सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओर से पत्थरों की वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी क्षेपणयन्त्र (गुलेल) से फें के जा रहे हों ॥ १८ ॥ बिजली की चमचमाहट और कडक़ के साथ बादलों के घिर आ ने से आकाश में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीब, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियों की वर्षा होने लगी ॥ १९ ॥ विदुरजी ! ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी दे ने लगे, जो तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथ में त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियाँ दीख ने लगीं ॥ २० ॥ बहुत- से पैदल, घुड़सवार रथी और हाथियों पर चढ़े सैनिकों के साथ आततायी यक्ष-राक्षसों का ‘मारो-मारो, काटो-काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी दे ने लगा ॥ २१ ॥
इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया-जाल का नाश करने के लिये यज्ञमूर्ति भगवान वराह ने अपना प्रिय सुदर्शनचक्र छोड़ा ॥ २२ ॥ उस समय अपने पति का कथन स्मरण हो आ ने से दिति का हृदय सहसा काँप उठा और उसके स्तनों से रक्त बह ने लगा ॥ २३ ॥ अपना माया-जाल नष्ट हो जाने पर वह दैत्य फिर भगवान के पास आया। उसने उन्हें क्रोध से दबाकर चूर-चूर करने की इच्छा से भुजाओं में भर लिया, किन्तु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं ॥ २४ ॥ अब वह भगवान को वज्र के समान कठोर मुक्कों से मार ने लगा। तब इन्द्र ने जैसे वृत्रासुर पर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान ने उसकी कनपटी पर एक तमाचा मारा ॥ २५ ॥
विश्वविजयी भगवान ने यद्यपि बड़ी उपेक्षा से तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोट से हिरण्याक्ष का शरीर घूम ने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ २६ ॥ हिरण्याक्ष का तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ोंवाले दैत्य को दाँतों से होठ चबाते पृथ्वी पर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो ! ऐसी अलभ्य मृत्यु किस को मिल सकती है ॥ २७ ॥ अपनी मिथ्या उपाधि से छूट ने के लिये जिनका योगिजन समाधियोग के द्वारा एकान्त में ध्यान करते हैं, उन्हींके चरण-प्रहार से उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराज ने अपना शरीर त्यागा ॥ २८ ॥ ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मों में ये फिर अपने स्थान पर पहुँच जायँगे’ ॥ २९ ॥
देवतालोग कह ने लगे—प्रभो ! आपको बारंबार नमस्कार है। आप सम्पूर्ण यज्ञों का विस्तार करनेवाले हैं तथा संसार की स्थिति के लिये शुद्धसत्त्वमय मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्द की बात है कि संसार को कष्ट देनेवाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब आपके चरणों की भक्ति के प्रभाव से हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी ॥ ३० ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध करके भगवान आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धाम को पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३१ ॥ भगवान अवतार लेकर जैसी लीलाएँ करते हैं और जिस प्रकार उन्होंने भीषण संग्राम में खिलौ ने की भाँति महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध कर डाला, मित्र विदुरजी ! वह सब चरित जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, तुम्हें सुना दिया ॥ ३२ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! मैत्रेयजी के मुख से भगवान की यह कथा सुनकर परम भागवत विदुरजी को बड़ा आनन्द हुआ ॥ ३३ ॥ जब अन्य पवित्रकीर्ति और परम यशस्वी महापुरुषों का चरित्र सुनने से ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान की ललित-ललाम लीलाओं की तो बात ही क्या है ॥ ३४ ॥ जिस समय ग्राह के पकडऩे पर गजराज प्रभु के चरणों का ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दु:ख से चिग्घाडऩे लगीं, उस समय जिन्हों ने उन्हें तत्काल दु:ख से छुड़ाया और जो सब ओर से निराश होकर अपनी शरण में आये हुए सरलहृदय भक्तों से सहज में ही प्रसन्न हो जाते हैं, किन्तु दुष्ट पुरुषों के लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं—उन पर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभु के उपकारों को जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उनका सेवन न करेगा ? ॥ ३५-३६ ॥ शौनकादि ऋषियो ! पृथ्वी का उद्धार करने के लिये वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरि की इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीला को जो पुरुष सुनता, गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह ब्रह्महत्या-जैसे घोर पाप से भी सहज में ही छूट जाता है ॥ ३७ ॥ यह चरित्र अत्यन्त पुण्यप्रद, परम पवित्र, धन और यश की प्राप्ति करानेवाला आयुवर्धक और कामनाओं की पूर्ति करनेवाला तथा युद्ध में प्राण और इन्द्रियों की शक्ति बढ़ानेवाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें अन्त में श्रीभगवान का आश्रय प्राप्त होता है। ॥ ३८ ॥
[1] एक बार गरुडजी अपनी माता विनता को सर्पों की माता कद्रू के दासीप ने से मुक्त करने के लिये देवताओं के पास से अमृत छीन लाये थे। तब इन्द्र ने उनके ऊ पर अपना वज्र छोड़ा। इन्द्र का वज्र कभी व्यर्थ नहीं जाता, इसलिये उसका मान रखने के लिये गरुडजी ने अपना एक पर गिरा दिया। उसे उस वज्र ने काट डाला।
॥ विंशोऽध्यायः - २० ॥
शौनक उवाच
महीं प्रतिष्ठामध्यस्य सौते स्वायंभुवो मनुः ।
कान्यन्वतिष्ठद्द्वाराणि मार्गायावरजन्मनाम् ॥ १॥
क्षत्ता महाभागवतः कृष्णस्यैकान्तिकः सुहृत् ।
यस्तत्याजाग्रजं कृष्णे सापत्यमघवानिति ॥ २॥
द्वैपायनादनवरो महित्वे तस्य देहजः ।
सर्वात्मना श्रितः कृष्णं तत्परांश्चाप्यनुव्रतः ॥ ३॥
किमन्वपृच्छन्मैत्रेयं विरजास्तीर्थसेवया ।
उपगम्य कुशावर्त आसीनं तत्त्ववित्तमम् ॥ ४॥
तयोः संवदतोः सूत प्रवृत्ता ह्यमलाः कथाः ।
आपो गाङ्गा इवाघघ्नीर्हरेः पादांबुजाश्रयाः ॥ ५॥
ता नः कीर्तय भद्रं ते कीर्तन्योदारकर्मणः ।
रसज्ञः को नु तृप्येत हरिलीलामृतं पिबन् ॥ ६॥
एवमुग्रश्रवाः पृष्टः ऋषिभिर्नैमिषायनैः ।
भगवत्यर्पिताध्यात्मस्तानाह श्रूयतामिति ॥ ७॥
सूत उवाच
हरेर्धृतक्रोडतनोः स्वमायया
निशम्य गोरुद्धरणं रसातलात् ।
लीलां हिरण्याक्षमवज्ञया हतं
सञ्जातहर्षो मुनिमाह भारतः ॥ ८॥
विदुर उवाच
प्रजापतिपतिः सृष्ट्वा प्रजासर्गे प्रजापतीन् ।
किमारभत मे ब्रह्मन् प्रब्रूह्यव्यक्तमार्गवित् ॥ ९॥
ये मरीच्यादयो विप्रा यस्तु स्वायंभुवो मनुः ।
ते वै ब्रह्मण आदेशात्कथमेतदभावयन् ॥ १०॥
सद्वितीयाः किमसृजन् स्वतन्त्रा उत कर्मसु ।
आहोस्वित्संहताः सर्व इदं स्म समकल्पयन् ॥ ११॥
मैत्रेय उवाच
दैवेन दुर्वितर्क्येण परेणानिमिषेण च ।
जातक्षोभाद्भगवतो महानासीद्गुणत्रयात् ॥ १२॥
रजःप्रधानान् महतस्त्रिलिङ्गो दैवचोदितात् ।
जातः ससर्ज भूतादिर्वियदादीनि पञ्चशः ॥ १३॥
तानि चैकैकशः स्रष्टुमसमर्थानि भौतिकम् ।
संहत्य दैवयोगेन हैममण्डमवासृजन् ॥ १४॥
सोऽशयिष्टाब्धिसलिले आण्डकोशो निरात्मकः ।
साग्रं वै वर्षसाहस्रमन्ववात्सीत्तमीश्वरः ॥ १५॥
तस्य नाभेरभूत्पद्मं सहस्रार्कोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयमभूत्स्वराट् ॥ १६॥
सोऽनुविष्टो भगवता यः शेते सलिलाशये ।
लोकसंस्थां यथापूर्वं निर्ममे संस्थया स्वया ॥ १७॥
ससर्जच्छायया विद्यां पञ्च पर्वाणमग्रतः ।
तामिस्रमन्धतामिस्रं तमो मोहो महातमः ॥ १८॥
विससर्जात्मनः कायं नाभिनन्दंस्तमोमयम् ।
जगृहुर्यक्षरक्षांसि रात्रिं क्षुत्तृट्समुद्भवाम् ॥ १९॥
क्षुत्तृड्भ्यामुपसृष्टास्ते तं जग्धुमभिदुद्रुवुः ।
मा रक्षतैनं जक्षध्वमित्यूचुः क्षुत्तृडर्दिताः ॥ २०॥
देवस्तानाह संविग्नो मा मां जक्षत रक्षत ।
अहो मे यक्षरक्षांसि प्रजा यूयं बभूविथ ॥ २१॥
देवताः प्रभया या या दीव्यन् प्रमुखतोऽसृजत् ।
ते अहार्षुर्देवयन्तो विसृष्टां तां प्रभामहः ॥ २२॥
देवोऽदेवाञ्जघनतः सृजति स्मातिलोलुपान् ।
त एनं लोलुपतया मैथुनायाभिपेदिरे ॥ २३॥
ततो हसन् स भगवानसुरैर्निरपत्रपैः ।
अन्वीयमानस्तरसा क्रुद्धो भीतः परापतत् ॥ २४॥
स उपव्रज्य वरदं प्रपन्नार्तिहरं हरिम् ।
अनुग्रहाय भक्तानामनुरूपात्मदर्शनम् ॥ २५॥
पाहि मां परमात्मंस्ते प्रेषणेनासृजं प्रजाः ।
ता इमा यभितुं पापा उपाक्रामन्ति मां प्रभो ॥ २६॥
त्वमेकः किल लोकानां क्लिष्टानां क्लेशनाशनः ।
त्वमेकः क्लेशदस्तेषामनासन्नपदां तव ॥ २७॥
सोऽवधार्यास्य कार्पण्यं विविक्ताध्यात्मदर्शनः ।
विमुञ्चात्मतनुं घोरामित्युक्तो विमुमोच ह ॥ २८॥
तां क्वणच्चरणांभोजां मदविह्वललोचनाम् ।
काञ्चीकलापविलसद्दुकूलच्छन्नरोधसम् ॥ २९॥
अन्योन्यश्लेषयोत्तुङ्गनिरन्तरपयोधराम् ।
सुनासां सुद्विजां स्निग्द्धहासलीलावलोकनाम् ॥ ३०॥
गूहन्तीं व्रीडयाऽऽत्मानं नीलालकवरूथिनीम् ।
उपलभ्यासुरा धर्म सर्वे सम्मुमुहुः स्त्रियम् ॥ ३१॥
अहो रूपमहो धैर्यमहो अस्या नवं वयः ।
मध्ये कामयमानानामकामेव विसर्पति ॥ ३२॥
वितर्कयन्तो बहुधा तां सन्ध्यां प्रमदाकृतिम् ।
अभिसंभाव्य विश्रंभात्पर्यपृच्छन् कुमेधसः ॥ ३३॥
कासि कस्यासि रंभोरु को वार्थस्तेऽत्र भामिनि ।
रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो विबाधसे ॥ ३४॥
या वा काचित्त्वमबले दिष्ट्या सन्दर्शनं तव ।
उत्सुनोषीक्षमाणानां कन्दुकक्रीडया मनः ॥ ३५॥
नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्मं
घ्नन्त्या मुहुः करतलेन पतत्पतङ्गम् ।
मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतं
शान्तेव दृष्टिरमला सुशिखासमूहः ॥ ३६॥
इति सायन्तनीं सन्ध्यामसुराः प्रमदायतीम् ।
प्रलोभयन्तीं जगृहुर्मत्वा मूढधियः स्त्रियम् ॥ ३७॥
प्रहस्य भावगंभीरं जिघ्रन्त्यात्मानमात्मना ।
कान्त्या ससर्ज भगवान् गन्धर्वाप्सरसां गणान् ॥ ३८॥
विससर्ज तनुं तां वै ज्योत्स्नां कान्तिमतीं प्रियाम् ।
त एव चाददुः प्रीत्या विश्वावसुपुरोगमाः ॥ ३९॥
सृष्ट्वा भूतपिशाचांश्च भगवानात्मतन्द्रिणा ।
दिग्वाससो मुक्तकेशान् वीक्ष्य चामीलयद्दृशौ ॥ ४०॥
जगृहुस्तद्विसृष्टां तां जृंभणाख्यां तनुं प्रभोः ।
निद्रामिन्द्रियविक्लेदो यया भूतेषु दृश्यते ।
येनोच्छिष्टान् धर्षयन्ति तमुन्मादं प्रचक्षते ॥ ४१॥
ऊर्जस्वन्तं मन्यमान आत्मानं भगवानजः ।
साध्यान् गणान् पितृगणान् परोक्षेणासृजत्प्रभुः ॥ ४२॥
त आत्मसर्गं तं कायं पितरः प्रतिपेदिरे ।
साध्येभ्यश्च पितृभ्यश्च कवयो यद्वितन्वते ॥ ४३॥
सिद्धान् विद्याधरांश्चैव तिरोधानेन सोऽसृजत् ।
तेभ्योऽददात्तमात्मानमन्तर्धानाख्यमद्भुतम् ॥ ४४॥
स किन्नरान् किम्पुरुषान् प्रत्यात्म्येनासृजत्प्रभुः ।
मानयन्नात्मनाऽऽत्मानमात्माभासं विलोकयन् ॥ ४५॥
ते तु तज्जगृहू रूपं त्यक्तं यत्परमेष्ठिना ।
मिथुनीभूय गायन्तस्तमेवोषसि कर्मभिः ॥ ४६॥
देहेन वै भोगवता शयानो बहुचिन्तया ।
सर्गेऽनुपचिते क्रोधादुत्ससर्ज ह तद्वपुः ॥ ४७॥
येऽहीयन्तामुतः केशा अहयस्तेऽङ्ग जज्ञिरे ।
सर्पाः प्रसर्पतः क्रूरा नागा भोगोरुकन्धराः ॥ ४८॥
स आत्मानं मन्यमानः कृतकृत्यमिवात्मभूः ।
तदा मनून् ससर्जान्ते मनसा लोकभावनान् ॥ ४९॥
तेभ्यः सोऽसृजत्स्वीयं पुरं पुरुषमात्मवान् ।
तान् दृष्ट्वा ये पुरा सृष्टाः प्रशशंसुः प्रजापतिम् ॥ ५०॥
अहो एतज्जगत्स्रष्टः सुकृतं बत ते कृतम् ।
प्रतिष्ठिताः क्रिया यस्मिन् साकमन्नमदामहे ॥ ५१॥
तपसा विद्यया युक्तो योगेन सुसमाधिना ।
ऋषीन् ऋषिर्हृषीकेशः ससर्जाभिमताः प्रजाः ॥ ५२॥
तेभ्यश्चैकैकशः स्वस्य देहस्यांशमदादजः ।
यत्तत्समाधियोगर्द्धितपोविद्याविरक्तिमत् ॥ ५३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २०
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-बीसवाँ अध्याय
ब्रह्माजी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन
शौनकजी कहते हैं—सूतजी ! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायंभुव मनु ने आगे होनेवाली सन्तति को उत्पन्न करने के लिये किन-किन उपायों का अवलम्बन किया ? ॥ १ ॥ विदुरजी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को, उनके पुत्र दुर्योधन के सहित, भगवान श्रीकृष्ण का अनादर करने के कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था ॥ २ ॥ वे महर्षि द्वैपायन के पुत्र थे और महिमा में उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के आश्रित और कृष्णभक्तों के अनुगामी थे ॥ ३ ॥ तीर्थसेवन से उनका अन्त:करण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावत्र्तक्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ मैत्रेयजी के पास जाकर और क्या पूछा ? ॥ ४ ॥ सूतजी ! उन दोनों में वार्तालाप होने पर श्रीहरि के चरणों से सम्बन्ध रखनेवाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणों से निकले हुए गङ्गाजल के समान सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाली होंगी ॥ ५ ॥ सूतजी ! आपका मङ्गल हो, आप हमें भगवान की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभु के उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं। भला, ऐसा कौन रसिक होगा, जो श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते तृप्त हो जाय ॥ ६ ॥
नैमिषारण्यवासी मुनियों के इस प्रकार पूछने पर उग्रश्रवा सूतजी ने भगवान में चित्त लगाकर उनसे कहा—‘सुनिये’ ॥ ७ ॥
सूतजी ने कहा—मुनिगण ! अपनी माया से वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरि की रसातल से पृथ्वी को निकाल ने और खेल में ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्ष को मार डालने की लीला सुनकर विदुरजी को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेयजी से कहा ॥ ८ ॥
विदुरजी ने कहा—ब्रह्मन् ! आप परोक्ष विषयों को भी जाननेवाले हैं; अत: यह बतलाइये कि प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्माजी ने मरीचि आदि प्रजापतियों को उत्पन्न करके फिर सृष्टि को बढ़ा ने के लिये क्या किया ॥ ९ ॥ मरीचि आदि मुनीश्वरों ने और स्वायम्भुव मनु ने भी ब्रह्माजी की आज्ञा से किस प्रकार प्रजा की वृद्धि की ? ॥ १० ॥ क्या उन्होंने इस जगत को पत्नियों के सहयोग से उत्पन्न किया या अपने-अपने कार्य में स्वतन्त्र रहकर, अथवा सबने एक साथ मिलकर इस जगत की रचना की ? ॥ ११ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन है—उस जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियन्ता पुरुष और काल—इन तीन हेतुओं से तथा भगवान की सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ दैव की प्रेरणा से रज:प्रधान महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस—तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वों के अनेक वर्ग[1] प्रकट किये ॥ १३ ॥ वे सब अलग-अलग रहकर भूतों के कार्यरूप ब्रह्माण्ड की रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान की शक्ति से परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्ड की रचना की ॥ १४ ॥ वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्था में एक हजार वर्षों से भी अधिक समय तक कारणाब्धि के जल में पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान ने प्रवेश किया ॥ १५ ॥ उसमें अधिष्ठित होने पर उनकी नाभि से सहस्र सूर्यों के समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदाय का आश्रय था। उसी से स्वयं ब्रह्माजी का भी आविर्भाव हुआ है ॥ १६ ॥
जब ब्रह्माण्ड के गर्भरूप जल में शयन करनेवाले श्रीनारायणदेव ने ब्रह्माजी के अन्त:करण में प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पों में अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्था के अनुसार लोकों की रचना करने लगे ॥ १७ ॥ सब से पहले उन्होंने अपनी छाया से तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह—यों पाँच प्रकार की अविद्या उत्पन्न की ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी को अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अत: उन्होंने उसे त्याग दिया। तब, जिससे भूख-प्यास की उत्पत्ति होती है—ऐसे रात्रिरूप उस शरीर को उसी से उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसों ने ग्रहण कर लिया ॥ १९ ॥ उस समय भूख-प्यास से अभिभूत होकर वे ब्रह्माजी को खा ने को दौड़ पड़े और कह ने लगे—‘इसे खा जाओ, इस की रक्षा मत करो’, क्योंकि वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे ॥ २० ॥ ब्रह्माजी ने घबराकर उनसे कहा—‘अरे यक्ष-राक्षसो ! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो !’ (उनमें से जिन्हों ने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्हों ने कहा ‘रक्षा मत करो’, वे राक्षस कहलाये) ॥ २१ ॥
फिर ब्रह्माजी ने सात्त्वि की प्रभा से देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की। उन्होंने क्रीडा करते हुए, ब्रह्माजी के त्यागनेपर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया ॥ २२ ॥ इसके पश्चात ब्रह्माजी ने अपने जघनदेश से कामासक्त असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होने के कारण उत्पन्न होते ही मैथुन के लिये ब्रह्माजी की ओर चले ॥ २३ ॥ यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरों को अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोर से भागे ॥ २४ ॥ तब उन्होंने भक्तों पर कृपा करने के लिये उनकी भावना के अनुसार दर्शन देनेवाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरि के पास जाकर कहा— ॥ २५ ॥ ‘परमात्मन् ! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी ही आज्ञा से प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप में प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है ॥ २६ ॥ नाथ ! एकमात्र आप ही दुखी जीवों का दु:ख दूर करनेवाले हैं और जो आपकी चरण-शरण में नहीं आते, उन्हें दु:ख देनेवाले भी एकमात्र आप ही हैं’ ॥ २७ ॥
प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सब के हृदय की जाननेवाले हैं। उन्होंने ब्रह्माजी की आतुरता देखकर कहा—‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीर को त्याग दो।’ भगवान के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया ॥ २८ ॥
(ब्रह्माजी का छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री—संध्यादेवी के रूप में परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब झङ्कृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित सजीली साड़ी से ढ की हुई थी ॥ २९ ॥ उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक दूसरे से सटे हुए थे कि उनके बीच में कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासि का और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरों की ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टि से देख रही थी ॥ ३० ॥ वह नीली-नीली अलकावली से सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जा के मारे अपने अञ्चल में ही सिमिटी जाती थी। विदुरजी ! उस सुन्दरी को देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये ॥ ३१ ॥ ‘अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीडि़तों के बीच में यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’ ॥ ३२ ॥
इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्यों ने स्त्रीरूपिणी संध्या के विषय में तरह-तरह के तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा— ॥ ३३ ॥ ‘सुन्दरि ! तुम कौन हो और किस की पुत्री हो ? भामिनि ! यहाँ तुम्हारे आ ने का क्या प्रयोजन है ? तुम अपने अनूप रूप का यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागों को क्यों तरसा रही हो ॥ ३४ ॥ अबले ! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ—यह बड़े सौभाग्य की बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकों के मन को मथे डालती हो ॥ ३५ ॥ सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंद पर अपनी हथेली की थप की मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनों के भार से थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टि से भी थकावट झलक ने लगती है। अहो ! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’ ॥ ३६ ॥ इस प्रकार स्त्रीरूप से प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्या ने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ों ने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया ॥ ३७ ॥
तदनन्तर ब्रह्माजी ने गम्भीर भाव से हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्तिसे, जो अपने सौन्दर्य का मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओं को उत्पन्न किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका)-रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीर को त्याग दिया। उसी को विश्वावसु आदि गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया ॥ ३९ ॥
इसके पश्चात भगवान ब्रह्माने अपनी तन्द्रा से भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी के त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीर को भूत-पिशाचों ने ग्रहण किया। इसी को निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवों की इन्द्रियों में शिथिलता आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुहँ सो जाता है तो उसपर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसी को उन्माद कहते हैं ॥ ४१ ॥
फिर भगवान ब्रह्माने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्य रूप से साध्यगण एवं पितृगण को उत्पन्न किया ॥ ४२ ॥ पितरों ने अपनी उत्पत्ति के स्थान उस अदृश्य शरीर को ग्रहण कर लिया। इसी को लक्ष्य में रखकर पण्डितजन श्राद्धादि के द्वारा पितर और साध्यगणों को क्रमश: कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं ॥ ४३ ॥
अपनी तिरोधानशक्ति से ब्रह्माजी ने सिद्ध और विद्याधरों की सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धाननामक अद्भुत शरीर दिया ॥ ४४ ॥ एक बार ब्रह्माजी ने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपने को बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये ॥ ४५ ॥ उन्होंने ब्रह्माजी के त्याग देने पर उनका वह प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उष:काल में अपनी पत्नियों के साथ मिलकर ब्रह्माजी के गुण-कर्मादि का गान किया करते हैं ॥ ४६ ॥
एक बार ब्रह्माजी सृष्टि की वृद्धि न होने के कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवों को फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीर को त्याग दिया ॥ ४७ ॥ उससे जो बाल झडक़र गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सि कोडक़र चल ने से क्रूरस्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फणरूप से कंधे के पास बहुत फैला होता है ॥ ४८ ॥
एक बार ब्रह्माजी ने अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्त में उन्होंने अपने मन से मनुओं की सृष्टि की। ये सब प्रजा की वृद्धि करनेवाले हैं ॥ ४९ ॥ मनस्वी ब्रह्माजी ने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओं को देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्माजी की स्तुति करने लगे ॥ ५० ॥ वे बोले, ‘विश्वकर्ता ब्रह्माजी ! आपकी यह (मनुओंकी) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्रिहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इस की सहायता से हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे’ ॥ ५१ ॥
फिर आदिऋषि ब्रह्माजी ने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगण की रचना की और उनमें से प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीर का अंश दिया ॥ ५२-५३ ॥
[1] पञ्चतन्मात्र, पञ्च महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और उनके पाँच-पाँच देवता—इन्हीं छ: वर्गों का यहाँ संकेत समझना चाहिये।
॥ एकविंशोऽध्यायः - २१ ॥
विदुर उवाच
स्वायंभुवस्य च मनोर्वंशः परमसम्मतः ।
कथ्यतां भगवन् यत्र मैथुनेनैधिरे प्रजाः ॥ १॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ स्वायंभुवस्य वै ।
यथाधर्मं जुगुपतुः सप्तद्वीपवतीं महीम् ॥ २॥
तस्य वै दुहिता ब्रह्मन् देवहूतीति विश्रुता ।
पत्नी प्रजापतेरुक्ता कर्दमस्य त्वयानघ ॥ ३॥
तस्यां स वै महायोगी युक्तायां योगलक्षणैः ।
ससर्ज कतिधा वीर्यं तन्मे शुश्रूषवे वद ॥ ४॥
रुचिर्यो भगवान् ब्रह्मन् दक्षो वा ब्रह्मणः सुतः ।
यथा ससर्ज भूतानि लब्ध्वा भार्यां च मानवीम् ॥ ५॥
मैत्रेय उवाच
प्रजाः सृजेति भगवान् कर्दमो ब्रह्मणोदितः ।
सरस्वत्यां तपस्तेपे सहस्राणां समा दश ॥ ६॥
ततः समाधियुक्तेन क्रियायोगेन कर्दमः ।
सम्प्रपेदे हरिं भक्त्या प्रपन्नवरदाशुषम् ॥ ७॥
तावत्प्रसन्नो भगवान् पुष्कराक्षः कृते युगे ।
दर्शयामास तं क्षत्तः शाब्दं ब्रह्म दधद्वपुः ॥ ८॥
स तं विरजमर्काभं सितपद्मोत्पलस्रजम् ।
स्निग्द्धनीलालकव्रातवक्त्राब्जं विरजोऽम्बरम् ॥ ९॥
किरीटिनं कुण्डलिनं शङ्खचक्रगदाधरम् ।
श्वेतोत्पलक्रीडनकं मनःस्पर्शस्मितेक्षणम् ॥ १०॥
विन्यस्तचरणांभोजमंसदेशे गरुत्मतः ।
दृष्ट्वा खेऽवस्थितं वक्षःश्रियं कौस्तुभकन्धरम् ॥ ११॥
जातहर्षोऽपतन्मूर्ध्ना क्षितौ लब्धमनोरथः ।
गीर्भिस्त्वभ्यगृणात्प्रीतिस्वभावात्मा कृताञ्जलिः ॥ १२॥
ऋषिरुवाच
जुष्टं बताद्याखिलसत्त्वराशेः
सांसिद्ध्यमक्ष्णोस्तव दर्शनान्नः ।
यद्दर्शनं जन्मभिरीड्य सद्भि-
राशासते योगिनो रूढयोगाः ॥ १३॥
ये मायया ते हतमेधसस्त्व-
त्पादारविन्दं भवसिन्धुपोतम् ।
उपासते कामलवाय तेषां
रासीश कामान्निरयेऽपि ये स्युः ॥ १४॥
तथा स चाहं परिवोढुकामः
समानशीलां गृहमेधधेनुम् ।
उपेयिवान् मूलमशेषमूलं
दुराशयः कामदुघाङ्घ्रिपस्य ॥ १५॥
प्रजापतेस्ते वचसाधीश तन्त्या
लोकः किलायं कामहतोऽनुबद्धः ।
अहं च लोकानुगतो वहामि
बलिं च शुक्लानिमिषाय तुभ्यम् ॥ १६॥
लोकांश्च लोकानुगतान् पशूंश्च
हित्वा श्रितास्ते चरणातपत्रम् ।
परस्परं त्वद्गुणवादसीधु-
पीयूषनिर्यापितदेहधर्माः ॥ १७॥
न तेऽजराक्षभ्रमिरायुरेषां
त्रयोदशारं त्रिशतं षष्टिपर्व ।
षण्नेम्यनन्तच्छदि यत्त्रिणाभि-
करालस्रोतो जगदाच्छिद्य धावत् ॥ १८॥
एकः स्वयं सन् जगतः सिसृक्षया
द्वितीययाऽऽत्मन्नधियोगमायया ।
सृजस्यदः पासि पुनर्ग्रसिष्यसे
यथोर्णनाभिर्भगवन् स्वशक्तिभिः ॥ १९॥
नैतद्बताधीश पदं तवेप्सितं
यन्मायया नस्तनुषे भूतसूक्ष्मम् ।
अनुग्रहायास्त्वपि यर्हि मायया
लसत्तुलस्या तनुवा विलक्षितः ॥ २०॥
तं त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थं
स्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं नमनीयपाद-
सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥ २१॥
ऋषिरुवाच
इत्यव्यलीकं प्रणुतोऽब्जनाभ-
स्तमाबभाषे वचसामृतेन ।
सुपर्णपक्षोपरि रोचमानः
प्रेमस्मितोद्वीक्षणविभ्रमद्भ्रूः ॥ २२॥
श्रीभगवानुवाच
विदित्वा तव चैत्यं मे पुरैव समयोजि तत् ।
यदर्थमात्मनियमैस्त्वयैवाहं समर्चितः ॥ २३॥
न वै जातु मृषैव स्यात्प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् ।
भवद्विधेष्वतितरां मयि सङ्गृभितात्मनाम् ॥ २४॥
प्रजापतिसुतः सम्राण्मनुर्विख्यातमङ्गलः ।
ब्रह्मावर्तं योऽधिवसन् शास्ति सप्तार्णवां महीम् ॥ २५॥
स चेह विप्र राजर्षिर्महिष्या शतरूपया ।
आयास्यति दिदृक्षुस्त्वां परश्वो धर्मकोविदः ॥ २६॥
आत्मजामसितापाङ्गीं वयःशीलगुणान्विताम् ।
मृगयन्तीं पतिं दास्यत्यनुरूपाय ते प्रभो ॥ २७॥
समाहितं ते हृदयं यत्रेमान् परिवत्सरान् ।
सा त्वां ब्रह्मन् नृपवधूः काममाशु भजिष्यति ॥ २८॥
या त आत्मभृतं वीर्यं नवधा प्रसविष्यति ।
वीर्ये त्वदीये ऋषय आधास्यन्त्यञ्जसाऽऽत्मनः ॥ २९॥
त्वं च सम्यगनुष्ठाय निदेशं म उशत्तमः ।
मयि तीर्थीकृताशेषक्रियार्थो मां प्रपत्स्यसे ॥ ३०॥
कृत्वा दयां च जीवेषु दत्त्वा चाभयमात्मवान् ।
मय्यात्मानं सह जगद्द्रक्ष्यस्यात्मनि चापि माम् ॥ ३१॥
सहाहं स्वांशकलया त्वद्वीर्येण महामुने ।
तव क्षेत्रे देवहूत्यां प्रणेष्ये तत्त्वसंहिताम् ॥ ३२॥
मैत्रेय उवाच
एवं तमनुभाष्याथ भगवान् प्रत्यगक्षजः ।
जगाम बिन्दुसरसः सरस्वत्या परिश्रितात् ॥ ३३॥
निरीक्षतस्तस्य ययावशेष-
सिद्धेश्वराभिष्टुतसिद्धमार्गः ।
आकर्णयन् पत्ररथेन्द्रपक्षै-
रुच्चारितं स्तोममुदीर्णसाम ॥ ३४॥
अथ सम्प्रस्थिते शुक्ले कर्दमो भगवान् ऋषिः ।
आस्ते स्म बिन्दुसरसि तं कालं प्रतिपालयन् ॥ ३५॥
मनुः स्यन्दनमास्थाय शातकौंभपरिच्छदम् ।
आरोप्य स्वां दुहितरं सभार्यः पर्यटन् महीम् ॥ ३६॥
तस्मिन् सुधन्वन्नहनि भगवान् यत्समादिशत् ।
उपायादाश्रमपदं मुनेः शान्तव्रतस्य तत् ॥ ३७॥
यस्मिन् भगवतो नेत्रान्न्यपतन्नश्रुबिन्दवः ।
कृपया सम्परीतस्य प्रपन्नेऽर्पितया भृशम् ॥ ३८॥
तद्वै बिन्दुसरो नाम सरस्वत्या परिप्लुतम् ।
पुण्यं शिवामृतजलं महर्षिगणसेवितम् ॥ ३९॥
पुण्यद्रुमलताजालैः कूजत्पुण्यमृगद्विजैः ।
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्यं वनराजिश्रियान्वितम् ॥ ४०॥
मत्तद्विजगणैर्घुष्टं मत्तभ्रमरविभ्रमम् ।
मत्तबर्हिनटाटोपमाह्वयन् मत्तकोकिलम् ॥ ४१॥
कदंबचम्पकाशोककरञ्जबकुलासनैः ।
कुन्दमन्दारकुटजैश्चूतपोतैरलङ्कृतम् ॥ ४२॥
कारण्डवैः प्लवैर्हंसैः कुररैर्जलकुक्कुटैः ।
सारसैश्चक्रवाकैश्च चकोरैर्वल्गु कूजितम् ॥ ४३॥
तथैव हरिणैः क्रोडैः श्वाविद्गवयकुञ्जरैः ।
गोपुच्छैर्हरिभिर्मर्कैर्नकुलैर्नाभिभिर्वृतम् ॥ ४४॥
प्रविश्य तत्तीर्थवरमादिराजः सहात्मजः ।
ददर्श मुनिमासीनं तस्मिन् हुतहुताशनम् ॥ ४५॥
विद्योतमानं वपुषा तपस्युग्रयुजा चिरम् ।
नातिक्षामं भगवतः स्निग्धापाङ्गावलोकनात् ।
तद्व्याहृतामृतकलापीयूषश्रवणेन च ॥ ४६॥
प्रांशुं पद्मपलाशाक्षं जटिलं चीरवाससम् ।
उपसंश्रित्य मलिनं यथार्हणमसंस्कृतम् ॥ ४७॥
अथोटजमुपायातं नृदेवं प्रणतं पुरः ।
सपर्यया पर्यगृह्णात्प्रतिनन्द्यानुरूपया ॥ ४८॥
गृहीतार्हणमासीनं संयतं प्रीणयन् मुनिः ।
स्मरन् भगवदादेशमित्याह श्लक्ष्णया गिरा ॥ ४९॥
नूनं चङ्क्रमणं देव सतां संरक्षणाय ते ।
वधाय चासतां यस्त्वं हरेः शक्तिर्हि पालिनी ॥ ५०॥
योऽर्केन्द्वग्नीन्द्रवायूनां यमधर्मप्रचेतसाम् ।
रूपाणि स्थान आधत्से तस्मै शुक्लाय ते नमः ॥ ५१॥
न यदा रथमास्थाय जैत्रं मणिगणार्पितम् ।
विस्फूर्जच्चण्डकोदण्डो रथेन त्रासयन्नघान् ॥ ५२॥
स्वसैन्यचरणक्षुण्णं वेपयन् मण्डलं भुवः ।
विकर्षन् बृहतीं सेनां पर्यटस्यंशुमानिव ॥ ५३॥
तदैव सेतवः सर्वे वर्णाश्रमनिबन्धनाः ।
भगवद्रचिता राजन् भिद्येरन् बत दस्युभिः ॥ ५४॥
अधर्मश्च समेधेत लोलुपैर्व्यङ्कुशैर्नृभिः ।
शयाने त्वयि लोकोऽयं दस्युग्रस्तो विनङ् क्ष्यति ॥ ५५॥
अथापि पृच्छे त्वां वीर यदर्थं त्वमिहागतः ।
तद्वयं निर्व्यलीकेन प्रतिपद्यामहे हृदा ॥ ५६॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-इक्कीसवाँ अध्याय
कर्दमजी की तपस्या और भगवान का वरदान
विदुरजी ने पूछा—भगवन् ! स्वायम्भुव मनु का वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुन- धर्म के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसी की कथा सुनाइये ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद ने सातों द्वीपोंवाली पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री, जो देवहूति नाम से विख्यात थी, कर्दमप्रजापति को ब्याही गयी थी ॥ २-३ ॥ देवहूति योग के लक्षण यमादि से सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दमजी ने कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं ? वह सब प्रसङ्ग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुनने की बड़ी इच्छा है ॥ ४ ॥ इसी प्रकार भगवान रुचि और ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति ने भी मनुजी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके उनसे किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, यह सब चरित भी मुझे सुनाइये ॥ ५ ॥
मैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! जब ब्रह्माजी ने भगवान कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान की उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तीर पर तपस्या की ॥ ६ ॥ वे एकाग्र चित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचार द्वारा शरणागतवरदायक श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ७ ॥ तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान श्रीहरि ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्दब्रह्ममय स्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये ॥ ८ ॥
भगवान की वह भव्य मूर्ति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वे गले में श्वेत कमल और कुमुद के फूलों की माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावली से सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे ॥ ९ ॥ सिर पर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानों में जगमगाते हुए कुण्डल और कर-कमलों में शङ्ख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथ में क्रीडा के लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभु की मधुर मुसकानभरी चितवन चित्त को चुराये लेती थी ॥ १० ॥ उनके चरणकमल गरुडजी के कंधों पर विराजमान थे तथा वक्ष:स्थल में श्रीलक्ष्मीजी और कण्ठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी। प्रभु की इस आकाशस्थित मनोहर मूर्ति का दर्शन करके कर्दमजी को बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्द हृदय से पृथ्वी पर सिर टेककर भगवान को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवण चित्त से हाथ जोडक़र सुमधुर वाणी से वे उनकी स्तुति करने लगे ॥ ११-१२ ॥
कर्दमजी ने कहा—स्तुति करनेयोग्य परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुण के आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अन्त में योगस्थ होने पर आपके दर्शनों की इच्छा करते हैं;
आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया ॥ १३ ॥ आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखों के लिये, जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन् ! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं ॥ १४ ॥ प्रभो ! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथों को पूर्ण करनेवाले हैं। मेरा हृदय काम कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाववाली और गृहस्थधर्म के पालन में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने के लिये आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ ॥ १५ ॥ सर्वेश्वर ! आप सम्पूर्ण लोकों के अधिपति हैं।
नाना प्रकार की कामनाओं में फँसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरी में बँधा है। धर्ममूर्ते ! उसी का अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको आज्ञापालनरूप पूजोपहारादि समर्पित करता हूँ ॥ १६ ॥
प्रभो ! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन्हींके मार्ग का अनुसरण करनेवाले मुझ-जैसे कर्मजड पशुओं को कुछ भी न गिनकर आपके चरणों की छत्रछाया का ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक सुधा का ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मों को शान्त करते रहते हैं ॥ १७ ॥ प्रभो ! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। साक्षात ब्रह्म ही इसके घूम ने की धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं, छ: ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत की आयु का छेदन करता हुआ घूमता रहता है, किन्तु आपके भक्तों की आयु का ह्रास नहीं कर सकता ॥ १८ ॥ भगवन् ! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जाले को फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्त में उसे निगल जाती है—उसी प्रकार आप अकेले ही जगत की रचना करने के लिये अपने से अभिन्न अपनी योगमाया को स्वीकारकर उससे अभिव्यक्त हुई अपनी सत्त्वादि शक्तियों- द्वारा स्वयं ही इस जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं ॥ १९ ॥ प्रभो ! इस समय आपने हमें अपनी तुलसीमालामण्डित, माया से परिच्छिन्न-सी दिखायी देनेवाली सगुणमूर्ति से दर्शन दिया है। आप हम भक्तों को जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होने के कारण यद्यपि आपको पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाम में हमारा शुभ करने के लिये वे हमें प्राप्त हों— ॥ २० ॥
नाथ ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलानेवाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवाले पर भी समस्त अभिलषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २१ ॥ ।
मैत्रेयजी कहते हैं—भगवान की भौंहें प्रणय मुसकानभरी चितवन से चञ्चल हो रही थीं, वे गरुडजी के कंधे पर विराजमान थे। जब कर्दमजी ने इस प्रकार निष्कपटभाव से उनकी स्तुति की तब वे उनसे अमृतमयी वाणी से कह ने लगे ॥ २२ ॥
श्रीभगवान ने कहा—जिसके लिये तुम ने आत्मसंयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है ॥ २३ ॥ प्रजापते ! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिनका चित्त निरन्तर एकान्तरूप से मुझ में ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है ॥ २४ ॥ प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्रवाली सारी पृथ्वी का शासन करते हैं ॥ २५ ॥ विप्रवर ! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के साथ तुम से मिल ने के लिये परसों यहाँ आयेंगे ॥ २६ ॥ उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणों से सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाह के योग्य है। प्रजापते ! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हीं को वह कन्या अर्पण करेंगे ॥ २७ ॥ ब्रह्मन् ! गत अनेकों वर्षों से तुम्हारा चित्त जैसी भार्या के लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी ॥ २८ ॥ वह तुम्हारा वीर्य अपने गर्भ में धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओं से लोकरीति के अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगे ॥ २९ ॥ तुम भी मेरी आज्ञा का अच्छी तरह पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पणकर मुझको ही प्राप्त होओगे ॥ ३० ॥ जीवों पर दया करते हुए तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सब को अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत को मुझ में और मुझको अपने में स्थित देखोगे ॥ ३१ ॥ महामुने ! मैं भी अपने अंश-कलारूप से तुम्हारे वीर्य द्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ में अवतीर्ण होकर सांख्यशास्त्र की रचना करूँगा ॥ ३२ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! कर्दमऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियों के अन्तर्मुख होने पर प्रकट होनेवाले श्रीहरि सरस्वती नदी से घिरे हुए बिन्दुसर-तीर्थ से (जहाँ कर्दमऋषि तप कर रहे थे) अपने लोक को चले गये ॥ ३३ ॥ भगवान के सिद्धमार्ग (वैकुण्ठमार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं। वे कर्दमजी के देखते-देखते अपने लोक को सिधार गये। उस समय गरुडजी के पक्षों से जो साम की आधारभूता ऋचाएँ निकल रही थीं, उन्हें वे सुनते जाते थे ॥ ३४ ॥
विदुरजी ! श्रीहरि के चले जाने पर भगवान कर्दम उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दुसरोवर पर ही ठहरे रहे ॥ ३५ ॥ वीरवर ! इधर मनुजी भी महारानी शतरूपा के साथ सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर तथा उसपर अपनी कन्या को भी बिठाकर पृथ्वी पर विचरते हुए, जो दिन भगवान ने बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण महर्षि कर्दम के उस आश्रम पर पहुँचे ॥ ३६-३७ ॥ सरस्वती के जल से भरा हुआ यह बिन्दुसरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत भक्त कर्दम के प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणा के वशीभूत हुए भगवान के नेत्रों से आँसुओं की बूँदें गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल कल्याणमय और अमृत के समान मधुर है तथा महर्षिगण सदा इसका सेवन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥ उस समय बिन्दु-सरोवर पवित्र वृक्ष-लताओं से घिरा हुआ था, जिन में तरह-तरह की बोली बोलनेवाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह स्थान सभी ऋतुओं के फल और फूलों से सम्पन्न था और सुन्दर वनश्रेणी भी उसकी शोभा बढ़ाती थी ॥ ४० ॥ वहाँ झुंड-के-झुंड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले भौंरे मँडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ फैला-फैलाकर नट की भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू-कुहू करके मानो एक दूसरे को बुला रहे थे ॥ ४१ ॥ वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक, करञ्ज, बकुल, असन, कुन्द, मन्दार, कुटज और नये-नये आम के वृक्षों से अलंकृत था ॥ ४२ ॥ वहाँ जलकाग, बत्तख आदि जल पर तैरनेवाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग, सारस, चकवा और च कोर मधुर स्वर से कलरव कर रहे थे ॥ ४३ ॥ हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लँगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरीमृग आदि पशुओं से भी वह आश्रम घिरा हुआ था ॥ ४४ ॥
आदिराज महाराज मनु ने उस उत्तम तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्रिहोत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए हैं ॥ ४५ ॥ बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान के स्नेहपूर्ण चितवन के दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुननेसे, इत ने दिनों तक तपस्या करने पर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे ॥ ४६ ॥ उनका शरीर लंबा था, नेत्र कमलदल के समान विशाल और मनोहर थे, सिर पर जटाएँ सुशोभित थीं और कमर में चीर-वस्त्र थे। वे निकट से देखने पर बिना सान पर चढ़ी हुई महामूल्य मणि के समान मलिन जान पड़ते थे ॥ ४७ ॥ महाराज स्वायम्भुवमनु को अपनी कुटी में आकर प्रणाम करते देख उन्होंनें उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्य की रीति से उनका स्वागत-सत्कार किया ॥ ४८ ॥
जब मनुजी उनकी पूजा ग्रहण कर स्वस्थ-चित्त से आसन पर बैठ गये, तब मुनिवर कर्दम ने भगवान की आज्ञा का स्मरण कर उन्हें मधुर वाणी से प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा— ॥ ४९ ॥ ‘देव ! आप भगवान विष्णु की पालनशक्तिरूप हैं, इसलिये आपका घूमना-फिरना नि:सन्देह सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिये ही होता है ॥ ५० ॥ आप साक्षात विशुद्ध विष्णु स्वरूप हैं तथा भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये सूर्य, चन्द्र, अग्रि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको नमस्कार है ॥ ५१ ॥ आप मणियों से जड़े हुए जयदायक रथ पर सवार हो, अपने प्रचण्ड धनुष की टङ्कार करते हुए उस रथ की घरघराहट से ही पापियों को भयभीत कर देते हैं और अपनी सेना के चरणों से रौंदे हुए भूमण्डल को कँपाते अपनी उस विशाल सेना को साथ लेकर पृथ्वी पर सूर्य के समान विचरते हैं। यदि आप ऐसा न करें तो चोर-डाकू भगवान की बनायी हुई वर्णाश्रमधर्म की मर्यादा को तत्काल नष्ट कर दें तथा विषयलोलुप निरङ्कुश मानवों द्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाय। यदि आप संसार की ओर से निश्चिन्त हो जायँ तो यह लोक दुराचारियों के पंजे में पडक़र नष्ट हो जाय ॥ ५२—५५ ॥ तो भी वीरवर ! मैं आप से पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजन से हुआ है ? मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट भाव से सहर्ष स्वीकार करूँगा ॥ ५६ ॥
॥ द्वाविंशोऽध्यायः - २२ ॥
मैत्रेय उवाच
एवमाविष्कृताशेषगुणकर्मोदयो मुनिम् ।
सव्रीड इव तं सम्राडुपारतमुवाच ह ॥ १॥
मनुरुवाच
ब्रह्मासृजत्स्वमुखतो युष्मानात्मपरीप्सया ।
छन्दोमयस्तपोविद्यायोगयुक्तानलम्पटान् ॥ २॥
तत्त्राणायासृजच्चास्मान् दोःसहस्रात्सहस्रपात् ।
हृदयं तस्य हि ब्रह्म क्षत्रमङ्गं प्रचक्षते ॥ ३॥
अतो ह्यन्योन्यमात्मानं ब्रह्म क्षत्रं च रक्षतः ।
रक्षति स्माव्ययो देवः स यः सदसदात्मकः ॥ ४॥
तव सन्दर्शनादेव च्छिन्ना मे सर्वसंशयाः ।
यत्स्वयं भगवान् प्रीत्या धर्ममाह रिरक्षिषोः ॥ ५॥
दिष्ट्या मे भगवान् दृष्टो दुर्दर्शो योऽकृतात्मनाम् ।
दिष्ट्या पादरजः स्पृष्टं शीर्ष्णा मे भवतः शिवम् ॥ ६॥
दिष्ट्या त्वयानुशिष्टोऽहं कृतश्चानुग्रहो महान् ।
अपावृतैः कर्णरन्ध्रैर्जुष्टा दिष्ट्योशतीर्गिरः ॥ ७॥
स भवान् दुहितृस्नेहपरिक्लिष्टात्मनो मम ।
श्रोतुमर्हसि दीनस्य श्रावितं कृपया मुने ॥ ८॥
प्रियव्रतोत्तानपदोः स्वसेयं दुहिता मम ।
अन्विच्छति पतिं युक्तं वयःशीलगुणादिभिः ॥ ९॥
यदा तु भवतः शीलश्रुतरूपवयोगुणान् ।
अशृणोन्नारदादेषा त्वय्यासीत्कृतनिश्चया ॥ १०॥
तत्प्रतीच्छ द्विजाग्र्येमां श्रद्धयोपहृतां मया ।
सर्वात्मनानुरूपां ते गृहमेधिषु कर्मसु ॥ ११॥
उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते ।
अपि निर्मुक्तसङ्गस्य कामरक्तस्य किं पुनः ॥ १२॥
य उद्यतमनादृत्य कीनाशमभियाचते ।
क्षीयते तद्यशः स्फीतं मानश्चावज्ञया हतः ॥ १३॥
अहं त्वाशृणवं विद्वन् विवाहार्थं समुद्यतम् ।
अतस्त्वमुपकुर्वाणः प्रत्तां प्रतिगृहाण मे ॥ १४॥
ऋषिरुवाच
बाढमुद्वोढुकामोऽहमप्रत्ता च तवात्मजा ।
आवयोरनुरूपोऽसावाद्यो वैवाहिको विधिः ॥ १५॥
कामः स भूयान्नरदेव तेऽस्याः
पुत्र्याः समाम्नायविधौ प्रतीतः ।
क एव ते तनयां नाद्रियेत
स्वयैव कान्त्या क्षिपतीमिव श्रियं ॥ १६॥
यां हर्म्यपृष्ठे क्वणदङ्घ्रिशोभां
विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम् ।
विश्वावसुर्न्यपतत्स्वाद्विमाना-
द्विलोक्य सम्मोहविमूढचेताः ॥ १७॥
तां प्रार्थयन्तीं ललनाललाम-
मसेवितश्रीचरणैरदृष्टाम् ।
वत्सां मनोरुच्चपदः स्वसारं
को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम् ॥ १८॥
अतो भजिष्ये समयेन साध्वीं
यावत्तेजो बिभृयादात्मनो मे ।
अतो धर्मान् पारमहंस्यमुख्यान्
शुक्लप्रोक्तान् बहु मन्येऽविहिंस्रान् ॥ १९॥
यतोऽभवद्विश्वमिदं विचित्रं
संस्थास्यते यत्र च वावतिष्ठते ।
प्रजापतीनां पतिरेष मह्यं
परं प्रमाणं भगवाननन्तः ॥ २०॥
मैत्रेय उवाच
स उग्रधन्वन्नियदेवाबभाषे
आसीच्च तूष्णीमरविन्दनाभम् ।
धियोपगृह्णन् स्मितशोभितेन
मुखेन चेतो लुलुभे देवहूत्याः ॥ २१॥
सोऽनुज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितुः स्फुटम् ।
तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षितः ॥ २२॥
शतरूपा महाराज्ञी पारिबर्हान् महाधनान् ।
दम्पत्योः पर्यदात्प्रीत्या भूषावासः परिच्छदान् ॥ २३॥
प्रत्तां दुहितरं सम्राट् सदृक्षाय गतव्यथः ।
उपगुह्य च बाहुभ्यामौत्कण्ठ्योन्मथिताशयः ॥ २४॥
अशक्नुवंस्तद्विरहं मुञ्चन् बाष्पकलां मुहुः ।
आसिञ्चदंब वत्सेति नेत्रोदैर्दुहितुः शिखाः ॥ २५॥
आमन्त्र्य तं मुनिवरमनुज्ञातः सहानुगः ।
प्रतस्थे रथमारुह्य सभार्यः स्वपुरं नृपः ॥ २६॥
उभयोः ऋषिकुल्यायाः सरस्वत्याः सुरोधसोः ।
ऋषीणामुपशान्तानां पश्यन्नाश्रमसम्पदः ॥ २७॥
तमायान्तमभिप्रेत्य ब्रह्मावर्तात्प्रजाः पतिम् ।
गीतसंस्तुतिवादित्रैः प्रत्युदीयुः प्रहर्षिताः ॥ २८॥
बर्हिष्मती नाम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता ।
न्यपतन् यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वतः ॥ २९॥
कुशाः काशास्त एवासन् शश्वद्धरितवर्चसः ।
ऋषयो यैः पराभाव्य यज्ञघ्नान्यज्ञमीजिरे ॥ ३०॥
कुशकाशमयं बर्हिरास्तीर्य भगवान् मनुः ।
अयजद्यज्ञपुरुषं लब्धा स्थानं यतो भुवम् ॥ ३१॥
बर्हिष्मतीं नाम विभुर्यां निर्विश्य समावसत् ।
तस्यां प्रविष्टो भवनं तापत्रयविनाशनम् ॥ ३२॥
सभार्यः सप्रजः कामान् बुभुजेऽन्याविरोधतः ।
सङ्गीयमानसत्कीर्तिः सस्त्रीभिः सुरगायकैः ।
प्रत्यूषेष्वनुबद्धेन हृदा शृण्वन् हरेः कथाः ॥ ३३॥
निष्णातं योगमायासु मुनिं स्वायंभुवं मनुम् ।
यदा भ्रंशयितुं भोगा न शेकुर्भगवत्परम् ॥ ३४॥
अयातयामास्तस्यासन् यामाः स्वान्तरयापनाः ।
शृण्वतो ध्यायतो विष्णोः कुर्वतो ब्रुवतः कथाः ॥ ३५॥
स एवं स्वान्तरं निन्ये युगानामेकसप्ततिम् ।
वासुदेवप्रसङ्गेन परिभूतगतित्रयः ॥ ३६॥
शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥ ३७॥
यः पृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान्नानाविधान् शुभान् ।
नृणां वर्णाश्रमाणां च सर्वभूतहितः सदा ॥ ३८॥
एतत्त आदिराजस्य मनोश्चरितमद्भुतम् ।
वर्णितं वर्णनीयस्य तदपत्योदयं शृणु ॥ ३९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-बाईसवाँ अध्याय
देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार जब कर्दमजी ने मनुजी के सम्पूर्ण गुणों और कर्मों की श्रेष्ठता का वर्णन किया, तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनि से कुछ सकुचाकर कहा ॥ १ ॥
मनुजी ने कहा—मुने ! वेदमूर्ति भगवान ब्रह्माने अपने वेदमय विग्रह की रक्षा के लिये तप, विद्या और योग से सम्पन्न तथा विषयों में अनासक्त आप ब्राह्मणों को अपने मुख से प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणोंवाले विराट् पुरुष ने आप लोगों की रक्षा के लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओं से हम क्षत्रियों को उत्पन्न किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं ॥ २-३ ॥ अत: एक ही शरीर से सम्बद्ध होने के कारण अपनी-अपनी और एक दूसरे की रक्षा करनेवाले उन ब्राह्मण और क्षत्रियों की वास्तव में श्रीहरि ही रक्षा करते हैं, जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तव में निर्विकार हैं ॥ ४ ॥ आपके दर्शनमात्र से ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी प्रशंसा के मिस से स्वयं ही प्रजापालन की इच्छावाले राजा के धर्मों का बड़े प्रेम से निरूपण किया है ॥ ५ ॥ आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषों को बहुत दुर्लभ है; मेरा बड़ा भाग्य है, जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणों की मङ्गलमयी रज अपने सिर पर चढ़ा स का ॥ ६ ॥ मेरे भाग्योदय से ही आपने मुझे राजधर्मों की शिक्षा देकर मुझ पर महान अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्ध का उदय होने से ही आपकी पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है ॥ ७ ॥
मुने ! इस कन्या के स्नेहवश मेरा चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अत: मुझ दीन की यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें ॥ ८ ॥ यह मेरी कन्या—जो प्रियव्रत और उत्तानपाद की बहिन है—अवस्था, शील और गुण आदि में अपने योग्य पति को पाने की इच्छा रखती है ॥ ९ ॥ जबसे इस ने नारदजी के मुख से आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणों का वर्णन सुना है, तभी से यह आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर चुकी है ॥ १० ॥ द्विजवर ! मैं बड़ी श्रद्धा से आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्यों के लिये सब प्रकार आपके योग्य है ॥ ११ ॥ जो भोग स्वत: प्राप्त हो जाय, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुष को भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्त की तो बात ही क्या है ॥ १२ ॥ जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोग का निरादर कर फिर किसी कृपण के आगे हाथ पसारता है, उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और दूसरों के तिरस्कार से मानभङ्ग भी होता है ॥ १३ ॥ विद्वन् ! मैंने सुना है, आप विवाह करने के लिये उद्यत हैं। आपका ब्रह्चर्य एक सीमा तक है, आप नैष्ठिक ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्या को स्वीकार कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ ॥ १४ ॥
श्रीकर्दम मुनि ने कहा—ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्या का अभी किसी के साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनों का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म[1] विधि से विवाह होना उचित ही होगा ॥ १५ ॥ राजन् ! वेदोक्त विवाह-विधि में प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रों में बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्या के साथ हमारा सम्बन्ध होने से सफल होगा। भला, जो अपनी अङ्गकान्ति से आभूषणादि की शोभा को भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्या का कौन आदर न करेगा ? ॥ १६ ॥ एक बार यह अपने महल की छत पर गेंद खेल रही थी। गेंद के पीछे इधर-उधर दौडऩे के कारण इसके नेत्र चञ्चल हो रहे थे तथा पैरों के पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमान से गिर पड़ा था ॥ १७ ॥ वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्था में कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा ? यह तो साक्षात आप महाराज श्रीस्वायम्भुवमनु की दुलारी कन्या और उत्तानपाद की प्यारी बहिन है तथा यह रमणियों में रत्न के समान है। जिन लोगों ने कभी श्रीलक्ष्मीजी के चरणों की उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता ॥ १८ ॥ अत: मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्त के साथ। जब तक इसके संतान न हो जायगी, तब तक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दमादि धर्मों को ही अधिक महत्त्व दूँगा ॥ १९ ॥ जिन से इस विचित्र जगत की उत्पत्ति हुई है, जिन में यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रय से यह स्थित है—मुझे तो वे प्रजापतियों के भी पति भगवान श्रीअनन्त ही सब से अधिक मान्य हैं ॥ २० ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—प्रचण्ड धनुर्धर विदुर ! कर्दमजी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदय में भगवान कमलनाभ का ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उनके मन्द हास्ययुक्त मुखकमल को देखकर देवहूति का चित्त लुभा गया ॥ २१ ॥ मनुजी ने देखा कि इस सम्बन्ध में महारानी शतरूपा और राजकुमारी की स्पष्ट अनुमति है, अत: उन्होंने अनेक गुणों से सम्पन्न कर्दमजी को उन्हींके समान गुणवती कन्या का प्रसन्नता-पूर्वक दान कर दिया ॥ २२ ॥ महारानी शतरूपाने भी बेटी और दामाद को बड़े प्रेमपूर्वक बहुत- से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेज में दिये ॥ २३ ॥ इस प्रकार सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोग न सह सक ने के कारण उन्होंने उत्कण्ठावश विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छाती से चिपटा लिया और ‘बेटी ! बेटी !’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूति के सिर के सारे बाल भिगो दिये ॥ २४-२५ ॥ फिर वे मुनिवर कर्दम से पूछकर, उनकी आज्ञा ले रानी के सहित रथ पर सवार हुए और अपने सेवकोंसहित ऋषिकुलसेवित सरस्वती नदी के दोनों तीरों पर मुनियों के आश्रमों की शोभा देखते हुए अपनी राजधानी में चले आये ॥ २६-२७ ॥
जब ब्रह्मावर्त की प्रजा को यह समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजे के साथ अगवानी करने के लिये ब्रह्मावर्त की राजधानी से बाहर आयी ॥ २८ ॥ सब प्रकार की सम्पदाओं से युक्त बर्हिष्मती नगरी मनुजी की राजधानी थी, जहाँ पृथ्वी को रसातल से ले आ ने के पश्चात शरीर कँपाते समय श्रीवराहभगवान के रोम झडक़र गिरे थे ॥ २९ ॥ वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहनेवाले कुश और कास हुए, जिनके द्वारा मुनियों ने यज्ञ में विघ्र डालनेवाले दैत्यों का तिरस्कार कर भगवान यज्ञपुरुष की यज्ञों द्वारा आराधना की है ॥ ३० ॥ महाराज मनु ने भी श्रीवराहभगवान से भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होने पर इसी स्थान में कुश और कास की बर्हि(चटाई) बिछाकर श्रीयज्ञभगवान की पूजा की थी ॥ ३१ ॥
जिस बर्हिष्मती पुरी में मनुजी निवास करते थे, उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवन में प्रवेश किया ॥ ३२ ॥ वहाँ अपनी भार्या और सन्तति के सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्ष के अनुकूल भोगों को भोग ने लगे। प्रात:काल होने पर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियों के सहित उनका गुणगान करते थे; किन्तु मनुजी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदय से श्रीहरि की कथाएँ ही सुना करते थे ॥ ३३ ॥ वे इच्छानुसार भोगों का निर्माण करने में कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होने के कारण भोग उन्हें किंचित भी विचलित नहीं कर पाते थे ॥ ३४ ॥ भगवान विष्णु की कथाओं का श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहने के कारण उनके मन्वन्तर को व्यतीत करनेवाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे ॥ ३५ ॥ इस प्रकार अपनी जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणों को अभिभूत करके उन्होंने भगवान वासुदेव के कथाप्रसङ्ग में अपने मन्वन्तर के इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये ॥ ३६ ॥ व्यासनन्दन विदुरजी ! जो पुरुष श्रीहरि के आश्रित रहता है, उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दु:ख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं ॥ ३७ ॥ मनुजी निरन्तर समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे। मुनियों के पूछने पर उन्होंने मनुष्यों के तथा समस्त वर्ण और आश्रमों के अनेक प्रकार के मङ्गलमय धर्मों का भी वर्णन किया (जो मनुसंहिता के रूप में अब भी उपलब्ध है) ॥ ३८ ॥
जगत के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तव में कीर्तन के योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्र का वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूति का प्रभाव सुनो ॥ ३९ ॥
[1] मनुस्मृति में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख पाया जाता है—(१) ब्राह्म, (२) दैव, (३) आर्ष, (४) प्राजापत्य, (५) आसुर, (६) गान्धर्व, (७) राक्षस और (८) पैशाच। इनके लक्षण वहीं तीसरे अध्याय में देखने चाहिये। इनमें पहला सब से श्रेष्ठ माना गया है। इसमें पिता योग्य वर को कन्या का दान करता है।
॥ त्रयोविंशोऽध्यायः - २३ ॥
मैत्रेय उवाच
पितृभ्यां प्रस्थिते साध्वी पतिमिङ्गितकोविदा ।
नित्यं पर्यचरत्प्रीत्या भवानीव भवं प्रभुम् ॥ १॥
विश्रंभेणात्मशौचेन गौरवेण दमेन च ।
शुश्रूषया सौहृदेन वाचा मधुरया च भोः ॥ २॥
विसृज्य कामं दंभं च द्वेषं लोभमघं मदम् ।
अप्रमत्तोद्यता नित्यं तेजीयांसमतोषयत् ॥ ३॥
स वै देवर्षिवर्यस्तां मानवीं समनुव्रताम् ।
दैवाद्गरीयसः पत्युराशासानां महाशिषः ॥ ४॥
कालेन भूयसा क्षामां कर्शितां व्रतचर्यया ।
प्रेमगद्गदया वाचा पीडितः कृपयाब्रवीत् ॥ ५॥
कर्दम उवाच
तुष्टोऽहमद्य तव मानवि मानदायाः
शुश्रूषया परमया परया च भक्त्या ।
यो देहिनामयमतीव सुहृत्स्वदेहो
नावेक्षितः समुचितः क्षपितुं मदर्थे ॥ ६॥
ये मे स्वधर्मनिरतस्य तपः समाधि-
विद्याऽऽत्मयोगविजिता भगवत्प्रसादाः ।
तानेव ते मदनुसेवनयावरुद्धान्
दृष्टिं प्रपश्य वितराम्यभयानशोकान् ॥ ७॥
अन्ये पुनर्भगवतो भ्रुव उद्विजृंभ-
विभ्रंशितार्थरचनाः किमुरुक्रमस्य ।
सिद्धासि भुङ्क्ष्व विभवान् निजधर्मदोहान्
दिव्यान्नरैर्दुरधिगान्नृपविक्रियाभिः ॥ ८॥
एवं ब्रुवाणमबलाखिलयोगमाया-
विद्याविचक्षणमवेक्ष्य गताधिरासीत् ।
सम्प्रश्रयप्रणयविह्वलया गिरेषद्-
व्रीडावलोकविलसद्धसिताननाऽऽह ॥ ९॥
देवहूतिरुवाच
राद्धं बत द्विजवृषैतदमोघयोगमायाधिपे
त्वयि विभो तदवैमि भर्तः ।
यस्तेऽभ्यधायि समयः सकृदङ्गसङ्गो
भूयाद्गरीयसि गुणः प्रसवः सतीनाम् ॥ १०॥
तत्रेतिकृत्यमुपशिक्ष यथोपदेशं
येनैष मे कर्शितोऽतिरिरंसयाऽऽत्मा ।
सिद्ध्येत ते कृतमनोभवधर्षिताया
दीनस्तदीश भवनं सदृशं विचक्ष्व ॥ ११॥
मैत्रेय उवाच
प्रियायाः प्रियमन्विच्छन् कर्दमो योगमास्थितः ।
विमानं कामगं क्षत्तस्तर्ह्येवाविरचीकरत् ॥ १२॥
सर्वकामदुघं दिव्यं सर्वरत्नसमन्वितम् ।
सर्वर्द्ध्युपचयोदर्कं मणिस्तंभैरुपस्कृतम् ॥ १३॥
दिव्योपकरणोपेतं सर्वकालसुखावहम् ।
पट्टिकाभिः पताकाभिर्विचित्राभिरलङ्कृतम् ॥ १४॥
स्रग्भिर्विचित्रमाल्याभिर्मञ्जुशिञ्जत्षडङ्घ्रिभिः ।
दुकूलक्षौमकौशेयैर्नानावस्त्रैर्विराजितम् ॥ १५॥
उपर्युपरि विन्यस्तनिलयेषु पृथक्पृथक् ।
क्षिप्तैः कशिपुभिः कान्तं पर्यङ्कव्यजनासनैः ॥ १६॥
तत्र तत्र विनिक्षिप्तनानाशिल्पोपशोभितम् ।
महामरकतस्थाल्या जुष्टं विद्रुमवेदिभिः ॥ १७॥
द्वाःसु विद्रुमदेहल्या भातं वज्रकपाटवत् ।
शिखरेष्विन्द्रनीलेषु हेमकुंभैरधिश्रितम् ॥ १८॥
चक्षुष्मत्पद्मरागाग्र्यैर्वज्रभित्तिषु निर्मितैः ।
जुष्टं विचित्रवैतानैर्महार्हैर्हेमतोरणैः ॥ १९॥
हंसपारावतव्रातैस्तत्र तत्र निकूजितम् ।
कृत्रिमान् मन्यमानैः स्वानधिरुह्याधिरुह्य च ॥ २०॥
विहारस्थानविश्रामसंवेशप्राङ्गणाजिरैः ।
यथोपजोषं रचितैर्विस्मापनमिवात्मनः ॥ २१॥
ईदृग्गृहं तत्पश्यन्तीं नातिप्रीतेन चेतसा ।
सर्वभूताशयाभिज्ञः प्रावोचत्कर्दमः स्वयम् ॥ २२॥
निमज्ज्यास्मिन् ह्रदे भीरु विमानमिदमारुह ।
इदं शुक्लकृतं तीर्थमाशिषां यापकं नृणाम् ॥ २३॥
सा तद्भर्तुः समादाय वचः कुवलयेक्षणा ।
सरजं बिभ्रती वासो वेणीभूतांश्च मूर्धजान् ॥ २४॥
अङ्गं च मलपङ्केन सञ्छन्नं शबलस्तनम् ।
आविवेश सरस्वत्याः सरः शिवजलाशयम् ॥ २५॥
सान्तःसरसि वेश्मस्थाः शतानि दश कन्यकाः ।
सर्वाः किशोरवयसो ददर्शोत्पलगन्धयः ॥ २६॥
तां दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रोचुः प्राञ्जलयः स्त्रियः ।
वयं कर्मकरीस्तुभ्यं शाधि नः करवाम किम् ॥ २७॥
स्नानेन तां महार्हेण स्नापयित्वा मनस्विनीम् ।
दुकूले निर्मले नूत्ने ददुरस्यै च मानदाः ॥ २८॥
भूषणानि परार्ध्यानि वरीयांसि द्युमन्ति च ।
अन्नं सर्वगुणोपेतं पानं चैवामृतासवम् ॥ २९॥
अथादर्शे स्वमात्मानं स्रग्विणं विरजांबरम् ।
विरजं कृतस्वस्त्ययनं कन्याभिर्बहुमानितम् ॥ ३०॥
स्नातं कृतशिरःस्नानं सर्वाभरणभूषितम् ।
निष्कग्रीवं वलयिनं कूजत्काञ्चननूपुरम् ॥ ३१॥
श्रोण्योरध्यस्तया काञ्च्या काञ्चन्या बहुरत्नया ।
हारेण च महार्हेण रुचकेन च भूषितम् ॥ ३२॥
सुदता सुभ्रुवा श्लक्ष्णस्निग्धापाङ्गेन चक्षुषा ।
पद्मकोशस्पृधा नीलैरलकैश्च लसन्मुखम् ॥ ३३॥
यदा सस्मार ऋषभमृषीणां दयितं पतिम् ।
तत्र चास्ते सह स्त्रीभिर्यत्रास्ते स प्रजापतिः ॥ ३४॥
भर्तुः पुरस्तादात्मानं स्त्रीसहस्रवृतं तदा ।
निशाम्य तद्योगगतिं संशयं प्रत्यपद्यत ॥ ३५॥
स तां कृतमलस्नानां विभ्राजन्तीमपूर्ववत् ।
आत्मनो बिभ्रतीं रूपं संवीतरुचिरस्तनीम् ॥ ३६॥
विद्याधरीसहस्रेण सेव्यमानां सुवाससम् ।
जातभावो विमानं तदारोहयदमित्रहन् ॥ ३७॥
तस्मिन्नलुप्तमहिमा प्रिययानुरक्तो
विद्याधरीभिरुपचीर्णवपुर्विमाने ।
बभ्राज उत्कचकुमुद्गणवानपीच्यः
ताराभिरावृत इवोडुपतिर्नभःस्थः ॥ ३८॥
तेनाष्टलोकपविहारकुलाचलेन्द्र-
द्रोणीष्वनङ्गसखमारुतसौभगासु ।
सिद्धैर्नुतो द्युधुनिपातशिवस्वनासु
रेमे चिरं धनदवल्ललना वरूथी ॥ ३९॥
वैश्रंभके सुरसने नन्दने पुष्पभद्रके ।
मानसे चैत्ररथ्ये च स रेमे रामया रतः ॥ ४०॥
भ्राजिष्णुना विमानेन कामगेन महीयसा ।
वैमानिकानत्यशेत चरल्लोकान् यथानिलः ॥ ४१॥
किं दुरापादनं तेषां पुंसामुद्दामचेतसाम् ।
यैराश्रितस्तीर्थपदश्चरणो व्यसनात्ययः ॥ ४२॥
प्रेक्षयित्वा भुवो गोलं पत्न्यै यावान् स्वसंस्थया ।
बह्वाश्चर्यं महायोगी स्वाश्रमाय न्यवर्तत ॥ ४३॥
विभज्य नवधाऽऽत्मानं मानवीं सुरतोत्सुकाम् ।
रामां निरमयन् रेमे वर्षपूगान् मुहूर्तवत् ॥ ४४॥
तस्मिन् विमान उत्कृष्टां शय्यां रतिकरीं श्रिता ।
न चाबुध्यत तं कालं पत्यापीच्येन सङ्गता ॥ ४५॥
एवं योगानुभावेन दम्पत्यो रममाणयोः ।
शतं व्यतीयुः शरदः कामलालसयोर्मनाक् ॥ ४६॥
तस्यामाधत्त रेतस्तां भावयन्नात्मनाऽऽत्मवित् ।
नोधा विधाय रूपं स्वं सर्वसङ्कल्पविद्विभुः ॥ ४७॥
अतः सा सुषुवे सद्यो देवहूतिः स्त्रियः प्रजाः ।
सर्वास्ताश्चारुसर्वाङ्ग्यो लोहितोत्पलगन्धयः ॥ ४८॥
पतिं सा प्रव्रजिष्यन्तं तदालक्ष्योशती सती ।
स्मयमाना विक्लवेन हृदयेन विदूयता ॥ ४९॥
लिखन्त्यधोमुखी भूमिं पदा नखमणिश्रिया ।
उवाच ललितां वाचं निरुध्याश्रुकलां शनैः ॥ ५०॥
देवहूतिरुवाच
सर्वं तद्भगवान् मह्यमुपोवाह प्रतिश्रुतम् ।
अथापि मे प्रपन्नाया अभयं दातुमर्हसि ॥ ५१॥
ब्रह्मन् दुहितृभिस्तुभ्यं विमृग्याः पतयः समाः ।
कश्चित्स्यान्मे विशोकाय त्वयि प्रव्रजिते वनम् ॥ ५२॥
एतावतालं कालेन व्यतिक्रान्तेन मे प्रभो ।
इन्द्रियार्थप्रसङ्गेन परित्यक्तपरात्मनः ॥ ५३॥
इन्द्रियार्थेषु सज्जन्त्या प्रसङ्गस्त्वयि मे कृतः ।
अजानन्त्या परं भावं तथाप्यस्त्वभयाय मे ॥ ५४॥
सङ्गो यः संसृतेर्हेतुरसत्सु विहितोऽधिया ।
स एव साधुषु कृतो निःसङ्गत्वाय कल्पते ॥ ५५॥
नेह यत्कर्म धर्माय न विरागाय कल्पते ।
न तीर्थपदसेवायै जीवन्नपि मृतो हि सः ॥ ५६॥
साहं भगवतो नूनं वञ्चिता मायया दृढम् ।
यत्त्वां विमुक्तिदं प्राप्य न मुमुक्षेय बन्धनात् ॥ ५७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-तेईसवाँ अध्याय
कर्दम और देवहूति का विहार
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! माता-पिता के चले जाने पर पति के अभिप्राय को समझ लेने में कुशल साध्वी देवहूति कर्दमजी की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वतीजी भगवान शङ्कर की सेवा करती हैं ॥ १ ॥ उसने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप और मद का त्यागकर बड़ी सावधानी और लगन के साथ सेवा में तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुरभाषणादि गुणों से अपने परम तेजस्वी पतिदेव को सन्तुष्ट कर लिया ॥ २-३ ॥ देवहूति समझती थी कि मेरे पतिदेव दैव से भी बढक़र हैं, इसलिये वह उनसे बड़ी- बड़ी आशाएँ रखकर उनकी सेवा में लगी रहती थी। इस प्रकार बहुत दिनों तक अपना अनुवर्तन करने- वाली उस मनुपुत्री को व्रतादि का पालन करने से दुर्बल हुई देख देवर्षिश्रेष्ठ कर्दम को दयावश कुछ खेद हुआ और उन्होंने उससे प्रेमगद्गद वाणी में कहा ॥ ४-५ ॥
कर्दमजी बोले—मनुनन्दिनि ! तुम ने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी देहधारियों को अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदर की वस्तु होता है, किन्तु तुम ने मेरी सेवा के आगे उसके क्षीण होने की भी कोई परवा नहीं की ॥ ६ ॥ अत: अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप, समाधि, उपासना और योग के द्वारा जो भय और शोक से रहित भगवत्प्रसाद- स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुई हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो ॥ ७ ॥ अन्य जित ने भी भोग हैं, वे तो भगवान श्रीहरि के भ्रुकुटि-विलासमात्र से नष्ट हो जाते हैं; अत: वे इनके आगे कुछ भी नहीं हैं। तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गयी हो; अपने पातिव्रत-धर्म का पालन करने से तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्यों को इन दिव्य भोगों की प्राप्ति होनी कठिन है ॥ ८ ॥
कर्दमजी के इस प्रकार कह ने से अपने पतिदेव को सम्पूर्ण योगमाया और विद्याओं में कुशल जानकर उस अबला की सारी चिन्ता जाती रही। उसका मुख ‘किञ्चित सं कोचभरी चितवन और मधुर मुसकान से खिल उठा और वह विनय एवं प्रेम से गद्गद वाणी में इस प्रकार कह ने लगी ॥ ९ ॥
देवहूति ने कहा—द्विजश्रेष्ठ ! स्वामिन् ! मैं यह जानती हूँ कि कभी निष्फल न होनेवाली योगशक्ति और त्रिगुणात्मि का माया पर अधिकार रखनेवाले आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु प्रभो ! आपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ-सुख का उपभोग करूँगा, उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पति के द्वारा सन्तान प्राप्त होना पतिव्रता स्त्री के लिये महान लाभ है ॥ १० ॥ हम दोनों के समागम के लिये शास्त्र के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसका आप उपदेश दीजिये और उबटन, गन्ध, भोजन आदि उपयोगी सामग्रियाँ भी जुटा दीजिये, जिससे मिलन की इच्छा से अत्यन्त दीन, दुर्बल हुआ मेरा यह शरीर आपके अङ्ग-संग के योग्य हो जाय; क्योंकि आपकी ही बढ़ाई हुई कामवेदना से मैं पीडि़त हो रही हूँ। स्वामिन् ! इस कार्य के लिये एक उपयुक्त भवन तैयार हो जाय, इसका भी विचार कीजिये ॥ ११ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! कर्दम मुनि ने अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी समय योग में स्थित होकर एक विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था ॥ १२ ॥ यह विमान सब प्रकार के इच्छित भोग-सुख प्रदान करनेवाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकार के रत्नों से युक्त, सब सम्पत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि से सम्पन्न तथा मणिमय खंभों से सुशोभित था ॥ १३ ॥ वह सभी ऋतुओं में सुखदायक था और उसमें जहाँ-तहाँ सब प्रकार की दिव्य सामग्रियाँ रखी हुई थीं तथा उसे चित्र-विचित्र रेशमी झंडियों और पताकाओं से खूब सजाया गया था ॥ १४ ॥ जिन पर भ्रमरगण मधुर गुंजार कर रहे थे, ऐसे रंग-बिरंगे पुष्पों की मालाओं से तथा अनेक प्रकार के सूती और रेशमी वस्त्रों से वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था ॥ १५ ॥ एक के ऊ पर एक बनाये हुए कमरों में अलग-अलग रखी हुई शय्या, पलंग, पंखे और आसनों के कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था ॥ १६ ॥ जहाँ-तहाँ दीवारों में की हुई शिल्परचाना से उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें पन् ने का फर्श था और बैठ ने के लिये मूँगे की वेदियाँ बनायी गयी थीं ॥ १७ ॥ मूँगे की ही देहलियाँ थीं। उसके द्वारों में हीरे के किवाड़ थे तथा इन्द्रनील मणि के शिखरों पर सो ने के कलश रखे हुए थे ॥ १८ ॥ उसकी हीरे की दीवारों में बढिय़ा लाल जड़े हुए थे, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विमान की आँखें हों, तथा उसे रंग-बिरंगे चँदोवे और बहुमूल्य सुनहरी बन्दनवारों से सजाया गया था ॥ १९ ॥ उस विमान में जहाँ-तहाँ कृत्रिम हंस और कबूतर आदि पक्षी बनाये गये थे, जो बिलकुल सजीव- से मालूम पड़ते थे। उन्हें अपना सजातीय समझकर बहुत- से हंस और कबूतर उनके पास बैठ-बैठकर अपनी बोली बोलते थे ॥ २० ॥ उसमें सुविधानुसार क्रीडास्थली, शयनगृह, बैठक, आँगन और चौक आदि बनाये गये थे—जिनके कारण वह विमान स्वयं कर्दमजी को भी विस्मित-सा कर रहा था ॥ २१ ॥
ऐसे सुन्दर घर को भी जब देवहूति ने बहुत प्रसन्न चित्त से नहीं देखा, तो सब के आन्तरिक भाव को परख लेनेवाले कर्दमजी ने स्वयं ही कहा— ॥ २२ ॥ ‘भीरु ! तुम इस बिन्दुसरोवर में स्नान करके विमान पर चढ़ जाओ; यह विष्णुभगवान का रचा हुआ तीर्थ मनुष्यों को सभी कामनाओं की प्राप्ति करानेवाला है’ ॥ २३ ॥
कमललोचना देवहूति ने अपने पति की बात मानकर सरस्वती के पवित्र जल से भरे हुए उस सरोवर में प्रवेश किया। उस समय वह बड़ी मैली-कुचैली साड़ी पह ने हुए थी, उसके सिर के बाल चिपक जाने से उनमें लटें पड़ गयी थीं, शरीर में मैल जम गया था तथा स्तन कान्तिहीन हो गये थे ॥ २४-२५ ॥ सरोवर में गोता लगाने पर उसने उसके भीतर एक महल में एक हजार कन्याएँ देखीं। वे सभी किशोर अवस्था की थीं और उनके शरीरों से कमलकी-सी गन्ध आती थी ॥ २६ ॥ देवहूति को देखते ही वे सब स्त्रियाँ सहसा खड़ी हो गयीं और हाथ जोडक़र कह ने लगीं, ‘हम आपकी दासियाँ हैं; हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ?’ ॥ २७ ॥
विदुरजी ! तब स्वामिनी को सम्मान देनेवाली उन रमणियों ने बहुमूल्य मसालों तथा गन्ध आदि से मिश्रित जल के द्वारा मनस्विनी देवहूति को स्नान कराया तथा उसे दो नवीन और निर्मल वस्त्र पहन ने को दिये ॥ २८ ॥ फिर उन्होंने ये बहुत मूल्य के बड़े सुन्दर और कान्तिमान् आभूषण सर्वगुणसम्पन्न भोजन और पी ने के लिये अमृत के समान स्वादिष्ट आसव प्रस्तुत किये ॥ २९ ॥ अब देवहूति ने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखा तो उसे मालूम हुआ कि वह भाँति-भाँति के सुगंधित फूलों के हारों से विभूषित है, स्वच्छ वस्त्र धारण किये हुए है, उसका शरीर भी निर्मल और कान्तिमान् हो गया है तथा उन कन्याओं ने बड़े आदरपूर्वक उसका माङ्गलिक सृंगार किया है ॥ ३० ॥ उसे सिर से स्नान कराया गया है, स्नान के पश्चात अङ्ग-अङ्ग में सब प्रकार के आभूषण सजाये गये हैं तथा उसके गले में हार-हुमेल, हाथों में कङ्कण और पैरों में छमछमाते हुए सो ने के पायजेब सुशोभित हैं ॥ ३१ ॥ कमर में पड़ी हुई सो ने की रत्नजटित करधनीसे, बहुमूल्य मणियों के हार से और अङ्ग-अङ्ग में लगे हुए कुङ्कुमादि मङ्गलद्रव्यों से उसकी अपूर्व शोभा हो रही है ॥ ३२ ॥ उसका मुख सुन्दर दन्तावली, मनोहर भौंहें, कमल की कली- से स्पर्धा करनेवाले प्रेमकटाक्षमय सुन्दर नेत्र और नीली अलकावली से बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता है ॥ ३३ ॥ विदुरजी ! जब देवहूति ने अपने प्रिय पतिदेव का स्मरण किया, तो अपने को सहेलियों के सहित वहीं पाया, जहाँ प्रजापति कर्दमजी विराजमान थे ॥ ३४ ॥ उस समय अपने को सहस्रों स्त्रियों के सहित अपने प्राणनाथ के सामने देख और इसे उनके योग का प्रभाव समझकर देवहूति को बड़ा विस्मय हुआ ॥ ३५ ॥
शत्रुविजयी विदुर ! जब कर्दमजी ने देखा कि देवहूति का शरीर स्नान करने से अत्यन्त निर्मल हो गया है, और विवाहकाल से पूर्व उसका जैसा रूप था, उसी रूप को पाकर वह अपूर्व शोभा से सम्पन्न हो गयी है, उसका सुन्दर वक्ष:स्थल चोली से ढका हुआ है, हजारों विद्याधरियाँ उसकी सेवा में लगी हुई हैं तथा उसके शरीर पर बढिय़ा-बढिय़ा वस्त्र शोभा पा रहे हैं, तब उन्होंने बड़े प्रेम से उसे विमान पर चढ़ाया ॥ ३६-३७ ॥ उस समय अपनी प्रिया के प्रति अनुरक्त होने पर भी कर्दमजी की महिमा (मन और इन्द्रियों पर प्रभुता) कम नहीं हुई। विद्याधरियाँ उनके शरीर की सेवा कर रही थीं। खिले हुए कुमुद के फूलों से सृंगार करके अत्यन्त सुन्दर बने हुए वे विमान पर इस प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो आकाश में तारागण से घिरे हुए चन्द्रदेव विराजमान हों ॥ ३८ ॥ उस विमान पर निवासकर उन्होंने दीर्घकाल तक कुबेरजी के समान मेरु पर्वत की घाटियों में विहार किया। ये घाटियाँ आठों लोकपालों- की विहारभूमि हैं। इनमें कामदेव को बढ़ानेवाली शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर इन की कमनीय शोभा का विस्तार करती है तथा श्रीगङ्गाजी के स्वर्गलोक से गिर ने की मङ्गलमय ध्वनि निरन्तर गूँजती रहती है। उस समय भी दिव्य विद्याधरियों का समुदाय उनकी सेवा में उपस्थित था और सिद्धगण वन्दना किया करते थे ॥ ३९ ॥
इसी प्रकार प्राणप्रिया देवहूति के साथ उन्होंने वैश्रम्भक, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र और चैत्ररथ आदि अनेकों देवोद्यानों तथा मानस सरोवर में अनुरागपूर्वक विहार किया ॥ ४० ॥ उस कान्तिमान् और इच्छानुसार चलनेवाले श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वायु के समान सभी लोकों में विचरते हुए कर्दमजी विमानविहारी देवताओं से भी आगे बढ़ गये ॥ ४१ ॥ विदुरजी ! जिन्हों ने भगवान के भवभयहारी पवित्र पादपद्मों का आश्रय लिया है, उन धीर पुरुषों के लिये कौन-सी वस्तु या शक्ति दुर्लभ है ॥ ४२ ॥
इस प्रकार महायोगी कर्दमजी यह सारा भूमण्डल, जो द्वीप-वर्ष आदि की विचित्र रचना के कारण बड़ा आश्चर्यमय प्रतीत होता है, अपनी प्रिया को दिखाकर अपने आश्रम को लौट आये ॥ ४३ ॥ फिर उन्होंने अपने को नौ रूपों में विभक्तकर रतिसुख के लिये अत्यन्त उत्सुक मनुकुमारी देवहूति को आनन्दित करते हुए उसके साथ बहुत वर्षों तक विहार किया, किन्तु उनका इतना लम्बा समय एक मुहूर्त के समान बीत गया ॥ ४४ ॥ उस विमान में रतिसुख को बढ़ानेवाली बड़ी सुन्दर शय्या का आश्रय ले अपने परम रूपवान् प्रियतम के साथ रहती हुई देवहूति को इतना काल कुछ भी न जान पड़ा ॥ ४५ ॥ इस प्रकार उस कामासक्त दम्पति को अपने योगबल से सैकड़ों वर्षों तक विहार करते हुए भी वह काल बहुत थोड़े समय के समान निकल गया ॥ ४६ ॥ आत्मज्ञानी कर्दमजी सब प्रकार के सङ्कल्पों को जानते थे; अत: देवहूति को सन्तानप्राप्ति के लिये उत्सुक देख तथा भगवान के आदेश को स्मरणकर उन्होंने अपने स्वरूप के नौ विभाग किये तथा कन्याओं की उत्पत्ति के लिये एकाग्रचित्त से अर्धाङ्गरूप में अपनी पत्नी की भावना करते हुए उसके गर्भ में वीर्य स्थापित किया ॥ ४७ ॥ इससे देवहूति के एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुर्ईं। वे सभी सर्वाङ्गसुन्दरी थीं और उनके शरीर से लाल कमलकी-सी सुगन्ध निकलती थी ॥ ४८ ॥
इसी समय शुद्ध स्वभाववाली सती देवहूति ने देखा कि पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उसके पतिदेव संन्यासाश्रम ग्रहण करके वन को जाना चाहते हैं, तो उसने अपने आँसुओं को रोककर ऊ पर से मुसकराते हुए व्याकुल एवं संतप्त हृदय से धीर-धीरे अति मधुर वाणी में कहा। उस समय वह सिर नीचा किये हुए अपने नखमणिमण्डित चरणकमल से पृथ्वी को कुरेद रही थी ॥ ४९-५० ॥
देवहूति ने कहा—भगवन् ! आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी, वह सब तो पूर्णत: निभा दी; तो भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अत: आप मुझे अभयदान और दीजिये ॥ ५१ ॥ ब्रह्मन् ! इन कन्याओं के लिये योग्य वर खोज ने पड़ेंगे और आपके वन को चले जाने के बाद मेरे जन्म-मरणरूप शोक को दूर करने के लिये भी कोई होना चाहिये ॥ ५२ ॥ प्रभो ! अब तक परमात्मा से विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोग ने में बीता है, वह तो निरर्थक ही गया ॥ ५३ ॥ आपके परम प्रभाव को न जान ने के कारण ही मैंने इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहकर आप से अनुराग किया। तथापि यह भी मेरे संसार-भय को दूर करनेवाला ही होना चाहिये ॥ ५४ ॥ अज्ञानवश असत्पुरुषों के साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धन का कारण होता है, वही सत्पुरुषों के साथ किये जाने पर असङ्गता प्रदान करता है ॥ ५५ ॥ संसार में जिस पुरुष के कर्मों से न तो धर्म का सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान की सेवा ही सम्पन्न होती है, वह पुरुष जीते ही मुर्दे के समान है ॥ ५६ ॥ अवश्य ही मैं भगवान की माया से बहुत ठगी गयी, जो आप-जैसे मुक्तिदाता पतिदेव को पाकर भी मैंने संसार-बन्धन से छूट ने की इच्छा नहीं की ॥ ५७ ॥
॥ चतुर्विंशोऽध्यायः - २४ ॥
मैत्रेय उवाच
निर्वेदवादिनीमेवं मनोर्दुहितरं मुनिः ।
दयालुः शालिनीमाह शुक्लाभिव्याहृतं स्मरन् ॥ १॥
ऋषिरुवाच
मा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते ।
भगवांस्तेऽक्षरो गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते ॥ २॥
धृतव्रतासि भद्रं ते दमेन नियमेन च ।
तपोद्रविणदानैश्च श्रद्धया चेश्वरं भज ॥ ३॥
स त्वयाऽऽराधितः शुक्लो वितन्वन् मामकं यशः ।
छेत्ता ते हृदयग्रन्थिमौदर्यो ब्रह्मभावनः ॥ ४॥
मैत्रेय उवाच
देवहूत्यपि सन्देशं गौरवेण प्रजापतेः ।
सम्यक् श्रद्धाय पुरुषं कूटस्थमभजद्गुरुम् ॥ ५॥
तस्यां बहुतिथे काले भगवान् मधुसूदनः ।
कार्दमं वीर्यमापन्नो जज्ञेऽग्निरिव दारुणि ॥ ६॥ - स गो ना सं गो गो
अवादयंस्तदा व्योम्नि वादित्राणि घनाघनाः ।
गायन्ति तं स्म गन्धर्वा नृत्यन्त्यप्सरसो मुदा ॥ ७॥
पेतुः सुमनसो दिव्याः खेचरैरपवर्जिताः ।
प्रसेदुश्च दिशः सर्वा अंभांसि च मनांसि च ॥ ८॥
तत्कर्दमाश्रमपदं सरस्वत्या परिश्रितम् ।
स्वयंभूः साकमृषिभिर्मरीच्यादिभिरभ्ययात् ॥ ९॥
भगवन्तं परं ब्रह्म सत्त्वेनांशेन शत्रुहन् ।
तत्त्वसङ्ख्यानविज्ञप्त्यै जातं विद्वानजः स्वराट् ॥ १०॥
सभाजयन् विशुद्धेन चेतसा तच्चिकीर्षितम् ।
प्रहृष्यमाणैरसुभिः कर्दमं चेदमभ्यधात् ॥ ११॥
ब्रह्मोवाच
त्वया मेऽपचितिस्तात कल्पिता निर्व्यलीकतः ।
यन्मे सञ्जगृहे वाक्यं भवान् मानद मानयन् ॥ १२॥
एतावत्येव शुश्रूषा कार्या पितरि पुत्रकैः ।
बाढमित्यनुमन्येत गौरवेण गुरोर्वचः ॥ १३॥
इमा दुहितरः सभ्य तव वत्स सुमध्यमाः ।
सर्गमेतं प्रभावैः स्वैर्बृंहयिष्यन्त्यनेकधा ॥ १४॥
अतस्त्वमृषिमुख्येभ्यो यथाशीलं यथारुचि ।
आत्मजाः परिदेह्यद्य विस्तृणीहि यशो भुवि ॥ १५॥
वेदाहमाद्यं पुरुषमवतीर्णं स्वमायया ।
भूतानां शेवधिं देहं बिभ्राणं कपिलं मुने ॥ १६॥
ज्ञानविज्ञानयोगेन कर्मणामुद्धरन् जटाः ।
हिरण्यकेशः पद्माक्षः पद्ममुद्रापदांबुजः ॥ १७॥
एष मानवि ते गर्भं प्रविष्टः कैटभार्दनः ।
अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति ॥ १८॥
अयं सिद्धगणाधीशः साङ्ख्याचार्यैः सुसम्मतः ।
लोके कपिल इत्याख्यां गन्ता ते कीर्तिवर्धनः ॥ १९॥
मैत्रेय उवाच
तावाश्वास्य जगत्स्रष्टा कुमारैः सह नारदः ।
हंसो हंसेन यानेन त्रिधाम परमं ययौ ॥ २०॥
गते शतधृतौ क्षत्तः कर्दमस्तेन चोदितः ।
यथोदितं स्वदुहितॄः प्रादाद्विश्वसृजां ततः ॥ २१॥
मरीचये कलां प्रादादनसूयामथात्रये ।
श्रद्धामङ्गिरसेऽयच्छत्पुलस्त्याय हविर्भुवम् ॥ २२॥
पुलहाय गतिं युक्तां क्रतवे च क्रियां सतीम् ।
ख्यातिं च भृगवेऽयच्छद्वसिष्ठायाप्यरुन्धतीम् ॥ २३॥
अथर्वणेऽददाच्छान्तिं यया यज्ञो वितन्यते ।
विप्रर्षभान् कृतोद्वाहान् सदारान् समलालयत् ॥ २४॥
ततस्त ऋषयः क्षत्तः कृतदारा निमन्त्र्य तम् ।
प्रातिष्ठन् नन्दिमापन्नाः स्वं स्वमाश्रममण्डलम् ॥ २५॥
स चावतीर्णं त्रियुगमाज्ञाय विबुधर्षभम् ।
विविक्त उपसङ्गम्य प्रणम्य समभाषत ॥ २६॥
अहो पापच्यमानानां निरये स्वैरमङ्गलैः ।
कालेन भूयसा नूनं प्रसीदन्तीह देवताः ॥ २७॥
बहुजन्मविपक्वेन सम्यग्योगसमाधिना ।
द्रष्टुं यतन्ते यतयः शून्यागारेषु यत्पदम् ॥ २८॥
स एव भगवानद्य हेलनं नगणय्य नः ।
गृहेषु जातो ग्राम्याणां यः स्वानां पक्षपोषणः ॥ २९॥
स्वीयं वाक्यं ऋतं कर्तुमवतीर्णोऽसि मे गृहे ।
चिकीर्षुर्भगवान् ज्ञानं भक्तानां मानवर्धनः ॥ ३०॥
तान्येव तेऽभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव ।
यानि यानि च रोचन्ते स्वजनानामरूपिणः ॥ ३१॥
त्वां सूरिभिस्तत्त्वबुभुत्सयाद्धा
सदाभिवादार्हणपादपीठम् ।
ऐश्वर्यवैराग्ययशोऽवबोध-
वीर्यश्रिया पूर्तमहं प्रपद्ये ॥ ३२॥
परं प्रधानं पुरुषं महान्तं
कालं कविं त्रिवृतं लोकपालम् ।
आत्मानुभूत्यानुगतप्रपञ्चं
स्वच्छन्दशक्तिं कपिलं प्रपद्ये ॥ ३३॥
आ स्माभिपृच्छेऽद्य पतिं प्रजानां
त्वयावतीर्णार्ण उताप्तकामः ।
परिव्रजत्पदवीमास्थितोऽहं
चरिष्ये त्वां हृदि युञ्जन् विशोकः ॥ ३४॥
श्रीभगवानुवाच
मया प्रोक्तं हि लोकस्य प्रमाणं सत्यलौकिके ।
अथाजनि मया तुभ्यं यदवोचमृतं मुने ॥ ३५॥
एतन्मे जन्म लोकेऽस्मिन् मुमुक्षूणां दुराशयात् ।
प्रसङ्ख्यानाय तत्त्वानां सम्मतायात्मदर्शने ॥ ३६॥
एष आत्मपथोऽव्यक्तो नष्टः कालेन भूयसा ।
तं प्रवर्तयितुं देहमिमं विद्धि मया भृतम् ॥ ३७॥
गच्छ कामं मया पृष्टो मयि सन्न्यस्तकर्मणा ।
जित्वा सुदुर्जयं मृत्युममृतत्वाय मां भज ॥ ३८॥
मामात्मानं स्वयंज्योतिः सर्वभूतगुहाशयम् ।
आत्मन्येवात्मना वीक्ष्य विशोकोऽभयमृच्छसि ॥ ३९॥
मात्र आध्यात्मिकीं विद्यां शमनीं सर्वकर्मणाम् ।
वितरिष्ये यया चासौ भयं चातितरिष्यति ॥ ४०॥
मैत्रेय उवाच
एवं समुदितस्तेन कपिलेन प्रजापतिः ।
दक्षिणीकृत्य तं प्रीतो वनमेव जगाम ह ॥ ४१॥
व्रतं स आस्थितो मौनमात्मैकशरणो मुनिः ।
निःसङ्गो व्यचरत्क्षोणीमनग्निरनिकेतनः ॥ ४२॥
मनो ब्रह्मणि युञ्जानो यत्तत्सदसतः परम् ।
गुणावभासे विगुण एकभक्त्यानुभाविते ॥ ४३॥
निरहङ्कृतिर्निर्ममश्च निर्द्वन्द्वः समदृक् स्वदृक् ।
प्रत्यक्प्रशान्तधीर्धीरः प्रशान्तोर्मिरिवोदधिः ॥ ४४॥
वासुदेवे भगवति सर्वज्ञे प्रत्यगात्मनि ।
परेण भक्तिभावेन लब्धात्मा मुक्तबन्धनः ॥ ४५॥
आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तमवस्थितम् ।
अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि ॥ ४६॥
इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा ।
भगवद्भक्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः ॥ ४७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
कापिलेये चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-चौबीसवाँ अध्याय
श्रीकपिलदेवजी का जन्म
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—उत्तम गुणों से सुशोभित मनुकुमारी देवहूति ने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब कृपालु कर्दम मुनि को भगवान विष्णु के कथन का स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा ॥ १ ॥
कर्दमजी बोले—दोषरहित राजकुमारी ! तुम अपने विषय में इस प्रकार खेद न करो; तुम्हारे गर्भ में अविनाशी भगवान विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे ॥ २ ॥ प्रिये ! तुम ने अनेक प्रकार के व्रतों का पालन किया है, अत: तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान का भजन करो ॥ ३ ॥ इस प्रकार आराधना करने पर श्रीहरि तुम्हारे गर्भ से अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करके तुम्हारे हृदय की अहंकारमयी ग्रन्थि का छेदन करेंगे ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! प्रजापति कर्दम के आदेश में गौरव-बुद्धि होने से देवहूति ने उसपर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान श्रीपुरुषोत्तम की आराधना करने लगी ॥ ५ ॥ इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर भगवान मधुसूदन कर्दमजी के वीर्य का आश्रय ले उसके गर्भ से इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठ में से अग्रि ॥ ६ ॥ उस समय आकाश में मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर नाच ने लगीं ॥ ७ ॥ आकाश से देवताओं के बरसाये हुए दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी; सब दिशाओं में आनन्द छा गया, जलाशयों का जल निर्मल हो गया और सभी जीवों के मन प्रसन्न हो गये ॥ ८ ॥ इसी समय सरस्वती नदी से घिरे हुए कर्दमजी के उस आश्रम में मरीचि आदि मुनियों के सहित श्रीब्रह्माजी आये ॥ ९ ॥ शत्रुदमन विदुरजी ! स्वत:सिद्ध ज्ञान से सम्पन्न अजन्मा ब्रह्माजी को यह मालूम हो गया था कि साक्षात परब्रह्म भगवान विष्णु सांख्यशास्त्र का उपदेश करने के लिये अपने विशुद्ध सत्त्वमय अंश से अवतीर्ण हुए हैं ॥ १० ॥ अत: भगवान जिस कार्य को करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चित्त से अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दमजी से इस प्रकार कहा ॥ ११ ॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा—प्रिय कर्दम ! तुम दूसरों को मान देनेवाले हो। तुम ने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञा का पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट-भाव से मेरी पूजा सम्पन्न हुई है ॥ १२ ॥ पुत्रों को अपने पिता की सब से बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेश को स्वीकार करें ॥ १३ ॥ बेटा ! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशों द्वारा इस सृष्टि को अनेक प्रकार से बढ़ावेंगी ॥ १४ ॥ अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरों को इनके स्वभाव और रुचि के अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसार में अपना सुयश फैलाओ ॥ १५ ॥ मुने ! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियों की निधि हैं—उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमाया से कपिल के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ॥ १६ ॥ [फिर देवहूति से बोले—] राजकुमारी ! सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलाङ्कित चरण- कमलोंवाले शिशु के रूप में कैटभासुर को मारनेवाले साक्षात श्रीहरि ने ही, ज्ञान-विज्ञान द्वारा कर्मों की वासनाओं का मूलोच्छेदन करने के लिये, तेरे गर्भ में प्रवेश किया है। ये अविद्याजनित मोह की ग्रन्थियों- को काटकर पृथ्वी में स्वछन्द विचरेंगे ॥ १७-१८ ॥ ये सिद्धगणों के स्वामी और सांख्याचार्यों के भी माननीय होंगे। लोक में तेरी कीर्ति का विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नाम से विख्यात होंगे ॥ १९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जगत की सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी उन दोनों को इस प्रकार आश्वासन देकर नारद और सनकादि को साथ ले, हंस पर चढक़र ब्रह्मलोक को चले गये ॥ २० ॥ ब्रह्माजी के चले जाने पर कर्दमजी ने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियों के साथ अपनी कन्याओं का विधिपूर्वक विवाह कर दिया ॥ २१ ॥ उन्होंने अपनी कला नाम की कन्या मरीचि को, अनसूया अत्रि को, श्रद्धा अङ्गिरा को और हविर्भू पुलस्त्य को समर्पित की ॥ २२ ॥ पुलह को उनके अनुरूप गति नाम की कन्या दी, क्रतु के साथ परम साध्वी क्रिया का विवाह किया, भृगुजी को ख्याति और वसिष्ठजी को अरुन्धती समर्पित की ॥ २३ ॥ अथर्वा ऋषि को शान्ति नाम की कन्या दी, जिससे यज्ञकर्म का विस्तार किया जाता है। कर्दमजी ने उन विवाहित ऋषियों का उनकी पत्नियों के सहित खूब सत्कार किया ॥ २४ ॥ विदुरजी ! इस प्रकार विवाह हो जाने पर वे सब ऋषि कर्दमजी की आज्ञा ले अति आनन्दपूर्वक अपने-अपने आश्रमों को चले गये ॥ २५ ॥
कर्दमजी ने देखा कि उनके यहाँ साक्षात देवाधिदेव श्रीहरि ने ही अवतार लिया है, तो वे एकान्त में उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कह ने लगे ॥ २६ ॥ ‘अहो ! अपने पापकर्मों के कारण इस दु:खमय संसार में नाना प्रकार से पीडित होते हुए पुरुषों पर देवगण तो बहुत काल बीतने पर प्रसन्न होते हैं ॥ २७ ॥ किन्तु जिनके स्वरूप को योगिजन अनेकों जन्मों के साधन से सिद्ध हुई सुदृढ़ समाधि के द्वारा एकान्त में देखने का प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तों की रक्षा करनेवाले वे ही श्रीहरि हम विषयलोलुपों के द्वारा होनेवाली अपनी अवज्ञा का कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं ॥ २८-२९ ॥ आप वास्तव में अपने भक्तों का मान बढ़ानेवाले हैं। आपने अपने वचनों को सत्य करने और सांख्ययोग का उपदेश करने के लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है ॥ ३० ॥ भगवन् ! आप प्राकृतरूप से रहित हैं, आपके जो चतुर्भुज आदि अलौकिक रूप हैं, वे ही आपके योग्य हैं तथा जो मनुष्य-सदृश रूप आपके भक्तों को प्रिय लगते हैं, वे भी आपको रुचिकर प्रतीत होते हैं ॥ ३१ ॥ आपका पाद-पीठ तत्त्वज्ञान की इच्छा से विद्वानों द्वारा सर्वदा वन्दनीय है तथा आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश,ज्ञान, वीर्य और श्री—इन छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। मैं आपकी शरण में हूँ ॥ ३२ ॥ भगवन् ! आप परब्रह्म हैं; सारी शक्तियाँ आपके अधीन हैं; प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, काल, त्रिविध अहंकार, समस्त लोक एवं लोकपालों के रूप में आप ही प्रकट हैं; तथा आप सर्वज्ञ परमात्मा ही इस सारे प्रपञ्च को चेतनशक्ति के द्वारा अपने में लीन कर लेते हैं। अत: इन सब से परे भी आप ही हैं। मैं आप भगवान कपिल की शरण लेता हूँ ॥ ३३ ॥ प्रभो ! आपकी कृपा से मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया हूँ और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चु के हैं। अब मैं संन्यास-मार्ग को ग्रहणकर आपका चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरूँगा। आप समस्त प्रजाओं के स्वामी हैं, अतएव इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ’ ॥ ३४ ॥
श्रीभगवान ने कहा—मुने ! वैदिक और लौकिक सभी कर्मों में संसार के लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुम से कहा था कि ‘मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा’, उसे सत्य करने के लिये ही मैंने यह अवतार लिया है ॥ ३५ ॥ इस लोक में मेरा यह जन्म लिङ्गशरीर से मुक्त होने की इच्छावाले मुनियों के लिये आत्मदर्शन में उपयोगी प्रकृति आदि तत्त्वों का विवेचन करने के लिये ही हुआ है ॥ ३६ ॥ आत्मज्ञान का यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समय से लुप्त हो गया है। इसे फिर से प्रवॢतत करने के लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है—ऐसा जानो ॥ ३७ ॥ मुने ! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्यु को जीतकर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये मेरा भजन करो ॥ ३८ ॥ मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवों के अन्त:करणों में रहनेवाला परमात्मा ही हूँ। अत: जब तुम विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने अन्त:करण में मेरा साक्षातकार कर लोगे, तब सब प्रकार के शोकों से छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे ॥ ३९ ॥ माता देवहूति को भी मैं सम्पूर्ण कर्मों से छुड़ानेवाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भय से पार हो जायगी ॥ ४० ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भगवान कपिल के इस प्रकार कहने पर प्रजापति कर्दमजी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वन को चले गये ॥ ४१ ॥
वहाँ अहिंसामय संन्यास-धर्म का पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान की शरण हो गये तथा अग्रि और आश्रम का त्याग करके नि:सङ्गभाव से पृथ्वी पर विचर ने लगे ॥ ४२ ॥ जो कार्यकारण से अतीत है, सत्त्वादि गुणों का प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष होता है, उसपर ब्रह्म में उन्होंने अपना मन लगा दिया ॥ ४३ ॥ वे अहंकार, ममता और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों से छूटकर समदर्शी (भेददृष्टि से रहित) हो, सब में अपने आत्मा को ही देखने लगे। उनकी बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी। उस समय धीर कर्दमजी शान्त लहरोंवाले समुद्र के समान जान पडऩे लगे ॥ ४४ ॥ परम भक्तिभाव के द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेव में चित्त स्थिर हो जाने से वे सारे बन्धनों से मुक्त हो गये ॥ ४५ ॥ सम्पूर्ण भूतों में अपने आत्मा श्रीभगवान को और सम्पूर्ण भूतों को आत्म स्वरूप श्रीहरि में स्थित देखने लगे ॥ ४६ ॥ इस प्रकार इच्छा और द्वेष से रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्ति से सम्पन्न होकर श्रीकर्दमजी ने भगवान का परमपद प्राप्त कर लिया ॥ ४७ ॥
॥ पञ्चविंशोऽध्यायः - २५ ॥
शौनक उवाच
कपिलस्तत्त्वसङ्ख्याता भगवानात्ममायया ।
जातः स्वयमजः साक्षादात्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ॥ १॥
न ह्यस्य वर्ष्मणः पुंसां वरिम्णः सर्वयोगिनाम् ।
विश्रुतौ श्रुतदेवस्य भूरि तृप्यन्ति मेऽसवः ॥ २॥
यद्यद्विधत्ते भगवान् स्वच्छन्दात्माऽऽत्ममायया ।
तानि मे श्रद्दधानस्य कीर्तन्यान्यनुकीर्तय ॥ ३॥
सूत उवाच
द्वैपायनसखस्त्वेवं मैत्रेयो भगवांस्तथा ।
प्राहेदं विदुरं प्रीत आन्वीक्षिक्यां प्रचोदितः ॥ ४॥
मैत्रेय उवाच
पितरि प्रस्थितेऽरण्यं मातुः प्रियचिकीर्षया ।
तस्मिन् बिन्दुसरेऽवात्सीद्भगवान् कपिलः किल ॥ ५॥
तमासीनमकर्माणं तत्त्वमार्गाग्रदर्शनम् ।
स्वसुतं देवहूत्याह धातुः संस्मरती वचः ॥ ६॥
देवहूतिरुवाच
निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात् ।
येन संभाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ॥ ७॥
तस्य त्वं तमसोऽन्धस्य दुष्पारस्याद्य पारगम् ।
सच्चक्षुर्जन्मनामन्ते लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ॥ ८॥
य आद्यो भगवान् पुंसामीश्वरो वै भवान् किल ।
लोकस्य तमसान्धस्य चक्षुः सूर्य इवोदितः ॥ ९॥
अथ मे देव सम्मोहमपाक्रष्टुं त्वमर्हसि ।
योऽवग्रहोऽहंममेतीत्येतस्मिन् योजितस्त्वया ॥ १०॥
तं त्वा गताहं शरणं शरण्यं
स्वभृत्यसंसारतरोः कुठारम् ।
जिज्ञासयाहं प्रकृतेः पूरुषस्य
नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ॥ ११॥
मैत्रेय उवाच
इति स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितं
निशम्य पुंसामपवर्गवर्धनम् ।
धियाभिनन्द्यात्मवतां सतां गतिर्बभाष
ईषत्स्मितशोभिताननः ॥ १२॥
श्रीभगवानुवाच
योग आध्यात्मिकः पुंसां मतो निःश्रेयसाय मे ।
अत्यन्तोपरतिर्यत्र दुःखस्य च सुखस्य च ॥ १३॥
तमिमं ते प्रवक्ष्यामि यमवोचं पुरानघे ।
ऋषीणां श्रोतुकामानां योगं सर्वाङ्गनैपुणम् ॥ १४॥
चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥ १५॥
अहंममाभिमानोत्थैः कामलोभादिभिर्मलैः ।
वीतं यदा मनः शुद्धमदुःखमसुखं समम् ॥ १६॥
तदा पुरुष आत्मानं केवलं प्रकृतेः परम् ।
निरन्तरं स्वयंज्योतिरणिमानमखण्डितम् ॥ १७॥
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियुक्तेन चात्मना ।
परिपश्यत्युदासीनं प्रकृतिं च हतौजसम् ॥ १८॥
न युज्यमानया भक्त्या भगवत्यखिलात्मनि ।
सदृशोऽस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥ १९॥
प्रसङ्गमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ॥ २०॥
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥ २१॥
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम् ।
मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवाः ॥ २२॥
मदाश्रयाः कथामृष्टाः शृण्वन्ति कथयन्ति च ।
तपन्ति विविधास्तापा नैतान्मद्गतचेतसः ॥ २३॥
त एते साधवः साध्वि सर्वसङ्गविवर्जिताः ।
सङ्गस्तेष्वथ ते प्रार्थ्यः सङ्गदोषहरा हि ते ॥ २४॥
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो
भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ २५॥
भक्त्या पुमान् जातविराग ऐन्द्रिया-
द्दृष्टश्रुतान् मद्रचनानुचिन्तया ।
चित्तस्य यत्तो ग्रहणे योगयुक्तो
यतिष्यते ऋजुभिर्योगमार्गैः ॥ २६॥
असेवयायं प्रकृतेर्गुणानां
ज्ञानेन वैराग्यविजृंभितेन ।
योगेन मय्यर्पितया च भक्त्या
मां प्रत्यगात्मानमिहावरुन्धे ॥ २७॥
देवहूतिरुवाच
काचित्त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा ।
यया पदं ते निर्वाणमञ्जसान्वाश्नवा अहम् ॥ २८॥
यो योगो भगवद्बाणो निर्वाणात्मंस्त्वयोदितः ।
कीदृशः कति चाङ्गानि यतस्तत्त्वावबोधनम् ॥ २९॥
तदेतन्मे विजानीहि यथाहं मन्दधीर्हरे ।
सुखं बुद्ध्येय दुर्बोधं योषा भवदनुग्रहात् ॥ ३०॥
मैत्रेय उवाच
विदित्वार्थं कपिलो मातुरित्थं
जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजातः ।
तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदन्ति साङ्ख्यं
प्रोवाच वै भक्तिवितानयोगम् ॥ ३१॥
श्रीभगवानुवाच
देवानां गुणलिङ्गानामानुश्रविककर्मणाम् ।
सत्त्व एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या ॥ ३२॥
अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी ।
जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥ ३३॥
नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचि-
न्मत्पादसेवाभिरता मदीहाः ।
येऽन्योन्यतो भागवताः प्रसज्य
सभाजयन्ते मम पौरुषाणि ॥ ३४॥
पश्यन्ति ते मे रुचिराण्यंब सन्तः
प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनानि ।
रूपाणि दिव्यानि वरप्रदानि
साकं वाचं स्पृहणीयां वदन्ति ॥ ३५॥
तैर्दर्शनीयावयवैरुदार-
विलासहासेक्षितवामसूक्तैः ।
हृतात्मनो हृतप्राणांश्च भक्ति-
रनिच्छतो मे गतिमण्वीं प्रयुङ्क्ते ॥ ३६॥
अथो विभूतिं मम मायाविनस्ता-
मैश्वर्यमष्टाङ्गमनुप्रवृत्तम् ।
श्रियं भागवतीं वा स्पृहयन्ति भद्रां
परस्य मे तेऽश्नुवते तु लोके ॥ ३७॥
न कर्हिचिन्मत्पराः शान्तरूपे
नङ्क्ष्यन्ति नो मेऽनिमिषो लेढि हेतिः ।
येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च
सखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्टम् ॥ ३८॥
इमं लोकं तथैवामुमात्मानमुभयायिनम् ।
आत्मानमनु ये चेह ये रायः पशवो गृहाः ॥ ३९॥
विसृज्य सर्वानन्यांश्च मामेवं विश्वतोमुखम् ।
भजन्त्यनन्यया भक्त्या तान् मृत्योरतिपारये ॥ ४०॥
नान्यत्र मद्भगवतः प्रधानपुरुषेश्वरात् ।
आत्मनः सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते ॥ ४१॥
मद्भयाद्वाति वातोयं सूर्यस्तपति मद्भयात् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्चरति मद्भयात् ॥ ४२॥
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियोगेन योगिनः ।
क्षेमाय पादमूलं मे प्रविशन्त्यकुतोभयम् ॥ ४३॥
एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ॥ ४४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-पचीसवाँ अध्याय
देवहूति का प्रश्र तथा भगवान कपिल द्वारा भक्तियोग की महिमा का वर्णन
शौनकजी ने पूछा—सूतजी ! तत्त्वों की संख्या करनेवाले भगवान कपिल साक्षात अजन्मा नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिये अपनी माया से उत्पन्न हुए थे ॥ १ ॥ मैंने भगवान के बहुत- से चरित्र सुने हैं, तथापि इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिलजी की कीर्ति को सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होतीं ॥ २ ॥ सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमाया द्वारा भक्तों की इच्छा के अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन करने योग्य हैं; अत: आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुनने में बड़ी श्रद्धा है ॥ ३ ॥
सूतजी कहते हैं—मुने ! आपकी ही भाँति जब विदुर ने भी यह आत्मज्ञानविषयक प्रश्र किया, तो श्रीव्यासजी के सखा भगवान मैत्रेयजी प्रसन्न होकर इस प्रकार कह ने लगे ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! पिता के वन में चले जाने पर भगवान कपिलजी माता का प्रिय करने की इच्छा से उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे ॥ ५ ॥ एक दिन तत्त्वसमूह के पारदर्शी भगवान कपिल कर्मकलाप से विरत हो आसन पर विराजमान थे। उस समय ब्रह्माजी के वचनों का स्मरण करके देवहूति ने उनसे कहा ॥ ६ ॥
देवहूति बोली—भूमन् ! प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इन की इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ ॥ ७ ॥ अब आपकी कृपा से मेरी जन्मपरम्परा समाप्त हो चुकी है, इसीसे इस दुस्तर अज्ञानान्धकार से पार लगा ने के लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं ॥ ८ ॥ आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिये नेत्र स्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं ॥ ९ ॥ देव ! इन देह-गेह आदि में जो मैं- मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है; अत: अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये ॥ १० ॥ आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्ष के लिये कुठार के मान हैं; मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ। आप भागवतधर्म जाननेवालों में सब से श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ॥ ११ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी जो अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगों का मोक्षमार्ग में अनुराग उत्पन्न करनेवाली थी, उसे सुनकर आत्मज्ञ सत्पुरुषों की गति श्रीकपिलजी उसकी मन-ही-मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुसकान से सुशोभित मुखारविन्द से इस प्रकार कह ने लगे ॥ १२ ॥
भगवान कपिल ने कहा—माता ! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दु:ख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है ॥ १३ ॥ साध्वि ! सब अङ्गों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने, उनकी सुनने की इच्छा होनेपर, वर्णन किया था। वही अब मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १४ ॥
इस जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है। विषयों में आसक्त होने पर वह बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है ॥ १५ ॥ जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होनेवाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दु:ख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है ॥ १६ ॥ तब जीव अपने ज्ञान- वैराग्य और भक्ति से युक्त हृदय से आत्मा को प्रकृति से परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दु:खशून्य) देखता है तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है ॥ १७-१८ ॥ योगियों के लिये भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मङ्गलमय मार्ग नहीं है ॥ १९ ॥ विवेकीजन सङ्ग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं; किन्तु वही सङ्ग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है, तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है ॥ २० ॥
जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझ में अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझ में ही चित्त लगाये रहते हैं— उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं ॥ २१—२३ ॥ साध्वि ! ऐसे-ऐसे सर्वसङ्गपरित्यागी महापुरुष ही साधु होते हैं, तुम्हें उन्हींके सङ्ग की इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेनेवाले हैं ॥ २४ ॥ सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमश: विकास होगा ॥ २५ ॥ फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिन्तन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्तिप्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिये यत्न करेगा ॥ २६ ॥ इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करनेसे, वैराग्ययुक्त ज्ञानसे, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझ अपने अन्तरात्मा को इस देहमें ही प्राप्त कर लेता है ॥ २७ ॥
देवहूति ने कहा—भगवन् ! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है ? और मेरी-जैसी अबलाओं के लिये कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाणपद को प्राप्त कर सकूँ ? ॥ २८ ॥ निर्वाण स्वरूप प्रभो ! जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्य को बेधनेवाले बाण के समान भगवान की प्राप्ति करानेवाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है और उसके कित ने अङ्ग हैं ? ॥ २९ ॥ हरे ! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपा से मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ ॥ ३० ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजी के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्वों का निरूपण करनेवाले शास्त्रका, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया ॥ ३१ ॥
श्रीभगवान ने कहा—माता ! जिसका चित्त एकमात्र भगवान में ही लग गया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान करानेवाली (कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय—दोनों प्रकारकी) इन्द्रियों की जो सत्त्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभावि की प्रवृत्ति है, वही भगवान की अहैतु की भक्ति है। यह मुक्ति से भी बढक़र है; क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारों के भंडाररूप लिङ्गशरीर को तत्काल भस्म कर देती है ॥ ३२-३३ ॥ मेरी चरणसेवा में प्रीति रखनेवाले और मेरी ही प्रसन्नता के लिये समस्त कार्य करनेवाले कित ने ही बड़भागी भक्त, जो एक दूसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते ॥ ३४ ॥ मा ! वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविन्द से युक्त मेरे परम सुन्दर और वरदायक दिव्य रूपों की झाँ की करते हैं, और उनके साथ सप्रेम सम्भाषण भी करते हैं, जिसके लिये बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं ॥ ३५ ॥ दर्शनीय अङ्ग-प्रत्यङ्ग, उदार हास-विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपों की माधुरी में उनका मन और इन्द्रियाँ फँस जाती हैं। ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हें परमपद की प्राप्ति करा देती है ॥ ३६ ॥ अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोगसम्पत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात स्वयं प्राप्त होनेवाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठलोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम में पहुँचने पर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं ॥ ३७ ॥ जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद् और इष्टदेव हूँ—वे मेरे ही आश्रय में रहनेवाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाम में पहुँचकर किसी प्रकार भी इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ॥ ३८ ॥
माताजी ! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जानेवाले वासनामय लिङ्गदेह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखनेवाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सब को और अन्यान्य संग्रहों को भी छोडक़र अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं—उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागर से पार कर देता हूँ ॥ ३९-४० ॥ मैं साक्षात भगवान हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता ॥ ४१ ॥ मेरे भय से यह वायु चलती है, मेरे भय से सूर्य तपता है, मेरे भय से इन्द्र वर्षा करता और अग्रि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता है ॥ ४२ ॥ योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोग के द्वारा शान्ति प्राप्त करने के लिये मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते हैं ॥ ४३ ॥ संसार में मनुष्य के लिये सब से बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझ में लगकर स्थिर हो जाय ॥ ४४ ॥
॥ षड्विंशोऽध्यायः २६ ॥
श्रीभगवानुवाच
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वानां लक्षणं पृथक् ।
यद्विदित्वा विमुच्येत पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ॥ १॥
ज्ञानं निःश्रेयसार्थाय पुरुषस्यात्मदर्शनम् ।
यदाहुर्वर्णये तत्ते हृदयग्रन्थिभेदनम् ॥ २॥
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योतिर्विश्वं येन समन्वितम् ॥ ३॥
स एष प्रकृतिं सूक्ष्मां दैवीं गुणमयीं विभुः ।
यदृच्छयैवोपगतामभ्यपद्यत लीलया ॥ ४॥
गुणैर्विचित्राः सृजतीं सरूपाः प्रकृतिं प्रजाः ।
विलोक्य मुमुहे सद्यः स इह ज्ञानगूहया ॥ ५॥
एवं पराभिध्यानेन कर्तृत्वं प्रकृतेः पुमान् ।
कर्मसु क्रियमाणेषु गुणैरात्मनि मन्यते ॥ ६॥
तदस्य संसृतिर्बन्धः पारतन्त्र्यं च तत्कृतम् ।
भवत्यकर्तुरीशस्य साक्षिणो निर्वृतात्मनः ॥ ७॥
कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदुः ।
भोक्तृत्वे सुखदुःखानां पुरुषं प्रकृतेः परम् ॥ ८॥
देवहूतिरुवाच
प्रकृतेः पुरुषस्यापि लक्षणं पुरुषोत्तम ।
ब्रूहि कारणयोरस्य सदसच्च यदात्मकम् ॥ ९॥
श्रीभगवानुवाच
यत्तत्त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत् ॥ १०॥
पञ्चभिः पञ्चभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा ।
एतच्चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ॥ ११॥
महाभूतानि पञ्चैव भूरापोऽग्निर्मरुन्नभः ।
तन्मात्राणि च तावन्ति गन्धादीनि मतानि मे ॥ १२॥
इन्द्रियाणि दश श्रोत्रं त्वग् दृग्रसननासिकाः ।
वाक्करौ चरणौ मेढ्रं पायुर्दशम उच्यते ॥ १३॥
मनो बुद्धिरहङ्कारश्चित्तमित्यन्तरात्मकम् ।
चतुर्धा लक्ष्यते भेदो वृत्त्या लक्षणरूपया ॥ १४॥
एतावानेव सङ्ख्यातो ब्रह्मणः सगुणस्य ह ।
सन्निवेशो मया प्रोक्तो यः कालः पञ्चविंशकः ॥ १५॥
प्रभावं पौरुषं प्राहुः कालमेके यतो भयम् ।
अहङ्कारविमूढस्य कर्तुः प्रकृतिमीयुषः ॥ १६॥
प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि ।
चेष्टा यतः स भगवान् काल इत्युपलक्षितः ॥ १७॥
अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः ।
समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवानात्ममायया ॥ १८॥
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ परः पुमान्
आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥ १९॥
विश्वमात्मगतं व्यञ्जन् कूटस्थो जगदङ्कुरः ।
स्वतेजसापिबत्तीव्रमात्मप्रस्वापनं तमः ॥ २०॥
यत्तत्सत्त्वगुणं स्वच्छं शान्तं भगवतः पदम् ।
यदाहुर्वासुदेवाख्यं चित्तं तन्महदात्मकम् ॥ २१॥
स्वच्छत्वमविकारित्वं शान्तत्वमिति चेतसः ।
वृत्तिभिर्लक्षणं प्रोक्तं यथापां प्रकृतिः परा ॥ २२॥
महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यसंभवात् ।
क्रियाशक्तिरहङ्कारस्त्रिविधः समपद्यत ॥ २३॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भवः ।
मनसश्चेन्द्रियाणां च भूतानां महतामपि ॥ २४॥
सहस्रशिरसं साक्षाद्यमनन्तं प्रचक्षते ।
सङ्कर्षणाख्यं पुरुषं भूतेन्द्रियमनोमयम् ॥ २५॥
कर्तृत्वं करणत्वं च कार्यत्वं चेति लक्षणम् ।
शान्तघोरविमूढत्वमिति वा स्यादहङ्कृतेः ॥ २६॥
वैकारिकाद्विकुर्वाणान्मनस्तत्त्वमजायत ।
यत्सङ्कल्पविकल्पाभ्यां वर्तते कामसंभवः ॥ २७॥
यद्विदुर्ह्यनिरुद्धाख्यं हृषीकाणामधीश्वरम् ।
शारदेन्दीवरश्यामं संराध्यं योगिभिः शनैः ॥ २८॥
तैजसात्तु विकुर्वाणाद्बुद्धितत्त्वमभूत्सति ।
द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिन्द्रियाणामनुग्रहः ॥ २९॥
संशयोऽथ विपर्यासो निश्चयः स्मृतिरेव च ।
स्वाप इत्युच्यते बुद्धेर्लक्षणं वृत्तितः पृथक् ॥ ३०॥
तैजसानीन्द्रियाण्येव क्रियाज्ञानविभागशः ।
प्राणस्य हि क्रियाशक्तिर्बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता ॥ ३१॥
तामसाच्च विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यचोदितात् ।
शब्दमात्रमभूत्तस्मान्नभः श्रोत्रं तु शब्दगम् ॥ ३२॥
अर्थाश्रयत्वं शब्दस्य द्रष्टुर्लिङ्गत्वमेव च ।
तन्मात्रत्वं च नभसो लक्षणं कवयो विदुः ॥ ३३॥
भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरन्तरमेव च ।
प्राणेन्द्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ॥ ३४॥
नभसः शब्दतन्मात्रात्कालगत्या विकुर्वतः ।
स्पर्शोऽभवत्ततो वायुस्त्वक्स्पर्शस्य च सङ्ग्रहः ॥ ३५॥
मृदुत्वं कठिनत्वं च शैत्यमुष्णत्वमेव च ।
एतत्स्पर्शस्य स्पर्शत्वं तन्मात्रत्वं नभस्वतः ॥ ३६॥
चालनं व्यूहनं प्राप्तिर्नेतृत्वं द्रव्यशब्दयोः ।
सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं वायोः कर्माभिलक्षणम् ॥ ३७॥
वायोश्च स्पर्शतन्मात्राद्रूपं दैवेरितादभूत् ।
समुत्थितं ततस्तेजश्चक्षू रूपोपलंभनम् ॥ ३८॥
द्रव्याकृतित्वं गुणता व्यक्तिसंस्थात्वमेव च ।
तेजस्त्वं तेजसः साध्वि रूपमात्रस्य वृत्तयः ॥ ३९॥
द्योतनं पचनं पानमदनं हिममर्दनम् ।
तेजसो वृत्तयस्त्वेताः शोषणं क्षुत्तृडेव च ॥ ४०॥
रूपमात्राद्विकुर्वाणात्तेजसो दैवचोदितात् ।
रसमात्रमभूत्तस्मादंभो जिह्वा रसग्रहः ॥ ४१॥
कषायो मधुरस्तिक्तः कट्वम्ल इति नैकधा ।
भौतिकानां विकारेण रस एको विभिद्यते ॥ ४२॥
क्लेदनं पिण्डनं तृप्तिः प्राणनाप्यायनोन्दनम् ।
तापापनोदो भूयस्त्वमंभसो वृत्तयस्त्विमाः ॥ ४३॥
रसमात्राद्विकुर्वाणादंभसो दैवचोदितात् ।
गन्धमात्रमभूत्तस्मात्पृथ्वी घ्राणस्तु गन्धगः ॥ ४४॥
करंभपूतिसौरभ्यशान्तोग्राम्लादिभिः पृथक् ।
द्रव्यावयववैषम्याद्गन्ध एको विभिद्यते ॥ ४५॥
भावनं ब्रह्मणः स्थानं धारणं सद्विशेषणम् ।
सर्वसत्त्वगुणोद्भेदः पृथिवीवृत्तिलक्षणम् ॥ ४६॥
नभोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्छ्रोत्रमुच्यते ।
वायोर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य तत्स्पर्शनं विदुः ॥ ४७॥
तेजोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्चक्षुरुच्यते ।
अंभोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तद्रसनं विदुः ।
भूमेर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य स घ्राण उच्यते ॥ ४८॥
परस्य दृश्यते धर्मो ह्यपरस्मिन् समन्वयात् ।
अतो विशेषो भावानां भूमावेवोपलक्ष्यते ॥ ४९॥
एतान्यसंहत्य यदा महदादीनि सप्त वै ।
कालकर्मगुणोपेतो जगदादिरुपाविशत् ॥ ५०॥
ततस्तेनानुविद्धेभ्यो युक्तेभ्योऽण्डमचेतनम् ।
उत्थितं पुरुषो यस्मादुदतिष्ठदसौ विराट् ॥ ५१॥
एतदण्डं विशेषाख्यं क्रमवृद्धैर्दशोत्तरैः ।
तोयादिभिः परिवृतं प्रधानेनावृतैर्बहिः ।
यत्र लोकवितानोऽयं रूपं भगवतो हरेः ॥ ५२॥
हिरण्मयादण्डकोशादुत्थाय सलिलेशयात् ।
तमाविश्य महादेवो बहुधा निर्बिभेद खम् ॥ ५३॥
निरभिद्यतास्य प्रथमं मुखं वाणी ततोऽभवत् ।
वाण्या वह्निरथो नासे प्राणोऽतो घ्राण एतयोः ॥ ५४॥
घ्राणाद्वायुरभिद्येतामक्षिणी चक्षुरेतयोः ।
तस्मात्सूर्यो व्यभिद्येतां कर्णौ श्रोत्रं ततो दिशः ॥ ५५॥
निर्बिभेद विराजस्त्वग्रोमश्मश्र्वादयस्ततः ।
तत ओषधयश्चासन् शिश्नं निर्बिभिदे ततः ॥ ५६॥
रेतस्तस्मादाप आसन् निरभिद्यत वै गुदम् ।
गुदादपानोऽपानाच्च मृत्युर्लोकभयङ्करः ॥ ५७॥
हस्तौ च निरभिद्येतां बलं ताभ्यां ततः स्वराट् ।
पादौ च निरभिद्येतां गतिस्ताभ्यां ततो हरिः ॥ ५८॥
नाड्योऽस्य निरभिद्यन्त ताभ्यो लोहितमाभृतम् ।
नद्यस्ततः समभवन्नुदरं निरभिद्यत ॥ ५९॥
क्षुत्पिपासे ततः स्यातां समुद्रस्त्वेतयोरभूत् ।
अथास्य हृदयं भिन्नं हृदयान्मन उत्थितम् ॥ ६०॥
मनसश्चन्द्रमा जातो बुद्धिर्बुद्धेर्गिरां पतिः ।
अहङ्कारस्ततो रुद्रश्चित्तं चैत्यस्ततोऽभवत् ॥ ६१॥
एते ह्यभ्युत्थिता देवा नैवास्योत्थापनेऽशकन् ।
पुनराविविशुः खानि तमुत्थापयितुं क्रमात् ॥ ६२॥
वह्निर्वाचा मुखं भेजे नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
घ्राणेन नासिके वायुर्नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥ ६३॥
अक्षिणी चक्षुषाऽऽदित्यो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
श्रोत्रेण कर्णौ च दिशो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥ ६४॥
त्वचं रोमभिरोषध्यो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
रेतसा शिश्नमापस्तु नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥ ६५॥
गुदं मृत्युरपानेन नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
हस्ताविन्द्रो बलेनैव नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥ ६६॥
विष्णुर्गत्यैव चरणौ नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
नाडीर्नद्यो लोहितेन नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥ ६७॥
क्षुत्तृड्भ्यामुदरं सिन्धुर्नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
हृदयं मनसा चन्द्रो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥ ६८॥
बुद्ध्या ब्रह्मापि हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
रुद्रोऽभिमत्या हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥ ६९॥
चित्तेन हृदयं चैत्यः क्षेत्रज्ञः प्राविशद्यदा ।
विराट् तदैव पुरुषः सलिलादुदतिष्ठत ॥ ७०॥
यथा प्रसुप्तं पुरुषं प्राणेन्द्रियमनोधियः ।
प्रभवन्ति विना येन नोत्थापयितुमोजसा ॥ ७१॥
तमस्मिन् प्रत्यगात्मानं धिया योगप्रवृत्तया ।
भक्त्या विरक्त्या ज्ञानेन विविच्यात्मनि चिन्तयेत् ॥ ७२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेये तत्त्वसमाम्नाये षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-छब्बीसवाँ अध्याय
महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीभगवान ने कहा—माताजी ! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वों के अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है ॥ १ ॥ आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदयग्रन्थि का छेदन करनेवाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं। उस ज्ञान का मैं तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ ॥ २ ॥ यह सारा जगत जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि, निर्गुण, प्रकृति से परे, अन्त:करण में स्फुरित होनेवाला और स्वयंप्रकाश है ॥ ३ ॥ उस सर्वव्यापक पुरुष ने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मि का वैष्णवी माया को स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया ॥ ४ ॥ लीला- परायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणों द्वारा उन्हींके अनुरूप प्रजा की सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञान- को आच्छादित करनेवाली उसकी आवरणशक्ति से मोहित हो गया, अपने स्वरूप को भूल गया ॥ ५ ॥ इस प्रकार अपने से भिन्न प्रकृति को ही अपना स्वरूप समझ लेने से पुरुष प्रकृति के गुणों द्वारा किये जानेवाले कर्मों में अपने को ही कर्ता मान ने लगता है ॥ ६ ॥ इस कर्तृत्वाभिमान से ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्द स्वरूप पुरुष को जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रता की प्राप्ति होती है ॥ ७ ॥ कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओं में पुरुष जो अपनेपन का आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन प्रकृति को ही कारण मानते हैं तथा वास्तव में प्रकृति से परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुष को सुख-दु:खों के भोग ने में कारण मानते हैं ॥ ८ ॥
देवहूति ने कहा—पुरुषोत्तम ! इस विश्व के स्थूल-सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं, उन प्रकृति और पुरुष का लक्षण भी आप मुझ से कहिये ॥ ९ ॥
श्रीभगवान ने कहा—जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है, उस प्रधान नामक तत्त्व को ही प्रकृति कहते हैं ॥ १० ॥
पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्त:करण और दस इन्द्रिय—इन चौबीस तत्त्वों के समूह को विद्वान् लोग प्रकृति का कार्य मानते हैं ॥ ११ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द—ये पाँच तन्मात्र माने गये हैं ॥ १२ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु—ये दस इन्द्रियाँ हैं ॥ १३ ॥ मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार—इन चार के रूप में एक ही अन्त:करण अपनी सङ्कल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूपा चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है ॥ १४ ॥ इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों ने सगुण ब्रह्म के सन्निवेशस्थान इन चौबीस तत्त्वों की संख्या बतलायी है। इसके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है ॥ १५ ॥ कुछ लोग काल को पुरुष से भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुष का प्रभाव अर्थात् ईश्वर की संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे माया के कार्यरूप देहादि में आत्मत्व का अभिमान करके अहंकार से मोहित और अपने को कर्ता माननेवाले जीव को निरन्तर भय लगा रहता है ॥ १६ ॥ मनुपुत्रि ! जिनकी प्रेरणा से गुणों की साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृति में गति उत्पन्न होती है, वास्तव में वे पुरुषरूप भगवान ही ‘काल’ कहे जाते हैं ॥ १७ ॥ इस प्रकार जो अपनी माया के द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूप से और बाहर कालरूप से व्याप्त हैं, वे भगवान ही पचीसवें तत्त्व हैं ॥ १८ ॥
जब परमपुरुष परमात्माने जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १९ ॥ लय-विक्षेपादि रहित तथा जगत के अङ्कुररूप इस महत्तत्त्व ने अपने में स्थित विश्व को प्रकट करने के लिये अपने स्वरूप को आच्छादित करनेवाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से पी लिया ॥ २० ॥
जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान की उपलब्धि का स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसी को ‘वासुदेव’ कहते हैं [1] ॥ २१ ॥ जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थों के संसर्ग से पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन-तरङ्गादिरहित) अवस्था में अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभावि की अवस्था की दृष्टि से स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्व ही वृत्तियोंसहित चित्त का लक्षण कहा गया है ॥ २२ ॥ तदनन्तर भगवान की वीर्यरूप चित्-शक्ति से उत्पन्न हुए महत्तत्त्व के विकृत होने पर उससे क्रिया-शक्तिप्रधान अहंकार उत्पन्न हुआ। वह वैकारिक, तैजस और तामस भेद से तीन प्रकार का है। उसी से क्रमश: मन, इन्द्रियों और पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति हुई ॥ २३-२४ ॥ इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहंकार को ही पण्डितजन साक्षात ‘सङ्कर्षण’ नामक सहस्र सिरवाले अनन्तदेव कहते हैं ॥ २५ ॥ इस अहंकार का देवतारूप से कर्तृत्व, इन्द्रियरूप से करणत्व और पञ्चभूतरूप से कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणों के सम्बन्ध से शान्तत्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसी के लक्षण हैं ॥ २६ ॥ उपर्युक्त तीन प्रकार के अहंकार में से वैकारिक अहंकार के विकृत होने पर उससे मन हुआ, जिसके सङ्कल्प-विकल्पों से कामनाओं की उत्पत्ति होती है ॥ २७ ॥ यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियों के अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमल के समान श्याम वर्णवाले इन अनिरुद्धजी की शनै:-शनै: मन को वशीभूत करके आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ साध्वि ! फिर तैजस अहंकार में विकार होने पर उससे बुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। वस्तु का स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियों के व्यापार में सहायक होना—पदार्थों का विशेष ज्ञान करना—ये बुद्धि के कार्य हैं ॥ २९ ॥ वृत्तियों के भेद से संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धि के ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्र’ है ॥ ३० ॥ इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकार का ही कार्य हैं। कर्म और ज्ञान के विभाग से उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राण की शक्ति है और ज्ञान बुद्धि की ॥ ३१ ॥
भगवान की चेतनशक्ति की प्रेरणा से तामस अहंकार के विकृत होने पर उससे शब्दतन्मात्र का प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्र से आकाश तथा शब्द का ज्ञान करानेवाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ अर्थ का प्रकाशक होना, ओट में खड़े हुए वक्ता का भी ज्ञान करा देना और आकाश का सूक्ष्म रूप होना विद्वानों के मत में यही शब्द के लक्षण हैं ॥ ३३ ॥ भूतों को अवकाश देना, सब के बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मन का आश्रय होना—ये आकाश के वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं ॥ ३४ ॥
फिर शब्दतन्मात्र के कार्य आकाश में कालगति से विकार होने पर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्श का ग्रहण करानेवाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई ॥ ३५ ॥ कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायु का सूक्ष्म रूप होना—ये स्पर्श के लक्षण हैं ॥ ३६ ॥ वृक्ष की शाखा आदि को हिलाना, तृणादि को इकट्ठाकर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्य को घ्राणादि इन्द्रियों के पास तथा शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय के समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना—ये वायु की वृत्तियों के लक्षण हैं ॥ ३७ ॥
तदनन्तर दैव की प्रेरणा से स्पर्शतन्मात्रविशिष्ट वायु के विकृत होने पर उससे रूपतन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूप को उपलब्ध करानेवाली नेत्रेन्द्रिय का प्रादुर्भाव हुआ ॥ ३८ ॥ साध्वि ! वस्तु के आकार का बोध कराना, गौण होना—द्रव्य के अङ्गरूप से प्रतीत होना, द्रंव्य का जैसा आकार-प्रकार और परिमाण आदि हो, उसी रूप में उपलक्षित होना तथा तेज का स्वरूपभूत होना—ये सब रूपतन्मात्र की वृत्तियाँ हैं ॥ ३९ ॥ चमकना, पकाना, शीत को दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा करना और उनकी निवृत्ति के लिये भोजन एवं जलपान कराना—ये तेज की वृत्तियाँ हैं ॥ ४० ॥
फिर दैव की प्रेरणा से रूपतन्मात्रमय तेज के विकृत होने पर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रस को ग्रहण करानेवाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई ॥ ४१ ॥ रस अपने शुद्ध स्वरूप में एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थों के संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकार का हो जाता है ॥ ४२ ॥ गीला करना, मिट्टी आदि को पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, पदार्थों को मृदु कर देना, ताप की निवृत्ति करना और कूपादि में से निकाल लिये जाने पर भी वहाँ बार-बार पुन: प्रकट हो जाना—ये जल की वृत्तियाँ हैं ॥ ४३ ॥
इसके पश्चात दैवप्रेरित रस स्वरूप जल के विकृत होने पर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्ध को ग्रहण करानेवाली घ्राणेन्द्रिय प्रकट हुई ॥ ४४ ॥ गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्यभागों की न्यूनाधिकता से वह मिश्रितगन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकार का हो जाता है ॥ ४५ ॥ प्रतिमादिरूप से ब्रह्म की साकार-भावना का आश्रय होना, जल आदि कारण-तत्त्वों से भिन्न किसी दूसरे आश्रय की अपेक्षा किये बिना ही स्थित रहना, जल आदि अन्य पदार्थों को धारण करना, आकाशादि का अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदों को सिद्ध करना) तथा परिणामविशेष से सम्पूर्ण प्राणियों के [स्त्रीत्व, पुरुषत्व आदि] गुणों को प्रकट करना—ये पृथ्वी के कार्यरूप लक्षण हैं ॥ ४६ ॥
आकाश का विशेष गुण शब्द जिसका विषय है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है; वायु का विशेष गुण स्पर्श जिसका विषय है, वह त्वगिन्द्रिय है; ॥ ४७ ॥ तेज का विशेष गुण रूप जिसका विषय है, वह नेत्रेन्द्रिय है; जल का विशेष गुण रस जिसका विषय है, वह रसनेन्द्रिय है और पृथ्वी का विशेष गुण गन्ध जिसका विषय है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं ॥ ४८ ॥ वायु आदि कार्य-तत्त्वों में आकाशादि कारण-तत्त्वों के रहने से उनके गुण भी अनुगत देखे जाते हैं; इसलिये समस्त महाभूतों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध केवल पृथ्वी में ही पाये जाते हैं ॥ ४९ ॥ जब महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चभूत—ये सात तत्त्व परस्पर मिल न सके—पृथक्-पृथक् ही रह गये, तब जगत के आदिकारण श्रीनारायण ने काल, अदृष्ट और सत्त्वादि गुणों के सहित उनमें प्रवेश किया ॥ ५० ॥
फिर परमात्मा के प्रवेश से क्षुब्ध और आपस में मिले हुए उन तत्त्वों से एक जड अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्ड से इस विराट् पुरुष की अभिव्यक्ति हुई ॥ ५१ ॥ इस अण्ड का नाम विशेष है, इसी के अन्तर्गत श्रीहरि के स्वरूपभूत चौदहों भुवनों का विस्तार है। यह चारों ओर से क्रमश: एक-दूसरे से दसगु ने जल, अग्रि, वायु, आकाश, अहंकार और महत्तत्त्व—इन छ: आवरणों से घिरा हुआ है। इन सब के बाहर सातवाँ आवरण प्रकृति का है ॥ ५२ ॥ कारणमय जल में स्थित उस तेजोमय अण्ड से उठकर उस विराट् पुरुष ने पुन: उसमें प्रवेश किया और फिर उसमें कई प्रकार के छिद्र किये ॥ ५३ ॥ सब से पहले उसमें मुख प्रकट हुआ, उससे वाक्-इन्द्रिय और उसके अनन्तर वाक् का अधिष्ठाता अग्रि उत्पन्न हुआ। फिर नाक के छिद्र (नथुने) प्रकट हुए, उनसे प्राणसहित घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई ॥ ५४ ॥ घ्राण के बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानों के छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत्र और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए ॥ ५५ ॥ इसके बाद उस विराट् पुरुष के त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ-दाढ़ी तथा सिर के बाल प्रकट हुए। और उनके बाद त्वचा की अभिमानी ओषधियाँ (अन्न आदि) उत्पन्न हुर्ईं। इसके पश्चात लिङ्ग प्रकट हुआ ॥ ५६ ॥ उससे वीर्य और वीर्य के बाद लिङ्ग का अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्न हुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपान के बाद उसका अभिमानी लोकों को भयभीत करनेवाला मृत्युदेवता उत्पन्न हुआ ॥ ५७ ॥ तदनन्तर हाथ प्रकट हुए, उनसे बल और बल के बाद हस्तेन्द्रिय का अभिमानी इन्द्र उत्पन्न हुआ। फिर चरण प्रकट हुए, उनसे गति (गमन की क्रिया) और फिर पादेन्द्रिय का अभिमानी विष्णुदेवता उत्पन्न हुआ ॥ ५८ ॥ इसी प्रकार जब विराट् पुरुष के नाडियाँ प्रकट हुर्ईं, तो उनसे रुधिर उत्पन्न हुआ और उससे नदियाँ हुर्ईं। फिर उसके उदर (पेट) प्रकट हुआ ॥ ५९ ॥ उससे क्षुधा-पिपासा की अभिव्यक्ति हुई और फिर उदर का अभिमानी समुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात उसके हृदय प्रकट हुआ, हृदय से मन का प्राकट्य हुआ ॥ ६० ॥ मन के बाद उसका अभिमानी देवता चन्द्रमा हुआ। फिर हृदय से ही बुद्धि और उसके बाद उसका अभिमानी ब्रह्मा हुआ। तत्पश्चात अहंकार और उसके अनन्तर उसका अभिमानी रुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। इसके बाद चित्त और उसका अभिमानी क्षेत्रज्ञ प्रकट हुआ ॥ ६१ ॥
जब ये क्षेत्रज्ञ के अतिरिक्त सारे देवता उत्पन्न होकर भी विराट् पुरुष को उठा ने में असमर्थ रहे, तो उसे उठा ने के लिये क्रमश: फिर अपने-अपने उत्पत्तिस्थानों में प्रविष्ट होने लगे ॥ ६२ ॥ अग्रि ने वाणी के साथ मुख में प्रवेश किया, परन्तु इससे विराट् पुरुष न उठा। वायु ने घ्राणेन्द्रिय के सहित नासाछिद्रों में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६३ ॥ सूर्य ने चक्षु के सहित नेत्रों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। दिशाओं ने श्रवणेन्द्रिय के सहित कानों में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६४ ॥ ओषधियों ने रोमों के सहित त्वचा में प्रवेश किया फिर भी विराट् पुरुष न उठा। जल ने वीर्य के साथ लिङ्ग में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६५ ॥ मृत्यु ने अपान के साथ गुदा में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। इन्द्र ने बल के साथ हाथों में प्रवेश किया, परन्तु इससे भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६६ ॥ विष्णु ने गति के सहित चरणों में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। नदियों ने रुधिर के सहित नाडियों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६७ ॥ समुद्र ने क्षुधा-पिपासा के सहित उदर में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। चन्द्रमाने मन के सहित हृदय में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६८ ॥ ब्रह्माने बुद्धि के सहित हृदय में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। रुद्र ने अहंकार के सहित उसी हृदय में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६९ ॥ किन्तु जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ ने चित्त के सहित हृदय में प्रवेश किया, तो विराट् पुरुष उसी समय जल से उठकर खड़ा हो गया ॥ ७० ॥ जिस प्रकार लोक में प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ की सहायता के बिना सोये हुए प्राणी को अपने बल से नहीं उठा सकते, उसी प्रकार विराट् पुरुष को भी वे क्षेत्रज्ञ परमात्मा के बिना नहीं उठा सके ॥ ७१ ॥ अत: भक्ति, वैराग्य और चित्त की एकाग्रता से प्रकट हुए ज्ञान के द्वारा उस अन्तरात्म स्वरूप क्षेत्रज्ञ को इस शरीर में स्थित जानकर उसका चिन्तन करना चाहिये ॥ ७२ ॥
[1] जिसे अध्यात्म में चित्त कहते हैं, उसी को अधिभूत में महत्तत्त्व कहा जाता है। चित्त में अधिष्ठाता ‘क्षेत्रज्ञ’ और उपास्यदेव ‘वासुदेव’ हैं। इसी प्रकार अहंकार में अधिष्ठाता ‘रुद्र’ और उपास्यदेव ‘सङ्कर्षण’ हैं, बुद्धि में अधिष्ठाता ‘ब्रह्मा’ और उपास्यदेव ‘प्रद्युम्र’ हैं तथा मन में अधिष्ठाता ‘चन्द्रमा’ और उपास्यदेव ‘अनिरुद्ध’ हैं।
॥ सप्तविंशोऽध्यायः - २७ ॥
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः ।
अविकारादकर्तृत्वान्निर्गुणत्वाज्जलार्कवत् ॥ १॥
स एष यर्हि प्रकृतेर्गुणेष्वभिविषज्जते ।
अहङ्क्रियाविमूढात्मा कर्तास्मीत्यभिमन्यते ॥ २॥
तेन संसारपदवीमवशोऽभ्येत्यनिर्वृतः ।
प्रासङ्गिकैः कर्मदोषैः सदसन्मिश्रयोनिषु ॥ ३॥
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ ४॥
अत एव शनैश्चित्तं प्रसक्तमसतां पथि ।
भक्तियोगेन तीव्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम् ॥ ५॥
यमादिभिर्योगपथैरभ्यसन् श्रद्धयान्वितः ।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च ॥ ६॥
सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गतः ।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा ॥ ७॥
यदृच्छयोपलब्धेन सन्तुष्टो मितभुङ्मुनिः ।
विविक्तशरणः शान्तो मैत्रः करुण आत्मवान् ॥ ८॥
सानुबन्धे च देहेऽस्मिन्नकुर्वन्नसदाग्रहम् ।
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ९॥
निवृत्तबुद्ध्यवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शनः ।
उपलभ्यात्मनाऽऽत्मानं चक्षुषेवार्कमात्मदृक् ॥ १०॥
मुक्तलिङ्गं सदाभासमसति प्रतिपद्यते ।
सतो बन्धुमसच्चक्षुः सर्वानुस्यूतमद्वयम् ॥ ११॥
यथा जलस्थ आभासः स्थलस्थेनावदृश्यते ।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिविस्थितः ॥ १२॥
एवं त्रिवृदहङ्कारो भूतेन्द्रियमनोमयैः ।
स्वाभासैर्लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक् ॥ १३॥
भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनोबुद्ध्यादिष्विह निद्रया ।
लीनेष्वसति यस्तत्र विनिद्रो निरहङ्क्रियः ॥ १४॥
मन्यमानस्तदाऽऽत्मानमनष्टो नष्टवन्मृषा ।
नष्टेऽहङ्करणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुरः ॥ १५॥
एवं प्रत्यवमृश्यासावात्मानं प्रतिपद्यते ।
साहङ्कारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रहः ॥ १६॥
देवहूतिरुवाच
पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन् न विमुञ्चति कर्हिचित् ।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वादनयोः प्रभो ॥ १७॥
यथा गन्धस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः ।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च ॥ १८॥
अकर्तुः कर्मबन्धोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः ।
गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम् ॥ १९॥
क्वचित्तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम् ।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात्पुनः प्रत्यवतिष्ठते ॥ २०॥
श्रीभगवानुवाच
अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना ।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसंभृतया चिरम् ॥ २१॥
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना ॥ २२॥
प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम् ।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेर्योनिरिवारणिः ॥ २३॥
भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः ।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च ॥ २४॥
यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥ २५॥
एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम् ।
युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित् ॥ २६॥
यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना ।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनिः ॥ २७॥
मद्भक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा ।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम् ॥ २८॥
प्राप्नोतीहाञ्जसा धीरः स्वदृशाच्छिन्नसंशयः ।
यद्गत्वा न निवर्तेत योगी लिङ्गाद्विनिर्गमे ॥ २९॥
यदा न योगोपचितासु चेतो
मायासु सिद्धस्य विषज्जतेऽङ्ग ।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः
स्यादात्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः ॥ ३०॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-सत्ताईसवाँ अध्याय
प्रकृति-पुरुष के विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन
श्रीभगवान कहते हैं—माताजी ! जिस तरह जल में प्रतिबिम्बित सूर्य के साथ जल के शीतलता, चञ्चलता आदि गुणों का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति के कार्य शरीर में स्थित रहने पर भी आत्मा वास्तव में उसके सुख-दु:खादि धर्मों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह स्वभाव से निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है ॥ १ ॥ किन्तु जब वही प्राकृत गुणों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहंकार से मोहित होकर ‘मैं कर्ता हूँ’—ऐसा मान ने लगता है ॥ २ ॥ उस अभिमान के कारण वह देह के संसर्ग से किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मों के दोष से अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियों में उत्पन्न होकर संसारचक्र में घूमता रहता है ॥ ३ ॥ जिस प्रकार स्वप्न में भय-शोकादि का कोई कारण न होने पर भी स्वप्न के पदार्थों में आस्था हो जाने के कारण दु:ख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं-मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसार की कोई सत्ता न होने पर भी अविद्यावश विषयों का चिन्तन करते रहने से जीव का संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता ॥ ४ ॥ इसलिये बुद्धिमान मनुष्य को उचित है कि असन्मार्ग (विषय-चिन्तन) में फँ से हुए चित्त को तीव्र भक्तियोग और वैराग्य के द्वारा धीरे-धीरे अपने वश में लावे ॥ ५ ॥
यमादि योगसाधनों के द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास—चित्त को बारंबार एकाग्र करते हुए मुझ में सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियों में समभाव रखने, किसी से वैर न करने, आसक्ति के त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान को समर्पित किये हुए) स्वधर्म से जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि—प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसी में सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्त में रहता है, शान्तस्वभाव है, सब का मित्र है, दयालु और धैर्यवान् है, प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप के अनुभव से प्राप्त हुए तत्त्वज्ञान के कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियों के सहित इस देहमें मैं-मेरेपन का मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धि की जाग्रदादि अवस्थाओं से भी अलग हो गया है तथा परमात्मा के सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता—वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रों से सूर्य को देखने की भाँति अपने शुद्ध अन्त:करण द्वारा परमात्मा का साक्षातकार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियों से पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओं में सत्यरूप से भासनेवाला, जगतकारणभूता प्रकृति का अधिष्ठान, महदादि कार्यवर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है ॥ ६—११ ॥
जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवाल पर पड़े हुए अपने आभासके सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखनेवाले प्रतिबिम्ब से आकाशस्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहंकार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्बयुक्त उस अहंकार के द्वारा सत्य-ज्ञान स्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है—जो सुषुप्ति के समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जाने पर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकारशून्य है ॥ १२—१४ ॥ (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूतसूक्ष्मादि दृश्यवर्ग के द्रष्टारूप में स्पष्टतया अनुभव में आता है; किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहंकार का नाश होने से वह भ्रमवश अपने को ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धन का नाश हो जाने पर मनुष्य अपने को भी नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है ॥ १५ ॥ माताजी ! इन सब बातों का मनन करके विवे की पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है, जो अहंकार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है ॥ १६ ॥
देवहूति ने पूछा—प्रभो ! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरे के आश्रय से रहनेवाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुष को कभी छोड़ ही नहीं सकती ॥ १७ ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोडक़र नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ अत: जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृति के गुणों के रहते हुए उसे कैवल्यपद कैसे प्राप्त होगा ? ॥ १९ ॥ यदि तत्त्वों का विचार करने से कभी यह संसारबन्धन का तीव्र भय निवृत्त हो भी जाय, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणों का अभाव न होने से वह भय फिर उपस्थित हो सकता है ॥ २० ॥
श्रीभगवान ने कहा—माताजी ! जिस प्रकार अग्रि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्रि से जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार निष्कामभाव से किये हुए स्वधर्मपालन द्वारा अन्त:करण शुद्ध होने से बहुत समय तक भगवत् कथा-श्रवण द्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्तिसे, तत्त्वसाक्षातकार करानेवाले ज्ञानसे, प्रबल वैराग्यसे, व्रतनियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्यास से और चित्त की प्रगाढ़ एकाग्रता से पुरुष की प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है ॥ २१—२३ ॥ फिर नित्यप्रति दोष दीख ने से भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २४ ॥ जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कित ने ही अनर्थों का अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पडऩे पर उसे उन स्वप्न के अनुभवों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता ॥ २५ ॥ उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझ में ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २६ ॥ जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्रन रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है ॥ २७ ॥ मेरा वह धैर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपा से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिङ्गदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्य-संज्ञक मङ्गलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता ॥ २८-२९ ॥ माताजी ! यदि योगी का चित्त योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियों में, जिनकी प्राप्ति का योग के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है—जहाँ मृत्यु की कुछ भी दाल नहीं गलती ॥ ३० ॥
॥ अष्टाविंशोऽध्यायः २८ ॥
श्रीभगवानुवाच
योगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य नृपात्मजे ।
मनो येनैव विधिना प्रसन्नं याति सत्पथम् ॥ १॥
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
दैवाल्लब्धेन सन्तोष आत्मविच्चरणार्चनम् ॥ २॥
ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद्विविक्तक्षेमसेवनम् ॥ ३॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः ।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्चनम् ॥ ४॥
मौनं सदासनजयः स्थैर्यं प्राणजयः शनैः ।
प्रत्याहारश्चेन्द्रियाणां विषयान्मनसा हृदि ॥ ५॥
स्वधिष्ण्यानामेकदेशे मनसा प्राणधारणम् ।
वैकुण्ठलीलाभिध्यानं समाधानं तथाऽऽत्मनः ॥ ६॥
एतैरन्यैश्च पथिभिर्मनो दुष्टमसत्पथम् ।
बुद्ध्या युञ्जीत शनकैर्जितप्राणो ह्यतन्द्रितः ॥ ७॥
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासन आसनम् ।
तस्मिन् स्वस्ति समासीन ऋजुकायः समभ्यसेत् ॥ ८॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुंभकरेचकैः ।
प्रतिकूलेन वा चित्तं यथा स्थिरमचञ्चलम् ॥ ९॥
मनोऽचिरात्स्याद्विरजं जितश्वासस्य योगिनः ।
वाय्वग्निभ्यां यथा लोहं ध्मातं त्यजति वै मलम् ॥ १०॥
प्राणायामैर्दहेद्दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषान् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान् गुणान् ॥ ११॥
यदा मनः स्वं विरजं योगेन सुसमाहितम् ।
काष्ठां भगवतो ध्यायेत्स्वनासाग्रावलोकनः ॥ १२॥
प्रसन्नवदनांभोजं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ १३॥
लसत्पङ्कजकिञ्जल्कपीतकौशेयवाससम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ॥ १४॥
मत्तद्विरेफकलया परीतं वनमालया ।
परार्ध्यहारवलयकिरीटाङ्गदनूपुरम् ॥ १५॥
काञ्चीगुणोल्लसच्छ्रोणिं हृदयांभोजविष्टरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयनवर्धनम् ॥ १६॥
अपीच्यदर्शनं शश्वत्सर्वलोकनमस्कृतम् ।
सन्तं वयसि कैशोरे भृत्यानुग्रहकातरम् ॥ १७॥
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम् ।
ध्यायेद्देवं समग्राङ्गं यावन्न च्यवते मनः ॥ १८॥
स्थितं व्रजन्तमासीनं शयानं वा गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेच्छुद्धभावेन चेतसा ॥ १९॥
तस्मिन् लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् ।
विलक्ष्यैकत्र संयुज्यादङ्गे भगवतो मुनिः ॥ २०॥
सञ्चिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दम्
वज्राङ्कुशध्वजसरोरुहलाञ्छनाढ्यम् ।
उत्तुङ्गरक्तविलसन्नखचक्रवाल-
ज्योत्स्नाभिराहतमहद्धृदयान्धकारम् ॥ २१॥
यच्छौचनिःसृतसरित्प्रवरोदकेन
तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत् ।
ध्यातुर्मनःशमलशैलनिसृष्टवज्रं
ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम् ॥ २२॥
जानुद्वयं जलजलोचनया जनन्या
लक्ष्म्याखिलस्य सुरवन्दितया विधातुः ।
ऊर्वोर्निधाय करपल्लवरोचिषा यत्
संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥ २३॥
ऊरू सुपर्णभुजयोरधिशोभमाना-
वोजोनिधी अतसिकाकुसुमावभासौ ।
व्यालंबि पीतवरवाससि वर्तमान-
काञ्चीकलापपरिरंभिनितंबबिंबम् ॥ २४॥
नाभिह्रदं भुवनकोशगुहोदरस्थम्
यत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपद्मम् ।
व्यूढं हरिण्मणिवृषस्तनयोरमुष्य
ध्यायेद्द्वयं विशदहारमयूखगौरम् ॥ २५॥
वक्षोऽधिवासमृषभस्य महाविभूतेः
पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम् ।
कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थम्
कुर्यान्मनस्यखिललोकनमस्कृतस्य ॥ २६॥
बाहूंश्च मन्दरगिरेः परिवर्तनेन
निर्णिक्तबाहुवलयानधिलोकपालान् ।
सञ्चिन्तयेद्दशशतारमसह्यतेजः
शङ्खं च तत्करसरोरुहराजहंसम् ॥ २७॥
कौमोदकीं भगवतो दयितां स्मरेत
दिग्धामरातिभटशोणितकर्दमेन ।
मालां मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टाम्
चैत्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कण्ठे ॥ २८॥
भृत्यानुकम्पितधियेह गृहीतमूर्तेः
सञ्चिन्तयेद्भगवतो वदनारविन्दम् ।
यद्विस्फुरन्मकरकुण्डलवल्गितेन
विद्योतितामलकपोलमुदारनासम् ॥ २९॥
यच्छ्रीनिकेतमलिभिः परिसेव्यमानम्
भूत्या स्वया कुटिलकुन्तलवृन्दजुष्टम् ।
मीनद्वयाश्रयमधिक्षिपदब्जनेत्रम्
ध्यायेन्मनोमयमतन्द्रित उल्लसद्भ्रु ॥ ३०॥
तस्यावलोकमधिकं कृपयातिघोर-
तापत्रयोपशमनाय निसृष्टमक्ष्णोः ।
स्निग्द्धस्मितानुगुणितं विपुलप्रसादम्
ध्यायेच्चिरं विपुलभावनया गुहायाम् ॥ ३१॥
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र-
शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य ञ
भ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य ॥ ३२॥
ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ-
भासारुणायिततनुद्विजकुन्दपंक्ति ।
ध्यायेत्स्वदेहकुहरेऽवसितस्य विष्णोः
भक्त्याऽऽर्द्रयार्पितमना न पृथग्दिदृक्षेत् ॥ ३३॥
एवं हरौ भगवति प्रतिलब्धभावो
भक्त्या द्रवद्धृदय उत्पुलकः प्रमोदात् ।
औत्कण्ठ्यबाष्पकलया मुहुरर्द्यमान-
स्तच्चापि चित्तबडिशं शनकैर्वियुङ्क्ते ॥ ३४॥
मुक्ताश्रयं यर्हि निर्विषयं विरक्तं
निर्वाणमृच्छति मनः सहसा यथार्चिः ।
आत्मानमत्र पुरुषोऽव्यवधानमेक-
मन्वीक्षते प्रतिनिवृत्तगुणप्रवाहः ॥ ३५॥
सोऽप्येतया चरमया मनसो निवृत्त्या
तस्मिन्महिम्न्यवसितः सुखदुःखबाह्ये ।
हेतुत्वमप्यसति कर्तरि दुःखयोर्यत्
स्वात्मन् विधत्त उपलब्धपरात्मकाष्ठः ॥ ३६॥
देहं च तं न चरमः स्थितमुत्थितं वा
सिद्धो विपश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं
वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः ॥ ३७॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्
स्वारंभकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं स प्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः
स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३८॥
यथा पुत्राच्च वित्ताच्च पृथङ्मर्त्यः प्रतीयते ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद्देहादेः पुरुषस्तथा ॥ ३९॥
यथोल्मुकाद्विस्फुलिङ्गाद्धूमाद्वापि स्वसंभवात् ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद्यथाग्निः पृथगुल्मुकात् ॥ ४०॥
भूतेन्द्रियान्तःकरणात्प्रधानाज्जीवसंज्ञितात् ।
आत्मा तथा पृथग् द्रष्टा भगवान् ब्रह्मसंज्ञितः ॥ ४१॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षेतानन्यभावेन भूतेष्विव तदात्मताम् ॥ ४२॥
स्वयोनिषु यथा ज्योतिरेकं नाना प्रतीयते ।
योनीनां गुणवैषम्यात्तथाऽऽत्मा प्रकृतौ स्थितः ॥ ४३॥
तस्मादिमां स्वां प्रकृतिं दैवीं सदसदात्मिकाम् ।
दुर्विभाव्यां पराभाव्य स्वरूपेणावतिष्ठते ॥ ४४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेये साधनानुष्ठानं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-अट्ठाईसवाँ अध्याय
अष्टाङ्गयोग की विधि
कपिलभगवान कहते हैं—माताजी ! अब मैं तुम्हें सबीज (ध्येय स्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है ॥ १ ॥ यथाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहना, आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, ॥ २ ॥ विषयवासनाओं को बढ़ानेवाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ानेवाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, ॥ ३ ॥ मन, वाणी और शरीर से किसी जीव को न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान की पूजा करना, ॥ ४ ॥ वाणी का संयम करना, उत्तम आसनों का अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना ॥ ५ ॥ मूलाधार आदि किसी एक केन्द्र में मन के सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना, ॥ ६ ॥ इन से तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्ट चित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे ॥ ७ ॥
पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यासके लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि से युक्त आसन बिछावे। उसपर शरीर को सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे ॥ ८ ॥ आरम्भ में पूरक, कुम्भक और रेचक क्रम से अथवा इसके विपरीत रेचक, कुम्भक और पूरक करके प्राण के मार्ग का शोधन करे—जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाय ॥ ९ ॥
जिस प्रकार वायु और अग्रि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राणवायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है ॥ १० ॥ अत: योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करनेवाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे ॥ ११ ॥ जब योग का अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाय, तब नासि का के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान की मूर्ति का ध्यान करे ॥ १२ ॥
भगवान का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमल कोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम है; हाथों में शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हैं ॥ १३ ॥ कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है, वक्ष:स्थल में श्रीवत्सचिह्न है और गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है ॥ १४ ॥ वनमाला चरणों तक लट की हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्ध से मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अङ्ग-प्रत्यङ्ग में महामूल्य हार, कङ्कण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं ॥ १५ ॥ कमर में करधनी की लडिय़ाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनका दर्शनीय श्यामसुन्दर स्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करनेवाला है ॥ १६ ॥ उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है, वे भक्तों पर कृपा करने के लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँ की है। भगवान सदा सम्पूर्ण लोकों से वन्दित हैं ॥ १७ ॥ उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियों के भी यश को बढ़ानेवाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अङ्गों के सहित तब तक ध्यान करे, जब तक चित्त वहाँ से हटे नहीं ॥ १८ ॥ भगवान की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं; अत: अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप में स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे ॥ १९ ॥ इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रहमें चित्त की स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अङ्गों में लगे हुए चित्त को विशेष रूप से एक-एक अङ्ग में लगावे ॥ २० ॥
भगवान के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये। वे वज्र, अङ्कुश, ध्वजा और कमल के मङ्गलमय चिह्नों से युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्र-मण्डल की चन्द्रिका से ध्यान करनेवालों के हृदय के अज्ञानरूप घोर अन्धकार को दूर कर देते हैं ॥ २१ ॥ इन्हीं की धोवन से नदियों में श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र जल को मस् तक पर धारण करने के कारण स्वयं मङ्गलरूप श्रीमहादेवजी और भी अधिक मङ्गलमय हो गये। ये अपना ध्यान करनेवालों के पापरूप पर्वतों पर छोड़े हुए इन्द्र के वज्र के समान हैं। भगवान के इन चरणकमलों का चिरकाल तक चिन्तन करे ॥ २२ ॥
भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिन को विश्वविधाता ब्रह्माजी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मीजी अपनी जाँघों पर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयों की कान्ति से लाड़ लड़ाती रहती हैं ॥ २३ ॥ भगवान की जाँघों का ध्यान करे, जो अलसी के फूल के समान नीलवर्ण और बल की निधि हैं तथा गरुडजी की पीठ पर शोभायमान हैं। भगवान के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लट के हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बर के ऊ पर पहनी हुई सुर्वणमयी करधनी की लडिय़ों को आलिङ्गन कर रहा है ॥ २४ ॥
सम्पूर्ण लोकों के आश्रयस्थान भगवान के उदरदेश में स्थित नाभिसरोवर का ध्यान करे; इसी में से ब्रह्माजी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभु के श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्ष:स्थल पर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं ॥ २५ ॥ इसके पश्चात पुरुषोत्तम भगवान के वक्ष:स्थल का ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देनेवाला है। फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है ॥ २६ ॥
समस्त लोकपालों की आश्रयभूता भगवान की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिन में धारण किये हुए कङ्कणादि आभूषण समुद्रमन्थन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारोंवाले सुदर्शनचक्र का तथा उनके कर-कमल में राजहंसके समान विराजमान शङ्ख का चिन्तन करे ॥ २७ ॥ फिर विपक्षी वीरों के रुधिर से सनी हुई प्रभु की प्यारी कौमोद की गदाका, भौंरों के शब्द से गुञ्जायमान वनमाला का और उनके कण्ठ में सुशोभित सम्पूर्ण जीवों के निर्मलतत्त्वरूप कौस्तुभमणि का ध्यान करे[1] ॥ २८ ॥
भक्तों पर कृपा करने के लिये ही यहाँ साकाररूप धारण करनेवाले श्रीहरि के मुखकमल का ध्यान करे, जो सुघड़ नासिका से सुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृति कुण्डलों के हिल ने से अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलों के कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है ॥ २९ ॥ कालीकाली घुँघराली अलकावली से मण्डित भगवान का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमल कोश का भी तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चञ्चल नेत्र उस कमल कोश पर उछलते हुए मछलियों के जोड़े की शोभा को मात कर रहे हैं। उन्नत भ्रूलताओं से सुशोभित भगवान के ऐसे मनोहर मुखारविन्द की मन में धारणा करके आलस्यरहित हो उसी का ध्यान करे ॥ ३० ॥
हृदयगुहा में चिरकाल तक भक्तिभाव से भगवान के नेत्रों की चितवन का ध्यान करना चाहिये, जो कृपा से और प्रेमभरी मुसकान से क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसाद की वर्षा करती रहती है और भक्तजनों के अत्यन्त घोर तीनों तापों को शान्त करने के लिये ही प्रकट हुई है ॥ ३१ ॥ श्रीहरि का हास्य प्रणतजनों के तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रुसागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियों के हित के लिये कामदेव को मोहित करने के लिये ही अपनी माया से श्रीहरि ने अपने भ्रूमण्डल को बनाया है—उनका ध्यान करना चाहिये ॥ ३२ ॥ अत्यन्त प्रेमाद्र्रभाव से अपने हृदय में विराजमान श्रीहरि के खिलखिलाकर हँस ने का ध्यान करे, जो वस्तुत: ध्यान के ही योग्य है तथा जिसमें ऊ पर और नीचे के दोनों होठों की अत्यधिक अरुण कान्ति के कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे ॥ ३३ ॥
इस प्रकार के ध्यान के अभ्यास से साधक का श्रीहरि में प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्ति से द्रवित हो जाता है, शरीर में आनन्दातिरेक के कारण रोमाञ्च होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रुओं की धारा में वह बारंबार अपने शरीर को नहलाता है और फिर मछली पकडऩे के काँटे के समान श्रीहरि को अपनी ओर आकर्षित करने के साधनरूप अपने चित्त को भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तु से हटा लेता है ॥ ३४ ॥ जैसे तेल आदि के चुक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त— ब्रह्माकार हो जाता है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुणप्रवाहरूप देहादि उपाधि के निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है ॥ ३५ ॥ योगाभ्यास से प्राप्त हुई चित्त की इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दु:ख-रहित ब्रह्मरूप महिमा में स्थित होकर परमात्मतत्त्व का साक्षातकार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दु:ख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश अपने स्वरूप में देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है ॥ ३६ ॥ जिस प्रकार मदिरा के मद से मतवाले पुरुष को अपनी कमर पर लपेटे हुए वस्त्र के रहने या गिर ने की कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष को भी अपनी देह के बैठने-उठ ने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आ ने के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमय स्वरूप में स्थित है ॥ ३७ ॥ उसका शरीर तो पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन है; अत: जब तक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है तब तक वह इन्द्रियों के सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योग की स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिस ने परमात्मतत्त्व को भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादि के सहित इस शरीर को स्वप्न में प्रतीत होनेवाले शरीरों के समान फिर स्वीकार नहीं करता—फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार अत्यन्त स्नेह के कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवों की आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करने से ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादि से भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है ॥ ३९ ॥ जिस प्रकार जलती हुई लकड़ीसे, चिनगारीसे, स्वयं अग्रि से ही प्रकट हुए धूएँ से तथा अग्रिरूप मानी जानेवाली उस जलती हुई लकड़ी से भी अग्रि वास्तव में पृथक् ही है—उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और अन्त:करण से उनका साक्षी आत्मा अलग है, तथा जीव कहलानेवाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके सञ्चालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं ॥ ४०-४१ ॥ जिस प्रकार देहदृष्टि से जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—चारों प्रकार के प्राणी पञ्चभूतमात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवों में आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण जीवों को अनन्यभाव से अनुगत देखे ॥ ४२ ॥ जिस प्रकार एक ही अग्रि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयों में उनकी विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न आकार का दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरों में रहनेवाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता है ॥ ४३ ॥ अत: भगवान का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देनेवाली कार्यकारणरूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान की इस अचिन्त्य शक्तिमयी माया को भगवान की कृपा से ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप—ब्रह्मरूप में स्थित होता है ॥ ४४ ॥
[1] ‘आत्मानमस्य जगतो निर्लेपमगुणामलम्। बिभॢत कौस्तुभमणि स्वरूपं भगवान हरि: ।।’ अर्थात् इस जगत की निर्लेप, निर्गुण, निर्मल तथा स्वरूपभूत आत्मा को कौस्तुभमणि के रूप में भगवान धारण करते हैं।
॥ एकोनत्रिंशोऽध्यायः - २९ ॥
देवहूतिरुवाच
लक्षणं महदादीनां प्रकृतेः पुरुषस्य च ।
स्वरूपं लक्ष्यतेऽमीषां येन तत्पारमार्थिकम् ॥ १॥
यथा साङ्ख्येषु कथितं यन्मूलं तत्प्रचक्षते ।
भक्तियोगस्य मे मार्गं ब्रूहि विस्तरशः प्रभो ॥ २॥
विरागो येन पुरुषो भगवन् सर्वतो भवेत् ।
आचक्ष्व जीवलोकस्य विविधा मम संसृतीः ॥ ३॥
कालस्येश्वररूपस्य परेषां च परस्य ते ।
स्वरूपं बत कुर्वन्ति यद्धेतोः कुशलं जनाः ॥ ४॥
लोकस्य मिथ्याभिमतेरचक्षुषश्चिरं
प्रसुप्तस्य तमस्यनाश्रये ।
श्रान्तस्य कर्मस्वनुविद्धया धिया
त्वमाविरासीः किल योगभास्करः ॥ ५॥
मैत्रेय उवाच
इति मातुर्वचः श्लक्ष्णं प्रतिनन्द्य महामुनिः ।
आबभाषे कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणार्दितः ॥ ६॥
श्रीभगवानुवाच
भक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भामिनि भाव्यते ।
स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥ ७॥
अभिसन्धाय यो हिंसां दंभं मात्सर्यमेव वा ।
संरंभी भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामसः ॥ ८॥
विषयानभिसन्धाय यश ऐश्वर्यमेव वा ।
अर्चादावर्चयेद्यो मां पृथग्भावः स राजसः ॥ ९॥
कर्मनिर्हारमुद्दिश्य परस्मिन् वा तदर्पणम् ।
यजेद्यष्टव्यमिति वा पृथग्भावः स सात्त्विकः ॥ १०॥
मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गङ्गांभसोऽम्बुधौ ॥ ११॥
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥ १२॥
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥ १३॥
स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः ।
येनातिव्रज्य त्रिगुणं मद्भावायोपपद्यते ॥ १४॥
निषेवितेनानिमित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्रेण नित्यशः ॥ १५॥
मद्धिष्ण्यदर्शनस्पर्शपूजास्तुत्यभिवन्दनैः ।
भूतेषु मद्भावनया सत्त्वेनासङ्गमेन च ॥ १६॥
महतां बहुमानेन दीनानामनुकम्पया ।
मैत्र्या चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥ १७॥
आध्यात्मिकानुश्रवणान्नामसङ्कीर्तनाच्च मे ।
आर्जवेनार्यसङ्गेन निरहङ्क्रियया तथा ॥ १८॥
मद्धर्मणो गुणैरेतैः परिसंशुद्ध आशयः ।
पुरुषस्याञ्जसाभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ १९॥
यथा वातरथो घ्राणमावृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानमविकारि यत् ॥ २०॥
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तमवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडंबनम् ॥ २१॥
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वार्चां भजते मौढ्याद्भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २२॥
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनःशान्तिमृच्छति ॥ २३॥
अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥ २४॥
अर्चादावर्चयेत्तावदीश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ २५॥
आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य भिन्नदृशो मृत्युर्विदधे भयमुल्बणम् ॥ २६॥
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद्दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥ २७॥
जीवाः श्रेष्ठा ह्यजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे ।
ततः सचित्ताः प्रवरास्ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥ २८॥
तत्रापि स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।
तेभ्यो गन्धविदः श्रेष्ठास्ततः शब्दविदो वराः ॥ २९॥
रूपभेदविदस्तत्र ततश्चोभयतो दतः ।
तेषां बहुपदाः श्रेष्ठाश्चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥ ३०॥
ततो वर्णाश्च चत्वारस्तेषां ब्राह्मण उत्तमः ।
ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो ह्यर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥ ३१॥
अर्थज्ञात्संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान् स्वकर्मकृत् ।
मुक्तसङ्गस्ततो भूयानदोग्धा धर्ममात्मनः ॥ ३२॥
तस्मान्मय्यर्पिताशेषक्रियार्थात्मा निरन्तरः ।
मय्यर्पितात्मनः पुंसो मयि सन्न्यस्तकर्मणः ।
न पश्यामि परं भूतमकर्तुः समदर्शनात् ॥ ३३॥
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्बहुमानयन् ।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ ३४॥
भक्तियोगश्च योगश्च मया मानव्युदीरितः ।
ययोरेकतरेणैव पुरुषः पुरुषं व्रजेत् ॥ ३५॥
एतद्भगवतो रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
परं प्रधानं पुरुषं दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥ ३६॥
रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते ।
भूतानां महदादीनां यतो भिन्नदृशां भयम् ॥ ३७॥
योऽन्तःप्रविश्य भूतानि भूतैरत्त्यखिलाश्रयः ।
स विष्ण्वाख्योऽधियज्ञोऽसौ कालः कलयतां प्रभुः ॥ ३८॥
न चास्य कश्चिद्दयितो न द्वेष्यो न च बान्धवः ।
आविशत्यप्रमत्तोऽसौ प्रमत्तं जनमन्तकृत् ॥ ३९॥
यद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्भयात् ।
यद्भयाद्वर्षते देवो भगणो भाति यद्भयात् ॥ ४०॥
यद्वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभिः सह ।
स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥ ४१॥
स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिन्धे सगिरिभिर्भूर्न मज्जति यद्भयात् ॥ ४२॥
नभो ददाति श्वसतां पदं यन्नियमाददः ।
लोकं स्वदेहं तनुते महान्सप्तभिरावृतम् ॥ ४३॥
गुणाभिमानिनो देवाः सर्गादिष्वस्य यद्भयात् ।
वर्तन्तेऽनुयुगं येषां वश एतच्चराचरम् ॥ ४४॥
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालोऽनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ ४५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-उनतीसवाँ अध्याय
भक्ति का मर्म और काल की महिमा
देवहूति ने पूछा—प्रभो ! प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वादि का जैसा लक्षण सांख्यशास्त्र में कहा गया है तथा जिसके द्वारा उनका वास्तविक स्वरूप अलग-अलग जाना जाता है और भक्तियोग को ही जिसका प्रयोजन कहा गया है, वह आपने मुझे बताया। अब कृपा करके भक्तियोग का मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १-२ ॥ इसके सिवा जीवों की जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकार की गतियों का भी वर्णन कीजिये; जिनके सुनने से जीव को सब प्रकार की वस्तुओं से वैराग्य होता है ॥ ३ ॥ जिसके भय से लोग शुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और जो ब्रह्मादि का भी शासन करनेवाला है, उस सर्वसमर्थ काल का स्वरूप भी आप मुझ से कहिये ॥ ४ ॥ ज्ञानदृष्टि के लुप्त हो जाने के कारण देहादि मिथ्या वस्तुओं में जिन्हें आत्माभिमान हो गया है तथा बुद्धि के कर्मासक्त रहने के कारण अत्यन्त श्रमित होकर जो चिरकाल से अपार अन्धकारमय संसार में सोये पड़े हैं, उन्हें जगा ने के लिये आप योगप्रकाशक सूर्य ही प्रकट हुए हैं ॥ ५ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! माता के ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिलजी ने उनकी प्रशंसा की और जीवों के प्रति दया से द्रवीभूत हो बड़ी प्रसन्नता के साथ उनसे इस प्रकार बोले ॥ ६ ॥
श्रीभगवान ने कहा—माताजी ! साधकों के भाव के अनुसार भक्तियोग का अनेक प्रकार से प्रकाश होता है, क्योंकि स्वभाव और गुणों के भेद से मनुष्यों के भाव में भी विभिन्नता आ जाती है ॥ ७ ॥ जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदय में हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्य का भाव रखकर मुझ से प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है ॥ ८ ॥ जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से प्रतिमादि में मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह राजस भक्त है ॥ ९ ॥ जो व्यक्ति पापों का क्षय करने के लिये, परमात्मा को अर्पण करने के लिये और पूजन करना कर्तव्य है—इस बुद्धि से मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है ॥ १० ॥ जिस प्रकार गङ्गा का प्रवाह अखण्डरूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मन की गति का तैलधारावत् अविच्छिन्नरूप से मुझ सर्वान्तर्यामी के प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम और अनन्य प्रेम होना—यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है ॥ ११-१२ ॥ ऐसे निष्काम भक्त, दिये जाने पर भी, मेरी सेवा को छोडक़र सालोक्य१, सार्ष्टि,२ सामीप्य,३ सारूप्य४ और सायुज्य५ मोक्ष तक नहीं लेते[1]— ॥ १३ ॥ भगवत्-सेवा के लिये मुक्ति का तिरस्कार करनेवाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है। इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लाँघकर मेरे भाव को—मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥ १४ ॥
निष्कामभाव से श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्यों का पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोग का अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमा का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियों में मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्य के अवलम्बन, महापुरुषों का मान, दीनों पर दया और समान स्थितिवालों के प्रति मित्रता का व्यवहार करने, यम-नियमों का पालन, अध्यात्मशास्त्रों का श्रवण और मेरे नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करने से तथा मन की सरलता, सत्पुरुषों के सङ्ग और अहंकार के त्याग से मेरे धर्मों का (भागवतधर्मोंका) अनुष्ठान करनेवाले भक्त पुरुष का चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्र से अनायास ही मुझ में लग जाता है ॥ १५—१९ ॥
जिस प्रकार वायु के द्वारा उडक़र जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्प से घ्राणेन्द्रिय तक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोग में तत्पर और राग-द्वेषादि विकारों से शून्य चित्त परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ॥ २० ॥ मैं आत्मारूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँगमात्र है ॥ २१ ॥ मैं सब का आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है ॥ २२ ॥ जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष जो दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल सकती ॥ २३ ॥ माताजी ! दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढिय़ा सामग्रियों से अनेक प्रकार के विधि-विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता ॥ २४ ॥ मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वर की प्रतिमा आदि में पूजा करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में एवं सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्मा का अनुभव न हो जाय ॥ २५ ॥ जो व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के बीच में थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शी को मैं मृत्युरूप से महान भय उपस्थित करता हूँ ॥ २६ ॥ अत: सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर घर बनाकर उन प्राणियों के ही रूप में स्थित मुझ परमात्मा का यथायोग्य दान, मान, मित्रता के व्यवहार तथा समदृष्टि के द्वारा पूजन करना चाहिये ॥ २७ ॥
माताजी ! पाषाणादि अचेतनों की अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मनवाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रिय की वृत्तियों से युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। सेन्द्रिय प्राणियों में भी केवल स्पर्श का अनुभव करनेवालों की अपेक्षा रस का ग्रहण कर सकनेवाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं, तथा रसवेत्ताओं की अपेक्षा गन्ध का अनुभव करनेवाले (भ्रमरादि) और गन्ध का ग्रहण करनेवालों से भी शब्द का ग्रहण करनेवाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं ॥ २८-२९ ॥ उनसे भी रूप का अनुभव करनेवाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैरवालों से बहुत- से चरणोंवाले श्रेष्ठ हैं तथा बहुत चरणोंवालों से चार चरणवाले और चार चरणवालों से भी दो चरणवाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं ॥ ३० ॥ मनुष्यों में भी चार वर्ण श्रेष्ठ हैं; उनमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मणों में वेद को जाननेवाले उत्तम हैं और वेदज्ञों में भी वेद का तात्पर्य जाननेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३१ ॥ तात्पर्य जाननेवालों से संशय निवारण करनेवाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्म का पालन करनेवाले तथा उनसे भी आसक्ति का त्याग और अपने धर्म का निष्कामभाव से आचरण करनेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३२ ॥ उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीर को भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोडक़र मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करनेवाले अकत्र्ता और समदर्शी पुरुष से बढक़र मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता ॥ ३३ ॥ अत: यह मानकर कि जीवरूप अपने अंश से साक्षात भगवान ही सब में अनुगत हैं, इन समस्त प्राणियों को बड़े आदर के साथ मन से प्रणाम करे ॥ ३४ ॥
माताजी ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया। इनमें से एक का भी साधन करने से जीव परमपुरुष भगवान को प्राप्त कर सकता है ॥ ३५ ॥ भगवान परमात्मा परब्रह्म का अद्भुत प्रभावसम्पन्न तथा जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्य का हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नाम से विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसी के रूप हैं तथा इन से यह पृथक् भी है। नाना प्रकार के कर्मों का मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसीसे महत्तत्त्वादि के अभिमानी भेददर्शी प्राणियों को सदा भय लगा रहता है ॥ ३६-३७ ॥ जो सब का आश्रय होने के कारण समस्त प्राणियों में अनुप्रविष्ट होकर भूतों द्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत का शासन करनेवाले ब्रह्मादि का भी प्रभु भगवान काल ही यज्ञों का फल देनेवाला विष्णु है ॥ ३८ ॥ इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है। यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान को भूलकर भोगरूप प्रमाद में पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है ॥ ३९ ॥ इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भय से सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं ॥ ४० ॥ इसीसे भयभीत होकर ओषधियों के सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समय पर फल-फूल धारण करती हैं ॥ ४१ ॥ इसी के डर से नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादा से बाहर नहीं जाता। इसी के भय से अग्रि प्रज्वलित होती है और पर्वतों के सहित पृथ्वी जल में नहीं डूबती ॥ ४२ ॥ इसी के शासन से यह आकाश जीवित प्राणियों को श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीर का सात आवरणों से युक्त ब्रह्माण्ड के रूप में विस्तार करता है ॥ ४३ ॥ इस काल के ही भय से सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत है, अपने जगत-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से तत्पर रहते हैं ॥ ४४ ॥ यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरों का अन्त करनेवाला है। यह पिता से पुत्र की उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्यु के द्वारा यमराज को भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है ॥ ४५ ॥
[1] १. भगवान के नित्यधाम में निवास, २. भगवान के समान ऐश्वर्यभोग, ३. भगवान की नित्य समीपता, ४. भगवानका-सा रूप और ५. भगवान के विग्रहमें समा जाना, उनसे एक हो जाना या ब्रह्मरूप प्राप्त कर लेना।
॥ त्रिंशोऽध्यायः - ३० ॥
कपिल उवाच
तस्यैतस्य जनो नूनं नायं वेदोरुविक्रमम् ।
काल्यमानोऽपि बलिनो वायोरिव घनावलिः ॥ १॥
यं यमर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान् पुमान् शोचति यत्कृते ॥ २॥
यदध्रुवस्य देहस्य सानुबन्धस्य दुर्मतिः ।
ध्रुवाणि मन्यते मोहाद्गृहक्षेत्रवसूनि च ॥ ३॥
जन्तुर्वै भव एतस्मिन् यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥ ४॥
नरकस्थोऽपि देहं वै न पुमांस्त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहितः ॥ ५॥
आत्मजायासुतागारपशुद्रविणबन्धुषु ।
निरूढमूलहृदय आत्मानं बहु मन्यते ॥ ६॥
सन्दह्यमानसर्वाङ्ग एषामुद्वहनाधिना ।
करोत्यविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः ॥ ७॥
आक्षिप्तात्मेन्द्रियः स्त्रीणामसतीनां च मायया ।
रहो रचितयाऽऽलापैः शिशूनां कलभाषिणाम् ॥ ८॥
गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः ।
कुर्वन् दुःखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥ ९॥
अर्थैरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतस्ततश्च तान् ।
पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग्यात्यधः स्वयम् ॥ १०॥
वार्तायां लुप्यमानायामारब्धायां पुनः पुनः ।
लोभाभिभूतो निःसत्त्वः परार्थे कुरुते स्पृहाम् ॥ ११॥
कुटुंबभरणाकल्पो मन्दभाग्यो वृथोद्यमः ।
श्रिया विहीनः कृपणो ध्यायन् श्वसिति मूढधीः ॥ १२॥
एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा ।
नाद्रियन्ते यथापूर्वं कीनाशा इव गोजरम् ॥ १३॥
तत्राप्यजातनिर्वेदो भ्रियमाणः स्वयंभृतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥ १४॥
आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन् ।
आमयाव्यप्रदीप्ताग्निरल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ १५॥
वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते ॥ १६॥
शयानः परिशोचद्भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः ।
वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशं गतः ॥ १७॥
एवं कुटुंबभरणे व्यापृतात्माजितेन्द्रियः ।
म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयास्तधीः ॥ १८॥
यमदूतौ तदा प्राप्तौ भीमौ सरभसेक्षणौ ।
स दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः शकृन्मूत्रं विमुञ्चति ॥ १९॥
यातनादेह आवृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले बलात् ।
नयतो दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा यथा ॥ २०॥
तयोर्निर्भिन्नहृदयस्तर्जनैर्जातवेपथुः ।
पथि श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽघं स्वमनुस्मरन् ॥ २१॥
क्षुत्तृट् परीतोऽर्कदवानलानिलैः
सन्तप्यमानः पथि तप्तवालुके ।
कृच्छ्रेण पृष्ठे कशया च ताडितः
चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके ॥ २२॥
तत्र तत्र पतन् श्रान्तो मूर्च्छितः पुनरुत्थितः ।
पथा पापीयसा नीतस्तरसा यमसादनम् ॥ २३॥
योजनानां सहस्राणि नवतिं नव चाध्वनः ।
त्रिभिर्मुहूर्तैर्द्वाभ्यां वा नीतः प्राप्नोति यातनाः ॥ २४॥
आदीपनं स्वगात्राणां वेष्टयित्वोल्मुकादिभिः ।
आत्ममांसादनं क्वापि स्वकृत्तं परतोऽपि वा ॥ २५॥
जीवतश्चान्त्राभ्युद्धारः श्वगृध्रैर्यमसादने ।
सर्पवृश्चिकदंशाद्यैर्दशद्भिश्चात्मवैशसम् ॥ २६॥
कृन्तनं चावयवशो गजादिभ्यो भिदापनम् ।
पातनं गिरिशृङ्गेभ्यो रोधनं चांबुगर्तयोः ॥ २७॥
यास्तामिस्रान्धतामिस्रा रौरवाद्याश्च यातनाः ।
भुङ्क्ते नरो वा नारी वा मिथः सङ्गेन निर्मिताः ॥ २८॥
अत्रैव नरकः स्वर्ग इति मातः प्रचक्षते ।
या यातना वै नारक्यस्ता इहाप्युपलक्षिताः ॥ २९॥
एवं कुटुंबं बिभ्राण उदरंभर एव वा ।
विसृज्येहोभयं प्रेत्य भुङ्क्ते तत्फलमीदृशम् ॥ ३०॥
एकः प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं स्वकलेवरम् ।
कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहेण यद्भृतम् ॥ ३१॥
दैवेनासादितं तस्य शमलं निरये पुमान् ।
भुङ्क्ते कुटुंबपोषस्य हृतवित्त इवातुरः ॥ ३२॥
केवलेन ह्यधर्मेण कुटुंबभरणोत्सुकः ।
याति जीवोऽन्धतामिस्रं चरमं तमसः पदम् ॥ ३३॥
अधस्तान्नरलोकस्य यावतीर्यातनादयः ।
क्रमशः समनुक्रम्य पुनरत्राव्रजेच्छुचिः ॥ ३४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने कर्मविपाको नम
त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३०
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-तीसवाँ अध्याय
देह-गेहमें आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन
कपिलदेवजी कहते हैं—माताजी ! जिस प्रकार वायु के द्वारा उड़ाया जानेवाला मेघसमूह उसके बल को नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् काल की प्रेरणा से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियों में भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रम को नहीं जानता ॥ १ ॥ जीव सुख की अभिलाषा से जिस-जिस वस्तु को बड़े कष्ट से प्राप्त करता है, उसी-उसी को भगवान काल विनष्ट कर देता है—जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है ॥ २ ॥ इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है ॥ ३ ॥ इस संसार में यह जीव जिस-जिस योनि में जन्म लेता है, उसी-उसी में आनन्द मान ने लगता है और उससे विरक्त नहीं होता ॥ ४ ॥ यह भगवान की माया से ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश नारकी योनियों में जन्म लेने पर भी वहाँ के विष्ठा आदि भोगों में ही सुख मान ने के कारण उसे भी छोडऩा नहीं चाहता ॥ ५ ॥ यह मूर्ख अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन और बन्धु-बान्धवों में अत्यन्त आसक्त होकर उनके सम्बन्ध में नाना प्रकार के मनोरथ करता हुआ अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता है ॥ ६ ॥ इनके पालन-पोषण की चिन्ता से इसके सम्पूर्ण अङ्ग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओं से दूषित हृदय होने के कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हीं के लिये तरह-तरह के पाप करता रहता है ॥ ७ ॥ कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में सम्भोगादि के समय प्रदॢशत किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकों की मीठी-मीठी बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दु:ख-प्रधान कपटपूर्ण कर्मों में लिप्त हो जाता है। उस समय बहुत सावधानी करने पर यदि उसे किसी दु:ख का प्रतीकार करने में सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह सुख-सा मान लेता है ॥ ८-९ ॥ जहाँ-तहाँ से भयङ्कर हिंसावृत्ति के द्वारा धन सञ्चयकर यह ऐसे लोगों का पोषण करता है, जिनके पोषण से नरक में जाता है। स्वयं तो उनके खाने-पी ने से बचे हुए अन्न को ही खाकर रहता है ॥ १० ॥ बार-बार प्रयत्न करने पर भी जब इस की कोई जीवि का नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर हो जाने से दूसरे के धन की इच्छा करने लगता है ॥ ११ ॥ जब मन्दभाग्य के कारण इसका कोई प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्ब के भरण-पोषण में असमर्थ हो जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसें छोडऩे लगता है ॥ १२ ॥
इसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर वे स्त्री-पुत्रादि इसका पहले के समान आदर नहीं करते, जैसे कृपण किसान बूढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं ॥ १३ ॥ फिर भी इसे वैराग्य नहीं होता। जिन्हें उसने स्वयं पाला था, वे ही अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़ जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अग्रि मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं। वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भाँति स्त्री-पुत्रादि के अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है ॥ १४-१५ ॥ मृत्यु का समय निकट आने पर वायु के उत्क्रमण से इस की पुतलियाँ चढ़ जाती हैं, श्वास-प्रश्वास की नलिकाएँ कफ से रुक जाती हैं, खाँस ने और साँस लेने में भी इसे बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जाने के कारण कण्ठ में घुरघुराहट होने लगती है ॥ १६ ॥ यह अपने शोकातुर बन्धु-बान्धवों से घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाश के वशीभूत हो जाने से उनके बुलाने पर भी नहीं बोल सकता ॥ १७ ॥
इस प्रकार जो मूढ़ पुरुष इन्द्रियों को न जीतकर निरन्तर कुटुम्ब-पोषण में ही लगा रहता है, वह रोते हुए स्वजनों के बीच अत्यन्त वेदना से अचेत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ इस अवसर पर उसे लेने के लिये अति भयङ्कर और रोषयुक्त नेत्रोंवाले जो दो यमदूत आते हैं, उन्हें देखकर वह भय के कारण मल-मूत्र कर देता है ॥ १९ ॥ वे यमदूत उसे यातनादेहमें डाल देते हैं और फिर जिस प्रकार सिपाही किसी अपराधी को ले जाते हैं, उसी प्रकार उसके गले में रस्सी बाँधकर बलात् यमलोक की लंबी यात्रा में उसे ले जाते हैं ॥ २० ॥ उनकी घुड़कियों से उसका हृदय फट ने और शरीर काँप ने लगता है, मार्ग में उसे कुत्ते नोचते हैं। उस समय अपने पापों को याद करके वह व्याकुल हो उठता है ॥ २१ ॥ भूख-प्यास उसे बेचैन कर देती है तथा घाम, दावानल और लूओं से वह तप जाता है। ऐसी अवस्थामे जल और विश्राम-स्थान से रहित उस तप्तबालुकामय मार्ग में जब उसे एक पग आगे बढऩे की भी शक्ति नहीं रहती, यमदूत उसकी पीठ पर कोड़े बरसाते हैं, तब बड़े कष्ट से उसे चलना ही पड़ता है ॥ २२ ॥ वह जहाँ-तहाँ थककर गिर जाता है, मूच्र्छा आ जाती है, चेतना आने पर फिर उठता है। इस प्रकार अति दु:खमय अँधेरे मार्ग से अत्यन्त क्रूर यमदूत उसे शीघ्रता से यमपुरी को ले जाते हैं ॥ २३ ॥ यमलोक का मार्ग निन्यानबे हजार योजन है। इत ने लम्बे मार्ग को दो-ही-तीन मुहूर्त में तै करके वह नरक में तरह-तरह की यातनाएँ भोगता है ॥ २४ ॥ वहाँ उसके शरीर को धधकती लकडिय़ों आदि के बीच में डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरों के द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है ॥ २५ ॥ यमपुरी के कुत्तों अथवा गिद्धों द्वारा जीते-जी उसकी आँतें खींची जाती हैं। साँप, बिच्छू और डाँस आदि डसनेवाले तथा डंक मारनेवाले जीवों से शरीर को पीड़ा पहुँचायी जाती है ॥ २६ ॥ शरीर को काटकर टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। उसे हाथियों से चिरवाया जाता है, पर्वतशिखरों से गिराया जाता है अथवा जल या गढ़े में डालकर बन्द कर दिया जाता है ॥ २७ ॥ ये सब यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्र, अन्धतामिस्र एवं रौरव आदि नरकों की और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो या पुरुष, उस जीव को पारस्परिक संसर्ग से होनेवाले पाप के कारण भोगनी ही पड़ती हैं ॥ २८ ॥ माताजी ! कुछ लोगों का कहना है कि स्वर्ग और नरक तो इसी लोक में हैं, क्योंकि जो नारकी यातनाएँ हैं, वे यहाँ भी देखी जाती हैं ॥ २९ ॥
इस प्रकार अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्ब का ही पालन करनेवाला अथवा केवल अपना ही पेट भरनेवाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर—दोनों को यहीं छोडक़र मर ने के बाद अपने किये हुए पापों का ऐसा फल भोगता है ॥ ३० ॥ अपने इस शरीर को यहीं छोडक़र प्राणियों से द्रोह करके एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेय को साथ लेकर वह अकेला ही नरक में जाता है ॥ ३१ ॥ मनुष्य अपने कुटुम्ब का पेट पालने में जो अन्याय करता है, उसका दैवविहित कुफल वह नरक में जाकर भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो ॥ ३२ ॥ जो पुरुष निरी पाप की कमाई से ही अपने परिवार का पालन करने में व्यस्त रहता है, वह अन्धतामिस्र नरक में जाता है—जो नरकों में चरम सीमा का कष्टप्रद स्थान है ॥ ३३ ॥ मनुष्य-जन्म मिल ने के पूर्व जितनी भी यातनाएँ हैं तथा शूकर-कूकरादि योनियों के जित ने कष्ट हैं, उन सब को क्रम से भोगकर शुद्ध हो जाने पर वह फिर मनुष्ययोनि में जन्म लेता है ॥ ३४ ॥
॥ एकत्रिंशोऽध्यायः - ३१ ॥
श्रीभगवानुवाच
कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये ।
स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतः कणाश्रयः ॥ १॥
कललं त्वेकरात्रेण पञ्चरात्रेण बुद्बुदम् ।
दशाहेन तु कर्कन्धूः पेश्यण्डं वा ततः परम् ॥ २॥
मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्वङ्घ्र्याद्यङ्गविग्रहः ।
नखलोमास्थिचर्माणि लिङ्गच्छिद्रोद्भवस्त्रिभिः ॥ ३॥
चतुर्भिर्धातवः सप्त पञ्चभिः क्षुत्तृडुद्भवः ।
षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे ॥ ४॥
मातुर्जग्धान्नपानाद्यैरेधद्धातुरसम्मते ।
शेते विण्मूत्रयोर्गर्ते स जन्तुर्जन्तुसंभवे ॥ ५॥
कृमिभिः क्षतसर्वाङ्गः सौकुमार्यात्प्रतिक्षणम् ।
मूर्च्छामाप्नोत्युरुक्लेशस्तत्रत्यैः क्षुधितैर्मुहुः ॥ ६॥
कटुतीक्ष्णोष्णलवणरूक्षाम्लादिभिरुल्बणैः ।
मातृभुक्तैरुपस्पृष्टः सर्वाङ्गोत्थितवेदनः ॥ ७॥
उल्बेन संवृतस्तस्मिन्नन्त्रैश्च बहिरावृतः ।
आस्ते कृत्वा शिरः कुक्षौ भुग्नपृष्ठशिरोधरः ॥ ८॥
अकल्पः स्वाङ्गचेष्टायां शकुन्त इव पञ्जरे ।
तत्र लब्धस्मृतिर्दैवात्कर्मजन्मशतोद्भवम् ।
स्मरन् दीर्घमनुच्छ्वासं शर्म किं नाम विन्दते ॥ ९॥
आरभ्य सप्तमान्मासाल्लब्धबोधोऽपि वेपितः ।
नैकत्रास्ते सूतिवातैर्विष्ठाभूरिव सोदरः ॥ १०॥
नाथमान ऋषिर्भीतः सप्तवध्रिः कृताञ्जलिः ।
स्तुवीत तं विक्लवया वाचा येनोदरेऽर्पितः ॥ ११॥
जन्तुरुवाच
तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्त-
नानातनोर्भुवि चलच्चरणारविन्दम् ।
सोऽहं व्रजामि शरणं ह्यकुतोभयं मे
येनेदृशी गतिरदर्श्यसतोऽनुरूपा ॥ १२॥
यस्त्वत्र बद्ध इव कर्मभिरावृतात्मा
भूतेन्द्रियाशयमयीमवलंब्य मायाम् ।
आस्ते विशुद्धमविकारमखण्डबोध-
मातप्यमानहृदयेऽवसितं नमामि ॥ १३॥
यः पञ्चभूतरचिते रहितः शरीरे
छन्नो यथेन्द्रियगुणार्थचिदात्मकोऽहम् ।
तेनाविकुण्ठमहिमानमृषिं तमेनम्
वन्दे परं प्रकृतिपूरुषयोः पुमांसम् ॥ १४॥
यन्माययोरुगुणकर्मनिबन्धनेऽस्मिन्
सांसारिके पथि चरंस्तदभिश्रमेण ।
नष्टस्मृतिः पुनरयं प्रवृणीत लोकम्
युक्त्या कया महदनुग्रहमन्तरेण ॥ १५॥
ज्ञानं यदेतददधात्कतमः स देवः
त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांशः ।
तं जीवकर्मपदवीमनुवर्तमाना-
स्तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥ १६॥
देह्यन्यदेहविवरे जठराग्निनासृग्-
विण्मूत्रकूपपतितो भृशतप्तदेहः ।
इच्छन्नितो विवसितुं गणयन् स्वमासान्
निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन् कदा नु ॥ १७॥
येनेदृशीं गतिमसौ दशमास्य ईश
सङ्ग्राहितः पुरुदयेन भवादृशेन ।
स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथः
को नाम तत्प्रति विनाञ्जलिमस्य कुर्यात् ॥ १८॥
पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तवध्रिः
शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे ।
यत्सृष्टयाऽऽसं तमहं पुरुषं पुराणम्
पश्ये बहिर्हृदि च चैत्यमिव प्रतीतम् ॥ १९॥
सोऽहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासम्
गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे ।
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया
मिथ्यामतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ॥ २०॥
तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्य
आत्मानमाशु तमसः सुहृदात्मनैव ।
भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरन्ध्रं
मा मे भविष्यदुपसादितविष्णुपादः ॥ २१॥
कपिल उवाच
एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन् ऋषिः ।
सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः ॥ २२॥
तेनावसृष्टः सहसा कृत्वावाक्शिर आतुरः ।
विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः ॥ २३॥
पतितो भुव्यसृङ्मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते ।
रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः ॥ २४॥
परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन सः ।
अनभिप्रेतमापन्नः प्रत्याख्यातुमनीश्वरः ॥ २५॥
शायितोऽशुचिपर्यङ्के जन्तुः स्वेदजदूषिते ।
नेशः कण्डूयनेऽङ्गानामासनोत्थानचेष्टने ॥ २६॥
तुदन्त्यामत्वचं दंशा मशका मत्कुणादयः ।
रुदन्तं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं यथा ॥ २७॥
इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं पौगण्डमेव च ।
अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानादिद्धमन्युः शुचार्पितः ॥ २८॥
सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना ।
करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः ॥ २९॥
भूतैः पञ्चभिरारब्धे देहे देह्यबुधोऽसकृत् ।
अहं ममेत्यसद्ग्राहः करोति कुमतिर्मतिं ॥ ३०॥
तदर्थं कुरुते कर्म यद्बद्धो याति संसृतिम् ।
योऽनुयाति ददत्क्लेशमविद्याकर्मबन्धनः ॥ ३१॥
यद्यसद्भिः पथि पुनः शिश्नोदरकृतोद्यमैः ।
आस्थितो रमते जन्तुस्तमो विशति पूर्ववत् ॥ ३२॥
सत्यं शौचं दया मौनं बुद्धिः श्रीर्ह्रीर्यशः क्षमा ।
शमो दमो भगश्चेति यत्सङ्गाद्याति संक्षयम् ॥ ३३॥
तेष्वशान्तेषु मूढेषु खण्डितात्मस्वसाधुषु ।
सङ्गं न कुर्याच्छोच्येषु योषित्क्रीडामृगेषु च ॥ ३४॥
न तथास्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः ।
योषित्सङ्गाद्यथा पुंसो यथा तत्सङ्गिसङ्गतः ॥ ३५॥
प्रजापतिः स्वां दुहितरं दृष्ट्वा तद्रूपधर्षितः ।
रोहिद्भूतां सोऽन्वधावदृक्षरूपी हतत्रपः ॥ ३६॥
तत्सृष्टसृष्टसृष्टेषु को न्वखण्डितधीः पुमान् ।
ऋषिं नारायणमृते योषिन्मय्येह मायया ॥ ३७॥
बलं मे पश्य मायायाः स्त्रीमय्या जयिनो दिशाम् ।
या करोति पदाक्रान्तान् भ्रूविजृंभेण केवलम् ॥ ३८॥
सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु
योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो
वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥ ३९॥
योपयाति शनैर्माया योषिद्देवविनिर्मिता ।
तामीक्षेतात्मनो मृत्युं तृणैः कूपमिवावृतम् ॥ ४०॥
यां मन्यते पतिं मोहान्मन्मायामृषभायतीम् ।
स्त्रीत्वं स्त्रीसङ्गतः प्राप्तो वित्तापत्यगृहप्रदम् ॥ ४१॥
तामात्मनो विजानीयात्पत्यपत्यगृहात्मकम् ।
दैवोपसादितं मृत्युं मृगयोर्गायनं यथा ॥ ४२॥
देहेन जीवभूतेन लोकाल्लोकमनुव्रजन् ।
भुञ्जान एव कर्माणि करोत्यविरतं पुमान् ॥ ४३॥
जीवो ह्यस्यानुगो देहो भूतेन्द्रियमनोमयः ।
तन्निरोधोऽस्य मरणमाविर्भावस्तु संभवः ॥ ४४॥
द्रव्योपलब्धिस्थानस्य द्रव्येक्षायोग्यता यदा ।
तत्पञ्चत्वमहंमानादुत्पत्तिर्द्रव्यदर्शनम् ॥ ४५॥
यथाक्ष्णोर्द्रव्यावयवदर्शनायोग्यता यदा ।
तदैव चक्षुषो द्रष्टुर्द्रष्टृत्वायोग्यतानयोः ॥ ४६॥
तस्मान्न कार्यः सन्त्रासो न कार्पण्यं न संभ्रमः ।
बुद्ध्वा जीवगतिं धीरो मुक्तसङ्गश्चरेदिह ॥ ४७॥
सम्यग्दर्शनया बुद्ध्या योगवैराग्ययुक्तया ।
मायाविरचिते लोके चरेन्न्यस्य कलेवरम् ॥ ४८॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने जीवगतिर्नाम
एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-इकतीसवाँ अध्याय
मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन
श्रीभगवान कहते हैं—माताजी ! जब जीव को मनुष्यशरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान की प्रेरणा से अपने पूर्वकर्मानुसार देहप्राप्ति के लिये पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के उदर में प्रवेश करता है ॥ १ ॥
वहाँ वह एक रात्रि में स्त्री के रज में मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रि में बुद्बुदरूप हो जाता है, दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियों में अण्डे के रूप में परिणत हो जाता है ॥ २ ॥
एक महीने में उसके सिर निकल आता है, दो मास में हाथ-पाँव आदि अङ्गों का विभाग हो जाता है और तीन मास में नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुष के चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं ॥ ३ ॥
चार मास में उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीने में भूख-प्यास लग ने लगती है और छठे मास में झिल्ली से लिपटकर वह दाहिनी कोख में घूम ने लगता है ॥ ४ ॥
उस समय माता के खाये हुए अन्न-जल आदि से उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती हैं और वह कृमि आदि जन्तुओं के उत्पत्तिस्थान उस जघन्य मल-मूत्र के गढ़े में पड़ा रहता है ॥ ५ ॥
वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँ के भूखे कीड़े उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग नोचते हैं, तब अत्यन्त क्लेश के कारण वह क्षण-क्षण में अचेत हो जाता है ॥ ६ ॥
माता के खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उग्र पदार्थों का स्पर्श होने से उसके सारे शरीर में पीड़ा होने लगती है ॥ ७ ॥
वह जीव माता के गर्भाशय में झिल्ली से लिपटा और आँतों से घिरा रहता है। उसका सिर पेट की ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं ॥ ८ ॥
वह पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन एवं अङ्गों को हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने सैंकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुट ने लगता है। ऐसी अवस्था में उसे क्या शान्ति मिल सकती है ? ॥ ९ ॥
सातवाँ महीना आरम्भ होने पर उसमें ज्ञानशक्ति का भी उन्मेष हो जाता है; परन्तु प्रसूतिवायु से चलायमान रहने के कारण वह उसी उदर में उत्पन्न हुए विष्ठा के कीड़ों के समान एक स्थान पर नहीं रह सकता ॥ १० ॥
तब सप्तधातुमय स्थूलशरीर से बँधा हुआ वह देहात्मदर्शी जीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणी से कृपा-याचना करता हुआ, हाथ जोडक़र उस प्रभु की स्तुति करता है, जिस ने उसे माता के गर्भ में डाला है ॥ ११ ॥
जीव कहता है—मैं बड़ा अधम हूँ ; भगवान ने मुझे जो इस प्रकार की गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरण में आये हुए इस नश्वर जगत की रक्षा के लिये ही अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं; अत: मैं भी भूतल पर विचरण करनेवाले उन्हींके निर्भय चरणारविन्दों की शरण लेता हूँ ॥ १२ ॥
जो मैं (जीव) इस माता के उदर में देह, इन्द्रिय और अन्त:करणरूपा माया का आश्रय कर पुण्य-पापरूप कर्मों से आच्छादित रहने के कारण बद्ध की तरह हूँ, वही मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदय में प्रतीत होनेवाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोध स्वरूप परमात्मा को नमस्कार करता हूँ ॥ १३ ॥
मैं वस्तुत: शरीरादि से रहित (असङ्ग) होने पर भी देखने में पाञ्चभौतिक शरीर से सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहंकार) रूप जान पड़ता हूँ। अत: इस शरीरादि के आवरण से जिनकी महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुष के नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्तिसम्पन्न) परमपुरुष की मैं वन्दना करता हूँ ॥ १४ ॥
उन्हीं की माया से अपने स्वरूप की स्मृति नष्ट हो जाने के कारण यह जीव अनेक प्रकार के सत्त्वादि गुण और कर्म के बन्धन से युक्त इस संसारमार्ग में तरह-तरह के कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अत: उन परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस युक्ति से इसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो सकता है ॥ १५ ॥
मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, यह भी उनके सिवा और किस ने दिया है; क्योंकि स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों में एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंश से विद्यमान हैं। अत: जीवरूप कर्मजनित पदवी का अनुवर्तन करनेवाले हम अपने त्रिविध तापों की शान्ति के लिये उन्हीं का भजन करते हैं ॥ १६ ॥
भगवन् ! यह देहधारी जीव दूसरी (माताके) देह के उदर के भीतर मल, मूत्र और रुधिर के कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्रि से इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकल ने की इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है। भगवन् ! अब इस दीन को यहाँ से कब निकाला जायगा ? ॥ १७ ॥
स्वामिन् ! आप बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभु ने ही इस दस मासके जीव को ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धो ! इस अपने किये हुए उपकार से ही आप प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोडऩे के सिवा आपके उस उपकार का बदला तो कोई दे भी क्या सकता है ॥ १८ ॥
प्रभो ! संसार के ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धि के अनुसार अपने शरीर में होनेवाले सुख-दु:खादि का ही अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपा से शम-दमादि साधनसम्पन्न शरीर से युक्त हुआ हूँ, अत: आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धि से आप पुराणपुरुष को अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकार के आश्रयभूत आत्मा की भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ ॥ १९ ॥
भगवन् ! इस अत्यन्त दु:ख से भरे हुए गर्भाशय में यद्यपि मैं बड़े कष्ट से रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूप में गिर ने की मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि उसमें जानेवाले जीव को आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीर में अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाम में उसे फिर इस संसारचक्र में ही पडऩा होता है ॥ २० ॥
अत: मैं व्याकुलता को छोडक़र हृदय में श्रीविष्णुभगवान के चरणों को स्थापितकर अपनी बुद्धि की सहायता से ही अपने को बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्र के पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकार के दोषों से युक्त यह संसार-दु:ख फिर न प्राप्त हो ॥ २१ ॥
कपिलदेवजी कहते हैं—माता ! वह दस महीने का जीव गर्भ में ही जब इस प्रकार विवेकसम्पन्न होकर भगवान की स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालक को प्रसवकाल की वायु तत्काल बाहर आ ने के लिये ढकेलती है ॥ २२ ॥
उसके सहसा ठेलने पर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वास की गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है ॥ २३ ॥
पृथ्वी पर माता के रुधिर और मूत्र में पड़ा हुआ वह बालक विष्ठा के कीड़े के समान छटपटाता है। उसका गर्भवास का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह विपरीत गति (देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा)- को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोर से रोता है ॥ २४ ॥
फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्था में उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करने की शक्ति भी उसमें नहीं होती ॥ २५ ॥
जब उस जीव को शिशु-अवस्था में मैली-कुचैली खाट पर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीर को खुजलाने, उठा ने अथवा करवट बदल ने की भी सामथ्र्य न होने के कारण वह बड़ा कष्ट पाता है ॥ २६ ॥
उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है; उसे डाँस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीड़े को छोटे कीड़े। इस समय उसका गर्भावस्था का सारा ज्ञान जाता रहता है, सिवा रोने के वह कुछ नहीं कर सकता ॥ २७ ॥
इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड—अवस्थाओं के दु:ख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है। इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है ॥ २८ ॥
देह के साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के लिये दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है ॥ २९ ॥
खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पञ्चभूतों से रचे हुए इस देहमें मिथ्याभिनिवेश के कारण निरन्तर मैं-मेरेपन का अभिमान करने लगता है ॥ ३० ॥
जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकार के कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्म के सूत्र से बँधा रहने के कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसी के लिये यह तरह-तरह के कर्म करता रहता है—जिन में बँध जाने के कारण इसे बार-बार संसार-चक्र में पडऩा होता है ॥ ३१ ॥
सन्मार्ग में चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रिय के भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषों से समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था करके उन्हीं का अनुगमन करने लगता है, तो पहले के समान ही फिर नारकी योनियों में पड़ता है ॥ ३२ ॥
जिनके सङ्ग से इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, वाणी का संयम, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियों के क्रीडामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ और देहात्मदर्शी असत्पुरुषों का सङ्ग कभी नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥
क्योंकि इस जीव को किसी और का सङ्ग करने से ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री और स्त्रियों के सङ्गियों का सङ्ग करने से होता है ॥ ३५ ॥
एक बार अपनी पुत्री सरस्वती को देखकर ब्रह्माजी भी उसके रूप-लावण्य से मोहित हो गये थे और उसके मृगीरूप होकर भागने पर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौडऩे लगे ॥ ३६ ॥
उन्हीं ब्रह्माजी ने मरीचि आदि प्रजापतियों की तथा मरीचि आदि ने कश्यपादि की और कश्यपादि ने देव-मनुष्यादि प्राणियों की सृष्टि की। अत: इनमें एक ऋषिप्रवर नारायण को छोडक़र ऐसा कौन पुरुष हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्त्रीरूपिणी माया से मोहित न हो ॥ ३७ ॥
अहो ! मेरी इस स्त्रीरूपिणी माया का बल तो देखो, जो अपने भ्रुकुटि-विलासमात्र से बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरों को पैरों से कुचल देती है ॥ ३८ ॥
जो पुरुष योग के परम पद पर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो गया हो, वह स्त्रियों का सङ्ग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुष के लिये नरक का खुला द्वार बताया गया है ॥ ३९ ॥
भगवान की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदि के मिस से पास आती है, इसे तिनकों से ढ के हुए कुएँ के समान अपनी मृत्यु ही समझे ॥ ४० ॥
स्त्री में आसक्त रहने के कारण तथा अन्त समय में स्त्री का ही ध्यान रहने से जीव को स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार स्त्रीयोनि को प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूप में प्रतीत होनेवाली मेरी माया को ही धन, पुत्र और गृह आदि देनेवाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधे का गान कानों को प्रिय लगने पर भी बेचारे भोले-भाले पशु-पक्षियों को फँसाकर उनके नाश का ही कारण होता है— उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदि को विधाता की निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने ॥ ४१-४२ ॥
देवि ! जीव के उपाधिभूत लिङ्गदेह के द्वारा पुरुष एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और अपने प्रारब्धकर्मों को भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहों की प्राप्ति के लिये दूसरे कर्म करता रहता है ॥ ४३ ॥
जीव का उपाधिरूप लिङ्गशरीर तो मोक्षपर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मन का कार्यरूप स्थूलशरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन दोनों का परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणी की ‘मृत्यु’ है और दोनों का साथ-साथ प्रकट होना ‘जन्म’ कहलाता है ॥ ४४ ॥
पदार्थों की उपलब्धि के स्थानरूप इस स्थूलशरीर में जब उन को ग्रहण करने की योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूलशरीर ही मैं हूँ—इस अभिमान के साथ उसे देखना उसका जन्म है ॥ ४५ ॥
नेत्रों में जब किसी दोष के कारण रूपादि को देखने की योग्यता नहीं रहती, तभी उनमें रहनेवाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखने में असमर्थ हो जाती है। और जब नेत्र और उनमें रहनेवाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखने में असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनों के साक्षी जीव में भी वह योग्यता नहीं रहती ॥ ४६ ॥
अत: मुमुक्षु पुरुष को मरणादि से भय, दीनता अथवा मोह नहीं होना चाहिये। उसे जीव के स्वरूप को जानकर धैर्यपूर्वक नि:सङ्गभाव से विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसार में योग-वैराग्ययुक्त सम्यक्ज्ञानमयी बुद्धि से शरीर को निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये ॥ ४७-४८ ॥
॥ द्वात्रिंशोऽध्यायः - ३२ ॥
कपिल उवाच
अथ यो गृहमेधीयान् धर्मानेवावसन् गृहे ।
काममर्थं च धर्मान् स्वान् दोग्धि भूयः पिपर्ति तान् ॥ १॥
स चापि भगवद्धर्मात्काममूढः पराङ्मुखः ।
यजते क्रतुभिर्देवान् पितॄंश्च श्रद्धयान्वितः ॥ २॥
तच्छ्रद्धयाऽऽक्रान्तमतिः पितृदेवव्रतः पुमान् ।
गत्वा चान्द्रमसं लोकं सोमपाः पुनरेष्यति ॥ ३॥
यदा चाहीन्द्रशय्यायां शेतेऽनन्तासनो हरिः ।
तदा लोका लयं यान्ति त एते गृहमेधिनाम् ॥ ४॥
ये स्वधर्मान् न दुह्यन्ति धीराः कामार्थहेतवे ।
निःसङ्गा न्यस्तकर्माणः प्रशान्ताः शुद्धचेतसः ॥ ५॥
निवृत्तिधर्मनिरता निर्ममा निरहङ्कृताः ।
स्वधर्माख्येन सत्त्वेन परिशुद्धेन चेतसा ॥ ६॥
सूर्यद्वारेण ते यान्ति पुरुषं विश्वतोमुखम् ।
परावरेशं प्रकृतिमस्योत्पत्त्यन्तभावनम् ॥ ७॥
द्विपरार्धावसाने यः प्रलयो ब्रह्मणस्तु ते ।
तावदध्यासते लोकं परस्य परचिन्तकाः ॥ ८॥
क्ष्मांभोऽनलाऽनिलवियन्मन इन्द्रियार्थ-
भूतादिभिः परिवृतं प्रतिसञ्जिहीर्षुः ।
अव्याकृतं विशति यर्हि गुणत्रयात्मा
कालं पराख्यमनुभूय परः स्वयंभूः ॥ ९॥
एवं परेत्य भगवन्तमनुप्रविष्टा
ये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागाः ।
तेनैव साकममृतं पुरुषं पुराणं
ब्रह्म प्रधानमुपयान्त्यगताभिमानाः ॥ १०॥
अथ तं सर्वभूतानां हृत्पद्मेषु कृतालयम् ।
श्रुतानुभावं शरणं व्रज भावेन भामिनि ॥ ११॥
आद्यः स्थिरचराणां यो वेदगर्भः सहर्षिभिः ।
योगेश्वरैः कुमाराद्यैः सिद्धैर्योगप्रवर्तकैः ॥ १२॥
भेददृष्ट्याभिमानेन निःसङ्गेनापि कर्मणा ।
कर्तृत्वात्सगुणं ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥ १३॥
स संसृत्य पुनः काले कालेनेश्वरमूर्तिना ।
जाते गुणव्यतिकरे यथापूर्वं प्रजायते ॥ १४॥
ऐश्वर्यं पारमेष्ठ्यं च तेऽपि धर्मविनिर्मितम् ।
निषेव्य पुनरायान्ति गुणव्यतिकरे सति ॥ १५॥
ये त्विहासक्तमनसः कर्मसु श्रद्धयान्विताः ।
कुर्वन्त्यप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्स्नशः ॥ १६॥
रजसा कुण्ठमनसः कामात्मानोऽजितेन्द्रियाः ।
पितॄन् यजन्त्यनुदिनं गृहेष्वभिरताशयाः ॥ १७॥
त्रैवर्गिकास्ते पुरुषा विमुखा हरिमेधसः ।
कथायां कथनीयोरुविक्रमस्य मधुद्विषः ॥ १८॥
नूनं दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।
हित्वा शृण्वन्त्यसद्गाथाः पुरीषमिव विड्भुजः ॥ १९॥
दक्षिणेन पथार्यम्णः पितृलोकं व्रजन्ति ते ।
प्रजामनु प्रजायन्ते श्मशानान्तक्रियाकृतः ॥ २०॥
ततस्ते क्षीणसुकृताः पुनर्लोकमिमं सति ।
पतन्ति विवशा देवैः सद्यो विभ्रंशितोदयाः ॥ २१॥
तस्मात्त्वं सर्वभावेन भजस्व परमेष्ठिनम् ।
तद्गुणाश्रयया भक्त्या भजनीयपदाबुजम् ॥ २२॥
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ २३॥
यदास्य चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभिः ।
न विगृह्णाति वैषम्यं प्रियमप्रियमित्युत ॥ २४॥
स तदैवात्मनाऽऽत्मानं निःसङ्गं समदर्शनम् ।
हेयोपादेयरहितमारूढं पदमीक्षते ॥ २५॥
ज्ञानमात्रं परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।
दृश्यादिभिः पृथग्भावैर्भगवानेक ईयते ॥ २६॥
एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः ।
युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थो यदसङ्गस्तु कृत्स्नशः ॥ २७॥
ज्ञानमेकं पराचीनैरिन्द्रियैर्ब्रह्म निर्गुणम् ।
अवभात्यर्थरूपेण भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणा ॥ २८॥
यथा महानहं रूपस्त्रिवृत्पञ्चविधः स्वराट् ।
एकादशविधस्तस्य वपुरण्डं जगद्यतः ॥ २९॥
एतद्वै श्रद्धया भक्त्या योगाभ्यासेन नित्यशः ।
समाहितात्मा निःसङ्गो विरक्त्या परिपश्यति ॥ ३०॥
इत्येतत्कथितं गुर्वि ज्ञानं तद्ब्रह्मदर्शनम् ।
येनावबुद्ध्यते तत्त्वं प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ३१॥
ज्ञानयोगश्च मन्निष्ठो नैर्गुण्यो भक्तिलक्षणः ।
द्वयोरप्येक एवार्थो भगवच्छब्दलक्षणः ॥ ३२॥
यथेन्द्रियैः पृथग्द्वारैरर्थो बहुगुणाश्रयः ।
एको नानेयते तद्वद्भगवान् शास्त्रवर्त्मभिः ॥ ३३॥
क्रियया क्रतुभिर्दानैस्तपःस्वाध्यायमर्शनैः ।
आत्मेन्द्रियजयेनापि सन्न्यासेन च कर्मणाम् ॥ ३४॥
योगेन विविधाङ्गेन भक्तियोगेन चैव हि ।
धर्मेणोभयचिह्नेन यः प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥ ३५॥
आत्मतत्त्वावबोधेन वैराग्येण दृढेन च ।
ईयते भगवानेभिः सगुणो निर्गुणः स्वदृक् ॥ ३६॥
प्रावोचं भक्तियोगस्य स्वरूपं ते चतुर्विधम् ।
कालस्य चाव्यक्तगतेर्योऽन्तर्धावति जन्तुषु ॥ ३७॥
जीवस्य संसृतीर्बह्वीरविद्याकर्मनिर्मिताः ।
यास्वङ्ग प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मनः ॥ ३८॥
नैतत्खलायोपदिशेन्नाविनीताय कर्हिचित् ।
न स्तब्धाय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च ॥ ३९॥
न लोलुपायोपदिशेन्न गृहारूढचेतसे ।
नाभक्ताय च मे जातु न मद्भक्तद्विषामपि ॥ ४०॥
श्रद्दधानाय भक्ताय विनीतायानसूयवे ।
भूतेषु कृतमैत्राय शुश्रूषाभिरताय च ॥ ४१॥
बहिर्जातविरागाय शान्तचित्ताय दीयताम् ।
निर्मत्सराय शुचये यस्याहं प्रेयसां प्रियः ॥ ४२॥
य इदं शृणुयादंब श्रद्धया पुरुषः सकृत् ।
यो वाभिधत्ते मच्चित्तः स ह्येति पदवीं च मे ॥ ४३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यांसंहितायां
तृतीयस्कन्धे कापिलेये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
तृतीय स्कन्ध-बत्तीसवाँ अध्याय
धूममार्ग और अर्चिरादि मार्ग से जानेवालों की गति का और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन
कपिलदेवजी कहते हैं—माताजी ! जो पुरुष घर में रहकर सकामभाव से गृहस्थ के धर्मों का पालन करता है और उनके फल स्वरूप अर्थ एवं काम का उपभोग करके फिर उन्हीं का अनुष्ठान करता रहता है, वह तरह-तरह की कामनाओं से मोहित रहने के कारण भगवद्धर्मों से विमुख हो जाता है और यज्ञों द्वारा श्रद्धापूर्वक देवता तथा पितरों की ही आराधना करता रहता है ॥ १-२ ॥
उसकी बुद्धि उसी प्रकार की श्रद्धा से युक्त रहती है, देवता और पितर ही उसके उपास्य रहते हैं; अत: वह चन्द्रलोक में जाकर उनके साथ सोमपान करता है और फिर पुण्य क्षीण होने पर इसी लोक में लौट आता है ॥ ३ ॥
जिस समय प्रलयकाल में शेषशायी भगवान शेषशय्या पर शयन करते हैं, उस समय सकाम गृहस्थाश्रमियों को प्राप्त होनेवाले ये सब लोक भी लीन हो जाते हैं ॥ ४ ॥
जो विवे की पुरुष अपने धर्मों का अर्थ और भोग-विलासके लिये उपयोग नहीं करते, बल्कि भगवान की प्रसन्नता के लिये ही उनका पालन करते हैं—वे अनासक्त, प्रशान्त, शुद्धचित्त, निवृत्तिधर्मपरायण, ममतारहित और अहंकारशून्य पुरुष स्वधर्मपालनरूप सत्त्वगुण के द्वारा सर्वथा शुद्धचित्त हो जाते हैं ॥ ५-६ ॥
वे अन्त में सूर्यमार्ग (अर्चिमार्ग या देवयान) के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरि को ही प्राप्त होते हैं—जो कार्य-कारणरूप जगत के नियन्ता, संसार के उपादान-कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करनेवाले हैं ॥ ७ ॥
जो लोग परमात्मदृष्टि से हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं, वे दो पराद्र्ध में होनेवाले ब्रह्माजी के प्रलयपर्यन्त उनके सत्यलोक में ही रहते हैं ॥ ८ ॥
जिस समय देवतादि से श्रेष्ठ ब्रह्माजी अपने द्विपराद्र्धकाल के अधिकार को भोगकर पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, आकाश, मन, इन्द्रिय, उनके विषय (शब्दादि) और अहंकारादि के सहित सम्पूर्ण विश्व का संहार करने की इच्छा से त्रिगुणात्मि का प्रकृति के साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मा में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राण और मन को जीते हुए वे विरक्त योगिगण भी देह त्यागकर उन भगवान ब्रह्माजी में ही प्रवेश करते हैं और फिर उन्हींके साथ परमानन्द स्वरूप पुराणपुरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे भगवान में लीन नहीं हुए, क्योंकि अब तक उनमें अहंकार शेष था ॥ ९-१० ॥
इसलिये माताजी ! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभाव से उन श्रीहरि की ही चरण-शरण में जाओ; समस्त प्राणियों का हृदय-कमल ही उनका मन्दिर है और तुम ने भी मुझ से उनका प्रभाव सुन ही लिया है ॥ ११ ॥
वेदगर्भ ब्रह्माजी भी—जो समस्त स्थावर-जङ्गम प्राणियों के आदिकारण हैं—मरीचि आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों तथा योगप्रवर् तक सिद्धों के सहित निष्काम कर्म के द्वारा आदिपुरुष पुरुषश्रेष्ठ सगुण ब्रह्म को प्राप्त होकर भी भेददृष्टि और कर्तृत्वा- भिमान के कारण भगवदिच्छासे, जब सर्गकाल उपस्थित होता है तब, कालरूप ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होने पर फिर पूर्ववत् प्रकट हो जाते हैं ॥ १२—१४ ॥
इसी प्रकार पूर्वोक्त ऋषिगण भी अपने-अपने कर्मानुसार ब्रह्मलोक के ऐश्वर्य को भोगकर भगवदिच्छा से गुणों में क्षोभ होने पर पुन: इस लोक में आ जाते हैं ॥ १५ ॥
जिनका चित्त इस लोक में आसक्त है और जो कर्मों में श्रद्धा रखते हैं, वे वेद में कहे हुए काम्य और नित्य कर्मों का साङ्गोपाङ्ग अनुष्ठान करने में ही लगे रहते हैं ॥ १६ ॥
उनकी बुद्धि रजोगुण की अधिकता के कारण कुण्ठित रहती है, हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं होतीं; बस, अपने घरों में ही आसक्त होकर वे नित्यप्रति पितरों की पूजा में लगे रहते हैं ॥ १७ ॥
ये लोग अर्थ, धर्म, और काम के ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान पराक्रम अत्यन्त कीर्तनीय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान की कथा-वार्ताओं से तो ये विमुख ही रहते हैं ॥ १८ ॥
हाय ! विष्ठा-भोजी कूकर-सूकर आदि जीवों के विष्ठा चाह ने के समान जो मनुष्य भगवत् कथामृत को छोडक़र निन्दित विषय-वार्ताओं को सुनते हैं—वे तो अवश्य ही विधाता के मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है ॥ १९ ॥
गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक सब संस्कारों को विधिपूर्वक करनेवाले ये सकामकर्मी सूर्य से दक्षिण ओर के पितृयान या धूममार्ग से पित्रीश्वर अर्यमा के लोक में जाते हैं और फिर अपनी ही सन्तति के वंश में उत्पन्न होते हैं ॥ २० ॥
माताजी ! पितृलोक के भोग भोग लेने पर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवतालोग उन्हें वहाँ के ऐश्वर्य से च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोक में गिरना पड़ता है ॥ २१ ॥
इसलिये माताजी ! जिनके चरण-कमल सदा भजनेयोग्य हैं, उन भगवान का तुम उन्हींके गुणों का आश्रय लेनेवाली भक्ति के द्वारा सब प्रकार से (मन, वाणी और शरीरसे) भजन करो ॥ २२ ॥
भगवान वासुदेव के प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्मसाक्षातकाररूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है ॥ २३ ॥
वस्तुत: सभी विषय भगवद्रूप होने के कारण समान हैं। अत: जब इन्द्रियों की वृत्तियों के द्वारा भी भगवद्भक्त का चित्त उनमें प्रिय-अप्रियरूप विषमता का अनुभव नहीं करता—सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करता है—उसी समय वह सङ्गरहित, सब में समानरूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करनेयोग्य, दोष और गुणों से रहित, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्मरूप से साक्षातकार करता है ॥ २४-२५ ॥
वही ज्ञान स्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है ॥ २६ ॥
सम्पूर्ण संसार में आसक्ति का अभाव हो जाना—बस, यही योगियों के सब प्रकार के योग-साधन का एकमात्र अभीष्ट फल है ॥ २७ ॥
ब्रह्म एक है, ज्ञान स्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्य वृत्तियोंवाली इन्द्रियों के द्वारा भ्रान्तिवश शब्दादि धर्मोंवाले विभिन्न पदार्थों के रूप में भास रहा है ॥ २८ ॥
जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस—तीन प्रकार का अहंकार, पञ्चमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोग से जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीव का शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुत: ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से ही इस की उत्पत्ति हुई है ॥ २९ ॥
किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तर के योगाभ्यासके द्वारा एकाग्रचित्त और असङ्गबुद्धि हो गया है ॥ ३० ॥
पूजनीय माताजी ! मैंने तुम्हें यह ब्रह्मसाक्षातकार का साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुष के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है ॥ ३१ ॥
देवि ! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग—इन दोनों का फल एक ही है। उसे ही भगवान कहते हैं ॥ ३२ ॥
जिस प्रकार रूप, रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणों का आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्नरूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है ॥ ३३ ॥
नाना प्रकार के कर्मकलाप, यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन, वेदविचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अङ्गोंवाले योग, भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के धर्म, आत्मतत्त्व के ज्ञान और दृढ़ वैराग्य—इन सभी साधनों से सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान को ही प्राप्त किया जाता है ॥ ३४—३६ ॥
माताजी ! सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण- भेद से चार प्रकार के भक्तियोग का और जो प्राणियों के जन्मादि विकारों का हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस काल का स्वरूप मैं तुम से कह ही चु का हूँ ॥ ३७ ॥
देवि ! अविद्याजनित कर्म के कारण जीव की अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जाने पर वह अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता ॥ ३८ ॥
मैंने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है—उसे दुष्ट, दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषों को नहीं सुनाना चाहिये ॥ ३९ ॥
जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे भक्तों से द्वेष करनेवाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे ॥ ४० ॥
जो अत्यन्त श्रद्धालु, भक्त, विनयी, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखनेवाला, सब प्राणियों से मित्रता रखनेवाला, गुरुसेवा में तत्पर, बाह्य विषयों में अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम माननेवाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे ॥ ४१-४२ ॥
मा ! जो पुरुष मुझ में चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपद को प्राप्त होगा ॥ ४३ ॥
॥ त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः - ३३ ॥
मैत्रेय उवाच
एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री
सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः ।
विस्रस्तमोहपटला तमभिप्रणम्य
तुष्टाव तत्त्वविषयाङ्कितसिद्धिभूमिम् ॥ १॥
देवहूतिरुवाच
अथाप्यजोऽन्तःसलिले शयानं
भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते ।
गुणप्रवाहं सदशेषबीजं
दध्यौ स्वयं यज्जठराब्जजातः ॥ २॥
स एव विश्वस्य भवान् विधत्ते
गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्यः ।
सर्गाद्यनीहोऽवितथाभिसन्धि-
रात्मेश्वरोऽतर्क्यसहस्रशक्तिः ॥ ३॥
स त्वं भृतो मे जठरेण नाथ
कथं नु यस्योदर एतदासीत् ।
विश्वं युगान्ते वटपत्र एकः
शेते स्म मायाशिशुरङ्घ्रिपानः ॥ ४॥
त्वं देहतन्त्रः प्रशमाय पाप्मनां
निदेशभाजां च विभो विभूतये ।
यथावतारास्तव सूकरादय-
स्तथायमप्यात्मपथोपलब्धये ॥ ५॥
यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तना-
द्यत्प्रह्वणाद्यत्स्मरणादपि क्वचित् ।
श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते
कुतः पुनस्ते भगवन् नु दर्शनात् ॥ ६॥
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥ ७॥
तं त्वामहं ब्रह्म परं पुमांसं
प्रत्यक्स्रोतस्यात्मनि संविभाव्यम् ।
स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहं
वन्दे विष्णुं कपिलं वेदगर्भम् ॥ ८॥
मैत्रेय उवाच
ईडितो भगवानेवं कपिलाख्यः परः पुमान् ।
वाचा विक्लवयेत्याह मातरं मातृवत्सलः ॥ ९॥
कपिल उवाच
मार्गेणानेन मातस्ते सुसेव्येनोदितेन मे ।
आस्थितेन परां काष्ठामचिरादवरोत्स्यसि ॥ १०॥
श्रद्धत्स्वैतन्मतं मह्यं जुष्टं यद्ब्रह्मवादिभिः ।
येन मामभवं याया मृत्युमृच्छन्त्यतद्विदः ॥ ११॥
मैत्रेय उवाच
इति प्रदर्श्य भगवान् सतीं तामात्मनो गतिम् ।
स्वमात्रा ब्रह्मवादिन्या कपिलोऽनुमतो ययौ ॥ १२॥
सा चापि तनयोक्तेन योगादेशेन योगयुक् ।
तस्मिन्नाश्रम आपीडे सरस्वत्याः समाहिता ॥ १३॥
अभीक्ष्णावगाहकपिशान् जटिलान् कुटिलालकान् ।
आत्मानं चोग्रतपसा बिभ्रती चीरिणं कृशम् ॥ १४॥
प्रजापतेः कर्दमस्य तपोयोगविजृंभितम् ।
स्वगार्हस्थ्यमनौपम्यं प्रार्थ्यं वैमानिकैरपि ॥ १५॥
पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।
आसनानि च हैमानि सुस्पर्शास्तरणानि च ॥ १६॥
स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
रत्नप्रदीपा आभान्ति ललनारत्नसंयुताः ॥ १७॥
गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्वमरद्रुमैः ।
कूजद्विहङ्गमिथुनं गायन् मत्तमधुव्रतम् ॥ १८॥
यत्र प्रविष्टमात्मानं विबुधानुचरा जगुः ।
वाप्यामुत्पलगन्धिन्यां कर्दमेनोपलालितम् ॥ १९॥
हित्वा तदीप्सिततममप्याखण्डलयोषिताम् ।
किञ्चिच्चकार वदनं पुत्रविश्लेषणातुरा ॥ २०॥
वनं प्रव्रजिते पत्यावपत्यविरहातुरा ।
ज्ञाततत्त्वाप्यभून्नष्टे वत्से गौरिव वत्सला ॥ २१॥
तमेव ध्यायती देवमपत्यं कपिलं हरिम् ।
बभूवाचिरतो वत्स निःस्पृहा तादृशे गृहे ॥ २२॥
ध्यायती भगवद्रूपं यदाह ध्यानगोचरम् ।
सुतः प्रसन्नवदनं समस्तव्यस्तचिन्तया ॥ २३॥
भक्तिप्रवाहयोगेन वैराग्येण बलीयसा ।
युक्तानुष्ठानजातेन ज्ञानेन ब्रह्महेतुना ॥ २४॥
विशुद्धेन तदाऽऽत्मानमात्मना विश्वतोमुखम् ।
स्वानुभूत्या तिरोभूतमायागुणविशेषणम् ॥ २५॥
ब्रह्मण्यवस्थितमतिर्भगवत्यात्मसंश्रये ।
निवृत्तजीवापत्तित्वात्क्षीणक्लेशाप्तनिर्वृतिः ॥ २६॥
नित्यारूढसमाधित्वात्परावृत्तगुणभ्रमा ।
न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोत्थितः ॥ २७॥
तद्देहः परतः पोषोऽप्यकृशश्चाध्यसंभवात् ।
बभौ मलैरवच्छन्नः सधूम इव पावकः ॥ २८॥
स्वाङ्गं तपोयोगमयं मुक्तकेशं गतांबरम् ।
दैवगुप्तं न बुबुधे वासुदेवप्रविष्टधीः ॥ २९॥
एवं सा कपिलोक्तेन मार्गेणाचिरतः परम् ।
आत्मानं ब्रह्मनिर्वाणं भगवन्तमवाप ह ॥ ३०॥
तद्वीरासीत्पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतं ।
नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी ॥ ३१॥
तस्यास्तद्योगविधुतमार्त्यं मर्त्यमभूत्सरित् ।
स्रोतसां प्रवरा सौम्य सिद्धिदा सिद्धसेविता ॥ ३२॥
कपिलोऽपि महायोगी भगवान् पितुराश्रमात् ।
मातरं समनुज्ञाप्य प्रागुदीचीं दिशं ययौ ॥ ३३॥
सिद्धचारणगन्धर्वैर्मुनिभिश्चाप्सरोगणैः ।
स्तूयमानः समुद्रेण दत्तार्हणनिकेतनः ॥ ३४॥
आस्ते योगं समास्थाय साङ्ख्याचार्यैरभिष्टुतः ।
त्रयाणामपि लोकानामुपशान्त्यै समाहितः ॥ ३५॥
एतन्निगदितं तात यत्पृष्टोऽहं तवानघ ।
कपिलस्य च संवादो देवहूत्याश्च पावनः ॥ ३६॥
य इदमनुशृणोति योऽभिधत्ते
कपिलमुनेर्मतमात्मयोगगुह्यं ।
भगवति कृतधीः सुपर्णकेता-
वुपलभते भगवत्पदारविन्दम् ॥ ३७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने
त्रयस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३३॥
॥ इति तृतीयस्कन्धः समाप्तः ॥
ॐ तत्सत् ॥
तृतीय स्कन्ध-तैंतीसवाँ अध्याय
देवहूति को तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपद की प्राप्ति
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! श्रीकपिल भगवान के ये वचन सुनकर कर्दमजी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान श्रीकपिलजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं ॥ १ ॥
देवहूतिजी ने कहा—कपिलजी ! ब्रह्माजी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करनेवाले आपके पञ्चभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रहका, जो सत्त्वादि गुणों के प्रवाह से युक्त, सत् स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है, ध्यान ही किया था ॥ २ ॥
आप निष्ङ्क्षक्रय, सत्यसङ्कल्प, सम्पूर्ण जीवों के प्रभु तथा सहस्रों अचिन्त्य शक्तियों से सम्पन्न हैं। अपनी शक्ति को गुणप्रवाहरूप से ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना आदि करते हैं ॥ ३ ॥
नाथ ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदर में प्रलयकाल आने पर यह सारा प्रपञ्च लीन हो जाता है और जो कल्पान्त में मायामय बालक का रूप धारण कर अपने चरण का अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वटवृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भ में धारण किया ॥ ४ ॥
विभो ! आप पापियों का दमन और अपने आज्ञाकारी भक्तों का अभ्युदय एवं कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से देह धारण किया करते हैं। अत: जिस प्रकार आपके वराह आदि अवतार हुए हैं, उसी प्रकार यह कपिलावतार भी मुमुक्षुओं को ज्ञानमार्ग दिखा ने के लिये हुआ है ॥ ५ ॥
भगवन् ! आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा भूले-भट के कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करने से ही कुत्ते का मांस खानेवाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मण के समान पूजनीय हो सकता है; फिर आपका दर्शन करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाय—इसमें तो कहना ही क्या है ॥ ६ ॥
अहो ! वह चाण्डाल भी इसीसे सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वा के अग्रभाग में आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचार का पालन और वेदाध्ययन—सब कुछ कर लिया ॥ ७ ॥
कपिलदेवजी ! आप साक्षात परब्रह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियों के प्रवाह को अन्तर्मुख करके अन्त:करण में आपका ही चिन्तन किया जाता है। आप अपने तेज से माया के कार्य गुण-प्रवाह को शान्त कर देते हैं तथा आपके ही उदर में सम्पूर्ण वेदतत्त्व निहित है। ऐसे साक्षात विष्णु स्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हूँ ॥ ८ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—माता के इस प्रकार स्तुति करने पर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान कपिलदेवजी ने उनसे गम्भीर वाणी में कहा ॥ ९ ॥
कपिलदेवजी ने कहा—माताजी ! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी ॥ १० ॥
तुम मेरे इस मत में विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगों ने इसका सेवन किया है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूप को प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मत को नहीं जानते, वे जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ते हैं ॥ ११ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञान का उपदेशकर श्रीकपिलदेवजी अपनी ब्रह्मवादिनी जननी की अनुमति लेकर वहाँ से चले गये ॥ १२ ॥
तब देवहूतिजी भी सरस्वती के मुकुटसदृश अपने आश्रम में अपने पुत्र के उपदेश किये हुए योगसाधन के द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधि में स्थित हो गयीं ॥ १३ ॥
त्रिकाल स्नान करने से उनकी घुँघराली अलकें भूरी-भूरी जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या के कारण दुर्बल हो गया ॥ १४ ॥
उन्होंने प्रजापति कर्दम के तप और योगबल से प्राप्त अनुपम गाहर्स्थ्यसुख को, जिसके लिये देवता भी तरसते थे, त्याग दिया ॥ १५ ॥
जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सु कोमल शय्या से युक्त हाथी-दाँत के पलंग, सुवर्ण के पात्र, सो ने के सिंहासन और उन पर कोमल- कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नों की बनी हुई रमणी-मूर्तियों के सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलों से लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षों से सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव और मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था, जहाँ की कमलगन्ध से सुवासित बावलियों में कर्दमजी के साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीडा के लिये प्रवेश करने पर उसका (देवहूतिका) गन्धर्वगण गुणगान किया करते थे और जिसे पाने के लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं—उस गृहोद्यान की भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्रवियोग से व्याकुल होने के कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया ॥ १६—२० ॥
पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे आत्मज्ञानसम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करनेवाली गौ ॥ २१ ॥
वत्स विदुर ! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान हरि का ही चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनों में ऐसे ऐश्वर्यसम्पन्न घर से भी उपरत हो गयीं ॥ २२ ॥
फिर वे, कपिलदेवजी ने भगवान के जिस ध्यान करनेयोग्य प्रसन्नष्ठञ्ज३/५९ (१८२-१८३) वदनारविन्दयुक्त स्वरूप का वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयव का तथा उस समग्र रूप का भी चिन्तन करती हुई ध्यान में तत्पर हो गयीं ॥ २३ ॥
भगवद्भक्ति के प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित्त कर्मानुष्ठान से उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षातकार करानेवाले ज्ञान द्वारा चित्त शुद्ध हो जाने पर वे उस सर्वव्यापक आत्मा के ध्यान में मग्र हो गयीं, जो अपने स्वरूप के प्रकाश से मायाजनित आवरण को दूर कर देता है ॥ २४-२५ ॥
इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परब्रह्म श्रीभगवान में ही बुद्धि की स्थिति हो जाने से उनका जीवभाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशों से मुक्त होकर परमानन्द में निमग्र हो गयीं ॥ २६ ॥
अब निरन्तर समाधिस्थ रहने के कारण उनकी विषयों के सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही—जैसे जागे हुए पुरुष को अपने स्वप्न में देखे हुए शरीर की नहीं रहती ॥ २७ ॥
उनके शरीर का पोषण भी दूसरों के द्वारा ही होता था। किन्तु किसी प्रकार का मानसिक क्लेश न होने के कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैल के कारण धूमयुक्त अग्रि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान में ही चित्त लगा रहने के कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था ॥ २८-२९ ॥
विदुरजी ! इस प्रकार देवहूतिजी ने कपिलदेवजी के बताये हुये मार्ग द्वारा थोड़े ही समय में नित्य- मुक्त परमात्म स्वरूप श्रीभगवान को प्राप्त कर लिया ॥ ३० ॥
वीरवर ! जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में ‘सिद्धपद’ नाम से विख्यात हुआ ॥ ३१ ॥
साधुस्वभाव विदुरजी ! योगसाधन के द्वारा उनके शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदी के रूप में परिणत हो गया, जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार की सिद्धि देनेवाली है ॥ ३२ ॥
महायोगी भगवान कपिलजी भी माता की आज्ञा ले पिता के आश्रम से ईशान कोण की ओर चले गये ॥ ३३ ॥
वहाँ स्वयं समुद्र ने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकों को शान्ति प्रदान करने के लिये योगमार्ग का अवलम्बन कर समाधि में स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं ॥ ३४-३५ ॥
निष्पाप विदुरजी ! तुम्हारे पूछ ने से मैंने तुम्हें यह भगवान कपिल और देवहूति का परम पवित्र संवाद सुनाया ॥ ३६ ॥
यह कपिलदेवजी का मत अध्यात्मयोग का गूढ़ रहस्य है। जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान गरुडध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरि के चरणारविन्दों को प्राप्त करता है ॥ ३७ ॥
तीसरा स्कन्ध समाप्त
॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥