स्कन्ध-02 [अध्याय-01]

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ द्वितीयस्कन्धः ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
श्रीशुक उवाच
वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप ।
आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥ १॥

श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः ।
अपश्यतामात्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम् ॥ २॥

निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः ।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्बभरणेन वा ॥ ३॥

देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि ।
तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४॥

तस्माद्भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥ ५॥

एतावान् साङ्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।
जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः ॥ ६॥

प्रायेण मुनयो राजन् निवृत्ता विधिषेधतः ।
नैर्गुण्यस्था रमन्ते स्म गुणानुकथने हरेः ॥ ७॥

इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
अधीतवान् द्वापरादौ पितुर्द्वैपायनादहम् ॥ ८॥

परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया ।
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान् ॥ ९॥

तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान् ।
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान्मुकुन्दे मतिः सती ॥ १०॥

एतन्निर्विद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम् ॥ ११॥

किं प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह ।
वरं मुहूर्तं विदितं घटते श्रेयसे यतः ॥ १२॥

खट्वाङ्गो नाम राजर्षिर्ज्ञात्वेयत्तामिहायुषः ।
मुहूर्तात्सर्वमुत्सृज्य गतवानभयं हरिम् ॥ १३॥

तवाप्येतर्हि कौरव्य सप्ताहं जीवितावधिः ।
उपकल्पय तत्सर्वं तावद्यत्साम्परायिकम् ॥ १४॥

अन्तकाले तु पुरुष आगते गतसाध्वसः ।
छिन्द्यादसङ्गशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु ये च तम् ॥ १५॥

गृहात्प्रव्रजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः ।
शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत्कल्पितासने ॥ १६॥

अभ्यसेन्मनसा शुद्धं त्रिवृद्ब्रह्माक्षरं परम् ।
मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजमविस्मरन् ॥ १७॥

नियच्छेद्विषयेभ्योऽक्षान् मनसा बुद्धिसारथिः ।
मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेद्धिया ॥ १८॥

तत्रैकावयवं ध्यायेदव्युच्छिन्नेन चेतसा ।
मनो निर्विषयं युक्त्वा ततः किञ्चन न स्मरेत् ।
पदं तत्परमं विष्णोर्मनो यत्र प्रसीदति ॥ १९॥

रजस्तमोभ्यामाक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः ।
यच्छेद्धारणया धीरो हन्ति या तत्कृतं मलम् ॥ २०॥

यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः ।
आशु सम्पद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः ॥ २१॥

राजोवाच
यथा सन्धार्यते ब्रह्मन् धारणा यत्र सम्मता ।
यादृशी वा हरेदाशु पुरुषस्य मनोमलम् ॥ २२॥

श्रीशुक उवाच
जितासनो जितश्वासो जितसङ्गो जितेन्द्रियः ।
स्थूले भगवतो रूपे मनः सन्धारयेद्धिया ॥ २३॥

विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम् ।
यत्रेदं दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत् ॥ २४॥

आण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ॥ २५॥

पातालमेतस्य हि पादमूलं
पठन्ति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् ।
महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ
तलातलं वै पुरुषस्य जङ्घे ॥ २६॥

द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्तेरूरुद्वयं
वितलं चातलं च ।
महीतलं तज्जघनं महीपते
नभस्तलं नाभिसरो गृणन्ति ॥ २७॥

उरःस्थलं ज्योतिरनीकमस्य
ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य ।
तपो रराटीं विदुरादिपुंसः
सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्णः ॥ २८॥

इन्द्रादयो बाहव आहुरुस्राः
कर्णौ दिशः श्रोत्रममुष्य शब्दः ।
नासत्यदस्रौ परमस्य नासे
घ्राणोऽस्य गन्धो मुखमग्निरिद्धः ॥ २९॥

द्यौरक्षिणी चक्षुरभूत्पतङ्गः
पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च ।
तद्भ्रूविजृम्भः परमेष्ठिधिष्ण्यमापोऽस्य
तालू रस एव जिह्वा ॥ ३०॥

छन्दांस्यनन्तस्य शिरो गृणन्ति
दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि ।
हासो जनोन्मादकरी च माया
दुरन्तसर्गो यदपाङ्गमोक्षः ॥ ३१॥

व्रीडोत्तरोष्ठोऽधर एव लोभो
धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठम् ।
कस्तस्य मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घाः ॥ ३२॥

नद्योऽस्य नाड्योऽथ तनूरुहाणि
महीरुहा विश्वतनोर्नृपेन्द्र ।
अनन्तवीर्यः श्वसितं मातरिश्वा
गतिर्वयः कर्म गुणप्रवाहः ॥ ३३॥

ईशस्य केशान् विदुरम्बुवाहान्
वासस्तु सन्ध्यां कुरुवर्य भूम्नः ।
अव्यक्तमाहुर्हृदयं मनश्च
सचन्द्रमाः सर्वविकारकोशः ॥ ३४॥

विज्ञानशक्तिं महिमामनन्ति
सर्वात्मनोऽन्तःकरणं गिरित्रम् ।
अश्वाश्वतर्युष्ट्रगजा नखानि
सर्वे मृगाः पशवः श्रोणिदेशे ॥ ३५॥

वयांसि तद्व्याकरणं विचित्रं
मनुर्मनीषा मनुजो निवासः ।
गन्धर्वविद्याधरचारणाप्सरः
स्वरस्मृतीरसुरानीकवीर्यः ॥ ३६॥

ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा
विडूरुरङ्घ्रिश्रितकृष्णवर्णः ।
नानाभिधाभीज्यगणोपपन्नो
द्रव्यात्मकः कर्म वितानयोगः ॥ ३७॥

इयानसावीश्वरविग्रहस्य
यः सन्निवेशः कथितो मया ते ।
सन्धार्यतेऽस्मिन् वपुषि स्थविष्ठे
मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किञ्चित् ॥ ३८॥

स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व
आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।
तं सत्यमानन्दनिधिं भजेत
नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः ॥ ३९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे हंस्यां पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे महापुरुषसंस्थानुवर्णने प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय  
ध्यान-विधि और भगवान के विराट् स्वरूप का वर्णन
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! तुम्हारा लोकहित के लिये किया हुआ यह प्रश्र बहुत ही उत्तम है। मनुष्यों के लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करने की हैं, उन सब में यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्र का बड़ा आदर करते हैं ॥ १ ॥
राजेन्द्र ! जो गृहस्थ घर के काम-धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरूप को नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करने की रहती हैं ॥ २ ॥
उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसङ्ग से कटती है और दिन धन की हाय-हाय या कुटुम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है ॥ ३ ॥
संसार में जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोहमें ऐसा पागल-सा हो जाता है कि रात-दिन उन को मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं ॥ ४ ॥
इसलिये परीक्षित ! जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये ॥ ५ ॥
मनुष्य-जन्म का यही—इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो—ज्ञानसे, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे ॥ ६ ॥
परीक्षित ! जो निर्गुण स्वरूप में स्थित हैं एवं विधि-निषेध की मर्यादा को लाँघ चु के हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि- मुनि भी प्राय: भगवान के अनन्त कल्याणमय गुणगणों के वर्णन में रमे रहते हैं ॥ ७ ॥
द्वा पर के अन्त में इस भगवद्रूप अथवा वेदतुल्य श्रीमद्भागवत नाम के महापुराण का अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन से मैंने अध्ययन किया था ॥ ८ ॥
राजर्षे ! मेरी निर्गुण स्वरूप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं ने बलात् मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराण का अध्ययन किया ॥ ९ ॥
तुम भगवान के परमभक्त हो, इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊँगा। जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम के साथ बहुत शीघ्र लग जाती है ॥ १० ॥
जो लोग लोक या परलोक की किसी भी वस्तु की इच्छा रखते हैं, या इसके विपरीत संसार में दु:ख का अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्षपद को प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकों के लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियों के लिये भी समस्त शास्त्रों का यही निर्णय है कि वे भगवान के नामों का प्रेम से सङ्कीर्तन करें ॥ ११ ॥
अपने कल्याण- साधन की ओर से असावधान रहनेवाले पुरुष की वर्षों लम्बी आयु भी अनजान में ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ ! सावधानी से ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती है ॥ १२ ॥
राजर्षि खट्वाङ्ग अपनी आयु की समाप्ति का समय जानकर दो घड़ी में ही सब कुछ त्यागकर भगवान के अभयपद को प्राप्त हो गये ॥ १३ ॥
परीक्षित ! अभी तो तुम्हारे जीवन की अवधि सात दिन की है। इस बीच में ही तुम अपने परम कल्याण के लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो ॥ १४ ॥
मृत्यु का समय आने पर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्य के शस्त्र से शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालों के प्रति ममता को काट डाले ॥ १५ ॥
धैर्य के साथ घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थान में विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय ॥ १६ ॥
तत्पश्चात परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओं से युक्त प्रणव का मन-ही-मन जप करे। प्राणवायु को वश में करके मन का दमन करे और एक क्षण के लिये भी प्रणव को न भूले ॥ १७ ॥
बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा ले। और कर्म की वासनाओं से चञ्चल हुए मन को विचार के द्वारा रोककर भगवान के मङ्गलमय रूप में लगाये ॥ १८ ॥
स्थिर चित्त से भगवान के श्रीविग्रहमें से किसी एक अङ्ग का ध्यान करे। इस प्रकार एक-एक अङ्ग का ध्यान करते-करते विषय-वासना से रहित मन को पूर्णरूप से भगवान में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विषय का चिन्तन ही न हो। वही भगवान विष्णु का परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्द से भर जाता है ॥ १९ ॥
यदि भगवान का ध्यान करते समय मन रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्य के साथ योगधारणा के द्वारा उसे वश में करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणों के दोषों को मिटा देती है ॥ २० ॥
धारणा स्थिर हो जाने पर ध्यान में जब योगी अपने परम मङ्गलमय आश्रय (भगवान) को देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है ॥ २१ ॥
परीक्षित ने पूछा—ब्रह्मन् ! धारणा किस साधन से किस वस्तु में किस प्रकार की जाती है और उसका क्या स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्य के मन का मैल मिटा देती है ? ॥ २२ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धि के द्वारा मन को भगवान के स्थूल रूप में लगाना चाहिये ॥ २३ ॥
यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सबका-सब-जिसमें दीख पड़ता है, वही भगवान का स्थूल-से-स्थूल और विराट् शरीर है ॥ २४ ॥
जल, अग्रि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन सात आवरणों से घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीर में जो विराट् पुरुष भगवान हैं, वे ही धारणा के आश्रय हैं, उन्हीं की धारणा की जाती है ॥ २५ ॥
तत्त्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं—पाताल विराट् पुरुष के तलवे हैं, उनकी एडिय़ाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ— एड़ी के ऊ पर की गाँठें महातल हैं, उनके पैर के पिंडे तलातल हैं, ॥ २६ ॥
विश्वमूर्ति भगवान के दोनों घुट ने सुतल हैं, जाँघें वितल और अतल हैं, पेडू भूतल है, और परीक्षित ! उनके नाभिरूप सरोवर को ही आकाश कहते हैं ॥ २७ ॥
आदिपुरुष परमात्मा की छाती को स्वर्गलोक, गले को महर्लोक, मुख को जनलोक और ललाट को तपोलोक कहते हैं। उन सहस्र सिरवाले भगवान का मस्तकसमूह ही सत्यलोक है ॥ २८ ॥
इन्द्रादि देवता उनकी भुजाएँ हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय हैं। दोनों अश्विनीकुमार उनकी नासि का के छिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ॥ २९ ॥
भगवान विष्णु के नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखने की शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रह्मलोक है। तालु जल हैं और जिह्वा रस ॥ ३० ॥
वेदों को भगवान का ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं और यम को दाढ़ें। सब प्रकार के स्नेह दाँत हैं और उनकी जगन्मोहिनी माया को ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी माया का कटाक्ष-विक्षेप है ॥ ३१ ॥
लज्जा ऊ पर का होठ और लोभ नीचे का होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्ड कोश हैं, समुद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं ॥ ३२ ॥
राजन् ! विश्वमूर्ति विराट् पुरुष की नाडिय़ाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणों का चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है ॥ ३३ ॥
परीक्षित ! बादलों को उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्त का वस्त्र है। महात्माओं ने अव्यक्त (मूलप्रकृति) को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारों का खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है ॥ ३४ ॥
महत्तत्त्व को सर्वात्मा भगवान का चित्त कहते हैं और रुद्र उनके अहंकार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वन में रहनेवाले सारे मृग और पशु उनके कटिप्रदेश में स्थित हैं ॥ ३५ ॥
तरह-तरह के पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनु की सन्तान मनुष्य उनके निवासस्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरों की स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं ॥ ३६ ॥
ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जङ्घाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओं के नाम से जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं ॥ ३७ ॥
परीक्षित ! विराट् भगवान के स्थूलशरीर का यही स्वरूप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसी में मुमुक्षु पुरुष बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है ॥ ३८ ॥
जैसे स्वप्न देखनेवाला स्वप्नावस्था में अपने-आपको ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सब की बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करनेवाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्य स्वरूप आनन्दनिधि भगवान का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीव के अध:पतन का हेतु है ॥ ३९ ॥



श्रीमद्भागवत - सुधासागर



स्कन्ध-02 [अध्याय-02]

॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥
श्रीशुक उवाच
एवं पुरा धारणयाऽऽत्मयोनिर्नष्टां
स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात् ।
तथा ससर्जेदममोघदृष्टि-
र्यथाप्ययात्प्राग्व्यवसायबुद्धिः ॥ १॥

शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था
यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः ।
परिभ्रमंस्तत्र न विन्दतेऽर्थान्
मायामये वासनया शयानः ॥ २॥

अतः कविर्नामसु यावदर्थः
स्यादप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः ।
सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र
परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः ॥ ३॥

सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैर्बाहौ
स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् ।
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या
दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ॥ ४॥

चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां
नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन् ।
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान्
कस्माद्भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् ॥ ५॥

एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध
आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननन्तः ।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत
संसारहेतूपरमश्च यत्र ॥ ६॥

कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्तामृते
पशूनसतीं नाम युञ्ज्यात् ।
पश्यन् जनं पतितं वैतरण्यां
स्वकर्मजान् परितापाञ्जुषाणम् ॥ ७॥

केचित्स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे
प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् ।
चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्खगदाधरं
धारणया स्मरन्ति ॥ ८॥

प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं
कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम् ।
लसन्महारत्नहिरण्मयाङ्गदं
स्फुरन्महारत्नकिरीटकुण्डलम् ॥ ९॥

उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये
योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम् ।
श्रीलक्ष्मणं कौस्तुभरत्नकन्धर-
मम्लानलक्ष्म्या वनमालयाऽऽचितम् ॥ १०॥

विभूषितं मेखलयाङ्गुलीयकै-
र्महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः ।
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलै-
र्विरोचमानाननहासपेशलम् ॥ ११॥

अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लस-
द्भ्रूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम् ।
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं
यावन्मनो धारणयावतिष्ठते ॥ १२॥

एकैकशोऽङ्गानि धियानुभावयेत्पादादि
यावद्धसितं गदाभृतः ।
जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत्परं
परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा ॥ १३॥

यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्
विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः ।
तावत्स्थवीयः पुरुषस्य रूपं
क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥ १४॥

स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिर्यदा
जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्प्राणान्
नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ १५॥

मनः स्वबुध्यामलया नियम्य
क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत्तमात्मनि ।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो
लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् ॥ १६॥

न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः
कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च
न वै विकारो न महान् प्रधानम् ॥ १७॥

परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्यन्नेति
नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे ॥ १८॥

इत्थं मुनिस्तूपरमेद्व्यवस्थितो
विज्ञानदृग्वीर्यसुरन्धिताशयः ।
स्वपार्ष्णिनाऽऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं
स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः ॥ १९॥

नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य
तस्मादुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः ।
ततोऽनुसन्धाय धिया मनस्वी
स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत ॥ २०॥

तस्माद्भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत
निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः ।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिर्निर्भिद्य
मूर्धन् विसृजेत्परं गतः ॥ २१॥

यदि प्रयास्यन् नृप पारमेष्ठ्यं
वैहायसानामुत यद्विहारम् ।
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये
सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च ॥ २२॥

योगेश्वराणां गतिमाहुरन्त-
र्बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम् ।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३॥

वैश्वानरं याति विहायसा गतः
सुषुम्णया ब्रह्मपथेन शोचिषा ।
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्प्रयाति
चक्रं नृप शैशुमारम् ॥ २४॥

तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोरणीयसा
विरजेनात्मनैकः ।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति
कल्पायुषो यद्विबुधा रमन्ते ॥ २५॥

अथो अनन्तस्य मुखानलेन
दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम् ।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं
यद्द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् ॥ २६॥

न यत्र शोको न जरा न मृत्युर्नार्तिर्न
चोद्वेग ऋते कुतश्चित् ।
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदंविदां
दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात् ॥ २७॥

ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भय-
स्तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन् ।
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले
वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम् ॥ २८॥

घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं
रूपं च दृष्ट्या श्वसनं त्वचैव ।
श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं
प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी ॥ २९॥

स भूतसूक्ष्मेन्द्रियसन्निकर्षं
मनोमयं देवमयं विकार्यम् ।
संसाद्य गत्या सह तेन याति
विज्ञानतत्त्वं गुणसन्निरोधम् ॥ ३०॥

तेनात्मनाऽऽत्मानमुपैति शान्त-
मानन्दमानन्दमयोऽवसाने ।
एतां गतिं भागवतीं गतो यः
स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग ॥ ३१॥

एते सृती ते नृप वेदगीते
त्वयाभिपृष्टे ह सनातने च ।
ये वै पुरा ब्रह्मण आह पृष्ट
आराधितो भगवान् वासुदेवः ॥ ३२॥

न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह ।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगो यतो भवेत् ॥ ३३॥

भगवान् ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया ।
तदध्यवस्यत्कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ ३४॥

भगवान् सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः ।
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा लक्षणैरनुमापकैः ॥ ३५॥

तस्मात्सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान् नृणाम् ॥ ३६॥

पिबन्ति ये भगवत आत्मनः सतां
कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं
व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥ ३७॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे
पुरुषसंस्थावर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय 
भगवान के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न हुए भगवान से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी, जो पहले प्रलयकाल में विलुप्त हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मि का हो गयी। तब उन्होंने इस जगत को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलय के पहले था ॥ १ ॥
वेदों की वर्णन-शैली ही इस प्रकार की है कि लोगों की बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामों के फेर में फँस जाती है, जीव वहाँ सुख की वासना से स्वप्न-सा देखता हुआ भटक ने लगता है; किन्तु उन मायामय लोकों में कहीं भी उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती ॥ २ ॥
इसलिये विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थों से उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो। अपनी बुद्धि को उनकी निस्सारता के निश्चय से परिपूर्ण रखे और एक क्षण के लिये भी असावधान न हो। यदि संसार के पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रम के यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जन का परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे ॥ ३ ॥
जब जमीन पर सो ने से काम चल सकता है, तब पलँग के लिये प्रयत्न करने से क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपने को भगवान की कृपा से स्वयं ही मिली हुई हैं, तब तकियों की क्या आवश्यकता। जब अञ्जलि से काम चल सकता है, तब बहुत- से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्ष की छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रों की क्या आवश्यकता ॥ ४ ॥
पहन ने को क्या रास्तों में चिथड़े नहीं हैं ? भूख लगने पर दूसरों के लिये ही शरीर धारण करनेवाले वृक्ष क्या फल-फूल की भिक्षा नहीं देते ? जल चाहनेवालों के लिये नदियाँ क्या बिलकुल सूख गयी हैं ? रहने के लिये क्या पहाड़ों की गुफाएँ बंद कर दी गयी हैं ? अरे भाई ! सब न सही, क्या भगवान भी अपने शरणगतों की रक्षा नहीं करते ? ऐसी स्थिति में बुद्धिमान लोग भी धन के नशे में चूर घमंडी धनियों की चापलूसी क्यों करते हैं ? ॥ ५ ॥
इस प्रकार विरक्त हो जाने पर अपने हृदय में नित्य विराजमान, स्वत:सिद्ध, आत्म स्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान हैं, बड़े प्रेम और आनन्द से दृढ़ निश्चय करके उन्हीं का भजन करे; क्योंकि उनके भजन से जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालनेवाले अज्ञान का नाश हो जाता है ॥ ६ ॥
पशुओं की बात तो अलग है; परन्तु मनुष्यों में भला ऐसा कौन है, जो लोगों को इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरकर अपने कर्मजन्य दु:खों को भोगते हुए देखकर भी भगवान का मङ्गलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगों में ही अपने चित्त को भटक ने देगा ? ॥ ७ ॥
कोई- कोई साधक अपने शरीर के भीतर हृदयाकाश में विराजमान भगवान के प्रादेशमात्र स्वरूप की धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान की चार भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म हैं ॥ ८ ॥
उनके मुख पर प्रसन्नता झलक रही है। कमल के समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्ब के पुष्प की केसर के समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जड़े हुए सो ने के बाजूबंद शोभायमान हैं। सिर पर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानों में कुण्डल हैं, जिन में जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ॥ ९ ॥
उनके चरण-कमल योगेश्वरों के खिले हुए हृदयकमल की कॢणका पर विराजित हैं। उनके हृदय पर श्रीवत्स का चिह्न—एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभ- मणि लटक रही है। वक्ष:स्थल कभी न कुम्हलानेवाली वनमाला से घिरा हुआ है ॥ १० ॥
वे कमर में करधनी, अँगुलियों में बहुमूल्य अँगूठी, चरणों में नूपुर और हाथों में कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालों की लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं। उनका मुख-कमल मन्द-मन्द मुसकान से खिल रहा है ॥ ११ ॥
लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवन से शोभायमान भौंहों के द्वारा वे भक्तजनों पर अनन्त अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं। जब तक मन इस धारणा के द्वारा स्थिर न हो जाय, तब तक बार-बार इन चिन्तन स्वरूप भगवान को देखते रहने की चेष्टा करनी चाहिये ॥ १२ ॥
भगवान के चरण-कमलों से लेकर उनके मुसकानयुक्त मुख-कमलपर्यन्त समस्त अङ्गों की एक-एक करके बुद्धि के द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अङ्ग का ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोडक़र दूसरे अङ्ग का ध्यान करना चाहिये ॥ १३ ॥
ये विश्वेश्वर भगवान दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हीं का स्वरूप है। जब तक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय, तब तक साधक को नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बाद एकाग्रता से भगवान के उपर्युक्त स्थूल रूप का ही चिन्तन करना चाहिये ॥ १४ ॥
परीक्षित ! जब योगी पुरुष इस मनुष्य-लोक को छोडऩा चाहे, तब देश और काल में मन को न लगाये। सुखपूर्वक स्थिर आसन से बैठकर प्राणों को जीतकर मन से इन्द्रियों का संयम करे ॥ १५ ॥
तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धि से मन को नियमित करके मन के साथ बुद्धि को क्षेत्रज्ञ में और क्षेत्रज्ञ को अन्तरात्मा में लीन कर दे। फिर अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उसपर म शान्तिमय अवस्था में स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ॥ १६ ॥
इस अवस्था में सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुण की तो बात ही क्या है। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति का भी वहाँ अस्तित्व नहीं है। उस स्थिति में जब देवताओं के नियामक काल की भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ? ॥ १७ ॥
योगीलोग ‘यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मा से भिन्न पदार्थों का त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थों में आत्मबुद्धि का त्याग करके हृदय के द्वारा पद-पद पर भगवान के जिस परम पूज्य स्वरूप का आलिङ्गन करते हुए अनन्य प्रेम से परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान विष्णु का परम पद है—इस विषय में समस्त शास्त्रों की सम्मति है ॥ १८ ॥
ज्ञानदृष्टि के बल से जिसके चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगी को इस प्रकार अपने शरीर का त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहट के प्राणवायु को षट्चक्रभेदन की रीति से ऊ पर ले जाय ॥ १९ ॥
मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में, वहाँ से उदानवायु के द्वारा वक्ष:स्थल के ऊ पर विशुद्ध चक्र में, फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्रभागमें) चढ़ा दे ॥ २० ॥
तदनन्तर दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायु को भौंहों के बीच आज्ञाचक्र में ले जाय। यदि किसी लोक में जाने की इच्छा न हो तो आधी घड़ी तक उस वायु को वहीं रोककर स्थिर लक्ष्य के साथ उसे सहस्रार में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके शरीर- इन्द्रियादि को छोड़ दे ॥ २१ ॥
परीक्षित ! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोक में जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड के किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ, तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये ॥ २२ ॥
योगियों का शरीर वायु की भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञान का सेवन करनेवाले योगियों को त्रिलो की के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ॥ २३ ॥
परीक्षित ! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णा के द्वारा जब ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाशमार्ग से अग्रिलोक में जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँ से ऊ पर भगवान श्रीहरि के शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्र पर पहुँचता है ॥ २४ ॥
भगवान विष्णु का यह शिशुमार चक्र विश्वब्रह्माण्ड के भ्रमण का केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीर से वह अकेला ही महर्लोक में जाता है। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओं के द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥
फिर जब प्रलय का समय आता है, तब नीचे के लोकों को शेष के मुख से निकली हुई आग के द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोक में चला जाता है, जिस ब्रह्मलोक में बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानों पर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोक की आयु ब्रह्मा की आयु के समान ही दो पराद्र्ध की है ॥ २६ ॥
वहाँ न शोक है न दु:ख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकार का उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दु:ख है तो केवल एक बातका। वह यही कि इस परमपद को न जाननेवाले लोगों के जन्ममृत्युमय अत्यन्त घोर सङ्कटों को देखकर दयावश वहाँ के लोगों के मन में बड़ी व्यथा होती है ॥ २७ ॥
सत्यलोक में पहुँच ने के पश्चात वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणों का भेदन करता है। पृथ्वीरूप से जल को और जलरूप से अग्रिमय आवरणों को प्राप्त होकर वह ज्योतिरूप से वायुरूप आवरण में आ जाता है और वहाँ से समय पर ब्रह्म की अनन्तता का बोध करानेवाले आकाशरूप आवरण को प्राप्त करता है ॥ २८ ॥
इस प्रकार स्थूल आवरणों को पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठान में लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रा में, रसना रसतन्मात्रा में, नेत्र रूपतन्मात्रा में, त्वचा स्पर्शतन्मात्रा में, श्रोत्र शब्दतन्मात्रा में और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रिया-शक्ति में मिलकर अपने-अपने सूक्ष्म- स्वरूप को प्राप्त हो जाती हैं ॥ २९ ॥
इस प्रकार योगी पञ्चभूतों के स्थूल-सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतों को तामस अहंकार में, इन्द्रियों को राजस अहंकार में तथा मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को सात्त्विक अहंकार में लीन कर देता है। इसके बाद अहंकार के सहित लयरूप गति के द्वारा महत्तत्त्व में प्रवेश करके अन्त में समस्त गुणों के लयस्थान प्रकृतिरूप आवरण में जा मिलता है ॥ ३० ॥
परीक्षित ! महाप्रलय के समय प्रकृतिरूप आवरण का भी लय हो जाने पर वह योगी स्वयं आनन्द स्वरूप होकर अपने उस निरावरण रूप से आनन्द स्वरूप शान्त परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गति की प्राप्ति हो जाती है, उसे फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता ॥ ३१ ॥
परीक्षित ! तुम ने जो पूछा था, उसके उत्तर में मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति का तुम से वर्णन किया। पहले ब्रह्माजी ने भगवान वासुदेव की आराधना करके उनसे जब प्रश्र किया था, तब उन्होंने उत्तर में इन्हीं दोनों मार्गों की बात ब्रह्माजी से कही थी ॥ ३२ ॥
संसार-चक्र में पड़े हुए मनुष्य के लिये, जिस साधन के द्वारा उसे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ॥ ३३ ॥
भगवान ब्रह्माने एकाग्र चित्त से सारे वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो, वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ॥ ३४ ॥
समस्त चर-अचर प्राणियों में उनके आत्मारूप से भगवान श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सब के साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं ॥ ३५ ॥
परीक्षित ! इसलिये मनुष्यों को चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ॥ ३६ ॥
राजन् ! संत पुरुष आत्म स्वरूप भगवान की कथा का मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कान के दोनों में भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदय से विषयों का विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ॥ ३७ ॥

स्कन्ध-02 [अध्याय-03]

॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥
श्रीशुक उवाच
एवमेतन्निगदितं पृष्टवान् यद्भवान् मम ।
नृणां यन्म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम् ॥ १॥

ब्रह्मवर्चसकामस्तु यजेत ब्रह्मणः पतिम् ।
इन्द्रमिन्द्रियकामस्तु प्रजाकामः प्रजापतीन् ॥ २॥

देवीं मायां तु श्रीकामस्तेजस्कामो विभावसुम् ।
वसुकामो वसून् रुद्रान् वीर्यकामोऽथ वीर्यवान् ॥ ३॥

अन्नाद्यकामस्त्वदितिं स्वर्गकामोऽदितेः सुतान् ।
विश्वान् देवान् राज्यकामः साध्यान् संसाधको विशाम् ॥ ४॥

आयुष्कामोऽश्विनौ देवौ पुष्टिकाम इलां यजेत् ।
प्रतिष्ठाकामः पुरुषो रोदसी लोकमातरौ ॥ ५॥

रूपाभिकामो गन्धर्वान् स्त्रीकामोऽप्सर उर्वशीम् ।
आधिपत्यकामः सर्वेषां यजेत परमेष्ठिनम् ॥ ६॥

यज्ञं यजेद्यशस्कामः कोशकामः प्रचेतसम् ।
विद्याकामस्तु गिरिशं दाम्पत्यार्थ उमां सतीम् ॥ ७॥

धर्मार्थ उत्तमश्लोकं तन्तुं तन्वन् पितॄन् यजेत् ।
रक्षाकामः पुण्यजनानोजस्कामो मरुद्गणान् ॥ ८॥

राज्यकामो मनून् देवान् निरृतिं त्वभिचरन् यजेत् ।
कामकामो यजेत्सोममकामः पुरुषं परम् ॥ ९॥

अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ १०॥

एतावानेव यजतामिह निःश्रेयसोदयः ।
भगवत्यचलो भावो यद्भागवतसङ्गतः ॥ ११॥

ज्ञानं यदा प्रतिनिवृत्तगुणोर्मिचक्र-
मात्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसङ्गः ।
कैवल्यसम्मतपथस्त्वथ भक्तियोगः
को निर्वृतो हरिकथासु रतिं न कुर्यात् ॥ १२॥

शौनक उवाच
इत्यभिव्याहृतं राजा निशम्य भरतर्षभः ।
किमन्यत्पृष्टवान् भूयो वैयासकिमृषिं कविम् ॥ १३॥

एतच्छुश्रूषतां विद्वन् सूत नोऽर्हसि भाषितुम् ।
कथा हरिकथोदर्काः सतां स्युः सदसि ध्रुवम् ॥ १४॥

स वै भागवतो राजा पाण्डवेयो महारथः ।
बालक्रीडनकैः क्रीडन् कृष्णक्रीडां य आददे ॥ १५॥

वैयासकिश्च भगवान् वासुदेवपरायणः ।
उरुगायगुणोदाराः सतां स्युर्हि समागमे ॥ १६॥

आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च यन्नसौ ।
तस्यर्ते यत्क्षणो नीत उत्तमश्लोकवार्तया ॥ १७॥

तरवः किं न जीवन्ति भस्त्राः किं न श्वसन्त्युत ।
न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामपशवोऽपरे ॥ १८॥

श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः ।
न यत्कर्णपथोपेतो जातु नाम गदाग्रजः ॥ १९॥

बिले बतोरुक्रमविक्रमान् ये
न श‍ृण्वतः कर्णपुटे नरस्य ।
जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत
न चोपगायत्युरुगायगाथाः ॥ २०॥

भारः परं पट्टकिरीटजुष्ट-
मप्युत्तमाङ्गं न नमेन्मुकुन्दम् ।
शावौ करौ नो कुरुतः सपर्यां
हरेर्लसत्काञ्चनकङ्कणौ वा ॥ २१॥

बर्हायिते ते नयने नराणां
लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये ।
पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजौ
क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेर्यौ ॥ २२॥

जीवञ्छवो भागवताङ्घ्रिरेणुं
न जातु मर्त्योऽभिलभेत यस्तु ।
श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्याः
श्वसञ्छवो यस्तु न वेद गन्धम् ॥ २३॥

तदश्मसारं हृदयं बतेदं
यद्गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः ।
न विक्रियेताथ यदा विकारो
नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः ॥ २४॥

अथाभिधेह्यङ्ग मनोऽनुकूलं
प्रभाषसे भागवतप्रधानः ।
यदाह वैयासकिरात्मविद्याविशारदो
नृपतिं साधु पृष्टः ॥ २५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय 
कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओं की उपासना तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! तुम ने मुझ से जो पूछा था कि मरते समय बुद्धिमान मनुष्य को क्या करना चाहिये, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया ॥ १ ॥
जो ब्रह्मतेज का इच्छुक हो, वह बृहस्पतिकी; जिसे इन्द्रियों की विशेष शक्ति की कामना हो, वह इन्द्र की और जिसे सन्तान की लालसा हो, वह प्रजापतियों की उपासना करे ॥ २ ॥
जिसे लक्ष्मी चाहिये वह मायादेवीकी, जिसे तेज चाहिये वह अग्रिकी, जिसे धन चाहिये वह वसुओं की और जिस प्रभावशाली पुरुष को वीरता की चाह हो उसे रुद्रों की उपासना करनी चाहिये ॥ ३ ॥
जिसे बहुत अन्न प्राप्त करने की इच्छा हो वह अदितिका; जिसे स्वर्ग की कामना हो वह अदिति के पुत्र देवताओंका, जिसे राज्य की अभिलाषा हो वह विश्वेदेवों का और जो प्रजा को अपने अनुकूल बनाने की इच्छा रखता हो उसे साध्य देवताओं का आराधन करना चाहिये ॥ ४ ॥
आयु की इच्छा से अश्विनीकुमारोंका, पुष्टि की इच्छा से पृथ्वी का और प्रतिष्ठा की चाह हो तो लोकमाता पृथ्वी और द्यौ (आकाश) का सेवन करना चाहिये ॥ ५ ॥
सौन्दर्य की चाह से गन्धर्वोंकी, पत्नी की प्राप्ति के लिये उर्वशी अप्सरा की और सब का स्वामी बन ने के लिये ब्रह्मा की आराधना करनी चाहिये ॥ ६ ॥
जिसे यश की इच्छा हो वह यज्ञपुरुषकी, जिसे खजाने की लालसा हो वह वरुणकी; विद्या प्राप्त करने की आकाङ्क्षा हो तो भगवान शङ्कर की और पति-पत्नी में परस्पर प्रेम बनाये रखने के लिये पार्वतीजी की उपासना करनी चाहिये ॥ ७ ॥
धर्म उपार्जन करने के लिये विष्णुभगवानकी, वंशपरम्परा की रक्षा के लिये पितरोंकी, बाधाओं से बच ने के लिये यक्षों की और बलवान् होने के लिये मरुद्गणों की आराधना करनी चाहिये ॥ ८ ॥
राज्य के लिये मन्वन्तरों के अधिपति देवों को, अभिचार के लिये निर्ऋति को, भोगों के लिये चन्द्रमा को और निष्कामता प्राप्त करने के लिये परम पुरुष नारायण को भजना चाहिये ॥ ९ ॥
और जो बुद्धिमान पुरुष है—वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओं से युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो—उसे तो तीव्र भक्तियोग के द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान की ही आराधना करनी चाहिये ॥ १० ॥
जित ने भी उपासक हैं, उनका सब से बड़ा हित इसी में है कि वे भगवान के प्रेमी भक्तों का सङ्ग करके भगवान में अविचल प्रेम प्राप्त कर लें ॥ ११ ॥
ऐसे पुरुषों के सत्सङ्ग में जो भगवान की लीला- कथाएँ होती हैं, उनसे उस दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिससे संसार-सागर की त्रिगुणमयी तरङ्गमालाओं के थपेड़े शान्त हो जाते हैं, हृदय शुद्ध होकर आनन्द का अनुभव होने लगता है, इन्ङ्क्षद्रयों के विषयों में आसक्ति नहीं रहती, कैवल्यमोक्ष का सर्वसम्मत मार्ग भक्तियोग प्राप्त हो जाता है। भगवान की ऐसी रसमयी कथाओं का चस् का लग जाने पर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे ॥ १२ ॥
शौनकजी ने कहा—सूतजी ! राजा परीक्षित ने शुकदेवजी की यह बात सुनकर उनसे और क्या पूछा ? वे तो सर्वज्ञ होने के साथ-ही-साथ मधुर वर्णन करने में भी बड़े निपुण थे ॥ १३ ॥
सूतजी ! आप तो सब कुछ जानते हैं, हमलोग उनकी वह बातचीत बड़े प्रेम से सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। क्योंकि संतों की सभा में ऐसी ही बातें होती हैं, जिनका पर्यवसान भगवान की रसमयी लीला- कथा में ही होता है ॥ १४ ॥
पाण्डुनन्दन महारथी राजा परीक्षित बड़े भगवद्भक्त थे। बाल्यावस्था में खिलौनों से खेलते समय भी वे श्रीकृष्णलीला का ही रस लेते थे ॥ १५ ॥
भगवन्मय श्रीशुकदेवजी भी जन्म से ही भगवत्परायण हैं। ऐसे संतों के सत्सङ्ग में भगवान के मङ्गलमय गुणों की दिव्य चर्चा अवश्य ही हुई होगी ॥ १६ ॥
जिसका समय भगवान श्रीकृष्ण के गुणों के गान अथवा श्रवण में व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्यों की आयु व्यर्थ जा रही है। ये भगवान सूर्य प्रतिदिन अपने उदय और अस्त से उनकी आयु छीनते जा रहे हैं ॥ १७ ॥
क्या वृक्ष नहीं जीते ? क्या लुहार की धौंकनी साँस नहीं लेती ? गाँव के अन्य पालतू पशु क्या मनुष्य-पशु की ही तरह खाते-पीते या मैथुन नहीं करते ? ॥ १८ ॥
जिसके कान में भगवान श्रीकृष्ण की लीला- कथा कभी नहीं पड़ी, वह नर पशु, कुत्ते, ग्राम-सूकर, ऊँट और गधे से भी गया बीता है ॥ १९ ॥
सूतजी ! जो मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिल के समान हैं। जो जीभ भगवान की लीलाओं का गायन नहीं करती, वह मेढक की जीभ के समान टर्र-टर्र करने- वाली है; उसका तो न रहना ही अच्छा है ॥ २० ॥
जो सिर कभी भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में झुकता नहीं, वह रेशमी वस्त्र से सुसज्जित और मुकुट से युक्त होने पर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सो ने के कंगन से भूषित होने पर भी मुर्दे के हाथ हैं ॥ २१ ॥
जो आँखें भगवान की याद दिलानेवाली मूर्ति, तीर्थ, नदी आदि का दर्शन नहीं करतीं, वे मोरों की पाँख में बने हुए आँखों के चिह्न के समान निरर्थक हैं। मनुष्यों के वे पैर चल ने की शक्ति रखने पर भी न चलनेवाले पेड़ों-जैसे ही हैं, जो भगवान की लीला-स्थलियों की यात्रा नहीं करते ॥ २२ ॥
जिस मनुष्य ने भगवत्प्रेमी संतों के चरणों की धूल कभी सिर पर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा है। जिस मनुष्य ने भगवान के चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी की सुगन्ध लेकर उसकी सराहना नहीं की, वह श्वास लेता हुआ भी श्वासरहित शव है ॥ २३ ॥
सूतजी ! वह हृदय नहीं, लोहा है, जो भगवान के मंगलमय नामों का श्रवण-कीर्तन करने पर भी पिघलकर उन्हीं की ओर बह नहीं जाता। जिस समय हृदय पिघल जाता है, उस समय नेत्रों में आँसू छलक ने लगते हैं और शरीर का रोम-रोम खिल उठता है ॥ २४ ॥
प्रिय सूतजी ! आपकी वाणी हमारे हृदय को मधुरता से भर देती है। इसलिये भगवान के परम भक्त, आत्मविद्या-विशारद श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित के सुन्दर प्रश्र करने पर जो कुछ कहा, वह संवाद आप कृपा करके हमलोगों को सुनाइये ॥ २५ ॥

स्कन्ध-02 [अध्याय-04]

॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥
सूत उवाच
वैयासकेरिति वचस्तत्त्वनिश्चयमात्मनः ।
उपधार्य मतिं कृष्णे औत्तरेयः सतीं व्यधात् ॥ १॥

आत्मजायासुतागारपशुद्रविणबन्धुषु ।
राज्ये चाविकले नित्यं विरूढां ममतां जहौ ॥ २॥

पप्रच्छ चेममेवार्थं यन्मां पृच्छथ सत्तमाः ।
कृष्णानुभावश्रवणे श्रद्दधानो महामनाः ॥ ३॥

संस्थां विज्ञाय सन्न्यस्य कर्म त्रैवर्गिकं च यत् ।
वासुदेवे भगवति आत्मभावं दृढं गतः ॥ ४॥

राजोवाच
समीचीनं वचो ब्रह्मन् सर्वज्ञस्य तवानघ ।
तमो विशीर्यते मह्यं हरेः कथयतः कथाम् ॥ ५॥

भूय एव विवित्सामि भगवानात्ममायया ।
यथेदं सृजते विश्वं दुर्विभाव्यमधीश्वरैः ॥ ६॥

यथा गोपायति विभुर्यथा संयच्छते पुनः ।
यां यां शक्तिमुपाश्रित्य पुरुशक्तिः परः पुमान् ।
आत्मानं क्रीडयन् क्रीडन् करोति विकरोति च ॥ ७॥

नूनं भगवतो ब्रह्मन् हरेरद्भुतकर्मणः ।
दुर्विभाव्यमिवाभाति कविभिश्चापि चेष्टितम् ॥ ८॥

यथा गुणांस्तु प्रकृतेर्युगपत्क्रमशोऽपि वा ।
बिभर्ति भूरिशस्त्वेकः कुर्वन् कर्माणि जन्मभिः ॥ ९॥

विचिकित्सितमेतन्मे ब्रवीतु भगवान् यथा ।
शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परस्मिंश्च भवान् खलु ॥ १०॥

सूत उवाच
इत्युपामन्त्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरेः ।
हृषीकेशमनुस्मृत्य प्रतिवक्तुं प्रचक्रमे ॥ ११॥

श्रीशुक उवाच
नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे
सदुद्भवस्थाननिरोधलीलया ।
गृहीतशक्तित्रितयाय देहिना-
मन्तर्भवायानुपलक्ष्यवर्त्मने ॥ १२॥

भूयो नमः सद्वृजिनच्छिदेऽसता-
मसम्भवायाखिलसत्त्वमूर्तये ।
पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमे
व्यवस्थितानामनुमृग्यदाशुषे ॥ १३॥

नमो नमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां
विदूरकाष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम् ।
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नमः ॥ १४॥

यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
यद्वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् ।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १५॥

विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्सङ्गं
व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः ।
विन्दन्ति हि ब्रह्मगतिं गतक्लमास्तस्मै
सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १६॥

तपस्विनो दानपरा यशस्विनो
मनस्विनो मन्त्रविदः सुमङ्गलाः ।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ॥ १७॥

किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा
आभीरकङ्का यवनाः खसादयः ।
येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः
शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥ १८॥

स एष आत्माऽऽत्मवतामधीश्वर-
स्त्रयीमयो धर्ममयस्तपोमयः ।
गतव्यलीकैरजशङ्करादिभि-
र्वितर्क्यलिङ्गो भगवान् प्रसीदताम् ॥ १९॥

श्रियः पतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिर्धियां
पतिर्लोकपतिर्धरापतिः ।
पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णिसात्वतां
प्रसीदतां मे भगवान् सतां पतिः ॥ २०॥

यदङ्घ्र्यभिध्यानसमाधिधौतया
धियानुपश्यन्ति हि तत्त्वमात्मनः ।
वदन्ति चैतत्कवयो यथारुचं
स मे मुकुन्दो भगवान् प्रसीदताम् ॥ २१॥

प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती
वितन्वताजस्य सतीं स्मृतिं हृदि ।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत्किलास्यतः
स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम् ॥ २२॥

भूतैर्महद्भिर्य इमाः पुरो विभुर्निर्माय
शेते यदमूषु पूरुषः ।
भुङ्क्ते गुणान् षोडश षोडशात्मकः
सोऽलङ्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे ॥ २३॥

नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम् ॥ २४॥

एतदेवात्मभू राजन् नारदाय विपृच्छते ।
वेदगर्भोऽभ्यधात्साक्षाद्यदाह हरिरात्मनः ॥ २५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय
राजा का सृष्टिविषयक प्रश्र और शुकदेवजी का कथारम्भ
सूतजी कहते हैं—शुकदेवजी के वचन भगवत्तत्त्व का निश्चय करानेवाले थे। उत्तरानन्दन राजा परीक्षित ने उन्हें सुनकर अपनी शुद्ध बुद्धि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्यभाव से समर्पित कर दी ॥ १ ॥
शरीर, पत्नी, पुत्र, महल, पशु, धन, भाई-बन्धु और निष्कण्टक राज्य में नित्य के अभ्यासके कारण उनकी दृढ़ ममता हो गयी थी। एक क्षण में ही उन्होंने उस ममता का त्याग कर दिया ॥ २ ॥
शौनकादि ऋषियो ! महामनस्वी परीक्षित ने अपनी मृत्यु का निश्चित समय जान लिया था। इसलिये उन्होंने धर्म, अर्थ और काम से सम्बन्ध रखनेवाले जित ने भी कर्म थे, उनका संन्यास कर दिया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण में सुदृढ़ आत्मभाव को प्राप्त होकर बड़ी श्रद्धा से भगवान श्रीकृष्ण की महिमा सुनने के लिये उन्होंने श्रीशुकदेवजी से यही प्रश्र किया, जिसे आपलोग मुझ से पूछ रहे हैं ॥ ३-४ ॥
परीक्षित ने पूछा—भगवत् स्वरूप मुनिवर ! आप परम पवित्र और सर्वज्ञ हैं। आपने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं उचित है। आप ज्यों-ज्यों भगवान की कथा कहते जा रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे अज्ञान का परदा फटता जा रहा है ॥ ५ ॥
मैं आप से फिर भी यह जानना चाहता हूँ कि भगवान अपनी माया से इस संसार की सृष्टि कैसे करते हैं। इस संसार की रचना तो इतनी रहस्यमयी है कि ब्रह्मादि समर्थ लोकपाल भी इसके समझ ने में भूल कर बैठते हैं ॥ ६ ॥
भगवान कैसे इस विश्व की रक्षा और फिर संहार करते हैं ? अनन्तशक्ति परमात्मा किन-किन शक्तियों का आश्रय लेकर अपने-आपको ही खिलौ ने बनाकर खेलते हैं ? वे बच्चों के बनाये हुए घरौंदों की तरह ब्रह्माण्डों को कैसे बनाते हैं और फिर किस प्रकार बात-की-बात में मिटा देते हैं ? ॥ ७ ॥
भगवान श्रीहरि की लीलाएँ बड़ी ही अद्भुत—अचिन्त्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी उनकी लीला का रहस्य समझना अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है ॥ ८ ॥
भगवान तो अकेले ही हैं। वे बहुत- से कर्म करने के लिये पुरुषरूप से प्रकृति के विभिन्न गुणों को एक साथ ही धारण करते हैं अथवा अनेकों अवतार ग्रहण करके उन्हें क्रमश: धारण करते हैं ? ॥ ९ ॥
मुनिवर ! आप वेद और ब्रह्मतत्त्व दोनों के पूर्ण मर्मज्ञ हैं, इसलिये मेरे इस सन्देह का निवारण कीजिये ॥ १० ॥
सूतजी कहते हैं—जब राजा परीक्षित ने भगवान के गुणों का वर्णन करने के लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजी ने भगवान श्रीकृष्ण का बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों में मेरे कोटि- कोटि प्रणाम हैं, जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करने के लिये सत्त्व, रज तथा तमोगुणरूप तीन शक्तियों को स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर का रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान हैं, जिनका स्वरूप और उसकी उपलब्धि का मार्ग बुद्धि के विषय नहीं हैं; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है ॥ १२ ॥
हम पुन: बार-बार उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषों का दु:ख मिटाकर उन्हें अपने प्रेम का दान करते हैं, दुष्टों की सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रम में स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तु का दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हीं की मूर्ति हैं, इसलिये किसी से भी उनका पक्षपात नहीं है ॥ १३ ॥
जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करनेवाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसी का ऐश्वर्य नहीं है, फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्य से युक्त होकर जो निरन्तर ब्रह्म स्वरूप अपने धाम में विहार करते रहते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥
जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है ॥ १५ ॥
विवे की पुरुष जिनके चरणकमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसक्ति निकाल डालते हैं और बिना किसी परिश्रम के ही ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेते हैं, उन मङ्गलमय कीर्तिवाले भगवान श्रीकृष्ण को अनेक बार नमस्कार है ॥ १६ ॥
बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मन्त्रवेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को तथा अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित नहीं कर देते, तब तक उन्हें कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्मसमर्पण की ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्तिवाले भगवान को बार-बार नमस्कार है ॥ १७ ॥
किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कङ्क, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तों की शरण ग्रहण करने से ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् भगवान को बार- बार नमस्कार है ॥ १८ ॥
वे ही भगवान ज्ञानियों के आत्मा हैं, भक्तों के स्वामी हैं, कर्मकाण्डियों के लिये वेदमूर्ति हैं, धार्मिकों के लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियों के लिये तप: स्वरूप हैं। ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध हृदय से उनके स्वरूप का चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझ पर अपने अनुग्रहकी—प्रसाद की वर्षा करें ॥ १९ ॥
जो समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मीदेवी के पति हैं, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजा के रक्षक हैं, सब के अन्तर्यामी और समस्त लोकों के पालनकर्ता हैं तथा पृथ्वीदेवी के स्वामी हैं, जिन्हों ने यदुवंश में प्रकट होकर अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है, तथा जो उन लोगों के एकमात्र आश्रय रहे हैं—वे भक्तवत्सल, संतजनों के सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों ॥ २० ॥
विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलों के चिन्तनरूप समाधि से शुद्ध हुई बुद्धि के द्वारा आत्मतत्त्व का साक्षातकार करते हैं तथा उनके दर्शन के अनन्तर अपनी-अपनी मति और रुचि के अनुसार जिनके स्वरूप का वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्ति के लुटानेवाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों ॥ २१ ॥
जिन्हों ने सृष्टि के समय ब्रह्मा के हृदय में पूर्वकल्प की स्मृति जागरित करने के लिये ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को प्रेरित किया और वे अपने अङ्गों के सहित वेद के रूप में उनके मुख से प्रकट हुर्ईं, वे ज्ञान के मूलकारण भगवान मुझ पर कृपा करें, मेरे हृदय में प्रकट हों ॥ २२ ॥
भगवान ही पञ्चमहाभूतों से इन शरीरों का निर्माण करके इनमें जीवरूप से शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन—इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलङ्क्ृत कर दें ॥ २३ ॥
संत पुरुष जिनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतार सर्वज्ञ भगवान व्यासके चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ २४ ॥
परीक्षित ! वेदगर्भ स्वयम्भू ब्रह्माने नारद के प्रश्र करने पर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुम से कह रहा हूँ) ॥ २५ ॥

स्कन्ध-02 [अध्याय-05]

॥ पञ्चमोऽध्यायः - ५ ॥
नारद उवाच
देवदेव नमस्तेऽस्तु भूतभावन पूर्वज ।
तद्विजानीहि यज्ज्ञानमात्मतत्त्वनिदर्शनम् ॥ १॥

यद्रूपं यदधिष्ठानं यतः सृष्टमिदं प्रभो ।
यत्संस्थं यत्परं यच्च तत्तत्त्वं वद तत्त्वतः ॥ २॥

सर्वं ह्येतद्भवान् वेद भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
करामलकवद्विश्वं विज्ञानावसितं तव ॥ ३॥

यद्विज्ञानो यदाधारो यत्परस्त्वं यदात्मकः ।
एकः सृजसि भूतानि भूतैरेवात्ममायया ॥ ४॥

आत्मन् भावयसे तानि न पराभावयन् स्वयम् ।
आत्मशक्तिमवष्टभ्य ऊर्णनाभिरिवाक्लमः ॥ ५॥

नाहं वेद परं ह्यस्मिन् नापरं न समं विभो ।
नामरूपगुणैर्भाव्यं सदसत्किञ्चिदन्यतः ॥ ६॥

स भवानचरद्घोरं यत्तपः सुसमाहितः ।
तेन खेदयसे नस्त्वं पराशङ्कां प्रयच्छसि ॥ ७॥

एतन्मे पृच्छतः सर्वं सर्वज्ञ सकलेश्वर ।
विजानीहि यथैवेदमहं बुध्येऽनुशासितः ॥ ८॥

ब्रह्मोवाच
सम्यक्कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम् ।
यदहं चोदितः सौम्य भगवद्वीर्यदर्शने ॥ ९॥

नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भोः ।
अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे ॥ १०॥

येन स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम् ।
यथार्कोऽग्निर्यथा सोमो यथर्क्षग्रहतारकाः ॥ ११॥

तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि ।
यन्मायया दुर्जयया मां ब्रुवन्ति जगद्गुरुम् ॥ १२॥

विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया ।
विमोहिता विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धियः ॥ १३॥

द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
वासुदेवात्परो ब्रह्मन् न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः ॥ १४॥

नारायणपरा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः ।
नारायणपरा लोका नारायणपरा मखाः ॥ १५॥

नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः ।
नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ॥ १६॥

तस्यापि द्रष्टुरीशस्य कूटस्थस्याखिलात्मनः ।
सृज्यं सृजामि सृष्टोऽहमीक्षयैवाभिचोदितः ॥ १७॥

सत्त्वं रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रयः ।
स्थितिसर्गनिरोधेषु गृहीता मायया विभोः ॥ १८॥

कार्यकारणकर्तृत्वे द्रव्यज्ञानक्रियाश्रयाः ।
बध्नन्ति नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणाः ॥ १९॥

स एष भगवांल्लिङ्गैस्त्रिभिरेभिरधोक्षजः ।
स्वलक्षितगतिर्ब्रह्मन् सर्वेषां मम चेश्वरः ॥ २०॥

कालं कर्म स्वभावं च मायेशो मायया स्वया ।
आत्मन् यदृच्छया प्राप्तं विबुभूषुरुपाददे ॥ २१॥

कालाद्गुणव्यतिकरः परिणामः स्वभावतः ।
कर्मणो जन्म महतः पुरुषाधिष्ठितादभूत् ॥ २२॥

महतस्तु विकुर्वाणाद्रजःसत्त्वोपबृंहितात् ।
तमःप्रधानस्त्वभवद्द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः ॥ २३॥

सोऽहङ्कार इति प्रोक्तो विकुर्वन् समभूत्त्रिधा ।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेति यद्भिदा ।
द्रव्यशक्तिः क्रियाशक्तिर्ज्ञानशक्तिरिति प्रभो ॥ २४॥

तामसादपि भूतादेर्विकुर्वाणादभून्नभः ।
तस्य मात्रा गुणः शब्दो लिङ्गं यद्द्रष्टृदृश्ययोः ॥ २५॥

नभसोऽथ विकुर्वाणादभूत्स्पर्शगुणोऽनिलः ।
परान्वयाच्छब्दवांश्च प्राण ओजः सहो बलम् ॥ २६॥

वायोरपि विकुर्वाणात्कालकर्मस्वभावतः ।
उदपद्यत तेजो वै रूपवत्स्पर्शशब्दवत् ॥ २७॥

तेजसस्तु विकुर्वाणादासीदम्भो रसात्मकम् ।
रूपवत्स्पर्शवच्चाम्भो घोषवच्च परान्वयात् ॥ २८॥

विशेषस्तु विकुर्वाणादम्भसो गन्धवानभूत् ।
परान्वयाद्रसस्पर्शशब्दरूपगुणान्वितः ॥ २९॥

वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश ।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः ॥ ३०॥

तैजसात्तु विकुर्वाणादिन्द्रियाणि दशाभवन् ।
ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिर्बुद्धिः प्राणश्च तैजसौ ।
श्रोत्रं त्वग्घ्राणदृग्जिह्वा वाग्दोर्मेढ्राङ्घ्रिपायवः ॥ ३१॥

यदैतेऽसङ्गता भावा भूतेन्द्रियमनोगुणाः ।
यदायतननिर्माणे न शेकुर्ब्रह्मवित्तम ॥ ३२॥

तदा संहत्य चान्योन्यं भगवच्छक्तिचोदिताः ।
सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससृजुर्ह्यदः ॥ ३३॥

वर्षपूगसहस्रान्ते तदण्डमुदकेशयम् ।
कालकर्मस्वभावस्थो जीवोऽजीवमजीवयत् ॥ ३४॥

स एव पुरुषस्तस्मादण्डं निर्भिद्य निर्गतः ।
सहस्रोर्वङ्घ्रिबाह्वक्षः सहस्राननशीर्षवान् ॥ ३५॥

यस्येहावयवैर्लोकान् कल्पयन्ति मनीषिणः ।
कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः ॥ ३६॥

पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः ।
ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्भ्यां शूद्रो व्यजायत ॥ ३७॥

भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ॥ ३८॥

ग्रीवायां जनलोकश्च तपोलोकः स्तनद्वयात् ।
मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः ॥ ३९॥

तत्कट्यां चातलं कॢप्तमूरुभ्यां वितलं विभोः ।
जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम् ॥ ४०॥

महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् ।
पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान् ॥ ४१॥

भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना ॥ ४२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय
सृष्टि-वर्णन
नारदजी ने पूछा—पिताजी ! आपकेवल मेरे ही नहीं, सब के पिता, समस्त देवताओं से श्रेष्ठ एवं सृष्टिकर्ता हैं। आपको मेरा प्रणाम है। आप मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिससे आत्मतत्त्व का साक्षातकार हो जाता है ॥ १ ॥
पिताजी ! इस संसार का क्या लक्षण है ? इसका आधार क्या है ? इसका निर्माण किस ने किया है ? इसका प्रलय किस में होता है ? यह किसके अधीन है ? और वास्तव में यह है क्या वस्तु ? आप इसका तत्त्व बतलाइये ॥ २ ॥
आप तो यह सब कुछ जानते हैं; क्योंकि जो कुछ हुआ है, हो रहा है या होगा, उसके स्वामी आप ही हैं। यह सारा संसार हथेली पर रखे हुए आँवले के समान आपकी ज्ञान-दृष्टि के अन्तर्गत ही है ॥ ३ ॥
पिताजी ! आपको यह ज्ञान कहाँ से मिला ? आप किसके आधार पर ठहरे हुए हैं ? आपका स्वामी कौन है ? और आपका स्वरूप क्या है ? आप अकेले ही अपनी माया से पञ्चभूतों के द्वारा प्राणियों की सृष्टि कर लेते हैं, कितना अद्भुत है ! ॥ ४ ॥
जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँह से जाला निकालकर उसमें खेल ने लगती है, वैसे ही आप अपनी शक्ति के आश्रय से जीवों को अपने में ही उत्पन्न करते हैं और फिर भी आप में कोई विकार नहीं होता ॥ ५ ॥
जगत में नाम, रूप और गुणों से जो कुछ जाना जाता है, उसमें मैं ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता, जो आपके सिवा और किसी से उत्पन्न हुई हो ॥ ६ ॥
इस प्रकार सब के ईश्वर होकर भी आपने एकाग्र चित्त से घोर तपस्या की, इस बात से मुझे मोह के साथ-साथ बहुत बड़ी शङ् का भी हो रही है कि आप से बड़ा भी कोई है क्या ॥ ७ ॥
पिताजी ! आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेश को ठीक-ठीक समझ सकूँ ॥ ८ ॥
ब्रह्माजी ने कहा—बेटा नारद ! तुम ने जीवों के प्रति करुणा के भाव से भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्र किया है; क्योंकि इससे भगवान के गुणों का वर्णन करने की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है ॥ ९ ॥
तुम ने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है। क्योंकि जब तक मुझ से परे का तत्त्व—जो स्वयं भगवान ही हैं—जान नहीं लिया जाता, तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है ॥ १० ॥
जैसे सूर्य, अग्रि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हींके प्रकाश से प्रकाशित होकर जगत में प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयंप्रकाश भगवान के चिन्मय प्रकाश से प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ ॥ ११ ॥
उन भगवान वासुदेव की मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय माया से मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं ॥ १२ ॥
यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूर से ही भाग जाती है। परन्तु संसार के अज्ञानी जन उसी से मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं ॥ १३ ॥
भगवत् स्वरूप नारद ! द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव—वास्तव में भगवान से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है ॥ १४ ॥
वेद नारायण के परायण हैं। देवता भी नारायण के ही अङ्गों में कल्पित हुए हैं, और समस्त यज्ञ भी नारायण की प्रसन्नता के लिये ही हैं तथा उनसे जिन लोकों की प्राप्ति होती है, वे भी नारायण में ही कल्पित हैं ॥ १५ ॥
सब प्रकार के योग भी नारायण की प्राप्ति के ही हेतु हैं। सारी तपस्याएँ नारायण की ओर ही ले जानेवाली हैं, ज्ञान के द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं। समस्त साध्य और साधनों का पर्यवसान भगवान नारायण में ही है ॥ १६ ॥
वे द्रष्टा होने पर भी ईश्वर हैं, स्वामी हैं; निर्विकार होने पर भी सर्व स्वरूप हैं। उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टि से ही प्रेरित होकर मैं उनके इच्छानुसार सृष्टि-रचना करता हूँ ॥ १७ ॥
भगवान माया के गुणों से रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलय के लिये रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण—ये तीन गुण माया के द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं ॥ १८ ॥
ये ही तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रिया का आश्रय लेकर मायातीत नित्यमुक्त पुरुष को ही माया में स्थित होने पर कार्य, कारण और कर्तापन के अभिमान से बाँध लेते हैं ॥ १९ ॥
नारद! इन्द्रियातीत भगवान गुणों के इन तीन आवरणों से अपने स्वरूप को भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये लोग उन को नहीं जान पाते। सारे संसार के और मेरे भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं ॥ २० ॥
मायापति भगवान ने एक से बहुत होने की इच्छा होने पर अपनी माया से अपने स्वरूप में स्वयं प्राप्त काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लिया ॥ २१ ॥
भगवान की शक्ति से ही काल ने तीनों गुणों में क्षोभ उत्पन्न कर दिया, स्वभाव ने उन्हें रूपान्तरित कर दिया और कर्म ने महत्तत्त्व को जन्म दिया ॥ २२ ॥
रजोगुण और सत्त्वगुण की वृद्धि होने पर महत्तत्त्व का जो विकार हुआ, उससे ज्ञान, क्रिया और द्रव्यरूप तम:प्रधान विकार हुआ ॥ २३ ॥
वह अहंकार कहलाया और विकार को प्राप्त होकर तीन प्रकार का हो गया। उसके भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस। नारदजी ! वे क्रमश: ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और द्रव्यशक्तिप्रधान हैं ॥ २४ ॥
जब पञ्चमहाभूतों के कारणरूप तामस अहंकार में विकार हुआ, तब उससे आकाश की उत्पत्ति हुई। आकाश की तन्मात्रा और गुण शब्द है। इस शब्द के द्वारा ही द्रष्टा और दृश्य का बोध होता है ॥ २५ ॥
जब आकाश में विकार हुआ, तब उससे वायु की उत्पत्ति हुई; उसका गुण स्पर्श है। अपने कारण का गुण आ जाने से यह शब्दवाला भी है। इन्द्रियों में स्फूर्ति, शरीर में जीवनीशक्ति, ओज और बल इसी के रूप हैं ॥ २६ ॥
काल, कर्म और स्वभाव से वायु में भी विकार हुआ। उससे तेज की उत्पत्ति हुई। इसका प्रधान गुण रूप है। साथ ही इसके कारण आकाश और वायु के गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें हैं ॥ २७ ॥
तेज के विकार से जल की उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस; कारण-तत्त्वों के गुण शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें हैं ॥ २८ ॥
जल के विकार से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई, इसका गुण है गन्ध। कारण के गुण कार्य में आते हैं—इस न्याय से शब्द, स्पर्श, रूप और रस—ये चारों गुण भी इसमें विद्यमान हैं ॥ २९ ॥
वैकारिक अहंकार से मन की और इन्द्रियों के दस अधिष्ठातृ-देवताओं की भी उत्पत्ति हुई। उनके नाम हैं—दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्रि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति ॥ ३० ॥
तैजस अहंकार के विकार से श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं वाक्, हस्त, पाद, गुदा और जननेन्द्रिय—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही ज्ञानशक्तिरूप बुद्धि और क्रियाशक्तिरूप प्राण भी तैजस अहंकार से ही उत्पन्न हुए ॥ ३१ ॥
श्रेष्ठ ब्रह्मवित् ! जिस समय ये पञ्चभूत, इन्द्रिय, मन और सत्त्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तब अपने रहने के लिये भोगों के साधनरूप शरीर की रचना नहीं कर सके ॥ ३२ ॥
जब भगवान ने इन्हें अपनी शक्ति से प्रेरित किया, तब वे तत्त्व परस्पर एक दूसरे के साथ मिल गये और उन्होंने आपस में कार्य-कारणभाव स्वीकार करके व्यष्टि-समष्टिरूप पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों की रचना की ॥ ३३ ॥
वह ब्रह्माण्डरूप अंडा एक सहस्र वर्ष तक निर्जीवरूप से जल में पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार करनेवाले भगवान ने उसे जीवित कर दिया ॥ ३४ ॥
उस अंडे को फोडक़र उसमें से वही विराट् पुरुष निकला, जिसकी जङ्घा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्रों की संख्या में हैं ॥ ३५ ॥
विद्वान् पुरुष (उपासना के लिये) उसी के अङ्गों में समस्त लोक और उनमें रहनेवाली वस्तुओं की कल्पना करते हैं। उसकी कमर से नीचे के अङ्गों में सातों पाताल की और उसके पेड़ू से ऊ पर के अङ्गों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है ॥ ३६ ॥
ब्राह्मण इस विराट् पुरुष का मुख हैं, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं ॥ ३७ ॥
पैंरों से लेकर कटिपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोक की कल्पना की गयी है; नाभि में भुवर्लोककी, हृदय में स्वर्लोक की और परमात्मा के वक्ष:स्थल में महर्लोक की कल्पना की गयी है ॥ ३८ ॥
उसके गले में जनलोक, दोनों स्तनों में तपोलोक और मस् तक में ब्रह्मा का नित्य निवासस्थान सत्यलोक है ॥ ३९ ॥
उस विराट् पुरुष की कमर में अतल, जाँघों में वितल, घुटनों में पवित्र सुतललोक और जङ्घाओं में तलातल की कल्पना की गयी है ॥ ४० ॥
एड़ी के ऊ पर की गाँठों में महातल, पंजे और एडिय़ों में रसातल और तलुओं में पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है ॥ ४१ ॥
विराट् भगवान के अङ्गों में इस प्रकार भी लोकों की कल्पना की जाती है कि उनके चरणों में पृथ्वी है, नाभि में भुवर्लोक है और सिर में स्वर्लोक है ॥ ४२ ॥

स्कन्ध-02 [अध्याय-06]

॥ षष्ठोऽध्यायः - ६ ॥
ब्रह्मोवाच
वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः ।
हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च ॥ १॥

सर्वासूनां च वायोश्च तन्नासे परमायने ।
अश्विनोरोषधीनां च घ्राणो मोदप्रमोदयोः ॥ २॥

रूपाणां तेजसां चक्षुर्दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी ।
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रमाकाशशब्दयोः ।
तद्गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम् ॥ ३॥

त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्वमेधस्य चैव हि ।
रोमाण्युद्भिज्जजातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः ॥ ४॥

केशश्मश्रुनखान्यस्य शिलालोहाभ्रविद्युताम् ।
बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम् ॥ ५॥

विक्रमो भूर्भुवः स्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च ।
सर्वकामवरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् ॥ ६॥

अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः ।
पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्दनिर्वृतेः ॥ ७॥

पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद ।
हिंसाया निरृतेर्मृत्योर्निरयस्य गुदं स्मृतः ॥ ८॥

पराभूतेरधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः ।
नाड्यो नदनदीनां तु गोत्राणामस्थिसंहतिः ॥ ९॥

अव्यक्तरससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च ।
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम् ॥ १०॥

धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च ।
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्यात्मा परायणम् ॥ ११॥

अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः ।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः ॥ १२॥

गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः ।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः ॥ १३॥

अन्ये च विविधा जीवा जलस्थलनभौकसः ।
ग्रहर्क्षकेतवस्तारास्तडितः स्तनयित्नवः ॥ १४॥

सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् ।
तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति ॥ १५॥

स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ ।
एवं विराजं प्रतपंस्तपत्यन्तर्बहिः पुमान् ॥ १६॥

सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यमन्नं यदत्यगात् ।
महिमैष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः ॥ १७॥

पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः ।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु ॥ १८॥

पादास्त्रयो बहिश्चासन्नप्रजानां य आश्रमाः ।
अन्तस्त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः ॥ १९॥

सृती विचक्रमे विष्वङ् साशनानशने उभे ।
यदविद्या च विद्या च पुरुषस्तूभयाश्रयः ॥ २०॥

यस्मादण्डं विराड्जज्ञे भूतेन्द्रियगुणात्मकः ।
तद्द्रव्यमत्यगाद्विश्वं गोभिः सूर्य इवातपन् ॥ २१॥

यदास्य नाभ्यान्नलिनादहमासं महात्मनः ।
नाविदं यज्ञसम्भारान् पुरुषावयवादृते ॥ २२॥

तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः ।
इदं च देवयजनं कालश्चोरुगुणान्वितः ॥ २३॥

वस्तून्योषधयः स्नेहा रसलोहमृदो जलम् ।
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम ॥ २४॥

नामधेयानि मन्त्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च ।
देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पस्तन्त्रमेव च ॥ २५॥

गतयो मतयः श्रद्धा प्रायश्चित्तं समर्पणम् ।
पुरुषावयवैरेते सम्भाराः सम्भृता मया ॥ २६॥

इति सम्भृतसम्भारः पुरुषावयवैरहम् ।
तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् ॥ २७॥

ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव ।
अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः ॥ २८॥

ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे ।
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् ॥ २९॥

नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम् ।
गृहीतमायोरुगुणः सर्गादावगुणः स्वतः ॥ ३०॥

सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥ ३१॥

इति तेऽभिहितं तात यथेदमनुपृच्छसि ।
नान्यद्भगवतः किञ्चिद्भाव्यं सदसदात्मकम् ॥ ३२॥

न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते
न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः ।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे
यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरिः ॥ ३३॥

सोऽहं समाम्नायमयस्तपोमयः
प्रजापतीनामभिवन्दितः पतिः ।
आस्थाय योगं निपुणं समाहितस्तं
नाध्यगच्छं यत आत्मसम्भवः ॥ ३४॥

नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां
भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम् ।
यो ह्यात्ममायाविभवं स्म पर्यगाद्यथा
नभः स्वान्तमथापरे कुतः ॥ ३५॥

नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदुर्न
वामदेवः किमुतापरे सुराः ।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं
विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ ३६॥

यस्यावतारकर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः ।
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः ॥ ३७॥

स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः ।
आत्माऽऽत्मन्यात्मनाऽऽत्मानं संयच्छति च पाति च ॥ ३८॥

विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक् सम्यगवस्थितम् ।
सत्यं पूर्णमनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम् ॥ ३९॥

ऋषे विदन्ति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः ।
यदा तदेवासत्तर्कैस्तिरोधीयेत विप्लुतम् ॥ ४०॥

आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य
कालः स्वभावः सदसन्मनश्च ।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि
विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥ ४१॥

अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा
दक्षादयो ये भवदादयश्च ।
स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला
नृलोकपालास्तललोकपालाः ॥ ४२॥

गन्धर्वविद्याधरचारणेशा
ये यक्षरक्षोरगनागनाथाः ।
ये वा ऋषीणामृषभाः पितॄणां
दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेन्द्राः ।
अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत-
कूष्माण्डयादोमृगपक्ष्यधीशाः ॥ ४३॥

यत्किञ्च लोके भगवन् महस्व-
दोजःसहस्वद्बलवत्क्षमावत् ।
श्रीह्रीविभूत्यात्मवदद्भुतार्णं
तत्त्वं परं रूपवदस्वरूपम् ॥ ४४॥

प्राधान्यतो यान् ऋष आमनन्ति
लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।
आपीयतां कर्णकषायशोषा-
ननुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ॥ ४५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय
विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन
ब्रह्माजी कहते हैं—उन्हीं विराट् पुरुष के मुख से वाणी और उसके अधिष्ठातृदेवता अग्रि उत्पन्न हुए हैं। सातों छन्द [1] उनकी सात धातुओं से निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओं के भोजन करनेयोग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकार के रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृदेवता वरुण विराट् पुरुष की जिह्वा से उत्पन्न हुए हैं ॥ १ ॥
उनके नासाछिद्रों से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान—ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रिय से अश्विनीकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं ॥ २ ॥
उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेज की तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्य की जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करनेवाले तीर्थ कानों से तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। उनका शरीर संसार की सभी वस्तुओं के सारभाग तथा सौन्दर्य का खजाना है ॥ ३ ॥
सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी त्वचा से निकले हैं; उनके रोम सभी उद्भिज्ज पदार्थों के जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हींके, जिन से यज्ञ सम्पन्न होते हैं ॥ ४ ॥
उनके केश, दाढ़ी-मूँछ और नखों से मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओं से प्राय: संसार की रक्षा करनेवाले लोकपाल प्रकट हुए हैं ॥ ५ ॥
उनका चलना-फिरना भू:, भुव:, स्व:—तीनों लोकों का आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्त की रक्षा करते हैं और भयों को भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति उन्हीं से होती है ॥ ६ ॥
विराट् पुरुष का लिङ्ग जल, वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है ॥ ७ ॥
नारदजी ! विराट् पुरुष की पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मलत्याग का तथा गुदाद्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरक का उत्पत्तिस्थान है ॥ ८ ॥
उनकी पीठ से पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाडिय़ों से नद-नदी और हड्डियों से पर्वतों का निर्माण हुआ है ॥ ९ ॥
उनके उदर में मूल प्रकृति, रस नाम की धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका हृदय ही मन की जन्मभूमि है ॥ १० ॥
नारद ! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शङ्कर, विज्ञान और अन्त:करण—सब-के-सब उनके चित्त के आश्रित हैं ॥ ११ ॥
(कहाँ तक गिनायें—) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शङ्कर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगनेवाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और भी नाना प्रकार के जीव—जो आकाश, जल या स्थल में रहते हैं—ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे), तारे, बिजली और बादल—ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्व—जो कुछ कभी था, है या होगा—सब को वह घेरे हुए है और उसके अंदर यह विश्व उसके केवल दस अंगुल के [2] परिमाण में ही स्थित है ॥ १२—१५ ॥
जैसे सूर्य अपने मण्डल को प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराणपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर—सर्वत्र एकरस प्रकाशित हो रहा है ॥ १६ ॥
मुनिवर ! जो कुछ मनुष्य की क्रिया और सङ्कल्प से बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभयपद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमा का पार नहीं पा सकता ॥ १७ ॥
सम्पूर्ण लोक भगवान के एक पादमात्र (अशंमात्र) हैं तथा उनके अंशमात्र लोकों में समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊ पर महर्लोक है। उसके भी ऊ पर जन, तप और सत्यलोकों में क्रमश: अमृत, क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है ॥ १८ ॥
जन, तप और सत्य—इन तीनों लोकों में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्य से रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के भीतर ही निवास करते हैं ॥ १९ ॥
शास्त्रों में दो मार्ग बतलाये गये हैं—एक अविद्यारूप कर्म-मार्ग, जो सकाम पुरुषों के लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्या का मार्ग, जो निष्काम उपासकों के लिये है। मनुष्य दोनों में से किसी एक का आश्रय लेकर भोग प्राप्त करानेवाले दक्षिणमार्ग से अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्ग से यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम भगवान दोनों के आधारभूत हैं ॥ २० ॥
जैसे सूर्य अपनी किरणों से सब को प्रकाशित करते हुए भी सब से अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मा से इस अण्ड की और पञ्चभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट् की उत्पत्ति हुई है—वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओं के अंदर और उनके रूप में रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं ॥ २१ ॥
जिस समय इस विराट् पुरुष के नाभि-कमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुष के अङ्गों के अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञ की सामग्री नहीं मिली ॥ २२ ॥
तब मैंने उनके अङ्गों में ही यज्ञ के पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञ के योग्य उत्तम काल की कल्पना की ॥ २३ ॥
ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञ के लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल, आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेहपदार्थ, छ: रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजु:, साम, चातुर्होत्र, यज्ञों के नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओं के नाम, पद्धतिग्रन्थ, सङ्कल्प, तन्त्र (अनुष्ठान की रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित्त और समर्पण—यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुष के अङ्गों से ही इकट्ठी की ॥ २४—२६ ॥
इस प्रकार विराट् पुरुष के अङ्गों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञ स्वरूप परमात्मा का यज्ञ के द्वारा यजन किया ॥ २७ ॥
तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियों ने अपने चित्त को पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामीरूप से स्थित उस पुरुष की आराधना की ॥ २८ ॥
इसके पश्चात समय-समय पर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्यों ने यज्ञों के द्वारा भगवान की आराधना की ॥ २९ ॥
नारद ! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान नारायण में स्थित है, जो स्वयं तो प्राकृत गुणों से रहित हैं, परन्तु सृष्टि के प्रारम्भ में माया के द्वारा बहुत- से गुण ग्रहण कर लेते हैं ॥ ३० ॥
उन्हीं की प्रेरणा से मैं इस संसार की रचना करता हूँ। उन्हींके अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णु के रूप से इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तम की तीन शक्तियाँ स्वीकार कर रखी हैं ॥ ३१ ॥
बेटा ! जो कुछ तुम ने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारण के रूप में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो भगवान से भिन्न हो ॥ ३२ ॥
प्यारे नारद ! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित हृदय से भगवान के स्मरण में मग्र रहता हूँ, इसीसे मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य सङ्कल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादा का उल्लङ्घन करके कुमार्ग में नहीं जातीं ॥ ३३ ॥
मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठा से योग का सर्वाङ्ग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूलकारण परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान स का ॥ ३४ ॥
(क्योंकि वे तो एकमात्र भक्ति से ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मङ्गलमय एवं शरण आये हुए भक्तों को जन्म-मृत्यु से छुड़ानेवाले परम कल्याण स्वरूप भगवान के चरणों को ही नमस्कार करता हूँ। उनकी माया की शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्त को नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमा का विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थिति में दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं ? ॥ ३५ ॥
मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शङ्करजी भी उनके सत्य स्वरूप को नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी माया के द्वारा रचे हुए जगत को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही अटकल लगाते हैं ॥ ३६ ॥
हमलोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्त्व को नहीं जानते—उन भगवान के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३७ ॥
वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्प में वे स्वयं अपने आप में अपने आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं ॥ ३८ ॥
वे माया के लेश से रहित, केवल ज्ञान स्वरूप हैं और अन्तरात्मा के रूप में एकरस स्थित हैं। वे तीनों काल में सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि है न अन्त। वे तीनों गुणों से रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं ॥ ३९ ॥
नारद ! महात्मालोग जिस समय अपने अन्त:करण, इन्द्रिय और शरीर को शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षातकार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषों के द्वारा कुतर्कों का जाल बिछाकर उन को ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते ॥ ४० ॥
परमात्मा का पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पञ्चभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्रह्माण्ड-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जङ्गम जीव—सब-के-सब उन अनन्त भगवान के ही रूप हैं ॥ ४१ ॥
मैं, शङ्कर, विष्णु, दक्ष आदि ये प्रजापति, तुम और तुम्हारे-जैसे अन्य भक्तजन, स्वर्गलोक के रक्षक, पक्षियों के राजा, मनुष्यलोक के राजा, नीचे के लोकों के राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणों के अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागों के स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेत-पिशाच, भूत-कूष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियों के स्वामी; एवं संसार में और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमा से युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा विभूति से युक्त हैं; एवं जितनी भी वस्तुएँ अद्भुत वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैं—वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत् स्वरूप ही हैं ॥ ४२—४४ ॥
नारद ! इनके सिवा परम पुरुष परमात्मा के परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रों में वर्णित हैं। उनका मैं क्रमश: वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुनने में बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रिय के दोषों को दूर करनेवाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ॥ ४५ ॥


[1] गायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप्, उष्णिक्, बृहती, पङ्क्ति और जगती—ये सात छन्द हैं।
[2] ब्रह्माण्ड के सात आवरणों का वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है कि—पृथ्वी से दसगुना जल है, जल से दसगुना अग्रि, अग्रि से दसगुना वायु, वायु से दसगुना आकाश, आकाश से दसगुना अहंकार, अहंकार से दसगुना महत्तत्त्व और महत्तत्त्व से दसगुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान के केवल एक पाद में है। इस प्रकार भगवान की महत्ता प्रकट की गयी है। यह दशाङ्गुलन्याय कहलाता है।



स्कन्ध-02 [अध्याय-07]

॥ सप्तमोऽध्यायः - ७ ॥
ब्रह्मोवाच
यत्रोद्यतः क्षितितलोद्धरणाय बिभ्रत्क्रौडीं
तनुं सकलयज्ञमयीमनन्तः ।
अन्तर्महार्णव उपागतमादिदैत्यं
तं दंष्ट्रयाद्रिमिव वज्रधरो ददार ॥ १॥

जातो रुचेरजनयत्सुयमान् सुयज्ञ
आकूतिसूनुरमरानथ दक्षिणायाम् ।
लोकत्रयस्य महतीमहरद्यदार्तिं
स्वायम्भुवेन मनुना हरिरित्यनूक्तः ॥ २॥

जज्ञे च कर्दमगृहे द्विज देवहूत्यां
स्त्रीभिः समं नवभिरात्मगतिं स्वमात्रे ।
ऊचे ययाऽऽत्मशमलं गुणसङ्गपङ्कमस्मिन्
विधूय कपिलस्य गतिं प्रपेदे ॥ ३॥

अत्रेरपत्यमभिकाङ्क्षत आह तुष्टो
दत्तो मयाहमिति यद्भगवान् स दत्तः ।
यत्पादपङ्कजपरागपवित्रदेहा
योगर्द्धिमापुरुभयीं यदुहैहयाद्याः ॥ ४॥

तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे
आदौ सनात्स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत् ।
प्राक्कल्पसम्प्लवविनष्टमिहात्मतत्त्वं
सम्यग्जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन् ॥ ५॥

धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां
नारायणो नर इति स्वतपःप्रभावः ।
दृष्ट्वाऽऽत्मनो भगवतो नियमावलोपं
देव्यस्त्वनङ्गपृतना घटितुं न शेकुः ॥ ६॥

कामं दहन्ति कृतिनो ननु रोषदृष्ट्या
रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम् ।
सोऽयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति
कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत ॥ ७॥

विद्धः सपत्न्युदितपत्रिभिरन्ति राज्ञो
बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि ।
तस्मा अदाद्ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो
दिव्याः स्तुवन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात् ॥ ८॥

यद्वेनमुत्पथगतं द्विजवाक्यवज्र-
विप्लुष्टपौरुषभगं निरये पतन्तम् ।
त्रात्वार्थितो जगति पुत्रपदं च लेभे
दुग्धा वसूनि वसुधा सकलानि येन ॥ ९॥

नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्यो
वै चचार समदृग्जडयोगचर्याम् ।
यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति
स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ॥ १०॥

सत्रे ममास भगवान् हयशीरषाथो
साक्षात्स यज्ञपुरुषस्तपनीयवर्णः ।
छन्दोमयो मखमयोऽखिलदेवतात्मा
वाचो बभूवुरुशतीः श्वसतोऽस्य नस्तः ॥ ११॥

मत्स्यो युगान्तसमये मनुनोपलब्धः
क्षोणीमयो निखिलजीवनिकायकेतः ।
विस्रंसितानुरुभये सलिले मुखान्मे
आदाय तत्र विजहार ह वेदमार्गान् ॥ १२॥

क्षीरोदधावमरदानवयूथपाना-
मुन्मथ्नताममृतलब्धय आदिदेवः ।
पृष्ठेन कच्छपवपुर्विदधार गोत्रं
निद्राक्षणोऽद्रिपरिवर्तकषाणकण्डूः ॥ १३॥

त्रैविष्टपोरुभयहा स नृसिंहरूपं
कृत्वा भ्रमद्भ्रुकुटिदंष्ट्रकरालवक्त्रम् ।
दैत्येन्द्रमाशु गदयाभिपतन्तमारादूरौ
निपात्य विददार नखैः स्फुरन्तम् ॥ १४॥

अन्तःसरस्युरुबलेन पदे गृहीतो
ग्राहेण यूथपतिरम्बुजहस्त आर्तः ।
आहेदमादिपुरुषाखिललोकनाथ
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गलनामधेय ॥ १५॥

श्रुत्वा हरिस्तमरणार्थिनमप्रमेय-
श्चक्रायुधः पतगराजभुजाधिरूढः ।
चक्रेण नक्रवदनं विनिपाट्य तस्माद्धस्ते
प्रगृह्य भगवान् कृपयोज्जहार ॥ १६॥

ज्यायान् गुणैरवरजोऽप्यदितेः सुतानां
लोकान् विचक्रम इमान् यदथाधियज्ञः ।
क्ष्मां वामनेन जगृहे त्रिपदच्छलेन
याच्ञामृते पथि चरन् प्रभुभिर्न चाल्यः ॥ १७॥

नार्थो बलेरयमुरुक्रमपादशौचमापः
शिखाधृतवतो विबुधाधिपत्यम् ।
यो वै प्रतिश्रुतमृते न चिकीर्षदन्य-
दात्मानमङ्ग स शिरसा हरयेऽभिमेने ॥ १८॥

तुभ्यं च नारद भृशं भगवान् विवृद्धभावेन
साधु परितुष्ट उवाच योगम् ।
ज्ञानं च भागवतमात्मसतत्त्वदीपं
यद्वासुदेवशरणा विदुरञ्जसैव ॥ १९॥

चक्रं च दिक्ष्वविहतं दशसु स्वतेजो
मन्वन्तरेषु मनुवंशधरो बिभर्ति ।
दुष्टेषु राजसु दमं व्यदधात्स्वकीर्तिं
सत्ये त्रिपृष्ठ उशतीं प्रथयंश्चरित्रैः ॥ २०॥

धन्वन्तरिश्च भगवान् स्वयमेव कीर्तिर्नाम्ना
नृणां पुरुरुजां रुज आशु हन्ति ।
यज्ञे च भागममृतायुरवावरुन्ध
आयुष्यवेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके ॥ २१॥

क्षत्रं क्षयाय विधिनोपभृतं महात्मा
ब्रह्मध्रुगुज्झितपथं नरकार्तिलिप्सु ।
उद्धन्त्यसाववनिकण्टकमुग्रवीर्यः
त्रिःसप्तकृत्व उरुधारपरश्वधेन ॥ २२॥

अस्मत्प्रसादसुमुखः कलया कलेश
इक्ष्वाकुवंश अवतीर्य गुरोर्निदेशे ।
तिष्ठन् वनं सदयितानुज आविवेश
यस्मिन् विरुध्य दशकन्धर आर्तिमार्च्छत् ॥ २३॥

यस्मा अदादुदधिरूढभयाङ्गवेपो
मार्गं सपद्यरिपुरं हरवद्दिधक्षोः ।
दूरे सुहृन्मथितरोषसुशोणदृष्ट्या
तातप्यमानमकरोरगनक्रचक्रः ॥ २४॥

वक्षःस्थलस्पर्शरुग्णमहेन्द्रवाह-
दन्तैर्विडम्बितककुब्जुष ऊढहासम् ।
सद्योऽसुभिः सह विनेष्यति दारहर्तुः
विस्फूर्जितैर्धनुष उच्चरतोऽधिसैन्ये ॥ २५॥

भूमेः सुरेतरवरूथविमर्दितायाः
क्लेशव्ययाय कलया सितकृष्णकेशः ।
जातः करिष्यति जनानुपलक्ष्यमार्गः
कर्माणि चात्ममहिमोपनिबन्धनानि ॥ २६॥

तोकेन जीवहरणं यदुलूकिकायाः
त्रैमासिकस्य च पदा शकटोऽपवृत्तः ।
यद्रिङ्गतान्तरगतेन दिविस्पृशोर्वा
उन्मूलनं त्वितरथार्जुनयोर्न भाव्यम् ॥ २७॥

यद्वै व्रजे व्रजपशून् विषतोयपीतान्
पालांस्त्वजीवयदनुग्रहदृष्टिवृष्ट्या ।
तच्छुद्धयेऽतिविषवीर्यविलोलजिह्व-
मुच्चाटयिष्यदुरगं विहरन् ह्रदिन्याम् ॥ २८॥

तत्कर्म दिव्यमिव यन्निशि निःशयानं
दावाग्निना शुचिवने परिदह्यमाने ।
उन्नेष्यति व्रजमतोऽवसितान्तकालं
नेत्रे पिधाय्य सबलोऽनधिगम्यवीर्यः ॥ २९॥

गृह्णीत यद्यदुपबन्धममुष्य माता
शुल्बं सुतस्य न तु तत्तदमुष्य माति ।
यज्जृम्भतोऽस्य वदने भुवनानि गोपी
संवीक्ष्य शङ्कितमनाः प्रतिबोधिताऽऽसीत् ॥ ३०॥

नन्दं च मोक्ष्यति भयाद्वरुणस्य पाशाद्गोपान्
बिलेषु पिहितान् मयसूनुना च ।
अह्न्यापृतं निशि शयानमतिश्रमेण
लोकं विकुण्ठमुपनेष्यति गोकुलं स्म ॥ ३१॥

गोपैर्मखे प्रतिहते व्रजविप्लवाय
देवेऽभिवर्षति पशून् कृपया रिरक्षुः ।
धर्तोच्छिलीन्ध्रमिव सप्तदिनानि सप्तवर्षो
महीध्रमनघैककरे सलीलम् ॥ ३२॥

क्रीडन् वने निशि निशाकररश्मिगौर्यां
रासोन्मुखः कलपदायतमूर्च्छितेन ।
उद्दीपितस्मररुजां व्रजभृद्वधूनां
हर्तुर्हरिष्यति शिरो धनदानुगस्य ॥ ३३॥

ये च प्रलम्बखरदर्दुरकेश्यरिष्ट-
मल्लेभकंसयवनाः कुजपौण्ड्रकाद्याः ।
अन्ये च शाल्वकपिबल्वलदन्तवक्त्र-
सप्तोक्षशम्बरविदूरथरुक्मिमुख्याः ॥ ३४॥

ये वा मृधे समितिशालिन आत्तचापाः
काम्बोजमत्स्यकुरुसृञ्जयकैकयाद्याः ।
यास्यन्त्यदर्शनमलं बलपार्थभीम-
व्याजाह्वयेन हरिणा निलयं तदीयम् ॥ ३५॥

कालेन मीलितधियामवमृश्य नॄणां
स्तोकायुषां स्वनिगमो बत दूरपारः ।
आविर्हितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यां
वेदद्रुमं विटपशो विभजिष्यति स्म ॥ ३६॥

देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां
पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूर्भिः ।
लोकान् घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं
वेषं विधाय बहु भाष्यत औपधर्म्यम् ॥ ३७॥

यर्ह्यालयेष्वपि सतां न हरेः कथाः स्युः
पाखण्डिनो द्विजजना वृषला नृदेवाः ।
स्वाहा स्वधा वषडिति स्म गिरो न यत्र
शास्ता भविष्यति कलेर्भगवान् युगान्ते ॥ ३८॥

सर्गे तपोऽहमृषयो नव ये प्रजेशाः
स्थाने च धर्ममखमन्वमरावनीशाः ।
अन्ते त्वधर्महरमन्युवशासुराद्या
मायाविभूतय इमाः पुरुशक्तिभाजः ॥ ३९॥

विष्णोर्नु वीर्यगणनां कतमोऽर्हतीह
यः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि ।
चस्कम्भ यः स्वरहसास्खलता त्रिपृष्ठं
यस्मात्त्रिसाम्यसदनादुरुकम्पयानम् ॥ ४०॥

नान्तं विदाम्यहममी मुनयोऽग्रजास्ते
मायाबलस्य पुरुषस्य कुतोऽपरे ये ।
गायन् गुणान् दशशतानन आदिदेवः
शेषोऽधुनापि समवस्यति नास्य पारम् ॥ ४१॥

येषां स एव भगवान् दययेदनन्तः
सर्वात्मनाऽऽश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम् ।
ते दुस्तरामतितरन्ति च देवमायां
नैषां ममाहमिति धीः श्वश‍ृगालभक्ष्ये ॥ ४२॥

वेदाहमङ्ग परमस्य हि योगमायां
यूयं भवश्च भगवानथ दैत्यवर्यः ।
पत्नी मनोः स च मनुश्च तदात्मजाश्च
प्राचीनबर्हिरृभुरङ्ग उत ध्रुवश्च ॥ ४३॥

इक्ष्वाकुरैलमुचुकुन्दविदेहगाधि-
रघ्वम्बरीषसगरा गयनाहुषाद्याः ।
मान्धात्रलर्कशतधन्वनुरन्तिदेवा
देवव्रतो बलिरमूर्त्तरयो दिलीपः ॥ ४४॥

सौभर्युतङ्कशिबिदेवलपिप्पलाद-
सारस्वतोद्धवपराशरभूरिषेणाः ।
येऽन्ये विभीषणहनूमदुपेन्द्रदत्त-
पार्थार्ष्टिषेणविदुरश्रुतदेववर्याः ॥ ४५॥

ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां
स्त्रीशूद्रहूणशबरा अपि पापजीवाः ।
यद्यद्भुतक्रमपरायणशीलशिक्षा-
स्तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये ॥ ४६॥

शश्वत्प्रशान्तमभयं प्रतिबोधमात्रं
शुद्धं समं सदसतः परमात्मतत्त्वम् ।
शब्दो न यत्र पुरुकारकवान् क्रियार्थो
माया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना ॥ ४७॥

तद्वै पदं भगवतः परमस्य पुंसो
ब्रह्मेति यद्विदुरजस्रसुखं विशोकम् ।
सध्र्यङ् नियम्य यतयो यमकर्तहेतिं
जह्युः स्वराडिव निपानखनित्रमिन्द्रः ॥ ४८॥

स श्रेयसामपि विभुर्भगवान् यतोऽस्य
भावस्वभावविहितस्य सतः प्रसिद्धिः ।
देहे स्वधातुविगमेऽनुविशीर्यमाणे
व्योमेव तत्र पुरुषो न विशीर्यतेऽजः ॥ ४९॥

सोऽयं तेऽभिहितस्तात भगवान् विश्वभावनः ।
समासेन हरेर्नान्यदन्यस्मात्सदसच्च यत् ॥ ५०॥

इदं भागवतं नाम यन्मे भगवतोदितम् ।
सङ्ग्रहोऽयं विभूतीनां त्वमेतद्विपुलीकुरु ॥ ५१॥

यथा हरौ भगवति नृणां भक्तिर्भविष्यति ।
सर्वात्मन्यखिलाधारे इति सङ्कल्प्य वर्णय ॥ ५२॥

मायां वर्णयतोऽमुष्य ईश्वरस्यानुमोदतः ।
श‍ृण्वतः श्रद्धया नित्यं माययाऽऽत्मा न मुह्यति ॥ ५३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे ब्रह्मनारदसंवादे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-सातवाँ अध्याय
भगवान के लीलावतारों की कथा
ब्रह्माजी कहते हैं—अनन्त भगवान ने प्रलय के जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने के लिये समस्त यज्ञमय वराह-शरीर ग्रहण किया था। आदिदैत्य हिरण्याक्ष जल के अंदर ही लडऩे के लिये उनके सामने आया। जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पर्वतों के पंख काट डाले थे, वैसे ही वराह भगवान ने अपनी दाढ़ों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ॥ १ ॥
फिर उन्हीं प्रभु ने रुचि नामक प्रजापति की पत्नी आकूति के गर्भ से सुयज्ञ के रूप में अवतार ग्रहण किया। उस अवतार में उन्होंने दक्षिणा नाम की पत्नी से सुयम नाम के देवताओं को उत्पन्न किया और तीनों लोकों के बड़े-बड़े सङ्कट हर लिये। इसीसे स्वायम्भुव मनु ने उन्हें ‘हरि’ के नाम से पुकारा ॥ २ ॥
नारद ! कर्दम प्रजापति के घर देवहूति के गर्भ से नौ बहिनों के साथ भगवान ने कपिल के रूप में अवतार ग्रहण किया। उन्होंने अपनी माता को उस आत्मज्ञान का उपदेश किया, जिससे वे इसी जन्म में अपने हृदय के सम्पूर्ण मल—तीनों गुणों की आसक्ति का सारा कीचड़ धोकर कपिल भगवान के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो गयीं ॥ ३ ॥
महर्षि अत्रि भगवान को पुत्ररूप में प्राप्त करना चाहते थे। उन पर प्रसन्न होकर भगवान ने उनसे एक दिन कहा कि ‘मैंने अपने आपको तुम्हें दे दिया।’ इसीसे अवतार लेने पर भगवान का नाम ‘दत्त’ (दत्तात्रेय) पड़ा। उनके चरणकमलों के पराग से अपने शरीर को पवित्र करके राजा यदु और सहस्रार्जुन आदि ने योग की भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त कीं ॥ ४ ॥
नारद ! सृष्टि के प्रारम्भ में मैंने विविध लोकों को रच ने की इच्छा से तपस्या की। मेरे उस अखण्ड तप से प्रसन्न होकर उन्होंने ‘तप’ अर्थवाले ‘सन’ नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार के रूप में अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने प्रलय के कारण पहले कल्प के भूले हुए आत्मज्ञान का ऋषियों के प्रति यथावत् उपदेश किया, जिससे उन लोगों ने तत्काल परम तत्त्व का अपने हृदय में साक्षातकार कर लिया ॥ ५ ॥
धर्म की पत्नी दक्षकन्या मूर्ति के गर्भ से वे नर-नारायण के रूप में प्रकट हुए। उनकी तपस्या का प्रभाव उन्हींके जैसा है। इन्द्र की भेजी हुई काम की सेना अप्सराएँ उनके सामने जाते ही अपना स्वभाव खो बैठीं। वे अपने हाव-भाव से उन आत्म स्वरूप भगवान की तपस्या में विघ्र नहीं डाल सकीं ॥ ६ ॥
नारद ! शङ्कर आदि महानुभाव अपनी रोषभरी दृष्टि से कामदेव को जला देते हैं, परंतु अपने आपको जलानेवाले असह्य क्रोध को वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायण के निर्मल हृदय में प्रवेश करने के पहले ही डर के मारे काँप जाता है। फिर भला, उनके हृदय में काम का प्रवेश तो हो ही कैसे सकता है ॥ ७ ॥
अपने पिता राजा उत्तानपाद के पास बैठे हुए पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को उनकी सौतेली माता सुरुचि ने अपने वचन-बाणों से बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होने पर भी वे उस ग्लानि से तपस्या करने के लिये वन में चले गये। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान प्रकट हुए और उन्होंने ध्रुव को ध्रुवपद का वरदान दिया। आज भी ध्रुव के ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ८ ॥
कुमार्गगामी वेन का ऐश्वर्य और पौरुष ब्राह्मणों के हुंकाररूपी वज्र से जलकर भस्म हो गया। वह नरक में गिर ने लगा। ऋषियों की प्रार्थना पर भगवान ने उसके शरीरमन्थन से पृथु के रूप में अवतार धारण कर उसे नरकों से उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र’ [1] शब्द को चरितार्थ किया। उसी अवतार में पृथ्वी को गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत के लिये समस्त ओषधियों का दोहन किया ॥ ९ ॥
राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से भगवान ने ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया। इस अवतार में समस्त आसक्तियों से रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थित होकर समदर्शी के रूप में उन्होंने जड़ों की भाँति योगचर्या का आचरण किया। इस स्थिति को महर्षिलोग परमहंसपद अथवा अवधूतचर्या कहते हैं ॥ १० ॥
इसके बाद स्वयं उन्हीं यज्ञपुरुष ने मेरे यज्ञ में स्वर्ण के समान कान्तिवाले हयग्रीव के रूप में अवतार ग्रहण किया। भगवान का वह विग्रह वेदमय, यज्ञमय और सर्वदेवमय है। उन्हीं की नासिका से श्वासके रूप में वेदवाणी प्रकट हुई ॥ ११ ॥
चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में भावी मनु सत्यव्रत ने मत्स्यरूप में भगवान को प्राप्त किया था। उस समय पृथ्वीरूप नौ का के आश्रय होने के कारण वे ही समस्त जीवों के आश्रय बने। प्रलय के उस भयंकर जल में मेरे मुख से गिरे हुए वेदों को लेकर वे उसी में विहार करते रहे ॥ १२ ॥
जब मुख्य-मुख्य देवता और दानव अमृत की प्राप्ति के लिये क्षीरसागर को मथ रहे थे, तब भगवान ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण किया। उस समय पर्वत के घूम ने के कारण उसकी रगड़ से उनकी पीठ की खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणों तक सुख की नींद सो सके ॥ १३ ॥
देवताओं का महान भय मिटा ने के लिये उन्होंने नृसिंह का रूप धारण किया। फडक़ती हुई भौंहों और तीखी दाढ़ों से उनका मुख बड़ा भयावना लगता था। हिरण्यकशिपु उन्हें देखते ही हाथ में गदा लेकर उन पर टूट पड़ा। इस पर भगवान नृसिंह ने दूर से ही उसे पकडक़र अपनी जाँघों पर डाल लिया और उसके छटपटाते रहने पर भी अपने नखों से उसका पेट फाड़ डाला ॥ १४ ॥
बड़े भारी सरोवर में महाबली ग्राह ने गजेन्द्र का पैर पकड़ लिया। जब बहुत थककर वह घबरा गया, तब उसने अपनी सूँड़ में कमल लेकर भगवान को पुकारा—‘हे आदिपुरुष ! हे समस्त लोकों के स्वामी ! हे श्रवणमात्र से कल्याण करनेवाले !’ ॥ १५ ॥
उसकी पुकार सुनकर अनन्तशक्ति भगवान चक्रपाणि गरुड की पीठ पर चढक़र वहाँ आये और अपने चक्र से उन्होंने ग्राह का मस् तक उखाड़ डाला। इस प्रकार कृपापरवश भगवान ने अपने शरणागत गजेन्द्र की सूँड़ पकडक़र उस विपत्ति से उसका उद्धार किया ॥ १६ ॥
भगवान वामन अदिति के पुत्रों में सब से छोटे थे, परन्तु गुणों की दृष्टि से वे सब से बड़े थे। क्योंकि यज्ञपुरुष भगवान ने इस अवतार में बलि के संकल्प छोड़ते ही सम्पूर्ण लोकों को अपने चरणों से ही नाप लिया था। वामन बनकर उन्होंने तीन पग पृथ्वी के बहा ने बलि से सारी पृथ्वी ले तो ली, परन्तु इससे यह बात सिद्ध कर दी कि सन्मार्ग पर चलनेवाले पुरुषों को याचना के सिवा और किसी उपाय से समर्थ पुरुष भी अपने स्थान से नहीं हटा सकते, ऐश्वर्य से च्युत नहीं कर सकते ॥ १७ ॥
दैत्यराज बलि ने अपने सिर पर स्वयं वामनभगवान का चरणामृत धारण किया था। ऐसी स्थिति में उन्हें जो देवताओं के राजा इन्द्र की पदवी मिली, इसमें कोई बलि का पुरुषार्थ नहीं था। अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी वे अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए। और तो क्या, भगवान का तीसरा पग पूरा करने के लिये उनके चरणों में सिर रखकर उन्होंने अपने आपको भी समर्पित कर दिया ॥ १८ ॥
नारद ! तुम्हारे अत्यन्त प्रेमभाव से परम प्रसन्न होकर हंसके रूप में भगवान ने तुम्हें योग, ज्ञान और आत्मतत्त्व को प्रकाशित करनेवाले भागवतधर्म का उपदेश किया। वह केवल भगवान के शरणागत भक्तों को ही सुगमता से प्राप्त होता है ॥ १९ ॥
वे ही भगवान स्वायम्भुव आदि मन्वन्तरों में मनु के रूप में अवतार लेकर मनुवंश की रक्षा करते हुए दसों दिशाओं में अपने सुदर्शनचक्र के समान तेज से बेरोक-टोक—निष्कण्टक राज्य करते हैं। तीनों लोकों के ऊ पर सत्यलोक तक उनके चरित्रों की कमनीय कीर्ति फैल जाती है और उसी रूप में वे समय-समय पर पृथ्वी के भारभूत दुष्ट राजाओं का दमन भी करते रहते हैं ॥ २० ॥
स्वनामधन्य भगवान धन्वन्तरि अपने नाम से ही बड़े-बड़े रोगियों के रोग तत्काल नष्ट कर देते हैं। उन्होंने अमृत पिलाकर देवताओं को अमर कर दिया और दैत्यों के द्वारा हरण किये हुए उनके यज्ञ-भाग उन्हें फिर से दिला दिये। उन्होंने ही अवतार लेकर संसार में आयुर्वेद का प्रवर्तन किया ॥ २१ ॥
जब संसार में ब्राह्मणद्रोही आर्यमर्यादा का उल्लङ्घन करनेवाले नारकीय क्षत्रिय अपने नाश के लिये ही दैववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वी के काँटे बन जाते हैं, तब भगवान महापराक्रमी परशुराम के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धारवाले फरसे से इक्कीस बार उनका संहार करते हैं ॥ २२ ॥
मायापति भगवान हम पर अनुग्रह करने के लिये अपनी कलाओं—भरत, शत्रुघ्र और लक्ष्मण के साथ श्रीराम के रूप से इक्ष्वाकु के वंश में अवतीर्ण होते हैं। इस अवतार में अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये अपनी पत्नी और भाई के साथ वे वन में निवास करते हैं। उसी समय उनसे विरोध करके रावण उनके हाथों मरता है ॥ २३ ॥
त्रिपुर विमान को जला ने के लिये उद्यत शङ्करके समान, जिस समय भगवान राम शत्रु की नगरी लङ् का को भस्म करने के लिये समुद्रतट पर पहुँचते हैं, उस समय सीता के वियोग के कारण बढ़ी हुई क्रोधाग्नि से उनकी आँखें इतनी लाल हो जाती हैं कि उनकी दृष्टि से ही समुद्र के मगरमच्छ, साँप और ग्राह आदि जीव जल ने लगते हैं और भय से थर-थर काँपता हुआ समुद्र झटपट उन्हें मार्ग दे देता है ॥ २४ ॥
जब रावण की कठोर छाती से टकराकर इन्द्र के वाहन ऐरावत के दाँत चूर-चूर होकर चारों ओर फैल गये थे, जिससे दिशाएँ सफेद हो गयी थीं, तब दिग्विजयी रावण घमंड से फूलकर हँस ने लगा था। वही रावण जब श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी सीताजी को चुराकर ले जाता है और लड़ाई के मैदान में उनसे लडऩे के लिये गर्वपूर्वक आता है, तब भगवान श्रीराम के धनुष की टङ्कार से ही उसका वह घमंड प्राणों के साथ तत्क्षण विलीन हो जाता है ॥ २५ ॥
जिस समय झुंड-के-झुंड दैत्य पृथ्वी को रौंद डालेंगे उस समय उसका भार उतार ने के लिये भगवान अपने सफेद और काले केश से बलराम और श्रीकृष्ण के रूप में कलावतार ग्रहण करेंगे।[2] वे अपनी महिमा को प्रकट करनेवाले इत ने अद्भुत चरित्र करेंगे कि संसार के मनुष्य उनकी लीलाओं का रहस्य बिलकुल नहीं समझ सकेंगे ॥ २६ ॥
बचपन में ही पूतना के प्राण हर लेना, तीन महीने की अवस्था में पैर उछालकर बड़ा भारी छकड़ा उलट देना और घुटनों के बल चलते-चलते आकाश को छूनेवाले यमलार्जुन वृक्षों के बीच में जाकर उन्हें उखाड़ डालना—ये सब ऐसे कर्म हैं, जिन्हें भगवान के सिवा और कोई नहीं कर सकता ॥ २७ ॥
जब कालियनाग के विष से दूषित हुआ यमुना-जल पीकर बछड़े और गोपबालक मर जायँगे, तब वे अपनी सुधामयी कृपा-दृष्टि की वर्षा से ही उन्हें जीवित कर देंगे और यमुना-जल को शुद्ध करने के लिये वे उसमें विहार करेंगे तथा विष की शक्ति से जीभ लपलपाते हुए कालियनाग को वहाँ से निकाल देंगे ॥ २८ ॥
उसी दिन रात को जब सब लोग वहीं यमुना-तट पर सो जायँगे और दावाग्रि से आस-पास का मूँज का वन चारों ओर से जल ने लगेगा, तब बलरामजी के साथ वे प्राणसङ्कट में पड़े हुए व्रजवासियों को उनकी आँखें बंद कराकर उस अग्रि से बचा लेंगे। उनकी यह लीला भी अलौकिक ही होगी। उनकी शक्ति वास्तव में अचिन्त्य है ॥ २९ ॥
उनकी माता उन्हें बाँध ने के लिये जो-जो रस्सी लायेंगी वही उनके उदर में पूरी नहीं पड़ेगी, दो अंगुल छोटी ही रह जायगी। तथा जँभाई लेते समय श्रीकृष्ण के मुख में चौदहों भुवन देखकर पहले तो यशोदा भयभीत हो जायँगी, परन्तु फिर वे सम्हल जायँगी ॥ ३० ॥
वे नन्दबाबा को अजगर के भय से और वरुण के पाश से छुड़ायेंगे। मय दानव का पुत्र व्योमासुर जब गोपबालों को पहाडक़ी गुफाओं में बंद कर देगा, तब वे उन्हें भी वहाँ से बचा लायेंगे। गोकुल के लोगों को, जो दिनभर तो काम-धंधों में व्याकुल रहते हैं और रात को अत्यन्त थककर सो जाते हैं, साधनाहीन होने पर भी, वे अपने परमधाम में ले जायँगे ॥ ३१ ॥
निष्पाप नारद ! जब श्रीकृष्ण की सलाह से गोपलोग इन्द्र का यज्ञ बंद कर देंगे, तब इन्द्र व्रजभूमि का नाश करने के लिये चारों ओर से मूसलधार वर्षा करने लगेंगे। उससे उनकी तथा उनके पशुओं की रक्षा करने के लिये भगवान कृपापरवश हो सात वर्ष की अवस्था में ही सात दिनों तक गोवद्र्धन पर्वत को एक ही हाथ से छत्रकपुष्प (कुकुरमुत्ते) की तरह खेल-खेल में ही धारण किये रहेंगे ॥ ३२ ॥
वृन्दावन में विहार करते हुए रास करने की इच्छा से वे रात के समय, जब चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी चारों ओर छिटक रही होगी, अपनी बाँसुरी पर मधुर सङ्गीत की लंबी तान छेड़ेंगे। उससे प्रेमविवश होकर आयी हुई गोपियों को जब कुबेर का सेवक शङ्खचूड़ हरण करेगा, तब वे उसका सिर उतार लेंगे ॥ ३३ ॥
और भी बहुत- से प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, अरिष्टासुर, आदि दैत्य, चाणूर आदि पहलवान, कुवलयापीड हाथी, कंस, कालयवन, भौमासुर, मिथ्यावासुदेव, शाल्व, द्विविद वानर, बल्वल, दन्तवक्त्र, राजा नग्रजित् के सात बैल, शम्बरासुर, विदूरथ और रुक्मी आदि तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, केकय और सृञ्जय आदि देशों के राजालोग एवं जो भी योद्धा धनुष धारण करके युद्ध के मैदान में सामने आयेंगे, वे सब बलराम, भीमसेन और अर्जुन आदि नामों की आड़ में स्वयं भगवान के द्वारा मारे जाकर उन्हींके धाम में चले जायँगे ॥ ३४-३५ ॥
समय के फेर से लोगों की समझ कम हो जाती है, आयु भी कम होने लगती है। उस समय जब भगवान देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्त्व को बतलानेवाली वेदवाणी को समझ ने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्प में सत्यवती के गर्भ से व्यासके रूप में प्रकट होकर वे वेदरूपी वृक्ष का विभिन्न शाखाओं के रूप में विभाजन कर देते हैं ॥ ३६ ॥
देवताओं के शत्रु दैत्यलोग भी वेदमार्ग का सहारा लेकर मयदानव के बनाये हुए अदृश्य वेगवाले नगरों में रहकर लोगों का सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान लोगों की बुद्धि में मोह और अत्यन्त लोभ उत्पन्न करनेवाला वेष धारण करके बुद्ध के रूप में बहुत- से उपधर्मों का उपदेश करेंगे ॥ ३७ ॥
कलियुग के अन्त में जब सत्पुरुषों के घर भी भगवान की कथा होने में बाधा पडऩे लगेगी; ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य पाखण्डी और शूद्र राजा हो जायँगे, यहाँ तक कि कहीं भी ‘स्वाहा’, ‘स्वधा’ और ‘वषट्कार’ की ध्वनि—देवता-पितरों के यज्ञ-श्राद्ध की बात तक नहीं सुनायी पड़ेगी , तब कलियुग का शासन करने के लिये भगवान कल्कि अवतार ग्रहण करेंगे ॥ ३८ ॥
जब संसार की रचना का समय होता है, तब तपस्या, नौ प्रजापति, मरीचि आदि ऋषि और मेरे रूपमें; जब सृष्टि की रक्षा का समय होता है, तब धर्म, विष्णु, मनु, देवता और राजाओं के रूप में, तथा जब सृष्टि के प्रलय का समय होता है, तब अधर्म, रुद्र तथा क्रोधवश नाम के सर्प एवं दैत्य आदि के रूप में सर्वशक्तिमान् भगवान की माया-विभूतियाँ ही प्रकट होती हैं ॥ ३९ ॥
अपनी प्रतिभा के बल से पृथ्वी के एक-एक धूलि-कण को गिन चुकने पर भी जगत में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान की शक्तियों की गणना कर सके। जब वे त्रिविक्रम-अवतार लेकर त्रिलो की को नाप रहे थे, उस समय उनके चरणों के अदम्य वेग से प्रकृतिरूप अन्तिम आवरण से लेकर सत्यलोक तक सारा ब्रह्माण्ड काँप ने लगा था। तब उन्होंने ही अपनी शक्ति से उसे स्थिर किया था ॥ ४० ॥
समस्त सृष्टि की रचना और संहार करनेवाली माया उनकी एक शक्ति है। ऐसी-ऐसी अनन्त शक्तियों के आश्रय उनके स्वरूप को न मैं जानता हूँ और न वे तुम्हारे बड़े भाई सनकादि ही; फिर दूसरों का तो कहना ही क्या है। आदिदेव भगवान शेष सहस्र मुख से उनके गुणों का गायन करते आ रहे हैं; परन्तु वे अब भी उसके अन्त की कल्पना नहीं कर सके ॥ ४१ ॥
जो निष्कपटभाव से अपना सर्वस्व और अपने आपको भी उनके चरणकमलों में निछावर कर देते हैं, उन पर वे अनन्त भगवान स्वयं ही अपनी ओर से दया करते हैं और उनकी दया के पात्र ही उनकी दुस्तर माया का स्वरूप जानते हैं और उसके पार जा पाते हैं। वास्तव में ऐसे पुरुष ही कुत्ते और सियारों के कलेवारूप अपने और पुत्रादि के शरीर में ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव नहीं करते ॥ ४२ ॥
प्यारे नारद ! परम पुरुष की उस योगमाया को मैं जानता हूँ तथा तुमलोग, भगवान शङ्कर, दैत्यकुलभूषण प्रह्लाद, शतरूपा, मनु, मनुपुत्र प्रियव्रत आदि, प्राचीनबर्हि, ऋभु और ध्रुव भी जानते हैं ॥ ४३ ॥
इनके सिवा इक्ष्वाकु, पुरूरवा, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, ययाति आदि तथा मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि अमूत्र्तरय, दिलीप, सौभरि, उत्तङ्क, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर भूरिषेण एवं विभीषण, हनुमान्, शुकदेव, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, विदुर और श्रुतदेव आदि महात्मा भी जानते हैं ॥ ४४-४५ ॥
जिन्हें भगवान के प्रेमी भक्तोंका-सा स्वभाव बनाने की शिक्षा मिली है, वे स्त्री, शूद्र, हूण, भील और पाप के कारण पशु-पक्षी आदि योनियों में रहनेवाले भी भगवान की माया का रहस्य जान जाते हैं और इस संसार-सागर से सदा के लिये पार हो जाते हैं; फिर जो लोग वैदिक सदाचार का पालन करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ ४६ ॥
परमात्मा का वास्तविक स्वरूप एकरस, शान्त, अभय एवं केवल ज्ञान स्वरूप है। न उसमें माया का मल है और न तो उसके द्वारा रची हुई विषमताएँ ही। वह सत् और असत् दोनों से परे है। किसी भी वैदिक या लौकिक शब्द की वहाँ तक पहुँच नहीं है। अनेक प्रकार के साधनों से सम्पन्न होनेवाले कर्मों का फल भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकता। और तो क्या, स्वयं माया भी उसके सामने नहीं जा पाती, लजाकर भाग खड़ी होती है ॥ ४७ ॥
परमपुरुष भगवान का वही परमपद है। महात्मालोग उसी का शोकरहित अनन्त आनन्द स्वरूप ब्रह्म के रूप में साक्षातकार करते हैं। संयमशील पुरुष उसी में अपने मन को समाहित करके स्थित हो जाते हैं। जैसे इन्द्र स्वयं मेघरूप से विद्यमान होने के कारण जल के लिये कुआँ खोद ने की कुदाल नहीं रखते वैसे ही वे भेद दूर करनेवाले ज्ञान- साधनों को भी छोड़ देते हैं ॥ ४८ ॥
समस्त कर्मों के फल भी भगवान ही देते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार जो शुभकर्म करता है, वह सब उन्हीं की प्रेरणा से होता है। इस शरीर में रहनेवाले पञ्चभूतों के अलग-अलग हो जाने पर जब—यह शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी इसमें रहनेवाला अजन्मा पुरुष आकाश के समान नष्ट नहीं होता ॥ ४९ ॥
बेटा नारद ! सङ्कल्प से विश्व की रचना करनेवाले षडैश्वर्यसम्पन्न श्रीहरि का मैंने तुम्हारे सामने संक्षेप से वर्णन किया। जो कुछ कार्य-कारण अथवा भाव-अभाव है, वह सब भगवान से भिन्न नहीं है। फिर भी भगवान तो इससे पृथक भी हैं ही ॥ ५० ॥
भगवान ने मुझे जो उपदेश किया था, वह यही ‘भागवत’ है। इसमें भगवान की विभूतियों का संक्षिप्त वर्णन है। तुम इसका विस्तार करो ॥ ५१ ॥
जिस प्रकार सब के आश्रय और सर्व स्वरूप भगवान श्रीहरि में लोगों की प्रेममयी भक्ति हो, ऐसा निश्चय करके इसका वर्णन करो ॥ ५२ ॥
जो पुरुष भगवान की अचिन्त्य शक्ति माया का वर्णन या दूसरे के द्वारा किये हुए वर्णन का अनुमोदन करते हैं अथवा श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण करते हैं, उनका चित्त माया से कभी मोहित नहीं होता ॥ ५३ ॥


[1] ‘पुत्र’ शब्द का अर्थ ही है ‘पुत्’ नामक नरक से रक्षा करनेवाला।
[2] केशों के अवतार कह ने का अभिप्राय यह है कि पृथ्वी का भार उतार ने के लिये तो भगवान का एक केश ही काफी है । इसके अतिरिक्त श्रीबलरामजी और श्रीकृष्ण के वर्णों की सूचना दे ने के लिये भी उन्हें क्रमश: सफेद और काले केशों का अवतार कहा गया है। वस्तुत: श्रीकृष्ण तो पूर्णपुरुष स्वयं भगवान हैं—कृष्णस्तु भगवान स्वयम्।



स्कन्ध-02 [अध्याय-08]

॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥
राजोवाच
ब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन् गुणाख्यानेऽगुणस्य च ।
यस्मै यस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः ॥ १॥

एतद्वेदितुमिच्छामि तत्त्वं वेदविदां वर ।
हरेरद्भुतवीर्यस्य कथा लोकसुमङ्गलाः ॥ २॥

कथयस्व महाभाग यथाहमखिलात्मनि ।
कृष्णे निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम् ॥ ३॥

श‍ृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।
कालेन नातिदीर्घेण भगवान् विशते हृदि ॥ ४॥

प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम् ।
धुनोति शमलं कृष्णः सलिलस्य यथा शरत् ॥ ५॥

धौतात्मा पुरुषः कृष्णपादमूलं न मुञ्चति ।
मुक्तसर्वपरिक्लेशः पान्थः स्वशरणं यथा ॥ ६॥

यदधातुमतो ब्रह्मन् देहारम्भोऽस्य धातुभिः ।
यदृच्छया हेतुना वा भवन्तो जानते यथा ॥ ७॥

आसीद्यदुदरात्पद्मं लोकसंस्थानलक्षणम् ।
यावानयं वै पुरुष इयत्तावयवैः पृथक् ।
तावानसाविति प्रोक्तः संस्थावयववानिव ॥ ८॥

अजः सृजति भूतानि भूतात्मा यदनुग्रहात् ।
ददृशे येन तद्रूपं नाभिपद्मसमुद्भवः ॥ ९॥

स चापि यत्र पुरुषो विश्वस्थित्युद्भवाप्ययः ।
मुक्त्वाऽऽत्ममायां मायेशः शेते सर्वगुहाशयः ॥ १०॥

पुरुषावयवैर्लोकाः सपालाः पूर्वकल्पिताः ।
लोकैरमुष्यावयवाः सपालैरिति शुश्रुम ॥ ११॥

यावान् कल्पो विकल्पो वा यथा कालोऽनुमीयते ।
भूतभव्यभवच्छब्द आयुर्मानं च यत्सतः ॥ १२॥

कालस्यानुगतिर्या तु लक्ष्यतेऽण्वी बृहत्यपि ।
यावत्यः कर्मगतयो यादृशीर्द्विजसत्तम ॥ १३॥

यस्मिन् कर्मसमावायो यथा येनोपगृह्यते ।
गुणानां गुणिनां चैव परिणाममभीप्सताम् ॥ १४॥

भूपातालककुब्व्योम ग्रहनक्षत्रभूभृताम् ।
सरित्समुद्रद्वीपानां सम्भवश्चैतदोकसाम् ॥ १५॥

प्रमाणमण्डकोशस्य बाह्याभ्यन्तरभेदतः ।
महतां चानुचरितं वर्णाश्रमविनिश्चयः ॥ १६॥

युगानि युगमानं च धर्मो यश्च युगे युगे ।
अवतारानुचरितं यदाश्चर्यतमं हरेः ॥ १७॥

नृणां साधारणो धर्मः सविशेषश्च यादृशः ।
श्रेणीनां राजर्षीणां च धर्मः कृच्छ्रेषु जीवताम् ॥ १८॥

तत्त्वानां परिसङ्ख्यानं लक्षणं हेतुलक्षणम् ।
पुरुषाराधनविधिर्योगस्याध्यात्मिकस्य च ॥ १९॥

योगेश्वरैश्वर्यगतिर्लिङ्गभङ्गस्तु योगिनाम् ।
वेदोपवेदधर्माणामितिहासपुराणयोः ॥ २०॥

सम्प्लवः सर्वभूतानां विक्रमः प्रतिसङ्क्रमः ।
इष्टापूर्तस्य काम्यानां त्रिवर्गस्य च यो विधिः ॥ २१॥

यश्चानुशायिनां सर्गः पाखण्डस्य च सम्भवः ।
आत्मनो बन्धमोक्षौ च व्यवस्थानं स्वरूपतः ॥ २२॥

यथाऽऽत्मतन्त्रो भगवान् विक्रीडत्यात्ममायया ।
विसृज्य वा यथा मायामुदास्ते साक्षिवद्विभुः ॥ २३॥

सर्वमेतच्च भगवन् पृच्छते मेऽनुपूर्वशः ।
तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं प्रपन्नाय महामुने ॥ २४॥

अत्र प्रमाणं हि भवान् परमेष्ठी यथाऽऽत्मभूः ।
परे चेहानुतिष्ठन्ति पूर्वेषां पूर्वजैः कृतम् ॥ २५॥

न मेऽसवः परायन्ति ब्रह्मन्ननशनादमी ।
पिबतोऽच्युतपीयूषमन्यत्र कुपिताद्द्विजात् ॥ २६॥

सूत उवाच
स उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पतेः ।
ब्रह्मरातो भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि ॥ २७॥

प्राह भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
ब्रह्मणे भगवत्प्रोक्तं ब्रह्मकल्प उपागते ॥ २८॥

यद्यत्परीक्षिदृषभः पाण्डूनामनुपृच्छति ।
आनुपूर्व्येण तत्सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे ॥ २९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे प्रश्नविधिर्नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-आठवाँ अध्याय 
राजा परीक्षत् के ववध प्रश्र
राजा परीक्षित ने कहा—भगवन् ! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मैं आप से यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रह्माजी ने निर्गुण भगवान के गुणों का वर्णन करने के लिये नारदजी को आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किन को किस रूप में उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियों के आश्रय भगवान की कथाएँ ही लोगों का परम मङ्गल करनेवाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सब को भगवद्दर्शन कराने का स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥
महाभाग्यवान् शुकदेवजी ! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मन को सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण में तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ ॥ ३ ॥
जो लोग उनकी लीलाओं का श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदय में थोड़े ही समय में भगवान प्रकट हो जाते हैं ॥ ४ ॥
श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों के भावमय हृदयकमल पर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जल का गँदलापन मिटा देती है, वैसे ही वे भक्तों के मनोमल का नाश कर देते हैं ॥ ५ ॥
जिसका हृदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के चरणकमलों को एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ता—जैसे मार्ग के समस्त क्लेशों से छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घर को नहीं छोड़ता ॥ ६ ॥
भगवन् ! जीव का पञ्चभूतों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी इसका शरीर पञ्चभूतों से ही बनता है। तो क्या स्वभाव से ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारणवश—आप इस बात का मर्म पूर्णरीति से जानते हैं ॥ ७ ॥
(आपने बतलाया कि) भगवान की नाभि से वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकों की रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवों से जैसे परिच्छिन्न है, वैसे ही आपने परमात्मा को भी सीमित अवयवों से परिच्छिन्न-सा वर्णन किया (यह क्या बात है ?) ॥ ८ ॥
जिनकी कृपा से सर्वभूतमय ब्रह्माजी प्राणियों की सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमल से पैदा होने पर भी जिनकी कृपा से ही ये उनके रूप का दर्शन कर सके थे, वे संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के हेतु, सर्वान्तर्यामी और माया के स्वामी परमपुरुष परमात्मा अपनी माया का त्याग करके किस में किस रूप से शयन करते हैं ? ॥ ९-१० ॥
पहले आपने बतलाया था कि विराट् पुरुष के अङ्गों से लोक और लोकपालों की रचना हुई और फिर यह भी बतलाया कि लोक और लोकपालों के रूप में उसके अङ्गों की कल्पना हुई। इन दोनों बातों का तात्पर्य क्या है ? ॥ ११ ॥
महाकल्प और उनके अन्तर्गत अवान्तर कल्प कित ने हैं ? भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल का अनुमान किस प्रकार किया जाता है ? क्या स्थूल देहाभिमानी जीवों की आयु भी बँधी हुई है ॥ १२ ॥
ब्राह्मणश्रेष्ठ ! काल की सूक्ष्म गति त्रुटि आदि और स्थूल गति वर्ष आदि किस प्रकार से जानी जाती है ? विविध कर्मों से जीवों की कितनी और कैसी गतियाँ होती हैं ॥ १३ ॥
देव, मनुष्य आदि योनियाँ सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों के फल स्वरूप ही प्राप्त होती हैं। उन को चाहनेवाले जीवों में से कौन-कौन किस-किस योनि को प्राप्त करने के लिये किस-किस प्रकार से कौन-कौन कर्म स्वीकार करते हैं ? ॥ १४ ॥
पृथ्वी, पाताल, दिशा, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप और उनमें रहनेवाले जीवों की उत्पत्ति कैसे होती है ? ॥ १५ ॥
ब्रह्माण्ड का परिमाण भीतर और बाहर—दोनों प्रकार से बतलाइये। साथ ही महापुरुषों के चरित्र, वर्णाश्रम के भेद और उनके धर्म का निरूपण कीजिये ॥ १६ ॥
युगों के भेद, उनके परिमाण और उनके अलग-अलग धर्म तथा भगवान के विभिन्न अवतारों के परम आश्चर्यमय चरित्र भी बतलाइये ॥ १७ ॥
मनुष्यों के साधारण और विशेष धर्म कौन-कौन- से हैं ? विभिन्न व्यवसायवाले लोगोंके, राजर्षियों के और विपत्ति में पड़े हुए लोगों के धर्म का भी उपदेश कीजिये ॥ १८ ॥
तत्त्वों की संख्या कितनी है, उनके स्वरूप और लक्षण क्या हैं ? भगवान की आराधना की और अध्यात्मयोग की विधि क्या है ? ॥ १९ ॥
योगेश्वरों को क्या-क्या ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं, तथा अन्त में उन्हें कौन-सी गति मिलती है ? योगियों का लिङ्गशरीर किस प्रकार भङ्ग होता है ? वेद, उपवेद, धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराणों का स्वरूप एवं तात्पर्य क्या है ? ॥ २० ॥
समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कैसे होता है ? बावली, कुआँ खुदवाना आदि स्मात्र्त, यज्ञ-यागादि वैदिक, एवं काम्य कर्मों की तथा अर्थ-धर्म- काम के साधनों की विधि क्या है ? ॥ २१ ॥
प्रलय के समय जो जीव प्रकृति में लीन रहते हैं, उनकी उत्पत्ति कैसे होती है ? पाखण्ड की उत्पत्ति कैसे होती है ? आत्मा के बन्ध-मोक्ष का स्वरूप क्या है ? और वह अपने स्वरूप में किस प्रकार स्थित होता है ? ॥ २२ ॥
भगवान तो परम स्वतन्त्र हैं। वे अपनी माया से किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोडक़र साक्षी के समान उदासीन कैसे हो जाते हैं ? ॥ २३ ॥
भगवन् ! मैं यह सब आप से पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरण में हूँ। महामुने ! आप कृपा करके क्रमश: इनका तात्त्विक निरूपण कीजिये ॥ २४ ॥
इस विषय में आप स्वयम्भू ब्रह्मा के समान परम प्रमाण हैं। दूसरे लोग तो अपनी पूर्वपरम्परा से सुनी-सुनायी बातों का ही अनुष्ठान करते हैं ॥ २५ ॥
ब्रह्मन् आप मेरी भूख-प्यास की चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राह्मण के शाप के अतिरिक्त और किसी कारण से निकल नहीं सकते; क्योंकि मैं आपके मुखारविन्द से निकलनेवाली भगवान की अमृतमयी लीला- कथा का पान कर रहा हूँ ॥ २६ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित ने संतों की सभा में भगवान की लीलाष्ठञ्ज२/३४ (९४-९५) कथा सुनाने के लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ २७ ॥
उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत-महापुराण सुनाया, जो ब्राह्मकल्प के आरम्भ में स्वयं भगवान ने ब्रह्माजी को सुनाया था ॥ २८ ॥
पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित ने उनसे जो-जो प्रश्र किये थे, वे उन सब का उत्तर क्रमश: दे ने लगे ॥ २९ ॥

स्कन्ध-02 [अध्याय-09]

॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
श्रीशुक उवाच
आत्ममायामृते राजन् परस्यानुभवात्मनः ।
न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ॥ १॥

बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया ।
रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते ॥ २॥

यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः ।
रमेत गतसम्मोहस्त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम् ॥ ३॥

आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवान् ऋतम् ।
ब्रह्मणे दर्शयन् रूपमव्यलीकव्रतादृतः ॥ ४॥

स आदिदेवो जगतां परो गुरुः
स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।
तां नाध्यगच्छद्दृशमत्र सम्मतां
प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत् ॥ ५॥

स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भसि
उपाश‍ृणोद्द्विर्गदितं वचो विभुः ।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं
निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः ॥ ६॥

निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो
विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः ।
स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं
तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ॥ ७॥

दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो
जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः ।
अतप्यत स्माखिललोकतापनं
तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ॥ ८॥

तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः
सन्दर्शयामास परं न यत्परम् ।
व्यपेतसङ्क्लेशविमोहसाध्वसं
स्वदृष्टवद्भिः पुरुषैरभिष्टुतम् ॥ ९॥

प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः
सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रमः ।
न यत्र माया किमुतापरे हरेरनुव्रता
यत्र सुरासुरार्चिताः ॥ १०॥

श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः
पिशङ्गवस्त्राः सुरुचः सुपेशसः ।
सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि-
प्रवेकनिष्काभरणाः सुवर्चसः ।
प्रवालवैदूर्यमृणालवर्चसः
परिस्फुरत्कुण्डलमौलिमालिनः ॥ ११॥

भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते
लसद्विमानावलिभिर्महात्मनाम् ।
विद्योतमानः प्रमदोत्तमाद्युभिः
सविद्युदभ्रावलिभिर्यथा नभः ॥ १२॥

श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः
करोति मानं बहुधा विभूतिभिः ।
प्रेङ्खं श्रिता या कुसुमाकरानुगैः
विगीयमाना प्रियकर्म गायती ॥ १३॥

ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं
श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ।
सुनन्दनन्दप्रबलार्हणादिभिः
स्वपार्षदमुख्यैः परिसेवितं विभुम् ॥ १४॥

भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं
प्रसन्नहासारुणलोचनाननम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं
पीताम्बरं वक्षसि लक्षितं श्रिया ॥ १५॥

अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं
वृतं चतुःषोडशपञ्चशक्तिभिः ।
युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः
स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम् ॥ १६॥

तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुतान्तरो
हृष्यत्तनुः प्रेमभराश्रुलोचनः ।
ननाम पादाम्बुजमस्य विश्वसृग्-
यत्पारमहंस्येन पथाधिगम्यते ॥ १७॥

तं प्रीयमाणं समुपस्थितं तदा
प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम् ।
बभाष ईषत्स्मितशोचिषा गिरा
प्रियः प्रियं प्रीतमनाः करे स्पृशन् ॥ १८॥

श्रीभगवानुवाच
त्वयाहं तोषितः सम्यग्वेदगर्भ सिसृक्षया ।
चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम् ॥ १९॥

वरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम् ।
ब्रह्मञ्छ्रेयःपरिश्रामः पुंसो मद्दर्शनावधिः ॥ २०॥

मनीषितानुभावोऽयं मम लोकावलोकनम् ।
यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तपः ॥ २१॥

प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते ।
तपो मे हृदयं साक्षादात्माहं तपसोऽनघ ॥ २२॥

सृजामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः ।
बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्यं मे दुश्चरं तपः ॥ २३॥

ब्रह्मोवाच
भगवन् सर्वभूतानामध्यक्षोऽवस्थितो गुहाम् ।
वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम् ॥ २४॥

तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम् ।
परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिणः ॥ २५॥

यथाऽऽत्ममायायोगेन नानाशक्त्युपबृंहितम् ।
विलुम्पन् विसृजन् गृह्णन् बिभ्रदात्मानमात्मना ॥ २६॥

क्रीडस्यमोघसङ्कल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्णुते ।
तथा तद्विषयां धेहि मनीषां मयि माधव ॥ २७॥

भगवच्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतन्द्रितः ।
नेहमानः प्रजासर्गं बध्येयं यदनुग्रहात् ॥ २८॥

यावत्सखा सख्युरिवेश ते कृतः
प्रजाविसर्गे विभजामि भो जनम् ।
अविक्लवस्ते परिकर्मणि स्थितो
मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः ॥ २९॥

श्रीभगवानुवाच
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ३०॥

यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः ।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ३१॥

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ३२॥

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ ३३॥

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३४॥

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा ॥ ३५॥

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ॥ ३६॥

श्रीशुक उवाच
सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम् ।
पश्यतस्तस्य तद्रूपमात्मनो न्यरुणद्धरिः ॥ ३७॥

अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः ।
सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ॥ ३८॥

प्रजापतिर्धर्मपतिरेकदा नियमान् यमान् ।
भद्रं प्रजानामन्विच्छन्नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया ॥ ३९॥

तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः ।
शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ॥ ४०॥

मायां विविदिषन् विष्णोर्मायेशस्य महामुनिः ।
महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ॥ ४१॥

तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम् ।
देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति ॥ ४२॥

तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम् ।
प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत् ॥ ४३॥

नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप ।
ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासायामिततेजसे ॥ ४४॥

यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्पुरुषादिदम् ।
यथाऽऽसीत्तदुपाख्यास्ये प्रश्नानन्यांश्च कृत्स्नशः ॥ ४५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-नवाँ अध्याय 
ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान के द्वारा उन्हें चतु:श्लो की भागवत का उपदेश
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित ! जैसे स्वप्न में देखे जानेवाले पदार्थों के साथ उसे देखनेवाले का कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देहादि से अतीत अनुभव स्वरूप आत्मा का माया के बिना दृश्य पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ॥ १ ॥
विविध रूपवाली माया के कारण वह विविध रूपवाला प्रतीत होता है, और जब उसके गुणों में रम जाता है तब ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार मान ने लगता है ॥ २ ॥
किन्तु जब यह गुणों को क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली माया—इन दोनों से परे अपने अनन्त स्वरूप में मोहरहित होकर रमण करने लगता है—आत्माराम हो जाता है, तब यह ‘मैं, मेरा’ का भाव छोडक़र पूर्ण उदासीन—गुणातीत हो जाता है ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी- की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और आत्मतत्त्व के ज्ञान के लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तु का उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) ॥ ४ ॥
तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रह्माजी अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि करने की इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि व्यापार के लिये वाञ्छनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ॥ ५ ॥
एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यञ्जनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित ! महात्मालोग इस तप को ही त्यागियों का धन मानते हैं ॥ ६ ॥
यह सुनकर ब्रह्माजी ने वक्ता को देखने की इच्छा से चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमल पर बैठ गये और ‘मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चयकर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मन को तपस्या में लगा दिया ॥ ७ ॥
ब्रह्माजी तपस्वियों में सब से बड़े तपस्वी हैं। उनका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने उस समय एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्र चित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ हो सके ॥ ८ ॥
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सब से श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उसके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उसकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ९ ॥
वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इन से मिला हुआ सत्त्वगुण भी नहीं है। वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं ॥ १० ॥
उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर शतदल कमल के समान कोमल नेत्र और पीले रंग के वस्त्र से शोभायमान है। अङ्ग-अङ्ग से राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलता की मूर्ति हैं। सभी के चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान है। उनके कानों में कुण्डल, मस् तक पर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभाय- मान हैं ॥ ११ ॥
जिस प्रकार आकाश बिजलीसहित बादलों से शोभायमान होता है, वैसे ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थान पर सुशोभित होता रहता है ॥ १२ ॥
उस वैकुण्ठलोक में लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियों के द्वारा भगवान के चरणकमलों की अनेकों प्रकार से सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूले पर बैठकर अपने प्रियतम भगवान की लीलाओं का गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभि से उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजी का गुण-गान करने लगते हैं ॥ १३ ॥
ब्रह्माजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान विराजमान हैं। सुनन्द, नन्द, प्रबल और अहर्ण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभु की सेवा कर रहे हैं ॥ १४ ॥
उनका मुख-कमल प्रसाद-मधुर मुसकान से युक्त है। आँखों में लाल-लाल डोरियाँ हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्त को अपना सर्वस्व दे देंगे। सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कंधे पर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्ष:स्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं ॥ १५ ॥
वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसन पर विराजमान हैं। पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पञ्चभूत—ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: नित्य- सिद्ध स्वरूपभूत शक्तियों से वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूप से निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूप में ही नित्य-निरन्तर निमग्र रहते हैं ॥ १६ ॥
उनका दर्शन करते ही ब्रह्माजी का हृदय आनन्द के उद्रेक से लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रह्माजी ने भगवान के उन चरणकमलों में, जो परमहंसों के निवृत्तिमार्ग से प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ १७ ॥
ब्रह्माजी के प्यारे भगवान अपने प्रिय ब्रह्मा को प्रेम और दर्शन के आनन्द में निमग्र, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टि के लिये आदेश दे ने के योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रह्माजी से हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकान से अलंकृत वाणी में कहा— ॥ १८ ॥
श्रीभगवान ने कहा—ब्रह्माजी ! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है। तुम ने सृष्टिरचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भली-भाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मन में कपट रखकर योगसाधन करनेवाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते ॥ १९ ॥
तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझ से माँग लो। क्योंकि मैं मुँहमाँगी वस्तु दे ने में समर्थ हूँ। ब्रह्माजी ! जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम—पर्यवसान मेरे दर्शन में ही है ॥ २० ॥
तुम ने मुझे देखे बिना ही उस सू ने जल में मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है, इसीसे मेरी इच्छा से तुम्हें मेरे लोक का दर्शन हुआ है ॥ २१ ॥
तुम उस समय सृष्टिरचना का कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसीसे मैंने तुम्हें तपस्या करने की आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप ! तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्या का आत्मा हूँ ॥ २२ ॥
मैं तपस्या से ही इस संसार की सृष्टि करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लङ्घ्य शक्ति है ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी ने कहा—भगवन् ! आप समस्त प्राणियों के अन्त:करण में साक्षीरूप से विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ॥ २४ ॥
नाथ ! आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ ॥ २५ ॥
आप माया के स्वामी हैं, आपका सङ्कल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँह से जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी माया का आश्रय लेकर इस विविध- शक्तिसम्पन्न जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिये अपने आपको ही अनेक रूपों में बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार आप कैसे करते हैं—इस मर्म को मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये ॥ २६-२७ ॥
आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानी से आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान से बँध न जाऊँ ॥ २८ ॥
प्रभो ! आपने एक मित्र के समान हाथ पकडक़र मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अत: जब मैं आपकी इस सेवा—सृष्टि-रचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ॥ २९ ॥
श्रीभगवान ने कहा—अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनों से युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूप का ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो ॥ ३० ॥
मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जित ने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं—मेरी कृपा से तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ॥ ३१ ॥
सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ ३२ ॥
वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ॥ ३३ ॥
जैसे प्राणियों के पञ्चभूतरचित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पञ्चमहाभूत उन शरीरों के कार्यरूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारणरूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ॥ ३४ ॥
यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं—इस प्रकार निषेध की पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है—इस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्व स्वरूप भगवान ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जान ने की आवश्यकता है ॥ ३५ ॥
ब्रह्माजी ! तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस सिद्धान्त में पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे तुम्हें कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टिरचना करते रहने पर भी कभी मोह नहीं होगा ॥ ३६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—लोकपितामह ब्रह्माजी को इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूप को छिपा लिया ॥ ३७ ॥
जब सर्वभूत स्वरूप ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरूप को हमारे नेत्रों के सामने से हटा लिया है, तब उन्होंने अञ्जलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्प में जैसी सृष्टि थी, उसी रूप में इस विश्व की रचना की ॥ ३८ ॥
एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रह्माजी ने सारी जनता का कल्याण हो, अपने इस स्वार्थ की पूर्ति के लिये विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया ॥ ३९ ॥
उस समय उनके पुत्रों में सब से अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजी ने मायापति भगवान की माया का तत्त्व जान ने की इच्छा से बड़े संयम, विनय और सौम्यता से अनुगत होकर उनकी सेवा की। और उन्होंने सेवा से ब्रह्माजी को बहुत ही सन्तुष्ट कर लिया ॥ ४०-४१ ॥
परीक्षित ! जब देवर्षि नारद ने देखा कि मेरे लोकपितामह पिताजी मुझ पर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्र किया, जो तुम मुझ से कर रहे हो ॥ ४२ ॥
उनके प्रश्र से ब्रह्माजी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षणवाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया जिसका स्वयं भगवान ने उन्हें उपदेश किया था ॥ ४३ ॥
परीक्षित ! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वती के तट पर बैठकर परमात्मा के ध्यान में मग्र थे, उस समय देवर्षि नारदजी ने वही भागवत उन्हें सुनाया ॥ ४४ ॥ तुम ने मुझ से जो यह प्रश्र किया है कि विराट् पुरुष से इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई, तथा दूसरे भी जो बहुत- से प्रश्र किये हैं, उन सब का उत्तर मैं उसी भागवतपुराण के रूप में देता हूँ ॥ ४५ ॥

स्कन्ध-02 [अध्याय-10]

॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥
श्रीशुक उवाच
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥ १॥

दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् ।
वर्णयन्ति महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ॥ २॥

भूतमात्रेन्द्रियधियां जन्म सर्ग उदाहृतः ।
ब्रह्मणो गुणवैषम्याद्विसर्गः पौरुषः स्मृतः ॥ ३॥

स्थितिर्वैकुण्ठविजयः पोषणं तदनुग्रहः ।
मन्वन्तराणि सद्धर्म ऊतयः कर्मवासनाः ॥ ४॥

अवतारानुचरितं हरेश्चास्यानुवर्तिनाम् ।
सतामीशकथाः प्रोक्ता नानाऽऽख्यानोपबृंहिताः ॥ ५॥

निरोधोऽस्यानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः ।
मुक्तिर्हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ॥ ६॥

आभासश्च निरोधश्च यतश्चाध्यवसीयते ।
स आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥ ७॥

योऽध्यात्मिकोऽयं पुरुषः सोऽसावेवाधिदैविकः ।
यस्तत्रोभयविच्छेदः पुरुषो ह्याधिभौतिकः ॥ ८॥

एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे ।
त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः ॥ ९॥

पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदासौ स विनिर्गतः ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन्नपोऽस्राक्षीच्छुचिः शुचीः ॥ १०॥

तास्ववात्सीत्स्वसृष्टासु सहस्रपरिवत्सरान् ।
तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भवाः ॥ ११॥

द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यदुपेक्षया ॥ १२॥

एको नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात्समुत्थितः ।
वीर्यं हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत्त्रिधा ॥ १३॥

अधिदैवमथाध्यात्ममधिभूतमिति प्रभुः ।
यथैकं पौरुषं वीर्यं त्रिधाभिद्यत तच्छृणु ॥ १४॥

अन्तःशरीर आकाशात्पुरुषस्य विचेष्टतः ।
ओजः सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महानसुः ॥ १५॥

अनुप्राणन्ति यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु ।
अपानन्तमपानन्ति नरदेवमिवानुगाः ॥ १६॥

प्राणेन क्षिपता क्षुत्तृडन्तरा जायते प्रभोः ।
पिपासतो जक्षतश्च प्राङ्मुखं निरभिद्यत ॥ १७॥

मुखतस्तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्रोपजायते ।
ततो नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते ॥ १८॥

विवक्षोर्मुखतो भूम्नो वह्निर्वाग्व्याहृतं तयोः ।
जले चैतस्य सुचिरं निरोधः समजायत ॥ १९॥

नासिके निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।
तत्र वायुर्गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः ॥ २०॥

यदात्मनि निरालोकमात्मानं च दिदृक्षतः ।
निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिश्चक्षुर्गुणग्रहः ॥ २१॥

बोध्यमानस्य ऋषिभिरात्मनस्तज्जिघृक्षतः ।
कर्णौ च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुणग्रहः ॥ २२॥

वस्तुनो मृदुकाठिन्यलघुगुर्वोष्णशीतताम् ।
जिघृक्षतस्त्वङ् निर्भिन्ना तस्यां रोममहीरुहाः ।
तत्र चान्तर्बहिर्वातस्त्वचा लब्धगुणो वृतः ॥ २३॥

हस्तौ रुरुहतुस्तस्य नानाकर्मचिकीर्षया ।
तयोस्तु बलमिन्द्रश्च आदानमुभयाश्रयम् ॥ २४॥

गतिं जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।
पद्भ्यां यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः ॥ २५॥

निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्दामृतार्थिनः ।
उपस्थ आसीत्कामानां प्रियं तदुभयाश्रयम् ॥ २६॥

उत्सिसृक्षोर्धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम् ।
ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः ॥ २७॥

आसिसृप्सोः पुरः पुर्या नाभिद्वारमपानतः ।
तत्रापानस्ततो मृत्युः पृथक्त्वमुभयाश्रयम् ॥ २८॥

आदित्सोरन्नपानानामासन् कुक्ष्यन्त्रनाडयः ।
नद्यः समुद्राश्च तयोस्तुष्टिः पुष्टिस्तदाश्रये ॥ २९॥

निदिध्यासोरात्ममायां हृदयं निरभिद्यत ।
ततो मनस्ततश्चन्द्रः सङ्कल्पः काम एव च ॥ ३०॥

त्वक्चर्ममांसरुधिरमेदोमज्जास्थिधातवः ।
भूम्यप्तेजोमयाः सप्त प्राणो व्योमाम्बुवायुभिः ॥ ३१॥

गुणात्मकानीन्द्रियाणि भूतादिप्रभवा गुणाः ।
मनः सर्वविकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी ॥ ३२॥

एतद्भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया ।
मह्यादिभिश्चावरणैरष्टभिर्बहिरावृतम् ॥ ३३॥

अतः परं सूक्ष्मतममव्यक्तं निर्विशेषणम् ।
अनादिमध्यनिधनं नित्यं वाङ्मनसः परम् ॥ ३४॥

अमुनी भगवद्रूपे मया ते अनुवर्णिते ।
उभे अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे विपश्चितः ॥ ३५॥

स वाच्यवाचकतया भगवान् ब्रह्मरूपधृक् ।
नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः परः ॥ ३६॥

प्रजापतीन् मनून् देवान् ऋषीन् पितृगणान् पृथक् ।
सिद्धचारणगन्धर्वान् विद्याध्रासुरगुह्यकान् ॥ ३७॥

किन्नराप्सरसो नागान् सर्पान् किम्पुरुषोरगान् ।
मातॄरक्षःपिशाचांश्च प्रेतभूतविनायकान् ॥ ३८॥

कूष्माण्डोन्मादवेतालान् यातुधानान् ग्रहानपि ।
खगान् मृगान् पशून् वृक्षान् गिरीन् नृप सरीसृपान् ॥ ३९॥

द्विविधाश्चतुर्विधा येऽन्ये जलस्थलनभौकसः ।
कुशलाकुशला मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः ॥ ४०॥

सत्त्वं रजस्तम इति तिस्रः सुरनृनारकाः ।
तत्राप्येकैकशो राजन् भिद्यन्ते गतयस्त्रिधा ।
यदैकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव उपहन्यते ॥ ४१॥

स एवेदं जगद्धाता भगवान् धर्मरूपधृक् ।
पुष्णाति स्थापयन् विश्वं तिर्यङ् नरसुरादिभिः ॥ ४२॥

ततः कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टमिदमात्मनः ।
सन्नियच्छति कालेन घनानीकमिवानिलः ॥ ४३॥

इत्थम्भावेन कथितो भगवान् भगवत्तमः ।
नेत्थम्भावेन हि परं द्रष्टुमर्हन्ति सूरयः ॥ ४४॥

नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्यानुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययाऽऽरोपितं हि तत् ॥ ४५॥

अयं तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प उदाहृतः ।
विधिः साधारणो यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः ॥ ४६॥

परिमाणं च कालस्य कल्पलक्षणविग्रहम् ।
यथा पुरस्ताद्व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो श‍ृणु ॥ ४७॥

शौनक उवाच
यदाह नो भवान् सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः ।
चचार तीर्थानि भुवस्त्यक्त्वा बन्धून् सुदुस्त्यजान् ॥ ४८॥

कुत्र कौषारवेस्तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः ।
यद्वा स भगवांस्तस्मै पृष्टस्तत्त्वमुवाच ह ॥ ४९॥

ब्रूहि नस्तदिदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम् ।
बन्धुत्यागनिमित्तं च तथैवागतवान् पुनः ॥ ५०॥

सूत उवाच
राज्ञा परीक्षिता पृष्टो यदवोचन्महामुनिः ।
तद्वोऽभिधास्ये श‍ृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः ॥ ५१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे पुरुषसंस्तानुवर्णनं नाम
दशमोऽध्यायः ॥ १०॥

॥ इति द्वितीयस्कन्धः समाप्तः ॥
ॐ तत्सत् ॥ 

द्वितीय स्कन्ध-दसवाँ अध्याय 
भागवत के दस लक्षण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित ! इस भागवतपुराण में सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानु कथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय—इन दस विषयों का वर्णन है ॥ १ ॥
इनमें जो दसवाँ आश्रय-तत्त्व है, उसी का ठीक-ठीक निश्चय करने के लिये कहीं श्रुतिसे, कहीं तात्पर्य से और कहीं दोनों के अनुकूल अनुभव से महात्माओं ने अन्य नौ विषयों का बड़ी सुगम रीति से वर्णन किया है ॥ २ ॥
ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होकर रूपान्तर होने से जो आकाशादि पञ्चभूत, शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है, उस को ‘सर्ग’ कहते हैं। उस विराट् पुरुष से उत्पन्न ब्रह्माजी के द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियों का निर्माण होता है, उसका नाम है ‘विसर्ग’ ॥ ३ ॥
प्रतिपद नाश की ओर बढऩेवाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’ है। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तों के ऊ पर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम है ‘पोषण’। मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजा- पालनरूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसे ‘मन्वन्तर’ कहते हैं। जीवों की वे वासनाएँ, जो कर्म के द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं, ‘ऊति’ नाम से कही जाती हैं ॥ ४ ॥
भगवान के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त गाथाएँ ‘ईश कथा’ हैं ॥ ५ ॥
जब भगवान योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीव का अपनी उपाधियों के साथ उनमें लीन हो जाना ‘निरोध’ है। अज्ञानकल्पित कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनात्मभाव का परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा में स्थित होना ही ‘मुक्ति’ है ॥ ६ ॥
परीक्षित ! इस चराचर जगत की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्व से प्रकाशित होते हैं, वह परम ब्रह्म ही ‘आश्रय’ है। शास्त्रों में उसी को परमात्मा कहा गया है ॥ ७ ॥
जो नेत्र आदि इन्द्रियों का अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता सूर्य आदि के रूप में भी है और जो नेत्र गोलक आदि से युक्त दृश्य देह है, वही उन दोनों को अलग-अलग करता है ॥ ८ ॥
इन तीनों में यदि एक का भी अभाव हो जाय तो दूसरे दो की उपलब्धि नहीं हो सकती। अत: जो इन तीनों को जानता है, वह परमात्मा ही, सब का अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्त्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं ॥ ९ ॥
जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रह्माण्ड को फोडक़र निकला, तब वह अपने रहने का स्थान ढूँढ ने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्ध-सङ्कल्प पुरुष ने अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की ॥ १० ॥
विराट् पुरुषरूप ‘नर’ से उत्पन्न होने के कारण ही जल का नाम ‘नार’ पड़ा। और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’ में वह पुरुष एक हजार वर्षों तक रहा, इसीसे उसका नाम ‘नारायण’ हुआ ॥ ११ ॥
उन नारायणभगवान की कृपा से ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदि की सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देने पर और किसी का अस्तित्व नहीं रहता ॥ १२ ॥
उन अद्वितीय भगवान नारायण ने योगनिद्रा से जगकर अनेक होने की इच्छा की। तब अपनी माया से उन्होंने अखिल ब्रह्माण्ड के बीज स्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। परीक्षित ! विराट् पुरुष का एक ही वीर्य तीन भागों में कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो ॥ १३-१४ ॥
विराट् पुरुष के हिलने-डोलने पर उनके शरीर में रहनेवाले आकाश से इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सब का राजा प्राण उत्पन्न हुआ ॥ १५ ॥
जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सब के शरीरों में प्राण के प्रबल रहने पर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती हैं ॥ १६ ॥
जब प्राण जोर से आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुष को भूख-प्यास का अनुभव हुआ। खाने-पी ने की इच्छा करते ही सब से पहले उनके शरीर में मुख प्रकट हुआ ॥ १७ ॥
मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकार के रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है ॥ १८ ॥
जब उनकी इच्छा बोल ने की हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठातृ-देवता अग्रि और उनका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट हुए। इसके बाद बहुत दिनों तक उस जल में ही वे रु के रहे ॥ १९ ॥
श्वासके वेग से नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघ ने की इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्ध को फैलानेवाले वायुदेव प्रकट हुए ॥ २० ॥
पहले उनके शरीर में प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को देखने की इच्छा हुई, तब नेत्रों के छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हीं से रूप का ग्रहण होने लगा ॥ २१ ॥
जब वेदरूप ऋषि विराट् पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगा ने लगे, तब उन्हें सुनने की इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी अधिष्ठातृ-देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसीसे शब्द सुनायी पड़ता है ॥ २२ ॥
जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीर में चर्म प्रकट हुआ। पृथ्वी में से जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्म में रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहनेवाला वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करनेवाली त्वचा-इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीर में चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्श का अनुभव होने लगा ॥ २३ ॥
जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करने की इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उनके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों के आश्रय से होनेवाला ग्रहणरूप कर्म भी प्रकट हो गया ॥ २४ ॥
जब उन्हें अभीष्ट स्थान पर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणों के साथ ही चरण-इन्द्रिय के अधिष्ठातारूप में वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान विष्णु स्थित हो गये और उन्हीं में चलनारूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रिय से चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं ॥ २५ ॥
सन्तान, रति और स्वर्ग-भोग की कामना होने पर विराट् पुरुष के शरीर में लिङ्ग की उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनों के आश्रय रहनेवाले कामसुख का आविर्भाव हुआ ॥ २६ ॥
जब उन्हें मलत्याग की इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात उसमें पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनों के द्वारा मलत्याग की क्रिया सम्पन्न होती है ॥ २७ ॥
अपानमार्ग- द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने की इच्छा होने पर नाभिद्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनों के आश्रय से ही प्राण और अपान का बिछोह यानी मृत्यु होती है ॥ २८ ॥
जब विराट् पुरुष को अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा हुई, तब कोख, आँतें और नाडिय़ाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही कुक्षि के देवता समुद्र, नाडिय़ों के देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥
जब उन्होंने अपनी माया पर विचार करना चाहा, तब हृदय की उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मन से उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय कामना और सङ्कल्प प्रकट हुए ॥ ३० ॥
विराट् पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल और तेज से सात धातुएँ प्रकट हुर्ईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायु से प्राणों की उत्पत्ति हुई ॥ ३१ ॥
श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों को ग्रहण करनेवाली हैं। वे विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारों का उत्पत्तिस्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध करानेवाली है ॥ ३२ ॥
मैंने भगवान के इस स्थूलरूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहर की ओर से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन आठ आवरणों से घिरा हुआ है ॥ ३३ ॥
इससे परे भगवान का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्त से रहित एवं नित्य है। वाणी और मन की वहाँ तक पहुँच नहीं है ॥ ३४ ॥
मैंने तुम्हें भगवान के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान की माया के द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं करते ॥ ३५ ॥
वास्तव में भगवान निष्क्रिय हैं। अपनी शक्ति से ही वे सक्रिय बनते हैं। फिर तो वे ब्रह्मा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं ॥ ३६ ॥
परीक्षित ! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सराएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, ग्रह, पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि जित ने भी संसार में नाम-रूप हैं, सब भगवान के ही हैं ॥ ३७—३९ ॥
संसार में चर और अचर भेद से दो प्रकार के तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के जित ने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मों के तदनुरूप फल हैं ॥ ४० ॥
सत्त्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणों में भी जब एक गुण दूसरे दो गुणों से अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गति के तीन-तीन भेद और हो जाते हैं ॥ ४१ ॥
वे भगवान जगत के धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का पालन-पोषण करते हैं ॥ ४२ ॥
प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्रि स्वरूप रुद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते हैं, जैसे वायु मेघमाला को ॥ ४३ ॥
परीक्षित ! महात्माओं ने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान का इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्त्वज्ञानी पुरुषों को केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करनेवाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं ॥ ४४ ॥
सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापन का सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो माया से आरोपित होने के कारण कर्तृत्व का निषेध करने के लिये ही है ॥ ४५ ॥
यह मैंने ब्रह्माजी के महाकल्प का अवान्तर कल्पों के साथ वर्णन किया है। सब कल्पों में सृष्टि-क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्प के प्रारम्भ में प्रकृति से क्रमश: महत्तत्त्वादि की उत्पत्ति होती है और कल्पों के प्रारम्भ में प्राकृत सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियों की वैकृत सृष्टि नवीन रूप से होती है ॥ ४६ ॥
परीक्षित ! काल का परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरों का वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम पाद्मकल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो ॥ ४७ ॥
शौनकजी ने पूछा—सूतजी ! आपने हमलोगों से कहा था कि भगवान के परम भक्त विदुरजी ने अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोडक़र पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों में विचरण किया था ॥ ४८ ॥
उस यात्रा में मैत्रेय ऋषि के साथ अध्यात्म के सम्बन्ध में उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजी ने उनके प्रश्र करने पर किस तत्त्व का उपदेश किया ? ॥ ४९ ॥
सूतजी ! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ? ॥ ५० ॥
सूतजी ने कहा—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्रों के उत्तर में श्रीशुकदेवजी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही मैं आपलोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये ॥ ५१ ॥

श्री सद्गुरु महाराज की जय!