स्कन्ध-01 [अध्याय-01]

श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्र मङ्गलाचरण 

श्रीमद्भागवतम् प्रथमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः ॥
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्महृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ,
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥ १॥

धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ,
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥ २॥

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ,
पिबत भागवतं रसमालयं
मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥ ३॥

नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ;यः शौनकादयः ।
सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत ॥ ४॥

त एकदा तु मुनयः प्रातर्हुतहुताग्नयः ।
सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात् ॥ ५॥

ऋषय ऊचुः
त्वया खलु पुराणानि सेतिहासानि चानघ ।
आख्यातान्यप्यधीतानि धर्मशास्त्राणि यान्युत ॥ ६॥

यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान् बादरायणः ।
अन्ये च मुनयः सूत परावरविदो विदुः ॥ ७॥

वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्वं तत्त्वतस्तदनुग्रहात् ।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ८॥

तत्र तत्राञ्जसाऽऽयुष्मन् भवता यद्विनिश्चितम् ।
पुंसामेकान्ततः श्रेयस्तन्नः शंसितुमर्हसि ॥ ९॥

प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलावस्मिन् युगे जनाः ।
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ॥ १०॥

भूरीणि भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागशः ।
अतः साधोऽत्र यत्सारं समुद्धृत्य मनीषया ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां येनात्मा संप्रसीदति ॥ ११॥
सूत जानासि भद्रं ते भगवान् सात्वतां पतिः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातो यस्य चिकीर्षया ॥ १२॥

तन्नः शुश्रूषमाणानामर्हस्यङ्गानुवर्णितुम् ।
यस्यावतारो भूतानां क्षेमाय च भवाय च ॥ १३॥

आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद्बिभेति स्वयं भयम् ॥ १४॥

यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः प्रशमायनाः ।
सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया ॥ १५॥

को वा भगवतस्तस्य पुण्यश्लोकेड्यकर्मणः ।
शुद्धिकामो न श‍ृणुयाद्यशः कलिमलापहम् ॥ १६॥

तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि सूरिभिः ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां लीलया दधतः कलाः ॥ १७॥

अथाख्याहि हरेर्धीमन्नवतारकथाः शुभाः ।
लीला विदधतः स्वैरमीश्वरस्यात्ममायया ॥ १८॥

वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे ।
यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥ १९॥

कृतवान् किल वीर्याणि सह रामेण केशवः ।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः ॥ २०॥

कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन् वैष्णवे वयम् ।
आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः ॥ २१॥

त्वं नः सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् ।
कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ॥ २२॥

ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि ।
स्वां काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ॥ २३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-पहला अध्याय
श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्र मङ्गलाचरण
जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं—क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयंप्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिस ने उस वेदज्ञान का दान किया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जलका, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णत: मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं ॥ १ ॥
महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषों के जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है। अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदय में आकर बन्दी बन जाता है ॥ २ ॥
रसके मर्मज्ञ भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का प का हुआ फल है। श्रीशुकदेवरूप तोते के [यह प्रसिद्ध है कि तोते का काटा हुआ फल अधिक मीठा होता है|] मुख का सम्बन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है। इस फल में छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है। जब तक शरीर में चेतना रहे, तब तक इस दिव्य भगवद्-रस का निरन्तर बार-बार पान करते रहो। यह पृथ्वी पर ही सुलभ है ॥ ३ ॥

कथाप्रारम्भ

एक बार भगवान विष्णु एवं देवताओं के परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने भगवत्-प्राप्ति की इच्छा से सहस्र वर्षों में पूरे होनेवाले एक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया ॥ ४ ॥
एक दिन उन लोगों ने प्रात:काल अग्रिहोत्र आदि नित्यकृत्यों से निवृत्त होकर सूतजी का पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाकर बड़े आदर से यह प्रश्र किया ॥ ५ ॥
ऋषियों ने कहा—सूतजी ! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है ॥ ६ ॥
वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान बादरायण ने एवं भगवान के सगुण-निर्गुण रूप को जाननेवाले दूसरे मुनियों ने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसीसे आप उनकी कृपा और अनुग्रह के पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं ॥ ७-८ ॥
आयुष्मन् ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहज साधन आपने क्या निश्चय किया है ॥ ९ ॥
आप संत समाज के भूषण हैं। इस कलियुग में प्राय: लोगों की आयु कम हो गयी है। साधन करने में लोगों की रुचि और प्रवृत्ति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकार की विघ्र- बाधाओं से घिरे हुए भी रहते हैं ॥ १० ॥
शास्त्र भी बहुत- से हैं। परन्तु उनमें एक निश्चित साधन का नहीं, अनेक प्रकार के कर्मों का वर्णन है। साथ ही वे इत ने बड़े हैं कि उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धि से उनका सार निकालकर प्राणियों के परम कल्याण के लिये हम श्रद्धालुओं को सुनाइये, जिससे हमारे अन्त:करण की शुद्धि प्राप्त हो ॥ ११ ॥
प्यारे सूतजी ! आपका कल्याण हो। आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियों के रक्षक भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण वसुदेव की धर्मपत्नी देव की के गर्भ से क्या करने की इच्छा से अवतीर्ण हुए थे ॥ १२ ॥
हम उसे सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान का अवतार जीवों के परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी समृद्धि के लिये ही होता है ॥ १३ ॥
यह जीव जन्म-मृत्यु के घोर चक्र में पड़ा हुआ है—इस स्थिति में भी यदि वह कभी भगवान के मङ्गलमय नाम का उच्चारण कर ले तो उसी क्षण उससे मुक्त हो जाय; क्योंकि स्वयं भय भी भगवान से डरता रहता है ॥ १४ ॥
सूतजी ! परम विरक्त और परम शान्त मुनिजन भगवान के श्रीचरणों की शरण में ही रहते हैं, अतएव उनके स्पर्शमात्र से संसार के जीव तुरन्त पवित्र हो जाते हैं। इधर गङ्गाजी के जल का बहुत दिनों- तक सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है ॥ १५ ॥
ऐसे पुण्यात्मा भक्त जिनकी लीलाओं का गान करते रहते हैं, उन भगवान का कलिमलहारी पवित्र यश भला आत्मशुद्धि की इच्छा- वाला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो श्रवण न करे ॥ १६ ॥
वे लीला से ही अवतार धारण करते हैं। नारदादि महात्माओं ने उनके उदार कर्मों का गान किया है। हम श्रद्धालुओं के प्रति आप उनका वर्णन कीजिये ॥ १७ ॥
बुद्धिमान सूतजी ! सर्वसमर्थ प्रभु अपनी योग-माया से स्वच्छन्द लीला करते हैं। आप उन श्रीहरि की मङ्गलमयी अवतार- कथाओं का अब वर्णन कीजिये ॥ १८ ॥
पुण्यकीर्ति भगवान की लीला सुनने से हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि रसज्ञ श्रोताओं को पद-पद पर भगवान की लीलाओं में नये-नये रस का अनुभव होता है ॥ १९ ॥
भगवान श्रीकृष्ण अपने को छिपाये हुए थे, लोगों के सामने ऐसी चेष्टा करते थे मानो कोई मनुष्य हों। परन्तु उन्होंने बलरामजी के साथ ऐसी लीलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर सकते ॥ २० ॥
कलियुग को आया जानकर इस वैष्णवक्षेत्र में हम दीर्घकालीन सत्र का संकल्प करके बैठे हैं। श्रीहरि की कथा सुनने के लिये हमें अवकाश प्राप्त है ॥ २१ ॥
यह कलियुग अन्त:करण की पवित्रता और शक्ति का नाश करनेवाला है। इससे पार पाना कठिन है। जैसे समुद्र से पार जानेवालों को कर्णधार मिल जाय, उसी प्रकार इससे पार पाने की इच्छा रखनेवाले हमलोगों से ब्रह्माने आपको मिलाया है ॥ २२ ॥
धर्मरक्षक, ब्राह्मणभक्त, योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के अपने धाम में पधार जाने पर धर्म ने अब किस की शरण ली है—यह बताइये ॥ २३ ॥


[1] यह प्रसिद्ध है कि तोते का काटा हुआ फल अधिक मीठा होता है |

स्कन्ध-01 [अध्याय-02]

भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का माहात्म्य

॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥
व्यास उवाच
इति सम्प्रश्नसंहृष्टो विप्राणां रौमहर्षणिः ।
प्रतिपूज्य वचस्तेषां प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ १॥

सूत उवाच
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं
सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ २॥

यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक-
मध्यात्मदीपमतितितीर्षतां तमोऽन्धम् ।
संसारिणां करुणयाऽऽह पुराणगुह्यं
तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ॥ ३॥

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ४॥

मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्भिर्लोकमङ्गलम् ।
यत्कृतः कृष्णसम्प्रश्नो येनात्मा सुप्रसीदति ॥ ५॥

स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा संप्रसीदति ॥ ६॥

वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ७॥

धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः ।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ ८॥

धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥ ९॥

कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥ १०॥

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥ ११॥

तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया ।
पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्त्या श्रुतगृहीतया ॥ १२॥

अतः पुम्भिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम् ॥ १३॥

तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा ॥ १४॥

यदनुध्यासिना युक्ताः कर्मग्रन्थिनिबन्धनम् ।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात्कथारतिम् ॥ १५॥

शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेवकथारुचिः ।
स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥ १६॥

श‍ृण्वतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥ १७॥

नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।
भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ १८॥

तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्च ये ।
चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥ १९॥

एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः ।
भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते ॥ २०॥

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ २१॥

अतो वै कवयो नित्यं भक्तिं परमया मुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ॥ २२॥

सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तैः
युक्तः परमपूरुष एक इहास्य धत्ते ।
स्थित्यादये हरिविरिञ्चिहरेति संज्ञाः
श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोर्नृणां स्युः ॥ २३॥

पार्थिवाद्दारुणो धूमस्तस्मादग्निस्त्रयीमयः ।
तमसस्तु रजस्तस्मात्सत्त्वं यद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ २४॥

भेजिरे मुनयोऽथाग्रे भगवन्तमधोक्षजम् ।
सत्त्वं विशुद्धं क्षेमाय कल्पन्ते येऽनु तानिह ॥ २५॥

मुमुक्षवो घोररूपान् हित्वा भूतपतीनथ ।
नारायणकलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः ॥ २६॥

रजस्तमःप्रकृतयः समशीला भजन्ति वै ।
पितृभूतप्रजेशादीन् श्रियैश्वर्यप्रजेप्सवः ॥ २७॥

वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥ २८॥

वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥ २९॥

स एवेदं ससर्जाग्रे भगवानात्ममायया ।
सदसद्रूपया चासौ गुणमय्याऽगुणे विभुः ॥ ३०॥

तया विलसितेष्वेषु गुणेषु गुणवानिव ।
अन्तःप्रविष्ट आभाति विज्ञानेन विजृम्भितः ॥ ३१॥

यथा ह्यवहितो वह्निर्दारुष्वेकः स्वयोनिषु ।
नानेव भाति विश्वात्मा भूतेषु च तथा पुमान् ॥ ३२॥

असौ गुणमयैर्भावैर्भूतसूक्ष्मेन्द्रियात्मभिः ।
स्वनिर्मितेषु निर्विष्टो भुङ्क्ते भूतेषु तद्गुणान् ॥ ३३॥

भावयत्येष सत्त्वेन लोकान् वै लोकभावनः ।
लीलावतारानुरतो देवतिर्यङ्नरादिषु ॥ ३४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-दूसरा अध्याय
भगवत् कथा और भगवद्भक्ति का माहात्म्य
श्रीव्यासजी कहते हैं—शौनकादि ब्रह्मवादी ऋषियों के ये प्रश्र सुनकर रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियों के इस मङ्गलमय प्रश्र का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ॥ १ ॥

सूतजी ने कहा—जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकार ने लगे—‘बेटा ! बेटा !’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया। ऐसे सब के हृदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥
यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय— रहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत् स्वरूप का अनुभव करानेवाला और समस्त वेदों का सार है। संसार में फँ से हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये आध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है। वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके बड़े- बड़े मुनियों के आचार्य श्रीशुकदेवजी ने इसका वर्णन किया है। मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ३ ॥
मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ भगवान के अवतार नर-नारायण ऋषियों को, सरस्वती देवी को और श्रीव्यासदेवजी को नमस्कार करके तब संसार और अन्त:करण के समस्त विकारों पर विजय प्राप्त करानेवाले इस श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ करना चाहिये ॥ ४ ॥
ऋषियो ! आपने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये यह बहुत सुन्दर प्रश्र किया है; क्योंकि यह प्रश्र श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में है और इससे भलीभाँति आत्मशुद्धि हो जाती है ॥ ५ ॥
मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति हो—भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से हृदय आनन्द स्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है ॥ ६ ॥
भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है ॥ ७ ॥
धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला- कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है ॥ ८ ॥
धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ-प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिये है। भोगविलास उसका फल नहीं माना गया है ॥ ९ ॥
भोगविलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन- निर्वाह। जीवन का फल भी तत्त्वजिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है ॥ १० ॥
तत्त्ववेत्तालोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान के नाम से पुकारते हैं ॥ ११ ॥
श्रद्धालु मुनिजन भागवत-श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्ति से अपने हृदय में उसपर मतत्त्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं ॥ १२ ॥
शौनकादि ऋषियो ! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसी में है कि भगवान प्रसन्न हों ॥ १३ ॥
इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ॥ १४ ॥
कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है। विचारवान् पुरुष भगवान के चिन्तन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं। तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान की लीला कथा में प्रेम न करे ॥ १५ ॥
शौनकादि ऋषियो ! पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत्सेवा, तदनन्तर श्रवण की इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात भगवत्- कथा में रुचि होती है ॥ १६ ॥
भगवान श्रीकृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करनेवाले हैं। वे अपनी कथा सुननेवालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतों के नित्यसुहृद् हैं ॥ १७ ॥
जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्र- कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है ॥ १८ ॥
तब रजोगुण और तमोगुण के भाव—काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इन से रहित होकर सत्त्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है ॥ १९ ॥
इस प्रकार भगवान की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियाँ मिट जाती हैं, हृदय आनन्द से भर जाता है, तब भगवान के तत्त्व का अनुभव अपने-आप हो जाता है ॥ २० ॥
हृदय में आत्म स्वरूप भगवान का साक्षातकार होते ही हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है ॥ २१ ॥
इसीसे बुद्धिमान लोग नित्य- निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसाद की प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥
प्रकृति के तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र—ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करनेवाले श्रीहरि से ही होता है ॥ २३ ॥
जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्रि— क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादि के द्वारा अग्रि सद्गति देनेवाला है—वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान का दर्शन करानेवाला है ॥ २४ ॥
प्राचीन युग में महात्मालोग अपने कल्याण के लिये विशुद्ध सत्त्वमय भगवान विष्णु की ही आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हींके समान कल्याणभाजन होते हैं ॥ २५ ॥
जो लोग इस संसारसागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोररूपवाले—तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णुभगवान और उनके अंश—कलास्वरूपों का ही भजन करते हैं ॥ २६ ॥
परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और संतान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है ॥ २७ ॥
वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है ॥ २८ ॥
ज्ञान से ब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं ॥ २९ ॥
यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी मायासे, जो प्रपञ्च की दृष्टि से है और तत्त्व की दृष्टि से नहीं है—उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी ॥ ३० ॥
ये सत्त्व, रज और तम—तीनों गुण उसी माया के विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान इन से युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तव में तो वे परिपूर्ण विज्ञानानन्दघन हैं ॥ ३१ ॥
अग्रि तो वस्तुत: एक ही है, परंतु जब वह अनेक प्रकार की लकडिय़ों में प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सब के आत्मरूप भगवान तो एक ही हैं, परंतु प्राणियों की अनेकता से अनेक-जैसे जान पड़ते हैं ॥ ३२ ॥
भगवान ही सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्त:करण आदि गुणों के विकारभूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन-उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं ॥ ३३ ॥
वे ही सम्पूर्ण लोकों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं ॥ ३४ ॥

स्कन्ध-01 [अध्याय-03]

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन 

प्रथम स्कन्ध-तीसरा अध्याय
भगवान के अवतारों का वर्णन
श्रीसूतजी कहते हैं—सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत—ये सोलह कलाएँ थीं ॥ १ ॥
उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥ २ ॥
भगवान के उस विराट्रूप के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है ॥ ३ ॥
योगीलोग दिव्यदृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण हैं; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है ॥ ४ ॥
भगवान का यही पुरुषरूप, जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसीसे सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है ॥ ५ ॥
उन्हीं प्रभु ने पहले कौमारसर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया ॥ ६ ॥
दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल ला ने के विचार से सूकररूप ग्रहण किया ॥ ७ ॥
ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र का (जिसे ‘नारद-पाञ्चरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ॥ ८ ॥
धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ॥ ९ ॥
पाँचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्त्वों का निर्णय करनेवाले सांख्य- शास्त्रका, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया ॥ १० ॥
अनसूया के वर माँगने पर छठे अवतार में वे अत्रि की सन्तान—दत्तात्रेय हुए। इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया ॥ ११ ॥
सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की ॥ १२ ॥
राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वन्दनीय है, दिखाया ॥ १३ ॥
ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियो ! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार सब के लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ॥ १४ ॥
चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलो की समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की ॥ १५ ॥
जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छपरूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया ॥ १६ ॥
बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनीरूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया ॥ १७ ॥
चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंहरूप धारण किया और अत्यन्त बलवान् दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनानेवाला सींक को चीर डालता है ॥ १८ ॥
पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलो की का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ॥ १९ ॥
सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजालोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया ॥ २० ॥
इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यासके रूप में अवतीर्ण हुए। उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं ॥ २१ ॥
अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतु-बन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ॥ २२ ॥
उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा ॥ २३ ॥
उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगधदेश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा ॥ २४ ॥
इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजालोग प्राय: लुटेरे हो जायँगे, तब जगत के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे[1] ॥ २५ ॥
शौनकादि ऋषियो ! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं ॥ २६ ॥
ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जित ने भी महान शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं ॥ २७ ॥
ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं ॥ २८ ॥
भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय—रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्र चित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रात:काल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दु:खों से छूट जाता है ॥ २९ ॥
प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है ॥ ३० ॥
जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर- पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरप ने का वायु में आरोप करते हैं—वैसे ही अविवे की पुरुष सब के साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत का आरोप करते हैं ॥ ३१ ॥
इस स्थूल रूप से परे भगवान का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्म-शरीर है। आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसी का बार-बार जन्म होता है ॥ ३२ ॥
उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित है। जिस अवस्था में आत्म स्वरूप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्म का साक्षातकार होता है ॥ ३३ ॥
तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर की माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है ॥ ३४ ॥
वास्तव में जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं ॥ ३५ ॥
भगवान की लीला अमोघ है। वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियों के अन्त:करण में छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं—ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते ॥ ३६ ॥
जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत- सी तर्क युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता ॥ ३७ ॥
चक्रपाणि भगवान की शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं—उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत के निर्माता होने पर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है—सेवा-भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है ॥ ३८ ॥
शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्र-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पडऩा होता ॥ ३९ ॥
भगवान वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है ॥ ४० ॥
उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान पुराण को लोगों के परम कल्याण के लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया ॥ ४१ ॥
इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को यह सुनाया ॥ ४२ ॥
उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गङ्गातट पर बैठे हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परमधाम को पधार गये, तब इस कलियुग में जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकार से अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियो ! जब महा- तेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार इस को ग्रहण किया है, उसी के अनुसार इसे मैं आपलोगों को सुनाऊँगा ॥ ४३—४५ ॥


[1] यहाँ बाईस अवतारों की गणना की गयी है, परंतु भगवान के चौबीस अवतार प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वान् चौबीस की संख्या यों पूर्ण करते हैं—राम-कृष्ण के अतिरिक्त बीस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; शेष चार अवतार श्रीकृष्ण के ही अंश हैं। स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण परमेश्वर हैं; वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। अत: श्रीकृष्ण को अवतारों की गणना में नहीं गिनते। उनके चार अंश ये हैं—एक तो केश का अवतार, दूसरा सुतपा तथा पृश्रपिर कृपा करनेवाला अवतार, तीसरा संकर्षण-बलराम और चौथा परब्रह्म। इस प्रकार इन चार अवतारों से विशिष्ट पाँचवें साक्षात भगवान वासुदेव हैं। दूसरे विद्वान् ऐसा मानते हैं कि बाईस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; इनके अतिरिक्त दो और हैं—हंस और हयग्रीव।



प्रथम स्कन्ध-तीसरा अध्याय 45
भगवान्‌के अवतारोंका वर्णन
श्रीसूतजी कहते हैं—सृष्टिके आदिमें भगवान्‌ने लोकोंके निर्माणकी इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदिसे निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत—ये सोलह कलाएँ थीं ॥ १ ॥
उन्होंने कारण-जलमें शयन करते हुए जब योगनिद्राका विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवरमेंसे एक कमल प्रकट हुआ और उस कमलसे प्रजापतियोंके अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥ २ ॥
भगवान्‌के उस विराट्रूपके अङ्ग-प्रत्यङ्गमें ही समस्त लोकोंकी कल्पना की गयी है, वह भगवान्‌का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है ॥ ३ ॥
योगीलोग दिव्यदृष्टिसे भगवान्‌के उस रूपका दर्शन करते हैं। भगवान्‌का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखोंके कारण अत्यन्त विलक्षण हैं; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणोंसे वह उल्लसित रहता है ॥ ४ ॥
भगवान्‌का यही पुरुषरूप, जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारोंका अक्षय कोष है—इसीसे सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूपके छोटे-से-छोटे अंशसे देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियोंकी सृष्टि होती है ॥ ५ ॥
उन्हीं प्रभुने पहले कौमारसर्गमें सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—इन चार ब्राह्मणोंके रूपमें अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन किया ॥ ६ ॥
दूसरी बार इस संसारके कल्याणके लिये समस्त यज्ञोंके स्वामी उन भगवान्‌ने ही रसातलमें गयी हुई पृथ्वीको निकाल लानेके विचारसे सूकररूप ग्रहण किया ॥ ७ ॥
ऋषियोंकी सृष्टिमें उन्होंने देवर्षि नारदके रूपमें तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्रका (जिसे ‘नारद-पाञ्चरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मोंके द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धनसे मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ॥ ८ ॥
धर्मपत्नी मूर्तिके गर्भसे उन्होंने नर-नारायणके रूपमें चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियोंका सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ॥ ९ ॥
पाँचवें अवतारमें वे सिद्धोंके स्वामी कपिलके रूपमें प्रकट हुए और तत्त्वोंका निर्णय करनेवाले सांख्य- शास्त्रका, जो समयके फेरसे लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मणको उपदेश किया ॥ १० ॥
अनसूयाके वर माँगनेपर छठे अवतारमें वे अत्रिकी सन्तान—दत्तात्रेय हुए। इस अवतारमें उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदिको ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया ॥ ११ ॥
सातवीं बार रुचि प्रजापतिकी आकूति नामक पत्नीसे यज्ञके रूपमें उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओंके साथ स्वायम्भुव मन्वन्तरकी रक्षा की ॥ १२ ॥
राजा नाभिकी पत्नी मेरु देवीके गर्भसे ऋषभदेवके रूपमें भगवान्‌ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूपमें उन्होंने परमहंसोंका वह मार्ग, जो सभी आश्रमियोंके लिये वन्दनीय है, दिखाया ॥ १३ ॥
ऋषियोंकी प्रार्थनासे नवीं बार वे राजा पृथुके रूपमें अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियो ! इस अवतारमें उन्होंने पृथ्वीसे समस्त ओषधियोंका दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ॥ १४ ॥
चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें जब सारी त्रिलोकी समुद्रमें डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्यके रूपमें दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौकापर बैठाकर अगले मन्वन्तरके अधिपति वैवस्वत मनुकी रक्षा की ॥ १५ ॥
जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छपरूपसे भगवान्‌ने मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ॥ १६ ॥
बारहवीं बार धन्वन्तरिके रूपमें अमृत लेकर समुद्रसे प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंको मोहित करते हुए देवताओंको अमृत पिलाया ॥ १७ ॥
चौदहवें अवतारमें उन्होंने नरसिंहरूप धारण किया और अत्यन्त बलवान् दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी छाती अपने नखोंसे अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनानेवाला सींकको चीर डालता है ॥ १८ ॥
पंद्रहवीं बार वामनका रूप धारण करके भगवान्‌ दैत्यराज बलिके यज्ञमें गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकीका राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ॥ १९ ॥
सोलहवें परशुराम अवतारमें जब उन्होंने देखा कि राजालोग ब्राह्मणोंके द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे शून्य कर दिया ॥ २० ॥
इसके बाद सत्रहवें अवतारमें सत्यवतीके गर्भसे पराशरजीके द्वारा वे व्यासके रूपमें अवतीर्ण हुए। उस समय लोगोंकी समझ और धारणाशक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्षकी कई शाखाएँ बना दीं ॥ २१ ॥
अठारहवीं बार देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेकी इच्छासे उन्होंने राजाके रूपमें रामावतार ग्रहण किया और सेतु-बन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ॥ २२ ॥
उन्नीसवें और बीसवें अवतारोंमें उन्होंने यदुवंशमें बलराम और श्रीकृष्णके नामसे प्रकट होकर पृथ्वीका भार उतारा ॥ २३ ॥
उसके बाद कलियुग आ जानेपर मगधदेश (बिहार) में देवताओंके द्वेषी दैत्योंको मोहित करनेके लिये अजनके पुत्ररूपमें आपका बुद्धावतार होगा ॥ २४ ॥
इसके भी बहुत पीछे जब कलियुगका अन्त समीप होगा और राजालोग प्राय: लुटेरे हो जायँगे, तब जगत्के रक्षक भगवान्‌ विष्णुयश नामक ब्राह्मणके घर कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे[1] ॥ २५ ॥
शौनकादि ऋषियो ! जैसे अगाध सरोवरसे हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान्‌ श्रीहरिके असंख्य अवतार हुआ करते हैं ॥ २६ ॥
ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान्‌के ही अंश हैं ॥ २७ ॥
ये सब अवतार तो भगवान्‌के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान्‌ (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्योंके अत्याचारसे व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युगमें अनेक रूप धारण करके भगवान्‌ उनकी रक्षा करते हैं ॥ २८ ॥
भगवान्‌के दिव्य जन्मोंकी यह कथा अत्यन्त गोपनीय—रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्र चित्तसे नियमपूर्वक सायंकाल और प्रात:काल प्रेमसे इसका पाठ करता है, वह सब दु:खोंसे छूट जाता है ॥ २९ ॥
प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान्‌का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी मायाके महत्तत्त्वादि गुणोंसे भगवान्‌में ही कल्पित है ॥ ३० ॥
जैसे बादल वायुके आश्रय रहते हैं और धूसर- पना धूलमें होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलोंका आकाशमें और धूसरपनेका वायुमें आरोप करते हैं—वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मामें स्थूल दृश्यरूप जगत्का आरोप करते हैं ॥ ३१ ॥
इस स्थूल रूपसे परे भगवान्‌का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूलकी तरह आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुननेमें ही आ सकता है; वही सूक्ष्म-शरीर है। आत्माका आरोप या प्रवेश होनेसे यही जीव कहलाता है और इसीका बार-बार जन्म होता है ॥ ३२ ॥
उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्यासे ही आत्मामें आरोपित है। जिस अवस्थामें आत्मस्वरूपके ज्ञानसे यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्मका साक्षात्कार होता है ॥ ३३ ॥
तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वरकी माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमामें प्रतिष्ठित होता है ॥ ३४ ॥
वास्तवमें जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान्‌के अप्राकृत जन्म और कर्मोंका तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदोंके अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं ॥ ३५ ॥
भगवान्‌की लीला अमोघ है। वे लीलासे ही इस संसारका सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियोंके अन्त:करणमें छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मनके नियन्ताके रूपमें उनके विषयोंको ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं—ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते ॥ ३६ ॥
जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नटके संकल्प और वचनोंसे की हुई करामातको नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणीके द्वारा भगवान्‌के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपोंको तथा उनकी लीलाओंको कुबुद्धि जीव बहुत- सी तर्क युक्तियोंके द्वारा नहीं पहचान सकता ॥ ३७ ॥
चक्रपाणि भगवान्‌की शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं—उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत्के निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूपको अथवा उनकी लीलाके रहस्यको वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भावसे उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन करता है—सेवा-भावसे उनके चरणोंका चिन्तन करता रहता है ॥ ३८ ॥
शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवनमें और विघ्र-बाधाओंसे भरे इस संसारमें समस्त लोकोंके स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसारके भयंकर चक्रमें नहीं पडऩा होता ॥ ३९ ॥
भगवान्‌ वेदव्यासने यह वेदोंके समान भगवच्चरित्रसे परिपूर्ण भागवत नामका पुराण बनाया है ॥ ४० ॥
उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराणको लोगोंके परम कल्याणके लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्रको ग्रहण कराया ॥ ४१ ॥
इसमें सारे वेद और इतिहासोंका सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌को यह सुनाया ॥ ४२ ॥
उस समय वे परमर्षियोंसे घिरे हुए आमरण अनशनका व्रत लेकर गङ्गातटपर बैठे हुए थे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदिके साथ अपने परमधामको पधार गये, तब इस कलियुगमें जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकारसे अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियो ! जब महा- तेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराणकी कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमतिसे इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धिने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसीके अनुसार इसे मैं आपलोगोंको सुनाऊँगा ॥ ४३—४५ ॥


[1] यहाँ बाईस अवतारोंकी गणना की गयी है, परंतु भगवान्‌के चौबीस अवतार प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वान् चौबीसकी संख्या यों पूर्ण करते हैं—राम-कृष्णके अतिरिक्त बीस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; शेष चार अवतार श्रीकृष्णके ही अंश हैं। स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण परमेश्वर हैं; वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। अत: श्रीकृष्णको अवतारोंकी गणनामें नहीं गिनते। उनके चार अंश ये हैं—एक तो केशका अवतार, दूसरा सुतपा तथा पृश्रपिर कृपा करनेवाला अवतार, तीसरा संकर्षण-बलराम और चौथा परब्रह्म। इस प्रकार इन चार अवतारोंसे विशिष्ट पाँचवें साक्षात् भगवान्‌ वासुदेव हैं। दूसरे विद्वान् ऐसा मानते हैं कि बाईस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; इनके अतिरिक्त दो और हैं—हंस और हयग्रीव।



स्कन्ध-01 [अध्याय-04]

महर्षि व्यास का असन्तोष 

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥
व्यास उवाच
इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्धः कुलपतिः सूतं बह्वृचः शौनकोऽब्रवीत् ॥ १॥

शौनक उवाच
सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां भागवतीं पुण्यां यदाह भगवाञ्छुकः ॥ २॥

कस्मिन् युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना ।
कुतः सञ्चोदितः कृष्णः कृतवान् संहितां मुनिः ॥ ३॥

तस्य पुत्रो महायोगी समदृङ्निर्विकल्पकः ।
एकान्तमतिरुन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ॥ ४॥

दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं
देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम् ।
तद्वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति
स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ॥ ५॥

कथमालक्षितः पौरैः सम्प्राप्तः कुरुजाङ्गलान् ।
उन्मत्तमूकजडवद्विचरन् गजसाह्वये ॥ ६॥

कथं वा पाण्डवेयस्य राजर्षेर्मुनिना सह ।
संवादः समभूत्तात यत्रैषा सात्वती श्रुतिः ॥ ७॥

स गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
अवेक्षते महाभागस्तीर्थीकुर्वंस्तदाश्रमम् ॥ ८॥

अभिमन्युसुतं सूत प्राहुर्भागवतोत्तमम् ।
तस्य जन्म महाश्चर्यं कर्माणि च गृणीहि नः ॥ ९॥

स सम्राट् कस्य वा हेतोः पाण्डूनां मानवर्धनः ।
प्रायोपविष्टो गङ्गायामनादृत्याधिराट् श्रियम् ॥ १०॥

नमन्ति यत्पादनिकेतमात्मनः
शिवाय हानीय धनानि शत्रवः ।
कथं स वीरः श्रियमङ्ग दुस्त्यजां
युवैषतोत्स्रष्टुमहो सहासुभिः ॥ ११॥

शिवाय लोकस्य भवाय भूतये
य उत्तमश्लोकपरायणा जनाः ।
जीवन्ति नात्मार्थमसौ पराश्रयं
मुमोच निर्विद्य कुतः कलेवरम् ॥ १२॥

तत्सर्वं नः समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् ॥ १३॥

सूत उवाच
द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये ।
जातः पराशराद्योगी वासव्यां कलया हरेः ॥ १४॥

स कदाचित्सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचिः ।
विविक्तदेश आसीन उदिते रविमण्डले ॥ १५॥

परावरज्ञः स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगे युगे ॥ १६॥

भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान् निःसत्त्वान् दुर्मेधान् ह्रसितायुषः ॥ १७॥

दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद्दध्यौ हितममोघदृक् ॥ १८॥

चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद्यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं चतुर्विधम् ॥ १९॥

ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः ।
इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥ २०॥

तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः ।
वैशम्पायन एवैको निष्णातो यजुषामुत ॥ २१॥

अथर्वाङ्गिरसामासीत्सुमन्तुर्दारुणो मुनिः ।
इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः ॥ २२॥

त एत ऋषयो वेदं स्वं स्वं व्यस्यन्ननेकधा ।
शिष्यैः प्रशिष्यैस्तच्छिष्यैर्वेदास्ते शाखिनोऽभवन् ॥ २३॥

त एव वेदा दुर्मेधैर्धार्यन्ते पुरुषैर्यथा ।
एवं चकार भगवान् व्यासः कृपणवत्सलः ॥ २४॥

स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥ २५॥

एवं प्रवृत्तस्य सदा भूतानां श्रेयसि द्विजाः ।
सर्वात्मकेनापि यदा नातुष्यद्धृदयं ततः ॥ २६॥

नातिप्रसीदद्धृदयः सरस्वत्यास्तटे शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं चोवाच धर्मवित् ॥ २७॥

धृतव्रतेन हि मया छन्दांसि गुरवोऽग्नयः ।
मानिता निर्व्यलीकेन गृहीतं चानुशासनम् ॥ २८॥

भारतव्यपदेशेन ह्याम्नायार्थश्च दर्शितः ।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्रीशूद्रादिभिरप्युत ॥ २९॥

तथापि बत मे दैह्यो ह्यात्मा चैवात्मना विभुः ।
असम्पन्न इवाभाति ब्रह्मवर्चस्यसत्तमः ॥ ३०॥

किं वा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिताः ।
प्रियाः परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रियाः ॥ ३१॥

तस्यैवं खिलमात्मानं मन्यमानस्य खिद्यतः ।
कृष्णस्य नारदोऽभ्यागादाश्रमं प्रागुदाहृतम् ॥ ३२॥

तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनिः ।
पूजयामास विधिवन्नारदं सुरपूजितम् ॥ ३३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-चौथा अध्याय
महर्षि व्यास का असन्तोष
व्यासजी कहते हैं—उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्या-वयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ॥ १ ॥
शौनकजी बोले—सूतजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं। जो कथा भगवान श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ॥ २ ॥
वह कथा किस युग में, किस स्थान पर और किस कारण से हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन ने किस की प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था ? ॥ ३ ॥
उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभाव-रहित, संसार-निद्रा से जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थित रहते हैं। वे छिपे रहने के कारण मूढ़- से प्रतीत होते हैं ॥ ४ ॥
व्यासजी जब संन्यासके लिये वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करनेवाली स्त्रियों ने नंगे शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परन्तु वस्त्र पह ने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिये थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यासजी ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परन्तु आपके पुत्र की शुद्ध दृष्टि में यह भेद नहीं है’ ॥ ५ ॥
कुरुजाङ्गल देश में पहुँचकर हस्तिनापुर में वे पागल, गूँगे तथा जड के समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना ? ॥ ६ ॥
पाण्डवनन्दन राजर्षि परीक्षित का इन मौनी शुकदेवजी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवतसंहिता कही गयी ? ॥ ७ ॥
महाभाग श्रीशुकदेवजी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थ स्वरूप बना दे ने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं, जितनी देर में एक गाय दुही जाती है ॥ ८ ॥
सूतजी ! हम ने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परीक्षित भगवान के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मों का भी वर्णन कीजिये ॥ ९ ॥
वे तो पाण्डववंश के गौरव बढ़ानेवाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारण से साम्राज्यलक्ष्मी का परित्याग करके गङ्गातट पर मृत्यु-पर्यन्त अनशन का व्रत लेकर बैठे थे ? ॥ १० ॥
शत्रुगण अपने भले के लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखने की चौ की को नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मी को, अपने प्राणों के साथ भला, क्यों त्याग दे ने की इच्छा की ॥ ११ ॥
जिन लोगों का जीवन भगवान के आश्रित है, वे तो संसार के परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धि के लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरों के हित के लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया ॥ १२ ॥
वेदवाणी को छोडक़र अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूतजी ! इसलिये इस समय जो कुछ हम ने आप से पूछा है, वह सब कृपा करके हमें कहिये ॥ १३ ॥
सूतजी ने कहा—इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वा पर में महर्षि पराशर के द्वारा वसु-कन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के कलावतार योगिराज व्यासजी का जन्म हुआ ॥ १४ ॥
एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थान पर बैठे हुए थे ॥ १५ ॥
महर्षि भूत और भविष्य को जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिस को लोग जान नहीं पाते, ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्मसङ्करता और उसके प्रभाव से भौतिक वस्तुओं की भी शक्ति का ह्रास होता रहता है। संसार के लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगों की इस भाग्यहीनता को देखकर उन मुनीश्वर ने अपनी दिव्यदृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इस पर विचार किया ॥ १६—१८ ॥
उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुहर्होत्र[1] कर्म लोगों का हृदय शुद्ध करनेवाला है। इस दृष्टि से यज्ञों का विस्तार करने के लिये उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये ॥ १९ ॥
व्यासजी के द्वारा ऋक्, यजु:, साम और अथर्व—इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण) हुआ। इतिहास और पुराणों को पाँचवाँ वेद कहा जाता है ॥ २० ॥
उनमें से ऋग्वेद के पैल, साम-गान के विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्ना तक वैशम्पायन हुए ॥ २१ ॥
अथर्ववेद में प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि। इतिहास और पुराणों के स्ना तक मेरे पिता रोमहर्षण थे ॥ २२ ॥
इन पूर्वोक्त ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा को और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्यों द्वारा वेदों की बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं ॥ २३ ॥
कम समझवाले पुरुषों पर कृपा करके भगवान वेदव्यास ने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया—कि जिन लोगों को स्मरणशक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदों को धारण कर सकें ॥ २४ ॥
स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति—तीनों ही वेद-श्रवण के अधिकारी नहीं हैं। इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मों के आचरण में भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजी ने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहास की रचना की ॥ २५ ॥
शौनकादि ऋषियो ! यद्यपि व्यासजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा-सर्वदा प्राणियों के कल्याण में ही लगे रहे, तथापि उनके हृदय को सन्तोष नहीं हुआ ॥ २६ ॥
उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कह ने लगे— ॥ २७ ॥
‘मैंने निष्कपट भाव से ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्रियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया है ॥ २८ ॥
महाभारत की रचना के बहा ने मैंने वेद के अर्थ को खोल दिया है—जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने- अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं ॥ २९ ॥
यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है ॥ ३० ॥
अवश्य ही अब तक मैंने भगवान को प्राप्त करानेवाले धर्मों का प्राय: निरूपण नहीं किया है। वे ही धर्म परमहंसों को प्रिय हैं और वे ही भगवान को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णता का यही कारण है)’ ॥ ३१ ॥
श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास इस प्रकार अपने को अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रम पर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे ॥ ३२ ॥
उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओं के द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की ॥ ३३ ॥


[1] होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—ये चार होता हैं। इनके द्वारा सम्पादित होनेवाले अग्रिष्टोमादि यज्ञ को चातुर्होत्र कहते हैं।



स्कन्ध-01 [अध्याय-05]

भगवान्‌ के यश-कीर्तन की महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्वचरित्र 

॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
अथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छ्रवाः ।
देवर्षिः प्राह विप्रर्षिं वीणापाणिः स्मयन्निव ॥ १॥

नारद उवाच
पाराशर्य महाभाग भवतः कच्चिदात्मना ।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ॥ २॥

जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदद्भुतम् ।
कृतवान् भारतं यस्त्वं सर्वार्थपरिबृंहितम् ॥ ३॥

जिज्ञासितमधीतं च यत्तद्ब्रह्म सनातनम् ।
अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो ॥ ४॥

व्यास उवाच
अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते मे ।
तन्मूलमव्यक्तमगाधबोधं
पृच्छामहे त्वात्मभवात्मभूतम् ॥ ५॥

स वै भवान् वेद समस्तगुह्यमुपासितो
यत्पुरुषः पुराणः ।
परावरेशो मनसैव विश्वं
सृजत्यवत्यत्ति गुणैरसङ्गः ॥ ६॥

त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीमन्तश्चरो
वायुरिवात्मसाक्षी ।
परावरे ब्रह्मणि धर्मतो व्रतैः
स्नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व ॥ ७॥

श्रीनारद उवाच
भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम् ।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं खिलम् ॥ ८॥

यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः ।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्यनुवर्णितः ॥ ९॥

न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा
न यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षयाः ॥ १०॥

तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो
यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्कितानि
यच्छृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ११॥

नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं
न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे
न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥ १२॥

अथो महाभाग भवानमोघदृक्शुचिश्रवाः
सत्यरतो धृतव्रतः ।
उरुक्रमस्याखिलबन्धमुक्तये
समाधिनानुस्मर तद्विचेष्टितम् ॥ १३॥

ततोऽन्यथा किञ्चन यद्विवक्षतः
पृथग् दृशस्तत्कृतरूपनामभिः ।
न कुत्रचित्क्वापि च दुःस्थिता मतिर्लभेत
वाताहतनौरिवास्पदम् ॥ १४॥

जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासतः
स्वभावरक्तस्य महान् व्यतिक्रमः ।
यद्वाक्यतो धर्म इतीतरः स्थितो
न मन्यते तस्य निवारणं जनः ॥ १५॥

विचक्षणोऽस्यार्हति वेदितुं
विभोरनन्तपारस्य निवृत्तितः सुखम् ।
प्रवर्तमानस्य गुणैरनात्मनस्ततो
भवान् दर्शय चेष्टितं विभोः ॥ १६॥

त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं
हरेर्भजन्नपक्वोऽथ पतेत्ततो यदि ।
यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं
को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ॥ १७॥

तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो
न लभ्यते यद्भ्रमतामुपर्यधः ।
तल्लभ्यते दुःखवदन्यतः सुखं
कालेन सर्वत्र गभीररंहसा ॥ १८॥

न वै जनो जातु कथञ्चनाव्रजे-
न्मुकुन्दसेव्यन्यवदङ्ग संसृतिम् ।
स्मरन् मुकुन्दाङ्घ्र्युपगूहनं पुन-
र्विहातुमिच्छेन्न रसग्रहो यतः ॥ १९॥

इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो
यतो जगत्स्थाननिरोधसम्भवाः ।
तद्धि स्वयं वेद भवांस्तथापि वै
प्रादेशमात्रं भवतः प्रदर्शितम् ॥ २०॥

त्वमात्मनाऽऽत्मानमवेह्यमोघदृक्परस्य
पुंसः परमात्मनः कलाम् ।
अजं प्रजातं जगतः शिवाय
तन्महानुभावाभ्युदयोऽधिगण्यताम् ॥ २१॥

इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा
स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयोः ।
अविच्युतोऽर्थः कविभिर्निरूपितो
यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम् ॥ २२॥

अहं पुरातीतभवेऽभवं मुने
दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां
शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ॥ २३॥

ते मय्यपेताखिलचापलेऽर्भके
दान्तेऽधृतक्रीडनकेऽनुवर्तिनि ।
चक्रुः कृपां यद्यपि तुल्यदर्शनाः
शुश्रूषमाणे मुनयोऽल्पभाषिणि ॥ २४॥

उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः
सकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिषः ।
एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतसस्तद्धर्म
एवात्मरुचिः प्रजायते ॥ २५॥

तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायता-
मनुग्रहेणाश‍ृणवं मनोहराः ।
ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विश‍ृण्वतः
प्रियश्रवस्यङ्ग ममाभवद्रुचिः ॥ २६॥

तस्मिंस्तदा लब्धरुचेर्महामुने
प्रियश्रवस्यास्खलिता मतिर्मम ।
ययाहमेतत्सदसत्स्वमायया
पश्ये मयि ब्रह्मणि कल्पितं परे ॥ २७॥

इत्थं शरत्प्रावृषिकावृतू हरेर्विश‍ृण्वतो
मेऽनुसवं यशोऽमलम् ।
सङ्कीर्त्यमानं मुनिभिर्महात्मभिर्भक्तिः
प्रवृत्ताऽऽत्मरजस्तमोऽपहा ॥ २८॥

तस्यैवं मेऽनुरक्तस्य प्रश्रितस्य हतैनसः ।
श्रद्दधानस्य बालस्य दान्तस्यानुचरस्य च ॥ २९॥

ज्ञानं गुह्यतमं यत्तत्साक्षाद्भगवतोदितम् ।
अन्ववोचन् गमिष्यन्तः कृपया दीनवत्सलाः ॥ ३०॥

येनैवाहं भगवतो वासुदेवस्य वेधसः ।
मायानुभावमविदं येन गच्छन्ति तत्पदम् ॥ ३१॥

एतत्संसूचितं ब्रह्मंस्तापत्रयचिकित्सितम् ।
यदीश्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम् ॥ ३२॥

आमयो यश्च भूतानां जायते येन सुव्रत ।
तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम् ॥ ३३॥

एवं नृणां क्रियायोगाः सर्वे संसृतिहेतवः ।
त एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिताः परे ॥ ३४॥

यदत्र क्रियते कर्म भगवत्परितोषणम् ।
ज्ञानं यत्तदधीनं हि भक्तियोगसमन्वितम् ॥ ३५॥

कुर्वाणा यत्र कर्माणि भगवच्छिक्षयासकृत् ।
गृणन्ति गुणनामानि कृष्णस्यानुस्मरन्ति च ॥ ३६॥

नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ॥ ३७॥

इति मूर्त्यभिधानेन मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ।
यजते यज्ञपुरुषं स सम्यग्दर्शनः पुमान् ॥ ३८॥

इमं स्वनिगमं ब्रह्मन्नवेत्य मदनुष्ठितम् ।
अदान्मे ज्ञानमैश्वर्यं स्वस्मिन् भावं च केशवः ॥ ३९॥

त्वमप्यदभ्रश्रुतविश्रुतं विभोः
समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् ।
आख्याहि/प्रख्याहि दुःखैर्मुहुरर्दितात्मनां
सङ्क्लेशनिर्वाणमुशन्ति नान्यथा ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
व्यासनारदसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय
भगवान के यश-कीर्तन की महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्वचरित्र
सूतजी कहते हैं—तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारद ने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रहमर्षि व्यासजी से कहा ॥ १ ॥
नारदजी ने प्रश्र किया—महाभाग व्यासजी ! आपके शरीर एवं मन—दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तन से सन्तुष्ट है न? ॥ २ ॥
अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह महाभारत की रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थों से परिपूर्ण है ॥ ३ ॥
सनातन ब्रह्मतत्त्व को भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है। फिर भी प्रभु ! आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ४ ॥
व्यासजी ने कहा—आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होने पर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात ब्रह्माजी के मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आप से ही इसका कारण पूछता हूँ ॥ ५ ॥
नारदजी ! आप समस्त गोपनीय रहस्यों को जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुष की उपासना की है, जो प्रकृति- पुरुष दोनों के स्वामी हैं और असङ्ग रहते हुए ही अपने सङ्कल्पमात्र से गुणों के द्वारा संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं ॥ ६ ॥
आप सूर्य की भाँति तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं और योगबल से प्राणवायु के समान सब के भीतर रहकर अन्त:करणों के साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमों के द्वारा परब्रह्म और शब्दब्रह्म दोनों की पूर्ण प्राप्ति कर लेने पर भी मुझ में जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये ॥ ७ ॥
नारदजी ने कहा—व्यासजी ! आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्राय: नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है ॥ ८ ॥
आपने धर्म आदि पुरुषार्थों का जैसा निरूपण किया है, भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया ॥ ९ ॥
जिस वाणीसे—चाहे वह रस-भाव-अलङ्कारादि से युक्त ही क्यों न हो—जगत को पवित्र करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंक ने के स्थान के समान अपवित्र मानी जाती है। मानसरोवर के कमनीय कमलवन में विहरनेवाले हंसों की भाँति ब्रह्मधाम में विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते ॥ १० ॥
इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान के सुयशसूचक नामों से युक्त है, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ॥ ११ ॥
वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओं में सदा ही अमङ्गलरूप है, वह काम्य कर्म, और जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है ॥ १२ ॥
महाभाग व्यासजी ! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यपरायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवों को बन्धन से मुक्त करने के लिये समाधि के द्वारा अचिन्त्यशक्ति भगवान की लीलाओं का स्मरण कीजिये ॥ १३ ॥
जो मनुष्य भगवान की लीला के अतिरिक्त और कुछ कह ने की इच्छा करता है, वह उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभाव से भर जाती है। जैसे हवा के झ कोरों से डगमगाती हुई डोंगी को कहीं भी ठहर ने का ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चञ्चल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती ॥ १४ ॥
संसारी लोग स्वभाव से ही विषयों में फँ से हुए हैं। धर्म के नाम पर आपने उन्हें निन्दित (पशुहिंसायुक्त) सकाम कर्म करने की भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत ही उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्खलोग आपके वचनों से पूर्वोक्त निन्दित कर्म को ही धर्म मानकर—‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करनेवाले वचनों को ठीक नहीं मानते ॥ १५ ॥
भगवान अनन्त हैं। कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसार की ओर से निवृत्त होकर उनके स्वरूपभूत परमानन्द का अनुभव कर सकता है। अत: जो लोग पारमार्थिक बुद्धि से रहित हैं और गुणों के द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याण के लिये ही आप भगवान की लीलाओं का सर्वसाधारण के हित की दृष्टि से वर्णन कीजिये ॥ १६ ॥
जो मनुष्य अपने धर्म का परित्याग करके भगवान के चरण-कमलों का भजन-सेवन करता है—भजन परिपक्व हो जाने पर तो बात ही क्या है—यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमङ्गल हो सकता है ? परन्तु जो भगवान का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्म का पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है ॥ १७ ॥
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि वह उसी वस्तु की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करे, जो तिनके से लेकर ब्रह्मापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियों में कर्मों के फल स्वरूप आने-जाने पर भी स्वयं प्राप्त नहीं होती। संसार के विषयसुख तो, जैसे बिना चेष्टा के दु:ख मिलते हैं वैसे ही, कर्म के फलरूप में अचिन्त्यगति समय के फेर से सब को सर्वत्र स्वभाव से ही मिल जाते हैं ॥ १८ ॥
व्यासजी ! जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का सेवक है वह भजन न करनेवाले कर्मी मनुष्यों के समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जाने पर भी जन्म-मृत्युमय संसार में नहीं आता। वह भगवान के चरण-कमलों के आलिङ्गन का स्मरण करके फिर उसे छोडऩा नहीं चाहता; उसे रस का चस का जो लग चु का है ॥ १९ ॥
जिन से जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान ही इस विश्व के रूप में भी हैं। ऐसा होने पर भी वे इससे विलक्षण हैं। इस बात को आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है ॥ २० ॥
व्यासजी ! आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बात को जानिये कि आप पुरुषोत्तम भगवान के कलावतार हैं। आपने अजन्मा होकर भी जगत के कल्याण के लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेषरूप से भगवान की लीलाओं का कीर्तन कीजिये ॥ २१ ॥
विद्वानों ने इस बात का निरूपण किया है कि मनुष्य की तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दान का एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्ण के गुणों और लीलाओं का वर्णन किया जाय ॥ २२ ॥
मुने ! पिछले कल्प में अपने पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की एक दासी का लडक़ा था। वे योगी वर्षा-ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपन में ही मैं उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया था ॥ २३ ॥
मैं यद्यपि बालक था, फिर भी किसी प्रकार की चञ्चलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था, खेल-कूद से दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था। मैं बोलता भी बहुत कम था। मेरे इस शील-स्वभाव को देखकर समदर्शी मुनियों ने मुझ सेवक पर अत्यन्त अनुग्रह किया ॥ २४ ॥
उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनों में लगा हुआ जूँठन मैं एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे सारे पाप धुल गये। इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रुचि हो गयी ॥ २५ ॥
प्यारे व्यासजी ! उस सत्सङ्ग में उन लीलागानपरायण महात्माओं के अनुग्रह से मैं प्रतिदिन श्रीकृष्ण की मनोहर कथाएँ सुना करता। श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवान में मेरी रुचि हो गयी ॥ २६ ॥
महामुने ! जब भगवान में मेरी रुचि हो गयी, तब उन मनोहरकीर्ति प्रभु में मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धि से मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्रूप जगत को अपने परब्रह्म- स्वरूप आत्मा में माया से कल्पित देखने लगा ॥ २७ ॥
इस प्रकार शरद् और वर्षा—इन दो ऋतुओं में तीनों समय उन महात्मा मुनियों ने श्रीहरि के निर्मल यश का सङ्कीर्तन किया और मैं प्रेम से प्रत्येक बात सुनता रहा। अब चित्त के रजोगुण और तमोगुण को नाश करनेवाली भक्ति का मेरे हृदय में प्रादुर्भाव हो गया ॥ २८ ॥
मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन लोगों की सेवा से मेरे पाप नष्ट हो चु के थे। मेरे हृदय में श्रद्धा थी, इन्द्रियों में संयम था एवं शरीर, वाणी और मन से मैं उनका आज्ञाकारी था ॥ २९ ॥
उन दीनवत्सल महात्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्यतम ज्ञान का उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से किया है ॥ ३० ॥
उस उपदेश से ही जगत के निर्माता भगवान श्रीकृष्ण की माया के प्रभाव को मैं जान सका, जिसके जान लेने पर उनके परमपद की प्राप्ति हो जाती है ॥ ३१ ॥
सत्यसंकल्प व्यासजी ! पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों की एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको बतला दी ॥ ३२ ॥
प्राणियों को जिस पदार्थ के सेवन से जो रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्साविधि के अनुसार प्रयोग करने पर क्या उस रोग को दूर नहीं करता ? ॥ ३३ ॥
इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्यों को जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में डालनेवाले हैं, तथापि जब वे भगवान को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है ॥ ३४ ॥
इस लोक में जो शास्त्रविहित कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिये किये जाते हैं, उन्हीं से पराभक्तियुक्त ज्ञान की प्राप्ति होती है ॥ ३५ ॥
उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान श्रीकृष्ण के गुण और नामों का कीर्तन तथा स्मरण करते हैं ॥ ३६ ॥
‘प्रभो ! आप भगवान श्रीवासुदेव को नमस्कार है। हम आपका ध्यान करते हैं। प्रद्युम्र, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है’ ॥ ३७ ॥
इस प्रकार जो पुरुष चतुव्र्यूहरूपी भगवन्मूर्तियों के नाम द्वारा प्राकृत-मूर्तिरहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान यज्ञपुरुष का पूजन करता है, उसी का ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है ॥ ३८ ॥
ब्रह्मन् ! जब मैंने भगवान की आज्ञा का इस प्रकार पालन किया, तब इस बात को जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आत्मज्ञान, ऐश्वर्य और अपनी भावरूपा प्रेमाभक्ति का दान किया ॥ ३९ ॥
व्यासजी ! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप भगवान की ही कीर्तिका—उनकी प्रेममयी लीला का वर्णन कीजिये। उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है। जो लोग दु:खों के द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दु:ख की शान्ति इसीसे हो सकती है, और कोई उपाय नहीं है ॥ ४० ॥

स्कन्ध-01 [अध्याय-06]

नारदजी के पूर्वचरित्र का शेष भाग 

॥ षष्ठोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
एवं निशम्य भगवान् देवर्षेर्जन्म कर्म च ।
भूयः पप्रच्छ तं ब्रह्मन् व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ १॥

व्यास उवाच
भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिस्तव ।
वर्तमानो वयस्याद्ये ततः किमकरोद्भवान् ॥ २॥

स्वायम्भुव कया वृत्त्या वर्तितं ते परं वयः ।
कथं चेदमुदस्राक्षीः काले प्राप्ते कलेवरम् ॥ ३॥

प्राक्कल्पविषयामेतां स्मृतिं ते सुरसत्तम ।
न ह्येष व्यवधात्काल एष सर्वनिराकृतिः ॥ ४॥

नारद उवाच
भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिर्मम ।
वर्तमानो वयस्याद्ये तत एतदकारषम् ॥ ५॥

एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किङ्करी ।
मय्यात्मजेऽनन्यगतौ चक्रे स्नेहानुबन्धनम् ॥ ६॥

सास्वतन्त्रा न कल्पाऽऽसीद्योगक्षेमं ममेच्छती ।
ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥ ७॥

अहं च तद्ब्रह्मकुले ऊषिवांस्तदपेक्षया ।
दिग्देशकालाव्युत्पन्नो बालकः पञ्चहायनः ॥ ८॥

एकदा निर्गतां गेहाद्दुहन्तीं निशि गां पथि ।
सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टः कृपणां कालचोदितः ॥ ९॥

तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीप्सतः ।
अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ॥ १०॥

स्फीताञ्जनपदांस्तत्र पुरग्रामव्रजाकरान् ।
खेटखर्वटवाटीश्च वनान्युपवनानि च ॥ ११॥

चित्रधातुविचित्राद्रीनिभभग्नभुजद्रुमान् ।
जलाशयाञ्छिवजलान्नलिनीः सुरसेविताः ॥ १२॥

चित्रस्वनैः पत्ररथैर्विभ्रमद्भ्रमरश्रियः ।
नलवेणुशरस्तम्बकुशकीचकगह्वरम् ॥ १३॥

एक एवातियातोऽहमद्राक्षं विपिनं महत् ।
घोरं प्रतिभयाकारं व्यालोलूकशिवाजिरम् ॥ १४॥

परिश्रान्तेन्द्रियात्माहं तृट्परीतो बुभुक्षितः ।
स्नात्वा पीत्वा ह्रदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रमः ॥ १५॥

तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आस्थितः ।
आत्मनाऽऽत्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥ १६॥

ध्यायतश्चरणाम्भोजं भावनिर्जितचेतसा ।
औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः ॥ १७॥

प्रेमातिभरनिर्भिन्नपुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः ।
आनन्दसम्प्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥ १८॥

रूपं भगवतो यत्तन्मनःकान्तं शुचापहम् ।
अपश्यन् सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद्दुर्मना इव ॥ १९॥

दिदृक्षुस्तदहं भूयः प्रणिधाय मनो हृदि ।
वीक्षमाणोऽपि नापश्यमवितृप्त इवातुरः ॥ २०॥

एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।
गम्भीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयन्निव ॥ २१॥

हन्तास्मिञ्जन्मनि भवान् न मां द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥ २२॥

सकृद्यद्दर्शितं रूपमेतत्कामाय तेऽनघ ।
मत्कामः शनकैः साधु सर्वान् मुञ्चति हृच्छयान् ॥ २३॥

सत्सेवयादीर्घया ते जाता मयि दृढा मतिः ।
हित्वावद्यमिमं लोकं गन्ता मज्जनतामसि ॥ २४॥

मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित् ।
प्रजासर्गनिरोधेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात् ॥ २५॥

एतावदुक्त्वोपरराम तन्महद्भूतं
नभोलिङ्गमलिङ्गमीश्वरम् ।
अहं च तस्मै महतां महीयसे
शीर्ष्णावनामं विदधेऽनुकम्पितः ॥ २६॥

नामान्यनन्तस्य हतत्रपः पठन्
गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन् ।
गां पर्यटंस्तुष्टमना गतस्पृहः
कालं प्रतीक्षन् विमदो विमत्सरः ॥ २७॥

एवं कृष्णमतेर्ब्रह्मन्नसक्तस्यामलात्मनः ।
कालः प्रादुरभूत्काले तडित्सौदामनी यथा ॥ २८॥

प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम् ।
आरब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत्पाञ्चभौतिकः ॥ २९॥

कल्पान्त इदमादाय शयानेऽम्भस्युदन्वतः ।
शिशयिषोरनुप्राणं विविशेऽन्तरहं विभोः ॥ ३०॥

सहस्रयुगपर्यन्त उत्थायेदं सिसृक्षतः ।
मरीचिमिश्रा ऋषयः प्राणेभ्योऽहं च जज्ञिरे ॥ ३१॥

अन्तर्बहिश्च लोकांस्त्रीन् पर्येम्यस्कन्दितव्रतः ।
अनुग्रहान्महाविष्णोरविघातगतिः क्वचित् ॥ ३२॥

देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥ ३३॥

प्रगायतः स्ववीर्याणि तीर्थपादः प्रियश्रवाः ।
आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि ॥ ३४॥

एतद्ध्यातुरचित्तानां मात्रास्पर्शेच्छया मुहुः ।
भवसिन्धुप्लवो दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम् ॥ ३५॥

यमादिभिर्योगपथैः कामलोभहतो मुहुः ।
मुकुन्दसेवया यद्वत्तथात्माद्धा न शाम्यति ॥ ३६॥

सर्वं तदिदमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
जन्मकर्मरहस्यं मे भवतश्चात्मतोषणम् ॥ ३७॥

सूत उवाच
एवं सम्भाष्य भगवान्नारदो वासवीसुतम् ।
आमन्त्र्य वीणां रणयन् ययौ यादृच्छिको मुनिः ॥ ३८॥

अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः ।
गायन् माद्यन्निदं तन्त्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥ ३९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
व्यासनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-छठा अध्याय 
नारदजी के पूर्वचरित्र का शेष भाग
श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकजी ! देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान श्रीव्यासजी ने उनसे फिर यह प्रश्र किया ॥ १ ॥
श्रीव्यासजी ने पूछा—नारदजी ! जब आपको ज्ञानोपदेश करनेवाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया ? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी ॥ २ ॥
स्वायम्भुव ! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया ? ॥ ३ ॥
देवर्षे ! काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है, उसने आपकी इस पूर्वकल्प की स्मृति का कैसे नाश नहीं किया ? ॥ ४ ॥
श्रीनारदजी ने कहा—मुझे ज्ञानोपदेश करनेवाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार अपना जीवन व्यतीत किया—यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी ॥ ५ ॥
मैं अपनी मा का इकलौता लडक़ा था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी। मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था ॥ ६ ॥
वह मेरे योगक्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थी, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी। जैसे कठपुतली नचानेवाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है ॥ ७ ॥
मैं भी अपनी मा के स्नेहबन्धन में बँधकर उस ब्राह्मण-बस्ती में ही रहा। मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था ॥ ८ ॥
एक दिन की बात है, मेरी मा गौ दुह ने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी ॥ ९ ॥
मैंने समझा, भक्तों का मङ्गल चाहनेवाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा ॥ १० ॥
उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन-धान्य से सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरों की चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतों के तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियों ने तोड़ डाली थीं। शीतल जल से भरे हुए जलाशय थे, जिन में देवताओं के काम में आनेवाले कमल थे; उन पर पक्षी तरह-तरह की बोली बोल रहे थे और भौंरे मँडरा रहे थे। यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था। इतना लंबा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा। उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे। उसकी लंबाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था। देखने में बड़ा भयावना लगता था ॥ ११—१४ ॥
चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली। उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी ॥ १५ ॥
उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, हृदय में रहनेवाले परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा ॥ १६ ॥
भक्तिभाव से वशीकृत चित्त द्वारा भगवान के चरणकमलों का ध्यान करते ही भगवत्-प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये ॥ १७ ॥
व्यासजी ! उस समय प्रेमभाव के अत्यन्त उद्रेक से मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। हृदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया। उस आनन्द की बाढ़ में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तु का तनिक भी भान रहा ॥ १८ ॥
भगवान का वह अनिर्वचनीय रूप समस्त शोकों का नाश करनेवाला और मन के लिये अत्यन्त लुभावना था। सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना-सा होकर आसन से उठ खड़ा हुआ ॥ १९ ॥
मैंने उस स्वरूप का दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मन को हृदय में समाहित करके बार-बार दर्शन की चेष्टा करने पर भी मैं उसे नहीं देख सका। मैं अतृप्त के समान आतुर हो उठा ॥ २० ॥
इस प्रकार निर्जन वन में मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवानने, जो वाणी के विषय नहीं हैं, बड़ी गंभीर और मधुर वाणी से मेरे शोक को शान्त करते हुए- से कहा— ॥ २१ ॥
‘खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर स कोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २२ ॥
निष्पाप बालक ! तुम्हारे हृदय में मुझे प्राप्त करने की लालसा जाग्रत् करने के लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूप की झलक दिखायी है। मुझे प्राप्त करने की आकांक्षा से युक्त साधक धीरे-धीरे हृदय की सम्पूर्ण वासनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है ॥ २३ ॥
अल्पकालीन संतसेवा से ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझ में स्थिर हो गयी है। अब तुम इस प्राकृतमलिन शरीर को छोडक़र मेरे पार्षद हो जाओगे ॥ २४ ॥
मुझे प्राप्त करने का तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा। समस्त सृष्टि का प्रलय हो जाने पर भी मेरी कृपा से तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी’ ॥ २५ ॥
आकाश के समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान परमात्मा इतना कहकर चुप हो रहे। उनकी इस कृपा का अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठों से भी श्रेष्ठतर भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ २६ ॥
तभी से मैं लज्जा-सं कोच छोडक़र भगवान के अत्यन्त रहस्यमय और मङ्गलमय मधुर नामों और लीलाओं का कीर्तन और स्मरण करने लगा। स्पृहा और मद-मत्सर मेरे हृदय से पहले ही निवृत्त हो चु के थे, अब मैं आनन्द से काल की प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वी पर विचर ने लगा ॥ २७ ॥
व्यासजी ! इस प्रकार भगवान की कृपा से मेरा हृदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और मैं श्रीकृष्णपरायण हो गया। कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही अपने समय पर मेरी मृत्यु आ गयी ॥ २८ ॥
मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद-शरीर प्राप्त होने का अवसर आने पर प्रारब्धकर्म समाप्त हो जाने के कारण पाञ्चभौतिक शरीर नष्ट हो गया ॥ २९ ॥
कल्प के अन्त में जिस समय भगवान नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र) के जल में शयन करते हैं, उस समय उनके हृदय में शयन करने की इच्छा से इस सारी सृष्टि को समेटकर ब्रह्माजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वासके साथ मैं भी उनके हृदय में प्रवेश कर गया ॥ ३० ॥
एक सहस्र चतुर्युगी बीत जाने पर जब ब्रह्मा जगे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया ॥ ३१ ॥
तभी से मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ। मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्डरूप से चलता रहता है ॥ ३२ ॥
भगवान की दी हुई इस स्वरब्रह्मसे[1] विभूषित वीणा पर तान छेडक़र मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ ॥ ३३ ॥
जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरणकमल समस्त तीर्थों के उद्गमस्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे हृदय में आकर दर्शन दे देते हैं ॥ ३४ ॥
जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय-भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार-सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है ॥ ३५ ॥
काम और, लोभ की चोट से बार-बार घायल हुआ हृदय श्रीकृष्ण-सेवा से जैसी प्रत्यक्ष शान्ति का अनुभव करता है, यम-नियम आदि योग-मार्गों से वैसी शान्ति नहीं मिल सकती ॥ ३६ ॥
व्यासजी ! आप निष्पाप हैं। आपने मुझ से जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया ॥ ३७ ॥
श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! देवर्षि नारद ने व्यासजी से इस प्रकार कहकर जाने की अनुमति ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छन्द विचरण करने के लिये वे चल पड़े ॥ ३८ ॥
अहा ! ये देवर्षि नारद धन्य हैं; क्योंकि ये शार्ङ्गपाणि भगवान की कीर्ति को अपनी वीणा पर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्र होते ही हैं, साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत को भी आनन्दित करते रहते हैं ॥ ३९ ॥


[1] षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद—ये सातों स्वर ब्रह्मव्यञ्जक होने के नाते ही ब्रह्मरूप कहे गये हैं।



स्कन्ध-01 [अध्याय-07]

अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों का मारा जाना और अर्जुन के द्वारा अश्वत्थामा का मानमर्दन 

॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
शौनक उवाच
निर्गते नारदे सूत भगवान् बादरायणः ।
श्रुतवांस्तदभिप्रेतं ततः किमकरोद्विभुः ॥ १॥

सूत उवाच
ब्रह्मनद्यां सरस्वत्यामाश्रमः पश्चिमे तटे ।
शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धनः ॥ २॥

तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासो बदरीषण्डमण्डिते ।
आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मनः स्वयम् ॥ ३॥

भक्तियोगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले ।
अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदुपाश्रयाम् ॥ ४॥

यया सम्मोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम् ।
परोऽपि मनुतेऽनर्थं तत्कृतं चाभिपद्यते ॥ ५॥

अनर्थोपशमं साक्षाद्भक्तियोगमधोक्षजे ।
लोकस्याजानतो विद्वांश्चक्रे सात्वतसंहिताम् ॥ ६॥

यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपूरुषे ।
भक्तिरुत्पद्यते पुंसः शोकमोहभयापहा ॥ ७॥

स संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम् ।
शुकमध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनिः ॥ ८॥

शौनक उवाच
स वै निवृत्तिनिरतः सर्वत्रोपेक्षको मुनिः ।
कस्य वा बृहतीमेतामात्मारामः समभ्यसत् ॥ ९॥

सूत उवाच
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥ १०॥

हरेर्गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणिः ।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥ ११॥

परीक्षितोऽथ राजर्षेर्जन्मकर्मविलापनम् ।
संस्थां च पाण्डुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णकथोदयम् ॥ १२॥

यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां
वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु ।
वृकोदराविद्धगदाभिमर्श-
भग्नोरुदण्डे धृतराष्ट्रपुत्रे ॥ १३॥

भर्तुः प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन्
कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि ।
उपाहरद्विप्रियमेव तस्य
जुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति ॥ १४॥

माता शिशूनां निधनं सुतानां
निशम्य घोरं परितप्यमाना ।
तदारुदद्बाष्पकलाकुलाक्षी
तां सान्त्वयन्नाह किरीटमाली ॥ १५॥

तदा शुचस्ते प्रमृजामि भद्रे
यद्ब्रह्मबन्धोः शिर आततायिनः ।
गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैरुपाहरे
त्वाक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा ॥ १६॥

इति प्रियां वल्गुविचित्रजल्पैः
स सान्त्वयित्वाच्युतमित्रसूतः ।
अन्वाद्रवद्दंशित उग्रधन्वा
कपिध्वजो गुरुपुत्रं रथेन ॥ १७॥

तमापतन्तं स विलक्ष्य
दूरात्कुमारहोद्विग्नमना रथेन ।
पराद्रवत्प्राणपरीप्सुरुर्व्यां
यावद्गमं रुद्रभयाद्यथार्कः ॥ १८॥

यदाशरणमात्मानमैक्षत श्रान्तवाजिनम् ।
अस्त्रं ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मजः ॥ १९॥

अथोपस्पृश्य सलिलं सन्दधे तत्समाहितः ।
अजानन्नुपसंहारं प्राणकृच्छ्र उपस्थिते ॥ २०॥

ततः प्रादुष्कृतं तेजः प्रचण्डं सर्वतो दिशम् ।
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य विष्णुं जिष्णुरुवाच ह ॥ २१॥

अर्जुन उवाच
कृष्ण कृष्ण महाभाग भक्तानामभयङ्कर ।
त्वमेको दह्यमानानामपवर्गोऽसि संसृतेः ॥ २२॥

त्वमाद्यः पुरुषः साक्षादीश्वरः प्रकृतेः परः ।
मायां व्युदस्य चिच्छक्त्या कैवल्ये स्थित आत्मनि ॥ २३॥

स एव जीवलोकस्य मायामोहितचेतसः ।
विधत्से स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥ २४॥

तथायं चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया ।
स्वानां चानन्यभावानामनुध्यानाय चासकृत् ॥ २५॥

किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्म्यहम् ।
सर्वतोमुखमायाति तेजः परमदारुणम् ॥ २६॥

श्रीभगवानुवाच
वेत्थेदं द्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममस्त्रं प्रदर्शितम् ।
नैवासौ वेद संहारं प्राणबाध उपस्थिते ॥ २७॥

न ह्यस्यान्यतमं किञ्चिदस्त्रं प्रत्यवकर्शनम् ।
जह्यस्त्रतेज उन्नद्धमस्त्रज्ञो ह्यस्त्रतेजसा ॥ २८॥

सूत उवाच
श्रुत्वा भगवता प्रोक्तं फाल्गुनः परवीरहा ।
स्पृष्ट्वापस्तं परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्माय सन्दधे ॥ २९॥

संहत्यान्योन्यमुभयोस्तेजसी शरसंवृते ।
आवृत्य रोदसी खं च ववृधातेऽर्कवह्निवत् ॥ ३०॥

दृष्ट्वास्त्रतेजस्तु तयोस्त्रींल्लोकान् प्रदहन् महत् ।
दह्यमानाः प्रजाः सर्वाः सांवर्तकममंसत ॥ ३१॥

प्रजोपद्रवमालक्ष्य लोकव्यतिकरं च तम् ।
मतं च वासुदेवस्य सञ्जहारार्जुनो द्वयम् ॥ ३२॥

तत आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम् ।
बबन्धामर्षताम्राक्षः पशुं रशनया यथा ॥ ३३॥

शिबिराय निनीषन्तं दाम्ना बद्ध्वा रिपुं बलात् ।
प्राहार्जुनं प्रकुपितो भगवानम्बुजेक्षणः ॥ ३४॥

मैनं पार्थार्हसि त्रातुं ब्रह्मबन्धुमिमं जहि ।
योऽसावनागसः सुप्तानवधीन्निशि बालकान् ॥ ३५॥

मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥ ३६॥

स्वप्राणान् यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः ।
तद्वधस्तस्य हि श्रेयो यद्दोषाद्यात्यधः पुमान् ॥ ३७॥

प्रतिश्रुतं च भवता पाञ्चाल्यै श‍ृण्वतो मम ।
आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा ॥ ३८॥

तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबन्धुहा ।
भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान् कुलपांसनः ॥ ३९॥

एवं परीक्षता धर्मं पार्थः कृष्णेन चोदितः ।
नैच्छद्धन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान् ॥ ४०॥

अथोपेत्य स्वशिबिरं गोविन्दप्रियसारथिः ।
न्यवेदयत्तं प्रियायै शोचन्त्या आत्मजान् हतान् ॥ ४१॥

तथाऽऽहृतं पशुवत्पाशबद्धमवाङ्मुखं कर्मजुगुप्सितेन ।
निरीक्ष्य कृष्णापकृतं गुरोः सुतं वामस्वभावा कृपया ननाम च ॥ ४२॥

उवाच चासहन्त्यस्य बन्धनानयनं सती ।
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः ॥ ४३॥

सरहस्यो धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः ।
अस्त्रग्रामश्च भवता शिक्षितो यदनुग्रहात् ॥ ४४॥

स एष भगवान् द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते ।
तस्यात्मनोऽर्धं पत्न्यास्ते नान्वगाद्वीरसूः कृपी ॥ ४५॥

तद्धर्मज्ञ महाभाग भवद्भिर्गौरवं कुलम् ।
वृजिनं नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णशः ॥ ४६॥

मा रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता ।
यथाहं मृतवत्साऽऽर्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहुः ॥ ४७॥

यैः कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजितात्मभिः ।
तत्कुलं प्रदहत्याशु सानुबन्धं शुचार्पितम् ॥ ४८॥

सूत उवाच
धर्म्यं न्याय्यं सकरुणं निर्व्यलीकं समं महत् ।
राजा धर्मसुतो राज्ञ्याः प्रत्यनन्दद्वचो द्विजाः ॥ ४९॥

नकुलः सहदेवश्च युयुधानो धनञ्जयः ।
भगवान् देवकीपुत्रो ये चान्ये याश्च योषितः ॥ ५०॥

तत्राहामर्षितो भीमस्तस्य श्रेयान् वधः स्मृतः ।
न भर्तुर्नात्मनश्चार्थे योऽहन् सुप्तान् शिशून् वृथा ॥ ५१॥

निशम्य भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः ।
आलोक्य वदनं सख्युरिदमाह हसन्निव ॥ ५२॥

श्रीकृष्ण उवाच
ब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः ।
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम् ॥ ५३॥

कुरु प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत्सान्त्वयता प्रियाम् ।
प्रियं च भीमसेनस्य पाञ्चाल्या मह्यमेव च ॥ ५४॥

सूत उवाच
अर्जुनः सहसाऽऽज्ञाय हरेर्हार्दमथासिना ।
मणिं जहार मूर्धन्यं द्विजस्य सहमूर्धजम् ॥ ५५॥

विमुच्य रशनाबद्धं बालहत्याहतप्रभम् ।
तेजसा मणिना हीनं शिबिरान्निरयापयत् ॥ ५६॥

वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणं तथा ।
एष हि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः ॥ ५७॥

पुत्रशोकातुराः सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया ।
स्वानां मृतानां यत्कृत्यं चक्रुर्निर्हरणादिकम् ॥ ५८॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
द्रौणिनिग्रहो नामसप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-सातवाँ अध्याय
अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों का मारा जाना और अर्जुन के द्वारा अश्वत्थामा का मानमर्दन
श्रीशौनकजी ने पूछा—सूतजी ! सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् व्यासभगवान ने नारदजी का अभिप्राय सुन लिया। फिर उनके चले जाने पर उन्होंने क्या किया ? ॥ १ ॥
श्रीसूतजी ने कहा—ब्रह्मनदी सरस्वती के पश्चिम तट पर शम्याप्रास नाम का एक आश्रम है। वहाँ ऋषियों के यज्ञ चलते ही रहते हैं ॥ २ ॥
वहीं व्यासजी का अपना आश्रम है। उसके चारों ओर बेर का सुन्दर वन है। उस आश्रम में बैठकर उन्होंने आचमन किया और स्वयं अपने मन को समाहित किया ॥ ३ ॥
उन्होंने भक्तियोग के द्वारा अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदिपुरुष परमात्मा और उनके आश्रय से रहनेवाली माया को देखा ॥ ४ ॥
इसी माया से मोहित होकर यह जीव तीनों गुणों से अतीत होने पर भी अपने को त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यता के कारण होनेवाले अनर्थों को भोगता है ॥ ५ ॥
इन अनर्थों की शान्ति का साक्षात साधन है—केवल भगवान का भक्तियोग। परन्तु संसार के लोग इस बात को नहीं जानते। यही समझकर उन्होंने इस परमहंसों की संहिता श्रीमद्भागवत की रचना की ॥ ६ ॥
इसके श्रवणमात्र से पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीव के शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं ॥ ७ ॥ उन्होंने इस भागवत-संहिता का निर्माण और पुनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्तिपरायण पुत्र श्रीशुकदेवजी को पढ़ाया ॥ ८ ॥
श्रीशौनकजी ने पूछा—श्रीशुकदेवजी तो अत्यन्त निवृत्तिपरायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है। वे सदा आत्मा में ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किसलिये इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ? ॥ ९ ॥
श्रीसूतजी ने कहा—जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करनेवाले हैं, वे भी भगवान की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सब को अपनी ओर खींच लेते हैं ॥ १० ॥
फिर श्रीशुकदेवजी तो भगवान के भक्तों के अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान वेदव्यासके पुत्र हैं। भगवान के गुणों ने उनके हृदय को अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ॥ ११ ॥
शौनकजी ! अब मैं राजर्षि परीक्षित के जन्म, कर्म और मोक्ष की तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हीं से भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों कथाओं का उदय होता है ॥ १२ ॥
जिस समय महाभारत युद्ध में कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के बहुत- से वीर वीरगति को प्राप्त हो चु के थे और भीमसेन की गदा के प्रहार से दुर्योधन की जाँघ टूट चुकी थी, तब अश्वत्थामाने अपने स्वामी दुर्योधन का प्रिय कार्य समझकर द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधन को भी अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्म की सभी निन्दा करते हैं ॥ १३-१४ ॥
उन बालकों की माता द्रौपदी अपने पुत्रों का निधन सुनकर अत्यन्त दुखी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू छलछला आये—वह रोने लगी। अर्जुन ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा ॥ १५ ॥
‘कल्याणि ! मैं तुम्हारे आँसू तब पोछूँगा, जब उस आततायी[1] ब्राह्मणाधम का सिर गाण्डीव-धनुष के बाणों से काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और पुत्रों की अन्त्येष्टि क्रिया के बाद तुम उसपर पैर रखकर स्नान करोगी’ ॥ १६ ॥
अर्जुन ने इन मीठी और विचित्र बातों से द्रौपदी को सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण की सलाह से उन्हें सारथि बनाकर कवच धारणकर और अपने भयानक गाण्डीव धनुष को लेकर वे रथ पर सवार हुए तथा गुरुपुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े ॥ १७ ॥
बच्चों की हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्र हो गया था। जब उसने दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँ तक भाग सकता था, रुद्र से भयभीत सूर्य की भाँति भागता रहा ॥ १८ ॥
जब उसने देखा कि मेरे रथ के घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपने को बचा ने का एकमात्र साधन ब्रह्मास्त्र ही समझा ॥ १९ ॥
यद्यपि उसे ब्रह्मास्त्र को लौटा ने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राणसङ्कट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया ॥ २० ॥
उस अस्त्र से सब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब तो मेरे प्राणों पर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की ॥ २१ ॥
अर्जुन ने कहा—श्रीकृष्ण ! तुम सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देनेवाले हो। जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारनेवाले एकमात्र तुम्हीं हो ॥ २२ ॥
तुम प्रकृति से परे रहनेवाले आदिपुरुष साक्षात परमेश्वर हो। अपनी चित्-शक्ति ( स्वरूप-शक्ति) से बहिरङ्ग एवं त्रिगुणमयी माया को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरूप में स्थित हो ॥ २३ ॥
वही तुम अपने प्रभाव से माया-मोहित जीवों के लिये धर्मादिरूप कल्याण का विधान करते हो ॥ २४ ॥
तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तजनों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिये है ॥ २५ ॥
स्वयम्प्रकाश स्वरूप श्रीकृष्ण ! यह भयङ्कर तेज सब ओर से मेरी ओर आ रहा है। यह क्या है, कहाँसे, क्यों आ रहा है—इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है ! ॥ २६ ॥
भगवान ने कहा—अर्जुन ! यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ ब्रह्मास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राण-संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता ॥ २७ ॥
किसी भी दूसरे अस्त्र में इस को दबा दे ने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र-विद्या को भलीभाँति जानते ही हो, ब्रह्मास्त्र के तेज से ही इस ब्रह्मास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा दो ॥ २८ ॥
सूतजी कहते हैं—अर्जुन विपक्षी वीरों को मार ने में बड़े प्रवीण थे। भगवान की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान की परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्र के निवारण के लिये ब्रह्मास्त्र का ही सन्धान किया ॥ २९ ॥
बाणों से वेष्टित उन दोनों ब्रह्मास्त्रों के तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्रि के समान आपस में टकराकर सारे आकाश और दिशाओं में फैल गये और बढऩे लगे ॥ ३० ॥
तीनों लोकों को जलानेवाली उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जल ने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सांवर् तक अग्रि है ॥ ३१ ॥
उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया ॥ ३२ ॥
अर्जुन की आँखें क्रोध से लाल-लाल हो रही थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामा को पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सी से पशु को बाँध ले, वैसे ही बाँध लिया ॥ ३३ ॥
अश्वत्थामा को बलपूर्वक बाँधकर अर्जुन ने जब शिविर की ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने कुपित होकर कहा— ॥ ३४ ॥
‘अर्जुन ! इस ब्राह्मणाधाम को छोडऩा ठीक नहीं है, इस को तो मार ही डालो। इस ने रात, में सोये हुए निरपराध बालकों की हत्या की है ॥ ३५ ॥
धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मारते ॥ ३६ ॥
परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मारकर अपने प्राणों का पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदत को लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापों के कारण नरकगामी होता है ॥ ३७ ॥
फिर मेरे सामने ही तुम ने द्रौपदी से प्रतिज्ञा की थी कि ‘मानवती ! जिस ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है, उसका सिर मैं उतार लाऊँगा’ ॥ ३८ ॥
इस पापी कुलाङ्गार आततायी ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है और अपने स्वामी दुर्योधन को भी दु:ख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन ! इसे मार ही डालो ॥ ३९ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेने के लिये इस प्रकार प्रेरणा की, परन्तु अर्जुन का हृदय महान था। यद्यपि अश्वत्थामाने उनके पुत्रों की हत्या की थी, फिर भी अर्जुन के मन में गुरुपुत्र को मार ने की इच्छा नहीं हुई ॥ ४० ॥
इसके बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्ण के साथ वे अपने युद्ध-शिविर में पहुँचे। वहाँ अपने मृत पुत्रों के लिये शोक करती हुई द्रौपदी को उसे सौंप दिया ॥ ४१ ॥
द्रौपदी ने देखा कि अश्वत्थामा पशु की तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करने के कारण उसका मुख नीचे की ओर झु का हुआ है। अपना अनिष्ट करनेवाले गुरुपुत्र अश्वत्थामा को इस प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदी का कोमल हृदय कृपा से भर आया और उसने अश्वत्थामा को नमस्कार किया ॥ ४२ ॥
गुरुपुत्र का इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदी को सहन नहीं हुआ। उसने कहा—‘छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो। ये ब्राह्मण हैं, हमलोगों के अत्यन्त पूजनीय हैं ॥ ४३ ॥
जिनकी कृपा से आपने रहस्य के साथ सारे धनुर्वेद और प्रयोग तथा उपसंहार के साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्र के रूप में आपके सामने खड़े हैं। उनकी अर्धाङ्गिनी कृपी अपने वीर पुत्र की ममता से ही अपने पति का अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं ॥ ४४-४५ ॥
महाभाग्यवान् आर्यपुत्र ! आप तो बड़े धर्मज्ञ हैं। जिस गुरुवंश की नित्य पूजा और वन्दना करनी चाहिये, उसी को व्यथा पहुँचाना आपके योग्य कार्य नहीं है ॥ ४६ ॥
जैसे अपने बच्चों के मर जाने से मैं दुखी होकर रो रही हूँ और मेरी आँखों से बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इन की माता पतिव्रता गौतमी न रोयें ॥ ४७ ॥
जो उच्छृङ्खल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राह्मणकुल को कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मणकुल उन राजाओं को सपरिवार शोकाग्रि में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है’ ॥ ४८ ॥
सूतजी ने कहा—शौनकादि ऋषियो ! द्रौपदी की बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिर ने रानी के इन हितभरे श्रेष्ठ वचनों का अभिनन्दन किया ॥ ४९ ॥
साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण और वहाँ पर उपस्थित सभी नर-नारियों ने द्रौपदी की बात का समर्थन किया ॥ ५० ॥
उस समय क्रोधित होकर भीमसेन ने कहा, ‘जिस ने सोते हुए बच्चों को न अपने लिये और न अपने स्वामी के लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’ ॥ ५१ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी और भीमसेन की बात सुनकर और अर्जुन की ओर देखकर कुछ हँसते हुए- से कहा— ॥ ५२ ॥
भगवान श्रीकृष्ण बोले—‘पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहिये और आततायी को मार ही डालना चाहिये’—शास्त्रों में मैंने ही ये दोनों बातें कही हैं। इसलिये मेरी दोनों आज्ञाओं का पालन करो ॥ ५३ ॥
तुम ने द्रौपदी को सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी सत्य करो; साथ ही भीमसेन, द्रौपदी और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो ॥ ५४ ॥
सूतजी कहते हैं—अर्जुन भगवान के हृदय की बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर की मणि उसके बालों के साथ उतार ली ॥ ५५ ॥
बालकों की हत्या करने से वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रह्मतेज से भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने रस्सी का बन्धन खोलकर उसे शिविर से निकाल दिया ॥ ५६ ॥
मूँड देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकाल देना—यही ब्राह्मणाधमों का वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक वध का विधान नहीं है ॥ ५७ ॥
पुत्रों की मृत्यु से द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई-बन्धुओं की दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया की ॥ ५८ ॥


[1] आग लगानेवाला, जहर देनेवाला, बुरी नीयत से हाथ में शस्त्र ग्रहण करनेवाला, धन लूटनेवाला, खेत और स्त्री को छीननेवाला—ये छ: ‘आततायी’ कहलाते हैं।

शिवभक्त विद्युन्माली दैत्य को जब सूर्य ने हरा दिया, तब सूर्य पर क्रोधित हो भगवान रुद्र त्रिशूल हाथ में लेकर उनकी ओर दौड़े । उस समय सूर्य भागते-भागते पृथ्वी पर काशी में आकर गिरे, इसीसे वहाँ उनका ‘लोलार्क’ नाम पड़ा।





स्कन्ध-01 [अध्याय-08]

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक 

॥ अष्टमोऽध्ययः ॥
सूत उवाच
अथ ते सम्परेतानां स्वानामुदकमिच्छताम् ।
दातुं सकृष्णा गङ्गायां पुरस्कृत्य ययुः स्त्रियः ॥ १॥

ते निनीयोदकं सर्वे विलप्य च भृशं पुनः ।
आप्लुता हरिपादाब्जरजःपूतसरिज्जले ॥ २॥

तत्रासीनं कुरुपतिं धृतराष्ट्रं सहानुजम् ।
गान्धारीं पुत्रशोकार्तां पृथां कृष्णां च माधवः ॥ ३॥

सान्त्वयामास मुनिभिर्हतबन्धूञ्शुचार्पितान् ।
भूतेषु कालस्य गतिं दर्शयन्नप्रतिक्रियाम् ॥ ४॥

साधयित्वाजातशत्रोः स्वं राज्यं कितवैर्हृतम् ।
घातयित्वासतो राज्ञः कचस्पर्शक्षतायुषः ॥ ५॥

याजयित्वाश्वमेधैस्तं त्रिभिरुत्तमकल्पकैः ।
तद्यशः पावनं दिक्षु शतमन्योरिवातनोत् ॥ ६॥

आमन्त्र्य पाण्डुपुत्रांश्च शैनेयोद्धवसंयुतः ।
द्वैपायनादिभिर्विप्रैः पूजितैः प्रतिपूजितः ॥ ७॥

गन्तुं कृतमतिर्ब्रह्मन् द्वारकां रथमास्थितः ।
उपलेभेऽभिधावन्तीमुत्तरां भयविह्वलाम् ॥ ८॥

उत्तरोवाच
पाहि पाहि महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥ ९॥

अभिद्रवति मामीश शरस्तप्तायसो विभो ।
कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम् ॥ १०॥

सूत उवाच
उपधार्य वचस्तस्या भगवान् भक्तवत्सलः ।
अपाण्डवमिदं कर्तुं द्रौणेरस्त्रमबुध्यत ॥ ११॥

तर्ह्येवाथ मुनिश्रेष्ठ पाण्डवाः पञ्च सायकान् ।
आत्मनोऽभिमुखान् दीप्तानालक्ष्यास्त्राण्युपाददुः ॥ १२॥

व्यसनं वीक्ष्य तत्तेषामनन्यविषयात्मनाम् ।
सुदर्शनेन स्वास्त्रेण स्वानां रक्षां व्यधाद्विभुः ॥ १३॥

अन्तःस्थः सर्वभूतानामात्मा योगेश्वरो हरिः ।
स्वमाययावृणोद्गर्भं वैराट्याः कुरुतन्तवे ॥ १४॥

यद्यप्यस्त्रं ब्रह्मशिरस्त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।
वैष्णवं तेज आसाद्य समशाम्यद्भृगूद्वह ॥ १५॥

मा मंस्था ह्येतदाश्चर्यं सर्वाश्चर्यमयेऽच्युते ।
य इदं मायया देव्या सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ १६॥

ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैरात्मजैः सह कृष्णया ।
प्रयाणाभिमुखं कृष्णमिदमाह पृथा सती ॥ १७॥

कुन्त्युवाच
नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम् ॥ १८॥

मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥ १९॥

तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः ॥ २०॥

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ॥ २१॥

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २२॥

यथा हृषीकेश खलेन देवकी
कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो
त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात् ॥ २३॥

विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शना-
दसत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः ।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो
द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥ २४॥

विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥ २५॥

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥ २६॥

नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः ॥ २७॥

मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम् ।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ॥ २८॥

न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं
तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद्द्वेष्यश्च
यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम् ॥ २९॥

जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मनः ।
तिर्यङ्नृर्षिषु यादःसु तदत्यन्तविडम्बनम् ॥ ३०॥

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्-
या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसम्भ्रमाक्षम् ।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य
सा मां विमोहयति भीरपि यद्बिभेति ॥ ३१॥

केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।
यदोः प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥ ३२॥

अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात् ।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥ ३३॥

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः ॥ ३४॥

भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः ।
श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन ॥ ३५॥

श‍ृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः
स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं
भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥ ३६॥

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो
जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः ।
येषां न चान्यद्भवतः पदाम्बुजात्परायणं
राजसु योजितांहसाम् ॥ ३७॥

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः ।
भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशितुः ॥ ३८॥

नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैरङ्किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः ॥ ३९॥

इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः ।
वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः ॥ ४०॥

अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ ४१॥

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।
रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥ ४२॥

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्-
राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य ।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार
योगेश्वराखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥ ४३॥

सूत उवाच
पृथयेत्थं कलपदैः परिणूताखिलोदयः ।
मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया ॥ ४४॥

तां बाढमित्युपामन्त्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम् ।
स्त्रियश्च स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारितः ॥ ४५॥

व्यासाद्यैरीश्वरेहाज्ञैः कृष्णेनाद्भुतकर्मणा ।
प्रबोधितोऽपीतिहासैर्नाबुध्यत शुचार्पितः ॥ ४६॥

आह राजा धर्मसुतश्चिन्तयन् सुहृदां वधम् ।
प्राकृतेनात्मना विप्राः स्नेहमोहवशं गतः ॥ ४७॥

अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मनः ।
पारक्यस्यैव देहस्य बह्व्यो मेऽक्षौहिणीर्हताः ॥ ४८॥

बालद्विजसुहृन्मित्रपितृभ्रातृगुरुद्रुहः ।
न मे स्यान्निरयान्मोक्षो ह्यपि वर्षायुतायुतैः ॥ ४९॥

नैनो राज्ञः प्रजाभर्तुर्धर्मयुद्धे वधो द्विषाम् ।
इति मे न तु बोधाय कल्पते शासनं वचः ॥ ५०॥

स्त्रीणां मद्धतबन्धूनां द्रोहो योऽसाविहोत्थितः ।
कर्मभिर्गृहमेधीयैर्नाहं कल्पो व्यपोहितुम् ॥ ५१॥

यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम् ।
भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैर्मार्ष्टुमर्हति ॥ ५२॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
कुन्तीस्तुतिर्युधिष्ठिरानुतापो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-आठवाँ अध्याय
गर्भ में परीक्षित की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक
सूतजी कहते हैं—इसके बाद पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ जलाञ्जलि के इच्छुक मरे हुए स्वजनों का तर्पण करने के लिये स्त्रियों को आगे करके गङ्गातट पर गये ॥ १ ॥
वहाँ उन सबने मृत बन्धुओं को जलदान दिया और उनके गुणों का स्मरण करके बहुत विलाप किया। तदनन्तर भगवान के चरण- कमलों की धूलि से पवित्र गङ्गाजल में पुन: स्नान किया ॥ २ ॥
वहाँ अपने भाइयों के साथ कुरुपति महाराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, पुत्रशोक से व्याकुल गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी—सब बैठकर मरे हुए स्वजनों के लिये शोक करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण ने धौम्यादि मुनियों के साथ उन को सान्त्वना दी और समझाया कि संसार के सभी प्राणी काल के अधीन हैं, मौत से किसीको कोई बचा नहीं सकता ॥ ३-४ ॥
इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को उनका वह राज्य, जो धूर्तों ने छल से छीन लिया था, वापस दिलाया तथा द्रौपदी के केशों का स्पर्श करने से जिनकी आयु क्षीण हो गयी थी, उन दुष्ट राजाओं का वध कराया ॥ ५ ॥
साथ ही युधिष्ठिर के द्वारा उत्तम सामग्रियों से तथा पुरोहितों से तीन अश्वमेध यज्ञ कराये। इस प्रकार युधिष्ठिर के पवित्र यश को सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्र के यश की तरह सब ओर फैला दिया ॥ ६ ॥
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ से जाने का विचार किया । उन्होंने इसके लिये पाण्डवों से विदा ली और व्यास आदि ब्राह्मणों का सत्कार किया। उन लोगों ने भी भगवान का बड़ा ही सम्मान किया। तदनन्तर सात्यकि और उद्धव के साथ द्वार का जाने के लिये वे रथ पर सवार हुए। उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भय से विह्वल होकर सामने से दौड़ी चली आ रही है ॥ ७-८ ॥
उत्तरा ने कहा—देवाधिदेव ! जगदीश्वर ! आप महायोगी हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देनेवाला और कोई नहीं है; क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक-दूसरे की मृत्यु के निमित्त बन रहे हैं ॥ ९ ॥
प्रभो ! आप सर्व-शक्तिमान् हैं। यह दहकते हुए लोहे का बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है। स्वामिन् ! यह मुझे भले ही जला डाले, परन्तु मेरे गर्भ को नष्ट न करे—ऐसी कृपा कीजिये ॥ १० ॥
सूतजी कहते हैं—भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही जान गये कि अश्वत्थामाने पाण्डवों के वंश को निर्बीज करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है ॥ ११ ॥
शौनकजी ! उसी समय पाण्डवों ने भी देखा कि जलते हुए पाँच बाण हमारी ओर आ रहे हैं। इसलिये उन्होंने भी अपने-अपने अस्त्र उठा लिये ॥ १२ ॥
सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अनन्य प्रेमियोंपर—शरणागत भक्तों पर बहुत बड़ी विपत्ति आयी जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन-चक्र से उन निज जनों की रक्षा की ॥ १३ ॥
योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तरा के गर्भ को पाण्डवों की वंश-परम्परा चला ने के लिये अपनी माया के कवच से ढक दिया ॥ १४ ॥
शौनकजी ! यद्यपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके निवारण का कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के तेज के सामने आकर वह शान्त हो गया ॥ १५ ॥
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान तो सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति माया से स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसार की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं ॥ १६ ॥
जब भगवान श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रह्मास्त्र की ज्वाला से मुक्त अपने पुत्रों के और द्रौपदी के साथ सती कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की ॥ १७ ॥
कुन्ती ने कहा—आप समस्त जीवों के बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ १८ ॥
इन्द्रियों से जो कुछ जाना जाता है, उसकी तहमें आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही माया के परदे से अपने को ढ के रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को भला, कैसे जान सकती हूँ ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते ॥ १९ ॥
आप शुद्ध हृदयवाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसों के हृदय में अपनी प्रेममयी भक्ति का सृजन करने के लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं ॥ २० ॥
आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द-गोप के लाड़ले लाल गोविन्द को हमारा बारंबार प्रणाम है ॥ २१ ॥
जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरण-कमलों में कमल का चिह्न है—श्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ २२ ॥
हृषीकेश ! जैसे आपने दुष्ट कंसके द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण ! कहाँ तक गिनाऊँ—विषसे, लाक्षागृह की भयानक आगसे, हिडिम्ब आदि राक्षसों की दृष्टिसे, दुष्टों की द्यूत-सभासे, वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्धों में अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी-अभी इस अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है ॥ २३-२४ ॥
जगद्गुरो ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चितरूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता ॥ २५ ॥
ऊँचे कुल में जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगों को दर्शन देते हैं, जो अकिंचन हैं ॥ २६ ॥
आप निर्धनों के परम धन हैं। माया का प्रपञ्च आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप में ही विहार करनेवाले, परम शान्त स्वरूप हैं। आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ २७ ॥
मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सब के नियन्ता, कालरूप परमेश्वर समझती हूँ। संसार के समस्त पदार्थ और प्राणी आपस में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परन्तु आप सब में समानरूप से विचर रहे हैं ॥ २८ ॥
भगवन् ! आप जब मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैं—यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न प्रिय है और न अप्रिय। आपके सम्बन्ध में लोगों की बुद्धि ही विषम हुआ करती है ॥ २९ ॥
आप विश्व के आत्मा हैं, विश्वरूप हैं। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदि में आप जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है ॥ ३० ॥
जब बचपन में आपने दूध की मट की फोडक़र यशोदा मैया को खिझा दिया था और उन्होंने आपको बाँध ने के लिये हाथ में रस्सी ली थी, तब आपकी आँखों में आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेत्र चञ्चल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झु का लिया था ! आपकी उस दशाका—लीला-छबि का ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ। भला, जिससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा ! ॥ ३१ ॥
आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई- कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचल की कीर्ति का विस्तार करने के लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु की कीर्ति का विस्तार करने के लिये ही आपने उनके वंश में अवतार ग्रहण किया है ॥ ३२ ॥
दूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकी ने पूर्वजन्म में (सुतपा और पृश्रकिे रूपमें) आप से यही वरदान प्राप्त किया था, इसीलिये आप अजन्मा होते हुए भी जगत के कल्याण और दैत्यों के नाश के लिये उनके पुत्र बने हैं ॥ ३३ ॥
कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यन्त भार से समुद्र में डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी—पीडि़त हो रही थी, तब ब्रह्मा की प्रार्थना से उसका भार उतार ने के लिये ही आप प्रकट हुए ॥ ३४ ॥
कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जो लोग इस संसार में अज्ञान, कामना और कर्मों के बन्धन में जकड़े हुए पीडि़त हो रहे हैं, उन लोगों के लिये श्रवण और स्मरण करनेयोग्य लीला करने के विचार से ही आपने अवतार ग्रहण किया है ॥ ३५ ॥
भक्तजन बार-बार आपके चरित्र का श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं; वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमल का दर्शन कर पाते हैं; जो जन्म-मृत्यु के प्रवाह को सदा के लिये रोक देता है ॥ ३६ ॥
भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो ! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हमलोगों को छोडक़र जाना चाहते हैं ? आप जानते हैं कि आपके चरणकमलों के अतिरिक्त हमें और किसी का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं ॥ ३७ ॥
जैसे जीव के बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियों के और हमारे पुत्र पाण्डवों के नाम तथा रूप का अस्तित्व ही क्या रह जाता है ॥ ३८ ॥
गदाधर ! आपके विलक्षण चरणचिह्नों से चिह्नित यह कुरुजाङ्गल-देश की भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी ॥ ३९ ॥
आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश प की हुई फसल तथा लता-वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं ॥ ४० ॥
आप विश्व के स्वामी हैं, विश्व के आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीजिये ॥ ४१ ॥
श्रीकृष्ण ! जैसे गङ्गा की अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आप से ही निरन्तर प्रेम करती रहे ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्ण ! अर्जुन के प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे ! आप पृथ्वी के भाररूप राजवेशधारी दैत्यों को जला ने के लिये अग्रि स्वरूप हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द ! आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओं का दु:ख मिटा ने के लिये ही है। योगेश्वर ! चराचर के गुरु भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ ४३ ॥
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार कुन्ती ने बड़े मधुर शब्दों में भगवान की अधिकांश लीलाओं का वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी माया से उसे मोहित करते हुए- से मन्द-मन्द मुसकराने लगे ॥ ४४ ॥
उन्होंने कुन्ती से कह दिया—‘अच्छा ठीक है’ और रथ के स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियों से विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से उन्हें रोक लिया ॥ ४५ ॥
राजा युधिष्ठिर को अपने भाई-बन्धुओं के मारे जाने का बड़ा शोक हो रहा था। भगवान की लीला का मर्म जाननेवाले व्यास आदि महर्षियों ने और स्वयं अद्भुत चरित्र करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझा ने की बहुत चेष्टा की; परंतु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा ॥ ४६ ॥
शौनकादि ऋषियो ! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को अपने स्वजनों के वध से बड़ी चिन्ता हुई। वे अविवेकयुक्त चित्त से स्नेह और मोह के वश में होकर कह ने लगे—भला, मुझ दुरात्मा के हृदय में बद्धमूल हुए इस अज्ञान को तो देखो; मैंने सियार-कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिये अनेक अक्षौहिणी [1] सेना का नाश कर डाला ॥ ४७-४८ ॥
मैंने बालक, ब्राह्मण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा, ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनों से द्रोह किया है। करोड़ों बरसों में भी नरक से मेरा छुटकारा नहीं हो सकता ॥ ४९ ॥
यद्यपि शास्त्र का वचन है कि राजा यदि प्रजा का पालन करने के लिये धर्मयुद्ध में शत्रुओं को मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ॥ ५० ॥
स्त्रियों के पति और भाई-बन्धुओं को मार ने से उनका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है, उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकों के द्वारा मार्जन करने में समर्थ नहीं हूँ ॥ ५१ ॥
जैसे कीचड़ से गँदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरा से मदिरा की अपवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैसे ही बहुत- से हिंसाबहुल यज्ञों के द्वारा एक भी प्राणी की हत्या का प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता ॥ ५२ ॥



[1] २१८७० रथ, २१८७० हाथी, १०९३५० पैदल और ६५६०० घुड़सवार—इतनी सेना को अक्षौहिणी कहते हैं।



स्कन्ध-01 [अध्याय-09]

युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राणत्याग करना 

॥ नवमोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
इति भीतः प्रजाद्रोहात्सर्वधर्मविवित्सया ।
ततो विनशनं प्रागाद्यत्र देवव्रतोऽपतत् ॥ १॥

तदा ते भ्रातरः सर्वे सदश्वैः स्वर्णभूषितैः ।
अन्वगच्छन् रथैर्विप्रा व्यासधौम्यादयस्तथा ॥ २॥

भगवानपि विप्रर्षे रथेन सधनञ्जयः ।
स तैर्व्यरोचत नृपः कुबेर इव गुह्यकैः ॥ ३॥

दृष्ट्वा निपतितं भूमौ दिवश्च्युतमिवामरम् ।
प्रणेमुः पाण्डवा भीष्मं सानुगाः सह चक्रिणा ॥ ४॥

तत्र ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षयश्च सत्तम ।
राजर्षयश्च तत्रासन् द्रष्टुं भरतपुङ्गवम् ॥ ५॥

पर्वतो नारदो धौम्यो भगवान् बादरायणः ।
बृहदश्वो भरद्वाजः सशिष्यो रेणुकासुतः ॥ ६॥

वसिष्ठ इन्द्रप्रमदस्त्रितो गृत्समदोऽसितः ।
कक्षीवान् गौतमोऽत्रिश्च कौशिकोऽथ सुदर्शनः ॥ ७॥

अन्ये च मुनयो ब्रह्मन् ब्रह्मरातादयोऽमलाः ।
शिष्यैरुपेता आजग्मुः कश्यपाङ्गिरसादयः ॥ ८॥

तान् समेतान् महाभागानुपलभ्य वसूत्तमः ।
पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित् ॥ ९॥

कृष्णं च तत्प्रभावज्ञ आसीनं जगदीश्वरम् ।
हृदिस्थं पूजयामास माययोपात्तविग्रहम् ॥ १०॥

पाण्डुपुत्रानुपासीनान् प्रश्रयप्रेमसङ्गतान् ।
अभ्याचष्टानुरागास्रैरन्धीभूतेन चक्षुषा ॥ ११॥

अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद्यूयं धर्मनन्दनाः ।
जीवितुं नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः ॥ १२॥

संस्थितेऽतिरथे पाण्डौ पृथा बालप्रजा वधूः ।
युष्मत्कृते बहून् क्लेशान् प्राप्ता तोकवती मुहुः ॥ १३॥

सर्वं कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम् ।
सपालो यद्वशे लोको वायोरिव घनावलिः ॥ १४॥

यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिर्वृकोदरः ।
कृष्णोऽस्त्री गाण्डिवं चापं सुहृत्कृष्णस्ततो विपत् ॥ १५॥

न ह्यस्य कर्हिचिद्राजन् पुमान् वेद विधित्सितम् ।
यद्विजिज्ञासया युक्ता मुह्यन्ति कवयोऽपि हि ॥ १६॥

तस्मादिदं दैवतन्त्रं व्यवस्य भरतर्षभ ।
तस्यानुविहितोऽनाथा नाथ पाहि प्रजाः प्रभो ॥ १७॥

एष वै भगवान् साक्षादाद्यो नारायणः पुमान् ।
मोहयन् मायया लोकं गूढश्चरति वृष्णिषु ॥ १८॥

अस्यानुभावं भगवान् वेद गुह्यतमं शिवः ।
देवर्षिर्नारदः साक्षाद्भगवान् कपिलो नृप ॥ १९॥

यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम् ।
अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम् ॥ २०॥

सर्वात्मनः समदृशो ह्यद्वयस्यानहङ्कृतेः ।
तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्य न क्वचित् ॥ २१॥

तथाप्येकान्तभक्तेषु पश्य भूपानुकम्पितम् ।
यन्मेऽसूंस्त्यजतः साक्षात्कृष्णो दर्शनमागतः ॥ २२॥

भक्त्यावेश्य मनो यस्मिन् वाचा यन्नाम कीर्तयन् ।
त्यजन् कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः ॥ २३॥

स देवदेवो भगवान् प्रतीक्षतां
कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् ।
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लसन्मुखाम्बुजो
ध्यानपथश्चतुर्भुजः ॥ २४॥

सूत उवाच
युधिष्ठिरस्तदाकर्ण्य शयानं शरपञ्जरे ।
अपृच्छद्विविधान् धर्मान् ऋषीणां चानुश‍ृण्वताम् ॥ २५॥

पुरुषस्वभावविहितान् यथावर्णं यथाश्रमम् ।
वैराग्यरागोपाधिभ्यामाम्नातोभयलक्षणान् ॥ २६॥

दानधर्मान् राजधर्मान् मोक्षधर्मान् विभागशः ।
स्त्रीधर्मान् भगवद्धर्मान् समासव्यासयोगतः ॥ २७॥

धर्मार्थकाममोक्षांश्च सहोपायान् यथा मुने ।
नानाख्यानेतिहासेषु वर्णयामास तत्त्ववित् ॥ २८॥

धर्मं प्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः ।
यो योगिनश्छन्दमृत्योर्वाञ्छितस्तूत्तरायणः ॥ २९॥

तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणी-
र्विमुक्तसङ्गं मन आदिपूरुषे ।
कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे
पुरः स्थितेऽमीलितदृग्व्यधारयत् ॥ ३०॥

विशुद्धया धारणया हताशुभ-
स्तदीक्षयैवाशु गतायुधव्यथः/श्रमः ।
निवृत्तसर्वेन्द्रियवृत्तिविभ्रमस्तुष्टाव
जन्यं विसृजञ्जनार्दनम् ॥ ३१॥

श्रीभीष्म उवाच
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥ ३२॥

त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं
रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृताननाब्जं
विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ ३३॥

युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्
कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये ।
मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि
विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३४॥

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये
निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा
हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥ ३५॥

व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य
स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या ।
कुमतिमहरदात्मविद्यया
यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ३६॥

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञां
ऋतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गुर्हरिरिव
हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥ ३७॥

शितविशिखहतो विशीर्णदंशः
क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥ ३८॥

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे
धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये ।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोर्यमिह
निरीक्ष्य हता गताः सरूपम् ॥ ३९॥
ललितगतिविलासवल्गुहास-
प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः ।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः
प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥ ४०॥

मुनिगणनृपवर्यसङ्कुलेऽन्तःसदसि
युधिष्ठिरराजसूय एषाम् ।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो
मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ॥ ४१॥

तमिममहमजं शरीरभाजां
हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम् ।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं
समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः ॥ ४२॥

सूत उवाच
कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत् ॥ ४३॥ सगोनसंगोगो
सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले ।
सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीं वयांसीव दिनात्यये ॥ ४४॥

तत्र दुन्दुभयो नेदुर्देवमानववादिताः ।
शशंसुः साधवो राज्ञां खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ ४५॥

तस्य निर्हरणादीनि सम्परेतस्य भार्गव ।
युधिष्ठिरः कारयित्वा मुहूर्तं दुःखितोऽभवत् ॥ ४६॥

तुष्टुवुर्मुनयो हृष्टाः कृष्णं तद्गुह्यनामभिः ।
ततस्ते कृष्णहृदयाः स्वाश्रमान् प्रययुः पुनः ॥ ४७॥

ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्वयम् ।
पितरं सान्त्वयामास गान्धारीं च तपस्विनीम् ॥ ४८॥

पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः ।
चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः ॥ ४९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-नवाँ अध्याय 
युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना और भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राणत्याग करना

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोह से भयभीत हो गये। फिर सब धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्या पर पड़े हुए थे ॥ १ ॥
शौनकादि ऋषियो ! उस समय उन सब भाइयों ने स्वर्णजटित रथोंपर, जिन में अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिर का अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे ॥ २ ॥
शौनकजी ! अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण भी रथ पर चढक़र चले। उन सब भाइयों के साथ महाराज युधिष्ठिर की ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षों से घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों ॥ ३ ॥
अपने अनुचरों और भगवान श्रीकृष्ण के साथ वहाँ जाकर पाण्डवों ने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। उन लोगों ने उन्हें प्रणाम किया ॥ ४ ॥
शौनकजी ! उसी समय भरतवंशियों के गौरवरूप भीष्मपितामह को देखने के लिये सभी ब्रहमर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये ॥ ५ ॥
पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध हृदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, अङ्गिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे ॥ ६-८ ॥
भीष्मपितामह धर्म को और देश-काल के विभाग को—कहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बात को जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ॥ ९ ॥
वे भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे। अत: उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में हृदय में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की ॥ १० ॥
पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्म- पितामह की आँखें प्रेम के आँसुओं से भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा— ॥ ११ ॥
‘धर्मपुत्रो ! हाय ! हाय ! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुमलोगों को ब्राह्मण, धर्म और भगवान के आश्रित रहने पर भी इत ने कष्ट के साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे ॥ १२ ॥
अतिरथी पाण्डु की मृत्यु के समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुमलोगों के लिये कुन्तीरानी को और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत- से कष्ट झेल ने पड़े ॥ १३ ॥
जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार कालभगवान के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुमलोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला हैं ॥ १४ ॥
नहीं तो जहाँ साक्षात धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हों—भला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना है ? ॥ १५ ॥
ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बात को कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जान ने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ॥ १६ ॥
युधिष्ठिर ! संसार की ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छा के अधीन हैं। उसी का अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो ॥ १७ ॥
ये श्रीकृष्ण साक्षात भगवान हैं। ये सब के आदि कारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं ॥ १८ ॥
इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर ! उसे भगवान शङ्कर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान कपिल ही जानते हैं ॥ १९ ॥
जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सब से बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुम ने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में सं कोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं ॥ २० ॥
इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकाररहित और निष्पाप परमात्मा में उन ऊँचे-नीचे कार्यों के कारण कभी किसी प्रकार की विषमता नहीं होती ॥ २१ ॥
युधिष्ठिर ! इस प्रकार सर्वत्र सम होने पर भी, देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तों पर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे साक्षात दर्शन दिया है ॥ २२ ॥
भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर्म के बन्धन से छूट जाते हैं ॥ २३ ॥
वे ही देवदेव भगवान अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमल के समान अरुण नेत्रों से उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूपसे, जिसका और लोगों को केवल ध्यान में दर्शन होता है, तब तक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें, जब तक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूँ’ ॥ २४ ॥
सूतजी कहते हैं—युधिष्ठिर ने उनकी यह बात सुनकर शर-शय्या पर सोये हुए भीष्मपितामह से बहुत- से ऋषियों के सामने ही नाना प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध में अनेकों रहस्य पूछे ॥ २५ ॥
तब तत्त्ववेत्ता भीष्म-पितामह ने वर्ण और आश्रम के अनुसार पुरुष के स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा राग के कारण विभिन्नरूप से बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म—इन सब का अलग-अलग संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया। शौनकजी ! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों का तथा इन की प्राप्ति के साधनों का अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागश: वर्णन किया ॥ २६-२८ ॥
भीष्मपितामह इस प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुँचा, जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं ॥ २९ ॥
उस समय हजारों रथियों के नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मन को सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर चतुर्भुज विग्रह पर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजी की आँखें उसी पर एकटक लग गयीं ॥ ३० ॥
उन को शस्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी, वह तो भगवान के दर्शनमात्र से ही तुरन्त दूर हो गयी तथा भगवान की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे, वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोडऩे के समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों के वृत्ति-विलास को रोक दिया और बड़े प्रेम से भगवान की स्तुति की ॥ ३१ ॥
भीष्मजी ने कहा—अब मृत्यु के समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंश-शिरोमणि अनन्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूप में स्थित रहते हुए ही कभी विहार करनेकी—लीला करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है ॥ ३२ ॥
जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमाल के समान साँवला है, जिस पर सूर्य-रश्मियों के समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुख पर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्ण में मेरी निष्कपट प्रीति हो ॥ ३३ ॥
मुझे युद्ध के समय की उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है। उनके मुख पर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ों की टाप की धूल से मटमैले हो गये थे और पसी ने की छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर, अन्त:करण और आत्मा समर्पित हो जायँ ॥ ३४ ॥
अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेना के बीच में अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्हों ने अपनी दृष्टि से ही शत्रुपक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली, उन पार्थसखा भगवान श्रीकृष्ण में मेरी परम प्रीति हो ॥ ३५ ॥
अर्जुन ने जब दूर से कौरवों की सेना के मुखिया हमलोगों को देखा, तब पाप समझकर वह अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया। उस समय जिन्हों ने गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञान का नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे ॥ ३६ ॥
मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोङूँगा; उसे सत्य एवं ऊँची करने के लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथ से नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथी को मार ने के लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेकर मुझ पर झपट पड़े। उस समय वे इत ने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँप ने लगी ॥ ३७ ॥
मुझ आततायी ने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मार ने के लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों—आश्रय हों ॥ ३८ ॥
अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिन श्रीकृष्ण के बायें हाथ में घोड़ों की रास थी और दाहि ने हाथ में चाबुक, इन दोनों की शोभा से उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारत युद्ध में मरनेवाले वीर जिनकी इस छवि का दर्शन करते रहने के कारण सारूप्य मोक्ष को प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान श्रीकृष्ण में मुझ मरणासन्न की परम प्रीति हो ॥ ३९ ॥
जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवन से अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीला में उनके अन्तर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो ॥ ४० ॥
जिस समय युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओं से भरी हुई सभा में सब से पहले सब की ओर से इन्हीं सब के दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण की मेरी आँखों के सामने पूजा हुई थी; वे ही सब के आत्मा प्रभु आज इस मृत्यु के समय मेरे सामने खड़े हैं ॥ ४१ ॥
जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप- से जान पड़ते हैं; वास्तव में तो वे एक और सब के हृदय में विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान श्रीकृष्ण को मैं भेद-भ्रम से रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ॥ ४२ ॥
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्म स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण में अपने-आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये ॥ ४३ ॥
उन्हें अनन्त ब्रह्म में लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिन के बीत जाने पर पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है ॥ ४४ ॥
उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभाव के राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी ॥ ४५ ॥
शौनकजी ! युधिष्ठिर ने उनके मृत शरीर की अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समय के लिये वे शोकमग्र हो गये ॥ ४६ ॥
उस समय मुनियों ने बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात अपने हृदयों को श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमों को लौट गये ॥ ४७ ॥
तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण के साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी को ढाढस बँधाया ॥ ४८ ॥
फिर धृतराष्ट्र की आज्ञा और भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश परम्परागत साम्राज्य का धर्मपूर्वक शासन करने लगे ॥ ४९ ॥

स्कन्ध-01 [अध्याय-10]

श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन 

॥ दशमोऽध्यायः ॥
शौनक उवाच
हत्वा स्वरिक्थस्पृध आततायिनो
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
सहानुजैः प्रत्यवरुद्धभोजनः
कथं प्रवृत्तः किमकारषीत्ततः ॥ १॥

सूत उवाच
वंशं कुरोर्वंशदवाग्निनिर्हृतं
संरोहयित्वा भवभावनो हरिः ।
निवेशयित्वा निजराज्य ईश्वरो
युधिष्ठिरं प्रीतमना बभूव ह ॥ २॥

निशम्य भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तं
प्रवृत्तविज्ञानविधूतविभ्रमः ।
शशास गामिन्द्र इवाजिताश्रयः
परिध्युपान्तामनुजानुवर्तितः ॥ ३॥

कामं ववर्ष पर्जन्यः सर्वकामदुघा मही ।
सिषिचुः स्म व्रजान् गावः पयसोधस्वतीर्मुदा ॥ ४॥

नद्यः समुद्रा गिरयः सवनस्पतिवीरुधः ।
फलन्त्योषधयः सर्वाः काममन्वृतु तस्य वै ॥ ५॥

नाधयो व्याधयः क्लेशा दैवभूतात्महेतवः ।
अजातशत्रावभवन् जन्तूनां राज्ञि कर्हिचित् ॥ ६॥

उषित्वा हास्तिनपुरे मासान् कतिपयान् हरिः ।
सुहृदां च विशोकाय स्वसुश्च प्रियकाम्यया ॥ ७॥

आमन्त्र्य चाभ्यनुज्ञातः परिष्वज्याभिवाद्य तम् ।
आरुरोह रथं कैश्चित्परिष्वक्तोऽभिवादितः ॥ ८॥

सुभद्रा द्रौपदी कुन्ती विराटतनया तथा ।
गान्धारी धृतराष्ट्रश्च युयुत्सुर्गौतमो यमौ ॥ ९॥

वृकोदरश्च धौम्यश्च स्त्रियो मत्स्यसुतादयः ।
न सेहिरे विमुह्यन्तो विरहं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १०॥

सत्सङ्गान्मुक्तदुःसङ्गो हातुं नोत्सहते बुधः ।
कीर्त्यमानं यशो यस्य सकृदाकर्ण्य रोचनम् ॥ ११॥

तस्मिन् न्यस्तधियः पार्थाः सहेरन् विरहं कथम् ।
दर्शनस्पर्शसंलापशयनासनभोजनैः ॥ १२॥

सर्वे तेऽनिमिषैरक्षैस्तमनुद्रुतचेतसः ।
वीक्षन्तः स्नेहसम्बद्धा विचेलुस्तत्र तत्र ह ॥ १३॥

न्यरुन्धन्नुद्गलद्बाष्पमौत्कण्ठ्याद्देवकीसुते ।
निर्यात्यगारान्नोऽभद्रमिति स्याद्बान्धवस्त्रियः ॥ १४॥

मृदङ्गशङ्खभेर्यश्च वीणापणवगोमुखाः ।
धुन्धुर्यानकघण्टाद्या नेदुर्दुन्दुभयस्तथा ॥ १५॥

प्रासादशिखरारूढाः कुरुनार्यो दिदृक्षया ।
ववृषुः कुसुमैः कृष्णं प्रेमव्रीडास्मितेक्षणाः ॥ १६॥

सितातपत्रं जग्राह मुक्तादामविभूषितम् ।
रत्नदण्डं गुडाकेशः प्रियः प्रियतमस्य ह ॥ १७॥

उद्धवः सात्यकिश्चैव व्यजने परमाद्भुते ।
विकीर्यमाणः कुसुमै रेजे मधुपतिः पथि ॥ १८॥

अश्रूयन्ताशिषः सत्यास्तत्र तत्र द्विजेरिताः ।
नानुरूपानुरूपाश्च निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १९॥

अन्योन्यमासीत्सञ्जल्प उत्तमश्लोकचेतसाम् ।
कौरवेन्द्रपुरस्त्रीणां सर्वश्रुतिमनोहरः ॥ २०॥

स वै किलायं पुरुषः पुरातनो
य एक आसीदविशेष आत्मनि ।
अग्रे गुणेभ्यो जगदात्मनीश्वरे
निमीलितात्मन् निशि सुप्तशक्तिषु ॥ २१॥

स एव भूयो निजवीर्यचोदितां
स्वजीवमायां प्रकृतिं सिसृक्षतीम् ।
अनामरूपात्मनि रूपनामनी
विधित्समानोऽनुससार शास्त्रकृत् ॥ २२॥

स वा अयं यत्पदमत्र सूरयो
जितेन्द्रिया निर्जितमातरिश्वनः ।
पश्यन्ति भक्त्युत्कलितामलात्मना
नन्वेष सत्त्वं परिमार्ष्टुमर्हति ॥ २३॥

स वा अयं सख्यनुगीतसत्कथो
वेदेषु गुह्येषु च गुह्यवादिभिः ।
य एक ईशो जगदात्मलीलया
सृजत्यवत्यत्ति न तत्र सज्जते ॥ २४॥

यदा ह्यधर्मेण तमोधियो नृपा
जीवन्ति तत्रैष हि सत्त्वतः किल ।
धत्ते भगं सत्यमृतं दयां यशो
भवाय रूपाणि दधद्युगे युगे ॥ २५॥

अहो अलं श्लाघ्यतमं यदोः कुलमहो
अलं पुण्यतमं मधोर्वनम् ।
यदेष पुंसामृषभः श्रियः पतिः
स्वजन्मना चङ्क्रमणेन चाञ्चति ॥ २६॥

अहो बत स्वर्यशसस्तिरस्करी
कुशस्थली पुण्ययशस्करी भुवः ।
पश्यन्ति नित्यं यदनुग्रहेषितं
स्मितावलोकं स्वपतिं स्म यत्प्रजाः ॥ २७॥

नूनं व्रतस्नानहुतादिनेश्वरः
समर्चितो ह्यस्य गृहीतपाणिभिः ।
पिबन्ति याः सख्यधरामृतं मुहुर्व्रजस्त्रियः
सम्मुमुहुर्यदाशयाः ॥ २८॥

या वीर्यशुल्केन हृताः स्वयंवरे
प्रमथ्य चैद्यप्रमुखान् हि शुष्मिणः ।
प्रद्युम्नसाम्बाम्बसुतादयोऽपरा
याश्चाहृता भौमवधे सहस्रशः ॥ २९॥

एताः परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं
निरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
यासां गृहात्पुष्करलोचनः पतिर्न
जात्वपैत्याहृतिभिर्हृदि स्पृशन् ॥ ३०॥

एवंविधा गदन्तीनां स गिरः पुरयोषिताम् ।
निरीक्षणेनाभिनन्दन् सस्मितेन ययौ हरिः ॥ ३१॥

अजातशत्रुः पृतनां गोपीथाय मधुद्विषः ।
परेभ्यः शङ्कितः स्नेहात्प्रायुङ्क्त चतुरङ्गिणीम् ॥ ३२॥

अथ दूरागतान् शौरिः कौरवान् विरहातुरान् ।
सन्निवर्त्य दृढं स्निग्धान् प्रायात्स्वनगरीं प्रियैः ॥ ३३॥

कुरुजाङ्गलपाञ्चालान् शूरसेनान् सयामुनान् ।
ब्रह्मावर्तं कुरुक्षेत्रं मत्स्यान् सारस्वतानथ ॥ ३४॥

मरुधन्वमतिक्रम्य सौवीराभीरयोः परान् ।
आनर्तान् भार्गवोपागाच्छ्रान्तवाहो मनाग् विभुः ॥ ३५॥

तत्र तत्र ह तत्रत्यैर्हरिः प्रत्युद्यतार्हणः ।
सायं भेजे दिशं पश्चाद्गविष्ठो गां गतस्तदा ॥ ३६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
श्रीकृष्णद्वारकागमनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १०॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-दसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन
शौनकजी ने पूछा—धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिर ने अपनी पैतृक सम्पत्ति को हड़प जाने के इच्छुक आतताइयों का नाश करके अपने भाइयों के साथ किस प्रकार से राज्य-शासन किया और कौन-कौन- से काम किये, क्योंकि भोगों में तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं ॥ १ ॥
सूतजी कहते हैं—सम्पूर्ण सृष्टि को उज्जीवित करनेवाले भगवान श्रीहरि परस्पर की कलहाग्रि से दग्ध कुरुवंश को पुन: अंकुरितकर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए ॥ २ ॥
भीष्मपितामह और भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों के श्रवण से उनके अन्त:करण में विज्ञान- का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान के आश्रय में रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी का इन्द्र के समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई पूर्णरूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे ॥ ३ ॥
युधिष्ठिर के राज्य में आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वी में समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनोंवाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूध से सींचती रहती थीं ॥ ४ ॥
नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतु में यथेष्टरूप से अपनी-अपनी वस्तुएँ राजा को देती थीं ॥ ५ ॥
अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर के राज्य में किसी प्राणी को कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे ॥ ६ ॥
अपने बन्धुओं का शोक मिटा ने के लिये और अपनी बहिन सुभद्रा की प्रसन्नता के लिये भगवान श्रीकृष्ण कई महीनों तक हस्तिनापुर में ही रहे ॥ ७ ॥
फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिर से द्वार का जाने की अनुमति माँगी, तब राजाने उन्हें अपने हृदय से लगाकर स्वीकृति दे दी। भगवान उन को प्रणाम करके रथ पर सवार हुए। कुछ लोगों (समान उम्रवालों) ने उनका आलिङ्गन किया और कुछ (छोटी उम्र- वालों) ने प्रणाम ॥ ८ ॥
उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य और सत्यवती आदि सब मूर्छित- से हो गये। वे शार्ङ्गपाणि श्रीकृष्ण का विरह नहीं सह सके ॥ ९-१० ॥
भगवद्भक्त सत्पुरुषों के सङ्ग से जिसका दु:सङ्ग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान के मधुर-मनोहर सुयश को एक बार भी सुन लेने पर फिर उसे छोडऩे की कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं भगवान के दर्शन तथा स्पर्शसे, उनके साथ आलाप करने से तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठ ने और भोजन करने से जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चु का था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे ॥ ११-१२ ॥
उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निॢनमेष नेत्रों से भगवान को देखते हुए स्नेह-बन्धन से बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे ॥ १३ ॥
भगवान श्रीकृष्ण के घर से चलते समय उनके बन्धुओं की स्त्रियों के नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओं से भर आये; परन्तु इस भय से कि कहीं यात्रा के समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाई से उन्हें रोक लिया ॥ १४ ॥
भगवान के प्रस्थान के समय मृदङ्ग, शङ्ख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बज ने लगे ॥ १५ ॥
भगवान के दर्शन की लालसा से कुरुवंश की स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुसकान से युक्त चितवन से भगवान को देखती हुई उन पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं ॥ १६ ॥
उस समय भगवान के प्रिय सखा घुँघराले बालोंवाले अर्जुन ने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का वह श्वेत छत्र, जिसमें मोतियों की झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नों का बना हुआ था, अपने हाथ में ले लिया ॥ १७ ॥
उद्धव और सात्यकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण पर चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँ की थी ॥ १८ ॥
जहाँ-तहाँ ब्राह्मणों के दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान के तो अनुरूप ही थे; क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुण के अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है ॥ १९ ॥
हस्तिनापुर की कुलीन रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रही थीं, जो सब के कान और मन को आकृष्ट कर रही थीं ॥ २० ॥
वे आपस में कह रही थीं—‘सखियो ! ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलय के समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरूप में स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टि के मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते। जगदात्मा ईश्वर में जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ अपने कारण अव्यक्त में सो जाती हैं ॥ २१ ॥
उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित स्वरूप में नामरूप के निर्माण की इच्छा की, तथा अपनी काल-शक्ति से प्रेरित प्रकृतिका, जो कि उनके अंशभूत जीवों को मोहित कर लेती है और सृष्टि की रचना में प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और व्यवहार के लिये वेदादि शास्त्रों की रचना की ॥ २२ ॥
इस जगत में जिसके स्वरूप का साक्षातकार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणों को वश में करके भक्ति से प्रफुल्लित निर्मल हृदय में किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात परब्रह्म हैं। वास्तव में इन्हीं की भक्ति से अन्त:करण की पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादि के द्वारा नहीं ॥ २३ ॥
सखी ! वास्तव में ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी ऋषियों ने किया है—जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीला से जगत की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते ॥ २४ ॥
जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्म से अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही सत्त्वगुण को स्वीकारकर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते और संसार के कल्याण के लिये युग-युग में अनेकों अवतार धारण करते हैं ॥ २५ ॥
अहो ! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने जन्म ग्रहण करके इस वंश को सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन (व्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है, जिसे इन्हों ने अपने शैशव एवं किशोरावस्था में घूम-फिरकर सुशोभित किया है ॥ २६ ॥
बड़े हर्ष की बात है कि द्वारका ने स्वर्ग के यश का तिरस्कार करके पृथ्वी के पवित्र यश को बढ़ाया है। क्यों न हो, वहाँ की प्रजा अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को, जो बड़े प्रेम से मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपादृष्टि से देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती हैं ॥ २७ ॥
सखी ! जिनका इन्हों ने पाणिग्रहण किया है, उन स्त्रियों ने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के द्वारा इन परमात्मा की आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इन की उस अधर-सुधा का पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्र से ही व्रजबालाएँ आनन्द से मूर्च्छित हो जाया करती थीं ॥ २८ ॥
ये स्वयंवर में शिशुपाल आदि मतवाले राजाओं का मान मर्दन करके जिन को अपने बाहुबल से हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्युम्र, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुर को मारकर लायी हुई जो इन की हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तव में धन्य हैं। क्योंकि इन सभी ने स्वतन्त्रता और पतिव्रता से रहित स्त्रीजीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इन की महिमा का वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकार की प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओं की भेंट से इनके हृदय में प्रेम एवं आनन्द की अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षण के लिये भी इन्हें छोडक़र दूसरी जगह नहीं जाते ॥ २९-३० ॥
हस्तिनापुर की स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवन से उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँ से विदा हो गये ॥ ३१ ॥
अजातशत्रु युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा के लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शङ् का हो आयी थी कि कहीं रास्ते में शत्रु इन पर आक्रमण न कर दें ॥ ३२ ॥
सुदृढ़ प्रेम के कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान के साथ बहुत दूर तक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरह से व्याकुल हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रों के साथ द्वारका की यात्रा की ॥ ३३ ॥
शौनकजी! वे कुरुजाङ्गल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुना के तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देश को पार करके सौवीर और आभीर देश के पश्चिम आनत्र्त देश में आये। उस समय अधिक चल ने के कारण भगवान के रथ के घोड़े कुछ थक- से गये थे ॥ ३४-३५ ॥
मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान का सम्मान करते, सायंकाल होने पर वे रथ पर से भूमि पर उतर आते और जलाशय पर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्या थी ॥ ३६ ॥ 

स्कन्ध-01 [अध्याय-11]

द्वारका में श्रीकृष्ण का राजोचत स्वागत 

॥ एकादशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
आनर्तान् स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान् स्वकान् ।
दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥ १॥

स उच्चकाशे धवलोदरो
दरोऽप्युरुक्रमस्याधरशोणशोणिमा ।
दाध्मायमानः करकञ्जसम्पुटे
यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ॥ २॥

तमुपश्रुत्य निनदं जगद्भयभयावहम् ।
प्रत्युद्ययुः प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः ॥ ३॥

तत्रोपनीतबलयो रवेर्दीपमिवादृताः ।
आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ४॥

प्रीत्युत्फुल्लमुखाः प्रोचुर्हर्षगद्गदया गिरा ।
पितरं सर्वसुहृदमवितारमिवार्भकाः ॥ ५॥

नताः स्म ते नाथ सदाङ्घ्रिपङ्कजं
विरिञ्चवैरिञ्च्यसुरेन्द्रवन्दितम् ।
परायणं क्षेममिहेच्छतां परं
न यत्र कालः प्रभवेत्परः प्रभुः ॥ ६॥

भवाय नस्त्वं भव विश्वभावन
त्वमेव माताथ सुहृत्पतिः पिता ।
त्वं सद्गुरुर्नः परमं च दैवतं
यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ॥ ७॥

अहो सनाथा भवता स्म यद्वयं
त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।
प्रेमस्मितस्निग्धनिरीक्षणाननं
पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ॥ ८॥

यर्ह्यम्बुजाक्षापससार भो भवान्
कुरून् मधून् वाथ सुहृद्दिदृक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद्रविं
विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥ ९॥

(कथं वयं नाथ चिरोषिते त्वयि
प्रसन्नदृष्ट्याखिलतापशोषणम् ।
जीवेम ते सुन्दरहासशोभित-
मपश्यमाना वदनं मनोहरम् ॥)
इति चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः ।
श‍ृण्वानोऽनुग्रहं दृष्ट्या वितन्वन् प्राविशत्पुरीम् ॥ १०॥

मधुभोजदशार्हार्हकुकुरान्धकवृष्णिभिः ।
आत्मतुल्यबलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ॥ ११॥

सर्वर्तुसर्वविभवपुण्यवृक्षलताश्रमैः ।
उद्यानोपवनारामैर्वृतपद्माकरश्रियम् ॥ १२॥

गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुकतोरणाम् ।
चित्रध्वजपताकाग्रैरन्तः प्रतिहतातपाम् ॥ १३॥

सम्मार्जितमहामार्गरथ्यापणकचत्वराम् ।
सिक्तां गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताङ्कुरैः ॥ १४॥

द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षतफलेक्षुभिः ।
अलङ्कृतां पूर्णकुम्भैर्बलिभिर्धूपदीपकैः ॥ १५॥

निशम्य प्रेष्ठमायान्तं वसुदेवो महामनाः ।
अक्रूरश्चोग्रसेनश्च रामश्चाद्भुतविक्रमः ॥ १६॥

प्रद्युम्नश्चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
प्रहर्षवेगोच्छ्वसितशयनासनभोजनाः ॥ १७॥

वारणेन्द्रं पुरस्कृत्य ब्राह्मणैः ससुमङ्गलैः ।
शङ्खतूर्यनिनादेन ब्रह्मघोषेण चादृताः ।
प्रत्युज्जग्मू रथैर्हृष्टाः प्रणयागतसाध्वसाः ॥ १८॥

वारमुख्याश्च शतशो यानैस्तद्दर्शनोत्सुकाः ।
लसत्कुण्डलनिर्भातकपोलवदनश्रियः ॥ १९॥

नटनर्तकगन्धर्वाः सूतमागधवन्दिनः ।
गायन्ति चोत्तमश्लोकचरितान्यद्भुतानि च ॥ २०॥

भगवांस्तत्र बन्धूनां पौराणामनुवर्तिनाम् ।
यथाविध्युपसङ्गम्य सर्वेषां मानमादधे ॥ २१॥

प्रह्वाभिवादनाश्लेषकरस्पर्शस्मितेक्षणैः ।
आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्चाभिमतैर्विभुः ॥ २२॥

स्वयं च गुरुभिर्विप्रैः सदारैः स्थविरैरपि ।
आशीर्भिर्युज्यमानोऽन्यैर्वन्दिभिश्चाविशत्पुरम् ॥ २३॥

राजमार्गं गते कृष्णे द्वारकायाः कुलस्त्रियः ।
हर्म्याण्यारुरुहुर्विप्राः तदीक्षणमहोत्सवाः ॥ २४॥

नित्यं निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् ।
न वितृप्यन्ति हि दृशः श्रियो धामाङ्गमच्युतम् ॥ २५॥

श्रियो निवासो यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम् ।
बाहवो लोकपालानां सारङ्गाणां पदाम्बुजम् ॥ २६॥

सितातपत्रव्यजनैरुपस्कृतः
प्रसूनवर्षैरभिवर्षितः पथि
पिशङ्गवासा वनमालया बभौ
घनो यथार्कोडुपचापवैद्युतैः ॥ २७॥

प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः ।
ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥ २८॥

ताः पुत्रमङ्कमारोप्य स्नेहस्नुतपयोधराः ।
हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुर्नेत्रजैर्जलैः ॥ २९॥

अथाविशत्स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा यत्र पत्नीनां सहस्राणि च षोडश ॥ ३०॥

पत्न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं
विलोक्य सञ्जातमनोमहोत्सवाः ।
उत्तस्थुरारात्सहसासनाशयात्साकं
व्रतैर्व्रीडितलोचनाननाः ॥ ३१॥

तमात्मजैर्दृष्टिभिरन्तरात्मना
दुरन्तभावाः परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बुनेत्रयोर्विलज्जतीनां
भृगुवर्य वैक्लवात् ॥ ३२॥

यद्यप्यसौ पार्श्वगतो रहोगतस्तथापि
तस्याङ्घ्रियुगं नवं नवम् ।
पदे पदे का विरमेत तत्पदाच्चलापि
यच्छ्रीर्न जहाति कर्हिचित् ॥ ३३॥

एवं नृपाणां क्षितिभारजन्मना-
मक्षौहिणीभिः परिवृत्ततेजसाम् ।
विधाय वैरं श्वसनो यथानलं
मिथो वधेनोपरतो निरायुधः ॥ ३४॥

स एष नरलोकेऽस्मिन्नवतीर्णः स्वमायया ।
रेमे स्त्रीरत्नकूटस्थो भगवान् प्राकृतो यथा ॥ ३५॥

उद्दामभावपिशुनामलवल्गुहास-
व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् ।
सम्मुह्य तापमजहात्प्रमदोत्तमास्ता
यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः ॥ ३६॥

तमयं मन्यते लोको ह्यसङ्गमपि सङ्गिनम् ।
आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः ॥ ३७॥

एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्गुणैः ।
न युज्यते सदाऽऽत्मस्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥ ३८॥

तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ।
अप्रमाणविदो भर्तुरीश्वरं मतयो यथा ॥ ३९॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने श्रीकृष्णद्वारकाप्रवेशो नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-ग्यारहवाँ अध्याय 
द्वारका में श्रीकृष्ण का राजोचत स्वागत
सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्ण ने अपने समृद्ध आनत्र्त देश में पहुँचकर वहाँ के लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाञ्चजन्य नामक शङ्ख बजाया ॥ १ ॥
भगवान के होठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेत वर्ण का शङ्ख बजते समय उनके कर-कमलों में ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंग के कमलों पर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो ॥ २ ॥
भगवान के शङ्ख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से नगर के बाहर निकल आयी ॥ ३ ॥
भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं। फिर भी जैसे लोग बड़े आदर से भगवान सूर्य को भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार की भेंटों से प्रजाने श्रीकृष्ण का स्वागत किया ॥ ४ ॥
सब के मुख-कमल प्रेम से खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणी से सब के सुहृद् और संरक्षक भगवान श्रीकृष्ण की ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पिता से अपनी तोतली बोली में बातें करते हैं ॥ ५ ॥
‘स्वामिन् ! हम आपके उन चरण-कमलों को सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र तक करते हैं, जो इस संसार में परम कल्याण चाहनेवालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बाल तक बाँ का नहीं कर सकता ॥ ६ ॥
विश्वभावन ! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणों की सेवा से हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें ॥ ७ ॥
अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये। क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूप का हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है ! प्रेमपूर्ण मुसकान से स्निग्ध चितवन ! यह दर्शन तो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ॥ ८ ॥
कमलनयन श्रीकृष्ण ! जब आप अपने बन्धु-बान्धवों से मिल ने के लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रज-मण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि- कोटि वर्षों के समान लंबा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसी सूर्य के बिना आँखों की ॥ ९ ॥
भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रजा के मुख से ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टि से उन पर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारका में प्रविष्ट हुए ॥ १० ॥
जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान की वह द्वारकापुरी भी मधु, भोज, दशाहर्, अहर्, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रम की तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी ॥ ११ ॥
वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुञ्जों से युक्त थी। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीच में कमलयुक्त सरोवर नगर की शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १२ ॥
नगर के फाटकों, महलके दरवाजों और सडक़ों पर भगवान के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिन से उन स्थानों पर घाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था ॥ १३ ॥
उसके राजमार्ग, अन्यान्य सडक़ें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जल से सींच दिये गये थे। और भगवान के स्वागत के लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अङ्क्ुर चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १४ ॥
घरों के प्रत्येक द्वार पर दही, अक्षत, फल, ईख, जल से भरे हुए कलश, उपहार की वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ॥ १५ ॥
उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्र, चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मन में इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगों ने अपने सभी आवश्यक कार्य—सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेम के आवेग से उनका हृदय उछल ने लगा। वे मङ्गलशकुन के लिये एक गजराज को आगे करके स्वस्त्ययन-पाठ करते हुए और माङ्गलिक सामग्रियों से सुसज्जित ब्राह्मणों को साथ लेकर चले। शङ्ख और तुरही आदि बाजे बज ने लगे और वेदध्वनि होने लगी। वे सब हर्षित होकर रथों पर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धि से भगवान की अगवानी करने चले ॥ १६—१८ ॥
साथ ही भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलों पर चमचमाते हुए कुण्डलों की कान्ति पडऩे से बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियों पर चढक़र भगवान की अगवानी के लिये चलीं ॥ १९ ॥
बहुत- से नट, नाचनेवाले, गानेवाले, विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान श्रीकृष्ण के अद्भुत चरित्रों का गायन करते हुए चले ॥ २० ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग- अलग मिलकर सब का सम्मान किया ॥ २१ ॥
किसीको सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसीको वाणी से अभिवादन किया, किसीको हृदय से लगाया, किसी से हाथ मिलाया, किसी की ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टि से देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही-वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सब को संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धों का तथा दूसरे लोगों का भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनों से विरुदावली सुनते हुए सब के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया ॥ २२-२३ ॥
शौनकजी !जिस समय भगवान राजमार्ग से जा रहे थे, उस समय द्वारका की कुल-कामिनियाँ भगवान के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं ॥ २४ ॥
भगवान- का वक्ष:स्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मी का निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रों के द्वारा पान करने के लिये सौन्दर्य-सुधा से भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालों को भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसों के आश्रय हैं। उनके अङ्ग-अङ्ग शोभा के धाम हैं। भगवान की इस छवि को द्वारकावासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षण के लिये भी तृप्त नहीं होतीं ॥ २५-२६ ॥
द्वार का के राजपथ पर भगवान श्रीकृष्ण के ऊ पर श्वेत वर्ण का छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओर से पुष्पों की वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजली से शोभायमान हो ॥ २७ ॥
भगवान सब से पहले अपने माता-पिता के महल में गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्द से देव की आदि सातों माताओं को चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओं ने उन्हें अपने हृदय से लगाकर गोद में बैठा लिया। स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध की धारा बह ने लगी, उनका हृदय हर्ष से विह्वल हो गया और वे आनन्द के आँसुओं से उनका अभिषेक करने लगीं ॥ २८-२९ ॥
माताओं से आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियों से सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवन में गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे ॥ ३० ॥
अपने प्राणनाथ भगवान श्रीकृष्ण को बहुत दिन बाहर रहने के बाद घर आया देखकर रानियों के हृदय में बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोडक़र उठ खड़ी हुर्ईं; उन्होंने केवल आसन को ही नहीं, बल्कि उन नियमों को[1] भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होने पर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रों में लज्जा छा गयी ॥ ३१ ॥
भगवान के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रों के द्वारा और तत्पश्चात पुत्रों के बहा ने शरीर से उनका आलिङ्गन किया। शौनकजी ! उस समय उनके नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थे, उन्हें सङ् कोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये ॥ ३२ ॥
यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभाव से ही चञ्चल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी संनिधि से किस स्त्री को तृप्ति हो सकती है ॥ ३३ ॥
जैसे वायु बाँसों के संघर्ष से दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेनासहित एक-दूसरे से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये ॥ ३४ ॥
साक्षात परमेश्वर ही अपनी लीला से इस मनुष्य-लोक में अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नों में रहकर उन्होंने साधारण मनुष्य की तरह क्रीडा की ॥ ३५ ॥
जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदय के उन्मुक्त भावों को सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवन की चोट से बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेव ने भी अपने धनुष का परित्याग कर दिया था—वे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासों से जिनके मन में तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असङ्ग भगवान श्रीकृष्ण को संसार के लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं—यह उनकी मूर्खता है ॥ ३६-३७ ॥
यही तो भगवान की भगवत्ता है कि वे प्रकृति में स्थित होकर भी उसके गुणों से कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान की शरणागत बुद्धि अपने में रहनेवाले प्राकृत गुणों से लिप्त नहीं होती ॥ ३८ ॥
वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्ण को अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामी के ऐश्वर्य को नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे अहंकार की वृत्तियाँ ईश्वर को अपने धर्म से युक्त मानती हैं ॥ ३९ ॥


[1] जिस स्त्री का पति विदेश गया हो, उसे इन नियमों का पालन करना चहिये—

क्रीडां शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम्। हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृ का ॥

जिसका पति परदेश गया हो, उस स्त्री को खेल-कूद, श्ृङ्गार, सामाजिक उत्सवों में भाग लेना, हँसी-मजाक करना और पराये घर जाना—इन पाँच कामों को त्याग देना चाहिये।(याज्ञवल्क्यस्मृति)


स्कन्ध-01 [अध्याय-12]

परीक्षत का जन्म 

॥ द्वादशोऽध्यायः ॥
शौनक उवाच
अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा ।
उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ॥ १॥

तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः ।
निधनं च यथैवासीत्स प्रेत्य गतवान् यथा ॥ २॥

तदिदं श्रोतुमिच्छामो गदितुं यदि मन्यसे ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां यस्य ज्ञानमदाच्छुकः ॥ ३॥

सूत उवाच
अपीपलद्धर्मराजः पितृवद्रञ्जयन् प्रजाः ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः कृष्णपादाब्जसेवया ॥ ४॥

सम्पदः क्रतवो लोका महिषी भ्रातरो मही ।
जम्बूद्वीपाधिपत्यं च यशश्च त्रिदिवं गतम् ॥ ५॥

किं ते कामाः सुरस्पार्हा मुकुन्दमनसो द्विजाः ।
अधिजह्रुर्मुदं राज्ञः क्षुधितस्य यथेतरे ॥ ६॥

मातुर्गर्भगतो वीरस्स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद्दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥ ७॥

अङ्गुष्ठमात्रममलं स्फुरत्पुरटमौलिनम् ।
अपीच्यदर्शनं श्यामं तडिद्वाससमच्युतम् ॥ ८॥

श्रीमद्दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चनकुण्डलम् ।
क्षतजाक्षं गदापाणिमात्मनः सर्वतो दिशम् ।
परिभ्रमन्तमुल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहुः ॥ ९॥

अस्त्रतेजः स्वगदया नीहारमिव गोपतिः ।
विधमन्तं सन्निकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ ॥ १०॥

विधूय तदमेयात्मा भगवान् धर्मगुब्विभुः ।
मिषतो दशमास्यस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ ११॥

ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूलग्रहोदये ।
जज्ञे वंशधरः पाण्डोर्भूयः पाण्डुरिवौजसा ॥ १२॥

तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धौम्यकृपादिभिः ।
जातकं कारयामास वाचयित्वा च मङ्गलम् ॥ १३॥

हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान् नृपतिर्वरान् ।
प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥ १४॥

तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।
एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥ १५॥

दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।
रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १६॥

तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः ।
भविष्यति न सन्देहो महाभागवतो महान् ॥ १७॥

युधिष्ठिर उवाच
अप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मनः ।
अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमाः ॥ १८॥

ब्राह्मणा ऊचुः
पार्थ प्रजाविता साक्षादिक्ष्वाकुरिव मानवः ।
ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यथा ॥ १९॥

एष दाता शरण्यश्च यथा ह्यौशीनरः शिबिः ।
यशो वितनिता स्वानां दौष्यन्तिरिव यज्वनाम् ॥ २०॥

धन्विनामग्रणीरेष तुल्यश्चार्जुनयोर्द्वयोः ।
हुताश इव दुर्धर्षः समुद्र इव दुस्तरः ॥ २१॥

मृगेन्द्र इव विक्रान्तो निषेव्यो हिमवानिव ।
तितिक्षुर्वसुधेवासौ सहिष्णुः पितराविव ॥ २२॥

पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ।
आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः ॥ २३॥

सर्वसद्गुणमाहात्म्ये एष कृष्णमनुव्रतः ।
रन्तिदेव इवोदारो ययातिरिव धार्मिकः ॥ २४॥

धृत्या बलिसमः कृष्णे प्रह्लाद इव सद्ग्रहः ।
आहर्तैषोऽश्वमेधानां वृद्धानां पर्युपासकः ॥ २५॥

राजर्षीणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।
निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात् ॥ २६॥

तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रोपसर्जितात् ।
प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसङ्गः पदं हरेः ॥ २७॥

जिज्ञासितात्मयाथात्म्यो मुनेर्व्याससुतादसौ ।
हित्वेदं नृप गङ्गायां यास्यत्यद्धाकुतोभयम् ॥ २८॥

इति राज्ञ उपादिश्य विप्रा जातककोविदाः ।
लब्धापचितयः सर्वे प्रतिजग्मुः स्वकान् गृहान् ॥ २९॥

स एष लोके विख्यातः परीक्षिदिति यत्प्रभुः ।
गर्भे दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ॥ ३०॥

स राजपुत्रो ववृधे आशु शुक्ल इवोडुपः ।
आपूर्यमाणः पितृभिः काष्ठाभिरिव सोऽन्वहम् ॥ ३१॥

यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।
राजालब्धधनो दध्यावन्यत्र करदण्डयोः ॥ ३२॥

तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिताः
धनं प्रहीणमाजह्रुरुदीच्यां दिशि भूरिशः ॥ ३३॥

तेन सम्भृतसम्भारो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।
वाजिमेधैस्त्रिभिर्भीतो यज्ञैः समयजद्धरिम् ॥ ३४॥

आहूतो भगवान् राज्ञा याजयित्वा द्विजैर्नृपम् ।
उवास कतिचिन्मासान् सुहृदां प्रियकाम्यया ॥ ३५॥

ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातः कृष्णया सहबन्धुभिः ।
ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन् सार्जुनो यदुभिर्वृतः ॥ ३६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
परीक्षिज्जन्माद्युत्कर्षो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-बारहवाँ अध्याय
परीक्षत् का जन्म
शौनकजी ने कहा—अश्वत्थामाने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तरा का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान ने उसे पुन: जीवित कर दिया ॥ १ ॥
उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षितके, जिन्हें शुकदेवजी ने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हमलोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं ॥ २-३ ॥
सूतजी ने कहा—धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से नि:स्पृह हो गये थे ॥ ४ ॥
शौनकादि ऋषियो ! उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फल स्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी ॥ ५ ॥
उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवतालोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी ॥ ६ ॥
शौनकजी ! उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के तेज से जल ने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ॥ ७ ॥
वह देखने में तो अँगूठेभर का है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सो ने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लंबी-लंबी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल हैं, आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है ॥ ८-९ ॥
जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था। उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोच ने लगा कि यह कौन है ॥ १० ॥
इस प्रकार उस दस मासके गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥

तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सद्गुणों को विकसित करनेवाले शुभ समय में पाण्डु के वंशधर परीक्षित का जन्म हुआ। जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो ॥ १२ ॥
पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणों से मङ्गलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये ॥ १३ ॥
महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ [1] नामक काल में अर्थात् नाल काट ने के पहले ही ब्राह्मणों को सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जाति के हाथी- घोड़े और उत्तम अन्न का दान दिया ॥ १४ ॥
ब्राह्मणों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिर से कहा—‘पुरुवंश-शिरोमणे ! काल की दुॢनवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुमलोगों पर कृपा करने के लिये भगवान विष्णु ने यह बालक देकर इस की रक्षा कर दी ॥ १५-१६ ॥
इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा। निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी, भगवान का परम भक्त और महापुरुष होगा’ ॥ १७ ॥
युधिष्ठिर ने कहा—महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यश से हमारे वंश के पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण करेगा ? ॥ १८ ॥
ब्राह्मणों ने कहा—धर्मराज !यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान श्रीराम के समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा ॥ १९ ॥
यह उशीनर- नरेश शिबि के समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा ॥ २० ॥
धनुर्धरों में यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा। यह अग्रि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा ॥ २१ ॥
यह सिंह के समान पराक्रमी, हिमाचल की तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता- पिता के समान सहनशील होगा ॥ २२ ॥
इसमें पितामह ब्रह्मा के समान समता रहेगी, भगवान शङ्कर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय दे ने में यह लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा ॥ २३ ॥
यह समस्त सद्गुणों की महिमा धारण करने में श्रीकृष्ण का अनुयायी होगा, रन्तिदेव के समान उदार होगा और ययाति के समान धार्मिक होगा ॥ २४ ॥
धैर्य में बलि के समान और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लाद के समान होगा। यह बहुत- से अश्वमेध- यज्ञों का करनेवाला और वृद्धों का सेवक होगा ॥ २५ ॥
इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादा का उल्लङ्घन करनेवालों को यह दण्ड देगा। यह पृथ्वीमाता और धर्म की रक्षा के लिये कलियुग का भी दमन करेगा ॥ २६ ॥
ब्राह्मण-कुमार के शाप से तक्षक के द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सब की आसक्ति छोड़ देगा और भगवान के चरणों की शरण लेगा ॥ २७ ॥
राजन् ! व्यासनन्दन शुकदेवजी से यह आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्त में गङ्गातट पर अपने शरीर को त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा ॥ २८ ॥
ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर को इस प्रकार बालक के जन्मलग्र का फल बतलाकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये ॥ २९ ॥
वही यह बालक संसार में परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भ में जिस पुरुष का दर्शन पा चु का था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसी की परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है ॥ ३० ॥
जैसे शुक्लपक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालन से क्रमश: अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया ॥ ३१ ॥
इसी समय स्वजनों के वध का प्रायश्चित्त करने के लिये राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेध-यज्ञ के द्वारा भगवान की आराधना करने का विचार किया, परन्तु प्रजा से वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने) की रकम के अतिरिक्त और धन न होने के कारण वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये ॥ ३२ ॥
उनका अभिप्राय समझकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उनके भाई उत्तर दिशा में राजा मरुत्त और ब्राह्मणों द्वारा छोड़ा हुआ [2] बहुत-सा धन ले आये ॥ ३३ ॥
उससे यज्ञ की सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिर ने तीन अश्वमेध-यज्ञों के द्वारा भगवान की पूजा की ॥ ३४ ॥
युधिष्ठिर के निमन्त्रण से पधारे हुए भगवान ब्राह्मणों द्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये कई महीनों तक वहीं रहे ॥ ३५ ॥
शौनकजी ! इसके बाद भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी से अनुमति लेकर अर्जुन के साथ यदुवंशियों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने द्वार का के लिये प्रस्थान किया ॥ ३६ ॥


[1] नालच्छेदन से पहले सू तक नहीं होता, जैसे कहा है—‘यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन् ने नाले तत: पश्चात सूतकं तु विधीयते ॥’ इसी समय को ‘प्रजातीर्थ’ काल कहते हैं। इस समय जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है। स्मृति कहती है—‘पुत्रे जाते व्यतीपाते दत्तं भवति चाक्षयम्।’ अर्थात् ‘पुत्रोत्पत्ति और व्यतीपात के समय दिया हुआ दान अक्षय होता है।’

[2] पूर्वकाल में महाराज मरुत्त ने ऐसा यज्ञ किया था, जिसमें सभी पात्र सुवर्ण के थे। यज्ञ समाप्त हो जाने पर उन्होंने वे पात्र उत्तर दिशा में फिकवा दिये थे। उन्होंने ब्राह्मणों को भी इतना धन दिया कि वे उसे ले जा न सके; वे भी उसे उत्तर दिशा में ही छोडक़र चले आये। परित्यक्त धन पर राजा का अधिकार होता है, इसलिये उस धन को मँगवाकर भगवान ने युधिष्ठिर का यज्ञ कराया।



स्कन्ध-01 [अध्याय-13]

विदुर जी के उपदेश से धृतराष्ट्र और गान्धारी का वन में जाना

॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाद्धास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ॥ १॥

यावतः कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रतः ।
जातैकभक्तिर्गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह ॥ २॥

तं बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः ।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा ॥ ३॥

गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्च जामयः पाण्डोर्ज्ञातयः ससुताः स्त्रियः ॥ ४॥

प्रत्युज्जग्मुः प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम् ।
अभिसङ्गम्य विधिवत्परिष्वङ्गाभिवादनैः ॥ ५॥

मुमुचुः प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्यकातराः ।
राजा तमर्हयांचक्रे कृतासनपरिग्रहम् ॥ ६॥

तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमासीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च श‍ृण्वताम् ॥ ७॥

युधिष्ठिर उवाच
अपि स्मरथ नो युष्मत्पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्गणाद्विषाग्न्यादेर्मोचिता यत्समातृकाः ॥ ८॥

कया वृत्त्या वर्तितं वश्चरद्भिः क्षितिमण्डलम् ।
तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले ॥ ९॥

भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥ १०॥

अपि नः सुहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः ।
दृष्टाः श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते ॥ ११॥

इत्युक्तो धर्मराजेन सर्वं तत्समवर्णयत् ।
यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम् ॥ १२॥

नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम् ।
नावेदयत्सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः ॥ १३॥

कञ्चित्कालमथावात्सीत्सत्कृतो देववत्सुखम् ।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत्सर्वेषां प्रीतिमावहन् ॥ १४॥

अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावदघकारिषु ।
यावद्दधार शूद्रत्वं शापाद्वर्षशतं यमः ॥ १५॥

युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलन्धरम् ।
भ्रातृभिर्लोकपालाभैर्मुमुदे परया श्रिया ॥ १६॥

एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया ।
अत्यक्रामदविज्ञातः कालः परमदुस्तरः ॥ १७॥

विदुरस्तदभिप्रेत्य धृतराष्ट्रमभाषत ।
राजन् निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम् ॥ १८॥

प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित्कर्हिचित्प्रभो ।
स एव भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः ॥ १९॥

येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि ।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैर्धनादिभिः ॥ २०॥

पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः ।
आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे ॥ २१॥

(अन्धः पुरैव बधिरो मन्दप्रज्ञश्च साम्प्रतम् ।
विशीर्णदन्तो मन्दाग्निः सरागः कफमुद्वहन् ॥)
अहो महीयसी जन्तोर्जीविताशा यथा भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत् ॥ २२॥

अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः ।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत् ॥ २३॥

तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः ।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव ॥ २४॥

गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः ।
अविज्ञातगतिर्जह्यात्स वै धीर उदाहृतः ॥ २५॥

यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान् ।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात्प्रव्रजेत्स नरोत्तमः ॥ २६॥

अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञातगतिर्भवान् ।
इतोऽर्वाक् प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः ॥ २७॥

एवं राजा विदुरेणानुजेन
प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः ।
छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान् द्रढिम्नो
निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २८॥

पतिं प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
पतिव्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षं
मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः ॥ २९॥

अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुताग्निर्विप्रान्
नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः ।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
न चापश्यत्पितरौ सौबलीं च ॥ ३०॥

तत्र सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः ।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः ॥ ३१॥

अम्बा च हतपुत्रार्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत् ।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया ।
आशंसमानः शमलं गङ्गायां दुःखितोपतत् ॥ ३२॥

पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान् नः सुहृदः शिशून् ।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः ॥ ३३॥

सूत उवाच
कृपया स्नेहवैक्लव्यात्सूतो विरहकर्शितः ।
आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडितः ॥ ३४॥

विमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
अजातशत्रुं प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन् ॥ ३५॥

सञ्जय उवाच
नाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनन्दन ।
गान्धार्या वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः ॥ ३६॥

अथाजगाम भगवान् नारदः सह तुम्बुरुः ।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोऽभ्यर्चयन्निव ॥ ३७॥

युधिष्ठिर उवाच
नाहं वेद गतिं पित्रोर्भगवन् क्व गतावितः ।
अम्बा वा हतपुत्रार्ता क्व गता च तपस्विनी ॥ ३८॥

कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शकः ।
अथाबभाषे भगवान्नारदो मुनिसत्तमः ॥ ३९॥

मा कञ्चन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत् ।
लोकाः सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः ।
स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च ॥ ४०॥

यथा गावो नसि प्रोतास्तन्त्यां बद्धाश्च दामभिः ।
वाक्तन्त्यां नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितुः ॥ ४१॥

यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह ।
इच्छया क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम् ॥ ४२॥

यन्मन्यसे ध्रुवं लोकमध्रुवं वा न चोभयम् ।
सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहादन्यत्र मोहजात् ॥ ४३॥

तस्माज्जह्यङ्ग वैक्लव्यमज्ञानकृतमात्मनः ।
कथं त्वनाथाः कृपणा वर्तेरंस्ते च मां विना ॥ ४४॥

कालकर्मगुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिकः ।
कथमन्यांस्तु गोपायेत्सर्पग्रस्तो यथा परम् ॥ ४५॥

अहस्तानि सहस्तानामपदानि चतुष्पदाम् ।
फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम् ॥ ४६॥

तदिदं भगवान् राजन्नेक आत्माऽऽत्मनां स्वदृक् ।
अन्तरोऽनन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधा ॥ ४७॥

सोऽयमद्य महाराज भगवान् भूतभावनः ।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यामभावाय सुरद्विषाम् ॥ ४८॥

निष्पादितं देवकृत्यमवशेषं प्रतीक्षते ।
तावद्यूयमवेक्षध्वं भवेद्यावदिहेश्वरः ॥ ४९॥

धृतराष्ट्रः सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया ।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणामाश्रमं गतः ॥ ५०॥

स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात् ।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते ॥ ५१॥

स्नात्वानुसवनं तस्मिन् हुत्वा चाग्नीन् यथाविधि ।
अब्भक्ष उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषणः ॥ ५२॥

जितासनो जितश्वासः प्रत्याहृतषडिन्द्रियः ।
हरिभावनया ध्वस्तरजःसत्त्वतमोमलः ॥ ५३॥

विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम् ।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटाम्बरमिवाम्बरे ॥ ५४॥

ध्वस्तमायागुणोदर्को निरुद्धकरणाशयः ।
निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचलः ।
तस्यान्तरायो मैवाभूः संन्न्यस्ताखिलकर्मणः ॥ ५५॥

स वा अद्यतनाद्राजन् परतः पञ्चमेऽहनि ।
कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति ॥ ५६॥

दह्यमानेऽग्निभिर्देहे पत्युः पत्नी सहोटजे ।
बहिः स्थिता पतिं साध्वी तमग्निमनुवेक्ष्यति ॥ ५७॥

विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन ।
हर्षशोकयुतस्तस्माद्गन्ता तीर्थनिषेवकः ॥ ५८॥

इत्युक्त्वाथारुहत्स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः ।
युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुचः ॥ ५९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-तेरहवाँ अध्याय
विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और गान्धारी का वन में जाना
सूतजी कहते हैं—विदुरजी तीर्थयात्रा में महर्षि मैत्रेय से आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जान ने की इच्छा थी, वह पूर्ण हो गयी थी ॥ १ ॥
विदुरजी ने मैत्रेय ऋषि से जित ने प्रश्र किये थे, उनका उत्तर सुनने के पहले ही श्रीकृष्ण में अनन्य भक्ति हो जाने के कारण वे उत्तर सुनने से उपराम हो गये ॥ २ ॥
शौनकजी ! अपने चाचा विदुरजी को आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, ययुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डव-परिवार के अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रोंसहित दूसरी स्त्रियाँ—सब-के-सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीर में प्राण आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानी के लिये सामने गये। यथायोग्य आलिङ्गन और प्रणामादि के द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठा से कातर होकर सबने प्रेम के आँसू बहाये। युधिष्ठिर ने आसन पर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया ॥ ३—६ ॥
जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसन पर बैठे थे तब युधिष्ठिर ने विनय से झुककर सब के सामने ही उनसे कहा ॥ ७ ॥
युधिष्ठिर ने कहा—चाचाजी ! जैसे पक्षी अपने अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने कर-कमलों की छत्रछाया में हमलोगों को पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विषदान और लाक्षागृह के दाह आदि विपत्तियों से बचाया है। क्या आप कभी हमलोगों की भी याद करते रहे हैं ? ॥ ८ ॥
आपने पृथ्वी पर विचरण करते समय किस वृत्ति से जीवन-निर्वाह किया ? आपने पृथ्वीतल पर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रों का सेवन किया ? ॥ ९ ॥
प्रभो ! आप-जैसे भगवान के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थ स्वरूप होते हैं। आपलोग अपने हृदय में विराजमान भगवान के द्वारा तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं ॥ १० ॥
चाचाजी ! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वार का भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरी में सुख से तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ॥ ११ ॥
युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर विदुरजी ने तीर्थों और यदुवंशियों के सम्बन्ध में जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रम से बतला दिया, केवल यदुवंश के विनाश की बात नहीं कही ॥ १२ ॥
करुणहृदय विदुरजी पाण्डवों को दुखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवों को नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होनेवाली थी ॥ १३ ॥
पाण्डव विदुरजी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की कल्याण-कामना से सब लोगों को प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुर में ही रहे ॥ १४ ॥
विदुरजी तो साक्षात धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषि के शाप से ये सौ वर्ष के लिये शूद्र बन गये थे[1]। इत ने दिनों तक यमराज के पद पर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे ॥ १५ ॥
राज्य प्राप्त हो जाने पर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयों के साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित को देखकर अपनी अतुल सम्पत्ति से आनन्दित रहने लगे ॥ १६ ॥
इस प्रकार पाण्डव गृहस्थ के काम-धंधों में रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकार से यह बात भूल गये कि अनजान में ही हमारा जीवन मृत्यु की ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ॥ १७ ॥
परन्तु विदुरजी ने काल की गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र से कहा—‘महाराज ! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँ से निकल चलिये ॥ १८ ॥
हम सब लोगों के सिर पर वह सर्वसमर्थ काल मँडरा ने लगा है, जिसके टाल ने का कहीं भी कोई उपाय नहीं है ॥ १९ ॥
काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है ॥ २० ॥
आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे- सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापे का शिकार हो गया, आप पराये घर में पड़े हुए हैं ॥ २१ ॥
ओह ! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है ! इसी के कारण तो आप भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं ॥ २२ ॥
जिन को आपने आग में जला ने की चेष्टाकी, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभा में जिनकी विवाहिता पत्नी को अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हींके अन्न से पले हुए प्राणों को रखने में क्या गौरव है ॥ २३ ॥
आपके अज्ञान की हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं ! परन्तु आपके चाह ने से क्या होगा; पुरा ने वस्त्र की तरह बुढ़ापे से गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहने पर भी क्षीण हुआ जा रहा है ॥ २४ ॥
अब इस शरीर से आपका कोई स्वार्थ सधनेवाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इस की ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है ॥ २५ ॥
चाहे अपनी समझ से हो या दूसरे के समझानेसे—जो इस संसार को दु:खरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्त:करण को वश में करके हृदय में भगवान को धारणकर संन्यासके लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ॥ २६ ॥
इसके आगे जो समय आनेवाला है, वह प्राय: मनुष्यों के गुणों को घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ॥ २७ ॥
जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओं के सुदृढ़ स्नेह-पाशों को काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्ग से निकल पड़े ॥ २८ ॥
जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालय की यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है, जैसा वीर पुरुषों को लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहार से होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ २९ ॥
अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रात:काल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके ब्राह्मणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्ण का दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारी के दर्शन नहीं हुए ॥ ३० ॥
युधिष्ठिर ने उद्विग्रचित्त होकर वहीं बैठे हुए सञ्जय से पूछा—‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? ॥ ३१ ॥
पुत्रशोक से पीडि़त दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के मारे जाने से दुखी थे। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ— कहीं मुझ से किसी अपराध की आशङ् का करके वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजी में तो नहीं कूद पड़े ॥ ३२ ॥
जब हमारे पिता पाण्डु की मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे- नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं दोनों चाचाओं ने बड़े-बड़े दु:खों से हमें बचाया था। वे हम पर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय ! वे यहाँ से कहाँ चले गये ?’ ॥ ३३ ॥
सूतजी कहते हैं—सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न पाकर कृपा और स्नेह की विकलता से अत्यन्त पीडि़त और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिर को कुछ उत्तर न दे सके ॥ ३४ ॥
फिर धीरे-धीरे बुद्धि के द्वारा उन्होंने अपने चित्त को स्थिर किया, हाथों से आँखों के आँसू पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्र के चरणों का स्मरण करते हुए युधिष्ठिर से कहा ॥ ३५ ॥
सञ्जय बोले—कुलनन्दन ! मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारी के सङ्कल्प का कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो ! मुझे तो उन महात्माओं ने ठग लिया ॥ ३६ ॥
सञ्जय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरु के साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिर ने भाइयोंसहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले— ॥ ३७ ॥
युधिष्ठिर ने कहा—‘भगवन् ! मुझे अपने दोनों चाचाओं का पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोक से व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँ से कहाँ चले गये ॥ ३८ ॥
भगवन् ! अपार समुद्र में कर्णधार के समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’ तब भगवान के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारद ने कहा— ॥ ३९ ॥
‘धर्मराज ! तुम किसी के लिये शोक मत करो क्योंकि यह सारा जगत ईश्वर के वश में है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वर की ही आज्ञा का पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणी को दूसरे से मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है ॥ ४० ॥
जैसे बैल बड़ी रस्सी में बँधे और छोटी रस्सी से नथे रहकर अपने स्वामी का भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नामों से वेदरूप रस्सी में बँधकर ईश्वर की ही आज्ञा का अनुसरण करते हैं ॥ ४१ ॥
जैसे संसार में खिलाड़ी की इच्छा से ही खिलौनों का संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान की इच्छा से ही मनुष्यों का मिलना-बिछुडऩा होता है ॥ ४२ ॥
तुम लोगों को जीवरूप से नित्य मानो या देहरूप से अनित्य अथवा जडरूप से अनित्य और चेतन-रूप से नित्य अथवा शुद्धब्रह्मरूप में नित्य- अनित्य कुछ भी न मानो—किसी भी अवस्था में मोहजन्य आसक्ति के अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं हैं ॥ ४३ ॥
इसलिये धर्मराज ! वे दीन-दुखी चाचा-चाची असहाय अवस्था में मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मन की विकलता को छोड़ दो ॥ ४४ ॥
यह पाञ्चभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणों के वश में है। अजगर के मुँहमें पड़े हुए पुरुष के समान यह पराधीन शरीर दूसरों की रक्षा ही क्या कर सकता है ॥ ४५ ॥
हाथवालों के बिना हाथवाले, चार पैरवाले पशुओं के बिना पैरवाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवों के छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जीवन का कारण हो रहा है ॥ ४६ ॥
इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान, जो सम्पूर्ण आत्माओं के आत्मा हैं, माया के द्वारा अनेकों प्रकार से प्रकट हो रहे हैं। तुम केवल उन्हीं को देखो ॥ ४७ ॥
महाराज ! समस्त प्राणियों को जीवनदान देनेवाले वे ही भगवान इस समय इस पृथ्वीतल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिये कालरूप से अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४८ ॥
अब वे देवताओं का कार्य पूरा कर चु के हैं। थोड़ा-सा काम और शेष है, उसी के लिये वे रु के हुए हैं। जब तक वे प्रभु यहाँ हैं, तब तक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो ॥ ४९ ॥
धर्मराज ! हिमालय के दक्षिण भाग में, जहाँ सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गङ्गाजी ने अलग- अलग सात धाराओं के रूप में अपने को सात भागों में विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियों के आश्रम पर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुर के साथ गये हैं ॥ ५०-५१ ॥
वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्रिहोत्र करते हैं। अब उनके चित्त में किसी प्रकार की कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर शान्तचित्त से निवास करते हैं ॥ ५२ ॥
आसन जीतकर प्राणों को वश में करके उन्होंने अपनी छहों इन्द्रियों को विषयों से लौटा लिया है। भगवान की धारणा से उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण के मल नष्ट हो चु के हैं ॥ ५३ ॥
उन्होंने अहंकार को बुद्धि के साथ जोडक़र और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में घटाकाश के समान सर्वाधिष्ठान ब्रह्म में एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मन को रोककर समस्त विषयों को बाहर से ही लौटा दिया है और माया के गुणों से होनेवाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मों का संन्यास करके वे इस समय ठूँठ की तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अत: तुम उनके मार्ग में विघ्ररूप मत बनना[2] ॥ ५४-५५ ॥
धर्मराज ! आज से पाँचवें दिन वे अपने शरीर का परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ५६ ॥
गाहर्पत्यादि अग्रियों के द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृतदेह को जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पति का अनुगमन करती हुई उसी आग में प्रवेश कर जायँगी ॥ ५७ ॥
धर्मराज ! विदुरजी अपने भाई का आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुखित होते हुए वहाँ से तीर्थ-सेवन के लिये चले जायँगे ॥ ५८ ॥
देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरु के साथ स्वर्ग को चले गये। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके उपदेशों को हृदय में धारण करके शोक को त्याग दिया ॥ ५९ ॥


[1] एक समय किसी राजा के अनुचरों ने कुछ चोरों को माण्डव्य ऋषि के आश्रम पर पकड़ा। उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरी में शामिल होंगे। अत: वे भी पकड़ लिये गये और राजाज्ञा से सब के साथ उन को भी सूली पर चढ़ा दिया गया। राजा को यह पता लगते ही कि ये महात्मा हैं—ऋषि को सूली से उतरवा दिया और हाथ जोडक़र उनसे अपना अपराध क्षमा कराया। माण्डव्यजी ने यमराज के पास जाकर पूछा—‘मुझे किस पाप के फल स्वरूप यह दण्ड मिला ?’ यमराज ने बताया कि ‘आपने लडक़पन में एक टिड्डी को कुश की नोक से छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इस पर मुनि ने कहा—‘मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटे से अपराध के लिये तुम ने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्ष तक शूद्रयोनि में रहोगे।’ माण्डव्यजी के इस शाप से ही यमराज ने विदुर के रूप में अवतार लिया था।



[2] देवर्षि नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। वे धृतराष्ट्र के भविष्य जीवन को वर्तमान की भाँति प्रत्यक्ष देखते हुए उसी रूप में वर्णन कर रहे हैं। धृतराष्ट्र पिछली रात को ही हस्तिनापुर से गये हैं, अत: यह वर्णन भविष्य का ही समझना चाहिये।

स्कन्ध-01 [अध्याय-14]

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना 

॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया ।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ १॥

व्यतीताः कतिचिन्मासास्तदा नायात्ततोऽर्जुनः ।
ददर्श घोररूपाणि निमित्तानि कुरूद्वहः ॥ २॥

कालस्य च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिणः ।
पापीयसीं नृणां वार्तां क्रोधलोभानृतात्मनाम् ॥ ३॥

जिह्मप्रायं व्यवहृतं शाठ्यमिश्रं च सौहृदम् ।
पितृमातृसुहृद्भ्रातृदम्पतीनां च कल्कनम् ॥ ४॥

निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले त्वनुगते नृणाम् ।
लोभाद्यधर्मप्रकृतिं दृष्ट्वोवाचानुजं नृपः ॥ ५॥

युधिष्ठिर उवाच
सम्प्रेषितो द्वारकायां जिष्णुर्बन्धुदिदृक्षया ।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ ६॥

गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः ।
नायाति कस्य वा हेतोर्नाहं वेदेदमञ्जसा ॥ ७॥

अपि देवर्षिणाऽऽदिष्टः स कालोऽयमुपस्थितः ।
यदात्मनोऽङ्गमाक्रीडं भगवानुत्सिसृक्षति ॥ ८॥

यस्मान्नः सम्पदो राज्यं दाराः प्राणाः कुलं प्रजाः ।
आसन् सपत्नविजयो लोकाश्च यदनुग्रहात् ॥ ९॥

पश्योत्पातान् नरव्याघ्र दिव्यान् भौमान् सदैहिकान् ।
दारुणान् शंसतोऽदूराद्भयं नो बुद्धिमोहनम् ॥ १०॥

ऊर्वक्षिबाहवो मह्यं स्फुरन्त्यङ्ग पुनः पुनः ।
वेपथुश्चापि हृदये आराद्दास्यन्ति विप्रियम् ॥ ११॥

शिवैषोद्यन्तमादित्यमभिरौत्यनलानना ।
मामङ्ग सारमेयोऽयमभिरेभत्यभीरुवत् ॥ १२॥

शस्ताः कुर्वन्ति मां सव्यं दक्षिणं पशवोऽपरे ।
वाहांश्च पुरुषव्याघ्र लक्षये रुदतो मम ॥ १३॥

मृत्युदूतः कपोतोऽयमुलूकः कम्पयन् मनः ।
प्रत्युलूकश्च कुह्वानैरनिद्रौ शून्यमिच्छतः ॥ १४॥

धूम्रा दिशः परिधयः कम्पते भूः सहाद्रिभिः ।
निर्घातश्च महांस्तात साकं च स्तनयित्नुभिः ॥ १५॥

वायुर्वाति खरस्पर्शो रजसा विसृजंस्तमः ।
असृग्वर्षन्ति जलदा बीभत्समिव सर्वतः ॥ १६॥

सूर्यं हतप्रभं पश्य ग्रहमर्दं मिथो दिवि ।
ससङ्कुलैर्भूतगणैर्ज्वलिते इव रोदसी ॥ १७॥

नद्यो नदाश्च क्षुभिताः सरांसि च मनांसि च ।
न ज्वलत्यग्निराज्येन कालोऽयं किं विधास्यति ॥ १८॥

न पिबन्ति स्तनं वत्सा न दुह्यन्ति च मातरः ।
रुदन्त्यश्रुमुखा गावो न हृष्यन्त्यृषभा व्रजे ॥ १९॥

दैवतानि रुदन्तीव स्विद्यन्ति ह्युच्चलन्ति च ।
इमे जनपदा ग्रामाः पुरोद्यानाकराश्रमाः ।
भ्रष्टश्रियो निरानन्दाः किमघं दर्शयन्ति नः ॥ २०॥

मन्य एतैर्महोत्पातैर्नूनं भगवतः पदैः ।
अनन्यपुरुषश्रीभिर्हीना भूर्हतसौभगा ॥ २१॥

इति चिन्तयतस्तस्य दृष्टारिष्टेन चेतसा ।
राज्ञः प्रत्यागमद्ब्रह्मन् यदुपुर्याः कपिध्वजः ॥ २२॥

तं पादयोर्निपतितमयथापूर्वमातुरम् ।
अधोवदनमब्बिन्दून् सृजन्तं नयनाब्जयोः ॥ २३॥

विलोक्योद्विग्नहृदयो विच्छायमनुजं नृपः ।
पृच्छति स्म सुहृन्मध्ये संस्मरन् नारदेरितम् ॥ २४॥

युधिष्ठिर उवाच
कच्चिदानर्तपुर्यां नः स्वजनाः सुखमासते ।
मधुभोजदशार्हार्हसात्वतान्धकवृष्णयः ॥ २५॥

शूरो मातामहः कच्चित्स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः ।
मातुलः सानुजः कच्चित्कुशल्यानकदुन्दुभिः ॥ २६॥

सप्त स्वसारस्तत्पत्न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः ।
आसते सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम् ॥ २७॥

कच्चिद्राजाऽऽहुको जीवत्यसत्पुत्रोऽस्य चानुजः ।
हृदीकः ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः ॥ २८॥

आसते कुशलं कच्चिद्ये च शत्रुजिदादयः ।
कच्चिदास्ते सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः ॥ २९॥

प्रद्युम्नः सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः ।
गम्भीररयोऽनिरुद्धो वर्धते भगवानुत ॥ ३०॥

सुषेणश्चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
अन्ये च कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः ॥ ३१॥

तथैवानुचराः शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभाः ॥ ३२॥

अपि स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्णभुजाश्रयाः ।
अपि स्मरन्ति कुशलमस्माकं बद्धसौहृदाः ॥ ३३॥

भगवानपि गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः ।
कच्चित्पुरे सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्वृतः ॥ ३४॥

मङ्गलाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय च ।
आस्ते यदुकुलाम्भोधावाद्योऽनन्तसखः पुमान् ॥ ३५॥

यद्बाहुदण्डगुप्तायां स्वपुर्यां यदवोऽर्चिताः ।
क्रीडन्ति परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥ ३६॥

यत्पादशुश्रूषणमुख्यकर्मणा
सत्यादयो द्व्यष्टसहस्रयोषितः ।
निर्जित्य सङ्ख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो
हरन्ति वज्रायुधवल्लभोचिताः ॥ ३७॥

यद्बाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनो
यदुप्रवीरा ह्यकुतोभया मुहुः ।
अधिक्रमन्त्यङ्घ्रिभिराहृतां बलात्सभां
सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम् ॥ ३८॥

कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।
अलब्धमानोऽवज्ञातः किं वा तात चिरोषितः ॥ ३९॥

कच्चिन्नाभिहतोऽभावैः शब्दादिभिरमङ्गलैः ।
न दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम् ॥ ४०॥

कच्चित्त्वं ब्राह्मणं बालं गां वृद्धं रोगिणं स्त्रियम् ।
शरणोपसृतं सत्त्वं नात्याक्षीः शरणप्रदः ॥ ४१॥

कच्चित्त्वं नागमोऽगम्यां गम्यां वाऽसत्कृतां स्त्रियम् ।
पराजितो वाथ भवान् नोत्तमैर्नासमैः पथि ॥ ४२॥

अपि स्वित्पर्यभुंक्थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान् ।
जुगुप्सितं कर्म किञ्चित्कृतवान् न यदक्षमम् ॥ ४३॥

कच्चित्प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना ।
शून्योऽस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक् ॥ ४४॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
युधिष्ठिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

 प्रथम स्कन्ध-चौदहवाँ अध्याय 
अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना
सूतजी कहते हैं—स्वजनों से मिल ने और पुण्यश्लोक भगवान श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं—यह जान ने के लिये अर्जुन द्वार का गये हुए थे ॥ १ ॥
कई महीने बीत जाने पर भी अर्जुन वहाँ से लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिर को बड़े भयंकर अपशकुन दीख ने लगे ॥ २ ॥
उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं। अपने जीवन-निर्वाह के लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ॥ ३ ॥
सारा व्यवहार कपट से भरा हुआ होता है, यहाँ तक कि मित्रता में भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नी में भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है ॥ ४ ॥
कलिकाल के आ जाने से लोगों का स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्म से अभिभूत हो गया है और प्रकृति में भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा ॥ ५ ॥
युधिष्ठिर ने कहा—भीमसेन ! अर्जुन को हम ने द्वार का इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं—इसका पता लगा आये और सम्बन्धियों से मिल भी आये ॥ ६ ॥
तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अब तक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आ ने का क्या कारण है ॥ ७ ॥
कहीं देवर्षि नारद के द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रह का संवरण करना चाहते हैं ? ॥ ८ ॥
उन्हीं भगवान की कृपा से हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकों का अधिकार प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥
भीमसेन ! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही—आकाश में उल्कापातादि, पृथ्वी में भूकम्पादि और शरीरों में रोगादि कित ने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं ! इन से इस बात की सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धि को मोहमें डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है ॥ १० ॥
प्यारे भीमसेन ! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फडक़ रही हैं। हृदय जोर से धडक़ रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है ॥ ११ ॥
देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्य की ओर मुँह करके रो रही है। अरे ! उसके मुँह से तो आग भी निकल रही है ! यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है ॥ १२ ॥
भीमसेन ! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहि ने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ॥ १३ ॥
यह मृत्यु का दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रात को अपने कर्ण-कठोर शब्दों से मेरे मन को कँपाते हुए विश्व को सूना कर देना चाहते हैं ॥ १४ ॥
दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ों के साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोर से गरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ॥ १५ ॥
शरीर को छेदनेवाली एवं धूलिवर्षा से अंधकार फैलानेवाली आँधी चल ने लगी है। बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं ॥ १६ ॥
देखो ! सूर्य की प्रभा मन्द पड़ गयी है। आकाश में ग्रह परस्पर टकराया करते हैं। भूतों की घनी भीड़ में पृथ्वी और अन्तरिक्ष में आग-सी लगी हुई है ॥ १७ ॥
नदी, नद, तालाब, और लोगों के मन क्षुब्ध हो रहे हैं। घी से आग नहीं जलती। यह भयंकर काल न जाने क्या करेगा ॥ १८ ॥
बछड़े दूध नहीं पीते, गौएँ दुह ने नहीं देतीं, गोशाला में गौएँ आँसू बहा-बहाकर रो रही हैं। बैल भी उदास हो रहे हैं ॥ १९ ॥
देवताओं की मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमें से पसीना चू ने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं। भाई ! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं। पता नहीं ये हमारे किस दु:ख की सूचना दे रहे हैं ॥ २० ॥
इन बड़े-बड़े उत्पातों को देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवान के उन चरणकमलोंसे, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र, अंकुशादि- विलक्षण चिह्न और किसी में भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है ॥ २१ ॥
शौनकजी ! राजा युधिष्ठिर इन भयंकर उत्पातों को देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारका से लौटकर अर्जुन आये ॥ २२ ॥
युधिष्ठिर ने देखा, अर्जुन इत ने आतुर हो रहे हैं जित ने पहले कभी नहीं देखे गये थे। मुँह लट का हुआ है, कमल-सरीखे नेत्रों से आँसू बह रहे हैं और शरीर में बिलकुल कान्ति नहीं है। उन को इस रूप में अपने चरणों में पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। देवर्षि नारद की बातें याद करके उन्होंने सुहृदों के सामने ही अर्जुन से पूछा ॥ २३-२४ ॥
युधिष्ठिर ने कहा—‘भाई ! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज, दशाहर्, आहर्, सात्वत, अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशल से तो हैं ? ॥ २५ ॥
हमारे माननीय नाना शूरसेनजी प्रसन्न हैं ? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेवजी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ २६ ॥
उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देव की आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओं के साथ आनन्द से तो हैं ? ॥ २७ ॥
जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवक के साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवों के प्रभु बलरामजी तो आनन्द से हैं ? ॥ २८-२९ ॥
वृष्णिवंश के सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्र सुख से तो हैं ? युद्ध में बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान अनिरुद्ध आनन्द से हैं न ? ॥ ३० ॥
सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रों के सहित ऋषभ आदि भगवान श्रीकृष्ण के अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न ? ॥ ३१ ॥
भगवान श्रीकृष्ण के सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के बाहुबल से सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल हैं न ? हम से अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ? ॥ ३२-३३ ॥
भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान श्रीकृष्ण अपने स्वजनों के साथ द्वारका की सुधर्मा-सभा में सुखपूर्वक विराजते हैं न ? ॥ ३४ ॥
वे आदिपुरुष बलरामजी के साथ संसार के परम मङ्गल, परम कल्याण और उन्नति के लिये यदुवंशरूप क्षीरसागर में विराजमान हैं। उन्हींके बाहुबल से सुरक्षित द्वारकापुरी में यदुवंशीलोग सारे संसार के द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्द से विष्णुभगवान के पार्षदों के समान विहार कर रहे हैं ॥ ३५-३६ ॥
सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूप से उनके चरणकमलों की सेवा में ही रत रहकर उनके द्वारा युद्ध में इन्द्रादि देवताओं को भी हराकर इन्द्राणी के भोगयोग्य तथा उन्हीं की अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओं का उपभोग करती हैं ॥ ३७ ॥
यदुवंशी वीर श्रीकृष्ण के बाहुदण्ड के प्रभाव से सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओं के बैठ ने योग्य सुधर्मा सभा को अपने चरणों से आक्रान्त करते हैं ॥ ३८ ॥
भाई अर्जुन ! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशल से हो न ? मुझे तुम श्रीहीन- से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनों तक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मान में तो किसी प्रकार की कमी नहीं हुई ? किसी ने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? ॥ ३९ ॥
कहीं किसी ने दुर्भावपूर्ण अमङ्गल शब्द आदि के द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशा से तुम्हारे पास आये हुए याचकों को उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओर से कुछ दे ने की प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके ? ॥ ४० ॥
तुम सदा शरणागतों की रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरण में आया हो, तुम ने त्याग तो नहीं कर दिया ? ॥ ४१ ॥
कहीं तुम ने अगम्या स्त्री से समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्री के साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्ग में अपने से छोटे अथवा बराबरीवालों से हार तो नहीं गये ? ॥ ४२ ॥
अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ों को छोडक़र तुम ने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुम ने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो ॥ ४३ ॥
हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहृद् भगवान श्रीकृष्ण से तुम रहित हो गये हो। इसीसे अपने को शून्य मान रहे हो । इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुम को इतनी मानसिक पीड़ा हो’ ॥ ४४ ॥

स्कन्ध-01 [अध्याय-15]

कृष्ण विरह-व्यथित पाण्डवों का परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना 

॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्रा राज्ञा विकल्पितः ।
नानाशङ्कास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्शितः ॥ १॥

शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः ।
विभुं तमेवानुध्यायन्नाशक्नोत्प्रतिभाषितुम् ॥ २॥

कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाऽऽमृज्य नेत्रयोः ।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातरः ॥ ३॥

सख्यं मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन् ।
नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा ॥ ४॥

अर्जुन उवाच
वञ्चितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा ।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत् ॥ ५॥

यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्यप्रियदर्शनः ।
उक्थेन रहितो ह्येष मृतकः प्रोच्यते यथा ॥ ६॥

यत्संश्रयाद्द्रुपदगेहमुपागतानां
राज्ञां स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम् ।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यः
सज्जीकृतेन धनुषाधिगता च कृष्णा ॥ ७॥

यत्सन्निधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदा-
मिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य ।
लब्धा सभा मयकृताद्भुतशिल्पमाया
दिग्भ्योऽहरन् नृपतयो बलिमध्वरे ते ॥ ८॥

यत्तेजसा नृपशिरोऽङ्घ्रिमहन् मखार्थ-
मार्योऽनुजस्तव गजायुतसत्त्ववीर्यः ।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा
यन्मोचितास्तदनयन् बलिमध्वरे ते ॥ ९॥

पत्न्यास्तवाधिमखकॢप्तमहाभिषेक-
श्लाघिष्ठचारुकबरं कितवैः सभायाम् ।
स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या
यस्तत्स्त्रियोऽकृतहतेशविमुक्तकेशाः ॥ १०॥

यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्रा-
द्दुर्वाससोऽरिरचितादयुताग्रभुग् यः ।
शाकान्नशिष्टमुपयुज्य यतस्त्रिलोकीं
तृप्ताममंस्त सलिले विनिमग्नसङ्घः ॥ ११॥

यत्तेजसाथ भगवान् युधि शूलपाणि-
र्विस्मापितः सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे ।
अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण
प्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम् ॥ १२॥

तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं
गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवाः ।
सेन्द्राः श्रिता यदनुभावितमाजमीढ
तेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्ना ॥ १३॥

यद्बान्धवः कुरुबलाब्धिमनन्तपार-
मेको रथेन ततरेऽहमतीर्यसत्त्वम् ।
प्रत्याहृतं बहुधनं च मया परेषां
तेजास्पदं मणिमयं च हृतं शिरोभ्यः ॥ १४॥

यो भीष्मकर्णगुरुशल्यचमूष्वदभ्र-
राजन्यवर्यरथमण्डलमण्डितासु ।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना-
मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत् ॥ १५॥

यद्दोःषु मा प्रणिहितं गुरुभीष्मकर्ण-
नप्तृत्रिगर्तशलसैन्धवबाह्लिकाद्यैः ।
अस्त्राण्यमोघमहिमानि निरूपितानि
नोपस्पृशुर्नृहरिदासमिवासुराणि ॥ १६॥

सौत्ये वृतः कुमतिनाऽऽत्मद ईश्वरो मे
यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्याः ।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं
न प्राहरन् यदनुभावनिरस्तचित्ताः ॥ १७॥

नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि
हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति ।
सञ्जल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि
स्मर्तुर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य ॥ १८॥

शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादि-
ष्वैक्याद्वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः ।
सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं
सेहे महान् महितया कुमतेरघं मे ॥ १९॥

सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्यः ।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमङ्ग रक्षन्
गोपैरसद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि ॥ २०॥

तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते
सोऽहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति ।
सर्वं क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं
भस्मन् हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम् ॥ २१॥

राजंस्त्वयानुपृष्टानां सुहृदां नः सुहृत्पुरे ।
विप्रशापविमूढानां निघ्नतां मुष्टिभिर्मिथः ॥ २२॥

वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम् ।
अजानतामिवान्योन्यं चतुःपञ्चावशेषिताः ॥ २३॥

प्रायेणैतद्भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम् ।
मिथो निघ्नन्ति भूतानि भावयन्ति च यन्मिथः ॥ २४॥

जलौकसां जले यद्वन्महान्तोऽदन्त्यणीयसः ।
दुर्बलान् बलिनो राजन् महान्तो बलिनो मिथः ॥ २५॥

एवं बलिष्ठैर्यदुभिर्महद्भिरितरान् विभुः ।
यदून् यदुभिरन्योन्यं भूभारान् सञ्जहार ह ॥ २६॥

देशकालार्थयुक्तानि हृत्तापोपशमानि च ।
हरन्ति स्मरतश्चित्तं गोविन्दाभिहितानि मे ॥ २७॥

सूत उवाच
एवं चिन्तयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम् ।
सौहार्देनातिगाढेन शान्ताऽऽसीद्विमला मतिः ॥ २८॥

वासुदेवाङ्घ्र्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा ।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायधिषणोऽर्जुनः ॥ २९॥

गीतं भगवता ज्ञानं यत्तत्सङ्ग्राममूर्धनि ।
कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमत्प्रभुः ॥ ३०॥

विशोको ब्रह्मसम्पत्त्या संच्छिन्नद्वैतसंशयः ।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिङ्गत्वादसम्भवः ॥ ३१॥

निशम्य भगवन्मार्गं संस्थां यदुकुलस्य च ।
स्वःपथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्ठिरः ॥ ३२॥

पृथाप्यनुश्रुत्य धनञ्जयोदितं
नाशं यदूनां भगवद्गतिं च ताम् ।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे
निवेशितात्मोपरराम संसृतेः ॥ ३३॥

ययाहरद्भुवो भारं तां तनुं विजहावजः ।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम् ॥ ३४॥

यथा मत्स्यादिरूपाणि धत्ते जह्याद्यथा नटः ।
भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम् ॥ ३५॥

यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं
जहौ स्वतन्वा श्रवणीयसत्कथः ।
तदा हरेवाप्रतिबुद्धचेतसा-
मधर्महेतुः कलिरन्ववर्तत ॥ ३६॥

युधिष्ठिरस्तत्परिसर्पणं बुधः पुरे च राष्ट्रे च गृहे तथाऽऽत्मनि ।
विभाव्य लोभानृतजिह्महिंसनाद्यधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात् ॥ ३७॥

स्वराट् पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः ।
तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिञ्चद्गजाह्वये ॥ ३८॥

मथुरायां तथा वज्रं शूरसेनपतिं ततः ।
प्राजापत्यां निरूप्येष्टिमग्नीनपिबदीश्वरः ॥ ३९॥

विसृज्य तत्र तत्सर्वं दुकूलवलयादिकम् ।
निर्ममो निरहङ्कारः सच्छिन्नाशेषबन्धनः ॥ ४०॥

वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम् ।
मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पञ्चत्वे ह्यजोहवीत् ॥ ४१॥

त्रित्वे हुत्वा च पञ्चत्वं तच्चैकत्वेऽजुहोन्मुनिः ।
सर्वमात्मन्यजुहवीद्ब्रह्मण्यात्मानमव्यये ॥ ४२॥

चीरवासा निराहारो बद्धवाङ्मुक्तमूर्धजः ।
दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥ ४३॥

अनवेक्षमाणो निरगादश‍ृण्वन् बधिरो यथा ।
उदीचीं प्रविवेशाशां गतपूर्वां महात्मभिः ।
हृदि ब्रह्म परं ध्यायन् नावर्तेत यतो गतः ॥ ४४॥

सर्वे तमनुनिर्जग्मुर्भ्रातरः कृतनिश्चयाः ।
कलिनाधर्ममित्रेण दृष्ट्वा स्पृष्टाः प्रजा भुवि ॥ ४५॥

ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वात्यन्तिकमात्मनः ।
मनसा धारयामासुर्वैकुण्ठचरणाम्बुजम् ॥ ४६॥

तद्ध्यानोद्रिक्तया भक्त्या विशुद्धधिषणाः परे ।
तस्मिन् नारायणपदे एकान्तमतयो गतिम् ॥ ४७॥

अवापुर्दुरवापां ते असद्भिर्विषयात्मभिः ।
विधूतकल्मषा स्थानं विरजेनात्मनैव हि ॥ ४८॥

विदुरोऽपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मनः ।
कृष्णावेशेन तच्चित्तः पितृभिः स्वक्षयं ययौ ॥ ४९॥

द्रौपदी च तदाज्ञाय पतीनामनपेक्षताम् ।
वासुदेवे भगवति ह्येकान्तमतिराप तम् ॥ ५०॥

यः श्रद्धयैतद्भगवत्प्रियाणां
पाण्डोः सुतानामिति सम्प्रयाणम् ।
श‍ृणोत्यलं स्वस्त्ययनं पवित्रं
लब्ध्वा हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम् ॥ ५१॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
पाण्डवस्वर्गारोहणं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय  
कृष्ण विरह-व्यथित पाण्डवों का परीक्षित को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना
सूतजी कहते हैं—भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरह से कृश हो रहे थे, उसपर राजा युधिष्ठिर ने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषय में कई प्रकार की आशङ्काएँ करते हुए प्रश्रों की झड़ी लगा दी ॥ १ ॥
शोक से अर्जुन का मुख और हृदय-कमल सूख गया था, चेहरा फी का पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाई के प्रश्रों का कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ २ ॥
श्रीकृष्ण की आँखों से ओझल हो जाने के कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठा के परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहल ने आदि के समय भगवान ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेम से भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी; बड़े कष्ट से उन्होंने अपने शोक का वेग रोका, हाथ से नेत्रों के आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गले से अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिर से कहा ॥ ३-४ ॥
अर्जुन बोले—महाराज ! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्र का रूप धारणकर श्रीकृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रम से बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्य में डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझ से छीन लिया ॥ ५ ॥
जैसे यह शरीर प्राण से रहित होने पर मृ तक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षणभर के वियोग से यह संसार अप्रिय दीख ने लगता है ॥ ६ ॥
उनके आश्रय से द्रौपदी-स्वयंवर में राजा द्रुपद के घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओं का तेज मैंने हरण कर लिया, धनुष पर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदी को प्राप्त किया था ॥ ७ ॥
उनकी सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओं के साथ इन्द्र को अपने बल से जीतकर अग्रिदेव को उनकी तृप्ति के लिये खाण्डव वन का दान कर दिया और मय दानव की निर्माण की हुई, अलौकिक कलाकौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं ॥ ८ ॥
दस हजार हाथियों की शक्ति और बल से सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की शक्ति से राजाओं के सिर पर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्ध का वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान ने उन बहुत- से राजाओं को मुक्त किया, जिन को जरासन्ध ने महाभैरव-यज्ञ में बलि चढ़ा ने के लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओं ने आपके यज्ञ में अनेकों प्रकार के उपहार दिये थे ॥ ९ ॥
महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञ के महान अभिषेक से पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशों को, जिन्हें दुष्टों ने भरी सभा में छू ने का साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखों में आँसू भरकर जब श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा करके उन धूर्तों की स्त्रियों की ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल दे ने पड़े ॥ १० ॥
वनवासके समय हमारे वैरी दुर्योधन के षड्यन्त्र से दस हजार शिष्यों को साथ बिठाकर भोजन करनेवाले महर्षि दुर्वासा ने हमें दुस्तर संकट में डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदी के पात्र में बची हुई शाक की एक पत्ती का ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदी में स्नान करती हुई मुनिमण्डली को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलो की ही तृप्त हो गयी है [1] ॥ ११ ॥
उनके प्रताप से मैंने युद्ध में पार्वतीसहित भगवान शङ्कर को आश्चर्य में डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया; साथ ही दूसरे लोक पालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपा से मैं इसी शरीर से स्वर्ग में गया और देवराज इन्द्र की सभा में उनके बराबर आधे आसन पर बैठ ने का सम्मान मैंने प्राप्त किया ॥ १२ ॥
उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनों तक रह गया, तब इन्द्र के साथ समस्त देवताओं ने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करनेवाली भुजाओं का निवातकवच आदि दैत्यों को मार ने के लिये आश्रय लिया। महाराज ! यह सब जिनकी महती कृपा का फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आज ठग लिया ? ॥ १३ ॥
महाराज ! कौरवों की सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्यों से पूर्ण अपार समुद्र के समान दुस्तर थी, परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथ पर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हीं की सहायतासे, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट का सारा गोधन तो वापिस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अङ्गों के अलङ्कार तक छीन लिये थे ॥ १४ ॥
भाईजी ! कौरवों की सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथों से शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टि से ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बल को छीन लिया करते थे ॥ १५ ॥
द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों ने मुझ पर अपने कभी न चूकनेवाले अस्त्र चलाये थे; परंतु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्यों के अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लाद का स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू तक नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहने का ही प्रभाव था ॥ १६ ॥
श्रेष्ठ पुरुष संसार से मुक्त होने के लिये जिनके चरणकमलों का सेवन करते हैं, अपने-आप तक को दे डालनेवाले उन भगवान को मुझ दुर्बुद्धि ने सारथि तक बना डाला। अहा ! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथ से उतरकर पृथ्वी पर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझ पर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी ॥ १७ ॥
महाराज ! माधव के उन्मुक्त और मधुर मुसकान से युक्त, विनोदभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन, और उनका मुझे ‘पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन’ आदि कहकर पुकारना, मुझे याद आने पर मेरे हृदय में उथल-पुथल मचा देते हैं ॥ १८ ॥
सोने, बैठने, टहल ने और अपने सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करने में हम प्राय: एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्य से उन्हें कह बैठता, ‘मित्र ! तुम तो बड़े सत्यवादी हो !’ उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावता के कारण, जैसे मित्र अपने मित्र का और पिता अपने पुत्र का अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धि के अपराधों को सह लिया करते थे ॥ १९ ॥
महाराज ! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र—नहीं-नहीं मेरे हृदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान की पत्नियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर स का ॥ २० ॥
वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण है, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्ण के बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गये—ठीक उसी तरह, जैसे भस्म में डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ॥ २१ ॥
राजन् ! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद् सम्बन्धियों की बात पूछी है, वे ब्राह्मणों के शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारुणी मदिरा के पान से मदोन्मत्त होकर अपरिचितों की भाँति आपस में ही एक-दूसरे से भिड़ गये और घूँसों से मार-पीट करके सबके-सब नष्ट हो गये। उनमें से केवल चार-पाँच ही बचे हैं ॥ २२-२३ ॥
वास्तव में यह सर्वशक्तिमान् भगवान की ही लीला है कि संसार के प्राणी परस्पर एक-दूसरे का पालन पोषण भी करते हैं और एक-दूसरे को मार भी डालते हैं ॥ २४ ॥
राजन् ! जिस प्रकार जलचरों में बड़े जन्तु छोटों को, बलवान् दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरे को खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियों के द्वारा भगवान ने दूसरे राजाओं का संहार कराया। तत्पश्चात यदुवंशियों के द्वारा ही एक से दूसरे यदुवंशी का नाश करा के पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ २५-२६ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा हृदय के ताप को शान्त करनेवाली थीं; स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती हैं ॥ २७ ॥
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का चिन्तन करते- करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी ॥ २८ ॥
उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहॢनश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेग ने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया ॥ २९ ॥
उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुन: स्मरण हो आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ॥ ३० ॥
ब्रह्मज्ञान- की प्राप्ति से माया का आवरण भङ्ग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैत का संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्मशरीर भङ्ग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्यु के चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये ॥ ३१ ॥
भगवान के स्वधाम-गमन और यदुवंश के संहार का वृत्तान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया ॥ ३२ ॥
कुन्ती ने भी अर्जुन के मुख से यदुवंशियों के नाश और भगवान के स्वधाम-गमन की बात सुनकर अनन्य भक्ति से अपने हृदय को भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया और सदा के लिये इस जन्म-मृत्युरूप संसार से अपना मुँह मोड़ लिया ॥ ३३ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने लोक-दृष्टि में जिस यादवशरीर से पृथ्वी को भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान थे ॥ ३४ ॥
जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं वैसे ही उन्होंने जिस यादवशरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया ॥ ३५ ॥
जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करनेयोग्य हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण ने जब अपने मनुष्यके- से शरीर से इस पृथ्वी का परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगों को अधर्म में फँसानेवाला कलियुग आ धम का ॥ ३६ ॥
महाराज युधिष्ठिर से कलियुग का फैलना छिपा न रहा। उन्होंने देखा—देश में, नगर में, घरों में और प्रणियों में लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मों की बढ़ती हो गयी है। तब उन्होंने महाप्रस्थान का निश्चय किया ॥ ३७ ॥
उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित को, जो गुणों में उन्हींके समान थे, समुद्र से घिरी हुई पृथ्वी के सम्राट् पद पर हस्तिनापुर में अभिषिक्त किया ॥ ३८ ॥
उन्होंने मथुरा में शूरसेनाधिपति के रूप में अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके बाद समर्थ युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्रियों को अपने में लीन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रम के धर्म से मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया ॥ ३९ ॥
युधिष्ठिर ने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकार से रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले ॥ ४० ॥
उन्होंने दृढ़ भावना से वाणी को मन में, मन को प्राण में, प्राण को अपान में और अपान को उसकी क्रिया के साथ मृत्यु में, तथा मृत्यु को पञ्चभूतमय शरीर में लीन कर लिया ॥ ४१ ॥
इस प्रकार शरीर को मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुण में मिला दिया, त्रिगुण को मूल प्रकृति में, सर्वकारणरूपा प्रकृति को आत्मा में, और आत्मा को अविनाशी ब्रह्म में विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपञ्च ब्रह्म स्वरूप है ॥ ४२ ॥
इसके पश्चात उन्होंने शरीर पर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जल का त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूप को ऐसा दिखा ने लगे जैसे कोई जड, उन्मत्त या पिशाच हो ॥ ४३ ॥
फिर वे बिना किसी की बाट देखे तथा बहरे की तरह बिना किसी की बात सुने, घर से निकल पड़े। हृदय में उसपर ब्रह्म का ध्यान करते हुए, जिस को प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशा की यात्रा की, जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्मा जन जा चु के हैं ॥ ४४ ॥
भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिर के छोटे भाइयों ने भी देखा कि अब पृथ्वी में सभी लोगों को अधर्म के सहायक कलियुग ने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्ण चरणों की प्राप्ति का दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाई के पीछे-पीछे चल पड़े ॥ ४५ ॥
उन्होंने जीवन के सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदय में धारण किया ॥ ४६ ॥
पाण्डवों के हृदय में भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के ध्यान से भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण के उस सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में अनन्य भाव से स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलत: उन्होंने अपने विशुद्ध अन्त:करण से स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्यों को कभी प्राप्त नहीं हो सकती ॥ ४७-४८ ॥
संयमी एवं श्रीकृष्ण के प्रेमावेश में मुग्ध भगवन्मय विदुरजी ने भी अपने शरीर को प्रभास-क्षेत्र में त्याग दिया। उस समय उन्हें लेने के लिये आये हुए पितरों के साथ वे अपने लोक (यमलोक) को चले गये ॥ ४९ ॥
द्रौपदी ने देखा कि अब पाण्डवलोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्य प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं ॥ ५० ॥
भगवान के प्यारे भक्त पाण्डवों के महाप्रयाण की इस परम पवित्र और मङ्गलमयी कथा को जो पुरुष श्रद्धा से सुनता है, वह निश्चय ही भगवान की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५१ ॥


[1] एक बार राजा दुर्योधन ने महॢष दुर्वासा की बड़ी सेवा की। उससे प्रसन्न होकर मुनि ने दुर्योधन से वर माँग ने को कहा। दुर्योधन ने यह सोचकर कि ऋषि के शाप से पाण्डवों को नष्ट करने का अच्छा अवसर है, मुनि से कहा—‘‘ब्रह्मन् ! हमारे कुल में युधिष्ठिर प्रधान हैं, आप अपने दस सहस्र शिष्योंसहित उनका आतिथ्य स्वीकार करें। किंतु आप उनके यहाँ उस समय जायँ जबकि द्रौपदी भोजन कर चुकी हो, जिससे उसे भूख का कष्ट न उठाना पड़े।’’ द्रौपदी के पास सूर्य की दी हुई एक ऐसी बटलोई थी, जिसमें सिद्ध किया हुआ अन्न द्रौपदी के भोजन कर लेने से पूर्व शेष नहीं होता था; किन्तु उसके भोजन करने के बाद वह समाप्त हो जाता था। दुर्वासाजी दुर्योधन के कथनानुसार उसके भोजन कर चुकने पर मध्याह्न में अपनी शिष्यमण्डलीसहित पहुँचे और धर्मराज से बोले—‘‘हम नदी पर स्नान करने जाते हैं, तुम हमारे लिये भोजन तैयार रखना।’’ इससे द्रौपदी को बड़ी चिन्ता हुई और उसने अति आर्त होकर आर्तबन्धु भगवान श्रीकृष्ण की शरण ली। भगवान तुरंत ही अपना विलासभवन छोडक़र द्रौपदी की झोंपड़ी पर आये और उससे बोले—‘‘कृष्णे ! आज बड़ी भूख लगी है, कुछ खा ने को दो।’’ द्रौपदी भगवान की इस अनुपम दया से गद्गद हो गयी और बोली ‘‘प्रभो ! मेरा बड़ा भाग्य है, जो आज विश्वम्भर ने मुझ से भोजन माँगा; परन्तु क्या करूँ ? अब तो कुटी में कुछ भी नहीं है।’’ भगवान ने कहा—‘‘अच्छा, वह पात्र तो लाओ; उसमें कुछ होगा ही।’’ द्रौपदी बटलोई ले आयी; उसमें कहीं शाक का एक कण लगा था। विश्वात्मा हरि ने उसी को भोग लगाकर त्रिलो की को तृप्त कर दिया और भीमसेन से कहा कि मुनिमण्डली को भोजन के लिये बुला लाओ। किन्तु मुनिगण तो पहले ही तृप्त होकर भाग गये थे। (महाभारत)




स्कन्ध-01 [अध्याय-16]

परीक्षित्‌ की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद 

॥ षोडशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
ततः परीक्षिद्द्विजवर्यशिक्षया
महीं महाभागवतः शशास ह ।
यथा हि सूत्यामभिजातकोविदाः
समादिशन् विप्र महद्गुणस्तथा ॥ १॥

स उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम् ।
जनमेजयादींश्चतुरस्तस्यामुत्पादयत्सुतान् ॥ २॥

आजहाराश्वमेधांस्त्रीन् गङ्गायां भूरिदक्षिणान् ।
शारद्वतं गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचराः ॥ ३॥

निजग्राहौजसा वीरः कलिं दिग्विजये क्वचित् ।
नृपलिङ्गधरं शूद्रं घ्नन्तं गोमिथुनं पदा ॥ ४॥

शौनक उवाच
कस्य हेतोर्निजग्राह कलिं दिग्विजये नृपः ।
नृदेवचिह्नधृक् शूद्रः कोऽसौ गां यः पदाहनत् ।
तत्कथ्यतां महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम् ॥ ५॥

अथवास्य पदाम्भोजमकरन्दलिहां सताम् ।
किमन्यैरसदालापैरायुषो यदसद्व्ययः ॥ ६॥

क्षुद्रायुषां नृणामङ्ग मर्त्यानामृतमिच्छताम् ।
इहोपहूतो भगवान् मृत्युः शामित्रकर्मणि ॥ ७॥

न कश्चिन्म्रियते तावद्यावदास्त इहान्तकः ।
एतदर्थं हि भगवानाहूतः परमर्षिभिः ।
अहो नृलोके पीयेत हरिलीलामृतं वचः ॥ ८॥

मन्दस्य मन्दप्रज्ञस्य वयो मन्दायुषश्च वै ।
निद्रया ह्रियते नक्तं दिवा च व्यर्थकर्मभिः ॥ ९॥

सूत उवाच
यदा परीक्षित्कुरुजाङ्गलेऽश‍ृणोत्कलिं
प्रविष्टं निजचक्रवर्तिते ।
निशम्य वार्तामनतिप्रियां ततः
शरासनं संयुगशौण्डिराददे ॥ १०॥

स्वलङ्कृतं श्यामतुरङ्गयोजितं
रथं मृगेन्द्रध्वजमाश्रितः पुरात् ।
वृतो रथाश्वद्विपपत्तियुक्तया
स्वसेनया दिग्विजयाय निर्गतः ॥ ११॥

भद्राश्वं केतुमालं च भारतं चोत्तरान् कुरून् ।
किम्पुरुषादीनि वर्षाणि विजित्य जगृहे बलिम् ॥ १२॥

(नगरांश्च वनांश्चैव नदीश्च विमलोदकाः ।
पुरुषान् देवकल्पांश्च नारीश्च प्रियदर्शनाः ॥

अदृष्टपूर्वान् सुभगान् स ददर्श धनञ्जयः ।
सदनानि च शुभ्राणि नारीश्चाप्सरसां निभाः ॥)
तत्र तत्रोपश‍ृण्वानः स्वपूर्वेषां महात्मनाम् ।
प्रगीयमाणं च यशः कृष्णमाहात्म्यसूचकम् ॥ १३॥

आत्मानं च परित्रातमश्वत्थाम्नोऽस्त्रतेजसः ।
स्नेहं च वृष्णिपार्थानां तेषां भक्तिं च केशवे ॥ १४॥

तेभ्यः परमसन्तुष्टः प्रीत्युज्जृम्भितलोचनः ।
महाधनानि वासांसि ददौ हारान् महामनाः ॥ १५॥

सारथ्यपारषदसेवनसख्यदौत्य-
वीरासनानुगमनस्तवनप्रणामान् ।
स्निग्धेषु पाण्डुषु जगत्प्रणतिं च विष्णोः
भक्तिं करोति नृपतिश्चरणारविन्दे ॥ १६॥

तस्यैवं वर्तमानस्य पूर्वेषां वृत्तिमन्वहम् ।
नातिदूरे किलाश्चर्यं यदासीत्तन्निबोध मे ॥ १७॥

धर्मः पदैकेन चरन् विच्छायामुपलभ्य गाम् ।
पृच्छति स्माश्रुवदनां विवत्सामिव मातरम् ॥ १८॥

धर्म उवाच
कच्चिद्भद्रेऽनामयमात्मनस्ते
विच्छायासि म्लायतेषन्मुखेन ।
आलक्षये भवतीमन्तराधिं
दूरे बन्धुं शोचसि कञ्चनाम्ब ॥ १९॥

पादैर्न्यूनं शोचसि मैकपादमात्मानं
वा वृषलैर्भोक्ष्यमाणम् ।
आहो सुरादीन् हृतयज्ञभागान्
प्रजा उत स्विन्मघवत्यवर्षति ॥ २०॥

अरक्ष्यमाणाः स्त्रिय उर्वि बालान्
शोचस्यथो पुरुषादैरिवार्तान् ।
वाचं देवीं ब्रह्मकुले कुकर्मण्यब्रह्मण्ये
राजकुले कुलाग्र्यान् ॥ २१॥

किं क्षत्रबन्धून् कलिनोपसृष्टान्
राष्ट्राणि वा तैरवरोपितानि ।
इतस्ततो वाशनपानवासः
स्नानव्यवायोन्मुखजीवलोकम् ॥ २२॥

यद्वाम्ब ते भूरिभरावतार-
कृतावतारस्य हरेर्धरित्रि ।
अन्तर्हितस्य स्मरती विसृष्टा
कर्माणि निर्वाणविलम्बितानि ॥ २३॥

इदं ममाचक्ष्व तवाधिमूलं
वसुन्धरे येन विकर्शितासि ।
कालेन वा ते बलिनां बलीयसा
सुरार्चितं किं हृतमम्ब सौभगम् ॥ २४॥

धरण्युवाच
भवान् हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि ।
चतुर्भिर्वर्तसे येन पादैर्लोकसुखावहैः ॥ २५॥

सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम् ।
शमो दमस्तपः साम्यं तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥ २६॥

ज्ञानं विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः ।
स्वातन्त्र्यं कौशलं कान्तिर्धैर्यं मार्दवमेव च ॥ २७॥

प्रागल्भ्यं प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः ।
गाम्भीर्यं स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहङ्कृतिः ॥ २८॥

एते चान्ये च भगवन् नित्या यत्र महागुणाः ।
प्रार्थ्या महत्त्वमिच्छद्भिर्न वियन्ति स्म कर्हिचित् ॥ २९॥

तेनाहं गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम् ।
शोचामि रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम् ॥ ३०॥

आत्मानं चानुशोचामि भवन्तं चामरोत्तमम् ।
देवानृषीन् पितॄन् साधून् सर्वान् वर्णांस्तथाश्रमान् ॥ ३१॥

ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपाङ्गमोक्षकामास्तपः
समचरन् भगवत्प्रपन्नाः ।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय
यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ता ॥ ३२॥

तस्याहमब्जकुलिशाङ्कुशकेतुकेतैः
श्रीमत्पदैर्भगवतः समलङ्कृताङ्गी ।
त्रीनत्यरोच उपलभ्य ततो विभूतिं
लोकान् स मां व्यसृजदुत्स्मयतीं तदन्ते ॥ ३३॥

यो वै ममातिभरमासुरवंशराज्ञा-
मक्षौहिणीशतमपानुददात्मतन्त्रः ।
त्वां दुःस्थमूनपदमात्मनि पौरुषेण
सम्पादयन् यदुषु रम्यमबिभ्रदङ्गम् ॥ ३४॥

का वा सहेत विरहं पुरुषोत्तमस्य
प्रेमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पैः ।
स्थैर्यं समानमहरन्मधुमानिनीनां
रोमोत्सवो मम यदङ्घ्रिविटङ्कितायाः ॥ ३५॥

तयोरेवं कथयतोः पृथिवीधर्मयोस्तदा ।
परीक्षिन्नाम राजर्षिः प्राप्तः प्राचीं सरस्वतीम् ॥ ३६॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
पृथ्वीधर्मसंवादो नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय 
परीक्षित की दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! पाण्डवों के महाप्रयाण के पश्चात भगवान के परम भक्त राजा परीक्षित श्रेष्ठ ब्राह्मणों की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी का शासन करने लगे। उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने उनके सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, वास्तव में वे सभी महान गुण उनमें विद्यमान थे ॥ १ ॥
उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥
तथा कृपाचार्य को आचार्य बनाकर उन्होंने गङ्गा के तट पर तीन अश्वमेध-यज्ञ किये, जिन में ब्राह्मणों को पुष्कल दक्षिणा दी गयी। उन यज्ञों में देवताओं ने प्रत्यक्षरूप में प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ॥ ३ ॥
एक बार दिग्विजय करते समय उन्होंने देखा कि शूद्र के रूप में कलियुग राजा का वेष धारण करके एक गाय और बैल के जोड़े को ठोकरों से मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक पकडक़र दण्ड दिया ॥ ४ ॥
शौनकजी ने पूछा—महाभाग्यवान् सूतजी ! दिग्विजय के समय महाराज परीक्षित ने कलियुग को दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया—मार क्यों नहीं डाला ? क्योंकि राजा का वेष धारण करने पर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिस ने गाय को लात से मारा था ? यदि यह प्रसङ्ग भगवान श्रीकृष्ण की लीला से अथवा उनके चरणकमलों के मकरन्द-रस का पान करनेवाले रसिक महानुभावों से सम्बन्ध रखता हो तो अवश्य कहिये। दूसरी व्यर्थ की बातों से क्या लाभ। उनमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ॥ ५-६ ॥
प्यारे सूतजी ! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होने के कारण मृत्यु से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याण के लिये भगवान यम का आवाहन करके उन्हें यहाँ शान्तिकर्म में नियुक्त कर दिया गया है ॥ ७ ॥
जब तक यमराज यहाँ इस कर्म में नियुक्त हैं, तब तक किसी की मृत्यु नहीं होगी। मृत्यु से ग्रस्त मनुष्यलोक के जीव भी भगवान की सुधातुल्य लीला- कथा का पान कर सकें, इसीलिये महर्षियों ने भगवान यम को यहाँ बुलाया है ॥ ८ ॥
एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्था में संसार के मन्दभाग्य विषयी पुरुषों की आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है—नींद में रात और व्यर्थ के कामों में दिन ॥ ९ ॥
सूतजी ने कहा—जिस समय राजा परीक्षित कुरुजाङ्गल देश में सम्राट् के रूप में निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेना द्वारा सुरक्षित साम्राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है। इस समाचार से उन्हें दु:ख तो अवश्य हुआ; परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करने का अवसर हाथ लगा, वे उतने दुखी नहीं हुए। इसके बाद युद्धवीर परीक्षित ने धनुष हाथ में ले लिया ॥ १० ॥
वे श्यामवर्ण के घोड़ों से जुते हुए, सिंह की ध्वजावाले, सुसज्जित रथ पर सवार होकर दिग्विजय करने के लिये नगर से बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी ॥ ११ ॥
उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षों को जीतकर वहाँ के राजाओं से भेंट ली ॥ १२ ॥
उन्हें उन देशों में सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओं का सुयश सुनने को मिला। उस यशोगान से पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की महिमा प्रकट होती थी ॥ १३ ॥
इसके साथ ही उन्हें यह भी सुनने को मिलता था कि भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र की ज्वाला से किस प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवों में परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवों की भगवान श्रीकृष्ण में कितनी भक्ति थी ॥ १४ ॥
जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उन पर महामना राजा परीक्षित बहुत प्रसन्न होते; उनके नेत्र प्रेम से खिल उठते। वे बड़ी उदारता से उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियों के हार उपहाररूप में देते ॥ १५ ॥
वे सुनते कि भगवान श्रीकृष्ण ने प्रेमपरवश होकर पाण्डवों के सारथि का काम किया, उनके सभासद् बने—यहाँ तक कि उनके मन के अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की। उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रात को शस्त्र ग्रहण करके वीरासन से बैठ जाते और शिविर का पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवों के चरणों में उन्होंने सारे जगत को झु का दिया। तब परीक्षित की भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में और भी बढ़ जाती ॥ १६ ॥
इस प्रकार वे दिन-दिन पाण्डवों के आचरण का अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे। उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही दूर पर एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १७ ॥
धर्म बैल का रूप धारण करके एक पैर से घूम रहा था। एक स्थान पर उसे गाय के रूप में पृथ्वी मिली। पुत्र की मृत्यु से दु:खिनी माता के समान उसके नेत्रों से आँसुओं के झर ने झर रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वी से पूछ ने लगा ॥ १८ ॥
धर्म ने कहा—कल्याणि ! कुशल से तो हो न ? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदय में कुछ-न-कुछ दु:ख अवश्य है। क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देश में चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिन्ता कर रही हो ? ॥ १९ ॥
कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है ? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शूद्र तुम्हारे ऊ पर शासन करेंगे। तुम्हें इन देवताओं के लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञों में आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजा के लिये भी, जो वर्षा न होने के कारण अकाल एवं दुॢभक्ष से पीडि़त हो रही है ॥ २० ॥
देवि ! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्यों के द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं आर्तबालकों के लिये शोक कर रही हो ? सम्भव है, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणों के चंगुल में पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्रद्रोही राजाओं की सेवा करने लगे हैं, और इसी का तुम्हें दु:ख हो ॥ २१ ॥
आज के नाममात्र के राजा तो सोलहों आ ने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशों को भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशों के लिये शोक कर रही हो ? आज की जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदि में शास्त्रीय नियमों का पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है; क्या इसके लिये तुम दुखी हो ? ॥ २२ ॥
मा पृथ्वी ! अब समझ में आया, हो-न-हो तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण की याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतार ने के लिये ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएँ की थीं, जो मोक्ष का भी अवलम्बन हैं। अब उनके लीला संवरण कर लेने पर उनके परित्याग से तुम दुखी हो रही हो ॥ २३ ॥
देवि ! तुम तो धन-रत्नों की खान हो। तुम अपने क्लेश का कारण, जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ। मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानों को भी हरा देनेवाले काल ने देवताओं के द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्य को छीन लिया है ॥ २४ ॥
पृथ्वी ने कहा—धर्म ! तुम मुझ से जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान के सहारे तुम सारे संसार को सुख पहुँचानेवाले अपने चारों चरणों से युक्त थे, जिन में सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहंकारता—ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी पुरुषों के द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत- वत्सलता आदि) और भी बहुत- से महान गुण उनकी सेवा करने के लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षण के लिये भी उनसे अलग नहीं होते—उन्हीं समस्त गुणों के आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय इस लोक से अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है ॥ २५—३० ॥
अपने लिये, देवताओं में श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमों के मनुष्यों के लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ ॥ ३१ ॥
जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मीजी अपने निवासस्थान कमलवन का परित्याग करके बड़े प्रेम से जिनके चरणकमलों की सुभग छत्रछाया का सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान के कमल, वज्र, अङ्क्ुश, ध्वजा आदि चिह्नों से युक्त श्रीचरणों से विभूषित होने के कारण मुझे महान वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकों से बढक़र शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्य का अब अन्त हो गया ! भगवान ने मुझ अभागिनी को छोड़ दिया। मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्य पर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ॥ ३२-३३ ॥
तुम अपने तीन चरणों के कम हो जाने से मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अत: अपने पुरुषार्थ से तुम्हें अपने ही अन्दर पुन: सब अङ्गों से पूर्ण एवं स्वस्थ कर दे ने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रह से यदुवंश में प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की सैंकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे ॥ ३४ ॥
जिन्हों ने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियों के मान के साथ धीरज को भी छीन लिया था और जिनके चरण-कमलों के स्पर्श से मैं निरन्तर आनन्द से पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का विरह भला कौन सह सकती है ॥ ३५ ॥
धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित पूर्ववाहिनी सरस्वती के तट पर आ पहुँचे ॥ ३६ ॥


स्कन्ध-01 [अध्याय-17]

महाराज परीक्षित्‌ द्वारा कलियुग का दमन

॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत् ।
दण्डहस्तं च वृषलं ददृशे नृपलाञ्छनम् ॥ १॥

वृषं मृणालधवलं मेहन्तमिव बिभ्यतम् ।
वेपमानं पदैकेन सीदन्तं शूद्रताडितम् ॥ २॥

गां च धर्मदुघां दीनां भृशं शूद्रपदाहताम् ।
विवत्सां साश्रुवदनां क्षामां यवसमिच्छतीम् ॥ ३॥

पप्रच्छ रथमारूढः कार्तस्वरपरिच्छदम् ।
मेघगम्भीरया वाचा समारोपितकार्मुकः ॥ ४॥

कस्त्वं मच्छरणे लोके बलाद्धंस्यबलान् बली ।
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः ॥ ५॥

कस्त्वं कृष्णे गते दूरं सहगाण्डीवधन्वना ।
शोच्योऽस्यशोच्यान् रहसि प्रहरन् वधमर्हसि ॥ ६॥

त्वं वा मृणालधवलः पादैर्न्यूनः पदा चरन् ।
वृषरूपेण किं कश्चिद्देवो नः परिखेदयन् ॥ ७॥

न जातु कौरवेन्द्राणां दोर्दण्डपरिरम्भिते ।
भूतलेऽनुपतन्त्यस्मिन् विना ते प्राणिनां शुचः ॥ ८॥

मा सौरभेयानुशुचो व्येतु ते वृषलाद्भयम् ।
मा रोदीरम्ब भद्रं ते खलानां मयि शास्तरि ॥ ९॥

यस्य राष्ट्रे प्रजाः सर्वास्त्रस्यन्ते साध्व्यसाधुभिः ।
तस्य मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगो गतिः ॥ १०॥

एष राज्ञां परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रहः ।
अत एनं वधिष्यामि भूतद्रुहमसत्तमम् ॥ ११॥

कोऽवृश्चत्तव पादांस्त्रीन् सौरभेय चतुष्पद ।
मा भूवंस्त्वादृशा राष्ट्रे राज्ञां कृष्णानुवर्तिनाम् ॥ १२॥

आख्याहि वृष भद्रं वः साधूनामकृतागसाम् ।
आत्मवैरूप्यकर्तारं पार्थानां कीर्तिदूषणम् ॥ १३॥

जनेनागस्यघं युञ्जन् सर्वतोऽस्य च मद्भयम् ।
साधूनां भद्रमेव स्यादसाधुदमने कृते ॥ १४॥

अनागःस्विह भूतेषु य आगस्कृन्निरङ्कुशः ।
आहर्तास्मि भुजं साक्षादमर्त्यस्यापि साङ्गदम् ॥ १५॥

राज्ञो हि परमो धर्मः स्वधर्मस्थानुपालनम् ।
शासतोऽन्यान् यथाशास्त्रमनापद्युत्पथानिह ॥ १६॥

धर्म उवाच
एतद्वः पाण्डवेयानां युक्तमार्ताभयं वचः ।
येषां गुणगणैः कृष्णो दौत्यादौ भगवान् कृतः ॥ १७॥

न वयं क्लेशबीजानि यतः स्युः पुरुषर्षभ ।
पुरुषं तं विजानीमो वाक्यभेदविमोहिताः ॥ १८॥

केचिद्विकल्पवसना आहुरात्मानमात्मनः ।
दैवमन्ये परे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम् ॥ १९॥

अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः ।
अत्रानुरूपं राजर्षे विमृश स्वमनीषया ॥ २०॥

सूत उवाच
एवं धर्मे प्रवदति स सम्राड्-द्विजसत्तम ।
समाहितेन मनसा विखेदः पर्यचष्ट तम् ॥ २१॥

राजोवाच
धर्मं ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक् ।
यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् ॥ २२॥

अथवा देवमायाया नूनं गतिरगोचरा ।
चेतसो वचसश्चापि भूतानामिति निश्चयः ॥ २३॥

तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः ।
अधर्मांशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसङ्गमदैस्तव ॥ २४॥

इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः ॥ २५॥

इयं च भूमिर्भगवता न्यासितोरुभरा सती ।
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः सर्वतः कृतकौतुका ॥ २६॥

शोचत्यश्रुकला साध्वी दुर्भगेवोज्झिताधुना ।
अब्रह्मण्या नृपव्याजाः शूद्रा भोक्ष्यन्ति मामिति ॥ २७॥

इति धर्मं महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः ।
निशातमाददे खड्गं कलयेऽधर्महेतवे ॥ २८॥

तं जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम् ।
तत्पादमूलं शिरसा समगाद्भयविह्वलः ॥ २९॥

पतितं पादयोर्वीरः कृपया दीनवत्सलः ।
शरण्यो नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव ॥ ३०॥

राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां
बद्धाञ्जलेर्वै भयमस्ति किञ्चित् ।
न वर्तितव्यं भवता कथञ्चन
क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः ॥ ३१॥

त्वां वर्तमानं नरदेवदेहे-
ष्वनुप्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः ।
लोभोऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो
ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भः ॥ ३२॥

न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो
धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्ञैर्यज्ञेश्वरं
यज्ञवितानविज्ञाः ॥ ३३॥

यस्मिन् हरिर्भगवानिज्यमान
इज्यामूर्तिर्यजतां शं तनोति ।
कामानमोघान् स्थिरजङ्गमाना-
मन्तर्बहिर्वायुरिवैष आत्मा ॥ ३४॥

सूत उवाच
परीक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जातवेपथुः ।
तमुद्यतासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् ॥ ३५॥

कलिरुवाच
यत्र क्वचन वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया ।
लक्षये तत्र तत्रापि त्वामात्तेषुशरासनम् ॥ ३६॥

तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि ।
यत्रैव नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् ॥ ३७॥

सूत उवाच
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ ।
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥ ३८॥

पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।
ततोऽनृतं मदं कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ॥ ३९॥

अमूनि पञ्च स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः ।
औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत्तन्निदेशकृत् ॥ ४०॥

अथैतानि न सेवेत बुभूषुः पुरुषः क्वचित् ।
विशेषतो धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः ॥ ४१॥

वृषस्य नष्टांस्त्रीन् पादान् तपः शौचं दयामिति ।
प्रतिसन्दध आश्वास्य महीं च समवर्धयत् ॥ ४२॥

स एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता ॥ ४३॥

आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् ।
गजाह्वये महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः ॥ ४४॥

इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः ।
यस्य पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः ॥ ४५॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
कलिनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-सत्रहवाँ अध्याय 
महाराज परीक्षित द्वारा कलियुग का दमन
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के एक जोड़े को इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ॥ १ ॥
वह कमल-तन्तु के समान श्वेत रंग का बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्र की ताडऩा से पीडि़त और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था ॥ २ ॥
धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थों को देनेवाली वह गाय भी बार-बार शूद्र के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे ॥ ३ ॥
स्वर्णजटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उस को ललकारा ॥ ४ ॥
अरे ! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्य के इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है ? तू ने नट की भाँति वेष तो राजाका-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शूद्र जान पड़ता है ॥ ५ ॥
हमारे दादा अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जाने पर इस प्रकार निर्जन स्थान में निरपराधों पर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अत: वध के योग्य है ॥ ६ ॥
उन्होंने धर्म से पूछा—कमलनाल के समान आपका श्वेतवर्ण है। तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैल के रूप में कोई देवता हैं ? ॥ ७ ॥
अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबल से सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोक के आँसू बहते मैंने नहीं देखे ॥ ८ ॥
धेनुपुत्र ! अब आप शोक न करें। इस शूद्र से निर्भय हो जायँ। गोमाता ! मैं दुष्टों को दण्ड देनेवाला हूँ। अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो ॥ ९ ॥
देवि ! जिस राजा के राज्य में दुष्टों के उपद्रव से सारी प्रजा त्रस्त रहती है उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ॥ १० ॥
राजाओं का परम धर्म यही है कि वे दुखियों का दु:ख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियों को पीडि़त करनेवाला है। अत: मैं अभी इसे मार डालूँगा ॥ ११ ॥
सुरभिनन्दन ! आप तो चार पैरवाले जीव हैं। आपके तीन पैर किस ने काट डाले ? श्रीकृष्ण के अनुयायी राजाओं के राज्य में कभी कोई भी आपकी तरह दुखी न हो ॥ १२ ॥
वृषभ ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप-जैसे निरपराध साधुओं का अङ्ग-भङ्ग करके किस दुष्ट ने पाण्डवों की कीर्ति में कलङ्क लगाया है ? ॥ १३ ॥
जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे, चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टों का दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है ॥ १४ ॥
जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दु:ख देता है, वह चाहे साक्षात देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा ॥ १५ ॥
बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लङ्घन करनेवालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ॥ १६ ॥
धर्म ने कहा—राजन् ! आप महाराज पाण्डु के वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुखियों को आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों ने भगवान श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ॥ १७ ॥
नरेन्द्र ! शास्त्रों के विभिन्न वचनों से मोहित होने के कारण हम उस पुरुष को नहीं जानते, जिससे क्लेशों के कारण उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥
जो लोग किसी भी प्रकार के द्वैत को स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दु:ख का कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्ध को कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्म को। कुछ लोग स्वभाव को, तो कुछ लोग ईश्वर को दु:ख का कारण मानते हैं ॥ १९ ॥
किन्हीं-किन्हीं का ऐसा भी निश्चय है कि दु:ख का कारण न तो तर्क के द्वारा जाना जा सकता है और न वाणी के द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे ! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धि से ही विचार लीजिये ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैं—ऋषिश्रेष्ठ शौनकजी ! धर्म का यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा ॥ २१ ॥
परीक्षित ने कहा—धर्म का तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव ! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभ के रूप में स्वयं धर्म हैं। (आपने अपने को दु:ख देनेवाले का नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करनेवाले को जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवाले को भी मिलते हैं ॥ २२ ॥
अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियों के मन और वाणी से परमेश्वर की माया के स्वरूप का निरूपण नहीं किया जा सकता ॥ २३ ॥
धर्मदेव ! सत्ययुग में आपके चार-चरण थे—तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्म के अंश गर्व, आसक्ति और मद से तीन चरण नष्ट हो चु के हैं ॥ २४ ॥
अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बल पर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ॥ २५ ॥
ये गौ माता साक्षात पृथ्वी हैं। भगवान ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं ॥ २६ ॥
अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनी के समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजा का स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ॥ २७ ॥
महारथी परीक्षित ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को मार ने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ॥ २८ ॥
कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अत: झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले और भयविह्वल होकर उनके चरणों में अपना सिर रख दिया ॥ २९ ॥
परीक्षित बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुग को अपने पैरों पर पड़े देखा तो कृपा करके उस को मारा नहीं, अपितु हँसते हुए- से उससे कहा ॥ ३० ॥
परीक्षित बोले—जब तू हाथ जोडक़र शरण आ गया, तब अर्जुन के यशस्वी वंश में उत्पन्न हुए किसी भी वीर से तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्म का सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्य में बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ ३१ ॥
तेरे राजाओं के शरीर में रहने से ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापों की बढ़ती हो रही है ॥ ३२ ॥
अत: अधर्म के साथी ! इस ब्रह्मावर्त में तू एक क्षण के लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्य का निवासस्थान है। इस क्षेत्र में यज्ञविधि के जाननेवाले महात्मा यज्ञों के द्वारा यज्ञपुरुष भगवान की आराधना करते रहते हैं ॥ ३३ ॥
इस देश में भगवान श्रीहरि यज्ञों के रूप में निवास करते हैं, यज्ञों के द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालों का कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान वायु की भाँति समस्त चराचर जीवों के भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओं को पूर्ण करते रहते हैं ॥ ३४ ॥
सूतजी कहते हैं—परीक्षित की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराज के समान मार ने के लिये उद्यत, हाथ में तलवार लिये हुए परीक्षित से वह बोला ॥ ३५ ॥
कलि ने कहा—सार्वभौम ! आपकी आज्ञा से जहाँ कहीं भी मैं रहने का विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुष पर बाण चढ़ाये खड़े हैं ॥ ३६ ॥
धार्मिक-शिरोमणे ! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ॥ ३७ ॥
सूतजी कहते हैं—कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित ने उसे चार स्थान दिये—द्यूत, मद्यपान, स्त्री-सङ्ग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं ॥ ३८ ॥
उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित ने उसे रहने के लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)—दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये—झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ॥ ३९ ॥
परीक्षित के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा ॥ ४० ॥
इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ॥ ४१ ॥
राजा परीक्षित ने इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरण—तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वी का संवर्धन किया ॥ ४२ ॥
वे ही महाराजा परीक्षित इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिर ने वन में जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं ॥ ४३ ॥
वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित इस समय हस्तिनापुर में कौरव-कुल की राज्यलक्ष्मी से शोभायमान हैं ॥ ४४ ॥
अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित वास्तव में ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकाल में आप-लोग इस दीर्घ कालीन यज्ञ के लिये दीक्षित हुए हैं [1] ॥ ४५ ॥


[1] ४३ से ४५ तक के श्लोकों में महाराज परीक्षित का वर्तमान के समान वर्णन किया गया है। ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (पा सू३। ३। १३१) इस पाणिनि-सूत्र के अनुसार वर्तमान के निकटवर्ती भूत और भविष्य के लिये भी वर्तमान का प्रयोग किया जा सकता है। जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज ने अपनी टीका में लिखा है कि यद्यपि परीक्षित की मृत्यु हो गयी थी, फिर भी उनकी कीर्ति और प्रभाव वर्तमान के समान ही विद्यमान थे। उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करने के लिये उनकी दूरी यहाँ मिटा दी गयी है। उन्हें भगवान का सायुज्य प्राप्त हो गया था, इसलिये भी सूतजी को वे अपने सम्मुख ही दीख रहे हैं। न केवल उन्हीं को, बल्कि सब को इस बात की प्रतीति हो रही है। ‘आत्मा वै जायते पुत्र:’ इस श्रुति के अनुसार जनमेजय के रूप में भी वही राजसिंहासन पर बैठे हुए हैं। इन सब कारणों से वर्तमान के रूप में उनका वर्णन भी कथा के रस को पुष्ट ही करता है।



स्कन्ध-01 [अध्याय-18]

राजा परीक्षत को शृङ्गी ऋषि का शाप 

॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
यो वै द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः ।
अनुग्रहाद्भगवतः कृष्णस्याद्भुतकर्मणः ॥ १॥

ब्रह्मकोपोत्थिताद्यस्तु तक्षकात्प्राणविप्लवात् ।
न सम्मुमोहोरुभयाद्भगवत्यर्पिताशयः ॥ २॥

उत्सृज्य सर्वतः सङ्गं विज्ञाताजितसंस्थितिः ।
वैयासकेर्जहौ शिष्यो गङ्गायां स्वं कलेवरम् ॥ ३॥

नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम् ।
स्यात्सम्भ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम् ॥ ४॥

तावत्कलिर्न प्रभवेत्प्रविष्टोऽपीह सर्वतः ।
यावदीशो महानुर्व्यामाभिमन्यव एकराट् ॥ ५॥

यस्मिन्नहनि यर्ह्येव भगवानुत्ससर्ज गाम् ।
तदैवेहानुवृत्तोऽसावधर्मप्रभवः कलिः ॥ ६॥

नानुद्वेष्टि कलिं सम्राट् सारङ्ग इव सारभुक् ।
कुशलान्याशु सिद्ध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत् ॥ ७॥

किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा ।
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृको नृषु वर्तते ॥ ८॥

उपवर्णितमेतद्वः पुण्यं पारीक्षितं मया ।
वासुदेवकथोपेतमाख्यानं यदपृच्छत ॥ ९॥

या याः कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः ।
गुणकर्माश्रयाः पुम्भिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः ॥ १०॥

ऋषय ऊचुः
सूत जीव समाः सौम्य शाश्वतीर्विशदं यशः ।
यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानाममृतं हि नः ॥ ११॥

कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।
आपाययति गोविन्दपादपद्मासवं मधु ॥ १२॥

तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ १३॥

को नाम तृप्येद्रसवित्कथायां
महत्तमैकान्तपरायणस्य ।
नान्तं गुणानामगुणस्य जग्मुर्योगेश्वरा
ये भवपाद्ममुख्याः ॥ १४॥

तन्नो भवान् वै भगवत्प्रधानो
महत्तमैकान्तपरायणस्य ।
हरेरुदारं चरितं विशुद्धं
शुश्रूषतां नो वितनोतु विद्वन् ॥ १५॥

स वै महाभागवतः परीक्षि-
द्येनापवर्गाख्यमदभ्रबुद्धिः ।
ज्ञानेन वैयासकिशब्दितेन
भेजे खगेन्द्रध्वजपादमूलम् ॥ १६॥

तन्नः परं पुण्यमसंवृतार्थ-
माख्यानमत्यद्भुतयोगनिष्ठम् ।
आख्याह्यनन्ताचरितोपपन्नं
पारीक्षितं भागवताभिरामम् ॥ १७॥

सूत उवाच
अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म
वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः ।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं
महत्तमानामभिधानयोगः ॥ १८॥

कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य
महत्तमैकान्तपरायणस्य ।
योऽनन्तशक्तिर्भगवाननन्तो
महद्गुणत्वाद्यमनन्तमाहुः ॥ १९॥

एतावतालं ननु सूचितेन
गुणैरसाम्यानतिशायनस्य ।
हित्वेतरान् प्रार्थयतो विभूति-
र्यस्याङ्घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः ॥ २०॥

अथापि यत्पादनखावसृष्टं
जगद्विरिञ्चोपहृतार्हणाम्भः ।
सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुन्दात्को
नाम लोके भगवत्पदार्थः ॥ २१॥

यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा
व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम् ।
व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं
यस्मिन्नहिंसोपशमः स्वधर्मः ॥ २२॥

अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्भिराचक्ष
आत्मावगमोऽत्र यावान् ।
नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्त्रिणस्तथा
समं विष्णुगतिं विपश्चितः ॥ २३॥

एकदा धनुरुद्यम्य विचरन् मृगयां वने ।
मृगाननुगतः श्रान्तः क्षुधितस्तृषितो भृशम् ॥ २४॥

जलाशयमचक्षाणः प्रविवेश तमाश्रमम् ।
ददर्श मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम् ॥ २५॥

प्रतिरुद्धेन्द्रियप्राणमनोबुद्धिमुपारतम् ।
स्थानत्रयात्परं प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम् ॥ २६॥

विप्रकीर्णजटाच्छन्नं रौरवेणाजिनेन च ।
विशुष्यत्तालुरुदकं तथाभूतमयाचत ॥ २७॥

अलब्धतृणभूम्यादिरसम्प्राप्तार्घ्यसूनृतः ।
अवज्ञातमिवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह ॥ २८॥

अभूतपूर्वः सहसा क्षुत्तृट्भ्यामर्दितात्मनः ।
ब्राह्मणं प्रत्यभूद्ब्रह्मन् मत्सरो मन्युरेव च ॥ २९॥

स तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा ।
विनिर्गच्छन् धनुष्कोट्या निधाय पुरमागमत् ॥ ३०॥

एष किं निभृताशेषकरणो मीलितेक्षणः ।
मृषासमाधिराहोस्वित्किं नु स्यात्क्षत्रबन्धुभिः ॥ ३१॥

तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन् बालकोऽर्भकैः ।
राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत् ॥ ३२॥

अहो अधर्मः पालानां पीव्नां बलिभुजामिव ।
स्वामिन्यघं यद्दासानां द्वारपानां शुनामिव ॥ ३३॥

ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपितः ।
स कथं तद्गृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति ॥ ३४॥

कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम् ।
तद्भिन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे बलम् ॥ ३५॥

इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यान् ऋषिबालकः ।
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह ॥ ३६॥

इति लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि ।
दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् ॥ ३७॥

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम् ।
पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ३८॥

स वा आङ्गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम् ।
उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा स्वांसे मृतोरगम् ॥ ३९॥

विसृज्य तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि ।
केन वा ते प्रतिकृतमित्युक्तः स न्यवेदयत् ॥ ४०॥

निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं
स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत् ।
अहो बतांहो महदद्य ते कृत-
मल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ॥ ४१॥

न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं
सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।
यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता
विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः ॥ ४२॥

अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि
रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः ।
तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्य-
त्यरक्ष्यमाणोऽविवरूथवत्क्षणात् ॥ ४३॥

तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं
यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते
पशून् स्त्रियोऽर्थान् पुरुदस्यवो जनाः ॥ ४४॥

तदाऽऽर्यधर्मश्च विलीयते नृणां
वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः ।
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां
शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ॥ ४५॥

धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राट्बृहच्छ्रवाः ।
साक्षान्महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट् ।
क्षुत्तृट् श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति ॥ ४६॥

अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना ।
पापं कृतं तद्भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ॥ ४७॥

तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि ।
नास्य तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्भक्ताः प्रभवोऽपि हि ॥ ४८॥

इति पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः ।
स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत् ॥ ४९॥

प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः ।
न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्मागुणाश्रयः ॥ ५०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे
विप्रशापोपलम्भनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

प्रथम स्कन्ध-अठारहवाँ अध्याय 
राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषि का शाप
सूतजी कहते हैं—अद्भुत कर्मा भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से राजा परीक्षित अपनी माता की कोख में अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल जाने पर भी मरे नहीं ॥ १ ॥
जिस समय ब्राह्मण के शाप से उन्हें डस ने के लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाशक के महान भय से भी भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था ॥ २ ॥
उन्होंने सब की आसक्ति छोड़ दी, गङ्गातट पर जाकर श्रीशुकदेवजी से उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान के स्वरूप को जानकर अपने शरीर को त्याग दिया ॥ ३ ॥
जो लोग भगवान श्रीकृष्ण की लीला कथा कहते रहते हैं, उस कथामृत का पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनों के द्वारा उनके चरणकमलों का स्मरण करते रहते हैं, उन्हे अन्तकाल में भी मोह नहीं होता ॥ ४ ॥
जब तक पृथ्वी पर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित सम्राट् रहे, तब तक चारों ओर व्याप्त हो जाने पर भी कलियुग का कुछ भी प्रभाव नहीं था ॥ ५ ॥
वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का परित्याग किया, उसी समय पृथ्वी में अधर्म का मूलकारण कलियुग आ गया था ॥ ६ ॥
भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित कलियुग से कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो सङ्कल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है; सङ्कल्पमात्र से नहीं ॥ ७ ॥
यह भेडिय़े के समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीरवीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है। यह प्रमादी मनुष्यों को अपने वश में करने के लिये ही सदा सावधान रहता है ॥ ८ ॥
शौनकादि ऋषियो ! आपलोगों को मैंने भगवान की कथा से युक्त राजा परीक्षित का पवित्र चरित्र सुनाया। आपलोगों ने यही पूछा था ॥ ९ ॥
भगवान श्रीकृष्ण कीर्तन करनेयोग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओं से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषों को उन सब का सेवन करना चाहिये ॥ १० ॥
ऋषियों ने कहा—सौम्यस्वभाव सूतजी ! आप युग युग जीयें; क्योंकि मृत्यु के प्रवाहमें पड़े हुए हमलोगों को आप भगवान श्रीकृष्ण की अमृतमयी उज्ज्वल कीर्ति का श्रवण कराते हैं ॥ ११ ॥
यज्ञ करते-करते उसके धूएँ से हमलोगों का शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्म का कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमान में ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरण-कमलों का मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ॥ १२ ॥
भगवत्-प्रेमी भक्तों के लवमात्र के सत्सङ्ग से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है ॥ १३ ॥
ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषों के एकमात्र जीवन-सर्वस्व श्रीकृष्ण की लीला- कथाओं से तृप्त हो जाय ? समस्त प्राकृत गुणों से अतीत भगवान के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणगणों का पार तो ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके ॥ १४ ॥
विद्वन् ! आप भगवान को ही अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान के उदार और विशुद्ध चरित्रों का हम श्रद्धालु श्रोताओं के लिये विस्तार से वर्णन कीजिये ॥ १५ ॥
भगवान के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्ष स्वरूप भगवान के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण किया गया होगा। उसमें पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा। भगवान के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसङ्ग सुनने में बड़ा रस मिलता है ॥ १६-१७ ॥
सूतजी कहते हैं—अहो ! विलोम [1] जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करनेमात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ॥ १८ ॥
फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान का नाम लेते हैं ! भगवान की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ॥ १९ ॥
भगवान के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढक़र तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणों की यह विशेषता समझा ने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करनेवाले ब्रह्मादि देवताओं को छोडक़र भगवान के न चाहने पर भी उनके चरणकमलों की रज का ही सेवन करती हैं ॥ २० ॥
ब्रह्माजी ने भगवान के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरणनखों से निकलकर गङ्गाजी के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजीसहित सारे जगत को पवित्र करता है। ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ‘भगवान’ शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है ॥ २१ ॥
जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिसमें किसीको कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है ॥ २२ ॥
सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओ ! आपलोगों ने मुझ से जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान्लोग भी अपनी- अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं ॥ २३ ॥
एक दिन राजा परीक्षित धनुष लेकर वन में शिकार खेल ने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते- दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी ॥ २४ ॥
जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पासके ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्तभाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं ॥ २५ ॥
इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के निरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊ पर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पद में वे स्थित थे ॥ २६ ॥
उनका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था। राजा परीक्षित ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ॥ २७ ॥
जब राजा को वहाँ बैठ ने के लिये तिनके का आसन भी न मिला, किसी ने उन्हें भूमि पर भी बैठ ने को न कहा—अघ्र्य और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतीं— तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये ॥ २८ ॥
शौनकजी ! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मण के प्रति ईष्र्या और क्रोध हो आया। उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था ॥ २९ ॥
वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुष की नोक से एक मरा साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये ॥ ३० ॥
उनके मन में यह बात आयी कि इन्हों ने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तव में इन्हों ने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियों का निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्हों ने झूठ-मूठ समाधि का ढोंग रच रखा है ॥ ३१ ॥
उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषिकुमारों के साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालक ने सुना कि राजाने मेरे पिता के साथ दुव्र्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कह ने लगा— ॥ ३२ ॥
‘ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं ! ब्राह्मणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देनेवाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥
ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामी के बर्तनों में खा ने का उसे अधिकार नहीं है ॥ ३४ ॥
अतएव उन्मार्गगामियों के शासक भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जाने पर इन मर्यादा तोडऩेवालों को आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो’ ॥ ३५ ॥
अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमार ने कौशि की नदी के जल से आचमन करके अपने वाणीरूपी वज्र का प्रयोग किया ॥ ३६ ॥
‘कुलाङ्गार परीक्षित ने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लङ्घन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’ ॥ ३७ ॥
इसके बाद वह बालक अपने आश्रम पर आया और अपने पिता के गले में साँप देखकर उसे बड़ा दु:ख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ॥ ३८ ॥
विप्रवर शौनकजी ! शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है ॥ ३९ ॥
उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्र से पूछा—‘बेटा ! तुम क्यों रो रहे हो ? किस ने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया ॥ ४० ॥
ब्रहमर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टि में परीक्षित शाप के योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा—‘ओह, मूर्ख बालक ! तू ने बड़ा पाप किया ! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तू ने उन को इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ ४१ ॥
तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत् स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजा के दुस्सह तेज से सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ॥ ४२ ॥
जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षण में ही लोगों का नाश हो जायगा ॥ ४३ ॥
राजा के नष्ट हो जाने पर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होने पर भी वह हम पर भी लागू होगा। क्योंकि राजा के न रहने पर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ॥ ४४ ॥
उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचार- युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ ४५ ॥
सम्राट् परीक्षित तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत- से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शाप के योग्य कदापि नहीं हैं ॥ ४६ ॥
इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें ॥ ४७ ॥
भगवान के भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरों के द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते ॥ ४८ ॥
महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चातताप हुआ। राजा परीक्षित ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ॥ ४९ ॥
महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दु:खादि द्वन्द्वों में डाल देते हैं, तब भी वे प्राय: हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरूप तो गुणों से सर्वथा परे है ॥ ५० ॥

[1] उच्च वर्ण की माता और निम्र वर्ण के पिता से उत्पन्न संतान को ‘विलोमज’ कहते हैं। सूत जाति की उत्पत्ति इसी प्रकार ब्राह्मणी माता और क्षत्रिय पिता के द्वारा होने से उसे शास्त्रों में विलोम जाति माना गया है।



स्कन्ध-01 [अध्याय-19]

परीक्षित्‌ का अनशन-व्रत और शुकदेवजी का आगमन 

॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥
सूत उवाच
महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
विचिन्तयन्नात्मकृतं सुदुर्मनाः ।
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं
निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥ १॥

ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्दुरत्ययं
व्यसनं नातिदीर्घात् ।
तदस्तु कामं त्वघनिष्कृताय मे
यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा ॥ २॥

अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं
प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे ।
दहत्वभद्रस्य पुनर्न मेऽभू-
त्पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः ॥ ३॥

स चिन्तयन्नित्थमथाश‍ृणोद्यथा
मुनेः सुतोक्तो निरृतिस्तक्षकाख्यः ।
स साधु मेने न चिरेण तक्षकानलं
प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम् ॥ ४॥

अथो विहायेमममुं च लोकं
विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात् ।
कृष्णाङ्घ्रिसेवामधिमन्यमान
उपाविशत्प्रायममर्त्यनद्याम् ॥ ५॥

या वै लसच्छ्रीतुलसीविमिश्र-
कृष्णाङ्घ्रिरेण्वभ्यधिकाम्बुनेत्री ।
पुनाति लोकानुभयत्र सेशान्
कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः ॥ ६॥

इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः
प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् ।
दध्यौ मुकुन्दाङ्घ्रिमनन्यभावो
मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः ॥ ७॥

तत्रोपजग्मुर्भुवनं पुनाना
महानुभावा मुनयः सशिष्याः ।
प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः
स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः ॥ ८॥

अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वा-
नरिष्टनेमिर्भृगुरङ्गिराश्च ।
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम
उतथ्य इन्द्रप्रमदेध्मवाहौ ॥ ९॥

मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो
भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः ।
मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनि-
र्द्वैपायनो भगवान्नारदश्च ॥ १०॥

अन्ये च देवर्षिब्रह्मर्षिवर्या
राजर्षिवर्या अरुणादयश्च ।
नानार्षेयप्रवरान् समेता-
नभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे ॥ ११॥

सुखोपविष्टेष्वथ तेषु भूयः
कृतप्रणामः स्वचिकीर्षितं यत् ।
विज्ञापयामास विविक्तचेता
उपस्थितोऽग्रेऽभिगृहीतपाणिः ॥ १२॥

राजोवाच
अहो वयं धन्यतमा नृपाणां
महत्तमानुग्रहणीयशीलाः ।
राज्ञां कुलं ब्राह्मणपादशौचा-
द्दूराद्विसृष्टं बत गर्ह्यकर्म ॥ १३॥

तस्यैव मेऽघस्य परावरेशो
व्यासक्तचित्तस्य गृहेष्वभीक्ष्णम् ।
निर्वेदमूलो द्विजशापरूपो
यत्र प्रसक्तो भयमाशु धत्ते ॥ १४॥

तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा
गङ्गा च देवी धृतचित्तमीशे ।
द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा
दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः ॥ १५॥

पुनश्च भूयाद्भगवत्यनन्ते
रतिः प्रसङ्गश्च तदाश्रयेषु ।
महत्सु यां यामुपयामि सृष्टिं
मैत्र्यस्तु सर्वत्र नमो द्विजेभ्यः ॥ १६॥

इति स्म राजाध्यवसाययुक्तः
प्राचीनमूलेषु कुशेषु धीरः ।
उदङ्मुखो दक्षिणकूल आस्ते
समुद्रपत्न्याः स्वसुतन्यस्तभारः ॥ १७॥

एवं च तस्मिन् नरदेवदेवे
प्रायोपविष्टे दिवि देवसङ्घाः ।
प्रशस्य भूमौ व्यकिरन् प्रसूनैर्मुदा
मुहुर्दुन्दुभयश्च नेदुः ॥ १८॥

महर्षयो वै समुपागता ये
प्रशस्य साध्वित्यनुमोदमानाः ।
ऊचुः प्रजानुग्रहशीलसारा
यदुत्तमश्लोकगुणाभिरूपम् ॥ १९॥

न वा इदं राजर्षिवर्य चित्रं
भवत्सु कृष्णं समनुव्रतेषु ।
येऽध्यासनं राजकिरीटजुष्टं
सद्यो जहुर्भगवत्पार्श्वकामाः ॥ २०॥

सर्वे वयं तावदिहास्महेऽद्य
कलेवरं यावदसौ विहाय ।
लोकं परं विरजस्कं विशोकं
यास्यत्ययं भागवतप्रधानः ॥ २१॥

आश्रुत्य तदृषिगणवचः परीक्षित्समं
मधुच्युद्गुरु चाव्यलीकम् ।
आभाषतैनानभिनन्द्य युक्तान्
शुश्रूषमाणश्चरितानि विष्णोः ॥ २२॥

समागताः सर्वत एव सर्वे
वेदा यथा मूर्तिधरास्त्रिपृष्ठे ।
नेहाथ नामुत्र च कश्चनार्थ
ऋते परानुग्रहमात्मशीलम् ॥ २३॥

ततश्च वः पृच्छ्यमिमं विपृच्छे
विश्रभ्य विप्रा इति कृत्यतायाम् ।
सर्वात्मना म्रियमाणैश्च कृत्यं
शुद्धं च तत्रामृशताभियुक्ताः ॥ २४॥

तत्राभवद्भगवान् व्यासपुत्रो
यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः ।
अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो
वृतश्च बालैरवधूतवेषः ॥ २५॥ सगोनासंगोगो
तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद-
करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम् ।
चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्ण-
सुभ्र्वाननं कम्बुसुजातकण्ठम् ॥ २६॥

निगूढजत्रुं पृथुतुङ्गवक्षस-
मावर्तनाभिं वलिवल्गूदरं च ।
दिगम्बरं वक्त्रविकीर्णकेशं
प्रलम्बबाहुं स्वमरोत्तमाभम् ॥ २७॥

श्यामं सदापीच्यवयोऽङ्गलक्ष्म्या
स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरस्मितेन ।
प्रत्युत्थितास्ते मुनयः स्वासनेभ्य-
स्तल्लक्षणज्ञा अपि गूढवर्चसम् ॥ २८॥

स विष्णुरातोऽतिथय आगताय
तस्मै सपर्यां शिरसाऽऽजहार ।
ततो निवृत्ता ह्यबुधाः स्त्रियोऽर्भका
महासने सोपविवेश पूजितः ॥ २९॥

स संवृतस्तत्र महान् महीयसां
ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षिसङ्घैः ।
व्यरोचतालं भगवान् यथेन्दु-
र्ग्रहर्क्षतारानिकरैः परीतः ॥ ३०॥

प्रशान्तमासीनमकुण्ठमेधसं
मुनिं नृपो भागवतोऽभ्युपेत्य ।
प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिर्नत्वा
गिरा सूनृतयान्वपृच्छत् ॥ ३१॥

परीक्षिदुवाच
अहो अद्य वयं ब्रह्मन् सत्सेव्याः क्षत्रबन्धवः ।
कृपयातिथिरूपेण भवद्भिस्तीर्थकाः कृताः ॥ ३२॥

येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुध्यन्ति वै गृहाः ।
किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः ॥ ३३॥

सान्निध्यात्ते महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि ।
सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः ॥ ३४॥

अपि मे भगवान् प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः ।
पैतृष्वसेयप्रीत्यर्थं तद्गोत्रस्यात्तबान्धवः ॥ ३५॥

अन्यथा तेऽव्यक्तगतेर्दर्शनं नः कथं नृणाम् ।
नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः ॥ ३६॥

अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् ।
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ॥ ३७॥

यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो ।
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ॥ ३८॥

नूनं भगवतो ब्रह्मन् गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
न लक्ष्यते ह्यवस्थानमपि गोदोहनं क्वचित् ॥ ३९॥

सूत उवाच
एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा ।
प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान् बादरायणिः ॥ ४०॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकागमनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥


॥ इति प्रथमस्कन्धः समाप्तः ॥
॥ ॐ तत्सद्ब्रह्मार्पणमस्तु ॥

प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय 
परीक्षित का अनशनव्रत और शुकदेवजी का आगमन
सूतजी कहते हैं—राजधानी में पहुँचने पर राजा परीक्षित को अपने उस निन्दनीय कर्म के लिये बड़ा पश्चातताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोच ने लगे—‘मैंने निरपराध एवं अपना तेज छिपाये हुए ब्राह्मण के साथ अनार्य पुरुषों के समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेद की बात है ॥ १ ॥
अवश्य ही उन महात्मा के अपमान के फल स्वरूप शीघ्र-से-शीघ्र मुझ पर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करने का दु:साहस नहीं करूँगा ॥ २ ॥
ब्राह्मणों की क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजाने को जलाकर खाक कर दे—जिससे फिर कभी मुझ दुष्ट की ब्राह्मण, देवता और गौओं के प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो ॥ ३ ॥
वे इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ—ऋषिकुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आग के समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनों से मैं संसार में आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होने का कारण प्राप्त हो गया ॥ ४ ॥
वे इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहले से ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरूपत: त्याग करके भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा को ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशन-व्रत लेकर वे गङ्गातट पर बैठ गये ॥ ५ ॥
गङ्गाजी का जल भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसी की गन्ध से मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालों के सहित ऊपर-नीचे के समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? ॥ ६ ॥
इस प्रकार गङ्गाजी के तट पर आमरण अनशन का निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियों का व्रत स्वीकार करके अनन्यभाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने लगे ॥ ७ ॥
उस समय त्रिलो की को पवित्र करनेवाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। संतजन प्राय: तीर्थयात्रा के बहा ने स्वयं उन तीर्थस्थानों को ही पवित्र करते हैं ॥ ८ ॥
उस समय वहाँ पर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगु, अङ्गिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आॢष्टषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रहमर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्यों का शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रों के मुख्य-मुख्य ऋषियों को एकत्र देखकर राजाने सब का यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणों पर सिर रखकर वन्दना की ॥ ९—११ ॥
जब सब लोग आराम से अपने-अपने आसनों पर बैठ गये, तब महाराज परीक्षित ने उन्हें फिर से प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध हृदय से अञ्जलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ॥ १२ ॥
राजा परीक्षित ने कहा—अहो ! समस्त राजाओं में हम धन्य हैं। धन्यतम हैं। क्योंकि अपने शीलस्वभाव के कारण हम आप महापुरुषों के कृपापात्र बन गये हैं। राजवंश के लोग प्राय: निन्दित कर्म करने के कारण ब्राह्मणों के चरण-धोवन से दूर पड़ जाते हैं—यह कित ने खेद की बात है ॥ १३ ॥
मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह-गेहमें आसक्त रहने के कारण मैं भी पापरूप ही हो गया हूँ। इसीसे स्वयं भगवान ही ब्राह्मण के शाप के रूप में मुझ पर कृपा करने के लिये पधारे हैं। यह शाप वैराग्य उत्पन्न करनेवाला है। क्योंकि इस प्रकार के शाप से संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं ॥ १४ ॥
ब्राह्मणो ! अब मैंने अपने चित्त को भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। आपलोग और मा गङ्गाजी शरणागत जानकर मुझ पर अनुग्रह करें, ब्राह्मणकुमार के शाप से प्रेरित कोई दूसरा कपट से तक्षक का रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर डस ले; इस की मुझें तनिक भी परवा नहीं है। आपलोग कृपा करके भगवान की रसमयी लीलाओं का गायन करें ॥ १५ ॥
मैं आप ब्राह्मणों के चरणों में प्रणाम करके पुन: यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में जन्म लेना पड़े, भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग हो, उनके चरणाश्रित महात्माओं से विशेष प्रीति हो और जगत के समस्त प्राणियों के प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे। ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये ॥ १६ ॥
महाराज परीक्षित परम धीर थे। वे ऐसा दृढ़ निश्चय करके गङ्गाजी के दक्षिण तट पर पूर्वाग्र कुशों के आसन पर उत्तरमुख होकर बैठ गये। राज-काज का भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया था ॥ १७ ॥
पृथ्वी के एकच्छत्र सम्राट् परीक्षित जब इस प्रकार आमरण अनशन का निश्चय करके बैठ गये, तब आकाश में स्थित देवतालोग बड़े आनन्द से उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ पृथ्वी पर पुष्पों की वर्षा करने लगे तथा उनके नगारे बार-बार बज ने लगे ॥ १८ ॥
सभी उपस्थित महर्षियों ने परीक्षित के निश्चय की प्रशंसा की और ‘साधु-साधु’ कहकर उनका अनुमोदन किया। ऋषिलोग तो स्वभाव से ही लोगों पर अनुग्रह की वर्षा करते रहते हैं; यही नहीं, उनकी सारी शक्ति लोक पर कृपा करने के लिये ही होती है। उन लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण के गुणों से प्रभावित परीक्षित के प्रति उनके अनुरूप वचन कहे ॥ १९ ॥
‘राजर्षिशिरोमणे ! भगवान श्रीकृष्ण के सेवक और अनुयायी आप पाण्डुवंशियों के लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आपलोगों ने भगवान की सन्निधि प्राप्त करने की आकाङ्क्षा से उस राजसिंहासन का एक क्षण में ही परित्याग कर दिया, जिसकी सेवा बड़े-बड़े राजा अपने मुकुटों से करते थे ॥ २० ॥
हम सब तब तक यहीं रहेंगे, जब तक ये भगवान के परम भक्त परीक्षित अपने नश्वर शरीर को छोडक़र मायादोष एवं शोक से रहित भगवद्धाम में नहीं चले जाते’ ॥ २१ ॥
ऋषियों के ये वचन बड़े ही मधुर, गम्भीर, सत्य और समता से युक्त थे। उन्हें सुनकर राजा परीक्षित ने उन योगयुक्त मुनियों का अभिनन्दन किया और भगवान के मनोहर चरित्र सुनने की इच्छा से ऋषियों से प्रार्थना की ॥ २२ ॥
‘महात्माओ ! आप सभी सब ओर से यहाँ पधारे हैं। आप सत्यलोक में रहनेवाले मूर्तिमान् वेदों के समान हैं। आपलोगों का दूसरों पर अनुग्रह करने के अतिरिक्त, जो आपका सहज स्वभाव ही है, इस लोक या परलोक में और कोई स्वार्थ नहीं है ॥ २३ ॥
विप्रवरो ! आपलोगों पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में यह पूछ ने योग्य प्रश्र करता हूँ। आप सभी विद्वान् परस्पर विचार करके बतलाइये कि सब के लिये सब अवस्थाओं में और विशेष करके थोड़े ही समय में मरनेवाले पुरुषों के लिये अन्त:करण और शरीर से करनेयोग्य विशुद्ध कर्म कौन-सा है [1] ॥ २४ ॥
उसी समय पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करते हुए, किसी की कोई अपेक्षा न रखनेवाले व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रम के बाह्य चिह्नों से रहित एवं आत्मानुभूति में सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियों ने उन्हें घेर रखा था। उनका वेष अवधूत का था ॥ २५ ॥
सोलह वर्ष की अवस्था थी। चरण, हाथ, जङ्घा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब अङ्ग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासि का कुछ ऊँची थी। कान बराबर थे। सुन्दर भौंहें थीं, इन से मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शङ्ख ही था ॥ २६ ॥
हँसली ढ की हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवली से युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, मुख पर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे ॥ २७ ॥
श्याम रंग था। चित्त को चुरानेवाली भरी जवानी थी। वे शरीर की छटा और मधुर मुसकान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जाननेवाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोडक़र उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए ॥ २८ ॥
राजा परीक्षित ने अतिथिरूप से पधारे हुए श्रीशुकदेवजी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरूप को न जाननेवाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँ से लौट गये; सब के द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए ॥ २९ ॥
ग्रह, नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान ब्रहमर्षि, देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत श्रीशुकदेवजी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तव में वे महात्माओं के भी आदरणीय थे ॥ ३० ॥
जब प्रखरबुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्तभाव से बैठ गये, तब भगवान के परम भक्त परीक्षित ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोडक़र नमस्कार किया। उसके पश्चात बड़ी मधुर वाणी से उनसे यह पूछा ॥ ३१ ॥
परीक्षित ने कहा—ब्रह्म स्वरूप भगवन् ! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होने पर भी हमें संत-समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथिरूप से पधारकर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया ॥ ३२ ॥
आप-जैसे महात्माओं के स्मरणमात्र से ही गृहस्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पादप्रक्षालन और आसन दानादि का सुअवसर मिलने पर तो कहना ही क्या है ॥ ३३ ॥
महायोगिन् ! जैसे भगवान विष्णु के सामने दैत्यलोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधि से बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं ॥ ३४ ॥
अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद् भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयों की प्रसन्नता के लिये उन्हींके कुल में उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपन का व्यवहार किया है ॥ ३५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण की कृपा न होती तो आप-सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्यु के समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते ॥ ३६ ॥
आप योगियों के परम गुरु हैं, इसलिये मैं आप से परम सिद्धि के स्वरूप और साधन के सम्बन्ध में प्रश्र कर रहा हूँ। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उस को क्या करना चाहिये ? ॥ ३७ ॥
भगवन् ! साथ ही यह भी बतलाइये कि मनुष्यमात्र को क्या करना चाहिये। वे किस का श्रवण, किस का जप, किस का स्मरण और किस का भजन करें तथा किस का त्याग करें ? ॥ ३८ ॥
भगवत् स्वरूप मुनिवर ! आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि जितनी देर एक गाय दुही जाती है, गृहस्थों के घर पर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते ॥ ३९ ॥
सूतजी कहते हैं—जब राजाने बड़ी ही मधुर वाणी में इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्र किये, तब समस्त धर्मों के मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर दे ने लगे ॥ ४० ॥

इति प्रथम स्कन्ध समाप्त

॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥


[1] इस जगह राजाने ब्राह्मणों से दो प्रश्र किये है; पहला प्रश्र यह है कि जीव को सदा-सर्वदा क्या करना चाहिये और दूसरा यह कि जो थोड़े ही समय में मरनेवाले हैं, उनका क्या कर्तव्य है ? ये ही दो प्रश्र उन्होंने श्रीशुकदेवजी से भी किये क्रमश: इन्हीं दोनों प्रश्रों का उत्तर द्वितीय स्कन्ध से लेकर द्वादशपर्यन्त श्रीशुकदेवजी ने दिया है।



श्री सद्गुरु महाराज की जय!