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।। आरती ।।
(38)
अज अद्वैत पूरण ब्रह्म पर की । आरति कीजै आरतहर की ।।
अखिल विश्व भरपूर अरु न्यारो । कुछ नहिं रंग न रेख अकारो ।।
घट-घट विन्दु विन्दु प्रति पूरन । अति असीम नजदीक न दूर न ।।
वाष्पिय तरल कठिनहु नाहीं । चिन्मय पर अचरज सब ठाहीं ।।
अति अलोल अलौकिक एक सम । नहिं विशेष नहिं होवत कछु कम ।।
नहिं शब्द तेज नहीं अँधियारा । स्वसंवेद्य अक्षर क्षर न्यारा ।।
व्यक्त अव्यक्त कछु कहि नहिं जाई । बुधि अरु तर्क न पहुँचि सकाई ।।
अगम अगाध महिमा अवगाहा । कहन में नाहीं कहिये काहा ।।
करै न कछु कछु होय न ता बिन । सब की सत्ता कहै अनुभव जिन ।।
घट-घट सो प्रभु प्रेम सरूपा । सब को प्रीतम सब को दीपा ।।
सोइ अमृत ततु अछय अकारा । घट-कपाट खोलि पाइये प्यारा ।।
दृष्टि की कुंजी सुष्मन द्वारा । तम-कपाट तीसर तिल तारा ।।
खोलिये चमकि उठे ध्रुव तारा । गगन थाल भरपूर उजेरा ।।
दामिनि मोती झालरि लागी । सजै थाल विरही वैरागी ।।
स्याही सुरख सफेदी रंगा । जरद जंगाली को करि संगा ।।
ये रंग शोभा थाल बढ़ावैं । सतगुरु सेइ-सेइ भक्तन पावैं ।।
अचरज दीप-शिखा की जोती । जगमग-जगमग थाल में होती ।।
असंख्य अलौकिक नखतहु तामें । चन्द औ सूर्य अलौकिक वामें ।।
अस ले थाल बजाइये अनहद । अचरज सार शब्द हो हद-हद ।।
शम-दम धूप करै अति सौरभ । पुष्प-माल हो यम नीयम सभ ।।
अविरल भक्ति की प्रीति प्रसादा । भोग लगाइय अति मर्यादा ।।
प्रभु की आरति या विधि कीजै । स्वसंवेद्य आतम पद लीजै ।।
अकह लोक आतम पद सोई । पहुँचि बहुरि आगमन न होई ।।
सन्तन्ह कीन्हीं आरति एही । करै न पड़ै बहुरि भव ‘मेँहीँ’ ।।
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(39)
आरति परम पुरुष की कीजै । निर्मल थिर चित्त आसन दीजै ।।
तन-मन्दिर महँ हृदय सिंहासन । श्वेत बिन्दु मोति जड़ दीजै ।।
अविरल अटल प्रीति को भोगा । विरह-पात्र भरि आगे कीजै ।।
जत-सत संयम फूलन हारा । अरपि-अरपि प्रभु को अपनीजै ।।
धूप अकाम अरु ब्रह्म हुताशन । तोष धूपची धरी फेरीजै ।।
तारे चन्द्र सूर दीपावलि । अधर-थार भरि आरति कीजै ।।
आतम अनुभव ज्योति कपूरा । मध्य आरती थार सजीजै ।।
अनहद परम गहागह बाजा । सार शब्द ध्वनि सुरत मिलीजै ।।
द्वन्द्व द्वैत भ्रम भेद विडारन । सतगुरु सेइ अस आरति कीजै ।।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ आरति ये ही । करि-करि तन मन धन अरपीजै ।।
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(40)
आरति अगम अपार पुरुष की । मल निर्मल पर पर दुख-सुख की ।।
शीत उष्णादि द्वन्द्व पर प्रभु की । अविनाशी अविगत अज विभु की ।।
मन बुधि चित्त पर पर हंकार की । सर्व व्यापी अरु सब तें न्यार की ।।
रूप गन्ध रस परस तें न्यार की । सगुण अगुण पर पार असार की ।।
त्रय गुण दश इन्द्रिन तें पार की । अमृत ततु प्रभु परम उदार की ।।
पुरुष प्रकृति पर परम दयाल की । ब्रह्म पर पार महा हु काल की ।।
अति अचरज अनुपम ततु सार की । अति अगाध वरणन तें न्यार की ।।
अकह अनाम अकाम सुपति की । जन-त्राता दाता सद्गति की ।।
अखिल विश्व मण्डप करि उर की । पूर्ण भरे ता महँ प्रभु धुर की ।।
दिव्य ज्योति आतम अनुभव की । दिव्य थाल अभ्यास-भजन की ।।
असि आरति ‘मेँहीँ’ सन्तन की । करि तरि हरिय दुसह दुख तन की ।।
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।। सत्संग-योग, चौथा भाग समाप्त ।।
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