उपदेश (15-37)  

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(15)
।। मंगल ।।
सृष्टि के पाँच हैं केन्द्रन सज्जन जानिये ।
सब से होते नाद हैं नौबत मानिये ।।1।।
यहि विधि नौबत पाँच बजैं सब राग में ।
परखहिं हरषहिं धसहिं जो अन्तर भाग में ।।2।।
अपरा परा द्वै प्रकृति दुहुन केन्द्र दो अहैं ।
कारण सूक्ष्म स्थूल के केन्द्रन तीन हैं ।।3।।
निर्मल चेतन परा कहिये केवल सोई ।
महाकारण अव्यक्त जड़ात्मक प्रकृति जोई ।।4।।
विकृति प्रथम जो रूप ताहि कारण कहैं ।
‘मेँहीँ’ परखि तू लेय अपन घट ही महैं ।।5।।
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(16)
पाँच नौबत बिरतन्त कहौं सुनि लीजिये ।
भेदी भक्त विचारि सुरत रत कीजिये ।।1।।
स्थूल सूक्ष्म सन्धि विन्दु पर परथम बाजई ।
दूसर कारण सूक्ष्म सन्धि पर नौबत गाजई ।।2।।
जड़ प्रकृति अरु विकृति सन्धि जोइ जानिये ।
महाकारण अरु कारण सन्धि सोइ मानिये ।।3।।
तिसरि नौबत यहि सन्धि पर सब छन बाजती ।
महाकारण कैवल्य की सन्धि विराजती ।।4।।
शुद्ध चेतन जड़ प्रकृति सन्धि यहि है सही ।
यहँ की धुनि को चौथि नौबत हम गुनि कही ।।5।।
निर्मल चेतन केन्द्र और ऊपर अहै ।
परा प्रकृति कर केन्द्र सोइ अस बुधि कहै ।।6।।
अत्यन्त अचरज अनुपम यहँ से बाजती ।
पंचम नौबत ‘मेँहीँ’ संसृति विसरावती ।।7।।
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(17)
खोजो पंथी पंथ तेरे घट भीतरे ।
तू अरु तेरो पीव भी घट ही अन्तरे ।।1।।
पिउ व्यापक सर्वत्र परख आवै नहीं ।
गुरुमुख घट ही माहिं परख पावै सही ।।2।।
तू यात्री पीव घर को चलन जो चाहहू ।
तो घट ही में पंथ निहारु विलम्ब न लावहू ।।3।।
तम प्रकाश अरु शब्द निःशब्द की कोठरी ।
चारो कोठरिया अहइ अन्दर घट कोट री ।।4।।
तू उतरि परड्ढो तम माहिं पीव निःशब्द में ।
यहि तें परि गयो दूर चलो निःशब्द में ।।5।।
नयन कँवल तम माँझ से पंथहि धारिये ।
सुनि धुनि जोति निहारि के पंथ सिधारिये ।।6।।
पाँचो नौबत बजत खि्ांचत चढ़ि जाइये ।
यहि तें भिन्न उपाय न दिल बिच लाइये ।।7।।
सन्तन कर भक्ति भेद अन्तर पथ चालिये ।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ धुनि धारि सो पन्थ पधारिये ।।8।।
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।। कजली ।।
(18)
नित प्रति सत्संग कर ले प्यारा, तेरा कार सरै सारा ।
सार कार्य को निर्णय करके, धर चेतन धारा ।।1।।
धर चेतन धारा, पिण्ड के पारा, दसम दुआरे का ।
जोति जगि जावै अति सुख पावै, शब्द सहारे का ।।2।।
लख बिन्दु नाद तहँ त्रय बन्द दै के सुनो सुनो ‘मेँहीँ’ ।
ब्रह्म नाद का धरो सहारा आपन तन में हीं ।।3।।
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(19)
यहि मानुष देह समैया में करु परमेश्वर में प्यार ।
कर्म धर्म को जला खाक कर देंगे तुमको तार ।।टेक।।
तहँ जाओ जहँ प्रकट मिलें वे तब जानो है स्नेह ।
स्नेह बिना नहिं भक्ति होति है कर लो साँचा नेह ।।1।।
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्यहु के पार ।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर होंगे सबसे न्यार ।।2।।
ब्रह्म-ज्योति ब्रह्म-ध्वनि को धरि धरि ले चेतन आधार ।
तन में पिल पाँचो तन पारा जा पाओ प्रभु सार ।।3।।
‘मेँहीँ ’ मेँहीँ होइ सकोगे जाओगे वहि पार ।
पार गमन ही सार भक्ति है लो यहि हिय में धार ।।4।।
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(20)
अद्भुत अन्तर की डगरिया जा पर चल कर प्रभु मिलते ।।टेक।।
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो राह लखा देते ।
चलत पन्थ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।।1।।
अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़ भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।2।।
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उपदेश
(21)
।।चौपाई ।।
सुनिये सकल जगत के वासी । यह जग नश्वर सकल विनासी ।।1।।
यह जग धूम धाम रे भाई । यह जग जानो छली महाई ।।2।।
सबहिं कहा यहि अगमापाईऽ। तुम पकड़ा यहि जानि सहाई ।।3।।
मृग तृष्णा जल सम सुख याकी । तुम मृग ललचहु देखि एकाकी ।।4।।
याते भव दुख सहहु महाई । बिनु सतगुरु कहो कौन सहाई ।।5।।
यहि सराइ महँ निज नहीं कोई । सुत पितु मातु नारि किन होई ।।6।।
भाई बन्धु कुटुम परिवारा । राजा रैयत सकल पसारा ।।7।।
सातो स्वर्गहु केर निवासी । दिव्य देव सब अमित विलासी ।।8।।
कोइ न स्थिर सबहिं बटोही । सत्य शान्ति एक स्थिर वोही ।।9।।
शान्ति रूप सर्वेश्वर जानो । शब्दातीत कहि सन्त बखानो ।।10।।
क्षर अक्षर के पार हैं येहि । सगुण अगुण पर सकल सनेही ।।11।।
अलख अगम अरु नाम अनामा । अनिर्वाच्य सब पर सुख धामा ।।12।।
ये सब मन पर गुण इनके ही । पड़े महा दुख संशय जेही ।।13।।
यहि तुम्हरा निज प्रभु रे भाई । जहाँ तहाँ तब सदा सहाई ।।14।।
इन्ह की भक्ति करो मन लाई । भक्ति भेद सतगुरु से पाई ।।15।।
सतगुरु इन्ह में अन्तर नहीं । अस प्रतीत धरि रहु गुरु पाहीं ।।16।।
गुरु सेवा गुरु पूजा करना । अनट बनट कछु मन नहीं धरना ।।17।।
अनासक्त जग में रहो भाई । दमन करो इन्द्रिन दुःखदाई ।।18।।
काम क्रोध मद मोह को त्यागो । तृष्णा तजि गुरु भक्ति में लागो ।।19।।
मन कर सकल कपट अभिमाना । राग द्वेष अवगुण विधि नाना ।।20।।
रस रस तजो तबहिं कल्याणा । धरि गुरुमत तजि मन मत खाना ।।21।।
पर त्रिय झूठ नशा अरु हिंसा । चोरी लेकर पाँच गरिंसा ।।22।।
तजो सकल यह तुम्हरो घाती । भव बंधन कर जबर संघाती ।।23।।
दारू गाँजा भाँग अफीमा । ताड़ी चण्डू मदक कोकीना ।।24।।
सहित तम्बाकू नशा हैं जितने । तजन योग्य तजि डारो तितने ।।25।।
मांस मछलिया भोजन त्यागो । सतगुण खान पान में पागो ।।26।।
खान पान को प्रथम सम्हारो । तब रस रस सब अवगुण मारो ।।27।।
नित सतसंगति करो बनाई । अन्दर बाहर द्वै विधि भाई ।।28।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा । अंतर सत्संग ध्यान अभंगा ।।29।।
नैनन मूँदि ध्यान को साधन । करो होइ दृढ़ बैठि सुखासन ।।30।।
मानस नाम जाप गुरु केरा । मानस रूप ध्यान उन्हि केरा ।।31।।
यहि अवलम्ब ध्यान कछु होई । पुनः दृष्टि बल कीजै सोई ।।32।।
सुखमन विन्दु को धरो दृष्टि से । सुरत छुड़ाओ पिण्ड सृष्टि से ।।33।।
धर कर विन्दु सुनो अनहद ध्वनि । विविध भाँति की होती पुनि पुनि ।।34।।
ध्वनि सुनि चढ़ती सुरति जाई । अन्तर पट टूटै दुखदाई ।।35।।
छाड़ि पिण्ड तम देश महाई । जोति देश ब्रह्माण्ड में जाई ।।36।।
ध्वनि धरि याहू पार चढ़ाई । सुरत करै अब सुनै अघाई ।।37।।
राम नाम धुन सतधुन सारा । सार शब्द तेहि सन्त पुकारा ।।38।।
सो ध्वनि निर्गुण निर्मल चेतन । सुरत गहो तजि चलो अचेतन ।।39।।
यहु ध्वनि लीन अध्वनि में होई । निर्गुण पद के आगे सोई ।।40।।
मण्डल शब्द केर छुटि जाई । अधुन अशब्द में जाइ समाई ।।41।।
अधुन अशब्द सर्वेश्वर कहिये । शान्ति स्वरूप याहि को लहिये ।।42।।
अस गति होइ सो सन्त कहावै । जीवन मुक्त सो जगहि चेतावै ।।43।।
सन्त मता कर भेद रे भाई । गाइ गाइ दीन्हा समुझाई ।।44।।
जो जानै सो करै अभ्यासा । सत चित करि करै जग में वासा ।।45।।
विरति पन्थ महँ बढ़े सदाई । सत्संग सों करै प्रीति महाई ।।46।।
तोहि बोधे दृढ़ ज्ञान बताई । तब संशय तव देइ छोड़ाई ।।47।।
ताको मानो गुरु सप्रीति । सेवो ताहि सन्त की नीती ।।48।।
गुरु से कपट कछू नहिं राखो । उनके प्रेम अमिय को चाखो ।।49।।
मीठी बोल बोलियो उनसे । अहंकार से सब कछु विनसे ।।50।।
सो उनसे कभुँ करियो नाहिं । नहिं तो रहिहौ भव ही माहीं ।।51।।
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(22)
दोहा-समय गया फिरता नहीं, झटहिं करो निज काम ।
जो बीता सो बीतिया, अबहु गहो गुरु नाम ।।1।।
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान ।
जौं चाहो उद्धार को, बनो सन्त सन्तान ।।2।।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ भेद यह, सन्तमता कर गाइ ।
सबको दियो सुनाई के, अब तू रहे चुपाइ ।।3।।
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(23)
सन्तमत की बातें
।। अरिल ।।
सन्तमते की बात कहुँ साधक हित लागी ।
कहुँ अरिल पद जोड़ि, जानी करिहैं बड़ भागी ।।
बातें हैं अनमोल, मोल नहिं एक-एक की ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ कहुँ जो चाहुँ कहन,
सन्त पद सिर निज टेकी ।।1।।
सत्जन सेवन करत, नित्य सत्संगति करना ।
वचन अमिय दे ध्यान, श्रवण करि चित्त में धरना ।।
मनन करत नहिं बोध होइ, तो पुनि समझीजै ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ समझि बोध जो होइ,
रहनि ता सम करि लीजै ।।2।।
करि सत्संग गुरु खोज करिये, चुनिये गुरु सच्चा ।
बिन सद्गुरु का ज्ञान पंथ, सब कच्चहिं कच्चा ।।
कुण्डलिया में कहूँ, सो सद्गुरु कर पहिचाना ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ जौ प्रभु दया सों मिलै,
सेविये तजि अभिमाना ।।3।।
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(24)
।। कुण्डलिया ।।
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त ।
साधन करते नित्त, सत्त चित्त जग में रहते ।
दिन दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते ।।
दृढ़ ज्ञान समुझाय, बोध दे कुबुधि को हरते ।
संशय दूर बहाय, सन्त मत स्थिर करते ।।
‘मेँहीँ’ ये गुण धर जोई, गुरु सोई सतचित्त ।
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त ।।
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(25)
।। अरिल ।।
सत्य सोहाता वचन कहिये, चोरी तजि दीजै ।
तजिये नशा व्यभिचार तथा हिंसा नहिं कीजै ।।
निर्मल मन सों ध्यान करिये, गुरु मत अनुसारा ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ कहूँ सो गुरुमत ध्यान,
सुनो दे चित्त सम्हारा ।।4।।
धर गर मस्तक सीध साधि, आसन आसीना ।
बैठि के चखु मुख मूनि, इष्ट मानस जप ध्याना ।।
प्रेम नेम सों करत-करत, मन शुद्ध हो ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ अब आगे को कहूँ,
सुनो दे चित्त सों ।।5।।
जहँ जहँ मन भगि जाइ, ताहि तहँ-तहँ से तत्छन ।
फेरि-फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।
ऐसेहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ औरो आगे बढ़िय,
चढ़िय धर धारा धरिके ।।6।।
धर धर धर की धार, सार अति चेतना ।
धर धर धर का खेल, जतन करि देखना ।।
धर में सुष्मन घाट, दृष्टि ठहराइ के ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ यहि घाटे चढ़ि जाव,
धराधर धाइ के ।।7।।
तजो पिण्ड चढ़ि जाव, ब्रह्माण्डहिं वीर हो ।
पेलो सुष्मन-दृष्टि, सिस्त ज्यों तीर हो ।।
विन्दु नाद अगुवाइ, तुमहिं ले जायँगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ ज्योति मण्डल सह नाद,
की शैर दिखायँगे ।।8।।
ज्योति मण्डल की शैर, झकाझक झाँकिये ।
तिल ढिग जुगनू जोति, टकाटक ताकिये ।।
होत बिज्जु उजियार, नजर थिर ना रहै ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत काँपती रहै,
ज्योति दृढ़ क्यों गहै ।।9।।
दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहि करत ।
कँपनी सहजहि छुटै, प्रौढ़ होवै सुरत ।।
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी खूब,
जोर बरजोर से ।।10।।
तीनों बन्द लगाइ देखि, सुनि धरि ध्वनि धारा ।
चलिय शब्द में खिंचत, बजत जो विविध प्रकारा ।।
झिंगुर का झनकार, भँवर गुंजार हो ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ घण्ट शंख शहनाइ,
आदि ध्वनि धार हो ।।11।।
तारा सह ध्वनि धार, टेम दीपक बरै ।
खुले अजब आकाश, अजब चाँदनी भरै ।।
पूर अचरजी चन्द, सहित ध्वनि कस लगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ जानै सोई धीर,
वीर साधन पगे ।।12।।
साधन में पगि जाइ, अतिहि गम्भीर हो ।
या तन सुधि नहीं रहे, धीर वर वीर सो ।।
साँझ भोर दिन रैन कछू जानै नहीं ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बाहर जड़वत् रहै,
माहिं चेतन सही ।।13।।
जा सम्मुख या सूर्य, अमित अन्धार है ।
ऐसो सूर्य महान चन्द हद पार है ।।
होत नाद अति घोर शोर को को कहै ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ महा नगाड़ा बजै,
घनहु गरजत रहै ।।14।।
आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।
मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होइ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।15।।
सद्गुरु भेदी मिलै सैन, ध्वनि ध्यान बतावै ।
अनुपम बदले नाहिं, शब्द सो सार कहावै ।।
सोहू ध्वनि हो लीन, अध्वनि में जाइके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ अध्वनि अशब्द अनाम,
सन्त कहैं गाइके ।।16।।
सार शब्द ध्वनि संग, सुरत हो अकह में लीनी ।
अध्वनि अशब्द अनाम, परम पद गति की भीनी ।।
द्वैत द्वन्द्व सों रहित, सो प्रभु पद पाइके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत न लौटइ,
बहुरि न जन्मइ आइके ।।17।।
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(26)
।। भैरवी ।।
योग हृदय वृत केन्द्र-विन्दु सुख-सिन्धु की खिड़की अति न्यारी ।
स्थूल धार खिन्नहु से खिन्नहु जेहि होइ कबहुँ न हो पारी ।।1।।
मन सह चेतन धार सुरत ही केवल पैठ सकै जामें ।
जेहि हो गमनत छुटत पिण्ड ब्रह्माण्ड खण्ड सुधि हो जामें ।।2।।
अपरा परा पर क्षर-अक्षर पर सगुण-अगुण पर जामें हो ।
चलि पहिचानति सुरति परम प्रभु भव दुख टर चलि जामें हो ।।3।।
जामें पैठत सुनिये अनाहत शब्द की खिड़की याते जो ।
ब्रह्मज्योति भी जामें झलकत ज्योति-द्वारहु याते जो ।।4।।
दृष्टि जोड़ि एक नोक बना जो ताकै देखै याको सो ।
‘मेँहीँ’ अति मेँहीँ ले द्वारा सतगुरु कृपा पात्र हो सो ।।5।।
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(27)
योग हृदय में वास ना तन-वास है तो क्या ।
सत् सरल युक्ति पास ना और पास है तो क्या ।।1।।
सद्गुरु कृपा की आस ना और आस है तो क्या ।
करता जो नित अभ्यास ना विश्वास है तो क्या ।।2।।
अन्तर में हो प्रकाश ना बाहर प्रकाश क्या ।
अन्तर्नाद का उपास्य ना दीगर उपास्य क्या ।।3।।
पालन हो सदाचार ना आचार ‘मेँहीँ’ क्या ।
गुरु हरि चरण में प्रीति ना रूखा विचार क्या ।।4।।
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(28)
एकविन्दुता दुर्बीन हो दुर्बीन क्या करे ।
पिण्ड में ब्रह्माण्ड दरश हो बाहर में क्या फिरे ।।1।।
सुनना जो अन्तर्नाद हो बाहर में क्या सुने ।
ब्रह्मनाद की अनुभूति हो फिर और क्या गुने ।।2।।
सुरत-शब्द-योग हो और योग क्या करे ।
सहज ही निज काज हो, कटु साज क्या सजे ।।3।।
सद्गुरु कृपा ही प्राप्त हो अप्राप्त क्या रहे ।
‘मेँहीँ’ गुरु की आस हो, भव-त्रस क्या रहे ।।4।।
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(29)
।। सन्तों की आज्ञा ।।
योग हृदय-केन्द्र-विन्दु में युग दृष्टियों को जोड़िकर ।
मन मानसों को मोड़ि सब आशा निराशा छोड़िकर ।।1।।
ब्रह्म-ज्योति ब्रह्म-ध्वनि धार धरि आवरण सारे तोड़िकर ।
सुरत चला प्रभु मिलन को विषयों से मुख को मोड़िकर ।।2।।
झूठ चोरी नशा हिंसा और जारी छोड़िकर ।
गुरु ध्यान अरु सत्संग-सेवन में स्वमति को जोड़िकर ।।3।।
जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम-भाँड़े फोड़िकर ।
सन्तों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’ माथ धर छल छोड़िकर ।।4।।
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(30)
गुरु-हरि-चरण में प्रीति हो युग-काल क्या करे ।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो जंजाल क्या करे ।।1।।
जग-नाश का विश्वास हो फिर आस क्या करे ।
दृढ़ भजन-धन ही खास हो फिर त्रस क्या करे ।।2।।
वैराग-युत अभ्यास हो निराश क्या करे ।
सत्संग-गढ़ में वास हो भव-पाश क्या करे ।।3।।
त्याग पंच पाप हो फिर पाप क्या करे ।
सत् वरत में दृढ़ आप हो कोइ शाप क्या करे ।।4।।
पूरे गुरू का संग हो अनंग क्या करे ।
‘मेँहीँ’ जो अनुभव ज्ञान हो अनुमान क्या करे ।।5।।

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(31)
कजली
प्रभु मिलने जो पथ धरि जाते, घट में बतलाये;
सन्तन घट में बतलाये ।। टेक ।।
प्रेमी भक्तन धर सो मारग, चलो चलो धाये;
सन्तन घट-पथ हो धाये ।। 1 ।।
अन्धकार अरु जोति शब्द, तीनों पट घट के से;
राह यह जावै है ऐसे ।। 2 ।।
जोति नाद का मार्ग बना यह, धरा जाय तिल से;
लो धर यत्न करो दिल से ।। 3 ।।
बाल नोक से मेँहीँ दर ‘मेँहीँ’ हो पथ पावें;
सन्त जन तामें धँसि धावें ।। 4 ।।
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(32)
सुष्मनियाँ में नजरिया थिर होइ, बिन्दु लखी तिल की।। टेक ।।
झक-झक जोती जगमग होती, चकमक-चकमक-सी ।
मोती हीरा ध्रुव-सा तारा, विद्युत हू चमकी।। 1 ।।
बरे जोति ध्वनि होति अनाहत, यन्त्र ताल बिन ही ।
लखत सुनत स्त्रुत चलत नेह भरि, नाह-राह थिरकी ।। 2 ।।
मर्मी सज्जन सत्य भक्त सों, अन्तर मग एही ।
चलत-चलत ध्वनि सार गहे ले, मेटि जरनि जी की ।। 3 ।।
सार शब्द ही नाह मिलावै, और नहीं कोई ।
‘मेँहीँ’ कही जो सन्तन भाषी , बात नहीं निज की ।। 4 ।।
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(33)
जीवो! परम पिता निज चीन्हो, कहते सन्तन हितकारी ।। टेक ।।
द्वैत प्रपंच के सागर बूड़ो, सहो दुक्ख भारी ।
तन मन इन्द्रिन संग अजाना, हो होती ख्वारी ।। 1 ।।
गुरु गम से सुष्मन में पैठि के, अन्तर पथ धारी ।
ब्रह्म जोति ब्रह्मनाद धार धरि, हो सबसे न्यारी ।। 2 ।।
द्वैत पार तन मन बुधि पारा, ज्ञान होय सारी ।
‘मेँहीँ’ सो पितु चीन्ह में आवैं, दुक्ख टरै भारी ।। 3 ।।
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(34)
सूरति दरस करन को जाती, तकती तीसरि तिल खिरकी ।। टेक ।।
जोति बिन्दु ध्रुवतार इन्दु लखि, लाल भानु झलकी ।
बजत विविध विधि अनहद शोरा, पाँच मण्डलों की ।। 1 ।।
सन्तमते का सार भेद यह, बात कही उनकी ।
समझा ‘मेँहीँ’ लखा नमूना, बात है सत हित की ।। 2 ।।
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(35)
भाई योग हृदय वृत केन्द्र बिन्दु, जो चमचम चमकै ना ।। टेक ।।
नजर जोड़ि तकि धँसै ताहि में, धुनि सुनि पावै ना ।
सुरत शब्द की करै कमाई, निज घर जावै ना ।।1।।
निज घर में निज प्रभु को पावै, अति हुलसावै ना ।
‘मेँहीँ’ अस गुरु सन्त उक्ति, यम-त्रास मिटावै ना ।।2।।
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(36)
मन तुम बसो तीसरो नैना महँ तहँ से चल दीजो रे ।। टेक ।।
स्थूल नैन निज धार दृष्टि दोउ सन्मुख जोड़ो रे ।
जोड़ि जकड़ि सुष्मन में पैठो गगन उड़ीजो रे ।। 1 ।।
तन संग त्यागि त्यागि उड़ि लीजो धार धरीजो रे ।
‘मेँहीँ’ चेतन जोति शब्द की सो पकड़ीजो रे ।। 2 ।।
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(37)
जहाँ सूक्ष्म नाद ध्वनि आज्ञा आज्ञाचक्र करो डेरा ।
द्वार सूक्ष्म सुष्मन तिल खिड़की पील करो पारा ।। 1 ।।
नयन कान दोउ जोड़ि छोड़ि करि मन मानस सकलो ।
टुक टिको सामने प्रेम नेम करि अधर डगर धर लो ।। 2 ।।
जगमग जोति होति ध्वनि अनहद गैब का बज बाजा ।
ध्वनि सुनि सुनि चढ़ना सत ध्वनि धरना ‘मेँहीँ’ सर काजा ।। 3 ।।   
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