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(12)
कजली
प्रभु अकथ अनाम अनामय स्वामी गो गुण प्रकृति परे ।।टेक।।
क्षर अक्षर प्रभु पार परमाक्षर जा पद सन्त धरे ।
अगुण सगुण पर पुरुष प्रकृति पर सत्त असतहु परे ।।1।।
अनन्त अपारा सार के सारा जा भजि जीव तरे ।
‘मेँहीँ’ कर जोड़े प्रभुहिं निहोरे करु उधार हमरे ।।2।।
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(13)
।। आत्मा ।।
नहीं थल नहीं जल नहीं वायु अग्नी ।
नहीं व्योम ना पाँच तन्मात्र ठगनी ।।
ये त्रय गुण नहीं नाहिं इन्द्रिन चतुर्दश ।
नहीं मूल प्रकृति जो अव्यक्त अगम अस ।।
सभी के परे जो परम तत्त्व रूपी ।
सोई आत्मा है सोई आत्मा है ।।1।।
न उद्भिद् स्वरूपी न उष्मज स्वरूपी ।
न अण्डज स्वरूपी न पिण्डज स्वरूपी ।।
नहीं विश्व रूपी न विष्णु स्वरूपी ।
न शंकर स्वरूपी न ब्रह्मा स्वरूपी ।।सभी के0।।2।।
कठिन रूप ना जो तरल रूप ना जो ।
नहीं वाष्प को रूप तम रूप ना जो ।।
नहीं ज्योति को रूप शब्दहु नहीं जो ।
सटै कुछ भी जा पर सोऊ रूप ना जो ।।सभी के0।।3।।
न लचकन न सिकुड़न न कम्पन है जा में ।
न संचालना नाहिं विस्तृत्व जा में ।।
है अणु नाहिं परमाणु भी नाहिं जा में ।
न रेखा न लेखा नहीं विन्दु जा में ।।सभी के0।।4।।
नहीं स्थूल रूपी नहीं सूक्ष्म रूपी ।
न कारण स्वरूपी नहीं व्यक्त रूपी ।।
नहीं जड़ स्वरूपी न चेतन स्वरूपी ।
नहीं पिण्ड रूपी न ब्रह्माण्ड रूपी ।।सभी के0।।5।।
है जल थल में जोई पै जल थल है नाहीं ।
अगिन वायु में जो अगिन वायु नाहीं ।।
जो त्रय गुण गगन में न त्रय गुण अकाशा ।
जो इन्द्रिन में रहता न होता तिन्हन सा ।।सभी के0।।6।।
मूल माया की सब ओर अरु ओत प्रोतहु ।
भरो जो अचल रूप कस सो सुजन कहु ।।
भरो मूल माया में नाहीं सो माया ।
अव्यक्त हू को जो अव्यक्त कहाया ।।सभी के0।।7।।
ब्रह्मा महाविष्णु विश्व रूप हरि हर ।
सकल देव दानव रु नर नाग किन्नर ।।
स्थावर रु जंगम जहाँ लौं कछू है ।
है सब में जोई पर न तिनसा सोई है ।।सभी के0।।8।।
जो मारे मरै ना जो काटे कटै ना ।
जो साड़े सड़ै ना जो जारे जरै ना ।।
जो सोखा न जाता सोखे से कछू भी ।
नहीं टारा जाता टारे से कछू भी ।।सभी के0।।9।।
नहीं जन्म जाको नहीं मृत्यु जाको ।
नहीं बाल यौवन जरापन है जाको ।।
जिसे नाहीं होती अवस्था हु चारो ।
नहीं कुछ कहाता जो वर्णहु में चारो ।।सभी के0।।10।।
कभी नाहिं आता न जाता है जोई ।
कभी नाहिं वक्ता न श्रोता है जोई ।।
कभी जो अकर्त्ता न कर्त्ता कहाता ।
बिना जिसके कुछ भी न होता बुझाता ।।सभी के0।।11।।
कभी ना अगुण वा सगुण ही है जोई ।
नहीं सत् असत् मर्त्य अमरहु न जोई ।।
अछादन करनहार अरु ना आछादित ।
न भोगी न योगी नहीं हित न अनहित ।।सभी के0।।12।।
त्रिपुटी किसी में न आवै कभी भी ।
औ सापेक्ष भाषा न पावै कभी भी ।।
ओंकार शब्द-ब्रह्म हु को जो पर है ।
हत अरु अनाहत सकल शब्द पर है ।।सभी के0।।13।।
जो टेढ़ो में रहकर भी टेढ़ा न होता ।
जो सीधों में रहकर भी सीधा न होता ।।
जो जिन्दों में रहकर न जिन्दा कहाता ।
जो मुर्दों में रहकर न मुर्दा कहाता ।।सभी के0।।14।।
भरो व्योम से घट फिरै व्योम में जस ।
भरो सर्व तासों फिरै ताहि में तस ।।
नहीं आदि अवसान नहीं मध्य जाको ।
नहीं ठौर कोऊ रखै पूर्ण वाको ।।सभी के0।।15।।
है घट मठ पटाकाश कहते बहुत-सा ।
न टूटै रहै एक ही तो अकाशा ।।
है तस ही अमित चर अचर हू को आतम ।
कहैं बहु न टूटै न होवै सो बहु कम ।।सभी के0।।16।।
न था काल जब था वरतमान जोई ।
नहीं काल ऐसो रहेगा न ओई ।।
मिटैगा अवस काल वह ना मिटेगा ।
है सतगुरु जो पाया वही यह बुझेगा ।।सभी के0।।17।।
सरब श्रेष्ठ तन धर की भी बुधि न गहती ।
जो ऐसो अगम संत-वाणी ये कहती ।।
करै पूरा वर्णन तिसे ‘मेँहीँ’ कैसे ।
है कंकड़ वणिक कहै मणिगुण को जैसे ।।सभी के0।।18।।
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(14)
।। पीव प्यारा ।।
है जिसका नहीं रंग, नहिं रूप रेखा ।
जिसे दिव्य दृष्टिहु से नहिं कोई देखा ।।
ये इन्द्रिन चतुर्दश में जो ना फँसा है ।
तथा कोई बन्धन से जो ना कसा है ।।
वही है परम पुर्ष सब को अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।1।।
त्रितन पाँच कोषन में जो ना बझा है ।
जो लम्बा न चौड़ा न टेढ़ा सोझा है ।।
नहीं जो स्थावर न जंगम कहावे ।
नहीं जड़ न चेतन की पदवी को पावे ।।
जो है परम पुर्ष सब को अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।2।।
नहीं आदि नहिं मध्य नहिं अन्त जाको ।
नहिं माया के ढक्कन से है पूर्ण ढाको ।।
पुरण ब्रह्म पदवीहु से जो तुलै ना ।
अगुण वा सगुण पदहु जामें लगै ना ।।
जो है परम पुर्ष सबको अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।3।।
सभी में भरा अंश रहता जिसी का ।
परन्तु जो होता न आकृत किसी का ।।
है निर्गुण सगुण ब्रह्म दोउ अंश जाको ।
समता न पाता कोई भी है जाको ।।
जो है परम पुर्ष सब को अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।4।।
ब्रह्म सच्चिदानन्द अरु वासनात्मक ।
मनोमय तथा ज्ञानमय प्राण आत्मक ।।
ओ ओंकार शब्दब्रह्म औ विश्वरूपी ।
ये सप्त ब्रह्म श्रेणी जिसे न पहूँची ।।
जो है परम पुर्ष सब को अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।5।।
नहीं जन्म जाको नहीं मृत्यु जाको ।
नहीं दश न चौबीस अवतार जाको ।।
अखिल विश्व में हू जो सब ना समाता ।
अपरा परा पूरि नहिं अन्त पाता ।।
जो है परम पुर्ष सब को अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।6।।
नहीं सूर्य सकता जिसे कर प्रकाशित ।
न माया ही सकती जिसे कर मर्यादित ।।
जो मन बुद्धि वाणी सबन को अगोचर ।
बताया हो चुप जिसको वाह्व मुनिवर ।।
जो है परम पुर्ष सब को अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।7।।
ज्यों का त्यों ही सदा जो सब के प्रथम से ।
जिसे उपमा देता बने कुछ न हमसे ।।
है जिसके सिवा आदि सब का ही भाई ।
अन आदि एक ही जो ही कहाई ।।
जो है परम पुर्ष सब को अधारा ।
सोई पीव प्यारा, सोई पीव प्यारा ।।8।।
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