ईश्वर - स्तुति (01-02)

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।। ईश-स्तुति ।।
(1)
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम रूप के पार में, मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति के हू पार में ।।2।।
सूरत निरत के पार में, सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में ।
आहत अनाहत पार में, सारे प्रपंचन्ह पार में ।।3।।
सापेक्षता के पार में, त्रिपुटी कुटी के पार में ।
सब कर्म काल के पार में, सारे जंजालन्ह पार में ।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता-गुण पार में ।
सत्ता स्वरूप अपार सर्वाधार, मैं तू पार में ।।5।।
पुनि ओ3म् सोऽहम् पार में, अरु सच्चिदानन्द पार में ।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य व्यापक पार में ।।6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों, जो हैं सान्तन्ह पार में ।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं, विश्वेश हैं सब पार में ।।7।।
सत् शब्द धरकर चल मिलन, आवरण सारे पार में ।
सद्गुरु करुण कर तर ठहर, धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में ।।8।।
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(2)
सर्वेश्वरं सत्य शान्तिं स्वरूपं ।
सर्वमयं व्यापकं अज अनूपं ।।1।।
तन बिन अहं बिन, बिना रंग रूपं ।
तरुणं न बालं न वृद्धं स्वरूपं ।।2।।
गुण गो महातत्त्व हंकार पारं ।
गुरु ज्ञान गम्यं अगुण ते हु न्यारं ।।3।।
रुज संसृतं पार आधार सर्वं ।
रुद्धं नहीं नाहीं दीर्घं न खर्वं ।।4।।
ममतादि रागादि दोषं अतीतं ।
महा अद्भुतं नाहिं तप्तं न शीतं ।।5।।
हार्दिक विनय मम सृनो प्रभु नमामी।
हाटक वसन मणि की हू नाहिं कामी ।।6।।
राज्यं रु यौवन त्रिया नाहिं माँगूँ।
राजस रु तामस विषय संग न लागूँ ।।7।।
जन्मं मरण बाल यौवन बुढ़ापा ।
जर-जर करड्ढो रु गेरड्ढो अन्ध कूपा ।।8।।
कीशं समं मोह मुट्ठी को बाँधी ।
कीचड़ विषय फँसि भयो है उपाधी ।।9।।
जगत सार आधार देहू यही वर ।
जतन सों सो सेऊँ जो सतगुरु कुबुधि हर ।।10।।
यही चाह स्वामी न औरो चहूँ कुछ ।
यहि बिन सकल भोग गन को कहूँ तुछ ।।11।।
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