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(101) ज्ञान-बिना कर्त्तव्य कर्म का निर्णय नहीं हो सकता। कर्त्तव्यकर्म के निर्णय के बिना अकर्त्तव्य कर्म भी किया जायगा, जिससे अपना परम कल्याण नहीं होगा; इसलिए ज्ञानोपार्जन अवश्य करना चाहिये, जो विद्याभ्यास और सत्संग से होगा।
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(102) शुद्ध आत्मा का स्वरूप अनन्त है। अनन्त के बाहर कुछ अवकाश हो, सम्भव नहीं है; अतएव उसका कहीं से आना और उसका कहीं जाना, माना नहीं जा सकता है; क्योंकि दो अनन्त हो नहीं सकते। चेतन-मण्डल सान्त है, उसके बाहर अवकाश है; इसलिए उसके धार-रूप का होना और उस धार में आने-जाने का गुण होना निश्चित है। अनन्त के अंश पर के प्रकृति के आवरणों का मिट जाना, उस अंश-रूप का मोक्ष कहलाता है। स्थूल शरीर जड़ात्मक प्रकृति से बना एक आवरण है। इसमें चेतन-धार के रहने तक यह स्थित रहता है, नहीं तो मिट जाता है। इस नमूने से यह निश्चित है कि जड़ात्मक प्रकृति के अन्य तीनों आवरण भी मिट जाएँगे, यदि उन तीनों में चेतन-धार वा सुरत न रहे। अन्तर में नादानुसंधान से सुरत जड़ात्मक सब आवरणों से पार हो जाएगी, उनमें नहीं रहेगी और अंत में स्वयं भी आदिनाद के आकर्षण से आकर्षित हो, अपने केन्द्र में केन्द्रित होकर उसमें विलीन हो जाएगी। इस तरह सब आवरणों का मिटना होगा। उस चेतन-धार के कारण एक पिंड बनने योग्य प्रकृति के जितने अंश की स्थिति (कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल रूपों में) सम्भव है, वह मिट जाएगी और उसके मिटने से शुद्धात्मा का जो अंश आवरणहीन हो जायगा, वह मुक्त हुआ कहा जायगा। यद्यपि शुद्ध आत्मतत्त्व सर्वव्यापक होने पर भी मायिक दुःख-सुख का सदा अभोगी ही रहता है, तथापि उसके और चित् (चेतन), अचित् (जड़) के संग से जीवात्मा की स्थिति प्रकट होती है, जिसको उपर्युक्त दुःख-सुख का भोग होता है, वह भोग अशांतिपूर्ण होने के कारण मिटा देने-योग्य है। उपुर्यक्त संग के मिटने से ही यह भोग मिटेगा; क्योंकि वह संग ही इस भोग और उपर्युक्त जीव-रूप इसके भोगी; दोनों का कारण है।
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(103) जीवता का उदय हुआ है, इसका नाश भी किया जा सकेगा। इसके नाश से आत्मा की कुछ हानि नहीं। इसके मिटने से आत्मा नहीं मिटेगी। आत्मा का मिटना असम्भव है; क्योंकि अनन्त का मिटना असम्भव है। जब किसी जीवन-काल में (पूर्ण समाधि में) जीवता मिटा दी जायगी, तभी जीवन-मुक्त की दशा प्राप्त होगी और जीवन-काल के गत होने (मरने) पर भी मुक्ति होगी, अन्यथा नहीं। मोक्ष के साधन में लगे हुए अभ्यासी को जीवन-काल में मुक्ति नहीं मिलने पर उस जीवन-काल के अनन्तर फिर मनुष्य-जन्म होगा; क्योंकि दूसरी योनि उसके मोक्ष-साधन के संस्कार को सँभालने और उसको आगे बढ़ाने के योग्य नहीं है। इस प्रकार मोक्ष-साधक बारम्बार उत्तम-उत्तम मनुष्य-जन्म पाकर अन्त में सदा के लिए मोक्ष प्राप्त कर लेगा।
परम प्रभु में सृष्टि की मौज का उदय जहाँ से हुआ, वहाँ उसका फिर लौट आना असम्भव है; क्योंकि वह मौज रचना करती हुई उसमें जिधर को प्रवाहित है, उधर को काल के अन्त तक प्रवाहित होती हुई तथा रचना करती हुई चली जायगी; परन्तु अनन्त का न अन्त होगा और न फिर वह मौज वहाँ लौटेगी, जहाँ से उसका प्रवाह हुआ था। इसलिए उस मौज के केन्द्र में जो सुरत केन्द्रित होगी, वह फिर रचना में उतरे, यह सम्भव नहीं और तब यह भी सम्भव नहीं कि उस सुरत वा चेतन-धार के कारण प्रकृति के जिस अंश की स्थिति पहले हुई थी, वह पुनः बने, उसकी स्थिति से आत्मा का जो अंश आवरणित था, वह फिर आवरण-सहित हो और संख्या 102 में कथित त्रय संग से पूर्व-जीवता का पुनरुदय हो। जिस मुक्ति का इसमें वर्णन हुआ है, वही असली र्मुिक्त है। उसके अतिरिक्त और प्रकार की मुक्ति केवल कहने मात्र की है, यथार्थ नहीं।
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(104) सब आवरणों को पार किये बिना न परम प्रभु मिलेंगे और न परम मुक्ति मिलेगी। इसलिए दोनों फलों को प्राप्त करने का एक ही साधन है। ईश्वर-भक्ति का साधन कहो वा मुक्ति का साधन कहो; दोनों एक ही बात है।
जिमि थल बिनु जल रहि ना सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।
(तुलसीकृत रामायण)
परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन
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(105) परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के साधन को जानने के पहले परम प्रभु के स्वरूप का तथा निज स्वरूप का परोक्ष ज्ञान श्रवण और मनन-द्वारा प्राप्त करना चाहिये। और सृष्टि-क्रम के ज्ञान के सहित यह भी जानना चाहिये कि कथित युगल स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने का कारण क्या है? परम प्रभु के स्वरूप का श्रवण और मनन-ज्ञान प्राप्त कर लेने पर यह निश्चित हो जाएगा कि प्राप्त करना क्या है? क्षेत्र-सहित क्षेत्रज्ञ उसको प्राप्त कर सकेगा वा केवल क्षेत्रज्ञ ही उसे प्राप्त करेगा तथा इसके लिए बाहर में वा अन्तर में किस ओर अभ्यास करना चाहिये? ये सब आवश्यक बातें निश्चित हो जाएँगी, तब अनावश्यक भटकन छूट जाएगी। अपने स्वरूप के वैसे ही ज्ञान से यह थिर हो जाएगा कि मैं उसे प्राप्त करने योग्य हूँ अथवा नहीं? सृष्टि-क्रम के विकास का तथा परम प्रभु और निज स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने के कारण की जानकारियों से उस आधार का पता लग सकेगा, जिसके अवलम्ब से सृष्टि वा उपर्युक्त कारण-रूप आवरण से पार जाकर परम प्रभु से मिलन तथा उसके अपरोक्ष ज्ञान का होना परम सम्भव हो जाएगा। इसके लिए उपनिषदों को वा भारती सन्तवाणी को ढूँढ़ा जाए वा इसे तर्क-बुद्धि से निश्चय किया जाए, थिर यही होगा कि परम प्रभु सर्वेश्वर का स्वरूप अव्यक्त, इन्द्रियातीत (अगोचर), आदि-अन्त-रहित, अज, अविनाशी, देशकालातीत, सर्वगत तथा सर्वपर है और जैसे घटाकाश, महदाकाश का अंश है, इसी तरह निज स्वरूप भी परम प्रभु सर्वेश्वर का अंश है। तत्त्वरूप में दोनों एक ही हैं, पर परम प्रभु आवरण से आवरणित नहीं; किन्तु निज स्वरूप अथवा सर्वेश्वर का पिण्डस्थ अंश आवरणित है। सगुण अपरा प्रकृति के महाकारण, कारण, सूक्ष्म, और स्थूल; इन चारो आवरणों से आवरणित रहने के कारण उपर्युक्त दोनों स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो पाता है। जब परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज होती है, तभी सृष्टि उपजती है। इसलिए सृष्टि के आदि में मौज वा कम्प का मानना अनिवार्य होता है और मौज वा कम्प का शब्दमय न होना असम्भव है। इसलिए सृष्टि के आदि में अनिवार्य रूप से शब्द मानना ही पड़ता है। सृष्टि का विकास बारीकी की ओर से मोटाई वा स्थूलता की ओर को होता हुआ चला आया है। सृष्टि के जिस प्रकार के मण्डल में हमलोग हैं, वह स्थूल कहलाता है। इससे ऊपर सूक्ष्ममण्डल, सूक्ष्म के ऊपर कारणमण्डल, कारणमण्डल के ऊपर महाकारण-मण्डल अर्थात् कारण की खानि साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मक मूल प्रकृति और इसके भी ऊपर चैतन्य वा परा प्रकृति वा कैवल्य (जड़-रहित चैतन्य) मण्डल; इन चार प्रकार के मण्डलों का होना ध्रुव निश्चित है। अतएव स्थूल मण्डल के सहित सृष्टि के पाँच मण्डल स्पष्ट रूप से जानने में आते हैं। कैवल्य मण्डल निर्मल चैतन्य है और बचे हुए चार मण्डल चैतन्य-सहित जड़ मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डल बनने के लिए प्रथम प्रत्येक का केन्द्र अवश्य ही स्थापित हुआ। केन्द्र से मण्डल बनने की धार (मौज वा कम्प वा शब्द) जारी होने पर ही मण्डल की सृष्टि हुई। धार जारी होने में सहचर शब्द अवश्य हुआ। अतएव कथित केन्द्रों के केन्द्रीय शब्द अनिवार्य रूप से मानने पड़ते हैं। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का स्वभाव प्रत्यक्ष ही है। इन बातों को जानने पर यह सहज ही सिद्ध हो जाता है कि सृष्टि का विकास शब्द से होता हुआ चला आया है और इसलिए सृष्टि के सब आवरणों से पार जाने का अत्यन्त युक्तियुक्त आधार वर्णित शब्दों से विशेष कुछ नहीं है। ये कथित केन्द्रीय शब्द वर्णात्मक हो नहीं सकते; ये ध्वन्यात्मक हैं। नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग इन्हीं नादों वा ध्वन्यात्मक शब्दों का होता है और उल्लिखित शब्द के आकर्षण के कारण सुरत-शब्द-योग का फल अत्यन्त ऊर्ध्वगति तक पहुँचना निश्चित और युक्तियुक्त है। ऊपर के कथित सृष्टि के पाँच मण्डल ही पाँच आवरण हैं, जो पिण्ड (शरीर) और ब्रह्माण्ड (बाह्य जगत्); दोनों को विशेष रूप से संबंधित करते हुए दोनों में भरे हैं। परा प्रकृति वा सुरत वा कैवल्य चैतन्य-स्वरूप परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप के अत्यन्त समीपवर्त्ती होने के कारण उसके स्वरूप से मिलने वा उसका अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के सर्वथा योग्य है। निज स्वरूप इस चैतन्य तत्त्व से अवश्य ही उच्च और अधिक योग्यता का है और चैतन्य क्षेत्र का सर्वोत्कृष्ट रूप है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि क्षेत्र के केवल इसी एक अगुण और सर्वोत्कृष्ट रूप के सहित क्षेत्रज्ञ को निज स्वरूप के सहित परम प्रभु सर्वेश्वर के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होगा; परन्तु क्षेत्र के अन्य चार सगुण रूपों के सहित वा इन चारों में से किसी एक के सहित रहने पर स्वरूप का वह ज्ञान वा उसकी प्राप्ति नहीं होगी। यह निःसन्देह है कि निज को निज का तथा परम प्रभु के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होना वा निज को निज की तथा परम प्रभु की प्राप्ति होनी ध्रुव सम्भव है।
ऊपर का शब्द नीचे दूर तक स्वाभाविक ही पहुँचता है। सूक्ष्म तत्त्व की धार स्थूल तत्त्व की धार से लम्बी होती है और वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही समायी हुई होती है। रचना में ऊपर की ओर सूक्ष्मता और नीचे की ओर स्थूलता है। रचना में जो मण्डल जिस मण्डल से ऊपर है, वह उससे सूक्ष्म है। अतएव प्रत्येक ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द प्रत्येक नीचे के मण्डल और उसके केन्द्रीय शब्द से क्रमानुसार सूक्ष्म है। इसलिए ऊपर के मण्डलों के केन्द्र से उत्थित शब्द, नीचे के मण्डलों के केन्द्रों पर क्रमानुसार अर्थात् पहला निचले मण्डल के केन्द्र पर से उसके ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द और इस दूसरे निचले मण्डल के केन्द्र पर उसके ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द, इस तरह क्रम-क्रम से अवश्य ही धरे जायँगे और अन्त में सबसे ऊपर के कैवल्य मण्डल के केन्द्र से अर्थात् स्वयं परम प्रभु सर्वेश्वर से उत्थित शब्द महाकारणमण्डल के केन्द्र पर अवश्य ही पकड़ा जा सकेगा और उस शब्द से आकर्षित होकर चैतन्य वा सुरत परम प्रभु से जा मिलकर उनसे एकमेक हो विलीन हो जाएगी। परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के साधन की यही पराकाष्ठा है। परम प्रभु से उत्थित यह आदिनाद वा शब्द, सब पिण्डों तथा सब ब्रह्माण्डों के अन्तस्तल में सदा अप्रतिहत और अविच्छिन्न रूप से ध्वनित होता है और सृष्टि की स्थिति तक अवश्य ही ध्वनित होता रहेगा; क्योंकि इसी के उदय के कारण से सब सृष्टि का विकास है और यदि इसकी स्थिति का लोप होगा, तो सृष्टि का भी लोप हो जाएगा। ऋषियों ने इसी अलौकिक और अनुपम आदि निर्गुण नाद को ‘ॐ’ कहा है और भारती सन्तवाणी में इसी को ‘निर्गुण रामनाम’ ‘सत्यनाम’, सत्यशब्द, आदिनाम और सारशब्द आदि कहा है। उपर्युक्त वर्णनानुसार शब्दधारों को धरने के लिए बाहर की ओर यत्न करना व्यर्थ है। यह तो गुरु-आश्रित होकर अन्तर-ही-अन्तर यत्न और अभ्यास करने से होगा। अपने अन्तर में ध्यानाभ्यास से अपने को वा अपनी सुरत वा अपनी चेतन-वृत्ति को विशेष-से-विशेष अन्तर्मुखी बनाना सम्भव है। प्रथम ही सूक्ष्म ध्यानाभ्यास स्वभावानुकूल नहीं होने के कारण असाध्य है। इसलिए प्रथम मानस जप द्वारा मन को कुछ समेट में ला, फिर स्थूल मूर्ति का मानस ध्यानाभ्यास कर अपने को सूक्ष्म ध्यानाभ्यास करने के योग्य बना, दृष्टि-योग से एकविन्दुता प्राप्त करने का सूक्ष्म ध्यानाभ्यास करके नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग अभ्यास कर नीचे से ऊपर तक सारे आवरणों से पार हो, अन्त तक पहुँचना परम सम्भव है। ऊपर यह वर्णन हो चुका है कि पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों को विशेष रूप से सम्बन्धित करते हुए दोनों को सृष्टि से वर्णित मण्डल वा आवरण भरपूर करते हैं और इन्हीं आवरणों को पार करना, सारे आवरणों को पार करना है। कथित विशेष सम्बन्ध इनमें यह है कि पिण्ड के जिस आवरण में जो रहेगा, बाहर के ब्रह्माण्ड के उसी आवरण में वह रहेगा और पिण्ड के जिस आवरण को वा सब आवरणों को जो पार करेगा, ब्रह्माण्ड के उसी आवरण को वा सब आवरणों को वह पार का जायगा अर्थात् जो पिण्ड को पार कर गया, वह ब्रह्माण्ड को भी पार कर गया, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। परम योग, परम ज्ञान और परमा भक्ति का गम्भीरतम रहस्य और अन्तिम फल प्राप्त करने का साधन समास रूप में कहा जा चुका।
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(106) ॐ के बारे में विशेष जानकारी के लिए भाग पहले में श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय 1, श्लोक 7 के अर्थ के नीचे लिखित टिप्पणी में पढ़िये तथा भाग 2, पृष्ठ 261 में स्वामी विवेकानन्दजी महाराज का वर्णन पढ़िए और ॐ को आदि सारशब्द नहीं मानना, इसे केवल त्रिकुटी का ही शब्द मानना, किस तरह अयुक्त है, सो इसी भाग, पृ0 312, पारा 71 में पढ़िये तथा भाग 3, पृष्ठ 293 में स्वामी श्रीभुमानन्दजी महाराज का वर्णन पढ़िये ।
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(107) यह बात युक्तियुक्त नहीं है कि कोई भक्त केवल निर्गुण ब्रह्म के, कोई केवल सगुण बह्म के और कोई केवल सगुण-निर्गुण के परे अनामी पुरुष के उपासक होते हैं। निर्गुण अनामी, मायातीत, अव्यक्त, अगोचर, अलख, अगम और अचिन्त्य हैं अर्थात् इन्द्रिय, मन और बुद्धि के परे है। उपासना का आरम्भ मन से ही होगा। अतएव आरम्भ में ही निर्गुण की उपासना नहीं हो सकेगी और अनामी तो साध्य वा प्राप्य है, साधन नहीं है, निर्गुण-उपासना से यह प्राप्त होता है (देखिये-भाग 4, पृष्ठ 310, पारा 62-63)। उपासना का आरम्भ होगा सगुण से ही, पर उपासक पारा संख्या 59, 60, 61, 62 में किये गये वर्णनों के अनुसार बढ़ते-बढ़ते निर्गुण- उपासक होकर अन्त में अनामी (शब्दातीत) पुरुषोत्तम को प्राप्त कर कृत-कृत्य हो जाएगा। इसके लिए भाग 2 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदय के वचन भी पृष्ठ 242 से 245 तक पढ़ने योग्य है। सन्त कबीर साहब और गुरु नानक साहब और इनके ऐसे सन्तों को केवल निर्गुण-उपासक और गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज तथा श्रीसूरदासजी महाराज को केवल सगुण-उपासक जानना भूल है; क्योंकि कबीर साहब और गुरु नानक साहब गुरु-मूर्त्ति का ध्यान भी बतलाते हैं, जो स्थूल सगुण-उपासना ही हुई । (देखिये भाग 2, पृष्ठ 120, स्थूल-ध्यान और पृष्ठ 152) और गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज जहाँ सगुण राम की प्रेममयी कथा और भव्य माहात्म्य को बहुत सुन्दर विस्तार-पूर्वक अपने ‘रामचरितमानस’ में गाते हैं, वहाँ उसी में, दोहावली में और विनय-पत्रिका में वे राम के निम्नलिखित स्वरूप का भी वर्णन करते हैं। वे राम को तुरीयावस्था में पहुँचकर भजने के लिए कहते हैं, पुनः देशकालातीत और अतिशय द्वैत-वियोगी पद का तथा उसके महत्त्व का वर्णन कर, भक्त को अन्तर-मार्गी बन, वहाँ तक पहुँचकर संशयों को निर्मूल कर नष्ट कर देने के लिए कहते हैं। वे रामनाम को अकथ तथा निर्गुण भी कहते हैं; यथा-
एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानन्द पर धाामा ।।
सोरठा- राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
।। चौपाई ।।
जग पेखन तुम देखनिहारे । विधिा-हरि सम्भु नचावनिहारे ।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा । और तुमहिं को जाननहारा ।।
सोइ जानहि जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।
चिदानन्दमय देह तुम्हारी । विगत विकार जान अधिाकारी ।।
नर तनु धारेउ सन्त सुर काजा । करहु कहहु जस प्राकृत राजा ।।
।। चौपाई ।।
जो माया सब जगहिं नचावा । जासु चरित लखि काहु न पावा ।।
सो प्रभु भ्रू विलास खगराजा ।नाच नटी इव सहित समाजा ।।
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा । अज विज्ञान रूप बल धाामा ।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सबदरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा । नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी । ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
दो0- भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धारेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
यथा अनेकन भेष धारि, नृत्य करै नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
दो0- निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।
-रामचरितमानस
दो0- हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
-दोहावली
राम-नाम निर्गुण और अकथ है, इसके वर्णन की चौपाइयों को पृष्ठ 299, पारा 4 में देखिये और नाम के विशेष वर्णन को जानने के लिए इसी चौथे भाग के पृष्ठ 302, पारा 35 और पृष्ठ 308, पारा 58 को पढ़िये। इन बातों से प्रकट है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज आन्तरिक आदि निर्गुण नाद के भी ज्ञाता और उपासक थे। इस अन्तिम उपासना के बिना कोई अद्वैत, देश-कालातीत, अनाम पद तक पहुँचे, सम्भव नहीं है। यदि इस उपासना के बिना ही कथित अद्वैत पद तक किसी अन्य उपासना से भी पहुँच हो, तो नादानुसंधान वा सुरत- शब्द-योग की विशेषता नहीं मानने योग्य है और नादानुसंधान की विशेषता मिटते ही सन्तमत की भी विशेषता मिट जायगी; परन्तु ऐसा होना युक्तिवाद के अनुकूल नहीं है, इसलिए यह सम्भव नहीं। गो0 तुलसीदासजी महाराज तुरीयावस्था प्राप्त कर राम का भजन करने और अपने अन्तर में ही राम को प्राप्त करने के लिए भी बतलाते हैं। इसके लिए भाग 2, पृष्ठ 208 से 210 तक में लिखित उनकी विनय-पत्रिका के इन पद्यों को पूरा-पूरा पढ़िये-(1) रघुपति भगति करत कठिनाई ------------ सकल दृस्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि योगी। सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख अतिसय द्वैत वियोगी।।----- देस काल तहँ नाहीं। ---- तुलसिदास यहि दसा हीन संसय निर्मूल न जाहीं।। (2) श्री हरि गुरु-पद कमल भजहिं मन तजि अभिमान।-----तेरसि तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त। मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त। -------तुलसीदास प्रयास बिनु, मिलहिं राम दुखहरन।। (3) एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो। परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं बाहर फिरत विकल भय धायो ---- कीजै नाथ उचित मन भयो।।
जबकि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीराम के नर-शरीर का भी और चिदानन्दमय शरीर का भी वर्णन करते हैं, तब शरीर से शरीरी को फुटाकर समझने से शरीरी शरीर से अवश्य ही तत्त्व-रूप में भिन्न, उच्च, उत्कृष्ट और विशेष होता है। इसलिए यह अवश्य मानना पड़ता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने श्रीराम के स्वरूप को सच्चिदानन्द रूप से भी उत्कृष्ट और उच्च शुद्ध आत्मस्वरूप का वर्णन किया है ।
ऐसे ही सूरदासजी महाराज के भी इन पद्यों को भाग 2 के पृष्ठ 210 से 213 तक में पढ़िये-(1) अपुनपौ आपुन ही में पायो। शब्दहि शब्द भयो उजियारो सतगुरु भेद बतायो।।----ज्यों गूँगो गुड़ खायो।। (2) जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत ---- अन्ध नयन बिनु देखे।। (3) अपने जान मैं बहुत करी। ------ छमो सूर तें सब बिगरी।। इन सन्तों के एसे वर्णनों को पढ़कर इनको केवल कवि ही जानना, इन्हें सन्त नहीं मानना, मेरे जानते इनका अकारण ही अनादर करना है और जो लोग इनको केवल स्थूल-सगुण-उपासक ही मानते हैं, वे इनके परम उच्च गम्भीर ज्ञान और इनके ध्यान की पूर्णता को विदित नहीं करके इनके परम उच्च पद को न्यून करके दरसाते हैं।
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