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(91) आँखों को बन्द करके आँख के भीतर डीम को बिना उलटाये वा उसपर कुछ भी जोर लगाये बिना, ध्यानाभ्यास करना चाहिये; परन्तु नींद से अवश्य ही बचते रहना चाहिये।
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(92) ब्रह्ममुहूर्त्त में (पिछले पहर रात), दिन में स्नान करने के बाद तुरत और सायंकाल, नित्य नियमित रूप से अवश्य ध्यानाभ्यास करना चाहिए। रात में सोने के समय लेटे-लेटे अभ्यास में मन लगाते हुए सो जाना चाहिये। काम करते समय भी मानस-जप वा मानस ध्यान करते रहना उत्तम है ।
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(93) जबतक नादानुसंधान का अभ्यास करने की गुरु-आज्ञा न हो-केवल मानस जप, मानस-ध्यान और दृष्टि-योग के अभ्यास करने की गुरु-आज्ञा हो, तबतक दो ही बंद (आँख बन्द और मुँह बन्द) लगाना चाहिये। नादानुसंधान करने की गुरु-आज्ञा मिलने पर आँख, कान और मुँह-तीनों बंद लगाना चाहिये।
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(94) केवल ध्यानाभ्यास से भी प्राण-स्पन्दन (हिलना) बंद हो जाएगा, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण का चिह्न यह है कि किसी बात को एकचित्त होकर वा ध्यान लगाकर सोचने के समय श्वास-प्रश्वास की गति कम हो जाती है। पूरक, कुम्भक और रेचक करके प्राणायाम करने का फल प्राण-स्पन्दन को बंद करना ही है; परन्तु यह क्रिया कठिन है। प्राण का स्पन्दन बन्द होने से सुरत का पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव का फल संख्या 56 में लिखा जा चुका है। बिना प्राणायाम किये ही ध्यानाभ्यास करना सुगम साधन का अभ्यास करना है। इसके आरम्भ में प्रत्याहार का अभ्यास करना होगा अर्थात् जिस देश में मन लगाना होगा, उससे मन जितनी बार हटेगा, उतनी बार मन को लौटा-लौटाकर उसमें लगाना होगा। इस अभ्यास से स्वाभाविक ही धारणा (मन का अल्प टिकाव उस देश पर) होगी। जब धारणा देर तक होगी, वही असली ध्यान होगा और संख्या 60 में वर्णित ध्वनि-धारों का ग्रहण ध्यान में होकर अंत में समाधि प्राप्त हो जाएगी। प्रत्याहार और धारणा में मन को दृष्टियोग का सहारा रहेगा। दृष्टियोग का वर्णन संख्या 59 में हो चुका है ।
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(95) जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में दृष्टि और श्वास चंचल रहते हैं, मन भी चंचल रहता है। सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद) में दृष्टि और मन की चंचलता नहीं रहती है, पर श्वास की गति बन्द नहीं होती है। इन स्वाभाविक बातों से जाना जाता है कि जब-जब दृष्टि चंचल है, मन भी चंचल है; जब दृष्टि में चंचलता नहीं है, तब मन की चंचलता जाती रहती है और श्वास की गति होती रहने पर भी दृष्टि का काम बन्द रहने के समय मन का काम भी बन्द हो जाता है। अतएव यह सिद्ध हो गया कि मन के निरोध के हेतु में दृष्टि-निरोध की विशेष मुख्यता है। मन और दृष्टि, दोनों सूक्ष्म हैं और श्वास स्थूल। इसलिए भी मन पर दृष्टि के प्रभाव का श्वास के प्रभाव से अधिक होना अवश्य ही निश्चित है।
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(96) दृष्टि के चार भेद हैं-जाग्रत की दृष्टि, स्वप्न की दृष्टि, मानस दृष्टि और दिव्य दृष्टि। दृष्टि के पहले तीनों भेदों के निरोध होने से मनोनिरोध होगा और दिव्यदृष्टि खुल जाएगी। दिव्यदृष्टि में भी एकविन्दुता रहने पर मन की विशेष ऊर्ध्वगति होगी और मन सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाद को प्राप्त कर उसमें लय हो जाएगा।
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(97) जब मन लय होगा, तब सुरत को मन का संग छूट जाएगा। मन-विहीन हो, शब्द-धारों से आकर्षित होती हुई निःशब्द में अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर में पहुँचकर वह भी लय हो जायगी। अन्तर-साधन की यहाँ पर इति हो गई। प्रभु मिल गये। काम समाप्त हुआ।
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(98) साधक को स्वावलम्बी होना चाहिये। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिये। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगानी उसके लिए परमोचित है।
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(99) काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से खूब बचते रहना और दया, शील, सन्तोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना, साधक के पक्ष में अत्यन्त हित है।
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(100) मांस और मछली का खाना तथा मादक द्रव्यों का सेवन, मन में विशेष चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न करते हैं। साधकों को इनसे अवश्य बचना चाहिये।
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