पारा 81 से 90 तक

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(81) परम प्रभु सर्वेश्वर को पाने की विद्या के अतिरिक्त जितनी विद्याएँ हैं, उन सबसे उतना लाभ नहीं, जितना की परम प्रभु के मिलने से। परम प्रभु से मिलने की शिक्षा की थोड़ी-सी बात के तुल्य लाभदायक दूसरी-दूसरी शिक्षाओं की अनेकानेक बातें (लाभदायक) नहीं हो सकती हैं। इसलिए इस विद्या के सिखलानेवाले गुरु से बढ़कर उपकारी दूसरे कोई गुरु नहीं हो सकते और इसीलिए किसी दूसरे गुरु का दर्जा, इनके दर्जे के तुल्य नहीं हो सकता है। केवल आधिभौतिक विद्या के प्रकाण्ड से भी प्रकाण्ड वा अत्यन्त धुरन्धर विद्वान के अन्तर के आवरण टूट गये हों, यह कोई आवश्यक बात नहीं है और न इनके पास कोई ऐसा यंत्र है, जिससे अन्तर का आवरण टूटे वा कटे; परन्तु सच्चे और पूरे सद्गुरु में ये बातें आवश्यक हैं। सच्चे और पूरे सद्गुरु का अंतर-पट टूटने की सद्युक्ति का किंचित् मात्र भी संकेत संसार की सब विद्याओं से विशेष लाभदायक है।
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(82) पूरे और सच्चे सद्गुरु की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी जो शुद्धाचरण रखते हैं, जो नित्य नियमित रूप से नादानुसंधान का अभ्यास करते हैं और जो सन्तमत को अच्छी तरह समझा सकते हैं, उनमें श्रद्धा रखनी और उनको गुरु धारण करना अनुचित नहीं। दूसरे-दूसरे गुण कितने भी अधिक हों; परन्तु यदि आचरण में शुद्धता नहीं पायी जाय, तो वह गुरु मानने योग्य नहीं। यदि ऐसे को पहले गुरु माना भी हो, तो उसका दुराचरण जान लेने पर उससे अलग रहना ही अच्छा है। उसकी जानकारी अच्छी होने पर भी आचरणहीनता के कारण उसका संग करना योग्य नहीं और गुणों की अपेक्षा गुरु के आचरण का प्रभाव शिष्यों पर अधिक पड़ता है और गुणों के सहित शुद्धाचरण का गुरु में रहना ही उसकी गरुता तथा गुरुता है, नहीं तो वह गरु (गाय, बैल) है। क्या शुद्धाचरण और क्या गुरु होने योग्य दूसरे-दूसरे गुण, किसी में भी कमी होने से वह झूठा गुरु है।
गुरु से ज्ञान जो लीजिये, शीश दीजिये दान ।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान ।।1।।
तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
आपा सबही डारिके, राखै साहब माहिं ।।2।।
झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।3।।
(कबीर साहब)
पूरे और सच्चे सद्गुरु को गुरु धारण करने का फल तो अपार है ही; परन्तु ऐसे गुरु का मिलना अति दुर्लभ है। ज्ञानवान, शुद्धाचारी तथा सुरत-शब्द के अभ्यासी पुरुष को गुरु धारण करने से शिष्य उस गुरु के संग से धीरे-धीरे गुरु के गुणों को लाभ करे, यह सम्भव है; क्योंकि संग से रंग लगता है और शिष्य के लिए वैसे गुरु की शुभकामना भी शिष्य को कुछ-न-कुछ लाभ अवश्य पहुँचाएगी; क्योंकि एक का मनोबल दूसरे पर कुछ प्रभाव डाले, यह भी संभव ही है। ज्ञात होता है कि उपर्युक्त संख्या 2 की साखी और पारा 77 में लिखित साखी, जो यह निर्णय कर देती है कि कैसे का शिष्य बनो और कैसे के हाथों में अपने को सौंपो, इसका रहस्य ऊपर कथित शिष्य के पक्ष में-दोनों ही बातें लाभदायक हैं। जो केवल सुरत-शब्द का अभ्यास करे; किन्तु ज्ञान और शुद्धाचरण की परवाह नहीं करे, ऐसे को गुरु धारण करना किसी तरह भला नहीं है। यदि कोई इस बात की परवाह नहीं करके किसी दुराचारी जानकार को ही गुरु धारण कर ले, तो ऊपर कथित गुरु से प्राप्त होने योग्य लाभों से वह वंचित रहेगा और केवल अपने से अपनी सँभाल करना उसके लिए अत्यन्त भीषण काम होगा। इस भीषण काम को कोई विशेष थिर बुद्धिवाला विद्वान कर भी ले, पर सर्वसाधारण के हेतु असम्भव-सा है। ये बातें प्रत्यक्ष हैं कि एक की गरमी दूसरे में समाती है तथा कोई अपने शरीर-बल से दूसरे के शरीर-बल को सहायता देकर और अपने बुद्धि-बल से दूसरे के बुद्धि-बल को सहायता देकर बढ़ा देते हैं, तब यदि कोई अपना पवित्रतापूर्ण तेज दूसरे के अन्दर देकर उसको पवित्र करे और अपने बढ़े हुए ध्यान-बल से किसी दूसरे के ध्यान-बल को जगावे और बढ़ावे, तो इसमें संशय करने का स्थान नहीं है। कल्याण-साधनांक, प्रथम-खण्ड, पृ0 499 में अमीर सुखरो का वचन है कि -------‘सुनिये, मैंने भी उन महापुरुष जगद्गुरु भगवान श्री स्वामी रामानन्द का दर्शन किया है। अपने गुरु ख्वाजा साहब की तरफ से मैं तोहफए बेनजीर (अनुपम भेंट) लेकर पंचगंगा-घाट पर गया था। स्वामीजी ने दाद दी थी और मुझ पर जो मेह्र (कृपा) हुई थी, उससे फौरन मेरे दिल की सफाई हो गई थी और खुदा का नूर झलक गया था ।’ मण्डलब्राह्मणोपनिषद्, तृतीय ब्राह्मण में के, ‘इत्युच्चरन्त्समालिंग्य शिष्यं ज्ञप्तिमनीनयत्’ ।।2।। का अँग्रेजी अनुवाद K. Narayan Swami Aiyar (के0 नारायण स्वामी अय्यर) ने इस प्रकार किया है- "Saying this, he the purusha of the sun, embraced his pupil and made him understand it." अर्थात्- ‘इस प्रकार कहकर उसने (सूर्यमण्डल के पुरुष ने) अपने शिष्य को छाती से लगा लिया और उसको उस विषय का ज्ञान करा दिया।’ और उसपर उन्होंने (उपर्युक्त अय्यरजी ने) पृष्ठ के नीचे में यह टिप्पणी भी लिख दी है कि "This is a reference to the secret way of imparting higher truth" अर्थात् ‘उच्चतर सत्य (ब्रह्म का अपरोक्ष ज्ञान) प्रदान करने की गुप्त विधि का यह (अर्थात् छाती से लगाना) एक संकेत है।’ [Thirty minor Upnishads, Page 252-थर्टी (30) माइनर उपनिषद्, पृष्ठ 252] ज्ञात होता है कि पूरे गुरु के पवित्र तेज से, उनके उत्तम ज्ञान से तथा उनके ध्यान-बल से शिष्यों को लाभ होता है। इसी बात की सत्यता के कारण बाबा देवी साहब की छपाई हुई घटरामायण में निम्नलिखित दोनों पद्यों को स्थान प्राप्त है। वे पद्य ये हैं-
मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फ़हम शहरग के पाने के लिये ।।
अर्थात्-ऐ तकी! सच्चाई और (संसारी चीजों का लालच त्यागकर) सन्तोष धारण कर कामिल (पूरे) मुर्शिद (गुरु) से जाकर मिलो, जो तुझको शहरग (सुषुम्ना नाड़ी) पाने की समझ देगा।
यह पद्य विदित करता है कि भजन-भेद कैसे पुरुष से लेना चाहिये और दूसरा-
तुलसी बिना करम किसी मुर्शिद रसीदा के ।
राहे नजात दूर है उस पार देखना ।।
अर्थात्-तुलसी साहब कहते हैं कि किसी मुर्शिद रसीदा (पहुँचे हुए गुरु) के करम-बख्शिश (दया-दान) के बिना राहे नजात (मुक्ति का रास्ता) और उस पार का देखना दूर है।
यह पद्य तो साफ ही कह रहा है कि पूरे गुरु के दया-दान से ही उस पार का देखना होता है, अन्यथा नहीं। और वराहोपनिषद्, अ0 2, श्लोक 76 में है-

दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।।
अर्थात् सद्गुरु की कृपा के बिना विषय का त्याग दुर्लभ है। तत्त्वदर्शन (ब्रह्म-दर्शन) दुर्लभ है और सहजावस्था दुर्लभ है। इस प्रकार की दया का दान गुरु से प्राप्त करने के लिए उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया जाय, इसी में गुरु-सेवा की विशेष उपयोगिता ज्ञात होती है। भगवान बुद्ध की ‘धम्मपद’ नाम की पुस्तिका में गुरु-सेवा के लिए उनकी यह आज्ञा है; यथा-‘मनुष्य जिससे बुद्ध का बताया हुआ धर्म सीखे, तो उसे उनकी परिश्रम से सेवा करनी चाहिये; जैसे ब्राह्मण यज्ञ-अग्नि की पूजा करता है ।’ (26वाँ वचन; सं0 292) सन्त चरणदासजी ने भी कहा है-
मेरा यह उपदेश हिये में धाारियो ।
गुरु चरनन मन राखि सेव तन गारियो ।।
जो गुरु झिड़कैं लाख तो मुख नहिं मोड़ियो ।
गुरु से नेह लगाय सबन सों तोड़ियो ।।
(चरणदासजी की वाणी, भाग 1, पृ0 10 , अष्टपदी 45, वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग)
और बाबा देवी साहब ने भी घटरामायण में छपाया है-
यह राह मंजिल इश्क है पर पहुँचना मुश्किल नहीं ।
मुश्किल कुशा है रोबरू, जिसने तुझे पंजा दिया ।।

अर्थात्-यह राह (मार्ग) और मंजिल (गन्तव्य स्थान) इश्क (प्रेम) है, पर पहुँचना कठिन नहीं है, मुश्किल कुशा (कठिनाई को मारनेवाला वा दूर करनेवाला) रोबरू (सामने) वह है, जिसने तुझे पंजा (भेद वा आज्ञा) दिया है।

यद्यपि संत-महात्मागण समदर्शी कहे जाते हैं, तथापि जैसे वर्षा का जल सब स्थानों पर एक तरह बरस जाने पर भी गहिरे गड़हे में ही विशेष जमा होकर टिका रहता है, वैसे ही संत-महात्मागण की कृपावृष्टि भी सब पर एक तरह की होती है; परन्तु उनके विशेष सेवक-रूप गहिरे गड़हे की ओर वह वेग से प्रवाहित होकर उसी में अधिक ठहरती है। संत-महात्मागण तो स्वयं सब पर सम रूप से अपनी कृपा-वृष्टि करते ही हैं, पर उनके सेवक अपनी सेवा से अपने को उनका कृपापात्र बना उनकी विशेष कृपा अपनी ओर खींच लेंगे, इसमें आश्चर्य ही क्या? एक तो देनेवाले के दान की न परवाह करता है और न वह उसे लेने का पात्र ही ठीक है, दूसरा इसकी बहुत परवाह करता है और अत्यन्त यत्न से अपने को उस दान के लेने का पात्र बनाता है, तब पहले से दूसरे को विशेष लाभ क्यों न होगा? सन्त-महात्माओं की वाणियों में गुरु-सेवा की विधि का यही रहस्य है, ऐसा जानने में आता है।
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(83) किसी से कोई विद्या सिखनेवाले को सिखलानेवाले से नम्रता से रहने का तथा उनकी प्रेम-सहित कुछ सेवा करने का ख्याल हृदय में स्वाभाविक ही उदय होता है, इसलिए गुरु-भक्ति स्वाभाविक है। गुरु-भक्ति के विरोध में कुछ कहना फजूल है। निःसन्देह अयोग्य गुरु की भक्ति को बुद्धिमान आप त्यागेंगे और दूसरे से भी इसका त्याग कराने की कोशिश करेंगे, यह भी स्वाभाविक ही है।
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(84) सत्संग, सदाचार, गुरु की सेवा और ध्यानाभ्यास; साधकों को इन चारो चीजों की अत्यन्त आवश्यकता है। संख्या 53 में सत्संग का वर्णन है। संख्या 60 में वर्णित पंच पापों से बचने को सदाचार कहते हैं। गुरु की सेवा में उनकी आज्ञाओं का मानना मुख्य बात है और ध्यानाभ्यास के बारे में संख्या 54, 55, 56, 57 और 59 में लिखा जा चुका है। सन्तमत में उपर्युक्त चारो चीजों के ग्रहण करने का अत्यन्त आग्रह है। इन चारो में मुख्यता गुरु-सेवा की है, जिसके सहारे उपर्युक्त बची हुई तीनों चीजें प्राप्त हो जाती हैं।
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(85) दुःखों से छूटने और परम शान्तिदायक सुख को प्राप्त करने के लिए जीवों के हृदय में स्वाभाविक प्रेरण है। इस प्रेरण के अनुकूल सुख को प्राप्त करा देने में सन्तमत की उपयोगिता है।
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(86) भिन्न-भिन्न इष्टों के माननेवाले के भिन्न-भिन्न इष्टदेव कहे जाते हैं। इन सब इष्टों के भिन्न-भिन्न नामरूप होने पर भी सबकी आत्मा अभिन्न ही है। भक्त जबतक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को प्राप्त न कर ले, तबतक उसकी भक्ति पूरी नहीं होती। किसी इष्टदेव के आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेने पर परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति हो जाएगी, इसमें सन्देह नहीं। संख्या 84 में वर्णित साधनों के द्वारा ही आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होगी। प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और शुद्ध आत्मस्वरूप हैं। जो उपासक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप का निर्णय नहीं जानता और उसकी प्राप्ति का यत्न नहीं करता; परन्तु उसके केवल वर्णात्मक नाम और स्थूल रूप में फँसा रहता है, उसकी मुक्ति अर्थात् उसका परम कल्याण नहीं होगा।
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(87) नादानुसंधान (सुरत-शब्द-योग) लड़कपन का खेल नहीं है। इसका पूर्ण अभ्यास यम-नियम-हीन पुरुष से नहीं हो सकता है। स्थूल शरीर में उसके अन्दर के स्थूल कम्पों की ध्वनियाँ भी अवश्य ही हैं। केवल इन्हीं ध्वनियों के ध्यान को पूर्ण नादानुसंधान जानना और इसको (नादानुसंधान को) मोक्ष- साधन में अनावश्यक बताना बुद्धिमानी नहीं है, बल्कि ऐसा जानना और ऐसा बताना योग-विषयक ज्ञान की अपने में कमी दरसाना है। यम और नियमहीन पुरुष भी नादानुसंधान में कुशल हो सकता है, ऐसा मानना सन्तवाणी-विरुद्ध है और अयुक्त भी है।
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(88) सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी नहीं करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (असंग्रह) को यम कहते हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्र का पाठ करना) और ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर में चित्त लगाना) को नियम कहते हैं।
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(89) यम और नियम का जो सार है, संख्या 60 में वर्णित पाँच पापों से बचने का और गुरु की सेवा, सत्संग और ध्यानाभ्याास करने का वही सार है ।
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(90) मस्तक, गरदन और धड़ को सीधा रखकर किसी आसन से देर तक बैठने का अभ्यास करना अवश्य ही चाहिये। दृढ़ आसन से देर तक बैठे रहने के बिना ध्यानाभ्यास नहीं हो सकता है।
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