पारा 71 से 80 तक

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(71) सारशब्द अलौकिक शब्द है। परम अलौकिक से ही इसका उदय है। विश्व-ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड आदि की रचना के पूर्व ही इसका उदय हुआ है। इसलिए वर्णात्मक शब्द, जो पिण्ड के बिना हो नहीं सकता अर्थात् मनुष्य-पिण्ड ही जिसके बनने का कारण है वा यों भी कहा जा सकता है कि लौकिक वस्तु ही जिसके बनने का कारण है, उसमें सारशब्द की नकल हो सके, कदापि सम्भव नहीं है। सारशब्द को जिन सब वर्णात्मक शब्दों के द्वारा जनाया जाता है, उन शब्दों को बोलने से जैसी-जैसी आवाजें सुनने में आती हैं, सारशब्द उनमें से किसी की भी तरह सुनने में लगे, यह भी कदापि सम्भव नहीं है। राधास्वामीजी के ये दोहे हैं कि-
अल्लाहू त्रिकुटी लखा, जाय लखा हा सुन्न ।
शब्द अनाहू पाइया, भँवर गफ़ुा की धाुन्न ।।
हक्क हक्क सतनाम धाुन, पाई चढ़ सच खण्ड ।
सन्त फ़कर बोली युगल, पद दोउ एक अखण्ड ।।
राधास्वामी-मत में त्रिकुटी का शब्द ‘ओं,’ सुन्न का ‘ररं’ भँवर गुफा का ‘सोहं’ और सतलोक अर्थात् सच-खण्ड का ‘सतनाम’ मानते हैं; और उपर्युक्त दोहों में राधास्वामीजी बताते हैं कि फकर अर्थात् मुसलमान फकीर त्रिकुटी का शब्द ‘अल्लाहू,’ सु़न्न का ‘हा’, भँवर गुफा का ‘अनाहू’ और सतलोक का ‘हक्क’ ‘हक्क’ मानते हैं। उपर्युक्त दोहों के अर्थ को समझने पर यह अवश्य जानने में आता है कि सारशब्द की तो बात ही क्या, उसके नीचे के शब्दों की भी ठीक-ठीक नकल मनुष्य की भाषा में हो नहीं सकती। एक सतलोक वा सचखण्ड के शब्द को ‘सतनाम’ कहता है और दूसरा उसी को ‘हक्क-हक्क’ कहता है, और पहला व्यक्ति दूसरे के कहे को ठीक मानता है, तो उसको यह अवसर नहीं है कि तीसरा जो उसी को ‘ओं’ वा राम कहता है, उससे वह कहे कि ‘ओं’ और ‘राम’ नीचे दर्जे के शब्द हैं, सतलोक के नहीं। अतएव किसी एक वर्णात्मक शब्द को यह कहना कि यही खास शब्द सारशब्द की ठीक-ठीक नकल है, अत्यन्त अयुक्त है और विश्वास करने योग्य नहीं है।
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(72) बीन, वेणु (मुरली), नफीरी, मृदंग, मर्दल, नगाड़ा, मजीरा, सिंगी, सितार, सारंगी, बादल की गरज और सिंह का गर्जन इत्यादि स्थूल लौकिक शब्दों में से कई-कई शब्दों का, अन्तर के एक-एक स्थान में वर्णन किसी-किसी संतवाणी में पाया जाता है। ये सबमें एक ही तरह वर्णन किये हुए नहीं पाये जाते हैं। जैसे एक संत की वाणी में मुरली का शब्द नीचे के स्थान में वर्णन है, तो दूसरे संत की वाणी में यही शब्द ऊँचे के स्थान में वर्णन किया हुआ मिलता है; जैसे-
भँवर गफ़ुा में सोहं राजे, मुरली अधिाक बजाया है ।
(कबीर-शब्दावली, भाग 2)
‘गगन द्वार दीसै एक तारा । अनहद नाद सुनै झनकारा ।।’ के नीचे की आठ चौपाइयों के बाद और-‘जैसे मन्दिर दीपक बारा । ऐसे जोति होत उजियारा ।।’ के ऊपर की तीन चौपाइयों के ऊपर में अर्थात् दीपक-ज्योति के स्थान के प्रथम ही और तारा, बिजली और उससे अधिक-अधिक प्रकाश के और आगे पाँच तत्त्व के रंग के स्थान पर ही यानी आज्ञा-चक्र के प्रकाश-भाग के ऊपर की सीमा में ही वा सहस्त्रदलकमल की निचली सीमा के पास के स्थान पर ही-‘स्याही सुरख सफ़ेदी होई । जरद जाति जंगाली सोई ।। तल्ली ताल तरंग बखानी । मोहन मुरली बजै सुहानी ।’ (घटरामायण)
ऐसे वर्णन को पढ़कर किसी संतवाणी को भूल वा गलत कहना ठीक नहीं है और इसीलिए यह भी कहना ठीक नहीं है कि सब सन्तों का ‘एक मत’ नहीं है तथा और अधिक यह कहना अत्यन्त अनिष्टकर है कि जब सन्तों की वाणियों में इन शब्दों की निसबत इस तरह बे-मेल है, तो सार-शब्द के अतिरिक्त इन मायावी शब्दों का अभ्यास करना ही नहीं चाहिये। वृक्ष के सब विस्तार की स्थिति उसके अंकुर में और अंकुर की स्थिति उसके बीज में अवश्य ही है, इसी तरह स्थूल जगत् के सारे प्रसार की स्थिति सूक्ष्म जगत् में औैर सूक्ष्म जगत् के सब प्रसार की स्थिति कारण में मानना ही पड़ता है। स्थूल मण्डल की ध्वनियों की स्थिति सूक्ष्म में और सूक्ष्म की कारण में है; ऐसा विश्वास करना युक्तियुक्त है। अतएव मुरली-ध्वनि वा कोई ध्वनि नीचे के स्थानों में भी और वे ही ध्वनियाँ ऊपर के स्थानों में भी जानी जायँ, असम्भव नहीं है। एक ने एक स्थान के मुरली-नाद का वर्णन किया, तो दूसरे ने उसी स्थान के किसी दूसरे नाद का वर्णन किया, इसमें कुछ भी हर्ज नहीं । शब्द-अभ्यास करके ही दोनों पहुँचे उसी एक स्थान पर, ऐसा मानना कोई हर्ज नहीं। इस तरह समझ लेने पर न किसी सन्त की शब्द-वर्णन- विषयक वाणी गलत कही जा सकती है और न यह कहा जा सकता है कि दोनों का मत पृथक्-पृथक् है और तीसरी बात यह है कि केवल सार-शब्द का ही ध्यान करना और उसके नीचे के मायावी शब्दों का नहीं, बिल्कुल असम्भव है; क्योंकि यह बात न युक्तियुक्त है और न किसी सन्तवाणी के अनुकूल है। नीचे के मायावी शब्दों के अभ्यास-बिना सारशब्द का ग्रहण कदापि नहीं होगा; इसपर संख्या 66 में लिखा जा चुका है।
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(73) मृदंग, मृदल और मुरली आदि की मायिक ध्वनियों में-से किसी को अन्तर के किसी एक ही स्थान की निज ध्वनि नहीं मानी जा सकती है। इसलिए उपनिषदों में और दो-एक के अतिरिक्त सब भारती सन्तवाणी में भी अन्तर में मिलनेवाली केवल ध्वनियों के नाम पाये जाते हैं; परन्तु यह नहीं पाया जाता है कि अन्तर के अमुक स्थान की अमुक-अमुक निज ध्वनियाँ हैं और साथ-ही-साथ शब्दातीत पद का वर्णन उन सबमें अवश्य ही है । इस प्रकार के वर्णन को पढ़कर यह कह देना कि वर्णन करनेवाले को नादानुसन्धान (सुरत-शब्द- योग) का पूरा पता नहीं था, अयुक्त है और नहीं मानने-योग्य है।
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(74) स्थूल मण्डल का एक शब्द जितना मीठा और सुरीला होगा, सूक्ष्म मण्डल का वही शब्द उससे विशेष मीठा और सुरीला होगा; इसी तरह कारण और महाकारण मण्डलों में (जहाँ तक शब्द में विविधता हो सकती है) उस शब्द की मिठास और सुरीलापन उत्तरोत्तर अधिक होंगे। कैवल्य पद में शब्द की विविधता नहीं मानी जा सकती है। उसमें केवल एक ही निरुपाधिक आदिशब्द मानना युक्तियुक्त है; क्योंकि कैवल्य में विविधता असम्भव है ।
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(75) शब्दातीत पद का मानना तथा इस पद तक पहुँचने के हेतु वर्णात्मक शब्द का जप, मानस-ध्यान, दृष्टियोग और नादानुसंधान; इन चारो प्रकार के साधनों का मानना संतवाणियों में मिलता है। अतएव सन्तमत में वणिर््ात चारो युक्तियुक्त साधनों की विधि अवश्य ही माननी पड़ती है।
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(76) नादानुसंधान में पूर्णता के बिना परम प्रभु सर्वेश्वर का मिलना वा पूर्ण आत्मज्ञान होना असम्भव है ।
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(77) बिना गुरु-भक्ति के सुरत-शब्द-योग द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति में पूर्ण होकर अपना परम कल्याण बना लेना असम्भव है।
कबीर पूरे गुरु बिना, पूरा शिष्य न होय ।
गुरु लोभी शिष लालची, दूनी दाझन होय ।।
(कबीर साहब)
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(78) जब कभी पूरे और सच्चे सद्गुरु मिलेंगे, तभी उनके सहारे अपना परम कल्याण बनाने का काम समाप्त होगा।
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(79) पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है।
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(80) जीवन-काल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिंड में बरतने के समय उन्मुनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन-मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं ।
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