पारा 61 से 70 तक

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(61) वर्णित साधनों से यह जानने में साफ-साफ आ जाता है कि पहले स्थूल सगुण रूप की उपासना की विधि हुई, फिर सूक्ष्म सगुण रूप की उपासना की विधि हुई, फिर सूक्ष्म सगुण अरूप की उपासना की विधि और अन्त में निर्गुण-निराकार की उपासना की विधि हुई।
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(62) मानस जप और मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप-उपासना है, एकविन्दुता वा अणु से भी अणुरूप प्राप्त करने का अभ्यास सूक्ष्म सगुण रूप-उपासना है, सारशब्द के अतिरिक्त दूसरे सब अनहद नादों का ध्यान सूक्ष्म, कारण और महाकारण सगुण अरूप-उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार-उपासना है। सभी उपासनाओं की यहाँ समाप्ति है। उपासनाओं को सम्पूर्णतः समाप्त किये बिना शब्दातीत पद (अनाम) तक अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुँच प्राप्त कर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात् अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असम्भव है।
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(63) निःशब्द अथवा अनाम से शब्द अथवा नाम की उत्पत्ति हुई है, इसके अर्थात् नाम के ग्रहण से इसके आकर्षण में पड़कर, इससे आकर्षित हो निःशब्द वा शब्दातीत वा अनाम तक पहुँचना पूर्ण सम्भव है।
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(64) अनाम के ऊपर कुछ और का मानना वा अनाम के नीचे रचना के किसी मण्डल में अशब्द की स्थिति मानना बुद्धि-विपरीत है।
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(65) उपनिषदों में शब्दातीत पद को ही परम पद कहा गया है, और श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्रज्ञ कहकर जिस तत्त्व को जनाया गया है, उससे विशेष कोई और तत्त्व नहीं हो सकता है। इसलिए उपनिषदों तथा श्रीमद्भगवद्गीता में बताये हुए सर्वोच्च पद से भी और कोई विशेष पद है, ऐसा मानना व्यर्थ है। जो ऐसा नहीं समझते और नहीं विश्वास करते, उनको चाहिए कि शब्दातीत पद के नीचे रचना के किसी मण्डल में निःशब्द का होना तथा क्षेत्रज्ञ से विशेष और किसी तत्त्व की स्थिति को संसार के सामने विचार से प्रमाणित कर दें; परन्तु ऐसा कर सकना असम्भव है। विचार से सिद्ध और प्रमाणित किये बिना ऐसा कहना कि मेरे गुरु ने उपनिषदादि में वर्णित पद से ऊँचे पद को बतलाया है, ठीक नहीं; क्योंकि इस तरह दूसरे भी कहेंगे कि मैं आपसे भी ऊँचा पद जानता हूँ।
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(66) इसमें सन्देह नहीं कि केवल एक सारशब्द वा आदिशब्द ही अन्तिम पद अर्थात् शब्दातीत पद तक पहुँचाता है; परन्तु इससे यह नहीं जानना चाहिए कि इसके अतिरिक्त दूसरे सब मायिक शब्दों में के शब्दों का ध्यान करना ही नहीं चाहिये; क्योंकि ये दूसरे शब्द मायावी हैं, इनके ध्यान से अभ्यासी अत्यन्त अधोगति को प्राप्त होगा। सारशब्द के अतिरिक्त अन्य किसी भी शब्द के ध्यान की उपर्युक्त निषेधात्मक उक्ति उपनिषद् और भारती सन्तवाणी के अनुकूल नहीं है और न युक्ति-युक्त ही है, अतएव मानने-योग्य नहीं है। संख्या 44, 45, 46, 59 और 60 की वर्णित बातें इस विषय का अच्छी तरह बोध दिलाती हैं।
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(67) दृष्टि-योग से शब्द-योग आसान है। यह वर्णन हो चुका है कि एकविन्दुता प्राप्त करने तक के लिए दृष्टि-योग अवश्य होना चाहिए; परन्तु और विशेष दृष्टि-योग कर तब शब्द-अभ्यास करने का ख्याल रखना अनावश्यक है; क्योंकि इसमें विशेष काल तक कठिन मार्ग पर चलते रहना है।
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(68) एकविन्दुता प्राप्त किये हुए रहकर शब्द में सुरत लगा देना उचित है। दोनों से एक ही ओर को खिंचाव होगा। शब्द में विशेष रस प्राप्त होने के कारण पीछे विन्दु छूट जायगा और केवल शब्द-ही-शब्द में सुरत लग जायगी, तो कोई हानि नहीं, यही तो होना ही चाहिये।
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(69) केवल दृष्टि-योग से जड़ात्मक प्रकृति के किसी मण्डल के घेरे में पहुँचकर दूसरे किसी शब्द के अभ्यास का सहारा लिए बिना वहाँ ही सारशब्द के पकड़ने का ख्याल युक्ति-युक्त नहीं होने के कारण मानने-योग्य नहीं है; क्योंकि जड़ का कोई भी आवरण सार धार अर्थात् निर्मल चेतन-धार का अपरोक्ष ज्ञान होने देने में अवश्य ही बाधक है। जड़ात्मक मूल प्रकृति के बनने के पूर्व ही आदिशब्द अर्थात् सारशब्द का उदय हुआ है, इसलिए यह शब्द-रूप धार, निर्मल चेतन धार है।
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(70) विविध सुन्दर दृश्यों से सजे हुए मण्डप में मीठे सुरीले स्वर के गानों और बाजाओं को संलग्न होकर सुनते रहने पर भी मण्डप के दृश्यों का गौण रूप में भी देखना होता ही है। उसी प्रकार जड़ात्मक दृश्य-मण्डल के अंदर शब्द-ध्यान में रत होते हुए भी वहाँ के दृश्य अवश्य देखे जाएँगे। इसीलिए कहा गया है कि ‘ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिः’। केवल शब्द-ध्यान भी ज्योति-मण्डल में प्रवेश करा दे, इसमें आश्चर्य नहीं। ज्योति न मिले, तो उतनी हानि नहीं, जितनी हानि कि शब्द के नहीं मिलने से।
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