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(51) स्थूल के फैलाव से सूक्ष्म का फैलाव अधिक होता है। अनादि-अनन्तस्वरूपी से बढ़कर अधिक फैलाव और किसी का होना असम्भव है। इसलिए यह सबसे अधिक सूक्ष्म है। स्थूल यन्त्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता है। बाहर की और भीतर की सब इन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, लिंग, गुदा; ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं और आँख, कान, नाक, चमड़ा, जीभ; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ बाहर की इन्द्रियाँ हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार; ये चार भीतर की इन्द्रियाँ हैं।), जिनके द्वारा बाहर वा भीतर में कुछ किया जा सकता है, उस अनादि-अनन्तस्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर से स्थूल और अत्यन्त स्थूल हैं; इनसे वे ग्रहण होने योग्य कदापि नहीं। इन्द्रिय-मण्डल तथा जड़ प्रकृति-मण्डल में रहते हुए उनको प्रत्यक्ष रूप से जानना सम्भव नहीं है। अतएव अपने को इनसे आगे पहुँचाकर उनको प्रत्यक्ष पाना होगा। इस कारण परम प्रभु सर्वेश्वर को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करने के लिए अपने शरीर के बाहर का कोई साधन करना व्यर्थ है। बाहरी साधन से जड़ात्मक आवरणों वा शरीरों को पार कर कैवल्य दशा को प्राप्त करना अत्यन्त असम्भव है और शरीर के अंतर-ही-अंतर चलने से आवरणों का पार करना पूर्ण सम्भव है। इसके लिए जाग्रत और स्वप्न-अवस्थाओं की स्थितियाँ प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह कहना कि परम प्रभु सर्वेश्वर सर्वव्यापक हैं, अतः वे सदा प्राप्त ही हैं, उनको प्राप्त करने के लिए बाहर वा अंतर यात्रा करनी अयुक्त है, और यह भी कहना कि परम प्रभु सर्वेश्वर अपनी किरणों से सर्वव्यापक हैं, पर अपने निज स्वरूप से एकदेशीय ही हैं, इसलिए उन तक यात्रा करनी है; ये दोनों ही कथन ऊपर वर्णित कारणों से अयुक्त और व्यर्थ हैं। एक को तो प्रत्यक्ष प्राप्त नहीं है, वह मन-मोदक से भूख बुझाता है और दूसरा यह नहीं ख्याल करता कि एकदेशीय वा परिमित स्वरूपवाले की किरणों का मण्डल भी परिमित ही होगा। वह किसी भी तरह अनादि-अनन्तस्वरूपी नहीं हो सकता। एक अनादि-अनन्तस्वरूपी की स्थिति अवश्य है, यह बिुद्धि में अत्यन्त थिर है। अपरिमित पर परिमित शासन करे, यह सम्भव नहीं। परम प्रभु सर्वेश्वर को अनादि- अनन्तस्वरूपी वा अपरिमित ही अवश्य मानना पड़ेगा। उनको अपरोक्षरूप से प्राप्त करने के लिए क्यों अंतर में यात्रा करनी है, इसका वर्णन ऊपर हो चुका है।
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(52) अंतर में आवरणों से छूटते हुए चलना परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने के लिए चलना है। यह काम परम प्रभु सर्वेश्वर की निज भक्ति है या यह पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का अव्यर्थ साधन है। इस अन्तर के साधन को आन्तरिक सत्संग भी कहते हैं।
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(53) ऊपर कही गई बातों के साथ भक्ति के विषय की अन्य बातों के श्रवण और मनन की अत्यन्त आवश्यकता है, अतएव इसके लिए बाहर में सत्संग करना परम आवश्यक है।
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(54) अन्तर साधन की युक्ति और साधन में सहायता सद्गुरु की सेवा करके प्राप्त करनी चाहिये और उनकी बतायी हुई युक्ति से नित्य एवं नियमित रूप से अभ्यास करना परम आवश्यक है।
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(55) जाग्रत से स्वप्न-अवस्था में जाने में अन्तर-ही- अन्तर स्वाभाविक चाल होती है और इस चाल के समय मन की चिन्ताएँ छूटती हैं तथा विचित्र चैन-सा मालूम होता है। अतएव चिन्ता को त्यागने से अर्थात् मन को एकाग्र करने से वा मन को एकविन्दुता प्राप्त होने से अन्तर-ही-अन्तर चलना तथा विचित्र चैन का मिलना पूर्ण सम्भव है ।
है कुछ रहनि गहनि की बाता । बैठा रहे चला पुनि जाता ।।
(कबीर साहब)
बैठे ने रास्ता काटा । चलते ने बाट न पाई ।।
(राधास्वामी साहब)
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(56) किसी चीज का किसी ओर से सिमटाव होने पर उसकी गति उस ओर की विपरीत ओर को स्वाभाविक ही हो जाती है। स्थूल मण्डल से मन का सिमटाव होकर जब मन एकविन्दुता प्राप्त करेगा, तब स्थूल मण्डल के विपरीत सूक्ष्म मण्डल में उसकी गति अवश्य हो जाएगी।
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(57) दूध में घी की तरह मन में चेतनवृत्ति वा सुरत है। मन के चलने से सुरत भी चलेगी। मन सूक्ष्म जड़ है। वह जड़ात्मक कारण मण्डल से ऊपर नहीं जा सकता। यहाँ तक ही मन के संग सुरत का चलना हो सकता है। इसके आगे मन का संग छोड़कर सुरत की गति हो सकेगी; क्योंकि जड़ात्मक मूल प्रकृति-मण्डल के ऊपर में इसका निज मण्डल है, जहाँ से यह आयी है।
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(58) संख्या 35 में सर्वेश्वर के ध्वन्यात्मक नाम का वर्णन हुआ है। ध्वन्यात्मक अनाहत आदिशब्द परम प्रभु सर्वेश्वर का निज नाम वा जाति नाम वा उनके स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान करा देनेवाला नाम है और जिन वर्णात्मक शब्दों से इस ध्वन्यात्मक नाम को और परम प्रभु सर्वेश्वर को लोग पुकारते हैं, उन सब वर्णात्मक शब्दों से उपर्युक्त ध्वन्यात्मक नाम का तथा परम प्रभु सर्वेश्वर का गुण-वर्णन होता है। इसलिए उन वर्णात्मक शब्दों को परम प्रभु सर्वेश्वर का सिफाती व गुण-प्रकटकारी वा गुण-प्रकाशक नाम कहते हैं। इन नामों से परम प्रभु सर्वेश्वर की तथा उनके निज नाम की स्थिति और केवल गुण व्यक्त होते हैं; परन्तु उनका अपरोक्ष ज्ञान नहीं होता है।
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(59) सृष्टि के जिस मण्डल में जो रहता है, उसके लिए प्रथम उसी मण्डल के तत्त्व का अवलम्ब ग्रहण कर सकना स्वभावानुकूल होता है। स्थूल मण्डल के निवासियों को प्रथम स्थूल का ही अवलम्ब लेना स्वभावानुकूल होने के कारण सरल होगा। अतएव मन के सिमटाव के लिए प्रथम परम प्रभु सर्वेश्वर के किसी वर्णात्मक नाम के मानस जप का तथा परम प्रभु सर्वेश्वर के किसी उत्तम स्थूल विभूति-रूप के मानस-ध्यान का अवलम्ब लेकर मन के सिमटाव का अभ्यास करना चाहिए। परम प्रभु सर्वेश्वर सारे प्रकृति-मण्डल और विश्व-ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत-व्यापक हैं। सृष्टि के सब तेजवान, विभूतिवान और उत्तम धर्मवान उनकी विभूतियाँ हैं। उपर्युक्त अभ्यास से मन को समेट में रखने की कुछ शक्ति प्राप्त करके सूक्ष्मता में प्रवेश करने के लिए सूक्ष्म अवलम्ब को ग्रहण करने का अभ्यास करना चाहिये। सूक्ष्म अवलम्ब विन्दु है। विन्दु को ही परम प्रभु सर्वेश्वर का अणु से भी अणु रूप कहते हैं। परिमाण-शून्य, नहीं विभाजित होनेवाला चिह्न को विन्दु कहते हैं। इसको यथार्थतः बाहर में बाल की नोक से भी चिह्नित करना असम्भव है। इसलिए बाहर में कुछ अंकित करके और उसे देखकर इसका मानस ध्यान करना भी असम्भव है। इसका अभ्यास अंतर में दृष्टियोग करने से होता है। दृष्टियोग में डीम और पुतलियों को उलटाना और किसी प्रकार इनपर जोर लगाना अनावश्यक है। ऐसा करने से अँाखों में रोग होते हैं। दृष्टि, देखने की शक्ति को कहते हैं। दोनों आँखों की दृष्टियों को मिलाकर मिलन-स्थल पर मन को टिकाकर देखने से एकविन्दुता प्राप्त होती है; इसको दृष्टियोग कहते हैं। इस अभ्यास से सूक्ष्म वा दिव्य दृष्टि खुल जाती है। मन की एकविन्दुता प्राप्त रहने की अवस्था में स्थूल और सूक्ष्म मण्डलों के सन्धि-विन्दु वा स्थूल मण्डल के केन्द्र-विन्दु से उत्थित नाद वा अनहद ध्वन्यात्मक शब्द, सुरत को ग्रहण होना पूर्ण सम्भव है; क्योंकि सूक्ष्मता में स्थिति रहने के कारण सूक्ष्म नाद का ग्रहण होना असम्भव नहीं है। शब्द में अपने उद्गम-स्थान पर सुरत को आकर्षण करने का गुण रहने के कारण, इस शब्द के मिल जाने पर शब्द-से-शब्द में सुरत खिंचती हुई चलती-चलती शब्दातीत पद (परम प्रभु सर्वेश्वर) तक पहुँच जाएगी। इसके लिए सद्गुरु की सेवा, उनके सत्संग, उनकी कृपा और अतिशय ध्यानाभ्यास की अत्यन्त आवश्यकता है।
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(60) दृष्टियोग बिना ही शब्दयोग करने की विधियद्यपि उपनिषदों और भारती सन्तवाणी में नहीं है, तथापि सम्भव है कि बिना दृष्टियेाग के ही यदि कोई सुरत-शब्द-योग का अत्यन्त अभ्यास करे, तो कभी-न-कभी स्थूल मण्डल का केन्द्रीय शब्द उससे पकड़ा जा सके और तब उस अभ्यासी के आगे का काम यथोचित होने लगे। इसका कारण यह है कि अन्तर के शब्द में ध्यान लगाने से यही ज्ञात होता है कि सुनने में आनेवाले सब शब्द ऊपर की ही ओर से आ रहे हैं, नीचे की ओर नहीं और वह केन्द्रीय शब्द भी ऊपर की ही ओर से प्रवाहित होता है। शब्द-ध्यान करने से मन की चंचलता अवश्य छूटती है। मन की चंचलता दूर होने पर मन सूक्ष्मता में प्रवेश करता है। सूक्ष्मता में प्रवेश किया हुआ मन उस केन्द्रीय सूक्ष्म नाद को ग्रहण करे, यह आश्चर्य नहीं; परन्तु उपनिषदों की और भारती सन्तवाणी की विधि को ही विशेष उत्तम जानना चाहिये। शब्द की डगर पर चढ़े हुए की दुर्गति और अधोगति असम्भव है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा तथा व्यभिचार; इन पापों से नहीं बचनेवाले को वर्णित साधनाओं में सफलता प्राप्त करना भी असम्भव ही है। नीचे के मण्डलों के शब्दों को धारण करते हुए तथा उनसे आगे बढ़ते हुए अन्त में आदिनाद वा आदिशब्द या सारशब्द का प्राप्त करना, पुनः उसके आकर्षण से उसके केन्द्र में पहुँचकर शब्दातीत पद के पाने की विधि ही उपनिषदों और भारती सन्तवाणी से जानने में आती है तथा यह विधि युक्ति-युक्त भी है, इसलिए इससे अन्य विधि शब्दातीत अर्थात् अनाम पद तक पहुँचने की कोई और हो सकती है, मानने-योग्य नहीं है और अनाम तक पहुँचे बिना परम कल्याण नहीं।
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