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(41) किसी भी मण्डल का बनना तबतक असम्भव है, जबतक उसका केन्द्र स्थापित न हो ।
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(42) संख्या 39 में सृष्टि के कथित पाँच मण्डलों के पाँच केन्द्र अवश्य हैं।
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(43) कैवल्य मण्डल का केन्द्र स्वयं परम प्रभु सर्वेश्वर हैं। महाकारण का केन्द्र कैवल्य और महाकारण की सन्धि है, कारण का केन्द्र महाकारण और कारण की सन्धि है, सूक्ष्म का केन्द्र कारण और सूक्ष्म की सन्धि है और स्थूल का केन्द्र सूक्ष्म और स्थूल की सन्धि है ।
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(44) केन्द्र से जब सृष्टि के लिए कम्प की धार प्रवाहित होती है, तभी सृष्टि होती है और प्रवाह का सहचर शब्द अवश्य होता है; अतएव संख्या 39 में कथित पाँचो मण्डलों के केन्द्रों से उत्थित केन्द्रीय शब्द अवश्य हैं। कथित पाँचो मण्डलों के केन्द्रीय ध्वन्यात्मक सब शब्दों के मुँह वा प्रवाह-ओर ऊपर से नीचे को है। इनमें से प्रत्येक, सुरत को अपने-अपने उद्गम-स्थान पर आकर्षण करने का गुण रखता है। सार-शब्द वा निर्मायिक शब्द परम प्रभु सर्वेश्वर तक आकर्षण करने का गुण रखता है और वर्णित दूसरे-दूसरे शब्द, जिन्हें मायावी कह सकते हैं, अपने से ऊँचे दर्जे के शब्दों से, ध्यान लगानेवाले को मिलाते हैं। इनका सहारा लिए बिना सारशब्द का पाना असम्भव है। यदि कहा जाय कि सारशब्द मालिक के बुलाने का पैगाम देता है, तो उसके साथ ही यही कहना उचित है कि इसके अतिरिक्त दूसरे सभी केन्द्रीय शब्दों में से प्रत्येक शब्द अपने से ऊँचे दर्जे के शब्दों को पकड़ा देता है ।
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(45) ऊपर का शब्द नीचे दूर तक पहुँचता है और सूक्ष्म अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है तथा सूक्ष्म धार, स्थूल धार से लम्बी होती है। इन कारणों से प्रत्येक निचले मण्डल के केन्द्र पर से उसके ऊपर के मण्डल के केन्द्रीय शब्द का ग्रहण होना अंकगणित के हिसाब के सदृश ध्रुव निश्चित है। ऊपर कथित शब्दों के अभ्यास से सुरत का नीचे गिरना नहीं हो सकता है।
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(46) उपनिषदों में और भारती सन्तवाणी में नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग करने की विधि इसी हेतु से है कि संख्या 45 में वर्णित केन्द्रीय शब्दों को ग्रहण करते हुए और शब्द के आकर्षण से खिंचते हुए सृष्टि के सब मण्डलों को पार कर सर्वेश्वर को प्रत्यक्ष पाया जाए।
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(47) प्रकृति को भी अनाद्या कहा गया है, सो इसलिए नहीं कि परम प्रभु सर्वेश्वर की तरह यह भी उत्पत्तिहीन है; परन्तु इसलिए कि इसकी उत्पत्ति के काल और स्थान नहीं हैं; क्योंकि इसके प्रथम नहीं; परन्तु इसके होने पर ही काल और स्थान वा देश बन सकते हैं। यह परम प्रभु के मौज से परम प्रभु में ही प्रकट हुई, अतएव परम प्रभु में ही इसका आदि है और परम प्रभु देश-कालातीत हैं और वे अनादि के भी आदि कहलाते हैं। प्रकृति को अनादि सान्त भी कहते हैं।
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(48) पिण्ड अर्थात् शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।
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(49) स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चारो क्षेत्र वा शरीर जड़ हैं। इनसे आवरणित रहने पर परम प्रभु सर्वेश्वर का वा निज आत्मस्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो सकता है।
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(50) कैवल्य शरीर वा क्षेत्र चेतन है। यह परम प्रभु सर्वेश्वर का अत्यन्त निकटवर्ती है अर्थात् इसके परे सर्वेश्वर के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है। इसके सहित रहने पर परम प्रभु सर्वेश्वर के तथा निज आत्मस्वरूप के अपरोक्ष ज्ञान का होना परम सम्भव है; और आत्मा को अपना और परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष ज्ञान हो, इसमें संशय करने का कारण ही नहीं है।
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