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(31) मौज वा कम्प शब्द-सहित अवश्य होता है; क्योंकि शब्द कम्प का सहचर है। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है।
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(32) परा और अपरा; युगल प्रकृतियों के बनने के पूर्व ही आदिनाद वा आदि ध्वन्यात्मक शब्द अवश्य प्रकट हुआ। इसी को ॐ, सत्यशब्द, सारशब्द, सत्यनाम, रामनाम, आदिशब्द और आदिनाम कहते हैं ।
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(33) कम्प और शब्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती। कम्प और शब्द सब सृष्टियों में अनिवार्य रूप से अवश्य ही व्यापक हैं।
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(34) आदिशब्द सम्पूर्ण सृष्टि के अन्तस्तल में सदा अनिवार्य, अविच्छिन्न और अव्याहत रूप से अवश्य ही ध्वनित होता है; यह अत्यन्त निश्चित है। यह शब्द सृष्टि का साराधार, सर्वव्यापी और सत्य है।
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(35) अव्यक्त से व्यक्त हुआ है अर्थात् सूक्ष्मता से स्थूलता हुई है। सूक्ष्म, स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। अतएव आदिशब्द सर्वव्यापक है। इस शब्द में योगीजन रमते हुए परम प्रभु सर्वेश्वर तक पहुँचते हैं अर्थात् इस शब्द के द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान होता है। इसलिए इस शब्द को परम प्रभु का नाम- ‘रामनाम’ कहते हैं। यह सबमें सार रूप से है तथा अपरिवर्तनशील भी है। इसीलिए इसको सारशब्द, सत्यशब्द और सत्यनाम भारती सन्तवाणी में कहा है, और उपनिषदों में ऋषियों ने इसको ॐ कहा है। इसीलिए यह आदिशब्द संसार में ॐ कहकर विख्यात है ।
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(36) शब्द का स्वाभाविक गुण है कि वह अपने केन्द्र पर सुरत को आर्किर्षत करता है, केन्द्र के गुण को साथ लिए रहता है और अपने में ध्यान लगानेवाले को अपने गुण से युक्त कर देता है।
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(37) सृष्टि के दो बड़े मण्डल हैं-परा प्रकृति मण्डल वा सच्चिदानन्द पद वा कैवल्य पद वा निर्मल चेतन (जड़-विहीन चेतन) मण्डल और अपरा प्रकृति वा जड़ात्मक प्रकृति मण्डल।
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(38) जड़ात्मक वा अपरा प्रकृति चार मण्डलों में विभक्त है-महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल। इस प्रकृति का मूल स्वरूप (रज, तम और सत्त्व) त्रय गुणों का सम्मिश्रण रूप है; अपने इस रूप में यह प्रकृति साम्यावस्थाधारिणी है। इसके इस रूप को महाकारण कहना चाहिये। इसके इस रूप के किसी विशेष भाग में जब गुणों का उत्कर्ष होता है, तब इसका वह भाग क्षोभित होकर विकृत रूप को प्राप्त हो जाता है। इसलिए वह भाग प्रकृति नहीं कहलाकर विकृति कहलाता है और उस भाग में सम अवस्था नहीं रह जाती है; विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना होती है और इसीलिए वह भाग विश्व-ब्रह्माण्ड का कारण-रूप है। ऐसे अनेक बह्माण्डों का कारण जड़ात्मक मूल प्रकृति में है, इसलिए यह प्रकृति अपने मूल रूप में कारण की खानि भी कही जा सकती है। कारण-रूप से सृष्टि का प्रवाह जब और नीच की ओर प्रवाहित होता है, तब वह सूक्ष्म कहलाता है और सूक्ष्म रूप से और नीच की ओर उतरकर स्थूलता को प्राप्त हो वह स्थूल कहलाता है। इसी तरह जड़ात्मक प्रकृति के चार मण्डल बनते हैं ।
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(39) परा प्रकृति-मण्डल के सहित जड़ात्मक प्रकृति के चारो मण्डलों को जोड़ने से सम्पूर्ण सृष्टि में पाँच मण्डल-कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल हैं।
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(40) संख्या 39 में लिखित पाँच मण्डलों से जैसे विश्व-ब्रह्माण्ड (बाह्य जगत्) भरपूर है, वैसे ही इन पाँचो मण्डलों से पिण्ड (शरीर) भी भरपूर है। जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में की अपनी स्थितियों को विचारने पर प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि पिंड के जिस मण्डल में जब जो रहता है, वा इसके जिस मण्डल को जब जो छोड़ता है, ब्रह्माण्ड के भी उसी मण्डल में वह तब रहता है वा ब्रह्माण्ड के भी उसी मण्डल को वह तब छोड़ता है। इसलिए पिण्ड के सब मण्डलों को जो सुरत वा चेतन-वृत्ति पार करेगी, तो बाह्य सृष्टि के भी सब मण्डलों को वह पार कर जाएगी । *********************
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