पारा 21 से 30 तक

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(21) अनात्मा के पसार को आच्छादन-मण्डल कहते हैं।
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(22) आच्छादन-मण्डलों के केवल पार ही में परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है। जड़ात्मक आच्छादन-मण्डल चार रूपों में है। वे स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण कहलाते हैं। कारण की खानि को महाकारण कहते हैं।
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(23) परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप की प्राप्ति के बिना परम कल्याण नहीं हो सकता है ।
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(24) आँखों पर रंगीन चश्मा लगा रहने के कारण बाहर के सब दृश्य चश्मे के रंग के अनुरूप रंगवाले दीखते हैं। इसी तरह जड़ात्मक अनात्म आच्छादनों से आच्छादित रहने के कारण जीव को आच्छादन-तत्त्व का ज्ञान होता है, उससे भिन्न तत्त्व का नहीं।
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(25) कोई भी सगुण (रज, तम और सत्त्व से युक्त) और साकार रूप अनादि, अनन्त, मूलतत्त्व वा परम प्रभु सर्वेश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप का रूप नहीं हो सकता है।
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(26) गन्ध, स्पर्श, रस और त्रय गुण मण्डल के ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक शब्द सगुण निराकार कहे जा सकते हैं। इनके विशाल-से-विशाल मण्डल से भी परम प्रभु सर्वेश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप का आच्छादन नहीं हो सकता है।
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(27) निर्मल चेतन और उसके केन्द्र से उत्थित आदिनाद वा आदिध्वनि वा आदिशब्द त्रय गुण-रहित वा निर्गुण निराकार कहे जा सकते हैं; इनसे अर्थात् निर्गुण से भी परम प्रभु सर्वेश्वर पूर्णरूप से आच्छादित होने योग्य नहीं हैं; क्योंकि अनन्त को अपने घेरे के अन्दर ला सके, ऐसी किसी चीज को मानना बुद्धि-विपरीत और अयुक्त है ।
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(28) जड़ात्मक सगुण प्रकृति वा अपरा प्रकृति नाना रूपों में रूपान्तरित होती रहती है। इसलिए इसे क्षर और असत् कहते हैं।
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(29) चेतनात्मक निर्गुण प्रकृति वा परा प्रकृति रूपान्तरित नहीं होती है, इसीलिए इसको अक्षर और सत् कहते हैं। परम प्रभु सर्वेश्वर सत् और असत् तथा क्षर और अक्षर से परे हैं।
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(30) परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज वा कम्प हुए बिना सृष्टि नहीं होती है। 
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