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(1) शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं ।
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(2) शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं ।
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(3) सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं ।
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(4) शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया। इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्व-साधारण के उपकारार्थ वर्णन किया; इन विचारों को ही सन्तमत कहते हैं; परन्तु सन्तमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन-नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द- योग का गौरव सन्तमत को है, वे तो अति प्राचीन काल के इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं। सत्संग-योग के प्रथम, द्वितीय और तृतीय; इन तीनों भागों को पढ़ लेने पर इस उक्ति में संशय रह जाय, सम्भव नहीं है। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय, तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है। सब सन्तों का अन्तिम पद वही है, जो पारा-संख्या 11 में वर्णित है और उस पद तक पहुँचने के लिए पारा संख्या 59 तथा 61 में वर्णित सब विधियाँ उनकी वाणियों में पायी जाती हैं। सन्तों के उपास्य देवों में जो पृथक्त्व है, उसको पारा- संख्या 86 में वर्णित विचारानुसार समझ लेने पर यह पृथक्त्व भी मिट जाता है। पारा-संख्या 11 में वर्णित पद का ज्ञान तथा उसकी प्राप्ति के लिए नादानुसन्धान (सुरत-शब्द-योग) की पूर्ण विधि जिस मत में नहीं है, वह सन्तमत कहकर मानने योग्य नहीं है; क्योंकि सन्तमत के विशेष तथा निज चिह्न ये ही दोनों हैं। नादानुसन्धान को नाम-भजन भी कहा जाता है (पारा-संख्या 35 में पढ़िये)। किसी सन्त की वाणी में जब नाम को अकथ वा अगोचर वा निर्गुण कहा जाता है, तब उस नाम को ध्वन्यात्मक सारशब्द ही मानना पड़ता है; यथा-
अदृष्ट अगोचर नाम अपारा । अति रस मीठा नाम पियारा ।।
(गुरु नानक)
बंदउँ राम नाम रघुवर को । हेतु कृसानु-भानु-हिमकर को ।।
विधिा हरिहर मय वेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधाान सो ।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधाी । अकथ अनादि सुसामुझि साधाी ।।
(गोस्वामी तुलसीदास)
सन्तो सुमिरहु निर्गुन अजर नाम । (दरिया साहब, बिहारी)
जाके लगी अनहद तान हो, निर्वाण निर्गुण नाम की ।
(जगजीवन साहब)
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(5) चेतन और जड़ के सब मण्डल सान्त (अंत- सहित) और अनस्थिर हैं।
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(6) सारे सांतों के पार में अनंत भी अवश्य ही है।
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(7) अनन्त एक से अधिक कदापि नहीं हो सकता, और न इससे भिन्न किसी दूसरे तत्त्व की स्थिति हो सकती है।
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(8) केवल अनन्त तत्त्व ही सब प्रकार अनादि है।
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(9) इस अनादि अनन्त तत्त्व के अतिरिक्त किसी दूसरे अनादि तत्त्व का होना सम्भव नहीं है।
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(10) जो स्वरूप से अनन्त है, उसका अपरम्पार शक्तियुक्त होना परम सम्भव है।
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