महात्मा मोहनदास करमचन्द गाँधीजी के विचार 

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अवतार से तात्पर्य है शरीरधारी पुरुष-विशेष । जीवमात्र ईश्वर के अवतार हैं; परन्तु लौकिक भाषा में सबको हम अवतार नहीं कहते । जो पुरुष अपने युग में सबसे श्रेष्ठ धर्मवान होता है, उसी को भावी प्रजा अवतार-रूप से पूजती है । इनमें मुझे कोई दोष नहीं जान पड़ता; इसमें न तो ईश्वर के बड़प्पन में ही कमी आती है, न सत्य को ही आघात पहुँचता है । ‘‘आदम खुदा नहीं, लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं ।’’ जिसमें धर्म-जागृति अपने युग में सबसे अधिक है, वह विशेषावतार है । इस विचार-श्रेणी से कृष्णरूपी सम्पूर्णावतार आज हिन्दू-धर्म में साम्राज्य-उपभोग कर रहा है।
[अनासक्ति योग, (श्री मद्भगवद्गीता का अनुवाद), प्रस्तावना, पृ0 8-9]
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भक्ति ‘‘तलवार की धार पै धावनो है,’’ इससे गीताकार ने भक्त के लक्षण स्थितप्रज्ञ के-से बतलाए हैं । गीता की भक्ति भोंदूपन नहीं है । माला, तिलक और अर्घ्यादि साधनों का भले ही भक्त उपयोग करे, पर वे भक्ति के लक्षण नहीं हैं; जो किसी का द्वेष नहीं करता, जो करुणा का भण्डार है, ममतारहित है, निरहंकार है, जिसे सुख-दुःख, शीत-उष्ण समान है, जो क्षमाशील है, जो सदा सन्तोषी है, जिसका निश्चय कभी बदलता नहीं, जिसने मन और बुद्धि ईश्वर को अर्पण कर दी है, जिससे लोग नहीं घबड़ाते, जो लोगों का भय नहीं रखता, जो हर्ष, शोक, भयादि से मुक्त है, जो पवित्र है, जो कार्यदक्ष होने पर भी तटस्थ है, जो शुभाशुभ का त्याग करनेवाला है, जो शत्रु-मित्र पर सम भाव रखनेवला है, जिसे मान-अपमान समान है, जिसे स्तुति से खुशी और निन्दा से ग्लानि नहीं होती, जो मौनधारी है, जिसे एकान्त प्रिय है, जो स्थिर बुद्धि है, वह भक्त है । (अ0 यो0, प्र0, पृ0 11,12,13)
टिप्पणी-देहधारी मनुष्य अमूर्त्त स्वरूप की केवल कल्पना ही कर सकता है, पर उसके पास अमूर्त्त स्वरूप के लिए, एक भी निश्चयात्मक शब्द नहीं है, इसलिए उसे निषेधात्मक ‘नेति’ शब्द से ही सन्तोष करना ठहरा । इसलिए मूर्तिपूजा का निषेध करनेवाले भी सूक्ष्म रीति से देखने पर मूर्तिपूजक ही होते हैं । पुस्तक की पूजा करना, मन्दिर में जाकर पूजा करना, एक ही दिशा में मुख रखकर पूजा करना, यह सभी साकार पूजा के लक्षण हैं । तथापि साकार के उस पार निराकार अचिन्त्य स्वरूप है, यह तो सबको समझे ही निस्तार है । भक्ति की पराकाष्ठा यह है कि भक्त भगवान में विलीन हो जायँ और अन्त में केवल एक अद्वितीय अरूपी भगवान ही रह जाए । पर इस स्थिति को साकार-द्वारा सुलभता से पहुँचा जा सकता है । इसलिए निराकार को सीधा पहुँचने का मार्ग कष्टसाध्य कहा गया है । (अ0 यो0, प्र0, पृ0 11, 12, 13)

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ता0 2-6-1946,
हरिजन-सेवक
पृ0 157

प्रश्नोत्तर- 
राम कौन ?

स0-आप कहा करते हैं कि प्रार्थना में प्रयुक्त ‘राम’ का आशय दशरथ के पुत्र राम से नहीं । आपका आशय ‘जगन्नियन्ता’ से होता है । हमने भली-भाँति देखा है कि ‘रामधुन’ में राजा राम, सीताराम का कीर्त्तन होता है । यह राम कौन हैं ? क्या यह दशरथ के सुपुत्र राम नहीं ?

उ0-तुलसीदासजी ने तो इसका उत्तर दिया ही है, तो भी मुझे कहना चाहिए कि मेरी राय कैसी बनी है । हिन्दू धर्म में ईश्वर के अनेक नाम हैं । सैकड़ों लोग राम-कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं, और मानते हैं कि जो राम दशरथ के पुत्र माने जाते हैं, वही ईश्वर के रूप में पृथ्वी पर आए और यह कि उनकी पूजा से आदमी मुक्ति पाता है । ऐसा ही कृष्ण के लिए है । इतिहास, कल्पना और शुद्ध सत्य आपस में इतने ओत-प्रोत हैं कि उन्हें अलग करना करीब-करीब असम्भव है। मैंने अपने लिए सब संज्ञाएँ रखी हैं । और उन सबमें मैं निराकार, सर्वस्थ राम को ही देखता हूँ ।
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हरिजन-सेवक,
पृ0 167
राम कौन ?
गाँधीजी ने कहा-‘‘जिस रामनाम को मैं सब बीमारियों की रामवाण दवा कहता हूँ, वह राम न तो ऐतिहासिक या तवारीखी राम है, और न उनलोगों का राम है, जो उसका इस्तेमाल जादू-टोने के लिए करते हैं । सब रोगों की रामवाण दवा के रूप मे मैं जिस राम का नाम सुझाता हूँ, वह तो खुद ईश्वर ही है ।’’

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पृ0 168-‘‘सबके साथ मिलकर मजमे की शकल में प्रार्थना करने का राज या रहस्य यह है कि उसका एक-दूसरे पर जो शान्त प्रभाव पड़ता है, वह आध्यात्मिक उन्नति या रूहानी तरक्की की राह में मददगार हो सकता है ।’’
कल्याण, सन्त-वाणी अंक (पृ0 574)
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