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(क) स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्यान निर्मथनाभ्यासाद्देव पश्येन्निगूढ़वत् ।।
(ख) प्रणवो धनुः शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्वव्यं शरवत् तन्मयो भवेत् ।।
(ग) प्रणवात्मकं ब्रह्म ।
(घ) प्रणवात् प्रभवो ब्रह्मा प्रणवात् प्रभवो हरिः ।
प्रणवात् प्रभवो रुद्रः प्रणवो हि परो भवेत् ।।
अर्थ-अपनी देह को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि करके ध्यान-रूप मन्थन से छिपी हुई वस्तु के समान देव को देखे । प्रणव धनुष है, आत्मा वाण है, उस वाण का लक्ष्य ब्रह्म है । जितेन्द्रिय पुरुष को उसे सावधानी से बेधना चाहिए । वाण के समान तन्मय हो जाए । ब्रह्म प्रणवात्मक है । प्रणव से ब्रह्मा है, प्रणव से हरि है, प्रणव से रुद्र है और प्रणव ही परतत्त्व ।
परन्तु वर्तमान युग में प्रणव के स्वरूप को बहुत थोड़े लोग ही जानते हैं । अधिक लोग तो ॐकार के उच्चारण को या मन-ही-मन जप करने को प्रणव-साधन समझते हैं । परन्तु उपनिषद् के कथनानुसार ॐकार का उच्चारण नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वर या व्यंजन नहीं है और वह कंठ, होंठ, नासिका, जीभ, दाँत, तालु और मूर्द्धा आदि के योग से या इनके घात-प्रतिघात से उच्चारित नहीं होता ।
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरफे जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।*
[* अमृतनाद उपनिषद् -
(1) त्रयः प्राजापत्याः प्रजापतौ पितरि ब्रह्मचर्य मूषुर्देवा मनुष्या असुराः ।
(बृहदा0 ब्रा0 2, अ0 5, श्लोक 1)
(2) ये शतं मनुष्याणामानन्दाः स एकः पितृणां जितलोकानामानन्दोऽथ ये शतं पितृणां जितलोकानामानन्दाः स एको गन्धर्वलोक आनन्दोऽथ ये शतं गन्धर्वलोक आनन्दाः स एकः कर्मदेवानामानन्दो ये कर्मणा देवत्वमभि-सम्पदयन्तेऽथ ये शतं कर्म देवानामानन्दाः स एकः आजान देवानामानन्दो यश्च श्रोत्रिज्ञयोऽवृजिनोऽकामहतोऽथ ये शतमाजान देवानामानन्दाः स एकः प्रजापतिलोक आनन्दो---ये शतं प्रजापतिलोक आनन्दाः स एको ब्रह्मलोक आनन्दः (बृहदा0 ब्रा0 3, अ0 4 श्लोक 33) ]
अब प्रश्न यह है कि साधारणतः सभी शब्द कण्ठादि के द्वारा ही ध्वनित होते हैं; परन्तु यदि प्रणव कण्ठादि में वायु के घात-प्रतिघात के बिना ही ध्वनित होता है, तो फिर वह ध्वनि क्या है और किस प्रकार से, किस उपाय से अथवा किस साधना से वह अनुभूत हो सकती है। उपनिषदादि में इस ध्वनि को अनाहत नाद कहा गया है । तंत्र-विशेष में इसका नाम है ‘अकृतनाद’ । जिस साधन का अभ्यास करने से यह नाद स्वतः ही उत्पन्न होता है, वही इसका वास्तविक साधन है और वही यथार्थ उपाय है। अन्यान्य साधन तो अनुपाय ही हैं-‘अनुपायाः प्रकीर्तिताः ।
‘कल्याण’ गीतांक
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