ईसाई संत
(श्रीसम्पूर्णानन्दजी) 

*********************

अंक 3 (पृ0 808) 

मैं तो इस (संत) शब्द को ‘योगी’ के अर्थ में ही लेता हूँ । मैं इस बात को भूलता नहीं कि स्वयं पतंजलि ने ‘‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’’ और ‘‘यथाभिमतध्यानाद्वां’’ सूत्रें में कपाट बहुत चौड़े खोल दिए हैं । फिर भी प्राचीन परम्परा को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति सन्त कहलाने का अधिाकारी तब होगा, जब उसके लिए-‘‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।’’ यह उपनिषद्-वाक्य सार्थक हो चुका हो ।

इसके पहले वह कितना बड़ा भी भक्त या उपासक क्यों न हो, विद्वान, महात्मा या साधु या सज्जन या चाहे और जो कहलाए, पर संत नहीं कहला सकता ।

ईसाई धर्म की मूल पुस्तक तो बाइबिल है, अतः उसमें भी योग की ओर संकेत है । यह संकेत पूर्व भाग में भी है और उत्तर भाग में भी । उत्तर भाग में विशेष रूप से ऐसी बातें उन अध्यायों में पायी जाती है, जो ईसा के शिष्य यॉन के द्वारा संकलित हुए हैं । ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की ध्वनि इन वाक्यों से निकलती है; ईश्वर कहता है, मैं ही अल्फा और ओमेगा (आदि और अन्त) हूँ’ और कहते हैं-ईसा ‘मैं और मेरे पिता (जीव और ब्रह्म) एक हैं ।’ हमारे यहाँ प्राण आदिशब्द प्रणव, ॐकार से ही सृष्टि का विकास माना गया है । ॐकार ईश्वर से अभिन्न है । शब्द के बाद तब तेज का आविर्भाव होता है । बाइबिल में यॉन कहते हैं-‘आरम्भ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था ।’

‘आरम्भ में शब्द था और शब्द ही सब कुछ हो गया । शब्द से प्रकाश उत्पन्न हुआ और यही प्रकाश सबको भीतर से प्रकाशित कर रहा है ।’
*********************

Publish your website to a local drive, FTP or host on Amazon S3, Google Cloud, Github Pages. Don't be a hostage to just one platform or service provider.

Just drop the blocks into the page, edit content inline and publish - no technical skills required.

कॉपीराइट अखिल भरतीय संतमत-सत्संग प्रकाशन के पास सुरक्षित