वेद में सन्त
[वेददर्शनाचार्य श्री मण्डलेश्वर श्री स्वामीजी श्री गंगेश्वरानन्दजी महाराज] 

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 (पृ0 49) 

‘सन्त’ शब्द चार तरह से बन सकता है-(1) षण् ‘सम्भक्तौ 465 धातु से औणादिक तन् प्रत्यय करने से निष्पन्न ‘संत’ शब्द का अर्थ ‘सनति सम्भवति लोकाननुगृह्णाति’ इस व्युत्पत्ति से लोकाननुग्रहकारी’ होता है । वह ‘सन्त’ शब्द साधु तो है, परन्तु शास्त्र में प्रयुक्त नहीं है । (2) ‘शम्’ शब्द से ‘कंशंभ्यां बभयुस्तितुतयसः’ (अष्टा0 5/2/1388) इस पाणिनीय सूत्र द्वारा ‘त’ प्रत्यय होकर ‘शान्त’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ ‘शं सुखं ब्रह्मानन्दात्मकं विद्यते यस्य’ इस व्युत्पत्ति से ब्रह्मानन्द सम्पन्न व्यक्ति है। (3) ‘षणु दाने’ 1465 धातु से ‘क्तिच्क्तौच संज्ञायाम्’ (3।3।174) इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार क्तिच् प्रत्यय होकर ‘सन्ति’ शब्द बना, जिसका अर्थ ‘सनोति पार्थितं फलं प्रयच्छति’ इस व्युत्पत्ति से फलदाता है । उस ‘सन्ति’ शब्द से तत्र साधु अर्थ में यत् प्रत्यय होकर ‘सन्त्य’ शब्द बनता है । फलदाताओं में श्रेष्ठ इसका अर्थ है । इस शब्द का ऋग्वेद में बहुत स्थलों में प्रयोग हुआ है-गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि । देवान् देवयते यज । (ऋ0 म0 1, सू0 15 मं0 12) ‘फलदाताओं में श्रेष्ठ अग्निदेव ! आप गृहपति-सम्बन्धी रूप से युक्त हैं, ऋतुदेव के साथ यज्ञ के निर्वाहक हैं । देवकृपाकांक्षी यजमान के लिए देवयजन को निर्विघ्न सम्पादन करें, इस मंत्र में अग्निदेव के लिए फलदाताओं में श्रेष्ठ अर्थ को लेकर ‘सन्त्य’ शब्द प्रयुक्त हुआ है । ब्रह्मवित् महात्माओं का देव-दुर्लभ ब्रह्म-विद्यारूपी फल देने के कारण फलदाताओं में सर्वोच्च स्थान है । अतः लोग अधिकतर उन्हें सन्त्य कहने लगे । वही शब्द कुछ विकृति के साथ ‘संत’ शब्द के रूप में आजकल महात्माओं के अर्थ में प्रयुक्त होता है । (4) ‘सत्’ शब्द का प्रथमा विभक्ति बहुवचन में ‘संतः’ ऐसा रूप बनता है । उसी का अपभ्रंश ‘संत’ शब्द सत् पुरुषों के लिए हिन्दी में प्रयुक्त होता है ।
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