वेदान्त-दर्पण
(म0 श्रीबालकरामजी विनायक) 

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(पृ0 440) 

शब्दाद्वैत-शब्द ही विश्व का कारण है, श्रुति भगवती स्पष्ट रूप से कहती है ।

वागेवार्थं पश्यति वाग्ब्रवीति
वागेवार्थं सन्निहितं सन्तनोति ।
वाचैव विश्वं बहुरूपं निबद्धं
तदेतदेकं प्रविभज्योपभुंक्ते ।।

अर्थ-शब्द के द्वारा ही अर्थ देखते हैं, शब्द को ही बोलते हैं, शब्द में ही मिले हुए अर्थ का विस्तार करते हैं, शब्द के द्वारा ही यह संसार नाना रूपों में बँटा हुआ है, उस बँटे हुए से एक भाग लेकर हमलोग उपयोग करते हैं ।
सृष्टि के मूल में जब शब्द है, तब वह एक-अद्वितीय कौन शब्द है, जिसका अर्थ विश्व है ? वह अलौकिक शब्द प्रणव है, राम-नाम है, जो तारक ब्रह्म है, शब्दब्रह्म है । [ वेदान्तांक में अर्थ नहीं दिया हुआ है । यह अर्थ पं0 कमलाकांत उपाध्याय, व्याकरणाचार्य, वेदान्ताचार्य, साहित्याचार्य, काव्यतीर्थ, हिन्दीरत्न, संगीत सुधाकर, हेड पं0 एस0 एस0 इन्स्टिच्यूशन, भागलपुर से कराकर छापा गया है।]


इस कलिकाल में श्रीस्वामी रामानन्दजी महाराज ‘शब्दाद्वैतवाद’ के प्रखर और प्रबल आचार्य हुए । इन्होंने पतितों के उद्धार के लिए ‘सुरति-शब्द-योग’ चलाया । स्वामीजी ने राम-नाम का भजन सिखलाया । प्रसिद्ध है-

शंकर स्वामी ज्ञान सिखायो, रामानुज परिपत्ति** ।
विष्णु स्वामी सेवा पूजा, निम्बारक आसक्ति ।।
सेवक-सेव्य भाव बतलायो, मधुकर-कैरव-चन्द ।
रामनाम को भजन सिखायो, स्वामी रामानन्द ।।

[** परिपत्ति = अपने आपको परमात्मा पर छोड़ देना।]

इसी शब्दाद्वैती सम्प्रदाय के रत्न मानसकार गोस्वामीजी भी हैं । वे ‘रामनाम’ रूपी शब्द-ब्रह्म को ‘निर्गुण-ब्रह्म’ और ‘सगुण-ब्रह्म’ दोनों से बड़ा मानते हैं-

निर्गुण ते यहि भाँति बड़, नाम प्रभाउ अपार ।
कहऊँ नाम बड़ राम तें, निज विचार अनुसार ।।

यह सन्तों का मत है, ‘‘मजहब सीना’’ है; ‘‘सफीना’’ नहीं, यह Doctrine of the heart है, Doctrine of the Head नहीं। यह दिल का दर्द है, आत्मानुभव की चीज है, कथनी में नहीं आ सकती । यह ऐसा पवित्र सिद्धांत है, जो वैज्ञानिक सत्य की तरह प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा प्रमाणित होता आया है । संसार में कोई भी पंथ नहीं, मजहब नहीं, सम्प्रदाय नहीं, जो इस सिद्धांत को न मानता हो । सबने इसका आश्रय लिया है । ईसाई, मुसाई और कुरान शरीफ आदि ‘शब्दब्रह्म’ ही के तो प्रतीक हैं । सूफियों का ‘इस्मे आजम’ गुह्यातिगुह्य तत्त्व राम-नाम ही तो है । अपने यहाँ देखिए-सत्ताद्वैतवादी श्रीशंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य आदि एवं विज्ञानाद्वैतवादी भगवान बुद्ध दोनों को ‘प्रणव’ स्वीकार है । स्मार्त मंत्रों के आदि में बीज-रूप से ओंकार होता ही है और बौद्ध धर्म के जितने पूजन-पाठ के मंत्र हैं, सबमें ओ3म् लगा हुआ है । मीमांसक लोग इस सिद्धांत को मानने के लिए बाध्य हैं; क्योंकि बिना इसके सहारे वेद का अपौरुषेय होना सिद्ध नहीं हो सकता । उनको भी दबी जबान से कहना पड़ता है कि शब्द वर्णों के द्योतक हैं, वर्ण नित्य है ही, अतएव शब्द नित्य हैं । माण्डूक्योपनिषद् की ‘प्रणव एवैकस्त्रिधाभिव्यज्यत’ ‘‘वाच मुद्गीथमुपासांचक्रिरे’’ (एक प्रणव का तीन तरह से भाग हुआ । उसी से शब्द और उद्गीथ की उपासना की गई ।) आदि श्रुतियाँ द्र्रष्टव्य हैं । महावैयाकरण पाणिनि ने ‘‘तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणात्वात्’’ इस सूत्र में प्रतिपादित किया है कि शब्द-व्यवहार अनादि और नित्य है । वैयाकरण व्याडि ने अपने ग्रंथ ‘संग्रह’ में (जो अब प्राप्य नहीं है) शब्दाद्वैत पर गम्भीरतापूर्वक एवं सफलतापूर्वक विचार किया है । वैयाकरण कात्यायन एवं पतंजलि ने उसी ग्रन्थ से अपने ग्रंथों में सहायता ली है और इस विषय को चमत्कृत किया है। महाभाष्य का-
‘‘स्फोटमात्रमादेः श्रुतेर्लश्रुतिर्भवतीति’’। एवं ‘‘ध्वनिस्फ़ोटस्य शब्दानां ध्वनिस्तु खलु लक्ष्यते ।’’ तथा ‘‘येनोच्चारितेन सास्नालांगू लककुदखुरविषाणिनां सम्प्रत्ययो भवति स शब्दः।’’ यह अवतरण पठनीय है । ‘स्फोट’ शब्द और उसकी व्याख्या स्वतः महाभाष्य में दी हुई हैं । भर्तृहरिजी ने तो शिवजी की आज्ञा से स्वरचित ‘वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड’ में इस सिद्धांत पर शास्त्रीय रीति से विचार किया है और ‘स्फोट’ को नित्य सिद्ध कर दिया । उनके पीछे भर्तृमित्र ने ‘स्फोट सिद्धि’ की रचना की है । पुराणराज और कैयट एवं नागेश की टीकाओं एवं व्याख्याओं में तो यह विषय अच्छी तरह स्पष्ट हो गया है । भर्तृहरिजी की क्या ही अच्छी सूझ है ? वे पते की बात कहते हैं ।
इति कर्तव्यता लोके सर्वा शब्दव्यपाश्रया ।
यां पूर्वाहितसंस्कारो बालोऽपि प्रतिपद्यते ।।

(* इस संसार में जितने तरह के कार्य हैं, वे शब्द के आधार पर हैं, जिस ओर बच्चा भी पहले के संस्कार के कारण आगे बढ़ता है) प्रथम इसके कि प्रथमतः इन्द्रि्रयों का संचालन और करणों पर उनका अधिकार जम सके तथा साँस बाहर निकाली जा सके एवं भिन्न-भिन्न अवयवों का संचालन हो सके, शिशु को पूर्व संस्कारवशात् ‘शब्द’ की सुरति हो गई और उस शिशु ने जन्मते ही ध्वनि ‘क्रन्दन’ प्रसारित करके हमें ‘शब्द व्यवहार’ के नित्यत्व और अनादित्व का बोध करा दिया । प्रत्येक विद्यमान वस्तु शब्द-द्वारा प्रकट की जा सकती है और शब्द-द्वारा जिसका विकास नहीं, उसका अस्तित्व ही नहीं ।
सबका कल्याणकारी वेदान्त पुकारकर कहता है-‘‘हे पथिक ! यह क्या है, यहाँ क्या हो रहा है ? इनको न देखो, न सुनो, कुछ बोलो भी नहीं । गंतव्य मार्ग पर चलते हुए आँख, कान और मुँह; तीनों को बन्द करो, तब तुम अन्तर्जगत में प्रवेश कर सकोगे और भगवदीय रहस्य से परिचित हो सकोगे, वह प्यारा तुम्हारे पास है।’’
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