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(पृ0 407)
नादात्मकं नादबीजं प्रयतं प्रणवस्थितम् ।
वन्दे तं सच्चिदानन्दं माधवं मुरलीधरम् ।।
नादरूपं परं ज्योतिर्नादरूपी परो हरिः ।।
‘‘मैं उस सच्चिदानंद माधव मुरलीधर की वन्दना करता हूँ, जो नादात्मक हैं अर्थात् नाद ही जिनकी आत्मा है । नाद ही जिनका कारण है, जो स्थिर भाव से प्रणव में स्थित हैं ।’’ ‘‘नाद ही परम ज्योति है और नाद ही स्वयं परमेश्वर हरि हैं ।’’ [ वेदान्तांक में अर्थ नहीं दिया हुआ है । यह अर्थ पं0 कमलाकांत उपाध्याय, व्याकरणाचार्य, वेदान्ताचार्य, साहित्याचार्य, काव्यतीर्थ, हिन्दीरत्न, संगीत सुधाकर, हेड पं0 एस0 एस0 इन्स्टिच्यूशन, भागलपुर से कराकर छापा गया है।]
नाद अनादि है । जब से सृष्टि है, तभी से नाद है । महाप्रलय के बाद सृष्टि के आदि में जब परमात्मा का यह शब्दात्मक संकल्प होता है कि ‘‘मैं एक बहुत हो जाऊँ’’, तभी इस अनादि नाद की आदि जागृति होती है । यह नाद-ब्रह्म ही शब्द-ब्रह्म का बीज है । वेदों का प्रादुर्भाव इसी नाद से होता है । नाद का उद्भव परमेश्वर की सच्चिदानंदमयी भगवती सरूपा शक्ति से होता है, और इस नाद से ही विन्दु उत्पन्न होता है । यह विन्दु ही प्रणव है और इसी को बीज कहते हैं ।
योगी लोग इसी नाद की उपासना करके ब्रह्म को प्राप्त किया करते हैं। हठयोग-शास्त्रें में इसका बड़ा विस्तार है । मुक्तासन और शाम्भवी मुक्ता के साथ इस नाद का अभ्यास किया जाता है । इस नाद-साधना से सब प्रकार की सिद्धियाँ मिलती हैं । अनाहत नाद योगियों का परम ध्येय है । शास्त्रें में नाद को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष; चारो पदार्थों की सिद्धि का एक साधन माना है । नाद के बिना जगत का कोई भी कार्य नहीं चल सकता । पांचभौतिक जगत में आकाश सर्वप्रधान है और आकाश का प्राण नाद ही है । इसी से जगत को नादात्मक कहते हैं । नाद का माहात्म्य अपार है । यह नाद मूलतः परमात्मा का ही स्वरूप है ।
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