शब्दाद्वैतवाद
( श्री बी0 कुटुम्ब शास्त्री ) 

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(पृ0 270) 

भर्तृहरि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘वाक्यपदीय’ में शब्दाद्वैतवाद का प्रवर्त्तन किया । इस शब्दाद्वैतवाद का ही दूसरा नाम स्फोटवाद वा प्रणववाद है ।

शब्द-तत्त्व विश्व का कारण है और इसकी एकता शांकर अद्वैत ब्रह्म से की जाती है । केवल शुद्ध ब्रह्म के बदले शब्द ब्रह्म का प्रयोग करते हैं । वेद भी इसी तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं कि इस विश्व का शब्द ही कारण है-

वागेवार्थं पश्यति वाग्ब्रवीति
वागेवार्थे सन्निहितं सन्तनोति ।
वाचैव विश्वं बहुरूपं निबद्धं
तदेतदेकं प्रविभज्योपभुघ्क्ते ।
और- वागेव विश्वा भुवनानि जज्ञे
वाच इत्सर्वममृतं मर्त्यं च ।

अर्थ-‘‘शब्द के द्वारा ही अर्थ देखते हैं, शब्द को ही बोलते हैं, शब्द में ही मिले हुए अर्थ का विस्तार करते हैं, शब्द के द्वारा ही यह संसार नाना रूपों में बँटा हुआ है, उस बँटे हुए से एक भाग लेकर हमलोग उपयेाग करते हैं । और-शब्द से ही विश्व विकसित हुआ । शब्द ही अमृत और मृत्युस्वरूप है ।’’ यहाँ श्रुति कह रही है कि विश्व शब्द से विकसित हुआ । [ वेदान्तांक में अर्थ नहीं दिया हुआ है । यह अर्थ पं0 कमलाकांत उपाध्याय, व्याकरणाचार्य, वेदान्ताचार्य, साहित्याचार्य, काव्यतीर्थ, हिन्दीरत्न, संगीत सुधाकर, हेड पं0 एस0 एस0 इन्स्टिच्यूशन, भागलपुर से कराकर छापा गया है।]

शंकराचार्य भी यह मानते हैं कि संसार की रचना शब्द से हुई है, जो उसके अनुसार, उपादान कारण है-न चेदं शब्दप्रभवत्वं ब्रह्मप्रभवत्ववदुपादान कारण त्वभिप्रायेण।

अर्थ-इस शब्द की उत्पत्ति का ब्रह्म की उत्पत्ति के समान उपादान कारण नहीं है । [ वेदान्तांक में अर्थ नहीं दिया हुआ है । यह अर्थ पं0 कमलाकांत उपाध्याय, व्याकरणाचार्य, वेदान्ताचार्य, साहित्याचार्य, काव्यतीर्थ, हिन्दीरत्न, संगीत सुधाकर, हेड पं0 एस0 एस0 इन्स्टिच्यूशन, भागलपुर से कराकर छापा गया है।]
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