श्रीशंकराचार्य-कृत : मोह-मुद्गर
(योगिवर पं0 श्रीभूपेन्द्रनाथ सान्याल) 

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[ दिनचर्या से उद्धृत]

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः ।
सेन्द्रिय मानस नियमा देवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थन्देवम् ।।

अर्थ-श्री गुरुदेव चरणपंकज का होकर अविचल भक्त,
इस असार संसृति से हो जा तू अविलम्ब विरक्त ।।
इन्द्रिय-युत मन का नियमन करने से इसी प्रकार,
देख सकेगा निज हृद्-स्थित ईश्वर को अनिवार ।।

प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेक विचारम् ।
जाप्य समेत समाधि विधानं कुर्वं वधानम्महदवधानम् ।।

अर्थ-प्राणायाम और निज इन्द्रिय का कर प्रत्याहार,
‘क्या अनित्य या नित्य वस्तु है, इसको सदा विचार ।
जाप्य समेत सदा करता रह सुदृढ़ समाधि-विधान,
सावधान हो, कर प्रति दिन उस महत्तत्त्व का ध्यान ।।

नलिनीदल गत जलमति तरलं तद्वज्जीवनमतिशय चपलम् ।
क्षणमिह सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णव तरणे नौका ।।

अर्थ-पद्म पत्र पर पड़े हुए अति चंचल नीर समान,
अतिशय चपल और क्षणभंगुर इस जीवन को जान ।
यहाँ एक बस क्षण भर की सत्संगति ही का भाव,
भवसागर से तरने में बन जाता दृढ़तर नाव ।।

अंगं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातन्तुण्डम् ।
कर धृत कम्पित शोभित दण्डं तदपि न मुंचत्याशा भाण्डम् ।।

अर्थ-पलित हो गये बाल शीश के गलित हुआ सब गात,
टूट गये त्यों ही क्रम-क्रम से मुँह के सारे दाँत ।
पकड़ा हुआ हाथ में कँपता कैसा फबता दण्ड ?
फिर भी नहीं छोड़ता आशा-भाण्ड अहो पाखण्ड ।।

सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम्।
निर्मोहत्वे निश्चलितत्वं निश्चलितत्वे जीवन्मुक्तिः ।।

अर्थ-सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग,
फिर व्यामोह-रहित हो जाता, हो सर्वत्र असंग ।
मोह-विगत होते ही होता मन निश्चलतायुक्त,
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवन्मुक्त।।

कुरुते गंगासागर गमनं व्रत परिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञान-विहीनः सर्वमतेन मुक्तिं भजति न जन्म शतेन ।।

अर्थ-कोई तो करता गंगासागर को ही प्रस्थान,
कोई व्रत का पालन करता अथवा देता दान ।
यही किन्तु सब का मत है जो रहता ज्ञान-विहीन,
सौ जन्मों में भी पा सकता मुक्ति नहीं वह दीन ।।

अष्ट कुलाचल सप्त समुद्रा ब्रह्म पुरन्दर दिनकर रुद्राः ।
न त्वं नाहं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ।।

अर्थ-कुल पर्वत ये आठ और अति विस्तृत सात समुद्र,
ब्रह्मा इन्द्र आदि सुरगण या दिनकर अथवा रुद्र-
ये सब कोई नित्य नहीं हैं तू मैं या यह लोक ।
फिर भी यों किसलिये व्यर्थ ही किया जा रहा शोक?

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं, गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् ।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं, मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ।।
(कठोपनिषद्)
अर्थ-‘‘सुदुर्दर्श हृदयस्थित दुर्गम स्थान में स्थित उस पुराण पुरुष को अध्यात्म-योग-बल से ही प्राप्त करके ज्ञानीगण हर्ष और शोक से छूटते हैं ।’’

बृहच्चतद्दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत्सूक्ष्मतरं विभाति ।
दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम् ।।
(मुण्डकोपनिषद्, 3।1।7)

अर्थ-‘‘यह आत्मा अत्यंत विशाल, दिव्य और अचिन्त्य रूप है। फिर यह सूक्ष्म रूप से भी सूक्ष्म रूप में प्रतीत होता है । यह दूर से अधिक दूर और निकट से भी अधिक निकट है । जो इसे देखना चाहते हैं, वे इसे हृदय-गुहा में ही देख पाते हैं ।’’

मांस और मछलियों का सर्वदा त्याग ही उत्तम है; क्योंकि इन सब प्राणियों के देह-कणों में जो रोग और उनके अपने विशेष-विशेष स्वभावों के परमाणु रहते हैं, मांस खाने से वे मनुष्य-देह में संचारित होकर मनुष्य के शरीर में रोग और मन में अशान्ति पैदा करते हैं और उनकी प्रकृति तक को बिगाड़ देते हैं।
किसी भी नशीली चीज का सेवन नहीं करना चाहिए, उससे धर्म की हानि होती है ।
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