जपयोग
बालयोगी श्रीबालस्वामीजी महाराज

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 (पृ0 325)

।।  श्री न0 रा0 निगुड़कर के अनुभवयुक्त विचार ।।

श्रुतियों में चित्तस्थैर्य के अनेक उपाय बताए हैं और उनके अनुसार अनुभवी महात्माओं ने अनेक साधन निर्माण किए हैं । जप-योग भी ऐसा ही एक शास्त्रेक्त और अनुभवसिद्ध साधन है-
भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षा तो यज्ञ के विषय में यही थी कि-

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप । (गीता 4।33)

अर्थात् ‘द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान-यज्ञ श्रेष्ठ है ।’ इन यज्ञों में भी भगवान ने ‘जपयोग’ को ही अपनी विभूति बताया है (गीता 10/25)। जपयोग सबके लिए सुगम है । वैदिक धर्मानुष्ठान का जो कुछ फल है, वह इस यज्ञ से प्राप्त हो, यह तो कालक्रम से ही प्राप्त है। इसी जपयज्ञ को जपयोग कहते हैं ।

भगवान् मनु जपयज्ञ का माहात्म्य बतलाते हैं-

विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः ।
उपांशु स्याच्छतगुणः साहस्त्रो मानसः स्मृतः ।।
ये पाकयज्ञाश्चत्वारो विधियज्ञसमन्विताः ।
सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।
(मनुस्मृति 2।85-86)

‘‘दर्शपौर्णमासरूप कर्म-यज्ञों की अपेक्षा जप-यज्ञ दशगुणा श्रेष्ठ है । उपांशु जप सौ गुणा और मानस जप सहस्त्रगुणा श्रेष्ठ है। कर्मयज्ञ (दर्शपौर्णमास) ये जो चारपाक यज्ञ हैं-वैश्वदेव, बलिकर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि-पूजन, वे जपयज्ञ के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं ।’’ उपांशु जप में होंठ हिलते हैं और मुँह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता ।

मानस जप तो जप का प्राण ही है । इससे साधक का मन आनन्दमय हो जाता है । इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है । नेत्र बन्द रहते हैं । नादानुसन्धान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपकारी होता है । श्रीमदाद्यशंकराचार्य नादानुसन्धान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं-

‘‘एकाग्र मन से स्वरूप-चिन्तन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है । भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है, तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए ? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा ।’’ (प्रबोध-सुधाकर) ‘योगतारावलि’ में श्रीमदाद्यशंकराचार्यजी ने इसका वर्णन किया है। श्रीज्ञानेश्वर महाराज ने ‘ज्ञानेश्वरी’ में इस साधन की बातें कही हैं । अनेक सन्त-महात्मा इस साधन के द्वारा परमपद को प्राप्त हो गए । यह ऐसा साधन है कि अल्पाभ्यास से निजानन्द प्राप्त होता है । नाद में बड़ी विचित्र शक्ति है ! बाहर का सुमधुर संगीत सुनने से जो आनन्द होता है, उसका अनुभव तो सभी को है, पर भीतर के इस संगीत का माधुर्य और आनन्द ऐसा है कि तुरन्त मनोलय होकर प्राणजय और वासना क्षय होता है ।

इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः ।
मारुतस्य लयो नाथः स लयो नादमाश्रितः ।।
(ह0 प्र0)
‘‘श्रोत्रादि इन्द्रियों का स्वामी मन है । मन का स्वामी प्राणवायु है । प्राणवायु का स्वामी मनोलय है और मनोलय नाद के आसरे होता है । सतत नादानुसन्धान करने से मनोलय बन पड़ता है । आसन पर बैठकर श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपनी कान बन्द करके अन्तर्दृष्टि करने से नाद सुनाई देता है ।
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